24-06-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "मातेश्वरी" रिवाइज: 19-02-57 मधुबन
मातेश्वरी जी के स्मृति दिवस पर सुनाने के लिए जगदम्बा सरस्वती जी के मधुर महावाक्य
"मुक्ति और जीवनमुक्ति की स्टेज"
ओम् शान्ति। मुक्ति और जीवनमुक्ति दोनों स्टेज अपनी-अपनी हैं। अब जब हम मुक्ति अक्षर कहते हैं तो मुक्ति का अर्थ है आत्मा शरीर के पार्ट से मुक्त है, गोया आत्मा का शरीर सहित इस सृष्टि पर पार्ट नहीं है। जब आत्मा का मनुष्य हस्ती में पार्ट नहीं है गोया आत्मा सुख दुःख से न्यारी, निराकारी दुनिया में है इसको ही मुक्ति की स्टेज कहते हैं। इसे कोई मुक्ति पद नहीं कहते और जो आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त है अर्थात् शरीर के पार्टधारी होते भी जो कर्मबन्धन से न्यारी है, उन्हों को जीवनमुक्त पद कहते हैं, यह सबसे ऊंची स्टेज है। वो है हमारी देवताई प्रालब्ध, इस ही जन्म में पुरुषार्थ करने से यह सतयुगी देवताई प्रालब्ध मिलती है वो है सबसे ऊंच पद परन्तु जो आत्मा पार्ट में नहीं है, उन्हों को पद कैसे कहें? जब आत्मा का स्टेज पर पार्ट नहीं है तो मुक्ति भी कोई पद नहीं है। अब इतने जो मनुष्य सम्प्रदाय हैं वो कोई सबके सब सतयुग में नहीं चलते क्योंकि वहाँ मनुष्य सम्प्रदाय कम रहती है। तो जो जितना प्रभु के साथ योग लगाए कर्मातीत बने हैं वो सतयुगी जीवनमुक्त देवी देवता पद पाते हैं। बाकी जो धर्मराज की सज़ायें खाकर कर्मबन्धन से मुक्त हो शुद्ध बन फिर पवित्र दुनिया अर्थात् मुक्तिधाम में जाते हैं, वह मुक्ति में हैं लेकिन मुक्तिधाम में कोई पद नहीं है, वह स्टेज तो बिगर पुरुषार्थ आपेही अपने समय पर मिल जाती है। जो मनुष्यों की चाहना द्वापर से लेकर कलियुग के अन्त तक उठती आई है कि हम जन्ममरण के चक्र में न आवें, वो आश अब पूर्ण होती है। मतलब तो सर्व आत्माओं को वाया मुक्तिधाम से पास अवश्य होना है।
2) सृष्टि की आदि ब्रह्मा सरस्वती से शुरू हुई
बहुत मनुष्य यह प्रश्न पूछते हैं कि सृष्टि की आदि कैसे हुई? वो तो इतना ही जानते हैं कि सृष्टि की आदि हमारे धर्म से ही हुई है। इब्राहिम वाले, इस्लाम वाले कहेंगे हमारे धर्म से सृष्टि शुरू हुई। क्रिश्चियन फिर अपने समय पर सृष्टि की आदि समझते हैं, बौद्धि फिर अपने धर्म से आदि समझते हैं और मुस्लिम कहेंगे हमारे धर्म से आदि हुई है और भारतवासी फिर अपने धर्म से आदि समझते हैं। फिर दिखलाते हैं सृष्टि के आदि में आदमी कैसे बनाये हैं? शुरू में पहले पहले हड्डियों से आदमी बनाया गया, फिर ऐसे दिखलाते हैं कि पहले हवा थी, फिर उनसे श्वांस बनाया गया, फिर लंग्स बनाई फिर मनुष्य बना। ऐसे ही पहला आदमी बना, बाद में सारी सृष्टि पैदा हुई। अब यह हैं मनुष्यों की सुनी सुनाई बातें परन्तु अपने को तो स्वयं परमात्मा बता रहे हैं कि असुल में सृष्टि कैसे पैदा हुई ? वास्तव में परमात्मा अनादि है तो यह सृष्टि भी अनादि है, उस अनादि सृष्टि की आदि भी परमात्मा द्वारा ही हुई। देखो, गीता में है भगवानुवाच जब मैं आता हूँ तो आसुरी दुनिया का विनाश कर दैवी दुनिया की स्थापना करता हूँ अर्थात् कलियुगी तमोगुणी अपवित्र आत्माओं को पवित्र बनाता हूँ। तो पहले पहले परमात्मा ने सृष्टि के आदि में ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तीन रूप रचे फिर ब्रह्मा और सरस्वती द्वारा दैवी दुनिया की स्थापना की। तो गोया सृष्टि की आदि ब्रह्मा से शुरू हुई, क्रिश्चियन जिस ब्रह्मा को एडम और सरस्वती को इव कहते हैं। और मुस्लिम में फिर आदम बीबी कहते हैं। अब वास्तव में यथार्थ बात यह है। परन्तु इस राज़ को न जानने के कारण एक ही ब्रह्मा को अलग-अलग नाम दे दिये हैं। जैसे परमात्मा को कोई गॉड कहते हैं, कोई अल्लाह कहते हैं परन्तु परमात्मा तो एक ठहरा, का फर्क है। यह सिर्फ भाषा
3) वास्तव में ज्ञान प्राप्त करना एक सेकेण्ड का काम है
वास्तव में ज्ञान प्राप्त करना तो एक ही सेकेण्ड का काम है परन्तु अगर मनुष्य एक सेकेण्ड में समझ जाएं तो उनके लिये एक ही सेकेण्ड लगता है सिर्फ अपने स्वधर्म को जान जावें कि मैं असुल में शान्त स्वरूप आत्मा हूँ और परमात्मा की संतान हूँ। अब यह समझना तो एक सेकण्ड की बात है परन्तु इसमें निश्चय करने में कोई हठयोग कोई जप तप कोई भी प्रकार का साधन करना, कोई जरूरत नहीं है बस, सिर्फ ओरीजनल अपने रूप को पकड़ो। बाकी हम जो इतना पुरुषार्थ कर रहे हैं वो किसके लिये? हमें अपनी प्रैक्टिकल जीवन को बनाना है, तो अपने को इस बॉडी कान्सेस से पूरा निकलना है। असुल में सोल कॉन्सेस रूप में स्थित होने वा इन दैवी गुणों को धारण करने में मेहनत अवश्य लगती है। इसमें हम हर समय, हर कदम पर सावधान रहते हैं, अब जितना हम माया से सावधान रहेंगे तो भल कितनी भी घटनायें सामने आयेंगी मगर हमारा सामना नहीं कर सकेगी। माया सामना तब करती है जब हम अपने आपको विस्मृत करते हैं, अब यह जो इतनी मार्जिन है सिर्फ प्रैक्टिकल लाइफ बनाने की। बाकी ज्ञान तो सेकण्ड की बात है।
4 ) यह ईश्वरीय ज्ञान कोई अपनी मत का ज्ञान नहीं है
यह अपना ईश्वरीय ज्ञान अपनी बुद्धि से नहीं निकाला हुआ है, न कोई अपनी समझ अथवा कल्पना है अथवा संकल्प है परन्तु यह ज्ञान सारी सृष्टि का जो रचयिता है उस द्वारा सुना हुआ ज्ञान है। और साथ-साथ सुनकर अनुभव और विवेक में जो लाया जाता है वो प्रैक्टिकल आपको सुना रहे हैं। अगर अपने विवेक की बात होती तो सिर्फ अपने पास चलती परन्तु यह तो परमात्मा द्वारा सुन विवेक से धारण करते हैं। जो बात धारण करते हैं वो जरूर जब विवेक और अनुभव में आती है तब अपनी मानी जाती है। यह बात भी इन द्वारा हम जान चुके हैं। तो परमात्मा की रचना क्या है? परमात्मा क्या है? बाकी कोई अपने संकल्प की बात नहीं है, अगर होती तो अपने मन में उत्पन्न होती, यह अपना संकल्प है इसलिए जो अपने को स्वयं परमात्मा द्वारा मुख्य धारणा योग्य जो प्वाइन्ट मिली हुई हैं वो है मुख्य योग लगाना परन्तु योग के पहले ज्ञान चाहिए। योग करने के लिये पहले ज्ञान क्यों कहते हैं? पहले सोचना, समझना और बाद में योग लगाना.. हमेशा ऐसे कहा जाता है पहले समझ चाहिए, नहीं तो उल्टा कर्म चलेगा इसलिए पहले ज्ञान जरूरी है। ज्ञान एक ऊंची स्टेज है जिसको जानने के लिए बुद्धि चाहिए क्योंकि ऊंचे ते ऊंचा परमात्मा हमको पढ़ाता है।
5) इस ज्ञान की रिजल्ट एक तरफ तोड़ना दूसरे तरफ जोड़ना
यह ईश्वरीय ज्ञान एक तरफ तोड़ना दूसरे तरफ जोड़ना सिखाता है। एक परमात्मा के संग जोड़ो, जिस शुद्ध सम्बन्ध से हमारे ज्ञान की सीढ़ी आगे बढ़ेगी क्योंकि इसी समय आत्मा कर्मबन्धन वश हो गई है। वह आदि में कर्मबन्धन से रहित थी, बाद में कर्मबन्धन में आई और अब फिर से उनको अपने कर्मबन्धनों से छूटना है। अब अपने कर्मों की बंधायमानी भी न हो और कर्म करना अपने हाथ में रहे माना कर्म पर कन्ट्रोल हो तब ही कर्मों की बंधायमानी नहीं आयेगी, इसको ही जीवनमुक्ति कहते हैं। नहीं तो कर्मबन्धन में, चक्र में आने से सदाकाल के लिये जीवनमुक्ति नहीं मिलेगी। अब तो आत्मा से पॉवर निकल गई है और उनके कन्ट्रोल बिगर कर्म हो रहे हैं लेकिन कर्म आत्मा से होना चाहिए और आत्मा में जोर आना चाहिए और कर्मों को इस स्थिति में आना चाहिए जो कर्मों की बंधायमानी न रहे, नहीं तो मनुष्य दुःख सुख के लपेट में आ जाते हैं क्योंकि कर्म उन्हों को खींचता रहता है, आत्मा की शक्ति उस पॉवर में आती है, जो कर्मों के बंधायमानी में न आवे, यह है रिजल्ट। इन बातों को धारण करने से सहज हो जायेगा, इस क्लास का मकसद यही है। बाकी अपने को कोई वेद शास्त्र पढ़ डिग्री हांसिल नहीं करनी है, बल्कि इस ईश्वरीय ज्ञान से अपने को अपनी जीवन बनानी है जिस कारण ईश्वर से वो शक्ति लेनी है। अच्छा - मीठी माँ का मीठे-मीठे बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।
अव्यक्त महावाक्य
24-06-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 23-01-75 मधुबन
स्वमान की सीट पर सेट होकर कर्म करने वाला ही महान्
जैसे बापदादा के महत्व को अच्छी तरह से जानते हो वैसे ही इस संगमयुगी ब्राह्मण जन्म को व श्रेष्ठ आत्मा के अपने श्रेष्ठ पार्ट को इतना ही अच्छी रीति से जानते हो? जैसे बाप महान् है, वैसे ही बाप के साथ जिन आत्माओं का हर कदम व हर चरित्र के साथ सम्बन्ध व पार्ट है, वह भी महान् हैं। इस महानता को अच्छी रीति से जानते हुए हर कदम उठाने से हर कदम में पद्मों की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है क्योंकि सारा आधार स्मृति पर है। स्मृति सदा पॉवरफुल और महान् रहती है या कभी महान् और कभी साधारण रहती है? जो जैसा होता है, वैसा ही वह सदा स्वयं को स्वत: ही समझ कर चलता है। वह कभी स्मृति तथा कभी विस्मृति में नहीं आता। ऐसे ही जब आप उच्च ब्राह्मण हो, विश्व में सर्व श्रेष्ठ आत्माएँ हो और विशेष पार्टधारी हो, फिर अपने इस अन्तिम जन्म के इस रूप की, अपनी पोजीशन की व अपने ऑक्युपेशन की स्मृति कभी विशेष और कभी साधारण क्यों रहती है? बार-बार उतरना और चढ़ना क्यों होता है? क्या इसके कारण को समझते हो? जबकि निजी स्वरूप है और जन्म ही महान् है, तो अपने जीवन की और जन्म की महानता को भूलते क्यों हो? भूलना तब होता है जब कि पार्ट बजाने के लिये टेम्पोरेरी रूप बनाया जाता है। निजी रूप न होने के कारण बार-बार स्मृति-विस्मृति होती रहती है। यहाँ क्यों भूलना होता है? देह-अभिमान के कारण। देह अभिमान क्यों आता है? इन सब कारणों को तो बहुत समय से जानते हो न? जानते हुए भी निवारण नहीं कर पाते हो। इसका कारण शक्ति की कमी है या दृढ़ता नहीं है। यह भी बहुत समय से जानते हो, फिर भी निवारण क्यों नहीं कर पाते? वही बात बार-बार अनुभव में आने के कारण परिवर्तन करना तो सहज और सदाकाल के लिए होना चाहिए न।
जैसे लौकिक रीति में मालूम पड़ जाता है कि इस बात के कारण नुकसान होता है, रिजल्ट अच्छा नहीं निकलता है तो एक बार धोखा खाने के बाद स्वत: ही सम्भल जाते हैं न कि बार-बार धोखा खाते हैं? देह-अभिमान के कारण अथवा किसी भी कमजोरी के वशीभूत होने से परिणाम क्या होता है? - इस बात के अनेक बार अनुभवी हो चुके हो। अनुभवी होने के बाद फिर भी धोखा खाते हो, तो ऐसे को क्या कहा जायेगा? इससे सिद्ध होता है कि अपनी महानता को स्वयं ही सदा जानकर नहीं चलते हो। अपनी महानता को भूलते क्यों हो? कारण? - क्योंकि विघ्न-विनाशक, सर्व-परिस्थितियों को मिटाने वाले, स्व-स्थिति व पोजीशन के श्रेष्ठ स्थान और स्वमान की सीट जो बापदादा ने संगमयुग पर दी हुई है उस सीट पर सैट नहीं होते हो। अपनी सीट को छोड़कर बारबार नीचे आ जाते हो। सीट पर रहने से स्वमान भी स्वत: स्मृति में रहता है। लौकिक रीति भी कोई साधारण आत्मा को सीट मिल जाती है तो स्वमान ही बढ़ जाता है, उस नशे में स्वत: ही स्थित हो जाते हैं। ऐसे ही सदा अपनी सीट पर रहो तो स्वमान निरन्तर स्मृति में रहे, समझा?
सीट के नीचे आना अर्थात् स्मृति से नीचे विस्मृति में आना। ऊंची सीट पर सैट रहने की चेकिंग करो। सीट पर सेट होने से स्वत: ही वह संस्कार और कर्म परिवर्तन में आ ही जाते हैं। समझा? कमजोरी के बोल ब्राह्मणों की भाषा ही नहीं। शूद्रपन की भाषा को क्यों यूज़ (प्रयोग) करते हो? अपने देश और अपनी भाषा का नशा रहता है ना। अपनी भाषा को भूल दूसरे की भाषा क्यों बोलते हो? तो अब यह परिवर्तन करो। पहले चेक करो, फिर बोलो। सीट पर सैट होकर के फिर संकल्प व कर्म करो। इस सीट पर रहने से स्वत: ही महानता का वरदान प्राप्त हो जाता है। तो वरदानी सीट को छोड़कर के मेहनत क्यों करते हो? मेहनत करते-करते फिर थक भी जाते हो और दिलशिकस्त हो जाते हो। इसलिये अब सहज साधन अपनाओ। अच्छा।
वरदान:- निर्मानता द्वारा नव निर्माण करने वाले निराशा और अभिमान से मुक्त भव
कभी भी पुरूषार्थ में निराश नहीं बनो। करना ही है, होना ही है, विजय माला मेरा ही यादगार है, इस स्मृति से विजयी बनो। एक सेकण्ड वा मिनट के लिए भी निराशा को अपने अन्दर स्थान न दो। अभिमान और निराशा - यह दोनों महाबलवान बनने नहीं देते हैं। अभिमान वालों को अपमान की फीलिंग बहुत आती है, इसलिए इन दोनों बातों से मुक्त बन निर्मान बनो तो नव निर्माण का कार्य करते रहेंगे।
स्लोगन:- विश्व सेवा के तख्तनशीन बनो तो राज्य तख्तनशीन बन जायेंगे।