11-11-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 04-10-75 मधुबन
फरिश्ता स्थिति का अनुभव करने के लिए स्वयं को अवतरित आत्मा समझ हर कार्य करो और दृढ़ संकल्प की तीली से कमज़ोरियों के रावण को जलाओ
अपने को फरिश्तों की सभा में बैठने वाला फरिश्ता समझते हो? फरिश्ता अर्थात् जिसके सर्व सम्बन्ध वा सर्व रिश्ते एक के साथ हों। एक से सर्व रिश्ते और सदा एक रस स्थिति में स्थित हों। एक-एक सेकेण्ड, एक-एक बोल, एक की ही लगन में और एक की ही सेवा प्रति हों। चलते-फिरते, देखते-बोलते और कर्म करते हुए व्यक्त भाव से न्यारे अव्यक्त अर्थात् इस व्यक्त देह रूपी धरनी की स्मृति से बुद्धि रूपी पाँव सदा ऊपर रहे अर्थात् उपराम रहे। जैसे बाप ईश्वरीय सेवा-अर्थ वा बच्चों को साथ ले जाने की सेवा-अर्थ वा सच्चे भक्तों को बहुत समय के भक्ति का फल देने अर्थ, न्यारे और निराकार होते हुए भी अल्पकाल के लिए आधार लेते हैं वा अवतरित होते हैं। ऐसे ही फरिश्ता अर्थात् न्यारा और प्यारा, बाप समान स्वयं को अवतरित आत्मा समझते हो? अर्थात् सिर्फ ईश्वरीय सेवा-अर्थ यह साकार ब्राह्मण जीवन मिला है। धर्म स्थापक, धर्म स्थापना का पार्ट बजाने के लिए आए हैं - इसलिए नाम ही है शक्ति अवतार - इस समय अवतार हूँ, धर्म स्थापक हूँ। सिवाए धर्म स्थापन करने के कार्य के और कोई भी कार्य आप ब्राह्मण अर्थात् अवतरित हुई आत्माओं का है ही नहीं। सदा ऐसी स्मृति में इसी कार्य में उपस्थित रहने वालों को ही फरिश्ता कहा जाता है। फरिश्ता डबल लाइट रूप है। एक लाईट अर्थात् सदा ज्योति-स्वरूप। दूसरा लाईट अर्थात् कोई भी पिछले हिसाब-किताब के बोझ से न्यारा अर्थात् हल्का। ऐसे डबल लाईट स्वरूप अपने को अनुभव करते हो?
यह ब्राह्मण जीवन सिवाए ईश्वरीय कार्य के और कोई कार्य-अर्थ, बिगर श्रीमत के आत्माओं की मत प्रमाण वा स्वयं की मनमत प्रमाण और कहीं यूज़ तो नहीं करते हो? यह ब्राह्मण जीवन भी बाप द्वारा ईश्वरीय सेवा प्रति मिली हुई अमानत है। अमानत में ख्यानत तो नहीं डालते हो? संकल्प द्वारा भी इस ब्राह्मण जीवन का एक श्वांस भी और कोई कार्य में नहीं लगा सकते। इसलिए भक्ति में श्वासों-श्वास सुमिरण का यादगार चला आता है। निरन्तर के फरिश्ते हो वा अल्पकाल के फरिश्ते हो? जैसे भक्ति में भी नियम है कि दान दी हुई वस्तु वा अर्पण की हुई वस्तु कोई अन्य कार्य में नहीं लगा सकते। तो आप सबने ब्राह्मण जीवन में बापदादा से पहला वायदा क्या किया? याद है वा भूल गये हो? बाप के आगे पहला वायदा यह किया कि तन-मन-धन सब आपके आगे समर्पण है। जब सर्व समर्पण किया तो सर्व अर्थात् संकल्प, श्वास, बोल, कर्म, सम्बन्ध, सर्व व्यक्ति, वैभव, संस्कार, स्वभाव, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति - सबको अर्पण किया। इसको ही कहा जाता है समर्पण। समर्पण से भी ऊपर और पॉवरफुल शब्द, स्वयं को सर्वस्व त्यागी कहते हो।
सभी सर्वस्व-त्यागी हो वा त्यागी? सर्वस्व त्यागी अर्थात् जो भी त्याग किया, सम्बन्ध, सम्पर्क, भाव, स्वभाव और संस्कार, इन सबको पिछले 63 जन्मों के रहे हुए हिसाब-किताब के अंश को भी वंश-सहित त्याग किया हुआ है, इसलिए सर्वस्व त्याग कहा जाता है। ऐसे सर्वस्व त्यागी, जिनका पिछला हिसाब वंशसहित समाप्त हो गया - ऐसा सर्वस्व त्यागी कभी संकल्प भी नहीं कर सकता कि मेरा पिछला स्वभाव और संस्कार ऐसा है। पिछला हिसाब अब तक कभीकभी खींचता है वा कर्म-बन्धन का बोझ, कर्म सम्बन्ध का बोझ, कोई व्यक्ति वा वैभव के आधार का बोझ मुझ आत्मा को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? यह संकल्प व बोल सर्वस्व त्यागी के नहीं हैं-सर्वस्व त्यागी, सर्व बन्धनों से मुक्त, सर्व बोझों से मुक्त, हर संकल्प में भाग्य बनाने वाला पदमा-पदम भाग्यशाली होगा। ऐसे के हर कदम में पदमों की कमाई स्वत: ही होती है। ऐसे सर्वस्व त्यागी हो ना? शब्द के अर्थ स्वरूप में स्थित हो ना? बोलने वाले नहीं लेकिन करने वाले और अनेकों को कराने वाले हो ना? मुश्किल तो नहीं लगता है? मुश्किल लगने का तो सवाल ही नहीं उठना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण जीवन का ‘धर्म और कर्म’ ही यह है। जो जीवन वा निजी कर्म होता है वह कभी किसी को मुश्किल नहीं लगता है। मुश्किल तब लगता है जब अपने को अवतरित हुई आत्मा अर्थात् शक्ति अवतार नहीं समझते हो। सदैव यह याद रखो कि मैं अवतार हूँ। धर्म स्थापन करने अर्थ ‘धर्म-आत्मा’ हूँ। धर्म अर्थात् हर संकल्प स्वत: ही धर्म-अर्थ होते हैं-समझा? ऐसे को कहा जाता है फरिश्ता।
अभी ऐसा बोल कभी नहीं बोलना - क्या करूँ, कैसे करूँ, होता नहीं, आता नहीं और न चाहते हुए भी हो ही जाता है। यह कौन बोलता है? फरिश्ता बोलता है या सर्वस्व त्यागी बोलता है? मास्टर सर्वशक्तिवान् और यह बोल! - दोनों की तुलना करो - मास्टर सर्वशक्तिवान् यह बोल बोल सकता है? क्या अनेकों को बन्धन-मुक्त करने वाली आत्मा ऐसा बोल, बोल सकती है? यह बन्धन-मुक्त आत्मा के बोल हैं? परन्तु आप तो सभी बन्धन-मुक्त आत्मा हो। आज से ऐसे संकल्प और बोल सदा के लिए समाप्त करो। दृढ़ संकल्प की तीली से आज इन कमजोरियों के रावण को जलाओ। अर्थात् ‘दशहरा’ मनाओ। पाँच विकारों के वंश को भी और पाँच तत्वों के अनेक प्रकार के आकर्षण को भी इन दस ही बातों के विजयी बनो। अर्थात् विजय का दिवस मनाओ। अच्छा।
ऐसे ‘विजय दिवस’ मनाने वाले विजयी रत्न, जिनके मस्तक पर विजय का अविनाशी तिलक लगा हुआ है, ऐसे अविनाशी तिलक धारी, सदा अकाल तख्त-नशीन, अकाल-मूर्त्त, सर्वआत्माओं को बन्धन-मुक्त बनाने वाले, योग- युक्त, स्नेह-युक्त, युक्ति-युक्त, सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
आज से दीदी-दादी के पास कोई नहीं जाना - सिर्फ रूहानी मिलन मनाने जाना - यह बातें करने न जाना - कुछ लेने के लिए जाना, लेकिन कम्पलेन्ट लेकर नहीं जाना। अच्छा। ओम् शान्ति।
11-11-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 07-10-75 मधुबन
सर्व अधिकार और बेहद के वैराग्य वाला ही राजऋषि
आज बापदादा कौन-सी सभा देख रहे हैं? यह है राज ऋषियों की सभा। अपने को सदा राज ऋषि समझते हुए चलते हो? एक तरफ राज्य, दूसरी तरफ ऋषि। दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। वह है भाग्य, वह है त्याग। वह है सर्वअधिकारी और वह फिर ऋषि अर्थात् बेहद के वैरागी। सर्व अधिकारी और बेहद के वैरागी। वह सर्व का प्यारा और वह सबसे न्यारा। दोनों ही लक्षण, बोल और कर्म में सदा साथ-साथ दिखाई देते हैं। वर्तमान स्वराज्य अर्थात् स्व का इन सर्व-कर्मइन्द्रियों पर राज्य - इसको कहते हैं स्वराज्य और वही है भविष्य का डबल राज्य अधिकारी। डबल राज्य का नशा सदा रहता है? जितना राज्य का नशा उतना ही बेहद का वैराग अर्थात् ऋषि रूप सदा स्मृति में रहता है? दोनों का बैलेन्स है। वा एक स्वरूप याद रहता है, दूसरा भूल जाता है? इस पुरानी देह और देह की दुनिया से बेहद के वैरागी बन गये हो? वा अभी भी यह पुरानी देह और दुनिया अपनी तरफ आकर्षित करती है? यह कब्रिस्तान अनुभव होता है? सभी मूर्च्छित हुई आत्मायें नजर आती हैं या सिर्फ कहने मात्र हैं? ये सब मरे पड़े हैं अर्थात् कब्रिस्तान है, जब तक वह अनुभव न होगा तो बेहद के वैरागी नहीं बन सकेंगे। आज की दुनिया में भी हद के वैरागी जंगल में या श्मशान में जाते हैं। इसलिए ही गायन है श्मशानी वैराग्य। तो जब तक यह दुनिया श्मशान है, ऐसा अनुभव नहीं होगा तो सदाकाल का बेहद का वैराग्य - यह अनुभव कैसे होगा?
अपने आप से पूछो कि ऋषि बना हूँ? ऐसे निश्चय बुद्धि वैराग्य के साथ-साथ अधिकार की खुशी में भी रहेगे तो राज-ऋषि बनने के लिए जितना ही राज्य का नशा उतना ही बेहद के वैराग्य के नजारे, दोनों ही साथ-साथ अनुभव होंगे। जितना कब्रिस्तान अनुभव होगा, उतना ही परिस्तान सामने दिखाई देगा। त्याग के साथ-साथ भाग्य भी स्पष्ट सामने दिखाई देगा। सम्पूर्ण राजऋषि की स्थिति अर्थात् नशा और निशाने दोनों ही स्पष्ट होंगे। निशाना अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज। ऐसे नशे में रहने वाले के सामने निशाना इतना समीप होगा जैसे स्थूल नेत्रों के सामने स्थूल वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। जब सामने दिखाई देती है, तो फिर कोई संकल्प नहीं उठेगा कि यह वस्तु है कि नहीं है, क्या है, वा कैसी है? ऐसे ही सम्पूर्ण स्टेज का निशाना सामने दिखाई देने के कारण, मैं बनूँगा या नहीं बनूँगा वा सम्पूर्ण स्टेज किसको कहा जाता है यह क्वेश्चन समाप्त हो जायेगा। अपने सम्पूर्ण स्टेज की निशानियाँ स्वयं में स्पष्ट नजर आयेंगी। वह निशानियाँ क्या होंगी, वह जानते हो व अनुभव करते हो?
पहली निशानी - पुरानी दुनिया की किसी भी व्यक्ति वा वैभव से संकल्प-मात्र वा स्वप्न-मात्र भी लगाव नहीं होगा। सदा स्वयं को कलियुगी दुनिया से किनारा करने वाले संगमयुगी समझेंगे। सारी सृष्टि की आसुरी आत्माओं को कल्याण और रहम की दृष्टि से देखेंगे। सदा स्वयं को बाप समान विश्व-सेवाधारी अनुभव करेंगे। हर परिस्थिति वा परीक्षा में सदा स्वयं को विजयी अनुभव करेंगे। विजय मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है। ऐसा अधिकारी स्वरूप समझ कर हर कर्म करेंगे। सदा त्रिमूर्ति तख्त-नशीन अनुभव करेंगे। त्रिकालदर्शीपन के स्मृति स्वरूप होने के कारण हर कर्म के तीनों कालों को जानने वाले हर कर्म को श्रेष्ठ कर्म वा सुकर्मा बनायेंगे। विकर्म का खाता समाप्त हुआ अनुभव होगा। हर कार्य, हर संकल्प सिद्ध हुआ ही पड़ा है ऐसा सदा अनुभव करेंगे, पुराने संस्कार और स्वभाव से उपराम अनुभव करेंगे, सदा साक्षीपन की सीट पर स्वयं को सैट हुआ अनुभव करेंगे। यह है - निशानियाँ भी और निशाना भी। ऐसे को कहा जाता है ‘राजऋषि’। ऐसे राज-ऋषि बने हो? टाईटल तो राज-ऋषि का मिला है ना? जो टाईटल हैं वही प्रैक्टिकल भी है ना?
ब्राह्मण अर्थात् कहना और करना, सोचना और बोलना, सुनना और स्वरूप में लाना ‘एक समान’ हो। सब ब्राह्मण हो ना? एक सेकेण्ड में जहाँ अपने को चाहो उस स्थिति में स्थित कर सकते हो? ऐसे एवर रेडी बने हो? अशरीरी बनने का अभ्यास इतना ही सरल अनुभव होता है जैसे शरीर में आना अति सहज और स्वत: लगता है। रूहानी मिलिट्री हो ना? मिलिट्री अर्थात् हर समय सेकेण्ड में ऑर्डर को प्रैक्टिकल में लाने वाले। अभी-अभी ऑर्डर हो अशरीरी भव, तो एवररेडी हो या रेडी होना पड़ेगा? अगर मिलिट्री रेडी होने में समय लगाये तो विजय होगी? ऐसा सदा एवररेडी रहने का अभ्यास करो। अच्छा। ऐसे सदा सर्व अधिकारों के नशे में रहने वाले संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मणों, स्वराज्य और विश्व के राज्य के नशे में रहने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति।
वरदान:- अपने क्षमा स्वरूप द्वारा शिक्षा देने वाले मास्टर क्षमा के सागर भव
यदि कोई आत्मा आपकी स्थिति को हिलाने की कोशिश करे, अकल्याण की वृत्ति रखे, उसे भी आप अपने कल्याण की वृत्ति से परिवर्तन करो या क्षमा करो। परिवर्तन नहीं कर सकते हो तो मास्टर क्षमा के सागर बन क्षमा करो। आपकी क्षमा उस आत्मा के लिए शिक्षा हो जायेगी। आजकल शिक्षा देने से कोई समझता, कोई नहीं। लेकिन क्षमा करना अर्थात् शुभ भावना की दुआयें देना, सहयोग देना।
स्लोगन:- स्वयं को और सर्व को प्रिय वही लगते हैं जो सदा खुशहाल रहते हैं।