09-12-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 15-10-75 मधुबन
आत्म-घाती महापापी न बनकर डबल अहिंसक बनने की युक्तियाँ
आज बापदादा बच्चों का गुणगान कर रहे थे। गुणगान करते देखा कि ड्रामा के अन्दर बच्चों का कितना ऊंचा और सर्वश्रेष्ठ पार्ट है। वह भी कल्प में इसी संगमयुग पर ही महिमा योग्य बनते हैं। इसी युग में स्वयं परमात्मा भी आप श्रेष्ठ आत्माओं की महिमा गाते हैं। इस समय ही तुम डबल महिमा के अधिकारी बनते हो। एक बाप समान मास्टर सागर बनते हो, और जो बाप के गुण हैं व शक्तियाँ हैं उन दोनों में मास्टर बनते हो। साथ-साथ आत्मा की श्रेष्ठ स्टेज की भी महिमा है - सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण... इस महिमा व् भी प्रैक्टिकल में अनुभव अभी करते हो। सोलह कलायें क्या हैं? मर्यादायें क्या हैं? इन सब बातों की नॉलेज इस समय ही धारण करते हो। तो ही डबल महिमा के योग्य बनते हो। दो जहान के मालिक बनते हो, डबल पूजा के योग्य बनते हो। डबल वर्सा ‘मुक्ति और जीवन-मुक्ति’ इन दोनों के अधिकारी बनते हो, डबल ताजधारी बनते हो, डबल अहिंसक बनते हो और डबल बाप के लाडले और सिकीलधे बच्चे बनते हो। ऐसे बच्चों की श्रेष्ठता का गुणगान कर रहे थे कि बच्चे कैसे बालक बन कर विश्व के मालिक के भी मालिक बन जाते हैं। ऐसे अपनी महिमा क्या स्वयं भी सुमिरण कर हर्षित होते हो? इस सुमिरण से कभी भी माया का वार नहीं हो सकेगा।
बाप आज देख रहे थे कि कौन-कौन से बच्चे किस स्टेज तक पहुँचे हैं? मुख्य बात है बाप समान सर्वगुणों में मास्टर सागर कहाँ तक बने हैं? सर्व शक्तियों का वर्सा प्रैक्टिकल जीवन में कहाँ तक अनुभव किया है? साथ-साथ आत्मा की जो श्रेष्ठ व महान् स्टेज है - सम्पूर्ण निर्विकारी, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पन्न, मर्यादा पुरूषोत्तम और सम्पूर्ण अहिंसक - इस महानता को कहाँ तक जीवन में लाया है? गुण सम्पन्न अवस्था का केवल गायन ही है और सर्वगुण सम्पन्न की अवस्था में यदि एक भी गुण की कमी है तो उन्हें फुल महिमा के योग्य नहीं कहेंगे। तो अपने आप को चेक करो कि सर्व गुणों में से कितने गुणों में और कितने परसेन्टेज में स्वयं में गुणों की कमी है। सोलह कला अर्थात् सर्व विशेषताओं में सम्पन्न अर्थात् जैसा समय वैसा स्वरूप बना सकें, और जैसा संकल्प वैसा स्वरूप में ला सकें। बाप द्वारा प्राप्त हुए पुरूषार्थ की विधि द्वारा सर्व सिद्धियाँ समय पर स्वयं के प्रति व सर्व-आत्माओं की सेवा के प्रति कार्य में लगा सकें। सर्व-शक्तियों को अनुभव में लाते हुए सर्व-आत्माओं के प्रति उन्हों की आवश्यकता प्रमाण, वरदानी रूप में दे सकें। सर्व बातों में बैलेन्स रख सकें अर्थात् अभी-अभी लवफुल और अभी-अभी लॉ-फुल बन सकें। अभी-अभी महाकाली रूप और अभी-अभी शीतला रूप बन सकें। ऐसी सर्व विशेषताएं अर्थात् सोलह कला सम्पन्न। इसके लिये सर्व-कर्मेन्द्रियों और सर्व-आत्मिक शक्तियों, मन, बुद्धि और संस्कार - इन सर्व पर अधिकार चाहिए। ऐसा अधिकारी ही सोलह कला सम्पन्न बन सकता है।
कोई भी कमज़ोरी वाला कला नहीं दिखा सकता अर्थात् विशेषतायें नहीं दिखा सकता और न ही अनुभव करा सकता है। इसी रीति से अपने को चेक करो कि सर्व विशेषतायें धारण की हैं अर्थात् सोलह कला सम्पन्न बने हैं? सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् सर्व विकार सर्व वंश-सहित, अंश-मात्र भी अर्थात् संकल्प व स्वप्न-मात्र में भी न हो। उसको कहते हैं सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोत्तम अर्थात् हर संकल्प, हर सेकेण्ड और हर कदम श्रीमत् अनुसार अर्थात् मर्यादा के प्रमाण हो। संकल्प भी वा एक कदम भी ईश्वरीय मर्यादा की लकीर के बाहर न हो। अमृतवेले से रात के सोने तक हर कदम मर्यादा अनुकूल, स्मृति, वृत्ति, और दृष्टि भी सदा ही मर्यादा प्रमाण हो। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम कहाँ तक बने हो?
डबल अहिंसक अर्थात् अपवित्रता अर्थात् ‘काम महाशत्रु’ स्वप्न में भी वार न करें। सदा भाई-भाई की स्मृति सहज और स्वत: अर्थात् स्मृति स्वरूप में हो। ऐसे डबल अहिंसक, आत्मघात का महापाप भी नहीं करते। आत्मघात अर्थात् अपने सम्पूर्ण सतोप्रधान स्टेज से नीचे गिर कर अपना घात नहीं करते। ऊंचाई से नीचे गिरना ही घात है। आत्मा के असली गुण-स्वरूप और शक्ति-स्वरूप स्थिति से नीचे आना अर्थात् विस्मृत होना यह भी पाप के खाते में जमा होता है। इसलिये कहा जाता है आत्मघाती महापापी। साथ-साथ अहिंसक आत्मा कभी खून नहीं करती। खून करना अर्थात् हिंसा करना। तो आप में से कोई खून करते हैं? जो बाप द्वारा दिव्य-बुद्धि व दिव्य-विवेक व ईश्वरीय-विवेक मिला है वह माया वश, परमत वश, कुसंग वश, या परिस्थिति के वश अगर ईश्वरीय विवेक को दबाते हो, तो समझो कि ईश्वरीय विवेक का खून करते हो, या दिव्य-बुद्धि का खून करते हो। बाद में फिर चिल्लाते हो कि चाहता तो नहीं हूँ लेकिन कर लिया, न चाहते हुए भी हो गया। गोया यह है ईश्वरीय विवेक का खून करना। झूठ बोलना, चोरी करना, ठगी करना व धोखा देना इसको भी हिंसा व महापाप कहा जाता है। तो तुम ब्राह्मण चोरी कौनसी करते हो? शूद्रपन के संस्कार स्वभाव व बोल व किसी के प्रति भावना, ब्राह्मण बनने के बाद कार्य में लगाते हो व अपनाते हो तो गोया शूद्रों की वस्तु चोरी करते हो। जबकि यह ब्राह्मणों की वस्तु ही नहीं है। तो दूसरों की वस्तु यूज़ करना अर्थात् ब्राह्मण बनने के बाद आसुरी व शूद्रपन के संस्कार व स्वभाव धारण करना अर्थात् हिंसा करना है। ऐसे ही झूठ कैसे बोलते हो? कहते हो हम ट्रस्टी हैं - सब कुछ आपका है - तन, मन और धन सब तेरा। फिर मैं-मन में मोह वश होकर चलते हो। तो मैं-पन लाना या मेरा समझना यह भी झूठ हुआ ना? कहना तेरा और करना मेरा - झूठ हुआ ना? वायदा करते हो तुम्हीं से खांऊ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ और तुम्हीं से सर्व- सम्बन्ध निभाऊं - लेकिन प्रैक्टिकल में अन्य आत्माओं से भी सम्बन्ध व सम्पर्क रखते हो। बाप की स्मृति के बजाय अन्य स्मृति भी साथ-साथ रखते हो। तो यह भी खून हुआ ना? वायदा है कि मेरा तो एक बाप, दूसरा न कोई। अगर वह नहीं निभाते तो यह भी झूठ हुआ। ऐसे ही धोखा और ठगी कौनसी करते हो? सबसे बड़ा धोखा स्वयं को देते हो कि जो जानते हुए, मानते हुए फिर भी स्वयं को श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित कर देते हो - यह हुआ स्वयं को धोखा देना। धोखे की निशानी है जिससे दु:ख की प्राप्ति होती है। साथ-साथ ब्राह्मण परिवार में भी धोखा देते हो। कहना एक और करना दूसरा, अपनी कमजोरी को छिपाकर बाहर से अपना नाम बाला करना या अपने को अच्छा पुरुषार्थी सिद्ध करना। यह एक दूसरे को धोखा देते हो। कोई भी गलती करके छिपाना यह भी धोखा देना है व ठगी करना है। तो डबल अहिंसक अर्थात् पुण्य आत्मा, महान् आत्मा, जिससे कोई प्रकार का पाप न हो। ऐसे अपने को चेक करो कि आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्टेज जो अभी सुनाई वह कहाँ तक धारण की है? ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का बाप भी गायन करते हैं। तो आज ऐसे बच्चों का गुणगान कर रहे थे व माला सुमिरण कर रहे थे। अच्छा।
ऐसे सर्व महान्, सर्व योग्यतायें-सम्पन्न, गायन और पूजन योग्य और डबल अहिंसक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति!
त्याग-मूर्त्त टीचर्स के साथ - अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवाधारी अर्थात् त्याग और तपस्वी-मूर्त्त। टीचर्स को अपने अन्दर महीन रूप से चैकिंग करनी चाहिए। मोटे रूप से नहीं बल्कि महीन रूप से। वह यही है कि सारे दिन में सर्व प्रकार के त्याग-मूर्त्त रहे अथवा कहीं त्याग-मूर्त्त के बजाय कोई भी साधन व कोई भी वस्तु को स्वीकार करने वाले बनें? जो त्याग-मूर्त्त होगा वह कभी भी कोई वस्तु स्वीकार नहीं करेगा। जहाँ स्वीकार करने का संकल्प आया तो वहाँ तपस्या भी समाप्त हो जायेगी। त्याग, तपस्या-मूर्त्त ज़रूर बनायेगा। जहाँ त्याग और तपस्या खत्म वहाँ सेवा भी खत्म। बाहर से कोई कितने भी रूप से सेवा करे, परन्तु त्याग और तपस्या नहीं तो सेवा की भी सफलता नहीं।
कई टीचर्स सोचती है कि सर्विस में सफलता क्यों नहीं? सर्विस में वृद्धि न होना वह तो और बात है, परन्तु विधि-पूर्वक चलना यह है सर्विस की सफलता। तो वह तब होगी जब त्याग और तपस्या होगी। मैं टीचर हूँ, मैं इन्चार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ या योगी हूँ यह स्वीकार करना, इसको भी त्याग नहीं कहेंगे। दूसरा भले ही कहे, परन्तु स्वयं को स्वयं न कहे। अगर स्वयं को स्वयं कहते हैं तो इसको भी स्व-अभिमान ही कहेंगे। तो त्याग की परिभाषा साधारण नहीं। यह मोटे रूप का त्याग तो प्रजा बनने वाली आत्मायें भी करती हैं, परन्तु जो निमित्त बनते हैं उनका त्याग महीन रूप में है। कोई भी पोज़ीशन को या कोई भी वस्तु को किसी व्यक्ति द्वारा भी स्वीकार न करना - यह है त्याग। नहीं तो कहावत है कि जो सिद्धि को स्वीकार करते तो ‘वह करामत खैर खुदाई’। तो यहाँ भी कोई सिद्धि को स्वीकार किया जो ज्ञानयोग से प्राप्त हुआ मान व शान तो यह भी विधि का सिद्धि-स्वरूप प्रालब्ध ही है। तो इनमें से किसी को भी स्वीकार करना अर्थात् सिद्धि को स्वीकार करना हुआ। जो सिद्धि को स्वीकार करता है, उसकी प्रालब्ध यहाँ ही खत्म फिर उसका भविष्य नहीं बनता। तो टीचर्स की चैकिंग बड़ी महीन रूप से हो। सेवाधारी के नाते से त्याग और तपस्या निरन्तर हो। तपस्या अर्थात् एक बाप की लगन में रहना। कोई भी अल्पकाल के प्राप्त हुए भाग्य में यदि बुद्धि का झुकाव है तो वह सेवा में सफलतामूर्त्त नहीं बन सकता। सफलतामूर्त्त बनने के लिये त्याग और तपस्या चाहिए। त्याग का मतलब यह नहीं कि सम्बन्ध छोड़ यहाँ आकर बैठे। नहीं। महिमा का भी त्याग, मान का भी त्याग और प्रकृति दासी का भी त्याग - यह है त्याग। फिर देखो मेहनत कम सफलता ज्यादा निकलेगी। अभी मेहनत ज्यादा, सफलता कम क्यों? क्योंकि अभी इन दोनों बातों में अर्थात् त्याग और तपस्या की कमी है। जिसमें त्याग-तपस्या दोनों हैं वह है यथार्थ टीचर अर्थात् काम करने वाला टीचर। नहीं तो नाम-मात्र का टीचर ही कहेंगे।
टीचर्स को कोई भी सब्जेक्ट में कमज़ोर नहीं होना चाहिए। अगर टीचर कमज़ोर है तो वह जिनके लिये निमित्त बनी है वह भी कमज़ोर होंगे। इसलिए टीचर्स को सभी सब्जेक्ट्स में परफेक्ट होना चाहिए। टीचर्स का यह काम नहीं कि वह कहे कि क्या करूँ, कैसे करूँ या कहे कि आता नहीं। यह टीचर के बोल नहीं, यह तो प्रजा के बोल हैं। ऐसे अपने को सफलतामूर्त समझती हो? चेक करो, कहीं न कहीं रूकावट है। इसलिए सफलतामूर्त्त नहीं। जहाँ त्याग-तपस्या की आकर्षण होगी वहाँ सर्विस भी आकर्षित हो पीछे आयेगी। समझा? ऐसे सफलता-मूर्त्त टीचर बनो। ऐसे टीचर के पीछे सर्विस की वृद्धि का आधार है। ऐसे को कहते है लक्की (भाग्यवान)। इसके लिए ही कहावत है - ‘धूल भी सोना हो जाता है’। धूल भी सोना हो जायेगा अर्थात् सफलतामूर्त्त बन जायेंगे। टीचर्स ऐसे सफलतामूर्त्त हैं? नम्बरवार तो होंगे। टीचर्स के नम्बर तो आगे हैं। अच्छा अगर ऐसी सफलतामूर्त्त न बनी हो तो अभी से बन जाना।
बाप से प्रीति निभाने वाले का मुख्य लक्षण
बाप को जीवन का साथी बनाया है? साथी के साथ सदा साथ निभाना होता है। साथ निभाना अर्थात् हर कदम उसकी मत पर चलना पड़े। तो कदम-कदम पर उसकी मत पर चलना अर्थात् साथ निभाना। ऐसे निभाने वाले हो या सिर्फ प्रीति लगाने वाली हो? कोई तो अब तक प्रीति लगाने में लगे हुए हैं। इसलिये कहते है कि योग नहीं लगता। जिसका थोड़ा समय योग लगता है फिर टूटता है ऐसे को कहेंगे प्रीति लगाने वाले। जो प्रीति निभाने वाले होते हैं वह प्रीति में खोये हुए होते हैं। उनको देह की और देह के सम्बन्धियों की सुध-बुध भूली हुई होती है तो आप भी बाप के साथ ऐसी प्रीति निभाओ तो फिर देह और देह के सम्बन्धी याद कैसे आ सकेंगे?
प्रश्न:- बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों का प्रैक्टिकल जीवन में शक्तिपन की निशानी क्या दिखाई देगी?
उत्तर:- शक्तिपन की निशानी है - कहीं भी किसमें आसक्ति न हो। दूसरा, शक्ति-स्वरूप सदा सेवा में तत्पर रहेगा। सेवा में रहने वाले की कहीं भी आसक्ति नहीं होती। सेवा करने वाले त्याग और तपस्या-मूर्त्त होते हैं इसलिए उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती - अर्थात् उनको बॉडी-कान्शस नहीं होता। तीसरे, उन्हें शक्तियाँ देने वाला बाप और उनके द्वारा मिली हुई शक्तियाँ ही याद रहती हैं। ऐसे शक्ति अवतार ही मायाजीत बनते हैं।
वरदान:- मालिकपन की स्मृति से शक्तियों को आर्डर प्रमाण चलाने वाले स्वराज्य अधिकारी भव
बाप द्वारा जो भी शक्तियाँ मिली हैं उन सर्व शक्तियों को कार्य में लगाओ। समय पर शक्तियों को यूज़ करो। सिर्फ मालिकपन की स्मृति में रहकर फिर आर्डर करो तो शक्तियां आपका आर्डर मानेंगी। अगर कमजोर होकर आर्डर करेंगे तो नहीं मानेंगी। बापदादा सभी बच्चों को मालिक बनाते हैं, कमजोर नहीं। सब बच्चे राजा बच्चे हैं क्योंकि स्वराज्य आपका बर्थ राइट है। यह बर्थ-राइट कोई भी छीन नहीं सकता।
स्लोगन:- त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित रहकर हर कर्म करो तो सफलता मिलती रहेगी।