29-01-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 20-05-74 मधुबन

 

बाप-दादा के दिल रूपी तख्त पर विराजमान बच्चे ही खुशनसीब

 

आज बाप-दादा क्या देख रहे हैं? आज खुशनसीब, पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चों की माला देख रहे हैं। माला के हर मणके की विशेषता को देखते हुए हर्षित हो रहे हैं। जैसे बाप बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य को देख, हर्षित होते हैं क्या वैसे ही आप अपने सौभाग्य को देख सदा हर्षित रहते हो? क्या भाग्य का सितारा सदा सामने चमकता हुआ दिखाई देता है या कभी कभी भाग्य सितारा आपके सामने से छिप जाता है? जैसे स्थूल सितारे कभी-कभी जगह बदली करते हैं, तो ऐसे भाग्य का सितारा बदलता तो नहीं है? एक ही सितारा है, जो अपनी जगह बदली नहीं करता, क्या ऐसे सितारे हो? वह है दृढ़ संकल्प वाला सितारा, जिसको अपनी इस दुनिया में ‘ध्रुव’ सितारा कहा जाता है। तो ऐसे दृढ़ निश्चय बुद्धि, और एक-रस स्थिति में सदा स्थित पद्मापद्म भाग्यशाली बने हो, या बन रहे हो? क्या अपनी खुशनसीबी का विस्तार अपनी स्मृति में लाते हो? खुशनसीबी की निशानियाँ व सर्व-प्राप्तियाँ क्या हैं, उनको जानते हो? जिसे सर्व प्राप्ति हो, उसको ही खुशनसीब कहा जाता है। सर्व-प्राप्ति में क्या कोई कमी है? जीवन में मुख्य प्राप्ति श्रेष्ठ सम्बन्ध, श्रेष्ठ सम्पर्क, सच्चा स्नेह और सर्व प्रकार की सम्पत्ति और सफलता इन पांचों ही मुख्य बातों को अपने में देखो। अब सम्बन्ध किससे जोड़ा है? सारे कल्प में इससे श्रेष्ठ सम्बन्ध कभी प्राप्त हो सकता है क्या? सम्बन्ध में मुख्य बात अविनाशी सम्बन्ध की ही होती है। अविनाशी बाप के सर्व-सम्बन्ध ही अविनाशी है। एक द्वारा सर्व- सम्बन्धों की प्राप्ति हो, क्या ऐसा सम्बन्धी कभी मिला हुआ देखा है? तो क्या सर्व- सम्बन्ध सम्पन्न हो।

 

दूसरी बात सम्पर्क अर्थात् साथ अथवा साथी। साथी क्यों बनाया जाता है? सम्पर्क क्यों और किससे रखा जाता है? आवश्यकता के समय, मुश्किल के समय  सहारा अथवा सहयोग के लिए; उदास स्थिति में मन को खुशी में लाने के लिए व दु:ख के समय दु:ख को बांट लेने के लिए साथी बनाया जाता है। ऐसा सच्चा साथी अथवा ऐसा श्रेष्ठ सम्पर्क जो लक्ष्य रखकर बनाते हो क्या ऐसा साथी मिला? ऐसा साथी जो निष्काम हो, निष्पक्ष हो, अविनाशी हो व समर्थ हो। ऐसा सम्पर्क कभी मिला अथवा मिल सकता है क्या? अविनाशी और सच्चा श्रेष्ठ साथ व संग कौन-सा गाया हुआ है? पारसनाथ जो लोहे को सच्चा सोना बनावे ऐसा सत्संग अथवा सम्पर्क मिला है या कुछ अप्राप्ति है? ऐसा मिला है अथवा मिलना है? मिला है अथवा अभी परख रहे हो? जब साथ मिल गया तो साथ लेने के बाद कभी-कभी साथी से किनारा क्यों कर लेते हो? साथ निभाने में नटखट क्यों होते हो? कभी-कभी रूसने का भी खेल करते हैं। क्या मज़ा आता है, कि साथी स्वयं मनावे इसलिए यह खेल करते हो अथवा बच्चों में खेल के संस्कार होते ही हैं। ऐसा समझ इस संस्कार-वश क्या ऐसे- ऐसे खेल करते हो? यह खेल अच्छा लगता है? बोलो, अच्छा लगता है, तब तो करते हैं? लेकिन, इस खेल में गंवाते क्या हो, क्या यह भी जानते हो? जब तक यह खेल है तो सच्चे साथी का मेल नहीं हो सकता। तो खेल-खेल में मिलन को गंवा देते हो। इतने समय की पुकार व शुभ इच्छा-बच्चे और बाप से मिलने की करते आये हो और यह भी जानते हो, कि यह मेल कितने दिन का है-कितने थोड़े समय का है-फिर भी इतने थोड़े समय के मेल को खेल में गंवाते हो। तो क्या फिर समय मिलेगा? तो अब यह खेल समाप्त करो। आप अब तो वानप्रस्थी हो। वानप्रस्थी को इस प्रकार का खेल करना शोभता है क्या? साक्षी हो देखो, क्या सच्चा साथी, श्रेष्ठ सम्पर्क व संग सदा प्राप्त है?

 

तीसरी बात है - स्नेह। क्या सर्व सम्बन्धों का स्नेह प्राप्त नहीं किया है व अनुभवी नहीं बने हो? क्या सर्व-सम्बन्ध में, स्नेह में कोई अप्राप्ति है? इसके निभाने के लिये एक ही बात की आवश्यकता है, अगर वह नहीं है, तो स्नेह मिलते हुए भी, अनुभव नहीं कर पाते। सच्चा स्नेह व एक द्वारा सर्व-सम्बन्धों का स्नेह प्राप्त करने के लिए, मुख्य कौन-सा साधन व अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए, कौन-सी मुख्य बात आवश्यक है? एक बाप दूसरा न कोई, क्या यह बात जीवन में, संकल्प में और साकार में है? सिर्फ संकल्प में नहीं, लेकिन साकार में भी एक बाप, दूसरा न कोई है, तब ही सच्चा स्नेह और सर्व-स्नेह का अनुभव कर सकते हो। ऐसे ही सम्पत्ति व जो भी सुनाया उन सब बातों में सहज ही सर्व-प्राप्ति होती है? ऐसे खुशनसीब जिसमें अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। ऐसे जानते हुए भी, मानते हुए भी और चलते हुए भी कभी-कभी अपने भाग्य के सितारे को भूल क्यों जाते हो?

 

बाप-दादा आपके भाग्य के सितारे को देख हर्षित होते हैं, और गुणगान करते हैं। ऐसे खुशनसीब बच्चों की रोज़ माला सिमरते हैं। ऐसे बाप के सिमरने के मणके बने हो? विजयमाला के मणके बनना बड़ी बात नहीं है, लेकिन बाप के सिमरने के मणके बनना, यही खुशनसीबी है। ऐसे खुशनसीबी के व बाप-दादा के दिल तख्त नशीन, फिर तख्त छोड़ देते हो! बाप ने अपने श्रेष्ठ कार्य की ज़िम्मेवारी व ताज बच्चों को पहनाया है। ऐसा ताजधारी बनने के बाद ताज उतार और ताज के बजाय अपने सिर के ऊपर क्या रख लेते हो? अगर वह अपना चित्र भी देखो और ताजतख्तधारी का चित्र भी रखो तो वÌया होगा? कौन-सा चित्र पसन्द आयेगा? पसन्द वह ताज-तख्तधारी वाला आता है और करते वह हो? ताज उतार कर व्यर्थ संकल्पों का, व्यर्थ बोलचाल का भरा हुआ बोझ का टोकरा व बोरी सिर पर रख लेते हो। बेताज बन जाते हो! जबकि ऐसा चित्र देखना भी पसन्द नहीं करते हो, उनको देखते हुए रहमदिल बनते हो लेकिन अपने ऊपर फिर क्यों रख लेते हो? तो ऐसे अपने को खुशनसीब बन व समझ कर चलो। समझा! अच्छा!

 

ऐसे सदा एक के साथ सम्बन्ध, सम्पर्क और स्नेह में रहने वाले, सदा अविनाशी सम्पत्ति से सम्पन्न रहने वाले, सच्चा साथ निभाने वाले और एक बाप दूसरा न कोई, ऐसी स्मृति में रहने वाले बच्चों को बाप-दादा का यादप्यार, गुड मार्निंग और नमस्ते।

 

दुसरी मुरली - 23-05-74

 

हद के आकर्षणों या विभूतियों से परे रहने वाला ही सच्चा वैष्णव

 

क्या अपने को एक सेकेण्ड में वाणी से परे वानप्रस्थ अवस्था में स्थित कर सकते हो? जैसे वाणी में सहज ही आ जाते हो, क्या वैसे ही वाणी से परे, इतना ही सहज हो सकते हो? कैसी भी परिस्थिति हो, वातावरण हो, वायुमण्डल हो या प्रकृति का तूफान हो लेकिन इन सबके होते हुए, देखते हुए, सुनते हुए, महसूस करते हुए, जितना ही बाहर का तूफान हो, उतना स्वयं अचल, अटल, शान्त स्थिति में स्थित हो सकते हो? शान्ति में शान्त रहना बड़ी बात नहीं है, लेकिन अशान्ति के वातावरण में भी शान्त रहना इसको ही ज्ञानस्वरूप, शक्तिस्वरूप, यादस्वरूप, और सर्वगुण-स्वरूप कहा जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के कारण होते हुए स्वयं निवारण-रूप बने, इसको कहा जाता है पुरूषार्थ का प्रत्यक्ष प्रमाण-रूप। ऐसे महावीर बने हो या अब तक वीर बने हो? किस स्टेज तक पहुंचे हो? महावीर की स्टेज सामने दिखाई देती है या समीप दिखाई देती है अथवा बाप-समान स्वयं को दिखाई देते हो?

 

बाप समान तीन स्टेज नम्बरवार हैं। एक है समान, दूसरी से समीप तीसरी है सामने। तो कहाँ तक पहुँचे हैं? समान वाले की निशानी-एक सेकेण्ड में जहाँ और जैसे चाहें, जो चाहें वह कर सकते हैं व करते हैं। सेकेण्ड स्टेज-एक सेकेण्ड के बजाय कुछ घड़ियों में, स्वयं को सैट कर सकते हैं। तीसरी स्टेज-कुछ घण्टों व दिनों तक स्वयं को सैट कर सकते हैं। समान वाले, सदा बाप समान, स्वयं के महत्व को, स्वयं की सर्वशक्तियों के महत्व को और हर पुरुषार्थी की नम्बरवार स्टेज को, गुणदान, ज्ञानधन दान और स्वयं के समय का दान, इन सबके महत्व को जानने वाले और चलने वाले होते हैं। वे कर्मों को, संस्कार और स्वभाव को जानने वाले ज्ञान स्वरूप होते हैं। क्या ऐसे ज्ञान-स्वरूप बने हो?

 

जितनी वाणी सुनने और सुनाने की जिज्ञासा रहती है, तड़प रहती है, चॉन्स बनाते भी हो क्या ऐसे ही फिर वाणी से परे स्थिति में स्थित होने का चॉन्स बनाने और लेने के जिज्ञासु हो? यह लगन स्वत: स्वयं में उत्पन्न होती है या समय प्रमाण, समस्या प्रमाण व प्रोग्राम प्रमाण यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है? फर्स्ट स्टेज तक पहुँची हुई आत्माओं की पहली निशानी, यह होगी। ऐसी आत्मा को, इस अनुभूति की स्थिति में मग्न रहने के कारण, कोई भी विभूति व कोई भी हद की प्राप्ति का आकर्षण उन्हें उनके संकल्प तक भी छू नहीं सकता। अगर कोई भी हद की प्राप्ति की आकर्षण, संकल्प में भी छूने की हिम्मत रखती है, तो इसको क्या कहेंगे? क्या ऐसे को वैष्णव कहेंगे? जैसे आजकल के नामधारी वैष्णव, अनेक प्रकार की परहेज़ करते हैं-कई व्यक्तियों और कई प्रकार की वस्तुओं से, अपने को छूने नहीं देते हैं। अगर अकारणें कोई छू लेते हैं, तो वह पाप समझते हैं। आप, जैसा नाम वैसा काम करने वाले, जैसा संकल्प वैसा स्वरूप बनने वाले सच्चे वैष्णव हो, ऐसे सच्चे वैष्णवों को क्या कोई छू सकने का साहस कर सकता है? अगर छू लेते हैं, तो छोटेमोटे पाप बनते जाते हैं। ऐसे सूक्ष्म पाप, आत्मा को ऊँच स्टेज पर जाने से रोकने के निमित्त बन जाते हैं। क्योंकि पाप अर्थात् बोझा; वह फरिश्ता बनने नहीं देते; बीज रूप स्थिति व वानप्रस्थ स्थिति में स्थित नहीं होने देते। आजकल मैजारिटी महारथी कहलाने वाले भी, अमृतवेले की रूह-रिहान में, वह कम्पलेन्ट करते व प्रश्न पूछते हैं कि पॉवरफुल स्टेज जो होनी चाहिये, वह क्यों नहीं होती? थोड़ा समय वह स्टेज क्यों रहती है? इसका कारण यह सूक्ष्म पाप हैं, जो बाप-समान बनने नहीं देते हैं।

 

जैसे पाँच विकारों के वश किये हुए कर्म, विकर्म या पाप कहे जाते हैं-यह हैं पापों का मोटा रूप। ऐसे ही महीन पुरूषार्थ अर्थात् महारथी के सामने, पाँच तत्व अपनी तरफ, भिन्न-भिन्न रूप से आकर्षित कर, महीन पाप बनाने के निमित्त बनते हैं। पाँच् विकारों को समझना, और उन्हों को जीतना, सहज है, लेकिन पाँच तत्वों के आकर्षण से परे रहना, यह महारथियों के लिए विशेष पुरूषार्थ है। जब इन दस को जानकर इन्हों पर विजय प्राप्त करेंगे, तब ही सच्चा दशहरा होगा। विजयदशमी इस स्थिति का ही यादगार है। महारथियों की चैकिंग, महीन होनी चाहिये। अष्ट रत्न, ऐसे विजयी ही प्रसिद्ध होंगे। प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देने वाली, छोटी-छोटी गलतियाँ ऐसे महीन पुरुषार्थी के समक्ष क्या दिखाई देती हैं?

 

आजकल रॉयल पुरुषार्थी का, रॉयल सलोगन कौन-सा है? रॉयल पुरुषार्थी, किसको कहा जाता है? रॉयल शब्द उसको थमाने के लिये कहा जाता है कि जिसको हर बात में रॉयल्टी व सहज साधन चाहिए। साधनों के आधार से और प्राप्ति के आधार से पुरूषार्थ करने वाला रॉयल पुरुषार्थी कहा जाता है। रॉयल्टी का दूसरा अर्थ भी होता है। जो अब रॉयल पुरुषार्थी हैं, उनको धर्मराजपुरी में रॉयल्टी भी देनी पड़ती है। रॉयल पुरुषार्थी की निशानी क्या होती है, कि जिससे जान सको कि मैं रॉयल पुरुषार्थी तो नहीं हूँ? दूसरे को नहीं जानना है, लेकिन अपने को जानना है। जैसे स्थूल रॉयल्टी वाले, अपने अनेक रूप बनाते हैं, वैसे रॉयल पुरुषार्थी बहुरूपी और चतुर होते हैं, वे जैसा समय वैसा रूप धारण करेंगे। लेकिन रॉयल्टी में रीयल्टी नहीं होती, मिक्स होगा, लेकिन एक-रस स्थिति में अपने को फिक्स  नहीं कर सकेंगे। ऐसे रॉयल पुरुषार्थी, खेल कौन-सा करते हैं-अप एण्ड डाउन अभी-अभी बहुत ऊंची स्टेज, अभी-अभी सबसे नीची स्टेज। चढ़ती कला में भी हीरो पार्टधारी और गिरती कला में ज़ीरो में हीरो। ऐसे पुरुषार्थी का कर्त्तव्य क्या होता है? स्वयं प्रकृति के व विकारों के वश, अल्पकाल के मायावी निर्भय रूप में रहना और अपने द्वारा दूसरों को भयभीत करने की बातें करना। उन्हों का स्लोगन क्या है - ’यह कर लूँगा या वह कर लूँगी’ - आपघात महापाप की भयभीत चलन व वैसा बोल उन लोगों का कर्त्तव्य है। ऐसे रॉयल पुरुषार्थी कभी नहीं बनना। कभी भी ऐसे रॉयल पुरुषार्थी के संग में नहीं आना। क्योंकि माया के वश होने वाली आत्माओं को और पुरुषार्थी बनने वाली आत्माओं को स्वयं के संग में लाकर प्रभावित करने की विशेषता माया द्वारा वरदान में प्राप्त होती है। ऐसे संग को बड़ी-ते- बड़ी दलदल समझना। जो कि बाहर से तो बहुत सुन्दर लेकिन अन्दर नाश करने वाली होती है। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को वर्तमान समय की, माया के रॉयल स्वरूप की सावधानी, पहले से ही दे रहे हैं। ऐसे संग से, सदा सावधान रहना और होशियार रहना। माया भी वर्तमान समय ऐसे रॉयल पुरूषार्थियों की माला बनाने में लगी हुई है। अपने मणके बहुत अच्छी तरह से और तीव्र पुरूषार्थ से ढूँढ रही है। इसलिये माया के मणके की माला नहीं बनना। अगर ऐसे माया के मणके के प्रभाव में आ गये, तो विजयमाला के मणकों से किनारे हो जायेंगे। क्योंकि आजकल दोनों ही मालाएँ-एक माया की और दूसरी विजयमाला बाप की, इन दोनों की सिलेक्शन बहुत तेज़ी से हो रही है। ऐसे समय में हर सेकेण्ड, चारों ओर अटेन्शन चाहिये। समझा?

 

ऐसे सदा सच्चे पुरुषार्थी, सच्चे बाप के साथ सदा सच्चे रहने वाले, पाँच विकारों और पाँच तत्वों की आकर्षण से सदा दूर रहने वाले, सहज वानप्रस्थ स्थिति में स्थित होने वाले, विजयमाला के विजयी मणकों को, बाप-दादा के सदा-साथ रहने वाले, सदा सत्य के संग में रहने वाले और व्यर्थ के संग से न्यारे रहने वाले, ऐसे प्यारे बाप के बच्चों को बाप-दादा का यादप्यार, गुडमार्निग और नमस्ते।

 

वरदान:- सम्पूर्णता की स्थिति द्वारा प्रकृति को आर्डर करने वाले विश्व परिवर्तक भव

 

जब आप विश्व परिवर्तक आत्मायें संगठित रूप में सम्पन्न, सम्पूर्ण स्थिति से विश्व परिवर्तन का संकल्प करेंगी तब यह प्रकृति सम्पूर्ण हलचल की डांस शुरू करेगी। वायु, धरती, समुद्र, जल...इनकी हलचल ही सफाई करेगी। परन्तु यह प्रकृति आपका आर्डर तब मानेगी जब पहले आपके स्वयं के सहयोगी कर्मेन्द्रियां, मन-बुद्धि-संस्कार आपका आर्डर मानेंगे। साथ-साथ इतनी पावरफुल तपस्या की ऊंची स्थिति हो जो सबका एक साथ संकल्प हो “परिवर्तन" और प्रकृति हाजिर हो जाए।

 

स्लोगन:- अपने श्रेष्ठ भाग्य द्वारा सबका भाग्य बनाते सदा भगवान की स्मृति दिलाते रहो।