05-12-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


वर्तमान समय की आवश्यकता - बेहद के वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाना

आज स्नेह के सागर बाप अपने स्नेह में समाये हुए स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। यह ईश्वरीय स्नेह सिवाए आप बच्चों के किसी को भी प्राप्त नहीं होता। आप सभी को ये विशेष प्राप्ति है। प्राप्ति सभी बच्चों को है लेकिन पहली स्टेज है प्राप्ति होना और आगे की स्टेज है प्राप्ति के अनुभव में खो जाना। पहली बात, प्राप्ति की नशे से सभी कहते हो कि हमें बाप का प्यार मिला। बाप मिला अर्थात् प्यार मिला। सभी के मुख से यही निकलता है ‘मेरा बाबा’। तो पहली स्टेज में प्राप्ति सभी को है। लेकिन अनुभूति में सदा खोये रहें, इसमें नम्बरवार हैं। जो परमात्म प्यार में खोये हुए रहते हैं उनको इस प्यार से कोई हटा नहीं सकता। परमात्म प्यार में खोई हुई आत्मा की झलक और फलक, अनुभूति की किरणें इतनी शक्तिशाली होती हैं जो कोई भी समीप आना तो दूर लेकिन आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। ऐसी अनुभूति सदा रहे तो कभी भी किसी भी प्रकार की मेहनत नहीं होगी। अभी योग लगाते­लगाते युद्ध करनी पड़ती है। बैठते योग में हैं लेकिन अनुभूति में खोये हुए नहीं होने के कारण कभी योग, कभी युद्ध दोनों चलते रहते हैं। मैं बाप का हूँ-ये बार­बार स्मृति में लाना पड़ता है। तो बार­बार स्मृति में लाना, विस्मृति है तब तो स्मृति में लाते हो ना? तो हाँ­ना, स्मृतिय्विस्मृति-ये युद्ध लवलीन अनुभूति करने नहीं देती है। वर्तमान समय बच्चों को जो युद्ध वा मेहनत करनी पड़ती है वो व्यर्थ और समर्थ की युद्ध ज्यादा चलती है। कोई­कोई बच्चों में व्यर्थ देखने के संस्कार नेचुरल नेचर हो गई है। कोई में सुनने की, कोई में वर्णन करने की, कोई में सोचने की-ऐसी नेचुरल नेचर हो गई है जो वो समझते ही नहीं हैं कि ये हम करते भी हैं। अगर कोई इशारा भी देते हैं तो माया की समझदारी होने के कारण अपने को बहुत समझदार समझते हैं। या तो माया के समझदार बन जाते वा अलबेलापन आ जाता-ये तो चलता ही है, ये तो होता ही है.....। माया की समझदारी से रांग में भी अपने को राइट समझते हैं। होती माया की समझदारी है लेकिन समझेंगे-मेरे जैसा ज्ञानी, मेरे जैसा योगी, मेरे जैसा सेवाधारी कोई है ही नहीं। क्योंकि उस समय माया की छाया मन और बुद्धि को ऐसे वशीभूत कर देती है जो यथार्थ निर्णय कर नहीं सकते। मायावी योगी वा मायावी ज्ञानी समझदार, ईश्वरीय समझ से किनारा करा देती है। माया की समझदारी भी कम नहीं है। माया से योग लगाने वाले भी अचल­अटल योगी हैं। इसलिये फर्क नहीं समझते। उस समय के बोल का नशा भी सभी जानते हो ना-कितना बढ़िया होता है! इसलिये बापदादा सदा बच्चों को कहते हैं कि प्राप्तियों की अनुभूतियों के सागर में समाये रहो। सागर में समाना अर्थात् सागर समान बेहद के प्राप्ति स्वरूप बन कर्म में आना।

बापदादा ने चारों ओर के बच्चों का चार्ट चेक किया। क्या देखा? समय के समीपता के प्रमाण वर्तमान के वायुमण्डल में बेहद का वैराग्य प्रत्यक्ष स्वरूप में होना आवश्यक है। बेहद का वैराग्य वर्णन भी करते हो। पॉइन्ट्स बहुत निकालते हो, भाषण भी बहुत अच्छे करते हो। सभी के पास पॉइन्ट्स हैं ना? पॉइन्ट्स वर्णन करना वा सोचना-इसमें तो मैजारिटी पास हैं। इन छोटी­छोटी कुमारियों को भी भाषण तैयार करके देंगे तो कर लेंगी। यथार्थ वैराग्य वृत्ति का सहज अर्थ है-चाहे आत्माओं के सम्पर्क में आयें, चाहे साधनों के सम्बन्ध में आयें, चाहे सेवा के चांस में चांसलर बनने का भाग्य मिले लेकिन सर्व के सम्बन्ध­सम्पर्क में जितना न्यारा, उतना प्यारा-इसका बैलेन्स रहे। होता क्या है? कभी न्यारेपन की परसेन्टेज बढ़ जाती और कभी प्यारेपन की परसेन्टेज बढ़ जाती। प्यारापन का अर्थ है निमित्त भाव, निर्मान भाव। लेकिन इसके बदले मेरेपन का भान आ जाता। ये मेरा ही काम है, मेरा ही स्थान है, मुझे ही सर्व साधन भाग्य अनुसार मिले हुए हैं, इतनी मेहनत से मैंने ये साधन, स्थान वा सेवा वा सेवा साथी (स्टूडेन्ट्स भी साथी हैं) बनायें हैं। ये मेरा है, क्या मेरी मेहनत की कोई वैल्यू नहीं है? ये निमित्त भाव और मेरेपन के भाव में अन्तर है या एक ही है? ये मेरापन रॉयल रूप से बढ़ गया है। ये मेरेपन की रॉयल भाषा, रॉयल संकल्प बाप से रूहरिहान में भी बापदादा बहुत सुनते हैं। बहुत प्यार से बाप को या निमित्त आत्माओं को मनाने या मनवाने आते हैं-बाबा आप ही इसमें मेरे को मदद करना, आप क्या समझते हो कि ये मेरा काम नहीं है, मेरी जिम्मेदारी नहीं है, मेरा अधिकार मेरे को ही मिलना चाहिये। बाप को भी ज्ञान देने के लिये बहुत होशियारी करते हैं। बापदादा मुस्कराते रहते हैं। निमित्त हैं, जो मिला, जैसे मिला, जहाँ बिठायेंगे, जो खिलायेंगे, जो करायेंगे वही करेंगे। ये पहला­पहला सभी का वायदा है। वायदा है ना? ये वायदा है या सिर्फ खाने­पीने के लिये है? मेरेपन के भाव का वैराग्य ही बेहद का वैराग्य है। नये­नये प्रकार के मेरेपन और इमर्ज हो रहे हैं। माया वर्तमान समय नये­नये प्रकार के मेरेपन की छाया डाल रही है। इसलिये समय की समीपता प्रत्यक्ष रूप में नहीं आ रही है। ज्ञानी, चाहे अज्ञानी, दोनों जानते हैं और कहते भी हैं कि दुनिया की हालतें बहुत खराब है, ये दुनिया कहाँ तक चलेगी, कैसे चलेगी? लेवि्ान फिर भी दुनिया चल रही है। समय की समीपता का फाउण्डेशन है - बेहद की वैराग्य वृत्ति। बापदादा ने चेक किया बेहद की वैराग्य वृत्ति के बजाय नये­नये प्रकार के छोटे­छोटे लगाव का विस्तार बहुत बड़ा है। इस विस्तार ने सार को छिपा लिया है। समझा? अब क्या करना है?

यह लगाव बड़े टेस्टी लगते हैं। एक­दो बार टेस्ट किया तो वो टेस्ट खींचते रहते हैं। सेवा कर रहे हो बहुत अच्छा लेकिन अपनी चेकिंग करो कि निमित्त भाव है वा लगाव का भाव है? ‘बाबा­बाबा’ के बदले ‘मेरा­मेरा’ तो नहीं आ जाता? मानना है तेरा और बन जाता है मेरा। तो अब क्या करेंगे? मेरा­मेरा पसन्द है? बापदादा ने पहले भी सुनाया है-एक बहुत बड़ी गलती करते हैं वा चलते­चलते हो जाती है, करना नहीं चाहते हैं लेकिन हो जाती है, वह क्या? दूसरे के जज बन जाते हैं और अपने वकील बन जाते हैं। बनना है अपना जज और बनते हैं दूसरों का। इसको यह नहीं करना चाहिये, इनको बदलना चाहिये। और अपने लिये समझेंगे-यह बात बिल्कुल सही है। मैं जो कहती हूँ, वही राइट है, ये ऐसे है, ये वैसे है। वकील लोग भी सिद्ध करते हैं ना-सच को झूठ, झूठ को सच। और जितने प्रमाण देना वकीलों को आता है उतना और किसको नहीं आता। अपना जज बनना-ये गलती हो जाती है। दूसरे के लिये रिमार्क देना बहुत सहज है। लेकिन अपने को बदलना है। सलोगन भी है-’’स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन।’’ पहले ‘स्व’ है। सुना, क्या चार्ट देखा?

बापदादा भी माया की चाल को देख मुस्कराते रहते हैं-माया कितनी चतुर है! मास्टर सर्वशक्तिमान् आत्माओं को भी अपना बना लेती है। तो अभी क्या चाहिये? बेहद की वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाओ। जैसे सेवा का वायुम­ ण्डल बनाते हो ना, प्रोग्राम बनाते हो। सिर्फ दिमाग तक ये वृत्ति नहीं, दिल तक पहुँचे। सबके दिमाग में तो है-होना चाहिये, करना चाहिये लेकिन दिल में ये लहर उत्पन्न हो जाये इसकी आवश्यकता है। समझा? सभी ने अच्छी तरह से समझा? कि अभी समझ में आया फिर उठने के बाद सोचेंगे-ये कैसे होगा, ये करना मुश्किल है, सुनना­बोलना तो सहज है, करना मुश्किल है। तो अभी ऐसे नहीं कहेंगे ना?

स्नेह से आप भी पहुँच गये हैं और बापदादा भी पहुँच गये हैं। स्नेह में देखो कितनी शक्ति है! स्नेह अव्यक्त को व्यक्त में ले आता है। आप सबको मधुबन में ले आया है। सभी स्नेह में ठीक पहुँच गये हैं ना? किसने लाया? ट्रेन ने लाया कि स्नेह ने लाया? जहाँ स्नेह है वहाँ मेहनत, मेहनत नहीं लगती, मुश्किल, मुश्किल नहीं लगता। ये तीन पैर के बजाय दो पैर पृथ्वी भी मिले तो क्या लगता है? सतयुग के पलंगों से भी श्रेष्ठ है। सब आराम से रहे हुए हैं कि मजबूरी से? क्या करें, रहना ही है....। भक्ति मार्ग में तो सिर्फ पांव रखने के लिये इतनी मेहनत करते हैं, आपको सोने के लिये तीन पैर नहीं तो दो पैर तो मिलता है। आपने तो मांगा था कि चरणों में जगह दे दो लेकिन बाप ने चरणों की बजाय पटरानी बना दिया। फिर भी मधुबन का आंगन है ना। चाहे कहाँ भी सोते हो लेकिन हैं तो मधुबन के आंगन में। इतना बाप के समीप आने का अधिकार मिलेगा-ये तो स्वप्न में भी नहीं था। तो सब खुश हो ना? दो पैर की बजाय एक पैर मिले तो भी राजी रहेंगे? बैठे­बैठे सोयेंगे! कइयों को बैठने में नींद अच्छी आती है। सोयेंगे तो नींद नहीं आयेगी। योग में बैठना और सोना शुरू। पांच दिन अखण्ड तपस्या करनी पड़े तो सब तैयार हो? खाना भी नहीं मिले तो चलेगा? कि समझते हो ये होना नहीं है? जो चीज़ वहाँ नहीं खाते वो और ही मधुबन में मिलती है। लेकिन एवररेडी रहना चाहिये। मिले तो बहुत अच्छा, न मिले तो बहुत­बहुत अच्छा। क्योंकि सबको अमृतवेले दिलखुश मिठाई तो मिलती ही है और सारा दिन खुशी की खुराक भी मिलती है। तो चल सकता है ना? ये भी ट्रॉयल करेंगे। अच्छा!

पंजाब- सभी चलते फिरते सदा ये अनुभव करते हो कि हम विश्व की सर्व आत्माओं के पूर्वज हैं? आपसे ही सब निकले हैं ना? तो सबसे बड़े ते बड़े पूर्वज आप आत्मायें हो। पूर्वज स्वरूप से सदा विश्व की सर्व आत्माओं को रहम की भावना से देखते, वरदानी बन शुभ भावना और शुभ कामना का वरदान देते रहो। साधारण नहीं, पूर्वज हैं। पूर्वज अर्थात् रहमदिल आत्मा। रहम की भावना, शुभ भावना यही विश्व की आवश्यकता है। तो सभी अपने को ऐसा विश्व का पूर्वज समझते हो या कभी­कभी अपने को साधारण समझ लेते हो? जैसे ब्रह्मा बाप ग्रेट­ग्रेट ग्रैण्ड फादर है तो ब्राह्मण क्या हैं? पूर्वज हैं ना? समझा?

पंजाब ने क्या कमाल की है? देखो, आपके वायब्रेशन्स से वायुमण्डल तो बदल गया है ना। समझते हो कि हमारे वायब्रेशन का प्रभाव है? योग तपस्या तो सभी ने अच्छी की ना। तो जो तपस्या का बल है वो व्यर्थ नहीं जाता। फल जरूर निकलता है। वैसे भी जब कोई विघ्न आता है तो अखण्ड योग रख देते हो ना? उससे फर्क पड़ता है। तो पंजाब वालों को तपस्या का समय तो बहुत मिला? अच्छा वायुमण्डल परिवर्तन हुआ है तो अभी धूमधाम से सेवा कर रहे हो? अभी चारों ओर सेवा की धूम मचा दो। जितना भी समय मिलता है उतना समय प्रमाण फायदा उठा लो। एक से अनेक निकलते हैं तो उस एक से जो अनेक निकलते हैं उनका वायुमण्डल पर प्रभाव पड़ता है। धरनी की सपलता बदल जाती है। तो अभी जोरशोर से सेवा करो। अभी चांस है सेवा करने का। लेकिन निमित्त भाव से करना, ‘मेरा’ नहीं लाना। अच्छा!

आगरा - आगरा में विशेषता क्या है? आगरा को कहते ही हैं ताज नगरी। तो आगरा वालों को सदा ही सेवा की निर्विघ्न वृद्धि की जिम्मेदारी का ताज धारण करना है। सेवा हो लेकिन उसकी विशेषता है निर्विघ्न सेवा। तो सेवा की जिम्मेदारी के ताजधारी और साथ­साथ सदा लाइट के ताजधारी अर्थात् सम्पूर्ण पवित्रता की जिम्मेदारी के ताजधारी होंगे ना? सेवा और लाइट ये डबल ताज सदा प्रैक्टिकल स्वरूप में रहे। तो ये ताज ही सर्व आत्माओं को सहज आकर्षित करेगा। तो सेवा में भी आगे बढ़ो और लाइट के ताजधारी बन दूसरों को बनाने में भी आगे बढ़ो। समझा?

हुबली, गुलबर्गा - कर्नाटक की विशेषता क्या है? वहाँ भावना ज्यादा होती है ना। तो जैसे धरनी की विशेषता है भावना, वैसे ही कर्नाटक निवासी चाहे किसी भी स्थान के हो, सभी विशेष हर सेकण्ड, हर संकल्प में शुभ भावना, शुभ कामना - इसके नेचुरल स्वरूपधारी। कर्नाटक निवासियों की विशेषता है कि व्यर्थ की समाप्ति और शुभ भावना, शुभ कामना स्वरूप सदा रहे। व्यर्थ को फुल स्टॉप। शुभ भावना और शुभ कामना का सदा फुल स्टॉक। तो स्टॉप लगाना आता है? और शुभ भावना का स्टॉक जमा करना भी आता है? स्टॉक जमा करने और स्टॉप लगाने में होशियार हो ना? जैसे आगे बैठना पसन्द करते हो ऐसे सदा हर श्रेष्ठ धारणा में भी आगे से आगे रहना। अच्छा।

तामिलनाडु, केरला -  तामिल वाले क्या करेंगे? क्या विशेष नशा रखेंगे? सबसे बड़े ते बड़ा रूहानी नशा है-हम बाप के और बाप हमारा। जो इस नशे में रहते हैं वो सदा ही निश्चित सहज विजयी हैं। तो तामिल वाले वा केरला वाले सदा इस रूहानी नशे में रहने वाले और सदा सहज विजय प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। समझा?

हैदराबाद, सिकन्दराबाद - आन्ध्रा वाले भाषा नहीं जानते हैं लेकिन भावना की भाषा जानते हैं। तो आन्ध्रा वाले क्या करेंगे? आन्ध्रा में भी सेवा तो अच्छी है। सदा अपने को हम कोटों में कोई और कोई में भी कोई आत्मायें हैं, ऐसा अनुभव करते हो? जो गायन है कोटों में कोई, कोई में भी कोई, तो वो कौन­सी आत्मायें हैं, किसका गायन है? आन्ध्रा वालों का है? चाहे कैसी भी आत्मायें हो लेकिन बाप की तो प्यारी हो ना। तो ये खुशी सदा रहे कि जो हूँ, जैसी हूँ लेकिन बाप की प्यारी हूँ इसलिये कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा बनने का भाग्य आपको मिला है। अच्छा।

महाराष्ट्र - ‘महाराष्ट्र’ नाम लेने से ही नशा चढ़ता है ना? देश का नाम भी महान और ब्राह्मण बन गये तो आत्मायें भी महान और महान आत्माओं का कर्तव्य है सभी आत्माओं को महान बनाना। तो महाराष्ट्र वालों को हर समय संकल्प में, बोल में, कर्म में, सम्बन्ध में ‘महान’ शब्द सदा स्मृति में रहे। महान स्वरूप के स्मृति स्वरूप। संकल्प भी साधारण नहीं, महान। एक बोल भी साधारण नहीं, महान। तो ऐसे महान हो? बोलो, हाँ जी। महान हैं और महान बनाने वाले हैं तो महान शब्द सदा स्वरूप में रहे। सिर्फ मुख में नहीं लेकिन स्वरूप में।

इन्दौर, हॉस्टल की कुमारियों से - हॉस्टल की कुमारियाँ हो या हाइएस्ट, होलिएस्ट कुमारियाँ हो? हाइएस्ट भी हो, होलिएस्ट भी। ऊंचे ते ऊंचे भी हो और महान पवित्र आत्मायें भी हो। क्योंकि कुमारी जीवन का अर्थ ही है महान पवित्र। इसीलिये कुमारियों को पूजते हैं। और कुमारी से माता बनी तो सबके पांव छूने पड़ेंगे। अगर बहु बनकर घर में आई तो क्या करेंगे? सबके पांव छुयेंगे और कुमारियों के पांव पूजे जाते हैं। तो कुमारी जीवन अर्थात् महान पवित्र जीवन। ऐसी कुमारियाँ हो ना कि कभी­कभी जोश आ जाता है? आपस में एक­दो में जोश आता है कि नहीं आता? क्योंकि क्रोध भी अपवित्रता है। सिर्फ काम विकार नहीं, लेकिन उसके और भी साथी हैं। तो महान पवित्र अर्थात् अपवित्रता का नामय्निशान नहीं। इसको कहा जाता है होलीएस्ट, हाइएस्ट कुमारियाँ। तो ऐसी हो या थोड़ा­थोड़ा कभी माया को छुट्टी दे देते हो? माया प्यारी लगती है ना तो आती है! लेकिन माया कभी भी न आये इसका सहज साधन है कि सदा गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ में रहो, स्टडी, स्टडी, स्टडी। और कोई बातों में नहीं जाना। अगर कर्मणा सेवा भी करते हो तो वो भी स्टडी की सब्जेक्ट है। खाना बनाना भी स्टडी है। कर्मयोगी का पाठ है, तो पढ़ाई हुई ना? तो कुमारी जीवन में सफलता का आधार है स्टूडेण्ट लाइफ। और बातों में जाना ही नहीं है, रास्ता बन्द। ऐसे है या कभी­कभी गलत गली में चली जाती हो? नहीं। अच्छा है, अपना भाग्य तो बना लिया। अभी भाग्य की लकीर को जितना लम्बा बनाने चाहो, उतना बना सकती हो। तो छोटी लकीर नहीं खींचना, लम्बी खींचना। बापदादा भी खुश होते हैं कि कुमारी जीवन में बच गई। भाग्यवान बन गयी। और भी कुछ स्थानों से कुमारियाँ आई हैं। ट्रेनिंग वाली कुमारियां हाथ उठाओ। ट्रेनिंग करना माना सेवा की ट्रेन में चढ़ना। तो सेवा की ट्रेन में चढ़ गये कि अभी फैसला कर रहे हैं? सेवा में लग गये? अच्छा है, आदि से निःस्वार्थ सेवाधारी। सेवाधारी सभी हैं लेकिन निःस्वार्थ सेवाधारी, वो कोई­कोई हैं। आप किस लाइन में हो? निःस्वार्थ सेवाधारी या थोड़ा­थोड़ा स्वार्थ तो रखना ही पड़ेगा! नहीं। फाउण्डेशन ही ऐसा मजबूत रखना, क्योंकि सेवा में स्वार्थ मिक्स करने से सफलता भी मिक्स मिलती है। तो अच्छा है, बापदादा खुश होते हैं, जो कुमारियाँ हिम्मत रखकर सेवा में आगे बढ़ती हैं। आगे बढ़ने की मुबारक। अच्छा।

डबल विदेशी - (सभी स्थानों से पहुंचे हैं) होशियार हैं डबल फारेनर्स। जैसे सब देश के एम्बेसेडर भेजते हैं ना। तो इन्टरनेशनल ब्राह्मण परिवार हो गया ना। डबल विदेशियों की विशेषता है कि सदा हाथ में हाथ है और साथ है। विदेश का फैशन है ना हाथ में हाथ देना। तो अभी किसके हाथ में हो? बाप के। सदा बाप के हाथ से हाथ मिलाके आगे चलने वाले। हाथ है श्रीमत, तो श्रीमत का हाथ सदा हाथ में है। पक्का है कि कभी थक जाते हैं तो छोड़ देते हैं? कभी हाथ छूटता है? माया छुड़ावे तो? नहीं छूटता है? तो सदा साथ रहने वाले और सदा श्रीमत के हाथ में हाथ देकर चलने वाले। जिसका साथी बाप है, जिसका हाथ बाप के हाथ में है वो सदा ही निश्चिन्त, बेफिक्र बादशाह है। क्योंकि हाथ और साथ दोनों मजबूत हैं। ठीक है ना? नैरोबी वाले, पक्का हाथ और साथ है ना? चाहे सारी दुनिया के अक्षौहिणी लोग हाथ छुड़ाये तो छूटेगा? वो अक्षौहिणी शक्तिहीन हैं और आप एक मास्टर सर्व शक्तिमान हैं। इसीलिये डबल विदेशियों को नशा है कि बापदादा का एक्स्ट्रा हाथ और साथ है, लिफ्ट है। अच्छा।

टीचर्स - जैसे टीचर्स का टाइटल है, तो जैसा टाइटल है वैसे विशेष बेहद के वैराग्य वृत्ति का वायुमण्डल बनाने में टाइट रहना। हल्के नहीं होना। क्योंकि निमित्त टीचर्स का वायुमण्डल अनेकों तक पहुँचता है। तो टीचर्स अभी ये कमाल करके दिखायें। जैसे परिवर्तन में आज्ञाकारी तो बने। आज्ञाकारी बनने का, हाँ जी करने का एक पाठ तो पक्का कर लिया। लेकिन दूसरा पाठ बेहद के वैराग्य वृत्ति का, अभी ये पाठ पक्का करके दिखाओ। क्योंकि निमित्त हो ना। तो निमित्त आत्मायें ही निर्मान बन निर्माण का कर्तव्य बहुत सहज कर सकती हैं। अभी ये वर्ष तो पूरा हो ही रहा है। लेकिन नये वर्ष में इस नवीनता की झलक बापदादा भी देखेंगे। सेवा की, सेन्टर खोले, बहुत बढ़ाया, आई.पीज भी आ गये, वी.आई.पीज भी आ गये, ये तो होता ही रहता है लेकिन सेवा में बेहद की वैराग्य वृत्ति अन्य आत्माओं को और समीप लायेगी। मुख की सेवा सम्पर्क में लाती है और वृत्ति से वायुमण्डल की सेवा समीप लायेगी। समझा? बापदादा तो चार्ट देखते ही हैं ना? फिर भी सेवा के निमित्त हो-ये श्रेष्ठ भाग्य कम नहीं है! ये भी विशेष वर्सा है। तो इस विशेष वर्से के भाग्य के अधिकारी बने हो। समझा? अच्छा।

चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्तियों के अनुभूतियों में समाये हुए श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा परखने की, निर्णय करने की शक्ति को तीव्र बनाने वाले समीप आत्माओं को, सदा सेवा में समर्थ बन समर्थ बनाने के निमित्त आत्माओं को, सदा न्यारा और प्यारा दोनों का बैलेन्स रखने वाली ब्लैसिंग के पात्र आत्माओं को बापदादा का याद­प्यार और नमस्ते।