11-12-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 26.01.88 "बापदादा" मधुबन
संगमयुग पर नम्बरवन पूज्य
बनने की अलौकिक विधि
आज अनादि बाप और आदि
बाप अनादि शालिग्राम बच्चों को और आदि ब्राह्मण बच्चों को डबल रूप से देख रहे हैं।
शालिग्राम रूप में भी परम पूज्य हो और ब्राह्मण सो देवता स्वरूप भी गायन और पूजन
योग्य हो। दोनों - आदि और अनादि बाप दोनों ही रूप से पूज्य आत्माओं को देख हर्षित
हो रहे हैं। अनादि बाप ने आदि पिता सहित अर्थात् ब्रह्मा बाप और ब्राह्मण बच्चों को
अपने से भी ज्यादा डबल रूप में पूज्य बनाया है। अनादि बाप की पूजा सिर्फ एक निराकार
रूप में होती है लेकिन ब्राह्मा सहित ब्राह्मण बच्चों की पूजा ‘‘निराकार'', ‘‘साकार'',
- दोनों रूप से होती है। तो बाप बच्चों को अपने से भी ज्यादा डबल रूप से महान मानते
हैं।
आप बापदादा बच्चों की
विशेषताओं को देख रहे थे। हर एक बच्चे की विशेषता अपनी-अपनी है। कोई बाप की और सर्व
ब्राह्मण आत्माओं की विशेषताओं को जान स्वयं में सर्व विशेषतायें धारण कर श्रेष्ठ
अर्थात् विशेष आत्मा बन गये हैं और कोई विशेषताओं को जान और देखकर खुश होते हैं
लेकिन अपने में सर्व विशेषतायें धारण करने की हिम्मत नहीं है और कोई हर आत्मा में
या ब्राह्मण परिवार में विशेषता होते हुए भी विशेषता के महत्व से नहीं देखते, एक दो
को साधारण रूप से देखते हैं। विशेषता देखने वा जानने का अभ्यास नहीं है वा
गुण-ग्राहक बुद्धि अर्थात् गुण ग्रहण करने की बुद्धि न होने के कारण विशेषता अर्थात्
गुण को जान नहीं सकते। हर एक ब्राह्मण आत्मायें कोई-नकोई विशेषता अवश्य भरी हुई है।
चाहे 16 हजार का लास्ट दाना भी हो लेकिन उसमें भी कोई-न-कोई विशेषता है, इसलिए ही
बाप की नजर उस आत्मा के ऊपर पड़ती है। भगवान की नजर पड़ जाए वा भगवान अपना बनावे तो
जरूर विशेषता समाई हुई है! इसलिए ही वह आत्मा ब्राह्मणों की लिस्ट में आई है लेकिन
सदा हर एक की विशेषता को देखने और जानने में नम्बरवार बन जाते हैं। बापदादा जानते
हैं कि कैसे भी, भल ज्ञान की धारणा वा सेवा में, याद में कमज़ोर हैं लेकिन बाप को
जानने, बाप के बनने की विशालबुद्धि, बाप को देखने की दिव्य-नजर - यह विशेषता तो है।
जो आजकल के नामीग्रामी विद्वान भी नहीं जान सकते, न पहचान सकते लेकिन उन आत्माओं ने
जान लिया! कोटों में कोई, कोई में भी कोई - इस लिस्ट में तो आ गये ना। इसलिए कोटों
में से विशेष आत्मा तो हो गये ना। विशेष क्यों बनें? क्योंकि ऊँचे-ते-ऊँच बाप के बन
गये।
सभी आत्माओं में
ब्राह्मण आत्मायें विशेष हैं। सिर्फ कोई अपनी विशेषता को कार्य में लगाते हैं,
इसलिए वह विशेषता वृद्धि को प्राप्त होती रहती है और दूसरों को भी वह दिखाई देती
है, और कोई में विशेषता रूपी बीज तो है लेकिन कार्य में लाना - यह है बीज को धरनी
में डालना। जब तक बीज को धरनी में नहीं डालें तो वृक्ष नहीं पैदा होता, विस्तार को
प्राप्त नहीं कर पाते हैं। और कई बच्चे विशेषता के बीज को विस्तार में भी लाते
अर्थात् वृक्ष के रूप में वृद्धि को भी प्राप्त करते, फल को भी प्राप्त करते लेकिन
जब फल आता है तो फल के पीछे चिड़ियाएँ, पंछी भी आते हैं खाने के लिए। तो फल जब तक
पहुँचते हैं तो इस रूप में माया आती है कि मैं विशेष हूँ, मेरी यह विशेषता है। यह
नहीं समझते कि बाप द्वारा प्राप्त हुई विशेषता है। विशेषता भरने वाला बाप है। जब
ब्राह्मण बने तो विशेषता आई। ब्राह्मण जीवन की देन है, बाप की देन है। इसलिए फल के
बाद अर्थात् सेवा में सफलता के बाद यह अटेन्शन रखना भी जरूरी है। नहीं तो, माया रूपी
चिड़िया, पंछी फल को झूठा कर देते या नीचे गिरा देते हैं। जैसे खण्डित मूर्ति की पूजा
नहीं होती, माना जाता है कि यह मूर्ति है लेकिन पूजी नहीं जाती। ऐसे जो ब्राह्मण
आत्मायें सेवा का फल अर्थात् सेवा में सफलता प्राप्त कर लेते हैं लेकिन ‘मैं-पन' की
चिड़िया ने फल को खण्डित कर दिया, इसलिए सिर्फ माना जायेगा कि सेवा बहुत अच्छी करते
हैं, महारथी हैं, सर्विसएबल हैं लेकिन संगमयुग पर भी सर्व ब्राह्मण परिवार के दिल
में स्नेह के पात्र वा पूज्य नहीं बन सकते हैं।
संगमयुग में दिल का
स्नेह, दिल का रिगार्ड - यही पूज्य बनना है। फल को मैं-पन में लाने वाले ऐसा पूज्य
नहीं बन सकते। एक है दिल से किसको ऊंचा मानना, तो ऊंचे को पूज्य कहा जाता है। जैसे
आजकल की दुनिया में भी बाप ऊँचा होने कारण बच्चे ‘‘पूज्य पिताजी'' कहकर बुलाते हैं
या लिखते हैं ऐसे दिल से ऊँचा मानना अर्थात् दिल से रिगार्ड देना। दूसरा होता है
बाहर की मर्यादा प्रमाण रिगार्ड देना ही पड़ता है। तो ‘‘दिल से देना'' और ‘‘देना ही
पड़ता'' इसमें कितना अन्तर है! पूज्य बनना अर्थात् दिल से सर्व मानें। मैजारिटी होने
चाहिए, पहले भी सुनाया कि 5 परसेन्ट तो रह ही जाता है लेकिन मैजारिटी दिल से मानें
- यह है संगमयुग पर पूज्य बनना। पूज्य बनने का संस्कार भी अभी से ही भरना है। लेकिन
भक्ति मार्ग के पूज्य बनने में और अब के पूज्य बनने में अन्तर है। अभी आपके शरीरों
की पूजा नहीं हो सकती क्योंकि अन्तिम पुराना शरीर है, तमोगुणी तत्वों का बना हुआ
शरीर है। अभी फूलों के हार नहीं पड़ेंगे। भक्ति-मार्ग में तो देवताओं के ऊपर चढ़ाते
हैं ना। पूज्य की निशानी है - धूप जलाना, हार पहनाना, आरती करना, कीर्तन करना, तिलक
लगाना। संगमयुग पर यह स्थूल विधि नहीं है। लेकिन संगमयुग में सदा दिल से उन पूज्य
आत्माओं के प्रति सच्चे स्नेह की आरती उतारते रहते हैं। आत्माओं द्वारा सदा
कोई-न-कोई प्राप्ति का कीर्तन करते रहते हैं, सदा उन आत्माओं के प्रति शुभ भावना की
धूप वा दीपक जगाते रहते हैं। सदा ऐसी आत्माओं को देख स्वयं भी जैसे वह आत्मायें बाप
के ऊपर बलिहार गई है, वैसे अन्य आत्माओं में भी बाप के ऊपर बलिहार जाने का उमंग आता
है। तो बाप के ऊपर बलिहार जाने का हार सदा उन आत्माओं को स्वत: ही प्राप्त होता है।
ऐसी आत्मायें सदा स्मृतिस्वरूप के तिलकधारी होती हैं। इस अलौकिक विधि से इस समय के
पूज्य आत्मायें बनती हैं।
भक्ति-मार्ग के पूज्य
बनने से श्रेष्ठ पूजा अब की है। जैसे भक्ति-मार्ग की पूज्य आत्माओं के दो घड़ी के
सम्पर्क से अर्थात् सिर्फ मूर्ति के सामने जाने से दो घड़ी के लिए भी शान्ति, शक्ति,
खुशी का अनुभव होता है। ऐसे संगमयुगी पूज्य आत्माओं द्वारा अब भी दो घड़ी - एक घड़ी
भी दृष्टि मिलने से भी खुशी, शान्ति वा उमंग-उत्साह की शक्ति अनुभव होती है। ऐसी
पूज्य आत्मायें अर्थात् नम्बरवन विशेष आत्मायें हैं। सेकण्ड और थर्ड तो सुना दिया,
उसका विस्तार क्या करेंगे। हैं तो सब विशेष आत्माओं की लिस्ट में लेकिन वन, टू, थ्री
- नम्बरवार हैं। लक्ष्य सभी का नम्बरवन का होता है। तो ऐसे पूज्य बनो। जैसे ब्रह्मा
बाप के गुणों के गीत गाते हो ना। यह सब विशेषतायें पूज्य बनने की वा नम्बरवन विशेष
आत्मा बनने की बातें ब्रह्मा बाप में देखी ना, सुनी ना। तो जैसे ब्रह्मा की साकार
आत्मा नम्बरवन संगमयुगी पूज्य सो भविष्य में नम्बरवन पूज्य बनते। लक्ष्मी-नारायण
नम्बरवन पूज्य हैं ना। ऐसे, आप सभी भी ऐसे बन सकते हैं।
जैसे बाप के साथ-साथ
ब्रह्मा बाप की कमाल गाते हैं, ऐसे आप सभी भी सदा ऐसा संकल्प, बोल और कर्म करो जो
सदा ही कमाल का हो! जब कमाल होगी तो धमाल नहीं होगी। कमाल नहीं करते तो धमाल करते
हो - चाहे संकल्पों की धमाल करो, चाहे वाणी से करो। संकल्पों से भी व्यर्थ तूफान
चलता तो यह धमाल है ना। धमाल नहीं लेकिन कमाल करनी है। क्योंकि आदि पिता ब्रह्मा के
ब्राह्मण बच्चे सदा ही पूज्य गाये जाते हैं? अभी लास्ट जन्म में भी देखो तो सभी से
उँच वर्ण कौन-सा गाया जाता है? ब्राह्मण वर्ण कहते हैं ना। ऊँचा नाम और ऊँचे
श्रेष्ठ काम के लिए भी ब्राह्मण को ही बुलाते हैं, किसके कल्याण के लिए भी ब्राह्मणों
को ही बुलाते हैं। तो लास्ट जन्म तक भी ब्राह्मण आत्माओं का ऊँचा नाम, ऊँचा काम
प्रसिद्ध है। परम्परा से चल रहा है। सिर्फ नाम से भी काम चला रहे हैं। काम आपका है
लेकिन नाम वालों का भी काम चल रहा है। इससे देखो कि सच्चे ब्राह्मण आत्माओं की कितनी
महिमा है और कितने महान हैं! ‘‘ब्राह्मण'' - नाम भी अविनाशी हो गया है। अविनाशी
प्राप्ति वाली जीवन हो गई है।
ब्राह्मण जीवन की
विशेषता है - मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा। क्योंकि मुहब्बत के आगे मेहनत नहीं है। अब
लास्ट जन्म में भी ब्राह्मण मेहनत नहीं करते, आराम से खाते रहते हैं। अगर ‘‘नाम''
का भी काम करते हैं तो भूखे नहीं रह सकते हैं। तो इस समय के ब्राह्मण जीवन की
विशेषताओं की अब तक निशानियाँ देख रहे हो। इतनी श्रेष्ठ विशेष आत्मा हो! समझा?
वर्तमान समय पूज्य तो
भविष्य के पूज्य। इसको ही विशेष आत्मायें नम्बरवन कहते हैं। तो चेक करो। ब्रह्मा
बाप की कहानी सुना रहे हैं ना। अभी और भी रही हुई है। यह ब्रह्मा बाप की विशेषता सदा
सामने रखो। और किसी बातों में नहीं जाओ, लेकिन विशेषताओं को देख और वर्णन करो। हर
एक को विशेषता का महत्त्व सुनाएं विशेष बनाओ। बना अर्थात् स्वयं विशेष बनना। समझा।
अच्छा!
चारों ओर के सर्व
नम्बरवन विशेष आत्माओं को, सर्व ब्राह्मण जीवन वाले विशेष आत्माओं को, सदा ब्रह्मा
बाप को सामने रख समान बनने वाले बच्चों को अनादि बाप, आदि बाप का दोनों रूप से सर्व
शालिग्रामों और साकारी ब्राह्मण आत्माओं को स्नेह भरी यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ
मुलाकात
1. सदा बाप का हाथ और
साथ है, ऐसा भाग्यवान समझते हो? जहाँ बाप का हाथ और साथ है, वहाँ सदा ही मौजों की
जीवन होती है। मूँझने वाले नहीं होंगे, मौज में रहेंगे। कोई भी परिस्थिति अपने तरफ
आकर्षित नहीं करेगी, सदा बाप की तरफ आकर्षित होंगे। सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया बाप है,
तो बाप के सिवाए और कोई चीज़ या व्यक्ति आकर्षित नहीं कर सकता। जो बाप के हाथ और साथ
में पलने वाले हैं, उनका मन और कहीं जा नहीं सकता। तो ऐसे सभी हो या माया की पालना
में चले जाते हो? वह रास्ता बन्द है ना। तो सदा बाप के साथ की मौज में रहो। बाप मिला
सब कुछ मिला, कोई अप्राप्ति नहीं। कितना भी कोई हाथ, साथ छुड़ाये लेकिन छोड़ने वाले
नहीं। और छोड़कर जायेंगे भी कहाँ? इससे बड़ा और कोई भाग्य हो नहीं सकता! कुमारियाँ तो
हैं ही सदा भाग्यवान। डबल भाग्य है। एक - कुमारी जीवन का भाग्य, दूसरा - बाप का बनने
का भाग्य। कुमारी जीवन पूजी जाती है। जब कुमारी जीवन खत्म होती है तो सबके आगे झुकना
पड़ता। गृहस्थी जीवन है ही बकरी समान जीवन, कुमारी जीवन है पूज्य जीवन। अगर कोई एक
बार भी गिरा तो गिरने से ही टूट जाती है ना। फिर कितना भी प्लास्टर करो, ठीक करो
लेकिन ही कमज़ोर हो जाती है। तो समझदार बनो। टेस्ट करके फिर समझदार नहीं बनना। अच्छा!
2. सदा अपने को
कल्प-कल्प की विजयी आत्मायें अनुभव करते हो? अनेक बार विजयी बनने का पार्ट बजाया है
और अब भी बजा रहे हैं। विजयी आत्मायें सदा औरों को भी विजयी बनाती हैं। जो अनेक बार
किया जाता है वह सदा ही सहज होता है, मेहनत नहीं लगती है। अनेक बार की विजयी आत्मा
हैं - इस स्मृति से कोई भी परिस्थिति को पार करना खेल लगता है। खुशी अनुभव होती है?
विजयी आत्माओं को विजय अधिकार अनुभव होती है। अधिकार मेहनत से नहीं मिलता, स्वत: ही
मिलता है। तो सदा विजय की खुशी से, अधिकार से आगे बढ़ते औरों को भी आगे बढ़ाते चलो।
लौकिक परिवार में रहते लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करो क्योंकि अलौकिक सम्बन्ध
सुख देने वाला है। लौकिक सम्बन्ध से अल्पकल का सुख मिलता है, सदा का नहीं। तो सदा
सुखी बन गये। दुःखियों की दुनिया से सुख के संसार में आ गये - ऐसा अनुभव करते हो?
पहले रावण के बच्चे थे तो दुःखदाई थे, अभी सुखदाता के बच्चे सुखस्वरूप हो गये। फस्ट
नम्बर यह अलौकिक ब्राह्मणों का परिवार है, देवतायें भी सेकण्ड नम्बर हो गये। तो यह
अलौकिक जीवन प्यारी लगती है ना।
3. सदा अपने को
पद्मापद्म भाग्यवान अनुभव करते हो? सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त हो नहीं
सकता। क्योंकि भविष्य स्वर्ग में भी इस समय के पुरूषार्थ की प्रालब्ध के रूप में
राज्यभाग्य प्राप्त करते हो। भविष्य भी वर्तमान भाग्य के हिसाब से मिलता है।
महत्त्व इस समय के भाग्य का है। बीज इस समय डालते हो और फल अनेक जन्म प्राप्त होता
है। तो महत्त्व तो बीज का गिना जाता है ना। इस समय भाग्य बनाना या भाग्य प्राप्त
होना - यह बीज बोना है। तो इस अटेन्शन से सदा पुरूषार्थ में तीव्रगति से आगे बढ़ते
चलो और सदा इस समय के पद्मापद्म भाग्य की स्मृति इमर्ज रूप में रहे, कर्म करते हुए
याद रहे, कर्म में अपना श्रेष्ठ भाग्य भूले नहीं। स्मृतिस्वरूप रहो। इसको कहते हैं
पद्मापद्म भाग्यवान। इसी स्मृति के वरदान को सदा साथ रखना, तो सहज ही आगे बढ़ते
रहेंगे, मेहनत से छूट जायेंगे। अच्छा!
प्रश्न - लौकिक
सम्बन्ध में बुद्धि यथार्थ फैसला देती रहे - उसकी विधि क्या है?
उत्तर - कभी भी लौकिक
बातों को सोचकर फैसला नहीं करना है। अलौकिक शक्तिशाली स्थिति में रहकर फैसला करो।
कोई भी पिछली बातें स्मृति में रखने से बुद्धि उस तरफ चली जाती है, फिर पिछले
संस्कार भी प्रगट होते हैं, इसलिए मुश्किल होता है। बिल्कुल ही लौकिक वृत्ति भूल
आत्मा समझ फिर फैसला करो तो यथार्थ फैसला होगा। इसे ही कहते हैं - विकर्माजीत का
तख्त। अलौकिक आत्मिक स्थिति ही विकर्माजीत स्थिति का तख्त है, इस तख्त पर बैठकर
फैसला करो तो यथार्थ होगा। अच्छा!
वरदान:-
बालक और
मालिकपन की समानता द्वारा सर्व खजानों में सम्पन्न भव
जैसे बालकपन का नशा
सभी में है ऐसे बालक सो मालिक अर्थात् बाप समान सम्पन्न स्थिति का अनुभव करो।
मालिकपन की विशेषता है - जितना ही मालिक उतना ही विश्व सेवाधारी के संस्कार सदा
इमर्ज रूप में रहें। मालिकपन का नशा और विश्व सेवाधारी का नशा समान रूप में हो तब
कहेंगे बाप समान। बालक और मालिक दोनों स्वरूप सदा ही प्रत्यक्ष कर्म में आ जाएं तब
बाप समान सर्व खजानों से सम्पन्न स्थिति का अनुभव कर सकेंगे।
स्लोगन:-
ज्ञान के अखुट खजानों के अधिकारी बनो तो अधीनता खत्म हो जायेगी।