29-05-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 05.10.87 "बापदादा" मधुबन
ब्राह्मण जीवन का सुख -
सन्तुष्टता व प्रसन्नता
आज बापदादा चारों ओर
के अपने अति लाडले, सिकीलधे ब्राह्मण बच्चों में से विशेष ब्राह्मण जीवन की विशेषता
सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। आज अमृतवेले बापदादा सर्व ब्राह्मण कुल बच्चों में
से उन विशेष आत्माओं को चुन रहे थे जो सदा सन्तुष्टता द्वारा स्वयं भी सदा सन्तुष्ट
रहे हैं और औरों को भी सन्तुष्टता की अनुभूति अपनी दृष्टि, वृत्ति और कृति द्वारा
सदा कराते आये हैं। तो आज ऐसी सन्तुष्टमणियों की माला पिरो रहे थे जो सदा संकल्प
में, बोल में, संगठन के सम्बन्ध-सम्पर्क में, कर्म में सन्तुष्टता के गोल्डन पुष्प
बापदादा द्वारा अपने ऊपर बरसाने का अनुभव करते और सर्व प्रति सन्तुष्टता के गोल्डन
पुष्पों की वर्षा सदा करते रहते हैं। ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें चारों ओर में से
कोई-कोई नजर आई। माला बड़ी नहीं बनी, छोटी-सी माला बनी। बापदादा बारबार सन्तुष्टमणियों
की माला को देख हर्षित हो रहे थे। क्योंकि ऐसी सन्तुष्टमणियाँ ही बापदादा के गले का
हार बनती हैं, राज्य अधिकारी बनती हैं और भक्तों के सिमरण की माला बनती हैं।
बापदादा और बच्चों को
भी देख रहे थे जो कभी सन्तुष्ट और कभी असन्तुष्ट के संकल्प-मात्र छाया के अन्दर आ
जाते हैं और फिर निकल आते हैं, फँस नहीं जाते। तीसरे बच्चे कभी संकल्प की
असन्तुष्टता, कभी स्वयं की स्वयं से असन्तुष्टता, कभी परिस्थितियों द्वारा
असन्तुष्टता, कभी स्वयं की हलचल द्वारा असन्तुष्टता और कभी छोटी-बड़ी बातों से
असन्तुष्टता - इसी चक्र में चलते और निकलते और फिर फँसते रहते। ऐसी माला भी देखी।
तो तीन मालायें तैयार हुई। मणियां तो सभी हैं लेकिन सन्तुष्ट-मणियों की झलक और दूसरे
दो प्रकार के मणियों की झलक क्या होगी, यह तो आप भी जान सकते हो। ब्रह्मा बाप
बार-बार तीनों मालाओं को देखते हुए हर्षित भी हो रहे थे, साथ-साथ प्रयत्न कर रहे थे
कि दूसरे नम्बर की माला की मणियाँ पहली माला में आ जाएँ। रूह-रूहान चल रही थी।
क्योंकि दूसरी माला की कोई-कोई मणि बहुत थोड़ी-सी असन्तुष्टता की छाया-मात्र के कारण
पहली माला से वंचित रह गयी है, इसको परिवर्तन कर कैसे भी पहली माला में लावें।
एक-एक के गुण, विशेषतायें, सेवा - सबको सामने लाते बार-बार यही बोले कि इसको पहली
माला में कर लें। ऐसी 25-30 के करीब मणियाँ थी जिनके ऊपर ब्रह्मा बाप की विशेष
रूह-रूहान चल रही थी। ब्रह्मा बाप बोले - पहले नम्बर माला में इन मणियों को भी डालना
चाहिए। लेकिन फिर स्वयं ही मुस्कराते हुए यही बोले कि बाप इन्हों को अवश्य पहली में
लाकर ही दिखायेंगे। तो ऐसी विशेष मणियाँ भी थी।
ऐसे रूह-रूहान चलते
हुए एक बात निकली कि असन्तुष्टता का विशेष कारण क्या है? जबकि संगमयुग का विशेष
वरदान सन्तुष्टता है, फिर भी वरदाता से वरदान प्राप्त वरदानी आत्मायें दूसरे नम्बर
की माला में क्यों आती? सन्तुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का
बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। जब ब्राह्मणों का गायन है - ‘अप्राप्त नहीं कोई
वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में अथवा ब्राह्मणों के जीवन में', फिर असन्तुष्टता क्यों?
क्या वरदाता ने वरदान देने में अंतर रखा वा लेने वालों ने अन्तर कर लिया, क्या हुआ?
जब वरदाता, दाता के भण्डार भरपूर हैं, इतने भरपूर हैं जो आपके अर्थात् श्रेष्ठ
निमित्त आत्माओं के जो बहुतकाल के ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी बन गये, उन्हों की 21
जन्मों की वंशावली और फिर उनके भक्त, भक्तों की भी वंशावली, वो भी उन प्राप्तियों
के आधार पर चलते रहेंगे। इतनी बड़ी प्राप्ति, फिर भी असन्तुष्टता क्यों? अखुट खज़ाना
सभी को प्राप्त है - एक ही द्वारा, एक ही जैसा, एक ही समय, एक ही विधि से। लेकिन
प्राप्त हुए खज़ाने को हर समय कार्य में नहीं लगाते अर्थात् स्मृति में नहीं रखते।
मुख से खुश होते हैं लेकिन दिल से खुश नहीं होते। दिमाग की खुशी है, दिल की खुशी नहीं,
कारण? प्राप्तियों के खज़ानों को स्मृतिस्वरूप बन कार्य में नहीं लगाते। स्मृति रहती
है लेकिन स्मृतिस्वरूप में नहीं आते। प्राप्ति बेहद की है लेकिन उनको कहाँ-कहाँ हद
की प्राप्ति में परिवर्तन कर लेते हो। इस कारण हद अर्थात् अल्पकाल की प्राप्ति की
इच्छा, बेहद की प्राप्ति के फलस्वरूप जो सदा सन्तुष्टता की अनुभूति हो, उससे वंचित
कर देती है। हद की प्राप्ति दिलों में हद डाल देती है। इसलिए असन्तुष्टता की अनुभूति
होती है। सेवा में हद डाल देते हैं। क्योंकि हद की इच्छा का फल मन इच्छित फल नहीं
प्राप्त होता। हद की इच्छाओं का फल अल्पकाल की पूर्ति वाला होता है। इसलिए अभी-अभी
सन्तुष्टता, अभी-अभी असन्तुष्टता हो जाती है। हद, बेहद का नशा अनुभव कराने नहीं देता।
इसलिए, विशेष चेक करो कि मन की अर्थात् स्वयं की सन्तुष्टता, सर्व की सन्तुष्टता
अनुभव होती है?
सन्तुष्टता की निशानी
- वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सन्तुष्ट होंगे; उनके मन और तन में
सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा
हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्म-भोग सामना
करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता
की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी। प्रसन्नचित्त कभी कोई बात में प्रश्नचित्त
नहीं होंगे। प्रश्न हैं तो प्रसन्न नहीं। प्रसन्नचित्त की निशानी - वह सदा
नि:स्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेगा; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेगा - न
भाग्यविधाता के ऊपर कि मेरा भाग्य ऐसा बनाया, न ड्रामा पर कि मेरा ड्रामा में ही
पार्ट ऐसा है, न व्यक्ति पर कि इसका स्वभाव-संस्कार ऐसा है, न प्रकृति के ऊपर कि
प्रकृति का वायुमण्डल ऐसा है, न शरीर के हिसाबकिताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है।
प्रसन्नचित्त अर्थात् सदा नि:स्वार्थ, निर्दोष वृत्ति-दृष्टि वाले। तो संगमयुग की
विशेषता ‘सन्तुष्टता' है और सन्तुष्टता की निशानी ‘प्रसन्नता' है। यह है ब्राह्मण
जीवन की विशेष प्राप्ति। सन्तुष्टता नहीं, प्रसन्नता नहीं तो ब्राह्मण बनने का लाभ
नहीं लिया। ब्राह्मण जीवन का सुख है ही सन्तुष्टता, प्रसन्नता। ब्राह्मण जीवन बनी
और उसका सुख नहीं लिया तो नामधारी ब्राह्मण हुए वा प्राप्ति स्वरूप ब्राह्मण हुए?
तो बापदादा सभी ब्राह्मण बच्चों को यही स्मृति दिला रहे हैं - ब्राह्मण बने, अहो
भाग्य! लेकिन ब्राह्मण जीवन का वर्सा, प्रापर्टी ‘सन्तुष्टता' है। और ब्राह्मण जीवन
की पर्सनल्टी (Personality) ‘प्रसन्नता' है। इस अनुभव से कभी वंचित नहीं रहना।
अधिकारी हो। जब दाता, वरदाता खुली दिल से प्राप्तियों का खज़ाना दे रहे हैं, दे दिया
है तो खूब अपनी प्रापर्टी और पर्सनल्टी को अनुभव में लाओ, औरों को भी अनुभवी बनाओ।
समझा? हर एक अपने से पूछे कि मैं किस नम्बर की माला में हूँ? माला में तो है ही
लेकिन किस नम्बर की माला में हूँ। अच्छा।
आज राजस्थान और यू.पी.
ग्रुप है। राजस्थान अर्थात् राजाई संस्कार वाले, हर संकल्प में, स्वरूप में राजाई
संस्कार प्रैक्टिकल में लाने वाले अर्थात् प्रत्यक्ष दिखाने वाले। इसको कहते हैं
राजस्थान निवासी। ऐसे हो ना? कभी प्रजा तो नहीं बन जाते हो ना? अगर वशीभूत हो गये
तो प्रजा कहेंगे, मालिक हैं तो राजा। ऐसे नहीं कि कभी राजा, कभी प्रजा। नहीं। सदा
राजाई संस्कार स्वत: ही स्मृति-स्वरूप में हों। ऐसे राजस्थान निवासी बच्चों का
महत्त्व भी है। राजा को सदैव सभी ऊँची नजर से देखेंगे और स्थान भी राजा को ऊँचा
देंगे। राजा सदैव तख्त पर बैठेगा, प्रजा सदैव नीचे। तो राजस्थान के राजाई संस्कार
वाली आत्मायें अर्थात् सदा ऊंची स्थिति के स्थान पर रहने वाले। ऐसे बन गये हो वा बन
रहे हो? बने हैं और सम्पन्न बनना ही है। राजस्थान की महिमा कम नहीं है। स्थापना का
हेडक्वार्टर ही राजस्थान में है। तो ऊँचे हो गये ना। नाम से भी ऊँचे, काम से भी ऊँचे।
ऐसे राजस्थान के बच्चे अपने घर में पहुँचे हैं। समझा?
यू.पी. की भूमि विशेष
पावन-भूमि गाई हुई है। पावन करने वाली भक्तिमार्ग की गंगा नदी भी वहाँ है और भक्ति
के हिसाब से कृष्ण की भूमि भी यू.पी. में ही है। भूमि की महिमा बहुत है। कृष्ण लीला,
जन्मभूमि देखनी होगी तो भी यू.पी. में ही जायेंगे। तो यू.पी. वालों की विशेषता है।
सदा पावन बन और पावन बनाने की विशेषता सम्पन्न हैं। जैसे बाप की महिमा है पतित पावन...
यू.पी. वालों की भी महिमा बाप समान है। पतित-पावनी आत्मायें हो। भाग्य का सितारा
चमक रहा है। ऐसे भाग्यवान स्थान और स्थिति - दोनों की महिमा है। ‘सदा पावन' - यह है
स्थिति की महिमा। तो ऐसे भाग्यवान अपने को समझते हो? सदा अपने भाग्य को देख हर्षित
होते स्वयं भी सदा हर्षित और दूसरों को भी हर्षित बनाते चलो। क्योंकि हर्षित-मुख
स्वत: ही आकर्षितमूर्त होते हैं। जैसे स्थूल नदी अपने तरफ खींचती है ना, खींचकर
यात्री जाते हैं। चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े, फिर भी पावन होने का आकर्षण खींच
लेता है। तो यह पावन बनाने के कार्य का यादगार यू.पी. में है। ऐसे ही हर्षित और
आकर्षितमूर्त बनना है। समझा?
तीसरा ग्रुप डबल
विदेशियों का भी है। डबल विदेशी अर्थात् सदा विदेशी बाप को आकर्षित करने वाले,
क्योंकि समान हैं ना। बाप भी विदेशी है, आप भी विदेशी हो। हम शरीक प्यारे होते हैं।
माँ-बाप से भी फ्रेंड्स ज्यादा प्यारे लगते हैं। तो डबल विदेशी बाप समान सदा इस देह
और देह के आकर्षण से परे विदेशी हैं, अशरीरी हैं, अव्यक्त हैं। तो बाप अपने समान
अशरीरी, अव्यक्त स्थिति वाले बच्चों को देख हर्षित होते हैं। रेस भी अच्छी कर रहे
हैं। सेवा में भिन्न-भिन्न साधन और भिन्न-भिन्न विधि से आगे बढ़ने की रेस अच्छी कर
रहे हैं। विधि भी अपनाते और वृद्धि भी कर रहे हैं। इसलिए, बापदादा चारों ओर के डबल
विदेशी बच्चों को सेवा की बधाई भी देते और स्व के वृद्धि की स्मृति भी दिलाते हैं।
स्व की उन्नति में सदा उड़ती कला द्वारा उड़ते चलो। स्वउन्नति और सेवा की उन्नति के
बैलेन्स द्वारा सदा बाप के ब्लैसिंग के अधिकारी हैं और सदा रहेंगे। अच्छा।
चौथा ग्रुप है बाकी
मधुबन निवासी। वह तो सदा हैं ही। जो दिल पर सो चुल पर, जो चुल पर सो दिल पर। सबसे
ज्यादा विधिपूर्वक ब्रह्मा भोजन भी मधुबन में होता। सबसे सिकीलधे भी मधुबन निवासी
हैं। सब फंक्शन भी मधुबन में होते। सबसे, डायरेक्ट मुरलियाँ भी, ज्यादा मधुबन वाले
ही सुनते। तो मधुबन निवासी सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी आत्मायें हैं। सेवा भी दिल
से करते हैं। इसलिए मधुबन निवासियों को बापदादा और सर्व ब्राह्मणों की मन से
आशीर्वाद प्राप्त होती रहती है। अच्छा।
चारों ओर की सर्व
बापदादा की विशेष सन्तुष्टमणियों को बापदादा की विशेष यादप्यार। साथ-साथ सर्व
भाग्यशाली ब्राह्मण जीवन प्राप्त करने वाले कोटों में कोई, कोई में भी कोई सिकीलधे
आत्माओं को, बापदादा के शुभ संकल्प को सम्पन्न करने वाली आत्माओं को, संगमयुगी
ब्राह्मण जीवन की प्रापर्टी के सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त करने वाली आत्माओं को विधाता
और वरदाता बापदादा की बहुत-बहुत यादप्यार स्वीकार हो।
दादी जानकी जी एवं
दादी चन्द्रमणि जी सेवाओं पर जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं
जा रही हो या समा रही
हो? जाओ या आओ लेकिन सदा समाई हुई हो। बापदादा अनन्य बच्चों को कभी अलग देखते ही नहीं
हैं। चाहे आकार में, चाहे साकार में सदा साथ हैं। क्योंकि सिर्फ महावीर बच्चे ही
हैं जो यह वायदा निभाते हैं कि हर समय साथ रहेंगे, साथ चलेंगे। बहुत थोड़े यह वायदा
निभाते हैं। इसलिए, ऐसे महावीर बच्चे, अनन्य बच्चे जहाँ भी जाते बाप को साथ ले जाते
हैं और बाप सदा वतन में भी साथ रखते हैं। हर कदम में साथ देते। इसलिए जा रही हो, आ
रही हो - क्या कहेंगे? इसीलिए कहा कि जा रही हो या समा रही हो। ऐसे ही साथ रहते-रहते
समान बन समा जायेगी। घर में थोड़े समय के लिए रेस्ट करेंगी, साथ रहेंगी। फिर आप
राज्य करना और बाप ऊपर से देखेंगे। लेकिन साथ का थोड़े समय का अनुभव करना। अच्छा।
(आज बाबा आपने कमाल
की माला बनाई) आप लोग भी तो माला बनाते हो ना। माला अभी तो छोटी है। अभी बड़ी बनेगी।
अभी जो थोड़ा कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं, उन्हें थोड़े समय में प्रकृति का वा समय का
आवाज होश में ले आयेगा; फिर माला बड़ी बन जायेगी। अच्छा। जहाँ भी जाओ बाप के वरदानी
तो हो ही। आपके हर कदम से बाप का वरदान सबको मिलता रहेगा। देखेंगे तो भी बाप का
वरदान दृष्टि से लेंगे, बोलेंगे तो बोल से वरदान लेंगे, कर्म से भी वरदान ही लेंगे।
चलते-फिरते वरदानों की वर्षा करने के लिए जा रही हो। अभी जो आत्मायें आ रही हैं,
उनको वरदान की व महादान की ही आवश्यकता है। आप लोगों का जाना अर्थात् खुले दिल से
उन्हों को बाप के वरदान मिलना। अच्छा।
वरदान:-
सर्व खजानों
को समय पर यूज़ कर निरन्तर खुशी का अनुभव करने वाले खुशनसीब आत्मा भव
बापदादा द्वारा
ब्राह्मण जन्म होते ही सारे दिन के लिए अनेक श्रेष्ठ खुशी के खजाने प्राप्त होते
हैं। इसलिए आपके नाम से ही अब तक अनेक भक्त अल्पकाल की खुशी में आ जाते हैं, आपके
जड़ चित्रों को देखकर खुशी में नाचने लगतेहैं। ऐसे आप सब खुशनसीब हो, बहुत खजाने
मिले हैं लेकिन सिर्फ समय पर यूज करो। चाबी को सदा सामने रखो अर्थात् सदा स्मृति
में रखो और स्मृति को स्वरूप में लाओ तो निरन्तर खुशी का अनुभव होता रहेगा।
स्लोगन:-
बाप की श्रेष्ठ आशाओं का दीपक जगाने वाले ही कुल दीपक हैं।