23-01-05 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 27.03.86 "बापदादा" मधुबन
आज स्नेह का सागर बाप
अपने स्नेही बच्चों से मिलने के लिए आये हैं। यह रूहानी स्नेह हर बच्चे को सहजयोगी
बना देता है। यह स्नेह सारे पुराने संसार को सहज भुलाने का साधन है। यह स्नेह हर
आत्मा को बाप का बनाने में एकमात्र शक्तिशाली साधन है। स्नेह ब्राह्मण जीवन का
फाउण्डेशन है। स्नेह - शक्तिशाली जीवन बनाने का, पालना का आधार है। सभी, जो भी
श्रेष्ठ आत्मायें बाप के पास सम्मुख पहुँची हैं उन सभी के पहुँचने का आधार भी -
‘स्नेह’ है। स्नेह के पंखों से उड़ते हुए आकर मधुबन निवासी बनते हैं। बापदादा सर्व
स्नेही बच्चों को देख रहे थे कि स्नेही तो सब बच्चे हैं लेकिन अन्तर क्या है!
नम्बरवार क्यों बनते हैं, कारण? स्नेही सभी हैं लेकिन कोई हैं ‘सदा स्नेही’ और कोई
हैं ‘स्नेही’। और तीसरे हैं ‘समय प्रमाण स्नेह निभाने वाले’। बापदादा ने तीन प्रकार
के स्नेही देखे।
जो सदा स्नेही हैं वह
लवलीन होने के कारण मेहनत और मुश्किल से सदा ऊँचे रहते हैं। न मेहनत करनी पड़ती, न
मुश्किल का अनुभव होता। क्योंकि सदा स्नेही होने के कारण उन्हों के आगे प्रकृति और
माया दोनों अभी से दासी बन जाती अर्थात् सदा स्नेही आत्मा मालिक बन जाती तो प्रकृति,
माया स्वत: ही दासी रूप में हो जाती। प्रकृति, माया की हिम्मत नहीं जो सदा स्नेही
का समय वा संकल्प अपने तरफ लगावे। सदा स्नेही आत्माओं का हर समय हर संकल्प हैं ही
बाप की याद और सेवा के प्रति। इसलिए प्रकृति और माया भी जानती हैं कि यह सदा स्नेही
बच्चे संकल्प से भी कब हमारे अधीन नहीं हो सकते। सर्व शक्तियों के अधिकारी आत्मायें
हैं। सदा स्नेही आत्मा की स्थिति का ही गायन है - ‘एक बाप दूसरा न कोई। बाप ही
संसार है।’
दूसरा नम्बर - स्नेही
आत्मायें, स्नेह में रहती जरूर हैं लेकिन सदा न होने कारण कभी-कभी मन के संकल्प
द्वारा भी कहाँ और तरफ स्नेह जाता। बहुत थोड़ा बीच-बीच में स्वयं को परिवर्तन करने
के कारण कभी मेहनत का, कभी मुश्किल का अनुभव करते। लेकिन बहुत थोड़ा। जब भी कोई
प्रकृति वा माया का सूक्ष्म वार हो जाता है तो उसी समय स्नेह के कारण याद जल्दी आ
जाती है और याद की शक्ति से अपने को बहुत जल्दी परिवर्तन भी कर लेते हैं। लेकिन थोड़ा
सा समय और फिर भी संकल्प मुश्किल या मेहनत में लग जाता है। कभी-कभी स्नेह साधारण हो
जाता। कभी-कभी स्नेह में लवलीन रहते। स्टेज में फर्क पड़ता रहता। लेकिन फिर भी ज्यादा
समय या संकल्प व्यर्थ नहीं जाता। इसलिए स्नेही हैं लेकिन सदा स्नेही न होने के कारण
सेकण्ड नम्बर हो जाते।
तीसरे हैं - समय
प्रमाण स्नेह निभाने वाले। ऐसी आत्मायें समझती हैं कि सच्चा स्नेह सिवाए बाप के और
कोई से मिल नहीं सकता। और यही रूहानी स्नेह सदा के लिए श्रेष्ठ बनाने वाला है।
ज्ञान अर्थात् समझ पूरी है और यही स्नेही जीवन प्रिय भी लगती है। लेकिन कोई अपनी
देह के लगाव के संस्कार या कोई भी विशेष पुराना संस्कार वा किसी व्यक्ति वा वस्तु
के संस्कार वा व्यर्थ संकल्पों के संस्कार वश कन्ट्रोलिंग पावर न होने के कारण
व्यर्थ संकल्पों का बोझ है। वा संगठन की शक्ति की कमी होने के कारण संगठन में सफल
नहीं हो सकते। संगठन की परिस्थिति स्नेह को समाप्त कर अपने तरफ खींच लेती है। और
कोई सदा ही दिल-शिकस्त जल्दी होते हैं। अभी-अभी बहुत अच्छे उड़ते रहेंगे और अभी-अभी
देखो तो अपने आप से ही दिलशिकस्त! यह स्वयं से दिलशिकस्त होने का संस्कार भी सदा
स्नेही बनने नहीं देता। किसी न किसी प्रकार का संस्कार परिस्थिति की तरफ, प्रकृति
की तरफ आकर्षित कर देता है। और जब हलचल में आ जाते हैं तो स्नेह का अनुभव होने के
कारण, स्नेही जीवन प्रिय लगने के कारण फिर बाप की याद आती है। प्रयत्न करते हैं कि
अभी फिर से बाप के स्नेह में समा जावें। तो समय प्रमाण, परिस्थिति प्रमाण हलचल में
आने के कारण कभी याद करते हैं, कभी युद्ध करते हैं। युद्ध की जीवन ज्यादा होती। और
स्नेह में समाने की जीवन उसके अन्तर में कम होती है। इसलिए तीसरा नम्बर बन जाते
हैं। फिर भी विश्व की सर्व आत्माओं से तीसरा नम्बर भी अति श्रेष्ठ ही कहेंगे।
क्योंकि बाप को पहचाना। बाप के बने, ब्राह्मण परिवार के बने। ऊँचे ते ऊँची ब्राह्मण
आत्मायें ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी कहलाते। इसलिए दुनिया के अन्तर में वह भी
श्रेष्ठ आत्मायें हैं। लेकिन सम्पूर्णता के अन्तर में तीसरा नम्बर हैं। तो स्नेही
सभी हैं लेकिन नम्बरवार हैं। नम्बरवन सदा स्नेही आत्मायें सदा कमल पुष्प समान न्यारी
और बाप की अति प्यारी हैं। स्नेही आत्मायें न्यारी हैं, प्यारी भी हैं लेकिन बाप
समान शक्तिशाली विजयी नहीं हैं। लवलीन नहीं है लेकिन स्नेही हैं। उन्हों का विशेष
यही स्लोगन है - तुम्हारे हैं, तुम्हारें रहेंगे। सदा यह गीत गाते रहते। फिर भी
स्नेह है इसलिए 80ज्ञ् सेफ रहते हैं। लेकिन फिर भी ‘कभी-कभी’ शब्द आ जाता। ‘सदा’
शब्द नहीं आता। और तीसरे नम्बर आत्मायें बार-बार स्नेह के कारण प्रतिज्ञायें भी
स्नेह से करते रहते। बस अभी से ऐसे बनना है। अभी से यह करेंगे। क्योंकि अन्तर तो
जानते हैं ना। प्रतिज्ञा भी करते, पुरूषार्थ भी करते लेकिन कोई न कोई विशेष पुराना
संस्कार लगन म्ों मगन रहने नहीं देता। विघ्न मगन अवस्था से नीचे ले आते। इसलिए
‘सदा’ शब्द नही आ सकता। लेकिन कभी कैसे, कभी कैसे होने के कारण कोई न कोई विशेष
कमज़ोरी रह जाती है। ऐसी आत्मायें बापदादा के आगे रूह-रूहान भी बहुत मीठी करते हैं।
हुज्जत बहुत दिखाते। कहते हैं डायरेक्शन तो आपकी हैं लेकिन हमारे तरफ से करो भी आप।
और पावें हम। हुज्जत से स्नेह से कहते - जब आपने अपना बनाया है तो आप ही जानो। बाप
कहते हैं बाप तो जानें लेकिन बच्चे मानें तो सही। लेकिन बच्चे हुज्जत से यही कहते
कि हम मानें न मानें आपको मानना ही पड़ेगा। तो बाप को फिर भी बच्चों पर रहम आता है
कि हैं तो ब्राह्मण बच्चे। इसलिए स्वयं भी निमित्त बनी हुई आत्माओं द्वारा विशेष
शक्ति देते हैं। लेकिन कोई शक्ति लेकर बदल भी जाते और कोई शक्ति मिलते भी अपने
संस्कारों में मस्त होने कारण शक्ति को धारण नहीं कर सकते। जैसे कोई ताकत की चीज़
खिलाओ और वह खावे ही नहीं, तो क्या करेंगे!
बाप विशेष शक्ति देते
भी हैं और कोई-कोई धीरे-धीरे शक्तिशाली बनते-बनते तीसरे नम्बर से दूसरे नम्बर में आ
भी जाते हैं। लेकिन कोई-कोई बहुत अलबेले होने के कारण जितना लेना चाहिए उतना नहीं
ले सकते। तीनों प्रकार के ‘स्नेही बच्चे’ हैं। टाइटिल सभी का ‘स्नेही बच्चे’ हैं
लेकिन नम्बरवार हैं।
आज जर्मनी वालों का
टर्न है। सारा ही ग्रुप नम्बरवन है ना। नम्बरवन समीप रत्न है। क्योंकि जो समान होते
हैं वो ही समीप रहते हैं। शरीर से भले कितना भी दूर हो लेकिन दिल से इतने नजदीक हैं
जो रहते ही दिल में हैं। स्वयं बाप के दिलतख्त पर रहते हैं उन्हों के दिल में स्वत:
ही बाप के सिवाए और कोई नहीं। क्योंकि वहाँ ब्राह्मण जीवन में बाप ने दिल का ही सौदा
किया है। दिल ली और दिल दी। दिल का सौदा किया है ना। दिल से बाप के साथ रहते हो।
शरीर से तो कोई कहाँ, कोई कहाँ रहते। सभी को यहाँ रखें तो क्या बैठ करेंगे! सेवा के
लिए तो मधुबन में साथ रहने वालों को भी बाहर भेजना पड़ा। नहीं तो विश्व की सेवा कैसे
होती! बाप से भी प्यार है तो सेवा से भी प्यार है। इसलिए ड्रामा अनुसार भिन्न-भिन्न
स्थानों पर पहुँच गये हो और वहाँ की सेवा के निमित्त बन गये हो। तो यह भी ड्रामा
में पार्ट नूँधा हुआ है। अपने हमजिन्स की सेवा के निमित्त बन गये। जर्मनी वाले सदा
खुश रहने वाले हैं ना। जब बाप से सदा का वर्सा इतना सहज मिल रहा है तो सदा को छोड़
थोड़ा सा वा कभी-कभी का क्यों लेवें! दाता दे रहा है तो लेने वाले कम क्यों लेवें।
इसलिए सदा खुशी के झूले में झूलते रहो। सदा मायाजीत प्रकृति जीत, विजयी बन विजय का
नगारा विश्व के आगे जोर-शोर से बजाओ।
आजकल की आत्मायें
विनाशी साधनों में या तो बहुत मस्त नशे में चूर हैं और या दु:ख अशान्ति से थके हुए
ऐसी गहरी नींद में सोये हुए हैं जो छोटा आवाज सुनने वाले नहीं हैं। नशे में जो चूर
होता है उनको हिलाना पड़ता है। गहरी नींद वाले को भी हिलाकर उठाना पड़ता है। तो
हैमबर्ग वाले क्या कर रहे हैं? अच्छा ही शक्तिशाली ग्रुप है। सभी की बाप और पढ़ाई से
प्रीत अच्छी है। जिन्हों की पढ़ाई से प्रीत है वह सदा शक्तिशाली रहते। बाप अर्थात्
मुरलीधर से प्रीत माना मुरली से प्रीत। मुरली से प्रीत नहीं तो मुरलीधर से भी प्रीत
नहीं। कितना भी कोई कहे कि मुझे बाप से प्यार है लेकिन पढ़ाई के लिए टाइम नहीं। बाप
नहीं मानते। जहाँ लगन होती है वहाँ कोई विघ्न ठहर नहीं सकते। स्वत: ही समाप्त हो
जायेंगे। पढ़ाई की प्रीत, मुरली से प्रीत वाले, विघ्नों को सहज पार कर लेते हैं।
उड़ती कला द्वारा स्वयं ऊँचे हो जाते। विघ्न नीचे रह जाते। उड़ती कला वाले के लिए
पहाड़ भी एक पत्थर समान है। पढ़ाई से प्रीत रखने वालों के लिए बहाना कोई नहीं होता।
प्रीति, मुश्किल को सहज कर देती है। एक मुरली से प्यार, पढ़ाई से प्यार और परिवार का
प्यार किला बन जाता है। किले में रहने वाले सेफ हो जाते हैं। इस ग्रुप को यह दोनों
विशेषतायें आगे बढ़ा रही हैं। और पढ़ाई और परिवार के प्यार कारण एक दो को प्यार के
प्रभाव से समीप बना देते हैं। और फिर निमित्त आत्मा (पुष्पाल) भी प्यार वाली मिली
है। स्नेह, भाषा को भी नहीं देखता। स्नेह की भाषा सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। सभी
उनको याद कर रहे हैं। बापदादा को भी याद है। अच्छा ही प्रत्यक्ष प्रमाण देख रहे
हैं। सेवा की वृद्धि हो रही है। जितना वृद्धि करते रहेंगे उतना महान पुण्य आत्मा
बनने का फल, सर्व की आशीर्वाद प्राप्त होती रहेगी। पुण्य आत्मा ही पूज्य आत्मा बनती
है। अभी पुण्य आत्मा नहीं तो भविष्य में पूज्य आत्मा नहीं बन सकते। पुण्य आत्मा बनना
भी जरूरी है। अच्छा!
वरदान:-
संगमयुग के
महत्व को जान एक का अनगिनत बार रिटर्न प्राप्त करने वाले सर्व प्राप्ति सम्पन्न भव
संगमयुग पर बापदादा
का वायदा है - एक दो लाख लो। जैसे सर्व श्रेष्ठ समय, सर्व श्रेष्ठ जन्म, सर्व
श्रेष्ठ टाइटल इस समय के हैं वैसे सर्व प्राप्तियों का अनुभव अभी ही होता है। अभी
एक का सिर्फ लाख गुणा नहीं मिलता लेकिन जब चाहो जैसे चाहो, जो चाहो बाप सर्वेन्ट
रूप में बांधे हुए हैं। एक का अनगिनत बार रिटर्न मिल जाता है क्योंकि वर्तमान समय
वरदाता ही आपका है। जब बीज आपके हाथ में है तो बीज द्वारा जो चाहो वह सेकण्ड में
लेकर सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न बन सकते हो।
स्लोगन:-
कैसी भी परिस्थिति हो, परिस्थिति चली जाए लेकिन खुशी नहीं जाए।