31-03-13 प्रातःमुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 18-01-76 मधुबन
स्मृति-दिवस को समर्थी दिवस के रूप में मनाओ
आज बाप-दादा अपने सर्व लवलीन बच्चों को देख बच्चों के स्नेह का रेसपान्स दे रहे हैं। सदा बाप-समान विधाता और वरदाता भव! सदा विश्व-कल्याणकारी, विश्व के राज्य-अधिकारी भव! सदा माया, प्रकृति और सर्व परिस्थितियों के विजयी भव! आज बाप-दादा सर्व विजयी बच्चों के मस्तक के बीच विजय का तिलक चमकता हुआ देख रहे हैं। सर्व बच्चों के हस्तों में यही विजय का झण्डा देख रहे हैं। हर-एक के दिल की आवाज ‘विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है’ - यह नारा गूंजता हुआ सुन रहे हैं। आज अमृतवेले सर्व बच्चों के स्नेह और आह्वान के मीठे-मीठे आलाप सुन रहे थे। दूर-दूर बिछुड़ी हुई, तड़पती हुई गोपिकायें नदी के समान सागर में समा रही थीं। बापदादा भी बच्चों के स्नेह के स्वरूप में समा गये। हर-एक के मीठे-मीठे मोती ह्दय का हार बन बाप-दादा के गले में समा गये। हर-एक के भिन्न-भिन्न संकल्प, वैरायटी, मधुर साजों के रूप में सुनाई दे रहे थे। अभी-अभी चारों ओर बाप-दादा को याद की मालायें अनेक बच्चे डाल रहे हैं। आज के दिन को ‘स्मृति दिवस’ के साथ-साथ ‘समर्थी-दिवस’ भी कहते हैं। आज के इस यादगार दिवस पर बाप-दादा ने जैसे आदि में बच्चों के सिर पर ज्ञान-कलश रखा, साकार द्वारा शक्तियों को तन, मन, धन विल (Will) किया, वैसे ही साकार तन द्वारा साकार पार्ट के अन्तिम समय शक्ति सेना को विश्व-कल्याण के विल-पॉवर की विल की। स्वयं सूक्ष्मवतन निवासी बन साकार में बच्चों को निमित्त बनाया। इसीलिये यह समर्थी-दिवस है।
आज बाप सर्व बच्चों के स्नेह में, आवाज से परे स्वयं में समाने जा रहा है। इस समय चारों ओर सबका फुल-फोर्स से उलाहने और आह्वान के मन का आवाज़ आ रहा है। सब स्वयं में समाने जा रहे हैं। आप सबको सुनाई दे रहा है? नये-नये बच्चों को विशेष रूप से बाप-दादा याद का रिटर्न दे रहे हैं। जैसे पुराने बच्चों को डबल इन्जन की लिफ्ट मिली, वैसे नये बच्चों को गुप्त मदद की प्राप्ति के अनुभव की, खुशी के खजाने की विशेष लिफ्ट, (Lift) बाप-दादा गिफ्ट (Gift) में दे रहे हैं। उनके अनेक उलाहनों को सेवा और सदा साथ के अनुभव द्वारा उलाहने उमंग-उत्साह के रूप में परिवर्तन कर रहे हैं। जैसे नये बच्चों का विशेष लगाव बाप और सेवा से हैं, वैसे बापदादा की भी विशेष सहयोग की नजर नये बच्चों पर है। बाप भी ऐसे बच्चों की कमाल के गुण गा रहे हैं। अच्छा!
सर्व स्नेही, सदा एक बाप के लव में लीन रहने वाले, बाप-दादा को प्रख्यात करने वाले, सर्व आत्माओं द्वारा जय-जयकार की विजय मालायें धारण करने के निमित्त बने हुए, ऐसे विजयी, बाप-समान सर्व गुणों को साकार रूप में प्रत्यक्ष करने वाले, सर्व सिद्धियों को सेवा प्रति लगाने वाले, ऐसे विश्व-कल्याणकारी बाप-दादा के भी दिलतख्त अधिकारी बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी तथा वत्सों को सामने देख बाप-दादा बोले –
आज बच्चों का विशेष स्वरूप कौन-सा रहा? स्नेह के स्वरूप के साथ-साथ उलाहने भी दिये। जैसे बाप ज्ञान का सागर है, तो सागर की विशेषता क्या होती है? जितनी लहरें, उतना ही शान्त। लेकिन एक ही समय दोनों विशेषतायें हैं। वैसे ही बाप के समान बनने वालों की भी यह विशेषता है कि बाहर से स्मृति-स्वरूप और अन्दर से समर्थी-स्वरूप। जितना ही साकार स्वरूप में स्मृति-स्वरूप उतना ही अन्दर समर्थी स्व रूप हो। दोनों का साथ-साथ बैलेन्स हो। ऐसा बैलेन्स रहा? जैसा समय व जैसा दिन वैसा स्वरूप तो होता ही है। लेकिन अलौकिकता यह है कि दोनों के बैलेन्स का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे। पार्ट भी बजा रहे हैं, लेकिन साथ-साथ साक्षीपन की स्टेज भी हो। ‘साक्षीपन’ की स्टेज होने से पार्ट भी एक्यूरेट बजायेंगे। लेकिन पार्ट का स्वरूप नहीं बन जायेंगे अर्थात् पार्ट के वश नहीं होंगे। विल-पॉवर होगी।
जो चाहें, जिस घड़ी चाहें, वैसा अपना स्वरूप धारण कर सकते हो। इसको कहते हैं विल-पॉवर। प्रेम-स्वरूप में भी शक्तिशाली-स्वरूप साथ-साथ समाया हुआ हो। सिर्फ प्रेम-स्वरूप बन जाना - यह लौकिकता हो गई। अलौकिकता यह है कि जो प्रेम-स्वरूप के साथ-साथ शक्तिशाली स्वरूप भी रहे। इसलिए शक्तिशाली स्वरूप का अन्तिम दृश्य ‘नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप’ का दिखाया है। जितना ही अति स्नेह, उतना ही अति नष्टोमोह:। तो लास्ट पेपर क्या देखा? स्नेह होते हुए भी नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप। यही लास्ट पेपर यादगार में भी गायन रूप में है, यही प्रैक्टिकल कर्म करके दिखाया। साकार सम्बन्ध सम्मुख होते हुए समाने की भी शक्ति और सहन करने की भी शक्ति। यही दोनों शक्तियों का स्वरूप देखा। एक तरफ स्नेह को समाना, दूसरे तरफ रहा हुआ लास्ट का हिसाब-किताब सहन शक्ति से समाप्त करना। समाना भी और सहन भी करना-दोनों का स्वरूप कर्म में देखा। क्या बाप का बच्चों में स्नेह नहीं होता? स्नेह का सागर होते हुये भी शान्त! अपने शरीर से भी उपराम! यही लास्ट स्टेज है। यह प्रैक्टिकल में कर्म करके दिखलाया। यही (रात्रि का) समय था ना। लास्ट पेपर को फर्स्ट नम्बर में प्रैक्टिकल में किया। स्वरूप में लाना सहज होता है, लेकिन समाना, इसमें विल-पॉवर चाहिये। सारा पार्ट समाने का देखा। कर्मभोग को भी समाना और स्नेह को भी समाना। यही विल-पॉवर है। यही विल-पॉवर अन्त में बच्चों को विल की। अच्छा!
पर्सनल मुलाकात:-
परिवर्तन का मूल आधार- हर सेकेण्ड सेवा में बिज़ी रहना
महारथियों के रूह-रूहान में विशेष कौनसी रूह-रूहान चलती है? बहुत करके महारथियों के रूह-रूहान में यही बात निकलती है कि समय-प्रमाण परिवर्तन कैसे होना है? समय और स्वयं को देखते हुए यह प्रश्न उठता है कि क्या होगा? लेकिन परिवर्तन का मूल आधार है - हर सेकेण्ड सेवा में बिज़ी रहना। हर महारथी के अन्दर सदा यह संकल्प रहे कि जो भी समय है, वह सेवा-अर्थ ही देना है। चाहे अपने देह व शरीर के आवश्यक कार्य में भी समय लगाते हो, तो भी स्वयं के प्रति लगाते हुए मन्सा विश्व-कल्याण की सेवा साथ-साथ कर सकते हैं। अगर वाचा और कर्मणा नहीं कर सकते तो मन्सा कल्याणकारी भावना का संकल्प रहे तो वह भी सेवा के सब्जेक्ट में जमा हो जाता है।
भक्ति-मार्ग में महादानी किसको कहा जाता है? जो स्वयं के प्रति नहीं बल्कि हर वस्तु, हर समय अन्य को दान-पुण्य करने में लगावे, उसको महादानी कहा जाता है। वर्ना तो दानी कहा जाता। जो अविनाशी दान करता ही रहे, सदा दान चलता रहे उसको कहा जाता है महादानी। ऐसे ही स्वयं के प्रति समय देते हुए भी सदा समझे कि मैं विश्व की सेवा पर हूँ। जब जैसे स्टेज पर बैठते हैं तो सारा समय विशेष अटेन्शन रहता है कि मैं इस समय सेवा की स्टेज पर हूँ; तो हल्कापन नहीं रहता है, सेवा का फुल अटेन्शन रहता है। ऐसे ही सदा अपने को सेवा की स्टेज पर समझो। इसी द्वारा ही परिवर्तन होगा। जो भी कुछ स्वयं में कमज़ोरी महसूस होती है वह सब इस सेवा के कार्य में निरन्तर रहने से सेवा के फलस्वरूप अन्य आत्माओं के दिल से आशीर्वाद की प्राप्ति या गुणगान होता है; उस प्राप्ति के आधार से खुशी और उसके आधार से और बिज़ी रहने से वह कमी समाप्त हो जायेगी। तो परिवर्तन होने का साधन यही है जिसको ही एक-दूसरे में अटेन्शन खिंचवाते प्रैक्टिकल में लाना है। तो याद की यात्रा में स्थित रहना - यह भी वर्तमान समय विश्व-कल्याणकारी की स्टेज प्रमाण सेवा में जमा हो जाता है। क्योंकि अब महारथियों की याद की यात्रा का समय सिर्फ स्वयं प्रति नहीं, याद की यात्रा का समय भी स्वयं के साथ-साथ सर्व के कल्याण व सर्व की सेवा के प्रति है। स्वयं का अनुभव करने का तो समय काफी मिला लेकिन अब महादानी और वरदानी की स्टेज है।
महारथी की परिभाषा क्या हुई? महारथी अर्थात् डबल ताजधारी अर्थात् डबल सेवाधारी। स्वयं की और सर्व की सेवा का बैलेन्स हो, उसको कहेंगे महारथी। बच्चों के बचपन का समय स्वयं के प्रति होता है और ज़िम्मेवार आत्माओं का समय सेवा प्रति होता है। तो घोड़ेसवार और प्यादों का समय स्वयं प्रति ज्यादा जायेगा। स्वयं ही कभी बिगड़ेंगे, कभी धारणा करेंगे, कभी धारणा में फेल होते रहेंगे। कभी तीव्र पुरूषार्थ में, कभी साधारण पुरूषार्थ में होंगे। कभी किसी संस्कार से युद्ध तो कभी किसी संस्कार से युद्ध। वे स्वयं के प्रति ज्यादा समय गँवायेंगे। लेकिन महारथी ऐसे नहीं करेंगे। जैसे बच्चे होते हैं - खिलौने से खेलेंगे भी, बनायेंगे भी और बिगाड़ेंगे भी। यह भी अपने संस्कार रूपी खिलौने से कभी खेलते, कभी बिगाड़ते, कभी बनाते हैं, कभी वशीभूत हो जाते हैं और कभी उसको वशीभूत कर लेते हैं। लेकिन यह बचपन की निशानी है, महारथी की नहीं। अच्छा!
वरदान:- एक बाप को अपना संसार बनाकर सदा हंसने, गाने और उड़ने वाले प्रसन्नचित भव
कहा जाता है दृष्टि से सृष्टि बदल जाती है तो आपकी रूहानी दृष्टि से सृष्टि बदल गई, अभी आपके लिए बाप ही संसार है। पहले के संसार और अभी के संस्कार में फ़र्क हो गया, पहले संसार में बुद्धि भटकती थी, अभी बाप ही संसार हो गया तो बुद्धि का भटकना बंद हो गया। बेहद की प्राप्तियां कराने वाला बाप मिल गया तो और क्या चाहिए इसलिए हंसते गाते, उड़ते सदा प्रसन्नचित रहो। माया रूलाए तो भी रोना नहीं।
स्लोगन:- दिल साफ हो तो मुराद हांसिल होती रहेगी, सर्व प्राप्तियां स्वत: आपके समाने आयेंगी।