29-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पढ़ाई का सार- ‘आना और जाना'
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज मुरलीधर बाप अपने मास्टर मुरलीधर बच्चों को देख रहे हैं। सभी बच्चे मुरली और मिलन के चात्रक हैं। ऐसे चात्रक सिवाए ब्राह्मण- आत्माओं के और कोई हो नहीं सकता। यह ज्ञान-मुरली और परमात्म मिलन न्यारा और प्यारा है। दुनिया की अनेक आत्मायें परमात्म-मिलन की प्यासी हैं, इन्तजार में हैं। लेकिन आप ब्राह्मण-आत्मायें दुनिया के कोने में गुप्त रूप में अपना श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त कर रहे हो क्योंकि दिव्य बाप को जानने अथवा देखने के लिए दिव्य बुद्धि और दिव्य दृष्टि चाहिए जो बाप ने आप विशेष आत्माओं को दी है इसलिए आप ब्राह्मण ही जान सकते और मिलन मना सकते हो। दुनिया वाले तो पुकारते रहते -’’एक बूंद के प्यासे हम'' और आप क्या कहते हो - हम वर्से के अधिकारी हैं, कितना अन्तर है - कहाँ प्यासी और कहाँ अधिकारी! अभी भी सभी अधिकारी बनकर अधिकार से आकर पहुँचे हो। दिल में यह नशा है कि हम अपने बाप के घर में अथवा अपने घर में आये हैं। ऐसे नहीं कहेंगे कि हम आश्रम में आये हैं। अपने घर में आये हैं - ऐसे समझते हो ना? अधिकार की निशानी है - अपना-पन। अपने बाप के पास आये हैं, अपने परिवार में आये हैं। मेहमान बन कर के नहीं आते लेकिन बच्चे आये हैं अपने घर में। चाहे चार दिन के लिए आते हो लेकिन समझते हो - मधुबन अपने स्थान पर पहुँचे हैं।
तो यह आना और जाना। आप ब्राह्मणों की जो पढ़ाई है वा मुरलीधर की जो मुरली है उसका सार यह दो शब्द ही हैं -’’आना और जाना''। याद की यात्रा का अभ्यास क्या करते हो? कर्मयोगी का अर्थ ही है - मैं अशरीरी आत्मा शरीर के बंधन से न्यारी हूँ, कर्म करने के लिए कर्म में आती हूँ और कर्म समाप्त कर कर्म-सम्बन्ध से न्यारी हो जाती हूँ, सम्बन्ध में रहते हैं, बंधन में नहीं रहते। तो यह क्या हुआ? कर्म के लिए ‘आना' और फिर न्यारा हो ‘जाना'। कर्म के बन्धन-वश कर्म में नहीं आते हो लेकिन कर्मेन्द्रियों को अधीन कर अधिकार से कर्म करने के लिए कर्मयोगी बनते हो। इन्द्रियों के कर्म के वशीभूत नहीं हो। कोई भी किसी के वश हो जाता तो वश हुई आत्मा मजबूर हो जाती है और मालिक बनने वाली आत्मा कभी किससे मजबूर नहीं होती, अपने ‘स्वमान' में मजबूत होती है। कई बच्चे अभी भी कभी-कभी किसी-न-किसी कर्मेन्द्रिय के वश हो जाते हैं, फिर कहते हैं - आज आँख ने धोखा दे दिया, आज मुख ने धोखा दे दिया, दृष्टि ने धोखा दे दिया। परवश होना अर्थात् धोखा खाना और धोखे की निशानी है - दु:ख की अनुभूति होना। और धोखा खाना चाहते नहीं हैं लेकिन न चाहते हुए भी कर लेते हैं, इसको ही कहा जाता है- वशीभूत होना। दुनिया वाले कहते हैं - चक्कर में आ गये...चाहते भी नहीं थे लेकिन पता नहीं कैसे चक्कर में आ गये। आप स्वदर्शन-चक्रधारी आत्मा किसी धोखे के चक्कर में नहीं आ सकती क्योंकि स्वदर्शन-चक्र अनेक चक्कर से छुड़ाने वाला है। न सिर्फ अपने को, लेकिन औरों को भी छुड़ाने के निमित्त बनते हैं। अनेक प्रकार के दु:ख के चक्करों से बचने के लिए सोचते हैं - इस सृष्टि-चक्र से निकल जायें...। लेकिन सृष्टि चक्र के अन्दर पार्ट बजाते हुए अनेक दु:ख के चक्करों से मुक्त हो जीवनमुक्त स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं - यह कोई नहीं जानता है। आप चैलेन्ज करते हो कि हम आपको जीवन में मुक्ति डबल दिला सकते हैं - जीवन भी हो और मुक्ति भी हो, ऐसी चैलेन्ज की है ना? नशे से कहते हो कि जीवनमुक्ति आपका और हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, तो स्वदर्शन चक्रधारी अर्थात् दु:ख के चक्करों से मुक्त रहने वाले और मुक्त करने वाले। वशीभूत होने वाले नहीं लेकिन अधिकारी बन, मालिक बन सर्व कर्मेन्द्रियों से कर्म कराने वाले। धोखा खाने वाले नहीं लेकिन औरों को भी धोखे से छुड़ाने वाले। यही अभ्यास करते हो ना - कर्म में आना और फिर न्यारा हो जाना, तो याद का अभ्यास क्या रहा? - आना और जाना।
और पढ़ाई अर्थात् ज्ञान का सार क्या है? कर्मातीत बन घर जाना है और फिर राज्य करने का पार्ट बजाने अपने राज्य में आना है। यही ज्ञान का सार है ना। तो ‘जाना' और ‘आना'- यही ज्ञान और योग है, इसी अभ्यास में दिन-रात लगे हुए हो। बुद्धि में घर जाने की और फिर राज्य में आने की खुशी है। जैसे मधुबन अपने घर में आते हो तो कितनी खुशी रहती है। जब से टिकेट बुक कराते हो तब से जाना है, जाना है - यह बुद्धि में याद रहता है ना! तो जब मधुबन घर की खुशी है तो आत्मा के घर जाने की भी खुशी है। लेकिन खुशी से कौन जायेगा? जितना सदा यह ‘आने' और ‘जाने' का अभ्यास होगा। जब चाहो तब अशरीरी स्थिति में स्थित हो जाओ और जब चाहो तब कर्मयोगी बन जाओ - यह अभ्यास बहुत पक्का चाहिए। ऐसे न हो कि आप अशरीरी बनने चाहो और शरीर का बंधन, कर्म का बंधन, व्यक्तियों का बंधन, वैभवों का बंधन, स्वभाव-संस्कारों का बंधन अपनी तरफ आकर्षित करे। कोई भी बंधन अशरीरी बनने नहीं देगा। जैसे कोई टाइट ड्रेस पहनते हैं तो समय पर सेकण्ड में उतारने चाहें तो उतार नहीं सकेंगे, खिंचावट होती है क्योंकि शरीर से चिपटा हुआ है। ऐसे कोई भी बंधन का खिंचाव अपनी तरफ खीचेगा। बंधन आत्मा को टाइट कर देता है। इसलिए बापदादा सदैव यह पाठ पढ़ाते हैं - निर्लिप्त अर्थात् न्यारे और अति प्यारे। यह बहुतकाल का अभ्यास चाहिए।
ज्ञान सुनना-सुनाना, सेवा करना यह अलग चीज़ है लेकिन यह अभ्यास अति आवश्यक है। पास-विद्-आनर बनना है तो इस अभ्यास में पास होना अति आवश्यक है। और इसी अभ्यास पर अटेन्शन देने में डबल अण्डरलाइन करो, तब ही डबल लाइट बन कर्मातीत स्थिति को प्राप्त कर डबल ताजधारी बनेंगे। ब्राह्मण बने, बाप के वर्से के अधिकारी बने, गॉडली स्टूडेन्ट बनें, ज्ञानी तू आत्मा बने, विश्व सेवाधारी बने - यह भाग्य तो पा लिया लेकिन अब पास-विद्-आनर होने के लिए, कर्मातीत स्थिति के समीप जाने के लिए ब्रह्मा बाप समान न्यारे अशरीरी बनने के अभ्यास पर विशेष अटेन्शन। जैसे ब्रह्मा बाप ने साकार जीवन में कर्मातीत होने के पहले ‘न्यारे और प्यारे' रहने के अभ्यास का प्रत्यक्ष अनुभव कराया। जो सभी बच्चे अनुभव सुनाते हो - सुनते हुए न्यारे, कार्य करते हुए न्यारे, बोलते हुए न्यारे रहते थे। सेवा को वा कोई कर्म को छोड़ा नहीं लेकिन न्यारे हो लास्ट दिन भी बच्चों की सेवा समाप्त की। न्यारा-पन हर कर्म में सफलता सहज अनुभव कराता है। करके देखो। एक घण्टा किसको समझाने की भी मेहनत करके देखो और उसके अन्तर में 15 मिनट में सुनाते हुए, बोलते हुए न्यारे-पन की स्थिति में स्थित होके दूसरी आत्मा को भी न्यारे-पन की स्थिति का वायब्रेशन देकर देखो। जो 15 मिनट में सफलता होगी वह एक घण्टे में नहीं होगी। यही प्रैक्टिस ब्रह्मा बाप ने करके दिखाई। तो समझा क्या करना है!
पहले निमित्त तो टीचर्स हैं। फालो फादर करेंगी ना। सेवा का विस्तार भल कितना भी बढ़ाओ लेकिन विस्तार में जाते सार की स्थिति का अभ्यास कम न हो, विस्तार में सार भूल न जाये। खाओ-पियो, सेवा करो लेकिन ‘न्यारे-पन' को नहीं भूलो। वाणी द्वारा भी कहाँ तक सेवा करेंगे, कितने की करेंगे! अब तो रूहानी वायब्रेशन, अशरीरीपन की स्थिति के वायब्रेशन, न्यारे और प्यारे-पन के शक्तिशाली वायब्रेशन वायुमण्डल में फैलाओ। सेवा की तीव्रगति का साधन भी यही है। दूसरों की सेवा करने के पहले स्वयं इस विधि में सम्पन्न होंगे तब सेवा की सिद्धि को प्राप्त करेंगे। अब वाणी में आना सहज हो गया है और दिल से भी करते हो क्योंकि अभ्यास पक्का हो गया है। ऐसे यह अभ्यास भी नेचुरल हो जायेगा। इस नेचुरल अभ्यास से ही नेचर बदली होगी। चाहे मनुष्य आत्माओं की नेचर, चाहे प्रकृति (नेचर)। समझा? मुश्किल तो नहीं लगता है ना! बड़े ते बड़े बाप के बच्चे हैं और बड़े-ते-बड़ी प्राप्ति के अधिकारी हैं, तो उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं। अटेन्शन रखना तो आता है ना कि टेन्शन रखना आता है। निजी संस्कार अटेन्शन के हैं। जब टेन्शन रखना आता है तो अटेन्शन रखना क्या बड़ी बात है? टेन्शन रखने में तो आदती हो गये ना। अटेन्शन का भी टेन्शन नहीं रखो लेकिन नेचुरल अटेन्शन हो। कई ऐसा भी करते हैं - अटेन्शन को टेन्शन में बदल देते, इसलिए होता है। अटेन्शन को अटेन्शन के रूप में करो, बदली नहीं करो। ओरीजनल अभ्यास आत्मा को न्यारे होने का है। न्यारी थी, न्यारी है, फिर न्यारी बनेगी। सिर्फ अटैचमेंट न्यारा बनने नहीं देता है। वैसे आत्मा की ओरीजनल नेचर शरीर से न्यारे रहने की है, अलग है। शरीर आत्मा नहीं, आत्मा शरीर नहीं। तो न्यारे हुए ना। सिर्फ 63 जन्मों से अटैचमेंट की आदत पड़ गई है। ओरीजनल तो ओरीजनल ही होता है। अच्छा।
डबल विदेशी भी बहुत पहुँच गये हैं - नया वर्ष मनाने के लिए। मेहमान बन करके आये हो या बच्चे बनकर आये हो? अपना-पन लगता है ना। बापदादा भी बच्चों को अपने घर में देख हर्षित होते हैं। बच्चे सदैव घर का शृंगार होते हैं। बच्चों से मधुबन सज जाता है, इसलिए बापदादा अपने घर के शृंगार को देख खुश हो रहे हैं। चाहे भारतवासी, चाहे विदेशी - दोनों ही घर के शृंगार हैं। बापदादा आने की भी मुबारक देते हैं, जाने की भी मुबारक देते हैं। यहाँ आना भी अच्छा है, जाना भी अच्छा है। विदाई नहीं है, बधाइयाँ ही बधाइयाँ हैं। जायेंगे तो सेवा की बधाइयाँ और यहाँ आये हो तो मिलने की बधाइयाँ। दोनों ही मुबारक है ना। अच्छा!
सर्व देश-विदेश के सदा अधिकारी बच्चों को, सदा ज्ञान और याद के सार में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा आना और जाना इस स्मृति से सम्पन्न बनने वाली आत्माओं को, सदा ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले, कर्मातीत स्थिति के समीप पहुँचने वाले योगी आत्माओं को, सदा अपने-पन के अनुभव और अधिकार की खुशी में रहने वाले खुशमिजाज बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।