25-11-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 12-10-75 मधुबन

 

कम्पलेन्ट समाप्त कर कम्पलीट बनने की प्रेरणा

 

आप-समान निराकारी, देह की स्मृति से न्यारे, आत्मिक स्वरूप में स्थित होते हुए, साक्षी होकर, अपना और सर्व आत्माओं का पार्ट देखने का अभ्यास मज़बूत होता जाता है? सदा साक्षीपन की स्टेज स्मृति में रहती है? जब तक साक्षी स्वरूप की स्मृति सदा नहीं रहती तो बापदादा को अपना साथी भी नहीं बना सकते। साक्षी अवस्था का अनुभव, बाप के साथीपन का अनुभव कराता है। अपने को खुदा-दोस्त समझते हो ना? अर्थात् अपने मन का मीत बापदादा को बनाया है? दिल का दिलवाला बाप को ही बनाया है? एक दिलवाला बाप के सिवाय और किसी से भी दिल की लेन-देन करने का संकल्प मात्र भी नहीं है, ऐसा अनुभव करते हो? अगर एक बाप के साथ सर्व-सम्बन्धों के सुख, सर्व- सम्बन्धों के प्रीति की प्राप्ति अनुभव करते हो तो और कहीं भी, किसी सम्बन्ध में बुद्धि जा नहीं सकती। हर श्वास, हर संकल्प में सदा बाप के सर्व-सम्बन्धों में बुद्धि मगन रहनी चाहिए। कई बच्चों की कम्पलेन्ट है कि व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं, बुद्धि बाप की तरफ लगती नहीं है। न चाहते हुए भी कहीं-न-कहीं बुद्धि का लगाव चला जाता है वा स्थूल प्रवृत्ति की ज़िम्मेवारी बुद्धि को एकाग्र बनने नहीं देती। पुरानी दुनिया का सम्पर्क व वातावरण, वृत्ति को चंचल बना देता है। जितना तीव्र पुरूषार्थ करना चाहते हैं, उतना कर नहीं पाते हैं, हाई-जम्प दे नहीं पाते। सारे दिन में इसी प्रकार की कम्पलेन्टस् बापदादा के पास बहुत आती हैं।

 

मास्टर सर्वशक्तिमान् कहलाते हुए भी अपने ही स्वभाव, संस्कार से मज़बूर हो जाते हैं, तो बापदादा को भी ऐसी बातें सुनते हुए मीठी हँसी भी आती है बा 145 और रहम भी आता है। जब अपने स्वभाव-संस्कार को मिटा नहीं सकते, तो सारे विश्व से तमोप्रधान आसुरी संस्कार मिटाने वाले कैसे बनेंगे? जो अपने ही संस्कारों के वश हो जायें, वह सर्व वशीभूत हुई आत्माओं को मुक्त कैसे कर सकेंगे? जो अपने ही संस्कारों, जिससे स्वयं ही परेशान हैं वह औरों की परेशानी कैसे मिटायेंगे? ऐसे संस्कारों से मुक्ति पाने की सरल युक्ति कौन-सी है? कर्म में आने से पहले संस्कार, संकल्प में आते हैं - ‘‘यह कर दूँगा, ऐसा होना चाहिए, यह क्या समझते हैं, मैं भी सब करना जानता हूँ।’’ इस रूप के संकल्पों में संस्कार उत्पन्न होते हैं। जब जानते हो कि इस समय संस्कार संकल्प-रूप में अपना रूप दिखा रहे हैं, तो सदैव यह आदत डालो व अभ्यास करो कि हर संकल्प को पहले चेक करना है कि क्या यह संकल्प बाप-समान है?

 

जैसे कई बड़े आदमी होते हैं, वे जो कुछ भी स्वीकार करते हैं, तो पहले उस चीज़ की चेकिंग होती है। जैसे प्रेज़ीडेन्ट है या कोई भी विशेष व्यक्ति या बड़े-बड़े राजा होते हैं, तो उनका हर भोजन पहले चेक होता है, फिर वे स्वीकार करते हैं। उन्हें कोई भी वस्तु देंगे तो पहले उनकी चेकिंग होती है कि कहीं उसमें कुछ अशुद्धि या मिक्स तो नहीं है? वह बड़े आदमी आप के आगे क्या हैं? आपके राज्य में ये बड़े आदमी पाँव भी नहीं रख सकते। अब भी आपके पाँव पर पड़ने वाले हैं। जब राजाओं के भी राजा बनते हो और सृष्टि के बीच श्रेष्ठ आत्मा कहलाते हो तो आप विशेष आत्माओं का यह संकल्प रूपी बुद्धि का जो भोजन है उसके लिये भी चेकिंग होनी चाहिए। जब बिना चेकिंग के स्वीकार करते हो तब धोखा खाते हो। तो हर संकल्प को पहले चेक करो। जैसे सोने को यन्त्र द्वारा चेक करते हैं कि सच्चा है या मिक्स है, रीयल है अथवा रोल्ड गोल्ड है? ऐसे ही यह चेक करो कि संकल्प बापदादा समान हैं या नहीं है? इस आधार से चेक करो, फिर वाणी और कर्म में लाओ। आधार को भूल जाते हो, तब शूद्र-पने के और विष के संस्कार मिक्स हो जाते हैं। जैसे भोजन में विष मिक्स हो जाय तो वह मूर्छित कर देता है, ऐसे ही संकल्प रूपी आहार व भोजन में पुराने शूद्र-पन का विष मिक्स हो जाता है तो बाप की स्मृति और समर्थी स्वरूप से मूर्छित हो जाते हो। तो अपने को विशेष आत्मायें समझते हुए अपनेआपका स्वयं ही चेकर  बनो। समझा? विशेष आत्मा की अपनी शान में रहो तो परेशान नहीं होंगे। अच्छा यह हुई संस्कारों को मिटाने की युक्ति। अगर इस कार्य में सदा बिज़ी रहेगे व सदा होली-हंस स्वरूप में स्थित होंगे, तो शुद्ध व अशुद्ध, शूद्रपन और ब्राह्मणपन को सहज ही चेक कर सकेंगे और बुद्धि इसी कार्य में बिजी होने के कारण व्यर्थ संकल्पों की कम्पलेन्ट से फ्री  हो जायेगी।

 

दूसरी बात - सारा दिन, बाप के सर्व-सम्बन्धों का, हर समय प्रमाण सुख नहीं ले पाते हो। जो गोपियों और पोण्डवों के चरित्र गाये हुए हैं। बाप से सर्व- सम्बन्धों का सुख लेना और मगन रहना अथवा सर्व-सम्बन्धों के लव में लवलीन रहना - वह अनुभव अभी किया नहीं है। बाप और शिक्षक इन विशेष सम्बन्धों का सुख अनुभव करते हो लेकिन सर्व-सम्बन्धों के सुखों की प्राप्ति का अनुभव कम करते हो। इसलिए जिन सम्बन्धों के सुखों का अनुभव नहीं किया है उन सम्बन्धों में बुद्धि का लगाव जाता है और वह आत्मा का लगाव व बुद्धि की लगन, विघ्न-रूप बन जाती है। तो सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्धों का अनुभव करो। अगर इस समय बाप से सवर्-सम्बन्धों का सुख नहीं लिया है तो सर्व-सुखों की प्राप्ति में, सर्व-सम्बन्धों की रसना लेने में कमी रह जायेगी। अभी अगर यह सुख नहीं लिया तो कब लेंगे? आत्माओं से सर्व-सम्बन्ध तो सारा कल्प अनुभव करेंगे लेकिन बाप से सर्व-सम्बन्धों का अनुभव अभी नहीं किया तो कभी भी नहीं करेंगे। तो इन सर्व-सम्बन्धों के सुखों में सारा दिन-रात अपने को बिजी रखो। इन सुखों में निरन्तर रहने से और सर्व-सम्बन्ध असार और नीरस अनुभव होंगे। इसलिए बुद्धि एक ठिकाने पर स्थित हो जायेगी और उसका भटकना बन्द हो जायेगा और आप इन सुखों के झूले में सदा झूलते रहेगे। ऐसी स्थिति बनाने से तीव्र पुरुषार्थी स्वत: और सहज बन जायेंगे, सर्व कम्पलेन्ट समाप्त हो कम्पलीट बन जायेंगे। समझा? अपने कम्पलेन्टस् का रेस्पॉन्स अच्छा –

 

ऐसे सदा अतीन्द्रिय सुखों के झूले में झूलने वाले, सदा बाप के साथ सर्व-सम्बन्ध निभाने वाले, सदा स्वयं को साक्षी और बाप को साथी समझने वाले, ऐसे खुदा-दोस्त, सदा खुदाई-खिदमत में रहने वाले, ऐसे बाप-समान बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

सुनने में खुश होते हो, लेकिन निभाने में कहीं मज़बूर हो जाते हो। जब सुनने में इतनी खुशी होती है, तो स्वरूप बनने में कितनी खुशी होगी? इस समय सभी हर्षित मुख हो, ऐसे ही सदा हर्षितमुख रहो तो स्वयं का भी समय बचायेंगे और निमित्त बनी हुई आत्माओं का भी समय बचा लेंगे। अभी तक गिरने और चढ़ने में, स्वयं को सम्भालने में व बुद्धि को ठिकाने लगाने में 25%  समय जो इसमें जाता है, तो यह समय बच जायेगा और वह कमाई में जमा हो जायेगा। अब बचत करना सीखो। समझा?

 

टीचर्स के साथ अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

 

टीचर्स हर कर्म करके दिखाने के निमित्त हैं। हर टीचर के पीछे देख कर चलने वाले, करने वाले, आगे बढ़ने वालों की कितनी बड़ी लाइन होती है? तो टीचर सही लाइन पर चलाने के निमित्त है। वह रूकती है तो सारी लाइन रूक जाती है, तुम्हारी लाइन की जिम्मेवारी है। ऐसी जिम्मेवारी समझ कर चले तो हर कर्म कैसा करेंगे? वैसे भी कहा जाता है - ज़िम्मेवारी बड़े से बड़ा टीचर है। जैसे टीचर लाइफ बनाते हैं ना, वैसे जिम्मेवारी भी लाइफ बनाने की शिक्षा देती है। तो हर टीचर के ऊपर इतनी विशाल जिम्मेवारी है। ऐसा समझने से भी अपने ऊपर अटेन्शन रहेगा। अब अटेन्शन रहेगा तो बाप और सेवा के सिवा और कुछ बुद्धि में रहेगा ही नहीं। जिम्मेवारी बड़ापन लाती है। यदि जिम्मेवारी नहीं तो बचपन हो जाता है। जिम्मेवारी होने से अलबेलापन समाप्त हो जाता है। टीचर को हर संकल्प, हर कदम पीछे, सोचना चाहिए कि मेरे पीछे कितनी जिम्मेवारी है। ऐसे भी नहीं कि यह जिम्मेवारी भारी करेगी-बोझ रहेगा। नहीं, जितनी यह जिम्मेवारी उठायेगे उतना जो अनेकों की आशीर्वाद मिलती है तो वह बोझ खुशी में बदल जाता है। वह बोझ महसूस नहीं होता, हल्के रहते हैं। जैसे ब्रह्मा बाप निमित्त बने वैसे आप सब निमित्त हैं। तो आप सबको ब्रह्मा बाबा को फॉलो करना चाहिए। जिम्मेवारी और हल्कापन दोनों का बैलेन्स था, ऐसे ही फॉलो फादर। टीचर्स का स्लोगन फॉलो फादर। ‘फॉलो फादर’ नहीं तो सफल टीचर्स नहीं। टीचर का पहला सर्टिफिकेट है स्वयं संतुष्ट रहना और दूसरों को सन्तुष्ट करना। फर्स्ट नम्बर टीचर की निशानी सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। टीचर सन्तुष्ट क्यों नहीं रहेगी? टीचर्स को चांस कितने हैं? एक चांस समर्पण होने का, दूसरा सेवा का चान्स, तीसरा निमित्त बनने से अपने ऊपर अटेन्शन का चान्स और चौथा जितनों को आप-समान बनायेंगी, उसमें पुरूषार्थ की सफलता का चान्स। सबसे ज्यादा पुरूषार्थ में नम्बर लेने का चान्स। आने वाले स्टुडेण्ट को तो हंस बगुला इकठ्ठा रहना पड़ता है। टीचर्स को वातावरण का भी चान्स अच्छा मिलता है। तो टीचर बनना अर्थात् लॉटरी लेना। टीचर्स का ड्रामा में बहुत अच्छा पार्ट है। टीचर्स को अपने भाग्य को देख खुश होना चाहिए। अपने प्राप्ति की लिस्ट सामने रखो कि क्या मिला है? कितना मिला है? वह देखते हो? अमृत वेले रूह-रूहान सब करती हो? जो रूह-रूहान करने से रस का अनुभव कर लेते हैं वह सारे दिन में सफल रहेगे। अलबेले तो नहीं रहते। सदा अपने ऊपर अटेन्शन रहता है और रस भी आता है? एक है नियम निभाने वाले, दूसरे प्राप्ति करने वाले। आप सब तो प्राप्ति करने वाली हो ना?

 

पर्सनल मुलाकात

 

संगमयुग में साथ निभाना सारे कल्प का आधार बन जाता है

 

अपनी नई दुनिया में कृष्ण के साथ झूला कौन झूलेगा? झूलने का मजा है। झुलाने वालों का तो पार्ट ही और है। जो यहाँ अपने जीवन में, जीवन के आदि से अन्त तक बाप के साथ रहे हैं अर्थात् बुद्धियोग से साथ रहे हैं - साकार रूप में साथ रहना यह तो लक्क है। लेकिन साकार के साथ होते हुए भी बुद्धि का साथ यदि सदा रहा है, जीवन के आदि से अन्त तक साथ रहे हैं, वही वहाँ भी हर जीवन के आयु के भिन्नभिन्न पार्ट में, बचपन में भी साथ रहेगे, पढ़ाई में भी साथ रहेगे, खेलने में भी और फिर राज्य करने में भी साथ रहेगे। तो यहाँ सदा साथ रहने वाले वहाँ भी सदा साथ रहेगे।

 

जैसे उस फर्स्ट आत्मा को नशा और खुशी होगी वैसे साथ रहने वाली आत्माओं को भी वैसा ही नशा और खुशी होगी। जो अभी बाप-समान बनते हैं उन्हों को वहाँ भी समान नशा होगा। तो सर्व-स्वरूप से साथ रहना - यह भी विशेष पार्ट है। बाल, युवा और वानप्रस्थ सब अवस्थाओं में साथ। इसका आधार यहाँ के जीवन के आदि, मध्य और अन्त तक साथ निभाने का है। मज़ा तो इसमें है ना? जो फर्स्ट में साथ रहते हैं, वह फिर 84 जन्मों में ही, भक्ति काल में अल्पकाल के राजे बनने में व कोई भी पार्ट बजाने में भी कोई-न-कोई साथ का सम्बन्ध कायम करते रहेगे। भक्ति भी साथ-साथ शुरू करेंगे। चढ़ेंगे भी साथ, पर गिरेंगे भी साथ। तो अभी का साथ निभाने का आधार सारे कल्प के साथ का आधार बन जाता है। अच्छा।

 

वरदान:- सदा सर्व प्राप्तियों की स्मृति द्वारा मांगने के संस्कारों से मुक्त रहने वाले सम्पन्न व भरपूर भव

 

एक भरपूरता बाहर की होती है, स्थूल वस्तुओं से, स्थूल साधनों से भरपूर, लेकिन दूसरी होती है मन की भरपूरता। जो मन से भरपूर रहता है उसके पास स्थूल वस्तु या साधन नहीं भी हो फिर भी मन भरपूर होने के कारण वे कभी अपने में कमी महसूस नहीं करेंगे। वे सदा यही गीत गाते रहेंगे कि सब कुछ पा लिया, उनमें मांगने के संस्कार अंश मात्र भी नहीं होंगे।

 

स्लोगन:- पवित्रता ऐसी अग्नि है जिसमें सभी बुराईयां जलकर भस्म हो जाती हैं।