04-12-11 प्रातः मुरली ओम् शान्ति "अव्यक्त बापदादा" रिवाइज़ - 23-01-74 मधुबन
अब शक्ति सेना नाम को सार्थक बनाओ
क्या आप अपने को शक्ति सेना की वारियर (योद्धा) समझती हो? जैसे आपके संगठन का नाम है-शक्ति-सेना, क्या वैसी आप अपने को शक्ति समझती हो? यह नाम तो आपका परिचय देता है, क्योंकि यह कर्त्तव्य के आधार पर है। शक्ति सेना का अर्थ है - सर्व-शक्तियों से सम्पन्न आत्माओं का संगठन। तो प्रश्न है कि जैसे नाम परिचय सिद्ध करता है तो क्या वैसे प्रैक्टिकल में कर्त्तव्य भी हैं?
सर्व-शक्ति सम्पन्न बनने की युक्ति बताते हुए बाबा बोले - "सदा यह स्मृति में रखो कि बाप का नाम क्या है और बाप की महिमा क्या है?" फिर उसके बाद यह विचार करो, कि जो बाप का काम है, क्या वही मेरा भी काम है? अगर बाप के नाम को सिद्ध करने वाला काम न किया, तो बाप का नाम बाला कैसे करोगी? यह सोचो, कि बाप की यह जो महिमा है, कि वह सर्वशक्तिवान है तो वैसा ही मेरा भी स्वरूप हो, क्योंकि बाप की महिमा के अनुसार ही तो अपना स्वरूप बनाना है। बाप सर्वशक्तिमान हो और बच्चे शक्तिहीन; बाप नॉलेजफुल (ज्ञानसागर) हो और बच्चे अनपढ़ - यह शोभेगा क्या?
यह देखना है कि हर सेकेण्ड चढ़ती कला की तरफ हैं? एक सेकेण्ड भी चढ़ती कला के बजाय ठहरती कला न हो, गिरती कला की तो बात ही नहीं। आप हो पण्डे। अगर पण्डे ठहरती कला में आ गये वा रूक गये तो आपके पीछे जो विश्व की आत्माएं चलने वाली हैं वे सब रूक जावेंगी। अगर इंजन ठहर जाय तो साथ ही डब्बे तो स्वत: ही ठहर जावेंगे। आप सबके पीछे विश्व की आत्मायें हैं। आप लोगों का एक सेकेण्ड भी रूकना साधारण बात नहीं है, क्या इतनी ज़िम्मेवारी समझ कर चलती हो? विशेष स्थान पर और विशेष स्थान के रूप में सबकी नजरों में हो न? तो जब ड्रामानुसार विशेष स्थान पर विशेष पार्ट बजाने का चान्स मिला है तो अपने विशेष पार्ट को महत्व दे चलना चाहिए न? अगर अपना महत्व न रखेंगे, तो अन्य भी आपका महत्व नहीं रखेंगे। इसलिये अब अपने पार्ट के महत्व को जानो। हमारे ऊपर कोई ज़िम्मेवारी नहीं, अब यह संकल्प भी नहीं करना है। आप लोगों को देखकर कोई सौदा करता है, तो सौदा कराने वाले आप हो न?
यह तो अन्डरस्टुड (समझ) है कि अगर स्थापना की तैयारी कम है, तो विनाश की तैयारी कैसे होगी? इन दोनों का आपस में कनेक्शन (सम्बन्ध) है न? समय पर तैयार हो ही जावेंगे, यह समझना भी राँग (गलत) है। अगर बहुत समय से महाविनाश का सामना करने की तैयारी का अभ्यास न होगा तो उस समय भी सफल न हो सकेंगे। इसका बहुत समय से अभ्यास चाहिए; नहीं तो इतने वर्ष अभ्यास के क्यों दिये गये हैं? बहुत समय का कनेक्शन है, इसलिए ही ड्रामानुसार बहुत समय पुरूषार्थ के लिए भी मिला है। बहुत समय की प्राप्ति के लिये बहुत समय से पुरूषार्थ भी करना है, क्या ऐसे बहुत समय का पुरूषार्थ है? साइंस वालों को महाविनाश के लिये ऑर्डर करें? एक सेकेण्ड की ही तो बात है, इशारा मिला और किया। क्या ऐसे ही शक्ति-सेना तैयार है? एक सेकेण्ड का इशारा है - सदा देही-अभिमानी। अल्पकाल के लिये नहीं, सदा काल के लिए हो जाओ। ऐसा इशारा मिले तो आप क्या देही अभिमानी हो जावेंगे या फिर उस समय साधन ढूढेंगे, प्वाइन्टस् सोचेंगे या अपने को ठहराने की कोशिश करेंगे? इसलिए अभी से ऐसा पुरूषार्थ करो। मिलिट्री को तो अचानक ही ऑर्डर मिलते हैं न?
अपने आप प्रोग्राम बनाओ और स्वयं ही स्वयं की उन्नति करो। प्रोग्राम बनेगा तो कर लेंगे, यह भी आधार मत रखो। भट्ठी बनेगी तो तीन दिन अच्छे बीतेंगे, इसमें तो संगठन का सहयोग मिलता है। लेकिन यह आधार भी नहीं। कभी सहयोग मिल सकता है और कभी नहीं भी मिल सकता है। अभ्यास निराधार का होना चाहिए। अगर चान्स मिल जाता है, तो अच्छा ही है। न मिलने पर भी, अभ्यास से हटना नहीं चाहिए। प्रोग्राम के आधार पर, अपनी उन्नति का आधार बनाना, यह भी कमज़ोरी है। यह तो अनादि प्रोग्राम मिला हुआ है न? वह क्यों नहीं याद रखते हो? हर वक्त भट्ठी में रहना है, यह तो अनादि प्रोग्राम मिला हुआ है न?
अच्छा! जैसा अपना नाम वैसा काम करने वाले, बाप का नाम बाला करने वाले, एक सेकेण्ड में आर्डर मिलने पर तैयार हो जाने वाले और निराधार होकर पुरूषार्थ करने वाले रूहानी सैनानियों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
25-01-74
निराकार स्वरूप की स्मृति में रहने तथा आनन्द रस लेने की सहज विधि
जैसे अपना साकार स्वरूप सदा और सहज स्मृति में रहता है, क्या वैसे ही अपना निराकारी स्वरूप सदा और सहज स्मृति में रहता है? जैसे साकार स्वरूप अपना होने के कारण स्वत: ही स्मृति में रहता है, क्या वैसे निराकारी स्वरूप भी अपना है तो अपनापन सहज याद रहता है? अपनापन भूलना मुश्किल होता है। स्थूल वस्तु में भी जब अपनापन आ जाता है, तो वह स्वत: ही याद रहती है, उसे याद किया नहीं जाता है। यह भी अपना निजी और अविनाशी स्वरूप है, तो इसको याद करना मुश्किल क्यों? जानने के बाद तो, सहज स्मृति में ही रहना चाहिए। जान तो लिया है न? अब इसी स्मृति-स्वरूप के अभ्यास की गुह्यता में जाना चाहिए।
जैसे साइंस वाले हर वस्तु की गुह्यता में जाते हैं और नई-नई इन्वेन्शन (खोज) करते रहते हैं ऐसे ही अपने निजी स्वरूप और उसके अनादि गुण व संस्कार इन एक-एक गुण की डीपनेस (गहराई) में जाना चाहिए। जैसे आनन्द स्वरूप कहते हैं, तो वह आनन्द स्वरूप की स्टेज क्या है? उसकी अनुभूति क्या है, आनन्द स्वरूप होने से उसकी विशेष प्राप्ति क्या है और आनन्द कहा किसको जाता है? उस समय की स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव स्वयं पर और अन्य आत्माओं पर क्या होता है?-ऐसे हर गुण की गुह्यता में जाओ। जैसे वे लोग सागर के तले में जाते हैं और जितना अन्दर जाते हैं, उतने ही उन्हें नये-नये पदार्थ प्राप्त होते हैं। ऐसे ही आप जितना अन्तर्मुख होकर के स्वयं में खोये हुए रहोगे तो आपको बहुत नये-नये अनुभव होंगे। ऐसे महसूस करोगे जैसे कि आप इसमें खोये हुए हैं।
जैसे मच्छली पानी के अन्दर रहती हुई अपना जी-दान महसूस करती है, उसका लगाव पानी से होता है। शरीर निर्वाह-अर्थ यदि बाहर निकलेगी भी, तो एक सेकेण्ड बाहर आयी और फिर अन्दर चली जायेगी, क्योंकि बिना पानी के वह रह नहीं सकती। ऐसे आप सबकी लगन अपने निजी स्वरूप के भिन्न-भिन्न अनुभव के सागर से होनी चाहिए। कार्य-अर्थ बाह्यमुखता में आये, इन्द्रियों का आधार लिया अर्थात् साकार स्वरूपधारी स्थिति में अये लेकिन लगाव और आकर्षण उस अनुभव के सागर ही की तरफ होना चाहिए।
जैसे स्थूल वस्तु अपनी भिन्न-भिन्न रसनाओं का अनुभव कराती है न? जैसे मिश्री अपनी मिठास का अनुभव कराती है और हर गुण वाली वस्तु अपने गुण का अनुभव कराती हुई अपनी तरफ आकर्षित कराती है ऐसे ही आप अपने निजी स्वरूप के हर गुण की रसना का अनुभव अन्य आत्माओं को कराओ। तब ही आत्मायें आकर्षित होंगी। तो अब यह अनुभव करना और कराना, यही अपना विशेष कर्त्तव्य समझो। वर्णन के साथ-साथ हर गुण की अनुभूति कराओ। वह तब करा सकोगे जब स्वयं इस सागर में समाये होंगे तो क्या ऐसा समाये हुए रहते हो? इससे सहज स्मृति स्वरूप हो जाओगे।
याद कैसे करें? - इसकी बजाय यह क्वेश्चन (प्रश्न) उठे कि याद भूल कैसे सकती है? इतना परिवर्तन आ जाये। अभी तो सिर्फ थोड़ा-सा अनुभव किया है। सिर्फ चख कर देखा है। जब उसमें खो जाओगे तब कहेंगे खाया भी और स्वरूप में भी लाया। अभी बहुत अनुभव करने की आवश्यकता है। जब इस अनुभव में चले जाओगे तो फिर यह छोटी-छोटी बातें स्वत: ही किनारा कर लेंगी, अर्थात् विदाई ले लेंगी! अच्छा!
पर्सनल मुलाकात:
तुम बच्चे युद्ध-स्थल पर उपस्थित रूहानी योद्धा हो, फिर कहीं योद्धापन भूल अपनी सहज-सुखाली जीवन बिताते हुए अपने जीवन के प्रति साधन और सम्पत्ति लगाते हुए समय व्यतीत तो नहीं कर रहे हो? जैसे वारियर को धुन लगी ही रहती है विजय प्राप्त करने की, क्या ऐसी मायाजीत बनने की लगन, अग्नि की तरह प्रज्वलित है? बच्चे! अब आपके सामने सेवा का फल साधनों के रूप में और महिमा के रूप में प्राप्त होने का समय है। इसी समय अगर यह फल स्वीकार कर लिया तो फिर कर्मातीत स्टेज का फल, सम्पूर्ण तपस्वीपन का फल और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का फल प्राप्त न हो सकेगा।
कोई भी आधार पर जीवन का आधार नहीं होना चाहिए, अथवा पुरूषार्थ भी कोई भी आधार पर नहीं होना चाहिए। इससे योगबल की शक्ति के प्रयोग में कमी हो जाती है और जितना ही योगबल की शक्ति का प्रयोग नहीं करते, उतनी ही वह शक्ति बढ़ती नहीं। योगबल अभ्यास से बढ़ता ज़रूर है। जैसे कोई भी बात सामने आती है, तो स्थूल साधन फौरन ध्यान में आ जाते हैं। लेकिन स्थूल साधन होते हुए भी ट्रायल (प्रयत्न) योगबल की ही करनी है। अच्छा!
वरदान:- निश्चय के आधार पर सदा एकरस अचल स्थिति में स्थित रहने वाले निश्चिंत भव
निश्चयबुद्धि की निशानी है ही सदा निश्चिंत। वह किसी भी बात में डगमग नहीं हो सकते, सदा अचल रहेंगे इसलिए कुछ भी हो सोचो नहीं, क्या क्यों में कभी नहीं जाओ, त्रिकालदर्शी बन निश्चिंत रहो क्योंकि हर कदम में कल्याण है। जब कल्याणकारी बाप का हाथ पकड़ा है तो वह अकल्याण को भी कल्याण में बदल देगा इसलिए सदा निश्चिंत रहो।
स्लोगन:- जो सदा स्नेही हैं वह हर कार्य में स्वत: सहयोगी बनते हैं।