22-09-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठे बच्चे – तुम्हारी पढ़ाई का सारा मदार है योग पर,
योग से ही आत्मा पवित्र बनती है, विकर्म विनाश होते हैं”
प्रश्नः-
कई बच्चे बाप
का बनकर फिर हाथ छोड़ देते हैं, कारण क्या होता है?
उत्तर:-
बाप को
पूरी रीति न पहचानने के कारण, पूरा निश्चयबुद्धि न होने के कारण 8-10 वर्ष के बाद
भी बाप को फारकती दे देते हैं, हाथ छोड़ देते हैं। पद भ्रष्ट हो जाता है। 2-
क्रिमिनल आई होने से माया की ग्रहचारी बैठ जाती है, अवस्था नीचे ऊपर होती रहती है
तो भी पढ़ाई छूट जाती है।
ओम् शान्ति।
रूहानी बच्चों प्रति
रूहानी बाप समझा रहे हैं। अभी समझते हो कि हम सब रूहानी बेहद के बाप के बच्चे हैं,
इनको बापदादा कहा जाता है। जैसे तुम रूहानी बच्चे हो वैसे यह (ब्रह्मा) भी रूहानी
बच्चा है शिवबाबा का। शिवबाबा को रथ तो जरूर चाहिए ना इसलिए जैसे तुम आत्माओं को
आरगन्स मिले हुए हैं कर्म करने के लिए, वैसे शिवबाबा का भी यह रथ है क्योंकि यह
कर्मक्षेत्र है जहाँ कर्म करना होता है। वह है घर जहाँ आत्मायें रहती हैं। आत्मा ने
जाना है हमारा घर शान्तिधाम है, वहाँ यह खेल नहीं होता। बत्तियाँ आदि कुछ नहीं होती,
सिर्फ आत्मायें रहती हैं। यहाँ आती हैं पार्ट बजाने। तुम्हारी बुद्धि में है-यह
बेहद का ड्रामा है। जो एक्टर्स हैं, उन्हों की एक्ट शुरू से लेकर अन्त तक तुम बच्चे
नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार जानते हो। यहाँ कोई साधू-सन्त आदि नहीं समझाते हैं। यहाँ
हम बच्चे बेहद के बाप पास बैठे हैं, अब हमको वापिस जाना है, पवित्र तो जरूर बनना है
आत्मा को। ऐसे नहीं कि शरीर भी यहाँ पवित्र बनना है, नहीं। आत्मा पवित्र बनती है।
शरीर तो पवित्र तब बनें जब 5 तत्व भी सतोप्रधान हों। अब तुम्हारी आत्मा पुरूषार्थ
कर पावन बन रही है। वहाँ आत्मा और शरीर दोनों पवित्र होते हैं। यहाँ नहीं हो सकते।
आत्मा पवित्र बन जाती है तो फिर पुराना शरीर छोड़ती है, फिर नये तत्वों से नये शरीर
बनते हैं। तुम जानते हो हमारी आत्मा बेहद के बाप को याद करती है वा नहीं करती है?
यह तो हर एक को अपने से पूछना है। पढ़ाई का सारा मदार है योग पर। पढ़ाई तो सहज है,
समझ गये हैं कि चक्र कैसे फिरता है, मुख्य है ही याद की यात्रा। यह अन्दर गुप्त है।
देखने में थोड़ेही आता है। बाबा नहीं कह सकते कि यह बहुत याद करते हैं वा कम। हाँ,
ज्ञान के लिए बता सकेंगे कि यह ज्ञान में बहुत तीखा है। याद का तो कुछ देखने में नहीं
आता है। ज्ञान मुख से बोला जाता है। याद तो है अजपाजाप। जाप अक्षर भक्ति मार्ग का
है, जाप माना कोई का नाम जपना। यहाँ तो आत्मा को अपने बाप को याद करना है।
तुम जानते हो हम बाप
को याद करते-करते पवित्र बनते-बनते मुक्तिधाम-शान्तिधाम में जाकर पहुँचेंगे। ऐसे नहीं
कि ड्रामा से मुक्त हो जायेंगे। मुक्ति का अर्थ है – दु:ख से मुक्त हो, शान्तिधाम
जाए फिर सुखधाम में आयेंगे। पवित्र जो बनते हैं वह सुख भोगते हैं। अपवित्र मनुष्य
उन्हों की खिदमत करते हैं। पवित्र की महिमा है, इसमें ही मेहनत है। ऑखें बड़ा धोखा
देती हैं, गिर पड़ते हैं। नीचे-ऊपर तो सबको होना पड़ता है। ग्रहचारी सबको लगती है।
भल बाबा कहते, बच्चे भी समझा सकते हैं। फिर कहते हैं माता गुरू चाहिए क्योंकि अब
माता गुरू का सिस्टम चलता है। आगे पिताओं का था। अभी पहले-पहले कलष माताओं को मिलता
है। मातायें मैजारटी में हैं, कुमारियाँ राखी बाँधती हैं, पवित्रता के लिए। भगवान
कहते हैं काम महाशत्रु है, इस पर जीत पहनो। रक्षा बंधन पवित्रता की निशानी है, वो
लोग राखी बाँधते हैं। पवित्र तो बनते नहीं हैं। वह सब हैं आर्टीफीशियल राखी, कोई
पावन बनाने वाले नहीं हैं इसमें तो ज्ञान चाहिए। अभी तुम राखी बाँधते हो। अर्थ भी
समझाते हो। यह प्रतिज्ञा कराते हैं। जैसे सिक्ख लोगों को कंगन निशानी होती है परन्तु
पवित्र तो बनते नहीं। पतित को पावन बनाने वाला, सर्व का सद्गति दाता एक है, वह भी
देहधारी नहीं है। पानी की गंगा तो इन आंखों से देखने में आती है। बाप जो सद्गति दाता
है, उनको इन आंखों से नहीं देखा जाता। आत्मा को कोई भी देख नहीं सकते कि वह क्या
चीज़ है। कहते भी हैं हमारे शरीर में आत्मा है, उनको देखा है? कहेंगे नहीं। और सब
चीज़ें जिसका नाम है वह देखने में जरूर आती हैं। आत्मा का भी नाम तो है। कहते भी
हैं भ्रकुटी के बीच चमकता है अजब सितारा। परन्तु देखने में नहीं आते हैं। परमात्मा
को भी याद करते हैं, देखने में कुछ नहीं आयेगा। लक्ष्मी-नारायण को देखा जाता है इन
ऑखों से। लिंग की भल पूजा करते हैं परन्तु वह कोई यथार्थ रीति तो नहीं है ना। देखते
हुए भी जानते नहीं हैं, परमात्मा क्या? यह कोई नहीं जान सकते। आत्मा तो बहुत छोटी
बिन्दी है। देखने में नहीं आती है। न आत्मा को, न परमात्मा को देखा जा सकता है, जाना
जाता है। अभी तुम जानते हो हमारा बाबा आया हुआ है इनमें। इस शरीर की अपनी आत्मा भी
है, फिर परमपिता परमात्मा कहते हैं-मैं इनके रथ पर विराजमान हूँ इसलिए बापदादा कहते
हो। अब दादा को तो इन ऑखों से देखते हो, बाप को नहीं देखते हो। जानते हो बाबा ज्ञान
का सागर है, वह इस शरीर द्वारा हमको ज्ञान सुना रहे हैं। वह ज्ञान का सागर
पतित-पावन है। निराकार रास्ता कैसे बतायेंगे? प्रेरणा से तो कोई काम नहीं होता।
भगवान आते हैं यह किसको भी पता नहीं है। शिव जयन्ती भी मनाते हैं तो जरूर यहाँ आता
होगा ना। तुम जानते हो अभी वह हमको पढ़ा रहे हैं। बाबा इसमें आकर पढ़ाते हैं। बाप
को पूरी रीति न पहचानने कारण, निश्चयबुद्धि न होने कारण 8-10 वर्ष के बाद भी फारकती
दे देते हैं। माया बिल्कुल ही अंधा बना देती है। बाप का बनकर फिर छोड़ देते हैं तो
पद भ्रष्ट हो जाता है। अब तुम बच्चों को बाप का परिचय मिला है तो औरों को भी देना
है। ऋषि-मुनि आदि सब नेती-नेती करते गये। आगे तुम भी जानते नहीं थे। अभी तुम कहेंगे
हाँ हम जानते हैं तो आस्तिक हो गये। सृष्टि का चक्र कैसे फिरता है, यह भी तुम जानते
हो। सारी दुनिया और तुम खुद इस पढ़ाई के पहले नास्तिक थे। अब बाप ने समझाया है तो
तुम कहते हो हमको परमपिता परमात्मा बाप ने समझाया है, आस्तिक बनाया है। हम रचता और
रचना के आदि-मध्य-अन्त को नहीं जानते थे। बाप है रचता, बाप ही संगम पर आकर नई दुनिया
की स्थापना भी करते हैं और पुरानी दुनिया का विनाश भी करते हैं। पुरानी दुनिया के
विनाश के लिए यह महाभारत लड़ाई है, जिसके लिए समझते हैं, उस समय कृष्ण था। अभी तुम
समझते हो-निराकार बाप था, उनको देखा नहीं जाता है। कृष्ण का तो चित्र है, देखा जाता
है। शिव को देख नहीं सकते। कृष्ण तो है सतयुग का प्रिन्स। वही फीचर्स फिर हो न सकें।
कृष्ण भी कब कैसे आया, यह भी कोई नहीं जानते। कृष्ण को कंस की जेल में दिखाते हैं।
कंस सतयुग में था क्या? यह हो कैसे सकता। कंस असुर को कहा जाता है। इस समय सारी
आसुरी सम्प्रदाय है ना। एक-दो को मारते-काटते रहते हैं। दैवी दुनिया थी, यह भूल गये
हैं। ईश्वरीय दैवी दुनिया ईश्वर ने स्थापन की। यह भी तुम्हारी बुद्धि में है –
नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार। अभी तुम हो ईश्वरीय परिवार, फिर वहाँ होंगे दैवी परिवार।
इस समय ईश्वर तुमको लायक बना रहे हैं स्वर्ग का देवी-देवता बनाने। बाप पढ़ा रहे
हैं। इस संगमयुग को कोई भी नहीं जानते। कोई भी शास्त्र में इस पुरूषोत्तम युग की
बात नहीं है। पुरूषोत्तम युग अर्थात् जहाँ पुरूषोत्तम बनना होता है। सतयुग को कहेंगे
पुरूषोत्तम युग। इस समय तो मनुष्य पुरूषोत्तम नहीं है। इनको तो कनिष्ट तमोप्रधान
कहेंगे, यह सब बातें सिवाए तुम ब्राह्मणों के और कोई नहीं समझ सकते। बाप कहते हैं
यह है आसुरी भ्रष्टाचारी दुनिया। सतयुग में ऐसा कोई वातावरण नहीं होता। वह थी
श्रेष्ठाचारी दुनिया। उन्हों के चित्र हैं। बरोबर यह श्रेष्ठाचारी दुनिया के मालिक
थे। भारत के राजायें होकर गये हैं जो पूजे जाते हैं। पूज्य पवित्र थे, जो ही फिर
पुजारी बने। पुजारी भक्ति मार्ग को, पूज्य ज्ञान मार्ग को कहा जाता है। पूज्य सो
पुजारी, पुजारी फिर पूज्य कैसे बनते हैं। यह भी तुम जानते हो इस दुनिया में पूज्य
एक भी हो न सके। पूज्य परमपिता परमात्मा और देवताओं को ही कहा जाता है। परमपिता
परमात्मा है सबका पूज्य। सब धर्म वाले उनकी पूजा करते हैं। ऐसे बाप का जन्म यहाँ ही
गाया जाता है। शिव जयन्ती है ना। परन्तु मनुष्यों को कुछ पता नहीं कि उनका जन्म
भारत में होता है, आजकल तो शिवजयन्ती की हॉली डे भी नहीं करते। जयन्ती मनाओ, न मनाओ,
तुम्हारी मर्जी। आफिशियल हॉली डे नहीं है। जो शिवजयन्ती को नहीं मानते हैं, वह तो
अपने काम पर चले जाते हैं। बहुत धर्म हैं ना। सतयुग में ऐसी बातें होती नहीं। वहाँ
यह वातावरण ही नहीं। सतयुग है ही नई दुनिया, एक धर्म। वहाँ यह पता नहीं पड़ता कि
हमारे पीछे चन्द्रवंशी राज्य होगा। यहाँ तुम सब जानते हो-यह-यह पास्ट हो गया है।
सतयुग में तुम होंगे, वहाँ किस पास्ट को याद करेंगे? पास्ट तो हुआ कलियुग। उनकी
हिस्ट्री-जॉग्राफी सुनने से क्या फायदा।
यहाँ तुम जानते हो हम
बाबा के पास बैठे हैं। बाबा टीचर भी है, सतगुरू भी है। बाप आये हैं सबकी सद्गति करने।
सभी आत्माओं को जरूर ले जायेंगे। मनुष्य तो देह-अभिमान में आकर कहते हैं, सब मिट्टी
में मिल जाना है। यह नहीं समझते आत्मायें तो चली जायेंगी, बाकी यह शरीर मिट्टी के
बने हुए हैं, यह पुराना शरीर खत्म हो जाता। हम आत्मा एक शरीर छोड़ दूसरा जाए लेती
हैं। यह इस दुनिया में हमारा अन्तिम जन्म है, सब पतित हैं, सदैव पावन तो कोई रह नहीं
सकते। सतोप्रधान, सतो, रजो, तमो होते ही हैं। वो लोग तो कह देते सब ईश्वर के ही रूप
हैं, ईश्वर ने अपने अनेक रूप बनाये हैं, खेलपाल करने के लिए। हिसाब-किताब कुछ नहीं
जानते। न खेलपाल करने वाले को जानते हैं। बाप ही बैठकर वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी
समझाते हैं। खेल में हर एक का पार्ट अलग-अलग है। सबका पोज़ीशन अलग-अलग है, जो जैसा
पोजीशन वाला होता है, उनकी महिमा होती है। यह सब बातें बाप संगम पर ही समझाते हैं।
सतयुग में फिर सतयुग का पार्ट चलेगा। वहाँ यह बातें नहीं होगी। यहाँ तुमको सृष्टि
चक्र का ज्ञान बुद्धि में फिरता रहता है। तुम्हारा नाम ही है स्वदर्शन चक्रधारी।
लक्ष्मी-नारायण को थोड़ेही स्वदर्शन चक्र दिया जाता है। यह हैं ही यहाँ के। मूलवतन
में सिर्फ आत्मायें रहती हैं, सूक्ष्मवतन में कुछ नहीं। मनुष्य, जानवर, पशु पक्षी
आदि सब यहाँ होते हैं। सतयुग में मोर आदि दिखाते हैं। ऐसे नहीं कि वहाँ मोर के पंख
निकाल पहनते हैं, मोर को थोड़ेही दु:ख देंगे। ऐसे भी नहीं मोर का गिरा हुआ पंख ताज
में लगायेंगे। नहीं, ताज में भी झूठी निशानी दे दी है। वहाँ सब खूबसूरत चीजें होती
हैं। गन्दी कोई चीज़ का नाम-निशान नहीं। ऐसी कोई चीज़ नहीं होती जिसको देखकर घृणा
आये। यहाँ तो घृणा आती है ना। वहाँ जानवरों को भी दु:ख नहीं होता है। सतयुग कितना
फर्स्टक्लास होगा। नाम ही है स्वर्ग, हेविन, नई दुनिया। यहाँ तो पुरानी दुनिया में
देखो बरसात के कारण मकान गिरते रहते हैं। मनुष्य मर जाते हैं। अर्थक्वेक होगी सब
दबकर मर जायेंगे। सतयुग में बहुत थोड़े होगे फिर बाद में वृद्धि को पाते रहेंगे।
पहले सूर्यवंशी होंगे। जब दुनिया 25 परसेन्ट पुरानी होगी तो पीछे चन्द्रवंशी होंगे।
सतयुग 1250 वर्ष है, वह है 100 परसेन्ट नई दुनिया। जहाँ देवी-देवता राज्य करते हैं।
तुम्हारे में भी बहुत इन बातों को भूल जाते हैं। राजधानी तो स्थापन होनी ही है।
हार्टफेल नहीं होना है। पुरूषार्थ की बात है। बाप सभी बच्चों से एक समान तदबीर (पुरुषार्थ)
कराते हैं। तुम अपने लिए विश्व पर स्वर्ग की बादशाही स्थापन करते हो। अपने को देखना
है हम क्या बनेंगे? अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे
बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी
बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) इस पुरुषोत्तम युग में स्वर्ग के देवी-देवता बनने की पढ़ाई पढ़कर
स्वयं को लायक बनाना है। पुरूषार्थ में हार्टफेल (दिलशिकस्त) नहीं होना है।
2) इस बेहद के खेल में हर एक्टर का पार्ट और पोजीशन अलग-अलग है, जैसी जिसकी
पोजीशन वैसा उसे मान मिलता है, यह सब राज़ समझ वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी का
सिमरण कर स्वदर्शन चक्रधारी बनना है।
वरदान:-
पास विद आनर बनने के लिए पुरुषार्थ की गति तीव्र और
ब्रेक पावरफुल रखने वाले यथार्थ योगी भव
वर्तमान समय के प्रमाण पुरूषार्थ की गति तीव्र और ब्रेक
पावरफुल चाहिए तब अन्त में पास विद आनर बन सकेंगे क्योंकि उस समय की परिस्थितियां
बुद्धि में अनेक संकल्प लाने वाली होंगी, उस समय सब संकल्पों से परे एक संकल्प में
स्थित होने का अभ्यास चाहिए। जिस समय विस्तार में बिखरी हुई बुद्धि हो उस समय स्टॉप
करने की प्रैक्टिस चाहिए। स्टॉप करना और होना। जितना समय चाहें उतना समय बुद्धि को
एक संकल्प में स्थित कर लें - यही है यर्थाथ योग।
स्लोगन:-
आप
ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट हो इसलिए अलमस्त नहीं हो सकते। सर्वेन्ट माना सदा सेवा पर
उपस्थित।