10-06-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 09-01-75 मधुबन
इंतज़ार की बजाय इंतज़ाम करो
निराकारी, आकारी और साकारी - इन तीनों स्टेजिस को समान बनाया है? जितना साकारी रूप में स्थित होना सहज अनुभव करते हो, उतना ही आकारी स्वरूप अर्थात् अपनी सम्पूर्ण स्टेज व अपने अनादि स्वरूप - निराकारी स्टेज - में स्थित होना सहज अनुभव होता है? साकारी स्वरूप आदि स्वरूप है, निराकारी अनादि स्वरूप है। तो आदि स्वरूप सहज लगता है या अनादि रूप में स्थित होना सहज लगता है? वह अविनाशी स्वरूप है और साकारी स्वरूप परिवर्तन होने वाला स्वरूप है। तो सहज कौन-सा होना चाहिए? साकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है या निराकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है, या स्मृति लानी पड़ती है? मैं जो हूँ, जैसा हूँ उसको स्मृति में लाने की क्या आवश्यकता है? अब तक भी स्मृति-स्वरूप नहीं बने हो? क्या यह अन्तिम स्टेज है या बहुत समय के अभ्यासी ही अन्त में इस स्टेज को प्राप्त कर पास विद ऑनर बन सकेंगे? वर्तमान समय पुरूषार्थियों के मन में यह संकल्प उठना कि अन्त में विजयी बनेंगे व अन्त में निर्विघ्न और विघ्न-विनाशक बनेंगे - यह संकल्प ही रॉयल रूप का अलबेलापन है अर्थात् रॉयल माया है; यह सम्पूर्ण बनने में विघ्न डालता है। यही अलबेलापन सफलतामूर्त और समान-मूर्त बनने नहीं देता है।
दूसरा संकल्प - विनाश की घड़ियों की गिनती करते रहते हो ना। सोचते रहते हो कि क्या होगा, कैसे होगा या होगा कि नहीं होगा? यह सीधा स्वरूप नहीं है, यह है -- सीधा संशय का रूप। इसलिए सीधा शब्द न बोल रॉयल शब्द बोलते हैं कि क्या होगा, कैसे होगा? - इस स्वरूप से सोचते हो। जितना समय समीप आ रहा है, उतना स्वयं को सतयुग के देवी-देवताओं की विशेषताओं के समीप बना रहे हो? विनाश किसके लिये होगा; किनके लिये होगा - यह जानते हो? तीव्र पुरूषार्थियों व सम्पूर्ण बनने वाली आत्माओं के लिये सम्पूर्ण सृष्टि व सतोप्रधान प्रकृति की प्रालब्ध भोगने के लिए विनाश होना है। तो विनाश की घड़ियाँ गिनती करते रहना चाहिए या स्वयं को सम्पूर्ण सतोप्रधान बनाने के लिये बाप-समान क्वॉलिफिकेशन को बार-बार गिनती करना चाहिए?
विनाश की घड़ियों का इंतज़ार करने की बजाय तो स्वयं को अभी से सम्पन्न बनाने और बाप-समान बनाने के इंतज़ाममें रहना चाहिए। परन्तु इंतज़ार में ज्यादा रहते हो। प्रारब्ध भोगने वाले ही इस इंतज़ार में रहते हैं तो अन्य आत्मायें, जो साधारण प्रारब्ध पाने वाली हैं, उन तक भी सूक्ष्म संकल्प पहुँचाते हो? रिजल्ट में मैजॉरिटी आत्मायें यही शब्द बोलती हैं कि जब विनाश होगा तब देख लेंगे। जब प्रैक्टिकल प्रभाव देखेंगे, तब हम भी पुरूषार्थ कर लेंगे। क्या होगा, कैसे होगा - यह किसको पता? यह वायब्रेशन्स निमित्त बनी हुई आत्माओं का औरों के प्रति भी कमज़ोर बनाने का व भाग्यहीन बनाने का कारण बन जाता है।
इस समय आप सबकी जगत्-माता और जगत्-पिता की व मास्टर रचयिता की स्टेज है। तो रचयिता के हर संकल्प अथवा वृत्ति के वायब्रेशन्स रचना में स्वत: ही आ जाते हैं। इसलिये वर्तमान समय जो कर्म हम करेंगे हमको देख सब करेंगे - सिर्फ यह अटेन्शन नहीं रखना है, लेकिन साथ-साथ ‘‘जो मैं संकल्प करूंगी, जैसी मेरी वृत्ति होगी वैसे वायुमण्डल में व अन्य आत्माओं में वायब्रेशन्स फैलेंगे’’ - यह स्लोगन भी स्मृति में रखना आवश्यक है वर्ना आप रचयिता की रचना कमज़ोर अर्थात् कम पद पाने वाली बन जायेगी। रचयिता की कमी रचना में भी स्पष्ट दिखाई देगी। इसलिये अपने कमज़ोर संकल्पों को भी अब समर्थ बनाओ। यह जो कहावत है कि ‘संकल्प से सृष्टि रची’, यह इस समय की बात है। जैसा संकल्प वैसी अपनी रचना रचने के निमित्त बनेंगे। इसलिये हर-एक स्टार में अलग-अलग दुनिया का गायन करते हैं।
स्वयं का आधार अनेक आत्माओं के प्रति स्मृति में रखते हुए चलते हो या यह बापदादा का काम है? आपका काम है या बाप का काम है? प्रारब्ध पाने वालों को पुरूषार्थ करना है या बाप को? जैसे लेने में कुछ भी कमी नहीं करना चाहते हो या लेने के समय स्वयं को किसी से भी कम नहीं समझते हो बल्कि यही सोचते हो कि मेरा भी अधिकार है, वैसे ही हर बात को करने में अपने को अधिकारी समझते हो? या करने के समय तो यह समझते हो कि हम छोटे हैं, यह बड़ों का काम है और लेने के समय यह सोचते हो कि हम छोटे भी कम नहीं हैं, छोटों को भी सब अधिकार होने चाहिए; छोटों को भी बड़ा समझना चाहिए व बनना चाहिए? जो करेंगे वह पायेंगे या जो सोचेंगे वह पायेंगे? नियम क्या है? सोचना, बोलना और करना - ये तीनों एक-समान बनाओ! सोचना और बोलना बहुत ऊंचा, करना कुछ भी नहीं - तो वे सोचते और बोलते ही समय बिता देंगे और करने से जो पाना है, वह वे पा नहीं सकेंगे। स्वयं को तो श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित करेंगे ही, अपनी रचना को भी वंचित करेंगे। इसलिये कहना कम और करना ज्यादा है। मेहनत करके पायेंगे - यह लक्ष्य सदा याद रखो। मुझे भी महारथी व सर्विसएबल समझा जाए, मुझे भी अधिकार दिया जाए, स्नेह व सहयोग दिया जाए - यह मांगने की चीज नहीं। श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ वृत्ति और श्रेष्ठ संकल्प की सिद्धि रूप में यह सब बातें स्वत: ही प्राप्त होती हैं। इसलिये इन साधारण संकल्पों में या व्यर्थ संकल्पों में भी समय व्यर्थ न गंवाओ। समझा?
ऐसे बाप-समान गुण और कर्म करने वाले, हर संकल्प में जिम्मेवारी समझने वाले, संकल्प में भी अलबेलेपन को मिटाने वाले, सदा बाप-समान बाप के साथी बन साथ निभाने वाले, हर पार्ट को साक्षी हो बजाने वाले, सर्व-श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
10-06-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 16-01-75 मधुबन
ज्वाला रूप अवस्था
अपने को नयनों में समाये हुए, नैनों के नूर व नूरे-रत्न समझते हो? स्वयं को बापदादा के नयनों के सितारे समझते हो? नयनों के सम्मुख हो या नयनों में समाये हुए हो? दो प्रकार के सितारे इस समय चमक रहे हैं। हर-एक स्वयं से पूछे कि मैं कौन-सा सितारा हूँ? समाये हुए की क्वॉलिफिकेशन्स और सम्मुख वाले के बीच, दो के बीच में तीसरे के आने की मार्जिन रहती है, अर्थात् कोई-न-कोई विघ्न निरन्तर में अन्तर कर सकता है। लेकिन जो नयनों में समाये हुए हों वे बाप के समान होते हैं; कोई परिस्थिति व प्रकृति, अर्थात् पाँच तत्व, भी बाप से उन्हें अलग नहीं कर सकते। गोया वे सदाविज यी, निरन्तर एक-रस और एक की लगन में मग्न होंगे। एक बाप और बापसमान सदा ईश्वरीय सेवा। बस, इसके सिवा उन्हें और कुछ दिखाई नहीं देगा। उनकी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति ये तीनों ही सदा समर्थ रहती हैं अर्थात् व्यर्थ समाप्त हो जाता है। ऐसे बने हो या बनना है?
विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त स्वयं को परिवर्तन किया हुआ अनुभव करते हो? अगर आधारमूर्त्त सम्पूर्ण परिवर्तन की अभी स्वयं में कमी महसूस करते हैं तो फिर विश्व-परिवर्तन कैसे होगा? आधारमूर्त स्वयं अपने लिये ही कुछ समय की आवश्यकता समझते हैं या विश्व-परिवर्तन के लिये अभी समय चाहिए। यह संकल्प उत्पन्न होता है? आधारमूर्त्त के दृढ़ संकल्प में कभी हलचल के संकल्प रहते हैं तो विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं में कभी जोश, कभी होश आ जाता है। आधारमूर्त्त आत्माओं का संकल्प ही विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं की प्रेरणा का आधार है। तो अपने-आप से पूछो कि प्रेरक शक्ति-सेना का संकल्प दृढ़ निश्चय-बुद्धि है और स्वयं एवर रेडी हैं? जैसे यज्ञ रचने के निमित ब्रह्मा बाप के साथ ब्राह्मण बने, तो यज्ञ से प्रज्जवलित हुई यह जो विनाशज्वाला है, इसके लिए भी जब तक ज्वाला रूप नहीं बनते, तब तक यह विनाश की ज्वाला भी सम्पूर्ण ज्वाला रूप नहीं लेती है। यह भड़कती है, फिर शीतल हो जाती है। कारण? क्योंकि ज्वाला मूर्त और प्रेरक आधारमूर्त्त आत्माएँ अभी स्वयं ही सदा ज्वाला रूप नहीं बनी हैं। ज्वाला-रूप बनने का दृढ़ संकल्प स्मृति में नहीं रहता है।
ज्वाला-रूप बनने का मुख्य और सहज पुरूषार्थ कौन-सा है? (मेरा तो एक शिव बाबा)। यह स्मृति सदा रहे, इसके लिए भी कौन-सा पुरूषार्थ है? अब लास्ट विशेष पुरूषार्थ कौन-सा रह गया है? (उपराम अवस्था)। यह तो है रिजल्ट। लेकिन उसका भी पुरूषार्थ क्या है? (न्यारापन) न्यारापन भी किससे आयेगा - कौन-सी धुन में रहने से? धुन यही रहे कि अब वापिस घर जाना है - जाना है अर्थात् उपराम। जाना है-जहाँ जाना है वैसा पुरूषार्थ स्वत: ही चलता है। जब अपने निराकारी घर जाना है तो वैसा अपना वेश बनाना होता है। तो इस नये वर्ष का विशेष पुरूषार्थ यही होना चाहिए कि वापिस जाना है और सबको ले जाना है। इस स्मृति से स्वत: ही सर्व-सम्बन्ध, सर्व प्रकृति के आकर्षण से उपराम, अर्थात् साक्षी बन जायेंगे। साक्षी बनने से सहज ही बाप के साथी बन जायेंगे व बाप-समान बन जायेंगे। सर्व को सदा ज्वाला-रूप दिखाई देंगे, तब ही यह विनाश ज्वाला भी आपके ज्वाला-रूप के साथ-साथ स्पष्ट दिखाई देगी। जितना स्थापना के निमित्त बने ज्वाला-रूप होंगे उतना ही विनाश-ज्वाला रूप में प्रत्यक्ष होगा। इस दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ तब विनाश-ज्वाला भड़केगी। अभी शीतल रूप में हैं, क्योंकि आधारमूर्त्त भी पुरूषार्थ में शीतल हैं। संगठन रूप का ज्वाला-रूप विश्व के विनाश का कार्य सम्पन्न करेगा।
अल्प आत्माओं का दृढ़ संकल्प अल्पकाल के लिये कहीं-कहीं विनाशज्वाला भड़काने के निमित्त बना है। लेकिन महाविनाश, और विश्व-परिवर्तन - संगठन के एक श्रेष्ठ संकल्प के सिवाय सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिये इस वर्ष में अपनी लास्ट स्टेज, सर्व कर्म-बन्धनों से मुक्त, कर्मातीत अवस्था, न्यारे और प्यारेपन का बैलेन्स सदा ठीक रहे। ऐसी निराकारी स्टेज संगठन रूप में बनाओ। तब विनाश के नजारे और साथ-साथ नई दुनिया के नजारे स्पष्ट दिखाई देंगे। सबको इस वर्ष यह पुरूषार्थ करना है। इस लास्ट पुरूषार्थ से ही स्वयं की और विनाश की गति फास्ट होगी।
संकल्प चलता है या समाप्त हो गया है? घबराते तो नहीं हो कि क्या होगा, कैसे होगा? अगर और मगर तो नहीं आता? अगर न हुआ तो? - कोई कहता है मगर होना ही है; कोई अगर कहता है। लेकिन होगा क्या? कई समझते हैं कि बाप तो अव्यक्त हो गया, व्यक्त में सामना करने वाले तो हम ही हैं। लेकिन आप भी अव्यक्त हो जाओ अर्थात् कोई भी सामने आये तो व्यक्त भाव की बात उन्हें दिखाई न दे या करने की हिम्मत न हो। औरों के भी व्यक्त भाव को मिटाने वाले अव्यक्त फरिश्ते बन जाओ। ऐसी अव्यक्त-स्थिति व वायुमण्डल अर्थात् पाण्डवों का किला बनाओ तो यह हलचल समाप्त हो जायेगी। बापदादा अन्त तक आपके साथ है और सदा बच्चों के ऊपर स्नेह और सहयोग की छत्र-छाया के समान हैं। इसलिये घबराओ मत। बैक-बोन बाप-दादा, सामना करने के लिए किसी भी व्यक्ति द्वारा, समय पर प्रत्यक्ष हो ही जायेंगे और अब भी हो रहे हैं। अच्छा।
ऐसे सदा हिम्मत और उल्लास में रहने वाले, हर परिस्थिति में श्रेष्ठ स्थिति मे रहने वाले, प्रकृति के सर्व आकर्षणों से परे रहने वाले, रूहानी बाप के रूहानी आकर्षण में रहने वाले, रूहानी आकर्षणमूर्त्त, सदा निश्चिन्त और निश्चय-बुद्धि, बाप के सदा साथी, सर्व के सदा स्नेही और सहयोगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
वरदान:- सदा हर कर्म में रूहानी नशे का अनुभव करने और कराने वाले खुशनसीब भव
संगमयुग पर आप बच्चे सबसे अधिक खुशनसीब हो, क्योंकि स्वयं भगवान ने आपको पसन्द कर लिया। बेहद के मालिक बन गये। भगवान की डिक्शनरी में “हू इज हू'' में आपका नाम है। बेहद का बाप मिला, बेहद का राज्य भाग्य मिला, बेहद का खजाना मिला ... यही नशा सदा रहे तो अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता रहेगा। यह है बेहद का रूहानी नशा, इसका अनुभव करते और कराते रहो तब कहेंगे खुशनसीब।
स्लोगन:- साधनों को सेवा के प्रति यूज़ करो - आरामपसन्द बनने के लिए नहीं।