06-12-87   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सिद्धि का आधार - श्रेष्ठ वृत्ति'

स्व परिवर्तन में पहले मैं' और सेवा में पहले आप' करने वाले - ऐसे होलीहंस ब्राह्मण आत्माओं प्रति अव्यक्त बापदादा बोले

आज बापदादा अपने चारों ओर के होलीहंसों की सभा को देख रहे हैं। हर एक होलीहंस अपनी श्रेष्ठ स्थिति के आसन पर विराजमान है। सभी आसनधारी होलीहंसों की सभा सारे कल्प में अलौकिक और न्यारी है। हर एक होलीहंस अपनी विशेषताओं से अति सुन्दर सजा हुआ है। विशेषतायें श्रेष्ठ शृंगार हैं। सजे सजाये होलीहंस कितने प्यारे लगते हैं? बापदादा हर एक की विशेषताओं का शृंगार देख हर्षित होते हैं। शृंगारे हुए सभी हैं। क्योंकि बापदादा ने ब्राह्मण जन्म देते ही बचपन से ही विशेष आत्मा भव' का वरदान दिया। नम्बरवार होते भी लास्ट नम्बर भी विशेष आत्मा है। ब्राह्मण जीवन में आना अर्थात् विशेष आत्मा में आ ही गये। ब्राह्मण परिवार में चाहे लास्ट नम्बर हो लेकिन विश्व की अनेक आत्माओं के अन्तर में वह भी विशेष गाये जाते। इसलिएकोटों में कोई, कोई में भी कोई' गाया हुआ है। तो ब्राह्मणों की सभा अर्थात् विशेष आत्माओं की सभा।

आज बापदादा देख रहे थे कि विशेषताओं का श्रृंगार बाप ने तो सभी को समान एक जैसा ही कराया है लेकिन कोई उस श्रृंगार को धारण कर समय प्रमाण कार्य में लगाते हैं और कोई वा तो धारण नहीं कर सकते वा कोई समय प्रमाण कार्य में नहीं लगा सकते। जैसे आजकल की रॉयल फैमिली वाले समय प्रमाण श्रृंगार करते हैं तो कितना अच्छा लगता है! जैसा समय वैसा श्रृंगार, इसको कहा जाता है - नॉलेजफुल'। आजकल शृंगार के अलग-अलग सेट रखते हैं ना। तो बापदादा ने अनेक विशेषताओं के, अनेक श्रेष्ठ गुणों के कितने वैराइटी सेट दिये हैं! चाहे कितना भी अमूल्य शृंगार हो लेकिन समय प्रमाण अगर नहीं हो तो क्या लगेगा? ऐसे विशेषताओं के, गुणों के, शक्तियों के, ज्ञान के रत्नों के अनेक शृंगार बाप ने सभी को दिये हैं लेकिन नम्बर बन जाते हैं - समय पर कार्य में लगाने के। भल यह सब शृंगार हैं भी लेकिन हर एक विशेषता वा गुण का महत्त्व समय पर होता है। होते हुए भी समय पर कार्य में नहीं लगाते तो अमूल्य होते हुए भी उसका मूल्य नहीं होता। जिस समय जो विशेषता धारण करने का कार्य है उसी विशेषता का ही मूल्य है। जैसे हंस कंकड़ और रत्न - दोनों को परख अलग-अलग कर रत्न धारण करता है। कंकड़ को छोड़ देता है, बाकी रत्न-मोती धारण करता है। ऐसे होलीहंस अर्थात् समय प्रमाण विशेषता वा गुण को परख कर वही समय पर यूज करे। इसको कहते हैं - परखने की शक्ति, निर्णय करने की शक्ति वाला होलीहंस। तो परखना और निर्णय करना - यही दोनों शक्तियां नम्बर आगे ले जाती हैं। जब यह दोनों शक्तियाँ धारण हो जाती तब समय प्रमाण उसी विशेषता से कार्य ले सकते। तो हर एक होलीहंस अपनी इन दोनों शक्तियों को चेक करो। दोनों शक्तियां समय पर धोखा तो नहीं देती? समय बीत जाने के बाद अगर परख भी लिया, निर्णय कर भी लिया लेकिन समय तो वह बीत गया ना। जो नम्बरवन होलीहंस हैं, उन्हों की यह दोनों शक्तियाँ सदा समय प्रमाण कार्य करती हैं। अगर समय के बाद यह शक्तियाँ कार्य करती तो सेकण्ड नम्बर में आ जाते! थर्ड नम्बर की तो बात ही छोड़ो। और समय पर वही हंस कार्य कर सकता जिसकी सदा बुद्धि होली (Holy) है।

होली का अर्थ सुनाया था ना। एक होली अर्थात् पवित्र और हिन्दी में होली अर्थात् बीती सो बीती। तो जिनकी बुद्धि होली अर्थात् स्वच्छ है और सदा ही जो सेकण्ड, जो परिस्थिति बीत गई वह हो ली - यह अभ्यास है, ऐसी बुद्धि वाले सदा होली अर्थात् रूहानी रंग में रंगे हुए रहते हैं, सदा ही बाप के संग के रंग में रंगे हुए हैं। तो एक ही होली शब्द तीन रूप से यूज होता है। जिसमें यह तीनों ही अर्थ की विशेषतायें हैं अर्थात् जिन हंसों को यह विधि आती है, वह हर समय सिद्धि को प्राप्त होते हैं। तो आज बापदादा होलीहंसों की सभा में सभी होलीहंसों की यह विशेषता देख रहे हैं। चाहे स्थूल कार्य अथवा रूहानी कार्य हो लेकिन दोनों में सफलता का आधार परखने और निर्णय करने की शक्ति है। किसी के भी सम्पर्क में आते हो, जब तक उसके भाव और भावना को परख नहीं सकते और परखने के बाद यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते, तो दोनों कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती - चाहे व्यक्ति हो वा परिस्थिति हो। क्योंकि व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी आना पड़ता है और परिस्थितियों को भी पार करना पड़ता है। जीवन में यह दोनों ही बातें आती हैं। तो नम्बरवन होलीहंस अर्थात् दोनों विशेषताओं में सम्पन्न। यह हुआ आज की इस सभा का समाचार। यह सभा अर्थात् सिर्फ सामने बैठे हुए नहीं। बापदादा के सामने तो आपके साथ-साथ चारों ओर के बच्चे भी इमर्ज होते हैं। बेहद के परिवार के बीच बापदादा मिलन मनाते वा रूहरिहान करते हैं। सभी ब्राह्मण आत्मायें अपने याद की शक्ति से स्वयं भी मधुबन में हाजर होती हैं। और बापदादा यह भी विशेष बात देख रहे हैं कि हर एक बच्चे के विधि की लाइन और सिद्धि की लाइन, यह दोनों रेखायें कितना स्पष्ट हैं, आदि से अब तक विधि कैसी रही है और विधि के फलस्वरूप सिद्धि कितनी प्राप्त की है, दोनों रेखायें कितनी स्पष्ट हैं और कितनी लम्बी अर्थात् विधि और सिद्धि का खाता कितना यथार्थ रूप से जमा है? विधि का आधार है -श्रेष्ठ वृत्ति'। अगर श्रेष्ठ वृत्ति है तो यथार्थ विधि भी है और यथार्थ विधि है तो सिद्धि श्रेष्ठ है ही है। तो विधि और सिद्धि का बीज वृत्ति' है। श्रेष्ठ वृत्ति सदा भाई-भाई की आत्मिक वृत्ति हो। यह तो मुख्य बात है ही लेकिन साथ-साथ सम्पर्क में आते हर आत्मा के प्रति कल्याण की, स्नेह की, सहयोग की, नि:स्वार्थपन की निर्विकल्प वृत्ति हो, निरव्यर्थ-संकल्प वृत्ति हो। कई बार किसी भी आत्मा के प्रति व्यर्थ संकल्प वा विकल्प की वृत्ति होती है तो जैसी वृत्ति, वैसी दृष्टि और वैसे ही उस आत्मा के कर्त्तव्य, कर्म की सृष्टि दिखाई देगी। कभी-कभी बच्चों का सुनते भी हैं और देखते भी हैं। वृत्ति के कारण वर्णन भी करते हैं, चाहे वह कितना भी अच्छा कार्य करे लेकिन वृत्ति व्यर्थ होने के कारण सदा ही उस आत्मा के प्रति वाणी भी ऐसी ही निकलती कि यह तो है ही ऐसा, होता ही ऐसा है। तो यह वृत्ति, उनके कर्म रूपी सृष्टि वैसी ही अनुभव कराती है। जैसे आप लोग इस दुनिया में आंखों की नजर के चश्मे का दृष्टान्त देते हैं; जिस रंग का चश्मा पहनेंगे वही दिखाई देगा। ऐसे यह जैसी वृत्ति होती है, तो वृत्ति दृष्टि को बदलती है, दृष्टि - सृष्टि को बदलती है। अगर वृत्ति का बीज सदा ही श्रेष्ठ है तो विधि और सिद्धि सफलतापूर्वक है ही। तो पहले वृत्ति के फाउन्डेशन को चेक करो। उसको श्रेष्ठ वृत्ति कहा जाता है। अगर किसी सम्बन्ध-सम्पर्क में श्रेष्ठ वृत्ति के बजाए मिक्स है तो भल कितनी भी विधि अपनाओ लेकिन सिद्धि नहीं होगी। क्योंकि बीज है वृत्ति और वृक्ष है विधि और फल है सिद्धि। अगर बीज कमज़ोर है तो फल चाहे कितना भी विस्तार वाला हो लेकिन सिद्धि रूपी फल नहीं होगा। इसी वृत्ति और विधि के ऊपर बापदादा बच्चों के प्रति एक विशेष रूह-रूहान कर रहे थे।

स्व-उन्नति के प्रति वा सेवा की सफलता के प्रति एक रमणीक स्लोगन रूह-रूहान में बता रहे थे। आप सी यह स्लोगन एक दो में कहते भी होद्य हर कार्य में पहले आप' - यह स्लोगन याद है ना? एक है पहले आप', दूसरा हैपहले मैं'। दोनों स्लोगन पहले आप' और पहले मैं' - दोनों आवश्यक हैं। लेकिन बापदादा रूह-रूहान करते मुस्करा रहे थे। जहाँ पहले मैं' होना चाहिए वहाँ पहले आप' कर देते, जहाँ पहले आप' करना चाहिए वहाँ पहले मैं' कर देते। बदली कर देते हैं। जब कोई स्व-परिवर्तन की बात आती है तो कहते होपहले आप', यह बदले तो मैं बदलूँ। तो पहले आप हुआ ना। और जब कोई सेवा का या कोई ऐसी परिस्थिति को सामना करने का चांस बनता है तो कोशिश करते हैं - पहले मैं, मैं भी तो कुछ हूँ, मुझे भी कुछ मिलना चाहिए। तो जहाँपहले आप' कहना चाहिए, वहाँ मैं' कह देते। सदा स्वमान में स्थित हो दूसरे को स्वमान देना अर्थात् पहले आप' करना। सिर्फ मुख से कहो पहले आप' और कर्म में अन्तर हो - यह नहीं। स्वमान में स्थित हो स्वमान देना है। स्वमान देना वा स्वमान में स्थित होना, उसकी निशानी क्या होगी? उसमें दो बातें सदा चेक करो –

एक होती है अभिमान की वृत्ति, दूसरी है अपमान की वृत्ति। जो स्वमान में स्थित होता है और दूसरे को स्वमान देने वाला दाता होता, उसमें यह दोनों वृत्ति नहीं होगी - न अभिमान की, न अपमान की। यह तो करता ही ऐसा है, यह होता ही ऐसा है, तो यह भी रॉयल रूप का उस आत्मा का अपमान है। स्वमान में स्थित होकर स्वमान देना इसको कहते हैं पहले आप' करना। समझा? और जो भी स्व-उन्नति की बात हो उसमें सदा पहले मैं' का स्लोगन याद हो तो क्या रिजल्ट होगी? पहले मैं अर्थात् जो ओटे सो अर्जुन'। अर्जुन अर्थात् विशेष आत्मा, न्यारी आत्मा, अलौकिक आत्मा, अलौकिक विशेष आत्मा। जैसे ब्रह्मा बाप सदा पहले मैं' के स्लोगन से जो ओटे सो अर्जुन बना ना, अर्थात् नम्बरवन आत्मा। नम्बरवन का सुनाया - नम्बरवन डिवीजन। वैसे नम्बरवन तो एक ही होगा ना। तो स्लोगन हैं दोनों जरूरी। लेकिन सुनाया ना - नम्बर किस आधार पर बनते। जो समय प्रमाण कोई भी विशेषता को कार्य में नहीं लगाते तो नम्बर आगे पिछे हो जाता। समय पर जो कार्य में लगाता है, वह विन करता है अर्थात् वन हो जाता। तो यह चेक करो। क्योंकि इस वर्ष स्व की चेकिंग की बातें सुना रहे हैं। भिन्न-भिन्न बातें सुनाई हैं ना? तो आज इन बातों को चेक करना - आप' के बजाए मैं', ‘मैं' के बजाए आप' तो नहीं कर देते हो? इसको कहते हैं यथार्थ विधि। जहाँ यथार्थ विधि है वहाँ सिद्धि है ही। और इस वृत्ति की विधि सुनाई। दो बातों की चेकिंग करना - न अभिमान की वृत्ति हो, न अपमान की। जहाँ यह दोनों की अप्राप्ति है वहाँ ही स्वमान' की प्राप्ति है। आप कहो न कहो, सोचो न सोचो लेकिन व्यक्ति, प्रकृति - दोनों ही सदा स्वत: ही स्वमान देते रहेंगे। संकल्प-मात्र भी स्वमान के प्राप्ति की इच्छा से स्वमान नहीं मिलेगा। निर्मीण बनना अर्थात् पहले आप' कहना। निर्मीन स्थिति स्वत: ही स्वमान दिलायेगी। स्वमान की परिस्थितियों में पहले आप' कहना अर्थात् बाप समान बनना। जैसे ब्रह्मा बाप ने सदा ही स्वमान देने में पहले जगत् अम्बा पहले सरस्वती माँ, पीछे ब्रह्मा बाप रखा। ब्रह्मा माता होते हुए भी स्वमान देन्ो के अर्थ जगत् अम्बा माँ को आगे रखा। हर कार्य में बच्चों को आगे रखा और पुरूषार्थ की स्थिति में सदा स्वयं को पहले मैं' इंजन के रूप में देखा। इंजन आगे होता है ना। सदा यह साकार जीवन में देखा कि जो मैं करूँगा मुझे देख सभी करेंगे। तो विधि, में, स्व-उन्नति में वा तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में सदा पहले मैं' रखा। तो आज विधि और सिद्धि की रेखायें चेक कर रहे थे। समझा? तो बदली नहीं कर देना। यह बदली करना माना भाग्य को बदली करना। सदा होलीहंस बन निर्णय शक्ति, परखने की शक्ति को समय पर कार्य में लगाने वाले विशाल बुद्धि बनो और सदा वृत्ति रूपी बीज को श्रेष्ठ बनाए विधि और सिद्धि सदा श्रेष्ठ अनुभव करते चलो।

पहले भी सुनाया था कि बापदादा का बच्चों से स्नेह है। स्नेह की निशानी क्या होती है? स्नेह वाला स्नेही की कमी को देख नहीं सकता, सदा स्वयं को और स्नेही आत्मा को सम्पन्न समान देखना चाहता है। समझा? तो बार-बार अटेन्शन खिंचवाते, चेकिंग कराते - यही सम्पन्न बनाने का सच्चा स्नेह है। अच्छा –

अभी सब तरफ से पुराने बच्चे मैजारिटी में हैं। पुराना किसको कहते हैं, अर्थ जानते हो ना? बापदादा पुरानों को कहते हैं - सब बातों में पक्के। पुराने अर्थात् पक्के। अनुभव भी पक्का बनाता है। ऐसा कच्चा नहीं जो जरा-सी माया बिल्ली आवे और घबरा जावें। सभी पुराने - पक्के आये हो ना? मिलने का चांस लेने के लिए सभी पहले मैं' किया तो कोई हर्जा नहीं। लेकिन हर कार्य में कायदा और फायदा तो है ही। ऐसे भी नहीं पहले मैं' तो इसका मतलब एक हजार आ जाएं। साकार सृष्टि में कायदा भी है, फायदा भी है। अव्यक्त वतन में कायदे की बात नहीं, कायदा बनाना नहीं पड़ता। अव्यक्त मिलन के लिए मेहनत लगती है, साकार मिलन सहज लगता है। इसलिए भाग आते हो। लेकिन समय प्रमाण जितना कायदा उतना फायदा होता है। बापदादा थोड़ा भी ईशारा देते हैं तो समझते हैं - अब पता नहीं क्या होने वाला है? अगर कुछ होना भी होगा तो बताकर नहीं होगा। साकार बाप अव्यक्त हुए तो बताकर गये क्या? जो अचानक होता है वह अलौकिक प्यारा होता है। इसलिए बापदादा कहते हैं सदा एवररेडी रहो। जो होगा वह अच्छे ते अच्छा होगा। समझा? अच्छा –

सर्व होलीहंसों को, सर्व विशाल बुद्धि, श्रेष्ठ स्वच्छ बुद्धि धारण करने वाले बुद्धिवान बच्चों को, सर्व शक्तियों को, सर्व विशेषताओं को समय प्रमाण कार्य में लाने वाले ज्ञानी तू आत्मायें, योगी तू आत्मायें बच्चों को, सदा बाप समान बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाले सम्पन्न बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पार्टियों से मुलाकात

(1) सदा अपने को समर्थ बाप के समर्थ बच्चे अनुभव करते हो? कभी समर्थ, कभी कमज़ोर - ऐसे तो नहीं? समर्थ अर्थात् सदा विजयी। समर्थ की कभी हार नहीं हो सकती। स्वप्न में भी हार नहीं हो सकती। स्वप्न, संकल्प और कर्म सबमें सदा विजयी - इसको कहते हैं समर्थ'। ऐसे समर्थ हो? क्योंकि जो अब के विजयी हैं, बहुतकाल से वही विजय माला में गायन-पूजन योग्य बनते हैं। अगर बहुतकाल के विजयी नहीं, समर्थ नहीं तो बहुतकाल के गायन-पूजन योग्य नहीं बनते हैं। जो सदा और बहुत काल विजयी हैं, वही बहुत समय विजय माला में गायन-पूजन में आते हैं और जो कभी-कभी के विजयी हैं, वह कभी-कभी की अर्थात् 16 हजार की माला में आयेंगे। तो बहुतकाल का हिसाब है और सदा का हिसाब है। 16 हजार की माला सभी मन्दिरों में नहीं होती, कहाँ-कहाँ होती है।

(2) सभी अपने को इस विशाल ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी आत्मायें अनुभव करते हो? आप सबका हीरो पार्ट है। हीरो पार्टधारी क्यों बने? क्योंकि जो ऊंचे ते ऊंचा बाप जीरो है - उसके साथ पार्ट बजाने वाले हो। आप भी जीरो अर्थात् बिन्दी हो। लेकिन आप शरीरधारी बनते हो और बाप सदा जीरो है। तो जीरो के साथ पार्ट बजाने वाले हीरो एक्टर हैं - यह स्मृति रहे तो सदा ही यथार्थ पार्ट बजायेंगे, स्वत: ही अटेन्शन जायेगा। जैसे हद के ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी को कितना अटेन्शन रहता है! सबसे बड़े ते बड़ा हीरो पार्ट आप सबका है। सदा इस नशे और खुशी में रहो - वाह, मेरा हीरो पार्ट जो सारे विश्व की आत्मायें बार-बार हेयर-हेयर करती हैं! यह द्वापर से जो कीर्तन करते हैं यह आपके इस समय के हीरो पार्ट का ही यादगार है। कितना अच्छा यादगार बना हुआ है! आप स्वयं हीरो बने हो तब आपके पीछे अब तक भी आपका गायन चलता रहता है। अन्तिम जन्म में भी अपना गायन सुन रहे हैं। गोपीवल्लभ का भी गायन है तो ग्वाल बाप का भी गायन है, गोपिकाओं का भी गायन है। बाप का शिव के रूप में गायन है तो बच्चों का शक्तियों के रूप में गायन है। तो सदा हीरो पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं - इसी स्मृति में खुशी में आगे बढ़ते चलो।

कुमारों से

(1) सहजयोगी कुमार हो ना? निरन्तर योगी कुमार, कर्मयोगी कुमार। क्योंकि कुमार जितना अपने को आगे बढ़ाने चाहें उतना बढ़ा सकते हैं। क्यों? निर्बन्धन है, बोझ नहीं हैं और जिम्मेवारी नहीं है इसलिए हल्के हैं। हल्के होने के कारण जितना ऊँचा जाना चाहे जा सकते हैं। निरन्तर योगी, सहज योगी - यह है ऊँची स्थिति, यह है ऊंचा जाना। ऐसे ऊँच स्थिति वाले को कहते हैं -विजयी कुमार'। विजयी हो या कभी हार, कभी जीत - यह खेल तो नहीं खेलते हो? अगर कभी हार कभी जीत के संस्कार होंगे तो एकरस स्थिति का अनुभव नहीं होगा। एक की लग्न में मग्न रहने का अनुभव नहीं करेंगे।

(2) सदा हर कर्म में कमाल करने वाले कुमार हो ना? कोई भी कर्म साधारण नहीं हो, कमाल का हो। जैसे बाप की महिमा करते हो, बाप की कमाल गाते हो। ऐसे कुमार अर्थात् हर कर्म में कमाल दिखाने वाले। कभी कैसे, कभी कैसे वाले नहीं। ऐसे नहीं आजहाँ कोई खींचे वहाँ खिंच जाओ। लुढ़कने वाले लोटे नहीं। कभी कहाँ लुढ़क जाओ, कभी कहाँ। ऐसे नहीं। कमाल करने वाले बनो। अविनाशी हैं, अविनाशी बनाने वाले हैं - ऐसे चैलेन्ज करने वाले बनो। ऐसी कमाल करके दिखाओ जो हरेक कुमार चलता-फिरता फरिश्ता हो, दूर से ही फरिश्तेपन की झलक अनुभव हो। वाणी से सेवा के प्रोग्राम तो बहुत बना लिये, वह तो करेंगे ही लेकिन आजकल प्रत्यक्ष प्रूफ चाहते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण, सबसे श्रेष्ठ प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण इतने हो जाएं तो सहज सेवा हो जायेगी। फरिश्तेपन की सेवा करो तो मेहनत कम सफलता ज्यादा होगी। सिर्फ वाणी से सेवा नहीं करो लेकिन मन वाणी और कर्म तीनों से साथ-साथ सेवा हो - इसको कहते हैं कमाल'। अच्छा –

विदाई के समय

चारों ओर के तीव्र पुरूषार्थी, सदा सेवाधारी, सदा डबल लाइट बन औरों को भी डबल लाइट बनाने वाले, सफलता को अधिकार से प्राप्त करने वाले, सदा बाप समान आगे बढ़ने वाले और औरों को भी आगे बढ़ाने वाले, ऐसे सदा उमंग-उत्साह में रहने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, स्नेही बच्चों को बापदादा का बहुत-बहुत सिक व प्रेम से यादप्यार और गुडमोर्निंग।