09-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
इंतज़ार की बजाय इंतज़ाम करो
अपने सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणकारी संकल्प से सतयुगी, पावन सृष्टि का सृजन करने वाले सृजनहार शिव बाबा बोलेः-
निराकारी, आकारी और साकारी - इन तीनों स्टेजिस को समान बनाया है? जितना साकारी रूप में स्थित होना सहज अनुभव करते हो, उतना ही आकारी स्वरूप अर्थात् अपनी सम्पूर्ण स्टेज व अपने अनादि स्वरूप - निराकारी स्टेज - में स्थित होना सहज अनुभव होता है? साकारी स्वरूप आदि स्वरूप है, निराकारी अनादि स्वरूप है। तो आदि स्वरूप सहज लगता है या अनादि रूप में स्थित होना सहज लगता है? वह अविनाशी स्वरूप है और साकारी स्वरूप परिवर्तन होने वाला स्वरूप है। तो सहज कौन-सा होना चाहिए? साकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है या निराकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है, या स्मृति लानी पड़ती है? मैं जो हूँ, जैसा हूँ उसको स्मृति में लाने की क्या आवश्यकता है? अब तक भी स्मृति-स्वरूप नहीं बने हो? क्या यह अन्तिम स्टेज है या बहुत समय के अभ्यासी ही अन्त में इस स्टेज को प्राप्त कर पास विद ऑनर बन सकेंगे? वर्तमान समय पुरूषार्थियों के मन में यह संकल्प उठना कि अन्त में विजयी बनेंगे व अन्त में निर्विघ्न और विघ्न-विनाशक बनेंगे - यह संकल्प ही रॉयल रूप का अलबेलापन है अर्थात् रॉयल माया है; यह सम्पूर्ण बनने में विघ्न डालता है। यही अलबेलापन सफलतामूर्त और समान-मूर्त बनने नहीं देता है।
दूसरा संकल्प - विनाश की घड़ियों की गिनती करते रहते हो ना। सोचते रहते हो कि क्या होगा, कैसे होगा या होगा कि नहीं होगा? यह सीधा स्वरूप नहीं है, यह है -- सीधा संशय का रूप। इसलिए सीधा शब्द न बोल रॉयल शब्द बोलते हैं कि क्या होगा, कैसे होगा? - इस स्वरूप से सोचते हो। जितना समय समीप आ रहा है, उतना स्वयं को सतयुग के देवी-देवताओं की विशेषताओं के समीप बना रहे हो? विनाश किसके लिये होगा; किनके लिये होगा - यह जानते हो? तीव्र पुरूषार्थियों व सम्पूर्ण बनने वाली आत्माओं के लिये सम्पूर्ण सृष्टि व सतोप्रधान प्रकृति की प्रालब्ध भोगने के लिए विनाश होना है। तो विनाश की घड़ियाँ गिनती करते रहना चाहिए या स्वयं को सम्पूर्ण सतोप्रधान बनाने के लिये बाप-समान क्वॉलिफिकेशन को बार-बार गिनती करना चाहिए?
विनाश की घड़ियों का इंतज़ार करने की बजाय तो स्वयं को अभी से सम्पन्न बनाने और बाप-समान बनाने के इंतज़ाममें रहना चाहिए। परन्तु इंतज़ार में ज्यादा रहते हो। प्रारब्ध भोगने वाले ही इस इंतज़ार में रहते हैं तो अन्य आत्मायें, जो साधारण प्रारब्ध पाने वाली हैं, उन तक भी सूक्ष्म संकल्प पहुँचाते हो? रिजल्ट में मैजॉरिटी आत्मायें यही शब्द बोलती हैं कि जब विनाश होगा तब देख लेंगे। जब प्रैक्टिकल प्रभाव देखेंगे, तब हम भी पुरूषार्थ कर लेंगे। क्या होगा, कैसे होगा - यह किसको पता? यह वायब्रेशन्स निमित्त बनी हुई आत्माओं का औरों के प्रति भी कमज़ोर बनाने का व भाग्यहीन बनाने का कारण बन जाता है।
इस समय आप सबकी जगत्-माता और जगत्-पिता की व मास्टर रचयिता की स्टेज है। तो रचयिता के हर संकल्प अथवा वृत्ति के वायब्रेशन्स रचना में स्वत: ही आ जाते हैं। इसलिये वर्तमान समय जो कर्म हम करेंगे हमको देख सब करेंगे - सिर्फ यह अटेन्शन नहीं रखना है, लेकिन साथ-साथ ‘‘जो मैं संकल्प करूंगी, जैसी मेरी वृत्ति होगी वैसे वायुमण्डल में व अन्य आत्माओं में वायब्रेशन्स फैलेंगे’’ - यह स्लोगन भी स्मृति में रखना आवश्यक है वर्ना आप रचयिता की रचना कमज़ोर अर्थात् कम पद पाने वाली बन जायेगी। रचयिता की कमी रचना में भी स्पष्ट दिखाई देगी। इसलिये अपने कमज़ोर संकल्पों को भी अब समर्थ बनाओ। यह जो कहावत है कि ‘संकल्प से सृष्टि रची’, यह इस समय की बात है। जैसा संकल्प वैसी अपनी रचना रचने के निमित्त बनेंगे। इसलिये हर-एक स्टार में अलग-अलग दुनिया का गायन करते हैं।
स्वयं का आधार अनेक आत्माओं के प्रति स्मृति में रखते हुए चलते हो या यह बापदादा का काम है? आपका काम है या बाप का काम है? प्रारब्ध पाने वालों को पुरूषार्थ करना है या बाप को? जैसे लेने में कुछ भी कमी नहीं करना चाहते हो या लेने के समय स्वयं को किसी से भी कम नहीं समझते हो बल्कि यही सोचते हो कि मेरा भी अधिकार है, वैसे ही हर बात को करने में अपने को अधिकारी समझते हो? या करने के समय तो यह समझते हो कि हम छोटे हैं, यह बड़ों का काम है और लेने के समय यह सोचते हो कि हम छोटे भी कम नहीं हैं, छोटों को भी सब अधिकार होने चाहिए; छोटों को भी बड़ा समझना चाहिए व बनना चाहिए? जो करेंगे वह पायेंगे या जो सोचेंगे वह पायेंगे? नियम क्या है? सोचना, बोलना और करना - ये तीनों एक-समान बनाओ! सोचना और बोलना बहुत ऊंचा, करना कुछ भी नहीं - तो वे सोचते और बोलते ही समय बिता देंगे और करने से जो पाना है, वह वे पा नहीं सकेंगे। स्वयं को तो श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित करेंगे ही, अपनी रचना को भी वंचित करेंगे। इसलिये कहना कम और करना ज्यादा है। मेहनत करके पायेंगे - यह लक्ष्य सदा याद रखो। मुझे भी महारथी व सर्विसएबल समझा जाए, मुझे भी अधिकार दिया जाए, स्नेह व सहयोग दिया जाए - यह मांगने की चीज नहीं। श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ वृत्ति और श्रेष्ठ संकल्प की सिद्धि रूप में यह सब बातें स्वत: ही प्राप्त होती हैं। इसलिये इन साधारण संकल्पों में या व्यर्थ संकल्पों में भी समय व्यर्थ न गंवाओ। समझा?
ऐसे बाप-समान गुण और कर्म करने वाले, हर संकल्प में जिम्मेवारी समझने वाले, संकल्प में भी अलबेलेपन को मिटाने वाले, सदा बाप-समान बाप के साथी बन साथ निभाने वाले, हर पार्ट को साक्षी हो बजाने वाले, सर्व-श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त वाणी का सार
1. जितना साकारी रूप में स्थित होना सहज अनुभव होता है, उतना ही आकारी स्वरूप अर्थात् अपनी सम्पूर्ण स्टेज में और उतना ही अपनी निराकारी, अनादि स्टेज में स्थित होना सहज अनुभव होना चाहिए।
2. यह याद रखना है कि जैसा संकल्प मैं करूँगी और जैसी मेरी वृत्ति होगी, वायुमण्डल में वैसे ही वाइब्रेशन्स फैलेगे।
3. विनाश की घड़ियाँ गिनती करने की बजाय स्वयं को सम्पूर्ण बनाने की और बाप-समान क्वॉलिफीकेशन्स की बार-बार गिनती करो।
4. कहना कम है, करना ज्यादा है।
5. सोचना, बोलना और करना - तीनों एक-समान बनाओ।
16-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ज्वाला रूप अवस्था
विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त, सर्व सम्बन्धों तथा प्रकृति के सर्व आकर्षणों से उपराम, आकर्षण मूर्त बापदादा ज्ञान-रत्न वत्सों से बोले: -
अपने को नयनों में समाये हुए, नैनों के नूर व नूरे-रत्न समझते हो? स्वयं को बापदादा के नयनों के सितारे समझते हो? नयनों के सम्मुख हो या नयनों में समाये हुए हो? दो प्रकार के सितारे इस समय चमक रहे हैं। हर-एक स्वयं से पूछे कि मैं कौन-सा सितारा हूँ? समाये हुए की क्वॉलिफिकेशन्स और सम्मुख वाले के बीच, दो के बीच में तीसरे के आने की मार्जिन रहती है, अर्थात् कोई-न-कोई विघ्न निरन्तर में अन्तर कर सकता है। लेकिन जो नयनों में समाये हुए हों वे बाप के समान होते हैं; कोई परिस्थिति व प्रकृति, अर्थात् पाँच तत्व, भी बाप से उन्हें अलग नहीं कर सकते। गोया वे सदाविज यी, निरन्तर एक-रस और एक की लगन में मग्न होंगे। एक बाप और बापसमान सदा ईश्वरीय सेवा। बस, इसके सिवा उन्हें और कुछ दिखाई नहीं देगा। उनकी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति ये तीनों ही सदा समर्थ रहती हैं अर्थात् व्यर्थ समाप्त हो जाता है। ऐसे बने हो या बनना है?
विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त स्वयं को परिवर्तन किया हुआ अनुभव करते हो? अगर आधारमूर्त्त सम्पूर्ण परिवर्तन की अभी स्वयं में कमी महसूस करते हैं तो फिर विश्व-परिवर्तन कैसे होगा? आधारमूर्त स्वयं अपने लिये ही कुछ समय की आवश्यकता समझते हैं या विश्व-परिवर्तन के लिये अभी समय चाहिए। यह संकल्प उत्पन्न होता है? आधारमूर्त्त के दृढ़ संकल्प में कभी हलचल के संकल्प रहते हैं तो विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं में कभी जोश, कभी होश आ जाता है। आधारमूर्त्त आत्माओं का संकल्प ही विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं की प्रेरणा का आधार है। तो अपने-आप से पूछो कि प्रेरक शक्ति-सेना का संकल्प दृढ़ निश्चय-बुद्धि है और स्वयं एवर रेडी हैं? जैसे यज्ञ रचने के निमित ब्रह्मा बाप के साथ ब्राह्मण बने, तो यज्ञ से प्रज्जवलित हुई यह जो विनाशज्वाला है, इसके लिए भी जब तक ज्वाला रूप नहीं बनते, तब तक यह विनाश की ज्वाला भी सम्पूर्ण ज्वाला रूप नहीं लेती है। यह भड़कती है, फिर शीतल हो जाती है। कारण? क्योंकि ज्वाला मूर्त और प्रेरक आधारमूर्त्त आत्माएँ अभी स्वयं ही सदा ज्वाला रूप नहीं बनी हैं। ज्वाला-रूप बनने का दृढ़ संकल्प स्मृति में नहीं रहता है।
ज्वाला-रूप बनने का मुख्य और सहज पुरूषार्थ कौन-सा है? (मेरा तो एक शिव बाबा)। यह स्मृति सदा रहे, इसके लिए भी कौन-सा पुरूषार्थ है? अब लास्ट विशेष पुरूषार्थ कौन-सा रह गया है? (उपराम अवस्था)। यह तो है रिजल्ट। लेकिन उसका भी पुरूषार्थ क्या है? (न्यारापन) न्यारापन भी किससे आयेगा - कौन-सी धुन में रहने से? धुन यही रहे कि अब वापिस घर जाना है - जाना है अर्थात् उपराम। जाना है-जहाँ जाना है वैसा पुरूषार्थ स्वत: ही चलता है। जब अपने निराकारी घर जाना है तो वैसा अपना वेश बनाना होता है। तो इस नये वर्ष का विशेष पुरूषार्थ यही होना चाहिए कि वापिस जाना है और सबको ले जाना है। इस स्मृति से स्वत: ही सर्व-सम्बन्ध, सर्व प्रकृति के आकर्षण से उपराम, अर्थात् साक्षी बन जायेंगे। साक्षी बनने से सहज ही बाप के साथी बन जायेंगे व बाप-समान बन जायेंगे। सर्व को सदा ज्वाला-रूप दिखाई देंगे, तब ही यह विनाश ज्वाला भी आपके ज्वाला-रूप के साथ-साथ स्पष्ट दिखाई देगी। जितना स्थापना के निमित्त बने ज्वाला-रूप होंगे उतना ही विनाश-ज्वाला रूप में प्रत्यक्ष होगा। इस दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ तब विनाश-ज्वाला भड़केगी। अभी शीतल रूप में हैं, क्योंकि आधारमूर्त्त भी पुरूषार्थ में शीतल हैं। संगठन रूप का ज्वाला-रूप विश्व के विनाश का कार्य सम्पन्न करेगा।
अल्प आत्माओं का दृढ़ संकल्प अल्पकाल के लिये कहीं-कहीं विनाशज्वाला भड़काने के निमित्त बना है। लेकिन महाविनाश, और विश्व-परिवर्तन - संगठन के एक श्रेष्ठ संकल्प के सिवाय सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिये इस वर्ष में अपनी लास्ट स्टेज, सर्व कर्म-बन्धनों से मुक्त, कर्मातीत अवस्था, न्यारे और प्यारेपन का बैलेन्स सदा ठीक रहे। ऐसी निराकारी स्टेज संगठन रूप में बनाओ। तब विनाश के नजारे और साथ-साथ नई दुनिया के नजारे स्पष्ट दिखाई देंगे। सबको इस वर्ष यह पुरूषार्थ करना है। इस लास्ट पुरूषार्थ से ही स्वयं की और विनाश की गति फास्ट होगी।
संकल्प चलता है या समाप्त हो गया है? घबराते तो नहीं हो कि क्या होगा, कैसे होगा? अगर और मगर तो नहीं आता? अगर न हुआ तो? - कोई कहता है मगर होना ही है; कोई अगर कहता है। लेकिन होगा क्या? कई समझते हैं कि बाप तो अव्यक्त हो गया, व्यक्त में सामना करने वाले तो हम ही हैं। लेकिन आप भी अव्यक्त हो जाओ अर्थात् कोई भी सामने आये तो व्यक्त भाव की बात उन्हें दिखाई न दे या करने की हिम्मत न हो। औरों के भी व्यक्त भाव को मिटाने वाले अव्यक्त फरिश्ते बन जाओ। ऐसी अव्यक्त-स्थिति व वायुमण्डल अर्थात् पाण्डवों का किला बनाओ तो यह हलचल समाप्त हो जायेगी। बापदादा अन्त तक आपके साथ है और सदा बच्चों के ऊपर स्नेह और सहयोग की छत्र-छाया के समान हैं। इसलिये घबराओ मत। बैक-बोन बाप-दादा, सामना करने के लिए किसी भी व्यक्ति द्वारा, समय पर प्रत्यक्ष हो ही जायेंगे और अब भी हो रहे हैं। अच्छा।
ऐसे सदा हिम्मत और उल्लास में रहने वाले, हर परिस्थिति में श्रेष्ठ स्थिति मे रहने वाले, प्रकृति के सर्व आकर्षणों से परे रहने वाले, रूहानी बाप के रूहानी आकर्षण में रहने वाले, रूहानी आकर्षणमूर्त्त, सदा निश्चिन्त और निश्चय-बुद्धि, बाप के सदा साथी, सर्व के सदा स्नेही और सहयोगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
अव्यक्त वाणी की कुछ मुख्य बातें
1. इस नये वर्ष का विशेष पुरूषार्थ यही होना चाहिये कि वापिस घर जाना है और सब को साथ ले जाना है। इस स्मृति से प्रकृति के सभी आकर्षणों से तथा सभी सम्बन्धों से उपराम हो जायेगे और साक्षी एवं निराकारी बन जायेगे।
2. साक्षी होने से सहज ही बाप के साथी बन जायेगे और समान बन जायेगे।
3. जो वत्स बापदादा के नयनों में समाये हुए होते हैं, वे बाप समान होते हैं। कोई भी परिस्थिति और प्रकृति का कोई भी रूप उन्हें बाप से अलग नहीं कर सकता। वे सदा एक की लगन में मग्न होते हैं।
4. किसी भी परिस्थिति में घबराओ मत क्योंकि बापदादा का स्नेह छत्रछा या के समान है और वे कभी भी किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष हो जायेंगे।
18-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
साक्षात्कार मूर्त और फरिश्ता मूर्त बनने का निमन्त्रण
पवित्र भव और योगी भव का अमर वरदान देने वाले, सर्व आत्माओं के स्नेही, परमपिता शिव बोलेः-
सर्व-स्नेही आत्माओं को स्नेह का रेसपांस (जवाब) स्नेह से दे रहे हैं। नैनों के असुवन मोती, गले की माला जो बच्चों ने बापदादा को पहनाई है, उसके रिटर्न में ज्ञान-रत्नों की माला बापदादा दे रहे हैं। आज अमृत वेले हर-एक स्नेही बच्चे का संकल्प बापदादा के पास पहुँच गया। हर- एक की रूह-रूहान, हर-एक का शुभ संकल्प, हर-एक का किया हुआ वायदा पहुँचा। उस सर्व रूह-रूहान के रेसपांस में बापदादा स्वयं अव्यक्त में मिलने की तमन्ना (अभिलाषा) कर रहे हैं। बाप को बच्चे व्यक्त में बुलाते हैं और बाप बच्चों को अव्यक्त वतन में बुला रहे हैं। अव्यक्त वतन-वासी बाप-समान बनना - यही बच्चों के प्रति बाप की शुभ इच्छा है। अब बताओ, कितने समय में अव्यक्त वतन पधारेंगे? अव्यक्त वतन का मिलन कितना सुन्दर है - उसको जानते हो?
बापदादा भी बच्चों के सिवाय वापिस घर नहीं जा सकते हैं। घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। उस महफिल में बापदादा सब स्नेही बच्चों का आह्वान कर रहे हैं। बच्चे बाप का पुरानी दुनिया में आह्वान करते व बुलाते हैं लेकिन बाप आप बच्चों को फरिश्तों की दुनिया में बुला रहे हैं, जहाँ से साथ-साथ रूहों की दुनिया में चलेंगे। यह अलौकिक अव्यक्त निमन्त्रण भाता है? अगर भाता है तो क्या व्यक्त जन्म, व्यक्त भाव भूलना नहीं आता है? बाप समान निरन्तर फरिश्ता बनना नहीं आता? एक सेकेण्ड का संकल्प निरन्तर दृढ़ करना नहीं आता? बनना ही है, आना ही है - ऐसे सेकेण्ड के संकल्प की टिकटें लेनी नहीं आती? क्या शक्ति रूपी खज़ाना होते हुए भी यह टिकट रिजर्व नहीं करा सकते? विश्व की सर्व आत्माओं को नजर से निहाल कर उन्हें भी अपने साथ मुक्ति-जीवनमुक्ति रूपी वर्सा बाप से नहीं दिला सकते हो? बाप के या अपने भक्तों को भटकने से जल्दी-से-जल्दी छुड़ाने का शुभ संकल्प तीव्र रूप से उत्पन्न होता है? रहमदिल बाप के बच्चे हो; दु:ख-अशान्ति में तड़पती हुई आत्माओं को देखते हुए सहन कर सकते हो? क्या रहम नहीं आता? अनेक प्रकार के विनाशी सुख-शान्ति में विचलित हुई आत्माएँ, जो बाप को और अपने आप को भूल चुकी हैं, ऐसी भूली हुई आत्माओं पर कल्याण की भावना द्वारा उन्हें भी यथार्थ मंज़िल बता कर अविनाशी प्राप्ति की अंजलि देने का संकल्प उत्पन्न नहीं होता?
अब तो समय-प्रमाण सप्ताह कोर्स के बजाय अपने वरदानों द्वारा, अपनी सर्वशक्तियों के द्वारा सेकेण्ड का कोर्स बताओ; तब ही सर्व आत्माओं को रूहों की दुनिया में बाप के साथ ले जा सकेंगे। अशरीरी भव, निराकारी भव, निरहंकारी और निर्विकारी भव का वरदान, वरदाता द्वारा प्राप्त हो चुका है न? अब ऐसे वरदान को साकार रूप में लाओ! अर्थात् स्वयं को ज्ञान-मूर्त, याद-मूर्त और साक्षात्कार-मूर्त बनाओ। जो भी सामने आये, उसे मस्तक द्वारा मस्तक-मणि दिखाई दे, नैनों द्वारा ज्वाला दिखाई दे और मुख द्वारा वरदान के बोल निकलते हुए दिखाई दें। जैसे अब तक बापदादा के महावाक्यों को साकार स्वरूप देने के लिए निमित्त बनते आये हो, अब इस स्वरूप को साकार बनाओ।
बापदादा बच्चों के स्नेह, सहयोग और सेवा पर बार-बार सन्तुष्टता के पुष्प चढ़ा रहे हैं। मेहनत पर धन्यवाद दे रहे हैं। साथ-साथ भविष्य के लिये निमन्त्रण भी देते हैं कि अब जल्दी,जल्दी तीव्र गति से हो रही ईश्वरीय सेवा को सम्पन्न करो, अर्थात स्वयं को बाप-समान बनाओ। बाप के आह्वान की पसारी हुई बांहों में समा जाओ और समान बन जाओ! स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - समान बन जाना!
आज ही बापदादा के साथ चलोगे? ऐसे एवर रेडी हो या रही हुई सेवा का शुभ सम्बन्ध खींचेगा? सर्व कार्य सम्पन्न कर दिया है या अभी रहा हुआ है? वह फिर वतन से करेंगे? एक सेकेण्ड में सर्व सम्बन्ध के लिए सेवा भुलाने का पुरूषार्थ करते हो। ऐसे ही अपना निजी-स्वरूप व वरदानी स्वरूप सदा स्मृति में रहना चाहिए। अपवित्रता का और विस्मृति का नाम-निशान भी न रहे। इसको कहा जाता है - वरदान का कोर्स करना। ऐसा कोर्स किया है या करना है?
जैसे आप लोग साप्ताहिक कोर्स समाप्त करने के सिवाय किसी भी आत्मा को क्लास में जाने नहीं देते हो, ऐसे ही ब्राह्मण बच्चे, जो यह प्रैक्टिकल कोर्स समाप्त नहीं करते, तो जानते हो कि बापदादा उन्हें कौन-से क्लास में जाने नहीं देतें? वे फर्स्ट-क्लास में दाखिल नहीं हो सकते। फर्स्ट क्लास कौन-सा है? जब आप लोग उन्हों को क्लास में जाने नहीं देते तो ड्रामा भी फर्स्ट-क्लास में जाने का अधिकारी नहीं बना सकता। फर्स्ट क्लास में जाने के लिए यह दो मुख्य वरदान प्रैक्टिकल रूप में चाहिए। विस्मृति व अपवित्रता क्या होती है? - इसकी अविद्या हो जाए। तुम संगम पर उपस्थित हो ना? तो ऐसे अनुभव हो कि यह संस्कार व स्वरूप मेरा नहीं है बल्कि मेरे पूर्व जन्म का था। अब नहीं है। मैं ब्राह्मण हूँ और ये तो शूद्रों के संस्कार व स्वरूप है ऐसे अपने से भिन्न अर्थात् दूसरे के संस्कार हैं - ऐसा अनुभव होना, इसको कहा जाता है - न्यारा और प्यारा। जैसे देह और देही दोनों अलग-अलग दो वस्तुएं हैं, लेकिन अज्ञान-वश दोनों को मिला दिया गया है; मेरे को मैं समझ लिया गया है और इसी गलती के कारण इतनी परेशानी, दु:ख तथा अशान्ति प्राप्त की है। ऐसे ही यह अपवित्रता और विस्मृति के संस्कार, जो मेरे, अर्थात् ब्राह्मणपन के नहीं हैं; शूद्रपन के हैं, इन को भी मेरे समझने से माया के वश हो जाते हैं और फिर परेशान अर्थात् ब्राह्मणपन की शान से परे (दूर) हो जाते हो। यह छोटी-सी भूल चेक (जाँच) करो कि यह मेरा संस्कार तो नहीं, यह मेरा स्वरूप तो नहीं। समझा? तो इस वरदान - पवित्र भव और योगी भव - को प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ; तब ही बाप-समान और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो।
आज कल्प पहले वाले, बहुत काल से बिछुड़े हुए बाप की याद में तड़पने वाले व अव्यक्त मिलन मनाने के शुभ संकल्प में रमण करने वाले, अपनी स्नेह की डोर से बापदादा को भी बान्धने वाले, अव्यक्त को भी आप-समान व्यक्त में लाने वाले, नये-नये बच्चे व साकारी देश में दूर-देशी बच्चे जो हैं, उन्हों के प्रति विशेष मिलने के लिये बापदादा को भी आना पड़ा है तो शक्तिशाली कौन हुए? बांधने वाले या बन्धने वाले। बाप कहते हैं - वाह बच्चे वाह! शाबाश बच्चे! नयों के प्रति विशेष बापदादा का स्नेह है क्योंकि निश्चय की सदा विजय है। विशेष स्नेह का कारण यह है कि नये बच्चे सदा अव्यक्त मिलन मनाने की मेहनत में रहते हैं। अव्यक्त रूप द्वारा व्यक्त रूप से किये हुए चरित्रों का अनुभव करने के सदा शुभ आशा के दीपक जगाये हुए रहते हैं। ऐसी मेहनत करने वालों को फल देने के लिए बापदादा को भी विशेष याद स्वत: ही रहती हैं। इसलिये बापदादा आप की याद, आज की गुडमार्निंग व नमस्ते पहले विशेष चारों ओर के नये-नये बच्चों को दे रहे हैं, साथ में सब बच्चे तो हैं ही। अव्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात तो सदाकाल की है। ऐसे वरदाता बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त वाणी का सार
1. स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - बाप के समान बन जाना।
2. बाप की वत्सों के प्रति यही शुभ इच्छा है कि वे बाप के समान बनें।
3. घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। इस महफिल में सर्व-स्नेही बापदादा बच्चों का आह्वान कर रहे हैं।
4. अब तो समय-प्रमाण साप्ताहिक कोर्स की बजाय अपने वरदानों द्वारा और अपनी सर्वशक्तियों द्वारा सेकेण्ड का कोर्स कराओ। तब ही आप सर्वआत्माओं को बाप के साथ रूहों की दुनिया में ले जा सकोगे।
5. पवित्र-भव और योगी-भव - ये वरदान प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ। तब ही बाप समान बन सकते हैं और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो।
6. विस्मृति और अपवित्रता क्या होती है, उसकी भी अविद्या हो जाय - इसको कहा जाता है वरदान का कोर्स करना।
18-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मधुबन रूपी परिवर्तन भूमि पर पवित्रता का वरदान देने वाले शिव बाबा सेवा-केन्द्रों से आये हुए वत्सों से बोले –
मधुबन की क्या महिमा करते हो? कहते हो कि यह परिवर्तन भूमि है। आप सभी परिवर्तन भूमि या वरदान भूमि में आये हुए हो। स्वयं में व अन्य में वरदान का अनुभव करते हो? यहाँ आना अर्थात् वरदान पाना, परिवर्तन करना। अब क्या परिवर्तन करना है? जो विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार समय-प्रतिसम य विघ्न रूप बनता है, ऐसा संस्कार व ऐसी कमजोरी यहाँ परिवर्तन करके जाना है। तभी कहेंगे कि स्वयं में परिवर्तन लाया। विशेष उमंग, उत्साह और लगन से यहाँ तक पहुँचते हो तो यहाँ मधुबन में अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाओ कि जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुए पुराने संस्कार भस्म हो जाएँ।
मधुबन को कहा जाता है - अश्वमेघ रूद्र-ज्ञान महायज्ञ। यज्ञ में क्या किया जाता है? स्वाहा किया जाता है। आप बच्चे भी अमृत वेले उठ रोज यज्ञ रचते हो लगन की अग्नि का। जिस लगन रूपी अग्नि में अपनी कमज़ोरी स्वाहा करते हो। लेकिन यह महायज्ञ है। मधुबन में आना माना महायज्ञ में आना। मधुबन को क्यों महायज्ञ कहा है? क्योंकि यहाँ अनेक आत्माओं की लगन की अग्नि का समूह है। तो इसका लाभ उठाना चाहिए न। जैसे कई बार स्वत: प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो, वैसे ही मधुबन में आप भी ऐसी प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो? क्या समझते हो? क्या ऐसी आहुति डालते हो जो आगे के लिए समाप्त हो जाये? महायज्ञ में महा आहुति डालनी चाहिए। साधारण आहुति नहीं। अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डाली है? यहाँ से जाते हो, डाल कर जाते हो या अब वापिस ली है या सोचते हो कि किस प्रकार के तिल व जौ डालें? यह चेक (जाँच) करते हो कि जितनी बार महायज्ञ में आते हो तो महायज्ञ में आहुति डालते हो।
सम्पूर्ण समर्पण हुए हो या वापिस ले जाते हो? आहुति सम्पूर्ण समर्पण हो जाती है या रह जाती है? क्या ऐसा तो नहीं सोचते कि यह पुरानी दुनिया में काम आयेगी? ऐसा होता है, कमज़ोर आदमी हाथ खींच लेते हैं। अगर आहुति डालने वाले कमज़ोर हों तो सेक (ताओ) होने के कारण, आधी आहुति बाहर, आधी अन्दर रह जाती है। यहाँ भी सोचते हैं कि करें या न करें? होगा या नहीं होगा; कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे? तो बुद्धि रूपी हाथ आगे-पीछे करते रहते हो। इसलिए सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होते हो; किनारा रह जाता है, बिखर जाता है। जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नहीं होता। सोचते ज्यादा हो, करते कम हो। तो फल भी कम मिलेगा। पहले हिम्मत कम है, संकल्प पॉवरफुल नहीं है, तो कर्म में बल भी नहीं होगा और इसीलिए फल भी कम ही होगा। फिर क्या करते हो? आधा यहाँ आधा वहाँ बिखेर देते हो। तो सफलता नहीं हुई न! अभी आप सब को रिजल्ट क्या हुई? सफलता हुई? यज्ञ में सम्पूर्ण आहुति रही या बिखर गई। आप सबकी अब की रिजल्ट बिखरना - माना रह गया है। अभी तो जो सोचना है वह प्रैक्टिकल में भर करके जाना है कि आज से यह कमज़ोरी फिर नहीं आयेगी। सम्पूर्ण समर्पण करने का साहस है या कम है? विनाश न हुआ तो? स्वर्ग न आया फिर? पहुँचेंगे या नहीं? फिर लोग क्या कहेंगे? ऐसे होशियार नहीं बनना। सब की यही हालत है! सहज हाथ आगे बढ़ाते हैं। सेक आता है तो हाथ खींच लेते हो। हिम्मत आती है, थोड़ा-सा विघ्न आता है तो कदम पीछे चल पड़ते हैं। ऐसों की गति क्या होगी? गति-सद्गति को भी तो जानते हो न?
नॉलेजफुल होते हुए अगर कोई न करे तो क्या कहेंगे? इनको वापिस लिया तो क्या गति होगी? जान-बूझ करके भी अगर न करे तो क्या कहेंगे? लाईट रूप और माईट रूप होते हुए भी क्यों नहीं कर पाते हो? कारण क्या है? नॉलेज तुम्हारी बुद्धि तक है; समझ तक है। ठीक है - जानते हो, लेकिन नॉलेज को प्रैक्टिकल में लाना और समाना नहीं आता है। भोजन है, खाते भी हैं। परन्तु खाना अलग बात है, खा कर हजम करना अलग बात है। समाते नहीं हो, हजम नहीं होता, रस नहीं बनता और शक्ति नहीं मिलती। जीभ तक खा लिया तो रस नहीं बनेगा, शक्ति नहीं मिलती। समाने के बाद ही शक्ति का स्वरूप बनता है। समाया नहीं तो जीभ-रस है। समाया तो शक्ति है। सुनने का रस आया, समझ में आया, समझा किन्तु समाया नहीं, प्रैक्टिकल में नहीं लाया। जितना धारणा में आता है, संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। नॉलेजफुल का अर्थ क्या है? नॉलेजफुल का अर्थ है हरेक कर्मेन्द्रियों में नॉलेज समा जाए। क्या करना है और क्या नहीं? तो धोखा खाने की बात रहेगी? ऑखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी जब आत्मा में नॉलेज आ जाती है तो सर्व इन्द्रियों में नॉलेज समा जाती है। जैसे भोजन से शक्ति भर जाती है तो शक्ति के आधार से काम होता है। अभी नॉलेज को समाना है। हरेक कर्मेन्द्रियों को नॉलेजफुल बनाओ।
हर वर्ष आते हो, कहते हो कि अभी करूंगा। वायदा करके जाते हो। अभी कब पूरा होगा? क्या कारण है? जो तुम सोचते हो और जो कर्म करते हो, उसमें अन्तर क्यों? कारण क्या? सोचते हो फुल करने की बात, और होती है आधी - इतना अन्तर पड़ने का कारण क्या है? प्लान भी खूब रचते हो, उमंग भी खूब लाते हो और समझ कर वायदा करते हो। सब बातें आयेंगी ही, लेकिन प्रैक्टिकल और समझ में अन्तर आ जाता है - इसका कारण क्या है? संस्कारों की आहुति करके जाते हो, फिर सब कहाँ से आया? स्वाहा करके जाते हो फिर क्यों आता है? देह-अभिमान, अलबेलापन वापिस क्यों लौट आता है, कारण क्या है? कारण है कि संकल्प करके जाते हो स्वाहा करने का, लेकिन संकल्प के साथ-साथ (जैसे बीज बोते हो, बाद में सम्भाल करते हो) परन्तु इसमें जो सम्भाल चाहिए वह सम्भाल नहीं रखते हो। समय-प्रमाण उनकी आवश्यकता रखनी चाहिए, आप बीज डाल कर अलबेले हो जाते हो। सोचते हो कि बाबा को दिया, अब बाबा जाने, यह बाबा का काम है। आप उसकी पालना नहीं करते हो। तो वाचा और मन्सा पर अटेन्शन चाहिए। जैसे बीज बो कर पानी डालते हो कि बीज पक्का हो जाये। बीज को रोज-रोज पानी देना होता है, वैसे ही संकल्प रूपी बीज को रिवाइज करना है। उसमें कमी रह जाती है और आप निश्चिन्त हो जाते हो - आराम पसंद हो जाते हो। आराम पसन्द के संस्कार नहीं, मगर चिन्तन का संकल्प होना चाहिए, एक-एक संस्कार की चिन्ता लगनी चाहिए। पुरूषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा देखने में आता है। फिर हमेशा ख्याल आता है कि छोटा-सा दाग मेरी वैल्यू कम कर देगा। चिन्तन चिन्ता के रूप में होना चाहिए। वह नहीं तो अलबेलापन है। कहते हो, करते नहीं हो। जो पीछे की युक्ति है उसे प्रैक्टिकल में लाओ, आराम-पसन्दी देवता स्टेज का संस्कार है, वह ज्यादा खींचता है। संगमयुग के ब्राह्मण के संस्कार जो त्याग मूर्त के हैं, वह कम इमर्ज होते हैं। त्याग-बिना भाग्य नहीं बनता अच्छा, कर लेंगे, देखा जायेगा - यह आराम पसन्दी के संस्कार हैं। ‘‘ज़रूर करूंगा’’, ये ब्राह्मणपन के संस्कार हैं। लौकिक पढ़ाई में जिसको चिन्ता रहती है, वह पास होता है। उसकी नींद फिट जाती है। जो आराम-पसन्द हैं वे पास क्या होंगे? अभी सोचते हो कि प्रैक्टिकल करना है। चिन्ता लगनी चाहिए, शुभ चिन्तन, सम्पूर्ण बनने की चिन्ता, कमजोरी को दूर करने की चिन्ता और प्रत्यक्ष फल देने की चिन्ता।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. मधुबन है अविनाशी रूद्र ज्ञान महायज्ञ। इस महायज्ञ में अपनी लगन को ऐसी अग्नि बनाओ जिस अग्नि में सब व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुये पुराने संस्कार बिल्कुल भस्म हो जायें।
2. बुद्धि में नॉलेज तो है लेकिन नॉलेजफुल नहीं बने हो। नॉलेजफुल का अर्थ है कि हर एक कर्मइन्द्रियों में नॉलेज समा जाये। तो जैसे भोजन खाने से, साथ ही समाने अर्थात् हजम करने से शरीर में शक्ति आती है वैसे ही तुम्हारी आत्मा शक्तिशाली बनती है।
3. जितना ज्ञान धारणा में आता है वह संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है।
23-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वमान की सीट पर सैट होकर कर्म करने वाला ही महान्
सर्व आत्माओं के परमपिता परमात्मा शिव बोले –
जैसे बापदादा के महत्व को अच्छी तरह से जानते हो वैसे ही इस संगमयुगी ब्राह्मण जन्म को व श्रेष्ठ आत्मा के अपने श्रेष्ठ पार्ट को इतना ही अच्छी रीति से जानते हो? जैसे बाप महान् है, वैसे ही बाप के साथ जिन आत्माओं का हर कदम व हर चरित्र के साथ सम्बन्ध व पार्ट है, वह भी महान् हैं। इस महानता को अच्छी रीति से जानते हुए हर कदम उठाने से हर कदम में पद्मों की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है क्योंकि सारा आधार स्मृति पर है। स्मृति सदा पॉवरफुल और महान् रहती है या कभी महान् और कभी साधारण रहती है? जो जैसा होता है, वैसा ही वह सदा स्वयं को स्वत: ही समझ कर चलता है। वह कभी स्मृति तथा कभी विस्मृति में नहीं आता। ऐसे ही जब आप उच्च ब्राह्मण हो, विश्व में सर्व श्रेष्ठ आत्माएँ हो और विशेष पार्टधारी हो, फिर अपने इस अन्तिम जन्म के इस रूप की, अपनी पोजीशन की व अपने ऑक्युपेशन की स्मृति कभी विशेष और कभी साधारण क्यों रहती है? बार-बार उतरना और चढ़ना क्यों होता है? क्या इसके कारण को समझते हो? जबकि निजी स्वरूप है और जन्म ही महान् है, तो अपने जीवन की और जन्म की महानता को भूलते क्यों हो? भूलना तब होता है जब कि पार्ट बजाने के लिये टेम्पोरेरी रूप बनाया जाता है। निजी रूप न होने के कारण बार-बार स्मृति-विस्मृति होती रहती है। यहाँ क्यों भूलना होता है? देह-अभिमान के कारण। देह अभिमान क्यों आता है? इन सब कारणों को तो बहुत समय से जानते हो न? जानते हुए भी निवारण नहीं कर पाते हो। इसका कारण शक्ति की कमी है या दृढ़ता नहीं है। यह भी बहुत समय से जानते हो, फिर भी निवारण क्यों नहीं कर पाते? वही बात बार-बार अनुभव में आने के कारण परिवर्तन करना तो सहज और सदाकाल के लिए होना चाहिए न।
जैसे लौकिक रीति में मालूम पड़ जाता है कि इस बात के कारण नुकसान होता है, रिजल्ट अच्छा नहीं निकलता है तो एक बार धोखा खाने के बाद स्वत: ही सम्भल जाते हैं न कि बार-बार धोखा खाते हैं? देह-अभिमान के कारण अथवा किसी भी कमजोरी के वशीभूत होने से परिणाम क्या होता है? - इस बात के अनेक बार अनुभवी हो चुके हो। अनुभवी होने के बाद फिर भी धोखा खाते हो, तो ऐसे को क्या कहा जायेगा? इससे सिद्ध होता है कि अपनी महानता को स्वयं ही सदा जानकर नहीं चलते हो। अपनी महानता को भूलते क्यों हो? कारण? - क्योंकि विघ्न-विनाशक, सर्व-परिस्थितियों को मिटाने वाले, स्व-स्थिति व पोजीशन के श्रेष्ठ स्थान और स्वमान की सीट जो बापदादा ने संगमयुग पर दी हुई है उस सीट पर सैट नहीं होते हो। अपनी सीट को छोड़कर बारबार नीचे आ जाते हो। सीट पर रहने से स्वमान भी स्वत: स्मृति में रहता है। लौकिक रीति भी कोई साधारण आत्मा को सीट मिल जाती है तो स्वमान ही बढ़ जाता है, उस नशे में स्वत: ही स्थित हो जाते हैं। ऐसे ही सदा अपनी सीट पर रहो तो स्वमान निरन्तर स्मृति में रहे, समझा?
सीट के नीचे आना अर्थात् स्मृति से नीचे विस्मृति में आना। ऊंची सीट पर सैट रहने की चेकिंग करो। सीट पर सेट होने से स्वत: ही वह संस्कार और कर्म परिवर्तन में आ ही जाते हैं। समझा? कमजोरी के बोल ब्राह्मणों की भाषा ही नहीं। शूद्रपन की भाषा को क्यों यूज़ (प्रयोग) करते हो? अपने देश और अपनी भाषा का नशा रहता है ना। अपनी भाषा को भूल दूसरे की भाषा क्यों बोलते हो? तो अब यह परिवर्तन करो। पहले चेक करो, फिर बोलो। सीट पर सैट होकर के फिर संकल्प व कर्म करो। इस सीट पर रहने से स्वत: ही महानता का वरदान प्राप्त हो जाता है। तो वरदानी सीट को छोड़कर के मेहनत क्यों करते हो? मेहनत करते-करते फिर थक भी जाते हो और दिलशिकस्त हो जाते हो। इसलिये अब सहज साधन अपनाओ। अच्छा।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. अपने जन्म और जीवन की महानता को भूलने के कारण ही अवस्था में बारबार उतरना-चढ़ना होता रहता है।
2. जैसे बाप महान् है, वैसे बाप के साथ जिन आत्माओं का हर कदम व हर चरित्र के साथ सम्बन्ध है व पार्ट है वह भी महान् है। ऐसा समझ कर कदम उठाने से हर कदम में पद्मों की कमाई स्वत: हो जाती है।
3.अपने जीवन की, जन्म की महानता को भूलने का कारण यह है कि स्वमान की सीट, जो बापदादा ने संगम पर दी है, उस पर सदा सैट नहीं रहते हो।
29-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
परखने की शक्ति के प्रयोग से सफलता
सर्व शक्तियों और वरदानों के दाता, शिव बाबा सच्चे राजऋषि स्वरूप वत्सों के सम्मुख बोले –
आज की यह सभी राजऋषियों की सभा है। जैसे मधुबन शब्द दो बातों को सिद्ध करता है - एक मधुरता को और बेहद की वैराग्य वृत्ति को, ऐसे ही राज-ऋषि शब्द है जिसका अर्थ है - राज्य करने वाले। तो राजऋषि हैं - बैगर टू प्रिन्स । जितना ही अधिकार उतना ही सर्वत्याग। सर्व त्यागी, अर्थात् समय के ऊपर, संकल्प के ऊपर, स्वभाव और संस्कार के ऊपर अधिकार प्राप्त करने वाले। जैसे चाहे वैसे अपने समय, स्वभाव और संस्कार को परिवर्तन कर सकें अर्थात् जैसा समय, वैसा अपना स्वरूप व स्थिति धारण कर सकें। ऐसे राज-ऋषि अर्थात् सर्वअधिकारी और सर्व त्यागी बने हो? जन्म लेते ही कर्म-प्रमाण, श्रेष्ठ स्वमान-प्रमाण राजऋषि का मर्तबा (पद) बापदादा द्वारा प्राप्त हुआ है ना? सर्व-अधिकारी बन गये हो या अभी बनना है? क्या समझते हो? आप सबका विशेष नारा कौन-सा है? जब जन्म-सिद्ध अधिकार है तो जन्म लेने से ही प्राप्त है - तब अधिकारी तो बन ही गये ना?
नॉलेजफुल अर्थात् मास्टर ज्ञान-सागर। जब मास्टर ज्ञान-सागर बन गये तो नॉलेज अर्थात् समझ से अधिकार प्राप्त होता है। समझ कम तो अधिकार भी कम। नॉलेजफुल तो हो ना? अब लास्ट स्टेज क्या है? उसको जानते हो? कर्मातीत बनने की स्टेज की निशानी क्या है? सदा सफलता-मूर्त। समय भी सफल, संकल्प भी सफल, सम्पर्क और सम्बन्ध भी सदा सफल - इसको कहते हैंस फलता मूर्त। ऐसे सफलतामूर्त बनने के लिए वर्तमान समय-प्रमाण विशेष कौनसी शक्ति की आवश्यकता है जिससे कि सब बातों में सदा सफलता मूर्त बन जायें? वह कौन-सी शक्ति है? सर्व शक्तियाँ प्राप्त हो रही हैं, फिर भी वर्तमान समय-प्रमाण विशेष आवश्यकता परखने की शक्ति की है।
अगर परखने की शक्ति तीव्र है तो भिन्न-भिन्न प्रकार के आये हुए विघ्न, जो लगन में विघ्न बनते हैं, उन विघ्नों को पहले से ही जानकर, उन द्वारा वार होने से पहले ही उन्हें समाप्त कर देते हैं। इस कारण व्यर्थ समय जाने के बदले समर्थ में जमा हो जाता है। ऐसे ही सेवा में हर-एक आत्मा की मुख्य इच्छा और उसका मुख्य संस्कार जानने के कारण, उसी प्रमाण, उस आत्मा को वही प्राप्ति कराने के कारण सेवा में भी सदा सफल रहते हैं।
तीसरी बात यह है कि दूसरों के सम्बन्ध में आने का जो मुख्य सब्जेक्ट है, उसमें भी हर-एक आत्मा के संस्कार तथा स्वभाव को जानते हुए, उसी-प्रमाण उसे सदा सन्तुष्ट रखेंगे।
चौथी बात है समय की गति। किस समय कैसा वातावरण व वायुमण्डल है और क्या होना चाहिए - इसको परखने के कारण समय-प्रमाण ही स्वयं को भी और अन्य आत्माओं को भी तीव्र-गति में ला सकेंगे और जैसा समय, वैसा स्वरूप धारण करने का उमंग और उत्साह भी भर सकेंगे तथा समय-प्रमाण नॉलेजफुल और लॉफुल या लवफुल भी बन तथा बना सकेंगे और इस प्रकार सदा सफल बन सकेंगे, क्योंकि कभी लॉफुल बनना है और कभी लवफुल बनना है, इसलिये यह परख होने के कारण सदा सहज ही सफल रहेगे।
ऐसे सफलतामूर्त के सामने प्रकृति व परिस्थिति भी दासी बन जाती है। अर्थात् वे प्रकृति और परिस्थिति के ऊपर सदा विजयी बनते हैं। वे प्रकृति व परिस्थिति के वशीभूत नहीं होते। ऐसे विजयी को ही सदा सफलता-मूर्त कहा जाता है। इसके लिए तीन स्वरूप से बाप की बात याद रखो। तीनों स्वरूप अर्थात् निराकार, आकार और साकार। जैसे तीन सम्बन्धों में सत्-बाप, सत्शिक्षक और सद्-गुरू की शिक्षायें स्मृति में रखते हो, वैसे ही तीन स्वरूपों से तीन मुख्य बातें स्मृति में रखो।
इन तीन स्वरूपों से विशेष तीन वरदान कौन-से हैं? निराकारी स्वरूप की मुख्य शिक्षा का वरदान कौन-सा है? कर्मातीत भव। आकारी स्वरूप अथवा फरिश्तेपन का वरदान कौन-सा है? डबल-लाइट भव! डबल लाइट अर्थात् सर्व कर्म-बन्धनों से हल्के और लाइट अर्थात् सदा प्रकाश-स्वरूप में स्थित रहने वाले। तो आकारी स्वरूप का विशेष वरदान है-डबल लाइट भव! इससे ही डबल ताजधारी भी बनेंगे। साकार स्वरूप का विशेष वरदान कौन-सा है? साकार स्वरूप का विशेष वरदान है - साकार समान निरहंकारी और निर्विकारी भव! ये तीन वरदान सदा स्मृति में रखने से सदा के लिये सहज ही सफलता-मूर्त्त बन जायेगे। समझा?
बापदादा से भी बच्चे शक्तिवान् हैं क्योंकि वे सर्व शक्तिमान् को प्रत्यक्ष करने के निमित बने हैं। क्या वे ज्यादा शक्तिमान् नहीं हैं? सर्वशक्तिमान् को सर्व-सम्बन्धों से अपना बना देना वा अपने स्नेह की रस्सी में बाँध लेना तो क्या ज्यादा शक्तिवान् नहीं हुए? बल्कि ऑथारिटी को वर्ल्ड सर्वेंट बना देना-इसके निमित कौन? समीप व सहयोगी बच्चे।
ऐसे सर्व श्रेष्ठ सदा बापदादा को हर कर्म और हर कदम द्वारा प्रख्यात करने वाले, हर आत्मा को बाप के साथ मिलन मनाने के निमित्त बनाने वाले, सदा बाप और सेवा में लवलीन रहने वाले, लक्ष्य और लक्षण को समान बनाने वाले, साक्षात् बाप-समान बन सर्व को बाप का साक्षात्कार कराने वाले, ऐसे लवफुल और लॉफुल आत्माओं के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली का सार
1. संगमयुग पर शिव बाबा द्वारा राजऋषि का पद प्राप्त होता है। राजऋषि अर्थात् जितना ही अधिकार उतना ही सर्व त्याग।
2. कर्मातीत बनने की स्टेज की निशानी है सदा सफलतामूर्त। समय भी सफल, संकल्प भी सफल, सम्पर्क और सम्बन्ध भी सफल। इसको कहते है सफलता मूर्त।
3. सफलता मूर्त बनने के लिये वर्तमान समय-प्रमाण विशेष रूप से परखने की शक्ति की आवश्यकता है। यह शक्ति होने से आने वाले विघ्नों को पहले से ही जान कर उसको समाप्त कर अपनी शक्ति को व्यर्थ होने से बचा सकेंगे, हर मनुष्य की आवश्यकता को परख उसको संतुष्ट रख सकेंगे, समय व वायुमण्डल को परख पुरूषार्थ की गति तीव्र रख सकेंगे, नॉलेजफुल, लॉफुल और लव फुल का संतुलन रख कर ही सफलता को प्राप्त कर सकेंगे।
4. शिव बाबा के तीन स्वरूप से तीन विशेष वरदान प्राप्त होते हैं निराकार रूप कर्मातीत भव, आकारी स्वरूप से डबल लाइट भव जिससे डबल ताजधारी बनेंगे, साकारी स्वरूप से बाप समान निरहंकारी और निर्विकारी भव!
30-01-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सेकेण्ड में व्यक्त से अव्यक्त होने की स्पीड
सर्व शक्तिवान् शिव बाबा बोले –
सभी इस समय जिस एक ही लगन, एक ही संकल्प में बैठे हुए हो, वह एक ही संकल्प व लगन कौनसी है? बाप का आह्वान करना व बाप-बच्चे के मिलन का मेला मनाना? जब सर्व शक्तिवान् बाप का आह्वान स्नेह और दृढ़ संकल्प से कर सकते हो तो क्या स्वयं में जिस भी शक्ति की कमी या कमजोरी महसूस करते हो, उस शक्ति का अपने में आह्वान नहीं कर सकते हो? जब बाप को अव्यक्त से व्यक्त बना सकते हो, केवल याद से, स्नेह के बल से, अधिकार प्राप्त होने के बल से और समीप सम्बन्ध के बल से तो ऐसे ही हर शक्ति को वा स्वयं को भी व्यक्त से अव्यक्त नहीं बना सकते हो? जब बाप को अव्यक्त से व्यक्त में लाना सहज है तो स्वयं को अव्यक्त बनाना मुश्किल क्यों?
पुराने जमाने की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं कि ताली बजाने से वस्तु व व्यक्ति हाजिर हो जाते थे व परियाँ प्रत्यक्ष हो जाती थीं। यह परियों की कहानी प्रसिद्ध है। ये कहानियाँ किन के बारे में हैं? ज्ञान-परियाँ व तीनों लोकों में उड़ने वाली परियाँ कौन-सी हैं? अपने को समझती हो न? ज्ञान और याद के दोनों पंख लगे हुए हैं ना? आप ज्ञान और याद के बल से एक सेकेण्ड में, अर्थात् - इन पंखों के आधार से साकार लोक से निराकार लोक तक पहुँच जाते हो न? ऐसे फरिश्ते-समान परियों को एक सेकेण्ड में जिस शक्ति की आवश्यकता हो, संकल्प किया व आह्वान किया और वह शक्ति स्वरूप में आ जाये - ऐसी ताली बजानी आती है? ऐसी परियाँ बनी हो जिन्हों का हर कल्प गायन होता आया है।
वर्तमान समय का पुरूषार्थ एक सेकेण्ड की गति का होना चाहिए। तब कहेंगे कि समय और स्वयं, दोनों की रफ्तार समान है। इसको ही फास्ट या फर्स्ट स्टेज कहा जाता है। संगम युग पर सर्व शक्तियाँ ऐसे अपने अधिकार में चाहिये। स्वयं में शस्त्र-समान शक्तियाँ हों, जो जब चाहो कर्त्तव्य में ला सको। समझा? अच्छा।
इस मुरली का सार
1. संगमयुग पर सर्व शक्तियाँ ऐसे अपने अधिकार में चाहिये जैसे कि पुराने जमाने की कहानियों में प्रसिद्ध है कि ताली बजाने से वस्तु व व्यक्ति हाजिर हो जाते थे व परियाँ प्रत्यक्ष हो जाती थीं। जब सर्व शक्तिमान् का आह्वान स्नेह और दृढ़ संकल्प से कर सकते हैं तो इच्छित शक्ति का आह्वान करना भी मुश्किल नहीं है।
2. अब समय और स्वयं दोनों की रफ्तार को एक-समान करो। इसका भावार्थ यह है कि सर्व शक्तियों को अपने अधिकार में ऐसे करो कि जब चाहो उनका प्रयोग कर सको।
01-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ईश्वर के साथ का और लगन की अग्नि का अनुभव
प्रकृति को दासी बनाकर सदा उदासी को दूर करने की युक्तियाँ बताने वाले शिव बाबा बोलेः-
जो समीप होते हैं, वही समान बनते हैं। जैसे साकार रूप में समीप हो, वैसे ही लगन लगाने में भी बापदादा के तख्त-निवासी हो? जैसे तन से समीप हो, वैसे ही मन से भी समीप हो? जैसे विदेश में रहने वाले तन से दूर होते भी, मन से सदैव समीप हैं, बापदादा के सदैव साथी ही हैं अर्थात् हर समय साथी बनकर साथ का अनुभव करते हैं, वैसे सदैव साक्षी बनने का व साथ निभाने का अनुभव करते हो? जैसे बन्धन में रहने वाली गोपिकाएँ हर श्वास, हर संकल्प बाबा-बाबा की धुन में ही खोई रहती हो? जैसे बाहर वालों को मिलन की तड़प रहती है ऐसे ही हर समय याद की तड़फ में रहते हो या साधारण स्मृति में रहते हो? हम तो हैं ही बाबा के, हम तो हैं ही समीप, हम तो हैं ही समर्पण और हमारा तो एक बाबा है ही - सिर्फ इन संकल्पों ही से तो संतुष्ट नहीं हो गये हो?
अपनी लगन में अग्नि की महसूसता आती है? जिस लगन की अग्नि में स्वयं के पास्ट के संस्कार और स्वभाव और अन्य आत्माओं के दु:खदायी संस्कार व स्वभाव को भस्म कर सको? ज्ञान द्वारा अथवा स्नेह व सम्पर्क द्वारा संस्कार परिवर्तित करते तो हो, लेकिन उसमें समय लगता है। मिटा हुआ-सा संस्कार फिर भी कब प्रत्यक्ष हो जाता है, लेकिन अब समय लगन की अग्नि में भस्म करने का है, जो फिर उस संस्कार का नामोनिशान भी न रहे।
इस मुक्ति की युक्ति कौनसी है? अर्थात् इस लगन की अग्नि को पैदा करने की युक्ति व तीली कौनसी है? तीली से आग जलाते हो न? तो इस अग्नि को प्रज्वलित करने की कौन-सी तीली है? एक शब्द कौन-सा है? दृढ़ संकल्प। अर्थात् मर जायेंगे और मिट जायेंगे लेकिन करना ही है। करना तो चाहिए, होना तो चाहिए, कर ही रहे हैं, हो ही जायेगा, अटेन्शन तो रहता है, और महसूस भी करते हैं - ऐसा सोचना एक प्रकार से यह बुझी हुई तीली है। बार-बार मेहनत भी करते हो, समय भी लगाते हो लेकिन अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। कारण यह है कि संकल्प रूपी बीज और दृढ़ता रूपी सार सम्पन्न नहीं है, अर्थात् खाली है। इस कारण जो फल की आशा रखते हो व भविष्य सोचते हो, वह पूर्ण नहीं हो पाता है और चलते-चलते मेहनत ज्यादा, प्राप्ति कम देखते हो तो दिलशिकस्त व अलबेले हो जाते हो। तब कहते हो कि करते तो हैं लेकिन मिलता नहीं, तो क्यों करें, हमारा पार्ट ही ऐसा है। यह दिल-शिकस्त व अलबेलेपन के और फल न देने वाले संकल्प हैं।
आप अन्य आत्माओं को संगमयुग की विशेषता कौनसी बताते हो? सभी को कहते हो कि संगमयुग है - असम्भव से सम्भव होने का। जो बात सारी दुनिया असम्भव समझती है, वह सम्भव करने का युग यही है। तो स्वयं को भी जो मुश्किल व असम्भव महसूस होता है, उसको एक सेकेण्ड में सम्भव करना - यह है दृढ़ संकल्प। सहज को अथवा सम्भव को प्रैक्टिकल में लाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन असम्भव को सम्भव करना और दृढ़ संकल्प से करना - यह है पास विद ऑनर की निशानी। अब यह नवीनता करके दिखाओ। तब इस नवीनता पर मार्क्स देंगे। जैसे स्टूडेण्ट हर वर्ष की टोटल रिजल्ट देखते हैं कि हर सब्जेक्ट में कितना परसेन्टेज रहा? वैसे ही अपना रिजल्ट देखना है कि किस बात में चढ़ती कला हुई, किस पुरूषार्थ के आधार से चढ़ती कला हुई व किस सब्जेक्ट में कमी रही, वह पूरा हिसाब निकालो। मुबारिक भी बापदादा सदैव देते हैं क्योंकि सृष्टि का बड़ा दिन तो यही है ना। प्रकृति दासी होती है, परन्तु दासी के कभी दास न बनना और दास बनने की निशानी होगी उदासी। किसी-न-किसी संस्कार व स्वभाव के दास बनते हो, तब उदास होते हो। अच्छा। ओम् शान्ति।
इस मुरली का सार
1. जैसे आप सभी को कहते हो कि संगमयुग है - असम्भव से सम्भव होने का। जो बात सारी दुनिया असम्भव समझती है, वह सम्भव करने का युग यही है। तो स्वयं को भी जो मुश्किल व असम्भव महसूस होता है, उसको एक सेकेण्ड में सम्भव करना है। असम्भव को संभव करना और दृढ़ संकल्प से करना - यही है पास विद ऑनर की निशानी।
2. अब समय है पुराने संस्कारों को लगन की अग्नि में भस्म करने का जो फिर इस संस्कार का नामोनिशान भी न रहे।
3. जैसे स्टूडेन्ट हर वर्ष की टोटल रिजल्ट देखते हैं कि हर सब्जेक्ट में कितना परसेन्टेज रही, वैसे ही अपना रिजल्ट देखना है कि किस बात में चढ़ती कला हुई, किस पुरूषार्थ के आधार से चढ़ती कला हुई व किस सब्जेक्ट में कमी रही, वह पूरा हिसाब निकालो।
02-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्व-चिन्तक, शुभ-चिन्तक और विश्व-परिवर्तक
विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा बोलेः-
आज बापदादा सारी सेना के वर्तमान समय के रिजल्ट को देख रहे हैं। यह रिजल्ट विशेष तौर पर तीन बातों में देखो। जैसे मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वैसे ही इन चार सब्जेक्ट्स की रिजल्ट तीन स्टेजिस में देखी। वे तीन स्टेजिस कौन-सी हैं?
पहली स्टेज - स्वयं के प्रति स्व-चिन्तक कितने बने हैं?
दूसरी स्टेज है - समीप सम्बन्ध व सम्पर्क में शुभ-चिन्तक कितने बने हैं?
तीसरी स्टेज है - विश्व सेवा के प्रति। उसमें विश्व-परिवर्तक कहाँ तक बने हैं? परिवर्तन की स्टेज व परसेन्टेज कहाँ तक प्रत्यक्ष रूप में हुई है? इन तीनों स्टेजिस की रिजल्ट से चारों ही सब्जेक्ट्स का रिजल्ट स्पष्ट हो जाता है।
मुख्य तौर पर तो पहली स्टेज - स्व-चिन्तक कहाँ तक बने हैं? - इस पर ही तीनों सब्जेक्ट्स का रिजल्ट आधारित है। सारे दिन में चेक करो कि स्व-चिन्तक कितना समय रहते हैं? जैसे विश्व-परिवर्तक बनने के कारण विश्व-परिवर्तन के प्लैन्स बनाते रहते हो, समय भी निश्चित करते ही रहते हो, विधि द्वारा वृद्धि के भिन्न-भिन्न प्लैन्स व संकल्प भी चलते ही रहते हैं, ऐसे ही स्व-चिन्तक बन, सम्पूर्ण बनने की विधि हर रोज नये रूप से, नई युक्तियों से सोचते हो? रिजल्ट-प्रमाण तीसरी स्टेज के प्लेन्स ज्यादा बनाते हो। पहली स्टेज के प्लेन्स के लिये कभी-कभी उमंग व उत्साह में जाते हो व कभी-कभी समय अटेन्शन खिंचवाता है व कोई समस्या व किसी सब्जेक्ट का रिजल्ट अटेन्शन खिंचवाती है, लेकिन वह अटेन्शन तीव्र-गति के स्वरूप में अल्प-काल रहता है।
सेकेण्ड स्टेज-शुभ-चिन्तक की रिजल्ट स्व-चिन्तक से कुछ परसेन्ट वर्तमान समय ज्यादा है। लेकिन सफलता व कार्य की सम्पन्नता व स्वयं की स्थिति की सम्पूर्णता, जब तक फर्स्ट स्टेज फास्ट रूप के रिजल्ट तक नहीं पहऊँची है, तब तक नहीं हो सकती। उसके लिये स्वयं के प्रति स्वयं का ही प्लैन बनाओ। प्रोग्राम से प्रोग्रेस होती है, यह अल्पकाल की उन्नति अवश्य होती है लेकिन सदाकाल की उन्नति का साधन है - स्व-चिन्तक बनना।
वर्तमान समय-प्रमाण पुरूषार्थ की गति चिन्तन के बजाय चिन्ता के स्वरूप में होनी चाहिए। सेवा के विशेष प्रोग्राम तो बनाते हो, दिन-रात चिन्ता भी रहती है कि कैसे सफल करें और उसके लिए भी दिन-रात समान कर देते हो। लेकिन यह चिन्ता सुख स्वरूप चिन्ता है। अनेक प्रकार की चिन्ताओं को मिटाने वाली यह चिन्ता है। जैसे सर्व- बन्धनों से छूटने के लिए एक शुभ-बन्धन में स्वयं को बाँधते हो, इस बन्धन का नाम भले ही बन्धन है लेकिन बनाता यह निर्बन्धन ही है। ऐसे ही इसका नाम चिन्ता है लेकिन प्राप्ति बाप द्वारा वर्से की है। ऐसे ही इस चिन्ता से सदा-सन्तुष्ट, सदा-हर्षित और सदा कमल-पुष्प समान रहने की स्थिति अथवा स्टेज सहज बन जाती है।
वर्तमान समय संकल्प तो उठता है और चिन्तन तो चलता है कि कैसा होना चाहिए लेकिन जैसा होना चाहिए, वैसा है नहीं। यह होना चाहिए, यह करना चाहिए, ऐसे करें, यह करें - यह तो चिन्तन का रूप है। लेकिन चिन्ता का स्वरूप चलना और करना होता है, बनना और बनाना होता है, ‘होना चाहिए’ - यह चिन्ता का स्वरूप नहीं है। जब तक स्वयं के प्रति विशेष विधि को नहीं अपनाया है, तब तक वह चिन्ता का स्वरूप नहीं होगा। यह विशेष विधि कौन-सी है? यह जानते हो? कौनसी नई बातें करेंगे? जो विधि की सिद्धि दिखाई देवे? पुरानी विधि तो करते-करते विधि का रूप ही न रहा है। बाकी क्या रह गया है?
करने के कुछ समय के बाद अलबेलापन क्यों होता है? मुख्य बात यही है कि अब तक समय की समाप्ति का बुद्धि में निश्चय नहीं है। निश्चित न होने के कारण निश्चिन्त रहते हो! जैसे सर्विस के प्लैन्स का समय निश्चित करते हो, तब से निश्चिन्त रहना समाप्त हो जाता है, ऐसे ही स्वयं की उन्नति के प्रति भी अगर समय निश्चित करते हो तो उसका भी विशेष रिजल्ट अनुभव करते हो न? जैसे विशेष मास याद की यात्रा के प्रोग्राम का निश्चय किया तो चारों ओर विशेष वायुमण्डल और रिजल्ट, विधि का सिद्धि स्वरूप प्रत्यक्ष फल के रूप में देखा। ऐसे ही अपनी उन्नति के प्रति जब तक समय निश्चित नहीं किया है कि इस समय के अन्दर हर विशेषता का सफलता स्वरूप बनना ही है व समय के वातावरण से स्व-चिन्तन के साथ-साथ शुभ-चिन्तक भी बनना ही है, तब तक सफलता-स्वरूप कैसे बनेंगे? नहीं तो अवहेलना की समाप्ति, अर्थात् सम्पूर्णता हो न सकेगी। स्वयं का स्वयं ही शिक्षक बनकर जब तक स्वयं को इस बन्धन में नहीं बाँधा है, तब तक अन्य आत्माओं को भी सर्व-बन्धनों से सदा के लिये मुक्त नहीं कर पाओगे। समझा?
अभी क्या करोगे? जैसे सेवा में भिन्न-भिन्न टॉपिक्स का सप्ताह व मास मनाते हो, वैसे ही सेवा के साथ-साथ स्वयं के प्रति भी भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर समय निश्चित करो। यह वर्ष ऐसे खास पुरूषार्थ का है। समय अब भी कम तो होता ही जाता है परन्तु ऐसे ही आगे चलकर स्वयं के प्रति विशेष समय और ही कम मिलेगा। फिर क्या करेंगे? जैसे आज के मनुष्य यही कहते हैं कि पहले फिर भी समय मिलता था लेकिन अब तो वह भी समय नहीं मिलता, ऐसे ही स्वयं का स्वयं के प्रति यह उलाहना न रह जाये कि स्वयं के प्रति जो करना था वह किया ही नहीं क्योंकि समय जितना समीप आता जा रहा है, उस प्रमाण इतने विश्व की आत्माओं को महादान और वरदान का प्रसाद बाँटने में ही टाईम चला जायेगा। इसलिये स्व-चिन्तक बनने का समय ज्यादा नहीं रहा है। अच्छा!
ऐसे सदा महादानी, सर्व वरदानी, स्व-चिन्तक, और शुभ-चिन्तक, विश्व की हर आत्मा के प्रति सदा रहमदिल, मास्टर सर्व-शक्तियों के सागर, संकल्प और हर बोल द्वारा विश्व-कल्याणार्थ निमित बनी हुई आत्माओं - विजयी रत्न आत्माओं-के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
एक वत्स की ओर देखते हुए बाबा बोले - दिन-प्रतिदिन थोड़े समय में सफलता ज्यादा दिखाई दे रही है, यही आगे बढ़ने की निशानी है। सहज भी हो और साथ-साथ मेहनत कम और फल ज्यादा - इस स्टेज के समीप जा रहे हो न? जितना निशाना समीप दिखाई देता है, उतना नशा ऑटोमेटिकली होता है। नशा अर्थात् खुशी! यह है प्रत्यक्ष फल। तो अब प्रत्यक्ष फल का समय है। भविष्य फल नहीं, प्रत्यक्ष फल!
(उपरोक्त वत्स ने एक बहन की तबियत का समाचार बताया) हर्षित रूप से यहाँ ही कर्म-भोग को कर्म योग से चुक्तु करना है। ऐसा न समझे कि मैं सर्विस नहीं करती हूँ - जैसे वाणी द्वारा सर्विस करते हैं, जितना एक भाषण का रिजल्ट होता है, उससे हजार गुणा ज्यादा इस प्रैक्टिकल अनुभव की सर्विस का रिजल्ट निकलता है - ऐसे समझ कर साक्षीपन से हिसाब-किताब चुक्तू करे तो सर्विस बहुत है। जो है ही सर्विसेबल उनका शारीरिक रोग निमित कारण बन हिसाब चुक्तू होता है लेकिन उसमें भी सेवा भरी हुई है। यह कोई रेस्ट नहीं है बल्कि यह भी भिन्न प्रकार की सेवा का चान्स है। ऐसे समझकर सेवा में बिजी रहे तो डबल फल मिल जायेगा। मुक्ति भी और सेवा भी। अच्छा!
04-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ज्ञान को स्वयं में समाने से ही अनमोल मोती और अमोघ शक्ति की प्राप्ति
ज्ञान का खज़ाना देकर सदा-खुश बनाने वाले तथा सर्व शक्तियाँ देने वाले शिव बाबा बोले -
अभी संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें इस समय चातक के समान है जैसे सीप के लिये कहते हैं कि हर बूँद को स्वयं में समाने से मोती बना देती हैं, ऐसे ही आप सभी भी जो ज्ञान के बोल व महावाक्य सुनते हो और धारण करते हो, वह एक-एक बोल क्या बन जाता है? आप भी उसे मोती बना देते हैं और यहाँ एक-एक बोल पदम्-पति बनाने वाला बन जाता है। एक-एक बोल अमूल्य तब बनता है जब उसे धारण करते हो। जैसे चातक बूँद को धारण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस ज्ञान को सुनकर समा लेते हो। समाने का प्रत्यक्ष स्वरूप क्या दिखाई देता है? ऐसे हर संकल्प, हर बोल और हर कर्म पदमों के जमा करने का आधार बन जाता है। अर्थात् हर सेकेण्ड के बोल में वह आत्मा पदम-पति स्वरूप में दिखाई देती है। स्थूल धन का नशा और खुशी चेहरे पर चमकती हुई दिखाई देती है लेकिन होती वह अल्पकाल की ही है परन्तु ज्ञान-चातक के चेहरे पर खुशी की झलक सदा स्पष्ट दिखाई देती है।
अपने दर्पण में, तीसरे नेत्र द्वारा, अपनी ऐसी झलक को हर समय देखते हो? हर सेकेण्ड के जमा का हिसाब चेक करते हो? प्लस कितना होता है और माइनस कितना होता है - ऐसा अपना स्पष्ट हिसाब रखने के अभ्यासी बने हो? विशेष समय निकाल कर हिसाब-किताब देखते हो? अभी-अभी कमाई, अभी-अभी गँवाई - यह उतार-चढ़ाव अगर ज्यादा होगा तो सोचने, देखने और करने का विशेष समय निकालना होगा। अगर एक-रस कमाई है, जमा ही होता जाता है, बार-बार नुकसान की कोई बात नहीं है, अर्थात् खाता क्लीयर (Clear; स्पष्ट) है तो जिस समय भी चाहे, एक सेकेण्ड में हिसाब निकाल सकते हैं? क्या रिजल्ट देखते हो? अभी तो अनेक आत्माओं के अनेक जन्मों के बने हुए खाते, जिसको पाप-कर्मों का खाता कहा जाता है, उसको भस्म कराने वाले हैं, वे स्वयं अपना ऐसा खाता बना नहीं सकते। यह तो पुराने खाते हैं। आप तो पुराने खाते समाप्त कर नया जन्म, नये खाते बनाने वाले हो। पुराने खाते सब खत्म हो रहे हैं - ऐसा अनुभव होता है? यदि पुराने खाते को पूर्ण रीति से चुकता करने की युक्ति नहीं आती है तो यह थोड़ा-सा रहा हुआ खाता बार-बार दिल को खाता रहेगा। यहाँ भी यदि माया का कोई कर्ज होता है तो कर्जदार बार-बार तंग करते हैं। ऐसे कर्ज को मर्ज कहा जाता है।
यहाँ भी माया का कोई कर्ज पुराने खाते में रहा हुआ है, तब ही माया बार-बार परेशान करती है व किसी-न-किसी मानसिक कर्ज के रूप में है। वह कर्ज चुक्ता करना पड़ता है। तो अपने खाते को चेक करो कि कोई रहा हुआ कर्ज, संकल्प व संस्कार के रूप में या स्वभाव के रूप में रहा हुआ तो नहीं है? जैसे शारीरिक रोग व कर्ज बुद्धि को एकाग्रचित नहीं करने देता, न चाहते हुए भी अपनी तरफ बार-बार खींच लेता है, ऐसे ही यह मानसिक कर्ज का मर्ज बुद्धि-योग को एकाग्र नहीं करने देता। बल्कि विघ्न रूप बन जाता है।
अभी तो समय की समाप्ति की समीपता है, तो अपने भी सब हिसाब चेक करो और समाप्त करो। हिसाब-किताब आता है ना? मास्टर नॉलेजफुल हो ना? पुराने खाते का कर्ज या तो व्यर्थ संकल्प-विकल्प के रूप में होगा या कोई संस्कार व स्वभाव के रूप में होगा। इन बातों से चेक करो कि संकल्प एक है? याद भी एक को करते हैं, अथवा करना एक को चाहते हैं, होता दूसरा है? अपनी तरफ क्या खींचता है, क्यों खिंचता है? बोझ है कोई, जो अपनी तरफ खींचता है? हल्की चीज कभी भी नीचे नहीं आयेगी, वह चढ़ती कला में ही होगी, किसी भी प्रकार का बोझ, कितना भी ऊपर करना चाहे तो ऊपर नहीं जायेगा, बल्कि नीचे ही आयेगा। ऐसे ही सारे दिन की मन्सा, वाचा, कर्मणा में, सम्पर्क और सेवा में इन बातों को चेक करो।
सेवा में भी प्लान और प्रैक्टिकल में, संकल्प और कर्म में अन्तर क्यों? उस अन्तर का कारण सोचोगे तो स्पष्ट दिखाई देगा कि कोई-न-कोई कमी होने के कारण प्लैन और प्रैक्टिकल में अन्तर होता है। सर्वशक्तियों में से किसी विशेष शक्ति की कमी है। जैसे योद्धा मैदान में सर्वशस्त्रधारी नहीं बन जाते हैं तो समय पर किसी साधारण शस्त्र की भी आवश्यकता पड़ जाती है तो उन्हें साधारण शस्त्र की कमी भी बहुत नुकसान कर देती है। यहाँ भी सर्वशक्तियों का समूह चाहिए अर्थात् सर्व-शस्त्रधारी चाहिये। अपनी बुद्धि से भले ही जज करते हो कि यह तो साधारण बात है, यह कभी भी समय पर बड़ा धोखा देती है। इसलिये टाइटल ही है - मास्टर सर्व-शक्तिवान्। बाप सर्वशक्तिमान और बच्चे मास्टर सर्वशक्तिवान् नहीं? विजयी का अर्थ ही है - सर्वशस्त्रधारी। चैकिंग के साथ चेन्ज क्यों नहीं कर पाते हो? चेन्ज तब होंगे जब सर्वशक्तियाँ स्वयं में समायी होंगी, अर्थात् नॉलेजफुल के साथ-साथ पॉवरफुल दोनों का बैलेन्स चाहिए। अगर नॉलेजफुल 75% और पॉवरफुल में तीन-चार मार्क्स भी कम हैं, तो भी बैलेन्स बराबर-बराबर चाहिए। नॉलेजफुल का रिजल्ट है - प्लैनिंग, पॉवरफुल की रिजल्ट है - प्रैक्टिकल। नॉलेजफुल का रिजल्ट है - संकल्प और पॉवरफुल का रिजल्ट है - स्वरूप में आना। दोनों की समीपता और समानता ही दोनों का समान रूप बनना अर्थात् सम्पूर्ण बनना। योग में और सेवा में जितना समय स्वयं को बिजी रखोगे तो ऑटोमेटिकली कर्जदार को आने की हिम्मत व फुर्सत नहीं मिलेगी। अच्छा!
अव्यक्त वाणी का सार
1. सीप के लिये कहते हैं कि हर बूँद को स्वयं में समाने से मोती बना देते हैं। ऐसे ही आप भी जो ज्ञान के बोल या महावाक्य सुनते हो, उस एक-एक बोल को मोती बना देते हो।
2. जैसे चातक बूँद को धारण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस ज्ञान को सुनकर समा लेते हो। समाने का प्रत्यक्ष स्वरूप यह है कि हर कर्म पद्मों के जमा करने का आधार बन जाता है।
3. यहाँ भी यदि कोई कर्ज लेता है तो कर्जदार बार-बार तंग करता है। ऐसे कर्ज को मर्ज कहा जाता है। यहाँ भी माया का कोई कर्ज पुराने खाते में रहा हुआ है, तब माया बार-बार परेशान करती है।
4. नॉलेजफुल के साथ-साथ पॉवरफुल भी हो, तब चेंज होगा।
05-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
पवित्रता - प्रत्यक्षता की पूर्वगामिनी है और पर्सनेलिटी की जननी
रूहानी रॉयल्टी के संस्कार भरने वाले, सर्वोतम पर्सनेलिटी बनाने वाले, विश्व के परमपिता शिव बोले -
आज बाप सर्व देवों के भी देव, सर्व राजाओं के भी राजा बनाने वाले रचयिता की रचना, अर्थात् श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ भाग्य को देख हर्षित हो रहे हैं। आप ऊंचे-से-ऊंचे, बाप से भी ऊंची बनने वाली आत्मायें हैं। आज ऐसी ऊंची आत्माओं की विशेष दो बातें देख रहे हैं। वह कौन-सी हैं? एक रूहानी रॉयल्टी, दूसरी पर्सनेलिटी। जब हैं ही ऊंचे-से-ऊंचे बाप की ऊंची सन्तान - जिन्हों के आगे देवतायें भी श्रेष्ठ नहीं गाये जाते, राजायें भी चरणों में झुकते हैं, और सर्व नामी-ग्रामी आत्मायें भी भिखारी बन ईश्वरीय प्रसाद लेने के लिए जिज्ञासा रख आने वाली हैं तो ऐसी सर्व- आत्माओं के निमित्त बने हुए आप सभी मास्टर-ज्ञानदाता और वरदाता हो। तो ऐसी रॉयल्टी है? वास्तव में तो प्योरिटी ही रॉयल्टी है और प्योरिटी ही पर्सनेलिटी है। अब अपने को देखो कितने परसेन्ट प्योरिटी धारण की हुई है? प्योरिटी की परख व पहचान हरेक की रॉयल्टी और पर्सनेलिटी से हो रही है।
रॉयल्टी कौनसी है? रॉयल आत्मा को हद की विनाशी वस्तु व व्यक्ति में कभी आकर्षण नहीं होगा। जैसे लौकिक रीति से रॉयल पर्सनेलिटी वाली आत्मा को किन्हीं छोटी-छोटी चीजों में ऑख नहीं डूबती है, किसी के द्वारा गिरी हुई कोई भी चीज स्वीकार करने की इच्छा नहीं होती है, उनके नयन सदा सम्पन्न होने के नशे में रहते हैं, अर्थात् नयन नीचे नहीं होते हैं, उनके बोल मधुर और अनमोल अर्थात् गिनती के होते हैं और उनके सम्पर्क में खुमारी अनुभव होती है, ऐसे ही रूहानी रॉयल्टी उससे भी पदम गुणा श्रेष्ठ है।
ऐसी रॉयल्टी में रहने वाली आत्माओं की कभी भी एक-दूसरे के अवगुणों या कमजोरी की तरफ आँख भी नहीं जा सकती। जिसको दूसरा छोड़ रहा है अर्थात् मिटाने के पुरूषार्थ में लगा हुआ है, ऐसी छोड़ने वाली चीज अर्थात् गिरावट में लाने वाली चीज और गिरी हुई चीज, रूहानी रॉयल्टी वाले के संकल्प में भी धारण नहीं हो सकती व दूसरे की वस्तु की तरफ कभी संकल्प रूपी ऑख भी नहीं जा सकती। तो यह पुराने तमोगुणी स्वभाव, संस्कार, कमज़ोरियाँ शूद्रों की हैं न कि ब्राह्मणों की। शूद्रों की वस्तु की तरफ संकल्प कैसे जा सकता है? अगर धारण करते हैं तो जैसे कहावत है ना कि ‘‘कख का चोर सो लख का चोर’’ - तो यह भी सेकेण्ड-मात्र व संकल्पमात्र धारण करने वाली आत्माएं रॉयल नहीं गायी जायेंगी।
रूहानी रॉयल्टी वाली आत्माओं के बोल महावाक्य होते हैं। ये वाक्य गोल्डन वर्शन्स होते हैं, जिन्हें सुनने वाले भी गोल्डन एज के अधिकारी बन जाते हैं। एक-एक बोल रत्न के समान वेल्युएबल होता है वे दु:ख देने वाले, गिराने वाले या पत्थर के समान बोल नहीं होते, साधारण और व्यर्थ भी नहीं होते, समर्थ और स्नेह के बोल होते हैं। सारे दिन के उच्चारण किये हुए बोल ऐसे श्रेष्ठ होते हैं कि हिसाब निकालने पर स्मृति में आ सकते हैं कि आज ऐसे और इतने बोल बोले। रॉयल्टी वाले की निशानी व विशेषता यह है कि पचास बोल बोलने वाले विस्तार के बजाय दस बोल के सार में बोले, क्वॉन्टिटी को कम कर क्वॉलिटी में लाये। रूहानी रॉयल्टी वाले के सम्पर्क में जो भी आत्मा आये, उसे थोड़े समय में भी, उस आत्मा के दातापन की व वरदातापन की अनुभूति होनी चाहिए, शीतलता व शान्ति की अनुभूति होनी चाहिए जो हर-एक के मन में यह गुणगान हो कि यह कौन-सा फरिश्ता था, जो सम्पर्क में आया। थोड़े समय में भी उस तड़पती हुई और भटकती हुई आत्मा को बहुत काल की प्यास बुझाने का साधन व ठिकाना दिखाई देने लगे। इसको कहा जाता है - पारस के संग लोहा भी पारस हो जाए, अर्थात् रूहानी रॉयल्टी वाले की रूहानी नजर से निहाल हो जाए। ऐसी रॉयल्टी अनुभव करते हो?
अब सेवा की गति तीव्र चाहिए। वह तब होगी, जब ऐसी रूहानी रॉयल्टी चेहरे से दिखाई देगी। तब ही सर्व-आत्माओं का उलाहना पूर्ण कर सकेंगे। ऐसी प्योरिटी की पर्सनेलिटी हो कि जो मस्तक द्वारा शुद्ध आत्मा और सतोप्रधान आत्मा दिखाई दे अर्थात् अनुभव कर सके, नयनों द्वारा भाई-भाई की वृत्ति अर्थात् शुद्ध, श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा वायुमण्डल व वायब्रेशन परिवर्तित कर सको। जब लौकिक पर्सनेलिटी अपना प्रभाव डाल सकती है तो प्योरिटी की पर्सनेलिटी कितनी प्रभावशाली होगी? शुद्ध स्मृति द्वारा निर्बल आत्माओं को समर्थी स्वरूप बना सकते हो? ऐसी रॉयल्टी और पर्सनेलिटी स्वयं में प्रत्यक्ष रूप में लाओ। तब स्वयं को व बाप को प्रत्यक्ष कर सकेंगे! अब विशेष रहमदिल बनो। स्वयं पर भी और सर्व पर भी रहमदिल! सहज ही सर्व के स्नेही और सहयोगी बन जायेंगे। समझा? ऐसे भाग्य का सितारा चमक रहा है न? ऐसे धरती के सितारों को सब चमकता हुआ देखना चाहते हैं।
अच्छा, गोल्डन वर्शन्स द्वारा गोल्डन एज लाने वाले, सर्व के प्रति सदा रहमदिल, सर्वगुणों से सम्पन्न, सर्व प्राप्ति करने वाले, एक आत्मा को भी वंचित नहीं रखने वाले ऐसे सदा दाता, रूहानी रॉयल्टी और पर्सनेलिटी में रहने वाले, सदा चमकते हुए सितारों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
07-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सन्तुष्टता ही सम्पूर्णता की निशानी है
सर्व आत्माओं के प्रति स्नेह जगाने वाले, सर्व-हितकारी शिव बाबा बोले -
अभी इस समय अपने फीचर्स और फ्यूचर को जान सकते हो? जितना-जितना समय के समीप जा रहे हो, समय के प्रमाण अपनी सम्पूर्णता की निशानियाँ अनुभव में आती हैं? सम्पूर्णता की मुख्य निशानियाँ कौन-सी हैं? आत्मा सम्पूर्णता को पा रही है - यह मुख्य किस बात में सबको अनुभव होता है? मुख्य बात यह है कि ऐसी आत्मा सदा स्वयं से सर्व सब्जेक्टस में सन्तुष्ट रहने का अनुभव करेगी और साथ-साथ अन्य आत्मायें भी उनसे सदा सन्तुष्ट रहेगी। तो सन्तुष्टता ही सम्पूर्णता की निशानी है। जितना जितना सर्व आत्माओं की सन्तुष्टता का आशीर्वाद व सूक्ष्म स्नेह तथा सहयोग का हर समय रेसपॉन्स) मिले - इससे समझो कि इतना सम्पूर्णता के समीप आये हैं। कमाल इसमें है।
कैसे भी संस्कारों वाली, असन्तुष्ट रहने वाली आत्मा सम्पर्क में आये, वह भी सम्पर्क में यह अनुभव करे कि मैं अपने संस्कारों के कारण ही असन्तुष्ट रहती हूँ लेकिन इन विशेष आत्माओं में मेरे प्रति स्नेह व सहयोग की व रहमदिल की शुभ भावना सदा नजर आती है। अर्थात् वह अपनी ही कमजोरी महसूस करे। वह कम्पलेन्ट यह न निकाले कि यह निमित्त बनी हुई आत्मायें मुझ आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर सकती। सर्व आत्माओं द्वारा ऐसी सन्तुष्टमणि का सर्टिफिकेट प्राप्त हो, तब कहेंगे कि यह सम्पूर्णता के समीप हैं। जितनी सम्पूर्णता भरती जायेगी, उतनी ही सर्व आत्माओं की सन्तुष्टता भी बढ़ती जायेगी।
सर्व को सन्तुष्ट करने का मुख्य साधन कौन-सा है? (हरेक ने बताया? यह सब बातें भी आवश्यक तो हैं। यह सब बातें परिस्थिति में प्रैक्टिकल करने की हैं। मुख्य बात यह है कि जैसा समय, जैसी परिस्थिति, जिस प्रकार की आत्मा सामने हो, वैसा अपने को मोल्ड कर सकें। अपने स्वभाव और संस्कार के वशीभूत न हों। स्वभाव अथवा संस्कार ऐसे अनुभव में हों जैसे स्थूल रूप में जैसा समय, वैसा रूप, जैसा देश वैसा वेश बनाया - ऐसा सहज अनुभव होता है? ऐसे अपने स्वभाव, संस्कार को भी समय के अनुसार परिवर्तन कर सकते हो?
कोई भी सख्त चीज मोल्ड नहीं हो सकती है। कड़े संस्कार भी समय-प्रमाण मोल्ड नहीं कर सकते। इसलिए ऐसे ईजी संस्कार हों कि जैसा समय, वैसे बना सकें। यह प्रैक्टिस होनी चाहिए। संकल्प भी न आये कि मेरे भी कोई संस्कार हैं, कोई स्वभाव है। जो अनादि-आदि संस्कार हैं, वही स्वरूप में हों।
संस्कारों का परिवर्तन अनादि काल से है अर्थात् चक्र में आने से ही परिवर्तन में आते रहते हैं। तो आत्मा में संस्कार-परिवर्तन का ऑटोमेटिकली अभ्यास है। कभी सतोप्रधान, कभी सतो, रजो व तमो संस्कार समय-प्रमाण बदलते ही रहते हैं। अब जबकि नॉलेजफुल हो, ऊंचे-से-ऊंची स्टेज पर पार्टधारी बन पार्ट बजा रहे हो, पॉवरफुल भी हो, ब्लिसफुल भी हो, सर्वशक्तिवान् के वर्से के अधिकारी भी हो तो स्वभाव-संस्कार को समय-प्रमाण व सेवा-प्रमाण किसी के कल्याण के प्रति व स्वयं की उन्नति के प्रति परिवर्तन करना अति सहज अनुभव हो - यह है विशेष आत्माओं का अन्तिम विशेष पुरूषार्थ। ऐसे पुरूषार्थ के अनुभवी हो? ऐसे सम्पूर्ण गोल्ड बन गये हो? इससे अपने नम्बर को चेक कर सकते हो व अपने संगमयुगी भविष्य रिजल्ट को जान सकते हो? निमित्त बनी हुई विशेष आत्माएँ हो ना? तो इसकी परसेन्टेज निकालो, स्वभाव, संस्कार को अपने शस्त्र के स्वरूप में यूज़ कर सकते हो या यह मुश्किल है? इस बात में सफलता की कितनी परसेन्टेज है? दूरबाज खुशबाज वाला नहीं। किनारा करने वाला नहीं। सम्पर्क में आते हुए, सम्बन्ध में रहते हुए स्वयं ही अपना सम्पर्क, सम्बन्ध बढ़ाते सफलतामूर्त बने तब नम्बर आगे ले सकते हैं। बेहद के मालिक का बेहद से सम्बन्ध चाहिए ना। वह कैसे होगा? चान्स मिलता नहीं - लेकिन हर कार्य के योग्य स्वयं की योग्यताएं स्वत: ही निमित बना देती हैं।
इस वर्ष में ऐसी विशेषता दिखलाओ जैसे साकार बाप की विशेषता देखी। हर-एक के दिल से यह आवाज निकलता रहा-हमारा बाबा! चाहे पच्छड़माल हो, फिर भी ‘‘हमारा बाबा!’’ - यह अनुभव हर आत्मा का रहा। ऐसे सर्व विशेष आत्माओं के प्रति जब तक सर्व आत्माओं द्वारा यह स्नेह का व अधिकार का, अपनेपन की आवाज न निकले, तब तक समझो कि विश्व के मालिकपन के तख्तनशीन नहीं बन सकते। ऐसे सफलता की निशानी दिखाई दे। हर एक अनुभव करे कि ये विशेष आत्माएँ विश्व-कल्याण के प्रति हैं। यह है सम्पूर्णता की निशानी। अच्छा!
अव्यक्त वाणी का सार
1. जब आप सभी सब्जेक्ट्स में सन्तुष्ट रहने का अनुभव करेंगे तभी अन्य आत्माएँ भी सन्तुष्ट रहेगी।
2. अब सन्तुष्टमणि का सर्टिफिकेट प्राप्त करो।
3. कोई भी सख्त चीज मोल्ड नहीं हो सकती है। इसलिए संस्कार ऐसे ईजी हों कि जैसा समय वैसा स्वयं को बना सकें।
08-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
निश्चय रूपी आसन पर अचल स्थिति
हर परिस्थिति में अचल एवं अडोल बनाने वाले शिव बाबा बोले -
सभी अपने को निश्चय रूपी आसन पर स्थित अनुभव करते हो? निश्चय का आसन कभी हिलता तो नहीं है? किसी भी प्रकार की परिस्थिति या प्रकृति या कोई व्यक्ति निश्चय के आसन को कितना भी हिलाने का प्रयत्न करे, लेकिन वह हिला न सके - ऐसे अचल-अडोल आसन है? निश्चय के आसन में सदा अचल रहने वाला निश्चय-बुद्धि विजयन्ति गाया हुआ है। तो अचल रहने की निशानी है - हर संकल्प, बोल और कर्म में सदा विजयी। ऐसे विजयी रत्न स्वयं को अनुभव करते हो? किसी भी बात में हिलने वाले तो नहीं हो? जो समझते हैं कभी कोई बात में हलचल मच सकती है या कोई प्रकार का संकल्प भी उत्पन्न हो सकता है ऐसे पुरुषार्थी हाथ उठाओ? ऐसे कोई हैं जो समझते हों कि हाँ, हो सकता है? अगर हाथ न उठायेंगे तो पेपर बड़ा कड़ा आने वाला है, फिर क्या करेंगे? कोई भी मुश्किल पेपर आये उसमें सभी पास होने वाले हो तो पेपर की डेट अनाउन्स करें। सब ऐसे तैयार हो? फिर उस समय तो नहीं कहेंगे कि यह बात तो समझी नहीं थी और सोची नहीं थी, यह तो नई बात आ गई है? निश्चय की परीक्षा है कि जिन बातों को सम्भव समझते हो, वह असम्भव के रूप में पेपर बन के आयेंगी, फिर भी अचल रहोगे?
निश्चय-बुद्धि बनने की मुख्य चार बातें हैं। चारों में परसेन्टेज फुल चाहिए। वह चार बातें जानते भी हो और उन पर चलते भी हो। पहली बात (1) बाप का निश्चय जो है, जैसा है, जिस स्वरूप से पार्ट बजा रहे हैं, उसको वैसा ही जानना और मानना। (2) बाप द्वारा प्राप्त हुई नॉलेज को अनुभव द्वारा स्पष्ट जानना और मानना। (3) स्वयं भी जो है, जैसा है अर्थात् अपने अलौकिक जन्म के श्रेष्ठ जीवन को व ऊंचे ब्राह्मण के जीवन को, अपने श्रेष्ठ पार्ट को, अपनी श्रेष्ठ स्थिति और स्थान का जैसा महत्व है, वैसा स्वयं का महत्व जानना, मानना और उसी प्रमाण चलना। (4) वर्तमान श्रेष्ठ, पुरूषोत्तम, कल्याणकारी, चढ़ती कला के समय को जानना और जान करके हर कदम उठाना। इन चारों ही बातों का पूर्ण निश्चय प्रैक्टिकल लाइफ में होना - इसको कहा जाता है - निश्चयबुद्धि विजयन्ति।
चारों ही बातों में परसेन्टेज भी चाहिए। निश्चय है, सिर्फ इस बात में भी खुश नहीं होना है। लेकिन क्या परसेन्टेज भी ऊंची है? अगर परसेन्टेज एक बात में भी कम है तो निश्चय का आसन कोई भी समय अथवा कोई छोटी परिस्थिति भी डगमग कर सकती है। इसलिए परसेन्टेज को चेक करो क्योंकि अब सम्पन्न होने का समय समीप आ रहा है। तो छोटी-सी कमी समय पर बड़ा नुकसान कर सकती है क्योंकि जितना-जितना अति स्वच्छ, सतोप्रधान बन रहे हो, अति स्वच्छ स्टेज पर आज जो छोटी-सी कमी लगती है व साधारण दाग अनुभव होता है, वह बहुत बड़ा दिखाई देगा। इसलिए अभी से ऐसी सूक्ष्म चेकिंग करो और कमी को सम्पन्न करने का तीव्र पुरूषार्थ करो। दिन-प्रतिदिन जितना श्रेष्ठ बनते जा रहे हो उतना विश्व की हर आत्मा की निगाहों में प्रसिद्ध होते जा रहे हो। सबकी नजर आपकी तरफ बढ़ती जा रही हैं। अब सबके अन्दर यह इंतज़ार है कि कब स्थापना के निमित्त बने हुए ये लोग सुख-शान्तिमयी नई दुनिया की स्थापना का कार्य सम्पन्न करते हैं, जो यह दु:खदाई दुनिया के स्थापना के आधार पर परिवर्तित हो जायेगी। इन्हों की नजर स्थापना करने वालों में है और स्थापना करने वालों की नजर कहाँ है? अपने कार्यो में मग्न हो वा विनाशकारियों की तरफ नजर रखते हो? विनाश के साधनों के समाचारों को सुनने के आधार पर तो नहीं चल रहे हो? वह ढीले होते तो आप भी ढीले हो जाते हो? क्या स्थापना के आधार पर विनाश होता है या विनाश के आधार पर स्थापना होनी है? स्थापना करने वाले विनाश की ज्वाला प्रज्वलित करने के निमित्त बने हुए हैं न कि विनाश वाले स्थापना करने वालों के पुरूषार्थ की ज्वाला प्रज्वलित करने कि निमित्त हैं।
स्थापना वाले आधारमूर्त हैं। ऐसे आधारमूर्त्त इसी विनाश की बात पर हिलते तो नहीं? हलचल में तो नहीं हो? होगा या नहीं होगा? लोग क्या कहेंगे या लोग क्या करेंगे? यह व्यर्थ संकल्प निश्चय के आसन को डगमग तो नहीं करता? सबने निश्चय-बुद्धि में हाथ उठाया ना? निश्चय अर्थात् किसी भी बात में क्यों, क्या और कैसे का संकल्प भी उत्पन्न न हो, क्योंकि संशय का रॉयल रूप संकल्प का रूप होता है। संशय नहीं है लेकिन संकल्प उठता है, तो वह संकल्प किसके वंश का अंश है? यह संशय का आया है या वंश का? जबकि चारों ही बातों में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि हो तो फिर यह संकल्प उत्पन्न हो सकता है? जबकि है ही कल्याणकारी युग।
कल्याणकारी बाप की श्रीमत पर चलने वाली आत्मायें सिवाय कल्याण के, चढ़ती कला के और कोई भी संकल्प कर नहीं सकती हैं। उनका हर संकल्प, हर कार्य के प्रति समय, वर्तमान का भविष्य के प्रति समर्थ संकल्प होगा, व्यर्थ नहीं होगा। घबराते तो नहीं हो? सामना करना पड़ेगा। पेपर का सामना अर्थात् आगे बढ़ना, अर्थात् सम्पूर्णता के अति समीप होना। अब यह पेपर आने वाला है। स्वयं स्पष्ट बुद्धि वाले होंगे तो औरों को भी स्पष्ट कर सकेंगे। इसका मतलब यह तो नहीं समझते हो कि होना नहीं है। ड्रामा में जो होता रहा है, समय-प्रति-समय, उसमें माखन से बाल ही निकलता है न? कोई मुश्किल हुआ है? बापदादा नयनों पर बिठाये, दिल तख्त पर बिठाये पार करते ले आ रहे हैं ना? कोई क्या अन्त तक साथ निभाने का या किसी भी परिस्थितियों से पार ले जाने का वायदा व कार्य निभायेंगे। नहीं साथ ले ही जाना है न। सर्वशक्तिमान साथी होते हुए भी यह संकल्प उत्पन्न होना - उसको क्या कहेंगे? ऐसे व्यर्थ संकल्प समाप्त कर जिस स्थापना के कार्य के निमित्त हो, बापदादा के मददगार हो, उस कार्य में मग्न रहो। अपनी लगन की अग्नि को तीव्र करो। जिस लगन की अग्नि से ही विनाश की अग्नि तीव्र गति का स्वरूप धारण करेगी। अपने रचे हुए अविनाशी ज्ञान यज्ञ, जिसके निमित्त ब्राह्मण बने हुए हो, इस यज्ञ में पहले स्वयं की सर्व कमजोरियों व कमियों की आहुति डालो। तभी सारी पुरानी दुनिया को आहुति पड़ने के बाद समाप्ति होगी। अब दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ। तब यह सम्पन्न होगा। अच्छा!
ऐसी लगन में मग्न रहने वाले, सदा निश्चय के आसन पर स्थित रह कार्य करने वाले, हर परिस्थिति में अचल और अडोल रहने वाले, बापदादा के सदैव समीप और सहयोगी, ऐसे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
09-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा विश्व-परिवर्तन कैसे?
निर्बल आत्माओं को शक्तिवान् बनाने वाले, सर्वशक्तिवान् शिव बाबा बोले -
स्वयं को अशरीरी आत्मा अनुभव करते हो? इस शरीर द्वारा जो चाहे वही कर्म कराने वाली तुम शक्तिशाली आत्मा हो-ऐसा अनुभव करते हो? इस शरीर के मालिक कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराने वाले, इन कर्मेन्द्रियों से जब चाहो तब न्यारे स्वरूप की स्थिति में स्थित हो सकते हो? अर्थात् राजयोग की सिद्धि - कर्मेन्द्रियों के राजा बनने की शक्ति प्राप्त की है? राजा व मालिक कभी भी कोई कर्मेन्द्रिय के वशीभूत नहीं हो सकता। वशीभूत होने वाले को मालिक नहीं कहा जाता। विश्व के मालिक की सन्तान होने के नाते, जब बाप विश्व का मालिक हो और बच्चे अपनी कर्मेन्द्रियों के मालिक न हों, तो क्या कहेंगे? मालिक के बालक कहेंगे? नाम हो मास्टर सर्वशक्तिवान् और स्वयं को मालिक समझ कर चल नहीं सके तो क्या मास्टर सर्वशक्तिवान् हुए? हम मास्टर सर्व- शक्तिवान् हैं - यह तो पक्का निश्चय है ना, कि यह निश्चय भी अभी हो रहा है? निश्चय में कभी परसेन्टेज होती है क्या? बाप के बच्चे तो हैं ही ना? ऐसे थोड़े ही 90% हैं और 10% नहीं है। ऐसा बच्चा कभी देखा है? निश्चय अर्थात् 100% निश्चय।
ऐसे 100% निश्चय-बुद्धि बच्चों की पहली निशानी क्या होगी? निश्चय-बुद्धि की पहली निशानी है - विजयी। कहावत भी है - निश्चय बुद्धि विजयन्ति। विजय मिलेगी कैसे? निश्चय से। तो निरन्तर इस निश्चय की स्मृति कि - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ यह स्मृति रहती है? स्मृति के बिना समर्थी थोड़े ही आयेगी? विजयी होने का आधार है - स्मृति। अगर स्मृति कमज़ोर होगी, निरन्तर नहीं होगी और स्मृति पॉवरफुल नहीं होगी तो विजयी कैसे होंगे? तो पहले इस निश्चय को सदा स्मृति-स्वरूप बनाना पड़ता है।
जैसे चलते-फिरते लौकिक आक्युपेशन (धन्धा) और लौकिक सम्बन्ध सदा स्मृति में रहता ही है ना? उसी स्मृति से समर्थी आती है कि मैं ऐसे परिवार का, ऐसे ऑक्युपेशन वाला हूँ, वैसे ही जो मरजीवा ब्राह्मण जन्म का सम्बन्ध व ऑक्युपेशन है वा स्वयं का स्वरूप है, वह सदा स्मृति में रहना चाहिए। स्मृति कमज़ोर होने के कारण विजय दिखाई नहीं देती है। विजय हो उसको सिर्फ देखते हुए समय नहीं गँवाओ, बल्कि विजय होने का जो फाउण्डेशन है उसको मजबूत रखो। कोई सोचे कि मार्ग तय करने से पहले मंज़िल पर पहुँच जायें - यह हो सकता है? मार्ग तो ज़रूर तय करना ही पड़ेगा। तो विजय है मंज़िल और मार्ग है निरन्तर स्मृति। अत: इस मार्ग को तय कर रहे हो या इंतज़ार में हो कि मंज़िल दिखाई दे?
सदैव यह सोचना चाहिए कि मिली हुई गॉडली लॉटरी अगर पूरी काम में नहीं लगायेंगे तो खुशी व शक्ति का अनुभव कैसे करेंगे? कितना भी किसी के पास धन हो लेकिन सुख की प्राप्ति तब होगी जब उसको यूज़ (प्रयोग) करेंगे। यूज़ न करें तो देखते हुए सिर्फ खुशी ही होगी, लेकिन उससे जो सुख की प्राप्ति होनी चाहिए वह अनुभव नहीं कर सकेंगे। लॉटरी तो मिली लेकिन उसको यूज़ करना अर्थात् जीवन में लाना - उसके बिना सुख का, आनन्द का व विजयी बनने की खुशी का अनुभव नहीं कर सकेंगे।
अनुभवी बनना चाहिए ना? अनुभव जीवन का मुख्य खज़ाना है। लौकिक पहलू में भी अनुभवी आत्मा मुख्य गायी जाती है। इस ईश्वरीय मार्ग में भी अनुभवी आत्मा बनना चाहिए। जो बोला, वह अनुभव किया? यह समझते तो हो कि मैं मास्टर सर्व शक्तिवान् हूँ, परन्तु क्या इसका अनुभव भी किया है? ऐसे नहीं कि अनुभव तो हो ही जायेगा, चल तो रहे हैं। जब तक कोई भी कार्य करने की डेट फिक्स नहीं हो जाती तब तक पुरूषार्थ तीव्र नहीं हो सकता।
किसी भी लौकिक अथवा अलौकिक कार्य की डेट फिक्स होने के बाद फिर ऑटोमेटिकली कर्म में भी बल आ जाता है। मालूम है फलानी डेट तक यह कार्य सम्पन्न करना है। डेट को स्मृति में रखने से कर्म की स्पीड भी ऐसे चलती है। कल पूरा करना है तो स्पीड ऐसे रहेगी? इस ज्ञान का मुख्य स्लोगन ही है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इसकी डेट कल या परसों नहीं होती - इसकी डेट होती है अभी। घण्टे के बाद भी नहीं। इसलिये जितना निश्चय रखेंगे कि ये करना ही है - करेंगे नहीं - करना ही है यह है दृढ़ संकल्प। दृढ़ संकल्प के बिना दृढ़ता नहीं आती। और पुरूषार्थ का समय बाकी कितना कम है? जास्ती समय दिखाई देता है क्या? समय का ख्याल तो रखना चाहिए ना। यह भी सोचो कि प्रालब्ध कितने समय की है? दो युग की प्रालब्ध है ना। इस पुरूषार्थ की प्रालब्ध का समय कितना कम रहा? यह सदा स्मृति में होना चाहिए।
बहुत काल की प्रालब्ध पानी है, तो पुरूषार्थ भी बहुत काल का चाहिए ना। अगर लास्ट टाइम पुरूषार्थ करेंगे तो प्रालब्ध भी लास्ट की ही मिलेगी। पुरूषार्थ फर्स्ट नहीं और प्रालब्ध फर्स्ट वाली चाहिए? लास्ट में बचा-खुचा मिलने से क्या होगा? जैसे प्राप्ति का लक्ष्य फर्स्ट का है, वैसे पुरूषार्थ भी ऐसा करो! कोई भी बात सामने आये उसको एक साईट और सीन समझो जैसे रास्ते चलते अनेक प्रकार की साईट्स और सीन्स आती है, लेकिन जो मंज़िल को पाने वाला होता है, वह उसको देखता नहीं है, उसकी बुद्धि में मंज़िल की प्राप्ति ही रहती है। तो यहाँ भी बुद्धि में मंज़िल रखनी है, न कि वह बातें। अगर छोटी-सी बात को देखने में ही समय गंवा देंगे तो मंज़िल पर समय पर पहुँच नहीं सकेंगे। तो अब दृढ़ता लाने का समय है। नहीं तो कुछ समय के बाद इस समय को भी याद करना पड़ेगा कि समय पर जो करना था, वह नहीं किया।
पीछे सोचने से पहले क्यों नहीं समय को परिवर्तित कर दो? विश्व के परिवर्तन के निमित्त हो तो जो बाप का कार्य है, बाप के साथ अपने को भी निमित्त समझो! विश्व में स्वयं भी हो ना! विश्व को परिवर्तित करने वाले को पहले स्वयं को परिवर्तित करना पड़े। सदैव यह सोचो कि जब मैं हूँ ही विश्व को परिवर्तन करने के निमित्त, तो स्वयं को परिवर्तन करना, क्या बड़ी बात है? तो फौरन ही परिवर्तन करने की शक्ति आयेगी। कैसे होगा, क्या होगा, होगा व नहीं होगा? यह क्वेश्चन नहीं उठेगा।
दूसरी बात यह स्मृति में रखो कि यह विश्व-परिवर्तन का कार्य कितनी बार किया है? अनगिनत बार किया है, यह तो पक्का है ना? बाप के साथ मैं भी अनेक बार निमित्त बना हूँ। जब अनेक बार की हुई बात होती है तो वह मुश्किल लगती है क्या? अति पुरानी बात को सिर्फ निमित्त बन रिपीट कर रहे हो। रिपीट करना सहज होता है या मुश्किल? तो यह भी स्मृति में रहना चाहिए। कोई जरा भी मुश्किल का संकल्प आये तो यह हिम्मत की बात याद रखो। फिर से अनेक बार की हुई बात की स्मृति आने से समर्थी आ जायेगी।
तो यह वरदान सदा स्मृति में रखना कि मैं बाप-समान शक्तियों का स्वरूप दिखाने वाला हूँ - अर्थात् शक्ति स्वरूप हूँ। सम्बन्ध रहने से यहाँ तक पहुँच सकते हो। लेकिन अब बाप का स्नेह, बाप के कार्य से स्नेह और बाप द्वारा मिली हुई नॉलेज से स्नेह - इन तीनों का बैलेन्स रखो। अभी बैलेन्स में बाप का स्नेह ज्यादा है, बाकी दो तरफ हल्का है। नॉलेज से शक्ति आयेगी। एक-एक वर्शन पदमपति बनाने वाला है। इतना महत्व रखते हुए उन वर्शन्स को धारण करो, तो महत्व से स्नेह होता है। जब तक महत्व को नहीं जानते तब तक स्नेह नहीं होता। महत्व को जानेंगे तो ही स्नेह ऑटोमेटिकली रहेगा।
निश्चय-बुद्धि विजयन्ति हो। अलौकिक जन्म हुआ, निश्चयबुद्धि हुए कि मैं बाप का बच्चा हूँ, तो बाप का वर्सा ही विजय है। मास्टर सर्व-शक्तिवान् का वर्सा क्या होगा? शक्तियाँ। तो बच्चा बनना अर्थात् विजयी बनना। विजय का तिलक स्वत: ही लग जाता है, लगाना नहीं पड़ता और वह अविनाशी है। अधिकारी हो गये हो ना? स्नेही और सहयोगी बनने की तकदीर अच्छी है। परिवार का परिवार एक मत हो जाये तो यह भी तकदीर की निशानी है। परिवार के सब साथी पुरूषार्थ की रेस में एक-दूसरे से आगे निकलने की लगन में लगे हुए हैं। हिम्मत से मदद स्वत: ही प्राप्त होती है। (वीरचन्द को) यह मोह-जीत परिवार है। ऐसे मोह-जीत परिवार कितने बनाये हैं? लक्ष्य श्रेष्ठ रखा हुआ है। अब ऐसे परिवारों का गुलदस्ता बनाओ। अगर दस-ग्यारह ऐसे परिवार हो जाएं तो अहमदाबाद का नम्बर आगे हो जायेगा। गुजरात को, परिवारों को चलाने का वरदान ड्रामानुसार मिला हुआ भी है। लेकिन मोह-जीत परिवार और सब एक लगन में श्रेष्ठ पुरूषार्थ की लाइन में हो। ऐसा गुलदस्ता बनाओ। अच्छा।
10-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सर्व शक्तियों-सहित सेवा में समर्पण
सत्कार न करने वालों का भी सत्कार करने वाले, ठुकराने वालों को भी ठिकाना देने वाले, त्याग द्वारा सर्वोत्तम भाग्य बनाने वाले शिव बाबा बोले -
आज यह संगठन ज्ञानी तू आत्माओं का है। ऐसी ज्ञानी तू आत्मायें, अथवा योगी आत्मायें बापदादा को भी अति प्रिय है और विश्व में भी अति प्रिय हैं। ऐसी ज्ञानी तू आत्मा और योगी तू आत्मा का भक्ति मार्ग में गायन और पूजन चलता रहता है। वर्तमान समय में भी वह आत्मायें पूजनीय और गायन-योग्य है। पूजनीय अर्थात् ऊंची आत्मायें और गायन-योग्य आत्माएँ - ऐसी आत्माओं के गुणों का गायन व वर्णन अब भी सब करते हैं। भविष्य के गायन और पूजन का आधार वर्तमान पर है। भविष्य में अर्थात् भक्ति में कौन कितने गायन और पूजने योग्य बनेंगे, उसका बुद्धि-बल द्वारा साक्षात्कार हर कोई अभी कर सकता है। हर- एक अपने आपको देखे कि इस समय भी मुझ आत्मा को सर्व-आत्मायें अर्थात् जो सम्पर्क में आने वाली हैं, अपने ब्राह्मण कुल की आत्मायें हैं और साथ-साथ अज्ञानी आत्मायें भी जो सम्पर्क में आती हैं, तो वे श्रेष्ठ अर्थात् पूज्यता की नजर से देखती है? पूज्य बड़े को भी कहा जाता है। तो सर्व आत्मायें उस नज़र से देखती व समझती हैं?
अगर अल्प आत्मायें पूज्य अनुभव करती हैं तो वर्तमान का आधार सारे भविष्य पर है। ऐसे ही जो भी आत्मायें साथी बनती हैं व सम्बन्ध में आती हैं, उनको मुझ आत्मा विशेष के गुण अनुभव में आते हैं? अगर किसी आत्मा के गुण अनुभव में आयेंगे तो अब भी वह आत्मायें मन-ही-मन में व वाणी में भी ऐसी आत्माओं के गुणों का गायन अवश्य करेंगी। गुण कोई भी हों वे अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। गुण छुप नहीं सकते। तो ऐसी पूज्य और गुणगान कराने वाली ज्ञानी आत्मायें और योगी आत्माएँ बने हो? अल्प आत्माओं के प्रति अथवा सर्व के प्रति सर्व गुणों का गायन करते हैं अथवा थोड़े-बहुत गुणों का गायन करते हैं? गुणों के गायन का पलड़ा भारी है अथवा साधारण चलन का पलड़ा भारी है?
समय-प्रमाण अभी अपने सब सब्जेक्ट्स के खाते को चेक करो कि कहाँ तक जमा किया है व मन, वाणी, कर्म द्वारा कहाँ तक हर सब्जेक्ट को सम्पन्न किया है। सर्व-गुण सम्पन्न बने हैं या गुण-सम्पन्न ही बने हैं? कल्याणकारी बने हैं अथवा विश्व-कल्याणवारी बने हैं? अब अगर चेक करेंगे तो चेक करने के बाद सम्पन्न करने का कुछ समय है। लेकिन कुछ समय के बाद सम्पन्न करने का समय भी समाप्त हो जायेगा। फिर क्या करेंगे? सम्पन्न बनी हुई आत्माओं को देखने वाले बन जायेंगे। सीट लेने वाले नहीं बन सकेंगे। तो साक्षात्कार मूर्त बनना है या साक्षात्कार करने वाला बनना है?
ऐसे साक्षात्कार मूर्त बनने के लिये सार रूप में तीन बातें अपने में देखो –
1. सर्व-अधिकारी बने हैं? 2. परोपकारी बने हैं? 3. सर्व प्रति सत्कारी बने हैं? अर्थात् सर्व को सत्कार देने और लेने योग्य बने हैं? याद रखो कि सत्कार देना ही लेना है।
इन तीन बातों के आधार से ही विश्व के आगे विश्व-कल्याणकारी प्रसिद्ध होंगे। उनके स्पष्टीकरण को अच्छी तरह से जानते हो?
सर्व-अधिकारी का अर्थ है-सर्व-कर्मेन्द्रियों पर अधिकार। साथ-साथ जैसे इस शरीर की भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हाथ, पांव आदि हैं, वैसे ही आत्मा की भी शक्तियाँ हैं - मन, बुद्धि और संस्कार। इन सूक्ष्म शक्तियों पर भी अधिकारी बने हो? अपनी रचना - प्रकृति के ऊपर अधिकारी बने हो? कोई भी प्रकृति के तत्व अपनी तरफ आकर्षित तो नहीं करते हैं? जब साइन्स द्वारा प्रकृति व पृथ्वी के आकर्षण से परे स्टेज पर पहुँच जाते हैं तो मास्टर सर्व-शक्तिवान् प्रकृति के आकर्षण से परे, अर्थात् व्यक्त भाव से परे, अव्यक्त व ऑलमाइटी अथॉरिटी की स्टेज को प्राप्त करना मुश्किल अनुभव करे - यह तो शोभता नहीं। ऐसे ही बाप द्वारा प्राप्त हुई सर्व शक्तियाँ जिनमें से थोड़ा सैम्पल रूप में चित्र भी बना है। तो वर्से में प्राप्त हुई शक्तियाँ अर्थात् स्वयं की जायदाद व प्रॉपर्टी पर अपना अधिकार है। जब चाहो तब किसी भी शक्ति द्वारा स्वयं को सफल बना सको। जैसे स्थूल जायदाद पर अधिकार होने के कारण जिस समय चाहो उस समय उसी वस्तु को काम में लगा सकते हो क्योंकि अपनी जायदाद है। ऐसे ही ईश्वरीय जायदाद को जिस समय चाहो और जिस शक्ति को चाहो उसको काम में लगा सकते हो? इस जायदाद के भी अधिकारी हो? इसको कहा जाता है सर्व-अधिकारी।
हर आत्मा के प्रति सदा उपकार अर्थात् शुभ भावना और श्रेष्ठ कामनायें। हर आत्मा को देखते हुए ऐसे अनुभव हो कि यह सर्व-आत्माएँ जैसे कि बाप के हर समय स्नेही और सहयोगी बनने के लिए स्वयं को कुर्बान कर देते हैं। ऐसे कुर्बान करने के निमित्त क्यों बनते? - क्योंकि बाप सब के आगे स्वयं कुर्बान होते हैं। सर्व के सामने स्वयं को सब शक्तियों समेत सेवा में समर्पित किया है। अपने समय को, सुखों को, प्राप्ति की इच्छा को सर्व के प्रति महादानी बन दाता बने। ऐसे फॉलो फादर स्वयं के प्रति नाम, शान, मान सर्व प्राप्ति की इच्छा को कुर्बान करने वाले ही परोपकारी बन सकते हैं। लेने की इच्छा छोड़ देने वाले महादानी ही परोपकारी बन सकते हैं। ऐसे ही सत्कारी सर्व के प्रति सत्कार की भावना हो - सत्कारी बनने के लिए स्वयं को सर्व के सेवाधारी समझना पड़े। सेवाधारी की परिभाषा भी गुह्य है। सिर्फ स्थूल सेवा व वाणी द्वारा सेवा, सम्पर्क द्वारा सेवा, सेलवेशन द्वारा व भिन्न-भिन्न प्रकार के साधनों द्वारा सेवा करना, सिर्फ इतना ही नहीं, अपने हर गुण द्वारा दान करना व दूसरों को भी गुणवान बनाना, स्वयं के संग का रंग चढ़ाना, यह है श्रेष्ठ सेवा। अवगुण को देखते हुए भी नहीं देखना। स्वयं के गुणों की शक्ति द्वारा अन्य के अवगुणों को मिटा देना अर्थात् निर्बल को बलवान बनाना। निर्बल को देख किनारा नहीं करना है व थक नहीं जाना है। लेकिन होपलेस केस को भी स्वयं की सेवा द्वारा अपने श्रेष्ठ स्वमान में स्थित हो सम्मान देने के द्वारा सर्व के सत्कारी बन सकते हैं। स्वयं के त्याग द्वारा अन्य को सत्कार देते हुए अपना भाग्य बनाना है। छोटा, बड़ा, महारथी व प्यादा सर्व को सत्कार की नजर से देखो। सत्कार न देने वाले को भी सत्कार देने वाला, ठुकराने वाले को भी ठिकाना देने वाला, ग्लानि करने वाले के भी गुणगान करने वाला, ऐसे को कहा जाता है सर्व-सत्कारी। तो इस वर्ष में दो प्रकार की विशेष सेवा होनी चाहिए। एक स्वयं को सम्पन्न बनाने की। इसके लिए इस वर्ष में चारों तरफ विशेष स्थानों पर उन्नति के साधन, योग-भट्ठी के साधन और धारणा की भट्ठी चाहिए। ऐसे हर जगह चारों ओर ग्रुप वाइज भट्ठी का प्रोग्राम रखो, हर एक को स्वतन्त्र कर भट्ठी का अनुभव कराओ। जैसे पिछले वर्ष में योग भट्ठी का प्रोग्राम रखा था ऐसे धारणा और याद दोनों सब्जेक्ट्स पर स्वयं को सम्पन्न बनाने की भट्ठी हो। ऐसा प्रोग्राम सब मिलकर के बनाओ।
दूसरी बात है विश्व सेवा के प्रति। उसके लिये हर एक सेवाकेन्द्र को स्वयं के आस पास के स्थानों को सन्देश देने का प्रोग्राम तीव्रगति से करना पड़े। कोई भी आसपास का स्थान सन्देश देने से वंचित रहा तो फिर सन्देश देने की मार्जिन न रहेगी। वंचित रही हुई आत्माओं का बोझ निमित बनी हुई आत्माओं पर है। इसलिए चक्रवर्ती बनो। महादानी अर्थात् महादान देते आगे बढ़ते चलना है। एक एक निमित बनी हुई श्रेष्ठ आत्मा को सिर्फ दो चार स्थान नहीं लेकिन आसपास के सर्व स्थानों पर चक्र लगाने के निमित्त बनना है। हर स्थान पर आप समान निमित्त बनाते जाओ और आगे बढ़ते जाओ। उसी स्थान पर बैठ न जाओ। तो इस वर्ष चक्र लगाते विशेष सेवा यह करनी है। सन्देश देते आप समान निमित्त बनाते सारे विश्व को तथा स्वयं के आसपास वालों को सन्देश देना है। अब हैण्डस बनाने का कर्त्तव्य करो। समय प्रमाण जैसे समय की गति तीव्र होती जा रही है, ऐसी सेवा की रिजल्ट का प्रत्यक्ष फल बनी बनाई निमित बनने वाली आत्माएँ सहज ही निकल सकती हैं। सिर्फ लक्ष्य, हिम्मत और परख चाहिए।
जैसे कल्प पहले का गायन है - पाण्डवों ने तीर मारा और जल निकला अर्थात् पुरूषार्थ किया और फल निकला। अब प्रत्यक्ष फल का समय है। सीजन है, समय का वरदान है। इसका लाभ उठाओ। अपने साधनों व अपने प्रति समय व सम्पत्ति का त्याग करो, तब यह प्रत्यक्ष फल का भाग्य प्राप्त कर सकेंगे। स्वयं को आराम, स्वयं के प्रति सेवा-अर्थ अर्पण की हुई सम्पत्ति लगाने से कभी सफलता नहीं मिलेगी। जैसे सेवा के प्रारम्भ में अपने पेट की रोटी भी कम करके हर वस्तु को सेवा में लगाने से उसका प्रत्यक्ष फल आप आत्मायें हो। ऐसे मध्य में बाप ने ड्रामा ने सहज साधनों को स्वयं के प्रति लगाने का अनुभव भी कराया है। लेकिन अब अन्त में प्रकृति दासी होते हुए भी सर्व साधन प्राप्त होते हुए भी स्वयं के प्रति नहीं लेकिन सेवा के प्रति लगाओ। क्योंकि अब आगे चलकर अनेक आत्मायें साधन और सम्पत्ति आपके आगे ज्यादा से ज्यादा अर्पण करेंगी। लेकिन स्वयं के प्रति स्वीकार कभी नहीं करना। स्वयं के प्रति स्वीकार करना अर्थात् स्वयं को श्रेष्ठ पद से वंचित करना। इसलिए ऐसे त्यागमूर्त बन सेवा का प्रत्यक्ष फल निकालो। समझा? अब निमित बनने वाले वारिसों का और सेवा में सहयोगी बनने वालों का गुलदस्ता बाप के आगे भेंट करो। तब कहेंगे विश्व-कल्याणकारी, सो विश्व-राज्य अधिकारी। इस पर प्राईज मिलेगी। पिछली बार की रिजल्ट नहीं आयी है जो प्राईज दें। इसलिए इस बारी पुरूषार्थ करके फिर से डबल प्राईज लो।
अच्छा ऐसे विल करने वाले, वन नम्बर में आने वाले, प्रत्यक्ष फल देने वाले, बाप को प्रख्यात करने वाले, शक्ति सेना और पाण्डव सेना का झण्डा लहराने वाले और विश्व के आगे बापदादा का जय-जयकार कराने के निमित्त बनने वाली विजयी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
अव्यक्त वाणी का सार
1. हर एक अपने आपको देखे कि इस समय भी मुझ आत्मा को सर्व आत्माएँ, जो भी सम्पर्क में आने वाली हैं, वे श्रेष्ठ अर्थात् पूज्यता की नजर से देखती हैं?
2. अपने सब सब्जेक्ट्स के खाते को चेक करो कि कहाँ तक जमा किया है व मन, वाणी और कर्म द्वारा कहाँ तक हर सब्जेक्ट को सम्पन्न किया है? चेक करेंगे तब ही सम्पन्न बनने का पुरूषार्थ कर सकेंगे।
3. जैसे स्थूल जायदाद पर अधिकार होने के कारण जिस समय चाहो, उस समय उसी वस्तु को काम में लगा सकते हो। ऐसे ही ईश्वरीय जायदाद को जिस समय चाहो और जिस शक्ति को चाहो, उसे काम में लगा सकते हो।
11-02-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
माया से युद्ध करने वाले पाण्डवों के लिए धारणाएं
पाण्डव पति शिव बाबा बोले -
पाण्डवों के लिये जो कल्प पहले का गायन है, क्या वह सब विशेषतायें वर्तमान समय जीवन में अनुभव होती हैं? यह जो गायन है कि उन्होंने पहाड़ों पर स्वयं को गलाया-इसका रहस्य क्या है? किस बात में गलाया? सूक्ष्म बात का ही यादगार स्थूल रूप में होता है। जैसे चैतन्य का यादगार स्थूल में होता है, वैसे ही सूक्ष्म को स्पष्ट करने के लिये दृष्टान्त दिया जाता है। स्वयं को सफलता मूर्त बनाने के निमित्त पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ में जो विघ्न सामने आते हैं, उन विघ्नों के कारण क्या स्वयं को सफलतामूर्त नहीं बना सकते हैं? या बार-बार उसी स्वभाव व संस्कार के कारण असफलता होती है जिसको निजी संस्कार व नेचर कहा जाता है। तो ऐसे निजी संस्कारों को गलाना अर्थात् स्वयं को गलाना कि देखने या सम्पर्क में आने वाले यह महसूस करें कि इस आत्मा ने स्वयं को गलाया है। इसमें सफलता है!
ड्रामा प्रमाण जितना सहजयोगी, श्रेष्ठ योगी और सफलतामूर्त बनने की सेल्वेशन प्राप्त है, उतना ही रिटर्न दिया है? वातावरण की भी सेल्वेशन है तो इसका रिटर्न वातावरण को पॉवरफुल बनाकर रखने में, सहयोगी बनने में रिटर्न दो। साथ-साथ श्रेष्ठ संग है, यह भी सेलवेशन है तो जो भी आत्मायें अपना भाग्य प्राप्त करने के लिए आती हैं उन्हों को भी अपने संग की श्रेष्ठता का अनुभव हो। यह है रिटर्न। सब अनुभव करें कि यह सब आत्मायें संग के रंग में रंगी हुई हैं। श्रेष्ठ बनेंगे रूहानी संग से और अपने चरित्रों द्वारा। अपने कर्मयोगी की स्टेज द्वारा और अपने गुणमूर्त स्वरूप द्वारा आने वाली आत्माओं का इग्जॉम्पल बन, साधन बन उनकी सहज प्राप्ति का साधन बन जाओ। आपका प्रैक्टिकल साकार स्वरूप का सैम्पल देख उनमें विशेष उमंग उत्साह रहे। सदैव हर बात में यही संकल्प रखना चाहिए कि हर कार्य में, हर प्रैक्टिकल सबूत के पहले हम सैम्पल है। हर ब्त में हम सैम्पल हैं। जब ऐसा लक्ष्य आगे रखेंगे तब ही पुरूषार्थ की गति को तीव्र कर सकेंगे। भले ही आराम के साधन प्राप्त हैं, परन्तु आराम पसन्द नहीं बन जाना है। पुरूषार्थ में भी आराम पसन्द न होना अर्थात् अलबेला न होना है। आराम के साधनों का एडवान्टेज (लाभ) सदाकाल की प्राप्ति का विघ्न रूप नहीं बनाना। यह अटेन्शन रखना है। अगर किसी भी प्रकार की सिद्धि अथवा प्राप्ति को स्वीकार किया तो वहाँ कम हो जायेगा। साधन मिलते हुए भी उसका त्याग। प्राप्ति होते हुए भी त्याग करना उसको ही त्याग कहा जाता है। जब कि है ही अप्राप्ति, उसको त्याग दो तो यह मजबूरी हुई न कि त्याग। इतना अटेन्शन, अपने ऊपर रखते हो अथवा सहजयोग का यह अर्थ समझते हो कि सहज साधनों द्वारा योगी बनना है। हर बात में अटेन्शन रहे। रिटर्न देना अर्थात् आगे के लिए कट करना। खत्म करना। माइनस हो रहा है अथवा प्लस, हो रहा है यह चेक (जाँच) करना है। अच्छा।
02-08-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विदेश में ईश्वरीय सेवा का महत्व
डबल विदेशी बच्चों के लिये विदेशी बनने वाले ज्योर्तिमय ब्रह्म महातत्व के वासी शिव बाबा बोलेः-
बाप-दादा के सम्मुख कौनसे बच्चे सदा रहते हैं? सदा सम्मुख रहने वाले बच्चों की विशेषता क्या है? ऐसे विशेष आत्माओं के प्रति बापदादा को विशेष रूप से मिलन मनाना होता है। ऐसे बच्चों को नयनों के सितारे व जहान के नूर कहा जाता है। जैसे स्थूल शरीर के अन्दर सबसे विशेष और सदा आवश्यक अंग नयन हैं। नयन नहीं तो जहान नहीं। इसी प्रकार ऐसे बच्चे इतने विशेष गाये हुए हैं। ऐसे बच्चे सर्विसएबल होने के कारण विश्व के लिये व जहान के लिए नूर अर्थात् प्रकाश व ज्योति के समान हैं। जैसे जान (शरीर) के लिए नयन आवश्यक हैं वैसे ही जहान के लिए नूर आवश्यक हैं। अगर ऐसी आत्मायें निमित्त नहीं बनें तो जहान जंगल बन जाता है अर्थात् जहान, जहान नहीं रहता। ऐसे सदा स्वयं को भी सितारा ही समझकर कर्म करते हैं? सितारा भी चमकता हुआ सितारा। ऐसे बच्चे ही बापदादा के नयनों में समाये हुए अर्थात् बाप की लगन में सदा मग्न रहने वाले हैं। साथ-साथ उनके नयनों में भी सदा बापदादा समाया हुआ रहता है। ऐसे नयनों के नूर सिवाय बाप के और कोई भी व्यक्ति व वस्तु को देखते हुए भी नहीं देखते। ऐसी स्थिति बनी है अथवा अब तक भी और कुछ दिखाई देता है? किसी में भी अंश-मात्र कोई रस दिखाई देता है? असार संसार अनुभव होता है? यह सब मरे ही पड़े है - ऐसा बुद्धि द्वारा अनुभव होता है? मुर्दों से कोई प्राप्ति की इच्छा हो सकती है, क्या कोई सम्बन्ध की अनुभूति होती है? ऐसे इच्छा मात्रम् अविद्या, सदा एक के रस में रहने वाले, एक रस स्थिति वाले बन चुके हो अथवा अब तक भी मुर्दों से किसी प्रकार की प्राप्ति की कामना है या कोई विनाशी रस अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? जब तक कोई प्राप्ति की इच्छा व कामना है या कोई रस का आकर्षण है तो बापदादा के नयनों के सितारे नहीं बन सकते व सदा नयनों में बापदादा समा नहीं सकते। एक हैं ऐसी विशेष आत्मायें जिन्हों को नूरे-रत्न व नयनों के सितारे व जहान के नूर कहते हैं। तो फर्स्ट नम्बर में तो नयनों के नूर हैं।
सेकेण्ड नम्बर क्या है? जैसे नूरे रत्न प्रसिद्ध हैं। नूरे जहान व जहान के नूर, इसी प्रकार सेकेण्ड नम्बर वाले किस रूप में प्रसिद्ध हैं? भुजाओं के रूप में! ब्रह्मा की भुजायें अनेक दिखाते है। सेकेण्ड नम्बर वाली भुजायें ज़रूर हैं अर्थात् सहयोगी आत्मायें हैं।
तो स्वयं को फर्स्ट नम्बर में समझते हो या सेकेण्ड नम्बर के? लण्डन का ग्रुप कौन से नम्बर में है? जबकि डबल विदेशी ग्रुप ने बापदादा का विशेष आह्वान किया है। विदेशी तो सब हैं लेकिन यह डबल विदेशी हैं। तो डबल विदेशियों को विशेष रूप से बापदादा का शो करना पड़े। वह तब कर सकेंगे जब नयनों के नूर बनेंगे। भुजायें नहीं। विदेशियों को सर्विस का नया प्लैन बनाना चाहिए। जैसे भारत में निवास करने वाली सर्विसएबल आत्मायें नई-नई इन्वेन्शन निकालती है। ऐसे डबल विदेशियों ने क्या इन्वेन्शन निकाली है? जैसे भारत में निकली हुई विदेश में भी करते हो वैसे विदेश की इन्वेन्शन फिर भारत में हो। जैसे प्रदर्शनी, फेयर, प्रोजेक्टर-शो व गीता पाठशालायें, यह भारत में निवास करने वालों की इन्वेन्शन हैं। ऐसे विदेशियों ने क्या इन्वेन्शन की है? (मौरीशस में प्राइममिनिस्टर को बुलाया था) किसी को बुलाना - यह भी यहाँ से शुरू हुआ है लेकिन उसको प्रैक्टिकल में वहाँ लाया है। भारत ने प्रैक्टिकल नहीं किया। यह तो ठीक है, जो कुछ किया है उसके लिए बापदादा धन्यवाद कहते हैं। लेकिन वहाँ से कोई नयी इन्वेन्शन निकली है? विदेशियों को ऐसी कोई विहंग-मार्ग की सर्विस इन्वेन्शन विदेश के वातावरण-प्रमाण निकालनी है, जो थोड़े समय के अन्दर विदेश में सन्देश पहुँच जाए। टी.वी. व रेडियो में आप लोगों का आता है वह तो वहाँ के लिए कॉमन बात है। जैसे आपका आता है वैसे औरों का भी आता है। इण्डिया में यह बड़ी बात है। लेकिन यही बात कई स्थानों में कॉमन है। तो जितना पुरूषार्थ किया है, थोड़े समय में हिम्मत, उमंग, उत्साह दिखलाते हुए सर्विस को आगे बढ़ाया है उसके लिये बापदादा लास्ट इज फास्ट का टाइटल तो देते ही हैं। लेकिन अब आपस में सब विदेशी मिल कर ऐसी नई इन्वेन्शन निकालो जो विदेश में इतना फोर्स का आवाज हो जो वह भारतवासियों तक पहुँचे। विदेश की सर्विस का मूल फाउण्डेशन ही यह है कि विदेश की आवाज द्वारा भारत के कुम्भकरण जागेंगे। विदेश-सर्विस की एम ऑब्जेक्ट यह है। विदेश का विदेश में दिखाया यह कोई बड़ी बात नहीं है। उस लक्ष्य से विदेश की सेवा ड्रामा में नूंधी हुई है और अब तक भी कोई भी इन्वेन्शन का आवाज विदेश से ही होता आया है। इन्वेन्शन भारत की ही होती है, लेकिन भारत-वासी भारत की इन्वेन्शन को विदेशियों द्वारा ही मानते आये हैं। ऐसे ही यह ईश्वरीय प्रत्यक्षता की आवाज विदेश सर्विस ही भारत में नाम-बाला करेगी। तो विदेशी इस कार्यार्थ निमित्त बने हुए हैं। इसलिये अब ऐसी इन्वेन्शन निकालो। कोई ऐसी आत्मा को निमित्त बनाओ जिनके अनुभव का आवाज हो, मुख का आवाज नहीं। अनुभव का आवाज विदेश से भारत तक पहुँचे। अन्तिम समय में विदेश सेवा को इतना महत्व क्यों दिया है, जबकि जाने वालों का भी संकल्प होता है कि ऐसे नाज़ुक व नजदीक समय पर विदेश में क्यों भेजा जाता है? जबकि अन्त में विदेश से भारत में ही आना है। फिर भी विदेश सेवा आगे बढ़ रही है। अच्छे- अच्छे हैण्डस विदेश-सेवार्थ भेजे जा रहे हैं, जबकि भारत में आवश्यकता है। निमन्त्रण हैं - फिर भी क्यों भेजा जा रहा है? और यह भी जानते हैं कि अन्य मत मतान्तरों का स्वर्ग में आने का पार्ट नहीं है, लेकिन जो ट्रॉन्सफर हो गये हैं, व कन्वर्ट हो गये हैं उन आत्माओं को अपने आदि धर्म में लाने के लिये भेजा जाता है जो बहुत थोड़े होंगे। इसका मूल आधार व विदेश सर्विस की एम-आब्जेक्ट यह है कि विदेश द्वारा भारत तक आवाज पहुँचने का राज ड्रामा में नूंधा हुआ है। इसलिए विदेश की सर्विस को फर्स्ट चान्स दिया हुआ है। बाकी गीता पाठशालायें खोलीं व टी.वी. में बोला वह कोई एम-आब्जेक्ट नहीं। वह सब साधन हैं एम-आब्जेक्ट तक पहुँचने का। समझा? तो अब आपस में ऐसी राय करो कि जल्दी से जल्दी भारत तक आवाज़ कैसे फैलावें? विदेश द्वारा भारत में आवाज कैसे हो?
आज खास विदेशियों के लिये बापदादा को भी विदेशी बनना पड़ा है। बापदादा विदेशी न बनते तो मिल भी न सके। विदेशी विशेष आत्मायें, जोकि विशेष कार्य के निमित्त बनी हुई हैं, ऐसे होवनहार ग्रुप को देखने के लिए व साकार रूप में मिलने के लिये निराकार और आकार को भी साकार रूप का आधार लेना पड़ा। ऐसी विशेष आत्मायें सदा अपने को विशेष आत्मा समझते हुए मनसा, वाचा, कर्मणा विशेष संकल्प, वाणी और कर्म करते रहो। दोनों ही तरफ के ग्रुप्स अच्छे हैं। आप लोगों के निमित्त अन्य आत्माओं को भी चान्स मिल गया और सब आत्मायें, उसमें भी विशेष मधुबन निवासी अपने को सदा लकीएस्ट समझो। क्योंकि सिवाय मधुबन के बापदादा कहाँ भी मिलन नहीं मना सकते। (लुसाका में क्यों नहीं आते) आकारी रूप में यहाँ-वहाँ जा सकते हैं। जब जिसका समय आता है तो सरकमस्टेन्सेज (परिस्थितियाँ) व समय सहज और स्वत: ही वहाँ ले जाता है। अच्छा।
स्वयं को और समय को जानने वाले, सदा सर्व रसों से न्यारे एक रस में रहने वाले, बापदादा को सदा नयनों में समाने वाले, बापदादा के नयनों के सितारे, सदा स्वयं को ज्योति स्वरूप सितारा समझकर चलने वाले, न्यारी और प्यारी आत्माओं और सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के साथ-साथ विशेष डबल विदेशी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली के विशेष तथ्य
1. पहले नम्बर के बच्चों को नयनों के नूर कहा जाता है। ऐसे नयनों के नूर सिवाय बाप के और कोई भी वस्तु व व्यक्ति को देखते हुए भी नहीं देखते। यह सब मरे ही पड़े हैं ऐसा बुद्धि द्वारा अनुभव करते हैं? कोई भी विनाशी रस अपनी तरफ आकर्षित नहीं करता। सदा एक के रस में रहने वाले, एक-रस स्थिति वाले होते हैं। ऐसे बच्चे सर्विसेबल होने के कारण विश्व के लिए व जहान के लिए नूर अर्थात् प्रकाश व अमर ज्योति के समान हैं।
2. विदेश की सर्विस का मूल फाउण्डेशन यह है कि विदेश की आवाज द्वारा भारत के कुम्भकरण जागेंगे। विदेश द्वारा भारत तक आवाज पहुँचने का राज़ ड्रामा में नूंधा हुआ है।
3.सदा अपने को विशेष आत्मा समझते हुए मनसा, वाचा, कर्मणा विशेष संकल्प, वाणी और कर्म करते
03-08-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शिव-शक्ति व पाण्डव सेना को तैयार होने के लिये सावधानी
माया से युद्ध में विजय प्राप्त कराने वाले, सर्व आत्माओं का कल्याण करने वाले, सर्व प्रकार के बन्धनों व आकर्षणों से परे रहने वाले, सर्वोच्च सेनापति शिव बाबा ने रूहानी योद्धाओं के प्रति मनोहर शिक्षायें व सावधानियाँ देते हुए ये मधुर और अनमोल महावाक्य उच्चारे -
सभी योग-युक्त और युक्तियुक्त स्थिति में स्थित होते हुए अपना कार्य कर रहे हैं? क्योंकि वर्तमान समय-प्रमाण संकल्प, वाणी और कर्म ये तीनों ही युक्तियुक्त चाहिए। तब ही सम्पन्न व सम्पूर्ण बन सकेंगे। चारों तरफ का वातावरण योग-युक्त और युक्तियुक्त हो। जैसे युद्ध के मैदान में जब योद्धे युद्ध के लिये दुश्मन के सामने खड़े हुए होते हैं तो उनका अपने ऊपर और अपने शस्त्र के ऊपर अर्थात् अपनी शक्तियों के ऊपर कितना अटेन्शन रहता है। अभी तो समय समीप आता जा रहा है, यह मानो युद्ध के मैदान में सामने आने का समय है। ऐसे समय में चारों ओर सर्व-शक्तियों का स्वयं में अटेन्शन चाहिए। अगर जरा भी अटेन्शन कम होगा तो जैसे-जैसे समय-प्रमाण चारों ओर टेन्शन बढ़ता जाता है ऐसे ही चारों ओर टेन्शन के वातावरण का प्रभाव, युद्ध में उपस्थित हुए रूहानी पाण्डव सेना में भी पड़ सकता है। दिनप्रतिदिन जैसे सम्पूर्णता का समय नजदीक आता जायेगा तो दुनिया में टेन्शन और भी बढ़ेगा, कम नहीं होगा। खींचातान के जीवन का चारों ओर अनुभव होगा जैसे कि चारों ओर से खींचा हुआ होता है। एक तरफ से प्रकृति की छोटी-छोटी आपदाओं का नुकसान का टेन्शन, दूसरी तरफ इस दुनिया की गवर्नमेन्ट के कड़े लॉज का टेन्शन, तीसरी तरफ व्यवहार में कमी का टेन्शन, और चौथी तरफ जो लौकिक सम्बन्धी आदि से स्नेह और फ्रीडम होने के कारण खुशी की भासना अल्प काल के लिये रहती है वह भी समाप्त हो कर भय की अनुभूति के टेन्शन में, चारों ओर का टेन्शन लोगों में बढ़ना है। चारों ओर के टेन्शन में आत्मायें तड़फेंगी। जहाँ जायेंगी वहाँ टेन्शन। जैसे शरीर में भी कोई नस खिंच जाती है तो कितनी परेशानी होती है। दिमाग खिंचा हुआ रहता है। ऐसे ही यह वातावरण बढ़ता जायेगा। जैसे कि कोई ठिकाना नजर नहीं आयेगा कि क्या करें? अगर हाँ करे तो भी खिंचावट - ना करें तो भी खिंचावट - कमायें तो भी मुश्किल, न कमायें तो भी मुश्किल। इकठ्ठा करें तो भी मुश्किल, न करे तो भी मुश्किल। ऐसा वातावरण बनता जायेगा। ऐसे टाइम पर चारों ओर के टेन्शन का प्रभाव रूहानी पाण्डव सेना पर न हो। स्वयं को टेन्शन में आने की समस्यायें न भी हों, लेकिन वातावरण का प्रभाव कमज़ोर आत्मा पर सहज ही हो जाता है। भय का सोच कि क्या होगा? कैसे होगा? इन बातों का प्रभाव न हो - उसके लिये कोई-न-कोई बीच-बीच में ईश्वरीय याद की यात्रा का विशेष प्रोग्राम मधुबन द्वारा ऑफिशियल जाते रहना चाहिए। जिससे कि आत्माओं का किला मजबूत रहेगा। आजकल सर्विस भी बहुत बढ़ेगी। लेकिन बढ़ने के साथ-साथ युक्ति-युक्त भी बहुत चाहिए।
आजकल कोई सभी ज्ञानी तू आत्मा बनने नहीं आते हैं। एक क्वालिटी है बाप समान बनने वाली, जो बाप स्वरूप मास्टर बन जाते हैं। तो फर्स्ट क्वॉलिटी है बाप समान बनना, दूसरी क्वालिटी है सिर्फ बाप के सम्बन्ध में रहने वाले और तीसरी क्वालिटी है सिर्फ बाप व सेवा के सम्पर्क में रहने वाले। आजकल सम्बन्ध और सम्पर्क में रहने वाले ज्यादा आयेंगे। स्वरूप बनने वाले कम आयेंगे। सब एक जैसे नहीं निकलेंगे। दिन-प्रतिदिन क्वालिटी भी कमज़ोर आत्माओं अर्थात् प्रजा की संख्या ज्यादा आयेगी उन्हें एक ही बात अच्छी लगेगी, दो नहीं लगेगी। सब बातों में निश्चय नहीं होगा। तो सम्पर्क वालों को भी, उन्हों को जो चाहिए-उसी प्रमाण उन्हों को सम्पर्क में रखते रहना है। समय जैसे नाज़ुक आता जायेगा वैसे समस्या प्रमाण भी उनके लिये रेग्युलर स्टुडेण्ट बनना मुश्किल होगा। लेकिन सम्पर्क में ढेर के ढेर आयेंगे। क्योंकि लास्ट समय है न। तो लास्ट पोज कैसा होता है? जैसे पहले उछल, उमंग, उत्साह होता है - वह विरला कोई का होगा। मैजॉरिटी सम्बन्ध और सम्पर्क वाले आयेंगे। तो यह अटेन्शन चाहिए। ऐसे नहीं कि सम्पर्क वाली आत्माओं को न परखते हुए सम्पर्क से भी उन्हें वंचित कर देवें। खाली हाथ कोई भी न जाये, नियमों पर भल नहीं चल पाते हैं, लेकिन वह स्नेह में रहना चाहते हों, तो ऐसी आत्माओं का भी अटेन्शन ज़रूर रखना है। समझ लेना चाहिए कि यह ग्रुप इसी प्रमाण तीसरी स्टेज वाला है, तो उन्हों को भी उसी प्रमाण हैंडलिंग मिलनी चाहिए। तो समय के प्रमाण वातावरण को पावरफुल बनाने की आवश्यकता है।
ब्राह्मण बच्चों की साधारण रीति से दिनचर्या बीते वह आजकल के समय प्रमाण न होना चाहिये, नहीं तो वह प्रभाव बढ़ जायेगा। इसलिये विशेष रीति से वातावरण को याद की यात्रा से पावरफुल बनाने में सब बच्चों का अटेन्शन खिंचवाना चाहिए। अपने को उस दुनिया के वातावरण से कैसे बचा सकें? वह स्टेज क्या है? कर्म योगी होते हुए भी योगीपन की स्टेज किसको कहा जाता है? इसी प्रकार की प्वाइण्ट्स के ऊपर अब विशेष अटेन्शन देना है। क्योंकि अब ड्रामानुसार चारों ओर बड़ी-बड़ी सर्विस करने का टाइम कुछ समय के लिये मर्ज है ना। बड़े-बड़े प्रोग्रामस बाहर के नहीं कर पाते हो-तो टीचर्स फ्री हुई-बाहर की सर्विस नहीं तो बाकी रही सेन्टर्स पर आने वालों की सेवा। बाहर की सर्विस से बुद्धि फ्री है। नहीं तो कहते हैं बहुत बिजी रहते हैं - प्लैन्स बनाना, मंथन करना। लेकिन अब तो वह भी नहीं है। तो अब याद की यात्रा की सब्जेक्ट के ऊपर ज्यादा अटेन्शन देना है। कोई-न-कोई प्रोग्राम हर सेन्टर पर चलना चाहिए-जो आने वालों में बल भर जाये। ऐसे समय पर वह भी न्यारे रहे, साक्षी होकर समस्या का सामना करें। उसके लिये याद का बल चाहिए। तो जब तक बाहर की सर्विस का, नये-नये प्लैन्स का फोर्स कम है तो कोई प्वाइन्ट का जोर होना चाहिए। नहीं तो फ्री होकर फिर व्यर्थ का साइड ज्यादा हो जायेगा। सर्विस में बिजी रहने से व्यर्थ की बातों से बचे रहते हैं। अभी वह सर्विस का स्कोप कम है, तो ज़रूर समय बचेगा-वह फिर व्यर्थ वातावरण में समय जायेगा। इसलिये ब्राह्मणों को खबरदार, होशियार करने के लिये व स्वयं की सेफ्टी के लिये कुछ ऐसी प्वाइन्ट्स व क्लासेज के प्रोग्राम्स बनाओ, जिससे वह यह समझें कि हमें मधुबन लाइट हाऊस से विशेष लाइट आ रही है। अच्छा।
कारोबार तो ड्रामानुसार ठीक ही चल रही है। अभी की कारोंबार से राज्य चलाने के संस्कार बढ़ते जा रहे हैं ना। राज-सिंहासन और यह है राज-आसन। राज्य करने वाले बनकर फिर उस सिंहासन पर बैठेंगे। राज्य करने वाले अर्थात् अधिकारी बन गये। कोई भी आकर्षण के, कर्म भोग या कर्म इन्द्रियों के अधीन न हो अधिकारी बनना है। अभी है राज-आसन। योग के लिये आसन होता है ना, आसन पर स्थित होते हैं। आसन होता ही है बैठने के लिये, स्थिति होने के लिये। तो स्थिति में स्थित होना अर्थात् आसन पर बैठना। तो जितना-जितना आसन पर बैठने का अभ्यास होगा, उतना ही राज-सिंहासन पर बैठने का अभ्यास प्राप्त होगा। अभ्यास हो रहा है ना। नैचुरल रूप लेता जा रहा है। करना नहीं पड़ता, लेकिन हो ही जाता है। स्वभाव ही ऐसा हो गया है। जैसे और कोई स्वभाव के वश कोई भी कार्य करना स्वत: हो ही जाता है, वैसे ही यह भी स्वभाव हो जाये। अधिकारी बने रहने का स्वभाव। योग लगाने का संकल्प किया और हुआ। बाबा कहा और योग लगा। यही समीपता की स्थिति है। बैठे ही आसन पर हैं। जैसे सिंहास पर बैठा हुआ कब भूल नहीं सकता कि मैं राजा हूँ - ऐसे ही आसन पर अर्थात् इस स्थिति पर स्थित हुआ यह भूल नहीं सकता कि हम अधिकारी हैं।
सभी यथार्थ और युक्ति-युक्त हैं? थोड़ा-बहुत तो होता ही है और होना भी चाहिए। नहीं तो लास्ट पेपर्स कैसे होंगे? यह भी प्रैक्टिकल पेपर्स ही हैं। यह पेपर्स ही मार्क्स जमा कराते हैं। मार्क्स जमा होते-होते पास विद ऑनर की लिस्ट में आयेंगे। यह जो कुछ होता है वह पेपर्स के मार्क्स जमा होने के लिए हैं। सब बातों में जमा होना चाहिए न सिर्फ याद की यात्रा में नहीं, लेकिन चारों सब्जेक्टस में मार्क्स जमा होनी चाहिए। तब ही पास विद ऑनर होंगे।
सफलता तो हर कार्य में पहले से ही नूंधी हुई है। फिर चाहे पर्दे के अन्दर हो, चाहे पर्दे के बाहर हो। कोई हालत में पर्दे के अन्दर सफलता होती है और कोई हालत में प्रत्यक्ष सफलता होती है। है तो दोनों हालत में सफलता व प्रत्यक्षता। कुछ समय गुप्त को भी देखना पड़ता है। छिपे हुए को प्रत्यक्ष होने में कुछ समय लगता है। प्रत्यक्ष तो उसी समय दिखाई पड़ती है। यह भल छुपी हुई है, परन्तु है तो सफलता ही। वह तो मिट नहीं सकती। अच्छा।
29-08-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अब विधि की स्टेज पार कर सिद्धि-स्वरूप बनना है
सर्व रिद्धि-सिद्धियों के दाता, सर्व मनोकामनाओं को परिपूर्ण करने वाले, महादानी-मूर्त, वरदानी मूर्त और अव्यक्त-मूर्त बापदादा बोले -
आज कौन-सी सभा लगी हुई है? स्वयं को किस स्वरूप में वर्तमान समय देख रहे हो? यूँ तो जैसे बापदादा बहुरूपी है वैसे ही आप सब भी बहुरूपी हो। लेकिन इस समय किस स्वरूप को धारण कर इस सभा में बैठी हो? यह जानते हो कि आज की सभा किन्हों की है? बताओ तो वर्तमान समय दुनिया के लोग आप श्रेष्ठ आत्माओं के कौनसे स्वरूप का आह्वान कर रहे हैं? आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान करते हैं व एक आत्मा का। किसका आह्वान करते हैं? आपका किस स्वरूप में वर्तमान समय आह्वान करते हैं? अभी दुनिया में कौन-सा समय चल रहा है? आह्वान किसका चल रहा है? वर्तमान समय दो रूपों से आह्वान कर रहे हैं। देखो तो वे आप लोगों का ही आह्वान कर रहे हैं और आप लोगों को मालूम ही नहीं पड़ता।
इस समय सबसे ज्यादा वरदानी व विश्व-कल्याणकारी दाता के रूप में आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का चारों ओर आह्वान हो रहा है, क्योंकि भक्ति मार्ग द्वारा व भक्ति के आधार से, यथाशक्ति, श्रेष्ठ कर्मो के द्वारा जो भी अल्पकाल के साधन व सामग्री अर्थात् वैभव आज की दुनिया में प्राप्त हैं - उन सब का अल्पकाल की प्राप्ति का सिंहासन डगमगाना शुरू हो गया है। जब कोई का आधार रूप सिंहासन हिलना शुरू होता है, तो उस समय क्या याद आता है? ऐसे समय सदा काल की प्राप्ति कराने वाले व सुख चैन देने वाले बाप और साथ-साथ शिव शक्तियाँ व महादानी वरदानी देवियाँ ही याद आती हैं, क्योंकि देवियों अथवा माताओं का ह्दय स्नेही और रहमदिल होने के कारण वर्तमान समय माता के रूप का पूजन या आह्वान ज्यादा करते हैं। सिद्धि-स्वरूप अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध करने वाली आत्माओं का आह्वान वर्तमान समय ज्यादा है।
आजकल सर्व परेशानियों से परेशान निर्बल आत्मायें, मंज़िल को ढूँढ़ने वाली आत्मायें और सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिये तड़फती हुई आत्मायें पुरूषार्थ की विधि नहीं चाहतीं, बल्कि विधि के बजाय सहज सिद्धि चाहती हैं। सिद्धि के बाद विधि के महत्व को जान सकेंगी। ऐसी आत्माओं को आप विश्वकल् याणकारी आत्मा का कौन-सा स्वरूप चाहिए? वर्तमान समय चाहिए प्रेम स्वरूप। लॉफुल नहीं, लेकिन लवफुल पहले लव दो फिर लॉ दो। वे लव के बाद लॉ को भी स्नेह का साधन अनुभव करेंगे क्योंकि बाहर के रूप की चमक वाली दुनिया में व विज्ञान के युग में विज्ञान के साधन बहुत ही हैं, लेकिन जितना भिन्न-भिन्न प्रकार के अल्पकाल की प्राप्ति के साधन निकलते जाते हैं उतना ही सच्चा स्नेह व रूहानी प्यार, स्वार्थ-रहित प्यार समाप्त होता जा रहा है। आत्माओं से स्नेह समाप्त हो, साधनों से प्यार बढ़ता जा रहा है। इसलिए कई प्रकार की प्राप्ति के होते हुए भी स्नेह की अप्राप्ति के कारण सन्तुष्ट नहीं। और भी दिन-प्रतिदिन यह असन्तुष्टता बढ़ेगी। महसूस करेंगे कि यह साधन मंज़िल से दूर करने वाले, भटकाने वाले हैं! ये आत्मा को तड़फाने वाले हैं। अर्थात् जैसे कल्प पहले का गायन है कि अन्धे की औलाद अन्धे, मृग तृष्णा के समान सर्व प्राप्ति से वंचित ही रहे। ऐसा अनुभव समय-अनुसार चारों ओर करेंगे।
ऐसे समय पर ऐसी आत्माओं की सर्व मनोकामनायें पूर्ण करने वाली व मन- इच्छित प्रत्यक्ष फल देने वाली कौनसी आत्मायें निमित्त बनेंगी? जो स्वयं सिद्धि स्वरूप हों, दिन-रात विघ्नों के मिटाने की विधि में न हों। स्वयं बापदादा द्वारा मिले हुए प्रत्यक्ष फल (भविष्य फल नहीं) - अतीन्द्रिय सुख व सर्व-शक्तियों के वरदान प्राप्त हुई वरदानी-मूर्त आत्मायें होंगी। स्वयं पुकारने वाले नहीं होंगे कि बाबा यह कर दो, यह दे दो! रॉयल रूप से मांगने का अंश भी नहीं होगा। बाबा यह काम आपका है-आप तो करेंगे ही! ऐसे स्वयं करने वाले को स्मृति दिलाकर अपने समान मानव नहीं बनायेंगे क्योंकि कहने से करने वाला मनुष्य गिना जाता है। बिना कहे, करने वाला देवता गिना जाता है। देवताओं के भी रचयिता को क्या बना देते हो? ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान् सर्व-अधिकारी आत्माएँ औरों को भी सहज सिद्धि प्राप्त करा सकती हैं।
अपने को चेक करो, साधारण चेकिंग नहीं। चेकिंग भी समय प्रमाण सूक्ष्म रूप से होनी चाहिए। वर्तमान समय के प्रमाण यह चेक करो कि हर सब्जेक्ट में विधिस्वरूप कितने हैं और सिद्धि-स्वरूप कितने हैं? अर्थात् हर सब्जेक्ट में विधि में कितना समय जाता और सिद्धि का कितना समय अनुभव होता है? चारों ही सब्जेक्ट्स में मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों रूप में किस स्टेज तक पहुँचे हैं? यह चेकिंग करनी है।
अभी महारथियों के लिये विधि का समय नहीं है बल्कि सिद्धि-स्वरूप के अनुभव करने का समय है। नहीं तो वर्तमान समय की अनेक परेशानियाँ, अब तक विधि में लगे रहने वाली आत्मा को अपनी शान से परे परेशान के प्रभाव में सहज लायेंगी। इसलिये जैसे गायन है कि पाण्डव अन्त समय में ऊंची पहाड़ी पर गल गए अर्थात् स्वयं देह-अभिमान व दु:ख की दुनिया के प्रभाव से परे ऊंची स्थिति में स्थित हो गये। ऊंची स्थिति में स्थित हो नीचे रहने वालों का साक्षी हो खेल देखो। ऐसी स्थिति में रहने वाला ही समस्या-स्वरूप नहीं लेकिन समाधानस्व रूप हो जायेगा, तो वर्तमान समय ऐसी स्थिति चाहिए। ऐसी है? जरा भी हलचल में तो नहीं आ जाते? क्या होगा, कैसे होगा, हमारा क्या होगा? अचल स्वरूप हो ना? अचल में कोई हलचल नहीं। ऐसी स्थिति वाले ही विजयी रत्न बनेंगे।
बापदादा आज बच्चों की आज्ञा पर आज्ञाकारी का पार्ट बजा रहे हैं। प्रोग्राम प्रमाण नहीं आये हैं - तो फॉलो फादर। कल आत्माओं का आह्वान है, बाप का नहीं! आप लोग भी अपने विश्व-महाराजन् स्वरूप में व विश्व के मालिक पन के बाल स्वरूप में अच्छी तरह स्थित रहना। जिससे आपके अपने-अपने भक्त अल्पकाल के लिए भी दर्शन से प्रसन्न तो हो जायें। और फिर सभी अनुभव सुनाना कि सारे दिन में कितने भक्तों को बाप द्वारा भक्ति का फल दिलाया। अपने भक्तों को राजी तो करेंगे न? एक की यादगार नहीं है, एक के साथ आप सब भी हो। तो कल आप सबकी जन्माष्टमी मनायेंगे। सभी कृष्ण समान देवताई स्वरूप में तो होंगे न? आप सबके देवताई स्वरूप के स्मृति का दिन है। दुनिया वाले मनायेंगे और आप क्या करेंगे? वह मनायेंगे आप मनाने वालों के प्रति महादानी और वरदानी बनेंगे। अच्छा।
ऐसे सागर को भी स्नेह के गागर में समाने वाले, सदा बाप समान सर्व सिद्धि-स्वरूप, हर सेकेण्ड सर्व प्रति विश्व-कल्याणकारी वरदानी, स्वयं द्वारा बाप का साक्षात्कार कराने वाले, साक्षात् बाप स्वरूप साक्षात्कारी मूर्त, सदा निराकारी और सदा सदाचारी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
जैसे फौरेन में लौकिक लाइफ फास्ट रहती है वैसे आत्मा के पुरूषार्थ की स्पीड भी फास्ट है? सेवाधारी हो ना? सेवा के सिवाय और कुछ नहीं, उठते भी सेवा, सोते भी सेवा, स्वप्न भी देखेंगे तो सेवाधारी के रूप में - ऐसे सेवाधारी हो? हर सेकेण्ड, हर श्वांस सेवा प्रति, स्वयं प्रति नहीं। स्वयं के आराम प्रति नहीं, स्वयं के पुरूषार्थ तक नहीं, स्वयं के साथ दूसरों का पुरूषार्थ इसको कहा जाता है सेवाधारी। ऐसे सर्विसएबल का लेबल लगाया है मस्तक में? सर्विसएबल के मस्तक पर कौन-सी निशानी होगी? आत्मा रूपी मणि। मस्तक मणि है - वह चमकती हुई नज़र आये यह है सर्विसएबल का लेबल। अच्छा!
इस मुरली की विशेष बातें
1. इस समय भक्त-गण अधिकतर वरदानी, मनोवांछित फल देने वाली विश्व-कल्याणकारी दाता के रूप में आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रहे हैं। अतएव अब विधि नहीं सिद्धि-स्वरूप बनो।
2. विज्ञान के युग में बाहरी चमक-दमक वाले साधन तो बहुत हैं, परन्तु सच्चा रूहानी स्नेह व स्वार्थ-रहित प्यार समाप्त होता जा रहा है। अतएव अब समय लॉफुल का नहीं, बल्कि लवफुल (प्रेम स्वरूप) बनने का है।
3. स्वयं देह-अभिमान व दु:ख की दुनिया के प्रभाव से परे ऊंची स्थिति में स्थित हो नीचे रहने वालों का साक्षी हो खेल देखो। तब आप समस्या-स्वरूप नहीं बल्कि समाधान-स्वरूप बन जायेंगे।
01-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
समीप और समान, महीन और महान
सदा ही कर्म-बन्धनों से अतीत शिव बाबा ने बच्चों से कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करने का आह्वान करते हुए कहा –
सभी स्वयं को कर्मातीत अवस्था के नज़दीक अनुभव करते जा रहे हो? कर्मातीत अवस्था के समीप पहुँचने की निशानी जानते हो? समीपता की निशानी समानता है। किस बात में? आवाज में आना व आवाज से परे हो जाना, साकार स्वरूप में कर्मयोगी बनना और साकार स्मृति से परे न्यारे निराकारी स्थिति में स्थित होना, सुनना और स्वरूप होना, मनन करना और मग्न रहना, रूह- रूहान में आना और रूहानियत में स्थित हो जाना, सोचना और करना, कर्मेन्द्रियों में आना अर्थात् कर्मेन्द्रियों का आधार लेना और कर्मेन्द्रियों से परे होना, प्रकृति द्वारा प्राप्त हुए साधनों को स्वयं प्रति कार्य में लगाना और प्रकृति के साधनों से समय प्रमाण निराधार होना, देखना, सम्पर्क में आना और देखते हुए न देखना, सम्पर्क में आते कमल-पुष्प के समान रहना, इन सभी बातों में समानता। उसको कहा जाता है-कर्मातीत अवस्था की समीपता।
ऐसी महीनता और महानता की स्टेज अपनाई है? हलचल थी या अचल थे? फाईनल पेपर में चारों ओर की हलचल होगी। एक तरफ वायुमण्डल व वातावरण की हलचल। दूसरी तरफ व्यक्तियों की हलचल। तीसरी तरफ सर्व सम्बन्धों में हलचल और चौथी तरफ आवश्यक साधनों की अप्राप्ति की हलचल। ऐसे चारों तरफ की हलचल के बीच अचल रहना, यही फाइनल पेपर होना है। किसी भी आधार द्वारा अधिकारीपन की स्टेज पर स्थित रहना - ऐसा पुरूषार्थ फाइनल पेपर के समय सफलता-मूर्त बनने नहीं देगा। वातावरण हो तब याद की यात्रा हो, परिस्थिति न हो तब स्थिति हो,अर्थात् परिस्थिति के आधार पर स्थिति व किसी भी प्रकार का साधन हो तब सफलता हो, ऐसा पुरूषार्थ फाइनल पेपर में फेल कर देगा। इसलिए स्वयं को बाप समान बनाने की तीव्रगति करो।
अपने आपको समझते हो कि फाइनल पेपर जल्दी हो जाए तो सूर्यवंशी प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। इम्तिहान के लिये एवररेड़ी हो? या होना ही पड़ेगा व हो ही जायेंगे? अथवा समय करा लेगा ऐसे अलबेलेपन के संकल्प समर्थ बना नहीं सकेंगे। समर्थ संकल्प के आगे यह भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यर्थ व अलबेलेपन के संकल्प खत्म हो जाते हैं। अलबेलापन तो नहीं है न? खबरदार, होशियार हो? एवररेडी अर्थात् अभी-अभी किसी भी परिस्थिति व वातावरण में आर्डर मिले व श्रीमत मिले कि एक सेकेण्ड में सर्व-कर्मेन्द्रियों की अधीनता से न्यारे हो कर्मेन्द्रिय-जीत बन एक समर्थ संकल्प में स्थित हो जाओ, तो श्रीमत मिलते हुए मिलना और स्थित होना साथ-साथ हो जाये। बाप ने बोला और बच्चों की स्थिति ऐसी ही उस घड़ी बन जाये उसको कहते हैं एवररेडी। जो पहले बातें सुनाई समानता की जिससे ही समीपता की स्टेज बनती है - ऐसे सब बातों में कहाँ तक समान बने हैं? यह चैकिंग करो। ऐसे तो नहीं डायरेक्शन को प्रैक्टिकल में लाने में एक सेकेण्ड के बजाय एक मिनट लग जाये। एक सेकेण्ड के बजाय एक मिनट भी हुआ तो फर्स्ट डिवीजन में पास नहीं होंगे, चढ़ते, उतरते व स्वयं को सैट करते फर्स्ट डिवीजन की सीट को गंवा देंगे। इसलिये सदा एवररेडी, सिर्फ एवररेडी भी नहीं, सदा एवररेडी।
वर्तमान समय तक रिजल्ट क्या देखने में आती है, उसको जानते हो? पाण्डव तीव्र पुरूषार्थ की लाईन में हैं या शक्तियाँ? मैजॉरिटी तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में कौन हैं? सभी पाण्डव मैजॉरिटी शक्तियों को वोट देते हैं। लेकिन पुरूषार्थ के हिसाब से पाण्डव भी शक्तिरूप हैं। सर्व शक्तिवान की सब शक्ति हैं। बापदादा तो पाण्डवों की तरफ लेते हैं। अगर पाण्डवों को आगे नहीं करेंगे तो शक्तियों के आगे शिकार कैसे लायेंगे? इसलिये पाण्डवों को विशेष ब्रह्मा बाप की हमजिन्स के नाते पुरूषार्थ में फालो फादर करना चाहिए। पाण्डव लौकिक जिम्मेवारी उठाने में भी आगे रहते हैं। सिर्फ लौकिक जिम्मेवारी के बजाय बेहद विश्व-कल्याण की जिम्मेवारी उठानी है। कमाई करने की लगन जैसे हद की जानते हो वैसे बेहद की कमाई की लगन में मगन हो जाओ। कमाई के पीछे स्वयं के सुख के साधनों का त्याग करने के भी अनुभवी हो तो बेहद की कमाई के पीछे देह की सुध-बुध त्याग करना व देह की स्मृति का त्याग करना क्या बड़ी बात है? इसलिये पाण्डवों को तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में नम्बर वन लेना चाहिए, समझा? पीछे नहीं रहना! अगर शक्तियों से पीछे रह गये तो ब्रह्मा बाप के हम-जिन्स और बाप की लाज नहीं रखी - तो क्या यह शोभता है? इसलिये इसी वर्ष में - दूसरे वर्ष का इन्तज़ार नहीं करना - इसी वर्ष में नम्बर वन लेना है।
शक्तियाँ सोचती होंगी कि हम नम्बर दो हो जायेंगी क्या? शक्तियों के बिना तो शिव बाप की भी कोई चाल नहीं चल सकती। चल सकती है? शक्तियों को इसमें भी त्याग करना चाहिए, शक्तियों का त्याग पूजा जाता है। जो त्याग करता है उसका भाग्य स्वत: बनता है। इसलिये दोनों ही भाई-भाई के रूप में तीव्र पुरूषार्थ करो। समाचार के आधार पर पुरूषार्थ नहीं करना। आपके पुरूषार्थ से ही विनाश के समाचार चारों ओर फैलेंगे। पहले पुरूषार्थ, पीछे समाचार, न कि पहले समाचार और पीछे पुरूषार्थ। अच्छा।
02-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिल रूपी तख्त-नशीन ही सतयुगी विश्व के राज्य का अधिकारी
भक्तों को भक्ति का फल देने वाले, प्रकृति को अपने अधीन करने वाले, सत्य नारायण की सत्यकथा सुनकर सतयुग की स्थापना करने वाले, सत्य शिव बाबा ने त्रिमूर्ति तख्तनशीन बच्चों को सम्बोधित करते हुए कहा -
क्या आप बच्चे अपने को त्रिमूर्ति तख्तनशीन समझते हो? आज की सभा त्रिमूर्ति तख्तनशीन की है। अपने त्रिमूर्ति तख्त को जानते हो न? एक है अकालमूर्त आत्मा का यह भृकुटि रूपी तख्त। दूसरा है - विश्व के राज्य का तख्त। तीसरा है - सर्व-श्रेष्ठ बापदादा का दिल रूपी तख्त। ऐसे हरेक अपने को तीनों ही तख्तों पर नशीन अनुभव करते हो या सिर्फ जानते हो? क्या आप ज्ञान स्वरूप हो या अनुभव स्वरूप भी हो? मैं श्रेष्ठ आत्मा अनेक बार इसकी तख्तनशीन बनी हूँ - ऐसे अनेक बार की स्मृति स्पष्ट रूप में और सहज रूप में अभी-अभी की बात महसूस होती है? कब की बात नहीं - लेकिन अब की बात है, ऐसा अनुभव करने वाले बापदादा के अति स्नेही और अति समीप हैं।
इन सब तख्तों का आधार बापदादा के दिल-तख्तनशीन बनना है। उसके लिये मुख्य साधन कौन-सा है उसको जानते हो? सहज साधन है ना। कौन-सा साधन है? - दिल तख्त, जो स्वयं तख्तनशीन हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि बापदादा को सबसे प्रिय कौन-सा बच्चा लगता है। बाप को दुनिया वाले क्या समझते हैं, कि बाप भगवान क्या है? गॉड इज टत्र्थ। सत्य को ही भगवान कहते हैं। बापदादा सुनाते भी सत्यनारायण की कथा है और स्थापना भी सतयुग की करते हैं। तो बाप को जो सत बाप, सत टीचर, सत गुरू का प्रैक्टिकल पार्ट बजाते हैं, तो सत बाप को क्या प्रिय लगता है? - सच्चाई- जहाँ सच्चाई है अर्थात् सत्यता है, वहाँ स्वच्छता व सफाई अवश्य ही होती है। गायन भी है सच्चे दिल पर साहब राजी। दिल तख्तनशीन सर्विसएबल अवश्य है - लेकिन सर्विसएबल की निशानी सम्बन्ध और सम्पर्क में सच्चाई और सफाई, हर संकल्प और हर बोल में दिखाई देगी। अर्थात् ऐसी दिल तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा का हर संकल्प सत होगा, हर वचन सत होगा। सत अर्थात् सत्य भी और सत अर्थात् सफल भी। अर्थात् कोई भी संकल्प व बोल व्यर्थ व साधारण नहीं होगा। ऐसे सर्विसएबल जिनके हर कदम में, हर समय की निगाह में अर्थात् दृष्टि में सर्व आत्माओं के प्रति नि:स्वार्थ सेवा ही सेवा दिखाई देगी। सोते भी सेवा, जागते भी सेवा और चलते हुए भी सेवा। सिवाय सेवा के स्वप्न में भी कोई बात नहीं होगी। ऐसे सेवाधारी जो अचल और अथक होगा - ऐसा ही बापदादा के दिलतख्तनशीन होता है। समझा, निशानी क्या होती है? ऐसे दिल तख्तनशीन के लिए विश्व के राज्य का तख्त प्राप्त करना निश्चित ही है। जैसे इन-एडवाँस सीट बुक होती है, ऐसे कल्प-कल्प के लिए राज तख्त निश्चित है।
प्रकृति को अधीन कर विजयी बनने वाले वत्स विश्व के राज्य के अधिकारी बनेंगे अथवा नहीं, यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। प्रकृति ऐसे अपने विजयी मालिक के आगे-पीछे दासी के समान झुकती रहती है व प्रणाम करती रहती है। हर समय सदा सेवाधारी श्रेष्ठ आत्मा के आगे सेवाधारी बन के रहती है। ऐसा अपना श्रेष्ठ स्वरूप दिखाई दे रहा है न? अब तो प्रकृति आपका इंतज़ार कर रही है। अपने ऐसे मालिक की सेवा के लिए। सागर भी, धरनी भी ऐसे विश्व के मालिक की सेवा-अर्थ स्वयं को अब सम्पन्न बना रहे हैं। देख रहे हो उनकी तैयारियाँ जैसे भक्त लोग देवियों की, देवताओं की, शक्तियों की, सालिग्राम रूप की पूजा करते हुए जोर शोर से आह्वान कर रहे हैं - अपनी प्यारी निद्रा को भी त्याग चिल्ला-चिल्ला कर आप सबका आह्वान कर रहे हैं कि कहीं हमारी वरदानी, महादानी आत्मायें व हमारे इष्ट देव हमारी भी सुन लें। अप्राप्ति से प्राप्ति ज़रा दे। ऐसे ही अब समय समीप होने के कारण भक्तों के साथ-साथ प्रकृति भी आपका आह्वान कर रही है, कि कब हमारे सतोप्रधान मालिक हमारे ऊपर राजी हो राज्य करेंगे और प्रकृति भी सतोप्रधान चोला धारण करेगी। क्या प्रकृति का आह्वान, भक्तों का आह्वान दिखाई व सुनाई दे रहा है?
इनके आह्वान के साथ दूसरी ओर बापदादा भी आह्वान कर रहे हैं कि समान और सम्पूर्ण बन कर सूक्ष्म वतन निवासी फरिश्ता बनकर बाप के साथ घर चलें। चलना है या संगम ज्यादा भाता है? क्या एवर-रेडी बन गये हो? जहाँ बिठायें, जिस रूप में बिठायें और जब तक बिठायें ऐसे वायदे में सदा स्थित रहते हो? लास्ट ऑर्डर रूहानी मिलिट्री को कितने समय में मिलेगा? एक सेकेण्ड का ऑर्डर होगा। एक घण्टा पहले इतला नहीं होगी। तब तो आठ रत्न निकलते हैं। डेट निश्चित बता करके पेपर नहीं लेंगे। अर्थात् लास्ट डेट जो ड्रामा में निश्चित है, वह निश्चित डेट और समय नहीं बतलाया जायेगा। यह तो एवरेज बताया जाता है। लेकिन लास्ट पेपर एक ही क्वेश्चन का और एक ही सेकेण्ड का होगा। इसलिए बच्चों को एवर-रेडी बनना है।
हर समय स्वयं को चेक करो कि समेटने की शक्ति और सामना करने की शक्ति दोनों शक्तियों से सम्पन्न बन गये हो? समेटने की शक्ति का बहुत समय से कर्त्तव्य में लाने का अभ्यास चाहिए। लास्ट समय समेटना शुरू नहीं करना। समेटते ही समय बीत जायेगा। समेटने का कार्य तो अब सम्पन्न होना चाहिए। तब एक बल, एक भरोसा व निरन्तर तुम्हीं से खाँऊ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ और तुम्हीं से सुनूँ का किया हुआ वायदा निभा सकेंगे। ऐसे नहीं कि आठ घण्टा तुम्हीं से बोलूँ, सुनूँ, बाकी समय आत्माओं से बोलूँ व सुनूँ - यह निरन्तर का वायदा है - इसमें चतुर नहीं बनना। बाप की दी हुई प्वाइन्ट्स बाप के आगे वकील के रूप में नहीं रखना। अमृत वेले कई वकील बनकर आते हैं। वकालत सतयुग में नहीं होगी। इसलिए बापदादा के आगे ऐसा नटखटपन नहीं करना। वकील की बजाय जज बनो। लेकिन किसका? स्वयं का जज बनना दूसरों का नहीं। बापदादा को सारे दिन में अमृतवेले के समय बच्चों के विचित्र खेल देखते हर्षित होने को मिलता है। उस समय हर एक का फोटो निकालने योग्य पोज व पोजीशन होती है। साक्षी होकर आप एक दिन भी देखो तो बहुत हँसोगे। कोई योद्धा बन कर भी आते हैं। बाप के दिये हुए शस्त्र बाप के आगे यूज़ करते हैं। ‘‘आपने ऐसे कहा है, ज्ञान ऐसा कहता है’’ - बाप मुस्कराते हैं - खेल देखते रहते हैं। योद्धा की बजाय विजयी बनो, तब ही त्रिमूर्ति तख्त-नशीन बन सकोगे। समझा? अच्छा।
ऐसे सदा विजयी, सर्व वायदे निभाने वाले, बापदादा के अति स्नेही और समीप, प्रकृति को दासी बनाने वाले और सर्व आत्माओं की सर्व मनोकामनायें पूर्ण करने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
05-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
फरिश्ता स्वरूप में स्थिति
फर्शवासी मनुष्य से अर्शवासी फरिश्ता बनाने वाले, सदा लाइट रूप, प्रमुख हीरो पार्टधारी, जीरो शिव बाबा ने फरिश्ता बनने के पुरुषार्थी बच्चों के सम्मुख यह मधुर महावाक्य उच्चारे -
फरिश्ते स्वरूप की स्थिति में सदा स्थित रहते हो? फरिश्ते स्वरूप की लाइट में अन्य आत्माओं को भी लाइट ही दिखाई देगी। हद के एक्टर्स जब हद के अन्दर अपने एक्ट करते दिखाई देते हैं, तो लाइट के कारण अति सुन्दर स्वरूप दिखाई देते हैं। वही एक्टर, साधारण जीवन में, साधारण लाइट के अन्दर पार्ट बजाते हुए कैसे दिखाई देते हैं? रात-दिन का अन्तर दिखाई देता है ना? लाइट का फोकस उनके फीचर्स को ही परिवर्तित कर देता है। ऐसे ही बेहद ड्रामा के आप हीरो हीरोइन एक्टर्स, अव्यक्त स्थिति की लाइट के अन्दर हर एक्ट करने से क्या दिखाई देंगे? अलौकिक-फरिश्ते! साकारी की बजाय सूक्ष्म वतनवासी नजर आयेंगे। साकारी होते हुए भी आकारी अनुभव होंगे। हर एक्ट हरेक को स्वत:ही आकर्षित करने वाला होगा।
जैसे आज हद का सिनेमा व ड्रामा कलियुगी मनुष्यों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है-छोड़ना चाहते हुए और न देखना चाहते हुए भी हद के एक्टर्स की एक्ट अपनी ओर खींच लेती है, लेकिन उसका आधार लाईट है, ऐसे ही इस अन्तिम समय में माया के आकर्षण की अति के बाद अन्त होने पर, बेहद के हीरो एक्टर्स, जो सदा जीरो स्वरूप में स्थित होते हुए जीरो बाप के साथ हर पार्ट बजाने वाले हैं और दिव्य ज्योति स्वरूप वाले जिनकी स्थिति भी लाइट की है और स्टेज पर हर पार्ट भी लाइट में हैं - अर्थात् जो डबल लाइट वाले फरिश्ते हैं - वे हर आत्मा को स्वत:ही अपनी तरफ आकर्षित करेंगे। आजकल की दुनिया में ड्रामा के अतिरिक्त और कौनसी वस्तु है जो ऐसे फरिश्तों के नयनों जैसी आकर्षण करने वाली हैं? टी.वी.। जैसे टी.वी. द्वारा इस संसार की कैसीकैसी सीन-सीनरियाँ देखते हुए कई आकर्षित होते, अर्थात् गिरती कला में जाते हैं - ऐसे ही फरिश्तों के नयन दिव्य दूर-दर्शन का काम करेंगे। हर एक के नयनों द्वारा सिर्फ इस संसार के ही नहीं लेकिन तीनों लोकों के दर्शन करेंगे। ऐसे फरिश्तों के मस्तक में चमकती हुई मणि आत्माओं को सर्च-लाइट व लाइट हाऊस के समान स्वयं का स्वरूप, स्व-मार्ग और श्रेष्ठ मंज़िल का स्पष्ट साक्षात्कार करायेंगी।
ऐसे फरिश्तों के युक्ति-युक्त बोल अर्थात् अमूल्य बोल, हर भिखारी आत्मा की रत्नों से झोली भरपूर करेंगे। जो गायन है देवताएं भी भक्तों पर प्रसन्न हो फूलों की वर्षा करते हैं - ऐसे आप श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा विश्व की आत्माओं के प्रति सर्व-शक्तियों, सर्वगुणों तथा सर्व वरदानों की पुष्प-वर्षा सर्व के प्रति होगी। तब ही आप सब को देवता अर्थात् देने वाला समझ कर भक्त-गण द्वापर युग से देवताओं का गायन और पूजन करते आ रहे हैं, क्योंकि अन्त समय सर्व आत्माएँ, विशेषकर वे भारतवासी आत्माएँ देवता धर्म की अन्त तक वृद्धि पाने वाली आत्मायें जो सतयुग में आपके देवताई रूप की पालना तो नहीं लेंगी बल्कि बाद में इस धर्म की वृद्धि होने के समय से लेकर अन्त तक के समय में आपका देवता रूप, दाता रूप अथवा वरदाता रूप अनुभव करेंगी। आपके अन्तिम देवता रूप की अनेक प्राप्तियों के संस्कार व स्मृतियाँ सर्व आत्माओं में मर्ज रहती हैं अर्थात् समाई हुई रहती हैं। इस कारण प्रैक्टिकल रूप में सतयुगी सृष्टि में न आते हुए भी द्वापर में सृष्टि-मंच पर आते ही देवता स्वरूप की प्राप्ति की स्मृति इमर्ज हो जाती है और गायन-पूजन करते रहते हैं। समझा, अपने अन्तिम फरिश्ते स्वरूप को?
ऐसे बेहद के एक्टर्स स्वत: अपनी तरफ आकर्षित नहीं करेंगे? यह ही डबल लाइट स्थिति और स्टेज आप सबको और बाप को प्रत्यक्ष करेगी। जीरो और हीरो दोनों प्रत्यक्ष होंगे। समझा (लाइट चली गई) फिर बाबा बोले - अभी भी देखो, लाइट से कितना काम होता है। अभी भी आप सबके आकर्षण करने की वस्तु लाइट के आधार पर है। अच्छा।
ऐसे सदा जीरो के साथ हीरो पार्ट बजाने वाले, सदा देने वाले देवता स्वरूप, विश्व में स्वयं को और बाप को प्रख्यात करने वाले, विश्व की सर्व आत्माओं की सर्व-मनोकामनायें सम्पन्न करने वाले, ऐसे फरिश्तों को फरिश्तों की दुनिया में रहने वाले और फरिश्तों की दुनिया से पार रहने वाले बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
06-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तीन कम्बाइन्ड स्वरूप
बाप और दादा में कम्बाइन्ड रूप में अपना वायदा सदा निभाने वाले, सच्चे रूहानी साथी त्रिमूर्ति शिव बाबा बोले –
हर एक अपने तीन रूपों से कम्बाइन्ड रूप जानते हो? एक है अनादि कम्बाइन्ड (संयुक्त) रूप, दूसरा है संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप और तीसरा है भविष्य कम्बाइन्ड रूप - इन तीनों को जानते हो?
आप मनुष्यात्माओं का अनादि कम्बाइन्ड रूप कौन-सा है? पुरूष और प्रकृति कहो या आत्मा और शरीर कहो। यह अनादि कम्बाइन्ड रूप इस अनादि ड्रामा में नूँधा हुआ है। भविष्य कम्बाइन्ड रूप कौन-सा है? विष्णु चतुर्भुज। संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप आपका कौन-सा है? शिव और शक्ति। शक्ति शिव के सिवाय कुछ कर नहीं सकती और शिव बाप भी शक्तियों के बिना कुछ कर नहीं सकते। तो संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप सबका है - शिव-शक्ति। सिर्फ माताओं का ही नहीं है, पाण्डव भी शक्ति स्वरूप हैं। यादगार के रूप में आजकल के जगद्गुरू भी आपके कम्बाइन्ड रूप शिव-शक्ति का पूजन करते आ रहे हैं।
तो सदा यह स्मृति रहनी चाहिए कि हम हैं ही कम्बाइन्ड शिव-शक्ति। जब है ही कम्बाइन्ड तो भूल सकते हैं क्या? फिर भूलते क्यों हो? अपने को अकेला समझते हो इसलिए भूल भी जाते हो। कल्प पहले की यादगार में भी अर्जुन को जब बाप का साथ भूल जाता था, अर्थात् जब वह सारथी को भूल जाता था, तो क्या बन जाता था? निर्बल कहो व कायर कहो और जब स्मृति आती थी, कि मेरा साथी और सारथी बाप है तो विजयी बन जाता था। निरन्तर सहज याद की सहज युक्ति एक ही है कि सदा अपने कम्बाइन्ड रूप को सदा साथ रखो व स्मृति में रखो तो कभी भी कमजोरी के संकल्प भी क्या स्वप्न भी नहीं आयेंगे। जागते-सोते कम्बाइन्ड रूप हो।
जबकि बाप स्वयं बच्चों से सदा साथ रहने का वायदा कर रहे हैं और निभा भी रहे हैं तो वायदे का लाभ उठाना चाहिए। ऐसे कम्पनी व कम्पेनियन, फिर कब मिलेंगे? बहुत जन्मों से आत्माओं की कम्पनी लेते हुए दु:ख का अनुभव करते हुए भी अब भी आत्माओं की कम्पनी अच्छी लगती है क्या, जो बाप की कम्पनी को भूल औरों की कम्पनी में चले जाते हो? कोई वैभव को व कोई व्यक्ति को कम्पेनियन बना देते हो, अर्थात् उस कम्पनी को निभाने में इतने मस्त हो जाते हो जो बाप से किये हुए वायदे में भी अलमस्त हो जाते हो! ऐसे समय मालूम है कौन-सा खेल करते हो? खेल करने के टाइम तो बड़े मस्त हो जाते हो। अभी भूल गए हो। कलाबाजी से भी बहुत रमणीक खेल करते हो? ऐसे नहीं कि जो सुनायेंगे वह खेल करते होंगे, देखने वाले भी सुना सकते हैं। आपके ही इस साकारी दुनिया में खेल दिखाते हैं - बन्दर और बन्दरी का। बन्दरिया को बन्दर से सगाई के लिए पकड़ कर ले जाते हैं और बन्दरिया नटखट हो घूँघट निकाल किनारा कर लेती, पीठ कर लेती है। वह आगे करता है वह पीछे हटती है। तो जैसे वह रमणीक खेल मनोरंजन के लिए दिखाते हैं, ऐसे ही बच्चे भी उस समय ऐसे नटखट होते हैं। बाप सम्मुख आते और बच्चे अलमस्त होने के कारण देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते। ऐसा खेल अभी नहीं करना है। अपने तीनों कम्बाइन्ड रूपों को स्मृति में रखो तो ही सदा के लिए सदा साथी से साथ निभा सकेंगे।
अपने को अकेला समझने से चलते-चलते जीवन में उदासी आ जाती है। अति-इन्द्रिय सुखमय जीवन, सर्व सम्बन्धों से सम्पन्न जीवन और सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न जीवन उस समय नीरस व बिल्कुल असार अनुभव करते हो। त्रिनेत्री होते हुए भी कोई राह नजर नहीं आती। क्या करूँ, कहाँ जाऊं कुछ समझ में नहीं आयेगा। खुद जीवन-मुक्ति के गेट्स खोलने वाले को कोई ठिकाना नजर नहीं आता, त्रिकालदर्शी होते हुए अपने वर्तमान को नहीं समझ सकते। सृष्टि के सर्व आत्माओं के भविष्य परिणाम को जानने वाले अपने उस समय के कर्म के परिणाम को जान नहीं सकते! यह कमाल करते हो न? ऐसी कमाल रोज कोइन- कोई बच्चे दिखाते रहते हैं।
ऐसे समय पर बापदादा क्या करते हैं? बहुत मनाते और रिझाते हैं, लेकिन फिर भी बच्चे नटखट करते हैं और फिर जब वह समय बीत जाता है, तब फिर बाप को रिझाते हैं। बच्चे भी बड़े चतुर होते हैं। ज्ञान स्वरूप को याद दिलाते हैं। वह तो जानते हो न क्या करते हैं? आप क्षमा के सागर हो, कृपालु हो, दयालु हो, रहमदिल हो - ऐसी कई बातों से रिझाते हैं। फिर बाप क्या करते हैं? बाप फिर लव और लॉ का बैलेन्स रखते हैं। यह कहानी है बच्चों और बाप की। कहानी सुनने में सभी खुश हो रहे हैं। लेकिन यह कहानी परिवर्तन में लानी है। जैसे बाप ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बन सेवा पर उपस्थित है, ऐसे ही हरेक बाप के साथी व सहयोगी बच्चों को भी बाप के समान ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बनना है। ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट अलमस्त नहीं होते। दिन-रात सेवा में तत्पर रहते हैं। जैसे बाप बच्चों के आगे वफादार स्वरूप से साथ निभा रहे हैं, ऐसे ही बच्चों को भी फरमान-वरदार अर्थात् हर फरमान पर चलने वाले बन साथ निभाना है। ऐसे सदा के साथी बनना है। अच्छा!
ऐसे सदा सच्चे साथी, हर फरमान पर स्वयं को कुर्बान करने वाले, वफादार, बाप के फरमान-वरदार, बाप समान श्रेष्ठ बनाने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
इस मुरली की विशेष बातें
1. निरन्तर सहज याद की सहज-युक्ति एक ही है, कि तीनों रूपों से अपने कम्बाइन्ड स्वरूप को स्मृति में रखो वे हैं-पहला आत्मा और शरीर अथवा प्रकृति का अनादि कम्बाइन्ड रूप, दूसरा भविष्य विष्णु चतुर्भुज का कम्बाइन्ड रूप और तीसरा संगमयुग का शिव-शक्ति कम्बाइन्ड रूप। इस स्मृति से कभी भी कमजोरी अथवा निर्बलता का संकल्प स्वप्न में भी नहीं आयेगा।
2. जो ब्रह्मा वत्स की कम्पनी व कम्पेनियन को भूल औरों की कम्पनी में चले जाते हैं। कोई वैभव को व कोई व्यक्ति को कम्पेनियन बना लेते हैं, तो चलते-चलते उनके जीवन में उदासी आ जाती है और अन्त में दु:ख को प्राप्त होते हैं।
3. जैसे बाप ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बन सेवा पर उपस्थित है, ऐसे ही हरेक बाप के साथी व सहयोगी बच्चों को भी बाप समान ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बनना है।
09-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ग्लानि को गायन समझकर रहमदिल बनो
अपकारियों पर भी उपकार करने का गुण सिखाने वाले, सब के कल्याणकारी शिव बाबा सौभाग्यशाली बनने वाले बच्चों से बोले –
अपने चमकते हुए तकदीर के सितारे को देखते हो? तकदीर का सितारा सदा चमकता रहता है अथवा कभी चमकता है और कभी चमक कम हो जाती है अर्थात् घटनाओं रूपी घटा के बीच छिप जाता है? या कभी इन स्थूल सितारों के समान, जैसे स्थूल सितारे स्थान बदली करते हैं वैसे स्थिति बदली तो नहीं होती है? या तकदीर की लकीर अभी चढ़ती कला और अभी-अभी ठहरती कला व गिरती कला ऐसे बदलती तो नहीं है? क्योंकि संगम युग पर तकदीर की रेखा परिवर्तन करने वाला बाप सम्मुख पार्ट बजा रहे हैं। ऐसे तकदीर बनाने वाले बाप के डायरेक्ट बच्चे-उन्हों की तकदीर श्रेष्ठ और अविनाशी चाहिए। ऐसी तकदीर अन्य कोई भी आत्मा नहीं बना सकती है। ऐसे तकदीरवान अपने को अनुभव करते हो?
श्रेष्ठ तकदीर बनाने वालों की निशानी क्या होगी? जानते हो? ऐसा तकदीरवान हर संकल्प में, हर बोल में, कर्म में फालोफादर करता होगा। संकल्प भी बाप समान विश्व कल्याण की सेवा अर्थ होगा। हर बोल में नम्रता, निर्माणता और उतनी ही महानता होगी। स्मृति स्वरूप में एक तरफ बेहद का मालिकपन, दूसरी तरफ विश्व की सेवाधारी आत्मा होगी। एक तरफ अधिकारीपन का नशा, दूसरी तरफ सर्व के प्रति सत्कारी, हर आत्मा के प्रति बाप समान दाता और वरदाता, चाहे दुश्मन हो, किसी भी जन्म के हिसाबकिताब चुक्तु करने के निमित्त बनी हुई आत्मा हो - ऐसी श्रेष्ठ स्थिति से गिराने के निमित्त बनी हुई आत्मा को भी, संस्कारों के टक्कर खाने वाली आत्मा को भी, घृणा वृत्ति रखने वाली आत्मा को भी, सर्व आत्माओं के प्रति दाता व वरदाता। ठुकराने वाली आत्मा भी कल्याणकारी आत्मा अनुभव हो, ग्लानि के बोल व निन्दा के बोल भी महिमा व गायन योग्य अनुभव हों तथा ग्लानि गायन अनुभव हो। जैसे द्वापर में आप सबने बाप की ग्लानि का, लेकिन बाप ने ग्लानि भी गायन समझ कर स्वीकार की और ग्लानि के रिटर्न में भक्ति का फल-ज्ञान दिया, न कि घृणा और ही रहम-दिल बने। ऐसे फालो फादर। ऐसे फालो फादर करने वाले ही श्रेष्ठ तकदीरवान बनते है। जैसे बाप से विमुख बनी हुई आत्माओं को अपना बना कर अपने से ऊंच प्रालब्ध प्राप्त करते हैं - ऐसे श्रेष्ठ तकदीर-वान बच्चे बाप समान हर आत्मा को अपने से भी आगे बढ़ाने की शुभ भावना रखते हुए विश्व-कल्याणकारी बनेंगे। इसको कहा जाता है निरन्तर योगीपन के लक्षण।
ऐसी ऊंची मंज़िल को प्राप्त करने वाले जो बोल और भाव को परिवर्तन कर दें अर्थात् निन्दा को भी स्तुति में परिवर्तन कर दें, ग्लानि को गायन में परिवर्तित कर दे, ठुकराने को सत्कार में परिवर्तित कर दें, अपमान को स्व-अभिमान में परिवर्तित कर दें व अपकार को उपकार में परिवर्तित कर दें व माया के विघ्नों को बाप की लगन में मग्न होने का साधन समझ परिवर्तित कर दें - ऐसे बाप समान ‘सदा विजयी अष्ट रत्न’ बनते हैं। और भक्तों के इष्ट बनते हैं। ऐसी स्थिति को पहुँचे हो? या सिर्फ स्नेही आत्माओं के प्रति सहयोगी आत्मायें बने हो? होपलेस केस में व ना-उम्मीदवार को उम्मीदों का सितारा बनाना-कमाल इसी बात में है। ऐसी कमाल दिखाने वाले बने हो? या सिर्फ बाप की कमाल देख हर्षित होने वाले बने हो? जब कि फॉलो फादर है तो कमाल करने वाला बनना है न कि देखकर हर्षित होने वाला बनना है। समझा? इसको कहा जाता है ‘फॉलो फादर।’
जैसा समय वैसे अपने कदम को बढ़ाना चाहिए। जब अन्तिम समय समझते हो तो अपनी स्थिति भी अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज वाली समझते हो? समय अन्तिम और पुरूषार्थ की रफ्तार व स्थिति मध्यम होगी तो रिजल्ट क्या होगी? स्वर्ग के सुखों की प्रालब्ध मध्यम पुरूषार्थ वाले सतयुग के मध्य में प्राप्त करेंगे - ऐसा लक्ष्य तो नहीं है ना? लक्ष्य फर्स्ट जन्म में आने का है तो लक्षण भी फर्स्ट क्लास चाहिए। समय प्रमाण और लक्ष्य प्रमाण पुरूषार्थ को चेक करो। अच्छा!
ऐसे बाप के समान सर्व के सत्कारी, बाप के वर्से के अधिकारी, हर ना-उम्मीदवार को उम्मीदों का सितारा बनाने की कमाल करो। 86 संकल्प और कदम में फॉलो फादर करने वाले, श्रेष्ठ तकदीर बनाने वाले तकदीर के सितारे, निरन्तर बाप की याद और सेवा में तत्पर रहने वाले सदा विजयी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’
इस मुरली के विशेष तथ्य
1. श्रेष्ठ तकदीर बनाने वाले बच्चे की निशानी यह होगी कि वह हर संकल्प में, हर बोल में और हर कर्म में फॉलोफादर होगा।
2. जैसे बाप बे-मुख बनी आत्माओं को अपना बना कर उनका अपने से ऊंच प्रालब्ध बनाते है ऐसे ही श्रेष्ठ तकदीरवान बच्चे भी हर आत्मा को अपने से भी आगे बढ़ाने की शुभ भावना रखते हुए विश्व-कल्याणकारी बनते हैं।
3. माया के विघ्नों को बाप की लगन में मग्न होने का साधन समझ परिवर्तित कर दें - ऐसे विजयी वत्स ही अष्ट रत्न बनते हैं।
10-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
नॉलेजफुल और पावरफुल आत्मा ही सक्सेसफुल
ज्ञान के सागर, शक्ति के सागर, सदा जागती-ज्योति अथक सेवाधारी वत्सों को निद्रा-जीत बनाने वाले शिव बाबा बोले-
सदा हर स्थिति में मास्टर नॉलेजफुल (ज्ञानमूर्त) पावरफुल (शक्ति या योगमूर्त) और सक्सेसफुल (सफलता-मूर्त) स्वयं को अनुभव करते हो? क्योंकि नॉलेजफुल और पावरफुल आत्मा की रिजल्ट (परिणाम) है सक्सेसफुल। वर्तमान समय इन दोनों सब्जेक्ट्स याद अर्थात् पावरफुल और ज्ञान अर्थात् नॉलेजफुल। इन दोनों सब्जेक्ट्स (विषय) का ऑब्जेक्ट (उदेश्य) है सक्सेसफुल। इसी को ही प्रत्यक्ष फल कहा जाता है। इस समय का प्रत्यक्ष फल आपके भविष्य फल को प्रख्यात करेगा। ऐसे नहीं कि भविष्य फल के आधार पर अब के प्रत्यक्ष फल को अनुभव करने से वंचित रह जाओ। ऐसे कभी भी संकल्प नहीं करना कि वर्तमान में कुछ दिखाई नहीं देता है व अनुभव नहीं होता है व प्राप्ति नहीं होती है, यह पढ़ाई तो है ही भविष्य की। भविष्य मेरा बहुत उज्जवल है। अभी मैं गुप्त हूँ अन्त में प्रख्यात हो जाऊंगा-लेकिन भविष्य की झलक, भविष्य की प्रालब्ध व अन्तिम समय पर प्रसिद्ध होने वाली आत्मा की चमक अब से सर्व को अनुभव होनी चाहिए। इसलिए पहले प्रत्यक्ष फल और साथ में भविष्य फल। प्रत्यक्ष फल नहीं तो भविष्य फल भी नहीं। स्वयं को स्वयं प्रत्यक्ष भले ही नहीं करे, लेकिन उनका सम्पर्क, स्नेह और सहयोग ऐसी आत्मा को स्वत: ही प्रसिद्ध कर देते हैं।
यह ईश्वरीय लॉ (नियम) है कि स्वयं को किसी भी प्रकार से सिद्ध करने वाला कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये यह संकल्प कि मैं स्वयं को जानता हूँ कि मैं ठीक हूँ दूसरे नहीं जानते व दूसरे नहीं पहचानते, आखिर पहचान ही लेंगे व आगे चलकर देखना क्या होता है? यह भी ज्ञान स्वरूप, याद स्वरूप आत्मा के स्वयं को धोखे देने वाली अलबेलेपन की मीठी निद्रा है। ऐसे अल्पकाल के आराम देने वाले व अल्पकाल के लिये अपने दिल को दिलासा देने वाली माया की निद्रा के अनेक प्रकार हैं। जिस भी बातों में अपनी प्रालब्ध को व प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति को खोते हो तो अवश्य अनेक प्रकार की निद्रा में सोते हो। इसलिये कहावत है - ‘जिन सोया तिन खोया।’ तो खोना ही सोना है। ऐसे कभी भी समय पर सफलता पा नहीं सकते अर्थात् सक्सेसफुल नहीं बन सकते।
सारे कल्प के अन्दर सिर्फ इस संगम युग को ड्रामा प्लेन अनुसार वरदान है - कौन-सा ? संगमयुग को कौन-सा वरदान है? ‘प्रत्यक्ष फल का वरदान’ सिर्फ संगमयुग को है। अभी-अभी देना, अभी-अभी मिलना। पहले देखते हो - फिर करते हो-पक्के सौदागर हो। संगमयुग की विशेषता है कि इस युग में ही बाप भी प्रत्यक्ष होते हैं, ऊंच ते ऊंच ब्राह्मण भी प्रत्यक्ष होते हैं। आप सबके 84 जन्मों की कहानी भी प्रत्यक्ष होती है। श्रेष्ठ नॉलेज भी प्रत्यक्ष होती है। इस कारण ही प्रत्यक्ष फल मिलता है। प्रत्यक्ष फल का अनुभव कर रहे हो? प्रत्यक्ष फल प्राप्त होते समय भविष्य फल को सोचता रहे ऐसी आत्मा को कौन-सी आत्मा कहेंगे? ऐसी आत्मा को मास्टर नॉलेजफुल कहेंगे या यह भी एक अज्ञान है? किसी भी प्रकार का अज्ञान उसको, अज्ञान की नींद कहते हैं। अपने आप को चेक करो कि किसी भी प्रकार के अज्ञान नींद में सोये हुए तो नहीं हो?
सदा जागती-ज्योति बने हो? जागने की निशानी है जागना अर्थात् पाना। तो सर्व प्राप्ति करने वाले सदा जागती-ज्योति हो? सदा जागती-ज्योति बनने के लिये मुख्य कौनसी धारणा है, जानते हो? जो साकार बाप में विशेष थी - वह बताओ? साकार बाप की विशेष धारणा क्या थी? जागती-ज्योति बनने के लिये मुख्य धारणा चाहिए ‘अथक’ बनने की। जब थकावट होती है तो नींद आती है - साकार बाप में अथक-पन की विशेषता सदा अनुभव की। ऐसे फॉलो फादर करने वाले सदा जागती-ज्योति बनते हैं। यह भी चेक करो कि चलते-चलते कोई भी प्रकार की थकावट अज्ञान की नींद में सुला तो नहीं देती? इसीलिये कल्प पहले की यादगार में भी निद्राजीत बनने का विशेष गुण गाया हुआ है। अनेक प्रकार की निद्रा से निद्राजीत बनो। यह भी लिस्ट निकालना कि किस-किस प्रकार की निद्रा निद्राजीत बनने नहीं देती जैसे निद्रा में जाने से पहले निद्रा की निशानियाँ दिखाई देती है उस नींद की निशानी है उबासी और अज्ञान नींद की निशानी है उदासी। इसी प्रकार निशानियाँ भी निकालना - इसकी दो मुख्य बातें हैं। एक आलस्य, दूसरा अलबेलापन। पहले यह निशानियाँ आती हैं - फिर नींद का नशा चढ़ जाता है। इसलिये इस पर अच्छी तरह से चैकिंग (जाँच) करना। चैकिंग के साथ चेन्ज (परिवर्तन) करना। सिर्फ चैकिंग नहीं करना - चैकिंग और चेन्ज दोनों ही करना, समझा? अच्छा!
ऐसे स्वयं के परिवर्तन द्वारा विश्व को परिवर्तन करने वाले, बाप समान सदा अथक, हर संकल्प, बोल और कर्म का प्रत्यक्ष फल अनुभव करने वाले, सर्व प्राप्ति स्वरूप विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति।
13-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विश्व-परिवर्तन ही ब्राह्मण जीवन का विशेष कर्त्तव्य है
विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी, सदा साक्षी स्वरूप शिव बाबा विश्व-परिवर्तन में सहयोगी बच्चों को देख बोले -
विश्व का रचयिता बाप आज अपने सहयोगी विश्व-परिवर्तक श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। जैसे बाप विश्व को परिवर्तन करने के लिए निमित्त हैं, वैसे ही आप सब भी सदा अपने को इसी कार्य के निमित्त समझ चलते हो? सदा यह स्मृति कायम रहती है कि मुझे परिवर्तन करना है? विश्व को परिवर्तन करने वाले पहले स्वयं को परिवर्तन करते हैं। जो स्वयं का परिवर्तन किसी भी बात में नहीं कर पाते, वे विश्व के परिवर्तन का कार्य करने अर्थ निमित्त कैसे बन सकते हैं? अभी-अभी बापदादा डायरेक्शन दें कि एक सेकेण्ड में अपनी स्मृति को परिवर्तन कर लो, अर्थात् स्वयं को देह नहीं आत्मा के स्वरूप में स्थित होकर देखो, तो स्वयं की स्मृति को एक सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? ऐसे ही अपनी वृत्ति को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपने स्वभाव और संस्कार को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपनी आत्मा के किसी भी सम्पर्क को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपने सेकेण्ड के संकल्प को सेकेण्ड में, व्यर्थ से समर्थ में परिवर्तन कर सकते हो? अपने पुरूषार्थ की रफ्तार को सेकेण्ड में साधारण से तीव्र कर सकते हो? अपने को सेकेण्ड में साकार वतन से पार निराकारी परमधाम के निवासी बना सकते हो? इसको कहा जाता है - परिवर्तन शक्ति। संगमयुग पर विशेष खेल ही परिवर्तन का है। जैसे और शक्तियाँ स्वयं में चेक करते हो वैसे ही परिवर्तन करने की शक्ति इन सब बातों में कहाँ तक आयी है, यह चेक करते हो? पुरूषार्थ में विघ्न रूप, परिवर्तन की शक्ति की कमी है।
सर्व प्राप्ति का आधार परिवर्तन शक्ति है। स्वयं का परिवर्तन न कर सकने के कारण जितना ऊंचा लक्ष्य रखते हो उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते हो। परिवर्तन करने की शक्ति न होने के कारण चाहते हुए भी, साधन अपनाते हुए भी, संग करते हुए भी, यथा-शक्ति नियमों पर चलते हुए भी और स्वयं को ब्राह्मण कहलाते हुए भी अपने-आप से संतुष्ट नहीं। एक परिवर्तन करने की शक्ति सर्व शाक्तिमान् बाप और सर्व श्रेष्ठ आत्माओं के समीप जाने का साधन बन जाती है। परिवर्तन शक्ति नहीं तो सदैव हर प्राप्ति से वंचित अपने को किनारे पर खड़ा हुआ अनुभव करेंगे। सब बातों में दूर-दूर देखने और सुनने वाला अपने को अनुभव करेंगे। सदा स्नेह, सहयोग और शक्ति के अनुभव करने के प्यासे रहेगे। अनेक प्रकार की स्वयं के प्रति इच्छाओं का व आशाओं का और कामनाओं का विस्तार तूफान के समान आता ही रहेगा। इस तूफान के कारण प्राप्ति की मंज़िल सदा दूर नजर आयेगी।
आज ऐसे विश्व-परिवर्तक बच्चों का दृश्य देखा। साकार दुनिया में पानी का तूफान आया हुआ है उसका नजारा सुनते रहते हो। सुनते हुए मजा आता है या रहम आता है या भय भी आता है? क्या होता है - कभी भय लगता, कभी रहम आता है? पाण्डवों को भय लगता है? रहम आता है या मजा आता है। भय तो होना न चाहिए। मैं फीमेल (कमज़ोर, बिना मेल के) हूँ, उस समय यह स्मृति भी राँग (गलत) है - अपने को अकेला कभी नहीं समझना चाहिए। अपने कम्बाइन्ड रूप शिव-शक्ति के रूप की स्मृति में रहना चाहिए। सिर्फ शक्ति भी नहीं-शिव शक्ति। कम्बाइन्ड रूप की स्थिति से जैसे स्थूल में दो को देखते हुए वार करने के लिए संकोच होता है - वैसे ही कम्बाइन्ड स्थिति का प्रभाव उस समय के प्रकृति और व्यक्ति के ऊपर पड़ेगा अर्थात् किसी भी प्रकार के वार करने में संकोच होगा। न सिर्फ व्यक्ति लेकिन प्रकृति का तत्व भी संकोच करेगा अर्थात् वह भी वार नहीं कर सकेगा। एक कदम की दूरी पर भी सेफ (सुरक्षित) हो जायेंगे। शस्त्र होते हुए भी, शस्त्र शक्तिवान् होते हुए भी निर्बल हो जायेंगे। लेकिन उस सेकेण्ड परिवर्तन करने की शक्ति यूज़ (प्रयोग) करो कि मैं अकेली नहीं, मैं फीमेल नहीं, शिव-शक्ति हूँ और कम्बाइन्ड हूँ। इसमें भी परिवर्तन शक्ति चाहिए ना? जो स्वयं की पॉवरफुल स्मृति और वृत्ति से व्यक्ति को व प्रकृति को परिवर्तन कर लें। अब तो यह दूसरी-तीसरी चौपड़ी या दूसरी-तीसरी क्लास के पेपर्स है। फाइनल (अन्तिम) पेपर की रूप-रेखा तो इससे कई गुना भयानक रूप की होगी। फिर क्या करेंगे। कइयों का संकल्प चलता है - कौन-सा ? कई स्नेह और हुज्जत में कहते हैं कि इस दृश्य के पहले ही हमको बुलाना, हम भी वतन से देखेंगे। लेकिन शक्ति स्वरूप का प्रैक्टिकल पार्ट व शक्ति अवतार की प्रत्यक्षता का पार्ट, स्वयं द्वारा सर्वशक्तिवान् बाप को प्रत्यक्ष करने का पार्ट ऐसी ही परिस्थिति में होना है। इसलिये ऐसे नजायें को, अकाले मृत्यु के नगाड़ों को देखने और सुनने के लिये परिवर्तन की शक्ति को बढ़ाओ। एक सेकेण्ड में परिवर्तन करो, क्योंकि खेल ही एक सेकेण्ड के आधार पर है।
ऐसे समय पर एक तरफ नाथिंग न्यू का पाठ भी याद रहना चाहिए - जिससे मिरूआं मौत मलूकाँ शिकार की स्थिति होगी तो साक्षीपन की स्थिति अर्थात् देखने में मजा भी आयेगा और साथ-साथ विश्व-कल्याणकारी की स्थिति जिसमें तरस भी होगा। दोनों का बैलेन्स (सन्तुलन) चाहिए। साक्षीपन की स्टेज भी और विश्व-कल्याणकारी स्टेज भी। समझा? यह तो हुआ-साकारी दुनिया का समाचार। आकारी वतन का समाचार क्या हुआ - जो पहले सुनाया कि परिवर्तन शक्ति की कमी होने के कारण जो अनेक प्रकार की कामनाओं के तूफान दिखाई देते हैं - उसके अन्दर मैजॉरिटी (अधिकांश) बच्चे नम्बरवार दिखाई देते हैं। उनकी पुकार क्या सुनाई देती है? - हम चाहते हैं, फिर क्यों नहीं होता? यह होना चाहिए-लेकिन होता नहीं-बहुत पुरूषार्थ कर लिया। ऐसी अनेक प्रकार की मन की आवाज सुनाई देती है। इसलिये-इस तूफान से निकलने का साधन परिवर्तन शक्ति को बढ़ाओ तो प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति कर सकेंगे। सदैव यह स्मृति में रखो कि मैं बाप का सहयोगी, विश्व का परिवर्तन करने वाला - मैं हूँ ही विश्व-परिवर्तक। परिवर्तन करना ही मेरा कार्य है। अर्थात् इसी कार्य-अर्थ ही ब्राह्मण जीवन प्राप्त हुआ है। तो अपने निजी कार्य को स्मृति में रखते हुए चलो।
ऐसे हर संकल्प और हर सेकेण्ड बाप के साथ सहयोगी आत्मायें, प्रकृति और परिस्थिति व व्यक्ति को परिवर्तन करने वाले, सदा बाप-समान मास्टर सर्वशक्तिवान के स्वमान में स्थित रहने वाले, स्वयं के प्रति और सर्व के प्रति सदा कल्याण की भावना रखने वाले, ऐसे विश्व-कल्याणकारी विश्व-परिवर्तक आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
इस मुरली का सार-तत्व
1. विश्व-परिवर्तन का कार्य सम्पन्न करने के लिए सबसे पहले स्वयं में सेकेण्ड में परिवर्तन करने की शक्ति की आवश्यकता है। स्वयं की पॉवरफुल स्मृति और वृत्ति से व्यक्ति व प्रकृति को परिवर्तन कर लो।
2. सर्व प्राप्तियों का आधार परिवर्तन शक्ति है। परिवर्तन करने की शक्ति सर्वशक्तिवान् बाप और सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के समीप जाने का साधन बन जाती है।
14-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अकाल तख्त-नशीन और महाकाल-मूर्त्त बन समेटने की शक्ति का प्रयोग करो
अकाल मूर्त्त, महाकालेश्वर, सर्वशक्तिवान्, अशरीरी शिव बाबा बोले -
अपने को हर परिस्थिति से पार करने वाले, शक्तिशाली स्थिति में अनुभव करते हो? शक्तिशाली परिस्थितियों को मास्टर सर्व-शक्तिवान् स्थिति वाले ही सहज पार कर सकते है। दिन-प्रतिदिन प्रकृति द्वारा विकराल रूप से परिस्थितियाँ दिखाई देती जायेंगी। अब तक यह साधारण परिस्थितियाँ हैं। विकराल रूप तो प्रकृति अब धारण करेगी जिसमे विशेष आपदाओं का वार अचानक ही होगा। अभी तो थोड़ा समय पहले मालूम पड़ जाता है। लेकिन प्रकृति का विकराल रूप क्या होगा? एक ही समय प्रकृति के सभी तत्व साथसाथ और अचानक वार करेंगे। किसी भी प्रकार के प्रकृति के साधन बचाव के काम के नहीं रहेगे और ही साधन समस्या का रूप बनेंगे। ऐसे समय पर प्रकृति के विकराल रूप का सामना करने के लिये किस बात की आवश्यकता होगी? अपने अकाल-तख्त नशीन अकालमूर्त बनने से महाकाल बाप के साथ-साथ ‘मास्टर महाकाल’ स्वरूप में स्थित होंगे तब ही सामना कर सकेंगे। महाविनाश देखने के लिये मास्टर महाकाल बनना पड़ेगा। मास्टर महाकाल बनने की सहज विधि कौन-सी है? अकालमूर्त्त बनने की विधि है -- हर समय अकाल-तख्त नशीन रहना। जरा-सा भी देहभान होगा, तो अकाले मृत्यु के समान अचानक के वार में हार खिला देगा!
जैसे प्रकृति के पाँच तत्व विकराल रूप को धारण करेंगे, वैसे ही पाँच विकार भी अपना शक्तिशाली रूप धारण कर अन्तिम वार अति सूक्ष्म रूप में ट्रायल करेंगे अर्थात् माया और प्रकृति दोनों ही अपना फुल फोर्स का अन्तिम दाव लगायेंगे। जैसे किसी भी स्थूल युद्ध में भी अन्तिम दृश्य हृस (हास) पैदा करने वाला होता है और हिम्मत बढ़ाने वाला भी होता है, ऐसे ही कमज़ोर आत्माओं के लिये भी हृस पैदा करने वाला दृश्य होगा - मास्टर सर्वशक्तिवान् आत्माओं के लिये वह हिम्मत और हुल्लास देने वाला दृश्य होगा।
ऐसे समय में जैसी स्थिति सुनाई उसके लिये विशेष कौनसी शक्ति की आवश्यकता होगी? सेकेण्ड के हार-जीत के खेल में कौन-सी शक्ति चाहिए? ऐसे समय में समेटने की शक्ति आवश्यक है। जो अपने देह-अभिमान के संकल्प को, देह की दुनिया की परिस्थितियों के संकल्प को, क्या होगा? - इस हलचल के संकल्प को भी समेटना है। शरीर और शरीर के सर्व सम्पर्क की वस्तुओं को भी वा अपनी आवश्यकताओं के साधनों की प्राप्ति के संकल्प को भी समेटना है। घर जाने के संकल्प के सिवाय अन्य किसी संकल्प का विस्तार न हो - बस यही संकल्प हो कि अब अपने घर गया कि गया। शरीर का कोई भी सम्बन्ध व सम्पर्क नीचे न ला सके। जैसे इस समय साक्षात्कार में जाने वाले साक्षात्कार के आधार पर अनुभव करते हैं कि मैं आत्मा इस आकाश तत्व से भी पार उड़ती हुई जा रही हूँ, ऐसे ही ज्ञानी एवं योगी आत्मायें ऐसा अनुभव करेंगी। उस समय ट्रान्स की मदद नहीं मिलेगी। ज्ञान और योग का आधार चाहिए। इसके लिये अब से अकाल-तख्त-नशीन होने का अभ्यास चाहिए। जब चाहे अशरीरीपन का अनुभव कर सकें, बुद्धियोग द्वारा जब चाहे तब शरीर के आधार में आयें। ‘‘अशरीरी भव!’’ का वरदान अपने कार्य में अब से लगाओ।
ऐसे समय में श्रीमत कैसे लेंगे? टेलीफोन व टेलीग्राम से वायरलेस (बिना तार के विद्युत-चुम्बकीय तरंगों द्वारा समाचार भेजने का यंत्र) सेट है- चाहिये तो वायरलेस लेकिन सेट है? वायरलेस की सेटिंग कैसे होगी? बिल्कुल वाइसलेस (पाप-रहित) वाइसलेस बनना ही वायरलेस सेट की सेटिंग है। जरा अंश के भी अंश-मात्र विकार, वायरलेस के सेट को बेकार कर देगा। इसलिये महीन रूप से स्वयं के स्वयं ही चेकर बनो। तब ही प्रकृति और पाँच विकारों की अन्तिम विदाई के वार को विजयी बन सामना कर सकेंगे। यही प्रकृति वार करने के बजाय बधाई के नजारे सामने लायेगी। चारों ओर जयज यकार की शहनाइयाँ बजायगी। और बापदादा के विजय माला के मणके विश्व के बीच प्रसिद्ध होंगे। सारा विश्व ‘‘अमर भव!’’ का नारा लगायेगा। ऐसे समय के लिये तैयार हो? अथवा समय आपको तैयार करेगा कि आप समय का आह्वान करेंगे? समय पर जागने वाले को क्या टाइटल देते हैं? समय पर कौन जागा? अगर समय पर जागेंगे या यह सोचेंगे कि समय तैयार कर ही देगा या समय पर हो ही जायेगा तो ब्राह्मण वंश की बजाय क्षत्रिय वंश के हो जायेंगे। इसलिये यह आधार भी नहीं लेना। समझा?
प्रश्न करते हैं कि अब आगे क्या होने वाला है - विनाश होगा या नहीं होगा? विनाश ज्वाला प्रकट करने वाले इस हलचल में होंगे तो विनाश के निमित्त बनी हुई विनाशकारी आत्माओं के बने हुए प्लैन में भी हलचल हो जाती है। जैसे निमित्त बनी हुई आत्मायें सोचती हैं कि होगा या नहीं होगा - अब होगा या कब होगा? वैसे ही विनाशकारी आत्मायें इसी हलचल में है अब करे या कब करें, करें या न करें? जैसे यादगार चित्र कलियुगी पर्वत को अंगुली देने का है, वैसे ही विनाश कराने के निमित्त बनी हुई सर्व आत्माओं के अन्दर यह संकल्प दृढ हो कि होना ही है। यह संकल्प रूपी अंगुली जब तक सभी की नहीं हुई है, तब तक विनाश का कार्य भी रूका हुआ है। इसी अंगुली से ही कलियुगी पर्वत खत्म होने वाला है। अच्छा।
ऐसे विकराल रूप को, मास्टर महाकाल स्थिति से सामना करने वाले, सदा अकाल तख्त-नशीन, प्रकृति को अधीन करने वाले, बाप की सर्व प्राप्ति के अधिकारी बच्चों को बापदादा की याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. अपने अकाल तख्त नशीन, अकालमूर्त बनने से महाकाल बाप के साथसाथ मास्टर महाकाल स्वरूप में स्थित होंगे तब ही प्रकृति के विकराल रूप का सामना कर सकेंगे।
2. जैसे प्रकृति के पाँच तत्व विकराल रूप धारण करेंगे वैसे पाँच विकार भी अपना शक्तिशाली रूप धारण कर अन्तिम दाव लगायेंगे। ऐसे समय में विशेष रूप से ‘समेटने की शक्ति’ को धारण करने की आवश्यकता है। एक घर जाने के संकल्प के सिवाय अन्य कोई संकल्प का विस्तार न हो।
3. अशरीरी बनना वायरलेस सेट है। वाइसलेस बनना ही वायरलेस सेट की सेटिंग है। जरा भी अंश के भी अंशमात्र विकार, वायरलेस के सेट को बेकार कर देगा।
18-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
माया के चक्करों से परे, स्वदर्शन चक्रधारी ही भविष्य में छत्रधारी
निर्बल को महा बलवान बनाने वाले, माया के चक्करों से मुक्त करने वाले, रहम दिल व स्नेहमूर्त शिव बाबा स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी बच्चों को देख बोले -
आज बापदादा सब ब्राह्मण बच्चों के वर्तमान और भविष्य दोनों को देख हर्षित हो रहे हैं। हर एक स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी है। वर्तमान चक्रधारी और भविष्य में छत्रधारी। चक्रधारी नहीं तो छत्रधारी भी नहीं। जिन बच्चों का इस संगम युग का यह थोड़ा-सा अमूल्य समय, निरन्तर सदाकाल चक्र चलता रहता है अर्थात् अविनाशी चक्रधारी हैं, वही आत्मायें सदाकाल छत्रधारी बन सकती हैं। चक्रधारी बनने वाली आत्मा सदा माया अधिकारी होगी-माया अधिकारी आत्मायें ही बाप के बेहद वर्से की अधिकारी बनती हैं - अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी बनती हैं। सदैव चक्र और छत्र दिखाई देता है?
चक्रधारी आत्मा की निशानी क्या दिखाई देगी? अपनी निशानी आप सबने देखी है? चक्रधारी अब भी लाइट के छत्रधारी दिखाई देंगे। चक्र की निशानी लाईट का चक्र दिखाई देगा। ऐसा चक्रधारी सदैव माया के अनेक प्रकार के चक्रों से मुक्त होगा। जैसे अपनी देह की स्मृति के अनेक व्यर्थ संकल्पों के चक्र से, लौकिक और अलौकिक सम्बन्धों के चक्र से, अपने अनेक जन्मों के स्वभाव और संस्कारों के चक्र से और प्रकृति के अनेक प्रकार के आकर्षण के चक्र से वह सदैव मुक्त होगा। सिवाय स्वदर्शन चक्र के वह और कोई चक्र में आ नहीं सकेगा। अन्य आत्माओं को भी बाप से प्राप्त हुई शक्तियों द्वारा अनेक चक्करों से सहज ही छुड़ा देगा।
माया के अनेक प्रकार के चक्करों की निशानी क्या होगी? जैसे चक्रधारी आत्मा लाइट के ताजधारी होंगी और बाप के वर्से की अधिकारी होंगी वैसे माया के अनेक प्रकार के चक्कर में आने वाले की निशानी क्या होगी? जैसे उनके सिर पर लाईट का ताज है, वैसे उनके सिर पर अनेक प्रकार के विघ्नों का बोझ होगा। ताज नहीं। सदैव किसी-न-किसी प्रकार का बोझ उनके सिर पर अर्थात् बुद्धि में महसूस होगा। ऐसी आत्मा सदैव कर्जदार और मर्जदार होगी - उनके मस्तक पर, मुख पर, सदैव क्वेश्चन मार्क होंगे। हर बात में क्यों, क्या और कैसे, यह क्वेश्चन्स होंगे। एक सेकेण्ड भी बुद्धि एकाग्र अर्थात् फुलस्टॉप में नहीं होगी। फुलस्टॉप की निशानी बिन्दी (.) होती है। अर्थात् मन्सा में भी बिन्दु स्वरूप की स्थिति नहीं होगी। वाचा और कर्मणा में भी बीती सो बीती, नाथिंग न्यू, जो होता है वह कल्याणकारी है, ऐसा फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दी लगानी नहीं आयेगी। क्वेश्चन मार्क की निशानी देखने में भी टेढ़ी आती है फुलस्टॉप लिखना सहज है - फुलस्टॉप लिखने से क्वेश्चन मार्क लिखना जरा मुश्किल होता है। तो अनेक प्रकार के क्वेश्चन करना, चाहे स्वयं से अथवा दूसरों से या बाप से - यही निशानी है कि यह आत्मा स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी नहीं।
ऐसी आत्मा हर संकल्प में सदा स्वयं से भी क्वेश्चन करती रहेगी कि क्या मैं सफलता मूर्त्त बन सकती हूँ? मैं सर्व के सम्पर्क में सफलता प्राप्त कर समीप आत्मा बनूँगी? मैं सर्व के स्वभाव-संस्कारों में चल सकूँगी? सर्व को सन्तुष्ट कर सकूँगी? ऐसे अनेक प्रकार के क्वेश्चन स्वयं के प्रति भी होंगे और अन्य के प्रति भी होंगे। यह मेरे से ऐसे क्यों चलते, मुझे विशेष सहयोग क्यों नहीं मिलता - मेरा नाम, मेरा मान क्यों नहीं होता? इसी प्रकार के अन्य के प्रति क्वेश्चन होंगे। ऐसे ही बाप के प्रति भी क्वेश्चन होंगे। जब बाप सर्व शक्तिवान् है तो मेरी बुद्धि को क्यों नहीं पलटाते? नजर से निहाल करने वाले मेरी तरफ नजर क्यों नहीं रखते? जबकि बाप है तो जैसी भी हूँ, कैसी भी हूँ, उनकी ही हूँ, उनकी ज़िम्मेवारी है, मुझे पार कराना - जब दाता है तो मैं जो चाहती हूँ वह क्यों नहीं देता? त्रिकालदर्शी है, मेरे तीनों कालों को जानता है, तो मुझे स्वयं ही अपनी शक्ति से श्रेष्ठ पद क्यों नहीं दिलाता? ऐसी मीठी-मीठी शिकायतें बाप के आगे रखते हैं। एक तरफ जन्म-जन्म का बोझ, दूसरी तरफ बाप के बच्चे होने के नाते, बाप द्वारा प्राप्त हुए सर्व अधिकार का रिटर्न करने का फर्ज पालन न करने के कारण अथार्त् अपना फर्ज न पालन करने के कारण फर्ज के बजाय कर्ज बन जाता है। कर्ज का बोझ आत्मा की सर्व कमजोरियों के मर्ज के रूप ले लेता है। ऐसे डबल बोझ वाले स्वदर्शन चक्रधारी कैसे बन सकेंगे?
एक तो है चक्रधारी, दूसरे हैं बोझदारी। ऐसे बोझ वाली आत्मायें डबल लाइटधारी कैसे बनेंगी? इसलिये उनकी बार-बार एक ही आवाज निकलती है, कि अनुभव नहीं होता। सुनते भी रहते, चलते भी रहते लेकिन प्राप्ति की मंज़िल नजर नहीं आती है। बड़ा मुश्किल है - ऐसी आवाज बाप सुने और ऐसे बच्चों को देखे तो बाप क्या करेंगे? मुस्करायेंगे और क्या करेंगे? फिर भी रहमदिल बाप के सम्बन्ध के कारण बार-बार हिम्मत और उल्लास दिलाते रहते हैं कि तुम ही बच्चों ने अनेक बार विजय प्राप्त की है - हिम्मत आपकी, मदद बाप की। फिर भी चलते चलो। रूको नहीं। कल्प पहले मुआफिक फिर से विजयी बन जाओ। सिर्फ एक सेकेण्ड भी सच्चे दिलसे, सर्व सम्बन्धों से याद करो तो उस एक सेकेण्ड में मिलने की अनुभूति व प्राप्ति सारे दिन में बार-बार सब तरफ से दूर कर बाप तरफ आकर्षित करती रहेगी। भले कितने भी निर्बल हो - लेकिन एक सेकेण्ड की याद इतना तो कर सकते हैं? ऐसी निर्बल आत्माओं को एक सेकेण्ड की याद रखने की हिम्मत के रिटर्न (बदले, उत्तर) में बाप हजार गुना मददगार बनेंगे। इससे सहज और क्या करेंगे? या आपकी तरफ से योग भी बाप ही लगायें? नाज़ुक बच्चे हैं न? नाज़ुक बच्चे बाप से भी नाज करते हैं, इसलिए नाज-युक्त नहीं बनो-लेकिन राज-युक्त और युक्ति-युक्त बनो। समझा? अच्छा।
ऐसे चक्रधारी सो छत्रधारी स्वयं को और सब को निर्बल से महा-बलवान बनाने वाले, सर्व कमज़ोरियों की सेकेण्ड में संकल्प में बलि देने वाले, ऐसे महाबलि चढ़ाने वाले महाबलवान अर्थात् मास्टर सर्वशक्तियों को शस्त्र समान कर्त्तव्य में लाने वाले ऐसे कर्मयोगी, सहज योगी आत्माओं के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. जो मनुष्यात्मा वर्तमान संगमयुग के समय स्वदर्शन चक्रधारी है, वही आत्मा भविष्य में छत्रधारी अर्थात् राज्य का अधिकारी बन सकती है।
2. चक्रधारी आत्मा की निशानी यह है कि लाइट का चक्र दिखाई देगा। ऐसी आत्मा माया के अनेक प्रकार के चक्करों से मुक्त, प्रकृति के भिन्न-भिन्न प्रकार के आकर्षणों से परे, बिन्दु रूप में स्थित
19-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शक्तियों एवं पाण्डवों की विशेषताएँ
सभी आत्माओं की जन्मपत्री जानने वाले, ज्ञान-सागर त्रिकालदर्शी परमात्मा शिव ने बताया -
आज अमृतवेले सर्व सेवा-स्थानों का सैर किया। वह सैर का समाचार सुनाते हैं। ‘‘क्या देखा-हर एक रूहानी बच्चे रूह को राहत देने के लिए, मिलन मनाने के लिए, रूह-रूहान करने के लिए व अपने दिल की बातें दिलाराम बाप के आगे (दिलाराम अर्थात् दिल को आराम देने वाला) रखते हुए अपने को डबल लाइट का वरदान दे भी रहे थे और ले भी रहे थे। कोई-कोई बच्चे विश्व-कल्याणी स्वरूप में स्थित हो बाप द्वारा मिले हुए सर्व शक्तियों का वरदान व महादान अनेक आत्माओं के प्रति दे रहे थे। तीन प्रकार की रिजल्ट देखी। एक थे लेने वाले, दूसरे थे मिलन मनाने वाले और तीसरे थे लेकर देने वाले अर्थात् कमाई करने वाले। ऐसे तीन प्रकार के बच्चों को चारों ओर देखा।’’
यह सब देखते हुए इसके बाद गॉडली स्टुडेण्ट के रूप में देखा - हर एक स्टुडेन्ट के रूप में गॉडली नॉलेज पढ़ने के लिए उमंग और उत्साह से अपने-अपने रूहानी विश्व-विद्यालय की ओर आ रहे हैं। नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार सब अपनी पढ़ाई में लगे हुए थे। - हर एक सेवा केन्द्र की रूहानी रौनक अपनी-अपनी थी। उसमें भी तीन प्रकार के देखे। एक थे सिर्फ सुनने वाले अर्थात् सुन-सुन कर हर्षित होने वाले, दूसरे थे सुनकर समाने वाले और तीसरे थे बाप समान नॉलेजफुल बनकर औरों को बनाने वाले।
यह सब देखते हुए फिर तीसरी स्टेज देखी - वह थी कर्मयोगी की स्टेज। तीसरी स्टेज में क्या देखा? एक थे कमल पुष्प, दूसरे थे रूहानी गुलाब और तीसरे थे वैरायटी प्रकार के फूल। उन वैरायटी फूलों में भी मैजॉरिटी सूर्यमुखी थे। जिस समय ज्ञानसूर्य के सम्मुख थे तो खिले हुए थे और कभी फिर ज्ञानसूर्य बाप से किनारा कर लेने के कारण फूलों के बजाय कलियाँ बन जाते थे अर्थात् रूप और रंग बदल जाता था। कमल-पुष्प क्या करते थे? सर्व कार्य करते हुए, सर्व सम्बन्धों के सम्पर्क में आते हुए न्यारे और साथ-साथ बाप के प्यारे थे। वायुमण्डल व आसुरी संग अनेक प्रकार की वृत्ति वाली आत्माओं के वाइब्रेशन्स के बीच कर्म करते हुए भी कर्म और योग दोनों में समान स्थिति में स्थित थे। अनेक प्रकार की हलचल में भी अचल थे। लेकिन ऐसी आत्मायें कितनी थी? 25% । उसमें भी मैजॉरिटी शक्तियाँ थी। पाण्डव सोच रहे हैं कि क्यों? पाण्डवों की विशेषता भी सुनाते हैं, थोड़ा समय सिर्फ धैर्य रखो। पाण्डव-पति के हमजिन्स पाण्डव की भी महिमा है। कमल-पुष्प के आगे रूहानी गुलाब वह कौन थे? रूहानी गुलाब जो सदा अपने रूहानियत की स्थिति में स्थित रहते हुए सर्व को भी रूहानि्ायत की दृष्टि से देखने वाले, सदा मस्तक मणि को देखने वाले हैं। साथ-साथ अपनी रूहानियत की स्थिति से सदा अर्थात् हर समय सर्व आत्माओं को अपनी स्मृति, दृष्टि और वृत्ति से रूहानी बनाने के शुभ संकल्पों में रहने वाले अर्थात् हर समय योगी तू आत्मा सेवाधारी आत्मा हो कर चलने वाले - ऐसे रूहानी गुलाब चारों ओर की फुलवारी के बीच बहुत थोड़े कहीं-कहीं देखे? यह परसेन्टेज कम थी। 10% वैरायटी फूलों के अन्दर एक तो सूर्यमुखी सुनाया दूसरी क्वॉलिटी हर मौसम के बड़े सुन्दर रंगबिरंगे फूल होते हैं, उन पर मौसम की रंग-रूप की रौनक बड़ी अच्छी होती है। बगीचे की शो बढ़ा देते हैं। ऐसे मौसम के रंग बिरंगे फूलों के दृश्य बहुत देखे। रंग और रूप- यहाँ भी रूप ब्रह्माकुमारी और ब्रह्माकुमार का है, रंग ज्ञान का लगा हुआ है। तो रंग भी और रूप भी है, लेकिन रूहानियत कम। रूहानी दृष्टि और वृत्ति की सुगन्ध न के बराबर है। अभी-अभी मौसम के अनुसार अर्थात् थोड़े समय के लिये खिले हुए होंगे और थोड़े समय बाद मुरझाए हुए नज़र आयेंगे। सदा एकरस नहीं। ऐसे रंग-बिरंगे फूल जो मौसम में ही खिलते हैं, मैजॉरिटी में थे।
वर्तमान समय रूहानी दृष्टि और वृत्ति के अभ्यास की बहुत आवश्यकता है। 75% इस रूहानियत के अभ्यास में कमज़ोर हैं। मैजॉरिटी किसी-न-किसी प्रकार के प्रकृति के आकर्षण के वशीभूत हो ही जाते हैं। व्यक्ति व वैभव कभी-न-कभी अपने वश कर लेता है। उसमें भी मन्सा संकल्प के चक्कर में खूब परेशान होने वाले हैं। इस परेशानी के कारण स्वयं से दिलशिकस्त भी हो जाते हैं। वास्तव में ब्राह्मण आत्मा अगर संकल्प में विकारी दृष्टि और वृत्ति रखती है अर्थात् इस चमड़ी को देखती है - चमड़ी अर्थात् जिस्म द्वारा विकारी भावना रखते हैं - तो ऐसी भावना रखने वाले भी ‘महापापी’ की लिस्ट में आ जाते हैं। ब्राह्मण जीवन में बड़े से बड़ा पाप व दाग इस विकारी भावना का गिना जाता है। ब्राह्मण अर्थात् दिव्य-बुद्धि के वरदान वाले। दिव्य नेत्र के वरदान वाले, ऐसे दिव्य बुद्धि और दिव्य नेत्र वाले बुद्धि में संकल्प द्वारा दिव्य नेत्र में एक सेकेण्ड के लिए भी नजर द्वारा इस चमड़ी को व जिस्म को टच भी नहीं कर सकते। दिव्य बुद्धि का, दिव्य नेत्र का शुद्ध आहार और व्यवहार शुद्ध संकल्प हैं। अगर अपने शुद्ध संकल्प रूपी आधार अर्थात् भोजन को छोड़ अशुद्ध आहार स्वीकार करते हो अर्थात् संकल्प के वशीभूत हो जाते हैं तो ऐसे मलेच्छ भोजन वाले मलेच्छ आत्मा कहलायेंगे अर्थात् महापापी, आत्मघाती कहलायेंगे। इसलिए इस महापाप के संकल्प से भी स्वयं को सदा बचाने का प्रयत्न करो। नहीं तो इस महापाप का दण्ड बहुत कड़े रूप में भोगना पड़ेगा। इसलिए दिव्य बुद्धि और सदा शुद्ध आहारी बनो। समझा?
पाण्डवों की विशेषता क्या देखी? सेवा प्रति हार्ड वर्कर (परिश्रमी) प्लैनिंग (नियोजन) बुद्धि अथक बन सेवा की स्टेज पर हर समय एवर रेडी हैं। सेवा के सब्जेक्ट में मैदान पर आने वाले मैजारिटी पाण्डव हैं, इस विशेषता में पाण्डव आगे हैं और इसी सेवा के रिटर्न में हिम्मत और हुल्लास अनुभव करते चल रहे हैं। पाण्डव वातावरण के विकारी वायब्रेशन के बीच ज्यादा रहते हैं, इसलिए ऐसे वातावरण में रहते हुए ‘न्यारे और प्यारे’ रहते हैं, तो उनको इस सफलता में शक्तियों से एकस्ट्रा मार्क्स मिलती हैं। लेकिन इस लॉटरी को और ज्यादा कार्य में लाओ व ऐसा गोल्डन चान्स और ज्यादा लेना। सुना आज के सैर का समाचार। अच्छा।
ऐसे इशारे से समझने वाले समझदार, स्थूल-सूक्ष्म शुद्ध आहारी, सदा श्रेष्ठ व्यवहारी, हर संकल्प में विश्व-कल्याण की भावना रखने वाले विश्व-कल्याणी आत्माओं के प्रति बापदादा की याद-प्यार और नमस्ते।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-तत्व
पाण्डव सदा एवररेडी और सेवा प्रति हार्ड वर्कर (परिश्रमी) प्लानिंग (नियोजन) बुद्धि, अथक सेवा की स्टेज पर हर समय तैयार रहने वाले हैं। पाण्डव वातावरण के विकारी वायुमण्डल के बीच ज्यादा रहते हुए भी न्यारे और प्यारे रहते हैं तो शक्तियों से अधिक मार्क्स पा सकते हैं।
20-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शक्ति होते हुए भी जीवन में सफलता और सन्तुष्टता क्यों नहीं?
सर्वशक्तियों, सिद्धियों और निधियों के दाता, शिव बाबा बोले -
जैसे बाप सर्व गुणों के सागर हैं, क्या आप भी वैसे ही अपने को मास्टर सागर समझते हो? सागर अखण्ड, अचल और अटल होता है। सागर की विशेष दो शक्तियाँ सदैव देखने में आयेंगी - एक समाने की शक्ति, जितनी समाने की शक्ति है उतनी सामना करने की भी शक्ति है। लहरों द्वारा सामना भी करते हैं और हर वस्तु व व्यक्ति को स्वयं में समा भी लेते हैं। तो मास्टर सागर होने के कारण अपने में भी देखो कि यह दोनों शक्तियाँ मुझ में कहाँ तक आई हैं? अर्थात् कितने परसेन्टेज में हैं? क्या दोनों शक्तियों को समय-प्रमाण यूज़ कर सकते हो? क्या शक्तियों द्वारा सफलता का अनुभव होता है?
कई बच्चे सर्व शक्तियों का स्वयं में अनुभव भी करते हैं और समझते हैं कि मुझ में यह शक्तियाँ हैं। लेकिन शक्तियाँ होते हुए भी कही-कही वे सफलता का अनुभव नहीं करते। ज्ञानस्वरूप, आनन्द, प्रेम, सुख और शान्ति स्वरूप स्वयं को समझते हुए भी स्वयं से सदा सन्तुष्ट नहीं अथवा पुरुषार्थी होते हुए भी प्रारब्ध अर्थात् प्राप्ति का प्रत्यक्ष फल के रूप में जो अनुभव होना चाहिए, वह कभी-कभी ही कर सकते हैं। सर्व नियमों का पालन भी करते हैं, फिर भी स्वयं को सदा हर्षित अनुभव नहीं करते। मेहनत बहुत करते हैं लेकिन फल का अनुभव कम करते हैं। माया को दासी भी बनाते हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी उदासी महसूस करते हैं। इसका कारण क्या है? शक्तियाँ भी है, साथ-साथ ज्ञान भी हैं, नियमों का पालन भी करते हैं, तब कमी किस बात में है कि स्वयं, स्वयं से ही कन्फ्यूज रहते हैं?
इसमें कमी यह है कि प्राप्त की हुई शक्ति को व ज्ञान की प्वॉइन्ट्स को जिस समय, जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिए उस समय, उस रीति से यूज़ करना नहीं आता है। बाप से प्रीति है, ज्ञान से भी प्रीति है, दिव्य गुण-सम्पन्न जीवन से भी प्रीति है - लेकिन प्रीति के साथ-साथ रीति नहीं आती है व रीति के साथ ‘प्रीति’ नहीं आती। इसलिए अमूल्य वस्तु भी साधारण प्राप्ति का आधार बन जाती हैं। जैसे स्थूल में भी कितना ही बड़ा यन्त्र व मूल्यवान वस्तु पास होते हुए भी यूज़ करने की रीति नहीं आती है तो उस द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये वह नहीं कर पाते हैं, ऐसे ही ज्ञानवान बच्चे भी ज्ञान और शक्तियों द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये, नहीं कर पाते हैं। ऐसी आत्माओं के ऊपर बापदादा को भी रहम आता है।
अब वह रीति, जो न आने के कारण प्राप्ति का अनुभव नहीं कर पाते, वह रीति कैसे आये? इसमें चाहिये - निर्णय शक्ति। निर्णय शक्ति न होने के कारण जहाँ समाने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये वहाँ सामना करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। जहाँ समेटने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये, वहाँ विस्तार करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। इसलिये संकल्प सफलता का होता है, लेकिन स्वरूप में व प्राप्ति में संकल्प-प्रमाण सफलता नहीं होती है। विशेष शक्ति की प्राप्ति का मुख्य आधार क्या है? निर्णय शक्ति को तेज करने के लिए किस बात की आवश्यकता है? कोई भी यन्त्र स्पष्ट निर्णय नहीं कर पाता तो उसका कारण क्या होता है? निर्णय शक्ति को बढ़ाने के लिए अपनी श्रेष्ठ स्थिति - निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी और निर्विकल्पता की चाहिए। अगर इन चारों में से किसी भी बात की कमी रह जाती है, तो यह श्रेष्ठ धारणा न होने के कारण स्पष्टता नहीं होती है। श्रेष्ठ ही स्पष्ट होते हैं। यही उलझन बुद्धि को स्वच्छ नहीं बनने देती। ‘स्वच्छता ही श्रेष्ठता’ है। इसलिए अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाओ। तब ही बाप के समान सर्व-गुणों में मास्टर सागर अनुभव कर सकेंगे।
जैसे सागर अनेक वस्तुओं से सम्पन्न होता है वैसे स्वयं को भी सर्वशक्तियों से सम्पन्न स्वरूप का अनुभव करो, क्योंकि सम्पन्नता का वरदान संगमयुग पर ही मिलता है। सम्पन्न-स्वरूप का अनुभव सिवाय संगमयुग के और कहीं भी नहीं कर सकेंगे। आपके ही दैवी जीवन के सर्वगुण सम्पन्न होने का गायन है। 16 कलाओं का भी गायन है। लेकिन सम्पन्न का स्वरूप क्या होता है? गुण और कला की नॉलेज इस ईश्वरीय जीवन में ही है। इसलिये सम्पन्न बनने का आनन्द इस ईश्वरीय जीवन में ही प्राप्त कर सकते हो।
रीति सीखने के लिये, बाप द्वारा जो भी प्राप्त होता जा रहा है, चाहे ज्ञान, चाहे शक्तियाँ, इन्हों को समय प्रमाण कार्य में लगाते जाओ। बहुत अच्छी बातें हैं और बहुत अच्छी चीज है, सिर्फ यह समझ कर अन्दर समा न लो। अर्थात् बुद्धि की तिजोरी में रख न लो। सिर्फ बैंक बैलेन्स न बनाते जाओ या कई बुजुर्गो के मुआफिक गठरियाँ बाँध कर अन्दर रख न दो। सिर्फ सुनने और रखने का आनन्द नहीं लो, लेकिन बार-बार स्वयं के प्रति और सर्व आत्माओं के प्रति काम में लगाते जाओ क्योंकि इस समय की जो प्राप्ति हो रही है, इन प्राप्तियों को यूज़ करने से ईश्वरीय नियम-प्रमाण जितना यूज़ करेंगे उतनी वृद्धि होगी, जैसे दान के लिये कहावत है - ‘धन दिये धन न खुटे’, अर्थात् देना ही बढ़ना है, ऐसे ही इन ईश्वरीय प्राप्तियों को अनुभव में लाने से प्राप्ति कम नहीं होगी, बल्कि और ही प्राप्ति स्वरूप का अनुभव करोगे। बार-बार युज़ करने से, जैसा समय वैसा स्वरूप अपना बना सकेंगे व जिस समय जो शक्ति यूज़ करनी चाहिये वह शक्ति उस रीति यूज़ कर सकेंगे। समय पर धोखा खाने से बच जायेंगे। धोखा खाने से बचना अर्थात् दु:ख से बचना। तो क्या बन जायेंगे? - सदा हर्षित अर्थात् सदा सुखी, खुशनसीब बन जायेंगे। तो अब अपने ऊपर रहम करके, प्राप्तियों को यूज़ करके और प्रीति के साथ रीति को जान करके, सदा मास्टर ज्ञान सागर बनो, शक्ति का सागर बनो और सर्व प्राप्तियों का सागर बनो। अच्छा।
ऐसे सर्व अनुभवों से सम्पन्न मायाजीत, जगतजीत, अपने अनुभवों द्वारा सर्व को अनुभवी बनाने वाले बापदादा के भी बालक सो मालिक, ऐसे बाप के मालिक और विश्व के मालिक आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!
इस मुरली की विशेष बातें अथवा तथ्य
1. ज्ञानसागर बाप द्वारा प्राप्ति की हुई शक्तियों व ज्ञान के तथ्यों को जिस समय जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिये उस समय उस रीति से उपयोग न कर सवने के कारण स्वयं में उलझे हुए रहते हैं और सफलता व सिद्धि की अनुभूति अपने जीवन में नहीं कर पाते हैं।
2. उपयोग की उचित रीति को जानने के लिये अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।
21-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
फरिश्ता अर्थात् जिसका एक बाप के सिवा अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं
एक के द्वारा सर्व-सम्बन्धों के सुख की अनुभूति कराने वाले, मुश्किल को सहज करने वाले, देह रूपी धरनी से सदा न्यारे, करन-करावनहार शिव बाबा बोले –
‘‘वाह रे - मैं!’’ का नशा याद है? वह दिन, वह झलक और फलक स्मृति में आती है? वह नशे के दिन अलौकिक थे। ऐसे नशे के दिन स्मृति में आते ही नशा चढ़ जाता है - इतना नशा इतनी खुशी जो स्थूल पाँव भी चलते-फिरते नैचुरल डान्स करते हैं - प्रोग्राम से डान्स नहीं। मन में भी नाच और तन भी नैचुरल नाचता रहे। यह नैचुरल डान्स तो निरन्तर हो सकता है? ऑखों का देखना, हाथों का हिलना और पाँव का चलना सब खुशी में नैचुरल डान्स करते हैं। उनको फरिश्तों का डान्स कहते हैं - ऐसे नैचुरल डान्स चलता रहता है? जैसे कहते हैं कि फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं टिकते। ऐसे फरिश्ते बनने वाली आत्मायें भी इस देह अर्थात् धरती - जैसे वह धरती मिट्टी है वैसे यह देह भी मिट्टी है ना? तो फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं रहते अर्थात् फरिश्ते बनने वाली आत्माओं के पाँव अर्थात् बुद्धि इस देह रूपी धरती पर नहीं रह सकती। यही निशानी है फरिश्तेपन की। जितना फरिश्तेपन की स्थिति के समीप जाते रहते, उतना देह रूपी धरती से पाँव स्वत: ही ऊपर होंगे। अगर ऊपर नहीं हैं, धरती पर रहते हैं तो समझो बोझ है। बोझ वाली वस्तु ऊपर नहीं रह सकती। हल्कापन न है, बोझ है तो इस देह-रूपी धरती पर बार-बार पाँव आ जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् हल्का नहीं बनेंगे। फरिश्तों के पाँव धरती से ऊंचे स्वत: ही रहते हैं, करते नहीं हैं। जो हल्का होता है उनके लिये कहते हैं कि यह तो जैसे हवा में उड़ता रहता है - चलता नहीं है, उड़ता है। ऐसे ही फरिश्ते भी ऊंची स्थिति में उड़ते हैं। ऐसे नैचुरल फरिश्तों का डान्स देखने और करने में भी मजा आता है। महारथी टीचर्स यह नेचुरल फरिश्तों की डान्स करती रहती हैं ना?
करन-करावनहार शिव बाबा ने अपने सम्मुख बैठी टीचर्स से पूछा - (कोई ने कहा, बाबा माया के हाथ काट दो) अगर बाप माया के हाथ काट दे तो जो काटेगा, वह पायेगा। बाप तो सब कुछ कर सकते हैं। सेकेण्ड का आर्डर है - लेकिन भविष्य बनाने वालों का भविष्य कैसे बने? बाप सबके लिये कर दे या सिर्फ आपके लिए कर दे। फिर तो जैसे आज की दुनिया में रिश्वतखोर हैं तो यह भी वही लिस्ट हो जायेगी। इसलिए जैसे नेपाल में भी छोटे बच्चों को खुखडी (छुरी) हाथ में पकड़ाते हैं। करते खुद हैं लेकिन हाथ बच्चों का रखाते हैं। इतना हो सकता है लेकिन हिम्मत का हाथ खुद ज़रूर रखना है। इतना तो करना है ना? यह टीचर्स की टॉपिक (चर्चा का विषय) है - सारे दिन में कितना समय फरिश्ते रहते और कितना समय फरिश्तों के बजाय मृत्युलोक के मानव होते हो? दैवी परिवार के रिश्तों में भी फरिश्ते नहीं आते। वह तो सदैव न्यारे रहते हैं। रिश्ते सब किससे हैं? अगर कोई को सखी बनाया तो बाप से वह सखीपन का रिश्ता कम हो जायेगा। कोई भी सम्बन्ध चाहे बहन का या भाई का या अन्य कोई भी रिश्ता जोड़ा तो एक से ज़रूर वह रिश्ता हल्का होगा। क्योंकि बँट जाता है ना? दिल का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया तो टूटा हुआ दिल हो गया। टूटे हुए दिल को बाप भी स्वीकार नहीं करते। यह भी गुह्य रिश्तों की फिलॉसॉफी है।सिवाय एक के और कोई से रिश्ता नहीं - न सखा न सखी। न बहन न भाई- नहीं तो उस सम्बन्ध में भी आत्मा ही याद आयेगी।
फरिश्ता अर्थात् जिसका आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। प्रीति जुटाना सहज है, लेकिन निभाना मुश्किल है। निभाने में ही नम्बर होते हैं। जुटाने में नहीं होते। निभाना किसी-किसी को आता है, सब को नहीं आता। निभाने की लाइन बदली हो जाती है। लक्ष्य एक होता है लक्षण दूसरे हो जाते हैं। इसलिये निभाते कोई- कोई हैं, जुटाते सब हैं। भक्त भी जुटाते हैं लेकिन निभाते नहीं हैं। बच्चे निभाते हैं, लेकिन उसमें भी नम्बरवार। कोटो में कोई और कोई-कोई में भी कोई। कोई एक सम्बन्ध में भी अगर निभाने में कमी हो गई या सम्बन्ध में जरा-सी भी कमी हुई, मानों 75% सम्बन्ध बाप से है और 25% सम्बन्ध कोई एक आत्मा से है, तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं रखेंगे। बाप का साथ 75% रखते हैं और कभी-कभी 25% कोई का साथ लिया तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं आयेंगे। निभाना-तो निभाना। यह भी गुह्य गति हैं। संकल्प में भी कोई आत्मा न आये। इसको कहते हैं सम्पूर्ण निभाना। कैसी भी परिस्थिति हो, चाहे मन की, तन की, या सम्पर्क की-कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। संकल्प में भी कोई आत्मा की स्मृति आई तो उसी सेकेण्ड का भी हिसाब बनता है। तभी तो आठ पास होते हैं। विशेष आठ का ही गायन है। ज़रूर इतनी गुह्य गति होगी? बड़ा कड़ा पेपर है। तो फरिश्ता उनको कहा जाता है, जिसके संकल्प में भी कोई न रहे। कोई परिस्थिति में, मजबूरी में भी नहीं। सेकेण्ड के लिये संकल्प में भी न हो। मजबूरी में भी मजबूत रहे-तब है फरिश्ता। ऊंची मंज़िल है, लेकिन इसमें कोई नुकसान नहीं है। सहज इसलिये है क्योंकि प्राप्ति पदम गुना होती है।
जो बाप के रिश्ते से प्राप्ति होती है, वह उसी सेकेण्ड में स्मृति में नहीं आती है, भूल जाते हैं इसलिये कोई का आधार ले लेते हैं। प्राप्ति कोई कम है क्या? मुश्किल से सहज करने वाले बाप का ही गायन है, न कि कोई आत्मा का। तो मुश्किल के समय बाप का सहारा लेना चाहिए, न कि किसी आत्मा का सहारा लेना चाहिए। लेकिन उस समय वह प्राप्ति भूल जाती है। कमज़ोर होते हैं। जैसे डूबते हुए को तिनका मिल जाता है तो उसका सहारा ले लेते हैं। उस समय परेशानी के कारण जो तिनका सामने आता है, उनका सहारा ले लेते हैं, लेकिन उससे बे-सहारे हो जायेंगे, यह स्मृति में नहीं रहता? अच्छा।
इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु
1. फरिश्ता बनने वाली आत्माओं के बुद्धि रूपी पाँव इस देह रूपी धरनी पर नहीं टिकते।
2. फरिश्ता अर्थात् जिसका अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। सर्व रिश्ते एक रूहानी बाप से हों। कैसी भी परिस्थिति हो - चाहे मन की, तन की या सम्पर्क की कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। जो मजबूरी में भी मजबूत रहेतब वह है फरिश्ता।
22-09-75 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वमान में स्थित होना ही सर्व खजानें और खुशी की चाबी है
सर्व आत्माओं के शुभ-चिन्तक, अविनाशी ज्ञान, शक्ति और खुशी के खज़ाने देने वाले विदेही शिव बाबा बोले -
आज की सभा स्वमान में स्थित रहने वाली, सर्व को स्व-भावना से देखने व हर आत्मा के प्रति शुभ कामना रखने वाली है। यह तीनों ही बातें स्वयं के प्रति स्वमान, औरों के प्रति स्व की भावना और सदा शुभ कामना ऐसी स्थिति सदा सहज रहती है? सहज उसमें स्थित रहना और मेहनत से उस स्थिति में स्थित होना इसका फर्क तो जानते ही हो। वर्तमान समय यह स्थिति सदा सहज और स्वत: होनी चाहिए। अपने को चेक करे कि सदा और स्वत: ही वह स्थिति क्यों नहीं हो पाती? इसका मूल कारण है कि स्वमान में स्थित नहीं रहते। स्वमान एक शब्द प्रैक्टिकल जीवन में धारण हो जाय तो सहज ही सम्पूर्णता को पा सकते हैं।
स्वमान में स्थित होने से स्वत: ही सर्व प्रति स्व की भावना व शुभ कामना हो जायेगी। यह स्वमान में स्थित होना पहला पाठ है।’’ स्&