03-07-11  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 09-04-73 मधुबन

 

"संस्कार मिलन में सक्सेस होना अर्थात् फुल पास होना”

 

निरन्तर बाप और वर्से की याद में मग्न रहने वाले निरन्तर सहज राजयोगी और कर्मयोगी समझ चलते हो? जैसे अपना परिचय सदा ही स्मृति में रहता है वैसे इस मरजीवा जन्म का अपना पूरा परिचय स्मृति में रहता है? किसी को अपने इस साकार देह के सम्बन्ध और कर्त्तव्य का परिचय कभी भूलता है? क्या 84 जन्मों के अन्दर कभी यह बात भूलती है? जब लौकिक जन्म का परिचय नहीं भूलते हो तो इस एक अनोखे, अलौकिक विशेष जन्म और अमूल्य जन्म का, स्वयं का परिचय क्यों भूल जाते हो? यह भी तो परिचय है ना। परिचय में कितनी बातें सुनाते हो? जैसे औरों को बाप का परिचय देते हो वैसे अपने परिचय को सदा स्मृति में रखना मुश्किल है या अति सहज है? भक्त लोग जब बाप की महिमा करते हैं तो महिमा में एक विशेष महिमा करते हैं, जिस महिमा से उनको प्राप्ति होती है। वह कौन-सी महिमा करते हैं? आप तो कहते हो ज्ञान का सागर... लेकिन यह महिमा विशेष भक्त लोग करते हैं प्राप्ति के कारण और यहाँ भी कोई-कोई बच्चे कभी-कभी यह महिमा करते हैं। जो सदा आप सुनाते हो वह तो प्रसिद्ध है लेकिन यह भक्तों और बच्चों में कोई-कोई की और कभी-कभी की है। वह कौन-सी महिमा 63 जन्म की है? वह स्मृति में आता है? आप लोगों ने भी भक्तिमार्ग में तो महिमा की है ना और प्राप्ति के कारण करते हैं। जब कोई प्राप्ति का स्वार्थ होता उस समय विशेष यही कहते हैं - मुश्किल को सहज करने वाला व सूली से काँटा बनाने वाला...। जब कोई मुश्किल आती है तो उस समय निर्बल आत्मा होने कारण, सहज साधन न मिलने के कारण यही बोलते हैं मुश्किल को सहज करने वाले। तो जो यह बाप की महिमा है वह आप लोगों की है? आप मुश्किल को सहज करने वाले हो? मास्टर कोई कम नहीं होता। 'मास्टर' शब्द सिद्ध करता है कि बाप से ऊंचे हो। यदि वह महिमा स्मृति में रहे तो अपने सामने जो विघ्न व कठिनाइयाँ आती हैं वा कठिन लगती हैं, क्या यह अनुभव करेंगे? यह बात मुश्किल है... ऐसे कहेंगे? जब औरों की मुश्किल को सहज करने वाले हो तो अपनी मुश्किल का अनुभव करना इसको क्या कहा जाय? जैसे बाप सर्व आत्माओं की मुश्किल बातों को सहज बनाने वाले हैं वा सूली से काँटा बनाने वाले हैं, ऐसे ही इस परिचय की स्मृति में रहो कि मैं भी मुश्किल को सहज करने वाली या वाला हूँ। तो जैसा परिचय वैसा संकल्प भी आता है। मुश्किल अनुभव होना यह कौन-सी निशानी है? निर्बल आत्मा की। मास्टर सर्वशक्तिमान् के आगे मुश्किल बात हो सकती है? यह जो कहावत है कि मनुष्य जो चाहे कर सकता है, वह इस समय की बात है। यह जो ब्राह्मण आत्माएं हैं, उन आत्माओं का ही यह गायन है। तो जो चाहे सो कर सकने वाला कहे कि यह बात मुश्किल है, ऐसा हो सकता है? जैसे साकार रूप में हर संकल्प और हर कर्त्तव्य में अनुभव किया, क्या कोई मुश्किल बात वर्णन व करने में हुई? चाहे सारी दुनिया एक तरफ हो और थोड़ी विशेष आत्मायें दूसरी तरफ हों फिर भी मुश्किल नहीं है।

 

स्थापना के आदि (शुरुआत ) समय तो सारी दुनिया एक तरफ और एक आत्मा दूसरी तरफ थी ना? यह तो पीछे सभी सहयोगी बने। पहले निमित्त तो एक आत्मा बनी ना? तो जब साकार रूप में बाप को प्रैक्टिकल कर्त्तव्य रूप में देखा तो क्या ब्रह्मा वंशावली ब्राह्मण फालो फ़ादर करने वाले नहीं हैं? हर कदम और हर संकल्प में फॉलो करने वाले हैं। यह दृढ़ संकल्प व यह निश्चय बुद्धि का संकल्प कोई बड़ी बात नहीं है। इसको कहा जाता है अंगद के मिसल अचल और अडोल। तो फॉलो फादर किया है सभी बातों में? कई समझते हैं सर्विस करना सहज है, साधन भी सहज हैं लेकिन हर आत्माओं के साथ सम्पर्क में आते हुए संस्कारों को मिलाना यह भी इतना सहज अनुभव हो, जैसे भाषण करना सहज है। वह मुख का भाषण है, यह कर्म का भाषण है। इसमें जो सक्सेसफुल हो जाते हैं वही फुल पास होते हैं। इसमें संकल्प मात्र भी न हो कि कैसे होगा, क्या यह भी करना होगा? जैसे कलियुगी दुनिया में जैन धर्म वाले हठ से त्याग करते हैं, एक-एक बाल को अपने हाथों से निकालते हैं, लेकिन इसका भावार्थ क्या है? जो असाधारण बात है वह मुश्किल तो होगी ही ना। ऐसी मुश्किल बात भी सहज अनुभव करते हैं तो उन का त्याग माना जाता है। स्थूल में तो एक रीति-रस्म चलती रहती है लेकिन भाव अर्थ यह है - मुश्किल को मुश्किल अनुभव नहीं करते। अगर ज़रा भी मुश्किल के चिन्ह आँखों से, मुख से व मस्तक से दिखाई देते हैं तो उसको फेल कर देते हैं। देवता धर्म के पीछे यह भी आपकी रचना है। तो आपकी रचना में भी यह रीति-रस्म चलती आती है। यह हुआ स्थूल। लेकिन यहाँ संकल्प में, किसी भी परिस्थिति में या किसी भी समस्या में मुश्किल का अनुभव होता है, सहज नहीं लगता है, तो फेल हो जायेंगे। मुश्किल समझने के कारण उस समय क्या करते हैं? जैसे कहावत है 'दूर बाज़, खुश बाज़' तो उसी समय अपने को उस बात से दूर कर देते और किनारा कर लेते हैं। इसको भी कौन-से मार्ग की निशानी कहेंगे? निवृत्ति मार्ग वालों की। उस समय के लिए निवृत्त हो जाते हैं। तुम निवृत्ति मार्ग वाले तो नहीं हो ना? प्रवृत्ति मार्ग वाले कभी किनारा नहीं करेंगे। जैसे कमल का पुष्प निवृत्ति मार्ग वाला नहीं है, पूरी ही प्रवृत्ति की निशानी है। इसी प्रकार प्रवृत्ति मार्ग वाले कभी दूर नहीं भागेंगे। लेकिन संगठन में आते हुए और सम्पर्क में आते हुए मुश्किल को सहज बनायेंगे। यह है आप विशेष आत्माओं का परिचय।

 

जब नाम है मास्टर सर्वशक्तिमान् फिर रूप क्या है - महावीरों का? अस्त्र-शस्त्रधारी शक्तियाँ और महावीर - यह रूप। और गुण हैं बाप से जो सर्व शक्तियाँ प्राप्त करते हैं उनको गुण रूप में प्रैक्टिकल में लाना अर्थात् सहन करने की, समाने की, सामना करने की, सहयोग देने की शक्ति आदि। जो भी शक्तियाँ हैं उनको प्रैक्टिकल कर्म में लाना, यही गुण हैं। और कर्त्तव्य क्या है? मुश्किल को सहज करना, परिवर्तन करना। भागने वाले नहीं। निवास स्थान कौन-सा है? जिस स्थान पर स्थित होने से ब्राह्मणपन के कर्त्तव्य को बहुत अच्छी रीति कर सकते हो - वह स्थान कौन सा है? जो ब्राह्मण का मुख्य स्थान है बुद्धि को स्थिर करने का। जिस स्थान पर फिर निरन्तर रह भी सको। चलते-फिरते भी उस स्थिति में रह सको। सभी बातों का उसमें सार आ जाये। विस्तार तो यह सभी बातें आ जायेंगी लेकिन विस्तार को एक शब्द में समा लो। निवास स्थान अर्थात् सदा उस स्थिति में स्थित होने का जो स्थान है वह है साक्षी दृष्टा। जब यह साक्षी दृष्टा की अवस्था नहीं होती है तब यह सभी बातें विस्मृति में आती हैं। ड्रामा की ढाल व ड्रामा के पट्टे पर हर कर्म और संकल्प चलने के लिए यह साक्षी व दृष्टापन की अवस्था सदा होनी चाहिए। थोड़े समय के लिए दृष्टा बनते फिर मैं-पन में फँस जाते। इस स्थिति से गिरने का मुख्य कारण है - मैं-पन अर्थात् देह-अभिमान। देह-अभिमान को तो समझ लिया है लेकिन अब देह अभिमान रॉयल रूप में परिवर्तित हो गया है। देहाभिमान तो मोटा रूप है। उससे अपने को मिटाने का प्रयत्न भी करते हो। लेकिन देह-अभिमान जो रॉयल रूप में परिवर्तित हो गया है, वह कहीं-कहीं विस्मृति में लाता है। उस अभिमान की निशानी कौन सी है? उसका फाउण्डेशन देह अभिमान ही है लेकिन रूप रॉयल है। जिस समय यह रॉयल रूप आता है उस समय की निशानी क्या होती है? कोई भी प्रकार का अभिमान अपना वा दूसरों का अपमान जरूर करेगा। दूसरों की बातों को रिगार्ड न देना, कट करना, यह भी एक रॉयल रूप का अभिमान है। भले कोई बात में समझते हैं कि इस बात से यह बात श्रेष्ठ है और सही है लेकिन किसके भी विचार की बात को काट कर अपनी बात नहीं देनी चाहिए। जो कट करता है उसको अभिमान आता है। इसलिए चाहे कोई छोटा हो या बड़ा हो और चाहे कोई महारथी हो, उसके आगे कोई घुड़सवार भी अपनी यथायोग्य शक्ति प्रमाण अपनी राय रखते हैं तो उसको भी सम्मान ज़रूर देना चाहिए। किसी की बात को सम्मान देना अर्थात् उसको सम्मान देना है। ऐसे सम्मान देने वाले ही विश्व के मालिक बन सकते हैं। और सर्व से सम्मान लेने के अधिकारी बनते हैं इसलिए फॉलो फादर करना है क्योंकि जिस समय जो कोई भी राय देते हैं वह यथार्थ समझ कर देते हैं तो उस समय उनका थोड़ा भी अपमान उन्हें ज़्यादा अनुभव होता है। एक शब्द भी तीर समान लगता है इसलिए हर एक की राय को सम्मान देते हुए यह कैसे होगा, यह हो ही नहीं सकता, ऐसे शब्द निकलने नहीं चाहिए। हाँ, बहुत अच्छा है, इस पर विचार करेंगे - ऐसे कहने से क्या होता है? प्रैक्टिकल में करने वाला तो वही करेगा जो उसको आयेगा। लेकिन छोटों को सम्मान व स्नेह से अपना सहयोगी बनाना है। यही सम्मान लेना और देना है। ऐसे ब्राह्मण जन्म सदा श्रेष्ठ स्थिति में रहने वाले को कोई बात मुश्किल अनुभव नहीं होगी। बाकी परिचय में क्या रहा? ब्राह्मण जन्म का काल सदैव यह स्मृति में रहे। तो "हम हर सेवा व हर संकल्प में पद्मगुणा कमाई करने के निमित्त हैं" ऐसा श्रेष्ठ काल है। यह सारा परिचय अगर सदा स्मृति में रहे तो सहज ही सम्पूर्ण हो जायेंगे।

 

तो सदा ऐसे अपने अलौकिक जन्म के परिचय में प्रैक्टिकल में चलने वाले, सदा स्वमान में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को और सदा सेवा के स्नेह और सहयोग में तत्पर रहने वाली आत्माओं को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

 

वरदान:- तड़फती हुई भिखारी, प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाले सर्व खजाने से सम्पन्न भव

 

जैसे लहरों में लहराती व डूबती हुई आत्मा एक तिनके का सहारा ढूंढती है। ऐसे दु:ख की एक लहर आने दो फिर देखना अनेक सुख-शान्ति की भिखारी आत्मायें तड़फते हुए आपके सामने आयेंगी। ऐसी प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने के लिए अपने को अतीन्द्रिय सुख वा सर्व शक्तियों से, सर्व खजानों से भरपूर करो। सर्व खजाने इतने जमा हो जो अपनी स्थिति भी कायम रहे और अन्य आत्माओं को भी सम्पन्न बना सको।

 

स्लोगन:- कल्याण की भावना रख शिक्षा दो तो शिक्षायें दिल से लगेंगी।