12-11-06 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 25.03.90 "बापदादा" मधुबन
सर्व अनुभूतियों की
प्राप्त का आधार पवित्रता
आज स्नेह के सागर
बापदादा अपने चारों ओर के रूहानी बच्चों के रूहानी फीचर्स देख रहे हैं। हर एक
ब्राह्मण बच्चे के फीचर्स में रूहानियत है लेकिन नंबरवार है। क्योंकि रूहानियत का
आधार पवित्रता है। संकल्प, बोल और कर्म पवित्रता की जितनी-जितनी धारणा है उसी
प्रमाण रूहानियत की झलक सूरत में दिखाई देती है। ब्राह्मण-जीवन की चमक पवित्रता है।
निरंतर अतीन्द्रिय सुख और स्वीट साइलेन्स का विशेष आधार है - पवित्रता। तो पवित्रता
नंबरवार है तो इन अनुभूतियों की प्राप्ति भी नंबरवार है। अगर पवित्रता नंबरवन है तो
बाप द्वारा अनुभूतियों की प्राप्ति भी नंबरवन है। पवित्रता की चमक स्वत: ही निरंतर
चेहरे पर दिखाई देती है। पवित्रता की रूहानियत के नयन सदा ही निर्मल दिखाई देंगे।
सदा नयनों में रूहानी आत्मा और रूहानी बाप की झलक अनुभव होगी। आज बापदादा सभी बच्चों
की विशेष यह चमक और झलक देख रहे हैं। आप भी अपने रूहानी पवित्रता के फीचर्स को
नॉलेज के दर्पण में देख सकते हो। क्योंकि विशेष आधार पवित्रता है। पवित्रता सिर्फ
ब्रह्मचर्य को नहीं कहा जाता। लेकिन सदा ब्रह्मचारी और सदा ब्रह्माचारी अर्थात्
ब्रह्मा बाप के आचरण पर हर कदम में चलने वाले। उसका संकल्प, बोल और कर्म रूपी कदम
नैचुरल ब्रह्मा बाप के कदम-ऊपर-कदम होगा। जिसको आप फुट स्टेप कहते हो। उनके हर कदम
में ब्रह्मा बाप का आचरण दिखाई देगा। तो ब्रह्मचारी बनना मुश्किल नहीं है लेकिन यह
मन-वाणी-कर्म के कदम ब्रह्माचारी हों - इस पर चेक करने की आवश्यकता है। और जो
ब्रह्माचारी हैं उनका चेहरा और चलन सदा ही अर्न्तमुखी और अतीन्द्रिय सुखी अनुभव होगा।
एक है साइंस के साधन और ब्राह्मण-जीवन में हैं ज्ञान के साधन। तो ब्रह्माचारी आत्मा
साइंस के साधन वा ज्ञान के साधन के आधार पर सदा सुखी नहीं होते। लेकिन साधनों को भी
अपनी साधना के स्वरूप में कार्य में लाते। साधनों को आधार नहीं बनाते लेकिन अपनी
साधना के आधार से साधनों को कार्य लाते - जैसे कोई ब्राह्मण-आत्माएं कभी-कभी कहते
हैं हमें यह चांस नहीं मिला, इस बात की मदद नहीं मिली। यह साथ नहीं मिला, इसलिए खुशी
कम हो गई अथवा सेवा का, स्वं का उमंग-उत्साह कम हो गया। पहले-पहले तो बहुत
अतीन्द्रिय सुख था, उमंग-उत्साह कम हो गया। पहले-पहले तो बहुत अतीन्द्रिय सुख था,
उमंग-उत्साह भी रहा। मैं और बाबा और कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन मैजारिटी 5 वर्ष से
10 वर्ष के अन्दर अपने में कभी कैसे, कभी कैसे अनुभव करने लगते हैं। इसका कारण क्या
है? पहले वर्ष से 10 वर्ष में उमंग-उत्साह 10 गुणा बढ़ना चाहिए ना। लेकिन कम क्यों
हो गया? उसका कारण यही है कि साधना की स्थिति में रह साधनों को कार्य में नहीं लगाते।
कोई-न-कोई आधार को अपनी उन्नति का आधार बना देते हैं और वह आधार हिलता है,
उमंग-उत्साह भी हिल जाता है। वैसे आधार लेना कोई बुरी चीज नहीं। लेकिन आधार को ही
फाउण्डेशन बना देते हैं। बाप बीच से निकल जाता है और आधार को फाउण्डेशन बना देते
हैं। इसलिए हलचल क्या होती, यह होता तो ऐसा नहीं होता, यह होगा तो ऐसे होगा। यह तो
बहुत अवश्यक है - ऐसे अनुभव होने लगता है। साधना और साधन का बैलेन्स नहीं रहता।
साधनों की तरफ बुद्धि ज्यादा जाती है। साधना की तरफ बुद्धि कम हो जाती। इसलिए कोई
भी कार्य में, सेवा में बाप की ब्लैसिंग अनुभव नहीं करते। और ब्लैसिंग का अनुभव न
होने के कारण साधन द्वारा सफलता मिल जाती तो उमंग-उत्साह बहुत अच्छा रहता और सफलता
कम होती तो उमंग-उत्साह भी कम हो जाता है। साधना अर्थात् शक्तिशाली याद। निरंतर बाप
के साथ दिल का सम्बन्ध। साधना इसको नहीं कहते कि सिर्फ योग में बैठ गये लेकिन जैसे
शरीर से बैठते हो वैसे दिल, मन, बुद्धि एक बाप की तरफ बाप के साथ-साथ बैठ जाएं।
शरीर भल यहाँ बैठा है, और मन एक तरफ, बुद्धि दूसरे तरफ जा रही है, दिल में और कुछ आ
रहा है तो इसको साधना नहीं कहते। मन, बुद्धि, दिल और शरीर चारें ही साथ-साथ बाप के
साथ समान स्थिति में रहें - यह है यर्थाथ साधना। समझा? अगर यथार्थ साधना नहीं होती
तो फिर आराधना चलती है। पहले भी सुनाया है कभी तो याद करते हैं लेकिन कभी फिर
फरियाद करते हैं। याद में फरियाद की आवश्यकता नहीं। साधना वाले का आधार सदा बाप ही
होता है। और जहाँ बाप है वहाँ सदा बच्चों की उड़ती कला है। कम नहीं होगा लेकिन अनेक
गुणा बढ़ता जायेगा। कभी ऊपर, कभी नीचे इसमें थकावट होती है। आप कोई भी हलचल के स्थान
पर बैठो तो क्या होगा? ट्रेन में बहुत हिलने से थकावट होती है ना। कभी बहुत
उमंग-उत्साह में उड़ते हो, कभी बीच में रहते हो, कभी नीचे आ जाते हो तो हलचल हो गई
ना। इसलिए या थक जाते हो या बोर हो जाते हो। फिर सोचते हैं क्या ऐसे ही चलना है!
लेकिन जो साधना द्वारा बाप के साथ हैं, उसके लिए संगमयुग पर सब नया ही नया अनुभव
होता है। हर घड़ी में, हर संकल्प में नवीनता। क्योंकि हर कदम में उड़ती कला अर्थात्
प्राप्ति में प्राप्ति होती रहेगी। हर समय प्राप्ति है। संगमयुग में हर समय, बाप
वर्से और वरदान के रूप में प्राप्ति कराते हैं। तो प्राप्ति में खुशी होती है और
खुशी में उमंग-उत्साह बढ़ता रहेगा। कम हो ही नहीं सकता। चाहे माया भी आये तो भी विजयी
बनने की खुशी होगी। क्योंकि माया पर विजय प्राप्त करने के नॉलेजफुल बन गये हो। तो
10 साल वालों को 10 गुणा, 20 साल वालों का 20 गुणा हो रहा है? तो कहने में ऐसे आता
लेकिन है तो अनेक गुणा।
अब इस वर्ष में क्या
करेंगे? उमंग-उत्साह तो बाप द्वारा मिली हुई आपकी अपनी जायजाद है। बाप की प्रॉपर्टी
को अपना बनाया है तो प्रॉपर्टी को बढ़ाया जाता है या कम किया जाता है? इस वर्ष विशेष
4 प्रकार की सेवा पर अटेन्शन अंडरलाइन करना। पहला- नम्बर है स्व की सेवा। दूसरा-
विश्व की सेवा। तीसरा- मन्सा सेवा। एक है वाणी द्वारा सेवा दूसरी मन्सा सेवा भी
विशेष है। चार- यज्ञ-सेवा। जहाँ भी हो, जिस भी सेवास्थान पर हो वह सब सेवास्थान
यज्ञकुण्ड है। ऐसे नहीं कि सिर्फ मधुबन यज्ञ है। और आपके स्थान यज्ञ नहीं है। तो
यज्ञ-सेवा अर्थात् कर्मणा द्वारा कुछ-न-कुछ सेवा जरूर करनी चाहिए। बापदादा के पास
सेवा के तीन प्रकार के खाते सबके जमा होते हैं। मन्सा-वाचा और कर्मणा, तन-मन और धन।
कई ब्राह्मण सोचते हैं हम तो धन से सहयोगी नहीं बन सकते, सेवा नहीं कर सकते क्योंकि
हम तो समर्पण हैं। धन कमाते ही नहीं तो धन से सेवा कैसे करेंगे? लेकिन समर्पित आत्मा
अगर यज्ञ के कार्य में एकॉनामी करती है अपने अटेन्शन से, तो जैसे धन की एकॉनामी की,
वह एकॉनमी वाला धन अपने नाम से जमा होता है यह सूक्ष्म खाता है। अगर कोई नुकसान करता
है तो खाते में बोझ जमा होता है और एकॉनामी करते तो उसका धन के खाते में जमा होता
है। यज्ञ का एक-एक कण मुहर के समान है। अगर यज्ञ की दिल से (दिखावे से नहीं) एकॉनामी
करते हैं तो उसकी मुहरें एकत्रित होती रहती हैं। दूसरी बात- अगर समर्पित आत्मा सेवा
द्वारा दूसरों के धन को सफल कराती है तो उसमें से उसका भी शेयर जमा होता है। इसलिए
सभी का 3 प्रकार का खाता है। तीनों खाते की परसेंटेज अच्छी होनी चाहिए। कोई समझते
हैं हम तो वाचा सेवा में बहुत बिजी रहते हैं। हमारी ड्यूटी ही वाचा की है, मन्सा और
कर्मणा में परसेन्टेज कम होती है लेकिन यह भी बहाना चलेगा नहीं। वाणी के समय अगर
मन्सा और वाचा की इकùी सेवा करो तो क्या रिजल्ट होगी? मन्सा और वाचा इकùी सेवा हो
सकती है? लेकिन वाचा सहज है, मन्सा में अटेन्शन देने की बात है। इसलिए वाचा का तो
जमा हो जाता लेकिन मन्सा का खाता खाली रह जाता है। और वाचा में तो बाप से भी सभी
होशियार हो। देखो आजकल बड़ी दादियों से अच्छे भाषण छोटे-छोटे करते हैं।
क्योंकि न्यू ब्लड है
ना। भले आगे जाओ, बापदादा खुश होते हैं। लेकिन मन्सा का खाता खाली रह जायेगा।
क्योंकि हर खाते की 100 मार्क्स है। सिर्फ स्थूल सेवा को कर्मणा सेवा नहीं कहते।
कर्मणा अर्थात् संगठन में सम्पर्क-सम्बन्ध में आना। यह कर्म के खाते में जमा हो जाता
है। तो कईयों के तीनों खातें में बहुत फर्क है और वे खुश होते रहते हैं कह हम बहुत
सेवा कर रहे हैं, बहुत अच्छे है। खुश भले रहो लेकिन खाता खाली भी नहीं रहना चाहिए
क्योंकि बापदादा तो बच्चों के स्नेही हैं ना। फिर ऐसा उल्हना न दो कि हमको इशारा भी
नहीं दिया गया कि यह भी होता है। उस समय बापदादा यह प्वाइंट याद करायेगा। टी.वी.
में चित्र सामने आ जायेगा। इसलिए इस वर्ष सेवा भले बहुत करो लेकिन यह तीनों प्रकार
के खाते और चारों प्रकार की सेवा साथ-साथ करो। वाचा का तरफ भारी हो जाए और मन्सा तथा
कर्मणा हल्का हो जाए तो क्या होगा? बैलेन्स नहीं रहेगा ना। बैलेन्स न रहने के कारण
उमंग-उत्साह भी नीचे-ऊपर होता है। एक तो अटेंशन रखना लेकिन बापदादा बार-बार कहते
हैं अटेंशन को टेंशन में नहीं बदलना। कई बार अटेंशन को टेंशन बना देते हैं - यह नहीं
करना। सहज और नैचुरल अटेंशन रहे। डबल लाइट स्थिति में नैचुरल अटेंशन होता ही है।
अच्छा!
तीसरी बात- सेवा की
विधि क्या अपनायेंगे? यह तो हो गई सिद्धि की बात। अभी विधि क्या करेंगे? एक तो जो
आपका कार्य चल रहा है 2 वर्ष से सर्व के सहयोग का, इस कार्य को सम्पन्न करना है।
समाप्त नहीं लेकिन सम्पन्न कहेंगे। इसलिए लिए चाहे फंक्शन रखने हैं, चाहे किताब
तैयार कर फिर लोगों को संदेश देना है, यह भल करो। लेकिन एक बात जरूर ध्यान में रखना
कि कम खर्चा बालानशीन। बापदादा हर कार्य के लिए आदि से अब तक यही विधि अपनाते रहे
हैं कि न बहुत ऊंचा न बिल्कुल सादा बीच का हो। क्योंकि दो प्रकार की आत्माएं होती
हैं। अगर ज्यादा मंहगा करते हो तो भी लोग कहते हैं, इन्हों के पास बहुत पैसे हैं और
कम करते हो तो वैल्यु नहीं रहती। इसलिए सदैव बीच का रखना चाहिए। बुक भी अभी तक जो
बनाया है, अच्छा है। सम्पन्न करना ही है लेकिन ज्यादा विस्तार नहीं करना। ज्यादा बड़ा
नहीं बनाना। शार्ट भी हो और स्वीट भी हो, सार भी हो। विस्तार से कहाँ-कहाँ सार छिप
जाता है। और सार होता है तो बुद्धि को टच होता है। कार्य ठीक कर रहे हो लेकिन अपनी
बुद्धि की एनर्जी में भी कम खर्चा बालानशीन। बाकी मेहनत करने वालों को मुबारक हो।
चाहे प्रोग्राम दूसरे वर्ष में रखो लेकिन सम्पन्न तो करना ही है। कई बच्चे समझते
हैं बहुत लम्बा चला है। टू मच बिजी रहे हैं, टू मच खर्चा भी हुआ... लेकिन जो हुआ वह
अच्छा हुआ और जो होगा वह और अच्छा होगा। थकना नहीं है। अमंग-उत्साह और बढ़ाओ। जिस
रूचि से इस कार्य को आरम्भ किया, उससे अनेक गुणा कम खर्चा बालानशीन कि विधि से
सम्पन्न करो। समझा? समय निश्चित होना चाहिए काम करने का। कई समझते हैं रात को जागकर
काम करते तो अच्छा काम होता। लेकिन बुद्धि थक जाती है और अमृतवेला शक्तिशाली न होने
के कारण हो कार्य दो गुणा होना चाहिए वह एक गुणा होता है। इसलिए टाइम की भी लिमिट
होनी चाहिए। फिर सवेरे उठकर फ्रेश बुद्धि से पढ़ाई पढ़नी है। काम करने की लिमिट होनी
चाहिए। ऐसे तो बापदादा बच्चों का उमंग देख खुश भी होते हैं लेकिन फिर भी हद तो देनी
पड़ेगी ना। सदा बुद्धि फ्रेश रहे और फ्रेश बुद्धि से जो काम होगा वह एक घंटे में दो
घंटे का काम कर सकते हो। एक तो सेवा का यह कार्य है।
दूसरा:-
वर्तमान समय धन और
समय देश वा विदेश में इस बिजी प्रोग्राम में बहुत लगाया है। इसलिए अभी चाहे
सम्बन्ध-सम्पर्क में अपने वाले हैं चाहे और नई आत्माओं को संदेश दे स्नेह-मिलन करो।
छोटे-छोटे सेंटर्स पर 5 का भी अगर स्नेह-मिलन होता है तो कोई हर्जा नहीं। वह और ही
रिफ्रेश हो जायेंगे, समीप होते जायेंगे। छोटे-छोटे स्नेह-मिलन करो। 5 से लेकर 50 तक
100 तक का सम्मेलन कर सकते हो। बड़ा फंक्शन नहीं, जितना स्थान है और कम खर्च
बालानशीन में आपको स्थान भी सहज मिल सकता है। ज्यादा भाग-दौड़ नहीं करनी है। अगर आपके
पास 100 आत्माएं आनी हैं तो ड्रामा अनुसार स्थान भी सहज मिल जायेगा। लेकिन यह नहीं
कि छोटे सेंटर वाले भी समझे कि हमें 100 का प्रोग्राम करना है। यथा-शक्ति यथा-सहयोगी,
यथा-स्नेह और धन की शक्ति 5 का करो - 50 का करो, 25 का करा, लेकिन करना जरूर है।
बिजी जरूर रहना है और हम 3 मास के बाद वा यथा-शक्ति 3 करो वा 4 करो। लेकिन करना
जरूर है और पहले 5 का स्नेह-मिलन करेंगे तो 5 आत्माएं और दो-तीन को लायेंगी तो दूसरी
बार 10 का हो जायेगा फिर 15 का हो जायेगा। क्योंकि डबल लाइट से करेंगे। बर्डन से नहीं
करना। अलबेले भी नहीं बनना कि सेवा तो बहुत कर ली है। नहीं सेवा बिजी रहने का साधन
है। लेकिन बर्डन् से सेवा करते हो इसलिए थक जाते हो। सेवा तो खुशी बढ़ाती है। सेवा
अनेक आत्माओं की दुआयें प्राप्त कराती है। सेवा नहीं करेंगे तो 9 लाख तक कैसे
पहुँचेंगे? सेवा करो लेकिन अंडरलाइन यह करना कि बर्डन वाली सेवा नहीं। चाहे बुद्धि
का बड़न, चाहे धन का बर्डन और इजी होकर करेंगे तो सार्विस भी इजी रूप में बढ़ती जायेगी।
तो जो विधियाँ अपनाते हो वह करनी जरूर हैं। अगर आपके कोई सहयोगी बन जाते और
बनी-बनाई स्टेज आपको बड़े फंक्शन के लिए देते हैं तो बड़ा फंक्शन भी कर लेंगे और न
बुद्धि का, न धन का बर्डन रहेगा। ऐसी कई संस्थाएं भी होती हैं, उन्हों को अपने
सहयोगी बनाओ, यह ट्रॉयल करो। और अगर हिम्मत है तो एक बड़ा फंक्शन जरूर करो। हिम्मत
नहीं है तो नहीं करना। बड़ा फंक्शन संस्था का बाला करता है। लेकिन डबल लाइट होकर करो।
और यह लक्ष्य रखो कि अपनी एनर्जी लगाने के बजाए दूसरों की एनर्जी इस ईश्वरीय कार्य
में लगावें। लक्ष्य रखो तो बहुत निमंत्रण मिलेंगे। किसी भी वर्ग के सहयोगी क्षेत्र
हर छोटे-बड़े देश में मिल सकते हैं। वर्तमान समय ऐसी कई संस्थाएं हैं, जिनके पास
एनर्जी है, लेकिन विधि नहीं आती यूज़ करने की। वह ऐसा सहयोग चाहती हैं। कोई ऐसा उन्हों
को नजर नहीं आता। बड़े प्यार से आपको सहयोग देंगे, समीप आयेंगे। और आपकी 9 लाख प्रजा
में भी वृद्धि हो जायेगी। कोई वारिस भी निकलेंगे, कोई प्रजा निकलेंगे। देखो, यहाँ
भी पहले सहयोगी नब करके आये, ग्लोबल के कार्य के और अभी वारिस बन गये हैं। मेहमान
बनकर आये और महान् बन गये तो ऐसी भी बहुत अच्छी-अच्छी समीप की आत्माए निकली हैं और
आगे भी निकलेंगी। कुछ-न-कुछ करते रहो। लेकिन बापदादा बार-बार स्मृति दिला रहे हैं
कि डबल लाइट होकर रहो। भारत में भी इसी विधि से स्नेह-मिलन करते-करते लास्ट में बड़ा
फंक्शन ज़रूर करना। और भारत में तो प्रदर्शनी से भी अच्छी रिजल्ट निकलती है।
छोटे-छोटे स्नेह-मिलन कर समीप लाओ और फिर बड़े फंक्शन में उन्हों को स्टेज पर लाओ।
वह अपने अनुभव से कहें। आपको कहने की जरूरत नहीं पड़े। बड़े प्रोग्राम का प्रभाव अपना
है।
स्नेह-मिलन का प्रभाव,
सफलता अपनी है। स्नेह-मिलन है आत्मओं को धरनी को तैयार करना और बड़ा फंक्शन है –
आवाज बुलंद करना। लेकिन यथा-शक्ति करो। ऐसे नहीं डॉयरेक्यान मिला है, कर तो नहीं
सकते, मजबूरी से नहीं करो। समझा?
तीसरी बात:-
स्व उन्नति के लिए
पहले भी सुनाया - तीनों ही खाते अपने जमा करो। लेकिन उसके साथ-साथ बापदादा रिजल्ट
में देख रहे हैं कि सेवा की वृद्धि के साथ-साथ जो निमित्त आत्माएं हैं, जिसको आप
निमित्त सेवाधारी कहते हो, बापदादा टीचर शब्द ज्यादा यूज़ नहीं करते। क्योंकि
कहाँ-कहाँ टीचर समझने से नशा चढ़ जाता है। इसलिए निमित्त सेवाधारी कहते हैं। तो सेवा
के साथ-साथ निमित्त सेवाधारियों के पुरूषार्थ की विधि में बहुत अच्छी प्रोग्रेस
अर्थात् उन्नति होनी चाहिए। सेवा की जो स्पीड है उसमें समय के प्रमाण जो हो रहा है
उसको तो बापदादा सदा अच्छा कहतो है लेकिन समय की गति और सेवा के संपूर्ण समाप्ति की
स्टेज को देख बापदादा समझते हैं कि सेवाधारियों के पुरूषार्थ की विधि में अगर वृद्धि
हो जाए तो सेवा की चार गुणा वृद्धि हो सकती है। इसलिए पहले वह सेवा भी बहुत आवश्यकता
है। सेवा का समय अपना अलग निश्चित करो और पुरूषार्थ की वृद्धि का समय अलग निश्चित
करो। सेवा के निमित्त आत्मओं में अभी विल पावर चाहिए। विल पावर बढ़ाने से औरों को भी
बाप के आगे सहयोगी बनाए विल करा सकते हो। कई आत्माए आपके सहयोग के लिए चात्रक हैं।
लेकिन अपनी शक्ति नहीं है। आपको अपनी शक्तियों की मदद विशेष देनी पड़ेगी। इसलिए
निमित्त बने हुए सेवाधारियों में सर्वशक्तियों की पावर है लेकिन जितनी होनी चाहिए
उतनी नहीं है। अपने प्रति यूज़ करने के कारण दूसरों को फुल शक्तियाँ नहीं दे सकते
हैं। जैसे ब्रह्मा बाप ने लास्ट में शक्तियों की विल की, बच्चों को। उस विल से यह
कार्य चल रहा है। आदि में धन की विल की जिससे यज्ञ स्थापन हुआ और अंत में शक्तियों
की विल की जिससे यह सेवा वृद्धि को पा रही है। ब्रह्मा ने तो किया, फालों करने वाले
तो बच्चे हैं ना। एक ब्रह्मा के विल से कितनी आत्माएं आई और आ रही है। अगर इतने सब
निमित्त सेवाधारी भी ऐसे शक्तियों की विल आत्माओं प्रति करें तो क्या हो जाएगा, तो
अभी यह आवश्यकता है। ऐसे नहीं कि अपने ही पुरूषार्थ में एनर्जी वेस्ट करें। चाहे
अपनी उन्नति करनी भी पड़ती है लेकिन वेस्ट भी जाती है इसलिए समय की गति प्रमाण, सेवा
की समाप्ति की गति प्रमाण सेवाधारियों की गति और अधिक चाहिए। अभी अपने को निमित्त
बनाये। इसमें दूसरों को पहले आप नहीं करे। पहले अपने को पहले आप करे। और दिल से
उमंग से समझें कि मुझे ``हे अर्जुन'' बनना है। अर्जुन अर्थात् मास्टर ब्रह्मा। अवल
अर्थात् अर्जुन। प्रोग्राम प्रमाण स्व-उन्नति के प्रोग्राम रखते आये हो लेकिन इस
वर्ष बापदादा हर एक स्नेही आत्मा द्वारा स्नेह का प्रत्यक्षरूप दिल की प्रोग्रस
चाहते हैं ना कि प्रोग्राम प्रमाण। जहाँ स्नेह होता है वहाँ कुर्बान करना मुहब्बत
होता न कि मुश्किल होता है। सबकी दिल से यह उमंग हो तो सफलता होगी। अगर बाप से
प्यार है तो बाप इस बार दिल के प्यार को देखेंगे। कुछ कुर्बान करना भी पड़ा तो क्या
बड़ी बात है। यह तो जानते हो सेवा में सफलता के लिए क्या कुर्बान करना चाहिए? इसके
लिए भी समय तो चाहिए ना। सेवा भी जरूर करनी है। और स्व-उन्नति भी जरूर करनी है।
सदा अपने चेहरे और
चलन में पवित्रता के रूहानियत की चमक वाले, सदा हर कदम में ब्रह्माचारी श्रेष्ठ
आत्माएं, सदा अपने सेवा के सर्व खातों को भरपूर रखने वाले, सदा दिल से अपनी उन्नति
का दृढ़ संकल्प करने वाले, सदा स्व-उन्नति प्रति स्वयं को नंबरवन आत्मा निमित्त बनाने
वाले - ऐसे बाप के प्यारे और विशेष ब्रह्मा मां के प्यारे, आज मां का दिन मनाया है
ना, तो ब्रह्मा मां के राजदुलारे बच्चों को ब्रह्मा मां की और विशेष और की भी दिल
से याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:-
एक सेकण्ड के
दृढ़ संकल्प से स्वयं का वा विश्व का परिवर्तन करने वाले रूहानी जादूगर भव
जैसे जादूगर थोड़े
समय में बहुत विचित्र खेल दिखाते हैं, वैसे आप रूहानी जादूगर अपनी रूहानियत की शक्ति
से सारे विश्व को परिवर्तन में लाने वाले हो, कंगाल को डबल ताजधारी बनाने वाले हो।
स्वयं को बदलने के लिए सिर्फ एक सेकण्ड का दृढ़ संकल्प धारण करते हो कि मैं आत्मा
हूँ और विश्व को बदलने के लिए स्वयं को विश्व के आधार मूर्त, उद्धार मूर्त समझकर
विश्व परिवर्तन के कार्य में सदा तत्पर रहते हो इसलिए सबसे बड़े रूहानी जादूगर आप
हो।
स्लोगन:-
जो स्वराज्य अधिकारी
आत्मायें हैं वे कभी पर-अधीन नहीं हो सकती।