22-05-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 01.10.87 "बापदादा" मधुबन
ईश्वरीय स्नेह - जीवन
परिवर्तन का फाउण्डेशन है
आज स्नेह के सागर अपने
स्नेही बच्चों से मिलने आये हैं। बाप और बच्चों का स्नेह विश्व को स्नेह सूत्र में
बांध रहा है। जब स्नेह के सागर और स्नेह सम्पन्न नदियों का मेल होता है तो स्नेह-भरी
नदी भी बाप समान मास्टर स्नेह का सागर बन जाती है। इसलिए विश्व की आत्मायें स्नेह
के अनुभव से स्वत: ही समीप आती जा रही हैं। पवित्र प्यार वा ईश्वरीय परिवार के
प्यार से - कितनी भी अन्जान आत्मायें हों, बहुत समय से परिवार के प्यार से वंचित
पत्थर समान बनने वाली आत्मा हो लेकिन ऐसे पत्थर समान आत्मायें भी ईश्वरीय परिवार के
स्नेह से पिघल पानी बन जाती है। यह है ईश्वरीय परिवार के प्यार की कमाल। कितना भी
स्वयं को किनारे करे लेकिन ईश्वरीय प्यार चुम्बक के समान स्वत: ही समीप ले आता है।
इसको कहते हैं ईश्वरीय स्नेह का प्रत्यक्षफल। कितना भी कोई स्वयं को अलग रास्ते वाले
मानें लेकिन ईश्वरीय स्नेह सहयोगी बनाए ‘आपस में एक हो' आगे बढ़ने के सूत्र में बांध
देता है। ऐसा अनुभव किया ना।
स्नेह पहले सहयोगी
बनाता है, सहयोगी बनाते-बनाते स्वत: ही समय पर सर्व को सहजयोगी भी बना देता है।
सहयोगी बनने की निशानी है - आज सहयोगी हैं, कल सहज-योगी बन जायेंगे। ईश्वरीय स्नेह
परिवर्तन का फाउन्डेशन (नींव) है अथवा जीवन-परिवर्तन का बीज स्वरूप है। जिन आत्माओं
में ईश्वरीय स्नेह की अनुभूति का बीज पड़ जाता है, तो यह बीज सहयोगी बनने का वृक्ष
स्वत: ही पैदा करता रहेगा और समय पर सहजयोगी बनने का फल दिखाई देगा क्योंकि
परिवर्तन का बीज फल जरूर दिखाता है। सिर्फ कोई फल जल्दी निकलता है, कोई फल समय पर
निकलता है। चारों ओर देखो, आप सभी मास्टर स्नेह के सागर, विश्व-सेवाधारी बच्चे क्या
कार्य कर रहे हो? विश्व में ईश्वरीय परिवार के स्नेह का बीज बो रहे हो। जहाँ भी जाते
हो - चाहे कोई नास्तिक हो वा आस्तिक हो, बाप को न भी जानते हों, न भी मानते हों
लेकिन इतना अवश्य अनुभव करते हैं कि ऐसा ईश्वरीय परिवार का प्यार जो आप शिववंशी
ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों से मिलता है, यह कहीं भी नहीं मिलता और यह भी मानते
हैं कि यह स्नेह वा प्यार साधारण नहीं है, यह अलौकिक प्यार है वा ईश्वरीय स्नेह है।
तो इन्डायरेक्ट नास्तिक से आस्तिक हो गया ना। ईश्वरीय प्यार है, तो वह कहाँ से आया?
किरणें सूर्य को स्वत: ही सिद्ध करती हैं। ईश्वरीय प्यार, अलौकिक स्नेह, नि:स्वार्थ
स्नेह स्वत: ही दाता बाप को सिद्ध करता ही है। इन्डायरेक्ट ईश्वरीय स्नेह के प्यार
द्वारा स्नेह के सागर बाप से सम्बन्ध जुट जाता है लेकिन जानते नहीं हैं। क्योंकि
बीज पहले गुप्त रहता है, वृक्ष स्पष्ट दिखाई देता है। तो ईश्वरीय स्नेह का बीज सर्व
को सहयोगी सो सहजयोगी, प्रत्यक्षरूप में समय प्रमाण प्रत्यक्ष कर रहा है और करता
रहेगा। तो सभी ने ईश्वरीय स्नेह के बीज डालने की सेवा की। सहयोगी बनाने की शुभ भावना
और शुभ कामना के विशेष दो पत्ते भी प्रत्यक्ष देखे। अभी यह तना वृद्धि को प्राप्त
करते प्रत्यक्षफल दिखायेगा।
बापदादा सर्व बच्चों
के वैराइटी (भिन्न-भिन्न) प्रकार की सेवा को देख हर्षित होते हैं। चाहे भाषण करने
वाले बच्चे, चाहे स्थूल सेवा करने वाले बच्चे - सर्व के सहयोग की सेवा से सफलता का
फल प्राप्त होता है। चाहे पहरा देने वाले हों, चाहे बर्तन सम्भालने वाले हों लेकिन
जैसे पांच अंगुलियों के सहयोग से कितना भी श्रेष्ठ कार्य, बड़ा कार्य सहज हो जाता
है, ऐसे हर एक ब्राह्मण बच्चों के सहयोग से जितना सोचा था कि ऐसा होगा, उस सोचने से
हजार गुणा ज्यादा सहज कार्य हो गया। यह किसकी कमाल है? सभी की। जो भी कार्य में
सहयोगी बने - चाहे स्वच्छता भी रखी, चाहे टेबल (मेज) साफ किया लेकिन सर्व के सहयोग
की रिजल्ट (परिणाम) सफलता है। यह संगठन की शक्ति महान है। बापदादा देख रहे थे - न
सिर्फ मधुबन में आने वाले बच्चे लेकिन जो साकार में भी नहीं थे, चारों ओर के
ब्राह्मण बच्चों की, चाहे देश, चाहे विदेश - सबके मन की शुभ-भावना और शुभ-कामना का
सहयोग रहा। यह सर्व आत्माओं की शुभ भावना, शुभ कामना का किला आत्माओं को परिवर्तन
कर लेता है। चाहे निमित्त शक्तियाँ भी रहीं, पाण्डव भी रहे। निमित्त सेवाधारी विशेष
हर कार्य में बनते ही हैं लेकिन वायुमण्डल का किला सर्व के सहयोग से ही बनता है।
निमित्त बनने वाले बच्चों को भी बापदादा मुबारक देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मुबारक
सभी बच्चों को। बाप को बच्चे मुबारक क्या देंगे। क्योंकि बाप तो अव्यक्त हो गया।
व्यक्त में तो बच्चों को निमित्त बनाया। इसलिए, बापदादा सदा बच्चों के ही गीत गाते
हैं। आप बाप के गीत गाओ, बाप आपके गीत गाये।
जो भी किया, बहुत
अच्छा किया। भाषण करने वालों ने भाषण अच्छे किये, स्टेज सजाने वालों ने स्टेज अच्छी
सजाई और विशेष योगयुक्त भोजन बनाने वाले, खिलाने वाले, सब्जी काटने वाले रहे। पहले
फाउन्डेशन तो सब्जी कटती है। सब्जी नहीं कटे तो भोजन क्या बनेगा? सब डिपार्टमेन्ट
वाले आलराउण्ड (सर्व प्रकार की) सेवा के निमित्त रहे। सुनाया ना - अगर सफाई वाले
सफाई नहीं करते तो भी प्रभाव नहीं पड़ता। हर एक का चेहरा ईश्वरीय स्नेह सम्पन्न नहीं
होता तो सेवा की सफलता कैसी होती। सभी ने जो भी कार्य किया, स्नेह भरकर के किया।
इसलिए, उन्हों में भी स्नेह का बीज पड़ा। उमंग-उत्साह से किया, इसलिए उन्हों में भी
उमंग-उत्साह रहा। अनेकता होते भी स्नेह के सूत्र के कारण एकता की ही बातें करते रहे।
यह वायुमण्डल के छत्रछाया की विशेषता रही। वायुमण्डल छत्रछाया बन जाता है। तो
छत्रछाया के अन्दर होने के कारण कैसे भी संस्कार वाले स्नेह के प्रभाव में समाये
हुए थे। समझा? सभी की बड़े ते बड़ी ड्यूटी (जिम्मेवारी) थी। सभी ने सेवा की। कितना भी
वो और कुछ बोलने चाहें, तो भी बोल नहीं सकते वायुमण्डल के कारण। मन में कुछ सोचें
भी लेकिन मुख से निकल नहीं सकता क्योंकि प्रत्यक्ष आप सबकी जीवन के परिवर्तन को देख
उन्हों में भी परिवर्तन की प्रेरणा स्वत: ही आती रही। प्रत्यक्ष प्रमाण देखा ना।
शास्त्र प्रमाण से भी, सबसे बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण के आगे और
सब प्रमाण समा जाते हैं। यह रही सेवा की रिजल्ट। अभी भी उसी स्नेह के सहयोग की
विशेषता से और समीप लाते रहेंगे तो और भी सहयोग में आगे बढ़ते जायेंगे। फिर भी
प्रत्यक्षता का आवाज बुलन्द तभी होगा, जब सब सत्ताओं का सहयोग होगा।
विशेष सर्व सत्तायें
जब मिलकर एक आवाज बुलन्द करें, तब ही प्रत्यक्षता का पर्दा विश्व के आगे खुलेगा।
वर्तमान समय जो सेवा का प्लान बनाया है, वह इसलिए ही बनाया है ना। सभी वर्ग वाले
अर्थात् सत्ता वाले सम्पर्क में, सहयोग में आयें, स्नेह में आयें तो फिर सम्बन्ध
में आकर सहजयोगी बन जायेंगे। अगर कोई भी सत्ता सहयोग में नहीं आती है तो सर्व के
सहयोग का जो कार्य रखा है, वह सफल कैसे होगा?
अभी फाउण्डेशन पड़ा
विशेष सत्ता का। धर्म सत्ता सबसे बड़े ते बड़ी सत्ता है ना। उस विशेष सत्ता द्वारा
फाउण्डेशन आरम्भ हुआ। स्नेह का प्रभाव देखा ना। वैसे लोग क्या कहते थे कि - यह इतने
सब इकट्ठे कैसे बुला रहे हो? यह लोग भी सोचते रहे ना। लेकिन ईश्वरीय स्नेह का सूत्र
एक था, इसलिए, अनेकता के विचार होते हुए भी सहयोगी बनने का विचार एक ही रहा। ऐसे अभी
सर्व सत्ताओं को सहयोगी बनाओ। बन भी रहे हैं लेकिन और भी समीप, सहयोगी बनाते चलो।
क्योंकि अभी गोल्डन जुबली (स्वर्ण जयन्ती) समाप्त हुई, तो अभी से, और प्रत्यक्षता
के समय आ गये। डायमन्ड जुबली अर्थात् प्रत्यक्षता का नारा बुलन्द करना। तो इस वर्ष
से प्रत्यक्षता का पर्दा अभी खुलने आरम्भ हुआ है। एक तरफ विदेश द्वारा भारत में
प्रत्यक्षता हुई, दूसरे तरफ निमित्त महामण्डलेश्वरों द्वारा कार्य की श्रेष्ठता की
सफलता। विदेश में यू.एन. (U.N.) वाले निमित्त बने, वे भी विशेष नामीग्रामी और भारत
में भी नामीग्रामी धर्म सत्ता है। तो धर्म सत्ता वालों द्वारा धर्म-आत्माओं की
प्रत्यक्षता हो - यह है प्रत्यक्षता का पर्दा खुलना आरम्भ होना। अजुन खुलना आरम्भ
हुआ है। अभी खुलने वाला है। पूरा नहीं खुला है, आरम्भ हुआ है। विदेश के बच्चे जो
कार्य के निमित्त बने, यह भी विशेष कार्य रहा। प्रत्यक्षता के विशेष कार्य में इस
कार्य के कारण निमित्त बन गये। तो बापदादा विदेश के बच्चों को इस अन्तिम प्रत्यक्षता
के हीरो पार्ट में निमित्त बनने के सेवा की भी विशेष मुबारक दे रहे हैं। भारत में
हलचल तो मचा ली ना। सबके कानों तक आवाज गया। यह विदेश का बुलन्द आवाज भारत के
कुम्भकरणों को जगाने के निमित्त तो बन गया। लेकिन अभी सिर्फ आवाज गया है, अभी और
जगाना है, उठाना है। अभी सिर्फ कान तक आवाज पहुँचा है। सोये हुए को अगर कान में
आवाज जाता है तो थोड़ा हिलता है ना, हलचल तो करता है ना। तो हलचल पैदा हुई। हलचल में
थोड़े जागे हैं, समझते कि यह भी कुछ हैं। अभी जागेंगे तब जब और जोर से आवाज करेंगे।
अभी पहले भी थोड़ा जोर से हुआ। ऐसे ही कमाल तब हो जब सब सत्ता वाले इकट्ठे स्टेज पर
स्नेह मिलन करें। सब सत्ता की आत्माओं द्वारा ईश्वरीय कार्य की प्रत्यक्षता आरम्भ
हो, तब प्रत्यक्षता का पर्दा पूरा खुलेगा। इसलिए, अभी जो प्रोग्राम बना रहे हो उसमें
यह लक्ष्य रखा कि सब सत्ताओं का स्नेह मिलन हो। सब वर्गों का स्नेह मिलन तो हो सकता
है। जैसे साधारण साधुओं को बुलाते तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन यह महामण्डलेश्वरों
को बुलाया ना। ऐसे तो शंकराचार्य की भी इस संगठन में और ही शोभा होती। लेकिन अब उसका
भी भाग्य खुल जायेगा। अन्दर से तो फिर भी सहयोगी है। बच्चों ने मेहनत भी अच्छी की।
लेकिन फिर भी लोकलाज तो रखनी पड़ती है। वह भी दिन आयेगा जब सभी सत्ता वाले मिल करके
कहेंगे कि श्रेष्ठ सत्ता, ईश्वरीय सत्ता, आध्यात्मिक सत्ता है तो एक परमात्म-सत्ता
ही है। इसलिए लम्बे समय का प्लान बनाया है ना। इतना समय इसलिए मिला है कि सभी को
स्नेह के सूत्र में बाँध समीप लाओ। यह स्नेह चुम्बक बनेगा जो सब एक साथ संगठन रूप
में बाप की स्टेज पर पहुँच जाए। ऐसा प्लान बनाया है ना? अच्छा।
सेवाधारियों को सेवा
का प्रत्यक्षफल भी मिल गया। नहीं तो, अभी नम्बर नये बच्चों का है ना। आप लोग तो
मिलन मनाते-मनाते अब वानप्रस्थ अवस्था तक पहुँचे हो। अभी अपने छोटे भाई-बहिनों को
टर्न दे रहे हो। स्वयं वानप्रस्थी बने तब औरों को चांस दिया। इच्छा तो सबकी बढ़ती ही
जायेगी। सब कहेंगे - अभी भी मिलने का चांस मिलना चाहिए। जितना मिलेंगे, उतना और
इच्छा बढ़ती जायेगी। फिर क्या करेंगे? औरों को चांस देना भी स्वयं तृप्ति का अनुभव
करना है। क्योंकि पुराने तो अनुभवी हैं, प्राप्ति-स्वरूप हैं। तो प्राप्ति-स्वरूप
आत्मायें सर्व पर शुभ भावना रखने वाले, औरों को आगे रखने वाले हो। या समझते हो हम
तो मिल लेवें? इसमें भी नि:स्वार्थी बनना है। समझदार हो। आदि, मध्य, अन्त को समझने
वाले हो। समय को भी समझते हो। प्रकृति के प्रभाव को भी समझते हो। पार्ट को भी समझते
हो। बापदादा भी सदा ही बच्चों से मिलने चाहते हैं। अगर बच्चे मिलने चाहते तो पहले
बाप चाहता, तब बच्चे भी चाहते। लेकिन बाप को भी समय को, प्रकृति को देखना तो पड़ता
है ना। जब इस दुनिया में आते हैं तो दुनिया की सब बातों को देखना पड़ता है। जब इनसे
दूर अव्यक्त वतन में हैं तो वहाँ तो पानी की, समय की, रहने आदि की प्रोब्लम (समस्या)
ही नहीं। गुजरात वाले समीप रहते हैं। तो इसका भी फल मिला है ना। यह भी गुजरात वालों
की विशेषता है, सदैव एवररेडी रहते हैं। ‘हाँ जी' का पाठ पक्का है और जहाँ भी रहने
का स्थान मिले, तो रह भी जाते हैं। हर परिस्थिति में खुश रहने की भी विशेषता है।
गुजरात में वृद्धि भी अच्छी हो रही है। सेवा का उमंग-उत्साह स्वयं को भी निर्विघ्न
बनाता, दूसरों का भी कल्याण करता है। सेवाभाव की भी सफलता है। सेवा-भाव में अगर
अहम्-भाव आ गया तो उसको सेवा-भाव नहीं कहेंगे। सेवा-भाव सफलता दिलाता है। अहम्-भाव
अगर मिक्स होता है तो मेहनत भी ज्यादा, समय भी ज्यादा, फिर भी स्वयं की सन्तुष्टी
नहीं होती। सेवाभाव वाले बच्चे सदा स्वयं भी आगे बढ़ते और दूसरों को भी आगे बढ़ाते
हैं। सदा उड़ती कला का अनुभव करते हैं। अच्छी हिम्मत वाले हैं। जहाँ हिम्मत है वहाँ
बापदादा भी हर समय कार्य में मददगार हैं।
महारथी तो हैं ही
महादानी। जो भी महारथी सेवा के प्रति आये हैं, महादानी वरदानी हो ना? औरों को चांस
देना - यह भी महादान, वरदान है। जैसा समय, वैसा पार्ट बजाने में भी सब सिकीलधे बच्चे
सदा ही सहयोगी रहे हैं और रहेंगे। इच्छा तो होगी क्योंकि यह शुभ इच्छा है। लेकिन
इसको समाने भी जानते हैं। इसलिए सभी सदा सन्तुष्ट हैं।
बापदादा भी चाहते हैं
कि एक-एक बच्चे से मिलन मनावें और समय की सीमा भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन आप लोगों
की दुनिया में यह सभी सीमाएं देखनी पड़ती हैं। नहीं तो, एक-एक विशेष रतन की महिमा
अगर गायें तो कितनी बड़ी है। कम से कम एक-एक बच्चे की विशेषता का एक-एक गीत तो बना
सकते हैं। लेकिन... इसलिए कहते हैं वतन में आओ जहाँ कोई सीमा नहीं। अच्छा।
सदा ईश्वरीय स्नेह
में समाये हुए, सदा हर सेकेण्ड सर्व के सहयोगी बनने वाले, सदा प्रत्यक्षता के पर्दे
को हटाए बाप को विश्व के आगे प्रत्यक्ष करने वाले, सदा सर्व आत्माओं को
प्रत्यक्ष-प्रमाण-स्वरूप बन आकर्षित करने वाले, सदा बाप और सर्व के हर कार्य में
सहयोगी बन एक का नाम बाला करने वाले, ऐसे विश्व के इष्ट बच्चों को, विश्व के विशेष
बच्चों को बापदादा का अति स्नेह सम्पन्न यादप्यार। साथ-साथ सर्व देश-विदेश के स्नेह
से बाप के सामने पहुँचने वाले सर्व समीप बच्चों को सेवा की मुबारक के साथ-साथ
बापदादा का विशेष यादप्यार स्वीकार हो।
वरदान:-
कहना, सोचना
और करना - इन तीनों को समान बनाने वाले ज्ञानी तू आत्मा भव
अभी वानप्रस्थ अवस्था
में जाने का समय समीप आ रहा है इसलिए कमजोरियों के मेरे पन को वा व्यर्थ के खेल को
समाप्त कर कहना, सोचना और करना समान बनाओ तब कहेंगे ज्ञान स्वरूप। जो ऐसे ज्ञान
स्वरूप ज्ञानी तू आत्मायें हैं उनका हर कर्म, संस्कार, गुण और कर्तव्य समर्थ बाप के
समान होगा। वे कभी व्यर्थ के विचित्र खेल नहीं खेल सकते। सदा परमात्म मिलन के खेल
में बिजी रहेंगे। एक बाप से मिलन मनायेंगे और औरों को बाप समान बनायेंगे।
स्लोगन:-
सेवाओं का उमंग छोटी-छोटी बीमारियों को मर्ज कर देता है।