27-01-13 प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 24-10-75 मधुबन
हरेक ब्रह्मा-मुखवंशी ब्राह्मण चेतन सालिग्राम का मन्दिर है
अपने को कमल-पुष्प समान अति न्यारा और सदा बाप का प्यारा अनुभव करते हो? कमल-पुष्प एक तो हल्का होने के कारण जल में रहते भी जल से न्यारा रहता है - प्रवृत्ति होते हुए भी स्वयं निवृत्त रहता है। ऐसे ही आप सब भी लौकिक या अलौकिक प्रवृत्ति में रहते हुए निवृत्त अर्थात् न्यारे रहते हो? निवृत्त रहने के लिये विशेष अपनी वृत्ति को चेक करो। जैसी वृत्ति, वैसी प्रवृत्ति बनती है। वृत्ति कौन-सी रखनी है? - आत्मिक वृत्ति और रूहानी वृत्ति। इस वृत्ति द्वारा प्रवृत्ति में भी रूहानियत भर जायेगी अर्थात् प्रवृत्ति में रूहानियत के कारण अमानत समझ कर चलेंगे। तो मेरा-पन सहज ही समाप्त हो जायेगा। अमानत में कभी मेरा-पन नहीं होता है। मेरे-पन में ही मोह के साथसाथ अन्य विकारों की भी प्रवेशता होती है। मेरा-पन समाप्त होना अर्थात् विकारों से मुक्त, निर्विकारी अर्थात् पवित्र बनना है जिससे प्रवृत्ति भी पवित्र-प्रवृत्ति बन जाती है। विकारों का नष्ट होना अर्थात् श्रेष्ठ बनना है। तो क्या ऐसे अपने को विकारों को नष्ट करने वाली श्रेष्ठ आत्मा समझते हो?
प्रवृत्ति को पवित्र-प्रवृत्ति बनाया है? सबसे पहली प्रवृत्ति है अपनी देह की प्रवृत्ति। फिर है देह के सम्बन्ध की प्रवृत्ति। तो पहली प्रवृत्ति, देह के हर कर्म-इन्द्रिय को पवित्र बनाना है। जब तक देह की प्रवृत्ति को पवित्र नहीं बनाया है तब तक देह के सम्बन्ध की प्रवृत्ति चाहे हद की और चाहे बेहद की हो, उसको भी पवित्र प्रवृत्ति नहीं बना सकेंगे। ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियों की प्रवृत्ति कौनसी है? जैसे हद के सम्बन्ध की प्रवृत्ति है वैसे ब्रह्माकुमार और कुमारी के नाते से सारे विश्व की आत्माओं से साकारी भाई-बहन का सम्बन्ध - इतनी बड़ी बेहद की प्रवृत्ति है। लेकिन पहले अपनी देह की प्रवृत्ति बनायें, तब बेहद की प्रवृत्ति को भी पवित्र बना सकेंगे। कहावत है - चेरिटी बिगिन्स एट होम - पहले अपनी देह की प्रवृत्ति अर्थात् घर को पवित्र बनाने की सेवा करनी है। फिर बेहद की करनी है। तो पहले अपने आपसे पूछो कि अपने शरीर रूपी घर को पवित्र बनाया है? संकल्प को, बुद्धि को, नयनों को और मुख को रूहानी अर्थात् पवित्र बनाया है? जैसे दीपावली पर घर के हर कोने को स्वच्छ करते हैं, कोई एक कोना भी न रह जाये इतना अटेन्शन रखते हैं -- ऐसे हर कर्म-इन्द्रिय को स्वच्छ बना कर आत्मा का दीपक सदाकाल के लिये जगाया है? ऐसे रूहानी दीवाली मनाई है अथवा अभी मनानी है? सबके दीपक अखण्ड जगमगा रहे है ना? जैसे गायन है कि घर-घर मन्दिर बनेंगे। ऐसे अपने देह रूपी घर को मन्दिर बनाया है? जब घर-घर मन्दिर बनाओ तब ही विश्व को भी चैतन्य देवताओं का निवास स्थान मन्दिर बनायेंगे।
जितने भी ब्राह्मण हैं हर-एक ब्राह्मण चैतन्य सालिग्राम का मन्दिर है, चैतन्य शक्ति मन्दिर है, ऐसे मन्दिर समझते हुए उनको शुद्ध पवित्र बनाया है? अभी के पुरूषार्थ के समय प्रमाण व विश्व के सम्पन्न परिवर्तन के समय प्रमाण इस समय कोई भी कर्म-इन्द्रिय द्वारा प्रकृति व विकारों के वशीभूत नहीं होना चाहिए जैसे मन्दिर में भूत प्रवेश नहीं होते हैं। तो हर घर को मन्दिर बनाया है? जहाँ अशुद्धि होती है वहाँ ही अशुद्ध विकार अथवा भूत प्रवेश होता है। चैतन्य सालिग्राम के मन्दिर में व चैतन्य शक्तिस्वरूप के मन्दिर में, असुर संहारनी के मन्दिर में आसुरी संकल्प व आसुरी संस्कार कभी प्रवेश नहीं कर सकते। अगर प्रवेश होते हैं तो कोई-न-कोई प्रकार की अशुद्धि अर्थात् अस्वच्छता है। ऐसे अपने को चेक करो - कहीं भी कोई प्रकार की अशुद्धि रह गई हो तो उसको अभी खत्म करो अर्थात् सच्ची दीपावली मनाओ। जब ऐसी अपनी पवित्र प्रवृत्ति बनाओ तब ही विश्व-परिवर्तन होगा।
यहाँ मधुबन में भी रूहानी यात्रा करने आते हो तो रूहानी यात्रा में अपनी कमज़ोरियों को छोड़ कर जाना। मधुबन है ही परिवर्तन भूमि। परिवर्तन भूमि में आकर परिवर्तन नहीं किया तो परिवर्तन भूमि का लाभ क्या उठाया? सिर्फ परिवर्तन भूमि के अन्दर परिवर्तन नहीं लाना है लेकिन सदाकाल का परिवर्तन लाना है। मधुबन को महायज्ञ व राजस्व अश्वमेघ यज्ञ कहते हैं, तो यज्ञ में आहुति डाली जाती है। महायज्ञ में महान् आहुति डालकर जाते हो अथवा डाली हुई आहुति फिर वापिस लेते हो। जो नाम देते हो वैसा काम भी करते हो वा नहीं? नाम है महायज्ञ, परिवर्तन भूमि और वरदान भूमि, तो जैसा नाम वैसा कार्य करो। जो प्रतिज्ञा करके जाते हो इसको निभाते रहो अथवा निभाना मुश्किल लगता है? निभाने में तीन प्रकार की आत्मायें बन जाती हैं। कोई तो निभाने में सच्चे परवाने मुआफिक स्वयं को बाप पर न्योछावर कर देते हैं अर्थात् फरमान पर कुर्बान हो जाते हैं और कोई निभाने में भक्त बन जाते हैं अर्थात् बाप से ही बारबार शक्ति लेते रहते हैं अर्थात् माँगते रहते हैं, सहन-शक्ति दो, तो निभाऊं और सामना करने की शक्ति दो तो निभाऊं - ऐसे भीख माँगते रहते हैं अर्थात् भक्त बन जाते हैं। और कोई फिर ठगत भी बन जाते हैं - कहते और लिखते है एक और करते दूसरा हैं। बाप के आगे भी ठगी करते हैं, अपनी गलती को छिपाने की ठगी करते हैं - ऐसे ठगत भी हैं। कईयों में निभाने की शक्ति है नहीं, लेकिन अपने को बचाने के लिये फिर बहानेबाज़ होते है। अपनी कमजोरी को छुपाकर दूसरों के बहाने बनाते रहते हैं - फलाना सम्बन्ध ऐसा है इसलिये यह हुआ है व वायुमण्डल और वातावरण ऐसा है इसलिए यह होता है, सरकमस्टॉन्सेज अनुसार होता है - ऐसे बहाने बनाते रहते हैं। निभाने में इतने प्रकार के निभाने वाले बन जाते हैं। कहना सबका एक है कि मेरा तो एक बाप दूसरा न कोई, जो कहेंगे और करायेंगे वही करेंगे, लेकिन करने में और प्रैक्टिकल आने में अनेक प्रकार के बन जाते हैं। इस लिए अब तक साधारण समझ जो किया उसको बीती सो बीती करो अर्थात् अपने ऊपर रहम करो। इस भूमि के महत्व को भी अच्छी रीति जानो। इस भूमि को साधारण भूमि नहीं समझना। महान् स्थान पर आते हो अपने को महान् बनाने के लिए। महान् बनना अर्थात् महत्व को जानना। समझा?
ऐसे समय प्रमाण स्वयं को परिवर्तन करने वाले, विश्व-परिवर्तन के निमित्त बने हुए, बाप के साथ प्रीति की रीति निभाने वाले, बाप को सदा अपना साथी बनाने वाले और सदा कमल-पुष्प समान साक्षी रहने वाले, ऐसे सदा स्नेही बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पर्सनल मुलाकात - बहिनों से:-
शक्तियों का विशेष गुण निर्भयता का गाया हुआ है। वह अपने में अनुभव करती हो? निर्भय सिर्फ कोई मनुष्यात्मा से नहीं लेकिन माया के वार से भी निर्भय। जो माया से घबराने वाली नहीं, उसको शक्ति कहा जाता है। माया से डरती तो नहीं हो? जो डरता है वह हार खाता है। जो निर्भय होता है उससे माया खुद भयभीत होती है, क्योंकि भय के कारण शक्ति खो जाती है और समझ भी खो जाती है। वैसे भी जब किसी से भय होता है तो होश-हवास गुम हो जाते हैं, जो समझ होती है वह भी गुम हो जाती है। तो यहाँ भी जो माया से घबराते हैं उनकी माया से समझ खो जाती, इसलिए वे माया को जीत नहीं सकते। तो जैसा नाम है - शक्ति सेना। तो जब शक्तिपन की विशेषता - निर्भयता प्रैक्टिकल में दिखाई दे, तब कहेंगे शक्तियाँ। किसी भी प्रकार का भय है तो उसे शक्ति नहीं कहेंगे। अबला जो होती है वह सदैव अधीन होती है, वह अधिकारी नहीं होती। आप तो अधिकारी हो ना? भय के कारण अधीन तो नहीं हो जायेंगी? तो पंजाब की शक्ति-सेना ऐसी निर्भय है?
जब से ब्राह्मण बने हो तो माया को चैलेन्ज दी है कि - ‘‘आओ माया! जितना वार करना हो, उतना करो, मैं शिव-शक्ति हूँ।’’ माया के परवश होना अपनी किसी कमज़ोरी के कारण होता है। जहाँ कमजोरी है वहाँ माया है। जैसे जहाँ गन्दगी है वहाँ मच्छर ज़रूर पैदा होते हैं। वैसे ही माया भी, जहाँ कमज़ोरी होती है वह वहीं प्रवेश होती है। तो कमज़ोर होना अर्थात् माया का आह्वान करना। खुद ही आह्वान करते और खुद ही डरते, तो फिर आह्वान करते ही क्यों हो? यह नशा रखो कि - ‘‘हम हैं ही ‘शिव-शक्ति सेना’। कल्प पहले भी माया पर विजयी बनी थीं। अब भी वही पार्ट फिर रिपीट कर रही हूँ।’’ कितनी ही बार के विजयी हो? जो अनेक बार का विजयी है वह कितना निर्भय होगा? क्या वह डरेंगे? शक्तियों ने बाप को प्रत्यक्ष करने का नगाड़ा कौन-सा बजाया है? कुम्भकरण को जगाने के लिये बड़ा नगाड़ा बजाओ। छोटा नगाड़ा बजाती हो तो कुम्भकरण करवट तो बदलते हैं अर्थात् अच्छा-अच्छा तो करते हैं परन्तु फिर सो जाते हैं। तो उन्हों के लिए अब छोटे-मोटे नगाड़े से काम न होगा, इसलिए बार-बार सम्पर्क बढ़ाना पड़े। उन्हों का दोष नहीं, वह तो गहरी नींद में हैं। तुम्हारा काम है कोई विशेष प्रोग्राम बनाय उन्हों को जगाना।
पंजाब के भाइयों से पर्सनल मुलाकात:-
जैसा स्थान होता है, उस स्थान की स्मृति से भी स्थिति में बल मिलता है। जैसे मधुबन-निवासी कहने से फरिश्तापन की स्थिति ऑटोमेटिकली हो जाती है। फरिश्ता अर्थात् जिसका देह से रिश्ता नहीं। तो जो भी देह के रिश्ते हैं वह सब यहाँ भूल जाते हैं। थोड़े समय के लिए भी यह अनुभव तो करते हो ना। यह बीच-बीच में मधुबन में आना; इतना मुश्किल होते हुए भी यह अनुभव करने क्यों आते हो? बार-बार यह अनुभव तो कराया जाता है। यहाँ का अनुभव वहाँ स्मृति में बल देता है। इसलिए मधुबन में आना ज़रूरी है। वहाँ प्रवृत्ति में रहते हो, वह भी सेवा-अर्थ। घर समझेंगे तो ‘गृहस्थी’, सेवाधारी समझेंगे तो ट्रस्टी। गृहस्थी में चारों ओर के कर्म-बन्धन खींचेंगे। सेवाधारी समझेंगे तो ट्रस्टीपन में मेरा-पन खत्म होगा। गृहस्थी में मेरा-पन होता है। मेरा-पन बहुत लम्बा है। जहाँ मेरा-पन है वहाँ बाप नहीं हो सकता। जहाँ मेरा-पन नहीं वहाँ बाप है। गृहस्थीपन में हद के अधिकारी बन जाते हो - ‘‘मेरा माना जाय, मेरा सुना जाय और मेरे प्रमाण चलना चाहिए।’’ जहाँ हद का अधिकार है, वहाँ बेहद का अधिकार खत्म हो जाता है। अब बीती को बीती करके फुलस्टॉप लगाते जाओ। फुलस्टॉप बिन्दी होता है। फुलस्टॉप नहीं लगाते अर्थात् बिन्दी रूप में स्थित नहीं होते तो या आश्चर्य (!) या कॉमा (,) या क्वेश्चन (?) लगा देते हो। आश्चर्य की निशानी क्या कहे? जो कहते हैं - ‘‘ऐसे यह होता है क्या! ब्राह्मणों में यह-यह बात होती है!’’ यह आश्चर्य की निशानी हो गई। यह भी नहीं होना चाहिये। यह क्यों हुआ? ‘क्यों-क्या’ कहना यह क्वेश्चन हुआ। यह भी व्यर्थ संकल्प उत्पन्न होने का आधार है। जो होता है उसको साक्षी हो देखो। साक्षी के बजाय आत्मा के साथी बन जाते हो, बाप के साथी के बजाय आत्मा के साथी बन जाते हो। ‘‘अच्छा ऐसी बात है!, मैं भी ऐसे समझता हूँ।’’ - यह है सुनने का साथ और सुनाने का साथ। तो जहाँ आत्मा के साथी बने तो परमात्मा के साथी कैसे बनेंगे? जितना समय आत्मा का साथी, उतना समय बाप के साथी नहीं बनेंगे। यह खण्डित योग हो जाता है। खण्डित चीज़ फैंकने वाली होती है। वही मूर्ति जो पूजने योग्य होती है - जब वह खण्डित हो जाती है तो उसकी कोई वैल्यू नहीं होती। तो यहाँ भी जब योग खण्डित, तो श्रेष्ठ प्राप्ति नहीं, अर्थात् वैल्यू नहीं। सदा के साथी। अखण्ड योगी। अटूट योगी और निरन्तर बापदादा के साथी - ऐसे हैं पंजाब निवासी?
वरदान:- बाह्यमुखता के रसों की आकर्षण के बन्धन से मुक्त रहने वाले जीवनमुक्त भव
बाह्यमुखता अर्थात् व्यक्ति के भाव-स्वभाव और व्यक्त भाव के वायब्रेशन, संकल्प, बोल और संबंध, सम्पर्क द्वारा एक दो को व्यर्थ की तरफ उकसाने वाले, सदा किसी न किसी प्रकार के व्यर्थ चिन्तन में रहने वाले, आन्तरिक सुख, शान्ति और शक्ति से दूर.....यह बाह्यमुखता के रस भी बाहर से बहुत आकर्षित करते हैं, इसलिए पहले इसको कैंची लगाओ। यह रस ही सूक्ष्म बंधन बन सफलता की मंजिल से दूर कर देते हैं, जब इन बंधनों से मुक्त बनो तब कहेंगे जीवनमुक्त।
स्लोगन:- जो अच्छे बुरे कर्म करने वालों के प्रभाव के बन्धन से मुक्त साक्षी व रहमदिल है वही तपस्वी है।