28-01-13  प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन

 

“मीठे बच्चे, साकार शरीर को याद करना भी भूत अभिमानी बनना है, क्योंकि शरीर 5 भूतों का है, तुम्हें तो देही-अभिमानी बन एक विदेही बाप को याद करना है"

 

प्रश्नः- सबसे सर्वोत्तम कार्य कौन सा है जो बाप ही करते हैं?

 

उत्तर:- सारी तमोप्रधान सृष्टि को सतोप्रधान सदा सुखी बना देना, यह है सबसे सर्वोत्तम कार्य, जो बाप ही करते हैं। इस ऊंचे कार्य के कारण उनके यादगार भी बहुत ऊंचे-ऊंचे बनाये हैं।

 

प्रश्नः- किन दो शब्दों में सारे ड्रामा का राज़ आ जाता है?

 

उत्तर:- पूज्य और पुजारी, जब तुम पूज्य हो तब पुरुषोत्तम हो, फिर मध्यम, कनिष्ट बनते। माया पूज्य से पुजारी बना देती है।

 

गीत:- महफिल में जल उठी शमा...

 

ओम् शान्ति। भगवान बैठ बच्चों को समझाते हैं कि मनुष्य को भगवान नहीं कहा जा सकता। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का भी चित्र है उनको भगवान नहीं कह सकते। परमपिता परमात्मा का निवास उनसे भी ऊंच है। उनको ही प्रभू, ईश्वर, भगवान आदि कहते हैं। मनुष्य जब पुकारते हैं तो उन्हों को कोई भी आकार वा साकार मूर्ति दिखाई नहीं पड़ती, इसलिए किस भी मनुष्य आकार को भगवान कह देते हैं। संन्यासियों को भी देखते हैं तो कहते हैं भगवान, परन्तु भगवान खुद समझाते हैं कि मनुष्य को भगवान नहीं कहा जा सकता। निराकार भगवान को तो बहुत याद करते हैं। जिन्होंने गुरू नहीं किया है, छोटे बच्चे हैं उनको भी सिखाया जाता है परमात्मा को याद करो, परन्तु किस परमात्मा को याद करो - यह नहीं बताया जाता। कोई भी चित्र बुद्वि में नहीं रहता। दु:ख के समय कह देते हैं हे प्रभु। कोई गुरू वा देवता आदि का चित्र उनके सामने नहीं आता है। भल बहुत गुरू किये हों तो भी जब हे भगवान कहते हैं तो कभी उनको गुरू याद नहीं आयेगा। अगर गुरू को याद कर और ही भगवान कहें तो वह मनुष्य तो जन्म-मरण में आने वाला हो गया। तो यह गोया 5 तत्वों के बने हुए शरीर को याद करते हैं, जिसको 5 भूत कहा जाता है। आत्मा को भूत नहीं कहा जाता। तो वह जैसे भूत पूजा हो गई। बुद्धियोग शरीर तरफ चला गया। अगर किसी मनुष्य को भगवान समझते तो ऐसे नहीं कि उनमें जो आत्मा है उसको याद करते हैं। नहीं। आत्मा तो दोनों में है। याद करने वाले में भी है तो जिसको याद करते हैं उनमें भी है। परमात्मा को तो सर्वव्यापी कह देते। परन्तु परमात्मा को पाप आत्मा नहीं कहा जा सकता। वास्तव में परमात्मा नाम जब निकलता है तो बुद्धि निराकार तरफ चली जाती है। निराकार बाप को निराकार आत्मा याद करती है। उसको देही-अभिमानी कहेंगे। साकार शरीर को जो याद करते हैं वह जैसे भूत अभिमानी हैं। भूत, भूत को याद करते हैं क्योंकि अपने को आत्मा समझने बदले 5 भूतों का शरीर समझते हैं। नाम भी शरीर पर पड़ता है। अपने को भी 5 तत्वों का भूत समझते हैं और उनको भी शरीर से याद करते हैं। देही-अभिमानी तो हैं नहीं। अपने को निराकार आत्मा समझें तो निराकार परमात्मा को याद करें। सभी आत्माओं का सम्बन्ध पहले-पहले परमात्मा से है। आत्मा दु:ख में परमात्मा को ही याद करती है, उनके साथ सम्बन्ध है। वह आत्माओं को सभी दु:खों से छुड़ाते हैं। उनको शमा भी कहते हैं। कोई बत्ती आदि की तो बात नहीं। वह तो परमपिता परम आत्मा है। शमा कहने से मनुष्य फिर ज्योति समझ लेते हैं। यह तो बाप ने खुद समझाया है मैं परम आत्मा हूँ, जिसका नाम शिव है। शिव को रूद्र भी कहते हैं। उस निराकार के ही अनेक नाम हैं और कोई के इतने नाम नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का एक ही नाम है। जो भी देहधारी हैं उन्हों का एक ही नाम है। एक ईश्वर को ही अनेक नाम दिये जाते हैं। उनकी महिमा अपरमअपार है। मनुष्य का एक नाम फिक्स है। अब तुम मरजीवा बने हो तो तुम्हारे पर दूसरा नाम रखा गया है, जिससे पुराना सब भूल जाये। तुम परमपिता परमात्मा के आगे जीते जी मरते हो। तो यह है मरजीवा जन्म। तो जरूर मात पिता पास जन्म लिया जाता है। यह गुह्य बातें बाप बैठ तुमको समझाते हैं। दुनिया तो शिव को जानती नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर को जानती है। ब्रह्मा का दिन, ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। यह भी सिर्फ सुना है। ब्रह्मा द्वारा स्थापना... परन्तु कैसे, यह नहीं जानते। अब क्रियेटर तो जरूर नया धर्म, नई दुनिया रचेगा। ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण कुल ही रचेगा। तुम ब्राह्मण ब्रह्मा को नहीं परमपिता परमात्मा को याद करते हो क्योंकि ब्रह्मा द्वारा तुम उनके बने हो। बाहर वाले देह-अभिमानी ब्राह्मण ऐसे अपने को ब्रह्मा के बच्चे शिव के पोत्रे नहीं कहेंगे। शिवबाबा जिसकी जयन्ती भी मनाते हैं, परन्तु उनको न जानने कारण उनका कदर नहीं है। उनके मन्दिर में जाते हैं, समझते हैं यह ब्रह्मा, विष्णु शंकर वा लक्ष्मी-नारायण तो नहीं हैं। वह जरूर निराकार परमात्मा है। और सभी एक्टर्स का अपना-अपना पार्ट है, पुनर्जन्म लेते हैं, तो भी अपना नाम धरते हैं। यह परमपिता परमात्मा एक ही है, जिसका व्यक्त नाम रूप नहीं है, परन्तु मूढ़मति मनुष्य समझते नहीं हैं। परमात्मा का यादगार है तो जरूर वह आया होगा, स्वर्ग रचा होगा। नहीं तो स्वर्ग कौन रचेगा। अब फिर आकर यह रूद्र ज्ञान यज्ञ रचा है। इसको यज्ञ कहा जाता है क्योंकि इसमें स्वाहा होना होता है। यज्ञ तो बहुत मनुष्य रचते हैं। वह तो सब हैं भक्ति मार्ग के स्थूल यज्ञ। यह परमपिता परमात्मा स्वयं आकर यज्ञ रचते हैं। बच्चों को पढ़ाते हैं। यज्ञ जब रचते हैं तो उसमें भी ब्राह्मण लोग शास्त्र कथायें आदि सुनाते हैं। यह बाप तो नॉलेजफुल है। कहते हैं यह गीता भागवत आदि शास्त्र सभी भक्ति मार्ग के हैं। यह मैटेरियल यज्ञ भी भक्ति मार्ग के हैं। यह है ही भक्ति मार्ग का समय। जब कलियुग का अन्त आये तब भक्ति का भी अन्त आये, तब ही भगवान आकर मिले क्योंकि वही भक्ति का फल देने वाला है। उनको ज्ञान सूर्य कहा जाता है। ज्ञान चन्द्रमा, ज्ञान सूर्य और ज्ञान लकी सितारे। अच्छा ज्ञान सूर्य तो है बाप। फिर माता चाहिए ज्ञान चन्द्रमा। तो जिस तन में प्रवेश किया है वह हो गई ज्ञान चन्द्रमा माता और बाकी सब हैं बच्चे लकी सितारे। इस हिसाब से जगदम्बा भी लकी स्टार हो गई क्योंकि बच्चे ठहरे ना। स्टार्स में कोई सबमें तीखा भी होता है। वैसे यहाँ भी नम्बर-वार हैं। वह हैं स्थूल आकाश के सूर्य चाँद और सितारे और यह है ज्ञान की बात। जैसे वह पानी की नदियां और यह है ज्ञान की नदियां, जो ज्ञान सागर से निकली हैं।

 

अब शिवजयन्ती मनाते हैं, जरूर वह सारे सृष्टि का बाप आते हैं। आकर जरूर स्वर्ग रचते होंगे। बाप आते ही हैं आदि सनातन देवी-देवता धर्म की स्थापना करने, जो प्राय: लोप हो गया है। गवर्मेन्ट भी कोई धर्म को नहीं मानती है। कहते हैं हमारा कोई धर्म नहीं। यह ठीक कहते हैं। बाप भी कहते हैं भारत का आदि सनातन देवी-देवता धर्म प्राय: लोप है। धर्म में ताकत रहती है। भारतवासी अपने दैवी धर्म में थे तो बहुत सुखी थे। वर्ल्ड आलमाइटी अथॉरिटी राज्य था। पुरुषोत्तम राज्य करते थे। श्री लक्ष्मी-नारायण को ही पुरुषोत्तम कहा जाता है। नम्बरवार ऊंच नीच तो होते हैं। सर्वोत्तम पुरुष, उत्तम पुरुष, मध्यम, कनिष्ट पुरुष तो होते ही हैं। पहले-पहले सभी से सर्वोत्तम पुरुष जो बनते हैं वही फिर मध्यम, कनिष्ट बनते हैं। तो लक्ष्मी-नारायण हैं पुरुषोत्तम। सभी पुरुषों में उत्तम। फिर नीचे उतरते हैं तो देवता से क्षत्रिय, क्षत्रिय से फिर वैश्य, शूद्र कनिष्ट बनते हैं। सीता राम को भी पुरुषोत्तम नहीं कहेंगे। सभी राजाओं के राजा, सर्वोत्तम सतोप्रधान पुरुषोत्तम हैं लक्ष्मी-नारायण। यह सब बातें तुम्हारी बुद्वि में बैठी हैं। कैसे यह सृष्टि का चक्र चलता है। पहले-पहले उत्तम फिर मध्यम, कनिष्ट बनते हैं। इस समय तो सारी दुनिया तमोप्रधान है, यह बाप समझाते हैं। जिसकी अब जयन्ती मनायेंगे, तुम बता सकते हो कि आज से 5 हजार वर्ष पहले परमपिता परमात्मा शिव पधारे थे। नहीं तो शिव जयन्ती क्यों मनाते! परमपिता परमात्मा जरूर बच्चों के लिए सौगात ले आयेंगे और जरूर सर्वोत्तम कार्य करेंगे। सारी तमोप्रधान सृष्टि को सतोप्रधान सदा सुखी बनाते हैं। जितना ऊंच है उतना ऊंच यादगार भी था जिस मन्दिर को लूटकर ले गये। मनुष्य चढ़ाई करते ही हैं धन के लिए। फारेन से भी आये धन के लिए, उस समय भी धन बहुत था। परन्तु माया रावण ने भारत को कौड़ी तुल्य बना दिया है। बाप आकर हीरे तुल्य बनाते हैं। ऐसे शिवबाबा को कोई भी नहीं जानते हैं। कह देते सर्वव्यापी है, यह कहना भी भूल है। नईया पार करने वाला सतगुरू एक है। डुबोने वाले अनेक हैं। सभी विषय सागर में डूबे हुए हैं तब तो कहते हैं इस असार संसार, विषय सागर से उस पार ले चलो, जहाँ क्षीरसागर है। गाया भी जाता है कि विष्णु क्षीरसागर में रहते थे। स्वर्ग को क्षीरसागर कहा जाता है। जहाँ लक्ष्मी-नारायण राज्य करते हैं। बाकी ऐसे नहीं विष्णु वहाँ क्षीरसागर में विश्राम करते हैं। वो लोग तो बड़ा तलाब बनाकर उसके बीच में विष्णु को रखते हैं। विष्णु भी लम्बा चौड़ा बनाते हैं। इतने बड़े तो लक्ष्मी-नारायण होते नहीं। बहुत-बहुत 6 फुट होंगे। पाण्डवों के भी बड़े-बड़े बुत बनाते हैं। रावण का कितना बड़ा बुत बनाते हैं। बड़ा नाम है तो बड़ा चित्र बनाते हैं। बाबा का नाम भल बड़ा है परन्तु उनका चित्र छोटा है। यह तो समझाने लिए इतना बड़ा रूप दे दिया है। बाप कहते हैं मेरा इतना बड़ा रूप नहीं है। जैसे आत्मा छोटी है वैसे ही मैं परमात्मा भी स्टार मिसल हूँ। उसको सुप्रीम सोल कहा जाता है, वह है सबसे ऊंच। उसी में सारा ज्ञान भरा हुआ है, उनकी महिमा गाई हुई है कि वह मनुष्य सृष्टि का बीजरूप है, ज्ञान का सागर है, चैतन्य आत्मा है। परन्तु सुनावे तब जब आरगन्स लेवे। जैसे बच्चा भी छोटे आरगन्स से बात नहीं कर सकता है, बड़ा होता है तो शास्त्र आदि देखने से अगले संस्कारों की स्मृति आ जाती है। तो बाप बैठ बच्चों को समझाते हैं मैं फिर से 5 हजार वर्ष बाद तुमको वही राजयोग सिखाने आया हूँ। श्रीकृष्ण ने कोई राजयोग नहीं सिखाया है। उन्होंने तो प्रालब्ध भोगी है। 8 जन्म सूर्यवंशी, 12 जन्म चन्द्रवंशी फिर 63 जन्म वैश्य, शूद्र वंशी बनें। अभी सबका यह अन्तिम जन्म है। यह श्रीकृष्ण की आत्मा भी सुनती है। तुम भी सुनते हो। यह है संगमयुगी ब्राह्मणों का वर्ण। फिर तुम ब्राह्मण से जाकर देवता बनेंगे। ब्राह्मण धर्म, सूर्यवंशी देवता धर्म और चन्द्रवंशी क्षत्रिय धर्म तीनों का स्थापक एक ही परमपिता परमात्मा है। तो तीनों का शास्त्र भी एक होना चाहिए। अलग-अलग कोई शास्त्र हैं नहीं। ब्रह्मा इतना बड़ा सभी का बाप है, प्रजापिता। उनका भी कोई शास्त्र है नहीं। एक गीता में ही भगवानुवाच है। ब्रह्मा भगवानुवाच नहीं है। यह है शिव भगवानुवाच ब्रह्मा द्वारा, जिससे शूद्रों को कनवर्ट कर ब्राह्मण बनाया जाता है। ब्राह्मण ही देवता और जो नापास होते हैं, वह क्षत्रिय बन जाते हैं। दो कला कम हो जाती हैं। कितना अच्छी रीति समझाते हैं। ऊंच ते ऊंच है परमपिता परमात्मा फिर ब्रह्मा, विष्णु, शंकर उनको भी पुरुषोत्तम नहीं कहेंगे। जो पुरुषोत्तम बनते हैं, वही फिर कनिष्ट भी बनते हैं। मनुष्यों में सर्वोत्तम हैं लक्ष्मी-नारायण, जिसके मन्दिर भी हैं। परन्तु उनकी महिमा को कोई जानते नहीं हैं। सिर्फ पूजा करते रहते हैं। अब तुम पुजारी से पूज्य बन रहे हो। माया फिर पुजारी बना देती है। ड्रामा ऐसा बना हुआ है। जब नाटक पूरा होता है तभी मुझे आना पड़ता है। फिर वृद्धि होना भी आटोमेटिकली बन्द हो जाता है। फिर तुम बच्चों को आकर अपना-अपना पार्ट रिपीट करना है। यह परमपिता परमात्मा खुद बैठ समझाते हैं, जिसकी जयन्ती भक्तिमार्ग में मनाते हैं। यह तो मनाते ही रहेंगे। स्वर्ग में तो कोई की भी जयन्ती नहीं मनाते हैं। श्रीकृष्ण, राम आदि की भी जयन्ती नहीं मनायेंगे। वह तो खुद प्रैक्टिकल में होंगे। यह तो होकर गये हैं, तब मनाते हैं। वहाँ वर्ष-वर्ष श्रीकृष्ण का बर्थ डे नहीं मनायेंगे। वहाँ तो सदैव खुशियां हैं ही, बर्थ डे क्या मनायेंगे। बच्चे का नाम तो मात-पिता ही रखते होंगे। गुरू तो वहाँ होता नहीं। वास्तव में इन बातों का ज्ञान और योग से कोई कनेक्शन नहीं है। बाकी वहाँ की रसम क्या है, सो पूछना होता है, या तो बाबा कह देंगे वहाँ के कायदे जो होंगे वह चल पड़ेंगे, तुमको पूछने की क्या दरकार है। पहले मेहनत कर अपना पद तो प्राप्त कर लो। लायक तो बनो, फिर पूछना। ड्रामा में कोई न कोई कायदा होगा। अच्छा।

 

मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।

 

धारणा के लिए मुख्य सार:-

 

1) अपने को निराकार आत्मा समझ निराकार बाप को याद करना है। किसी भी देहधारी को नहीं। मरजीवा बन पुरानी बातों को बुद्धि से भूल जाना है।

 

2) बाप के रचे हुए इस रूद्र यज्ञ में सम्पूर्ण स्वाहा होना है। शूद्रों को ब्राह्मण धर्म में कनवर्ट करने की सेवा करनी है।

 

वरदान:- सर्व पुराने खातों को संकल्प और संस्कार रूप से भी समाप्त करने वाले अन्तर्मुखी भव

 

बापदादा बच्चों के सभी चौपड़े अब साफ देखने चाहते हैं। थोड़ा भी पुराना खाता अर्थात् बाह्यमुखता का खाता संकल्प वा संस्कार रूप में भी रह न जाए। सदा सर्व बन्धनमुक्त और योगयुक्त - इसी को ही अन्तर्मुखी कहा जाता है इसलिए सेवा खूब करो लेकिन बाह्यमुखी से अन्तर्मुखी बनकर करो। अन्तर्मुखता की सूरत द्वारा बाप का नाम बाला करो, आत्मायें बाप का बन जाएं - ऐसा प्रसन्नचित बनाओ।

 

स्लोगन:- अपने परिवर्तन द्वारा संकल्प, बोल, सम्बन्ध, सम्पर्क में सफलता प्राप्त करना ही सफलता-मूर्त बनना है।