18-10-09  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 19-04-71 मधुबन

 

त्याग, तपस्या और सेवा की परिभाषा

 

आज भट्ठी का आरम्भ करने के लिए बुलाया है। इस भट्ठी में सर्व गुणों की धारणामूर्त बनने के लिए वा सम्पूर्ण ज्ञानमूर्तबनने के लिए आये हो। इसके लिए मुख्य तीन बातें ध्यान में रखनी है। वह कौनसी? जिन तीन बातों से सम्पूर्ण ज्ञानमर्त और सर्व गुण मूर्त बनकर ही जाओ। सारी नॉलेज का सार उन तीन शब्दों में समाया हुआ है। वह कौनसे शब्द हैं? एक त्याग, दूसरा तपस्या और तीसरा है सेवा। इन तीनों शब्दों की धारणामूर्त बनना अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानमूर्त और सर्व गुणों की मूर्त बनना। त्याग किसको कहा जाता है? निरन्तर त्याग वृत्ति और तपस्यामूर्त बनकर हर सेकेण्ड, हर संकल्प द्वारा हर आत्मा की सेवा करनी है। यह सीखने के लिए भट्ठी में आये हो। वैसे तो त्याग और तपस्या दोनों को जानते हो, फिर अभी क्या करने आये हो?(कर्मों में लाने के लिए) भले जानते हो लेकिन अभी जो जानना है उस प्रमाण चलना, दोनों को समान बनाने के लिए आये हो। अभी जानने और चलने में अन्तर है। उस अन्तर को समाप्त करने के लिए भट्ठी में आये हो। ऐसे तपस्वीमूर्तवा त्यागमूर्त बनना है जो आपके त्याग और तपस्या की शक्ति के आकर्षण दूर से प्रत्यक्ष दिखाई दें। जैसे स्थूल अग्नि वा प्रकाश अथवा गर्मा दूर से ही दिखाई देती है वा अनुभव होती है। वैसे आपकी तपस्या और त्याग की झलक दूर से ही आकर्षण करे। हर कर्म में त्याग और तपस्या प्रत्यक्ष दिखाई दे। तब ही सेवा में सफलता पा सकेंगे। सिर्फ सेवाधारी बनकर सेवा करने से जो सफ़लता चाहते हो, वह नहीं हो पाती है। लेकिन सेवाधारी बनने के साथ-साथ त्याग और तपस्यामूर्त भी हो तब सेवा का प्रत्यक्षफल दिखाई देगा। तो सेवाधारी तो बहुत अच्छे हो लेकिन सेवा करते समय त्याग और तपस्या को भूल नहीं जाना है। तीनों का साथ होने से मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है। समय कम सफलता अधिक। तो इन तीनों को साथ जोड़ना है। यह अच्छी तरह से अभ्यास करके जाना है। जितना नॉलेजफुल उतना ही पावरफुल और सक्सेसफुल होना चाहिए। नॉलेजफुल की निशानी यह दिखाई देगी कि उनका एक-एक शब्द पावरफुल होगा और हर कर्म सक्सेसफुल होगा। अगर यह दोनों रिजल्ट कम दिखाई देती हैं तो समझना चाहिए कि नॉलेजफुल बनना है। जबकि आजकल आत्माओं द्वारा जो अधूरी नॉलेज प्राप्त करते हैं उन्हों को भी अल्पकाल के लिए सफलता की प्राप्ति का अनुभव होता है। तो सम्पूर्ण श्रेष्ठ नॉलेज की प्राप्ति प्रत्यक्ष प्राप्त होने का अनुभव भी अभी करना है। ऐसे नहीं समझना कि इस नॉलेज की प्राप्ति भविष्य में होनी है। नहीं। वर्तमान समय में नॉलेज की प्राप्ति - अपने पुरूषार्थ की सफलता और सेवा में सफलत् का अनुभव होता है। सफलता के आधार पर अपनी नॉलेज को जान सकते हो। तो भट्ठी में आये हो चेक करने और कराने के लिए कि कहाँ तक नॉलेजफुल बने हैं? कोई भी पुराने संकल्प वा संस्कार दिखाई न दें। इतना त्याग सीखना है। मस्तक अर्थात् बुद्धि की स्मृति वा दृष्टि से सिवाय आत्मिक स्वरूप के और कुछ भी दिखाई न दे वा स्मृति में न आये। ऐसे निरन्तर तपस्वी बनना है, जिस भी संस्कार वा स्वभाव वाले चाहे रजोगुणी, चाहे तमोगुणी आत्मा हो। संस्कार वा स्वभाव के वश हो, आपके पुरूषार्थ में परीक्षा के निमित्त बनी हुई हो लेकिन हर आत्मा के प्रति सेवा अर्थात् कल्याण का संकल्प वा भावना उत्पन्न हो। ऐसे सर्व आत्माओं का सेवाधारी अर्थात् कल्याणकारी बनना है। तो अब समझा, त्याग क्या सीखना है, तपस्या क्या सीखनी है और सेवा भी कहाँ तक करनी है? इनकी महीनता का अनुभव करना है। हर पुरूषार्थ में फलीभूत वह हो सकता है जिसमें ज्ञान और धारणा के फल लगे हुए हों। जैसे अभी सभी के सामने ब्रह्माकुमार प्रसिद्ध दिखाई देते हैं। दूर से ही जान जाते हैं कि यह ब्रह्माकुमार है। अब ब्रह्माकुमार के साथ-साथ तपस्वी कुमार दूर से ही दिखाई पड़ो, ऐसा बनकर जाना है। वह तब होगा जब मनन और मगन - दोनों का अनुभव करेंगे।

 

जैसे स्थूल नशे में रहने वाले के नैन-चैन, चलन दिखाई देते हैं कि यह नशे में है। ऐसे ही आपके चलन और चेहरे से ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई पड़े। चेहरा ही आपका परिचय दे। जैसे कोई के पास मिलने जाते हैं तो परिचय के लिए अपना कार्ड देते हैं ना। इसी रीति से आपका चेहरा परिचय कार्ड का कर्त्तव्य करे। समझा?

 

अभी गुप्त धारणा का रूप नहीं रखना है। कई ऐसे समझते हैं कि ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है तो धारणा भी गुप्त ही है। ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है लेकिन उन द्वारा जो धारणाओं की प्राप्ति होती है वह गुप्त नहीं हो सकती है। तो धारणाओं को वा प्राप्ति को प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ, तब प्रत्यक्षता होगी। विशेष करके कुमारों में एक संस्कार होता है जो पुरूषार्थ में विघ्न रूप होता है। वह कौनसा? कुमारों में यह संस्कार होता है जो कामनाओं को पूर्ण करने के लिए संस्कारों को रख देते हैं। जैसे जेब-खर्च रखा जाता है ना। जैसे राजाओं की राजाई तो छूट गयी लेकिन पिरवी पर्श को नहीं छोड़ते। इसी रीति संस्कारों को कितना भी खत्म करते हैं लेकिन जेब-खर्च माफिक कुछ-न-कुछ किनारे रखते ज़रूर हैं। यह है मुख्य संस्कार। यहाँ भट्ठी में जानते भी हैं और चलने की हिम्मत भी धारण करते हैं लेकिन फिर भी माया पिरवी पर्श की रीति से कहाँ-न-कहाँ किनारे में रह जाती है। समझा? तो इस भट्ठी में सभी त्याग करके जाना। यह नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अभी अन्त में बनना है, तो थोड़ा-बहुत रहेगा ही। लेकिन नहीं। त्याग अर्थात् त्याग। जेबखर्च माफिक अपने अन्दर थोड़ा-बहुत भी संस्कार रहने नहीं देना है। समझा? ज़रा भी संस्कार अगर रहा होगा तो वह थोड़ा संस्कार भी धोखा दिला देता है। इसलिए बिल्कुल जो पुरानी जायदाद है, वह भस्म करके जाना। छिपाकर नहीं रखना। समझा? अच्छा।

 

यह कुमार ग्रुप है। अभी बनना है तपस्वी कुमार ग्रुप। इस ग्रुप की यह विशेषता सभी को दिखाई दे कि यह तपस्वी कुमार तपस्वी-भूमि से आये हैं। समझा? हरेक लाइट के ताजधारी दिखाई दें। ताजधारी तो भविष्य में बनेंगे लेकिन इस भट्ठी से लाइट के ताजधारी बनकर जाना है। सर्विस की ज़िम्मेवारी का ताज वह इस ताज के साथ स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए मुख्य ध्यान इस लाइट के ताज को धारण करने का रखना है। समझा? जैसे तपस्वी सदैव आसन पर बैठते हैं, वैसे अपनी एकरस आत्मा की स्थिति के आसन पर विराजमान रहो। इस आसन को नहीं छोड़ो, तब सिंहासन मिलेगा। ऐसा प्रयत्न करो जो देखते ही सब के मुख से एक ही आवाज़ निकले कि यह कुमार तो तपस्वी कुमार बनकर आये हैं। हर कर्मेन्द्रिय से देह-अभिमान का त्याग और आत्माभिमानी की तपस्या प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे। क्योंकि ब्रह्मा की स्थापना का कार्य तो चल ही रहा है। ईश्वरीय पालना का कर्त्तव्य भी चल ही रहा है। अब लाइट में तपस्या द्वारा अपने विकर्मों और हर आत्मा के तमोगुण और प्रकृति के तमोगुणी संस्कारों को भस्म करने का कर्त्तव्य चलना है। अब समझा कि कौनसे कर्त्तव्य का अभी समय है? तपस्या द्वारा तमोगुण को भस्म करने का। जैसे अपने चित्रों में शंकर का रूप विनाशकारी अर्थात् तपस्वी रूप दिखाते हैं, ऐसे एकरस स्थिति के आसन पर स्थित हो तपस्वी रूप अपना प्रत्यक्ष दिखाओ। समझा क्या सीखना और क्या और कैसे बनना है? इसके लिए यह कुमार ग्रुप मुख्य सलोगन क्या सामने रखेंगे जिससे सफलता हो जाये? सच्चाई और सफाई से सृष्टि से विकारों का सफाया करेंगे। जब सृष्टि से करेंगे तो स्वयं से तो पहले से ही हो जायेगा, तब तो सृष्टि से करेंगे ना। तो यह सलोगन याद रखने से तपस्वीमूर्त बनने से सफलतामूर्त बनेंगे। समझा? अच्छा।

 

वरदान:- मनमनाभव हो अलौकिक विधि से मनोरंजन मनाने वाले बाप समान भव

 

संगमयुग पर यादगार मनाना अर्थात् बाप समान बनना। यह संगमयुग के सुहेज हैं। खूब मनाओ लेकिन बाप से मिलन मनाते हुए मनाओ। सिर्फ मनोरंजन के रूप में नहीं लेकिन मन्मनाभव हो मनोरंजन मनाओ। अलौकिक विधि से अलौकिकता का मनोरंजन अविनाशी हो जाता है। संग-मयुगी दीपमाला की विधि – पुराना खाता खत्म करना, हर संकल्प, हर घड़ी नया अर्थात् अलौकिक हो। पुराने संकल्प, संस्कार-स्वभाव, चाल-चलन यह रावण का कर्जा है इसे एक दृढ़ संकल्प से समाप्त करो।

 

स्लोगन:- बातों को देखने के बजाए स्वयं को और बाप को देखो।

 

ओम् शान्ति 27-08-09 मधुबन

 

गीता पाठशाला के निमित्त भाई बहिनों की योग भट्ठी प्रति बापदादा का मधुर सन्देश (गुल्जार दादी)

 

आज बापदादा के पास आप सबका यादप्यार लेते हुए पहुंची तो बापदादा सदा के मुआफिक सामने खड़े थे और सदा के सदृश्य मधुर मुस्कान से मीठी दृष्टि दे रहे थे। मैं भी स्नेह में लवलीन होते सम्मुख पहुंच गई। यह परमात्म मिलन का अनुभव तो आप भी सब अनुभवी हो कि कितना न्यारा, कितना प्यारा है। कुछ समय के बाद बाबा बोले आओ मेरी नयनों की नूर बच्ची आज क्या समाचार लाई हो? मैं बोली बाबा आज तो आपके दिल की आश पूर्ण करने वाले घर में रहते पवित्र रहने वाले और घर में गीता पाठशाला चलाने वाली माताओं और पाण्डवों की यादप्यार लाई हूँ। बापदादा बहुत मीठा मुस्काये और बोला, यह बच्चे तो बाप का नाम प्रत्यक्ष करने वाले भाग्यवान बच्चे हैं। बापदादा भी ऐसे हिम्मतवान बच्चों का दिल में गीत गाते वाह मेरे हिम्मतवान बच्चे वाह! अब तो समय प्रमाण हर बच्चे को हद की बातों से मुक्त हो विश्व के आधार मूर्त, उद्धारमूर्त बन, से वाणी के साथ मन्सा सेवा में बिजी रहना है। तो स्वयं भी निर्विघ्न अपने सेवास्थान का वायुमण्डल भी श्रेष्ठ और विश्व की आत्माओं को भी सुख शान्ति की अंचली मिल जायेगी। बोलो, जैसे पविॠता के बन्धन से असम्भव से सम्भव कर दिखाने की हिम्मत रख बाप की मदद का अनुभव कर रहे हो तो अब यह जिम्मेवारी लो कि स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन करके ही दिखाना है। बोलो, ऐसा उमंग-उत्साह आता है? कि करके ही रहना है, समय और प्रकृति, दुःखी आत्माओं की पुकार सुनाई देती है ना? तो यह दृढ़ संकल्प करो कि करना ही है।

 

उसके बाद बाबा बोले, यह ग्रुप भी अच्छा बड़ा है। इन बच्चों को भी बाबा वतन में बुलाते हैं। बस बाबा का कहना और आप सबका इमर्ज होना। क्या देखा कि यह ग्रुप स्वास्तिका के रूप में बहुत बड़े सुन्दर रूप में खड़े हो गये। सब बाबा को देख बहुत खुश हो रहे थे। बापदादा भी हर एक को दृष्टि देने लिए स्वास्तिका के बीच में जाए हर एक को दृष्टि दे रहे थे और फिर ऊपर संगम पर चमकते हुए चबूतरे पर बैठ गये और सबको दृष्टि देते बोले, मीठे बच्चे जैसे अब वतन में अपना फरिश्ता रूप अच्छा लग रहा है ना। ऐसे ही स्थूल वतन में कर्म करते भी फरिश्ते रूप में रह हर कर्म करेंगे तो जो आपके अन्दर संकल्प है कि अब तो ब्रह्मा बाप समान और सम्पूर्ण बनना ही है वह सहज बन जायेंगे। सिर्फ इस संकल्प को बार-बार दृढ़ करो और चेक करो, चेंज करो। बस फिर तो सब दिल ही दिल में खुशी में झूमते हुए दिल से बोल रहे थे कि हम नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे! बापदादा भी हर बच्चे को उमंग-उत्साह में देख खुश हो रहे थे। उसके बाद बाबा बोले बच्ची, इन बच्चों को सौगात क्या देंगी? फिर तो आप जानते हो बाबा का कहना और सेकण्ड में सौगातें इमर्ज हो जाती हैं। वह सौगातें क्या थी? बहुत सुन्दर मालायें थी, जिसमें बीच में एक बैज जितना पैण्डिल (लॉकेट) था, जो बहुत सुन्दर चमक रहा था, उसमें छोटे छोटे हीरों से लिखत थी वाह बाबा और वाह भाग्य स्वरूप भव, जो देख सब बहुत खुश हो रहे थे। बाबा ने उस समय हमारी विशेष दादियों को और दीदियों को साथ में सेवा के साथी बहिनों को भी इमर्ज किया। वह भी बापदादा को और सौगातों को देख खुश हो रहे थे। बाबा ने हर एक को अपनी बाहों में लेकर मिलन मनाया। यह देख सब देखने वाले भी बहुत खुशी में नाच रहे थे। फिर बाबा ने अपने हाथ से एक एक बच्चे को सम्मुख बुलाए दृष्टि देते सौगात दी। सभी बार बार बाबा के सम्मुख आते खुश हो रहे थे। उसके बाद बाबा बोले, बच्ची वतन में आये हैं तो बाबा बच्चों को बगीचे का सैर कराते हैं। बस बाबा का कहना और सबका चलना। आगे आगे बाबा और दादियाँ, दीदियाँ थी और पीछे से सब चल रहे थे। बाबा बोले बच्ची, सदा फरिश्ता भव का वरदान याद रखना है। ऐसे सब चक्कर लगाते आ गये और बाबा को सामने और साथ देख अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूल रहे थे। फिर तो बाबा ने सबको दृष्टि देते मर्ज कर दिया और हमें भी साकार वतन में भेज दिया। अच्छा ओम् शान्ति।