01-11-2005 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन
“मीठे बच्चे – यह भूल-भुलैया का खेल है, तुम घड़ी-घड़ी
बाप को भूल जाते हो, निश्चयबुद्धि बनो तो इस खेल में फसेंगे नहीं”
प्रश्नः-
कयामत के समय
को देखते हुए तुम बच्चों का कर्तव्य क्या है?
उत्तर:-
तुम्हारा कर्तव्य है – अपनी पढ़ाई में अच्छी रीति लग जाना, और बातों में नहीं जाना
है। बाप तुम्हें नयनों पर बिठाकर, गले का हार बनाकर साथ ले जायेंगे। बाकी तो सबको
अपना-अपना हिसाब-किताब चुक्तू करके जाना ही है। बाप आये हैं सबको अपने साथ घर ले
जाने।
गीत:-
दूर देश का रहने वाला……..
ओम् शान्ति।
रूहानी बाप रूहानी
बच्चों को बैठ समझाते हैं – भारत खास और दुनिया आम सब विश्व में शान्ति चाहते हैं।
अब यह तो समझना चाहिए – जरूर विश्व का मालिक ही विश्व में शान्ति स्थापन करते हैं।
गॉड फादर को ही पुकारना चाहिए कि आकर विश्व में शान्ति फैलाओ। किसको पुकारें वह भी
बिचारों को पता नहीं है। सारे विश्व की बात है ना। सारे विश्व में शान्ति चाहते
हैं। अब शान्ति का धाम तो अलग है, जहाँ बाप और आप आत्मायें रहती हो। यह भी बेहद का
बाप ही समझाते हैं। अब इस दुनिया में तो ढेर के ढेर मनुष्य हैं, अनेक धर्म हैं। कहते
हैं – एक धर्म हो जाए तो शान्ति हो। सब धर्म मिलकर एक तो हो नहीं सकते। त्रिमूर्ति
की महिमा भी है। त्रिमूर्ति के चित्र बहुत रखते हैं। यह भी जानते हैं ब्रह्मा द्वारा
स्थापना। किसकी? सिर्फ शान्ति की थोड़ेही होगी। शान्ति और सुख की स्थापना होती है।
इस भारत में ही 5 हज़ार वर्ष पहले जब इनका राज्य था तो जरूर बाकी सब जीव आत्मायें,
जीव को छोड़ अपने घर गई होंगी। अब चाहते हैं एक धर्म, एक राज्य, एक भाषा। अब तुम
बच्चे जानते हो – बाप शान्ति, सुख, सम्पत्ति की स्थापना कर रहे हैं। एक राज्य भी
जरूर यहाँ ही होगा ना। एक राज्य की स्थापना हो रही है – यह कोई नई बात नहीं। अनेक
बार एक राज्य स्थापन हुआ है। फिर अनेक धर्मों की वृद्धि होते-होते झाड़ बड़ा हो जाता
है फिर बाप को आना पड़ता है। आत्मा ही सुनती है, पढ़ती है, आत्मा में ही संस्कार
हैं। हम आत्मा भिन्न-भिन्न शरीर धारण करती हैं। बच्चों को इस निश्चय बुद्धि होने
में भी बड़ी मेहनत लगती है। कहते हैं बाबा घड़ी-घड़ी भूल जाते हैं। बाप समझाते हैं
– यह खेल भूल-भुलैया का है। इसमें तुम जैसे फँस गये हो, पता नहीं है हम अपने घर अथवा
राजधानी में कैसे जायेंगे। अब बाप ने समझाया है आगे कुछ नहीं जानते थे। आत्मा कितनी
पत्थरबुद्धि बन जाती है। पत्थरबुद्धि और पारसबुद्धि का भारत में ही गायन है।
पत्थरबुद्धि राजायें और पारसबुद्धि राजायें यहाँ ही हैं। पारसनाथ का मन्दिर भी है।
अभी तुम जानते हो हम आत्मायें कहाँ से आई हैं पार्ट बजाने। आगे तो कुछ भी नहीं जानते
थे। इनको कहते हैं कांटों का जंगल। यह सारी दुनिया कांटों का जंगल हैं। फूलों के
बगीचे को आग लगी, ऐसा कभी सुना नहीं होगा। हमेशा जंगल को आग लगती है। यह भी जंगल
है, इनको आग लगनी है जरूर। भंभोर को आग लगनी है। इस सारी दुनिया को ही भंभोर कहा
जाता है। अभी तुम बच्चों ने बाप को जान लिया है। सम्मुख बैठे हो। जो गाते थे तुम्हीं
से बैठूँ…..। वह सब कुछ हो रहा है। भगवानुवाच तो जरूर पढ़ेंगे ना। भगवानुवाच बच्चों
प्रति ही होगा ना। तुम जानते हो भगवान पढ़ाते हैं। भगवान कौन है? निराकार शिव को ही
कहेंगे। भगवान शिव की पूजा भी यहाँ होती है। सतयुग में पूजा आदि नहीं होती। याद भी
नहीं करते। भक्तों को सतयुग की राजधानी का फल मिलता है। तुम समझते हो हमने सबसे
जास्ती भक्ति की है इसलिए हम ही पहले-पहले बाप के पास आये हैं। फिर हम ही राजधानी
में आयेंगे। तो बच्चों को पूरा पुरुषार्थ करना चाहिए – नई दुनिया में ऊंच पद पाने।
बच्चों की दिल होती है अब हम जल्दी नये घर में जायें। शुरू में ही नया घर होगा फिर
पुराना होता जायेगा। घर में बच्चों की वृद्धि होती जायेगी। पुत्र, पोत्रे, पर-पोत्रे
वह तो पुराने घर में आयेंगे ना। कहेंगे हमारे दादा, परदादा का यह मकान है। पीछे आने
वाले भी बहुत होते हैं ना। जितना जोर से पुरूषार्थ करेंगे तो पहले नये घर में आयेंगे।
पुरुषार्थ की युक्ति बाप बहुत सहज समझाते हैं। भक्ति में भी पुरुषार्थ करते हैं ना।
बहुत भक्ति करने वालों का नाम बाला होता है। कई भक्तों की स्टैम्प भी निकालते हैं।
ज्ञान की माला का तो कोई को पता नहीं है। पहले है ज्ञान, पीछे है भक्ति। यह तुम
बच्चों की बुद्धि में है। आधा समय है ज्ञान – सतयुग-त्रेता। अभी तुम बच्चे नॉलेजफुल
बनते जाते हो। टीचर सदैव फुल नॉलेज वाले होते हैं। स्टूडेन्ट में नम्बरवार मार्क्स
उठाते हैं। यह है बेहद का टीचर। तुम हो बेहद के स्टूडेन्ट, स्टूडेन्ट तो नम्बरवार
ही पास होंगे। जैसे कल्प पहले हुए हैं। बाप समझाते हैं तुमने ही 84 जन्म लिए हैं।
84 जन्मों में 84 टीचर होते हैं। पुनर्जन्म तो जरूर लेना ही है। पहले जरूर
सतोप्रधान दुनिया होती है फिर पुरानी तमोप्रधान दुनिया होती है। मनुष्य भी
तमोप्रधान होंगे ना। झाड़ भी पहले नया सतोप्रधान होता है। नये पत्ते बहुत
अच्छे-अच्छे होते हैं। यह तो बेहद का झाड़ है। ढेर धर्म हैं। तुम्हारी बुद्धि अब
बेहद तरफ जायेगी। कितना बड़ा झाड़ है। पहले-पहले आदि सनातन देवी-देवता धर्म ही होगा।
फिर वैरायटी धर्म आयेंगे। तुमने ही 84 वैरायटी जन्म लिए हैं। वह भी अविनाशी हैं।
तुम जानते हो कल्प-कल्प 84 का चक्र हम फिरते रहते हैं। 84 के चक्र में हम ही आते
हैं। 84 लाख जन्म कोई मनुष्य की आत्मा नहीं लेती है। वह तो वैरायटी जानवर आदि ढेर
हैं। उनकी कोई गिनती भी नहीं कर सकते। मनुष्य की आत्मा ने 84 जन्म लिए हैं। तो यह
पार्ट बजाते-बजाते एकदम जैसे टायर्ड हो गये हैं। दु:खी बन गये हैं। सीढ़ी उतरते
सतोप्रधान से तमोप्रधान बन गये हैं। बाप फिर तमोप्रधान से सतोप्रधान बनाते हैं। बाप
कहते हैं – मैं तमोप्रधान शरीर तमोप्रधान दुनिया में आया हूँ। अब सारी दुनिया
तमोप्रधान है। मनुष्य तो ऐसे कह देते हैं – सारे विश्व में शान्ति कैसे हो। समझते
नहीं कि विश्व में शान्ति कब थी। बाप कहते हैं तुम्हारे घर में तो चित्र रखे हैं
ना। इनका राज्य था – तो सारे विश्व में शान्ति थी, उनको स्वर्ग कहा जाता है। नई
दुनिया को ही हेविन गोल्डन एज कहा जाता है। अभी ये पुरानी दुनिया बदलनी है। वह
राजधानी स्थापन हो रही है। विश्व में राज्य तो इनका ही था। लक्ष्मी-नारायण के
मन्दिर में बहुत मनुष्य जाते हैं। यह थोड़ेही किसकी बुद्धि में है कि यही भारत के
मालिक थे – इनके राज्य में जरूर सुख-शान्ति थी। 5 हजार वर्ष की बात है – जब इनका
राज्य था। आधाकल्प के बाद पुरानी दुनिया कहा जाता है इसलिए धन्धे वाले स्वास्तिका
रखते हैं चौपड़े में। उनका भी अर्थ है ना। वह तो गणेश कह देते हैं। गणेश को फिर
विघ्न विनाशक देवता समझते हैं। स्वास्तिका में पूरे 4 भाग होते हैं। यह सब है
भक्ति-मार्ग। अभी दीपावली मनाते हैं, वास्तव में सच्ची-सच्ची दीवाली याद की यात्रा
ही है जिससे आत्मा की ज्योति 21 जन्मों के लिए जग जाती है। बहुत कमाई होती है। तुम
बच्चों को बहुत खुशी होनी चाहिए। अभी तुम्हारा नया खाता शुरू होता है – नई दुनिया
के लिए। 21 जन्मों के लिए खाता अभी जमा करना है। अब बाप बच्चों को समझाते हैं, अपने
को आत्मा समझ सुन रहे हो। आत्मा समझ सुनेंगे तो खुशी भी रहेगी। बाप हमको पढ़ाते
हैं। भगवानुवाच भी है ना। भगवान तो एक ही होता है। जरूर वह आकर शरीर लेता होगा, तब
भगवानुवाच कहा जाता है। यह भी किसको पता नहीं है तब नेती-नेती करते आये हैं। कहते
भी हैं वह परमपिता परमात्मा है। फिर कह देते – हम नहीं जानते। कहते भी हैं शिवबाबा,
ब्रह्मा को भी बाबा कहते हैं। विष्णु को कभी बाबा नहीं कहेंगे। प्रजापिता तो बाबा
ठहरा ना। तुम हो बी.के., प्रजापिता नाम न होने से समझते नहीं हैं। इतने ढेर बी.के.
हैं तो जरूर प्रजापिता ही होगा इसलिए प्रजापिता अक्षर जरूर डालो। तो समझेंगे
प्रजापिता तो हमारा ही बाप ठहरा। नई सृष्टि जरूर प्रजापिता द्वारा ही रची जाती है।
हम आत्मायें भाई-भाई हैं फिर शरीर धारण कर भाई-बहन हो जाते। बाप के बच्चे तो अविनाशी
हैं फिर साकार में बहन-भाई चाहिए। तो नाम है प्रजापिता ब्रह्मा। परन्तु ब्रह्मा को
कोई हम याद नहीं करते। याद लौकिक को करते और पारलौकिक को करते हैं। प्रजापिता
ब्रह्मा को कोई याद नहीं करते। दु:ख में बाप का सिमरण करते हैं, ब्रह्मा का नहीं।
कहेंगे हे भगवान। हे ब्रह्मा नहीं कहेंगे। सुख में तो किसी को भी याद नहीं करते
हैं। वहाँ सुख ही सुख है। यह भी किसको पता नहीं है। तुम जानते हो इस समय हैं 3 बाप।
भक्तिमार्ग में लौकिक और पारलौकिक बाप को याद करते हैं। सतयुग में सिर्फ लौकिक को
याद करते हैं। संगम पर तीनों को याद करते हैं। लौकिक भी है परन्तु जानते हैं वह है
हद का बाप। उनसे हद का वर्सा मिलता है। अभी हमको बेहद का बाप मिला है जिससे बेहद का
वर्सा मिलता है। यह समझ की बात है। अब बेहद का बाप आये हैं ब्रह्मा के तन में – हम
बच्चों को बेहद का सुख देने। उनका बनने से हम बेहद का वर्सा पाते हैं। यह जैसे दादे
का वर्सा मिलता है – ब्रह्मा द्वारा, वह कहते हैं वर्सा तुमको मैं देता हूँ। पढ़ाता
मैं हूँ। ज्ञान मेरे पास है। बाकी न मनुष्यों में ज्ञान है, न देवताओं में। ज्ञान
है मेरे में। जो मैं तुम बच्चों को देता हूँ। यह है रूहानी ज्ञान।
तुम जानते हो रूहानी
बाप द्वारा हमको यह पद मिलता है। ऐसे-ऐसे विचार सागर मंथन करना चाहिए। गायन है मन
के जीते जीत, मन से हारे हार……. वास्तव में कहना चाहिए – माया पर जीत क्योंकि मन को
तो जीता नहीं जाता। मनुष्य कहते हैं मन की शान्ति कैसे हो? बाप कहते हैं आत्मा कैसे
कहेगी कि मन की शान्ति चाहिए। आत्मा तो है ही शान्तिधाम में रहने वाली। आत्मा जब
शरीर में आती है तब कार्य करने लग पड़ती है। बाप कहते हैं तुम अब स्वधर्म में टिको,
अपने को आत्मा समझो। आत्मा का स्वधर्म है शान्त। बाकी शान्ति कहाँ से ढूंढेगी। इस
पर रानी का भी दृष्टान्त है हार का। संन्यासी दृष्टान्त देते हैं और फिर खुद जंगल
में जाकर शान्ति ढूढते हैं। बाप कहते हैं कि तुम आत्मा का धर्म ही शान्ति है।
शान्तिधाम तुम्हारा घर है, जहाँ से पार्ट बजाने तुम आते हो। शरीर से फिर कर्म करना
पड़ता है। शरीर से अलग होने से सन्नाटा हो जाता है। आत्मा ने जाकर दूसरा शरीर लिया
फिर चिंता क्यों करनी चाहिए। वापिस थोड़ेही आयेगी। परन्तु मोह सताता है। वहाँ तुमको
मोह नहीं सतायेगा। वहाँ 5 विकार होते नहीं। रावणराज्य ही नहीं। वह है रामराज्य।
हमेशा रावण राज्य हो तो फिर मनुष्य थक जाएं। कभी सुख देख न सकें। अभी तुम आस्तिक बने
हो और त्रिकालदर्शी भी बने हो। मनुष्य बाप को नहीं जानते इसलिए नास्तिक कहा जाता
है।
अभी तुम बच्चे जानते
हो यह शास्त्र आदि जो पास्ट हो चुके हैं, यह सब है भक्ति मार्ग। अभी तुम हो ज्ञान
मार्ग में। बाप तुम बच्चों को कितना प्यार से नयनों पर बिठाकर ले जाते हैं। गले का
हार बनाए सबको ले जाता हूँ। पुकारते भी सब हैं। जो काम चिता पर बैठ काले हो गये हैं
उनको ज्ञान चिता पर बिठाए, हिसाब-किताब चुक्तू कराए वापिस ले जाते हैं। अब तुम्हारा
काम है पढ़ने से, और बातों में क्यों जाना चाहिए। कैसे मरेंगे, क्या होगा…… इन बातों
में हम क्यों जायें। यह तो कयामत का समय है, सब हिसाब-किताब चुक्तू कर वापिस चले
जायेंगे। यह बेहद के ड्रामा का राज़ तुम बच्चों की बुद्धि में है, और कोई नहीं जानते।
बच्चे जानते हैं हम बाबा के पास कल्प-कल्प आते हैं, बेहद का वर्सा लेने। हम जीव की
आत्मायें हैं। बाबा ने भी देह में आकर प्रवेश किया है। बाप कहते हैं मैं साधारण तन
में आता हूँ, इनको भी बैठ समझाता हूँ कि तुम अपने जन्मों को नहीं जानते हो। और कोई
ऐसे कह न सके कि बच्चों, देही-अभिमानी बनो, बाप को याद करो। अच्छा!
मीठे-मीठे सिकीलधे
बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमॉर्निंग। रूहानी बाप की रूहानी
बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) याद की यात्रा में रहकर सच्ची-सच्ची दीपावली रोज मनानी है। अपना नया
खाता 21 जन्मों के लिए जमा करना है।
2) ड्रामा के राज़ को बुद्धि में रख पढ़ाई के सिवाए और किसी भी बात में नहीं जाना
है। सब हिसाब-किताब चुक्तू करने हैं।
वरदान:-
सेवा द्वारा योगयुक्त स्थिति का अनुभव करने वाले
रूहानी सेवाधारी भव
ब्राह्मण जीवन सेवा का जीवन है। माया से जिंदा रखने का
श्रेष्ठ साधन सेवा है। सेवा योगयुक्त बनाती है लेकिन सिर्फ मुख की सेवा नहीं, सुने
हुए मधुर बोल का स्वरूप बन सेवा करना, निःस्वार्थ सेवा करना, त्याग, तपस्या स्वरूप
से सेवा करना, हद की कामनाओं से परे निष्काम सेवा करना - इसको कहा जाता है ईश्वरीय
वा रूहानी सेवा। मुख के साथ मन द्वारा सेवा करना अर्थात् मनमनाभव स्थिति में स्थित
होना।
स्लोगन:-
आकृति
को न देखकर निराकार बाप को देखेंगे तो आकर्षण मूर्त बन जायेंगे।