20-11-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 18.01.88 "बापदादा" मधुबन
‘स्नेह' और ‘शक्ति' की
समानता
आज स्मृतिस्वरूप बनाने
वाले समर्थ बाप चारों ओर के स्मृतिस्वरूप समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। आज का दिन
बापदादा के स्नेह में समाने के साथ-साथ स्नेह और समर्थ - दोनों के बैलेंस स्थिति के
अनुभव का दिन है। स्मृति दिवस अर्थात् स्नेह और समर्थी - दोनों की समानता के वरदान
का दिवस है। क्योंकि जिस बाप की स्मृति में स्नेह में लवलीन होते हो, वह ब्रह्मा
बाप स्नेह और शक्ति की समानता का श्रेष्ठ सिम्बल है। अभी-अभी अति स्नेही, अभी-अभी
श्रेष्ठ शक्तिशाली। स्नेह में भी स्नेह द्वारा हर बच्चे को सदा शक्तिशाली बनाया।
सिर्फ स्नेह में अपनी तरफ आकर्षित नहीं किया लेकिन स्नेह द्वारा शक्ति सेना बनाए
विश्व के आगे सेवा अर्थ निमित्त बनाया। सदा ‘स्नेही भव' के साथ ‘नष्टोमोहा -
कर्मातीत भव' का पाठ पढ़ाया। अन्त तक बच्चों को सदा न्यारे और सदा प्यारे - यही नयनों
की दृष्टि द्वारा वरदान दिया।
आज के दिन चारों ओर
के बच्चे भिन्न-भिन्न स्वरूप से, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से, स्नेह से और बाप के समान
बनने की स्थिति के अनुभूति से मिलन मनाने बापदादा के वतन में पहुँचे। कोई बुद्धि
द्वारा और कोई दिव्य - दृष्टि द्वारा। बापदादा ने सभी बच्चों के स्नेह का और समान
स्थिति का याद और प्यार दिल से स्वीकार किया और रिटर्न में सभी बच्चों को ‘बापदादा
समान भव' का वरदान दिया और दे रहे हैं। बापदादा जानते हैं कि बच्चों का ब्रह्मा बाप
से अति स्नेह है। चाहे साकार में पालना ली, चाहे अब अव्यक्त रूप से पालना ले रहे
हैं लेकिन बड़ी माँ होने के कारण माँ से बच्चों का प्यार स्वत: ही होता है। इस कारण
बाप जानते हैं कि ब्रह्मा माँ को बहुत याद करते हैं। लेकिन स्नेह का प्रत्यक्ष
स्वरूप है - समान बनना। जितना-जितना दिल का सच्चा प्यार है, बच्चों के मन में उतना
ही फालो फादर करने का उमंग-उत्साह दिखाई देता है। यह अलौकिक माँ का अलौकिक प्यार
वियोगी बनाने वाला नहीं है, सहजयोगी राजयोगी अर्थात् राजा बनाने वाला है। अलौकिक
माँ की बच्चों के प्रित अलौकिक ममता है कि हर एक बच्चा राजा बने। सभी राजा बच्चे बनें,
प्रजा नहीं। प्रजा बनाने वाले हो, प्रजा बनने वाले नहीं हो।
आज वतन में मात-पिता
की रूहरिहान चल रही थी। बाप ने ब्रह्मा माँ से पूछा कि बच्चों के विशेष स्नेह के
दिन क्या याद आता? आप लोगों को भी विशेष याद आती है ना। हर एक को अपनी याद आती है
और उन यादों में समा जाते हो। आज के दिन विशेष अलौकिक यादों का संसार होता है। हर
कदम में विशेष साकार स्वरूप के चरित्रों की याद स्वत: ही आती है। पालना की याद,
प्राप्तियों की याद, वरदानों की याद स्वत: ही आती है। तो बाप ने भी ब्रह्मा माँ से
यही पूछा। जानते हो, ब्रह्मा ने क्या बोला होगा? संसार तो बच्चों का ही है। ब्रह्मा
बोले - अमृतवेले पहले ‘समान बच्चे' याद आये। स्नेही बच्चे और समान बच्चे। स्नेही
बच्चों को समान बनने की इच्छा वा संकल्प है लेकिन इच्छा के साथ, संकल्प के साथ सदा
समर्थी नहीं रहती, इसलिए समान बनने में नम्बर आगे के बजाये पीछे रह जाता है। स्नेह
उमंग-उत्साह में लाता लेकिन समास्याएं स्नेह और शक्ति रूप की समान स्थिति बनने में
कहाँ-कहाँ कमज़ोर बना देती हैं। समस्यायें सदा समान बनने की स्थिति से दूर कर लेती
हैं। स्नेह के कारण बाप को भूल भी नहीं सकते। हैं भी पक्के ब्राह्मण। पीछे हटने वाले
भी नहीं हैं, अमर भी हैं। सिर्फ समस्या को देख थोड़े समय के लिए उस समय घबरा जाते
हैं। इसलिए, निरन्तर स्नेह और शक्ति की समान स्थिति का अनुभव नहीं कर सकते।
इस समय के प्रमाण
नॉलेजफुल, पावरफुल, सक्सेसफुल स्थिति के बहुतकाल के अनुभवी बन चुके हो। माया के,
प्रकृति के वा आत्माओं द्वारा निमित्त बनी हुई समस्याओं के अनेक बार के अनुभवी
आत्माएं हो। नई बात नहीं है। त्रिकालदर्शी हो! समस्याओं के आदि-मध्य-अन्त, तीनों को
जानते हो। अनेक कल्पों की बात तो छोड़ो लेकिन इस कल्प के ब्राह्मण जीवन में भी बुद्धि
द्वारा जान विजयी बनने में वा समस्या को पार कर अनुभवी बनने में नये नहीं हो, पुराने
हो गये हो। चाहे एक साल का भी हो लेकिन इस अनुभव में पुराने हैं। ‘नथिंग न्यू' - यह
पाठ भी पढ़ाया हुआ है। इसलिए वर्तमान समय के प्रमाण अभी समस्या से घबराने में समय नहीं
गँवाना है। समय गँवाने से नम्बर पीछे हो जाता है।
तो ब्रह्मा माँ ने
बोला - एक विशेष स्नेही बच्चे और दूसरे समान बनने वाले, दो प्रकार के बच्चों को देख
यही संकल्प आया कि वर्तमान समय प्रमाण मैजारिटी बच्चों को अब समान स्थिति के समीप
देखने चाहते हैं। समान स्थिति वाले भी हैं लेकिन मैजारिटी समानता के समीप पहुँच जाएँ
- यही अमृतवेले बच्चों को देख-देख समान बनने का दिन याद आ रहा था। आप ‘स्मृति - दिन'
को याद कर रहे थे और ब्रह्मा माँ ‘समान बनने का दिन' याद कर रहे थे। यही श्रेष्ठ
संकल्प पूरा करना अर्थात् स्मृति दिवस को समर्थ दिवस बनाना है। यही स्नेह का
प्रत्यक्ष फल माँ - बाप देखने चाहते हैं। पालना का वा बाप के वरदानों का यही
श्रेष्ठ फल है। मात-पिता को प्रत्यक्ष फल दिखाने वाले श्रेष्ठ बच्चे हो। पहले भी
सुनाया था - अति स्नेह की निशानी यह है जो स्नेही, स्नेही की कमी देख नहीं सकते।
इसलिए, अभी तीव्र गति से समान स्थिति के समीप आओ। यही माँ का स्नेह है। हर कदम में
फालो फादर करते चलो। ब्रह्मा एक ही विशेष आत्मा है जिसका मात-पिता - दोनों पार्ट
साकार रूप में नूँधा हुआ है। इसलिए, विचित्र पार्टधारी महान आत्मा का डबल स्वरूप
बच्चों को याद अवश्य आता है। लेकिन जो ब्रह्मा ‘मात-पिता' के दिल की श्रेष्ठ आशा है
कि सर्व समान बनें, उसको भी याद करना। समझा? आज के स्मृति दिवस का श्रेष्ठ संकल्प -
"समान बनना ही है''। चाहे संकल्प में, चाहे बोल में, चाहे सम्बन्ध संपर्क में समान
अर्थात् समर्थ बनना है। कितनी भी बड़ी समस्या हो लेकिन ‘नथिंग-न्यू' - इस स्मृति से
समर्थ बन जायेंगे। इससे अलबेले नहीं बनना, अलबेलेपन में भी नथिंग-न्यू शब्द यूज करते
हैं। लेकिन अनेक बार विजयी बनने में नथिंग-न्यू। इस विधि से सदा सिद्धि को प्राप्त
करते चलो। अच्छा!
सभी बहुत उमंग से
स्मृति दिवस मनाने आए हैं। तीन पैर (पग) पृथ्वी देने वाले भी आए हैं। तीन पैर दे और
तीन लोकों का मालिक बन जाएँ, तो देना क्या हुआ! फिर भी, सेवा का पुण्य जमा करने में
होशियार बने। इसलिए, होशियारी की मुबारक हो। एक दे लाख पाने की विधि को अपनाने की
समर्थी रखी। इसलिए, विशेष स्मृति-दिवस पर ऐसी समर्थ आत्माओं को बुलाया है। बाप
रमणीक चिटचैट कर रहे थे। विशेष स्थान देने वालों को बुलाया है। बाप ने भी स्थान दिया
है ना। बाप का भी लिस्ट में नाम है ना। कौनसा स्थान दिया है? ऐसा स्थान कोई नहीं दे
सकता। बाप ने ‘दिलतख्त' दिया, कितना बड़ा स्थान है! यह सब स्थान उसमें आ जायेंगे ना।
देश-विदेश के सेवा-स्थान सभी इकट्ठे करो तो भी बड़ा स्थान कौनसा है? पुरानी दुनिया
में रहने के कारण आपने तो ईटों का मकान दिया और बाप ने तख्त दिया - जहाँ सदा ही
बेफिकर बादशाह बन बैठ जाते। फिर भी देखो, किसी भी प्रकार की सेवा का - चाहे स्थान
द्वारा सेवा करते, चाहे स्थिति द्वारा करते - सेवा का महत्त्व स्वत: ही होता है। तो
स्थान की सेवा का भी बहुत महत्त्व है। किसी को ‘हाँ जी' कहकर, किसी को ‘पहले आप' कह
कर सेवा करने का भी महत्त्व है। सिर्फ भाषण करना सेवा नहीं है लेकिन किसी भी सेवा
की विधि से मन्सा, वाचा, कर्मणा, बर्तन माँजना भी सेवा का महत्त्व है। जितना भाषण
करने वाला पद पा लेता है उतना योगयुक्त, युक्तियुक्त स्थिति में स्थित रहने वाला
‘बर्तन मांजने वाला' भी श्रेष्ठ पद पा सकता है। वह मुख से करता, वह स्थिति से करता।
तो सदा हर समय सेवा की विधि के महत्त्व को जानकर महान बनो। कोई भी सेवा का फल न मिले
- यह हो नहीं सकता। लेकिन सच्ची दिल पर साहेब राजी होता है। जब दाता, वरदाता राजी
हो जाए तो क्या कमी रहेगी! वरदाता वा भाग्यविधाता ज्ञान - दाता भोले बाप को राजी
करना बहुत सहज है। भगवान राजी तो धर्मराज काजी से भी बच जाएंगे, माया से भी बच
जाएंगे। अच्छा!
चारों ओर के सर्व
स्नेह और शक्ति के समान स्थिति में स्थित रहने वाले, सदा मात - पिता की श्रेष्ठ आशा
को पूर्ण करने वाले आशा के दीपकों को, सदा हर विधि से सेवा के महत्व को जानने वाले,
सदा हर कदम में फालो फादर करने वाले, मात - पिता को सदा स्नेह और शक्ति द्वारा समान
बनने का फल दिखाने वाले, ऐसे स्मृतिस्वरूप सर्व समर्थ बच्चों को समर्थ बाप का समर्थ
- दिवस पर यादप्यार और नमस्ते।''
सेवाकेन्द्रों के लिए
तीन पैर पृथ्वी देने वाले निमित्त भाई - बहनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
विशेष सेवा के
प्रत्यक्षफल की प्राप्ति देख खुशी हो रही है ना। भविष्य तो जमा है ही लेकिन वर्तमान
भी श्रेष्ठ बन गया। वर्तमान समय की प्राप्ति भविष्य से भी श्रेष्ठ है! क्योंकि
अप्राप्ति और प्राप्ति के अनुभव का ज्ञान इस समय है। वहाँ अप्राप्ति क्या होती है,
उसका पता ही नहीं है। तो अन्तर का पता नहीं होता है और यहाँ अन्तर का अनुभव है।
इसलिए इस समय की प्राप्ति के अनुभव का महत्व है। जो भी सेवा के निमित्त बनते हैं,
तो ‘तुरन्त दान महापुण्य' गाया हुआ है। अगर कोई भी बात का कोई निमित्त बनता है
अर्थात् तुरन्त दान करता तो उसके रिटर्न में महापुण्य की अनुभूति होती है। वह क्या
होती है? किसी भी सेवा का पुण्य एकस्ट्रा ‘खुशी', शक्ति की अनुभूति होती है। जब भी
कोई सफलतास्व रूप बनके सेवा करते हो तो उस समय विशेष खुशी की अनुभूति करते हो ना।
वर्णन करते हो कि आज बहुत अच्छा अनुभव हुआ! क्यों हुआ? बाप का परिचय सुनाकर के सफलता
का अनुभव किया। कोई परिचय सुनकर के जाग जाता है या परिचय मिलते परिवर्तन हो जाता है
तो उनकी प्राप्ति का प्रभाव आपके ऊपर भी पड़ता है। दिल में खुशी के गीत बजने शुरू हो
जाते हैं - यह है प्रत्यक्षफल की प्राप्ति। तो सेवा करने वाला अर्थात् सदा प्राप्ति
का मेवा खाने वाला। तो जो मेवा खाता है वह क्या होता? तन्दरूस्त होता है ना! अगर
डॉक्टर्स भी किसको कमज़ोर देखते हैं तो क्या कहते हैं? फल खाओ। क्योंकि आजकल और ताकत
की चीज़ - माखन खाओ, घी खाओ, वह तो हजम नहीं कर सकते। आजकल ताकत के लिए फल देते हैं।
तो सेवा का भी प्रत्यक्षफल मिलता है। चाहे कर्मणा भी करो, कर्मणा की भी खुशी होती
है। मानो सफाई करते हो, लेकिन जब स्थान सफाई से चमकता है तो सच्चे दिल से करने कारण
स्थान को चमकता हुआ देखकर के खुशी होती है ना।
कोई भी सेवा के पुण्य
का फल स्वत: ही प्राप्त होता है। पुण्य का फल जमा भी होता है और फिर अभी भी मिलता
है। अगर मानो, आप कोई भी काम करते हो, सेवा करते हो तो कोई भी आपको कहेगा - बहुत
अच्छी सेवा की, बहुत ही, अथक होकर की। तो ये सुनकर खुशी होती है ना। तो फल मिला ना।
चाहे मुख से सेवा करो, चाहे हाथों से करो लेकिन सेवा माना ही मेवा। तो यह भी सेवा
के निमित्त बने हो ना। महत्त्व रखने से महानता प्राप्त कर लेते। तो ऐसे आगे भी सेवा
के महत्व को जान सदा कोई न कोई सेवा में बिजी रहो। ऐसे नहीं कि कोई जिज्ञासु नहीं
मिला तो सेवा क्या करूँ? कोई प्रदर्शनी नहीं हुई, कोई भाषण नहीं हुआ तो क्या सेवा
करूँ? नहीं। सेवा का फील्ड बहुत बड़ा है! कोई कहे, हमको सेवा मिलती नहीं है - कह नहीं
सकता। वायुमण्डल को बनाने की कितनी सेवा रही हुई है! प्रकृति को भी परिवर्तन करने
वाले हो। तो प्रकृति का परिवर्तन कैसे होगा? भाषण करेंगे क्या? वृत्ति से वायुमण्डल
बनेगा। वायुमण्डल बनाना अर्थात् प्रकृति का परिवर्तन होना। तो यह कितनी सेवा है! अभी
हुई है? अभी तो प्रकृति पेपर ले रही है। तो हर सेकण्ड सेवा का बहुत बड़ा फील्ड रहा
हुआ है। कोई कह नहीं सकता कि हमको सेवा का चांस नहीं मिलता। बीमार भी हो, तो भी सेवा
का चांस है। कोई भी हो - चाहे अनपढ़ हो, चाहे पढ़ा हुआ हो, किसी भी प्रकार की आत्मा,
सबके लिए सेवा का साधन बहुत बड़ा है। तो सेवा का चांस मिले - यह नहीं, मिला हुआ है।
आलराउन्ड सेवाधारी
बनना है। कर्मणा सेवा की भी 100 मार्क्स हैं। अगर वाचा और मन्सा ठीक है लेकिन कर्मणा
के तरफ रूचि नहीं है तो 100 मार्क्स तो गई। आलराउण्ड सेवाधारी अर्थात् सब प्रकार की
सेवा द्वारा फुल मार्क्स लेने वाले। इसको कहेंगे आलराउण्ड सेवाधारी। तो ऐसे हो? देखो,
शुरू में जब बच्चों की भट्ठी बनाई तो कर्मणा का कितना पाठ पक्का कराया! माली भी
बनाया तो जूते बनाने वाला भी बनाया। बर्तन माँजने वाले भी बनाया तो भाषण करने वाला
भी बनाया। क्योंकि इसकी मार्क्स भी रह नही जायें। वहाँ भी लौकिक पढ़ाई में मानों आप
कोई हल्की सब्जेक्ट में भी फेल हो जाते हो, विशेष सब्जेक्ट नहीं है, नम्बर थ्री फोर
सब्जेक्ट हैं लेकिन उसमें भी अगर फेल हुए तो पास विद् ऑनर नहीं बनेंगे। टोटल में
मार्क्स तो कम हो गई ना। ऐसे, सब सब्जेक्ट चेक करो। सब सब्जेक्ट्स में मार्क्स लिया
है? जैसे यह (मकान देने के) निमित्त बने, यह सेवा की, इसका पुण्य मिला, मार्क्स
मिलेंगी। लेकिन फुल मार्क्स ली हैं या नहीं - यह चेक करो। कोई न कोई कर्मणा सेवा,
वह भी जरूरी है क्योंकि कर्मणा की भी 100 मार्क्स हैं, कम नहीं हैं। यहाँ सब
सब्जेक्ट की 100 मार्क्स हैं। वहाँ तो ड्राइंग में थोड़ी मार्क्स होंगी, हिसाब (गणित)
में ज्यादा होंगी। यहाँ सब सब्जेक्ट महत्त्व वाली हैं। तो ऐसा न हो कि मन्सा, वाचा
में तो मार्क्स बना लो और कर्मणा में रह जाए और आप समझो - मैं बहुत महावीर हूँ। सभी
में मार्क्स लेनी हैं। इसको कहते हैं - सेवाधारी। तो कौन - सा ग्रुप है? आलराउण्ड
सेवाधारी या स्थान देने के सेवाधारी? यह भी अच्छा किया जो सफल कर लिया। जो जितना
सफल करते हैं, उतना मालिक बनते हैं। समय के पहले सफल कर लेना - यह समझदार बनने की
निशानी है। तो समझदारी का काम किया है। बापदादा भी खुश होते हैं कि हिम्मत रखने वाले
बच्चे हैं। अच्छा!
वरदान:-
स्वीट
साइलेन्स की लवलीन स्थिति द्वारा नष्टोमोहा समर्थ स्वरूप भव
देह, देह के सम्बन्ध,
देह के संस्कार, व्यक्ति या वैभव, वायुमण्डल, वायब्रेशन सब होते हुए भी अपनी ओर
आकर्षित न करें। लोग चिल्लाते रहें और आप अचल रहो। प्रकृति, माया सब लास्ट दांव
लगाने के लिए अपनी तरफ कितना भी खींचे लेकिन आप न्यारे और बाप के प्यारे बनने की
स्थिति में लवलीन रहो — इसको कहा जाता है देखते हुए न देखो, सुनते हुए न सुनो। यही
स्वीट साइलेन्स स्वरूप की लवलीन स्थिति है, जब ऐसी स्थिति बनेंगी तब कहेंगे
नष्टोमोहा समर्थ स्वरूप की वरदानी आत्मा।
स्लोगन:-
होलीहंस बन अवगुण रूपी कंकड़ को छोड़ अच्छाई रूपी मोती चुगते चलो।