मम्मा मुरली मधुबन             

016. Man Ki Shanti


रिकॉर्ड:

माता माता माता तू जग की भाग्य विधाता.....
कई मनुष्य कहते हैं कि हमको मन की शांति चाहिए , कॉमन आती है ना बात। तो यह कॉमन कहते हैं कि हमको मन की शांति चाहिए, अंग्रेजी में भी कहते हैं पीस ऑफ माइंड। अभी यह भी चीज समझने की है कि कहते हैं पीस ऑफ माइंड तो अभी मन की शांति, तो अभी मन में कोई हमको अशांत किया है या अशांति का कारण कोई और है । क्योंकि मन की शांति के कारण वो समझते हैं कि यह मन जो है ना, मन जो संकल्प चलते हैं इसीलिए कई समझते हैं कि इसी संकल्प को कंट्रोल कर देवें तो फिर वह चलेगा ही नहीं, शांत हो जाएगा तो पीस ऑफ माइंड हो गई इसीलिए वह उपाय करते हैं उस तरीके के कि बैठकर के हठयोग से अथवा हट से मन को जड़ बनाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए कई आठ आठ मास वो गड्ढे खोदकर के बैठ जाते हैं या कहीं-कहीं समझते हैं कि ऐसे ही बैठे, कुछ संकल्प ना चलावे तो उसको कहा जाएगा यह पीस ऑफ माइंड हो गई अर्थात मन शांत हुआ इसीलिए मन को कंट्रोल करने की अथवा संकल्प जो चलते हैं उनको बैठकर दमन करने की कोशिश करते हैं । परंतु वास्तव में कोई हमको संकल्पों को बैठ करके कंट्रोल करना या हमको इसको जड़ बनाना यह कोई पीस ऑफ माइंड का तरीका नहीं है क्योंकि मन का तो काम ही है संकल्प करना । संकल्प तो आत्मा की चैतन्यता है ना। मनुष्य में देखो जब संकल्प नहीं है तो डेड बॉडी है तो उसमें से क्या निकल जाती है वहीं संकल्प सोंच, चैतन्यता जो है। संकल्प और सोच नहीं है डेड बॉडी पड़ी है तो वह तो हमको कोई डेड तो नहीं बनना है ना कि हमारा कोई संकल्प ना चले कोई सोच ना चले बस, हम एकदम रेड हो जाए , जैसे रात को सो जाते हैं एकदम कुछ भी न हो , तो हमारी कोई मन की शांति की स्टेज वह नहीं है। वो इसको नहीं कहेंगे कि हम जड़ हो जाएं जैसे रात को सो जाते हैं तो कोई सोच नहीं, कोई संकल्प नहीं या मनुष्य डेड पड़ा है या कोई संकल्प नहीं कोई सोच नहीं तो ऐसा डेड हो जाना या कुछ रहे ही नहीं संकल्प का तभी कहें कि यह पीस ऑफ माइंड है इसीलिए हठ से कई बैठकर के ये तरीके अपनाते हैं। कोशिश करते हैं कि हम ऐसे हो जाएं तभी हमारा है कि मन शांत हुआ परंतु वह नहीं है। मन शांत के अर्थ को भी समझना है और और मन का मतलब यह नहीं है कि हम खाली संकल्पों को बैठ करके कंट्रोल करें। संकल्प के बिना तो काम ही नहीं चलेगा। हम तो कर्मयोगी है ना। गीता के भगवान ने कहा है कर्मयोगी, संकल्प के बिना कर्म चलेगा ही नहीं । संकल्प ना हो तो कर्म कैसे चलेगा और इधर भगवान ने कहा है कर्मयोग और उधर भगवान के लिए भी स्वयं कहते हैं कि भगवान को भी संकल्प हुआ कि मैं सृष्टि रचूं तो जब भगवान को भी संकल्प हुआ तो हम संकल्प कैसे दमन करें। भगवान को भी एक तरफ कहते हैं संकल्प हुआ कि सृष्टि रचें तो जब भगवान भी संकल्प में आया सृष्टि रचने के लिए तो हम सृष्टि में चलने वाले वो फिर कैसे संकल्प को दमन करें। तो यह सारी चीजें समझने की है ना कि हमारे को पीस ऑफ माइंड के लिए क्या चाहिए, पीस ऑफ माइंड है कौन सी चीज। तो अभी बाप बैठ करके समझाते हैं कि बच्चे ऐसा नहीं है कि तुमको संकल्प को बैठ कर के जड़ बनाना है परंतु इसी संकल्प में जो तुम्हारे यह माया के, पांच विकारों के जो संकल्प हैं, जिसको कहा जाता है विकल्प यानी संकल्प कहा जाता है संकल्प तो कॉमन है ही । जो भी विचार चलता है उनको कहेंगे संकल्प, अभी संकल्प को चाहे विकल्प बनाओ, चाहे निरसंकल्प अथवा शुद्ध संकल्प बात एक ही है। तो एक है शुद्ध संकल्प दूसरा है विकल्प, जैसे कर्म कॉमन है जनरल ।जनरल हम जो भी कुछ करते हैं वह कर्म । कर्म के बिना मनुष्य एक क्षण भी नहीं रह सकता है तो कर्म तो जनरल है । अभी उसी कर्म को चाहे हम विकर्म बनाएं चाहे शुद्ध कर्म बनाएं अथवा श्रेष्ठ कर्म बनाएं तो एक है श्रेष्ठ कर्म दूसरा है विकर्म । विकर्म माना हम विकारों के संबंध में जो भी कर्म करते हैं वह हमारा विकर्म और उससे हमारा पाप बनता है और शुद्ध कर्म अथवा श्रेष्ठ कर्म जो हमारा कर्म श्रेष्ठ है अथवा विकारों के बिना उनको कहा जाता है श्रेष्ठ कर्म । तो अभी श्रेष्ठ कर्म और विकर्म, कर्म तो जनरल है ही । अभी कर्म को चाहे विकर्म बनाएं चाहे श्रेष्ठ कर्म बनाए तो यह हुआ जैसे कर्म को चाहे हम विकर्म बनाएं अथवा श्रेष्ठ कर्म बनाए इसी तरह से संकल्प तो जनरल है ही फिर संकल्प को चाहे हम विकल्प बनाएं चाहे उसको शुद्ध संकल्प में लाएं । अभी हमको ऐसा नहीं है कि संकल्प को बंद करना है जैसे ऐसा नहीं है कि हमको कर्म को छोड़ना है लेकिन कर्म को हमको शुद्ध बनाना है अर्थात श्रेष्ठ बनाना है तो हमको श्रेष्ठ कर्म करना है जिसकी प्रालब्ध से फिर हमको उसी की प्रालब्ध प्राप्त होती है । तो अभी हमको कर्म को शुद्ध करना है ना कर्म को तो छोड़ नहीं देना है ना । कर्म को परिवर्तन में लाना है शुद्ध इसी तरह से हमको संकल्प को कंट्रोल नहीं करना है कि उसको दमन कर दो उसको ही खत्म कर दे संकल्प को, नहीं जैसे कर्म को ही खत्म कर दे ऐसा नहीं है, लेकिन कर्म को चेंज करना है शुद्ध में लाना है , इसी तरह से हमको संकल्प को कंट्रोल नहीं करना है परंतु संकल्प को शुद्ध संकल्प में अथवा जिसको हम कहें शुद्ध संकल्प उसी में लाना है तो यह निरसंकल्प । निरसंकल्प का भी अर्थ है कि विकल्पों से मुक्त संकल्प बाकी ऐसे नहीं कोई संकल्प ही ना हो । तो यह सारी चीजें समझने की है इसीलिए इसके लिए हठ बैठकर के हठयोग या बैठकर के कई तरीके अपनाना कि हम अपने को जड़ बना दे , कोई संकल्प ही नहीं चले एकदम उसका ही बैठकर के प्रयत्न करने की कोई दरकार नहीं है। हमको दरकार काहे की है कि हमारे जो संकल्पों में विकल्प है यानी माया के जो विकारों के संकल्प है उसी को कटऑफ करना है तो वह हमारा कैसे कटऑफ हो अथवा उसी विकल्पों से हम कैसे छुटकारा पाएजभी हम विकारों से छुटकारा पाए ना । विकारों में है तो विकल्प जरूर चलेंगे और विकर्म भी जरूर होंगे । अगर विकारों को ही हम कट कर देवें तो फिर हमारे विकारों के ना संकल्प होंगे और ना हमारी विकर्म ही होंगे । तो हमको अपने विकल्पों से छूटने के लिए जिसको ही विकल्प समाधि कहा जाता है कहते हैं ना निर्विकल्प समाधि, अभी निर्विकल्प समाधि का भी अर्थ क्या है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हमारा एकदम संकल्प ही ना चले, हम समाधि में चले जाए जैसे कई कहते हैं कि बस ऐसे चल जाएं उसमें कुछ पता ही नहीं चलता है इसको कोई निर्विकल्प समाधि नहीं कहते। निर्विकल्प है जिसमें कोई माया के विकारों के संकल्प जिसको ही विकल्प कहा जाता है वह विकल्प ना हो बाकी हमको अपने कर्म का अथवा श्रेष्ठ कर्म का संकल्प वो हमारा कर्म चलना ही है ना। बाकी हमको है माया से, जो बुरे विकारों के जो विकल्प हैं उन्हीं से छूटना। तो वह है हमारा भी समझने की बात कि हम विकारों से जब छुटकारा पाएं तभी हमारा विकर्म भी छूटे और विकल्प भी छूटे। तो विकर्म और विकल्पों से छूटने के लिए पहले विकारों से ही छूटना पड़े न फिर हमारे जाकर के शुद्ध संकल्प और शुद्ध कर्म अथवा श्रेष्ठ कर्म रहेंगे , जिसकी आधार से फिर हम श्रेष्ठ कर्म से अपनी ऊंच प्रलब्ध को पाएंगे। तो हमको चेंज करना है, परिवर्तन लाना है बाकी ऐसे नहीं है कि हमको संकल्प को दमन करना है या कर्म को छोड़ देना है, नहीं । ना कर्म को छोड़ने की बात है कर्म तो छूटा ही नहीं जा सकता है। सन्यासियों के लिए भी जो कहते हैं कर्म सन्यास , वह कर्म का सन्यास तो है ही नहीं, वह तो घर गृहस्थ का संन्यास कर सकते हैं गृहस्थ व्यवहार का लेकिन जाते हैं सन्यास भी एक कर्म है ना । जा करके वेद शास्त्र ग्रंथ पढ़ना और जो भी कुछ है दूसरों को भाषण देना यह शिक्षा देना जो भी कुछ करते हैं वह भी तो कर्म है ना । तो कर्मों से तो मनुष्य छूट नहीं सकता है , हां एक छोड़कर दूसरा कर्म अपनाते हैं परंतु ऐसे थोड़ी है कर्म छोड़ देते हैं , कर्म के बिना तो रह नहीं सकते हैं। तो यह सभी चीजों को समझना है कि कर्म का संन्यास अथवा संकल्पों का एकदम दमन करना यह चीजें तो आर्टिफिशियल और हो भी नहीं सकती हैं लेकिन हमको करना क्या है कि हमारे संकल्प को पवित्र बनाना है और पवित्र तभी बनेंगे जब हम विकारों से छुटकारा पाएंगे तो हमारे संकल्प में भी पवित्र संकल्प रहेंगे और उसी के आधार से हमारा कर्म भी पवित्र रहेगा जिसको फिर कहा जाता है कर्म श्रेष्ठ अथवा हमारा संकल्प शुद्ध। तो यह सभी चीजें हमको समझनी है इसीलिए बाप कहते हैं कि मैं तुमको देखो पहला पहला संकल्प देता हूं शुद्ध बनाने का शुद्ध रहने का वो ये है कि मुझे याद करो । जब खाली होते हो तो मुझे याद करो फालतू बुद्धि इधर-उधर भागे दौड़े उससे मैं काम दे देता हूं बस मुझे याद कर तो देखो बिजी है ना अपने आप ये बुद्धि में है कि बाप को याद करना है । आई एम सोल सन ऑफ सुप्रीम सोल हर वक्त अपने को इसी में बुद्धि में रखना है बाकी काम की कोई बुद्धि देनी है तो अच्छा वह सरल काम की बुद्धि दे दो। कोई काम है जो अपना शरीर निर्वाह के लिए उसको हमको करना है उसमें कहां जरूरी है तो चलो बुद्धि को दे दो बाकी बुद्धि फालतू इधर उधर इधर उससे फिर झट से इसी काम में लग जाओ आई एम सोल सन ऑफ सुप्रीम सोल उसमें बुद्धि लगा दो तो देखो मन को काम मिल गया ना तो वह उसी में बिजी, तो उसमें तुम्हारा फायदा भी निकलेगा, तुम्हारे शुद्ध कर्म भी रहेंगे और तुम्हारा शुद्ध संकल्प भी रहेगा उससे तुमको पाप को दग्ध करने का बल भी मिलेगा, तुम्हारा काम भी होता रहेगा और तुम्हारी बुद्धि जो है या मन जो है वह उल्टे तरफ कहां इधर उधर नहीं जाएगा उसी से तुम बचे भी रहेंगे तो सेफ़्टी हो गई ना। अभी इसको कहेंगे निर्संकल्प समाधि कहो या निर्विकल्प समाधि कहो यानी इसी में स्थित रहना बाकी ऐसे नहीं है कि संकल्प को बैठ कर के दमन करना या कोई संकल्प चले ही नहीं उससे अपने को जड़ बनाना अपने को जैसे डेड बॉडी पड़ी है अपने को डेड बनाना या जैसे हम रात को नींद में सो जाते हैं संकल्प तो कोई है नहीं ऐसे अपने को बैठकर के जड़ बनाने की कोशिश करनी है नहीं, यह तो फिर हठयोग हो जाता है। यह हठ है , परमात्मा ने भी कहा है इसी हठ से मेरी कोई प्राप्ति का तैल्लुक नहीं है, मैं इसी से नहीं प्राप्त होता हूं । मैं तो प्राप्त होता हूं वह बैठ कर के मैं सिखाता हूं तो मनमनाभव देखो कहा भी है ना गीता में भी मनमनाभव, मन को मेरे में लगाओ, ऐसे थोड़ी कहा मन को जड़ बनाओ । नहीं, कहा है मन को मेरे में लगाओ कहा ना मनमनाभव, मामेकम मुझे याद करो तो मामेकम मुझ एक को याद करो, कहा है ना याद करो तो वह भी तो बुद्धि का संकल्प हुआ ना । परंतु ऐसा नहीं कहा है कि संकल्पों को जड़ करो डेड करो या एकदम जड़ हो जाओ, नहीं। तो यह जो हठयोग और यह सभी जो बातें हैं इसीलिए कई जो पीस ऑफ माइंड या मन की शांति इसी को समझते हैं कि ये मन का जो संकल्प है उसी को दमन करना और फिर उसमें समाधि अवस्था में चले जाना , जड़ हो जाए कुछ पता ना चले उसको समझते हैं कि समाधि चढ़ गई या इनका ये होता है, नहीं। वह तो जो ट्रांस में भी जाते हैं इसको भी हम नहीं कहते हैं कि यह कोई निर्संकल्प या निर्विकल्प समाधि है यह तो ट्रांस, ट्रांस एक अलग चीज है । वह तो दीदार होता है, देखते हैं, चलो दीदार भी ना हो कुछ देखें भी नहीं ऐसे ही साइलेंस में भी कई चले जाते हैं परंतु उसको भी कोई निरसंकल्प या निर्विकल्प समाधि थोड़े ही कहेंगे वह तो हुआ कि हां शरीर से पार हो गए परंतु हमको तो उसी में रहना है ना, कर्म करना है और कर्म से हमको कर्म श्रेष्ठ बनना है उससे हमको अपनी प्रालब्ध बनानी है इसीलिए हम चुप करके ऐसे जड़ हो करके कितना समय बैठ जाएंगे । और हम को कर्म तो करना ही है हैं सोचें की ऐसे चुप करके बैठ जाएं, तो बैठे-बैठे सब कुछ हो जाएगा क्या, नहीं और भगवान का हुक्म है कर्मयोगी रहो, कर्म करो तो कर्म करने के लिए संकल्प भी तो करना पड़ेगा ना । इसीलिए बाप कहते हैं यह संकल्प श्रेष्ठ कर्म तो अनारी चीजें हैं । इसको जड़ बनाना यह तो आर्टिफिशियल है चीज। यह संकल्प भी अनादि है। संकल्प सोच और ये कर्म तो कर्म सृष्टि तो अनादि है ना, इसको कहा ही जाता है कर्म क्षेत्र तो यह कर्म की क्षेत्र भी अनादि है ऐसे नहीं कि कभी यह कर्म की क्षेत्र थी ही नहीं। यह बोना और पाना बोना और पाना यह सृष्टि अनादि है तो कर्म है तो संकल्प भी है, सोच भी है यह दोनों चीजें है ही साथ । कर्म बिना संकल्प सोच के बिना तो हो ही नहीं सकता है तो कर्म क्षेत्र अनादि है तो संकल्प , सोच भी अनादि है इन्हीं अनादि चीजों को बैठकर के जड़ बनाना या डेड करना उनका बैठ करके पुरुषार्थ करना यह तो व्यर्थ पुरुषार्थ है इसीलिए बाप कहते हैं यह हठयोग और यह सभी तरीके जो हैं ये तो नियमों के बरखिलाफ हैं। मेन है ये संकल्प सोंच कर्म अनादि है। अनारी चीजों को बैठ करके खत्म करना या उनके लिए हम डेड बनाएं इसकी तो कोई जरूरत ही नहीं है ना। हमको जरूरत है उसमें हमारे जो विकल्प आएं हैं। विकल्प आए हैं पीछे हमारे जो विकर्म हुए हैं तो विकर्म और विकल्प आने के नतीजे में जो हम दुखी हुए हैं उन्हीं के कारण ही दुखी हुए हैं ना। वह हमारे दुख के कारण बनाने वाली जो चीजें हैं विकर्म और विकल्प वह कैसे छूटे । वह छूटेंगे तभी जब विकार ही निकल जाएंगे । विकार ही निकल जाएंगे तो ना विकल्प होगा ना विकर्म होगा तो हमारा क्या हो जाएगा शुद्ध संकल्प और शुद्ध कर्म रह जाएगा। इसी से फिर हमारी प्रालब्ध भी श्रेष्ठ रहेगी। तो यह तो सीधी बातें हैं ना इसीलिए बाप कहते हैं बच्चे अपने संकल्प को शुद्ध बनाना यही निरसंकल्प समाधि है और यही निर्विकल्प समाधि है बाकी ऐसे नहीं इसको जड़ बनाना है। शुद्ध बनाना है ना की जड़ बनाना है यह कंट्रास्ट समझना है । कई समझते हैं कि इनको जड़ बनाना है, जड़ समझते हो ना एकदम इसको डेड कर देना जैसेये जड़ वस्तू है ना, इसको जड़ कहेंगे चैतन्य नहीं है यह जड़ है, तो उसमें अपने को जड़ कर देना यानी कुछ एकदम जैसे कि पता ही ना रहे तो वह तो अपने को जड़ बनाना है ना । आत्मा तो चैतन्य है और मन बुद्धि सहित है, उसमें संकल्प और सोच है तो हमको संकल्प सोच वाली आत्मा को पवित्र बनाना है ना की संकल्प सोच को जड़ बनाना है । तो जड़ बनाने और शुद्ध बनाने का डिफरेंस है तो हमको जड़ नहीं बनना है हमको शुद्ध बनना है तो हमको शुद्ध बनने के लिए हमको परिवर्तन लाना है अपने संकल्प में अपने कर्म में चेंज लाना है , इसके लिए हमको चेंज की जरूरत है ना कि उनको जड़ बनने की जरूरत है तो इसीलिए कई बैठकर के यह हठयोग या प्राणायाम या यह समाधि चढ़ाना या यह सब जो बैठकर के तरीके कई अपनाते हैं पीस ऑफ माइंड के लिए यह कोई पीस ऑफ माइंड का तरीका नहीं है तो यह सभी चीजें भी समझने की है । कई समझते हैं कि देखो अभी ये समाधि में चला गया ये पीस ऑफ माइंड में चला गया परंतु वो पीस ऑफ माइंड नहीं है पीस ऑफ माइंड का भी अर्थ समझना है न। तो यह तभी है जब हमारे को ये अशांति हमको आती कहां से है वह पीस ऑफ माइंड कहा जाता है शांति और अशांति दो शब्द है ना तो शांति और अशांति का कंट्रास्ट जो है ना वो सारा हमारे कर्म से तैल्लुक है । तो यह सभी चीजों को समझना है हमको शांति भी तब मिलेगी जब हमारे कर्म श्रेष्ठ हैं और उसके अनुसार हमको जो प्रालब्ध प्राप्त होती है उसी में हम सुखी रहते हैं तो शांत हैं , नहीं तो फिर अशांति और दुख के कारण, बाकी ऐसे नहीं है कि मन चलता है उसी से अशांत है मन हमारा विकल्पों में चलता है , विकल्प और विकर्म हमको दुखी करते हैं। तो हमको छुटकारा होना है उन्हीं विकारों से जो हमारे विकल्प और विकर्म बनाते हैं । तो इसीलिए हमको मन को जड़ बनाना या कई समझते हैं शरीर में ही ना आवे, इसी से कई तो समझते हैं शरीर में ही ना आवे, तो शरीर में ना आवे तो यह जो एम है कई ऐसे समझते हैं वह भी रॉन्ग है । तो ना मन में आवे ना शरीर में आवे यह जो विचार करते हैं इसीलिए मन को बैठकर के दमन करना या शरीर से कहीं चले जाना है पार ऐसे ऐसे जो बैठकर के जो साधनाएं करते हैं इन्हीं साधनाऔ की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हमको शरीर में आना है, आत्मा मन बुद्धि सहित है इसको शरीर में आना ही है । तो आना है उसमें हमको किस तरह से चलना है किस तरह से हमको रहना है और किस तरह से हमको अपने कर्मों को श्रेष्ठ रखना है उसी चीज को समझना है । तो उसी के लिए बाप कहते हैं कि मैं आकर के वो नॉलेज समझाता हूं कि तुम कौन सी चीज हो और तुमको शरीर में किस तरह से रहना चाहिए और तुम्हारी पवित्र स्टेज क्या है वो चीजें मैं जानता हूं इसीलिए मैं आकरके तुमको वो समझाता हूं जिसको समझने से फिर तुम सदा सुखी रह सको। तो यह सभी बातें यथार्थ समझने की है बाकी इसके लिए बैठ करके जिसके मन में जो आया किसी ने समझा कि यह मन ही ना हो ना , यह जो संकल्प चलता है कि यह हो वह हो ईसीलिए कई समझते हैं कि हम इच्छाओं को दमन करें, यह इच्छा को दमन करें, कई समझते हैं फिर यह जो इच्छा जो है वही हमको अशांत करती है या कोई इच्छा ही ना करें, समझो जो प्राप्त है वही सब ठीक है फिर चाहे हमको रोग आवे ना तो भी हम समझे यह भी भगवान ने दिया है, यह भी ईश्वर का दिया हुआ यह सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ मीठा करके भोगो ऐसे ऐसे बैठ कर के देते हैं फिर हां में हां मिलाते हैं ठीक है ऐसे ऐसे रख करके उसको भोगते हैं, वह तो हुआ टेंपरेरी अपने दिल को तसल्ली देने के लिए हां भाई जो दिया है ईश्वर ने दिया हैं अब इसमें क्या करें। आया है दुख तो उसको किसी तरह से तो अपने मन को शांत रखने के लिए, वो तो है किसी को तसल्ली देना होता है ना उसी तरीके से लेकिन प्रैक्टिकल तो जो चीज है जिससे हमको अशांति दुख होता है वह चीज हमारे से मिटे कैसे, क्या रोग हमसे मिट नहीं सकते हैं, क्या हमारे अशांत और दुख के जितने भी कारण हैं वह क्या मिट नहीं सकते हैं, उसको हम ईश्वर का थाना समझ कर कि मीठा कर करके भोगे कि आया है तो भोगना ही है , मीठा करके भोगो तो भी भोगना पड़ेगा कड़वा करके भोगेंगे तो भी भोगना ही पड़ेगा इससे तो अच्छा मीठा मीठा करके भोगते हैं वह तो हुआ दिल को तसल्लियां दे करके उसी बात को चलाना परंतु क्या हमारे प्रैक्टिकल कर्मों में ये चीज आती क्यों है। इन्हीं का कौन सा उपाय है जो हम इन चीजों से छुटकारा पावे । तो बाप कहते हैं बच्चे ये चीजें कोई जरूरी नहीं है, ये अशांति रोग अकाले मृत्यु यह सब दुख के जितने भी कारण है यह कोई जरूरी नहीं है जिसको फिर तुम समझो ईश्वर का धाना, ईश्वर ने यह सब दिया है, मैं कोई तुमको बैठकर के रोग दूंगा क्या या अकाले मृत्यु दूंगा क्या , में क्यों तुमको दुख और ये सभी चीजें ये तो तुम्हारे कर्मों से लेकिन कौन से कर्म यही विकर्म, विकार के संग में जो तुमने अपने कर्म बनाए हैं उन्हीं का कारण है उन्हीं का नतीजा यह दुख है । अभी उसी का संग छोड़ फिर तुम्हारा हो जाएगा । तो यह सभी चीजें समझने की है ना तो इसीलिए कई कई तरीके बैठकर के पीछे वालों ने लगाए हैं वह तो दिल को तसल्ली देने के लिए बिचारों को जैसे-जैसे जिसने समझा । ईश्वर का धाना समझेंगे तो मीठा लगेगा । दुख तो आया है परंतु उसको दुखी होकर के भोगे उससे अच्छा ईश्वर का समझेंगे तो थोड़ी तसल्लियां परंतु ऐसे तो नहीं न, कितना काल उसी तसल्लियों में चलेंगे । दुख आता है मनुष्य पीड़ित होते हैं कई बातें होती हैं तो दुख तो दुखी ही करेगा ना , दुख का मतलब है दुखी करना। तो इसीलिए बाप कहते हैं बच्चे यह दुख जो चीज ही दुख है उसके मिटने का उपाय समझो। बाकी ऐसे नहीं दुख आवे तुम उसको मीठा करके भोगो, नहीं दुख आवे ही क्यों, वह बने ही क्यों, उसको बनाने वाला कौन , तो तुम ही हो ना उसको बनाने वाले, तुमने बनाया लेकिन किसी रॉन्ग पॉइंट से तुमने जरूर कोई भूल की है, किसी भूलवश बनाया है, वह भूल को समझो , उसी भूल को करेक्ट करो तो फिर तुम्हारा दुख बने ही नहीं और तुम दुख भोगो ही नहीं। बाकी ऐसे नहीं आए फिर उसको मीठा करके भागने के लिए तुम दिल को तसल्ली दो ये जो तरीके बताएं, नहीं यह हो ही ना ना । तो इसीलिए बाप कहते हैं बच्चे वह हो ही ना उनका तरीका कौन सा है वह मैं बतलाता हूं । बाकी तुमको दूसरे जो है ना वह यह तसल्ली के तरीके बताते हैं चलो तुम को मन का पीस ऑफ माइंड चाहिए चलो इसको जड़ बनाने का यह तरीका करो, कहां टेंपररी वो थोड़ा समय , जड़ कितना समय बैठ सकेगा। थोड़ा समय बैठ करके अपने को जड़ भी बनाएं, चलो कोई संकल्प नहीं परंतु कहां तक यह चलेगा , सारा समय तो बात होने की भी नहीं है हो भी नहीं सकता है इसीलिए टेंपररी इसको कहा जाता है टेंपररी, अल्पकाल के लिए तो यह सभी बातें हमको अल्प काल की शांति या अल्प काल का सुख या अल्पकाल का यह सब देते हैं सदा काल का तो नहीं देंगे ना । तो बाप इसीलिए कहते हैं कि मैं आकर के सदा काल की देता हूं और यह मनुष्यों के द्वारा तुमको अल्पकाल का । यह अल्पकाल, प्राणायाम फलाने फलाने जो भी यह समाधि चढ़ाना यह सब जो चीजें हैं यह सब तुमको बैठकर के अल्पकाल की प्राप्ति देने की चीजें हैं तो वह है अल्पकाल और मैं तो सदा काल का देता हूं जिससे तुम सदा के लिए इन दुखों से छूट जाओ और सदा के लिए सुख पाओ। तो यह सारी चीजों के कंट्रास्ट को भी समझना है इसीलिए बाप कहते हैं कि मेरा काम और कोई नहीं कर सकता है तो मेरा काम नया हो गया ना । मनुष्यों के काम और मेरे काम में रात और दिन का फर्क है । मैं जो सिखाता हूं उसकी जो प्राप्ति है वह सबसे श्रेष्ठ है और मनुष्य जो सिखाते हैं और मनुष्यों से जो प्राप्त होती हैं वो अल्प काल की है इसीलिए मेरे प्राप्ति और उनकी प्राप्तिओं में रात और दिन का फर्क है । तो यह सारी चीजों को अच्छी तरह से समझना है। अच्छा टाइम हुआ है दो मिनट साइलेंस।