18-11-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 08-10-75 मधुबन
मास्टर ज्ञान-स्वरूप बनने की प्रेरणा
स्वयं को बापदादा का श्रृंगार, ब्राह्मण कुल का श्रृंगार, विश्व का श्रृंगार, अपने घर का श्रृंगार समझते हो? बच्चों को बाप के सिर का ताज, गले का हार माना जाता है। इसलिये बापदादा के श्रृंगार हो? अपने घर परमधाम वा शान्तिधाम में भी सर्व चमकते हुए सितारों के समान आत्माओं के बीच विशेष चमकते हुए घर के श्रृंगार, साकार सृष्टि अर्थात् विश्व के अन्दर विश्व ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी, विशेष पार्ट बजाने वाली विशेष आत्मायें हो, अर्थात् विश्व के श्रृंगार हो। ऐसे अपने को श्रेष्ठ श्रृंगार समझते हुए चलते हो? आज बापदादा अपने श्रृंगार को देख रहे थे, क्या देखा? सभी को चमकती हुई मणियों के रूप में देखा। रूप सबका चमकती हुई मणियों का था, लेकिन नम्बरवार ज़रूर होते ही हैं। आज तीन रूप के श्रृंगार में मणियों को देखा।
पहला श्रृंगार सिर के ताज में मस्तक बीच चमकती हुई मणियों को देखा। रूप सबका चमकती हुई मणियों का था। अब इन तीनों प्रकार की मणियों में अपनी-अपनी विशेषता देखी। पहले नम्बर की मणियाँ अर्थात् ताज में चमकती हुई मणियों की विशेषता यह थी-यह सब मणियाँ बाप समान, मास्टर ज्ञान-सूर्य समान चमक रही थीं। जैसे सूर्य की किरणें विश्व को प्रकाशमय बनाती हैं, चारों कोने के अन्धकार को दूर करती हैं ऐसे मास्टर ज्ञान-सूर्य स्वरूप मणियाँ हर-एक अपने सर्व शक्तियों रूपी किरणें चारों ओर फैलाने वाली देखीं। हर-एक की हर शक्ति रूपी किरणें बेहद विश्व तक पहुँच रही थीं - हद तक नहीं, एक तक नहीं, अल्प आत्माओं तक नहीं, लेकिन विश्व तक। साथसाथ बाप समान सर्व गुणों के मास्टर-सागर। इसकी निशानी हर मणि के अन्दर सर्व रंग समाए हुए थे। एक में सर्व रंगों की झलक थी। ऐसे मास्टर गुणों के सागर, अपने सर्व रंगों की रंगत से चमकते हुए ताज की श्रेष्ठ शोभा थीं। ताज के अन्दर मस्तक बीच लटकती हुई वह मणियाँ बापदादा के विशेष श्रृंगार रूप में दिखाई दीं।
इन विशेष मणियों का मस्तक के बीच लटकते हुए का भी रहस्य है। यह विशेष मणियाँ सदा साकार रूप में मस्तक बीच चमकती हुई मणि अर्थात् आत्मा स्वरूप में सदा स्थित रहती हैं। साकार सृष्टि में रहते हुए बुद्धि सदा बाप की याद, घर की याद, राजधानी की याद और ईश्वरीय सेवा की याद में लटकी हुई रहती हैं। इसलिये इन्हों का स्थान भी उच्च स्थिति की निशानी मस्तक बीच लटकते हुए दिखाई दी और ऐसी आत्मायें सदा ऊँची स्मृति, ऊंची वृत्ति, ऊंची दृष्टि और ऊंची प्रवृत्ति में रहती हैं। इसलिए इन्हें ऊंचा स्थान अर्थात् सिर का ताज प्राप्त हुआ है। सबसे ऊंचा श्रृंगार ताज होता है। ताज ऊंचाई का भी सिम्बल है, साथ-साथ मालिकपन का भी सिम्बल है और सर्व प्राप्तियों का भी सिम्बल है, अधिकारीपन का भी सिम्बल है। ऐसे मस्तक मणियों व ताज-नशीन मणियों की विशेषता सुनी? ऐसी विशेष मणियाँ बहुत थोड़ी दिखाई दी। यह थी फर्स्ट नम्बर की मणियाँ व फर्स्ट नम्बर का श्रृंगार।
अब दूसरे नम्बर का श्रृंगार बापदादा के गले का हार उन्हों की विशेषता क्या थी और आधार क्या था? वह सब मणियाँ भी अपनी चमक चारों ओर फैला रही थीं। लेकिन फर्क क्या था? पहले नम्बर की मणियों की शक्ति की किरणें चारों ओर समान फैली हुई थीं। लेकिन गले के हार की मणियों की किरणें सर्व समान नहीं थीं। कोई छोटी, कोई बड़ी थीं। कोई किरणें बेहद तक, कोई हद तक थीं अर्थात् बाप के समीप थीं। लेकिन बाप समान नहीं थीं। सर्व गुणों के रंग समाये हुए थे - लेकिन सर्व रंग स्पष्ट नहीं थे। बापदादा के ऊपर स्नेह और सहयोग के आधार पर बलिहार थे, इसलिये गले के हार थे। ऐसी आत्माओं का आधार सदा कण्ठ द्वारा अर्थात् मुख द्वारा, गले की आवाज द्वारा बाप की महिमा, बाप का परिचय देकर बाप को समीप लाना - अर्थात् वाचा के सब्जेक्ट में फुल पास थे परन्तु मन्सा की सब्जेक्ट में फुल पास नहीं लेकिन वाचा की सब्जेक्ट में फुल पास। सदा स्मृति स्वरूप नहीं लेकिन सदा स्मृति दिलाने स्वरूप। इस आधार से बाप के समीप, बाप के गले का हार बनते हैं। यह संख्या ज्यादा थी। माला में तो ज्यादा होते हैं ना? तो गले की माला की मणियाँ, ताज की मणियों से बहुत ज्यादा थीं।
तीसरा श्रृंगार था बाँहों का कंगन। उन्हों की विशेषता और आधार क्या था? बाँहै सदा सहयोग की व मददगार बनने की निशानी गायी जाती हैं। बाँहों का हार अथवा कंगन बात एक ही है। कंगन को बाँहों का हार कहेंगे न? इन्हों की विशेषता क्या देखी? किरणों व् चमक बेहद में नहीं, लेकिन हद में थीं। सर्व गुणों के रंग नहीं, लेकिन कोई- कोई गुण रूपी रंग चमकता हुआ दिखाई दे रहा था। इन्हों की विशेषता हर सेवा के कार्य में सदा सहयोगी, कर्मणा की सब्जेक्ट में फुल पास। सेवा-अर्थ तन-मन-धन से सदा एवररेडी । बाप के स्नेह रूपी बाँहों में सदा समाये हुए और बापदादा का हाथ सदा अपने ऊपर अनुभव करने वाले थे। सदा साथ रहने वाले नहीं लेकिन अपने ऊपर हाथ अनुभव करने वाले - यह संख्या भी ज्यादा थी। यह थी सहयोगी आत्मायें, वह समान आत्मायें और वह समीप आत्मायें। समझा तीन प्रकार का श्रृंगार। तो आज तीन रूप के श्रृंगार रूप में सर्व बच्चों को देखा। अब अपने आपको देखो कि मैं कौन हूँ? यह था आज का समाचार। सूक्ष्म वतन का समाचार सुनने की रूचि होती है न? अच्छा।
ऐसे नम्बरवार सर्व श्रृंगार की मणियों को, बापदादा के सदा स्मृति में रहने वाली समर्थ आत्माओं को और सदा सर्व के शुभ-चिन्तक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
18-11-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 11-10-75 मधुबन
अन्त:वाहक अर्थात् अव्यक्त फरिश्ते रूप द्वारा सैर
आजकल इस पुरानी सृष्टि में विशेष क्या चल रहा है? आजकल विशेष आप लोगों का आह्वान चल रहा है। फिर आह्वान का रिसपॉन्स करते हो? भक्त क्या चाहते हैं? भक्तों की इच्छा यही है कि देवियाँ चैतन्य-रूप में प्रगट हो जाएं । जड़ चित्रों में भी चैतन्य शक्तियों का आह्वान करते हैं कि चैतन्य रूप में वरदानी बन वरदान दे दें। तो यह इच्छा भक्तों की कब पूरी होगी? भक्ति का भी अभी फुल फोर्स चारों ओर दिखाई दे रहा है। उसमें भी जैसे प्रैक्टिकल में बाप गुप्त है और शक्तियाँ प्रत्यक्ष रूप में हैं। ऐसे ही भक्ति में भी पहले बाप की पुकार ज्यादा करते थे - हे भगवान् कह पुकारते थे - लेकिन अभी मेजॉरिटी भगवती की पूजा होती है। भक्तों की भावना पूरी करने के लिए शक्तियाँ ही निमित्त बनती हैं। इसलिए आह्वान भी शक्तियों का ज्यादा हो रहा है। तो अब शक्तियों में रहम के संस्कार इमर्ज होने चाहिएं । अभी सबके अन्दर रहम के संस्कार इमर्ज नहीं हैं, मर्ज हैं।
जैसे बाप चारों ओर चक्कर लगाते हैं, वैसे आप भी भक्तों के चारों ओर चक्कर लगाती हो? कभी सैर करने जाती हो? आवाज सुनने में आती है, तो कशिश नहीं होती है? बाप के साथ-साथ शक्तियों को भी पार्ट बजाना है, जैसे शक्तियों का गायन है कि अन्त:वाहक शरीर द्वारा चक्कर लगाती थीं, वैसे बाप भी अव्यक्त रूप में चक्कर लगाते हैं। अन्त:वाहक अर्थात् अव्यक्त फरिश्ते रूप में सैर करना। यह भी प्रैक्टिस चाहिए और यह अनुभव होंगे। जैसे साइन्स के यन्त्र दूरबीन द्वारा दूर की सीन को नजदीक में देखते हैं, ऐसे ही याद के नेत्र द्वारा अपने फरिश्तेपन की स्टेज द्वारा दूर का दृश्य भी ऐसे ही अनुभव करेंगे, जैसे साकार नेत्रों द्वारा कोई दृश्य देख आये। बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देंगे अर्थात् अनुभव होगा।
साइन्स का मूल आधार है लाइट। लाइट के आधार से साइन्स का जलवा है, लाइट की ही शक्ति है। ऐसे ही साइलेन्स की शक्ति का आधार है डिवाइन इनसाइट। इन द्वारा साइलेन्स की शक्ति के बहुत वन्डरफुल अनुभव कर सकते हो। यह भी अनुभव होंगे। जैसे स्थूल साधन द्वारा सैर कर सकते हैं, वैसे ही जब चाहों, जहाँ चाहो वहाँ का अनुभव कर सकते हो। न सिर्फ इतना, जो सिर्फ आपको अनुभव हो लेकिन जहाँ आप पहऊँचो उन्हों को भी अनुभव होगा कि आज जैसे प्रैक्टिकल मिलन हुआ। यह है सफलतामूर्त की सिद्धि। वह तो रिवाजी आत्माओं को भी सिद्धि प्राप्त होती है एक ही समय अनेक स्थानों पर अपना रूप प्रकट कर सकते और अनुभव करा सकते हैं। वह तो अल्प काल की सिद्धि है, लेकिन यह है ज्ञान-युक्त सिद्धि। ऐसे अनुभव भी बहुत होंगे। आगे चलकर कई नई बातें भी तो होगी ना। जैसे शुरू में घर बैठे ब्रह्मा रूप का साक्षात्कार होता था जैसे कि प्रैक्टिकल कोई बोल रहा है, इशारा कर रहा है, ऐसे ही अन्त में भी निमित्त बनी हुई शक्ति सेना का अनुभव होगा। सभी महारथियों का संकल्प है कि अब कुछ नया होना चाहिए तो ऐसी-ऐसी नई रंगत अब होती जायेंगी। लेकिन इसमें एक तो बहुत हल्कापन चाहिये, किसी भी प्रकार का बुद्धि पर बोझ न हो और दूसरी सारी दिनचर्या बाप समान हो, तब ब्रह्मा बाप समान आदि से अन्त के दृश्य का अनुभव कर सकते हो। समझा? अब महारथियों को क्या करना है? सिर्फ योग नहीं, सेवा का रूप परिवर्तन करना है। महारथियों का योग वा याद अब स्वयं प्रति नहीं लेकिन सेवा प्रति हो, तब तो महादानी और महाज्ञानी कहे जायेंगे। अच्छा!
समय की समाप्ति की निशानी क्या होगी? जब सारे संगठन की एक आवाज, एक ही ललकार हो कि हम विजयी है, विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है वा विजय हमारे गले का हार है। ऐसा प्रैक्टिकल में अनुभव होगा। सिर्फ कहने मात्र नहीं, लेकिन यह नशा रहे, सदा सामने दिखाई दे। ऐसे विजय का निशाना दिखाई देता है? अच्छा। ओम् शान्ति।
(पर्सनल मुलाकात)
स्वयं सन्तुष्ट होने तथा दूसरों को सन्तुष्ट करने की विधि
आपको अपना संगमयुगी और भविष्य स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है? फ्युचर स्पष्ट दिखाई देने से पुरूषार्थ भी ठीक होता है। अन्तिम स्वरूप है ही महाकाली का अर्थात् आसुरी संस्कारों को समाप्त करने वाला। इस लिये आपको सदा स्मृति में रखना है कि मैं महाकाली स्वरूप हूँ - इस लिये आप में अब कोई भी आसुरी संस्कार नहीं रहना चाहिए। आप निमित्त बनी आत्माओं को सदा यह अटेन्शन रहना चाहिये कि मैं तीव्र पुरूषार्थ करूँ। तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन क्या है? (जो कर्म मैं करूँगा, मुझे देख दूसरे भी वैसा ही करेंगे) यह तो मध्यम पुरूषार्थ का सलोगन है। तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन है - ‘जैसा संकल्प मैं करूँगा मेरे संकल्प का वैसा ही वातावरण बनेगा।’ संकल्प का भी आधार वातावरण पर और वातावरण का आधार पुरूषार्थ पर है। जो संकल्प करेंगे उसे सभी फॉलो करेंगे। कर्म तो मोटी बात है, लेकिन संकल्प पर भी अटेन्शन संकल्प को हल्की बात नहीं समझना, क्योंकि संकल्प है बीज। संकल्प रूपी बीज कमज़ोर होगा तो कभी भी पॉवरफुल फल अनुभव नहीं होगा। एक संकल्प का भी व्यर्थ जाना, यह भी एक भूल है। जैसे वाणी में हुई भूल महसूस होती है, वैसे व्यर्थ संकल्प की भी भूल महसूस होनी चाहिए। जब ऐसी चैकिंग करेंगे तब ही आप आगे बढ़ सकेंगे। नहीं तो निमित्त बनने का जो चांस मिला है, उसका लाभ उठा नहीं सकेंगे। अब तो गुह्य महीन पुरूषार्थ होना चाहिए। अब मोटे पुरूषार्थ का समय समाप्त हो गया। कर्म और बोल में गलतियों का होना - यह है बचपन। अब वानप्रस्थी का पुरूषार्थ होना चाहिए। अब भी अगर बचपन का पुरूषार्थ करते रहे तो लक्क अर्थात् भाग्य की लॉटरी को गँवा देंगे। कभी हर्षित, कभी उदास, कभी तीव्र पुरूषार्थ और कभी मध्यम पुरूषार्थ का होना यह कोई विशेष आत्मा की निशानी नहीं। यह तो साधारण आत्मा हुई। अब तो आप सभी में विशेष न्यारापन होना चाहिए। जो अपनी पॉवरफुल स्मृति से कमज़ोर आत्माओं की स्थिति को भी पॉवरफुल बना दो। संतुष्ट न होने के कारण सर्विस रूकी हुई है। तो अब यह भी सलोगन याद रखो - संतुष्ट रहना भी है और सबको संतुष्ट करना भी है। समझा? अच्छा।
वरदान:- मन-बुद्धि से किसी भी बुराई को टच न करने वाले सम्पूर्ण वैष्णव व सफल तपस्वी भव
पवित्रता की पर्सनैलिटी व रायॅल्टी वाले मन-बुद्धि से किसी भी बुराई को टच नहीं कर सकते। जैसे ब्राह्मण जीवन में शारीरिक आकर्षण व शारीरिक टचिंग अपवित्रता है, ऐसे मन-बुद्धि में किसी विकार के संकल्प मात्र की आकर्षण व टचिंग अपवित्रता है। तो किसी भी बुराई को संकल्प में भी टच न करना - यही सम्पूर्ण वैष्णव व सफल तपस्वी की निशानी है।
स्लोगन:- मन की उलझनों को समाप्त कर वर्तमान और भविष्य को उज्जवल बनाओ।