14-04-13  प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 22-01-76 मधुबन

 

वर्तमान लास्ट समय का फास्ट पुरूषार्थ

 

आज विशेष अति स्नेही, सिकीलधे, मिलन मनाने के चेतन चात्रक बच्चों के प्रति बाप-दादा मुखड़ा देखने के लिए आये हैं। ऐसे सदा मिलन के संकल्प में, सदा इसी लगन में लगे हुए बच्चे जितना बाप को याद करते हैं उतना बाप-दादा भी रिटर्न में करते हैं। ऐसे पद्मापद्म भाग्यशाली आत्मायें बाप को भी प्रिय हैं और विश्व की भी प्रिय हैं। जैसे बच्चे बाप का आह्वान करते हैं, वैसे विश्व की आत्मायें आप सब सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रही हैं। ऐसे आह्वान के आलाप कानों में सुनाई देते हैं? विशेष इस नुमाः शाम के समय जब सूर्य अस्त होता है, ऐसे समय पर बाप के साथसाथ ज्ञान-सूर्य के साथ लक्की सितारों को, अन्धकार को मिटाने वाले, ज्योति-स्वरूप समझकर इस हद की लाइट को नमस्कार करते हैं। यह किस की यादगार है? अनुभव होता है कि रोज़ आप श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्कार हो रहा है? क्योंकि बाप भी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं व विश्व एवं ब्रह्माण्ड की मालिक आत्माओं को रोज नमस्कार करते हैं। तो विश्व की आत्माओं ने भी रोज़ नमस्कार करने का नियम बना लिया है। ऐसे नमस्कार- योग्य स्वयं को अनुभव करते हो? ऐसे तो नहीं समझते हो कि यह गायन व पूजन तो पुरानों व अनन्य वत्सों का है?

 

नये-नये, तीव्र पुरूषार्थ से चलने वाले, बाप-दादा के नयनों में विशेष समाये हुए हैं। जैसे बच्चों के नयनों में सदा बाप समाया हुआ है, सदा साथ का और समीप का अनुभव करते हैं। ऐसे देरी से आते हुए भी दूर नहीं, समीप हैं। इसलिए लास्ट में आने वाले बच्चों को ड्रामा अनुसार हाई जम्प द्वारा फास्ट (Fast) अर्थात् फर्स्ट (First) जाने का गोल्डन चॉन्स विशेष मिला हुआ है। ऐसे गोल्डन चान्स को सदा स्मृति में रखते हुए फुल अटेन्शन रखो। बाप-दादा भी नये बच्चों के उमंग, उत्साह और हिम्मत को देख हर्षित भी होते हैं और साथ-साथ सहयोग और विशेष स्नेह भी दे रहे हैं।

 

अब इस वर्ष विश्व की आत्माओं की अनेक प्रकार की इच्छाएं अर्थात् कामनायें पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प धारण करो। औरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ बनाना। जैसे देना अर्थात् लेना है, ऐसे ही दूसरों की इच्छायें पूर्ण करना अर्थात् स्वयं को सम्पन्न बनाना है। वर्तमान लास्ट समय का फास्ट पुरूषार्थ यह है - एक ही समय में डबल कार्य करना है; वह कौनसा? अन्य के प्रति देना, अर्थात् स्वयं में भी वह कमी भरना, अर्थात् अन्य को बनाना ही बनना है। जैसे भक्ति-मार्ग में जिस वस्तु की कमी होती है उसी वस्तु का दान करते हैं; तो दान देने से उस वस्तु की कभी कमी नहीं रहेगी। तो देना अर्थात् लेना हो जाता है। ऐसे ही जिस सब्जेक्ट में, जिस विशेषता में, जिस गुण की स्वयं में कमी महसूस करते हो उसी विशेषता व गुण का दान करो अर्थात् अन्य आत्माओं के प्रति सेवा में लगाओ; तो सेवा का रिटर्न प्रत्यक्ष फल वा मेवे के रूप में स्वयं में अनुभव करेंगे। सेवा अर्थात् मेवा मिलना। अब इतना समय पुरूषार्थ का नहीं रहा है जो पहले स्वयं के प्रति समय दो, फिर अन्य की सेवा के प्रति समय दो। फास्ट पुरूषार्थ अर्थात् स्वयं और अन्य आत्माओं की साथ-साथ सेवा हो। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में स्वयं के कल्याण की और विश्व के कल्याण की साथ-साथ भावना हो। एक ही सेकेण्ड में डबल कार्य हो, तब ही डबल ताज-धारी बनेंगे। अगर एक समय में एक ही कार्य करेंगे तो स्वयं का व विश्व का; एक समय भी एक कार्य करने की प्रालब्ध नई दुनिया में एक लाइट का क्राउन अर्थात् पवित्र जीवन, सुख-सम्पत्ति वाला जीवन प्राप्त होगा। लेकिन राज्य का तख्त और ताज प्राप्त नहीं होगा अर्थात् प्रजा पद की प्रालब्ध होगी। तो डबल क्राउन प्राप्त करने का आधार हर समय डबल सेवा -- स्वयं की और अन्य आत्माओं की करो। यह है लास्ट सो फास्ट पुरूषार्थ। ऐसा फास्ट पुरूषार्थ करते हो? ऐसी चेकिंग विशेष रूप से वर्तमान समय करो। इस साधन द्वारा ही स्वयं का और समय का परिवर्तन करेंगे। अच्छा!

 

ऐसे सदा उम्मीदवार, स्वयं और विश्व के परिवर्तक, बाप-दादा के समान सदा विश्वकल्याण की शुभ भावना में रहने वाले, सर्व आत्माओं की सर्व कामनाएं सम्पन्न करने वाले तीव्र पुरुषार्थी, समय और संकल्प को सेवा में लगाने वाले विश्व-सेवाधारी, विश्वकल्याणकारी, सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

पर्सनल मुलाकात:- डबल लाइट स्वरूप बनो!

 

भक्तिमार्ग में लक्ष्मी को महादानी दिखाते हैं तो महादानी की निशानी कौनसी दिखाते हैं? (लक्ष्मी का हाथ खुला, देने के रूप में दिखाया जाता है) सम्पत्ति झलकती रहती है। यह शक्तियों का यादगार है। लक्ष्मी अर्थात् सम्पत्ति की देवी। वह स्थूल सम्पत्ति नहीं, नॉलेज की सम्पत्ति, शक्तियों रूपी सम्पत्ति की देवी अर्थात् देने वाली। तो जो यह चित्र बनाया है, ऐसी सम्पत्ति की देवी बनना है। चाहे नॉलेज देवे, चाहे शक्तियाँ देवे। ऐसा जो यादगार चित्र है, चेतन में अपने को ऐसा अनुभव करते हो? एक सेकेण्ड भी कोई आपके सामने आवे तो भी दृष्टि से ऐसा अनुभव करे कि मैंने कुछ पाया। तब कहेंगे देने वाली देवी। अब चाहिये यह सर्विस, तब विश्व का कल्याण होगा। इतनी सभी आत्माओं को देना तो ज़रूर है, तो देने का स्वरूप सूक्ष्म और अति शक्तिशाली। समय कम और प्राप्ति ऊँची। ऐसे देने वाली शक्तियाँ या देवियाँ कितनी तैयार हुई हैं? ऐसी कितनी देवियाँ होंगी? इसी प्रमाण यादगार में भी नम्बर हैं। कोई हर समय देने वाली, कोई कभी-कभी देने वाली, कोई किन्हीं-किन्हीं को देने वाली, कोई सभी को देने वाली, कोई कहती है चॉन्स मिले तो करें, फील्ड होगी या सहयोग मिलेगा तो करेंगे। तो उनका यादगार क्या है? उनकी यादगार में भी तिथि-तारीख फिक्स होती है। जो सदा के करने वाले होते हैं, उनकी पूजा भी सदा होती है। जो समय व सहयोग के आधार से चॉन्स लेते हैं, उनके यादगार की डेट फिक्स होती है। कई देवियों के वस्त्र बदलने की, हर कर्म की पूजा होती है। इससे सिद्ध है कि उन्होंने हर कर्म करते, सारा समय दान किया है, जिसको ‘महादानी’ कहेंगे। इसलिये उनकी महान् पूजा, महान् यादगार है। एक होती हैं जो सदा साथियों के साथ स्नेह निभा के चलती हैं, दूसरे साथ होते भी स्नेह का साथ नहीं निभाते। उनके यादगार में भी सारा समय पुजारियों का साथ नहीं मिलता। जो यहाँ स्वार्थ के लिए आवेंगे, यादगार में भी स्पष्ट होता है कि यह किसका यादगार है। यह भी राज़ है। अभी ऐसा बनना है। सदा साथियों के साथ स्नेह का साथ निभाना है, सिर्फ समय पर नहीं, सदा के लिये साथ निभाना है। स्वार्थ से नहीं, काम निकालने के लिये नहीं बल्कि स्नेह से और सदा के लिये साथ निभाना है। अच्छा!

 

सदा सन्तुष्टमणी बनो (अव्यक्त मुरलियों से प्वाइंटस)

 

आज के समय में टेन्शन और परेशानियाँ बहुत बढ़ रही हैं, इस कारण असन्तुष्टता बढ़ती जा रही है। ऐसे समय पर आप सभी सन्तुष्टमणि बन अपने सन्तुष्टता की रोशनी से औरों को भी सन्तुष्ट बनाओ। पहले स्व से स्वयं सन्तुष्ट रहो, फिर सेवा में सन्तुष्ट रहो फिर सम्बन्ध में सन्तुष्ट रहो तब ही सन्तुष्टमणि कहलायेंगे। बापदादा चाहते हैं कि हर एक बच्चा यह पूरा ही वर्ष किसी से जब भी मिले, उसे सन्तुष्टता का सहयोग दे। स्वयं भी सन्तुष्ट रहे और दूसरों को भी सन्तुष्ट करे। इस सीजन का स्वमान है - सन्तुष्टमणि इसलिए सदा सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना - इस स्वमान की सीट पर सदा एकाग्र रहना।

 

बापदादा बच्चों को निरन्तर सच्चा सेवाधारी बनने के लिए कहते हैं, लेकिन अगर नाम सेवा हो और स्वयं भी डिस्टर्ब हो, दूसरे को भी डिस्टर्ब करे, ऐसी सेवा न करना अच्छा है क्योंकि सेवा का विशेष गुण सन्तुष्टता है। जहाँ सन्तुष्टता नहीं, चाहे स्वयं से, चाहे सम्पर्क वालों से, वह सेवा न स्वयं को फल की प्राप्ति करायेगी न दूसरों को। इससे स्वयं अपने को पहले सन्तुष्टमणी बनाए फिर सेवा में आओ तो अच्छा है। नहीं तो सूक्ष्म बोझ चढ़ता है और वह बोझ उड़ती कला में विघ्न रूप बन जाता है। सदा निर्विघ्न, सदा विघ्न विनाशक और सदा सन्तुष्ट रहना तथा सर्व को सन्तुष्ट करना - सेवाधारियों को यही सर्टीफिकेट सदा लेते रहना है। यह सर्टीफिकेट लेना अर्थात् तख्तनशीन होना। सदा सन्तुष्ट रहकर सर्व को सन्तुष्ट करने का लक्ष्य रखो।

 

जिस आत्मा को सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होगी, वह सदा सन्तुष्ट होगी। उसके चेहरे पर सदा प्रसन्नता की निशानी दिखाई देगी। सेवाधारी जब स्व से और सर्व से सन्तुष्ट होते हैं तो सेवा का, सहयोग का उमंग-उत्साह स्वतः होता है। कहना कराना नहीं पड़ता, सन्तुष्टता सहज ही उमंग-उल्हास में लाती है। सेवाधारी का विशेष यही लक्ष्य हो कि सन्तुष्ट रहना है और करना है। जितना अपने को सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न अनुभव करेंगे उतना सन्तुष्ट रहेंगे। अगर ज़रा भी कमी की महसूसता हुई तो जहाँ कमी है वहाँ असन्तुष्टता है। भल अपना राज्य नहीं है इसलिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है परन्तु यहाँ प्राबलम तो खेल हो गई है, हिम्मत रखने से समय पर सहयोग मिल जाता है इसलिए अपनी सन्तुष्टता के साथ-साथ स्वयं की श्रेष्ठ स्थिति से सर्व आत्माओं को सन्तुष्टता का सहयोग दो।

 

कराने वाला करा रहा है, मैं सिर्फ निमित्त बन कार्य कर रही हूँ - इस स्मृति में रहना यही सेवाधारी की विशेषता है। इससे सेवा में वा स्व पुरुषार्थ में सदा सन्तुष्ट रहेंगे और जिन्हों के निमित्त बनेंगे उन्हों में भी सन्तुष्टता होगी। सदा सन्तुष्ट रहना और दूसरों को रखना - यही विशेषता है। ब्राह्मण अर्थात् समझदार, वे सदा स्वयं भी सन्तुष्ट रहेंगे और दूसरों को भी रखेंगे। अगर दूसरे के असन्तुष्ट करने से असन्तुष्ट होते तो संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का सुख नहीं ले सकते। शक्ति स्वरूप बन दूसरों के वायुमण्डल से स्वयं को किनारे कर लेना अर्थात् अपने को सेफ कर लेना, यही साधन है इस लक्ष्य को प्राप्त करने का।

 

संगठन में आते जो दिल से सेवा करते वा याद करते हैं, उन्हों को मेहनत कम और सन्तुष्टता ज़्यादा होती और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नॉलेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज़्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता हो भी जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। यही सोचते रहेंगे हुआ तो अच्छा, लेकिन फिर भी, फिर भी... करते रहेंगे और दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे।

 

सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है। अगर तृप्त आत्मा नहीं होंगे, चाहे शरीर की भूख, चाहे मन की भूख होगी तो जितना भी मिलेगा, तृप्त आत्मा न होने कारण सदा ही अतृप्त रहेंगे। रॉयल आत्मायें सदा थोड़े में भी भरपूर रहती हैं। जहाँ भरपूरता है वहाँ सन्तुष्टता है। जो सेवा असन्तुष्ट बनाये वो सेवा, सेवा नहीं है। सेवा का अर्थ ही है मेवा देने वाली सेवा। अगर सेवा में असन्तुष्टता है तो सेवा छोड़ दो लेकिन सन्तुष्टता नहीं छोड़ो। सदा हद की चाहना से परे सम्पन्न रहो तो समान बन जायेंगे।

 

संगमयुग का विशेष वरदान सन्तुष्टता है, इस सन्तुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। आप ब्राह्मणों का गायन है- 'अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खजाने में अथवा ब्राह्मणों के जीवन में', तो फिर असन्तुष्टता क्यों? जब वरदाता, दाता के भण्डार भरपूर हैं, इतनी बड़ी प्राप्ति है, फिर असन्तुष्टता क्यों? तो जो सन्तुष्टमणियां हैं - वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सदा सन्तुष्ट होंगी; उनके मन और तन में सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्त करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्मभोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी। सन्तुष्ट आत्मायें सदा निःस्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेंगी; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेंगी - न भाग्यविधाता पर, न ड्रामा पर, न व्यक्ति पर, न शरीर के हिसाब-किताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है। वे सदा निःस्वार्थ, निर्दोष वृत्ति-दृष्टि वाली होंगी। संगमयुग की विशेषता सन्तुष्टता है, यही ब्राह्मण जीवन की विशेष प्राप्ति है। सन्तुष्टता और प्रसन्नता नहीं तो ब्राह्मण बनने का लाभ नहीं इसलिए सन्तुष्ट रहो और सबको सन्तुष्ट करो, इसी में सच्चा सुख है, यही सच्ची सेवा है। अच्छा - ओम् शान्ति।

 

वरदान:- ब्राह्मण जीवन में खुशी के वरदान को सदा कायम रखने वाले महान आत्मा भव

 

ब्राह्मण जीवन में खुशी ही जन्म सिद्ध अधिकार है, सदा खुश रहना ही महानता है। जो इस खुशी के वरदान को कायम रखते हैं वही महान हैं। तो खुशी को कभी खोना नहीं। समस्या तो आयेगी और जायेगी लेकिन खुशी नहीं जाये क्योंकि समस्या, परस्थिति है, दूसरे के तरफ से आई है, वह तो आयेगी, जायेगी। खुशी अपनी चीज़ है, अपनी चीज़ को सदा साथ रखते हैं इसलिए चाहे शरीर भी चला जाए लेकिन खुशी नहीं जाए। खुशी से शरीर भी जायेगा तो बढ़िया और नया मिलेगा।

 

स्लोगन:- बापदादा के दिल की मुबारक लेनी है तो अनेक बातों को न देख अथक सेवा पर उपस्थित रहो।