16-12-12 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 09-01-96 मधुबन
"बालक सो मालिकपन के नशे में रहने के लिए मन का राजा बनो"
आज विश्व के मालिक बाप अपने चारों ओर के मालिक सो बालक बच्चों को देख रहे हैं। बालक भी हो तो मालिक भी हो। विश्व के मालिक भविष्य में बनेंगे लेकिन बाप के सर्व खजानों के मालिक अभी हो। विश्व राज्य अधिकारी भविष्य में बनेंगे लेकिन स्वराज्य अधिकारी अभी हो। इसलिए बालक भी हो और मालिक भी हो। दोनों हो ना! बालकपन का नशा सदा रहता ही है। बापदादा ने देखा कि बालकपन का नशा चाहे इमर्ज रूप में, चाहे मर्ज रूप में मैजारिटी को रहता है। क्योंकि अगर याद में बैठते हो तो भी क्या याद रहता है? बाबा। तो ‘बाबा’ ये सोचना वा कहना, बच्चा है तब बाबा कहते हैं। और जो सच्चे सेवाधारी हैं उनके मुख से बार-बार क्या निकलता है? बाबा ने ये कहा, बाबा ये कहते हैं। सारे दिन में चेक करो तो कितने बारी ‘बाबा-बाबा’ शब्द सेवा में कहते रहते हो? लेकिन दो प्रकार से ‘बाबा’ शब्द कहने वाले हैं। एक है दिल से ‘बाबा’ कहने वाले और दूसरे हैं नॉलेज के दिमाग से कहने वाले। जो दिल से ‘बाबा’ कहते हैं उनको सदा सहज दिल में बाबा द्वारा प्रत्यक्ष प्राप्ति खुशी और शक्ति मिलती है और जो सिर्फ दिमाग अच्छा होने के कारण नॉलेज के प्रमाण ‘बाबा-बाबा’ शब्द कहते हैं उन्हों को उस समय बोलने में अपने को भी खुशी होती और सुनने वालों को भी उस समय तक खुशी होती, अच्छा लगता लेकिन सदाकाल के लिए दिल में खुशी और शक्ति दोनों हो, वो सदा नहीं रहती, कभी रहती, कभी नहीं, क्यों? दिल से ‘बाबा’ नहीं कहा। तो बापदादा ने देखा कि बालकपन का निश्चय सभी को है, नशा कभी है, कभी नहीं है। बाबा के हैं - ये निश्चय, इसमें मैजारिटी ठीक हैं। बालक तो हो ही लेकिन सिर्फ बालक नहीं हो बालक सो मालिक हो। डबल है।
तो मालिकपन - एक स्वराज्य अधिकारी मालिक और दूसरा बाप के सर्व खज़ानों के मालिक, क्योंकि सर्व खजानों को अपना बनाते हो, मेरा वर्सा है, दाता बाप है लेकिन बाप ने दिया कि आप वर्से के मालिक हो। तो यह वर्सा सबको मिला है? किसको कम, किसको ज्यादा तो नहीं मिला है? सबको एक जैसा मिला है ना? या किसको एक करोड़ मिला है और किसको 10 करोड़, ऐसे तो नहीं है ना? क्योंकि बाप के खज़ाने बेहद के हैं। कितने भी बच्चे हो लेकिन बाप के खज़ाने कम होने वाले नहीं हैं। खुला और सम्पन्न भण्डार है। इसलिए बाप किसको कम क्यों देवें! जब है ही बच्चों के लिए तो किसको ज्यादा, किसको कम क्यों दें! तो एक बाप के वर्से के अधिकारी मालिक और दूसरा स्वराज्य के मालिक। तो स्वराज्य मिला है? दोनों के मालिक हो? पक्का है ना? तो मालिक होकर कितना समय चलते हो? कहते भी हो कि स्वराज्य हमारा बर्थ राइट है। कहते हो ना या महारथियों का बर्थ राइट है, हमारा थोड़ा है? स्वराज्य का अधिकार सभी को मिला है कि थोड़ा-थोड़ा मिला है? इस पर पूरा पक्का रहना। तो चेक करो कि स्व की सर्व कर्मेन्द्रियाँ आर्डर प्रमाण हैं? कर्मेन्द्रियाँ, आप स्वराज्य अधिकारी बच्चों के कर्मचारी हैं ना? मालिक तो नहीं हैं? आप मालिक हो, ये ठीक है? कि कर्मचारी मालिक हैं और आप कर्मचारी बन जाते हो?
तो बापदादा ने देखा कि बच्चों की स्थिति में सबसे ज्यादा जो मालिकपन भुलाने वाला है वा समय प्रति समय राजा से अपने वश में करने वाला है - वो है मन। इसलिए बाप का मन्त्र भी है मन्मनाभव। तन-मनाभव, धन-मनाभव या बुद्धि-मनाभव नहीं है। मन्मनाभव है। तो मन अपना प्रभाव डाल देता है। मन के वश में आ जाते हैं। देखो कोई भी छोटी सी व्यर्थ बात वा व्यर्थ वातावरण वा व्यर्थ दृश्य सबका प्रभाव पहले किस पर पड़ता है? मन पर प्रभाव पड़ता है ना, फिर बुद्धि उसको सहयोग देती है। मन और बुद्धि अगर उसी प्रकार चलती रहती तो संस्कार बन जाता है। अभी भी अपने को चेक करो तो मेरा जो व्यर्थ संस्कार है वो बना कैसे? मानो किसी का संस्कार छोटी सी बात में सेकण्ड में, मन में फीलिंग आने का बन गया है तो ये संस्कार बना कैसे? फिर कहते हैं चाहते नहीं हैं, सोचते भी हैं लेकिन हो जाता है। इसको कहा जाता है संस्कारवश। कोई का थोड़े टाइम में मन मायूस हो जाता, थोड़ा सा देखा, सुना और मन मायूस हो गया। फिर अगर कोई पूछेगा तो क्या कहेंगे? कहेंगे, नहीं कोई बात नहीं, ये मेरे संस्कार हैं। ठीक हो जायेगा, संस्कार हैं। लेकिन बना कैसे? मन और बुद्धि के आधार से संस्कार बन गया। फिर भिन्न-भिन्न संस्कार हैं जो ब्राह्मण संस्कार नहीं हैं। बापदादा तो सोचते हैं कि कहलाने में तो किसी से भी पूछेंगे कि आप कौन हो? तो क्या कहेंगे? ब्रह्माकुमारी या ब्रह्माकुमार हैं। तो ब्रह्मा के बच्चे क्या हुए? ब्राह्मण। लेकिन जब व्यर्थ संस्कार के वश हो जाते हो तो क्या उस समय ब्रह्माकुमार, ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो? उस समय कौन हो? यदि अपने से युद्ध करते हो - ये नहीं, ये नहीं... तो ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो? कई बच्चे कहते हैं दो दिन से मेरे मन में खुशी गुम हो गई, पता नहीं क्यों? वैसै तो अन्दर समझते हैं लेकिन बाहर से कहते हैं पता नहीं क्यों! लेकिन वो दिन ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय हैं? जिसकी खुशी गुम हो जाये तो ब्राह्मण हैं? तो क्या कभी क्षत्रिय बनते हो, कभी ब्राह्मण बनते हो? सभी ने कहा ना मालिक हैं, लेकिन उस समय क्या हैं? मालिक हैं या परवश हैं?
तो बापदादा ने देखा कि मालिकपन को हिलाने वाला विशेष मन है। और आप स्वराज्य अधिकारी राजा हो, मन आपका मन्त्री है। वा मन मालिक है, आप मन्त्री हो? आप राजा हो ना, मन तो राजा नहीं है? मन्त्री है, सहयोगी है। तो मन का मालिकपन - ये सदा हो तब कहेंगे कि स्वराज्य अधिकारी। नहीं तो कभी अधिकारी, कभी अधीन। इसका कारण क्या है? क्यों नहीं परिवर्तन होता? जब समझते भी हो फिर भी संस्कार के वश हो जाते हो। इसलिए पहले मन को कन्ट्रोल करो। कहते हो राजा हैं लेकिन राजा का अर्थ है जिसमें रूलिंग पॉवर हो। अगर नाम राजा हो और रूलिंग पॉवर नहीं तो उसका क्या हाल होगा? उसका राज्य चलेगा? नहीं चलेगा। तो रूलिंग पॉवर कितने परसेन्टेज में आई है - ये चेक करो।
एक ग़लती बहुत करते हो उसके कारण भी संस्कार के ऊपर विजय नहीं प्राप्त कर सकते, बहुत टाइम लगता है समझते हैं कल से नहीं करेंगे लेकिन जब कल होता है तो आज से कल की बात बड़ी हो जाती है। तो कहते हैं कल छोटी बात थी ना आज तो बहुत बड़ी बात थी। तो बड़ी बात होने के कारण थोड़ा हो गया, फिर ठीक कर लेंगे-ये बड़ों को वा अपने दिल को दिलासा देते हो और ये दिलासा देते हुए चलते हो लेकिन ये दिलासा नहीं है, ये धोखा है। उस समय थोड़े समय के लिए अपने को या दूसरों को दिलासा देना-बस अभी ठीक हो जायेंगे, लेकिन ये स्वयं को धोखा देने की आदत पक्की करते जाते चलते-फिरते फरिश्ता स्वरूप में रहना-यही ब्रह्मा बाप की दिल-पसन्द गिफ्ट है। 99 हो। जो उस समय पता नहीं पड़ता लेकिन जब प्रैक्टिकल में धोखा मिलता है तभी समझते हैं कि हाँ ये धोखा ही है। तो भूल क्या करते हो? जब बड़े या छोटे एक-दो को शिक्षा देते हैं तो क्या कहते हो? ये मेरा स्वभाव है, मेरा संस्कार है, कोई का फीलिंग का, कोई का किनारा करने का, कोई का बार-बार परचिन्तन करने का, कोई का परचिन्तन सुनने का, भिन्न-भिन्न हैं, उसको तो आप बाप से भी ज्यादा जानते हो। लेकिन बापदादा कहते हैं कि जिसको आपने मेरा संस्कार कहा वो मेरा है? किसका है? (रावण का) तो मेरा क्यों कहा? ये तो कभी नहीं कहते हो कि ये रावण के संस्कार हैं। कहते हो मेरे संस्कार हैं। तो ये ‘मेरा’ शब्द - यही पुरूषार्थ में ढीला करता है। ये रावण की चीज़ अन्दर छिपाकर क्यों रखी है? लोग तो रावण को मारने के बाद जलाते हैं, जलाने के बाद जो भी कुछ बचता है वो भी पानी में डाल देते हैं, और आपने मेरा बनाकर रख दिया है! तो जहाँ रावण की चीज़ होगी वहाँ अशुद्ध के साथ शुद्ध संस्कार इकट्ठे रहेंगे क्या? और राज्य किसका है? अशुद्ध का। शुद्ध का तो नहीं है ना! तो राज्य है अशुद्ध का और अशुद्ध चीज़ अपने पास सम्भाल कर रख दी है। जैसे सोना या हीरा सम्भाल के रखा हो। इसलिए अशुद्ध और शुद्ध दोनों की युद्ध चलती रहती है तो बार-बार ब्राह्मण से क्षत्रिय बन जाते हैं। मेरा संस्कार क्या है? जो बाप का संस्कार है, विशेष है ही विश्व कल्याणकारी, शुभ चिन्तनधारी। सबके शुभ भावना, शुभ कामनाधारी। ये हैं ओरिजनल मेरे संस्कार। बाकी मेरे नहीं हैं। और यही अशुद्धि जो अन्दर छिपी हुई है ना, वो सम्पूर्ण शुद्ध बनने में विघ्न डालती है। तो जो बनना चाहते हो, लक्ष्य रखते हो लेकिन प्रैक्टिकल में फर्क पड़ जाता है।
मैजॉरिटी ने सोचा है, कइयों ने तो अपना संकल्प किया भी, लिखा भी कि इस डायमण्ड जुबली में बाप समान डायमण्ड बनना ही है। ये संकल्प है या सोचना है? सोचना हो तो सोच लो! लेकिन नम्बर पीछे मिलेगा। कहावत भी है कि जो करेगा वो पायेगा। ये तो नहीं है ना कि जो सोचेगा वो पायेगा! तो संकल्प बहुत अच्छा करते हो। बापदादा भी पढ़ करके, सुन करके खुश होते हैं लेकिन ये रावण की चीज़ जो छिपाकर रखी है ना वो मन का मालिक बनने नहीं देती। मेरी आदत है, मेरा स्वभाव है, मेरा संस्कार है, मेरी नेचर है-ये सब रावण की जायदाद साथ में, दिल में रख दी है, तो दिलाराम कहाँ बैठेगा! रावण के वर्से के ऊपर बैठे क्या! तो अभी इसको मिटाओ। जब मेरा शब्द बोलते हो तो याद करो-मेरा स्वभाव या मेरी नेचर क्या है? और मन को दुनिया वाले भी कहते हैं ये घोड़ा है, बहुत भागता है और तेज भागता है लेकिन आपका मन भागना चाहिये? आपको श्रीमत का लगाम मज़बूत है। अगर लगाम ठीक है तो कुछ भी हलचल नहीं हो सकती। लेकिन करते क्या हो? बापदादा तो देखते रहते हैं ना तो हंसी भी आती है, जैसे सवारी को चला रहे हो, लगाम हाथ में है लेकिन अगर चलते-चलते लगाम पकड़ने वाले की बुद्धि या मन कोई साइटसीन के तरफ लग गई तो क्या होगा? लगाम ढीला होगा! और लगाम ढीला होने से मन चंचलता जरूर करेगा। तो श्रीमत का लगाम सदा अपने अन्दर स्मृति में रखो। जब भी कोई बात हो, मन चंचल हो तो श्रीमत का लगाम टाइट करो। फिर कुछ नहीं होगा। फिर मंज़िल पर पहुँच जायेंगे। तो श्रीमत हर कदम के लिए है, श्रीमत सिर्फ ब्रह्मचारी बनो ये नहीं है। हर कर्म के लिये श्रीमत है। चलना, खाना, पीना, सुनना, सुनाना - सबकी श्रीमत है। है, कि नहीं है? मानो आप परचिन्तन कर रहे हो तो क्या ये श्रीमत है? श्रीमत को ढीला किया तो मन को चांस मिलता है चंचल बनने का। फिर उसको आदत पड़ जाती है। तो आदत डालने वाला कौन? आप ही हो ना! तो पहले मन का राजा बनो। चेक करो - अन्दर ही अन्दर ये मन्त्री अपना राज्य तो नहीं स्थापन कर रहे हैं? जैसे आजकल के राज्य में अलग ग्रुप बना करके और पॉवर में आ जाते हैं। और पहले वालों को हिलाने की कोशिश करते हैं तो ये मन भी ऐसे करता है, बुद्धि को भी अपना बना लेता है। मुख को, कान को, सबको अपना बना लेता है। तो रोज़ चेक करो, समाचार पूछो-हे मन मन्त्री तुमने क्या किया? कहाँ धोखा तो नहीं दिया? कहाँ अन्दर ही अन्दर ग्रुप बना देवे और आपको राजा की बजाय गुलाम बना दे! तो ऐसा न हो। देखो ब्रह्मा बाप आदि में रोज़ ये दरबार लगाते थे जिसमें सभी सहयोगी साथियों से समाचार पूछते, ये रोज़ की ब्रह्मा बाप की आदि की दिनचर्या है। सुना है ना? तो ब्रह्मा बाप ने भी मेहनत की है ना! अटेन्शन रखा तब स्वराज्य अधिकारी सो विश्व के राज्य अधिकारी बने। शिव बाप तो है ही निराकार लेकिन ब्रह्मा बापने तो आपके समान सारी जीवन पुरूषार्थ से प्रालब्ध प्राप्त की। तो ब्रह्मा बाप को फॉलो करो। ये मन बहुत चंचल है और बहुत क्वीक है, एक सेकण्ड में आपको सारा फॉरेन घुमाकर आ सकता है। तो क्या सुना? बालक सो मालिक। ऐसे नहीं खुश रहना - बालक तो बन गये, वर्सा तो मिल गया लेकिन अगर वर्से के मालिक नहीं बने तो बालकपन क्या हुआ? बालक का अर्थ ही है मालिक। लेकिन स्वराज्य के भी मालिक बनो। सिर्फ वर्से को देख करके खुश नहीं हो, स्वराज्य अधिकारी बनो। इतनी छोटी सी आंख बिन्दी है, वो भी धोखा दे देती है। तो मालिक नहीं हुए तभी धोखा देती है। तो बापदादा सभी बच्चों को स्वराज्य अधिकारी राजा देखना चाहते हैं। अधिकारी, अधीन नहीं रहेगा। समझा? क्या बनेंगे? बालक सो मालिक।
चारों ओर के बालक सो मालिक डबल अधिकार लेने वाले श्रेष्ठ आत्मायें, सदा स्वराज्य अधिकारी बन अपना राज्य चलाने वाले भाग्यवान आत्मायें, सदा बाप के संस्कार सो मेरे संस्कार इस विधि से सेवा में आगे बढ़ने वाले श्रेष्ठ सेवाधारी आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।
वरदान:- दुआओं के राकेट द्वारा तीव्रगति से उड़ने वाले विघ्न प्रूफ भव
मात-पिता और सर्व के संबंध में आते हुए दुआओं के खजाने से स्वयं को सम्पन्न करो तो कभी भी पुरूषार्थ में मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। जैसे साइन्स में सबसे तीव्रगति राकेट की होती है ऐसे संगमयुग पर सबसे तीव्रगति से आगे उड़ने का यन्त्र अथवा उससे भी श्रेष्ठ राकेट “सबकी दुआयें'' हैं, जिसे कोई भी विघ्न जरा भी स्पर्श नहीं कर सकता, इससे विघ्न प्रूफ बन जायेंगे, युद्ध नहीं करनी पड़ेगी।
स्लोगन:- परोपकार की भावना से सम्पन्न बनना ही श्रेष्ठता का आधार है।