14-01-84 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
डबल सेवाधारी स्वत: ही मायाजीत
मायाजीत, जगतजीत बनाने वाले सर्व समर्थ बापदादा बोले:-
आज दिलाराम बाप अपने दिल तख्तनशीन बच्चों से वा अपने स्नेही, सहयोगी बच्चों से दिल की लेने-देन करने आये हैं। बाप की दिल में क्या रहता और बच्चों की दिल में क्या रहता है! आज सभी के दिल का हाल-चाल लेने आये हैं। खास दूरांदेशी डबल विदेशी बच्चों से दिल की लेन-देन करने आये हैं। मुरली तो सुनते रहते हो लेकिन आज रूह-रूहान करने आये हैं कि सभी बच्चे सहज सरल रूप से आगे बढ़ते जा रहे हो? कोई मुश्किल, चलने में थकावट तो नहीं लगती। थकते तो नहीं हो? किसी छोटी बड़ी बातों में कन्फ्यूज तो नहीं होते हो? जब किसी न किसी ईश्वरीय मर्यादा वा श्रीमत के डायरेक्शन को संकल्प में वा वाणी में वा कर्म में उल्लंघन करते हो तब कन्फ्यूज होते हो। नहीं तो बहुत खुशी-खुशी से, सुख चैन आराम से बाप के साथ-साथ चलने में कोई मुश्किल नहीं। कोई थकावट नहीं। कोई उलझन नहीं। किसी भी प्रकार की कमज़ोरी सहज को मुश्किल बना देती है। तो बापदादा बच्चों को देख रूह-रूहान कर रहे थे कि इतने लाडले सिकीलधे श्रेष्ठ आत्मायें, विशेष आत्मायें, पुण्य आत्मायें, सर्व श्रेष्ठ पावन आत्मायें, विश्व के आधारमूर्त आत्माएँ और फिर मुश्किल कैसे? उलझन में कैसे आ सकते हैं? किसके साथ चल रहे हैं? बापदादा स्नेह और सहयोग की बाँहों में समाते हुए साथ-साथ ले जा रहे हैं। स्नेह, सहयोग के बाँहों की माला सदा गले में पड़ी हुई है। ऐसे माला में पिराये हुए बच्चे और उलझन में आवें यह हो कैसे सकता! सदा खुशी के झूले में झूलने वाले, सदा बाप की याद में रहने वाले मुश्किल वा उलझन में आ नही सकते! कब तक उलझन और मुश्किल का अनुभव करते रहेंगे? बाप की पालना की छत्रछाया के अन्दर रहने वाले, उलझन में कैसे आ सकते हैं। बाप का बनने के बाद, शक्तिशाली आत्मायें बनने के बाद, माया के नॉलेजफुल बनने के बाद, सर्वशक्तियों, सर्व खज़ानों के अधिकारी बनने के बाद, क्या माया वा विघ्न हिला सकते हैं? (नहीं) बहुत धीरे-धीरे बोलते हैं। बोलो सदाकाल के लिए नहीं। देखना - सभी का फोटो निकल रहा है। टेप भरी है आवाज़ की। फिर वहाँ जाकर बदल तो नहीं जायेंगे ना! अभी से सिर्फ स्नेह के, सेवा के, उड़ती कला के विशेष अनुभवों के ही समाचार देंगे ना। माया आ गई, गिर गये, उलझ गये, थक गये, घबरा गये, ऐसे-ऐसे पत्र तो नहीं आयेंगे ना। जैसे आजकल की दुनिया में समाचार पत्रों में क्या खबरे निकलती है? दु:ख की, अशान्ति की, उलझनों की।
लेकिन आपके समाचार पत्र कौन से होंगे? सदा खुशखबरी के। खुशी के अनुभव - आज मैंने यह विशेष अनुभव किया। आज यह विशेष सेवा की। आज मंसा के सेवा की अनुभूति की। आज दिल शिकस्त को दिलवाला बना दिया। नीचे गिरे हुए को उड़ा दिया। ऐसे पत्र लिखेंगे ना। क्योंकि 63 जन्म उलझे भी, गिरे भी, ठोकरें भी खाई। सब कुछ किया और 63 जन्मों के बाद यह एक श्रेष्ठ जन्म, परिवर्तन का जन्म, चढ़ती कला से भी उड़ती कला का जन्म, इसमें उलझना, गिरना, थकना, बुद्धि से भटकना, यह बापदादा देख नहीं सकते। क्योंकि स्नेही बच्चे हैं ना। तो स्नेही बच्चों का यह थोड़ा-सा दु:ख की लहर का समय सुखदाता बाप देख नहीं सकते। समझा! तो अभी सदाकाल के लिए बीती की बीती कर लिया ना। जिस समय कोई भी बच्चा जरा भी उलझन में आता वा माया के विघ्नों के वश हो जाता, कमज़ोर हो जाता उस समय वतन में बापदादा के सामने उन बच्चों का चेहरा कैसा दिखाई देता है, मालूम है? मिक्की माउस के खेल की तरह। कभी माया के बोझ से मोटे बन जाते। कभी पुरूषार्थ के हिम्मतहीन छोटे बन जाते। मिक्की माउस भी कोई छोटा, कोई मोटा होता है ना। मिक्की माउस तो नहीं बनेंगे ना। बापदादा भी यह खेल देख हँसते रहते हैं। कभी देखो फरिश्ता रूप, कभी देखो महादानी रूप, कभी देखो सर्व के स्नेही सहयोगी रूप, कभी डबल लाइट रूप और कभी-कभी फिर मिक्की माउस भी हो जाते हैं। कौन-सा रूप अच्छा लगता है? यह छोटा-मोटा रूप तो अच्छा नहीं लगता है ना। बापदादा देख रहे थे कि बच्चों को अभी कितना कार्य करना है। किया है वह तो करने के आगे कुछ भी नहीं है। अभी कितनों को सन्देश दिया है? लाख डेढ़ लाख बने हैं ना। कम से कम सतयुग की पहली संख्या 9 लाख तो बनाओ। बनाना तो ज्यादा है लेकिन अभी 9 लाख के हिसाब से भी सोचो तो लाख डेढ़ लाख कितने परसेन्ट हुए? बापदादा देख रहे थे कितनी सेवा अभी करनी है। जिसके ऊपर इतनी सेवा की जिम्मदारी है, वह कितने बिजी होंगे। उन्हों को और कुछ सोचने की फुर्सत होगी? जो बिजी रहता है वह सहज ही मायाजीत होता है। बिजी किसमें हैं? दृष्टि द्वारा, मंसा द्वारा, वाणी द्वारा, कर्म द्वारा, सम्पर्क द्वारा चारों प्रकार की सेवा में बिजी। मंसा और वाणी वा कर्म दोनों साथ-साथ हों। चाहे कर्म करते हो, चाहे मुख से बोलते हो, जैसे डबल लाइट हो, डबल ताजधारी हो, डबल पूज्य हो, डबल वर्सा पाते हो तो सेवा भी डबल चाहिए। सिर्फ मंसा नहीं। सिर्फ कर्म नहीं। लेकिन मंसा के साथ-साथ वाणी। मंसा के साथ-साथ कर्म। इसको कहा जाता है डबल सेवाधारी। ऐसे डबल सेवाधारी स्वत: ही मायाजीत रहते हैं। समझा! सिंगल सेवा करते हो। सिर्फ वाणी में वा सिर्फ कर्म में आ जाते हो तो माया को साथी बनने का चांस मिल जाता है। मंसा अर्थात् याद। याद है बाप का सहारा। तो जहाँ डबल है, साथी साथ में है तो माया साथी बन नहीं सकती। सिंगल होते हो तो माया साथी बन जाती है। फिर कहते सेवा तो बहुत की। सेवा की खुशी भी होती है लेकिन फिर सेवा के बीच में माया भी आ गई। कारण? सिंगल सेवा की। डबल सेवाधारी नहीं बने। अभी इस वर्ष डबल विदेशी किस बात में प्राइज लेंगे? प्राइज लेनी तो है ना!
जो सेवाकेन्द्र 84 का वर्ष सेवा में, स्व की स्थिति में सदा निर्विघ्न रह, निर्विघ्न बनाने का वायब्रेशन विश्व में फैलायेंगे, सारे वर्ष में कोई भी विघ्न वश नहीं होंगे - ऐसी सेवा और स्थिति में जिस भी सेवाकेन्द्र का एक्जैम्पुल होगा उसको नम्बर वन प्राइज मिलेगी। ऐसी प्राइज लेंगे ना! जितने भी सेन्टर्स लें। चाहे देश के हों, चाहे विदेश के हों लेकिन सारे वर्ष में निर्विघ्न हों। यह सेन्टर के पोतामेल का चार्ट रखना। जैसे और पोता मेल रखते हो ना। कितनी प्रदर्शनियाँ हुई, कितने लोग आये, वैसे यह पोतामेल हर मास का नोट करना। यह मास सब क्लास के आने वाले ब्राह्मण परिवार निर्विघ्न रहे। माया आई इसमें कोई ऐसी बात नहीं। ऐसे नहीं कि माया आयेगी ही नहीं। माया आवे लेकिन माया के वश नहीं होना है। माया का काम है आना और आपका काम है - ‘माया को जीतना’। उनके प्रभाव में नहीं आना है। अपने प्रभाव से माया को भगाना है, न कि माया के प्रभाव में आना है। तो समझा कौन-सी प्राइज लेनी है। एक भी विघ्न में आया तो प्राइज नहीं क्योंकि साथी हो ना। सभी को एक दो को साथ देते हुए अपने घर चलना है ना। इसके लिए सदा सेवाकेन्द्र का वातावरण ऐसा शक्ति- शाली हो जो वातावरण भी सर्व आत्माओं के लिए सदा सहयोगी बन जाए। शक्तिशाली वातावरण कमज़ोर को भी शक्तिशाली बनाने में सहयोगी होता है। जैसे किला बांधा जाता है ना। किला क्यों बांधते हैं कि प्रजा भी किले के अन्दर सेफ रहे। एक राजा के लिए कोठरी नहीं बनाते, किला बनाते थे। आप सभी भी स्वयं के लिए, साथियों के लिए, अन्य आत्माओं के लिए ज्वाला का किला बांधो। याद के शक्ति की ज्वाला हो। अभी देखेंगे कौन प्राइज लेते हैं? 84 के अन्त में, न्यू ईयर मनाने आते हो ना तो जो विजयी होंगे उन्हों को विशेष निमन्त्रण देकर बुलाया जायेगा। अकेले विजयी नहीं। पूरा सेन्टर विजयी हो। उस सेन्टर की सेरीमनी करेंगे। फिर देखेंगे विदेश आगे आता है वा देश? अच्छा, और कोई मुश्किल तो नहीं, कोई भी माया का रूप तंग तो नहीं करता है ना। यादगार में कहानी क्या सुनी है! सूर्पनखा उसको तंग करने आई तो क्या किया? माया का नाक काटने नहीं आता? यहाँ सब सहज हो जाता है, उन्होंने तो इन्ट्रेस्टिंग बनाने के लिए कहानी बना दी है। माया पर एक बार वार कर लिया, बस। माया में कोई दम नहीं है, कमज़ोर है। सिर्फ बाहर का रूप शक्तिशाली बनाकर आती है। बाकी है अन्दर की कमज़ोरी। मरी पड़ी है। थोड़ा-सा रहा हुआ श्वांस चल रहा है। इसको खत्म करना और विजयी बनना है। क्योंकि अन्तिम समय पर तो पहुँच गये हैं ना! सिर्फ विजयी बन विजय के हिसाब से राज्य भाग्य पाना है। इसलिए यह अन्तिम श्वांस पर निमित्त मात्र विजयी बनना है। माया जीत जगतजीत हैं ना। विजय प्राप्त करने का फल - राज्य भाग्य है। इसलिए सिर्फ निमित्त मात्र यह माया से खेल है। युद्ध नहीं है। खेल है, समझा! आज से मिक्कीमाउस नहीं बनना। अच्छा!
सतयुग की स्थापना के बारे में कुछ जानकारी
अपने कल्प पहले वाले स्वर्ग के मर्ज हुए संस्कारों को इमर्ज करो तो स्वयं ही अपने को सतयुगी शाहजादी वा शाहजादे अनुभव करेंगे और जिस समय वह सतयुगी संस्कार इमर्ज करेंगे तो सतयुग की सभी रीति-रसम ऐसे स्पष्ट इमर्ज होंगी जैसे कल की बात है। कल ऐसा करते थे - ऐसा अनुभव कर सकते हो। सतयुग का अर्थ ही है, जो भी प्रकृति के सुख हैं, आत्मा के सुख हैं, बुद्धि के सुख हैं, मन के सुख हैं, सम्बन्ध के सुख हैं, जो भी सुख होते वह सब हाजिर हैं। तो अब सोचो प्रकृति के सुख क्या होते हैं, मन का सुख क्या होता है, सम्बन्ध का सुख क्या होता है - ऐसे इमर्ज करो। जो भी आपको इस दुनिया में अच्छे ते अच्छा दिखाई देता है - वह सब चीज़ें प्युअर रूप में, सम्पन्न रूप में, सुखदाई रूप में वहाँ होंगी। चाहे धन कहो, तन कहो, मौसम कहो, सब प्राप्ति तो श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ हैं - उसको ही सतयुग कहा जाता है। एक बहुत अच्छे ते अच्छी सुखदाई सम्पन्न फैमली समझो; वहां राजा प्रजा समान मर्तबे होते हुए भी परिवार के रूप में चलता है। यह नहीं कहेंगे कि यह दास-दासी है। नम्बर होंगे, सेवा होगी लेकिन दासी है इस भावना से नहीं चलेंगे। जैसे परिवार के सब सम्बन्ध खुश मिजाज, सुखी परिवार, समर्थ परिवार, जो भी श्रेष्ठता है वह सब है। दुकानों में भी खरीदारी करेंगे तो हिसाब-किताब से नहीं। परिवार की लेन-देन के हिसाब से कुछ देंगे कुछ लेंगे। गिफ्ट ही समझो। जैसे परिवार में नियम होता है - किसके पास ज्यादा चीज़ होती है तो सभी को बाँटते हैं। हिसाब-किताब की रीति से नहीं। कारोबार चलाने के लिए कोई को कोई डियूटी मिली हुई है, कोई को कोई। जैसे यहाँ मधुबन में है ना। कोई कपड़े सम्भालता, कोई अनाज़ सम्भालता, कोई पैसे तो नहीं देते हो ना। लेकिन चार्ज वाले तो हैं ना। ऐसे वहाँ भी होंगे। सब चीज़ें अथाह है, इसलिए जी हाजिर। कमी तो है ही नहीं। जितना चाहिए जैसा चाहिए वह लो। सिर्फ बिजी रहने का यह एक साधन है। वह भी खेल-पाल है। कोई हिसाब-किताब किसको दिखाना तो है नहीं। यहां तो संगम है ना। संगम माना एकानामी। सतयुग माना - खाओ, पियो, उड़ाओ। इच्छा मात्रम अविद्या है। जहाँ इच्छा होती वहाँ हिसाब-किताब करना होता। इच्छा के कारण ही नीचे ऊपर होता है। वहाँ इच्छा भी नहीं, कमी भी नहीं। सर्व प्राप्ति हैं और सम्पन्न भी हैं तो बाकी और क्या चाहिए! ऐसे नहीं अच्छी चीज़ लगती तो ज्यादा ले ली। भरपूर होंगे। दिल भरी हुई होगी। सतयुग में तो जाना ही है ना। प्रकृति सब सेवा करेगी। (सतयुग में बाबा तो नहीं होंगे) ब्रह्मा बाप तो साथ ही होंगे। (शिवबाबा ऊपर क्या करेंगे?) बच्चों का खेल देखते रहेंगे। कोई तो साक्षी भी हो ना। न्यारा तो न्यारा ही रहेगा ना। प्यारा रहेगा लेकिन न्यारा रह करके प्यारा रहेगा। प्यारे का खेल तो अभी कर रहे हैं ना। सतयुग में न्यारापन ही अच्छा है। नहीं तो जब आप सभी गिरेंगे तो कौन निकालेगा! सतयुग में आना अर्थात् चक्र में आना। अच्छा - सतयुग में जब आप जन्म लो तो तब निमन्त्रण देना। आप अगर संकल्प इमर्ज करेंगी तो फिर आयेंगे। सतयुग में आना अर्थात् चक्र में आना। बापदादा को स्वर्ग की बातों में आप आकर्षण कर रहे हो! अच्छा- इतने तो वैभव होंगे जो सब खा भी नहीं सकेंगे। सिर्फ देखते रहेंगे। अच्छा –
ऐसे सदा सर्व समर्थ आत्माओं को, सदा मायाजीत, जगतजीत आत्माओं को, सदा सहज योगी भव के वरदानी बच्चों को, डबल सेवाधारी, डबल ताजधारी, डबल लाइट बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’
दादी जी मद्रास, बैंगलूर, मैसूर तथा कलकत्ता का चक्र लगाकर मधुबन पहुँची हैं, दादी जी को देख बापदादा बोले:-
‘‘कदमों में पदमों की सेवा समाई हुई है। चक्रवर्ती बन चक्र लगाए अपने यादगार स्थान बना लिए। कितने तीर्थ बने! महावीर बच्चों का चक्र लगाना माना यादगार बनना। हर चक्र में अपनी-अपनी विशेषता होती है। इस चक्र में भी कई आत्माओं के दिलों की आशा पूर्ण करने की विशेषता रही। यह दिल की आशा पूर्ण करना अर्थात् वरदानी बनना। वरदानी भी बनी और महादानी भी बनी। ड्रामा अनुसार जो प्रोग्राम बनता है उसमें कई राज़ भरे हुए होते हैं। राज़ उड़ाके ले जाते हैं। अच्छा-
जानकी दादी से:- आप सभी को नाम का दान देती हो! नाम का दान क्या है? आपका नाम क्या है! नाम का दान देना अर्थात् ट्रस्टी बनकर वरदान देना। आपका नाम लेते ही सबको क्या याद आयेगा? - सेकण्ड में जीवन मुक्ति। ट्रस्टी बनना। यह आपके नाम की विशेषता है। इसलिए नामदान भी दे दो तो किसका भी बेडा पार हो जायेगा। बाप ने अभी आपके ट्रस्टीपन की विशेषता का गायन किया है, वही यादगार, है। वही ‘जनक’ अक्षर उनको मिल गया होगा। एक ही जनक की दो कहानियाँ हैं। जनक जो सेकण्ड में विदेही बन गया। दूसरा जनक जो सेकण्ड में ट्रस्टी बन गया। मेरा नहीं - ‘तेरा’। त्रेता वाला जनक भी दिखाते हैं। लेकिन आप तो बाप की जनक हो, सीता वाली नहीं। नाम दान का महत्व क्यों हैं, इस पर क्लास कराना। नाम की नईया द्वारा भी पार हो जाते हैं। और कुछ समझ में न भी आये लेकिन ‘शिवबाबा शिवबाबा’ भी कहा तो स्वर्ग की गेट पास तो मिल जाती है। अच्छा –
सभी महारथी भाई-बहनों को देख:-
सेवा के निमित्त बने हुए बच्चों की भी तो माला है ना। सभी विशेष रत्न निमित्त बने हुए हो। निमित्त बनने की विशेषता ‘निमित्त’ बनाती है। ब्रह्मा बाप को आप सबके ऊपर एक बात का नाज़ है। कौन-सी बात का विशेष नाज़ है? सभी बच्चों ने एक दो में विचार मिलाते हुए आदि से युनिटी का जो रूप दिखाया है इस पर ब्रह्मा बाप को विशेष नाज़ है। ‘युनिटी इस ब्राह्मण परिवार का फाउन्डेशन है।’ इसलिए ब्रह्मा बाप को अव्यक्त वतन में रहते भी बच्चों पर नाज़ है। देखते तो हैं ना कारोबार।
लंदन ग्रुप से:- सदा रूहानी गुलाब बन औरों को भी खुशबू देने वाले अविनाशी बगीचे के पुष्प हो ना। सभी रूहानी गुलाब हो। जिस रूहानी गुलाब को देख सारी विश्व आकर्षित होती है। एक-एक रूहानी गुलाब कितना वैल्युबुल है। अमूल्य है। जो अभी तक भी आप सबके जड़ चित्रों की भी वैल्यु हैं। एक-एक जड़ चित्र कितनी वैल्यू से लेते वा देते हैं। हैं तो साधारण पत्थर या चांदी या सोना लेकिन वैल्यु कितनी हैं। सोने की मूर्ति कितनी वैल्यु में देंगे। इतने वैल्युबुल कैसे बने! क्योंकि बाप का बनने से सदा ही श्रेष्ठ बन गये। इसी भाग्य के गीत सदा गाते रहो। वाह मेरा भाग्य और वाह भाग्य विधाता! और वाह संगमयुग! वाह मीठा ड्रामा! सबमें वाह-वाह आता है ना। वाह-वाह के गीत गाते रहते हो ना! बापदादा को लण्डन निवासियों पर नाज़ है, सेवा के वृक्ष का बीज जो है वह लण्डन है। तो लण्डन निवासी भी बीजरूप हो गये। यू.के. वाले अर्थात् सदा ओ.के. रहने वाले, सदा पढ़ाई और सेवा दोनों का बैलेन्स रखने वाले। सदा हर कदम में स्वयं की उन्नति को अनुभव करने वाले। जब बाप के बने तो सदा बाप का साथ और बाप का हाथ है। हर बच्चे के ऊपर - ऐसे अनुभव करते हो ना। जिसके ऊपर बाप का हाथ है वह सदा ही सेफ हैं। सदा सेफ रहने वाले हो ना। ओ.के. ग्रुप के पास माया तो नहीं आती है ना। माया भी सदा के लिए ओ.के., ओ.के. करके विदाई करके चली जाती है। यू.के. अर्थात् ओ.के. ग्रुप को संग भी तो बहुत श्रेष्ठ हैं ना। संग अच्छा, वायुमण्डल शक्तिशाली तो माया आ कैसे सकती! सदा ही सेफ होंगे। ओ.के. ग्रुप अर्थात् मायाजीत ग्रुप।
मॉरीशियस पार्टी:- सदा अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान समझते हो? भाग्य में क्या मिला? भगवान ही भाग्य में मिल गया! स्वयं भाग्य विधाता भाग्य में मिल गया। इससे बड़ा भाग्य और क्या हो सकता है? तो सदा ये खुशी रहती है कि विश्व में सबसे बड़े ते बड़े भाग्यवान हम आत्मायें हैं। हम नहीं, हम आत्मायें। आत्मायें कहेंगे तो कभी भी उल्टा नशा नहीं आयेगा। देही-अभिमानी बनने से श्रेष्ठ नशा - ईश्वरीय नशा रहेगा। भाग्यवान आत्मायें हैं, जिन्हों के भाग्य का अब भी गायन हो रहा है। ‘भागवत’ - आपके भाग्य का यादगार है। ऐसा अविनाशी भाग्य जो अब तक भी गायन होता है, इसी खुशी में सदा आगे बढ़ते रहो। कुमारियाँ तो निर्बन्धन, तन से भी निर्बन्धन, मन से भी निर्बन्धन। ऐसे निर्बन्धन ही उड़ती कला का अनुभव कर सकते हैं। अच्छा- ओम् शान्ति।