ओम् शान्ति।
यह महिमा किसकी हुई? परमपिता परमात्मा की। उनको कहा ही जाता है परमधाम में रहने वाला
परमप्रिय परमपिता परमात्मा। तुम हो अनुभवी बच्चे, जिनको परमपिता परमात्मा ने अपना
बनाया है और तुम बच्चों ने फिर परमपिता परमात्मा को अपना बनाया है। परम अर्थात् परे
ते परे। अब आत्मा को बुद्धि में आता है कि हम आत्मा वास्तव में परमधाम में परमपिता
परमात्मा के पास रहने वाली हैं। दुनिया में और किसको यह नॉलेज नहीं है। वह तो अपने
को ही परमात्मा का रूप समझ लेते हैं तो कोई नॉलेज ही नहीं रही। वह परमपिता परमात्मा
जब आकर मिलते हैं तो नई बातें सुनाते हैं नई दुनिया के लिए। नई दुनिया में है नया
दिन, नई रातें। पुरानी दुनिया में है पुराने दिन, पुरानी रातें और बहुत दु:ख हैं
अनेक प्रकार के। मैजॉरटी दु:खी हैं। रात को काम कटारी चलाते, दिन में भी पाप करते
रहते। नई दुनिया में सदैव सुख ही सुख रहता है। यह तो जरूर बुद्धि में रहेगा। नई
दुनिया में सूर्यवंशी लक्ष्मी-नारायण की राजधानी है। ऐसे नहीं कहा जाता कि
प्रिन्स-प्रिन्सेज़ की राजधानी है। राजा रानी की ही राजधानी कहा जाता है। बरोबर
सतयुग में श्री लक्ष्मी-नारायण का घराना है। स्वर्ग होने कारण बहुत सुख है। उस सुख
के लिए तुम पुरुषार्थ करते हो, वह है पावन राजधानी। बाप तुमको उस नई दुनिया का
मालिक बनाते हैं। उसी समय विश्व में और कोई घराना वा धर्म नहीं होता है। जब कोई को
समझाते हो तो फिर लिखाओ कि हाँ, यह यथार्थ बात है। घड़ी-घड़ी रिवाइज कराने से
निश्चय होगा - नई पावन दुनिया में बरोबर यथा राजा रानी तथा प्रजा पावन ही होते हैं।
सदा सुखी रहते हैं। अब तो सदा दु:खी हैं। संगम पर भेंट की जाती है - कलियुग अन्त
में क्या है और सतयुग आदि में क्या होगा, आज क्या है, कल क्या होगा? अब बेहद की रात
पूरी होती है। फिर कल दिन में राज्य करेंगे। आज पतित दुनिया है, कल पावन दुनिया होगी।
साधू-सन्त आदि सब गाते हैं पतित-पावन सीताराम....। जब देखो ऐसा गाते हैं तो उनसे
पूछना चाहिए आप पतित-पावन किसको समझ याद करते हो? पतित कौन हैं? पावन करने वाला कौन
है? पतित दुनिया और पावन दुनिया कैसे है? जरूर पतितों को पावन बनाने वाला आयेगा तो
पावन बनाकर पावन दुनिया में ही ले जायेगा। कलियुग अन्त को पतित दुनिया, सतयुग आदि
को पावन दुनिया कहा जाता है। उसको ही सब याद करते हैं। पावन दुनिया है ही स्वर्ग।
तो जरूर स्वर्ग स्थापन करने वाला निराकार परमपिता परमात्मा ही है। पावन दुनिया,
स्वर्ग का रचयिता है ही परमपिता परमात्मा। नर्क के रचयिता (रावण) की महिमा नहीं होती
है। उसको जलाते रहते हैं। मनुष्य जानते नहीं हैं, नाम रख दिया है रावण। इन जैसा
मनुष्य कोई हो न सके। मनुष्य तो पुनर्जन्म लेते हैं। नाम रूप बदलते जाते हैं। रावण
का नाम रूप कभी बदलता नहीं है। यह 10 शीश ही चलते आते हैं। दिन-प्रतिदिन फुट आधा
लम्बा ही बनाते जाते क्योंकि रावण अब बड़ा होता जाता है। तमोप्रधान हो गया है और
उनको जलाते ही आते हैं। अभी तुम समझते हो पतित कौन बनाता है? इन 5 विकारों को ही
रावण कहा जाता है। यही दु:ख देते हैं, पतित बनाते हैं। तो इन विकारों को छोड़ना
चाहिए ना। साधू-सन्त आदि बहुत करके यह विकार ही दान में लेते हैं। कहते हैं - अच्छा,
झूठ बोलना हमको दे दो। अक्सर करके काम विकार के लिए कहते कि मास में एक दो बार जाओ।
परन्तु यहाँ तो पांचों विकारों की बात है। सिर्फ एक चोर को पकड़ेंगे तो फिर दूसरे
चोर चोरी करने लग पड़ेंगे। तो यह कोई को भी समझाना बहुत सहज है। पतित आत्मा, महान
आत्मा कहा जाता है। पतित परमात्मा, महान परमात्मा नहीं कहेंगे। तो पावन कौन बनायेगा?
जरूर भगवान के लिए ही इशारा करेंगे। ऊपर नज़र जायेगी। भला वह कब आयेंगे? उनका नाम
क्या है? भारत में शिवजयन्ती तो प्रसिद्ध है। उनका नाम ही शिव है और कोई नाम नहीं
देते। बुद्धि में लिंगाकार ही आयेगा। सोमनाथ कहेंगे तो भी बुद्धि में लिंग आयेगा।
अभी तुम्हारी आत्मा जानती है परमात्मा भी हमारे जैसा ही स्टॉर है। यह जो सितारे
हैं उनको नक्षत्र देवता भी कहते हैं। नक्षत्र भगवान नहीं। तुम नक्षत्र सितारे हो।
तुमको भगवान नहीं कहेंगे, तो परमात्मा है बिन्दू। परन्तु पूजा कैसे करें? तो भक्ति
मार्ग वालों ने लिंग रूप बना दिया है। इतनी बड़ी चीज़ है नहीं। आत्मा तो छोटी-बड़ी
होती नहीं। तो उनको बड़ा बनाना भी रांग हो जाता है। कोई मनुष्य को परमात्मा का
यथार्थ ज्ञान है नहीं। यह बड़ी महीन बातें हैं। कहते हैं एकदम बिन्दी है, उनको याद
कैसे करें? अरे, आत्मा को अपने बाप को याद करना तो बहुत सहज है। सिर्फ बाप की महिमा
न्यारी है। आत्मा तो एक जैसी ही है। आत्मा में ही अच्छे वा बुरे, ऊंच-नींच के
संस्कार हैं। आत्मा में ही नॉलेज है। आत्मा कितनी छोटी है! मनुष्य गरीब अथवा
साहूकार बनते हैं, वह भी आत्मा के संस्कार अनुसार। अभी तुम बच्चों की बुद्धि में यह
सारा ज्ञान है। मनुष्य परमात्मा को नहीं जानते, इस कारण आत्मा का भी ज्ञान नहीं है।
उल्टा ईश्वर को सर्वव्यापी समझ लिया है। आत्मा ही यह सारा धारण करती है। आत्मा ही
एक शरीर छोड़ दूसरा लेती है संस्कारों अनुसार। यह आत्मा बात करती है। मनुष्य अपने
को मनुष्य समझ बात करते हैं। यहाँ अपने को आत्मा समझने की प्रैक्टिस करनी पड़ती है।
हम आत्माओं को परमपिता परमात्मा पढ़ाते हैं। मनुष्य तो कह देते आत्मा निर्लेप है।
अगर निर्लेप है तो फिर संस्कार किसमें भरते हैं। बहुत मूंझे हुए हैं। नई दुनिया के
लिए नया ज्ञान बाप को ही देना है। पुरानी दुनिया में रहने वाले मनुष्य दे नहीं सकते।
तो बाप को जानना चाहिए ना। भक्तों को भगवान से वर्सा लेना है। भक्ति भी चली आती है।
ठिक्कर भित्तर में परमात्मा को ढूंढते रहते हैं। समझते हैं सब परमात्मा के रूप हैं।
वास्तव में हैं सब भाई-भाई। लक्ष्मी-नारायण से लेकर जो भी मनुष्य मात्र हैं सब
भाई-भाई हैं अथवा भाई-बहिन हैं क्योंकि प्रजापिता ब्रह्मा की औलाद हैं। अगर शिव की
औलाद कहें तो वह निराकार आत्मायें हैं। ब्रह्मा के बच्चे बहन-भाई जिस्मानी हो जाते।
परन्तु फिर गृहस्थ व्यवहार में आने से भाई-बहन का भान भूल जाते हैं। अगर वह ज्ञान
रहे तो फिर विकार में भी न जायें। अभी फिर बाप समझाते हैं तुम विकार में न जाओ। तुम
एक बाप के बच्चे भाई-बहन हो। अभी ब्रह्मा सामने बैठे हैं। तुम उनके बच्चे बी.के.
हो। यह युक्ति है गृहस्थ व्यवहार में रहते पवित्र बनने की। जनक का भी मिसाल है ना।
पहले सिर्फ एक-एक बात का निश्चय हो जाए कि बाप आया हुआ है स्वर्ग बनाने। बस यह तीर
लग जाए तो झट बाप का बन जाएं।
बाप कहते हैं तुम हमारा बन जाओ तो हम तुमको स्वर्ग का मालिक बनायेंगे। निश्चय है
कि यह वही बेहद का बाप है। हम वर्सा जरूर लेंगे। मनमनाभव, मध्याजीभव, कितनी सहज बात
है! धन्धाधोरी करते बुद्धि में यह स्मृति रहे कि हम बाबा के बच्चे हैं। हम स्वर्ग
के मालिक बनेंगे तो यह खुशी रहेगी। यह 84 जन्मों का चक्र है। 84 जन्म सिर्फ
सूर्यवंशी देवी-देवताओं का ही है। तुम जानते हो हम स्वदर्शन चक्रधारी हैं। सिर्फ
चक्र कहने से जन्म सिद्ध नहीं होते इसलिए कहना है कि हम 84 जन्मों को जानने वाले
स्वदर्शन चक्रधारी हैं। तो बाप भी याद आयेगा, पांच युग भी याद आयेंगे। अब फिर जाता
हूँ स्वर्ग में। हमारे 84 जन्म पूरे हुए। बुद्धि में चक्र फिरता रहे और शरीर
निर्वाह अर्थ काम भी करता रहे। बाबा ने कहा है स्वदर्शन चक्र का ज्ञान मेरे भक्तों
को देना। उनको समझाने से झट यह निश्चय होगा बरोबर हम 84 जन्म लेते हैं। 84 जन्म न
लेने वाला होगा तो उनको धारणा ही नहीं होगी। 84 जन्मों का अर्थ ही है पहले-पहले हम
सूर्यवंशी में आयेंगे। थोड़ा भी कोई सुनकर जायेगा तो स्वर्ग में जरूर आयेगा। परन्तु
84 जन्म नहीं लेंगे, देरी से भी आ सकते हैं। उनके फिर 84 जन्म थोड़ेही होंगे। यह
ज्ञान की कितनी महीन बातें हैं! कितना हिसाब-किताब है! फिर भी बाप कहते हैं अच्छा,
अगर इतना गुह्य राज़ नहीं समझते हो तो भला बाप का बन वर्सा तो लो। हम शिवबाबा के
बच्चे हैं। वह स्वर्ग का रचयिता है। यह नशा रहना चाहिए। परन्तु माया ठहरने नहीं देती
है। कोई तो कहते हैं बाप और वर्से को याद करना - यह कोई बड़ी बात नहीं। माया हमको
क्या करेगी! हम तो जरूर वर्सा पायेंगे। कितनी सहज बात है! कोई को तीर लग जाए तो बाप
और वर्से को याद करते बहुत खुशी में रहे। जब तक खुशी नहीं आती तो बाबा कहेंगे
पाई-पैसे के निश्चय वाले हैं। पक्के निश्चय वाले को खुशी का पारा बहुत चढ़ा रहता
है। कोई राजा के पास सन्तान नहीं होती है तो कहते हैं किले के अन्दर जो पहले-पहले
आयेगा उनको गोद में लेंगे फिर क्यू लग जाती है। मैच में भी क्यू लगती है। दूध की
बोतलों पर भी क्यू लगती है। पहला नम्बर जाने के लिए सवेरे उठकर जाए खड़े रहते हैं।
नहीं तो समझते हैं फिर ठहरना पड़ेगा। तो यहाँ भी बाबा के गले का हार बनने के लिए
क्यू है। सारा मदार पुरुषार्थ पर है। बाप को याद करना, यह बुद्धि की दौड़ है। बाकी
काम आदि भल करते रहो। आत्मा की दिल यार दे, हथ कार डे.... आशिक माशूक एक जगह बैठ
थोड़ेही जाते हैं। काम-काज आदि सब कुछ करते बुद्धि उनके तरफ रहती है। तो यहाँ भी
बुद्धि एक के साथ चाहिए, जो हमको स्वर्ग का मालिक बनाता है। जो टाइम मिलता है उसमें
पुरुषार्थ करो। गृहस्थ व्यवहार में भी रहना है। यह कोई कर्म संन्यास नहीं है। शरीर
निर्वाह तो करना ही है।
बाप अब ब्रह्मा तन में आकर कहते हैं मैं तुम्हारा बाप हूँ, हम तुमको स्वर्ग का
मालिक बनाता हूँ। तुम हमको अपना नहीं बनायेंगे? मेरे बने हो तो अब मेरे साथ योग
लगाओ और मेरे बनकर फिर तुम पवित्र नहीं रहेंगे, नाम बदनाम करेंगे तो बहुत सज़ा
खायेंगे। सतगुरू के निंदक स्वर्ग के द्वार जा नहीं सकेंगे। अच्छा। बापदादा, मात-पिता,
जिससे स्वर्ग के सदा सुख का वर्सा लेते हो, स्वदर्शन चक्रधारी बन राज्य-भाग्य लेते
हो, ऐसे बापदादा का सिकीलधे बच्चों को यादप्यार और गुडमार्निग। रूहानी बाप की रूहानी
बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) बाप के गले का हार बनने के लिए बुद्धि की दौड़ लगानी है। याद की
यात्रा में रेस करनी है।
2) शरीर निर्वाह अर्थ कर्म करते स्वदर्शन चक्र फिराना है। कभी भी सतगुरू का
निंदक नहीं बनना है। नाम बदनाम करने वाला कर्म नहीं करना है।