03-09-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 25.11.95 "बापदादा" मधुबन
“परमत, परचिंतन और
परदर्शन से मुक्त बनो और पर-उपकार करो"
आज बापदादा अपने चारों
ओर जो बाप के बच्चे हैं, विशेष हैं, उन सर्व विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। चाहे
भारत के वा विदेश के किसी भी कोने में हैं, लेकिन बापदादा सर्व विशेष आत्माओं को
समीप देख रहे हैं। बापदादा को अपने विशेष बच्चों को देख हर्ष होता है। जैसे आप बच्चों
को बाप को देखकर खुशी होती है ना! खुशी होती है तब तो भाग करके आये हो ना। तो बाप
को भी खुशी होती है कि मेरा एक-एक बच्चा विशेष आत्मा है। चाहे बुजुर्ग हैं, अनपढ़
हैं, छोटे बच्चे हैं, युवा हैं, प्रवृत्ति वाले हैं लेकिन सारे विश्व के आगे विशेष
हैं। चाहे कितने भी बड़े-बड़े वैज्ञानिक चमत्कार दिखाने वाले भी हैं, चन्द्रमा तक
पहुँचने वाले भी हैं लेकिन बाप के विशेष बच्चों के आगे वो भी अन्जान हैं। पांचों ही
तत्वों को जान लिया, उन्हों पर विजय भी प्राप्त कर ली लेकिन छोटी सी बिन्दु आत्मा
को नहीं जाना। यहाँ छोटे बच्चे से भी पूछेंगे - तुम कौन हो, तो क्या कहेगा? आत्मा
हूँ कहेगा ना। आत्मा कहाँ रहती है, वो भी बतायेगा। और वैज्ञानिक से पूछो आत्मा क्या
है? आत्मा के ज्ञान को अभी तक जान नहीं सके। तो कितने भी बड़े हिस्ट्री के हिसाब
से, इस दुनिया के हिसाब से विशेष हों लेकिन जिसने अपने को नहीं जाना, उससे तो यहाँ
का पांच वर्ष वाला बच्चा विशेष हो गया। आप लोगों का शुरू-शुरू का बहुत फ़लक का गीत
है, याद है कौन सा गीत है? एक गीत था - कितना भी बड़ा सेठ, स्वामी हो लेकिन अलफ को
नहीं जाना...। तो कितने भी बड़े हो, चाहे नेता हो, चाहे अभिनेता हो लेकिन अपने आपको
नहीं जाना तो क्या जाना? तो ऐसी विशेष आत्मायें हो। यहाँ की अनपढ़ बुजुर्ग माता है
और दूसरी तरफ अच्छा महात्मा है लेकिन बुजुर्ग माता फलक से कहेगी कि हमने परमात्मा
को पा लिया। और महात्मा कहेगा - परमात्मा को पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन यहाँ 100
वर्ष के आयु वाली भी निश्चयबुद्धि होगी तो वो क्या कहेगी? तुम ढूंढते रहो, हमने तो
पा लिया। तो महात्मा भी आपके आगे क्या है! प्रवृत्ति वाले फलक से कहेंगे कि हम डबल
पलंग पर सोते, इकट्ठे रहते भी पवित्र हैं, क्योंकि हमारे बीच में बाप है। और
महात्मायें क्या कहेंगे? कहेंगे - आग-कपूस इकट्ठा रहना, यह तो असम्भव लगता है। और
आपके लिये क्या है? प्रवृत्ति वाले बताओ - पवित्र रहना मुश्किल है या सहज है? सहज
है या कभी-कभी मुश्किल हो जाता है? जो पक्के हैं वो तो बड़ी सभा हो या कुछ भी हो
फलक से कह सकते हैं कि पवित्रता तो हमारा स्वधर्म है। परधर्म नहीं है, स्वधर्म है।
तो स्व सहज होता है, पर मुश्किल होता है। अपवित्रता परधर्म है लेकिन पवित्रता
स्वधर्म है। तो ऐसे अपनी विशेषता को जानते हो ना? क्योंकि नये-नये भी बहुत आये हैं
ना? लेकिन कितने भी नये हैं पवित्रता का पाठ तो पक्का है ना? कई बच्चे ऐसा भी करते
हैं - जब तक बाप से मिलने का एक साल पूरा नहीं होता, सबको पता है कि यह नियम पक्का
है, तो मधुबन में आने तक तो ठीक रहते हैं लेकिन देख लिया, पहुँच गये, तो कई वापस
जाकर अलबेले भी हो जाते हैं लेकिन सोचो कि पवित्रता की प्रतिज्ञा किससे की? बाप से
की ना? बाप का फरमान है ना? तो बाप से प्रतिज्ञा कर और फिर अगर अलबेले होते हैं तो
नुकसान किसको होगा? ब्राह्मण परिवार में तो एक जाते, 10 आते हैं। लेकिन नुकसान
कमज़ोर होने का, उन आत्माओं को होता है इसलिए जो भी नये-नये पहली बार आये हैं वो
बाप के घर में तो पहुँच गये - यह तो भाग्य की बात है ही लेकिन तकदीर की लकीर को कभी
भी कम नहीं करना। तकदीर को बड़ा करना।
देखो, कोई भी बच्चा
लौकिक में भी पैदा होता है तो सभी क्या कहते हैं? सदा जिन्दा रहे, बड़ी आयु रहे। तो
बाप-दादा भी विशेष आत्माओं की अविनाशी विशेषता देखना चाहते हैं। थोड़े टाइम की नहीं।
एक साल चले, दो साल चले - ये नहीं। अविनाशी रहने वाले को ही अविनाशी प्रालब्ध
प्राप्त होती है। तो मातायें भी पक्की हैं? क्योंकि चाहे आप एक साल के हो या दो साल
के हो, चार के हो लेकिन समाप्ति तो एक ही समय होनी है ना! विनाश तो इकट्ठा ही होगा
ना! कि आप कहेंगे कि हम तो दो साल के हैं हमारी सिल्वर जुबली हो जावे, पीछे विनाश
होवे! यह तो नहीं होगा ना इसलिए पीछे आने वाले को और आगे जाना है। थोड़े समय में
बहुत कमाई कर सकते हो। फिर भी आप लोगों को पुरुषार्थ का समय मिला है। आगे चल करके
तो इतना समय भी नहीं मिलेगा। सुनाया था ना कि अभी लेट का बोर्ड तो लग गया है लेकिन
टूलेट का नहीं लगा है। तो आप सभी लक्की हो। सिर्फ अपने भाग्य को स्मृति में रखते
हुए बढ़ते चलना। कोई बातों में नहीं जाना।
आज बापदादा देख रहे
थे कि बच्चों के पुरुषार्थ का समय वेस्ट क्यों जाता है? चाहता कोई नहीं है, सब चाहते
हैं कि हमारा समय सफल हो लेकिन बीच-बीच में कहाँ आधा घण्टा, कहाँ 15 मिनट, कहाँ 5
मिनट वेस्ट चला जाता है। तो उसका कारण क्या? आज बापदादा ने देखा कि मैजारिटी का
विशेष पुरुषार्थ जो कम या ढीला होता है उसके तीन कारण हैं।
पहला, चलते-चलते
श्रीमत के साथ-साथ आत्माओं की परमत मिक्स कर देते हैं। कोई ने कोई बात सुना दी और
आप समझते हो कि सुनाने वाला तो अच्छा, सच्चा महारथी है और आपका उस पर फेथ भी है, जब
ऐसी कोई आत्मा आपको कोई ऐसी बातें सुनाती है जिसमें इन्टरेस्ट भी आता है, समाचार तो
अच्छा है... जैसे संसार समाचार अच्छा लगता है ना तो ब्राह्मण संसार समाचार भी अच्छा
लगता है, तो आपने उस पर फेथ रख करके वो बात सुन ली माना अपने अन्दर समा ली, कट नहीं
किया, तो बात सच्ची भी है, समाचार सच्चा भी होता है, सब झूठा नहीं होता, कोई सच्चा
भी होता है लेकिन बाप का फरमान क्या है? कि ऐसे समाचार भले सुनो - ये है फरमान? नहीं,
जिससे आपका कोई कनेक्शन नहीं है, सिर्फ दिलचश्प समाचार है, आप कर कुछ नहीं सकते,
सिर्फ सुन लिया तो वह समाचार बुद्धि में तो गया, टाइम वेस्ट तो हुआ या नहीं? और बाप
की श्रीमत में परमत मिक्स कर दी क्योंकि बाप की आज्ञा है - सुनते हुए नहीं सुनो। तो
आपने सुना क्यों? उसकी आदत डाली। मानो एक बारी आपको समाचार सुनाया, आपको भी बहुत
अच्छा लगा, नई बात है, ऐसा भी होता है - ये पता तो पड़ गया, लेकिन अगर एक बारी आपने
उनकी बात सुनी तो दूसरे बारी वो कहाँ जायेगा? आपके पास आयेगा। आप उसके लिए कूड़े का
डिब्बा बन गये ना! जो भी ऐसा समाचार होगा वो आपके पास ही आकर सुनायेगा क्योंकि आपने
सुना! इसलिए या तो उसको समझाओ, ऐसी बातों से उसको भी मुक्त करो। सुन करके इन्टरेस्ट
नहीं बढ़ाओ लेकिन अगर सुनते हो तो आपमें इतनी ताकत हो जो उसको भी सदा के लिए
फुलस्टॉप लगा दो। अपने अन्दर भी फुलस्टॉप लगाओ। जिस व्यक्ति का समाचार सुना उसके
प्रति दृष्टि में वा संकल्प में भी घृणा भाव बिल्कुल नहीं हो। इतनी पॉवर आपमें है
तो यह सुनना नहीं हुआ, उसका कल्याण करना हुआ। लेकिन रिजल्ट में देखा जाता है
मैजारिटी थोड़ा-थोड़ा किचड़ा इकट्ठा होते-होते ये घृणा भाव या चाल-चलन में अन्तर आ
जाता है। और कुछ भी नहीं होगा ना तो उस आत्मा के प्रति सेवा करने की भावना नहीं होगी,
भारीपन होगा। इसको कहा जाता है - श्रीमत में परमत मिलाना। समाचार तो बापदादा भी
सुनते हैं, लेकिन होता क्या है? मैजारिटी का भाव बदल जाता है। सुनाने में भी भाव
बदल जाता है। एक आकर कहता है मैंने देखा कि ये दो बात कर रहे थे और एक का सुना हुआ
दूसरा फिर कहते हैं नहीं-नहीं खड़े भी थे और बहुत अच्छी तरह से नहीं खड़े थे, दूसरा
एडीशन हुआ। फिर तीसरा कहेगा इन्हों का तो होता ही है। कितना भाव बदल गया। उन्हों की
भावना क्या और बातों में भाव कितना बदल जाता है। तो ये परमत वायुमण्डल को खराब कर
देता है। तो जो टाइम वेस्ट जाता है उसका एक कारण परमत और दूसरा कारण है परचिन्तन।
एक से बात सुनी तो आठ-दस को नहीं सुनावे, यह नहीं हो सकता। अगर कोई दूरदेश में भी
होगा ना तो भी उसको पत्र में भी लिख देंगे - यहाँ बहुत नई बात हुई है, आप आयेंगे ना
तो जरूर सुनायेंगे। तो ये क्या हो गया? परचिन्तन। समझो आपने चार को सुनाया, उन चार
की भावना उस आत्मा के प्रति आपने खराब तो की ना और परचिन्तन शुरू हुआ तो इसकी गति
बड़ी फास्ट और लम्बी होती है।
परचिन्तन एक-दो
सेकेण्ड में पूरा नहीं होता। जैसे बापदादा सुनाते हैं कि जब किसको भी ज्ञान सुनाओ
तो इन्टरेस्ट दिलाने के लिए उसको कहानी के रीति से सुनाओ। पहले ये हुआ, फिर क्या
हुआ, फिर क्या हुआ, फिर क्या हुआ...। तो इन्ट्रेस्ट बढ़ता है ना। ऐसे जो परचिन्तन
होता है वो भी एक इन्ट्रेस्टेड होता है। उसमें दूसरा जरूर सोचेगा, फिर क्या हुआ,
फिर ऐसे हुआ, हाँ ऐसे हुआ होगा... तो ये भी कहानी बड़ी लम्बी है। बापदादा तो सबकी
दिल की बातें सुनते भी हैं, देखते भी हैं। कोई कितना भी छिपाने की कोशिश करे सिर्फ
बापदादा कहाँ-कहाँ लोक संग्रह के अर्थ खुला इशारा नहीं देते, बाकी जानते सब हैं,
देखते सब हैं। कोई कितना भी कहे कि नहीं, मैं तो कभी नहीं करता, बापदादा के पास
रजिस्टर है, कितने बार किया, क्या-क्या किया, किस समय किया, कितनों से किया - यह सब
रजिस्टर है। सिर्फ कहाँ-कहाँ चुप रहना पड़ता है। तो दूसरी बात सुनाई - परचिन्तन।
उसका स्वचिन्तन कभी नहीं चलेगा। कोई भी बात होगी, परचिन्तन वाला अपनी गलती भी दूसरे
पर लगायेगा। और पर-चिन्तन वाले बात बनाने में नम्बरवन होते हैं। पूरी अपनी गलती
दूसरे के प्रति ऐसे सिद्ध करेंगे जो सुनने वाले बड़ों को भी चुप रहना पड़ता है। तो
स्वचिन्तन इसको नहीं कहा जाता है कि सिर्फ ज्ञान की पॉइन्ट्स रिपीट कर दी या ज्ञान
की पॉइन्ट्स सुन ली, सुना दी - सिर्फ यही स्वचिन्तन नहीं है। लेकिन स्वचिन्तन
अर्थात् अपनी सूक्ष्म कमज़ोरियों को, अपनी छोटी-छोटी गलतियों को चिन्तन करके मिटाना,
परिवर्तन करना, ये स्वचिन्तन है। बाकी ज्ञान सुनना और सुनाना उसमें तो सभी होशियार
हो। वो ज्ञान का चिन्तन है, मनन है लेकिन स्वचिन्तन का महीन अर्थ अपने प्रति है
क्योंकि जब रिज़ल्ट निकलेगी तो रिजल्ट में यह नहीं देखा जायेगा कि इसने ज्ञान का
मनन अच्छा किया या सेवा में ज्ञान को अच्छा यूज़ किया। इस रिज़ल्ट के पहले
स्वचिन्तन और परिवर्तन, स्वचिन्तन करने का अर्थ ही है परिवर्तन करना। तो जब फाइनल
रिजल्ट होगी, उसमें पहली मार्क्स प्रैक्टिकल धारणा स्वरूप को मिलेगी। जो धारणा
स्वरूप होगा वो नेचुरल योगी तो होगा ही। अगर मार्क्स ज्यादा लेनी है तो पहले जो
दूसरों को सुनाते हो, आजकल वैल्यूज़ पर जो भाषण करते हो, उसकी पहले स्वयं में
चेकिंग करो क्योंकि सेवा की एक मार्क तो धारणा स्वरूप की 10 मार्क्स होती हैं, अगर
आप ज्ञान नहीं दे सकते हो लेकिन अपनी धारणा से प्रभाव डालते हो तो आपके सेवा की
मार्क्स जमा हो गई ना।
आजकल कई समझते हैं कि
हमको सेवा का चांस बहुत कम मिलता है, हमको चांस मिलना चाहिए, दूसरे को मिलता है,
मेरे को क्यों नहीं? सेवा करना बहुत अच्छा है क्योंकि अगर बुद्धि फ्री रहती है तो
व्यर्थ बहुत चलता है इसीलिए सेवा में बुद्धि बिजी रहे, यह साधन अच्छा है। सेवा का
उमंग तो अच्छा ही है लेकिन ड्रामानुसार या सरकमस्टांश अनुसार मानों आपको चांस नहीं
मिला और आपकी अवस्था दूसरों की सेवा करने की बजाय अपनी भी गिरावट में आ जाये या वो
सेवा आपको हलचल में लाये, तो वो सेवा क्या हुई? उस सेवा का प्रत्यक्षफल क्या मिलेगा?
सच्ची सेवा, प्यार से सेवा, सभी की दुआओं से सेवा, उसका प्रत्यक्षफल खुशी होती है
और अगर सेवा में फीलिंग आ गई तो यहाँ ब्राह्मण फीलिंग को क्या कहते हैं? फ्लु। फ्लु
वाला क्या करता है? सो जाता है। खाना नहीं खायेगा, सो जायेगा। यहाँ भी फीलिंग आती
है तो या खाना छोड़ेगा या रुठ करके बैठ जायेगा। तो यह फ्लु हुआ ना। अगर आप धारणा
स्वरूप हो, सच्चे सेवाधारी हो, स्वार्थी सेवा नहीं। एक होती है कल्याण के भावना की
सेवा और दूसरी होती है स्वार्थ से। मेरा नाम आ जायेगा, मेरा अखबार में फोटो आ जायेगा,
मेरा टी.वी. में आ जायेगा, मेरा ब्राह्मणों में नाम हो जायेगा, ब्राह्मणी बहुत आगे
रखेगी, पूछेगी... यह सब भाव स्वार्थी-सेवा के हैं क्योंकि आजकल के हिसाब से,
प्रत्यक्षता के हिसाब से, अभी सेवा आपके पास आयेगी, शुरू में स्थापना की बात दूसरी
थी लेकिन अभी आप सेवा के पिछाड़ी नहीं जायेंगे। आपके पास सेवा खुद चलकर आयेगी। तो
जो सच्चा सेवाधारी है उस सेवाधारी को चलो और कोई सेवा नहीं मिली लेकिन बापदादा कहते
हैं अपने चेहरे से, अपने चलन से सेवा करो। आपका चेहरा बाप का साक्षात्कार कराये।
आपका चेहरा, आपकी चलन बाप की याद दिलावे। ये सेवा नम्बरवन है। ऐसे सेवाधारी जिनमें
स्वार्थ भाव नहीं हो। ऐसे नहीं मुझे ही चांस मिले, मेरे को ही मिलना चाहिए, क्यों
नहीं मिलता, मिलना चाहिए - ऐसे संकल्प को भी स्वार्थ कहा जाता है। चाहे ब्राह्मण
परिवार में आपका नाम नामीग्रामी नहीं है, सेवाधारी अच्छे हो फिर भी आपका नाम नहीं
है, लेकिन बाप के पास तो नाम है ना, जब बाप के दिल पर नाम है तो और क्या चाहिए! और
सिर्फ बाप के दिल पर नहीं लेकिन जब फाइनल में नम्बर मिलेंगे तो आपका नम्बर आगे होगा
क्योंकि बापदादा हिसाब रखते हैं। आपको चांस नहीं मिला, आप राइट हो लेकिन चांस नहीं
मिला तो वो भी नोट होता है। और मांग कर चांस लिया, वो किया तो सही लेकिन वो भी
मार्क्स कट होते हैं। ये धर्मराज का खाता कोई कम नहीं है। बहुत सूक्ष्म हिसाब-किताब
है इसलिए नि:स्वार्थ सेवाधारी बनो, अपना स्वार्थ नहीं हो। कल्याण का स्वार्थ हो। यदि
आपको चांस है और दूसरा समझता है कि हमको भी मिले तो बहुत अच्छा और योग्य भी है तो
अगर मानो आप अपना चांस उसको देते हो तो भी आपका शेयर उसमें जमा हो जाता है। चाहे
आपने नहीं किया, लेकिन किसको चांस दिया तो उसमें भी आपका शेयर जमा होता है क्योंकि
सच्चा डायमण्ड बनना है ना। तो हिसाब-किताब भी समझ लो, ऐसे अलबेले नहीं चलो, ठीक है,
हो गया... बहुत सूक्ष्म में हिसाब-किताब का चौपड़ा है। बाप को कुछ करना नहीं पड़ता
है, ऑटोमेटिक है। कभी-कभी बापदादा बच्चों का चौपड़ा देखते भी हैं। तो पहली बात परमत
और दूसरी बात परचिन्तन।
तीसरी बात है परदर्शन।
दूसरे को देखने में मैजारिटी बहुत होशियार हैं। परदर्शन - जो देखेंगे तो देखने के
बाद वह बात कहाँ जायेगी? बुद्धि में ही तो जायेगी। और जो दूसरे को देखने में समय
लगायेगा उसको अपने को देखने का समय कहाँ मिलेगा? बातें तो बहुत होती हैं ना, और जो
बातें होती हैं वो देखने में भी आती हैं, सुनने में भी आती हैं, जितना बड़ा संगठन
उतनी बड़ी बातें होती हैं। ये बातें क्यों होती हैं? कई सोचते हैं, यह बातें होनी
नहीं चाहिए। नहीं होनी चाहिये वो ठीक है लेकिन जिसके लिए आप समझ रहे हो नहीं होनी
चाहिए, उसमें समय क्यों दिया? और ये बातें ही तो पेपर हैं। जितनी बड़ी पढ़ाई उतने
बड़े पेपर भी होते हैं। यह वायुमण्डल बनना - यह सबके लिए पेपर भी है कि परमत या
परदर्शन या परचिन्तन में कहाँ तक अपने को सेफ रखते हैं? दो बातें अलग हैं। एक है
जिम्मेवारी, जिसके कारण सुनना भी पड़ता है, देखना भी पड़ता है। तो उसमें कल्याण की
भावना से सुनना और देखना। जिम्मेवारी है, कल्याण की भावना है, वो ठीक है। लेकिन अपनी
अवस्था को हलचल में लाकर देखना, सुनना या सोचना - यह राँग है। अगर आप अपने को
जिम्मेवार समझते हो तो जिम्मेवारी के पहले अपनी ब्रेक को पॉवरफुल बनाओ। जैसे पहाड़ी
पर चढ़ते हैं तो पहले से ही सूचना देते हैं कि अपनी ब्रेक को ठीक चेक करो। तो
जिम्मेवारी भी एक ऊंची स्थिति है, जिम्मेवारी भले उठाओ लेकिन पहले यह चेक करो कि
सेकेण्ड में बिन्दी लगती है? कि लगाते हो बिन्दी और लग जाता है क्वेश्चनमार्क? वो
राँग है। उसमें समय और इनर्जी वेस्ट जायेगी,इसलिए पहले अपना ब्रेक पॉवरफुल करो। चलो
- देखा, सुना, जहाँ तक हो सका कल्याण किया और फुलस्टॉप। अगर ऐसी स्थिति है तो
जिम्मेवारी लो, नहीं तो देखते नहीं देखो, सुनते नहीं सुनो, स्वचिन्तन में रहो। फायदा
इसमें है। तो आज का पाठ क्या हुआ? परमत, परचिन्तन और परदर्शन इन तीन बातों से मुक्त
बनो और एक बात धारण करो, वो एक बात है पर-उपकारी बनो। तीन प्रकार की पर को खत्म करो
और एक पर - पर-उपकारी बनो। बनना आयेगा? तो किन बातों से मुक्त बनेंगे? मातायें क्या
करेंगी? बच्चों के उपकारी या पर-उपकारी? सर्व उपकारी। सहज है या कठिन है? अच्छा।
चारों तरफ के सर्व
विश्व के विशेष आत्माओं को सदा स्वचिन्तन, ज्ञान चिन्तन करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं
को, सदा बाप के श्रेष्ठ मत पर हर संकल्प, बोल और कर्म करने वाले समीप आत्माओं को,
चारों ओर के डायमण्ड जुबली के लिए स्वयं को और सेवा को आगे बढ़ाने वाले - ऐसे विशेष
आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:-
महावीर बन
संजीवनी बूटी द्वारा मूर्छित को सुरजीत करने वाले शक्तिवान भव
जैसे सूर्य स्वयं
शक्तिशाली है तो चारों ओर अपनी शक्ति से प्रकाश फैलाता है, ऐसे शक्तिवान बन अनेकों
को संजीवनी बूटी देकर मूर्छित को सुरजीत बनाने की सेवा करते रहो, तब कहेंगे महावीर।
सदा स्मृति रखो कि हमें विजयी रहना है और सबको विजयी बनाना है। विजयी बनने का साधन
है बिजी रहना। स्व कल्याण अथवा विश्व कल्याण के कार्य में बिजी रहो तो विघ्न-विनाशक
वायुमण्डल बनता जायेगा।
स्लोगन:-
दिल सदा एक दिलाराम में लगी रहे - यही सच्ची तपस्या है।