25-07-10  प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 01-12-71 मधुबन

 

सर्वशक्तियों के सम्पत्तिवान बनो

 

विदेही, विदेशी बापदादा को बच्चों के समान देह का आधार लेकर, जैसा देश वैसा वेष धारण करना पड़ता है। विदेही को भी स्नेही श्रेष्ठ आत्मायें अपने स्नेह से अपने जैसा बनाने का निमन्त्रण देती हैं। और बाप फिर, विदेशी बापदादा को बच्चों के समान देह का आधार लेकर, जैसा देश वैसा वेष धारण करना पड़ता है। विदेही को भी स्नेही श्रेष्ठ आत्मायें अपने स्नेह से अपने जैसा बनाने का निमन्त्रण देती हैं। और बाप फिर बच्चों को निमन्त्रण स्वीकार कर मिलने के लिए आते हैं। आज सभी बच्चों को निमन्त्रण देने आये हैं। कौन सा निमन्त्रण, जानते हो? अभी घर जाने के लिए पूरी तैयारी कर ली है वा अभी भी करनी है? अभी तैयारी करेंगे? तैयारी करने में कितना समय लगना है? इस नई फुलवाड़ी को विशेष नवीनता दिखानी चाहिए। ऐसे तो नहीं समझते हो कि हम नये क्या कर सकेंगे? लेकिन सदा यह स्मृति में रखना कि यह पुरूषोत्तम श्रेष्ठ संगमयुग का समय कम होता जाता है। इस थोड़े से संगम के समय को वरदाता द्वारा वरदान मिला हुआ है - कोई भी आत्मा अपने तीव्र पुरूषार्थ से जितना वरदाता से वरदान लेने चाहे उतना ले सकते हैं। इसलिए जो नई-नई फुलवाड़ी सम्मुख बैठी है, सम्मुख आयी हुई फुलवाड़ी को जो चाहें, जैसा चाहें, जितने समय में चाहें वरदाता बाप से वरदान के रूप में वर्सा प्राप्त हो सकता है। इसलिए विशेष बापदादा का इस नई फुलवाड़ी पर, स्नेही आत्माओं पर विशेष स्नेह और सहयोग है। इसी बाप के सहयोग को सहज योग के रूप में धारण करते चलो। यही वरदान थोड़े समय में हाई जम्प दिला सकता है। सिर्फ सदा यही स्मृति में रखो कि मुझ आत्मा का इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट है। कौनसा? सर्वशक्तिवान् बाप सहयोगी है। जिसका सहयोगी सर्वशक्तिवान् है, तो क्या वह हाई जम्प नहीं दे सकता? सहयोग को सहज योग बनाओ। योग्य बाप के सहयोगी बनना - यही योगयुक्त स्टेज है ना। जो निरन्तर योगी होगा उनका हर संकल्प, शब्द और कर्म बाप की वा अपने राज्य की स्थापना के कर्त्तव्य में सदा सहयोगी रहने का ही दिखाई देगा। इसको ही ‘ज्ञानी तू आत्मा’, ‘योगी तू आत्मा’ और सच्चा सेवाधारी कहा जाता है। तो सदा सहयोगी बनना ही सहज योग है। अगर बुद्धि द्वारा सदा सहयोगी बनने में कारणे-अकरणे मुश्किल अनुभव होता है, तो वाचा वा कर्मणा द्वारा भी अपने को सहयोगी बनाया तोकरणे मुश्किल अनुभव होता है, तो वाचा वा कर्मणा द्वारा भी अपने को सहयोगी बनाया तो योगी हो। ऐसे निरन्तर योगी तो बन सकते हो ना कि यह भी मुश्किल है? मन से नहीं तो तन से, तन से नहीं तो धन से, धन से नहीं तो जो जिसमें सहयोगी बन सकता है उसमें उसको सहयोगी बनना भी एक योग है।

 

एक होती है अपने में हिम्मत, हिम्मत से सहयोगी बनाना। अगर हिम्मत नहीं है, तन में भी हिम्मत नहीं है, मन में भी नहीं है, धन में भी नहीं है; तो क्या करेंगे? ऐसा भी सदा योगी बन सकता है। कोई ऐसे होते हैं जो भले अपनी हिम्मत नहीं होती है लेकिन उल्लास होता है, हौंसला होता है। धन की शक्ति नहीं भी है, मन में कन्ट्रोलिंग पावर नहीं है, व्यर्थ संकल्प जास्ती चलते हैं; लेकिन जो कोई बात जीवन के अनुभव में उल्लास और हौंसला दिलाने वाली हो, उसी द्वारा औरों को हौंसला दिलाओ तो औरों को हिम्मत आने से आपको भी हिस्सा मिल जायेगा। इतना तो अवश्य है - जो भी आत्मायें आदि से वा अभी आई हुई हैं, उन हर आत्मा को अपने जीवन में कोई प्राप्ति का अनुभव अवश्य है; तब तो आये हैं। यही विशेष अनुभव अनेक आत्माओं को उल्लास और हौंसला बढ़ाने के काम में लगा सकते हो। इस धन से कोई वंचित नहीं। जो अपने पास है, जितना भी है उस द्वारा औरों को हिम्मतवान बनाना वा सहयोगी बनाना-यह भी आप के सहयोग की सब्जेक्ट में मार्क्स जमा हांगी। अब बताओ, योग सहज है वा मुश्किल? निरन्तर योगी बनना मुश्किल है। जो बाप के बन चुके हैं, इसमें तो परसेन्टेज नहीं हैं ना? इसमें तो फुल पास हो ना। जब हैं ही बाप के, तो एक बाप और दूसरा क्या रहा? बाप और आप, बस। तीसरा तो कोई नहीं। बाप में वर्सा तो है ही। तीसरा कुछ है क्या? सिवाय बाप और अपने आप अर्थात् आत्मा (शरीर नहीं)। तो आप और बाप ही रह गया, तो दो के मिलने में तीसरी रूकावट ही नहीं तो निरन्तर योगी हुए ना। तीसरा है ही नहीं तो आया फिर कहाँ से? फिर यह तो कभी नहीं कहेंगे कि आ जाता है, आता है तो क्या करें? अब यह भाषा खत्म। सदैव यही सोचो कि हम हैं ही सदा बाप के सहयोगी अर्थात् सहज योगी। वियोग क्या होता है - इसका जैसे मालूम ही नहीं। जैसे भविष्य में, ‘माया होती भी है’ - यह मालूम नहीं होगा, वैसे ही अब की स्टेज रहे। यह बचपन की बातें बीत चुकीं। अब तो गेट के सामने आ गये हो। जो जैसे बाप के बच्चे हैं, उसमें कोई परसेन्टेज नहीं होती है। ऐसे ही निरन्तर सहज योगी वा योगी बनने की स्टेज में भी अब परसेन्टेज खत्म होनी चाहिए। नैचरल और नेचर हो जानी चाहिए। जैसे कोई की विशेष नेचर होती है, उस नेचर के वश न चाहते भी चलते रहते हैं। कहते हैं ना - मेरी नेचर है, चाहती नहीं हूँ लेकिन नेचर है। वैसे निरन्तर सहज योगी अथवा सहयोगी की नेचर बन जाए, नैचरल हो जाए। क्या करूँ, कैसे योग लगाऊं - यह बातें खत्म। हैं ही सदा सहयोगी अर्थात् योगी। इसी एक बात को नेचर और नैचरल करने से भी सब्जेक्ट परफेक्ट हो जायेंगे। परफेक्ट अर्थात् इफेक्ट से परे, डिफेक्ट से भी परे हो जायेंगे। तो आज से सभी निरन्तर सहज योगी बने वा अभी बनेंगे? जब वरदाता बाप वर्से के साथ वरदान भी देते हैं; तो जिनको वर्से का अधिकार भी हो, वरदान भी प्राप्त हो उनके लिए मुश्किल है? अब देखना, कोई आकर कहे कि मुश्किल है तो याद दिलाना - वर्सा और वरदान। बाकी एक कदम रहा हुआ है घर जाने का। अभी तो हर कदम में पदमपति बने हुए हो। इतना वरदान वरदाता द्वारा प्राप्त है। जब हर कदम में पदमपति हो, तो कदम व्यर्थ होगा क्या? हर कदम में समर्थ हैं, व्यर्थ नहीं। स्मृति में समर्थी लाओ। साधारणता को समाप्त करो और स्मृति में समर्थी लाते, हर कदम में पदम लाते जाओ तब तो विश्व के मालिक बनेंगे।

 

अच्छा। आज विशेष फुलवाड़ी के लिए स्नेह से खिंचे-खिंचे आये हैं। छोटों से सदैव अति स्नेह होता है, तो अपने को अति सिकीलधे समझना। अति लाडले हो, तो बाप समान बनकर दिखाना। भाई-बहन समान नहीं बनना, बाप समान बनना। जिस स्नेह से बुलाया उसी स्नेह से बाप मुलाकात भी करते और नमस्ते भी करते हैं।

 

बिना साज के राज समझ सकते हो? ऐसे अभ्यासी बने हो जो राज़ज़ आपके मन में हैं वह राज़ ज़ दूसरे को बिना साज के समझा सकते हो? पिछाड़ी की सेवा में तो साज़ज़ समा जायेगा, राज़ ज़ को ही समझाना पड़ेगा। तो ऐसी प्रैक्टिस करनी चाहिए। जब साइंस बहुत कुछ करके दिखा रही है; तो क्या साइलेन्स में वह शक्ति नहीं है? जितना-जितना स्वयं राजयुक्त, योगयुक्त बनते जायेंगे, उतना-उतना औरों को भी बिना साज के राजयुक्त बना सकते हो। इतनी सारी प्रजा कैसे बनायेंगे? इसी स्पीड से इतनी प्रजा बन सकेगी! पिछली प्रजा के ऊपर भी इतनी मेहनत करेंगे? जैसे ठप्पे बने हुए होते हैं, तो एक सेकेण्ड में लगाते जाते हैं। वैसे ही एक सेकेण्ड की पावरफुल स्टेज ऐसे रहेगी जो बिगर बोले, बिगर मेहनत करते दैवी घराने की आत्मा का छाप लगा देंगे। यह ही सर्वशक्तिवान् का गायन है। वरदानी बन एक सेकेण्ड में भक्तों को वरदान देना। वरदान देने में मेहनत नहीं लगती, वर्सा पाने में मेहनत है। वर्सा पाने वाले मेहनत कर रहे हैं, मेहनत ले रहे हैं। लेकिन वरदानी मूर्ति जब बन जायेंगे फिर मेहनत लेने वाले न लेंगे, न देने वाले मेहनत करेंगे। तो तुम्हारी लास्ट स्टेज है वरदानीमूर्त। जैसे लक्ष्मी के हस्तों से स्थूल धन देते हुए दिखाते हैं। यह तुम्हारा लास्ट शक्ति रूप का है, न कि लक्ष्मी का। शक्ति रूप से सर्वशक्ति- वान् का वरदान देते हुए का यह चित्र है, जिसको स्थूल धन के रूप में दिखाते हैं। तो ऐसा अपना स्वरूप सदा वरदानी अपने आप को साक्षात्कार होता है? इससे ही समय का अन्दाज़ ज़ लगा सकते हो। फिर वरदानीमूर्त शक्तियों के आगे सभी आयेंगे। इसके लिए एक तरफ वरदान का बीज़ज़ पड़ेगा। तो अपने में सर्व शक्ति जमा करनी हैं। ऐसे वरदानीमूर्त बनते और बनाते जाओ। आवाज़ से परे जाना है। अच्छा।

 

अव्यक्त महावाक्य पर्सनल - होलीहंस बनो

 

सभी अपने को होलीहंस समझते हो? बापदादा होलीहंस उसे कहते हैं जो स्वच्छ है, जिसमें परखने वा निर्णय करने की शक्ति है। जो व्यर्थ और साधारण को अच्छी तरह समझ सकते हैं। समझने के बाद कर्म में स्वतः आता है। साधारण भाषा में कहते भी हैं कि अभी मेरे को समझ में आया, फिर करने के बिना रह नहीं सकते। तो पहले यह चेक करना है कि साधारण अथवा व्यर्थ क्या है? कभी व्यर्थ या साधारण को ही श्रेष्ठ तो नहीं समझ लेते इसलिए पहले पहले मुख्य है होली हंस बुद्धि, उसमें स्वतः ही परखने की शक्ति आ जाती है क्योंकि व्यर्थ संकल्प और व्यर्थ समय तब जाता है जब उसकी परख नहीं रहती कि यह राइट है या रांग है। अपने या दूसरे के व्यर्थ को, रांग को राइट समझ लेते हैं तब ही ज्यादा व्यर्थ समय जाता है। है व्यर्थ लेकिन समझते हैं कि मैं समर्थ, राइट सोच रही हूँ। जो मैंने कहा वही राइट है। इसी में परखने की शक्ति न होने के कारण मन की शक्ति, समय की शक्ति, वाणी की शक्ति सब व्यर्थ चली जाती है और दूसरे से मेहनत लेने का बोझ भी चढ़ता है। टकराव की स्थिति यहाँ ही पैदा होती है इसलिए श्रेष्ठ भाव, शुभ भावना से अपने व्यर्थ भाव स्वभाव और दूसरे के भाव स्वभाव को परिवर्तन करो। पहले स्व पर विजय फिर सर्व पर विजय, फिर प्रकृति पर विजयी बनेंगे। यह तीनों विजय, विजयमाला का मणका बनायेगी। जरा भी पुराने संस्कार का अलाए (खाद) नहीं हो। ऐसे नहीं जैसे आजकल चांदी के ऊपर भी सोने का पानी चढ़ा देते हैं। बाहर से तो सोना लगता है लेकिन अन्दर क्या होता है? मिक्स कहेंगे ना! तो सेवा में भी अभिमान और अपमान का अलाए मिक्स न हो इसको कहा जाता है गोल्डन एजड सेवा। स्वभाव में ईर्ष्या, सिद्ध और ज़िद का भाव न हो, यह है अलाए। इस अलाए को समाप्त कर गोल्डन एजड स्वभाव वाले बनो। संस्कार में सदा हाँ जी। जैसा समय जैसी सेवा, वैसे स्वयं को मोल्ड करना अर्थात् रीयल गोल्ड बनना। मुझे मोल्ड होना है। दूसरा करे तो करूं यह जिद्द हो जाती है। यह रीयल गोल्ड नहीं! यह अलाए समाप्त करो तो टकराव की स्थिति नहीं बनेंगी। सम्बन्ध में सदा हर आत्मा के प्रति शुभ भावना कल्याण की भावना, स्नेह की भावना, सहयोग की भावना हो। कोई कैसे भी भाव स्वभाव वाला हो लेकिन आपका सदा श्रेष्ठ भाव हो। सदा शुभ भाव और शुभ भावना धारण करो। भाव जानने से कभी भी किसी के साधारण स्वभाव या व्यर्थ स्वभाव का प्रभाव नहीं पड़ेगा। शुभ भाव शुभ भावना, जिसको भाव स्वभाव कहते हो। जो व्यर्थ है उनको बदलने का है।

 

जो करो वो ही वर्णन करो, जो सोचो वही वर्णन करो, बनावटी रूप न हो तब कहेंगे सच्चे। सच्चाई मन्सा-वाचा-कर्मणा तीनों रूप में चाहिए। अगर मन में कोई संकल्प उत्पन्न होता है। तो उसमें भी सच्चाई और सफाई चाहिए। अन्दर में कोई भी विकर्म का किचरा नहीं हो। कोई भी भाव-स्वभाव पुराने संस्कारों का भी किचरा नहीं हो। जो ऐसी सफाई वाला होगा वो ही सच्चा होगा और जो सच्चा होता है वह सबका प्रिय होता है। उसमें भी सबसे पहले तो वह प्रभुप्रिय होगा। सच्चे पर साहब राजी होता है। तो पहले प्रभुप्रिय होगा फिर दैवी परिवार का प्रिय होगा।

 

जो सरल स्वभाव वाले होते हैं वह सभी के सहयोगी बन जाते हैं। उन्हें फिर सबका सहयोग प्राप्त होता है। इसलिए वे सभी बातों का सहज ही सामना कर सकते हैं। सरल स्वभाव वाले का माया भी कम सामना करती है। सरल स्वभाव वाले को व्यर्थ संकल्प नहीं चलते, समय व्यर्थ नहीं जाता। व्यर्थ संकल्प न चलने के कारण उनकी बुद्धि विशाल और दूरांदेशी रहती है इसलिए उनके आगे कोई भी समस्या सामना नहीं कर सकती। तो जितनी सरलता होगी उतनी स्वच्छता भी होगी। स्वच्छता सभी को अपने तरफ आकर्षित करती है। स्वच्छता अर्थात् सच्चाई और सफाई। सच्चाई और सफाई तब होगी जब अपने स्वभाव को सरल बनायेंगे। सरल स्वभाव वाला बहुरूपी भी बन सकता है। कोमल चीज़ को जैसे भी रूप में लाओ आ सकती है।

 

वरदान:- बाप द्वारा सफलता का तिलक प्राप्त करने वाले सदा आज्ञाकारी, दिलतख्तनशीन भव

 

भाग्य विधाता बाप रोज़ अमृतवेले अपने आज्ञाकारी बच्चों को सफलता का तिलक लगाते हैं। आज्ञाकारी ब्राह्मण बच्चे कभी मेहनत वा मुश्किल शब्द मुख से तो क्या संकल्प में भी नहीं ला सकते हैं। वह सहजयोगी बन जाते हैं इसलिए कभी भी दिलशिकस्त नहीं बनो लेकिन सदा दिलतख्तनशीन बनो, रहमदिल बनो। अहम भाव और वहम भाव को समाप्त करो।

 

स्लोगन:- विश्व परिवर्तन की डेट नहीं सोचो, स्वयं के परिवर्तन की घड़ी निश्चित करो।