12-06-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 14.10.87 "बापदादा" मधुबन
ब्राह्मण जीवन - बाप से
सर्व सम्बन्ध अनुभव करने का जीवन
आज बापदादा अपने अनेक
बार मिलन मनाने वाले, अनेक कल्पों से मिलने वाले बच्चों से फिर मिलन मनाने आये हैं।
यह अलौकिक, अव्यक्ति मिलन भविष्य स्वर्ण युग में भी नहीं हो सकता। सिर्फ इस समय इस
विशेष युग को वरदान है - बाप और बच्चों के मिलने का। इसलिए इस युग का नाम ही है
संगमयुग अर्थात् मिलन मनाने का युग। ऐसे युग में ऐसा श्रेष्ठ मिलन मनाने के विशेष
पार्टधारी आप आत्मायें हो। बापदादा भी ऐसे कोटों में कोई श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं
को देख हर्षित होते हैं और स्मृति दिलाते हैं। आदि से अन्त तक कितनी स्मृतियाँ
दिलाई हैं? याद करो तो लम्बी लिस्ट निकल आयेगी। इतनी स्मृतियाँ दिलाई हैं जो आप सभी
स्मृति-स्वरूप बन गये हो। भक्ति में आप स्मृति-स्वरूप आत्माओं के यादगार रूप में
भक्त भी हर समय सिमरण करते रहते हैं। आप स्मृतिस्वरूप आत्माओं के हर कर्म की विशेषता
का सिमरण करते रहते हैं। भक्ति की विशेषता ही सिमरण अर्थात् कीर्तन करना है। सिमरण
करतेकरते मस्ती में कितना मग्न हो जाते हैं। अल्पकाल के लिए उन्हों को भी, और कोई
सुध-बुध नहीं रहती। सिमरण करते-करते उसमें खो जाते हैं अर्थात् लवलीन हो जाते हैं।
यह अल्पकाल का अनुभव उन आत्माओं के लिए कितना प्यारा और न्यारा होता है! यह क्यों
होता? क्योंकि जिन आत्माओं का सिमरण करते हैं, यह आत्मायें स्वयं भी बाप के स्नेह
में सदा लवलीन रही हैं, बाप की सर्व प्राप्तियों में सदा खोई हुई रही हैं। इसलिए,
ऐसी आत्माओं का सिमरण करने से भी उन भक्तों को अल्पकाल के लिए आप वरदानी आत्माओं
द्वारा अंचली रूप में अनुभूति प्राप्त हो जाती है। तो सोचो, जब सिमरण करने वाली
भक्त आत्माओं को भी इतना अलौकिक अनुभव होता है तो आप स्मृति-स्वरूप, वरदाता, विधाता
आत्माओं को कितना प्रैक्टिकल जीवन में अनुभव प्राप्त होता है! इसी अनुभूतियों में
सदा आगे बढ़ते चलो।
हर कदम में
भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते चलो। जैसा समय, जैसा कर्म वैसे स्वरूप की
स्मृति इमर्ज (प्रत्यक्ष) रूप में अनुभव करो। जैसे, अमृतवेले दिल का आरम्भ होते बाप
से मिलन मनाते - मास्टर वरदाता बन वरदाता से वरदान लेने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ,
डायरेक्ट भाग्यविधाता द्वारा भाग्य प्राप्त करने वाली पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ
- इस श्रेष्ठ स्वरूप को स्मृति में लाओ। वरदानी समय है, वरदाता विधाता साथ में है।
मास्टर वरदानी बन स्वयं भी सम्पन्न बन रहे हो और अन्य आत्माओं को भी वरदान दिलाने
वाले वरदानी आत्मा हो - इस स्मृति-स्वरूप को इमर्ज करो। ऐसे नहीं कि यह तो हूँ ही।
लेकिन भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप को समय प्रमाण अनुभव करो तो बहुत विचित्र खुशी,
विचित्र प्राप्तियों का भण्डार बन जायेंगे और सदैव दिल से प्राप्ति के गीत स्वत: ही
अनहद शब्द के रूप में निकलता रहेगा - ‘‘पाना था सो पा लिया...''। इसी प्रकार
भिन्न-भिन्न समय और कर्म प्रमाण स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते जाओ। मुरली सुनते हो
तो यह स्मृति रहे कि गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ (ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन) अर्थात् भगवान
का विद्यार्थी हूँ, स्वयं भगवान मेरे लिए परमधाम से पढ़ाने लिए आये हैं। यही विशेष
प्राप्ति है जो स्वयं भगवान आता है। इसी स्मृति-स्वरूप से जब मुरली सुनते हैं तो
कितना नशा होता! अगर साधारण रीति से नियम प्रमाण सुनाने वाला सुना रहा है और सुनने
वाला सुन रहा है तो इतना नशा अनुभव नहीं होगा। लेकिन भगवान के हम विद्यार्थी है -
इस स्मृति को स्वरूप में लाकर फिर सुनो, तब अलौकिक नशे का अनुभव होगा। समझा?
भिन्न-भिन्न समय के
भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभव में कितना नशा होगा! ऐसे सारे दिन के हर कर्म
में बाप के साथ स्मृति-स्वरूप बनते चलो - कभी भगवान का सखा वा साथी रूप का, कभी
जीवन-साथी रूप का, कभी भगवान मेरा मुरब्बी बच्चा है अर्थात् पहला-पहला हकदार, पहला
वारिस है। कोई ऐसा बहुत सुन्दर और बहुत लायक बच्चा बाप का होता है तो माँ-बाप को
कितना नशा रहता है कि मेरा बच्चा कुल दीपक है वा कुल का नाम बाला करने वाला है!
जिसका भगवान बच्चा बन जाए, उसका नाम कितना बाला होगा! उसके कितने कुल का कल्याण होगा!
तो जब कभी दुनिया के वातावरण से या भिन्नभिन्न समस्याओं से थोड़ा भी अपने को अकेला
वा उदास अनुभव करो तो ऐसे सुन्दर बच्चे रूप से खेलो, सखा रूप में खेलो। कभी थक जाते
हो तो माँ के रूप में गोदी में सो जाओ, समा जाओ। कभी दिलशिकस्त हो जाते हो तो
सर्वशक्तिवान स्वरूप से मास्टर सर्वशक्तिवान के स्मृति-स्वरूप का अनुभव करो - तो
दिलशिकस्त से दिलखुश हो जायेंगे। भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से,
भिन्न-भिन्न अपने स्वरूप के स्मृति को इमर्ज रूप में अनुभव करो तो बाप का सदा साथ
स्वत: ही अनुभव करेंगे और यह संगमयुग की ब्राह्मण जीवन सदा ही अमूल्य अनुभव होती
रहेगी।
और बात - कि इतने
सर्व सम्बन्ध निभाने में इतने बिजी रहेंगे जो माया को आने की भी फुर्सत नहीं मिलेगी।
जैसे लौकिक बड़ी प्रवृत्ति वाले सदैव यही कहते कि प्रवृत्ति को सम्भालने में इतने
बिजी रहते हैं जो और कोई बात याद ही नहीं रहती है क्योंकि बहुत बड़ी प्रवृत्ति है।
तो आप ब्राह्मण आत्माओं की प्रभु से प्रीत निभाने की प्रभु-प्रवृत्ति कितनी बड़ी है!
आपकी प्रभु-प्रीत की प्रवृत्ति सोते हुए भी चलती है! अगर योगानिंद्रा में हो तो आपकी
निंद्रा नहीं लेकिन ‘योगानिंद्रा' है। नींद में भी प्रभु-मिलन मना सकते हो। योग का
अर्थ ही है मिलन। योगानिंद्रा अर्थात् अशरीरी की स्थिति की अनुभूति। तो यह भी
प्रभु-प्रीत है ना। तो आप जैसी बड़े ते बड़ी प्रवृत्ति किसकी भी नहीं है! एक सेकण्ड
भी आपको फुर्सत नहीं है। क्योंकि भक्ति में भक्त के रूप में भी गीत गाते रहते थे कि
बहुत दिनों से प्रभु आप मिले हो, तो गिन-गिन के हिसाब पूरा लेंगे। तो एक-एक सेकण्ड
का हिसाब लेने वाले हो। सारे कल्प के मिलने का हिसाब इस छोटे से एक जन्म में पूरा
करते हो। पाँच हजार वर्ष के हिसाब से यह छोटा-सा जन्म कुछ दिनों के हिसाब में हुआ
ना। तो थोड़े से दिनों में इतना लम्बे समय का हिसाब पूरा करना है, इसलिए कहते हैं
श्वांस-श्वांस सिमरो। भक्त सिमरण करते हैं, आप स्मृतिस्व रूप बनते हो। तो आपको
सेकण्ड भी फुर्सत है? कितनी बड़ी प्रवृत्ति है! इसी प्रवृत्ति के आगे वह छोटी-सी
प्रवृत्ति आकर्षित नहीं करेगी और सहज, स्वत: ही देह सहित देह के सम्बन्ध और देह के
पदार्थ वा प्राप्तियों से नष्टोमोहा, स्मृतिस्व रूप हो जायेंगे। यही लास्ट पेपर माला
के नम्बरवार मणके बनायेगा।
जब अमृतवेले से
योगानिंद्रा तक भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभवी हो जायेंगे तो बहुतकाल के
स्मृति-स्वरूप का अनुभव अन्त में स्मृति-स्वरूप के क्वेश्चन में पास विद् आनर बना
देगा। बहुत रमणीक जीवन का अनुभव करेंगे। क्योंकि जीवन में हर एक मनुष्य आत्मा की
पसन्दी ‘वैराइटी हो'- यही चाहते हैं। तो यह सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्ध,
भिन्नभिन्न स्वरूप की वैराइटी अनुभव करो। जैसे दुनिया में भी कहते हैं ना - बाप तो
चाहिए ही लेकिन बाप के साथ अगर जीवन-साथी का अनुभव न हो तो भी जीवन अधूरी समझते
हैं, बच्चा न हो तो भी अधूरी जीवन समझते हैं। हर सम्बन्ध को ही सम्पन्न जीवन समझते
हैं। तो यह ब्राह्मण जीवन भगवान से सर्व सम्बन्ध अनुभव करने वाली सम्पन्न जीवन है!
एक भी सम्बन्ध की कमी नहीं करना। एक सम्बन्ध भी भगवान से कम होगा, कोई न कोई आत्मा
उस सम्बन्ध से अपने तरफ खींच लेगी। जैसे, कई बच्चे कभी-कभी कहते हैं बाप के रूप में
तो है ही लेकिन सखा व सखी अथवा मित्र का तो छोटा-सा रूप है ना, उसके लिए तो आत्मायें
चाहिए क्योंकि बाप तो बड़ा है ना। लेकिन परमात्मा के सम्बन्ध के बीच कोई भी छोटा या
हल्का आत्मा का सम्बन्ध मिक्स हो जाता तो ‘सर्व' शब्द समाप्त हो जाता है और यथाशक्ति
की लाइन में आ जाते हैं। ब्राह्मणों की भाषा में हर बात में ‘सर्व' शब्द आता है। जहाँ
‘सर्व' है, वहाँ ही सम्पन्नता है। अगर दो कला भी कम हो गई तो दूसरी माला के मणके बन
जाते। इसलिए, सर्व सम्बन्धों के सर्व स्मृति-स्वरूप बनो। समझा? जब भगवान खुद सर्व
सम्बन्ध का अनुभव कराने की आफर कर रहा है तो आफरीन लेना चाहिए ना। ऐसी गोल्डन आफर
सिवाए भगवान के और इस समय के, न कभी और न कोई कर सकता। कोई बाप भी बने और बच्चा भी
बने - यह हो सकता है? यह एक की ही महिमा है, एक की ही महानता है। इसलिए सर्व
सम्बन्ध से स्मृति-स्वरूप बनना है। इसमें मजा है ना? ब्राह्मण जीवन किसलिए है? मजे
में वा मौज में रहने के लिए। तो यह अलौकिक मौज मनाओ। मजे की जीवन अनुभव करो। अच्छा।
(अहमदाबाद वाले
हंसमुख भाई ने शरीर छोड़ा है। उनका अन्तिम संस्कार करके दादी जानकी व मुख्य भाई-बहन
अहमदाबाद से आए पहुँचे हैं।)
बच्चे सेवा करके आये
हैं। जब जानते हैं कि यह सब होना ही है तो मौज से रहेंगे ना, मूँझेंगे थोड़े ही। यह
भी जो जिस संस्कार से जाते हैं, उसकी अर्थी भी वही कार्य करती है। सेवा के उमंग वाले
की अन्त तक भी सेवा ही होती रहती है। अज्ञानी लोग सारा जीवन रोते रहते तो अन्त में
और भी रोते हैं। यहाँ ब्राह्मण जीवन में सेवा में रहते तो अन्त तक सेवा का साधन बन
जाता है। फर्क है ना। आप लोग वहाँ कोई अर्थी को देखने नहीं गये, सेवा करने गये ना।
चारो तरफ सेवा का वातावरण रहा ना। ब्राह्मण जीवन है ही सेवा के लिए। इसलिए हर बात
में सच्चे ब्राह्मण सेवाधारी की सेवा ही होती रहती। ऐसी आत्मा को अगर कोई याद भी
करेगा तो उनकी सेवा ही सामने आयेगी। मंजुला (हंसमुख भाई की युगल) तो है ही शिव शक्ति।
अच्छा।
आज देहली दरबार वाले
हैं। राज्य दरबार वाले हो या दरबार में सिर्फ देखने वाले हो? दरबार में राज्य करने
वाले और देखने वाले - दोनों ही बैठते हैं। आप सब कौन हो? देहली की दो विशेषतायें
हैं। एक - देहली दिलाराम की दिल है, दूसरी - गद्दी का स्थान है। दिल है तो दिल में
कौन रहेगा? दिलाराम। तो देहली निवासी अर्थात् दिल में सदा दिलाराम को रखने वाले। ऐसे
अनुभवी आत्मायें और अभी से स्वराज्य अधिकारी सो भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी।
दिल में जब दिलाराम है तो राज्य अधिकारी अभी हैं और सदा रहेंगे। तो सदा अपनी जीवन
में देखो कि यह दोनों विशेषतायें हैं? दिल में दिलाराम और फिर अधिकारी भी। ऐसे
गोल्डन चांस, गोल्डन से भी डायमण्ड चांस लेने वाले कितने भाग्यवान हो! अच्छा।
अभी तो बेहद सेवा का
बहुत अच्छा साधन मिला है - चाहे देश में, चाहे विदेश में। जैसे नाम है, वैसे ही
सुन्दर कार्य है! नाम सुन करके ही सभी को उमंग आ रहा है - ‘‘सर्व के स्नेह, सहयोग
से सुखमय संसार''! यह तो लम्बा कार्य है, एक वर्ष से भी अधिक है। तो जैसे कार्य का
नाम सुनते ही सभी को उमंग आता है, ऐसे ही कार्य भी उमंग से करेंगे। जैसे नाम सुनकर
खुश हो रहे हैं, वैसे कार्य होते सदा खुश हो जायेंगे। यह भी सुनाया ना प्रत्यक्षता
का पर्दा हिलने का अथवा पर्दा खुलने का आधार बना है और बनता रहेगा। सर्व के सहयोगी
- जैसे कार्य का नाम है, वैसे ही स्वरूप बन सहज कार्य करते रहेंगे तो मेहनत निमित्त
मात्र और सफलता पद्मगुणा अनुभव करते रहेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि करावनहार
निमित्त बनाए करा रहा है। मैं कर रहा हूँ - नहीं। इससे सहयोगी नहीं बनेंगे।
करावनहार करा रहा है। चलाने वाला कार्य को चला रहा है। जैसे आप सभी को जगदम्बा का
स्लोगन याद है - ‘हुक्मी हुक्म चलायें रहा'। यही स्लोगन सदा स्मृति-स्वरूप में लाते
सफलता को प्राप्त होते रहेंगे। बाकी चारों ओर उमंग-उत्साह अच्छा है। जहाँ
उमंग-उत्साह है वहाँ सफलता स्वयं समीप आकर गले की माला बन जाती है। यह विशाल कार्य
अनेक आत्माओं को सहयोगी बनाए समीप लायेगा। क्योंकि प्रत्यक्षता का पर्दा खुलने के
बाद इस विशाल स्टेज पर हर वर्ग वाला पार्टधारी स्टेज पर प्रत्यक्ष होना चाहिए। हर
वर्ग का अर्थ ही है - विश्व की सर्व आत्माओं के वैराइटी वृक्ष का संगठन रूप। कोई भी
वर्ग रह न जाए जो उल्हना दे कि हमें तो सन्देश नहीं मिला। इसलिए, नेता से लेकर
झुग्गी-झोंपड़ी तक वर्ग है। पढ़े हुए सबसे टॉप साइंसदान और फिर जो अनपढ़ हैं, उन्हों
को भी यह ज्ञान की नॉलेज देना, यह भी सेवा है। तो सभी वर्ग अर्थात् विश्व की हर
आत्मा को सन्देश पहुँचाना है। कितना बड़ा कार्य है! यह कोई कह नहीं सकता कि हमको तो
सेवा का चान्स नहीं मिलता। चाहे कोई बीमार है; तो बीमार, बीमार की सेवा करो; अनपढ़,
अनपढ़ों की सेवा करो। जो भी कर सकते, वह चांस है। अच्छा, बोल नहीं सकते तो मन्सा
वायुमण्डल से सुख की वृत्ति, सुखमय स्थिति से सुखमय संसार बनाओ। कोई भी बहाना नहीं
दे सकता कि मैं नहीं कर सकता, समय नहीं है। उठते-बैठते 10-10 मिनट सेवा करो। अंगुली
तो देंगे ना? कहाँ नहीं जा सकते हो, तबियत ठीक नहीं है तो घर बैठे करो लेकिन सहयोगी
बनना जरूर है, तब सर्व का सहयोग मिलेगा। अच्छा।
उमंग-उत्साह देख
बापदादा भी खुश होते हैं। सभी के मन में लग्न है कि अब प्रत्यक्षता का पर्दा खोल के
दिखायें। आरम्भ तो हुआ है ना। तो फिर सहज होता जायेगा। विदेश वाले बच्चों के
प्लैन्स भी बापदादा तक पहुँचते रहते हैं। स्वयं भी उमंग में हैं और सर्व का सहयोग
भी उमंग-उत्साह से मिलता रहता है। उमंग को उमंग, उत्साह को उत्साह मिलता है। यह भी
मिलन हो रहा है। तो खूब धूमधाम से इस कार्य को आगे बढ़ाओ। जो भी उमंग-उत्साह से बनाया
है और भी बाप के, सर्व ब्राह्मणों के सहयोग से, शुभ कामनाओं-शुभ भावनाओं से और भी
आगे बढ़ता रहेगा। अच्छा।
चारों ओर के सदा याद
और सेवा के उमंग-उत्साह वाले श्रेष्ठ बच्चों को, सदा हर कर्म में स्मृति-स्वरूप की
अनुभूति करने वाले अनुभवी आत्माओं को, सदा हर कर्म में बाप के सर्व सम्बन्ध का
अनुभव करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा ब्राह्मण जीवन के मजे की जीवन बिताने वाले
महान आत्माओं को बापदादा का अति स्नेह-सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।
वरदान:-
अव्यभिचारी और
निर्विघ्न स्थिति द्वारा फर्स्ट जन्म की प्रालब्ध प्राप्त करने वाले समीप और समान
भव
जो बच्चे यहाँ बाप के
गुण और संस्कारों के समीप हैं, सर्व सम्बन्धों से बाप के साथ का वा समानता का अनुभव
करते हैं वही वहाँ रायल कुल में फर्स्ट जन्म के सम्बन्ध में समीप आते हैं। 2 -
फर्स्ट में वही आयेंगे जो आदि से अब तक अव्यभिचारी और निर्विघ्न रहे हैं। निर्विघ्न
का अर्थ यह नहीं है कि विघ्न आये ही नहीं लेकिन विघ्न-विनाशक वा विघ्नों के ऊपर सदा
विजयी रहें। यह दोनों बातें यदि आदि से अन्त तक ठीक हैं तो फर्स्ट जन्म में साथी
बनेंगे।
स्लोगन:-
साइलेन्स की पॉवर से निगेटिव को पॉजिटिव में परिवर्तन करो।