02-07-2023 प्रात:मुरली ओम् शान्ति 26.01.95 "बापदादा" मधुबन
ब्रह्मा बाप के और दो कदम
- फ़रमानबरदार-व़फादार
आज बापदादा चारों ओर
के स्नेही और सहयोगी बच्चों को और शक्तिशाली समान बच्चों को देख रहे हैं। स्नेही सभी
बच्चे हैं लेकिन शक्तिशाली यथाशक्ति हैं। स्नेही बच्चों को स्नेह का रिटर्न पद्म
गुणा स्नेह और सहयोग प्राप्त होता है। शक्तिशाली समान बच्चों को सदा सहज विजयी भव
का रिटर्न मिलता है। मिलता सभी को है। स्नेही बच्चे यथा शक्तिशाली होने के कारण सदा
सहज विजय का अनुभव नहीं कर पाते। कभी सहज, कभी मेहनत। बापदादा स्नेही बच्चों को भी
मेहनत को सहज करने का सहयोग देते हैं क्योंकि स्नेही आत्मायें सहयोगी भी रहती ही
हैं। तो सहयोग के रिटर्न में बापदादा सहयोग जरूर देते हैं लेकिन योग यथार्थ न होने
कारण सहयोग मिलते भी प्राप्ति का अनुभव नहीं कर पाते। योग द्वारा ही सहयोग का अनुभव
होता है और शक्तिशाली समान बच्चे सदा योगयुक्त हैं इसलिये सहयोग का अनुभव करते सहज
विजयी बन जाते हैं। लेकिन बाप को दोनों ही बच्चे प्यारे हैं। प्यार और सदा विजयी
रहने की शुभ चाहना सभी बच्चों में रहती है लेकिन शक्ति कम होने के कारण समय पर और
सर्व शक्तियाँ कार्य में नहीं लगा सकते। बाप वर्से के अधिकार में सर्व शक्तियों का
अधिकार सभी बच्चों को देते हैं। अधिकार देने में बापदादा अन्तर नहीं रखते, सभी को
सम्पूर्ण अधिकारी बनाते हैं लेकिन लेने में नम्बरवार बन जाते हैं। बापदादा किसको
स्पेशल, किसको अलग ट्युशन देते हैं क्या? नहीं देते। पढ़ाई सबकी एक है, पालना सबकी
एक है। पाण्डवों को अलग पालना हो, शक्तियों को अलग हो - ऐसे है क्या? सबको एक जैसी
पालना और पढ़ाई है। लेकिन लेने में, रिज़ल्ट में कितना अन्तर हो जाता है! कहाँ अष्ट
रत्न और कहाँ 16108 रत्न - कितना अन्तर है! यह अन्तर क्यों हुआ? पढ़ाई और पालना को,
वरदानों को धारण करना और कार्य में लगाना - इसमें अन्तर हो जाता है। कई बच्चे धारण
भी कर लेते हैं लेकिन समय प्रमाण कार्य में लगाना नहीं आता है। बुद्धि तक बहुत
भरपूर होंगे लेकिन कर्म में आने में फर्क पड़ जाता है।
ब्रह्मा बाप नम्बरवन
क्यों बना? दो कदम पहले सुनाये ना! तीसरा - सदा बाप, शिक्षक और सद्गुरु के
फ़रमानबरदार बनें। हर फ़रमान को जी हाज़िर किया। बाप का फ़रमान है सदा सर्व खजानों
के वर्से में सम्पन्न बनना और बनाना। तो प्रत्यक्ष देखा कि सर्व खजाने - ज्ञान,
शक्तियाँ, गुण, श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ संकल्पों का खजाना पहले दिन से लेकर लास्ट दिन
तक कार्य में लगाया। लास्ट दिन भी समय, संकल्प बच्चों प्रति लगाया। ज्ञान का खजाना,
याद की शक्ति और सहनशीलता के गुण का स्वरूप - यह सब खजाने लास्ट समय तक, शरीर को भी
भूल सेवा में प्रैक्टिकल में लगाकर दिखाया। तो इसको कहा जाता है फ़रमानबरदार
नम्बरवन बच्चा क्योंकि बाप का विशेष फ़रमान यही है कि याद और सेवा में सदा बाप समान
रहो। तो आदि से लेकर अन्त घड़ी तक दोनों ही फ़रमान प्रैक्टिकल में देखा ना? स्नेह
की निशानी है फॉलो करना। तो चेक करो - आदि से अब तक सर्व खजानों को स्व के साथ-साथ
सेवा में लगाया है? बाप का फ़रमान एक श्वास वा संकल्प, सेकेण्ड व्यर्थ नहीं गँवाना
है। तो सारे दिन में ये फ़रमान प्रैक्टिकल में लाया? वा कभी लाया, कभी नहीं लाया?
अगर कभी-कभी फ़रमानबरदार बने और कभी नहीं बने तो किस लिस्ट में जायेंगे? अगर बापदादा
फ़रमानबरदार की लिस्ट निकाले तो आप किस लिस्ट में होंगे? अपने को तो जानते हो ना?
क्योंकि आप सभी सर्व खजानों के ट्रस्टी, मालिक हो। तो एक संकल्प भी बिना बाप के
फ़रमान के यूज़ नहीं कर सकते हो। या सोचते हो कि हम बालक सो मालिक हैं, इसलिए
व्यर्थ गँवायें या क्या भी करें, इसमें बाप का क्या जाता है! बाप ने दे दिया, अभी
हिसाब क्यों लेते हैं? नहीं। आप रोज़ बाप के आगे कहते हो कि सब तेरा है, मेरा नहीं
है। कहते हो ना! कि टाइम पर मेरा और टाइम पर तेरा! जब हमारा मतलब हो तो मेरा, वैसे
तेरा... ऐसी चतुराई तो नहीं करते हो? ब्रह्मा बाप को देखा - अपना आराम का समय भी
विचार सागर मंथन कर बच्चों के प्रति लगाया। रात्रि में भी जागकर बच्चों को योग की
शक्ति देते रहे। ये चरित्र तो सुने हैं ना? ब्रह्मा की कहानी सुनी है ना? फॉलो फादर
किया कि सिर्फ सुन लिया? सुनना अर्थात् करना।
तो तीसरा कदम सदा जी
हाज़िर, सदा हज़ूर हाज़िर और नाज़िर। कभी ब्रह्मा बाप से शिव बाप अलग नहीं हुए,
हाज़िर-नाज़िर रहे ना! बच्चे ने कहा बाबा और बाप ने कहा मीठे बच्चे। तो मन की स्थिति
में सदा हाज़िर और नाज़िर अनुभव किया। सेवा में सदा जी हाज़िर किया। चाहे रात हो,
चाहे दिन हो, सेवा का डायरेक्शन मिला और प्रैक्टिकल किया और कर्म में सदा हाँ जी
किया। हाँ जी का पाठ पढ़ाया ना? तो आप क्या फॉलो करते हो? कभी हाँ जी, कभी ना जी तो
नहीं करते? तो प्यार का सबूत दिखाओ। ऐसे नहीं सोचो कि जितना बाबा से मेरा प्यार है
उतना और किसका नहीं। मेरे दिल में देख लो, क्या दिखाऊं, क्या सुनाऊं... बच्चे ऐसे
गीत गाते हैं। लेकिन सबूत दिखाओ। सबूत है फॉलो फादर। तो चेक करो - स्थिति में, सेवा
में, कर्म अर्थात् सम्बन्ध-सम्पर्क में, (सम्बन्ध और सम्पर्क में आना ही कर्म है)
तीनों में सदा फॉलो फादर हैं? हर फ़रमान सिर्फ बुद्धि तक रहता है या कर्म में भी आता
है? रिज़ल्ट में देखा जाता है कि अगर बुद्धि और वाणी में 100 बातें रहती है तो कर्म
में 50 हैं। तो उन्हों को फॉलो फादर कहें? अधूरी रिज़ल्ट वालों को फॉलो फादर की
लिस्ट में रखें? आप क्या समझते हैं? वे फ़रमानबरदार हैं? कि आप आधे में राज़ी हैं?
थोड़ा-थोड़ा अन्तर पसन्द है! शुरू-शुरू में माला भी बनाते थे, गोल्डन-सिल्वर भी
लिस्ट निकालते थे। तो अभी फिर से लिस्ट निकालें? कि सिल्वर में नाम देखकर कॉपर बन
जायेंगे?
समय की सूचना बाप तो
दे ही रहे हैं लेकिन प्रकृति भी दे रही है। प्रकृति भी चैलेन्ज कर रही है तो समय के
प्रमाण आप लोग औरों को भी सूचना देते रहते हो। भाषणों में सबको कहते हो कि समय आ गया
है, समय आ गया है। तो अपने को भी कहते हो या सिर्फ दूसरों को कहते हो? दूसरों को
कहना तो सहज होता है ना? तो स्वयं भी ये चैलेन्ज स्मृति में लाओ। समय के प्रमाण अपने
पुरुषार्थ की गति क्या है? बापदादा एक बात पर अन्दर ही अन्दर मुस्कराते रहते हैं।
किस बात पर मुस्कराते हैं, जानते हो? एक तरफ मैजारिटी बच्चे कभी-कभी एक सेकेण्ड ये
सोचते हैं कि समय प्रमाण पुरुषार्थ में तीव्रता होनी चाहिये और दूसरे तरफ जब माया
अपना प्रभाव डाल देती है तो दूसरे सेकेण्ड ये सोचते हैं कि यह तो सब चलता ही है, ये
तो महारथियों से भी परम्परा चला आता है। तो बापदादा क्या करेंगे? गुस्सा तो नहीं
करेंगे ना! मुस्करायेंगे। और इसका विशेष कारण है कि समय प्रति समय पुरुषार्थ को
बहुत सहज कर दिया है, इज़ी कर लिया है। स्वभाव को इज़ी नहीं करते, स्वभाव में टाइट
होते हैं और पुरुषार्थ में इज़ी हो जाते हैं। फिर सोचते हैं सहज योग है ना! लेकिन
जीवन में, पुरुषार्थ में इज़ी रहना - इसको सहज योग नहीं कहा जाता क्योंकि इज़ी रहने
से शक्तियाँ मर्ज हो जाती हैं, इमर्ज नहीं होती। आप सभी अपने ब्राह्मण जीवन के आदि
का समय याद करो। उस समय कैसा पुरुषार्थ रहा? इज़ी पुरुषार्थ रहा या अटेन्शन वाला
पुरुषार्थ रहा? अटेन्शन वाला रहा, उमंग-उत्साह वाला रहा और अभी अलबेलेपन के डनलप के
तकिये और बिस्तरे मिल गये हैं। साधनों ने आराम पसन्द ज्यादा बना दिया है। तो अपने
आदि के पुरुषार्थ, आदि की सेवा और आदि के उमंग-उत्साह को चेक करो - क्या था? आराम
पसन्द थे? (नहीं) और अभी थोड़ा-थोड़ा हैं? साधन सेवा के प्रति हैं, साधन स्वयं को
आराम पसन्द बनाने के लिये नहीं हैं। तो अभी डनलप का तकिया और बिस्तरा निकालो।
पटरानियाँ बनो, पटराने बनो। भले पलंग पर सोओ लेकिन स्थिति पटरानी-पटराने की हो। देखो,
आदि सेवा के समय में साधन नहीं थे, लेकिन साधना कितनी श्रेष्ठ रही। जिस आदि की साधना
ने ये सारी वृद्धि की है। तो साधना के बीज को विस्तार में छिपा नहीं दो। जब विस्तार
होता है तो बीज छिप जाता है। तो साधना है बीज, साधन है विस्तार। तो साधना का बीज
छिपने नहीं दो, अभी फिर से बीज को प्रत्यक्ष करो।
बापदादा ने इस सीज़न
में काम दिया था लेकिन किया नहीं। याद है क्या दिया था? कि कापियों में है! काम दिया
था कि बेहद के वैराग्य वृत्ति पर स्वयं से भी चर्चा करो और आपस में भी चर्चा करो और
प्रैक्टिकल में इस साधना के बीज को प्रत्यक्ष करो। तो किया? कि एक दिन सिर्फ डिबेट
कर ली, वर्कशॉप तो हो गई लेकिन वर्क में नहीं आई। तो वर्तमान समय के प्रमाण अभी अपनी
सेवा वा सेवा-स्थानों की दिनचर्या बेहद के वैराग्य वृत्ति की बनाओ। अभी आराम की
दिनचर्या मिक्स हो गई है। ये अलबेलापन शरीर की छोटी-छोटी बीमारियों के भी बहाने
बनाता है। पहले भी तो बीमारी होती थी ना, लेकिन सेवा का उमंग बीमारी को मर्ज कर देता
है। जब कोई आपके दिल पसन्द सेवा होती है तो बीमारी याद आती है? अगर आपको इन्चार्ज
बहन कहे - नहीं, आपकी तबियत ठीक नहीं है, दूसरे को करने दो, तो करने देंगे? उस समय
बुखार वा सिर दर्द कहाँ चला जाता है? और जब सेवा कोई पसन्द नहीं होगी तो क्या होगा?
सिर दर्द भी आ जायेगा तो पेट दर्द भी आ जायेगा। सुनाया है ना कि अगर बहानेबाजी में
बुखार कहेंगी तो टीचर कहेगी कि थर्मा मीटर लगाओ लेकिन पेट दर्द और सिर दर्द का थर्मा
मीटर तो है ही नहीं। मूड ठीक नहीं होगा और कहेंगे कि पेट दर्द है! तो ये अलबेलेपन
के बहाने हैं। बेहद की वैराग्य वृत्ति मर्ज हो गई है और बहानेबाजी इमर्ज हो गई है।
बापदादा देख रहे थे
कि सभी बच्चे बहुत स्नेह से मधुबन में पहुँच गये हैं। तो स्नेह तो दिखाया, उसकी
मुबारक हो। बापदादा को भी बच्चों की खुशी देखकर खुशी होती है लेकिन आगे क्या करना
है? सिर्फ मधुबन तक पहुँचना है या स्नेह का सबूत दिखाने के लिये फरिश्ते रूप में
वतन में पहुँचना है? क्या करना है? मधुबन में पहुँचे उसकी मुबारक है लेकिन फ़रिश्ता
बन वतन में कब पहुँचेंगे? चलते-फिरते आप सभी को फ़रिश्ता ही देखें। बोल-चाल,
रहन-सहन सब फ़रिश्तों का बन जाये। और फ़रिश्ते का अर्थ ही है डबल लाइट। तो दिनचर्या
में लाइट नहीं बनना है लेकिन सम्बन्ध-सम्पर्क में, स्थिति में लाइट। तो लाइट बनना
आता है कि बोझ खींचता है? बापदादा स्नेह का सबूत देखना चाहते हैं और जब स्नेह का
सबूत देंगे तो आपको तालियाँ बजाने की जरूरत नहीं पड़ेगी लेकिन माया भी ताली बजायेगी
- वाह विजयी वाह, प्रकृति भी ताली बजायेगी। तो अभी कुछ परिवर्तन करो।
अभी स्वयं को स्नेह
के साथ शक्तिशाली बनाओ। स्वयं के परिवर्तन में शक्तिरूप बनो। सहज योगी, सहज योगी
करके अलबेलापन नहीं लाओ। बापदादा देखते हैं कि स्व प्रति, चाहे सेवा प्रति, चाहे औरों
के सम्बन्ध-सम्पर्क प्रति अलबेलापन ज्यादा आ गया है। ऐसे नहीं सोचो कि सब चलता है।
एक-दो को कॉपी नहीं करो, बाप को कॉपी करो। दूसरों को देखने की आदत थोड़ी ज्यादा हो
गई है। अपने को देखने में अलबेलापन आ गया है। बापदादा ने सुनाया था ना कि नजदीक की
नज़र कमजोर हो गई है और दूर की नज़र तेज हो गई है। तो अभी क्या करेंगे? सीज़न का फल
क्या देंगे? कि सिर्फ बाप आया, मिला, मनाया, मुरली सुनी - ये फल है? हर सीजन का फल
होता है ना? तो इस सीज़न का फल बापदादा को क्या भोग लगायेंगे? भोग लगाते हो तो फल
भी रखते हो ना? वो तो बाजार में मिल जाता है, कोई बड़ी बात नहीं। अब इस सीज़न का फल
क्या भेंट करेंगे या भोग लगायेंगे? लगाना है या मुश्किल है? तो देखेंगे कि नम्बरवन
भोग कहाँ से आता है। वायदा तो बहुत अच्छा करके जाते हो, कभी भी ना नहीं करते हो,
हाँ ही करते हो! खुश कर देते हो। लेकिन अभी क्या करेंगे? टीचर्स नम्बरवन भोग
लगायेंगी ना? सभी सेन्टर्स का भोग देखेंगे। प्रवृत्ति वाले भी भोग तो लगाते हो ना
कि खुद ही खा जाते हो? तो ये नहीं सोचना कि सिर्फ सेन्टर्स वालों का काम है। सभी का
काम है। तो फ़रमानबरदार का कदम प्रैक्टिकल में लाना है।
चौथा कदम है -
व़फादार। कभी भी मन से, बुद्धि से, संकल्प से बाप के बेव़फा नहीं बनना। व़फादार का
अर्थ ही है सदा एक बाप, दूसरा न कोई। संकल्प में भी देह, देह के सम्बन्ध, देह के
पदार्थ वा देहधारी व्यक्ति आकर्षित नहीं करें। जैसे जब पति-पत्नि एक-दो के व़फादार
बनते हैं तो स्वप्न में भी अगर पर (दूसरे) की याद आ गई तो व़फादार नहीं कहा जाता।
तो ब्रह्मा बाप को देखा, संकल्प भी दूसरे के तरफ नहीं। एक बाप सब कुछ है, इसको कहा
जाता है व़फादार। अगर पदार्थ की भी आकर्षण है, साधनों की भी आकर्षण है तो साधना
खण्डित हो जाती है, व़फादारी खण्डित हो जाती है। और खण्डित कभी भी सम्पन्न, पूज्य
नहीं गाया जाता है। तो चेक करो कि संकल्प में भी कोई आकर्षण बेवफा तो नहीं बना देती?
अगर ज़रा भी किसी के प्रति विशेष झुकाव है, थोड़ा भी पर्सनल झुकाव है, चाहे गुण के
ऊपर, चाहे सेवा के ऊपर, चाहे अच्छे संस्कारों के ऊपर भी अगर एक्स्ट्रा प्रभावित हैं
तो व़फादार नहीं कहा जायेगा। सबकी विशेषता, बेहद की विशेषता पर आकर्षित है, वो दूसरी
बात है लेकिन किसी विशेष व्यक्ति या वैभव के ऊपर आकर्षित है तो व़फादार की लिस्ट
में खण्डित गाया जायेगा। तो चेक करो कि खण्डित मूर्ति तो नहीं है? पूज्य है? कहाँ
एक्स्ट्रा लगाव व झुकाव तो नहीं है? संकल्प मात्र भी झुकाव नहीं। वाचा-कर्मणा की तो
बात ही छोड़ो। लेकिन संकल्प मात्र भी है तो खण्डित के लिस्ट में आ जायेंगे। तो चेक
करना आता है ना? अच्छा।
चारों ओर के स्नेह का
सबूत देने वाले, हर फ़रमान को संकल्प, बोल और कर्म में लाने वाले, सदा स्वयं को बाप
समान सिम्पल और सैम्पल बनाने वाले, ब्रह्मा बाप के हर कदम पर कदम रखने वाले ऐसे
शक्तिशाली बाप समान बनने के दृढ़ संकल्पधारी सर्व बच्चों को बापदादा का याद-प्यार
और नमस्ते।
वरदान:-
साक्षीपन की
स्थिति द्वारा हीरो पार्ट बजाने वाले सहज पुरुषार्थी भव
साक्षीपन की स्थिति
ड्रामा के अन्दर हीरो पार्ट बजाने में सहयोगी बनती है। अगर साक्षीपन नहीं तो हीरो
पार्ट बजा नहीं सकते। साक्षीपन अर्थात् देह से न्यारे, आत्मा मालिकपन की स्टेज पर
स्थित रहे। देह से भी साक्षी, मालिक। इस देह से कर्म कराने वाली, ऐसी साक्षी स्थिति
ही सहज पुरुषार्थ का अनुभव कराती है क्योंकि इस स्थिति में किसी भी प्रकार का विघ्न
या मुश्किलात नहीं आ सकती, यह है मूल अभ्यास। इसी अभ्यास से लास्ट में विजयी बनेंगे।
स्लोगन:-
फरिश्ता बनना है तो अपने सर्व रिश्ते एक प्रभू के साथ जोड़ लो।