07-10-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 22-09-75 मधुबन
स्वमान में स्थित होना ही सर्व खजानें और खुशी की चाबी है
आज की सभा स्वमान में स्थित रहने वाली, सर्व को स्व-भावना से देखने व हर आत्मा के प्रति शुभ कामना रखने वाली है। यह तीनों ही बातें स्वयं के प्रति स्वमान, औरों के प्रति स्व की भावना और सदा शुभ कामना ऐसी स्थिति सदा सहज रहती है? सहज उसमें स्थित रहना और मेहनत से उस स्थिति में स्थित होना इसका फर्क तो जानते ही हो। वर्तमान समय यह स्थिति सदा सहज और स्वत: होनी चाहिए। अपने को चेक करे कि सदा और स्वत: ही वह स्थिति क्यों नहीं हो पाती? इसका मूल कारण है कि स्वमान में स्थित नहीं रहते। स्वमान एक शब्द प्रैक्टिकल जीवन में धारण हो जाय तो सहज ही सम्पूर्णता को पा सकते हैं।
स्वमान में स्थित होने से स्वत: ही सर्व प्रति स्व की भावना व शुभ कामना हो जायेगी। यह स्वमान में स्थित होना पहला पाठ है।’’ स्वमान में स्थित होना ही जीवन की पहेली को हल करने का साधन है। आदि से लेकर अभी तक इस पहेली को हल करने में ही लगे हुए हो कि ‘‘मैं कौन हूँ?’’ शुरू में जब स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ था तो सबको क्या सुनाते थे-व्हाट एम आई अर्थात् मैं कौन हूँ? यह बात इतनी पक्की स्मृति में थी कि सब लोग जानते थे कि इन सबका एक ही पाठ है कि व्हाट एम आई? वही एक पाठ अब तक चल रहा है। इसलिए इसको पहेली कहा जाता है। इस इतनी-सी छोटी पहेली ने ऊंचे-से-ऊंचे ब्राह्मणों को भी पराजित कर दिया है। पजल अर्थात् व्याकुल, भ्रमित कर दिया है। अर्थात् सम्पूर्ण रीति से हल नहीं कर पाये हैं। स्वमान के बजाय देह-अभिमान व अन्य आत्माओं के प्रति अभिमान की दृष्टि हो जाती है तो क्या कहे? क्या यह पहेली हल कर ली है अथवा अभी तक भी हल कर ही रहे हैं।
‘‘मैं कौन हूँ’’ इस एक शब्द के उत्तर में सारा ज्ञान समाया हुआ है। यह एक शब्द ही खुशी के खज़ाने सर्व, शक्तियों के खज़ाने, ज्ञान धन के खज़ाने, श्वांस और समय के खज़ाने की चाबी है। चाबी तो मिल गई है न? जिस दिन आपका जन्म हुआ तो सर्व ब्राह्मणों को बर्थ डे पर गिफ्ट मिलती है ना? तो यह बर्थ डे की गिफ्ट जो बाप ने दी है, उसको सदा यूज़ (काम में लाना) करते रहो। तो सर्व खज़ानों से सम्पन्न सदा के लिये बन सकते हो। ऐसे सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्मा के दिल के खुशी की उमंगों में हर समय कौन-सा आवाज निकलता है? मुख का आवाज नहीं, लेकिन दिल का आवाज क्या निकलता है? जो शुरू में ब्रह्मा बाप के दिल का आवाज था - कौन-सा ? ‘वाह रे मैं!’ जैसे औरों की वाह-वाह की जाती है ना - वैसे वाह रे मैं! यह स्वमान के शब्द हैं, न कि देह-अभिमान के।
तो मैं कौन हूँ की चाबी को या तो लगाना नहीं आता या फिर रखना नहीं आता (रटना तो आता है) रखना नहीं आता। इसलिये समय पर याद नहीं आता। इस चाबी को चुराने के लिए माया भी चारों ओर घूमती है कि कहीं यह एक सेकेण्ड भी अलबेलेपन के झुटके में आयें तो यह चाबी चोरी कर लें। जैसे आजकल के डाकू बेहोश कर देते हैं वैसे ही माया भी स्वमान का होश अर्थात् स्मृति को गायब कर बेहोश बना देती है। इसलिए सदा स्वमान के होश में रहो। अमृतवेले स्वयं को ही स्वयं यह पाठ पक्का कराओ अर्थात् रिवाइज कराओ कि - मैं कौन हूँ? अमृत वेले से ही इस चाबी को अपने कार्य में लगाओ। और अनेक प्रकार के खज़ाने जो सुनाये हैं उनको बार-बार देखो कि क्या-क्या खज़ाना मिला है और समय प्रमाण इन सब खज़ानों को अपने जीवन में यूज़ करो। जैसे कल सुनाया कि सिर्फ बैंक बैलेन्स नहीं बनाओ लेकिन उसे काम में लगाओ। तो सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जायेगी।
जैसे कल्प पहले के यादगार शास्त्र में लिखा हुआ है - बाप के लिये कहते हैं कि मैं कौन हूँ तो सर्व में श्रेष्ठ का वर्णन किया है। ऐसे ही जैसे बाप का ऊंचेसे- ऊंचे भगवान का गायन है, तो भगवान बाप क्या गायन करते हैं - ऊंचे-से- ऊंचे बच्चे। ऐसे अपने ऊंच अर्थात् श्रेष्ठ स्वमान को सदा याद रखो कि ऊंचे बाप के भी ‘बालक सो मालिक’ हैं। स्वयं बाप हम श्रेष्ठ आत्माओं की माला सुमिरण करते हैं। बाप की महिमा आत्मायें करती हैं, लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं की महिमा स्वयं बाप करते हैं। सर्व श्रेष्ठ आत्माओं के सहयोग के बिना तो बाप भी कुछ नहीं कर सकता। तो आप ऐसे श्रेष्ठ स्वमान वाले हो। बाप को सर्व-सम्बन्धों से प्रख्यात करने वाले व बाप का परिचय देने वाली आप श्रेष्ठ आत्माएँ हो। हर कल्प में ऊंचे से ऊंचे बाप के साथ उंचे से ऊंचे पार्ट बजाने वाली हो। सबसे बड़े स्वमान की बात तो यह है कि जो संगम युग पर बाप को भी अपने स्नेह और सम्बन्ध की डोर में बांधने वाले हो। बाप को भी साकार में आप समान बनाने वाले हो। बाप निराकार रूप में आप समान बनाते हैं और आप निराकार को साकार में आने में उसे आप समान बनाते हो और आप स्वयं बाप की सर्व महिमा के समान बनते हो। इसलिये बाप भी कहते हैं - मास्टर हो। तो अब समझा कि मैं कौन हूँ? - जो हूँ, जैसा हूँ, वैसा ही अपने को जानने से सदा स्वमान में रहेगे और देह-अभिमान से स्वत: ही परे रहेगे। स्वमान के आगे देह-अभिमान आ ही नहीं सकता। तो अपने बर्थ डे की गिफ्ट को सदा अपने पास सम्भाल कर रखो। अलबेलेपन में भूल न जाओ। इससे ही स्वत: सहज और सदा सर्व प्रति स्व की भावना और शुभ-कामना रहेगी। समझा? पहेली तो सहज है ना? समझदार के लिये सहज है और अलबेली आत्माओं के लिये गुह्य है। आप सब तो बेहद के समझदार बच्चे हो ना? सिर्फ समझदार नहीं लेकिन बेहद के समझदार बच्चे हो। अच्छा।
ऐसे विशाल बुद्धि सर्व में बेहद बुद्धि को धारण करने वाले, सर्व आत्माओं को अनेक प्रकार के हदों से निकालने वाले ऐसे बेहद के बुद्धिमान, बेहद समझदार, बेहद की वैराग्य वृत्ति वाले, सदा बेहद की स्थिति और स्थान में रहने वाले ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बेहद के बाप का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स बहिनों के साथ अव्यक्त मुलाकात पर्सनल -
फरिश्ता अर्थात् जिसका एक बाप के सिवा अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं
‘‘वाह रे - मैं!’’ का नशा याद है? वह दिन, वह झलक और फलक स्मृति में आती है? वह नशे के दिन अलौकिक थे। ऐसे नशे के दिन स्मृति में आते ही नशा चढ़ जाता है - इतना नशा इतनी खुशी जो स्थूल पाँव भी चलते-फिरते नैचुरल डान्स करते हैं - प्रोग्राम से डान्स नहीं। मन में भी नाच और तन भी नैचुरल नाचता रहे। यह नैचुरल डान्स तो निरन्तर हो सकता है? ऑखों का देखना, हाथों का हिलना और पाँव का चलना सब खुशी में नैचुरल डान्स करते हैं। उनको फरिश्तों का डान्स कहते हैं - ऐसे नैचुरल डान्स चलता रहता है? जैसे कहते हैं कि फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं टिकते। ऐसे फरिश्ते बनने वाली आत्मायें भी इस देह अर्थात् धरती - जैसे वह धरती मिट्टी है वैसे यह देह भी मिट्टी है ना? तो फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं रहते अर्थात् फरिश्ते बनने वाली आत्माओं के पाँव अर्थात् बुद्धि इस देह रूपी धरती पर नहीं रह सकती। यही निशानी है फरिश्तेपन की। जितना फरिश्तेपन की स्थिति के समीप जाते रहते, उतना देह रूपी धरती से पाँव स्वत: ही ऊपर होंगे। अगर ऊपर नहीं हैं, धरती पर रहते हैं तो समझो बोझ है। बोझ वाली वस्तु ऊपर नहीं रह सकती। हल्कापन न है, बोझ है तो इस देह-रूपी धरती पर बार-बार पाँव आ जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् हल्का नहीं बनेंगे। फरिश्तों के पाँव धरती से ऊंचे स्वत: ही रहते हैं, करते नहीं हैं। जो हल्का होता है उनके लिये कहते हैं कि यह तो जैसे हवा में उड़ता रहता है - चलता नहीं है, उड़ता है। ऐसे ही फरिश्ते भी ऊंची स्थिति में उड़ते हैं। ऐसे नैचुरल फरिश्तों का डान्स देखने और करने में भी मजा आता है। महारथी टीचर्स यह नेचुरल फरिश्तों की डान्स करती रहती हैं ना?
करन-करावनहार शिव बाबा ने अपने सम्मुख बैठी टीचर्स से पूछा - (कोई ने कहा, बाबा माया के हाथ काट दो) अगर बाप माया के हाथ काट दे तो जो काटेगा, वह पायेगा। बाप तो सब कुछ कर सकते हैं। सेकेण्ड का आर्डर है - लेकिन भविष्य बनाने वालों का भविष्य कैसे बने? बाप सबके लिये कर दे या सिर्फ आपके लिए कर दे। फिर तो जैसे आज की दुनिया में रिश्वतखोर हैं तो यह भी वही लिस्ट हो जायेगी। इसलिए जैसे नेपाल में भी छोटे बच्चों को खुखडी (छुरी) हाथ में पकड़ाते हैं। करते खुद हैं लेकिन हाथ बच्चों का रखाते हैं। इतना हो सकता है लेकिन हिम्मत का हाथ खुद ज़रूर रखना है। इतना तो करना है ना? यह टीचर्स की टॉपिक (चर्चा का विषय) है - सारे दिन में कितना समय फरिश्ते रहते और कितना समय फरिश्तों के बजाय मृत्युलोक के मानव होते हो? दैवी परिवार के रिश्तों में भी फरिश्ते नहीं आते। वह तो सदैव न्यारे रहते हैं। रिश्ते सब किससे हैं? अगर कोई को सखी बनाया तो बाप से वह सखीपन का रिश्ता कम हो जायेगा। कोई भी सम्बन्ध चाहे बहन का या भाई का या अन्य कोई भी रिश्ता जोड़ा तो एक से ज़रूर वह रिश्ता हल्का होगा। क्योंकि बँट जाता है ना? दिल का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया तो टूटा हुआ दिल हो गया। टूटे हुए दिल को बाप भी स्वीकार नहीं करते। यह भी गुह्य रिश्तों की फिलॉसॉफी है।सिवाय एक के और कोई से रिश्ता नहीं - न सखा न सखी। न बहन न भाई - नहीं तो उस सम्बन्ध में भी आत्मा ही याद आयेगी।
फरिश्ता अर्थात् जिसका आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। प्रीति जुटाना सहज है, लेकिन निभाना मुश्किल है। निभाने में ही नम्बर होते हैं। जुटाने में नहीं होते। निभाना किसी-किसी को आता है, सब को नहीं आता। निभाने की लाइन बदली हो जाती है। लक्ष्य एक होता है लक्षण दूसरे हो जाते हैं। इसलिये निभाते कोई-कोई हैं, जुटाते सब हैं। भक्त भी जुटाते हैं लेकिन निभाते नहीं हैं। बच्चे निभाते हैं, लेकिन उसमें भी नम्बरवार। कोटो में कोई और कोई-कोई में भी कोई। कोई एक सम्बन्ध में भी अगर निभाने में कमी हो गई या सम्बन्ध में जरा-सी भी कमी हुई, मानों 75% सम्बन्ध बाप से है और 25% सम्बन्ध कोई एक आत्मा से है, तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं रखेंगे। बाप का साथ 75% रखते हैं और कभी-कभी 25% कोई का साथ लिया तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं आयेंगे। निभाना-तो निभाना। यह भी गुह्य गति है। संकल्प में भी कोई आत्मा न आये। इसको कहते हैं सम्पूर्ण निभाना। कैसी भी परिस्थिति हो, चाहे मन की, तन की, या सम्पर्क की-कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। संकल्प में भी कोई आत्मा की स्मृति आई तो उसी सेकेण्ड का भी हिसाब बनता है। तभी तो आठ पास होते हैं। विशेष आठ का ही गायन है। ज़रूर इतनी गुह्य गति होगी? बड़ा कड़ा पेपर है। तो फरिश्ता उनको कहा जाता है, जिसके संकल्प में भी कोई न रहे। कोई परिस्थिति में, मजबूरी में भी नहीं। सेकेण्ड के लिये संकल्प में भी न हो। मजबूरी में भी मजबूत रहे-तब है फरिश्ता। ऊंची मंज़िल है, लेकिन इसमें कोई नुकसान नहीं है। सहज इसलिये है क्योंकि प्राप्ति पदम गुना होती है।
जो बाप के रिश्ते से प्राप्ति होती है, वह उसी सेकेण्ड में स्मृति में नहीं आती है, भूल जाते हैं इसलिये कोई का आधार ले लेते हैं। प्राप्ति कोई कम है क्या? मुश्किल से सहज करने वाले बाप का ही गायन है, न कि कोई आत्मा का। तो मुश्किल के समय बाप का सहारा लेना चाहिए, न कि किसी आत्मा का सहारा लेना चाहिए। लेकिन उस समय वह प्राप्ति भूल जाती है। कमज़ोर होते हैं। जैसे डूबते हुए को तिनका मिल जाता है तो उसका सहारा ले लेते हैं। उस समय परेशानी के कारण जो तिनका सामने आता है, उनका सहारा ले लेते हैं, लेकिन उससे बे-सहारे हो जायेंगे, यह स्मृति में नहीं रहता? अच्छा।
वरदान:- बाप के प्यार की पालना द्वारा सहज योगी जीवन बनाने वाले स्मृति सो समर्थी स्वरूप भव
सारे विश्व की आत्मायें परमात्मा को बाप कहती हैं लेकिन पालना और पढ़ाई के पात्र नहीं बनती हैं। सारे कल्प में आप थोड़ी सी आत्मायें अभी ही इस भाग्य के पात्र बनती हो। तो इस पालना का प्रैक्टिकल स्वरूप है - सहजयोगी जीवन। बाप बच्चों की कोई भी मुश्किल बात देख नहीं सकते। बच्चे खुद ही सोच-सोच कर मुश्किल बना देते हैं। लेकिन स्मृति स्वरूप के संस्कारों को इमर्ज करो तो समर्थी आ जायेगी।
स्लोगन:- सदा निश्चिंत स्थिति का अनुभव करना है तो आत्म-चिंतन और परमात्म-चिंतन करो।