ओम् शान्ति।
मीठे-मीठे जीते जी मरने वाले बच्चों ने यह गीत सुना जो जीते जी कुर्बान गये हैं। सब
तो कुर्बान नहीं गये हैं। नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार जीते जी मरते हैं। जब कोई गोद
में लेते हैं या एडाप्ट करते हैं तो एक परिवार को छोड़कर दूसरे परिवार का बनते हैं।
बच्चे जानते हैं हम आसुरी परिवार से मरकर अभी ईश्वरीय परिवार के बने हैं। ईश्वर ने
आकर गोद में लिया है। अज्ञान काल में कोई ईश्वर की गोद नहीं लेते हैं। धर्म के गुरू
की गोद ले लेते हैं। जैसे वल्लभाचारी श्रीकृष्ण के मन्दिर में बच्चे को श्रीकृष्ण
की गोद में देते हैं। परन्तु वह तो है जड़ चित्र इसलिए फिर ब्राह्मण पुजारी गोद में
ले लेते हैं - वैष्णव बनाने के लिए। ऐसे गोद में तो बहुत लेते हैं। बच्चे जानते हैं
- बरोबर उनकी गोद लेते हैं जो होकर गये हैं। कोई क्राइस्ट की गोद लेते, कोई इब्राहम
की गोद लेते। कब होकर गये हैं, वह फिर कब आयेंगे - यह सिर्फ तुम बच्चे जानते हो। अभी
तुम जीते जी मरे हो। तुमको एक बाप की याद में रहना है। लौकिक बाप के बच्चे गोद में
आते हैं, बाप मर जाता है, बाकी बच्चे रह जाते हैं। यहाँ तुम ऐसे बाप की गोद में आये
हो जो बाप तुमको इस मृत्युलोक से अमरलोक में अथवा दुर्गति से सद्गति में ले जाने
वाला है। मनुष्य मात्र का सद्गति दाता एक ही है। ऐसे नहीं कि सद्गति सिर्फ तुमको
मिलती है। सद्गति तो सबको जरूर मिलती है परन्तु ड्रामा अनुसार किसको सतोप्रधान,
किसको सतो, किसको रजो, तमो सद्गति मिलती है। भल तमो में आते हैं तो भी पहले आने से
दु:ख नहीं भोगते। पहले सुख जरूर भोगना है। अन्त में तो सभी दु:ख भोगते हैं।
बाप कहते हैं कि सद्गति दाता पतित-पावन मैं एक ही हूँ। पहले-पहले जो आत्मायें आती
हैं वह सुख भोगती हैं फिर दु:ख में आती हैं। तुम भी नम्बरवार पुरुषार्थ अनुसार पहले
सतोप्रधान फिर सतो, रजो, तमो में आते हो। तुम भी नम्बरवार सद्गति को पाते हो। मुख्य
8 दाने गिने जाते हैं ना। अब तुम सब द्रोपदियां हो। बाप के बने हो तो बाप को कभी
छोड़ना नहीं है। परन्तु श्रीमत पर याद नहीं करते हैं तो फिर माया हाथ छुड़ा देती
है। गोद तो ली, शुरू में चलते आये। अच्छे-अच्छे बड़े मीठे बच्चे जिनको विजय माला
में तीन-चार नम्बर में रखते थे वह भी आश्चर्यवत् भागन्ती हो गये। यह भी इस संगमयुग
की रस्म-रिवाज है। आश्चर्यवत् सुनन्ती, कथन्ती, मरन्ती - यह होता रहेगा। कहेंगे
ड्रामा में इनका यह मौत था। बाप का बनकर फिर हाथ छोड़ा तो गोया मर गया। है तो भल इस
दुनिया में परन्तु जीते जी यहाँ से निकलकर आसुरी दुनिया में चला गया। कोई कारण तो
बनता है ना। भल कहेंगे ड्रामा! परन्तु श्रीमत पर न चलने से माया से हार खा लेते
हैं। तकदीर पर लकीर लग जाती है। ईश्वर का बनने से फिर होती है माया से लड़ाई। बाकी
देवताओं और असुरों की लड़ाई नहीं होती है। माया असुर है जो जीत पा लेती है।
अच्छा, अब बच्चे लिखते हैं कि राखी बन्धन के त्योहार पर क्या करें? हर त्योहार
पर तैयारियाँ तो करते हैं ना। रक्षाबन्धन पर्व के उपलक्ष्य में इनएडवांस जाकर राखी
बांधते हैं। इसका पूरा रहस्य भी बुद्धि में होना चाहिए। आगे तो ब्राह्मण-ब्राह्मणियां
राखी बांधते थे। अब यह रिवाज़ निकला है कि बहन भाई को राखी बांधती है। असल में
ब्राह्मण राखी बांधते थे क्योंकि ब्राह्मण जाति ऊंच, स्वच्छ गाई हुई है। ब्राह्मण
असुल संन्यासियों से भी ऊंच है। परन्तु ड्रामा अनुसार इस समय संन्यासी ऊंच बन गये
हैं। आगे ब्राह्मण राखी बांधते थे। फिर जन्माष्टमी पर वह राखी खोलते थे। जैसे
द्रोपदी के लिए कहते हैं कि जटायें खोल दी थी। ऋषि लोगों की जटायें भी हमेशा खुली
रहती हैं। पतिव्रता स्त्री होती है तो चोटी बांधती है। द्रोपदी ने खोल दिया था कि
जब तक हम अपना राज्य नहीं लेंगे तब तक चोटी नहीं करेंगे। अब तुम बच्चों को सिर्फ
अर्थ समझाया जाता है। जब तक हम स्वराज्य नहीं लेंगे तब तक सुख से सोयेंगे नहीं। गाते
हैं ना - आराम हराम है। अन्दर में यह जोश रहता है कि जब तक स्वराज्य नहीं लिया है
तब तक सुख कहाँ? सुख तो भविष्य में पाना है, इसके लिए पुरुषार्थ अब करना है। अब तुम
जानते हो रक्षा बन्धन अर्थात् पवित्र रहने के लिए हम प्रतिज्ञा करते हैं। राखी
अर्थात् प्रतिज्ञा की बात है। अब यह त्योहार कब से शुरू हुए? क्यों शुरू हुए? कौन
निकला जिसने राखी बंधन की राय निकाली? कोई एक राय निकालते हैं फिर उसका नाम बाला हो
जाता है। तो यह पवित्रता की निशानी है। बहन तो हुई कुमारी। कुमारियां बांधती हैं।
तुम गृहस्थी को भी जाकर बांधती हो। कुमार तो हैं ही कुमार। बहन भाई को बांधती हैं,
कुमार हो वा शादी किया हुआ हो। शादी किया हुआ फिर पवित्र रहे यह तो बड़ा मुश्किल
है। भगवान् कहते हैं कि यह अन्तिम जन्म पवित्र बनो तो भी नहीं बनते हैं। तो बहन
द्वारा कुमार भाई को राखी बांधनी चाहिए कि प्रतिज्ञा करो - हम कभी विष नहीं पियेंगे।
जो हैं ही विकारी वह तो कभी विकार को छोड़ेंगे नहीं। भगवान् का फ़रमान भी नहीं मानते
हैं। तो यह कुमार-कुमारियों की रस्म चली आती है। अब तुम समझते हो कि यह त्योहार भी
संगमयुग का है। सतयुग में तो हैं ही सब पवित्र। वहाँ राखी बांधने की दरकार ही नहीं।
ऐसे नहीं कि यह सतयुग से लेकर रिवाज चला आया है। उत्सव बहुत करके संगमयुग के हैं।
लक्ष्मी-नारायण का उत्सव भी अभी मनाते हैं परन्तु उनका महत्व नहीं। श्रीकृष्ण जयन्ती
मनाते हैं परन्तु पहले तो श्रीकृष्ण को ऐसा किसने बनाया - वह बताओ? बिचारों को
मालूम नहीं। यह भी क्लीयर कर लिखना है। उत्सव सब हैं इस समय के। सतयुग में ऐसी बात
होती नहीं। यह तो द्वापर में कुछ समय बाद फिर शुरू होते हैं। दीपमाला का उत्सव भी
सतयुग में नहीं मनाया जाता, जैसे यहाँ मनाते हैं। यहाँ मनाने का अर्थ दूसरा है।
उत्सव का महत्व कब का है - यह समझने की बात है। बच्चों को समझाया जाता है - यह
उत्सव इस समय के हैं जबकि शिव जयन्ती होती है। शिव जयन्ती के बाद फिर होती है राखी।
पवित्र बनने की प्रतिज्ञा करते हैं कि यह अन्तिम जन्म हम पवित्र बनेंगे - भारत को
अथवा विश्व को पवित्र बनाने के लिए।
तुम बच्चों के लिये इस रक्षाबन्धन का बड़ा महत्व है। प्रतिज्ञा की जाती है - हम
कभी पतित नहीं बनेंगे। अब तुम पावन बनते हो तो सिर्फ तुम पावन कुमारियों को ही हक
है राखी बांधने का। भाइयों को सदैव पवित्र रहने के लिए राखी बांधनी है और इन
गृहस्थियों से प्रतिज्ञा करानी है पवित्र रहने की। कहते हैं ना - पतित-पावन आओ। तो
जो गायन है वो ही प्रतिज्ञा कराते हैं - पतित से पावन बनो। बाप आकर प्रतिज्ञा कराते
हैं। शिव जयन्ती के बाद है रक्षाबन्धन। होली भी ज्ञान की है। धुरिया और होली - दोनों
इस समय के हैं। होली अर्थात् पवित्र बनो, धुरिया माना ज्ञान धारण करो। वह फिर पत्थर
ठिक्कर, गोबर आदि-आदि बनाकर क्या-क्या करते हैं! तो पतित-पावन बाप ही आकर बच्चों को
समझाते हैं।
जो जीते जी मरते हैं उनमें भी मातेले और सौतेले होते हैं। मातेले का हिसाब-किताब
जरूर बाप के पास होगा। बाप जरूर बच्चे की सब कारोबार, मिलकियत आदि को जानते होंगे।
मातेले वह हैं जिनका बाप से पूरा लॅव रहता है। मातेले भी नम्बरवार होते हैं। सौतेले
भी नम्बरवार हैं। कोई कपूत, कोई सपूत तो होते ही हैं। शिव जयन्ती भी संगमयुग पर होती
है। संगम को भी टाइम देना चाहिए। जैसे लीप मास कहते हैं फिर लीप सेन्चुरी 100 वर्ष
की। यह बहुत ऊंची है लीप सदी। 20वीं सदी कहते हैं ना। इनमें भी यह सदी, जिसमें बाप
आते हैं, इसको संगम सेन्चुरी कहेंगे। उथल-पुथल होने में टाइम लगता है। दीपमाला भी
यहाँ की है। तुम बच्चे जानते हो शिव जयन्ती के बाद फिर है पवित्रता की बात। शुरू से
लेकर पवित्रता पर झगड़ा चला आया है। पवित्रता के साथ ज्ञान और योग की होली-धुरिया
साथ-साथ है। बाप की याद भी अच्छी रीति चाहिए। ज्ञान का धुरिया भी चलता रहता है।
ज्ञान बरसात तुम पर होती ही रहेगी। पवित्रता पर ही झगड़ा चलता है। सब कहते हैं कि
यह कौन आया है जो कहते हैं घर-गृहस्थ में रहते पवित्र रहकर दिखाओ। संन्यासी तो खुद
घरबार छोड़ जाते हैं। गोपीचन्द राजा की भी कहानी है। उनसे पूछा गया - तुमने
राज्य-भाग्य क्यों छोड़ा? बोला - प्रभू-मिलन के लिए छोड़ा है। इस पर गीत भी
अच्छे-अच्छे गाते हैं। यहाँ तो गृहस्थ व्यवहार में रहकर पवित्र रहना है। पवित्रता
पर ही सारी खिटपिट होती है।
अब रक्षाबन्धन है पवित्र बनने-बनाने का यादगार पर्व। यहाँ देखो, छोटे-छोटे बच्चों
को भी साक्षात्कार होते हैं। अब छोटे बच्चे ने क्या भक्ति की? बाबा ने झट सबको
साक्षात्कार करा दिया, तो समझते थे जादू है। इसको कहा जाता है - शिवबाबा के चरित्र।
बैठे-बैठे गुम हो जाते थे - यह भी ड्रामा ही कहेंगे। एक-दो को देखा और ध्यान में चले
गये। यह सब चरित्र परमपिता परमात्मा के हैं, श्रीकृष्ण के नहीं। श्रीकृष्ण का नाम
ले सारी बदनामी की है। भागवत में क्या-क्या लिख दिया है! श्रीकृष्ण सतयुग का
प्रिन्स उसने चीर हरे....... यह किया....... ऐसे चरित्र तो गाये नहीं जाते। दुनिया
वाले समझते हैं बरोबर श्रीकृष्ण ने यह सब किया होगा। फिर कहते हैं कि श्रीकृष्ण के
शरीर में आत्मा आई होगी, जिसने ज्ञान सुनाया होगा। परन्तु ऐसे तो नहीं हो सकता। वह
तो प्रिन्स नामीग्रामी था फिर रथ दिखाते हैं। रथ में श्रीकृष्ण दिखाते हैं। घोड़े
गाड़ी पर बैठ पाठशाला चलाई जाती है क्या? यह है राजयोग की पाठशाला। कहाँ उन्होंने
युद्ध का मैदान दिखाया है और कहाँ तुम्हारी यह युद्ध! यह है माया पर जीत पाने की
युद्ध। तो तुम बच्चों को रक्षाबन्धन पर समझाना है। रक्षाबन्धन अर्थात् पतितों को
पावन बनाने के लिए स्वयं परमपिता परमात्मा आये हैं। तुम ब्रह्माकुमारियां हो जो गाई
हुई हो। कुमारी वह जो 21 कुल का उद्धार करे। संगम की ही बात है। फिर यह उत्सव सतयुग
आदि में नहीं चलता। राखी बंधन के बाद फिर है श्रीकृष्ण जयन्ती क्योंकि सतयुग में
पहला नम्बर जन्म है श्रीकृष्ण का। उनकी भी राजधानी है। वह इस समय प्रतिज्ञा करते
हैं - श्रीकृष्ण के कुल में जाने के लिए। यह राजयोग है। तुम नर से नारायण बनते हो।
लक्ष्मी-नारायण की जीवन कहानी है नहीं। बाप ने समझाया है राधे-कृष्ण सो
लक्ष्मी-नारायण की जीवन कहानी। श्रीकृष्ण का जन्म दिन मनाते हैं। अच्छा, नारायण
जयन्ती कहाँ? कारण होगा ना। न समझने कारण सारा खेल ही मुँझा दिया है। महत्व सारा यहाँ
का है। ऐसे भी मत समझो कि दीपमाला कोई सतयुग से शुरू होती है। सतयुग में तो है ही
पवित्र दुनिया। सभी की आत्मायें जगी हुई है। उत्सव सब इस समय के हैं। अभी तुम सबकी
बायोग्राफी को जानते हो। शिवबाबा स्वयं आकर के बच्चों को कहते हैं कि अब पवित्र बनो।
तुम आत्मायें मैली हो गई हो। संन्यासी तो कहते हैं आत्मा निर्लेप है इसलिए बहुत लोग
कह देते हैं अण्डा मछली आदि खाने में कोई हर्जा नहीं है। सबकी अपनी-अपनी रस्म-रिवाज
है ना। आगे काली पर मनुष्यों की बलि चढ़ाते थे। शिव को तो काला नहीं कहेंगे, न शंकर
को कहेंगे। हाँ, ब्रह्मा और विष्णु के दो रूप गोरे से काले बनते हैं। यह सब बाप बैठ
समझाते हैं। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) बाप से पूरा-पूरा लव रख मातेला बनना है। अपना पूरा समाचार बाप को देना
है। कभी भी कपूत नहीं बनना है।
2) रक्षा बन्धन का यथार्थ रहस्य बुद्धि में रख पवित्र जरूर बनना है। माया से कभी
हार नहीं खानी है। पवित्रता के बल से स्वराज्य लेने की प्रतिज्ञा करनी है।