21-01-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निरन्तर योगी बनने की सह विधि

जैसे एक सेकेण्ड में स्वीच ऑन और ऑफ किया जाता है, ऐसे ही एक सेकेण्ड में शरीर का आधार लिया और फिर एक सेकेण्ड में शरीर से परे अशरीरी स्थिति में स्थित हो सकते हो? अभी-अभी शरीर में आये, फिर अभी-अभी अशरीरी बन गये - यह प्रैक्टिस करनी है। इसी को ही कर्मातीत अवस्था कहा जाता है। ऐसा अनुभव होगा। जब चाहे कोई कैसा भी वस्त्र धारण करना वा न करना - यह अपने हाथ में रहेगा। आवश्यकता हुई धारण किया, आवश्यकता न हुई तो शरीर से अलग हो गये। ऐसे अनुभव इस शरीर रूपी वस्त्र में हो। कर्म करते हुए भी अनुभव ऐसा ही होना चाहिए जैसे कोई वस्त्र धारण कर और कार्य कर रहे हैं। कार्य पूरा हुआ और वस्त्र से न्यारे हुए। शरीर और आत्मा - दोनों का न्यारापन चलते-फिरते भी अनुभव होना है। जैसे कोई प्रैक्टिस हो जाती है ना। लेकिन यह प्रैक्टिस किनको हो सकती है? जो शरीर के साथ वा शरीर के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं, शरीर की दुनिया, सम्बन्ध वा अनेक जो भी वस्तुएं हैं उनसे बिल्कुल डिटैच होंगे,रा भी लगाव नहीं होगा, तब न्यारा हो सकेंगे। अगर सूक्ष्म संकल्प में भी हल्कापन नहीं है, डिटैच नहीं हो सकते तो न्यारेपन का अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो अब महारथियों को यह प्रैक्टिस करनी है। बिल्कुल ही न्यारेपन का अनुभव हो। इसी स्टेज पर रहने से अन्य आत्माओं को भी आप लोगों से न्यारेपन का अनुभव होगा, वह भी महसूस करेंगे। जैसे योग में बैठने के समय कई आत्माओं को अनुभव होता है ना -- यह ड्रिल कराने वाले न्यारी स्टेज पर हैं। ऐसे चलते-फिरते फरिश्तेपन के साक्षात्कार होंगे। यहाँ बैठे हुए भी अनेक आत्माओं को, जो भी आपके सतयुगी फैमिली में समीप आने वाले होंगे उन्हों को आप लोगों के फिरिश्ते रूप और भविष्य राज्य-पद के - दोनों इकट्ठे साक्षात्कार होंगे। जैसे शुरू में ब्रह्मा में सम्पूर्ण स्वरूप और श्रीकृष्ण का - दोनों साथ-साथ साक्षात्कार करते थे, ऐसे अब उन्हों को तुम्हारे डभले रूप का साक्षात्कार होगा। जैसे-जैसे नंबरवार इस न्यारी स्टेज पर आते जायेंगे तो आप लोगों के भी यह डभले साक्षात्कार होंगे। अभी यह पूरी प्रैक्टिस हो जाए तो यहाँ-वहाँ से यही समाचार आने शुरू हो जायेंगे। जैसे शुरू में घर बैठे भी अनेक समीप आने वाली आत्माओं को साक्षात्कार हुए ना। वैसे अब भी साक्षात्कार होंगे। यहाँ बैठे भी बेहद में आप लोगों का सूक्ष्म स्वरूप सर्विस करेगा। अब यही सर्विस रही हुई है। साकार में सभी इग्जाम्पल तो देख लिया। सभी बातें नंबरवार ड्रामा अनुसार होनी हैं। जितना-जितना स्वयं आकारी फरिश्ते स्वरूप में होंगे उतना आपका फरिश्ता रूप सर्विस करेगा। आत्मा को सारे विश्व का चक्र लगाने में कितना समय लगता है? तो अभी आपके सूक्ष्म स्वरूप भी सर्विस करेंगे। लेकिन जो इस न्यारी स्थिति में होगें, स्वयं फरिश्ते रूप में स्थित होगें। शुरू में सभी साक्षात्कार हुए हैं। फरिश्ते रूप में सम्पूर्ण स्टेज और पुरुषार्थी स्टेज - दोनों अलग-अलग साक्षात्कार होता था। जैसे साकार ब्रह्मा और सम्पूर्ण ब्रह्मा का अलग-अलग साक्षात्कार होता था, वैसे अन्य बच्चों के साक्षात्कार भी होंगे। हंगामा जब होगा तो साकार शरीर द्वारा तो कुछ कर नहीं सकेंगे और प्रभाव भी इस सर्विस से पड़ेगा। जैसे शुरू में भी साक्षात्कार से ही प्रभाव हुआ ना। परोक्ष-अपरोक्ष अनुभव ने प्रभाव डाला वैसे अन्त में भी यही सर्विस होनी है। अपने सम्पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार अपने आप को होता है? अभी शक्तियों को पुकारना शुरू हो गया है। अभी परमात्मा को कम पुकारते हैं, शक्तियों की पुकार तेज रफ़्तार से चालू हो गई है। तो ऐसी प्रैक्टिस बीच-बीच में करनी है। आदत पड़ जाने से फिर बहुत आनन्द फील होगा। एक सेकेण्ड में आत्मा शरीर से न्यारी हो जायेगी, प्रैक्टिस हो जायेगी। अभी यही पुरूषार्थ करना है। अच्छा!

वर्तमान समय पुरूषार्थ की तीन स्टेज हैं; उन तीनों स्टेजेस से हरेक अपनी-अपनी यथा शक्ति पास करता हुआ चल रहा है। वह तीन स्टेजेस कौनसी हैं? एक है वर्णन, दूसरा मनन और तीसरा मगन। मैजारिटी वर्णन में ज्यादा हैं। मनन और मगन की कमी होने के कारण आत्माओं में विल-पावर कम है। सिर्फ वर्णन करने से बाह्यमुखता की शक्ति दिखाई पड़ती है लेकिन उससे प्रभाव नहीं पड़ता है। मनन करते भी हैं लेकिन अन्तर्मुख होकर के मनन करना, उसकी कमी है। प्वाइंटस का मनन भले करते हैं लेकिन हर प्वाइंट द्वारा मनन अथवा मंथन करने से शक्ति स्वरूप मक्खन निकलना चाहिए, जिससे शक्ति बढ़ती है। भले प्लैंनिग करते हैं, उनके साथ-साथ सर्व शक्तियों की सजावट जो होनी चाहिए वह नहीं है। जैसे कोई चीज़ कितनी भी अमूल्य हो लेकिन उनको अगर उस रूप से सजाकर न रखा जाए तो उस चीज़ के मूल्य का मालूम नहीं पड़ सकता। इसी रीति नॉलेज का भले मनन चलता भी है लेकिन अपने में एक-एक प्वाइंट द्वारा जो शक्ति भरनी है वह कम भरते हो, इसलिए मेहनत ज्यादा और रिजल्ट कम हो जाती है। मन में, प्लैनिंग में उमंग- उत्साह बहुत अच्छा रहता है लेकिन प्रैक्टिकल रिजल्ट देखते तो मन में अविनाशी उमंग-उत्साह, उल्लास नहीं रहता। एकरस जो फोर्स की स्टेज रहनी चाहिए वह नहीं रहती। एक-एक प्वाइंट को मनन करने द्वारा अपनी आत्मा में शक्ति कैसे भरी जाती है -- इस अनुभव में बहुत अनजान हैं। इसलिए यह अन्तर्मुखता, अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का अनुभव नहीं करते हैं। जब तक अतीन्द्रिय सुख की, सर्व प्राप्तियों की भासना नहीं तब तक अल्पकाल की कोई भी वस्तु अपने तरफ रूर आकर्षण करेगी। तो वर्तमान समय मनन शक्ति से आत्मा में सर्व शक्तियाँ भरने की आवश्यकता है, तब मगन अवस्था रहेगी और विघ्न टल सकते हैं। विघ्नों की लहर तब आती है जब रूहानियत की तरफ फोर्स कम हो जाता है। तो वर्तमान समय शिवरात्रि की सर्विस के पहले स्वयं में शक्ति भरने का फोर्स चाहिए। भले योग के प्रोग्रामस रखते हैं लेकिन योग द्वारा शक्तियों का अनुभव करना-कराना - अब ऐसे क्लासेज की आवश्यकता है। प्रैक्टिकल अपने भले के आधार से औरों को भले देना है। सिर्फ बाहर की सर्विस के प्लैन नहीं सोचने हैं लेकिन पूरी ही नजर चाहिए सभी तरफ। जो निमित्त बने हुए हैं उन्हों को यह ख्यालात चलना चाहिए कि हमारी इस तरफ की फुलवारी किस बात में कमजोर है। किसी भी रीति अपने फुलवारियों की कमजोरी पर कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए। समय देकर भी कमजोरियों को खत्म करना है। शक्तियों के प्रभाव की कमी होने के कारण चलते-फिरते सभी बातों में ढीलापन आ जाता है। इसलिए विनाश की तैयारियाँ भी फोर्स में होते फिर ढीले हो जाते हैं। जब स्थापना में फोर्स नहीं तो विनाश में फोर्स कैसे भर सकता है? जैसे शुरू में तुमको शक्तिपन का कितना नशा था! अपने ऊपर कड़ी नजर थी! यह विघ्न क्या है! माया क्या है! कितना कड़ा नशा था! अभी अपने ऊपर कड़ी नजर नहीं है। अपने कर्मों की गति पर अटेन्शन चाहिए। ड्रामा अनुसार नंबरवार तो बनना ही है। कोई न कोई कारण से नंबर नीचे होना ही है लेकिन फिर भी फोर्स भरने का कर्त्तव्य करना है। जैसे साकार रूप को देखा, कोई भी ऐसी लहर का समय जब आता था तो दिन-रात सकाश देने की विशेष सर्विस, विशेष प्लैन्स चलते थे, निर्बल आत्माओं को भले भरने का विशेष अटेन्शन रहता था, जिससे अनेक आत्माओं को अनुभव भी होता था। रात-रात को भी समय निकाल आत्माओं को सकाश भरने की सर्विस चलती थी। भरना है। तो अभी विशेष सकाश देने की सर्विस करनी है। लाइट-हाउस माइट-हाउस बनकर यह सर्विस खास करनी है, जो चारों ओर लाइट माइट का प्रभाव फैल जाए। अभी यह आवश्यकता है। जैसे कोई साहूकार होता है तो अपने नदीक सम्बन्धियों को मदद देकर ऊंचा उठा लेता है, ऐसे वर्तमान समय जो भी कमजोर आत्मायें सम्पर्क और सम्बन्ध में हैं उन्हों को विशेष सकाश देनी है। अच्छा!

निरन्तर देह का भान भूल जाए -- उसके लिए हरेक यथा शक्ति नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार मेहनत कर रहे हैं। पढ़ाई का लक्ष्य ही है देह- अभिमान से न्यारे हो देही-अभिमानी बनना। देह-अभिमान से छूटने के लिए मुख्य युक्ति यह है-सदा अपने स्वमान - में रहो तो देह-अभिमान मिटता जायेगा। स्वमान में स्व का भान भी रहता है अर्थात् आत्मा का भान। स्वमान - मैं कौन हूँ! अपने इस संगमयुग के और भविष्य के भी अनेक प्रकार के स्वमान जो समय प्रति समय अनुभव कराये गये हैं, उनमें से अगर कोई भी स्वमान में स्थित रहते रहें तो देह-अभिमान मिटता जाए। मैं ऊंच ते ऊंच ब्राह्मण हूँ - यह भी स्वमान है। सारे विश्व के अन्दर ब्रह्माण्ड और विश्व का मालिक बनने वाली मैं आत्मा हूँ - यह भी स्वमान है। जैसे आप लोगों को शुरू-शुरू में स्त्रपन के, देह के भान से परे होने का लक्ष्य रहता था; मैं आत्मा पुरूष हूँ- इस पुरूष के स्वभाव में स्थित कराने से स्त्रपन का भान नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार निकलता गया। ऐसे ही सदैव अपनी बुद्धि के अन्दर वर्तमान वा भविष्य स्वमान की स्मृति रहे तो देह-अभिमान नहीं रहेगा। सिर्फ शब्द चेन्ज होने से स्वमान से स्वभाव भी अच्छा हो जाता है। स्वभाव का टक्कर होता ही तब है जब एक दो को स्व का भान नहीं रहता। तो स्वमान अर्थात् स्व का मान, उससे एक तो देह-अभिमान समाप्त हो जाता है और स्वभाव में नहीं आयेंगे। साथ-साथ जो स्वमान में स्थित होता है उनको स्वत: ही मान भी मिलता है। आजकल दुनिया में भी मान से स्वमान मिलता है ना। कोई प्रेजीडेन्ट है, उनका मान बड़ा होने के कारण स्वमान भी ऐसा मिलता है ना। स्वमान से ही विश्व का महाराजन् बनेंगे और उनको विश्व सम्मान देंगे। तो सिर्फ अपने स्वमान में स्थित होने से सर्व प्राप्ति हो सकती है। इस स्वमान में स्थित वह रह सकता है जिनको, जो अनेक प्रकार के स्वमान सुनाये, उसका अनुभव होगा। ‘‘मैं शिव शक्ति हूँ’’-यह भी स्वमान है। एक होता है सुनना, एक होता है उस स्वमान-स्वरूप का अनुभव। तो अनुभव के आधार पर एक सेकेण्ड में देह- अभिमान से स्वमान में स्थित हो जायेंगे। जो अनुभवीमूर्त नहीं हैं, सिर्फ सुनकर के अभ्यास करते ही रहते हैं लेकिन अनुभवी अब तक नहीं बने हैं, उन्हों की स्टेज ऐसे ही होती है। एक अपने स्वमान की लिस्ट निकालो तो लिस्ट बड़ी है! उन एक-एक बात को लेकर अनुभव करते जाओ तो माया की छोटी-छोटी बातों में कमजोर नहीं बनेंगे। माया कमजोर बनाने के लिए पहले तो देह- अभिमान में लाती है। देह-अभिमान में ही न आयें तो कमजोरी कहाँ से आयेगी। तो सभी को अपने स्वमान की स्मृति दिलाओ और उस स्वरूप के अनुभवी बनाओ। जैसे समझते हो -- ‘‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ’’; तो संकल्प करने से स्थिति बन जाती है ना। लेकिन बनेगी उनकी जिनको अनुभव होगा। अनुभव नहीं तो स्थित होते-होते वह रह ही जाते हैं, स्थिति बन नहीं सकती और थकावट, मुश्किल मार्ग अनुभव करते हैं। कैसे करें - यह क्वेश्चन उठता है। लेकिन जो अनुभवीमूर्त हैं वह कड़ी परीक्षा आते समय भी अपने स्वमान में स्थित होने से सहज उसको कट कर सकते हैं। तो अपने स्वमान की स्मृति दिलाओ। अनुभवीमूर्त बनने की क्लास कराओ। जो आपके समीप सम्पर्क में आते हैं उन आत्माओं को यह अनुभव कराने का सहयोग दो। अभी आत्माओं को यह सहयोग चाहिए। जैसे साकार द्वारा अनुभवीमूर्त बनाने की सेवा होती रही है, ऐसे अभी आप लोगों के समीप जो आत्मायें हैं उन्हों की निर्बलता को, कमजोरियों को अपनी शक्तियों के सहयोग से उन्हें भी अनुभवीमूर्त बनाओ। चेक करो कि जिन आत्माओं के प्रति निमित बने हुए हैं वह आत्मायें स्वमान की स्थिति के अनुभवी हैं? अगर नहीं तो उन्हों को बनाना चाहिए। यह मेहनत करनी है। अगर राजधानी के समीप सम्बन्ध में आने वाली आत्मायें ही कमजोर होंगी तो प्रजा क्या होगी? ऐसी कमजोर आत्मायें सम्बन्ध में नहीं आ सकतीं। अब अपनी राजधानी को जल्दी-जल्दी तैयार करना है। पिछली प्रजा तो जल्दी बन जायेगी लेकिन जो राजाई के सम्बन्ध में, सम्पर्क में आने वाले हैं उन्हों को तो ऐसा बनाना है ना। ऐसा ध्यान हरेक स्थान पर निमित बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं को देना है। मेरे सम्पर्क में आने वाली कोई भी आत्मा इस स्थिति से वंचित न रह जाए, यह ध्यान रखना चाहिए। खुद ही अपने में कोई शक्ति का अनुभव अगर नहीं करते हैं तो औरों को क्या शक्ति दे सकेंगे? जो आत्मायें चाहती हैं, समीप आती हैं, समय देती हैं, सहयोगी बनी हुई हैं - ऐसी आत्माओं को अब मात-पिता द्वारा तो पालना नहीं मिल सकती, इसलिए निमित बनी हुई अनुभवी मूर्तियों द्वारा यह पालना मिले। अगर यह चेकिंग रखो तो कितनी आत्मायें ऐसी शक्तिशाली निकलेंगी? आधा हिस्सा निकलेंगी। जिन्होंने डायरेक्ट पालना ली है उन्हों में फिर भी अनुभवों की रसना भरी हुई है। औरों की यह पालना होनी आवश्यक है। तो हरेक टीचर को अपने क्लास का यह ध्यान रखना चाहिए। अच्छा!



02-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


प्रीत बुद्धि की निशानियाँ

भी अव्यक्त रूप में स्थित हो? यह तो जानते हो-अव्यक्ति मिलन अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने से ही कर सकते हो। अपने आप से पूछो- अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने के अनुभवीमूर्त कहाँ तक बने हैं? अव्यक्ति स्थिति में रहने वालों का सदा हर संकल्प, हर कार्य अलौकिक होता है। ऐसा अव्यक्ति भाव में, व्यक्त देश और कर्त्तव्य में रहते हुए भी कमल पुष्प के समान न्यारा और एक बाप का सदा प्यारा रहता है। ऐसे अलौकिक अव्यक्ति स्थिति में सदा रहने वाले को कहा जाता है अल्लाह लोग। टाइटिल तो और भी है। ऐसे को ही प्रीत बुद्धि कहा जाता है। प्रीत बुद्धि और विपरीत बुद्धि - दोनों के अनुभवी हो। इसलिए आप लोग मुख्य स्लोगन लिखते भी हो - विनाश काले प्रीत बुद्धि पाण्डव विजयन्ती और विनाश काले विपरीत बुद्धि विनशयन्ती। इस स्लोगन को सारे दिन में अपने आप से लगाते हो कि कितना समय प्रीत बुद्धि अर्थात् विजयी बनते हैं और कितना समय विपरीत होने से हार खा लेते हैं? जब माया से हार खाते हो तो क्या प्रीत बुद्धि हो? प्रीत बुद्धि अर्थात् विजयी। तो जब दूसरों को सुनाते हो कि विनाश काले विपरीत बुद्धि मत बनो; प्रीत बुद्धि बनो तो अपने को भी देखते हो कि इस समय हम प्रीत बुद्धि हैं वा विपरीत बुद्धि हैं? प्रीत बुद्धि वाला कब श्रीमत के विपरीत एक संकल्प भी नहीं उठा सकता। अगर श्रीमत के विपरीत संकल्प वा वचन वा कर्म होता है तो क्या उसको प्रीत बुद्धि कहेंगे? प्रीत बुद्धि अर्थात् बुद्धि की लगन वा प्रीत एक प्रीतम के साथ सदा लगी हुई हो। जब एक के साथ सदा प्रीत है तो अन्य किसी भी व्यक्ति वा वैभवों के साथ प्रीत जुट नहीं सकती, क्योंकि प्रीत बुद्धि अर्थात् सदा बापदादा को अपने सम्मुख अनुभव करेंगे। जब बाप सदा सम्मुख है, तो ऐसे सम्मुख रहने वाले कब विमुख नहीं हो सकते। विमुख होते हैं अर्थात् बाप सम्मुख नहीं है। प्रीत बुद्धि वाले सदैव बाप के सम्मुख रहने के कारण उनके मुख से, उनके दिल से सदैव यही बोल निकलते हैं-तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ, तुम्हीं से सुनूँ, तुम्हीं से सर्व सम्बन्ध निभाऊं, तुम्हीं से सर्व प्राप्ति करूं। उनके नैन, उनका मुखड़ा न बोलते हुए भी बोलते हैं। तो ऐसे विनाश काले प्रीत बुद्धि बने हो अर्थात् एक ही लगन में एकरस स्थिति वाले बने हाे? जैसे साकार रूप में, साकार देश में वरदान-भूमि में जब सम्मुख आते हो, तो जैसे सुना वैसे ही सदा प्रीत बुद्धि का अनुभव करते हो ना। अनुभव सुनाते हो ना। ऐसे ही बुद्धियोग द्वारा सदा बापदादा; के सम्मुख रहने का अभ्यास करो तो क्या सदा प्रीत बुद्धि नहीं बन सकते? जिसके सम्मुख है ही सदा बापदादा तो जैसे सूर्य के सामने देखने से सूर्य की किरणें अवश्य आती हैं; इसी प्रकार अगर ज्ञान-सूर्य बाप के सदा सम्मुख रहो तो ज्ञान-सूर्य के सर्व गुणों की किरणें अपने में अनुभव नहीं होंगी?

ज्ञान-सूर्य की किरणें न चाहते भी अपने में धारण होते हुए अनुभव करेंगे लेकिन तब जब बाप के सदा सम्मुख होंगे। जो सदा बाप को सम्मुख अनुभव करते हैं, उन्हों की सूरत पर क्या दिखाई देगा जिससे आप स्वयं ही समझ जायेंगे कि यह सदैव बाप के सम्मुख रहता है? जो साकार में भी सम्मुख रहते हैं उन्हों की सूरत पर क्या रहता है? साकार में सम्मुख रहने का तो सहज अनुभव कर सकते हो। बहुत पंराना शब्द है। रिवाइज कोर्स चल रहा है ना, तो पुराना शब्द भी रिवाइज हो रहा है। यह भी बुद्धि की ड्रिल है। बुद्धि में मनन करने की शक्ति आ जायेगी। अच्छा, एक तो उनकी सूरत पर अन्तर्मुखता की वा अन्तर्मुखी की झलक रहती है और दूसरा अपने संगमयुग की और भविष्य की सर्व स्वमान की फलक रहती है। समझा? एक झलक दिखाई देती है, दूसरा फलक दिखाई देती है। तो ऐसे सदैव न सिर्फ फलक दिखाई दे लेकिन झलक भी दिखाई दे, हर्षितमुख के साथ अन्तर्मुखी भी दिखाई दे - ऐसे को कहा जाता है सदा बाप के सम्मुख रहने वाले प्रीत बुद्धि। अगर सदा यह स्मृति रहे कि इस तन का किसी भी समय विनाश हो सकता है; तो यह विनाश काल स्मृति में रहने से प्रीत बुद्धि स्वत: हो ही जायेंगे। जब विनाश का काल आता है तो अज्ञानी भी बाप को याद करने का प्रयत्न रूर करते हैं लेकिन परिचय के बिना प्रीत जुट नहीं पाती। अगर यह सदा स्मृति में रखो कि यह अन्तिम घड़ी है, अन्तिम जन्म नहीं अन्तिम घड़ी है, यह याद रहने से और कोई भी याद नहीं आयेगा। फिर ऐसे सदा प्रीत बुद्धि हो? श्रीमत के विपरीत तो नहीं चलते हो? अगर मन्सा में भी श्रीमत के विपरीत व्यर्थ संकल्प वा विकल्प आते हैं तो क्या प्रीत बुद्धि कहेंगे? ऐसे सदा प्रीत बुद्धि रहने वाले विजयी रत्न बन सकेंगे। विजयी रत्न बनने के लिए अपने को सदा प्रीत बुद्धि बनाओ। नहीं तो ऊंच पद पाने के बजाय कम पद पाने के अधिकारी बन जायेंगे। तो सभी अपने को विजयी रत्न समझते हो? कहां भी किस प्रकार से कोई साथ प्रीत न हो, नहीं तो विपरीत बुद्धि की लिस्ट में आ जायेंगे। जैसे लोगों को प्रदर्शनी में संगम के चित्र पर खड़ा करके पूछते हो कि अभी आप कहां हो और कौन हो? संगम पर खड़ा करके क्यों पूछते हो? क्योंकि संगम है ऊंच ते ऊंच स्थान वा युग। इसी प्रकार अपने आप को ऊंची स्टेज पर खड़ा करो और फिर अपने आप से पूछो कि मैं सदा प्रीत बुद्धि हूँ? वा नहीं हूँ वा कभी प्रीत बुद्धि की लिस्ट में आते हो, कभी निकल जाते हो? अगर अब तक भी सदा प्रीत बुद्धि नहीं बने अर्थात् कहाँ न कहाँ सूक्ष्म रूप में वा स्थूल रूप में किस से भी, कहाँ भी प्रीत लगी हुई है। तो वर्तमान समय जबकि पढ़ाई का कोर्स समाप्त हो और रिवाइज कोर्स चल रहा है, तो इससे समझना चाहिए परीक्षा का समय कितना समीप है। जैसे आजकल कौरव गवर्मेन्ट भी बीच-बीच में पेपर लेकर उन्हों की मार्क्स फाइनल पेपर में जमा करती है, इसी प्रकार वर्तमान समय जो भी कर्म करते हो, समझो - प्रैक्टिकल पेपर दे रहे हैं और इस समय के पेपर की रिजल्ट फाइनल पेपर में जमा हो रही है। अभी थोड़े समय में यह भी अनुभव करेंगे - कोई भी विकर्म करने वाले को सूक्ष्म रूप में सजाओं का अनुभव होगा। जैसे प्रीत बुद्धि चलते-फिरते बाप, बाप के चरित्र और बाप के कर्त्तव्य की स्मृति में रहने से बाप के मिलने का प्रैक्टिकल अनुभव करते हैं, वैसे विपरीत बुद्धि वाले विमुख होने से सूक्ष्म सजाओं का अनुभव करेंगे। इसलिए फिर भी बापदादा पहले से ही सुना रहे हैं कि उन सजाओं का अनुभव बहुत कड़ा है। उनके सीरत से हरेक अनुभव कर सकेंगे कि इस समय यह आत्मा सजा भोग रही है। कितना भी अपने को छिपाने की कोशिश करेंगे लेकिन छिपा नहीं सकेंगे। वह एक सेकेण्ड की सजा अनेक जन्मों के दु:ख का अनुभव कराने वाली है। जैसे बाप के सम्मुख आने से एक सेकेण्ड का मिलन आत्मा के अनेक जन्मों की प्यास बुझा देता है, ऐसे ही विमुख होने वाले को भी अनुभव होगा। फिर उन सजाओं से छूटकर अपनी उस स्टेज पर आने में बहुत मेहनत लगेगी। इसलिए पहले से ही वार्निंग दे रहे हैं कि अब परीक्षा का समय चल रहा है। ऐसे फिर उल्हना नहीं देना कि हमें क्या मालूम कि इस कर्म की इतनी गुह्य गति है? इसलिए सूक्ष्म सजाओं से बचने के लिए अपने से ही अपने आप को सदा सावधान रखो। अब गफ़लत न करो। अगर जरा भी गफलत की तो जैसे कहावत है - एक का सौ गुणा लाभ भी मिलता है और एक का सौ गुणा दण्ड भी मिलता है, यह बोल अभी प्रैक्टिकल में नुभव होने वाले हैं। इसलिए सदा बाप के सम्मुख, सदा प्रीत बुद्धि बनकर रहो। अच्छा!

सदा सम्मुख रहने वाले लक्की सितारों को बापदादा भी नमस्ते करते हैं। अच्छा!



03-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वयं के जानने से संयम और समय की पहचान

जैसे बाप के लिए कहा हुआ है कि वह जो है, जैसा है, वैसा ही उनको जानने वाला सर्व प्राप्तियां कर सकता है। वैसे ही स्वयं को जानने के लिए भी जो हूँ, जैसा हूँ, ऐसा ही जान कर और मान कर सारा दिन चलते-फिरते हो? क्योंकि जैसे बाप को सर्व स्वरूपों से वा सर्व सम्बन्धों से जानना आवश्यक है, ऐसे ही बाप द्वारा स्वयं को भी ऐसा जानना आवश्यक है। जानना अर्थात् मानना। मैं जो हूँ, जैसा हूँ - ऐसे मानकर चलेंगे तो क्या स्थिति होगी? देह में विदेही, व्यक्त में होते अव्यक्त, चलते-फिरते फरिश्ता वा कर्म करते हुए कर्मातीत। क्योंकि जब स्वयं को अच्छी तरह से जान और मान लेते हैं; तो जो स्वयं को जानता है उस द्वारा कोई भी संयम अर्थात् नियम नीचे-ऊपर नहीं हो सकता। संयम को जानना अर्थात् संयम में चलना। स्वयं को मानकर के चलने वाले से स्वत: ही संयम साथ-साथ रहता है। उनको सोचना नहीं पड़ता कि यह संयम है वा नहीं, लेकिन स्वयं की स्थिति में स्थित होने वाला जो कर्म करता है, जो बोल बोलता है, जो संकल्प करता है वही संयम बन जाता है। जैसे साकार में स्वयं की स्मृति में रहने से जो कर्म किया वही ब्राह्मण परिवार का संयम हो गया ना। यह संयम कैसे बने? ब्रह्मा द्वारा जो कुछ चला वही ब्राह्मण परिवार के लिए संयम बना। तो स्वयं की स्मृति में रहने से हर कर्म संयम बन ही जाता है और साथ-साथ समय की पहचान भी उनके सामने सदैव स्पष्ट रहती है। जैसे बड़े आफीसर्स के सामने सारा प्लैन होता है, जिसको देखते हुए वह अपनी-अपनी कारोबार चलाते हैं। जैसे एरोप्लेन वा स्टीमर चलाने वालों के पास अपने-अपने प्लैन्स होते हैं जिससे वह रास्ते को स्पष्ट समझ जाते हैं। इसी प्रकार जो स्वयं को जानता है उससे संयम आटोमेटिकली चलते रहते हैं और समय की पहचान भी ऐसे स्पष्ट होती है। सारा दिन स्वयं जो है, जैसा है वैसी स्मृति रहती है। इसलिए गाया हुआ भी है - जो कर्म मैं करूंगा मुझे देख सभी करेंगे। तो ऐसे स्वयं को जानने वाला जो कर्म करेगा वही संयम बन जायेगा। उनको देख सभी फालो करेंगे। ऐसी स्मृति सदा रहे। पहली स्टेज जो होती है उसमें पुरूषार्थ करना पड़ता है, हर कदम में सोचना पड़ता है कि यह राइट है वा रॉंग है, यह हमारा संयम है वा नहीं? जब स्वयं की स्मृति में सदा रहते हैं तो नेचरल हो जाता है। फिर यह सोचने की आवश्यकता नहीं रहती। कब भी कोई कर्म बिना संयम के हो नहीं सकता। जैसे साकार में स्वयं के नशे में रहने के कारण अथॉरिटी से कह सकते थे कि अगर साकार द्वारा उलटा भी कोई कर्म हो गया तो उसको भी सुलटा कर देंगे। यह अथॉरिटी है ना। उतनी अथॉरिटी कैसे रही? स्वयं के नशे से। स्वयं के स्वरूप की स्मृति में रहने से यह नशा रहता है कि कोइ भी कर्म उलटा हो ही नहीं सकता। ऐसा नशा नंबरवार सभी में रहना चाहिए। जब फालो फादर है तो फालो करने वालों की यह स्टेज नहीं आयेगी? इसको भी फालो करेंगे ना। साकार रूप फिर भी पहली आत्मा है ना। जो फर्स्ट आत्मा ने निमित बनकर के दिखाया, तो उनको सेकेण्ड, थर्ड जो नंबरवार आत्माएं हैं वह सभी बात में फालो कर सकती हैं। निराकार स्वरूप की बात अलग है। साकार में निमित बनकर के जो कुछ करके दिखाया वह सभी फालो कर सकते हैं नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार। इसी को कहा जाता है अपने में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि। जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि बनते हैं, तो बाप के साथ-साथ स्वयं में भी इतना निश्चयबुद्धि रूर बनें। स्वयं की स्मृति का नशा कितना रहता है? जैसे साकार रूप में निमित बन हर कर्म संयम के रूप में करके दिखाया, ऐसे प्रैक्टिकल में आप लोगों को फालो करना है। ऐसी स्टेज है? जैसे गाड़ी अगर ठीक पट्टे पर चलती है तो निश्चय रहता है - एक्सीडेंट हो नहीं सकता। बेफिक्र हो चलाते रहेंगे। वैसे ही अगर स्वयं की स्मृति का नशा है, फाउन्डेशन ठीक है तो कर्म और वचन संयम के बिना हो नहीं सकता। ऐसी स्टेज समीप आ रही है। इसको ही कहा जाता है सम्पूर्ण स्टेज के समीप। इस स्वमान में स्थित होने से अभिमान नहीं आता। जितना स्वमान उतनी निर्माणता। इसलिए उनको अभिमान नहीं रहेगा। जैसे निश्चय की विजय अवश्य है, इसी प्रकार ऐसे निश्चयबुद्धि के हर कर्म में विजय है; अर्थात् हर कर्म संयम के प्रमाण है तो विजय है ही है। ऐसे अपने को चेक करो - कहाँ तक इस स्टेज के नजदीक हैं? जब आप लोग नजदीक आयेंगे तब फिर दूसरों के भी नंबर नजदीक आयेंगे। दिन-प्रतिदिन ऐसे परिवर्तन का अनुभव तो होता होगा। वेरीफाय कराना, एक दो को रिगार्ड देना वह दूसरी बात है लेकिन अपने में निश्चय रख कोई से पूछना वह दूसरी बात है। वह जो कर्म करेगा निश्चयबुद्धि होगा। बाप भी बच्चों को रिगार्ड देकर के राय-सलाह देते हैं ना। ऐसी स्टेज को देखना है कितना नजदीक आये हैं? फिर यह संकल्प नहीं आयेगा - पता नहीं यह राइट है वा रॉंग है; यह संकल्प मिट जायेगा क्योंकि मास्टर नॉलेजफुल हो। स्वयं के नशे में कमी नहीं होनी चाहिए। कारोबार के संयम के प्रमाण एक दो को रिगार्ड देना - यह भी एक संयम है। ऐसी स्टेज है, जैसे एक सैम्पल रूप में देखा ना! तो साकार द्वारा देखी हुई बातों को फालो करना तो सहज है ना। तो ऐसी स्टेज समानता की आ रही है ना। अभी ऐसे महान् और गुह्य गति वाला पुरूषार्थ चलना है। साधारण पुरूषार्थ नहीं। साधारण पुरूषार्थ तो बचपन का हुआ। लेकिन अब विशेष आत्माओं के लिए विशेष ही है। अच्छा!



05-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नशा और निशाना

क सेकेण्ड में अपने को अपने सम्पूर्ण निशाने और नशे में स्थित कर सकते हो? सम्पूर्ण निशाना क्या है, उसको तो जानते हो ना। जब सम्पूर्ण निशाने पर स्थित हो जाते हैं, तो नशा तो रहता ही है। अगर निशाने पर बुद्धि नहीं टिकती तो नशा भी नहीं रहेगा। निशाने पर स्थित होने की निशानी है नशा। तो ऐसा नशा सदैव रहता है? जो स्वयं नशे में रहते हैं वह दूसरों को भी नशे में टिका सकते हैं। जैसे कोई हद का नशा पीते हैं तो उनकी चलन से, उनके नैन-चैन से कोई भी जान लेता है -- इसने नशा पिया हुआ है। इसी प्रकार, यह जो सभी से श्रेष्ठ नशा है, जिसको ईश्वरीय नशा कहा जाता है, इसी में स्थित रहने वाला भी दूर से दिखाई तो देगा ना। दूर से ही वह अवस्था इतना महसूस करें - यह कोई ईश्वरीय लगन में रहने वाली आत्मायें हैं! ऐसे अपने को महसूस करते हो? जैसे आप कहां भी आते- जाते हो, तो लोग देखने से ही समझें कि यह कोई प्रभु की प्यारी न्यारी आत्मायें हैं। ऐसे अनुभव करते हैं? भक्ति-मार्ग में भी ऐसी आत्मायें होती हैं। उन्हों के नैन-चैन से प्रभु-प्रेमी देखने आते हैं। तो ऐसी स्थिति इसी दुनिया में रहते हुए, ऐसी कारोबार में चलते हुए समझते हो कि यह अवस्था रहेगी या सिर्फ लास्ट में दर्शन-मूर्त की यह स्टेज होगी? क्या समझते हो - क्या अन्त तक साधारण रूप ही रहेगा वा यह झलक चेहरों से दिखाई देगी? वा सिर्फ लास्ट टाइम जैसे पर्दे के अन्दर तैयार हो फिर पर्दा खुलता है और सीन सामने आकर समाप्त हो जाती है, ऐसे होगा? कुछ समय यह झलक दिखाई देगी। कई ऐसे समझते हैं कि जब फर्स्ट, सेकेण्ड आत्मायें जो निमित बनीं वही साधारण गुप्त रूप अपना साकार रूप का पार्ट समाप्त कर चले गये तो हम लोगों की झलक फिर क्या दिखाई देगी? लेकिन नहीं। ‘सन शोज फादर’ गाया हुआ है। तो फादर का शो बच्चे प्रैक्टिकल में लाने से ही करेंगे। ‘अहो प्रभु’ की पुकार जो आत्माओं की निकलेगी वा पश्चाताप की लहर जो आत्माओं में आयेगी वह कब, कैसे आयेगी? जिन्होंने साकार में अनुभव ही नहीं किया उन्हों को भी बाप के परिचय से कि हम बाबा के बच्चे हैं, यह कब मानेंगे कि बरोबर बाप आये लेकिन हम लोगों ने कुछ नहीं पाया? तो यह प्रैक्टिकल रूहानी झलक और फरिश्तेपन की फलक चेहरे से, चलन से दिखाई दे। अपने को और आप निमित बनी हुई आत्माओं की स्टेज को देखते हुए अनुभव करेंगे - बाप ने इन्हों को क्या बनाया! और फिर पश्चाताप करेंगे। अगर यह झलक नहीं देखते तो क्या समझेंगे? इतना समय ज्ञान तो नहीं लेंगे जो नॉलेज से आपको जानें। तो यह प्रैक्टिकल चेहरे से झलक और फलक दिखाई देगी। बाप के तो महावाक्य ही हैं कि मैं बच्चों के आगे प्रत्यक्ष होता हूँ। लेकिन विश्व के आगे कौन प्रख्यात होंगे? वह साकार में बाप का कर्त्तव्य था, प्रैक्टिकल में बच्चों का कर्त्तव्य है प्रख्यात होने का और बाप का कर्त्तव्य है बैकबोन बनने का, गुप्त रूप में मददगार बनने का। इसलिए ऐसे भी नहीं कि जैसे मात-पिता का गुप्त पार्ट चला वैसे ही अन्त तक गुप्त वातावरण रहेगा। जयजयकार शक्तियों की गाई हुई है और ‘अहो प्रभु’ की पुकार बाप के लिए गाई हुई है। आप लोग आपस में भी एक दो के अनुभव करते होंगे - जब विशेष अटेन्शन अपने निशाने वा नशा का रहता है, तो भले कितने भी बड़े संगठन में बैठे होंगे तो भी सभी को विशेष कुछ दिखाई रूर देगा। महसूस करेंगे कि यह समय याद में बहुत अच्छा बैठे। अभी जो साधारण अटेन्शन है वह बदलकर नेचरल विशेष अटेन्शन हो जायेगा और चेहरे से झलक-फलक दिखाई देगी। सिर्फ स्मृति को शक्तिशाली बनाना है। अच्छा!



27-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होलीहंस बनने का यादगार – होली

प हैं सदा बाप के संग में रहने वाली, रूहानी रंग में रंगी हुई आत्मायें होली हंस। जो सदा होली रहते हैं -- उन्हों के लिए सदा होली ही है। तो सदा ब्प के स्नेह, सहयोग और सर्व शक्तियों के रंग में बाप समान रहने वाली आत्मायें सदाकाल की होली मनाते हो वा अल्पकाल की? सदा होली मनाने वाले सदा बाप के साथ मिलन मनाते रहते हैं। सदा अतीन्द्रिय सुख में वा अविनाशी खुशी में झूमते और झूलते रहते हैं। ऐसे ही स्थिति में स्थित रहने वाले होली हंस हो? लोग अपने को उत्साह में लाने के लिए हर उत्सव का इन्तजार करते हैं; क्योंकि उत्सव उनमें अल्पकाल का उत्साह लाता है। लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए हर दिन तो क्या हर सेकेण्ड उत्सव अर्थात् उत्साह दिलाने वाला है। अविनाशी अर्थात् निरन्तर उत्सव ही उत्सव है, क्योंकि आप के उत्साह में अन्तर नहीं आता है, तो निरन्तर हो गया ना। तो होली मनाने के लिए आये हो वा होली बनकर होलीएस्ट व स्वीटेस्ट बाप से मिलन मनाने आये हो वा अपने सदा संग में रहने के रंग का रूहानी रूप दिखाने आये हो? होली में अल्पकाल की मस्ती में मस्त हो जाते हैं। तो क्या अपने अविनाशी ईश्वरीय मस्ती का स्वरूप अनुभव करते हो? जैसे होली की मस्ती में मस्त होने कारण अपने सम्बन्ध अर्थात् बड़े छोटे के भान को भूल जाते हैं, आपस में एक समान समझकर मस्ती में खेलते हैं, मन के अन्दर जो भी दुश्मनी के संस्कार एक दो के प्रति होते हैं वह अल्पकाल के लिए सभी भूल जाते हैं क्योंकि मंगल मिलन दिवस मनाते हैं। यह विनाशी रीति-रस्म कहां से चली? यह रस्म चलाने के निमित्त कौन बने? आप ब्राह्मण। अब भी जब होली अर्थात् पवित्रता की स्टेज पर ठहरते हो वा बाप के संग के रंग में रंगे हुए होते हो तो इस ईश्वरीय मस्ती में यह देह का भान वा भिन्न-भिन्न सम्बन्ध का भान, छोटे-बड़े का भान विस्मृत हो एक ही आत्म-स्वरूप का भान रहता है ना। तो आपके सदाकाल की स्थिति का यादगार दुनिया के लोग मना रहे हैं। ऐसी खुमारी वा खुशी रहती है कि हमारी ही प्रत्यक्ष स्थिति का प्रमाण स्वरूप यह यादगार देख रहे हैं? यादगार को देखते हुए अपनी कल्प पहले वाली की हुई एक्टिविटी याद आती है वा वर्तमान समय प्रैक्टिकल में अपने किये हुए ईश्वरीय चरित्र का साक्षात्कार इन यादगार रूप दर्पण में करते रहते हो? अपने चरित्रों का यादगार देखते हो ना। अपनी स्थिति का वर्णन अन्य आत्माओं द्वारा गायन के रूप में सुनते हो ना। अपने चैतन्य रूहानी रूप का, चरित्रों का यादगार भी देख रहे हो। यह सभी देखते हुए, सुनते हुए क्या अनुभव करते हों? क्या यह समझते हो कि यह मैं ही तो हूँ? ऐसे अनुभव करते हों वा यह समझते हो कि यह यादगार किन विशेष आत्माओं का है? जैसे साकार रूप में यह निश्चय हर कर्म में देखा कि अपने भविष्य यादगार को देखते हुए सदा यह खुमारी और खुशी थी कि यह मैं ही तो हूँ, ऐसे ही आप सभी को यादगार चित्र देखते हुए वा चरित्र सुनते हुए वा गुणों का गायन सुनते हुए यह खुमारी और खुशी रहती है कि यह मैं ही तो हूँ? यह सदा स्मृति में रहना चाहिए कि अभी-अभी हम प्रत्यक्ष रूप में पार्ट बजा रहे हैं और अभी-अभी अपने पार्ट का यादगार भी देख रहे हैं। सारे कल्प के अन्दर ऐसी कोई आत्माएं हैं जो अपना यादगार अपनी स्मृति में देखें? यूं तो देखते सभी हैं लेकिन स्मृति तो नहीं रहती है ना। सिर्फ आप आत्माओं का ही पार्ट है जो इस स्मृति से अपनी यादगार को देखते हो। तो स्मृति से अपनी यादगार को देखते हुए क्या होना चाहिए? (कोई-कोई ने बताया) विजयी तो हो ही। विजय का तिलक लगा हुआ है। जैसे गुरूओं पास वा पण्डितों के पास जाते हैं तो वह तिलक लगाते हैं, यहाँ भी आने से ही, बच्चे बनने से ही पहले-पहले स्व- स्मृति द्वारा सदा विजयी बनने का तिलक बापदादा द्वारा लग ही जाता है। इसलिए पण्डित भी तिलक लगा देते हैं। सभी रस्म ब्राह्मणों द्वारा ही अब चलती हैं। ब्राह्मणों का पिता रचयिता तो साथ है ही। बच्चे शब्द ही बाप को सिद्ध कर देता है। बलिहार जाने वाले की हार नहीं होती है। स्मृति समर्थी को लाती है और समर्थी में आने से ही कार्य सफल होते हैं। अथवा जो सुनाया -- खुशी, मस्ती, नशा वा निशाना सभी हो जाता है। यह सभी बातें गायब होने कारण निर्बलता है। विस्मृति के कारण असमर्थी। तो स्मृति से समर्थी आने से सभी सिद्धि प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। स्व- स्मृति में रहने वाला सदैव जो भी कार्य करेगा वा जो भी संकल्प करेगा उसमें उसको सदा निश्चय रहता है कि यह कार्य वा यह संकल्प सिद्ध हुआ ही पड़ा है अर्थात् ऐसा निश्चयबुद्धि अपनी विजय वा सफलता निश्चित समझ कर चलता है। निश्चय ही है, जो ऐसे निश्चित सफ़लता समझकर चलने वाले हैं उनकी स्थिति कैसी रहेगी? उनके चेहरे में क्या विशेष झलक दिखाई देगी? निश्चय तो सुनाया कि निश्चय होगा-विजय हमारी निश्चित है; लेकिन उनके चेहरे पर क्या दिखाई देगा? जब विजय निश्चित है तो निश्चिन्त रहेगा ना। कोई भी बात में चिन्ता की रेखा दिखाई नहीं देगी। ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी, निश्चित और सदा निश्चिन्त रहने वाले हो? अगर नहीं तो निश्चयबुद्धि 100% कैसे कहेंगे? 100% निश्चयबुद्धि अर्थात् निश्चित विजयी और निश्चिन्त। अब इससे अपने आपको देखो कि 100% सभी बातों में निश्चय बुद्धि हैं? सिर्फ बाप में निश्चय को भी निश्चय बुद्धि नहीं कहा जाता। बाप में निश्चयबुद्धि, साथ-साथ अपने आप में भी निश्चयबुद्धि होने चाहिए और साथ-साथ जो भी ड्रामा के हर सेकेण्ड की एक्ट रिपीट हो रही है-उसमें भी 100% निश्चयबुद्धि चाहिए - इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि। जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि हो ना। उसमें संशय की बात नहीं। सिर्फ एक में पास नहीं होना है। अपने आप में भी इतना ही निश्चय होना चाहिए कि मैं भी वही कल्प पहले वाली, बाप के साथ पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ और साथ- साथ ड्रामा के हर पार्ट को भी इसी स्थिति से देखें कि हर पार्ट मुझ श्रेष्ठ आत्मा के लिए कल्याणकारी है। जब यह तीनों प्रकार के निश्चय में सदा पास रहते हैं, ऐसे निश्चयबुद्धि ही मुक्ति और जीवन-मुक्ति में बाप के पास रहते हैं। ऐसे निश्चयबुद्धि को कब क्वेश्चन नहीं उठता। ‘‘क्यों, क्या’’ की भाषा निश्चयबुद्धि की नहीं होती। क्यों के पीछे क्यू लगती है; तो क्यू में भक्त ठहरते, ज्ञानी नहीं। आपके आगे तो क्यू लगनी है ना। क्यू में इन्तजार करना होता है। इन्तजार की घड़ियां अब समाप्त हुईं। इन्तजार की घड़ियां हैं भक्तों की। ज्ञान अर्थात् प्राप्ति की घड़ियां, मिलन की घड़ियां। ऐसे निश्चयबुद्धि हो ना। ऐसे निश्चय बुद्धि आत्माओं की यादगार यहां ही दिखाई हुई है। अपनी यादगार देखी है? अचल घर देखा है? जो सदा सर्व संकल्पों सहित बापदादा के ऊपर बलिहार हैं उन्हों के आगे माया कब वार नहीं कर सकती। ऐसे माया के वार से बचे हुए रहते हैं। बच्चे बन गये तो बच गये। बच्चे नहीं तो माया से भी बच नहीं सकते। माया से बचने की युक्ति बहुत सहज है। बच्चे बन जाओ, गोदी में बैठ जाओ तो बच जायेंगे। पहले बचने की युक्ति बताते हैं, फिर भेजते हैं। बहादुर बनाने लिए ही भेजते हैं, हार खाने लिए नहीं, खेल खेलने लिए, जब अलौकिक जीवन में हो, अलौकिक कर्म करने वाले हो, तो इस अलौकिक जीवन में खिलौने सभी अलौकिक हैं जो सिर्फ इस अलौकिक युग में ही अनुभव करते हो। यह तो खिलौने हैं जिससे खेलना है, न कि हारना है। तन्दुरूस्ती वा शारीरिक शक्ति के लिए भी खेल कराया जाता है ना। अलौकिक युग में अलौकिक बाप द्वारा यह अलौकिक खेल है, ऐसे समझकर खेलो तो फिर डरेंगे, घबरायेंगे नहीं, परेशान नहीं होंगे, हार नहीं खायेंगे। सदा इसी शान में रहो। तो यह हैं अलौकिक खिलौने खेलने के लिए। इस ईश्वरीय शान में रहने से सहज ही देह का भान खत्म हो जायेगा। ईश्वरीय शान से नीचे उतरते हो तब देह-अभिमान में आते हो। तो सदाकाल के संग से संग का रंग लगाओ। हर सेकेण्ड बाप से मिलन मनाते हर रोज अमृतवेले से मस्तक पर विजय का तिलक जो लगा हुआ है उसको देखो। अपने चार्ट रूपी दर्पण में, जैसे अमृतवेले उठकर शरीर का श्रृंगार करते हो ना, वैसे पहले बाप द्वारा मिली हुई सर्व शक्तियों से आत्मा का श्रृंगार करो। जो श्रृंगार किये हुए होंगे वह संहारीमूर्त भी होंगे। सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ आत्मायें हो ना। श्रेष्ठ आत्माओं का श्रृंगार भी श्रेष्ठ होता है। आपके जड़ चित्र सदा श्रृंगारे हुए रहते हैं। शक्तियों वा देवियों के चित्र में श्रृंगारमूर्त और संहारीमूर्त दोनों हैं। तो रोज अमृतवेले साक्षी बन आत्मा का श्रृंगार करो। करने वाले भी आप हो, करना भी अपने आप को ही है। फिर कोई भी प्रकार की परिस्थितियों में डगमग नहीं होंगे, अडोल रहेंगे। ऐसे को होली हंस कहा जाता है। लोग होली मनाते हैं लेकिन आप स्वयं होली हंस हो। अच्छा! ऐसे होली हंसों को होलीएस्ट बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।


 

28-02-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त बापदादा के साथ बच्चों की मुलाक़ात

जैसे परीक्षा का समय नजदीक आता जा रहा है तो अपने सम्पूर्ण स्थिति का भी प्रत्यक्ष साक्षात्कार वा अनुभव प्रत्यक्ष रूप में होता जाता है? जैसे नंबरवन आत्मा अपने सम्पूर्ण स्टेज का चलते-फिरते प्रैक्टिकल रूप में अनुभव करते थे, वैसे आप लोगों को अपनी सम्पूर्ण स्टेज बिल्कुल समीप और स्पष्ट अनुभव होती है? जैसे पुरुषार्थी ब्रह्मा और सम्पूर्ण ब्रह्मा - दोनों ही स्टेज स्पष्ट थी ना। वैसे आप लोगों को अपनी सम्पूर्ण स्टेज इतनी स्पष्ट और समीप अनुभव होती है? अभी-अभी यह स्टेज है, फिर अभी-अभी वह होंगी - यह अनुभव होता है? जैसे साकार में भविष्य का भी अभी-अभी अनुभव होता था ना। भले कितना भी कार्य में तत्पर रहते हैं लेकिन अपने सामने सदैव सम्पूर्ण स्टेज होनी चाहिए कि उस स्टेज पर बस पहुँचे कि पहुँचे। जब आप सम्पूर्ण स्टेज को समीप लावेंगे तो वैसे ही समय भी समीप आवेगा। समय आपको समीप लायेगा वा आप समय को समीप लायेंगी, क्या होना है? उस तरफ से समय समीप आयेगा, इस तरफ से आप समीप होंगे। दोनों का मेल होगा। समय कब भी आये लेकिन स्वयं को सदैव सम्पूर्ण स्टेज के समीप लाने के पुरूषार्थ में ऐसा तैयार रखना चाहिए जो समय की इन्तजार आपको न करनी पड़े। पुरुषार्थी को सदैव एवर रेडी रहना है। किसको इन्तजार न करना पड़े। अपना पूरा इन्तजाम होना चाहिए। हम समय को समीप लायेंगे, न कि समय हमको समीप लायेगा - नशा यह होन् चाहिए। जितना अपने सामने सम्पूर्ण स्टेज समीप होती जावेगी उतनी विश्व की आत्माओं के आगे आपकी अन्तिम कर्मातीत स्टेज का साक्षात्कार स्पष्ट होता जयेगा। इससे जज कर सकते हो कि साक्षात्कारमूर्त बन विश्व के आगे साक्षात्कार कराने का समय नजदीक है वा नहीं। समय तो बहुत जल्दी-जल्दी दौड़ लगा रहा है। 10 वर्ष कहते-कहते 24 वर्ष तक पहुँच गये हैं। समय की रफ़्तार अनुभव से तेज तो अनुभव होती है ना। इस हिसाब से अपनी सम्पूर्ण स्टेज भी स्पष्ट और समीप होनी चाहिए। जैसे स्कूल में भी स्टेज होती है तो सामने देखते ही समझते हैं कि इस पर पहुँचना है। इसी प्रमाण सम्पूर्ण स्टेज भी ऐसे सहज अनुभव होनी चाहिए। इसमें क्या चार वर्ष लगेंगे वा 4 सेकेण्ड? है तो सेकेण्ड की बात। अब सेकेण्ड में समीप लाने की स्कीम बनाओ वा प्लैन बनाओ। प्लैन बनाने में भी टाइम लग जावेगा लेकिन उस स्टेज पर उपस्थित हो जायें तो समय नहीं लगेगा। प्रत्यक्षता समीप आ रही है, यह तो समझते हो। वायुमंडल और वृत्तियां परिवर्तन में आ रही हैं। इससे भी समझना चाहिए कि प्रत्यक्षता का समय कितना जल्दी-जल्दी आगे आ रहा है। मुश्किल बात सरल होती जा रही है। संकल्प तो सिद्ध होते जा रहे हैं। निर्भयता और संकल्प में दृढ़ता - यह है सम्पूर्ण स्टेज के समीप की निशानी। यह दोनों ही दिखाई दे रहे हैं। संकल्प के साथ-साथ आपकी रिजल्ट भी स्पष्ट दिखाई दे। इसके साथ-साथ फल की प्राप्ति भी स्पष्ट दिखाई दे। यह संकल्प है यह इसकी रिजल्ट। यह कर्म है यह इनका फल। ऐसा अनुभव होता है। इसको ही प्रत्यक्षफल कहा जाता है। अच्छा!

जैसे बाप के तीन रूप प्रसिद्ध हैं, वैसे अपने तीनों रूपों का साक्षात्कार होता रहता है? जैसे बाप को अपने तीनों रूपों की स्मृति रहती है, ऐसे ही चलते-फिरते अपने तीनों रूपों की स्मृति रहे कि हम मास्टर त्रिमूर्ति हैं। तीनों कर्त्तव्य इकट्ठे साथ-साथ चलने चाहिए। ऐसे नहीं-स्थापना का कर्त्तव्य करने का समय अलग है, विनाश का कर्त्तव्य का समय अलग है, फिर और आना है। नहीं। नई रचना रचते जाते हैं और पुरानी का विनाश। आसुरी संस्कार वा जो भी कमजोरियाँ हैं उनका विनाश भी साथ-साथ करते जाना है। नये संस्कार ला रहे हैं, पुराने संस्कार खत्म कर रहे हैं। तो सम्पूर्ण और शक्ति रूप, विनाशकारी रूप न होने कारण सफ़लता न हो पाती है। दोनों ही साथ होने से सफ़लता हो जाती है। यह दो रूप याद रहने से देवता रूप आपेही आवेगा। दोनों रूप के स्मृति को ही फाइनल पुरूषार्थ की स्टेज कहेंगे। अभी-अभी ब्राह्मण रूप अभी- अभी शक्ति रूप। जिस समय जिस रूप की आवश्यकता है उस समय वैसा ही रूप धारण कर कर्त्तव्य में लग जायें - ऐसी प्रैक्टिस चाहिए। वह प्रैक्टिस तब हो सकेगी जब एक सेकेण्ड में देही-अभिमानी बनने का अभ्यास होगा। अपनी बुद्धि को जहाँ चाहें वहाँ लगा सकें - यह प्रैक्टिस बहुत रूरी है। ऐसे अभ्यासी सभी कार्य में सफल होते हैं। जिसमें अपने को मोल्ड करने की शक्ति है वही समझो रीयल गोल्ड है। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को जहाँ चाहे मोड़ सकते हो ना। अगर नहीं मुड़ती तो इसको बीमारी समझती हो। बुद्धि को भी ऐसे इजी मोड़ सकें। ऐसे नहीं कि बुद्धि हमको मोड़ ले जाये। ऐसे सम्पूर्ण स्टेज का यादगार भी गाया हुआ है। दिन-प्रति-दिन अपने में परिवर्तन का अनुभव तो होता है ना। संस्कार वा स्वभाव वा कमी को देखते हैं तब नीचे आ जाते। तो अब दिन-प्रति-दिन यह परिवर्तन लाना है। कोई का भी स्वभाव- संस्कार देखते हुए, जानते हुए उस तरफ बुद्धियोग न जाये। और ही उस आत्मा के प्रति शुभ भावना हो। एक तरफ से सुना, दूसरे तरफ से खत्म।



04-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अधिकारी बनने के लिए अधीनता छोडो

आज विशेष किसके लिए आये हैं, जानती हो? भविष्य में विशेषता दिखलाने वाली विशेष आत्माओं के प्रति। अपने को विशेष आत्मायें अर्थात् विशेषता दिखलाने वाली समझती हो? ऐसा विशेष कौनसा कार्य करके दिखायेंगी जो अब तक कोई ग्रुप ने न करके दिखाया हो? इसका कोई प्लैन सोचा है? ‘पास विद् ऑनर’ बनने का लक्ष्य और बाप का शो दिखलाने का लक्ष्य तो सभी का ही है लेकिन आप लोग विशेष क्या नवीनता दिखायेंगी? नवीनता वा विशेषता यही दिखाना वा दिखाने का निश्चय करना - कि कोई भी विघ्न में वा कोई भी कार्य में मेहनत न लेकर और ही अन्य आत्माओं को भी निर्विघ्न और हर कार्य में मददगार बनाते सहज ही सफलता- मूर्त बनेंगे और बनायेंगे। अर्थात् सदा सहजयोग, सदा बाप के स्नेही, बाप के कार्य में सहयोगी, सदा सर्व शक्तियों को धारण करते हुए श्रृंगार-मूर्त, शस्त्रधारी शक्ति बन अपने चित्र से, चलन से बाप के चरित्र और कर्त्तव्य को प्रत्यक्ष करना है। ऐसी प्रतिज्ञा अपने से की है? छोटी-छोटी बातों में मेहनत तो नहीं लेंगे? किसी भी माया के आकर्षित रूप में धोखा तो नहीं खायेंगे? जो स्वयं धोखा खा लेते हैं वह औरों को धोखे से छुड़ा नहीं पाते। सदैव यही स्मृति रखो कि हम दुःख-हर्ता सुख-कर्ता के बच्चे हैं। किसके भी दुःख को हल्का करने वाले स्वयं कब भी, एक सेकेण्ड वे लिए भी, संकल्प वा स्वप्न में भी दुःख की लहर में नहीं आ सकते हैं। अगर संकल्प में भी दुःख की लहर आती है तो सुख के सागर बाप की सन्तान कैसे कहला सकते हैं? क्या बाप की महिमा में यह कब वर्णन करते हो कि सुख का सागर हो लेकिन कब-कब दु:ख की लहर भी आ जाती है? तो बाप समान बनना है ना। दु:ख की लहर आती है अर्थात् कहां न कहां माया ने धोखा दिया। तो ऐसी प्रतिज्ञा करनी है। शक्ति रूप नहीं हो क्या? शक्ति कैसे मिलेगी? अगर सदा बुद्धि का सम्बन्ध एक ही बाप से लगा हुआ है तो सम्बन्ध से सर्व शक्तियों का वर्सा अधिकार के रूप में अवश्य प्राप्त होता है, लेकिन अधिकारी समझकर हर कर्म करते रहें तो कहने वा संकल्प में मांगने की इच्छा नहीं रहेगी। अधिकार प्राप्त न होने कारण, कहां न कहां किसी प्रकार की अधीनता है। अधीनता होने के कारण अधिकार प्राप्त नहीं होता है। चाहे अपने देह के भान की अधीनता हो, चाहे पुराने संस्कारों के अधीन हो, चाहे कोई भी गुणों की धारणा की कमी के कारण निर्बलता वा कमजोरी के अधीन हो, इसलिए अधिकार का अनुभव नहीं कर पाते। तो सदैव यह समझो कि हम अधीन नहीं, अधिकारी हैं। पुराने संस्कारों पर, माया के ऊपर विजय पाने के अधिकारी हैं। अपने देह के भान वा देह के सम्बन्ध वा सम्पर्क जो भी हैं उनके ऊपर विजय पाने के अधिकारी हैं। अगर यह अधिकारीपन सदैव स्मृति में रहे तो स्वत: ही सर्व शक्तियों का, प्राप्ति का अनुभव होता रहेगा। अधिकारीपन भूल जाता है? जो अधीन होता है वह सदैव मांगता रहता है, अधिकारी जो होता है वह सदैव सर्व प्राप्ति-स्वरूप रहता है। बाप के पास सर्व शक्तियों का खज़ाना किसके लिए है? तो जो जिन्हों की चीज़ है वह प्राप्त न करें? यही नशा सदैव रहे कि सर्व शक्तियां तो हमारा जन्म-सिद्ध-अधिकार है। तो अधिकारी बनकर के चलो। ऐसा सदैव बुद्धि में श्रेष्ठ संकल्प रहना चाहिए। अगर संकल्प श्रेष्ठ है तो वचन और कर्म में भी नहीं आ सकते। इसलिए संकल्प को श्रेष्ठ बनाओ और सदैव सर्वशक्तिवान बाप के साथ बुद्धि का संग हो। ऐसे सदैव संग के रंग में रंगे हुए हो? अनुभव करते हो वा अभी जाने के बाद अनुभव करेंगे? सदैव यही समझो कि सोचना है वा बोलना है वा करना है तो कमाल का, कामन नहीं। अगर कामन अर्थात् साधारण संकल्प किये तो प्राप्ति भी साधारण होगी। जैसे संकल्प वैसी सृष्टि बनेगी ना। अगर संकल्प ही श्रेष्ठ न होंगे तो अपनी नई सृष्टि जो रचने वाले हैं उसमें पद भी साधारण ही मिलेगा। इसलिए सदैव यह चेक करो - हमारा संकल्प जो उठा वह साधारण है वा श्रेष्ठ? साधारण संकल्प वा चलन तो सर्व आत्मायें करती रहती हैं। अगर सर्वशक्तिवान की सन्तान होने के बाद भी साधारण संकल्प वा कर्म हुए तो श्रेष्ठता वा विशेषता क्या हुई? मैं विशेष आत्मा हूँ, इस कारण हमारा सभी कुछ विशेष होना चाहिए। अपने परिवर्तन से आत्माओं को अपनी तरफ वा अपने बाप के तरफ आकर्षित कर सको; अपने देह के तरफ नहीं, अपनी अर्थात् आत्मा की रूहानियत तरफ। तुम्हारा परिवर्तन सृष्टि को परिवर्तन में लायेगा। सृष्टि का परिवर्तन भी श्रेष्ठ आत्माओं के परिवर्तन के लिए रूका हुआ है। परिवर्तन तो लाना है। ना कि यह साधारण जीवन ही अच्छी लगती है? यह स्मृति, वृति और दृष्टि अलौकिक हो जाती है तो इस लोक का कोई भी व्यक्ति वा कोई भी वस्तु आकर्षित नहीं कर सकती। अगर आकर्षित करती है तो समझना चाहिए कि स्मृति में वा वृत्ति में वा दृष्टि में अलौकिकता की कमी है। इस कमी को सेकेण्ड में परिवर्तन में लाना है। यह ग्रुप यही विशेषता दिखावे कि सेकेण्ड में अपने संस्कार वा संकल्प को परिवर्तन में लाकर दिखावे। ऐसी हिम्मत है? सोचने में भी जितना समय लगता है, करने में इतना समय न लगे। ऐसी हिम्मत है? यह ग्रुप है साहसी ग्रुप। तो जो साहस रखने वाले हैं उन्हों के साथ बाप सदा सहयोगी है, इसलिए कभी भी साहस को छोड़ना नहीं। हिम्मत और उल्लास सदा रहे। हिम्मत से सदा हर्षित रहेंगे। उल्लास से क्या होगा? उल्लास किसको खत्म करता है? आलस्य को। आलस्य भी विशेष विकार है। जो पुरुषार्थी पुरूषार्थ के मार्ग पर चल पड़ हैं उन्हों के सामने वर्तमान समय माया का वार इस आलस्य के रूप में भिन्न-भिन्न तरीके से आता है। तो इस आलस्य को खत्म करने के लिए सदा उल्लास में रहो। कमाई करने का जब किसको उल्लास होता है तो फिर आलस्य खत्म हो जाता है। अब भी कोई कार्य प्रति भी अपना उल्लास नहीं होता तो फिर आलस्य रूर होगा। इसलिए कभी भी उल्लास को कम नहीं करना है जो आलस्य के वश होकर और श्रेष्ठ कर्म करने से वंचित हो जाओ। आलस्य भी कई प्रकार का होता है। अपने पुरूषार्थ में आगे बढ़ने में आलस्य बहुत विघ्न रूप बन जाता है। यह जो कहने में आता है - अच्छा, सोचेंगे, यह कार्य करेंगे - कर ही लेंगे, यह आलस्य की निशानी है। करेंगे, कर ही लेंगे, हो ही जायेगा, लेकिन नहीं, करने लग पड़ना है। जो नॉलेज वा धारणायें मिली हैं वह बुद्धि में धारण तो की हैं ना। लेकिन प्रैक्टिकल में आने में जो विघ्न रूप बनता वह है स्वयं का आलस्य। अच्छा, कल से लेकर करेंगे, फलाना करे तो हम भी करेंगे, आज सोचते हैं कल से करेंगे, यह कार्य पूरा करके फिर यह करेंगे - ऐसे-ऐसे संकल्प ही आलस्य का रूप हैं। जो करना है वह अभी करना है। जितना करना है वह अभी करना है। बाकी करेंगे, सोचेंगे - इन अक्षरों में पिछाड़ी में ‘ग-ग’ आता है ना, तो यह शब्द है बचपन की निशानी। छोटा बच्चा ग-ग करता रहता है ना, यह अलबेलेपन की निशानी है। इसलिए कब भी आलस्य का रूप अपने पास आने न देना और सदा अपने को उल्लास में रखना। क्योंकि निमित्त बनते हो ना। निमित्त बने हुए सदैव पुरूषार्थ के उल्लास में रहते हैं तो उन्हें देख और भी उल्लास में रहते हैं। चलते-चलते पुरूषार्थ में थकावट आना वा चलते-चलते पुरूषार्थ साधारण रफ्तार में हो जावे, यह किसकी निशानी है? विघ्न न हो लेकिन लगन भी श्रेष्ठ न हो तो उसको भी आलस्य कहेंगे। कई ऐसे अनुभव करते हैं - विघ्न भी नहीं हैं, ठीक भी चल रहे हैं लेकिन लगन भी नहीं है अर्थात् उल्लास वा विशेष कोई उमंग नहीं है। तो यह भी निशानी आलस्य की है। आलस्य भी अनेक प्रकार का है। इस आलस्य को कभी भी आने न देना। आलस्य धीरे-धीरे पहले साधारण पुरुषार्थी बनायेगा वा समीपता से दूर करेगा; फिर दूर करते-करते धोखा भी दे देगा, कमजोर बना देगा, निर्बल बना देगा। निर्बल वा कमजोर बनने से कमियों की प्रवेशता शुरू हो जाती है। इसलिए सदैव यह चेक करना - मेरी बुद्धि की लगन बाप वा बाप के कर्त्तव्य से थोड़ी भी दूर तो नहीं है, बिल्कुल समीप वा साथ-साथ है? आजकल के जमाने में कोई किसका खून करता है वा कोई भ्रष्टाचार का कार्य करता है तो पहले उनको दूर भगाकर ले जायेगा। उनको अकेला, कमजोर बनाकर फिर उस पर वार करेगा। तो माया भी चतुर है। पहले सर्वशक्तिवान बाप से बुद्धि को दूर करती है, फिर जब कमजोर बन जाते हैं तब वार करती है। कोई भी साथ नहीं रहता है। क्या भी हो जाये - अपनी बुद्धि को कभी बाप के साथ से दूर न करना। जब किसका वार होता है तो उनसे कैसे अपने को बचाने लिए चिल्लाते हैं, घमसान करते हैं जिससे कोई दूर न ले जा सके। यहां फिर जब देखो कि माया हमारी बुद्धि की लगन को बाप से दूर करने की कोशिश करती है, तो अपने अन्दर बाप के गुण गाने हैं, महिमा करनी है। महान्! कर्त्तव्य करने लग जाओ, चिल्लाओ नहीं। भक्ति में भी गुणगान करते हैं ना। यह यादगार भी कब से बना? यह मन्सा का गुणगान करना वाचा में ला दिया है। यथार्थ रीति से गुणगान तो आप ही कर सकते हो ना। अब यथार्थ रूप में मन्सा संकल्प से, स्मृति-स्वरूप में गुणगान करते हो और भक्ति में स्थूलता में आते हैं तो मुख से गाने लग पड़ते हैं। सभी रीति- रस्म शुरू तो यहां से होती हैं ना। तो गुणगान करने लग जाओ। अपने को अधिकारी समझ सर्व शक्तियों को काम में लाओ। फिर कब भी माया आपकी बुद्धि की लगन को दूर नहीं कर सकेगी। न दूर होंगे, न कमजोर होंगे, न हार खायेंगे। फिर सदा विजयी होंगे। तो यह स्लोगन याद रखना कि हम अनेक बार के विजयी हैं, अब भी विजयी बनकर ही दिखायेंगे। जो अनेक बार के विजयी हैं वह अभी फिर हार खा सकते हैं क्या? कभी नहीं। हार खाना असम्भव अनुभव होना चाहिए। जैसे अज्ञानी आत्माओं को विजय पाना असम्भव अनुभव होता है ना। समझते हैं - विजयी बनना हो भी सकता है क्या? तो जैसे अज्ञानी के लिए विजयी बनना असम्भव है, इस प्रकार ज्ञानी आत्मा को हार खाना असम्भव अनुभव होना चाहिए। ऐसे विल-पावर अपने में भरी है? अपने को सर्व समर्पण किया? सर्व समर्पण उसको कहा जाता है जिसके संकल्प में भी बाडी-कानसेस न हो, देह-अभिमन न हो। उसको कहा जाता है सर्व समर्पण। अपने देह का भान भी अर्पण करना है। मैं फलानी हूँ - यह संकल्प भी अर्पण हो। उसको कहते हैं सर्व समर्पण, सर्व गुणों से सम्पन्न। सर्व गुणों से सम्पन्न को ही सम्पूर्ण कहा जाता है। कोई भी गुण की कमी नहीं। अभी तो वर्णन करते हो ना कि यह कमी है। इससे सिद्ध है कि सम्पूर्ण स्टेज नहीं है। तो सर्व गुण सम्पन्न हैं? तो लक्ष्य यही रखना है कि सर्व समर्पण बनकर सर्व गुण सम्पन्न बन सम्पूर्ण स्टेज को प्राप्त करेंगे ही। ऐसे पुरूषार्थियों को बाप भी वरदान देते हैं कि ‘सदा विजयी भव’। हर संकल्प में कमाल दिखाओ यही विशेषता दिखाओ - जीवन का फैसला कर आई हो ना? अपने आप से फैसला करके आई हो। कोई भी संस्कार के वश नहीं होना। जो हैं ही जगतजीत, विश्व के विजयी वह किसके भी वश हो नहीं सकते। जो स्वयं सर्व आत्माओं को नजर से निहाल करने वाली हैं,उनकी नजर और कहां भी नहीं जा सकती। ऐसे दृढ़ निश्चयबुद्धि हो? अपनी सभी कमजोरियों को भट्ठी में स्वाहा किया वा करना है? फिर ऐसे तो नहीं कहेंगी कि बाकी यह थोड़ी रह गई है? अपनी मंसा की जेब को अच्छी तरह से जांच करना - कहां कोई कोने में कुछ रहा तो नहीं? वा जानबूझ कर जेब खर्च रखा है? यह अच्छी तरह से देखना। उम्मीदवार ग्रुप हो वा इससे भी ऊपर? इससे ऊपर क्या होता है? उम्मीदवार भी हैं और विजयी भी हैं। तो यह अनेक बार का विजयी ग्रुप है। विजयी हैं ही। उम्मीद की बात नहीं। ऐसे विजयी ही विजय-माला के मणके बनते हैं। उम्मीद नहीं लेकिन 100% निश्चय है कि हम विजयी हैं ही। देखना, माया कम नहीं है। माया की छम-छम, रिमझिम कम नहीं। माया भी बड़ी रौनकदार है। सभी तरफ से, सभी रूप से माया की नॉलेज को भी समझ गये हो कि माया क्या चीज़ होती है और किस रूप से, किस रीति से आती है? इसकी भी पूरी नॉलेज ली है? ऐसे तो नहीं कहेंगे कि इस बात की तो हमें नॉलेज नहीं थी? ऐसे अनजान बनकर अपने को छुड़ाना नहीं। कई कहते हैं हमको तो पता नहीं था कि ऐसे भी कोई होता है, क्या-क्या करते रहते हैं! अनजान होने कारण भी धोखे में आ जाते। लेकिन जब मास्टर नॉलेजफुल हो तो अनजानपना नहीं रह सकता। यह जो शब्द निकलता है कि मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था; यह भी कमजोरी है। ज्ञानी अर्थात् ज्ञानी। कोई भी बात का अज्ञान रहा तो ज्ञानी कहेंगे क्या? ज्ञान-स्वरूप को कोई भी बात का अज्ञान न रहेगा। जो योगयुक्त होंगे उनको न अनुभव होते भी ऐसा ही अनुभव होगा जैसे कि पहले से सभी-कुछ जानते हैं। त्रिकालदर्शा फिर अनजान कैसे हो सकते हैं! तो मास्टर नॉलेजफुल भी बने और विजयी भी बने; तो हार असम्भव ही अनुभव होगी ना। अब देखेंगे - यह ग्रुप कैसी झलक दिखाता है? आपकी झलक से सभी को बाप की झलक दिखाई दे। बेचारी आत्मायें तड़पती हैं, बाप की जरा झलक दिखाई दे तो सर्व प्राप्ति हो। तो अब बाप की झलक अपनी झलक से दिखाओ। समझा? तो यह विजयी ग्रुप है। उल्लास से आलस्य को भगाने वाले हो। अभी प्रैक्टिकल देखेंगे। प्रैक्टिस को प्रैक्टिकल में कहां तक लाती हो, यह भी मालूम पड़ जायेगा। यह कमाल दिखाओ। जो जिस-जिस भी स्थान पर जाओ, जिस साथी के साथ सर्विस में मददगार बनो उनके तरफ से कमाल के सिवाय और कोई बात ही न आये। एक-एक लाईन में कमाल लिखें, तब कहेंगे विजयी ग्रुप है। बाप समान बनकर दिखाओ। ऐसे कमाल कर दिखाओ जो बड़े भी बाप के गुणगान करें कि सचमुच यह ग्रुप निर्विघ्न, सदा बाप की लगन में मगन रहने वाला है। एक के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं। चाहे एक बाप की लगन, चाहे बाप के कर्त्तव्य की लगन - इसके सिवाय और कुछ सूझेगा ही नहीं। संसार में और कोई वस्तु या व्यक्ति है भी -- यह अनुभव ही न हो। ऐसी एक लगन, एक भरोसे में, एकरस अवस्था में, चढ़ती कला में रहने वाले बनकर दिखाओ, तब कहेंगे कमाल। ‘क्यों’ को तो एकदम भस्म करके जाना, इतने तक जो कोई कारण सामने बने तो उस कारण को भी परिवर्तन कर निवारण रूप बना दो। फिर यह नहीं कहना कि यह कारण था। कितने भी कारण हों - मैं निवारण करने वाली हूँ; न कि कारण को देख कमजोर बनना है। कारण को निवारण में परिवर्तन करने वाले ग्रुप हो। इसको विजयी कहा जाता। ऐसे श्रेष्ठ लक्षणधारी भविष्य में लक्ष्मी रूप बनते हैं। लक्ष्मी अर्थात् लक्षण वाली। तो अभी भी चेहरे में,चलन में वह चमक दिखाई देनी चाहिए। ऐसे नहीं कि अभी तो यहां सीख रहे हैं, वहां जाकर दिखायेंगी। जब यहां अपना सबूत देकर जायेंगी तब वहां भी सबूत दे सकेंगी। समझा? अभी तुम सभी हो ही सेवाधारी। सेवाधारी कब भी सुहेजों के संकल्प में नहीं आते। सर्व सम्बन्धों से सर्व अनुभव करना, वह दूसरी बात है लेकिन सदा स्मृति में अपना सेवाधारी स्वरूप रखना है। सुहेजों में लगेंगे तो सेवा भूल जायेगी। सेवाधारी हूँ, विश्व-परिवर्तन करने वाली पतित-पावनी हूँ, - यह अपना स्वरूप स्मृति में रखो। पतित-पावनी के ऊपर कोई पतित आत्मा की नर की परछाई भी नहीं पड़ सकती। पतित-पावनी के सामने आने से ही पतित बदलकर पावन बन जावे, इतनी पावर चाहिए। पतित आत्माओं के पतित संकल्प भी न चल सकें, ऐसी अपनी ब्रेक पावरफुल होनी चाहिए। जब उसका ही पतित संकल्प नहीं चल सकता तो पतित-पन का प्रभाव कैसे पड़ सकता? यह भी नहीं सोचना - मैं तो पावन हूँ लेकिन इस पतित आत्मा का प्रभाव पड़ गया। यह भी कमजोरी है। प्रभाव पड़ने का अर्थ ही है प्रभावशाली नहीं हो, तब उनका प्रभाव आपको प्रभावित करता है। पतित- पावनी पतित संकल्पों के भी प्रभाव में नहीं आ सकती। पतित-पावनी के स्वप्न में भी पतितपन के संकल्प वा सीन नहीं आ सकती। अगर स्वप्न में भी पतितपन के दृश्य आते हैं तो समझना चाहिए कि पतित संस्कारों के प्रभाव का असर है। उसको भी हल्का नहीं छोड़ना चाहिए। स्वप्न में भी क्यों आये? इतनी कड़ी दृष्टि, कड़ी वृत्ति, कड़ी स्मृति स्वरूप बनना चाहिए। पतित आत्मा मुझ शस्त्रधारी शक्ति के आगे एक सेकेण्ड में भस्म हो जाए। कोई व्यक्ति भस्म नहीं होगा लेकिन उनके पतित संस्कार नाश हो जायेंगे। आसुरी संस्कारों को नाश करने की आवश्यकता है। मैं पतित-पावनी, आसुरी-पतित संस्कार संहारी हूँ। जो स्वयं संहारी हैं वह कब किसका शिकार नहीं बन सकते। इतना प्रैक्टिकल प्रभाव होना चाहिए जो कोई भी आपके सामने संकल्प करे और उनका संकल्प मूर्छित हो जाए। ऐसा काली रूप बनना है। एक सेकेण्ड में पतित संकल्प की बलि ले लेवें। ऐसी भलेवान बनी हो जो कोई की परछाई भी न पड़ सके? कोमल नहीं बनना है। कोमल जो होते हैं वह निर्बल होते हैं। शक्तियां कोमल नहीं होतीं। माया पर तरस कभी नहीं करना। तुम माया का तिरस्कार करने वाली हो। जितना माया का तिरस्कार करेंगी उतना भक्तों द्वारा या दैवी परिवार द्वारा सत्कार प्राप्त करेंगी। माया पर रोब दिखाना है, न कि रहम। कोई के पुरूषार्थ में मददगार बनने में तरस करना है, माया से नहीं। अच्छा!



12-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सफ़लता का आधार - संग्रह और संग्राम करने की शक्ति

पने को सदा सफलतामूर्त समझते हो? वा सहज ही सफलता प्राप्त होते हुए अनुभव करते हो? सदा और सहज ही सफलतामूर्त बनने के लिये मुख्य दो शक्तियों की आवश्यकता है। जिन दो शक्तियों के आधार से सदा और सहज ही सफलतामूर्त बन सकते हैं, वह दो शक्तियाँ कौनसी? निश्चयबुद्धि तो हो ही चुके हो ना। अब सफलता के पुरूषार्थ में मुख्य कौनसी शक्तियाँ चाहिए? एक -- संग्राम करने की शक्ति, दूसरी -- संग्रह करने की शक्ति। संग्रह में लोक-संग्रह भी आ जाता है। सभी प्रकार का संग्रह। तो एक संग्राम, दूसरा संग्रह - यह दोनों शक्तियाँ हैं तो असफल हो न सके। कोई भी कार्य में वा अपने पुरूषार्थ में असफ़लता का कारण क्या होता है? वा तो संग्रह करना नहीं आता वा संग्राम करना नहीं आता। अगर यह दोनों शक्तियाँ आ जायें तो सदा और सहज ही सफ़लता मिल जाती है। इसलिए इन दोनों शक्तियों को अपने में भरने का पुरूषार्थ करना चाहिए। कोई भी कार्य सामने आता है तो कार्य करने के पहले अपने आप को चेक करो कि दोनों शक्तियाँ स्मृति में हैं? भले शक्तियां हैं भी लेकिन कर्त्तव्य के समय शक्तियों को यूज नहीं करते हो, इसलिये सफलता नहीं होती। करने के बाद सोचते हो-ऐसे करते थे तो यह होता था। इसका कारण क्या है? समय पर शक्ति यूज करने नहीं आती है। शस्त्र कितने भी अच्छे हों, शक्तियाँ कितनी भी हो, लेकिन जिस समय जो शस्त्र वा शक्ति कार्य में लानी चाहिए वह कार्य में नहीं लाते तो सफलता नहीं होती। इस कारण कोई भी कार्य शुरू करने के पहले अपने को चेक करो। जैसे फोटो निकालते हो, फोटो निकलने से पहले तैयारी होती है ना। फोटो निकला और सदा का यादगार बना। चाहे कैसा भी हो। इसी रीति यह भी बेहद की कैमरा है, जिसमें एक एक सेकेण्ड के फोटो निकलते रहते हैं। फोटो निकल जाने बाद अगर अपने आपको ठीक करें तो वह व्यर्थ है ना। इसी प्रमाण पहले अपने आप को शक्ति-स्वरूप की स्टेज पर स्थित करने बाद कोई कार्य शुरू करना है। स्टेज से उतर कर अगर कोई एक्ट करे, भले कितनी भी बढ़िया एक्ट करे लेकिन देखने वाले कैसे देखेंगे। यह भी ऐसे होता है। पहले स्टेज पर स्थित हो, फिर हर एक्ट करे तब एक्यूरेट और ‘वाह वाह करने योग्य’ एक्ट हो सकेंगी। स्टेज से उतर साधारण रीति कर्त्तव्य करने शुरू कर देते हैं, पीछे सोचते हैं। परन्तु वह स्टेज तो रही नहीं ना। समय बीत गया। फोटो तो निकल गया। इसलिये यह दोनों ही शक्तियां सदैव हर कार्य में होनी चाहिए। कभी संग्राम करने का जोश आता है, संग्रह भूल जाते हैं। कब संग्रह करने का सोचते हैं तो फिर संग्राम भूल जाते हैं। दोनों ही साथ-साथ हां। सर्व शक्तियों के प्रयोग से रिजल्ट क्या होगी? सफ़लता। उनका संकल्प, कहना, करना तीनों ही एक होगा। इसको कहा जाता है मास्टर सर्वशक्तिवान। ऐसे नहीं संकल्प बहुत ऊंच हों, प्लैन्स बनाते रहें, मुख से वर्णन भी करते रहें, लेकिन करने समय कर न पावे। तो मास्टर सर्वशक्तिवान हुआ? मास्टर सर्वशक्तिवान का मुख्य लक्षण ही है उनका संकल्प, कहना और करना तीनों एक होगा। अभी समय-प्रति-समय यह शब्द निकलते हैं - सोचा तो था लेकिन कर न पाया। प्लैन और प्रैक्टिकल में अन्तर दिखाई देता है। लेकिन मास्टर सर्वशक्तिवान वा सदा सफलतामूर्त जो होगा उनका जो प्लैन होगा वही प्रैक्टिकल होगा। सफलतामूर्त होना तो सभी चाहते हैं ना। जब चाहना वा लक्ष्य श्रेष्ठ है तो लक्ष्य के साथ वाणी और कर्म भी श्रेष्ठ हो। लेकिन प्रैक्टिकल आने में कोई भी कमजोरी होने कारण जो प्लैन है वैसा रूप दे नहीं सकते। क्योंकि संग्राम करने की वा उन बातों में लोक-संग्रह रखने की शक्ति कम हो जाती है। जैसे पहले युद्ध के मैदान में जब सामने दुश्मन आता था तो एक हाथ में तलवार भी पकड़ते थे, साथ-साथ दूसरे हाथ में ढाल भी होती थी। तो तलवार और ढाल दोनों अपना-अपना कार्य करें, यह प्रैक्टिस चाहिए। दोनों ही साथ-साथ यूज करने का अभ्यास चाहिए।

अपने को मास्टर समझते हो? तो सभी बातों में मास्टर हो? जैसे बाप का नाम त्रिमूर्ति शिव बताते हो ना, वैसे ही आप सभी भी मास्टर त्रिमूर्ति शिव हो ना। आप के भी तीन कर्त्तव्य हैं ना, जिसके आधार पर सारा कर्त्तव्य वा सर्विस करते हो। आप के तीन रूप कौनसे हैं? एक है ब्राह्मण रूप, जिससे स्थापना का कार्य करते हो। और दूसरा शक्ति रूप, जिससे विनाश का कर्त्तव्य करते हो और जगत माता वा ज्ञान गंगा वा अपने को महादानी, वरदानी रूप समझने से पालना करते हो। वरदानी रूप में जगत् पिता का रूप आ ही जाता है। तो यह तीनों रूप सदैव स्मृति में रहें तो आपके कर्त्तव्य में भी वही गुण दिखाई देंगे। जैसे बाप को अपने तीनों रूपों की स्मृति रहती है, ऐसे चलते- फिरते अपने तीनों रूप की स्मृति रहे कि हम मास्टर त्रिमूर्ति हैं। तीनों कर्त्तव्य इकट्ठे साथ-साथ चाहिए। ऐसे नहीं-स्थापना का कर्त्तव्य करने का समय अलग है, विनाश के कर्त्तव्य का समय और आना है। नहीं। नई रचना रचते जाओ, और पुराने का विनाश करते जाओ। आसुरी संस्कार वा जो भी कमजोरी है, उनका विनाश भी साथ-साथ करते जाना है। नये संस्कार ला रहे हैं, पुराने संस्कार खत्म कर रहे हैं। कइयों में रचना रचने का गुण होता है लेकिन शक्ति रूप विनाश कार्य रूप न होने कारण सफ़लता नहीं हो पाती। इसलिये दोनों साथ-साथ चाहिए। यह प्रैक्टिस तब हो सकेगी जब एक सेकेण्ड में देही- अभिमानी बनने का अभ्यास होगा। ऐसे अभ्यासी सब कार्य में सफल होते हैं। अपने को महादानी वा वरदानी, जगत् माता वा जगत्-पिता वा पतित-पावनी के रूप में स्थित होकर किसी भी आत्मा को अगर आप दृष्टि देंगी तो दृष्टि से भी उनको वरदान की प्राप्ति करा सकती हो। वृति से भी प्राप्ति करा सकती हो अर्थात् पालना कर सकती हो। लेकिन इस रूप की सदा स्मृति रहे। ब्राह्मण कथा वा ज्ञान सुना कर स्थापना तो बहुत जल्दी कर लेते हो, लेकिन विनाश और पालना का जो कर्त्तव्य है उसमें और अटेन्शन चाहिए। पालना करने के समय कल्याणकारी भावना वा वृति रख कर कोई भी आत्मा की पालना करो तो कैसी भी अपकारी आत्मा पर अपनी पालना से उनको उपकारी बना सकते हो। कैसी भी पतित आत्मा, पतित-पावन के वृति से पावन हो सकते हैं। अगर उनका पतितपना देखेंगे तो नहीं हो सकेगा। जैसे माँ कब बच्चे की कमजोरियों को वा कमियों को नहीं देखती है, उनको ठीक करने का ही रहता है। तो यह पालना करने का कर्त्तव्य इस रूप में सदा स्थित रहने से यथार्थ चल सकता है। जैसे माँ में दो विशेष शक्तियाँ सहन करनी की और समाने की होती हैं। वैसे ही हर आत्मा की पालना करने समय भी यह दोनों शक्तियाँ यूज करें तो सफलता रूर हो। लेकिन अपने को जगत्-माता वा जगत्-पिता के रूप में स्थित रह करेंगे तो। अगर भाई बहन का रूप देखेंगे तो उसमें संकल्प आ सकता है। लेकिन मॉं-बाप के समान समझो। मॉं-बाप बच्चे का कितना सहन करते हैं, अन्दर समाते हैं तब उनकी पालना कर उसको योग्य बना सकते हैं। तो सदैव हर कर्त्तव्य करते समय अपने यह तीनों रूप भी स्मृति में रखने चाहिए। जैसी स्मृति, वैसा स्वरूप और जैसा स्वरूप वैसी सफलता। तीनों रूप की स्मृति से स्वत: ही समर्थी आ जाती है। यह भी पॉजीशन है ना। तो पॉजीशन में ठहरने से शक्ति वा समर्थी आ जाती है। बाप का नाम याद आवे तो अपने को मास्टर रूर समझो। नाम तो सभी को याद कराते हो। कितनी बार बाप का नाम मन से वा मुख से उच्चारण करते होंगे। तो बाप के नाम जैसा मैं भी मास्टर त्रिमूर्ति शिव हूँ-यह स्मृति में रहे तो सफ़लता होगी। तो सदा सफलतामूर्त बनो। अभी असफलता पाने का समय नहीं। अगर 10 बार सफलता हुई, एक बार भी असफल हुये तो उसको असफलता कहेंगे। तो कर्त्तव्य और स्वरूप दोनों साथ-साथ स्मृति में रहें तो फिर कमाल हो। नहीं तो होता क्या है -- मेहनत जास्ती हो जाती है, प्राप्ति बहुत कम होती है। और प्राप्ति कम कारण ही कमजोरी आती है, उत्साह कम होता है, हिम्मत-उल्लास कम हो जाता है। कारण अपना ही है। अपने पाँव पर स्वयं कटारी चलाते हैं। इसलिए जबकि अपने आप ज़िम्मेवार हैं, तो सदैव अटेन्शन रहना चाहिए। तो आज से बीती को बीती कर के, स्मृति से अपने में समर्थी लाकर सदा सफ़लतामूर्त बनो। फिर जो यह अन्तर होता है - आज उमंग-उल्लास बहुत है, कल फिर कम हो जाता है; यह अन्तर भी खत्म हो जावेगा। सदा उमंग- उल्लास और सदा अपने में प्राप्ति का अनुभव करेंगे। माया को, प्रकृति को दासी बनाना है। सतयुग में प्रकृति को दासी बनाते हैं तो उदासी नहीं आती है। उदासी का कारण है प्रकृति का, माया का दास बनना। अगर उनके दास बने ही नहीं तो उदासी आ सकती है? तो कब भी माया के दास वा दासी न बनना। यहाँ जास्ती माया वा प्रकृति का दास बनेंगे तो उनको वहाँ भी दास- दासी बनना पड़ेगा। क्योंकि संस्कार ही दास- दासी का हो गया। यहाँ दास भी रहा, उदास भी रहा और वहाँ भी दास बनना- फायदा क्या। इसलिये चेक करना है -- उदासी आई तो रूर कहाँ माया का दास बना हूँ। बिगर दासी बने उदास नहीं हो सकते। तो पहले चाहिए परख, फिर परिवर्तन की भी शक्ति चाहिए। तो कब भी असफलतामूर्त न बनना। वह बनेंगे आपके पिछली प्रजा और भक्त। अगर विश्व का राज्य चलाने वाले भी असफ़ल रहे तो सफलतामूर्त बाकी कौन बनेंगे। अच्छा!

दिन-प्रतिदिन अपने में परिवर्तन लाना है। कोई के भी स्वभाव, संस्कार देखते हुये, जानते हुये उस तरफ बुद्धि-योग न जाये। और ही उस आत्मा के प्रति शुभ भावना हो। एक तरफ से सुना, दूसरे तरफ से निकाल दिया। उसको बुद्धि में स्थान नहीं देना है। तब ही एक तरफ बुद्धि स्थित हो सकती है। कमजोर आत्मा की कमजोरी को न देखो। यह स्मृति में रहे कि वैराइटी आत्माएं हैं। आत्मिक दृष्टि रहे। आत्मा के रूप में उनको स्मृति में लाने से पावर दे सकेंगे। आत्मा बोल रही है। आत्मा के यह संस्कार हैं। यह पाठ पक्का करना है। ‘आत्मा’ शब्द स्मृति में आने से ही रूहानियत-शुभ भावना आ जाती है, पवित्र दृष्टि हो जाती है। चाहे भले कोई गाली भी दे रहा है लेकिन यह स्मृति रहे कि यह आत्मा तमोगुणी पार्ट बजा रही है। अपने आप का स्वयं टीचर बन ऐसी प्रैक्टिस करनी है। यह पाठ पक्का करने लिये दूसरों से मदद नहीं मिल सकती। अपने पुरूषार्थ की ही मदद है। अच्छा!



15-03-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


त्याग और भाग्य

पने को त्याग-तपस्वीमूर्त समझते हो? सबसे बड़े ते बड़ा मेहनत का त्याग कौन-सा है? (देह-अभिमान) ज्ञान का अभिमान वा बुद्धि का अभिमान भी क्यों आता है? पुराने संस्कारों का त्याग भी क्यों नहीं होता है? उसका मुख्य कारण देह-अभिमान है। देह-अभिमान को छोड़ना बड़े ते बड़ा त्याग है, जो हर सेकेण्ड अपने आपको चेक करना पड़ता है। और जो स्थूल त्याग है वह कोई एक बार त्याग करने के बाद किनारा कर लेते हैं। लेकिन यह जो देह-अभिमान का त्याग है वह हर सेकेण्ड देह का आधार लेते रहना है लेकिन यहॉं सिर्फ रहते हुए न्यारा बनना है। इसी कारण हर सेकेण्ड देह के साथ आत्मा का गहरा सम्बन्ध होने कारण देह का अभिमान भी बहुत गहरा हो गया है। अब इसको मिटाने के लिए मेहनत लगती है। अपने आप से पूछो कि सब प्रकार का त्याग किया है? क्योंकि जितना त्याग करेंगे उतना ही भाग्य प्राप्त करेंगे - वर्तमान समय में वा भविष्य में भी। ऐसे नहीं समझना कि संगमयुग में सिर्फ त्याग करना है और भविष्य में भाग्य लेना है। ऐसे नहीं है। जो जितना त्याग करता है और जिस घड़ी त्याग करता है, उसी घड़ी जितना त्याग उनके रिटर्न में उनको भाग्य रूर प्राप्त होता है। संगमयुग में त्याग वा प्रत्यक्षरूप में भाग्य क्या मिलता है, यह जानते हो? अभी-अभी भाग्य क्या मिलता है? सतयुग में तो मिलेगा जीवन-मुक्ति पद, अब क्या मिलता है? आपको अपने त्याग का भाग्य मिलता है? संगमयुग में त्याग का भाग्य बड़े ते बड़ा यही मिलता है कि स्वयं भाग्य बनाने वाला अपना बन जाता है। यह सबसे बड़ा भाग्य हुआ ना! यह सिर्फ संगमयुग पर ही प्राप्त होता है जो स्वयं भगवान अपना बन जाता है। अगर त्याग नहीं तो बाप भी अपना नहीं। देह का भान है तो क्या बाप याद है? बाप के समीप सम्बन्ध का अनुभव होता है जब देहभान का त्याग करते हो तो। देहभान का त्याग करने से ही देही-अभिमानी बनने से पहली प्राप्ति क्या होती है? यही ना कि निरन्तर बाप की स्मृति में रहते हो अर्थात् हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड के लिए बाप के सर्व सम्बन्ध का, सर्व शक्तियों का अपने साथ अनुभव करते हो। तो यह सबसे बड़ा भाग्य नहीं? यह भविष्य में नहीं मिलेगा। इसलिए कहा जाता है - यह सहज ज्ञान और सहज राजयोग भविष्य फल नहीं लेकिन प्रत्यक्षफल देने वाला है। भविष्य तो वर्तमान के साथ-साथ बांधा हुआ ही है लेकिन सर्वश्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर और कहां नहीं प्राप्त करते हो। इस समय ही त्याग और तपस्या से बाप का हर सेकेण्ड का अनुभव करते हो अर्थात् बाप को सर्व सम्बन्धों से अपना बना लेते हो। पुकार यह नहीं करते थे। पुकारते तो कुछ और थे लेकिन प्राप्ति क्या हो गई? जो न संकल्प, न स्वप्न में था वह प्राप्ति हो रही है ना। तो जो न संकल्प, न स्वप्न में बात हो वह प्राप्त हो जाए - इसको कहा जाता है भाग्य। जो चीज़ मेहनत से प्राप्त होती है उसको भाग्य नहीं कहा जाता है। स्वत: ही मिलने का असम्भव से सम्भव हो जाता है, न उम्मीदवार से उम्मीदवार हो जाते हैं, इसलिए इसको कहा जाता है भाग्य। यह भाग्य नहीं मिला? पुकारते तो कुछ और थे -- कि हमको सिर्फ अपना कुछ- न-कुछ बना लो। इतना ऊंच बनना नहीं चाहते थे लेकिन मिला क्या? स्वयं तो बन गये लेकिन बाप को भी सब-कुछ बना लिया। तो यह भाग्य नहीं? संगमयुग का श्रेष्ठ भाग्य इसी त्याग से मिलता है। सदैव यह सोचो कि अगर देहभान का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् देही अभिमानी नहीं बनेंगे तो भाग्य भी अपना नहीं बना सकेंगे अर्थात् संगमयुग का जो श्रेष्ठ भाग्य है उनसे वंचित रहेंगे। अगर मानो सारे दिन में कुछ समय देह-अभिमान का त्याग रहता है और कुछ समय नीचे रहते हैं अर्थात् देह के भान का त्याग नहीं, तो उतना ही संगमयुग में श्रेष्ठ भाग्य से वंचित होते हैं। भाग्य बनाने वाला बाप जब हर सेकेण्ड भाग्य बनाने की विधि सुना रहे हैं तो क्या करना चाहिए? उसी विधि से सर्व सिद्धियों को प्राप्त करना चाहिए। विधि को न अपनाने कारण क्या रिजल्ट होती है? न अवस्था की वृद्धि होती है और न सर्व प्राप्तियों की सिद्धि होती है। तो क्या करना चाहिए? विधाता द्वारा मिली हुई विधियों को सदा अपनाना चाहिए जिससे वृद्धि भी होगी और सिद्धि भी होगी। तो चेक करो-संकल्प के रूप में व्यर्थ संकल्प का कहां तक त्याग किया है? वृत्ति सदा भाई-भाई की रहनी चाहिए; उस वृति को कहां तक अपनाया है और देह में देहधारीपन की वृति का कहां तक त्याग किया है? समझते हो मैसूर वाले? आज तो खास इन्हों से मिलने आये हैं ना क्योंकि इतने दूर से, मेहनत से, स्नेह से आये हैं, तो बाप को भी दूरदेश से आना ही पड़ा है। तो खुशी होती है ना। आज खास दूरदेश से आने वालों के लिए दूरदेश से बाप भी आये हैं। तो जिससे स्नेह होता है, तो स्नेही के स्नेह में त्याग कोई बड़ी बात नहीं होती है। विकारों के स्नेह में आकर अपनी सुध-बुद्ध का भी त्याग तो अपने शरीर का भी त्याग किया। बच्चों के स्नेह में माँ तन का भी त्याग करती है ना। जब देहधारी के सम्बन्ध के स्नेह में अपना ताज, तख्त और अपना असली स्वरूप सब छोड़ दिया ना, तो जब अभी बाप के स्नेही बने हो तो क्या यह देह-अभिमान का त्याग नहीं कर सकते हो? मुश्किल है? सोचना चाहिए कि अल्पकाल के सम्बन्ध में इतनी शक्ति थी जो ऊपर से नीचे ला दिया। ऊपर से नीचे इसीलिए आये हो ना। और अब बाप जब कहते हैं और बाप से सर्व सम्बन्ध जोड़े हैं, तो क्या बाप के स्नेह में यह उलटा देह-अभिमान का त्याग कोई बड़ी बात है? छोटी बात है ना! फिर भी क्यों नहीं कर पाते हो? यह तो एक सेकेण्ड में कर देना चाहिए। बच्चा अगर एक मास बीमार होता है तो मां का जो अल्पकाल का सम्बन्ध है, देह का सम्बन्ध है, फिर भी मां एक मास के लिए सब-कुछ त्याग कर देती है। देह की स्मृति, सुख त्याग करने में देरी नहीं करती। मुश्किल भी नहीं समझती है। तो यहां क्या करना चाहिए? यहां तो सदाकाल का सम्बन्ध और सर्व सम्बन्ध है, सर्व प्राप्ति का सम्बन्ध हैं, तो यहॉं एक सेकेण्ड भी त्याग करने में देरी नहीं करनी चाहिए। लेकिन कितने वर्ष लगाया है? देह का भान त्याग करने में कितना वर्ष लगाया है? कितने वर्ष हो गये? (36) लगना चाहिए एक सेकेण्ड और लगाया है 36 वर्ष (आधा कल्प का अभ्यास पड़ा हुआ है) और वह जो आधाकल्प देहभान से और विकारों से न्यारे थे वह आधा कल्प का अभ्यास एक सेकेण्ड में भूल गया? इसमें टाइम लगा क्या? (त्रेता में भी दो कला कम हो जाती हैं) फिर भी विकारों से परे तो रहते हो ना। सतयुग, त्रेता में निर्विकारी तो थे ना। दो कला कम होने के बाद भी त्रेता में निर्विकारी तो कहेंगे ना। विकारों के आकर्षण से परे थे ना। यह भी आधा कल्प के संस्कार हो गये, तो वह क्यों नहीं स्मृति में जल्दी आते हैं? आत्मा का असली रूप भी क्या है? आप आत्मा के निजी असली संस्कार वा गुण कौनसे हैं? वही हैं ना जो बाप में हैं। जो बाप के गुण हैं - ज्ञान का सागर, सुख का सागर, शान्ति का सागर; वह सागर है पर आप स्वरूप तो हो। तो जो आत्मा के निजी गुण हैं, शान्ति-स्वरूप तो हो ना। यह तो संग के रंग में परिवर्तन में आये हो, लेकिन वास्तविक जो आत्मा के स्वरूप का गुण है वह तो बाप के समान हैं ना। वह भी क्यों नहीं जल्दी स्मृति में आना चाहिए? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करो। समझा? ऐसे-ऐसे अपने से बातें करते- करते अर्थात् रूह-रूहान करते-करते रूहानियत में स्थित हो जायेंगे। यह अभी नहीं सोचो कि द्वापर के यह पुराने संस्कार हैं, इसलिए यह हो गया। यह नहीं सोचो। इसके बजाय यह सोचो कि मुझ आत्मा के आदि संस्कार और अनादि संस्कार कौनसे हैं! सृष्टि के आदि में जब आत्माएं आईं तो क्या संस्कार थे? दैवी संस्कार थे ना। तो यह सोचो - आदि में आत्मा के संस्कार और गुण कौन-से थे! मध्य को नहीं सोचो। अनादि और आदि संस्कारों को सोचो तो क्या होगा कि मध्य के संस्कार बीच-बीच में जो प्रज्वलित होते हैं वह मध्यम हो जायेंगे। मध्यम ढीले को कहा जाता है। कहते हैं ना - इसकी चाल मध्यम है। तो मध्य के संस्कार मध्यम हो जायेंगे और जो अनादि और आदि संस्कार हैं वह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देंगे। समझा? सदैव अनादि और आदि को ही सोचो। जैसे संकल्प करेंगे वैसे ही स्मृति रहेगी और जैसी स्मृति रहेगी वैसी समर्थी हर कर्म में आयेगी। इसलिए स्मृति को सदैव श्रेष्ठ रखो। तो अब क्या करेंगे? हर सेकेण्ड के त्याग से हर सेकेण्ड की प्राप्ति करते चलो। क्योंकि यही संगमयुग है जो भाग्य प्राप्त करने का है। अभी जो भाग्य बनाया वह सारे कल्प में भोगना पड़ता है - चाहे श्रेष्ठ, चाहे नीच। लेकिन यह संगमयुग ही है जिसमें भाग्य बना सकते हो। जितना चाहो उतना बना सकते हो क्योंकि भाग्य बनाने वाला बाप साथ है। फिर यह बाप साथ नहीं रहेगा, न यह प्राप्ति रहेगी। प्राप्ति कराने वाला भी अब है और प्राप्ति भी अब होनी है। अब नहीं तो कब नहीं - यह स्लोगन स्मृति में रखो। स्लोगन लिखे हुए तो रहते हैं ना। यह समझते हो कि यह स्लोगन हमारे लिए हैं? अगर सदैव यह स्मृति में रहे -- कि अब नहीं तो कब नहीं तो फिर क्या करेंगे? सदैव सोचेंगे - जो करना है तो अब कर लें। तो सदा यह स्लोगन स्मृति में रखो। अपनी स्थिति को सदा त्याग और सदा भाग्यशाली बनाने के लिए चेकिंग तो करनी है लेकिन चेकिंग में भी मुख्य चेकिंग कौनसी करनी है जिस चेकिंग करने से आटोमेटिकली चेंज आ जाए? क्या चेकिंग करनी है उसके लिए एक स्लोगन है, वह स्लोगन कौनसा है? जो बहुत बार सुनाया है - ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’। अब कम खर्च बाला नशीन कैसे बनना है?

वो लोग तो स्थूल धन में ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन आप लोगों के लिए संगमयुग में कितने प्रकार के खज़ाने हैं, मालूम है? समय, संकल्प, श्वास तो है ही खज़ाना लेकिन उसके साथ अविनाशी ज्ञान-रत्न का खज़ाना भी है और पांचवा स्थूल खज़ाने से भी इसका सम्बन्ध है। तो यह चेक करो-संकल्प के खज़ाने में भी ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बने हैं? ज्यादा खर्च नहीं करो। अपने संकल्प के खज़ाने को व्यर्थ न गंवाओ तो समर्थ और श्रेष्ठ संकल्प होगा। श्रेष्ठ संकल्प से प्राप्ति भी श्रेष्ठ होगी ना। ऐसे ही जो समय का खज़ाना है संगमयुग का, इस संगमयुग के समय को अगर व्यर्थ न खर्च करो तो क्या होगा? एक-एक सेकेण्ड में अनेक जन्मों की कमाई का साधन कर सकेंगे। इसलिए यह समय व्यर्थ नहीं गंवाना है। ऐसे ही जो श्वॉस अर्थात् हर श्वॉस में बाप की स्मृति रहे, अगर एक भी श्वॉस में बाप की याद नहीं तो समझो व्यर्थ गया। तो श्वॉस को भी व्यर्थ नहीं गंवाना। ऐसे ही ज्ञान का खज़ाना जो है उसमें भी अगर खज़ाने को सम्भालने नहीं आता, मिला और खत्म कर दिया तो व्यर्थ चला गया। मनन नहीं किया ना। मनन के बाद उस खज़ाने से जो खुशी प्राप्त होती है, उस खुशी में स्थित रहने का अभ्यास नहीं किया तो व्यर्थ चला गया ना। जैसे भोजन किया, हजम करने की शक्ति नहीं तो व्यर्थ जाता है ना। इसी प्रकार यह ज्ञान के खज़ाने आपके प्रति वा दूसरी आत्माओं को दान देने के प्रति न लगाया तो व्यर्थ गया ना। ऐसे ही यह स्थूल धन भी अगर ईश्वरीय कार्य में, हर आत्मा के कल्याण के कार्य में वा अपनी उन्नति के कार्य में न लगाकर अन्य कोई स्थूल कार्य में लगाया तो व्यर्थ लगाया ना। क्योंकि अगर ईश्वरीय कार्य में लगाते हो तो यह स्थूल धन एक का लाख गुणा बनकर प्राप्त होता है और अगर एक व्यर्थ गंवा दिया तो एक व्यर्थ नहीं गंवाया लेकिन लाख व्यर्थ गंवाया। इसी प्रकार जो संगमयुग का सर्व खज़ाना है उस सर्व खज़ाने को चेक करो कि कोई भी खज़ाना व्यर्थ तो नहीं जाता है? तो ऐसे ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बने हो या अब तक अलबेले होने के कारण व्यर्थ गंवा देते हो? जो अलबेले होते हैं वह व्यर्थ गंवाते हैं और जो समझदार होते हैं, नॉलेजफुल होते हैं, सेन्सीभले होते हैं वह एक छोटी चीज़ भी व्यर्थ नहीं गंवाते। ऐसे के लिए ही कहा जाता है ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’। ऐसे हो? जैसे साकार बाप ने ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनकर के दिखाया ना। तो क्या फालो फादर नहीं करना है? कोई भी स्थूल धन, अगर स्थूल धन नहीं है तो जो यज्ञ-निवासी हैं उनके लिए यह यज्ञ की हर वस्तु ही स्थूल धन के समान है। अगर यज्ञ की कोई भी वस्तु व्यर्थ गंवाते हैं तो भी ‘‘कम खर्च बाला-नशीन’’ नहीं कहेंगे। जो प्रवृत्ति में रहने वाले हैं, स्थूल धन से अपना पद ऊंच बना सकते हैं, वैसे ही यज्ञ-निवासी भी अगर यज्ञ की स्थूल वस्तु ‘‘कम खर्च बाला-नशीन’’ बनकर यूज करते हैं, अपने प्रति वा दूसरों के प्रति, उनका भी इस हिसाब से भविष्य बहुत ऊंच बनता है। ऐसे नहीं कि स्थूल धन तो प्रवृत्ति वालों के लिए साधन है लेकिन यज्ञ- निवासियों के यज्ञ की सेवा भी, यज्ञ की वस्तु की एकानामी रूपी धन स्थूल धन से भी ज्यादा कमाई का साधन है।

इसलिए जब यज्ञ की एक भी चीज़ यथार्थ रूप से लगाते हो वा सम्भाल करते हो, व्यर्थ से बचाव करते हो तो समर्थी आती है भविष्य प्राप्ति के लिए। व्यर्थ से बचाव किया, अपना भविष्य बनाने की तो प्राप्ति हुई ना। इसलिए हरेक को अपने आपको चेक करना है। तो अपने को ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ कितना बनाया है? व्यर्थ से बचो, समर्थ बनो। जहां व्यर्थ है वहां समर्थरा भी नहीं और जहां समर्थी है वहां व्यर्थ जावे - यह हो नहीं सकता। अगर खज़ाना व्यर्थ जाता है तो समर्थी नहीं आ सकती है। जैसे देखो, कोई लीकेज होती है, कितना भी कोशिश करो लेकिन लीकेज कारण शक्ति भर नहीं सकती है। तो व्यर्थ भी लीकेज होने के कारण कितना भी पुरूषार्थ करेंगे, कितना भी मेहनत करेंगे लेकिन शक्तिशाली नहीं बन सकेंगे। इसलिए लीकेज को चेक करो। लीकेज को चेक करने के लिए बहुत होशियारी चाहिए। कई बार लीकेज तो मिलती नहीं है। बहुत होशियार होते हैं नॉलेजफुल होते हैं वह लीकेज को कैच कर सकते हैं। नॉलेजफुल नहीं तो लीकेज को ढूँढ़ते रहते हैं। तो अब नॉलेजफुल बन चेक करो तो व्यर्थ से समर्थ हो जायेंगे। समझा? अच्छा, मैसूर वाले क्या याद रखेंगे? माताएं सिर्फ याद की यात्रा में रहती हैं ना। क्योंकि भाषा तो समझ नहीं सकतीं। यह तो याद रखेंगी ना -- कम खर्च बाला नशीन। फिर भी भाग्यशाली हो। यह तो समझती हो सारे सृष्टि में हम विशेष आत्माएं हैं? अच्छा। यह समझती हो कि यहां कई बार आये हैं या समझती हो कि पहली बार ही आये हैं? कोई बन्धन नहीं है तो अपने को भाग्यशाली समझती हो या दुर्भाग्यशाली समझती हो? निर्बन्धन हो तो अपना भविष्य ऊंच बना सकती हैं। आप तो डभले भाग्यशाली हो -- एक तो बाप मिला, दूसरा भविष्य बनाने के लिए निर्बन्धन बनी हो। और ही खुशी होती है ना। ऐसे तो नहीं - पता नहीं क्या है? दु:ख तो महसूस नहीं होता? सुख अनुभव करती हो ना। अच्छा हुआ जो निर्बन्धन हो गई। ऐसे अपने को भाग्यशाली समझती हो या कभी दु:ख भी आता है? और कोई साथ होगा तो टक्कर होगा। शिव बाबा अगर साथ है तो टक्कर नहीं होगा ना। संगमयुग में लौकिक सुहाग का त्याग श्रेष्ठ भाग्य की निशानी है। आत्मा की प्रवृति में यह सम्बन्ध नहीं है। प्रवृति में सम्बन्ध में तो नहीं आती हो? अगर प्रवृति में रह आत्मा के सम्बन्ध में रहती हो तो अपना डभले भाग्य बना सकती हो। प्रवृति में रहते देह के सम्बन्ध से न्यारी रहती हो? तो प्रवृति में रहने वाले ऐसा भाग्य बना रहे हो। अच्छा।



02-04-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महिमा योग्य कैसे बनें ?

दा उपराम अवस्था में रहने के लिए विशेष किन दो बातों की आवश्यकता है? क्योंकि वर्तमान समय उपराम अवस्था में रहने के लिए हरेक नंबरवार पुरूषार्थ कर रहा है। वह दो बातें कौनसी आवश्यक हैं जिससे सहज ही उपराम स्थिति में स्थित हो सकते हो? याद तो है लेकिन उनमें भी दो बातें कौन-सी हैं, वह सुनाओ? दो बातें दो शब्दों में सुनाओ। अभी तो सारे ज्ञान के विस्तार को सार रूप में लाना है ना। शक्तियां विस्तार को सार में सहज कर सकती हैं? अपने अनुभव से सुनाओ। उपराम अवस्था वा साक्षीपन की अवस्था बात तो एक ही है। उसके लिए दो बातें यही ध्यान में रहें-एक तो मैं आत्मा महान् आत्मा हूँ, दूसरा मैं आत्मा अब इस पुरानी सृष्टि में वा इस पुराने शरीर में मेहमान हूँ। तो महान् और मेहमान - इन दोनों स्मृति में रहने से स्वत: और सहज ही जो भी कमजोरियां वा लगाव के कारण उपराम स्थिति न रह आकर्षण में आ जाते हैं वह आकर्षण समाप्त हो उपराम हो जायेंगे। महान् समझने से जो साधारण कर्म वा साधारण संकल्प वा संस्कारों के वश चलते हैं वह सभी अपने को महान् आत्मा समझने से परिवर्तित हो जाते हैं। स्मृति महान् की होने कारण संस्कार वा संकल्प वा बोल वा कर्म सभी चेन्ज हो जाते हैं। इसलिए सदैव महान् और मेहमान समझकर चलने से वर्तमान में और भविष्य में और फिर भक्ति-मार्ग में भी महिमा योग्य बन जायेंगे। अगर मेहमान वा महान् नहीं समझते तो महिमा योग्य भी नहीं बन सकते। महिमा सिर्फ भक्ति में नहीं होती लेकिन सारा कल्प किस-न-किस रूप में महिमा योग्य बनते हो। सतयुग में जो महान् अर्थात् विश्व के महाराजन वा महारानी बनते हैं, तो प्रजा द्वारा महिमा के योग्य बनते हैं। भक्ति-मार्ग में देवी वा देवता के रूप में महिमा योग्य बनते हैं और संगमयुग में जो महान् कर्त्तव्य करके दिखलाते हैं, तो ब्राह्मण परिवार द्वारा भी और अन्य आत्माओं द्वारा भी महिमा के योग्य बनते हैं। तो सिर्फ इस समय मेहमान और महान् आत्मा समझने से सारे कल्प के लिए अपने को महिमा योग्य बना सकते हो। हर कर्म और संकल्प को चेक करो कि महान् है अथवा मेहमान बनकर के चल रहे हैं वा कार्य कर रहे हैं? तो फिर अटैचमेन्ट खत्म हो जायेगी। मेहमान सिर्फ इस सृष्टि में भी नहीं लेकिन इस शरीर रूपी मकान में भी मेहमान हो। देह के भान की जो आकर्षण होती है वा स्मृति के रूप में जो संस्कार रूके हुए हैं वह बहुत ही सहज मिट सकते हैं, जब अपने को मेहमान समझेंगे। कोई आपका मकान है, आप उसको कारणे-अकारणे बेच देते हो, बेच दिया तो फिर अपना-पन चला गया। फिर भले उसी स्थान पर रहते भी हो लेकिन मेहमान समझकर रहेंगे। तो अपना समझ रहने में और मेहमान समझ रहने में कितना फर्क हो जाता है, तो यह शरीर जिसको समझते थे कि मैं शरीर हूँ, अभी इसको ऐसा समझो कि यह मेरा नहीं है। अभी मेरा कहेंगे? अभी यह शरीर आपका नहीं रहा, जिससे मरजीवा बने। तो मेरा शरीर भी नहीं। तन अर्पण कर दिया वा मेरा समझती हो? अभी इस पुराने शरीर की आयु तो समाप्त हो चुकी। यह तो ड्रामा अनुसार ईश्वरीय कर्त्तव्य अर्थ शरीर चल रहा है। इसलिए आप अभी यह नहीं कह सकतीं कि यह मेरा शरीर है। इस शरीर में भी मेरापन खत्म हो गया। अभी तो बाप ने आत्मा को कर्म करने के लिए यह टैम्प्रेरी लोन के रूप में दिया है। जैसे बाप समझते हैं मेरा शरीर नहीं, लोन लेकर कर्त्तव्य करने के लिए पार्ट बजाते हैं। तो आप भी बाप समान हो ना। मेरा शरीर समझेंगे तो सभी बातें आ जायेंगी। मेरा शब्द के साथ बहुत कुछ है। मेरापन ही खत्म तो उनके कई साथी भी खत्म हो जायेंगे। उपराम हो जायेंगे। यह शरीर लोन लिया है-ईश्वरीय कर्त्तव्य के लिए। और कोई कर्त्तव्य के लिए यह शरीर नहीं है। ऐसे अपने को मेहमान समझकर चलने से हर कर्म महान् स्वत: ही होगा। जब शरीर ही अपना नहीं तो शरीर के सम्बन्ध में जो भी व्यक्तियां वा वैभव हैं वह भी अपने नहीं रहे, तो सदा ऐसा समझकर चलो। ऐसे समझकर चलने वाले सदैव नशे में रहते हैं। उनको स्वत: ही अपना घर स्मृति में रहता है। न सिर्फ घर लेकिन 6 बातें जो बाप के प्रति सुनाते हो, वह सभी स्वत: स्मृति में रहती हैं। तो जैसे बाप का परिचय देने के लिए सार रूप में सुनाते हो, उसमें सारा ज्ञान आ जाता है, वह सार 6 बातों में सुनाते हो। तो अपने को अगर मेहमान समझकर चलेंगे तो अपनी भी 6 बातें सदा स्मृति में रहेंगी। नाम – सर्वोत्तम ब्राह्मण हैं। रूप-शालिग्राम है। इसी प्रकार से समय की स्मृति, घर की स्मृति, कर्त्तव्य की स्मृति, वर्से की स्मृति स्वत: ही रहती है। सारा ज्ञान जो विस्तार में इतना समय सुना है वह सार रूप में आ जाता है। जो भी बोल बोलेंगे वा कर्म करेंगे उसमें सार भरा होगा, असार नहीं होगा। असार अर्थात् व्यर्थ। तो आप के हर बोल और कर्म में सारे ज्ञान का सार होना चाहिए। वह तब होगा जब सारे ज्ञान का सार बुद्धि में होगा। सदा नशे में रहने से ही निशाना लगा सकेंगे। अगर नशा नहीं तो निशाना ही नहीं लगता है। सारे ज्ञान का सार 6 शब्दों में बुद्धि में आने से सारा ज्ञान रिवाइज हो जाता है। तो नशा कम होने कारण निशाना ऊपर-नीचे हो जाता है। अभी-अभी फुल फोर्स में नशा रहता, अभी- अभी मध्यम हो जाता है। नीचे की स्टेज तो खत्म हो गई ना। नीचे की स्टेज क्या होती है, उसकी अविद्या होनी चाहिए। बाकी श्रेष्ठ और मध्यम की स्टेज। मध्य की स्टेज में आने के कारण रिजल्ट वा निशाना भी मध्यम ही रहेगा। वर्तमान समय अपनी स्मृति की स्टेज में, सर्विस की स्टेज - दोनों में अगर देखो तो रिजल्ट मध्यम दिखाई देती। मैजारिटी कहते हैं - जितना होना चाहिए उतना नहीं है। उस मध्यम रिजल्ट का मुख्य कारण यह है कि मध्यकाल के संस्कारों को अभी तक पूरी रीति भस्म नहीं किया है। तो यह मध्यकाल के संस्कार अर्थात् द्वापर काल से लेकर जो देह-अभिमान वा कमजोरी के संस्कार भरते गये हैं उनके वश होने कारण मध्यम रिजल्ट दिखाई देती है। कम्पलेन भी यही करते हैं कि चाहते नहीं हैं लेकिन संस्कार बहुत काल के होने कारण फिर हो जाता। तो इन मध्यकाल के संस्कारों को पूरी रीति भस्म नहीं किया है। डाक्टर लोग भी बीमारी के जर्मस (कीटाणु) को पूरी रीति खत्म करने की कोशिश करते हैं। अगर एक अंश भी रह जाता है तो अंश से वंश पैदा हो जाता। तो इसी प्रकार मध्यकाल के संस्कार अंश रूप में भी होने कारण आज अंश है, कल वंश हो जाता है। इसी के वशीभूत होने कारण जो श्रेष्ठ रिजल्ट निकलनी चाहिए वह नहीं निकलती। कोई से भी पूछो कि आप अपने आप से सन्तुष्ट, अपने पुरूषार्थ से, अपनी सर्विस से वा अपने ब्राह्मण परिवार के सम्पर्क से सन्तुष्ट हो; तो सोचते हैं। भले हां करते भी हैं लेकिन सोच कर करते हैं, फलक से नहीं कहते। अपने पुरूषार्थ में, सर्विस में और सम्पर्क में - तीनों में ही सर्व आत्माओें के द्वारा सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट मिलना चाहिए। सर्टिफिकेट कोई कागज पर लिखत नहीं मिलेगा लेकिन हरेक द्वारा अनुभव होगा। ऐसे सर्व आत्माओं के सम्पर्क में अपने को सन्तुष्ट रखना वा सर्व को सन्तुष्ट करना इसी में ही जो विजयी बनते हैं वही अष्ट देवता विजयी रत्न बनते हैं। दो बातों में ठीक हो जाते, बाकी जो यह तीसरी बात है उसमें यथा शक्ति और नंबरवार हैं। हैं तो सभी बातों में नंबरवार लेकिन इस बात में ज्यादा हैं। अगर तीनों में सन्तुष्ट नहीं तो श्रेष्ठ वा अष्ट रत्नों में नहीं आ सकते। ‘पास विद् ऑनर’ बनने के लिए सर्व द्वारा सन्तुष्टता का पासपोर्ट मिलना चाहिए। सम्पर्क की बात में कमी पड़ जाती है। सम्पर्क में सन्तुष्ट रहने और सन्तुष्ट करने की बात में पास होने के लिए कौनसी मुख्य बात होनी चाहिए? अनुभव के आधार से देखो, सम्पर्क में असन्तुष्ट क्यों होते हैं? सर्व को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को श्रेष्ठ बनाने के लिए मुख्य बात अपने में सहन करने की वा समाने की शक्ति होनी चाहिए। असन्तुष्टता का कारण यह होता है जो कोई की वाणी वा संस्कार वा कर्म देखते हो वो अपने विवेक से यथार्थ नहीं लगता है, इसी कारण ऐसा बोल वा कर्म हो जाता है जिससे दूसरी आत्मा असन्तुष्ट हो जाती है। कोई का भी कोई संस्कार वा शब्द वा कर्म देख आप समझते हो - यह यथार्थ नहीं है वा नहीं होना चाहिए; फिर भी अगर उस समय समाने की वा सहन करने की शक्तियां धारण करो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति आटोमे- टिकली उसको अपने अयथार्थ चलन का साक्षात्कार करायेगी। लेकिन होता क्या है-वाणी द्वारा वा नैन-चैन द्वारा उसको महसूस कराने वा साक्षात्कार कराने लिए आप लोग भी अपने संस्कारों के वश हो जाते हो। इस कारण न स्वयं सन्तुष्ट, न दूसरा सन्तुष्ट होता है। उसी समय अगर समाने की शक्ति हो तो उसके आधार से वा सहन करने की शक्ति के आधार से उनके कर्म वा संस्कार को थोड़े समय के लिए अवायड कर लो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति उस आत्मा के ऊपर सन्तुष्टता का बाण लगा सकती है। यह न होने कारण असन्तुष्टता होती है। तो सभी के सम्पर्क में सर्व को सन्तुष्ट करने वा सन्तुष्ट रहने के लिए यह दो गुण वा दो शक्तियां बहुत आवश्यक हैं।इससे ही आपके गुण गायन होंगे। भले उसी समय विजय नहीं दिखाई देगी, हार दिखाई देगी। लेकिन उसी समय की हार अनेक जन्मों के लिए आपके गले में हार डालेगी। इसलिए ऐसी हार को भी जीत मानना चाहिए। यह कमी होने कारण इस सब्जेक्ट में जितनी सफलता होनी चाहिए उतनी नहीं होती है। बुद्धि में नॉलेज होते हुए भी किस समय किस रूप से किसको नॉलेज वा युक्ति से बात देनी है, वह भी समझ होनी चाहिए। समझते हैं - मैंने उनको शिक्षा दी। लेकिन समय नहीं है, उनकी समर्थी नहीं है तो वह शिक्षा, शिक्षा का काम नहीं करती है। जैसे धरती देखकर और समय देखकर बीज बोया जाता है तो सफलता भी निकलती है। समय न होगा वा धरनी ठीक नहीं होगी तो फिर भले कितना भी बड़ी क्वालिटी का बीज हो लेकिन फिर वह फल नहीं निकलेगा। इसी रीति ज्ञान के प्वाइंट्स वा शिक्षा वा युक्ति देनी है तो धरनी और समय को देखना है। धरती अर्थात् उस आत्मा की समर्थी को देखो और समय भी देखो तब शिक्षा रूपी बीज फल दे सकता है। समझा?

तो वर्तमान समय सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को वा महावीर, महावीरनियों को इसी विशेष पुरूषार्थ तरफ अटेन्शन देना चाहिए। यही महावीरता है। सन्तुष्ट को सन्तुष्ट रखना महावीरता नहीं है, स्नेही को स्नेह देना महावीरता नहीं, सहयोगी साथ सहयोगी बनना महावीरता नहीं। लेकिन जैसे अपकारियों पर भी उपकार करते हैं, कोई कितना भी असहयोगी बने, अपने सहयोग की शक्ति से असहयोगी को सहयोगी बनाना - इसको महावीरता कहा जाता है। ऐसे नहीं कि इस कारण से यह नहीं होता है, यह आगे नहीं बढ़ता है तब यह नहीं होता है। वह बढ़े वा न बढ़े, आप तो बढ़ सकते हो ना? ऐसे समझना चाहिए कि यह भी सम्बन्ध का स्नेह है। कोई सम्बन्धी अगर कोई बात में कमजोर होता है तो कमजोर को कमजोर समझ छोड़ देना मर्यादा नहीं कही जाती है। ईश्वरीय मर्यादा वही है जो कमजोर को कमज़ोर समझ छोड़ न दे। लेकिन उसको भले देकर भलेवान बनावे और साथी बनाकर ऐसे कमजोर को हाई जम्प देने योग्य बनावे, तब कहेंगे महावीर। तो इस सब्जेक्ट के ऊपर अटेन्शन रखने से फिर जो भी सर्विस के प्लैन्स बनाते हो वा प्वाइंट्स निकालते हो वह सर्विस के प्लैन्स रूपी जेवरों में यह हीरे चमक जायेंगे। सिर्फ सोना दूर से इतनी आकर्षण नहीं करता है। अगर सोने के अन्दर हीरा होता है तो वह दूर से ही अपने तरफ आकर्षित करता है। प्लान्स बनाते हो वह तो भले बनाओ लेकिन प्लॉन में यह जो हीरा है उसको हरेक अपने आप में लगाकर फिर प्लॉन को प्रैक्टिकल में करो तो फिर सारे विश्व में जो आवाज फैलाने चाहते हो उसमें सफलता मिल सकेगी। दूर दूर की आत्मायें इस हीरे पर आकर्षित हो आयेंगी। समझा? अच्छा!



27-04-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


लकी और लवली बनने का पुरुषार्थ

पने को लवलीएस्ट और लक्कीएस्ट दोनों समझते हो? लवली भी हो और लक्की भी हो, यह दोनों ही अपने में समझते हो तो सदा निर्विघ्न, लग्न में मग्न अवस्था का अनुभव करेंगे। अगर सिर्फ लक्की हैं लेकिन लवली नहीं हैं तो भी सदा लगन में मग्न रहेंगे लेकिन निर्विघ्न अवस्था का अनुभव नहीं करेंगे। और सिर्फ लवली हैं, लक्की नहीं तो भी जो अवस्था सुनाई उसका अनुभव नहीं कर पायेंगे। इसलिए दोनों की आवश्यकता है। लवली और लक्की - दोनों की प्राप्ति के लिए मुख्य तीन बातें आवश्यक हैं। अगर वह तीनों बातें अपने में अनुभव करेंगे तो लक्की और लवली रूर होंगे। वह तीन बातें कौन-सी हैं जिससे सहज ही यह दोनों स्थिति अनुभव कर सकते हो? लक्क को बनाया भी जा सकता है वा बना हुआ होता है? अपने को लक्की बना सकते हो वा पहले से जो लक्की बने हुए हैं वही बन सकते हैं? अपनी लक्क बनाई जा सकती है वा बनी हुई के ऊपर चलना होता है? तकदीर को चेन्ज कर सकते हो वा नहीं? अन लक्की से लक्की बन सकते हो? लक्क बनाने के लिए पुरूषार्थ की मार्जिन है? (हां) तकदीर जगाकर आये हो वा तकदीर जगाने के लिए आये हो? तकदीर जो जगी हुई है वह साथ ले आये हो ना, फिर क्या बनायेंगे? तकदीर जो जगाकर आये हैं उस अनुसार ही बाप के बने लेकिन बाप के बनने में ही तकदीर की बात है ना। तकदीर बनाकर भी आये हैं और बना भी सकते हैं, ऐसे? जब कोई बात पर ज्यादा पुरूषार्थ कर लेते हो तो अपने अन्दर से कब संकल्प आता है कि मेरी तकदीर में तो यही देखने में आता है? पुरूषार्थ के बाद भी सफलता नहीं होती है तो समझते हो ना-तकदीर में यह ऐसा है। सफलता न मिलने का कारण क्या है? अपनी रीति से पुरूषार्थ किया फिर भी सफलता नहीं मिलती तो फिर क्या कहते हो? ड्रामा में ऐसा ही है। तो ड्रामा का बना हुआ लक ही ले आये हो ना? पुरुषार्थी को कभी भी यह समझना नहीं चाहिए कि मेरे पुरूषार्थ करने के बाद कोई असफलता भी हो सकती है। सदैव ऐसा ही समझना चाहिए कि पुरूषार्थ जो किया वह कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। अगर सही प्र्कार से पुरूषार्थ किया तो उसकी सफ़लता अब नहीं तो कब मिलनी रूर है। असफलता का रूप देखकर समझना है कि यह परीक्षा है, इससे पार होने के बाद परिपक्वता आने वाली है। तो वह असफलता नहीं है लेकिन अपने पुरूषार्थ के फाउन्डेशन को पक्का करने का एक साधन है। कभी भी कोई चीज़ को मजबूत करना होता है तो पहले उसके फाउन्डेशन को ठोका जाता है, ठोक-ठोक कर पक्का किया जाता है। वह ठोकना ही परिपक्वता का साधन है। तो कब भी अपने व्यक्तिगत पुरूषार्थ में वा संगठन के सम्पर्क में वा ईश्वरीय सेवा में तीनों प्रकार के पुरूषार्थ में बाहर का रूप असफलता का दिखाई भी दे तो ऐसे ही समझना चाहिए कि यह असफलता नहीं लेकिन परिपक्वता का साधन है। जैसे सुनाया था कि तूफान को तूफान न समझकर एक तोफा समझना चाहिए। नैइया में झोंके आते हैं लेकिन वह आगे बढ़ाने का एक साधन है। इसी प्रकार असफलता में सफलता समाई हुई है, यह समझ कर आगे बढ़ना चाहिए। असफलता शब्द ही बुद्धि में नहीं आना चाहिए अगर पुरूषार्थ सही है तो। अच्छा-सुना रहे थे कि लक्की और लवली बनने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं वह कौन-सी? पहले सोचो-लक कैसे बन सकता है? अपने को ही देख लो कि हम लक्की, लवली हैं? अपने लक को क्यों नहीं जगा सकते हो? उसका मूल कारण-नॉलेजफुल नहीं हो। नॉलेजफुल में सभी प्रकार की नॉलेज आ जाती है। जितना जो नॉलेजफुल होगा उतना लकी Nजरूर होगा। क्योंकि नॉलेज की लाइट और माइट से आदि-मध्य-अन्त को जानकर जो भी पुरूषार्थ करेगा उसमें उनको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। सफलता प्राप्त होना यह एक लक की निशानी है। यह तो वह नॉलेजफुल होगा अर्थात् फुल नॉलेज होगी। फुल में अगर कोई भी कमी है तो लकीएस्ट में भी नंबरवार है। नॉलेजफुल है तो लकीएस्ट भी नंबरवन होगा। कर्म की भी नॉलेज होती है और अपनी रचयिता और रचना की भी नॉलेज होती है। चाहे परिवार, चाहे ज्ञानी आत्माओं के सम्पर्क में कैसे आना चाहिए उसकी भी नॉलेज होती है। नॉलेज सिर्फ रचयिता और रचना की नहीं लेकिन नॉलेजफुल अर्थात् हर संकल्प और हर शब्द हर कर्म में ज्ञान स्वरूप होगा। उनको ही नॉलेजफुल कहते हैं। दूसरी बात-जितना नॉलेजफुल होगा उतना ही केयरफुल भी होगा। जितना केयरफुल होगा उतना ही उसकी निशानी चियरफुल होगा। अगर कोई केयरफुल नहीं तो भी लवली नहीं लगेगा। अगर कोई चियरफुल नहीं तो भी लवली नहीं लगेगा।

जो केयरफुल नहीं रहता है उनसे समय-प्रति-समय अपनी वा दूसरों के सम्पर्क में आने से कोई न कोई छोटी-बड़ी भूल होने कारण न स्वयं लवली रहेगा, न दूसरों का लवली बन सकेगा। इसलिए जो केयरफुल होगा वह चियरफुल रूर होगा। ऐसा नहीं समझना कि केयरफुल जो होगा वह अपने पुरूषार्थ में अधिक मग्न होने कारण चियरफुल नहीं रह सकता, ऐसी बात नहीं है। केयरफुल की निशानी चियरफुल है। तो यह तीनों ही क्वालिफिकेशन वा बातें अगर हैं तो लक्की और लवली दोनों बन सकते हैं। एक दो के सहयोग से भी अपनी लक्क को बना सकते हो। लेकिन एक दो का सहयोग तब मिलेगा जब केयरफुल और चियरफुल होंगे। अगर चियरफुल नहीं होता तो सक्सेसफुल भी नहीं होंगे। केयरफुल और चियरफुल है तो सक्सेसफुल अर्थात् लक्की है। तो यह तीन बातें अपने आप में देखो। अगर तीनों ही ठीक परसेन्टेज में हैं तो समझो हम लक्की और लवलीएस्ट दोनों हैं, अगर परसेन्टेज में कमी है तो फिर यह स्टेज नहीं हो सकती है। अब समझा, निशानी क्या है? मुख से ज्ञान सुनाना इतना प्रभाव नहीं डाल सकता है। सदैव चियरफुल चेहरा रहे, दुःख की लहर संकल्प में भी न आये-उसको कहा जाता है चियरफुल। तो अपने चियरफुल चेहरे से ही सर्विस कर सकते हो। जैसे चुम्बक के तरफ ऑटोमेटिकली आकर्षित होकर लोहा जायेगा, इसी प्रकार सदा चियरफुल स्वयं ही चुम्बक का स्वरूप बन जाता है। उनको देखते ही सभी समीप आयेंगे। समझेंगे आज की दुनिया में जबकि चारों ओर दु:ख और अशान्ति के बादल छाये हुए हैं, ऐसे वायुमण्डल में यह सदा चियरफुल रहते हैं। यह क्यों और कैसे रहते हैं, वह देखने की उत्कण्ठा होगी। जैसे जब बहुत तूफान लगते हैं वा वर्षा पड़ती है तो उस समय लोग जहाँ बारिश-तूफान से बचाव देखते हैं, वहाँ न चाहते भी भागते हैं। स्थान कोई बुलाता नहीं है, लेकिन वायुमण्डल प्रमाण वह सेफ्टी का साधन है तो लोग रूर वहाँ भागेंगे। अपने आप को बचाने के लिए उस स्थान का सहारा लेते हैं। खि्ांच कर आ जाते हैं ना। तो ऐसे ही समझो - वर्तमान समय चारों ओर माया का तूफान और दु:ख के बादल गरज रहे हैं। ऐसे समय में सेफ्टी के साधन को देख आपकी तरफ आकर्षित होंगे। वह आकर्षित करने वाला बाहर का रूप कौन-सा है? चियरफुल चेहरा। तो लवली और लक्की दोनों होना चाहिए। कहां-कहां नॉलेजफुल हैं, केयरफुल भी हैं लेकिन चियरफुल नहीं। केयर करते हैं, केयर करते-करते चेयर छोड़ देते हैं, तो चियरफुल नहीं बन सकते हैं। इसलिए जो दोनों का होना चाहिए वह नहीं होता। दोनों ही अपने में धारण करना चाहिए। उसके लिए मुख्य पुरूषार्थ वा अटेन्शन वा केयर किस बात में रहे जो यह तीनों बातें सहज ही अपने में ला सको, वह जानते हो? केयरफुल तो होना ही है लेकिन मुख्य केयर किस बात की रखनी है? केयरफुल किन-किन बातों में होते हैं? (भिन्न-भिन्न उतर मिले) बाप ने क्या केयर किया जिससे ऐसा बना? वह मुख्य बात कौन-सी है? आप लोगों की जो महिमा गाई जाती है, वह पूरी वर्णन करो-सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोतम...। जब मर्यादाओं का उल्लंघन होता है तब ही केयरलेस होते हो। आप लोगों के सम्पूर्ण स्टेज का जो गायन है, जैसे सीता को मर्यादा की लकीर के अन्दर रहने की आज्ञा दी। और कोई लकीर नहीं थी लेकिन यह मर्यादा ही लकीर है। अगर ईश्वरीय मर्यादाओं की लकीर से बाहर निकल जाते हैं तो फकीर बन जाते हैं अर्थात् जो भी कोई प्राप्ति है उससे भिखारी, फकीर बन जाते हैं। फिर चिल्लाते हैं, जैसे फकीर चिल्लाते हैं - दो पैसा दे दो, कपड़ा दे दो। ऐसे ही जो मर्यादा की लकीर का उल्लंघन करते हैं उनकी स्थिति फकीर के समान बन जाती है। वह कहेंगे - कृपा करो, आशीर्वाद करो, सहयोग दो, स्नेह दो। तो गोया फकीर हो गये ना। लेकिन मेरा अधिकार है, उनको कहेंगे बालक और मालिकपन। अधीन होकर मांगना, फिर कोई भी चीज़ मांगने वाले को फकीर ही कहा जाता है। तो यह जो मर्यादाओं की लकीर है, उससे अगर बाहर निकलते हो तो फकीर बन जाते हो। फिर मदद लेनी पड़ती है। वैसे तो जो भी बाप के बच्चे बने हैं तो लक्की भी हैं, लवली भी हैं। वह स्वयं ईश्वरीय कार्य में मददगार हैं, न कि मदद लेने वाले हैं। आप लोगों का मददगार बनने का चित्र भी है, मदद मांगने का नहीं है। भक्तों का चित्र मांगने का ही होता है। बालक सो मालिक जो हैं वह सदैव मददगार हैं। जो स्वयं ही मददगार हैं वह मदद मांग नहीं सकते, वह देने वाले हैं, न कि लेने वाले। दाता कब लेता नहीं है, दाता देने वाला होता है। तो अपने आप को एक ही बाप अर्थात् राम की सच्ची सीता समझकर सदा मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहें अर्थात् यह केयर करें तो केयरफुल रहेंगे। केयरफुल से ऑटोमेटिकली चियरफुल बनेंगे। तो वह मर्यादायें क्या-क्या हैं, वह सभी बुद्धि में रहनी चाहिए

सवेरे से रात तक कौन-कौन सी मर्यादायें किस-किस कर्म में रखनी हैं, वह सभी नॉलेज स्पष्ट होनी चाहिए। अगर नॉलेज नहीं तो केयरफुल भी नहीं हो सकते। तो सीता समझ करके इस लकीर के अन्दर रहो अर्थात् जो केयरफुल होगा, मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहेगा वही पुरूषोतम बन सकता है। कब देखो चियरफुल नहीं रहते हैं तो अवश्य कोई मर्यादा का उल्लंघन किया है। मर्यादा संकल्प के लिए भी है। व्यर्थ संकल्प भी नहीं करना है। अगर इस लकीर से बाहर व्यर्थ संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं तो मानो संकल्प में मर्यादाओं का उल्लंघन किया तब चियरफुल नहीं हैं। ऐसे ही मुख से क्या बोल बोलना है और किस स्थिति में स्थित होकर मुख से बोलना है, यह है मर्यादा वाणी के लिए। अगर वाणी में भी कोई उल्लंघन होता है तो चियरफुल नहीं रहते। अपने व्यर्थ संकल्प, विकल्प ही अपने को चियरफुल स्टेज से गिरा देते हैं, क्योंकि मर्यादा का उल्लंघन किया। अगर मर्यादा की लकीर के अन्दर सदा अपने को रखो तो यह रावण अर्थात् माया अथवा विघ्न इसी मर्यादा की लकीर के अन्दर आने की हिम्मत नहीं रख सकते। कोई भी विघ्न अथवा तूफान, परेशानी वा उदासाई आती है तो समझना चाहिए - कहां-न-कहां मर्यादाओं की लकीर से अपनी बुद्धि रूपी पांव को निकाला है। जैसे सीता ने पांव निकाला। बुद्धि भी पांव है जिससे यात्रा करते हो। तो बुद्धि रूपी पांव रा भी मर्यादाओं की लकीर से बाहर निकालते हो, तब यह सभी बातें आती हैं। और क्या बना देती हैं? बाप के लक्की और लवली को फकीर बना देती हैं। फकीर बनने की निशानी - एक तो आत्माओं से, बाप से सहारा मांगेंगे। अपना खज़ाना जो शक्तियां हैं वह खत्म हो जायेंगी। कहावत है - लकीर के फकीर। तो ऐसा जो फकीर बनता है वह लकीर के भी फकीर होते हैं। वह शक्तिशाली स्टेज खत्म हो जाती है। भले ज्ञान बोलता रहेगा, पुरूषार्थ करता रहेगा परन्तु लकीर के फकीर के समान। अपनी प्राप्ति का नशा वा शक्ति जो होनी चाहिए वह नहीं रहेंगी। भक्ति मार्ग में भी लकीर के फकीर होते हैं ना। तो ऐसे मर्यादाओं के लकीर को उल्लंघन करने वाले दोनों प्रकार के फकीर बन जाते हैं। इसलिए कब भी फकीर नहीं बनना। इस समय जो विश्व के बादशाह बनेंगे उनके भी बादशाह हो। जैसे राजाओं का राजा कहा जाता है, वह तो विश्व के राजा जब बनेंगे उस समय की स्टेज को राजाओं का राजा कहा जाता है लेकिन इस समय ब्राह्मणपन की जो स्टेज है वा डायरेक्ट बाप द्वारा नॉलेजफुल बनने की स्टेज ऊंच है, तो ऐसे स्टेज को छोड़ कर फकीर बनना शोभता तो नहीं है ना? इसलिए हर संकल्प और कर्म में यह चेक करो अर्थात् केयर करो-बाहर तो नहीं निकलते? ऐसे अपने को मर्यादा पुरूषोत्तम बनाओ। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम बनने के तीव्र पुरुषार्थी, नॉलेजफुल, केयरफुल और चियरफुल श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते। अच्छा!



03-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 “लॉ मेकर” बनो, “लॉ ब्रेकर” नहीं

पने को लवफुल और लाफुल दोनों ही समझते हो? जितना ही लवफुल उतना ही लाफुल हो कि जब लवफुल बनते हो तो लॉ-फुल नहीं बन सकते हो वा जब लाफुल बनते हो तो लवफुल नहीं बन सकते हो? क्या दोनों ही साथ-साथ एक ही समय कर्म में वा स्वरूप में दिखाई दे सकते हैं? क्योंकि जब तक ला और लव दोनों ही समान नहीं हुए हैं तब तक कार्य में सदा सफलतामूर्त बन नहीं सकते। सफलता-मूर्त वा सम्पूर्णमूर्त बनने के लिए इन दोनों की आवश्यकता है। लॉफुल अपने आप के लिए भी बनना होता है। न सिर्फ दूसरों के लिए लाफुल बनना पड़ता है लेकिन जो स्वयं अपने प्रति लाफुल बनता है वही दूसरों के प्रति भी लाफुल बन सकता है। अगर स्वयं अपने प्रति कोई भी ला को ब्रेक करता है तो वह दूसरों के ऊपर ला चला नहीं सकता। कितना भी दूसरों के प्रति लॉफुल बनने का प्रयत्न करेगा लेकिन बन नहीं सकेगा। इसलिए अपने आप से पूछो कि मैं अपने प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति लाफुल बना हूं? प्रात: से लेकर रात तक मंसा स्वरूप में अथवा कर्म में सम्पर्क वा एक दो को सहयोग देने में, वा सेवा में कहां भी किस प्रकार का ला ब्रेक तो नहीं किया? जो ला-ब्रेकर होगा वह नई दुनिया का मेकर नहीं बन सकेगा। वा पीस-मेकर, न्यु-वर्ल्ड-मेकर नहीं बन सकेगा। तो अपने आपको देखो कि मैं न्यु-वर्ल्ड-मेकर वा पीस-मेकर, ला-मेकर हूं वा ला-ब्रेकर हूं? जो स्वयं ला-मेकर हैं वही अगर ला को ब्रेक करता है, तो क्या ऐसे को ला-मेकर कहा जा सकता है? ईश्वरीय लाज (कायदे) वा ईश्वरीय नियम क्या हैं, वह सभी स्पष्ट जान गये हो वा अभी जानना है? जानने का अर्थ क्या होता है? जानना अर्थात् चलना। जानने के बाद मानना होता है, मानने के बाद फिर चलना होता है। तो ऐसे समझें कि यह जो भी बैठे हुए हैं वह सभी जान गये हैं अर्थात् चल रहे हैं? अमृतवेले से लेकर जो भी दिनचर्या बता रहे हो वह सभी ईश्वरीय लाज के प्रमाण बिता रहे हो कि इसमें कुछ परसेन्टेज है? जानने में परसेन्टेज है? अगर जानने में परसेन्टेज नहीं है और जानकर चलने में परसेन्टेज है तो उसको जानना कैसे कहेंगे? यथार्थ रूप से नहीं जाना है तब चल नहीं पाते हो वा जान गये हैं बाकी चल नहीं पाते हो, क्या कहेंगे? जब कहते हो यहां जानना, मानना, चलना एक ही है; फिर यह अन्तर क्यों रखा है? अज्ञानियों को यह समझाते हो कि आप जानते हो हम आत्मा हैं, लेकिन मानकर चलते नहीं हो। आप भी जानते हो कि यह ईश्वरीय नियम हैं, यह नहीं हैं; जानकर फिर चलते नहीं हो तो इस स्टेज को क्या कहेंगे? (पुरूषार्थ) पुरुषार्थी जीवन में गलती होना माफ है, ऐसे? जैसे ड्रामा की ढाल सहारा दे देती है वैसे पुरुषार्थी शब्द भी हार खाने में वा असफलता प्राप्त होने में बहुत अच्छी ढाल है। अलंकारों में यह ढाल दिखाई हुई है? ऐसे को पुरुषार्थी कहेंगे? पुरूषार्थ शब्द का अर्थ क्या करते हो? इस रथ में रहते अपने को पुरूष अर्थात् आत्मा समझकर चलो, इसको कहते है पुरुषार्थी। तो ऐसे पुरूषार्थ करने वाला अर्थात् आत्मिक स्थिति में रहने वाला इस रथ का पुरूष अर्थात् मालिक कौन है? आत्मा ना। तो पुरुषार्थी माना अपने को रथी समझने वाला। ऐसा पुरुषार्थी कब हार नहीं खा सकता। तो पुरूषार्थ शब्द को इस रीति से यूज न करो। हां, ऐसे कहो -- हम पुरूषार्थहीन हो जाते हैं तब हार होती है। अगर पुरूषार्थ में ठीक लगा हुआ है तो कब हार नहीं हो सकती है। जानने और चलने में अगर अन्तर है तो ऐसी स्टेज वाले को पुरुषार्थी नहीं कहा जायेगा। पुरुषार्थी सदैव मंजिल को सामने रखते हुए चलते हैं, वह कब रूकता नहीं। बीच-बीच में मार्ग में जो सीन आती हैं उनको देखने लगते हैं लेकिन रूकते नहीं। देखते हो वा देखते हुए नहीं देखते हो? जो भी बात सामने आती है उनको देखते हा? ऐसी अवस्था में चलने वाले को पुरुषार्थी नहीं कहा जा सकता। पुरुषार्थी कब भी अपनी हिम्मत और उल्लास को छोड़ते नहीं हैं। हिम्मत, उल्लास सदा साथ है तो विजय सदैव है ही। हिम्मतहीन जब बनते हैं अथवा उल्लास के बजाय्ए किसी-न-किसी प्रकार का आलस्य जब आता है तब ही हार होती है। और छोटी-सी गलती करने से लाफुल बनने के बजाए स्वयं ही ला-मेकर होते हुए ला को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। वह छोटी- सी गलती कौनसी है? एक मात्रा की सिर्फ गलती है। एक मात्रा के अन्तर से ला-मेकर के बजाए ला को ब्रेक करने वाले बन जाते हैं। ऐसे सदा सरेन्डर रहें तो सफलतामूर्त, विजयीमूर्त बन जायेंगे। लेकिन कभी-कभी अपनी मत चला देते हैं, इसलिए हार होती है। अच्छा, एक मात्रा के अन्तर का शब्द है -- शिव के बजाए शव को देखते हैं। शव को देखने से शिव को भूल जाते हैं। शिव शब्द बदलकर विष बन जाता है। विष, विकारों की विष। एक मात्रा के अन्तर से उलटा बन जाने से विष भर जाता है। उसका फिर परिणाम भी ऐसा ही निकलता है। उलटे हो गये तो परिणाम भी रूर उलटा ही निकलेगा। इसलिए कब भी शव को न देखो अर्थात् इस देह को न देखो। इनको देखने से अथवा शरीर के भान में रहने से ला ब्रेक होता है। अगर इस ला में अपने आपको सदा कायम रखो कि शव को नहीं देखना है; शिव को देखना है तो कब भी कोई बात में हार नहीं होगी, माया वार नहीं करेगी। जब माया वार करती है तो हार होती है। अगर माया वार ही नहीं करेगी तो हार कैसे होगी? तो अपने आपको बाप के ऊपर हर संकल्प में बलिहार बनाओ तो कब हार नहीं होगी। संकल्प में भी अगर बाप के ऊपर बलिहार नहीं हो, तो संकल्प कर्म में आकर हार खिला देते हैं। इसलिए अगर ला-मेकर अपने को समझते हो तो कभी भी इस ला को ब्रेक नहीं करना। चेक करो -- यह जो संकल्प उठा वह बाप के ऊपर बलिहार होने योग्य है? कोई भी श्रेष्ठ देवताएं होते हैं, उनको कभी भी कोई भेंट चढ़ाते हैं तो देवताओं के योग्य भेंट चढ़ाते हैं, ऐसे-वैसे नहीं चढ़ाते। तो हर संकल्प बाप के ऊपर अर्थात् बाप के कर्त्तव्य के ऊपर बलिहार जाना है। यह चेक करो - जैसे ऊंच ते ऊंच बाप है वैसे ही संकल्प भी ऊंच है जो भेंट चढ़ावें? अगर व्यर्थ संकल्प, विकल्प हैं तो बाप के ऊपर बलि चढ़ा नहीं सकते, बाप स्वीकार कर नहीं सकते। आजकल शक्तियों और देवियों का भोजन होता है तो उसमें भी शुद्धिपूर्वक भोग चढ़ाते हैं। अगर उसमें कोई अशुद्धि होती है तो देवी भी स्वीकार नहीं करती है, फिर वह भक्तों को महसूसता आती है कि देवी ने हमारी भेंट स्वीकार नहीं की। तो आप भी श्रेष्ठ आत्मायें हो। शुद्धि पूर्वक भेंट नहीं है तो आप भी स्वीकार नहीं करते हो। ऊंच ते ऊंचे बाप के आगे क्या भेंट चढ़ानी है वह तो समझ सकते हो। हर संकल्प में श्रेष्ठता भरते जाओ, हर संकल्प बाप और बाप के कर्त्तव्य में भेंट चढ़ाते जाओ। फिर कब भी हार नहीं खा सकेंगे। अभी फिर भी कोई व्यर्थ अथवा अशुद्ध संकल्प चलने की प्रत्यक्ष रूप में कोई सजा नहीं मिल रही है, लेकिन थोड़ा आगे चलेंगे तो कर्म की तो बात ही छोड़ो लेकिन अशुद्ध वा व्यर्थ संकल्प जो हुआ, किया उसकी प्रत्यक्ष सजा का भी अनुभव करेंगे। क्योंकि जब व्यर्थ संकल्प करते हो तो संकल्प भी खज़ाना है। खज़ाने को जो व्यर्थ गंवाता है उसका क्या हाल होता है? व्यर्थ धन गंवाने वाले की रिजल्ट क्या निकलती है? दिवाला निकल जाता है। ऐसे ही यह श्रेष्ठ संकल्पों का खज़ाना व्यर्थ गंवाते-गंवाते बाप द्वारा जो वर्सा प्राप्त होना चाहिए वह प्राप्ति का अनुभव नहीं होता। जैसे कोई दिवाला मारते हैं तो क्या गति हो जाती है? ऐसे स्थिति का अनुभव होगा। इसलिए अभी जो समय चल रहा है वह बहुत सावधानी से चलने का है, क्योंकि अभी यात्री चलते-चलते ऊंच मंजिल पर पहुंच गये हैं। तो ऊंच मंजिल पर कदम-कदम पर अटेन्शन रखने की बहुत आवश्यकता होती है। हर कदम में चेकिंग करने की आवश्यकता होती है। अगर एक कदम में भी अटेन्शन कम रहा तो रिजल्ट क्या होगी? ऊंचाई के बजाए पांव खिसकते-खिसकते नीचे आ जायेंगे। तो वर्तमान समय इतना अटेन्शन है वा अलबेलापन है? पहला समय और था, वह समय बीत चुका। जैसे-जैसे समय बीत चुका तो समय के प्रमाण परिस्थितियों के लिए बाप रहमदिल बन कुछ- न-कुछ जो सैलवेशन देते आये हैं वह समय प्रमाण अभी समाप्त हो चुका। अभी रहमदिल नहीं। अगर अब तक भी रहमदिल बनते रहे तो आत्मायें अपने उपर रहमदिल बन नहीं सकेंगी। जब बाप इतनी ऊंच स्टेज की सावधानी देते हैं तब बच्चे भी अपने ऊपर रहमदिल बन सकें। इस कारण अभी यह नहीं समझना कि बाप रहमदिल है, इसलिए जो कुछ भी हो गया तो बाप रहम कर देगा। नहीं, अभी तो एक भूल का हजार गुणा दण्ड का हिसाब-किताब चुक्तू करना पड़ेगा। इसलिए अभी रा भी गफ़लत करने का समय नहीं है। अभी तो बिल्कुल अपने कदम-कदम पर सावधानी रखते हुए कदम में पद्मों की कमाई करते पद्मपति बनो। नाम है ना पद्मापद्म भाग्यशाली। तो जैसा नाम है ऐसा ही कर्म होना चाहिए। हर कदम में देखो - पद्मों की कमाई करते पद्मपति बने हैं? अगर पद्मपति नहीं बने तो पद्मापद्म भाग्यशाली कैसे कहलायेंगे? एक कदम भी पदम की कमाई बिगर न जाए। ऐसी चेकिंग करते हो वा कई कदम व्यर्थ जाने बाद होश आता है? इसलिए फिर भी पहले से ही सावधान करते हैं। अन्त का स्वरूप शक्तिपन का है। शक्ति रूप रहमदिल का नहीं होता है। शक्ति का रूप सदैव संहारी रूप दिखाते हैं। तो संहार का समय अब समीप आ रहा है। संहार के समय रहमदिल नहीं बनना होता है। संहार के समय संहारी रूप धारण किया जाता है। इसलिए अभी रहमदिल का पार्ट भी समाप्त हुआ। बाप के सम्बन्ध से बच्चों का अलबेलापन वा नाज सभी देखते हुए आगे बढ़ाया, लेकिन अब किसी भी प्रकार से पावन बनाकर साथ ले जाने का पार्ट है सद्गुरू के रूप में। जैसे बाप बच्चों के नाज वा अलबेलापन देख फिर भी प्यार से समझाते चलाते रहते हैं। वह रूप सद्गुरू का नहीं होता। सतगुरू का रूप जैसे सद्गुरू है-वैसे सत संकल्प, सत बोल, सत कर्म बनाने वाला है। फिर चाहे नॉलेज द्वारा वा पुरूषार्थ द्वारा बनावे, चाहे फिर सजा द्वारा बनावे। सद्गुरू नाज और अलबेलापन देखने वाला नहीं है। इसलिए अब समय और बाप के रूप को जानो। ऐसे न हो -- बाप के इस अन्तिम स्वरूप को न जानते हुए अपने बचपन के अलबेलेपन में आकर अपने आपको धोखा दे बैठो। इसलिए बहुत सावधान रहना है। शक्तियों को अभी अपना संहारी रूप धारण करना चाहिए। जैसे दिखाया हुआ है - कोई भी आसुरी संस्कार शक्तियों का सामना नहीं कर सकता, आसुरी संस्कार वाले शक्तियों के सामने आंख उठाकर देख नहीं सकते। तो ऐसे संहारी रूप बनकर स्वयं में भी आसुरी संस्कारों का संहार करो और दूसरों के भी आसुरी संस्कार के संहार करने वाले संहारीमूर्त बनो। ऐसी हिम्मत है? माता रूप में भले रहम आ जाता, शक्ति रूप में रहम नहीं आता। माता बनकर पालना तो बहुत की और माता के आगे बच्चे लाडकोड करते भी हैं। शक्तियों के आगे किसकी हिम्मत नहीं जो अलबेलापन दिखा सके। अपने प्रति भी अब संहारी बनो। ऐसी स्टेज बनाओ जो आसुरी संस्कार संकल्प में भी ठहर न सकें। इसको कहते हैं - एक ही नजर से असुर संहारनी। संकल्पों को परिवर्तन करने में कितना समय लगता है? सेकेण्ड। और नजर से देखने में कितना समय लगता है? एक सेकेण्ड। तो नजर से असुर संहार करने वाले अर्थात् एक सेकेण्ड में आसुरी संस्कारों को भस्म करने वाले, ऐसे बने हो? कि आसुरी संस्कारों के वशीभूत हो जाते हो? आसुरी संस्कारों के वशीभूत होने वाले को किस सम्प्रदाय में गिना जायेगा? आप कौन हो? (ईश्वरीय सम्प्रदाय) तो ईश्वरीय सम्प्रदाय वालों के पास आसुरी संस्कार भी नहीं आने चाहिए। अभी आसुरी संस्कार आते हैं वा भस्म हो गये हैं? (आते हैं) तो फिर क्या बन जाते हो? अपना रूप बदल बहुरूपी बन जाते हो क्या? अभी-अभी ईश्वरीय सम्प्रदाय, अभी- अभी आसुरी संस्कारों के वश हो गये तो क्या बन गये? बहुरूपी हो गये ना। अगर अभी-अभी अपने से आसुरी संस्कारों को भस्म करने की हिम्मत रखकर संहारी रूप बने तो मुबारक है। अभी यह भी ध्यान रखना, सूक्ष्म सजाओं के साथ-साथ स्थूल सजायें भी होती हैं। ऐसे नहीं समझना - सूक्ष्म सजा तो अपने अन्दर भोग कर खत्म करेंगे। नहीं। सूक्ष्म सजाएं सूक्ष्म में मिलती रहती हैं और दिन प्रतिदिन ज्यादा मिलती जायेंगी लेकिन ईश्वरीय मर्यादाओं के प्रमाण कोई भी अगर अमर्यादा का कर्त्तव्य करते हैं, मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो ऐसी अमर्यादा से चलने वाले को स्थूल सज़ाएं भी भोगनी पड़े। फिर तब क्या होगा? अपने दैवी परिवार के स्नेह, सम्बन्ध और जो वर्तमान समय की सम्पत्ति का खज़ाना है उनसे वंचित होना पड़े। इसलिए अब बहुत सोच- समझकर कदम उठाना है। ऐसे लॉज (नियम) शक्तियों द्वारा स्थापन हो रहे हैं। पहले से ही सावधान करना चाहिए ना। फिर ऐसे न कहना कि ऐसे तो हमने समझा नहीं था, यह तो नई बात हो गई। तो पहले से ही सुना रहे हैं। सूक्ष्म ला के साथ स्थूल लाज वा नियम भी हैं। जैसे-जैसे गलती, उसी प्रमाण ऐसी गलती करने वाले को सजा। इसलिए ला-मेकर हो तो ला को ब्रेक नहीं करना। अगर ला-मेकर भी ला को ब्रेक करेंगे तो फिर ला-फुल राज्य करने के अधिकारी कैसे बनेंगे? जो स्वयं को ही ला के प्रमाण नहीं चला सकता वह लाफुल राज्य कैसे चला सकेगा? इसलिए अब अपने को ला-मेकर समझकर हर कदम ला-फुल उठाओ अर्थात् श्रीमत प्रमाण उठाओ। मन-मत मिक्स नहीं करना। माया श्रीमत को बदलकर मन को मिक्स कर उसको ही श्रीमत समझाने की बुद्धि देती है। माया के वश मनमत को भी श्रीमत समझने लग पड़ते हैं, इसलिए परखने की शक्ति सदैव काम में लगाओ। कहां परखने में भी अन्तर होने से अपने आपको नुकसान कर देते। इसलिए कहां भी अगर स्वयं नहीं परख सकते हो तो जो श्रेष्ठ आत्मायें निमित्त हैं उन्हों से सहयोग लो। वेरीफाय कराओ कि यह श्रीमत है वा मनमत है। फिर प्रैक्टिकल में लाओ। अच्छा। ऐसे लाफुल और लवफुल जो दोनों ही साथ-साथ रख चलने वाले हैं, ऐसी आत्माओं को नमस्ते।



09-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 अपने फीचर से फ्यूचर दिखाओ

भी सदा स्नेही हैं? जैसे बाप दादा सदा बच्चों के स्नेही और सहयोगी हैं, सभी रूपों से, सभी रीति से सदा स्नेही और सहयोगी हैं, वैसे ही बच्चे भी सभी रूपों से, हर रीति से बाप समान सदा स्नेही और सहयोगी है? सदा सहयोगी वा सदा स्नेही उसको कहते हैं जिसका एक सेकेण्ड भी बाप के साथ स्नेह न टूटे वा एक सेकेण्ड, एक संकल्प भी सिवाए बाप के सहयोगी बनने के न जाये। तो ऐसे अपने को सदा स्नेही और सहयोगी समझते हो वा अनुभव करते हो? बापदादा के स्नेह का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई देता है। तो बच्चे भी जो बाप समान हैं उन्हों का भी स्नेह और सहयोग का सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण दिखाई दे रहा है। स्नेही आत्मा का स्नेह कब छिप नहीं सकता। कितना भी कोई अपने स्नेह को छिपाने चाहे लेकिन स्नेह कब गुप्त नहीं रहता। स्नेह किस-न-किस रूप में, किस-न-किस कर्त्तव्य से वा सूरत से दिखाई अवश्य देता है। तो अपनी सूरत को दर्पण में देखना है कि मेरी सूरत से स्नेही बाप की सीरत दिखाई देती है? जैसे अपनी सूरत को स्थूल आईना में देखते हो, वैसे ही रोज अमृतवेले अपने आपको इस सूक्ष्म दर्पण में देखते हो? जैसे लक्षणों से हर आत्मा के लक्ष्य का मालूम पड़ जाता है वा जैसा लक्ष्य होता है वैसे लक्षण स्वत: ही होते हैं। तो ऐसे अपने लक्षणों से लक्ष्य प्रत्यक्ष रूप में कहां तक दिखाते हो, अपने आपको चेक करते हो? किसी भी आत्मा को अपने फीचर्स से उस आत्मा का वा अपना फ्यूचर दिखा सकते हो? लेक्चर से फीचर्स दिखाना तो आम बात है लेकिन फीचर्स से फ्यूचर दिखाना - यही अलौकिक आत्माओं की अलौकिकता है। ऐसे मेरे फीचर्स बने हैं, यह दर्पण में देखते हो? जैसे स्थूल सूरत है, श्रृंगार से अगर सूरत में कोई देखे तो पहले विशेष अटेन्शन बिन्दी के ऊपर जायेगा। वैसे जो बिन्दी- स्वरूप में स्थित रहते हैं अर्थात् अपने को इन धारणाओं के श्रृंगार से सजाते हैं, ऐसे श्रृंगारी हुई मूरत के तरफ देखते हुए सभी का ध्यान किस तरफ जायेगा? मस्तक में आत्मा बिन्दी तरफ। ऐसे ही कोई भी आत्मा आप लोगों के सम्मुख जब आती है तो उन्हों का ध्यान आपके अविनाशी तिलक की तरफ आकर्षित हो। वह भी तब होगा जब स्वयं सदा तिलकधारी हैं। अगर स्वयं ही तिलकधारी नहीं तो दूसरों को आपका अविनाशी तिलक दिखाई नहीं दे सकता। जैसे बाप का बच्चों प्रति इतना स्नेह है जो सारी सृष्टि की आत्मायें बच्चे होते हुए भी, जिन्होंने प्रीत की रीति निभाई है वा प्रीत-बुद्धि बने हैं, ऐसे प्रीत की रीति निभाने वालों से इतनी प्रीत की रीति निभाई है जो अन्य सभी आत्माओं को अल्पकाल का सुख प्राप्त होता है लेकिन प्रीत की रीति निभाने वाली आत्माओं को सारे विश्व के सर्व सुखों की प्राप्ति सदाकाल के लिए होती है। सभी को मुक्तिधाम में बिठाकर प्रीत की रीति निभाने वाले बच्चों को विश्व का राज्य भाग्य प्राप्त कराते हैं। ऐसे स्नेही बच्चों के सिवाए और कोई से भी सर्व सम्बन्धों से सर्व प्राप्ति का पार्ट नहीं। ऐसे प्रीत निभाने वाले बच्चों के दिन-रात गुण-गान करते हैं। जिससे अति स्नेह होता है तो उस स्नेह के लिए सभी को किनारे कर सभी-कुछ उनके अर्पण करते हैं, यह है स्नेह का सबूत। तो सदा स्नेही और सहयोगी बच्चों के सिवाए अन्य सभी आत्माओं को मुक्तिधाम में किनारे कर देते हैं। तो जैसे बाप स्नेह का प्रत्यक्ष सबूत दिखा रहे हैं, ऐसे अपने आप से पूछो - ‘‘सर्व सम्बन्ध, सर्व आकर्षण करने वाली वस्तुओं को अपनी बुद्धि से किनारे किया है? सर्व रूपों से, सर्व सम्बन्धों से, हर रीति से सभी-कुछ बाप के अर्पण किया है?’’ सिवाए बाप के कर्त्तव्य के एक सेकेण्ड भी और कोई व्यर्थ कार्य में अपना सहयोग तो नहीं देते हो? अगर स्नेह अर्थात् योग है तो सहयोग भी है। जहां योग है वहां सहयोग है। एक बाप से ही योग है तो सहयोग भी एक के ही साथ है। योगी अर्थात् सहयोगी। तो सहयोग से योग को देख सकते हो, योग से सहयोग को देख सकते हो। अगर कोई भी व्यर्थ कर्म में सहयोगी बनते हो तो बाप के सदा सहयोगी हुए? जो पहला-पहला वायदा किया हुआ है उसको सदा स्मृति में रखते हुए हर कर्म करते हो कि भक्तों मुआफ़िक कहां-कहां बच्चे भी बाप से ठगी तो नहीं करते हो? भक्तों को कहते हो ना - भक्त ठगत हैं। तो आप लोग भी ठगत तो नहीं बनते हो? अगर तेरे को मेरा समझ काम में लगाते हो तो ठगत हुए ना। कहना एक और करना दूसरा - इसको क्या कहा जाता है? कहते तो यही हो ना कि तन-मन-धन सब तेरा। जब तेरा हो गया फिर आपका उस पर अपना अधिकार कहां से आया? जब अधिकार नहीं तो उसको अपनी मन-मत से काम में कैसे लगा सकते हो? संकल्प को, समय को, श्वांस को, ज्ञान-धन को, स्थूल तन को अगर कोई भी एक खज़ाने को मनमत से व्यर्थ भी गंवाते हो तो ठगत नहीं हुए? जन्म-जन्म के संस्कारों वश हो जाते हैं। यह कहां तक रीति चलती रहेगी? जो बात स्वयं को भी प्रिय नहीं लगती तो सोचना चाहिए -- जो मुझे ही प्रिय नहीं लगती वह बाप को प्रिय कैसे लग सकती है? सदा स्नेही के प्रति जो अति प्रिय चीज़ होती है वही दी जाती है। तो अपने आप से पूछो कि कहां तक प्रीत की रीति निभाने वाले बने हैं? अपने को सदा हाइएस्ट और होलीएस्ट समझकर चलते हो? जो हाइएस्ट समझकर चलते हैं उन्हों का एक-एक कर्म, एक-एक बोल इतना ही हाइएस्ट होता है जितना बाप हाइएस्ट अर्थात् ऊंच ते ऊंच है। बाप की महिमा गाते हैं ना -- ऊंचा उनका नाम, ऊंचा उनका धाम, ऊंचा काम। तो जो हाइएस्ट है वह भी सदैव अपने ऊंच नाम, ऊंचे धाम और ऊंचे काम में तत्पर हों। कोई भी निचाई का कार्य कर ही नहीं सकते हैं। जैसे महान् आत्मा जो बनते हैं वह कभी भी किसी के आगे झुकते नहीं हैं। उनके आगे सभी झुकते हैं तब उसको महान आत्मा कहा जाता है। जो आजकल के ऐसे ऐसे महान् आत्माओं से भी महान्, श्रेष्ठ आत्मायें, जो बाप की चुनी हुई आत्मायें हैं, विश्व के राज्य के अधिकारी हैं, बाप के वर्से के अधिकारी हैं, विश्व-कल्याणकारी हैं - ऐसी आत्मायें कहां भी, कोई भी परिस्थिति में वा माया के भिन्न-भिन्न आकर्षण करने वाले रूपों में क्या अपने आप को झुका सकते हैं? आजकल के कहलाने वाले महात्माओं ने तो आप महान् आत्माओं की कॉपी की है। तो ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें कहां भी, किसी रीति झुक नहीं सकतीं। वे झुकाने वाले हैं, न कि झुकने वाले। कैसा भी माया का फोर्स हो लेकिन झुक नहीं सकते। ऐसे माया को सदा झुकाने वाले बने हो कि कहां-कहां झुक करके भी देखते हो? जब अभी से ही सदा झुकाने की स्थिति में स्थित रहेंगे, ऐसे श्रेष्ठ संस्कार अपने में भरेंगे तब तो ऐसे हाइएस्ट पद को प्राप्त करेंगे जो सतयुग में प्रजा स्वमान से झुकेगी और द्वापर में भिखारी हो झुकेंगे। आप लोगों के यादगारों के आगे भक्त भी झुकते रहते हैं ना। अगर यहां अभी माया के आगे झुकने के संस्कार समाप्त न किये, थोड़े भी झुकने के संस्कार रह गये तो फिर झुकने वाले झुकते रहेंगे और झुकाने वालों के आगे सदैव झुकते रहेंगे। लक्ष्य क्या रखा है, झुकने का वा झुकाने का? जो अपनी ही रची हुई परिस्थिति के आगे झुक जाते हैं -- उनको हाइएस्ट कहेंगे? जब तक हाइएस्ट नहीं बने हो तब तक होलीएस्ट भी नहीं बन सकते हो। जैसे आपके भविष्य यादगारों का गायन है सम्पूर्ण निर्विकारी। तो इसको ही होलीएस्ट कहा जाता है। सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् किसी भी परसेन्टेज में कोई भी विकार तरफ आकर्षण न जाए वा उनके वशीभूत न हो। अगर स्वप्न में भी किसी भी प्रकार विकार के वश किसी भी परसेन्टेज में होते हो तो सम्पूर्ण निर्विकारी कहेंगे? अगर स्वप्नदोष भी है वा संकल्प में भी विकार के वशीभूत हैं तो कहेंगे विकारों से परे नहीं हुए हैं। ऐसे सम्पूर्ण पवित्र वा निर्विकारी अपने को बना रहे हो वा बन गये हो? जिस समय लास्ट बिगुल बजेगा उस समय्य बनेंगे? अगर कोई बहुत सय्मयय् से ऐसी स्थिति में स्थित नहीं रहता है तो ऐसी आत्माओं का फिर गायन भी अल्पकाल का ही होता है। ऐसे नहीं समझना कि लास्ट में फास्ट जाकर इसी स्थिति को पा लेंगे। लेकिन नहीं। बहुत समय जो गायन है -- उसको भी स्मृति में रखते हुए अपनी स्थिति को होलीएस्ट और हाइएस्ट बनाओ। कोई भी संकल्प वा कर्म करते हो तो पहले चेक करो कि जैसा ऊंचा नाम है वैसा ऊंचा काम है? अगर नाम ऊंचा और काम नीचा तो क्या होगा? अपने नाम को बदनाम करते हो? तो ऐसे कोई भी काम नहीं हो - यह लक्ष्य रखकर ऐसे लक्षण अपने में धारण करो। जैसे दूसरे लोगों को समझाते हो कि अगर ज्ञान के विरूद्ध कोई भी चीज़ स्वीकार करते हो तो ज्ञानी नहीं अज्ञानी कहलाये जायेंगे। अगर एक बार भी कोई नियम को पूरी रीति से पालन नहीं करते हैं तो कहते हो ज्ञान के विरूद्ध किया। तो अपने आप से भी ऐसे ही पूछो कि अगर कोई भी साधारण संकल्प करते हैं तो क्या हाइएस्ट कहा जायेगा? तो संकल्प भी साधारण न हो। जब संकल्प श्रेष्ठ हो जायेंगे तो बोल और कर्म आटोमेटिकली श्रेष्ठ हो जायेंगे। ऐसे अपने को होलीएस्ट और हाइएस्ट, सम्पूर्ण निर्विकारी बनाओ। विकार का नाम-निशान न हो। जब नाम- निशान ही नहीं तो फिर काम कैसे होगा? जैसे भविष्य में विकार का नाम- निशान नहीं होता है ऐसे ही हाइएस्ट और होलीएस्ट अभी से बनाओ तब अनेक जन्म चलते रहेंगे। अच्छा। ऐसे ऊंचा नाम और ऊंचे काम करने वालों को नमस्ते।



10-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 स्वमान में रहने से फ़रमान की पालना

स्वमान और फरमान - दोनों में रहने और चलने के अपने को हिम्मतवान समझते हो? स्वमान में भी सदा स्थित रहें और साथ-साथ फरमान पर भी चलते चलें, इन दोनों बातों में अपने को ठीक समझते हो? अगर स्वमान में स्थित नहीं रहते हैं तो फरमान पर चलने में भी कोई-न-कोई कमी पड़ जाती है। इसलिए दोनों बातों में अपने आप को यथार्थ रूप से स्थित करते हुए सदा ऐसी स्थिति बनाना। वर्तमान पुरूषोत्तम संगमयुग का आप ब्राह्मणों का जो ऊंच ते ऊंच स्वमान है उसमें स्थित रहना है। इस एक ही श्रेष्ठ स्वमान में स्थित होने से भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान स्वत: और सहज ही समाप्त हो जाते हैं। कहां-कहां सर्विस करते-करते वा अपने पुरूषार्थ में चलते-चलते बहुत छोटी-सी एक शब्द की गलती कर देते हैं, जिससे ही फिर सारी गलतियां हो जाती हैं। सर्व गलतियों का बीज एक शब्द की कमजोरी है, वह कौनसा शब्द? स्वमान से ‘स्व’ शब्द निकाल देते हैं। स्वमान को भूल जाते हैं, मान में आने से फरमान भूल जाते हैं। फरमान है - स्वमान में स्थित रहो। तो मान में आने से फरमान खत्म हो गया ना। इसी एक शब्द की गलती होने से अनेक गलतियां हो जाती हैं। फिर मान में आकर बोलना, चलना, करना सभी बदल जाता है। सिर्फ एक शब्द कट होने से जो वास्तविक स्टेज है उससे कट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आने के कारण जो पुरूषार्थ वा सर्विस करते हैं उसकी रिजल्ट यह निकलती है जो मेहनत ज्यादा और प्रत्यक्षफल कम निकलता है। सफलता-मूर्त जो बनना चाहिए वह नहीं बन पाते और सफलता- मूर्त न बनने के कारण वा सफलता प्राप्त न होने के कारण फिर उसकी रिजल्ट क्या होती है? मेहनत बहुत करते-करते चलते-चलते थक जाते हैं। उल्लास कम होते-होते आलस्य आ जाता है और जहां आलस्य आया वहां उनके अन्य साथी भी सहज ही आ जाते हैं। आलस्य अपने सर्व साथियों सहित आता है, अकेला नहीं आता। जैसे बाप भी अकेला नहीं आता अपने बच्चों सहित प्रत्यक्ष होता है। वैसे यह जो विकार है वह भी अकेले नहीं आते, साथियों के साथ आते हैं। इसलिए फिर विकारों की प्रवेशता होने से कई फरमान उल्लंघन करने कारण स्थिति क्या हो जाती है? कोई न कोई बात का अरमान रह जाता है। न स्वयं सन्तुष्ट रहते, न दूसरों को सन्तुष्ट कर पाते, सिर्फ एक शब्द कट करने के कारण। इसलिए कभी भी अपनी उन्नति का जो प्रयत्न करते हो वा सर्विस का कोई भी प्लैन बनाकर प्रैक्टिकल में लाते हो, तो प्लैन बनाने और प्रैक्टिकल में लाने समय भी पहले अपने स्वमान की स्थिति में स्थित हो फिर कोई भी प्लैन बनाओ और प्रैक्टिकल में लाओ। स्थिति को छोड़कर प्लैन नहीं बनाओ। अगर स्थिति को छोड़कर प्लैन्स बनाते हो तो क्या हो जाता है? उसमें कोई शक्ति नहीं रहती। बिगर शक्ति उस प्लैन का प्रैक्टिकल में क्या प्रभाव रहेगा? सर्विस तो खूब करते हो, विस्तार बहुत कर लेते हो लेकिन बीज-रूप अवस्था को छोड़ देते हो। विस्तार में जाने से सार निकाल देते हो। इसलिए अब सार को नहीं निकालो। विस्तार को समाने अर्थात् सार-स्वरूप बनने नहीं आता। क्वान्टिटी में चले जाते हो लेकिन अपनी क्वालिटी नहीं निकलती। अपनी स्थिति में भी संकल्पों की क्वान्टिटी है। इसलिए सर्विस की रिजल्ट में भी क्वान्टिटी है, क्वालिटी नहीं। सारे झाड़ रूपी विस्तार में एक बीज ही पावरफुल होता है ना। ऐसे ही क्वान्टिटी के बीज में एक भी क्वालिटी वाला है तो वह विस्तार में बीज-रूप के समान है। क्वालिटी की सर्विस करते हो? विस्तार में जाने से वा दूसरों का कल्याण करते-करते अपना कल्याण तो नहीं भूल जाते हो? जब दूसरे के प्रति जास्ती अटेन्शन देते हो तो अपने अन्दर जो टेन्शन चलता है उनको नहीं देखते हो। पहले अपने टेन्शन पर अटेन्शन दो, फिर विश्व में जो अनेक प्रकार के टेन्शन हैं उनको खलास कर सकेंगे। पहले अपने आपको देखो। अपनी सर्विस फर्स्ट, अपनी सर्विस की तो दूसरों की सर्विस स्वत: हो जाती है। अपनी सर्विस को छोड़ दूसरों की सर्विस में लग जाने से समय और संकल्प ज्यादा खर्च कर लेते हो। इस कारण जो जमा होना चाहिए वह नहीं कर पाते। जमा न होने के कारण वह नशा, वह खुशी नहीं रहती। अभी-अभी कमाया और अभी-अभी खाया; तो वह अल्पकाल का हो जाता है। जमा रहता है वह सदा साथ रहता है। तो अब जमा करना भी सीखो। सिर्फ इस जन्म के लिए नहीं लेकिन 21 जन्मों के लिए जमा करना है। अगर अभी-अभी कमाया और खाया तो भविष्य में क्या बनेगा? अभी-अभी कमाया और अभी-अभी बांटा, नहीं। खाने बाद समाना भी चाहिए, फिर बांटना चाहिए। कमाया और बांट दिया; तो अपने में शक्ति नहीं रहती। सिर्फ खुशी होती है - जो मिला सो बांटा। दान करने की खुशी रहती है लेकिन उसको स्वयं में समाने की शक्ति नहीं रहती। खुशी के साथ शक्ति भी चाहिए। शक्ति न होने कारण निर्विघ्न नहीं हो सकते, विघ्नों को पार नहीं कर सकते। छोटे-छोटे विघ्न लगन को डिस्टर्ब कर देते हैं। इसलिए समाने की शक्ति धारण करनी चाहिए। जैसे खुशी की झलक सूरत में दिखाई देती है, वैसे शक्ति की झलक भी दिखाई देनी चाहिए। सरलचित बहुत बनो लेकिन जितना सरलचित हो उतना ही सहनशील हों। कि सहनशीलता भी सरलता है? सरलता के साथ समाने की, सहन करने की शक्ति भी चाहिए। अगर समाने और सहन करने की शक्ति नहीं तो सरलता बहुत भोला रूप धारण कर लेती और कहां-कहां भोलापन बहुत भारी नुकसान कर देता है। तो ऐसा सरलचित भी नहीं बनना है। बाप को भी भोलानाथ कहते हैं ना। लेकिन ऐसा भोला नहीं है जो सामना न कर सके। भोलानाथ के साथ-साथ आलमाइटी अथॉरिटी भी तो है ना। सिर्फ भोलानाथ नहीं है। यहां शक्ति-स्वरूप भूल सिर्फ भोले बन जाते हैं तो माया का गोला लग जाता है। वर्तमास समय भोलेपन के कारण माया का गोला ज्यादा लग रहा है। ऐसा शक्ति स्वरूप बनना है जो माया सामना करने के पहले ही नमस्कार कर ले, सामना कर न पावे। बहुत सावधान, खबरदार-होशियार रहना है। अपनी वृति और वायुमण्डल को चेक करो। अपने आपको देखो कि कोई भी वायुमण्डल अपनी वृति को कमजोर तो नहीं करता है? कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन स्वयं की शक्तिशाली वृति वायुमण्डल को परिवर्तन में ला सकती है। अगर वायुमण्डल का वृति के ऊपर असर आ जाता है तो यही भोलापन है। ऐसे भी नहीं सोचना चाहिए कि मैं तो ठीक हूँ लेकिन वायुमण्डल का असर आ गया। नहीं। कैसा भी वायुमण्डल विकारी हो लेकिन स्वयं की वृति निर्विकारी होनी चाहिए। जब कहती हो - हम पतित-पावनियां हैं, पतितों को पावन बनाने वाली हैं; जब आत्माओं को पावन बना सकती हो तो क्या वायुमण्डल को पतित से पावन नहीं बना सकतीं? पावन बनाने वाले वायुमण्डल के वशीभूत नहीं होते। लेकिन वायुमण्डल वृति के ऊपर प्रभाव डाल देता है, यह है कमजोरी। हरेक को ऐसा समझना चाहिए कि मुझे स्वयं अपने पावरफुल वृति से जो भी अपवित्र वा कमजोरी का वायुमण्डल है उसको मिटाना है। तुम मिटाने वाले हो, न कि वश होने वाले। कोई पतित वायुमण्डल का वर्णन भी नहीं करना चाहिए। वर्णन किया तो जैसे कहावत है - ना पाप को देखने वाले पर भी पाप होता है। अगर कोई भी कमजोर वा पतित वायुमण्डल का वर्णन भी करते हैं तो यह भी पाप है। क्योंकि उस समय बाप को भूल जाते हैं। जहां बाप भूल जाता है वहां पापरूर होता है। बाप की याद होगी तो पाप नहीं हो सकता। इसलिए वर्णन भी नहीं करना चाहिए। जबकि बाप का फरमान है तो मुख से सिवाए ज्ञान रत्नों के और कोई एक शब्द भी व्यर्थ नहीं निकलना चाहिए। वायुमण्डल का वर्णन करना - यह भी व्यर्थ हुआ ना। जहां व्यर्थ है वहां समर्थ की स्मृति नहीं। समर्थ की स्मृति में रहते हुए कोई भी बोल बोलेंगे तो व्यर्थ नहीं बोलेंगे, ज्ञान-रत्न ही बोलेंगे। तो वृति को, बोल को भी चेक करो। कई ऐसे भी समझते हैं कि कर्म कर लिया, पश्चाताप कर लिया, माफी मांग ली, छुट्टी हो गई। लेकिन नहीं। कितनी भी कोई माफी ले लेवे लेकिन जो कोई पाप कर्म वा व्यर्थ कर्म भी हुआ तो उसका निशान मिटता नहीं। निशान पड़ ही जाता है। रजिस्टर साफ-स्वच्छ नहीं होता। इसलिए ऐसे भी नहीं कहना कि हो गया, माफी ले ली। इस रीति रसम को भी नहीं अपनाना। अपना कर्त्तव्य है -- संकल्प में, वृति में, स्मृति में भी कोई पाप का संकल्प न आये। इसको ही कहा जाता है ब्राह्मण अर्थात् पवित्र। अगर कोई भी अपवित्रता वृति, स्मृति वा संकल्प में है तो ब्राह्मण-पन की स्थिति में स्थित हो नहीं सकते, सिर्फ कहलाने मात्र हो। इसलिए कदम- कदम पर सावधान रहो। खुशी के साथ-साथ शक्तियों को भी साथ रखना है। विशेषताओं के साथ अगर कमजोरी भी होती है तो एक कमजोरी अनेक विशेषताओं को समाप्त कर देती है। तो अपनी विशेषताओं को प्रत्यक्ष करने के लिए कमजोरी को समाप्त कर दो। समझा? सर्विस के बीच में अगर डिस्सार्विस हो जाती है तो डिस्सार्विस प्रत्यक्ष हो जाती है। कितना भी अमृत हो लेकिन विष की एक बूंद भी पड़ने से सारा अमृत विष बन जाता है। कितनी भी सर्विस करो लेकिन एक छोटी-सी गलती डिस्सार्विस का कारण बन जाती है, सर्विस को समाप्त कर देती है। इसलिए बहुत अटेन्शन रखो अपने ऊपर और अपनी सर्विस के ऊपर। पहले करना है, फिर कहना है। कहना सहज होता है लेकिन करने में मेहनत है। मेहनत का फल अच्छा होता है, सिर्फ कहने का फल अच्छा नहीं। तो पहले करो, फिर कहो। फिर देखना, कैसी क्वालिटी वाली सर्विस होती है! अपनी क्वालिटी को देखो। समझा? वृति और वायुमण्डल को पावरफुल बनाओ। आप ब्राह्मणों का जन्म ही है -- बनने और बनाने के लिए, सिर्फ बनने के लिए नहीं। पढ़ना पढ़ाने के लिए है। विश्व कल्याणकारी हो ना। जैसे बाप कल्याणकारी है, साथ में आप भी मददगार हो। इसलिए यह भी नहीं सोचना चाहिए कि मेरी वृति तो ठीक है, यह वायुमण्डल ने कर दिया है। अगर अपनी वृति ठीक है और उसका वायुमण्डल पर असर नहीं होता हो, गोया पावरफुल वृति नहीं है। पावरफुल चीज़ का प्रभाव आस-पास रूर पड़ता है, वह छिप नहीं सकता। तो अपनी वृति को भी परखने के लिए यह चेक करो कि वृति का वायुमण्डल पर असर क्या है? वायुमण्डल अगर और दिखाई देता है तो समझना चाहिए अपनी वृति में भी कमज़ोरी है। उस कमजोरी को मिटाना चाहिए। आजकल चारों ओर की सर्विस की रिजल्ट में विशेष क्या दिखाई देता है?

सा बजाने में बड़े होशियार हो गये हैं लेकिन साज में जाने से राज से खिसक जाते हैं। बनना है राजयुक्त लेकिन बन गये हैं सायुक्त। साज और राज - दोनों ही साथ-साथ समान होना चाहिए। अगर एक बात ज्यादा फोर्स में है और दूसरी बात गुप्त है तो रिजल्ट भी गुप्त रह जाती है। साज बजाने में तो सभी बहुत होशियार हो गये हैं लेकिन राजयुक्त भी बनना है। तो अब राजयुक्त बनो, योगयुक्त बनो। अच्छा! ऐसे राजयुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त चलने वालों को नमस्ते।



15-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 श्रेष्ठ स्थिति बनाने का साधन तीन शब्द- निराकारी, अलंकारी और कल्याणकारी

पने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझकर हर कदम उठाते हो? पद्म कमल पुष्प को भी कहते हैं। कदम-कदम पर पद्म के समान न्यारे और प्यारे बन चलने से ही हर कदम में पद्मों की कमाई होती है। ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें बनी हो? दोनों ही प्रकार की स्थिति बनाई है? एक कदम में पद्म तो कितने खज़ाने के मालिक हो गये! ऐसे अपने को अविनाशी धनवान वा सम्पतिवान और अति न्यारे और प्यारे अनुभव करते हो? यह चेक करना है कि एक भी कदम पद्म समान स्थिति में रहते हुए पद्मों की कमाई के बगैर न उठे। इस समय ऐसे पद्मापति अर्थात् अविनाशी सम्पत्तिवान बनते हो जो सारा कल्प सम्पत्तिवान गाये जाते हो। आधा कल्प स्वयं विश्व के राज्य के, अखण्ड राज्य के निर्विघ्न राज्य के, अधिकारी बनते हो और फिर आधा कल्प भक्त लोग आपके इस स्थिति के गुणगान करते रहते हैं। कोई भी भक्त को जीवन में किसी भी प्रकार की कमी का अनुभव होता है तो किसके पास आते हैं? आप लोगों के यादगार चित्रों के पास। चित्रों से भी अल्पकाल की प्राप्ति करते हुए अपनी कमी वा कमजोरियों को मिटाते रहते। तो सारा कल्प प्रैक्टिकल में वा यादगार रूप में सदा सम्पत्तिवान, शक्तिवान, गुणवान, वरदानी-मूर्त बन जाते हो। तो जब एक कदम भी उठाते हो वा एक संकल्प भी करते हो तो ऐसी स्मृति में रहते हुए, ऐसे अपने श्रेष्ठ स्वरूप में स्थित होते हुए चलते हो? जैसे कोई हद का राजा जब अपनी राजधानी के तरफ देखेंगे तो किस स्थिति और दृष्टि से देखेंगे? किस नशे से देखेंगे? यह सभी मेरी प्रजा है वा बच्चों के समान हैं! ऐसे ही आप लोग भी जब अभी सृष्टि के तरफ देखते हो वा किसी भी आत्मा के प्रति नजर जाती है तो क्या समझ करके देखते हो? ऐसे समझकर देखते हो कि यह हमारी विश्व, जिसके हम मालिक थे, वह आज क्या बन गई है और अभी हम विश्व के मालिक के बालक फिर से विश्व को मालामाल बना रहे हैं, सम्पत्तिवान बना रहे हैं, सदा सुखदाई बना रहे हैं। इस नशे में स्थित होकर के उसी रूप से, उसी वृति से, उसी दृष्टि से हर आत्मा को देखते हो? कोई भी आत्मा को किस स्थिति में रहकर देखते हो? उस समय की स्थिति वा स्टेज कौन-सी होती है? (हरेक ने सुनाया) जो भी सुनाया, है तो सभी यथार्थ क्योंकि अभी जबकि अयथार्थ को छोड़ चुके तो जो भी अब बोलेंगे वह यथार्थ ही बोलेंगे। अब अयथार्थ शब्द भी मुख से नहीं निकल सकता। जब भी कोई आत्मा को देखो तो वृति यही रखनी चाहिए कि इन सभी आत्माओं के प्रति बाप ने हमें वरदानी और महादानी निमित्त बनाया है। वरदानी वा महादानी की वृति से देखने से कोई भी आत्मा को वरदान वा महादान से वंचित नहीं छोड़ेंगे। जो महादानी वा वरदानी होते हैं उनके सामने कोई भी आयेगा तो उस आत्मा के प्रति कुछ-न-कुछ दाता बनकर के देंगे रूर। कोई को भी खाली नहीं भेजेंगे। तो ऐसी वृति रखने से कोई भी आत्मा आप लोगों के सामने आने से खाली हाथ नहीं जायेगी, कुछ-न-कुछ लेकर ही जायेगी। तो ऐसे अपने को समझकर हर आत्मा को देखते हो? दाता के बच्चे दाता ही तो होते हैं। जैसे बाप के पास कोई भी आयेंगे तो खाली हाथ नहीं भेजेंगे ना। तो ऐसे ही फालो फादर। जैसे स्थूल रीति में भी कोई को भी बिना कोई यादगार-सौगात के नहीं भेजते हो ना। कुछ-न-कुछ निशानी देते हो।

यह स्थूल रस्म भी क्यों चली? सूक्ष्म कर्त्तव्य के साथ सहज स्मृति दिलाने के लिए एक सहज साधन बनाया हुआ है। तो जैसे यह सोचते हो कि कोई भी स्थूल सौगात के सिवाए न जावे, वैसे ही सदा यह भी लक्ष्य रखो कि कम से कम थोड़ा-बहुत भी लेकर जावे। तब तो आपके विश्व के राज्य में आयेंगे। ऐसे सदाचारी और सदा महादानी दृष्टि, वृति और कर्म से भी बनने वाले ही विश्व के मालिक बनते हैं। तो सदा ऐसी स्थिति रहे अर्थात् सदा सम्पत्तिवान समझ कर चलें, इसके लिये तीन शब्द याद रखने हैं। जिन तीन शब्दों को याद करने से सदा और स्वत: ही यह वृति रहती, वह तीन शब्द कौन से? सदा निराकारी, अलंकारी और कल्याणकारी। अगर यह तीन शब्द याद रहें तो सदा अपनी श्रेष्ठ स्थिति बना सकते हो। चाहे मन्सा, चाहे कर्मणा में, चाहे सेवा में - तीनों ही स्थिति में अपनी ऊंची स्थिति बना सकते हो। जिस समय कर्म में आते हो तो अपने आपको चेक करो कि सदा अलंकारीमूर्त होकर चलते हैं? अलंकारीमूर्त देह-अहंकारी नहीं होते हैं। अलंकार में अहंकार खत्म हो जाता है। इसलिए सदैव अपने अलंकारों को देखो कि स्वदर्शन-चक्र चल रहा है? अगर सदा स्वदर्शन-चक्र चलता रहेगा तो जो अनेक प्रकार के माया के विघ्नों के चक्र में आ जाते हो वह नहीं आयेंगे। सभी चक्रों से स्वदर्शन चक्र द्वारा बच सकते हो। तो सदैव यह देखो कि स्वदर्शन-चक्र चल रहा है? कोई भी प्रकार का अलंकार नहीं है अर्थात् सर्व शक्तियों से शक्ति की कमी है। जब सर्व शक्तियां नहीं तो सर्व विघ्नों से वा सर्व कमजोरियों से भी मुक्ति नहीं। कोई भी बात में -- चाहे विघ्नों से, चाहे अपने पुराने संस्कारों से, चाहे सेवा में कोई असफलता का कारण बनता है और उस कारण के वश कोई-न-कोई विघ्न के अन्दर आ जाते हैं; तो समझना चाहिए मुक्ति न मिलने का कारण शक्ति की कमी है। विघ्नों से मुक्ति चाहते हो तो शक्ति धारण करो अर्थात् अलंकारी रूप होकर रहना है। अलंकारी समझकर नहीं चलते; अलंकारों को छोड़ देते हैं। बिना शक्तियों के मुक्ति की इच्छा रखते हो तो कैसे पूर्ण हो सकती? इसलिए यह तीनों ही शब्द सदा स्मृति में रखते हुए फिर हर कार्य करो। इन अलंकारों को धारण करने से सदा अपने को वैष्णव समझेंगे। भविष्य में तो विष्णुवंशी बनेंगे लेकिन अभी वैष्णव बनेंगे तब फिर विष्णु के राज्य में विष्णुवंशी बनेंगे। तो वैष्णव अर्थात् कोई भी मलेच्छ चीज़ को टच नहीं करने वाला। आजकल के वैष्णव तो स्थूल तामसी चीजों से वैष्णव हैं। लेकिन आप जो श्रेष्ठ आत्मायें हो वह सदैव वैष्णव अर्थात् तमोगुणी संकल्प वा तमोगुणी संस्कारों को भी टच नहीं कर सकते हो। अगर कोई संकल्प वा संस्कारों को टच किया अर्थात् धारण किया तो सच्चे वैष्णव हुए? और जो सच्चे वैष्णव नहीं बनते हैं, वह विष्णु के राज्य में विश्व के मालिक नहीं बन सकते हैं। तो अपने आपको देखो - कहां तक सदाकाल के वैष्णव बने हैं? वैष्णव कुल के जो होते हैं वह कोई भी मलेच्छ को कब अपने से टच करने भी नहीं देते, मलेच्छ से किनारा कर लेते हैं। वह हुई स्थूल की बात। लेकिन जो सच्चे वैष्णव बनते हैं वह कोई भी पुरानी बातें, पुरानी दुनिया वा पुरानी दुनिया के कोई भी व्यक्ति वा वैभव को अपनी बुद्धि से टच करने नहीं देंगे, किनारे रहेंगे। तो ऐसे वैष्णव बनो। जैसे उन्हों को अगर कारणे-अकारणे कोई टच भी कर देते हैं तो नहाते हैं ना। अपने को शुद्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार अगर अपनी कमजोरी के कारण कोई भी पुराना तमोगुणी संस्कार वा संकल्प भी टच कर देते हैं तो विशेष रूप से ज्ञान- स्नान करना चाहिए अर्थात् बुद्धि में विशेष रूप से बाप की याद अथवा बाप से रूह-रिहान करनी चाहिए। तो इससे क्या होगा? वह तमोगुणी संस्कार कब भी टच नहीं करेंगे, शुद्ध बन जायेंगे। अपने को शुद्ध बनाने से सदा शुद्ध- स्वरूप के संस्कार बन जायेंगे। तो ऐसे करते हो। कहते हैं ना? पता नहीं, यह कैसे हो गया? कमजोरी तो स्वयं की है ना। इतनी पावर होनी चाहिए जो कोई भी टच कर न सके। अगर कोई पावरफुल होते हैं तो उनके सामने कमजोर एक शब्द भी बोल नहीं सकता, सामने आ नहीं सकता। अज्ञान में रोब के आगे कोई नहीं आ सकते। यहां फिर है रूहाब। रोब को रूहानियत में चेन्ज करो तो फिर कोई की ताकत नहीं जो टच कर सके। जैसे भविष्य में आप सभी के आगे प्रकृति दासी बन जायेगी। यही सम्पूर्ण स्टेज है ना। जब प्रकृति दासी बन सकती है तो क्या पुराने संस्कारों को दासी नहीं बना सकते हो? जैसे दासी वा दास सदा ‘जी-हजूर’ करते रहते हैं, वैसे यह कमजोरियां भी ‘जी-हजूर’ कर खड़ी होंगी, टच नहीं करेंगी। ऐसी स्थिति सदाकाल के लिए बना रहे हो? अभी कहां तक पहुंचे हो? आज-कल की बात आकर रही है वा अभी-अभी की बात है वा वर्षों की बात है? अभी है आज और कल की। आज-कल और अभी समय में तो बहुत फर्क हुआ।

टीचर की कमाल यह है जो सभी को टीचर बनावे। आप टीचर नहीं हो? अपने आपके आप टीचर बने हो, तो रिजल्ट को नहीं जानते हो? यही बाप समान बनाने का कर्त्तव्य करना है। टीचर अगर टीचर न बनावे तो टीचर ही कैसा? अगर अपने आप के टीचर बन करके नहीं चलेंगे तो सम्पूर्ण स्टेज को पा नहीं सकेंगे। जो अपने टीचर नहीं बनते हैं वही कमजोर होते हैं। सदैव यह देखो कि जो हम लोगों की महिमा गाई जाती है, ऐसी महिमा योग्य बने हैं? एक-एक बात को अपने में देखो। मर्यादा पुरूषोत्तम हैं? ‘‘सम्पूर्ण निर्विकारी, सम्पन्न, सम्पूर्ण आहिंसक.....।’’ यह पूरी महिमा प्रैक्टिकल में है? अगर कोई की भी कमी हो तो उसको भरने से महिमा योग्य बन जायेंगे। तो ऐसे सदा और सच्चे वैष्णव बनने वाले लक्कीएस्ट और हाइएस्ट बच्चों को नमस्ते।



17-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 संगठन रूपी किले को मबूत बनाने का साधन

पाण्डव भवन को पाण्डवों का किला कहते हैं। किले का गायन भी है। ऐसे ही जो यह ईश्वरीय संगठन है, यह संगठन भी किला ही है। जैसे स्थूल किले को बहुत मजबूत किया जाता है, जिससे कोई भी दुश्मन वार कर न सके। इस रीति से मुख्य किला है संगठन का। इसमें भी इतनी मजबूती हो जो कोई भी विकार दुश्मन के रूप से वार कर न सके। अगर कोई दुश्मन वार कर लेता है तो रूर किले की मजबूती की कमी है। यह तो संगठन रूपी किला है, इसकी मजबूती के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। अगर तीनों बातें मजबूत हैं तो इस किले के अन्दर कोई भी रूप से कभी भी कोई दुश्मन वार नहीं कर सकेंगे। दुश्मन प्रवेश भी नहीं कर सकते, हिम्मत नहीं हो सकती। वह तीन बातें कौनसी हैं, जिससे मजबूत हो सकते हैं? एक - स्नेह; दूसरा - स्वच्छता और तीसरा है रूहानियत यह तीनों बातें अगर मजबूत हैं तो कब कोई का वार नहीं होगा। अगर कहां भी, कोई भी वार करता है, उनका कारण इन तीनों में कोई-ना-कोई कमी है। या स्नेह की कमी है या फिर रूहानियत की कमी है। तो संगठन रूपी किले को मजबूत करने के लिए इन तीन बातों पर बहुत अटेन्शन चाहिए। हरेक स्थान पर इन बातों का फोर्स रखकर भी यह लाना चाहिए। जैसे स्थूल में भी वायुमण्डल को शुद्ध करने के लिए एअर Öौश करते हैं। उससे अल्पकाल के लिए वायुमण्डल चेन्ज हो जाता है। इस रीति से इसमें भी इन बातों का प्रैशर डालना चाहिए जिससे वायुमण्डल का भी असर निकल जाए। कोई को भी आकर्षण करने की मुख्य बातें यही होती हैं। स्नेह से, स्वच्छता से प्रभावित तो हो जाते हैं लेकिन मुख्य तीसरी बात रूहानियत की जो है, यह है मुख्य। दो बातों से प्रभावित होकर गए। यह तो उन्हों के प्रति विशेष वृति और दृष्टि में अटेन्शन रहा। उसकी रिजल्ट में यह लेकर के गए। तो जैसे लोगों को भी यह मुख्य बातें आकर्षण करने के लिए निमित्त बनती हैं ना। वैसे एक दो को संगठन में लाने के लिए वा संगठन में शक्ति बढ़ाने के लिए आपस में भी यह तीन बातें एक दो को देकर के अटेन्शन दिलाने की आवश्यकता है। अगर तीनों में से कोई भी बात की कमजोरी है तो रूर कोई ना कोई विकनेस है। जो सफ़लता होनी चाहिए वह नहीं हो पाती, रूर कोई कमी है। तो यह बातें बहुत ध्यान में रखनी हैं। किले की मजबूती होती है एक दो के संगठन से। अगर किले की दीवार में एक भी ईंर्ट वा पत्थर का सहयोग पूरा ना हो तो वह किला सेफ नहीं हो सकता। रा भी हिला तो कमजोरी आ जाएगी। भले कहने में तो एक ईंट की कमी है लेकिन कमजोरी चारों ओर फैलती है। तो वैसे ही मजबूती के लिए तीन बातें बहुत रूरी हैं। फिर कोई वायब्रेशन भी टच नहीं कर सकता। अपने ऊपर अटेन्शन कम है। जैसे साकार बाप साकार रूप में लाइट-हाउस, माइट-हाउस दूर से ही दिखाई देते थे, ऐसे रूहानियत की मजबूती होने से कोई भी अन्दर आएंगे तो लाइट-हाउस, माइट-हाउस का अनुभव करेंगे। जैसे स्नेह और स्वच्छता बाहर के रूप में दिखाई देती है, वैसे ही रूहानियत वा अलौकिकता बाहर रीति से प्रत्यक्ष दिखाई दे, तब जय-जयकार होगी। ड्रामा प्रमाण जो भी कुछ चल रहा है उसको यथार्थ तो कहेंगे ही लेकिन साथ-साथ शक्ति रूप का भी अनुभव होना चाहिए। यह अलौकिकता रूर होनी चाहिए।

यह स्थान अन्य स्थानों से भिन्न है। स्वच्छता वा स्नेह तो दुनिया में भी अल्पकाल का मिलता है लेकिन रूहानियत कम है। यह ईश्वरीय कार्य चल रहा है, कोई साधारण बात नहीं है -- यह अनुभव यहां आकर करना चाहिए। वह तब होगा जब अपने अलौकिक नशे में रहकर के निशाना लगाएंगे। यह लक्ष्य रूर रखना है -- अपने चरित्र द्वारा, चलन द्वारा, वाणी द्वारा, वृत्ति द्वारा, वायुमण्डल द्वारा, सभी प्रकार के साधनों से बाप के प्रैक्टिकल पार्ट की प्रत्यक्षता अवतरण-भूमि पर तो प्रत्यक्ष मिलनी चाहिए। सिर्फ स्नेह, स्वच्छता की प्रशंसा तो कहां भी कर सकते हैं, छोटे-छोटे स्थानों में भी प्रभाव पड़ सकता है लेकिन कर्म-भूमि, चरित्र-भूमि द्वारा भूमि में आने की विशेषता होनी चाहिए। जैसे कोई को घेराव डालकर के चारों ओर उसको अपने तरफ आकर्षित करने लिए करते हैं। तो बाप के साथ स्नेह में भी समीप लाने की प्वाईंट्स का घेराव डालो। इसके लिए विशेष इस भूमि पर सम्पर्क में आने वालों को सम्बन्ध में समीप लाना चाहिए। जो सम्पर्क में आने वाले हैं वही सम्बन्ध में समीप आ सकते हैं।

चारों ओर यही आवाज कानों में गूंजता रहे, चारों ओर यही वायुमण्डल उन्हों को भले देता रहे, इसके लिए तीन बातों की आवश्यकता है। अब तक जो हुआ वह तो कहेंगे ठीक हुआ। अच्छा तो सभी होता है। लेकिन अब की स्टेज प्रमाण अब होना चाहिए अच्छे से अच्छा। जबकि चैलेन्ज करते हो - 4 वर्ष में विनाश की ज्वाला प्रत्यक्ष हो जाएगी; तो स्थापना में भी रूर बाप की प्रत्यक्षता होगी तब तो कार्य होगा ना। अच्छा! कमाल यह है जो विस्तार द्वारा बीज को प्रगट करें। विस्तार में बीज को गुप्त कर देते हैं। अब तो वृक्ष की अन्तिम स्टेज है ना। मध्य में गुप्त होता है। अन्त तक गुप्त नहीं रह सकता। अति विस्तार के बाद आखरीन बीज ही प्रत्यक्ष होता है ना। मनुष्य आत्माओं की यह नेचर होती है जो वैराइटी में आकर्षित अधिक होते हैं। लेकिन आप लोग किसलिए निमित हो? सभी आत्माओं को वैराइटी वा विस्तार के आकर्षण से अटेन्शन निकाकर बीज तरफ आकर्षित करना। अच्छा!



20-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 सार-स्वरूप बनने से संकल्प और समय की बचत

मास्टर बीजरूप की स्थिति में स्थित रहने का अभ्यास करते-करते सहज इस स्मृति में अपने आपको स्थित कर सकते हो? जैसे विस्तार और वाणी में सहज ही आ जाते हो, वैसे ही वाणी से परे विस्तार के बजाय सार में स्थित हो सकते हो? हद के जादूगर विस्तार को समाने की शक्ति दिखाते हैं। तो आप बेहद के जादूगर विस्तार को नहीं समा सकते हो? कोई भी आत्मा सामने आवे; साप्ताहिक कोर्स एक सेकेण्ड में किसको दे सकते हो? अर्थात् साप्ताहिक कोर्स से जो भी आत्माओं में आत्मिक-शक्ति वा सम्बन्ध की शक्ति भरने चाहते हो वह एक सेकेण्ड में कोई भी आत्मा में भर सकते हो वा यह अन्तिम स्टेज है? जैसे कोई भी व्यक्ति दर्पण के सामने खड़े होने से ही एक सेकेण्ड में स्वयं का साक्षात्कार कर लेते हैं, वैसे आपके आत्मिक-स्थिति, शक्ति-रूपी दर्पण के आगे कोई भी आत्मा आवे तो क्या एक सेकेण्ड में स्व-स्वरूप का दर्शन वा साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं? वह स्टेज बाप समान लाइट-हाउस और माइट-हाउस बनने के समीप अनुभव करते हो वा अभी यह स्टेज बहुत दूर है? जबकि सम्भव समझते हो तो फिर अब तक ना होने का कारण क्या है? जो सम्भव है, लेकिन प्रैक्टिकल में अब नहीं है तो रूर कोई कारण होगा। ढीलापन भी क्यों है? ऐसी स्थिति बनाने के लिए मुख्य कौनसे अटेन्शन की कमी है? जब साईंस ने भी अनेक कार्य एक सेकेण्ड में सिद्ध कर दिखाये हैं, सिर्फ स्विच ऑन और ऑफ करने की देरी होती है। तो यहां वह स्थिति क्यों नहीं बन पाती? मुख्य कौन-सा कारण है? दर्पण तो हो। दर्पण के सामने साक्षात्कार होने में कितना टाइम लगता है? अभी आप स्वयं ही विस्तार में ज्यादा जाते हो। जो स्वयं ही विस्तार में जाने वाले हैं वह और कोई को सार-रूप में कैसे स्थित कर सकते? कोई भी बात देखते वा सुनते हो तो बुद्धि को बहुत समय की आदत होने कारण विस्तार में जाने की कोशिश करते हो। जो भी देखा वा सुना उसके सार को जानकर और सेकेण्ड में समा देने का वा परिवर्तन करने का अभ्यास कम है। ‘‘क्यों, क्या’’ के विस्तार में ना चाहते भी चले जाते हो। इसलिए जैसे बीज में शक्ति अधिक होती है, वृक्ष में कम होती है, वृक्ष अर्थात् विस्तार। कोई भी चीज़ का विस्तार होगा तो शक्ति का भी विस्तार हो जाता। जैसे सेक्रीन (Saccharine; कोलतार की जीनी) और वैसे मिठास में फर्क होता है ना। वह अधिक क्वान्टिटी यूज करनी पड़ेगी। सेक्रीन कम अन्दाज में मिठास ज्यादा देगी। इस रीति से कोई भी बात के विस्तार में जाने से समय और संकल्प की शक्ति दोनों ही व्यर्थ चली जाती हैं। व्यर्थ जाने के कारण वह शक्ति नहीं रहती। इसलिए ऐसी श्रेष्ठ स्थिति बनाने के लिए सदा यह अभ्यास करो। कोई भी बात के विस्तार को समाकर सार में स्थित रह सकते हो। ऐसा अभ्यास करते-करते स्वयं सार-रूप बनने के कारण अन्य आत्माओं को भी एक सेकेण्ड में सारे ज्ञान का सार अनुभव करा सकेंगे। अनुभवीमूर्त ही अन्य को अनुभव करा सकते हैं। इस बात के स्वयं ही अनुभवी कम हो, इस कारण अन्य आत्माओं को अनुभव नहीं करा सकते हो। जैसे कोई भी पावरफुल चीज़ में वा पावरफुल साधनों में कोई भी चीज़ को परिवर्तन करने की शक्ति होती है। जैसे अग्नि बहुत तेज अर्थात् पावरफुल होगी, तो उसमें कोई भी चीज़ डालेंगे तो स्वत: ही रूप परिवर्तन में आ जाएगा। अगर अग्नि पावरफुल नहीं है तो कोई भी वस्तु के रूप को परिवर्तन नहीं कर पाएंगे। ऐसे ही सदैव अपने पावरफुल स्टेज पर स्थित रहो तो कोई भी बातें, जो व्यक्त भाव वा व्यक्त दुनिया की वस्तुएं हैं वा व्यक्त भाव में रहने वाले व्यक्ति हैं, आपके सामने आएंगे तो आपके पावरफुल स्टेज के कारण उन्हों की स्थिति वा रूपरेखा परिवर्तन हो जाएगी। व्यक्त भाव वाले का व्यक्त भाव बदलकर आत्मिक-स्थिति बन जाएगी। व्यर्थ बात परिवर्तन होते समर्थ रूप धारण कर लेगी। विकल्प शब्द शुद्ध संकल्प का रूप धारण कर लेगा। लेकिन ऐसा परिवर्तन तब होगा जब ऐसी पावरफुल स्टेज पर स्थित हां। कोई भी लौकिकता अलौकिकता में परिवर्तित हो जाएगी। साधारण असाधारण के रूप में परिवर्तित हो जाएंगे। फिर ऐसी स्थिति में स्थित रहने वाले कोई भी व्यक्ति वा वैभव वा वायुमण्डल, वायब्रेशन, वृति, दृष्टि के वश में नहीं हो सकते हैं। तो अब समझा क्या कारण है? एक तो समाने की शक्ति कम और दूसरा परिवर्तन करने की शक्ति कम। अर्थात् लाइट-हाउस, माइट-हाउस - दोनों स्थिति में स्थित सदाकाल नहीं रहते हो। कोई भी कर्म करने के पहले, जो बाप-दादा द्वारा विशेष शक्तियों की सौगात मिली है, उनको काम में नहीं लाते हो। सिर्फ देखते-सुनते खुश होते हो परन्तु समय पर काम में न लाने कारण कमी रह जाती है। हर कर्म करने के पहले मास्टर त्रिकालदर्शा बनकर कर्म नहीं करते हो। अगर मास्टर त्रिकालदर्शा बन हर कर्म, हर संकल्प करो वा वचन बोलो, तो बताओ कब भी कोई कर्म व्यर्थ वा अनर्थ वाला हो सकता है? कर्म करने के समय कर्म के वश हो जाते हो। त्रिकालदर्शा अर्थात् साक्षीपन की स्थिति में स्थित होकर इन कर्म-इन्द्रियों द्वारा कर्म नहीं करते हो, इसलिए वशीभूत हो जाते हो। वशीभूत होना अर्थात् भूतों का आह्वान करना। कर्म करने के बाद पश्चाताप होता है। लेकिन उससे क्या हुआ? कर्म की गति वा कर्म का फल तो बन गया ना। तो कर्म और कर्म के फल के बन्धन में फंसने के कारण कर्म-बन्धनी आत्मा अपनी ऊंची स्टेज को पा नहीं सकती है। तो सदैव यह चेक करो कि आये हैं कर्मबन्धनों से मुक्त होने के लिए लेकिन मुक्त होते-होते कर्मबन्धन-युक्त तो नहीं हो जाते हो? ज्ञानस्वरूप होने के बाद वा मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर सर्वशक्तिवान होने के बाद अगर कोई ऐसा कर्म जो युक्तियुक्त नहीं है वह कर लेते हो, तो इस कर्म का बन्धन अज्ञान काल के कर्मबन्धन से पद्मगुणा ज्यादा है। इस कारण बन्धन-युक्त आत्मा स्वतन्त्र न होने कारण जो चाहे वह नहीं कर पाती। महसूस करते हैं कि यह न होना चाहिए, यह होना चाहिए, यह मिट जाए, खुशी का अनुभव हो जाए, हल्कापन आ जाए, सन्तुष्टता का अनुभव हो जाए, सर्विस सक्सेसफुल हो जाए वा दैवी परिवार के समीप और स्नेही बन जाएं। लेकिन किये हुए कर्मों के बन्धन कारण चाहते हुए भी वह अनुभव नहीं कर पाते हैं। इस कारण अपने आपसे वा अपने पुरूषार्थ से अनेक आत्माओं को सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं और न रह सकते हैं। इसलिए इस कर्मों की गुह्य गति को जानकर अर्थात् त्रिकालदर्शा बनकर हर कर्म करो, तब ही कर्मातीत बन सकेंगे। छोटी गलतियां संकल्प रूप में भी हो जाती हैं, उनका हिसाब-किताब बहुत कड़ा बनता है। छोटी गलती अब बड़ी समझनी है। जैसे अति स्वच्छ वस्तु के अन्दर छोटा- सा दाग भी बड़ा दिखाई देता है। ऐसे ही वर्तमान समय अति स्वच्छ, सम्पूर्ण स्थिति के समीप आ रहे हो। इसलिए छोटी-सी गलती भी अब बड़े रूप में गिनती की जाएगी। इसलिए इसमें भी अनजान नहीं रहना है कि यह छोटी- छोटी गलतियां हैं, यह तो होंगी ही। नहीं। अब समय बदल गया। समय के साथ-साथ पुरूषार्थ की रफ्तार बदल गई। वर्तमान समय के प्रमाण छोटी-सी गलती भी बड़ी कमजोरी के रूप में गिनती की जाती है। इसलिए कदम-कदम पर सावधान! एक छोटी-सी गलती बहुत समय के लिए अपनी प्राप्ति से वंचित कर देती है। इसलिए नॉलेजफुल अर्थात् लाइट-हाउस, माइट-हाउस बनो। अनेक आत्माओं को रास्ता दिखाने वाले स्वयं ही रास्ते चलते-चलते रूक जाएं तो औरों को रास्ता दिखाने के निमित कैसे बनेंगे? इसलिए सदा विघ्न-विनाशक बनो। अच्छा!

ऐसे सदा त्रिकालदर्शी, कर्मयोगी बन चलने वालों को नमस्ते।



24-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 परिवर्तन का आधार - दृढ़ संकल्प

ज सर्व पुरुषार्थी आत्माओं को देख-देख खुश हो रहे हैं क्योंकि जानते हैं कि यही श्रेष्ठ आत्मायें सृष्टि को परिवर्तन करने के निमित बनी हुई हैं। एक-एक श्रेष्ठ आत्मा नंबरवार कितनी कमाल कर रही है। वर्तमान समय भले कोई भी कमी वा कमजोरी है लेकिन भविष्य में यही आत्मायें क्या से क्या बनने वाली हैं और क्या से क्या बनाने वाली हैं! तो भविष्य को देख, आप सभी की सम्पूर्ण स्टेज को देख हर्षित हो रहे हैं। सभी से बड़े ते बड़े रूहानी जादूगर हो ना। जैसे जादूगर थोड़े ही समय में बहुत विचित्र खेल दिखाते हैं, वैसे आप रूहानी जादूगर भी अपनी रूहानियत की शक्ति से सारे विश्व को परिवर्तन में लाने वाले हो, कंगाल को डभले ताजधारी बनाने वाले हो। परन्तु इतना बड़ा कार्य स्वयं को बदलने अथवा विश्व को बदलने का, एक ही दृढ़ संकल्प से करने वाले हो। एक ही दृढ़ संकल्प से अपने को बदल देते हो। वह कौनसा एक दृढ़ संकल्प, जिस एक संकल्प से अनेक जन्मों की विस्मृति के संस्कार स्मृति में बदल जाएं? वह एक संकल्प कौनसा? है भी एक सेकेण्ड की बात जिससे स्वयं को बदल लिया। एक ही सेकेण्ड का और एक ही संकल्प यह धारण किया कि मैं आत्मा हूं। इस दृढ़ संकल्प से ही अपने सभी बातों को परिवर्तन में लाया। ऐसे ही, दृढ़ संकल्प से विश्व को भी परिवर्तन में लाते हो। वह एक दृढ़ संकल्प कौन-सा? हम ही विश्व के आधारमूर्त, उद्धारमूर्त हैं अर्थात् विश्व-कल्याणकारी हैं। इस संकल्प को धारण करने से ही विश्व के परिवर्तन के कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहते हो। तो एक ही संकल्प से अपने को वा विश्व को बदल लेते हो, ऐसे रूहानी जादूगर हो। वह जादूगर तो अल्पकाल के लिए चीजों को परिवर्तन में लाकर दिखाते हैं, लेकिन आप रूहानी जादूगर अविनाशी परिवर्तन, अविनाशी प्राप्ति करने-कराने वाले हो। तो सदा अपने इस श्रेष्ठ मर्तबे और श्रेष्ठ कर्त्तव्य को सामने रखते हुए हर संकल्प वा कर्म करो तो कोई भी संकल्प वा कर्म व्यर्थ नहीं होगा। चलते-चलते पुराने शरीर और पुरानी दुनिया में रहते हुए अपने श्रेष्ठ मर्तबे को और श्रेष्ठ कर्त्तव्य को भूल जाने के कारण अनेक प्रकार की भूलें हो जाती हैं। अपने आपको भूलना - यह भी भूल है ना। जो अपने आपको भूलता है वह अनेक भूलों के निमित्त बन जाते हैं। इसलिए अपने मर्तबे को सदैव सामने रखो। जैसे सच्चे भक्त लोग जो होते हैं वह भी दुनिया की तुलना में, जो दुनिया वाले नास्तिक, अज्ञानी लोग विकर्म करते हैं, विकारों के वश होते हैं, उनसे काफी दूर रहते हैं। क्यों? कारण क्या होता है कि जो नवधा अर्थात् सच्चे भक्त हैं वह सदैव अपने सामने अपने इष्ट को रखते हैं। उनको सामने रखने कारण कई बातों में सेफ रह जाते हैं और कई आत्माओं से श्रेष्ठ बन जाते हैं। जब भक्त भी भक्ति द्वारा इष्ट को सामने रखने से नास्तिक और अज्ञानी से श्रेष्ठ बन सकते हैं, तो ज्ञानी तू आत्माएं सदा अपने श्रेष्ठ मर्तबे और कर्त्तव्य को सामने रखें तो क्या बन जाएंगी? श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माएं। तो अपने आप से पूछो, देखो कि सदा अपना मर्तबा और कर्त्तव्य सामने रहता है? बहुत समय भूलने के संस्कारों को धारण किया, लेकिन अब भी अगर बार-बार भूलने के संस्कार धारण करते रहेंगे तो स्मृतिस्वरूप का जो नशा वा खुशी प्राप्त होनी चाहिए वह कब करेंगे? स्मृति-स्वरूप का सुख वा स्मृति-स्वरूप की खुशी का अनुभव क्यों नहीं होता है? उसका मुख्य कारण क्या है? अभी तक सर्व रूपों से नष्टोमोहा नहीं हुए हो। नष्टोमोहा हैं तो फिर भले कितनी भी कोशिश करो लेकिन स्मृतिस्वरूप में आ जाएंगे। तो प्हले ‘‘नष्टोमोहा कहां तक हुए हैं’’ - यह अपने आपको चेक करो। बार-बार देहअभिमान में आना यह सिद्ध करता है -- देह की ममता से परे नहीं हुए हैं वा देह के मोह को नष्ट नहीं किया है। नष्टोमोहा ना होने कारण समय और शक्तियां जो बाप द्वारा वर्से में प्राप्त हो रही हैं, उन्हों को भी नष्ट कर देते हो, काम में नहीं लगा सकते हो। मिलती तो सभी को हैं ना। जब बच्चे बने तो जो भी बाप की प्रापर्टा वा वर्सा है उसके अधिकारी बनते हैं। तो सर्व आत्माओं को सर्व शक्तियों का वर्सा मिलता ही है लेकिन उस सर्व शक्तियों के वर्से को काम में लगाना और अपने आप को उन्नति में लाना, यह नंबरवार पुरूषार्थ अनुसार होता है। इसलिए बेहद बाप के बच्चे और वर्सा हद का लेवें, तो क्या कहेंगे? बेहद मर्तबे के बजाए हद का वर्सा वा मर्तबा लेना - यह बेहद के बच्चों का कर्त्तव्य नहीं है। तो अभी भी अपने आपको बेहद के वर्से के अधिकारी बनाओ। अधिकारी कब अधीन नहीं होता है। अपनी रचना के अधीन नहीं होता है, अपनी रचना के अधीन होना, इसको अधिकारी कहेंगे? बार-बार विस्मृति में आने से अपने आप को ही कमजोर बना देते हो। कमजोर होने के कारण छोटी-सी बात का सामना नहीं कर पाते हो। तो अब आधे कल्प के इन विस्मृति के संस्कारों को विदाई दो। आज बाप दादा भी आप सभी से प्रतिज्ञा कराते हैं। जैसे आप लोग दुनिया वालों को चैलेन्ज करते हो कि विनाश में 4 वर्ष हैं; तो क्या 4 वर्ष के लिए भी अपने आपको सतोप्रधान नहीं बना सकते हो? जैसे दुनिया को चैलेन्ज करते हो वैसे आप भी 4 वर्ष के लिए विस्मृति के संस्कारों को विदाई नहीं दे सकते हो? दुनिया को चैलेन्ज करने वाले स्वयं अपने लिए 4 वर्ष के लिए माया को चैलेन्ज नहीं कर सकते हो? 4 वर्ष के लिए मायाजीत नहीं बन सकते हो? जब उन्हों को हिम्मत दिलाते हो, उल्लास में लाते हो, तो क्या अपने आपमें अपने प्रति अपने आपको हिम्मत-उल्लास नहीं दे सकते हो? तो आज से सिर्फ 4 वर्ष के लिए प्रतिज्ञा करो कि कभी किस रूप में भी, किस परिस्थिति में भी माया से हारेंगे नहीं लेकिन लड़ेंगे और विजयी बनेंगे। तो 4 वर्ष के लिए यह कंगन नहीं बांध सकते हो? जिन्हों को नॉलेज नहीं, शक्ति नहीं उन्हों को भी राखी बांध-बांध करके प्रतिज्ञा कराते हो और जो बहुत काल से नॉलेज, सम्बन्ध और शक्ति को प्राप्त करने वाले हों वह श्रेष्ठ आत्मायें, महावीर आत्मायें, शक्तिस्वरूप आत्मायें, पाण्डव सेना क्या यह प्रतिज्ञा की राखी नहीं बांध सकते हो? क्या अन्त तक कमजोरी और कमी को अपना साथी बनाने चाहते हो? आजकल साइन्स द्वारा भी एक सेकेण्ड में कोई भी वस्तु को भस्म कर लेते हैं। तो नॉलेजफुल मास्टर सर्वशक्तिवान एक सेकेण्ड के दृढ़ संकल्प से वा प्रतिज्ञा से अपनी कमजोरियों को भस्म नहीं कर सकते हो? वह भी सिर्फ 4 वर्ष के लिए कह रहे हैं। 4 वर्ष की प्रतिज्ञा सहज है वा मुश्किल है? औरों को तो बड़े फोर्स, फलक से यह प्वाइन्ट देते हो। तो जैसे औरों को फलक और फखुर से कहते हो वैसे अपने आप में भी विजयी बनने की फलक और फखुर नहीं रख सकते हो? तो आज से कमजोरियों को कम से कम 4 वर्ष के लिए तो विदाई दे दो। 4 वर्ष आप के लिए 4 सेकेण्ड हैं ना। अभी यहां हो, अभी- अभी वहां हो; अभी-अभी पुरुषार्थी, अभी-अभी फरिश्ता रूप -- इतना समीप अपनी सम्पूर्ण स्थिति दिखाई नहीं दे रही है? जब समय इतना नजदीक है तो सम्पूर्ण स्थिति भी तो नजदीक है। इससे भी पुरूषार्थ में भले भरेगा। जैसे कोई को मालूम पड़ जाता है कि मंजिल अभी सिर्फ इतनी थोड़ी-सी दूर है, मंजिल पर पहुंचने की खुशी में सभी बात भूल जाते हैं। यह जो चलते-चलते पुरूषार्थ में थकावट वा छोटी-छोटी उलझनों में फंसकर आलस्य में आ जाते हो, उन सभी को मिटाने के लिए अपने सामने स्पष्ट समय और समय के साथ-साथ अपनी प्राप्ति को रखो तो आलस्य वा थकावट मिट जायेगी। जैसे हर वर्ष का सर्विस प्लैन बनाते हो वैसे हर वर्ष में अपनी चढ़ती कला वा सम्पूर्ण बनने का वा श्रेष्ठ संकल्प वा कर्म करने का भी अपने आप के लिए प्लैन बनाओ और प्लैन के साथ हर समय प्लैन को सामने देखते हुए प्रैक्टिकल में लाते जाओ। अच्छा!

ऐसी प्रतिज्ञा कर अपने सम्पूर्ण स्वरूप को और बाप को प्रत्यक्ष करने वालों को नमस्ते।



27-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


 रावण से विमुख और बाप के सम्मुख रहो

स समय जो सभी बैठे हो, सभी की इस समय की स्टेज श्रेष्ठ स्टेज कहें वा अव्यक्त स्थिति कहें? इस समय सभी की अव्यक्त स्थिति है वा अब भी कोई व्यक्त भाव में स्थित है? कोई भी व्यक्त स्थिति में स्थित होकर बैठेंगे तो अव्यक्त मिलन वा अव्यक्त बोल को धारण नहीं कर सकेंगे। तो अव्यक्ति स्थिति में स्थित हो? जो नहीं हैं वो हाथ उठावें। अगर इस समय अव्यक्त स्थिति में स्थित हो, व्यक्त भाव के भान से परे हो; तो क्यों परे हो? सभी की एक ही अव्यक्त स्थिति क्यों बनी, कैसे बनी? अव्यक्त बापदादा के सामने होने कारण सभी की एक ही अव्यक्त स्थिति बन गई है। तो ऐसे ही अगर सदा अपने को बापदादा के सम्मुख समझ करके चलो तो क्या स्थिति होगी? अव्यक्त होगी ना। तो बापदादा के सदा सम्मुख रहने के बजाए बापदादा को अपने से अलग वा दूर क्यों समझ कर चलते हो? जैसे एक सीता का मिसाल सुनाते वा सुनते रहते हो कि सीता सदा किसके सम्मुख रहती थी -- राम के। सम्मुख अर्थात् स्थूल में सम्मुख नहीं लेकिन बुद्धि से सदा बापदादा के सम्मुख रहना है। बापदादा के सम्मुख रहना अर्थात् रावण माया से विमुख रहना है। जब माया के सम्मुख हो जाते हो तो बाप से बुद्धि विमुख हो जाती है। जो अति प्यारे ते प्यारा सम्बन्ध होता है उससे स्वत: ही सम्मुख ही बैठने-उठने, खाने-पीने, चलने अर्थात् सदा साथ का अनुभव होता है। तो क्या बापदादा के सदा सम्मुख नहीं रह सकते हो? अगर सदा सम्मुख रहेंगे तो सदा अव्यक्त स्थिति रहेगी। तो दूर क्यों हो जाते हो? क्या यह भी बचपन का खेल करते हो? कई ऐसे बच्चे होते हैं जो जितना ही मां-बाप पास में बुलाते हैं उतना ही नटखट होने कारण दूर भागते हैं। तो क्या यह अच्छा लगता है? सदा अपने को सम्मुख समझने से अपने को सदा आलमाइटी अथॉरिटी महसूस करेंगे। आलमाइटी अथॉरिटी के आगे और काई भी अथॉरिटी वार नहीं कर सकती है वा आलमाइटी अथॉरिटी कब भी हार नहीं खा सकते हैं।

आज अल्पकाल की अथॉरिटी वाले भी कितने शक्तिशाली रहते हैं! तो आलमाइटी अथॉरिटी वाले तो सर्वशक्तिवान् हैं ना। सर्वशक्तियों के आगे अल्पकाल की शक्ति वाले भी सिर झुकाने वाले हैं। वार नहीं करेंगे लेकिन सिर झुकायेंगे। वार के बजाय बार-बार नमस्कार करेंगे। तो ऐसे अपने को आलमाइटी अथॉरिटी समझकर के फिर हर कदम उठाते हो? अपने को आलमाइटी अथॉरिटी समझना अर्थात् आलमाइटी बाप को सदा साथ रखना है। जैसे देखो, आजकल के भक्ति-मार्ग के लोगों को कौनसी अथॉरिटी है? शास्त्र की। उन्हों की बुद्धि में सदा शास्त्र ही रहेंगे ना। कोई भी काम करेंगे तो सामने शास्त्र ही लायेंगे, कहेंगे -- यह जो कर्म कर रहे हैं वह शास्त्र प्रमाण हैं। तो जैसे शास्त्र की अथॉरिटी वालों को सदा बुद्धि में शास्त्र का आधार रहता है अर्थात् शास्त्र ही बुद्धि में रहते हैं। उनके सम्मुख शास्त्र हैं, आप लोगों के सामने क्या है? आलमाइटी बाप। तो जैसे वह कोई भी कार्य करते हैं तो शास्त्र का आधार होने कारण अथॉरिटी से वही कर्म सत्य मानकर करते हैं। कितना भी आप मिटाने की कोशिश करो लेकिन अपने आधार को छोड़ते नहीं हैं। कोई भी बात में बार-बार कहेंगे कि शास्त्र की अथॉरिटी से हम बोलते हैं, शास्त्र कब झूठे हो ना सकें, जो शास्त्र में है वही सत्य है। इतना अटल निश्चय रहता है। ऐसे ही जो आलमाइटी बाप की अथॉरिटी है उसकी अथॉरिटी से सर्व कार्य हम करने वाले हैं - यह इतना अटल निश्चय हो जो कोई टाल ना सके। ऐसा अटल निश्चय है? सदैव अपनी अथॉरिटी भी याद रहे। कि दूसरे की अथॉरिटी को देखते हुए अपनी अथॉरिटी भूल जाती है? सभी से श्रेष्ठ अथॉरिटी के आधार पर चलने वाले हो ना। अगर सदैव यह अथॉरिटी याद रखो तो पुरूषार्थ में कब भी मुश्किल मार्ग का अनुभव नहीं करेंगे। कितना भी कोई बड़ा कार्य हो लेकिन आलमाइटी अथॉरिटी के आधार से अति सहज अनुभव करेंगे। कोई भी कर्म करने के पहले अथॉरिटी को सामने रखने से बहुत सहज जज कर सकते हो कि यह कर्म करें वा ना करें। सामने अथॉरिटी का आधार होने कारण सिर्फ उनको कॉपी करना है। कॉपी करना तो सहज होता है वा मुश्किल होता है? हां वा ना - उसका जवाब अथॉरिटी को सामने रखने से ऑटोमेटिकली आपको आ जाएगा। जैसे आजकल साईंस ने भी ऐसी मशीनरी तैयार की है जो कोई भी क्वेश्चन डालो तो उसका उत्तर सहज ही मिल आता है। मशीनरी द्वारा प्रश्न का उत्तर निकल जाता है, तो दिमाग चलाने से छूट जाते हैं। तो ऐसे ही ऑलमाइटी अथॉरिटी को सामने रखने से जो भी प्रश्न करेंगे उनका उत्तर प्रैक्टिकल में आपको सहज ही मिल जाएगा। सहज मार्ग अनुभव होगा। ऐसे सहज और श्रेष्ठ आधार मिलते हुए भी अगर कोई उस आधार का लाभ नहीं उठाते तो उसको क्या कहेंगे? अपनी कमजोरी। तो कमजोर आत्मा बनने के बजाय्य शक्तिशाली आत्मा बनो और बनाओ। अपने को ऑलमाइटी अथॉरिटी समझने से 3 मुख्य बातें ऑटोमेटिकली अपने में धारण हो जाएंगी। वह तीन बातें कौनसी?

बुद्धि की ड्रिल करने से सुना हुआ ज्ञान दुहराते हो। यह भी अच्छा है, इससे भी शक्ति बढ़ती है। कोई भी अथॉरिटी वाले होते हैं, साधारण अथॉरिटी वालों में भी 3 बातें होती हैं -- एक निश्चय, दूसरा नशा और तीसरा निर्भयता। यह तीन बातें अथॉरिटी वाले रॉंग होते भी, अयथार्थ होते भी कितना दृढ़ निश्चयबुद्धि होकर बोलते वा चलते हैं! जितना ही निश्चय होगा उतना निर्भय होकर नशे में बोलते हैं। ऐसे ही देखो, जब आप सभी ऑलमाइटी अथॉरिटी हो, सभी से श्रेष्ठ अथॉरिटी वाले हो; तो कितना नशा रहना चाहिए और कितना निश्चय से बोलना चाहिए! और फिर निर्भयता भी चाहिए। कोई भी किस भी रीति से हार खिलाने की कोशिश करे लेकिन निर्भयता, निश्चय और नशे के आधार पर वब हार खा सकेंगे? नहीं, सदा विजयी होंगे। विजयी ना होने का कारण इन तीन बातों में से कोई बात की कमी है, इसलिए विजयी नहीं बन पाते हो। तो यह तीनों ही बातें अपने आप में देखो कि कहां तक हर कदम उठाने में यह बातें प्रैक्टिकल में हैं? एक होता है टोटल नॉलेज में, बाप में निश्चय। लेकिन कोई भी कर्म करते, बोल बोलते यह तीनों ही क्वॉलिफि- केशन रहें। वह प्रैक्टिकल की बात दूसरी होती है। और जब यह तीनों बातें हर कर्म, हर बोल में आ जाएंगी तब ही आपके हर बोल और हर कर्म ऑलमाइटी अथॉरिटी को प्रत्यक्ष करेंगे। अभी तो साधारण समझते हैं। इन्हों की अथॉरिटी स्वयं ऑलमाइटी बाप है - यह नहीं अनुभव करते हैं। यह अनुभव तब करेंगे जब एक सेकेण्ड भी अथॉरिटी को छोड़ करके कोई भी कर्म नहीं करेंगे वा बोल नहीं बोलेंगे। अथॉरिटी को भूलने से साधारण कर्म हो जाता है। तो अन्य लोगों को भी साधारण, जैसे अन्य लोग थोड़ा-बहुत कर रहे हैं, वैसे ही अनुभव होता है। जो आते भी हैं तो रिजल्ट में क्या कहते हैं? आप लोगों की विशेषता को वर्णन करते हुए साथ में विशेषता के साथ साधारणता भी रूर वर्णन करते रहते हैं - और संस्थाओं में भी ऐसे हैं, जैसे वह कर रहे हैं, वैसे यह भी कर रहे हैं। तो साधारणता हुई ना। एक-दो बात विशेष लगती है लेकिन हर कर्म, हर बोल विशेष लगे जो और कोई से तुलना ना कर सकें वह स्टेज तो नहीं आई है ना। ऑलमाइटी की कोई भी एक्टिविटी साधारण कैसे हो सकती? परमात्मा के अथॉरिटी और आत्माओं के अथॉरिटी में तो रात-दिन का फर्क होना चाहिए! ऐसा अपने आप मे अर्थात् अपने बोल और कर्म में अन्य आत्माओं से रात-दिन का अन्तर महसूस करते हो? रात-दिन का अन्तर इतना होता है जो कोई को समझाने की आवश्यकता नहीं होती कि यह अन्तर है, ऑटोमेटिकली समझ जाएंगे -- यह रात, यह दिन है। तो आप भी जबकि ऑलमाइटी अथॉरिटी के आधार से हर कर्म करने वाले हो, हर डायरेक्शन प्रमाण चलने वाले हो; तो अन्तर रात-दिन का दिखाई देना चाहिए। ऐसे अन्तर हो जो आने से ही समझ लें कि कोई साधारण स्थान नहीं, इन्हों की नॉलेज साधारण नहीं। ऐसा जब प्रभाव पड़े तब समझो अपनी अथॉरिटी को प्रत्यक्ष कर रहे हैं। जैसे शास्त्रवादियों के बोल दिखाई देते हैं कि इन्हों को शास्त्र की अथॉरिटी है, वैसे आपके हर बोल से अथॉरिटी प्रसिद्ध होनी चाहिए। फाइनल स्टेज तो यही है ना। बोल से, चेहरे से, चलन से, सभी से अथॉरिटी का मालूम पड़ना चाहिए। आजकल के जमाने में अगर छोटी-मोटी अथॉरिटी वाले ऑफीसर अपने कर्त्तव्य में जब होते हैं तो कितना अथॉरिटी का कर्म दिखाई देता है। नशा रहता है ना। उसी नशे से हर कर्म करते हैं। वे हद के शास्त्रों की अथॉरिटी हैं। यह है अलौकिक अविनाशी अथॉरिटी

ऐसे अथॉरिटी बाप को सम्मुख रख अथॉरिटी से चलने वाली आत्माओं को नमस्ते



31-05-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


भविष्य में अष्ट देवता और भक्ति में इष्ट बनने का पुरूषार्थ

अपने आपको सदा शिवशक्ति समझ कर हर कर्म करती हो? अपने अलंकार वा अष्ट भुजाधारी मूर्त सदा अपने सामने रहती है? अष्ट भुजाधारी अर्थात् अष्ट शक्तिवान। तो सदा अपने अष्ट शक्ति-स्वरूप स्पष्ट रूप में दिखाई देते हैं? शक्तियों का गायन है ना -- शिवमई शक्तियाँ। तो शिव बाबा की स्मृति में सदा रहती हो? शिव और शक्ति - दोनों का साथ-साथ गायन है। जैसे आत्मा और शरीर - दोनों का साथ है, जब तक इस सृष्टि पर पार्ट है तब तक अलग नहीं हो सकते। ऐसे ही शिव और शक्ति - दोनों का भी इतना ही गहरा सम्बन्ध है, जो गायन है शिवशक्तिपन का। तो ऐसे ही सदैव साथ का अनुभव करती हो वा सिर्फ गायन है? सदा साथ ऐसा हो जो कोई भी कब इस साथ को तोड़ न सके, मिटा न सके। ऐसे अनुभव करते हुए सदा शिवमई शक्ति-स्वरूप में स्थित होकर चलो तो कब भी दोनों की लगन में माया विघ्न डाल नहीं सकती। कहावत भी है - दो दस के बराबर होते हैं। तो जब शिव और शक्ति दोनों का साथ हो गया तो ऐसी शक्ति के आगे कोई कुछ कर सकता है? इन डभले शक्तियों के आगे और कोई भी शक्ति अपना वार नहीं कर सकती वा हार खिला नहीं सकती। अगर हार होती है वा माया का वार होता हैय्; तो क्या उस समय शिव-शक्ति-स्वरूप में स्थित हो? अपने अष्ट-शक्तियाँ-सम्पन्न सम्पूर्ण स्वरूप में स्थित हो? अष्ट शक्तियों में से अगर कोई भी एक शक्ति की कमी है तो अष्ट भुजाधारी शक्तियों का जो गायन है वह हो सकता है? सदैव अपने आपको देखो कि हम सदैव अष्ट शक्तियाँधारी शिव-शक्ति होकर के चल रही हैं? जो सदा अष्ट शक्तियों को धारण करने वाले हैं वही अष्ट देवताओं में आ सकते हैं। अगर अपने में कोई भी शक्ति की कमी अनुभव करते हो तो अष्ट देवताओं में आना मुश्किल है। और अष्ट देवता सारी सृष्टि के लिए इष्ट रूप में गाये और पूजे जाते हैं। तो भक्ति मार्ग में इष्ट बनना है वा भविष्य में अष्ट देवता बनना है तो अष्ट शक्तियों की धारण सदैव अपने में करते चलो। इन शक्तियों की धारणा से स्वत: ही और सहज ही दो बातों का अनुभव करेंगे। वह कौनसी दो बातें? सदा पने को शिव-शक्ति वा अष्ट भुजाधारी अथवा अष्ट शक्तिधारी समझने से एक तो सदा साथीपन का अनुभव करेंगे और दूसरा सदा अपनी स्टेज साक्षीपन की अनुभव करेंगे। एक साथी और दूसरा साक्षी, यह दोनों अनुभव होंगे, जिसको दूसरे शब्दों में साक्षी अवस्था अर्थात् बिन्दु रूप की स्टेज कहा जाता है और साथीपन का अनुभव अर्थात् अव्यक्त स्थिति का अनुभव कहा जाता है। अष्ट शक्ति की धारणा होने से इन दोनों स्थिति का अनुभव सदा सहज और स्वत: करेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई साकार में साथ होता है तो फिर कब भी अपने में अकेलापन वा कमजोरीपन अनुभव नहीं होती है। इस रीति से जब सर्वशक्तिवान शिव और शक्ति दोनों की स्मृति रहती है तो चलते-फिरते बिल्कुल ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में साथ हैं और हाथ में हाथ है। गाया जाता है ना - साथ और हाथ। तो साथ है बुद्धि की लगन और सदा अपने साथ श्रीमत रूपी हाथ अनुभव करेंगे। जैसे कोई के ऊपर किसका हाथ होता है तो वह निर्भय और शक्ति-रूप हो कोई भी मुश्किल कार्य करने को तैयार हो जाता है। इसी रीति जब श्रीमत रूपी हाथ अपने ऊपर सदा अनुभव करेंगे, तो कोई भी मुश्किल परिस्थिति वा माया के विघ्न से घबरायेंगे नहीं। हाथ की मदद से, हिम्मत से सामना करना सहज अनुभव करेंगे। इसके लिए चित्रों में भक्त और भगवान् का रूप क्या दिखाते हैं? शक्तियों का चित्र भी देखेंगे तो वरदान का हाथ भक्तों के ऊपर दिखाते हैं। मस्तक के ऊपर हाथ दिखाते हैं। इसका अर्थ भी यही है कि मस्तक अर्थात् बुद्धि में सदैव श्रीमत रूपी हाथ अगर है तो हाथ और साथ होने कारण सदा विजयी हैं। ऐसा सदैव साथ और हाथ का अनुभव करते हो? कितनी भी कमजोर आत्मा हो लेकिन साथ अगर सर्वशक्तिवान है तो कमजोर आत्मा में भी स्वत: ही भले भर जाता है। कितना भी भयानक स्थान है लेकिन साथी शूरवीर है तो कैसा भी कमजोर शूरवीर हो जाएगा। फिर कब माया से घबरायेंगे नहीं। माया से घबराने वा माया का सामना ना करने का कारण साथ और हाथ का अनुभव नहीं करते हो। बाप साथ दे रहे हैं, लेकिन लेने वाला ना लेवे तो क्या करेंगे? जैसे बाप बच्चे का हाथ पकड़ कर उनको सही रास्ते पर लाना चाहते हैं, लेकिन बच्चा बार-बार हाथ छुड़ा कर अपनी मत पर चले तो क्या होगा? मूँझ जाएगा। इस रीति एक तो बुद्धि के संग और साथ को भूल जाते हो और श्रीमत रूपी हाथ को छोड़ देते हो, तब मूँझते हो वा उलझन में आते हो। और श्रीमत रूपी हाथ को छोड़ देते हो तब मूँझते हो वा उलझन में आते हो अथवा कमजोर बन जाते हो। माया भी बड़ी चतुर है। कभी भी वार करने के लिए पहले साथ और हाथ छुड़ा कर अकेला बनाती है। जब अकेले कमजोर पड़ जाते हो तब माया वार करती है। वैसे भी अगर कोई दुश्मन किसी के ऊपर वार करता है तो पहले उनको संग और साथ से छुड़ाते हैं। कोई ना कोई युक्ति से उनको अकेला बना कर फिर वार करते हैं। तो माया भी पहले साथ और हाथ छुड़ा कर फिर वार करेगी। अगर साथ और हाथ छोड़ो ही नहीं तो फिर सर्वशक्तिवान साथ होते माया क्या कर सकती है? मायाजीत हो जायेंगे। तो साथ और हाथ को कब छोड़ो नहीं। ऐसे सदा मास्टर सर्वशक्तिवान बनकर के चलो। भक्ति में भी पुकारते हैं ना - एक बार हाथ पकड़ लो। तो बाप हाथ पकड़ते हैं, हाथ में हाथ देकर चलाना चाहते हैं फिर भी हाथ छोड़ देते हैं तो भटकना नहीं होगा तो क्या होगा? तो अब अपने आपको भटकाने के निमित्त भी स्वयं ही बनते हो। जैसे कोई भी योद्धा युद्ध के मैदान पर जाने से पहले ही अपने शस्त्र को, अपनी सामग्री को साथ में रख करके फिर मैदान में जाते हैं। ऐसे ही इस कर्मक्षेत्र रूपी मैदान पर कोई भी कर्म करने अथवा योद्धे बन युद्ध करने के लिए आते हो; तो कर्म करने से पहले अपने शस्त्र अर्थात् यह अष्ट शक्तियों की सामग्री साथ रख कर फिर कर्म करते हो? वा जिस समय दुश्मन आता है उस समय सामग्री याद आती है? तो फिर क्या होगा? हार हो जाएगी। सदा अपने को कर्मक्षेत्र पर कर्म करने वाले योद्धे अर्थात् महारथी समझो। जो युद्ध के मैदान पर सामना करने वाले होते हैं वह कभी भी शस्त्र को नहीं छोड़ते हैं। सोने के समय भी अपने शस्त्र को नहीं छोड़ते हैं। ऐसे ही सोते समय भी अपनी अष्ट शक्तियों को विस्मृति में नहीं लाना है अर्थात् अपने शस्त्र को साथ में रखना है। ऐसे नहीं - जब कोई माया का वार होता है उस समय बैठ सोचो कि क्या युक्ति अपनाऊं? सोच करते-करते ही समय बीत जाएगा। इसलिए सदैव एवररेडी रहना चाहिए। सदा अलर्ट और एवररेडी अगर नहीं हैं तो कहीं ना कहीं माया धोखा खिलाती है और धोखे का रिजल्ट क्या होता? अपने आपको देख कर ही दु:ख की लहर उत्पन्न हो जाती है। अपनी कमी ही कमी को लाती है। अगर अपनी कमी नहीं है तो कब भी कोई भी कमी नहीं आ सकती। बेगमपुर के बादशाह कहते थे ना। यह इस समय की स्टेज है जबकि गम की दुनिया सामने है। गम और बे-गम की अभी नॉलेज है। इसके होते हुए उस स्थिति में सदा निवास करते, इसलिये बेगमपुर का बादशाह कहा जाता है। भले बेगर हो लेकिन बेगर होते भी बेगमपुर के बादशाह हो। तो सदा इस नशे में रहते हो कि हम बेगमपुर के बादशाह हैं? बादशाह अथवा राजे लोगों में ऑटोमेटिकली शक्ति रहती है राज्य चलाने की। लेकिन उस ऑटोमेटिक शक्ति को अगर सही रीति काम में नहीं लगाते हैं, कहीं ना कहीं उलटे कार्य में फंस जाते हैं तो राजाई की शक्ति खो लेते हैं और राज्य पद गंवा देते हैं। ऐसे ही यहॉं भी तुम हो बेगमपुर के बादशाह और सर्व शक्तियों की प्राप्ति है। लेकिन अगर कोई ना कोई संगदोष वा कोई कर्मेन्द्रिय के वशीभूत हो अपनी शक्ति खो लेते हो तो जो बेगमपुर का नशा वा खुशी प्राप्त है वह स्वत: ही खो जाती है। जैसे वह बादशाह भी कंगाल बन जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी माया के अधीन होने के कारण मोहताज, कंगाल बन जाते हैं। तब तो कहते हैं - क्या करें, कैसे होगा, कब होगा? यह सभी है कंगालपन, मोहताजपन की निशानी। कहां न कहां कोई कर्मेन्द्रियों के वश हो अपनी शक्तियों को खो लेते हैं। समझा? तो अष्ट शक्ति स्वरूप बेगमपुर के बादशाह हैं, इस स्मृति को कब भूलना नहीं। भक्ति में भी सदैव यही पुकारा कि सदा आपकी छत्रछाया में रहें। तो इस साथ और हाथ की छत्रछाया से बाहर क्यों निकलते हो? आज की पुरानी दुनिया में अगर कोई छोटे-मोटे मर्तबे वाले का भी कोई साथी अच्छा होता है तो भी अपनी खुमारी में और खुशी में रहते हैं। समझते हैं - हमारा बैकबोन पावरफुल है। इसलिए खुमारी और खुशी में रहते हैं। आप लोगों का बैकबोन कौन है! जिनका सर्वशक्तिवान् बैकबोन है तो कितनी खुमारी और खुशी होनी चाहिए! कब खुशी की लहर खत्म हो सकती है? सागर में कब लहरें खत्म होती हैं क्या? नदी में लहर उठती नहीं। सागर में तो लहरें उठती रहती हैं। तो मास्टर सागर हो ना। फिर ईश्वरीय खुमारी वा ईश्वरीय खुशी की लहर कब खत्म हो सकती है? खत्म तब होती है जब सागर से सम्बन्ध टूट जाता है; अर्थात् साथ और हाथ छोड़ देते हो तब खुशी की लहर समा जाती है। अगर सदा साथ का अनुभव करो तो पाप कर्म से भी सदा सहज बच जाओ; क्योंकि पाप कर्म अकेलेपन में होता है। कोई चोरी करता है, झूठ बोलता है वा कोई भी विकार वश होता है जिसको अपवित्रता के संकल्प वा कर्म कहा जाता है, वह अकेलेपन में ही होता है। अगर सदा अपने को बाप के साथ-साथ अनुभव करो तो फिर यह कर्म होंगे ही नहीं। कोई देख रहा हो तो फिर चोरी करेंगे? कोई सामने-सामने सुन रहा हो तो फिर झूठ बोलेंगे? कोई भी विकर्म वा व्यर्थ कर्म बार-बार हो जाते हैं तो इसका कारण यह है कि सदा साथी को साथ में नहीं रखते हो अथवा साथ का अनुभव नहीं करते हो। कभी-कभी चलते-चलते उदास भी क्यों होते हो? उदास तब होते हैं जब अकेलापन होता है। अगर संगठन हो और संगठन की प्राप्ति हो तो उदास होंगे क्या? अगर सर्वशक्तिवान बाप साथ है, बीज साथ है; तो बीज के साथ सारा वृक्ष साथ है, फिर उदास अवस्था कैसे होगी? अकेलापन ही नहीं तो उदास क्यों होंगे? कभी-कभी माया के विघ्नों का वार होने के कारण अपने को निर्बल अनुभव करने के कारण परेशान स्टेज पर पहुंच जाते हो। भलेवान का साथ भूलते हो तब निर्बल होते हो और निर्बल होने के कारण अपनी शान को भूल परेशान हो जाते हो। तो जो भी कमजोरियां वा कमी अनुभव करते हो, उन सभी का कारण क्या होगा? साथ और हाथ का सहारा मिलते हुए भी छोड़ देते हो। समझा? कहते भी हो कि सारे कल्प में एक ही बार ऐसा साथ मिलता है; फिर भी छोड़ देते हो। कोई किसको हाथ देकर किनारे करना चाहे और वह फिर भी डूबने का प्रयत्न करे तो क्या कहा जाऐगा? अपने आपको स्वयं ही परेशान करते हो ना। बहुत समय से इस सृष्टि में रहते हुए अभी भी यही परेशानी की स्थिति अच्छी लगती है? नहीं, तो बार-बार उस तरफ क्यों जाते हो? अभी जल्दी-जल्दी चलना है। स्पीड तेज करनी है। सार को अपने में समा लिया तो सारयुक्त हो जाएंगे और असार संसार से बेहद के वैरागी बन जाएंगे। अच्छा।

सदा साथ और हाथ लेने वाले बेगमपुर के बादशाहों को नमस्ते।



08-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सम्पूर्ण स्टेज की परख

पने को विघ्न-विनाशक समझते हो? कोई भी प्रकार का विघ्न सामने आवे तो सामना करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो? अर्थात् अपने पुरूषार्थ से अपने आपको बापदादा के वा अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप जाते अनुभव करते हो वा वहाँ का वहाँ ही रूकने वाले अपने को अनुभव करते हो? जैसे राही कब रूकता नहीं है, ऐसे ही अपने को रात के राही समझ चलते रहते हो? सम्पूर्ण स्थिति का मुख्य गुण प्रैक्टिकल कर्म में वा स्थिति में क्य्या दिखाई देता है वा सम्पूर्ण स्थिति का विशेष गुण कौनसा होता है, जिस गुण से यह परख सको कि अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप हैं वा दूर हैं? अभी एक सेकेण्ड के लिए अपनी सम्पूर्ण स्थिति में स्थित होते हुए फिर बताओ कौनसा विशेष गुण सम्पूर्ण स्टेज को वा स्थिति को प्रत्यक्ष करता है? सम्पूर्ण स्टेज वा सम्पूर्ण स्थिति जब आत्मा की बन जाती है तो इसका प्रैक्टिकल कर्म में क्या गायन है? समानता का। निन्दा स्तुति, जय-पराजय, सुख-दु:ख सभी में समानता रहे, इसको कहा जाता है सम्पूर्णता की स्टेज। दु:ख में भी सूरत वा मस्तक पर दु:ख की लहर के बजाए सुख वा हर्ष की लहर दिखाई दे। निन्दा सुनते हुए भी ऐसे ही अनुभव हो कि यह निन्दा नहीं, सम्पूर्ण स्थिति को परिपक्व करने के लिये यह महिमा योग्य शब्द हैं, ऐसी समानता रहे। इसको ही बापदादा के समीपता की स्थिति कह सकते हैं। रा भी अन्तर ना आवे -- ना दृष्टि में, ना वृति में। यह दुश्मन है वा गाली देने वाला है, यह महिमा करने वाला है -- यह वृति न रहे। शुभाचिंतक आत्मा की वृति वा कल्याणकारी दृष्टि रहे। दोनों प्रति एक समान, इसको कहा जाता है -- समानता। समानता अर्थात् बैलेन्स ठीक ना होने के कारण अपने ऊपर बाप द्वारा ब्लिस नहीं ले पाते हो। बाप ब्लिसफुल है ना। अगर अपने ऊपर ब्लिस करनी है वा बाप की ब्लिस लेनी है तो इसके लिए एक ही साधन है -- सदैव दोनों बातों का बैलेन्स ठीक रहे। जैसे स्नेह और शक्ति - दोनों का बैलेन्स ठीक रहे तो अपने आपको ब्लिस वा बाप की ब्लिस मिलती रहेगी। बैलेन्स ठीक रखने नहीं आता है। जैसे वह नट होते हैं ना। उनकी विशेषता क्या होती है? बैलेन्स की। बात साधारण होती है लेकिन कमाल बैलेन्स की होती है। खेल देखा है ना नट का। यहाँ भी कमाल बैलेन्स ठीक रखने की है। बैलेन्स ठीक नहीं रखते हो। महिमा सुनते हो तो औ