06-01-13  प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 19-10-75 मधुबन

 

वृक्षपति द्वारा कल्प-वृक्ष की दुर्दशा का आँखों देखा हाल

 

आज वृक्षपति और आदि देव दोनों ही अपने वृक्ष की देख-रेख करने गये। आदि देव अर्थात् साकार मनुष्य सृष्टि का रचयिता बाप (प्रजापिता ब्रह्मा) ने जब वृक्ष को चारों ओर से देखा तो क्या देखा? हर-एक मनुष्य आत्मा रूपी पत्ता पुराना तो हो ही गया है लेकिन मैजॉरिटी पत्तों को बीमारी भी लगी हुई है जिससे उस पत्ते का रंग- रूप बदला हुआ है अर्थात् रौनक बदली हुई है। एक तरफ राज्य-सत्ता को देखा, दूसरी तरफ धर्म सत्ता, तीसरी तरफ भक्ति की सत्ता, चौथी तरफ प्रजा की सत्ता - यह चारों ही सत्तायें बिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई दीं। अन्दर खाली, बाहर से सिर्फ रूप रहा हुआ था। जैसे दीमक लगती है तो अन्दर से खाया हुआ होता है सिर्फ बाहर का रूप ही दिखाई पड़ता है, ऐसे ही राज्य सत्ता में राज्य की सत्ता नहीं थी। नाम राज्य लेकिन अन्दर दिन-रात एक-दूसरे में खींचातान अर्थात् ईर्ष्या की अग्नि जल रही थी। राज्य से सुखों की प्राप्ति तो क्या लेकिन एक मिनट भी चैन नहीं। नींद का भी चैन नहीं। जो मानव जीवन में सारे दिन की थकावट का, संकल्पों को समाने का साधन निद्रा का नियम बना हुआ है, वह अल्पकाल का भी चैन भाग्य में नहीं। अर्थात् भाग्यहीन राज्य। न राज्य सत्ता, न राज्य द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति की सत्ता, ऐसा सत्ताहीन राज्य देखा। सदा भय के भूतों के बीच कुर्सी पर बैठा हुआ देखा। यह देखते हुए फिर और तरफ क्या देखा?’’

 

धर्म सत्ता - धर्म सत्ता में कुछ थोड़े बहुत छोटे-छोटे नये पत्ते दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन पत्तों को बहुत जल्दी अहंकार अर्थात् स्व-अभिमान और सिद्धि स्वीकार की चिड़िया खा रही थी। दूसरी तरफ क्या देखा-नाम धर्म लेकिन है अति कुकर्म। कुकर्म अर्थात् विकर्म का कीड़ा उन्हों की धर्म सत्ता अर्थात् शक्ति को खत्म कर रहा है। अनेक प्रकार के उलटे नशों में चूर, धर्म के होश से बेहोश थे। तो धर्मसत्ता भी बाहर के आडम्बर रूप में देखी। त्याग, तपस्या और वैराग्य के बदले लोगों को रिद्धियों-सिद्धियों में खेलते हुए देखा। वैराग्य के बजाय राग-द्वेष में देखा। मैजॉरिटी जैसे राज्य सत्ता लॉटरी की जुआ खेल रही है वैसे ही वे धर्म सत्ता होते हुए भी भूले भक्तों से अल्पकाल की सिद्धियों का जुआ खेल रहे थे। बड़े-बड़े दाव लगा रहे हैं - यह प्राप्त करा दूंगा तो इतना देना होगा, बीमारी को मिटायेंगे तो इतना दान पुण्य करना होगा। ऐसे सिद्धियों के जुआ के दाव लगा रहे हैं। फिर क्या देखा?

 

भक्ति की सत्ता - उसमें क्या देखा? अन्ध-श्रद्धा की पट्टियाँ ऑखों पर बंधी हुई हैं - और ढूँढ रहे हैं मन्जिल को। यह खेल देखा है ना, जो ऑखों पर पट्टी बांधे हुए होते हैं तो फिर रास्ता कैसे ढूँढते हैं? जहाँ से आवाज आयेगा वहाँ चल पड़ेंगे। अन्दर घबराहट होगी क्योंकि ऑखों पर पट्टी है। तो भक्त भी अन्दर से दु:ख-अशान्ति से घबड़ा रहे हैं। जहाँ से कोई आवाज सुनते हैं कि फलानी आत्मा बहुत जल्दी प्राप्ति कराती है तो उस आवाज के पीछे अन्ध-श्रद्धा में भाग रहे हैं। कोई ठिकाना नहीं। दूसरी तरफ गुड़ियों के खेल में इतने मस्त कि यदि कोई घर (परमधाम) का सही रास्ता बतायें तो कोई सुनने के लिये तैयार नहीं। भक्ति की सत्ता है अति स्नेह की लेकिन स्नेह की सत्ता स्वार्थ में बदल गई है। स्वार्थ का बोल बाला होता है। सब स्वार्थ में भिखारी दिखाई दिया - शान्ति दो, सुख दो, सम्बन्धी की आयु बड़ी दो, सम्पत्ति में वृद्धि हो, यह दो, यह दो, वह दो - ऐसे भीख मांगने वाले भिखारी थे। तो भक्तों को भिखारी रूप में देखा और आगे चलो।

 

प्रजा की सत्ता - प्रजा में क्या देखा? सभी चिन्ता की चिता पर बैठे हुए हैं। खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं और कोई कर्म भी कर रहे हैं लेकिन सदैव यह भय का संकल्प है कि अभी तीली अर्थात्. आग लगी कि लगी। संकल्पों में स्वप्न मुआफिक यह दिखाई देता रहता है कि अभी पकड़ गये कि पकड़े गये - कभी राज्य सत्ता द्वारा, कभी प्रकृति की आपदाओं द्वारा, कभी डाकुओं द्वारा - ऐसे ही संकल्पों में स्वप्न देखते रहते। ऐसी चिन्ताओं की चिता पर सवार, परेशान, दु:खी और अशान्त थे जो कोई रास्ता नजर न आये जिससे अपने को बचा सकें। वहाँ जायें तो आग है, वहाँ जायें तो पानी है। ऐसे चारों ओर की टेन्शन (तनाव) के बीच घबराये हुए नज़र आये यह थी आज की सैर।

 

जब यह सैर कर लौटे तो नये वृक्ष की कलम को देखा। कलम में कौन थे? आप सभी अपने को कलम समझते हो? जब पुराने वृक्ष को बीमारी लग गई, जड़जड़ीभूत हो गया तो अब नया वृक्ष-आयेपण आप आधार मूर्तियों द्वारा ही होगा। ब्राह्मण हैं ही नये वृक्ष की जड़ें अर्थात् फाउण्डेशन, आप हो फाउण्डेशन। तो देखा कि फाउण्डेशन कितना पॉवरफुल निमित्त बना हुआ है। ब्रह्मा बाप को चारों ओर की दुर्दशा देखते हुए संकल्प आया कि अभी-अभी बच्चों के तपस्वी रूप द्वारा योग अग्नि द्वारा इस पुराने वृक्ष को भस्म कर लें। इतने में तपस्वी-रूप ब्राह्मण व रूहानी सेना इमर्ज की। सब तपस्वी रूप में अपने-अपने यथा शक्ति फोर्स (शक्ति) लगा रहे थे। योग-अग्नि प्रज्जवलित हुई दिखाई दे रही थी। संगठन रूप में योग अग्नि का प्रभाव अच्छा जरूर था, लेकिन विश्व् के विनाश अर्थ विशाल रूप नहीं था। फोर्स था लेकिन फुलफोर्स नहीं था। अर्थात् सर्व ब्राह्मणों के नम्बर अनुसार यथा-शक्ति फुल स्टेज जो हर ब्राह्मण को अपने-अपने नम्बर प्रमाण सम्पूर्ण अर्थात् फुल स्टेज प्राप्त करनी थी, उसमें फुल नहीं थे अर्थात् सम्पन्न नहीं थे इस लिये फुलफोर्स नहीं था, जो एक धक से विनाश हो जाए व पुराना वृक्ष भस्म हो जाय। अब क्या करेंगे? ब्रह्मा बाप के संकल्प को साकार में लाओ। बाप स्नेही बन इस विशाल कार्य में सहयोगी बनो। लेकिन कब नहीं, अभी से ही स्वयं को सम्पन्न बनाओ। समझा? अच्छा।

 

ऐसे संकल्प को साकार करने वाले, स्नेह का रिटर्न सहयोग में देने वाले, सदा रहम दिल, विश्व कल्याणकारी स्थिति में स्थित होने वाले, अचल और अड़ोल रहने वाले और ऐसे सदा शुभ चिन्तन में रहने वाले शुभ-चिन्तक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

पर्सनल मुलाकात:-

 

माया को ललकारने वाला लश्कर ही अपना झण्डा बुलन्द कर सकेगा

 

आज सुना कि ब्रह्मा बाप क्या चाहते हैं? - लश्कर तैयार चाहते हैं - तो साकार में निमित्त बनी हुई आत्माओं को अब लश्कर को तैयार करने में तीव्रगति चाहिए। तीव्रगति अर्थात् क्विक होना चाहिए। क्विक अर्थात् सोचा और किया। संकल्प और कर्म में समानता आ जाय, प्लैन  और प्रैक्टिकल में समानता हो - ऐसी गति है? या प्लैन बहुत बनाते - प्रैक्टिकल कम होता है? संकल्प बहुत करते हैं लेकिन कर्म में कम आते हैं? संकल्प और कर्म में समानता ही सम्पूर्णता की निशानी है। इस निशानी से ही अपने निशाने को जज कर सकेंगे कि कितने समीप हैं? तो अपना ऐसा झुण्ड तैयार करो जिसको देखते हुए और भी हिम्मत हुल्लास में आकर फॉलो करें। जैसे साकार बाप का सैम्पल पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ को सिम्पल कर देता है। ऐसे सैम्पल तैयार करो जिसको देखकर अन्य का पुरूषार्थ सिम्पल हो जाय - ऐसा झुण्ड तैयार है? ऐसी शक्तियों की ललकार करने वाला झुण्ड हो जो माया को भी ललकार करने वाला हो, चाहे वह माया किसी प्रकार की भी सत्ता वालों में ही क्यों न हो।

 

जुआ में हार तो उन्हों की है ही - कल्प पहले ही यादगार में भी जुआ दिखाया है लेकिन यथार्थ रूप नहीं दिखाया है। कौरव अपनी जुआ में लगे हुए हैं और धर्म सत्ता वाले अपनी जुआ में लगे हुए हैं, जुआ में हो उन्हों की हार होनी है और पाण्डवों का झण्डा बुलन्द होना है - ऐसी ललकार करने वाले निर्भय, माया के तूफानों से भी नहीं डरने वाले, निरन्तर विजय का चैलेन्ज करने वाली इस सेना की इन्चार्ज बने तब और भी फॉलो करेंगे। अच्छा!

 

टीचर्स के साथ पर्सनल मुलाकात

 

बेहद की शिक्षिवा समझ वैराग्य वृत्ति को धारण करो

 

अपने को मास्टर विश्व की शिक्षक समझती हो अथवा अपने-अपने सेवाकेन्द्रों कि मैं फलाने स्थान की टीचर हूँ, यह बुद्धि में रहता है? यह बुद्धि में रहना चाहिए कि मैं विश्व की निमित्त बनी हुई मास्टर विश्व-शिक्षक हूँ! हद याद रहती है या बेहद? बेहद का नशा और बेहद की सेवा के प्लैन चलते हैं या अपने स्थान के प्लैन चलते हैं? बेहद का नशा रहेगा तब विश्व की मालिक बनेंगी। अगर हद का नशा और हद की स्मृति रहती है, तो विश्व के मालिकपन के संस्कार नहीं बनेंगे, फिर तो छोटा-छोटा राजा बनेंगे। विश्व-महाराजन की प्रालब्ध पाने की निशानियाँ अभी से ही दिखाई देंगी। जैसे कोई भी पहेली हल करानी होती है तो उसकी निशानियाँ पूछते हैं जिससे कैसी भी कठिन पहेली हो, वह जल्दी हल हो जाती है। तो यहाँ भी कौन क्या बनता है, यह पहेली है, तो इन निशानियों से परख सकता है। अपने आपको भी मालूम पड़ सकता है कि मैं अपने पुरूषार्थ प्रमाण क्या बन सकती हूँ।

 

टीचर्स स्वतन्त्र हैं, कोई कर्म-बन्धन नहीं सिर्फ सेवा का बन्धन है। वह बन्धन, बन्धन नहीं, लेकिन बन्धन-मुक्त करने वाला है। जब सब बातों में स्वतन्त्र हो, तो टीचर्स की बेहद की बुद्धि होनी चाहिए। जहाँ तक हो सके वहाँ तक बेहद की सेवा में सहयोग देने का चांस स्वयं लेना चाहिए। क्योंकि जितना स्वयं बेहद की सेवा का अनुभव करेंगे उतना ही जास्ती अनुभवीमूर्त्त कहलायेंगी। अनुभवी-मूर्त्त की ही वैल्यू होती है, जैसे पुराने जमाने के जो अनुभवी होते हैं उनकी राय की वैल्यु होती है कि यह पुराने अनुभवी हैं। तो यहाँ भी अनुभवी बनना चाहिए। स्वयं चांस लेना चाहिए। प्रोग्राम प्रमाण करना उसमें आधा हिस्सा अपना होता, आधा दूसरे का हो जाता है। जैसे कमाई का शेयर (हिस्सा) होता है। तो प्रोग्राम प्रमाण करने में आधा हो जाता है। जो स्वयं चांस लेते वह फुल ही मिलता है। ऐसे नहीं कहो कि मुझे योग्य समझा जाए। मैं स्वयं बनकर दिखलाऊं। आफरीन उसको मिलती है जो स्वयं को ऑफर करता है। यह कभी नहीं सोचना या इन्तज़ार करना कि मुझे चान्स मिलेगा तो करूंगी या मुझे आगे बढ़ाया जायेगा तो बढूँगी। यह भी आधार हुआ। टीचर तो स्वयं आधारमूर्त्त हैं। तो जो आधारमूर्त्त हैं वह किसका आधार नहीं लेते। यह भी लॉटरी नहीं गँवाना। स्वयं, स्वयं को ऑफर करो और बेहद के अनुभवी बनो। बेहद के बुद्धिवान बनो। चांस लेते जाओ तो चांस मिलता जायेगा। इसको कहेंगे मास्टर विश्व-शिक्षक। बाकी है अपने-अपने सेन्टर की शिक्षक। जैसे बाप को देखा एक स्थान मधुबन में रहते चारों ओर के प्लान बनाते थे, न कि सिर्फ मधुबन के। ऐसे ही निमित्त कहाँ भी रहती हो, लेकिन बेहद के प्लैन्स बनाती रहो। ऐसी हैं सब बेहद की बुद्धि वाली टीचर्स? चारों ओर चक्कर लगाती हो कि सिर्फ अपनी एरिया में चक्कर लगाती हो? जो जितना ईश्वरीय सेवा-अर्थ चक्कर लगाते हैं उतना ही चक्रवर्ती राजा बनते हैं। अच्छा, यह तो हुई बेहद की टीचर्स के निमित्त। अभी तो भविष्य प्लैन बताया।

 

बेहद की वैराग्य वृत्ति को टीचर्स अपने में अनुभव करती हैं? बेहद की वैराग्य वृत्ति है कि अपने सेन्टर्स व जिज्ञासुओं से लगाव नहीं। जब इस लगाव से बेहद का वैराग्य होगा तब जयजयकार होगी। सब स्थूल, सूक्ष्म साधनों से बेहद का वैराग्य। ऐसी धरनी बनी है अथवा थोड़ा सेन्टर्स से चेन्ज करें तो हिलेंगी? जिज्ञासुओं पर तरस नहीं पड़ेगा? जरा भी उन्हों के प्रति संकल्प नहीं आयेगा? ऐसे अपने को चेक करना चाहिए कि ऐसा पेपर आये तो नष्टोमोहा हैं? वह है लौकिक सम्बन्ध और यह है सेवा का सम्बन्ध। यदि उस सम्बन्ध में मोह जाये तो आप लोग वाणी चलाती हो। यह अलौकिक सेवा का सम्बन्ध है, इसमें यदि आपका मोह होगा तो आने वाले स्टूडेण्ट्स इस पर वाणी चलायेंगे। तो अपनी महीन रूप से चेकिंग करो कि अभी कोई ऑर्डर हो तो एवररेडी हैं? इस सेन्टर की सर्विस अच्छी है, तो सर्विस अच्छी से भी लगाव तो नहीं है? जब सबसे उपराम हों तब बेहद की वैराग्य वृत्ति कहेंगे। अपने शरीर से भी उपराम। जैसे कि निमित्त सेवा-अर्थ चलाते हैं।

 

लगाव की निशानी यह है कि बुद्धि बार-बार बाप से हट कर उस तरफ जाये तो समझो लगाव है। अपने आप से भी लगाव न हो। जो अपने में विशेषता है, कोई में हैंडलिंग पॉवर अच्छी है वा कोई में वाणी की पॉवर है तो कहेंगी मैं ऐसी हूँ। परन्तु यह तो बापदादा की देन है। अपने ज्ञान की विशेषता, विशेषता कोई भी हो, उससे भी लगाव नहीं। इसमें भी अभिमान आ जाता है इससे तो यह बुद्धि में रखो कि - ‘‘यह बाप से मिला हुआ वर्सा है। जो सर्व-आत्माओं के प्रति हमें मिला है, जो दे रहे हैं, हम तो निमित्त हैं।’’ ऐसे बेहद के वैराग्य वृत्ति का संगठन टीचर्स का होना चाहिए। जो चलने से, देखने से और बोलने से सबको महसूस हो कि ये बेहद के वैरागी हैं। ज्ञान से सेवा करने में होशियार हैं, यह तो सब महसूस करते हैं। अब बेहद के वैराग्य का अनुभव करो, जो दूसरे भी अनुभव करें। अच्छा।

 

वरदान:- शुद्ध फीलिंग द्वारा फ्लू की बीमारी को खत्म कर वरदानों से पलने वाले सफलतामूर्त भव

 

सभी बच्चों को बापदादा की श्रेष्ठ मत है - बच्चे सदा शुद्ध फीलिंग में रहो। मैं सर्व श्रेष्ठ अर्थात् कोटों में कोई आत्मा हूँ, मैं देव आत्मा, महान आत्मा, विशेष पार्टधारी आत्मा हूँ - इस फीलिंग में रहो तो व्यर्थ फीलिंग का फ्लू नहीं आ सकता। जहाँ यह शुद्ध फीलिंग है वहाँ अशुद्ध फीलिंग नहीं हो सकती। इससे फ्लू की बीमारी से अर्थात् मेहनत से बच जायेंगे और सदा स्वयं को ऐसा अनुभव करेंगे कि हम वरदानों से पल रहे हैं, सेवा में सफलता पा रहे हैं।

 

स्लोगन:- संगमयुगी मर्यादा पुरुषोत्तम बनना - यही ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ लक्ष्य है।