ओम् शान्ति।
चैतन्य परवानों ने गीत सुना। परवाने कहो वा फूल कहो, बात एक ही है। बच्चे समझते हैं
हम सचमुच परवाने बने हैं या फेरी लगाकर चले जाते हैं, शमा को भूल जाते हैं। हरेक को
अपनी दिल से पूछना है कि हम कहाँ तक फूल बने हैं? और ज्ञान की खुशबू फैलाते हैं?
अपने जैसा फूल किसको बनाया है? यह तो बच्चे जानते हैं ज्ञान का सागर वह बाप है। उनकी
कितनी खुशबू है! जो अच्छे फूल वा परवाने हैं उनकी जरूर अच्छी खुशबू आयेगी। वह सदैव
खुश रहेंगे, औरों को भी आप समान फूल वा परवाने बनायेंगे। फूल नहीं तो कली बनायेंगे।
पूरे परवाने वह हैं जो जीते जी मरते हैं। बलि चढ़ते हैं अथवा ईश्वरीय औलाद बनते
हैं। कोई साहूकार किसी गरीब के बच्चे को गोद में लेते हैं तो बच्चे को उस साहूकार
की गोद में आने से फिर वह माँ-बाप ही याद आते रहते हैं। फिर गरीब की याद भूल जायेगी।
जानते हैं कि हमारे गरीब माँ-बाप भी हैं परन्तु याद साहूकार माँ-बाप को करेंगे,
जिससे धन मिलता है। संन्यासी-साधू आदि हैं वह भी साधना करते हैं मुक्तिधाम में जायें।
सभी मुक्ति के लिए ही पुरुषार्थ करते हैं। परन्तु मुक्ति का अर्थ नहीं समझते। कोई
कहते ज्योति-ज्योत समायेंगे, कोई समझते पार निर्वाण जाते हैं। निर्वाणधाम में जाने
को ज्योति में समाना वा मिल जाना नहीं कहा जाता है। यह भी समझते हैं हम दूरदेश के
रहने वाले हैं। इस गन्दी दुनिया में रहकर क्या करेंगे।
बच्चों को समझाया है जब कोई से मिलते हो तो यह समझाना है कि यह बना बनाया ड्रामा
है। सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, यह है संगमयुग। सतयुग के बाद त्रेता का भी संगम
होता है। वहाँ युग बदलता है परन्तु यहाँ कल्प बदलता है। बाप कोई युगे-युगे नहीं आते
हैं। जैसे मनुष्य समझते हैं। बाप कहते हैं जब सब तमोप्रधान बन जाते हैं, कलियुग का
अन्त होता है, ऐसे कल्प के संगम पर मैं आता हूँ। युग पूरा होता है तो दो कला कम होती
है। यह तो जब पूरा ग्रहण लग जाता है तब मैं आता हूँ। मैं युगे-युगे नहीं आता हूँ।
यह बाप बैठ परवानों को समझाते हैं। परवानों में भी नम्बरवार हैं। कोई तो जल मरते
हैं कोई फेरी पहन चले जाते हैं। श्रीमत पर चल नहीं सकते। अगर कहाँ श्रीमत पर नहीं
चले तो फिर माया पछाड़ती रहेगी। श्रीमत का बहुत गायन है। श्रीमद् भगवत गीता कहा जाता
है। शास्त्र तो बाद में बैठ बनाये हैं। उस समय मनुष्यों की बुद्धि रजो तमो होने के
कारण समझते हैं श्रीकृष्ण द्वापर में आया। बाप कहते हैं मैं आता ही तब हूँ जब आदि
सनातन देवी-देवता धर्म वाले मनुष्य गुम हो जाते हैं। परन्तु यह भूल जाते हैं कि हम
ही देवी-देवता धर्म वाले थे। अपना हिन्दू धर्म कह देते हैं। यह कड़े से कड़ी भूल
है। भारतवासी जो देवता धर्म के पुजारी हैं उन्हों से पूछो तुम किस धर्म के हो? तो
कहते हैं हम हिन्दू धर्म के हैं। अरे तुम पूजते किसको हो? भारत-वासी अपने धर्म को
ही नहीं जानते। यह भी ड्रामा में नूँध है। जब भूलें तब तो फिर से मैं आकर आदि सनातन
देवी-देवता धर्म की स्थापना करूं। सतयुग में है ही एक धर्म। यह बातें बाप बैठ समझाते
हैं। जो विश्व के मालिक थे वह खुद ही भूल जाते हैं तो बाकी औरों की बात ही क्या।
यह एक ही बाप है जो आकर दु:खधाम से निकाल सुखधाम का मालिक बनाते हैं। तुम कहेंगे
अभी हम नर्क के मालिक हैं। दुनिया को तमोप्रधान तो बनना ही है। सब पतित हैं तब तो
पावन के आगे जाकर नमस्ते करते हैं। मनुष्य संन्यासियों आदि को गुरू बनाते हैं
क्योंकि वह पावन हैं, समझते हैं गुरू द्वारा पावन नहीं बनेंगे तो सद्गति कैसे होगी।
परन्तु फॉलो तो करते नहीं। गुरू लोग फिर उनको कहते भी नहीं कि तुम फॉलो कहाँ करते
हो, पवित्र कहाँ बनते हो। यहाँ तो बाप कहते हैं अगर तुम पावन निर्विकारी बनते हो तो
मेरे फॉलोअर हो, नहीं बनते हो तो तुम फॉलोअर नहीं हो। ऊंच गति को पा नहीं सकेंगे।
संन्यासी ऐसे नहीं कहेंगे कि फॉलो करो, नहीं तो सजा खानी पड़ेगी। यह बाप कहते हैं -
श्रीमत पर चलो नहीं तो बहुत त्राहि-त्राहि करना पड़ेगा। वह तो समझते आत्मा निर्लेप
है, परन्तु नहीं। आत्मा ही सुख-दु:ख देखती है। यह कोई भी समझते नहीं। बाबा बार-बार
समझाते हैं - बच्चे, मंजिल बहुत भारी है। इस समय तुम पुरुषार्थ करते हो जबकि दु:खी
हो। तुम जानते हो सतयुग में हम बहुत सुखी रहेंगे। वहाँ यह पता नहीं रहेगा कि हमको
फिर दु:खधाम में जाना है। हम सुख में कैसे आये, कितने जन्म लेंगे - कुछ भी नहीं
जानते। अभी तुम जानते हो कि ऊंच कौन ठहरे? तुम ईश्वर की औलाद होने के कारण जैसे
ईश्वर नॉलेजफुल है, तुम भी नॉलेज-फुल ठहरे। अभी तुम ईश्वर के बच्चे हो। देवतायें
थोड़ेही ईश्वर के बच्चे कहलायेंगे। अभी तुम ईश्वरीय औलाद हो परन्तु नम्बर-वार। कोई
तो बड़े मस्त हैं। समझते हैं हम तो बाबा की मत पर चलते रहते हैं। जितना मत पर चलेंगे
उतना श्रेष्ठ बनेंगे।
बाप सम्मुख बैठ बच्चों को समझाते हैं - बच्चे, देह-अभिमान छोड़ो, देही-अभिमानी
बनो, निरन्तर याद करो। परन्तु सदैव याद कर नहीं सकेंगे। याद रहेगी नम्बरवार
पुरुषार्थ अनुसार। सो भी रिजल्ट अन्त में निकलेगी। बाप तो है ही सुख दाता। ऐसे नहीं
कि दु:ख भी बाप ही देते हैं। बाप कभी बच्चे को दु:ख नहीं देते। बच्चे अपनी उल्टी
चलन से दु:ख पाते हैं। बाप दु:ख नहीं दे सकते। कहते हैं - हे भगवान, बच्चा दो तो
कुल वृद्धि को पायेगा। बच्चे को बहुत प्यार करते हैं। बाकी दु:ख अपने कर्मों का ही
पाते हैं। अब भी बाप तो बच्चों को बहुत सुखी बनाते हैं। कहते हैं श्रीमत पर चलो।
आसुरी मत पर चलने से तुम दु:ख पाते हो। बच्चे बाप और टीचर अथवा बड़ों की आज्ञा न
मानने से दु:खी होते हैं। दु:खदाई खुद बनते हैं। माया के बन पड़ते हैं। ईश्वर की मत
तुमको अब ही मिलती है। ईश्वरीय मत की रिजल्ट 21 जन्म तक चलती है। फिर आधा कल्प माया
की मत पर चलते हैं। ईश्वर एक ही बार आकर मत देते हैं। माया तो आधा कल्प से है ही
है। मत देती ही रहती है। माया की मत पर चलते 100 परसेन्ट दुर्भाग्यशाली बन पड़ते
हैं।
तो जो अच्छे-अच्छे फूल हैं वह इसी खुशी में सदैव मस्त रहेंगे। नम्बरवार तो हैं
ना। परवाने कोई तो बाप के बन श्रीमत पर चल पड़ते हैं। अक्सर करके गरीब ही अपना पूरा
पोतामेल लिखते हैं। साहूकारों को तो डर रहता है कि कहाँ हमारे पैसे न ले लेंवे।
साहूकारों के लिए बड़ा मुश्किल है। बाप कहते हैं मैं गरीब निवाज़ हूँ। दान भी हमेशा
गरीब को ही किया जाता है। सुदामा की बात है ना। चावल चपटी ले उनको महल दे दिए। तुम
हो गरीब, समझो कोई के पास 25-50 रूपया है उनसे एक दो आना देते हैं। साहूकार 50
हज़ार दें तो भी इक्वल हो जाता है, इसलिए गरीब निवाज़ कहा जाता है। साहूकार लोग तो
कहते हमको फुर्सत नहीं मिलती क्योंकि पूरा निश्चय नहीं है। तुम हो गरीब। गरीबों को
धन मिलने से खुशी होती है। बाबा ने समझाया है यहाँ के गरीब वहाँ साहूकार बन जाते
हैं और यहाँ के साहूकार वहाँ बहुत गरीब बन पड़ते हैं। कोई कहते हम यज्ञ का ख्याल रखें
या कुटुम्ब का रखें? बाबा कहते तुम अपने कुटुम्ब की बहुत अच्छी सम्भाल करो। अच्छा
है, जो तुम इस समय गरीब हो। साहूकार होते तो बाप से पूरा वर्सा ले नहीं सकते।
संन्यासी ऐसे नहीं कहेंगे, वह तो पैसे लेकर अपनी जागीर बनाते हैं। शिवबाबा थोड़ेही
बनायेंगे। यह मकान आदि सब तुम बच्चों ने अपने लिए बनाये हैं। यह किसकी जागीर नहीं
है। यह तो टैप्रेरी है क्योंकि अन्त समय बच्चों को यहाँ आकर रहना है। हमारा यादगार
भी यहाँ है। तो पिछाड़ी में यहाँ आकर विश्राम लेंगे। बाप के पास भागेंगे वह, जो
योग-युक्त होंगे। उन्हों को मदद भी मिलेगी। बाप की बहुत मदद मिलती है। तुम जानते हो
हमको यहाँ बैठ विनाश देखना है। जैसे शुरू में बाबा ने तुम बच्चों को बहलाया है तो
पिछाड़ी वालों का भी हक है। उस समय ऐसे फील करेंगे जैसे वैकुण्ठ में बैठे हैं। बहुत
नज़दीक होते जायेंगे।
यह तो समझते हैं हम यात्रा पर हैं। थोड़े समय बाद विनाश होगा। हम जाकर प्रिन्स
प्रिन्सेज बनेंगे। किसम-किसम के फूल हैं। हरेक बच्चे को समझना चाहिए मैं कितने को
ज्ञान की खुशबू दे रहा हूँ! किसको ज्ञान और योग की शिक्षा देता हूँ! जो सर्विस करते
हैं वह अन्दर में प्रफुल्लित रहते हैं। बाबा जान जाते हैं यह किस अवस्था में रहते
हैं। इनकी अवस्था कहाँ तक गैलप करेगी। गैलप उनकी अवस्था करेगी जो परवाना बन चुका
होगा। बाप समझाते हैं माया के तूफान तो आयेंगे, उनसे अपने को बचाना है। संन्यासी कभी
नहीं कहेंगे कि स्त्री-पुरुष गृहस्थ में रहते पवित्र हो दिखाओ। वह ऐसा संन्यास करा
न सकें। उनका है ही रजोप्रधान संन्यास, निवृत्ति मार्ग का। हठयोग संन्यास तो मनुष्य,
मनुष्य को सिखलाते आये हैं। अभी यह राजयोग परमपिता परमात्मा आकर आत्माओं को सिखलाते
हैं। आत्मा को ज्ञान है - मैं आत्मा अपने इस (आत्मा) भाई को समझाता हूँ। जैसे
परमात्मा बाप हम आत्माओं (बच्चों) को समझाते हैं। हम भी आत्मा हैं। बाबा हमको
सिखलाते हैं। हम फिर इन आत्माओं को समझाता हूँ। परन्तु यह आत्मा-पने का निश्चय न
होने से अपने को मनुष्य समझ मनुष्य को समझाते हैं। बाप कहते हैं हम तो आत्माओं से
ही बात करते हैं। मैं परम आत्मा तुम आत्माओं से बात करता हूँ। तुम कहेंगे हम आत्मा
सुनती हैं। आत्मा को सुनाती हैं। ऐसे तुम देही-अभिमानी हो किसको सुनायेंगे तो वह
तीर झट लगेगा। अगर खुद ही देही-अभिमानी नहीं रह सकते हैं तो धारणा करा नहीं सकेंगे।
यह बड़ी ऊंची मंज़िल है। बुद्धि में यह रहना चाहिए हम इन आरगन्स से सुनते हैं। बाप
कहते हैं - हम आत्माओं से बात करते हैं। बच्चे कहेंगे हम आत्मायें ब्रदर्स से बात
करते हैं। बाप कहते हैं हम आत्माओं को समझाता हूँ। बाबा का फरमान है - बच्चे, अशरीरी
अर्थात् देही-अभिमानी बनो। देह-अभिमान छोड़ो, मुझे याद करो। यह बुद्धि में आना
चाहिए - हम आत्मा से बात करता हूँ, न कि शरीर से। भल फीमेल है, उनकी भी आत्मा से
बात करता हूँ। तुम बच्चे समझते हो हम बाबा के तो बन गये परन्तु नहीं, इसमें बड़ी
सूक्ष्म बुद्धि चलती है। मैं आत्मा समझाता हूँ, यह बुद्धि में आता है। ऐसे नहीं कि
मैं फलानी को समझाता हूँ। नहीं, यह हमारा भाई है, इनको रास्ता बताना है। यह आत्मा
समझ रही है। ऐसे समझो तब आत्मा को तीर लगे। देह को देखकर सुनाते हैं तो आत्मा सुनती
नहीं है।
पहले ही वारनिंग दो मैं आत्मा से बात करता हूँ। आत्मा को तो न मेल कहेंगे, न
फीमेल कहेंगे। आत्मा तो न्यारी है। मेल-फीमेल शरीर पर नाम पड़ता है। जैसे
ब्रह्मा-सरस्वती को मेल-फीमेल कहेंगे। शंकर पार्वती को मेल-फीमेल कहेंगे। शिव बाबा
को न मेल, न फीमेल कहेंगे। तो बाप आत्माओं को समझाते हैं - यह बड़ी मंजिल है। बाबा
की आत्मा इनको समझाती है। आत्मा को इन्जेक्शन लगाना है तब देह-अभिमान टूटता है। नहीं
तो खुशबू नहीं निकलती है, ताकत नहीं रहती। हम आत्मा से बात करते हैं। आत्मा सुनती
है। बाप कहते हैं तुमको वापिस जाना है, इसलिए देही-अभिमानी बनो, मनमनाभव। फिर
आटोमेटिकली मध्याजी भव आ जाता है। मूल बात है ही मनमनाभव। बाप को याद करो। भल कहते
तो सब हैं भगवान को याद करो परन्तु जानते नहीं। खास कहते ईश्वर को याद करो।
श्रीकृष्ण को वा किसी देवता को याद नहीं करना है। अभी तुम बच्चों को बड़ी सूक्ष्म
बुद्धि मिलती है। सवेरे उठ विचार सागर मंथन करना है। दिन में सर्विस करनी है क्योंकि
कर्मयोगी हो। लिखा हुआ भी है नींद को जीतने वाले बनो। रात को जाग कमाई करो। दिन में
माया का बड़ा बखेरा है। अमृतवेले वायुमण्डल बहुत अच्छा रहता है। बाबा को यह तो लिखते
नहीं कि फलाने टाइम पर उठ विचार सागर मंथन करते हैं। इसमें बड़ी मेहनत है। विश्व का
मालिक बनते हैं तो जरूर थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ेगी। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) देही-अभिमानी बनने की मेहनत करनी है, हम आत्मा, आत्मा (भाई) से बात
करता हूँ, आत्मा बोलती है, आत्मा इन आरगन्स से सुनती है... यह अभ्यास करना है।
2) ऊंच गति के लिए पावन निर्विकारी बनना है। जीते जी मरकर पूरा परवाना बनना है।