17-06-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 18-01-75 मधुबन
साक्षात्कार मूर्त और फरिश्ता मूर्त बनने का निमन्त्रण
सर्व-स्नेही आत्माओं को स्नेह का रेसपांस (जवाब) स्नेह से दे रहे हैं। नैनों के असुवन मोती, गले की माला जो बच्चों ने बापदादा को पहनाई है, उसके रिटर्न में ज्ञान-रत्नों की माला बापदादा दे रहे हैं। आज अमृत वेले हर-एक स्नेही बच्चे का संकल्प बापदादा के पास पहुँच गया। हर- एक की रूह-रूहान, हर-एक का शुभ संकल्प, हर-एक का किया हुआ वायदा पहुँचा। उस सर्व रूह-रूहान के रेसपांस में बापदादा स्वयं अव्यक्त में मिलने की तमन्ना (अभिलाषा) कर रहे हैं। बाप को बच्चे व्यक्त में बुलाते हैं और बाप बच्चों को अव्यक्त वतन में बुला रहे हैं। अव्यक्त वतन-वासी बाप-समान बनना - यही बच्चों के प्रति बाप की शुभ इच्छा है। अब बताओ, कितने समय में अव्यक्त वतन पधारेंगे? अव्यक्त वतन का मिलन कितना सुन्दर है - उसको जानते हो?
बापदादा भी बच्चों के सिवाय वापिस घर नहीं जा सकते हैं। घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। उस महफिल में बापदादा सब स्नेही बच्चों का आह्वान कर रहे हैं। बच्चे बाप का पुरानी दुनिया में आह्वान करते व बुलाते हैं लेकिन बाप आप बच्चों को फरिश्तों की दुनिया में बुला रहे हैं, जहाँ से साथ-साथ रूहों की दुनिया में चलेंगे। यह अलौकिक अव्यक्त निमन्त्रण भाता है? अगर भाता है तो क्या व्यक्त जन्म, व्यक्त भाव भूलना नहीं आता है? बाप समान निरन्तर फरिश्ता बनना नहीं आता? एक सेकेण्ड का संकल्प निरन्तर दृढ़ करना नहीं आता? बनना ही है, आना ही है - ऐसे सेकेण्ड के संकल्प की टिकटें लेनी नहीं आती? क्या शक्ति रूपी खज़ाना होते हुए भी यह टिकट रिजर्व नहीं करा सकते? विश्व की सर्व आत्माओं को नजर से निहाल कर उन्हें भी अपने साथ मुक्ति-जीवनमुक्ति रूपी वर्सा बाप से नहीं दिला सकते हो? बाप के या अपने भक्तों को भटकने से जल्दी-से-जल्दी छुड़ाने का शुभ संकल्प तीव्र रूप से उत्पन्न होता है? रहमदिल बाप के बच्चे हो; दु:ख-अशान्ति में तड़पती हुई आत्माओं को देखते हुए सहन कर सकते हो? क्या रहम नहीं आता? अनेक प्रकार के विनाशी सुख-शान्ति में विचलित हुई आत्माएँ, जो बाप को और अपने आप को भूल चुकी हैं, ऐसी भूली हुई आत्माओं पर कल्याण की भावना द्वारा उन्हें भी यथार्थ मंज़िल बता कर अविनाशी प्राप्ति की अंजलि देने का संकल्प उत्पन्न नहीं होता?
अब तो समय-प्रमाण सप्ताह कोर्स के बजाय अपने वरदानों द्वारा, अपनी सर्वशक्तियों के द्वारा सेकेण्ड का कोर्स बताओ; तब ही सर्व आत्माओं को रूहों की दुनिया में बाप के साथ ले जा सकेंगे। अशरीरी भव, निराकारी भव, निरहंकारी और निर्विकारी भव का वरदान, वरदाता द्वारा प्राप्त हो चुका है न? अब ऐसे वरदान को साकार रूप में लाओ! अर्थात् स्वयं को ज्ञान-मूर्त, याद-मूर्त और साक्षात्कार-मूर्त बनाओ। जो भी सामने आये, उसे मस्तक द्वारा मस्तक-मणि दिखाई दे, नैनों द्वारा ज्वाला दिखाई दे और मुख द्वारा वरदान के बोल निकलते हुए दिखाई दें। जैसे अब तक बापदादा के महावाक्यों को साकार स्वरूप देने के लिए निमित्त बनते आये हो, अब इस स्वरूप को साकार बनाओ।
बापदादा बच्चों के स्नेह, सहयोग और सेवा पर बार-बार सन्तुष्टता के पुष्प चढ़ा रहे हैं। मेहनत पर धन्यवाद दे रहे हैं। साथ-साथ भविष्य के लिये निमन्त्रण भी देते हैं कि अब जल्दी,जल्दी तीव्र गति से हो रही ईश्वरीय सेवा को सम्पन्न करो, अर्थात स्वयं को बाप-समान बनाओ। बाप के आह्वान की पसारी हुई बांहों में समा जाओ और समान बन जाओ! स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - समान बन जाना!
आज ही बाप-दादा के साथ चलेंगे? ऐसे एवररेडी हो या रही हुई सेवा का शुभ सम्बन्ध खींचेगा? सर्व कार्य सम्पन्न कर दिया है या अभी रहा हुआ है? वह फिर वतन से करेंगे? एक सेकेण्ड में सर्व सम्बन्ध सर्व सेवा के कार्य को सम्पन्न कर सकते हो तो चलो। उल्हना देते हो लेकिन बाप तो साथ ले जाने लिए तैयार है। सर्व हिसाब किताब सम्पन्न हो चुका है? बाप तैयार है - चलो फिर लौटना नहीं। अच्छा।
स्नेह और सहयोग दोनों में रहने वाले बाप समान सदा साथी साथ निभाने वाले, सर्व संकल्पों को साकार रूप में लाने वाले समीप सितारों को मस्तकमणियों को गले में मणके बन पिरोने वालों को, विजय माला के विजयी रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते। ओम शान्ति।
पर्सनल मुलाकात - परिवर्तन के लिए प्रतिज्ञा
मधुबन की क्या महिमा करते हो? कहते हो कि यह परिवर्तन भूमि है। आप सभी परिवर्तन भूमि या वरदान भूमि में आये हुए हो। स्वयं में व अन्य में वरदान का अनुभव करते हो? यहाँ आना अर्थात् वरदान पाना, परिवर्तन करना। अब क्या परिवर्तन करना है? जो विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार समय-प्रतिसम य विघ्न रूप बनता है, ऐसा संस्कार व ऐसी कमजोरी यहाँ परिवर्तन करके जाना है। तभी कहेंगे कि स्वयं में परिवर्तन लाया। विशेष उमंग, उत्साह और लगन से यहाँ तक पहुँचते हो तो यहाँ मधुबन में अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाओ कि जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुए पुराने संस्कार भस्म हो जाएँ।
मधुबन को कहा जाता है - अश्वमेघ रूद्र-ज्ञान महायज्ञ। यज्ञ में क्या किया जाता है? स्वाहा किया जाता है। आप बच्चे भी अमृत वेले उठ रोज यज्ञ रचते हो लगन की अग्नि का। जिस लगन रूपी अग्नि में अपनी कमज़ोरी स्वाहा करते हो। लेकिन यह महायज्ञ है। मधुबन में आना माना महायज्ञ में आना। मधुबन को क्यों महायज्ञ कहा है? क्योंकि यहाँ अनेक आत्माओं की लगन की अग्नि का समूह है। तो इसका लाभ उठाना चाहिए न। जैसे कई बार स्वत: प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो, वैसे ही मधुबन में आप भी ऐसी प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो? क्या समझते हो? क्या ऐसी आहुति डालते हो जो आगे के लिए समाप्त हो जाये? महायज्ञ में महा आहुति डालनी चाहिए। साधारण आहुति नहीं। अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डाली है? यहाँ से जाते हो, डाल कर जाते हो या अब वापिस ली है या सोचते हो कि किस प्रकार के तिल व जौ डालें? यह चेक (जाँच) करते हो कि जितनी बार महायज्ञ में आते हो तो महायज्ञ में आहुति डालते हो।
सम्पूर्ण समर्पण हुए हो या वापिस ले जाते हो? आहुति सम्पूर्ण समर्पण हो जाती है या रह जाती है? क्या ऐसा तो नहीं सोचते कि यह पुरानी दुनिया में काम आयेगी? ऐसा होता है, कमज़ोर आदमी हाथ खींच लेते हैं। अगर आहुति डालने वाले कमज़ोर हों तो सेक (ताओ) होने के कारण, आधी आहुति बाहर, आधी अन्दर रह जाती है। यहाँ भी सोचते हैं कि करें या न करें? होगा या नहीं होगा; कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे? तो बुद्धि रूपी हाथ आगे-पीछे करते रहते हो। इसलिए सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होते हो; किनारा रह जाता है, बिखर जाता है। जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नहीं होता। सोचते ज्यादा हो, करते कम हो। तो फल भी कम मिलेगा। पहले हिम्मत कम है, संकल्प पॉवरफुल नहीं है, तो कर्म में बल भी नहीं होगा और इसीलिए फल भी कम ही होगा। फिर क्या करते हो? आधा यहाँ आधा वहाँ बिखेर देते हो। तो सफलता नहीं हुई न! अभी आप सब को रिजल्ट क्या हुई? सफलता हुई? यज्ञ में सम्पूर्ण आहुति रही या बिखर गई। आप सबकी अब की रिजल्ट बिखरना - माना रह गया है। अभी तो जो सोचना है वह प्रैक्टिकल में भर करके जाना है कि आज से यह कमज़ोरी फिर नहीं आयेगी। सम्पूर्ण समर्पण करने का साहस है या कम है? विनाश न हुआ तो? स्वर्ग न आया फिर? पहुँचेंगे या नहीं? फिर लोग क्या कहेंगे? ऐसे होशियार नहीं बनना। सब की यही हालत है! सहज हाथ आगे बढ़ाते हैं। सेक आता है तो हाथ खींच लेते हो। हिम्मत आती है, थोड़ा-सा विघ्न आता है तो कदम पीछे चल पड़ते हैं। ऐसों की गति क्या होगी? गति-सद्गति को भी तो जानते हो न?
नॉलेजफुल होते हुए अगर कोई न करे तो क्या कहेंगे? इनको वापिस लिया तो क्या गति होगी? जान-बूझ करके भी अगर न करे तो क्या कहेंगे? लाईट रूप और माईट रूप होते हुए भी क्यों नहीं कर पाते हो? कारण क्या है? नॉलेज तुम्हारी बुद्धि तक है; समझ तक है। ठीक है - जानते हो, लेकिन नॉलेज को प्रैक्टिकल में लाना और समाना नहीं आता है। भोजन है, खाते भी हैं। परन्तु खाना अलग बात है, खा कर हजम करना अलग बात है। समाते नहीं हो, हजम नहीं होता, रस नहीं बनता और शक्ति नहीं मिलती। जीभ तक खा लिया तो रस नहीं बनेगा, शक्ति नहीं मिलती। समाने के बाद ही शक्ति का स्वरूप बनता है। समाया नहीं तो जीभ-रस है। समाया तो शक्ति है। सुनने का रस आया, समझ में आया, समझा किन्तु समाया नहीं, प्रैक्टिकल में नहीं लाया। जितना धारणा में आता है, संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। नॉलेजफुल का अर्थ क्या है? नॉलेजफुल का अर्थ है हरेक कर्मेन्द्रियों में नॉलेज समा जाए। क्या करना है और क्या नहीं? तो धोखा खाने की बात रहेगी? ऑखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी जब आत्मा में नॉलेज आ जाती है तो सर्व इन्द्रियों में नॉलेज समा जाती है। जैसे भोजन से शक्ति भर जाती है तो शक्ति के आधार से काम होता है। अभी नॉलेज को समाना है। हरेक कर्मेन्द्रियों को नॉलेजफुल बनाओ।
हर वर्ष आते हो, कहते हो कि अभी करूंगा। वायदा करके जाते हो। अभी कब पूरा होगा? क्या कारण है? जो तुम सोचते हो और जो कर्म करते हो, उसमें अन्तर क्यों? कारण क्या? सोचते हो फुल करने की बात, और होती है आधी - इतना अन्तर पड़ने का कारण क्या है? प्लान भी खूब रचते हो, उमंग भी खूब लाते हो और समझ कर वायदा करते हो। सब बातें आयेंगी ही, लेकिन प्रैक्टिकल और समझ में अन्तर आ जाता है - इसका कारण क्या है? संस्कारों की आहुति करके जाते हो, फिर सब कहाँ से आया? स्वाहा करके जाते हो फिर क्यों आता है? देह-अभिमान, अलबेलापन वापिस क्यों लौट आता है, कारण क्या है? कारण है कि संकल्प करके जाते हो स्वाहा करने का, लेकिन संकल्प के साथ-साथ (जैसे बीज बोते हो, बाद में सम्भाल करते हो) परन्तु इसमें जो सम्भाल चाहिए वह सम्भाल नहीं रखते हो। समय-प्रमाण उनकी आवश्यकता रखनी चाहिए, आप बीज डाल कर अलबेले हो जाते हो। सोचते हो कि बाबा को दिया, अब बाबा जाने, यह बाबा का काम है। आप उसकी पालना नहीं करते हो। तो वाचा और मन्सा पर अटेन्शन चाहिए। जैसे बीज बो कर पानी डालते हो कि बीज पक्का हो जाये। बीज को रोज-रोज पानी देना होता है, वैसे ही संकल्प रूपी बीज को रिवाइज करना है। उसमें कमी रह जाती है और आप निश्चिन्त हो जाते हो - आराम पसंद हो जाते हो। आराम पसन्द के संस्कार नहीं, मगर चिन्तन का संकल्प होना चाहिए, एक-एक संस्कार की चिन्ता लगनी चाहिए। पुरूषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा देखने में आता है। फिर हमेशा ख्याल आता है कि छोटा-सा दाग मेरी वैल्यू कम कर देगा। चिन्तन चिन्ता के रूप में होना चाहिए। वह नहीं तो अलबेलापन है। कहते हो, करते नहीं हो। जो पीछे की युक्ति है उसे प्रैक्टिकल में लाओ, आराम-पसन्दी देवता स्टेज का संस्कार है, वह ज्यादा खींचता है। संगमयुग के ब्राह्मण के संस्कार जो त्याग मूर्त के हैं, वह कम इमर्ज होते हैं। त्याग-बिना भाग्य नहीं बनता अच्छा, कर लेंगे, देखा जायेगा - यह आराम पसन्दी के संस्कार हैं। ‘‘ज़रूर करूंगा’’, ये ब्राह्मणपन के संस्कार हैं। लौकिक पढ़ाई में जिसको चिन्ता रहती है, वह पास होता है। उसकी नींद फिट जाती है। जो आराम-पसन्द हैं वे पास क्या होंगे? अभी सोचते हो कि प्रैक्टिकल करना है। चिन्ता लगनी चाहिए, शुभ चिन्तन, सम्पूर्ण बनने की चिन्ता, कमजोरी को दूर करने की चिन्ता और प्रत्यक्ष फल देने की चिन्ता।
वरदान:- अपनी शक्तियों वा गुणों द्वारा निर्बल को शक्तिवान बनाने वाले श्रेष्ठ दानी वा सहयोगी भव
श्रेष्ठ स्थिति वाले सपूत बच्चों की सर्व शक्तियाँ और सर्व गुण समय प्रमाण सदा सहयोगी रहते हैं। उनकी सेवा का विशेष स्वरूप है-बाप द्वारा प्राप्त गुणों और शक्तियों का अज्ञानी आत्माओं को दान और ब्राह्मण आत्माओं को सहयोग देना। निर्बल को शक्तिवान बनाना - यही श्रेष्ठ दान वा सहयोग है। जैसे वाणी द्वारा वा मन्सा द्वारा सेवा करते हो ऐसे प्राप्त हुए गुणों और शक्तियों का सहयोग अन्य आत्माओं को दो, प्राप्ति कराओ।
स्लोगन:- जो दृढ़ निश्चय से भाग्य को निश्चित कर देते हैं वही सदा निश्चिंत रहते हैं।