18-01-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त स्थिति द्वारा सेवा
आज आवाज़ से परे जाने का दिन रखा हुआ है। तो बापदादा भी आवाज़ में कैसे आयें? आवाज़ से परे रहने का अभ्यास बहुत आवश्यक है। आवाज़ में आकर जो आत्माओं की सेवा करते हो, उससे अधिक आवाज़ से परे स्थिति में स्थित होकर सेवा करने से सेवा का प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकेंगे। अपनी अव्यक्ति स्थिति होने से अन्य आत्माओं को भी अव्यक्त स्थिति का एक सेकेण्ड में अनुभव कराया तो वह प्रत्यक्षफल-स्वरूप आपके सम्मुख दिखाई देगा। आवाज़ से परे स्थिति में स्थित हो फिर आवाज़ में आने से वह आवाज़, आवाज़ नहीं लगेगा। लेकिन उस आवाज़ में भी अव्यक्ति वायब्रेशन का प्रवाह किसी को भी बाप की तरफ आकर्षित करेगा। वह आवाज़ सुनते हुये उन्हों को आपकी अव्यक्त स्थिति का अनुभव होने लगेगा। जैसे इस साकार सृष्टि में छोटे बच्चों को लोरी देते हैं, वह भी आवाज़ होता है लेकिन वह आवाज़, आवाज़ से परे ले जाने का साधन होता है। ऐसे ही अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर आवाज़ में आओ तो आवाज़ से परे स्थिति का अनुभव करा सकते हो। एक सेकेण्ड की अव्यक्त स्थिति का अनुभव आत्मा को अविनाशी सम्बन्ध में जोड़ सकता है। ऐसा अटूट सम्बन्ध जुड़ जाता है जो माया भी उस अनुभवी आत्मा को हिला नहीं सकती। सिर्फ आवाज़ द्वारा प्रभावित हुई आत्माएं अनेक आवाज़ सुनने से आवागमन में आ जाती हैं। लेकिन अव्यक्त स्थिति में स्थित हुए आवाज़ द्वारा अनुभवी आत्मायें आवागमन से छूट जाती हैं। ऐसी आत्मा के ऊपर किसी भी रूप का प्रभाव नहीं पड़ सकता। सदैव अपने को कम्बाइन्ड समझ, कम्बाइन्ड रूप की सर्विस करो अर्थात् अव्यक्त स्थिति और फिर आवाज़।
दोनों की कम्बाइन्ड रूप की सर्विस वारिस बनायेगी। सिर्फ आवाज़ द्वारा सर्विस करने से प्रजा बनती जा रही है। तो अब सर्विस में नवीनता लाओ। (इस प्रकार की सर्विस करने का साधन कौनसा है?) जिस समय सर्विस करते हो उस समय मंथन चलता है, लेकिन ‘याद में मगन’ -- यह स्टेज मंथन की स्टेज से कम होती है। दूसरे के तरफ ध्यान अधिक रहता है, अपनी अव्यक्त स्थिति की तरफ ध्यान कम रहता है। इस कारण ज्ञान के विस्तार का प्रभाव पड़ता है लेकिन लगन में मगन रहने का प्रभाव कम दिखाई देता है। रिजल्ट में यह कहते हैं कि ज्ञान बहुत ऊंचा है। लेकिन मगन रहना है -- यह हिम्मत नहीं रखते। क्योंकि अव्यक्त स्थिति द्वारा लगन का अर्थात् सम्बन्ध जोड़ने का अनुभव नहीं किया है। बाकी थोड़ा कणा-दाना लेने से प्रजा बन जाती है। अब के सम्बन्ध जुटने से ही भविष्य सम्बन्ध में आयेंगे, नहीं तो प्रजा में। तो नवीनता यही लानी है, जो एक सेकेण्ड में अव्यक्ति अनुभव द्वारा सम्बन्ध जोड़ना है। सम्बन्ध और सम्पर्क -- दोनों में फर्क है। सम्पर्क में आते हैं, सम्बन्ध में नहीं आते। समझा?
आज के दिन अव्यक्त स्थिति का अनुभव किया है। यही अनुभव सदाकाल कायम रखते रहो तो औरों को भी अनुभव करा सकेंगे। आजकल वाणी व अन्य साधन अनेक प्रकार से अनेकों द्वारा आत्माओं को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन अनुभव सिवाय आप लोगों के अन्य कोई नहीं कर सकते हैं, न करा सकते हैं। इसलिये आज के समय में यह अनुभव कराने की आवश्यकता है। सभी के अन्दर अभिलाषा भी है, थोड़े समय में अनुभव करने के इच्छुक हैं। सुनने के इच्छुक नहीं हैं। अनुभव में स्थित रह अनुभव कराओ। सभी का स्नेह वतन में मिला। सुनाया था - तीन प्रकार की याद और स्नेह वतन में पहुँची। वियोगी, योगी और स्नेही। तीनों ही रूप का याद-प्यार बापदादा को मिला। रिवाइज कोर्स के वर्ष भी समाप्त होते जा रहे हैं। वर्ष समाप्त होने से स्टूडेंट को अपनी रिजल्ट निकालनी होती है। तो इस वर्ष की रिजल्ट में हरेक को अपनी कौनसी रिजल्ट निकालनी है? इसकी मुख्य चार बातें ध्यान में रखनी हैं। एक -- अपने में सर्व प्रकार की श्रेष्ठता कितनी है? दूसरा -- सम्पूर्णता में वा सर्व के सम्बन्ध में समीपता कितनी आई है? तीसरा-- अपने में वा दूसरों के सम्बन्ध में सन्तुष्टता कहाँ तक आई है? और चौथा - अपने में शूरवीरता कहाँ तक आई है? यह चार बातें अपने में चेक करनी हैं। आज के दिन अपनी रिजल्ट को चेक करने का कर्त्तव्य पहले करना है। आज का दिवस सिर्फ स्मृति-दिवस नहीं मनाना लेकिन आज का दिवस समर्थी बढ़ाने का दिवस मनाना। आज का दिवस स्थिति वा स्टेज ट्रान्सफर करने का दिवस समझो। जैसे आजकल ट्रान्सपेरेंट चीजें अच्छी लगती हैं ना। वैसे अपने को भी ऐसी ट्रान्सपेरेंट स्थिति में ट्रान्सफर करना है। आज के दिन का महत्व समझा? ऐसे ट्रान्सपेरेंट हो जाओ जो आपके शरीर के अन्दर जो आत्मा विराजमान है वह स्पष्ट सभी को दिखाई दे। आपका आत्मिक स्वरूप उन्हों को अपने आत्मिक स्वरूप का साक्षात्कार कराये। इसको ही कहते हैं अव्यक्ति वा आत्मिक स्थिति का अनुभव कराना।
आज याद के यात्रा की रिजल्ट क्या थी? स्नेह स्वरूप थी या शक्ति स्वरूप थी? यह स्नेह भी शक्ति का वरदान प्राप्त कराता है। तो आज स्नेह का वरदान प्राप्त करने का दिवस है। एक होती है पुरूषार्थ से प्राप्ति दूसरी होती है वरदान से प्राप्ति। तो आज का दिन पुरूषार्थ से शक्ति प्राप्त करने का नहीं लेकिन स्नेह द्वारा शक्ति का वरदान प्राप्त करने का दिवस है। आज के दिन को विशेष वरदान का दिन समझना। स्नेह द्वारा कोई भी वरदाता से वर प्राप्त हो सकता है। समझा पुरूषार्थ द्वारा नहीं लेकिन स्नेह द्वारा। किसने कितना वरदान लिया है वह हरेक के ऊपर है। लेकिन स्नेह द्वारा सभी समीप आकर वरदान प्राप्त कर सकते हैं। वरदान के दिवस को जितना जो समझ सके उतना ही पा सकता है। कैच करने वाले की कमाल होती है। आज के वरदान दिवस पर जो जितना कैच कर सके उन्होंने उतना ही वरदान प्राप्त किया। जैसे पुरूषार्थ करते हो एक बाप के सिवाय और कोई याद आकर्षित न करे ऐसे आज का दिन सहज याद का अनुभव किया। अच्छा।
21-01-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अब नहीं तो कब नहीं
आज बापदादा हरेक बच्चे के मस्तक में क्या देखते हैं? बाप जब बच्चों को देखते हैं तो यह शुभ भावना होती है कि हरेक बच्चा ऊंच ते ऊंच भाग्य बनाये। वर्तमान समय वरदाता के रूप में वरदान देने के लिये आये हुये होते भी हरेक आत्मा यथा योग यथा शक्ति वरदाता से वरदान प्राप्त करती रहती है। इस समय को विशेष वरदान है -- सर्व आत्माओं को वरदान प्राप्त कराने का। अब नहीं तो कब नहीं। आज इन आत्माओं (राज्यपाल तथा उनकी युगल) को भी वरदान प्राप्त करने का शुभ दिवस कहेंगे। सारे कल्प के अंदर यह अलौकिक मिलन बहुत थोड़े से पद्मापदम भाग्यशाली आत्माओं का ही होता है। सम्पर्क के बाद सम्बन्ध में आना है। क्योंकि सम्बन्ध से ही श्रेष्ठ प्राप्ति होती है। दो शब्द सदैव याद रखना-एक स्वयं को; दूसरा समय को याद रखना। अगर ‘स्वयं’ को और दूसरा ‘समय’ को सदैव याद रखते रहेंगे तो इस जीवन में अनेक जन्मों के लिये श्रेष्ठ प्रालब्ध पा सकते हैं।
राज्यपाल तथा उनकी युगल से मुलाकात
अपने असली घर में आये हो -- ऐसे महसूस करते हो? अपने घर में कितना जल्दी आना होता है, मालूम है? जैसे ड्यूटी से ऑफ होने के बाद अपना घर याद आता है। इसी रीति से अपने इस शरीर निर्वाह की ड्यूटी से ऑफ होने के बाद अपना घर याद आना चाहिये। सम्बन्ध को बढ़ाना है। एक सम्बन्ध को बढ़ाने से अर्थात् इस सम्बन्ध की आवश्यकता समझने से अनेक प्रकार की आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती हैं। सभी आवश्य- कताएं पूर्ण करने के लिये एक आवश्यकता समझने की है। जैसे शरीर निर्वाह के लिये अनेक साधन आवश्यक समझते हैं, वैसे आत्मिक उन्नति के लिये एक साधन आवश्यक है। इसलिये सदैव अपने को अकालमूर्त समझते चलेंगे तो अकाले मृत्यु से भी, अकाल से, सर्व समस्याओं से बच सकेंगे। मानसिक चिन्ताएं, मानसिक परिस्थितियों को हटाने का एक ही साधन याद रखना है -- सिर्फ अपने इस पुराने शरीर के भान को मिटाना है। इस देह-अभिमान को मिटाने से सर्व परिस्थितियाँ मिट जायेंगी। अब कुछ पूछने का रहा ही नहीं। सिर्फ सम्बन्ध में आते रहना। सभी से मिलने के लिये फिर आयेंगे। अब सभी से छुट्टी।
21-01-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त वतन का अलौकिक निमंत्रण
आज मिलने के लिए बुलाया है। यह अव्यक्त मिलन अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर ही मना सकते हो। समझ सकते हो? आज देख रहे हैं - कौन-कौन कितने शक्ति-स्वरूप बने हैं? आप लोगों के चित्रों में नम्बरवार शक्तियों का यादगार दिखाया हुआ है। शक्तियों की परख किन चित्रों द्वारा कर सकते हैं, मालूम है? आपको अपने शक्तियों को परखने का चित्र मालूम नहीं है! भिन्न-भिन्न नम्बरवार शक्तियों का यादगार बना हुआ है। अपना चित्र भूल गये हो! शक्तियों के चित्रों में भिन्न-भिन्न रूप से और फिर भुजाओं के रूप में नम्बरवार शक्तियों का यादगार है। उन चित्रों में कहाँ कितनी भुजायें, कहाँ कितनी दिखाते हैं। कोई अष्ट शक्तियों को धारण करने वाली बनती हैं, कोई उससे अधिक, कोई उससे कम। कहाँ 4 भुजाएं, कहाँ 8 भुजाएं, कहाँ 16 भी दिखाते हैं, नम्बरवार। तो आज देख रहे हैं - हरेक ने कितनी शक्तियों की धारणा की है। मास्टर सर्वशक्तिवान कहलाते हैं ना। मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों को धारण करने वाले। अपने शक्ति-स्वरूप का साक्षात्कार होता है? अव्यक्त वतन में हरेक का शक्ति रूप देखते हैं तो क्या दिखाई देता होगा? वतन में भी बापदादा की अलौकिक प्रदर्शनी है। उनके चित्र कितने होंगे? आप के चित्र गिनती में आ सकते हैं लेकिन बापदादा के प्रदर्शनी के चित्र गिन सकते हो? बापदादा निमन्त्रण देते हैं। निमन्त्रण देने वाला तो निमन्त्रण देता है, आने वालों का काम है पहुँचना। बापदादा आप सभी से करोड़ गुणा ज्यादा खुशी से निमन्त्रण देते हैं। हरेक को अनुभव हो सकता है। अव्यक्त स्थिति का अनुभव कुछ समय लगातार करो तो ऐसे अनुभव होंगे जैसे साइन्स द्वारा दूर की चीजें सामने दिखाई देती हैं, ऐसे ही अव्यक्त वतन की एक्टिविटी यहाँ स्पष्ट दिखाई देगी। बुद्धिबल द्वारा अपने सर्वशक्तिवान के स्वरूप का साक्षात्कार कर सकते हैं। वर्तमान समय स्मृति कम होने के कारण समर्थी भी नहीं है। व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ शब्द, व्यर्थ कर्म हो जाने कारण समर्थ नहीं बन सकते हो। व्यर्थ को मिटाओ तो समर्थ हो जायेंगे। पुरूषार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूप वतन में हरेक के देखते रहते हैं। बहुत अच्छा ल्गता है। हरेक अपने आप को इतना नहीं देखते होंगे जितना वतन में हरेक के अनेक रूप देखते हैं। आप लोग भी एक दिन खास अटेन्शन देकर देखना कि सारे दिन में मेरे कितने और कैसे रूप हुए। फिर बहुत हँसी आयेगी - भिन्न-भिन्न पोज़ देखकर। आजकल एक के ही बहुत पोज़ निकालते हैं। तो अपने भी देखना। अपने बहु रूपों का साक्षात्कार करना। वतन में आने की दिल तो सभी की होती है लेकिन अपने आप से पूछो - जो ब्राह्मणपन के कर्त्तव्य करने हैं वह सभी किये हैं? सर्व कर्त्तव्य सम्पन्न करने के बाद ही सम्पूर्ण बनेंगे। अब का समय ऐसा चल रहा है जो एक-एक कदम अटेन्शन रखकर चलने का है। अटेन्शन न होने के कारण पुरूषार्थ के भी टेन्शन में रहते हैं। एक तरफ वातावरण का टेन्शन रहता है, दूसरे तरफ पुरूषार्थ का भी टेन्शन रहता है। इसलिए सिर्फ एक शब्द ऐड करो - अटेन्शन। फिर यह बहुरूप एक ही सम्पूर्ण रूप बन जायेगा। इसलिए अब कदम-कदम पर अटेन्शन। सुनाया था कि आजकल सर्व आत्मायें सुख और शान्ति का अनुभव करने चाहती हैं। ज्यादा सुनने नहीं चाहती हैं। अनुभव कराने के लिए स्वयं अनुभव-स्वरूप बनेंगे तब सर्व आत्माओं की इच्छा पूर्ण कर सकेंगे। दिन-प्रतिदिन देखेंगे - जैसे धन के भिखारी भिक्षा लेने के लिए आते हैं वैसे शान्ति के अनुभव के भिखारी आत्मायें भिक्षा लेने के लिए तड़पेंगी। अब सिर्फ एक दु:ख की लहर आयेगी तो जैसे लहरों में लहराती हुई आत्मायें वा लहरों में डूबती हुई आत्मा एक तिनके का भी सहारा ढूँढ़ती है, ऐसे आप लोगों के सामने अनेक भिखारी आत्मायें यह भीख मांगने के लिए आयेंगी। तो ऐसी तड़पती हुई या भिखारी प्यासी आत्माओं की प्यास मिटाने के लिए अपने को अतीन्द्रिय सुख वा सर्व शक्तियों से भरपूर किया हुआ अनुभव करते हो? सर्व शक्तियों का खज़ाना, अतीन्द्रिय सुख का खज़ाना इतना इकठ्ठा किया है जो अपनी स्थिति तो कायम रहे लेकिन अन्य आत्माओं को भी सम्पन्न बना सको। सर्व की झोली भरने वाले दाता के बच्चे हो ना। अब यह दृश्य बहुत जल्दी सामने आयेगा।
डाक्टर लोग भी कोई को इस बीमारी की दवाई नहीं दे सकेंगे। तब आप लोगों के पास यह औषधि लेने के लिए आयेंगे। धीर-धीरे यह आवाज़ फैलेगा कि सुख-शान्ति का अनुभव ब्रह्माकुमारियों के पास मिलेगा। भटकते-भटकते असली द्वार पर अनेकानेक आत्मायें आकर पहुँचेंगी। तो ऐसे अनेक आत्माओं को सन्तुष्ट करने के लिए स्वयं अपने हर कर्म से सन्तुष्ट हो? सन्तुष्ट आत्मायें ही अन्य को सन्तुष्ट कर सकती हैं। अब ऐसी सर्विस करने के लिए अपने को तैयार करो। ऐसी तड़फती हुई आत्मायें सात दिन के कोर्स के लिए भी ठहर नहीं सकेंगी। तो उस समय उन आत्माओं को कुछ-न-कुछ अनुभव की प्राप्ति करानी होगी। इसलिए कहा कि अब अपने ब्राह्मणपन के कर्त्तव्य को सम्पन्न करने के लिए अपने को सम्पूर्ण बनाते रहो। अब समझा-कौनसी सर्विस करनी है? जब तक आप व्यक्त में बिज़ी हो, बापदादा अव्यक्त में भी मददगार तो हैं ना। हिम्मते बच्चे मददे बाप। तो बताओ ज्यादा बिज़ी कौन होगा? जैसे शुरू में वतन का अनुभव कराते थे ना। ऐसा अनुभव करते थे जो ध्यान में जाने वालों से भी अच्छा होता था (बाबा आप अभी भी अनुभव कराओ) अनुभव करो। बुद्धि का विमान तो है ही। कोई-कोई बच्चे कोई बात की जिद्द करते हैं तो बाप को कहना मानना पड़ता है। अब अनुभव करने की जिद्द करो। अच्छा।
पार्टियों से मुलाकात
प्रजा तो त्रेता के अन्त वाली चाहिए। द्वापर युग के लिए भक्त चाहिए। भक्त भी बनाओ और प्रजा भी बनाओ। अब तो ऐसा समय आयेगा -- देते जाओ, झोली भरते जाओ। इतनी तड़पती हुई आत्मायें आयेंगी, उन्हें बूँद भी देंगे तो खुश हो जायेंगी। ऐसा समय अब आने वाला है। जैसे वह सुनाते हैं मिनट मोटर (सिक्के पर छाप की मशीन), ऐसी मशीनरी चलेगी। दृष्टि, वृत्ति, स्मृति, वाणी सभी से सर्विस चलेगी। आपका घर भी आश्रम है। उनमें से जो भी निकलेंगे वह स्वयं सेन्टर पर जाने के लिए रूक नहीं सकेंगे। इन्होंने तो सर्विस की स्थापना में धक्के खाये हैं। आप लोग तो बने-बनाये पर आये हो। इन्होंने मेहनत कर मक्खन निकाला, आप खाने पर आ गये लेकिन मक्खन खाने वाले कितने शक्तिशाली होने चाहिए? सदैव यह ख्याल रखो कि जो भी आत्मायें सम्पर्क में आती हैं उनको जो आवश्यकता है वह मिले। रोटी की आवश्यकता वाले को पानी दे दो तो... किसको मान देना पडता है, उसको कहो जाकर दरी पर बैठो तो कैसे बैठेगा! कोई को दरी पर बिठाकर कोर्स कराया जाता है कोई को सोफे पर। अभी गवर्नर आया तो क्या किया? रिगार्ड दिया ना। अगर रिवाजी रीति से चलाओ तो चल न सके। कहाँ रिगार्ड देकर लेना पड़ता है। सभी को एक जैसा डोज़ देने से बीमार भी पड़ जाते हैं। आजकल डाक्टर्स के पास पेशेन्टस जाते हैं तो लम्बा कोर्स नहीं चाहते हैं। आया इन्जेक्शन लगाया और खलास। यहाँ भी ऐसे है, आया और उनको उड़ाया। ऐसी सर्विस करते हो? स्वभाव से भी सर्विस कर सकते हो। ड्रामा अनुसार किसको स्वभाव भी अच्छा मिलता है तो उस स्वभाव की भी मदद है। सहेली बनाकर किसको अनुभव से भी प्रभावित कर सकते हैं। छोड़ न दो कि यह ज्ञान सुनते नहीं हैं। पहले सम्पर्क में लाकर फिर सम्बन्ध में लाओ। स्वभाव से भी किसको समीप ला सकते हो। इसका प्रयोग करो।
तुम सभी विश्व के कल्याण के आधारमूर्त हो। अपने को आधारमूर्त समझेंगे तो बहुतों का उद्धार कर सकेंगे। जो ऐसी सर्विस करते हैं वह उस खाते में, जैसे बैंक में भिन्न-भिन्न खाते होते हैं, जो जो जिसकी सर्विस करने के निमित्त बनते हैं वह उस समय ऐसे ही खाते में जमा होते हैं। फाउन्डेशन जितना गहरा डालेंगे उतना मज़बूत होगा। फाउन्डेशन तो डालते हैं लेकिन गहराई में डालने से, जैसे सुनाया कि सम्पर्क में तो लाया है परन्तु सम्बन्ध में लाना है। जो अनेकों को सम्बन्ध में लाता है वह नज़दीक सम्बन्ध में आयेगा। जो अनेकों को सम्पर्क में लाते हैं वह वहाँ भी नज़दीक सम्पर्क में आयेगा।
2. सारे दिन के पोतामेल को ठीक रीति से निकाल सकते हो? यह मालूम पड़ता है कि मेल गाड़ी की रफ्तार है? बापदादा के संस्कारों से मेल करना है। आप लोगों को, जिन्होंने साकार रूप से साथ रहकर सेकेण्ड के संकल्प, संस्कार का अनुभव किया है, उनसे मेल करना है। औरों को बुद्धियोग से खींचना पड़ता है। आप लोगों को सिर्फ सामने लाना पड़ता है। इसलिए संकल्प, संस्कार को मिलाते जाना है। समय नष्ट नहीं करना है, फौरन निर्णय करना है कि क्या करना है, क्या नहीं करना है? इसमें समय की भी बचत है और बुद्धि की शक्ति भी जो नष्ट होती है उसकी भी बचत है। अपने पुरूषार्थ से सन्तुष्ट हो? सम्पूर्ण होने का क्या प्लैन बनाया है? अपने को जब बदलेंगे तब औरों की सर्विस करेंगे। सन्तुष्टता में सर्टिफिकेट मिला है? मनपसन्दी के साथ-साथ लोक पसन्द बनना है। सर्टिफिकेट एक तो जो रेसपान्सिबुल हैं उन्होंने दिया तो लोकपसन्द हुए, रचना को भी सन्तुष्ट रखना है। उन्हों की चलन से ही कैच करना है कि सन्तुष्ट हैं? जब कोई मधुबन में आते हैं तो निमित्त बनी हुई बहनों द्वारा अपना सर्टिफिकेट ले जावें।
यह सभी सर्टिफिकेट धर्मराज पुरी में काम आयेंगे। जैसे रास्ते में कार चलाने वाले को सर्टिफिकेट होता है तो दिखा देने से रास्ता पार कर लेते हैं। ऐसे धर्मराजपुरी में भी यह सर्टिफिकेट काम में आयेगा। इसलिए जितना हो सके सर्टिफिकेट लेते जाओ। क्योंकि ट्रिब्युनल में भी यही महारथी बैठते हैं। इन्हों की सर्टिफिकेट काम में आयेगी। यहाँ से सर्टिफिकेट ले जाने से दूसरी आत्माओं को सैटिस्फाय करने की विशेषता आयेगी। अनुभवी बहनें अनेकों को सैटिस्फाय करने की शिक्षा देती हैं। अनेकों को सैटिस्फाय करने की युक्ति है सर्टिफिकेट।
स्नेही बनना आता है या शक्ति बनना आता है? शक्ति भरने वाले जो रचयिता हैं उनकी रचना भी शक्तिशाली होने के कारण पुरूषार्थ में कब कैसे, कब कैसे डगमग नहीं होंगे। अगर स्टूडेन्ट डगमग होते हैं तो उससे परख सकते हैं कि शक्ति भरने की युक्ति नहीं है। समीप लाना यही विशेषता है। शक्तिशाली बनाना जो माया से मुकाबला कर लें। यह ऐड कर देना। विघ्न आवे भी लेकिन ज्यादा समय न चले। आया और गया - यह है शक्ति रूप की निशानी। जो अपने से सन्तुष्ट होता है वह दूसरों से भी सन्तुष्ट रहता है। और कोई असन्तुष्ट करे भी परन्तु स्वयं सन्तुष्ट हैं, तो सभी उनसे सन्तुष्ट हो जायेंगे। दूसरे की कमी को अपनी कमी समझकर चलेंगे तो खुद भी सम्पूर्ण बन जायेंगे। यह कभी नहीं सोचो कि इस कारण से मेरा पुरूषार्थ ठीक नहीं चलता। मेरी कमजोरी है, ऐसा समझने से उन्नति जल्दी हो सकती है। नहीं तो दूसरे की कमी के फैसले में ही समय बहुत जाता है।
साकार स्नेही हो या निराकार स्नेही हो? निराकार स्नेही जो होते हैं उनकी यह विशेषता ज्यादा होती है कि वह निराकारी स्थिति में ज्यादा स्थित होंगे, साकार स्नेहीचरित्रवान होंगे। उनका एक-एक चरित्र सर्विसएबुल होगा। दूसरा वह औरों को भी स्नेह में ज्यादा ला सकेंगे। निराकारी, निरहंकारी दोनों समान चाहिए।
बालक बनना अच्छा है या मालिक बनना अच्छा है? जितना हो सके सर्विस के सम्बन्ध में बालकपन, अपने पुरूषार्थ की स्थिति में मालिकपन। सम्पर्क और सर्विस में बालकपन, याद की यात्रा और मंथन करने में मालिकपन। साथियों और संगठन में बालकपन और व्यक्तिगत में मालिकपन - यह है युक्तियुक्त चलना।
सदा उमंग हुल्लास में एकरस रहने के लिए कौन सी पॉइन्ट याद रहे? उसके लिए जो सदैव सम्बन्ध में आते - चाहे स्टूडेन्ट, चाहे साथी सभी को सन्तुष्ट करने की उत्कंठा हो। उत्साह में रहने से जो ईश्वरीय उमंग उत्साह है वह सदा एकरस रहेगा। जिसको देखो उससे हर समय गुण उठाते रहो। सर्व के गुणों का बल मिलने से सदाकाल के लिए उत्साह रहेगा। उत्साह कम होने का कारण औरों के भिन्न-भिन्न स्वरूप, भिन्न-भिन्न बातें देखना, सुनना, गुण देखने की उत्कण्ठा हो तो एकरस उत्साह रहे। गुण चोर होने से और चोर भाग जायेंगे। सर्व पर विजयी बनने की युक्ति क्या है? विजयी बनने के लिए हरेक के दिल के राज़ को जानना है। जब हरेक के मुख के आवाज़ को देखते हो, तो आवाज़ देखने से उनके दिल के राज़ को नहीं जान सकते। दिल के राज़ को जानने से सर्व के दिलों के विजयी बन सकते हो। दिल के राज़ को जानने के लिए अन्तर्मुखता चाहिए। जितना राज़ को जानेंगे उतना सर्व को राज़ी कर सकेंगे। जितना राज़ी करेंगे उतना राज़ को जानेंगे। तब विजयी बन सकेंगे।
सरलचित्त की निशानी क्या है? जो स्वयं सरलचित्त रहता है वह दूसरों को भी सरलचित्त बना सकता है। सरलचित्त माना जो बात सुनी, देखी, की, वह सार-युक्त हो और सार को ही उठाये और जो बात वा कर्म स्वयं करे उसमें भी सार भरा हुआ हो। तो पुरूषार्थ भी सरल होगा और जो सरल पुरुषार्थी होता है वह औरों को भी सरल पुरुषार्थी बना देता है। सरल पुरुषार्थी सब बातों में आलराउन्ड होगा। कोई भी बात की कमी दिखाई नहीं देगी। कोई भी बात में हिम्मत कम नहीं होगी। मुख से ऐसा बोल नहीं निकलेगा कि यह अभी नहीं कर सकते हैं। यह एक मुख्य अभ्यास प्रैक्टिकल में लाने से सब बातों में सैम्पुल बन सकते हैं। सर्व बातों में सैम्पल बनने से पास विद् आनर बन सकते हैं। ऐसा कभी कोई बात में कहते हो, अभ्यास नहीं है। आलराउन्ड बनना दूसरी बात है, यह हुई कमाई। आलरा- उन्ड एग्ज़ाम्पल बनना दूसरी बात है। हर बात अन्य के आगे सैम्पुल बनकर दिखाना। हर बात में कदम आगे बढ़ाना अपने द्वारा सभी को कमाई में हुल्लास दिलाना - यह है आलराउन्ड एग्जाम्पुल बनना।
सेन्स में ज्यादा रहते हो या इसेन्स में? सेन्सिबल जो होते हैं वह इतने सफलतामूर्त नहीं बन सकते हैं, इसेन्स में रहने वालों की खुशबू अधिक समय चलती है। उनका प्रभाव सदाकाल चलता है। जो सिर्फ सेन्स में रहते हैं उनका प्रभाव तो रहता है परन्तु हर समय नहीं। सभी के गले में विजय माला पड़ी है लेकिन नम्बरवार। कोई के गले में बड़ी तो कोई के गले में छोटी। इसका कारण क्या है? जितना-जितना शुरू से लेकर मन्सा में, वाचा में, कर्मणा में आई हुई समस्याओं या विघ्नों के ऊपर विजयी बने हैं, उस अनुसार विजय माला हरेक की बनती है। शुरू से लेकर देखो तो मालूम पड़ सकता है कि मेरी विजय माला कितनी बड़ी है! आजकल छोटी माला भी बनाते तो बड़ी भी बनाते हैं। जो जितना-जितना विजयी बनते हैं उतना ही बड़ी विजयमाला पहनते हैं। यह जो चतुर्भुज में विजय माला की निशानी है सिर्फ एक की नहीं, यह विजयी रत्नों की निशानी है। तो हरेक अपनी-अपनी विजय माला का साक्षात्कार कर सकते हो। जितना विजय माला पहनने के अधिकारी बनेंगे उतना ही ताज तख्त उस प्रमाण प्राप्त होगा। तो इस समय विजय माला के प्रमाण अपना भविष्य तख्त भी समझ सकते हो। यहाँ ही अब सभी को साक्षात्कार होना है। साक्षात्कार सिर्फ दिव्य दृष्टि से नहीं, प्रत्यक्ष साक्षात्कार भी होना है। प्रत्यक्ष का प्रमाण यह भी साक्षात्कार है। इसलिए पूछा कि कितनी बड़ी है - विजय माला। एक है सर्विस का बल, दूसरा है स्नेह का बल, इसलिए एक्स्ट्रा बल मिलने कारण विशेष सर्विस हो रही है। जो स्वयं में शारीरिक के हिसाब से शक्ति नहीं समझते हैं लेकिन यह बल होने के कारण जैसे और कोई चला रहा है। ऐसा अनुभव करते हैं। निमित्त बनने से बहुत एक्स्ट्रा बल मिलता है। जैसे साकार रूप में निमित्त बनने से एक्स्ट्रा बल था। ऐसे इसमें भी है। अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होने से क्या होता है? अतीन्द्रिय सुख मिलने से जो इन्द्रियों के सुख का आकर्षण है वह समाप्त हो जाता है। जो दु:ख देने वाली चीज है, वह कौनसी है? इन्द्रियों का आकर्षण, सम्बन्ध का आकर्षण वा कोई भी कर्मेन्द्रियों के वश होने से जो भिन्न-भिन्न आकर्षण होते हैं वह अतीन्द्रिय सुख वा हर्ष दिलाने में बन्धन डालते हैं। एक ठिकाने बुद्धि टिक जाने से एकरस अवस्था रहती है। इसलिए सदैव बुद्धि को एक ठिकाने में टिकाने की जो युक्ति मिली है वह स्मृति में रखो। हिलने न दो। हिलना अर्थात् हलचल पैदा करना। फिर समय भी बहुत व्यर्थ जाता है। युद्ध में समय बहुत जाता है। शक्तियों के चित्र में शक्तियों की निशानी क्या दिखाते हैं? एक तो वह अलंकारी हैं, दूसरा संहारी भी हैं। अलंकार किसलिए हैं? संहार करने के लिए। ऐसे ही अलंकारी संहारकारी मूर्त अपने को समझकर चलते चलो। जब यह स्मृति में रहेगा कि मैं संहार मूर्त हूँ तो वे माया के वश कभी नहीं होंगे। सदैव यह चेक करना है कि अलंकार सभी ठीक रीति से धारण किये हुए हैं! कोई भी अलंकार अगर धारण नहीं किये हुए हैं तो विजयी नहीं बन सकते हैं। जैसे सुहागिन होती है, वह सदैव अपने सुहाग की निशानी को कायम रखती है। जैसे देखो कभी भी अपना स्थूल श्रृंगार कम हो जाता है, नीचे ऊपर होता है तो उसको बार-बार ठीक करते हैं। इसलिए कोई भी अलंकार रूपी श्रृंगार बिगड़ा हुआ है तो उसको ठीक करना है। जो अति पुराने होते हैं उनको पूरा अधिकार लेकर जाना है। अधिकार लेने के लिए ही अपने ऊपर छाप लगाने लिए मधुबन में आते हैं। यह मधुबन है फाइनल ठप्पा वा छाप लगाने का स्थान। जैसे पोस्ट आफिस होती है, उसमें जब फाइनल ठप्पा लगाते हैं तब चिट्ठी जाती है। यह भी स्वर्ग के अधिकारी बनने का छाप मधुबन है। मधुबन में आना अर्थात् करोड़ गुणा कमाई करना। जो विघ्न-विनाशक होते हैं वह विघ्नहार नहीं बन सकते। कम्बाइन्ड अपने को समझो। बापदादा तो सेकेण्ड, सेकेण्ड का साथी है। जब से जन्म लिया है तब से लेकर साथ है। यहाँ जन्म भी इस समय होता है, साथी भी इस समय मिलता है। लौकिक में जन्म पहले होता है और साथी बाद में। यहाँ अभी-अभी जन्म, अभी-अभी साथी।
बम्बई नगरी में रहते हुए प्रूफ़ हो? जो स्वयं प्रूफ़ नहीं हैं वह औरों के आगे प्रूफ़ (सबूत) भी नही बन सकते। धारणा वाली जीवन औरों के आगे प्रूफ बन जाती है। प्रूफ़ कौन बन जाता है? जो प्रूफ़ है। बम्बई में जास्ती पूजा किसकी होती है? गणेश की। उसको विघ्न-विनाशक कहते हैं, गणेश का अर्थ है मास्टर नॉलेज- फुल, विद्यापति। मास्टर नॉलेजफुल कभी हार नहीं खा सकते। क्योंकि नॉलेज को ही लाइट-माइट कहते हैं। फिर मंज़िल पर पहुँचना सहज हो जाता है। मंज़िल पर पहुँचने के लिए लाइट माइट दोनों चाहिए। अपनी सूरत को ऐसा करना है - जो आपकी सूरत से बापदादा दोनों दिखाई दें। जो भी कर्म करते हो वह हर कर्म में बापदादा के गुण प्रत्यक्ष हों। बापदादा के मुख्य गुण कौन से वर्णन करते हो?ज्ञान, प्रेम, आनन्द, सुख-शान्ति का सागर। जो भी कर्म करो वह सब ज्ञान सहित हों। हर कर्म द्वारा सर्व आत्माओं को सुख-शान्ति, आनंद का अनुभव हो। इसको कहते हैं बाप के गुणों की समानता। आपको समझाने की आवश्यकता नहीं। आपके कर्म देख उन्हों के दिल में संकल्प उठे कि यह किसके बच्चे, किस द्वारा ऐसे बने। स्टूडेन्ट भी अगर पढ़ने में अच्छा स्कॉलरशिप लेने वाला होता है तो उनको देख टीचर की याद आती है। इसलिए कहावत है स्टूडेन्ट शोज़ टीचर यह भी सर्विस करने का तरीका है। अलौकिक जन्म का हर कर्म सर्विस प्रति हो। जितना सर्विस करेंगे उतना भविष्य ऊंचा। जितना अपने को सर्विस में बिजी रखेंगे उतना माया के वार से बच जायेंगे। बुद्धि को एंगेज कर दिया तो कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। यह भी संगमयुग का वरदान है - एकरस अवस्था, एक का ही ध्यान, एक की ही सर्विस में जितना जो कोई वरदान ले। जैसे कोई नशे में रहता है उसको और कुछ सूझता नहीं, ऐसे इस ईश्वरीय नशे में रहने से और दुनिया की आकर्षण से परे हो जायेंगे।
(कोई बांधेली ने पूछा - बाबा हम बांधेली हैं, हमको संकल्प चलता है कि हम सर्विस नहीं करती हैं?)
बांधेली स्वतन्त्र रहने वालों से अच्छी हैं। स्वतन्त्र अलबेले रहते हैं। बांधेली की लगन अच्छी रहती है। याद को पावरफुल बनाओ। याद कम होगी तो शक्ति नहीं मिलेगी। याद में रहते यह व्यर्थ न सोचो कि सर्विस नहीं करती। उस समय भी याद में रहो तो कमाई जमा होगी। यह सोचने से याद की पावर कम होगी। बन्धन से मुक्त करने के लिए अपनी चलन को चेन्ज करो। जो घर वाले देखें कि यह चेन्ज हो गई है। जो कड़ा संस्कार है वह चेन्ज करो। वह अपना काम करें आप अपना काम करो। उनके काम को देख घबराओ नहीं। जितना वो अपना काम फोर्स से कर रहे हैं, आप अपना फोर्स से करो। उनके गुण उठाओ कि वह कैसे अपना कर्त्तव्य कर रहे हैं, आप भी करो। सारी सृष्टि की आत्माओं की भेंट में कितनी आत्माओं को यह भाग्य प्राप्त हुआ है। तो कितनी खुशी होनी चाहिए। खुशी तो नयनों में, मस्तक में, होठों में झलकती रहनी चाहिए। जो है ही खुशी के खज़ाने का मालिक, उसके बालक हो। तो खज़ाने के अधिकारी तो हो ना। 5,000 वर्ष पहले भी आये थे, यह अनुभव है? स्मृति आती है? स्पष्ट स्मृति की निशानी क्या है? स्पष्ट स्मृति की निशानी यह है - कि किससे मिलेंगे तो अपनापन महसूस होगा और अपने स्थान पर पहुँच गया हूँ, यह वही स्थान है, जिसको ढूंढ़ रहा था। जैसे कोई चीज़ ढूंढ़ने के बाद मिलती है, इस रीति से यह भासना आये कि असली परिवार से मिले हैं और अपनापन का अनुभव हो। इसको कहते हैं स्पष्ट अनुभव। दूसरी बात कि जो बात सुनेगा वह उनको सहज स्पष्ट समझ में आयेगी। जैसे पवित्रता की बात लोगों को मुश्किल लगती है परन्तु जो कल्प पहले वाले होंगे, अधिकारी वह तो समझते हैं कि हमारा स्वधर्म ही है। उनको सहज लगेगा। जैसे कोई जानी-पहचानी मूर्तियाँ होती हैं उनको देखने से ऐसा अनुभव होता है कि यह तो अपने हैं। जितना समीप सम्बन्ध में आने वाले होंगे वह स्पष्ट अनुभव करेंगे। ऐसी अनुभवी आत्माओं को कर्मबन्धन तोड़ने में देरी नहीं लगेगी। नकली चीज़ को छोड़ना मुश्किल नहीं होता है। अच्छा -
22-01-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिलतख्त-नशीन आत्मा की निशानी
आज इस संगठन को कौनसा संगठन कहेंगे? इस संगठन का क्या नाम देंगे? यह संगठन है ब्रह्मा बाप की भुजाएं। इसलिए इस संगठन को बापदादा के मददगार, वफादार, बापदादा के दिलतख्त-नशीन, मास्टर सर्वशक्तिवान कहेंगे। अब समझा, इतने अनेक टाइटिल्स इस ग्रुप के नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार हैं। जो दिल के तख्त नशीन होंगे उन्हों की निशानी क्या होती है? टीचर्स हैं इसलिए प्रश्न-उत्तर कर रहे हैं। तख्तनशीन की निशानी क्या है? जो तख्तनशीन हुए हैं उनकी निशानी है - एक तो जब भी कोई तख्त पर बैठते हैं तो तिलक और ताज दोनों तख्तनशीन की निशानी होती है। इस रीति दिलतख्त पर विराजमान आत्माओं की निशानी यही होती है। उनके मस्तक पर सदैव अविनाशी आत्मा क स्थिति तिलक दूर से ही चमकता हुआ नज़र आयेगा। दूसरी बात -- और सर्व आत्माओं के कल्याण की शुभ भावना उनके नयनों में वा मुख से, मुख अर्थात् मुखड़ा, फेस से दिखाई दे। मुखड़े से यह सब स्पष्ट दिखाई दे यह निशानी है। तीसरी बात -- उनका संकल्प, वचन और कर्म बाप के समान हो। चौथी बात - जिन आत्माओं की सर्विस करे उन आत्माओं में स्नेह, सहयोग और शक्ति तीनों ही गुण धारण कराने की उसमें शक्ति हो। यह चार बातें उनकी निशानी है। अभी आप अपनी रिजल्ट को चेक करो कि यह चार ही निशानियाँ कहाँ तक दिखाई देती हैं। जैसे जो स्वयं होता है वैसे ही समान बनाता है। आज टीचर्स संगठन में हैं इसलिए यह सुना रहे हैं, जिन्हों की आप सेवा करती हो वा कर रही हो उन्हों में यह सब बातें भरनी चाहिए। अब तक रिजल्ट क्या है? हरेक अपनी रिजल्ट को तो देखते ही हैं। मैजारिटी क्या दिखाई देती है? कोई में स्नेहीपन की विशेषता है, कोई में सहयोगीपन की, लेकिन शक्ति रूप की धारणा कम है। इसकी निशानी फिर क्या दिखाई देती है, मालूम है? शक्तिपन के कमी की निशानी क्या है? परखने की शक्ति कम की निशानी क्या है? एक बात तो सुनाई - सर्विस की सफलता नहीं। उनकी स्पष्ट निशानी दो शब्दों में यह दिखाई देगी - उनका हर बात ‘क्यों’, ‘क्या’, ‘कैसे’ ....? क्वेश्चन मार्क बहुत होगा। ड्रामा का फुल-स्टॉप देना उनके लिए बड़ा मुश्किल होगा। इसलिए स्वयं ही ‘क्यों, क्या कैसे’ की उलझन में होगा। दूसरी बात -- वह कभी भी समीप आत्मा नहीं बना सकेगा। सम्बन्ध में लायेंगे लेकिन समीप सम्बन्ध में नहीं लायेंगे। समझा? ब्राह्मण कुल की जो मर्यादाएं हैं उन सर्व मर्यादाओं स्वरूप नहीं बना सकेंगे। क्योंकि स्वयं में शक्ति कम होने के कारण औरों में भी इतनी शक्ति नहीं ला सकते जो सर्व मर्यादाओं को पालन कर सकें। कोई न कोई मर्यादा की लकीर उल्लंघन कर देते हैं। समझते सभी होंगे, समझने में कमी नहीं होगी। मर्यादाओं की समझ पूरी होगी। परन्तु मर्यादाओं में चलना यह शक्ति कम होगी। इस कारण जिन्हों की वह सेवा करते हैं उन्हों में भी शक्ति कम होने कारण हाई जम्प नहीं दे सकते। संस्कारों को मिटाने में समय बहुत वेस्ट करते हैं। अब इन बातों से अपने स्वरूप को चेक करो। जैसे बहुत बढ़िया और मीठा फल तब निकल सकता है जब उस वृक्ष में सब बातों का ध्यान दिया जाता है। धरती उखाड़ने का भी ख्याल, बीज डालने का, जल का, सभी का ध्यान देना पड़ता है। ऐसे श्रेष्ठ फल तैयार करने के लिए संस्कार मिटाने की शक्ति, यह हुई धरती उखाड़ने की शक्ति। उसके साथ जैसे सभी चीजें बीच डालने वाले देखते हैं, वैसे स्नेही भी बनावें, सहयोगी भी बनावें और शक्ति-स्वरूप भी बनावें। अगर कोई एक की भी कमी रह जाती है तो क्या होता? जो शुरू में सुनाया कि दिल के तख्त नशीन नहीं बन सकते। इसलिए टीचर्स को यह ध्यान एक-एक के ऊपर देना चाहिए।
आप लोग जब एम-आब्जेक्ट सुनाते हो तो क्या सुनाते हो? देवता बनना यह तो लक्ष्य देते हो। देवताओं की महिमा सर्व गुण सम्पन्न। तो वह लक्ष्य रखना चाहिए। सर्व गुण एक-एक आत्मा में भरने का प्रयत्न करना चाहिए। आप टीचर्स को हरेक से मेहनत इतनी करनी चाहिए जो कोई आत्मा भी यह उलहना न दे कि हमारी निमित्त बनी हुई टीचर ने हमको इस बात के ऊपर ध्यान नहीं खिंचवाया। वह करे न करे, वह हुई उनकी तकदीर। परन्तु आप लोगों को सभी के ऊपर मेहनत करनी है। नहीं तो अब तक की रिजल्ट में कोई उलहनें अभी तक मिल रहे हैं। यह सर्विस की कमी है। इसलिए कहा कि सर्व बातें उन्हों में भरने से वह फल भी ऐसा लायक बनेगा। आप सोचो, जितना कोई बड़ा आदमी होता है, उनके सामने कौनसा फल रखेंगे? बड़ा भी हो और बढ़िया भी हो। साकार में भी कोई चीज़ लाते थे तो क्या देखते थे? तो अब बापदादा के आगे भी ऐसे जो फल तैयार करते हैं वही सामने ला सकते हैं। इसलिए यह ध्यान रखना है। जितना जो स्वयं जितने गुणों से सम्पन्न होता है उतना औरों में भी भर सकता है। हरेक रचयिता की सूरत रचना से दिखाई देती है। सर्विस आप लोगों के लिए एक दर्पण है, जिस दर्पण द्वारा अपने अन्दर की स्थिति को देख सकते हो। जैसे दर्पण में अपनी सूरत सहज और स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसे सर्विस के दर्पण द्वारा अपनी फीचर्स-सूरत नहीं, सीरत का सहज स्पष्ट साक्षात्कार होता है। वह है सूरत का आइना, यह है सीरत का आइना। हरेक को अपना साक्षात्कार स्पष्ट होता है? होना चाहिए। अगर अब तक स्पष्ट साक्षात्कार नहीं होगा तो अपने को सम्पूर्ण कैसे बना सकेंगे। जब अपनी कमज़ोरियों का मालूम होगा तब तो शक्ति भर सकेंगे। इसलिए अगर स्वयं के साक्षात्कार में कोई स्पष्टीकरण न हो तो निमित्त बनी हुई बहनों द्वारा मदद ले अपना स्पष्ट साक्षात्कार करने का प्रयत्न ज़रूर करना। यह बापदादा का काम नहीं है, बापदादा का कर्त्तव्य है इशारा देना।
टीचर्स के फीचर्स कैसे होने चाहिए? टीचर्स को अपने फरिश्तेपन के फीचर्स द्वारा सर्विस करनी चाहिए। टीचर्स द्वारा यह शब्द अब तक नहीं निकलने चाहिए कि यह मेरी नेचर है। यह कहना शक्तिहीनता की निशानी है। ‘पुरूषार्थ’ शब्द, पुरूषार्थ शब्द से यूज़ नहीं करते हैं। परन्तु ‘पुरूषार्थ’ शब्द पुरूषार्थ से छुड़ाने का साधन बना दिया है। इसलिए आप लोगों के शब्द रचना द्वारा भी आपके सामने आते हैं। इसलिए सदैव ऐसे समझो जैसे कोई गुम्बज़ में जो आवाज़ किया जाता है वह लौटकर अपने पास आ जाता है। इतना अटेन्शन अपने संकल्पों पर भी रखना है। कहाँ-कहाँ से यह समाचार आते हैं, कौनसे? कि आजकल स्टूडेन्ट्स सुनते नहीं हैं। मेहनत करते हैं लेकिन आगे नहीं बढ़ते हैं, वहाँ के वहाँ खड़े हैं। यह रिजल्ट क्यों? यह भी अपनी स्थिति का रिटर्न है। क्योंकि स्टूडेन्ट भी चलते- चलते निमित्त बनी हुई टीचर्स की कमज़ारियों को परख कर उसका एडवान्टेज उठाते हैं। अच्छा।
26-01-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ज़िम्मेवारी उठाने से फायदे
तुम बच्चे हो विश्व को परिवर्तन करने वाले विश्व के आधार मूर्त। उद्धार करने वाले भी हो और साथ-साथ विश्व के आगे उदाहरण बनने वाले भी हो। जो आधारमूर्त होते हैं उनके ऊपर ही सारी ज़िम्मेवारी रहती है। अभी आपके एक-एक कदम के पीछे अनेकों के कदम उठाने की ज़िम्मेवारी है। पहले साकार रूप फालो फादर के रूप में सामने था। अभी आप लोग निमित्त मूर्तियां हो। तो ऐसे समझो कि जैसे जिस रूप से जहाँ हम कदम उठायेंगे वैसे सर्व आत्मायें हमारे पीछे फालो करेंगी। यह ज़िम्मेवारी है। सर्व के उद्धारमूर्त बनने कारण सर्व आत्माओं की जो आशीर्वाद मिलती है तो फिर हल्कापन भी आ जाता है, मदद भी मिलती है। जिस कारण ज़िम्मेवारी हल्की हो जाती है। बड़ा कार्य होते हुए भी ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई करा रहा है। यह ज़िम्मेवारी और ही थकावट मिटाने वाली है। फ्री रहना मन को भाता ही नहीं है। ज़िम्मेवारी अवस्था को बनाने में बहुत मदद करती है। बापदादा जब महारथी बच्चों को देखते हैं तो सभी के वर्तमान स्वरूप और इसी जन्म के अन्तिम स्वरूप और दूसरे जन्म के भविष्य स्वरूप तीनों ही सामने आते हैं। आप लोगों को यह फीलिंग स्पष्ट रूप में आती है कि यह हम बनने वाले हैं, हम ताज व तख्तधारी होंगे? आगे चल यह भी अनुभव करेंगे। जैसे साकार रूप में प्रत्यक्ष अनुभव किया ना। कर्मातीत अवस्था भी स्पष्ट थी और भविष्य स्वरूप की स्मृति भी स्पष्ट थी। भविष्य संस्कार इस स्वरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते थे। तो आप सभी ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि बस यह शरीर छोड़ा और वह तैयार है। बुद्धिबल द्वारा इतना स्पष्ट अनुभव होगा। अभी दिन प्रतिदिन अपनी सर्विस से अपने सहयोगीपन से और अपने संस्कारों को मिटाने की शक्ति से अपने अन्तिम स्वरूप और भविष्य को जान जायेंगे। पहले कहते थे ऐसा समय आयेगा जो नज़दीक वाले और दूर वाले स्पष्ट दिखाई देंगे। लेकिन अब वह समय चल रहा है। जो दैवी परिवार की आत्मायें हैं वह समझ सकती हैं - कौन-कौन समीप रत्न हैं। जिनको जितना समीप आना है वह सरकमस्टांस अनुसार भी इतना समीप आयेंगे। जिनको कुछ दूर होना है तो सरकमस्टांश भी बीच में निमित्त बन जायेंगे, जो चाहते हुए भी आ नहीं सकेंगे। यह सभी भविष्य का साक्षात्कार अभी प्रैक्टिकल सर्विस चल रही है। अपने भविष्य को जानना अब मुश्किल नहीं है।
हरेक को व्यक्तिगत अपने लिए भी कोई विशेष प्रोग्राम रखना चाहिए। जैसे सर्विस आदि के और प्रोग्राम बनाते हो, वैसे सवेरे से लेकर रात तक बीच-बीच में कितना और कैसे अपनी याद की यात्रा पर अटेन्शन रखने के लिए प्रोग्राम रख सकते हो -- यह डायरी बनानी चाहिए। अमृतवेले ही याद का प्लैन बनाना चाहिए। समझो, आप लोग कोई स्थूल कार्य आदि में बिज़ी रहते हो; लेकिन उसमें भी थोड़े समय के लिए जैसे नियम बांधा हुआ हो याद में रहने का। उस समय दूसरे को भी दो-तीन मिनट के लिए स्मृति दिलाओ कि -- अभी हमारा यह कार्य है, आप भी याद में रहो। जैसे मुकर्र टाइम पर ट्रैफिक भी रोक लेते हैं। कितना भी भले ज़रूरी काम हो, कोई पेशेन्ट को हॉस्पिटल में जाना होगा तो भी रोक लेंगे। इस रीति जहाँ तक कर सको उतना टाइम-टेबल अपना बनाओ। तो और भी देखेंगे इन्हों का यह टाइम याद का मुकर्र है तो और भी आपको फालो करेंगे। कोई कार्य हो उनको आगे पीछे करके भी दो चार मिनट का टाइम याद में रहने लिए ज़रूर निकालो तो उससे वायुमण्डल में भी सारा प्रभाव रहेगा। सभी एक- दो को फालो करेंगे। बुद्धि को रेस्ट भी मिलेगी और शक्ति भी भरेगी और वायुमण्डल को सहयोग मिलेगा। फिर एक अनोखापन दिखाई पड़ेगा। जैसे कुछ समय आप एक दो को याद दिलाते थे - शिव बाबा याद है? वैसे ही जब देखते हो कोई व्यक्त भाव में ज्यादा है तो उनको बिना कहे अपना अव्यक्ति शान्त रूप ऐसा धारण करो जो वह भी इशारे से समझ जाये। तो फिर वातावरण कुछ अव्यक्त रहेगा। तुम्हारी अन्तिम स्टेज है - साक्षात्कार मूर्त। जैसा-जैसा साक्षात् मूर्त बनेंगे वैसे ही साक्षात्कारमूर्त बनेंगे। जब सभी साक्षात् मूर्त बन जायेंगे तो संस्कार भी सभी के साक्षात् मूर्त समान बन जायेंगे। अपने को निमित्त समझकर कदम उठाना है। जैसे आप लोगों से ईश्वरीय स्नेह, श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ चरित्रों का साक्षात्कार होता है, वैसे अव्यक्ति स्थिति का भी उतना ही स्पष्ट साक्षात्कार हो। ऐसा प्लैन बनाना चाहिए जो कोई भी महसूस करे - यह तो चलता फिरता फरिश्ता है। जैसे साकार रूप में फरिश्तेपन का अनुभव किया ना। इतनी बड़ी ज़िम्मेवारी होते भी आकारी और निरा- कारी स्थिति का अनुभव कराते रहे। आप लोगों का भी अन्तिम स्टेज का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देना चाहिए। कोई कितना भी अशान्त वा बेचैन घबराया हुआ आवे लेकिन आपकी एक दृष्टि, स्मृति और वृत्ति की शक्ति उनको बिल्कुल शान्त कर दे। भले कितना भी कोई व्यक्त भाव में हो लेकिन आप लोगों के सामने आते ही अव्यक्त स्थिति का अनुभव करे। आप लोगों की दृष्टि किरणों जैसा कार्य करे। अभी तक के रिजल्ट में मास्टर सूर्य के समान नॉलेज की लाइट देने के कर्त्तव्य में सफल हुए हो लेकिन किरणों की माइट से हरेक आत्मा के संस्कार रूपी कीटाणु को नाश करने का कर्त्तव्य करना है। लाइट देने में पास हो। माइट देने का कर्त्तव्य अब रहा हुआ है। बापदादा के पास चार लिस्ट हैं।
(1) सर्विसएबल (2) सेन्सिबल (3) सक्सेसफुल और (4) वैल्युबल। सक्सेसफुल भी सब नहीं होते, वैल्युबल भी सब नहीं होते हैं। कोई अपने गुणों से, चरित्रों से वैल्युबल बन जाते हैं लेकिन सर्विस के प्लैनिंग में सक्सेस नहीं होते हैं। हरेक अपने चार्ट को जान सकते हैं। देखना है हमारा किस लिस्ट में नाम होगा। कोई कोई का चारों में भी नाम है। कोई का दो में, कोई का तीन में कोई का एक में है। वैल्युबल का मुख्य गुण यह होता है जो उसको स्वयं भी अपने समय की, संकल्प की और सर्विस की वैल्यु होती है। इसलिए उनके संकल्प, शब्द वा उस द्वारा जो सर्विस होती है उसकी और भी वैल्यु रखते हैं वा ड्रामा अनुसार उनकी वैल्यु हो जाती है। सभी उनको वैल्युबल की दृष्टि से देखते हैं। सर्विसएबल फर्स्ट हैं या सेन्सिबुल फर्स्ट है? दोनों की अपनी-अपनी विशेषता है। सेन्सिबल की प्लैनिंग बुद्धि ज्यादा होगी लेकिन प्रैक्टिकल में लाने की विशेषता कम होती है। और सर्विसएबल जो होता है वह प्लैनिंग कम करता लेकिन प्रैक्टिकल में आने का उसमें विशेष गुण होता है। कोई में सेन्स भी होता है और सर्विसएबल का गुण भी होता है। इस स्थापना के कर्त्तव्य में दोनों ही आवश्यक हैं। उनका संकल्प, प्लैन जो चलता है उससे भविष्य बनता है। उनका कर्म से बनता है। अधिक प्रभाव इसका रहता है। और सफलतामूर्त का फिर अव्यक्ति स्थिति के आधार पर परिणाम निकलता है। कोई-कोई का प्लैन भी चलता है, प्रैक्टिकल भी करते हैं लेकिन सफलता कम होती है। सर्विसएबल हो सकते हैं लेकिन सफलतामूर्त सभी नहीं हो सकते। कोई को ड्रामा अनुसार जैसे सफ़लता का वरदान प्राप्त हुआ होता है। उन्हों को मेहनत कम करनी पड़ती है। सहज ही सफ़लता मिल जाती है। यह ड्रामा में हरेक का अपना पार्ट है। अच्छा!
टीचर्स तो है ही टीचर्स। टीचर्स को सदैव यह स्मृति में रहना चाहिए कि टीचर बनने से पहले स्टूडेन्ट हूँ। स्टूडेन्ट स्मृति से स्टडी याद रहेगी। जब स्वयं स्टडी करेंगे तो औरों को स्टडी करायेंगे। स्टूडेन्ट लाइफ़ न होने के कारण औरों को स्टूडेन्ट नहीं बना सकेंगे। वातावरण को बदलने के लिए अपने को सदैव यह समझना चाहिए कि मैं मास्टर सूर्य हूँ। सूर्य का कर्त्तव्य क्या होता है? एक तो रोशनी देना, दूसरा किचड़े को खत्म करना। तो सदैव यह समझना चाहिए कि मेरी चलन रूपी किरणों से यह दोनों कर्त्तव्य होते हैं। सर्व आत्माओं को रोशनी भी मिले, किचड़ा भी खत्म हो। मानो, रोशनी मिलते किचड़ा खत्म न हो तो समझो कि मेरी किरणों में पावर नहीं। जैसे धूप तेज़ नहीं तो कीटाणु खत्म नहीं होंगे। मेरे में पावर कम तो ज्ञान रोशनी देगा परन्तु पुराने संस्कारों रूपी कीटाणु खत्म नहीं होंगे। जितनी पावरफुल चीज उतनी जल्दी खत्म। पावर कम तो समय बहुत लगेगा। तो पावरफुल बनना है। ऐसे नहीं समझो कि पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। सृष्टि की नॉलेज पढ़ ली तो उसमें सब आ जाता है। अच्छा।
01-02-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ताज, तिलक और तख्त नशीन बनने की विधि
बा पदादा सभी बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं, क्योंकि हरेक को नम्बरवार ताज व तख्त-नशीन देख रहे हैं। आप अपने को ताज व तख्त नशीन देख रहे हो? कितने प्रकार के ताज हैं और कितने प्रकार के तख्त हैं? आपको कितने ताज हैं? (21 जन्मों के 21 ताज) अभी कोई ताज है कि सिर्फ 21 ताज ही दिखाई देते हैं? अभी का ताज ही अनेक ताज धारण कराता है। तो अब अपने को ताजधारी देखते हो। कितने ताज धारण किये हैं? ( अनगिनत) पाण्डव सेना को कितने ताज हैं? (दो) शक्तियों को अनेक और पाण्डवों को दो? अगर अभी ताज धारण नहीं करेंगे तो भविष्य के ताज भी कैसे मिलेंगे! इस समय सभी बच्चों को ताज व तख्त नशीन बनाते हैं। तख्तनशीन अगर हैं तो ताजधारी भी होंगे। तख्त कितने प्रकार के हैं? अभी दिल के तख्त नशीन और अकाल तख्तनशीन तो हो ही। जैसे अकालतख्त नशीन हो तो प्योरिटी की लाइट का ताज भी अभी ही धारण करते हो और दिल के तख्त नशीन होने से, सेवाधारी बनने से ज़िम्मेवारी का ताज़ धारण करते हो। तो अब हरेक अपने को देखे कि दोनों ही तख्त नशीन और दोनों ही ताजधारी कितना समय रहते हैं? ताज और तख्त मिला तो सबको है लेकिन कोई कितना समय ताज व तख्त नशीन बनते हैं -- यह हरेक का अपना पुरूषार्थ है। कइयों को स्थूल ताज भी धारण करने का अनुभव कम होता है तो बार-बार उतार देते हैं। लेकिन यह ताज और तख्त तो ऐसा सरल-सहज है जो हर समय ताज व तख्तधारी बन सकते हो। जब कोई तख्तनशीन होता है तो तख्त पर उपस्थित होने से राजकारोबारी उसके आर्डर से चलते हैं। अगर तख्त छोड़ते हैं तो वही कारोबारी उसके आर्डर में नहीं चलेंगे। तो ऐसे आप जब ताज व तख्त छोड़ देते हो तो यह कर्मेन्द्रियां आपका ही आर्डर नहीं सुनती हैं। जब तख्तनशीन होते हो तो यही कर्मेन्द्रियां जी-हजूर करती हैं। इसलिए सदैव यही ध्यान रखो कि यह ताज व तख्त कभी छूटे नहीं। अपना ताज व तख्त नशीन का सम्पूर्ण चित्र सदैव याद रखो। उनको याद रखने से अनेक चित्र जो बन जाते हैं वह नहीं बनेंगे। एक दिन के अन्दर ही हरेक के भिन्न-भिन्न रूप बदलने के चित्र दिखाई देते हैं। तो अपना एक सम्पूर्ण चित्र सामने रखो। ताज व तख्त-नशीन बनने से निशाना और नशा स्वत: ही रहेगा। क्योंकि ताज व तख्त है ही नशा और निशाने की याद दिलाने वाला। तो अपना ताज व तख्त कभी भी नहीं छोड़ना। जितना-जितना अब ताज व तख्त धारण करने के अनुभवी वा अभ्यासी बनेंगे उतना ही वहाँ भी इतना समय ताज व तख्त धारण करेंगे। अगर अभी अल्प समय ताज व तख्त नशीन बनते हो तो वहाँ भी बहुत थोड़ा समय ताज व तख्त प्राप्त कर सकेंगे। अभी का अभ्यास हरेक को अपना भविष्य साक्षात्कार करा रहा है। अभी भी सिर्फ दूसरों को ताज व तख्तनशीन देखते हुए खुश होते रहेंगे तो वहाँ भी देखते रहना पड़ेगा। इसलिए सदाकाल के लिए ताज व तख्त नशीन बनो। ऐसा ताज व तख्त फिर कब मिलेगा? अभी ही मिलेगा। कल्प के बाद भी अभी ही मिलेगा। अभी नहीं तो कभी नहीं।
घर बैठे कोई ताज व तख्त देने आये तो क्या करेंगे? बाप भी अभी आत्माओं के घर में मेहमान बन आये हैं ना। घर बैठे ताज व तख्त की सौगात देने आये हैं। ताज व तख्त को छोड़ कहाँ चले जाते हो, मालूम है? माया का कोई निवास-स्थान है? आप भी सर्वव्यापी कहते हो वा आप लोगों के सिवाय और सभी जगह है? आपने 63 जन्मों में कितनी बार माया को ठिकाना दिया होगा! उसका परिणाम भी कितनी बार देखा होगा। जो बहुत बार के अनुभवी फिर भी वह बात करें तो क्या कहेंगे? जैसे दिखाते हैं ना ताज वा तख्त छोड़ जंगल में चले जाते हैं तो यहाँ भी कांटों के जंगल में चले जाते हो। कहाँ तख्त, कहाँ काटों का जंगल। क्या पसन्द है? जैसे कोई भक्त वा श्रृंगार करने वाले नियम प्रमाण नहा- धोकर अपने मस्तक पर तिलक ज़रूर लगाते हैं। श्रृंगार के कारण, भक्ति के कारण और सुहाग के कारण भी तिलक लगाते हैं। तो ऐसे ही अमृतवेले तुम अपने को ज्ञान-स्नान कराते हो, अपने को ज्ञान से सजाते हो। तो अमृतवेले वैसे यह स्मृति का तिलक देना चाहिए। लेकिन अमृतवेले यह स्मृति का तिलक देना भूल जाते हो। अगर कोई तिलक देते भी हैं तो फिर मिटा भी लेते हैं। जैसे कइयों की आदत होती है -- बार-बार मस्तक को हाथ लगाकर तिलक मिटा देते हैं। अभी-अभी तिलक देंगे, अभी-अभी मिटा देंगे। ऐसे ही यह भी बात है। कोई को तिलक देना भूल जाता है, कोई देते हैं फिर मिटा देते हैं। तो लगाना और मिटाना -- दोनों ही काम चलते हैं। तो अमृतवेले का यह स्मृति का दिया हुआ तिलक सदैव कायम रखते रहो तो सुहाग, श्रृंगार और योगीपन की निशानी सदैव आपके मस्तक से दिखाई देगी। जैसे भक्तों का तिलक देखकर के समझते हैं - यह भक्त है। इस प्रकार आपकी स्मृति का तिलक इतना स्पष्ट सभी को दिखाई देगा जो झट महसूस करेंगे कि यह ‘योगी तू आत्मा’ है। तो तिलक, ताज और तख्त सभी कायम रखो। तिलक को मिटाओ नहीं। अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान कहलाते हो, तो मास्टर सर्वशक्तिवान को ताज व तख्त धारण करना भी नहीं आता है क्या! सदैव सिर्फ दो बातें कर्म करते हुए याद रखो। फिर ऐसी प्रैक्टिस हो जायेगी जो किसके मन में आये हुए संकल्प को ऐसे कैच करेंगे जैसे मुख से की हुई बात सरल रीति से कैच कर सकते हो। वैसे मन के संकल्प को सहज ही कैच करेंगे। लेकिन यह तब होगा जब समानता के नज़दीक आयेंगे। एक-दो के स्वभाव में भी अगर कोई की समानता होती है तो उनके भाव को सहज समझ सकते हैं। तो यह भी बाप की समानता के समीप जाने से मन के संकल्प ऐसे कैच कर सकेंगे जैसे मुख द्वारा वाणी। इसके लिए सिर्फ अपने संकल्पों की मिक्सचर्टा नहीं होनी चाहिए। संकल्पों के ऊपर कन्ट्रोलिंग पावर होनी ज़रूरी है। जैसे बाहर की कारोबार कंट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पावर किसमें कितनी होती है, किसमें कितनी होती है। ऐसे ही यह मन के संकल्पों की कारोबार को कन्ट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पावर नम्बरवार है। तो वह दो बातें कौनसी हैं?
एक तो सदैव यह स्मृति में रखो कि मैं हर समय, हर सेकेण्ड, हर कर्म करते हुए स्टेज पर हूँ। हर कर्म पर अटेन्शन रहने से सम्पूर्ण स्टेज के नज़दीक आते जायेंगे। दूसरी बात -- सदैव अपने वर्तमान और भविष्य के स्टेट्स को स्मृति में रखो। तो एक स्टेज, दूसरा स्टेट्स - यह दोनों बातें सदैव स्मृति में रखने से कोई भी ऐसा कार्य नहीं होगा जो स्टेट्स के विरूद्ध हो। और, साथ-साथ स्टेज पर अपने को समझने से सदैव ऊंच कर्त्तव्यों को करने की प्रेरणा मिलेगी। यह दो बातें सदैव स्मृति में रखते चलो। अच्छा। आप लोग दूर से आये हो वा बापदादा दूर से आये हैं? रफ्तार भले तेज है लेकिन दूरी किसकी है? आप लोग सफर कर आये हो, बापदादा भी सफर कर आये हैं। इसलिए दोनों ही सफर वाले हैं। सिर्फ आपके सफर में थकावट है और इस सफर में अथक हैं। मधुबन निवासी बनना - यह भी ड्रामा के अन्दर बहुत-बहुत सौभाग्य की निशानी है। क्योंकि मधुबन है वरदान भूमि। तो वरदान भूमि पर आये हो। वह है मेहनत की भूमि, यह है वरदान भूमि। तो वरदान भूमि पर आकर वरदाता से वा वरदाता द्वारा निमित्त बनी हुई आत्माओं से िज़तना जो वरदान लेने चाहें वह ले सकते हैं। निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं से वरदान कैसे लेंगे? यह हिसाब जानते हो? मधुबन में वरदान मिलता है। वायुमण्डल में, पवित्र चरित्र-भूमि में वरदान तो भरा हुआ है लेकिन निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं से वरदान कैसे लेंगे? वरदान में मेहनत कम होती है। जैसे मन्दिर में पण्डे यात्रियों को वरदान दिलाने देवियों के सामने ले जाते हैं। तो आप भी पण्डे हो। यात्रियों को वरदान कैसे दिलायेंगे? वरदान लेने का साधन कौनसा है? श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा वरदान इसलिए मिलता है - जो निमित्त बने हुए होने के कारण उन्हों के हर कर्म को देखकर सहज प्रेरणा मिलती है। कोई भी चीज़ जब साकार में देखी जाती है तो जल्दी ग्रहण कर सकते हैं। बुद्धि में सोचने की बात देरी से ग्रहण होती है। यहाँ भी साकार रूप में जिन्होंने साकार को देखा, उन्हों को याद करना सहज है और बिन्दी रूप को याद करना ज़रा...। इसी रीति जो निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्मायें हैं उन्हों की सर्विस, त्याग, स्नेह, सर्व के सहयोगीपन का प्रैक्टिकल कर्म देखते हुए जो प्रेरणा मिलती है वह वरदान रूप में सहज प्राप्त होती है। तो मधुबन वरदाता की भूमि में आकर हर एक श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा सहज कर्मयोगी बनने का वरदान प्राप्त करके ही जाना। क्योंकि आप लोग भी सिर्फ मुश्किल बात यही बताते हो कि कर्म करते हुए स्मृति में रहना मुश्किल है। तो निमित्त बनी हुई आत्माओं को कर्म करते हुए इन गुणों की धारणा में देखते सहज कर्मयोगी बनने की प्रेरणा मिलती है। तो उन एक भी वरदान को छोड़कर नहीं जाना। सर्व वरदान प्राप्त करते-करते स्वयं भी मास्टर वरदाता बन जायेंगे। अच्छा।
11-02-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अंत:वाहक शरीर द्वारा सेवा
एक सेकेण्ड में कितना दूर से दूर जा सकते हो, हिसाब निकाल सकते हो? जैसे मरने के बाद आत्मा एक सेकेण्ड में कहाँ पहुँच जाती है! ऐसे आप भी अन्त:वाहक शरीर द्वारा; अन्त:वाहक शरीर जो कहते हैं उसका भावार्थ क्या है? आप लोगों का जो गायन है कि अन्त:वाहक शरीर द्वारा बहुत सैर करते थे, उसका अर्थ क्या है? यह गायन सिर्फ दिव्य-दृष्टि वालों का नहीं है लेकिन तुम सभी का है। यह लोग तो अन्त:वाहक शरीर का अपना अर्थ बताते हैं। लेकिन यथार्थ अर्थ यही है कि अन्त के समय की जो आप लोगों की कर्मातीत अवस्था की स्थिति है वह जैसे वाहन होता है ना। कोई न कोई वाहन द्वारा सैर किया जाता है। कहाँ का कहाँ पहुँच जाते हैं! वैसे जब कर्मातीत अवस्था बन जाती है तो यह स्थिति होने से एक सेकेण्ड में कहाँ का कहाँ पहुँच सकते हैं। इसलिए अन्त:वाहक शरीर कहते हैं। वास्तव में यह अन्तिम स्थिति का गायन है। उस समय आप इस स्थूल स्वरूप के भान से परे रहते हो, इसलिए इनको सूक्ष्म शरीर भी कह दिया है। जैसे कहावत है -- उड़ने वाला घोड़ा। तो इस समय के आप सभी के अनुभव की यह बातें हैं जो कहानियों के रूप में बनाई हुई हैं। एक सेकेण्ड में आर्डर किया यहाँ पहुँचो; तो वहाँ पहुँच जायेगा। ऐसा अपना अनुभव करते जाते हो? जैसे आजकल साइंस भी स्पीड को क्विक करने में लगी हुई है। जहाँ तक हो सकता है ‘समय कम और सफलता ज्यादा’ का पुरूषार्थ कर रहे हैं। ऐसे ही आप लोगों का पुरूषार्थ भी हर बात में स्पीड को बढ़ाने का चल रहा है। जितनी-जितनी जिसकी स्पीड बढ़ेगी उतना ही अपने फाइनल स्टेज के नज़दीक आयेंगे। स्पीड से स्टेज तक पहुँचेंगे। अपनी स्पीड से स्टेज को परख सकते हो।
अभी सभी महान् पर्व शिवरात्रि मनाने का प्लैन बना रहे हो, फिर नवीनता क्या सोची है? (झण्डा लहरायेंगे) अपने-अपने सेवाकेन्द्रों पर झण्डा भले लहराओ लेकिन हरेक आत्मा के दिल पर बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहराओ। वह तब होगा जब शक्ति-स्वरूप की प्रत्यक्षता होगी। शक्ति-स्वरूप से ही सर्वशक्तिवान को प्रत्यक्ष कर सकते हो। शक्ति-स्वरूप अर्थात् संहारी और अलंकारी। जिस समय स्टेज पर आते हो उस समय पहले अपनी स्थिति की स्टेज अच्छी तरह से ठीक बनाकर फिर उस स्टेज पर आओ, जिससे लोगों को आपकी आन्तरिक स्टेज का साक्षात्कार हो। जैसे और तैयारियाँ करते हो, वैसे यह भी अपनी तैयारी देखो कि अलंकारी बनकर स्टेज पर आ रही हूँ। लाइट-हाउस, माइट-हाउस -- दोनों ही स्वरूप इमर्ज रूप में हों। जब दोनों स्वरूप होंगे तब ठीक रीति से गाइड बन सकेंगे। आपके ‘बाप’ शब्द में इतना स्नेह और शक्ति भरी हुई हो जो यह शब्द ज्ञान-अंजन का काम करे, अनाथ को सनाथ बना दे। इस एक शब्द में इतनी शक्ति भरो। जिस समय स्टेज पर आते हो उस समय की स्थिति एक तो तरस की हो, दूसरी तरफ कल्याण की भावना, तीसरी तरफ अति स्नेह के शब्द, चौथी तरफ स्वरूप में शक्तिपन की झलक हो। अपनी स्मृति और स्थिति को ऐसा पावरफुल बनाकर ऐसे समझो कि अपने कई समय के पुकारते हुए भक्तों को अपने द्वारा बाप का साक्षात्कार कराने के लिए आई हूँ। इस रीति से अपने रूहानी रूप, रूहानी दृष्टि, कल्याणकारी वृत्ति द्वारा बाप को प्रत्यक्ष कर सकती हो। समझा, क्या करना है? सिर्फ भाषण की तैयारी नहीं करनी है। लेकिन भाषण की तैयारी ऐसी करो जो भाषण द्वारा भाषा से भी परे स्थिति में ले जाने का अनुभव कराओ। भाषण की तैयारी ज्यादा करते हैं लेकिन रूहानी आकर्षण-स्वरूप की स्मृति में रहने की तैयारी पर अटेन्शन कम देते हैं। इसलिए इस बारी ज्यादा तैयारी इस बात की करनी है। हरेक के दिल पर बाप के सम्बन्ध के स्नेह की छाप लगानी है। अच्छा ।
मधुबन वाले क्या सर्विस करेंगे? मधुबन वालों को उस दिन खास बापदादा अव्यक्त वतन में आने का निमन्त्रण दे रहे हैं। वहाँ वतन में आकर सभी तरफ की सर्विस को देख सकेंगे। शाम 7 से 9 बजे तक यह दो घण्टे खास सैर करायेंगे। जैसे सन्देशियों को ले जाते हैं - सभी स्थानों की सैर कराने, इसी रीति से मधुबन वालों को यहाँ बैठे हुए सर्व स्थानों की सर्विस की सैर करायेंगे। अगर बिना मेहनत के सारा सैर कर लो तो और क्या चाहिए। इसलिए मधुबन वाले उस दिन अपने को इस स्थूल देह से परे अव्यक्त वतन वासी समझकर बैठेंगे तो सारे दिन में कई अनुभव करेंगे। फिर सुनाना, क्या अनुभव किया। उस दिन अगर अपना थोड़ा भी पुरूषार्थ करेंगे तो सहज ही अनोखे भिन्न-भिन्न अनुभव करने के वरदान को पा सकेंगे। समझा? 7 से 9 शाम को खास याद का प्रोग्राम रखना। यूं तो सारे दिन का ही निमन्त्रण दे रहे हैं। लेकिन विशेष यह सैर का समय है। ऐसे समय पर हरेक यथा शक्ति अनुभव कर सकेंगे। मधुबन वाले विशेष स्नेही हैं, इसलिए विशेष निमन्त्रण है। सिर्फ बुद्धि द्वारा अपने इस देह के भान से अलग होकर बैठना, फिर ड्रामा में जो अनुभव होने हैं वह होते रहेंगे। सन्देशियों के लिए तो साक्षात्कार कॉमन बात है लेकिन बुद्धि द्वारा भी ऐसे अनुभव कर सकते हो। इतना स्पष्ट होगा जैसे इन आंखों से देखा हुआ अनुभव है। अच्छा।
टीचर्स के साथ मुलाकात
इस ग्रुप को कौनसा ग्रुप कहें? (स्पीकर्स ग्रुप) स्पीकर्स अर्थात् स्पीच करने वाले। स्पीच के साथ स्पीड भी है? क्योंकि स्पीच के साथ-साथ अगर पुरूषार्थ की स्पीड भी है तो ऐसे स्पीच करने वाले के प्रभाव से विश्व का कल्याण हो सकता है। अगर स्पीड के बिना स्पीच है, तो विश्व का कल्याण होना मुश्किल हो जाता है। तो ऐसे कहें कि यह स्पीच और स्पीड में चलने वाले ग्रुप हैं। जिन्हों की स्पीच भी पावरफुल, स्पीड भी पावरफुल है उनको कहते हैं विश्वकल्याणकारी, ‘मास्टर दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता’। तो ऐसे कार्य में लगे हुए हो? जो ‘दु:ख-हर्त्ता सुख- कर्त्ता’ होता है वह स्वयं इस दुनिया की लहर से भी परे होगा और उन्हों की स्पीच भी दु:ख की लहर से परे ले जाने वाली होगी। ऐसी स्टेज पर ठहर कर स्पीच करते हो? स्पीच तो स्टेज पर ठहर कर की जाती है तो आप किस स्टेज पर ठहर स्पीच करते हो? जो बाहर की बनी हुई स्टेज होती है उस पर? स्पीकर को जिस समय कोई स्थूल स्टेज पर जाना होता है, तो पहले अपनी स्थिति की स्टेज तैयार है वा नहीं - यह चेक करता है। ऐसे स्टेज पर ठहर कर स्पीच करने वाले को कहते हैं श्रेष्ठ स्पीकर। जैसे स्थूल स्टेज को तैयार करने के लिए भी कितना समय और परिश्रम करते हैं। ऐसे ही अपनी स्थिति की स्टेज सदैव तैयार रहे - उसके लिए भी इतना ही पुरूषार्थ करते हो? ऐसी पावरफुल स्टेज पर ठहर स्पीच करने वाले का यहाँ आबू में यादगार है। कौनसा? (दिलवाला), दिलवाला तो याद की यात्रा का यादगार है। गऊमुख नहीं देखा है? गऊमुख किसका यादगार है? यह मुख का यादगार है। जैसे बाप का यादगार है गऊमुख। क्योंकि मुख द्वारा ही सारा स्पष्ट करते हैं, इसलिए मुख का यादगार है। स्पीकर का भी काम मुख से है, लेकिन ऐसे जो श्रेष्ठ स्टेज पर ठहर कर स्पीच करते हैं। सदैव एवररेडी स्टेज हो। ऐसे नहीं कि समय पर तैयार करनी पड़े। एवररेडी स्टेज होने से जो प्रभाव होता है, वह बहुत अच्छा पड़ता है। इसलिए पूछा कि प्रभावशाली हो? इस ग्रुप को प्रभावशाली ग्रुप कहें? सभी सर्टिफिकेट देंगे? (अच्छा ग्रुप है) अगर आप सर्टिफिकेट देती हो तो फिर यह सर्व को सैटिस्फाय करने वाले भी होंगे। सन्तुष्टमणियां तो हो ना। इसमें ‘हां’ करते हो? अगर खुद सन्तुष्टमणियां हैं तो औरों को भी सन्तुष्ट करेंगे। टीचर्स का भी पेपर होता है, कैसे? (टीचर का पेपर सूक्ष्मवतन से आता है) टीचर का पेपर कदम-कदम पर होता है। जो भी कदम उठाते हो वह ऐसा ही समझकर उठाना चाहिए कि पेपर हाल में बैठकर कदम उठाती हूँ। क्योंकि स्पीकर अर्थात् स्टेज पर बैठे हैं। तो जो सामने स्टेज पर होता है उसके ऊपर सभी की नज़र होती है। आप लोग भी ऊंची स्टेज पर बैठे हो। अनेक आत्माओं की निगाह आप लोगों के कदम पर है। तो आपको कदम-कदम पर ऐसा अटेन्शन से कदम उठाना है। अगर एक कदम भी ढीला वा कुछ भी नीचे-ऊपर उठता है तो अनेक आप लोगों को फ़ालो करेंगे। इसलिए टीचर्स को जो भी कदम उठाना है वह ऐसा सोचकर उठाना है। क्योंकि ताजधारी बने हो ना। ताज कौनसा मिला है? ज़िम्मेवारी का ताज। जितनी बड़ी जिम्मेवारी उतना बड़ा ताज। तो जो बड़ी जिम्मेवारी मिली हुई है, तो अपने को ऐसे निमित्त बने हुए समझकर के फिर कदम उठाओ। अभी अलबेलापन नहीं। ताज व तख्त-धारी बनने के बाद अलबेलापन समाप्त हो जाता है। अलबेलापन अर्थात् पुरूषार्थ में अलबे- लापन। इस ग्रुप को सदैव यह समझना चाहिए कि जो भी कदम वा कर्म होता है वह हर कर्म विश्व के लिए एक एग्जाम्पल बनकर के रहे। क्योंकि आप लोगों के इन कर्मों का कहानियों के रूप में यादगार बनेगा। आप लोगों के यह चरित्र गायन योग्य बनेंगे। इतनी ज़िम्मेवारी समझकर के चलते हो? यह इस ज़िम्मेवार ग्रुप की विशेषतायें हैं। जो जितना ज़िम्मेवार उतना ही हल्का भी रहेगा। अच्छा।
01-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सिद्धि-स्वरूप बनने की सहज विधि
सभी मास्टर त्रिकालदर्शी बने हो? त्रिकालदर्शी बनने से कोई भी कार्य असफल नहीं होता। कोई भी कार्य करने के पहले अपने मास्टर त्रिकालदर्शी की स्थिति में स्थित होकर कार्य के आदि-मध्य-अन्त को जानकर कर्त्तव्य करने से सदैव सफलता मिलेगी अर्थात् सफलतामूर्त्त बन जायेंगे वा सम्पूर्णमूर्त बन जायेंगे। अभी जो गायन है कि योगियों को रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है, वह कौनसी सिद्धि? संकल्प की सिद्धि और कर्त्तव्य की विधि। यह दोनों ही होने से जन्मसिद्ध अधिकार सहज ही पा लेते हो। संकल्प की सिद्धि कैसे आयेगी, मालूम है? संकल्पों की सिद्धि न होने का कारण क्या है? क्योंकि अभी संकल्प व्यर्थ बहुत चलते हैं। व्यर्थ संकल्प मिक्स होने से समर्थ नहीं बन सकते हो। जो संकल्प रचते हो उसकी सिद्धि नहीं होती है। व्यर्थ संकल्पों की सिद्धि तो हो नहीं सकती है ना। तो संकल्पों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए मुख्य पुरूषार्थ यह है - व्यर्थ संकल्प न रच समर्थ संकल्पों की रचना करो। समझा? रचना ज्यादा रचते हो, इसलिए पूरी पालना कर उन्हों को काम में लगाना यह कर नहीं सकते हो। जैसे लौकिक रचना भी अगर अधिक रची जाती है तो उनको लायक नहीं बना सकते हैं। इसी रीति से संकल्पों की जो स्थापना करते हो वह बहुत अधिक करते हो। संकल्पों की रचना जितनी कम उतनी पावरफुल होगी। जितनी रचना ज्यादा उतनी ही शक्तिहीन रचना होती है। तो संकल्पों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करना पड़े। व्यर्थ रचना बन्द करो। नहीं तो आजकल व्यर्थ रचना कर उसकी पालना में समय बहुत वेस्ट करते हैं। तो संकल्पों की सिद्धि और कर्मों की सफलता कम होती है। कर्मों में सफलता की युक्ति है - मास्टर त्रिकालदर्शी बनना। कर्म करने से पहले आदि,मध्य और अन्त को जानकर कर्म करो, ना कि कर्म करने के बाद अन्त में परिणाम को देखकर फिर सोचो। इसलिए सम्पूर्ण बनने के लिए इन दो बातों का ध्यान देना पड़े।
यह प्रवृत्ति वाला ग्रुप है। तो प्रवृत्ति में रहते इन दोनों बातों का ध्यान देने से सर्विसएबल बन सकेंगे। सर्विस सिर्फ मुख से नहीं होती लेकिन श्रेष्ठ कर्मों द्वारा भी सर्विस कर सकते हो। यह जो ग्रुप आया है अपने को सर्विसएबल ग्रुप समझते हो? इस ग्रुप में जो अपने को सर्विसएबल समझते हैं वह हाथ उठायें। अब जिन्होंने सर्विसएबल में हाथ उठाया है, वह सर्विस में समय निकाल मददगार बन सकते हैं? माताओं की मदद से बहुत नाम बाला हो सकता है। जितने आये हैं उतने सभी हैंड्स सर्विस में मददगार बन जायें तो बहुत जल्दी नाम बाला कर सकते हो। क्योंकि युगलमूर्त बन चलने वाले हो। इसलिए ऐसे युगल सर्विस में बहुत अपना शो कर सकते हो। ऐसे कर्त्तव्य करके दिखाओ जो आपके कर्त्तव्य हर आत्मा को आपकी तरफ आकर्षण करें। माताओं का ग्रुप, सो भी ऐसी मातायें जो कि युगल रूप में चल रही हैं उनको समय निकालना सहज हो सकता है। अभी भी समय निकाल कर आई हो ना। अभी भी आप के पीछे प्रवृत्ति चल रही होगी ना। जैसे यह बात ज़रूरी समझकर बन्धनों को हल्का कर पहुँच गई हो, ऐसे समय-प्रति-समय अपनी प्रवृत्ति के बन्धनों को हल्का कर सर्विस में जितनी मददगार बनती जायेंगी उतना ही यह हिसाब-किताब जल्दी चुक्तू होगा। तो माताओं को ऐसे मददगार बनने में ही अपनी उन्नति का साधन समझना चाहिए। सुनना और सुनाना -- दोनों ही अनुभव करना चाहिए। जैसे बाप मददगार बनते हैं वैसे बच्चों को भी मददगार बनना है। यही मदद लेना है। तो ऐसी इस ग्रुप् में शक्ति भरकर जाना जो अपने बन्धनों को हल्का कर सर्विस में मददगार बन सको। नहीं तो इस सब्जेक्ट में अगर कमी रह गई तो फुल मार्क्स कैसे ले सकेंगे। लक्ष्य तो फुल पास होने का रखा है ना। इसलिए इस ग्रुप को खास ऐसी-ऐसी युक्तियां रचने की ट्रेनिंग लेकर जाना है। भट्ठी से क्या बनकर जाना है, समझा? सर्विसएबल और मददगार। घर में रहते शक्ति-स्वरूप की स्मृति सदैव रहने से कर्म-बन्धन विघ्न नहीं डालेंगे। घर में रहती हो लेकिन शक्तिरूप की बजाय पवित्र प्रवृत्ति का भान ज्यादा रहता है। प्रवृत्ति में रहते हुए शक्तिपन की वृत्ति कम रहती है। इसलिए अब तक जो आवाज़ निकलता है कि कर्म-बन्धन है, क्या करें, कैसे करें, कैसे कर्म-बन्धन काटें। यह आवाज़ इसलिए निकलता है क्योंकि शक्तिपन का अलंकार सदैव कायम नहीं रह पाता। तो अब इस भट्ठी में अपनी स्मृति और स्वरूप को बदल कर जाना। इसलिए दो बातें सदैव याद रखना। एक तो चेन्ज होना है, दूसरा चैलेन्ज करना है। शक्ति रूप में अपनी वृत्ति और स्वरूप को भी चेन्ज करना और जितना-जितना अपने को चेन्ज करते जायेंगे उतना औरों को चेलेन्ज कर सकेंगे। इसलिए यह दो बातें याद रखना। जब सुकर्म करते हो तो बाप का स्नेही स्वरूप सामने आता है और अगर कोई विकर्म करते हो तो विकराल रूप सामने लाना चाहिए। आप लोग स्नेही तो हो ना। स्नेही सदैव सुकर्मा होते हैं। कोई भी ऐसा कर्म न हो - यह सदैव स्मृति में रखना। क्योंकि आप सभी सृष्टि के स्टेज पर हीरो एक्टर्स हो। तो हीरो एक्टर्स पर सभी की निगाह होती है। इसलिए अपने को प्रवृत्ति में रहने वाली न समझ, स्टेज पर हीरो एक्टर समझकर हर कर्म करती चलेंगी तो कोई भी ऐसा कर्म नहीं हो सकेगा।
जैसे साइन्स की परमाणु शक्ति आज क्या से क्या दिखा रही है। वैसे ही साइलेन्स के शक्तिदल में आप प्रवृत्ति में रहने वाली प्रमाण हो। वह परमाणु शक्ति है और आप लोग सृष्टि के आगे एक प्रमाण हो। तो आप भी प्रमाण बनकर बहुत ही सर्विस कर सकती हो। माताओं की तो बहुत मांगनी है। माताओं के कारण कोने-कोने में संदेश फैलाना अभी रहा हुआ है। कई आत्माओं को सन्देश न मिलने की ज़िम्मेवारी आप लोगों के ऊपर है। इसलिए इस ग्रुप को ऐसा ही तैयार हो जाना है। यह ग्रुप समय-प्रति-समय सर्विस में मददगार बन सकता है। उम्मीदवार है। जैसे अधरकुमारों का ग्रुप भी बहुत उम्मीदवार ग्रुप था। ऐसे ही यह ग्रुप भी होवनहार मददगार है। लेकिन कैसे मददगार बने, उसकी युक्ति भी है। लेकिन शक्ति नहीं है। इसलिए अपने स्वरूप परिवर्तन का, अपनी टीचर से सर्टिफिकेट ले जाना। जैसे एक-एक कुमारी 100 ब्राह्मणों से उत्तम गाई हुई है वैसे एक-एक माता जगत् माता है। कहाँ 100 ब्राह्मण, कहाँ सारा जगत। तो किसकी ऊंची महिमा हुई? एक-एक माता जगत्माता बनकर जगत की आत्माओं के ऊपर तरस, स्नेह और कल्याण की भावना रखो। इसलिए इस ग्रुप को एक वायदा करना है। वायदा करने की हिम्मत है? कौनसा भी वायदा हो कि सुनने के बाद हिम्मत रखेंगे? सुनने के पहले हिम्मत है वा सुनने के बाद हिम्मत रखेंगे? क्या समझती हो? जो भी वायदा होगा उसकी हिम्मत है? अगर कोई कड़ा वायदा हो तो फिर सोचेंगी ना। हरेक को यह वायदा करना है कि समय-प्रति-समय मैं सर्विस में मददगार और साथ-साथ शक्ति-स्वरूप बन विघ्न-विनाशक बनकर ही प्रवृत्ति में रहेंगी। सहज वायदा है ना। विघ्नों के आने से चिल्लायेंगे नहीं, घबरायेंगे नहीं, लेकिन शक्ति बनकर सामना करेंगे। यह वायदा अपने आप से सदैव के लिए करके जाना है।
कोई भी प्रकार की आसक्ति है तो वहां ही माया भी आ सकती है। आसक्ति होने के कारण माया आ सकती है। अगर अनासक्त हो जाओ तो माया आ नहीं सकती। जब आसक्ति खत्म हो जाती है तब शक्तिस्वरूप बन सकते हैं। अपनी देह में वा सम्बन्धों में, कोई भी पदार्थ में, कहाँ भी अगर आसक्ति है तो माया भी आ सकती है और शक्ति नहीं बन सकते। इसलिए शक्तिरूप बनने के लिए आसक्ति को अनासक्ति में बदली करो। जैसे आप लोग औरों को कहते हो कि एक दीपक अनेकों को जगा सकता है। ऐसे ही आप एक-एक सारे विश्व के कल्याण के निमित्त बन सकते हो। तो अपने कर्त्तव्य को और अपने स्वरूप को दोनों को याद रखते हुए चलते चलो। ब्रह्मा की भुजायें हो ना। तो हेण्ड्स बनेंगे ना। अपने को ब्रह्मा की भुजायें समझती हो? ब्रह्मा की भुजाओं का भी कर्त्तव्य क्या होता है? ब्रह्मा का कर्त्तव्य है स्थापना; तो ब्रह्मा की भुजाओं का भी कर्त्तव्य हुआ स्थापना के कार्य में सदैव तत्पर रहना। हद के सम्बन्धों में आने का सिर्फ इन्हों को तरीका सिखाना है। निर्बन्धन अपने को बना सकती हो, लेकिन तरीका नहीं आता है। एक तो तरीका नहीं, दूसरी ताकत नहीं। तो ताकत भी भरना और तरीका भी सीखना। बापदादा फिर भी उम्मीदवार ग्रुप समझते हैं। अब देखेंगे कि हरेक अपने को कितना बार ऑफर करते हैं। अपने आप को खुद ही ऑफर करना है। आफरीन उनको मिलती है जो स्वयं को खुद आफर करता है। अगर कहने से करते हैं तो आफरीन नहीं मिलती है। अब देखेंगे कि कौन-कौन अपने को ऑफर करते हैं। स्नेही तो हो लेकिन स्नेही के साथ सहयोगी भी बनो। इस ग्रुप का नाम क्या रखें? नाम-संस्कार होता है ना। क्योंकि परिवर्तन-भट्ठी में आये हो। आप लोग भी नाम-संस्कार के उत्सव में आये हो ना। इस ग्रप का क्या नाम? यह है सदा सहयोगी और शक्तिस्वरूप ग्रुप। अब अपनी शक्ति कभी भी कम नहीं करना। जब अपनी शक्ति को गंवा देते तो रावण भी देखता है कि यह अपनी शक्ति को गंवा बैठे हैं, तो वह खूब रूलाता है। शक्ति गंवाना अर्थात् रावण को बुलाना। इसलिए कभी भी अपनी शक्ति को कम न होने देना। जमा करना सीखो। भविष्य 21 जन्मों के लिए शक्ति को जमा करना है। अभी से जमा करेंगे तो जमा होगा। इसलिए सदैव यही सोचो कि जमा कितना किया है? अच्छा।
05-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भट्ठी की अलौकिक छाप
आज बापदादा हरेक के मस्तक से दो बातें देख रहे हैं। कौनसी? एक भाग्य और दूसरा सुहाग। दोनों ही बातें देख रहे हैं। भट्ठी में आकर अपने भाग्य और सुहाग को अच्छी तरह से देख और जान सकते हो। अपने मस्तक पर चमकते हुए भाग्य के सितारे को देख सकते हो। भट्ठी में यह दर्पण मिला है जिस दर्पण से अपने भाग्य और सुहाग को देख सको? भट्ठी में आना अर्थात् दो बातें प्राप्त करना। वह दो बातें कौनसी? आज भट्ठी वालों से मिलने आये हैं ना। तो उन्हों का पेपर लेते हैं। बताओ, मुख्य दो बातें कौनसी मिलती हैं? (हरेक ने भिन्न-भिन्न बातें सुनाई) हरेक ने जो सुनाया बहुत अच्छा सुनाया। क्योंकि मातायें इतना भी सुनाने योग्य बन जायें तो बहुत सर्विस कर सकती हैं। तो भट्ठी से दो बातें मुख्य यह मिली हैं और उन्हें साथ लेकर ही जाना है। एक तो अपने आपको देखने का दर्पण और दूसरी बात योग अर्थात् याद का गोला। लाइट के गोले को सदैव साथ रखने वाले के हाथ में फिर कौनसा गोला आयेगा? जो आप लोगों का यादगार चित्र है। कृष्ण के चित्र में सृष्टि का गोला है ना। तो लाइट का गोला अर्थात् लाइट के चित्र के अन्दर सदैव रहना है। लाइट का गोला बनने से ही विश्व के राज्य का गोला ले सकते हो। तो अभी है लाइट का गोला भविष्य में होगा यह राज्य का गोला। तो भट्ठी से एक तो दर्पण मिला और दूसरा याद की यात्रा को निरन्तर श्रेष्ठ बनाने के लिए लाइट के गोले की सौगात मिली है। लेकिन दोनों ले जाने हैं। यहाँ ही छोड़ कर नहीं जाना है। दोनों सौगात साथ ले जायेंगे और सदैव साथ रखेंगे तो फिर क्या बन जायेंगे? जैसे बाप की महिमा का एक गीत बनाया है ना - सत्यम् शिवम् सुन्दरम्.......। ऐसे आप सभी भी मास्टर सत्यम् शिवम् सुन्दरम् हो जायेंगे, जिस दर्पण से सत्य और असली सुन्दरता का साक्षात्कार होगा। तो ऐसी अपनी सूरत बनाई है? भट्ठी में इसलिए ही आये हो ना। लौकिकपन अभी भट्ठी में स्वाहा किया? कोई भी लौकिक वृत्ति, दृष्टि, सम्बन्ध की स्मृति, लौकिक मर्यादा, लौकिक रीति-रस्म के वश होकर अलौकिक रीति और प्रीति को भूलेंगे तो नहीं? अलौकिक प्रीति और अलौकिक रीति-रस्म का पूरा ठप्पा वा पक्की छाप लगाई है? पूरी छाप लगाई है, जो भले कोई कितना भी मिटाने की कोशिश करे लेकिन मिट न सके। ऐसी छाप अपने आपको जिन्होंने लगाई है वह हाथ उठायें। देखना, लौकिक रीति- रस्म का पेपर बहुत कड़ा आयेगा (कोई-कोई ने हाथ नहीं उठाया), यह समझते हैं कि हम अपनी सेफ्टी रखें। लेकिन सेफ्टी इसमें है - जो जितनी हिम्मत रखेंगे उतनी मदद मिलेगी। पहले ही अपने में संशय-बुद्धि होने से हार हो जाती है। यह भी अपने में संशय क्यों रखते हैं कि ना मालूम हम फेल हो जायें। यह क्यों नहीं सोचते कि हम विजय प्राप्त करके ही दिखायेंगे। विजयी रत्न हो ना। तो कब भी पुरूषार्थ में अपने आप में संशय बुद्धि नहीं बनना चाहिए। संशय-बुद्धि होने से ही हार होती है। अपना ही संशय का संकल्प मायाजीत नहीं बनने देता है। अच्छा।
मैजारिटी विजयी रत्न हैं। विजय का तिलक भी लगाकर ही जा रहे हो ना। सदैव यह स्मृति में रखकर कदम उठाना कि विजय तो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। अधिकारी बनकर कर्म करने से विजय अर्थात् सफलता का अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसमें संकल्प उठाने की आवश्यकता ही नहीं है। स्वप्न में भी कभी यह संकल्प नहीं आना चाहिए कि ‘ना मालूम विजय होगी या नहीं?’ मास्टर नॉलेजफुल के मुख से ‘ना मालूम शब्द’ नहीं निकलना चाहिए। जब सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त को, तीनों कालों को जान गये हो, मास्टर नॉलेजफुल बन गये हो; तो ऐसे मास्टर नॉलेजफुल के मुख से यह शब्द नहीं निकल सकता कि ‘ना मालूम’। उनको तो सभी मालूम है। यह अज्ञानियों की भाषा है, ज्ञानी की भाषा नहीं। अगर कोई गलती भी करते हो तो भी मालूम होता है नॉलेज के आधार पर कि यह रांग कार्य कर रही हूँ। मालूम पड़ता है ना! ना मालूम यह होगा या नहीं होगा - यह कहना ब्राह्मणों की भाषा नहीं है। तो भट्ठी से यह छाप पक्की लगाकर जाना, जो 21 जन्म यह छाप पक्की रहे, अविनाशी रहे। तो भट्ठी की दोनों ही सौगातें सभी ने अपने पास रखी हैं? अब भट्ठी से जाकर के क्या करेंगे? भट्ठी में आई हो अपने को परिवर्तन करने के लिए। तो जितना जो स्वयं को परिवर्तन में ला सकता है, वह उतना ही औरों को भी परिवर्तन में ला सकता है। अगर सर्विस में देखती हो कि परिवर्तन में कम आते हैं, तो दर्पण जो ले जा रही हो उसमें देखना कि मुझे अपने आपको परिवर्तन में लाने की इतनी शक्ति आई है? अगर अपने को परिवर्तन करने की शक्ति कम है तो दूसरों को भी इतना ही परिवर्तन में ला सकेंगे। तो दो बातें याद रखना। एक तो हरेक बात में परिवर्तन करना है, लौकिक से अलौकिक में आना है। और, दूसरा परिपक्वता में आना है। अगर परिपक्वता नहीं है तो भी सफ़लता नहीं होती। तो परिवर्तन में भी लाना है और अपने में परिपक्वता अर्थात् मज़बूती भी लानी है। यह मुख्य दोनों ही बातें प्रवृत्ति में रहकर कार्य करते समय याद रखना। अगर दोनों ही बातें याद रखेंगे तो निश्चय ही विजय है। सहज बात सुनाई ना। माताओं को सहज बातें चाहिए ना। वैसे भी मातायें श्रृंगार के कारण दर्पण में देखती रहती हैं। तो बापदादा भी वही काम देते हैं। अच्छा।
यह भट्ठी जो मधुबन की बेहद की भट्ठी है, तो अपनी प्रवृत्ति में भी इस बेहद की भट्ठी का माडल रूप समझकर चलना। कोई चीज का माडल छोटा ही बनाया जाता है। जैसे यहाँ भट्ठी करके जा रही हो, ऐसा ही माडल रूप अपनी प्रवृत्ति को भी बनाना। फिर क्या होगा? वही भट्ठी की बातें, भट्ठी की धारणा, भट्ठी की दिनचर्या अपनी चला सकेंगी। इसलिए प्रवृत्ति में आकर अपनी वृत्ति भट्ठी जैसी ही रखना। वृत्ति को नहीं बदलना। जैसे यहाँ भट्ठी में ऊंची वृत्ति रहती है, वैसे ही ऊंची वृत्ति प्रवृत्ति में भी रखना। वृत्ति चेन्ज की तो फिर प्रवृत्ति की परिस्थितियां स्थिति को डगमग कर देंगी। लेकिन अगर वृत्ति ऐसी ही ऊंची रखेंगे तो प्रवृत्ति में आने वाली अनेक परिस्थितियां आपकी स्थिति को डगमग नहीं कर सकेंगी। समझा? वृत्ति को साथ ले जाना। फिर देखना विजयी बने हो ना। माताओं के साथ सभी से ज्यादा स्नेह है। क्योंकि माताओं ने दु:ख बहुत सहन किये हैं। इसलिए पुकारा भी ज्यादा माताओं ने है। तो बहुत दु:ख सहन करने के कारण, मारें सहन करने के कारण, थकी हुई होने के कारण बाप स्नेह से पांव दबाते हैं। गायन है ना - माताओं के पांव दबाये। पांव कोई स्थूल नहीं, लेकिन माताओं के विशेष स्नेह के पांव दबाते हैं। इन्हों को स्नेह और साहस देना है। सिर्फ स्नेह नहीं याद रखना, लेकिन साहस भी जो दिया है वह भी याद रखना। अच्छा।
भट्ठी की जो सारी पढ़ाई वा शिक्षा ली उसका सार तीन शब्दों में याद रखना है। कौनसे तीन शब्द? तोड़ना, मोड़ना और जोड़ना। कर्म-बन्धन तोड़ना सीखी हो ना। और फिर मोड़ना भी सीखी हो। अपने संस्कारों को, स्वभावों को मोड़ना भी सीखी और जोड़ना भी सीखी। तो यह तीन शब्द याद रखना और सदैव अपने को देखते रहना कि ‘‘तोड़ भी रही हूँ, मोड़ भी रही हूँ और जोड़ भी रही हूँ? तीनों में कोई भी कमी तो नहीं है?’’ फिर जल्दी सम्पूर्ण बन जायेंगे। इस ग्रुप को खास यह स्मृति का तिलक दे रहे हैं। तिलक स्मृति की निशानी है ना। तो सदैव यह स्मृति में रखना कि यह सभी जो भी इन नयनों से विनाशी चीजे देखते हैं वह देखते हुए भी अपने नये सम्बन्ध, नई सृष्टि को ही देखते रहें। इन आंखों से जो विनाशी चीजें दिखाई देती हैं उनमें विनाश की स्मृति रहे। यह स्मृति का तिलक इस ग्रुप को दे रहे हैं। फिर कोई भी बातों में हार नहीं खायेंगे, क्योंकि देखेंगे ही विनाशी चीज़ को। इसलिए अपने को विजयी बनाने के लिए अमृतवेले रोज़ यह स्मृति का तिलक अपने को लगाना। भोली मातायें हैं। यही मातायें अगर मैदान पर आ जायें तो यह अपने को आज जो शेर समझते हैं वह बकरी बन आपके चरणों में आ जायें। क्योंकि जिस बात में वह कमज़ोर वा कायर हैं उस बात की आप प्रत्यक्ष प्रमाण हो। आपके प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर शर्मशार होंगे। तो गोया बकरी बन जायेंगे ना। मातायें इतनी श्रेष्ठ सर्विस कर सकती हैं, जो एक सेकेण्ड में शेर को बकरी बना सकती हैं। ऐसी जादूगरनी हो। जादू से शेर को बकरी, बकरी को शेर बनाते हैं ना। तुम मातायें भी ऐसी जादूगरी दिखा सकती हो। सिर्फ शेरनी बन जाओ, फिर वह शेर बकरी बनेंगे। तो यह अन्त का जो धर्मयुद्ध दिखाया हुआ है, आवाज़ बुलन्द होना है। तुम्हारी इस सर्विस से जब शेर बकरी बन जायेंगे फिर उनके फालोअर्स तो पीछे-पीछे हैं ही। सिर्फ एक शेर को भी बकरी बनाया तो अनेक शेर जाल में आ जायेंगे। इसलिए माताओं को इतनी ऊंची सर्विस के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर इतना झुण्ड शक्तिदल सामना करे तो बताओ वह ठहर सकेंगे? चैलेन्ज करने की हिम्मत चाहिए। अभी प्रैक्टिकल में परीक्षाओं से पार होना है। एक होता है थ्योरी का पेपर, दूसरा होता है प्रैक्टिकल पेपर। थ्योरी में तो पास हो, अब प्रैक्टिकल पेपर में पास होना है। हिम्मते शक्तियां मदद दे सर्वशक्तिमान। यह तो सदैव याद है ना। अब सिर्फ रिटर्न करना है। इतनी जो मेहनत ली है उसका रिटर्न। यह सभी शेरनियां हैं! शेरनियां कभी किससे डरती नहीं हैं, निर्भय होती हैं। यह भी भय नहीं कि ना मालूम क्या है। इससे भी निर्भय होना है। ऐसी शेरनियां बनी हो? (बन जायेंगे) कब? यह तो पहले ही दिन जब भट्ठी में आती हो तो भट्ठी में आना अर्थात् बदलना। समझा? परिवर्तन समारोह मना रही हो ना। बापदादा भी परिवर्तन- समारोह में आये हैं। आज फाइनल छाप लगाना है। फिर इस परिवर्तन को भुलाना नहीं। हरेक को अपने में कोई न कोई विशेषता भरनी है। कोई भी एक सब्जेक्ट में नम्बरवन ज़रूर बनना चाहिए। बनना तो सभी में चाहिए। अगर नहीं बन सकती हो तो कोई न कोई सब्जेक्ट में विशेष नम्बरवन अपने को ज़रूर बनाना है। यहाँ से निकल कर और सर्विस में मददगार बनने के लिए जो कहा था वह प्लैन बनाया है? जो प्लैन बनाया है उस प्रमाण फिर तैयार भी जरूर रहना है। विघ्न तो आयेंगे लेकिन जब आवश्यक बात समझी जाती है तो उसका प्रबन्ध भी किया जाता है। जैसे आपकी प्रवृत्ति में कई आवश्यक बातें सामने आती हैं तो प्रबन्ध करते हो ना। इस रीति अपने को स्वतन्त्र बनाने के लिए भी कोई न कोई प्रबन्ध रखो। कोई साथी बनाओ। आपस में भी एक-दो दैवी परिवार वाले सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन तब बनेंगे जब इतना एक- दो को स्नेह देकर सहयोगी बनायेंगे। प्लैन रचना चाहिए कैसे अपने बन्धन को हल्का कर सकती हैं। कई चतुर होते हैं तो अपने बन्धनों को मुक्त करने के लिए युक्ति रचते हैं। ऐसे नहीं कि प्रबन्ध मिले तो निकल सकती हूँ। प्रबन्ध अपने आप करना है। अपने आप को स्वतन्त्र करना है। दूसरा नहीं करेगा।
योगयुक्त होकर ऐसा प्लैन सोचने से इच्छा पूर्ति के लिए प्रबन्ध भी मिल जायेंगे। सिर्फ निश्चय-बुद्धि होकर अपने उमंग को तीव्र बनाओ। उमंग ढीला होता है तो प्रबन्ध भी नहीं मिलता, मददगार कोई नहीं मिलता। इसलिए हिम्मतवान बनो तो मददगार भी कोई न कोई बन जायेंगे। अब देखेंगे कि अपने को स्वतन्त्र बनाने की कितनी शक्ति हरेक ने अपने में भरी है। मायाजीत तो हो। लेकिन अपने को स्वतन्त्र बनाने की शक्ति भी बहुत ज़रूरी है। यह पेपर होगा कि शक्ति कहाँ तक भरी है। जो प्रवृत्ति में रहते स्वतन्त्र बन मददगार बनेंगी उनको इनाम भी भेजेंगे। अच्छा।
छोटे बाप समान होते हैं। हैं तो सभी एक, किन्तु पहचान के लिए गुजराती, पंजाबी आदि कहते हैं। गुज़रात नम्बरवन बनकर दिखायेंगे ना। देखेंगे इनाम लायक कौन बनता है। एक-एक रत्न की अपनी विशेषता है। किसमें स्नेह की, किसमें सहयोग की, किसमें शक्ति की, किसमें दिव्यगुणों की मूर्त बनने की, किसमें ज्ञान की विशेषता है। अभी सर्व शक्तियां अपने में भरनी हैं। सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण बनना है। सर्व गुण सम्पन्न नहीं बनेंगे तो 16 कला से 14 कला हो जायेंगे। चन्द्रमा में जरा भी कला कम होती है तो अच्छा नहीं लगता है। सम्पूर्णता से सुन्दरता होती है। तीव्र पुरुषार्थी का तीर सदा निशाने पर लगता है। कभी भी माया से हार नहीं खाना। लाइट का गोला बनकर जाना। लाइट नॉलेज को भी कहते हैं और ‘लाइट माइट’ भी है।
‘कोशिश’ शब्द कमज़ोरी का है। जहाँ कमज़ोरी होती है वहाँ पहले माया तैयार होती है। जैसे कमज़ोर शरीर पर बीमारी जल्दी आ जाती है, वैसे ‘कोशिश’ शब्द कहना भी आत्मा की कमज़ोरी है। माया समझती है कि यह हमारा ग्राहक है तो आ जाती है। निश्चय की विजय है। जैसे सारे दिन की जो स्मृति रहती है वैसे ही स्वप्न आते हैं। यदि सारे दिन में शक्तिरूप की स्मृति रहेगी तो कमज़ोरी स्वप्न में भी नहीं आयेगी। अच्छा।
11-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
परिस्थितियों को पार करने का साधन - ‘स्वस्थिति’
व्यक्त में रहते अव्यक्त स्थिति में रहने का अभ्यास अभी सहज हो गया है। जब जहाँ अपनी बुद्धि को लगाना चाहें तो लगा सकें - इसी अभ्यास को बढ़ाने के लिए अपने घर में अथवा भट्ठी में आते हो। तो यहाँ के थोड़े समय का अनुभव सदाकाल बनाने का प्रयत्न करना है। जैसे यहाँ भट्ठी वा मधुबन में चलते-फिरते अपने को अव्यक्त फरिश्ता समझते हो, वैसे कर्मक्षेत्र वा सर्विस-भूमि पर भी यह अभ्यास अपने साथ ही रखना है। एक बार का किया हुआ अनुभव कहाँ भी याद कर सकते हैं। तो यहाँ का अनुभव वहाँ भी याद रखने से वा यहाँ की स्थिति में वहाँ भी स्थित रहने से बुद्धि को आदत पड़ जायेगी। जैसे लौकिक जीवन में न चाहते हुए भी आदत अपनी तरफ खींच लेती है, वैसे ही अव्यक्त स्थिति में स्थित होने की आदत बन जाने के बाद यह आदत स्वत: ही अपनी तरफ खींचेगी। इतना पुरूषार्थ करते हुए कई ऐसी आत्मायें हैं जो अब भी यही कहती हैं कि मेरी आदत है। कमजोरी क्यों है,
क्रोध क्यों किया, कोमल क्यों बने? कहेंगे - मेरी आदत है। ऐसे जवाब अभी भी देते हैं। तो ऐसे ही यह स्थिति वा इस अभ्यास की भी आदत बन जाये; तो फिर न चाहते हुए भी यह अव्यक्त स्थिति की आदत अपनी तरफ आकर्षित करेगी। यह आदत आपको अदालत में जाने से बचायेगी। समझा? जब बुरी-बुरी आदतें अपना सकते हो तो क्या यह आदत नहीं डाल सकते हो? दो-चार बारी भी कोई बात प्रैक्टिकल में लाई जाती है तो प्रैक्टिकल में लाने से प्रैक्टिस हो जाती है। यहाँ इस भट्ठी में अथवा मधुबन में इस अभ्यास को प्रैक्टिकल में लाते हो ना। जब यहाँ प्रैक्टिकल में लाते हो और प्रैक्टिस हो जाती है तो वह प्रैक्टिस की हुई चीज क्या बन जानी चाहिए? नेचूरल और नेचर बन जानी चाहिए। समझा? जैसे कहते हैं ना - यह मेरी नेचर है। तो यह अभ्यास प्रैक्टिस से नेचूरल और नेचर बन जाना चाहिए। यह स्थिति जब नेचर बन जायेगी फिर क्या होगा? नेचूरल केलेमिटीज़ हो जायेगी। आपकी नेचर न बनने के कारण यह नेचूरल केलेमिटीज़ रूकी हुई हैं। क्योंकि अगर सामना करने वाले अपने स्व-स्थिति से उन परिस्थितियों को पार नहीं कर सकेंगे तो फिर वह परिस्थितियां आयेंगी कैसे। सामना करने वाले अभी तैयार नहीं हैं, इसलिए यह पर्दा खुलने में देरी पड़ रही है। अभी तक इन पुरानी आदतों से, पुराने संस्कारों से, पुरानी बातों से, पुरानी दुनियॉं से, पुरानी देह के सम्बन्धियों से वैराग्य नहीं हुआ है। कहाँ भी जाना होता है तो जिन चीजों को छोड़ना होता है उनसे पीठ करनी होती है। तो अभी पीठ करना नहीं आता है। एक तो पीठ नहीं करते हो, दूसरा जो साधन मिलता है उसकी पीठ नहीं करते हो। सीता और रावण का खिलौना देखा है ना। रावण के तरफ सीता क्या करती है? पीठ करती है ना। अगर पीठ कर दिया तो सहज ही उनके आकर्षण से बच जायेंगे। लेकिन पीठ नहीं करते हो। जैसे श्मशान में जब नज़दीक पहुंचते हैं तो पैर इस तरफ और मुँह उस तरफ करते हैं ना। तो यह भी पीठ करना नहीं आता है। फिर मुँह उस तरफ कर लेते हैं, इसलिए आकर्षण में कहाँ फँस जाते हैं। तो दोनों ही प्रकार की पीठ करने नहीं आती है। माया बहुत आकर्षण करने के रूप रचती है। इसलिए न चाहते हुए भी पीठ करने के बजाय आकर्षण में आ जाते हैं। उसी आकर्षण में पुरूषार्थ को भूल, आगे बढ़ने को भूल रूक भी जाते हैं; तो क्या होगा? मंजिल पर पहुँचने में देरी हो जायेगी। कुमारों की भट्ठी है ना। तो कुमारों को यह खिलौना सामने रखना चाहिए। माया की तरफ मुँह कर लेते हैं। माया की तरफ मुँह करने से जो परीक्षायें माया की तरफ से आती हैं, उनका सामना नहीं कर सकते हैं। अगर उस तरफ मुँह न करो तो माया की परिस्थितियों को मुँह दे सको अर्थात् सामना कर सको। समझा?
कुमारों का सदा प्योर और सतोगुणी रहने का यादगार कौनसा है, मालूम है? सनंतकुमार। उन्हों की विशेषता क्या दिखाते हैं? उन्हों को सदैव छोटा कुमार रूप ही दिखाते हैं। कहते हैं - उन्हों की सदैव 5 वर्ष की आयु रहती है। यह प्योरिटी का गायन है। जैसे 5 वर्ष का छोटा बच्चा बिल्कुल प्योर रहता है ना। सम्बन्धों के आकर्षण से दूर रहता है। भल कितना भी लौकिक परिवार हो लेकिन स्थिति ऐसी हो जैसे छोटा बच्चा प्योर होता है। वैसे ही प्योरिटी का यह यादगार है। कुमार अर्थात् पवित्र अवस्था। उसमें भी सिर्फ एक नहीं, संगठन दिखलाया है। दृष्टान्त में तो थोड़े ही दिखाये जाते हैं। तो यह आप लोगों का संगठन प्योरीटी का यादगार है। ऐसी प्योरिटी होती है जिसमें अपवित्रता का संकल्प वा अनुभव ही नहीं हो। ऐसी स्थिति यादगार समान बनाकर जानी है। भट्ठी में इसीलिए आये हो ना। बिल्कुल इस दुनिया की बातों से, सम्बन्ध से न्यारे बनेंगे तब दैवी परिवार के, बापदादा के और सारी दुनिया के प्यारे बनेंगे। वैसे भी कोई सम्बन्धियों से जब न्यारे हो जाते हैं, लौकिक रीति भी अलग हो जाते हैं तो न्यारे होने के बाद ज्यादा प्यारे होते हैं। और अगर उन्हों के साथ रहते हैं वा उन्हों के सम्बन्ध के लगाव में होते हैं तो इतने प्यारे नहीं होते हैं। वह हुआ लौकिक। लेकिन यहाँ न्यारा बनना है ज्ञान सहित। सिर्फ बाहर से न्यारा नहीं बनना है। मन का लगाव न हो। जितना-जितना न्यारा बनेंगे उतना- उतना प्यारा अवश्य बनेंगे। जब अपनी देह से भी न्यारे हो जाते हो तो वह न्यारेपन की अवस्था अपने आप को भी प्यारी लगती है - ऐसा अनुभव कब किया है? जब अपनी न्यारेपन की अवस्था अपने को भी प्यारी लगती है, तो लगाव से न्यारी अवस्था प्यारी नहीं लगेगी? जिस दिन देह में लगाव होता है, न्यारापन नहीं होता है तो अपने आप को भी प्यारे नहीं लगते हो, परेशान होते हो। ऐसे ही बाहर के लगाव से अगर न्यारे नहीं होते हैं तो प्यारे बनने के बजाय परेशान होते हैं। यह अनुभव तो सभी को होगा। सिर्फ ऐसे-ऐसे अनुभव सदाकाल नहीं बना सकते हो। ऐसा कोई है जिसने इस न्यारे और प्यारेपन का अनुभव नहीं किया हो? अपने को योगी कहलाते हो। जब अपने को सहज राजयोगी कहलाते हो तो यह अनुभव नहीं किया हो, यह हो नहीं सकता। नहीं तो यह टाइटिल अपने को दे नहीं सकते हो। योगी अर्थात् यह योग्यता है तब योगी हैं। नहीं तो फिर अपने परिचय में यह शब्द नहीं कह सकते हो कि हम सहज राजयोग की पढ़ाई के स्टूडेन्ट हैं। स्टूडेण्ट तो हो ना। स्टूडेण्ट को पढ़ाई का अनुभव न हो, यह हो नहीं सकता। हाँ, यह जरूर है कि इस अनुभव को कहाँ तक सदाकाल बना सकते हो वा अल्पकाल का अनुभव करते हो। यह फर्क हो सकता है। लेकन जो पुराने स्टूडेन्टस् हैं उन्हों का अनुभव अल्पकाल नहीं होना चाहिए। अगर अब तक अल्पकाल का ही अनुभव है तो फिर क्या होगा? संगमयुग का वर्सा और भविष्य का वर्सा - दोनों ही अल्प समय प्राप्त होगा। समझा? जो पूरा समय वर्सा प्राप्त करने का है वह नहीं कर सकेंगे, अल्प समय करेंगे। तो इसी में ही सन्तुष्ट हो क्या?
आज कुमारों की भट्ठी का आरम्भ है ना। भट्ठी का आरम्भ अर्थात् पकने का आरम्भ। कोई स्वाहा होगा, कोई भट्ठी में पकेगा, कोई प्योरिटी का संकल्प दृढ़ करेगा। यहाँ तो करने लिए ही आये हो ना। अब देखना है कि जो कहा वह किया? यह जो ग्रुप है वह पूरा माया से इनोसेन्ट और ज्ञान से सेन्ट बनकर जाना। जैसे सतयुगी आत्मायें जब यहाँ आती हैं तो विकारों की बातों की नॉलेज से इनोसेन्ट होती हैं। देखा है ना। अपना याद आता है कि जब हम आत्मायें सतयुग में थीं तो क्या थीं? माया की नॉलेज से इनोसेन्ट थीं - याद आता है? अपने वह संस्कार स्मृति में आते हैं वा सुना हुआ है इसलिए समझते हो? जैसे अपने इस जन्म में बचपन की बातें स्पष्ट स्मृति में आती हैं, वैसे ही जो कल के आपके संस्कार थे वह कल के संस्कार आज के जीवन में संस्कारों के समान स्पष्ट स्मृति में आते हैं वा स्मृति में लाना पड़ता है? जो समझते हैं कि हमारे सतयुगी संस्कार ऐसे ही मुझे स्पष्ट स्मृति में आते हैं जैसे इस जीवन के बचपन के संस्कार स्पष्ट स्मृति में आते हैं, वह हाथ उठाओ।
यह स्पष्ट स्मृति में आना चाहिए। साकार रूप में (ब्रह्मा बाप में) स्पष्ट स्मृति में थे ना। यह स्मृति तब होगी जब अपने आत्मिक-स्वरूप की स्मृति स्पष्ट और सदाकाल रहेगी। तो फिर यह स्मृति भी स्पष्ट और सदाकाल रहेगी। अभी आत्मिक-स्थिति की स्मृति कब-कब देह के पर्दे के अन्दर छिप जाती है। इसलिए यह स्मृति भी पर्दे के अन्दर दिखाई देती है, स्पष्ट नहीं दिखाई देती है। आत्मिक-स्मृति स्पष्ट और बहुत समय रहने से अपना भविष्य वर्सा अथवा अपने भविष्य के संस्कार स्वरूप में सामने आयेंगे। आपने चित्र में क्या दिखाया है? एक तरफ विकार भागते, दूसरी तरफ बुद्धि की स्मृति बाप और भविष्य प्राप्ति की तरफ। यह लक्ष्मी-नारायण का चित्र दिखाया है ना। यह चित्र किसके लिए बनाया है? दूसरों के लिए या अपनी स्थिति के लिए? तो भविष्य संस्कारों को स्पष्ट स्मृति में लाने के लिए आत्मिक-स्वरूप की स्मृति सदाकाल और स्पष्ट रहे। जैसे यह देह स्पष्ट दिखाई देती है, वैसे अपनी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे अर्थात् अनुभव में आये। तो अब कुमारों को क्या करना है? सेन्ट भी बनना है, इनोसेन्ट भी बनना है। सहज पढ़ाई है ना। दो शब्द में आपका पूरा कोर्स हो जायेगा। यह छाप लगाकर जाना। कमज़ोरी, परेशानी आदि -- इन बातों से बिल्कुल इनोसेन्ट। कमजोरी शब्द भी समाप्त होना है। इस ग्रुप का नाम कौनसा है? सिम्पलिसिटी और प्योरिटी में रहने वाला ग्रुप। जो सिम्पल होता है वही ब्युटीफुल होता है। सिम्पलिसिटी सिर्फ ड्रेस की नहीं लेकिन सभी बातों की। निरहंकारी बनना अर्थात् सिम्पल बनना। निरक्रोधी अर्थात् सिम्पूल। निर्लोभी अर्थात् सिम्पुल। यह सिम्पलिसिटी प्योरिटी का साधन है। अच्छा। सलोगन क्या याद रखेंगे? कुमार जो चाहे सो कर सकते हैं। जो भी बातें कहो वह ‘‘पहले करेंगे, दिखायेंगे, फिर कहेंगे’’। पहले कहेंगे नहीं। पहले करेंगे, दिखायेंगे, फिर कहेंगे। यह सलोगन याद रखना। अच्छा।
13-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बन्धनमुक्त आत्मा की निशानियाँ
जो भी यहाँ बैठे हैं वह सभी अपने को बन्धनमुक्त आत्मा समझते हैं अर्थात् सभी बन्धनमुक्त बने हैं वा अभी तक कोई-न-कोई बन्धन है? शक्ति सेना बन्धन मुक्त बनी है? जो समझते हैं कि सर्व बन्धनमुक्त बने हैं वह हाथ उठायें। सर्विस के कारण निमित्त मात्र रहे हुए हैं, वह दूसरी बात है। लेकिन अपना बन्धन खत्म किया है? ऐसे समझते हैं कि अपने रूप से बन्धनमुक्त होकर के सिर्फ निमित्त मात्र सर्विस के कारण इस शरीर में कर्त्तव्य अर्थ बैठे हुए हैं? (मैजारिटी ने हाथ उठाया) जिन्होंने भी हाथ उठाया वह कभी संकल्पमात्र भी संकल्प वा शरीर के, परिस्थितियों के अधीन वा संकल्प में थोड़े समय के लिए भी परेशानी वा उसका थोड़ा भी लेशमात्र अनुभव करते हैं वा उससे भी परे हो गये हैं? जब बन्धनमुक्त हैं तो मन के वश अर्थात् व्यर्थ संकल्पों के वश नहीं होंगे। व्यर्थ संकल्पों पर पूरा कन्ट्रोल होगा। परिस्थितियों के वश भी नहीं होंगे। परिस्थितियों का सामना करने की सम्पूर्ण शक्ति होगी। जिन्होंने हाथ उठाया वह ऐसे हैं? तो इन बन्धनों में भी अभी बंधे हुए हैं ना। जो बन्धनमुक्त होगा उनकी निशानी क्या होगी? जो बन्धनमुक्त होगा वह सदैव योगयुक्त होगा। बन्धनमुक्त की निशानी है योगयुक्त। और, जो योगी होगा, ऐसे योगी का मुख्य गुण कौनसा दिखाई देगा? जान-बूझकर के बुद्धि का खेल कराते हैं। तो ऐसे योगी का मुख्य गुण वा लक्षण क्या होगा? जितना योगी उतना सर्व का सहयोगी और सर्व के सहयोग का अधिकारी स्वत: ही बन जाता है। योगी अर्थात् सहयोगी। जो जितना योगी होगा उतना उसको सहयोग अवश्य ही प्राप्त होता है। अगर सर्व से सहयोग प्राप्त करना चाहते हो तो योगी बनो। योगी को सहयोग क्यों प्राप्त होता है? क्योंकि बीज से योग लगाते हो। बीज से कनेक्शन अथवा स्नेह होने के कारण स्नेह का रिटर्न सहयोग प्राप्त हो जाता है। तो बीज से योग लगाने वाला, बीज को स्नेह का पानी देने वाला सर्व आत्माओं द्वारा सहयोग रूपी फल प्राप्त कर लेता है। जैसे साधारण वृक्ष से फल की प्राप्ति के लिए क्या किया जाता है? वैसे ही जो योगी है उसको एक- एक से योग लगाने की आवश्यकता नहीं होती, एक-एक से सहयोग प्राप्त करने की आशा नहीं रहती। लेकिन एक बीज से योग अर्थात् कनेक्शन होने के कारण सर्व आत्मायें अर्थात् पूरे वृक्ष के साथ कनेक्शन हो ही जाता है। तो कनेक्शन का अटेन्शन रखो। तो सहयोगी बनने के लिए पहले अपने आप से पूछो कि कितना और कैसा योगी बना हूँ? अगर सम्पूर्ण योगी नहीं तो सम्पूर्ण सहयोगी नहीं बन सकते, न सहयोग मिल सकता है। कितनी भी कोई कोशिश करे परन्तु बीज से योग लगाने के सिवाय कोई पत्ते अर्थात् किसी आत्मा से सहयोग प्राप्त हो जाये-यह हो नहीं सकता। इसलिए सर्व के सहयोगी बनने वा सर्व का सहयोग लेने के लिए सहज पुरूषार्थ कौनसा है? बीज रूप से कनेक्शन अर्थात् योग। फिर एक-एक से मेहनत कर प्राप्त करने की आशा समाप्त हो जायेगी, मेहनत से छूट जायेंगे। शार्टकट रास्ता यह है। अगर सर्व का सहयोगी, सदा योगयुक्त होंगे तो बन्धनमुक्त भी ज़रूर होंगे। क्योंकि जब सर्व शक्तियों का सहयोग, सर्व आत्माओं का सहयोग प्राप्त हो जाता है तो ऐसी शक्तिरूप आत्मा के लिए कोई बन्धन काटना मुश्किल होगा? बन्धन- मुक्त होने के लिए योगयुक्त होना है। और योगयुक्त बनने से स्नेह और सहयोग युक्त बन जाते हैं। तो ऐसे बन्धनमुक्त बनो। सहज-सहज करते भी कितना समय लग गया है।
ऐसी स्थिति अब ज़रूर होनी चाहिए। जो बन्धनमुक्त की स्थिति सुनाई कि शरीर में रहते हुए सिर्फ निमित्त ईश्वरीय कर्त्तव्य के लिए आधार लिया हुआ है। अधीनता नहीं। निमित्त आधार लिया है। जो निमित्त आधार शरीर को समझेंगे वह कभी भी अधीन नहीं बनेंगे। निमित्त आधारमूर्त ही सर्व आत्माओं के आधारमूर्त बन सकते हैं। जो स्वयं ही अधीन हैं वह उद्धार क्या करेंगे। इसलिए सर्विस की सफलता भी इतनी है जितनी अधीनता से परे हरेक है। तो सर्व की सफलता के लिए सर्व अधीनता से परे होना बहुत ज़रूरी है। इस स्थिति को बनाने के लिए ऐसे दो शब्द याद रखो जिससे सहज ही ऐसी स्थिति को पा सको। वह कौनसे दो शब्द हैं? जब बन्धनमुक्त हो जायेंगे तो जैसे टेलीफोन में एक-दो का आवाज़ कैच कर सकते हैं, वैसे कोई के संकल्प में क्या है, वह भी कैच करेंगे। अभी अजुन बन रहे हो, इसलिए सोचना पड़ता है। दो शब्द हैं - (1) साक्षी और (2) साथी। एक तो साथी को सदैव साथ रखो। दूसरा - साक्षी बनकर हर कर्म करो। तो साथी और साक्षी - ये दो शब्द प्रैक्टिस में लाओ तो यह बन्धनमुक्त की अवस्था बहुत जल्दी बन सकती है। सर्वशक्तिमान का साथ होने से शक्तियाँ भी सर्व प्राप्त हो जाती हैं। और साथ-साथ साक्षी बनकर चलने से कोई भी बन्धन में फंसेंगे नहीं। तो बन्धनमुक्त हुए हो ना। इसके लिए ये दो शब्द सदैव याद रखना। वह योग, वह सहयोग। दोनों बातें आ गईं। अब ऐसा पुरूषार्थ कितने समय में करेंगे? बिल्कुल बन्धनमुक्त होकर के साक्षीपन में निमित्तमात्र इस शरीर में रहकर कर्त्तव्य करना है। अभी इस बारी यह अपने आपसे संकल्प करके जाना। क्योंकि आप (टीचर्स) लोगों को सहज भी है। टीचर्स को विशेष सहज क्यों है? क्योंकि उन्हों का पूरा जीवन ही निमित्त है। समझा? टीचर्स हैं ही निमित्त बने हुए। तो उन्हों को यह संकल्प रखना है कि इस शरीर में भी हम निमित्तमात्र हैं। यह तो सहज होगा ना। इन (गोपों) लोगों को तो फिर डबल ज़िम्मेवारी है, इसलिए इन्हों को युद्ध करनी पड़ेगी हटाने की। बाकी जो हैं ही निमित्त बने हुए, तो उन्हों के लिए सहज है। आप (माताओं) के लिए फिर सहज क्या है? जैसे उन्हों को इस विशेष बात के कारण सहज है वैसे आप लोगों को भी एक बात के कारण सहज है। जो प्रवृत्ति में रहते हैं उन्हों के लिए सहज बात इसलिए है कि उन्हों के सामने सदैव कान्ट्रास्ट है। कान्ट्रास्ट होने के कारण निर्णय करना सहज हो जाता है। निर्णय करने की शक्ति कम है, इसलिए सहज नहीं भासता है। एक बार जब अनुभव कर लिया कि इससे प्राप्ति क्या है, फिर निर्णय हो ही जाता है। ठोकर का अनुभव एक बार किया तो फिर बार-बार थोडेही ठोकर खायेंगे। निर्णय शक्ति कम है तो फिर मुश्किल भी हो जाता है। तो यह प्रवृत्ति में अथवा परिवार में रहते हैं, उनके अनुभवी होने के कारण, सामने कान्ट्रास्ट होने के कारण धोखे से बच जाते हैं। जो वरदान के अधिकारी बन जाते हैं वह किसके अधीन नहीं होते। समझा? तो अब अधीनता समाप्त, अधिकार शुरू। कब कोई अधीनता का संकल्प भी न आये। ऐसा पक्का निश्यच है। निश्चय में कभी परसेन्टेज नहीं होती है। शक्तिसेना ने अपने में क्या धारणा की? जब स्नेह और शक्ति समान होंगे फिर तो सम्पूर्ण हो ही गये। अपने शूरवीर रूप का साक्षात्कार किया है? शूरवीर कभी किससे घबराते नहीं। लेकिन शूरवीर के सामने आने वाले घबराते हैं। तो अभी जो शूरवीरता का साक्षात्कार किया, सदैव वही सामने रखना। और आज जो दो शब्द सुनाये वह सदैव याद रखना। अच्छा।
18-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विजयी बनने के लिए संग्रह और संग्राम की शक्ति आवश्यक
आज विशेष भट्ठी वालों के लिए बुलाया है। भट्ठी वालों ने क्या-क्या धारणायें की हैं - वह देख रहे हैं। आज खास दो बातों की धारणायें हरेक के इस साकार चित्र द्वारा देख रहे हैं। दो शक्तियों की धारणाएं देख रहे हैं कि कहां तक हरेक ने अपनी यथा शक्ति धारणा की हैं। वह दो शक्तियां कौनसी देख रहे हैं? एक तो संग्रह करने की शक्ति और दूसरी संग्राम करने की शक्ति। संग्रह करने की शक्ति भी अति आवश्यक है। तो जो भट्ठी में ज्ञान-रत्नों की धारणा मिली है, उसको बुद्धि में संग्रह रखना और इस संग्रह करने से ही लोक-संग्रह कर सकेंगे। इसलिये संग्रह करने की और फिर संग्राम करने की शक्ति-दोनों ही जरूरी हैं। दोनों शक्तियां धारण की हैं? दोनों में कोई की भी कमी होगी तो कमी वाला कभी भी सदा विजयी नहीं बन सकता। जिसमें जितनी संग्रह करने की शक्ति है उतनी ही संग्राम करने की भी शक्ति रहती है। दोनों शक्तियाँ धारण करने के लिये भट्ठी में आये हो। तो शक्तिस्वरूप बने हो? भट्ठी से कौनसे वरदान प्राप्त किये हैं? भक्ति-मार्ग में वरदान देते हैं ना - पुत्रवान भव, धनवान भव। लेकिन इस भट्ठी से क्या मुख्य वरदान मिला? शिक्षक बने वा मास्टर वरदाता भी बने? एक वरदान मिला शक्तिवान भव, दूसरा वरदान मिला सदैव अव्यक्त एकरस अवस्था का। इन दोनों वरदानों में दोनों ही बातें समाई हुई हैं। यह दोनों ही वरदान प्राप्त करके सम्पत्तिवान बनकर अपना प्रैक्टिकल सबूत दिखाने लिये जाना है। ऐसे नहीं समझना कि घर जा रहे हैं वा अपने स्थान पर जा रहे हैं। लेकिन जो शक्तियां वा वरदान लिये हैं उन्हों को प्रैक्टिकल करने के लिए विश्व स्टेज पर जा रहे हैं, ऐसे समझना है। स्टेज पर एक्टर को कौनसी मुख्य बातें ध्यान में रहती हैं? अटेन्शन और एक्यूरेसी - यह दोनों ही बातें याद रहती हैं। ऐसे ही आप लोग भी अब स्टेज पर एक्ट करके बापदादा को प्रत्यक्ष करने के लिए जा रहे हो। तो यह दोनों ही बातें याद रखना। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में अटेन्शन और एक्यूरेट। नहीं तो बापदादा को प्रत्यक्ष करने का श्रेष्ठ पार्ट बजा नहीं सकेंगे। तो अब समझा, क्या करने जा रहे हो? बापदादा को प्रत्यक्ष करने का पार्ट प्ले करने जा रहे हो। यह लक्ष्य रखकर के जाना। जो भी कर्म करो पहले यह देखो कि इस कर्म द्वारा बापदादा की प्रत्यक्षता होगी? ऐसे भी नहीं कि सिर्फ वाणी द्वारा प्रत्यक्ष करना है। लेकिन हर समय के, हर कर्म द्वारा प्रत्यक्ष करना है। ऐसे प्रत्यक्ष करो जो सभी आत्माओं के मुख से यह बोल निकले कि यह तो एक- एक जैसे साक्षात् बाप के समान हैं। आपका हर कर्म दर्पण बन जाए, जिस दर्पण से बापदादा के गुणों और कर्त्तव्य का दिव्य रूप और रूहानियत का साक्षात्कार हो। लेकिन दर्पण कौन बन सकेगा? जो न सिर्फ संकल्पों को लेकिन इस देहाभिमान को भी अर्पण करेगा। जो देहाभिमान को अर्पण करता है उसका हर कर्म दर्पण बन जाता है, जैसे कोई चीज अर्पण की जाती है तो फिर वह अर्पण की हुई चीज़ अपनी नहीं समझी जाती है। तो इस देह के भान को भी अर्पण करने से जब अपनापन मिट जाता है तो लगाव भी मिट जाता है। ऐसे समर्पण हुए हो? ऐसे समर्पण होने वालों की निशानी क्या रहेगी? एक तो सदा योगयुक्त और दूसरा सदा बन्धनमुक्त। जो योगयुक्त होगा वह बन्धन- मुक्त ज़रूर होगा। योगयुक्त का अर्थ ही है देह के आकर्षण के बन्धन से भी मुक्त। जब देह के बन्धन से मुक्त हो गये तो सर्व बन्धन मुक्त बन ही जाते हैं। तो समर्पण अर्थात् सदा योगयुक्त और सर्व बन्धन मुक्त। यह निशानी अपनी सदा कायम रखना। अगर कोई भी बन्धनयुक्त होंगे तो योगयुक्त नहीं कहलायेंगे। जो योगयुक्त होगा तो उनकी परख यह भी होगी - जो उनका हर संकल्प, हर कर्म योगयुक्त होगा। क्योंकि जो भी युक्तियाँ सर्व प्रकार की मिली हैं उन युक्तियों की धारणाओं के कारण युक्तियुक्त और योगयुक्त रहेंगे। समझा, परख की निशानी? इससे अपने आपको समझ सकते हो कि कहाँ तक पहुँचे हैं, इसलिए कहा कि संग्रह और संग्राम की शक्ति, दोनों भरकर जाना। रिजल्ट क्या देखी? सर्टिफिकेट मिला? एक, अपने आप से सेटिस्फाइड होने का सर्टिफिकेट लेना है, दूसरा, सर्व को सेटिस्फाइड करने का सर्टिफिकेट लेना है। तीसरा, सम्पूर्ण समर्पण बनने का।
समर्पण यह नहीं कि आबू में आकर बैठ जाएं। तो समर्पण होने का भी सर्टिफिकेट लेना है। चौथा, जो भी ज्ञान की युक्तियाँ मिलीं उनको संग्रह करने की शक्ति का सर्टिफिकेट भी लेना हैं। यह चार सर्टिफिकेट अपनी टीचर से लेकर जाना। कोई बात में 100 मार्क्स भी इस ग्रुप को हैं। वह कौनसी बात? पुरूषार्थ के भोलेपन में 100 प्रतिशत हैं। पुरूषार्थ में भोलापन ही अलबेलापन है। और एक विशेष गुण भी है। वह यह है कि सभी को अपने में परिवर्तन करने की तीव्र इच्छा ज़रूर है। इसलिए बापदादा इस ग्रुप को उम्मीदवार ग्रुप समझते हैं। लेकिन उम्मीदें तब पूरी कर सकेंगे जब सदैव नम्रचित्त होकर चलेंगे। उम्मीदवार क्वालिटी हो लेकिन जो क्वालिटीज़ मिली हैं उनको धारण करते चलेंगे तो प्रत्यक्ष सबूत दे सकेंगे। समझा?
ज्ञान का साज सुनने में और राज सुनने में अच्छा है, लेकिन अब क्या करना है? राजयुक्त बनना है। योग अच्छा है लेकिन योगयुक्त बनना है। बन्धनमुक्त बनने की इच्छा है लेकिन पहले देह-अभिमान का बन्धन तोड़ना है। फिर सर्व बन्धनमुक्त आपेही बन जायेंगे। समझा? अभी यही कोशिश करना। सबूतमूर्त्त और सपूत बनना है। शक्तिवान और सम्पत्तिवान बने हो? हरेक ने अपने आप से प्रतिज्ञा भी की है। जो प्रतिज्ञा की जाती है उसको पूर्ण करने के लिए पावर भी अवश्य इकट्ठी करेंगे। कितना भी सहन करना पड़े, सामना करना पड़े लेकिन प्रतिज्ञा को पूरा करना ही है। ऐसी प्रतिज्ञा की है? भले सारे विश्व की आत्माएं मिलकर भी प्रतिज्ञा से हटाने की कोशिश करें, तो भी प्रतिज्ञा से नहीं हटेंगे लेकिन सामना करके सम्पूर्ण बनकर के ही दिखायेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा करने वालों का यादगार बना हुआ है - अचलघर। तो सदैव यह याद रखना कि जैसा हमारा यादगार है वैसा अब बनना ही है। यह तो सहज है ना। स्थूल निशानी को याद रखने से नशा और निशाना याद रहेगा। यह ज़रूर अपने को समझना है कि सारे विश्व से चुने हुए हम विशेष आत्मायें हैं। जितनी विशेष आत्मायें उतनी उनके हर कर्म में विशेषता होती है। विशेष आत्मा हो ना। कम नहीं हो।
सभी मधुबन-निवासियों को अपने को प्रैक्टिकल विशेष आत्माएं दिखाकर अपने इस ग्रुप का नाम बाला करना है। ऐसा ही लक्ष्य रखना कि कहेंगे कम, लेकिन करके दिखायेंगे। आपके इस ग्रुप की यह विशेषता देखेंगे। स्टेज पर जाकर ऐसा पार्ट बजाना जो सभी वन्स मोर (once more; एक बार और) भी करें। समझा? आपकी निमित्त टीचर आपके ग्रुप को बार-बार निमंत्रण दें। और ग्रुप्स को एक एग्जाम्पल बनकर दिखाना है। कोई अच्छा कर्म करके जाता है तो वह बार-बार याद आता है। तो यह ग्रुप भी ऐसा कमाल करके दिखाये। अच्छा।
25-03-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
न्यारे और विश्व के प्यारे बनने की विधि
सभी अपने अलौकिक और पारलौकिक नशे और निशाने में सदैव रहते हो? अलौकिक नशा और निशाना और पारलौकिक नशा और निशाना, दोनों को जानते हो? दोनों में फर्क है वा एक है? अलौकिक नशा और निशाना हुआ इस ईश्वरीय जन्म का और पारलौकिक नशा और निशाना हुआ भविष्य जन्म का। तो ईश्वरीय जन्म का नशा और निशाना याद रहता है? साथ-साथ पारलौकिक अर्थात् भविष्य का नशा और निशाना याद रहता है? अगर दोनों ही हर समय रहें तो क्या बन जायेंगे? अलौकिक नशे और निशाने से बनेंगे न्यारे और पारलौकिक नशे और निशाने से बनेंगे विश्व के प्यारे। तो दोनों ही नशे और निशाने से न्यारे और प्यारे बन जायेंगे। समझा?
अभी सभी से न्यारा बनना है। अपनी देह से ही जब न्यारे बनना है, तो सभी बातों में भी न्यारे हो जायेंगे। अब पुरूषार्थ कर रहे हो न्यारे बनने का। न्यारे बनने से फिर स्वत: ही सभी के प्यारे बन जाते हो। प्यारे बनने का पुरूषार्थ नहीं होता है, पुरूषार्थ न्यारे बनने का होता है। अगर सबका प्यारा बनना है तो पुरूषार्थ क्या करना है? सर्व से न्यारे बनने का। अपनी देह से न्यारे तो बनते ही हो लेकिन आत्मा में जो पुराने संस्कार हैं उन्हों से भी न्यारे बनो। प्यारे बनने के पुरूषार्थ से प्यारे बनेंगे तो रिजल्ट क्या होगी? और ही प्यारे बनने की बजाय बापदादा के दिल रूपी तख्त से दूर हो जायेंगे। इसलिए यह पुरूषार्थ नहीं करना है। कोई भी न्यारी चीज़ प्यारी ज़रूर होती है। इस संगठन में अगर कोई न्यारी चीज़ दिखाई दे तो सभी का लगाव और सभी का प्यार उस तरफ चला जायेगा। तो आप भी न्यारे बनो। सहज पुरूषार्थ है ना। न्यारे नहीं बन पाते हैं, इसका कारण क्या है? आजकल का लगाव सारी दुनिया में किस कारण से होता है? (अट्रेक्शन पर) अट्रेक्शन भी स्वार्थ से है। इस समय का लगाव स्नेह से नहीं लेकिन स्वार्थ से है। तो स्वार्थ के कारण लगाव और लगाव के कारण न्यारे नहीं बन सकते। तो उसके लिये क्या करना पड़े? स्वार्थ का अर्थ क्या है? स्वार्थ अर्थात् स्व के रथ को स्वाहा करो। यह जो रथ अर्थात् देह-अभिमान, देह की स्मृति, देह का लगाव लगा हुआ है। इस स्वार्थ को कैसे खत्म करेंगे? उसका सहज पुरूषार्थ, ‘स्वार्थ’ शब्द के अर्थ को समझो। स्वार्थ गया तो न्यारे बन ही जायेंगे। सिर्फ एक अर्थ को जानना है, जानकर अर्थ-स्वरूप बनना है। तो एक ही शब्द का अर्थ जानने से सदा एक के और एकरस बन जायेंगे। अच्छा।
आज टीचर्स के उद्घाटन का दिन है। सम्पूर्ण आहुति डालने की सामर्थ्य है? यह ग्रुप इन्चार्ज टीचर्स का है ना। अभी हैं वा बनने वाली हैं? मुख्य धारणा यही है वि सदैव अपनी सम्पूर्ण स्थिति का वा अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करते रहो। जैसे कोई का आह्वान किया जाता है तो बुद्धि में वही स्मृति में रहता है ना। इस रीति से सदैव अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करते रहेंगे तो सदैव वही स्मृति में रहेगा। और इसी स्मृति में रहने के कारण रिजल्ट क्या होगी? यह जो आवागमन का चक्र चलता रहता है; आवागमन का चक्र कौनसा? कभी ऊंच स्थिति में ठहरते हो, कभी नीचे आ जाते हो। यह जो ऊपर-नीचे आने- जाने का आवागमन का चक्र है इस चक्र से मुक्त हो जायेंगे। वह लोग जन्म- मरण के चक्र से छूटने चाहते हैं और आप लोग यह जो स्मृति और विस्मृति का आवागमन का चक्र है, इससे मुक्त होने का पुरूषार्थ करते हो। तो सदैव अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करने से आवागमन से छूट जायेंगे अर्थात् इन व्यर्थ बातों से किनारा करने से सदैव चमकता हुआ लक्की सितारा बन जायेंगे। इन्चार्ज टीचर बनने के लिए पहले अपनी आत्मा की बैटरी चार्ज करो। जितनी जिसकी बैटरी चार्ज है उतना ही अच्छा इन्चार्ज टीचर बन सकती है। समझा? जब यह याद आये कि मैं इन्चार्ज हूँ, तो पहले यह अपने से पूछो कि मेरी बैटरी चार्ज हुई है? अगर बैटरी चार्ज कम होगी तो इन्चार्ज टीचर में भी उतनी कमी दिखाई देगी। तो अब क्या करना है? अच्छी तरह से बैटरी चार्ज करके फिर इन्चार्ज बनकर जाना। ऐसे ही सिर्फ इन्चार्ज नहीं बन करजाना। अगर बैटरी चार्ज के बिना इन्चार्ज बनेंगी तो क्या होगा? चार्ज अक्षर के दो-तीन मतलब होते हैं। एक होता है बैटरी चार्ज, दूसरा चार्ज अर्थात् ड्यूटी भी होता है और तीसरा चार्ज अर्थात् दोष को कहते हैं। कोई पर चार्ज लगाते हैं ना। तो इन्चार्ज होने से अगर बैटरी चार्ज है तो फिर इन्चार्ज यथार्थ रीति बनते हैं। अगर बैटरी चार्ज नहीं, यथार्थ रूप नहीं तो फिर भिन्न-भिन्न चार्जेज़ लग जाते हैं। तो अब समझा, कैसे इन्चार्ज बनेंगे? धर्मराजपुरी में पहले चार्ज लगाकर फिर सज़ा देंगे। तो अगर बैटरी चार्ज नहीं होगी तो चार्जेज लगेंगी। अभी ऐसे बनकर जाना जो सभी की निगाहों में यह ग्रुप आ जाये। सभी अनुभव करें कि बड़े तो बड़े लेकिन छोटे सुभान अल्लाह। ऐसा लक्ष्य रख, भट्ठी से ऐसे ही लक्षण धारण करके जाना। ऐसा कोमल होना है जो अपने को जहां मोड़ने चाहो वहाँ मोड़ सकते हो। कोमल चीज़ को जहाँ मोड़ने चाहते हैं वहाँ मोड़ सकते हैं। लेकिन सख्त को कोई मोड़ नहीं सकेंगे। कोमल बनना है लेकिन किस में? संस्कार मोड़ने में कोमल बनो। लेकिन कोमल दिल से बचकर रहना। यह लक्ष्य और लक्षण धारण करके जाना है। इस स्नेही और सहयोगी बनने वाले ग्रुप के लिये सलोगन है - ‘अधिकारी बनेंगे और अधीनता को मिटायेंगे’। कभी अधीन नहीं बनना - चाहे संकल्पों के, चाहे माया के। और भी कोई रूपों के अधीन नहीं बनना। इस शरीर के भी अधिकारी बनकर चलना और माया से भी अधिकारी बन उसको अपने अधीन करना है। सम्बन्ध की अधीनता में भी नहीं आना है। चाहे लौकिक, चाहे ईश्वरीय सम्बन्ध की भी अधीनता में न आना। सदा अधिकारी बनना है। यह सलोगन सदैव याद रखना। ऐसा बनकर के ही निकलना। जैसे कहावत है ना कि मान सरोवर में नहाने से परियां बन जाते थे। इस ग्रुप को भी भट्ठी रूपी ज्ञानमानसरोवर में नहाकर फरिश्ता बनकर निकलना है।
जब फरिश्ता बन गया तो फरिश्ते अर्थात् प्रकाशमय काया। इस देह की स्मृति से भी परे। उनके पांव अर्थात् बुद्धि इस पांच तत्व के आकर्षण से ऊंची अर्थात् परे होती है। ऐसे फरिश्तों को माया व कोई भी मायावी टच नहीं कर सकेंगे। तो ऐसे बनकर जाना जो न कोई मायावी मनुष्य, न माया टच कर सके। कुमारियों की महिमा बहुत गाई हुई है। लेकिन कौनसी कुमारी? ब्रह्माकुमारियों की महिमा गाई हुई है। ब्रह्माकुमारी अर्थात् ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष करने वाली कुमारी। जो टीचर्स बनती हैं उन्हों को सिर्फ प्वाइन्ट बुद्धि में नहीं रखनी है वा वर्णन करनी है लेकिन प्वाइन्ट रूप बनकर प्वाइन्ट वर्णन करनी है। अगर स्वयं प्वाइन्ट स्थिति में स्थित नहीं होंगे तो प्वाइन्ट का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए प्वाइन्ट् इकट्ठी करने के साथ अपना प्वाइन्ट रूप भी याद करते जाना। जब कापियां भरती हो तो कापी को देख यह सब चेक करना कि साकार ब्रह्मा बाप के चरित्रों की कापी बनी हूँ? कापी जो की जाती है वह तो हूबहू होगी ना। ऐसे बाप समान दिखाई पड़ो। सुनाया था ना कि जितनी समानता होगी उतनी सामना करने की शक्ति होगी। समानता लाने से सामना करने की शक्ति स्वत: आ जायेगी। अच्छा।
यह ग्रुप कम नहीं है। इतना बड़ा शक्तिदल जब कोने-कोने में सर्विस पर फैल जायेगा तो क्या होगा? आवाज़ बुलन्द हो जायेगा - ब्रह्माकुमारियों की जय। अभी तो गालियां देते हैं ना। यहां ही आप लोगों के सामने महिमा के पुष्प चढ़ायेंगे। इसलिए कहा कि ऐसे बनकर के जाना जो देखते ही सभी के मुख से यह आवाज़ बुलन्द हो निकले। इस ग्रुप को यह प्रैक्टिकल पेपर देना है। चारों ओर बापदादा और मददगार बच्चों की जय-जयकार हो जाये। ऐसी शक्ति है? एक के संग में रहने से संगदोष से छूट जायेंगे। सदैव चेविंग करो कि बुद्धि का संग किसके साथ है? एक के साथ है? अगर एक का संग है तो अनेक संगदोष से छूट जायेंगे। संगदोष कई प्रकार के दोष पैदा कर देते हैं। इसलिए इसका बहुत ध्यान रखना। एक बाप दूसरे हम, तीसरा न कोई। जब ऐसी स्थिति होगी तो फिर सदैव आप लोगों के मस्तक से तीसरे नेत्र का साक्षात्कार होगा। यहाँ का जो यादगार है उसमें योग की निशानी क्या दिखाई है? तीसरा नेत्र। अगर बुद्धि में तीसरा कोई आ गया तो फिर तीसरा नेत्र बन्दी जायेगा। इसलिए सदैव तीसरा नेत्र खुला रहे, इसके लिए यह याद रखना कि तीसरा न कोई। अच्छा।
09-04-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त स्थिति में सर्व गुणों का अनुभव
आवाज़ से परे की स्थिति प्रिय लगती है वा आवाज़ में रहने की स्थिति प्रिय लगती है? कौनसी स्थिति ज्यादा प्रिय लगती है? क्या दोनों ही स्थिति इकट्ठी रह सकती हैं? इसका अनुभव है? यह अनुभव करते समय कौनसा गुण प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है? (न्यारा और प्यारा) यह अवस्था ऐसी है जैसे बीज में सारा वृक्ष समाया हुआ होता है, वैसे ही इस अव्यक्त स्थिति में जो भी संगमयुग के विशेष गुणों की महिमा करते हो वह सर्व विशेष गुण उस समय अनुभव में आते हैं। क्योंकि मास्टर बीजरूप भी हैं, नॉलेजफुल भी हैं। तो सिर्फ शान्ति नहीं लेकिन शान्ति के साथ-साथ ज्ञान, अतीन्द्रिय सुख, प्रेम, आनन्द, शक्ति आदि-आदि सर्व मुख्य गुणों का अनुभव होता है। न सिर्फ अपने को लेकिन अन्य आत्मायें भी ऐसी स्थिति में स्थित हुई आत्मा के चेहरे से इन सर्व गुणों का अनुभव करती हैं। जैसे साकार स्वरूप में क्या अनुभव किया? एक ही समय सर्व गुण अनुभव में आते हैं। क्योंकि एक गुण में सर्व गुण समाये हुए होते हैं। जैसे अज्ञानता में एक विकार के साथ सर्व विकारों का गहरा सम्बन्ध होता है, वैसे एक गुण के साथ मुख्य गुणों का भी गहरा सम्बन्ध है। अगर कोई कहे कि मेरी स्थिति ज्ञान-स्वरूप है; तो ज्ञान-स्वरूप के साथ-साथ अन्य गुण भी उसमें सामये हुए जरूर हैं। जिसको एक शब्द में कौनसी स्टेज कहेंगे? मास्टर सर्वशक्तिवान। ऐसी स्थिति में सर्व शक्तियों की धारणा होती है। तो ऐसी स्थिति बनाना - यह है समानता, सम्पूर्णता की स्थिति। ऐसी स्थिति में स्थित होकर सर्विस करती हो? सर्विस करने के समय जब स्टेज पर आती हो तो पहले इस स्टेज पर उपस्थित हो फिर स्थूल स्टेज पर आओ। इससे क्या अनुभव होगा? संगठन के बीच होते हुए भी अलौकिक आत्मायें दिखाई पड़ेंगी। अभी साधारण स्वरूप के साथ-साथ स्थिति भी साधारण दिखाई पड़ती है। लेकिन साधारण रूप में होते असाधारण स्थिति वा अलौकिक स्थिति होने से संगठन के बीच जैसे अल्लाह लोग दिखाई पड़ेंगे। शुरू-शुरू में भी ऐसी स्थिति का नशा रहता था ना। जैसे सितारों के संगठन में विशेष सितारे होते हैं, उनकी चमक, झलक दूर से ही न्यारी और प्यारी लगती है। तो आप सितारे भी साधारण आत्माओं के बीच में एक विशेष आत्माएं दिखाई दो। जब कोई असाधारण वस्तु सामने आ जाती है तो न चाहते हुए भी सभी का अटेन्शन उस तरफ खिंच जाता है। तो ऐसी स्थिति में स्थित हो स्टेज पर आओ जो लोगों की निगाह आप लोगों की तरफ स्वत: ही जाये। स्टेज सेक्रेटरी परिचय न दे लेकिन आपकी स्टेज स्वयं ही परिचय दे। क्या हीरा धूल में छिपा हुआ भी अपना परिचय खुद नहीं देता है? तो संगमयुग पर हीरे तुल्य जीवन अपना परिचय स्वयं ही दे सकता है। अभी तक की रिजल्ट क्या है? मालूम है? अभी किस तुल्य बने हो? भाषण आदि जो करते हो उसकी रिजल्ट क्या दिखाई देती है? वर्तमान समय में जो नम्बरवन प्रजा कहें वह भी कम निकलते हैं। साधारण प्रजा ज्यादा निकल रही है। क्योंकि साधारण रूप के साथ स्थिति भी बहुत समय साधारण बन जाती है। अभी साधारण रूप में असाधारण स्थिति का अनुभव स्वयं भी करो और औरों को भी कराओ। बाहरमुखता में आने के समय अन्तर्मुखता की स्थिति को भी साथ-साथ रखो - यह नहीं होता। या तो अन्तर्मुखी बनते हो या तो बाहरमुखी बन जाते हो। लेकिन अन्तर्मुखी बनकर फिर बाहरमुखी में आना - इस अभ्यास के लिए अपने ऊपर व्यक्तिगत अटेन्शन रखने की आवश्यकता है। बाहरमुखता की आकर्षण अन्तर्मुखता की स्थिति से ज्यादा होती है। इसका कारण यह है कि सदैव अपने श्रेष्ठ स्वरूप वा श्रेष्ठ नशे में स्थित नहीं रहते। इसलिए स्थिति पावरफुल नहीं होती है।
नॉलेजफुल के साथ पावरफुल भी बनकर नॉलेज दो तो अनेक आत्माओं को अनुभवी बना सकेंगे। अभी सुनाने वाले बहुत हैं लेकिन अनुभव कराने वाले कम हैं। सुनाने वाले तो अनेक हैं ही, लेकिन अनुभव कराने वाले सिर्फ आप ही हो। तो जिस समय सर्विस करती हो उस समय यही लक्ष्य रखो कि ज्ञान- दान के साथ अपने वा बाप के गुणों का दान भी करना है। गुणों का दान सिवाय आप लोगों के अन्य कोई कर नहीं सकता। इसलिये स्वयं सर्व गुणों के अनुभव-स्वरूप होंगे तो अन्य को भी अनुभवी बना सकेंगे। कमल पुष्प के समान बने हो? अपने जीवन का ही चित्र दिखाया है ना। कि और कोई महारथियों के जीवन का चित्र है? हमारा चित्र है - ऐसे ही वहते हैं ना। चित्र क्यों बनाया जाता है? चरित्र का ही चित्र बनता है। तो ऐसे चरित्रवान हो तब तो चित्र बनाया है ना। यह एक ही चित्र स्मृति में रखकर हर कर्म में आओ तो सदैव और सर्व बातों में अलिप्त (न्यारा) रहेंगे। यह अल्पकाल के लिए रहते हो। कितना भी, कैसा भी वातावरण हो, कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन सिर्फ यह चित्र भी याद रखो तो वायुमण्डल से न्यारे रहेंगे। अभी वायुमण्डल का प्रभाव कहाँ-कहाँ पड़ जाता है। लक्ष्य बहुत ऊंचा है कि हम पाँच तत्वों को भी पावन करने वाले हैं, परिवर्तन में लाने वाले हैं। वह वायुमण्डल के वश कभी हो सकते हैं? परिवर्तन करने वाले हो, न कि प्रकृति के आकर्षण में आकर परिवर्तन में आने वाले हो। फिर कमल पुष्प के समान सदाकाल रह सकेंगे।
आज इस ग्रुप का कौनसा दिन है? अब थ्योरी पूरी हुई। प्रैक्टिकल पेपर देने जा रही हो। अब यह ग्रुप अन्य सभी ग्रुप से विशेष क्या कार्य करके दिखायेगा? कितने समय में और कितने वारिस बनाकर लायेंगी? थोड़े समय में अनेकों को बनायेंगी। इन्होंने वायदे तो बहुत किये हैं। फंक्शन ही वायदों का करते हैं। जितने वायदे करती हो उन सभी वायदों को निभाने के लिए सिर्फ एक ही कायदा याद रखना। कौनसा? (जीते-जी मरना) बार-बार जीते-जी मरना होता है क्या? बापदादा सदैव हरेक में सभी प्रकार की उम्मीदें रखते हैं। लेकिन उम्मीदों को पूर्ण करने वाले नम्बरवार अपना शो दिखाते हैं। इसलिए इस ग्रुप को मुख्य एक वायदा याद रखना है। सारे कोर्स का सार क्या था? चित्रों में भी मुख्य चित्र कौनसा प्रैक्टिकल में दिखायेंगे जिससे बापदादा को प्रत्यक्ष कर सकेंगे? सभी शिक्षाओं का सार बताओ। कोई भी कर्म से देखने, उठने, बैठने, चलने और सोने से भी फरिश्तापन दिखाई दे। सभी कर्म में अलौकिकता हो। कोई भी लौकिकता कर्म में वा संस्कारों में न हो। ऐसा परिवर्तन किया है? सर्वोत्तम पुरुषार्थी के लक्षण भी विशेष होते हैं। उनका सोचना, करना, बोलना - तीनों ही समान होते हैं। वह यह नहीं कहेंगे कि सोचते तो थे कि यह न करें लेकिन कर लिया। नहीं। सोचना, बोलना, करना- तीनों ही एक समान और बाप समान हों। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषार्थी बने हो? अच्छा।
यह ग्रुप जितना ही बड़ा है उतना ही शक्तिशाली स्वरूप बनकर चारों ओर फैल जायेंगे तो फिर शक्तियाँ जय-जयकार की आवाज़ बुलन्द कर सकती हैं। संस्कारों के अधीन भी नहीं होना है। कोई के स्नेह के अधीन भी नहीं होना है। वायुमण्डल के अधीन भी नहीं। समझा? अब ऐसे शब्द मुख से तो क्या मन में संकल्प रूप में भी न आएं कि - क्या करें, मजबूर हूँ। चाहे कोई व्यक्ति ने वा वायुमण्डल ने मजबूर किया, लेकिन नहीं। मजबूर नहीं होना है परन्तु मजबूत होना है। समझा? फिर यह कम्पलेन न आये। अपने पुरूषार्थ की कम्पलेन भट्ठी के पहले कोई निकाली थी? वह क्या थी? निर्बलता के कारण संगदोष में आना। इस कम्पलेन को कम्पलीट करके जा रही हो? कोई भी ऐसे संग में नहीं आ सकेंगी। कोई ईश्वरीय रूप से माया अपना साथी बनाने की कोशिश करे तो? देखना, अपने वायदों को याद रखना। नारे जो गाये हैं -’’एक हैं, एक के रहेंगे, एक की ही मत पर चलेंगे’’- यह सदैव पक्का रखना। ईश्वरीय रूप से माया ऐसा सामने आयेगी जो उनको परखने की बहुत आवश्यकता पड़ेगी। परखने की शक्ति धारण कर जा रही हो? सदैव यह अविनाशी रखना। अब रिजल्ट देखेंगे। अल्पकाल की रिजल्ट नहीं दिखानी है। सदाकाल और सम्पूर्ण रिजल्ट दिखानी है। जो वायदे किये हैं इस ग्रुप ने, हिम्मत भी रखी है परन्तु उन वायदों से हटाने में माया मजबूर करे तो फिर क्या करेंगे? वायदे तो बहुत अच्छे किये हैं। लेकिन समझो कोई मजबूर कर देते हैं तो फिर क्या करेंगे? जो खुद ही मजबूर हो जायेगा वह फिर लड़ाई क्या करेगा।
सच किसको कहा जाता है -- यह मालूम है? जो बात अगर संकल्प में भी आती हो, संकल्प को भी छिपाना नहीं है - इसको कहा जाता है सच। अगर पुरूषार्थ कर सफलता भी लेती हो तो भी अपनी सफलता वा हार खाने का दोनों का समाचार स्पष्ट सुनाना। यह है सच। सच वाले अपने वायदे पूरा कर सकेंगे। अच्छा!
15-04-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
त्रिमूर्ति बाप के बच्चों का त्रिमूर्ति कर्त्तव्य
त्रिमूर्ति बाप के बच्चे आप सभी भी त्रिमूर्ति हो? त्रिमूर्ति बन तीनों कार्य करते हो? इस समय दो कर्त्तव्य करते हो वा तीन? कौनसा कर्त्तव्य करते हो? वा तीनों ही कर्त्तव्य साथ-साथ करते हो? त्रिमूर्ति तो बने हो ना। जैसे त्रिमूर्ति बने हो वैसे ही त्रिकालदर्शी भी बने हो? हर कर्म व हर संकल्प की जो उत्पत्ति होती है वह त्रिकालदर्शी बनकर फिर संकल्प को कर्म में लाते हो? सदैव तीनों ही कार्य साथ-साथ ज़रूर चलते हैं। क्योंकि अगर पुराने संस्कार वा स्वभाव वा व्यर्थ संकल्पों का विनाश ही नहीं करेंगे तो नई रचना कैसे होगी। और अगर नई रचना करते हो, उनकी पालना न करेंगे तो प्रैक्टिकल कैसे दिखाई देंगे। तो त्रिमूर्ति बाप के त्रिमूर्ति बच्चे तीनों ही कर्त्तव्य साथ-साथ कर रहे हो। विनाश करते हो विकर्मों अथवा व्यर्थ संकल्पों का। यह तो और भी अब तेजी से करना पड़े। सिर्फ अपने व्यर्थ संकल्प वा विकर्म भस्म नहीं करने हैं लेकिन तुम तो विश्व-कल्याणकारी हो। इसलिए सारे विश्व के विकर्मों का बोझ हल्का करना वा अनेक आत्माओं के व्यर्थ संकल्पों को मिटाना-यह शक्तियों का कर्त्तव्य है। तो वर्तमान समय यही विनाश का कर्त्तव्य और साथ- साथ नये शुद्ध संकल्पों की स्थापना का कर्त्तव्य-दोनों ही फुल फोर्स में चलना है। जैसे कोई बहुत तेज़ मशीनरी होती है तो एक सेकेण्ड में उस वस्तु का रूप, रंग, गुण, कर्त्तव्य आदि सब बदल जाता है। मशीनरी में पड़ा और बदली हुआ! ऐसे अभी यह विनाश और स्थापना की मशीनरी भी बहुत तेज होनी है। जैसे मशीनरी में पड़ते ही चीज का रूप-रंग बदल जाता है, ऐसे इस रूहानी मशीनरी में आप लोगों के सामने जो भी आत्मायें आयेंगी, आते ही उनके संकल्प, स्वरूप, गुण और कर्त्तव्य बदल जायेंगे। न सिर्फ आत्माओं के लेकिन 5 तत्वों के भी गुण और कर्त्तव्य बदलने वाले हैं। ऐसी मशीनरी अब प्रैक्टिकल में चलने वाली है। इसलिए बताया कि विनाश और स्थापना-दोनों कर्त्तव्य साथ-साथ चल रहा है। अभी और ही तेजी से चलने वाला है। जैसे महादानियों के पास सदैव भिखारियों की भीड़ लगी हुई होती है, वैसे आप सभी के पास भी भिखारियों की भीड़ लगने वाली है। आपके पास प्रदर्शनी में जब भीड़ होती है तो फिर क्या करते हो? क्यू-सिस्टम में शार्ट में सिर्फ संदेश देते हो। रचना की नॉलेज नहीं दे सकते हो, सिर्फ रचयिता बाप का परिचय और सन्देश दे सकते हो। वैसे ही जब भिखारियों की भीड़ होगी तो सिर्फ यही सन्देश देंगे। लेकिन वह एक सेकेण्ड का सन्देश पावरफुल होता है, जो वह सन्देश उन आत्माओं में संस्कार के रूप में समा जाता है। सर्व धर्म की आत्मायें भी यह भीख मांगने के लिए आयेंगी। कहते हैं ना कि क्राइस्ट भी बेगर रूप में है। तो धर्म-पितायें भी आप लोगों के सामने बेगर रूप में आयेंगे। उनको क्या भिक्षा देंगे? यही सन्देश। ऐसा पावरफुल सन्देश होगा जो इसी सन्देश के पावरफुल संस्कारों से धर्म स्थापन करने के निमित्त बनेंगे। वह संस्कार अविनाशी बन जायेंगे। क्योंकि आप लोगों के भी अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज के समय अविनाशी संस्कार होते हैं। अभी संस्कार अविनाशी बना रहे हो। इसलिए अब जिन्हों को सन्देश देते हो और मेहनत करते हो, तो अभी वह सदाकाल के लिए नहीं रहता है। कुछ समय रहता है फिर ढीले हो जाते हैं। लेकिन अन्त के समय आप लोगों के संस्कार ही अविनाशी हो जाते हैं। तो अविनाशी संस्कारों की शक्ति होने के कारण उन्हों को भी ऐसी शिक्षा वा सन्देश देते हो जो उनके संस्कार अविनाशी बन जाते हैं। तो अभी पुरूषार्थ क्या करना पड़े? संस्कारों को पलटना तो है लेकिन अविनाशी की छाप लगाओ। जैसे गवर्नमेंट की मुहर लगती है ना, सील करते हैं जो कोई खोल नहीं सकता। ऐसी सील लगाओ जो माया आधा कल्प के लिए फिर खोल ही न सके। तो अविनाशी संस्कार बनाने का तीव्र पुरूषार्थ करना है। यह तब होगा जब मास्टर त्रिकालदर्शी बन संकल्प को कर्म में लायेंगे। जो भी संकल्प उत्पन्न होता है, संकल्प को ही चेक करो। मास्टर त्रिकालदर्शी की स्टेज पर हूँ? अगर उस स्टेज पर स्थित होकर कर्म करेंगे तो कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं होगा। विकर्म की तो बात ही नहीं है। अभी विकर्म के खाते से ऊपर आ गये हो। विकल्प भी खत्म तो विकर्म भी खत्म। अभी है व्यर्थ कर्म और व्यर्थ संकल्प की बात। इन व्यर्थ को बदलकर समर्थ संकल्प और समर्थ कार्य करना है। इसको कहते हैं सम्पूर्ण स्टेज। तो अब महादानी बने हो?
कितने प्रकार के दान करती हो? डबल दानी हो वा ट्रिपल या ट्रिपल से भी ज्यादा हो? (हरेक ने अपना विचार बताया) मुख्य तीन दान बताये। ज्ञान का दान भी करते हो, योग द्वारा शक्तियों का दान भी कर रहे हो और तीसरा दान है कर्म द्वारा गुणों का दान। तो एक है मन्सा का दान, दूसरा है वाचा का और तीसरा है कर्म द्वारा दान। मन्सा द्वारा सर्व शक्तियों का दान। वाणी द्वारा ज्ञान का दान, कर्म द्वारा सर्व गुणों का दान। तो सदैव जो दिन आरम्भ होता है उसमें पहले यह प्लैन बनाओ कि आज के दिन यह तीनों दान किस-किस रूप से करना है और फिर दिन समाप्त होने के बाद चेक करो कि - ‘‘हम महादानी बने? तीनों ही प्रकार का दान किया?’’ क्योंकि तीनों प्रकार के दान की अपनी-अपनी प्रारब्ध वा प्राप्ति है। जैसे भक्ति मार्ग में जो-जो जिस प्रकार का दान करता है उसको उस प्रकार की प्राप्ति होती है। ऐसे ही जो इस महान जीवन में जितना और जैसा दान करता है उतना और वैसा ही भविष्य बनता है। न सिर्फ भविष्य लेकिन प्रत्यक्ष फल भी मिलता है। अगर कोई वाणी का वा कर्म का दान नहीं करते हैं सिर्फ मन्सा का दान करते हैं, तो उनको प्रत्यक्षफल और मिलता है। अभी आप लोग कर्म फिलासाफी को अच्छी रीति जान गये हो ना। तीनों दान की प्राप्ति अपनी-अपनी है। जो तीनों ही दान करते हैं उनको तीनों ही फल प्रत्यक्ष रूप में मिलते हैं। आप कर्मों की गति को जानते हो ना। बताओ, मन्सा-दान का प्रत्यक्षफल क्या है? मन्सा महादानी बनने वाले को प्रत्यक्षफल यहीं प्राप्त होता है - एक तो वह अपनी मन्सा अर्थात् संकल्पों के ऊपर एक सेकेण्ड में विजयी बनता है अर्थात् संकल्पों के ऊपर विजयी बनने की शक्ति प्राप्त होती है। और, कितना भी कोई चंचल संकल्प वाला हो यानी एक सेकेण्ड भी उनका मन एक संकल्प में न टिक सके - ऐसे चंचल संकल्प वाले को भी अपनी विजय की शक्ति में टेम्प्रेरी टाइम के लिए शांत व चंचल से अचल बना देंगे। जैसे कोई भी दुःख में तड़पते हुए को इन्जेक्शन द्वारा बेहोश कर देते हैं, उनके दु:ख की चंचलता खत्म हो जाती है। ऐसे ही मन्सा द्वारा महादानी बनने वाला अपनी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति की शक्ति से ऐसे ही उनको शान्ति का अनुभवी बना सकते हैं लेकिन टेम्प्रेरी टाइम के लिए। क्योंकि उनका अपना पुरूषार्थ नहीं होता है। लेकिन महादानी की शक्ति के प्रभाव से थोड़े समय के लिए वह अनुभव कर सकता है। तो जो मन्सा के महादानी होंगे उनके संकल्प में इतनी शक्ति होती है जो संकल्प किया उसकी सिद्धि मिली। तो मन्सा-महादानी संकल्पों की सिद्धि को प्राप्त करने वाला बन जाता है। जहाँ संकल्प को चाहे वहाँ संकल्पों को टिका सकते हैं। संकल्प के वश नहीं होंगे लेकिन संकल्प उनके वश होता है। जो संकल्पों की रचना रचे, वह रच सकता है। जब संकल्प को विनाश करना चाहे तो विनाश कर सकते हैं। तो ऐसे महादानी में संकल्पों के रचने, संकल्पों को विनाश करने और संकल्पों की पालना करने की तीनों ही शक्ति होती है। तो यह है मन्सा का महादान। ऐसे ही समझो मास्टर सर्वशक्तिवान का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाई देता है। समझा?
वह हो गया मास्टर सर्वशक्तिमान और जो वाचा के महादानी हैं उनको क्या मिलता है? वह हैं मास्टर नालेज़फुल। उनके एक-एक शब्द की बहुत वैल्यु होती है। एक रत्न की वैल्यु अनेक रत्नों से अधिक होती है। वाचा द्वारा तुम रत्नों का दान करते हो ना। तो जो ज्ञान-रत्नों का दान करते हैं उनका एक-एक रत्न इतना वैल्युएबल हो जाता है जो उनके एक-एक वचन सुनने के लिए अनेक आत्माएं प्यासी होती हैं। अनेक प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाला एक वचन बन जाता है। मास्टर नॉलेजफुल, वैल्युएबल और तीसरा फिर सेन्सीबल बन जाता है। उनके एक-एक शब्द में सेन्स भरा हुआ होता है। सेन्स अर्थात् सार के बिना कोई शब्द नहीं होता। जब कोई ऐसे सेन्स से शब्द बोलता है तो कहते हैं ना - यह तो बहुत सेन्सीबल है। वाणी द्वारा सेन्स का मालूम पड़ता है। तो दोनों सेन्सीबल भी बन जाते हैं। यह तो हुआ लक्षण। प्राप्ति क्या होती है? वाचा के दानी बनने वाले को विशेष प्राप्ति एक तो खुशी रहती है, क्योंकि धन को देख हर्षित होता है ना। और दूसरा वह कभी भी असंतुष्ट नहीं होंगे। क्योंकि खजाना भरपूर होने के कारण, कोई अप्राप्त वस्तु न होने के कारण सदैव सन्तुष्ट और हर्षित रहेंगे। उनका एक-एक बोल तीर समान लगेगा। जिसको जो बोलेंगे उनको वह लग जायेगा। उनके बोल प्रभावशाली होते हैं। वाणी का दान करने से वाणी में बहुत गुण आ जाते हैं। अवस्था में सहज ही खुशी की प्राप्ति होगी। प्राप्ति करने का पुरूषार्थ नहीं करेंगे लेकिन स्वत: ही प्राप्त होगी। जैसे कोई खान से चीज निकलती है तो अखुट होती है ना। ऐसे ही अन्दर से खुशी स्वत: ही निकलती रहेगी। यह वरदान के रूप में प्राप्त होता है। खुशी के लिए पुरूषार्थ नहीं किया। पुरूषार्थ तो वाणी द्वारा दान करने का किया। प्राप्ति खुशी की हुई।
कर्मणा द्वारा गुणों का दान करने के कारण कौनसी मूर्त बन जायेंगे? फरिश्ता। कर्म अर्थात् गुणों का दान करने से उनकी चलन और चेहरा - दोनों ही फरिश्ते की तरह दिखाई देंगे। दोनों प्रकार की लाइट होगी अर्थात् प्रकाशमय भी और हल्कापन भी। जो भी कदम उठेगा वह हल्का। बोझ महसूस नहीं करेंगे। जैसे कोई शक्ति चला रही है। हर कर्म में मदद की महसूसता करेंगे। हर कर्म में सर्व द्वारा प्राप्त हुआ वरदान अनुभव करेंगे। दूसरे, हर कर्म द्वारा महादानी बनने वाला सर्व की आशीर्वाद के पात्र बनने के कारण सर्व वरदान की प्राप्ति अपने जीवन में अनुभव करेंगे। मेहनत से नहीं, लेकिन वरदान के रूप में। तो कर्म में दान करने वाला एक तो फरिश्ता रूप नज़र आयेगा, दूसरा सर्व वरदानमूर्त अपने को अनुभव करेगा। तो अपने को चेक करो - कोई भी दान करने में कमी तो नहीं करते हैं? तीनों दान करते हैं? तीनों का हिसाब किस-न-किस रूप से पूरा करना चाहिए। इसके लिए तरीके, चान्स ढूंढ़ो। ऐसे नहीं - चान्स मिले तो करेंगे। चान्स लेना है, न कि चान्स मिलेगा। ऐसे महादानी बनने से फिर लाइट और माइट का गोला नज़र आयेगा। आपके मस्तष्क से लाइट का गोला नज़र आयेगा और चलन से, वाणी से नॉलेज रूपी माइट का गोला नज़र आयेगा अर्थात् बीज नजर आयेगा। मास्टर बीजरूप हो ना। ऐसे लाइट और माइट का गोला नज़र आने वाले साक्षात् और साक्षात्कारमूर्त बन जायेंगे। समझा?
यहाँ इस हाल में ऐसा कोई चित्र है जिसमें लाइट और माइट के दोनों गोले हों? (कोई ने कहा श्री लक्ष्मी-नारायण का, कोई ने कहा ब्रह्मा का) देखो, चित्र को देखने से चेहरा ही जैसे बदल जाता है। तो आप लोग भी ऐसे चैतन्य चित्र बनो जो देखते ही सभी के चरित्र और नैन-चैन बदल जायें। ऐसा बनना है और बन भी रहे हो। वरदान भूमि में आना अर्थात् वरदान के अधिकारी बनना। जैसे यात्रा पर जाते हैं, क्यों जाते हैं? (पाप मिटाने) उस भूमि में यह विशेषता है तब तो जाते हैं। इस भूमि में फिर क्या विशेषता है? जो है ही वरदान भूमि, वहाँ वरदान तो प्राप्त है ही। अपने आप ही वरदान तो मिलेगा ना। मांगने की दरकार नहीं है। इसलिए आज से मांगना बंद। अपने को अधिकारी समझो। अच्छा!
18-04-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मन के भावों को जानने की विधि तथा फायदे
सभी जो भी यहाँ बैठे हैं, सभी मन्मनाभव की स्थिति में स्थित हो? जो स्वयं मन्मनाभव की स्थिति में स्थित हैं वह औरों के मन के भाव को जान सकते हैं। कोई भी व्यक्ति आपके सामने आये तो मन्मनाभव की स्थिति में स्थित होकर उसके मन के भाव को स्पष्ट समझ सकते हो। क्योंकि जब मन्मनाभव की स्थिति सूक्ष्म स्थिति बन जाती है तो सूक्ष्म स्थिति और सूक्ष्म भाव को समझ सकते हैं। तो यह प्रैक्टिस अनुभव में आती जाती है? बोल भले क्या भी हो लेकिन भाव किसका क्या है - उसको जानने का अभ्यास करते जाओ। जब किसके मन के भाव को समझते जायेंगे तो इससे रिजल्ट क्या होगी? हरेक के मन के भाव को समझने से उनकी जो चाहना है, अथवा प्राप्ति की इच्छा है उसको वही मिलने से क्या होगा? आप जो उनको बनाने चाहते हो वह बन जायेंगे अर्थात् सर्विस की सफ़लता बहुत जल्दी निकलेगी। क्योंकि उनकी चाहना प्रमाण उनको प्राप्ति होगी। अगर कोई शान्ति का प्यासा है, उसको शान्ति मिल जाये तो क्या होगा? प्राप्ति से अविनाशी पुरुषार्थी बन जायेंगे। तो मन के भाव को परखने से, समझने से परिणाम क्या निकलेगा? सर्विस की सफ़लता थोड़े समय में बहुत दिखाई देगी क्योंकि सफ़लता स्वरूप बन जायेंगे। अभी पुरूषार्थ स्वरूप हो। इस लक्षण के आने से सफलता स्वरूप हो जायेंगे। समझा?
अभी सफलता को लाने के लिए आप लोगों को समय और संकल्प, सम्पत्ति, शक्ति बहुत लगानी पड़ती है। फिर क्या होगा? सफ़लता स्वयं आपके सामने आयेगी। सम्पत्ति लगानी नहीं पड़ेगी, सम्पत्ति आपके सामने स्वयं स्वाहा होने आयेगी। समझा? इतना अन्तर है सिर्फ एक बात की धारणा से। वह कौनसी बात? मन्मनाभव होकर हरेक के मन के भाव को जानना।
जो गायन है प्रकृति दासी बनती है, वह क्या सतयुग में होनी है? सतयुग में तो यह मालूम ही नहीं पड़ेगा कि प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करने से प्राप्ति हुई है। लेकिन अभी जो इतना पुरूषार्थ करते हो प्रकृति के ऊपर विजयी होने का, उस पर विजय का फल वा प्राप्ति इस श्रेष्ठ जन्म में ही देखेंगे। प्रकृति आपके सामने आपको अधीन नहीं बनायेगी, लेकिन अधिकारी बनकर प्रकृति के कर्त्तव्य को देखेंगे। समझा? ऐसी सम्पूर्ण स्टेज जिसमें कोई भी प्रकार की अधीनता नहीं रहेगी, सर्व पर अधिकार अनुभव करेंगे। ऐसे बनने के लिए क्या करना पड़े? एक तो रूहानियत, दूसरा चेहरे से सदैव ईश्वरीय रूहाब दिखाई दे और तीसरा सर्विस में सदैव रहमदिल का संस्कार वा गुण प्रत्यक्ष हर आत्मा को अनुभव हो। तीनों ही बातें रूहानियत, रूहाब और रहमदिल का गुण भी हो। यह तीनों ही बातें प्रत्यक्ष रूप में, स्थिति में, चेहरे में और सर्विस अर्थात् कर्म में दिखाई दें, तब समझो कि अब सफ़लता हमारे समीप आ रही है। तीनों ही साथ में चाहिए। अभी क्या होता है? अगर रहमदिल बनते हो तो जो रहमदिल के साथ रूहाब भी दिखाई दे, यह दोनों साथ नहीं दिखाई देते हैं। या तो रहमदिल या तो रूहाब का गुण दिखाई देता है। रूहाब के साथ रूहानियत भी दिखाई दे। तीनों का साथ प्रत्यक्ष रूप में हो। वह अभी अजुन कम है। अभ्यासी हो। अभी सिर्फ अपने को सर्व आत्माओं से महान् आत्मा समझते हो। महान आत्मा बनकर हर संकल्प और हर कर्म करते हो? समझना है लक्ष्य और करना वह है प्रैक्टिकल। सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ महान आत्मा हूँ - इस स्मृति से किसके भी सामने जाओ तो क्या अनुभव करेंगे? आपकी महानता के आगे सभी के सिर झुक जायेंगे। जैसे आप के जड़ चित्रों के सामने कितना भी कोई आज कलियुग के महान् मर्तबे वाला जाये तो क्या होगा? सिर झुकायेंगे। जब चित्रों के आगे सिर झुक जाता है तो क्या चैतन्य चरित्रवान, सर्व गुणों में बाप समान चैतन्य मूर्त्त के सामने सिर नहीं झुकायेंगे? या समझते हो कि यह रिजल्ट भविष्य की है। अभी होना है? कब? अन्त में भी कितना समय पड़ा है?
अगर झुक कर झुकाया तो क्या बड़ी बात है। यह जो लक्ष्य रखते हो कि कहाँ सर्विस के कारण झुकना पड़ेगा - यह लक्ष्य राँग है। इस लक्ष्य में ही कमजोरी भरी हुई है। जब बीज ही कमजोर है तो फल क्या निकलेगा? कोई भी नई स्थापना करने वाला यह नहीं सोचता कि कुछ झुक कर के करना है। जब आत्माएं भी झुकाने का लक्ष्य रखकर कइयों को अपने आगे झुका कर दिखाती हैं, इसकी भेंट में देखो - यह स्थापना का कार्य कितना ऊंच है और किसकी मत पर है! उसके आगे सर्व आत्माओं को झुकना है - यह लक्ष्य रखकर, यह ईश्वरीय रूहाब धारण कर किसके भी सामने जाओ तो देखो रिजल्ट क्या निकलती है!
महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना पड़े। जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे। महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम। तो अपने को चेक करो। महान् आत्मा का कर्त्तव्य क्या होता है -- वह स्मृति में रखो। वैसे भी महान् आत्मा उसको कहते हैं जो महान कर्त्तव्य करके दिखाये। अगर कोई साधारण कर्त्तव्य करे उनको महान् आत्मा नहीं कहेंगे। तो महान् आत्माओं का कर्त्तव्य भी महान होना चाहिए। सारे दिन की दिनचर्या में यह चेक करो कि महान् आत्मा होने के नाते से सारे दिन के अन्दर आज कौनसा महान् कर्त्तव्य किया? महादानी बने? वैसे भी महान् आत्माओं का कर्त्तव्य दान-पुण्य होता है। तो यह सभी से महान् आत्मायें कहलाने वाले हैं। तो आज सारे दिन में कितनों को दान दिया और कौनसा दान दिया? जैसे महान् आत्माओं का भोजन, खान-पान आदि महान होता है, वैसे देखना है आज हमारी बुद्धि का भोजन महान रहा? शुद्ध भोजन स्वीकार किया? जैसे देखो, महान आत्मा कहलाने वाले अशुद्ध भोजन स्वीकार करते हैं तो उनको देखकर के सभी क्या कहते हैं? कहेंगे यह महान् आत्मा है? तो अपने को आप ही चेक करो कि आज हमने बुद्धि द्वारा कोई भी अशुद्ध संकल्प का भोजन तो नहीं पान किया? महान आत्माओं का आहार-विहार यही तो देखा जाता है। तो आज सारे दिन में बुद्धि का आहार कौनसा रहा? अगर कोई अशुद्ध संकल्प वा विकल्प वा व्यर्थ संकल्प भी बुद्धि ने ग्रहण किया तो समझना चाहिए कि आज मेरे आहार में अशुद्धि रही। जो महान आत्मा होते हैं उनके हर व्यवहार अर्थात् चलन से सर्व आत्माओं को सुख का दान देने का लक्ष्य होता है। वह सुख देता और सुख लेता है। तो ऐसे अपने आप को चेक करो कि महान आत्मा के हिसाब से आज के दिन कोई को भी दु:ख दिया वा लिया तो नहीं? पुण्य का कार्य क्या होता है? पुण्य अर्थात् किसको ऐसी चीज देना जिससे उस आत्मा से आशीर्वाद निकले। इसको कहते हैं पुण्य का कर्त्तव्य। जिसको सुख देंगे उसके अन्दर से आपके प्रति आशीर्वाद निकलेगी। तो यह है पुण्य का काम। और मुख्य लक्षण है आहिंसा। आप सारे दिन में यह भी चेक करना कि कोई हिंसा तो नहीं की? कौनसी हिंसा होती है, जिसको चेक करना है? आप अपने को डबल अहिंसक कहलाती हो ना। मन्सा में अपने संस्कारों से युद्ध भी बहुत चलती है। तो माया को मारने की हिंसा करते हो ना। युद्ध होते हुए भी इसको आहिंसा क्यों कहते हैं? क्योंकि इस युद्ध का परिणाम सुख और शान्ति का निकलता है। हिंसा अर्थात् जिससे दु:ख-अशान्ति की प्राप्ति हो। लेकिन इससे शान्ति और सुख की वा कल्याण की प्राप्ति होती है, इसलिए इसको हिंसा नहीं कहते हैं। तो डबल अहिंसक ठहरे। तो महान् आत्माओं का यह जो लक्षण गाया हुआ है वह भी देखना है। आज के सारे दिन में किसी भी प्रकार की हिंसा तो नहीं की? अगर कोई शब्द द्वारा किसकी स्थिति को डगमग कर देते हैं तो यह भी हिंसा हुई। जैसे तीर द्वारा किसको घायल करना हिंसा हुई ना। इस प्रकार अगर कोई शब्द द्वारा कोई की ईश्वरीय स्थिति को डगमग अर्थात् घायल कर दिया तो यह हिंसा हुई ना। असली सतोप्रधान संस्कार वा जो अपने ओरीजनल ईश्वरीय संस्कार आत्मा के हैं उनको दबाकर दूसरे संस्कारों को प्रैक्टिकल में लाते हैं तो मानो जैसे कि किसका गला दबाया जाता है तो वह हिंसा मानी जाती है। तो अपने ओरीजनल अथवा सतोप्रधान स्थिति के संस्कारों को दबाना-- यह भी हिंसा है। समझा?
तो यह सभी लक्षण कहाँ तक प्रैक्टिकल में हैं वह चेक करना है। अब समझा, महान आत्मा के लक्षण क्या हैं? सारे दिन दान भी करते रहो, पुण्य का कर्म भी करो और अहिंसक भी बनो। तो बताओ, स्थिति क्या बन जायेगी? फिर ऐसी महीनता में जाने वाले, सम्पूर्ण स्थिति में स्थित रहने वाले महान् आत्माओं के आगे सभी जरूर सिर झुकायेंगे। स्थूल सिर झुकायेंगे क्या? सिर होता है सभी से ऊंचा। तो सिर झुकाया गोया सारा झुकाया। तो आजकल जो अपने को ऊंच महान समझते हैं वा अपने कर्त्तव्य को ऊंच महान समझते हैं वह सिर झुकायेंगे अर्थात् महसूस करेंगे कि इस श्रेष्ठ कर्त्तव्य के आगे हम सभी के कर्त्तव्य तो कुछ भी नहीं हैं। अपनी श्रेष्ठता को श्रेष्ठ न समझ साधारण समझेंगे, तो इसको कहते हैं सर्व आत्मायें आपके आगे सिर झुकायेंगी। अब समझा, क्या चेक करना है? सारे दिन में महान् आत्मा के जो महान् कर्त्तव्य वा लक्षण हैं वह कहाँ तक प्रैक्टिकल में लाये? फिर यह रिजल्ट पूछेंगे।
पहले सुनाया था ना कि आप त्रिमूर्ति बाप के बच्चे हो, तो आप से त्रिमूर्ति लाइट दिखाई दे अर्थात् आप एक-एक द्वारा तीन लाइट का साक्षात्कार हो। कोई भी आपके सामने आये तो एक तो मस्तक से मणि दिखाई दे, दूसरा दोनों नयनों से ऐसा अनुभव हो जैसे कि दो लाइट के बल्ब जग रहे हैं और तीसरा मस्तक के ऊपर लाइट का क्राउन दिखाई दे। इन तीनों लाइट्स का साक्षात्कार हो। कइयों को होता भी है। जब याद की यात्रा में बिठाते हो तो यह दोनों नयन प्रकाश के गोले दिखाई देते हैं और कइयों के मस्तक से लाइट के क्राउन का साक्षात्कार भी होता है। तो आप द्वारा यह तीनों लाइट्स का साक्षात्कार हो तो क्या होगा? खुद भी लाइट हो जायेंगे। अनुभवी तो हो ना। साकार रूप में देखा - मस्तक से और नयनों से प्योरिटी के क्राउन का साक्षात्कार अनेकों को हुआ। तो फालो फादर करना है। अगर ऐसे ही स्वरूप का साक्षात्कार आत्माओं को कराओ तो सर्विस में सफलता आपके चरणों में झुकेगी। ऐसी महान् आत्मा बनो जो किसके भी सामने जाओ तो उसको साक्षात्कार हो। फिर बताओ वह अपना सिर आप साक्षात्कारमूर्त्त के आगे दिखा सकेंगे? झुक जायेंगे। जब अभी यह सिर झुकायेंगे तब आपके जड़ चित्रों के आगे स्थूल सिर झुकायेंगे। जो जितनों का अभी सिर झुकायेंगे उतने उनके जड़ चित्रों के आगे सिर झुकायेंगे। प्रजा के साथ भक्त भी बनाने हैं। सारे कल्प की प्रारब्ध की नूँध अभी ही होनी है। वारिस भी बनाने हैं और प्रजा भी अभी बनानी है। द्वापर युग के भक्त भी अभी बनेंगे। समझा? आपके भक्तों में भी आप लोगों द्वारा भक्ति के अर्थात् भावना के संस्कार अभी भरने हैं। यह बहुत ऊंचे हैं -- सिर्फ इस भावना के संस्कार भरने से भक्त बन जायेंगे। तो भक्त भी अभी बनाने हैं। अभी तक तो प्रजा बनाने में ही मेहनत कर रहे हो। जैसे-जैसे आप लोगों की स्थिति प्रत्यक्ष होती जायेगी, वैसे-वैसे आपके वारिस अर्थात् रायल फैमिली, प्रजा और भक्त तीनों ही प्रत्यक्ष होते जायेंगे। अभी तो मिक्स हैं। क्योंकि अभी आपकी स्थिति ही फिक्स नहीं हुई है। इसलिए वह भी मिक्स हो जाते हैं। फिर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ेंगे। आप महसूस करेंगे कि भक्त हैं।
यह भी महसूस करेंगे क्योंकि त्रिकालदर्शी का गुण प्रत्यक्ष हो जायेगा। तो अपनी भी तीनों कालों की प्रारब्ध को स्पष्ट देख सकेंगे। दिव्य-दृष्टि से नहीं, प्रत्यक्ष साक्षात्कार करेंगे। अच्छा।
महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना है। जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे। महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम।
19-04-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
त्याग, तपस्या और सेवा की परिभाषा
आज भट्ठी का आरम्भ करने के लिए बुलाया है। इस भट्ठी में सर्व गुणों की धारणामूर्त बनने के लिए वा सम्पूर्ण ज्ञानमूर्तबनने के लिए आये हो। इसके लिए मुख्य तीन बातें ध्यान में रखनी है। वह कौनसी? जिन तीन बातों से सम्पूर्ण ज्ञानमर्त और सर्व गुण मूर्त बनकर ही जाओ। सारी नॉलेज का सार उन तीन शब्दों में समाया हुआ है। वह कौनसे शब्द हैं? एक त्याग, दूसरा तपस्या और तीसरा है सेवा। इन तीनों शब्दों की धारणामूर्त बनना अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानमूर्त और सर्व गुणों की मूर्त बनना। त्याग किसको कहा जाता है? निरन्तर त्याग वृत्ति और तपस्यामूर्त बनकर हर सेकेण्ड, हर संकल्प द्वारा हर आत्मा की सेवा करनी है। यह सीखने के लिए भट्ठी में आये हो। वैसे तो त्याग और तपस्या दोनों को जानते हो, फिर अभी क्या करने आये हो?(कर्मों में लाने के लिए) भले जानते हो लेकिन अभी जो जानना है उस प्रमाण चलना, दोनों को समान बनाने के लिए आये हो। अभी जानने और चलने में अन्तर है। उस अन्तर को समाप्त करने के लिए भट्ठी में आये हो। ऐसे तपस्वीमूर्तवा त्यागमूर्त बनना है जो आपके त्याग और तपस्या की शक्ति के आकर्षण दूर से प्रत्यक्ष दिखाई दें। जैसे स्थूल अग्नि वा प्रकाश अथवा गर्मा दूर से ही दिखाई देती है वा अनुभव होती है। वैसे आपकी तपस्या और त्याग की झलक दूर से ही आकर्षण करे। हर कर्म में त्याग और तपस्या प्रत्यक्ष दिखाई दे। तब ही सेवा में सफलता पा सकेंगे। सिर्फ सेवाधारी बनकर सेवा करने से जो सफ़लता चाहते हो, वह नहीं हो पाती है। लेकिन सेवाधारी बनने के साथ-साथ त्याग और तपस्यामूर्त भी हो तब सेवा का प्रत्यक्षफल दिखाई देगा। तो सेवाधारी तो बहुत अच्छे हो लेकिन सेवा करते समय त्याग और तपस्या को भूल नहीं जाना है। तीनों का साथ होने से मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है। समय कम सफलता अधिक। तो इन तीनों को साथ जोड़ना है। यह अच्छी तरह से अभ्यास करके जाना है। जितना नॉलेजफुल उतना ही पावरफुल और सक्सेसफुल होना चाहिए। नॉलेजफुल की निशानी यह दिखाई देगी कि उनका एक-एक शब्द पावरफुल होगा और हर कर्म सक्सेसफुल होगा। अगर यह दोनों रिजल्ट कम दिखाई देती हैं तो समझना चाहिए कि नॉलेजफुल बनना है। जबकि आजकल आत्माओं द्वारा जो अधूरी नॉलेज प्राप्त करते हैं उन्हों को भी अल्पकाल के लिए सफलता की प्राप्ति का अनुभव होता है। तो सम्पूर्ण श्रेष्ठ नॉलेज की प्राप्ति प्रत्यक्ष प्राप्त होने का अनुभव भी अभी करना है। ऐसे नहीं समझना कि इस नॉलेज की प्राप्ति भविष्य में होनी है। नहीं। वर्तमान समय में नॉलेज की प्राप्ति - अपने पुरूषार्थ की सफलता और सेवा में सफलत् का अनुभव होता है। सफलता के आधार पर अपनी नॉलेज को जान सकते हो। तो भट्ठी में आये हो चेक करने और कराने के लिए कि कहाँ तक नॉलेजफुल बने हैं? कोई भी पुराने संकल्प वा संस्कार दिखाई न दें। इतना त्याग सीखना है। मस्तक अर्थात् बुद्धि की स्मृति वा दृष्टि से सिवाय आत्मिक स्वरूप के और कुछ भी दिखाई न दे वा स्मृति में न आये। ऐसे निरन्तर तपस्वी बनना है, जिस भी संस्कार वा स्वभाव वाले चाहे रजोगुणी, चाहे तमोगुणी आत्मा हो। संस्कार वा स्वभाव के वश हो, आपके पुरूषार्थ में परीक्षा के निमित्त बनी हुई हो लेकिन हर आत्मा के प्रति सेवा अर्थात् कल्याण का संकल्प वा भावना उत्पन्न हो। ऐसे सर्व आत्माओं का सेवाधारी अर्थात् कल्याणकारी बनना है। तो अब समझा, त्याग क्या सीखना है, तपस्या क्या सीखनी है और सेवा भी कहाँ तक करनी है? इनकी महीनता का अनुभव करना है। हर पुरूषार्थ में फलीभूत वह हो सकता है जिसमें ज्ञान और धारणा के फल लगे हुए हों। जैसे अभी सभी के सामने ब्रह्माकुमार प्रसिद्ध दिखाई देते हैं। दूर से ही जान जाते हैं कि यह ब्रह्माकुमार है। अब ब्रह्माकुमार के साथ-साथ तपस्वी कुमार दूर से ही दिखाई पड़ो, ऐसा बनकर जाना है। वह तब होगा जब मनन और मगन - दोनों का अनुभव करेंगे।
जैसे स्थूल नशे में रहने वाले के नैन-चैन, चलन दिखाई देते हैं कि यह नशे में है। ऐसे ही आपके चलन और चेहरे से ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई पड़े। चेहरा ही आपका परिचय दे। जैसे कोई के पास मिलने जाते हैं तो परिचय के लिए अपना कार्ड देते हैं ना। इसी रीति से आपका चेहरा परिचय कार्ड का कर्त्तव्य करे। समझा?
अभी गुप्त धारणा का रूप नहीं रखना है। कई ऐसे समझते हैं कि ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है तो धारणा भी गुप्त ही है। ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है लेकिन उन द्वारा जो धारणाओं की प्राप्ति होती है वह गुप्त नहीं हो सकती है। तो धारणाओं को वा प्राप्ति को प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ, तब प्रत्यक्षता होगी। विशेष करके कुमारों में एक संस्कार होता है जो पुरूषार्थ में विघ्न रूप होता है। वह कौनसा? कुमारों में यह संस्कार होता है जो कामनाओं को पूर्ण करने के लिए संस्कारों को रख देते हैं। जैसे जेब-खर्च रखा जाता है ना। जैसे राजाओं की राजाई तो छूट गयी लेकिन पिरवी पर्श को नहीं छोड़ते। इसी रीति संस्कारों को कितना भी खत्म करते हैं लेकिन जेब-खर्च माफिक कुछ-न-कुछ किनारे रखते ज़रूर हैं। यह है मुख्य संस्कार। यहाँ भट्ठी में जानते भी हैं और चलने की हिम्मत भी धारण करते हैं लेकिन फिर भी माया पिरवी पर्श की रीति से कहाँ-न-कहाँ किनारे में रह जाती है। समझा? तो इस भट्ठी में सभी त्याग करके जाना। यह नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अभी अन्त में बनना है, तो थोड़ा-बहुत रहेगा ही। लेकिन नहीं। त्याग अर्थात् त्याग। जेबखर्च माफिक अपने अन्दर थोड़ा-बहुत भी संस्कार रहने नहीं देना है। समझा? ज़रा भी संस्कार अगर रहा होगा तो वह थोड़ा संस्कार भी धोखा दिला देता है। इसलिए बिल्कुल जो पुरानी जायदाद है, वह भस्म करके जाना। छिपाकर नहीं रखना। समझा? अच्छा।
यह कुमार ग्रुप है। अभी बनना है तपस्वी कुमार ग्रुप। इस ग्रुप की यह विशेषता सभी को दिखाई दे कि यह तपस्वी कुमार तपस्वी-भूमि से आये हैं। समझा? हरेक लाइट के ताजधारी दिखाई दें। ताजधारी तो भविष्य में बनेंगे लेकिन इस भट्ठी से लाइट के ताजधारी बनकर जाना है। सर्विस की ज़िम्मेवारी का ताज वह इस ताज के साथ स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए मुख्य ध्यान इस लाइट के ताज को धारण करने का रखना है। समझा? जैसे तपस्वी सदैव आसन पर बैठते हैं, वैसे अपनी एकरस आत्मा की स्थिति के आसन पर विराजमान रहो। इस आसन को नहीं छोड़ो, तब सिंहासन मिलेगा। ऐसा प्रयत्न करो जो देखते ही सब के मुख से एक ही आवाज़ निकले कि यह कुमार तो तपस्वी कुमार बनकर आये हैं। हर कर्मेन्द्रिय से देह-अभिमान का त्याग और आत्माभिमानी की तपस्या प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे। क्योंकि ब्रह्मा की स्थापना का कार्य तो चल ही रहा है। ईश्वरीय पालना का कर्त्तव्य भी चल ही रहा है। अब लाइट में तपस्या द्वारा अपने विकर्मों और हर आत्मा के तमोगुण और प्रकृति के तमोगुणी संस्कारों को भस्म करने का कर्त्तव्य चलना है। अब समझा कि कौनसे कर्त्तव्य का अभी समय है? तपस्या द्वारा तमोगुण को भस्म करने का। जैसे अपने चित्रों में शंकर का रूप विनाशकारी अर्थात् तपस्वी रूप दिखाते हैं, ऐसे एकरस स्थिति के आसन पर स्थित हो तपस्वी रूप अपना प्रत्यक्ष दिखाओ। समझा क्या सीखना और क्या और कैसे बनना है? इसके लिए यह कुमार ग्रुप मुख्य सलोगन क्या सामने रखेंगे जिससे सफलता हो जाये? सच्चाई और सफाई से सृष्टि से विकारों का सफाया करेंगे। जब सृष्टि से करेंगे तो स्वयं से तो पहले से ही हो जायेगा, तब तो सृष्टि से करेंगे ना। तो यह सलोगन याद रखने से तपस्वीमूर्त बनने से सफलतामूर्त बनेंगे। समझा? अच्छा।
29-04-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बेहद के पेपर में पास होने का साधन
आज भट्ठी की समाप्ति है वा भट्ठी के प्रैक्टिकल पेपर का आरम्भ है? अभी आप कहाँ जा रहे हो? पेपर हाल में जा रहे हो या अपने-अपने स्थानों पर? जब पेपर हाल समझेंगे तब प्रैक्टिकल में पास होकर दिखायेंगे। ऐसे नहीं समझना कि अपने घर जा रहे हैं। नहीं। बड़े से बड़ा कोर्स पास करके बड़े से बड़ा इम्तहान देने के लिए पेपर हाल में जा रहे हैं। सेन्टर्स पर जब तक पढ़ाई करते हो तो वह हो गई स्कूल की पढ़ाई। लेकिन जब मधुबन वरदान भूमि में डायरेक्ट बापदादा वा निमित्त बने हुए सभी बड़े महारथियों द्वारा ट्रेनिंग लेते हो वा पढ़ाई करते हो तो मानो कालेज वा युनिवार्सिटी का स्टूडेण्ट हूँ। स्कूल के पेपर और यूनिवार्सिटी के पेपर में फर्क होता है। पढ़ाई में भी फर्क होता है, तो इस भट्ठी में ट्रेनिंग लेना अर्थात् यूनिवार्सिटी का स्टूडेण्ट बनना है। तो अभी यूनिवार्सिटी की पढ़ाई का पेपर देने के लिए जा रहे हैं। युनिवार्सिटी के पेपर के बाद ही स्टेट्स की प्राप्ति होती है। ऐसे ही भट्ठी में आने के बाद जो प्रैक्टिकल पेपर में पास हो निकलते हैं उन्हों को वर्तमान और भविष्य स्टेट्स और स्टेज प्राप्त होती है। तो यह कॉमन बात नहीं समझना। भले पहले सेन्टर्स पर पढ़ाई करते रहे हो और पेपर भी देते रहे हो लेकिन यह यूनिवार्सिटी का पेपर है। बापदादा द्वारा तिलक वा छाप लगाने के बाद अगर कोई प्रैक्टिकल पेपर में फेल हो जाते हैं तो क्या होगा? जन्म-जन्मान्तर के लिए फेल का दाग रह जायेगा। इसलिए अगर कोई भी फेल होने का संस्कार वा अपनी चलन महसूस होती हो तो आज के दिन में वह रहा हुआ दाग वा कमज़ोरी की चलन वा संस्कार मिटा कर जाना। जिससे कि पेपर हाल में जाये पेपर में फेल न होने पायें। समझा? वह पेपर तो दे दिया। वह तो सहज है लेकिन फाइनल नम्बर वा मार्क्स प्रैक्टिकल पेपर के बाद ही मिलते हैं। तो यह स्मृति और दृष्टि -- दोनों को परिवर्तन में लाकर जाना है। स्मृति में क्या रहे कि हर सेकेण्ड मेरा पेपर हो रहा है। दृष्टि में क्या रहे कि पढ़ाने वाला बाप और पढ़ने वाला मैं स्टूडेण्ट आत्मा हूँ। यह स्मृति, वृत्ति और दृष्टि बदलकर जाने से फेल नहीं होंगे लेकिन फुल पास होंगे। तो भट्ठी कोई साधारण बात नहीं समझना। यह भट्ठी की छाप और तिलक सदा कायम रखना है। जैसे यूनिवार्सिटी का सर्टिफिकेट सर्विस दिलाता है, पद की प्राप्ति कराता है। ऐसे ही यह भट्ठी का तिलक वा छाप सदा अपने पास प्रैक्टिकल में कायम रखना - यह बड़े से बड़ा सर्टिफिकेट है। जिसको सर्टिफिकेट नहीं होता है वह कभी भी कोई स्टेट्स नहीं पा सकते। इस रीति से यह भी एक सर्टिफिकेट है। भविष्य वा वर्तमान पद की प्राप्ति वा सफलता का सर्टिफिकेट है। सर्टिफिकेट को सदैव सम्भाला जाता है। अलबेलेपन से खो जाता है। कभी भी माया के अधीन यानी वश होकर पुरूषार्थ में अलबेलापन नहीं लाना। नहीं तो आप समझेंगे हमको सर्टिफिकेट है लेकिन माया वा रावण सर्टिफिकेट चुरा लेती है। जैसे आजकल के डाकू वा पाकेट काटने वाले ऐसा युक्ति से काम करते हैं जो बाहर से कुछ भी पता नहीं पड़ता है, अन्दर खाली हो जाता है। इसी प्रकार अगर पुरूषार्थ में अलबेलापन लाया तो रावण अन्दर ही अन्दर सर्टिफिकेट चुरा लेगा और आप स्टेट्स पा नहीं सकेंगे। इसलिए अटेन्शन! समझा?
यह ग्रुप सर्विसएबल तो है, अभी क्या बनना है? जैसे सर्विसएबल हो वैसे ही अभी सर्विस में एक तो त्रिकालदर्शीपन का सेन्स भरना है और दूसरा रूहानियत का इसेन्स भरना है। तब तीनों बातें मिल जायेंगी - सर्विस, सेन्स और इसेन्स। इसेन्स सूक्ष्म होता है ना। तो यह रूहानियत का इसेन्स और त्रिकालदर्शीपन का सेन्स भरने से सर्विसएबल के साथ सक्सेसफुल हो जायेंगे। तो सेन्स और इसेन्स कहाँ तक हरेक ने अपने अन्दर भरा है - वह चेक करना है। अभी समय है। जैसे पेपर हाल में जाने से पहले दो घंटे आगे भी तैयारी करके जाते हैं। आपको भी पेपर हाल में जाने के पहले अपने को तैयार करने के लिए अभी समय है। जैसे सुनाया था कि ब्रह्माकुमार के साथ में तपस्वी कुमार भी दिखाई दे। वह अपने नयनों में, चेहरे में रूहानियत धारण की है, जो जाते ही अलौकिक न्यारे और सब के प्यारे नज़र आओ? न सिर्फ भट्ठी वालों को लेकिन जो भी मधुबन में आते हैं, उन सभी को यह धारणायें विशेष रूप से करनी हैं। भट्ठी सक्सेस रही? इन्हों की पढ़ाई की रफ्तार से आप सन्तुष्ट हो? आप भट्ठी की पढ़ाई से अपने पुरूषार्थ में सन्तुष्ट हुए? कुछ रहा तो नहीं है ना? (अभी न रहा है) फिर कब रहेगा क्या?
यह अपनी सेफ्टी का साधन ढूँढ़ते हैं। समझते हैं कि कुछ भी हो जायेगा तो यह कह सकेंगे ना। लेकिन इससे भी फिर कमज़ोरी आ जाती है। इसलिए फिर यह भी कभी नहीं सोचना। कभी भी फेल नहीं होंगे -- ऐसा सोचो। अभी भी हैं और जन्म-जन्मान्तर की गारन्टी -- कभी भी फेल नहीं होंगे। इसको कहा जाता है फुल पास। कुमारों की विशेषता है कि जो चाहे वह कर सकते हैं। यह विल-पावर जरूर है। लेकिन हर संकल्प और हर सेकेण्ड विल करने की विल-पावर चाहिए। बच्चे को सभी विल किया जाता है ना। जो-कुछ होता है वह विल करते हैं। तो आप लोग भी वारिस बनाते हो और बनते भी हो। तो जैसे और विल-पावर है वैसे सभी कुछ विल करने की विल पावर चाहिए। यह यहाँ से भरकर जाना। जब सभी कुछ विल कर दिया तो क्या बन जायेंगे? नष्टोमोहा। जब मोह नष्ट हो जाता है तो बन्धनमुक्त बन जाते हैं और बन्धनमुक्त ही योगयुक्त व जीवन्मुक्त बन सकता है। समझा? संगमयुग का आपके पास अभी खज़ाना कौनसा है? ज्ञान खज़ाना तो बाप ने दिया लेकिन अपना-अपना खज़ाना कौन-सा है? यह समय और संकल्प। जैसे बाप ने पूरा ही अपने को विल किया, वैसे आप लोगों की जो स्मृति है उसको भी पूरा विल करना है। जैसे स्थूल खज़ाने से जो चाहें वह प्राप्त कर सकते हैं। वैसे ही इस समय का यह खज़ाना ‘समय और संकल्प’ -- इससे भी आप जो प्राप्त करना चाहो वह इन्हीं द्वारा प्राप्त कर सकते हो। सारी प्राप्ति का आधार संगमयुग का समय और श्रेष्ठ स्मृति अर्थात् याद है। यही खज़ाना है। इसको ही विल करना है। पूरा ही विल करके जा रहे हो या कुछ जेब-खर्च रखा है? आईवेल के लिए थोड़ा बहुत कोने में छिपाकर तो नहीं रखा है, जेब बिल्कुल खाली है?
(कुमारों ने एक गीत बाबा को सुनाया) आजकल तो मधुबन का हर कोना खाली नहीं है लेकिन हर स्थान पर सितारों की रिमझिम नज़र आती है। तो खाली क्यों कहते हो? जब सूर्य व्यक्त से अव्यक्त होता है तब सितारे स्पष्ट दिखाई देते हैं। तो बाप व्यक्त से अव्यक्त हुए हैं विश्व को सितारों की रिमझिम दिखाने के लिए। तो खाली क्यों कहेंगे? स्थूल सूर्य को कहते हैं अस्त हो गया लेकिन यह ज्ञान-सूर्य व्यक्त से अव्यक्त रूप है लेकिन सितारों के साथ है। साकार रूप से सदा साथी नहीं बन सकते। साकार में होते हुए भी सदा साथ में रहने के लिए अव्यक्त स्थिति और अव्यक्त साथी समझते थे। तो अब भी सदा साथ अव्यक्त रूप में ही हो सकता है। क्योंकि अव्यक्त रूप व्यक्त शरीर के बन्धन से मुक्त है। तो आप सभी को भी सदा साथ देने के लिए इस शरीर की स्मृति से दूर करने के लिए, यह अव्यक्त पार्ट चल रहा है। बापदादा तो हर समय सर्व बच्चों के साथ है ही। पहले-पहले एक गीत बनाया था कि ‘‘क्यों हो अधीर माता...’’। (यह गीत बहनों ने सुनाया) अभी भी हर एक का सदा साथी हूँ। लेकिन जो चाहे अनुभव करे। अभी अनुभव करने के लिए जैसे बाप अव्यक्त है वैसे अव्यक्त बनकर के ही अनुभव कर सकते हो। यह अलौकिक अनुभव करने के लिए सदा व्यक्त भाव से परे, व्यक्त देश की स्मृति से उपराम अर्थात् साक्षी बनने से ही हर समय साथ का अनुभव कर पायेंगे। समझा? अच्छा।
06-05-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बापदादा का विशेष श्रृंगार -- ‘नूरे-रत्न’
आज रत्नागर बाप अपने रत्नों को देख हर्षित हो रहे हैं। देख रहे हैं कि हरेक रत्न यथा-शक्ति पुरूषार्थ कर आगे बढ़ रहे हैं। हरेक अपने आपको जानते हो कि हम कौनसा रत्न हैं? कितने प्रकार के रत्न होते हैं? (8 रत्न हैं) आप कितने नम्बर के रत्न हो? हीरे के संग रह हीरे समान नहीं बने हो? रत्न तो सभी हो लेकिन एक रत्न है, जिनको कहते हैं नूर-ए-रत्न। तो क्या सभी नूर-ए-रत्न नहीं हो? एक तो नूर-ए-रत्न, दूसरे हैं गले की माला के रत्न। तीसरी स्टेज क्या है, जानते हो? तीसरे हैं हाथों के कंगन के रत्न। सभी से फर्स्ट नम्बर हैं नूर-ए-रत्न। वह कौन बनते हैं? जिनके नयनों में सिवाय बाप के और कुछ भी देखते हुए भी देखने में नहीं आता है। वह हैं नूर-ए-रत्न। और जो अपने मुख से ज्ञान का वर्णन करते हैं लेकिन जैसा पहला नम्बर सुनाया कि सदैव नयनों में बाप की याद, बाप की सूरत ही सभी को दिखाई दे-उसमें कुछ कम हैं, वह गले द्वारा सर्विस करते हैं, इसलिए गले की माला का रत्न बनते हैं। और तीसरा नम्बर जो हाथ के कंगन का रत्न बनते हैं उनकी विशेषता क्या है? किस-न-किस रूप से मददगार बनते हैं। तो मददगार बनने की निशानी यह बांहों के कंगन के रत्न बनते हैं। अब हरेक अपने से पूछे कि मैं कौनसा रत्न हूँ? पहला नम्बर, दूसरा नम्बर वा तीसरा नम्बर? रत्न तो सभी हैं और बापदादा के श्रृंगार भी तीनों ही हैं। अब बताओ, कौनसा रत्न हो? नूर- ए-रत्नों की जो परख सुनाई उसमें ‘पास विद् ऑनर’ हो? उम्मीदवार में भी नम्बर होते हैं। तो सदैव यह स्मृति में रखो कि हम बापदादा के नूर-ए-रत्न हैं, तो हमारे नयनों में वा नजरों में और कोई भी चीज समा नहीं सकती। चलते- फिरते, खाते-पीते आपके नयनों में क्या दिखाई देना चाहिए? बाप की मूरत वा सूरत। ऐसी स्थिति में रहने से कभी भी कोई कम्पलेन नहीं करेंगे। जो भी भिन्न-भिन्न प्रकार की परेशानियां परेशान करती हैं और परेशान होने के कारण अपनी शान से परे हो जाते हो। तो परेशान का अर्थ क्या हुआ? अपनी जो शान है उससे परे होने के कारण परेशान होना पड़ता है। अगर अपनी शान में स्थित हो जाओ तो परेशान हो नहीं सकते। तो सर्व परेशानियों को मिटाने के लिए सिर्फ शब्द के अर्थ-स्वरूप में टिक जाओ। अर्थात् अपने शान में स्थित हो जाओ तो शान से मान सदैव प्राप्त होता है। इसलिए शान-मान कहा जाता है। तो अपनी शान को जानो। जितना जो अपनी शान में स्थित होते हैं उतना ही उनको मान मिलता है। अपनी शान को जानते हो? कितनी ऊंची शान है! लौकिक रीति भी शान वाला कभी भी ऐसा कर्त्तव्य नहीं करेगा जो शान के विरूद्ध हो। अपनी शान सदैव याद रखो तो कर्म भी शानदार होंगे और परेशान भी नहीं होंगे। तो यह सहज युक्ति नहीं है परेशानी को मिटाने की? कोई भी बुराई को समाप्त करने के लिए बाप की बड़ाई करो। सिर्फ एक मात्रा के फर्क से कितना अन्तर हो गया है! बुराई और बड़ाई, सिर्फ एक मात्रा को पलटाना है। यह तो 5 वर्ष का छोटा बच्चा भी कर सकता है। सदैव बड़े से बड़े बाप की बड़ाई करते रहो, इसमें सारी पढ़ाई भी आ जाती है। तो यह बाप की बड़ाई करने से क्या होगा? लड़ाई बन्द। माया से लड़-लड़ कर थक गये हो ना। जब बाप की बड़ाई करेंगे तो लड़ाई से थकेंगे नहीं, लेकिन बाप के गुण गाते खुशी में रहने से लड़ाई भी एक खेल मिसल दिखाई पड़ेगी। खेल में हर्ष होता है ना। तो जो लड़ाई को खेल समझते, ऐसी स्थिति में रहने वालों की निशानी क्या होगी? हर्ष। सदा हर्षित रहने वाले को माया कभी भी किसी भी रूप से आकर्षित नहीं कर सकती। तो माया की आकर्षण से बचने के लिए एक तो सदैव अपनी शान में रहो, दूसरा माया को खेल समझ सदैव खेल में हर्षित रहो। सिर्फ दो बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बन जाये। जैसे साकार में अनुभव किया - कैसे हर कर्म यादगार बनाया। ऐसे ही आप सभी का हर कर्म यादगार बने, उसके लिए दो बातें याद रखो। आधारमूर्त और उद्धारमूर्त। यह दोनों बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बनेगा। अगर सदैव अपने को विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त समझो तो हर कर्म ऊंचा होगा। फिर साथ-साथ उदारचित अर्थात् सर्व आत्माओं के प्रति सदैव कल्याण की भावना वृत्ति-दृष्टि में रहने से हर कर्म श्रेष्ठ होगा। तो अपना हर कर्म ऐसे करो जो यादगार बनने योग्य हो। यह फालो करना मुश्किल है क्या? (म्यूजियम सर्विस पर पार्टी जा रही है) त्याग का सदैव भाग्य बनता है। जो त्याग करता है उसको भाग्य स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए यह जो बड़े से बड़ा त्याग करते हैं उन्हों का बड़े से बड़ा भाग्य जमा हो जाता है। इसलिए खुशी से जाना चाहिए सर्विस पर। अच्छा।
20-05-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विधाता, वरदाता-पन की स्टेज
विधाता और वरदाता - यह दोनों ही गुण अपने में अनुभव करते हो? जैसे बाप विधाता भी है और वरदाता भी है, वैसे ही अपने को भी दोनों ही प्राप्ति-स्वरूप समझते हो? जितना-जितना वरदाता बनते जायेंगे उतना ही वरदाता बन वरदान देने की शक्ति बढ़ती जायेगी। तो दोनों ही अनुभव होते हैं वा अभी सिर्फ विधाता का पार्ट है, अन्त में वरदाता का पार्ट होगा? क्या समझती हो? (कोई ने कहा दोनों पार्ट अभी चल रहे हैं, कोई ने कहा अभी एक पार्ट चल रहा है) वरदान किन आत्माओं को देते हो और वरदाता किसके लिए बनते हो? एक होता है नॉलेज को देना, दूसरा है वरदान रूप में देना। तो विधाता हो या वरदाता हो? किन्हों को वरदान देती हो? विधाता अर्थात् ज्ञान देने वाले तो बनते ही हो, लेकिन कहाँ विधाता के साथ- साथ वरदाता भी बनना पड़ता है। वह कब? जब कोई ऐसी आत्मा हिम्मतहीन, निर्बल लेकिन इच्छुक होती है, चाहना होती है कि हम कुछ प्राप्ति करें। ऐसी आत्माओं के लिए ज्ञान-दाता बनने के साथ-साथ आप विशेष रूप से उस आत्मा को बल देने के लिए शुभ-भावना रखते हो वा शुभचिन्तक बनते हो। तो विधाता के साथ-साथ वरदाता भी बनते हो। एक्स्ट्रा बल अपनी तरफ से उनको वरदान के रूप में देते हो। तो वरदान भी देना होता और दाता भी बनना होता है। इसलिए दोनों ही हो। यह अनुभव कब किया है? भक्ति मार्ग में साक्षात्कार द्वारा वरदान प्राप्त होता है क्योंकि वह आत्माएं इतनी निर्बल होती हैं जो ज्ञान धारण नहीं कर सकतीं स्वयं पुरुषार्थी नहीं बन सकतीं। इसलिए वरदान की इच्छा रखती हैं, और वरदान रूप में उनको कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है। इस रीति जो कमज़ोर आत्माएं आपके सामने आती हैं, जिन आत्माओं की इच्छा को देखकर तरस की, रहम की भावना आती है। रहमदिल बन अपनी सभी शक्ति की मदद दे उनको ऊंचा उठाना - यह है वरदान का रूप। अभी बताओ कि दोनों ही हो या एक? कोई आत्माओं के प्रति आप लोगों को विशेष प्रोग्राम भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि अपनी शक्ति से वह धारण नहीं कर पाते हैं। तो शक्ति का वरदान देने वाली शिव-शक्तियां हो। इसलिए सुनाया कि अभी ज्यादा सर्विस चलनी है नॉलेज के विधातापन की। अन्त में नॉलेज देने की सर्विस कम हो जायेगी, वरदान देने की सर्विस ज्यादा होगी। इसलिए अन्त के समय वरदान लेने वाली आत्माओं में वही संस्कार मर्ज हो जायेंगे और वही मर्ज हुए संस्कार द्वापर में भक्त के रूप में इमर्ज होंगे। तो अभी नॉलेज अर्थात् ज्ञान के दाता की सर्विस है, फिर वरदाता की होगी। समझा? फिर इतना समय ही नहीं होगा, न आत्मा में शक्ति होगी। इसलिए वरदाता बन वरदान देने की सर्विस होगी। अभी यह सर्विस कम करते हो, फिर ज्यादा करनी होगी। अभी वारिस बनाने की सर्विस है, फिर होगी सिर्फ प्रजा बनाने की सर्विस। परन्तु थोड़े समय में इतनी प्रजा बनाने के लिए वरदाता मूर्त्त बनने के लिए मुख्य क्या अटेन्शन रखना पड़े? वरदातामूर्त बन थोड़े समय में अनेक आत्माओं को वरदान दे सकें, उसके लिए क्या करना पड़े? वरदाता बनने के लिए मुख्य पुरूषार्थ यही करना पड़े, बार-बार जो भक्ति मार्ग में गायन किया है कि वारी जाऊं। यह गायन अगर प्रैक्टिकल में कर लो तो जिसके ऊपर वारी जाते हो वह आपको भी सर्व वरदान देकर वरदातामूर्त बना देते हैं। तो हर समय, हर कर्म में, हर संकल्प में यह सोचो कि ‘वारी जाऊं’ का जो वचन दिया था वह पालन कर रही हूँ। तो बाप वरदातामूर्त है ना। आप सभी भी बाप समान वरदातामूर्त बन जाते हो। तो इतनी चेकिंग करते हो? एक संकल्प भी किसके प्रति न हो, जो भी संकल्प उठता है उसमें बाप के प्रति कुर्बान का, वारी जाने का रहस्य भरा हुआ हो। ऐसी चेकिंग करते रहो तो फिर माया सामना करने का साहस रख सकेगी? सामना करने का साहस नहीं रखेगी, लेकिन बार-बार नमस्कार कर विदाई लेगी। समझा?
तो ऐसा बनने के लिए इतनी चेकिंग चाहिए। और दूसरी बात - वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में देखना चाहिए कि इतना स्टॉक जमा किया है जो दूसरे को दे सकूं? अगर जमा ही नहीं किया होगा तो दूसरे को क्या देंगे! तो वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में इतना जमा करना पड़े जो दूसरे को दे सकें। इतना जमा का खाता है? वा कमाया और खाया, यह रिजल्ट है? एक होता है कमाया और खाया - दूसरा होता है जमा करना और तीसरा होता है जो इतना भी नहीं कमा सकते जो स्वयं को भी चला सकें, दूसरे की मदद ले अपने को चलाना पड़ता। तो तीसरी स्टेज वा दूसरी स्टेज से पार हुए हो? वह है कमाया और खाया। और पहली स्टेज है जमा करना। तो रोज अपना बैंक बैलेन्स देखते हो? बहुत भिखारी भीख मांगने के लिए आयेंगे। तो इतना ही जमा करना पड़े जो सभी को दे सको। जमा करना सीखे हो? कितना जमा किया है, खाते से तो पता लग जाता है ना। अपना खाता देखा है? कई ऐसे भी होते हैं जो निकाल कर खाते जाते हैं, मालूम नहीं पड़ता है। फिर जब अचानक खाता देखते हैं तो समझते हैं कि यह क्या हो गया! ऐसे तो यहाँ होंगे ही नहीं। अच्छा।
जमा किये हुए खाते वाले का विशेष गुण वा कर्त्तव्य क्या दिखाई देगा? जिसके पास खजाना जमा होगा उसकी सूरत से एक तो वर्तमान और भविष्य अर्थात् ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई देगा और उनके नयनों वा मस्तक से सर्व आत्माओं को स्पष्ट अपना नशा दिखाई देगा। यह जमा होने वाले की निशानी दिखाई देगी। उनकी सूरत ही सर्विसएबल होगी, सूरत ही सर्विस करती रहेगी। जिसके पास जास्ती अथवा कम जमा होता है तो वह भी उनकी सूरत से दिखाई देता है। तो जमा किए हुए की सूरत वा मूरत से ही मालूम पड़ जाता है। जैसे जड़ चित्र बनाते हैं तो उनमें भी कई ऐसे चिह्न दिखाते हैं जो उन जड़ चित्रों से भी अनुभव होता है। वह बोलते तो नहीं है, लेकिन सूरत वा मूर्त से अनुभव होता है। वैसे ही आपकी यह सूरत हर संकल्प, हर कर्म को स्पष्ट करेगी। तो अपने आप को ऐसा चेक करो कि मेरी सूरत से कोई भी आत्मा को नशा व निशाना दिखाई देता है? जैसे कोई ऊंच कुल का बच्चा होता है तो वह भले गरीब बन जाये लेकिन उसकी झलक और फलक दिखाती है कि यह कोई ऐसे ऊंच कुल का है। वैसे ही जो सदैव खज़ाने से सम्पन्न होगा उसकी सूरत से कभी छिप नहीं सकता। आपके पास दर्पण है? सदैव साथ रखते हो? हर समय दर्पण देखते रहते हो? कई ऐसे भी होते हैं जिनको बार-बार दर्पण देखने की आवश्यकता भी नहीं होती है। तो आप सेकेण्ड-सेकेण्ड देखते हो वा देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती? जब तक अपनी चेकिंग का नेचरल अभ्यास हो जाये तब तक बार-बार चेकिंग करनी पड़ती है। धीरे-धीरे फिर ऐसे बन जायेंगे जो बार-बार देखने की भी दरकार नहीं पड़ेगी। सदैव सजे-सजाये ही रहेंगे। जब तक यह सदैव सजे-सजाये रहने की आदत पड़ जाये तब तक बार-बार अपने को देखना और बनाना पड़ता है। जब दो-चार बार देख लिया कि जब माया किसी भी प्रकार से, किस भी रीति से मेरे श्रृंगार को बिगाड़ नहीं सकती, फिर बार-बार देखने की ज़रूरत ही नहीं। फिर तो अपना साक्षात्कार दूसरों के द्वारा भी आपको होता रहेगा। दूसरे स्वयं वर्णन करेंगे, गुण गान करेंगे। अच्छा।
सभी विजयी रत्न हो ना। विजयी रत्न तो हो, लेकिन विजय की माला कितनी अपने गले में डाली है, वह भी देखना पड़े। यह विजय की माला दिन- प्रतिदिन बढ़ती जाती है। तो बढ़ रही है और कहाँ तक बढ़ी है - यह भी देखना पड़े। जब माला लम्बी होती है तो फिर क्या करते हैं? डबल करके डालते हैं, जिससे सारा श्रृंगार सुन्दर बन जाता है। तो इतनी बड़ी माला अपने गले में डाली है? यह भी चेक करो कि आज के दिन मेरे विजय की माला में कितने विजयी रत्न बढ़े। अच्छा।
दृष्टि से सृष्टि बदलती है -यह भी अभी की कहावत है। कैसी भी तमोगुणी वा रजोगुणी आत्मायें आयें, लेकिन आपकी सतोगुणी दृष्टि से उनकी सृष्टि, उनकी स्थिति बदल जाये, उनकी वृत्ति बदल जाये। आगे चलकर यह अनुभव बहुत आत्मायें करेंगी। जैसे यादगार दिखाया हुआ है कि तीनों लोकों का साक्ष्त्कार कराया। यह भी अभी का गायन है। आप लोगों के सामने आने से दृष्टि द्वारा उन्हों को तीन लोक तो क्या अपनी पूरी जीवन कहानी का मालूम पड़ जाये। जैसे शुरू में स्थापना के समय ज्ञान की सर्विस इतनी नहीं थी, नज़र से निहाल करते थे। तो अन्त में भी ज्ञान की सर्विस करने का मौका नहीं मिलेगा। जो आदि हुआ है वही अन्त में आप लोगों द्वारा चलना है। जैसे वृक्ष का पहले बीज प्रत्यक्ष रूप में होता है, बीच में वह बीज मर्ज हो जाता है, फिर अन्त में वही बीज प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है। तो आप आदि आत्माओं में भी जो पहला फाउन्डेशन पड़ा हुआ है वही सर्विस अन्त में भी होनी है। अच्छा।
24-05-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पोज़ीशन में ठहरने से अपोज़ीशन समाप्त
सर्व आत्माओं के सुख और शान्ति कर्ता बने हो? क्योंकि दु:खहर्ता सुखकर्ता के सिकीलधे बच्चे हो, तो जो बाप का कर्त्तव्य वही बच्चों का कर्त्तव्य। जो विश्व के कल्याणकर्ता वा सुखकर्ता हैं उनके पास कभी भी दु:ख की लहर स्वप्न में भी अथवा संकल्प में भी आ नहीं सकती। तो ऐसी स्थिति बना रहे हो वा इस स्थिति में स्थित रहते हो? जब से नया जन्म लिया, बापदादा के सिकीलधे बच्चे बने, तो सर्वशक्तिवान की सन्तान के पास कोई भी प्रकार का सन्ताप आ नहीं सकता। सन्ताप अर्थात् दु:ख की लहर तब तक है जब तक सर्वशक्तिवान बाप की स्मृति नहीं रहती अथवा उनकी सन्तान प्रैक्टिकल में नहीं बनते हैं। सुख के सागर बाप की सन्तान तो दु:ख की लहर क्या वस्तु होती है, इससे भी अन्जान रहते हैं। सुख की लहर में ही लहराते रहते हैं। माया की अपोज़ीशन क्यों होती है? अपोजीशन का निवारण बहुत सहज है। अपोज़ीशन से सिर्फ ‘अ’ शब्द निकाल दो। तो क्या हो जायेगा? पोजीशन में ठहरने से अपोज़ीशन होगा? अगर अपने पोज़ीशन पर स्थित है तो माया की अपोज़ीशन नहीं होगी। सिर्फ एक शब्द कट कर देना है। अपने पोज़ीशन में ठहरना - यही याद की यात्रा है। जो हूँ, जिसका हूँ उसमें स्थित होना - यही याद की यात्रा है। मुश्किल है क्या? जो जैसा है ऐसा अपने को मानने में मुश्किल होता है क्या? आप लोगों ने असलियत को भुला दिया है, उसमें स्थित कराने की ही शिक्षा मिली है। तो असली रूप में ठहरना मुश्किल होता है वा नकली रूप में ठहरना मुश्किल होता है? होली के अथवा दशहरे के दिनों में छोटे बच्चे आर्टाफिशियल नकाब पहनते हैं, उन्हों को कहो कि यह नकली नकाब उतार असली रूप में हो जाओ तो क्या मुश्किल होगा? कितना समय लगेगा? आप लोगों ने भी यह खेल किया है ना। क्या-क्या नकाब धारण किये? कब बन्दर का, कब असुर का, कब रावण का। कितने नकली नकाब धारण किये हैं? अब बाप क्या कहते हैं? वह नकली नकाब उतार दो। इसमें क्या मुश्किल है? तो सदैव यह नशा रखो कि असली स्वरूप, असली धर्म, असली कर्म हमारा कौनसा है? असली नॉलेज के हम मास्टर नॉलेजफुल हैं यह नशा कम है? यह नशा सदैव रहे तो क्या बन जायेंगे? जो बन जायेंगे उसका यादगार देखा है? दिलवाला मन्दिर है तपस्वी कुमार और तपस्वी कुमारियों का यादगार। और सदैव नशे में स्थित रहने का यादगार कौन-सा है? अचलघर। सदैव उस नशे में रहने से अचल, अडोल बन जायेंगे। फिर माया संकल्प रूप में भी हिला नहीं सकती। ऐसे अचल बन जायेंगे। यादगार है ना कि रावण सम्प्रदाय ने पांव हिलाने की कोशिश की लेकिन ज़रा भी हिला न सके। ऐसा नशा रहता है कि यह हमारा यादगार है? या समझते हो कि यह बड़े-बड़े महारथियों का यादगार है? यह मेरा यादगार है - ऐसा निश्चयबुद्धि बनने से विजय अवश्य प्राप्त हो जाती है। यह कभी भी नहीं सोचो कि यह कोई और महारथियों का है, हम तो पुरुषार्थी हैं। अगर निश्चय में, स्वरूप की स्मृति में ही कमज़ोरी होगी तो कर्म में भी कमजोरी आ जायेगी। तो सदैव हर संकल्प निश्चयबुद्धि का होना चाहिए। कर्म करने के पहले यह निश्चय करो कि विजय तो हमारी हुई पड़ी है। अनेक कल्प विजयी बने हो। जब अनेक कल्प, अनेक बार विजयी बन विजय माला में पिरोने वाले, पूजन होने वाले बने हो, तो अब वह रिपीट नहीं करेंगे? वही बना हुआ कर्म दुबारा रिपीट करना है। इसलिए कहा जाता है कि बना-बनाया....। बना हुआ है लेकिन अब फिर से रिपीट कर ‘बना-बनाया’ जो कहावत है उसको पूरा करना है। जब निश्चय हो जाता है कि मैं यह हूँ वा यह मुझे करना ही है, मैं कर सकता हूँ तब वह नशा चढ़ता है। निश्चय नहीं तो नशा भी नहीं चढ़ता और निश्चय है तो नशे की स्थिति के सागर में लहराते रहेंगे। ऐसी स्थिति का अनुभवीमूर्त जब बन जायेंगे तो आपकी मूर्त से सिखलाने वाले की सूरत दिखाई देगी। तो ऐसे अनुभवीमूर्त हो जो बाप और शिक्षक की सूरत आपकी मूर्त से प्रत्यक्ष हो? ऐसे बने हो वा बन रहे हो? सफलता के सितारे हो वा उम्मीदवार सितारे हो? सफ़लता तो जन्मसिद्ध अधिकार है। क्योंकि जब सर्वशक्तिवान कहते हो; तो असफलता का कारण है शक्तिहीनता। शक्ति की कमी के कारण माया से हार खाते हैं। जब सर्वशक्तिवान बाप की स्मृति में रहते हैं तो सर्वशक्तिवान के बच्चे होने के कारण सफलता तो जन्म्सिद्ध अधिकार हो गया। हर सेकेण्ड में सफलता समाई हुई होनी चाहिए। असफलता के दिन समाप्त। अब सफलता हमारा नारा है - यह स्मृति में रखो।
बहुत सहज सरल रास्ता है, जो सेकेण्ड में अपने को नकली से असली बना सकते हो? इतना सरल मार्ग कब मिलेगा? कभी भी नहीं। माया के अधीन क्यों बनते हो? क्योंकि आलमाइटी अथॉरिटी के बच्चे हैं, यह भूल जाते हो। आजकल छोटी-मोटी अथॉरिटी रखने वाले कितनी खुमारी में रहते हैं! तो आलमाइटी अथॉरिटी वाले कितनी खुमारी में रहने चाहिए? शास्त्रवादी जो अपने को शास्त्रं की अथॉरिटी मानते हैं वह भी कितनी खुमारी में, कितना उलटी नॉलेज के निश्चय में रहते हैं। किसने सुनाया, किसने देखा, कुछ भी पता नहीं। फिर भी शास्त्रं की अथॉरिटी मानने के कारण अपनी हार कभी नहीं मानेंगे। तो आप लोगों की सर्व से श्रेष्ठ अथॉरिटी है। ऐसे अथॉरिटी से किसके भी सामने जाओ तो सभी सिर झुकायेंगे। आप लोग नहीं झुक सकते। तो अपनी अथॉरिटी को कायम रखो। आप विश्व को झुकाने वाले हो। जो विश्व को झुकाने वाले हैं वह किसके आगे झुक नहीं सकते। उस अथॉरिटी की खुमारी से किसी भी आत्मा का कल्याण कर सकते हो। ऐसी खुमारी को कभी भी भूलना नहीं। बहुत समय से अभूल बनने से भविष्य में बहुत समय के लिए राज्य-भाग्य प्राप्त करेंगे। अगर अल्पकाल इस खुमारी में रहते हैं तो राज्य-भाग्य भी अल्पकाल के लिए प्राप्त होता है। यहाँ तो अभी आये हो सदाकाल का वर्सा लेने, न कि अल्पकाल का। सिर्फ दो बातें साथ-साथ याद रखो। बात एक ही है, शब्द भिन्न-भिन्न हैं। बिल्कुल सहज से सहज दो बातें सरल शब्दों में कौनसी सिखाई जाती हैं? ऐसे दो-दो शब्द साथ याद रहें तो स्थिति कभी नीचे-ऊपर नहीं हो सकती। अल्फ और बादशाही याद रहे तो कभी स्थिति नीचे-ऊपर नहीं होगी। दो शब्दों की ही बात है। कोई अन्जान बच्चे को भी अल्फ और बे याद करने के लिए कहो तो भूलेगा? आप मास्टर सर्वशक्ति- वान भूल सकते हो? जिस समय विस्मृति की स्थिति होती है तो अपने से यह बातें करो - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान अल्फ और बे को भूल गया! ऐसी-ऐसी बातें करने से शक्ति जो खो देते हो उसकी फिर से स्मृति आ जायेगी। है सिर्फ मनन और वर्णन करना। पहले मनन करो और बाद में फिर वर्णन करो। जो बातें मनन की जाती हैं उनको वर्णन करना सहज हो जाता है। तो मनन करते और वर्णन करते चलो। यह भी दो बातें हुईं। मनन करते-करते मग्न अवस्था आटोमेटीकली हो जायेगी। जो मनन करना नहीं जानते वह मग्न अवस्था का भी अनुभव नहीं कर सकते। ताज और तख्तनशीन अभी बने हो वा भविष्य में बनेंगे? अभी तो ताज और तख्त नहीं है ना। बेगर हो? संगमयुग का तख्त नहीं जानते हो? सारे कल्प के अन्दर सभी से श्रेष्ठ तख्त का मालूम नहीं है? बापदादा के दिल रूपी तख्त नशीन नहीं बने हो? जब याद रहेगा तब तो बैठेंगे। तख्त है तो ताज भी होगा। ताज बिना तख्त तो होगा ही नहीं। कौनसा ताज धारण करने से तख्तनशीन बनेंगे? बापदादा संगम पर ही ताज व तख्तनशीन बना देते हैं। इस ताज और तख्त के आधार से भविष्य ताज,तख्त मिलता है। अभी धारण नहीं करेंगे तो भविष्य में कैसे धारण करेंगे। आधार तो संगमयुग है ना। ताज भी धारण करना पड़े, तिलक भी धारण करना पड़े और तख्तनशीन भी बनना पड़े। तिलक सदैव कायम रहता है वा कभी-कभी मिट जाता है? ताज, तिलक और तख्त - यह तीनों ही संगमयुग की बड़ी से बड़ी प्राप्ति है। इस प्राप्ति के आगे भविष्य राज्य कुछ भी नहीं। जिसने संगमयुग का ताज,तख्त नहीं लिया उसने कुछ भी नहीं लिया। विश्व के कल्याण के ज़िम्मेवारी का ताज है। जब तक यह ताज धारण नहीं करते तब तक बाप के दिल रूपी तख्त पर विराजमान नहीं हो सकते। अपना हक जमा करके जाना, नहीं तो बड़ा मुश्किल होगा। मधुबन में ताज व तख्तनशीन बनकर जाना। जब हिम्मतवान, निश्चयबुद्धि बनते हो तब ही तो मधुबन में आते हो अपनी ताजपोशी करने। बिगर ताज के नहीं जाना। बापदादा का तख्त इतना बड़ा है जो जितना भी चाहें उतना विराजमान हो सकते हैं। उस स्थूल तख्त पर तो सभी नहीं बैठ सकते। लेकिन यह तख्त इतना बड़ा है। बड़े से बड़े बाप के बच्चे, बड़े से बड़े तख्त नशीन होते हैं। अच्छा।
30-05-71 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप की आज्ञा और प्रतिज्ञा
बापदादा आज्ञा भी करते हैं और प्रतिज्ञा भी करते हैं। ऐसे कौनसे महावाक्य हैं जिसमें आज्ञा भी आ जाए और प्रतिज्ञा भी आ जाए? ऐसे महावाक्य याद आते हैं जिनमें आज्ञा और प्रतिज्ञा - दोनों आ जाएं? ऐसे बहुत महावाक्य हैं। लम्बी लिस्ट है इनकी। लेकिन टैम्पटेशन के महावाक्य हैं कि ‘एक कदम आप उठाओ तो हजार कदम बापदादा आगे आयेंगे’, न कि 10 कदम। इन महावाक्यों में आज्ञा भी है कि एक कदम आगे बढ़ाओ और फिर प्रतिज्ञा भी है कि हजार कदम बापदादा भी आगे बढ़ेंगे। ऐसे उमंग- उत्साह दिलाने वाले महावाक्य सदैव स्मृति में रहने चाहिए। आज्ञा को पालन करने से बाप की जो प्रतिज्ञा है उससे सहज रीति अपने को आगे बढ़ा सकेंगे। क्योंकि फिर प्रतिज्ञा मदद का रूप बन जाती है। एक अपनी हिम्मत, दूसरी मदद - जब दोनों मिल जाते हैं तो सहज हो जाता है। इसलिए ऐसे-ऐसे महावाक्य सदैव स्मृति में रहने चाहिए। स्मृति ही समर्थी लाती है। जैसे राजपूत होते हैं, वह जब युद्ध के मैदान में जाते हैं तो भले कैसा भी कमज़ोर हो उनको अपने कुल की स्मृति दिलाते हैं। राजपूत ऐसे-ऐसे होते हैं, ऐसे होकर गये हैं, ऐसे ऐसे करके गये हैं, ऐसे कुल के तुम हो - यह स्मृति दिलाने से उन्हों में समर्थी आती है। सिर्फ कुल की महिमा सुनते-सुनते स्वयं भी ऐसे महान् बन जाते हैं। इस रीति आप सूर्यवंशी हो, वो सूर्यवंशी राज्य करने वाले क्या थे? कैसे राज्य किया और किस शक्ति के आधार पर से ऐसा राज्य किया? वह स्मृति और साथ-साथ अब संगमयुग के ईश्वरीय कुल की स्मृति। अगर यह दोनों ही स्मृति बुद्धि में आ जाती हैं तो फिर समर्थी आ जाती है। जिस समर्थी से फिर माया का सामना करना सरल हो जाता है। सिर्फ स्मृति के आधार से। तो हर कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए क्या साधन हुआ? स्मृति से अपने में पहले समर्थी को लाओ। फिर कार्य करो। तो भले कैसा भी कमज़ोर होगा लेकिन स्मृति के आधार से उस समय के लिए समर्थी आ जायेगी। भले पहले वह अपने को उस कार्य के योग्य न समझते होंगे लेकिन स्मृति से वह अपने को योग्य देखकर आगे के लिए उमंग-उत्साह में आयेंगे। तो सर्व कार्य करने के पहले यह स्मृति रखो। ईश्वरीय कुल और भविष्य की, दोनों ही स्मृति आने से कभी भी निर्बलता नहीं आ सकेगी। निर्बलता नहीं तो असफलता भी नहीं। असफलता का कारण ही है निर्बलता। जब स्मृति से समर्थी को लायेंगे तो निर्बलता अर्थात् कë