09-10-2022 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 12.11.92 "बापदादा" मधुबन
भविष्य विश्व-राज्य का
आधार - संगमयुग का स्वराज्य
आज विश्व-रचता बापदादा
अपने सर्व स्वराज्य अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। इस वर्तमान संगमयुग के स्वराज्य
अधिकारी और भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो क्योंकि स्वराज्य से ही विश्व
के राज्य का अधिकार प्राप्त करते हो। इस समय के स्वराज्य की प्राप्ति का अनुभव
भविष्य विश्व के राज्य से भी अति श्रेष्ठ अनुभव है! सारे ड्रामा के अन्दर
राज्य-अधिकारी राज्य करते आते हैं। सबसे श्रेष्ठ पहला है स्वराज्य, जिसके आधार से
आप स्वराज्य अधिकारी आत्माएं अनेक जन्म सतयुग-त्रेता तक विश्व-राज्य अधिकारी बनते
हो। तो पहला है स्वराज्य, फिर आधा कल्प है विश्व-राज्य अधिकार और द्वापर से लेकर
के, राज्य तो होता ही है लेकिन विश्व-राज्य नहीं, स्टेट के राजायें बनते हैं। सारे
विश्व पर एक राज्य, वह सिर्फ सतयुग में ही होता है। तो तीन प्रकार के राज्य सुनाये।
राज्य अर्थात् सर्व अधिकार की प्राप्ति। सतयुग-त्रेता की राजनीति, द्वापर की राजनीति
और संगमयुग की स्वराज्य नीति - तीनों को अच्छी रीति से जानते हो।
संगमयुग की राजनीति
अर्थात् हर एक ब्राह्मण आत्मा स्व का राज्य अधिकारी बनता है। हर एक राजयोगी है। सभी
राजयोगी हो। या प्रजा-योगी हो? राजयोगी हो ना। तो राजयोगी अर्थात् राजा बनने वाले
योगी। स्वराज्य अधिकारी आत्माओं की विशेष नीति है - जैसे राजा अपने सेवा के साथियों
को, प्रजा को जैसा, जो ऑर्डर करते हैं, उस ऑर्डर से, उसी नीति प्रमाण साथी वा प्रजा
कार्य करते हैं। ऐसे आप स्वराज्य अधिकारी आत्माएं अपनी योग की शक्ति द्वारा हर
कर्मेन्द्रिय को जैसा ऑर्डर करती हो, वैसे हर कर्मेन्द्रिय आपके ऑर्डर के अन्दर चलती
है। न सिर्फ यह स्थूल शरीर की सर्व कर्मेन्द्रियां लेकिन मन, बुद्धि, संस्कार भी आप
राज्य-अधिकारी आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण चलते हैं। जब चाहो, जैसे चाहो वैसे मन
अर्थात् संकल्प शक्ति को वहाँ स्थित कर सकते हो। अर्थात् मन, बुद्धि, संस्कार के भी
राज्य-अधिकारी। संस्कारों के वश नहीं लेकिन संस्कार को अपने वश में कर श्रेष्ठ नीति
से कार्य में लगाते हो, श्रेष्ठ संस्कार प्रमाण सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो। तो
स्वराज्य की नीति है - मन, बुद्धि, संस्कार और सर्व कर्मेन्द्रियों के ऊपर स्व
अर्थात् आत्मा का अधिकार। अगर कोई कर्मेन्द्रियां कभी आंख धोखा देती, कभी बोल धोखा
देता, वाणी अर्थात् मुख धोखा देता, संस्कार अपने कन्ट्रोल में नहीं रहते तो उसको
स्वराज्य अधिकारी नहीं कहेंगे, उसको कहेंगे स्वराज्य अधिकार के पुरुषार्थी। अधिकारी
नहीं लेकिन पुरुषार्थी। वास्तव में राज्य-अधिकारी आत्मा को स्वप्न में भी कोई
कर्मेन्द्रिय वा मन, बुद्धि, संस्कार धोखा नहीं दे सकतेक्योंकि अधिकारी हैं, अधिकारी
कभी अधीन नहीं हो सकता। अधीन हैं तो अधिकारी बनने के पुरुषार्थी हैं। तो अपने से
पूछो पुरुषार्थी हो या अधिकारी हो? अधिकारी बन गये या बन रहे हैं? तो स्वराज्य का
रूहानी नशा क्या अनुभव कराता है? क्या बन जाते हो? बेफिक्र बादशाह, बेगमपुर के
बादशाह!
सबसे बड़े ते बड़ा
बादशाह है बेफिक्र बादशाह और सबसे बड़े ते बड़ा राज्य है बेगमपुर का राज्य। बेगमपुर
के राज्य अधिकारी के आगे यह विश्व का राज्य भी कुछ नहीं है। यह बेगमपुर के राज्य का
अधिकार अति श्रेष्ठ और सुखमय है। है ही बेगम। तो बेगमपुर का अनुभव है ना। या कभी-कभी
नीचे आ जाते हो? सदा रूहानी नशे में बेग़मपुर के बादशाह हैं - इस अधिकार में रहो।
नीचे नहीं आओ। देखो, आजकल के राज्य में भी अगर कोई कुर्सी पर है तो उसका अधिकार है
और कल कुर्सी से उतर आता तो उसका अधिकार रहता है? साधारण बन जाता है। तो आप भी
स्वराज्य के नशे में रहते हो, अकालतख्त-नशीन रहते हो। सभी के पास तख्त है ना। तो
तख्त को छोड़ते क्यों हो? सदा तख्त-नशीन रहो, रूहानी नशे में रहो। अकालतख्त - वह
अमृतसर वाला अकालतख्त नहीं, यह अकालतख्त। यह अकालतख्त सभी के पास है। तो
अकालतख्त-नशीन स्वराज्य अधिकारी किसने बनाया? बाप ने हर ब्राह्मण बच्चे को
तख्त-नशीन राजा बना दिया है।
सारे सृष्टि चक्र के
अन्दर ऐसा कोई बाप होगा जिसके अनेक सब राजा बच्चे हों! लक्ष्मी-नारायण भी ऐसा नहीं
बन सकते। यह परमात्म-बाप ही कहते हैं कि मेरे सभी बच्चे, राजा बच्चे हैं। वैसे
दुनिया में कह देते हैं - यह राजा बच्चा है। लेकिन बने कुछ भी - सर्वेन्ट बने या
कुछ भी बने। लेकिन कहने में आता है राजा बेटा। लेकिन इस समय आप प्रैक्टिकल में
राजयोगी अर्थात् राजे बच्चे बनते हो। तो बाप को भी नशा है और बच्चों को भी नशा है।
तो स्वराज्य की नीति क्या रही? स्व पर राज्य, हर कर्मेन्द्रिय के ऊपर अधिकार हो। ऐसे
नहीं कि देखने तो नहीं चाहते थे लेकिन देख लिया। आंखें खुली थीं ना, इसलिए देखने
में आ गया। कान को दरवाजा नहीं है, इसलिए कान में बात पड़ गई। लेकिन दो कान हैं।
अगर ऐसी बात सुन भी ली तो निकालने का भी रास्ता है, इसलिए इस भारत में ही विशेष यह
चित्र बापू की याद में बना हुआ है - बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो। यह तीन
दिखाते हैं, आप चार दिखाते हो। बुरा सोचो भी नहीं क्योंकि पहले सोचना होता, फिर
बोलना होता, फिर देखना होता है इसलिए कन्ट्रोलिंग पॉवर, रूलिंग पॉवर रखो। राजा
अर्थात् रूलिंग पॉवर। राजा हो और रूलिंग पॉवर हो ही नहीं, तो कौन राजा मानेगा! तो
स्वराज्य अर्थात् रूलिंग पॉवर, कन्ट्रोलिंग पॉवर।
बापदादा ने पहले भी
सुनाया है कि कई बच्चे परखने में बहुत होशियार होते हैं। कोई भी गलती होती है, जो
नीति प्रमाण नहीं है तो समझते हैं कि यह नहीं करना चाहिए, यह सत्य नहीं है, यथार्थ
नहीं है, अयथार्थ है, व्यर्थ है। लेकिन समझते हुए फिर भी करते रहते या कर लेते। तो
इसको क्या कहेंगे? कौनसी पॉवर की कमी है? कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जैसे आजकल कार
चलाते हैं, देख भी रहे हैं कि एक्सीडेन्ट होने की सम्भावना है, ब्रेक लगाने की
कोशिश करते हैं, लेकिन ब्रेक लगे ही नहीं तो जरूर एक्सीडेन्ट होगा ना। ब्रेक है
लेकिन पॉवरफुल नहीं है और यहाँ के बजाए वहाँ लग गई तो भी क्या होगा? इतना समय तो
परवश होगा ना। चाहते हुए भी कर नहीं पाते। ब्रेक लगा नहीं सकते या ब्रेक पॉवरफुल न
होने के कारण ठीक लग नहीं सकती। तो यह चेक करो। जब ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते हैं तो क्या
लिखा हुआ होता है? ब्रेक चेक करो क्योंकि ब्रेक सेफ्टी का साधन है। तो कन्ट्रोलिंग
पॉवर का वा ब्रेक लगाने का अर्थ यह नहीं कि लगाओ यहाँ और ब्रेक लगे वहाँ। कोई
व्यर्थ को कन्ट्रोल करने चाहते हैं, समझते हैं यह रांग है। तो उसी समय रांग को राइट
में परिवर्तन होना चाहिए। इसको कहा जाता है कन्ट्रोलिंग पॉवर। ऐसे नहीं कि सोच भी
रहे हैं लेकिन आधा घण्टा व्यर्थ चला जाये, पीछे कन्ट्रोल में आये। बहुत पुरुषार्थ
करके आधे घण्टे के बाद परिवर्तन हुआ तो उसको कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं, रूलिंग पॉवर नहीं
कहा जाता। यह हुआ थोड़ा-थोड़ा अधीन और थोड़ा-थोड़ा अधिकारी, मिक्स। तो उसको
राज्य-अधिकारी कहेंगे या पुरुषार्थी कहेंगे? तो अब पुरुषार्थी नहीं, राज्य-अधिकारी
बनो। यह स्वराज्य अधिकार का श्रेष्ठ मज़ा है।
स्वराज्य अधिकारी
अर्थात् सदा मौज ही मौज में रहना। मौज में रहने वाला कभी किसी बात में मूँझता नहीं
है। अगर मूंझते हैं तो मौज नहीं है। तो संगमयुग पर मौज ही मौज है ना। या कभी-कभी
मौज है? शक्तियों को, पाण्डवों को मौज है ना। तो समझा, स्वराज्य की नीति क्या है और
विश्व-राज्य की नीति क्या है? चाहे प्रजा है, चाहे रॉयल फैमिली है लेकिन प्रजा,
प्रजा नहीं, प्रजा भी एक परिवार है। परिवार की नीति यह है सतयुग-त्रेता की राजनीति।
राजा कहलाते हैं लेकिन राजा होते भी परमप्रिय पिता का स्वरूप है। परिवार की विधि से
राजनीति चलती है। चाहे राज्य कारोबार भिन्न-भिन्न हाथों में होगी लेकिन परिवार के
स्नेह की विधि से कारोबार होगी। ऐसे नहीं कि राजा के पास बहुत धन-दौलत हो और प्रजा
में कोई को खाने-पीने के लिये भी नहीं हो। द्वापर-कलियुग की राजनीति में लॉ एण्ड
ऑर्डर चलता है। लेकिन विश्व-राज्य, देव-राज्य के समय यही नीति चलती है, लॉ नहीं
लेकिन स्नेह और सम्बन्ध की नीति चलती है। कोई भी आत्मा ‘दु:ख' शब्द को भी नहीं जानती।
चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन दु:ख-अशान्ति का नाम-निशान नहीं। दु:ख क्या चीज़
होती है - उसका अज्ञान है, ज्ञान ही नहीं है। जैसे इस समय स्वराज्य के समय भी आपको
बापदादा किस नीति से चलाते हैं? स्नेह और श्रीमत। श्रीमत पर चलते रहते तो कोई भी
सख्त ऑर्डर करने की आवश्यकता नहीं है। अगर नीति को भूलते हैं तो स्वयं, स्वयं को
कलियुगी नीति में चलाते हैं। तो विश्व के राज्य की नीति भी बहुत प्यारी है क्योंकि
अनेकता नहीं है, एक राज्य है और अखुट खजाना है! प्रजा भी इतनी सम्पन्न होगी - आजकल
के जो बड़े-बड़े पद्मपति हैं, उन्हों से भी ज्यादा! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं।
लेकिन इसका आधार क्या? स्वराज्य।
इस समय सम्पन्न बनते
हो, इसलिए परमात्म-सम्पत्ति की सम्पन्नता सतयुग-त्रेता के अनेक जन्म प्राप्त होती
है। इसलिए कहा नम्बरवन राज्य है स्वराज्य, फिर है विश्व-राज्य और तीसरा है
द्वापर-कलियुग का अलग-अलग स्टेट का राज्य। इस राज्य को तो अच्छी तरह जानते ही हो,
वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। तो सदा किस नशे में रहना है? स्वराज्य हमारा
जन्मसिद्ध अधिकार है! किस जन्म का? ब्राह्मण जन्म का। ब्रह्मा बाप ने जन्मते ही
स्वराज्य का तिलक हर ब्राह्मण आत्मा को लगाया। तिलकधारी हो ना। तिलक है स्मृति का।
तिलक भी है, तख्त भी है और ताज भी है। ताजधारी हो ना। कौनसा ताज है? विश्व-कल्याण
का ताज। विश्व-कल्याणकारी हो ना। प्योरिटी का ताज और विश्व-कल्याण का ताज - डबल ताज
है। प्योरिटी का ताज है लाइट का ताज और विश्व-कल्याण का ताज है - सेवा का ताज।
विश्व सेवाधारी हो
ना। ऐसे नहीं कि स्टेट के सेवाधारी समझो - हम गुजरात के हैं, हम राजस्थान के हैं,
हम दिल्ली के सेवाधारी हैं। नहीं। विश्व-सेवाधारी। कहाँ भी रहते हैं लेकिन वृत्ति
और दृष्टि बेहद की। अगर विश्व-सेवाधारी नहीं बनेंगे तो न स्वराज्य, न विश्व-राज्य,
फिर द्वापर-कलियुग में स्टेट का राजा बनना पड़ेगा। लेकिन विश्व-राज्य अधिकारी के
लिए सदा अपना ताज, तिलक और तख्त - सदा इस पर स्थित रहो। शरीर से तख्त पर नहीं बैठना
है लेकिन बुद्धि द्वारा स्मृति की स्थिति में स्थित रहना है। स्थिति में स्थित होना
यही तख्त पर बैठना है, जो सदैव बैठ सकते हैं। शरीर से तो कितने घण्टे बैठेंगे? थक
जायेंगे ना। लेकिन बुद्धि द्वारा स्थिति में स्थित रहना यह है तख्त-नशीन होना। यह
तो सहज है ना। तो स्वराज्य के नशे में निरन्तर स्थित रहो। समझा, क्या करना है?
पुरुषार्थी नहीं लेकिन अधिकारी बनना। सभी ने मिलन मनाया ना। सभी भाग-भाग कर आते हैं
परमात्म-मिलन का मेला मनाने के लिए। तो मिलन के मेले में आये हो ना। यह मेला लगता
है या भीड़ लगती है? आराम है ना। आराम से रहना, खाना, चलना सब आराम से है ना। फिर
भी बहुत लक्की हो। उन मेलों के माफिक मिट्टी में तो नहीं रहे हुए हो। फिर भी बिस्तरा
और खटिया तो मिली हुई है ना। वहाँ मेले में तो नहाओ तो भी मिट्टी, रहो तो भी मिट्टी
और खाओ तो भी मिट्टी साथ में आयेगी। यहाँ बच्चे आते हैं अपने घर में। नशे से आते
हो। बाप भी खुश और बच्चे भी खुश। हॉल में पीछे बैठने वाले सबसे आगे हो क्योंकि
बापदादा की पहली नज़र लास्ट तक जाती है। अच्छा!
सर्व स्वराज्य-अधिकारी
बेफिक्र बादशाह बच्चों को, सर्व विश्व-राज्य अधिकारी अनेक जन्म सम्पूर्ण सम्पन्न
रहने वाली आत्माओं को, सदा तिलक, ताज और तख्त-नशीन अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद की
सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले विशेष बच्चों को, देश-विदेश के सर्व सम्मुख
अनुभव करने वाले बच्चों को बापदादा का पद्मगुणा याद, प्यार। साथ-साथ सर्व के स्नेह
के पत्रों का भी रेसपान्ड दे रहे हैं। विदेश और देश दोनों अपने-अपने विधि प्रमाण
स्व के पुरुषार्थ में सिद्धि को प्राप्त कर रहे हैं और सेवा में भी सदा आगे बढ़ने
के उत्साह में लगे हुए हैं। इसलिए हर एक किसी भी कोने में रहने वाले हों लेकिन उन्हों
की याद, सेवा-समाचार, प्यार के पत्र, स्थिति के उमंग-उत्साह का समाचार सब प्राप्त
हुआ और बापदादा सभी बच्चों को बहुत-बहुत-बहुत नाम सहित, हर एक की विशेषता सहित
याद-प्यार दे रहे हैं और सदा इसी याद, प्यार की पालना से पल रहे हो, उड़ रहे हो और
उड़ते-उड़ते मंजिल पर पहुँचना ही है वा यह कहें कि पहुँचे हुए ही हो। तो याद, प्यार
और नमस्ते।
वरदान:-
मास्टर
सर्वशक्तिमान् की स्मृति द्वारा सर्व हलचलों को मर्ज करने वाले अचल-अडोल भव
जैसे शरीर का
आक्यूपेशन इमर्ज रहता है, ऐसे ब्राह्मण जीवन का आक्यूपेशन इमर्ज रहे और उसका हर
कर्म में नशा हो तो सर्व हलचलें मर्ज हो जायेंगी और आप सदा अचल-अडोल रहेंगे। मास्टर
सर्व शक्तिमान् की स्मृति सदा इमर्ज है तो कोई भी कमजोरी हलचल में ला नहीं सकती
क्योंकि वे हर शक्ति को समय पर कार्य में लगा सकते हैं, उनके पास कन्ट्रोलिंग पावर
रहती है इसलिए संकल्प और कर्म दोनों समान होते हैं।
स्लोगन:-
नाज़ुक परिस्थितियों में घबराने के बजाए उनसे पाठ पढ़कर स्वयं को परिपक्व बना लो।