11-06-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 09.01.95 "बापदादा" मधुबन
निश्चयबुद्धि की निशानियाँ
- निश्चित विजयी और सदा निश्चिन्त स्थिति का अनुभव
आज सर्व बच्चों के
रक्षक और शिक्षक बापदादा अपने सभी ब्राह्मण बच्चों के फाउण्डेशन को देख रहे थे। ये
तो सभी जानते हो कि वर्तमान श्रेष्ठ जीवन का फाउण्डेशन निश्चय है। जितना निश्चय रूपी
फाउण्डेशन पक्का है उतना ही आदि से अब तक सहज योगी, निर्मल स्वभाव, शुभ भावना की
वृत्ति और आत्मिक दृष्टि सदा नेचुरल रूप में अनुभव होती है। हर समय चलन और चेहरे से
उनकी झलक अनुभव होती है क्योंकि ब्राह्मण जीवन में सिर्फ जानना नहीं है कि ‘मैं ये
हूँ और बाप ये है', लेकिन जानने का अर्थ है जो जानते हैं वो मानना और चलना।
बापदादा देख रहे थे
कि जो भी बच्चे अपने को ब्राह्मण कहलाते हैं वो सभी ये फ़लक से कहते हैं कि हम
निश्चयबुद्धि हैं। तो बाप-दादा सभी निश्चयबुद्धि बच्चों से पूछते हैं, जब आप सभी
कहते हो कि हम निश्चयबुद्धि विजयी हैं तो कभी विजय, कभी हार क्यों होती है? जब
कभी-कभी थोड़ी हलचल होती है तो क्या उस समय निश्चय खत्म हो जाता है? जब निश्चयबुद्धि
सदा हो तो विजयी सदा हो? कि बीच-बीच में घुटका और झुटका होता है? निश्चय का
फाउण्डेशन चारों ओर से मजबूत है या चारों ओर के बजाय कभी एक ओर कभी दो ओर ढीले हो
जाते हैं? कोई भी चीज को मजबूत किया जाता है तो चारों ओर से टाइट किया जाता है ना।
अगर एक साइड भी थोड़ा-सा हलचल वाला हो तो हिलेगा ना! तो चारों प्रकार का निश्चय
अर्थात् बाप में, आप में, ड्रामा में और ब्राह्मण परिवार में निश्चय। ये चार ही तरफ
के निश्चय को जानना नहीं लेकिन मानकर चलना। अगर जानते हैं लेकिन चलते नहीं हैं तो
विजय डगमग होती है। जिस समय विजय हलचल में आती है, तो चेक करना कि चारों तरफ से कौन-सा
तरफ हल-चल में है? बापदादा देखते हैं कि कई बच्चों को बाप में पूरा निश्चय है, इसमें
पास हैं लेकिन अपने आपमें जो निश्चय चाहिए उसमें अन्तर पड़ जाता है। जानते भी हैं,
कहते भी हैं कि मैं ये हूँ, मैं ये हूँ, लेकिन जो जानते हैं, मानते हैं वो स्वरूप
में, चलन में, कर्म में हो - इसमें ही अन्तर पड़ जाता है। एक तरफ सोचते हैं कि मैं
मास्टर सर्वशक्तिमान् हूँ, विश्व कल्याणकारी हूँ, दूसरे तरफ छोटी-सी परिस्थिति पर
विजय नहीं प्राप्त कर सकते। हैं तो मास्टर सर्वशक्तिमान् लेकिन ये परिस्थिति बहुत
बड़ी है, ये बात ही ऐसी है! तो क्या ये निश्चय है कि सिर्फ जानना है लेकिन मानकर
चलना नहीं? कहते वा सोचते हैं कि मैं विश्व कल्याणकारी हूँ लेकिन विश्व को तो छोड़ो,
स्व कल्याण में भी कमजोर होते हैं। अगर उस समय उन्हें कहो कि क्या स्वयं को
परिवर्तन कर स्व कल्याणकारी नहीं बन सकते? तो जवाब देते हैं कि हैं तो विश्व
कल्याणकारी लेकिन स्व कल्याण बहुत मुश्किल है! ये बात बदलना मुश्किल है! तो विश्व
कल्याणकारी कहेंगे या कमजोर? तो स्व में भी परिस्थिति प्रमाण, समय प्रमाण,
सम्बन्ध-सम्पर्क प्रमाण निश्चय स्वरूप में आये, ऐसे निश्चय बुद्धि की विजय हुई ही
पड़ी है। जैसे सभी को ये पक्का निश्चय है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ, इसके लिए कोई
दुनिया के वैज्ञानिक भी आपको हिलाने की कोशिश करें कि आत्मा नहीं शरीर हो, तो
मानेंगे नहीं और ही उसको मनायेंगे। तो जैसे ये पक्का है कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं
आत्मा हूँ और कौन-सी आत्मा हूँ, ये भी पक्का है, ऐसे निश्चयबुद्धि की विजय भी इतनी
निश्चित है। हार असम्भव है और विजय निश्चित है। और ये भी निश्चित है कि बातें भी
अन्त तक आनी हैं। लेकिन उसमें विजयी बनने के लिए एक ही समय पर चारों ही तरफ का
निश्चय पक्का चाहिये। तीन में निश्चय है और एक में नहीं है तो विजय निश्चित नहीं है
लेकिन मेहनत से विजय होगी। निश्चित विजय वाले को मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। कई बार कई
कहते हैं बापदादा तो बहुत अच्छा, वो तो पक्का है कि बाप है और हम बच्चे हैं, हमारा
बाप से ही सम्बन्ध है लेकिन दैवी परिवार में खिटखिट होती है, उसमें निश्चय डगमग हो
जाता है इसीलिये परिवार को छोड़ देते हैं, हल्का कर देते हैं। तो एक साइड ढीला हो
गया ना। बिना परिवार के माला में कैसे आयेंगे? माला कब बनती है? जब दाना दाने से
मिलता है और एक ही धागे में पिरोये हुए होते हैं। अगर अलग-अलग धागे में अलग-अलग दाना
हो तो उसको माला नहीं कहेंगे। तो परिवार है माला। अगर परिवार को छोड़कर तीन निश्चय
पक्के हैं तो भी विजय निश्चित नहीं है। चलो परिवार की खिटखिट से किनारा कर लो, बाप
का सहारा हो, परिवार का किनारा हो, तो चलेगा? काम तो बाप से है या भाइयों से है?
बाप से काम है, वर्सा बाप से मिलना है, भाई-बहनों से क्या मिलेगा? लेकिन ब्राह्मण
जीवन में यही न्यारापन है कि धर्म और राज्य दोनों की स्थापना होती है, सिर्फ धर्म
की नहीं। और धर्म पितायें सिर्फ धर्म की स्थापना करते हैं, बाप की विशेषता है धर्म
और राज्य की स्थापना करना। तो राज्य में एक राजा क्या करेगा? बहुत अच्छा तख्त भी
हो, ताज भी हो, क्या करेगा? राजधानी भी चाहिये ना? तो राजधानी अर्थात् ब्राह्मण
परिवार सो राज परिवार इसलिए ब्राह्मण परिवार में हर परिस्थिति में निश्चयबुद्धि, तब
राज्य-भाग्य में भी सदा राज्य अधिकारी होंगे। तो ऐसे नहीं समझना - कोई बात नहीं,
परिवार से नहीं बनती है, बाप से तो बनती है! ड्रामा अगर भूल जाता है तो बाप तो याद
रहता ही है! लेकिन कोई भी कमजोरी एक ही समय पर होती है, स्व स्थिति अर्थात्
स्व-निश्चय भी अगर कमजोर होता है तो विजय निश्चित के बजाय हलचल में आ जाती है। तो
बापदादा निश्चय के फाउण्डेशन को चेक कर रहे थे। क्या देखा?
सदा चार ही प्रकार का
निश्चय एक समय पर साथ नहीं रहता, कभी रहता कभी हिलता इसलिये सदा विजयी का अनुभव नहीं
कर पाते हैं। फिर सोचते हैं - होना तो ये चाहिये लेकिन पता नहीं क्यों नहीं हुआ?
किया तो बहुत मेहनत, सोचा तो बहुत अच्छा... लेकिन सोचना और होना इसमें अन्तर पड़
जाता है। इसका अर्थ ही है कि निश्चय के चारों तरफ मजबूत नहीं हैं। और हंसी की बात
तो ये है कि ड्रामा भी कह रहे हैं, है तो ड्रामा, है तो ड्रामा... लेकिन अच्छी तरह
से हिल भी रहे हैं। कभी संकल्प में हिलते, कभी बोल तक भी हिल जाते, कभी कर्म तक भी
आ जाते। उस समय क्या लगता होगा, दृश्य सामने लाओ, ड्रामा-ड्रामा भी कह रहे हैं और
हिलडुल भी रहे हैं! लेकिन निश्चयबुद्धि की निशानी है निश्चित विजयी। अगर विधि ठीक
है तो सिद्धि प्राप्त न हो, ये हो नहीं सकता। तो जब भी कोई भी कार्य में विजय
प्राप्त नहीं होती है तो समझ लो कि निश्चय की कमी है। चारों ओर चेक करो, एक ओर नहीं।
और बात, निश्चयबुद्धि
की निशानी जैसे निश्चित विजय है वैसे निश्चिन्त होंगे। कोई भी व्यर्थ चिन्तन आ ही
नहीं सकता। सिवाए शुभ चिन्तन के व्यर्थ का नाम-निशान नहीं होगा। ऐसे नहीं, व्यर्थ
आया, भगाया। निश्चयबुद्धि के आगे व्यर्थ आ नहीं सकता क्योंकि क्यों, क्या, और कैसे
- ये व्यर्थ होता है। जब ड्रामा के राज़ को जानते हैं, आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले
हैं तो जो ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले हैं वो छोटी-सी बात के
आदि-मध्य-अन्त को नहीं जान सकते! न जानने के कारण क्यों, क्या, कैसे, ऐसे - ये
व्यर्थ संकल्प चलते हैं। अगर ड्रामा में अटल निश्चय है, नॉलेजफुल भी हैं, पॉवरफुल
भी हैं तो व्यर्थ संकल्प हिलाने की हिम्मत भी नहीं रख सकते। परन्तु जब हिलते हैं तो
सोचते हैं पता नहीं क्या हो गया! तो बापदादा हंसते हैं कि ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त
को जान लिया, अपने 84 जन्म को जान लिया और एक बात को नहीं जानते! बड़े होशियार हो!
होशियारी दिखाते हो ना समय प्रति समय! कल्प वृक्ष के सभी पत्तों को जानते हो कि नहीं?
सभी वृक्ष के फाउण्डेशन में बैठे हो? या 7-8 बैठे हैं? तो जड़ में बैठे हुए वृक्ष
को जानते हो? पत्ते-पत्ते को जानते हो और ये पता नहीं कैसे? तो निश्चय की निशानियाँ
निश्चिन्त स्थिति, इसका अनुभव करो। होगा, नहीं होगा, क्या होगा, कर तो रहे हैं, देखें
क्या होता है - इसको निश्चिन्त नहीं कहेंगे। और फिर बाप के आगे ही फरियाद करते हैं
- आप मददगार हो ना, आप रक्षक हो ना, आप ये हो ना, आप ये हो ना...। फरियाद करना
अर्थात् अधिकार गँवाना। अधिकारी फरियाद नहीं करेंगे - ये कर लो ना, ये हो जाये ना।
तो निश्चयबुद्धि अर्थात् निश्चिन्त। तो ये प्रैक्टिकल निशानियाँ अपने आपमें चेक करो।
ऐसे अलबेले नहीं रह जाना - हम तो हैं ही निश्चयबुद्धि। कौन-सा निश्चय कमजोर है वो
चेक करो और चेंज करो। सिर्फ चेक नहीं करना। बापदादा ने कहा था ना चेकर के साथ मेकर
भी हो। सिर्फ चेकर नहीं। चेक करने का अर्थ ही है सेकेण्ड में चेंज होना। लेकिन चेक
करो और चेंज नहीं करो तो बहुत काल से स्वयं में दिलशिकस्त के संस्कार पक्के होते
जायेंगे और जो बहुतकाल के संस्कार हैं वही अन्त में अवश्य सामना करते रहेंगे। कोई
सोचे अन्त में तो मैं सिवाए बाप के और कुछ नहीं सोचूँगा। लेकिन हो नहीं सकता।
बहुतकाल का अभ्यास चाहिये। नहीं तो एक सेकेण्ड सोचेंगे - शिवबाबा शिवबाबा शिवबाबा...
और दूसरे सेकेण्ड माया कहेगी - नहीं, तुम्हारे में शक्ति नहीं है, तुम हो ही कमजोर,
तो युद्ध चलती रहेगी। यदि निश्चिन्त नहीं होंगे तो ब्राह्मण जीवन के अन्तकाल का जो
लक्ष्य वर्णन करते हो वो सहज कैसे होगा! और अगर अन्त तक ये व्यर्थ संकल्प होंगे तो
वही भूतों के, यमदूतों के रूप में आयेंगे। और कोई यमदूत नहीं आते हैं, ये व्यर्थ
संकल्प अपनी कमजोरियाँ, यही यमदूत के रूप में आते हैं। यमदूत क्या करते हैं? डराते
हैं। और दूसरों के लिये कहेंगे विमान में जायेंगे अर्थात् उड़ती कला से पार हो
जायेंगे। कोई विमान आदि नहीं हैं लेकिन उड़ती कला का अनुभव है। इसलिये पहले से ही
चेक करके चेंज करो। कब तक करेंगे? बापदादा को खुश तो कर देते हैं - करेंगे,
प्रतिज्ञा भी लिख देते हैं लेकिन वो कागज़ तक रहती हैं या जीवन तक?
अच्छा, आज मधुबन
निवासियों का भी टर्न है। मधुबन वालों से तो विशेष बापदादा का स्नेह है। सबसे है
लेकिन फिर भी थोड़ा-सा विशेष मधुबन निवासियों से है क्योंकि निमित्त हैं। फिर भी
देखो आप आते हैं, खातिरी तो ठीक करते हैं ना। मधुबन वाले खातिरी करने में पास है
ना। मेहमान-निवाजी करना ही महानता है। जिसको मेहमान-निवाजी करना आता है, वो महान्
हो ही जाता है। सिर्फ खाने-पीने से नहीं लेकिन दिल के स्नेह की मेहमान-निवाजी, वो
सबसे श्रेष्ठ है। चाहे पिकनिक कितनी भी करा लो लेकिन दिल का स्नेह नहीं मिला तो
कहेंगे कुछ नहीं मिला। तो मधुबन वाले दिल के स्नेह सहित मेहमान-निवाजी करते हैं।
करते हो ना कि कोई नीचे-ऊपर करेंगे तो कहेंगे बापदादा ने ऐसे ही कहा? ऐसे नहीं करना।
स्नेह के सागर के बच्चे हो ना, कब तक स्नेह देंगे? नहीं। गागर के बच्चे नहीं, सागर
के बच्चे, बेहद।
सबके पास स्नेह का
स्टॉक है ना? माताओं के पास भी है, कुमारियों के पास भी है, पाण्डवों के पास भी है।
सागर है या थोड़ा है? तो कभी क्रोध तो नहीं करते होंगे ना? जब स्नेह के सागर हैं तो
क्रोध कहाँ से आया? किसके संस्कारों को जानकर सेटिस्फाय करते हो ना। चाहे वो राँग
है लेकिन आप तो नॉलेजफुल हो ना, आप तो जानते हो ना कि ये क्या है लेकिन उस समय क्या
कहते हैं - इसने ऐसे किया ना, इसीलिये हमने भी किया। राँग से राँग हो गया तो क्या
कमाल की? उसने राँग किया और आपने उसका रेसपाण्ड भी राँग ही दिया! कई कहते हैं ना
क्रोध एक बारी करते हैं तो कुछ नहीं होता, बार-बार करता रहता है! तो जानते हो कि
जिसका स्वभाव ही क्रोध का है तो वो क्रोध नहीं करेगा तो क्या करेगा! उसका काम है
क्रोध करना और आपका काम है स्नेह देना या क्रोध करना? वो 10 बारी करे तो आप एक बारी
तो जवाब देंगे ना? नहीं देंगे तो वो 20 बारी करेगा! फिर क्या करेंगे? तो इतनी
सहनशक्ति है? या उसने 10 किया, आपने आधा किया कोई हर्जा नहीं? उसने झूठ बोला, आपने
क्रोध किया, तो क्या ठीक हुआ? फिर बड़े बहादुरी से कहते हैं - झूठ बोला ना, इसीलिये
क्रोध आ गया। लेकिन झूठ बोलना तो अच्छा नहीं लगा और क्रोध करना अच्छा है! तो स्नेह
के सागर के मास्टर स्नेह के सागर। मास्टर स्नेह के सागर के नयन, चैन, वृत्ति, दृष्टि
में ज़रा भी और कोई भाव नहीं आ सकता। यदि थोड़ा-थोड़ा जोश आ गया तो क्या उसको स्नेह
का सागर कहेंगे? कि लोटा है? चाहे कुछ भी हो जाये, सारी दुनिया क्यों नहीं आप पर
क्रोध करे लेकिन मास्टर स्नेह के सागर दुनिया की परवाह नहीं करेंगे। बेपरवाह बादशाह
हो। जो परवाह थी वो पा लिया। अभी इन व्यर्थ बातों से बेपरवाह बादशाह। चेकिंग की
परवाह करो, चेंज होने की परवाह करो, लेकिन व्यर्थ में बेपरवाह। कर सकते हो कि बच्चा,
पोत्रा, धोत्रा, धोत्री... थोड़ा-सा क्रोध करेगा, थोड़ा-सा नीचे-ऊपर करेगा, तो
स्नेह के बजाय और भावना भी आ जायेगी? दफ्तर में जायेंगे, बिजनेस में जायेंगे, नौकर
ऐसा मिल जायेगा, वायुमण्डल ऐसा मिल जायेगा... लेकिन व्यर्थ से बेपरवाह बादशाह।
समर्थ में बेपरवाह नहीं होना। कई उल्टा भी उठा लेते हैं, जहाँ मर्यादा होगी वहाँ
कहेंगे बापदादा ने कहा ना कि बेपरवाह बादशाह बन जाओ। लेकिन मर्यादाओं में बेपरवाह
नहीं। आपका टाइटल है मर्यादा पुरुषोत्तम। ये मर्यादायें ही ब्राह्मण जीवन के कदम
हैं। अगर कदम पर कदम नहीं रखा तो मंजिल कैसे मिलेगी? ब्रह्मा बाप के कदम पर कदम रखो।
तो ये मर्यादायें ही कदम हैं। अगर इस कदम में थोड़ा भी नीचे-ऊपर होते हो तो मंजिल
से दूर हो जाते हो और फिर मेहनत करनी पड़ती है। और बापदादा को बच्चों की मेहनत अच्छी
नहीं लगती, कहते हैं सहज योगी और करते हैं मेहनत। तो अच्छा लगता है क्या? अच्छा। (बापदादा
ने ड्रिल कराई)
चारों ओर के सर्व
निश्चयबुद्धि श्रेष्ठ आत्मायें, सदा निश्चित विजयी आत्मायें, सदा निश्चिन्त आत्मायें,
सदा श्रेष्ठ विधि द्वारा वृद्धि करने के निमित्त बनने वाली विशेष आत्मायें, सदा एक
बाप एक बल एक भरोसे में अचल-अडोल रहने वाले समीप आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार
और नमस्ते।
वरदान:-
दिल के स्नेह
और संबंध के आधार पर समीपता का अनुभव करने वाले निरन्तर योगी भव
ब्राह्मण आत्माओं में
कोई दिल के स्नेह, सम्बन्ध से याद करते हैं और कोई दिमाग अर्थात् नॉलेज के आधार पर
संबंध को अनुभव करने का बार-बार प्रयत्न करते हैं। जहाँ दिल का स्नेह और संबंध अति
प्यारा अर्थात् समीप है वहाँ याद भूलना मुश्किल है। जैसे शरीर के अन्दर नस-नस में
ब्लड समाया हुआ है ऐसे आत्मा में निश-पल अर्थात् हर पल याद समाई हुई है, इसको कहते
हैं दिल के स्नेह सम्पन्न निरन्तर याद।
स्लोगन:-
नि:स्वार्थ और निर्विकल्प स्थिति से सेवा करो तब सफलता मिलेगी।