02-06-13  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 05-01-77 मधुबन

 

त्यागी और तपस्वी बच्चे सदा पास हैं

 

आज नैनों में समाये हुए बच्चों से नैन मिलन कर रहे हैं, ऐसे बच्चों की दृष्टि में बाप-दादा और ब्राह्मण ही हैं और ये ही उनकी सृष्टि है। वे और कुछ भी देखते हुए देखते नहीं हैं क्योंकि बाप के लव में सदा लवलीन रहते हैं। सदा बाप के गुणों अर्थात् ज्ञान, सुख, आनन्द के सागर में समाए हुए रहते हैं ऐसे बच्चों को बापदादा भी देख-देख हर्षित होते हैं। चाहे शरीर से कितना भी दूर हो, लेकिन ऐसे बच्चों का बाप के पास समीप से समीप स्थान सदा के लिए फिक्स है। वह कौन-सा स्थान है, जानते हो?

 

जो अति प्रिय वस्तु होती है, वह समीप स्थान पर होती है। वह स्थान है - एक नैन और दूसरा दिल। तो दिल में समाने वाले श्रेष्ठ हैं या नैनों में समाने वाले श्रेष्ठ हैं? दोनों में नम्बर वन कौन? दोनों का महत्व एक है या अलग- अलग? जो समझते हैं दोनों का महत्व एक है अथवा जो दिल में होते सो नैनों में होते हैं, वे हाथ उठाओ। जो समझते हैं कि दोनों का महत्व अलग-अलग है, नैनों में समाने वाले अलग, दिल में समाने वाले अलग वे हाथ उठाओ। एक होते हुए भी अलग- अलग महत्व है इसलिए दोनों ही ठीक हैं। जब इतने त्यागी और तपस्वी बच्चे अपने अनेक धर्मों और अपनी देह के धर्म के कर्म में हरेक रस्म का त्याग कर बाप-दादा की याद की तपस्या में लगे हुए हैं, ऐसे त्यागी और तपस्वी बच्चों को फैल कैसे कर सकते हैं, इसलिए सदा पास हैं।

 

विदेशी सभी शोर्ट में (थोड़े में) पढ़ते हैं; क्योंकि बिज़ी रहते हैं। बाप-दादा ने एक ही शब्द याद दिलाया है, वो कौन-सा शब्द? एक ही शब्द है पास होना है, पास रहना है, और जो कुछ बीत जाता है वह पास हो गया - एक शब्द के तीन अर्थ हैं। ये ही शॉर्ट कट (छोटा रास्ता) हो जाएगा; और पास विद् ऑनर (सम्मान पूर्वक सफलता पाना) होना है।

 

लेकिन इस अर्थ में स्थित होने के लिए सदैव बाप समान समाने की शक्ति और बाप समान बनाने की शक्ति, दोनों भरने की आवश्यकता है। क्योंकि बाप समान बनने के लिए जब सेवा की स्टेज पर आते हो तो अनेक प्रकार की बातें सामने आती हैं। उन बातों को समाने की शक्ति के आधार से मास्टर सागर बन जाते हो और औरों को भी बाप समान बना सकते हो। समाना अर्थात् संकल्प रूप में भी किसी की व्यक्त बातों और भाव का आंशिक रूप समाया हुआ न हो। अकल्याणकारी बोल कल्याण की भावना में ऐसे बदल जाए जैसे अकल्याण का बोल था ही नहीं, ऐसी स्टेज को विश्व-कल्याणकारी स्टेज कहा जाता है। किसी का भी कोई अवगुण देखते हुए एक सेकेण्ड में उस अवगुण को गुण में बदल दें। नुकसान को फायदे में बदल दें। निन्दा को स्तुति में बदल दें, ऐसी दृष्टि और स्मृति में रहने वाला ही विश्व-कल्याणकारी कहा जाता है। विश्व-कल्याणकारी ही नहीं, लेकिन स्वयं-कल्याणकारी भी बनें। ऐसी स्टेज बाप-समान कही जाती है।

 

अच्छा, विदेशी सो स्वदेशी; बाप-दादा तो स्वदेशी देख रहे हैं, न कि विदेशी। स्वदेशी बच्चों की स्नेह की यादगार ‘प्रत्यक्ष फल’ विशेष बाप-दादा का मिलना है। विदेशी सो स्वदेशी बच्चों की अमृतवेले की रूह-रूहान बहुत रमणीक होती है। उस समय विशेष दो रूप होते हैं - एक अधिकार रूप से मिलते और बातचीत करते हैं; और दूसरे उल्हनों के और तड़पती हुई आत्माओं के रूप में बात करते हैं। बाप-दादा को सुनकर के मज़ा आता है। लेकिन एक विशेषता मैजारिटी (अधिकतर) आत्माओं की देखी कि विदेशी सो स्वदेशी आत्माएं थोड़े में राज़ी होने वाले नहीं हैं। मैजारिटी विशेष दाव लगाते हैं। राम-सीता भी बनने वाले नहीं, लक्ष्मी-नारायण बनना चाहते हैं। इसलिए श्रेष्ठ लक्ष्य रखने के कारण बच्चों को बाप-दादा भी मुबारक देते हैं। आपको सदा इसी श्रेष्ठ लक्ष्य और लक्षण में रहना है। बाप-दादा के आगे दूर नहीं हो। जो तख्त-नशीन हैं, वह सदैव समीप हैं, आज सर्व विचारशील बच्चों को एक ही संकल्प है ‘मिलन’ का। ऐसे ही सोते हुए भी याद में रहना है। बाप-दादा भी चारों ओर के विदेशी बच्चों को सम्मुख देखते हुए याद दे रहे हैं।

 

श्रेष्ठ लक्ष्य रखने वाले, खुशी-खुशी से बाप से सौदा करने वाले, बाप और सेवा में सदा मगन रहने वाले, लास्ट सो फास्ट, स्नेही-सहयोगी आत्माओं को, बाप को भी आप समान व्यक्त रूप बनाने वाले, कल्प पहले वाले, चमकते हुए सितारों प्रति बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

 

दूसरी मुरली:- 07-01-77

 

विश्व-कल्याणकारी कैसे बनें?

 

सभी आवाज़ से परे अपने शान्त स्वरूप स्थिति में स्थित रहने का अनुभव बहुत समय कर सकते हो? आवाज़ में आने का अनुभव ज्यादा कर सकते हो वा आवाज़ से परे रहने का अनुभव ज्यादा समय कर सकते हो? जितना लास्ट स्टेज़ अथवा कर्मातीत स्टेज समीप आती जाएगी उतना आवाज़ से परे शान्त स्वरूप की स्थिति अधिक प्रिय लगेगी इस स्थिति में सदा अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति हो। इसी अतीन्द्रिय सुखमय स्थिति द्वारा अनेक आत्माओं का सहज ही आह्वान कर सकेंगे। यह पॉवरफुल स्थिति ‘विश्व-कल्याणकारी स्थिति’ कही जाती है। जैसे आजकल साईन्स के साधनों द्वारा सब चीजें समीप अनुभव होती जाती हैं - दूर की आवाज़ टेलीफोन के साधन द्वारा समीप सुनने में आती है, टी.वी. (दूरदर्शन) द्वारा दूर का दृश्य समीप दिखाई देता है, ऐसे ही साईलैन्स की स्टेज द्वारा कितने भी दूर रहती हुई आत्मा को सन्देश पहुँचा सकते हो? वो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में सम्मुख किसी ने सन्देश दिया है। दूर बैठे हुए भी आप श्रेष्ठ आत्माओं के दर्शन और प्रभु के चरित्रों के दृश्य ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि सम्मुख देख रहे हैं। संकल्प के द्वारा दिखाई देगा अर्थात् आवाज़ से परे संकल्प की सिद्धि का पार्ट बजाएंगे। लेकिन इस सिद्धि की विधि ज्यादा-से-ज्यादा अपने शान्त स्वरूप में स्थित होना है। इसलिए कहा जाता है - साइलेन्स इज़ गोल्ड (शांति ही सोना है), यही गोल्डन ऐजड स्टेज (सतयुगी स्थिति) कही जाती है।

 

इस स्टेज पर स्थित रहने से ‘कम खर्च बाला नशीन’ बनेंगे। समय रूपी खज़ाना, एनर्जी का खज़ाना और स्थूल खज़ाना में ‘कम खर्च बाला नशीन’ हो जायेंगे। इसके लिए एक शब्द याद रखो। वह कौन-सा है? ‘बैलेन्स’। हर कर्म में, हर संकल्प और बोल, सम्बन्ध वा सम्पर्क में बैलेन्स हो। तो बोल, कर्म, संकल्प, सम्बन्ध वा सम्पर्क साधारण के बजाए अलौकिक दिखाई देगा अर्थात् चमत्कारी दिखाई देगा। हर एक के मुख से, मन से यही आवाज़ निकलेगा कि यह तो चमत्कार है। समय के प्रमाण स्वयं के पुरूषार्थ की स्पीड और विश्व सेवा की स्पीड तीव्र गति की चाहिए तब विश्व कल्याणकारी बन सकेंगे।

 

विश्व की अधिकतर आत्मएं बाप की और आप इष्ट देवताओं की प्रतयक्षता का आह्वान ज्यादा कर रही हैं और इष्ट देव उनका आह्वान कम कर रहे हैं। इसका कारण क्या है? अपने हद के स्वभाव, संस्कारों की प्रवृत्ति में बहुत समय लगा देते हो। जैसे अज्ञानी आत्माओं को ज्ञान सुनने की फुर्सत नहीं वैसे बहुत से ब्राह्मणों को भी इस पावरफुल स्टेज पर स्थित होने की फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए ज्वाला रूप बनने की आवश्यकता है।

 

बाप-दादा हर एक की प्रवृत्ति को देख मुस्कराते रहते हैं कि कैसे टू मच (बहुत ज्यादा) बिजी हो गए हैं। बहुत बिजी रहते हो ना? वास्तविक स्टेज में सदा फ्री रहेंगे। सिद्धि भी होगी और फ्री भी रहेंगे।

 

जब साईन्स के साधन धरती पर बैठे हुए स्पेस (अंतरिक्ष) में गए हुए यन्त्र को कन्ट्रोल कर सकते हैं, जैसे चाहे जहाँ चाहे वहाँ मोड़ सकते हैं, तो साईलेन्स के शक्ति-स्वरूप, इस साकार सृष्टि में श्रेष्ठ संकल्प के आधार से जो सेवा चाहे, जिस आत्मा की सेवा करना चाहे वो नहीं कर सकते? लेकिन अपनी-अपनी प्रवृत्ति से परे अर्थात् उपराम रहो।

 

जो सभी खज़ाने सुनाए वह स्वयं के प्रति नहीं, विश्व-कल्याण के प्रति युज़ (प्रयोग) करो। समझा, अब क्या करना है? आवाज़ द्वारा सर्विस, स्थूल साधनों द्वारा सर्विस और आवाज़ से परे ‘सूक्ष्म साधन संकल्प’ की श्रेष्ठता, संकल्प शक्ति द्वारा सर्विस का बैलेन्स प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ तब विनाश का नगाड़ा बजेगा। समझा?

 

प्लान्स (योजनाएं) बहुत बना रहे हो, बाप-दादा भी प्लान बता रहे हैं। बैलेन्स ठीक न होने के कारण मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। विशेष कार्य के बाद विशेष रेस्ट (आराम) भी लेते हो ना। फाईनल प्लान में अथकपन का अनुभव करेंगे।

 

ऐसे सर्व शक्तियों को विश्व-कल्याण के प्रति कार्य में लगाने वाले, संकल्प की सिद्धि स्वरूप, स्वयं की प्रवृत्ति से स्वतन्त्र, सदा शान्त और शक्ति स्वरूप स्थिति में स्थित रहने वाले सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

टीचर्स के साथ - पर्सनल मुलाकात

 

टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवा में सफलता का मुख्य साधन है - त्याग और तपस्या। दोनों में से अगर एक की भी कमी है तो सेवा की सफलता में भी इतने परसेन्ट कमी होती है। त्याग अर्थात् मन्सा संकल्प से भी त्याग, सरकमस्टांस के कारण या मर्यादा के कारण मजबूरी से त्याग बाहर से कर भी लेंगे तो संकल्प से त्याग नहीं होगा। त्याग अर्थात् ज्ञान-स्वरूप से संकल्प से भी त्याग, मजबूरी से नहीं। ऐसे त्यागी और तपस्वी अर्थात् सदा बाप की लग्न में लवलीन, प्रेम के सागर में समाए हुए, ज्ञान, आनन्द, सुख, शान्ति के सागर में समाये हुए को ही कहेंगे - तपस्वी। ऐसे त्याग, तपस्या वाले ही सेवाधारी कहे जाते हैं। ऐसे सेवाधारी हो ना? त्याग ही भाग्य है। बिना त्याग के भाग्य नहीं बन सकता। इसको कहा जाता है टीचर। तो नाम और काम दोनों टीचर के हैं? केवल नाम टीचर का नहीं। टीचर अर्थात् पोजीशन नहीं, लेकिन सेवाधारी। टीचर्स अर्थात् सभी को पोजीशन दिलाने वाली, न कि पोजीशन समझ उसमें अपने को नामधारी टीचर समझने वाली। जैसे कहा जाता है देना, देना नहीं लेकिन लेना है - ऐसे ही टीचर अपने पोज़ीशन का त्याग करती हैं तो यही भाग्य लेना है। अच्छा।

 

वरदान:- सारथी बन न्यारी और प्यारी स्थिति का अनुभव कराने वाले नम्बरवन सिद्धि स्वरूप भव

 

सारथी अर्थात् आत्म-अभिमानी। इसी विधि से ब्रह्मा बाप ने नम्बरवन की सिद्धि प्राप्त की। जैसे बाप देह को अधीन कर प्रवेश होते, सारथी बनते हैं, देह के अधीन नहीं बनते इसलिए न्यारे और प्यारे हैं। ऐसे ही आप ब्राह्मण आत्मायें भी बाप समान सारथी की स्थिति में रहो। चलते-फिरते यह चेक करो कि मैं सारथी अर्थात् शरीर को चलाने वाली न्यारी और प्यारी स्थिति में स्थित हूँ? इससे ही नम्बरवन सिद्धि स्वरूप बन जायेंगे।

 

स्लोगन:- बाप के आज्ञाकारी होकर रहो तो गुप्त दुआयें समय पर मदद करती रहेंगी।