20-03-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्नेह' और सत्यता' की अथॉर्टी का बैलेंस

नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी बनाने वाले, विश्व-रचयिता शिवबाबा बोले

आज सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू अपने सत्यता के शक्तिशाली सत् बच्चों से मिलने आये हैं। सबसे बड़े-ते-बड़ी शक्ति वा अथॉर्टी सत्यता की ही है। सत् दो अर्थ से कहा जाता है। एक - सत् अर्थात् सत्य। दूसरा - सत् अर्थात् अविनाशी। दोनों अर्थ से सत्यता की शक्ति सबसे बड़ी है। बाप को सत् बाप कहते हैं। बाप तो अनेक हैं लेकिन सत् बाप एक है। सत् शिक्षक, सत्गुरू एक ही है। सत्य को ही परमात्मा कहते हैं अर्थात् परम आत्मा की विशेषता सत्य अर्थात् सत् है। आपका गीत भी है। सत्य ही शिव है...। दुनिया में भी कहते हैं - सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्। साथ-साथ बाप परमात्मा के लिए सत्-चित-आनन्द स्वरूप कहते हैं। आप आत्माओं को सत्-चित-आनन्द कहते हैं। तो सत्' शब्द की महिमा बहुत गाई हुई है। और कभी भी कोई भी कार्य में अथॉर्टी से बोलते तो यही कहेंगे - मैं सच्चा हूँ, इसलिए अथॉर्टी से बोलता हूँ। सत्य के लिए गायन है - सत्य की नाँव डोलेगी लेकिन डूबेगी नहीं। आप लोग भी कहते हो - सच तो बिठो नच। सच्चा अर्थात् सत्यता की शक्ति वाला सदा नाचता रहेगा, कभी मुरझायेगा नहीं, उलझेगा नहीं, घबरायेगा नहीं, कमज़ोर नहीं होगा। सत्यता की शक्ति वाला सदा खुशी में नाचता रहेगा। शक्तिशाली होगा, सामना करने की शक्ति होगी, इसलिए घबरायेगा नहीं। सत्यता को सोने के समान कहते हैं, असत्य को मिट्टी के समान कहते हैं। भक्ति में भी जो परम- आत्मा की तरफ लगन लगाते हैं, उन्हों को सत्संगी कहते हैं, सत् का संग करने वाले हैं। और लास्ट में जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो भी क्या कहते हैं - सत् नाम संग है। तो सत् अविनाशी, सत् सत्य है। सत्यता की शक्ति महान शक्ति है। वर्तमान समय मेजारिटी लोग आप सबको देखकर क्या कहते हैं - इन्हों में सत्यता है, तब इतना समय वृद्धि करते हुए चल रहे हैं। सत्यता कब हिलती नहीं है, अचल होती है। सत्यता वृद्धि को प्राप्त करने की विधि है। सत्यता की शक्ति से सतयुग बनाते हो, स्वयं भी सत्य-नारायण, सत्य-लक्ष्मी बनते हो। यह सत्य ज्ञान है, सत् बाप का ज्ञान है। इसलिए दुनिया से न्यारा और प्यारा है।

तो आज बापदादा सभी बच्चों को देख रहे हैं कि सत्य ज्ञान की सत्यता की अथॉर्टी कितनी धारण की है? सत्यता हर आत्मा को आकर्षित करती है। चाहे आज की दुनिया झूठ खण्ड है, सब झूठ है अर्थात् सबमें झूठ मिला हुआ है, फिर भी सत्यता की शक्ति वाले विजयी बनते हैं। सत्यता की प्राप्ति खुशी और निर्भयता है। सत्य बोलने वाला सदा निर्भय होगा। उनको कब भय नहीं होगा। जो सत्य नहीं होगा तो उनको भय जरूर होगा। तो आप सभी सत्यता के शक्तिशाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। सत्य ज्ञान, सत्य बाप, सत्य प्राप्ति, सत्य याद, सत्य गुण, सत्य शक्तियाँ सर्व प्राप्ति हैं। तो इतनी अथॉर्टी का नशा रहता है? अथॉर्टी का अर्थ अभिमान नहीं है। जितना बड़े-ते-बड़ी अथॉर्टी, उतना उनकी वृत्ति में रूहानी अथॉर्टी रहती है। वाणी में स्नेह और नम्रता होगी - यही अथॉर्टी की निशानी है। जैसे आप लोग वृक्ष का दृष्टान्त देते हो। वृक्ष में जब सम्पूर्ण फल की अथॉर्टी आ जाती है तो वृक्ष झुकता है अर्थात् निर्मान बनने की सेवा करता है। ऐसे रूहानी अथॉर्टी वाले बच्चे जितनी बड़ी अथॉर्टी, उतने निर्मान और सर्व स्नेही होंगे। लेकिन सत्यता की अथॉर्टी वाले निर-अहंकारी होते हैं। तो अथॉर्टी भी हो, नशा भी हो और निर-अहंकारी भी हो - इसको कहते हैं सत्य ज्ञान का प्रत्यक्ष स्वरूप।

जैसे इस झूठ खण्ड के अन्दर ब्रह्मा बाप सत्यता की अथॉर्टी का प्रत्यक्ष साकार स्वरूप देखा ना। उनके अथॉर्टी के बोल कभी भी अहंकार की भासना नहीं देंगे। मुरली सुनते हो तो कितनी अथॉर्टी के बोल हैं! लेकिन अभिमान के नहीं। अथॉर्टी के बोल में स्नेह समाया हुआ है, निर्मानता है, निर-अहंकार है। इसलिए अथॉर्टी के बोल प्यारे लगते हैं। सिर्फ प्यारे नहीं लेकिन प्रभावशाली होते हैं। फॉलो फादर है ना। सेवा में वा कर्म में फॉलो ब्रह्मा बाप है क्योंकि साकारी दुनिया में साकार एक्जाम्पल' है, सैम्पल है। तो जैसे ब्रह्मा बाप को कर्म में, सेवा में, सूरत से, हर चलन से चलता-फिरता अथॉर्टी स्वरूप देखा, ऐसे फॉलो फादर करने वाले में भी स्नेह और अथॉर्टी, निर्मानता और महानता - दोनों साथ-साथ दिखाई दें। ऐसे नहीं सिर्फ स्नेह दिखाई दे और अथॉर्टी गुम हो जाए या अथॉर्टी दिखाई दे और स्नेह गुम हो जाए। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा वा अभी भी मुरली सुनते हो। प्रत्यक्ष प्रमाण है। तो बच्चे-बच्चे भी कहेगा लेकिन अथॉर्टी भी दिखायेगा। स्नेह से बच्चे भी कहेगा और अथॉर्टी से शिक्षा भी देगा। सत्य ज्ञान को प्रत्यक्ष भी करेंगे लेकिन बच्चे-बच्चे कहते नया ज्ञान सारा स्पष्ट कर देंगे। इसको कहते हैं स्नेह और सत्यता की अथॉर्टी का बैलेन्स (सन्तुलन) तो वर्तमान समय सेवा में इस बैलेन्स को अण्डरलाइन करो।

धरनी बनाने के लिए स्थापना से लेकर अब तक 50 वर्ष पूरे हो गये। विदेश की धरनी भी अब काफी बन गई है। भल 50 वर्ष नहीं हुए हैं, लेकिन बने बनाये साधनों पर आये हो, इसलिए शुरू के 50 वर्ष और अब के 5 वर्ष बराबर हैं। डबल विदेशी सब कहते हैं - हम लास्ट सो फास्ट सो फर्स्ट हैं। तो समय में भी फास्ट सो फर्स्ट होंगे ना। निर्भयता की अथॉर्टी जरूर रखो। एक ही बाप का नया ज्ञान सत्य ज्ञान है और नये ज्ञान से नई दुनिया स्थापन होती है - यह अथॉर्टी और नशा स्वरूप में इमर्ज (प्रत्यक्ष) हो। 50 वर्ष तो मर्ज (गुप्त) रखा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं जो भी आवे उनको पहले से ही नये ज्ञान की नई बातें सुनाकर कनफ्यूज (मुँझा देना) कर दो। यह भाव नहीं है। धरनी, नब्ज, समय यह सब देख करके ज्ञान देना - यही नॉलेजफुल की निशानी है। आत्मा की इच्छा देखो, नब्ज देखो, धरनी बनाओ लेकिन अन्दर सत्यता के निर्भयता की शक्ति जरूर हो। लोग क्या कहेंगे - यह भय न हो। निर्भय बन धरनी भल बनाओ। कई बच्चे समझते हैं - यह ज्ञान तो नया है, कई लोग समझ ही नहीं सकेंगे। लेकिन बेसमझ को ही तो समझाना है। यह जरूर है - जैसा व्यक्ति वैसी रूपरेखा बनानी पड़ती है, लेकिन व्यक्ति के प्रभाव में नहीं आ जाओ। अपने सत्य ज्ञान की अथॉर्टी से व्यक्ति को परिवर्तन करना ही है - यह लक्ष्य नहीं भूलो।

अब तक जो किया, वह ठीक था। करना ही था, आवश्यक था क्योंकि धरनी बनानी थी। लेकिन कब तक धरनी बनायेंगे? और कितना समय चाहिए? दवाई भी दी जाती है तो पहले ही ज्यादा ताकत की नहीं दी जाती, पहले हल्की दी जाती। लेकिन ताकत वाली दवाई दो ही नहीं, हल्की पर ही चलाते चलो - यह नहीं करो। किसी कमज़ोर को हाई पावर वाली दवाई दे दी तो यह भी रांग है। परखने की भी शक्ति चाहिए। लेकिन अपने सत्य नये ज्ञान की अथॉर्टी जरूर चाहिए। आपकी सूक्ष्म अथॉर्टी की वृत्ति ही उन्हों की वृत्तियों को चेन्ज (परिवर्तन) करेगी। यही धरनी बनेगी। और विशेष जब सेवा कर मधुबन तक पहुँचते हो तो कम-से-कम उन्हों को यह जरूर मालूम पड़ना चाहिए। इस धरनी पर उन्हों की भी धरनी बन जाती है। कितनी भी कलराठी धरनी हो, किस भी धर्म वाला हो, किस भी पोजीशन वाला हो लेकिन इस धरनी पर वह भी नर्म हो जाते हैं और नर्म धरनी बनने के कारण उसमें जो भी बीज डालेंगे, उसका फल सहज निकलेगा। सिर्फ डरो नहीं, निर्भय जरूर बनो। युक्ति से दो, ऐसा न हो कि वह आप लोगों को यह उल्हना दें कि ऐसी धरनी पर भी मैं पहुँचा लेकिन यह मालूम नहीं पड़ा कि परमात्म-ज्ञान क्या है? परमात्म-भूमि पर आकर परम-आत्मा की प्रत्यक्षता का सन्देश जरूर ले जाएँ। लक्ष्य अथॉर्टी का होना चाहिए।

आजकल के जमाने के हिसाब से भी नवीनता का महत्त्व है। फिर भल कोई उल्टा भी नया फैशन निकालते हैं, तो भी फॉलो करते हैं। पहले आर्ट (चित्रकला) देखो कितना बढ़िया था! आजकल का आर्ट तो उनके आगे जैसे लकीरें लगेंगी। लेकिन मॉडर्न आर्ट पसन्द करते हैं। मानव की पसन्दी हर बात में नवीनता है और नवीनता स्वत: ही अपने तरफ आकर्षित करती है। इसलिए नवीनता, सत्यता, महानता - इसका नशा जरूर रखो। फिर समय और व्यक्ति देख सेवा करो। यह लक्ष्य जरूर रखो कि नई दुनिया का नया ज्ञान प्रत्यक्ष जरूर करना है। अभी स्नेह और शान्ति प्रत्यक्ष हुई है। बाप का प्यार के सागर का स्वरूप, शान्ति के सागर का स्वरूप प्रत्यक्ष किया है लेकिन ज्ञान स्वरूप आत्मा और ज्ञान सागर बाप है, इस नये ज्ञान को किस ढंग से देवें, उसके प्लैन्स अभी कम बनाये हैं। वह भी समय आयेगा जो सभी के मुख से यह आवाज निकलेगा कि नई दुनिया का नया ज्ञान यह है। अभी सिर्फ अच्छा कहते हैं, नया नहीं कहते। याद की सब्जेक्ट (विषय) को अच्छा प्रत्यक्ष किया है, इसलिए धरनी अच्छी बन गई है और धरनी बनाना - पहला आवश्यक कार्य भी जरूरी है। जो किया है, वह बहुत अच्छा और बहुत किया है, तन-मन-धन लगाकर किया है। इसके लिए आफरीन भी देते हैं।

पहले जब विदेश में गये थे तो यही त्रिमूर्ति के चित्र पर समझाना कितना मुश्किल समझते थे! अभी त्रिमूर्ति के चित्र पर ही आकर्षित होते हैं। यह सीढ़ी का चित्र भारत की कहानी समझते थे। लेकिन विदेश में इस चित्र पर आकर्षित होते। तो जैसे वह प्लैन बनाये कि यह नई बात किस ढंग से सुनावें, तो अब भी इन्वेन्शन (आविष्कार) करो। यह नहीं सोचो कि यह तो करना ही पड़ेगा। नहीं। बापदादा का लक्ष्य सिर्फ यह है कि नवीनता के महानता की शक्ति धारण करो, इसको भूलो नहीं। दुनिया को समझाना है, दुनिया की बातों से घबराओ नहीं। अपना तरीका इन्वेन्ट (Event) करो क्योंकि इन्वेन्टर (आविष्कर्त्ता) आप बच्चे ही हो ना। सेवा के प्लैन (योजना) बच्चे ही जानते हैं। जैसा लक्ष्य रखेंगे, वैसा प्लैन बहुत अच्छे-से-अच्छा बन जायेगा और सफलता तो जन्म-सिद्ध-अधिकार है ही है। इसलिए नवीनता को प्रत्यक्ष करो। जो भी ज्ञान की गुह्य बातें हैं, उसको स्पष्ट करने की विधि आपके पास बहुत अच्छी है और स्पष्टीकरण है। एक-एक प्वाइंट को लॉजिकल (तर्कशास्त्र के अनुसार) स्पष्ट कर सकते हो। अपनी अथॉर्टी (शक्ति, प्रभुत्व) वाले हो। कोई मनोमय वा कल्पना की बातें तो हैं नहीं। यथार्थ हैं। अनुभव है। अनुभव की अथॉर्टी, नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी... कितनी अथॉर्टीज हैं! तो अथॉर्टी और स्नेह - दोनों को साथ-साथ कार्य में लगाओ।

बापदादा खुश हैं कि मेहनत से सेवा करते-करते इतनी वृद्धि को प्राप्त किया है और करते ही रहेंगे। चाहे देश है, चाहे विदेश है। देश में भी व्यक्ति और नब्ज देख सेवा करने में सफलता है। विदेश में भी इसी विधि से सफलता है। पहले सम्पर्क में लाते हो - यह धरनी बनती है। सम्पर्क के बाद फिर सम्बन्ध में लाओ, सिर्फ सम्पर्क तक छोड़ नहीं दो। सम्बन्ध में लाकर फिर उन्हों को बुद्धि से समर्पित कराओ - यह है लास्ट स्टेज। सम्पर्क में लाना भी आवश्यक है, फिर सम्बन्ध में लाना है। सम्बन्ध में आते-आते समर्पण बुद्धि हो जाए कि जो बाप ने कहा, वही सत्य है।' फिर क्वेश्चन (प्रश्न) नहीं उठते। जो बाबा कहता, वही सही है। क्योंकि अनुभव हो जाता तो फिर क्वेश्चन समाप्त हो जाता। इसको कहतेसमर्पण बुद्धि' जिसमें सब स्पष्ट अनुभव होता। लक्ष्य यह रखो कि समर्पण बुद्धि तक लाना अवश्य है। तब कहेंगे माइक तैयार हुए हैं। माइक क्या आवाज करेगा? सिर्फ अच्छा ज्ञान है इन्हों का, नहीं। यह नया ज्ञान है, यही नई दुनिया लायेगा - यह आवाज हो, तब तो कुम्भकरण जगेंगे ना। नहीं तो सिर्फ आँख खोलते हैं - बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कह फिर नींद आ जाती है। इसलिए जैसे स्वयं बालक सो मालिक बन गये ना, ऐसे बनाओ। बेचारों को सिर्फ साधारण प्रजा तक नहीं लाओ, लेकिन राज्य-अधिकारी बनाओ। उसके लिए प्लैन बनाओ - किस विधि से करो जो कनफ्यूज भी न हों और समर्पण बुद्धि भी हो जाएँ। नवीनता भी लगे, उलझन भी अनुभव नहीं करें। स्नेह और नवीनता की अथॉर्टी लगे।

अब तक जो रिजल्ट रही, सेवा की विधि, ब्राह्मणों की वृद्धि रही, वह बहुत अच्छा है। क्योंकि पहले बीज को गुप्त रखा, वह भी आवश्यक है। बीज को गुप्त रखना होता है, बाहर रखने से फल नहीं देता। धरनी के अन्दर बीज को रखना होता है लेकिन अन्दर धरनी में ही न रह जाए। बाहर प्रत्यक्ष हो, फल स्वरूप बनें - यह आगे की स्टेज है। समझा? लक्ष्य रखो - नया करना है। ऐसे नहीं कि इस वर्ष ही हो जायेगा। लेकिन लक्ष्य बीज को भी बाहर प्रत्यक्ष करेगा। ऐसे भी नहीं सीधा जाकर भाषण करना शुरू कर दो। पहले सत्यता के शक्ति की भासना दिलाने के भाषण करने पड़ेंगे। आखिर वह दिन आये' - यह सबके मुख से निकले। जैसे ड्रामा में दिखाते हो ना, सब धर्म वाले मिलकर कहते हैं - हम एक हैं, एक के हैं। वह ड्रामा दिखाते हो, यह प्रैक्टिकल में स्टेज पर सब धर्म वाले मिलकर एक ही आवाज में बोलें। एक बाप है, एक ही ज्ञान है, एक ही लक्ष्य है, एक ही घर है, यही है - अब यह आवाज चाहिए। ऐसा दृश्य जब बेहद की स्टेज पर आये, तब प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेगा और इस झण्डे के नीचे सब यही गीत गायेंगे। सबके मुख से एक शब्द निकलेगा - बाबा हमारा' तब कहेंगे प्रत्यक्ष रूप में शिवरात्रि मनाई। अंधकार खत्म हो गोल्डन मॉर्निंग (सुनहरी प्रात:) के नजारे दिखाई देंगे। इसको कहते हैं - आज और कल का खेल। आज अंधकार, कल गोल्डन मॉर्निंग। यह है लास्ट पर्दा। समझा?

बाकी जो प्लैन बनाये हैं, वह अच्छे हैं। हर एक स्थान की धरनी प्रमाण प्लैन बनाना ही पड़ता है। धरनी के प्रमाण विधि में कोई अन्तर भी अगर करना पड़ता है तो ऐसी कोई बात नहीं है। लास्ट में सभी को तैयार कर मधुबन धरनी पर छाप जरूर लगानी है। भिन्न-भिन्न वर्ग को तैयार कर स्टैम्प (छाप) जरूर लगानी है। पासपोर्ट (विदेश-यात्रा का आज्ञापत्र) पर भी स्टैम्प लगाने सिवाए जाने नहीं देते हैं ना। तो स्टैम्प यहाँ मधुबन में ही लगेगी।

यह सब तो हैं ही सरेण्डर (समर्पित) अगर यह सरेण्डर नहीं होते तो सेवा के निमित्त कैसे बनते। सरेण्डर हैं तब ब्रह्माकुमार/ब्रह्माकुमारी बन सेवा के निमित्त बने हो। देश चाहे विदेश में कोई क्रिश्चियन-कुमारी वा बौद्ध-कुमारी बनकर तो सेवा नहीं करते हो? बी.के. बनकर ही सेवा करते हो ना। तो सरेण्डर ब्राह्मणों की लिस्ट में सभी हैं। अब औरों को कराना है। मरजीवा बन गये। ब्राह्मण बन गये। बच्चे कहते - मेरा बाबा', तो बाबा कहते - तेरा हो गया। तो सरेण्डर हुए ना। चाहे प्रवृत्ति में हो, चाहे सेन्टर पर हो लेकिन जिसने दिल से कहा - मेरा बाबा' तो बाप ने अपना बनाया। यह तो दिल का सौदा है। मुख का स्थूल सौदा नहीं है, यह दिल का है। सरेण्डर माना श्रीमत के अण्डर (अधीन) रहने वाले। सारी सभा सरेण्डर है ना। इसलिए फोटो भी निकाला है ना। अब चित्र में आ गये तो बदल नहीं सकते। परमात्म-घर में चित्र हो जाए, यह कम भाग्य नहीं है। यह स्थूल फोटो नहीं लेकिन बाप के दिल में फोटो निकल गया। अच्छा।

सर्व सत्यता की अथॉर्टी वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व नवीनता और महानता को प्रत्यक्ष करने वाले सच्चे सेवाधारी बच्चों को, सर्व स्नेह और अथॉर्टी के बैलेन्स रखने वाले, हर कदम में बाप द्वारा ब्लैसिंग (आशीर्वाद) लेने के अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सत् अर्थात् अविनाशी रत्नों को, अविनाशी पार्ट बजाने वालों की, अविनाशी खज़ाने के बालक सो मालिकों को विश्व-रचता सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात (यू.के. ग्रुप से) - स्वयं को सम्पन्न बनाए औरों को भी सम्पन्न बनाने में बिजी (व्यस्त) रहते हो? लौकिक और अलौकिक डबल सेवा करने के निमित्त बने हुए हो। बापदादा बच्चों की विशेषता का वर्णन करते हैं। बाप से भी आगे हैं - जो भी सेवा की है, वह सब अच्छी की है और आगे भी अच्छे से अच्छी करने के निमित्त बनते रहेंगे। बाप अपने से भी बच्चों को सदैव आगे बढ़ाते हैं। बापदादा सभी बच्चों को आगे बढ़ाने की युक्ति बताते हैं, वह युक्ति क्या है? सबसे बड़े-ते-बड़ी युक्ति है - सहनशीलता के गुण को अपनाना'। जितना सहनशील होंगे, सत्यता की शक्ति होगी, उतना सहज अपना राज्य सतयुग ला सकेंगे। आप सब अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मायें हो। अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मा का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। अनुभव की अथॉर्टी बिना सेवा करते तो सफलता बहुत मुश्किल होती। यू.के. वा ओ.के. (O.K.) का टाइटल (पदवी, खिताब) बहुत अच्छा मिला हुआ है। जब ओ.के. लिखते हो तो जैसे बाप का चित्र बनाते हो। ओ अर्थात् बाप ओ.के और के' अर्थात् किंगडम (राजाई) तो ओ.के. कहने में बाप की याद भी है और वर्से की भी याद है। तो ओ.के. वालों को न बाप भूलेगा, न वर्सा भूलेगा। तो जब भी ओ.के.' कहो तो बाबा हमारा' यही याद आ जाए। अच्छा।

सेवा के आधारमूर्त आप लोग हो। माताओं ने आदि में स्थापना में विशेष पार्ट बजाया। तो खुशी है ना! अच्छा।

कुमारियाँ तो हैं ही श्रेष्ठ भाग्य के सितारे वाली। सभी के मस्तक पर भाग्य का सितारा चमक गया। कुमारियाँ अर्थात् तकदीर बनाकर के आई। कुमारियों की महिमा बाप गाते हैं क्योंकि यह एक-एक कुमारी सेवाधारी है। दुनिया वाले कहते - एक कुमारी 21 कुल तारने वाली है, बाप कहते - एक-एक कुमारी विश्वकल् याणी है, विश्व का उद्धार करने वाली है। तो विश्व-सेवा के कॉन्ट्रैक्टर (ठेकेदार) बन गई। कितना अच्छा जॉब (काम) है! सारे विश्व की आत्मायें कितनी दुआयें देंगी! बाप की भी दुआयें, परिवार की भी दुआयें और साथ-साथ विश्व की आत्मायें भी दुआयें करेंगी। सर्व के दुआओं की अधिकारी बन गई। अच्छा।

(भारतवासी भाई-बहिनों से) - भारतवासी रहने में समीप हैं, दिल से भी समीप है। भारतवासी जगे, तब दुनिया जगी। तो भारतवासी बच्चे विश्व-कल्याण की नींव हो गये ना। विश्व सेवा की नींव भारत के बच्चे हैं। इसलिए आपका महत्त्व अपना है, विदेश में रहने वालों का महत्त्व अपना है। भारत ही लाइट हाउस (रोशनी का भण्डार) है। लाइट देने वाले तो आप हो। तो आपका भी महत्त्व महान है। बापदादा को हर बच्चा अति स्नेही है, अति लाडला है। अगर औरों को भारतवासी चांस देते हैं तो यह भी त्याग का भाग्य मिलता है; जाता नहीं है, जमा होता है। भारतवासी वैसे तो बेहद के वासी हो लेकिन निशानी कहने में आती है। भारत का महत्त्व, भारत की महानता आप आत्माओं की महानता है। समझा?

यहाँ समय और सीजन देखनी पड़ती है क्योंकि देखने की दुनिया में आते हैं। अगर वहाँ आओ तो फिर टाइम की लिमिट (हद, सीमा) नहीं। वहाँ 10 घण्टे भी एक-एक मिल सकते हैं। यहाँ 10 मिनट भी मुश्किल हैं क्योंकि अपना तन तो है नहीं ना। पराया है। जो लोन लिया जाता है, वह देना होता है ना। अपना हो तो देने की बात ही नहीं। बाकी हरेक बच्चा बाप को अति प्रिय है। हरेक कोटों में कोई, कोई-में-कोई है; तो विशेष है। बापदादा हर बच्चे को विशेष आत्मा के रूप में देखते हैं, ऐसे बच्चे भी ऊँचे-ते-ऊँचे हुए ना! सभी श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ ही रहेंगे, अनेक जन्म के लिए श्रेष्ठ रहेंगे। बापदादा उसी नजर से देखते हैं। यह ब्राह्मण आत्मायें सो देव आत्मायें हैं। तो कितने महान हुए! क्या महिमा करें! अच्छा।

(मधुबन निवासियों से) - मधुबन निवासियों को किसी-न-किसी प्रकार से सदा ही प्रसाद मिलता रहता है। सेवा भी दिल से करते हो और प्रसाद भी दिल से मिलता है। सेवा करते हो, इसलिए मधुबन में, तपस्या-भूमि में रहने का अधिकार मिला है। यह अधिकार ही एक महान प्रसाद है। यहाँ की पालना भी महान प्रसाद है। इस भूमि पर सहज याद का जो अनुभव होता है - यह भी महान प्रसाद है। तो आप अब प्रसाद ही खाते हो, भोजन नहीं खाते। जो सदा प्रसाद खाये, वह क्या हुआ? इतनी पुण्य आत्मायें हुए ना। महान आत्मायें हुए ना। और जो भी यहाँ आते हैं, सब महान आत्माओं की नजर से देखते हैं। तो महान हो, महान सेवा के निमित्त हो क्योंकि महायज्ञ है ना। महायज्ञ की सेवा, वह भी महान सेवा हो गई। स्वयं भी महान, सेवा भी महान, प्राप्ति्ा भी महान। और बाकी क्या रहा? चलते-फिरते सारे ब्राह्मण परिवार की मीठी दृष्टि किसके ऊपर पड़ती है? यह भाग्य भी कम नहीं है। हर श्रेष्ठ आत्मा मधुबन में आती है। सारा ब्राह्मण परिवार मधुबन में ही आता है। तो इतने ब्राह्मणों की दृष्टि, इतने ब्राह्मणों की शुभ भावना-शुभ कामनायें सब मधुबन निवासियों को ही प्राप्त होती हैं। इसलिए, सेवा का फल मिल रहा है। अच्छा। मेहनत, मेहनत करके नहीं करते हो, खेल करके करते हो, मनोरंजन करके करते हो। यह भी विशेषता अच्छी है। यज्ञ-सेवा पुण्य की सेवा समझकर करते हो, इसलिए थकावट नहीं होती। और ही, कोई नहीं होता तो अकेले हो जाते हो। अच्छा।

(कुमारियों के साथ) - एक-एक कुमारी विश्व-कल्याणकारी है ना। दुनिया में तो कहते हैं - एक-एक कुमारी जाकर अपना घर बसायेगी। यहाँ बाप कहते हैं - एक-एक कुमारी सेवाकेन्द्र खोल अनेकों का कल्याण करेगी, ऐसी कुमारियाँ हो? लौकिक माँ-बाप घर बनाकर देते हैं, उससे तो गिरती कला होती है और अलौकिक बाप, पारलौकिक बाप सेन्टर खोलकर देते हैं जिससे स्व-उन्नति भी और अन्य आत्माओं की भी उन्नति हो। तो ऐसी कुमारियों को कहते हैं पूज्यनीय कुमारियाँ। इसलिए, अभी तक भी लास्ट जन्म में भी कुमारियों की पूजा करते हैं। ऐसी कुमारियाँ विश्व के आगे कितनी महान गाई जाती हैं। तो सदा स्वयं को विश्वकल् याणकारी समझ सेवा में आगे बढ़ती चलो। कुमारियों को देख बापदादा बहुत खुश होते हैं - जितनी कुमारियाँ हैं, उतने सेन्टर खुलेंगे! हिम्मत वाली हो ना? घबराने वाली तो नहीं? पूज्य कुमारियाँ हो। कुमारी शब्द ही पवित्रता का सूचक है। पवित्र का ही पूजन है। सदा स्वयं भी पावन रहेंगी और दूसरों को भी पवित्रता की शक्ति देने का श्रेष्ठ कार्य करती रहेंगी। पवित्रता की शक्ति जमा है ना? तो जो जमा होता है वह दूसरों को दिया जाता है। तो सदैव अपने को पवित्रता की देवियाँ समझो। अच्छा।

(पार्टियों से) - अपने को श्रेष्ठ, भाग्यवान अनुभव करते हो? क्योंकि सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त होना, इस समय ही होता है। इस संगमयुग के महत्त्व को अच्छी तरह से जान गये हो ना? सतयुग में भी इस समय के भाग्य की प्राप्ति का फल प्रालब्ध के रूप में प्राप्त होता है। तो जितना इस समय के महत्व को स्मृति में रखेंगे, तो समय की सर्व महानतायें अपने जीवन में प्राप्त करते रहेंगे। सबसे ज्यादा भाग्यवान कौन है? सभी कहेंगे - मैं भाग्यविधाता बाप का बच्चा भाग्यवान हूँ। क्योंकि यह रूहानी नशा है, यह बॉडी-कॉनसेस (body-concious) नहीं है। इसलिए, हर एक बाप के बच्चे एक दो से भाग्यवान, श्रेष्ठ हो। यह शुद्ध नशा है। इस नशे में भाग्य को देख भाग्यविधाता बाप याद रहता है। इसलिए जहाँ बाप की याद होती है, वहाँ बॉडी-कॉनसेस की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसमें नुकसान नहीं, प्राप्ति ही प्राप्ति है। तो सभी इस निश्चय और नशे में रहने वाले हो, इसलिए दुनिया के वायब्रेशन से भी दूर रहते हो। दुनिया में रहते बाप के पास रहते हो ना? जो बाप के साथ वा पास रहते वह दुनिया के विकारी वायब्रेशन या आकर्षण के प्रभाव से दूर रहते हैं। तो साथ रहते हो या दूर? - ‘मेरा बाबा' और इतना प्राप्ति कराने वाला तो कोई और हो ही नहीं सकता, तो फिर साथ कैसे छोड़ सकते हो? या कभी-कभी इससे भी स्वतन्त्र होना चाहते हो? डबल विदेशी स्वतन्त्रता ज्यादा चाहते हैं ना। यह फ्रीडम नहीं है? सदा बाप के साथ रहना, साथ रहते-रहते बाप समान बन जायेंगे। अच्छा। सभी सच्चे सेवाधारी हो ना? जैसे बाप के बिना नहीं रह सकते, ऐसे सेवा के बिना भी नहीं रह सकते।