23-12-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 16-10-75 मधुबन
संकल्प शक्ति को कंट्रोल कर सिद्धि-स्वरूप बनने की युक्तियाँ
सदा बाप-समान निराकारी स्थिति में स्थित होते हुए इस साकार शरीर का आधार लेकर इस कर्म-क्षेत्र पर कर्मयोगी बनकर हर कर्म करते हो? जबकि नाम ही है ‘कर्मयोगी’। यह नाम ही सिद्ध करता है कि योगी हैं अर्थात् निराकारी आत्मिक स्वरूप में स्थित होकर कर्म करने वाले हैं। कर्म के बिना तो एक सेकेण्ड भी रह नहीं सकते। कर्म-इन्द्रियों का आधार लेने का अर्थ ही है-निरन्तर कर्म करना। तो जैसे कर्म के बिना रह नहीं सकते, वैसे ही याद अर्थात् योग के बिना भी एक सेकेण्ड रह नहीं सकते। इसलिए कर्म के साथ योगी नाम भी साथ-साथ ही है। जैसे कर्म स्वत: ही चलते रहते हैं, कर्मेन्द्रियों को नेचुरल अभ्यास है। ऐसे ही बुद्धि को याद का नेचुरल अभ्यास होना चाहिए। इन कर्मेन्द्रियों का आदि-अनादि अपना-अपना कार्य है। हाथ को हिलाने व पाँव को चलाने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, उसी प्रमाण ब्राह्मण जीवन का तथा इस संगमयुगी जीवन में बुद्धि का निजी कार्य व जन्म का कार्य याद है। जो जीवन का निजी कार्य होता है वह नेचुरल और सहज ही होता है। तो क्या ऐसे अपने को सहज कर्मयोगी अनुभव करते हो या यह मुश्किल लगता है? अपना कार्य कभी भी मुश्किल नहीं लगता है, दूसरे का मुश्किल लगता है। यह तो कल्प-कल्प का अपना कार्य है। फिर भी यदि मुश्किल लगता है अर्थात् निरन्तर कर्मयोगी स्थिति अनुभव नहीं होती है तो इसका कारण क्या है?
अगर योग नहीं लगता तो अवश्य ही इन्द्रियों द्वारा अल्पकाल के सुख प्राप्त कराने वाले और सदाकाल की प्राप्ति से वंचित कराने वाले, कोई-न-कोई भोग भोगने में लगे हुए हैं। इसलिए अपने निजी कार्य को भूले हुए हैं। जैसे आजकल के सम्पत्ति वाले वा कलियुगी राजा जब भोग-विलास में व्यस्त हो जाते हैं तो अपना निजी कार्य, राज्य करना व अपना अधिकार भूल जाते हैं, ऐसे ही आत्मा भी भोग भोगने में व्यस्त होने के कारण योग भूल जाती है अर्थात् अपना अधिकार भूल जाती है, जब तक अल्पकाल के भोग भोगने में मस्त हैं। तो जहाँ भोग है वहाँ योग नहीं। इसी कारण मुश्किल लगता है।
वर्तमान समय माया ब्राह्मण बच्चों की बुद्धि पर ही पहला वार करती है। पहले बुद्धि का कनेक्शन तोड़ देती है। जैसे जब कोई दुश्मन वार करता है तो पहले टेलीफोन, रेडियो आदि के कनेक्शन तोड़ देते हैं। लाइट और पानी का कनेक्शन तोड़ देते हैं फिर वार करते हैं, ऐसे ही माया भी पहले बुद्धि का कनेक्शन तोड़ देती है जिससे लाइट, माइट, शक्तियाँ और ज्ञान का संग ऑटोमेटिकली बन्द हो जाता है। अर्थात् मूर्छित बना देती है। अर्थात् स्वयं के स्वरूप की स्मृति से वंचित कर देती है व बेहोश कर देती है। उसके लिए सदैव बुद्धि पर अटेन्शन का पहरा चाहिए। तब ही निरन्तर कर्मयोगी सहज बन पायेंगे।
ऐसा अभ्यास करो जो जहाँ बुद्धि को लगाना चाहे वहाँ स्थित हो जायें। संकल्प किया और स्थित हुआ। यह रूहानी ड्रिल सदैव बुद्धि द्वारा करते रहो। अभी-अभी परम- धाम निवासी, अभी-अभी सूक्ष्म अव्यक्त फरिश्ता बन जायें और अभी-अभी साकार कर्मेन्द्रियों का आधार लेकर कर्मयोगी बन जायें। इसको कहा जाता है - संकल्प शक्ति को कन्ट्रोल करना। संकल्प को रचना कहेंगे और आप उसके रचयिता हो। जितना समय जो संकल्प चाहिए उतना ही समय वह चले। जहाँ बुद्धि लगाना चाहे, वहाँ ही लगे। इसको कहा जाता है - अधिकारी। यह प्रैक्टिस अभी कम है। इसलिये यह अभ्यास करो, अपने आप ही अपना प्रोग्राम बनाओ और अपने को चेक करो कि जितना समय निश्चित किया, क्या उतना ही समय वह स्टेज रही?
हठयोगी अपनी किसी कर्मेन्द्रिय को, कोई टाँग को या बाँह को एकाग्र करने के लिए कोई टाइम निश्चित करते हैं कि इतना समय एक टाँग व एक हाथ नीचे करेंगे व ऊपर करेंगे, सिर नीचे करेंगे अथवा ऊपर करेंगे। लेकिन यह राँग कापी की है। बाप ने सिखाया है बुद्धि में एक संकल्प धारण करके बैठो। उसकी उल्टी कॉपी कर एक टाँग ऊपर कर लेते हैं। बाप कहते हैं कि एक संकल्प में स्थित हो जाओ, वह फिर एक टाँग पर स्थित हो जाते हैं। बाप कहते हैं कि सदा ज्ञान-सूर्य के सम्मुख रहो, विमुख न बनो। वह फिर स्थूल सूर्य की तरफ मुख कर बैठते हैं। तो उल्टी कॉपी कर ली ना? यथार्थ बुद्धि-योग का अभ्यास अभी तुम सीख रहे हो। वह हठ से करते, आप अधिकार से करते हो। इसलिये वह मुश्किल है, यह सहज है। अभी उसके अभ्यास को बढ़ाते जाओ। एक सेकेण्ड में सब एक मत हो जायें। जब संगठन का एक संकल्प, एक स्मृति होगी, और सबका एक स्वरूप होगा तब इस संगठन की जय-जयकार का नाम बाला होगा।
जैसे स्थूल कार्य व सेवा में विचारों का मेल करते हो अर्थात् सब एक विचार वाले हो जाते हो तब ही कार्य सफल होता है, ऐसे ही संगठन रूप में सब एक संकल्प स्वरूप हो जाये। बीज-रूप स्मृति चाहे व स्थिति चाहे तो सब बीज-रूप में स्थित हो जायें। ऐसे जब एक स्मृति-स्वरूप हो जायेंगे। तब हर संकल्प की सिद्धि अनुभव करेंगे व सिद्धि-स्वरूप हो जायेंगे। जो सोचेंगे, और जो बोलेंगे वही प्रैक्टिकल में देखेंगे। इसको कहते हैं - सिद्धि-स्वरूप। यही जयजयकार की निशानी है। इसी का ही यादगार है - कलियुगी पर्वत, उसे एक साथ में ही अंगुली देना। यह संकल्प ही अंगुली है। तो अभी ऐसे प्रोग्राम्स बनाओ।
संगठन रूप में एक स्मृति-स्वरूप होने से वायुमण्डल पॉवरफुल हो जायेगा। लगन की अग्नि की भट्ठी अनुभव होगी जिसके वाइब्रेशन्स चारों ओर फैलेंगे। जैसे एटम बम एक स्थान पर छोड़ने से चारों ओर उसके अंश फैल जाते हैं - वह एटम बम है, और यह आत्मिक बम है। इसका प्रभाव अनेक आत्माओं को आकर्षित करेगा और सहज ही प्रजा की वृद्धि हो जायेगी। जैसे उस एटम बम का बहुत काल के लिये धरनी पर प्रभाव पड़ जाता है, वैसे ही चैतन्य जीवन की धरनियों पर बहुत करके बेहद के वैराग्य का प्रभाव पड़ेगा। इसलिये सहज प्रजा बन जायेगी। अच्छा।
ऐसे रूहानी ड्रिल के अभ्यासी, सदा अधिकारी, विश्व-कल्याणी, हर संकल्प को सिद्ध कर सिद्धि-स्वरूप आत्माओं, ऐसे बाप-समान प्रकृति को अधीन कर चलाने वाले और ऐसे सर्व समर्थ बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और गुडमोर्निंग। अच्छा।
पर्सनल मुलाकात
प्रसिद्धि - संकल्प और बोल की सिद्धि पर आधारित है
महारथी बच्चों को वर्तमान समय कौन-सा पोतामेल रखना है? अभी महारथियों की सीज़न है सिद्धि-स्वरूप बनने की। उनके हर बोल और संकल्प सिद्ध हों। वह तब होंगे जब उनका हर बोल और हर संकल्प ड्रामा अनुसार सत् और समर्थ हो। तो महारथी अब यह पोतामेल रखें कि सारे दिन में जो उनके संकल्प चलते हैं या मुख से जो बोल निकलते है वह कितने सिद्ध होते है? संकल्प है बीज, जो समर्थ बीज होगा उसका फल अच्छा निकलता है। उसको कहेंगे संकल्प-सिद्ध होना। तो सारे दिन में कितने संकल्प और बोल सिद्ध होते हैं? जो बोला ड्रामा अनुसार, वही बोला और जो होना है वही बोला। इसमें हर बोल और संकल्प को समर्थ बनाने में अटेन्शन रखना पड़े। तो महारथियों का पोतामेल अब यह होना चाहिये। जैसे भक्ति में भी कहा जाता है कि यह सिद्धपु रूष है। तो यहाँ भी जिसका संकल्प और बोल सिद्ध होता है तो उस सिद्धि के आधार पर वह प्रसिद्ध बनता है। अगर सिद्ध नहीं तो प्रसिद्ध नहीं। भक्ति में कई देवियाँ व देवताएं प्रसिद्ध होते हैं, कई प्रसिद्ध नहीं होते। वे देवता व देवी तो माने जाते हैं लेकिन प्रसिद्ध नहीं होते। तो संकल्प और बोल सिद्ध होना यह आधार हैं प्रसिद्ध होने का। इससे ऑटोमेटिकली अव्यक्त फरिश्ता बन जायेंगे और समय बच जायेगा। वाणी में आना ऑटोमेटिकली समाप्त हो जायेगा क्योंकि साइलेन्स-होम अथवा शान्ति धाम में जाना है ना? तो वह साइलेन्स के व आकारी फरिश्तेपन के संस्कार अपनी तरफ खींचेंगे। सर्विस भी इतनी बढ़ती जायेगी कि जो वाणी द्वारा सेवा करने का चांस ही नहीं मिलेगा। ज़रूर नैनों द्वारा और अपने मुस्कराते हुए मुख द्वारा, मस्तक में चमकती हुई मणि द्वारा सेवा कर सकेंगे। परिवर्तन होगा ना? वह अभ्यास तब बढ़ेगा जब यह पोतामेल रखेंगे - यह है महारथियों का पोतामेल। महारथी यह पोतामेल तो नहीं रखेंगे ना कि किसको दु:ख दिया व किस विकार के वश हुए? यह तो घुड़सवारों का काम है। महारथियों का पोतामेल भी महान् है। ऐसे आपस में गुह्य पुरूषार्थ के प्लैन्स बनाओ। इस लिये बीच-बीच में टाइम मिलता है। मेले में तो टाइम नहीं मिलता है ना? मेले में फिर दूसरे प्रकार की सेवा में तत्पर होते हो। मेले में है देने का समय और मेले के बाद फिर स्वयं को भरने का समय मिलता है। मेले में देने में ही दिन-रात समाप्त हो जाता है ना?
बापदादा भी जानते हैं कि जब इतनी आत्माओं को देने के निमित्त बनते हैं तो ज़रूर देने के प्लैन्स व संकल्प चलेंगे। तब तो सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट ऑटोमेटिकली मिल जाता है। सब की सन्तुष्टता यह भी अपने पुरूषार्थ में हाई- जम्प देने में सहयोग देती है। यह तो करना ही पड़ेगा लेकिन यह सब बाद की बातें हैं। नोट तो सब करते हो ना? फिर उसको बैठ रिवाइज करना। अभी तो जो मिलता है वह बुद्धि में जमा करते जाते हो फिर बैठ जब रिवाइज़ करके उसकी महीनता व गुह्यता में जायेंगे तो दूसरों को भी गुह्यता में ले जा सकेंगे। अभी जो कुछ चल रहा है, जैसे चल रहा है, बापदादा सन्तुष्ट और हर्षित है। अच्छा।
पर्सनल मुलाकात - टीचर्स के साथ:-
हर समय अपने को निमित्त बनी हुई समझती हो? जो अपने को निमित्त बनी हुई समझती हैं उन्हों में मुख्य यह विशेषता होगी - जितनी महानता, उतनी नम्रता। दोनों का बैलेन्स होगा। तब ही निमित्त बने हुए कार्य में सफलतामूर्त बनेंगे। जहाँ नम्रता के बजाय, महानता ज्यादा है या महानता की बजाय, नम्रता ज्यादा है तो भी सफलतामूर्त नहीं बनेंगे। सफलतामूर्त बनने के लिए दोनों बातों का बैलेन्स चाहिए। टीचर्स वह होती हैं जो सदा अपने को बाप समान वर्ल्ड सर्वेन्ट समझ कर चलती हैं। वर्ल्ड सर्वेन्ट ही विश्व कल्याण का कार्य कर सकते हैं। टीचर्स को सदैव यह स्मृति रहनी चाहिए कि टीचर को स्वयं को स्वयं ही टीचर नहीं समझना चाहिए। यदि टीचरपन का नशा रखा तो रूहानी नशा नहीं रहेगा। यह नशा भी बॉडीकॉन्सेस (देह-अभिमान) है इसलिए सदा रूहानी नशा कि मैं विश्व-कल्याणकारी बाप की सहयोगी विश्व कल्याणकारी आत्मा हूँ।
कल्याण तब कर सकेंगे जब स्वयं सम्पन्न होंगे। जब तक स्वयं सम्पन्न नहीं होंगे तो विश्व-कल्याण नहीं कर सकेंगे। सदैव बेहद की दृष्टि रखनी चाहिए। बेहद की सेवा-अर्थ जब बेहद का नशा होगा तब बेहद का राज्य प्राप्त कर सकेंगी। सफल टीचर अर्थात् सदा हर्षित रहना और सर्व को हर्षितमुख बनाना। समझा - सफलतामूर्त की निशानी? टीचर को सफलतामूर्त बनना ही है। बाप और सेवा के सिवाय और कोई बात उसकी स्मृति में न हो। ऐसी स्मृति में रहने वाली टीचर सदा समर्थ रहेंगी। कमजोर नहीं रहेंगी। ऐसी टीचर हो? ऐसा समर्थ अपने को समझती हो? समर्थ टीचर ही सफलतामूर्त होती हैं। ऐसी ही हो ना? टीचर को कमजोरी के बोल बोलना भी शोभता नहीं है। संस्कारों के वशीभूत तो नहीं हो ना? क्या संस्कारों को अपने वश में करने वाली हो? कम्पलेन्ट करने वाली टीचर तो नहीं हो ना? टीचर्स तो अनेकों की कम्पलेंट को खत्म करने वाली होती हैं फिर अपनी कम्पलेन्ट तो नहीं होनी चाहिए। टीचर्स को चॉन्स तो बहुत मिलते हैं। कम्पलेन्ट समाप्त हो गई फिर तो कम्पलीट हो गये, बाकी और क्या चाहिए? अच्छा!
वरदान:- एक बाप की याद द्वारा एकरस स्थिति का अनुभव करने वाले सार स्वरूप भव
एकरस स्थिति में रहने की सहज विधि है एक की याद। एक बाबा दूसरा न कोई। जैसे बीज में सब कुछ समाया हुआ होता है। ऐसे बाप भी बीज है, जिसमें सर्व सम्बन्धों का, सर्व प्राप्तियों का सार समाया हुआ है। एक बाप को याद करना अर्थात् सार स्वरूप बनना। तो एक बाप, दूसरा न कोई - यह एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। जो एक सुखदाता बाप की याद में रहते हैं उनके पास दु:ख की लहर कभी आ नहीं सकती। उन्हें स्वप्न भी सुख के, खुशी के, सेवा के और मिलन मनाने के आते हैं।
स्लोगन:- श्रेष्ठ आशाओं का दीपक जगाने वाले ही सच्चे कुल दीपक हैं।