12-05-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठे बच्चे – बाबा आया है तुम बच्चों को अविनाशी कमाई
कराने, अभी तुम ज्ञान रत्नों की जितनी कमाई करने चाहो कर सकते हो”
प्रश्नः-
आसुरी संस्कारों
को बदलकर दैवी संस्कार बनाने के लिए कौन-सा विशेष पुरूषार्थ चाहिए?
उत्तर:-
संस्कारों को बदलने के लिए जितना हो सके देही-अभिमानी रहने का अभ्यास करो।
देह-अभिमान में आने से ही आसुरी संस्कार बनते हैं। बाप आसुरी संस्कारों को दैवी
संस्कार बनाने के लिए आये हैं, पुरूषार्थ करो पहले मैं देही आत्मा हूँ, पीछे यह
शरीर है।
गीत:-
तूने रात
गँवाई सो के ……
ओम् शान्ति।
यह गीत तो बच्चों ने
बहुत बार सुने हैं। रूहानी बच्चों प्रति रूहानी बाप सावधानी देते रहते हैं कि यह
समय खोने का नहीं है। यह समय बहुत भारी कमाई करने का है। कमाई कराने के लिए ही बाप
आया हुआ है। कमाई भी अथाह है, जिसको जितनी कमाई करनी हो उतनी कर सकते हैं। यह है
अविनाशी ज्ञान रत्नों से झोली भरने की कमाई। यह है भविष्य के लिए। वह है भक्ति, यह
है ज्ञान। मनुष्य यह नहीं जानते हैं कि भक्ति तब शुरू होती है जब रावण राज्य शुरू
होता है। फिर ज्ञान तब शुरू होता है जब बाप आकर रामराज्य स्थापन करते हैं। ज्ञान है
ही नई दुनिया के लिए, भक्ति है पुरानी दुनिया के लिए। अब बाप कहते हैं पहले तो अपने
को देही (आत्मा) समझना है। तुम बच्चों की बुद्धि में है – हम पहले आत्मा हैं, पीछे
शरीर हैं। परन्तु ड्रामा प्लैन अनुसार मनुष्य सब रांग हो गये हैं इसलिए उल्टा समझ
लिया है कि पहले हम देह हैं फिर देही हैं। बाप कहते हैं यह तो विनाशी है। इसको तुम
लेते और छोड़ते हो। संस्कार आत्मा में रहते हैं। देह-अभिमान में आने से संस्कार
आसुरी बन जाते हैं। फिर आसुरी संस्कारों को दैवी बनाने के लिए बाप को आना पड़ता है।
यह सारी रचना उस एक रचता बाप की ही है। उनको सब फादर कहते हैं। जैसे लौकिक बाप को
भी फादर ही कहा जाता है। बाबा और मम्मा यह दोनों अक्षर बहुत मीठे हैं। रचता तो बाप
को ही कहेंगे। वह पहले माँ को एडाप्ट करते हैं फिर रचना रचते हैं। बेहद का बाप भी
कहते हैं कि मैं आकर इनमें प्रवेश करता हूँ, इनका नाम बाला है। कहते भी हैं भागीरथ।
मनुष्य का ही चित्र दिखाते हैं। कोई बैल आदि नहीं है। भागीरथ मनुष्य का तन है। बाप
ही आकर बच्चों को अपना परिचय देते हैं। तुम हमेशा कहो हम बापदादा के पास जाते हैं।
सिर्फ बाप कहेंगे तो वह निराकार हो जाता। निराकार बाप के पास तो तब जा सकते जब शरीर
छोड़े, ऐसे तो कोई भी जा नहीं सकते। यह नॉलेज बाप ही देते हैं। यह नॉलेज है भी बाप
के पास। अविनाशी ज्ञान रत्नों का खजाना है। बाप है ज्ञान रत्नों का सागर। पानी की
बात नहीं। ज्ञान रत्नों का भण्डारा है। उनमें नॉलेज है। नॉलेज पानी को नहीं कहा जाता।
जैसे मनुष्य को बैरिस्टरी, डॉक्टरी आदि की नॉलेज होती है, यह भी नॉलेज है। इस नॉलेज
के लिए ही ऋषि-मुनि आदि सब कहते थे कि रचता और रचना के आदि-मध्य-अन्त की नॉलेज हम
नहीं जानते। वह तो एक रचता ही जाने। झाड़ का बीजरूप भी वही है। सृष्टि के
आदि-मध्य-अन्त का नॉलेज उसमें हैं। वह जब आये तब सुनाये। अभी तुमको नॉलेज मिली है
तो तुम इस नॉलेज से देवता बनते हो। नॉलेज पाकर फिर प्रालब्ध पाते हो। वहाँ फिर इस
नॉलेज की दरकार नहीं रहेगी। ऐसे नहीं कि देवताओं में यह ज्ञान नहीं है तो अज्ञानी
हैं। नहीं, वह तो इस नॉलेज से पद प्राप्त कर लेते हैं। बाप को पुकारते ही हैं कि
बाबा आओ, हम पतित से पावन कैसे बनें, उसके लिए रास्ता अथवा नॉलेज बताओ क्योंकि जानते
नहीं। अभी तुम जानते हो हम आत्मायें शान्तिधाम से आई हैं। वहाँ आत्मायें शान्त में
रहती हैं। यहाँ आये हैं पार्ट बजाने। यह पुरानी दुनिया है, तो जरूर नई दुनिया थी।
वह कब थी, कौन राज्य करते थे – यह कोई नहीं जानते। तुमने अभी बाप द्वारा जाना है।
बाप है ही ज्ञान का सागर, सद्गति दाता। उनको ही पुकारते हैं कि बाबा आकर हमारे दु:ख
हरो, सुख-शान्ति दो। आत्मा जानती है परन्तु तमोप्रधान हो गई है इसलिए फिर से बाप
आकर परिचय दे रहे हैं। मनुष्य न आत्मा को, न परमात्मा को जानते हैं। आत्मा को ज्ञान
ही नहीं जो परमात्म-अभिमानी बनें। आगे तुम भी नहीं जानते थे। अभी ज्ञान मिला है तो
समझते हैं बरोबर सूरत मनुष्य की थी और सीरत बन्दर की थी।
अभी बाप ने नॉलेज दी
है तो हम भी नॉलेजफुल बन गये हैं। रचता और रचना का ज्ञान मिला है। तुम जानते हो हमको
भगवान पढ़ाते हैं, तो कितना नशा रहना चाहिए। बाबा है ज्ञान का सागर, उनमें बेहद का
ज्ञान है। तुम किसके पास भी जाओ – सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान तो क्या परन्तु
हम आत्मा क्या चीज हैं, वह भी नहीं जानते। बाप को याद भी करते हैं, दु:ख हर्ता सुख
कर्ता, फिर भी ईश्वर सर्वव्यापी कह देते हैं। बाप कहते हैं ड्रामा अनुसार उन्हों का
भी कोई दोष नहीं। माया बिल्कुल ही तुच्छ बुद्धि बना देती है। कीड़ों को फिर गंद में
ही सुख भासता है। बाप आते हैं गंद से निकालने। मनुष्य दलदल में फँसे हुए हैं। ज्ञान
का पता ही नहीं है तो क्या करें। दुबन में फँसे पड़े हैं फिर उनको निकालना ही
मुश्किल हो जाता है। निकाल कर आधा पौना तक ले जाओ फिर भी हाथ छुड़ाए गिर पड़ते हैं।
कई बच्चे औरों को ज्ञान देते-देते स्वयं ही माया का थप्पड़ खा लेते हैं क्योंकि बाप
के डायरेक्शन के विरूद्ध कार्य कर लेते हैं। दूसरों को निकालने की कोशिश करते और
खुद गिर पड़ते हैं फिर उनको निकालने में कितनी मेहनत हो जाती है क्योंकि माया से
हार जाते हैं। उनको अपना पाप ही अन्दर खाता है। माया की लड़ाई है ना। अभी तुम युद्ध
के मैदान पर हो। वह हैं बाहुबल से लड़ने वाली हिंसक सेनायें। तुम हो अहिंसक। तुम
राज्य लेते हो अहिंसा से। हिंसा दो प्रकार की होती है ना। एक है काम कटारी चलाना और
दूसरी हिंसा है किसको मारना-पीटना। तुम अभी डबल अहिंसक बनते हो। यह ज्ञान बल की
लड़ाई कोई नहीं जानते। अहिंसा किसको कहा जाता यह कोई नहीं जानते। भक्ति मार्ग की
सामग्री कितनी भारी है। गाते भी हैं पतित-पावन आओ परन्तु मैं कैसे आकर पावन बनाता
हूँ – यह कोई नहीं जानते। गीता में ही भूल कर दी है जो मनुष्य को भगवान कह दिया है।
शास्त्र मनुष्यों ने ही बनाये हैं। मनुष्य ही पढ़ते हैं। देवताओं को तो शास्त्र
पढ़ने की दरकार नहीं। वहाँ कोई शास्त्र नहीं होते हैं। ज्ञान, भक्ति पीछे है
वैराग्य। किसका वैराग्य? भक्ति का, पुरानी दुनिया का वैराग्य है। पुराने शरीर का
वैराग्य है। बाप कहते हैं इन आंखों से जो कुछ देखते हो वह नहीं रहेगा। इस सारी
छी-छी दुनिया से वैराग्य है। बाकी नई दुनिया का तुम दिव्य दृष्टि से साक्षात्कार
करते हो। तुम पढ़ते ही हो नई दुनिया के लिए। यह पढ़ाई कोई इस जन्म के लिए नहीं है।
और जो भी पढ़ाई हैं, वह होती हैं उसी समय उसी जन्म के लिए। अब तो है संगम इसलिए तुम
जो पढ़ते हो उसकी प्रालब्ध तुमको नई दुनिया में मिलती है। बेहद के बाप से कितनी बड़ी
प्रालब्ध तुमको मिलती है! बेहद के बाप से बेहद सुख की प्राप्ति होती है। तो बच्चों
को पूरा पुरूषार्थ कर श्रीमत पर चलना चाहिए। बाप है श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ। उनसे तुम
श्रेष्ठ बनते हो। वह तो सदैव है ही श्रेष्ठ। तुमको श्रेष्ठ बनाते हैं। 84 जन्म
लेते-लेते फिर तुम भ्रष्ट बन जाते हो। बाप कहते मैं तो जन्म-मरण में नहीं आता हूँ।
मैं अभी भाग्यशाली रथ में ही प्रवेश करता हूँ, जिसको तुम बच्चों ने पहचाना है।
तुम्हारा अभी छोटा झाड़ है। झाड़ को तूफान भी लगते हैं ना। पत्ते झड़ते रहते हैं।
ढेर फूल निकलते हैं फिर तूफान लगने से गिर पड़ते हैं। कोई-कोई अच्छी रीति फल लग जाते
हैं फिर भी माया के तूफान से गिर पड़ते हैं। माया का तूफान बहुत तेज है। उस तरफ है
बाहुबल, इस तरफ योगबल अथवा याद का बल। तुम याद अक्षर पक्का कर लो। वो लोग योग-योग
अक्षर कहते रहते हैं। तुम्हारी है याद। चलते-फिरते बाप को याद करते हो, इसको योग नहीं
कहेंगे। योग अक्षर संन्यासियों का नामीग्रामी है। अनेक प्रकार के योग सिखाते हैं।
बाप कितना सहज बतलाते हैं – उठते-बैठते, चलते-फिरते बाप को याद करो। तुम आधाकल्प के
आशिक हो। मुझे याद करते आये हो। अब मैं आया हूँ। आत्मा को कोई भी नहीं जानते इसलिए
बाप आकर रियलाइज़ कराते हैं। यह भी समझने की बड़ी महीन बातें हैं। आत्मा अति
सूक्ष्म और अविनाशी है। न आत्मा विनाश होने वाली है, न उनका पार्ट विनाश हो सकता
है। यह बातें मोटी बुद्धि वाले मुश्किल समझ सकते हैं। शास्त्रों में भी यह बातें नहीं
हैं।
तुम बच्चों को बाप को
याद करने की बहुत मेहनत करनी पड़ती है। ज्ञान तो बहुत सहज है। बाकी विनाश काले
प्रीत बुद्धि और विप्रीत बुद्धि यह याद के लिए कहा जाता है। याद अच्छी है तो प्रीत
बुद्धि कहा जाता है। प्रीत भी अव्यभिचारी चाहिए। अपने से पूछना है – हम बाबा को
कितना याद करते हैं? यह भी समझते हैं बाबा से प्रीत रखते-रखते जब कर्मातीत अवस्था
होगी तब यह शरीर छूटेगा और लड़ाई लगेगी। जितना बाप से प्रीत होगी तो तमोप्रधान से
सतोप्रधान बन जायेंगे। इम्तहान तो एक ही समय होगा ना। जब पूरा समय आता है, सबकी
प्रीत बुद्धि हो जाती है, उस समय फिर विनाश होता है। तब तक झगड़े आदि लगते रहते
हैं। विलायत वाले भी समझते हैं अभी मौत सामने है, कोई प्रेरक है, जो हमसे बॉम्ब्स
बनवाते हैं। परन्तु कर क्या सकते हैं। ड्रामा की नूँध है ना। अपनी ही साइंस बल से
अपने कुल का मौत लाते हैं। बच्चे कहते हैं पावन दुनिया में ले जाओ, तो शरीरों को
थोड़ेही ले जायेंगे। बाप कालों का काल है ना। यह बातें कोई नहीं जानते। गाया हुआ है
मिरूआ मौत मलूका शिकार। वह कहते विनाश बन्द हो जाए, शान्ति हो जाए। अरे, विनाश बिगर
सुख-शान्ति कैसे स्थापन होगी इसलिए चक्र पर जरूर समझाओ। अभी स्वर्ग के गेट खुल रहे
हैं। बाबा ने कहा है इस पर भी एक पुस्तक छपाओ – गेट वे टू शान्तिधाम-सुखधाम। इनका
अर्थ भी नहीं समझेंगे। है बहुत सहज, परन्तु कोटों में कोई मुश्किल समझते हैं। तुमको
प्रदर्शनी आदि में कभी दिलशिकस्त नहीं होना चाहिए। प्रजा तो बनती है ना। मंजिल बड़ी
है, मेहनत लगती है। मेहनत है याद की। उसमें बहुत फेल होते हैं। याद भी अव्यभिचारी
चाहिए। माया घड़ी-घड़ी भुला देती है। मेहनत बिगर थोड़ेही कोई विश्व के मालिक बन सकते
हैं। पूरा पुरूषार्थ करना चाहिए – हम सुखधाम के मालिक थे। अनेक बार चक्र लगाया है।
अब बाप को याद करना है। माया बहुत विघ्न डालती है। बाबा के पास सर्विस के भी समाचार
आते हैं। आज विद्वत मण्डली को समझाया, आज यह किया…. ड्रामा अनुसार माताओं का नाम
बाला होना है। तुम बच्चों को यह ख्याल रखना है, माताओं को आगे करना है। यह है
चैतन्य दिलवाला मन्दिर। तुम चैतन्य में बन जायेंगे फिर तुम राज्य करते रहेंगे। भक्ति
मार्ग के मन्दिर आदि रहेंगे नहीं। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे
बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी
बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) एक बाप से अव्यभिचारी प्रीत रखते-रखते कर्मातीत अवस्था को पाना है।
इस पुरानी देह और पुरानी दुनिया से बेहद का वैराग्य हो।
2) कोई भी कर्तव्य बाप के डायरेक्शन के विरूद्ध नहीं करना है। युद्ध के मैदान
में कभी भी हार नहीं खानी है। डबल अहिंसक बनना है।
वरदान:-
सत्यता के आधार पर एक बाप को प्रत्यक्ष करने वाले,
निर्भय अथॉरिटी स्वरूप भव
सत्यता ही प्रत्यक्षता का आधार है। बाप को प्रत्यक्ष करने
के लिए निर्भय और अथॉरिटी स्वरूप बनकर बोलो, संकोच से नहीं। जब अनेक मत वाले सिर्फ
एक बात को मान लेंगे कि हम सबका बाप एक है और वही अब कार्य कर रहे हैं, हम सब एक की
सन्तान एक हैं और यह एक ही यथार्थ है..तो विजय का झण्डा लहरा जायेगा। इसी संकल्प से
मुक्तिधाम जायेंगे और फिर जब अपना-अपना पार्ट बजाने आयेंगे तो पहले यही संस्कार
इमर्ज होंगे कि गाड इज वन। यही गोल्डन एज की स्मृति है।
स्लोगन:-
सहन
करना ही स्वयं के शक्ति रूप को प्रत्यक्ष करना है।