23-01-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सफलता के सितारे की विशेषताएं

ज्ञानसूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा अपने नये-सो-कल्प पुराने बच्चों के सम्मुख परमात्मा तारामण्डल का हाल सुनाते हुए बोले

आज ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चद्रमा अपने चमकते हुए तारामण्डल को देख रहे हैं। वह आकाश के सितारे हैं और यह धरती के सितारे हैं। वह प्रकृति की सत्ता है, यह परमात्म-सितारे हैं, रूहानी सितारे हैं। वह सितारे भी रात को ही प्रगट होते हैं, यह रूहानी सितारे, ज्ञान-सितारे, चमकते हुए सितारे भी ब्रह्मा की रात में ही प्रगट होते हैं। वह सितारे रात को दिन नहीं बनाते, सिर्फ सूर्य रात को दिन बनाता है। लेकिन आप सितारे ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के साथ साथी बन रात को दिन बनाते हो। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में अनेक प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई देते हैं, वैसे परमात्म-तारामण्डल में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई दे रहे हैं। कोई समीप के सितारे हैं और कोई दूर के सितारे भी हैं। कोई सफलता के सितारे हैं तो कोई उम्मीदवार सितारे हैं। कोई एक स्थिति वाले हैं और कोई स्थिति बदलने वाले हैं। वह स्थान बदलते, यहाँ स्थिति बदलते। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में पुच्छल तारे भी हैं। अर्थात् हर बात में, हर कार्य में ‘‘यह क्यों'', ‘‘यह क्या'' - यह पूछने की पूँछ वाले अर्थात् क्वेश्चन र्मा करने वाले पुच्छल तारे हैं। जैसे प्रकृति के पुच्छल तारे का प्रभाव पृथ्वी पर भारी माना जाता है, ऐसे बार-बार पूछने वाले इस ब्राह्मण परिवार में वायुमण्डल भारी कर देते हैं। सभी अनुभवी हो। जब स्वयं के प्रति भी संकल्प में क्या' औरक्यों' का पूँछ लग जाता है तो मन और बुद्धि की स्थिति स्वयं प्रति भारी बन जाती है। साथ-साथ अगर किसी भी संगठन बीच वा सेवा के कार्य प्रति क्यों', ‘क्या', ‘ऐसा', ‘कैसा',.... - यह क्वेश्चन र्मा की क्यू का पूँछ लग जाता है तो संगठन का वातावरण वा सेवा क्षेत्र का वातावरण फौरन भारी बन जाता है। तो स्वयं प्रति, संगठन वा सेवा प्रति प्रभाव पड़ जाता है ना। साथ-साथ कई प्रकृति के सितारे ऊपर से नीचे गिरते भी हैं, तो क्या बन जाते हैं? पत्थर। परमात्म-सितारों में भी जब निश्चय, सम्बन्ध वा स्व-धारणा की ऊँची स्थिति से नीचे आ जाते हैं तो पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। कैसे पत्थर बुद्धि बन जाते? जैसे पत्थर को कितना भी पानी डालो लेकिन पत्थर पिघलेगा नहीं, रूप बदल जाता है लेकिन पिघलेगा नहीं। पत्थर को कुछ भी धारण नहीं होता है। ऐसे में जब पत्थर बुद्धि बन जाते तो उस समय कितना भी, कोई भी अच्छी बात महसूस कराओ तो महसूस नहीं करते। कितना भी ज्ञान का पानी डालो लेकिन बदलेंगे नहीं। बातें बदलते रहेंगे लेकिन स्वयं नहीं बदलेंगे। इसको कहते हैं पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। तो अपने आप से पूछो - इस परमात्म-तारामण्डल के सितारों बीच, मैं कौन-सा सितारा हूँ?

सबसे श्रेष्ठ सितारा है सफलता का सितारा। सफलता का सितारा अर्थात् जो सदा स्वयं की प्रगति में सफलता को अनुभव करता रहे अर्थात् अपने पुरूषार्थ की विधि में सदैव सहज सफलता अनुभव करता रहे। सफलता के सितारे संकल्प में भी स्वयं के पुरूषार्थ प्रति भी कभी पता नहीं यह होगा या नहीं होगा', ‘कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे' - यह असफलता का अंश-मात्र नहीं होगा। जैसे स्लोगन है - सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है, ऐसे वह स्वयं प्रति सदा सफलता अधिकार के रूप में अनुभव करेंगे। अधिकार की परिभाषा ही है बिना मेहनत, बिना मांगने से प्राप्त हो। सहज और स्वत: प्राप्त हो - इसको कहते हैं अधिकार। ऐसे ही एक - स्वयं प्रति सफलता, दूसरा - अपने सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हुए, चाहे ब्राह्मण आत्माओं के, चाहे लौकिक परिवार वा लौकिक कार्य के सम्बन्ध में, सर्व सम्बन्ध-सम्पर्क में, सम्बन्ध में आते, सम्पर्क में आते कितनी भी मुश्किल बात को सफलता के अधिकार के आधार से सहज अनुभव करेंगे अर्थात् सफलता की प्रगति में आगे बढ़ते जायेंगे। हाँ, समय लग सकता है लेकिन सफलता का अधिकार प्राप्त होकर ही रहेगा। ऐसे, स्थूल कार्य वा अलौकिक सेवा का कार्य अर्थात् दोनों क्षेत्र के कर्म में सफलता के निश्चयबुद्धि विजयी रहेंगे। कहाँ-कहाँ परिस्थिति का सामना भी करना पड़ेगा, व्यक्तियों द्वारा सहन भी करना पड़ेगा लेकिन वह सहन करना उन्नति का रास्ता बन जायेगा। परिस्थिति को सामना करते, परिस्थिति, स्वस्थिति के उड़ती कला का साधन बन जायेगी, अर्थात् हर बात में सफलता स्वत:, सहज और अवश्य प्राप्त होगी।

सफलता का सितारा, उसकी विशेष निशानी है - कभी भी स्व की सफलता का अभिमान नहीं होगा, वर्णन नहीं करेगा, अपने गीत नहीं गायेगा लेकिन जितनी सफलता उतना नम्रचित, निर्मान, निर्मल स्वभाव होगा। और (दूसरे) उसके गीत गायेंगे लेकिन वह स्वयं सदा बाप के गुण गायेगा। सफलता का सितारा कभी भी क्वेश्चन र्मा नहीं करेगा। सदा बिन्दी रूप में स्थित रह हर कार्य में औरों को भी ड्रामा की बिन्दी' स्मृति में दिलाये, विघ्नविनाशक बनाये, समर्थ बनाये सफलता की मंजल के समीप लाता रहेगा। सफलता का सितारा कभी भी हद की सफलता के प्राप्ति को देख प्राप्ति की स्थिति में बहुत खुशी और परिस्थिति आई वा प्राप्ति कुछ कम हुई तो खुशी भी कम हो जाये - ऐसी स्थिति परिवर्तन करने वाले नहीं होंगे। सदा बेहद के सफलतामूर्त होंगे। एकरस, एक श्रेष्ठ स्थिति पर स्थित होंगे। चाहे बाहर की परिस्थिति वा कार्य में बाहर के रूप से औरों को असफलता अनुभव हो लेकिन सफलता का सितारा, असफलता की स्थिति के प्रभाव में न आये, सफलता के स्वस्थिति से असफलता को भी परिवर्तन कर लेगा। यह है सफलता के सितारे की विशेषतायें। अभी अपने से पूछो - मैं कौन हूँ? सिर्फ उम्मीदवार हूँ वा सफलता स्वरूप हूँ?' उम्मीदवार बनना भी अच्छा है, लेकिन सिर्फ उम्मीदवार बन चलना, प्रत्यक्ष सफलता का अनुभव न करना, इसमें कभी शक्तिशाली, कभी दिलशिकस्त.....यह नीचे-ऊपर होने का ज्यादा अनुभव करते हैं। जैसे कोई भी बात में अगर ज्यादा नीचे-ऊपर होता रहे तो थकावट हो जाती है ना। तो इसमें भी चलते-चलते थकावट का अनुभव दिलशिकस्त बना देता है। तो नाउम्मीदवार से उम्मीदवार अच्छा है, लेकिन सफलता स्वरूप का अनुभव करने वाला सदा श्रेष्ठ है। अच्छा। सुना तारामण्डल की कहानी? सिर्फ मधुबन का हाल तारामण्डल नहीं है, बेहद ब्राह्मण संसार तारामण्डल है। अच्छा।

सभी आने वाले नये बच्चे, नये भी हैं और पुराने भी बहुत हैं। क्योंकि अनेक कल्प के हो, तो अति पुराने भी हो। तो नये बच्चों का नया उमंग-उत्साह मिलन मनाने का ड्रामा की नूँध प्रमाण पूरा हुआ। बहुत उमंग रहा ना। जायें-जायें...इतना उमंग रहा जो डायरेक्शन भी नहीं सुना। मिलन की मस्ती में मस्त थे ना! कितना कहा - कम आओ, कम आओ, तो कोई ने सुना? बापदादा ड्रामा के हर दृश्य को देख हर्षित होते हैं कि इतने सब बच्चों को आना ही था, इसलिए आ गये हैं। सब सहज मिल रहा है ना? मुश्किल तो नहीं है ना? यह भी ड्रामा अनुसार, समय प्रमाण रिहर्सल हो रही है। सभी खुश हो ना? मुश्किल को सहज बनाने वाले हो ना? हर कार्य में सहयोग देना, जो डायरेक्शन मिलते हैं उसमें सहयोगी बनना अर्थात् सहज बनाना। अगर सहयोगी बनते हैं तो 5000 भी समा जाते हैं और सहयोगी नहीं बनते अर्थात् विधिपूर्वक नहीं चलते तो 500 भी समाना मुश्किल है। इसलिए, दादियों को ऐसा अपना रिकार्ड दिखाकर जाना जो सबके दिल से यही निकले कि 5000, पाँच सौ के बराबर समाए हुए थे। इसको कहते हैं मुश्किल को सहज करना'। तो सबने अपना रिकार्ड बढ़िया भरा है ना? सार्टिफकेट (प्रमाण-पत्र) अच्छा मिल रहा है। ऐसे ही सदा खुश रहना और खुश करना, तो सदा ही तालियाँ बजाते रहेंगे। अच्छा रिकार्ड है, इसलिए देखो, ड्रामा अनुसार दो बार मिलना हुआ है! यह नयों की खातिरी ड्रामा अनुसार हो गई है। अच्छा।

सदा रूहानी सफलता के श्रेष्ठ सितारों को, सदा एकरस स्थिति द्वारा विश्व को रोशन करने वाले, ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के सदा साथ रहने वाले, सदा अधिकार के निश्चय से नशे और नम्रचित स्थिति में रहने वाले, ऐसे परमात्म-तारामण्डल के सर्व चमकते हुए सितारों को ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा की रूहानी स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से मुलाकाल

(1) अपने को सदा निर्विघ्न, विजयी रत्न समझते हो? विघ्न आना, यह तो अच्छी बात है लेकिन विघ्न हार न खिलायें। विघ्नों का आना अर्थात् सदा के लिए मजबूत बनाना। विघ्न को भी एक मनोरंजन का खेल समझ पार करना -इसको कहते हैं निर्विघ्न विजयी'। तो विघ्नों से घबराते तो नहीं? जब बाप का साथ है तो घबराने की कोई बात ही नहीं। अकेला कोई होता है तो घबराता है। लेकिन अगर कोई साथ होता है तो घबराते नहीं, बहादुर बन जाते हैं। तो जहाँ बाप का साथ है, वहाँ विघ्न घबरायेगा या आप घबरायेंगे? सर्वशक्तिवान के आगे विघ्न क्या है? कुछ भी नहीं। इसलिए विघ्न खेल लगता, मुश्किल नहीं लगता। विघ्न अनुभवी और शक्तिशाली बना देता है। जो सदा बाप की याद और सेवा में लगे हुए हैं, बिजी हैं, वह निर्विघ्न रहते हैं। अगर बुद्धि बिजी नहीं रहती तो विघ्न वा माया आती है। अगर बिजी रही तो माया भी किनारा कर लेगी। आयेगी नहीं, चली जायेगी। माया भी जानती है कि यह मेरा साथी नहीं है, अभी परमात्मा का साथी है। तो किनारा कर लेगी। अनगिनत बार विजयी बने हो, इसलिए विजय प्राप्त करना बड़ी बात नहीं है। जो काम अनेक बार किया हुआ होता है, वह सहज लगता है। तो अनेक बार के विजयी। सदा राजी रहने वाले हो ना? मातायें सदा खुश रहती हो? कभी रोती तो नहीं? कभी कोई परिस्थिति ऐसी आ जाये तो रोयेंगी? बहादुर हो। पाण्डव मन में तो नहीं रोते? यह क्यों हुआ', ‘क्या हुआ' - ऐसा रोना तो नहीं रोते? बाप का बनकर भी अगर सदा खुश नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे? बाप का बनना माना सदा खुशी में रहना। न दु:ख है, न दु:ख में रोयेंगे। सब दु:ख दूर हो गये। तो अपने इस वरदान को सदा याद रखना। अच्छा।

(2) अपने को इस रूहानी बगीचे के रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? जैसे सभी फूलों में गुलाब का पुष्प खुशबू के कारण प्यारा लगता है। तो वह है गुलाब और आप सभी हैं रूहे गुलाब। रूहे गुलाब अर्थात् जिसमें सदा रूहानी खुशबू हो। रूहानी खुशबू वाले जहाँ भी देखेंगे, जिसको भी देखेंगे तो रूह को देखेंगे, शरीर को नहीं देखेंगे। स्वयं भी सदा रूहानी स्थिति में रहेंगे और दूसरों की भी रूह को देखेंगे। इसको कहते हैं - रूहानी गुलाब'। यह बाप का बगीचा है। जैसे बाप उँचे-ते-ऊँचा है, ऐसे बगीचा भी ऊँचे-ते-ऊँचा है जिस बगीचे का विशेष शृंगार रूहे गुलाब आप सभी हो। और यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं का कल्याण करने वाली है।

आज विश्व में जो भी मुश्किलातें हैं, उसका कारण ही है कि एक-दो को रूह नहीं देखते। देह-अभिमान के कारण सब समस्यायें हैं। देही-अभिमानी बन जायें तो सब समस्यायें समाप्त हो जायें। तो आप रूहानी गुलाब विश्व पर रूहानी खुशबू फैलाने के निमित्त हो, ऐसे सदा नशा रहता है? कभी एक, कभी दूसरा नहीं। सदा एकरस स्थिति में शक्ति होती है। स्थिति बदलने से शक्ति कम हो जाती है। सदा बाप की याद में रह जहाँ भी सेवा का साधन है, चाँस लेकर आगे बढ़ते जाओ। परमात्म-बगीचे के रूहानी गुलाब समझ रूहानी खुशबू फैलाते रहो। कितनी मीठी रूहानी खुशबू है जिस खुशबू को सब चाहते हैं! यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं के साथ-साथ अपना भी कल्याण कर लेती है। बापदादा देखते हैं कि कितनी रूहानी खुशबू कहाँ-कहाँ तक फैलाते रहते हैं? जरा भी कहाँ देह-अभिमान मिक्स हुआ तो रूहानी खुशबू ओरिजनल नहीं होगी। सदा इस रूहानी खुशबू से औरों को भी खुशबूदार बनाते चलो। सदा अचल हो? कोई भी हलचल हिलाती तो नहीं? कुछ भी होता है, सुनते, देखते थोड़ा भी हलचल में तो नहीं आ जाते? जब नथिंग न्यू' है तो हलचल में क्यों आयें? कोई नई बात हो तो हलचल हो। यह क्या', ‘क्यों' अनेक कल्प हुई है - इसको कहते हैं ड्रामा के ऊपर निश्चयबुद्धि'। सर्वशक्तिवान के साथी हैं, इसलिए बेपरवाह बादशाह हैं। सब फिकर बाप को दे दिये तो स्वयं सदा बेफिकर बादशाह। सदा रूहानी खुशबू फैलाते रहो तो सब विघ्न खत्म हो जायेंगे।

(3) हर कर्म करते कर्मयोगी आत्मा' अनुभव करते हो? कर्म और योग सदा साथ-साथ रहता है? कर्मयोगी हर कर्म में स्वत: ही सफलता को प्राप्त करता है। कर्मयोगी आत्मा कर्म का प्रत्यक्षफल उसी समय भी अनुभव करता और भविष्य भी जमा करता, तो डबल फायदा हो गया ना। ऐसे डबल फल लेने वाली आत्मायें हो। कर्मयोगी आत्मा कभी कर्म के बन्धन में नहीं फँसेंगी। सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे। कर्म के बन्धन से मुक्त - इसको ही कर्मातीत' कहते हैं। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो जाओ। कर्म से न्यारे नहीं, कर्म के बन्धन में फँसने से न्यारे, इसको कहते हैं - कर्मातीत। कर्मयोगी स्थिति कर्मातीत स्थिति का अनुभव कराती है। तो किसी बंधन में बंधने वाले तो नहीं हो ना? औरों को भी बंधन से छुड़ाने वाले। जैसे बाप ने छुड़ाया, ऐसे बच्चों का भी काम है छुड़ाना, स्वयं कैसे बंधन में बंधेंगे? कर्मयोगी स्थिति अति प्यारी और न्यारी है। इससे कोई कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसे लगेगा जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। चाहे कितना भी मेहनत का, सख्त खेल हो, फिर भी खेल में मजा आयेगा ना। जब मल्लयुद्ध करते हैं तो कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन जब खेल समझकर करते हैं तो हँसते-हँसते करते हैं। मेहनत नहीं लगती, मनोरंजन लगता है। तो कर्मयोगी के लिए कैसा भी कार्य हो लेकिन मनोरंजन है, संकल्प में भी मुश्किल का अनुभव नहीं होगा। तो कर्मयोगी ग्रुप अपने कर्म से अनेकों का कर्म श्रेष्ठ बनाने वाले, इसी में बिजी रहो। कर्म और याद कम्बाइण्ड, अलग हो नहीं सकते।

(4) सदा बाप की अति स्नेही, सहयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? स्नेही की निशानी क्या होती है? जिससे स्नेह होता है उसके हर कार्य में सहयोगी जरूर होंगे। अति स्नेही आत्मा की निशानी सदा बाप के श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी होगी। जितना-जितना सहयोगी, उतना सहज योगी क्योंकि बाप के सहयोगी हैं ना। दिन-रात यही लग्न रहे - बाबा और सेवा, इसके सिवाए कुछ है ही नहीं। अगर लौकिक कार्य भी करते हो तो बाप की श्रीमत प्रमाण करते हो, इसलिए वह भी बाप का कार्य है। लौकिक में भी अलौकिकता ही अनुभव करेंगे, कभी लौकिक कार्य समझ न थकेंगे, न फँसेंगे, न्यारे रहेंगे। तो ऐसे स्नेही और सहयोगी आत्मायें हो। न्यारे होकर कर्म करेंगे तो बहुत अच्छा कर्म होगा। कर्म में फँसकर करने से अच्छा नहीं होता, सफलता भी नहीं होती, मेहनत भी बहुत और प्राप्ति भी नहीं। इसलिए सदा बाप के स्नेह में समाई हुई सहयोगी आत्मायें हैं। सहयोगी आत्मा कभी भी माया की योगी हो नहीं सकती, उसका माया से किनारा हो जायेगा। हर संकल्प में बाबा' और सेवा', तो जो नींद भी करेंगे, उसमें भी बड़ा आराम मिलेगा, शान्ति मिलेगी, शक्ति मिलेगी। नींद, नींद नहीं होगी, जैसे कमाई करके खुशी में लेटे हैं। इतना परिवर्तन हो जाता है! बाबा-बाबा' करते  रहो। बाबा कहा और कार्य सफल हुआ पड़ा है। क्योंकि बाप सर्वशक्तिवान है। सर्वशक्तिवान बाप की याद स्वत: ही हर कार्य को शक्तिशाली बना देती है।

(5) अपने को राजऋषि, श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? राजऋषि अर्थात् राज्य होते हुए भी ऋषि अर्थात् सदा बेहद के वैरागी। स्थूल देश का राज्य नहीं है लेकिन स्व का राज्य है। स्व-राज्य करते हुए बेहद के वैरागी भी हो, तपस्वी भी हो क्योंकि जानते हो पुरानी दुनिया में है ही क्या। इस दुनिया को कहते ही हो असार संसार, कोई सार नहीं। जितना ही बनाने की कोशिश करते हैं, उतना ही बिगड़ता है। तो असार हुआ ना। तो असार संसार से स्वत: ही वैराग आ जाता है क्योंकि असार संसार से ब्राह्मणों का श्रेष्ठ संसार मिल गया। श्रेष्ठ संसार मिल गया तो असार से वैराग स्वत: हो जायेगा। वैराग अर्थात् लगाव न हो। अगर लगाव होता है तो बुद्धि का झुकाव होता है। जिस तरफ लगाव होगा, बुद्धि उसी तरफ जायेगी। इसलिए राजऋषि हो, राजे भी हो और साथ-साथ बेहद के वैरागी भी हो। ऋषि तपस्वी होते हैं। किसी भी आकर्षण में आकर्षित नहीं होने वाले। स्व-राज्य के आगे यह हद की आकर्षण क्या है? कुछ भी नहीं। तो अपने को क्या समझते हो? राजऋषि। किसी भी प्रकार का लगाव ऋषि बनने नहीं देगा, तपस्वी बन नहीं सकेंगे। तपस्या में लगाव' ही विघ्न-रूप बन कर आता है। तपस्या भंग हो जाती है। इसलिए, माया की आकर्षण से सदा परे रहो। कोई भी सम्बन्ध में लगाव न हो। माताओं को पोत्रे-धोत्रे अच्छे लगते हैं, इसलिए थोड़ा लगाव हो जाता है। पाण्डवों का फिर किससे लगाव होता है? कमाने में, पैसा इकट्ठा करने में। जेब में पैसा तो होना चाहिए ना! लेकिन जो बाप की लग्न में रहते हैं, वह लगाव में नहीं रहते, उसको सब सहज प्राप्त होता है। ब्राह्मण जीवन में 10 रूपया भी 100 बन जाता है। इतना धन में वृद्धि हो जाती है! प्रगति पड़ने से 10, 100 का काम करता है, वहाँ 100, 10 का काम करेगा। क्योंकि अभी एकानामी के अवतार हो गये ना। व्यर्थ बच गया और समर्थ पैसा, ताकत वाला पैसा है। काला पैसा नहीं है, सफेद है, इसलिए शक्ति है। तो राजऋषि आत्मायें हैं - इस वरदान को सदा याद रखना। कहाँ लगाव में नहीं फँस जाना। न फँसो, न निकलने की मेहनत करो।

(6) अपने को सदा हर्षित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? हर्षितमुख, हर्षितचित्त। इसकी यादगार आपके यादगार चित्रों में भी दिखाते हैं। कोई भी देवी या देवता की मूर्ति बनायेंगे तो उसमें चेहरा जो दिखाते हैं, वह सदा हर्षित दिखाते हैं। अगर कोई सीरियस (गम्भीर) चेहरा होगा तो देवता का चित्र नहीं मानेंगे। तो हर्षितमुख रहने का इस समय का गुण आपके यादगार चित्रों में भी है। हर्षितमुख अर्थात् सदा सर्व प्राप्तियों से भरपूर। जो भरपूर होता है वही हर्षित रह सकता है। अगर कोई भी अप्राप्ति होगी तो हर्षित नहीं रहेंगे। कितनी भी हर्षित रहने की कोशिश करें, बाहर से हँसेंगे लेकिन दिल से नहीं। कोई बाहर से हँसते हैं तो मालूम पड़ जाता है - यह दिखावे का हँसना है, सच्च नहीं। तो आप सब दिल से सदा मुस्काराते रहो। कभी चेहरे पर दु:ख की लहर न आये। किसी भी परिस्थिति में दु:ख की लहर नहीं आनी चाहिए क्योंकि दु:ख की दुनिया छोड़ दी, संगम की दुनिया में आ गये। अच्छा।