08-07-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 01-02-75 मधुबन

 

ईश्वर के साथ का और लगन की अग्नि का अनुभव

 

जो समीप होते हैं, वही समान बनते हैं। जैसे साकार रूप में समीप हो, वैसे ही लगन लगाने में भी बापदादा के तख्त-निवासी हो? जैसे तन से समीप हो, वैसे ही मन से भी समीप हो? जैसे विदेश में रहने वाले तन से दूर होते भी, मन से सदैव समीप हैं, बापदादा के सदैव साथी ही हैं अर्थात् हर समय साथी बनकर साथ का अनुभव करते हैं, वैसे सदैव साक्षी बनने का व साथ निभाने का अनुभव करते हो? जैसे बन्धन में रहने वाली गोपिकाएँ हर श्वास, हर संकल्प बाबा-बाबा की धुन में ही खोई रहती हो? जैसे बाहर वालों को मिलन की तड़प रहती है ऐसे ही हर समय याद की तड़फ में रहते हो या साधारण स्मृति में रहते हो? हम तो हैं ही बाबा के, हम तो हैं ही समीप, हम तो हैं ही समर्पण और हमारा तो एक बाबा है ही - सिर्फ इन संकल्पों ही से तो संतुष्ट नहीं हो गये हो?

 

अपनी लगन में अग्नि की महसूसता आती है? जिस लगन की अग्नि में स्वयं के पास्ट के संस्कार और स्वभाव और अन्य आत्माओं के दु:खदायी संस्कार व स्वभाव को भस्म कर सको? ज्ञान द्वारा अथवा स्नेह व सम्पर्क द्वारा संस्कार परिवर्तित करते तो हो, लेकिन उसमें समय लगता है। मिटा हुआ-सा संस्कार फिर भी कब प्रत्यक्ष हो जाता है, लेकिन अब समय लगन की अग्नि में भस्म करने का है, जो फिर उस संस्कार का नामोनिशान भी न रहे।

 

इस मुक्ति की युक्ति कौनसी है? अर्थात् इस लगन की अग्नि को पैदा करने की युक्ति व तीली कौनसी है? तीली से आग जलाते हो न? तो इस अग्नि को प्रज्वलित करने की कौन-सी तीली है? एक शब्द कौन-सा है? दृढ़ संकल्प। अर्थात् मर जायेंगे और मिट जायेंगे लेकिन करना ही है। करना तो चाहिए, होना तो चाहिए, कर ही रहे हैं, हो ही जायेगा, अटेन्शन तो रहता है, और महसूस भी करते हैं - ऐसा सोचना एक प्रकार से यह बुझी हुई तीली है। बार-बार मेहनत भी करते हो, समय भी लगाते हो लेकिन अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। कारण यह है कि संकल्प रूपी बीज और दृढ़ता रूपी सार सम्पन्न नहीं है, अर्थात् खाली है। इस कारण जो फल की आशा रखते हो व भविष्य सोचते हो, वह पूर्ण नहीं हो पाता है और चलते-चलते मेहनत ज्यादा, प्राप्ति कम देखते हो तो दिलशिकस्त व अलबेले हो जाते हो। तब कहते हो कि करते तो हैं लेकिन मिलता नहीं, तो क्यों करें, हमारा पार्ट ही ऐसा है। यह दिल-शिकस्त व अलबेलेपन के और फल न देने वाले संकल्प हैं।

 

आप अन्य आत्माओं को संगमयुग की विशेषता कौनसी बताते हो? सभी को कहते हो कि संगमयुग है - असम्भव से सम्भव होने का। जो बात सारी दुनिया असम्भव समझती है, वह सम्भव करने का युग यही है। तो स्वयं को भी जो मुश्किल व असम्भव महसूस होता है, उसको एक सेकेण्ड में सम्भव करना - यह है दृढ़ संकल्प। सहज को अथवा सम्भव को प्रैक्टिकल में लाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन असम्भव को सम्भव करना और दृढ़ संकल्प से करना - यह है पास विद ऑनर की निशानी। अब यह नवीनता करके दिखाओ। तब इस नवीनता पर मार्क्स देंगे। जैसे स्टूडेण्ट हर वर्ष की टोटल रिजल्ट देखते हैं कि हर सब्जेक्ट में कितना परसेन्टेज रहा? वैसे ही अपना रिजल्ट देखना है कि किस बात में चढ़ती कला हुई, किस पुरूषार्थ के आधार से चढ़ती कला हुई व किस सब्जेक्ट में कमी रही, वह पूरा हिसाब निकालो। मुबारिक भी बापदादा सदैव देते हैं क्योंकि सृष्टि का बड़ा दिन तो यही है ना। प्रकृति दासी होती है, परन्तु दासी के कभी दास न बनना और दास बनने की निशानी होगी उदासी। किसी-न-किसी संस्कार व स्वभाव के दास बनते हो, तब उदास होते हो। अच्छा। ओम् शान्ति।

 

08-07-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 02-02-75 मधुबन

 

स्व-चिन्तक, शुभ-चिन्तक और विश्व-परिवर्तक

 

आज बापदादा सारी सेना के वर्तमान समय के रिजल्ट को देख रहे हैं। यह रिजल्ट विशेष तौर पर तीन बातों में देखो। जैसे मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वैसे ही इन चार सब्जेक्ट्स की रिजल्ट तीन स्टेजिस में देखी। वे तीन स्टेजिस कौन-सी हैं?

 

पहली स्टेज - स्वयं के प्रति स्व-चिन्तक कितने बने हैं?

 

दूसरी स्टेज है - समीप सम्बन्ध व सम्पर्क में शुभ-चिन्तक कितने बने हैं?

 

तीसरी स्टेज है - विश्व सेवा के प्रति। उसमें विश्व-परिवर्तक कहाँ तक बने हैं? परिवर्तन की स्टेज व परसेन्टेज कहाँ तक प्रत्यक्ष रूप में हुई है? इन तीनों स्टेजिस की रिजल्ट से चारों ही सब्जेक्ट्स का रिजल्ट स्पष्ट हो जाता है।

 

मुख्य तौर पर तो पहली स्टेज - स्व-चिन्तक कहाँ तक बने हैं? - इस पर ही तीनों सब्जेक्ट्स का रिजल्ट आधारित है। सारे दिन में चेक करो कि स्व-चिन्तक कितना समय रहते हैं? जैसे विश्व-परिवर्तक बनने के कारण विश्व-परिवर्तन के प्लैन्स बनाते रहते हो, समय भी निश्चित करते ही रहते हो, विधि द्वारा वृद्धि के भिन्न-भिन्न प्लैन्स व संकल्प भी चलते ही रहते हैं, ऐसे ही स्व-चिन्तक बन, सम्पूर्ण बनने की विधि हर रोज नये रूप से, नई युक्तियों से सोचते हो? रिजल्ट-प्रमाण तीसरी स्टेज के प्लेन्स ज्यादा बनाते हो। पहली स्टेज के प्लेन्स के लिये कभी-कभी उमंग व उत्साह में जाते हो व कभी-कभी समय अटेन्शन खिंचवाता है व कोई समस्या व किसी सब्जेक्ट का रिजल्ट अटेन्शन खिंचवाती है, लेकिन वह अटेन्शन तीव्र-गति के स्वरूप में अल्प-काल रहता है।

 

सेकेण्ड स्टेज-शुभ-चिन्तक की रिजल्ट स्व-चिन्तक से कुछ परसेन्ट वर्तमान समय ज्यादा है। लेकिन सफलता व कार्य की सम्पन्नता व स्वयं की स्थिति की सम्पूर्णता, जब तक फर्स्ट स्टेज फास्ट रूप के रिजल्ट तक नहीं पहऊँची है, तब तक नहीं हो सकती। उसके लिये स्वयं के प्रति स्वयं का ही प्लैन बनाओ। प्रोग्राम से प्रोग्रेस होती है, यह अल्पकाल की उन्नति अवश्य होती है लेकिन सदाकाल की उन्नति का साधन है - स्व-चिन्तक बनना।

 

वर्तमान समय-प्रमाण पुरूषार्थ की गति चिन्तन के बजाय चिन्ता के स्वरूप में होनी चाहिए। सेवा के विशेष प्रोग्राम तो बनाते हो, दिन-रात चिन्ता भी रहती है कि कैसे सफल करें और उसके लिए भी दिन-रात समान कर देते हो। लेकिन यह चिन्ता सुख स्वरूप चिन्ता है। अनेक प्रकार की चिन्ताओं को मिटाने वाली यह चिन्ता है। जैसे सर्व- बन्धनों से छूटने के लिए एक शुभ-बन्धन में स्वयं को बाँधते हो, इस बन्धन का नाम भले ही बन्धन है लेकिन बनाता यह निर्बन्धन ही है। ऐसे ही इसका नाम चिन्ता है लेकिन प्राप्ति बाप द्वारा वर्से की है। ऐसे ही इस चिन्ता से सदा-सन्तुष्ट, सदा-हर्षित और सदा कमल-पुष्प समान रहने की स्थिति अथवा स्टेज सहज बन जाती है।

 

वर्तमान समय संकल्प तो उठता है और चिन्तन तो चलता है कि कैसा होना चाहिए लेकिन जैसा होना चाहिए, वैसा है नहीं। यह होना चाहिए, यह करना चाहिए, ऐसे करें, यह करें - यह तो चिन्तन का रूप है। लेकिन चिन्ता का स्वरूप चलना और करना होता है, बनना और बनाना होता है, ‘होना चाहिए’ - यह चिन्ता का स्वरूप नहीं है। जब तक स्वयं के प्रति विशेष विधि को नहीं अपनाया है, तब तक वह चिन्ता का स्वरूप नहीं होगा। यह विशेष विधि कौन-सी है? यह जानते हो? कौनसी नई बातें करेंगे? जो विधि की सिद्धि दिखाई देवे? पुरानी विधि तो करते-करते विधि का रूप ही न रहा है। बाकी क्या रह गया है?

 

करने के कुछ समय के बाद अलबेलापन क्यों होता है? मुख्य बात यही है कि अब तक समय की समाप्ति का बुद्धि में निश्चय नहीं है। निश्चित न होने के कारण निश्चिन्त रहते हो! जैसे सर्विस के प्लैन्स का समय निश्चित करते हो, तब से निश्चिन्त रहना समाप्त हो जाता है, ऐसे ही स्वयं की उन्नति के प्रति भी अगर समय निश्चित करते हो तो उसका भी विशेष रिजल्ट अनुभव करते हो न? जैसे विशेष मास याद की यात्रा के प्रोग्राम का निश्चय किया तो चारों ओर विशेष वायुमण्डल और रिजल्ट, विधि का सिद्धि स्वरूप प्रत्यक्ष फल के रूप में देखा। ऐसे ही अपनी उन्नति के प्रति जब तक समय निश्चित नहीं किया है कि इस समय के अन्दर हर विशेषता का सफलता स्वरूप बनना ही है व समय के वातावरण से स्व-चिन्तन के साथ-साथ शुभ-चिन्तक भी बनना ही है, तब तक सफलता-स्वरूप कैसे बनेंगे? नहीं तो अवहेलना की समाप्ति, अर्थात् सम्पूर्णता हो न सकेगी। स्वयं का स्वयं ही शिक्षक बनकर जब तक स्वयं को इस बन्धन में नहीं बाँधा है, तब तक अन्य आत्माओं को भी सर्व-बन्धनों से सदा के लिये मुक्त नहीं कर पाओगे। समझा?

 

अभी क्या करोगे? जैसे सेवा में भिन्न-भिन्न टॉपिक्स का सप्ताह व मास मनाते हो, वैसे ही सेवा के साथ-साथ स्वयं के प्रति भी भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर समय निश्चित करो। यह वर्ष ऐसे खास पुरूषार्थ का है। समय अब भी कम तो होता ही जाता है परन्तु ऐसे ही आगे चलकर स्वयं के प्रति विशेष समय और ही कम मिलेगा। फिर क्या करेंगे? जैसे आज के मनुष्य यही कहते हैं कि पहले फिर भी समय मिलता था लेकिन अब तो वह भी समय नहीं मिलता, ऐसे ही स्वयं का स्वयं के प्रति यह उलाहना न रह जाये कि स्वयं के प्रति जो करना था वह किया ही नहीं क्योंकि समय जितना समीप आता जा रहा है, उस प्रमाण इतने विश्व की आत्माओं को महादान और वरदान का प्रसाद बाँटने में ही टाईम चला जायेगा। इसलिये स्व-चिन्तक बनने का समय ज्यादा नहीं रहा है। अच्छा!

 

ऐसे सदा महादानी, सर्व वरदानी, स्व-चिन्तक, और शुभ-चिन्तक, विश्व की हर आत्मा के प्रति सदा रहमदिल, मास्टर सर्व-शक्तियों के सागर, संकल्प और हर बोल द्वारा विश्व-कल्याणार्थ निमित बनी हुई आत्माओं - विजयी रत्न आत्माओं-के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!

 

अपकारी पर भी उपकार करो (अव्यक्त वाणियों से)

 

मन्सा सेवा करने के लिए सर्व के प्रति सदा ही श्रेष्ठ और निःस्वार्थ संकल्प हों, सदा पर उपकार की भावना हो। अपकारी पर भी उपकार की श्रेष्ठ शक्ति हो। सदा दातापन की भावना हो। सदा स्व परिवर्तन, स्व के श्रेष्ठ कर्म द्वारा औरों को श्रेष्ठ कर्म की प्रेरणा देने वाले हो। कोई कैसी भी आत्मा सम्पर्क में आये - चाहे सतोगुणी, चाहे तमोगुणी सभी के प्रति शुभ चिन्तक अर्थात् अपकारी के ऊपर भी उपकार करने वाले। कभी किसी आत्मा के प्रति घृणा दृष्टि नहीं, क्योंकि जानते हैं कि यह अज्ञान के वशीभूत है अर्थात् बेसमझ बच्चा है। बेसमझ बच्चे के कोई भी कर्म पर घृणा नहीं होती है और ही बच्चे के ऊपर रहम वा स्नेह आयेगा।

 

जैसे बापदादा सदा बच्चों के साथ हर कदम में सहयोगी हैं और अन्त तक रहेंगे। बाप को किसी के प्रति घृणा नहीं होती। सदैव अपकारी के भी शुभ चिन्तक हैं, ऐसे फालो फादर। हर आत्मा के प्रति सदा शुभ भाव और भावना रखो। इसने ऐसा क्यों किया, यह सोचने के बजाए इस आत्मा का कल्याण कैसे हो यह सोचो तब कहेंगे शुभचिंतक वा विश्व कल्याणकारी आत्मा। कोई गाली भी दे, झूठा इल्ज़ाम भी लगाये, लेकिन आपको क्रोध न आये। अपकारी के ऊपर उपकार करना यही आप ब्राह्मणों का कर्म है। वह गाली दे आप गले लगाओ, यही है कमाल। इसको कहा जाता है परिवर्तन। गले लगाने वाले को गले लगाना, यह कोई बड़ी बात नहीं लेकिन निन्दा करने वाले को सच्चा मित्र मन से मानो, तब कहेंगे उपकार करने वाले। तो कल्याणकारी भावना वा वृत्ति रखकर कोई भी आत्मा की पालना करो तो कैसी भी अपकारी आत्मा को अपनी पालना से उपकारी बना सकते हो। कैसी भी पतित आत्मा, पतित-पावनी की वृत्ति से पावन हो सकती है। जैसे माँ बच्चे की कमजोरियों वा कमियों को नहीं देखती है, उनको ठीक करने का ही रहता है। तो यह पालना करने का कर्तव्य इस रूप में स्थित रहने से यथार्थ चल सकता है।

 

सन्तुष्ट को सन्तुष्ट रखना, स्नेही को स्नेह देना, सहयोगी के साथ सहयोगी बनना - यह महावीरता नहीं है लेकिन कोई कितना भी असहयोगी बने, अपने सहयोग की शक्ति से असहयोगी को सहयोगी बनाना इसको महावीरता कहा जाता है। कमजोर को कमजोर समझ छोड़ न दो। लेकिन उसको बल देकर बलवान बनाओ, कमजोर को हाईजम्प देने योग्य बनाओ तब कहेंगे महावीर अथवा सब पर उपकार करने वाले। अच्छा।

 

वरदान:- निमित्त भाव के अभ्यास द्वारा स्व की और सर्व की प्रगति करने वाले न्यारे और प्यारे भव

 

निमित्त बनने का पार्ट सदा न्यारा और प्यारा बनाता है। अगर निमित्त भाव का अभ्यास स्वत: और सहज है तो सदा स्व की प्रगति और सर्व की प्रगति हर कदम में समाई हुई है। उन आत्माओं का कदम धरनी पर नहीं लेकिन स्टेज पर है। निमित्त बनी हुई आत्माओं को सदा यह स्मृति स्वरूप में रहता कि विश्व के आगे बाप समान का एक्जैम्पल हैं।

 

स्लोगन:- सुखदाता के बच्चे सदा सुख के झूले में झूलते रहो, दु:ख की लहर में नहीं आओ।