15-09-13  प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 03-05-77 मधुबन

 

कर्मों की अति गुह्य गति

 

बापदादा बेहद के अनादि अविनाशी ड्रामा की सीन के अन्दर विशेष कौन सी सीन देख हर्षाते हैं? जानते हो? वर्तमान समय बाप-दादा ब्राह्मणों की लीला, विचित्र और हर्षाने वाली देख रहे हैं। जैसे बच्चे कहते हैं, ‘हे प्रभु तेरी लीला आपरम्पार है’ वैसे बाप भी कहते हैं, ‘बच्चों की लीला बहुत वन्डरफुल है, वैरायटी लीला है।’ सबसे वन्डरफुल लीला कौन सी देखने में आती है, वह जानते हो? अभी-अभी कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते क्या हैं? वह खुद भी समझते। क्यों कर रहे हैं, यह भी जानते। जैसे किसी भी आत्मा के, वा किसी भी विकारों के वशीभूत आत्मा; परवश आत्मा, बेहोश आत्मा क्या कहती, क्या करती, कुछ समझ नहीं सकते। ऐसी लीला ब्राह्मण भी करते हैं। तो बाप-दादा ऐसी लीला को देख रहमदिल भी बनते हैं, और साथ-साथ न्यायकारी सुप्रीम जस्टिस भी बनते हैं अर्थात् लव और लॉ दोनों का बैलेंस करते हैं। एक तरफ रहमदिल बन बाप के सम्बन्ध से रियायत भी करते हैं। अर्थात् एक, दो, तीन बार माफ भी करते हैं। दूसरी तरफ सुप्रीम जस्टिस के रूप में कल्याणकारी होने के कारण, बच्चों के कल्याण अर्थ ईश्वरीय लॉज़ भी बताते हैं। सबसे बड़े ते बड़ा संगम का अनादि लॉ कौन सा है? ड्रामा प्लान अनुसार एक लाख गुणा प्राप्ति और पश्चात्ताप, वा भोगना, यह ऑटोमेटीकली लॉ अर्थात् नियम चलता ही रहता है। बाप को स्थूल रीति-रस्म माफिक कहना वा करना नहीं पड़ता, कि इस कर्म का यह लेना, वा इस कर्म की सज़ा यह है। लेकिन यह ऑटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी है, जिस मशीनरी को कोई बच्चे जान नही सकते, इसलिए गाया हुआ है - ‘कर्मों की गति अति गुह्य है।’

 

बाप को जान लिया, पा लिया वा वर्सा भी पा लिया, ब्राह्मण परिवार के अन्दर ब्राह्मण भी स्वयं को मान लिया, ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी का टाईटल भी लग गया; ईश्वरीय सेवा अर्थ निमित्त बन गए। सहज राजयोगी भी कहलाया, प्राप्ति के अनुभव भी करने लग गए, ईश्वरीय नशा, प्राप्ति का नशा भी चढ़ने लगा, प्रालब्ध का निशाना भी दिखाई देने लगा, लेकिन आगे क्या हुआ? माया की चैलेन्ज को सफलता पूर्वक सामना नहीं कर पाया। माया के वैरायटी रूपों को परख नहीं पाते हैं, इसलिए कोई माया को बलवान देख दिल-शिकस्त हो जाते हैं; क्या हम विजयी बन सकेंगे? कोई सामना करते-करते कब हार, कब जीत अनुभव करते हैं, थक जाते हैं। अर्थात् थककर जहाँ हैं, जैसा है वहाँ ही रूक जाते हैं। आगे बढ़ने का सोचते भी हिम्मत नहीं आती।

 

कोई अपने में, बाप के डायरेक्ट साथ और सहयोग लेने की हिम्मत न देख, राह पर चलने वाले साथियों को ही पंडा बनाते अर्थात् उन द्वारा ही साथ और सहयोग की प्राप्ति समझते हैं। बाप के बजाए कोई आत्मा को सहारा समझ लेते हैं, इसलिए बाप से किनारा हो जाता है। तिनके को अपना सहारा समझने कारण, बार-बार तुफानों में हिलते और गिरते रहते हैं। और सदैव किनारा दूर अनुभव करते हैं। ऐसे ही कोई व्यक्ति के सहारे के साथ-साथ कई आत्माएं, किसी न किसी प्रकार के सैलवेशन के आधार पर चलने का प्रयत्न करती हैं - यह होगा वा ऐसा होगा तो पुरूषार्थ करूँगा, यह मिलेगा तो पुरूषार्थ करूँगा। ऐसे सैलवेशन रूपी लाठी के आधार पर चलते रहते हैं। अविनाशी बाप का आधार न लें, अल्पकाल के अनेक आधार बना लेते हैं।

 

जो आधार विनाशी और परिवर्तनशील है, उसको आधार बनाने कारण, स्वयं भी सर्व प्राप्तियों के अनुभव को विनाशी समय के लिए ही अनुभव करते हैं, और स्थिति भी एकरस नहीं, लेकिन बार-बार परिवर्तन होती रहती। अभी-अभी बहुत खुशी और आनन्द में होंगे, अभी-अभी मुरझाई हुई मूर्त्त, उदास और नीरस मूर्त्त होंगे। कारण? कि आधार ही ऐसा है। कई आत्माएं बहुत अच्छे हुल्लास, उमंग, हिम्मत और बाप के सहयोग से बहुत आगे मंजिल के समीप तक पहुॅंच जाती हैं, लेकिन 63 जन्मों के हिसाब यहाँ ही चुक्तू होने हैं। अपने पिछले संस्कार, स्वभाव बाहर इमर्ज ही, सदा के लिए समाप्त हो रहे हैं, उस कर्मों की गुह्य गति को न जान घबरा जाते हैं - क्या लास्ट तक यही चलेगा? अब तक भी यह टक्कर क्यों होता? इन व्यर्थ संकल्पों की उलझन के कारण प्यार नहीं कर पाते। सोचने में ही टाईम वेस्ट कर देते हैं और कोटों में कोई तूफानों को भी ड्रामा का तोहफा समझ स्वभाव संस्कारो की टक्कर को आगे बढ़ने का आधार समझ, माया को परखते हुए पार करते, सदा बाप को साथी बनाते हुए, साक्षी हो हर पार्ट देखते, सदा हर्षित हो चलते रहते। सदैव यह निश्चय रहता है कि अब तो पहुंचे। तो बाप इतने प्रकार की लीला बच्चों की देखते हैं।

 

याद रखो, सच्चे बाप को अपने जीवन की नैया दे दी, तो सत्य के साथ की नांव हिलेगी, लेकिन डूब नही सकती। बाप को जिम्मेवारी देकर वापिस नहीं ले लो। मैं चल सकूंगा - ‘मैं’ कहां से आई? मैं-पन मिटाना अर्थात् बाप का बनना। यही गलती करते हो, और इसी गलती में स्वयं उलझते परेशान होते। मैं करता हूँ, या मैं कर नहीं सकता हूँ, इस देह-अभिमान के ‘मैं-पन’ का अभाव हो। इस भाषा को बदली करो। जब मैं बाप की हो गई, वा हो गया, तो जिम्मेदार कौन? अपनी जिम्मेवारी सिर्फ एक समझो - जैसे बाप चलावे वैसे चलेंगे, जो बाप कहे वह करेंगे। जिस स्थिति के स्थान पर बाप बिठाए वहाँ बैठेंगे। श्रीमत में मैं पन की मनमत मिक्स नहीं करेंगे, तो पश्चात्ताप से परे, प्राप्ति स्वरूप और पुरूषार्थ की सहज गति प्राप्त करेंगे अर्थात् सदा सद्बुद्धि प्राप्त करेंगे। अपने को वा दूसरों को देख घबराओ मत। क्या होगा? यह भी होगा? घबराओ नहीं लेकिन गहराई में जाओ। क्योंकि वर्तमान‌ अन्तिम समय समीप के कारण एक तरफ, अनेक प्रकार के रहे हुए हिसाब-किताब, स्वभाव-संस्कार वा दूसरे के सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा बाहर निकलेंगे अर्थात् अंतिम विदाई लेंगे। तो बाहर निकलते हुए अनेक प्रकार के मानसिक परीक्षाओं रूपी बीमारियों को देख घबराओ नहीं। लेकिन यह अति, अन्त की निशानी समझो। दूसरे तरफ, अन्तिम समय समीप होने के कारण कर्मों की गति की मशीनरी भी तेज़ रफ्तार से दिखाई देगी। धर्मराजपुरी के पहले यहाँ ही कर्म और उसकी सज़ा का बहुत साक्षात्कार अभी भी होंगे - आगे चलकर भी। और सत्य बाप के सच्चे बच्चे बन, सत्य स्थान के निवासी बन, जरा भी असत्य कर्म किया तो प्रत्यक्ष दंड के साक्षात्कार अनेक वंडरफुल रूप के होंगे। ब्राह्मण परिवार वा ब्राह्मणों की भूमि पर पांव ठहर न सकेंगे, हर दाग स्पष्ट दिखाई देगा, छिपा नहीं सकेंगे। स्वयं अपने गलती के कारण मन उलझता हुआ टिक नहीं सकेगा। अपने आप को, अपने आप सजा के भागी बनावेंगे। इसलिए यह सब होना ही है। इसके नॉलेजफुल बनो, घबराओ मत। समझा? मास्टर सर्वशक्तिवान घबराते नहीं हैं। अच्छा।

 

कर्मों की गति को जानने वाले, सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, बाप की श्रीमत प्रमाण चलने वाले, अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले करने वाले, सदा बाप के सहारे को सामने रखते हुए सर्व विघ्नो से किनारा करने वाले, सम्पूर्ण स्थिति के किनारे को सदैव सामने रखने वाले, ऐसे हिम्मत, हुल्लास, उमंग में सदा रहने वालों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

 

दीदी जी से-

 

अभी तो बाप बच्चों को सम्पन्न रूप में देखना चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न बनने में ही वन्डरफुल बातें देखेंगे। क्योंकि यह प्रैक्टीकल पेपर हो जाते हैं। किसी भी प्रकार नया दृश्य वा आश्चर्यजनक दृश्य सामने आये, लेकिन दृश्य ‘साक्षी दृष्टा’ बनावे, हिलावे नहीं। कोई भी ऐसा दृश्य जब सामने आता है तो पहले साक्षी दृष्टा की स्थिति की सीट पर बैठ देखने वा निर्णय करने से बहुत मजा आयेगा। भय नहीं आयेगा। अब हुआ ही पड़ा है, तो घबराना वा भयभीत होना हो ही नहीं सकता। जैसे कि अनेक बार देखी हुई सीन फिर से देख रहे हैं - इस कारण क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे भी होता है? यह तो नई बातें हैं! यह संकल्प वा बोल नहीं होगा। और ही राजयुक्त, योगयुक्त हो, लाईट हाउस हो, वायुमण्डल को डबल लाईट बनावेंगे। घबराने वाला नहीं। ऐसे अनुभव होता है ना? इसको कहा जाता है - पहाड़ समान पेपर राई के समान अनुभव हो। कमज़ोर को पहाड़ लगेगा और मास्टर सर्वशक्तिवान को राई अनुभव होगा। इसी पर ही नम्बर बनते हैं। प्रैक्टीकल पेपर पास करने के ही नम्बर बनते हैं। सदैव पेपर पर नम्बर मिलते हैं। पढ़ाई तो चलती रहती है लेकिन नम्बर पेपर के आधार पर होते। अगर पेपर नहीं, तो नम्बर भी नहीं। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषार्थी पेपर को ‘खेल’ समझते हैं। खेल में कब घबराया नहीं जाता है। खेल तो मनोरंजन होता है। तो मनोरंजन में घबराया नहीं जाता है। दिन प्रतिदिन बहुत कुछ आगे बढ़ने और बढ़ाने के दृश्य देखेंगे। छोटी सी गलती मुश्किल बना देती है। वह कौन सी गलती ? सुनाया ना। मैं कैसे करूँ, मैं कर नहीं सकती, मैं चल नहीं सकती, किसने कहा आप चलो? बाप ने तो कहा नहीं कि अपने आप चलो। साथी का साथ पकड़ कर चलो। साथ छोड़ अपने ऊपर क्यों बोझ उठा कर चलते, जो कहना पड़े - मैं नहीं चल सकती, मैं नहीं कर सकती। गलती अपनी और फिर उल्हाने देंगे बाप को। अंगुली खुद छोड़ते, बोझ खुद उठाते, फिर कहते बोझ उठाया नहीं जाता। किसने कहा तुम उठाओ? आदत है ना बोझ उठाने की। जिसकी आदत होती है बोझ उठाने की, उनको बैठने का सहज काम करने कहो तो कर नहीं सकेगा। तो यह भी पिछली आदत के वश हो जाते हैं। यह भी नहीं कह सकते, मेरे पिछले संस्कार हैं। पिछले संस्कार हैं अर्थात् मरजीवा नहीं बने हैं। जब मरजीवा बन गए तो नया जन्म, नए संस्कार होने चाहिए। पिछले संस्कार पिछले जन्म के हैं। इस जन्म के नहीं। वह कुल ही दूसरा, यह कुल ही दूसरा। वह शुद्र कुल, यह ब्राह्मण कुल। जब कुल बदलता है तो उसी कुल की मर्यादा को पालन करना है। जैसे लौकिक रीति में भी अगर कन्या का कुल शादी के बाद बदल जाता है तो उसी कुल की मर्यादा प्रमाण अपने को चलाना होता है। यह भी कुल बदल गया ना। तो यह सोचकर भी कमज़ोर न होना कि पिछली आदत है ना। इसलिए यह तो होगा ही। लेकिन अब के कुल की मर्यादा क्या है, उस मर्यादा के प्रमाण यह है ही नहीं।

 

वरदान:- हर एक के स्वभाव-संस्कार को जान, टकराने के बजाए सेफ रहने वाले मा. नॉलेजफुल भव

 

कोई भी बात को छोटा या बड़ा करना - यह अपनी बुद्धि पर है। जबकि एक दो के स्वभाव-संस्कार को जान गये हो तो नॉलेजफुल कभी किसी के स्वभाव-संस्कार से टक्कर नहीं खा सकते। जैसे किसको पता है कि यहाँ खड्डा है वा पहाड़ है तो जानने वाला कभी टकरायेगा नहीं, किनारा कर लेगा। ऐसे आप भी किनारा करो अर्थात् अपने को सेफ रखो। किसी काम से किनारा नहीं करो लेकिन अपनी सेफ्टी की शक्ति से दूसरे को भी सेफ करना - यही किनारा करना है।

 

स्लोगन:- उड़ती कला का अनुभव करना है तो सदा भाग्य और भाग्य विधाता की स्मृति में रहो।