22-07-07 प्रात:मुरली ओम् शान्ति
13.10.92 "बापदादा" मधुबन
नम्बरवन बनना है तो
ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ
आज सत् शिक्षक अपनी
श्रेष्ठ शिक्षा धारण करने वाले गॉडली स्टूडेन्ट को देख रहे हैं कि हर एक ईश्वरीय
विद्यार्थी ने इस ईश्वरीय शिक्षा को कहाँ तक धारण किया है? पढ़ाने वाला एक है, पढ़ाई
भी एक है लेकिन पढ़ने वाले पढ़ाई में नम्बरवार हैं। हर रोज का पाठ मुरली द्वारा हर
स्थान पर एक ही सुनते हैं अर्थात् एक ही पाठ पढ़ते हैं। मुरली अर्थात् पाठ हर स्थान
पर एक ही होता है। डेट का फर्क हो सकता है लेकिन मुरली वही होती है। फिर भी
नम्बरवार क्यों? नम्बर किसलिए होते हैं? क्योंकि इस ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ने की विधि
सिर्फ सुनना नहीं है लेकिन हर महावाक्य स्वरूप में लाना है। तो सुनना सबका एक जैसा
है लेकिन स्वरूप बनने में नम्बरवार हो जाते हैं। लक्ष्य सभी का एक ही रहता है कि
मैं नम्बरवन बनूँ। ऐसा लक्ष्य है ना! लक्ष्य नम्बरवन का है लेकिन रिजल्ट में
नम्बरवार हो जाते हैं। क्योंकि लक्ष्य को लक्षण में लाना-इसमें लक्ष्य और लक्षण में
फर्क पड़ जाता है। इस पढ़ाई में सब्जेक्ट भी ज्यादा नहीं हैं। चार सब्जेक्ट को धारण
करना-इसमें मुश्किल क्या है! और चारों ही सब्जेक्ट का एक-दो के साथ सम्बन्ध है। अगर
एक सब्जेक्ट ‘ज्ञान’ सम्पूर्ण विधिपूर्वक धारण कर लो अर्थात् ज्ञान के एक-एक शब्द
को स्वरूप में लाओ, तो ज्ञान है ही मुख्य दो शब्दों का जिसको रचयिता और रचना वा
अल्फ और बे कहते हो। रचयिता बाप की समझ आ गई अर्थात् परमात्म-परिचय, सम्बन्ध स्पष्ट
हो गया और रचना अर्थात् पहली रचना ‘‘मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ’’ और दूसरा ‘‘मुझ आत्मा
का इस बेहद की रचना अर्थात् बेहद के ड्रामा में सारे कल्प में क्या-क्या पार्ट
है’’-यह सारा ज्ञान तो सभी को है ना। लेकिन श्रेष्ठ आत्मा स्वरूप बन हर समय श्रेष्ठ
पार्ट बजाना-इसमें कभी याद रहता है, कभी भूल जाते हैं। अगर इन दो शब्दों का ज्ञान
है, योग भी इन दो शब्दों के आधार पर है ना। ज्ञान से योग का स्वत: ही सम्बन्ध है।
जो ‘ज्ञानी तू आत्मा’ है वह ‘योगी तू आत्मा’ अवश्य ही है। तो ज्ञान और योग का
सम्बन्ध हुआ ना। और जो ज्ञानी और योगी होगा उसकी धारणा श्रेष्ठ होगी या कमजोर होगी?
श्रेष्ठ, स्वत: होगी ना, सहज होगी ना। कि धारणा में मुश्किल होगी? जो ‘ज्ञानी तू
आत्मा’, ‘योगी तू आत्मा’ है वह धारणा में कमजोर हो सकता है? नहीं। होते तो हैं। तो
ज्ञान-योग नहीं है? ज्ञानी है लेकिन ‘ज्ञानी तू आत्मा’ वह स्थिति नहीं है। योग लगाने
वाले हैं लेकिन योगी जीवन वाले नहीं हैं। जीवन सदा होती है और जीवन नेचुरल होती है।
योगी जीवन अर्थात् ओरीजिनल नेचर योगी की है।
63 जन्मों के विस्मृति
के संस्कार वा कमजोरी के संस्कार ब्राह्मण जीवन में कहाँ-कहाँ मूल नेचर बन
पुरूषार्थ में विघ्न डालते हैं। कितना भी स्वयं वा दूसरा अटेन्शन खिंचवाता है कि यह
परिवर्तन करो वा स्वयं भी समझते हैं कि यह परिवर्तन होना चाहिए लेकिन जानते हुए भी,
चाहते हुए भी क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन मेरी नेचर है यह, मेरा स्वभाव
है यह। तो नेचर नेचुरल हो गई है ना। किसके बोल में वा व्यवहार में ज्ञान-सम्पन्न
व्यवहार वा योगी जीवन प्रमाण व्यवहार वा बोल नहीं होते हैं तो वो क्या कहते हैं? यही
बोल बोलेंगे कि मेरा नेचुरल बोल ही ऐसा है, बोलने का टोन ही ऐसा है। वा कहेंगे-मेरी
चाल-चलन ही ऑफिशियल वा गम्भीर है। नाम अच्छे बोलते हैं-जोश नहीं है लेकिन ऑफिशियल
है। तो चाहते भी, समझते भी नेचर नेचुरल वर्क (कार्य) करती रहती है, उसमें मेहनत नहीं
करनी पड़ती है। ऐसे जो ज्ञानी जीवन वा योगी जीवन में रहते हैं, तो ज्ञान और योग
सम्पन्न हर कर्म नेचुरल होते हैं अर्थात् ज्ञान और योग-यही उनकी नेचर बन जाती है और
नेचर बनने के कारण श्रेष्ठ कर्म, युक्तियुक्त कर्म नेचुरल होते रहते हैं। तो समझा,
नेचर नेचुरल बना देती है। तो ज्ञान और योग मूल नेचर बन जायें-इसको कहा जाता है
ज्ञानी जीवन, योगी जीवन वाला।
ज्ञानी सभी हो, योगी
सभी हो लेकिन अन्तर क्या है? एक हैं-ज्ञान सुनने-सुनाने वाले, यथा शक्ति जीवन में
लाने वाले। दूसरे हैं-ज्ञान और योग को हर समय अपने जीवन की नेचर बनाने वाले।
विद्यार्थी सभी हो लेकिन यह अन्तर होने के कारण नम्बरवार बन जाते हैं। जिसकी नेचर
ही ज्ञानी-योगी की होगी उसकी धारणा भी नेचुरल होगी। नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही
धारणास्वरूप होंगे। बार-बार पुरूषार्थ नहीं करना पड़ेगा कि इस गुण को धारण करूँ, उस
गुण को धारण करूँ। लेकिन पहले फाउन्डेशन के समय ही ज्ञान, योग और धारणा को अपनी
जीवन बना दी। इसलिए यह तीनों सब्जेक्ट ऐसी आत्मा की स्वत: और स्वाभाविक अनुभूतियां
बन जाती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को सहज योगी, सहज ज्ञानी, सहज धारणामूर्त कहा जाता
है। तीनों सब्जेक्ट का कनेक्शन है। जिसके पास इतनी अनुभूतियों का खज़ाना सम्पन्न होगा,
ऐसी सम्पन्न मूर्तियां स्वत: ही मास्टर दाता बन जाती हैं। दाता अर्थात् सेवाधारी।
दाता देने के बिना रह नहीं सकता। दातापन के संस्कार से स्वत: ही सेवा का सब्जेक्ट
प्रैक्टिकल में सहज हो जाता है। तो चारों का ही सम्बन्ध हुआ ना। कोई कहे कि मेरे
में ज्ञान तो अच्छा है लेकिन धारणा में कमी है-तो उसको ज्ञानी कहा जायेगा? ज्ञान तो
दूसरों को भी देते हो ना। है तब तो देते हो! एक है-समझना, दूसरा है-स्वरूप में लाना।
समझने में सभी होशियार हैं, समझाने में भी सभी होशियार हैं लेकिन नम्बरवन बनना है
तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ। फिर नम्बरवार नहीं होंगे लेकिन नम्बरवन होंगे।
तो सुनाया कि आज सत्
शिक्षक अपने चारों ओर के ईश्वरीय विद्यार्थियों को देख रहे थे। तो क्या देखा? सभी
नम्बरवन दिखाई दिये वा नम्बरवार दिखाई दिये? क्या रिजल्ट होगी? वा समझते हो-नम्बरवन
तो एक ही होगा, हम तो नम्बरवार में ही आयेंगे? फर्स्ट डिवीज़न में तो आ सकते हो ना।
उसमें एक नहीं होता है। तो चेक करो-अगर बार-बार किसी भी बात में स्थिति नीचे-ऊपर
होती है अर्थात् बार-बार पुरूषार्थ में मेहनत करनी पड़ती है, इससे सिद्ध है कि ज्ञान
की मूल सब्जेक्ट के दो शब्द-’रचता’ और ‘रचना’ की पढ़ाई को स्वरूप में नहीं लाया है,
जीवन में मूल संस्कार के रूप में वा मूल नेचर के रूप में वा सहज स्वभाव के रूप में
नहीं लाया है। ब्राह्मण जीवन का नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही योगी जीवन, ज्ञानी जीवन
है। जीवन अर्थात् निरन्तर, सदा। 8 घण्टा जीवन है, फिर 4 घण्टा नहीं-ऐसा नहीं होता।
आज 10 घण्टे के योगी बने, आज 12 घण्टे के योगी बने, आज 2 घण्टे के योगी बने-वो योग
लगाने वाले योगी हैं, योगी जीवन वाले योगी नहीं। विशेष संगठित रूप में इसीलिए बैठते
हो कि सर्व के योग की शक्ति से वायुमण्डल द्वारा कमजोर पुरूषार्थियों को और विश्व
की सर्व आत्माओं को योग शक्ति द्वारा परिवर्तन करें। इसलिए वह भी आवश्यक है लेकिन
इसीलिए योग में नहीं बैठते हो कि अपना ही टूटा हुआ योग लगाते रहो। संगठित शक्ति-यह
भी सेवा के निमित्त है लेकिन योग-भट्ठी इसलिए नहीं रखते हो कि मेरा कनेक्शन फिर से
जुट जाये। अगर कमजोर हो तो इसलिए बैठते हो और ‘‘योगी तू आत्मा’’ हो तो मास्टर
सर्वशक्तिवान बन, मास्टर विश्व-कल्याणकारी बन सर्व को सहयोग देने की सेवा करते हो।
तो पढ़ाई अर्थात् स्वरूप बनना। अच्छा!
आज दीपावली मनाने आए
हैं। मनाने का अर्थ क्या है? दीपावली में क्या करते हो? दीप जलाते हो। आजकल तो लाइट
जलाते हैं। और लाइट पर कौन आते हैं? परवाने। और परवाने की विशेषता क्या होती है?
फिदा होना। तो दीपावली मनाने का अर्थ क्या हुआ? तो फिदा हो गये हो या आज होना है?
हो गये हो या होना है? (हो गये हैं) तो दीपावली तो मना ली, फिर क्यों मनाते हो? जब
फिदा हो गये तो दीपावली मना लिया। कि बीच-बीच में चक्कर लगाने जाते हो? फिदा हो गये
हैं लेकिन थोड़े पंख अभी हैं, उससे थोड़ा चक्कर लगा लेते हो। तो चक्कर लगाने वाले तो
नहीं हो ना। चक्कर लगाना अर्थात् किसी न किसी माया के रूप से टक्कर खाना। माया से
टक्कर खाते हो या माया को हार खिलाते हो? वा कभी विजय प्राप्त करते हो, कभी टक्कर
खाते हो?
दीपमाला-यह अपना ही
यादगार मनाते हो। आपका यादगार है ना? कि मुख्य आत्माओं का यादगार है, आप देखने वाले
हो? आप सबका यादगार है, इसीलिए आजकल बहुत अंदाज़ में दीपक के बजाए छोटे-छोटे बल्ब जगा
देते हैं। दीपक जलायेंगे तो संख्या फिर भी उससे कम हो जायेगी। लेकिन आपकी संख्या तो
बहुत है ना। तो सभी की याद में अनेक छोटे-छोटे बल्ब जगमगा देते हैं। तो अपना यादगार
मना रहे हैं। जब दीपक देखते हो तो समझते हो यह हमारा यादगार है? स्मृति आती है? यही
संगमयुग की विशेषता है जो चैतन्य दीपक अपना जड़ यादगार दीपक देखते हो। चैतन्य में
स्वयं हो और जड़ यादगार देख रहे हो। ऐसे तो जिस दिन दीपावली मनाओ उस दिन ही वास्तविक
तिथि है। यह तो दुनिया वालों ने तिथि फिक्स की है, लेकिन आपकी तिथि अपनी है। इसलिए
जिस दिन आप ब्राह्मण मनाओ वही सच्ची तिथि है। इसलिए कोई भी तिथि फिक्स करते हैं तो
किससे पूछते हैं? ब्राह्मणों से ही निकालते हैं। तो आज बापदादा सभी देश-विदेश के सदा
जगे हुए दीपकों को दीपमाला की मुबारक दे रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। दीपावली मुबारक
अर्थात् मालामाल, सम्पन्न बनने की मुबारक।
ऐसे सदा जागती ज्योत,
सदा स्वयं प्रकाशस्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले सच्चे दीपक, सदा चारों ही
सब्जेक्ट को साथ-साथ जीवन में लाने वाले, सर्व सब्जेक्ट में नम्बरवन के लक्ष्य को
लक्षण में लाने वाले, ऐसे ज्ञानी तू आत्माए, योगी तू आत्माए, दिव्यगुण स्वरूप
आत्माए, निरन्तर सेवाधारी, श्रेष्ठ विश्व-कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद,
प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त बापदादा की
पर्सनल मुलाकात
खुशनसीब वह जिसके
चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई दे
सभी अपने को सदा
खुशनसीब आत्माए समझते हो? खुशनसीब आत्माओं की निशानी क्या होगी? उनके चेहरे और चलन
से सदा खुशी की झलक दिखाई देगी। चाहे कोई भी स्थूल कार्य कर रहे हों, साधारण काम कर
रहे हों लेकिन हर कर्म करते खुशी की झलक दिखाई पड़े। इसको कहते हैं निरन्तर खुशी में
मन नाचता रहे। ऐसे सदा रहते हो? या कभी बहुत खुश रहते हो, कभी कम? खुशी का खज़ाना
अपना खज़ाना हो गया। तो अपना खज़ाना सदा साथ रहेगा ना। या कभी-कभी रहेगा? बाप के खज़ाने
को अपना खज़ाना बनाया है या भूल जाता है अपना खज़ाना? अपनी स्थूल चीज तो याद रहती है
ना। वह खज़ाना आंखों से दिखाई देता है लेकिन यह खज़ाना आंखों से नहीं दिखाई देता, दिल
से अनुभव करते हो। तो अनुभव वाली बात कभी भूलती है क्या? तो सदा यह स्मृति में रखो
कि हम खुशी के खज़ाने के मालिक हैं। जितना खज़ाना याद रहेगा उतना नशा रहेगा। तो यह
रूहानी नशा औरों को भी अनुभव करायेगा कि इनके पास कुछ है।
माताओं को सारा समय
क्या याद रहता है? सिर्फ बाप याद रहता है या और भी कुछ याद रहता है? वर्से की तो
खुशी दिखाई देगी ना। जब ब्राह्मण जीवन के लिए संसार ही एक बाप है, तो संसार के
सिवाए और क्या याद आयेगा। सदा दिल में अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहो। ऐसा
श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प में प्राप्त होगा? जो सारे कल्प में अभी प्राप्त होता है,
तो अभी की खुशी, अभी का नशा सबसे श्रेष्ठ है। तो माताओं को और कोई सम्बन्धी याद आते
हैं? कोई सम्बन्ध में नीचे-ऊपर हो तो मोह जाता है? मोह सारा खत्म हो गया? जो कहते
हैं-कुछ भी हो जाये, मेरे को मोह नहीं आयेगा-वो हाथ उठायें। अच्छा, मोह का पेपर भले
आवे? पाण्डव तो नष्टोमोहा हैं ना। व्यवहार में कुछ ऊपर-नीचे हो जाए, फिर नष्टोमोहा
हैं? अभी भी बीच-बीच में माया पेपर तो लेती है ना। तो उसमें पास होते हो? या जब माया
आती है तब थोड़ा ढीले हो जाते हो? तो सदा खुशी के गीत गाते रहो। समझा? कुछ भी चला
जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। चाहे किसी भी रूप में माया आये लेकिन खुशी न जाये। ऐसे
खुश रहने वाले ही सदा खुशनसीब हैं। अच्छा!
अभी आन्ध्रा और
कर्नाटक वालों को कौनसी कमाल करनी है? ऐसी कोई भी आत्मा वंचित नहीं रह जाये। हरेक
को सन्देश देना है। जहां भी रहते हो - सर्व आत्माओं को सन्देश मिलना चाहिए। जितना
सन्देश देंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। अच्छा।
वरदान:-
हर रोज़ की
मुरली के साधन द्वारा व्यर्थ को खत्म करने वाले पास विद आनर भव
हर रोज़ की मुरली मन
को बिजी रखने का साधन है, मुरली की कोई भी पाइंट पर मनन करते रहो तो मन बिजी रहेगा
और व्यर्थ स्वतः खत्म हो जायेगा। मन को मन्सा-वाचा और कर्मणा सेवा में इतना बिज़ी
कर दो जो व्यर्थ संकल्प आवे ही नहीं, तभी फाइनल पेपर में पास विद आनर हो सकेंगे।
अगर व्यर्थ संकल्प चलने का अभ्यास होगा तो समय पर धोखा खा लेंगे।
स्लोगन:-
प्लैन को
प्रैक्टिकल में लाने के लिए बालक और मालिकपन का बैलेन्स रखो।