ओम् शान्ति।
भगवानुवाच - भगवान अपने बच्चों को राजयोग और ज्ञान सिखला रहे हैं। यह कोई मनुष्य नहीं।
गीता में लिखा हुआ है श्रीकृष्ण भगवानुवाच। अब श्रीकृष्ण सारी दुनिया को माया से
लिबरेट करे, यह तो सम्भव नहीं है। बाप ही आकर बच्चों प्रति समझाते हैं। जिन्होने
बाप को अपना बनाया है और बाप के सम्मुख बैठे हैं। श्रीकृष्ण को बाप नहीं कहा जा सकता।
बाप को कहा जाता है परमपिता, परमधाम में रहने वाला। आत्मा इस शरीर द्वारा भगवान को
याद करती है। बाप बैठ समझाते हैं कि मैं तुम्हारा बाप परमधाम में रहने वाला हूँ।
मैं सभी आत्माओं का बाप हूँ। मैंने ही कल्प पहले भी बच्चों को आकर सिखाया था कि
बुद्धि का योग मुझ परमपिता से लगाओ। आत्माओं से बात की जाती है। आत्मा जब तक शरीर
में न आये तो आंखों द्वारा देख न सके। कानों द्वारा सुन न सके। आत्मा बिना शरीर के
जड़ हो जाता है। आत्मा चैतन्य है। गर्भ में बच्चा है, परन्तु जब तक उसमें आत्मा ने
प्रवेश नहीं किया है तब तक चुरपुर नहीं होती। तो ऐसी चैतन्य आत्माओं से बाप बात करते
हैं। कहते हैं मैंने यह शरीर लोन पर लिया है। मैं आकर सभी आत्माओं को वापिस ले जाता
हूँ। फिर जो आत्मायें सम्मुख होती हैं उन्हों को राजयोग सिखाता हूँ। राजयोग सारी
दुनिया नहीं सीखेगी। कल्प पहले वाले ही राजयोग सीख रहे हैं।
अब बाबा समझाते हैं बुद्धि का योग बाप के साथ अन्त तक लगाते रहना है, इसमें अटकना
नहीं है। स्त्री पुरुष होते हैं तो पहले एक दो को जानते भी नहीं हैं। फिर जब दोनों
की सगाई होती है फिर कोई 60-70 वर्ष भी इकट्ठे रहते हैं, तो सारी जीवन जिस्म, जिस्म
को याद करते रहते हैं। वह कहेगी यह मेरा पति है, वह कहेगा यह मेरी पत्नि है। अब
तुम्हारी सगाई हुई है निराकार से। निराकार बाप ने ही आकर सगाई कराई है। कहते हैं
कल्प पहले मुआफिक तुम बच्चों की अपने साथ सगाई कराता हूँ। मैं निराकार इस मनुष्य
सृष्टि का बीजरूप हूँ। सभी कहेंगे यह मनुष्य सृष्टि गॉड फादर ने रची है। तो तुम्हारा
बाप सदैव परमधाम में रहते हैं। अभी कहते हैं मुझे याद करो। मुसाफिरी लम्बी होने
कारण बहुत बच्चे थक पड़ते हैं। बुद्धि का योग पूरा लगा नहीं सकते। माया की बहुत
ठोकरें खाने से थक पड़ते हैं, मर भी पड़ते हैं। फिर हाथ छोड़ देते हैं। कल्प पहले
भी ऐसे ही हुआ था। यहाँ तो जब तक जीना है, तब तक याद करना है। स्त्री का पति मर जाता
है तो भी याद करती रहती है। यह बाप वा पति ऐसे छोड़कर जाने वाला तो नहीं है। कहते
हैं मैं तुम सजनियों को साथ ले जाऊंगा। परन्तु इसमें समय लगता है, थकना नहीं है।
पापों का बोझा सिर पर बहुत है, वो योग में रहने से ही उतरेगा। योग ऐसा हो जो अन्त
में बाप वा साजन के सिवाए और कोई याद न पड़े। अगर और कुछ याद पड़ा तो व्यभिचारी हो
गया, फिर पापों का दण्ड भोगना पड़े इसलिए बाप कहते हैं परमधाम के राही थक मत जाना।
तुम जानते हो मैं ब्रह्मा द्वारा आदि सनातन देवी-देवता धर्म की स्थापना कर रहा
हूँ और शंकर द्वारा सभी धर्मों का विनाश कराता हूँ। अभी कान्फ्रेन्स करते रहते हैं
तो सभी धर्म मिलकर एक कैसे हो जाएं, सभी शान्त में कैसे रहें, उसका रास्ता निकालें।
अब अनेक धर्मों की एक मत तो हो नहीं सकती। एक मत से तो एक धर्म की स्थापना होती है।
वह सभी धर्म सर्वगुण सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी हो तब आपस में क्षीरखण्ड हो सकते
हैं। रामराज्य में सभी क्षीरखण्ड थे। जानवर भी लड़ते नहीं थे। यहाँ तो घर-घर में
झगड़ा है। लड़ते तब हैं जब उनका कोई धनी-धोणी नहीं है। अपने मात-पिता को नहीं जानते
हैं। गाते भी हैं तुम मात-पिता हम बालक तेरे.. तुम्हारी कृपा से सुख घनेरे.. सुख
घनेरे तो अभी हैं नहीं। तो कहेंगे मात-पिता की कृपा नहीं है। बाप को जानते ही नहीं,
तो बाप कृपा कैसे करे? फिर टीचर के डायरेक्शन पर चलें तब कृपा हो। वह तो कह देते
सर्वव्यापी है, तो कौन कृपा करे और किस पर करे? कृपा लेने वाला और करने वाला दोनों
चाहिए। स्टूडेण्ट पहले तो आकर टीचर के पास पढ़े। यह कृपा अपने ऊपर करे। फिर टीचर के
डायरेक्शन पर चले। पुरुषार्थ कराने वाला भी चाहिए। यह बाप भी है, टीचर भी है तो
सतगुरू भी है, उनको परम-पिता, परमशिक्षक, परम सतगुरू भी कहा जाता है। बाप कहते हैं
मैं कल्प-कल्प यह स्थापना का कार्य कराता हूँ। पतित दुनिया को पावन दुनिया बनाता
हूँ। वर्ल्ड आलमाइटी अथॉरिटी है ना। तो वर्ल्ड अथॉरिटी का राज्य कायम करते हैं। सारी
सृष्टि पर एक ही लक्ष्मी-नारायण का राज्य था। उन्हों की आलमाइटी अथॉरिटी थी। वहाँ
कोई लड़ाई झगड़ा कर न सके। वहाँ माया है ही नहीं। है ही गोल्डन एज, सिलवर एज। सतयुग
त्रेता दोनों को स्वर्ग अथवा वैकुण्ठ कहेंगे। सभी गाते भी हैं चलो वृन्दावन भजो राधे
गोबिन्द.. जाते तो कोई हैं नहीं। सिर्फ याद जरूर करते हैं। अब तो माया का राज्य है।
सभी रावण की मत पर हैं। देखने में तो बड़े-बड़े मनुष्य अच्छे आते हैं। बड़े-बड़े
टाइटिल मिलते हैं। थोड़ी जिस्मानी हिम्मत दिखाते हैं वा अच्छा कर्म करते हैं तो
टाइटिल मिलते हैं। कोई को डाक्टर ऑफ फिलासाफी, कोई को क्या.. ऐसे-ऐसे टाइटिल देते
रहते हैं। अभी तुम तो हो ब्राह्मण। बरोबर भारत की सर्विस में हो। तुम दैवी राजधानी
स्थापन कर रहे हो। जब स्थापना हो जायेगी तब तुमको टाइटिल्स मिलेंगे। सूर्यवंशी राजा
रानी, चन्द्र-वंशी राजा रानी... फिर तुम्हारा राज्य चलेगा। वहाँ कोई को टाइटिल नहीं
मिलता। वहाँ दु:ख की कोई बात ही नहीं, जो कोई का दु:ख दूर करे वा बहादुरी दिखाये..
जो टाइटिल मिले। जो रसम-रिवाज यहाँ होती है वह वहाँ नहीं होती। न लक्ष्मी-नारायण इस
पतित दुनिया में आ सकते हैं, इस समय कोई भी पावन देवता नहीं है। यह है ही पतित आसुरी
दुनिया। अनेक मत-मतान्तर में मूँझ गये हैं। यहाँ तो एक ही श्रीमत है, जिससे राजधानी
स्थापन हो रही है। हाँ चलते-चलते कोई को माया का कांटा लग जाता है तो लंगड़ाते रहते
हैं इसलिए बाप कहते हैं सदैव श्रीमत पर चलो। अपनी मनमत पर चलने से धोखा खायेंगे।
सच्ची कमाई होती है सच्चे बाप की मत पर चलने से। अपनी मत से बेड़ा गर्क हो जायेगा।
कितने महावीर श्रीमत पर न चलने कारण अधोगति को पहुँच गये।
अभी तुम बच्चों को सद्गति को पाना है। श्रीमत पर न चला और दुर्गति को पाया तो
फिर बहुत पश्चाताप करना पड़ेगा। फिर धर्मराजपुरी में शिवबाबा इस तन में बैठ
समझायेंगे कि मैंने तुमको इस ब्रह्मा तन द्वारा इतना समझाया, पढ़ाया, कितनी मेहनत
की, तुमने निश्चय पत्र लिखे कि श्रीमत पर चलेंगे, परन्तु नहीं चले। श्रीमत को कभी
नहीं छोड़ना चाहिए। कुछ भी हो, बाप को बताने से सावधानी मिलती रहेगी। कांटा लगता ही
तब है जब बाप को भूलते हैं। बच्चे सद्गति करने वाले बाप से भी 3 कोस दूर भागते हैं।
गाते भी हैं वारी जाऊं, कुर्बान जाऊं। परन्तु किस पर? ऐसे तो नहीं लिखा है -
संन्यासी पर वारी जाऊं! वा ब्रह्मा विष्णु शंकर पर वारी जाऊं! वा श्रीकृष्ण पर वारी
जाऊं! कुर्बान जाना है परमपिता परमात्मा पर। कोई मनुष्य पर नहीं। वर्सा मिलता है
बाप से। बाप बच्चों पर कुर्बान होता है। यह बेहद का बाप भी कहते हैं, मैं कुर्बान
होने आया हूँ। परन्तु बाप पर कुर्बान होने में बच्चों का हृदय कितना विदीरण होता
है। देह-अभिमान में आया तो मरा, व्यभिचारी हुआ। याद उस एक की रहनी चाहिए। उन पर
बलिहार जाना चाहिए। अब नाटक पूरा होता है। अब हमको वापिस जाना है। बाकी
मित्र-सम्बन्धी आदि तो सब कब्रदाखिल होने हैं। उनको क्या याद करेंगे, इसमें अभ्यास
बहुत चाहिए। गाया भी हुआ है चढ़े तो चाखे अमृतरस,... जोर से गिरते हैं तो पद गँवा
देते हैं। ऐसे नहीं स्वर्ग में नहीं आयेंगे। परन्तु राजा रानी बनने और प्रजा बनने
में फ़र्क तो है ना। यहाँ का भील भी देखो, मिनिस्टर भी देखो। फ़र्क है ना इसलिए
पुरुषार्थ पूरा करना है। कोई गिरते हैं तो एकदम पतित बन जाते हैं। श्रीमत पर चल नहीं
पाते तो माया नाक से पकड़ एकदम गटर में डाल देती है। बापदादा का बनकर फिर ट्रेटर
बनना, गोया उनका सामना करना है इसलिए बाप कहते हैं कदम-कदम सम्भाल कर चलो। अब माया
का अन्त होने वाला है, तो माया बहुतों को गिराती है, इसलिए बच्चों को खबरदार रहना
है। रास्ता जरा लम्बा है, पद भी बहुत भारी है। अगर ट्रेटर बना तो सजा भी भारी है।
जब धर्मराज बाबा सजा देते हैं तो बहुत रड़ियां मारते हैं। जो कल्प-कल्प के लिए कायम
हो जाती हैं। माया बड़ी प्रबल है। थोड़ा सा भी बाप का डिसरिगार्ड किया तो मरा। गाया
हुआ है सतगुरू का निंदक ठौर न पाये। काम वश, क्रोध वश उल्टे काम करते हैं। गोया बाप
की निंदा कराते हैं और दण्ड के निमित्त बन जाते हैं। अगर कदम-कदम पर पदमों की कमाई
है तो पदमों का घाटा भी है। अगर सर्विस से जमा होता है तो उल्टे विकर्म से ना भी
होती है। बाबा के पास सारा हिसाब रहता है। अब सम्मुख पढ़ा रहे हैं तो सारा हिसाब
जैसे उनकी हथेली पर है। बाप तो कहेंगे शल कोई बच्चा शिवबाबा का डिसरिगार्ड न करे,
बहुत विकर्म बनते हैं। यज्ञ सेवा में हड्डी-हड्डी देनी पड़ती है। दधीचि ऋषि का
मिसाल है ना! उसका भी पद बनता है। नहीं तो प्रजा में भी भिन्न-भिन्न पद हैं। प्रजा
में भी नौकर चाकर सभी चाहिए। भल वहाँ दु:ख नहीं होगा परन्तु नम्बरवार पद तो हैं ही।
अच्छा।
मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निंग।
रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) याद की यात्रा में थकना नहीं है। ऐसी सच्ची याद का अभ्यास करना है जो
अन्त समय में बाप के सिवाए कोई भी याद न आये।
2) सच्चे बाप की मत पर चल सच्ची कमाई करनी है। अपनी मनमत पर नहीं चलना है।
सद्गुरू की निंदा कभी भी नहीं करानी है। काम, क्रोध के वश कोई उल्टा काम नहीं करना
है।