21-12-89   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


त्रिदेव रचयिता द्वारा वरदानों की प्राप्ति

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले

आज त्रिदेव रचयिता अपनी साकारी और आकारी रचना को देख रहे हैं। दोनों रचना अति प्रिय हैं। इसलिए रचता, रचना को देख हर्षित होते हैं। रचना सदा यह खुशी के गीत गाती कि ‘‘वाह रचता'' और रचता सदा यह गीत गाते - ‘‘वाह मेरी रचना''। रचना प्रिय है। जो प्रिय होता है उसको सदा सब-कुछ देकर सम्पन्न बनाते हैं। तो बाप ने हर एक श्रेष्ठ रचना को विशेष तीनों सम्बन्ध से कितना सम्पन्न बनाया है! बाप के सम्बन्ध से दाता बन ज्ञान खज़ाने से सम्पन्न बनाया, शिक्षक रूप से भाग्यविधाता बन अनेक जन्मों के लिए भाग्यवान बनाया, सतगुरू के रूप में वरदाता बन वरदानों से झोली भर देते। यह है अविनाशी स्नेह वा प्यार। प्यार की विशेषता यही है - जिससे प्यार होता है उसकी कमी अच्छी नहीं लगेगी, कमी को कमाल के रूप में परिवर्तन करेंगे। बाप को बच्चों की कमी सदा कमाल के रूप में परिवर्तन करने का सदा शुभ संकल्प रहता है। प्यार में बाप को बच्चों की मेहनत देखी नहीं जाती। कोई मेहनत आवश्यक हो तो करो लेकिन ब्राह्मणजीवन में मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि दाता, विधाता और वरदाता - तीनों सम्बंध से इतने सम्पन्न बन जाते हो जो बिना मेहनत रूहानी मौज में रह सकते हो। वर्सा भी है, पढ़ाई भी है और वरदान भी हैं। जिसको तीनों रूपों से प्राप्ति हो, ऐसे सर्व प्राप्ति वाली आत्मा को मेहनत करने की क्या आवश्यकता है! कभी वर्से के रूप में वा बाप को दाता के रूप में याद करो तो रूहानी अधिकारीपन का नशा रहेगा। शिक्षक के रूप में याद करो तो गॉडली स्टूडेन्ट अर्थात् भगवान के स्टूडेन्ट हैं - इस भाग्य का नशा रहेगा। सतगुरू हर कदम में वरदानों से चला रहा है। हर कर्म में श्रेष्ठ मत - वरदाता का वरदान है। जो हर कदम श्रेष्ठ मत से चलते हैं उसको हर कदम में कर्म की सफलता का वरदान सहज, स्वत: और अवश्य प्राप्त होता है। सतगुरू की मत श्रेष्ठ गति को प्राप्त कराती है। गति-सद्गति को प्राप्त कराती है। श्रेष्ठ मत और श्रेष्ठ गति। अपने स्वीट होम अर्थात् गति और स्वीट राज्य अर्थात् सद्गति - इसको तो प्राप्त करते ही हो लेकिन ब्राह्मण आत्माओं को और विशेष गति प्राप्त होती है। वह है इस समय भी श्रेष्ठ मत के श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल अर्थात् सफलता।

यह श्रेष्ठ गति सिर्फ संगमयुग पर ही आप ब्राह्मणों को प्राप्त है। इसलिए कहते हैं - जैसी मत वैसी गत'। वो लोग तो समझते हैं मरने के बाद गति मिलेगी, इसलिए अंत मति सो गति' कहते हैं। लेकिन आप ब्राह्मण आत्माओं के लिए इस अंतिम मरजीवा जन्म में हर कर्म की सफलता का फल अर्थात् गति प्राप्त होने का वरदान मिला हुआ है। वर्तमान और भविष्य - सदा गति-सदगति है ही है। भविष्य की इंतजार में नहीं रहते हो। संगमयुग की प्राप्ति का यही महत्व है। अभी-अभी कर्म करो और अभी-अभी प्राप्ति का अधिकार लो। इसको कहते हैं - एक हाथ से दो, दूसरे हाथ से लो। कभी मिल जायेगा वा भविष्य में मिल जायेगा, यह दिलासे का सौदा नहीं है। तुरंत दान महापुण्य', ऐसी प्राप्ति है। इसको कहते हैं - झटपट का सौदा। भक्ति में इंतजार करते रहो - मिल जायेगा, मिल जायेगा ....। भक्ति में है कभी और बाप कहते हैं - अभी लो। आदि स्थापना में भी आपकी प्रसिद्धता थी कि यहां साक्षात्कार झटपट होता है। और होता भी था। तो आदि से झटपट का सौदा हुआ। इसको कहते हैं रचता का रचना से सच्चा प्यार। सारे कल्प में ऐसा प्यारा कोई हो ही नहीं सकता। कितने भी नामीग्रामी प्यारे हों लेकिन यह है अविनाशी प्यार और अविनाशी प्राप्ति। तो ऐसा प्यारा कोई हो ही नहीं सकता। इसलिए बाप को बच्चों की मेहनत पर रहम आता है। वरदानी, सदा वर्से के अधिकारी कभी मेहनत नहीं कर सकते। भाग्यविधाता शिक्षक के भाग्यवान बच्चे सदा पास विद ऑनर होते हैं। न फेल होते हैं, न कोई व्यर्थ बात फील करते हैं।

मेहनत करने के कारण दो ही हैं - या तो माया के विघ्नों से फेल हो जाते वा सम्बन्ध-संपर्क में, चाहे ब्राह्मणों के, चाहे अज्ञानियों के - दोनों सम्बन्ध में कर्म में आते छोटी-सी बात में व्यर्थ फील कर देते हैं जिसको आप लोग फ्लू की बीमारी कहते हो। फ्लू क्या करता है? एक तो शेकिंग (हलचल) होती है। उसमें शरीर हिलता है और यहाँ आत्मा की स्थिति हिलती है, मन हिलता है और मुख कडुवा हो जाता है। यहां भी मुख से कडुवे बोल बोलने लग पड़ते हैं। और क्या होता है? कभी सर्दी, कभी गर्मी चढ़ जाती है। यहाँ भी जब फीलिंग आती है तो अंदर जोश आता है, गर्मी चढ़ती है - इसने यह क्यों कहा, यह क्यों किया? यह जोश है। अनुभवी तो हो ना। और क्या होता है? खाना-पीना कुछ अच्छा नहीं लगता है। यहाँ भी कोई अच्छी ज्ञान की बात भी सुनायेंगे, तो भी उनको अच्छी नहीं लगेगी। आखिर रिजल्ट क्या होती? कमज़ोरी आ जाती है। यहां भी कुछ समय तक कमज़ोरी चलती है। इसलिए न फेल हों, न फील करो। बापदादा श्रेष्ठ मत देते हैं। शुद्ध फीलिंग रहे - मैं सर्वश्रेष्ठ अर्थात् कोटों में कोई आत्मा हूँ, मैं देव आत्मा, महान आत्मा, ब्राह्मण आत्मा, विशेष पार्टधारी आत्मा हूँ।' इस फीलिंग में रहने वाले को व्यर्थ फीलिंग का फ्लू नहीं होगा। इस शुद्ध फीलिंग में रहो। जहां शुद्ध फीलिंग होगी वहां अशुद्ध फीलिंग नहीं हो सकती। तो फ्लू की बीमारी से अर्थात् मेहनत से बच जायेंगे और सदा स्वयं को ऐसा अनुभव करेंगे कि हम वरदानों से पल रहे हैं, वरदानों से आगे उड़ रहे हैं, वरदानों से सेवा में सफलता पा रहे हैं।

मेहनत अच्छी लगती है वा मेहनत की आदत पक्की हो गई है? मेहनत अच्छी लगती वा मौज में रहना अच्छा लगता है? कोई-कोई को मेहनत के काम बगैर और कोई काम अच्छा नहीं लगता है। उनको कुर्सा पर आराम से बिठायेंगे तो भी कहेंगे हमको मेहनत का काम दो। यह तो आत्मा की मेहनत है और आत्मा 63 जन्म मेहनत कर थक गई है। 63 जन्म ढूंढ़ते रहे ना। किसको ढूंढ़ने में मेहनत लगती है ना। तो थके हुए पहले ही हो। 63 जन्म मेहनत कर चुके हो। अब एक जन्म तो मौज में रहो। 21 जन्म तो भविष्य की बात है। लेकिन यह एक जन्म विशेष है। मेहनत और मौज - दोनों का अनुभव कर सकते हो। भविष्य में तो वहाँ यह सब बातें भूल जायेंगी। मजा तो अभी है। दूसरे मेहनत कर रहे हैं, आप मौज में हो। अच्छा!

टीचर्स ने भक्ति की है? कितने जन्म भक्ति की है? इस जन्म में तो नहीं की है ना! आपकी भक्ति पहले जन्म में पूरी हो गई। कब से फिर भक्ति शुरू की? किसके साथ शुरू की? ब्रह्मा बाप के साथ-साथ आपने भी भक्ति की है। कौन-से मंदिर में की? तो भक्ति की भी आदि आत्माएं हो और ज्ञान-मार्ग की भी आदि आत्माएं हो। आदि की भक्ति में अव्यभिचारी भक्ति होने कारण भक्ति का आनन्द, सुख उस समय के प्रमाण कम नहीं हुआ। वह सुख और आनन्द भी अपने स्थान पर श्रेष्ठ रहा।

भक्त-माला में आप हो? जब भक्ति आपने शुरू की तो भक्त-माला में नहीं हो? डबल फॉरेनर्स भक्त-माला में थे? भक्त बने या भक्त-माला में थे? अभी सब सोच रहे हैं कि हम थे वा नहीं थे! विजय माला में भी थे, भक्त-माला में भी थे? पुजारी तो बने लेकिन भक्त-माला में थे? भक्त-माला अलग है। आप तो ज्ञानी सो भक्त बने। वह हैं ही भक्त। तो भक्त-माला और ज्ञानियों की माला में अंतर है। ज्ञानियों की माला है - विजय माला'। और जो सिर्फ भक्त हैं, ऐसे नौधा भक्त जो भक्ति के बिना और बात सुनना ही नहीं चाहते, भक्ति को ही श्रेष्ठ समझते हैं। तो भक्त-माला अलग है, ज्ञान माला अलग है। भक्ति जरूर की लेकिन भक्त-माला में नहीं कहेंगे। क्योंकि भक्ति का पार्ट बजाने के बाद आप सबको ज्ञान में आना है। वह नौधा भक्त हैं और आप नौधा ज्ञानी हो। आत्मा में संस्कारों का अंतर है। भक्त माना सदा मंगता के संस्कार होंगे। मैं नीच हूँ, बाप ऊँचा है - यह संस्कार होंगे। वह रॉयल भिखारी हैं और आप आत्माओं में अधिकारीपन के संस्कार हैं। इसलिए परिचय मिलते ही अधिकारी बन गये। समझा? भक्तों को भी कोई जगह दो ना। दोनों में आप आयेंगे क्या? उन्हों का भी आधाकल्प है, आपका भी आधाकल्प है। उन्हों को भी गायनमाला में आना ही है। फिर भी दुनिया वालों से तो अच्छे हैं। और तरफ तो बुद्धि नहीं है, बाप की तरफ ही है। शुद्ध तो रहते हैं। पवित्रता का फल मिलता है - ‘‘गायन योग्य होने का''। आपकी पूजा होगी। उन्हों की पूजा नहीं होती, सिर्फ स्टेच्यू बनाके रखते हैं गायन के लिए। मीरा का कभी मंदिर नहीं होगा। देवताओं मिसल मीरा की पूजा नहीं होती, सिर्फ गायन है। अभी लास्ट जन्म में चाहे किसी को भी पूज लेवें। धरनी को भी पूजें तो वृक्ष को भी पूजें। लेकिन नियम प्रमाण उन्हों का सिर्फ गायन होता है, पूजन नहीं। आप पूज्य बनते हो। तो आप पूजनीय आत्माएं हो- यह नशा सदा स्मृति में रखो। पूज्य आत्मा कभी कोई अपवित्र संकल्प को टच भी नहीं कर सकती। ऐसे पूज्य बने हो! अच्छा!

चारों ओर के वर्से के अधिकारी आत्माओं को, सदा पढ़ाई में पास विद् ऑनर्स होने वाले, सदा वरदानों द्वारा वरदानी बन औरों को भी वरदानी बनाने वाले - ऐसे बाप, शिक्षक और सतगुरू के प्यारे, सदा रूहानी मौज में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पंजाब - राजस्थान ग्रुप:- सदा अपने को होलीहँस अनुभव करते हो? होलीहँस अर्थात् समर्थ और व्यर्थ को परखने वाले। वह जो हंस होते हैं वो कंकड़ और रत्न को अलग करते हैं, मोती और पत्थर को अलग करते हैं। लेकिन आप होलीहँस किसको परखने वाले हो? समर्थ क्या है और व्यर्थ क्या है, शुद्ध क्या है और अशुद्ध क्या है। जैसे हँस कभी कंकड़ को चुग नहीं सकता - अलग करके रख देगा, छोड़ देगा, ग्रहण नहीं करेगा। ऐसे आप होलीहँस व्यर्थ को छोड़ देते हो और समर्थ संकल्प को धारण करते हो। अगर व्यर्थ आ भी जाए तो धारण नहीं करेंगे। व्यर्थ को अगर धारण किया तो होलीहँस नहीं कहेंगे। वह तो बगुला धारण करता है। व्यर्थ तो बहुत सुना, बोला, किया लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ? गँवाया, सब-कुछ गँवा दिया ना। तन भी गँवा दिया। देवताओं के तन देखो, और अभी के तन देखो क्या हैं? कितना अंतर है! जवान से भी बुड्ढे अच्छे हैं। तो तन भी गँवाया, मन का सुख-शान्ति भी गँवाया, धन भी गँवाया। आपके पास कितना धन था? अथाह धन कहां गया? व्यर्थ में गँवा दिया। अभी जमा कर रहे हो या गँवा रहे हो? होलीहँस गँवाने वाला नहीं, जमा करने वाला। अभी 21 जन्म तन भी अच्छा मिलेगा और मन भी सदा खुश रहने वाला होगा। धन तो ऐसे होगा जैसे अभी मिट्टी है। अभी मिट्टी का भी मूल्य हो गया है लेकिन वहां रत्नों से तो खेलेंगे, रत्नों से मकान की सजावट होगी। तो कितना जमा कर रहे हो! जिसके पास जमा होता है उसको खुशी होती है। अगर जमा नहीं होता तो दिल छोटी होती है, जमा होता है तो दिल बड़ी होती है। अभी कितनी बड़ी दिल हो गई है!

तो हर कदम में जमा का खाता बढ़ता जाता है या कभी-कभी जमा करते हो? अपना चार्ट अच्छी तरह से देखा है? ऐसे समय पर भी कभी-कभी व्यर्थ तो नहीं चला जाता? अभी तो समय की वैल्यू का पता पड़ गया है ना। संगम का एक सेकण्ड कितना बड़ा है! कहने में तो आयेगा एक-दो सेकण्ड ही तो गया लेकिन एक सेकण्ड कितना बड़ा है! यह याद रहे तो एक सेकण्ड भी नहीं गँवायेंगे। सेकण्ड गँवाना माना वर्ष गँवाना - संगम के एक सेकण्ड का इतना महत्त्व है! तो जमा करने वाले हैं, गँवाने वाले नहीं। क्योंकि या तो होगा गँवाना, या होगा कमाना। सारे कल्प में कमाई करने का समय अभी है। तो होलीहँस अर्थात् स्वप्न में, संकल्प में भी कभी व्यर्थ गँवायेंगे नहीं।

होली अर्थात् सदा पवित्रता की शक्ति से अपवित्रता को सेकण्ड में भगाने वाले। न केवल अपने लिए बल्कि औरों के लिए भी। क्योंकि सारे विश्व को परिवर्तन करना है ना। पवित्रता की शक्ति कितनी महान है, यह तो जानते हो ना! पवित्रता ऐसी अग्नि है जो सेकण्ड में विश्व के किचड़े को भस्म कर सकती है। सम्पूर्ण पवित्रता ऐसी श्रेष्ठ शक्ति है! अंत में जब सब संपूर्ण हो जायेंगे तो आपके श्रेष्ठ संकल्प में लगन की अग्नि से यह सब किचड़ा भस्म हो जायेगा। योग ज्वाला हो। अंत में ऐसे धीरे- धीरे सेवा नहीं होगी। सोचा और हुआ - इसको कहते हैं विहंग मार्ग की सेवा'। अभी अपने में भर रहे हो, फिर कार्य में लगायेंगे। जैसे देवियों के यादगार में दिखाते हैं कि ज्वाला से असुरों को भस्म कर दिया। असुर नहीं लेकिन आसुरी शक्तियों को खत्म कर दिया। यह किस समय का यादगार है? अभी का है ना। तो ऐसे ज्वालामुखी बनो। आप नहीं बनेंगे तो कौन बनेगा! तो अभी ज्वालामुखी बन आसुरी संस्कार, आसुरी स्वभाव-सब-कुछ भस्म करो। अपने तो कर लिये हैं ना या अपने भी कर रहे हो? अच्छा!

पंजाब वाले निर्भय तो बन गये। डरने वाले तो नहीं हो न? ज्वालामुखी हो, डरना क्यों? मरे तो पड़े ही हो, फिर डरना किससे? और राजस्थान को तो ‘‘राज्य-अधिकारी'' कभी भूलना नहीं चाहिए। राज्य भूल करके राजस्थान की रेती तो याद नहीं आ जाती ? वहां रेत बहुत होती है ना! तो सदा नये राज्य की स्मृति रहे। सभी निर्भय ज्वालामुखी बन प्रकृति और आत्माओं के अंदर जो तमोगुण है उसे भस्म करने वाले बनो। यह बहुत बड़ा काम है, स्पीड से करेंगे तब पूरा होगा। अभी तो व्यक्तियों को ही संदेश नहीं पहुँचा है, प्रकृति वी तो बात पीछे है। तो स्पीड तेज करो। गली-गली में सेंटर हों। क्योंकि सरकमस्टांस प्रमाण एक गली से दूसरी गली में जा नहीं सकेंगे, एक-दो को देख भी नहीं सकेंगे। तो घर-घर में, गली-गली में हो जायेगा ना। अच्छा!

उड़ीसा, गुलबर्गा, विशाखापट्टनम ग्रुप:- तीनों स्थान के सदा एक स्थिति में स्थित रहने वाले हो? शरीर के स्थान भिन्नभिन्न हैं लेकिन आत्माओं का स्थान एक है। चाहे कहां से भी आये हो लेकिन स्थिति सदा एकरस हो। एकरस स्थिति क्या है? एक की स्मृति में रहना अर्थात् एकरस स्थिति में रहना। अगर एक के बजाय दूसरा कोई भी याद आया तो एकरस के बजाय बहुरस स्थिति हो जायेगी। तो सभी एकरस रहने वाले हो या कभी-कभी दूसरा रस खींचता है? कभी बाल-बच्चे खींचते हैं? सदैव यह सोचो - ‘‘जिस समय और कोई रस आकर्षित करता है, अगर उसी समय आपका अंतिम समय हो तो क्या रिजल्ट होगी''! ऊँच पद पा सकेंगे? तो सदैव ऐसे ही समझो कि एक सेकण्ड में क्या भी हो सकता है! हर सेकण्ड का अटेन्शन रखो। सदैव ‘‘एक'' का पाठ पक्का रखो। एक बाप, एक ही संगम का समय है और एकरस स्थिति में रहना है और एक बाप से सर्व प्राप्ति करनी है। ‘‘एक'' का पाठ पढ़ना आता है? सभी को सतयुग में ही आना है ना! या त्रेता में राजा बन जाओ - यह अच्छा है? ब्राह्मण जीवन अर्थात् सम्पूर्ण जीवन। सम्पूर्ण आत्मा सतयुग में आयेगी। ब्राह्मण बनकर अगर एक युग का सुख लिया और एक युग का नहीं लिया तो क्या किया! तो सदा यही याद रखना कि ऊँचे ते ऊँचे बाप द्वारा सदा के लिए ऊँचे ते ऊँचा वर्सा - 21 जन्म का अधिकार लेने वाले हैं। जब सम्पूर्ण बनने का लक्ष्य रखते हो तो लक्षण भी ऐसे ही धारण करो। अगर लक्ष्य कमज़ोर होगा तो लक्षण भी कमज़ोर होंगे। बापदादा सभी बच्चों को ऊँचे ते ऊँचा बनाते हैं, नंबरवन बनाते हैं, सेकण्ड नंबर नहीं बनाते। जब दाता सम्पूर्ण दे रहा है तो लेने वाले कम क्यों लो? पूरा ही लेना चाहिए ना। अच्छा!

सभी स्थान निर्विघ्न स्थान हैं, विघ्न आते हैं? बापदादा के पास तो सब समाचार पहुँच जाता है। जितना- जितना शक्तिशाली आत्मा बनेंगे उतना यह विघ्न समाप्त हो जायेंगे, विघ्न हिम्मत नहीं रखेंगे आने की। अभी हिम्मत रखते हैं आने की, चाहे आप उसको मिटा दो लेकिन आते तो हैं ना! आये ही क्यों? विघ्न स्व के लग्न के कारण दूर से ही नीचे हो जाएं और आप ऊपर हो जाओ। क्योंकि विघ्नों में समय तो देना पड़ता है ना। वायुमण्डल तो बदलता है ना। चाहे कोई स्वयं निर्विघ्न हो लेकिन अगर सेन्टर पर बार-बार विघ्न आते हैं तो उसमें भी समय देना पड़ता है। वायुमण्डल बदल जाता है। तो क्यों नहीं ऐसा पावरफुल वातावरण बनाओ जो विघ्न सदा कमज़ोर रहें और आप सर्वशक्तिवान रहो - ऐसी हिम्मत है? देखना, तारीख याद रखना। जब प्रकृति की शक्ति वायुमण्डल को परिवर्तन कर सकती है, गर्म को ठण्डा बना सकती है - ठण्डे को गर्म बना सकती है तो आप क्या नहीं कर सकते? तो वायुमण्डल पावरफुल बनाओ। क्योंकि सेवा ही यह है कि पहले स्व को निर्विघ्न बनाना है और फिर औरो को भी निर्विघ्न बनाना है। सेवा लेने वाले नहीं, सेवाधारी हो। अगर बहुत समय विध्नों के वश होते रहेंगे तो अंत में निर्विघ्न नहीं रहेंगे। इसलिए बहुतकाल की निर्विघ्न अवस्था चाहिए। तो अभी विघ्नों को आने नहीं देना। कमज़ोर आत्माओं को भी बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्ति दे शक्तिशाली बनाओ - यही श्रेष्ठ सेवा है'। परिचय देना, कोर्स कराना यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन आत्माओं को शक्तिशाली बनाना - यही सच्ची सेवा है। हिम्मत आप रखेंगे और मदद बाप करेंगे। अच्छा!

गुजरात ग्रुप:- सदा अपने को निश्चयबुद्धि विजयी आत्माएं अनुभव करते हो? निश्चय की निशानी है - ‘‘विजय''। अगर अपने में वा बाप में निश्चय है तो निश्चय की विजय नहीं हो - यह हो ही नहीं सकता। अगर विजय आधी होती है, पूरी नहीं होती तो इसका कारण है निश्चय की कमी। निश्चय और विजय, यह एक-दो के पक्के साथी हैं'। जहाँ निश्चय होगा वहाँ विजय जरूरी है। क्योंकि निश्चय है कि बाप सर्वशक्तिवान है और सर्वशक्तिवान बाप के निश्चय से विजय कैसे नहीं होगी! और अपने में भी निश्चय है कि मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ, तो विजय कहाँ जायेगी? निश्चयबुद्धि की कभी हार हो नहीं सकती। निश्चयबुद्धि औरों को भी हार से छुड़ाने वाले हैं, स्वयं कैसे हार खा सकते हैं। तो विजयी बनने का फाउनडेशन है ‘‘निश्चय'', फाउन्डेशन अगर पक्का है तो बिल्डिंग हिल नहीं सकती, निश्चिंत रहते हैं। अगर फाउन्डेशन कच्चा है तो थोड़ा-सा भी तूफन आयेगा, थोड़ी भी धरनी हिलेगी तो भय होगा कि यह बिल्डिंग हमारी गिर नहीं जाए या क्रेक (दरार) नहीं हो जाए। लेकिन फाउन्डेशन पक्का होगा तो निर्भय होंगे। ऐसे ही निश्चय का फाउन्डेशन पक्का है तो कोई तूफान हिला नहीं सकता। तो ऐसे विजयी हो या कभी-कभी थोड़ी दरार पड़ जाती है? या कभी थोड़ी खिड़कियां, दरवाजे के शीशे हिलते हैं? तूफान लगता है या धरनी की हलचल होती है तो क्या होता है? हलचल तो नहीं होती है ना! हलचल में अचल रहना - इसको कहा जाता है - निश्चयबुद्धि विजयी रत्न। सिर्फ बाप में निश्चय नही, अपने आप में भी निश्चय और ड्रामा में भी निश्चय। वाह ड्रामा वाह! अगर ड्रामा में निश्चय होगा तो अकल्याण की बात भी कल्याण में बदल जायेगी। निश्चय में इतनी शक्ति है! दिखाई ऐसे देगा कि अकल्याण की बात है लेकिन उसमें भी कल्याण छिपा हुआ होगा। पहले हिलाने के लिए ऐसा रूप आयेगा भी लेकिन आपको हिला नहीं सकता। ऐसे पक्के हो या थोड़ा-थोड़ा हिलते हो? संकल्प वा स्वप्न में भी हिलते तो नहीं? क्योंकि संकल्प में भी अगर थोड़ी-सी कमज़ोरी आ गई तो संकल्प का प्रभाव वाणी पर पड़ता, वाणी का प्रभाव कर्म पर पड़ता। इसीलिए बाप ने पहले संकल्प को ही बदली किया है, संकल्प करते हो - मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ।' यह शुद्ध संकल्प है, इस संकल्प से जीवन बदल गई। अगर संकल्प कमज़ोर हैं तो जीवन भी कमज़ोर बन जायेगी।

तो सदा निश्चय है कि मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ। कितना भी माया हिलाये, हिलते तो नहीं? कोई माया से डरता तो नहीं? सभी बहादुर हो या सोचते हो माया को आना नहीं चाहिए? आधाकल्प माया के साथी रहे हो और अभी आने नहीं देते। क्योंकि अभी जान गये हो कि यह बड़े-ते-बड़ा दुश्मन है। पहले तो मालूम नहीं था कि माया क्या है। मायाजीत बनने का अर्थ ही है - निश्चयबुद्धि विजयी। तो हर कर्म करने के पहले निश्चय पक्का हो। वैसे भी देखो, अगर कोई ताकत वाला, बहादुर नहीं होता है तो कोई भी काम करने से पहले कमज़ोरी का संकल्प करता है - कर सकेंगे, नहीं कर सकेंगे, होगा या नहीं होगा? ताकत वाले को यह संशय नहीं उठ सकता। उसे कहो यह भारी चीज़ उठाओ तो जल्दी उठा लेगा और कमज़ोर को कहो तो सोचेगा। तो ऐसे सोच चलता है कि यह काम तो बढ़िया है लेकिन होगा या नहीं होगा? माया के अनेक स्वरूपों को जान गये। नॉलेजफुल बन गये हो ना। माया भी भिन्न-भिन्न रूप से आती है। वह भी जानती है कि इस रूप से मुझे जान जायेंगे। तो नया-नया रूप धारण करती है। फिर कहते हैं - मुझे तो यह पता ही नहीं था, ऐसे भी होता है क्या! लेकिन नॉलेजफुल कभी सोच नहीं सकता, वह जानता है। तो सभी निश्चयबुद्धि विजय हो! विजय जन्मसिद्ध अधिकार है। जन्मसिद्ध अधिकार कोई छीन नहीं सकता। अच्छा!

मातायें निश्चय में पक्की हैं या पाण्डव? किसी को भी आगे रखना, दूसरों को आगे रखने में स्वयं आगे हैं ही। पाण्डव माताओं को आगे रखते हो? मातायें ढाल हैं, ढाल को आगे रखा जाता है या समझते हो कि आगे हम हैं? वैसे भी देखो, मातायें पालना करती हैं, पालना के संस्कार माताओं में हैं, तो मातायें माया से बचने की पालना अच्छी करेंगी। ऐसी मातायें हो या खुद ही हार खाने वाली हो? मजबूत हो ना। बाप माताओं के लिए इतना कह रहा है और मातायें अगर कच्ची हुई तो सभी कच्चे हो जायेंगे। कभी कच्चे नहीं बनना, सदा पक्के ही रहना। अच्छा! छोटे बच्चे भी बहुत होशियार हैं। छोटे भी माँ-बाप के गुरू बन जाते हैं। अच्छा!

तीनों निश्चय साथ-साथ रहें - बाप, आप और ड्रामा।

कभी संकल्प में भी कोई हिला न सके। अंगद' बन जाओ। नाखून को भी हिला न सके। टांग तो छोड़ो लेकिन नाखून को भी माया हिला नहीं सकती। ऐसे अंगद बन जाओ। फिर भी गुजरात की धरनी में कुछ-न-कुछ भावना रहती है। तो भावना का फल ‘‘ज्ञान'' मिल गया। अच्छा है - अपने हमजिन्स के ऊपर तरस आना चाहिए, रहम आना चाहिए। क्योंकि समझते हैं ना - कल हम क्या थे और आज क्या बन गये! अपने जीवन के अनुभव से दूसरों के ऊपर रहम आता है ना! रहमदिल बन ज्यादा-से-ज्यादा हमजिन्स को जगाओ। अच्छा! सभी संतुष्ट हो ना। या थोड़ा-थोड़ा किसी से असंतुष्ट हो जाते हो? किससे संतुष्ट, किससे असंतुष्ट। एक-दो में कभी असंतुष्ट तो नहीं होते? इसको चांस मिलता है, हमको नहीं मिलता - ऐसे तो नहीं! बापदादा के पास सब समाचार आता है। छोटी-छोटी बातें होती हैं, बड़ी नहीं होती। लेकिन क्या भी हो जाए, संतुष्टता न जाए। बातें आते भी हैं और चली जाती हैं लेकिन बातों के साथ संतुष्टता नहीं जाये। क्योंकि संतुष्टता गई तो सब-कुछ गया। अच्छा!