08-11-09  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 06-05-71 मधुबन

 

बापदादा का विशेष श्रृंगार ‘नूरे-रत्न’ पोज़ीशन में ठहरने से अपोज़िशन समाप्त

 

आज रत्नागर बाप अपने रत्नों को देख हर्षित हो रहे हैं। देख रहे हैं कि हरेक रत्न यथा-शक्ति पुरूषार्थ कर आगे बढ़ रहे हैं। हरेक अपने आपको जानते हो कि हम कौनसा रत्न हैं? कितने प्रकार के रत्न होते हैं? (8 रत्न हैं) आप कितने नम्बर के रत्न हो? हीरे के संग रह हीरे समान नहीं बने हो? रत्न तो सभी हो लेकिन एक रत्न है, जिनको कहते हैं नूर-ए-रत्न। तो क्या सभी नूर-ए-रत्न नहीं हो? एक तो नूर-ए-रत्न, दूसरे हैं गले की माला के रत्न। तीसरी स्टेज क्या है, जानते हो? तीसरे हैं हाथों के कंगन के रत्न। सभी से फर्स्ट नम्बर हैं नूर-ए-रत्न। वह कौन बनते हैं? जिनके नयनों में सिवाय बाप के और कुछ भी देखते हुए भी देखने में नहीं आता है। वह हैं नूर-ए-रत्न। और जो अपने मुख से ज्ञान का वर्णन करते हैं लेकिन जैसा पहला नम्बर सुनाया कि सदैव नयनों में बाप की याद, बाप की सूरत ही सभी को दिखाई दे-उसमें कुछ कम हैं, वह गले द्वारा सर्विस करते हैं, इसलिए गले की माला का रत्न बनते हैं। और तीसरा नम्बर जो हाथ के कंगन का रत्न बनते हैं उनकी विशेषता क्या है? किस-न-किस रूप से मददगार बनते हैं। तो मददगार बनने की निशानी यह बांहों के कंगन के रत्न बनते हैं। अब हरेक अपने से पूछे कि मैं कौनसा रत्न हूँ? पहला नम्बर, दूसरा नम्बर वा तीसरा नम्बर? रत्न तो सभी हैं और बापदादा के श्रृंगार भी तीनों ही हैं। अब बताओ, कौनसा रत्न हो? नूर- ए-रत्नों की जो परख सुनाई उसमें ‘पास विद् ऑनर’ हो? उम्मीदवार में भी नम्बर होते हैं। तो सदैव यह स्मृति में रखो कि हम बापदादा के नूर-ए-रत्न हैं, तो हमारे नयनों में वा नजरों में और कोई भी चीज समा नहीं सकती। चलते- फिरते, खाते-पीते आपके नयनों में क्या दिखाई देना चाहिए? बाप की मूरत वा सूरत। ऐसी स्थिति में रहने से कभी भी कोई कम्पलेन नहीं करेंगे। जो भी भिन्न-भिन्न प्रकार की परेशानियां परेशान करती हैं और परेशान होने के कारण अपनी शान से परे हो जाते हो। तो परेशान का अर्थ क्या हुआ? अपनी जो शान है उससे परे होने के कारण परेशान होना पड़ता है। अगर अपनी शान में स्थित हो जाओ तो परेशान हो नहीं सकते। तो सर्व परेशानियों को मिटाने के लिए सिर्फ शब्द के अर्थ-स्वरूप में टिक जाओ। अर्थात् अपने शान में स्थित हो जाओ तो शान से मान सदैव प्राप्त होता है। इसलिए शान-मान कहा जाता है। तो अपनी शान को जानो। जितना जो अपनी शान में स्थित होते हैं उतना ही उनको मान मिलता है। अपनी शान को जानते हो? कितनी ऊंची शान है! लौकिक रीति भी शान वाला कभी भी ऐसा कर्त्तव्य नहीं करेगा जो शान के विरूद्ध हो। अपनी शान सदैव याद रखो तो कर्म भी शानदार होंगे और परेशान भी नहीं होंगे। तो यह सहज युक्ति नहीं है परेशानी को मिटाने की? कोई भी बुराई को समाप्त करने के लिए बाप की बड़ाई करो। सिर्फ एक मात्रा के फर्क से कितना अन्तर हो गया है! बुराई और बड़ाई, सिर्फ एक मात्रा को पलटाना है। यह तो 5 वर्ष का छोटा बच्चा भी कर सकता है। सदैव बड़े से बड़े बाप की बड़ाई करते रहो, इसमें सारी पढ़ाई भी आ जाती है। तो यह बाप की बड़ाई करने से क्या होगा? लड़ाई बन्द। माया से लड़-लड़ कर थक गये हो ना। जब बाप की बड़ाई करेंगे तो लड़ाई से थकेंगे नहीं, लेकिन बाप के गुण गाते खुशी में रहने से लड़ाई भी एक खेल मिसल दिखाई पड़ेगी। खेल में हर्ष होता है ना। तो जो लड़ाई को खेल समझते, ऐसी स्थिति में रहने वालों की निशानी क्या होगी? हर्ष। सदा हर्षित रहने वाले को माया कभी भी किसी भी रूप से आकर्षित नहीं कर सकती। तो माया की आकर्षण से बचने के लिए एक तो सदैव अपनी शान में रहो, दूसरा माया को खेल समझ सदैव खेल में हर्षित रहो। सिर्फ दो बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बन जाये। जैसे साकार में अनुभव किया - कैसे हर कर्म यादगार बनाया। ऐसे ही आप सभी का हर कर्म यादगार बने, उसके लिए दो बातें याद रखो। आधारमूर्त और उद्धारमूर्त। यह दोनों बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बनेगा। अगर सदैव अपने को विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त समझो तो हर कर्म ऊंचा होगा। फिर साथ-साथ उदारचित अर्थात् सर्व आत्माओं के प्रति सदैव कल्याण की भावना वृत्ति-दृष्टि में रहने से हर कर्म श्रेष्ठ होगा। तो अपना हर कर्म ऐसे करो जो यादगार बनने योग्य हो। यह फालो करना मुश्किल है क्या? (म्यूजियम सर्विस पर पार्टी जा रही है) त्याग का सदैव भाग्य बनता है। जो त्याग करता है उसको भाग्य स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए यह जो बड़े से बड़ा त्याग करते हैं उन्हों का बड़े से बड़ा भाग्य जमा हो जाता है। इसलिए खुशी से जाना चाहिए सर्विस पर। अच्छा।

 

वरदान:- आत्मिक शक्ति के आधार पर तन की शक्ति का अनुभव करने वाले सदा स्वस्थ भव

 

इस अलौकिक जीवन में आत्मा और प्रकृति दोनों की तन्दरूस्ती आवश्यक है। जब आत्मा स्वस्थ है तो तन का हिसाब-किताब वा तन का रोग सूली से कांटा बनने के कारण, स्व-स्थिति के कारण स्वस्थ अनुभव करते हैं। उनके मुख पर चेहरे पर बीमारी के कष्ट के चिन्ह नहीं रहते। कर्मभोग के वर्णन के बदले कर्मयोग की स्थिति का वर्णन करते हैं। वे परिवर्तन की शक्ति से कष्ट को सन्तुष्टता में परिवर्तन कर सन्तुष्ट रहते और सन्तुष्टता की लहर फैलाते हैं।

 

स्लोगन:- दिल से, तन से, आपसी प्यार से सेवा करो तो सफलता निश्चित मिलेगी।

 

अव्यक्त मुरलियों से चुनी हुई प्वाइंटस - 'शुभभावना-शुभकामना' सम्पन्न बनो

 

1) जैसे भक्तों को भावना का फल देते हैं, वैसे ही कोई आत्मा भावना रखकर तड़पती हुई आपके पास आये कि 'जी- दान दो' वा 'हमारे मन को शान्ति दो' तो आप लोग उनकी भावना का फल दे सकती हो? उन्हें अपने पुरुषार्थ से जो कुछ भी प्राप्ति होती है वह तो हुआ उनका अपना पुरुषार्थ और उनका फल। लेकिन आपको कोई अगर कहे कि मैं निर्बल हूँ, मेरे में शक्ति नहीं है तो ऐसे को आप भावना का फल दे सकती हो? (बाप द्वारा) बाप को तो पीछे जानेंगे, जबकि पहले उन्हें दिलासा मिले। लेकिन यदि भावना का फल प्राप्त हो सकता है तब उनकी बुद्धि का योग डायरेक्शन प्रमाण लग सकेगा। ऐसी भावना वाले भगत अन्त में बहुत आवेंगे। एक हैं पुरुषार्थ करके पद पाने वाले, वह तो आते रहते हैं लेकिन अन्त में पुरुषार्थ करने का न तो समय रहेगा और न आत्माओं में शक्ति ही रहेगी ऐसी आत्माओं को फिर अपने सहयोग से और अपने महादान देने के कर्तव्य के आधार से उनकी भावना का फल दिलाने के निमित्त बनना पड़े। वे तो यही समझेंगे कि शक्तियों द्वारा मुझे यह वरदान मिला जो गायन है ' नज़र से निहाल करना।

 

2) जैसे बहुत तेज बिजली होती है तो स्वीच ऑन करने से जहाँ भी बिजली लगाते हो उस स्थान के कीटाणु एक सेकण्ड भस्म हो जाते हैं। इसी प्रकार जब आप आत्मायें अपनी सम्पूर्ण पॉवरफुल स्टेज पर हो और जैसे कोई आया और एक सेकण्ड में स्विच ऑन किया अर्थात् शुभ संकल्प किया अथवा शुभ भावना रखी कि इस आत्मा का भी कल्याण हो यह है संकल्प रूपी स्वीच। इनको ऑन करने अर्थात् संकल्प को रचने से फौरन ही उनकी भावनापूरी हो जावेगी, वे गदगद हो जायेंगे। क्योंकि पीछे आने वाली आत्मायें थोड़े में ही ज्यादा राज़ी होंगी। समझेंगी कि 'सर्व प्राप्तियाँ' हुई। क्योंकि उनका है ही कना-दाना लेने का पार्ट। उनके हिसाब से वही सबकुछ हो जावेगा। तो सर्व आत्माओं को उनकी भावना का फल प्राप्त हो और कोई भी वंचित न रहे इसके लिए इतनी पॉवरफुल स्टेज अर्थात् सर्वशक्तियों को अभी से अपने में जमा करेंगे तब ही इन जमा की हुई शक्तियों से किसी को समाने की शक्ति और किसी को सहन करने की शक्ति दे सकेंगे अर्थात् जिसको जो आवश्यकता होगी वही उसको दे सकेंगे। 13.04.73

 

3) जैसे अन्य अज्ञानी आत्माओं को ज्ञान की रोशनी देने के लिये सदैव शुभ भावना व कल्याण की भावना रखते हुए प्रयत्न करते रहते हो। ऐसे ही क्या अपने इस दैवी संगठन को भी एकरस स्थिति में स्थित करने के संगठन की शक्ति को बढ़ाने के लिए एक दूसरे के प्रति भिन्न-भिन्न रूप से प्रयत्न करते हो? क्या ऐसे भी प्लैन्स बनाते हो जिससे कि किसी को भी इस दैवी संगठन की मूर्त में एकरस स्थिति का प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार हो ऐसे प्लैन्स बनाते हो? जब तक इस दैवी संगठन की एकरस स्थिति प्रख्यात नहीं होगी तब तक बापदादा की प्रत्यक्षता समीप नहीं आयेगी ऐसे एवररेडी हो? जबकि लक्ष्य रखा है विश्व महाराजन् बनने का, इन्डीपेन्डेन्ट राजा नहीं। ऐसे अभी से ही लक्षण धारण करने से लक्ष्य को प्राप्त करेंगे ना? हरेक ब्राह्मण की रेसपॉन्सीबिलीटी न सिर्फ अपने को एकरस बनाना है लेकिन सारे संगठन को एकरस स्थिति में स्थित कराने के लिये सहयोगी बनना है। ऐसे नहीं खुश हो जाना कि मैं अपने रूप से ठीक ही हूँ लेकिन नहीं। 14.04.73

 

4) बाप समान बनाने के लिये व सफलता मूर्त बनने के लिये, आज आपको दो बातें सिर्फ दो शब्दों में सुनाते हैं। दो शब्द धारण करना तो सहज है ना? सदैव सर्व आत्माओं के प्रति, सम्पर्क में आते हुए, सम्बन्ध में आते हुए और सेवा में आते हुए अपनी शुद्ध भावना रखो। शुभ भावना और शुद्ध कामना। चाहे आपके सामने कोई भी परीक्षा का रूप आवे और चाहे डगमग करने के निमित्त बनकर आवे लेकिन हरे आत्मा के प्रति आप शुभ कामना और शुद्ध भावना यह दो बातें हर संकल्प, बोल और कर्म में लाओ तो आप सफलता के सितारे बन जायेंगे। यह तो सहज है ना! ब्राह्मणों का यही धर्म और यही कर्म है। जो धर्म होगा वही कर्म होगा। बाप की हर बच्चे के प्रति यही शुभ कामना और शुद्ध भावना है कि वह बाप से भी ऊंच बने। इस कारण जब छोटी-छोटी बातें देखते व सुनते हैं, तो समझते हैं कि अब उसी घड़ी से सब सम्पन्न हो जावे। मास्टर सर्वशक्तिवान् यदि वे दृष्टि व वृत्ति की बात कहे तो क्या शोभता है? अर्थात् सर्वशक्तिवान् बाप के आगे, मास्टर सर्वशक्तिवान् कमजोरी की बातें करते हैं तो इसलिए अब बाप इशारा देते हैं कि अब मास्टर बनो क्योंकि स्वयं को बनाकर फिर विश्व को भी बनाना है। समझा! 14.07.74

 

5) मधुबन निवासियों को और सब आत्माओं से विशेष व्रत लेना चाहिए, कौन-सा? व्रत यही लेना है कि हम सब एक मत, एक ही श्रेष्ठ वृत्ति, एक रूहानी दृष्टि और एकरस अवस्था में एक दो के सहयोगी बन, शुभ चिंतक बन, शुभ भावना और शुभ कामना रखते हुए और अनेक संस्कार होते हुए भी एक बाप समान सतोप्रधान संस्कार और स्व के भाव में रहने वाला, स्वभाव बनाने का किला मजबूत बनावेंगे - यह है व्रत। क्या स्वयं के प्रति व सर्व आत्माओं के प्रति, यह व्रत लेने की हिम्मत है? स्वयं के प्रति तो प्रवृत्ति में रहने वाले और वातावरण में रहने वाले भी करते हैं। मधुबन निवासियों में न सिर्फ स्वयं के प्रति, साथ ही संगठन के प्रति भी व्रत लेने की हिम्मत चाहिए। यही मधुबन वरदान भूमि की विशेषता है। समझा!

 

6) अभी तो पुरानों को आने वाले नये बच्चों की पालना करनी चाहिए अर्थात् अपने शिक्षा स्वरूप द्वारा और स्नेह द्वारा उनको आगे बढ़ाने में सहयोगी बनना है और इस कार्य में दिन रात बिजी रहना चाहिए। यह अव्यक्त पार्ट भी विशेष नयों के लिये है और पुरानों को तो अब बाप के समान बन नई आत्माओं के हिम्मत और हुल्लास को बढ़ाना है। जैसे बापदादा ने बच्चों को अपने से भी आगे रखते हुए, अपने से भी ऊंच बनाया ऐसे ही पुरानों का कार्य है नयों को अपने से भी आगे बढ़ाने का सबूत दिखाना व सर्व शिक्षाओं को साकार स्वरूप में दिखाना है। पालना का प्रैक्टिकल रूप रिटर्न रूप में देना है। 18.07.74

 

7) कैसे भी संस्कारों वाली, असन्तुष्ट रहने वाली आत्मा सम्पर्क में आये वह भी सम्पर्क में यह अनुभब करे कि मैं अपने संस्कारों के कारण ही असन्तुष्ट रहती हूँ लेकिन इन विशेष आत्माओं में मेरे प्रति स्नेह व सहयोग की व रहमदिल की शुभ भावना सदा नज़र आती है। अर्थात् वह अपनी ही कमजोरी महसूस करे। वह कम्पलेन्ट यह न निकाले कि यह निमित्त बनी हुई आत्मायें मुझ आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर सकती। सर्व आत्माओं द्वारा ऐसी सन्तुष्टमणि का सर्टिफिकेट प्राप्त हो, तब कहेंगे कि यह सम्पूर्णता के समीप हैं। जितनी सम्पूर्णता भरती जायेगी उतनी ही सर्व आत्माओं की सन्तुष्टता भी बढ़ती जायेगी।

 

8) सर्व को सन्तुष्ट करने का मुख्य साधन कौन-सा है? (हरेक ने बताया) यह सब बातें भी आवश्यक तो हैं। यह सब बातें परिस्थिति में प्रैक्टिकल करने की है। मुख्य बात यह है कि जैसा समय, जैसी परिस्थिति, जिस प्रकार की आत्मा सामने हो वैसा अपने को मोल्ड कर सकें। अपने स्वभाव और संस्कार के वशीभूत न हों। स्वभाव अथवा संस्कार ऐसे अनुभव में हो जैसे स्थूल रूप में जैसा समय वैसा रूप, जैसा देश वैसा वेश बनाया- ऐसा सहज अनुभव होता है? ऐसे अपने स्वभाव, संस्कार को भी समय के अनुसार परिवर्तन कर सकते हो? 07.02.75