ओम् शान्ति।
यह कोई सिर्फ प्यार का सागर नहीं, ज्ञान का सागर है। ज्ञान और अज्ञान। ज्ञान को दिन,
अज्ञान को रात कहा जाता है। ज्ञान अक्षर ही अच्छा है। अज्ञान अक्षर बुरा है।
आधाकल्प है ज्ञान की प्रालब्ध। आधाकल्प है अज्ञान की प्रालब्ध, अज्ञान की प्रालब्ध
है दु:ख। ज्ञान की प्रालब्ध सुख है। यह तो बहुत सहज समझने की बातें हैं, दिन है
ज्ञान का। रात है अज्ञान, यह भी किसको पता नहीं है। ज्ञान किसको कहा जाता है,
अज्ञान किसको कहा जाता है, यह बेहद की बातें हैं। तुम सबको समझाते हो ज्ञान क्या
है, भक्ति क्या है। ज्ञान से तुम पूज्य बन रहे हो। जब पूज्य बन जाते हो तो पूजा की
सामग्री को जान जाते हो, जो भी मन्दिर आदि हैं। तुम जानते हो यह सब यादगार हैं। उनकी
जीवन कहानी क्या है – वह तुम जानते हो। जो पूजा करने जाते हैं वह खुद नहीं जानते।
पूजा को भक्ति कहा जाता है, भगवान को भक्तों से मिलना है – भक्ति का फल देने के लिए।
सो भगवान ही आकर पुजारी से पूज्य बनाते हैं। पूज्य सतयुग में पुजारी कलियुग में होते
हैं। तुम बच्चे जानते हो आज क्या हैं, कल क्या होना है। विनाश तो जरूर होने का है,
कोई भी समय हो सकता है। तैयारी हो रही है। गाया हुआ भी है अनेक कुदरती आपदायें होती
हैं। यह तो लिख देना चाहिए – गृह युद्ध और कुदरती आपदायें, उनको कोई ईश्वरीय आपदायें
नहीं कहेंगे। यह तो ड्रामा की नूँध है, जिसमें नेचुरल कैलेमिटीज़ सब आने वाली हैं।
विनाश में भी मदद करेंगे। मूसला-धार बरसात पड़ेगी। भूखों मरेंगे, अर्थक्वेक आदि सब
आने की हैं। इन द्वारा ही विनाश होने का है। बच्चे जानते हैं, यह तो जरूर होने का
है। नहीं तो सतयुग में इतने थोड़े मनुष्य कैसे होंगे, जरूर इकट्ठा विनाश होगा। बच्चे
अच्छी रीति जानते हैं, यह सब कपड़े धोये जायेंगे। यह बेहद की बड़ी मशीनरी है। गाया
जाता है मूत पलीती कपड़ धोए… इन कपड़ों की बात नहीं। यह है शरीर की बात। आत्माओं को
योगबल से धोना है। इस समय 5 तत्व तमोप्रधान हैं तो शरीर भी ऐसे बनते हैं। पतित-पावन
बाप आकर पावन बनाते हैं और सब खलास हो जाते हैं। तुम जानते हो पावन कैसे बनते हैं।
रास्ता बहुत सहज बताते हैं। मनुष्य तो कुछ भी नहीं समझते। जहाँ-जहाँ भक्ति यज्ञ आदि
होते हैं, वहाँ जाकर समझाना चाहिए कि जिनकी तुम भक्ति करते हो उनकी बायोग्राफी समझने
से ही तुम देवता बन सकते हो। उन्होंने जीवनमुक्ति कैसे पाई सो तो समझो, तो तुम भी
जीवनमुक्ति पा सकते हो। मन्दिरों में बैठ जीवन कहानी समझाने से अच्छी रीति समझेंगे।
तुम भी बाप से अभी जीवन कहानी सुनते हो, तुम बच्चों को कितनी समझ मिलती है।
परमपिता परमात्मा की जीवन कहानी कोई भी नहीं जानते। सर्वव्यापी कहने से जीवन कहानी
थोड़ेही हो जाती है। तुम बच्चे अभी परमपिता परमात्मा की जीवन कहानी को जानते हो,
यानी आदि-मध्य-अन्त को जानते हो। इस समय को आदि कहेंगे। जबकि बाप आकर पतितों को
पावन बनाते हैं फिर मध्य में भक्ति का पार्ट चलता है। बाप कहते हैं इस समय मैं आकर
स्थापना करता, कराता हूँ। करनकरावनहार हूँ। प्रेरणा को करना नहीं कहेंगे। बाबा आकर
इनकी कर्मेन्द्रियों द्वारा करते हैं, इसमें प्रेरणा की बात नही। करन-करावनहार तो
जरूर सम्मुख हो करायेंगे। प्रेरणा से कुछ भी नहीं हो सकता। आत्मा, बिगर शरीर कुछ भी
नहीं कर सकती है। बहुत कहते हैं ईश्वर ही प्रेरणा से सब कुछ करता है। बाबा आप
प्रेरणा करो, हमारे पति की बुद्धि ठीक हो जाए। बाप कहते हैं – प्रेरणा की तो इसमें
बात ही नहीं। फिर शिव जयन्ती क्यों मनाई जाती। प्रेरणा से काम हो तो फिर आये ही क्यों?
एक तो ईश्वर क्या चीज़ है, यह नहीं जानते। सिर्फ कह देते ईश्वर की प्रेरणा से सब
कुछ होता है। निराकार प्रेरणा से कैसे करेंगे, वह तो करनकरावनहार है। आकरके रास्ता
बताते हैं। कर्मेन्द्रियों से मुरली चलाते हैं। जब तक कर्मेन्द्रियों का आधार न ले,
तब तक मुरली कैसे चलाये। ज्ञान का सागर है तो सुनाने के लिए मुख चाहिए ना। अब तुम
बच्चों को सारी दुनिया के आदि-मध्य-अन्त का पता पड़ा है। पूरी नॉलेज मिली है। समझते
हैं ज्ञान बिगर गति नहीं। ज्ञान कौन दे। अज्ञान मार्ग और ज्ञान मार्ग में फ़र्क तो
देखो ना। विज्ञान भी कहते हैं। अज्ञान हैं अन्धियारा, बाकी ज्ञान और विज्ञान को हम
मुक्ति-जीवनमुक्ति भी कह सकते हैं। तुमको अब पावन बनने का ज्ञान मिलता है। तुम
स्वदर्शन चक्रधारी बनते हो। कोई सुनेंगे तो वन्डर खायेंगे। कहेंगे आत्मा ज्ञान लेती
है तो आत्मा जरूर संस्कार ले जायेगी ना। मनुष्य से देवता बनते हो तो ज्ञान रहना
चाहिए। परन्तु बाप समझाते हैं यह पुरूषार्थ है प्रालब्ध के लिए। प्रालब्ध मिल गई
फिर ज्ञान की क्या दरकार है। सतयुग है ही तुम बच्चों के लिए प्रालब्ध। यह बातें
सुनने से ही वन्डर खायेंगे। यह ज्ञान परम्परा क्यों नहीं चलता, बाप कहते हैं यह
प्राय:लोप हो जाता है। दिन हो गया फिर अज्ञान तो है नहीं, जो ज्ञान की दरकार रहे।
यह भी समझने समझाने की बातें हैं। फट से कोई समझ नहीं सकते। शिवबाबा भारत में ही आते
हैं, बच्चों के लिए सौगात ले आते हैं, भक्ति का फल देने लिए। भक्ति के बाद है सद्गति।
यह विनाश भी होगा जरूर। आसार खड़े हैं। तुम सुनते रहेंगे – चिनगारी लगती है तो एक
दो घण्टे में सारा मकान जलकर भस्म हो जाता है। यह कोई नई बात नहीं है, विनाश तो होना
जरूर है। सतयुग में होते ही हैं थोड़े मनुष्य, श्रेष्ठाचारी। तो श्रेष्ठाचारी बनने
में कितनी मेहनत लगती है। माया नाक से एकदम पकड़ लेती है। ऐसे गिरने वालों को चोट
बहुत लगती है। टाइम लग जाता है। बड़े ते बड़ी चोट है काम विकार की इसलिए कहा जाता
है – काम महाशत्रु है। यही पतित बनाते हैं। झगड़ा होता ही है विकार पर। विकार के
लिए नहीं छोड़ेंगे तो जरूर कहेंगे – इससे तो बर्तन साफ करें वो अच्छा है। झाड़ू
पोंछा लगायेंगी परन्तु पवित्र रहेंगी, इसमें हिम्मत बहुत चाहिए। जब कोई बाप की शरण
में आते हैं तो फिर माया भी लड़ना शुरू करती है। 5 विकारों की बीमारी और ही अधिक
उथल खाती है। पहले तो पक्का निश्चयबुद्धि होना चाहिए। जीते जी मरे हुए हैं। यहाँ से
लंगर उठा लिया है। कलियुगी, विकारी किनारा तुमने छोड़ दिया है। अब हम यात्रा पर जा
रहे हैं – हम अशरीरी हो अपने घर जाते हैं। आत्मा को यह ज्ञान है कि हम एक शरीर छोड़
दूसरे में जायेंगे। हम गृहस्थ व्यवहार में रहते कमल फूल समान पवित्र बन यात्रा पर
रहते हैं। बुद्धि में याद रहे कि यह तो कब्रिस्तान है, फिर हम सुखधाम में जायेंगे।
हमको बाबा वर्सा देने की युक्ति बता रहे हैं। पावन बनने के लिए हम योग में रहते
हैं। याद से ही विकर्म विनाश होंगे तब आत्मा शरीर छोड़ेगी। यात्रा कितनी वन्डरफुल
है। सिर्फ बाप को याद करो, अपनी राजधानी को याद करो। इतनी सहज बात भी याद नहीं पड़ती
है। अल्फ को याद करो, बस। परन्तु माया वह भी याद करने नहीं देती, मेहनत लगती है।
आत्मा को ज्ञान मिला है, हमारा बाबा आया हुआ है। आत्मा पढ़ती है ना। आत्मा शरीर
द्वारा जन्म लेती है। आत्मा भाई-भाई है। देह-अभिमान में आने से फिर अनेक सम्बन्ध हो
जाते हैं। यहाँ तुम भाई-बहिन हो गये। आपस में भाई-भाई भी हो, बहन भाई भी हो।
प्रवृत्ति मार्ग है ना। दोनों को वर्सा चाहिए। आत्मा ही पुरुषार्थ करती है। अपने को
आत्मा समझना – यही मेहनत है। देह-अभिमान न रहे। शरीर ही नहीं तो विकार किससे करेंगे।
हम आत्मा हैं, बाप के पास जाना है। शरीर का भान ही न रहे। जितना योगी बनते जायेंगे,
कर्मेन्द्रियाँ शान्त होती जायेंगी। देह-अभिमान में आने से कर्मेन्द्रियाँ चंचल होती
हैं। आत्मा जानती है हमको प्राप्ति हो रही है। शरीर से अलग होते जायेंगे, तो
कर्मेन्द्रियाँ शान्त होती जायेंगी। संन्यासी लोग दवाई खाकर कर्मेन्द्रियों को
शान्त करते हैं। वह तो हठयोग हो गया ना। तुमको तो योग से काम लेना है। क्या योगबल
से तुम वश नहीं कर सकते हो? जितना आत्म-अभिमानी होते जायेंगे तो कर्मेन्द्रियाँ
शान्त हो जायेंगी। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, प्राप्ति तो बहुत ऊंच है ना। बाप कहते
हैं – योगबल से तुम विश्व के मालिक बनते हो। कर्मेन्द्रियों पर जीत पहनते हो इसलिए
भारत का योग नामीग्रामी है। तुम मनुष्य से देवता, पतित से पावन बनते हो। प्रजा भी
स्वर्गवासी तो है ना। योगबल से तुम स्वर्गवासी बनते हो। बाहुबल से नहीं बन सकते हो।
मेहनत कोई बहुत नहीं है। कुमारियों के लिए तो जैसे मेहनत ही नहीं है। फ्री हैं।
विकार में गई तो बड़ी पंचायत हो जाती है। कुमारी रहना अच्छा है। नहीं तो फिर अधर
कुमारी नाम पड़ जाता है। युगल भी क्यों बनें! इसमें भी नाम रूप का नशा चढ़ता है। यह
भी मूर्खता है। युगल बनने के बाद पवित्र रहने के लिए बड़ी अच्छी हिम्मत चाहिए।
ज्ञान की पूरी पराकाष्ठा चाहिए। बहुत हैं जो हिम्मत करते हैं परन्तु आग की आंच आ
जाती है तो खेल खलास इसलिए बाबा कहते हैं कुमारी फिर भी अच्छी है। अधरकुमारी बनने
का ख्याल भी क्यों करना चाहिए। कुमारियों का नाम बाला है। बाल ब्रह्मचारी हैं। बाल
ब्रह्मचारी रहना अच्छा है, ताकत रहती है। दूसरे कोई की याद नहीं आयेगी। बाकी हिम्मत
है तो करके दिखाओ, परन्तु मेहनत है। दो हो पड़ते हैं ना। कुमारी है तो अकेली है। दो
से द्वेत आ जाता है। जहाँ तक हो सके कुमारी हो रहना अच्छा है। कुमारी सेवा पर निकल
सकती है। बंधन में पड़ने से फिर बन्धन वृद्धि को पाते हैं। ऐसा जाल बिछाना ही क्यों
चाहिए जो बुद्धि फँस पड़े। ऐसे जाल में फँसना ठीक नहीं है। कुमारियों के लिए तो
बहुत अच्छा है। कुमारियों ने नाम भी निकाला है। कन्हैया नाम गाया जाता है ना। कुमारी
हो रहना बड़ा अच्छा है। इन्हों के लिए बहुत सहज है। स्टूडेन्ट लाइफ पवित्र लाइफ भी
है। बुद्धि भी फ्रेश रहती है। कुमारों को भीष्म पितामह जैसा बनना है। कल्प पहले भी
रहे हैं तब तो देलवाड़ा मन्दिर में यादगार बना हुआ है। अब बाप बच्चों को फरमान करते
हैं, मुझे याद करो। और सब बातों को छोड़ तुम अपना कल्याण करो। बाप को याद करने में
ही कल्याण है। भूल-चूक होती है, बच्चे गिर पड़ते हैं, तुम परचिंतन को छोड़ अपना
कल्याण करो। दूसरे चिंतन में जाओ ही नहीं। तुम सोने जैसा बन जाओ औरों को भी रास्ता
बताओ। सतोप्रधान बनने का एक ही उपाय है। पावन बनने के बिगर मुक्तिधाम में जा नहीं
सकते। उपाय एक ही है फिर अन्त मती सो गति हो जायेगी। झरमुई झगमुई छोड़ दो। नहीं तो
अपना ही नुकसान करेंगे। बाप कोई श्राप नहीं देते हैं। श्रीमत पर नहीं चलते तो आपेही
अपने को श्रापित करते हैं। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) निश्चयबुद्धि बन जीते जी इस पुरानी दुनिया से अपना लंगर उठा लेना है।
बाप के हर फरमान को पालन कर अपना कल्याण करना है।
2) दूसरों का चिंतन छोड़ अपनी बुद्धि को स्वच्छ सोने जैसा बनाना है। झरमुई-झगमुई
में अपना समय नष्ट नहीं करना है। योगबल से अपनी कर्मेन्द्रियों को शान्त, शीतल बनाना
है।