मम्मा मुरली मधुबन


ग्रहस्थ आश्रम जीवन

रिकॉर्ड:-
जाग सजनिया जाग, नवयुग आया आया सजनिया, जाग सजनिया जाग.......

ओम शांति, कौन कहता है जाग सजनिया जाग ? बुद्धि में है ना कि जगाने वाला एक ही बेहद का बाप है । उसको साजन भी कह सकते हैं क्योंकि हम सब सजनिया या भक्तियाँ कहो या आत्माएं कहो, उनको याद करते हैं, तो इसी हिसाब से हम सब याद करने वाले सजनिया और उनको याद करते हैं तो वो हो गए साजन । तो अभी वह बाप उनको बाप भी कहें, तो अभी बाप कहता है कि अभी जागो । उसका मतलब है कहां सोए हुए हैं? सोए हुए को ही तो जगाया जाता है ना । तो अभी सोए हुओं को आकर के बाप जगा रहा है । कैसे सोए हुए हैं, वह बैठ करके समझाते हैं । ऐसे नहीं हैं कि जागे बैठे हो । नहीं! जगाना और सोए किसमें हैं वह चीज बैठकर के समझाते हैं कि जो तुम्हारा जन्म जन्मांतर का सदा काल का सुख था और जो प्राप्ति थी वह खो बैठे हैं और खो कर के अपने दु:ख के जन्मों में अभी चल रहे हो तो जैसे उस सुख से तो सो गए हो ना । पता ही नहीं है कि हमारा कोई सदा काल का भी सुख था, जिस सुख में हम सदा सुखी थे । तो उसको भूल गए हो अर्थात उससे सो गए हो । जानते ही नही हो, ना अपने सुख को जानते हो, ना सुखदाता बाप को जानते हो कि हम को बाप के द्वारा क्या वर्सा मिला था और उसमें हम कितने सुखी थे इन बातों को नहीं जानते हो तो उसका मतलब उसको भूल गए हो या उनसे सो गए हो । अभी फिर बाप आ करके उस नई दुनिया की जागृति दे रहा है । कहा ना नवयुग आया है, तो अभी यह नया युग कहो । अभी यह पुराना युग, कलयुग को पुराना युग कहेंगे ना, सतयुग को नया युग कहेंगे । तो अभी नया युग आ रहा है अर्थात नई दुनिया आ रही है । अभी यह पुरानी दुनिया खत्म होती है और नई दुनिया आ रही है । तो बाप कहते हैं अभी फिर से जागो, वो ही नई दुनिया अथवा सुख की दुनिया अभी फिर से आ रही है, लेकिन उसके लिए अभी तुम को क्या करना है, वह उठकर करो । तो अभी जगा रहा है वो ही करने के लिए कि नए युग के लिए अथवा नई दुनिया के लिए क्या करना है, वह करना तो अभी है ना तो उसी का सेपलिंग अथवा कर्म श्रेष्ठ की प्रालब्ध, अभी लगानी है । तो अभी लगाएंगे तभी फिर प्रालब्ध को पाएंगे, इसीलिए बाप कहते हैं जागना तो अभी है ना, ऐसे नहीं है पीछे जागेंगे नहीं! अभी जागना है । अभी कर्म को श्रेष्ठ बनाना है । जिस श्रेष्ठ कर्म के आधार से फिर अपनी श्रेष्ठ प्रालब्ध को पाना है । तो अभी कहते हैं अपने कर्मों को अच्छा बनाने का पुरुषार्थ रखो । यही लास्ट जन्म है । तुम्हारे पुराने जन्मों का यह लास्ट जन्म है । इसमें ही तुम अभी अपने कर्मों को श्रेष्ठ करके उसका जो सैपलिंग अथवा फाउंडेशन लगाएंगे उसके आधार से फिर तुम नए युग अथवा अथवा नई सतयुगी की दुनिया के सुख को पाएंगे । वो सैप्लिंग लगाना तो अभी है ना । काम अभी करना है, पीछे काम नहीं करना है पीछे तो खाना है, प्रालब्ध प्राप्त करने की है । जो करेंगे सो पाएंगे लेकिन करना तो अभी है ना । तो अभी क्या करना है उसकी बैठ करके यह नॉलेज अथवा शिक्षा दे रहे हैं । तो अभी वह शिक्षा जो रोज आकर अच्छी तरह से समझते हो कि अभी उसके लिए क्या करने का है । हमारा यह जन्म जन्मांतर जो उल्टा हुआ वह किस बात से बिगड़ा और किस कारण से हम दु:खी हुए, वह अभी बुद्धि में है, कारण का पता है दु:ख का कारण कहाँ से हुआ । दु:ख का कारण कोई परमात्मा ने नहीं दिया । हम अपने भूल के कारण दु:खी हुए हैं । वह भूल कौन सी हुई है, वह भूल आ करके करेक्ट कराने के लिए अभी बाप उसकी रोशनी दे रहा है । तो वह रोशनी देता है बाकी ऐसे नहीं है कि कोई चमत्कार दिखाए या कोई लाइट या कुछ, नहीं! यही ज्योत जगाना अर्थात इस बात की आ करके रोशनी देते हैं कि तुम्हारे में कौन से कारण से दु:ख आया है । वह कौन सी भूल हुई है वह भूल को आकर करके करेक्ट कराते हैं । वह परमात्मा ने आकर के भूल को करेक्ट कराया अर्थात उस बात की रोशनी दी है । नॉलेज को भी रोशनी कहा जाता है ना जैसे डॉक्टरी नॉलेज से डॉक्टर बन जाते हैं तो देखो यह डॉक्टरी नॉलेज डॉक्टरी की रोशनी हो गई ना, जिससे पता चलता है इसको क्या हुआ है उसको कैसे ठीक करना है, फिर उसको कैसा बनाना होता है । तो इन सब बातों की रोशनी बाप दे रहे हैं, यानी नॉलेज, नॉलेज को रोशनी भी कहा जाता है, बाकी रौशनी का अर्थ यह नहीं की रोशनी देखेंगे । कई समझते है, साक्षात्कार होता है या फिर रोशनी या लाइट का थोड़ा कुछ देखते हैं तो समझते हैं कि यह हमने रोशनी पा ली, परंतु यह रोशनी पाने का मतलब यह नहीं है कि हमने वो कुछ देखा तो बस हमने वो पा लिया, नहीं! यह तो है नॉलेज, नॉलेज को रोशनी कहा जाता है । तो उस बात का नॉलेज मिलता है अथवा रोशनी मिलती है की यह बात कैसे है कैसे बनती है कैसे चलती है अर्थात इस बात की हमको रौशनी है । पर रोशनी का मतलब यह तो नहीं ना कि कुछ चीज देखी तो बस हमने वो रोशनी पा ली, नहीं! नॉलेज होनी चाहिए । तो इसी तरह से बाप भी आकर करके हमको, हमारे बिगड़ने का और फिर बिगड़ी हुई बात को सुधार कैसे करना है इन सब बातों की रोशनी देता हैं । तो रोशनी नॉलेज से देंगा ना बाकी रोशनी कुछ दिखाएगा थोड़ी । नहीं, नॉलेज से देगा । तो उसने भी आकर के नॉलेज दी है, शिक्षा दी है, समझाया है क्योंकि हमारी कोई भूल हुई है तो उस भूल के ऊपर समझाया जाता है, भूल के ऊपर कुछ दिखाया तो नहीं जाएगा ना या रोशनी दिखाएगा या कुछ साक्षात्कार कराएगा तभी कोई समझेगा कि हां भई ये कुछ है, नहीं! उसके लिए नॉलेज चाहिए, शिक्षा चाहिए। तो हमारी भूल हुई है और हमारे कर्म भी भूल से भ्रष्ट हुए हैं यानी भूल के कारण, तो ये सब ऐसे ही नहीं है, हम भ्रष्ट बने हैं कोई भूल के कारण, अभी श्रेष्ठ भी बनेंगे उस भूल को करेक्ट करने से, बाकी ऐसे नहीं है कुछ देखने से । तो इसलिए कई जो यह इच्छा रखते हैं कि साक्षात्कार हो या हम कुछ देखें तो देखने से तो कोई भूल थोड़ी करेक्ट हो जाएगी । भूल करेक्ट होगी समझ से करेक्ट, उसके लिए समझ चाहिए । और भूला जाता है कोई भी बात में मनुष्य तो बेसमझी से भूला जाता है । कोई बात की बेसमझी से भूल हो जाती है, फिर उसी भूल को करेक्ट करने के लिए उसी बात की फिर समझ लानी होती है । बाकी ऐसे तो नहीं है ना, कुछ देखने से कोई भूल करेक्ट होगी । तो यह भी चीजें समझने की है कि हमारी भी कोई भूल रही है, जिससे हम अपने कर्मों में भ्रष्ट हुए हैं और भ्रष्ट कर्मों के कारण ही दु:खी हुए हैं तो हमारे दु:ख का कारण भूल है, अभी उसी भूल को करेक्ट करने के लिए फिर बाप को भी ज्ञान देना पड़ेगा ना यानि समझ । तो समझाने के लिए तो उसको जरूर कोई कॉलेज या स्कूल की तरह से बैठ के समझाना होगा । जैसे कोई भी बात समझानी होती है तो जैसे डॉक्टर बनाना होता है तो डॉक्टरी कॉलेज है, उसमें बैठ कर के नर अथवा नारियों को वह शिक्षा दी जाती है जिससे वो डिग्री लेते हैं अर्थात वो डॉक्टर या इंजीनियर या बैरिस्टर उस नॉलेज से बनते हैं । तो इसी तरह से परमात्मा को भी आकर के इस चीज का नॉलेज देना पड़े न । तो नॉलेज भी इसी तरीके से देंगे ना, उसके लिए और क्या तरीका हो सकता है । मनुष्य को समझाना और उसी स्टेज पर लाना उसके लिए तो इसी तरीके से समझाना होगा ना । इसीलिए देखो इसको कोई कॉमन सत्संग नहीं कहा जाता है जैसे और सत्संग में बस आया, खाली सुना, चलो हम दर्शन किया या दो वचन सुना, बस सुन कर चले गए, यह वह चीज नहीं है । यह तो स्कूल अथवा कॉलेज की तरह से चीज है जैसे डॉक्टरी कॉलेज में कोई जाएगा तो डॉक्टर बनके निकलेगा ना । वह डिग्री पा के निकलेगा, इसी तरह से यह भी वह चीज है जहां हम आ कर के वह पा करके ही रहेंगे, बाकी ऐसे नहीं कि आए खाली सुन के चले गए । नहीं! यह प्रैक्टिकल लाइफ बनाने की कॉलेज समझो । यह प्रैक्टिकल जीवन में हमारे जीवन का आदर्श क्या है, उसी चीज को पाके कैसे रहना है, उसकी प्रैक्टिकल में प्रैक्टिस कराई जाती है । तो यहां प्रैक्टिकल प्रैक्टिस मिलती है कि घर गृहस्थ में रहकर के अपने प्रवृत्ति का जो आदर्श है वह कैसे बनाएं, क्योंकि हमारे प्रवृत्ति का आदर्श बहुत ऊंचा है और अनादि प्रवृत्ति है । अनादी कोई सन्यास तो नहीं है ना । वह जो सन्यास मार्ग है तो उनको तो ऐसे नहीं कहेंगे ना कि वह सन्यास मार्ग कोई यथार्थ मार्ग है, नहीं! हमारा नर और नारी दोनों अनादि हैं और उस अनादि दोनों को पवित्र प्रवृत्ति में कैसे चलना है, उन्हीं को ही ऊंचा आदर्श कहेंगे इसीलिए गीता में भी कर्म योग को श्रेष्ठ रखा गया कर्म सन्यास से । वास्तव में कर्म सन्यास अक्षर भी जो है वह रॉन्ग है क्योंकि कर्मों का सन्यास होता ही नहीं है । सन्यास भी जो सन्यासी करते हैं ना, वह घर गृहस्त का सन्यास करते हैं लेकिन कर्म का सन्यास नहीं करते हैं । फिर भी जाकर करके वेद पढ़ना, शास्त्र पढ़ना, ग्रंथ पढ़ना, पढ़ाना यह भी कर्म हो गया ना तो कर्म का संन्यास नहीं हुआ, हां बाकी ऐसे कह सकते हैं कि घर बार का सन्यास । तो घर बार का संन्यास माना कर्म का सन्यास तो नहीं हुआ ना । फिर भी यह कर्म छोड़ के थोड़ा दूसरा कर्म जाकर करते हैं । कर्म बिना तो कोई रह नहीं सकता है इसलिए कर्म सन्यास अक्षर भी कह नहीं सकते क्योंकि कर्मों का सन्यास हो ही नहीं सकता है । जो भी कुछ करना है वह कर्म ही है ना, चलो वेद, शास्त्र पढना या हठयोग या प्राणायाम जो भी जा कर के करते हैं, यह भी तो कर्म ही है ना । तो कर्म के बिना तो मनुष्य रह नहीं सकता है इसीलिए कर्म का सन्यास होता ही नहीं है । हां बाकी उसको कहेंगे जो घर बार छोड़कर चले गए या घरबार का सन्यास, परंतु वास्तव में हमको पवित्र बनने के लिए कोई घर बार के सन्यास की दरकार नहीं है । वह तो हमारे सामने अपने जो पूजनीय देवताएं हैं उनका भी आदर्श है, वह भी घर बार वाले थे ना लेकिन उन्हों को हम क्यों कहते हैं पवित्र, तो इसका मतलब घर बार में भी पवित्र थे और इसीलिए हमारी प्रवृत्ति का नाम भी है देखो है ही ”गृहस्थ आश्रम”, कहते हैं ना ग्रहस्थ को कहा जाता है- गृहस्थ आश्रम और गृहस्थ धर्म खास हमारे भारतवासी । देखो अपने गृहस्थ और प्रवृत्ति के ऊपर कैसे अच्छे नाम पड़े हुए हैं कि गृहस्थ को गृहस्थ आश्रम और गृहस्थ धर्म । तो धर्म और आश्रम का नाम दिया जाता है । धर्म किसको कहा जाता है जहां पवित्रता की बात होती है । आश्रम किसको कहा जाता है - आश्रम में कोई खराबी या विकारों का या ऐसा कुछ भी । आश्रम माना जहां शांति या सुख की या पवित्रता की बातें होती हैं । आप कहेंगे कि हम कोई फलाने आश्रम में जाते हैं तो आश्रम नाम सुनेगा तो सुनने से ही समझेगा कि आश्रम में जरूर कोई शांति की या कोई अच्छी बातें चलती होंगी । आश्रम में कोई खराब बातें या कुछ दूसरी बातों का तो नहीं होता है ना । तो हमारा गृहस्थ ही आश्रम था । हमारा गृहस्थ ही धर्म था और नासे मैं भी कहते हैं ना धर्मपति, धर्मपत्नी नासे में भी आता है ना धर्मपति और धर्मपत्नी । धर्मपति और धर्मपत्नी, तो धर्म का नाम आता है ना । अभी कहाँ है धर्म का संबंध, पति पत्नी का नाता अभी धर्म का कहां है? अगर धर्म के बदले अधर्म का शब्द कहा जाए तो कह सकते हैं क्योंकि अभी विकारों का संबंध है इसीलिए हमारी प्रवृत्ति का जो इतना नाम अच्छा था और प्रवृत्ति का जो आदर्श था वह तो अभी नहीं रहा है ना, इसीलिए बाप कहते हैं कि तुम्हारा जो भी प्रैक्टिकल लाइफ का प्रैक्टिकल जो तुम्हारा आदर्श था और जिस को ही कहा जाता था कि प्रेक्टिकल नेचर । कई मनुष्य समझते हैं कि नहीं यह तो विकारों में चलना और पति पत्नी का संयोग अथवा पति पत्नी का संबंध यह है ही विकारों से चलने का तो फिर बाप कहते हैं नहीं, पति पत्नी को गाया ही जाता है धर्मपति और धर्मपत्नी । पति पत्नी का संबंध बड़ा ऊंचा है और पवित्र नाते का है, लेकिन वह आज पवित्रता का बल नहीं है इसीलिए वह विकारों में जा कर के अपना जो प्रवृत्ति की जो रचना है वह रखते हैं या उनमें जो कुछ चलता है उससे वो दुःख अशांति पाते रहते हैं , नहीं तो प्रवृत्ति का अर्थ, आदर्श बहुत ऊंचा है । नर नारी बहुत ऊंची चीज है और उनका संबंध भी, यह रिलेशन भी बहुत ऊंची चीज है, परंतु उस रिलेशन को कैसे निभाया जाए, किस तरह से उसमें चला जाए वह तुम लोगों को आता नहीं है ना, इसीलिए बाप कहते हैं कि यह सभी आकर करके मैं अक्ल सिखलाता हाँ क्योंकि तुम्हारा विकारों ने अक्ल जो है न वह छीन लिया है अथवा खत्म कर दिया है । तुमको आता नहीं है कि आपस में, इन सभी रिलेशंस में भी रहते कैसे चलना होता है क्योंकि तुमने मेरे से रिलेशन कट कर दिया है ना । बाप से रिलेशन कट हो गया है तो फिर तुम्हारे भी रिलेसंस जो है न, वह बिगड़ गए हैं । पति-पत्नी होकर रहना नहीं आता है तुमको, बाप बेटा होकर के रहना नहीं आता है, राजा प्रजा होकर रहना नहीं आता है, सभी रिलेशंस तुम्हारे बिगड़ गए हैं और सभी रिलेशंस में तुम एक-दो को दु:ख देते और लेते रहते हो, क्योंकि मेरे से रिलेशन जो है वह तुम्हारा अभी कट है इसीलिए तुमको वह बल अथवा वह ताकत आ नहीं सकती है कि तुम्हारे सदा सुख के जो आपसी के रिश्ते रिलेशंस है मनुष्यों का आपस का, वह तुम्हारे सदा सुख के कैसे रहें, वह रह नहीं सकते हैं । इसीलिए बाप कहते हैं कि अभी पहले तुम मेरे से रिलेशन जोड़ो । मेरे से जोड़ो तो मेरे से तुमको ताकत मिलेगी । वह ताकत तुम लोगों को आने से फिर तुम लोग अपने आपस के जो रिलेशन है, तुम आत्माओं का, वह सदा सुख का रहेगा । अभी वह हो गया है सदा दु:ख का । एक दो को दु:ख ही देते हो तो दु:ख का ही है ना । देखो अकाले मरना, रोगी होना, देखो स्त्री को कुछ होगा तो क्या पति को दु:ख नहीं होगा? पति को कुछ होगा तो स्त्री को दु:ख नहीं होगा? तो यह तो है ही दु:ख के कारण ना । तो यह सभी जो यह एक-दो को दु:ख देना या दु:ख का होना, यह सभी कर्म के हिसाब से हो गया ना । तुम्हारा कर्म का खाता या ये सभी जो दु:ख के खाते बने हैं, तो तुम एक दो को दु:ख देने और लेने में इसीलिये आए हो क्योंकि तुम्हारे में अभी वह रिलेशंस निभाने की पूरी ताकत नहीं है, इसीलिए बाप कहते हैं कि वह ताकत मेरे रिलेशन से मिलेगी । मेरे से तुम्हारा क्या रिलेशन है वह अभी तुम नहीं जानते, तो जब तलक उस चीज को नहीं जानो और उस चीज के रिलेशन में ना आओ तब तक तुम्हारे भी जो रिलेशंस है न उसकी तुम्हारे में अभी ताकत नहीं है जो एक-दो से तुम सुख का बल ले सको, दुःख ही देने की बातें आती हैं इसीलिए बाप कहते हैं अभी मेरे से रखो, तो फिर तुम्हारे संबंध भी जो है ना, वह सदा सुख के रहेंगे । वह प्रवृत्ति ऐसी थी, ऐसे नहीं है कि प्रवृत्ति है ही नहीं या यह संसार है ही नहीं, जैसे कई समझते हैं, नहीं! ये संसार है, यह रिलेशंस भी अनादि हैं । ऐसे नहीं कहेंगे नर नारी कभी थे ही नहीं, अनादि है, लेकिन उन्हों का संबंध जो अभी बिगड़ गया है एक-दो को दुःख देना और यह सभी कारण बन गए हैं, यह क्यों बना? यह दू:ख कहां से बीच में आया? इन रिलेशंस में दुःख कहां से आया? यह रिलेसंस में दु:ख आया हमारे विकारी खाते के कारण, तो विकार जो बीच में आए न उन्होंने हमारा खाता, हमारा रिलेशंस यह सब दु:ख के कर दिए हैं इसीलिए बाप कहते हैं इनको बीच से निकालो । जिस चीज ने तुम्हारे रिलेशंस में दु:ख पैदा किया है तो दु:ख पैदा करने वाली जो चीज है न उनका नाश करो । यह कोई मैंने नहीं पैदा किया है, यह तो तुम्हारे विकारों ने पैदा किया । विकारों के कारण तुम्हारे रिलेशंस, तुम्हारे कर्म का खाता जो है ना, वह सारा दु:ख का हो गया है इसीलिए अभी इस चीज को निकालो तो फिर तुम्हारा सब सुख का हो जाएगा, परंतु निकले कैसे? बात है कि निकले कैसे, इसीलिए कहते हैं अभी मेरे से अपना रिलेशन जोड़ दो तो ताकत मिलेगा, उसके लिए पावर चाहिए । तो मेरे पावर से अथवा मेरे बल से ही तुम्हारे विकार जो हैं ना जो पाप बनाते हैं.., यह कई नहीं समझते हैं कि विकारों से ही पाप बनता है, पाप कहां से बनता है और पाप का नतीजा ही दु:ख है । यह तो भले कई समझते भी हैं कि पाप मत करो, लेकिन यह पाप होता कहां से है उनका भी तो पता होना चाहिए कि पाप कौन कराता है । पाप कराते हैं यह विकार, ये मोहवश यह भी पाप है, क्रोधवश यह भी पाप है, लोभवश आदि ये जो पांच विकार हैं यही तो पाप बनाते हैं, इन्हीं विकारों से जो हम कर्म करते हैं वह पाप के नतीजे में जाता है इसीलिए बाप कहते हैं कि अभी ये पाप ना बनाओ, तुम्हारा पाप ना बने तो उसके लिए इन विकारों को नष्ट करो । तो वो बैठ करके इस चीज की रोशनी देते हैं की यही कारण है इसी कारण को मिटाने से फिर तुम्हारे रिलेशन, तुम्हारे संबंध सदा सुख के होंगे । तो वह चीज बैठकर के समझाते हैं इसके लिए रोशनी देगा ना, यह रोशनी है ना, अभी पता चलता है ना कि भाई किससे हमको दु:ख मिला है । तो जो दु:ख देने वाली चीज है उसको तो जल्दी से खत्म करो, इसके लिए थोड़ी ऐसे कहना चाहिए कि आहिस्ते आहिस्ते, धीरे-धीरे पुरुषार्थ करेंगे ना, थोड़ा थोड़ा करके करेंगे ना, जल्दी कैसे होगा, आदि ऐसा थोड़ी कहेंगे- भाई जो चीज दु:ख दे रही है उसके लिए तो यही कहेंगे न भाई इसे जल्दी से जल्दी ख़त्म करो । देखो आप डॉक्टर के पास जाते हो कोई बीमारी दु:ख होता है तो कहते हैं न की इलाज करके जल्दी से उसको खत्म करो, यही चाहेंगे न जल्दी से कैसे उसको ठीक करें । उसको थोड़ी कहेंगे आहिस्ते, आहिस्ते, धीरे-धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके, नहीं! जब यह पता चला है कि इसी के कारण दु:ख है तो उसमें काहे के लिए कहते हो कि आहिस्ते-आहिस्ते क्योंकि वह चीज आपको बहुत प्रिय लग रही है ना । वह विकार बहुत काल के चले होने के कारण वह अभी छोड़ना पड़े तो उसमें कहते हैं कि आहिस्ते आहिस्ते परंतु यही तो चीज है जिसने हमको हमारे अनेक जन्मों से दु:खी किया है तो दु:ख वाली चीज को तो झट से काट फेंक देना चाहिए ना । जबकि अभी पता चला है और ऐसी भी चीज नहीं है कि जिससे हमारा काम नहीं चले । क्या क्रोध के बिना काम नहीं चलेगा ? हां.. मुन्नीलाल... लोभ के बिना काम नहीं चलेगा? कई समझते हैं लोभ नहीं करेंगे तो फिर हम कमाएंगे कैसे, कई समझते हैं मोह नहीं करेंगे तो बच्चे कैसे संभालेंगे, कई समझते हैं कि क्रोध नहीं करेंगे तो आज की दुनिया में काम कैसे चलेगा । इसीलिए समझते हैं इन सब के बिना काम नहीं चलेगा और काम के बिना फिर बच्चे संतान कैसे पैदा होगा । वो समझते हैं भगवान के पैदा करने का काम, भगवान के चलाने का काम इन सभी विकारों से ही चलने का है इसीलिए समझते हैं कि यह विकारी सत्ता है, परंतु नहीं, यह विकार ही है जिससे हम गिरे हैं । कोई यह सत्ता नहीं है । वो हमारी पवित्र दुनिया भी चली हुई है जिसमें हम पवित्रता के बल से संतान भी पैदा रहा है, पवित्रता के बल से संतान की परवरिश भी हुई है, पालना भी हुई है । हमारा संसार पवित्रता के संबंध में चला हुआ है तो ऐसे नहीं कहेंगे कि हाँ पवित्रता के बिना संसार कैसे चलेगा । तो यह सभी चीजें बहुत अच्छी तरह से समझने की है इसीलिए कई जो समझते हैं कि विकारों से ही काम चलने का है, यह रॉन्ग है तो इसीलिए बाप कहते हैं की ये जो विकार हैं यह पहले से नहीं है, ये पीछे हुए हैं । मैंने पहली- पहली जो दुनिया बनाई थी, जिसकी मैं बैठकर कभी शिक्षा देता हूँ, मैंने उसी चीज को बनाया था, जो निर्विकारी कहा जाता है, जिसको अंग्रेजी में भी कहते हैं वाइसलेस । देखो दो अक्षर है ना वाइसलैस और विषियश, तो जरूर है कि वाइसलेस का मतलब है निर्विकारी । पांच विकारों को भी अंग्रेजी में फाइव वाइसेस कहते हैं न तो वह है ही वाइसलेस, तो वाइसलैस को ही तो निर्विकारी कहेंगे ना, बाकी ऐसे थोड़ी ही निर्विकारी का कोई दूसरा कोई मीनिंग है । कई समझते हैं निर्विकारी की मीनिंग ही दूसरी है, इसीलिए वह समझते हैं कि यह पांच विकार, ये विकार थोड़ी ही हैं । ये काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि यह विकार थोड़े ही हैं, यह तो नेचर है, यह तो चली आई है इनके बिना संसार कैसा । परंतु नहीं, वह है ही वाइसेस । वाइसेस कहा ही इनको जाता है और अंग्रेजी में भी कहते हैं वाइसलेस, उसको ही तो निर्विकारी कहते हैं । तो उन वायसेस का ही तो नाश करना है ना । तो जब तलक उनका नाश ना हो तो निर्विकारी कैसे हों । तो ऐसे नहीं है कि इनके बिना संसार नहीं चलेगा या संसार चलाने की कोई यही अपनी सत्ता है, नहीं! और उसी चीज से हम दु:खी हुए हैं, दु:ख का कारण ही यही हैं । तो बाप बैठ कर के वह चीज निकाल कर देते हैं कि तुमको दु:खी किसने बनाया, तुम्हारा पाप कौन बनाता है और पाप कराने वाली कौन सी चीज है, अभी इनको छोड़ो तो पाप छूटे, बाकी ऐसे नहीं है कि तुम कहेंगे कि हम किसी का गला थोड़े ही काटते हैं, हम किसको दु:ख थोड़ी ही देते हैं, हम कोई झूठ थोड़े ही बोलते हैं, तो हम तो कोई पाप करते नहीं हैं लेकिन अभी सब झूठ बोलते हो । बाप तो ऐसे कहेंगे ना, कैसे झूठ बोलते हो क्योंकि तुम को पता नहीं है की व्हाट ऍम आई , तुम्हें इसका नॉलेज नहीं है कि मैं कौन हूँ, मेरा पिता कौन है, हमारा क्रिकेटर कौन है, और मुझे करना क्या चाहिए, इन बातों की जो यथार्थ नॉलेज है वह तुम्हारे पास नहीं है । तुम सत्यता को नहीं जानते हो इसलिए तुम ट्रुथ को जानते नहीं हो तो फिर जो कुछ चलते हो वह सब झूठ चलते हो । इसीलिए बाप कहते हैं देखो हो एक ही कि मैं आत्मा हूँ लेकिन अपने को समझ बैठे हो कि आई एम बॉडी परंतु तुम बॉडी नहीं हो, तुम सोल हो । तो देखो यह भी झूठ हो गया ना, हो एक चीज और समझते हो अपने को दूसरी चीज, ये कितना भारी झूट है । हो आप अगर लव जी और अपने को दूसरा समझते हो कि नहीं मैं दूसरा हूँ तो यह भी तो चोरी करना हुआ ना, हैं एक चीज और समझना अपने को दूसरी चीज, हो सोल और अपने को समझते हो बॉडी तो इस जैसी और चोरी कौन सी है? और ऐसी चोरी की हो सोल और अपने को बॉडी समझकर के चलने वाला फिर क्या कहेंगे, वह फिर और दूसरों को भी चोरी सिखाएगा और दूसरों से भी ऐसे ही संबंध में चलेगा बॉडी कॉन्शियस में, नहीं तो रहना चाहिए सौल कॉन्शियस और जिसको सौल कॉन्शियस और गॉड कॉन्शियस कि हम आत्मा हैं और उसी परमपिता परमात्मा की संतान है तो दोनों बुद्धि में चाहिए ना कि हमारा पहला रिलेशन उसके साथ है । तो जब तलक अपना रियलाईजेशन नहीं है तो फिर वह कैसे रहेगा कि हम किसकी संतान है । अपने को सोल ही नहीं समझेंगे तो सोल परमात्मा की संतान है यह भी बुद्धि में नहीं आएगा और उसका रिलेशन नहीं रहेगा तो वह ताकत भी नहीं रहेगी जिससे हम आत्माओं आपसी का जो रिलेशन है, वह सुख का रहे, इसलिए बाप कहते हैं कि देखो कितने झूठे हो । और अपने को समझते हैं कि हम बड़े सच्चे हैं की हम किसी को धोखा नहीं देते । ये तो अपने को ही धोखा दे रहे हो । एक के बदले दूसरा मान के बैठे हो, यह तो बड़े ते बड़ा धोखा है । अपने को भी धोखा है और फिर ऐसे चलते हैं तो दूसरे को भी धोखा ही देते हो । यही है एक-दो का घात करना । फिर इसी तरह चलके जो तुम विकारों के वशीभूत होकर चलते हो, वह फिर घात करते हो, एक-दो की हानि करते हो, उससे आत्मा निर्बल बनती जाती है, तो किसको निर्बल बनाना, किसको कमजोर बनाना, किसका घात करना, यह भी तो घात हुआ ना । नाश करते हो ना, यह तुम मानो अपनी आत्मा की हानि करते हो । अपनी भी हानि करते हो और दूसरे की भी हानि करते हो, तो यह घातक ना बने तो क्या बने, यह पाप ना हुआ तो क्या हुआ । यही तो पाप है ना, तो तुम्हारा यह जो पाप हो रहा है, ये तुमको पता ही नहीं चलता है, बाकी तुम बाहर से समझते हो कि हमने किसी का तो गला तो काटा ही नहीं है, हमने किसी का खून तो किया नहीं, हमने किसी से झूठ तो बोला ही नहीं, हमने किसी की कोई हानि तो की ही नहीं है, परन्तु जो इतनी बड़ी हानि कर रहे हो, इतना नुकसान कर रहे हो अपना भी और दूसरो का भी, इसी से तुम अपने पर पाप का भागी बनते जाते हो लेकिन इसका तुमको पता नहीं चलता है । इसी कारण ही तुम अपने कर्म में दु:खी होते आए हो । यह दु:ख कैसे बनता आया, अगर तुम्हें पता होता तो थोड़ी बनाता, कोई दु:ख बनाएगा अपना? नहीं! सब सुख के लिए कर्म बनाने में लगे हुए हो, लेकिन बन नहीं पाता है । क्यों नहीं बन पाता है, क्योंकि तुम्हारे अनजानाई से जो है ना, उल्टे कर्म होते रहते हैं और तुम्हारा दु:ख का कारण बनता जाता है इसीलिए बाप कहते हैं अभी इन्हीं बातों को समझो और समझ करके जहाँ से तुम्हारा दु:ख बनता रहा है, उसको अभी बंद करो और फिर तुम अपने कारण को सुधार करके अपने लिए सुख बनाते चलो, तो कैसे चलो वह बैठ करके सिखाते हैं । अभी इसमें तो बहुत ही सीधी, सहज और सिंपल बात है इसमें कोई मूंझने की या कोई संशय लाने की बात नहीं है । कईयों को जो संशय आ जाता है कि यहाँ घर गृहस्थ आदि ये सब छुड़ाया जाता है, कोई छुड़ाने की थोड़ी ही बात है यह तो और ही घर-गृहस्थ को सुधारने की बात है । हमारी जीवन और घर गृहस्थ जो सदा सुख का रहे, वह कैसे रहे, उसको ही तो बनाया जाता है ना । हमारे पास देखो आदर्श ही यह है प्रवृत्ति का, कि हम क्या बनाते हैं, यही तो एम रखी है कि हमको यही तो बनाना है । अगर हमको घर गृहस्ती छुड़ाना होता तो यह घर गृहस्थ का आदर्श क्यों रखा है, यही तो लक्ष्य है कि घर गृहस्थ ऐसा बनाओ इसीलिए कहते हैं अभी यह दु:ख की दुनिया अथवा यह दु:ख का घर- गृहस्थ जो बना चुके हैं, अभी उसका कैसे सुधार हो, उस बिगड़ी को कैसे संवारों इसीलिए कहते हैं इससे अभी मन को हटा करके अभी इसमें मन रखो तो कहा जाता है ना अंत मते सो गति इसीलिए अभी यह चीज कैसे बने, उसे बनाने का ही तो यह प्रयत्न सिखाया जाता है ना । इसीलिए कई ऐसे जो मिसअंडरस्टैंड करते हैं की यहाँ घर-गृहस्थ को छुड़ाया जाता है, यहाँ अपने प्रवृत्ति का कुछ नहीं रख सकते यह सब रॉन्ग है । यहाँ है ही आदर्श प्रवृत्ति का और प्रवृत्ति का ही जो संपूर्ण कंप्लीट आदर्श है वह कैसे बने, वो ही तो चीज बनवाई जाती है न, और वो बनाने वाला भी परमात्मा है, वो कहते हैं ना, परमात्मा ने यह संसार बनाया, परमात्मा ने नर और नारी को रचा, ऐसे कहते हैं ना । तो परमात्मा ने कैसे रचा वह भी समझना है ना । परमात्मा ने ऐसे थोड़ी रचा है कि तुम महादु:खी रहो और ऐसे ही रहो, नहीं! परमात्मा ने जो चीज रची, वह बड़ी अच्छी रची, वह कैसी रची, वह बैठ करके समझाते हैं कि हमने ऐसी रची और तुमने उसको क्या बना दिया है । देखो तो सही, क्या बन गये हो, अपने से ही देखो । अपने जीवन से देखो कि क्या बन गए हो - दु:खी, रोगी, अकाले मृत्यु और यह संसार के कई दु:ख, ये सब मैंने थोड़ी बनाए । इसीलिए बाप कहते हैं मैंने क्या बनाया - नर और नारी । तुम्हारे संसार, तुम्हारे रिलेशंस यह सब मैंने कैसे बनाए वो बैठकर के समझाते हैं, देखो यह रिलेशन है ना । यह प्रवृत्ति तो दिखलाते हैं न नर नारी दोनों रिलेशन में खड़े हैं । ये ऐसे नहीं अलग - अलग हैं तो नर-नारी को पति पत्नी, ये संबंध दिखलाते हैं कि पति-पत्नी हैं तो जरूर बच्चे भी होंगे, तो फिर रिलेशन से रजा-प्रजा आदि सारा संसार होगा ना । तो इससे सिद्ध होता है संसार पूजा जाता है । बाप कहते हैं तुम्हारा संसार क्या था बड़ा पूजनीय था, अभी देखो क्या हो गए हो । दु:खी, कंगाल, मोहताज, अभी मरो तो मरो, रोगी बनो तो रोगी बनो, मनुष्य क्या कर सकते हैं, कुछ कर सकते हो? फिर देखो मनुष्य कितना अपना अभिमान रखते हैं । कि हाँ हम यह बड़े फर्ज अदा करते हैं, भाई ग्रहस्थ के भी तो फर्ज अदा करने हैं न । अभी ग्रहस्थ के फर्ज अदा न करेंगे तो क्या करेंगे । कौन कहता है कि फर्ज अदा न करो, परन्तु फर्ज पालने की ताकत कहाँ है अभी । अभी बाप बैठा है, बच्चे को कुछ होगा, बाप क्या कर सकता है, कुछ करेगा? कुछ नहीं कर सकते हो । भले चलो धन होगा, पैसा होगा करके कुछ उसका इलाज करेंगे बस ना, परंतु कोई कर्म का ऐसा कड़ा हिसाब है कि सब कुछ होते भी कुछ नहीं बन पाता है, फिर क्या करेंगे? फिर कहेंगे ना किस्मत । तो फर्ज हुआ ये? जो किस्मत पर आखिर बात लगानी पड़े अथवा हमारे कर्म या इनकी किस्मत, ऐसा कहना पड़े तो उसको क्या कहेंगे, यह थोड़ी फर्ज हुआ । वह तो फिर किस्मत के वश हुआ ना । जो कर्म किए उसके वश है तो फिर कहेंगे ना जो कर्म किया है उसका पाना है तो फिर क्यों कहते हो कि ये हमने फर्ज किया । फर्ज तो वह है जो अपने बच्चे को, अपनी जो भी ड्यूटी है उसमें पूर्ण चला सको परंतु चलाने की ताकत कहाँ है अभी? तो वह ताकत नहीं है ना, तो बिना ताकत के अभिमान रखना कि हम फर्ज अदा कर रहे हैं, तो फर्ज अदा होता ही कहाँ है । स्त्री के बैठे पति चला जाता है फिर यह कहाँ है फर्ज, नहीं तो लॉ नहीं है । वो हमारी जीवन का लॉ था, कभी स्त्री के बैठे पति नहीं जाता था यानी स्त्री विडो नहीं हो सकती थी, कभी विडो का शब्द था ही नहीं । लेकिन आज कहाँ है, उसको ताकत कहाँ है यह सब मरना जन्म लेना कोई अपने वश में है? है ही नहीं, इसका कुछ हम कर ही नहीं सकते हैं । तो यह हमारी बेबसी । जीवन हमारी लेकिन जीवन में हम बेबस हैं । जीवन को हम अपने तरह से और अपने सुख के पूरे साधन की तरह से नहीं चला सकते हैं, नहीं तो यह जीवन हमारा सुख का साधन है ना । जीवन काहे के लिए है, जीवन मुक्ति के लिए है न, जिसमें कोई दु:ख का नाम निशान ना हो, लेकिन अभी है कहाँ? यही बैठ कर के बाप समझाते हैं जो तुम्हारी लाइफ है, लाइफ पाकर के तुम सदा सुखी रहो उसके लिए है, लेकिन अभी ऐसा तो नहीं है न कि सुखी हो इसमें, इसीलिए कहते हैं कि वह चीज जो मैंने बनाई थी, वह ऐसी बनाई थी । उसमें कोई दु:ख नहीं था, लेकिन अभी तो दुःख आ चुका है न , तो वह तुम्हारी भूल है इसीलिए कहते हैं कि मैं आ करके उसकी रोशनी देता हूँ. जगाता हूँ इसीलिए कहता हूँ कि जागो सजनिया, अभी कुछ आंख खोलो कि तुम कहाँ ये भूल से अपना दु:ख का सब बना करके और उसमें सो गए हो । अभी जागो, अभी नवयुग आता है अभी फिर से ऐसी नई दुनिया बनने का टाइम आया हुआ है तो अभी जाग करके उसके लिए तैयारी करो और उसके लिए अपना पुरुषार्थ रखो । अभी यह बैठ कर के समझाते हैं तो ये तो अच्छी बात है ना इसको क्या कहेंगे, घर गृहस्थ बिगाड़ना है ? यह तो और ही हमारे घर गृहस्थ में बल यानि ताकत, शक्ति जिसको कर्मश्रेष्ठ की धारणा कहा जाए वो बैठकर करके बाप देता है, इसमें और तो कोई बात ही नहीं है । तो यह चीज समझनी है परंतु कई बहुत ना समझने के कारण, मिसअंडरस्टैंड होने के कारण कई समझते हैं कि यहाँ शायद कुछ ऐसा सिखाया जाता है परन्तु नहीं यहाँ ऐसी कोई बात नहीं है । यहाँ सिखाया ही यह जाता है कि अपने घर गृहस्त को और ही सुख के सम्बन्ध से चलाओ लेकिन उसमें ताकत आनी चाहिए ना । यह भी कर्म के हिसाब से सब चलता है ना, कोई पति बना, कोई पत्नी बना, कोई बाप बना, कोई बेटा बना, यह सब क्या है - कर्म का हिसाब है ना, तो कर्म के हिसाब में ही बल भरो, जो तुम्हारे कर्म का खाता अच्छा चले । यह तो और ही कर्मों के खाते को सुधारने की सीख है, बाकी इसमें और तो कोई बात ही नहीं है । हाँ वह सन्यास जो है जिसमें घर बार छोड़कर जाते हैं वह तो सीधा ही घर बिगाड़ने की बात है । वह तो घर छोड़ कर चले जाते हैं उसमें तो और ही घर बिगड़ता है । वहाँ तो पति घर छोड़ कर चला जाता है क्योंकि पुरुषों के लिए है ना, नारियों के लिए नहीं है, खाली पुरुषों के लिए है । वह तो सीधा ही घर बिगाड़ना है , अब पुरुष चला जाए तो बिचारी नारियों का हाल क्या रहेगा । वह तो सीधा घर बिगाड़ने वाली चीज है क्योंकि पुरुष ही तो घर का मेन है ना, घर वाले कमाई खाए तो कहाँ से? अगर नारी चली जाए तो पुरुष के लिए नारियां तो बहुत हैं, एक छोड़ेगा दूसरी ले लेगा, लेकिन अपने हिंदू रिवाज के अनुसार पुरुष चला जाए, बेचारी हिंदू नारी के लिए ये तो है नहीं की जाकर के दूसरा करे । यह सन्यास उस ढंग से तो घर को और ही बिगाड़ने वाला हुआ न, कि पुरुष चला जाए तो बेचारी नारी क्या करे । संन्यास, जो की और ही घर बिगाड़ने वाला है उसकी तो बहुत मान्यता या महिमा करते हैं, उनकी बहुत इज्जत करते हैं , उन्हों को तो कोई भी देखेंगे तो नमन करेंगे तो उनकी इज्जत करते हैं फिर ये तो और ही बाप बैठकर के अपनी पवित्र प्रवृत्ति का आदर्श सुनाते हैं - कैसे दोनों पवित्र रहकर के चलें क्योंकि दोनों को हक़ है, दोनों ही तो आत्माएं हो न और उसी बाप की संतान हो । तो तुम दोनों को हक़ है ऐसे नहीं उस आत्मा को हक़ नहीं है, नहीं! उसको भी हक़ है तुम को भी हक़ है और तुम दोनों ही इम्प्योर हुई हो और दोनों को ही पवित्र होना है । ऐसे नहीं की एक इम्प्योर हो एक प्योर हो, ऐसे रहेंगे फिर संसार कैसे चलेगा । ये अगर प्योर बैठी है, तुम भी प्योर बनो, नहीं तो दूसरा कहा जाएँगे । जब तलक दोनों न प्योर बने तो संसार स्वर्ग कैसे हो सकेगा । इसीलिए देखो तुम्हारे उस संन्यास से कोई संसार स्वर्ग तो नहीं होता न । इसीलिए बाप कहते हैं की में आता हूँ दोनों को बनाने के लिए, और उसी से ही तो घर गृहस्थ स्वर्ग बनेगा और कहा भी जाता है घर घर स्वर्ग, तो घर घर स्वर्ग ऐसे होगा न, बाकी घर- घर स्वर्ग ऐसे थोड़ी होगा । घरबार छोड़ के चले जाएंगे तो फिर स्वर्ग कैसा, तो घर घर को स्वर्ग बनाना है न । तो घर-घर कैसे स्वर्ग बने, उसकी ये प्रेक्टिस बाप प्रेक्टिकल में बैठ के बाप अभी कराते हैं । तो इन्हीं सब चीजों को समझना है इसीलिए ऐसे जो मिसअंडरस्टैंड करते हैं न की घर बार यहाँ छुड़ाया जाता है, वो मिसअंडरस्टैंड मत करो, यहाँ लाइफ की एम क्या है, वो बनाई जाती है तो यहाँ की भी एम को समझना चाहिए । परन्तु कभी नए-नए आते हैं, कभी कोई आते कभी कोई आते हैं तो ऐसे भी धोखा आ जाता है तो फिर दूसरे की सुनी सुनाई बातों से काफी मिस अंडरस्टैंड हो सकते हैं । जो सयाने होते हैं न, वो कहते हैं हम अपने आँखों से देखें, हम अपने कानों से सुनें तभी उसे कर सकें धारणा । तो समझदार का काम है हर बात को अच्छी तरह से देख, समझ और फिर उस बात के राईट और रोंग को समझना चाहिए और यहाँ जो भी आप अनुभव सुनते हो न, तो बताते हैं की बुराइयां निकलती जाती हैं और अच्छाईयां आती जाती हैं तो अच्छाई बनाने के लिए, अच्छा जीवन बनाने के लिए और घर गृहस्थ ही अच्छा बनता है न, तो अच्छा बनाने में क्या बुराई है । उसकी माना ही है की आज कल बुराई मनुष्य से छूटती नहीं है और हम समझते हैं की नहीं! यहाँ ऐसा क्यों ? ऐसे बुराइयों में फंस गए हैं की बुराई छोड़ने का उनका जी नहीं चाहता है, विकार छूटते नहीं है और फिर समझते हैं की यहाँ विकारों को क्यों छुड़ाया जाता है, विकार तो नेचर हैं, विकार तो सदा से चले आए हैं, इतने तो उसमें फंस गए हैं । परन्तु नहीं, ये कोई सदा वाली चीज नहीं है । सदा की होती तो फिर हम देवताओं को क्यों कहते निर्विकारी । हम महिमा भी करते हैं सर्वगुण संपन्न 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, तो निर्विकारी शब्द किसके लिए हैं? खाली कहने के लिए ? कुछ करने के लिए हैं न । अगर भरोसे वाली जीवन है, कल को मर जाएं पॉसिबल है. अभी कुछ हो जाए जाएं पॉसिबल है परन्तु तो भी मनुष्य चलता ऐसे है, ये करूंगा, वो करूंगा, शादी करुगा, बच्चे पैदा करूंगा, कमाऊंगा, पढूंगा, चलता तो ऐसे है न । देखो छोटा बच्चा है तो भी कहेगा मैं पढूंगा, मैट्रिक पास करूंगा, कोलेज पास, फिर डॉक्टर बनूंगा, फिर ये करूंगा सोंच के चलता है न । छोटे से ही सोंच के चलता है, वो ख्याल नहीं करता है कल को मर जाऊं, इसीलिए मर जाऊं इसीलिए कुछ न करू, पता नहीं कल मर जाऊं, तो कुछ करू ही नहीं, ऐसा कोई करता है ? कोई नहीं करता है । हो सकता है, पॉसिबल है तो पॉसिबल होते भी कोई चलते तो ऐसा नहीं है न । चलते ऐसे हैं जैसे की हमको बैठना है, कई युगों तक ऐसे चलता है, ऐसा समझते हैं तो चलना तो ऐसे हैं । फिर इसमें क्यों ऐसा? इसमें भरोसा है और गैरेंटी हैं बाप की हाँ तुमको मिलना है और अवश्य ये चीज आने की है, तो जो गैरन्टी वाली चीज होती है, जो समझते हैं की नहीं, ऐसा क्यों करें, फिर भी गिरना है, फिर भी फंसना है तो फिर फंसे ही रहें , करें ही क्यों तो ये देखो, इसको क्या कहेंगे, महामुर्खता, मूर्ख तो पहले ही हैं परन्तु ये समझ कर के फिर कई समझते हैं की हम छूटें ही क्यों, फिर भी फंसे ही पड़े रहें, फिर ही फंसना होगा तो फंसे ही पड़े रहें, तो यह क्या मूर्खता न हुई तो क्या हुआ? इसीलिए बाप कहते हैं, ऐसे महामूर्ख मत बनों, आज सन्डे है इसीलिए आप सबका, ऐसे मीठे मीठे बहुत सपूत, समझदार और जो गुनग्रहण अर्थात गुण ग्रहण करने वाले हैं, अच्छी बात ग्रहण करनी चाहिए, कोई बात अयोग्य हो तो उसको छोड़ देना चाहिए, ऐसे जो अच्छे बच्चे हैं, समझदार उन बच्चों याद प्यार और गुड मोर्निंग और गुड डे ।