17-04-11  प्रातः मुरली ओम् शान्ति अव्यक्त बापदादा रिवाइज़ - 28-07-72 मधुबन

 

अपवित्रता और वियोग को संघार करने वाली शक्तियाँ ही असुर संघारनी है

 

बाप द्वारा आने से ही मुख्य दो वरदान कौन से मिले हैं? उन मुख्य दो वरदानों को जानते हो? पहले-पहले आने से यही दो वरदान मिले कि - ‘योगी भव’ और ‘पवित्र भव’। दुनिया वालों को भी एक सेकेण्ड में 35 वर्षां के ज्ञान का सार इन ही शब्दों में सुनाती हो ना। पुरूषार्थ का लक्ष्य वा प्राप्ति भी यही है ना। वा सम्पूर्ण स्टेज वा सिद्धि की प्राप्ति तो यही होती है। तो जो पहले-पहले आने से वरदान मिले वा स्मृति दिलाई कि आप सभी आत्माओं का वास्तविक स्वरूप यही है, क्या वह पहली स्मृति वा यह वरदान प्राप्त करते जीवन में यह दोनों ही बातें धारण कर ली हैं? अर्थात् योगी भव और पवित्र भव - ऐसी जीवन बन गई है कि अभी बना रही हो? धारणामूर्त बन गये हो वा अभी धारण कर रहे हो? है तो बहुत कामन बात ना। सारे दिन में अनेक बार यह दो बातें वर्णन करते होंगे। तो यह दो बातें धारण हो गई हैं वा हो रही है? अगर योगीपन में ज़रा भी वियोग है, भोगी तो नहीं कहेंगे। बाकी रही यह दो स्टेज। तो कब माया योगी से वियोगी बना देती है। तो योग के साथ अगर वियोग भी है तो योगी कहेंगे क्या? आप लोग स्वयं ही औरों को सुनाती हो कि अगर पवित्रता में ज़रा भी अपवित्रता है तो उसको क्या कहेंगे। अभी भी वियोगी हो क्या? वा वियोगी बन जाते हो क्या? चक्रवर्ता राजा बनने के संस्कार होने कारण दोनों में ही चक्र लगाती हो क्या - कब योग में, कब वियोग में? आप लोग विश्व के सर्व अत्माओं को इस चक्र से निकालने वाले हो ना। कि बाप निकालने वाला है और आप चक्र लगाने वाले हो? तो जो चक्र से निकालने वाले हैं वह स्वयं भी चक्र लगाते हैं? तो फिर सभी को निकालेंगे कैसे? जैसे भक्ति-मार्ग के अनेक प्रकार के व्यर्थ चक्रों से निकल चुके हो, तब ही अपने निश्चय और नशे के आधार पर सभी को चेलेंज करती हो कि इन भक्ति के चक्रों से छूटो। ऐसे ही वह है तन द्वारा चक्र काटना, और यह है मन द्वारा चक्र काटना। तो तन द्वारा चक्र लगाना अब छोड़ दिया। बाकी मन का चक्र अभी नहीं छूटा है? कब वियोग, कब योग - वह मन द्वारा ही तो चक्र लगाती हो। क्या अब तक भी माया में इतनी शक्ति रही है क्या, जो मास्टर सर्वशक्तिवान को भी चक्र में ला देवे? अब तक माया को इतनी शक्तिशाली देखकर, क्या माया को मूर्छित करना वा माया को हार खिलाना नहीं आता है? अभी तक भी उसको देखते रहते हो कि हमारे ऊपर वार कर रही है। अभी तो आप शक्ति-सेना और पाण्डव-सेना को अन्य आत्माओं के ऊपर माया का वार देखते हुये रहमदिल बनकर रहम करने का समय आया है। तो क्या अब तक अपने ऊपर भी रहम नहीं किया है? अब तो शक्तियों की शक्ति अन्य आत्माओं की सेवा प्रति कर्त्तव्य में लगने की हैं। अब अपने प्रति शक्ति काम में लगाना, वह समय नहीं है। अब शक्तियों का कर्त्तव्य विश्व-कल्याण का है। विश्व-कल्याणी गाई हुई हो कि स्वयं कल्याणी हो? नाम क्या है और काम क्या है। नाम एक, काम दूसरा? जैसे लौकिक रूप में भी जब अलबेले छोटे होते हैं, जिम्मेवारी नहीं होती है; तो समय वा शक्ति वा धन अपने प्रति ही लगाते हैं। लेकिन जब हद के रचयिता बन जाते हैं तो जो भी शक्तियाँ वा समय है वह रचना के प्रति लगाते हैं। तो अब कौन हो? अब मास्टर रचयिता, जगत्-माताएं नहीं बनी हो? विश्व के उद्धार मूर्त नहीं बनी हो? विश्व के आधार मूर्त नहीं बनी हो? जैसे शक्तियों का गायन है कि एक सेकेण्ड की दृष्टि से असुर संहार करती है। तो क्या अपने से आसुरी संस्कार वा अपवित्रता को सेकेण्ड में संहार नहीं किया है? वा दूसरों प्रति संहारनी हो, अपने प्रति नहीं? अब तो माया अगर सामना भी करे तो उसकी क्या हालत होनी चाहिए? जैसे छुईमुई का वृक्ष देखा है ना। अगर कोई भी मनुष्य का ज़रा भी हाथ लगता है तो शक्तिहीन हो जाती है। उसमें टाइम नहीं लगता। तो आप के सिर्फ एक सेकेण्ड के शुद्ध संकल्प की शक्ति से माया छुईमुई माफिक मूर्छित हो जानी चाहिए। ऐसी स्थिति नहीं आई है? अब तो यही सोचो कि विश्व के कल्याण प्रति ही थोड़ा-सा समय रहा हुआ है। नहीं तो विश्व की आत्माएं आप लोगों को उलहना देंगी कि - आप लोगों ने 35 वर्षों में इतनी पालना ली, फिर भी कहती हो ‘योगी भव’, ‘पवित्र भव’ बन रहे हैं, और हमको कहती हो 4 वर्ष में वर्सा ले लो। फिर आपका ही उलहना आपको देंगे। फिर आप क्या कहेंगे? यह जो कहते हो कि अभी बन रहे हैं वा बनेंगे, करेंगे - यह भाषा भी बदलनी है। अभी मास्टर रचयिता बनो। विश्व- कल्याणकारी बनो। अब अपने पुरूषार्थ में समय लगाना, वह समय बीत चुका। अब दूसरों को पुरूषार्थ कराने में लगाओ। जबकि कहते हो दिन-प्रति-दिन चढ़ती कला है; तो चढ़ती कला, सर्व का भला’ - इसी लक्ष्य को हर सेकेण्ड स्मृति में रखो। जो अपने प्रति समय लगाते हैं वह दूसरों की सेवा में लगाने से ऑटोमेटिकली अपनी सेवा हो ही जायेंगी। अपनी अपनी तरक्की करने के लिये पुराने तरीकों को चेंज करो। जैसे समय बदलता जाता है, समस्याएं बदलती जाती हैं, प्रकृति का रूप-रंग बदलता जाता है, वैसे अपने को भी अब परिवर्तन में लाओ। वही रीति-रस्म, वही रफ्तार, वही भाषा, वही बोलना अभी बदलना चाहिए। आप अपने को ही नहीं बदलेंगे तो दुनिया को कैसे बदलेंगे। जैसे तमोगुण अति में जा रहा है, यह अनुभव होता है ना। तो आप फिर अतीन्द्रिय सुख में रहो। वह अति गिरावट के तरफ और आप उन्नति के तरफ। उन्हों की गिरती कला, आपकी चढ़ती कला। अभी सुख को अतीन्द्रिय सुख में लाना है। इसलिये अन्तिम स्टेज का यही गायन है कि अतीन्द्रिय सुख गोप-गोपियों से पूछो। सुख की अति होने से विशेष अर्थात् दु:ख की लहर के संकल्प का भी अन्त हो जावेगा। तो अब यह नहीं कहना कि करेंगे, बनेंगे। बनकर बना रहे हैं। अब सिर्फ सेवा के लिये ही इस पुरानी दुनिया में बैठे हैं। नहीं तो जैसे बाबा अव्यक्त बने, वैसे आपको भी साथ ले जाते। लेकिन शक्तियों की जिम्मेवारी, अंतिम कर्त्तव्य का पार्ट नूँधा हुआ है। सिर्फ इसी पार्ट के लिये बाबा अव्यक्त वतन में और आप व्यक्त में हो। व्यक्त भाव में फँसी हुई आत्माओं को इस व्यक्त भाव से छुड़ाने का कर्त्तव्य आप आत्माओं का है। तो जिस कर्त्तव्य के लिये इस स्थूल वतन में अब तक रहे हुये हो, उसी कर्त्तव्य को पालन करने में लग जाओ। तब तक बाप भी आप सभी का सूक्ष्मवतन में आह्वान कर रहे हैं। क्योंकि घर तो साथ चलना है ना। आपके बिना बाप भी अकेला घर में नहीं जा सकता। इसलिये अब जल्दी- जल्दी इस स्थूल वतन के कर्त्तव्य का पालन करो, फिर साथ घर में चलेंगे वा अपने राज्य में राज्य करेंगे। अब कितना समय अव्यक्त वतन में आह्वान करेंगे? इसलिये बाप समान बनो। क्या बाप विश्व-कल्याणकारी बनने से अपने आप को सम्पन्न नहीं बना सके? बनाया ना। तो जैसे बाप ने हर संकल्प, हर कर्म बच्चों के प्रति वा विश्व की आत्माओं प्रति लगाया, वैसे ही फालो फादर करो। अच्छा!

 

ऐसे हर संकल्प, हर कर्म विश्व कल्याण अर्थ लगाने वाले, बाप समान बनने वाले बच्चों प्रति याद-प्यार और नमस्ते।

 

पंजाब के भाई बहनों प्रति अव्यक्त महावाक्य

 

पंजाब की धरती पर जैसे उस गवर्मेंट को नाज है, ऐसे पाण्डव गवर्मेंट को भी नाज है। पंजाब की विशेषता यह है जो बापदादा के कार्य में मददगार फलस्वरूप सभी से ज्यादा पंजाब से निकले हैं। सिन्ध से निकले हुए निमित्त बने हुए रत्नों ने आप रत्नों को निकाला। अब फिर आप लोगों का कर्त्तव्य है ऐसे अच्छे रत्न निकालो। खिट-पिट वाली न हों। आप लोगों द्वारा जो सबूत निकलना चाहिए वह अब अपनी चेकिंग करो। अपनी रचना से कब तंग हो जाते हो क्या? यह तो सभी शुरू से चलता आता है। आप लोगों के लिये तो और ही सहज है। आप लोगों को कोई स्थूल पालना नहीं करनी पड़ती, सिर्फ रूहानी पालना। लेकिन पहला पूर निकलने समय तो दोनों ही जिम्मेवारी थी। एक जिम्मेवारी को पूरा करना सहज होता है, दोनों जिम्मेवारी में समय देना पड़ता है। फिर भी पहला पूर निकला तो सही ना। अब आप सभी का भी यह लक्ष्य होना चाहिए कि जल्दी-जल्दी अपने समीप आने वाले और प्रजा - दोनों प्रकार की आत्माओं को अब प्रत्यक्ष करें। वह प्रत्यक्षफल दिखाई दे। अभी मेहनत ज्यादा करते हो, प्रत्यक्षफल इतना दिखाई नहीं देता। इसका कारण क्या है? बापदादा की पालना और आप लोगों की ईश्वरीय पालना में मुख्य अन्तर क्या है जिस कारण शमा के ऊपर जैसे परवाने फिदा होने चाहिए वह नहीं हो पाते? ड्रामा में पार्ट है वह बात दूसरी है लेकिन बाप समान तो बनना ही है ना। प्रत्यक्षफल का यह मतलब नहीं कि एक दिन में वारिस बन जायेंगे लेकिन जितनी मेहनत करते हो, उम्मीद रखते हो, उस प्रमाण भी फल निकले तो प्रत्यक्षफल कहा जाये। वह क्यों नहीं निकलता? बापदादा कोई भी कर्म के फल की इच्छा नहीं रखते। एक तो निराकार होने के नाते से प्रारब्ध ही नहीं है तो इच्छा भी नहीं हो सकती और साकार में भी प्रैक्टिकल पार्ट बजाया तो भी हर वचन और कर्म में सदैव पिता की स्मृति होने कारण फल की इच्छा का संकल्प-मात्र भी नहीं रहा। और यहां क्या होता है - जो कोई कुछ करते हैं तो यहां ही उस फल की प्राप्ति का रहता है। जैसे वृक्ष में फल लगता ज़रूर है लेकिन वहां का वहां ही फल खाने लगें तो उसका फल पूरा पक कर प्रैक्टिकल में आवे, वह कब न होगा क्योंकि कच्चा ही फल खा लिया। यह भी ऐसे है, जो कुछ किया उसके फल की इच्छा सूक्ष्म में भी रहती ज़रूर है, तो किया और फल खाया; फिर फलस्वरूप कैसे दिखाई देवे? आधे में ही रह गया ना। फल की इच्छाएं भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं, जैसे अपार दु:खों की लिस्ट है। वैसे फल की इच्छाएं वा जो उसका रेस्पान्स लेने का सूक्ष्म संकल्प ज़रूर रहता है। कुछ-ना-कुछ एक-दो परसेन्ट भी होता ज़रूर है। बिल्कुल निष्काम वृति रहे - ऐसा नहीं होता। पुरूषार्थ के प्रारब्ध की नॉलेज होते हुए भी उसमें अटैचमैंट ना हो, वह अवस्था बहुत कम है। मिसाल - आप लोगों ने किन्हों की सेवा की, आठ को समझाया, उसकी रिजल्ट में एक-दो आप की महिमा करते हैं और दूसरे ना महिमा, ना ग्लानि करते हैं, गम्भीरता से चलते हैं। तो फिर भी देखेंगे - आठ में से आपका अटेन्शन एक-दो परसेन्टेज में उन दो तीन तरफ ज्यादा जावेगा जिन्होंने महिमा की; उसकी गम्भीरता की परख कम होगी, बाहर से जो उसने महिमा की उनको स्वीकार करने के संस्कार प्रत्यक्ष हो जावेंगे। दूसरे शब्दों में कहते हैं - इनके संस्कार, इनका स्वभाव मिलता है। फलाने के संस्कार मिलते नहीं हैं, इसलिये दूर रहते हैं। लेकिन वास्तव में है यह सूक्ष्म फल को स्वीकार करना। मूल कारण यह रह जाता है -- करेंगे और रिजल्ट का इंतजार रहेगा। पहले अटेन्शन इस बात में जावेगा कि इसने मेरे लिये क्या कहा? मैंने भाषण किया, सभी ने क्या कहा? उसमें अटेन्शन जावेगा। अपने को आगे बढ़ाने की एम से रिजल्ट लेना, अपनी सर्विस के रिजल्ट को जानना, अपनी उन्नति के लिये जानना - वह अलग बात है; लेकिन अच्छे और बुरे की कामना रखना वह अलग बात है। अभी- अभी किया और अभी-अभी लिया तो जमा कुछ नहीं होता है, कमाया और खाया। उसमें विल-पावर नहीं रहती। वह अन्दर से सदैव कमजोर रहेंगे, शक्तिशाली नहीं होंगे क्योंकि खाली-खाली हैं ना। भरी हुई चीज़ पावरफुल होती है। तो मुख्य कारण यह है। इसलिये फल पक कर सामने आवे, वह बहुत कम आते हैं। जब यह बात खत्म हो जावेगी तब निराकारी, निरहंकारी और साथ-साथ निर्विकारी - मन्सा-वाचा-कर्मणा में तीनों सब्जेक्ट दिखाई देंगे। शरीर में होते निराकारी, आत्मिक रूप दिखाई देगा। जैसे साकार में देखा- बुजुर्ग था ना, लेकिन फिर भी शरीर को न देख रूह ही दिखाई देता था, व्यक्त गायब हो अव्यक्त दिखाई देता था! तो साकार में निराकार स्थिति होने कारण निराकार वा आकार दिखाई देता था। तो ऐसी अवस्था प्रैक्टिकल रहेगी। अब स्वयं भी बार-बार देह-अभिमान में आते हो तो दूसरे को निराकारी वा आकार रूप का साक्षात्कार नहीं होता है। यह तीनों ही होना चाहिए - मन्सा में निराकारी स्टेज, वाचा में निरहंकारी और कर्म में निर्विकारी, ज़रा भी विकार ना हो। तेरा-मेरा, शान-मान - यह भी विकार हैं। अंश भी हुआ तो वंश आ जावेगा। संकल्प में भी विकार का अंश ना हो। जब यह तीनों स्टेज हो जावेंगी तब अपने प्रभाव से जो भी वारिस वा प्रजा निकलनी होगी वह फटाफट निकलेगी। आप लोग अभी जो मेहनत का अविनाशी बीज डाल रहे हो उसका भी फल और कुछ प्रत्यक्ष का प्रभाव -- दोनों इकट्ठे निकलेंगे। फिर क्विक सर्विस दिखाई देगी। तो अब कारण समझा ना? इसका निवारण करना, सिर्फ वर्णन तक ना रखना। फिर क्या हो जावेगा? साक्षात्कारमूर्त हो जावेंगे, तीनों स्टेज प्रत्यक्ष दिखाई देंगी। आजकल सभी यह देखने चाहते हैं, सुनने नहीं चाहते। द्वापर से लेकर तो सुनते आये हैं। बहुत सुन-सुन कर थक जाते हैं, तो मैजारिटी थके हुए हैं। भक्ति-मार्ग में भी सुना और आजकल के नेता भी बहुत सुनाते हैं। तो सुन-सुन कर थक गये। अब देखने चाहते हैं। सभी कहते हैं - कुछ करके दिखाओ, प्रैक्टिकल प्रमाण दो तब समझेंगे कि कुछ कर रहे हो। तो आप लोग की प्रत्यक्ष हर चलन, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष को कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रहती। तो अब प्रत्यक्ष चलन में आना है। जो फ्यूचर में महाविनाश होने वाला है और नई दुनिया आने वाली है, वह भी आपके फीचर्स से दिखाई दे। देखेंगे तो फिर वैराग्य आटोमेटिकली आ जावेगा। एक तरफ वैराग्य, दूसरे तरफ अपना भविष्य बनाने का उमंग आवेगा। जैसे कहते हो - एक आंख में मुक्ति, एक में जीवनमुक्ति। तो विनाश मुक्ति का गेट और स्थापना जीवनमुक्ति का गेट है; तो दोनों आंखों से यह दिखाई दें। यह पुरानी दुनिया जाने वाली है -- आपके नैन और मस्तक यह बोलें। मस्तक भी बहुत बोलता है। कोई का भाग्य मस्तक दिखाता है, समझते हैं - यह बड़ा चमत्कारी है। तो ऐसी जब सर्विस करें तब जयजयकार हो। तो अब विश्व के आगे एक सैम्पल बनना है। अच्छा - ओम् शान्ति।

 

वरदान:- अपने अनादि-आदि रीयल रूप को रियलाइज करने वाले सम्पूर्ण पवित्र भव

 

आत्मा के अनादि और आदि दोनों काल का ओरीज्नल स्वरूप पवित्र है। अपवित्रता आर्टीफिशल, शूद्रों की देन है। शूद्रों की चीज़ ब्राह्मण यूज़ नहीं कर सकते इसलिए सिर्फ यही संकल्प करो कि अनादि-आदि रीयल रूप में मैं पवित्र आत्मा हूँ, किसी को भी देखो तो उसके रीयल रूप को देखो, रीयल को रियलाइज करो, तो सम्पूर्ण पवित्र बन फर्स्टक्लास वा एयरकन्डीशन की टिकेट के अधिकारी बन जायेंगे।

 

स्लोगन:- परमात्म दुआओं से अपनी झोली भरपूर करो तो माया समीप नहीं आ सकती।