ओम् शान्ति।
यह किसने कहा? दो बार कहते हैं ओम् शान्ति, ओम् शान्ति। एक शिवबाबा ने कहा, एक
ब्रह्मा बाबा ने। यह बापदादा इकट्ठे हैं। तो दोनों को बोलना पड़े ओम् शान्ति, ओम्
शान्ति। अब पहले किसने कहा? बाद में किसने कहा? पहले शिवबाबा ने कहा ओम् शान्ति।
मैं शान्ति का सागर हूँ, पीछे किसने कहा? दादा की आत्मा ने कहा। बच्चों को याद
दिलाते हैं ओम् शान्ति, मैं तो सदैव देही-अभिमानी हूँ, कभी देह-अभिमान में नहीं आता
हूँ। एक ही बाप है जो सदैव देही-अभिमानी रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ऐसे नहीं
कहेंगे। तुम जानते हो ब्रह्मा, विष्णु, शंकर का भी सूक्ष्म रूप है। तो ओम् शान्ति
करने वाला एक शिवबाबा है, जिसको कोई शरीर नहीं। बाप तुमको अच्छी रीति समझाते हैं और
कहते हैं मैं एक ही बार आता हूँ, मैं सदैव देही-अभिमानी हूँ। मैं पुनर्जन्म में नहीं
आता इसलिए मेरी महिमा ही न्यारी है। मुझे कहते हैं निराकार परमपिता परमात्मा। भक्ति
मार्ग में भी शिव के लिए कहेंगे निराकार परमपिता परमात्मा है। निराकार की पूजा होती
है। वह कभी देह में नहीं आते हैं अर्थात् देह-अभिमानी नहीं बनते हैं। अच्छा फिर उसके
नीचे आओ सूक्ष्मवतन में, जहाँ ब्रह्मा-विष्णु-शंकर रहते हैं। शिव का नाम रूप तो
देखने में नहीं आता है। चित्र बनते हैं लेकिन वह है निराकार, वह कभी साकार बनते ही
नहीं। पूजा भी निराकार की ही होती है। बच्चों की बुद्धि में सारा ज्ञान रहता है।
भक्ति तो की है। चित्र बच्चों ने देखा है, तुम जानते हो सतयुग-त्रेता में न चित्रों
की भक्ति होती, न विचित्र की। बुद्धि में आता है परमपिता परमात्मा विचित्र है। उनका
न सूक्ष्म, न स्थूल चित्र है। उनकी महिमा गाई जाती है, दु:ख हर्ता, सुख कर्ता,
पतित-पावन। तुम और किसी के चित्र को पतित-पावन नहीं कहेंगे। कोई भी मनुष्य नहीं
जिनकी बुद्धि में यह बात हो। ब्रह्मा-विष्णु-शंकर हैं सूक्ष्मवतनवासी। पहला तबका
फिर दूसरा तबका। ऊंच ते ऊंच मूलवतन, उस तबके में रहने वाला है परमपिता परमात्मा।
सेकण्ड नम्बर तबके में सूक्ष्म शरीर वाले हैं। थर्ड तबके में स्थूल शरीरधारी हैं,
इसमें मूँझना नहीं है। यह बातें सिवाए परमपिता परमात्मा के कोई समझा नहीं सकता है।
ऊपर में सृष्टि है आत्माओं की। उसको कहा जाता है निराकारी दुनिया, हम सब आत्माओं की
दुनिया, इनकारपोरियल वर्ल्ड। फिर हम आत्मायें कारपोरियल वर्ल्ड में आती हैं। वहाँ
हैं आत्मायें, यहाँ हैं जीव आत्मायें। यह बुद्धि में रहना चाहिए। बरोबर हम निराकारी
बाबा के बच्चे हैं। हम भी पहले निराकार बाप के पास रहते थे। निराकारी दुनिया में ही
आत्मायें रहती हैं। जो अभी तक पार्ट बजाने लिए आते रहते हैं – साकार में। वह हो गया
निराकार बाप का वतन। हम आत्मा हैं, यह नशा होना चाहिए। अविनाशी चीज़ का नशा रहना
चाहिए। विनाशी चीज़ का थोड़ेही होना चाहिए। देह के नशे वाले को देह-अभिमानी कहा जाता
है। देह-अभिमानी अच्छे वा आत्म-अभिमानी अच्छे? सेन्सीबुल कौन? आत्म-अभिमानी। आत्मा
ही अविनाशी है, देह तो विनाशी है। आत्मा कहती है हम 84 देह लेते हैं। हम आत्मा
परमधाम में बाप के साथ रहने वाली हैं। वहाँ से आते हैं यहाँ पार्ट बजाने। आत्मा कहती
है ओ बाबा। साकारी सृष्टि में हैं साकारी बाबा। निराकारी सृष्टि में निराकार बाबा।
यह तो बिल्कुल सहज बात है। अब ब्रह्मा को कहते हैं प्रजापिता ब्रह्मा। सो तो यहाँ
ठहरा ना। वहाँ हम आत्मायें सब एक बाप के बच्चे ब्रदर्स हैं। बाप शिव के साथ रहने
वाले हैं। परमात्मा का नाम है शिव। आत्मा का नाम है सालिग्राम। आत्मा का भी रचयिता
चाहिए ना। दिल में हमेशा बातें करते रहो। जो ज्ञान मिला है वह अपने दिल से लगाने के
लिए मेहनत करनी है। आत्मा ही विचार करती है। पहले-पहले तो यह निश्चय करो कि हम आत्मा
बाप के साथ रहने वाले हैं। हम उनके बच्चे हैं तो जरूर वर्सा मिलना चाहिए। यह भी तुम
जानते हो कि यह जो आत्माओं का झाड़ है उनके पहले जरूर बीज होता है। जैसे सिजरा बनाते
हैं। बड़ा बाप फिर उनसे 2-4 बच्चे निकले, फिर उनसे और निकलते। एक दो वृद्धि को
पाते-पाते झाड़ बड़ा हो जाता है। बिरादरी का नक्शा होता है। फलाने से फलाना निकला….।
तुम बच्चे जानते हो मूलवतन में सभी आत्मायें रहती हैं। उनका भी चित्र है। ऊंच ते
ऊंच है बाप। तुम बच्चों की बुद्धि में है – बाबा इस शरीर में आया हुआ है। रूहानी
बाप इनमें आकर रूहों को पढ़ाते हैं। सूक्ष्मवतन में तो नहीं पढ़ायेंगे। सतयुग में
तो यह नॉलेज किसको भी रहती नहीं। बाप ही इस संगमयुग पर आकर यह नॉलेज देते हैं। इस
मनुष्य सृष्टि रूपी झाड़ की नॉलेज कोई को है नहीं। कल्प की आयु ही बहुत बड़ी लिख दी
है। अभी बाप तुमको समझाते हैं – बच्चे अभी तुमको फिर घर चलना है। वह है आत्माओं का
घर। बाप और बच्चे रहते हैं, सब ब्रदर्स हैं। ब्रदर और सिस्टर तब कहा जाता है जब यहाँ
शरीर धारण करते हैं। हम आत्मायें सब भाई-भाई हैं। भाई का जरूर बाप भी होगा ना। वह
है परमपिता परमात्मा। सभी आत्मायें शरीर में रहते हुए उनको याद करती हैं।
सतयुग-त्रेता में कोई याद नहीं करते हैं। पतित दुनिया में सभी उनको याद करते हैं
क्योंकि सब रावण की जेल में हैं। सीता पुकारती थी हे राम। बाप समझाते हैं राम कोई
त्रेता वाला याद नहीं आता है। राम परमपिता परमात्मा को समझ याद करते रहते हैं। आत्मा
पुकारती है। अभी तुम जानते हो आधाकल्प फिर हम किसको पुकारेंगे नहीं क्योंकि सुखधाम
में रहेंगे। इस समय बाप ही समझाते हैं, दूसरा कोई जानते ही नहीं। वह तो कह देते हैं
कि आत्मा सो परमात्मा, आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। बाप समझाते हैं, आत्मा
तो अविनाशी है। एक भी आत्मा का विनाश नहीं हो सकता। जैसे बाप अविनाशी वैसे आत्मा भी
अविनाशी है। यहाँ आत्मा पतित तमोप्रधान बनती है, फिर बाप सतोप्रधान पवित्र बनाते
हैं। सारी दुनिया को तमोप्रधान बनना ही है। फिर सतोप्रधान बनना है। पतित दुनिया को
पावन बनाने बाप को आना पड़ता है। उनको कहते ही हैं गॉड फादर। बाप भी अविनाशी है, हम
आत्मायें भी अविनाशी हैं, यह ड्रामा भी अविनाशी है। तुम बच्चे जानते हो कि यह
वर्ल्ड की हिस्ट्री-जॉग्राफी कैसे रिपीट होती है। इन चारों युगों में हमारा पार्ट
चलता है। हम सूर्यवंशी फिर चन्द्रवंशी बनते हैं। चन्द्रवंशी जैसे सेकण्ड ग्रेड में
आ जाते हैं। 14 कला वालों को सूर्यवंशी नहीं कह सकते। वास्तव में देवी-देवता भी
उन्हों को नहीं कह सकते। देवी-देवता सम्पूर्ण निर्विकारी, 16 कला सम्पूर्ण को कहा
जाता है। राम को 14 कला सम्पन्न कहेंगे। तुम्हारे ही 84 जन्मों का हिसाब समझाया जाता
है। नई चीज़ फिर पुरानी होती है तो वह मज़ा नहीं रहता है। पहले सम्पूर्ण पवित्र रहते
हैं फिर थोड़े वर्ष पास होंगे तो थोड़ा पुराना कहेंगे। मकान का भी मिसाल दिया जाता
है। ऐसे हर चीज़ होती है। यह दुनिया भी एक बड़ा माण्डवा है। यह आकाश तत्व बहुत बड़ा
है, इसका कोई अन्त नहीं। इनकी एण्ड कहाँ है, वह निकाल नहीं सकते। चलते जाओ, एण्ड हो
नहीं सकती। ब्रह्म महतत्व की भी कोई एण्ड हो नहीं सकती। यूँ साइन्स वाले कितनी
कोशिश करते हैं एण्ड देखने की लेकिन जा नहीं सकते, अन्त पा नहीं सकते। ब्रह्म तत्व
बहुत बड़ा, बेअन्त है। हम आत्मायें बहुत थोड़ी जगह में रहती हैं। यहाँ बिल्डिंग आदि
कितनी बड़ी-बड़ी बनाते हैं। स्पेश धरती की बहुत बड़ी है। खेती आदि भी तो चाहिए ना।
वहाँ तो सिर्फ आत्मायें रहती हैं। आत्मा शरीर बिगर कैसे खायेगी? वहाँ तो अभोक्ता
है। खाने वा भोगने आदि की कोई चीज़ होती नहीं। बाप समझाते हैं यह ज्ञान तुम बच्चों
को एक ही बार मिलता है। फिर कल्प बाद तुम बच्चों को दिया जाता है। तो यह नशा होना
चाहिए। हम देवता धर्म वाले थे। तुम कहते हो बाबा आज से 5 हज़ार वर्ष पहले हम आपके
पास आये थे – शूद्र से ब्राह्मण बनने। अब फिर हम आपके पास आये हैं। वह निराकार होने
कारण तुम कहेंगे दादा पास आये हैं। बाप ने इसमें प्रवेश किया है। बाप कहते हैं –
जैसे तुम आरगन्स ले पार्ट बजाते हो वैसे ही मैं भी आरगन्स का आधार लेता हूँ। नहीं
तो मैं पार्ट कैसे बजाऊं? शिव जयन्ती भी मनाते हैं। शिव तो निराकार है। उनकी जयन्ती
कैसे हुई? मनुष्य तो एक शरीर छोड़ दूसरा लेते हैं। बाप कहते हैं – मैं कैसे आकर तुम
बच्चों को राजयोग सिखाऊं। मनुष्य से देवता बनाने के लिए राजयोग बाप ही आकर सिखाते
हैं। मुझे ही पतित-पावन, ज्ञान का सागर कहते हैं। मुझे झाड़ के आदि-मध्य-अन्त का
मालूम है।
तुम बच्चे समझते हो बाबा इसमें प्रवेश कर हमको सब नॉलेज समझाते हैं।
ब्रह्मा-विष्णु-शंकर के पार्ट को भी समझना चाहिए। बाप को तो समझा है कि वह
पतित-पावन है। हर एक की महिमा अलग-अलग, ड्युटी अलग-अलग होती है। प्रेजीडेन्ट,
प्राइम मिनिस्टर आदि बनते हैं। आत्मा कहती है यह मेरा शरीर है। मैं प्राइम मिनिस्टर
हूँ। आत्मा शरीर के साथ न हो तो बोल न सके। शिवबाबा भी है निराकार। उनको भी बोलने
के लिए कर्मेन्द्रियों का आधार लेना पड़ता है, इसलिए दिखाते हैं – मुख से गंगा निकली।
अब शिव तो है बिन्दी। उनको मुख कहाँ से आया? तो इसमें आकर बैठते हैं, उससे ज्ञान
गंगा बहाते हैं। बाप को ही सब याद करते हैं – हे पतित-पावन आओ। हमको इस दु:ख से
छुड़ाओ। वही बड़े ते बड़ा सर्जन है। उसमें ही पतितों को पावन बनाने का ज्ञान है।
सर्व पतितों को पावन बनाने वाला एक सर्जन है। सतयुग में सब निरोगी होते हैं। यह
लक्ष्मी-नारायण सतयुग के मालिक हैं। इसको ऐसे कर्म किसने सिखाये जो ऐसे निरोगी बनें।
बाप ही आकर श्रेष्ठ कर्म सिखलाते हैं। यहाँ तो कर्म ही कूटते रहते हैं। सतयुग में
तो ऐसे नहीं कहेंगे कि कर्म ऐसे हैं। वहाँ कोई दु:ख, रोग होता नहीं। यहाँ तो एक दो
को दु:ख ही देते रहते हैं। सतयुग-त्रेता में दु:ख की बात होती नहीं, जो कहा जाए कि
यह कर्मों का भोग है। कर्म-अकर्म-विकर्म का अर्थ कोई समझ ही नहीं सकते हैं। तुम
जानते हो हर एक चीज़ पहले सतोप्रधान फिर सतो रजो तमो बनती है। सतयुग में 5 तत्व भी
सतोप्रधान रहते हैं। हमारे शरीर भी सतोप्रधान प्रकृति के होते हैं फिर आत्मा की दो
कला कम होने से शरीर भी ऐसे बनते हैं। सृष्टि की भी दो कला कम हो जाती हैं। यह सब
बाप ही बैठ समझाते हैं, दूसरा कोई समझा न सके। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) अभी से ही बाप की श्रीमत पर ऐसे श्रेष्ठ कर्म करने हैं, जो फिर कभी
कर्म कूटने न पड़े अर्थात् कर्मों की सज़ायें न खानी पड़े।
2) किसी भी विनाशी चीज़ का नशा नहीं रखना है। यह देह भी विनाशी है, इसका भी नशा
नहीं रखना है, सेन्सीबुल बनना है।