ओम् शान्ति।
रूहानी बाप मीठे-मीठे रूहानी बच्चों को ज्ञान और भक्ति का राज़ समझा रहे हैं। यह तो
अभी बच्चे जानते हैं कि बरोबर बाप आये हुए हैं और हमको फिर से पूज्य देवी-देवता बना
रहे हैं। जो आसुरी सम्प्रदाय बन गये हैं, वह अब फिर से दैवी सम्प्रदाय बन रहे हैं
अर्थात् अब भक्ति का चक्र पूरा हो गया। यह भी अब मालूम हुआ है कि भक्ति कब से शुरू
हुई है! रावण राज्य कब से शुरू हुआ है! कब पूरा होता है! फिर रामराज्य कब से शुरू
होता है! तुम बच्चों की बुद्धि में वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी है। बरोबर 4 युग
हैं। अभी संगमयुग का चक्र वा ड्रामा चल रहा है। यह हम सब बच्चों की बुद्धि में बैठा।
किसकी बुद्धि में बैठा? हम प्रजापिता ब्रह्मा मुख वंशावली ब्राह्मणों की बुद्धि में
बैठा। किसका नाम तो कहेंगे ना। सिवाए ब्राह्मणों के और कोई नाम नहीं निकाल सकते। यह
खेल ही ऐसा बना हुआ है – ब्राह्मण फिर देवता, क्षत्रिय… ऐसे यह चक्र फिरता रहता है।
तुम बच्चे अब याद की यात्रा सीख रहे हो अथवा पतित से पावन बन रहे हो। समझाना भी ऐसे
होता है – अभी हम रामराज्य की स्थापना कर रहे हैं तो जरूर पहले रावण राज्य है। यह
भी सिद्ध होता है अभी रावणराज्य है तो झाड़ बहुत बड़ा है। अभी हम पूज्य देवी-देवता
धर्म की स्थापना कर रहे हैं तो पुराना झाड़ खलास हो नये झाड़ की स्थापना हो रही है।
यह भी हिसाब-किताब बच्चे समझते हैं। हम स्वयं पूज्य सतोप्रधान थे फिर 84 जन्म बाद
तमोप्रधान बनें। पूज्य से पुजारी बने हैं फिर से रिपीट करना पड़ेगा। यह तो सहज समझने
का है कि चक्र कैसे फिरता आया है। जैसे एक्टर्स शुरू से लेकर पिछाड़ी तक पार्ट बजाते
हैं ना। तो यह है बेहद का राज़, ज्ञान और भक्ति का राज़ बुद्धि में अच्छी रीति जम
गया है। हम ही पूज्य सतयुगी देवता थे फिर हम ही सीढ़ी उतरते पुजारी बनें। रावणराज्य
कब से शुरू हुआ। पूरी तिथि तारीख तुम जानते हो। हमने ऐसे-ऐसे पुनर्जन्म लिया। पहले
हम सूर्यवंशी देवी-देवता थे, फिर चन्द्रवंशी बनें ….. अब फिर ब्राह्मणवंशी बनकर फिर
हम देवता बनते हैं। अभी तुम ब्राह्मणवंशी वा ईश्वरीय वंशी हो। तुम सब जानते हो कि
हम सब ईश्वर की सन्तान हैं इसलिए ब्रदर्स कहते हैं। वास्तव में तो ब्रदर्स होते हैं
मूलवतन में, फिर पार्ट बजाने लिए नीचे आना पड़ता है। यह तो बच्चे जानते हैं – हम ही
शूद्र से ब्राह्मण बन पढ़कर वह संस्कार ले जाते हैं। सो हम देवी-देवता बनते हैं। कल
हम शूद्र थे – आज हम ब्राह्मण हैं फिर कल हम देवता बनेंगे। यह राज़ समझाना भी होता
है बच्चों को। सभी को सुजाग करना है। यह तुम किसको भी समझा सकते हो कि नई दुनिया
सतयुग, यह पुरानी दुनिया कलियुग है। इसमें कोई सुख नहीं। बच्चे समझते हैं जब यह नया
झाड़ था तो हम ही देवी-देवता थे, बहुत सुख था फिर चक्र लगाते-लगाते दुनिया पुरानी
हो गई है। मनुष्य भी बहुत हो गये हैं तो दु:ख भी बहुत हो गया है। बाप समझाते हैं
सतयुग में तुम कितने सुखी थे। सदा सुखी तो कोई रहते नहीं। पुनर्जन्म लेने का भी
कायदा है। पुनर्जन्म लेते-लेते उतरते-उतरते 84 जन्म पूरे हुए हैं। फिर नये सिर चक्र
फिरना है। ज्ञान और भक्ति। आधाकल्प है दिन नई दुनिया फिर आधाकल्प है रात पुरानी
दुनिया। यह पढ़ाई याद करनी होती है। शिवबाबा को भी याद करना होता है। टीचर को भी
सारा याद है ना। तुम कहेंगे बाबा को इस सारे सृष्टि की नॉलेज है। तुम भी समझते हो
कि हम जो पावन पूज्य देवता थे सो अब पुजारी पतित बने हैं। सतोप्रधान, सतो, रजो, तमो
यह हिस्ट्री-जॉग्राफी तुम ड्रामा की समझते हो। यह पूज्य और पुजारी का खेल बना हुआ
है। ऐसी-ऐसी अपने साथ बातें करो। सतोप्रधान बनने के लिए मुख्य है – ज्ञान और योग।
ज्ञान है सृष्टि चक्र का और योग से हम पावन बनते हैं। कितना सहज है। किसको भी समझा
सकते हैं। जैसे बाबा भी समझाते हैं ना। सिर्फ बाबा बाहर नहीं जाते हैं, क्योंकि बाप
इनके साथ है ना। कोई भी मनुष्य सद्गति को तो जानते ही नहीं। सद्गति की बातें तो तब
समझें, जब सद्गति दाता को पहचानें। तुम्हारे में भी नम्बरवार जानते हैं। तुम समझते
हो और समझाते भी हो। मूल बात है ही पतित से पावन बनने की। याद से ही तमोप्रधान से
सतोप्रधान बनते जायेंगे। यहाँ के बच्चे वा बाहर के बच्चे कहते हैं कि योग कैसे लगावें?
पतित से पावन बनने की युक्ति क्या है? क्योंकि इसमें ही मूँझे हैं। तो समझाना चाहिए
कि यह खेल ही हार और जीत का बना हुआ है। भारत ही पतित से पावन और पावन से पतित बनता
है। आधाकल्प है ज्ञान अर्थात् पावन, आधाकल्प है भक्ति अर्थात् पतित। अब फिर से पतित
से पावन बनना है। यह याद की यात्रा प्राचीन बहुत नामीग्रामी है। वह तो जिस्मानी
यात्रायें जन्म-जन्मान्तर करते, नीचे गिरते गये हैं। ऐसे नहीं कि उनसे पावन बने
हैं। पावन बनाने वाला है ही एक बाप। वह एक ही बार आते हैं। शिवबाबा का पुनर्जन्म नहीं
कहेंगे। मनुष्य को ही 84 जन्म के चक्र में आना है।
बाबा कहते हैं यह कहानी बहुत ही सहज है। सिर्फ कैरेक्टर जरूर बदलना चाहिए। जब
तुम देवतायें थे तो तुम्हारा फर्स्टक्लास कैरेक्टर था। फिर धीरे-धीरे तुम्हारा
कैरेक्टर बिगड़ता गया। रावणराज्य में तो अभी बिल्कुल बिगड़ गया है। आधाकल्प भक्ति
मार्ग में पतित बनने से हाहाकार मच गया। पावन शिवालय से फिर पतित वेश्यालय बन जाता
है। रावण ने जीत पा ली। कोई कोशिश ही नहीं करते कि रामराज्य कैसे बनें। बाप को ही
आना पड़ता है। यह भी ड्रामा बना हुआ है। रावण राज्य में हम गिरते आये हैं, अब फिर
चढ़ना है। बाप आकर जगाते हैं क्योंकि सब भक्ति में सोये पड़े हैं। बाप आये हैं तो
भी सोये पड़े हैं। बाप आते ही हैं पिछाड़ी में जबकि सब अज्ञान नींद में सोये हैं।
जैसे बाप ज्ञान का सागर है, सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त को जानते हैं, तुम भी जानते
हो। इतने सब बच्चे बाप से सीखते हैं ना। एक बाप से सीखकर फिर वृद्धि को पाते हैं।
कल्प पहले भी तुमको मनुष्य से देवता बनाया था। अभी भी तुमको जरूर बनना है। फिर कोई
हल्का पुरूषार्थ करते, कोई फिर तीखा करते हैं। नम्बरवार तो हैं ना। कोई की डल बुद्धि
है। उस स्कूल में भी नम्बरवार तो होते हैं ना। उस पढ़ाई में तो बी.ए., एम.ए. आदि की
कितनी क्लास होती हैं। कितने मनुष्य पढ़ते हैं। सारी दुनिया में कितने एम.ए. पढ़ते
होंगे। जो भी भारतवासी हैं, कितने समय से पढ़ते हैं। कोई टीचर बनते, कोई क्या बनते।
आजीविका करते रहते हैं। अच्छा मर गया फिर नयेसिर से जन्म ले पढ़ना पड़े। वहाँ सतयुग
में एम.ए. आदि की पढ़ाई नहीं है। यह ड्रामा में अभी की नूँध है जो पढ़ते हैं, फिर
कल्प बाद पढ़ेंगे। वहाँ यह किताब आदि कुछ भी नहीं होती। जो भक्ति मार्ग में होता है
वह ज्ञान मार्ग में नहीं होता। भक्ति मार्ग में वह पढ़ाते आये हैं जो पास्ट हुआ।
बाप ने बताया है – कब से रामराज्य, कब से रावणराज्य होता है, फिर हम कैसे नीचे उतरते
गये। तुम्हारी बुद्धि में यह सब राज़ अच्छी तरह बैठ गया है।
तुम्हें अब पुरूषार्थ करना है ऊंच ते ऊंच बनने का। परन्तु राजाई में सब एक जैसे
बन नहीं सकते। कोई तो अच्छी रीति पुरूषार्थ करते हैं, पावन बनने के लिए दैवीगुण
धारण करते हैं। तुम्हारा ईश्वरीय रजिस्टर भी है। अपनी जाँच करनी है कि हमारे में
कोई अवगुण तो नहीं हैं? गाते हैं हम निर्गुण हारे में कोई गुण नाही। सब समझते हैं
हमारे में अवगुण हैं, जब हमारे में सब गुण थे तो हम सर्वगुण सम्पन्न 16 कला
सम्पूर्ण थे, उन्हों का राज्य था। चित्र भी हैं। वहाँ यह मन्दिर आदि नहीं होंगे। वहाँ
भक्ति मार्ग का चिन्ह भी नहीं होगा। भक्ति मार्ग में फिर ज्ञान का रिंचक मात्र
चिन्ह नहीं है। यह भी तुम नम्बरवार जानते हो। जो अच्छी रीति पढ़कर धारण करते हैं तो
क्वालिफिकेशन भी आती रहती हैं। दिल में आता है कि बाप जिससे हम विश्व की बादशाही
लेते हैं, उनका कितना मददगार बनना चाहिए। हम हैं ईश्वरीय सन्तान। बाप आये ही हैं
सबको सुखदाई बनाने। कभी कोई को दु:ख नहीं देते। बच्चों को इतना ऊंच बनना है। बाबा
बार-बार समझाते हैं अपने पास नोट रखो, किसको दु:ख तो नहीं दिया? बाप सबको सुख देते
हैं। हम भी सुख देवें। यह जीवन ही बाबा की सर्विस में लगाई है ना। बहुत मीठा बनने
की कोशिश करनी है। कोई उल्टा-सुल्टा बोले भी तो तुम शान्त कर दो। सबको सुख दो। सबको
सुख का रास्ता बताना है, तो शान्तिधाम, सुखधाम के मालिक बनें। सुखदाई बनना है
क्योंकि बाप सदा सुखदाता है ना। सबके दु:ख दूर कर लेते हैं। बुद्धि में आता है हम
बहुत सुख देने वाले थे। हम जब सुख में थे तो विकार का नामनिशान नहीं था, काम कटारी
नहीं चलाते थे। सतयुग में कोई दु:खी नहीं बनाते। बाप फिर भी बच्चों को कहते हैं,
अपने को आत्मा समझो। आत्मा को ही पावन बनना है। आत्मा में कोई पतितपने की निशानी न
रहे। दिन-प्रतिदिन तुम उन्नति को पाते रहेंगे। नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार राजाई पाई
थी। वही फिर पाने का पुरूषार्थ कर रहे हो। देखते रहते हो कि कौन-कौन कितना
पुरूषार्थ करते हैं? कितने को हम सुख देते हैं? बच्चे जानते हैं कि सतयुग में हम
कोई को दु:ख नहीं देंगे। कम पुरूषार्थ करेंगे तो सजायें खाकर कम पद पायेंगे।
बेइज्जती होती है ना। कोई बच्चे तो बहुत सर्विस करते हैं। म्युज़ियम, प्रदर्शनी में
कितनी मेहनत करते हैं। यह प्रदर्शनियाँ, म्युजियम आदि भी वृद्धि को पायेंगे। तराजू
में यह ज्ञान का तरफ भारी होता जायेगा। एक तरफ है ज्ञान, दूसरे तरफ है भक्ति। इस
समय भक्ति का पुर (पलड़ा) बहुत भारी है। एकदम नीचे पट पड़ जाता है। बहुत वज़न भारी
होकर एकदम तले में चले जायेंगे। उसमें जैसे 10 शेर और उसमें ज्ञान का एक पाव पड़ा
है। फिर ज्ञान का एक तरफ भारी हो जायेगा, सतयुग में एक ही पुर होता है फिर कलियुग
में भी एक ही पुर होता है। संगम पर दो पुर हो जाते हैं। ज्ञान के पुर में कितने थोड़े
हैं। कितना हल्का है फिर वहाँ से ट्रांसफर हो इस तरफ भरते जायेंगे तब भक्ति खत्म हो
जायेगी। फिर एक ज्ञान का पुर रह जायेगा। दो पुर होंगे ही नहीं। बाप आकर तराजू में
दिखाते हैं। कम जास्ती भी होता रहता है। कब उस तरफ, कब इस तरफ भरतू हो जाते। ज्ञान
में आकर फिर भक्ति के पुर में भरतू हो जाते। जो पक्के हैं वह तो जानते हैं स्थापना
जरूर होनी है। जब हमारा राज्य होगा तब हम ही होंगे। फिर मूलवतन का पुर जास्ती हो
जायेगा। वहाँ बहुत आत्मायें रहेंगी। तो वह पुर जास्ती हो जायेगा। फिर आधाकल्प बाद
द्वापर से आते रहेंगे। इस रीति सृष्टि का चक्र फिरता रहता है। जब पतित हैं तब तराजू
की दरकार ही नहीं। तराजू की दरकार ही तब होती जब बाप आते हैं। बाप तराजू ले आते
हैं। झाड़ का ज्ञान भी तुम्हारी बुद्धि में है। पहले कितना छोटा झाड़ फिर वृद्धि को
पाता रहता है। सब पत्ते सूखकर खत्म हो जाते फिर रिपीट होता। पानी मिलने से फिर
छोटे-छोटे पत्ते वृद्धि को पाते हैं। फल देते हैं। हर वर्ष झाड़ खाली होगा। सब कुछ
नया होगा। अभी देवी-देवता धर्म वाला एक भी नहीं है। थे जरूर। उन्हों का राज्य था –
परन्तु कब? यह भूल गये हैं। तुम ब्राह्मणों का कुल भी दिन प्रतिदिन वृद्धि को पाता
जाता है। तो ऐसे-ऐसे इस ज्ञान को मंथन करके धारण करते रहो और समझाते रहो। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) यह जीवन बाप की सेवा में लगानी है। बहुत-बहुत सुखदाई बनना है। कोई
उल्टा-सुल्टा बोले तो शान्त रहना है। बाप समान सबके दु:ख दूर करने हैं।
2) अपने रजिस्टर की जाँच करनी है। दैवीगुण धारण कर चरित्रवान बनना है। अवगुण
निकाल देने हैं।