03-06-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 05-12-74 मधुबन

 

व्यर्थ संकल्पों को समर्थ बनाने से काल पर विजय

 

अव्यक्त-मिलन किसको कहा जाता है? जिससे मिलना होता है, उसी के समान बनना होता है। तो अव्यक्त-मिलन अर्थात् बाप-समान अव्यक्त रूपधारी बनना। अव्यक्त अर्थात् जहाँ व्यक्त भाव नहीं। क्या ऐसे बने हो? व्यक्त देश का, व्यक्त देह का और व्यक्त वस्तुओं का जरा भी आकर्षण अपनी तरफ आकर्षित न करे, क्या ऐसी स्थिति बनाई है? जो पहला-पहला वायदा है कि तुम्हीं से सुनूं और तुम्हीं से बोलूं, यह वायदा निभाने के लिये सारा दिन-रात जब तक अव्यक्त व निराकारी स्थिति में स्थित नहीं होंगे, तो क्या बाप-दादा के साथ-साथ रहने का अनुभव कर सकेंगे अर्थात् वायदा निभा सकेंगे? सारे दिन में आप कितना समय, यह वायदा निभाते हो? जिससे मिलना होता है, उसके स्थान पर और वैसी स्थिति, स्वयं की बनानी होती है। वह स्थान और स्थिति ये दोनों ही बदलनी पड़ेगी, तब ही यह वायदा निभा सकते हो। व्यक्त भाव में आना व कोई भी व्यक्त व वस्तु में भावना रहना कि यह प्रिय है व अच्छी है, यह व्यक्त-वस्तु और व्यक्ति में भावना रहना अर्थात् कामना का रूप हो जाता है। जब तक कामना है, तब तक माया से सम्पूर्ण रीति सामना नहीं कर सकते। जब तक सामना नहीं कर सकते, तब तक समान नहीं बन सकते अर्थात् वायदा नहीं निभा सकते।

 

जैसे आप लोग चित्र में कृष्ण को सृष्टि के ग्लोब पर दिखाते हो-ऐसा ही चित्र अपनी प्रैक्टिकल स्थिति का बनाओ। इस व्यक्त देश व इस पुरानी दुनिया से उपराम। व्यक्त भाव और व्यक्त वस्तुओं आदि सबसे उपराम अर्थात् इनके ऊपर साक्षी होकर खड़े रहें। जैसे पाँव के नीचे ग्लोब दिखाते हैं व ग्लोब के ऊपर बैठा हुआ दिखाते हैं अर्थात् उनका मालिकपन व अधिकारीपन दिखाते हैं तो ऐसे अपना चित्र बनाओ। इस पुरानी दुनिया में, जैसे अपनी स्व-इच्छा से, अपने रचे हुए संकल्प के आधार से अव्यक्त से व्यक्त में आते, व्यक्ति व वस्तुओं के आकर्षण के अधीन होकर नहीं। जैसे लिफ्ट में चढ़ते हो, तो स्विच अपने हाथ में होता है चाहे फर्स्ट फ्लोअर पर जाओ, चाहे सेकेण्ड फ्लोअर पर जाओ। जब स्विच कन्ट्रोल से बाहर हो जाता है तब वाया रिज़ल्ट होती है? बीच में लटक जावेंगे ना? ऐसे ही यह स्मृति का स्विच अपने कन्ट्रोल में रखो। जहाँ चाहो, जब चाहो और जितना समय चाहो वैसे अपने स्थान को व स्थिति को सैट कर सको, क्या ऐसे अधिकारी बने हो? क्या काल पर विजय प्राप्त की है? काल अर्थात् समय। तो काल पर विजयी बने हो? अगर पाण्डव सेना की व शक्ति सेना की यह स्टेज अन्त में आयेगी तो साइलेन्स पॉवर तो साइन्स से कम हो गई। क्योंकि साइंस ने तो अभी भी इन तत्वों पर विजय प्राप्त कर ली है।

 

प्रदर्शनी में, आप लोग चित्र दिखाते हो ना, कि रावण ने चार तत्वों पर विजय प्राप्त की है, उसमें काल भी दिखाते हो न? जब रावण ने अर्थात् रावण की शक्ति साइंस ने अभी भी काफी हद तक तत्वों पर विजय प्राप्त कर ली है, तो साइंस आपसे पॉवरफुल  हुई ना? जब साइन्स की शक्ति अपना प्रत्यक्ष सबूत दे रही है तो साइलेन्स की शक्ति अपना प्रत्यक्ष सबूत क्या अन्त में देगी? समय पर विजय अर्थात् काल पर विजय। इसकी परसेन्टेज अभी कम है। अपने को निराकारी स्थिति व अव्यक्त स्थिति में स्थित तो करते हो, लेकिन जितना समय स्थित रहना चाहते हो, उतना समय उस स्थिति में स्थित नहीं हो पाते हो। स्टेज के अनुभव भी प्राप्त करते हो, मेहनत भी करते हो, लेकिन काल पर विजय नहीं कर पाते हो। इसका कारण क्या है? सोचते हो कि आधा घण्टा पॉवरफुल याद में बैठेंगे और आधा घण्टा बैठते भी हो और प्लैन भी बनाते हो लेकिन जितनाजितना जिस स्टेज के लिए सोचते हो, उतना ही समय उस समय उस स्टेज पर स्थित नहीं होते हो। सोचते हो स्विच ऑन थर्ड फ्लोर पर करें, लेकिन पहुँच जाते हो सेकेण्ड फ्लोर पर वा फर्स्ट या ग्राउण्ड फ्लोर तक पहुँच जाते हो। क्योंकि काल पर विजय नहीं। इसका कारण यह है कि बार-बार सारे दिन में समय गँवाने के अभ्यासी हो। व्यर्थ के ऊपर अटेन्शन देने से ही काल पर विजय प्राप्त करने में समर्थ बनेंगे। जब तक समय व्यर्थ जाता है, तब तक विजय पाने में समर्थ नहीं बन सकते। इसी कारण, जो मिलन का अनुभव करना चाहते हो व निरन्तर समय व्यर्थ करने के कारण ही समर्थ नहीं बन पाते। 108 वायदा निभाना चाहते हो वह निभा नहीं सकते। तो अब, अपनी तकदीर की तस्वीर सर्व-तत्वों पर और काल पर सदा विजयी की बनाओ। जब एक-एक सेकेण्ड, व्यर्थ से समर्थ में चेन्ज करो, तब ही विजयी बनेंगे, अच्छा।

 

ऐसे सदा विजयी, सदा अधिकारी, निरन्तर वायदा निभाने वाले, हरेक को व्यर्थ से समर्थ में परिवर्तन करने वाले, सदा व्यक्त भाव से परे, अव्यक्त स्थिति में रहने वाले लक्की सितारों व समीप सितारों को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

 

03-06-12  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 27-12-74 मधुबन

 

योगी भव और पवित्र भव द्वारा वरदानों की प्राप्ति

 

आज की सभा वरदाता द्वारा, सर्व वरदान प्राप्त की हुई आत्माओं की है। वरदाता द्वारा, सर्व वरदानों में, मुख्य दो वरदान हैं, जिसमें कि सर्व वरदान समाये हुए हैं। वह दो वरदान कौन-से हैं? उसको अच्छी तरह जानते हो या स्वयं वरदान-स्वरूप व वरदानी-मूर्त बन गये हो? जो वरदानी-मूर्त हैं; वह स्वयं स्वरूप बन, औरों को देने वाला दाता बन सकता है। तो अपने से पूछो कि क्या मुख्य दो वरदान-स्वरूप बने हैं? अर्थात् योगी भव और पवित्र भव:- इस विशेष कोर्स के स्वरूप बने हो? इसी कोर्स को समाप्त किया है या अभी तक कर रहे हो? सप्ताह कोर्स का रहस्य, इन दो वरदानों में समाया हुआ है। जो भी यहाँ बैठे हैं, क्या उन सबने यह कोर्स, समाप्त कर लिया है या उनका अभी तक यह कोर्स चल रहा है? कोर्स अर्थात् फोर्स भर जाना। सदा योगी-भव और सदा पवित्र-भव का फोर्स अर्थात् शक्ति-स्वरूप का अनुभव नहीं होता, तो उसको शक्ति-स्वरूप नहीं कहेंगे। लेकिन उसे शक्ति-स्वरूप बनने का अभ्यासी ही कहेंगे। क्योंकि स्वयं का स्वरूप, सदा और स्वत: ही स्मृति में रहता है। जैसे अपना साकार स्वरूप, सदा और स्वत: याद रहता है और उसका अभ्यास नहीं करते हो बल्कि और ही, उसको भुलाने का अभ्यास करते हो। ऐसे ही अपना निजी-स्वरूप व वरदानी स्वरूप, सदा ही स्मृति में रहना चाहिए। अपवित्रता का और विस्मृति का नामोनिशान न रहे। इसको कहा जाता है-वरदानों का कोर्स करना। क्या ऐसा कोर्स किया है?

 

जैसे आप लोग, सप्ताह कोर्स समाप्त करने से पहले, किसी भी आत्मा को क्लास में नहीं आने देते हो, ऐसे ही ब्राह्मण बच्चे, जो यह प्रैक्टिकल कोर्स समाप्त नहीं करते तो बाप-दादा व ड्रामा भी उनको कौन-सी क्लास में आने नहीं देते। अर्थात् फर्स्ट क्लास में आने नहीं देते। फर्स्ट क्लास कौन-सी है?-वे सतयुग के आदि में नहीं आ सकते। जब आप लोग, उन को क्लास में आने नहीं देते, तो ड्रामा भी फर्स्ट क्लास में का अधिकारी नहीं बना सकता। फर्स्ट क्लास में, आने के लिए यह मुख्य दो वरदान प्रैक्टिकल रूप में चाहिए। विस्मृति या अपवित्रता क्या होती है इसकी अविद्या हो जाए। तुम संगम पर उपस्थित हो ना? तो ऐसा अनुभव हो कि यह संस्कार व स्वरूप मेरा नहीं है, लेकिन मेरे पास्ट जन्म का था और अब है नहीं। मैं तो ब्राह्मण हूँ और यह तो शूद्रों के संस्कार व उनका स्वरूप है। ऐसे अपने से भिन्न अर्थात् दूसरों के संस्कार हैं, ऐसा अनुभव होना-इसको कहा जाता है ‘न्यारा और प्यारा।’ जैसे देह और देही अलग-अलग वस्तुयें हैं, लेकिन अज्ञानवश इन दोनों को मिला दिया है। वैसे ही ‘मेरे’ को ‘मैं’ समझ लिया है। तो इस गलती के कारण कितनी परेशानी व दु:ख व अशान्ति प्राप्त की। ऐसे ही, यह अपवित्रता और विस्मृति के संस्कार, जो मेरे अर्थात् ब्राह्मणपन के नहीं, लेकिन जो शूद्रपन के हैं, उनको मेरा समझने से, माया के वश व परेशान हो जाते हो अर्थात् ब्राह्मणपन की शान से परे (दूर) हो जाते हो। यह छोटी-सी भूल, चैक करो कि कहीं यह मेरे संस्कार तो नहीं था, यह कहीं यह मेरा स्वरूप तो नहीं? समझा? तो पहला पाठ, पवित्र-भव व योगी-भव को प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ, तब ही बाप-समान और बाप के समीप आने के अधिकारी बन सकते हो।

 

आज कल्प पहले वाले, बहुत काल से बिछुड़े हुए, बाप की याद में तड़पने वाले व अव्यक्त मिलन मनाने के शुद्ध संकल्प में रमण करने वाले, अपने स्नेह की डोर से बाप-दादा को भी बांधने वाले और अव्यक्त को भी आप-समान व्यक्त में बनाने वाले, वह नये-नये बच्चे व साकारी देश में दूर-देशी बच्चे जो हैं, उनके प्रति विशेष मिलन के लिए बाप-दादा को आना पड़ा है। तो शक्तिशाली कौन हुए? बाँधने वाले या बँधने वाला? बाप कहते हैं- वाह बच्चे। शाबास बच्चे। नयों के प्रति विशेष बाप-दादा का स्नेह है। ऐसा क्यों? निश्चय की सदा विजय है। विशेष स्नेह का मुख्य कारण, नये बच्चे सदा अव्यक्त मिलन मनाने की मेहनत में रहते हैं। अव्यक्त रूप द्वारा, व्यक्त रूप से किये हुए चरित्रों का अनुभव करने के सदा शुभ आशा के दीपक जगाए हुए होते हैं। ऐसी मेहनत करने वालों को, फल देने के लिए बाप-दादा को भी विशेष याद स्वत: ही आती है। इसलिए आज की याद, आज की गुडमार्निंग व नमस्ते विशेष चारों ओर के नये-नये बच्चों को पहले बाप-दादा दे रहे हैं। साथ में, सब बच्चे तो है हीं। अब व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन, सदा काल तो हो नहीं सकता। इसलिए आने के बाद, जाना होता है। अव्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात तो सदाकाल की है। ऐसे वरदानी बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।

 

पर्सनल मुलाकात:

 

एक बार सहयोग देना अर्थात् अन्त तक सहयोग लेना

 

बाप-दादा सदैव विदेशियों को नम्बर वन याद करता है। जैसे बांधेलियाँ पहले याद आती हैं, वैसे विदेश में रहने वाले बच्चे भी याद आते हैं। उनको भी बार-बार इस देश में न आ सकने का बन्धन है ना? बाप-दादा तो सबसे समीप देखते हैं। जो फॉरेन में सर्विस पर गये हैं, वह कोई दूर हैं क्या? वे आंखों के सामने भी नहीं हैं, लेकिन आंखों में जो समाया हुआ होता है, वह कभी दूर नहीं होता। वह तो सबसे समीप हुआ ना? आप आंखों के सामने रहती हो या आंखों में समाई हुई हो? जो समाये हुए हैं, वह हैं निरन्तर योगी। विदेश में रहने वाले बच्चे फिर भी नज़दीक आ जाते हैं, और जो नज़दीक हैं,देश के हिसाब से रहने वाले चार वर्ष में एक बार भी नहीं आते तो नजदीक कौन हुए? यह सारा सूक्ष्म कनेक्शन है। नज़दीक सम्बन्ध है, तब तो नजदीक आई हो। यह तो है ना? ड्रामानुसार देखो, इतने महारथियों के संकल्प साकार न हो सके। लेकिन एक बाप का ही संकल्प साकार हो गया, फिर तो समीप हुई ना? अपने को बाप-दादा से दूर मत समझो। अपनी जन्मपत्री को देखना चाहिए कि आदि से लेकर अर्थात् जन्मते ही मेरी तकदीर की लकीर कैसी है? जिनको जन्म होने से ही तकदीर प्राप्त है; तकदीर बनाके आए हैं आदि समय की, उसी आधार पर पीछे भी उनको लिफ्ट मिलती है। शुरू से ही सहज प्राप्ति हुई है ना? मेहनत कम और प्राप्ति ज्यादा। यह लॉटरी मिली हुई है। एक रूपये की लाटरी में, लाखों मिल जायें तो मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा हुई ना? कोई भी बात में, अगर एक बार समय पर, बिना कोई संकल्प के, आज्ञा समझ कर जो सहयोगी बन जाते हैं, ऐसे समय के सहयोगियों को बाप-दादा भी अन्त तक सहयोग देने के लिए बाँधा हुआ है। एक बार का सहयोग देने का अन्त तक सहयोग लेने का अधिकारी बनाता है। एक का सौ गुना मिलने से मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा होती है। चाहे मन से, चाहे तन से अथवा धन से। लेकिन समय पर सहयोग दिया, तो बाप-दादा अन्त तक सहयोग देने के लिये बांधा हुआ है। जिसको दूसरे शब्दों में भक्त लोग अन्ध-श्रद्धा कहते हैं। ऐसा अगर कोई एक बार भी जीवन में बाप-दादा के कार्य में सहयोग दिया है, तो अन्त तक बाप-दादा सहयोगी रहेगा। यह भी एक हिसाब-किताब है। समझा। अच्छा।

 

वरदान:- दिल की तपस्या द्वारा सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट प्राप्त करने वाले सर्व की दुआओं के अधिकारी भव

 

तपस्या के चार्ट में अपने को सर्टीफिकेट देने वाले तो बहुत हैं लेकिन सर्व की सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट तभी प्राप्त होता है जब दिल की तपस्या हो, सर्व के प्रति दिल का प्यार हो, निमित्त भाव और शुभ भाव हो। ऐसे बच्चे सर्व की दुआओं के अधिकारी बन जाते हैं। कम से कम 95 परसेन्ट आत्मायें सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट दें, सबके मुख से निकले कि हाँ यह नम्बरवन है, ऐसा सबके दिल से दुआओं का सर्टीफिकेट प्राप्त करने वाले ही बाप समान बनते हैं।

 

स्लोगन:- समय को अमूल्य समझकर सफल करो तो समय पर धोखा नहीं खायेंगे।