मम्मा मुरली मधुबन


मुक्ति और जीवन मुक्ति पाने की विधि

रिकॉर्ड –
जाने ना नजर पहचाने जिगर यह कौन है जो दिल पर छाया……

ये जाने ना नजर, पहचाने जिगर, ऐसी कौन सी चीज है । ऐसी कौन सी चीज है, जिसको नजर नहीं देख सकती लेकिन जिगर, जिगर कहो या बुद्धि कहो, कोई चीज तो बुद्धि से पहचानी जाती है ना, तो बुद्धि पहचानती है अथवा बुद्धि से जाना जाता है, आँखों से देखा नहीं जाता है । ऐसी कौन सी चीज है हमारे जीवन लाल जी? परमात्मा । हाँ, परमात्मा । हमारा परमपिता, परमात्मा, जो इन आँखों से नहीं देखा जाता, लेकिन बुद्धि से जाना तो जाता है ना, पहचाना तो जाता है ना । आत्मा भी ऐसी चीज है, हम भी ऐसी चीज हैं । आँखों से नहीं देखी जाती हैं लेकिन बुद्धि से जानी जाती हैं । तो परमपिता परमात्मा और हम आत्मा ऐसी चीज हैं कि जिसको आँखों से नहीं देखा जा सकता । आत्मा को भी आँखों से नहीं देखा जाता है लेकिन बुद्धि से जाना जाता है कि हाँ, हम आत्मा हैं और सो भी परमपिता परमात्मा की संतान हैं ठीक है ना । अभी बाप ने बैठ करके यह बुद्धि दी, उसको पहचानने की राइट बुद्धि भी अभी उसने ही दी है, आत्मा ने बुद्धि नहीं दी है इसीलिए आत्मा की भी पहचान परमात्मा ने दी है। इसीलिए पहचान देने वाला वह बाप हो गया, क्योंकि आत्मा आत्मा को ना आत्मा की पहचान, ना परमात्मा की पहचान दे सकती हैं। क्यों भला , इसका भी कारण क्या है कि हम सब आत्माएं जो है ना, हम सब अभी आयरन एजेड अथवा तमोप्रधान, लास्ट स्टेज पर हैं। तो यह भी सृष्टि का जो चक्र है ना, इस राज को भी समझना है कि यह सभी आत्माओं का लास्ट स्टेज है सबका है । इस समय कोई भी नहीं कहेंगे कि कोई आत्माएं पवित्र हैं । भले कोई अच्छी आत्माएं हैं जिनको पाप आत्माओं के भेंट में पवित्र कह सकते हैं लेकिन पवित्रता की जो कंप्लीट स्टेज है ना उसके भेंट में नहीं कहेंगे कि वह पवित्र हैं । जो कंप्लीट स्टेज की पवित्रता है वह अभी नहीं है इसीलिए पवित्रता जिस चीज को कही जाए उसका मतलब ही है कि कोई भी पांच विकार या माया का बंधन ना हो। लेकिन अभी सभी आत्माओं को बंधन तो है ना । मानो मिसाल के तौर कोई सुनने वालों में यह विचार भी उठ सकता है कि भाई आज बहुत अच्छे सन्यासी , साधू कई हैं, भई पवित्र गिने जाते हैं, जो बिचारे एकदम जानते ही नहीं हैं, मानते ही नहीं हैं परमात्मा को, जिनके कोई कर्म ही अच्छे नहीं हैं, उनके भेंट में तो फिर भी अच्छे कहेंगे जरूर। इसमें कोई बात नहीं है परंतु फिर भी, जो पूर्ण पवित्रता की स्टेज है, उसके भेंट में तो कहेंगे ना कि उतने नहीं है, देखो सन्यासी है भला फिर तो क्या शरीर को रोग होगा तो यह भी तो कोई कर्म का हिसाब है, तो समझेंगे कि उसकी आत्मा में विकारी दुनिया के कर्म का भी कोई हिसाब है या कोई भी शरीर छोड़ेंगे तो कहाँ जन्म लेंगे, इसी विकारी दुनिया में तो जन्म लेंगे न, तो इसमें जो भी हैं, भले पवित्र आत्माएं भी हैं परंतु कहेंगे वह आत्माएं सब जो हैं वह है अपवित्र । अपवित्र किस भेंट मंइ कि कुछ ना कुछ पवित्रता का उनमें है, कर्म का हिसाब है, जब है तभी तो फिर यहाँ अपवित्र दुनिया में है ना, तो फिर कुछ शरीर को होगा या शरीर छोड़ेंगे तो भी फिर भी विकारियों के घर में जन्म लेंगे, कहाँ जाएंगे? जन्म लेने के लिए तो जरूर कोई विकरो से ही जन्म लेंगे, विकारी कुल में जन्म लेंगे । तो यह भी तो सब का हिसाब किताब है ना, तो कहेंगे ना विकारी संबंध का कोई हिसाब किताब है तो यह सभी बातें समझाई जाती हैं । अभी सब जो भी हैं ना, सब आत्माएँ कहा जाएंगी तमोप्रधान बाकी पवित्र आत्मा जिनकी भी हमारे पास हिस्ट्री है, यह देवताएं, वह ना शरीर वश लेते थे, ना कोई जीवन में विकारों के कर्म का हिसाब किताब भोंगते थे । उनके पास कोई विकारी खाते की भोगना नहीं थी ना तो वह आत्मा भी पवित्र, शरीर भी पवित्र । हाँ सन्यासी साधू कहेंगे उनकी आत्मा पवित्र जरूर है लेकिन शरीर तो पवित्र नहीं है ना, शरीर तो फिर भी विकारी चीज का और फिर भी उसी कारण कुछ ना कुछ रोग आदि रहता है, तो कोई कर्म का हिसाब है ना तो यह सभी चीजें समझने की हैं कि इस समय कंप्लीट जो पवित्रता है ना, स्टेज वह कोई की भी नहीं कही जा सकती है इसीलिए बाप कहते हैं कि वह जो स्टेज है पवित्रता की जिसमें सदा सुख हो, कोई भी विकारी खाते का हिसाब किताब होगा ही नहीं, ऐसी जो स्टेज है ना, वह मैं आकर के बनाता हूँ इसीलिए कहते हैं उसकी परिचय और ऐसी स्टेज बनाना यह भी मैं आत्मा को सिखाता हूँ और मेरा भी जो परिचय है कि मेरे से तुम क्या पावर लो वह भी मैं आ करके समझाता हूँ । तो बाप कहते हैं तेरा परिचय और तेरी कम्प्लीट स्टेज कौन सी है, उसको कैसे प्राप्त करो, यह दोनों ही बातें मैं समझाता हूँ, यानी तेरा भी परिचय मेरा भी परिचय बाप कहता है । तो दोनों का परिचय मैं दे सकता हूँ । बाकी आत्मा कंप्लीट परिचय नहीं दे सकती है, ना कंप्लीट बना सकती है । तो यह सभी चीजें भी समझने की है, इसीलिए कहते हैं मेरा परिचय मैं आकर के देता हूँ तो अभी देखो परिचय , बाप भी परिचय देता है नॉलेज देता है । बाकी ऐसे नहीं की हम देखें । कई यह आस रखते हैं न की हम उसका साक्षात्कार करें देखें, तो बाप कहते हैं कि नहीं, इन आँखों से तो यह कोई देखने की चीज नहीं है न। चलो दिव्य दृष्टि से देखो भी, परंतु फिर भी क्या होगा, देखा परन्तु फिर भी उसका परिचय तो चाहिए ना, हम अगर कोई चीज देखें, जैसे ये रखा है हमारे आगे, हम देख रहे हैं लेकिन हमको इसका नॉलेज नहीं होगा की ये क्या करने की चीज है, इसमें आवाज भरना है या पता नहीं इसमें कुछ करने का है, उसका कुछ मालूम ना होगा, कुछ ज्ञान ना होगा तो काम में आ सकेगी चीज? आएगी ही नहीं । इसका नॉलेज चाहिए कि यह कैसे यूज़ की जाती है । इससे क्या फायदा लेना होता है । यह कैसे काम की चीज है, यह क्या है। जब ज्ञान होगा उस चीज का तभी हमारे पास उसकी वैल्यू है तो परिचय, नॉलेज, बाकी देखने से तो कोई ऐसा नहीं है कि देखने से कुछ हो जाएगा इसीलिए बाप कहते हैं देखने से मेरे भी देखने से क्या होगा, मेरे भी देखने के बाद भी तुमको उस चीज का ज्ञान चाहिए ना तो ज्ञान माना ही परिचय, नॉलेज, समझ । तो यह सारा मदार हो गया नॉलेज के ऊपर, परिचय के ऊपर । अभी बाप कहते हैं मैं तुमको अपना पूरा पूरा परिचय, नॉलेज दे रहा हूँ कि मैं क्या हूँ, मेरा कर्तव्य, मेरा नाम, मेरा रूप , मैं किस धाम का निवासी हूँ , तुम भी किस धाम की निवासी हो, कहाँ से आती हो और तेरा भी कैसा स्टेज बाय स्टेज यह सारा चक्कर चलता है, वह बैठ करके समझाता हूँ । तो अभी तेरा भी चक्कर का चढ़ती कला पूरा हुआ, अभी उतरती कला भी पूरा होने पर है । अभी फिर से चढ़ती कला की बारी है तो उतरती कला, चढ़ती कला , यह सभी हिसाब समझने हैं। चार युगों में दो युग है चढ़ती कला के दो युग उतरती कला के। उतरती कला को भक्ति मार्ग कहेंगे और भक्ति मार्ग जब शुरू होता है तो उतरती कला भी शुरू होती है इसीलिए उतरती कला शुरू होती है तो उसको कहेंगे तो सही ना उतरती कला। तो भक्ति मार्ग हो गया उतरती कला और वह हो गया चढ़ती कला तो यह हिसाब है सारा चक्कर का । इसमें भी किसी को मूंझने की बातें नहीं है कि नहीं भाई भक्ति उतरती कला कैसे, नहीं! यह भी समझना है कि भाई गति सद्गति और दुर्गति, तीन स्टेजिस हैं आत्मा की। गति किसको कहेंगे? जो रोज समझते हैं वो समझते हो गति किसको कहेंगे? अच्छा पूछे , सेठ जी आप बताइए गति माना? जी? जी? नहीं, अभी गति किसको कहं, चलो हम पूँछते हैं जैसे पूरा पूरा ख्याल में आए । हमारे शंख जी बताओ, गति? मुक्ति को, मुक्ति माना? बैकुंठ में जाना, स्वर्ग में जाना , अच्छा । चलो और हमारे, यह तो रोज नहीं आते हमारे बहन जी, आते हैं रोज? आप बता सकते हैं? जो जीवन में नहीं आवे, उसकी गति हो गई । अच्छा, अच्छा । और कौन है देखें माताओं में से पूछे, देखें, देखें हमारी सीता, आप बताइए, गति माना? इसने तो काम ही पूरा कर दिया, अच्छा। हमारी राधे, आप सुनाइए, गति का माना? वह तो ठीक है, तो गति किसको कहते हैं, गति और सद्गति में कुछ फर्क है? शांति धाम में बैठना उसको गति कहते हैं और सद्गति? अच्छा। तो सद्गति माना जीवन में आकर के जो हमारी सतयुग की स्टेज है । जीवन में मुक्त यानी जीवन में दुःख से मुक्त और गति माना दुःख और सुख से मुक्त। जहाँ हम आत्माएं निराकारी दुनिया में रहती हैं । ये जो हमारे वेंसी लाल हैं, वेंसी लाल नाम है ना? इसने कहा कुछ ठीक कि गति माना जो जीवन से मुक्त हो यानी जब आत्मा अभी पार्ट में नहीं आई है, वह सदा नहीं होता है ऐसा की सदा कोई आत्माएं वो पार्ट में नहीं आती है, उसको आना है परंतु कुछ टाइम नहीं आती है, हर एक आत्मा का आपको कल भी बताया था ना हमारे राम चंद्र जी ने कि कुछ टाइम वो आत्माएं वेट करती है, जब तलक नीचे पार्ट हो । तो जब तलक पार्ट नहीं है नीचे, ऊपर है आत्माएं, निराकारी दुनिया में, तो उसको कहेंगे गति । गति माना दुःख सुख से न्यारे । और फिर जब सुख में आती हैं यानी आत्मा भी पवित्र शरीर भी पवित्र. जिसको स्वर्ग कहते हैं । गति को स्वर्ग नहीं कहेंगे गति है साइलेंस वर्ड, शांति धाम, निराकारी दुनिया । उसको निराकारी दुनिया को स्वर्ग नहीं कहेंगे, वह माना आत्मा दुःख सुख से न्यारी हो करके जब तलक पार्ट नीचे नहीं है तब तलक वेट करती है। तो उतना समय उनको गति कहेंगे । फिर सद्गति जब जीवन में आती है तो पहली पहली सद्गति की स्टेज है यानी जीवन में मुक्त । उसका मतलब ही है दुःख जीवन में नहीं है, दुःख की सभी बातों से मुक्त तो उनको कहेंगे सदा सुख तो वह हो गई जीवनमुक्ति । उसको स्वर्ग कहेंगे, ये यहाँ की बात है ना, कारपोरियल वर्ल्ड कि जहाँ जीवन में आ करके सदा सुखी तो उसको कहेंगे स्वर्ग, और जब दुःख सुख से भी न्यारा उसको कहेंगे गति और दुर्गति जो हम फिर जीवन में दु:खी तो जीवन में दु:खी, उसको दुर्गति कहेंगे और जो जीवन में सुखी, उसको सद्गति कहेंगे और जीवन से जब तलक पार्ट नहीं है उसको गति कहेंगे । तो यह हर एक आत्मा का पार्ट है, कुछ टाइम जितना टाइम वहां है, अभी तक नीचे पार्ट नहीं है तो वह गति, पीछे सद्गति । पहले आती है तो सद्गति, हर एक का भी अंदाज है ना पार्ट का, कोई बहुत समय, कोई कम समय, जैसा कल भी समझाया था ना कोई सतयुग से कोई पीछे आती हैं कोपरएज, कोई कलहयुग में पीछे उतरती हैं तो उनका फिर अपना-अपना टाइम है परंतु आना फिर सबको लास्ट स्टेज तक है तो यह सभी हिसाब समझने का है । तो यह कहेंगे ना कि पहले गति, पीछे सद्गति, पीछे दुर्गति तो यह सभी का ऐसा चक्र चलता है , लास्ट में सब आ करके दुर्गति में पहुंचती हैं । पीछे भले उसकी स्टेज में फर्क है कोई दुर्गति में भी कोई कुछ अच्छे हैं, कोई दुर्गति में बहुत नीचे हैं, परंतु कहेंगे तो अभी सब जो हैं ना यह विकारी माया के बंधन में सब हैं, कोई थोड़ा है, कोई बहुत है । जैसे सन्यासी साधू, भल, चलो उसकी आत्मा कुछ पवित्र है, परंतु फिर भी माया का बॉन्डेज तो है ना कुछ ना कुछ । हाँ भाई शरीर को रोग होता है या कोई भी कर्म का कुछ होता है । बैठे हैं इस विकारी दुनिया में तो माना विकारी दुनिया का कुछ ना कुछ खाता जरूर है । तो इसको कहा ही जाता है विकारी बंधन में, यानी दुःख के बंधन में तो दुःख का खाता कुछ ना कुछ है तो यह सभी चीजें जरा थोड़ी समझने की हैं कि ये सारी सृष्टि का भी जो नियम है तो कैसे फिर चढ़ती कला फिर ये उतरती कला । अभी उतरते उतरते सभी जो आत्माएं हैं ना, अभी लास्ट स्टेज में है इसीलिए उसको कहेंगे अभी दुर्गति में । तो जभी भक्ति शुरू होती है, तभी दुर्गति का टाइम शुरू होता है तो टाइम शुरु हुआ है ना फिर वो टाइम चलता चलता चलता देखो द्वापरकाल से भक्ति शुरू होती है और द्वापरकाल से ही माया का आना शुरू होता है । सतयुग, त्रेता में माया नहीं है, यानी पांच विकार । पीछे माया आती है तो मानो दुर्गति शुरू होती है । तो दुर्गति शुरू होती है और उसकी एंड होती हैं तो यह टाइम कहेंगे कि भक्ति के आधार से कुछ ना कुछ मनुष्य चलते रहते हैं, परंतु यह टाइम ही है द्वापर से फिर कलयुग होना, तो कहेंगे ना दुर्गति का टाइम है । तो इसी हिसाब से कहा जाता है कि ये भक्ति तो वो साइड ही है , दो युग जो है द्वापर और कलहयुग वो दुर्गति के हैं और सतयुग और त्रेता जो हैं न वो सद्गति के हैं तो यह हिसाब से समझने का है । इसी में कोई ऐसे नहीं कि कभी-कभी हम जैसे कह देते हैं ना, भाई भक्ति तो दुर्गति । कई समझते हैं कि भक्ति को दुर्गति कहा जाता है । नहीं! भक्ति को दुर्गति नहीं कहेंगे । भक्ति का टाइम ही जो है ना वह जब भी दुर्गति का टाइम है तभी हमारा द्वापर से कलयुग होना ही है । तो हमारा उस समय उतरती कला का टाइम है, पीछे फिर चढ़ती कला का टाइम आता है तो सतयुग और त्रेता फिर हम चढ़ते हैं तो यह हिसाब समझने की है यह तो उस झाड़ में बहुत अच्छी तरह से समझाया हुआ है कि दो युग चढ़ती कला के जैसा नार होता है ना, आप लोगों ने वो किज्डी का नार देखा होगा, तो नार में आधा साइड जो है न, वो किंजडियाँ भर करके ऐसी चढ़ती है, फिर आधा समय उतरती हैं तो किन्ज्डीया धीरे-धीरे खाली होती जाती हैं । खाली हो कर के फिर लास्ट में बिल्कुल खाली हो जाती हैं । तो यह भी सृष्टि का एक नार है, चक्कर है । इसको चक्कर में भी लगाया हुआ है ना तो यह भी चक्कर है । इस हिसाब से चक्कर है कि यह आधा समय चढ़ती है, अभी देखो हम भरपूर हो जाते हैं और भरपूर हो करके अभी चढ़ते हैं और फिर आधा कॉपर एज से हम उतरना शुरू करेंगे तो उतरते उतरते तो भक्ति भी उसी टाइम चलती है लेकिन हमको वह कला में उतरते उतरते चढ़ना है सो थोड़ा भक्ति के सहारे थोड़ा-थोड़ा धीमे धीमें उतरते हैं , नहीं तो भक्ति भी ना हो ना तो बिल्कुल नास्तिक हो जाएं, हम बिल्कुल जल्दी उतर जाएं परंतु उसके आधार से कुछ ना कुछ थोड़ा-थोड़ा थमते थमते चलते हैं तो यह सभी थमाने की थोड़ी थोड़ी हैं । परंतु उतरते जरूर है क्योंकि यह दो युग है ही उतरने के । तो यह हिसाब भी समझना है जैसे मकान पुराना होना शुरू होगा तो पुराना होता चलेगा ना । ऐसे तो नहीं ना पुराना नया हो जाएगा । नया होंगा, फिर पुराना होगा, फिर तोडेंगे, फिर बनाएंगे तब फिर नया होगा, लेकिन पुराना हुआ तो भले उसको थमाने के लिए मरम्मत भी करेंगे, परंतु मरम्मत से नया तो नहीं हो जाएगा ना, उनको कहेंगे कुछ मरम्मत कर करके उसको थमाते थमाते चलाते हैं तो भक्ति माना थमाते थमाते कुछ ना कुछ अच्छे-अच्छे कर्मों से चलाना परंतु उसका पुराना होना तो चलता रहेगा न । ऐसा तो नहीं मकान मरम्मत से नया हो जाएगा, नहीं! उसकी पुरानी कंडीशन चलती चलेगी । जब फिर तोड़कर के नया बनाएंगे तो नया कहेंगे फिर यही हिसाब को समझने की बातें हैं ना । तो यह भी सृष्टि का भी हिसाब है । इन सभी बातों को समझना है इसीलिए इन बातों को भी जितना जितना अभी बाप बैठकर के समझाते हैं ना, तो समझाते रहते हैं कि देखो यह समझने की सब बातें हैं कि हमारा आधा समय कैसा है, इसीलिए देखो यह सब रंग दिया है ना । यह कलयुग यह कॉपर यह सिल्वर यह गोल्डन । अभी गोल्डन एंड सिल्वर इसको कहेंगे सद्गति और यह है दुर्गति का टाइम यानी हमारी उतरती कला है । दो युग हम उतरते हैं तो अभी उतरते उतरते देखो फिर अब गति में जाएंगे, वापस जाएंगे उसको फिर गति कहेंगे, सुख दुःख से न्यारे, फिर आएंगे तो फिर सद्गति में, इसीलिए यह सभी हिसाब समझने का है तो भक्ति कहाँ से शुरू होती है कॉपर एज से, यहाँ तो सतयुग त्रेता में भक्ति की जरूरत नहीं है ना । यहाँ से तो भक्ति शुरू होती है लेकिन कलहयुग से ही चलता है क्योंकि ऐसा नहीं है कि भक्ति होने से हम फिर वापस घर आ जाएंगे सद्गति में, नहीं! हम तो नीचे चलते चलते फिर वापस जा कर के, फिर यहाँ आएंगे यह चक्कर का नियम है । ऐसे नहीं है जैसे बतलाया ना, मकान कोई मरम्मत से नया हो जाएगा, नहीं! टेंपरेरी भल कुछ थमा दें, परंतु पुरानापन तो चलता ही रहेगा ना, तो ये सभी थोड़ी चीजों को समझना है । इसी तरह से यह सृष्टि का भी एक नार की तरह से, इसको कहा जाता है किंजड़ी का नार । यह जो सभी बनाए हुए हैं ना, देखो कई नार स्वास्तिका के रूप में भी होते हैं, जैसे स्वास्तिका होते हैं ना, स्वस्तिका देखे हैं ना, वह गणेश के पुजारी निकालते हैं, तो यह सारा चक्कर है अर्थात आधा समय कैसे सुख का, आधा समय दुःख का । दो युग सुख के हैं सुख में भी फर्क है सतयुग का सुख ऊंचा त्रेता में दो कला का थोड़ा-थोड़ा आस्ते आस्ते आस्ते, परंतु है सुख का । ऐसे नहीं है कि कम माना उसमें दुःख आ जाता है, नहीं उसमें दुःख का नाम निशान नहीं है । फिर त्रेता के बाद में द्वापर से दुःख का राज्य शुरू होता है तो पहले थोड़ा, फिर आस्ते आस्ते बढ़ता जाता है, पीछे कलयुग आ करके होता है तो यह देखो चक्कर में, इसीलिए तो यह नारा ऐसा चलता है और भी जो है न, यह देखो उतरती कला जो है ना, वो उतरती उतरती उतरती अभी आकर के पूरी हुई है, अभी फिर चढ़ती कला, तो यह सभी चीजों को अच्छी तरह से समझना है की अभी हम उतरती कला के लास्ट में है, अभी हमारी यह चढ़ती कला जिसमें अभी हम चढ़कर के अथवा हमारी आत्मा अभी उसी तरफ जाती है, तो यह सभी हिसाब को बातों को समझना है इसीलिए कहेंगे तो सही ना, जब भक्ति मार्ग शुरू होता है तो उस टाइम दुर्गति है, यानी मनुष्य की दुःख की अवस्था है । दुर्गति का दूसरा कोई अर्थ नहीं है, माना हमारी जो सुख की स्टेज है वह नहीं है हमारी दुःख की स्टेज है । तो वह टाइम दुःख का है इसलिए दुःख को हम कुछ ना कुछ थमाने के लिए यह भक्ति या थोड़ा बहोत कुछ फलाना इनका कुछ ना कुछ इस प्रकार की सुख की प्राप्ति करते हैं वह अल्पकाल की होती हैं और यहाँ हो गया सदा काल की जो फिर बाबा हमारी गति करके फिर हम को दुःख से छुड़ाते हैं तो गति और दुर्गति देने वाला हो गया परमात्मा तो यह चीजें भी समझने की है गति माना निराकारी दुनिया में जहाँ हम आत्माएं जाती हैं, वहां ना दुःख ना सुख उसको कहेंगे गति और फिर सुख में आते हैं तो स्वर्ग कहेंगे, वैकुंठ स्वर्ग सुख को कहेंगे और हमारी गति निराकारी दुनिया को वैकुंठ नहीं कहेंगे तो निराकारी दुनिया को बैकुंठ नहीं, स्वर्ग नहीं कहेंगे स्वर्ग माना जहाँ सुख है तो स्वर्ग ही इधर है दुनिया में और वह निराकारी दुनिया उसमें कोई स्वर्ग नहीं कहेंगे तो ये इन अक्षरों को भी समझना है स्वर्ग माना निराकारी दुनिया में जहाँ हम आत्माएं जाती हैं वो स्वर्ग नहीं है, तो यह भी हिसाब समझना है उसको निराकारी दुनिया साइलेंस वर्ल्ड कहेंगे, इनकॉरपोरियल वर्ल्ड, तो इनकॉरपोरियल वर्ल्ड को स्वर्ग नहीं कहेंगे । सब कहते हैं स्वर्ग की दुनिया में जब यहाँ हम जीवनमुक्त हैं तो यह भी सभी बातें समझनी है, ऐसे नहीं कि मुक्ति जीवन मुक्ति एक ही बात है गति सद्गति एक ही बात है । मुक्ति माना मुक्त यानी पार्ट से ही मुक्त और जीवन मुक्ति माना जीवन में दुःख से मुक्त, तो फर्क है ना वह शरीर से यानी पार्ट ही नहीं है पार्ट से ही मुक्त है और वह जीवन में दुःख से मुक्त उसको कहेंगे जीवनमुक्त और फिर जीवनबंध, जीवनबंध माना दुर्गति । जीवन हमारी बंधन में, कर्म के चक्कर में चलती है, अभी देखो कर्म के बंधन के चक्कर में है ना, तो यह सभी चीजों को अच्छी तरह से समझना है । यह हिसाब है सारा संसार का, हमारे सारे चक्र का जिसको जानना है । बाप कहते हैं अभी देखो तुम्हारा कौन सा अभी स्टेज आने का है । अभी तो सभी को गति में जाने का है यानी मुक्त होना है । अभी तो सब का पार्ट पूरा होता है सद्गति, दुर्गति अभी सब पूरा हुआ अभी तुमको मुक्त होना है अर्थात अभी जाना है अपने उस धाम, जहाँ से नंगे आए, कहते हैं न नंगे आए और नंगे जाना है यानी आत्मा कहाँ से आई, पहले शरीर नहीं था तो जब आई थी जैसे शरीर नहीं था फिर वह हो करके जाना है इसीलिए कहते हैं इससे डिटेच हो जाओ । यह देह सहित देह के सर्व संबंधों से डिटैच हो जाओ क्योंकि यह अभी शरीर तुम्हारे ये पांच विकारों के हिसाब से बने हुए हैं न, अभी तो इससे डिटेच हो जाओ । फिर डिटेच हो करके फिर जो तुम शरीर लेंगे ना वह तुमको फिर सदा सुख के शरीर मिलेंगे इसीलिए बाप कहते हैं अभी जैसे नंगे आए वैसे नंगे जाना है यानी प्लेन आत्मा होकर जाना है इसलिए अपना देह सहित देह के सर्व संबंधों से अपनी बुद्धि हटाओ, यह है उसका फरमान इसीलिए बाप कहते हैं अभी इसी फरमान को समझ कर के अभी उसका पुरुषार्थ रखो तो अभी हमारा पुरुषार्थ, जिसको कहा है ना गीता में भी की अशरीरी हो जाओ तो गीता में भी अक्षर है कि अशरीरी हो जा, अशरीरी का मतलब है तू असल में आत्मा शरीर धारण करने वाली है ना, पहले पहले तो तुम अशरीरी थी ना यानी शरीर नहीं था पीछे शरीर लिया है तो अभी फिर से अशरीरी हो जा यानी शरीर से डिटेच हो जा । तुम पहले से ही डिटेच हो जाएंगे तो तेरी बुद्धि शरीर से निकल जा करके अशरीरी अवस्था में रहेगी तो फिर अंत मते सो गते ऐसी अवस्था को जाकर के पाएंगे । कहा भी जाता है ना अंत मते सो गतें तो अभी बुद्धि तू वहाँ लगा, अंत मति सो गति की, कि मैं प्लेन था यानी मैं आत्मा, अभी मुझे फिर प्लेन हो करके जाना है अर्थात इस शरीर से डिटेच, तो अपनी आशक्ति इस शरीर से इन सब निकाल । कहा ना इससे ममत्व निकाल अपने को अशरीरी समझ । यह मामा, काका, चाचा, बाबा यह देह के संबंध से भी बुद्धि हटा । यह सब से बुद्धि हटा करके मन को मेरे में लगा । क्यों कहा, मनमनाभव है न गीता ना, मनमनाभव तो मध्याजी भव अर्थात निरंतर मन को मेरे से लगाने से तुम फिर जाकर के ऐसा जो शरीर है जो सुख का है ना, वह प्राप्त करेंगे तो यह सभी हिसाब बैठ कर के अभी तुम शरीर भी सुख का कैसे लो वह तभी लेंगे जब अभी शरीर से डिटेच हो जाएंगे । इस शरीर से डिटेच हो जाओ तो फिर तुम को शरीर पीछे जो मिलेगा ना वह सदा सुख का मिलेगा क्योंकि यह दुःख के बंधन से तेरी बुद्धि निकल जाएगी तो यह सभी बैठकर के नॉलेज बाप समझाते हैं कि अभी तुम्हारा क्या स्टेज है । तो इन्हीं सभी बातों को भी अच्छी तरह से समझना है यह समझने की नॉलेज है जिसको समझना है बात में, बाद में किसी को कहना नहीं है ऐसे भी देखो बहुत यहाँ कहते भी हैं कि कभी भी किसी को ऐसे मत कहो कि हां भाई यह भक्ति मत करो, नहीं! ऐसा कभी किसी को नहीं कहना, ऐसे भी ना हो की भक्ति भी छोड़े ज्ञान भी ना ले सकें, वह तो नास्तिक हो जाएगा तो किसको नास्तिक थोड़ी बनाना है । नहीं! नास्तिक से तो भगत अच्छा, परंतु फिर भी कहा हुआ है ना, भक्ति से ज्ञान श्रेष्ठ है परंतु किसी को ऐसा नहीं कहना है कि तुम भक्ति ना करो क्योंकि बुरी बात के लिए किसीको रोक सकते हैं कि यह क्रोध मत करो, विकारों में मत जाओ, वह तो बुरी बात है ना तो बुरी बात के लिए हम छुड़ा सकते हैं बाकी अच्छी बात क्यों छुड़ाएं, जब समझ आ जाएगी ना अपने आप इस अच्छाई से फिर ये अच्छाई है, श्रेष्ठ है उसको पकड़ेंगे तो अभी छोटे बच्चे जो हैं ना, छोटे बचपन की जो है ना, वह अपने आप छूट जाएंगे । बच्चा होता है ना तो छोटेपन में खिलौने से खेलेगा पर जब समझ आती जाएगी तो वह छोटेपन के खेलपाल अपने आप छूट जाएगा तो हमारे में भी ज्ञान नहीं था तो हमारे में भी यह छोटापन था, हम वो ही ठाकुर, खिलौने आदि भगवान के ले करके उसको कपड़ा पहनाना, खिलाना, ये करना जैसे बच्चियाँ होती हैं ना गुड़ियों का खेल करते हैं तो जैसे ज्ञान नहीं था तो यह था । अभी समझ में आई है तो हम कहते हैं हम खुद चैतन्य में प्रैक्टिकल में देवता बने ना । अभी खाली यह थोड़ी है कि उनका बुत लेकर के उनको बैठ करके उनकी पूजा करें वो तो जैसे गुड़ियों का खेल हो गया । उसको कहते हैं आइडल परस्त, अंग्रेजी में भी करते हैं, तो कहते हैं आइडल परस्त । प्रैक्टिकल में तुम देवता बनो तो यह है कि जब वह स्टेज बनें न, तो वो सब अपने आप छूट जाएगी बाकी किसी को कहना नहीं है कि यह ना करो । फिर भी अच्छा जाकर के कोई बुराई काम करे तो इससे तो अच्छा है ना फिर भी भगवान का किसी न किसी तरीके से उल्टा की सीधा फिर भी कुछ ना कुछ उसका बैठकर के करता है ना तो नास्तिक से तो अच्छा है ना, भाई बुरे काम करने से तो अच्छा है ना इसीलिए कभी भी किसको ऐसा नहीं कहना की यह भक्ति छोड़ो, इससे तो कुछ नहीं है । नहीं! हम कहते हैं, ऐसा कभी भी समझाने में यह बहुत समझाया जाता है कि कभी भी किसी को भक्ति छुड़ाने नहीं है, तब तलक वह अपने आप समझ में आए । जब आएगा ना तभी हमारा वह छोटेपन की बातें जो है ना वह अपने आप छूट जाएंगी क्योंकि समझ आ गई ना की अभी हमको कौन सा कर्म करना है । हमारा कर्म है अपने जीवन को बनाना, दूसरों के जीवन को बनाना । हां वही टाइम हम किसके जीवन को बनाएं, चैतन्य में उसको प्रैक्टिकल देवता बनाएं तो वह श्रेष्ठ काम है ना तो वह जब समझ आएगी तो अपने आप आ जाएगी ना । बाकी किससे वह छुड़ाना बेचारा वह भी काम ना कर सके और वह भी छोड़ देवे तो नास्तिक हो जाएगा ना, इसीलिए कभी भी किसी से ऐसा नहीं छुड़ाना है । हां बाकी भी विकारों के लिए तो कहेंगे ना भाई यह भी गंद है इससे तुम्हारा विक्रम बनेगा इसको छोड़ो । बाकी भक्ति के लिए किसको नहीं कहेंगे कि छोड़ो । वो तो जितना जितना ज्ञान की पराकाष्ठा बढ़ती जाएगी ना, वो अपने आप जो कुछ छोटेपन के हैं वह अपने आप छूटता जाएगा जैसे बच्चे का छोटापन जितना जितना समझ में आता जाएगा, उतना छोटापन अपने आप छूटता जाता है । तो यह भी सारी चीजें समझने की है कि इसीलिए यह भी सब बातें अपने पास रखने की है, अभी यह तो सब हुआ ज्ञान जो बुद्धि में रख कर के अपने ज्ञान से अपने को कैसे ऊंचा रखना है और अपने कर्मों को कैसे अच्छा बनाना है, लेकिन फिर अपनी धारणाएं भी तो अच्छी करने की है ना । ऐसे नहीं है कि खाली हमको पंडित बनना है, खाली दूसरों को बैटरी कहने का है, नहीं! हमको यह तो अपनी प्रैक्टिकल जीवन के ऊपर भी अटेंशन देना है तो हमारी धारणाएं भी बहुत अच्छी होनी चाहिए । हमारे कर्म भी बहुत अच्छे होने चाहिए । हम कहते हैं, हम पांच विकारों को जीतते हैं । अभी बाप आया है और हमको आकर के पांच विकार यानि माया के ऊपर जीत पहनाते हैं तो माया माना विकारी. माया कोई शरीर तो नहीं है ना, माया कोई इन आँखों से जो देखते हैं ये धन सम्पत्ति उसको माया नहीं कहेंगे, माया माना विकार, धन-संपत्ति तो देवताओं के पास भी थी, परंतु विकार नहीं थे तो उसका मानो उनके पास माया नहीं थी । माया माना ऐसा नहीं कि उनके धन-संपत्ति नहीं थी, तो उसकी माना धन सम्पत्ति को माया नहीं कहेंगे । तो उन्हीं बातों को समझना है । तो हमाको छोड़ना है विकारों को, फिर उन्ही विकारों पर अटेंशन होना चाहिए कि हमारे में कोई ऐसा भूत तो नहीं है, यह भूत है ना, तो यह भूत एकदम तो अभी इन भूतों को निकालना है तो अभी देखो काम , वह भी इतनी बड़ी बात नहीं है वह तो ब्रम्हचर्य का तो बहुत लोग पालन करते हैं, ऐसे भी करते हैं । भले यहाँ ज्ञान में नहीं आते हैं, बहुत हैं जो ब्रह्मचारी रहते हैं । वह तो गांधी जी का भी एम था, बहुत अभी है जो गांधीजी के मानने वाले वो ब्रह्मचारी रहते हैं । बड़े-बड़े मिनिस्टर हमारे से मिलते हैं ना तो वो कहते हैं, हम गांधी के समय से ब्रह्मचारी हैं तो ऐसे तो बहुत है जो अपने को ब्रह्मचारी कहते हैं तो यह भी कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन साथ-साथ दूसरे भी विकारों के ऊपर अटेंशन तो देना है ना । तो देखो क्रोध अभी यह भी बहुत भारी भूत है न, अभी क्रोध यह भी तो देखो हम अपना भी हानि करते हैं, अपना भी जी जलता है, दूसरों का भी जलाते हैं, होता है ना ऐसे, तो यह है एक-दो को दुःख देना । तो एक दुःख होता है लाठी मारना किसका खून करना कर्म से, परंतु यह कुवचन किसी को बोलेंगे या कुछ भी ऐसा उल्टा-पुल्टा कहेंगे तो वह भी हमने जैसे किसी के ऊपर जैसे वह हाँथ से लाठी मारनी है यह मुख से लाठी मारनी है, तो यह भी तो विकर्म हो गया ना । तो हमको अपने वचनों के ऊपर, बोल के ऊपर भी अटेंशन देना है कि हमारा बोल किसी को कोई दुःख तो नहीं देता है । तो एक है हाँथ से भाई मैंने मारा थोड़ी, मैंने खून थोड़ी किया, मैंने कोई पाप थोड़ी किया परंतु यह जो वचन से, जबान से मारा, किसी को दुःख दिया तो यह भी तो दुःख हो गया ना, तो दुःख हो गया ना तो इसका भी हमारे ऊपर पाप चढ़ा इसीलिए हमको किसी को ऐसा वचन नहीं बोलना है जिससे किसको दुःख हो, अपनी तरफ से अपने को कोशिश में रखना है हां कोई बेसमझी से किसमें दुःख है कोई बात है समझो, वह दूसरी बात है लेकिन हम जिसको कहे क्रोध तो आकर के हम उसमें कुवचन बोलें वह तो बात नहीं होनी चाहिए ना और भले कोई हमारे ऊपर कोई भी अपकार करें लेकिन हमको अपकारी के ऊपर उपकार करना है । हमारा काम क्या है कहते हैं ना कर भला तो हो भला यह कहावत बहुत कॉमन है कि कर भला तो हो भला । हम किस का भला करेंगे तो हमारा भला होगा इसमें हमारा क्या बिगड़ेगा, इसीलिए ऐसा आबकारी के ऊपर उपकार करना, यह धारणा होनी चाहिए और किसी के प्रति भी हमको कोई कुवचन या कोई भी ऐसा बात बोलना नहीं है । हम इस जवान के ऊपर बहुत अटेंशन से जो भी वचन कहना है वह बहुत सरल रखना चाहिए, ऐसी कोई नहीं कि कम ज्यादा जैसे आवे वह बोल देवें, उससे कोई दूसरे को नुकसान हो जाए तो देखो उसके नुकसान का हमारे ऊपर भी लगेगा । जैसे हम कहते हैं कि फायदा भी हम को मिलता है, कोई की अच्छी सर्विस करते हैं, तो भाई उसका फायदा मिलता है, कोई डिश सर्विस करेंगे किसको हानि पहुंचाएंगे तो उसका नुकसान भी तो मिलेगा ना कि नुकसान नहीं मिलेगा? मिलेगा, तो यह भी सभी चीजें हैं जिसमें हम को बैठ कर के हर बात में समझ रखनी है । अपने एक एक अक्षर के ऊपर, बोल के ऊपर अटेंशन देना है कि मेरे बोल से कोई को दुःख तो नहीं पहुंचता है इसीलिए अपने बोल के ऊपर, अपने इन सभी बातों के ऊपर अटेंशन । तो इसको कहेंगे यह सभी भी सीखना है ना । तो ऐसे क्रोध में टेम्पर लूज हो करके या हम किसी के लिए कुछ भी कह दें या किसको कोई दुःख की बात पहुंचा दें, नहीं! अभी तो नॉलेज है ना समझ मिली है, तो यह सब जो यहाँ आते हो, क्योंकि आते हो, आप लोग शिक्षा ले रहे हो, तो हक़ हक है इन सभी बातों का समझाने का, तो यह सभी चीजें धारणाओं में रखनी है, तो यही बातों के लिए तो यहाँ आते हो ना, बाकी ऐसे नहीं है कि यहाँ खाली आओ, घंटा आधा टाइम दिया, फिर जैसे हो वैसे ही रहो, नहीं, तो फिर आने का फायदा ही क्या है? फायदा यही है कि इन पांच विकारों को कैसे जीते । तो इसके ऊपर ध्यान रखना चाहिए, परंतु ऐसे नहीं हमारा स्वभाव है, हमारी आदत है, या हमारा ऐसा है, नहीं! उस आदत के ऊपर तो अपना कंट्रोल देना है ना, तो अटेंशन देना है और अटेंशन के लिए युक्ति भी बाप बतलाते हैं कि बच्चे कैसे अटेंशन रखो, हर वक्त अपने को सोल कॉन्शियस रखो, आत्मा निश्चय रखो कि आई एम सोल, यह तो इजी है ना । सोल समझने से सुप्रीम सौल भी याद रहेगा । बाप कौन सा, सोल का बाप कौन होगा? जैसे अपना बाप हो तो बच्चा भी कहेंगे, वह भी मनुष्य है ना, तो याद रहेगा कि बाप है तो जरूर बाप के संबंध में बच्चा आएगा । यह समझेगा कि मैं बच्चा हूँ, बच्चा किसका हूँ बाप का । तो बच्चा है तो बाप जरूर याद आएगा । बच्चा और बाप, बाप और बच्चा, बच्चे बाप से संबंध रखते हैं, बाप बच्चे से । बच्चा अक्षर फिर निकलेगा कहाँ से, भाई बच्चा हूँ तो बाप से ही तो बच्चा कहने में आता है ना । तो जरूर बाप आएगा, आत्मा माना ही परमात्मा जरूर याद आएगा कि मैं आत्मा उसी की संतान हूँ, तो अपने को पहले वह निश्चय रखने का है । तो यह है युक्तियां अपने को कैसे विकारों से छुड़ाकर रखें, यह युक्तियां है तो अपने को सौल कॉन्शियस रखो मैं आत्मा हूँ, देखो भी ऐसा कुछ होता है मानो कोई ने हमको दो गाली दे दी समझो कुछ बुरा कह दिया, तो हम क्या समझेंगे है तो बिचारी यह भी आत्मा यह कोई दूसरी चीज थोड़ी है, यह भी आत्मा है, अच्छा! उसने मुझे कहा, तो अभी क्या हुआ वैसे भी कहते हैं, सन्यासी अभी लगा तुमको? कहाँ लगा ? तुमको किधर लगा बताओ, कुछ नहीं, वो तो आवाज, हवा में उड़ गया, परंतु सन्यासी भी ऐसे ऐसे मिसाल देते हैं, परंतु अपने पास तो रियल ज्ञान है कि चलो इसने कहा, तो आकाश तत्व से आवाज कहा, लेकिन कहा किसने ? आत्मा ने कहा । अभी आत्मा जो करती है, सो पाती है, हम क्यों अपने सिर पर इसका लेकर के अपना विकर्म बनाएं, अगर एक वचन से हम भी दो कुछ बुरा कह देंगे तो हमारा विक्रम बन जाएगा । हमारा तो काम है इसनें भी जो भी विकर्म बनाएं, इसको भी प्यार से उसी विक्रम से बचाएं, कोशिश करें तो हमारा फर्क पड़ेगा ना, इससे हमारी भावना शुभ आएगी कि नहीं इन बिचारे का भी कल्याण करें, जो कर सकते हैं तो । तो कर सकते हैं तो करें, तो अगर करने की भी हिम्मत नहीं है तो मैं अपना कोई वचन दे करके इनका हानि तो ना करू ना, या अपनी हानि तो ना करू ना । तो क्या होगा कि हर वक्त ख्याल रहने से कि यह भी आत्मा है, मैं भी आत्मा हूँ, यह ध्यान रहने से आत्मा का जो ज्ञान है ना, वह बुद्धि में रहेगा की ये आत्मा के संस्कार है । अभी उसके संस्कार के साथ शुद्ध मेरा संस्कार, मुझे तो शुद्ध रखना है न । मुझे थोड़ी असुद्ध संस्कार में आना है तो मैं फिर आत्मा अशुद्ध संस्कार में आऊंगी तो मेरा विकर्म बन जाएगा, तो वह आत्मा की सारी नॉलेज रहेगी ना बुद्धि में, तो हम अपने विक्रम बनाने से बचे रहेंगे । तो यह बुद्धि में हर वक्त रहना चाहिए कि अपने को आत्मा निश्चय । तो यह देखो युक्ति हो गई ना अपने को विकर्म से बचाने की । तो कोई भी बुरा काम हम हाँथ से भी कोई बुरा काम ना करें, मुख से भी कोई बुरा काम ना करें । मुख भी विकर्म में आ गया तो फिर तो विकर्म बन गया । बाकी मन से किसी के उल्टे संकल्प चलते हैं उसका विक्रम नहीं बनता है, उसी टाइम हम बाप को याद करें लेकिन हां वेस्ट तो गया ना , परंतु विक्रम से तो पहले बचाना है बुद्धि को और कर्म को । मुख चला तो खाता बन गया । उल्टा बोला तो उल्टे का, सुलटा बोला सुलटे का, खाते में तो आ गये न । तो बचना है, इसीलिए ज़रा सहनशील, यह भी गुण है ना निर्भयता, गंभीरता और हम देखो कितने बड़े बाप के बच्चे हैं, बड़े शानदार बाप के बच्चे हैं ना, तो हमारा बोलचाल बड़ा रॉयल और उसी शान से, देखो जो शान वाले बच्चे होते हैं ना, कितने शान से उनके बोलचाल रहते हैं तो वह तो है बाहर की जिस्मानी मेहनत, अपने पास तो रूहानी है ना कि हम आत्मा उसी परमपिता परमात्मा की संतान हैं । हमारा बोल कैसा होना चाहिए, हमारी चाल कैसी होनी चाहिए, हम कितने रॉयल होने चाहिए तो अपनी फिर रॉयल्टी वह भी रखनी चाहिए ना, रूहानी, श्रेष्ठ रॉयल्टी । तो यह भी सभी बात अपने ध्यान रखने का है इसीलिए कोई को भी, किसी भी तरह से हमारे से दुःख पहुंचे । ऐसा कुछ बोलना करना नहीं चाहिए, कोई भूल भी हो जाए ना, तो कह दो आई एम सॉरी इसलिए इनके ऊपर भी अभी पूरा अटेंशन होना चाहिए कि ऐसा कोई बोलचाल ना होना चाहिए और समझो कोई ने बोला भी तो दूसरे को क्या समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ आते तो हो ना सब, समझो किसी ने कोई कैसा कुवचन बोल भी दिया, तो भी उनको फील नहीं करना चाहिए । उसको फिर देह अभिमान कहेंगे, हमारे को फील हुआ उसने ऐसा क्यों कहा, तो फील हुआ तो माना उसका मतलब उस समय आत्मा निश्चय नहीं है ना । क्यों फील किया, फील कौन करती है आत्मा, पर उसी समय आत्मा को ख्याल नहीं है कि मैं किसकी संतान हूँ । अगर यह ज्ञान होता तो वह फील नहीं करता, तो उसको कहेंगे देह अभिमान । अपने को समझते हैं मैं ऐसा हूँ, इसने क्यों कहा, तो इसने और मैं, वह हो गया बॉडी कोनसिअस हूं तो वह बॉडी कोन्सिअस की वजह से फील हुआ फिर वह देह अभिमान आने से फिर या तो उससे रूठ जाएंगे या फिर एक का दो अक्षर बोल देंगे, कोई ऐसी-ऐसी बातें हो जाती है ना, तो यह सभी जो बातें हैं इन सबका कारण है देह अभिमान । बोलना भी देह अभिमान से, फील होना भी देह अभिमान से, है तो सब देह का अभिमान ना । तो बाप कहते हैं बच्चे इससे डिटेच हो जाओ । देह का अभिमान छोड़ो । अब देही यानि आत्मा का अभिमान रखो यानि मैं आत्मा परमात्मा की संतान हूँ, शुद्ध अहंकार रखो, यह अशुद्ध सब छोड़ो । तो अभी छोड़ना चाहिए ना उसको, इसीलिए इन सब बातों की भी धारणा अच्छी, बुद्धि में रखनी चाहिए । ये खाली सुनने का तो ज्ञान नहीं है ना प्रैक्टिकल, तो सारा दिन अपना चार्ट रखो कि मैंने आज किसके साथ कुछ ऐसा कुवचन तो नहीं बोला । मेरे से आज के दिन में कोई ऐसी भूल तो नहीं हुई, क्रोधवश या लोभवश या मोहवश या कोई भी विकारवश हुई तो नहीं, तो यह सभी अपना अटेंशन रखना चाहिए और अपने में फिर अच्छी तरह से वो धारणा रखनी चाहिए की मैं ऐसा कोई काम ना करूं, किसी को दुःख ना दूँ । तो यह अपना सारा चार्ट रखना है, इसको हम कहते हैं दिनचर्या । यह सब चार्ट रखना चाहिए अच्छी तरह से । तो फिर क्या है की ऐसा ऐसा करके धारणा बनेगी, नहीं तो अगर धारणा का पूरा ख्याल नहीं होगा तो फिर हमारे वही कर्म चलते रहेंगे, तो हम फिर आगे तो नहीं बढ़ पा सकेंगे न, तो यह सभी चीजों का पूरा अटेंशन अपने में रखना चाहिए और उस अटेंशन से अपने को चलाना चाहिए, तो यह सभी बातें हैं जिससे हमारा खाता रोज का बनता है । देखो हमारा रोज का खाता क्या बना । रोज का खाता हमारा अच्छा क्या हुआ, बुरा क्या हुआ तो जैसे वह खातेदार होते हैं ना दुकानदार, हमारा जमा क्या हुआ, खर्च क्या हुआ, देखते हैं रोज, तो आप भी अपना रोज का पोतामेल देखो कि हमारा कितना खाता मिटा, कितना खाता बना, जो बना वह अच्छा बना फायदे में बना या नुकसान में बना या घाटे में बना । देखना चाहिए ना तो अपना चार्ट हमें यह रोज का हर एक को रखना चाहिए, कोई विकारवश क्रोधवश, लोभवश, मोहवश ऐसा तो कोई काम नहीं हुआ तो अपने को संभालना चाहिए । ऐसी संभाल करने से ही हम कुछ आगे बढ़ेंगे और बढ़ कर के कुछ पाएंगे । और फिर भी देखो सब आते हैं तो भी हमें फिर कहा जाता है ऑलवेज सी फादर, हमको जहाँ से शिक्षा मिल रही है, फिर कोई की ऊंची नीची बात में हमको नहीं फंसना है । पुरुषार्थी हैं ना सब, स्टूडेंटस में कोई नीचा भी है, कोई ऊंचा भी है तो इसमें हम कहें कि उसने ऐसा क्यों किया, ये इतने गर्व से आता है तो उसको देख कर के हम जो पढ़ाई ले रहे हैं बाप से उसको हम छोड़ देवें या उससे अपना हाँथ हटा देंवें तो वह नुकसान हमको पड़ेगा ना । ऐसे थोड़ी है कि हुआ आपस में कुछ और रूठ जाएं हम पढ़ाने वाले से, उससे क्यों रूठे, अभी स्टूडेंट्स होते हैं आपस में कोई बात में टक्कर हो जाए, अगर स्कूल या टीचर को छोड़ देगा तो क्या होगा । वहां स्कूल छोड़ेगा दूसरा स्कूल ले लेगा, यहाँ तो पढ़ाने वाला परमात्मा का एक ही स्कूल है, छोड़ेगा तो कहाँ जाएगा, इसीलिए यह सभी जो ख्याल आता है ना, यह नहीं होना चाहिए । ऐसे नहीं है कि चलो आपस में किसी भी बात में किसी ने कुछ कहा या कोई ऐसी बात की टक्कर हो गई तो उसमें टक्कर करके हम उसी का हाँथ छोड़ दें और अपनी जो पढ़ाई है यह जो शिक्षा है जिससे हमारी इतनी उन्नति है उसको अगर हम छोड़ेंगे तो नुकसान किसको होगा? छोड़ने वाले को होगा ना इसीलिए यह भी समझ है कि किया आपस में और हाँथ छोड़ा उसका, तो उसमें उसने क्या गुनाह किया या उसको क्या फर्क पड़ेगा । पढ़ाई छोड़ा तो नुकसान तो उसने अपना किया ना, तो अपना नुकसान करना यह भी तो समझ की बात नहीं है ना, तो यह सभी बातें हैं जो समझनी चाहिए कि चलो आपस में कोई बात की अनबन या समझो कोई ऐसी बात हो जाती है, यह भी हम समझते हैं कि चलो कोई कर्म का हिसाब है इसके साथ तो कभी-कभी कोई बात में समझो, कोई टक्कर भी पड़ जाए, परंतु उसके कारण हम पढ़ाई छोड़ दें, या रूठ जाएं या कोई रूठ करके पढ़ाई और उसका संग छोड़ दें, जिस संग से हम इतनी उन्नति चाहते हैं, उसमें नुकसान तो अपना होगा ना, तो ऐसे ऐसे नुकसानों से अपने को बचाना चाहिए, तभी हम अपना सौभाग्य पा सकेंगे, हमको जो चीज लेनी है, हमारा अटेंशन उसमें होना चाहिए । हमारा काम क्या है हम वह गुण ग्रहण करें, हम वह चीज लेवें बाकी जो है जो किसका हमको अच्छा नहीं लगता है, छोड़ दो, दूसरे का किचड़ा हम अपने पॉकेट में अपनी बुद्धि में क्यों डालते हैं । अपना पॉकेट क्लियर रखो, साफ रखो । कोई का किचड़ा है तुम क्यों उठाते हो । चलो वह भी बिचारे किचड़े को निकालने के लिए मेहनत करते हैं, जो करेगा सो पाएगा हम दूसरे का किचड़ा खाली पीली क्यों डालें उसका ध्यान नहीं करो, तो यह समझ होनी चाहिए ना, ताकि जो घड़ी-घड़ी बात की इसने ऐसा कहा, इसने ऐसा हुआ, हमको फील हुआ यह हुआ तो फिर ऐसे फील करने, देह अभिमानी होकर रहेंगे तो फिर आगे भी तो नहीं बढ़ सकेंगे ना, तो यह सभी देह का अभिमान है तो उसको कहा जाएगा देह का अभिमान कि मैं फलाना हूँ, यह तो भूल गए कि मैं आत्मा हूँ । परमपिता परमात्मा की संतान हूँ यह तो भूल गया ना । मैं फलाना हूँ, कोई ने मुझे ऐसा कहा, इसने ऐसा कहा यह तो देह का अभिमान हुआ ना । इससे कोई भी विकर्म विनाश नहीं हुए और पाप बनते चलेंगे । तो यह है सभी पाप बनाने की बातें और पापों से छूटने की बात तो यह है कि हमको देही अभिमानी यानी आत्मा निश्चय और हम परमपिता परमात्मा की संतान । हम काहे के लिए किसी का यह सब किचड़ा अपने पास डालें तो उसी में हम साफ होते जाएंगे और साफ होते साफ होते निकल पड़ेंगे बाहर किचड़े से एकदम । नहीं तो उसमें किचड़ा और जमा होता जाएगा और दु:खी होते जाएंगे । तो यह भी सभी चीजें हैं ना इसको अच्छी तरह से समझना है तो यह है शिक्षाएं, जिसको फिर अपने पास अच्छी तरह से रखना है और इसी से तो अपने को बनाना है ना । बाकी तो ज्ञान समझा, चलो ज्ञान भी किसी को कोई समझा जाएगा, लेकिन प्रैक्टिकल धारणा चाहिए ना, देह अभिमान छूटना चाहिए, अशुद्ध अहंकार है ना यह पहला पहला, वह तो निकालना चाहिए और उसके साथ सभी विकारों के ऊपर अटेंशन रखना चाहिए । तो यह सभी चीजें हैं जिस को अच्छी तरह से धारणा में लाना चाहिए । यह क्रोध भी एक बहुत बड़ी है, दिनचर्या का भी पालन कर जाएंगे लेकिन क्रोध की है ना उसमें भी पूरा अटेंशन चाहिए क्योंकि यह उससे नुकसान बहुत करते हैं अपना भी और दुसरे का भी । देखो क्रोध आएगा कोई को तो पहले अपना जी जलेगा, अपने अंदर होगा, फिर दूसरे को ठोकेंगा, फिर उसका भी जी जलाएगा । तो अपना भी जलाना दूसरे का भी जलाना फायदा ही क्या है । तो यह हानि है तो यह हानिकारक जो बातें हैं ना उससे छूटना चाहिए । यह पाप है तो यह सभी पाप कर्म से अपने को बचाना है, तभी तो हम पापों से मुक्त होंगे ना, नहीं तो पाप बनाते जाएंगे, सो भी ज्ञान में होते अगर पाप बनाते हैं तो उसका 100 गुना 10 गुना ज्यादा दंड पड़ता है । समझदार अगर कोई बुरा काम करेगा ना, तो समझू के ऊपर उसका दंड ज्यादा है । जो है ही बेसमझ तो कहेंगे, ये है ही बेअकल बिचारे, इसको पता नहीं है तो इसके लिए इतनी कोई बात नहीं है, लेकिन समझदार के लिए तो सजा है ना बहुत, तो समझदार को तो और ही खबरदार रहना चाहिए । तो अभी आप समझदार बनते हो ना समझदार के बच्चे समझदार हो, तो अभी जब समझ मिली है तो खबरदार रहना है, परंतु इसका मतलब यह नहीं है, कि इससे तो समझ ना लें तो ही अच्छा है, नहीं! बेसमझ है तो इसमें तो पापों में पड़े ही रहेंगे ना । वह तो धर्मराज के डंडे खाने ही रहेंगे खाते ही रहेंगे, तो खाने से क्या फायदा है? फायदा थोड़ी है । न पद मिलेगा गोत्रे भी खाते रहेंगे, और इसमें हम गोत्रे से भी छूट सकते हैं, पद भी अच्छा, स्टेटस भी अच्छा । इससे तो फायदे की बात लेनी चाहिए ना । तो यह सभी चीजें हैं जो अपने पास अच्छी तरह से रखो और धारण करो और जो-जो बुरी-बुरी आदत हो ना, वह निकालो । किसमें विशेष क्रोध होता है, किसमें विशेष काम विकार होता है, किस में विशेष लोभ होता है किसमें कोई बातें होती हैं, पांचों विकारों में से, तो अपने में जो विशेष हो ना तो वह निकाल देना चाहिए जल्दी से । विशेष चीज तो निकाल देनी चाहिए, यह तो सीधे-सीधे विकार हैं ना, वह निकाल देना चाहिए टोटल कट ऑफ । और उसमें फिर यह सभी शिक्षा मिलती है कि ये सब बातों को जितना जितना रखेंगे उतना-उतना तुम्हारी बुद्धि स्वच्छ रहेगी और योग अच्छा बैठेगा, ज्ञान अच्छा बुद्धि में बैठेगा । अगर यह सभी विकार होंगे तो ज्ञान योग नहीं बैठेगा । योग लग नहीं सकेगा तो और ही पाप नाश नहीं हो सकते तो यह सभी चीजें हैं, जिसको अच्छी तरह से बुद्धि में रखते अपना पुरुषार्थ रखने का है । तो यह भी धारणा की पॉइंट लेनी पड़ती है कि जब आते हो तो अपने को कैसा स्वच्छ और कितना अपने को बनाना है गुणवान, तो यह भी तो सभी धारणा रखने की है ना । और यही हमारी प्योरिटी है । प्योरिटी का मतलब ही क्या है, इन्हीं को तो निकालना है न, इसी से तो प्योर बनते हैं ना, इमप्योरिटी तो यही है ना । बाकी इंप्योरिटी थोड़ी है कि किसी के कपड़े धोये नहीं, साफ नहीं या नहाया नहीं या यह किया । नहीं! यही तो इम्पुरिटी, आत्मा को इम्प्योर बनाने की यही तो चीजें हैं, उससे हमको साफ रखना है अपने को । इसीलिए कहते हैं रोज ये ज्ञान स्नान करो । इस स्नान से बुद्धि सारा दिन रिफ्रेश रहेगी, अटेंशन रहेगा कि आज सुबह को क्या सुना । आज हमको क्रोध नहीं करना है, आज कोई मोह में या लोभ में या कोई भी विकारवश हमको नहीं जाना है तो अटेंशन रहेगा इसीलिए फिर जोर दिया जाता है, भाई रोज आओ जैसे वो स्नान आदी रोज होता है । इसीलिए सुनेंगे तो रिफ्रेश रहेंगे । अगर कोई नहीं आएगा ना, अरे! तीन-चार दिन भी कोई देख ले न आएगा तो बुद्धि एकदम हो जाएगी, पलट जाएगी, तो इसीलिए कहा जाता है ना जैसा संग वैसा रंग । कोई देख लेवे चार-पांच रोज ना आए ना, तो वह जो आनंद है ना, वह जो रिफ्रेश रहता है, उमंग अपने जीवन में तो ठंडा पड़ जाएगा इसीलिए इस संग की भी जरूरत है, तो रखना चाहिए । बाकी कोई के कारण अपनी पढ़ाई छोड़ देना या संग छोड़ देना, यह तो अपना नुकसान है ना । जो करेगा सो पाएगा हमको तो अपना फायदा लेते चलना । बाकी कोई सोचे कि मैं घर बैठे फायदा ले लूंगा, इंपॉसिबल है ऐसा । क्योंकि हमारे पास अनुभव है ना, जब तलक संग नहीं है ना वो, ऐसे बहुत कहते हैं पर घर रहकर के, परन्तु ऐसे कोई करके तो दिखाए । भाई घर में ऐसे ही रहे, बड़ा मुश्किल है संग जरूर चाहिए । और गाया भी है ना, जैसा संग वैसा रंग, इसीलिए कहा हुआ है तो संग का भी तो प्रभाव पड़ता है ना । तो यहाँ है ही पांचों विकारों को छुड़ाने का कोर्स, क्योंकि माया से छुड़ाने आता है ना । बाप आ करके कंप्लीट पवित्र बनाता है तो इसीलिए यहाँ इन सब बातों पर जोर दिया जाता है और उन्हीं के छूटने से ही तो हम अच्छे बनेंगे ना । बाकी धीरे-धीरे आस्ते आस्ते आस्ते आस्ते करते-करते तो देखो काले पड़ते गए, सांवरे एकदम, अभी तो गोरे होना हैं ना एकदम, सांवले से बिल्कुल गोरा । बाकी देखो हमें सुंदर से श्याम बनने में तो आधा कल्प लगा, हम श्याम बनते आए । श्याम माना काला, आस्ते आस्ते काला होते होते अभी तो बिल्कुल ब्लैक हो गए हैं । भले शरीर से गोरे हो लेकिन हो तो गए ना काले यानी आत्माएं इम्प्योर । भले आज शरीर से हम गोर हैं परंतु देखो शरीर में रोग आदि यह सब कर्म की भोगना, माना खाते में तो गिरे । वह तो सबसे ठन्डे मुल्कों में रहते हैं तो इससे तो स्किन साफ है तो क्या हुआ, गोरापन थोड़ी है वह । गोरा माना एवर हेल्दी, एवर वेल्थी, एवर हैप्पी, वह कहाँ है, वह तो नहीं है ना । तो यह सभी चीजों को समझते अपने पुरुषार्थ को ऐसा करो, समझा । अभी ऐसे ऐसे बनेंगे, अच्छे-अच्छे खुशबूदार तो बाप भी कहेंगे ऐसे फूलों की खुशबू लेना अच्छा है तो खुशबूदार बच्चे बनना है ना । खुशबू माना यह गुणों की खुशबू, इससे खुशबू आएगी तो बाप भी अपने गले की माला उसको बनाएंगे । वह कहते हैं ना जैसे वैजयंती माला, रुद्राक्ष माला तो हम तो रुद्र की माना आत्माओं की वैजयंती जो विजय प्राप्त करके जीवनमुक्ति की माला भी है ना वह, देखो हम जीवन मुक्ति की भी स्टेज को प्राप्त करते हैं और वह है आत्माओं की आत्माओं में भी हम नंबर आगे, तो बाप कहते हैं अपने को आगे करो रुद्राक्ष माला में भी आगे करो तो वैजयंती माला में भी आगे करो और अपने को ऐसा लायक बनाओ, तो बनाना चाहिए ना । तो खुशबूदार बच्चों को बाप भी अपने गले लगाएगा अर्थात अपने समीप करेगा । कैसे हमारे वादुसेन जी, वाद में चलना है अभी घाटे में नहीं चलना है, घाटे का दिन पूरा हुआ अभी, अभी हमारे को अपना वृद्धि करना है ठीक है न । उसी लिए अपनी वृद्धि में लगे रहो । कैसे हमारे, इनका नाम क्या है हमारे, अर्जुन ? नही, तुम्हारे पीछे, बाबूराम । अच्छा बाबूराम । देखो नाम भी बाबूराम, सच्चा सच्चा बाबूराम बनना है । राम निराकार परमात्मा को कहा जाता है ना, अभी बाप तो वह है लेकिन मास्टर को भी कहते हैं ना फलाना भाई इसका बच्चा है तो मास्टर फलाना तो वो भी अभी उसका भी सच्चा सच्चा बच्चा बनना है । बहुत अच्छा है, अच्छा अभी टाइम भी हुआ है आप लोगों को थोड़ा टाइम पर छोड़ते हैं, बच्चों के इम्तिहान वगैरह हैं शायद और थोड़ा अपने घर गृहस्थ को भी संभालना है । घर का भी संभालना है, ऐसे तो नहीं ना, दोनों काम करना है परंतु श्रेष्ठ कर्म से चलना है । वो कॉमन ग्रहस्ती तो चलाई वो तो जनावर पशु पक्षी भी चलाते हैं, लेकिन अपने कर्म को श्रेष्ठ रख कर के चलाना, तो कर्म श्रेष्ठ को भी सीखना है न, समझना है कि सबसे श्रेष्ठ कौन सी चीज है । उसी को लेकर के चलने से हमारी प्रवृत्ति का आदर्श ऊंचा रहेगा तो वह भी बनाना है ना । अच्छा ऐसा बाप और दादा जो बैठकर के हमको आदर्श सिखलाते हैं की किस तरह से मनुष्य को क्या करने का है तो ऐसा अपना आदर्श बनाना है तो बाप और दादा और माँ के मीठे मीठे बहुत अच्छे सपूत ऐसे समझदार और सयाने और कोई भी पाप कर्म ना करने का अपना पूरा दृढ़ता रखना चाहिए ऐसे जो बच्चे हैं, ऐसे बच्चों के प्रित याद प्यार और गुड मॉर्निंग और गुड डे, गुड इवनिंग ये भी टाइम गुड रखने का ख्याल रखना है । ये जो बेड माया बैठती हैं न उससे संभलना है । अभी बेड है तो गुड नाम भी है, पीछे गुड बेड दोनों ही नाम नहीं होगा सतयुग में । हम अपने को गुड रखें तो हम कोई बेड थोड़ी हैं जो अपने को गुड रखें । वहाँ तो हैं ही गुड, उसमें यह ख्याल नहीं रखना पड़ेगा, अभी खयाल रखना पड़ता है क्योंकि अभी माया का राज है ना । अभी पिछाड़ी है उसकी और उसका फोर्स भी है इसीलिए संभालना है और सारा दिन अपना जो अच्छे हैं न वो रखो अपने पास डायरी, चार्ट, याद का भी जो टेम्प्रेचर है ना, उसको भी देखना है सारा दिन में कितना अपने परमपिता परमात्मा को याद किया और सारे दिन कौन सा कर्म हमने रॉन्ग किया, कौन सा राईट किया, वह नोट रखना चाहिए तो ध्यान रहेगा कि फिर हम ऐसा न करें, तो ये सब चीजें अच्छी तरह से निकाल दिया ना अच्छा चलो ।