20-05-07 प्रात:मुरली ओम् शान्ति
13.02.92 "बापदादा" मधुबन
अनेक जन्म प्यार सम्पन्न
जीवन बनाने का आधार - इस जन्म का परमात्म-प्यार
(विदेश में 14 फरवरी
के दिन को प्रेमियों का दिन मनाते हैं इसलिए आज ओम् शान्ति भवन को सुन्दर स्वर्ग की
सीन सीनरियों से सजाया है, उसी बीच बापदादा पधारे हैं)
आज सर्व शक्तियों के
सागर और सच्चे स्नेह के सागर दिलाराम बापदादा अपने अति स्नेही समीप बच्चों से मिलने
आये है। यह रूहानी स्नेह-मिलन वा प्यार का मेला विचित्र मिलन है। यह मिलन दिलवाला
बाप और सच्चे दिल वाले बच्चों का मिलन है। यह मिलन सर्व अनेक प्रकार के परेशानियों
से दूर करने वाला है। रूहानी शान की स्थिति का अनुभव कराने वाला है। यह मिलन सहज
पुराने जीवन को परिवर्तन करने वाला है। यह मिलन सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियों के
अनुभूतियों से सम्पन्न बनाने वाला हैं। ऐसे विचित्र प्यारे मिलन मेले में आप सभी
पद्मापद्म भाग्यवान आत्माएं पहुँच गई हो। यह परमात्म मेला सर्व प्राप्तियों का मेला,
सर्व सम्बन्धों के अनु-भव का मेला है। सर्व खजानों से सम्पन्न बनने का मेला है।
कितना प्यारा है! और इस अनुभूति को अनुभव करने वाले पात्र बनने वाले आप कोटों में
कोई, कोई में भी कोई परमात्म प्यारी आत्माएं हो। कोटो की कोट आत्मायें इस अनुभूति
को ढूँढ रही हैं और आप मिलन मना रहे हो। और सदा परमात्म मिलन मेले में ही रहते हो।
क्योंकि आपको बाप प्यारा है और बाप को आप प्यारे हैं। तो प्यारे कहाँ रहते हैं? सदा
प्यार के मिलन मेले में रहते हैं। तो सदा मेले में रहते हो या अलग रहते हो? बाप और
आप साथ रहते हो तो क्या हो गया? मिलन मेला हो गया ना। कोई पूछे आप कहाँ रहते हो? तो
फलक से कहेंगे कि हम सदा परमात्म मिलन मेले में रहते हैं। इसी को ही प्यार कहा जाता
है। सच्चा प्यार अर्थात् एक दो से तन से वा मन वे अलग नहीं हो। न अलग हो सकते हैं,
न कोई कर सकता है। चाहे सारी दुनिया की सर्व करोड़ों आत्माएं प्रकृति, माया,
परिस्थितियाँ अलग करने चाहे, किसकी ताकत नहीं जो इस परमात्म मिलन से अलग कर सके।
इसको कहा जाता है सच्चा प्यार। प्यार को मिटाने वाले मिट जाएं लेकिन प्यार नहीं मिट
सकता। ऐसे पक्के सच्चे प्रेमी हो ना?
आज पक्के प्यार का
दिन मना रहे हो ना। ऐसा प्यार अब और एक जन्म में ही मिलता है। इस समय का परमात्म
प्यार अनेक जन्म प्यार सम्पन्न जीवन की प्रालब्ध बना देता है लेकिन प्राप्ति का समय
अभी है। बीज डालने का समय अभी है। इस समय का कितना महत्व है। जो सच्चे दिल वाले के
प्यारे हैं वो सदा लव में लीन रहने वाले लवलीन हैं। तो जो लव में लीन आत्मायें हैं
ऐसे लवलीन आत्माओं के आगे किसी के भी समीप आने की, सामना करने की हिम्मत नहीं है।
क्योंकि आप लीन हो, किसी का आकर्षण आपको आकार्षित नहीं कर सकता। जैसे विज्ञान की
शक्ति धरनी के आकर्षण से दूर ले जाती हैं, तो यह लवलीन स्थिति सर्व हद की आकर्षणों
से बहुत दूर ले जाती है। अगर लीन नहीं है तो डगमग हो सकते हैं। लव है लेकिन लव में
लीन नहीं है। अभी किसी से भी पूछेंगे - आपका बाप से लव है, तो सभी हाँ कहेंगे ना।
लेकिन सदा लव में लीन रहते है? तो क्या कहेंगे ? इसमें हाँ नहीं कहा। सिर्फ लव है-इस
तक नहीं रह जाना। लीन हो जाओ। इसी श्रेष्ठ स्थिति को लीन हो जाने को ही लोगों ने
बहुत श्रेष्ठ माना है। अगर आप किसी को भी कहते हो हम तो जीवनमुक्ति में आयेंगे। तो
वो समझते हैं कि ये तो चक्कर में आने वाले हैं और हम चक्कर से मुक्त हो करके लीन हो
जाएंगे। क्योंकि लीन होना अर्थात् बंधनों से मुक्त हो जाना। इसलिए वे लीन अवस्था को
बहुत ऊंचा मानते हैं। समा गये, लीन हो गये। लेकिन आप जानते हो कि वह जो लीन अवस्था
कहते हैं, ड्रामा अनुसार प्राप्त किसको भी नहीं होती है। बाप समान बन सकते हैं
लेकिन बाप में समा नहीं जाते हैं। उन्हों की लीन अवस्था में कोई अनुभूति नहीं, काई
प्राप्ति नहीं। और आप लीन भी हैं और अनुभूति और प्राप्तियाँ भी हैं। आप चैलेन्ज कर
सकते हो कि जिस लीन अवस्था या समा जाने की स्थिति के लिए आप प्रयत्न कर रहे हो
लेकिन हम जीते जी समा जाना वा लीन होना उसकी अनभूति अभी कर रहे हैं। जब लवलीन हो
जाते हो, स्नेह में समा जाते हो तो और कुछ याद रहता है? बाप और मैं समान, स्नेह में
समाए हुए। सिवाए बाप के और कुछ है ही नहीं तो दो से मिलकर एक हो जाते हैं। समान बनना
अर्थात् समा जाना, एक हो जाना। तो ऐसे अनुभव है ना ? कर्म योग की स्थिति में ऐसे
लीन का अनु-भव कर सकते हो ? क्या समझते हो ? कर्मयोगी स्थिति अलग बैठ करके लीन हो
सकते हो ? मुश्किल है ? कर्म भी करो और और लीन भी रहो - हो सकता है ? कर्म करने के
लिए नीचे नहीं आना पड़ेगा ? कर्म करते हुए भी लीन हो सकते हो ? इतने होशियार हो गये
हो ?
कर्मयोगी बनने वाले
को कर्म में भी साथ होने के कारण एक्स्ट्रा मदद मिल सकती है। क्योंकि एक से दो हो
गये, तो काम बट जायेगा ना। अगर एक काम कोई एक करे और दूसरा साथी बन जाये, तो वह काम
सहज होगा या मुश्किल होगा ? हाथ आपके हैं, बाप तो अपने हाथ पाँव नही चलायेंगे ना।
हाथ आपके है लेकिन मदद बाप की है तो डबल फोर्स से काम अच्छा होगा ना। काम भल कितना
भी मुश्किल हो लेवि्ान बाप की मदद है ही सदा उमंग-उत्साह, हिम्मत, अथकपन की शक्ति
देने वाली। जिस कार्य में उमंग-उत्साह वा अथकपन होता है वह काम सफल होगा ना। तो बाप
हाथों से काम नहीं करते लेकिन यह मदद देने का काम करते हैं। तो कर्मयोगी जीवन
अर्थात् डबल फोर्स से कार्य करने की जीवन। आप और बाप, प्यार में कोई मुश्किल वा
थकावट फील नहीं होती। प्यार अर्थात् सब कुछ भूल जाना। कैसे होगा, क्या होगा, ठीक
होगा वा नहीं होगा - यह सब भूल जाना। हुआ ही पड़ा है। जहाँ परमात्म हिम्मत है, कोई
आत्मा की हिम्मत नहीं है। तो जहाँ परमात्म हिम्मत है, मदद है, वहाँ निमित्त बनी
आत्मा में हिम्मत आ ही जाती है। और ऐसे साथ का अनुभव करने वाले मदद के अनुभव करने
वाले के सदा संकल्प क्या रहते हैं - नाथिंग न्यु, विजय हुई पड़ी है, सफलता है ही है।
यह है सच्चे प्रेमी की अनुभूती। जब हद के आशिक ये अनुभव करते हैं कि जहाँ है वहाँ
तू ही तू है। वह सर्वशक्तिवान न हीं है लेकिन बाप सर्वशक्तिवान है। साकार शरीरधारी
नहीं है। लेकिन जब चाहे, जहाँ चाहे, सेकेण्ड में पहुँच सकते हैं। ऐसे नहीं समझो कि
कर्मयोगी जीवन में लवलीन अवस्था नहीं हो सकती। होती है। साथ का अनुभव अर्थात् लव का
प्रैक्टिकल सबूत साथ है। तो सहजयोगी सदा के योगी हो गये ना ! लवर अर्थात् सदा
सहजयोगी। इसलिए डायरेक्शन भी दिया है ना कि यह तपस्या वर्ष तो प्राइज़ लेने के समीप
आ रहा है लेकिन समाप्त नहीं हो रहा है। इसमें अभ्यास के लिए प्रैक्टिस के लिए सेवा
को हल्का किया और तपस्या को ज्यादा महत्व दिया। लेकिन इस तपस्या वर्ष के सम्पन्न
होने के बाद प्राइज़ तो ले लेना लेकिन आगे जो कर्म और योग, सेवा और योग, जो भी
बैलेन्स की स्थिति बताई हुई है, बैलन्स का अर्थ ही समानता, याद, तपस्या और सेवा-यह
समानता हो, शक्ति और स्नेह में समानता हो, प्यारे और न्यारेपन में समानता हो। कर्म
करते हुए और कर्म से न्यारा हो अलग बैठने में स्थिति की समानता हो। जो इस समानता के
बैलेन्स की कला में नम्बर जीतेगा वो महान होगा। तो दोनों कर सकते हो कि नहीं
सार्विस शुरू करेंगे तो ऊपर से नीचे आ जायेंगे ? यह वर्ष तो पक्के हो गये हो ना। अभी
बैलेन्स रख सकते हो या नहीं। सार्विस में खिटखिट होती है। इसमें भी पास तो होना है
ना। पहले सुनाया ना कि कर्म करते भी, कर्मयोगी बनते भी लवलीन हो सकते हैं, फिर तो
विजयी हो जायेंगे ना! अभी प्राइज़ उसको मिलेगा जो बैलेन्स में विजयी होगा।
आज विशेष निमन्त्रण
दिया है। आपका स्वर्ग ऐसा होगा ? बापदादा बच्चों के मनाने में ही अपना मनाना समझने
हैं। आप स्वर्ग में मनायेंगे, बाप इस मनाने में ही मनायेंगे। खूब मनाना, नाचना,खूब
झूलना, सदा खुशियाँ मनाना। पुरूषार्थ की प्रालब्ध अवश्य मिलेगी। यहाँ सहज पुरुषार्थी
हो और वहाँ सहज प्रालब्धी हो। लेकिन हीरे से गोल्ड बन जायेंगे। अभी हीरे हो। पूरा
संगमयुग ही आपके लिए विशेष बाप और बच्चे वा कम्पेनीयन बनने का प्रेम दिवस है। सिर्फ
आज प्यार का दिन है या सदा प्यार का दिन है ? यह भी बेहद डामा के खेल में छोटे-छोटे
खेल हैं। तो इतना स्वर्ग सजाया है उसकी मुबारक हो। यह सजावट बाप को सजावट नहीं
दिखाई देती लेकिन सबके दिल का प्यार दिखाई देता है। आपके सच्चे प्यार के आगे यह
सजावट तो कुछ नहीं है। बापदादा प्यार को देख रहे हैं। वैसे जिसको निमन्त्रण देते
हैं तो निमन्त्रण में आने वाला बोलता नहीं है, निमन्त्रण देने वाले बोलते है। बच्चों
का इतना प्यार है जो बाप के सिवाए समझते हैं कि कुछ अन्तर पड़ जाता है इसीलिए दिल का
प्यार प्रत्यक्ष करने के लिए आज यह खेल रचा है। अच्छा-
सर्व सदा स्नेह में
समाई हुई आत्माओं को, सदा स्नेह में साथ अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप
दूसरा न कोई ऐसे समीप समान आत्माओं को, संगमयुग के श्रेष्ठ कला के अनुभव करने वाली
विशेष आत्माओं को, सदा सर्व हद के आकर्षण से मुक्त लवलीन आत्माओं को बाप का सर्व
सम्बन्धों के स्नेह-सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।
महारथी दादियों तथा
मुख्य भाइयों से जो निमित्त हैं - उसको सदा सहज याद रहती है। आप सबका भी निमित्त बनी
आत्माओं से विशेष प्यार हैं ना। इसलिए आप सब समाये हुए हो। निमित्त बनी हुई आत्माओं
का ड्रामा में शक्तियों और पाण्डवों को साथ-साथ निमित्त बनाया है। तो निमित्त बनने
की विशेष गिफ्ट है। निमित्त का पार्ट सदा न्यारा और प्यारा बनाता है। अगर निमित्त
भाव का अभ्यास स्वत: और सहज है तो सदा स्व की प्रगति और सर्व की प्रगति उन्हों के
हर कदम में समाई हुई है। उन आत्माओं का कदम धरनी पर नहीं लेकिन स्टेज पर है। चारों
ओर की आत्मायें स्टेज को स्वत: ही देखती हैं। बेहद की विश्व की स्टेज है और सहज
पुरूषार्थ की भी श्रेष्ठ स्टेज है। दोनों स्टेज ऊंची हैं। निमित्त बनी हुई आत्माओं
को सदा यह स्मृति स्वरूप रहता है कि विश्व के आगे एक बाप समान का एक्जैम्पल हैं। ऐसे
निमित्त आत्मायें हो ना ? स्थापना की आदि से अब तक निमित्त बने हैं और सदैव रहेंगे।
ऐसे हैं ना। यह भी एक्स्ट्रा लक है। और लक दिल का लव स्वत: बढ़ाता है। अच्छा है,
निमित्त बनकर प्लैन बना रहे हो, बापदादा के पास तो पहुँचता है। प्रैक्टिकल में स्वयं
शक्तिशाली बन औरों में भी शक्ति भरते प्रत्यक्षता को समीप लाते चलो। अब मैजारिटी
आत्माएं इस दुनिया को देख देख थक गई हैं। नवीनता चाहती हैं। नवीनता के अनुभव अभी करा
सकते हो। जो किया बहुत अच्छा, प्रैक्टिकल में भी बहुत अच्छा होना ही है। देश-विदेश
ने प्लैन अच्छे बनाये हैं। ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष किया अर्थात् बापदादा को
साथ-साथ प्रत्यक्ष किया। क्योंकि ब्रह्मा बना ही तब, जब बाप ने बनाया। तो बाप में
दादा, दादा में बाप समाया हुआ है। ऐसे ब्रह्मा को फालो करना अर्थात् लवलीन आत्मा
बनना। ऐसे है ना, अच्छा।
पार्टियों से मुलाकात
सभी के दिल की बातें
दिलाराम के पास बहुत तीव्रगति से पहुँच जाती हैं। आप लोग संकल्प करते हो और बापदादा
के पास पहुँच जाता है। बापदादा भी सभी के अपने-अपने विधिपूर्वक संकल्प, सेवा और
स्थिति, सबको देखते रहते है। पुरुषार्थी सभी हो। लगन भी सबमें है लेकिन वेरायटी
ज़रूर हैं। लक्ष्य सबका श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ लक्ष्य के कारण ही कदम आगे बढ़ रहे
हैं, कोई तीव्रगति से बढ़ रहे है,कोई साधारण गति से बढ़ रहे है। प्रगति भी होती है
लेकिन नम्बरवार। तपस्या का भी उमंग-उत्साह सभी में है। लेकिन निरन्तर और सहज उसमें
अन्तर पड़ जाता है। सबसे सहज और निरन्तर याद का साधन है-सदा बाप का साथ अनुभव हो।
साथ् की अनुभुति याद करने की मेहनत से छुड़ा देती है। जब साथ है तो याद तो रहेगी ना।
और साथ सिर्फ ऐसे नहीं है कि साथ में कोई बैठा है लेकिन साथी अर्थात् मददगार है।
साथ वाला अपने काम में बिज़ी होने से भूल भी सकता है लेकिन साथी नहीं भूलता। तो हर
कर्म में बाप का साथ साथी रूप में है। साथ देने वाला कभी नहीं भूलता है। साथ है,
साथी है और ऐसा साथी है जो कर्म को सहज कर्म कराने वाला है। वह कैसे भूल सकता है!
साधारण रीति से भी अगर कोई भी कार्य में कोई सहयोग देता है तो उसके लिए बार-बार दिल
में शुक्रिया गाया जाता है और बाप तो साथी बन मुश्किल को सहज करने वाले हैं। ऐसा
साथी कैसे भूल सकता है? अच्छा।
वरदान:-
दुःख को सुख,
ग्लानि को प्रशंसा में परिवर्तन करने वाले पुण्य आत्मा भव
पुण्य आत्मा वह है जो
कभी किसी को न दुःख दे और न दुःख ले, बल्कि दुःख को भी सुख के रूप में स्वीकार करे।
ग्लानि को प्रशंसा समझे तब कहेंगे पुण्य आत्मा। यह पाठ सदा पक्का रहे कि गाली देने
वाली व दुःख देने वाली आत्मा को भी अपने रहमदिल स्वरूप से, रहम की दृष्टि से देखना
है। ग्लानि की दृष्टि से नहीं। वह गाली दे और आप फूल चढ़ाओ तब कहेंगे पुण्य आत्मा।
स्लोगन:-
बापदादा को
नयनों में समाने वाले ही जहान के नूर, बापदादा का साक्षात्कार कराने वाली श्रेष्ठ
आत्मा हैं।