24-06-06     प्रात:मुरली  ओम् शान्ति 23.04.65 "बापदादा"    मधुबन


"सर्व और सदा की प्राप्ति का आधार कम्पलीट पवित्रता का बल, यही सबसे श्रेष्ठ कर्म है"

 


गीतः जो पिया के साथ है उनके लिये बरसात है...

गीतों में जो शब्द आते हैं पिया, बालम, साजन.... ऐसे शब्द कोई कॉमन मनुष्य के लिये नहीं है। परन्तु मनुष्यों की जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। भले गीत बनाने व गाने वालों ने किसी भी तरह से गाया हो। लेकिन अभी हमें अपनी बुद्धि को परमपिता परमात्मा के तरफ ले जाना है। जो अपना मात-पिता, बंधू-सखा सर्व सम्बन्धी है, उससे ही हमारा कनेक्शन है। इसलिये ऐसे गीत सुनते बुद्धि को उधर ही ले जाना है। तो अभी गीत सुना जो पिया के साथ है उनके लिये बरसात है... कौनसी बरसात? यह ज्ञान की बरसात। जैसे उस बरसात से पानी मिलता है, अगर बरसात न पड़े तो अनाज नहीं होगा, अकाल पड़ जायेगा। अब स्वर्ग बनाने के लिये यह ज्ञान की बरसात है। ज्ञान की बरसात न मिलने से आत्मायें सूखी, अपवित्र, तमोप्रधान हो गई हैं। अभी बाप आकरके फिर इस ज्ञान बरसात से सब्ज (हरा-भरा) बना रहे हैं। आत्मा को साफ कर रहे हैं। इसलिये इसको बरसात भी कह सकते हैं। जैसे परमात्मा के बहुत नाम हैं, ऐसे ज्ञान के भी बहुत नाम हैं। ज्ञान को बरसात कहो, अन्जन कहो, ज्ञान को तलवार भी कहते हैं। अभी तलवार कोई हिंसा के लिए तो नहीं है, शक्तियों को जो अस्त्र-शस्त्र दिखाये हैं, यह हिंसक नहीं हैं, यह तो ज्ञान के हैं। ऐसे ही कृष्ण के हाथ में मुरली दिखाते हैं, अब वह कोई साज़ की बात नहीं है, यह ज्ञान जो परमात्मा ने सुनाया है, इसको ही ज्ञान मुरली कहते हैं। जैसे सरस्वती को फिर सितार (बैन्जो) दिया है, तो ऐसा नहीं है कि उसने आ करके यह बजा करके सुनाया है। नहीं, यह ज्ञान की बात है। इसलिये उनको कहते हैं गॉडेज आफ नॉलेज। तो नॉलेज दिया है, बाकी बैन्जो नहीं बजाया है। इस ज्ञान से ही जीवन मधुर बनती है, सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है इसीलिये कहाँ साज़ों के रूप में, कहाँ अस्त्र-शस्त्र के रूप में दिखा दिया है लेकिन हैं यह सभी ज्ञान के अलंकार। यह सब समझने की बातें हैं।

बाप आकरके समझाते हैं कि यह ड्रामा बना बनाया है परन्तु किस नियम से बना हुआ है, वह समझने की बात है। इसमें मूँझना नहीं है क्योंकि कोई-कोई कभी-कभी इस ड्रामा की बात में मूँझते हैं। सोचते हैं जब यह बना बनाया है तो फिर पुरुषार्थ की बात ही नहीं है। हम काहे के लिये मेहनत करें, जो होना होगा वह होगा, परन्तु नहीं। हमको अपना आधार रखना है अपने कर्म के ऊपर। अगर कोई बात समझ में नहीं आती है तो उसमें अटकना नहीं है। यह तो ड्रामा को समझना है कि यह नाटक कैसे अनादि काल से बना बनाया है, इसका टाइम है - शुरू होता है, फिर पूरा होता है। इसमें बाप को भी आ करके कर्म करना पड़ता है, कहते हैं मैं भी बंधा हुआ हूँ, मुझे भी नई दुनिया को रचने के लिये काम करना पड़ता है। तो मेरा भी पार्ट है। ऐसे हरेक का अपना-अपना पार्ट जो भी नँधा हुआ है, उस अपनी एक्शन्स पर अटेन्शन देना है। हमको कर्मों को श्रेष्ठ बना करके अपनी प्रालब्ध ऊंची बनानी है। बाप भी आता है कर्मों का ज्ञान देने। अगर ड्रामा है तो फिर उसका आना क्यों नँधा है। फिर उनको आ करके ज्ञान देने की मेहनत करने की क्या जरूरत है। लेकिन उनका भी यह पार्ट है, तभी तो उनकी महिमा है नॉलेजफुल। तो परमात्मा को भी ड्रामा में कर्म करने की पाबन्दी है। वो भी बंधा हुआ है। इसी तरह से हम भी अपने कर्म करने में बंधे हुए हैं। तो किसी भी बात में मूंझने के बजाए अपने कर्मों को स्वच्छ बनाना है। ऐसे नहीं ड्रामा में होगा तो अपने आप ही स्वच्छ हो जायेंगे। नहीं। हमारा काम है श्रेष्ठ कर्म करके अपने को स्वच्छ बनाना। ऐसे नहीं जो होना होगा, वह अपने आप ही होगा। नहीं, हमारा काम जो है उसे समझकर करना है, जो करेंगे सो जरूर पायेंगे। बाकी यह तो जानते हैं कि हाँ यह ड्रामा है, यह खेल है, आदि से अन्त तक कैसे चलता है, उसकी जो नॉलेज है, उसको समझना है। अगर कोई बात समझ में नहीं आती है, तो उसे छोड़ करके अपने कर्म पर ध्यान दो, जो हम करेंगे सो पायेंगे‌। यह तो गीता में भी है - जीवात्मा अपना शत्रु, अपना मित्र है। तो हमको अपना पुरुषार्थ करना है। पहले पुरुषार्थ पीछे प्रालब्ध, जो हम करेंगे सो पायेंगे। अगर करेंगे नहीं तो पायेंगे नहीं।

अब कर्मों को ऐसा श्रेष्ठ बनाना है जो फिर उसके ऊपर कोई कर्म करने की जरूरत न रहे। परन्तु वह ऊंचे-से-ऊंच कर्म कौन-से हैं? तो उसकी नॉलेज अभी बाप देते हैं और सिखलाते हैं कि कम्पलीट पवित्र कैसे बनो। अभी कम्पलीट पवित्र बनने अथवा अपने कर्म श्रेष्ठ बनाने की नॉलेज बाप देते हैं जिससे हमारे पिछले पाप भी दग्ध हों और आगे के लिये भी हमारे कम्पलीट पवित्र कर्म बनें, जिसके आधार से हम उसी पवित्रता की प्रालब्ध को पायें, जिसमें फिर हमको कोई कर्म करना न पड़े। बाकी अभी तक हम जो करते आये हैं वह अल्पकाल के लिए था। वह श्रेष्ठ कर्म सदा की प्राप्ति के लिये नहीं थे। जो भी थोड़ा बहुत अच्छा करता है जैसे किसने दान किया, तो उसको धन-दान करने के एवज में धन मिलेगा, चलो साहूकार होगा। बस इतना ही उसको फल मिला। लेकिन उससे ऐसा तो नहीं है कि कम्पलीट पवित्रता का बल मिलेगा जिससे सबकुछ प्राप्त हो। नहीं, धन है लेकिन निरोगी काया नहीं है तो भी दुःख होगा। तो सब चीज़ों का सुख प्राप्त हो उसको कहा जायेगा - कर्म श्रेष्ठ। तो बाप बैठ करके अभी वह कर्म हमको सिखाते हैं जिससे कर्मों के श्रेष्ठता की प्रालब्ध हमें प्राप्त हो और उसकी प्रालब्ध से हम सदा सुख को पाते रहें।

तो बाप ने ऐसे कर्म सिखलाये हैं इसलिए कहा है कि मेरा कर्मयोग, राजयोग सबसे श्रेष्ठ है, उसके ऊपर फिर कोई ऐसी चीज़ नहीं है। तो अभी हमको बाप द्वारा यह कर्म करने की जो शिक्षा मिलती है यह है सबसे ऊंच। ऊंचा उठेंगे भी कर्म से, जब हमने अपने कर्म उल्टे बनाये तभी गिरे। कारण तो फिर भी कर्मों का देना पड़ेगा। परन्तु कहेंगे तो ड्रामा के कारण ही हम गिरे और ड्रामा से हम चढ़े, लेकिन ड्रामा में भी कोई नियम है तो उन नियमों को समझना है कि हम करेंगे तो पायेंगे। अगर नहीं करेंगे तो समझा जायेगा कि इनका ड्रामा में पार्ट नहीं है। अब ऐसे तो नहीं कि ड्रामा में होगा तो हमारे से अपने आप होगा। अपने आप कैसे होगा, वह भी तो हम सोचेंगे, हमको यह करना है, यह राइट एक्शन्स है, यह राँग है, यह करना है, यह नहीं करना है, यह तो समझकर पुरुषार्थ करेंगे। अगर हम खाली उसी पर बैठ जायें कि जो होना होगा वो अपने आप ही होगा, फिर तो सबमें बैठो, कोई धन्धा भी नहीं करो, कहो जो होना होगा, पैसा कमाना होगा तो कमायेंगे.. तो बैठ जाओ। देखो, कमाते हो? तो जैसे उसमें सोचके, समझके चलना पड़ता है फिर कोई रिजल्ट हो जाती है तो समझते हैं कि चलो इतना ही था। जो होना था वो हुआ। बाकी ऐसे नहीं कि करने के समय हम चुप करके बैठ जायें। फिर तो खाना भी नहीं खाओ, पकाओ भी नहीं, कमाओ भी नहीं, कुछ नहीं करो क्योंकि जो होना होगा अपने आप होगा। परन्तु ऐसा होता नहीं है, करना ही पड़ता है, कर्म तो चलता ही है। तो जो चलता है उसी को समझ करके अपने कर्मों को श्रेष्ठ रख करके चलना है, जिसकी प्रालब्ध श्रेष्ठ पानी है।

दुनिया की हिस्ट्री का आधार भी हमारे व्यक्तिगत कर्मों पर है। ऐसे नहीं स्वर्ग आना ही है तो उसमें हम अपने आप आ जायेंगे। नहीं, उसके लिये तो हम माथाकुटी करते हैं। हम स्वर्ग में अपना अधिकार लगायें और उसमें हम ऊंचा स्टेटेस पायें उसके लिये पुरुषार्थ है। इसके लिए ही तो परमात्मा को भी हमारे से माथा लगाना पड़ता है और हमको भी मेहनत करनी पड़ती है। अभी यह मकान है, ऐसे थोड़ेही छूमन्तर से बन गया, इसके लिए जैसा नियम है, उसी अनुसार फाउण्डेशन डाला जाता है। मकान बनाने की जो तरकीब होगी, उसी तरकीब से बनेगा ना। बाकी ऐसे थोड़ेही है कि बना हुआ होगा तो आपेही बन जायेगा। तो मनुष्य की लाईफ भी किस नियम से बनने की है, उनको भी तो अपने कर्म के नियम से बनाना होगा। बाकी तो जानते हैं कि यह ड्रामा है। सृष्टि का चक्र फिरता है। वो कैसे नीचे आता है फिर कैसे ऊंचा उठता है। अभी ऊंचा उठने का टाइम है, इसलिये हमको ऊंच कर्म करना ही चाहिए।

ड्रामा अनुसार अभी हमारी चढ़ती कला का टाइम है तो हमको चढ़ना ही चाहिए। अगर चढ़ती कला के समय पर हम अपने कर्मों को श्रेष्ठ नहीं करेंगे तो चढ़ेंगे कैसे? इसलिये पहले अपने कर्म के ऊपर ही आधार रखना है। बाकी ऐसे नहीं है कि अपने आप होगा, अपने आप कुछ होता नहीं है। खाना-पीना भी करते हो तो क्या अपने आप होता है? अपने आप अन्दर जायेगा? पहले बनाना होता है, फिर खाना होता है। ऐसे हर चीज़ को एक्शन्स में लाना ही पड़ता है। तो जबकि हर चीज़ एक्शन्स से ही चलती है, तो हमको ऊंचा उठने के लिये भी तो ऐसे कर्म करने होंगे। बाकी ऐसे नहीं कि हमारी किस्मत में होगा तो कर लेंगे, या कई कहते हैं हमारा नसीब ही ऐसा है। अब नसीब कहकर बैठ तो नहीं जाना है। बच्चे हैं, उन्हें पालना है, जिम्मेवारी है, यह सब करेंगे तभी तो होगा। हमको कमाने के लिये जाना होगा, आपे ही कैसे होगा? उठेंगे, टाइम हुआ है जाना है, दफ्तर है, आफिस है, सब एक्शन्स सोचके चलना पड़ता है, करना ही पड़ता है। तो जैसे सभी बातें करने से होती है, ऐसे यह भी तो करने की बात है ना। इसमें फिर ऐसे क्यों कहते कि किस्मत में होगा तो कर लेंगे? एक्शन्स में सब एक्टिविटी चलती है, वैसे यह भी तो अपनी एक्टिविटी को राइटियस वे में चलाना है। समझो हमको डॉक्टर बनना है, तो हम समझेंगे कि बनना होगा तो अपने आप बन जायेंगे। नहीं, उसके लिये जरूर हम पुरुषार्थ करेंगे, पढ़ेंगे, उसमें अटेन्शन देंगे।

तो अभी देखो बुद्धि मिली है, उसके आधार पर चलना है। समझो, हम मोटर चलाते हैं, उसके आगे कोई बच्चा आ गया, अब उसके मोटर चलाने का एक्शन तो अच्छा था, वह बच्चा कट जाये तो इसको क्या कहेंगे? जरूर उनका कोई अगले जन्म का हिसाब रहा हुआ होगा। उसने हमको कभी दुःख दिया था, अभी रिटर्न हमसे उसको मिला। तो वह हो गई अगले कर्मों के हिसाब-किताब की बात। हमने कभी किसको दुःख दिया है तो फिर हमको दूसरे जन्म में उससे लेना है, तो यह लेन-देन का भी जो हिसाब है वह भी कर्मों का। हम तो अभी सोचकर अच्छा चले लेकिन दूसरे को हमारे से कुछ दुःख पहुंचा... तो जरूर उसने कुछ किया हुआ है, जिसका रिटर्न उसे मिला। तो यह सारी कर्मों की फिलोसॉफी हैं। अनेक जन्मों का हमारा खाता चलता है। ऐसे नहीं अभी जो हम करते हैं अभी ही पाते हैं। नहीं। हम जो करते हैं वह हमारा खाता रिजर्व में कई जन्मों तक चलता रहता है इसलिये हम अभी बहुत जन्मों के हिसाब को भी पा रहे हैं।

समझो हमने इस जन्म में कोई ऐसा बुरा काम नहीं किया है, हम तो सोचेंगे हमने कोई बुराई नहीं की है लेकिन हमारे पास यह कर्मभोग क्यों आया? लेकिन हमारा कोई अगले जन्म का भी तो पाप है ना! सिर पर कई जन्मों का बोझ है, तो हो सकता है उसकी भोगना अभी हमको भोगनी पड़े। ऐसे नहीं कि एक जन्म का खाता एक ही जन्म में खत्म होता है। कई जन्मों का खाता हमारा बहुत बड़ा बनता है। उसको भोगने में हमारी एक आयु पूरी भी नहीं होती है इसलिये हमारा खाता कई जन्मों का स्टॉक में रहता चलता है। इसलिये हम उसको भोगते हैं। तो सिर्फ इस जीवन को नहीं देखना है। अब उसने तो सोचा भी नहीं होगा कि किसको मोटर के नीचे लाऊं, लेकिन हाँ कुछ उसका दुःख दिया हुआ है फिर हमसे उसको मिलना है। एक होता है जान-बूझकर किसका खून करना, एक होता है अन्जाने में तो वो ऐसा ही कुछ हिसाब-किताब बना होगा। अब समझो कोई एक्सीडेन्ट हो गया, तो इसको क्या कहेंगे? ड्रामा का कोई हिसाब था। अब उसके लिये जितना हम अच्छा कर सकते हैं या जितना हमारे से कुछ उसके लिये बन सके, हम करें। अभी तो हमको अपने कर्मों को अच्छा करना है। अभी तो राइटियस कर्म करने हैं, तो उसी राइटियस को समझना है। इसलिये हमको अटेन्शन तो देना पड़े ना, ऐसा नहीं है कि जो होना होगा, होगा। नहीं, अपने कर्म के ऊपर ध्यान हो।

तो ड्रामा और कर्म, पुरुषार्थ और प्रालब्ध का यह बना हुआ खेल है, इन सभी बातों को अच्छी तरह से समझना है। अगर यह ड्रामा की बात समझ में नहीं आती है तो इसको छोड़ दो, यह कोई ऐसी जरूरी नहीं है। परमात्मा को जानना जरूरी है क्योंकि उससे योग लगाना है। तो जो समझ में नहीं आता है उसे छोड़ दो, जो कर्म करना है उसको पकड़ो।

अच्छा - बाप और दादा की, माँ की मीठे-मीठे बहुत समझदार बच्चों प्रति यादप्यार और गुडमार्निंग।

वरदान:-
श्रीमत के आधार पर खुशी, शक्ति और सफलता का अनुभव करने वाले सर्व प्राप्ति सम्पन्न भव

जो बच्चे स्वयं को ट्रस्टी समझकर श्रीमत प्रमाण चलते हैं, श्रीमत में जरा भी मनमत या परमत मिक्स नहीं करते उन्हें निरन्तर खुशी, शक्ति और सफलता की अनुभूति होती है। पुरूषार्थ वा मेहनत कम होते भी प्राप्ति ज्यादा हो तब कहेंगे यथार्थ श्रीमत पर चलने वाले। परन्तु माया, ईश्वरीय मत में मनमत वा परमत को रायल रूप से मिक्स कर देती है इसलिए सर्व प्राप्तियों का अनुभव नहीं होता। इसके लिए परखने और निर्णय करने की शक्ति धारण करो तो धोखा नहीं खायेंगे।

स्लोगन:-
बालक सो मालिक वह है जो तपस्या के बल से भाग्यविधाता बाप को अपना बना दे।