21-02-10 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 22-06-71 मधुबन
तीव्र पुरुषार्थी की निशानियाँ
शुद्ध संकल्प स्वरूप स्थिति का अनुभव करते हो? जबकि अनेक संकल्पों की समाप्ति होकर एक शुद्ध संकल्प रह जाता है, इस स्थिति का अनुभव कर रही हो? इस स्थिति को ही शक्तिशाली, सर्व कर्म-बन्धनों से न्यारी और प्यारी स्थिति कहा जाता है। ऐसी न्यारी और प्यारी स्थिति में स्थित होकर फिर कर्म करने के लिए नीचे आते हैं। जैसे कोई का निवास-स्थान ऊंचा होता है, लेकिन कोई कार्य के लिए नीचे उतरते हैं तो नीचे उतरते हुए भी अपना निजी स्थान नहीं भूलते हैं। ऐसे ही अपनी ऊंची स्थिति अर्थात् असली स्थान को क्यों भूल जाते हो? ऐसे ही समझकर चलो कि अभी-अभी अल्पकाल के लिए नीचे उतरे हैं कार्य करने अर्थ, लेकिन सदाकाल की ओरिज़िनल स्थिति वही है। फिर कितना भी कार्य करेंगे लेकिन कर्मयोगी के समान कर्म करते हुए भी अपनी निज़ी ज़िनल स्थिति वही है। फिर कितना भी कार्य करेंगे लेकिन कर्मयोगी के समान कर्म करते हुए भी अपनी निज़ी ज़ी स्थिति और स्थान को भूलेंगे नहीं। यह स्मृति ही समर्थी दिलाती है। स्मृति कम है तो समर्थी भी कम है। समर्थी अर्थात् शक्तियाँ। मास्टर सर्वशक्तिमान का जन्मसिद्ध अधिकार कौनसा है? सर्व शक्तियाँ ही मास्टर सर्वशक्तिमान का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो यह स्मृति की स्टेज जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में सदैव रहनी चाहिए। ऐसे अनुभव करते हो कि सदैव अपना जन्मसिद्ध अधिकार साथ ही है? अपने को सपूत समझते हो? जो भी बैठे हैं सभी अपने को सपूत समझते हैं? (कोई ने कहा सपूत हैं, कोई ने कहा बन रहे हैं) सपूत बन रहे हो या सबूत बन रहे हो? (दोनों) अगर सपूत नहीं तो याद की यात्रा भी नहीं ठहरती होगी। अन्त तक अगर सपूत बनने का ही पुरूषार्थ करेंगे तो सबूत कब दिखायेंगे? दो-चार वर्ष में सपूत बनोगे, उसके बाद दो-चार वर्ष में सबूत दोगे? सपूत हो ही। अगर सपूत नहीं होते तो अपने को सरेन्डर समझते? सरेन्डर हुए हो वा सरेन्डर भी अभी होना है? तो सरेन्डर होना सपूतपना नहीं है? समझा?
जो श्रीमत के आधार पर डायरेक्शन प्रमाण चल रहे हैं, अपने को ट्रस्टी समझ कर चल रहे हैं, उनको तो सपूत कहेंगे ना। कहाँ-कहाँ बहुत सोच भी रिजल्ट बदल देती है। जैसे पेपर के टाइम पेपर करने के बजाय क्वेश्चन के सोच में चले जाते हैं तो पेपर रह जाता है। तो ज्यादा सोच में नहीं जाना है। बाप समझते हैं - सपूत बच्चे हैं तब तो श्रीमत पर चल रहे हैं। बाकी रही सबूत दिखाने की बात, वह भी हरेक यथा शक्ति दिखा रहे हैं और दिखाते रहेंगे। जितना बाप बच्चों में निश्चयबुद्धि है, बच्चे अपने में निश्चयबुद्धि कम हैं। इसलिए हर कार्य में विजय हो, यह रिजल्ट कभी-कभी दिखाई देती है। जैसे बाप में निश्चय, पढ़ाई में निश्चय है वैसे ही अपने में भी हर समय और हर संकल्प निश्चयबुद्धि बनकर करना, उसकी कमी है। इस कमी को भी कब तक भरेंगे? दो-तीन वर्ष तक? दो-तीन वर्ष तो स्वप्न में भी कभी सोच में न लाना। क्या कहना चाहिए? अभी। जो तीव्र पुरुषार्थी हैं उनके मुख से ‘कभी’ शब्द नहीं निकलेगा। वह सदैव ‘अभी’, सिर्फ कहेंगे भी नहीं, लेकिन अभी- अभी करके दिखायेंगे। यह है तीव्र पुरूषार्थ। ऊपर जा रहे हो तो नज़दीक होनाज़दीक होना चाहिए ना। अगर दो-तीन वर्ष की मार्जिन रखी है तो तीव्र पुरुषार्थी की लाइन में गिनती होगी? तीव्र पुरुषार्थी का अर्थ ही है कि जो भाr बात कमज़ोरी वा कमी की दिखाई दे, उसको अभी-अभी खत्म कर दे। जब स्मृति रहती है तो स्मृति के साथ समर्थी रहने के कारण कोई भी कमी को पूर्ण करना ऐसे लगता है जैसे कोई साधारण कार्य, बिगर सोचे आटोमेटीकली हो जाता है। यह नेचरल हो जाता है। ऐसा पुरूषार्थ करने के लिए दिन-प्रतिदिन जो शिक्षा मिलती है उसको स्वरूप बनाते जाओ। शिक्षाओं को शिक्षा की रीति से बुद्धि में नहीं रखो लेकिन हर शिक्षा को स्वरूप बनाओ। तो क्या बन जायेंगे? जो असली स्टेज का गायन है - ज्ञान-स्वरूप, प्रेम-स्वरूप, आनन्द-स्वरूप स्थिति बन जायेगी। प्वाइन्ट की रीति से बुद्धि में नहीं रखो लेकिन प्वाइन्ट को प्रैक्टिकल स्वरूप बनाओ। फिर सदैव प्वाइन्ट स्वरूप में स्थित हो सकेंगे। अभी मैजारिटी प्वाइन्ट को प्वाइन्ट रीति धारण करते हैं, वर्णन करते हैं। लेकिन जो प्वाइन्ट को स्वरूप में लायेंगे तो वर्णन करने के बजाय साक्षात्कारमूर्त बन जायेंगे। तो यही पुरूषार्थ करते चलो। वर्णन करना तो बहुत सहज है। मनन करना भी सहज है। जो मनन करते हो, जो वर्णन करते हो वह स्वरूप बन अन्य आत्माओं को भी स्वरूपों का अनुभव कराओ। ऐसे को कहते हैं सपूत और सबूत दिखाने वाले। सपूत बच्चे को वफादार और फ़रमानबरदार कहा जाता है। सभी अपने को कहा जाता है। सभी अपने को फ़रमा- नबरदान समझते हैं? जब विजय का वरदान है, तो विजय किससे होती है? जब फरमान पर चलते हैं। तो फरमानबरदार नहीं हो? स्थूल में फरमान पालन करने की शक्ति भी सूक्ष्म के आधार पर होती है। निरन्तर फरमान पालन होता है? तो मुख्य फरमान कौनसा है? निरन्तर याद में रहो और मन, वाणी, कर्म में प्योरिटी हो। औरों को भी सुनाते हो कि पवित्र बनो, योगी बनो। तो जो औरों को सुनाते हो वही मुख्य फरमान हुआ ना। संकल्प में भी अपवित्रता वा अशुद्धता न हो - इसको कहते हैं सम्पूर्ण पवित्र। ऐसे फरमानबरदान बने हो ना। सारी शक्ति-सेना पवित्र और योगी है कि अभी बनना है? निरन्तर योगी भी हैं। निरन्तर अर्थात् संकल्प में भी अशुद्धता नहीं है। संकल्प में भी अगर पुराने अशुद्ध संस्कारों का टच होता है तो भी सम्पूर्ण प्योरिटी तो नहीं कहेंगे ना। जैसे स्थूल भोजन भले कोई स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन हाथ भी लगाते हैं तो भी अपने को सच्चे वैष्णव नहीं समझते हैं। अगर बुद्धि द्वारा भी अशुद्ध संकल्प वा पुराने संस्कार संकल्प रूप में टच होते हैं तो भी सम्पूर्ण वैष्णव कहेंगे? कहा जाता है - अगर कोई देखता भी है अकर्त्तव्य कार्य, तो देखने का असर हो जाता है, उसका भी हिसाब बन जाता है। इस हिसाब से सोचो तो पुराने संस्कार व अशुद्ध संकल्प बुद्धि में भी टच होते हैं, तो भी सम्पूर्ण वैष्णव वा सम्पूर्ण प्योरिटी नहीं कहेंगे। पुरूषार्थ का लक्ष्य कहाँ तक रखा है? अब सोचो - जबकि इतनी स्टेज तक जाना है तो यह छोटी-छोटी बातें अब इस समय तक शोभती हैं? अभी तक बचपन के खेल खेलते रहते हो वा कभी दिल होती है बचपन के खेल खेलने की? वहाँ ही रचना की, वहाँ ही पालना की और वहाँ ही विनाश किया - यह कौनसा खेल कहा जाता है? वह तो भक्ति-मार्ग के अंधश्रद्धा का खेल हुआ। माया आयेगी जरूर लेकिन अब की स्टेज अनुसार, समय अनुसार विदाई लेने अर्थ आनी चाहिए, न कि ऐसे रूप में आये। नमस्कार करने आये। अभी चलने की तैयारी नहीं करनी है? कुछ समय नमस्कार देखेंगे वा चल पड़ेंगे?
शक्तियों को सभी अनुभव करना है। बापदादा इसका भी त्याग कर यह भाग्य पाण्डवों और शक्तियों को वरदान में देते हैं। इसलिए शक्तियों की पूजा बहुत होती है। अभी से ही शक्तियों को भक्तों ने पुकारना शुरू कर दिया है। आवाज़ सुनना आता है? जितना आगे चलते जायेंगे उतना ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई मूर्ति के आगे भक्त लोग धूप जलाते हैं वा गुणगान करते हैं, वह प्रैक्टिकल खुशबू अनुभव करेंगे और उनकी पुकार ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि सम्मुख पुकार। जैसे दूरबीन द्वारा दूर का दृश्य कितना समीप आ जाता है। वैसे ही दिव्य स्थिति दूरबीन का कार्य करेगी। यही शक्तियों की स्मृति की सिद्धि होगी और इस अन्तिम सिद्धि को प्राप्त होने के कारण शक्तियों के भक्त शक्तियों द्वारा रिद्धि-सिद्धि की इच्छा रखते हैं। जब सिद्धि देखेंगे तब तो संस्कार भरेंगे ना। तो ऐसा अपना स्मृति की सिद्धि का स्वरूप सामने आता है? जैसे सन शोज़ज़ फादर है, वैसे ही रिटर्न में फादर का शो करते हैं? बापदादा प्रत्यक्ष रूप में यह पार्ट नहीं देखते, लेकिन शक्तियों और पाण्डवों का यह पार्ट है। तो इतना वफादार और फरमानबरदार बनना है जो एक सेकेण्ड भी, एक संकल्प भी फरमान के सिवाय न चले। इसको कहते हैं फरमानब- रदार। और वफादार किसको कहते हैं? सम्पूर्ण वफ़ादार वे कहलायेंगे जिसको संकल्प में भी वा स्वप्न में भी सिवाय बाप के और बाप के कर्त्तव्य वा बाप की महिमा, बाप के ज्ञान के और कुछ भी दिखाई न दे। ऐसे को सम्पूर्ण वफादार कहते हैं। एक बाप दूसरा न कोई - दूसरी कोई बात स्वप्न में, स्मृति में दिखाई न दे। उसको कहते हैं सम्पूर्ण वफादार। ऐसे फरमानबरदार की प्रैक्टिकल चलन में परख क्या होगी? सच्चाई और सफाई। संकल्प तक सच्चाई और सफाई चाहिए, न सिर्फ वाणी तक। अपने आप को देखना है कि कहाँ तक वफादार और फरमानबरदार बने हैं? अगर एक संग सदा बुद्धि की लगन है तो अनेक संग का रंग लग नहीं सकता। बुद्धि की लगन कम होने का कारण अनेक प्रकार के संग के आकर्षण अपने तरफ खींच लेते हैं। तो और संग तोड़, एक संग जोड़ - यह पहला-पहला वायदा है। उस वायदे को निभाना, इनको ही सम्पूर्ण वफादार कहा जाता है। समझा? अच्छा।फ़ादार वे कहलायेंगे जिसको संकल्प में भी वा स्वप्न में भी सिवाय बाप के और बाप के कर्त्तव्य वा बाप की महिमा, बाप के ज्ञान के और कुछ भी दिखाई न दे। ऐसे को सम्पूर्ण वफादार कहते हैं। एक बाप दूसरा न कोई - दूसरी कोई बात स्वप्न में, स्मृति में दिखाई न दे। उसको कहते हैं सम्पूर्ण वफादार। ऐसे फरमानबरदार की प्रैक्टिकल चलन में परख क्या होगी? सच्चाई और सफाई। संकल्प तक सच्चाई और सफाई चाहिए, न सिर्फ वाणी तक। अपने आप को देखना है कि कहाँ तक वफादार और फरमानबरदार बने हैं? अगर एक संग सदा बुद्धि की लगन है तो अनेक संग का रंग लग नहीं सकता। बुद्धि की लगन कम होने का कारण अनेक प्रकार के संग के आकर्षण अपने तरफ खींच लेते हैं। तो और संग तोड़, एक संग जोड़ - यह पहला-पहला वायदा है। उस वायदे को निभाना, इनको ही सम्पूर्ण वफादार कहा जाता है। समझा? अच्छा।
दुसरी मुरली 24-06-71
अन्तर्मुखी बनने से फायदे
कोई भी नई इन्वेन्शन जब निकालते हैं, तो जितनी पावरफुल इन्वेन्शन होती है उतना ही अन्डरग्राउन्ड इन्वेन्शन करते हैं। आप लोगों की भी दिन प्रतिदिन यह इन्वेन्शन पावरफुल होगी। जैसे वह अन्डरग्राउन्ड इन्वेन्शन करते हैं वैसे ही आप भी जितना अन्डरग्राउन्ड अर्थात् अन्तर्मुखी रहेंगे उतना ही नई-नई इन्वेन्शन वा योजनायें निकाल सकेंगे। अन्डरग्राउन्ड रहने से एक तो वायुमण्डल से बचाव हो जायेगा; दूसरा - एकान्त प्राप्त होने के कारण मनन शक्ति भी बढ़ती है; तीसरा - कोई भी माया के विघ्नों से सेफ्टी का साधन बन जाता है। अपने को सदैव अन्डरग्राउन्ड अर्थात् अन्तर्मुखी बनाने की कोशिश करनी चाहिए। अन्डरग्राउन्ड भी सारी कारोबार चलती है। वैसे अन्तर्मुखी होकर भी कार्य कर सकते हैं। ऐसे नहीं कि कोई कार्य नहीं कर सकते हैं। कार्य भी सभी चल सकते हैं। लेकिन अन्तर्मुखी होकर के कार्य करने से एक तो विघ्नों से बचाव; दूसरा समय का बचाव; तीसरा - संकल्पों का बचाव वा बचत हो जायेगी। प्रैक्टिस तो है ना। कभी-कभी अनुभव भी करते हो। अन्तर्मुखी हो बोलते भी हो। लेकिन बाहरमुखता में आते भी अन्तर्मुख, हर्षितमुख, आकर्षणमूर्त भी रहेंगे - कर्म करते हुए यह प्रैक्टिस करनी है। जैसे स्थूल कारोबार का प्रोग्राम बनाते हो, वैसे अपनी बुद्धि की क्या-क्या कारोबार वा क्या कार्य बुद्धि द्वारा करना है। जो प्रोग्राम बनाने के अभ्यासी होते हैं उनका हर कार्य समय पर सफल होता है। इस रीति अपनी भी सूक्ष्म कारोबार है। बुद्धि एक सेकेण्ड में कहाँ से कहाँ जाकर आ भी सकती है। कार्य भी बहुत विस्तार के हैं। तो जब प्रोग्राम सेट करेंगे तब ही समय की बचत और सफलता अधिक हो सकेगी। यह प्रोग्राम बीच-बीच में बनाते रहो लेकिन सदाकाल के लिए। जैसे स्थूल कारोबार सेट करते-करते अभ्यासी हो गये हैं, वैसे ही यह भी अभ्यास करते-करते अभ्यासी हो जायेंगे। इसके लिए खास समय निकालने की भी आवश्यकता नहीं। कोई भी स्थूल कार्य जो भले अधिक बुद्धि, आकर्षणमूर्त भी रहेंगे - कर्म करते हुए यह प्रैक्टिस करनी है। जैसे स्थूल कारोबार का प्रोग्राम बनाते हो, वैसे अपनी बुद्धि की क्या-क्या कारोबार वा क्या कार्य बुद्धि द्वारा करना है। जो प्रोग्राम बनाने के अभ्यासी होते हैं उनका हर कार्य समय पर सफल होता है। इस रीति अपनी भी सूक्ष्म कारोबार है। बुद्धि एक सेकेण्ड में कहाँ से कहाँ जाकर आ भी सकती है। कार्य भी बहुत विस्तार के हैं। तो जब प्रोग्राम सेट करेंगे तब ही समय की बचत और सफलता अधिक हो सकेगी। यह प्रोग्राम बीच-बीच में बनाते रहो लेकिन सदाकाल के लिए। जैसे स्थूल कारोबार सेट करते-करते अभ्यासी हो गये हैं, वैसे ही यह भी अभ्यास करते-करते अभ्यासी हो जायेंगे। इसके लिए खास समय निकालने की भी आवश्यकता नहीं। कोई भी स्थूल कार्य जो भले अधिक बुद्धि वाला हो, उसको करते हुए भी यह अपना प्रोग्राम सेट कर सकते हो। प्रोग्राम सेट करने में कितना समय लगता है? एक-दो मिनट भी ज्यादा है। यह भी अभ्यास डालना है। अमृतवेले अपनी बुद्धि के कारोबार का प्रोग्राम भी पहले से ही सेट कर देना है। जैसे प्रोग्राम बनाया जाता है, फिर उसको चेक किया जाता है कि यह यह कार्य किया और कहां तक हुआ और कहां तक न हुआ। इसी रीति से यह भी प्रोग्राम बनाकर फिर बीच-बीच में चेक करो। जितने बड़े आदमी होते हैं वह बिना प्रोग्राम के नहीं जाते हैं। जैसे आया वैसे कर लिया, ऐसे नहीं चलते। उन्हों का एक-एक सेकेण्ड प्रोग्राम से बुक होता है। आप भी श्रेष्ठ आत्मायें हो, तो प्रोग्राम सेट होना चाहिए। कोई-कोई को प्रोग्राम बनाने का ढंग आता है, कोई को नहीं आता है। स्थूल कारोबार में भी ऐसे होता है। जितना-जिसको अपना प्रोग्राम सेट करना आता है उतना ही समझो अपनी स्थिति पर भी सेट होना आता है। नहीं तो बिना प्रोग्राम बनाने से जैसे बातें नीचे-ऊपर होती हैं वैसे स्थिति भी नीचे ऊपर होती है। सेट नहीं होती है। अच्छा।
वरदान:- पुरूषार्थ और प्रालब्ध के हिसाब को जानकर तीव्रगति से आगे बढ़ने वाले नॉलेजफुल भव
पुरूषार्थ द्वारा बहुतकाल की प्रालब्ध बनाने का यही समय है इसलिए नॉलेजफुल बन तीव्रगति से आगे बढ़ो। इसमें यह नहीं सोचो कि आज नहीं तो कल बदल जायेंगे। इसे ही अलबेलापन कहा जाता है। अभी तक बापदादा स्नेह के सागर बन सर्व सम्बन्ध के स्नेह में बच्चों का अलबेलापन, साधारण पुरूषार्थ देखते सुनते भी एकस्ट्रा मदद से, एकस्ट्रा मार्क्स देकर आगे बढ़ा रहे हैं। तो नॉलेजफुल बन हिम्मत और मदद के विशेष वरदान का लाभ लो।
स्लोगन:- प्रकृति का दास बनने वाले ही उदास होते हैं, इसलिए प्रकृतिजीत बनो।