19-02-06 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 16.03.88 "बापदादा" मधुबन
"तीन प्रकार का स्नेह तथा
दिल के स्नेही बच्चों की विशेषताएँ"
आज बापदादा अपने
स्नेही, सहयोगी और शक्तिशाली - ऐसे तीनों विशेषताओं से सम्पन्न बच्चों को देख रहे
हैं। यह तीनों विशेषतायें जिसमे समान हैं, वही विशेष आत्माओं में ‘नम्बरवन आत्मा'
है। स्नेह भी हो और सदा हर कार्य में सहयोगी भी हो, साथ-साथ शक्तिशाली भी हो। स्नेही
तो सभी हैं लेकिन स्नेह में एक है दिल का स्नेह, दूसरा है समय प्रमाण मतलब का स्नेह
और तीसरा है मजबूरी के समय का स्नेह। जो दिल का स्नेही है उसकी विशेषता यह होगी -
सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति सदा सहज स्वत: अनुभव करेंगे। एक सम्बन्ध की अनुभूति
में भी कमी नहीं। जैसा समय वैसे सम्बन्ध के स्नेह के भिन्न-भिन्न अनुभव करने वाले,
समय को जानने वाले और समय प्रमाण सम्बन्ध को भी जानने वाले होंगे।
अगर बाप जब शिक्षक के
रूप में श्रेष्ठ पढ़ाई पढ़ा रहे हैं, ऐसे समय पर ‘शिक्षक' के सम्बन्ध का अनुभव न कर,
‘सखा' रूप की अनुभूति में मिलन मनाने वा रूह-रूहान करने में लग जाएँ तो पढ़ाई के तरफ
अटेन्शन नहीं होगा। पढ़ाई के समय अगर कोई कहे कि मैं आवाज से परे स्थिति में बहुत
शक्तिशाली अनुभव कर रहा हूँ, तो पढ़ाई के समय क्या यह राइट है? क्योंकि जब बाप
शिक्षक के रूप में पढ़ाई द्वारा श्रेष्ठ पद की प्राप्ति कराने आते हैं तो उस समय
टीचर के सामने गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ ही यथार्थ है। इसको कहा जाता है - समय की पहचान
प्रमाण सम्बन्ध की पहचान और सम्बन्ध प्रमाण स्नेह की प्राप्ति की अनुभूति। यही
बुद्धि को एक्सरसाइज कराओ जो जैसा चाहे, जिस समय चाहे वैसे स्वरूप और स्थिति में
स्थित हो सकें।
जैसे कोई शरीर में
भारी है, बोझ है तो अपने शरीर को सहज जैसे चाहे वैसे मोल्ड नहीं कर सकेंगे। ऐसे ही
अगर मोटी-बुद्धि है अर्थात् किसी-न-किसी प्रकार का व्यर्थ बोझ वा व्यर्थ किचड़ा
बुद्धि में भरा हुआ है, कोई न कोई अशुद्धि है तो ऐसी बुद्धि वाला जिस समय चाहे, वैसे
बुद्धि को मोल्ड नहीं कर सकेगा। इसलिए बहुत स्वच्छ, महीन अर्थात् अति सूक्ष्म-बुद्धि,
दिव्य बुद्धि, बेहद की बुद्धि, विशाल बुद्धि चाहिए। ऐसी बुद्धि वाले ही सर्व
सम्बन्ध का अनुभव जिस समय, जैसा सम्बन्ध वैसे स्वयं के स्वरूप का अनुभव कर सकेंगे।
तो स्नेही सभी हैं, लेकिन सर्व सम्बन्ध का स्नेह समय प्रमाण अनुभव करने वाले सदा ही
इसी अनुभव में इतने बिजी रहते, हर सम्बन्ध के भिन्न-भिन्न प्राप्तियों में इतना
लवलीन रहते, मग्न रहते जो किसी भी प्रकार का विघ्न अपने तरफ झुका नहीं सकता है।
इसलिए स्वत: ही सहज योगी स्थिति का अनुभव करते हैं। इसको कहा जाता है - नम्बरवन
यथार्थ स्नेही आत्मा। स्नेह के कारण ऐसी आत्मा को समय पर बाप द्वारा हर कार्य में
स्वत: ही सहयोग की प्राप्ति होती रहती है। इस कारण ‘स्नेह' - अखण्ड, अटल, अचल,
अविनाशी अनुभव होता है। समझा? यह है नम्बरवन स्नेही की विशेषता। दूसरे, तीसरे का
वर्णन करने की तो आवश्यकता ही नहीं क्योंकि सब अच्छी तरह से जानते हो। तो बापदादा
ऐसे स्नेही बच्चों को देख रहे थे। आदि से अब तक स्नेह एकरस रहा है वा समय प्रमाण,
समस्या प्रमाण वा ब्राह्मण आत्माओं के सम्पर्क प्रमाण बदलता रहता हैं इसमें भी फर्क
पड़ जाता है ना!
आज स्नेह का सुनाया,
फिर सहयोग और शक्तिशाली, तीनों विशेषता वाली आत्मा का महत्त्व सुनायेंगे। तीनों ही
जरूरी हैं। आप सब तो ऐसे स्नेही हो ना? प्रैक्टिस है ना? जब जहाँ बुद्धि को स्थित
करने चाहो, ऐसे कर सकते हो ना? कण्ट्रोलिंग पावन है ना? रूलिंग पावर तब आती है जब
पहले कण्ट्रोलिंग पावर हो। और जो स्वयं को ही कण्ट्रोल नहीं कर सकता, वह राज्य को
क्या कण्ट्रोल करेगा? इसलिए स्वयं को कण्ट्रोल में चलाने की शक्ति का अभ्यास अभी से
चाहिए, तब ही राज्य अधिकारी बनेंगे। समझा? आज तो मिलने वालों का कोटा पूरा करना है।
देखो, संगमयुग पर कितना भी संख्या के बन्धन में बांधे लेकिन बंध सकते हो? संख्या से
ज्यादा आ जाते हैं, इसलिए समय को, संख्या को और जिस शरीर का आधार लेते हैं उसको देख,
उसी विधि से चलना पड़ता है। वतन में यह सब देखना नहीं पड़ता क्योंकि सूक्ष्म शरीर की
गति स्थूल शरीर से बहुत तीव्र है। एक तरफ साकार शरीरधारी, दूसरे तरफ फरिश्ता स्वरूप
- दोनों के चलने में कितना अन्तर होगा! फरिश्ता कितने में पहुँचेगा और साकार
शरीरधारी कितने में पहुँचेगा? बहुत अन्तर है। ब्रह्मा बाप भी सूक्ष्म शरीरधारी बन
कितनी तीव्रगति से चारों ओर सेवा कर रहे हैं! वहीं ब्रह्मा साकार शरीरधारी रहे और
अब सूक्ष्म शरीरधारी बन कितना तीव्रगति से आगे बढ़ और बढ़ा रहे हैं! यह तो अनुभव कर
रहे हो ना!
सूक्ष्म शरीर की गति
इस दुनिया के सबसे तीव्रगति के साधनों से तेज है। एक ही सेकण्ड में उसी समय अनेकों
को अनुभव करा सकते हो। जो सब कहेंगे कि हमने इस समय बाप को देखा या बाप से मिले, हर
एक समझेगा कि मैंने रूह-रूहान की, मैंने मिलन मनाया, मेरे को मदद मिली। क्योंकि
तीव्रगति के कारण एक ही समय पर हर एक को ऐसा अनुभव होता है जैसे मैंने किया। तो
फरिश्ता जीवन बन्धनमुक्त जीवन है। भल सेवा का बन्धन है, लेकिन इतना फास्ट गति है जो
जितना भी करे, उतना करते हुए भी सदा फ्री है। जितना ही प्यारा, उतना ही न्यारा।
कराते सबसे हैं लेकिन कराते हुए भी अशरीरी फरिश्ता होने के कारण सदा ही स्वतन्त्रता
की स्थिति का अनुभव होता है क्योंकि शरीर और कर्म के अधीन नहीं है। आप लोगों को भी
अनुभव है - जब फरिश्ते स्थिति से कोई कार्य करते हो तो बन्धनमुक्त अर्थात् हल्कापन
अनुभव करते हो ना। और जो है ही फरिश्ता; लोक भी वह, तो शरीर भी वह, तो क्या अनुभव
होता होगा, जान सकते हो ना! अच्छा!
चारों ओर के सर्व दिल
के स्नेही बच्चों को, सदा दिव्य, विशाल, बेहद बुद्धिवान बच्चों को, सदा ब्रह्मा बाप
समान फरिश्ता स्थिति का अनुभव की तीव्रगति से सेवा में, स्वउन्नति में सफलता को
प्राप्त करने वाले, सदा सहयोगी बन बाप के सहयोग का अधिकार अनुभव करने वाले - ऐसे
विशेष आत्माओं को, समान बनने वाली महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पर्सनल मुलाकात के
समय वरदान रूप में उच्चारे हुए महावाक्य
1. सदा बेफिकर बादशाह
हो ना। जब बाप को जिम्मेवारी दे दी तो फिकर किस बात का? जब अपने ऊपर जिम्मेवारी रखते
हो तो फिर फिकर होता है - क्या होगा, कैसे होगा.., और जब बाप के हावाले कर दिया तो
फिकर किसको होना चाहिए, बाप को या आपको? और बाप तो सागर है, उसमें फिकर रहेगा ही नहीं।
तो बाप भी बेफिकर और बच्चे भी बेफिकर हो गये। तो जो भी कर्म करो, कर्म करने से पहले
यह सोचो कि मैं ट्रस्टी हूँ! ट्रस्टी काम बहुत प्यार से करता है लेकिन बोझ नहीं होता
है। ट्रस्टी का अर्थ ही है सब कुछ, बाप तेरा। तो तेरे में प्राप्ति भी ज्यादा और
हल्के भी रहेंगे, काम भी अच्छा होगा क्योंकि जैसी स्मृति होती है, वैसी स्थिति होती
है। तेरा माना बाप की स्मृति। कोई रिवाजी महान आत्मा नहीं है, बाप है! तो जब तेरा
कह दिया तो कार्य भी अच्छा और स्थिति भी सदा बेफिकर। जब बाप आफर कर रहा है कि फिकर
दे दो, फिर भी अगर आफर नहीं मानें तो क्या कहेंगे? बाप की आफर है - बोझ छोड़ो। तो सदा
बेफिकर रहना है और दूसरों को बेफिकर बनने की, अनुभव से विधि बतानी है। बहुत
आशीर्वाद मिलेगी! किसका बोझ वा फिकर ले लो तो दिल से दुआयें देंगे। तो स्वयं भी
बेफिकर बादशाह और दूसरों की भी शुभ-भावना की दुआयें मिलेंगी। तो बादशाह हो, अविनाशी
धन के बादशाह हो! बादशाह को क्या परवाह! विनाशी बादशाहों को तो चिंता रहती है लेकिन
यह अविनाशी है। अच्छा!
2. अविनाशी सुख और
अल्पकाल का सुख - दोनों के अनुभवी हो ना? अल्पकाल का सुख है - स्थूल साधनों का सुख
और अविनाशी सुख है - ईश्वरीय सुख। तो सबसे अच्छा सुख कौन-सा हैं! ईश्वरीय सुख जब
मिल जाता है तो विनाशी सुख आपे ही पीछे-पीछे आता है। जैसे कोई धूप में चलता है तो
उसके पीछे परछाई आपे ही आती है और अगर कोई परछाई के पीछे जाये तो कुछ नहीं मिलेगा।
तो जो ईश्वरीय सुख के तरफ जाता है, उसके पीछे अल्पकाल का सुख स्वत: ही परछाई की तरफ
आता रहेगा, मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। जैसे कहते हैं - जहाँ परमार्थ होता है, वहाँ
व्यवहार स्वत: सिद्ध हो जाता है। ऐसे ईश्वरीय सुख है - ‘परमार्थ' और विनाशी सुख है
- ‘व्यवहार'। तो परमार्थ के आगे व्यवहार आपे ही आता है। तो सदा इसी अनुभव में रहना
जिससे दोनों मिल जाएं। नहीं तो, एक मिलेगा और वह भी विनाशी होगा। कभी मिलेगा, कभी
नहीं मिलेगा। क्योंकि चीज़ ही विनाशी है, उससे मिलेगा ही क्या? जब ईश्वरीय सुख मिल
जाता है तो सदा सुखी बन जाते हैं, दु:ख का नाम-निशान नहीं रहता। ईश्वरीय सुख मिला
माना सब कुछ मिला, कोई अप्राप्ति नहीं रहती। अविनाशी सुख में रहने वाले विनाशी चीजों
को न्यारा होकर यूज़ करेगा, फँसेगा नहीं। अच्छा!
वरदान:-
अपने श्रेष्ठ
व्यवहार द्वारा सर्व आत्माओं को सुख देने वाली महान आत्मा भव
जो महान आत्मायें होती
हैं उनके हर व्यवहार से सर्व आत्माओं को सुख का दान मिलता है। वह सुख देते और सुख
लेते हैं। तो चेक करो कि महान आत्मा के हिसाब से सारे दिन में सबको सुख दिया, पुण्य
का काम किया। पुण्य अर्थात् किसको ऐसी चीज़ देना जिससे उस आत्मा से आशीर्वाद निकले।
तो चेक करो कि हर आत्मा से आशीर्वाद मिल रही है। किसी को भी दुःख दिया वा लिया तो
नहीं! तब कहेंगे महान आत्मा।
स्लोगन:-
करने के बाद सोचना ही पश्चाताप का रूप है।