ओम् शान्ति।
अब बच्चे तो पहचान गये हैं कि हमको बाप अथवा मात-पिता सिखलाने वाले हैं। बच्चों को
ही इस खुशी में रहना है। अभी तो हम बेहद के बाप के बने हैं। प्रतिज्ञा भी बच्चे करते
हैं - बाबा अभी हम आपके ही हैं। हम हैं ईश्वर के, अब असुरों के सम्बन्ध में नहीं
हैं। हम आसुरी मत पर नहीं चलते। आसुरी मत किसको कहा जाता है? जो श्रीमत पर न चल
आसुरी कर्म करते हैं। एक है ईश्वरीय कर्म, दूसरा है आसुरी कर्म। यह बात कोई भी नहीं
जानते कि आदि सनातन देवी-देवता धर्म कब और किसने स्थापन किया था; और सभी धर्म वाले
अपने-अपने धर्म को जानते हैं। संन्यासी कहेंगे हमारा धर्म शंकराचार्य ने स्थापन किया।
देवी-देवता धर्म तो अब है नहीं, तो बताये कौन? लक्ष्मी-नारायण आदि का कोई को पता नहीं
है। बाप को ही नहीं जानते तो बेमुख हो गये हैं। यह भी ड्रामा में नूँध है। अभी तुम
बच्चे जानते हो बेहद का बाप आकर हम बच्चों को फिर से राजयोग सतयुग के लिए सिखाते
हैं। तुमको वैकुण्ठ का मालिक बनना है। कृष्णपुरी जाना है। यह तो कंसपुरी है। कंस और
कृष्ण इकट्ठे नहीं हो सकते।
अब तुम बच्चों को फ़खुर होना चाहिए कि हमको अब परमपिता परमात्मा सहज राजयोग सिखला
रहे हैं। बाप कहते हैं हम परमधाम से आये हैं - पुरानी इस रावण की दुनिया में, पुराने
शरीर में। जैसे मनुष्य पित्र खिलाते हैं तो वह आत्मा पुराने शरीर में आती है। उनके
लिए पुरानी दुनिया नहीं कहेंगे। पुराने शरीर में आती है फिर उनको खिलाते-पिलाते
हैं। यह रसम-रिवाज भारत में चलती आती है। यह हुई भावना। कहते हैं हमारे पति की आत्मा
इस ब्राह्मण में आई है। वह भावना रखते हैं। पति के नाम-रूप को याद करते हैं। आत्मा
ही आकर अंगीकार (स्वीकार) करती है। यह है यहाँ की रसम-रिवाज। सतयुग में यह बातें नहीं
होती। फालतू खर्चा करना, धक्का खाना - यह भक्ति मार्ग की रसम है। भावना रखने से
अल्पकाल का सुख सो भी बाप से ही मिलता है। बाप कभी दु:ख नहीं देता। मनुष्य तो न
जानने कारण कह देते सुख दु:ख परमात्मा ही देते हैं। बाप समझाते हैं बच्चे यह खेल बना
हुआ है, जो देवी-देवता धर्म वाले होंगे वही आकर ब्राह्मण बनेंगे। मालूम पड़ जाता है
यह हमारे कुल का है, इसने बहुत भक्ति की है। जैसे कोई बहुत अच्छा पढ़ता है तो पद भी
अच्छा मिलता है। वैसे जिन्होंने बहुत भक्ति की है, बाप आकर कहते हैं अब मैं उन्हों
को भक्ति का फल देने आया हूँ। भक्ति में तो दु:ख है ना। कितना भटकना पड़ता है! अब
मैं तुमको सभी दु:खों से दूर करता हूँ। अगर श्रीमत पर चलते रहेंगे तो। बाप कभी उल्टी
मत नहीं देंगे। सम्मुख आकर श्रीमत देते हैं। ऐसे नहीं कहेंगे रावण कोई चीज़ है जो
कोई की बुद्धि में बैठ मत देते हैं। यह सब ड्रामा में नूँध है। मनुष्य बिल्कुल ही
पतित बन जाते हैं, माया के कारण। तुम जानते हो हम देवता बनेंगे फिर आधाकल्प के बाद
पतित बनना शुरू करेंगे। यह बाबा भी तो अनुभवी बुजुर्ग था। साधू-सन्त आदि सभी देखे
हैं। शास्त्र भी पढ़े हैं। बाप जरूर अनुभवी रथ में ही आते होंगे। उसकी भी जरूर कोई
हिस्ट्री होगी कि भगवान ने यह एक ही रथ क्यों लिया। भागीरथ अर्थात् भाग्यशाली रथ
गाया हुआ है। कहते हैं भागीरथ से गंगा निकली। अब पानी की गंगा तो निकल नहीं सकती।
आगे हम भी समझते नहीं थे। भाग्यशाली रथ तो यह ब्रह्मा का हुआ ना, जिसमें परमपिता
परमात्मा आते हैं। मनुष्य तो मूँझ जाते हैं - इस ब्रह्मा में कैसे आयेंगे? तुम इस
मनुष्य को ब्रह्मा कहते हो? ब्रह्मा तो भगवान है। सूक्ष्मवतन में रहने वाला है,
तुमने फिर मनुष्य को ब्रह्मा बना रखा है, ऐसे-ऐसे कहेंगे। यह तो इन्हों की कल्पना
है, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर यहाँ कहाँ से आये! अरे, प्रजापिता ब्रह्मा के मुख से
ब्राह्मण पैदा हुए सो तो यहाँ होंगे ना। जो कुछ हो चुका है सो तो फिर भी होगा।
मुसलमान कैसे आये, क्या-क्या हुआ यह सब फिर भी होगा। तुम ड्रामा के राज़ को जानते
हो और कोई नहीं जानते। वह तो कह देते ड्रामा की आयु लाखों वर्ष है। फिर कहते प्रलय
भी होती है। अब श्रीकृष्ण अगर आयेगा तो भी सतयुग में आयेगा ना। उनको फिर द्वापर में
क्यों ले गये हैं? प्रलय तो कभी होती ही नहीं। गाते भी हैं पतित-पावन आओ तो जरूर
पतित दुनिया में आकर पतितों को पावन बनायेंगे ना। बाप कहते हैं मैं आता ही एक बार
हूँ - पतितों को पावन बनाने। मैं ज्ञान सागर ही सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का राज़
समझा सकता हूँ। पुरानी दुनिया को नया कैसे बनाता हूँ - सो बैठ बच्चों को समझाता
हूँ। वह हद के घर की बात होती है, यह है बेहद का घर। बाप का तो प्यार रहता है ना।
तब तो भक्ति मार्ग में भी इतनी मदद करते हैं। मनुष्य तो कर न सकें। कहते हैं ईश्वर
ने सुख का जन्म दिया। किसके पास पैसे बहुत होते हैं तो कहते हैं ईश्वर का दिया हुआ
है। फिर वह ले लेते हैं तो दु:ख क्यों होना चाहिए? अब बाप कहते हैं और कोई की बातें
न सुनो - सिवाए एक बाप के। बाप टीचर गुरू तीनों रूप में पार्ट बजाकर दिखाते हैं।
सद्गति दाता है ही एक। अन्धों की लाठी एक प्रभु... पतितों को पावन बनाने वाला एक
प्रभु.. बाप कहते हैं मैं साधुओं का भी उद्धार करने आता हूँ।
तुम सब ब्रह्माकुमार कुमारियाँ हो। सतयुग में था पवित्र प्रवृत्ति मार्ग। अब हो
गया है अपवित्र प्रवृत्ति मार्ग, जिसको विकारी प्रवृत्ति मार्ग कहा जाता है। मनुष्य
महान दु:खी हैं, बात मत पूछो! त्राहि त्राहि करते हैं, रोते पीटते हैं। अनेक धर्म
हैं। सतयुग में था एक धर्म, जो एक बाप ही स्थापन करते हैं। गीता में श्रीकृष्ण
भगवानुवाच लिख दिया है। यह है एकज़ भूल। परमपिता परमात्मा है निराकार, उसका नाम है
शिव। आत्मा का नाम एक ही चलता है, दूसरा नहीं पड़ता है। शरीर का नाम बदलता है। एक
शरीर छोड़ दूसरा लिया तो नाम बदल जायेगा। बाबा का नाम एक शिवबाबा, बस उनको शारीरिक
नाम मिलता नहीं। आत्मा जो 84 जन्म भोगने वाली है उनके शरीर का नाम है। बाप कहते हैं
मेरा तो एक ही नाम है। भल मैं इनमें प्रवेश करता हूँ परन्तु शरीर का मालिक तो इस
दादा की आत्मा है, जिसमें प्रवेश कर प्रजा रच रहा हूँ। प्रजापिता तो जरूर यहाँ
चाहिए ना। मनुष्य तो इन बातों को जानते नहीं। यह एक ही कॉलेज है, जहाँ सब पढ़ते
हैं। मुरली सब जगह जाती है फिर कोई की बुद्धि सतोप्रधान है, कोई की सतो, कोई की रजो,
कोई की तमो... बिल्कुल ही धारणा नहीं होती, तो उनके कर्म ऐसे ठहरे। बाप क्या करे?
सब तो एक समान हो भी नहीं सकते। यह ईश्वरीय कॉलेज है। ईश्वर पढ़ाने वाला एक है जिनको
पढ़ाते हैं वह धारणा कर फिर टीचर बनते हैं पढ़ाने लिए, हर एक को देखना चाहिए मेरी
सतोप्रधान बुद्धि है? मैं बाबा मम्मा मिसल समझा सकता हूँ? बाबा के पास तो सब
सेन्टर्स का समाचार आना चाहिए कि कितने स्टूडेन्टस रेग्युलर आते हैं? कब से पवित्र
रहते हैं? बाप को सब पोतामेल का मालूम पड़ना चाहिए। मात-पिता बड़े हैं ना। जगदम्बा
माँ भी तो बच्ची ठहरी। यह बाबा इस दुनिया का भी अनुभवी है। ड्रामा में मुख्य
एक्टर्स देखे जाते हैं ना। बाप ने यह भी रथ लिया है, जरूर कुछ तो होगा ना। आदि देव
ब्रह्मा का कितना नाम है! मनुष्य नहीं समझते आदि देव किसको कहा जाता है। वास्तव में
आदि देव और आदि देवी मात-पिता यह बन जाते हैं। फिर इनके मुख से सरस्वती माँ निकलती
है तो सब बच्चे हो गये। यह कहते हैं मैं शिवबाबा का बच्चा भी हूँ तो उनकी वन्नी (युगल)
भी हूँ क्योंकि मुझमें प्रवेश कर मेरे मुख से बच्चे पैदा करते हैं। कितनी गुह्य बात
है! सतोप्रधान बुद्धि वाले अच्छी रीति समझेंगे। नम्बरवार होते ही हैं। रॉयल घराने
और प्रजा में तो फ़र्क रहता है ना। प्रजा भी अपने पुरुषार्थ से बनती है और राजा भी
अपने पुरुषार्थ से बनते हैं। बाप कहते हैं कि तुम अच्छा पढ़ेंगे तो ऊंच पद पायेंगे।
वारिस जो बनेंगे वह तो अन्दर रॉयल घराने में ही आयेंगे। बाप कहते हैं पूरा
पुरुषार्थ करो, मैं तो आया ही हूँ राजाई देने लिए। पुरुषार्थ करना है - हम मात-पिता
से स्वर्ग की बादशाही का वर्सा लेंगे। नहीं तो क्षत्रिय बन पड़ेंगे। स्टूडेन्ट खुद
भी समझ सकते हैं। उन स्कूलों में तो कोई नापास हो जाते हैं तो फिर पढ़ना पड़े। यहाँ
तो फिर पढ़ न सकें। नापास हुआ तो नापास ही रहेंगे, इसलिए पुरुषार्थ पूरा करना है।
बहुतों को आप समान बनाना, यह है ऊंचे ते ऊंची सेवा। दु:खी मनुष्यों को सदा सुखी
बनाना है। अपना धन्धा ही यह ठहरा। बाबा हमेशा कहते हैं ऐसे मत समझो कि सिन्ध में
बहुतों ने घरबार छोड़ा तो हमको भी छोड़ना पड़ेगा। नहीं, यह तो ड्रामा में नूँध थी।
बाकी भगाने आदि की तो बात ही नहीं। भगवान बुरा काम थोड़ेही करेंगे। यह हैं झूठे
कलंक।
तुम बच्चे जानते हो पहले नम्बर में यह मम्मा-बाबा पद पाते हैं। तुम भी फिर
बाबा-मम्मा के तख्त पर जीत पाते हो। जो पहला नम्बर होगा वह फिर नीचे उतरते जायेंगे।
बच्चे बड़े होकर तख्त पर बैठेंगे तो मम्मा-बाबा सेकेण्ड नम्बर में चले जायेंगे। पहले
वाले राजा-रानी फिर छोटे हो जायेंगे। तो पुरुषार्थ कर बाबा-मम्मा के तख्त पर जीत
पहननी चाहिए। अभी नहीं जीत पानी है, भविष्य तख्त पर जीत पानी है, मम्मा-बाबा आकर
तुम्हारा वारिस बनें। बाबा बच्चों को कितना अच्छी रीति समझाते हैं। यह ज्ञान है जैसे
पारा, जो झट उड़ जाता है। कोई पास तो जरा भी धारणा नहीं है। वन्डर है ना!
अभी तुम बच्चों को निश्चय है यहाँ तो निराकार भगवान पढ़ाते हैं, श्रीकृष्ण नहीं।
भगवानुवाच है ना। भगवान को तो तुम शरीर दे नहीं सकते। शिव भगवानुवाच श्रीकृष्ण के
शरीर से - ऐसा भी तो लिखा हुआ नहीं है। यह है भगवानुवाच। बाप कहते हैं पहले-पहले यह
दिल में आना चाहिए बाबा हमको बैठ पढ़ाते हैं। बाबा अक्षर आने से वर्सा याद आना
चाहिए। जितना हम पढ़ेंगे उतना स्वर्ग में ऊंच पद पायेंगे। जितना बाबा को याद करेंगे
तो विकर्मों का बोझा खत्म होगा। याद करने से बुद्धि सोने का बर्तन हो जायेगी। दान
करते रहेंगे तो धारणा होती जायेगी। धन दिये धन ना खुटे... बाप तुम पर राज़ी होगा।
तुम ब्राह्मण अब अविनाशी ज्ञान-रत्नों का दान करते हो। वह शास्त्र जो सुनते हैं,
उसको ही ज्ञान समझते हैं। बस समझते हैं यही लाखों की मिलकियत है। परन्तु है कौड़ी
की इसलिए बाबा कहते हैं बच्चों की दिल में आना चाहिए हमारा बाप शिक्षक है, सतगुरू
भी है, साथ ले जाने वाला भी है। मुक्ति-जीवनमुक्ति में ले जायेंगे। यह है ज्ञान
अमृत। बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं तो ब्रह्मचारी रहते हैं। अगर गन्दे हो जाते तो
पढ़ाई ठण्डी हो जाती है। बुद्धि एकदम मलीन हो जाती। यह फिर है रूहानी विद्या,
ब्रह्मचर्य में रहने बिगर धारणा होगी नहीं। बाप कहते हैं अब पढ़ लो, नहीं तो
कल्प-कल्प स्वर्ग के मालिक बन नहीं सकेंगे। अपने पुरुषार्थ से ही बनेंगे। बाप
आशीर्वाद करे फिर तो सबको राजा बना दे। बाप कहते हैं यह तो पढ़ाई है।
पढ़ेंगे-लिखेंगे तो होंगे नवाब। अगर बुद्धि धक्के खाती रहेगी तो खराब हो जायेंगे।
यह बहुत बड़ा कॉलेज है। नाम ही है ब्रह्माकुमार कुमारियों का ईश्वरीय
विश्व-विद्यालय। ईश्वर का स्थापन किया हुआ है। ईश्वर को ही बाप कहा जाता है। तो बाप
ही बाप, टीचर, सतगुरू है। यह सिवाए तुम्हारे कोई भी समझते नहीं। सतगुरू के रूप में
सभी को वापिस ले जाने वाला है। बाप गैरन्टी करते हैं - मैं सभी को वापिस ले जाऊंगा।
कहाँ? जिसके लिए तुम आधाकल्प भक्ति करते आये हो। मुक्तिधाम ले जाऊंगा। फिर जो
श्रीमत पर चलेंगे वह वैकुण्ठ का मालिक बनेंगे। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) पढ़ाई को धारण कर दूसरों को पढ़ाने लायक बनना है। मम्मा-बाबा समान
सर्विस करनी है।
2) अविनाशी ज्ञान रत्नों का दान कर दु:खी मनुष्यों को सुखी बनाना है। पढ़ाई अच्छी
तरह पढ़नी है।