09-06-13 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 10-01-77 मधुबन
जैसा लक्ष्य वैसा लक्षण
आज बाप-दादा हर बच्चे के मस्तक और नैनों द्वारा एक विशेष बात देख रहे हैं। अब तक लक्ष्य और लक्षण कितना समीप हैं। लक्ष्य के प्रभाण लक्षण प्रैक्टीकल रूप में कहाँ तक दिखाई देते हैं? लक्ष्य सब का बहुत ऊँचा है लेकिन लक्षण धारण करने में तीन प्रकार के पुरुषार्थी हैं। वह कौन-से हैं?
(1) एक हैं - जिन्हें सुन कर अच्छा लगता है, करना चाहिए, लेकिन सुनना आता है पर करना नहीं आता है।
(2) दूसरे हैं - जो सोचते हैं, समझते भी हैं, करते भी हैं। लेकिन शक्ति-स्वरूप न होने के कारण डबल पार्ट बजाते हैं। अभी-अभी ब्राह्मण, तीव्र पुरुषार्थी अभी-अभी हिम्मतहीन। कारण? पांच विकार और प्रकृति के तत्व, दोनों में से किसी न किसी के वशीभूत हो जाते हैं। इसलिए लक्ष्य और लक्षण में अन्तर पड़ जाता है। इच्छा है लेकिन इच्छा मात्रम् अविद्या बनने की शक्ति नहीं, इस कारण अपने लक्ष्य की इच्छा तक पहुँच नहीं पाते हैं।
(3) तीसरे हैं - जो सुनना, सोचना और करना, तीनों को समान करते हुए चलते हैं। ऐसी आत्माओं का लक्ष्य और लक्षण 99% समान दिखाई पड़ता है। ऐसे तीन प्रकार के पुरुषार्थी देख रहे हैं।
वर्तमान समय हरेक ब्राह्मण आत्मा के संकल्प और बोल को लक्ष्य की कसौटी पर चेक करना चाहिए: लक्ष्य के प्रमाण संकल्प और बोल हैं? लक्ष्य है - फरिश्ता सो देवता। जैसे लौकिक परिवार और आक्यूपेशन के प्रमाण अपना संकल्प, बोल और कर्म चेक करते हैं वैसे ब्राह्मण आत्माएं अपने ऊँच से ऊँच परिवार और आक्यूपेशन को सामने रखते हुए चलते हैं? वर्तमान मरजीवा ब्राह्मण जन्म नैचुरल स्मृति में रहता है वा पास्ट शुद्रपन के लक्षण नैचुरल रूप में पार्ट में आ जाते हैं? जैसा जन्म होता है वैसे कर्म होते हैं। श्रेष्ठ जन्म के कर्म भी स्वत: ही श्रेष्ठ होने चाहिए। अगर मेहनत लगती है तो ब्राह्मण जन्म की स्मृति कम है। वास्तव में श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ लक्ष्य श्रेष्ठ जन्म का बर्थ-राईट जन्मसिद्ध अधिकार है। जैसे लौकिक जन्म में स्थूल सम्पत्ति बर्थ-राईट होती है। वैसे ब्राह्मण जन्म का दिव्य गुण रूपी सम्पत्ति, ईश्वरीय सुख शक्ति बर्थ-राईट है। बर्थ-राईट का नशा नैचुरल रूप में रहता ही है, मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं। अगर मेहनत करनी पड़ती है तो अवश्य सम्बन्ध और कनेक्शन में कोई कमी है। अपने आप से पूछो बर्थ-राईट का नशा रहता है? इस नशे में रहने से ही लक्ष्य और लक्षण समान हो जायेगा, इसके लिए सहज युक्ति जिससे मेहनत से मुक्ति मिल जाये वो कौन-सी है? स्वयं को जो हूँ, जेसा हूँ, जिस श्रेष्ठ बाप और परिवार का हूँ वैसा जानते हो; लेकिन हर समय मानते नहीं हो। अपनी तकदीर की तस्वीर नहीं देखते हो। अगर सदैव अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते रहो तो जैसा साकार शरीर को देखते हुए नैचुरल देह की स्मृति-स्वरूप रहते हो वेसे ही नैचुरल तकदीर की तस्वीर के स्मृति में रहेंगे। चलते फिरते वाह बाबा! और वाह मेरी तकदीर की तस्वीर! यह अजपाजाप अर्थात् मन से यह आवाज़ निकलती रहे। जो भक्त लोग अनहद आवाज़ सुनने का प्रयत्न करते हैं, यह आप की ही स्थिति का गायन भक्ति में चलता रहता है। अपने कल्प पहले की खुशी में सदा नाचने का चित्र जिसको रास-लीला का चित्र कहते हैं - हर गोपी वा गोप सदा गोपीवल्लभ के साथ रास करते हुए दिखाते हैं, यह खुशी में नाचने का यादगार चित्र है। आप के प्रैक्टीकल चरित्र का चित्र बना है। ऐसा प्रैक्टीकल चरित्रवान चित्र सदा देखने में आता है? ऐसे अनुभव करते हो कि यह मेरा ही चित्र है? इसको कहा जाता है ‘तकदीर की तस्वीर’। रोज़ अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते हुए हर कर्म करेंगे तो मेहनत से मुक्त हो बर्थ-राईट की खुशी का अनुभव करेंगे।
अब मेहनत करने का समय नहीं रहा, अब तो यह स्मृति-स्वरूप बनो - जो जानना था वह जान लिया, पाना था सो पा लिया ऐसा अनुभव करते हो? बाप-दादा तो हर एक के तकदीर की तस्वीर देख हर्षित होते हैं। ऐसे ही तत् त्वम्। बाप-दादा को विशेष आश्चर्य एक बात का लगता है - मास्टर सर्वशक्तिवान श्रेष्ठ तकदीरवान छोटी-छोटी उलझनों में कैसे उलझ जाते हैं जैसे कि शेर चींटी से घबरा जाता है। अगर शेर कहे ‘‘मैं चीटीं को कैसे मारूं, क्या करूँ’’ तो क्या सोचेंगे? सम्भव बात लगेगी या असम्भव लगेगी? ऐसे मास्टर सर्व शक्तिवान ज़रा-सी उलझन में उलझ जाएं तो क्या बाप को सम्भव बात लगेगी या आश्चर्य की बात लगेगी? इसलिए अब छोटी-छोटी उलझनों से घबराने का समय नहीं है, अब तो सर्व उलझी हुई आत्माओं को निकालने का समय है। समझा ये बचपन की बातें हैं। मास्टर रचयिता के लिए यह बचपन की बातें शोभती नहीं इसलिए कहा है कि सदैव उमंग, उल्लास की रास में नाचते रहो। सदा वाह मेरा भाग्य! और वाह भाग्य विधाता!! इस सूक्ष्म मन की आवाज़ को सुनते रहो। नाचने के साथ जेसे साज चाहिए ना, तो यह अनादि मन का आवाज़ सुनते रहो और खुशी में नाचते रहो।
ऐसे सदा बर्थ-राईट के नशे में रहने वाले, ईश्वरीय मस्ती में सदा रहने वाले, मेहनत से मुक्त होने वाले, लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले, सर्व उलझनों से निकालने वाले,ऐसे श्रेष्ठ तकदीर वाले, पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।
09-06-13 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 12-01-77 मधुबन
संगमयुग पर ‘बालक सो मालिक’ बनने वालों के तीनों कालों का साक्षात्कार
आज बाप-दादा हर बच्चे के तीनों कालों को देख रहे हैं। पास्ट में आदि काल के भक्त हैं या मध्यकाल के? क्या भक्ति काल समाप्त हो गया है? भक्ति का फल - ज्ञान सागर और ज्ञान की प्राप्ति प्राप्त करते हुए ज्ञानी तू आत्मा बने हैं, या बन रहे हैं? भक्ति के संस्कार अधीनता अर्थात् किसी के अधीन रहना, मांगना, पुकारना, स्वयं को सदा सम्पन्नता से दूर समझना, इस प्रकार के संस्कार अभी तक अंश मात्र में रहे हुए हैं, या वंश रूप में भी हैं? वर्तमान समय बाप समान गुण, कर्त्तव्य और सेवा में कहाँ तक सम्पन्न बने हैं? वर्तमान के आधार से भविष्य प्रालब्ध कितनी श्रेष्ठ बना रहे हैं? ऐसे हरेक के तीनों कालों को देखते हुए, ‘बालक सो मालिक’ बनने वालों को देखते हुए गुण भी गाते हैं, लेकिन साथ-साथ कहीं-कहीं आश्चर्य भी लगता है। अपने-आप से पूछो और अपने-आपको देखो कि अभी तक भक्तपन के संस्कार अंश रूप में भी रह तो नहीं गए हैं? अगर अंश मात्र भी किसी स्वभाव, संस्कार के अधीन हैं, नाम, मान, शान के मंगता (मांगने वाले) हैं; ‘क्या’ और ‘कैसे’ के क्वेश्चन (प्रश्न) में चिल्लाने वाले, पुकारने वाले, भक्त समान ‘अन्दर एक बाहर दूसरा’, ऐसे धोखा देने के बगुले भक्त के संस्कार हैं, तो जहाँ भक्ति का अंश है वहाँ ज्ञानी तू आत्मा हो नहीं सकती, क्योंकि ‘भक्ति है रात और ज्ञान है दिन’। रात और दिन इकट्ठे नहीं हो सकते।
ज्ञानी तू आत्मा, सदा भक्ति के फल-स्वरूप, ज्ञान सागर और ज्ञान में समाया हुआ रहता है, इच्छा मात्रम् अविद्या, सर्व प्राप्ति स्वरूप होता है। ऐसे ज्ञानी तू आत्मा का चित्र अपनी बुद्धि द्वारा खींच सकते हो? जैसे आपके भविष्य श्री कृष्ण के चित्र को जन्म से ही ताजधारी दिखाते हैं, मुख में गोल्डन स्पून अर्थात् जन्मते ही सर्व प्राप्ति स्वरूप दिखाते हैं। हेल्थ, वेल्थ, हैपीनेस सबमें सम्पन्न स्वरूप हैं। प्रकृति भी दासी है। यह सब बातें, जो भविष्य में प्राप्त होने वाली हैं, उसका अनुभव अब संगमयुग में भी होना है, या सिर्फ भविष्य का ही गायन है? संस्कार यहाँ से ले जाने हैं या वहाँ बनने हैं? त्रिकालदर्शी की स्टेज अभी है या भविष्य में? सम्मुख बाप और वर्से की प्राप्ति अभी है अथवा भविष्य में? श्रेष्ठ स्टेज अब है या भविष्य में? अभी श्रेष्ठ है ना।
संगमयुग के ही अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज का चित्र भविष्य चित्र में दिखाते हैं। भविष्य के साथ पहले सर्व प्राप्ति का अनुभव संगमयुगी ब्राह्मणों का है। अन्तिम स्टेज पर ताज, तख्त, तिलकधारी, सर्व अधिकारी मूर्त्त बनते हो, मायाजीत, प्रकृतिजीत बनते हो। सदा साक्षीपन के तख्त नशीन, बाप-दादा के दिल तख्त-नशीन, विश्व-कल्याणकारी के जिम्मेवारी का ताजधारी, आत्म-स्वरूप की स्मृति के तिलकधारी, बाप द्वारा मिली हुई अलौकिक सम्पत्ति - ज्ञान, गुण और शक्तियाँ इस सम्पत्ति में सम्पन्न होते हो। सिंगल ताज भी नहीं, डबल ताजधारी होते हो। जैसे डबल तख्त - दिल तख्त और साक्षीपन की स्टेज का तख्त का तख्त है, वैसे जिम्मेवारी अर्थात् सेवा का ताज और साथ-साथ सम्पूर्ण प्योरिटी लाईट का क्राउन भी होता है। तो डबल ताज, डबल तख्त और सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप गोल्डन स्पून तो क्या लेकिन हीरे-तुल्य बन जाते हो। हीरे के आगे तो सोना कुछ भी नहीं। ‘जीवन ही हीरा बन जाता है’। ज्ञान के गहने, गुणों के गहनों से सजे-सजाए बनते हो। भविष्य का श्रृंगार इस संगमयुगी श्रृंगार के आगे कोई बड़ी बात नहीं लगेगी। वहाँ तो दासियां श्रृंगारेगी, और यहाँ स्वयं ज्ञान-दाता बाप श्रृंगारता है। वहाँ सोने वा हीरे के झूले में झूलेंगे, यहाँ बाप-दादा की गोदी में झूलते हो, अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलते हो। तो श्रेष्ठ चित्र कौन-सा हुआ? वर्तमान का या भविष्य का? सदैव अपने ऐसे श्रेष्ठ चित्र को सामने रखो। इसको कहा जाता है - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का चित्र।
तो बाप-दादा सबके तीनों कालों को देख रहे हैं कि हरेक का प्रैक्टीकल चित्र कहाँ तक तैयार हुआ है? सबका चित्र तैयार हुआ है? जब चित्र तैयार हो जाता है तब दर्शन करने वालों के लिए खोला जाता है। ऐसे चैतन्य चित्र तैयार हो जो समय का पर्दा खुले? दर्शन सदैव सम्पूर्ण मूर्ति का किया जाता है, खंडित मूर्ति का दर्शन नहीं होता। किसी भी प्रकार की कमी अर्थात् खंडित मूर्ति। दर्शन कराने योग्य बने हो? स्वयं का सोचते हो या समय का सोचते हो? स्वयं के पीछे समय का परछाई है। स्वयं को भी भूल जाते हो; इसलिए मास्टर त्रिकालदर्शी बन अपने तीनों कालों को जानते हुए स्वयं को सम्पन्न-मूर्त्त अर्थात् दर्शन मूर्ति बनाओ। समझा?
समय को गिनती नहीं करो। बाप के गुणों व स्वयं के गुणों की गिनती करो। स्मृति दिवस तो मनाते रहते हो, लेकिन अब स्मृति-स्वरूप दिवस मनाओ। इसी स्मृति दिवस का यादगार शान्ति स्तम्भ, पवित्रता स्तम्भ, शक्ति स्तम्भ बनाया है, वैसे ही स्वयं को सब बातों का स्तम्भ बनाओ जो कोई हिला न सके। बाप के स्नेह के सिर्फ गीत नहीं गाओ, लेकिन स्वयं बाप समान अव्यक्त स्थिति स्वरूप बनो, जो सब आपके गीत गाए। गीत भले गाओ - लेकिन जिसके गीत गाते हो वह स्वयं आपके गीत गाए, ऐसे अपने को बनाओ।
इस स्मृति दिवस पर बाप स्नेह का प्रैक्टीकल रूप देखना चाहते हैं। स्नेह की निशानी है - कुर्बानी। जो बाप बच्चों से कुर्बानी चाहते हैं, वह सब जानते भी हो। प्रैक्टीकल स्वरूप स्वयं की कमज़ोरियों की कुर्बानी। इस कुर्बानी के मन से गीत गाओ कि बाप के स्नेह में कुर्बान किया। स्नेह के पीछे कुर्बान करने में कोई मुश्किल व असम्भव बात भी सम्भव और सहज अनुभव होती है। ‘अब का स्मृति दिवस समर्थी दिवस के रूप में मनाओ’। स्मृति स्वरूप समर्थ स्वरूप। समझा? बाप उस दिन विशेष देखेंगे कि किस-किस ने कौन-कौन सी कुर्बानी और किस परसेंट और किस रूप में चढ़ाई है। मजबूरी से या मोहब्बत से, नियम प्रमाण नहीं करना। नियम है इसलिए करना है - ऐसे मजबूरी से नहीं करना। दिल के स्नेह का ही स्वीकार होता है। अगर स्वीकार नहीं हुआ तो बेकार हुआ। इसलिए सुनाया कि ‘बगुला भगत’ नहीं बनना स्वयं को धोखा नहीं देना। सत्य बाप के पास सत्य ही स्वीकार होता है। बाकी सब पाप के खाते में जमा होता है, न कि बाप के खाते में। पाप का खाता समाप्त कर बाप के खाते में भरो; कदम में पद्मों की कमाई कर पद्मापति बनो। अच्छा।
ऐसे इशारे से समझने वाले, समय को नहीं लेकिन स्वयं की सोचने वाले, बाप के स्नेह में एक सेकेण्ड के दृढ़ संकल्प में कुर्बानी करने वाले, डबल ताज, डबल तख्तनशीन, ज्ञानी तू आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:- एकव्रता के राज़ को जान वरदाता को राज़ी करने वाले सर्व सिद्धि स्वरूप भव
वरदाता बाप के पास अखुट वरदान हैं जो जितना लेने चाहे खुला भण्डार है। ऐसे खुले भण्डार से कई बच्चे सम्पन्न बनते हैं और कोई यथा-शक्ति सम्पन्न बनते हैं। सबसे ज्यादा झोली भरकर देने में भोलानाथ वरदाता रूप ही है, सिर्फ उसको राज़ी करने की विधि को जान लो तो सर्व सिद्धियां प्राप्त हो जायेंगी। वरदाता को एक शब्द सबसे प्रिय लगता है - एक-व्रता। संकल्प, स्वप्न में भी दूजा-व्रता न हो। वृत्ति में रहे मेरा तो एक दूसरा न कोई, जिसने इस राज़ को जाना, उसकी झोली वरदानों से भरपूर रहती है।
स्लोगन:- मन्सा और वाचा दोनों सेवायें साथ-साथ करो तो डबल फल प्राप्त होता रहेगा।