07-10-07     प्रात:मुरली  ओम् शान्ति 1992 "बापदादा"    मधुबन


परमात्म-प्यार के पात्र बनो तो सहज मायाजीत बन जायेंगे
 


सभी अपने को परमात्म-शमा के परवाने समझते हो? परवाने दो प्रकार के होते हैं-एक हैं चक्र लगाने वाले और दूसरे हैं-सेकेण्ड में फिदा होने वाले। तो आप सभी कौनसे परवाने हो? फिदा हो गये हो या होने वाले हो? या अभी थोड़ा सोच रहे हो? सोचना अर्थात् चक्र लगाना। फिदा होने के बाद फिर चक्र नहीं काटना पड़ेगा। सभी हो गये? जब कोई अच्छी चीज मिल जाती है और समझ में आता है कि इससे अच्छी चीज कोई है ही नहीं-तो सोचने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही सौदा किया है ना। बापदादा को भी ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी रत्नों को देख हर्ष होता है। ज्यादा खुशी किसको होती है-बाप को या आपको? बाप कहते हैं-बच्चों को ज्यादा खुशी है तो बाप को पहले है। बापदादा ने, देखो, कहाँ-कहाँ से चुनकर एक बगीचे के रूहानी गुलाब बना दिया। इसी एक परिवार का बनने में कितनी खुशी है! इतना परिवार किसी का भी होगा? फॉलोअर्स हो सकते हैं लेकिन परिवार नहीं। कितनी खुशियां हैं-बाप की खुशी, अपने भाग्य की खुशी, परिवार की खुशी! खुशियाँ ही खुशियाँ हैं ना। आंख खुलते ही अमृतवेले खुशी के झूले में झूलते हो और सोते हो तो भी खुशी के झूले में। अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो किससे पूछें? हर एक कहेगा-मेरे से पूछो। यह शुद्ध नशा है, यह देह-भान का नशा नहीं है। हर एक आत्मा को अपना-अपना रूहानी नशा है। सिर्फ रूहानी नशे को हद का नशा नहीं बनाना।

बापदादा का सबसे ज्यादा प्यार बच्चों से है, उसकी निशानी क्या है? कोई प्रैक्टिकल निशानी सुनाओ। (सभी ने सुनाया) देखो, हर रोज़ इतना बड़ा पत्र (मुरली) कोई नहीं लिखता है। ऐसा प्यार कोई नहीं करेगा। परमात्म-प्यार के पात्र हो। कभी भी एक दिन पत्र मिस हुआ है? ऐसा माशूक सारे कल्प में नहीं हो सकता है। यह सब बातें जो सुनाई वह याद रखना। हर समय यही प्राप्तियां याद रहें तो कभी भी प्राप्ति के आगे और कोई भी व्यक्ति या वस्तु आकर्षित नहीं कर सकते और सदा सहज मायाजीत बन औरों को भी बनायेंगे। अच्छा!

2 - स्व-स्थिति को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो परिस्थिति कभी नीचे-ऊपर न कर सके

सदा अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते रहते हो? भाग्य का सितारा कितना श्रेष्ठ चमक रहा है! सदा अपने भाग्य के गीत गाते रहते हो? क्या गीत है? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! यह गीत सदा बजता रहता है? आटोमेटिक है या मेहनत करनी पड़ती है? आटोमेटिक है ना। क्योंकि भाग्यविधाता बाप अपना बन गया। तो जब भाग्यविधाता के बच्चे बन गये, तो इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! बस यही स्मृति सदा रहे कि भाग्यविधाता के बच्चे हैं। दुनिया वाले तो अपने भाग्य का वरदान लेने के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं और आप सभी को घर बैठे भाग्य का खज़ाना मिल गया। मेहनत करने से छूट गये ना। तो मेहनत भी नहीं और प्राप्ति भी ज्यादा। इसको ही भाग्य कहा जाता है-जो बिना मेहनत के प्राप्त हो जाये। एक जन्म में 21 जन्म की प्राप्ति करना-यह कितना श्रेष्ठ हुआ! और प्राप्ति भी अविनाशी और अखण्ड है, कोई खण्डित नहीं कर सकता। माया भी सरेन्डर हो जाती है, इसलिए अखण्ड रहता है। कोई लड़ाई करके विजय प्राप्त करना चाहे तो कर सकेगा? किसकी ताकत नहीं है। ऐसा अटल-अखण्ड भाग्य पा लिया! स्थिति भी अभी ऐसी अटल बनाओ। कैसी भी परिस्थिति आये लेकिन अपनी स्थिति को नीचे-ऊपर नहीं करो। अविनाशी बाप है, अविनाशी प्राप्तियां हैं। तो स्थिति भी क्या रहनी चाहिए? अविनाशी चाहिए ना। सभी निर्विघ्न हो? कि थोड़ा-थोड़ा विघ्न आता है? विघ्न-विनाशक गाये हुए हो ना। कैसा भी विघ्न आये, याद रखो-मैं विघ्न-विनाशक आत्मा हूँ। अपना यह टाइटल सदा याद है? जब मास्टर सर्वशक्तिवान हैं, तो मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कितना भी बड़ा कुछ भी नहीं है। जब कुछ है ही नहीं तो उसका प्रभाव क्या पड़ेगा?

3 - सदा खुश रहने के लिये ‘अनेक’ मेरे को ‘एक’ मेरे में परिवर्तन करो

सभी सदा खुश रहते हो? सदा खुश रहने का सहज पुरूषार्थ कौन सा है? (याद) याद में भी क्या याद रखना सहज है? मेरापन सहज कर देता है। मेरापन होता है तो मेरा सहज याद आता है। तो मेरे के अधिकार से याद करना-ये है सहज विधि। अगर खुशी कम होती है तो उसका कारण ही है कि मेरे के अधिकार से बाप को याद नहीं किया। क्योंकि याद में जो विघ्न डालता है वो है ही मेरा-पन। मेरा शरीर, मेरा सम्बन्ध-यही मेरापन विघ्न डालता है। इसलिए इस ‘अनेक मेरे-मेरे’ को ‘एक मेरा बाबा’ में बदल दो। यही सहज विधि है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़े ते बडी प्राप्ति है ही खुशी। अगर खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। ब्राह्मण जीवन का श्वांस है खुशी। इसलिए सदा खुश रहो। बाप मिला अर्थात् सबकुछ मिला। खुशी गायब तब होती है जब कोई अप्राप्ति होती है। तो ब्राह्मण अर्थात् सबकुछ मिला। प्राप्ति की निशानी है खुशी। खुश रहने वाले भी हो और खुशी बांटने वाले भी। बांटेगा कौन? जिसके पास स्टॉक होगा। अपने लिए तो स्टॉक है लेकिन दूसरे के लिए इतना ही स्टॉक जमा हो। तो सदैव अपना स्टॉक चेक करो कि इतना भरपूर है? ऐसे तो नहीं कि अन्दर ही अन्दर से स्टॉक माया खत्म कर ले और आप समझते रहें कि अभी स्टॉक है! जब कोई परिस्थिति आती है तो कहते हैं कि पता नहीं मेरी खुशी कहाँ चली गई? क्यों चली गई? अन्दर ही अन्दर स्टॉक खत्म हो गया। तो सदैव ही अपना स्टॉक चेक करो कि भरपूर है? क्योंकि माया को भी ब्राह्मण आत्माए प्रिय लगती हैं। वो भी अपना बनाने का पुरूषार्थ नहीं छोड़ती। इसलिए हर समय खबरदार, होशियार!

4 - ब्रह्मा बाप के संस्कारों को अपना संस्कार बनाना ही फॉलो फादर करना है

सदा अपने को विश्व-परिवर्तक अनुभव करते हो? विश्व-परिवर्तन करने की विधि क्या है? स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन। बहुत-काल के स्व-परिवर्तन के आधार से ही बहुतकाल का राज्य-अधिकार मिलेगा। स्व-परिवर्तन बहुतकाल का चाहिए। अगर अन्त में स्व-परिवर्तन होगा तो विश्व-परिवर्तन के निमित्त भी अन्त में बनेंगे, फिर राज्य भी अन्त में मिलेगा। तो अन्त में राज्य लेना है कि शुरू से लेना है? अच्छा, लेना शुरू से है और करना अन्त में है? अगर लेना बहुतकाल का है तो स्व-परिवर्तन भी बहुतकाल का चाहिए। क्योंकि संस्कार बनता है ना। तो बहुतकाल का संस्कार न चाहते हुए भी अपनी तरफ खींचता है। जैसे अभी भी कहते हो कि मेरा यह पुराना संस्कार है ना, इसीलिए न चाहते भी हो जाता है। तो वह खींचता है ना। तो यह भी बहुत समय का पक्का पुरूषार्थ नहीं होगा, कच्चा होगा, तो कच्चा पुरूषार्थ भी अपनी तरफ खींचेगा और रिजल्ट क्या होगी? फुल पास नहीं हो सकेंगे ना। इसलिए अभी से स्व-परिवर्तन के संस्कार बनाओ। नेचुरल संस्कार बन जाये। जो नेचुरल संस्कार होते हैं उनके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।

स्व-परिवर्तन का विशेष संस्कार क्या है? जो ब्रह्मा बाप के संस्कार वो बच्चों के संस्कार। तो ब्रह्मा बाप ने अपना संस्कार क्या बनाया, जो साकार शरीर के अन्त में भी याद दिलाया? निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी - ये हैं ब्रह्मा बाप के अर्थात् ब्राह्मणों के संस्कार। तो ये संस्कार नेचुरल हों। निराकार तो हो ही ना, ये तो निजी स्वरूप है ना। और कितने बार निर्विकारी बने हो! अनेक बार बने हो ना। ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है निरहंकारी। तो ये ब्रह्मा के संस्कार अपने में देखो कि सचमुच ये संस्कार बने हैं? ऐसे नहीं-ये ब्रह्मा के संस्कार हैं, ये मेरे संस्कार हैं। फॉलो फादर है ना। पूरा फॉलो करना है ना। तो सदा ये श्रेष्ठ संस्कार सामने रखो। सारे दिन में जो भी कर्म करते हो, तो हर कर्म के समय चेक करो कि तीनों ही संस्कार इमर्ज रूप में हैं? तो बहुत समय के संस्कार सहज बन जायेंगे। यही लक्ष्य है ना! पूरा बनना है तो जल्दी-जल्दी बनो ना। समय आने पर नहीं बनना है, समय के पहले अपने को सम्पन्न बनाना है। समय रचना है और आप मास्टर रचयिता हैं। रचता शक्तिशाली होता है या रचना? तो अभी पूरा ही स्व-परिवर्तन करो। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में कब-कब नहीं है। अब। तो ऐसे पक्के ब्राह्मण हो ना।

5 - सफलता का आधार है - दिव्यता

बापदादा द्वारा हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिला है। यह दिव्य बुद्धि का वरदान सभी ने अपने जीवन में कार्य में लगाया है? क्योंकि वरदान का लाभ तब होता है जब वरदान को कार्य में लगायें। तो दिव्य बुद्धि का वरदान मिला सबको है लेकिन यूज़ कितना करते हो? कोई भी चीज यूज करने से, कार्य में लगाने से बढ़ती भी है और उसको सुख की, खुशी की अनुभूति भी होती है। तो दिव्य बुद्धि को कार्य में कहाँ तक लगाते हैं, उसकी निशानी क्या होगी? सफलता होगी। हर कार्य दिव्य-अलौकिक अनुभव होगा, साधारण नहीं। क्योंकि कार्य में दिव्यता ही सफलता का आधार है। तो दिव्य बुद्धि की निशानी है-हर कर्म में दिव्यता। तो ऐसे अनुभव करते हो? या कभी साधारण कर्म भी हो जाते हैं?

दिव्य बुद्धि प्राप्त करने वाली आत्मायें सदा अदिव्य को भी दिव्य बना देती हैं। जैसे गाया जाता है कि पारस अगर लोहे को लगता है तो वह भी पारस बन जाता है। तो दिव्य बुद्धि अर्थात् पारस बुद्धि। ऐसे बने हो? क्योंकि बुद्धि हर बात को ग्रहण करती है। दिव्य बुद्धि दिव्यता को ही ग्रहण करेगी। ऐसे परिवर्तन कर सकते हो। अदिव्य को दिव्य बना सकते हो। या अदिव्यता का प्रभाव पड़ जायेगा? कोई अदिव्य बात हो जाये, अदिव्य कार्य हो जाये-उसका प्रभाव आपके ऊपर पड़ेगा? दिव्य बुद्धि के वरदान से परिवर्तन-शक्ति अदिव्य को भी दिव्य के रूप में बदल देगी। अदिव्य वातावरण या अदिव्य चलन, बोल दिव्य बुद्धि के ऊपर असर नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति वाले को ही दिव्य बुद्धि वरदानी मूर्त कहा जायेगा। जैसे - वाटर-प्रूफ होता है, आग-प्रूफ होता है। साइन्स के साधन वाटर-प्रूफ बना देते हैं, आग-प्रूफ बना सकते हैं। तो साइलेन्स की शक्ति परिवर्तन नहीं कर सकती है, प्रूफ नहीं बना सकते हैं? नॉलेज रखना और चीज है-यह दिव्य है, यह अदिव्य है। लेकिन प्रभाव में आना और चीज है। दिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है या अदिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है? तो दिव्यता का प्रभाव अदिव्यता पर पड़ना चाहिए ना। तो अभी दिव्य बुद्धि के वरदान को कार्य में लगाओ। लगाना तो आता है या कभी भूल जाते हो? आधा कल्प भूलने वाले बने लेकिन अभी अभूल बनना है।

दिव्य बुद्धि ऐसा श्रेष्ठ यन्त्र है जो इस यन्त्र द्वारा व्यक्ति तो क्या, प्रकृति को भी दिव्य बना सकते हो। व्यक्ति को दिव्य बनाने से प्रकृति के ऊपर स्वत: ही प्रभाव पड़ता जायेगा। पहले अपने में देखो कि सदा दिव्य बुद्धि इमर्ज रूप में है? इतनी ताकत है जो प्रकृति को भी परिवर्तन कर दो। यह परमात्म-वरदान है। कोई महात्मा या धर्मात्मा का वरदान नहीं है। तो जैसे बाप सर्वशक्तिवान है, तो वरदान भी सर्वशक्तिवान है ना। तो जब भी कोई कार्य करते हो, पहले चेक करो कि दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा कार्य कर रहे हैं या साधारण बुद्धि से कार्य कर रहे हैं? आपकी दिव्यता का प्रभाव विश्व को दिव्य बना देता है। यही आपका ऑक्यूपेशन है ना। इन्जीनियर हूँ, डॉक्टर हूँ, क्लर्क हूँ, फलाना हूँ... - यह ऑक्यूपेशन तो शरीर निर्वाह के अर्थ है। लेकिन वास्तविक ऑक्यूपेशन है-विश्व को परिवर्तन करना। ऐसे समझ कर कार्य करते हो?

अगर वरदान को कार्य में लगाते हो तो वरदान की प्राप्ति सदा सहज अनुभव करायेगी। वरदान में मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो यह दिव्य बुद्धि वरदान है। 63 जन्म मेहनत बहुत कर ली। अभी मेहनत नहीं, सहज। ब्राह्मण जीवन में भी अगर मेहनत करनी पड़ती, युद्ध करनी पड़ती - तो मौज कब मनायेंगे? सतयुग में तो पता ही नहीं होगा कि मौज भी मना रहे हैं। वहाँ कंट्रास्ट नहीं होगा। अभी तो कंट्रास्ट है - मेहनत क्या है, मौज क्या है? तो मौज अभी है, सतयुग में कॉमन बात होगी। अच्छा!

वरदान:-
सर्व शक्तियों की सम्पन्नता द्वारा विश्व के विघ्नों को समाप्त करने वाले विघ्न-विनाशक भव

जो सर्व शक्तियों से सम्पन्न है वही विघ्न-विनाशक बन सकता है। विघ्न-विनाशक के आगे कोई भी विघ्न आ नहीं सकता। लेकिन यदि कोई भी शक्ति की कमी होगी तो विघ्न-विनाशक बन नहीं सकते इसलिए चेक करो कि सर्व शक्तियों का स्टॉक भरपूर है? इसी स्मृति वा नशे में रहो कि सर्व शक्तियां मेरा वर्सा हैं, मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ तो कोई विघ्न ठहर नहीं सकता।

स्लोगन:-
जो सदा शुभ संकल्पों की रचना करते हैं वही डबल लाइट रहते हैं।