13-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिव्य ब्राह्मण जन्म के भाग्य की रेखाएँ
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज विश्व रचयिता बापदादा अपने विश्व की सर्व मनुष्य-आत्माओं रूपी बच्चों को देख रहे हैं। सर्व आत्माओं में अर्थात् सर्व बच्चों में दो प्रकार के बच्चे हैं। एक हैं बाप को पहचानने वाले और दूसरे हैं पुकारने वाले वा परखने के प्रयत्न करने वाले। लेकिन हैं सभी बच्चे। तो आज दोनों प्रकार के बच्चों को देख रहे थे। सर्व बच्चों में से पहचानने वाले वा प्राप्त करने वाले बच्चे बहुत थोड़े हैं और पहचान करने के प्रयत्न वाले अनेक हैं। पहचानने वाले बच्चों के मस्तक पर श्रेष्ठ भाग्य की लकीर चमक रही है। सबसे श्रेष्ठ भाग्य की लकीर है - बाप द्वारा दिव्य ब्राह्मण जन्म की। दिव्य जन्म की रेखा अति श्रेष्ठ चमक रही है। पुकारने वाले बच्चे अंजाने भी मानते यही हैं कि भगवान ने हमें रचा है लेकिन अंजान होने कारण दिव्य जन्म की अनुभूति नहीं कर सकते। आप भी कहते हो - हमें बापदादा ने दिव्य जन्म दिया, वह भी कहते - भगवान ने रचा, भगवान ही रचता है, भगवान ही पालनहार है। लेकिन दोनों के कहने में कितना अंतर है!
आप अनुभव से, नशे से, नॉलेज से कहते हो कि हमको बापदादा, मात-पिता ने रचा अर्थात् ब्राह्मण जन्म दिया। रचता को, जन्म को, जन्मपत्री को, दिव्य जन्म की विधि और सिद्धि - सबको जानते हो। हर एक को अपना दिव्य जन्म का बर्थ-डे याद है ना? इस दिव्य जन्म की विशेषता कौन-सी है? साधारण जन्मधारी आत्माएं अपना बर्थ-डे अलग मनातीं, फ्रैड्स-डे अलग मनातीं, पढाई का दिन अलग मनातीं और आप क्या कहेंगे? आपका बर्थ-डे भी वही है तो मैरेज-डे, पढ़ाई का दिन भी वही है। मदर-डे कहो, फादर-डे कहो, इंगेजमेंट- डे कहो - सब एक ही है। ऐसा दिव्य जन्म कब सुना? सारे कल्प में ऐसा दिन आप आत्माओं का फिर कभी भी नहीं आता। सतयुग में भी बर्थ-डे और मैरेज-डे एक ही नहीं होगा। लेकिन इस संगमयुग के इस महान जन्म की यह विशेषता भी है और विचित्रता भी है। वैसे तो जिस दिन ब्राह्मण बने वही जन्मदिन, वही मैरेज-दिन है। क्योंकि सभी यही वायदा करते हो - ‘एक बाप दूसरा न कोई'। यह दृढ़ संकल्प पहले ही करते हो ना। तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से सर्व सम्बन्ध निभाऊं - यह सबने वायदा किया ना। पांडवों ने, माताओं ने, कुमारियों ने सभी ने वायदा किया है। तो और कहाँ स्वप्न में भी मन नहीं जा सकता। ऐसे पक्के हो ना वा कोई साथी चाहिए? सेवा के लिए कोई विशेष साथी चाहिए?
तो साथी-दिवस किसका मनायेंगे? सेवाधारी साथी का वा बाप साथी है उसका दिवस मनायेंगे? चाहे सर्विस करने वाले हैं, चाहे सर्विस लेने वाले हैं लेकिन सेवा के समय सेवा की, फिर इतने न्यारे और प्यारे बनो जो जरा भी विशेष झुकाव नहीं हो। जो सेवा में मदद करेगा वह विशेष होगा ना! चाहे भाई हो वा बहन हो, जो विशेष सेवा करता वह विशेष अधिकार भी रखेगा! तो सेवा के साक्षी बनो लेकिन साक्षी हो के साथी बनो। साक्षीपन भूल जाता है तो सिर्फ साथी बनने में बाप भूल जाता है। साक्षी बन पार्ट बजाने की प्रैक्टिस करो।
हर बच्चे के मस्तक पर विशेष 4 भाग्य की लकीरें चमकती हैं। (1) दिव्य जन्म की रेखा, (2) परमात्म-पालना की रेखा, (3) परमात्म पढ़ाई की रेखा और (4) निःस्वार्थ सेवा की रेखा। सभी के मस्तक में चारों ही भाग्य की रेखाएं चमक रही हैं। लेकिन चमक में और सदा एकरस वृद्धि को प्राप्त करने में फर्क होने कारण चमक में अंतर दिखाई देता है। आदि से अब तक चारों ही रेखाएं सदा यथार्थ रूप से चलती रहें, वह बहुत थोड़ों की हैं। बीच-बीच में कोई-न-कोई बात में भाग्य की लकीर या तो खंडित होती है वा चमक कम होती है, स्पष्ट नहीं होती। जैसे हस्त-रेखाएं भी देखते हैं ना - कोई की खण्डित होती, कोई की एकरस होती हैं, कोई की स्पष्ट होती हैं, कोई की स्पष्ट नहीं होती। बापदादा भी बच्चों के भाग्य की रेखा को देखते रहते हैं। दिव्य जन्म तो सभी ने लिया लेकिन दिव्य जन्म की रेखा खण्डित होती वा स्पष्ट नहीं होती। क्योंकि अपने जन्म के धर्म में अखण्ड नहीं चलता तो उनके भाग्य की लकीर खण्डित होती। धर्म क्या है, कर्म क्या है - उसको तो जानते हो ना। ऐसे ही परमात्म-पालना में तो सभी ब्राह्मण चल रहे हो। चाहे समार्पित हो, चाहे प्रवृत्ति में हो लेकिन बाप के डायरेक्शन से चल रहे हो। प्रवृत्ति वाले क्या कहेंगे? अपना कमाया हुआ खाते हो वा बाप का खाते हो? बाप का खाते हैं ना। क्योंकि अपना सब-कुछ बाप को दे दिया तो बाप का ही हुआ ना! चाहे कमाते भी हो लेकिन कमाया हुआ धन बाप के हवाले करते हो या अपने काम में लगाते हो? ट्रस्टी हो ना? ट्रस्टी का अपना कुछ नहीं रहता। गृहस्थी में अपना-पन होता है, ट्रस्टी अर्थात् सब बाप का है। अपने हाथ से खाना बनाते हो तो भी समझते हो ना - ब्रह्मा भोजन खा रहे हैं। पहले भोग किसको लगाते हो? बाप को अर्पण करते हो ना? अर्पण करना अर्थात् बाप का खाना। ब्रह्मा भोजन खाते हो। चाहे बच्चों के अर्थ भी लगाते हो वह भी डायरेक्शन अनुसार लगाते हो। जैसे समार्पित बहनें वा भाई भिन्न-भिन्न कार्य में तन-मन भी लगाते तो धन भी लगाते हैं। ऐसे प्रवृत्ति में रहने वाले भी चाहे तन लगाते चाहे धन लगाते - बाप की श्रीमत प्रमाण ही अमानत समझ कार्य में लगाते हो - ऐसे करते हो ना? अमानत में ख्यानत अथवा मनमत तो नहीं मिलाते हो ना। तो परमात्म-पालना सब ब्राह्मण आत्माओं को मिल रही है। पालना की जाती है शक्तिशाली बनाने के लिए। माता की पालना का प्रत्यक्ष रूप क्या होता? बच्चा शक्तिशाली बनता है। तो ब्रह्मा-माँ की पालना द्वारा सभी मास्टर सर्वशक्तिवान बने हो। लेकिन कोई बच्चे सदा शक्तियों को कार्य में लगाते और कोई बच्चे प्राप्त शक्तियों को अर्थात् पालना को कार्य में नहीं लगाते अर्थात् पालना को प्रैक्टिकल में नहीं लाते। इसलिए श्रेष्ठ पालना मिलते हुए भी कमज़ोर रह जाते हैं और भाग्य की लकीर खण्डित हो जाती है।
ऐसे ही पढ़ाई की लकीर - पढ़ाई का एम आब्जेक्ट ही है श्रेष्ठ पद को प्राप्त करना। शिक्षक बाप पढ़ाई सबको एक ही पढ़ाता, एक ही समय पर पढ़ाता। लेकिन जो श्रेष्ठ ब्राह्मण-जीवन का वा पढ़ाई का पद अथवा नशा है वह सबको एक जैसा नहीं रहता। फरिश्ता सो देवता स्टेटस् को सदा स्मृति में नहीं रखते, इसलिए भाग्य की लकीर में अंतर पड़ जाता है।
ऐसे ही सेवा की लकीर - सेवा की विशेषता है जो ब्रह्मा बाप ने साकार रूप में अंतिम वरदान रूप में स्मृति दिलाई - ‘निराकारी, निर्विकारी और निरअहंकारी'। निराकारी स्थिति में स्थित होने के बिना किसी भी आत्मा को सेवा का फल नहीं दे सकते। क्योंकि आत्मा का तीर आत्मा को लगता है। स्वयं सदा इस स्थिति में स्थित नहीं हैं तो जिनकी सेवा करते वह भी सदा स्मृतिस्वरूप नहीं बन सकते। ऐसे ही निर्विकारी - कोई भी विकार का अंश अन्य आत्मा के शूद्र वंश को परिवर्तन कर ब्राह्मण वंशी नहीं बना सकता। उस आत्मा को भी मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए मुहब्बत का फल सदा अनुभव नहीं कर सकते। निरअहंकारी सेवा का अर्थ ही है फलस्वरूप बन झुकना। बिना निर्मान के निर्माण अर्थात् सेवा में सफलता नहीं मिल सकती। तो निराकारी, निर्विकारी, निरअहंकारी - इन तीनों वरदानों को सदा सेवा में प्रैक्टिकल में लाना। इसको कहते हैं - अखण्ड भाग्य की रेखा। अब चारों ही भाग्य की रेखाओं को चेक करो कि अखण्ड हैं या खण्डित हैं, स्पष्ट हैं या अस्पष्ट हैं? कोटो में तो बन गये हैं लेकिन बनना है कोई में भी कोई। जो कोई में कोई होगा वही अब सर्व का माननीय और भविष्य में पूजनीय बनता है। जो अखण्ड भाग्य के लकीरवान हैं उसकी निशानी है- वह अब भी सर्व ब्राह्मण-परिवार का प्यारा होगा। माननीय होने के कारण सर्व की दुआयें, श्रेष्ठ आत्माओं के भाग्य की लकीर को चमकाती रहती। तो अपने आपसे पूछो - मैं कौन? तो सुना, आज क्या देखा!
दुनिया वाले कहते हैं पालनहार है, जन्मदाता है। लेकिन जन्मदाता का परिचय ही नहीं है। और आप नशे से कह सकते हो कि जन्मदाता परमात्मा कैसे हैं, पालनहार परमात्मा कैसे हैं! ब्रह्मा-माँ की पालना भी मिल रही है और बाप की श्रेष्ठ मत पर योग्य आत्माएं बन गये। बाप बच्चे को योग्य बनाता है और माँ शक्तिशाली बनाती है। दोनों अनुभव हैं ना! अच्छा!
गीता पाठशाला वाले ज्यादा आये हैं। गीता पाठशाला वाले कौन हुए? गीता का ज्ञान सुनने वाले ‘‘हे अर्जुन'' हैं। ‘‘अर्जुन'' समझकर गीता-ज्ञान सुनते हो या ‘‘अर्जुन'' दूसरा है। ‘‘मैं अर्जुन हूँ'' - यह समझते हो? सदैव यह अनुभव करके सुनो - मैं अर्जुन हूँ, मुझे विशेष भगवान गीता का ज्ञान सुना रहा है। गीता पाठशाला वाले तो सबसे नम्बरवन निकल जायेंगे। इस विधि से सुनो तो आगे चले जायेंगे। टीचर्स को बिजी रहने के लिए गीता पाठशालाएं अच्छी हैं। गीता पाठशाला चक्रवर्ती भी बनाती, बिजी भी रखती। वृद्धि भी अच्छी होती है। मेहनत कम लेते हैं, मददगार ज्यादा बनते हैं। बलिहारी तो गीता पाठशाला वालों की है ना। इसलिए गाँव वाले बाप को प्यारे लगते हैं। बड़े स्थानों पर माया भी बड़े रूप की आती है। गाँव वालों को माया भी गांव वाली आती है। इसलिए बहुत अच्छे हो गांव वाले, ज्यादा संख्या कहां की है? लेकिन अभी तो सभी मधुबन निवासी हो।
सभी टीचर्स की परमानेंट एड्रेस कौनसी है? मधुबन है ना। वह दुकान हैं, यह घर है। ज्यादा क्या याद रहता है - घर या दुकान? कोई-कोई को दुकान ज्यादा याद रहती है। सोयेंगे तो भी दुकान याद आयेगी। आप लोग जहाँ चाहो बुद्धि को स्थित कर सकते हो। सेवाकेंद्र पर रहते भी मधुबन निवासी बन सकते और मधुबन में रहते भी सेवाधारी बन सकते हो, यह अभ्यास है ना। सेकण्ड में सोचा और स्थित हुआ, यह है टीचर्स की स्थिति की विशेषता। बुद्धि भी समार्पित है ना या सिर्फ सेवा के लिए समार्पित हो? समार्पित बुद्धि अर्थात् जहाँ चाहें, जब चाहें वहाँ स्थित हो जाएँ। यह विशेषता की निशानी है। बुद्धि सहित समार्पित - ऐसे हो ना या बुद्धि से आधी समार्पित हैं और शरीर से सारी हैं?
कोई-कोई टीचर्स भी चाहती हैं - योग में बैठते हैं तो आत्म-अभिमानी होने बदले सेवा याद आती है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि लास्ट समय अगर अशरीरी बनने की बजाए सेवा का भी संकल्प चला तो सेकण्ड के पेपर में फेल हो जायेंगे। उस समय सिवाय बाप के, निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी - और कुछ याद नहीं। ब्रह्मा बाप ने अंतिम स्टेज यही बनाई ना - बिल्कुल निराकारी। सेवा में फिर भी साकार में आ जायेंगे। इसलिए यह अभ्यास करो - जिस समय जो चाहे वह स्थिति हो, नहीं तो धोखा मिल जायेगा। ऐसे नहीं सोचो - सेवा का ही तो संकल्प आया, खराब संकल्प विकल्प तो नहीं आया। लेकिन कण्ट्रोलिंग पावर तो नहीं हुई ना। कण्ट्रोलिंग पावर नहीं तो रूलिंग पावर आ नहीं सकती, फिर रूलर बन नहीं सकेंगे। तो अभ्यास करो। अभी से बहुत काल का अभ्यास चाहिए। इसको हल्का नहीं छोड़ो। तो सुना, टीचर्स को क्या अभ्यास करना है? तब कहेंगे - टीचर्स बाप को फालो करने वाली हैं। सदा ब्रह्मा बाप को सामने रखो और तीन वरदान याद रखो और फालो करो। यह तो सहज है ना। यह अन्तिम वरदान बहुत शक्तिशाली है। इन तीन वरदानों को अगर सदा स्मृति में रखते प्रैक्टिकल में आओ तो बाप के दिलतख्त और राज्य-तख्त के अधिकारी जरूर बनेंगे। अच्छा!
सर्व बाप समान सदा नॉलेजफुल, पावरफुल बच्चों को, सदा भाग्यविधाता द्वारा श्रेष्ठ भाग्य की स्पष्ट रेखाओं वाले भाग्यवान बच्चे, सदा बाप समान त्रिवरदान प्राप्त हुए विशेष आत्माओं को, सदा ब्राह्मण जन्म की पालना और पढ़ाई को आगे बढ़ाने वाले - ऐसे अखण्ड भाग्यवान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
महाराष्ट्र ग्रुप:- सदा अपने को सर्व प्राप्तियों से भरपूर अनुभव करते हो? कभी खाली तो नहीं हो जाते? क्योंकि बाप ने इतनी प्राप्तियां कराई हैं, अगर सर्व प्राप्ति अपने में जमा करो तो कभी भी खाली नहीं हो सकते। इस जन्म की तो बात ही नहीं है लेकिन अनेक जन्म भी यहां की भरपूरता साथ रहेगी। तो जब इतना दिया है जो भविष्य में भी चलना है, तो अभी खाली कैसे होंगे? अगर बुद्धि खाली रही तो हलचल रहेगी। कोई भी चीज़ अगर फुल भरी नहीं होती तो उसमें हलचल होती है। तो भरपूर होने की निशानी है कि माया को आने की मार्जिन नहीं है। माया ही हिलाती है। तो माया आती है या नहीं? संकल्प में भी आती है, माया के राज्य में तो आधाकल्प अनुभव किया और अभी अपने राज्य में जा रहे हो। जब मायाजीत बनेंगे तब फिर अपना राज्य आयेगा और मायाजीत बनने का सहज साधन - सदा प्राप्तियों से भरपूर रहो। कोई एक भी प्राप्ति से वंचित नहीं रहो। सर्व प्राप्ति हो। ऐसे नहीं - यह तो है, एक बात नहीं तो कोई हर्जा नहीं। अगर जरा भी कमी होगी तो माया छोड़ेगी नहीं, उसी जगह से हिलायेगी। तो माया को आने की मार्जिन ही न हो। आ गई, फिर भगाओ तो उसमें टाइम जाता है। तो मायाजीत बने हो? यह नहीं सोचो- 2 वर्ष या 3 वर्ष में हो जायेंगे। ब्राह्मणों के लिए स्लोगन है - ‘‘अब नहीं तो कभी नहीं''। अब समय की रफ्तार के प्रमाण कोई भी समय कुछ भी हो सकता है। इसलिए तीव्र पुरुषार्थी बनो। अच्छा!
राजस्थान - सौराष्ट्र ग्रुप:- स्वयं को बाप के दिलतख्तनशीन श्रेष्ठ आत्माएं अनुभव करते हो? दिलतख्त सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो सदा बाप के दिलतख्तनशीन रहते हैं वो सदा ही सेफ रहते हैं। सेफ्टी का स्थान ‘‘दिलतख्त'' है। और जो भी सेफ्टी के स्थान बनाते हैं उसे कोई भी पार कर सकता है। लेकिन बाप के दिलतख्तनशीन रहने वाली आत्मा को माया पार नहीं कर सकती। तो ऐसे सेफ्टी के स्थान पर स्थित रहते हो? या कभी सेफ्टी के स्थान से बाहर आ जाते हो? जब सेफ्टी का स्थान मिल गया तो सेफ रहना चाहिए। और ऐसा स्थान तो सारे कल्प में नहीं मिलना है जहाँ आराम से खाओपि यो, मौज करो और सेफ रहो। ऐसी गारंटी और कोई दे नहीं सकता। कितनी भी गवर्नमेन्ट की बड़ी अथार्टी हो लेकिन आपको गारंटी नहीं देगा कि आप सेफ रहेंगे। सिर्फ आपको सेफ्टी के लिए बंदूक वाले दे देंगे, ब्लैक कैट दे देंगे जिससे और ही जेल वाले लगते हैं, जैसे रॉयल जेल में हैं। यहाँ देखो तो भी ब्लैक कैट, वहाँ देखो तो भी ब्लैक कैट। तो यह जेल हुआ या सेफ्टी हुई? लेकिन बाप तो माया के बंधन से छुड़ा देता है, निर्भय बन जाते हैं। तो ऐसा स्थान पसंद है या कभी-कभी थोड़ा बाहर निकलने की दिल होती है? जो सदा दिलतख्तनशीन हैं वह निश्चित ही निश्चिन्त हैं। जैसे कहते हैं - भावी टाली नहीं जाती, अटल होती है। ऐसे दिलतख्तनशीन आत्मा निर्भय है, निश्चिन्त हैं - यह निश्चित है, अटल है। दिलतख्त पर माया आ नहीं सकती। थोड़ा आकर्षण करके बाहर निकालने की कोशिश जरूर करेगी। जैसे सीता के लिए दिखाते हैं - लकीर से बाहर पाँव निकाला तब रावण आया, नहीं तो आ नहीं सकता। तो संकल्प भी बाहर निकलने का आया तो माया आ जायेगी। अगर दिलतख्त पर हो तो आ नहीं सकती। तो सिर्फ दिलतख्त पर बैठ जाओ। इसमें मुश्किल है क्या? ऐसे कई होते हैं जिनकी आदत होती है उठने-बैठने-घूमने की, बैठ नहीं सकते। कितना भी अच्छा स्थान देकर बिठाओ, तो भी नाचते रहेंगे। लेकिन आपका वायदा क्या है? जहाँ बिठाओ, जो खिलाओ, जो पहनाओ, जो कराओ, वह करेंगे। यह वायदा पक्का है ना या थोड़ा अपनी मर्जा से करेंगे बाकी बाप की? बाप को तो कोई हर्जा नहीं लेकिन मेहनत आपको ही करनी पड़ेगी। बाप को बच्चों की मेहनत नहीं अच्छी लगती। मेहनत करके तो थक गये। अभी भी मेहनत करो - यह अच्छा नहीं लगता। इसलिए दिलतख्तनशीन बनो। इसी नशे में रहो। आजकल के कुर्सा का भी नशा रहता है। यह तो तख्त है। तो जहाँ रूहानी नशा होगा वहाँ दु:ख की लहर नहीं आयेगी, खुशी होगी। तो सदा यह स्मृति रखो कि अब भी तख्तनशीन हैं और अनेक जन्म राज्यतख्तनशीन बनेंगे। राजस्थान को राजगद्दी पर बैठने का नशा है। लेकिन राजस्थान ने प्रजा कम बनाई है। गुजरात ने बड़ी प्रजा बनाई है। अगली बार भी राजस्थान को कहा था - अभी कुछ वृद्धि करो। चलो क्वांटिटी नहीं तो क्वालिटी लाओ, तो भी बरोबर हो जायेगा। ऐसी क्वालिटी लाओ जो राजस्थान वाले उनका नाम सुनकर समझे - हां, यह कहता तो सही है। तो या क्वांटिटी बढ़ाओ या क्वालिटी बढ़ाओ। क्या नहीं हो सकता है, ब्राह्मणों के भाग्य में सब नूंधा हुआ है, सिर्फ रिपीट करो। इसके लिए टचिंग चाहिए बुद्धि क्लीयर हो तो टच होगा और सफलता होगी। अच्छा! गुजरात वालों को भी बापदादा कहते हैं रात गुजर गई, बीत गई। तो राजा बनेंगे ना। अच्छा!
पंजाब - बनारस ग्रुप:- सदा हर कर्म करते हुए अपने को कर्मयोगी आत्मा अनुभव करते हो? कोई भी कर्म करते हुए याद भूल नहीं सकती। कर्म और योग - दोनों कम्बाइण्ड हो जाएं। जैसे कोई जुड़ी हुई चीज़ को अलग नहीं कर सकता, ऐसे कर्मयोगी आत्माएं हो। जैसे शरीर और आत्मा का कम्बाइण्ड रूप है तो उसको जीवन वाला कहते हैं और शरीर, आत्मा से अलग हो जाए तो उसको जीवन समाप्त कहते हैं। तो कर्मयोगी जीवन अर्थात् कर्म योग के बिना नहीं, योग कर्म के बिना नहीं। सदा कम्बाइण्ड। तो योगी जीवन वाले हो वा योग लगाने वाले हो? दो घण्टा योग लगाने वाले योगी तो नहीं हो? अमृतवेले योग लगाया तो योगी हुए और कर्म में आये तो कर्म ही याद रहा - इसे योगी-जीवन नहीं कहेंगे। याद के बिना कर्म नहीं। जीवन निरंतर होता है, दो घण्टे का जीवन नहीं है। जो योगी जीवन वाले हैं उनका योग स्वत: और सहज है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। क्योंकि योग टूटता ही नहीं है तो मेहनत क्या करेंगे! टूटता है तो जोड़ने की मेहनत करेंगे। ऐसा कम्बाइण्ड अनुभव करने वाले कभी माया के वश होकर क्वेश्चन नहीं करेंगे कि योग कैसे लगायें, निरंतर योग कैसे हो? याद करने वाले को कोई भी फरियाद वरने की आवश्यकता ही नहीं। बाबा, मेरा यह काम कर देना, यह करा देना, यह संभाल लेना, इसका ताला खोल देना - यह फरियाद है। याद में स्वत: सब कार्य सफल हो जाते हैं। याद करने वाले हो या फरियाद करने वाले हो? बाप के आगे कभी कौनसी फाइल, कभी कौन-सी फाइल रखने वाले तो नहीं? फाइन बनने वाले का कोई फाइल नहीं होता। कर्मयोगी जीवन सर्व प्राप्तियों की जीवन है। कोई अप्राप्ति रह नहीं सकती। क्योंकि दाता के बच्चे हो। दाता के बच्चे सदा भरपूर। दूसरों को कहते हो ना - ‘‘योगी जीवन जी के देखो''। खुद अनुभवी हो तब तो कहते हो। अगर जीना ही है तो ‘योगी जीवन'। बापदादा को योगी जीवन वाले बच्चे अति प्रिय हैं, अति समीप हैं। अच्छा!
हैदराबाद - भोपाल ग्रुप:- सदा अपने को संतुष्ट आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि ज्ञानी-योगी आत्मा की निशानी ‘संतुष्टता' है। जहाँ संतुष्टता है वहां सर्वगुण और सर्वशक्तियाँ हैं। कोई भी गुण वा शक्ति की अप्राप्ति होगी तो अप्राप्ति की निशानी ‘‘असंतुष्टता'' है और प्राप्तियों की निशानी ‘‘संतुष्टता'' है। संतुष्ट आत्मा ड्रामा के हर दृश्य को देख ‘‘वाह-ड्रामा-वाह'' कहेगी और जो सदा संतुष्ट नहीं वह कभी तो ‘‘वाह-वाह'' कहेगी, कभी कहेगी - हाय, यह क्या हो गया, होना नहीं चाहिए था लेकिन हो गया! तो संतुष्टता एक खान है। अखण्ड खान है, खत्म होने वाली नहीं। जितना देता जायेगा उतना ही बढ़ता जायेगा। तो आप सभी संतुष्ट आत्माएं हो ना। मरजीवा बने ही हो संतुष्ट रहने के लिए। ‘‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या'' - यह गायन किसका है? देवताओं का या ब्राह्मणों का? देवताई जीवन में तो इच्छा वा न इच्छा का सवाल ही नहीं। यहाँ नॉलेज है - इच्छा क्या है और निरइच्छा क्या है। तो नॉलेज होते ‘‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या'' होना इसी को ही ब्राह्मण-जीवन कहा जाता है। किस चीज़ की इच्छा है? जब रचयिता अपना हो गया तो रचना कहाँ जायेगी? रचयिता को अपना बना लिया है ना, अच्छी तरह से बनाया है, ढीला-ढीला तो नहीं? माताओं के लिए गायन है कि भगवान को भी रस्सी से बांध लिया। तो अच्छी तरह से बांधा है? यह है स्नेह की रस्सी। तो स्नेह की रस्सी मजबूत है ना, यह कभी टूट नहीं सकती। यह तो निमित्त मात्र दृष्टांत हैं। जहाँ बाप है वहाँ सब-कुछ है, इसलिए तो गाते हो - बाप मिला सब-कुछ मिला। जो भी मिला है वह इतना मिला है जो सर्व इच्छाएं इकटठी करो उनसे भी पद्मगुणा ज्यादा है, उसके आगे इच्छा क्या हुई? जैसे सूर्य के आगे दीपक। सर्व प्राप्तियों के आगे कितनी भी अच्छी इच्छा हो, वह दीपक के समान है। इसलिए सदा संतुष्ट। क्वेश्चन ही नहीं उठता है। इच्छा उठने की तो बात छोड़ो लेकिन इच्छा होती भी है - यह क्वेश्चन भी नहीं उठ सकता। इतनी समाप्ति हो गई है, नाम-निशान नहीं। क्योंकि थोड़ा भी अगर अंश रहा तो अंश से वंश पैदा होता है। अंश-मात्र भी नहीं हो। इसीलिए देखो, रावण को जलाते भी हैं, पहले मारते हैं फिर जलाते हैं। जलाकर के फिर समाप्ति कर देते हैं। अंश-मात्र भी नहीं रहे। तो कोई अंश तो नहीं है? मोटे रूप में तो रावण के शीश खत्म हुए लेकिन सूक्ष्म में तो नहीं है ना? सुनाया था कई ऐसे कहते हैं - इच्छा तो नहीं है लेकिन अच्छा लगता है। मोटे रूप में कहेंगे - इच्छा नहीं है और महीन रूप में अच्छा लगता है। तो अच्छा लगा माना बुद्धि का झुकाव होगा ना। अच्छा लगता है तो अच्छा - अच्छा होते इच्छा हो जायेगी। अच्छा लगता है तो सब अच्छा लगता है। एक चीज़ अच्छी क्यों लगती है या कोई एक व्यक्ति अच्छा क्यों लगे या कोई एक काम अच्छा क्यों लगे? सब अच्छा है। कई ऐसे कहते हैं कि इस आत्मा का योग अच्छा लगता है, इस आत्मा का भाषण अच्छा लगता है। लेकिन यह भी कोई अच्छा लगे, कोई अच्छा नहीं लगे - यह भी ठीक नहीं। अगर अच्छा लगता भी है तो बाप का हैं ना। बाप अच्छा लगे ना। अगर कोई भी व्यक्ति अच्छा लगा तो इच्छाओं की क्यू लग जायेगी। बाप अच्छा लगता तो अंश-मात्र में भी माया आ नहीं सकती। अगर किसी में गुण अच्छे हैं तो वह भी बाप की देन हैं। इसलिए बाप ही अच्छा लगे। तो सदा संतुष्ट रहेंगे। बाल-बच्चों को अंदर नहीं बिठा देना। अगर बाल-बच्चे भी छिपे हुए हैं तो सदा संतुष्ट नहीं रह सकते। बेहद सेवा की बात अलग है, लेकिन अपने प्रति यह होना चाहिए, यह होना चाहिए - यह हद की बातें असंतुष्ट करती हैं। बेहद के लिए जितना चाहे उतना सोचो, अपने प्रति हद की बातें नहीं सोचो। तो सभी संतुष्टमणि हो? संतुष्टमणि अर्थात् सदा रूहानियत से चमकने वाली। अच्छा!