Ultimate Happiness
Shivani Bahen


सब खुश हैं या खुशी चाहिए! या तो खुश हैं या खुशी चाहिए दोनों में से एक ही चीज हो सकती है ना! सारे दिन में अपने आप से पूछें कि कितनी देर हम खुश रहते हैं और कितनी देर मन थोड़ा-थोड़ा उपर-नीचे होता है और वो जितनी देर मन उपर-नीचे होता है क्या उसको भी बदल कर हम सारा दिन खुश रहना चाहते हैं। अगर हमें विकल्प मिले तो क्या हम सारा दिन खुश रहना चाहेंगे या कभी-कभी। सारा दिन! हर दिन, पूरा साल और सारी जिंदगी हम खुश रहना चाहते हैं ? पर क्या ये संभव है? सारे दिन में हम कहते हैं कभी-कभी खुशी, कभी-कभी उदासी, कभी-कभी शांति, कभी-कभी थोड़ा-सा चिड़चिड़ापन, कभी-कभी संतुष्ट, कभी-कभी थोड़ा-सा डर तो ये कभी-कभी दोनों चलता रहता है। अब अपने आप से हम पूछें कि सारे दिन में हम कितने प्रतिशत खुश हैं और कितने प्रतिशत दुखी हैं और आजकल तो खुश रहने से भी इतना डर जाते हैं कि अगर घर में सभी खुश हो तो कोई ना कोई एक व्यक्ति जरूर बोलेगा कि ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए, कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो जाता है ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए और फिर और कुछ नहीं मिलेगा तो क्या कहेंगे ज्यादा खुश नहीं हो नहीं तो किसी ना किसी की नजर ही लग जाएगी हमारी खुशी को, ये बहुत बड़ा डर है। तो जैसे ही हमने ये विचार उत्पन्न किया कि ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए क्योंकि अगर ज्यादा खुश होंगे तो कुछ ना कुछ हो जायेगा, अगर ज्यादा खुश होंगे तो किसी ना किसी की नजर लग जायेगी ये विचार डर के हैं और जैसे ही हम डरे हमारी खुशी गायब हो जाती है। खुशी आई थी रहने के लिए और हमारे साथ ही रहने वाली थी लेकिन जैसे ही हमने ये संकल्प किया कि किसी की वो न लग जाये, ये न हो जाये, किसी की ईर्ष्या न हो जाए, कोई कुछ कर न दे मुझे तो मेरी खुशी गायब और फिर खुद ही अपनी खुशी गायब कर देते हैं और फिर खुद ही तुरंत क्या कहते है खुशी चाहिए। खुशी आई थी और सारा दिन अपने पास ही है लेकिन हम उस समय कुछ ना कुछ ऐसा अंदर सृजित कर देते हैं कि वो गायब हो जाती है।

जैसे ही हम अपने मन पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं तो हम सिर्फ ये ध्यान देते हैं कि ये जो बीच-बीच में हम गलत वाले विचार करने शुरू कर देते हैं इसको हम करना बंद कर दें। आज हम खुशी के लिए क्या-क्या करते हैं, खुश रहने के लिए क्या करते हैं, संगीत सुनते हैं और क्या करते हैं, नयी चीजें खरीदते है और क्या करते है, भाई लोग क्या करते है खुश रहने के लिए, हँसते हैं। हम हँसते हैं बाहर से या अंदर वाली हँसी ! आजकल उद्योगों में पूरा खंड है जिसको हम कहेंगे सेवा उद्योग, कोई रेस्टोरेंट, कोई होटल, कोई एयरलाइन या फिर ये जो हमारा सब ग्राहक सेवा केंद्र है क्रेडिट कार्ड और बाकी सारी चीजें, आप उनको देखो वो चाहे कुछ भी हो जाए, हमेशा कैसे होते हैं हमेशा हँसते रहते हैं। आप उनको जोर से डांटो वो कहेंगे धन्यवाद मैम मैं फिर फोन करूंगा! हम कितनी भी उनसे कठोरता से बात करें, कितना भी हम बोलें कि बस अभी हमें फोन नहीं करना मुझे नहीं खरीदना है, मैं अभी बाहर व्यस्त हूँ हाँ मैम मैं कब फोन करूँ, कल करूँ सुबह! आप उनसे कैसे भी बात करो, उनकी आवाज, उनका चेहरा, उनकी मुस्कुराहट गायब नहीं होती है वो एकदम समान है। आपके घर कोई सेल्समेन आता है आप उसके मुँह पे दरवाजा बंद कर दो लेकिन फिर भी उसके चेहरे की मुस्कुराहट एकदम वहीं है। वो ये कैसे कर लेते हैं और अगर वो कर सकते है मतलब हम भी कर सकते है कोई भी कर सकता है फिर तो, वो क्यों कर लेते है ये, कहाँ से ताकत आती है उनके अंदर ये कर लेने की? तनख्वाह, महत्वपूर्ण है ना! इसका मतलब अपने महीने की तनख्वाह के लिए मैं कितना भी गलत व्यवहार, कितना भी गुस्सा सहन कर सकता हूँ क्योंकि मेरे अंदर वो ताकत है। क्या हम अपनी खुशी के लिए, अपने रिश्तों के लिए, अपने लिए और अपने परिवार के लिए थोड़ा बहुत सहन नहीं कर सकते है? कर सकते है या नहीं कर सकते हैं अगर वो इतना सहन कर सकते है और वो भी वो परायों से सहन करते है जिनको वो जानते भी नहीं है उनका भी वो गुस्सा सहन कर लेते हैं। हमें तो जो गुस्सा करते हैं वो कौन हैं हमारे ही अपने हैं आसपास के हैं। अगर वो अनजान लोगों का गुस्सा सहन कर सकते हैं सिर्फ तनख्वाह के लिए तो हम अपने परिवार की छोटी-मोटी बातें सहन नहीं कर सकते हैं खुशी के लिए! कर सकते हैं ना, पक्का! फर्क क्या? फर्क ये कि उन्होंने अपने अंदर जमा लिया है चाहे कुछ भी हो जाये हमें कैसे रहना है, हमें खुश रहना है। सिर्फ फर्क ये है वो बाहर से रहते है, जरूरी नहीं है वो अंदर से खुश हैं, वो बाहर से मुस्कुरातें हैं। अब हमें क्या करना है बाहर से भी करना है लेकिन साथसाथ अंदर से भी करना है क्योंकि हम बाहर की तनख्वाह के लिए नहीं कर रहे हम अंदर की खुशी के लिए कर रहे हैं वो सिर्फ बाहर की तनख्वाह के लिए कर रहे हैं तो उनको सिर्फ बाहर से ही करना है, हम अंदर की खुशी और संतुष्टता के लिए कर रहे हैं तो हमें अंदर से करना होगा। उनको जो प्रशिक्षण मिला वो ये कि चाहे कुछ भी हो जाये आपको गुस्सा नहीं आयेगा और हमें जो प्रशिक्षण मिला वो ये था कि थोड़ा-सा कोई कुछ गलत करे गुस्सा करो,ये ही फर्क है ना, प्रशिक्षण है! जैसे-जैसे हम बड़े होते रहे हैं हमें प्रशिक्षण मिलता जाता है। उनको प्रशिक्षण मिला चाहे कुछ भी हो जाए मुस्कुराहट बनी रहनी चाहिए और हमनें बचपन से ये देखा कि थोड़ी सी गलती हुई नहीं कि सामने वाले का मुंह ऐसे सूज जाता है। तो वो हमारा प्रशिक्षण था लेकिन कोई भी प्रशिक्षण को अब हम बदल सकते हैं। इस विद्यालय में जो हम मेडिटेशन सीखते हैं वो एक प्रशिक्षण ही है, एक प्रशिक्षण स्कूल है जहाँ पर हमें ये ही प्रशिक्षण मिलता है कि सामने वाला चाहे कुछ भी करे, कैसा भी करे, परिस्थिति चाहे कितनी भी बड़ी हो, प्रशिक्षण हमारा ये है कि अंदर से संतुष्ट रहना है। जैसे ही हम ये प्रशिक्षण लेना शुरू करते है तो ये करना संभव हो जाता है क्योंकि बाद में यह मात्र एक प्रशिक्षण है, एक योजना है जो हमें करनी है। आप अपना कार्यक्रम करने के लिए तैयार हैं या कहें कि नहीं गुस्सा नहीं करेंगे तो बिगड़ जायेंगे वो लोग, ऐसा भी कहते हैं ना हम गुस्सा नहीं करेंगे तो वो बिगड़ जायेंगे। अब जो प्रशिक्षण हमें करना है वो उनके लिए नहीं करना है जो प्रशिक्षण करना है वो अपने लिए करना है और जितना हम अपना ध्यान रखते जाएंगे उनका तो अपने आप हो जायेगा। फिर खुश रहने के लिए हम क्या-क्या करते हैं! नया सामान खरीदते हैं, संगीत सुनते है, हँसते हैं और महाबलेश्वर जायेंगे, लोनावाला जायेंगे घूमने के लिए। खुशी के लिए टीवी देखते है, पिक्चर जाते हैं, खाना खाने बाहर जाते हैं कि रोज घर का खाना खाने से तो खुशी मिल नहीं रही शायद बाहर का खाना खाने से मिल जाएगी। पार्टी करते हैं पूर्ण रूप से! मतलब हर वो चीज जिसमें मेहनत ज्यादा, खर्चा ज्यादा वो सब काम करते हैं एक व्यक्ति को तो खुशी मिलती दूसरे का क्या होता है। अभी अपने आप से पूछते हैं क्या ये सब करना ये सब सही है, नई चीजें खरीदने का मन करना अच्छी बात है स्वाभाविक है, टीवी देखना अच्छी बात है, पिक्चर देखो, टीवी देखो, घूमने जाओ सब कुछ करो लेकिन बहुत स्पष्ट होना चाहिए कि ये हम किसलिए कर रहे हैं ! पार्टी देना, लोगों को घर बुलाना, अदभुत लेकिन किसलिए ! क्योंकि सबके साथ मिलना, अपना दोस्तां का समूह बनाना ये हमें अच्छा लगता है ये अच्छा है, नया सामान खरीदना अच्छा लगता है क्योंकि सामान हमें क्या देता है? सोफा जिस पर आप बैठे है वो आपको क्या दे रहा है? आराम देता है या खुशी देता है। आराम से बैठे है उस बात की खुशी दे रहा है, बहुत अच्छी लिंक है आराम से बैठे है उस बात की खुशी दे रहा है। ``मैं आराम से बैठी हूँ'' ये वाक्य मुझे खुशी दे रहा है लेकिन ये वाक्य किसने पैदा किया, मैंने किया! इसका मतलब अगर सोफा खुशी दे रहा होता तो सिर्फ 20-25 लोग ही सोफे पर बैठे हैं बाकी सब तो कुर्सी पर इसका मतलब जो सोफे पर बैठे है वो पीछे बैठने वालों से ज्यादा खुश हैं और जो खडे हैं ! क्या ऐसा है कि जो सोफे पे बैठा है वो ज्यादा खुश और जो कुर्सी पे बैठा है वो कम ! नहीं, हाँ ये हो सकता है जो सोफे पे बैठा है वो थोड़ा ज्यादा आराम से है और जो कुर्सी पे बैठा है वो शारीरिक रूप से थोड़ा सा कम आराम से हो, लेकिन मन से उतना ही खुश। लेकिन अब जो कुर्सी पर बैठे हैं अगर उन्होंने एक संकल्प किया उनको सोफा मेरे को कुर्सी ! अब खुशी गई और हम फिर कहेंगे मेरी खुशी इसलिए गई क्योंकि मेरे पास कुर्सी है। मेरी खुशी इसलिए नहीं गई क्योंकि मेरे पास कुर्सी है, मेरी खुशी इसलिए गई क्योंकि मैंने ये विचार उत्पन्न किया कि उनके पास सोफा है मेरे पास कुर्सी है तब मेरी खुशी गई और फिर हमने कहा कि अगर मेरे पास भी सोफा होता तो मैं भी खुश होती फिर चली यात्रा....कि सोफा चाहिए। फिर बहुत मेहनत करके, कहीं से कुछ करके लोन लेकर के हमने सोफा ले लिया लेकिन वो भी रूके हुए थोड़े ही बैठे हैं, जब तक हमने सोफा लिया तब तक तो जो सोफे पे बैठे थे उन्होंने तो सिंहासन ले लिया होगा और फिर वही सोफा जो हमें लगा था कि वो हमे खुशी देगा अब वो ही सोफा हमें खुशी नहीं दे रहा है और फिर एक लोन लेना पड़ेगा कि अब मुझे वो लेना है जो इनके पास है और इन सारी चीजों में मैं अपनी खुशी को गायब करती गई, करती गई। सारा दिन में ये विचार आता है कि मेरे पास ये होगा तो मैं खुश होंगी, ये आता है कभी, आता है किसी को मुझे वो सोच चाहिए खुश होने के लिए, कपड़ा नहीं चाहिए, कपड़ा नहीं देता वो, वो जो सोच मिलती है किसी से स्वीकृति, महिमा, अपनापन, फिर मेरे अंदर वो सोच पैदा होती है इन्होंने मुझे अपनाया, मेरी महिमा की तब मुझे अच्छा लगता है। अब दो लोग आये तीन लोग आये चार लोग आये कहा बहुत अच्छी साड़ी है, कहाँ से ली, कितने की है वाह-वाह! अब एक आया उसने कहा ये कैसी साड़ी ली है, ये रंग आपके उपर बिल्कुल अच्छा नहीं लगा रहा, वो ही साड़ी है पाँच मिनट पहले तक वो साड़ी खुशी दे रही थी अब वो ही साड़ी क्या देने लग जाती है दुःख! अब मुझे गुस्सा आने लगता है अब मुझे अस्वीकृति महसूस होने लगती है, फिर मैं औरों के पास जाती हूँ कहती हूँ मेरी साड़ी अच्छी है ना! वो कहते हैं, हाँ अच्छी है! देखो ना उसने क्या बोला उसने अपनी साड़ी देखी है, खुद उसने अपने कपड़े देखे हैं, क्या वो पहनती है बस बोलती रहती है। शुरू हो जाती हैं दुनिया भर की बातें, वो साड़ी दो तीन हजार की बेकार क्योंकि अब मेरी सोच, मेरा विचार गुस्सा, ईर्ष्या, निंदा की तरफ चला गया और फिर हम कहेंगे खुशी थी लेकिन अब वो गायब हो गई। ये हर कदम पर होता है, हर कदम पर लेकिन हर कदम में हमनें अपने आप को कहा कि ये चीज खुशी देगी, चीजें खरीदते हैं वो हमें आराम देती है लेकिन जब हम वो चीज खरीद लेते हैं तब हम ये सोच पैदा करते हैं कि मैंने ये खरीदा मेरे पास अब ये है मेरी ये चीज उनकी चीज से अच्छी है ये जो विचार हम उत्पन्न करते हैं ये हमें बस नाम की खुशी देता है। लेकिन क्योंकि वो गलत बुनियाद पे खड़ा है तो जैसे ही किसी और ने मेरे से बड़ी चीज खरीद ली तो मेरी खुशी गायब। तो हम अपने आप से पूछें क्या हमारी सोच सही है!

चीजें खरीदें लेकिन उसके साथ खुशी को नहीं शामिल कर दें । मोबाइल खरीदें सिर्फ मोबाइल पे बात करने के लिए उसको अपना सामाजिक रूतबा(स्टेटस सिंबल) नहीं बनावें। आज हमने चीजों को अपना क्या बना दिया, हर चीज हम कपड़े कैसे पहनते हैं, हमारा फोन कैसा है, हमारी गाड़ी कैसी है, हम रहते कहाँ हैं, हमारा मकान कहाँ है हर चीज हमारी स्वमान, हमारी प्रतिष्ठा का प्रतीक बनता जा रहा है, सामाजिक रूतबा(स्टेटस सिंबल), तो जैसे ही वो चीज थोड़ी-सी उपर नीचे हुई हमारी प्रतिष्ठा भी उपर नीचे होने लग जाती है। वो चीजें हैं, जड़ हैं आज होंगी कल थोड़ी-थोड़ी चली जायेंगी, जड़ चीजों के उपर अपनी आंतरिक खुशी कैसे रख सकते हैं! तो चीजों पर अपनी खुशी को आधारित नहीं करना।

दूसरी चीज जिस पर हम खुशी को आधारित करते हैं वो है हमारी प्राप्तियां, ये करूंगा मैं तो खुशी होगी, बच्चा पास होगा तो खुशी होगी, मैं कंपनी में इस पद पर पहुँचुंगा तब खुशी होगी, होती है ना खुशी, होती है कि नहीं होती है, ये ये होगा तो खुशी होगी अब अगर वो जो होगा उसमें 6 महीने लगने वाले हैं तो फिर हमनें अपनी योजना क्या कर दी! जब ये होगा तब मुझे खुशी होगी इसका मतलब मैंने अपनी खुशी को 6 महीने के लिए स्थगित कर दिया। 6 साल भी हो सकता है और ये भी हो सकता है कि वो प्राप्त हो ही नहीं, वर्तमान समय में चुनौतियां हैं बाहर कब परिस्थिति कैसे बदल जाए मालूम ही नहीं और फिर हम कहेंगे अब वो खुशी नहीं। एक बार जांचें अंक प्राप्त करना, हम सबके घर में बच्चे हैं, बच्चों के अंक महत्वपूर्ण हैं उनको अच्छे अंक मिलेंगे तो क्या होगा उससे अच्छे अंक मिलने से, क्यों अंक मिलने चाहिए अच्छे! अच्छे कॉलेज में जायेंगे। अच्छे कालेज में अच्छी योग्यता प्राप्त होगी, फिर अच्छी नौकरी मिलेगी, जब अच्छी नौकरी मिलेगी अच्छी पगार मिलेगी तो खुशी मिलेगी। अच्छी पगार मिलेगी तो फिर वो ही सामान ही मिलेगा ना, अंक चाहिये कोई शक नहीं लेकिन अंक क्यों चाहिए ये बहुत स्पष्ट होना चाहिये। अंक मिलेगा तो मेरा बच्चा जीवन में व्यवस्थित हो जायेगा तो उसको सारे सामान सुविधायें जीवन के भौतिक आराम मिलेंगे, कब मिलेंगे 10, 15 या 20 साल के बाद। लेकिन हम तो उसको जो अभी प्रशिक्षण देते हैं वो ये कि तुम्हे अंक मिलेंगे तो मुझे खुशी होगी, क्या ये बात सच है कि अंक हमें खुशी देते है !

खुशी अंदर है अंक बाहर है, बच्चा स्कूल से घर आता है अपनी अंकसूची लेकर आप उसके अंकों को देखते हो उसको 85 प्रतिशत मिले है, वस्तुतः उसकी क्षमता 90 प्रतिशत की है लेकिन आज उसको 85 प्रतिशत ही मिले हैं, आप उसको पूछते हो दूसरों को कितने मिले तो वो कहता है कि ये 85 प्रतिशत उच्चतम है बाकी को 84 प्रतिशत मिले हैं फिर ठीक है खुशी! होता है ऐसा ! क्या सिखाया उसको अभी-अभी कि खुशी आपकी क्षमता में नहीं है खुशी इस ची॰ज में है कि जब तक आप दूसरों से आगे हैं। बुनियाद फिर गलत, अब अगर उसकी क्षमता 90 प्रतिशत है और वह बहुत मेहनत कर कर के 90 प्रतिशत लेकर आया और आपने उससे पूछा कि बाकियों को कितने मिले उसने कहा 99 प्रतिशत तो हम खुश नहीं है तो फिर क्या अंक हमें खुशी देते हैं! नहीं, हमें सिर्फ ये बात खुशी देती है कि हम किसी से कितना आगे या पीछे हैं।

सामाजिक स्थिति, पदवी, तुलना हमें खुशी देते हैं अंक खुशी नहीं देते हैं और सारा दिन पूरा साल हम उसके उपर ये दबाव डाल के रखते हैं तुम्हें ये अंक मिलेंगे तो मुझे खुशी होगी। आपको कोई अंदा॰जा नहीं है कि एक बच्चे के उपर ये दबाव कितना बड़ा दबाव होता है। हाँ ये महत्वपूर्ण है कि आपको अंक अच्छे मिलने चाहिए लेकिन ये संदेश उसको नहीं देना कि आपके अंक मेरी खुशी के लिए जिम्मेवार हैं। अगर सारा दिन आपके उपर कोई एक ऐसा दबाव बना दे कि आपका हर कर्म मेरी खुशी के लिये जिम्मेवार है तो वो कितना बड़ा दबाव हो जाएगा मन के उपर। पढ़ना महत्वपूर्ण है, अंक महत्वपूर्ण हैं आपके अंक अच्छे आयेंगे आप अच्छा करोगे ये होगा, वो होगा बहुत स्पष्ट संदेश दीजिए लेकिन अंक मुझे खुशी देते हैं और जिस दिन तुम्हारे अंक थोड़े-से कम आये मेरा चेहरा उतर जाता है। ये कितना बड़ा दबाव है बच्चे के उपर और जब भी किसी के उपर दबाव होगा तो उसका प्रदर्शन गिर जायेगा, यह निश्चित है।

कितने बच्चे हैं आज जो अपने घर में बहुत घुटन महसूस करते हैं, आज कितने बच्चे है जो दर्द में है आज कितने बच्चे हैं जो वापिस घर जाना नहीं चाहते स्कूल के बाद क्योंकि जैसे ही वो घर पहुचेंगे ये दबाव उनके उपर आ जाएगा पढ़ो,पढ़ो...। हाँ पढ़ो लेकिन दबाव! इतना दबाव लगाने से तो एक ही काम हो सकता है कि वो जाकर किताब लेकर बैठ जाएगा लेकिन वो पढ़ रहा है या नहीं पढ़ रहा है वो कैसे पता चलेगा हमें और जितना अंदर दबाव होगा तो मन कम॰जोर हो जाएगा। अभी कम॰जोर मन को बोलो पढ़ो तो कैसे पढ़ेगा और फिर सिर्फ दबाव ही नहीं देंगे उसको डांट भी देंगे, पढने के लिये। एक बात सोंचिए जब हमें कोई डांटता है तो हमारा मन कैसा हो जाता है, डांट खाने के बाद मन उदास हो जाता है अभी उदास मन के साथ बैठकर पढ़ो तो पढ़ाई नहीं होगी लेकिन हम हर रोज उनको पढ़ने कैसे भेजते हैं प्रश्न चिन्ह् है ना। डांट खाने के बाद कितनी देर तो मन को लग जाता है सामान्य होने के लिए और फिर आजकल के बच्चों की सबसे सार्वजनिक शिकायत है कि एकाग्रता नहीं है, एकाग्रता शक्ति नहीं है क्यों नहीं है! क्योंकि वो मन जिसने पढ़ना है उसको पढ़ने के लिए एकदम स्थिर होना पड़ता है एकदम शांत होना पड़ता है तब वो जो पढ़ेगा वो सारा कुछ अंदर जाएगा लेकिन हम उस मन को सारा दिन हलचल में लाते हैं और फिर कहते हैं पढ़ो ! तो वो पढ़ने तो बैठ जाता है वो पढ़ना भी चाहता है लेकिन मन हलचल में होने के कारण वो चीज अंदर जाएगी नहीं फिर मेहनत ज्यादा परिणाम कम। आज बच्चे बहुत-बहुत तनाव से गुजर रहे हैं तनाव और एकाग्रता इकठ्ठी नहीं हो सकती है अगर आपको चाहिये कि वो अच्छा प्रदर्शन करें, उनकी एकाग्रता शक्ति अच्छी हो तो हमें दबाव को हटाना पडेगा ! संभव है?

एक बार एक बच्ची हमारे पास आयी। बाहरवीं कक्षा में थी वो लडकी तो बाहरवीं की भी पढाई कर रही थी और माता-पिता ने कहा आई.आई .टी. में भी जाना है वो भी पढ़ाई करनी है। अब हर रोज उसके पिता उसके उपर दबाव डालते कि बाहरवी के साथ-साथ आई.आई.टी. भी निकालना है। तो वो बहन थोड़ी हताशा में जाना शुरू हो गई फिर उसका पढ़ने का ही मन नहीं करता था क्योंकि हताशा में जाने के बाद तो बच्चा पढ़ नहीं सकता चाहे कितनी भी कोशिश करे। उनको नहीं पता कि उसको उदासी है पढ़ने को अब मन नहीं करता पढने से भी अंदर कुछ जाता नहीं है। बच्ची बारहवीं कक्षा ही नहीं पास कर पाएगी इस डर से तो आई.आई.टी तो बहुत दूर की बात हो गई। परन्तु बड़े सोचते हैं ये ही 6 महीनें है सिर्फ, अगर अभी दबाव नहीं डाला उसको नहीं बोला तो ये 6 महीने बीत जाएंगे फिर बाद में जा के थोड़े ही आई.आई.टी में दाखिला मिलेगा तो दबाव तो डालना ही पड़ेगा। डालो! यह एक पसंद है किसी के सर के उपर वजन रखकर उसको बोलो चलो। सिर्फ वजन हटाओ वो ज्यादा अच्छा चलेगा लेकिन हमने सोचा जब तक हम वजन रखेंगे नहीं वो चलेगा ही नहीं। आज अपने ही बच्चों का सबसे ज्यादा नुकसान हम इस दबाव के कारण कर रहे हैं कि तुम पढ़ो पढ़ो पढ़ो, पढ़ोगे तो मुझे खुशी होगी, तुम्हारे अंक देखकर। आज एक बच्चा फेल होता है तो वो आत्महत्या क्यों करता है? वो इसलिए आत्महत्या नहीं करता कि वो फेल हुआ है। किसी बच्चें ने आज तक इसलिए आत्महत्या नहीं की होगी कि वो फेल हुआ है, क्योंकि बहुत सारे बच्चे हैं जिन्होंने आत्महत्या नहीं की लेकिन आत्महत्या करने का सोचा होता है और जब उनसे बात की जाती है कि ये विचार क्यों आता है फेल हुआ ना कौन-सी बड़ी बात है एक साल की तो बात है सिर्फ, उस एक साल को दोहराने की बजाए आप ऐसे संकल्प करते हो! तो कहते है इनका सामना कौन करेगा अभी। हमारे डर से वो अपना जीवन देते है वो अंक की वजह से जीवन नहीं देते हैं। अब उसके बाद माता-पिता का जीवन कैसा होगा? लेकिन अब क्या कर सकते हैं, करना कब था पहले करना था।

थोड़े दिन पहले ग्याहरवी कक्षा का एक बच्चा बहुत ज्यादा दबाव के कारण तनाव में आ गया था। वो उस वातावरण में वापिस अपने घर जाना नहीं चाहता था। कृपया हमें रूककर जांच करना होगा। पढ़ना पढ़ाना ठीक है लेकिन उसके कारण इतना दबाव डाल देना कि जो पढ़ने वाली शक्ति है वो शक्ति ही खत्म हो जाए तो वो पढ़ेगा कैसे? ध्यान रख सकते हैं या नहीं रख सकते हैं? ध्यान रख सकते हैं और निश्चय ही उनके उपर हाथ नहीं उठाना, अगर अंक अच्छे नहीं आये या पढ़े नहीं, उससे तो उनकी शक्ति और भी कम हो जाएगी। हमें बच्चे को पढाना है तो उसकी शक्तियों को बढ़ाना है उसकी शक्तियों को बढ़ाने के लिए हमें अपनी शक्तियों को बढ़ाना है कि चाहे उसने कुछ भी किया है हमें प्यार से उसको समझाकर उसको सशक्त बनाना है, डंडे से काम होने वाला नहीं है।

तो अंक हमें खुशी नहीं देते हैं, अंक हमें जॉब देते हैं और अंक बहुत जरूरी हैं किसके लिए नौकरी के लिए। आज किसी से भी उद्योग में पूछो कि अंक क्या काम करते हैं हमारी पहली नौकरी देते हैं ये ही होता है ना उसके बाद आपकी अंक-सूची कितनी काम की होती है। तो वो पहली नौकरी के लिए वो अंक चाहिए जिसके लिए 15 साल हम दबाव झेलते हैं लेकिन ये जो मन है जिसने हर कदम पर काम करना है उसका उपयोग कितने साल होने वाला है! पहली नौकरी के अंक के लिए हम उस मन को कमजोर करते हैं जिसका जीवन में हर पल उपयोग होने वाला है, नौकरी में भी, रिश्तों में भी। आज जीवन में छोटी-सी असफलता आती है, व्यापार में थोड़ा-सा उतार चढ़ाव आता है तो हमारी हालत क्या हो जाती है! गिर जाती है।

एक बार पति ने तीन बार आत्महत्या करने की कोशिश की। क्योंकि उनका व्यापार बहुत कोशिशों के बावजूद चल नहीं रहा था, सफल नहीं थे। अब वो 6 महीने और मेहनत करने वाले हैं अगर 6 महीने में इनका व्यापार ठीक चला तो ठीक, नहीं तो फिर ये वो ही कोशिश करेंगे। भाई राजयोगा मेडिटेशन केंद्र पर आए, मेडिटेशन सीखा अपने अंदर ताकत भरी। अभी भी परेशानी है लेकिन मैं ठीक हो गया ये महत्वपूर्ण है, बिजनेस और मैं दो अलग-अलग चीजें है, अंक और मैं दो अलग-अलग चीजें है अगर मै ठीक नहीं होउंगा तो मैं व्यापार भी कैसे करूंगा फिर मेरा प्रेरणा का स्तर ही गिर जाएगा लेकिन अपने आप को ठीक कैसे रखना है वो अंक-सूची से तो नहीं होगा ना।

आज किसी की नौकरी चली जाती है, आज किसी की पदोन्नती रूक जाती है, आज किसी के व्यापार में बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है ये सारी परिस्थितियों से सामना करने की शक्ति स्कूल में सिखाई थी क्या? क्या ये ठीक है कि जिसके जितने ज्यादा अंक उसकी सामना करने की शक्ति ज्यादा है! ऐसा नहीं है तो फिर हमारी सारी ताकत पूरा ध्यान अंक..अंक.. क्यों है? अंक ज्यादा महत्वपूर्ण या सामना करने की शक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है लेकिन उस सामना करने की शक्ति को तो हर रोज अंकों के फेर में कम करते जा रहे हैं। जब हम डांट रहे हैं, गुस्सा कर रहे हैं, हाथ उठा रहे हैं, दबाव डाल रहे हैं हम उसी शक्ति को कम करते जा रहे हैं। आज हमारे अंदर वो सामना करने की, सहन करने की, वो बातों को झेलने की शक्ति क्यों नहीं है क्योंकि अंकों के कारण उस शक्ति को हम कम करते गये थे। तो अंक तो बढ़ गये, पगार भी बढ़ गई, चीजें भी बढ़ गई लेकिन वो शक्ति जो जीवन में हर पल चाहिए थी वो शक्ति कम होती गई क्योंकि इन चीजों को लाने की प्रक्रिया में हमने उस शक्ति को कम किया है।

तो अंक चाहिए लेकिन साथ-साथ वो शक्ति भी चाहिए और अगर अंक एक प्रतिशत कम भी आ गया किसी कारण से तो भी हम डांटे बिना पढायेंगे तो क्या अंक कम हो जायेंगे क्या लगता है। डांट के पढ़ाते हैं तो इतने अंक आते हैं अगर बिना डांटे पढ़ायेंगे तो अंक कम हो जाएंगे ! नहीं होंगे कम बल्कि बढ़ जायेंगे ठीक है। अगर मान लो हर रो॰ज डांट खाने के बाद बच्चे के 85 प्रतिशत नंबर आते हैं और आज हम बिना डांटे बच्चे को पढ़ायें कितने अंक आयेंगे! जितने अभी आ रहे हैं उससे ज्यादा आयेंगे। आप सिर्फ डांट खाकर के काम करते हैं बिना डांट खाए काम नहीं करते आप, करते हैं या नहीं करते हैं क्योंकि जो नियम घर में है वहीं नियम आज कार्यालय में भी है। काम करवाना है तो कैसे करवाना है! डांट के करवाना है। तो जो बॉस है उसकी यही सोच है कि काम करवाना है तो डांट के करवाना है। अब अगर हम वो हैं जिनसे काम करवाया जाने वाला है, हमारे उपर बॉस है, आपको क्या अच्छा लगेगा कि आपसे काम कैसे करवाया जाए? प्यार से या डांट से! प्यार से, लेकिन अगर आप उनसे पूछोगे ना तो कहेंगे प्यार से कोई काम नहीं करता आजकल! डाटेंगे नहीं तो लोग सर पर चढ़ के बैठ जाते हैं बिगड़ जाते हैं डांटना तो पड़ता ही है ऐसे ही बोलेंगे ना। फिर बरोबर है ! सब ने एक ही नियम बना लिया है कि जब तक गुस्सा नहीं करेंगे तो काम नहीं होगा तो बॉस कर्मचारी पर गुस्सा करता है, कर्मचारी घर जाकर पत्नी के उपर गुस्सा करता है, पत्नी बच्चां पर गुस्सा करती है और सभी एक ही चक्र चला रहे हैं और हरेक एकदूसरे को अपनी शक्तियों को कम करने में मदद कर रहा है क्योंकि हम कहते हैं कि काम तो हो जाना चाहिए!

काम तो हो जाएगा ना और हो भी रहा है आज देखो क्या से क्या बन गया है दुनिया के अंदर। ये क्यों हुआ क्योंकि हम सब काम कर रहे हैं तो एक तरफ से ये सारा विकास हो गया हमारे मकान बन गए सब-कुछ हो गया सब-कुछ होता गया लेकिन साथ-साथ दूसरी ओर हमने देखा जो घटता जा रहा है। आज चार लेग एक घर में इकठ्ठे नहीं रह सकते, आज पति-पत्नी के तलाक की दर बढ़ गयी, आज छोटे-छोटे बच्चों को तनाव और हताशा हो गयी हमने सिर्फ कहा काम तो होता गया, काम तो होता गया.. ।

पति-पत्नी दोनों काम करते हैं दोनों सारा दिन ऐसे वातावरण में होंगे जहाँ उर्जा ये होगी कि गुस्से से ही काम होता है तो उनको तो वो उर्जा तो मिलती ही रहेगी। वो दो लोग जब घर पहुँचेंगे शाम को तो उनके पास क्या ताकत बचेगी एक दूसरे को सहन करने की, तालमेल करने की, सहयोग करने की फिर उपर से बच्चे को भी समझने की संभालने की कहाँ ताकत बची और फिर छोटी-छोटी बात में वही तनाव और क्लेश क्योंकि हमने कहा काम करवाने के लिए ये चाहिए।

गुस्सा वो नकारात्मक उर्जा है जो किसी के लिए भी उपयोगी नहीं हो सकती है। हर बच्चे की एक क्षमता होती है हमें उसको पढ़ाना है, हमें पढ़ने के लिए उसको बोलना भी है, हमें उसके नियम भी रखने ही हैं लेकिन हमें डांटने की उर्जा देनी है वो प्रश्न चिन्ह् है। हाँ, ये हो सकता है अगर उसको आप कुछ बोलो ही नहीं तो वो पढ़ेगा नहीं तो बोलना तो है ना लेकिन डांटकर बोलना है और फिर अगर डांट से भी नहीं सुना तो हाथ उठाकर बोलना है ये प्रश्न चिन्ह् है।

एक दिन एक होमवर्क रखा था कि आज सारा दिन हम स्थिर रहेंगे चाहे कुछ भी हो जाए तो एक बहन घर गई उसकी तीन साल की बेटी वो उससे झगड़ा करने लगी कि मेरे को छोड़ के चली गई, मेरे को साथ में ले के नहीं गई रोने लगी। तो कहती है पहले सामान्यतया मैं क्या करती थी दो झापड़ लगा देती और किचन में चली जाती नाश्ता बनाने के लिए। सरल काम है ना दो झापड़ मारा और किचन में चले गए वो थोड़ी देर रोकर अपने आप चुप हो जाएगी लेकिन आज निश्चय किया था कि आज गुस्सा नहीं करना है तो फिर मैंने उसको प्यार से बोला हाँ, मैं नहीं लेकर गई तुम सोई हुई थी। मैं तुमको शाम को लेकर जाउंगी तो वो और जोर से रोने लगी। उसको अंदर से विचार आया कि कितना समय बर्बाद हो रहा है इसके साथ सुबह-सुबह, नाश्ता बनाना है देरी हो रही है लेकिन गुस्सा उस दिन नहीं करना था तो मैंने नहीं किया चार-चार बार मैंने उसको प्यार से बोला, फिर भी वो कठोरता से बात करती रही। मैंने फिर प्यार से बोला वो फिर भी कठोरता से बात करती रही लेकिन पांचवीं बार उसने भी मुझसे प्यार से बात की और वो बहन के आंख में उस दिन आंसू आ गये। अब उसे समझ में आया इनको कैसे बदलना है। लेकिन सामान्यतः मैं कौन सा तरीका उपयोग करती थी समय नहीं है ना। 15 मिनट लग गये उसको वो पांच बार करने की प्रक्रिया में लेकिन 15 सेकंड का काम था, दो थप्पड़ मार के किचन में जाना, पंद्रह सेकंड से ज्यादा नहीं लगता किसी बच्चे को थप्पड़ मारने में लेकिन बार-बार उससे प्यार से बात करें वो फिर भी चिल्ला रहा है हम फिर भी प्यार से बात करें तो पंद्रह मिनट लग गये लेकिन वो पंद्रह मिनट में हमने क्या कर दिया। नहीं तो ये दृश्य तो हर रोज ही होता होगा किसी ना किसी बात पर और रोज वो ही पंद्रह सेंकड वाला तरीका उपयोग होता होगा, मारा डांटा किचन में गये, मारा डांटा खाना खिला दिया, मारा डांटा पढ़ाई करा दी। वो तो रोज होता है और रोज हमारी भी और उनकी भी शक्ति कम होती जाती है।

तो बच्चों को बदलना उनसे वही काम प्यार से करवाना इसमें ताकत चाहिये, मार के करवाना, डांट के करवाना जल्दी होता है तो ये कमजोरी उनकी नहीं है, ये कमजोरी हमारी है कि हमारे पास न वो पंद्रह मिनट का समय है न हमारे पास उतना धैर्य है कि हम बार-बार प्यार से कोशिश करेंगे। लेकिन अगर हमने ये प्यार वाला तरीका अपनाया तो वो सिर्फ कुछ ही दिन करना पड़ेगा पंद्रह मिनट, उसके बाद उस बच्चे के अंदर वो ताकत बढ़ती जायेगी। अब उस बच्चे को भी आदत पड़ी हुई है कि ये मुझसे डांट के काम करवाते हैं, इसी तरह कार्यालय में भी लोगों को आदत पड़ी हुई हैं डांट के काम करवाने की। आप एक दिन आज ऑफिस जाकर बोल दो चाहे कुछ भी हो जाये हम गुस्सा नहीं करेंगे! काम करना है करो या नहीं करना है तो मत करो, तो लोग आपके लिए काम करेंगे या नहीं? वो आपके लिए काम करना चाहेंगे, अभी तो काम करना पड़ता है, काम करना पड़े और काम करना चाहें दोनों में बहुत फर्क होता है। वो ऐसे काम करना चाहेंगे कि आप उनकों बोलेंगे 6 बज गये बंद करो घर जाओ! तो बोलेंगे नहीं सर आधा घंटा और चाहिए खत्म करके जाना है, क्योंकि उनको अब जो उर्जा मिल रही है सारा दिन वो सम्मान की मिलती है। जब हम किसी को डांटते हैं तो हम उनका अनादर करते हैं जो हमारा अनादर करते हैं हम उनके लिए मजबूरी से काम करते हैं क्योंकि हमें वो पगार चाहिए लेकिन जो हमारा आदर करते है, हमें जो प्यार करते है हम उनके लिए फिर केवल पगार के लिए नहीं बल्कि हम उनके लिए और उनके साथ काम करना चाहते है। लेकिन इसका प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि इसमें थोड़ा-सा समय लगेगा और धैर्य लगेगा क्यों क्योंकि पुरानी वाली मान्यता बहुत गहरी बैठी हुई है। जैसी उर्जा हम उनको देंगे उनसे वही उर्जा हमें मिलेगी। सारा दिन हरेक के प्रति अपनी सोच की जांच करते रहो।

हम सब्जी लेने जाते हैं सामान्य सी बात है, सब्जी ले रहे हैं सब्जी चुनते हैं वो सब्जी तौल रहा है, आप एक संकल्प करते हैं आजकल तो ये लोग बहुत गोलमाल करते हैं, बहुत धोखा करते हैं आजकल ये लोग, ये सब लोग ऐसे ही हो गए है आजकल! ये अनादर की उर्जा है, हम कुछ नहीं बोलते और कभी-कभी तो बोल भी देंगे ठीक से तौलो, ये अनादर की उर्जा है अगर ये संकल्प हमने पैदा किया और उधर तक भेजा तो वो निश्चित गड़बड़ करेगा तौलने में। सरकारी कार्यालय में जाते हैं पहले से ही सोच लेते है आजकल तो ईमानदारी से कोई काम नहीं होता है, सच्चाई से कोई काम होने वाला नहीं है! आजकल तो ये लोग सारे ऐसे ही हैं, कौन सी उर्जा भेजी? तो जिसका अनादर करोगे तो वह वापिस वैसे ही करेगा। एक आदर वाला संकल्प करें एक सोच विश्वास की पैदा करें। कल उसी दुकानदार के पास जायें, उसी सब्जी वाले के पास जायें, ऑटो में बैठते हैं पहले से संकल्प करते हैं ये धोखा तो नहीं करेगा, अब उन लोगों को सारा दिन वो संकल्प सबसे मिलता है हरेक जो उनकी दुकान पर आता है, हरेक जो ऑटो में बैठता है वो उनको ये ही उर्जा दे रहा है तो निश्चित रूप से वो क्या करेंगे वो ही करेंगे। संकल्प करना ये उनको एस.एम.एस करने के समान है कि ये करो। उर्जा है ना! एसएमएस क्या है आपने संदेश भेजा मुझे संदेश मिला और मैं इतनी आज्ञाकारी हूँ कि आप जो संदेश भेजेंगे मैं वो ही करूंगी क्योंकि आपका संदेश मेरे अंदर एक संदेश उत्पन्न करना शुरू करता है। संकल्प, विचार शक्ति क्या है एक तीर की तरह होता है। चारो तरफ आज वातावरण कैसा है? थोड़ा-सा नकारात्मक ही है ना, तो वेसे ही जो सारा वातावरण है वो भारी है, वो नकारात्मक है फिर उपर से हम संदेश भी कौन-सा भेज देते हैं जो नकारात्मक है तो सामने से भी अनुभव कैसा आयेगा नकारात्मक ही आयेगा। अब दूसरी कोशिश करें वो सब्जी तौल रहा है, वो आटो चला रहा है, वो सामान दे रहा है, आप किसी के कार्यालय में जा रहे है, संकल्प करें मेरे साथ ये गलत नहीं कर सकता है, मेरा काम यहाँ बहुत बढ़िया होने वाला है क्योंकि ये व्यक्ति भी मेरी ही तरह है। कौन हैं वो सारे लोग जो हमें सारा दिन मिलते हैं! हमारी ही तरह हमारे ही परिवारों के लोग है ना, ये मेरी ही तरह हैं बहुत ईमानदार हैं। आप एक बार तीर भेजो, दो बार तीर भेजो, तीन बार भेजो!

आज सबसे ज्यादा कमी अगर किसी चीज की है वो है विश्वास। लोग एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते यहाँ तक कि एक दूसरे को सिखाते हैं ज्यादा विश्वास नहीं करना और यथार्थ में ये एक दूसरे की कमजोरी समझी जाती है। इसको समझाओ ये हरदम सब पर विश्वास कर लेता है ऐसे बोलते हैं, इसको समझाओ ना ये हर बार सच बोल देता है। आजकल हमारे मूल्यों को समाज के अंदर हमारी कमजोरियां माना जाने लगा है और उन मूल्यों को बदलने के लिए सारा परिवार जुट जाता है। कई पालक कहते है कि उनके बच्चे बहुत सीधे हैं, बहुत भोले हैं इनका क्या होगा दुनिया में ये तो बहुत सीधे हैं। मैने कहा- सौ पालक हैं जो परेशान हैं कि उनके बच्चे थोड़े टेढे हैं अभी आपको कौन सा चाहिए। हम नहीं समझ पाते कि क्या चाहिए हमें क्योंकि हमने ये अपने अंदर बना लिया है कि वर्तमान समय समाज में चलने के लिए कैसा होना पड़ेगा! टेढ़ा होना पड़ेगा, तो हम बच्चे को वैसा बनाना चाहते हैं। विश्वास की कमी, अपने उपर भी विश्वास नहीं औरों के उपर भी विश्वास नहीं, उर्जा कौन सी जायेगी! आज किसी पर विश्वास करना शुरू कर दो वो चाहे कुछ भी हो जाए आपका विश्वास तोड़ेगा नहीं क्योंकि आप उसको वो चीज दे रहे हो जिसकी काफी कमी है। यह आदर, यह विश्वास उसको बहुत कम मिलता है कहीं पे आप उसको वो दे दो जो उसको मुश्किल से कहीं मिल रहा है वो चाहे कुछ भी हो जाये आपका विश्वास खोना नहीं चाहेगा क्योंकि वो उसका आदर है और खराब स्थिति में अगर कभी किसी ने वो तोड़ भी दिया, हमने विश्वास किया उन्होंने फिर भी गलत किया तो क्या फर्क पड़ता है विश्वास करके हमें अच्छा लगा ना। जब तक हमने विश्वास किया हमारा मन शांत रहा ना लेकिन सारा दिन संदेह करेंगे ये करेगा नहीं करेगा, ऐसे करेगा वैसे करेगा ये सब करके किसका मन अशांत हो रहा है? हमारा ही मन अशांत हो रहा है। 20 लोगों पर विश्वास करेंगे तो कोई एक कुछ कर देगा लेकिन कोई एक की वजह से हम 20 पर अविश्वास करेंगे और उसका सबसे ज्यादा नुकसान किसको होना है मुझे होना है और फिर हमने अपनी मान्यता(बिलिफ सिस्टम) भी बना ली कि विश्वास नहीं करना चाहिए, विश्वास करेंगे तो धोखा मिलेगा। ये सारी जो हमारी धारणायें हैं, मान्यतायें हैं ये हमारी खुशी को सारा दिन नष्ट करती जायेंगी। जब ऑफिस जायें एक संकल्प करें, जिस ऑटो में जायें उस पर भी विश्वास, जिसके साथ काम करें उस पर भी विश्वास और बिना गुस्सा किये काम करें, अपने बच्चे पर विश्वास ये कितना गहरा संस्कार हो जाता है। बाहर के लोगों पर अविश्वास करते-करते हमारा संस्कार क्या बन जाता है! हमारा संस्कार भी अविश्वास का बन जाता है फिर जब हम घर पहुंचते है शाम को तो हम अपने अविश्वास के संस्कार को विश्वास में परिवर्तित नहीं कर सकते। वो बन गया संस्कार फिर अपने घर के लोगों पर अविश्वास। आप बच्चे को पूछते हो क्या हुआ देरी से आया कहाँ गया था, मन में संकल्प चलता है कि सच बोल रहा है क्या, बोलेंगे नहीं उसको कुछ लेकिन सोच लेंगे जैसे ही हमने अपने बच्चे के लिए ये संकल्प किया उर्जा गई उस तक वो धीरे-धीरे हमारा विश्वास तोड़ना शुरू कर देगा और अगर वो हमारा विश्वास तोड़ता है आपको पहले से पता है तो भी आप उसको विश्वास करना शुरू कर दो वो जल्दी ही विश्वासपात्र बन जायेगा।

ये हमारे हाथ में है हम जो उर्जा भेजेंगे वो वैसे बनते जायेंगे लेकिन वो उर्जा को शब्दों के स्तर पर नहीं जांचना अंदर से जांचना वो सोच आयेगी तुरंत रूककर उसको जांचना है मैं कैसा सोचता हूँ अपने बच्चे के बारे में लेकिन ये क्यों हम कर रहे हैं क्योंकि सारा दिन में हम भी ये करते हैं कि हम सोचते कुछ और हैं, बोलते कुछ और हैं। करते हैं ना हम ऐसा! हम कुछ और सोच रहे हैं, बोल कुछ और रहे हैं तो हमें ये ही लगा कि बाकी सब लोग भी ऐसा ही करते होंगे सोचते कुछ और होंगे बोलते कुछ और होंगे। हम अगर अपने को अंदर बाहर साफ कर ले वहीं जो सोचे वो बोले अगर वो बोलने लायक नहीं है तो फिर वो सोचने लायक भी नहीं है तो उसे बोल के स्तर पर नहीं बदलें उसको कौन-से स्तर पर बदलें सोच के स्तर पर बदल दें। अगर मैं वो बोलूंगा तो उनको अच्छा नहीं लगेगा लेकिन अगर मैं वो सोचूंगा तो वो मेरे लिए अच्छा नहीं है चाहे मैं वो सोच किसी और के बारे में रहा हूँ लेकिन सोच की गुणवत्ता अच्छी नहीं तो वो मेरे इस दिमाग के अंदर है ना तो वो मेरे लिए अच्छी नहीं है तो उस सोच को बदल दें। अगर हम जो सोचेंगे वो ही बोलेंगे अंदर बाहर समान रहेंगे तो अपने पर विश्वास करेंगे और अगर हम अपने पर विश्वास करेंगे तो औरों पर विश्वास करना स्वाभाविक हो जाएगा और कृपया अपने आस-पास घर में जिनको विश्वास करने की आदत है उनकी इस आदत को बदलने की कोशिश न करें। हमारी विशेषतायें, हमारे मूल्य हमारी ताकत हैं, किसी की उस ताकत को बार-बार बदलने की कोशिश न करें क्योंकि हमें ये लगता हे कि ये दुनिया में नहीं चलेगा। दुनिया में तो क्या चल रहा है सारा दिन वो दिख ही रहा है। वैसे भी महत्वपूर्ण ये है कि ये मेरे अंदर चलता है या नहीं चलता है। मेरे लिए क्या अच्छा है, दुनिया के लिए क्या अच्छा है, उस हिसाब से मुझे अपने आप को नहीं बदलना है। मेरे लिए क्या अच्छा है क्या नहीं है उस हिसाब से अपने अंदर के विचार प्रक्रिया को बदलना है। तो क्या हम शोर मचाए बिना, बार-बार चिड़चिड़ करके गुस्सा करे बिना, उत्तेजित हुए बिना काम कर सकते हैं? कोशिश कर सकते हैं, बिल्कुल कर सकते हैं। हाँ@ बाते जरूर आयेंगी।

एक बहन ने एक दिन एक दिन छोटा-सा होमवर्क रखा था कि कल सारा दिन चाहे कुछ भी हो जाए स्थिर रहना था, परेशान बिल्कुल नहीं होना था। बातें आयी बड़ी-बड़ी आयी लेकिन कल हम परेशान नहीं हुए सिर्फ क्यों क्योंकि हमको याद था कि आज हमें परेशान नहीं होना है। कल हमने तय किया था कि आज सुबह बच्चों को बिना गुस्सा किये उठायेंगे चाहे कुछ भी हो जाये। एक बहन ने रात को ही उनको बोल दिया था कल सुबह मैं गुस्से से उठाने वाली नहीं हूँ, उठना होगा तो उठना नहीं तो मुझे पता नहीं फिर तुम्हारा क्या होगा। मैं तो कल सुबह गुस्से से उठाने वाली नहीं हूँ क्योंकि मैंने तो व्रत रखा है। बस साधारण आज सुबह उनको थोड़ा-सा प्यार से बोली उठ जाओ तो वे उठ गए। एक बदलाव हर रोज दिन की शुरूआत चिल्लाकर नहीं शांति से, प्यार से।

एक समय था हम दिन की शुरूआत पूजा और प्रार्थना से किया करते थे, आज हम दिन की शुरूआत शोर मचाकर करते हैं, चिल्लाकर उनको बेड से घसीट देते हैं नीचे। इतनी हलचल निर्मित करने के बाद वो बच्चा पढ़ेगा कैसे? और फिर वो एक नमूना(पेटर्न) बन गया है वो बच्चे को भी पता है कि इन्होंने ऐसे ही उठाना है अगर अभी तक इन्होंने अपना ड्रामा शुरू नहीं किया इसका मतलब अभी 6 नहीं बजे हैं। ये एकदम पक्की बात है। पौने छः बजे का वाल्युम अलग होता है, छ को दस का वाल्युम अलग होता है और छ बजे जब वाल्यूम बढ़ता है ठीक है, कूदो और उठो! इतने साल से चल रहा है ना हम एक दूसरे को जानते नहीं है क्या! जानते हैं एक-दूसरे का तरीका क्या है! अब आज आप घर जाकर के उसको वाल्यूम सुना दो ये छः बजे वाला वाल्यूम नहीं होने वाला है उठना है उठो, नही उठना है नहीं उठो। आपको क्या लगता है आपका बच्चा कितने दिन स्कूल नहीं जाएगा अगर आप उसको डांट के नहीं उठायेंगे!

प्रयोग करके देखें कि बिना डांट उठाते हैं तो वो कितने दिन स्कूल नहीं जाता है। वो बच्चे बहुत समझदार हैं हम ही उनके साथ ये गलत तरीके सारे उपयोग करते जा रहे हैं और बहुत खराब स्थिति में अगर वो एक दिन स्कूल नहीं भी गया, नहीं उठा वो, माना दो दिन स्कूल नहीं गया या तीन दिन स्कूल नहीं गया यह बेहतर है कि वो तीन दिन स्कूल ना जाए बजाय इसके कि 20 साल तक डांट खा के उठता रहे। अगर तीन दिन स्कूल नहीं जाने से किसी की आदत बदल जाती है, उसकी भी और मेरी भी तो वो तीन दिन महत्व के हैं। कोई बीमार भी हो तो भी छुट्टी लेना पड़ता है तीन दिन। तो ये भी हमारी बीमारी है चिल्लाने की और उसकी डांट खाने की, इस बीमारी को ठीक करने के लिए भी दो-तीन छुट्टी ले ली तो भी कोई समस्या नहीं, लेकिन बीस साल चिल्लाकर उठाते रहे और फिर उसने भी वो ही तरीका सीखा वो भी आगे बीस साल अपने बच्चों को चिल्ला चिल्लाकर उठाने वाला है उससे बेहतर तो वो तीन दिन होंगे जब वो स्कूल नहीं जायेगा। कोई भी जाकर आज घर पर कोशिश कर ले किसी का बच्चा तीन दिन सोने नहीं वाला है स्कूल जाए बिना, लेकिन हमने ये सोच लिया है चिल्लाएंगे नहीं तो उठेंगे नहीं और उन्होंने भी सोच लिया है कि जब चिल्लाएंगे तब उठेंगे हम। इसी तरह से ऑफिस में गुस्सा करेंगे नहीं तो ये काम करेंगे नहीं, उनको भी पता है इन्होंने तो गुस्सा करना ही है हम बिना बात के क्यों काम करें जब ये करेंगे तो हम करेंगे। हरेक ने एक दूसरे को तिरस्कृत करना शुरू कर दिया है लेकिन हरेक एक दूसरे की खुशी को बढ़ाने की बजाय घटाते जा रहे हैं। अब किसी ना किसी एक को तो ये जिम्मेवारी उठानी ही पड़ेगी अगर हमें खुशी चाहिए तो। खुशी हमें चाहिए बाहर से नहीं आयेगी कहीं से भी नहीं। खुशी पहले से है। आप सुबह किस तरह से उठते हैं पहले तो वो ध्यान, हम ही अगर देर से उठेंगे तो उठते ही पहली सोच क्या होती है? देर हो गई अब क्या होगा, बस छूट जायेगी ये वो तो हर काम फटाफट करने की कोशिश होती है और ये सारी जो हलचल होती है उसकी वजह से हम बच्चे को चिल्लाकर उठाते हैं और बहुत कुछ। अगर हम आराम से सही समय पर उठें या दस मिनट जल्दी उठें तो फिर हमारा बच्चे से बात करने का तरीका अलग होगा। हमारी ही उर्जा सुबह-सुबह कम हो जाती है तो अपने आप को देखें जब हम सुबह उठते हैं मन एकदम शांत होता है क्योंकि भृकुटी पर मैं आत्मा जो शक्ति हूँ शांति उसका स्वभाव है। अभी हम बैठे हैं हम एकदम शांत हैं, लेकिन अभी हम बाहर जाएंगे फिर ऑटो मिलेगा नहीं मिलेगा, किसी की गाड़ी बीच में खड़ी है, कहीं से टक्कर लग जाएगी तो संकल्प (सोच) चलने लग जाएगा, ऐसा कैसे, वैसा क्यों, तो ये जो खुशी थी वो गायब, खुशी चाहिए नहीं वो है पहले से अभी है। खुशी मतलब ये मेरा मन स्थिर है इसके अंदर ऐसे, वैसे, कैसे, क्यों वो नहीं चलता और जितना ये स्थिर है उतना ये परिस्थितियों को और लोगों को स्वीकार कर पाता है कि कोई बात नहीं, ठीक हो जाएगा सबकुछ। अब सारा दिन घर में एक छोटा सा प्रयोग करें। बात आयेगी कोई कैसा व्यवहार करेगा बात को पहाड़ नहीं बनाना, बात का साइज उतना ही होता है जितना उसको बनाना चाहें।

हमें परमात्मा हमेशा सिखाते हैं परिस्थिति को या तो पहाड़ बना सकते हो या फिर एक राई बना सकते हो और फिर राई ही नहीं रूई बना सकते हो कि एक फूँक मारी और वो हवा में ये हमारी इच्छा है। जितना उसके बारे में गलत चिंतन करेंगे वो बात पहाड़ बन जायेगी और जितना सरलता से लेंगे कहेंगे ठीक है हो गया चलो, अभी क्या करना है बात खत्म! चीज टूट गई नुकसान हो गया कोई बात नहीं, दूसरी ओर तोड़ दी, नुकसान कर दिया, ध्यान नहीं रखते कहाँ न॰जर है तुम्हारी, तुम से कोई काम नहीं होता बात पहाड़ बन गई उर्जा समाप्त। चीज तो टूट ही गई और अब मै भी टूट गई, बाकी भी टूट गई अंदर ये हमारी सोच है।

अब बातों को हल्का करें और तब एहसास होगा कि बिना बात के कितनी शक्ति सारा दिन नष्ट हो रही थी, आप कोशिश कर सकते हैं। खुशी अंदर बैठी हुई है, बाहर की किन्हीं भी चीजों में, अंकों में, नौकरी में यहाँ तक कि लोगों से मांगना नहीं कि मुझे खुशी चाहिए! खड़े हो जाते हैं हम सबके सामने मुझे खुशी दो, मुझे प्यार दो, मुझे आदर दो, बेचारा सामने में जो खड़ा होता है वो बोलता है पहले आप दो। हर कोई एक दूसरे से मांग रहा है ना। मैं चाहूंगी आप मुझसे प्यार से बात करो, आप चाहोगे मैं आपसे प्यार से बात करूं तो करने वाला कौन है! दोनों तो मांगने वाले खड़े हो गए फिर झगड़ा करने लगते हैं आपने दिया नहीं मुझे वो बोलता है मैं तो प्रतीक्षा कर रहा था आप देंगे मुझे। मांगना नहीं है ऐसा करना अच्छा लगता है, नहीं लगता है ना तो मांगना नहीं है। अपने अंदर है अब इसको औरों को देना है तो कुछ करना नहीं पड़ेगा मैं करूँ तो आप खुश होंगे सिर्फ हमें खुश रहना है, और खुश रहने के लिए भी कुछ नहीं करना पड़ेगा सिर्फ ध्यान रखना पड़ेगा कि ये छोटी-छोटी बातों में हमारी ऊर्जा बर्बाद न हो। हम किसी से मिलें विश्वास करें, किसी से मिले आदर करें, किसी के स्वभाव-संस्कार को देखकर अंदर परेशान न हों। वो उसका व्यक्तित्व है लेकिन मेरा व्यक्तित्व किसके हाथ में है, वो मेरे हाथ में है क्योंकि वो मेरा है। आपके विषय में सोचते-सोचते मेरा व्यक्तित्व खराब हो जाता है। ये बहुत गुस्से वाला है, चिंतन गुस्से का है, तो नुकसान आपके साथ-साथ मेरा भी है। फिर मै अब आपको बदलने की कोशिश करती रहूँ, फिर आप बदलते ही नहीं क्योंकि वो आपका संस्कार है लेकिन मुझे गुस्सा आने लग जाता है और बहुत जल्द आपका गुस्सा मेरा गुस्सा बन जाता है। और फिर आजकल बहुत बार भाई-बहनें कहते हैं मुझे आजकल बहुत ज्यादा गुस्सा आने लग गया है क्यों आने लग गया हैं क्योंकि हम औरों का गुस्सा खत्म करने की कोशिश करते जा रहे थे।

बोलने से आदतें नहीं बदलती, सबको पता है कि उनकी वो आदत है उनको बदलनी चाहिए उनको पहले मालूम है रोज-रोज याद नहीं दिलाना पड़ता है लेकिन हम अपना ध्यान रखें उनको बार-बार उस आदत के लिए तंग नहीं करें उनको प्यार दें, सहयोग दें वो शक्ति उनको मदद करेगी अपनी आदत को बदलने के लिए, लेकिन पहले अपनी आदतों पे तो ध्यान दें। बच्चे ने गलती की उसने गुस्से से बोला हम और गुस्से से बोलते हैं ये बात करने का तरीका है, मैं तो उसको सिखा रही हूँ कि बात कैसे करनी चाहिए तो मैं कैसे सिखाउंगी तो मैं उस तरीके से बात करके सिखाउंगी कि बात इस तरह करनी चाहिए लेकिन हम शोर मचा के उसको बोलते है कि बात कैसे करनी चाहिए तो वो तो यही सीख रहा है कि बात तो ऐसे करनी चाहिये। उर्जा है! हमारा एक-एक सीन वो उर्जा है एक-एक संकल्प वो शक्ति है जो उनको जाती है, ये खुशी आलरेडी हमारे अंदर है बाहर कहीं नहीं ढूंढना है, अब उसको थोड़ा सा संभाल के चलना है।

एक दिन घर में प्रयोग करें। पहले घर पे कोशिश करना बहुत अच्छा है फिर बाद में बाहर कोशिश करना। सारा दिन चाहे कुछ भी हो जाए दुनिया इधर से उधर हो जाए, हम एक दिन स्थिर रहेंगे। हम कर सकते हैं बहुत ही आसान है सिर्फ याद रखना है। जैसे उपवास करते हैं तो याद रहता है ना कि आज मेरा उपवास है, लेकिन चार लोग खाना खाने बैठे और हमें भूल गया तो हम खाना खा लेते हैं, फिर कहते हैं अरे भूल गया आज तो मेरा उपवास है। इसी तरह हमारा उपवास है चाहे कुछ भी हो जाये गुस्सा नहीं करेंगे, परेशान नहीं होंगे। भगवान को खुश करने के लिए उपवास करते हैं, करते है ना! आपके बच्चे को आपको खुश करना हो वो खाना नहीं खाएगा तो खुश हो जाएगे नहीं आप और ही खाना लेकर उसके पीछे भागते जायेंगे। कभी सोचना उसको खुश करने के लिए खाना नहीं खाएंगे तो क्या होने वाला है। पहली बात तो वो ऑलरेडी खुश है, उसको खुश नहीं करना पड़ता। पूरा जीवन उसको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि आदत पड़ गई है, सबको खुश करना है सबको खुश करना है। जो करना है वो अपने लिए करना है और डर के नहीं करना है कि भगवान नारा॰ज हो जायेगा इसलिए ये करना है। भावना से करना है, समझ से करना है इतना भावना से करेंगे तो उसकी हमें प्राप्ति होगी। आज जो करते हैं वो डर से करते हैं ये करो कहीं भगवान नारा॰ज न हो जाए, ये करो कहीं कुलदेवी नारा॰ज न हो जाए, यदि वो भगवान है तो नारा॰ज कैसे होगा। भगवान भी नारा॰ज हो हम भी नारा॰ज हों तो बात बराबर। कैसे ये बोलते हैं, कैसे हम सोचते हैं कि भगवान नारा॰ज न हो जाए, करोकरो- करो ताकि भगवान नारा॰ज न हो जाए। करो क्योंकि करना अच्छा लगता है वो फिर ठीक है, भय के कारण किया तो कुछ प्राप्ति नहीं होगी इसीलिए करते जा रहे है, करते जा रहे हैं लेकिन अंदर ताकत तो फिर भी नही भरती है। तो एक दिन ``परेशान नहीं होना का उपवास''करना है। शुरूआत अभी से करनी होगी। ये सब कुछ जो हमने शेयर किया ये बहुत सहज है कुछ भी कठिन नहीं था सिंपल है, स्वाभाविक है लेकिन इसको करने की हमारे अंदर ताकत चाहिए। हम उपवास करेंगे हम आराम से कर पाएंगे ये लेकिन हर रा॰ज इतनी सजगता रखना थोड़ा सा मुश्किल हो जाता है क्योंकि बातें आ जाती हैं तो हम भूल जाते हैं। तो इस सजगता को स्वाभाविक बनाने, अपने अंदर ताकत भर के नेचुरल रहने के लिए कि मैं स्वाभाविक शांत रहूँ, मैं स्वाभाविक खुश रहूँ, मैं स्वाभाविक विश्वास कर पाउँं उसके लिए हम मेडिटेशन सीखते हैं। मैं आत्मा, परमात्मा से संबंध जोड़ अपने अंदर वो ताकत भरती हूँ और वो ताकत जब मेरे अंदर भर जाती है तो औरों से मांगना नहीं पड़ता बल्कि औरों को मैं देना शुरू करती हूँ, क्योंकि मेरे अंदर भर गया है, पांच दिन एक घंटा कितने घंटे हो गए पांच घंटे, पांच घंटे में आजकल क्या करते हैं? थियेटर जाते हैं, पिक्चर देखते हैं, वापस आते हैं पाँच घंटे लगते हैं पैसा लगता है वो अलग। और वापिस घर क्या लेकर आते हैं, जाते हैं खुशी लेने के लिए, वापिस आते हैं क्या लेकर, आते वो ही सब-कुछ वो ही दर्द वो ही हिंसा। वो सारा दिन सिरियलों में धोखा देख-देख कर के विश्वास करना बंद कर दिया है हमने क्योंकि हम देखते हैं आजकल लोग कैसे हैं तो ये बहुत बड़ा प्रभाव है हमारे उपर जो हम देखते हैं सुंनते हैं। तो आज दिन तक पांच घंटे बहुत सारी चीजों के लिए दिए हैं, अब पांच घंटे प्रतिदिन एक-एक घंटा एक ऐसी विधि को सीखने के लिए जिससे मेरा मांगना बंद हो जाये, मैं हर पल नियंत्रण में शक्तिशाली मजबूत और हमेशा खुश रहूँ ताकि मैं अपने परिवार को भी अपने बच्चों को भी वो ताकत दे सकूँ। ये ताकत बाजार में मिलने वाली नहीं है सौ प्रतिशत नहीं मिलेगी। कुछ भी करने से नहीं मिलेगी इसका काम अपने उपर ही करना है। अब ये बात को सुनतेसुनते हमारे पास विकल्प(पसंद) है, या तो हम निर्णय लेते हैं कि हाँ मुझे अपने जीवन को सुंदर बनाना है, मुझे अपने व अपने परिवार को मजबूत बनाना है मैं कल से ये कोर्स सीखूंगा। दूसरा मेरे पास तो समय नहीं है ये भी पसंद हमारी है जो हम चुनेंगे वो ही हमें मिलेगा और जैसा हम चुनेंगे वैसा ही हमारा भाग्य बनेगा। तो अगर खुशी को निर्मित करना है तो थोड़ा-सा समय तो निकालना पड़ेगा। दो मिनट मौन में बैठकर अपने आप से पूछना क्या मैं अपने लिए और अपने परिवार के लोगों के लिए पांच घंटे निकाल सकता हूँ? क्या मैं अपने से प्यार करता हूँ कि मैं अपने लिए पांच घंटा निकाल सकता हूँ या मुझे सिर्फ काम ही करना है चाहे वो काम गुस्से में ही क्यों ना करूँ। और अगर मै ये एक घंटा निकालता हूँ तो भी काम होगा लेकिन काम करने का तरीका अलग होगा। एक बार ये कोशिश करके देखें, नहीं तो उसी तरह से जीवन चलता जायेगा और दर्द दिन प्रतिदिन बढ़ता जाएगा। किसी बीमारी का इलाज न करो तो वो बढ़ती ही जायेगी ना। हम सोच रहे हैं ये अपने आप ठीक हो जायेगा ये अपने आप ठीक नहीं होगा ये एक बीमारी है, अंदर ये एक कम॰जोरी है, इसके उपर काम करेंगे ये बहुत सहजता से ठीक हो जायेगा लेकिन नहीं करेंगे ये दिन ब दिन बढ़ता जायेगा। ये हम अपने जीवन में देखते ही आ रहे हैं कि हमारे संस्कार समय चलते कठोर होते जा रहे हैं तो ठीक है अब से इनको बाय-बाय।

ड़्रील

चलिये सीट पर पीछे की ओर टिककर आराम से शिथिल होकर बैठ जाएं। अपने आप को देखें। एकदम हल्का, आज दिन तक बहुत कुछ किया खुशी को ढूंढने के लिए, बाहर हर जगह ढूंढा लेकिन अपने पास ढूंढना भूल गए। अपने आप को देखें जिम्मेवारियां रिश्ते, काम ये सब-कुछ मुझे करना है लेकिन ये कराने वाली शक्ति मैं आत्मा हूँ। देखें अपने आप को घीरे-धीरे हर संकल्प, हर विचार ये मेरी रचना है। आज मुझे अपनी रचना को धीरे-धीरे प्यार से बदलना है और ये बहुत सहज है क्योंकि खुशी मेरा स्वभाव है, खुशी मेरी पूंजी है, खुशी मेरे अंदर भरपूर है। अब मुझे उसे सिर्फ उपयोग करना है, खुश रहकर प्यार से शांति से हर काम करना है और कराना है, क्योंकि ये ही मेरा स्वभाव है। देखें अपने आप को कल सारा दिन, सुबह बच्चों को उठाना है देखें अपने आप को उठाते हुए, तैयार करना है, नाश्ता बनाना है काम करना है, सब-कुछ करना है बातें आयेंगी, हरेक अलग-अलग तरह से व्यवहार करेगा, अलग-अलग तरीके से बात करेगा, परिस्थितियाँ आनी ही हैं लेकिन अपने आप को देखें हमारा व्रत है, हमारा उपवास है सारा दिन चाहे कुछ भी हो जाए हमारा अपने उपर पूरा ध्यान रहेगा। अपने उपर ध्यान रखते हुए मैं औरों का ध्यान रखूंगा, एक दिन एकदम स्थिर, एकदम शांत, क्योंकि ये मेरा स्वभाव है, ये ही मेरी नेचर है। मैं शक्तिशाली आत्मा हूँ जो चाहूं वो कर सकती हूं ताकत मेरे पास है, देखें अपने आप को कल सारा दिन अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए, बच्चों के साथ, परिवार के साथ, पड़ोसियों के साथ, काम पर, सड़क पर हर जगह मैं अपनी शक्तियों का उपयोग कर रहा हूँ, ये मेरी पसंद है, ये मेरी जीवन की अब विशेषता है ये मेरा जीवन जीने का अब तरीका है क्योंकि ये ही स्वाभाविक और सहज है।

ओम शांति