25-10-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


चार बातों से न्यारे बनो

मायाजीत और प्रकृतिजीत बनाने वाले बापदादा अपने वत्सों प्रति बोले

आज बापदादा अपने सर्व कमल-आसनधारी श्रेष्ठ बच्चों को देख रहे हैं। कमल-आसन ब्राह्मण आत्माओं की श्रेष्ठ स्थिति की निशानी है। आसन स्थित, बैठने का साधन है। ब्राह्मण आत्मायें कमल-स्थिति में स्थित रहतीं, इसलिए कमल-आसनधारी कहलाती हैं। जैसे ब्राह्मण सो देवता बनते हो, ऐसे आसनधारी सो सिंहासनधारी बनते हैं, जितना समय बहुतकाल वा अल्पकाल कमल आसनधारी बनते हैं, उतना ही बहुतकाल वा अल्पकाल राज्य सिंहासनधारी बनते हैं। कमल-आसन विशेष ब्रह्मा बाप समान अति न्यारी और अति प्यारी स्थिति का सिम्बल (चिन्ह) है। आप ब्राह्मण बच्चे फॉलो फादर करने वाले हो, इसलिए बाप समान कमल-आसनधारी हो। अति न्यारे की निशानी है - वह बाप और सर्व परिवार के अति प्यारे बनेंगे। न्यारापन अर्थात् चारों ओर से न्यारा।

(1) अपने देह भान से न्यारा - जैसे साधारण दुनियावी आत्माओं को चलतेफिरते, हर कर्म करते स्वत: और सदा देह का भान रहता ही है, मेहनत नहीं करते कि मैं देह हूँ, न चाहते भी सहज स्मृति रहती ही है। ऐसे कमल-आसनधारी ब्राह्मण आत्मायें भी इस देहभान से स्वत: ही ऐसे न्यारे रहें जैसे अज्ञानी आत्म- अभिमान से न्यारे हैं। हैं ही आत्म-अभिमानी। शरीर का भान अपने तरफ आकर्षित न करे। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा, चलते-फिरते फरिश्ता-रूप वा देवता- रूप स्वत: स्मृति में रहा। ऐसे नैचुरल देही-अभिमानी स्थिति सदा रहे - इसको कहते हैं देहभान से न्यारे। देहभान से न्यारा ही परमात्म-प्यारा बन जाता है।

(2) इस देह के जो सर्व सम्बन्ध हैं, दृष्टि से, वृत्ति से, कृति से - उन सबसे न्यारा - देह का सम्बन्ध देखते हुए भी स्वत: ही आत्मिक, देही सम्बन्ध स्मृति में रहे। इसलिए दीपावली के बाद भैया-दूज मनाया ना। जब चमकता हुआ सितारा वा जगमगाता अविनाशी दीपक बन जाते हो, तो भाई-भाई का सम्बन्ध हो जाता है। आत्मा के नाते भाई-भाई का सम्बन्ध और साकार ब्रह्मावंशी ब्राह्मण बनने के नाते से बहन-भाई का श्रेष्ठ शुद्ध सम्बन्ध स्वत: ही स्मृति में रहता है। तो न्यारापन अर्थात् देह और देह के सम्बन्ध से न्यारा।

(3) देह के विनाशी पदार्थों में भी न्यारापन - अगर कोई पदार्थ किसी भी कर्मेन्द्रिय को विचलित करता है अर्थात् आसक्ति-भाव उत्पन्न होता है तो वह न्यारापन नहीं रहता। सम्बन्ध से न्यारा फिर भी सहज हो जाते लेकिन सर्व पदार्थों की आसक्ति से न्यारा - अनासक्त' बनने में रॉयल रूप की आसक्ति रह जाती है। सुनाया था ना कि आसक्ति का स्पष्ट रूप इच्छा है। इसी इच्छा का सूक्ष्म, महीन रूप है - अच्छा लगना। इच्छा नहीं है लेकिन अच्छा लगता है - यह महीन रूप अच्छा' के बदले इच्छा' का रूप भी ले सकता है। तो इसकी अच्छी रीति चेकिंग करो कि यह पदार्थ अर्थात् अल्पकाल सुख के साधन आकर्षित तो नहीं करते हैं? कोई भी साधन समय पर प्राप्त न हो तो सहज साधन अर्थात् सहजयोग की स्थिति डगमग तो नहीं होती है? कोई भी साधन के वश, आदत से मजबूर तो नहीं होते? क्योंकि यह सर्व पदार्थ अर्थात् साधन - प्रकृति के साधन हैं। तो आप प्रकृतिजीत अर्थात् प्रकृति के आधार से न्यारे कमल-आसनधारी ब्राह्मण हो। मायाजीत के साथ-साथ प्रकृतिजीत भी बनते हो। जैसे ही मायाजीत बनते हो, तो माया बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में ट्रायल करती है कि मेरे साथी मायाजीत बन रहे हैं? तो भिन्न-भिन्न पेपर लेती है? प्रकृति का पेपर है - साधनों द्वारा आप सभी को हलचल में लाना। जैसे - पानी। अभी यह कोई बड़ा पेपर नहीं आया है। लेकिन पानी से बने हुए साधन, अग्नि द्वारा बने हुए साधन, ऐसे हर प्रवृति के तत्वों द्वारा बने हुए साधन मनुष्य आत्माओं के जीवन का अल्पकाल के सुख का आधार हैं। तो यह सब तत्व पेपर लेंगे। अभी तो सिर्फ पानी की कमी हुई है लेकिन पानी द्वारा बने हुए पदार्थ जब प्राप्त नहीं होंगे तो असली पेपर उस समय होगा। यह प्रकृति द्वारा पेपर भी समय प्रमाण आने ही हैं।

इसलिए, देह के पदार्थों की आसक्ति वा आधार से भी निराधार अनासक्त' होना है। अभी तो सब साधन अच्छी तरह से प्राप्त हैं, कोई कमी नहीं है। लेकिन साधनों के होते, साधनों को प्रयोग में लाते, योग की स्थिति डगमग न हो। योगी बन प्रयोग करना - इसको कहते हैं न्यारा। है ही कुछ नहीं, तो उसको न्यारा नहीं कहेंगे। होते हुए निमित्त-मात्र, अनासक्त रूप से प्रयोग करना; इच्छा वा अच्छा होने के कारण नहीं यूज करना - यह चेकिंग जरूर करो। जहाँ इच्छा होगी, फिर भला कितनी भी मेहनत करेंगे लेकिन इच्छा, अच्छा बनने नहीं देगी। पेपर के समय मेहनत करने में ही समय बीत जायेगा। आप साधना में रहने का प्रयत्न करेंगे और साधन अपने तरफ आकर्षित करेंगे। आप युद्ध कर, मेहनत कर साधनों की आकर्षण को मिटाने का प्रयत्न करते रहेंगे तो युद्ध की कशमकश में ही पेपर का समय बीत जायेगा। रिजल्ट क्या हुई? प्रयोग करने वाले साधन ने सहजयोगी स्थिति से डगमग कर दिया ना। प्रकृति के पेपर तो अभी और रफ्तार से आने वाले हैं। इसलिए, पहले से ही पदार्थों के विशेष आधार - खाना, पीना, पहनना, चलना, रहना और सम्पर्क में आना - इन सबकी चेकिंग करो कि कोई भी बात महीन रूप में भी विघ्न-रूप तो नहीं बनती? यह अभी से ट्रायल करो। जिस समय पेपर आयेगा उस समय ट्रायल नहीं करना, नहीं तो फेल होने की मार्जिन है।

योग-स्थिति अर्थात् प्रयोग करते हुए न्यारी स्थिति। सहज योग की साधना साधनों के ऊपर अर्थात् प्रकृति के ऊपर विजयी हो। ऐसा न हो उसके बिना तो चल सकता लेकिन इसके बिना रह नहीं सकते, इसलिए डगमग स्थिति हो गई... इसको भी न्यारी जीवन नहीं कहेंगे। ऐसी सिद्धि को प्राप्त करो जो आपके सिद्धि द्वारा अप्राप्ति भी प्राप्ति का अनुभव कराये। जैसे स्थापना के आरम्भ में आसक्ति है वा नहीं, उसकी ट्रायल के लिए बीच-बीच में जानबूझकर प्रोग्राम रखते रहे। जैसे, 15 दिन सिर्फ डोढ़ा और छाछ खिलाई, गेहूँ होते भी यह ट्रायल कराई गई। कैसे भी बीमार 15 दिन इसी भोजन पर चले। कोई भी बीमार नहीं हुआ। दमा की तकलीफ वाले भी ठीक हो गये ना। नशा था कि बापदादा ने प्रोग्राम दिया है! जब भक्ति में कहते हैं विष भी अमृत हो गया', यह तो छाछ थी! निश्चय और नशा हर परिस्थिति में विजयी बना देता है। तो ऐसे पेपर भी आयेंगे - सूखी रोटी भी खानी पड़ेगी। अभी तो साधन हैं। कहेंगे - दांत नहीं चलते, हजम नहीं होता। लेकिन उस समय क्या करेंगे? जब निश्चय, नशा, योग की सिद्धि की शक्ति होती है तो सूखी रोटी भी नर्म रोटी का काम करेगी, परेशान नहीं करेगी। आप सिद्धि-स्वरूप की शान में हो तो कोई भी परेशान नहीं कर सकता है। जब हठयोगियों के आगे शेर भी बिल्ली बन जाता, सांप खिलौना बन जाता, तो आप सहज राजयोगी, सिद्धि-स्वरूप आत्माओं के लिए यह सब कोई बड़ी बात नहीं। है तो आराम से यूज करो लेकिन समय पर धोखा न दे - यह चेक करो। परिस्थिति, स्थिति को नीचे न ले आये। देह के सम्बन्ध से न्यारा होना सहज है लेकिन देह के पदार्थों से न्यारा होना - इसमें बहुत अच्छा अटेन्शन (ध्यान) चाहिए।

(4) पुराने स्वभाव, संस्कार से न्यारा बनना - पुरानी देह के स्वभाव और संस्कार भी बहुत कड़े हैं। मायाजीत बनने में यह भी बड़ा विघ्न-रूप बनते हैं। कई बार बापदादा देखते हैं - पुराने स्वभाव, संस्कार रूपी सांप खत्म भी हो जाता लेकिन लकीर रह जाती जो समय आने पर बार-बार धोखा दे देती। यह कड़े स्वभाव और संस्कार कई बार इतना माया के वशीभूत बना देते हैं जो रांग को रांग समझते ही नहीं। महसूसता-शक्ति' समाप्त हो जाती है। इससे न्यारा होना - इसकी भी चेकिंग अच्छी तरह चाहिए। जब महसूसता-शक्ति समाप्त हो जाती है तो और ही एक झूठ के पीछे हजार झूठ अपनी बात को सिद्ध करने के लिए बोलने पड़ते हैं। इतना परवश हो जाते हैं! अपने को सत्य सिद्ध करना - यह भी पुराने संस्कार के वशीभूत की निशानी है। एक है यथार्थ बात स्पष्ट करना, दूसरा है अपने को जिद्द से सिद्ध करना। तो जिद्द से सिद्ध करने वाले कभी सिद्धिस्व रूप नहीं बन सकते हैं। यह भी चेक करो कि कोई भी पुराना स्वभाव, संस्कार अंश-मात्र भी छिपे हुए रूप में रहा हुआ तो नहीं है? समझा?

इन चार ही बातों से न्यारा जो है उसको कहेंगे बाप का प्यारा, परिवार का प्यारा। ऐसे कमल-आसनधारी बने हो? इसी को ही कहेंगे फॉलो फादर। ब्रह्मा बाप भी कमल-आसनधारी बने तब नम्बरवन बाप के प्यारे बने, ब्राह्मणों के प्यारे बने। चाहे व्यक्त रूप में, चाहे अभी अव्यक्त रूप में। अभी भी हर एक ब्राह्मण के दिल से क्या निकलता है? हमारा ब्रह्मा बाबा। यह नहीं अनुभव करते कि हमने तो साकार में देखा नहीं। लेकिन नयनों से नहीं देखा, दिल से देखा, बुद्धि के दिव्य नेत्रों द्वारा देखा, अनुभव किया। इसलिए, हर ब्राह्मण दिल से कहता - ‘‘मेरा ब्रह्मा बाबा''। यह प्यारेपन की निशानी है। चारों ओर के न्यारेपन ने विश्व का प्यारा बना दिया। तो ऐसे ही चारों ओर के न्यारे और सर्व के प्यारे बनो। समझा?

गुजरात समीप रहता है, तो फॉलो करने में भी समीप है। स्थान और स्थिति दोनों में समीप बनना - यही विशेषता है। बापदादा तो सदा बच्चों को देख हर्षित होते हैं। अच्छा।

चारों ओर के कमल-आसनधारी, न्यारे और बाप के प्यारे बच्चों को, सदा मायाजीत, प्रकृतिजीत विशेष आत्माओं को, सदा फॉलो फादर करने वाले वफादार बच्चों को बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ मुलाकात

मधुबन में आये हुए सेवाधारी भाई बहिनों से - जितना समय मधुबन में सेवा की, उतना समय निरन्तर योग का अनुभव किया? योग टूटा तो नहीं? मधुबन में सेवाधारी बनना अर्थात् निरन्तर योगी, सहजयोगी के अनुभवी बनना। यह थोड़े समय का अनुभव भी सदा याद रहेगा ना। जब भी कोई परिस्थिति आये तो मन से मधुबन में पहुँच जाना। तो मधुबन निवासी बनने से परिस्थिति वा समस्या खत्म हो जायेगी और आप सहजयोगी बन जायेंगे। सदैव अपने इस अनुभव को साथ रखना। तो अनुभव याद करने से शक्ति आ जायेगी। सेवा का मेवा अविनाशी है। अच्छा। यह चांस मिलना भी कम नहीं है, बहुत बड़ा चांस मिला है।

सेवाधारी अर्थात् सदा बाप समान निमित्त बनने वाले, निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सबसे श्रेष्ठ सफलता का साधन है। कोई भी सेवा में सफलता का साधन नम्रता भाव है, निमित्त भाव है। तो इन्हीं विशेषताओं से सेवा की? ऐसी सेवा में सदा सफलता भी है और सदा मौज है। संगमयुग की मौज मनाई, इसलिए सेवा, सेवा नहीं लगी। जैसे कोई मल्लयुद्ध करते हैं तो अपनी मौज से खेल समझकर करते हैं। उसमें थकावट वा दर्द नहीं होता है क्योंकि मनोरंजन समझ करते हैं, मौज मनाने के लिए करते हैं। ऐसे ही अगर सच्चे सेवाधारी की विशेषता से सेवा करते हो तो कभी थकावट नहीं हो सकती। समझा? सदा ऐसे ही लगेगा जैसे सेवा नहीं लेकिन खेल कर रहे हैं। तो कोई भी सेवा मिले, इन दो विशेषताओं से सफलता को पाते रहना। इससे सदा सफलता-स्वरूप बन जायेंगे। अच्छा।

मंजुला बहन का परिवार हंसमुख भाई के निमित्त भोग लगाने मधुबन में आया है। इस श्रेष्ठ स्थान पर आकर अपने को भाग्यशाली आत्मायें समझते हो? इस श्रेष्ठ स्थान पर पहुँचना भी श्रेष्ठ भाग्य है। जैसे भक्ति-मार्ग में कहते हैं कि अगर कोई श्रेष्ठ यात्रा करते हैं तो वह भाग्यवान, पुण्य आत्मा माने जाते हैं। और आप जिस स्थान पर पहुँचे हो, यह सब यात्राओं से महान तीर्थ-स्थान है। तो महा तीर्थस्थान पर आने से सब तीर्थ हो जाते हैं, सब यात्रायें हो जाती हैं। जिसने यह महान यात्रा की, उसने सब यात्रायें कर लीं। तो कितने भाग्यवान हो गये! आपके सब तीर्थ सिद्ध हो गये। और तीर्थ करने की आवश्यकता नहीं रही अगर एक महान तीर्थ कर लिया। यह भाग्य भी क्यों प्राप्त हुआ? किसके निमित्त प्राप्त हुआ? वह (हंसमुख भाई) भाग्यवान आत्मा बनी, इसीलिए आपको भी यह चांस मिला। जैसे बाप से वर्सा मिलता है ना। तो यह लौकिक सो अलौकिक बाप बन गया। तो इस अलौकिक बाप से भी आपको भाग्य का वर्सा मिला। इससे ही समझो कितनी भाग्यवान आत्मा हो! जैसे लौकिक का हिस्सा मिलता है, वैसे यह भाग्य का हिस्सा प्राप्त करने के अधिकारी बने। वर्सा सदैव सहज मिलता है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो आप लोगों को भी यह भाग्य का वर्सा एक भाग्यवान आत्मा के निमित्त सहज ही मिल रहा है। अभी इस प्राप्त हुए भाग्य के आगे सौभाग्यवान भी है, हजार भाग्यवान भी है, तो पद्मापद्म भाग्यवान भी है। अभी क्या बनना है, वह आपके ऊपर है। जो चाहे वह बन सकते हो। उस आत्मा का काम था यहाँ पहुँचाना। भाग्यविधाता की धरनी पर पहुँचे, अब जितनी भाग्य की लकीर खींचने चाहो उतनी खींच सकते हो। सम्पर्क में तो रहे हो, अभी समीप सम्बन्ध में आओ। क्योंकि जो समीप सम्बन्धी होता है उसकी प्राप्ति भी इतनी ही होती है। तो बहुत अच्छा किया जो ड्रामा में यह श्रेष्ठ नूँध, नूँध ली। अच्छा।

मंजुला बहन से - विजयी बनने के मेहनती नहीं, अनेक बार की विजयी हैं और विजयी रही, आगे भी विजय का झण्डा सदा ही बुलन्द है। विजय का तिलक सदा मस्तक पर चमक रहा है। तो सदा तिलकधारी हैं, सदा बाप के दिलतख्तनशीन हैं। तो मुश्किल लगा? इसको कहते हैं पास विद् ऑनर। पेपर में पास विद् ऑनर हो गई। संकल्प भी नहीं आया - क्या हो गया! बिंदी लगा देना - यह पास विद् ऑनर की निशानी है। तो पास विद् ऑनर की लाइन में आ गई। वैसे भी न्यारी और बाप की प्यारी रही, इसलिए यह न्यारापन समय पर एक लिफ्ट बन गया। बापदादा बच्ची की विजय पर खुश हैं। विजयी होने के कारण उस आत्मा के संस्कार को भी प्रत्यक्ष रूप में लाने के निमित्त बनी। सेवा के संस्कार उसके रहे लेकिन उस संस्कार को प्रत्यक्ष रूप में लाने के निमित्त आप बनी। इसलिए अनेक आत्माओं की सेवा का पुण्य जमा हो गया। उस आत्मा को भी यह विशेष आशीर्वाद सेवा की प्राप्त है। इसलिए सेवा में थे, सेवा में हैं और सदा सेवा में ही रहेंगे। अच्छा।

अलग-अलग ग्रुप से - सच्ची तपस्या सदा के लिए सच्चा सोना बना देती है जिसमें जरा भी मिक्स (मिलावट) नहीं। तपस्या सदा हर एक को ऐसा योग्य बनाती है जो प्रवृत्ति में भी सफल और प्रालब्ध प्राप्त करने में भी सफल। ऐसे तपस्वी बने हो? तपस्या करने वालों को राजयोगी कहते हैं। तो आप सभी राजयोगी हो। कभी किसी भी परिस्थिति से विचलित होने वाले तो नहीं? तो सदा अपने को इसी रीति से चेक करो और चेक करने के बाद चेंज करो। सिर्फ चेक करने से भी दिलशिकस्त हो जायेंगे, सोचेंगे कि हमारे में यह भी कमी है, यह भी है, पता नहीं ठीक होगा या नहीं। तो चेक भी करो और चेक के साथ चेन्ज भी करो। समझो, कमज़ोर बन गये, समय चला गया। लेकिन समय प्रमाण कर्त्तव्य करने वालों की सदा विजय होती है। तो सभी सदा विजयी, श्रेष्ठ आत्मायें हो? सभी श्रेष्ठ हो या नम्बरवार? अगर नम्बर पूछें कि किस नम्बर वाले हो तो सब नम्बरवन कहेंगे। लेकिन वह नम्बर कितने होंगे? एक या अनेक? फर्स्ट नम्बर तो सब नहीं बनेंगे लेकिन फर्स्ट डिवीजन में तो आ सकते हैं। फर्स्ट नम्बर एक होगा लेकिन फर्स्ट डिवीजन में तो बहुत आयेंगे। इसलिए फर्स्ट नम्बर बन सकते हो। राजगद्दी पर एक बैठेगा लेकिन और भी साथी तो होंगे ना। तो रॉयल फैमिली में आना भी राज्य अधिकारी बनना है। तो फर्स्ट डिवीजन अर्थात् नम्बरवन में आने का पुरूषार्थ करो। अभी तक कोई भी सीट सिवाए दो-तीन के फिक्स नहीं हुई है। अभी जो चाहे, जितना पुरूषार्थ करना चाहे कर सकता है। बापदादा ने सुनाया था कि अभी लेट हुई है लेकिन टूलेट नहीं हुई है। इसलिए सभी को आगे बढ़ने का चांस है। विन कर वन में आने का चांस है। तो सदैव उमंग-उत्साह रहे। ऐसे नहीं - चलो कोई भी नम्बरवन बने, मैं नम्बर दो ही सही। इसको कहते हैं कमज़ोर पुरूषार्थ। आप सभी तो तीव्र पुरूषार्थी हो ना? अच्छा।