16-06-13 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 16-01-77 मधुबन
सन्तुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है
वरदाता बाप द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करते हुए बाप समान वरदानी मूर्त्त बने हो? एक है - ज्ञान रत्नों का महादान। दूसरा है - कमज़ोर आत्माओं प्रति अपने शुद्ध संकल्प व शुभ भावना द्वारा सर्वशक्तिवान से, प्राप्त हुई शक्तियों का वरदान। ज्ञान-धन दान देने से आत्मा स्वयं भी ज्ञान-स्वरूप बन जाती है। लेकिन जो कमज़ोर आत्माएं ज्ञान को धारण नहीं कर सकती, ज्ञानी तू आत्मा नहीं बन सकती, स्वयं के पुरूषार्थ द्वारा श्रेष्ठ प्रालब्ध नहीं बना सकती - ऐसी सिर्फ स्नेह, सहयोग, सम्पर्क, भावना में रहने वाली आत्माएं आप वरदानी मूर्तों द्वारा वरदान के रूप में कोई न कोई विशेष शक्ति प्राप्त कर थोड़ी-सी प्राप्ति में भी अपने को भाग्यशालाr अनुभव करेंगी, जिसको प्रजा पद की प्राप्ति करने वाली आत्माएं कहेंगे। ऐसी आत्माएं डायरेक्ट योग द्वारा वा स्वयं की सर्व धारणाओं द्वारा, बाप-दादा द्वारा सर्व शक्तियों को प्राप्त नहीं कर पातीं। लेकिन प्राप्त की हुई आत्माओं द्वारा आत्माओं के सहयोग से कुछ न कुछ वरदान प्राप्त कर लेती हैं।
शक्तियों को विशेष रूप में ‘वरदानी’ कह कर पुकारते हैं। तो अभी अन्त के समय में महादानी से भी ज्यादा, वरदानी रूप की सेवा होगी। स्वयं की अन्तिम स्टेज पावरफुल होने के कारण, सम्पन्न होने के कारण ऐसी प्रजा आत्माएं थोड़े समय में, थोड़ी-सी प्राप्ति में भी बहुत खुश हो जाती हैं। स्वयं की संतुष्ट स्थिति होने के कारण वे आत्माएं भी जल्दी संतुष्ट हो जाती हैं और खुश हो कर बार-बार महान आत्माओं के गुण गायेंगी। ‘कमाल है’ यही आवाज़ चारों ओर अनेक आत्माओं के मुख से निकलेगा। बाप का शुक्रिया और निमित्त बनी आत्माओं का शुक्रियां, यही गीतो के रूप में चारों ओर गूंजेगा। प्राप्ति के आधार पर हर एक आत्मा अपने दिल से महिमा के फूलों की वर्षा करेगी। अब ऐसे वरदानी मूर्त्त बनने के लिए विशेष अटेंशन एक बात का रखना है। सदा स्वयं से और सर्व से संतुष्ट - संतुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है व अष्ट देवता बन सकती है। सबसे बड़े से बड़ा गुण कहो या दान कहो या विशेषता कहो या श्रेष्ठता कहो, वह संतुष्टता ही है। संतुष्ट आत्मा ही प्रभु प्रिय, लोक प्रिय और स्वयं प्रिय होती है। संतुष्ट आत्मा की परख इन तीनों बातों से होती है। ऐसी संतुष्ट आत्मा ही वरदानी रूप में प्रसिद्ध होगी। तो अपने को चेक करो कि कहाँ तक सन्तुष्ट आत्मा सो वरदानी आत्मा बने हैं? समझा? अच्छा।
ऐसे विश्व-कल्याणकारी, महा वरदानी, एक सेकेण्ड के संकल्प द्वारा अनुभव कराने वाले, सर्व शक्तियों का प्रसाद तड़पती हुई आत्माओं को दे प्रसन्न करने वाले, ऐसे साक्षात्कार मूर्त्त, दर्शनीय मूर्त्त, सम्पन्न और समान मूर्त्त, सर्व की श्रेष्ठ भावनाएं, श्रेष्ठ कामनायें पूर्ण करने वाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
16-06-13 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 18-01-77 मधुबन
18 जनवरी का विशेष महत्व
सभी स्मृति-स्वरूप अर्थात् समर्थी-स्वरूप स्थिति में स्थित हो? आज का दिन विशेष रूप में स्मृति-स्वरूप बनने का है। बाप-दादा के स्नेह में समाए हुए अर्थात् बाप समान बनने वाले स्नेह की निशानी है - समानता। तो आज सारा दिन स्मृति-स्वरूप अर्थात् बाप समान स्वयं को अनुभव किया? बाप-दादा के स्नेह का रेसपान्स ‘बाप समान भव’ का वरदान अनुभव किया? आज का विशेष दिवस स्वत: और सहज और थोड़े समय में बाप समान स्थिति अनुभव करने का दिन है। जैसे सभी युगों में से संगमयुग सहज प्राप्ति का युग गाया जाता है, वैसे ब्राह्मण के लिए संगमयुग में भी यह दिन विशेष सर्वशक्तियों के वरदान प्राप्त होने का, ‘बाप समान’ की स्थिति का अनुभव करने का ड्रामा में नूंधा हुआ है। विशेष दिन का विशेष महत्व जान, महान रूप से मनाया? अमृतवेले से बाप-दादा ने विशेष अनुभवों के गोल्डन चान्स की लाटरी खोली है। ऐसी लाटरी लेने के अधिकार को अनुभव किया? स्नेह-युक्त रह व योग-युक्त, सर्वशक्तयों के प्रति युक्त, सर्व प्रकार के प्रकृति व माया के आकर्षण से परे रहे? आज बाप-दादा ने बच्चों के पुरूषार्थ की रिज़ल्ट देखीं। रिज़ल्ट में क्या देखा, जानते हो?
बहुत बच्चे बाप-दादा के सिर के ताज के रूप में देखे। और कई बच्चे गले के हार के रूप में देखे; और कई बच्चे भुजाओं के श्रृंगार के रूप में देखे। अब हर एक अपने से पूछे कि ‘‘मेरा स्थान कहाँ है?’’ (जहाँ बाबा बिठायेंगे) बाबा बिठाये, लेकिन बैठना तो आपको पड़ेगा ना! बाप की आज्ञा बहुत बड़ी है। उसको जानते हो ना? विदेशी सो स्वदेशी किस में होंगे? सब विदेशी ताज में आयेंगे तो स्वदेशी कहाँ जायेंगे? ताज में तो बहुत थोड़े होते हैं। मेजारिटी गले और भुजाओं का श्रृंगार हैं। ताजधारी अर्थात् बाप के ताज में चमकते हुए रत्न, जिन की विशेष पूजा होती है उनकी निशानी है ‘सदा बाप में समाए हुए और समान’। उन के हर बोल और कर्म से सदा और स्वत: बाप प्रत्यक्ष होगा। उनकी सीरत और सूरत को देख हर एक के मुख से यही बोल निकलेंगे कि कमाल है, जो बाप ने ऐसे योग्य बनाया! उनके गुण देखते हुए निरन्तर बाप-दादा के गुण सब गायेंगे। उन की दृष्टि सभी की वृत्ति को परिवर्तन करेंगी। ऐसी स्थिति वाले सिर के ताज गाए जाते हैं।
गले का श्रृंगार अर्थात् सेकेण्ड नम्बर सदैव अपने गले की आवाज़ अर्थात् मुख के आवाज़ द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने के प्रयत्न में रहते हैं। सदा बाप-दादा को अपने सामने रखते हैं; लेकिन समाए हुए नहीं रहते। सदा बाप-दादा के गुण गाते रहते लेकिन स्वयं सदा गुण मूर्त्त नहीं रहते। समान बनने की भावना और श्रेष्ठ कामना रखते हैं लेकिन हर प्रकार की माया के वारों का सामना नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति वाले गले का श्रृंगार हैं।
तीसरी क्वालिटी तो सहज ही समझ गए होंगे, भुजा की निशानी है सहयोग की, जो किसी भी प्रकार से, मन से, वाणी से आथवा कर्म से, तनमन वा धन से बाप के कर्त्तव्य में सहयोगी होते हैं, लेकिन सदा योगी नहीं होते - ऐसे भी अनेक बच्चे हैं। बाप-दादा ने रिवाईज़ कोर्स के साथ रियलाईजेशन कोर्स भी दिया है। अब बाकी क्या रहा? क्या कमी रह गई है बाकी?
नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप हो गए कि अभी होना है? 1976 तक होना ही था ना? फाईनल विनाश तक रूकी हुई है क्या? इन्तजार तो नहीं कर रहे हो ना? विनाश का इन्तजार करना अर्थात् अपनी डेथ की डेट की स्मृति रखना, अपनी डेथ (मौत) का आह्वान कर रहे हो? कितने संकल्प कर रहे हो, विनाश क्यों नहीं हुआ? कब होगा? कैसे होगा? संगमयुग सुहावना लगता है वा सतयुग? तो घबराते क्यों हो कि विनाश क्यों नहीं हुआ? अगर स्वयं इस प्रश्न से प्रसन्न हैं तो दूसरे को भी प्रसन्न कर सकते हैं। स्वयं ही क्वेश्चन में हैं तो दूसरे भी जरूर पूछेंगे। इसलिए घबराओ नहीं। कोई पूछते हैं कि विनाश क्यों नहीं हुआ, तो और ही उसको कहो कि आप के कारण नहीं हुआ। बाप के साथ हम सभी भी विश्व-कल्याणकारी हैं। विश्व के कल्याण में आप जैसी और आत्माओं का कल्याण रहा हुआ है। इसलिए अभी भी चान्स है। होता क्या है कि जब कोई क्वेश्चन करता है तो आप लोग स्वयं ही ‘क्यों’ 'क्या’ में कनफ्यूज हो जाते हो - हाँ ‘‘कहा तो है, लिखा हुआ तो है, होना तो चाहिये था’’। इसलिए दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाते हो। फलक से कहो कि कल्याणकारी बाबा के इस बोल में भी कल्याण समया हुआ है। उसको हम जानते हैं, आप भी आगे चलकर जानेंगे। डरो मत। ‘क्या कहेंगे, कैसे कहेंगे’ ऐसे सोचकर किनारा न करो। जिन लोगों को कहा है, उनसे डर के मारे किनारा न करो। क्या करेंगे? अगर उल्टा प्रोपगण्डा करेंगे तो वो उल्टा बोल अनेकों को सुल्टा बना देगा। प्रत्यक्षता का साधन बन जायेगा। बच्चे भी पूछते रहते हैं, तो लोगों ने पूछा तो क्या बड़ी बात हुई! सोचते हैं ‘‘यह करें या ना करें? प्रवृत्ति को कैसे चलायें! व्यवहार को कैसे सैट करें! बच्चों की शादी करें या नहीं करें! मकान बनायें या नहीं?’’ वास्तव में इस क्वेश्चन का विनाश की डेट से कोई कनेक्शन नहीं है। अगर प्रॉपर्टी है और बनाने का संकल्प है तो इससे सिद्ध है कि स्वयं प्रति यूज़ करने की भावना है। अगर ईश्वरीय सेवा में लगाना ही है तो मकान बनाना या वैसे ही प्रॉपर्टी रखना उसका तो क्वेश्चन ही नहीं उठता। लेकिन आवश्यकता है और डायरेक्शन प्रमाण बनाते भी हैं, तो उसका बनाना व्यर्थ नहीं होगा, लेकिन जमा होगा। तो विनाश के कारण घबराने की बात ही नहीं, क्योंकि श्रीमत पर चलना अर्थात् इन्श्योरेन्स करना। उसका उनको फल मिल ही जाता है।
बाकी रहा शादी कराने का वा करने का क्वेश्चन। इसके लिए तो पहले से ही डायरेक्शन है जहाँ तक स्वयं को और अन्य आत्माओं को बचा सकते हो वहाँ तब तक बचाओ। विनाश अगर 1976 में नहीं हुआ तो क्या विनाश के कारण पवित्र रहते थे क्या? पवित्रता तो ब्राह्मण जन्म का स्वधर्म है। पवित्रता का संकल्प ब्राह्मण जन्म का लक्ष्य और लक्षण है। जिसका निजी लक्षण ही पवित्रता है उसका विनाश की डेट के साथ कोई कनेक्शन नहीं। यह तो स्वयं की कमज़ोरी छिपाने का बहाना है। क्योंकि ब्राह्मण बहानेबाजी बहुत जानते हैं। अच्छा, बाकी रही दूसरों को शादी कराने की बात। उसके लिए जहाँ तक बचा सको बचाओ। स्वयं कमज़ोर बन उसको उत्साह नहीं दिलाओ। मन में भी यह संकल्प न करो कि अब तो करना ही पड़ेगा। दस वर्ष पहले भी जिनको बचा न सके तो उनका क्या किया! साक्षी होकर संकल्प से, वाणी से भी बचाने का प्रयत्न किया वैसे ही अभी भी इसी प्रकार दृढ़ रहो। बाकी जिनको गिरना ही है उनको क्या करेंगे! विनाश के कारण स्वयं हलचल में न आओ। आपकी हलचल अज्ञानियों को भी हलचल में लायेगी। आप अचल रहो। फलक से, निर्भयता से बोलो। फिर वो लोग आपे ही चुप हो जायेंगे, कुछ बोल नहीं सकेंगे। आप निश्चय बुद्धि से संकल्प रूप में भी संशय-बुद्धि न बनो। रॉयल रूप का संशय है कि ‘ऐसा होना तो चाहिए था’, पता नहीं बाबा ने क्यों ऐसा कहा था। पहले से ही बाप-दादा बता देते थे। अब सामने कैसे जायेंगे? यह रॉयल रूप का संशय, दुनिया वालों को भी संशय-बुद्धि बनाने के निमित्त बनेगा। ‘‘हाँ! कहा है, अभी भी कहेंगे’’ - इसी निश्चय और नशे में रहो तो वो नमस्कार करने आयेंगे कि धन्य है आपका निश्चय। समझा? घबराओ नहीं, क्या जेल में जाने से डरते हो? डरते नहीं, घबराते हैं। सामना करने की शक्ति नहीं है। यही कहो कि जो कुछ कहा था उसमें कल्याण था। अब भी है। हम अभी भी कहते हैं। उनको अगर ईश्वरीय नशे और रमणीकता से सुनाओ तो वो और ही हंसेंगे। लेकिन पहले स्वयं मजबूत हो। समझा?
आज सबके संकल्प पहुँचे, सबको इन्तजार था 18 तारीख को क्या सुनायेंगे। अब सुना? बाप-दादा साथ हैं; कोई कुछ कर नहीं सकता; कह नहीं सकता, जलती हुई भट्टी में भी पूंगरे सलामत रहे, यह तो कुछ भी नहीं है। बाल भी बांका नहीं कर सकता। साधारण साथ नहीं, सर्वशक्तिवान का साथ है। इसलिए ‘निश्चयबुद्धि विजयन्ति’।
डेट बताने की जरूरत ही नहीं। कभी भी फाइनल विनाश की डेट फिक्स नहीं हो सकती। अगर डेट फिक्स हो जाए तो सब सीट्स भी फिक्स हो जाएं, फिर तो पास विद् ऑनर्स की लम्बी लाइन हो जाए। इसलिए डेट से निश्चिन्त रहो। जब सब निश्चिन्त होंगे तो डेट आ ही जायेगी। जब सभी इस संकल्प से निरसंकल्प होंगे वही डेट विनाश की होगी। अच्छा।
ऐसे अचल, अटल, अखण्ड, सदा हर परिस्थिति में भी श्रेष्ठ स्थिति में अड़ोल, सर्व गुणों और सर्व शक्तियों के स्तम्भ स्वरूप आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:- अपने आदि अनादि स्वरूप की स्मृति द्वारा सर्व बन्धनों को समाप्त करने वाले बन्धनमुक्त स्वतंत्र भव
आत्मा का आदि अनादि स्वरूप स्वतंत्र है, मालिक है। यह तो पीछे परतंत्र बनी है इसलिए अपने आदि और अनादि स्वरूप को स्मृति में रख बन्धनमुक्त बनो। मन का भी बंधन न हो। अगर मन का भी बंधन होगा तो वह बंधन और बन्धनों को ले आयेगा। बंधनमुक्त अर्थात् राजा, स्वराज्य अधिकारी। ऐसे बन्धनमुक्त स्वतंत्र आत्मायें ही पास विद आनर बनेंगी अर्थात् फर्स्ट डिवीज़न में आयेंगी।
स्लोगन:- मास्टर दु:ख हर्ता बन दु:ख को भी रूहानी सुख में परिवर्तन करना ही सच्ची सेवा है।