18-11-07     प्रात:मुरली  ओम् शान्ति 1992 "बापदादा"    मधुबन


श्रेष्ठ स्थिति का आधार है - श्रेष्ठ स्मृति
 


सभी को डबल नशा रहता है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा मालिक भी हूँ और फिर बालक भी हूँ? एक है मालिकपन का रूहानी नशा और दूसरा है बालकपन का रूहानी नशा। यह डबल नशा सदा रहता है या कभी-कभी रहता है? बालक सदा हो या कभी-कभी हो? बालक सदा बालक ही है ना। परमात्म-बालक हैं और फिर सारे आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले मालिक हैं। तो ऐसा मालिकपन और ऐसा बालकपन सारे कल्प में और कोई समय नहीं रह सकता। सतयुग में भी परमात्म-बच्चे नहीं कहेंगे, देवात्माओं के बच्चे हो जायेंगे। तीनों कालों को जानने वाले मालिक-यह मालिकपन भी इस समय ही रहता है। तो जब इस समय ही है, बाद में मर्ज हो जायेगा, तो सदा रहना चाहिए ना। डबल नशा रखो। इस डबल नशे से डबल प्राप्ति होगी-मालिकपन से अपनी अनुभूति होती है और बालकपन के नशे से अपनी प्राप्ति। भिन्न-भिन्न प्राप्तियां हैं ना। यह रूहानी नशा नुकसान वाला नहीं है। रूहानी है ना। देहभान के नशे नुकसान में लाते हैं। वो नशे भी अनेक हैं। देहभान के कितने नशे हैं? बहुत हैं ना-मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ.......। लेकिन सभी हैं नुकसान देने वाले, नीचे लाने वाले। यह रूहानी नशा ऊंचा ले जाता है, इसलिए नुकसान नहीं है। हैं ही बाप के। तो बाप कहने से बचपन याद आता है ना। बाप अर्थात् मैं बच्चा हूँ तभी बाप कहते हैं। तो सारा दिन क्या याद रहता है? ‘‘मेरा बाबा’’। या और कुछ याद रहता है? बाबा कहने वाला कौन? बच्चा हुआ ना। तो सदा बच्चे हैं और सदा ही रहेंगे।

सदा इस भाग्य को सामने रखो अर्थात् स्मृति में रखो-कौन हूँ, किसका हूँ और क्या मिला है! क्या मिला है-उसकी कितनी लम्बी लिस्ट है! लिस्ट को याद करते हो या सिर्फ कॉपी में रखते हो? कॉपी में तो सबके पास होगा लेकिन बुद्धि में इमर्ज हो-मैं कौन? तो कितने उत्तर आयेंगे? बहुत उत्तर हैं ना। उत्तर देने में, लिस्ट बताने में तो होशियार हो ना। अब सिर्फ स्मृतिस्वरूप बनो। स्मृति आने से सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जाती है। स्थिति का आधार स्मृति है। खुशी की स्मृति में रहो तो स्थिति खुशी की बन जायेगी और दु:ख की स्मृति करो तो दु:ख की स्थिति हो जायेगी। बाप एक ही काम देते हैं-याद करो या स्मृति में रहो। एक ही काम मुश्किल होता है क्या? कभी बहुत काम इकट्ठे हो जाते हैं तो कन्फ्यूज (Confuse; मूँझना) हो जाते हैं-इतने काम कब करें, कैसे करें.....। एक ही काम हो तो घबराने की जरूरत नहीं होती ना। तो बाप ने एक ही काम दिया है ना। बस, याद करो। इसी याद में ही सब-कुछ आ जाता है। तो याद करो कि मालिक भी हैं, बालक भी हैं! रूहानी नशे में रहने से क्या मिलता और भूलने से क्या होता-दोनों अनुभव हैं ना। भूलने की आदत तो 63 जन्मों से है। लेकिन याद कितना समय करना है? एक जन्म। और यह जन्म भी कितना छोटा-सा है! तो ‘सदा’ शब्द को अन्डरलाइन करना। अच्छा! सभी सदा खुश हो ना। यह सोचो कि हम खुश नहीं होंगे तो कौन होगा? माताए भी सदा खुश रहती या कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आती है? चाहे कितना भी दु:खमय संसार हो लेकिन आप सुख के सागर के बच्चे सदा सुख-स्वरूप हो। दु:ख में दु:खी हो जाते हो क्या? जानते हो कि संसार का समय ही दु:ख का है। लेकिन आपका समय कौनसा है? सुख का है ना कि थोड़ा-थोड़ा दु:ख का है? संसार में तो दु:ख बढ़ना ही है। कम नहीं होना है, अति में जाना है। लेकिन आप दु:ख से न्यारे हो। ठीक है ना। अच्छा है, मौज में रहो। क्या भी होता रहे लेकिन हम मौज में रहने वाले हैं। मौज में रहना अच्छा है ना।

2 - राजयोगी वह जो अपनी कर्मेन्द्रियों को ईश्वरीय लॉ एण्ड ऑर्डर पर चलाये

आवाज में आना सहज लगता है ना। ऐसे ही, आवाज से परे होना इतना ही सहज लगता है? आवाज में आना सहज है। वा आवाज से परे होना सहज है? आवाज में आना सहज है और आवाज से परे होने में मेहनत लगती है? वैसे आप आत्माओं का आदि स्वरूप क्या है? आवाज से परे रहना या आवाज में आना? तो अभी मुश्किल क्यों लगता है? 63 जन्मों ने आदि संस्कार भुला दिया है। जब अनादि स्थान ‘परमधाम’ आवाज से परे है, वहाँ आवाज नहीं है और आदि स्वरूप आत्मा में भी आवाज नहीं है-तो फिर आवाज से परे होना मुश्किल क्यों? यह मध्य-काल का उल्टा प्रभाव कितना पक्का हो गया है! ब्राह्मण जीवन अर्थात् जैसे आवाज में आना सहज है वैसे आवाज से परे हो जाना-यह भी अभ्यास सहज हो जाये। इसकी विधि है-राजा होकर के चलना और कर्म-इन्द्रियों को चलाना। राजा ऑर्डर करे-यह काम नहीं होना है; तो प्रजा क्या करेगी? मानना पड़ेगा ना।

आजकल तो कोई राजा ही नहीं है, प्रजा का प्रजा पर राज्य है। इसलिए कोई किसका मानता ही नहीं है। लेकिन आप लोग तो राज-योगी हो ना। आपके यहाँ प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं है ना। राजा का राज्य है ना। तो बाप कहते हैं-’’हे राजे! आपके कन्ट्रोल में आपकी प्रजा है? या कभी कन्ट्रोल से बाहर हो जाती है? रोज़ राज्य-दरबार लगाते हो?’’ रोज रात्रि को राज्य दरबार लगाओ। अपने राज्य कारोबारी कर्मेन्द्रियों से हालचाल पूछो। जैसे राजा राज्य-दरबार लगाता है ना। तो आप अपनी राज्य-दरबार लगाते हो? या भूल जाते हो, सो जाते हो? राज्य-दरबार लगाने में कितना टाइम लगता है? उन्हों के राज्य-दरबार में तो खिटखिट होती है। यहाँ तो खिटखिट की बात ही नहीं है। अपोजिशन तो नहीं है ना। एक का ही कन्ट्रोल है। कभी-कभी अपने ही कर्मचारी अपोजिशन करने लग पड़ते हैं। तो राजयोगी अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान राजा आत्मा, एक भी कर्मेन्द्रिय धोखा नहीं दे सकती। स्टॉप कहा तो स्टॉप। ऑर्डर पर चलने वाले हैं ना। क्योंकि भविष्य में लॉ और ऑर्डर पर चलने वाला राज्य है। तो स्थापना यहाँ से होनी है ना।

यहाँ ही ‘आत्मा’ राजा अपनी सर्व कर्मेन्द्रियों को लॉ और ऑर्डर पर चलाने वाली बने, तभी विश्व-महाराजन बन विश्व का राज्य लॉ और ऑर्डर पर चला सकती है। पहले स्वराज्य लॉ और ऑर्डर पर हो। तो क्या हालचाल है आपके राज्य-दरबार का? ऊपर-नीचे तो नहीं है ना। सभी का हाल ठीक है? कोई गड़बड़ तो नहीं है? जो यहाँ कभी-कभी ऑर्डर में चला सकता है और कभी-कभी नहीं चला सकता-तो वहाँ भी कभी-कभी का राज्य मिलेगा, सदा का नहीं मिलेगा। फाउन्डेशन तो यहाँ से पड़ता है ना। तो सदा चेक करो कि मैं सदा अकाल तख्तनशीन स्वराज्य चलाने वाली राजा ‘आत्मा’ हूँ? सभी के पास तख्त है ना। खो तो नहीं गया है? तो तख्त पर बैठकर राज्य चलाया जाता है ना। या तख्त पर आराम से अलबेले होकर सो जायेंगे? तख्त पर रहना अर्थात् राज्य-अधिकारी बनना। तो तख्तनशीन हो या कभी उतर आते हो?

सदा स्मृति रखो कि ‘‘मैं ‘आत्मा’ तो हूँ लेकिन कौनसी आत्मा? राजा ‘आत्मा’, राज्य-अधिकारी ‘आत्मा’ हूँ, साधारण ‘आत्मा’ नहीं हूँ।’’ राज्य-अधिकारी आत्मा का नशा और साधारण आत्मा का नशा- इसमें कितना फर्क होगा! तो राजा बन अपनी राज्य कारोबार को चेक करो-कौनसी कर्मेन्द्रिय बार-बार धोखा देती है? अगर धोखा देती है तो उसको चेक करके अपने ऑर्डर में रखो। अगर अलबेले होकर छोड़ देंगे तो उसकी धोखा देने की आदत और पक्की हो जायेगी और नुकसान किसको होगा? अपने को होगा ना। इसलिए क्या करना है? अकाल तख्तनशीन बन चेक करो।

भविष्य में क्या बनने वाले हो - इसका यथार्थ परिचय किस आधार पर कर सकते हो? कोई आधार है जिससे आपको पता पड़ जाये कि मैं भविष्य में क्या बनने वाला हूँ? लक्ष्य अच्छा रखो। क्योंकि अभी रिजल्ट आउट नहीं हुई है। चेयर्स (कुर्सियों) का गेम (खेल) होता है ना, तो लास्ट में सीटी बजती है। उस लास्ट सीटी पर पता पड़ता कि कौन विजयी होता है। अभी कोई भी फिक्स नहीं हुआ है, सिवाए फर्स्ट नम्बर के। दो तो फिक्स हो गये हैं, अभी 6 में मार्जिन है। लेकिन सुनाया ना - फर्स्ट विश्व-महाराजन या विश्व-महारानी नहीं बनेंगे तो फर्स्ट डिवीजन में तो आयेंगे ना। फर्स्ट नम्बर में एक होता है लेकिन फर्स्ट डिवीजन में बहुत होते हैं। तो फर्स्ट नम्बर में नहीं आयेंगे लेकिन फर्स्ट डिवीजन में आ सकते हैं। वहाँ रॉयल फैमिली का पद भी इतना होता है जितना तख्त-नशीन राजा-रानी का होता है। इसलिए फर्स्ट डिवीजन का लक्ष्य सदा रखना। रॉयल फैमिली वहाँ कम नहीं होती है - इतना ही पद होता है, इतना ही रिगार्ड होता है जितना लक्ष्मी-नारायण का। तो फर्स्ट रॉयल फैमिली में आना भी इतना ही है जितना लक्ष्मी-नारायण बनना। इसलिए पुरूषार्थ करना, चांस है। तो लक्ष्य तो बहुत अच्छा रखा है।

बापदादा ने पहले भी सुनाया कि बापदादा को यही खुशी है जो और किसी भी बाप को नहीं हो सकेगी - जो सभी बच्चे कहते हैं कि हम राजा हैं। प्रजा कोई नहीं कहता। तो एक बाप के इतने रा॰जे बच्चे हों तो कितने नशे की बात है! और सभी लक्ष्मी-नारायण बनने वाले हैं। इसलिए बापदादा को खुशी है। समझा? ये वैरायटी ग्रुप है। लेकिन बापदादा तो सभी को मधुबन निवासी देख रहे हैं। आपकी असली एड्रेस क्या है? बाम्बे है, राजस्थान है, बैंगलोर है... क्या है? नष्टोमोहा बनने की यही सहज युक्ति है कि मेरा घर नहीं समझो। मेरा घर है, मेरा परिवार है- तो नष्टोमोहा नहीं हो सकेंगे। सेवा-स्थान है, घर मधुबन है। तो सदा घर में रहते हो या सेवा-स्थान पर रहते हो? सेवा-स्थान समझने से नष्टोमोहा हो जायेंगे। मेरी जिम्मेवारी, मेरा काम है, मेरा विचार यह है, मेरी फर्ज-अदाई है...-ये सब मोह उत्पन्न करता है। सेवा के निमित्त हूँ। जो सच्चा सेवाधारी होता है उसकी विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सदा अपने को निमित्त समझेगा, मेरा नहीं समझेगा। और जितना निमित्त भाव होगा उतना निर्मान होंगे, जितना निर्मान होंगे उतना निर्माण का कर्तव्य कर सकेंगे। निमित्त भाव नहीं तो देह-भान से परे निर्मान बन नहीं सकेंगे। इसलिए सेवाधारी अर्थात् समर्पणता। सेवाधारी में अगर समर्पण भाव नहीं तो कभी सेवा सफल नहीं हो सकती, मेरापन का भाव सफलता नहीं दिलायेगा।

डबल विदेशी विदेश में क्यों गये हो? सेवा के लिए ना। लेकिन हो मधुबन निवासी। भारत निवासी हो या विदेश निवासी हो? भारत की आत्माए हो ना। देखो, अगर आप डबल विदेशी नहीं बनते तो सेवा में भाषाओं की कितनी प्रॉब्लम होती! एक खास स्कूल बनाना पड़ता सब भाषाए सीखने के लिए। अभी सहज सेवा तो हो रही है ना। तो सेवा अर्थ विदेश में पहुँच गये हो। राज्य भारत में करना है ना। विश्व ही भारत बन जायेगा। अमेरिका आदि सब भारत बन जायेगा। अभी तो टुकड़ा-टुकड़ा हो गया है। सभी ने महा-भारत से अपना-अपना टुकड़ा ले लिया है। जो लिया है वो देना पड़ेगा ना। क्योंकि भारत महादानी है, इसलिए सबको टुकड़ा-टुकड़ा दे दिया है। आपको कहना नहीं पड़ेगा कि हमको टुकड़ा दे दो, आपेही देंगे। तो सदैव बेहद का नशा रखो कि हम सभी बेहद के राज्य-अधिकारी हैं! स्व-राज्य की स्थिति द्वारा विश्व के राज्य की अपनी तकदीर को जान सकते हैं। अगर अभी स्वराज्य ठीक नहीं है तो समझ लो-विश्व का राज्य भी पहले नहीं मिलेगा, पीछे मिलेगा। तो सभी के पास दर्पण है ना। नारद को आइना दिया ना कि- ’’देखो मैं कौन हूँ? लक्ष्मी को वरने वाला हूँ?’’ तो यह स्वराज्य की स्थिति दर्पण है। इस दर्पण में आप स्वयं ही देख सकते हैं कि क्या बनने वाला हूँ? अच्छा!

वरदान:-
शुभ भावना और श्रेष्ठ भाव द्वारा सर्व के प्रिय बन विजय माला में पिरोने वाले विजयी भव

कोई किसी भी भाव से बोले वा चले लेकिन आप सदा हर एक के प्रति शुभ भाव, श्रेष्ठ भाव धारण करो, इसमें विजयी बनो तो माला में पिरोने के अधिकारी बन जायेंगे, क्योंकि सर्व के प्रिय बनने का साधन ही है सम्बन्ध-सम्पर्क में हर एक के प्रति श्रेष्ठ भाव धारण करना। ऐसे श्रेष्ठ भाव वाला सदा सभी को सुख देगा, सुख लेगा। यह भी सेवा है तथा शुभ भावना मन्सा सेवा का श्रेष्ठ साधन है। तो ऐसी सेवा करने वाले विजयी माला के मणके बन जाते हैं।

स्लोगन:-
कर्म में योग का अनुभव करना ही कर्मयोगी बनना है।