21-04-13 प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 23-01-76 मधुबन
संकल्प, वाणी और स्वरूप के हाईएस्ट और होलीएस्ट होने से
बाप की प्रत्यक्षता
अपने को हाईएस्ट और होलीएस्ट समझते हुए हर संकल्प व कर्म करते रहते हो? हाईएस्ट अर्थात् ऊँच से ऊँच ब्राह्मण। ब्राह्मणों को विराट रूप में चोटी का स्थान दिया गया है। जैसे स्थान ऊँच चोटी का है, वैसे ही स्थान के साथ-साथ स्थिति भी ऊँची है? जैसा ऊँचा नाम, वैसी ऊँची शान और वैसा ही ऊँचा काम। जैसे बाप के लिए गायन है - ऊँचे ते ऊँचा भगवान; वैसे बच्चों का भी गायन है - ऊँचे ते ऊँचे ब्राह्मण। इस ऊँची स्थिति का यादगार आज तक चला आया है कि जो कोई श्रेष्ठ कर्त्तव्य व शुभ कार्य करते हैं तो नामधारी ब्राह्मणों से ही कराते हैं। इस समय के श्रेष्ठ कर्म की यादगार अब भी चैतन्य सच्चे ब्राह्मण के रूप में देख और सुन रहे हो। श्रेष्ठ कर्म की महिमा व गायन भी सुन रहे हो, दूसरे तरफ स्वयं श्रेष्ठ पार्ट बजा रहे हो! यादगार और प्रैक्टिकल-दोनों साथ-साथ देख रहे हो। यादगार द्वारा भी सिद्ध होता है कि कितने ऊँचे थे, अब हैं और फिर होंगे। जैसे ब्राह्मण ऊँचे हैं, वैसे ही ब्राह्मणों का समय भी सब युगों में से सर्वश्रेष्ठ युग, अर्थात् संगमयुग का समय, अर्थात् अमृतवेला व ब्रह्ममुहूर्त का समय है। यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति ब्राह्मणों की क्यों बनी? क्योंकि ब्राह्मण ही ऊँचे-से-ऊँचे अथवा श्रेष्ठ कर्त्तव्य में सहयोगी बनने का श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त करते हैं। इतना अपना ऊँचा पार्ट, श्रेष्ठ बाप, श्रेष्ठ स्थान और श्रेष्ठ शान स्मृति में रहते हैं? इतना श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर फिर प्राप्त नहीं कर सकोगे। ऐसे हाईएस्ट और साथ-साथ होलीएस्ट का यादगार अब तक भी सुनते हो। लोग ब्राह्मणों की बजाय आपके देवता रूप का गायन करते हैं।
होलीएस्ट का कौनसा गायन है? कमल-नयन, कमल-हस्त, कमल-मुख के रूप में अब तक भी गायन करते रहते हैं। अब प्रैक्टिकल में चेक करो कि हर कर्म-इन्द्रिय कमल समान न्यारी बनी है? जैसे कमल सम्बन्ध और सम्पर्क में रहते हुए न्यारा है, ऐसे कर्मेन्द्रियाँ कर्म के और कर्म के फल के सम्पर्क में आते हुए न्यारी हैं? अर्थात् देह और देह के सम्बन्ध के, देह की इस पुरानी दुनिया के आकर्षण से परे हैं? कोई भी कर्म-इन्द्रिय का रस - देखने का, सुनने का, बोलने का अपने वशीभूत तो नहीं बनाता है? वशीभूत होने का अर्थ है होलीएस्ट से भूत बन जाना। जब भूत बन जाते हैं तो भूतों का कर्त्तव्य है - दु:खी होना और दु:खी करना। हाईएस्ट ब्राह्मण से शूद्र बन जाते हैं। इसलिये सदैव यह स्मृति में रखो कि ‘मैं हाईएस्ट और होलीएस्ट हूँ।’ जब यह प्रत्यक्ष रूप में अर्थात् संकल्प और स्वरूप में स्मृति रहेगी तब ही प्रत्यक्षता वर्ष मना सकेंगे। ऊँचे से ऊँचे बाप को प्रत्यक्ष करने के लिए जब तक स्वयं स्वरूप में होलीएस्ट और हाईएस्ट नहीं बने हैं तो बाप को प्रत्यक्ष कैसे करेंगे? स्वयं में बाप-समान गुण और कर्त्तव्य को प्रख्यात करना ही बाप को प्रत्यक्ष करना है। ऊँचे काम से ऊँचे बाप का नाम होगा। अपनी रूहानी मूरत से रूहानी बाप की प्रत्यक्षता करनी है जो हर आत्मा हर ब्राह्मण में ब्रह्मा बाप को देखे। रचना अपने रचयिता को दिखाये। हर एक के मुख से एक ही बोल निकले कि ‘स्वयं भगवान ने इन्हें इतना तकदीरवान बनाया है।’ हर-एक की तकदीर बाप-दादा की तस्वीर को प्रसिद्ध करे। हर एक अपने को ऐसा दिव्य-स्वच्छ दर्पण बनाओ कि हर दर्पण द्वारा अनेकों को बाप-दादा का साक्षात्कार हो। साक्षात् बाप समान की स्थिति ही बाप का साक्षात्कार करा सकती है।
प्रत्यक्षता वर्ष मनाने का अर्थ है स्वयं को बाप के समान बनाना। यह स्थूल साधन तो निमित्त मात्र साधन हैं। सदाकाल का साधन सिद्धि-स्वरूप का है। सिद्धि-स्वरूप ही स्वत: सिद्ध करेगा कि ऐसा ऊँचा बनाने वाला ऊँचे से ऊँचा भगवान् है। तो साधनों के साथ-साथ सिद्धि स्वरूप को अपनाओ। संकल्प, वाणी और स्वरूप - तीनों ही होलीएस्ट और हाईएस्ट हों। ऐसी स्टेज से ही बाप को प्रत्यक्ष कर सकोगे। बाप-दादा बच्चों का उमंग-उत्साह, श्रेष्ठ संकल्प, मेहनत और लगन को देख कर हर्षित भी होते हैं, लेकिन आगे के लिये सहयोग देने के लिये प्लैन बतला रहे हैं। सबका एक ही संकल्प है। एक संकल्प में महान् शक्ति है। एकरस स्थिति में स्थित हो इस संकल्प को स्वरूप में लाओ। कल्प-कल्प के विजय की तकदीर की तस्वीर का तो अब भी गायन है अथवा कायम है। अच्छा!
ऐसे अपने तकदीर द्वारा बाप-दादा की तस्वीर दिखाने वाले, सदा कमल के समान अल्पकाल के आकर्षण से परे रहने वाले, बाप-समान होलीएस्ट और हाईएस्ट स्वमान में स्थित रहने वाले, हर आत्मा में बाप के स्नेह को, स्वरूप को, और सम्बन्ध को प्रत्यक्ष करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मणों को ऊँचे से ऊँचे बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते!
पुरूषार्थ की युक्ति अब नहीं तो कभी नहीं ( टीचर्स बहिनों से)
टीचर्स जैसे विशेष सेवार्थ निमित्त बनी हुई विशेष आत्मायें हैं, वैसा पुरूषार्थ भी चलता है या जैसे स्टूडेण्ट्स का चलता है, वैसे ही चलता है? पार्ट के अनुसार विशेष पुरूषार्थ कौनसा चलता है? सम्पूर्ण बनना है, सतोप्रधान बनना है - यह तो सभी का लक्ष्य है, यह तो इन-जनरल हो गया। लेकिन टीचर्स का विशेष पुरूषार्थ कौनसा चलता है? आजकल जो विशेष पुरूषार्थ करना है व होना चाहिये, वह यही है कि हर संकल्प पॉवरफुल हो- साधारण न हो, समर्थ हो व्यर्थ न हो। टीचर का अर्थ क्या है? सर्विसएबल, एक सेकेण्ड भी सर्विस के बिना न हो। मुरली पढ़ना, और चेकिंग करना - यह तो मोटी बात है!
जैसे समय समीप आ रहा है, तो निमित्त बनी हुई विशेष आत्माओं को पुरूषार्थ यह करना है कि समय से तेज दौड़ लगायें। ऐसे नहीं कहना है कि इतना समय पड़ा है, कमी दूर हो ही जाएगी। नहीं। यह बुद्धि में रखना है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। हर संकल्प, हर सेकेण्ड के लिए यह स्लोगन कि अब नहीं तो कभी नहीं। जब ऐसे अभी के संस्कार भरेंगे तो ऐसी अभी कहने वाली आत्मायें सतयुग के आदि में आयेंगी। कभी कहने वाले मध्य में आयेंगे। कभी कहने वाले समय का इन्तज़ार करते हैं। तो पद में भी इन्तज़ार करेंगे। तो हर सेकेण्ड, हर संकल्प में यह स्लोगन याद रहे। अगर यह पाठ पक्का नहीं होगा तो सदैव कमज़ोरी के संस्कार रहेंगे। महावीर के संस्कार हैं - ‘अब नहीं तो कभी नहीं!’ हमारे से ये आगे हैं, यह करेंगे तो हम करेंगे - यह अलबेलेपन के संस्कार हैं। जो संकल्प आया वह अब करना ही है। कल नहीं आज, आज नहीं अब, अर्थात् अभी करना है।
सभी विशेष आत्मायें हो न? अपने को छोटा तो नहीं समझते हो? पुरूषार्थ में हर एक बड़ा है। कारोबार में छोटा-बड़ा होता है, पुरूषार्थ में छोटा-बड़ा नहीं होता। पुरूषार्थ में छोटा आगे जा सकता है। कारोबार में मर्यादा की बात है। पुरूषार्थ में मर्यादा की बात नहीं। ‘पुरूषार्थ में जो करेगा, सो पायेगा। अब ऐसे चेक करना है कि ऐसा पुरूषार्थ है या कि जैसे साधारण सबका चलता है, वैसे चलता है? टीचर्स सदा हर्षित हैं? टीचर्स को अनेकों की आशीर्वाद की लिफ्ट भी मिलती है और किसी को कमज़ोर बनाने के निमित्त बनती है, तो पाप भी चढ़ता है। जिस बोझ के कारण जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते। बोझ वाला ऊपर उठ नहीं सकेगा। इसलिए चाहते हुए भी चेन्ज नहीं होते तो ज़रूर बोझ है। उस बोझ को भस्म करो - विशेष योग से, मर्यादाओं से और लगन से। नहीं तो बोझ में समय बीत जावेगा, आगे बढ़ न सकोगे। अमृतवेले उठ कर अपनी सीट को सेट करो। जैसी सीट है, उसी प्रमाण सेट हैं? - यह चेक करो। अपने पोज़ (अवस्था) को ठीक करो। अगर पोज़ ठीक न भी होगा तो चेक करने से ठीक हो जावेगा। अच्छा!
पर्सनल मुलाकात:-
प्रत्यक्षता वर्ष मनाने के लिये सभी ने बाप-दादा को अखबारों और कार्डस द्वारा विशेष रूप से प्रत्यक्ष करने का प्रयत्न किया है। यह भी सेवा के आवश्यक साधन हैं। लेकिन यह अखबार व कार्डस आदि तो उस दिन देखा, पढ़ा व सुना; फिर स्मृति में समा जाते हैं। समाप्त तो नहीं कहेंगे क्योंकि समय पर यही स्मृति, जो अब समा गई, वह स्वरूप में आयेगी। इसलिये समाप्त नहीं कहेंगे। लेकिन समा गई कहेंगे। इससे भी धरनी में थोड़ा बहुत स्नेह का और परिचय का जल पड़ा। लेकिन इस बीज से प्रत्यक्षता का फल कैसे निकले? पानी तो डाला, किस लिये डाला? फल के लिये। वह फल कैसे निकलेगा अर्थात् संकल्प प्रैक्टिकल स्वरूप में कैसे आयेगा? इसके लिये सदैव तो कार्डस नहीं छपवाते रहेंगे?
आजकल मैजॉरिटी आत्माओं की इच्छा क्या है? सुख-शान्ति की प्राप्ति की इच्छा तो है, लेकिन विशेष जो भक्त आत्माएँ हैं उन्हों की इच्छा क्या है? मैजॉरिटी भक्तों की इच्छा सिर्फ एक सेकेण्ड के लिये भी लाइट देखने की है। तो वह इच्छा कैसे पूर्ण होगी? वह इच्छा पूर्ण करने के साधन ब्राह्मणों के नयन हैं। इन नयनों द्वारा बाप के ज्योतिस्वरूप का साक्षात्कार हो। यह नयन, नयन नहीं दिखाई देंगे अपितु लाइट का गोला दिखाई देंगे। जैसे आकाश में चमकते हुए सितारे दिखाई देते हैं, वैसे यह आंखों के तारे सितारे-समान चमकते हुए दिखाई दें। लेकिन वह तब दिखाई देंगे जब स्वयं लाइट-स्वरूप में स्थित रहेंगे। कर्म में भी लाइट अर्थात् हल्कापन और स्वरूप भी लाइट-स्टेज भी लाइट हो। जब ऐसा पुरूषार्थ व स्थिति व स्मृति-स्वरूप विशेष आत्माओं का रहेगा, तो विशेष आत्माओं को देख सर्व पुरूषार्थियों का भी यही पुरूषार्थ रहेगा। बार-बार कर्म करते हुए चेक करो कि कर्म में लाइट और हल्कापन है? कर्म का बोझ तो नहीं है? कर्म का बोझ अपने तरफ खींचेगा। अगर कर्म में बोझ नहीं तो अपने तरफ खिंचाव नहीं करेंगे बल्कि कर्मयोग में परिवर्तन हो जायेंगे।
तो प्रत्यक्षता वर्ष मनाने का स्वरूप और साधन यही सबकी बुद्धि में है ना? ऐसा प्लैन बनाया है ना? जैसे साकार में देखा कि जितना ही अति कर्म में आना, विस्तार में आना, रमणीकता में आना, सम्बन्ध और सम्पर्क में आना, उतना ही अभी-अभी सम्बन्ध-सम्पर्क में आते भी न्यारा बन जाना। जैसे सम्बन्ध व कर्म में आना सहज, वैसे ही न्यारा होना भी सहज। ऐसी प्रैक्टिस चाहिये। अति के समय एक सेकेण्ड में अति हो जाये। अभी-अभी अति, अभी-अभी अन्त। यह है लास्ट वर्ष का व लास्ट स्टेज का पुरूषार्थ। ऐसे प्लैन बनाओ। यह रिहर्सल करो और ड्रिल करो अति और अन्त की ड्रिल। अभी-अभी अति सम्बन्ध में और अभी-अभी जितना सम्पर्क में उतना न्यारा। जैसे लाइट हाउस में समा जाए! लाइट-हाउस अर्थात् अपना ज्योति देश। अभी-अभी कर्म-क्षेत्र, अभी-अभी परमधाम। अच्छा!
दु:ख अथवा गाली में भी कल्याण (माताओं से)
बाप-दादा का माताओं से आदि से विशेष स्नेह है। यज्ञ की स्थापना में भी विशेष किसका पार्ट रहा, निमित्त कौन बने? और अन्त में भी प्रत्यक्षता और विजय का नारा लगाने में निमित्त कौन बनेंगे? मातायें। संगम पर गोपिकाओं का विशेष पार्ट है, गोपी-वल्लभ गाया हुआ है। मातायें सदैव यह इच्छा रखती हैं - ऐसा हमें अपना बनावे जो श्रेष्ठ हो, अच्छा वर मिले, अच्छा घर मिले। जब बाप ने अपना बनाया तो और क्या चाहिए? कोई भी इस कल्याणकारी युग में परिस्थिति आती है तो उस परिस्थिति को न देख, वर्तमान को न देख, वर्तमान में भविष्य को देखो। मानो कोई दु:ख देता है व गाली देता है, तो उसमें भी यह देखो कि मेरा कल्याण है। कल्याण यह है कि वह दु:ख अथवा गाली ही सुखदाता की याद के नजदीक लायेगी। बाहर के रूप से न देखो, कल्याण के रूप से देखो तो कोई भी परिस्थिति, कठिन परिस्थिति नहीं लगेगी। इससे अपनी उन्नति कर सकोगे। अच्छा!
वरदान:- अपनी सूक्ष्म शक्तियों को स्थापना के कार्य में लगाने वाले मास्टर रचयिता भव
जैसे आपकी रचना साइंस वाले विस्तार को सार में समा रहे हैं। अति सूक्ष्म और शक्तिशाली विनाश के साधन बना रहे हैं। ऐसे आप मास्टर रचयिता बन अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ स्थापना के कार्य में लगाओ। आपके पास सबसे महान शक्ति है - श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति, शुभ वृत्ति की शक्ति, स्नेह और सहयोग की दृष्टि। तो इस सूक्ष्म शक्तियों द्वारा अपनी वंशावली की आशाओं के दीपक जलाए उन्हें यथार्थ मंजिल पर पहुँचाओ।
स्लोगन:- जहाँ स्वच्छता और मधुरता है वहाँ सेवा में सफलता है।