09-03-08 प्रातः मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा” रिवाइज - 19-04-69 मधुबन
"संस्कारों का परिवर्तन करने के लिए शरीर से गायब होने का, बीजरूप स्थिति का अभ्यास बढ़ाओ"
बापदादा जब आते हैं तो हर एक में क्या देखते हैं? आप जब एक दो को देखते हो तो क्या देखते हो? (भाई-भाई) भाई-भाई के स्वरूप में कैसे देखते हो? किसको देखते हो? (आत्मा को देखते हैं साकार में) बापदादा क्या देखते हैं? बापदादा एक सेकेण्ड में बहुत कुछ देखते हैं। एक तो आत्मा की स्टेज देखते हैं। दूसरा सर्विस का चार्ट देखते हैं। तीसरा चाल-चलन, योग का भी चार्ट देखते हैं। चौथी बात क्या देखते हैं? भविष्य पद, हरेक क्या बनने वाला है। वह बाप दादा अभी से ही देखते हैं। आप भी यह 4 बातें देख सकते हो? आप जब एक दो को योग में बिठाते हो, तो आपको आत्मा की स्टेज का साक्षात्कार होता है? होना चाहिए। आप भी त्रिकालदर्शी कहलाते हो।
जिस समय याद के यात्रा की भट्ठी में सामने गद्दी पर बैठते हो, उस समय की क्या अवस्था होती है? चेक करना चाहिए कि आज सारे दिन में बिन्दी रूप की याद कितना समय थी? बिन्दी रूप और विचार सागर मंथन दोनों में से पॉवरफुल अवस्था कौन सी समझते हो? (बिन्दी रूप की) यह बिन्दी रूप की अवस्था ज्यादा समय रहे उसके लिए मुख्य साधन कौन सा है? (भिन्न-भिन्न विचार निकले) यह सब बातें तो ठीक हैं, लेकिन इसमें भी मुख्य बात है - जैसे आप लोगों को समझाते हो हर बात अपने समय पर करनी चाहिए। तुम्हारे पास कोई आकर कहते हैं, हमको ज्ञान सुनने का समय नहीं। गृहस्थ व्यवहार के झंझट बहुत हैं तो तुम उनको क्या उपाय बताते हो? यही समझाते हो कि गृहस्थ व्यवहार के समय वह कार्य करो और बाकी जो थोड़ा समय निकले उस समय यह ज्ञान लो। समय की तुम उनको पहचान देते हो और समय पर कर्तव्य करने की पहचान देते हो। ऐसे ही जो भी पुरुषार्थी हैं, उनको किस समय क्या करना चाहिए, समय और कर्तव्य की पहचान होनी चाहिए। जिस समय जो अवस्था होनी चाहिए वह रहनी चाहिए। जैसे योग में बैठते हो तो वह समय ऐसा है जब बीजरूप अवस्था में स्थित रह सकते हो। तो उस समय फिर विचार सागर मंथन करने की आवश्यकता नहीं हैं। विचार सागर मंथन तो चलते-फिरते, नहाते-खाते भी कर सकते हो। जैसे अव्यक्ति रूह रूहान का समय मुकरर है ना - अमृतवेले का। वैसे ही जब बैठते हो तो पहले बिन्दू रूप में समय लगाना चाहिए। फिर रूह रूहान में। जब देखो बिन्दू रूप की स्थिति जास्ती नहीं ठहर सकती है तो सेकेण्ड स्टेज रूह रूहान की पकड़ो। होता क्या है अव्यक्ति रूह रूहान या विचार सागर मंथन सहज है। वह तो झट करने लग जाते हो लेकिन बिन्दी रूप में स्थित होना मुश्किल है। इसलिए ध्यान कम देते हो। लेकिन होना बहुत जरूरी चाहिए। जैसे साकार रूप में भी दृष्टान्त देखा, बात करते समय, खाना खाते समय एक दो सेकेण्ड के लिए भी शरीर से गायब देखने आते थे। बात करते हुए अशरीरी, आत्मिक रूप देखते थे। यह बिन्दी स्वरूप की स्थिति में रहने का पुरूषार्थ था। आपका यह पुरूषार्थ कम है। इसलिए संस्कार नहीं बदलते हैं। संस्कारों का परिवर्तन कैसे हो? जब विकर्मों का बोझा हल्का होगा। संस्कारों को बदलने के लिए धारणा की क्लासेज तो बहुत होती हैं। एक दो में वर्णन भी बहुत करते हो लेकिन फिर भी संस्कार कहाँ बदलते हैं? संस्कार बदलने का साधन ही यह है। तो वर्तमाय समय इस बात पर भी ध्यान विशेष देना चाहिए। कम से कम सारे दिन में ऐसा विशेष समय अवश्य निकालना चाहिए। अपनी-अपनी दिनचर्या प्रमाण खास इस अभ्यास के लिए अपना समय निकालो। भल अव्यक्त स्थिति में रहने का पुरूषार्थ तो करते हो लेकिन अव्यक्ति स्थिति स्थाई रूप में तब होगी जब अशरीरी बिन्दी रूप का अभ्यास होगा। नहीं तो बार-बार व्यक्त भाव में आते हो। दूसरों को सुनाते हो - यह शरीर एक चोला है। तो जैसे इस चोले अर्थात् वस्त्र को जब चाहें तब पहनें, जब चाहें तब उतार भी सकते हैं। ऐसे प्रैक्टिस होनी चाहिए। शरीर का भान भूल भी जाएं और भान में आवें भी। जब ऐसी अवस्था होगी तब अन्त में धर्मराज की सजायें नहीं खायेंगे। नहीं तो संस्कार जो प्रबल चलता आता है, उन संस्कारों के कारण सजायें खानी पड़ेगी। अभी यह अभ्यास बहुत कम है। आप जो अभ्यास करते हो वह तब तक नहीं हो सकता जब तक आप पहले इस बिन्दी स्वरूप की स्थिति को पक्का न करो। इसलिए खास महारथियों को जो अष्ट-देवतायें बनते हैं, उन्हों को विशेष ध्यान रखना चाहिए। सिर्फ अष्ट ही धर्मराजपुरी से क्रास कर सजायें नहीं खायेंगे। सजायें न खाने का प्रयत्न यही है और जितना समय जो बिन्दू रूप में होगा उसके संस्कारों में चेन्ज देखने में आयेगी। तो संस्कार बदलने का मुख्य साधन यही है, इसके लिए समय और कर्तव्य का ध्यान। अपनी दिनचर्या को सेट करो। ऐसे ही समय जाता रहा तो सम्पूर्ण कब बनेंगे। जब कहते भी हो पुरुषार्थ का समय कम है तो मुख्य पुरुषार्थ तो अभी रहा हुआ है। यह जो आप लोगों ने सब बातें सुनाई - बिन्दू रूप में स्थित होने की। वह भी बिन्दू रूप होने में मददगार हैं। परन्तु उनमें मुख्य बात जो सुनाई - ब्रेक पॉवरफुल होनी चाहिए। कईयों की ब्रेक बहुत वीक है। जैसे गाड़ी की ब्रेक वीक होती है तो एक्सीडेंट हो जाता है। इसलिए ब्रेक पॉवरफुल होनी चाहिए। ड्रामा की प्वाइंट भी हर कर्तव्य में परिपक्व होनी चाहिए। यह सबजेक्ट कुछ कम देखने आती है। आपकी यादगार में तीसरा नेत्र दिखाया है, वह आत्मा की स्थिति स्थूल में देखने में आयेगी।
आज तो विशेष इस बात की रिजल्ट पर सुनाना था, वह सुनाया। ज्यादा से ज्यादा दो अढ़ाई घण्टे से ज्यादा किसी की भी रिजल्ट नहीं देखते। वह भी बहुत थोड़ों की और कभी-कभी रहती है। सदैव नहीं। अगर दो घण्टा भी सदैव रहें तो भी बहुत है। इस स्थिति में रहने से अर्न्तमुखता का गुण सहज ही आ जायेगा और न चाहते हुए भी उनको एकान्त अपनी तरफ खैंचेगी। काम करते समय भी ऐसे अनुभव करेंगे जैसे एकान्त खींच रही है। बात करते-करते भी ऐसी अवस्था का अनुभव कर सकते हो। लेकिन जब तक एकान्त में बैठने का अभ्यास नहीं होगा तो कर्म करते हुए यह अनुभव नहीं कर सकेंगे।
साकार रूप के सामने जब आप जाते हो तो एकान्त, अन्तरमुखता जैसे खैंचती हैं ना। कभी-कभी आप सुनाते भी थे कि ऐसे लगता है जैसे लाइट ही लाइट है। बात करते भी जैसे लाइट ही लाइट देखने आती है। यह बिन्दी रूप की स्थिति का प्रभाव है। आप लोगों से भी ऐसा अनुभव होना चाहिए, तब आपकी जीवन अलौकिक देखेंगे। बिन्दी रूप में फिर ज्ञान अन्दर मर्ज हो जाता है। जैसे सतयुगी देवताओं के लिए कहते हो ज्ञान इमर्ज रूप में नहीं होगा अर्थात् विस्तार नहीं होगा। बीज में विस्तार समाया हुआ होता है ना। तो बिन्दू रूप अर्थात् बीज रूप। बीज में सब मर्ज रहता है। फिर धरनी में बीज डालने से इमर्ज होता है। इसी रीति बिन्दू रूप में सब ज्ञान मर्ज रहता है। इमर्ज तब होता जब नीचे आते हो। बिन्दू रूप में वह भरपूर अवस्था रहती है। (यह तो जैसे समाधि मिसल हुआ) नहीं। यहाँ समाधि की बात तो है ही नहीं। उन्हों को ज्ञान कुछ भी नहीं है। वह निल की अवस्था है। यह निल नहीं। यह है ज्ञान स्वरूप हो जाना। आप मंथन करते हो, कुछ पाइंट को स्पष्ट करने के लिए वह सेकेण्ड स्टेज है। जैसे कोई साकार की बातों में ही रमण करते हैं, भल उनको भी योग कहेंगे। बापदादा की ही याद रहती है लेकिन परसेन्टेज कम कहेंगे। उनको भी स्मृति कहेंगे परन्तु बिन्दू रूप की स्थिति ज्यादा पॉवरफुल है। यह है प्रेम स्वरूप, स्नेह रूप दोनों में अन्तर है। उसमें कुछ विशेष पॉवर होती है। समाधि की निल अवस्था अलग है। उनका कोई लक्ष्य नहीं। इसमें तो प्राप्ति है। खुशी का, शीतलता का और सर्वगुण सम्पन्न का भी अनुभव होता है। भरपूरता की अवस्था है। जैसे बीज भरा हुआ होता है, खाली नहीं होता है। इस रीति यह अवस्था थोड़ा अभ्यास करेंगे फिर इस अनुभव को स्पष्ट समझते जायेंगे। फिर भी आपस में इस पर विचार करना। जिन्हों को विशेष अनुभव हो बिन्दी रूप में स्थित होने का उन्हें अपना अनुभव सुनाकर औरों को भी अनुभवी बनाने की कोशिश करनी है, परन्तु होगा तो फिर भी अपने ही अभ्यास करने से। अच्छा।
हरेक ने कितनी प्रजा बनाई है? जिसको जो काम करना होता है तो लक्ष्य रखने से वह प्लैन भी आ जाता है। एम रखो कि हमको ज्यादा से ज्यादा प्रजा थोड़े समय में बनानी है। लक्ष्मी नारायण की कितनी प्रजा होगी। तो उनके राज्य में नजदीक आने के लिए साथ रहने, साथ खेलने आदि के लिए फिर इतनी प्रजा बनानी है। कम प्रजा वाले छोटे राजा कहे जायेंगे। वह कभी-कभी दरबार में आयेंगे। नजदीक आना चाहिए ना। जैसे रोज़ का चार्ट देखना है, वैसे प्रजा बनाने का भी चार्ट रखना चाहिए। फिर जब मिलने आना तो ज्यादा से ज्यादा प्रजा बनाई हुई सामने देखें। ऐसा दिखायेंगे ना। प्रजा तो सबको बनानी है। अच्छा।
अतीन्द्रिय सुख में रहते हो? अतीन्द्रिय सुख का अर्थ क्या है? अव्यक्त स्थिति में रह ईश्वरीय सुख का अनुभव करना। पीछे आने वालों को और ही रेस करनी है। आगे जा सकते हो। माया भल कितना भी आये लेकिन हिलना नहीं है। हिम्मत रखते हैं तो मदद भी दैवी परिवार की मिलेगी लेकिन अपने पुरूषार्थ से हटना नहीं हैं। पुरूषार्थ दिन प्रतिदिन नया है या पुराना है? खुद भल पुराने होते जाएं लेकिन पुरूषार्थ नया होना चाहिए। अच्छा।
वरदान:- साधना और साधन के बैलेन्स द्वारा अपनी उन्नति करने वाले ब्लैसिंग के अधिकारी भव
साधनों को आधार बनाने के बजाए अपनी साधना के आधार से साधनों को कार्य में लगाओ। किसी भी साधन को उन्नति का आधार नहीं बनाओ, नहीं तो आधार हिलने के साथ उमंग उत्साह भी हिल जाता है क्योंकि साधन को आधार बनाने से बाप बीच से निकल जाता इसलिए हलचल होती है। साधनों के साथ साधना हो तो हर कार्य में बाप की ब्लैसिंग का अनुभव करेंगे, उमंग-उत्साह भी कम नहीं होगा।
स्लोगन:- "अगर-मगर" के चक्कर से न्यारे बनना है तो बाप समान शक्तिशाली बनो।