06-11-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 14.01.88 "बापदादा" मधुबन
उदासी आने का कारण -
छोटी-मोटी अवज्ञाएं
आज बेहद के बड़े ते
बड़े बाप, ऊँचे ते ऊँचे बनाने वाले बाप अपने चारों ओर के बच्चों में से विशेष
आज्ञाकारी बच्चों को देख रहे हैं। आज्ञाकारी बच्चे तो सभी अपने को समझते हैं लेकिन
नम्बरवार हैं। कोई सदा आज्ञाकारी और कोई आज्ञाकारी हैं, सदा नहीं हैं। आज्ञाकारी की
लिस्ट में सभी बच्चे आ जाते हैं लेकिन अंतर जरूर है। आज्ञा देने वाला बाप सभी बच्चों
को एक समय पर एक ही आज्ञा देते हैं, अलग-अलग, भिन्न-भिन्न आज्ञा भी नहीं देते हैं।
फिर भी नम्बरवार क्यों होते हैं? क्योंकि जो सदा हर संकल्प वा हर कर्म करते बाप की
आज्ञा का सहज स्मृतिस्वरूप बनते हैं, वह स्वत: ही हर संकल्प, बोल और कर्म में आज्ञा
प्रमाण चलते और जो स्मृतिस्वरूप नहीं बनते, अनेको बार-बार स्मृति लानी पड़ती है। कभी
स्मृति के कारण आज्ञाकारी बन चलते और कभी चलने के बाद आज्ञा याद करते हैं। क्योंकि
आज्ञा के स्मृतिस्वरूप नहीं, जो श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्ष फल मिलता है वह
प्रत्यक्ष फल की अनुभूति न होने के कारण कर्म के बाद याद आता है कि यह रिजल्ट क्यों
हुई? कर्म के बाद चेक करते तो समझते हैं जो जैसी बाप की आज्ञा है उस प्रमाण न चलने
कारण, जो प्रत्यक्ष फल अनुभव हो, वह नहीं हुआ। इसको कहते हैं आज्ञा के स्मृतिस्वरूप
नहीं हैं लेकिन कर्म के फल को देखकर स्मृति आई। तो नम्बरवन हैं - सहज, स्वत:
स्मृतिस्वरूप आज्ञाकारी। और दूसरा नम्बर हैं - कभी स्मृति से कर्म करने वाले और कभी
कर्म के बाद स्मृति में आने वाले। तीसरे नम्बर की तो बात ही छोड़ दो। दो मालायें
हैं। पहली छोटी माला है, दूसरी बड़ी माला है। तीसरों की तो माला ही नहीं है। इसलिए
दो की बात कर रहे हैं।
‘आज्ञाकारी नम्बरवन'
सदा अमृतवेले से रात तक सारे दिन की दिनचर्या के हर कर्म में आज्ञा प्रमाण चलने के
कारण हर कर्म में मेहनत नहीं अनुभव करते लेकिन आज्ञाकारी बनने का विशेष फल बाप के
आशीर्वाद की अनुभूति करते हैं। क्योंकि आज्ञाकारी बच्चे के ऊपर हर कदम में बापदादा
की दिल की दुयाएँ साथ हैं, इसलिए दिल की दुआओं के कारण हर कर्म फलदाई होता है।
क्योंकि कर्म बीज है और बीज से जो प्राप्ति होती है वह फल है। तो नम्बरवन आज्ञाकारी
आत्मा का हर कर्म रूपी बीज शक्तिशाली होने के कारण हर कर्म का फल अर्थात् संतुष्टता,
सफलता प्राप्त होती है। संतुष्टता अपने आप से भी होती है और कर्म के रिजल्ट से भी
होती है और अन्य आत्माओं के सम्बन्ध - सम्पर्क से भी होती है। नम्बरवन आज्ञाकारी
आत्माओं के तीनों ही प्रकार की संतुष्टता स्वत: और सदा अनुभव होती है। कई बार कई
बच्चे अपने कर्म से स्वयं संतुष्ट होते हैं कि मैंने बहुत अच्छा विधिपूर्वक कर्म
किया लेकिन कहाँ सफलता रूपी फल जितना स्वयं समझते हैं, उतना दिखाई नहीं देता और कहाँ
फिर स्वयं भी संतुष्ट, फल में भी संतुष्ट लेकिन सम्बन्ध - सम्पर्क में संतुष्टता नहीं
होती है। तो इसको नम्बरवन आज्ञाकरी नहीं कहेंगे। नम्बरवन आज्ञाकारी तीनों ही बातों
में संतुष्टता अनुभव करेगा।
वर्तमान समय के
प्रमाण कई श्रेष्ठ आज्ञाकारी बच्चों द्वारा कभी - कभी कोई - कोई आत्माएं अपने को
असंतुष्ट भी अनुभव करती हैं। आप सोचेंगे ऐसा तो कोई नहीं है जिससे सभी संतुष्ट हों!
कोई न कोई असंतुष्ट हो भी जाते हैं लेकिन वह कई कारण होते हैं। अपने कारण को न जानने
के कारण मिसअण्डरस्टैंड (गलतफहमी) कर देते हैं। दूसरी बात - अपनी बुद्धि प्रमाण बड़ों
से चाहना, इच्छा ज्यादा रखते हैं और वह इच्छा जब पूर्ण नहीं होती तो असंतुष्ट हो
जाते। तीसरी बात - कई आत्माओं के पिछले संस्कार - स्वभाव और हिसाब - किताब के कारण
भी जो संतुष्ट होना चाहिए वह नहीं होते। इस कारण नम्बरवन आज्ञाकारी आत्मा का वा
श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा संतुष्टता न मिलने का कारण होता नहीं है लेकिन अपने कारणों
से असंतुष्ट रह जाते हैं। इसलिए कहाँ - कहाँ दिखाई देता है कि हर एक से कोई
असंतुष्ट है। लेकिन उसमें भी मैजारिटी 95 प्रतिशत के करीब संतुष्ट होंगे। 5 प्रतिशत
असंतुष्ट दिखाई देते। तो नम्बरवन आज्ञाकारी बच्चे मैजारिटी तीनों ही रूप से संतुष्ट
अनुभव करेंगे और सदा आज्ञा प्रमाण श्रेष्ठ कर्म होने के कारण हर कर्म करने के बाद
संतुष्ट होने कारण कर्म बार - बार बुद्धि को, मन को विचलित नहीं करेगा कि ठीक किया
वा नहीं किया। सेकण्ड नम्बर वाले को कर्म करने के बाद कई बार मन में संकल्प चलता है
कि पता नहीं ठीक किया वा नहीं किया। जिसको आप लोग अपनी भाषा में कहते हो - मन खाता
है कि ठीक नहीं किया। नम्बरवन आज्ञाकारी आत्मा का कभी मन नहीं खाता, आज्ञा प्रमाण
चलने के कारण सदा हल्के रहते। क्योंकि कर्म के बंधन का बोझ नहीं। पहले भी सुनाया था
कि एक है कर्म के संबंध में आना, दूसरा है कर्म के बंधन वश कर्म करना। तो नम्बरवन
आत्मा कर्म के सम्बन्ध में आने वाली है, इसलिए सदा हल्की है। नम्बर वन आत्मा हर
कर्म में बापदादा द्वारा विशेष आशीर्वाद की प्राप्ति के कारण हर कर्म करते आशीर्वाद
के फलस्वरूप सदा ही आंतरिक विल पावर अनुभव करेगी। सदा अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करेगी,
सदा अपने को भरपूर अर्थात् सम्पन्न अनुभव करेगी।
कभी - कभी कई बच्चे
बाप के आगे अपने दिल का हालचाल सुनाते क्या कहते हैं - ना मालूम क्यों ‘आज अपने को
खाली - खाली समझते हैं', कोई बात भी नहीं हुई है लेकिन सम्पन्नता वा सुख की अनुभूति
नहीं हो रही है। कई बार उस समय कोई उल्टा कार्य या कोई छोटी - मोटी भूल नहीं होती
है लेकिन चलते - चलते अन्जान वा अलबेलेपन में समय प्रति समय आज्ञा के प्रमाण काम नहीं
करते हैं। पहले समय की अवज्ञा का बोझ किसी समय अपने तरफ खींचता है। जैसे पिछले जन्मों
के कड़े संस्कार, स्वभाव कभी - कभी न चाहते भी अपने तरफ खींच लेते हैं, ऐसे समय प्रति
समय की की हुई अवज्ञाओं का बोझ कभी - कभी अपने तरफ खींच लेता है। वह है पिछला हिसाब
- किताब, यह है वर्तमान जीवन का हिसाब। क्योंकि कोई भी हिसाब - चाहे इस जन्म का,
चाहे पिछले जन्म का, लग्न की अग्नि - स्वरूप स्थिति के बिना भस्म नहीं होता। सदा
अग्नि - स्वरूप स्थिति अर्थात् शक्तिशाली याद की स्थिति, बीजरूप, लाइट हाउस, माइट
हाउस स्थिति सदा न होने के कारण हिसाब - किताब को भस्म नहीं कर सकते हैं। इसलिए रहा
हुआ हिसाब अपने तरफ खींचता है। उस समय कोई गलती नहीं करते हो कि पता नहीं क्या हुआ!
कभी मन नहीं लगेगा - याद में, सेवा में वा कभी उदासी की लहर होगी। एक होता है ज्ञान
द्वारा शान्ति का अनुभव, दूसरा होता है बिना खुशी, बिना आनन्द के सन्नाटे की शान्ति।
वह बिना रस के शान्ति होती है। सिर्फ दिल करेगा - कहाँ अकेले में चले जाएँ, बैठ जाएँ।
यह सब निशानियाँ हैं कोई न कोई अवज्ञा की। कर्म का बोझ खींचता है।
अवज्ञा - एक होती है
पाप कर्म करना वा कोई बड़ी भूल करना और दूसरी छोटी - छोटी अवज्ञायें भी होती हैं।
जैसे बाप की आज्ञा है - अमृतवेले विधिपूर्वक शक्तिशाली याद में रहो। तो अमृतवेले
अगर इस आज्ञा प्रमाण नहीं चलते तो उसको क्या कहेंगे? आज्ञाकारी या अवज्ञा? हर कर्म
कर्मयोगी बनकर के करो, निमित्त भाव से करो, निर्माण बनके करो - यह आज्ञाएं हैं। ऐसे
तो बहुत बड़ी लिस्ट है लेकिन दृष्टान्त की रीति में सुना रहे हैं। दृष्टि, वृत्ति
सबके लिए आज्ञा है। इन सब आज्ञाओं में से कोई भी आज्ञा विधिपूर्वक पालन नहीं करते
तो इसको कहते हैं - छोटी - मोटी अवज्ञाएं। यह खाता अगर जमा होता रहता है तो जरूर
अपनी तरफ खींचेगा ना, इसलिए कहते हैं कि जितना होना चाहिए, उतना नहीं होता। जब पूछते
हैं, ठीक चल रहे हो तो सब कहेंगे - हाँ। और जब कहते हैं कि जितना होना चाहिए उतना
है, तो फिर सोचते हैं। इतने इशारे मिलते, नॉलेजफुल होते फिर भी जितना होना चाहिए
उतना नहीं होता, कारण? पिछला वा वर्तमान बोझ डबल लाइट बनने नहीं देता है। कभी डबल
लाइट बन जाते, कभी बोझ नीचे ले आता। सदा अतीन्द्रिय सुख वा खुशी सम्पन्न शांत स्थिति
अनुभव नहीं करते हैं। बापदादा के आज्ञाकारी बनने की विशेष आशीर्वाद की लिफ्ट के
प्राप्ति की अनुभूति नहीं होती है। इसीलिए किस समय सहज होता, किस समय मेहनत लगती
है। नम्बरवन आज्ञाकरी की विशेषताएं स्पष्ट सुनी! बाकी नम्बर टू कौन हुआ? जिसमें इन
विशेषताओं की कमी है, वह नम्बर टू और दूसरे नम्बर माला के हो गए। तो पहली माला में
आना है ना? मुश्किल कुछ भी नहीं है। हर कदम की आज्ञा स्पष्ट है, उसी प्रमाण चलना
सहज हुआ या मुश्किल हुआ? आज्ञा ही बाप के कदम हैं। तो कदम पर कदम रखना तो सहज हुआ
ना। वैसे भी सभी सच्ची सीताएं हो, सजनियाँ हो। तो सजनियाँ कदम पर कदम रखती हैं ना?
यह विधि है ना। तो मुश्किल क्या हुआ! बच्चे के नाते से भी देखो - बच्चे अर्थात् जो
बाप के फुटस्टैप पर चले। जैसे बाप ने कहा ऐसे किया। बाप का कहना और बच्चों का करना
- इसको कहते हैं नम्बरवन आज्ञाकारी। तो चेक करो और चेन्ज करो। अच्छा!
चारों ओर के सर्व
आज्ञाकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा बाप द्वारा प्राप्त हुई आशीर्वाद की अनुभूति करने
वाली विशेष आत्माओं को, सदा हर कर्म में संतुष्टता, सफलता अनुभव करने वाली महान
आत्माओं को, सदा कदम पर कदम रखने वाले आज्ञाकारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और
नमस्ते।''
पार्टियों से अव्यक्त
बापदादा की मधुर मुलाकात
1. सभी अपने को
सहजयोगी, राजयोगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? सहजयोगी अर्थात् स्वत: योगी। योग
लगाने से योग लगे नहीं, तो योगी के बजाए वियोगी बन जाएँ इसको सहजयोगी नहीं कहेंगे।
सहजयोगी जीवन है। तो जीवन सदा होती है। योगी जीवन अर्थात् सदा के योगी, दो घण्टे,
चार घण्टे योग लगाने वाले को योगी जीवन नहीं कहेंगे। जब है ही एक बाप दूसरा न कोई,
तो एक ही याद आएगा ना? एक की याद में रहना - यही सहजयोगी जीवन है। सदा के योगी
अर्थात् योगी जीवन वाले। दूसरे जो योग लगाते हैं, वह जब योग लगाते हैं तब लगता है
और ब्राह्मण आत्माएं सदा ही योग में रहती हैं क्योंकि जीवन बना ली है। चलते - फिरते,
खाते - पीते योगी। है ही बाप और मैं। अगर दूसरा कोई छिपा हुआ होगा तो वह याद आएगा।
सदा योगी जीवन है अर्थात् निरन्तर योगी हैं। ऐसे तो नहीं कहेंगे कि योग लगता नहीं,
कैसे लगाएं? सिवाए बाप के जब कुछ है ही नहीं, तो लगाएँ कैसे - यह क्वेश्चन ही नहीं।
जब दूसरे तरफ बुद्धि जाती है तो योग टूटता है और जब टूटता है तो लगाने की मेहनत करनी
पड़ती है। लगाने की मेहनत करनी ही न पड़े, सेकण्ड में बाबा कहा और याद स्वरूप हो गए।
ऐसे तो कहने की भी आवश्यकता नहीं, हैं ही - ऐसा अनुभव करना योगी जीवन है। तो सदा
सहजयोगी आत्माएं हैं - इस अनुभूति से आगे बढ़ते चलो।
2. सदा अपने को रूहानी
यात्री समझते हो? यात्रा करते क्या याद रहेगा? जहाँ जाना है वही याद रहेगा ना। अगर
और कोई बात याद आती है तो उसको भुलाते हैं। अगर कोई देवी की यात्रा पर जाएंगे तो
‘जय माता - जय माता' कहते जाएंगे। अगर कोई और याद आएगी तो अच्छा नहीं समझते हैं। एक
दो को भी याद दिलाएंगे - ‘जय माता' याद करो, घर को वा बच्चें को याद नहीं करो, माता
को याद करो। तो रूहानी यात्रियों को सदा क्या याद रहता है? अपना घर - परमधाम याद
रहता है ना? वहाँ ही जाना है। तो अपना घर और अपना राज्य स्वर्ग - दोनों याद रहता है
या और बातें भी याद रहती हैं? पुरानी दुनिया तो याद नहीं आती है ना? ऐसे नहीं - यहाँ
रहते हैं तो याद आ जाती है। रहते हुए भी न्यारे रहना, क्योंकि जितना न्यारे रहेंगे
उतना ही प्यार से बाप को याद कर सकेंगे। तो चेक करो पुरानी दुनिया में रहते पुरानी
दुनिया में फँस तो नहीं जाते हैं? कमल - पुष्प कीचड़ में रहता है लेकिन कीचड़ से
न्यारा रहता है। तो सेवा के लिए रहना पड़ता है, मोह के कारण नहीं। तो माताओं को मोह
तो नहीं है? अगर थोड़ा धोत्रे - पोत्रे को कुछ हो जाए, फिर मोह होगा? अगर वह थोड़ा
रोए तो आपका मन भी थोड़ा रोएगा? क्योंकि जहाँ मोह होता है तो दूसरे का दु:ख भी अपना
दु:ख लगता है। ऐसे नहीं - उसको बुखार हो तो आपको भी मन का बुखार हो जाए! मोह खींचता
है ना। पेपर तो आते हैं ना। कभी पोत्रा बीमार होगा, कभी धोत्रा। कभी धन की समस्या
आएगी, कभी अपनी बीमारी की समस्या आएगी। यह तो होगा ही। लेकिन सदा न्यारे रहें, मोह
में न आएँ - ऐसे निर्मोही हो? माताओं को होता है सम्बन्ध से मोह और पाण्डवों को होता
है पैसे से मोह। पैसा कमाने में याद भी भूल जाएगी। शरीर निर्वाह करने के लिए
निमित्त मात्र काम करना दूसरी बात है लेकिन ऐसा लगे रहना जो न पढ़ाई याद आए, न याद
का अभ्यास हो...उसको कहेंगे मोह। तो मोह तो नहीं है ना! जितना नष्टोमोहा होंगे उतना
ही स्मृति-स्वरूप होंगे।
वरदान:-
निमित्त भाव
की स्मृति से हलचल को समाप्त करने वाले सदा अचल-अडोल भव
निमित्त भाव से अनेक
प्रकार का मैं पन, मेरा पन सहज ही खत्म हो जाता है। यह स्मृति सर्व प्रकार की हलचल
से छुड़ाकर अचल-अडोल स्थिति का अनुभव कराती है। सेवा में भी मेहनत नहीं करनी पड़ती।
क्योंकि निमित्त बनने वालों की बुद्धि में सदा याद रहता है कि जो हम करेंगे हमें
देख सब करेंगे। सेवा के निमित्त बनना अर्थात् स्टेज पर आना। स्टेज तरफ स्वतः सबकी
नजर जाती है। तो यह स्मृति भी सेफ्टी का साधन बन जाती है।
स्लोगन:-
सर्व बातों में न्यारे बनो तो परमात्म बाप के सहारे का अनुभव होगा।