01-01-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 26.03.93 "बापदादा" मधुबन
अव्यक्त वर्ष में लक्ष्य
और लक्षण को समान बनाओ
आज निराकारी और आकारी
बापदादा सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माओं को आकार रूप से और साकार रूप से देख रहे हैं।
साकार रूप वाली आप सभी आत्मायें भी बाप के सम्मुख हो और आकारी रूपधारी बच्चे भी
सम्मुख हैं। दोनों को बापदादा देख हर्षित हो रहे हैं। सभी के दिल में एक ही संकल्प
है, उमंग है कि हम सभी बाप समान साकारी सो आकारी और आकारी सो निराकारी बाप समान बनें।
बापदादा सभी के इस लक्ष्य और लक्षण को देख रहे हैं। क्या दिखाई दिया? मैजॉरिटी का
लक्ष्य बहुत अच्छा दृढ़ है लेकिन लक्षण कभी दृढ़ हैं, कभी साधारण हैं। लक्ष्य और
लक्षण में समानता आना, यह निशानी है समान बनने की। लक्ष्य धारण करने में 99 प्रतिशत
भी कोई हैं, बाकी नम्बरवार हैं। लेकिन सदा, सहज और नेचुरल नेचर में लक्षण धारण करने
में कहाँ तक हैं, इसमें मेनॉरिटी 90 प्रतिशत तक हैं, बाकी और नम्बरवार हैं। तो
लक्ष्य और लक्षण में और लक्षण को भी नेचुरल और नेचर बनाने में अन्तर क्यों है? समय
प्रमाण, सरकमस्टांश प्रमाण, समस्या प्रमाण कई बच्चे पुरुषार्थ द्वारा अपने लक्ष्य
और लक्षण को समान भी बनाते हैं। लेकिन यह नेचुरल और नेचर हो जाये, उसमें अभी और
अटेन्शन चाहिए। यह वर्ष अव्यक्त फरिश्ता स्थिति में स्थित रहने का मना रहे हो। यह
देख बापदादा बच्चों के प्यार और पुरुषार्थ - दोनों को देख-देख खुश होते हैं, “वाह
बच्चे, वाह'' का गीत भी गाते हैं। साथ-साथ अभी और आगे सर्व बच्चों के लक्ष्य और
लक्षण में समानता देखना चाहते हैं। आप सब भी यही चाहते हो ना। बाप भी चाहते, आप भी
चाहते, फिर बीच में बाकी क्या है? वह भी अच्छी तरह से जानते हो। आपस में वर्कशॉप
करते हो ना!
बापदादा ने लक्ष्य और
लक्षण में अन्तर होने की विशेष एक ही बात देखी। चाहे आकारी फरिश्ता, चाहे निराकारी
निरन्तर, नेचुरल नेचर हो जाये - इसका मूल आधार है निरहंकारी बनना। अहंकार अनेक
प्रकार का है। सबसे विशेष कहने में भल एक शब्द ‘देह-अभिमान' है लेकिन देह-अभिमान का
विस्तार बहुत है। एक है मोटे रूप में देह-अभिमान, जो कई बच्चों में नहीं भी है। चाहे
स्वयं की देह, चाहे औरों की देह, अगर औरों की देह का भी आकर्षण है, वो भी
देह-अभिमान है। कई बच्चे इस मोटे रूप में पास हैं, मोटे रूप से देह के आकार में
लगाव वा अभिमान नहीं है। परन्तु इसके साथ-साथ देह के सम्बन्ध से अपने संस्कार विशेष
हैं, बुद्धि विशेष है, गुण विशेष हैं, कोई कलायें विशेष हैं, कोई शक्ति विशेष है
उसका अभिमान अर्थात् अहंकार, नशा, रोब - ये सूक्ष्म देह-अभिमान है। अगर इन सूक्ष्म
अभिमान में से कोई भी अभिमान है तो न आकारी फरिश्ता नेचुरल-निरन्तर बन सकते, न
निराकारी बन सकते क्योंकि आकारी फरिश्ते में भी देहभान नहीं है, डबल लाइट है।
देह-अहंकार निराकारी बनने नहीं देगा। सभी ने इस वर्ष अटेन्शन अच्छा रखा है,
उमंग-उत्साह भी है, चाहना भी बहुत अच्छी है, चाहते भी हैं लेकिन आगे और अटेन्शन
प्लीज! चेक करो “किसी भी प्रकार का अभिमान वा अहंकार नेचुरल स्वरूप से पुरुषार्थी
स्वरूप तो नहीं बना देता है? कोई भी सूक्ष्म अभिमान अंश रूप में भी रहा हुआ तो नहीं
है जो समय प्रमाण और कहाँ सेवा प्रमाण भी इमर्ज हो जाता है?'' क्योंकि अंश-मात्र ही
समय पर धोखा देने वाला है इसलिए इस वर्ष में जो लक्ष्य रखा है, बापदादा यही चाहते
हैं कि लक्ष्य सम्पन्न होना ही है।
चलते-चलते कोई विशेष
स्थूल रूप में उस दिन, उस समय कोई भूल भी नहीं करते हो लेकिन कभी-कभी ये अनुभव करते
हो ना कि “आज वा अभी नामालूम क्या है जो जैसी खुशी होनी चाहिए वैसी नहीं है, ना-मालूम
आज अकेलापन वा निराशा वा व्यर्थ संकल्पों का अचानक तूफान क्यों आ रहा है! अमृतवेला
भी किया, क्लास भी किया, सेवा भी, जॉब भी किया परन्तु ये क्यों हो रहा है?'' कारण
क्या होता है? मोटे रूप को तो चेक कर लेते हो और उसमें समझते हो कि कोई गलती नहीं
हुई। लेकिन सूक्ष्म अभिमान के स्वरूप का अंश सूक्ष्म में प्रकट होता है इसलिए कोई
भी काम में दिल नहीं लगेगी, वैराग्य, उदास-उदास फील होगा। या तो सोचेंगे कोई एकान्त
के स्थान पर चले जायें, या सोचेंगे सो जायें, रेस्ट में चले जायें या परिवार से
किनारा कर लें थोड़े टाइम के लिए। इन सब स्थितियों का कारण अंश की कमाल होती है।
कमाल नहीं कहो, धमाल ही कहो। तो सम्पूर्ण निरहंकारी बनना अर्थात् आकारी-निराकारी
सहज बनना। जैसे कभी-कभी दिल नहीं होती कि क्या सदा एक ही दिनचर्या में चलना है,
चेंज तो चाहिए ना? न चाहते भी यह स्थिति आ जाती है।
जब निरहंकारी बन
जायेंगे तो आकारी और निराकारी स्थिति से नीचे आने की दिल नहीं होगी। उसी में ही
लवलीन अनुभव करेंगे क्योंकि आपकी ओरीज़नल अनादि स्टेज तो निराकारी है ना। निराकार
आत्मा ने इस शरीर में प्रवेश किया है। शरीर ने आत्मा में नहीं प्रवेश किया, आत्मा
ने शरीर में प्रवेश किया। तो अनादि ओरीजनल स्वरूप तो निराकारी है ना कि शरीरधारी
है? शरीर का आधार लिया लेकिन लिया किसने? आप आत्मा ने, निराकार ने साकार शरीर का
आधार लिया। तो ओरीज़नल क्या हुआ, आत्मा या शरीर? आत्मा। ये पक्का है? तो ओरीजनल
स्थिति में स्थित होना सहज या आधार लेने वाली स्थिति में सहज?
अहंकार आने का दरवाजा
एक शब्द है, वो कौनसा? ‘मैं'। तो यह अभ्यास करो जब भी ‘मैं' शब्द आता है तो ओरीजनल
स्वरूप सामने लाओ ‘मैं' कौन? मैं आत्मा या फलाना-फलानी? औरों को ज्ञान देते हो ना
‘मैं' शब्द ही उड़ाने वाला है, ‘मैं' शब्द ही नीचे ले आने वाला है। ‘मैं' कहने से
ओरीजनल निराकार स्वरूप याद आ जाये, ये नेचुरल हो जाये तो यह पहला पाठ सहज है ना। तो
इसी को चेक करो, आदत डालो ‘मैं' सोचा और निराकारी स्वरूप स्मृति में आ जाये। कितनी
बार ‘मैं' शब्द कहते हो! मैंने यह कहा, ‘मैं' यह करूँगी, ‘मैं' यह सोचती हूँ...
अनेक बार ‘मैं' शब्द यूज़ करते हो। तो सहज विधि यह है निराकारी वा आकारी बनने की जब
भी ‘मैं' शब्द यूज़ करो, फौरन अपना निराकारी ओरीजनल स्वरूप सामने आये। ये मुश्किल
है वा सहज है? फिर तो लक्ष्य और लक्षण समान हुआ ही पड़ा है। सिर्फ यह युक्ति
निरहंकारी बनाने का सहज साधन अपनाकर के देखो। यह देहभान का ‘मैं' समाप्त हो जाये।
क्योंकि ‘मैं' शब्द ही देह-अहंकार में लाता है और अगर ‘मैं' निराकारी आत्मा स्वरूप
हूँ - यह स्मृति में लायेंगे तो यह ‘मैं' शब्द ही देह-भान से परे ले जायेगा। ठीक है
ना। सारे दिन में 25-30 बार तो जरूर कहते होंगे। बोलते नहीं हों तो सोचते तो होंगे
‘मैं' यह करूँगी, मुझे यह करना है...। प्लैन भी बनाते हो तो सोचते हो ना। तो इतने
बार का अभ्यास, आत्मा स्वरूप की स्मृति क्या बना देगी? निराकारी। निराकारी बन, आकारी
फरिश्ता बन कार्य किया और फिर निराकारी! कर्म-सम्बन्ध के स्वरूप से सम्बन्ध में आओ,
सम्बन्ध को बन्धन में नहीं लाओ। देह-अभिमान में आना अर्थात् कर्म-बन्धन में आना।
देह सम्बन्ध में आना अर्थात् कर्म-सम्बन्ध में आना। दोनों में अंतर है। देह का आधार
लेना और देह के वश होना दोनों में अन्तर है। फरिश्ता वा निराकारी आत्मा देह का आधार
लेकर देह के बन्धन में नहीं आयेगी, सम्बन्ध रखेगी लेकिन बन्धन में नहीं आयेगी। तो
बापदादा फिर इसी वर्ष में रिजल्ट देखेंगे कि निरहंकारी, आकारी फरिश्ते और निराकारी
स्थिति में लक्ष्य और लक्षण कितने समान हुए?
महानता की निशानी है
निर्मानता। जितना निर्मान उतना सबके दिल में महान् स्वत: ही बनेंगे। बिना निर्मानता
के सर्व के मास्टर सुखदाता बन नहीं सकते। निर्मानता निरहंकारी सहज बनाती है।
निर्मानता का बीज महानता का फल स्वत: ही प्राप्त कराता है। निर्मानता सबके दिल में
दुआयें प्राप्त कराने का सहज साधन है। निर्मानता सबके मन में निर्मान आत्मा के प्रति
सहज प्यार का स्थान बना देती है। निर्मानता महिमा योग्य स्वत: ही बनाती है। तो
निरहंकारी बनने की विशेष निशानी है - निर्मानता। वृत्ति में भी निर्मानता, दृष्टि
में भी निर्मानता, वाणी में भी निर्मानता, सम्बन्ध-सम्पर्क में भी निर्मानता। ऐसे
नहीं कि मेरी वृत्ति में नहीं था लेकिन बोल निकल गया। नहीं। जो वृत्ति होगी वो
दृष्टि होगी, जो दृष्टि होगी वो वाणी होगी, जो वाणी होगी वही सम्बन्ध-सम्पर्क में
आयेगा। चारों में ही चाहिए। तीन में है, एक में नहीं है तो भी अहंकार आने की
मार्जिन है। इसको कहा जाता है फरिश्ता। तो समझा, बापदादा क्या चाहते हैं और आप क्या
चाहते हो? ‘चाहना' दोनों की एक है, अभी ‘करना' भी एक करो। अच्छा!
आगे सेवा के नये-नये
प्लैन क्या बनायेंगे? कुछ बनाया है, कुछ बनायेंगे। चाहे यह वर्ष, चाहे आगे का वर्ष
जैसे और प्लैन सोचते हो कि भाषण भी करेंगे, सम्बन्ध-सम्पर्क भी बढ़ायेंगे, बड़े
प्रोग्राम भी करेंगे, छोटे प्रोग्राम भी करेंगे ये तो सोचते ही हो लेकिन वर्तमान
समय के गति प्रमाण अभी सेवा की भी फास्ट गति चाहिए। वो कैसे होगी? वाणी द्वारा,
सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा तो सेवा कर ही रहे हो, मन्सा-सेवा भी करते हो लेकिन अभी
चाहिए थोड़े समय में सेवा की सफलता ज्यादा हो। सफलता अर्थात् रिजल्ट। उसकी विधि है
कि वाणी के साथ-साथ पहले अपनी स्थिति और स्थान के वायब्रेशन्स पॉवरफुल बनाओ। जैसे
आपके जड़ चित्र क्या सेवा कर रहे हैं? वायब्रेशन्स द्वारा कितने भक्तों को प्रसन्न
करते हैं! डबल विदेशियों ने मन्दिर देखे हैं? आपके ही तो मन्दिर हैं ना! कि सिर्फ
भारत वालों के मन्दिर हैं? आपके चित्र सेवा कर रहे हैं ना! तो वाणी द्वारा भल करो
लेकिन अभी ऐसी प्लैनिंग करो, वाणी के साथ-साथ वायब्रेशन की ऐसी विधि बनाओ जो वाणी
और वायब्रेशन डबल काम करे। वायब्रेशन बहुतकाल रहता है। वाणी से सुना हुआ कभी-कभी
कइयों को भूल भी जाता है लेकिन वायब्रेशन की छाप ज्यादा समय चलती है। जैसे आप लोग
अपने जीवन में अनुभवी हो कि कोई का उल्टा वायब्रेशन अगर आपके मन में या बुद्धि में
बैठ जाता है, तो उल्टा कितना समय चलता है! वायब्रेशन अन्दर बैठ जाता है ना। और बोल
तो उसी समय भूल जायेगा लेकिन वायब्रेशन के रूप में मन और बुद्धि में छाप लग जाती
है। और कितना समय उसी वायब्रेशन के वश, उस व्यक्ति से व्यवहार में आते हो? चाहे
उल्टा हो, चाहे सुल्टा हो लेकिन वायब्रेशन मुश्किल से मिटता है।
लेकिन यह रूहानी
वायब्रेशन्स फैलाने के लिए पहले अपने मन में, बुद्धि में व्यर्थ वायब्रेशन्स समाप्त
करेंगे तब रूहानी वायब्रेशन फैला सकेंगे। किसी के भी प्रति अगर व्यर्थ वायब्रेशन्स
धारण किये हुए हैं तो रूहानी वायब्रेशन्स नहीं फैला सकते। व्यर्थ वायब्रेशन रूहानी
वायब्रेशन के आगे एक दीवार बन जाती है। चाहे सूर्य कितना भी प्रकाशमय हो, अगर सामने
दीवार आ गई, बादल आ गये तो सूर्य के प्रकाश को प्रज्ज्वलित होने नहीं देते। जो पक्का
वायब्रेशन है वो है दीवार और जो हल्के वायब्रेशन हैं वो है हल्के बादल या काले बादल।
वो रूहानी वायब्रेशन्स को आत्माओं तक पहुँचने नहीं देंगे। जैसे सागर में कोई जाल
डालकर अनेक चीजों को एक ही बार इकट्ठा कर देते हैं या कहाँ भी अपनी जाल फैलाकर एक
समय पर अनेकों को अपना बना लेते हैं, तो वायब्रेशन्स एक ही समय पर अनेक आत्माओं को
आकर्षित कर सकते हैं। वायब्रेशन्स वायुमण्डल बनाते हैं। तो आगे की सेवा में वृत्ति
द्वारा रूहानी वायब्रेशन से साथ-साथ सेवा करो, तभी फास्ट होगी। वायब्रेशन और
वायुमण्डल के साथ-साथ वाणी की भी सेवा करेंगे तो एक ही समय पर अनेक आत्माओं का
कल्याण कर सकते हो।
बाकी प्रोग्राम्स के
लिए आगे भी बनी बनाई स्टेज का प्रयोग और ज्यादा करो, उसको और बढ़ाओ। सम्पर्क वालों
द्वारा यह सहयोग लेकर इस सेवा की वृद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। सहयोगियों का
सहयोग किसी भी विधि से बढ़ाते चलो तो स्वत: ही सेवा में सहयोगी बनने से सहज योगी बन
जायेंगे। कई ऐसी आत्मायें होती हैं जो सीधा सहजयोगी नहीं बनेंगी लेकिन सहयोग लेते
जाओ, सहयोगी बनाते जाओ। तो सहयोग में आगे बढ़ते-बढ़ते सहयोग उन्हों को योगी बना देता
है। तो सहयोगी आत्माओं को और स्टेज पर लाओ, उन्हों का सहयोग सफल करो। समझा, क्या
करना है? कोई एक आत्मा भी सहयोगी बनती है तो वह आत्मा प्रैक्टिकल में सहयोग लेने
से, देने से, प्रत्यक्ष दुआओं से सहज आगे बढ़ती है और अनेकों की सेवा के निमित्त
बनती है।
साथ-साथ वर्ष में मास
मुकरर करो कुछ मास विशेष स्वयं के पुरुषार्थ वा श्रेष्ठ शक्ति धारण करने के अभ्यास
के, जिसको आप तपस्या, रिट्रीट या भट्ठियां कहते हो। हरेक देश के प्रमाण दो-दो मास
फिक्स करो, जैसी सीज़न हो। दो मास तपस्या के, दो मास छोटी-छोटी सेवाओं के, दो मास
बड़े रूप की सेवाओं के ऐसे फिक्स करो। ऐसे नहीं कि 12 मास सेवा में इतने बिजी हो
जाओ जो स्व की प्रगति के लिए टाइम कम मिले। जैसा देश का सीज़न हो, कई समय ऐसे होते
हैं जिसमें बाहर की विशेष सेवा नहीं कर सकते, वो समय अपने प्रगति के प्रति विशेष
रूप से रखो। सारा साल सेवा नहीं करो यह भी नहीं हो सकता, सारा साल सिर्फ तपस्या करो
यह भी नहीं हो सकता, इसलिये दोनों को साथ-साथ लक्ष्य में रखते हुए अपने स्थान के
प्रमाण मुकरर करो जिसमें सेवा और स्व की प्रगति दोनों साथ-साथ चलें।
अच्छा। इस वर्ष की
सीज़न की समाप्ति है। समाप्ति में क्या किया जाता है? समाप्ति में एक तो समारोह किया
जाता है और दूसरा आध्यात्मिक बातों में स्वाहा किया जाता है। तो अभी स्वाहा क्या
करेंगे? एक बात विशेष मन-बुद्धि से स्वाहा करो, वाणी से नहीं, सिर्फ पढ़ लिया वह नहीं,
मन-बुद्धि से स्वाहा करो। फिर देखो, स्व और सेवा में तीव्र गति कैसे होती है! तो आज
की लहर है किसी भी आत्मा के प्रति व्यर्थ वायब्रेशन को स्वाहा करो। स्वाहा कर सकते
हो? कि थोड़ा-थोड़ा रहेगा? ऐसे नहीं समझो कि यह है ही ऐसा तो वायब्रेशन तो रहेगा
ना! कैसा भी हो लेकिन आप निगेटिव वायब्रेशन को बदल पॉजिटिव वायब्रेशन रखेंगे तो वह
आत्मा भी निगेटिव से पॉजिटिव में आ ही जायेगी, आनी ही है क्योंकि जब तक यह व्यर्थ
वायब्रेशन मन-बुद्धि में है, तो फास्ट गति की सेवा हो ही नहीं सकती।
वृत्ति द्वारा रूहानी
वायब्रेशन्स फैलाने हैं। वृत्ति है रॉकेट, जो यहाँ बैठे-बैठे जहाँ भी चाहो, जितना
भी पॉवरफुल परिवर्तन करने चाहो वह कर सकते हो। यह रूहानी रॉकेट है। जहाँ तक जितनों
को पहुँचाने चाहो, उतना पॉवरफुल वृत्ति से वायब्रेशन, वायब्रेशन से वायुमण्डल बना
सकते हो। चाहे वो रीयल में रांग भी हो लेकिन आप उसका रांग धारण नहीं करो। रांग को
आप क्यों धारण करते हो? ये श्रीमत है क्या? समझना अलग चीज़ है। नॉलेजफुल भले बनो
लेकिन नॉलेजफुल के साथ पॉवरफुल बनकर के उसको समाप्त कर दो। समझना अलग चीज़ है, समाना
अलग चीज़ है, समाप्त करना और अलग चीज़ है। भल समझते हो ये रांग है, ये राइट है, ये
ऐसा है। लेकिन अन्दर वह समाओ नहीं। समाना आता है, समाप्त करना नहीं आता है। ज्ञान
अर्थात् समझ। लेकिन समझदार उसको कहा जाता है जिसको समझना भी आता हो और मिटाना भी आता
हो, परिवर्तन करना भी आता हो।
इस वर्ष में मन और
बुद्धि को बिल्कुल व्यर्थ से फ्री करो। यही फास्ट गति को साधारण गति में ले आती है
इसलिए ये समाप्ति समारोह करो अर्थात् स्वाहा करो। बिल्कुल क्लीन। कैसा भी है, लेकिन
क्षमा करो। शुभ भावना, शुभ कामना की वृत्ति से शुभ वायब्रेशन्स धारण करो क्योंकि
लास्ट में आगे बढ़ते हुए यही वृत्ति-वायब्रेशन आपकी सेवा बढ़ायेगी, तब जल्दी से
जल्दी कम से कम 9 लाख बना सकेंगे। समझा, क्या स्वाहा करना है? व्यर्थ वृत्ति,
व्यर्थ वायब्रेशन स्वाहा! फिर देखो, नेचुरल योगी और नेचर में फरिश्ता बने ही हुए
हैं। इस अनुभव पर रिट्रीट करो, वर्कशॉप करो “कैसे होगा, नहीं; ऐसे होगा।'' अच्छा!
सदा स्वयं को बार-बार
ओरीजनल स्वरूप ‘मैं निराकारी हूँ' - ऐसे निश्चय और नशे में उड़ने वाले, सदा
निर्मानता द्वारा महानता की प्राप्ति के अनुभवी आत्मायें, ऐसे निर्मान, सदा महान्
और सदा आकारी निराकारी स्थिति को नेचर और नेचुरल बनाने वाले सर्व श्रेष्ठ आत्माओं
को बापदादा का बहुत-बहुत-बहुत याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:-
इस मरजीवा
जीवन में सदा सन्तुष्ट रहने वाले इच्छा मात्रम् अविद्या भव
आप बच्चे मरजीवा बने
ही हो सदा सन्तुष्ट रहने के लिए। जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ सर्वगुण और सर्वशक्तियां
हैं क्योंकि रचयिता को अपना बना लिया, तो बाप मिला सब कुछ मिला। सर्व इच्छायें
इक्ट्ठी करो उनसे भी पदमगुणा ज्यादा मिला है। उसके आगे इच्छायें ऐसे हैं जैसे सूर्य
के आगे दीपक। इच्छा उठने की तो बात ही छोड़ो लेकिन इच्छा होती भी है - यह क्वेश्चन
भी नहीं उठ सकता। सर्व प्राप्ति सम्पन्न हैं इसलिए इच्छा मात्रम् अविद्या, सदा
सन्तुष्ट मणि हैं।
स्लोगन:-
जिनके संस्कार इज़ी हैं वे कैसी भी परिस्थिति में स्वयं को मोल्ड कर लेंगे।