26-10-08  प्रातः मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त बापदादा” रिवाइज़ - 26-01-70 मधुबन

 

“याद के यात्रा की सम्पूर्ण स्टेज”

 

बापदादा भी यहाँ बैठे हैं और आप भी बैठे हो। लेकिन बापदादा और आप में क्या अन्तर है? पहले भी साकार रूप में यहाँ बैठते थे लेकिन अब जब बैठते हैं तो क्या फील होता है? जैसे साकार रूप में बाप के लिए समझते थे कि लोन ले आये हैं। उसी समान अनुभव अभी होता है। अभी आते हैं मेहमान बनकर। यूं तो आप सभी भी अपने को मेहमान समझते हो। लेकिन आपके और बाप के समझने में फर्क है। मेहमान उसको कहा जाता है जो आता है और जाता है। अभी आते हैं फिर जाने के लिए। वह था बुद्धियोग का अनुभव, यह है प्रैक्टिकल अनुभव। दुसरे शरीर में प्रवेश हो कैसे कर्त्तव्य करना होता, यह अनुभव बाप के समान करना है। दिन प्रतिदिन तुम बच्चों की बहुत कुछ समान स्थिति होती जाएगी। आप लोग भी ऐसे अनुभव करेंगे। सचमुच जैसे लोन लिया हुआ है, कर्त्तव्य के लिए मेहमान हैं। जब तक अपने को मेहमान नहीं समझते हो तब तक न्यारी अवस्था नहीं हो सकती है। जो ज्यादा न्यारी अवस्था में रहते हैं, उनकी स्थिति में विशेषता क्या होती है? उनकी बोली से उनके चलन से उपराम स्थिति का औरों को अनुभव होगा। जितना ऊपर स्थिति जाएगी, उतना उपराम होते जायेंगे। शरीर में होते हुए भी उपराम अवस्था तक पहुंचना है। बिलकुल देह और देही अलग महसूस हो। उसको कहा जाता है याद के यात्रा की सम्पूर्ण स्टेज। वा योग की प्रैक्टिकल सिद्धि। बात करते-करते जैसे न्यारापन खींचे। बात सुनते भी जैसे कि सुनते नहीं। ऐसी भासना औरों को भी आये। ऐसी स्थिति की स्टेज को कर्मातीत अवस्था कहा जाता है। कर्मातीत अर्थात् देह के बंधन से मुक्त। कर्म कर रहे हैं लेकिन उनके कर्मों का खाता नहीं बनेगा जैसे कि न्यारे रहेंगे, कोई अटैचमेंट नहीं होगा। कर्म करनेवाला अलग और कर्म अलग हैं – ऐसे अनुभव दिन प्रतिदिन होता जायेगा। इस अवस्था में जास्ती बुद्धि चलाने की भी आवश्यकता नहीं है। संकल्प उठा और जो होना है वही होगा। ऐसी स्थिति में सभी को आना होगा। मूलवतन जाने के पहले वाया सूक्ष्मवतन जायेंगे। वहां सभी को आकर मिलना है फिर अपने घर चलकर फिर अपने राज्य में आ जायेंगे। जैसे साकार वतन में मेला हुआ वैसे ही सूक्ष्मवतन में होगा। वह फरिश्तों का मेला नजदीक है। कहानियाँ बताते हैं ना। फरिश्ते आपस में मिलते थे। रूह रूहों से बात करते थे। वही अनुभव करेंगे। तो जो कहानियाँ गाई हुई हैं उसका प्रैक्टिकल में अनुभव होगा। उसी मेले के दिनों का इंतज़ार है।

 

अभी सर्विस के निमित्त हैं। सभी कुछ भूले हुए बैठे हैं। उस अव्यक्त स्थिति में मन और तन व्यक्त देश में है। ऐसे अनुभव होता है? अच्छा-

 

अपने को कहाँ के निवासी समझते हो? परमधाम के निवासी समझते हो? यह कितना समय याद रहती है? यह एक ही बात याद रहे कि हम परमधाम निवासी आत्मा इस व्यक्त देश में ईश्वरीय कर्त्तव्य करने के निमित्त आये हुए हैं। मधुबन में आकर के विशेष कौन सा गुण लिया है? मधुबन का विशेष गुण है मधुरता। मधु अर्थात् मधुरता। स्नेही। जितना स्नेही होंगे उतना बेहद का वैराग्य होगा। यह है मधुबन का अर्थ। अति स्नेही और इतना ही बेहद की वैराग्य वृत्ति। अगर मधुबन के विशेष गुण जीवन में धारण करके जाएँ तो सहज ही सम्पूर्ण बन सकते हैं। फिर जो रूहानी टीचर्स बनना चाहिए तो नंबरवन की टीचर बन सकते हो। क्योंकि जैसी अपनी धारणा होगी वैसे औरों को अनुभव में ला सकेंगे। इन दोनों गुणों की अपने में धारणा करनी है। मधुबन की लकीर से बाहर निकलने के पहले अपने में पूरी रीति यह भरकर जाना। एक स्नेह से दूसरा बेहद की वैराग्य वृत्ति से कोई भी परिस्थितियों को सहज ही सामना करेंगे। सफलता के सितारे बनने के लिए यह दो गुण मुख्य मधुबन की सौगात ले जाना है। जैसे कहाँ भी जाना होता है तो वहां जाते ही पूछा जाता है कि यहाँ की विशेष चीज़ क्या हैं? जो प्रसिद्ध विशेष चीज़ होती है, वह ज़रूर साथ में ले जाते हैं। तो यहाँ मधुबन के दो विशेष गुण अपने साथ ले जाना। जैसे स्थूल मधु ले जाते हो ना। वैसे यह सूक्ष्म मधुरता की मधु ले जाना। फिर सफलता ही सफलता है। असफलता आपके जीवन से मिट जाएगी। सफलता का सितारा अपने मस्तक में चमकते हुए देखेंगे।

 

तुम सफलता के सितारे हो वा पुरुषार्थ के सितारे हो? क्या समझते हो? सफलता के सितारे हो? जैसा लक्ष्य होता है वैसा ही लक्षण होता है। अगर अब तक यही सोचते रहेंगे कि हम पुरुषार्थी हैं तो ऐसा समझने से अपनी कई छोटी-छोटी गलतियां माफ़ कर देते हो। समझते हो हम तो पुरुषार्थी हैं। इसलिए अब पुरुषार्थी नहीं लेकिन सफलता का स्वरूप बनना है। कहाँ तक पुरुषार्थ में रहेंगे। जब स्वयं सफलता स्वरूप बनेंगे तब दूसरी आत्माओं को भी सफलता का मार्ग बता सकेंगे। अगर खुद ही अंत तक पुरुषार्थी चलते रहेंगे तो संगम के प्रालब्ध का अनुभव कब करेंगे? क्या यह जीवन पुरुषार्थी ही रहेंगे? इस संगमयुग की प्रालब्ध प्रत्यक्ष रूप में नहीं प्राप्त करेंगे? संगम के पुरुषार्थ का फल क्या? (सफलता) तो सफलता स्वरूप भी निश्चय करने से सफलता होती रहेगी। जब यह समझेंगे कि मैं हूँ ही सफलता का सितारा तो असफलता कैसे आ सकती है। सर्वशक्तिवान की संतान कोई कार्य में असफल नहीं हो सकती। अपने मस्तक में विजय का सितारा देखते हो या देखेंगे? विजय तो निश्चित है ही ना। विजय अर्थात् सफलता। अभी समय बदल रहा है। जब समय बदल गया तो अपने पुरुषार्थ को भी बदलेंगे ना। अब बाप ने सफलता का रूप दिखला दिया तो बच्चे भी रूप में व्यक्त देह में होते सफलता का रूप नहीं दिखायेंगे। अपने को सदैव सफलता का मूर्त ही समझो। निश्चय को विजय कहा जाता है। जैसा विश्वास रखा जाता है वैसा ही कर्म होता है। निश्चय में कमी होती तो कर्म में भी कमी हो जाएगी। स्मृति शक्तिवान है तो स्थिति और कर्म भी शक्तिवान होंगे। इसलिए कभी भी अपनी स्मृति को कमज़ोर नहीं रखना। शक्तिदल और पाण्डव कब असफल हो सकते हैं क्या? अपनी कल्प पहले वाली बात याद है कि पाण्डवों ने क्या किया था? विजयी बने थे। तो अब अपने स्मृति को श्रेष्ठ बनाओ। अब संगम पर है विजय का तिलक फिर इस विजय के तिलक से राज तिलक मिलेगा। इस विजय के तिलक को कोई मिटा नहीं सकते। ऐसा निश्चय है? जो विजयी रत्न हैं उनकी हर बात में विजय ही विजय है। उनकी हार हो नहीं सकती। हार तो बहुत जन्म खाते रहे। अब आकर विजयी बनने बाद फिर हार क्यों? “विजय हमारी ही है” ऐसा एक बल एक भरोसा हो।

 

(बच्ची यदि ज्ञान में नहीं चलती है तो क्या करें?) अगर कोई इस मार्ग में नहीं चल सकते हैं तो शादी करनी ही पड़े। उन्हों की कमज़ोरी भी अपने ऊपर से मिटानी है। साक्षी हो मज़बूरी भी करना होता है। वह हुआ फर्ज़। लगन नहीं है। फर्ज़ पालन करते हैं। एक होता है लगन से करना, एक होता है निमित्त फर्ज़ निभाना। सभी आत्माओं का एक ही समय यह जन्म सिद्ध अधिकार लेने का पार्ट नहीं है। परिचय मिलना तो ज़रूर है, पहचानना भी है लेकिन कोई का पार्ट अभी है कोई का पीछे। बीजों में से कोई झट से फल देता है, कोई देरी से फल देता है। वैसे ही यहाँ भी हरेक का अपने समय पर पार्ट है, कोई देरी से फल देता है। वैसे ही यहाँ भी हरेक का अपने समय पर पार्ट है। फर्ज़ समझ करेंगे तो माया का मर्ज नहीं लगेगा। नहीं तो वायुमण्डल का असर लग सकता है। इसलिए फर्ज़ समझ करना है। फर्ज़ और मर्ज में सिर्फ एक बिंदी का फर्क है। लेकिन बिंदी रूप में न होने कारण फर्ज़ भी मर्ज हो जाता है। जो मददगार हैं उन्हों को मदद तो सदैव मिलती है। बाप की मदद हर कार्य में कैसे मिलती है यह अनुभव होता हैं? एक दो के विशेष गुण को देख एक दो को आगे रखना है। किसको आगे रखना यह भी अपने को आगे बढ़ाना है।

 

शिवजयंति पर आवाज़ फैलाना सहज होता है, जितनी हिम्मत हो उतना करो। क्योंकि फिर समय ऐसा आना है जो इस सर्विस के मौके भी कम मिलेंगे। इसलिए जितना कर सकते हो उतना करो। भूलें क्यों होती हैं? उसकी गहराई में जाना है। अंतर्मुख हो सोचना चाहिए यह भूल क्यों हुई? यह तो माया का रूप है। मैं तो रचयिता बाप का बच्चा हूँ। अपने साथ एकांत में ऐसे-ऐसे बात करो। उभारने की कोशिश करो। कहाँ भी जाना होता है तो अपना यादगार छोड़ना होता है और कुछ ले जाना होता है। तो मधुबन में विशेष कौन सा यादगार छोड़ा? एक-एक आत्मा के पास यह ईश्वरीय स्नेह और सहयोग का यादगार छोड़ना है। जितना एक दो के स्नेही सहयोगी बनते हैं उतना ही माया के विघ्न हटाने में सहयोग मिलता है। सहयोग देना अर्थात् सहयोग लेना। परिवार में आत्मिक स्नेह देना है और माया पर विजय पाने का सहयोग लेना है। यह लेन-देन का हिसाब ठीक रहता है। इस संगम समय पर ही अनेक जन्मों का सम्बन्ध जोड़ना है। स्नेह है सम्बन्ध जोड़ने का साधन। जैसे कपड़े सिलाई करने का साधन धागा होता है वैसे ही भविष्य सम्बन्ध जोड़ने का साधन है स्नेह रूपी धागा। जैसे यहाँ जोड़ेंगे वैसे वहां जुटा हुआ मिलेगा। जोड़ने का समय और स्थान यह है। ईश्वरीय स्नेह भी तब जुड़ सकता है जब अनेक के साथ स्नेह समाप्त हो जाता है। तो अब अनेक स्नेह समाप्त कर एक से स्नेह जोड़ना है। वह अनेक स्नेह भी परेशान करने वाले हैं। और यह एक स्नेह सदैव के लिए परिपक्व बनाने वाला है। अनेक तरफ से छोड़ना और एक तरफ जोड़ना है। बिना तोड़े कभी जुट नहीं सकता। अभी कमी को भी भर सकते हो। फिर भरने का समय खत्म। ऐसे समझ कर कदम को आगे बढ़ाना है।

 

सभी तीव्र पुरुषार्थी हो वा पुरुषार्थी हो? तीव्र पुरुषार्थी के मन के संकल्प में भी हार नहीं हो सकती है। ऐसी स्थिति बनानी है। जो संकल्प में भी माया से हार न हो। इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। वे शुद्ध संकल्पों में पहले से ही मन को बिजी रखेंगे तो और संकल्प नहीं आएंगे। पूरा भरा हुआ होगा तो एक बूंद भी जास्ती पड़ नहीं सकेगी, नहीं तो बह जायेगा। तो यही संकल्प मन में रहे जो व्यर्थ संकल्प आने का स्थान ही न हो। इतना अपने को बिजी रखो। मन को बिजी रखने के तरीके जो मिलते हैं, वह आप पूरे प्रयोग में नहीं लाते हो। इसलिए व्यर्थ संकल्प आ जाते हैं। एक तरफ बिजी रखने से दूसरा तरफ स्वयं छूट जाता है।

 

मंथन करने के लिए तो बहुत खज़ाना है। इसमें मन को बिजी रखना है। समय की रफ्तार तेज़ है वा आप लोगों के पुरुषार्थ की रफ्तार तेज़ है? अगर समय तेज़ चल रहा है और पुरुषार्थ ढीला है तो उसकी रिजल्ट क्या होगी? समय आगे निकल जायेगा और पुरुषार्थी रह जायेंगे। समय की गाड़ी छुट जाएगी। सवार होनेवाले रह जायेंगे। समय की कौन सी तेज़ी देखते हो? समय में बीती को बीती करने की तेज़ है। वही बात को समय फिर कब रिपीट करता है? तो पुरुषार्थ की जो भी कमियाँ हैं उसमें बीती को बीती समझ आगे हर सेकंड में उन्नति को लाते जाओ तो समय के समान तेज़ चल सकते हो। समय तो रचना है ना। रचना में यह गुण है तो रचयिता में भी होना चाहिए। ड्रामा क्रिएशन है तो क्रिएटर के बच्चे आप हो ना। तो क्रिएटर के बच्चे क्रिएशन से ढीले क्यों? इसलिए सिर्फ एक बात का ध्यान रहे कि जैसे ड्रामा में हर सेकंड अथवा जो बात बीती, जिस रूप से बीत गयी वह फिर से रिपीट नहीं होगी फिर रिपीट होगी 5000 वर्ष के बाद। वैसे ही कमजोरियों को बार-बार रिपीट करते हो? अगर यह कमज़ोरियां रिपीट न होने पाएं तो फिर पुरुषार्थ तेज़ हो जायेगा। जब कमज़ोरी समेटी जाती है तब कमज़ोरी की जगह पर शक्ति भर जाती है। अगर कमज़ोरियां रिपीट होती रहती हैं तो शक्ति नहीं भरती है। इसलिए जो बीता सो बीता, कमज़ोरी की बीती हुई बातें फिर संकल्प में भी नहीं आनी चाहिए। अगर संकल्प चलते हैं तो वाणी और कर्म में आ जाते हैं। संकल्प में ही खत्म कर देंगे तो वाणी कर्म में नहीं आयेंगे। फिर मन वाणी कर्म तीनों शक्तिशाली हो जायेंगे। बुरी चीज़ को सदैव फौरन ही फेंका जाता है। अच्छी चीज़ को प्रयोग किया जाता है तो बुरी बातों को ऐसे फेंको जैसे बुरी चीज़ को फेंका जाता है। फिर समय पुरुषार्थ से तेज़ नहीं जाएगा। समय का इंतज़ार आप करेंगे कि हम तो तैयार बैठे हैं। समय आये तो हम जाएँ। ऐसी स्थिति हो जाएगी। अगर अपनी तैयारी नहीं होती है तो फिर सोचा जाता है कि समय थोड़ा हमारे लिए रुक जाये। अच्छा।

 

वरदान:- श्रीमत प्रमाण जी हजूर कर, हजूर को हाज़िर अनुभव करने वाले सर्व प्राप्ति सम्पन्न भव

 

जो हर बात में बाप की श्रीमत प्रमाण “जी हजूर-जी हजूर” करते हैं, तो बच्चों का जी हजूर करना और बाप का बच्चों के आगे हाजिर हजूर होना। जब हजूर हाजिर हो गया तो किसी भी बात की कमी नहीं रहेगी, सदा सम्पन्न हो जायेंगे। दाता और भाग्यविधाता - दोनों की प्राप्तियों के भाग्य का सितारा मस्तक पर चमकने लगेगा।

 

स्लोगन:- परमात्म वर्से के अधिकारी बनकर रहो तो अधीनता आ नहीं सकती।