18-09-11 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 18-06-73 मधुबन
विशेष आत्माओं की विशेषता
सभी इस समय अपने श्रेष्ठ स्वमान के सिंहासन पर स्थित हो? श्रेष्ठ स्वमान का रूप जानते हो? इस समय विश्व रचयिता की डायरेक्ट रचना, पहली रचना, सर्वश्रेष्ठ रचना और रचयिता के ‘बालक सो मालिक’, जो बापदादा के नूरे रत्न हो, दिल तख्त नशीन हो, मस्तक की मणियाँ हो और बापदादा के कर्त्तव्य में मददगार हो और जो विश्व-कल्याणकारी, विश्व के आधारमूर्त्त, विश्व के आगे श्रेष्ठ उदाहरण रूप में हो, क्या ऐसे सच्चे स्वमान स्मृति में रहते हैं? सदा स्वमान के सिंहासन पर स्थित रहते हो? या सिंहासन पर टिक नहीं पाते हो? नाम ही है सिंहासन। इसका अर्थ क्या हुआ? इस पर कौन स्थित हो सकता है? सर्व शक्ति सम्पन्न ही इस आसन पर अर्थात् स्थिति में स्थित हो सकता है। सिंह अर्थात् शेर या शेरनी। अगर सिंह नहीं बने हो तो आसन पर स्थित नहीं हो सकते हो। सिंहासन किस के लिए है? जो सर्वशक्तिमान् की पहली रचना है। पहली रचना में रचयिता के समान सर्व-शक्तियाँ स्वरूप में दिखाई देती हैं? पहली रचना कि विशेषता जो इस समय है क्या उसको जानते हो? जिस विशेषता के कारण विश्व रचयिता के भी मालिक बनते हो, बाप से भी विशेष पूज्य योग्य बनते हो, बाप भी ऐसी रचना का गुणगान करते हैं, और वन्दना करते हैं, वह कौन-सी विशेषता है? बाप का गायन आत्मायें ही करती हैं लेकिन ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का गायन स्वयं सर्वशक्तिवान् करते हैं अर्थात् परमात्मा द्वारा आत्माओं का गायन होता है। स्वयं बाप ऐसी आत्माओं का हर रोज बार-बार स्मरण करते हैं। ऐसी विशेष आत्माओं की मुख्य विशेषता क्या है जो ऐसे श्रेष्ठ बने हो? अपनी उस विशेषता को जानते हो? अवश्य ही बाप से भी कोई विशेषता आपकी ज्यादा है। उसको जानते हो? किस बात में बाप से भी आगे हो? वह विशेषता सुनाओ। बापदादा से किस बात में आगे हो? अष्ट रत्नों में सिर्फ शक्तियाँ हैं वा पाण्डव भी आ सकते हैं। जब भाई-भाई हैं तो आत्मिक रूप की स्थिति में स्थित हुई आत्मा अष्ट रत्न बन सकते हैं? इसमें शक्ति अथवा पाण्डवों की बात नहीं है, अपितु आत्मिक स्थिति की बात है। दोनों आ सकते हैं। पाण्डवों की सीट भी आठ में है। अच्छा फर्स्ट विशेषता क्या हुई जो आत्माओं को बाप का भी मालिक बनाती है? वो बाप से भी श्रेष्ठ बनते हैं। यह विशेषता है बाप को प्रत्यक्ष करना, बाप के सम्बन्ध में समीप लाना, बाप के वारिस बनाना। यह आप पहली रचना का कर्त्तव्य है। बाप बच्चों द्वारा ही प्रत्यक्ष होते हैं। निराकार बाप और साकार ब्रह्मा बाप दोनों को, अपने निश्चय, अपने ब्राह्मण जीवन के आधार से, अपने अनुभव के आधार से, विश्व के आगे प्रख्यात किया तब विशेष मानते हैं। तो बाप को प्रख्यात करने की विशेषता बच्चों की है, इसलिए बाप रिटर्न में विश्व के आगे, स्वयं गुप्त रूप में रह, शक्ति सेना व पाण्डव सेना को प्रख्यात करते हैं। तो यह विशेषता बच्चों की है इसलिए बाप से भी ज्यादा पूज्य बने हो। ऐसी अपनी विशेषता स्मृति में रहती है या भूल जाते हो? संगमयुगी ब्राह्मणों की विशेषता सदा स्मृति स्वरूप की है। तो ब्राह्मणपन की विशेषता अनुभव करते हो? शूद्रपन अर्थात् विस्मृत स्वरूप। ब्राह्मण बन कर भी फिर विस्मृति में आये तो शूद्र और ब्राह्मण में अन्तर ही क्या हुआ? मरजीवा जन्म की अलौकिकता क्या हुई? विस्मृति लौकिकता है अर्थात् वह इस लोक की रीति-रस्म है। ब्राह्मण की रस्म ‘सदा स्मृति स्वरूप है।’ कब भी अपने लौकिक कुल की रीति-रस्म व मर्यादायें किसको भूलती हैं क्या? ब्राह्मण कुल की रीति-रस्म वा मर्यादायें ब्राह्मण ही भूल जायें यह सम्भव (आसान) है क्या? ब्राह्मणों के रीति-रस्म अलौकिक हैं। इस रीति-रस्म में चलना साधारण और सहज बात है क्योंकि जब हैं ही ब्राह्मण। दूसरे कुल की रीति-रस्म अपनाना मुश्किल हो सकती है। लेकिन यह तो आपके आदि की रीति-रस्म है। नेचरल जीवन की बात है। ब्राह्मण जन्म के संस्कारों की बात है, इसमें मुश्किल क्या है? ब्राह्मण जीवन का संस्कार और स्वभाव कौनसा है? सर्व दिव्य गुण ही ब्राह्मणों का स्वभाव है, जिसको दिव्य स्वभाव कहते हैं तो दिव्य गुण ब्राह्मणों की स्वाभाविक चीज़ है अर्थात् ब्राह्मण-जीवन का स्वभाव सर्व दिव्यगुण हैं। गम्भीरता, रमणीकता, हर्षितमुखता, सहनशीलता, सन्तोष, यह ब्राह्मणों के जीवन का स्वभाव है और संस्कार है-’विश्व के सेवाधारी।’ जब ब्राह्मण जीवन का स्वभाव और संस्कार यही है तो कोई भी गुण को धारण करना व सेवाधारी बनने के लिये स्वयं का अर्थात् ‘मैं पन’ का त्याग व निरन्तर तपस्वी स्वरूप व स्मृति स्वरूप बनना सहज और साधारण बात हुई ना? अगर कोई का, कोई भी जन्म का संस्कार होता है वा जन्म से स्वभाव होता है उसको परिवर्तन करना मुश्किल होता है, या चलना सहज होता है? जैसे आप लोग भी कमजोरी-वश बहाना देते हो कि यह मेरा स्वभाव व संस्कार है, इसी प्रकार ब्राह्मण जीवन का जो आदि स्वभाव और संस्कार है उसमें ब्राह्मणों का चलना सहज होगा या मुश्किल होगा? यदि कोई कहे कि इन दिव्य गुणों के संस्कारों के विपरीत कोई कार्य करो, तब यह ब्राह्मणों के लिये मुश्किल होना चाहिए। अभी प्रैक्टिकल में क्या है? शूद्रपन के संस्कार और स्वभाव नेचरल रूप से हैं या ब्राह्मणपन के स्वभाव और संस्कार नेचरल रूप में हैं? इसमें तो पुरूषार्थ करने की आवश्यकता नहीं जबकि जीवन के निजी संस्कार है। लेकिन जैसे पहले सुनाया कि अपने स्वमान के सिंहासन पर स्थित नहीं हो पाते, अपना तख्त छोड़ देते हो, और अपना बना हुआ भाग्य भूल जाते हो। इसीलिये निजी स्वभाव और संस्कार मुश्किल अनुभव करते हो। समझा?
बाप का इस बात पर एक गायन है जो बच्चों का भी है। ‘‘मुश्किल को सहज करने वाले।’’ तो जब बाप का गायन है मुश्किल को सहज करने वाले, पहाड़ को राई बनाने वाले व रूई बनाने वाले। रूई (कपास) कितनी हल्की होती है और स्वच्छ होती है और पहाड़ कितना मुश्किल और भारी होता है। कहां पहाड़, कहाँ रूई वा राई। तो जो बाप का गायन है वह आपका नहीं है? जो मुश्किल को सहज बनाने वाले ब्राह्मण, उनको कोई भी बात मुश्किल अनुभव हो, यह हो सकता है? तो अपने स्वमान में स्थित रह अपनी विशेषता को हर समय स्मृति में रखो। विशेष आत्मायें हर संकल्प और हर कार्य विशेष करेंगी अर्थात् श्रेष्ठ करेंगी।
अच्छा, ऐसे सदा मुश्किल को सहज करने वाले, सदा स्मृति स्वरूप, बाप के समान हर संकल्प, हर सेकेण्ड विश्व-कल्याण के विशेष कर्त्तव्य में लगाने वाले, विश्व-कल्याणकारी और बापदादा के दिल-तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दुसरी मुरली - 20-06-73
लगन का साधन - विघ्न
वरदान भूमि से वरदाता द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करके क्या तीव्र पुरुषार्थी बनते जा रहे हो? पुरूषार्थ की चाल में जो परिवर्तन किया है, वह अविनाशी किया है या अल्पकाल के लिए? कैसी भी कोई परिस्थिति आये, कैसे भी विघ्न हिलाने के लिए आ जाए लेकिन जिसके साथ स्वयं बाप सर्वशक्तिवान् है उनके सामने वह विघ्न क्या हैं? उनके आगे विघ्न, परिवर्तन हो क्या बन जायेंगे? ‘विघ्न लगन का साधन बन जायेंगे।’ हर्षित होंगे ना? यदि कोई भी परिस्थिति व व्यक्ति विघ्न लाने के निमित्त बनता है तो उसके प्रति घृणा-दृष्टि, व्यर्थ संकल्पों की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन उसके प्रति वाह-वाह निकले। अगर यह दृष्टि रखो तो आप सभी की श्रेष्ठ दृष्टि हो जायेगी। कोई कैसा भी हो, लेकिन अपनी दृष्टि और वृत्ति सदैव शुभचिन्तक की हो और कल्याण की भावना हो। हर बात में कल्याण दिखाई दे। कल्याणकारी बाप की सन्तान कल्याणकारी हो ना? कल्याणकारी बनने के बाद कोई भी अकल्याण की बात हो नहीं सकती। यह निश्चय और स्मृति-स्वरूप हो जाओ तो आप कभी डगमगा नहीं सकेंगे।
जैसे कोई हरा या लाल चश्मा पहनता है तो उसको सभी हरा अथवा लाल ही दिखाई पड़ता है। वैसे आप लोगों के तीसरे नेत्र पर कल्याणकारी का चश्मा पड़ा है। तीसरा नेत्र है ही कल्याणकारी। उसमें अकल्याण दिखाई पड़े, यह हो ही नहीं सकता। जिसको अज्ञानी लोग अकल्याण समझते हैं लेकिन आपका उस अकल्याण में ही कल्याण समाया हुआ है। जैसे लोग विनाश को अकल्याण समझते हैं लेकिन आप समझते हो कि इससे ही गति-सद्गति के गेट्स खुलेंगे। तो कोई भी बात सामने आती है, ‘सभी में कल्याण भरा हुआ है’-ऐसे निश्चय-बुद्धि होकर चलो तो क्या प्राप्ति होगी?-एक-रस अवस्था हो जायेगी। किसी भी बात में रूकना नहीं चाहिए। जो रूकते हैं वे कमजोर होते है। महावीर कभी नहीं रूकते। ऐसे नहीं विघ्न आयें और रूक जायें। अच्छा।
वरदान:- समय और संकल्प सहित अपने सर्व खजानों को विल करने वाले मोहजीत भव
जैसे बच्चे को सब कुछ विल किया जाता है, ऐसे आप लोग भी बाप को अपना वारिस बनाकर सब कुछ विल कर दो तो विल पावर आ जायेगी। इस विल पावर से मोह स्वत: नष्ट हो जायेगा। जैसे साकार बाप ने पूरा ही अपने को विल किया वैसे आप लोगों की जो स्मृति है, समय और संकल्पों का खजाना है उसे विल करो अर्थात् श्रीमत प्रमाण सेवाओं में लगाओ तो मोहजीत, बन्धनमुक्त बन जायेंगे।
स्लोगन:- एक दो का स्नेही बनने के लिए सरलता और सहनशीलता का गुण धारण करो।