मम्मा मुरली मधुबन           

    002. Dukhon Ka Karan Kya Hai - 02-25-04 - 65

 


रिकॉर्ड :-

किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया......
ओम शांति । एक है मुस्कुराने की दुनिया और दूसरी है रोने की दुनिया, अभी किधर बैठे हो ? मुस्कुराने की ? मुस्कुराने के बाद भी तो रो रहे हैं। देखो, अभी ये रोने की दुनिया का अंत और मुस्कुराने की दुनिया अथवा सुख की दुनिया का अभी सेप्लिंग लग रहा है । अपन है संगम पर लेकिन अभी जानते हैं कि हम अपनी उस मुस्कुराने की अथवा सुख की दुनिया के लिए यह अपना सब पुरुषार्थ कर रहे हैं तो अपना सारा अटेंशन उसी पर है । अभी रोने वाली अथवा दुःख की दुनिया की कोई तमन्ना रखने की नहीं है कोई भी । भले इस दुनिया में कोई धन संपत्ति की या कोई मर्तबे की या कोई मान इज्जत की, किसी भी बात की तमन्ना अभी रखने की नहीं है क्योंकि जब जानते हैं कि इन सभी में, धन-संपत्ति में भी रोना ही है यानी दुःख ही है इस दुनिया की, इस दुनिया के मर्तबे मान इज्जत में भी रोना ही है अर्थात दु:ख है इसीलिए इस दुनिया की कोई भी कोई भी प्राप्ति जिसको प्राप्ति गिनी जाए उसमें अभी कोई सुख रहा नहीं है। इसीलिए अभी बाप कहते हैं कि जो मैं मुस्कुराने की अर्थात सदा सुख में, सुख में तो सदा मुस्कुराएंगे ना, उसमें थोड़ी ना कोई दुःख करेंगे, देखो देवताओं के चेहरे भी जब बनाते हैं ना, तो बड़े अच्छे बनाते हैं, मुस्कुराहट रखते हैं उनके चेहरे में पवित्रता, दिव्यता आदि आदि ऐसे रखते हैं जिससे कि उनके चिन्ह खींचे, तो यह सब है कि वहां वह हमारे जो भी संस्कार हैं जो हम अभी बना रहे हैं अथवा धारण कर रहे हैं जिसको पाएंगे, तो यही है कि वहां कोई दु:ख के चिन्ह है ही नहीं। यहां तो देखो प्रैक्टिकल दु:ख है ना और वहां है प्रैक्टिकल सुख इसीलिए कोई भी दु:ख का चिन्ह है ही नहीं, कभी वहां रोना होता नहीं है। इसीलिए बाप कहते हैं अभी बहुत रोया, बहुत दु:ख पाया, अर्थात दु:ख की दुनिया के अनेक जन्म भोगे, एक जन्म नहीं, बहुत जन्म, अभी आकर के वह बहुत जन्म भी तो कभी पूरे होंगे ना, कभी रात पूरी होकर कभी दिन भी तो आएगा ना। सदा ना रात और सदा ना फिर दिन इसीलिए अभी यह रात अथवा दुःख की जो जेनरेशंस हैं, वह अभी पूरी होती है, अभी हमारे सुख की जेनरेशंस चालू होती है तो उसका अभी यह लास्ट जन्म। अभी इसमें ही हमको उस जेनरेशंस का यानि सुख का अथवा सुख की दुनिया का फाउंडेशन यहां लगाने का है इसीलिए संभाल रखने की है बहुत । अभी लगा तो लगा फाउंडेशन नहीं लगा तो फिर सदा के लिए यहां यह सुख के जेनरेशंस प्राप्त करने से वंचित रह जाएंगे। इसीलिए बाप कहते हैं अभी की जो जीवन है और जो गाया भी हुआ है कि मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है, वह किस जन्म के लिए, इस जन्म के लिए क्योंकि वैसे जन्म तो हमारे बहुत हैं परंतु सबसे ज्यादा इस जन्म का महत्व है इसीलिए क्योंकि इस जन्म में हम अपना सबसे ऊंचे जेनरेशंस का अभी फाउंडेशन लगा सकते हैं। इसीलिए जो गाया है कीमनुष्य जन्म अति दुर्लभ तो वो ऐसे ही नहीं है, कई समझते हैं कि मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों के बाद मिलता है इसीलिए समझते हैं कि यह मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है परंतु ऐसा नहीं है, अगर हमारा मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों के बाद ही एक सुख का जन्म है तो फिर सभी मनुष्य सुखी होने चाहिए ना, फिर तो योनियों में दुःख भोंकते आवें, इसमें तो सुख होना चाहिए ना, फिर इधर दुःख क्यों देखते हैं। परंतु नहीं, हम देख रहे हैं कि मनुष्य जन्म में भी तो दुःख ही है ना तो उसका मतलब अगर यह सुख का जन्म होता तो सभी मनुष्य सुखी होते ना, परंतु ऐसा है नहीं और ना कोई ऐसा है कि चौरासी लाख योनियां कोई मनुष्य भोगते हैं। नहीं, मनुष्य को तो मनुष्य जन्म में ही अपने दुःख का हिसाब किताब मनुष्य जन्म में ही भोगना है, बाकी ऐसा नहीं है कि मनुष्य कोई जनावर पशु पक्षी या वृक्ष आदि मनुष्य बनता है नहीं, यह तो सभी बातें अभी बुद्धि में हैं कि मनुष्य को अपने कर्म का हिसाब मनुष्य जन्म में ही पाना है और यह भी जानते हैं कि मनुष्य का बहुत में बहुत जन्म चौरासी लाख तो बात ही नहीं है, यह चौरासी बहुत में बहुत, बाकी हां कम है क्योंकि जितना जितना पीछे आते हैं, उतना उतना जरूर है कि कम जन्म रहेंगे। तो यह सभी हिसाब अभी बुद्धि में हैं उसी हिसाब अनुसार अभी अपन जानते हैं कि हमारा अभी यह अंतिम जन्म है जिसमें हम अभी नई जनरेशंस अथवा जो सुख का अनेक जन्मों का प्राप्ति का है वह अभी हम बना सकते हैं इसीलिए इस जन्म की जो है ना महिमा है कि यह जन्म सबसे उत्तम है क्योंकि इसमें हम उत्तम बन सकते हैं। देवताओं से भी ज्यादा इस जन्म की महिमा गाई जाती है इसीलिए क्योंकि इसी जन्म से ही हम देवता बनते हैं ना, पीछे तो देवता हो गए लेकिन हम ऊंचे तो इस जन्म से बनते हैं ना इसीलिए इस जन्म की महिमा है कि मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म अति ऊंचा है, वह ऊंचा जन्म यह जिसमें हम इतना अपने को ऊँच बना सकते हैं। तो इसीलिए इस जन्म की बहुत संभाल और बहुत इसमें अटेंशन रखने का है कि इसमें अगर हमने अपना बनाया तो मानो हमारे लिए सदा के लिए ऊँच प्राप्ति का हक रह जाएगा जो अगर नहीं तो हम सदा के लिए अपने जन्मों की जो ऊँच प्राप्ति है मनुष्य जन्मों की उससे वंचित हो जाएंगे। तो वंचित तो नहीं होना है ना अपना पाके रहना है, तो ऐसा पाने के लिए इस जन्म का, सो भी अभी का यह टाइम जबकि परमात्मा आ करके अभी हमको यह धारणाएं अथवा ऊँच बनाने का बल दे रहा है तो अभी जब उससे बल मिल रहा है तो लेना ही है, ऐसे नहीं बस इस जन्म में आए ऐसे ही हो जाएगा या यह जन्म में आपे से हम आपे ही ऊँच बन जाएंगे नहीं, बनाने वाला जब आया है तो उनसे अपने को बनना है। कैसे बनना है तो उसके फरमान और उनकी जो आज्ञा या उनकी जो मत मिल रही है तो उसको लेकर के। अभी उसकी मत क्या है और उनके डायरेक्शंस क्या है वह तो अच्छी तरह से बुद्धि में है ना, कि बी होली एंड बी योगी, है तो दो बात ही ना कि मुझे याद करो और पवित्र रहो। तो यह बात अपनी बुद्धि में अच्छी तरह से रखने की है और रख करके उसके फरमान के ऊपर अपने को चलाना है तब हम अपना जो सौभाग्य है वह ऊँच पा सकेंगे और ऐसे ही अपनी जो सदा सुख की दुनिया है उसका सुख पा सकेंगे। ऐसे तो नहीं समझते हो ना कि यह सब कल्पनाएं हैं? ऐसा तो ख्याल नहीं आता है ना, क्यों कल्पना क्यों समझी जाएं जबकि हम देख रहे हैं कि यह दुःख की दुनिया तो देख रहे हो ना उसको हम कैसे कह सकेंगे यह मिथ्या है, तो मिथ्या तो नहीं है ना यह प्रैक्टिकल है, तो जैसे दुःख की दुनिया हमारे सामने प्रैक्टिकल है तो जरूर सुख की भी तो होनी चाहिए ना। भले है नहीं अभी, लेकिन होनी तो चाहिए ना। तो क्या नहीं तो सदा से हम ऐसे दु:खी ही हैं, तो क्या समझे संसार दुःख का ही है, ऐसा नहीं है। संसार उसमें सुख और दुःख भले दोनों ही है परंतु सुख का भी तो समय है ना, ऐसे नहीं कहेंगे कि अभी जो सुख है बस यही सुख है। कई ऐसे समझते हैं कि जो अभी सुख है बस यही स्वर्ग है, यही सुख है बस ऐसा ही सुख दुःख है परंतु नहीं अभी के सुख को सुख नहीं कहेंगे, वह सुख जो था जिसमें हम सदा सुखी थे वह चीज ही और है इसीलिए सुख उसको कहेंगे। आज के सुख को सब दुःख के बराबर कहेंगे ना, उसमें सदा काल का तो कोई सुख नहीं है ना, तो यह सभी चीजें अभी बुद्धि में है कि जो प्रैक्टिकल में हम दुःख की दुनिया देख रहे हैं वह कोई कल्पना तो नहीं है ना, तो जैसे दुःख प्रैक्टिकल है तो सुख भी तो प्रैक्टिकल होना चाहिए ना, उसको क्यों कल्पना समझना, क्योंकि आज है नहीं इसलिए उसको कल्पना समझते हैं परंतु नहीं, यह विवेक और अपने बाप के मिले इस नॉलेज के बल से समझते हैं कि जो चीज दुःख है तो जरूर सुख भी तो प्रैक्टिकल चीज होनी चाहिए ना, ऐसे थोड़ी ही कि खाली कल्पना। कई तो फिर बैठकर के ऐसे मार्ग बतलाते हैं कि हां भले दुःख आवे परंतु तुम समझो कि मैं सुखी हूं इसीलिए कई समझते हैं कोई सुख की इच्छा या कोई तमन्ना रखना, यह इच्छा मात्र अविद्या ये ऐसी ऐसी बातें लगा देते हैं कि उसकी इच्छा ही क्या रखनी है जो होता है उसमें ही सुख समझो, फिर भले रोग हो, भले कोई अकाले मृत्यु हो, कोई भी ऐसी बात हो परंतु तू अपने को समझ मैं सुखी हूं। यह तो हो गया अपनी कल्पना का सुख न, इसको थोड़ी प्रैक्टिकल कहेंगे । जैसे दुःख प्रैक्टिकल है ना ऐसे थोड़ी ही की ये कल्पना से है, वह तो है ही। रोग होता है अकाले मृत्यु होती है, कई बातें दुःख की आती है ना प्रैक्टिकल में, तो जैसे हम दुःख को देख रहे हैं और पा रहे हैं, अपने अनुभव में उसको पा रहे हैं तो जैसे प्रैक्टिकल दुःख है तो सुख भी तो ऐसा प्रैक्टिकल होना चाहिए ना। ऐसे थोड़ी कहेंगे कि नहीं, इसी में ही तू अपने को सुखी मान, वह अपनी कल्पना का हो गया जो हमको इतना समय मनुष्यों के द्वारा सुख की बतलाई जाती थी कि हां तू इनमें ही अपने को सुखी समझ, ये दुःख समझते ही क्यों हो, तू समझ कि यह शरीर भोगता है, ऐसा होता है, ऐसी ऐसी बातें लगा रखी थी ना। तू तो आत्मा निर्लेप है, तेरे को कोई लेप छेप है ही नहीं, तू तो सदा सुखी है, वह तो कल्पना हो गई। है नहीं, लेकिन हम अपने को ऐसा समझे कि आत्मा निर्लेप है, आत्मा को कोई लेप क्षेप नहीं लगता है, ये ऐसा होता है, ऐसे समझ करके अपने को सुखी समझ तो वह सुख तो कल्पना का हो गया ना, वो कल्पना से अपने को सुखी समझना, जैसे दुःख प्रैक्टिकल में है, होता है ना, देखते हैं हम और भोगते हैं, उसकी महसूसता है, फीलिंग है प्रैक्टिकल, तो जैसे दुःख प्रैक्टिकल में है वैसे हमको सुख भी तो प्रैक्टिकल होना चाहिए ना, उसमें हम ऐसा क्यों समझेंगे हमको खाली आत्मा को निर्लेप समझ करके अपने को सुखी समझना है तो क्या सुख कल्पना है और दुःख प्रैक्टिकल है ? नहीं, जैसे दुःख प्रैक्टिकल में है वैसे सुख भी प्रैक्टिकल में है तो यह चीजें भी समझने की है बाकी कई मनुष्यों ने बैठकर के ऐसी ऐसी बातें, दुःख को जरा कम महसूस कराने के लिए फिर ऐसी ऐसी बातें बैठ करके लगाई है कि नहीं यह तो है ही जगत मिथ्या, इसको मिथ्या समझ ले या ऐसे ऐसे कहते हैं कि आत्मा तो है ही निर्लेप इसमें कोई लेप क्षेप है ही नहीं, इसीलिए तो दुःख और सुख को समझ ही नहीं तो मानो समझ ही नहीं दुःख को ऐसे तू अपने को सुखी समझ परंतु वह तो कोई सुख नहीं है ना। तो यह अभी अपनी नॉलेज में है कि हमको अभी प्रैक्टिकल बाप के द्वारा जैसे दुःख प्रैक्टिकल देख रहे हैं तो दुःख अगर प्रैक्टिकल है तो सुख भी प्रैक्टिकल है, फिर उसके लिए क्यों समझा जाए कि वह कल्पना है लेकिन आज है नहीं इसीलिए उसको कई ऐसे समझते हैं परंतु नहीं, कभी रात पूरी हो करके दिन अपने अपने टाइम पर है ना, दिन पूरा होकर के फिर रात, यह तो चक्र है तो अभी जानते हैं और देख भी रहे हैं कि अभी दुःख की सीमा कहां तक आ करके पहुंची है, बाकी भी जो उनकी थोड़ी मार्जन है वह भी अपने समय पर पूरी हो करके अपने टाइम पर फिर सुख की दुनिया आनी है, उसका फाउंडेशन तो अभी लगेगा ना, उसके लिए भी तो हमको अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाना पड़ेगा। यह दुःख भी तो हमारे कर्म से बना, ऐसे नहीं कहेंगे ड्रामा या अपने आप, भले है ड्रामा परंतु वह भी जो बना तो कुछ कारण से बना ना। दुःख कैसे आया? जब हम भूले और बिगड़े अपने एक्शंस में तो हमारा दुःख बना, तो नियम है ना भाई दुःख बनने का भी कौन सा कारण हुआ कि हम बिगड़े, अपने एक्शंस को बिगाड़ा, विकारों वश हो करके, उसी कारण से फिर दुःख पैदा हुआ परंतु ऐसे नहीं है कि अपने आप, कारण तो बना ना। वैसे अभी सुख फिर कैसा रहेगा, जब हम फिर अपने एक्शंस को उस बिगड़ी बातों से हटाएंगे, तो जिन्होंने बिगाड़ा, जिसके संग में बिगड़ा तो उसका संग छोड़ना पड़ेगा ना, यानी माया का, पांचों विकारों का, जिसको फिर रावण कहो या कुछ भी कहो। तो अभी उसका संग छोड़ेंगे तो फिर हमारे कर्म श्रेष्ठ बनेंगे, उसी श्रेष्ठ कर्म से फिर हमारा सुख बनेगा। तो बनेगा कैसे वह भी तो करना होगा ना और दुःख बना कैसे वह भी तो हमारे करने से हुआ ना, ऐसे ही तो नहीं हो गया ना, भले उसको हमने जाना नहीं, कोई जानबूझकर अपना दुःख थोड़ी बनाएगा, दुःख के लिए थोड़ी ही जानना पड़ता है, सुख के लिए साधन अथवा पुरुषार्थ रखना पड़ता है , दुःख के लिए थोड़ी कोई साधन करना होता है या यह हम करें हम दु:खी होवें, दुःख के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं होता है, सुख के लिए। तो अभी बाप आ करके सुख के लिए अर्थात पुरुषार्थ क्या करना है वह बताते हैं, बाकी कोई ऐसे कहे कि हां दुःख के लिए भी हमने कोई साधन किया, वह करना होता ही नहीं है। मनुष्य करता है कोई पुरुषार्थ तो अपने को सुखी बनाने के लिए, पुरुषार्थ की बात आती है तब है ना बाकि कोई गिरने के लिए पुरुषार्थ थोड़े ही किया जाता है परंतु होता है, वह भी अपने एक्शन से ही तो होता है ना, कारण तो कोई बनता है ना बाकी कोई करता नहीं है उसको समझ करके कोई गिरे या अपने को दु:खी बनाएं कि हम जानबूझकर के अपने को दु:खी करें, उसका कौन सा साधन है, अपने को दु:खी करें, ऐसा कोई करता नहीं है, और ऐसा होता ही नहीं है। दुःख आ जाता है लेकिन सुखी बनाने के लिए तो फिर पुरुषार्थ रखना पड़ेगा ना। उस समझ को लेना पड़ेगा, पुरुषार्थ करना पड़ेगा इसीलिए पुरुषार्थ को रखना पड़ेगा आगे कि हम जो करेंगे सो पाएंगे । तो यह सभी चीजों को भी समझना पड़ेगा कि हम को दुःख के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है जैसे यह मकान है, मकान में जो पुरानापन आता है तो वह अपने आप आता है, ऐसे नहीं है कि मकान को कोई पुराना बनाया जाता है। नया बनाया जाता है, नया मकान बनाना है तो भाई नया बनाना है, इसको तोड़कर के नया बनाया जाता है, पुराना थोड़ी ही बनाया जाता है, पुराने को बनाना होता है? नहीं, पुराना हो जाता है। तो कोई कहे कि यह कैसे हुआ पुराना, भाई वह नियम है, उसमें पुरानापन भी आना है, टाइम पड़ने से उसमें पुरानापन भी आना है। तो पुराना हो जाता है और नया बनाया जाता है तो बनाने के समय नया बनाया जाता है और पुराने के समय बनाया थोड़ी ही जाता है, पुराना हो जाता है। तो यह सारी चीजें समझने की है ना, हर चीज का हर बात का कैसा कैसा नियम है इसीलिए हमको अभी पुरुषार्थ रखने का है क्योंकि ऊचा उठना है, नया बनना है बाकी हम गिरे तो कोई कहेंगे उसके लिए क्या पुरुषार्थ रखा या ऐसे क्यों गिरे या बाप था तो हमको गिरने क्यों दिया, उसने थोड़ी ही गिरने किया, वह तो है ना, जब गिरे ना तो फिर चढ़ाए कैसे, बाप चढाने कैसे आवे, गिरे हैं तभी तो है ना उसका गायन भी है पतित पावन करने वाला तो पतित ही ना हो तो पावन करने वाला उसको कहें भी कैसे। तो यह भी है पतित होना है, फिर पावन होना है, फिर पावन से फिर पतित होना है यह सारा चक्र है, इसीलिए इस चक्र को भी समझना है और चक्कर से फिर हमको पतित से पावन बनाने वाला कौन है, उसकी महिमा है और हमारे भी पावन बनने की महिमा है। हम भी अपने को पतित से पावन बनाते हैं तो अपने को पूजनीय हमारी भी महिमा तब है और हमारे वह पूज्य हो जाते है क्योंकि वो हमें बनाते हैं तो बनाने वाले और बनने वालों की महिमा होती है और गिरने वालो की थोड़ी महिमा होगी, तो गिरने वाले की तो महिमा की तो बात ही नहीं है ना और ना ही गिरने की महिमा होने की कोई बात है इसीलिए हमारे बनने की, जब हम ऊँच तो हमारी महिमा है कि हम मनुष्य से भाई देवता बनते हैं तो देवता फिर पूजनीय गाए जाते हैं यानी पूजान लायक और फिर जो बनाने वाला है उसकी भी महिमा होती है कि भाई किसने बनाया है, दो चाहिए ना, ऐसे थोड़े है, बनने वाला भी खुद, बनाने वाला भी खुद, आत्मा सो परमात्मा, परमात्मा सो आत्मा ऐसे तो नहीं है ना। बनने वाले अलग और बनाने वाला अलग क्योंकि बनने वाले किससे बनते हैं, जरूर गिरे हैं उससे बनते हैं, बिगड़े हैं उससे बनते हैं, पतित से पावन होते हैं लेकिन वह तो पतित नहीं होता है ना बनाने वाला, इसीलिए बनाने वाला अलग चाहिए और बनने वाले जहाँ से बनते हैं वह पतितपन से फिर पावन बनते हैं तो वही पतित बनते हैं ना जो पावन बने हैं और जो बनाता है वह थोड़ी ही पतित बनेंगे जो पावन बने। तो इसीलिए बनाने वाला अलग, बनने वाले अलग और वह बनते कैसे हैं वह चीज बैठकर के बाप समझाते हैं। तो यह सारी चीजें समझने की है इसलिए इन बातों में भी कोई मूंझने की या किस तरह से पुरुषार्थ करना ही है और पुरुषार्थ की बात तभी ही है जबकि हमको ऊँचा बनना है, ऊंचा उठना है बाकि गिरने के समय पर तो पुरुषार्थ की कोई बात ही नहीं है । गिरने का कोई पुरुषार्थ थोड़ी ही करता है, अपने को दु:खी बनाने का, उसको पुरुषार्थ थोड़ी ही कहा जाता है, नहीं पुरुषार्थ तब है जब अपने को ऊंचा उठाया जाता है वह पुरुषार्थ ही अभी मिलता है। जिस चीज को पुरुषार्थ कहा जाए और जिसकी प्रालब्ध कहीं जाए वह भी मिलती है कि बाप आ करके हमको यथार्थ पुरुषार्थ होता ही क्या है हमारी ऊँच प्राप्ति का पुरुषार्थ कौन सा है वह अभी सिखाता है। इतने टाइम हमको किसी ने वो पुरुषार्थ ही नहीं सिखलाया क्योंकि सिखलाने वाले खुद ही सब चक्कर में है ना, नीचे ही चलना था सबको इसीलिए वह पुरुषार्थ नहीं मिला जिससे हम अपने को ऊंचा उठाएं। अभी ऊंचा उठाने वाला भी अभी आया है और अभी आकर के ऊंचे उठने का पुरुषार्थ बताते हैं और उसको हम जितना जितना धारण करते हैं फिर ऐसी प्रालब्ध को पाते हैं। तो यह सभी नॉलेज बुद्धि में हैं इसीलिए अभी क्या करना है वह करना है समझा, करने के ऊपर सारा अपना पुरुषार्थ का पूरा बल लगाने का है। बाकी तो ठीक है ना बाकी तो चक्कर है वह तो चक्कर की बात चक्कर से समझनी है। अभी हम को कहां से निकल कर कहां चक्कर को ऊंचा जाना है, उसको अभी हमको पकड़ना है। उसके लिए हमको क्या मेहनत करना है हमको उसका ध्यान रखने का है अटेंशन उसका रखना है। बाकी तो चक्कर को चलना ही है अपने टाइम पर, वह तो अपना टाइम समय अनुसार होता चलेगा बाकी अभी समय कौन सा है, अभी हमको नीचे से ऊंचा होना है, पतित से पावन बनने का है, वह बात समझने की है। बाकी तो जो भी चक्कर में आते हैं, जो भी धर्म स्थापक आते हैं ना, ऊपर से आते हैं उन्हों को नीचे ही जाना है और अभी हमको नीचे से ऊँचा उठाने के लिए परमपिता परमात्मा स्वयं आ करके हमको देखो ऊंचा उठाते हैं तो पतितो को पावन करने वाला एक ही हो गया ना। बाकी क्राइस्ट, बुद्ध जो भी आए ना वह तो पावन आते हैं उनको पतित बनना है, उनको नीचे ही जाना है। तो खुद भी नीचे जाते हैं जो भी उसकी संख्या भी आती है, वह भी नीचे ही जाती है तो तो मानो वह सावन से पतित बनते हैं और हम पतित से पावन बनते हैं, यह फर्क है। तो जो भी और सब आते हैं क्राइस्ट आया ना, ऊपर से आया ना पवित्र आत्मा आई तो उनको अपनी जेनरेशंस में क्रिश्चियनिटी में अपने यह सभी जन्म लेते अभी उसकी जो वृद्धि होती रही वह तो नीचे ही चलते आए ना, तो मानो पावन आए पतित उन्हों को बनना है और हमको आकर के बाप पतित से पावन बनाते हैं इसीलिए हमारी है चढ़ती कला और वह आते हैं उतरती कला के समय। वह नारे देखा है ना नार समझते वह किन्ज्डी का होता है ना, पानी का तो देखो जो आधा पार्ट जो होता है वह नीचे जाता है उनको नीचे ही चलने का है, वो किंजड़ियाँ खली हो जाती हैं और फिर आधा समय वो भरतु हो करके ऊपर चलती है तो अभी हमारा वो भरतु हो करके ऊपर चढ़ने का टाइम है इसीलिए हमारी चढ़ती कला है और वह आते हैं उतरती कला में यानी उनको उतरना ही है। आते हैं ऊपर से और नीचे ही जाते हैं तो उनको मानो पावन से पतित होना है और अपने को पतित से पावन होना है इसीलिए कहते हैं पतित को पावन करने वाला एक बाकी क्राइस्ट, बुद्ध पतित को पावन करने वाला नहीं, वह तो सब पावन से पतित होने वाले हैं खुद भी और जो भी संख्या आनी है वह भी पतित होनी है। तो यह सारे हिसाब को भी समझना है कि वह ऊपर से आई हुई आत्माओं को नीचे जाना है अभी हमको नीचे से आकर के ऊपर उठाते हैं बाप इसीलिए उनका गायन है और यह अभी वो टाइम है उसी धर्म की स्थापना है और उसी टाइम पर ही नहीं दुनिया की स्थापना होती है, यह पुरानी दुनिया का भी अंत। तो यह सभी हिसाब को समझना है और उसी अनुसार अपना पुरुषार्थ रखना है। अच्छा, टाइम हुआ। बाप, जो ऐसा ऊँच कार्य करने के लिए उपस्थित हुआ है उससे अपना पूरा-पूरा लाभ लेने का है और कौन सा लाभ है यह सबसे श्रेष्ठ, जो किसी ने दिया नहीं। क्राइस्ट, बुद्ध जिन्होंने भी आकर के कोई कार्य किया तो वो कार्य नहीं, ये दूसरा है। वह हमारी उतरती कला के समय का है, यह अभी चढ़ती कला के समय का है तो समय को भी समझना है ना कि अभी टाइम कौन सा है। उस टाइम पर उनका आ करके आत्माओं को ले जाना या ऊंचा ले जाने का टाइम ही नहीं है। वह आते ही द्वापरकाल से हैं जब कलयुग तक नीचे होना ही है तो उनको तो नीचे ही आना है मानो पावन से पतित ही बनना है तो उनके लिए कहा नहीं जा सकता है पतिटन को पावन करने वाला, कोई नहीं। एक ही है जो आ करके हम पतित को पावन बनाते हैं अथवा सर्व आत्माओं को ले जाते हैं गति और सद्गति इसीलिए एक की रिस्पांसिबिलिटी हो गई ना। बाकी सबका है नीचे ही आना है, कोई भी कितनी भी बड़ी आत्माएं हैं आती है, पहले पवित्र आती है उनको नीचे ही जाना है क्योंकि चक्कर का ऐसा टर्न है इसीलिए उसमें नीचे ही चलना है। तो यह सभी हिसाब को भी समझना है, ऐसा नहीं है उसके आने से चक्र ऐसा हो जाएगा या उल्टा, उनको चलना ही है ऐसा अपने नियमानुसार, तो उसको नीचे ही चलना है। तो यह सभी चीजों को भी अच्छी तरह से समझने का है इसीलिए अब टाइम है चढ़ने का और चढाने वाला इसीलिए एक ही निमित्त है। तो उसका अभी हमको भाग्य मिला है, सौभाग्य मिला है तो उसके साथ में हमको उसी सौभाग्य को पाना है और बाप से लेना है, समझा । जो करता है सो पता है तो करते हो किसके लिए ? हाँ ? किसके लिए करते हो ? अपने लिए, बात अच्छी उठाई न, अपने लिए । तो यह है सब अपने लिए , मानो आपका अभी खजाना भरता जा रहा है । भले यहाँ नए पैसे नहीं दिखाई पड़ते हैं, परन्तु आपकी बहुत इनकम हो रही है , हाँ जमा होती है, एक से सौ गुना, हजार गुना, यह अपनी जमा कर रहे हैं तो यह बहुत बना रहे हो अपना और अपने लिए कर रहे हो यह तो राइट ही है तो उसके लिए तो करना ही चाहिए। अभी भी करते हो यह, जो भी कुछ धंधा धोरी करते हो ना, भले बच्चों के लिए इधर से उधर गया समझ करके, परंतु हां वह तो कर्मों के हिसाब के अनुसार लेकिन यह तो देखो अपना पूरा बनाते हो ना। जो करते हो वह पाएंगे और पाएंगे भी नई दुनिया में, तो देखो यह सब कुछ नया मिलेगा न यह ख्याल में है ना, तभी तो अभी सारे उत्साह से कर रहे हैं। आपका दूसरा साथी नहीं दिखता है? नहीं आया । तो अच्छा है जो करता है उत्साह से करता है तो उत्साह का भी मिलता है, जो लाचारी से करता है, तंग होकर करता है मुश्किल से या कोई दिखावटी करता है कि हां दुनिया देखे हमने यह किया, वह किया। कई होते हैं ना दान करते हैं तो दिखाऊ दान करते हैं की पता चले तो कहते हैं उसका आधा ताकत जो है ना दान की निकल जाती है। कोई करते हैं गुप्त, क्यों गुप्त का महत्व है की गुप्त का ताकत बढ़ती है, उसका हिसाब ज्यादा मिलता है और शो करने से उसका हिसाब कम पड़ जाता है। तो जो अपना गुप्त करता है उसकी ताकत ज्यादा मिलती है फिर यह भी ऐसे ही है। तो यहां कोई करते हैं तो या तो दिखाऊ करते हैं या तो कोई करते हैं लाचारी से तो लाचारी का भी जो किया होता है ना उसका इतना फल नहीं होता है जो उत्साह और उमंग और उसी तरीके से करते हैं उनका बनता है, यह भी सब बनाने में भी हिसाब है ना। करना तो करना परंतु करने का भी ढंग है सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण, करने में भी हिसाब है तो अपनी करनी में भी कैसा हम श्रेष्ठ बनाएं और किस तरह से करें जिसमें हमारा बने तो वह बनाने का भी अच्छा ढंग चाहिए ना। तो यह अच्छे ढंग से चल रहे हैं ऐसा दिखाई पड़ता है तो जरूर है कि कुछ अपना आगे तकदीर बनाने वाले हैं। भले आए पीछे हैं यह मूलन का तो मेरे ख्याल में थोड़े समय, अभी दो-चार मास हां? चार मास देखो तीन चार मास के बच्चे हैं, बोम्बे के छोटे में छोटे हैं मेरे ख्याल में लास्ट, तो लास्ट सो फास्ट जा रहे हैं। तो देखो यह जब प्रदर्शनी लगी थी , हां हां यह सब साथ में ही है। तो जो लास्ट है बाबा कहते हैं ना जो लास्ट सो फास्ट होते हैं सैंपल देखो अभी। प्रदर्शनी से निकला और खुद प्रदर्शनी रच रहे हैं और कर रहे हैं देखो कितने अच्छे हैं लेकिन अभी सेण्टर नहीं लगाया है मूलन ने, अभी प्रदर्शनी तो लगाई पर सेंटर न लगाएंगे तो बेचारे कहां आएंगे समझने के लिए । अभी फिर हिम्मत करो सेंटर लगाने की, तब फिर होगा वहां कुछ। क्योंकि प्रदर्शनी की रिजल्ट तभी है जो बिचारे आएँ रेगुलर समझे, नहीं तो फिर एक दिन सुना...हाँ? (सेंटर खोलेंगे फिर आप आएँगे न ओपनिंग करने के लिए) सेंटर खोलेंगे, अभी खोले तो सही। देखो ओपनिंग नहीं करना होता है बाबा मम्मा को, बाबा मम्मा को जब फुलवारी तैयार होती है ना तो फूलों की खुशबू लेने जाना होता है। (बाबा ने जाकर किया था न घटपुर में जाकर के ) अभी देखिये ना, वह घाट्पुर में तो फूल तैयार थे ना, ( यहाँ भी करेगे न तैयार ) अब वह तो देखेंगे ना जब करेंगे, देखेंगे न कौन से फूल बनते हैं । कौन करता है वह भी जब देखेंगे ना। वहां तो फूल तैयार थे कुछ, अच्छा बापदादा और मां की मीठे-मीठे बहुत अच्छे सपूत और बहुत रेस करने वाले देखो बस तीन दिन का, तीन मास का कमाल कर रहे हैं वाह, ऐसे ऐसे। अब यह भी बड़ा हो गया, यह छोटा गिना जाएगा। (मम्मा सेंटर के लिए जगह खोज रहे हैं ) मुंबई सेंटर के लिए? दो-चार दिन से पपैय्या नहीं दिखाई पड़ता है । अच्छा ऐसा बाप दादा और मां की मीठे-मीठे बहुत अच्छे और सपूत बच्चों प्रति याद प्यार और गुड मॉर्निंग।