14-07-13 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 28-01-77 मधुबन
ब्राह्मणों का धर्म और कर्म
अपने को ब्रह्मा-मुखावंशावली ब्राह्मण समझते हो ना? ब्राह्मणों का धर्म और कर्म क्या है, वह जानते हो? धर्म अर्थात् मुख्य धारणा है - सम्पूर्ण पवित्रता। सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा जानते हो? संकल्प व स्वप्न में भी अपवित्रता का अंशमात्र भी न हो? ऐसी श्रेष्ठ धारणा करने वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं, इसी धारणा के लिए ही गायन है ‘प्राण जाएँ पर धर्म न जाएँ।’ ऐसी हिम्मत, ऐसा दृढ़ निश्चय करने वाले अपने को समझते हो? किसी भी प्रकार की परिस्थिति में अपने धर्म अर्थात् धारणा के प्रति कुछ त्याग करना पड़े, सहन करना पड़े, सामना करना पड़े, साहस रखना पड़े तो खुशी-खुशी से करेंगे? पीछे हटेंगे नहीं? घबरायेंगे नहीं?
त्याग को त्याग न समझ भाग्य अनुभव करना, इसको कहा जाता है - ‘सच्चा त्याग’। अगर संकल्प में, वाणी में भी इस भावना का बोल निकलता है कि मैंने यह त्याग किया, तो उसका भाग्य नहीं बनता। जैसे भक्ति मार्ग में भी जब बलि चढ़ाते हैं, तो वह बलि चढ़ाने वाला पशु ज़रा भी आवाज़ करता या चिल्लाता है, तो वह ‘महाप्रसाद’ नहीं माना जाता; वा बलि नहीं मानी जाती - यह भी अभी का यादगार चल रहा है। अगर त्याग करने के साथ यह संकल्प उठा कि मैंने त्याग किया; नाम, मान, शान का अभिमान आया तो वह त्याग नहीं, उसे भाग्य नहीं कहेंगे। ऐसी धारणा वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं।
ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ की रचना कराते हो। इस महायज्ञ में पुरानी दुनिया की आहुति पड़ने के बाद यज्ञ समाप्त होना है। पहले अपने आपसे पूछो - पुरानी दुनिया की आहुति के पहले निमित्त बने हुए ब्राह्मणों ने अपने पुराने व्यर्थ संकल्प वा विकल्प, जिसको भी संकल्पों की सृष्टि कहा जाता है, इन पुराने संकल्पों की सृष्टि को, पुराने स्वभाव-संस्कार रूपी सृष्टि को महायज्ञ में स्वाहा किया है? अगर अपने हद की सृष्टि को स्वाहा न किया वा अपने पास रही सामग्री की आहुति नहीं डाली तो बेहद की पुरानी सृष्टि की आहुति कैसे पड़ेगी? यज्ञ की समाप्ति का आधार हर एक निमित्त ब्राह्मण है तो चैरिटि बिगेन्स एट होम करना पड़े, तो अपने मन के अन्दर चैक करो कि आहुति डाला है? सम्पूर्ण अन्तिम आहुति कौन-सी है? उसको जानते हो? जैसे आत्म-ज्ञानी आत्मा का परमात्मा में समा जाना ही आत्मा की सम्पूर्ण स्थिति मानते हैं। इस अन्तिम आहुति का स्वरूप है - मैं-पन समाप्त हो, बाबा! बाबा! बोल मुख से व मन से निकले अर्थात् बाप में समा जाएं। इसको कहा जाता है, ‘समा जाना अर्थात् समान बन जाना’। इसको कहा जाता है अन्तिम आहुति, संकल्प, स्वप्न में भी देहभान का ‘मैं-पन’ न हो। अनादि आत्मिक स्वरूप की स्मृति हो; बाबा-बाबा! अनहद शब्द हो। आदि ब्राह्मण स्वरूप को धर्म और कर्म की धारणा हो। इसको कहा जाता है ‘सच्चे ब्राह्मण’।
ऐसे सच्चे ब्राह्मण ही यज्ञ की समाप्ति निमित्त बनते हैं। यज्ञ रचने वाले तो बने, अब समाप्ति के भी निमित्त बनो। अर्थात् अपनी अन्तिम आहुति डालो। तो बेहद की पुरानी दुनिया की आहुति भी पड़ ही जाएगी। समझा, अब क्या करना है? सम्पूर्ण बनने का यही सहज साधन है। सम्पूर्ण आहुति देना - इसको ही सम्पूर्ण स्वाहा कहा जाता है। तो स्वाहा हो गए वा अभी होना है? अन्तिम आहुति अन्तिम घड़ी पर ही डालनी है क्या? जब स्वयं डालेंगे तब दूसरों से डलवा सकेंगे। फिर करेंगे - ऐसा न सोच, अब करना ही है। जैसे सुनने के लिए चात्रक रहते हो, मिलने के लिए प्लान्स बनाते हो, हमारा टर्न पहले हो। तो जैसे यह सोचते हो वैसे मिटने में भी पहले टर्न लो। करने में फर्स्ट टर्न लो। अच्छा।
ऐसे सम्पूर्ण स्वाहा होने वाले, सम्पूर्ण आहुति डालने वाले, स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन के निमित्त बनने वाले, सच्चे ब्राह्मणों को, बाप समान सम्पूर्ण ब्राह्मणों को सर्व श्रेष्ठ धर्म और कर्म में स्थित रहने वाले ब्राह्मणों को, बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दादी जी के साथ:-
साकार रूप में एकाग्रता की शक्ति के कई प्रत्यक्ष प्रमाण देखे। दूर बैठे हुए बच्चे प्रैक्टीकल अनुभव करते थे कि आज विशेष रूप से बाप-दादा ने मुझे याद किया वा विशेष रूप से मुझे शक्ति की प्राप्ति का अनुभव करा रहे हैं। संकल्प और बातें दोनों तरफ की मिलती थी। ऐसे प्रैक्टीकल अनुभव देखे ना? जैसे टेलीफोन द्वारा कोई मैसेज मिलना होता है, तो रिंग बजती है। वैसे बाप का सन्देश वा संकल्प का डायरेक्शन बच्चों को जब पहुँचता है तो अन्दर ही अन्दर आत्मा में अचानक खुशी की लहर में रोमांच खड़े हो जाते हैं। लेकिन जैसे कई रिंग सुनते हुए भी अनसुना कर देते तो मैसेज नहीं ले सकते। वैसे बच्चों को अनुभव होते जरूर हैं, लेकिन अलबेलेपन में चला देते हैं। एकाग्रता की शक्ति की लीला को कैच नहीं कर पाते। लेकिन अनुभव होता जरूर है। वैसे आत्माओं को भी आत्माओं का होता है, लेकिन जैसे तारों में हलचल हो जाए, टेलीफोन के स्तम्भों में हलचल हो जाए तो मैसेज कैच नहीं कर सकते। वहाँ वातावरण का, वायुमण्डल का प्रभाव होता है; यहाँ फिर वृत्ति का प्रभाव होता है। वृत्ति चंचल होने के कारण मैसेज को कैच नहीं कर पाते। तो इस वर्ष में एकाग्रता का दृढ़ संकल्प करने वाला ग्रुप तैयार होना चाहिए, जो यह विचित्र अनुभव कर सके। यह सागर के तले में जाकर अनुभव के हीरे, मोती लेना और वह है ज्ञान सागर की लहरों में लहराने का अनुभव करना। लहरों में हो यह तो अनुभव किया अब अन्दर तले में जाना है। अमूल्य खज़ाने तले में मिलते हैं। यह बात पक्की करने से और सभी बातों से आटोमेटिकली किनारा हो जायेगा। इसको ही स्वचिन्तन, स्वदर्शन, समर्थ सेवा कहा जाता है। लाईट हाऊस माईट हाऊस की यह स्टेज है। फिर दृष्टि का दान देना पड़ेगा। नज़र से निहाल करने की यह स्टेज है। एकाग्रता शक्ति बहुत विचित्र रंग दिखा सकती है। वो सिद्धियां वाले भी एकाग्रता से ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। स्वयं की औषधि भी एकाग्रता की शक्ति से कर सकते हैं। अनेक रोगियों को निरोगी भी बना सकते हैं। बहुत विचित्र अनुभव इससे कर सकती हो। कोई ने चलती हुई चीज़ को रोका, यह एकाग्रता की सिद्धि है। स्टॉप कहो तो स्टॉप हो जाए तब वरदानी रूप में जय-जयकार के नारे बजेंगे। अभी वाह-वाह के नारे लगाते हैं। भाषण बहुत अच्छा किया, मेहनत बहुत अच्छी की है, लाईफ बहुत अच्छी है। फिर जय-जयकार के नारे बजेंगे। तो इस वर्ष का एम आब्जेक्ट समझा ना। डबल सेवा चाहिए। अमृतवेले यह स्पेशल सेवा कर सकती हो। फिर भक्तों के आवाज़ भी सुनाई देंगे। ऐसे समझेंगे जैसे यहाँ सम्मुख कोई बुला रहे हैं, यह शक्ति बढ़ानी है। जितना भी समय मिले दो मिनट, पांच मिनट - चले जाओ इस एकाग्रता की शक्ति में। तो थोड़ा-थोड़ा करते भी जमा हो जायेगा, तब शक्तियों द्वारा सर्व शक्तिवान की प्रत्यक्षता होगी। शक्तियों की सम्पूर्णता जैसे अन्धों के आगे आईने का काम करेगी। सम्पूर्णता वर्ष अर्थात् यह सम्पूर्णता। अच्छा।
मधुबन निवासियों से:
सभी सदा खुश हो ना? जो तीनों कालों के राज़ को जान गए तो राज़ी हो गए हो ना? कभी भी कोई नाराज़ होता है अर्थात् ड्रामा के राज़ को भूल जाता है। जो सदा ड्रामा के राज़ को और तीनों कालों को जानता है तो वह राज़ी रहेगा ना। नाराज़ होने का कारण राज़ को नहीं जानना है। तीनों कालों के ज्ञाता बनने वाले को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा जाता है। वह सदा राज़ी और खुश रहता है। मधुबन निवासी अर्थात् सदा खुश और राज़ी रहने वाले। दूसरे से नाराज़ होना अर्थात् अपने को राज़ जानने की स्टेज से नीचे ले आना। तख्त छोड़ कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। त्रिकालदर्शी अर्थात् नॉलेजफुल की स्टेज एक तख्त है, ऊँचाई है। जब इस तख्त को छोड़कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। जैसा स्थान वैसी स्थिति होनी चाहिए।
मधुबन को स्वर्ग भूमि कहते हो ना! यह तो मानते हो मधुबन स्वर्ग का माडल है तो स्वर्ग में माया आती है क्या? इसकी भी अविद्या होनी चाहिए कि माया क्या है। स्वर्ग में माया का ज्ञान नहीं होता है। इस भूमि को साधारण समझने के कारण माया आती है। मधुबन वरदान भूमि को साधारण स्थान नहीं समझो। मधुबन की स्मृति भी समर्थी दिलाती है। मधुबन में रहने वाले ‘फरिश्ते’ होने चाहिए। मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा। मधुबन की दीवारों की महिमा तो नहीं है ना! मधुबन निवासियों को सारी दुनिया किस नज़र से देखती है; विश्व अब तक भी याद के रूप में कितनी ऊँची नज़र से देखती, भक्त भी मधुबन निवासियों के गुणगान करते हैं। ब्राह्मण परिवार भी ऊँची नज़र से देखता है। अगर आपकी भी इतनी ऊँची नज़र हो तो फरिश्ता तो हो ही गए ना?
मधुबन निवासी ‘यज्ञ निवासी’ भी कहे जाते हैं। यज्ञ में रहने वालों को अपनी आहुति डालनी है। तब फिर दूसरे फालो करेंगे। यादगार के यज्ञ में भी आहुति सफल तब होती हैं, जब मन्त्र जपते हैं। यहाँ भी सदा मन्मनाभव मन्त्र स्मृति में रहे तब आहुति सफल होती है। मधुबन निवासी तो निरन्तर मन्त्र में स्थित होने वाले हैं। सिर्फ बोलने वाले नहीं, लेकिन मन्त्रस्वरूप हो। अभी तो बाप ने रियलाईजेशन कोर्स दिया है तो अपने को रियलाईजेशन कर चेंज किया?
सभी ठीक हैं? कोई ठीक कहता है तो बाप-दादा तो कहते हैं - मुख में गुलाब। कहने से भी ठीक हो ही जायेगा। कमी को बार-बार सोचने से कमी रह जाती है। कमी को देखते खत्म करते जाओ। चैक करने के साथ-साथ चेंज भी करो। कोई कमाल करके दिखाना है ना? इतने समय में जितना भी साथ मिला, कमाल की। कोई ऐसा काम जो कमाल का गाया जाए, या करते हुए भी भूल जाते हो? अपने को सदा गुणमूर्त्त देखते ऊँची स्टेज पर स्थित रहते रहो। नीचे नहीं आओ। सुनाया था ना कि जो रॉयल फैमली के बच्चे होते हैं वह कब धरती पर, मिट्टी पर पांव नहीं रखेंगे। यहाँ देह-भान मिट्टी है, इसमें नीचे नहीं आओ। इस मिट्टी से सदा दूर रहो। संकल्प से भी देहाभिमान में आए अर्थात् मिट्टी में पांव रखा। वाचा, कर्मणा में आना अर्थात् मिट्टी खा ली। रॉयल फैमली के बच्चे कभी मिट्टी नहीं खाते। सदा स्मृति में रहो कि ऊँचे से ऊँचे बाप के ऊँची स्टेज वाले बच्चे हैं तो नीचे नज़र नहीं आएगी। पुरानापन तो स्वप्न से भी खत्म कर देना है। जो योगी तू आत्मा, ज्ञानी तू आत्मा होगा उनका स्वप्न भी नई दुनिया, नई जीवन का होगा। जब स्वप्न ही बदल गया तो संकल्प की बात ही नहीं। मधुबन निवासियों के स्वप्न भी श्रेष्ठ। बाप-दादा भी उसी नज़र से देखते हैं। मधुबन निवासी नाम की महिमा है जो अन्त समय तक भी, नामधारी (वृन्दावन, मधुबन वाले) सिर्फ नामपर अपना शरीर निर्वाह करते रहते हैं। नाम की इतनी महिमा है, तो मधुबन निवासियों का नाम ही महान है। जब नाम की इतनी महिमा है तो स्वयं स्वरूप की क्या होगी? अच्छा, सभी सन्तुष्ट तो हो ही, अच्छा।
वरदान:- निरन्तर योगी और पवित्र बन सर्व विकारों को विदाई देने वाले शक्ति स्वरूप, पूज्य स्वरूप भव
बाप द्वारा सभी बच्चों को मुख्य दो वरदान प्राप्त होते हैं - एक सदा योगी भव दूसरा पवित्र भव। जो यह वरदान जीवन में सदा अनुभव करते हैं वह दो चार घण्टे के योगी नहीं होते लेकिन निरन्तर के योगी होते हैं। पवित्र भी कभी-कभी नहीं, सदा पवित्र और सर्व विकारों को विदाई देने वाले। ऐसे नहीं कभी क्रोध या मोह आ गया, कोई भी विकार स्मृति स्वरूप बनने नहीं देगा। तो ऐसे योगी ही शक्ति स्वरूप हैं और सदा पवित्र रहने वाले पूज्य स्वरूप हैं।
स्लोगन:- सदा ज्ञान सूर्य के सम्मुख रहो तो भाग्य रूपी परछाई आपके साथ है।