03-04-11 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 19-07-72 मधुबन
संगठन क महत्व तथा संगठन द्वारा सर्टिफिकेट
अपने को मोती वा मणका समझते हो? मोती वा मणके की वैल्यू किसमें होती है? मणका वा मोती माला से अलग होते हैं तो उसकी वैल्यू कम क्यों होती है? माला में पिरोने से उनकी वैल्यू होती है। अलग होने से कम क्यों होती है? कारण? संगठन में होने के कारण वह मोती, मणका शक्तिशाली हो जाता है। एक से दो भी आपस में मिल जाते हैं तो दो को 11 कहा जाता है। एक को एक ही कहा जावेगा। दो मिलकर 11 हो जाते हैं। तो कहां एक, कहां ग्यारह! इतनी उसकी वैल्यू बढ़ जाती है। दो के बदली 11 कहा जाता है। संगठन की शक्ति को प्रसिद्ध करने के लिये ऐसे कहने में आता है। आप अपने को कौन-सा मोती समझते हो? माला का मोती हो वा इन्डिपैन्डेंट्स मोती हो? अपनी वैल्यू को देखते हुये, अपनी शक्ति को देखते हुये यह अनुभव करते हो कि हम माला के मणके हैं? एक दो को ऐसे संगठन के रूप में पिराये हुए वैल्युएभले मोती समझते हो? दूसरे भी आपको समझते हैं वा सिर्फ आप् ही अपने को समझते हो? जैसे कोई विशेष करते हैं वा कोई भी रीति विजयी बन कर आते हैं तो उनको मैडल मिलता है ना। वैसे ही जो अब तक पुरूषार्थ कर रहे हैं, उसका सर्टिफिकेट प्रैक्टिकल में लेने के लिए ही बीच-बीच में यह संगठन होता है। तो इस संगठन में हरेक ने अपना संगठित रूप में चलने का, संगठन के शक्ति की वैल्यू का मैडल लिया है? युनिवार्सिटी में आई हो ना। तो अब तक के पुरूषार्थ वा ईश्वरीय सेवा का सार्टिफिकेट तो लेना चाहिए ना। सभी एक दो से कहां तक संतुष्ट हैं वा एक दो के समीप कितने हैं, इसका सार्टिफिकेट लेना होता है। एक तो है अपने संगठन में वा सम्पर्क में सहयोग और सभी के स्नेही रहने का मैडल वा इनाम, दूसरा है ईश्वरीय सेवा में अपने पुरूषार्थ से ज्यादा से ज्यादा प्रत्यक्षता करना इसका ईनाम। तीसरा फिर है जो जिस स्थान के निमित्त बने हुए हैं, उस स्थान की आत्माएं उनसे संतुष्ट हैं वा कोई स्वयं सभी से संतुष्ट हैं। अगर स्वयं भी संतुष्ट नहीं तो भी कमी रही और आने वालों में से एक भी कोई संतुष्ट नहीं है तो यह भी कमी रही। टीचर से सभी संतुष्ट हों। टीचर की पढ़ाई वा सम्बन्ध में जिसको आप लोग हैंडालिंग कहते हैं, उससे सभी संतुष्ट हैं तो इसका भी इनाम होता है। पहले शुरू में माला बनाते थे, किसलिये? उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिये। जिस समय जो जिस स्टेज पर है उसको उस स्टेज का मिलने से खुशी होती है। उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिए और एक दो की देख-रेख कराने के लिये यह साधन बनाते थे। इसका भाव यह नहीं था कि वह कोई फाइनल स्टेज का मैडल है। यह है समय की, पुरूषार्थ की बलिहारी का। इससे उमंग- उल्लास आता है, रिजल्ट का मालूम पड़ता है - कौन किस पुरूषार्थ में है वा किसका पुरूषार्थ में अटेन्शन है वा पास होकर विजय के अधिकारी बने हैं। इसको देख कर भी खुश होते हैं। आप लोग अब भी अपनी क्लासेज में किसी को इनाम देते हो ना। इनाम कोई बड़ी चीज़ नहीं है, भले ही एक रूमाल दो, लेकिन उसकी वैल्यू होती है। जो पुरूषार्थ किया उस विजयी की वैल्यू होती है, ना कि चीज़ की। आप किसी को थोड़ी सेवा का इनाम देते हो वा क्लास में नाम आउट करते हो तो आगे के लिए उसको छाप लग जाती है, उमंग-उत्साह का तिलक लग जाता है।
कोई-कोई तो विशेष आत्माएं भी विशेष कर्त्तव्य करते रहते हैं ना। फिर भी निमित्त बने हुए हैं। ज़रूर कोई श्रेष्ठता वा विशेषता है, तब तो ड्रामा अनुसार समर्पण होने के बाद, सर्वस्व त्यागी बनने के बाद औरों की सेवा के लिए निमित बने हो ना। हरेक में कोई विशेषता ज़रूर है। एक दो की विशेषता का भी एक दो को परिचय होना चाहिए, कमियों का नहीं। आप लोग आपस में जब संगठन करते हो तो एक दो तरफ के समाचार किसलिये सुनाती हो? हरेक में जो विशेषता है वह अपने में लेने के लिए। हरेक को बाप-दादा की नॉलेज द्वारा कोई विशेष गुण प्राप्त होता है। अपना नहीं, मेरा गुण नहीं है, नॉलेज द्वारा प्राप्त हुआ। इसमें अभिमान नहीं आवेगा। अगर अपना गुण होता तो पहचानने से ही होता। लेकिन नॉलेज के बाद गुणवान बने हो। पहले तो भक्ति में गाते थे कि -- हम निर्गुण हारे में कोई...। तो यह स्वयं का गुण नहीं कहेंगे, नॉलेज द्वारा स्वयं में भरते जाते हो। इसलिये विशेषता का गुण वर्णन करते हुये यह स्मृति रहे कि नॉलेज द्वारा हमें प्राप्त हुआ। तो यह नॉलेज की बड़ाई है, ना कि आपकी। नॉलेजफुल की बड़ाई है। उसी रूप से अगर एक दो में वर्णन करो तो इसमें भी एक दो से विशेषताएं लेने में लाभ होता है। पहले आप लोगों का यह नियम चलता था कि अपने वर्तमान समय का सूक्ष्म पुरूषार्थ क्या है, इसका वर्णन करते थे। ऊपर-ऊपर की बात नहीं लेकिन सूक्ष्म कमजोरियों पर किस पुरूषार्थ से विजयय् पा रहे हैं, वह एक दो में वर्णन करते थे। इससे एक दो को एक दो का परिचय होने के कारण, जिसमें जो विशेषता है उसका वर्णन होने से आटोमेटिकली उसकी कमजोरी तरफ अटेंशन कम हो जायेगा, विशेषता तरफ ही अटेंशन जायेगा। पहले आपस में ऐसे सूक्ष्म रूह-रूहान करते थे। इससे लाभ बहुत होता है। एक दो के वर्तमान समय के पुरूषार्थ की विशेषता ही आपस में वर्णन करो तो भी अच्छा वातावरण रहेगा। जब टापिक ही यह हो जायेगा तो और टापिक्स आटोमेटिकली रह जावेंगे। तो यह आपस में मिलने का रूप होना चाहिए, और हरेक की विशेषता बैठ अगर देखो तो बहुत अच्छी है। ऐसे हो नहीं सकता जो कोई समझे मेरे में कोई विशेषता नहीं। इससे सिद्ध है वह अपने आपको जानते नहीं हैं। दृष्टि और वृति ऐसी नेचरल हो जानी चाहिए जैसे आप लोग दूसरों को मिसाल देते हो कि जैसे हंस होते हैं तो उनकी दृष्टि किसमें जावेगी? कंकड़ों को देखते हुये भी वह मोती को देखता है। इसी प्रकार नेचरल दृष्टि वा वृत्ति ऐसी होनी चाहिए कि किसी की कमजोरी वा कोई भी बात सुनते वा देखते हुये भी वह अन्दर न जानी चाहिए, और ही जिस समय कोई की भी कमजोरी सुनते वा देखते हो तो समझना चाहिए - यह कमजोरी इनकी नहीं, मेरी है क्योंकि हम सभी एक ही बाप के, एक ही परिवार के, एक ही माला के मणके हैं। अगर माला के बीच ऐसा-वैसा मोती होता है तो सारी माला की वैल्यू कम हो जाती है। तो जब एक ही माला के मणके हो तो क्या वृति होनी चाहिए कि यह मेरी भी कमजोरी हुई। जैसे कोई तीव्र पुरुषार्थी होते हैं तो अपने में जो कमजोरी देखेंगे वह मिली हुई युक्तियों के आधार पर फौरन ही उसको खत्म कर देते, कब वर्णन नहीं करेंगे। जब अपनी कमजोरी प्रसिद्ध नहीं करना चाहते हो तो दूसरे की कमजोरी भी क्यों वर्णन करते? फलाने ने साथ नहीं दिया वा यह बात नहीं की, इसलिये सर्विस की वृद्धि नहीं होती; वा मेरे पुरूषार्थ में फलानी बात, फलानी आत्मा, विघ्न रूप है -- यह तो अपनी ही बुद्धि द्वारा कोई आधार बना कर उस पर ठहरने की कोशिश करते हो। लेकिन वह आधार फाउंडेशनलेस है, इसलिये वह ठहरता नहीं है। थोड़े समय बाद वही आधार नुकसानकारक बन जाता है। इसलिये होली-हंस हो ना। तो होली हंसों की चाल कौनसी होती है? हरेक की विशेषता को ग्रहण करना और कमजोरियों को मिटाने का प्रयत्न करना। तो ऐसा पुरूषार्थ चल रहा है?
हम सभी एक है - यह स्मृति में रखते हुए पुरूषार्थ चल रहा है? यही इस संगठन की विशेषता वा भिन्नता है जो सारे विश्व में कोई भी संगठन की नहीं। सभी देखने वाले, आने वाले, सुनने वाले क्या वर्णन करते कि यहां एक-एक आत्मा का उठना, बोलना, चलना सभी एक जैसा है। यही विशेषता गायन करते हैं। तो जो एकता वा एक बात, एक ही गति, एक ही रीति, एक ही नीति का गायन है, उसी प्रमाण अपने आपको चेक करो। वर्तमान समय के पुरूषार्थ में कारण शब्द समाप्त हो जाना चाहिए। कारण क्या चीज़ है? अभी तो आगे बढ़ते जा रहे हो ना। जब सृष्टि के परिवर्तन, प्रकृति के परिवर्तन की जिम्मेवारी को उठाने की हिम्मत रखने वाले हो, चैलेंज करने वाले हो; तो कारण फिर क्या चीज़ है? कारण की रचना कहां से होती है? कारण का बीज क्या होता है? किस-ना-किस प्रकार के चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे सम्पर्क वा सम्बन्ध में आने की कमजोरी होती है। इस कमजोरी से ही कारण पैदा होता है। तो रचना ही व्यर्थ है ना। कमजोरी की रचना क्या होगी? जैसा बीज वैसा फल। तो जब रचना ही उलटी है तो उसको वहां ही खत्म करना चाहिए या उसका आधार ले आगे बढ़ना चाहिए? फलाने कारण का निवारण हो तो आगे बढ़ें, कारण का निवारण हो तो सर्विस बढ़ेगी, विघ्न हटेंगे - अभी यह भाषा भी चेंज करो। आप सभी को निवारण देने वाले हो ना। आप लोगों के पास अज्ञानी लोग कारण का निवारण करने आते हैं ना? जो अनेक प्रकार के कारणों को निवारण करने वाले हैं वह यह आधार कैसे ले सकते! जब सभी आधार खत्म हुए तो फिर यह देह-अभिमान, संस्कार आटोमेटिकली खत्म हो जावेंगे। यह बातें ही देह-अभिमान में लाती हैं। बातें ही खत्म हो जावेंगी तो उसका परिणाम भी खत्म हो जावेगा। छोटे-छोटे कारण में आने से भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान आ जाते हैं। तो क्या अब तक देह-अभिमान को छोड़ा नहीं है? बहुत प्यारा लगता है? अभी अपनी भाषा और वृति सभी चेंज करो। कोई को भी किस समय भी, किस परिस्थिति में, किस स्थिति में देखते हो लेकिन वृति और भाव अगर यथार्थ हैं तो आपके ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। कल्याण की वृति और भाव शुभाचिंतक का होना चाहिए। अगर यह वृति और भाव सदा ठीक रखो तो फिर यह बातें ही नहीं होंगी। कोई क्या भी करे, कोई आपके विघ्न रूप बने लेकिन आपका भाव ऐसे के ऊपर भी शुभाचिंतकपन का हो - इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी वा होली हंस। जिसका आपके प्रति शुभ भाव है उसके प्रति आप भी शुभ भाव रखते हो वह कोई बड़ी बात नहीं। कमाल ऐसी करनी चाहिए जो गायन हो। अपकारी पर उपकार करने वाले का गायन है। उपकारी पर उपकार करना - यह बड़ी बात नहीं। कोई बार-बार गिराने की कोशिश करे, आपके मन को डगमग करे, फिर भी आपको उसके प्रति सदा शुभाचिंतक का अडोल भाव हो, बात पर भाव न बदले। सदा अचल-अटल भाव हो, तब कहेंगे होली हंस हैं। फिर कोई बातें देखने में ही नहीं आवेंगी। नहीं तो इसमें भी टाइम बहुत वेस्ट होता है। बचपन में तो टाइम वेस्ट होता ही है। बच्चा टाइम वेस्ट करेगा तो कहेंगे बच्चा है। लेकिन समझदार अगर टाइम वेस्ट कर रहा है.........। बच्चे का वेस्ट टाइम नहीं फील होगा, उनका तो काम ही यह है। तो आप अब जिस सेवा के अर्थ निमित्त बने हुए हो वह स्टेज ही जगत्-माता की है। विश्व-कल्याणकारी हो ना। हद का कल्याण करने वाले अनेक है। विश्व-कल्याण की भावना की स्टेज है - जगत्-माता। तो जगत्-माता की स्टेज पर होते अगर इन बातों में टाइम वेस्ट करें तो क्या समझेंगे? की भावना की स्टेज है - जगत्-माता। तो जगत्-माता की स्टेज पर होते अगर इन बातों में टाइम वेस्ट करें तो क्या समझेंगे?
वरदान:- बाप के संस्कारों को अपना निजी संस्कार बनाने वाले व्यर्थ वा पुराने संस्कारों से मुक्त भव
कोई भी व्यर्थ संकल्प वा पुराने संस्कार देह-अभिमान के संबंध से हैं, आत्मिक स्वरूप के संस्कार बाप समान होंगे। जैसे बाप सदा विश्व कल्याणकारी, परोपकारी, रहमदिल, वरदाता....है, ऐसे स्वयं के संस्कार नेचुरल बन जाएं। संस्कार बनना अर्थात् संकल्प, बोल और कर्म स्वत: उसी प्रमाण चलना। जीवन में संस्कार एक चाबी हैं जिससे स्वत: चलते रहते हैं। फिर मेहनत करने की जरूरत नहीं रहती।
स्लोगन:- आत्मिक स्थिति में स्थित रह अपने रथ (शरीर) द्वारा कार्य कराने वाले ही सच्चे पुरूषार्थी हैं।