25-01-09 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 29-05-70 मधुबन
“समीप रत्नों की निशानियां”
समय कितना समीप पहुँचा हुआ दिखाई पड़ता है, हिसाब निकाल सकते हो? भविष्य लक्षण के साथ सम्पूर्ण स्वरूप का लक्षण भी सामने रहता है? समीप का लक्षण क्या होगा? जैसे कोई शरीर छोड़ने वाले होते हैं तो कई लोगों को मालूम पड़ता है। आप भी ऐसे अनुभव करेंगे कि यह शरीर जैसे कि अलग है। इसको हम धारण कर चला रहे हैं। समीप रत्न की समीप आने की निशानी यही होगी। सदैव अपना आकरी रूप और भविष्य रूप सामने देखते रहेंगे। प्रैक्टिकल में अनुभव होगा। लाइट का फ़रिश्ता स्वरूप सामने दिखाई देगा कि ऐसा बनना है और भविष्य रूप भी दिखाई देगा। अब यह छोड़ा और वह लिया। जब ऐसी अनुभूति हो तब समझो की सम्पूर्णता के समीप हैं। एक आँख में सम्पूर्ण स्वरुप और दूसरी आँख में भविष्य स्वरुप। ऐसा प्रत्यक्ष देखने में आएगा। जैसे अपना यह स्वरुप प्रत्यक्ष अनुभव होता है। बैठे-बैठे ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि यहाँ नहीं लेकिन उस सम्पूर्ण स्वरुप में बैठे हैं। यह पुरुषार्थी शरीर एकदम मर्ज हो जायेगा। वह दोनों इमर्ज होंगे। एक तरफ अव्यक्त दूसरी तरफ भविष्य। जब पहले ऐसा अनुभव आप लोग करेंगे तब दूसरों को भी अनुभव होगा। जैसे एक वस्त्र छोड़ कर दूसरा लिया जाता हैं। वैसे ही अनुभव करेंगे। यह मर्ज हो वह इमर्ज होगा। यह भूलता जायेगा। इस अवस्था में विल पॉवर भी होती है। जैसे विल किया जाता है ना! तो विल करने के बाद ऐसा अनुभव होता है जैसे मेरापन सभी ख़त्म हो गया। जिम्मेवारी उतर गयी। विल पॉवर भी आती है और यह भी अनुभव होता है जैसे सभी कुछ विल कर चुके। संकल्प सहित सब विल हो जाये। शरीर का भान छोड़ना और संकल्प तब बिल्कुल विल करना – यह है माईट। फिर समानता की अवस्था होगी। समानता वा सम्पूर्णता एक बात ही है। अभी यह चार्ट रखना है। वह चार्ट तो कॉमन है। यह 5 तत्त्वों का शरीर होते हुए भी लाइट स्वरुप अनुभव करेंगे। सुनाया था ना कि लाइट शब्द के अर्थ में भी अन्तर होता है। लाइट अर्थात् हल्कापन भी होता है और लाइट अर्थात् ज्योति भी कहा जाता है। बिल्कुल हल्कापन अर्थात् लाइट रूप हो चल रहे हैं, हम तो निमित्त हैं। अव्यक्त रूप में तो हर बात में मदद मिलती है। अच्छा।
दुसरी मुरली 07-06-70
“दिव्य मूर्त बनने की विधि”
नयनों द्वारा क्या देख रहे हैं? आप सभी भी नयनों द्वारा देख रहे हो। बापदादा भी नयनों का आधार ले देख रहे हैं। बापदादा क्या देखते हैं? आप सभी क्या देख रहे हैं? देख रहे हो वा देखते हुए भी नहीं देखते हो? क्या स्थिति है? बापदादा क्या देख रहे यही आप देख रहे हो? संकल्पों को कैच करने की प्रैक्टिस होगी तो संकल्प रहित भी सहज बन सकेंगे। ज्यादा संकल्प तब चलाना पड़ता है जब किसके संकल्प को परख नहीं सकते हैं। लेकिन हरेक के संकल्पों को रीड करने की प्रैक्टिस होगी तो व्यर्थ संकल्प ज्यादा नहीं चलेंगे। और सहज ही एक संकल्प में एकरस स्थिति में एक सेकंड में स्थित हो जायेंगे। तो संकल्पों को रीड करना – यह भी एक सम्पूर्णता की निशानी है। जितना-जितना अव्यक्त भाव में स्थित होंगे उतना हरेक के भाव को सहज समझ जायेंगे। एक दो के भाव को न समझने का कारण अव्यक्त भाव की कमी है। अव्यक्त स्थिति एक दर्पण है। जब आप अव्यक्त स्थिति में स्थित होते हो तो कोई भी व्यक्ति के भाव अव्यक्त स्थिति रूप दर्पण में बिल्कुल स्पष्ट देखने में आएगा। फिर मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। दर्पण को मेहनत नहीं करनी पड़ती है कोई के भाव को समझने में। जितनी-जितनी अव्यक्त स्थिति होती है, वह दर्पण साफ़ और शक्तिशाली होआ है। इतना ही बहुत सहज एक दो के भाव को स्पष्ट समझते हैं। अव्यक्त स्थिति रूप दर्पण को साफ़ और स्पष्ट करने के लिए तीन बातें आवश्यक है। उन तीन बातों से कोई एक बात भी सुनाओ (हरेक ने बताया) आज हरेक की सरलता, श्रेष्ठता और सहनशीलता यह तीन चीज़ें एक-एक की देख रहे हैं। इन तीनों बातों में से कोई एक भी ठीक रीति धारण है तो दर्पण स्पष्ट है। अगर एक भी बात की कमी है तो दर्पण पर भी कमी का दाग दिखाई पड़ेगा। इसलिए जो भी कार्य करते हो, हर कार्य में तीन बातें चेक करो। सभी प्रकार से सरलता भी हो, सहनशीलता भी हो और श्रेष्ठता भी हो। साधारणपन भी न हो। अभी कहाँ श्रेष्ठता के बजाय साधारण दिखाई पड़ती है। साधारणपन को श्रेष्ठता में बदली करो और हर कार्य में सहनशीलता को सामने रखो। और अपने चेहरे पर, वाणी पर सरलता को धारण करो। फिर देखो सर्विस वा कर्तव्य की सफलता कितनी श्रेष्ठ होती है। अभी तक कर्तव्य की रिजल्ट क्या देखने में आती है? प्लैन और प्रैक्टिकल में अंतर कितना है? अन्तर का कारण क्या है? तीनों ही रूप में अभी पूर्ण प्लेन नहीं हुए हो। स्मृति में भी प्लेन, वाणी में भी प्लेन होना चाहिए। कोई भी पुराने संस्कार का कहाँ दाग न हो और कर्म में भी प्लेन अर्थात् श्रेष्ठता। अगर प्लेन हो जायेंगे तो फिर प्लैन और प्रैक्टिकल एक हो जायेंगे। फिर सफलता प्लेन (एरोप्लेन) माफिक उड़ेगी। इसलिए हर बात में मनसा, वाचा कर्मणा और छोटी बात में भी सावधानी चाहिए। मन, वाणी कर्म में तो होना ही है लेकिन उसके साथ-साथ यह जो अलौकिक सम्बन्ध हैं उसमें भी प्लेन होंगे तो सर्विस की सफलता आप सभी के मस्तक पर सितारे के रूप में चमक पड़ेगी। फिर हरेक आप एक-एक को सफलता का सितारा देखेंगे। सुनाया था ना कि स्लोगन कौन सा याद रखो? सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। फिर तुमको कोई भी देखेंगे तो उनको दूर से दिव्यमूर्त देखने में आएंगे। साधारणमूर्त नहीं, लेकिन दिव्यमूर्त। आजकल बहुत सर्विस में बिजी हो। जो कुछ किया बहुत अच्छा किया। आगे के लिए सफलता को समीप लाओ। जितना-जितना एक दो के समीप आयेंगे उतना सफलता समीप आयेगी। एक दो के समीप अर्थात् संस्कारों के समीप। तब कोई भी सम्मेलन की सफलता होगी। जैसे समय समीप आ रहा है वैसे सभी समीप आ रहे हैं। लेकिन अब ऐसी समीपता में क्या भरना है? जितनी समीपता उतना एक दो को सम्मान देना। जितना एक दो को सम्मान देंगे उतना ही सारी विश्व आप सभी का सम्मान करेंगी सम्मान देने से सम्मान मिलेगा। देने से मिलता है न कि लेने से। कोई चीज़ लेने से मिलती है और कोई चीज़ देने से मिलती है। तो कोई को भी सम्मान देना गोया सर्व का सम्मान लेना है। और भाषा में भी परिवर्तन चाहिए। आज सभी सर्विसएबुल बैठे हैं ना तो इसलिए भविष्य के इशारे दे रहे हैं। कभी भी कोई का विचार स्पष्ट न हो तो भी ना कभी नहीं करनी चाहिए। शब्द सदैव हाँ निकलना चाहिए। जब यहाँ हाँ जी करेंगे तब वहाँ सतयुग में भी आपकी प्रजा इतना हाँ जी, हाँ जी करेगी। अगर यहाँ ही ना जी ना जी करेंगे तो वहाँ भी प्रजा दूर से ही प्रणाम करेगी। तो ना शब्द को निकाल देना है।
कोई भी बात हो पहले हाँ जी। हाँ जी कहना ही दूसरे के संस्कार को सरल बनाने का साधन है। समझा। सुनाया था वर्तमान समय जो कर्म कर रहे हो। वह भविष्य के लॉ बन रहे हैं। आप सभी का कर्म भविष्य का लॉ है। जो लॉ-मेकर्स होते हैं वह सोच-समझकर शब्द निकालते हैं। क्योंकि उनका एक-एक शब्द भविष्य के लिए लॉ बन जाता है। सभी के हर संकल्प भविष्य के लॉ बन रहे हैं। तो कितना ध्यान देना चाहिए! अभी तक एक बात को पकड़ते हैं तो विधान को छोड़ देते हैं। कब विधान को पकड़ते हैं तो विधि को छोड़ देते हैं। लेकिन विधि और विधान दोनों के साथ ही विधाता की याद आती हैं। अगर विधाता ही याद रहे तो विधि और विधान दोनों ही साथ स्मृति में रहेगा। लेकिन विधाता भूल जाता है तो एक चीज़ छूट जाती है। विधाता की याद में रहने से विधि और विधान दोनों साथ रहते हैं। विधाता को भूलने से कभी विधान छूट जाता है तो कभी विधि छूट जाती है। जब दोनों साथ रहेंगे तब सफलता गले का हार बन जाएगी। अच्छा। आज बहुत शिक्षा दी। यह स्नेह है। क्योंकि बापदादा समान बनाना चाहते हैं। समान बनाने का साधन स्नेह हुआ ना।
कुमारियों का पेपर तो अब लेना है। साहस को प्रत्यक्ष रूप में लाने के लिए साहस में बहुत-बहुत शक्ति भरनी है। अब कितनी शक्ति भरी है, वह पेपर लेंगे। अच्छा।
पार्टियों से:-
1 - सभी का पुरुषार्थ ठीक चल रहा है? किस नंबर का लक्ष्य रखा है? (फर्स्ट) फर्स्ट नंबर के लिए मालूम है क्या करना पड़ता है? फर्स्ट नंबर लेने के लिए विशेष फ़ास्ट रखना पड़ता है। फ़ास्ट के दो अर्थ होते हैं। एक फ़ास्ट व्रत को भी कहा जाता है। तो विशेष कौनसा व्रत रखना है?(पवित्रता का) यह व्रत तो कॉमन है। यह व्रत तो सभी रखते हैं। फर्स्ट आने के लिए विशेष व्रत रखना है कि एक बात दूसरा न कोई। हर बात में एक की ही स्मृति आये। जब यह फ़ास्ट रखेंगे तो फर्स्ट आ जायेंगे। दूसरा फ़ास्ट – जल्दी चलने को भी कहा जाता है अर्थात् तीव्र पुरुषार्थ।
महारथी उसको कहा जाता है जो सदैव माया पर विजय प्राप्त करे। माया को सदा के लिए विदाई दे दो। विघ्नों को हटाने की पूरी नॉलेज है? सर्वशक्तिमान के बच्चे मास्टर सर्वशक्तिमान हो। तो नॉलेज के आधार पर विघ्न हटाकर सदैव मगन अवस्था रहे। अगर विघ्न हटते नहीं हैं तो ज़रूर शक्ति प्राप्त करने में कमी है। नॉलेज ली है लेकिन उसको समाया नहीं है। नॉलेज को समाना अर्थात् स्वरुप बनना। जब समझ से कर्म होगा तो उसका फल सफलता अवश्य निकलेगी।
2 - तीव्र पुरुषार्थी के क्या लक्षण होते हैं? समझाया था ना कि फरमानबरदार किसको कहा जाता है? जिसका संकल्प भी बिगर फरमान के नहीं चलता। ऐसे फरमानबरदार को ही तीव्र पुरुषार्थी कहा जाता है। सर्वशक्तिमान बाप के बच्चे जो शक्तिमान हैं, उन्हों के आगे माया भी दूर से ही सलाम कर विदाई ले लेती है। वल्लभाचारी लोग अपने शिष्यों को छूने भी नहीं देते हैं। अछूत अगर छू लेता है तो स्नान किया जाता है। यहाँ भी ज्ञान स्नान कर ऐसी शक्ति धारण करो जो अछूत नजदीक न आयें। माया भी क्या है? अछूत।
3 - जितना जितना अपने को सर्विस के बन्धन में बांधते जायेंगे तो दूसरे बन्धन छूटते जायेंगे। आप ऐसे नहीं सोचो कि यह बन्धन छूटे तो सर्विस में लग जायें। ऐसे नहीं होगा। सर्विस करते रहो। बन्धन होते हुए भी अपने को सर्विस के बन्धन में जोड़ते जाओ। यह जोड़ना ही तोड़ना है। तोड़ने के बाद जोड़ना नहीं होता है। जितना जोड़ेंगे उतना ही टूटेगा। जितना अपने को सर्विस में सहयोगी बनायेंगे उतना ही प्रजा आपकी सहयोगी बनेगी। कोई भी कारण है तो उनको हल्का छोड़कर पहले सर्विस के मौके को आगे रखो। कर्तव्य को पहले रखना होता है। कारण होते रहेंगे। लेकिन कर्तव्य के बल से कारण ढीले पड़ जायेंगे।
4 - माताओं के जो संगठन बने हुए है उनमें घुस जाओ। मेम्बर बनने से फिर कइयों को आप समान बनाने का चांस मिलेगा। सम्पर्क में आने से ही चांस मिलेगा। अभी माताओं की संस्थाओं में आप लोगों का नाम बाला नहीं हुआ है। पहले गुप्त वेष में पांव रखो फिर वह तुम्हारे बन जायेंगे । भटकी हुई माताओं को राह बतानी है। तो फिर मातायें जो बिचारी सितम सहन करती हैं, उन्हों को भी आप बचा सकेंगे। कई मातायें सहारा चाहती हैं, उन्हों को सहारा मिल जायेगा । तो यह सर्विस कर कमाल कर दिखाओ फिर देखो कितने हैण्ड्स मिलते हैं। बहुत समय की यह बात प्रैक्टिकल में लानी है। जैसे वह एशलम (शरण) देते हैं ना। वह है अनाथ आश्रम। यह तो सनाथ आश्रम है। अच्छा।
वरदान:- सहज योग की साधना द्वारा साधनों पर विजय प्राप्त करने वाले प्रयोगी आत्मा भव
साधनों के होते, साधनों को प्रयोग में लाते योग की स्थिति डगमग न हो। योगी बन प्रयोग करना इसको कहते हैं न्यारा। होते हुए निमित्त मात्र, अनासक्त रूप से प्रयोग करो। अगर इच्छा होगी तो वह इच्छा अच्छा बनने नहीं देगी। मेहनत करने में ही समय बीत जायेगा। उस समय आप साधना में रहने का प्रयत्न करेंगे और साधन अपनी तरफ आकर्षित करेंगे इसलिए प्रयोगी आत्मा बन सहजयोग की साधना द्वारा साधनों के ऊपर अर्थात् प्रकृति पर विजयी बनो।
स्लोगन:- स्वयं सन्तुष्ट रह, सबको सन्तुष्ट करना ही सन्तुष्टमणि बनना है।