14-01-85   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सदा सर्व के शुभ चिन्तक अव्यक्त बापदादा बोले

आज बापदादा चारों ओर के विशेष बच्चों को देख रहे हैं। कौन से विशेष बच्चे हैं जो सदा स्वचिन्तन, शुभ चिन्तन में रहने के कारण सर्व के शुभ चिन्तक हैं। जो सदा शुभ चिन्तन में रहता है वह स्वत: ही शुभचिन्तक बन जाता है। शुभ चिन्तन का आधार है शुभ चिन्तक बनने का। पहला कदम है स्वचिन्तन। स्वचिन्तन अर्थात् जो बापदादा ने ‘‘मैं कौन’’ की पहली बताई है उसको सदा स्मृति स्वरूप में रखना। जैसे बाप और दादा जो है, जैसा है - वैसा उसको जानना ही यथार्थ जानना है और दोनों को जानना ही जानना है। ऐसे स्व को भी - जो हूँ जैसा हूँ अर्थात् जो आदि-अनादि श्रेष्ठ स्वरूप हूँ, उस रूप से अपने आपको जानना और उसी स्वचिन्तन में रहना इसको कहा जाता है - स्वचिन्तन। मैं कमज़ोर हूँ, पुरुषार्थी हूँ लेकिन सफलता स्वरूप नहीं हूँ, मायाजीत नहीं हूँ, यह सोचना स्वचिन्तन नहीं। क्योंकि संगमयुगी पुरूषोत्तम ब्राह्मण आत्मा अर्थात् शक्तिशाली आत्मा। यह कमज़ोरी वा पुरूषार्थहीन वा ढीला पुरूषार्थ देह-अभिमान की रचना है। स्व अर्थात् आत्म-अभिमानी। इस स्थिति में यह कमज़ोरी की बातें आ नहीं सकतीं। तो यह देह-अभिमान की रचना का चिन्तन करना यह भी स्वचिन्तन नहीं। स्व-चिन्तन अर्थात् जैसा बाप वैसे मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ। ऐसा स्वचिन्तन वाला शुभ चिन्तन कर सकता है। शुभ चिन्तन अर्थात् ज्ञान रत्नों का मनन करना। रचता और रचना के गुह्य रमणीक राजों में रमण करना। एक है सिर्फ रिपीट करना, दूसरा है ज्ञान सागर की लहरों में लहराना अर्थात् ज्ञान खजाने के मालिकपन के नशे में रह सदा ज्ञान रत्नों से खेलते रहना। ज्ञान के एक-एक अमूल्य बोल को अनुभव में लाना अर्थात् स्वयं को अमूल्य रत्नों से सदा महान बनाना। ऐसा ज्ञान में रमण करने वाला ही शुभ चिन्तन करने वाला है। ऐसा शुभ चिन्तन वाला स्वत: ही व्यर्थ चिन्तन परचिन्तन से दूर रहता है। स्वचिन्तन, शुभ चिन्तन करने वाली आत्मा हर सेकण्ड अपने शुभ चिन्तन में इतना बिजी रहती है जो और चिन्तन करने के लिए सेकण्ड वा श्वांस भी फुर्सत का नहीं। इसलिए सदा परचिन्तन और व्यर्थ चिन्तन से सहज ही सेफ रहता है। न बुद्धि में स्थान है, न समय है। समय भी शुभ चिन्तन में लगा हुआ है, बुद्धि सदा ज्ञान रत्नों से अर्थात् शुभ संकल्पों से सम्पन्न अर्थात् भरपूर है। दूसरा कोई संकल्प आने की मार्जिन ही नहीं। इसको कहा जाता है - शुभ चिन्तन करने वाला। हर ज्ञान के बोल के राज़ में जाने वाला। सिर्फ साज़ के मजे में रहने वाला नहीं। साज़ अर्थात् बोल के राज़ में जाने वाला। जैसे स्थूल साज़ भी सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं ना। ऐसे ज्ञान मुरली का साज़ अच्छा बहुत लगता है लेकिन साज़ के साथ राज़ समझने वाले ज्ञान खजाने के रत्नों के मालिक बन मनन करने में मगन रहते हैं। मगन स्थिति वाले के आगे कोई विघ्न आ नहीं सकता। ऐसा शुभ चिन्तन करने वाले स्वत: ही सर्व के सम्पर्क में शुभ चिन्तक बन जाता है। स्वचिन्तन फिर शुभ चिन्तन, ऐसी आत्मायें शुभचिन्तक बन जाती हैं। क्योंकि जो स्वयं दिन रात शुभ चिन्तन में रहते वह औरों के प्रति कभी भी न अशुभ सोचते, न अशुभ देखते। उनका निजी संस्कार वा स्वभाव शुभ होने के कारण वृत्ति, दृष्टि सर्व में शुभ देखने और सोचने की स्वत: ही आदत बन जाती है। इसलिए हरेक के प्रति शुभ चिन्तक रहता है। किसी भी आत्मा का कमज़ोर संस्कार देखते हुए भी उस आत्मा के प्रति अशुभ वा व्यर्थ नहीं सोचेंगे कि यह तो ऐसा ही है। लेकिन ऐसी कमज़ोर आत्मा को सदा उमंग हुल्लास के पंख दे शाक्तिशाली बनाए ऊँचा उड़ायेंगे। सदा उस आत्मा के प्रति शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा सहयोगी बनेंगे। शुभ चिन्तक अर्थात् नाउम्मीदवार को उम्मीदवार बनाने वाले। शुभ चिन्तन के खजाने से कमज़ोर को भी भरपूर कर आगे बढ़ायेगा। यह नहीं सोचेगा इसमें तो ज्ञान है ही नहीं। यह ज्ञान के पात्र नहीं। यह ज्ञान में चल नहीं सकते। शुभचिन्तक बापदादा द्वारा ली हुई शक्तियों के सहारे की टांग दे लंगड़े को भी चलाने के निमित्त बन जायेंगे। शुभ चिन्तक आत्मा अपनी शुभचिन्तक स्थिति द्वारा दिलशिकस्त आत्मा को दिल खुश मिठाई द्वारा उनको भी तन्दुरूस्त बनायेगी। दिलखुश मिठाई खाते हो ना। तो दूसरे को खिलाने भी आती है ना। शुभचिन्तक आत्मा किसी की कमज़ोरी जानते हुए भी उस आत्मा की कमज़ोरी भुलाकर अपनी विशेषता के शक्ति की समर्थी दिलाते हुए उसको भी समर्थ बना देंगे। किसी के प्रति घृणा दृष्टि नहीं। सदा गिरी हुई आत्मा को ऊँचा उड़ाने की दृष्टि होगी। सिर्फ स्वयं शुभ चिन्तन में रहना वा शक्तिशाली आत्मा बनना यह भी फर्स्ट स्टेज नहीं। इसको भी शुभचिन्तक नहीं कहेंगे। शुभचिन्तक अर्थात् अपने खजानों को मंसा द्वारा, वाचा द्वारा, अपने रूहानी सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा अन्य आत्माओं प्रति सेवा में लगाना। शुभ चिन्तक बने हो? सदा वृत्ति शुभ, दृष्टि शुभ। तो सृष्टि भी श्रेष्ठ ब्राहमणों की शुभ दिखाई देगी। वैसे भी साधारण रूप में कहा जाता है - शुभ बोलो। ब्राह्मण आत्मायें तो हैं ही शुभ जन्म वाली। शुभ समय पर जन्मे हो। ब्राहमणों के जन्म की घड़ी अर्थात् वेला शुभ है ना। भाग्य की दशा भी शुभ है। सम्बन्ध भी शुभ है। संकल्प, कर्म भी शुभ है। इसलिए ब्राह्मण आत्माओं के साकार में तो क्या लेकिन स्वप्न में भी अशुभ का नाम निशान नहीं - ऐसी शुभचिन्तक आत्मायें हो ना। स्मृति दिवस पर विशेष आये हो - स्मृति दिवस अर्थात् समर्थ दिवस। तो विशेष समर्थ आत्मायें हो ना। बापदादा भी कहते हैं - सदा समर्थ आत्मायें समर्थ दिन मनाने भले पधारे। समर्थ बापदादा समर्थ बच्चों का सदा स्वागत करते हैं, समझा!

अच्छा - सदा स्वचिन्तन के रूहानी नशे में रहने वाले, शुभ चिन्तन के खजाने से सम्पन्न रहने वाले, शुभचिन्तक बन सर्व आत्माओं को उड़कर उड़ाने वाले, सदा बाप समान दाता वरदाता बन सभी को शक्तिशाली बनाने वाले, ऐसे समर्थ समान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

पार्टियों के साथ - माताओं के ग्रुप से -  1. मातायें सदा अपना श्रेष्ठ भाग्य देख हर्षित रहती हो ना। चरणों की दासी से सिर के ताज बन गई यह खुशी सदा रहती है? कभी खुशी का खजाना चोरी तो नहीं हो जाता? माया चोरी करने में होशियार है। अगर सदा बहादुर हैं, होशियार हैं तो माया कुछ नहीं कर सकती और ही दासी बन जायेगी, दुश्मन सेवाधारी बन जायेगी। तो ऐसे मायाजीत हो? बाप की याद है अर्थात् सदा संग में रहने वाले हैं। रूहानी रंग लगा हुआ है। बाप का संग नहीं तो रूहानी रंग नहीं। तो सभी बाप के संग के रंग में रंगे हुए नष्टोमोहा हो? या थोड़ा-थोड़ा मोह है? बच्चों में नहीं होगा लेकिन पोत्रों-धोत्रों में होगा। बच्चों की सेवा पूरी हुई दूसरों की सेवा शुरू हुई। कम नहीं होती। एक के पीछे एक लाइन लग जाती है। तो इससे बन्धन मुक्त हो! माताओं की कितनी श्रेष्ठ प्राप्ति हो गई। जो बिल्कुल हाथ खाली बन गई थीं वह अभी मालामाल हो गई। सब कुछ गँवाया अभी फिर से बाप द्वारा सर्व खजाने प्राप्त कर लिए तो मातायें क्या से क्या बन गई? चार दीवारों में रहने वाली विश्व का मालिक बन गई। यह नशा रहता है ना कि बाप ने हमको अपना बनाया तो कितना भाग्य है। भगवान आकर अपना बनाये ऐसा श्रेष्ठ भाग्य तो कभी नहीं हो सकता। तो अपने भाग्य को देख सदा खुश रहती हो ना। कभी यह खजाना माया चोरी न करे।

2. सभी पुण्य आत्मायें बने हो? सबसे बड़ा पुण्य है - दूसरों को शक्ति देना। तो सदा सर्व आत्माओं के प्रति पुण्य आत्मा अर्थात् अपने मिले हुए खजाने के महादानी बनो। ऐसे दान करने वाले जितना दूसरों को देते हैं उतना पद्मगुणा बढ़ता है। तो यह देना अर्थात् लेना हो जाता है। ऐसे उमंग रहता है? इस उमंग का प्रैक्टिकल स्वरूप है सेवा में सदा आगे बढ़ते रहो। जितना भी तन-मन-धन सेवा में लगाते उतना वर्तमान भी महादानी पुण्य आत्मा बनते और भविष्य भी सदाकाल का जमा करते। यह भी ड्रामा में भाग्य है जो चांस मिलता है अपना सब कुछ जमा करने का। तो यह गोल्डन चांस लेने वाले हो ना। सोचकर किया तो सिल्वर चांस, फराखदिल होकर किया तो गोल्डन चांस तो सब नम्बरवन चांसलर बनो।