10-09-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 04.12.95 "बापदादा" मधुबन
यथार्थ निश्चय के
फाउण्डेशन द्वारा सम्पूर्ण पवित्रता को धारण करो
आज बापदादा देश-विदेश
चारों ओर के नये-नये बच्चों को देख रहे थे। चाहे मधुबन में साकार रूप में आये हैं,
चाहे आकार रूप में अपने-अपने सेवा-स्थान में आये हुए हैं, तो नयों-नयों को देख
बापदादा सभी के निश्चय को देख रहे थे क्योंकि निश्चय इस ब्राह्मण जीवन के सम्पन्नता
का फाउण्डेशन है और फाउण्डेशन मज़बूत है तो सहज और तीव्र गति से सम्पूर्णता तक
पहुँचना निश्चित है। तो बापदादा देख रहे थे कि निश्चय भी भिन्न-भिन्न प्रकार का है।
जो यथार्थ निश्चय है कि मैं परमात्मा बाप का बन गया, स्वयं को भी आत्म स्वरूप में
जानना, मानना, चलना और बाप को भी जो है वैसे जानना - ये है यथार्थ निश्चय।
दूसरा निश्चय है -
योग द्वारा थोड़े समय के लिए अशान्ति से शान्ति का अनुभव करते हैं और स्थान का
शक्तिशाली शान्त वायुमण्डल आकर्षित करता है वा ब्राह्मण परिवार, ब्राह्मण आत्माओं
का आत्मिक प्यार और पवित्रता की जीवन का प्रभाव पड़ता है, कम्पन्नी अच्छी लगती है,
दुनिया के वायुमण्डल के कान्ट्रास्ट में ये संग अच्छा लगता है, ज्ञान भी अच्छा,
परिवार भी अच्छा, वायुमण्डल भी अच्छा... तो वो अच्छा लगना, उस फाउण्डेशन के आधार पर
चलते रहते हैं। ये है दूसरा नम्बर। पहला नम्बर सुनाया ‘यथार्थ निश्चय' और दूसरा
नम्बर ‘अच्छा लगता है' और तीसरा नम्बर - दुनिया के सम्बन्धियों के दु:खमय वातावरण
से बचकर जितना समय भी सेवाकेन्द्र पर आते हैं उतना समय दु:ख से किनारा होकर शान्ति
का अनुभव करते हैं। ज्ञान की गुह्यता में नहीं जायेंगे लेकिन शान्ति की प्राप्ति के
कारण कभी आते हैं और कभी नहीं भी आते हैं। लेकिन यथार्थ निश्चय बुद्धि विजयी होते
हैं। और देखा जाता है कि जब शुरू-शुरू में आते हैं तो अशान्ति से तंग होते हैं,
शान्ति के इच्छुक होते हैं। तो जैसे प्यासे को एक बूंद भी अगर पानी की मिल जाये तो
वो बहुत बड़ी बात अनुभव करता है। तो अप्राप्ति से प्राप्ति होती है, परिवार में,
ज्ञान में, योग में, वायुमण्डल में अन्तर दिखाई देता है। तो पहला समय बहुत अच्छे
उमंग-उत्साह से चलते हैं, बहुत नशा रहता है, खुशी भी होती है। लेकिन अगर पहले नम्बर
के यथार्थ निश्चय का फाउण्डेशन पक्का नहीं है, दूसरे या तीसरे नम्बर का निश्चय है
तो धीरे-धीरे जो शुरू की खुशी, शुरू का जोश है, उसमें फर्क आ जाता है।
इस सीज़न में नये-नये
बहुत आये हैं और चांस भी मिला है, यह तो बहुत अच्छा है। बापदादा को भी नये-नये बच्चों
को देख खुशी होती है कि ये फिर से अपने परिवार में पहुँच गये। लेकिन ये चेक करो कि
निश्चय का फाउण्डेशन पक्का है? हमारा निश्चय नम्बरवन है वा नम्बर टू है? अगर
नम्बरवन निश्चय है तो चलते-चलते मुख्य पवित्रता धारण करने में मुश्किल नहीं लगेगा।
अगर पवित्रता स्वप्न मात्र भी हिलाती है, हलचल में आती है, तो समझो नम्बरवन
फाउण्डेशन कच्चा है क्योंकि आत्मा का स्वधर्म पवित्रता है। अपवित्रता परधर्म है और
पवित्रता स्वधर्म है। तो जब स्वधर्म का निश्चय हो गया तो परधर्म हिला नहीं सकता। कई
बच्चे कहते हैं कि पहले तो बहुत अच्छे आते थे, अभी पता नहीं क्या हो गया? तो क्या
हो जाता है कि बाप जो है, जैसा है, वैसे अनुभव में नहीं लाते। अगर पूछेंगे कि बाप
साथ है? तो हाथ सब उठायेंगे। हाथ उठाना तो बहुत सहज है। लेकिन बाप साथ है तो बाप की
पहली-पहली जो महिमा करते हो कि वो सर्वशक्तिमान् है - ये मानते हो या सिर्फ जानते
हो? तो जब सर्वशक्तिमान् बाप साथ है तो सर्वशक्तिमान् के आगे अपवित्रता आ सकती है?
नहीं आ सकती। लेकिन आती तो है! तो आती फिर कहाँ से है? कोई और जगह है? चोर लोग जो
होते हैं वो अपना स्पेशल गेट बना लेते हैं। चोर गेट होता है। तो आपके पास भी छिपा
हुआ चोर गेट तो नहीं है? चेक करो। नहीं तो माया आई कहाँ से? ऊपर से आ गई? अगर ऊपर
से भी आ गई तो ऊपर ही खत्म हो जानी चाहिये। कोई छिपे हुए गेट से आती है जो आपको पता
नहीं पड़ता है तो चेक करो कि माया ने कोई चोर गेट तो नहीं बनाकर रखा है? और गेट
बनाती भी कैसे है, मालूम है? आपके जो विशेष स्वभाव या संस्कार कमज़ोर होंगे ना तो
वहीं माया अपना गेट बना देती है क्योंकि जब कोई भी स्वभाव या संस्कार कमज़ोर है तो
आप कितना भी गेट बन्द करो लेकिन कमज़ोर गेट है, तो माया तो जानी-जाननहार है, उसको
पता पड़ जाता है कि ये गेट कमज़ोर है, इससे रास्ता मिल सकता है और मिलता भी है।
चलते-चलते अपवित्रता के संकल्प भी आते हैं, बोल भी होता, कर्म भी हो जाता है। तो
गेट खुला हुआ है ना, तभी तो माया आई। फिर साथ कैसे हुआ? कहने में तो कहते हो कि
सर्वशक्तिमान् साथ है तो ये कमज़ोरी फिर कहाँ से आई? कमज़ोरी रह सकती है? नहीं ना?
तो क्यों रह जाती है? चाहे पवित्रता में कोई भी विकार हो, मानो लोभ है, लोभ सिर्फ
खाने-पीने का नहीं होता। कई समझते हैं हमारे में पहनने, खाने या रहने का ऐसा तो कोई
आकर्षण नहीं है, जो मिलता है, जो बनता है, उसमें चलते हैं। लेकिन जैसे आगे बढ़ते
हैं तो माया लोभ भी रॉयल और सूक्ष्म रूप में लाती है। वो रॉयल लोभ क्या है? चाहे
स्टूडेण्ट हो, चाहे टीचर हो, माया दोनों में रॉयल लोभ लाने का फुल पुरुषार्थ करती
है। मानो स्टूडेण्ट है, बहुत अच्छा निश्चयबुद्धि, सेवाधारी है, सबमें अच्छा है
लेकिन जब आगे बढ़ते हैं तो ये रॉयल लोभ आता है कि मैं इतना कुछ करता हूँ, सब रूप (तरह)
से मददगार हूँ, तन से, मन से, धन से और जिस समय चाहिये उस समय सेवा में हाज़िर हो
जाता हूँ फिर भी मेरा नाम कभी भी टीचर वर्णन नहीं करती कि ये जिज्ञासु बहुत अच्छा
है। अगर मानों ये भी नहीं आवे तो फिर दूसरा रूप क्या होता है? अच्छा, नाम ले भी लिया
तो नाम सुनते-सुनते - मैं ही हूँ, मैं ही करता हूँ, मैं ही कर सकता हूँ, वो अभिमान
के रूप में आ जायेगा। या बहुत काम करके आये और किसी ने आपको पूछा भी नहीं, एक गिलास
पानी भी नहीं पिलाया, देखा ही नहीं, अपने आराम में या अपने काम में बिज़ी रहे, तो
ये भी आता है कि करो भी और पूछे भी कोई नहीं। तो करना ही क्या है, करना या ना करना
एक ही बात है। पूछने वाला तो कोई है नहीं, इससे आराम से घर में बैठो, जब होगा तब
सेवा करेंगे। तो ये भिन्न-भिन्न प्रकार का विकारों का रॉयल रूप आता है। और एक भी
विकार आ गया ना, मानो लोभ नहीं आया लेकिन अभिमान आ गया या अपने मानने तक का, हमारी
मान्यता हो - उसका भान आ गया तो जहाँ एक विकार होता है वहाँ उनके चार साथी छिपे हुए
रूप में होते हैं। और एक को आपने चांस दे दिया तो वो छिपे हुए जो हैं वो भी समय
प्रमाण अपना चांस लेते रहते हैं। फिर कहते हैं कि पहले जैसा नशा अभी नहीं है, पहले
बहुत अच्छा था, पहले अवस्था बड़ी अच्छी थी, अभी पता नहीं क्या हो गया है। माया चोर
गेट से आ गई - ये है पता, ये नहीं कहो पता नहीं।
और टीचर को भी आता
है। टीचर को क्या चाहिये? सेन्टर अच्छा हो, कपड़े भले कैसे भी हो लेकिन सेन्टर थोड़ा
रहने लायक तो अच्छा हो। और जो साथी हो वो अच्छे हो, स्टूडेण्ट अच्छे हो, बाबा की
भण्डारी अच्छी हो। अगर अच्छा स्टूडेण्ट चेंज हो जाये तो दिल थोड़ा धड़कती है। फिर
समझते हैं कि क्या करें, ये मददगार था ना, अभी वो चला गया। मददगार जिज्ञासु था वा
बाप है? तो उस समय कौन दिखाई देता है? जिज्ञासु या बाप? तो ये रॉयल माया फाउण्डेशन
को हिलाने की कोशिश करती है। अगर आपको निश्चय है - सर्वशक्तिमान साथ है तो बाप किसी
न किसी को निमित्त बना ही देता है। कई फिर सोचते हैं हमें कम से कम एक बार आबू की
कॉन्फ्रेन्स में या किसी बड़ी कॉन्फ्रेन्स में चांस मिलना चाहिए, चलो और नहीं, योग
शिविर तो करा लें, ये भी तो चांस होना चाहिये ना, चलो भाषण नहीं करे, स्टेज पर तो
आवें, आखिर विनाश हो जायेगा, क्या विनाश तक भी हमारा नम्बर नहीं आयेगा, नम्बर तो आना
चाहिये ना! लेकिन पहले भी बापदादा ने सुनाया कि अगर योग्य हैं, चांस मिलता है तो
खुशी से करो लेकिन ये संकल्प करना कि हमें चांस मिलना चाहिए... यह भी मांगना है।
चाहिये-चाहिये ये है रॉयल मांगना। ये होना चाहिये... ये हमें पहचानते नहीं हैं,
दादी-दीदियाँ भी सभी को पहचानती नहीं हैं, जो आगे आते हैं उसको आगे कर लेते हैं -
तो ये संकल्प आना यह भी एक सूक्ष्म मांगना है। लेकिन बापदादा ने सुना दिया है कि
मानों आप स्टेज़ पर आ गई या आपकी कोई भी विशेषता के कारण, योग नहीं भी है, अवस्था
इतनी अच्छी नहीं है लेकिन बोल में, कैचिंग पॉवर में विशेषता है तो चांस मिल जाता
है, क्योंकि किसी की वाणी में मिठास होता है, स्पष्टता होती है और कैचिंग पॉवर होती
है तो यहाँ के वहाँ के मिसाल वगैरह कैच करके सुनाते हैं इसीलिए उन्हों का नाम भी हो
जाता है। कौन चाहिये? फलानी चाहिये। कौन आवे? फलानी आवे, चाहे योग में कच्ची भी
हो... तो इस पर नम्बर फाइनल नहीं होने हैं। जो फाइनल नम्बर मिलेंगे वो ये नहीं होगा
कि इसने कितने भाषण किये या इसने कितने स्टूडेण्ट वा सेन्टर बनाये हैं, लेकिन योग्य
कितनों को बनाया है? सेन्टर बनाना बड़ी बात नहीं है लेकिन योग्य कितनी आत्माओं को
बनाया? नाम हो गया - 30 सेन्टर की इन्चार्ज है और 30 में से 15 हिल रहे हैं, 15 ठीक
हैं तो फायदा हुआ या सिर्फ नाम हुआ? सिर्फ नाम होता है कि फलानी के 30 सेवाकेन्द्र
हैं। लेकिन नम्बर इससे नहीं मिलेगा। फाइनल नम्बर जितनों को सुख दिया, जितना स्वयं
शक्तिशाली रहे, उसी प्रमाण मिलेंगे। इसीलिये ये भी चाहिये-चाहिये खत्म कर दो। नहीं
तो योग नहीं लगेगा। रोज़ यही देखते रहेंगे कि फलानी जगह प्रोग्राम हुआ मेरे को फिर
भी नहीं बुलाया, अभी परसों यहाँ हुआ, कल वहाँ हुआ, आज यहाँ हुआ! तो योग लगेगा या
गिनती होती रहेगी?
तो मुख्य बात - जो
यथार्थ निश्चय है उसको पक्का करो। कहने में तो कह देते हो मैं आत्मा हूँ और बाप
सर्वशक्तिमान् है लेकिन प्रैक्टिकल में, कर्म में आना चाहिये। बाप सर्वशक्तिमान् है
लेकिन मेरे को माया हिला रही है तो कौन मानेगा आपका बाप सर्वशक्तिमान् है! क्योंकि
उससे ऊपर तो कोई है नहीं। तो बापदादा आज निश्चय के फाउण्डेशन को देख रहे हैं। चाहे
नये हैं, चाहे पुराने हैं लेकिन इस निश्चय के फाउण्डेशन को प्रैक्टिकल में लाओ और
समय पर यूज़ करो। समय बीत जाता है फिर बाप के आगे पश्चाताप् के रूप में आते हो -
क्या करें, बाबा हो गया, आप तो रहमदिल हो, रहम कर दो... तो ये क्या हुआ? ये भी रॉयल
पश्चाताप् है। साथ है तो किसी की हिम्मत नहीं है, निश्चयबुद्धि का अर्थ ही है विजयी।
अगर कोई हिसाब-किताब आता भी है तो मन को नहीं हिलाओ। स्थिति को नीचे-ऊपर नहीं करो।
चलो आया और फट से उसको दूर से ही खत्म कर दो। अभी योद्धे नहीं बनो। कई अभी निरन्तर
योगी नहीं हैं। कुछ समय योगी हैं और कुछ समय युद्ध करने वाले योद्धे हैं। लेकिन अपने
को कहलाते क्या हो? योद्धे कि योगी? कहलाते तो सहजयोगी हो। तो नये जो भी आये हैं
उनको बापदादा फिर से भाग्य प्राप्त करने की मुबारक देते हैं। लेकिन मुबारक के साथ
ये चेक भी करना कि फाउण्डेशन नम्बरवन है या नम्बर दो का है?
कई कहते हैं
ज्ञान-योग बहुत अच्छा लगता है, अच्छा है वो तो ठीक है लेकिन कर्म में लाते हो?
ज्ञान माना आत्मा, परमात्मा, ड्रामा... यह कहना नहीं। ज्ञान का अर्थ है समझ। समझदार
जैसा समय होता है वैसे समझदारी से सदा सफल होता है। कभी भी देखो जीवन में दुख आते
हैं तो क्या सोचते हो? पता नहीं, मुझे यह क्यों नहीं समझ में आया - यहीं कहेंगे। तो
समझदार हो? ज्ञानी हो? बोलो हाँ या ना? (हाँ जी) हाँ तो बहुत अच्छी बोलते हैं।
समझदार की निशानी है कभी धोखा नहीं खाना - ये है ज्ञानी की निशानी, और योगी की
निशानी है - सदा क्लीन और क्लियर बुद्धि। क्लीन भी हो और क्लियर भी हो। योगी कभी नहीं
कहेगा - पता नहीं, पता नहीं। उनकी बुद्धि सदा ही क्लियर है। और धारणा स्वरूप की
निशानी है सदा स्वयं भी डबल लाइट। कितनी भी जिम्मेवारी हो लेकिन धारणामूर्त, सदा
डबल लाइट। चाहे मेला हो, चाहे झमेला हो - दोनों में डबल लाइट। और सेवाधारी की निशानी
है - सदा निमित्त और निर्माण भाव। तो ये सभी अपने में चेक करो। कहने में तो सभी कहते
हो ना कि चारों ही सब्जेक्ट के गॉडली स्टूडेण्ट हैं। तो निशानी दिखाई देनी चाहिये।
तो नये-नये क्या
करेंगे? अपने निश्चय को और पक्का करना। नहीं तो फिर क्या होता है दो साल चलेंगे,
तीन साल चलेंगे फिर वापस पुरानी दुनिया में चले जायेंगे। और फिर जो वापस जाते हैं
वो उस दुनिया में भी सेट नहीं हो सकते हैं। न इस दुनिया के रहते, न उस दुनिया के
इसलिए अपना फाउण्डेशन बहुत पक्का करो। अनुभव करो - सर्वशक्तिमान् बाप साथ है। बस एक
बात भी अनुभव किया तो सबमें पास हो जायेंगे। देखो आजकर प्राइम मिनिस्टर है,
मिनिस्टर है, उसके साथ का भी नशा रहता है ना। ये तो सर्वशक्तिमान् है! अच्छा!
अच्छा, चारों ओर के
सदा श्रेष्ठ भाग्यवान भाग्य विधाता को अपना बनाने वाले ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा
बापदादा के श्रीमत को सुना और किया ऐसे सर्व सपूत बच्चों को, सदा सेवा में अचल रहने
वाले झमेला मुक्त और परमात्म मिलन मेला मनाने वाले सभी बच्चों को बापदादा का
याद-प्यार और नमस्ते।
अच्छा - डबल विदेशियों
को डबल नशा है ना? डबल विदेशी अर्थात् डबल लाइट, डबल नशा और डबल बाप-दादा और परिवार
के प्यारे। समझा?
वरदान:-
अपने पन के
अधिकार की अनुभूति द्वारा अधीनता को समाप्त करने वाले सर्व अधिकारी भव
बाप को अपना बनाना
अर्थात् अपना अधिकार अनुभव होना। जहाँ अधिकार है वहाँ न तो स्व के प्रति अधीनता है,
न सम्बन्ध-सम्पर्क में आने की अधीनता है, न प्रकृति और परिस्थितियों में आने की
अधीनता है। जब इन सब प्रकारों की अधीनता समाप्त हो जाती है तब सर्व अधिकारी बन जाते।
जिन्होंने भी बाप को जाना और जानकर अपना बनाया वही महान हैं और अधिकारी हैं।
स्लोगन:-
अपने संस्कार वा गुणों को सर्व के साथ मिलाकर चलना - यही विशेष आत्माओं की विशेषता
है।