05-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
त्यागी और तपस्वी बच्चे सदा पास हैं
ज्ञानसूर्य शिवबाबा नैन मुलाकात करते हुए अपने नूरे रत्नों से बोले :-
आज नैनों में समाये हुए बच्चों से नैन मिलन कर रहे हैं, ऐसे बच्चों की दृष्टि में बाप-दादा और ब्राह्मण ही हैं और ये ही उनकी सृष्टि है। वे और कुछ भी देखते हुए देखते नहीं हैं क्योंकि बाप के लव (Love) में सदा लवलीन रहते हैं। सदा बाप के गुणों अर्थात् ज्ञान, सुख, आनन्द के सागर में समाए हुए रहते हैं ऐसे बच्चों को बापदादा भी देख-देख हर्षित होते हैं। चाहे शरीर से कितना भी दूर हो, लेकिन ऐसे बच्चों का बाप के पास समीप से समीप स्थान सदा के लिए फिक्स (Fix) है। वह कौन-सा स्थान है, जानते हो?
जो अति प्रिय वस्तु होती है, वह समीप स्थान पर होती है। वह स्थान है - एक नैन और दूसरा दिल। तो दिल में समाने वाले श्रेष्ठ हैं या नैनों में समाने वाले श्रेष्ठ हैं? दोनों में नम्बर वन (Number One) कौन? दोनों का महत्व एक है या अलग- अलग? जो समझते हैं दोनों का महत्व एक है अथवा जो दिल में होते सो नैनों में होते हैं, वे हाथ उठाओ। जो समझते हैं कि दोनों का महत्व अलग-अलग है, नैनों में समाने वाले अलग, दिल में समाने वाले अलग वे हाथ उठाओ। एक होते हुए भी अलग- अलग महत्व है इसलिए दोनों ही ठीक हैं। जब इतने त्यागी और तपस्वी बच्चे अपने अनेक धर्मों और अपनी देह के धर्म के कर्म में हरेक रस्म का त्याग कर बाप-दादा की याद की तपस्या में लगे हुए हैं, ऐसे त्यागी और तपस्वी बच्चों को फैल (Fail) कैसे कर सकते हैं, इसलिए सदा पास हैं।
विदेशी सभी Short (थोड़े में) में पढ़ते हैं; क्योंकि बिज़ी रहते हैं। बाप-दादा ने एक ही शब्द याद दिलाया है, वो कौन-सा शब्द? एक ही शब्द है पास (Pass) होना है, पास (Near) रहना है, और जो कुछ बीत जाता है वह पास हो गया - एक शब्द के तीन अर्थ हैं। ये ही Short Cut (छोटा रास्ता) हो जाएगा; और पास विद् ऑनर (Pass With Honour) (सम्मान पूर्वक सफलता पाना) होना है।
लेकिन इस अर्थ में स्थित होने के लिए सदैव बाप समान समाने की शक्ति और बाप समान बनाने की शक्ति, दोनों भरने की आवश्यकता है। क्योंकि बाप समान बनने के लिए जब सेवा की स्टेज पर आते हो तो अनेक प्रकार की बातें सामने आती हैं। उन बातों को समाने की शक्ति के आधार से मास्टर सागर बन जाते हो और औरों को भी बाप समान बना सकते हो। समाना अर्थात् संकल्प रूप में भी किसी की व्यक्त बातों और भाव का आंशिक रूप समाया हुआ न हो। अकल्याणकारी बोल कल्याण की भावना में ऐसे बदल जाए जैसे अकल्याण का बोल था ही नहीं, ऐसी स्टेज को विश्व-कल्याणकारी स्टेज कहा जाता है। किसी का भी कोई अवगुण देखते हुए एक सेकेण्ड में उस अवगुण को गुण में बदल दें। नुकसान को फायदे में बदल दें। निन्दा को स्तुति में बदल दें, ऐसी दृष्टि और स्मृति में रहने वाला ही विश्व-कल्याणकारी कहा जाता है। विश्व-कल्याणकारी ही नहीं, लेकिन स्वयं-कल्याणकारी भी बनें। ऐसी स्टेज बाप-समान कही जाती है।
अच्छा, विदेशी सो स्वदेशी; बाप-दादा तो स्वदेशी देख रहे हैं, न कि विदेशी। स्वदेशी बच्चों की स्नेह की यादगार ‘प्रत्यक्ष फल’ विशेष बाप-दादा का मिलना है। विदेशी सो स्वदेशी बच्चों की अमृतवेले की रूह-रूहान बहुत रमणीक होती है। उस समय विशेष दो रूप होते हैं - एक अधिकार रूप से मिलते और बातचीत करते हैं; और दूसरे उल्हनों के और तड़पती हुई आत्माओं के रूप में बात करते हैं। बाप-दादा को सुनकर के मज़ा आता है। लेकिन एक विशेषता मैजारिटी (अधिकतर) आत्माओं की देखी कि विदेशी सो स्वदेशी आत्माएं थोड़े में राज़ी होने वाले नहीं हैं। मैजारिटी विशेष दाव लगाते हैं। राम-सीता भी बनने वाले नहीं, लक्ष्मी-नारायण बनना चाहते हैं। इसलिए श्रेष्ठ लक्ष्य रखने के कारण बच्चों को बाप-दादा भी मुबारक देते हैं। आपको सदा इसी श्रेष्ठ लक्ष्य और लक्षण में रहना है। बाप-दादा के आगे दूर नहीं हो। जो तख्त-नशीन हैं, वह सदैव समीप हैं, आज सर्व विचारशील बच्चों को एक ही संकल्प है ‘मिलन’ का। ऐसे ही सोते हुए भी याद में रहना है। बाप-दादा भी चारों ओर के विदेशी बच्चों को सम्मुख देखते हुए याद दे रहे हैं।
श्रेष्ठ लक्ष्य रखने वाले, खुशी-खुशी से बाप से सौदा करने वाले, बाप और सेवा में सदा मगन रहने वाले, लास्ट सो फास्ट, स्नेही-सहयोगी आत्माओं को, बाप को भी आप समान व्यक्त रूप बनाने वाले, कल्प पहले वाले, चमकते हुए सितारों प्रति बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
07-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
विश्व-कल्याणकारी कैसे बनें?
विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा अपने बच्चों को भी आप समान विश्व-कल्याणकारी स्थिति में स्थित होने की विधि बताते हुए बोले :-
सभी आवाज़ से परे अपने शान्त स्वरूप स्थिति में स्थित रहने का अनुभव बहुत समय कर सकते हो? आवाज़ में आने का अनुभव ज्यादा कर सकते हो वा आवाज़ से परे रहने का अनुभव ज्यादा समय कर सकते हो? जितना लास्ट स्टेज़ (Last Stage) अथवा कर्मातीत स्टेज समीप आती जाएगी उतना आवाज़ से परे शान्त स्वरूप की स्थिति अधिक प्रिय लगेगी इस स्थिति में सदा अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति हो। इसी अतीन्द्रिय सुखमय स्थिति द्वारा अनेक आत्माओं का सहज ही आह्वान कर सकेंगे। यह पॉवरफुल (Powerful) स्थिति ‘विश्व-कल्याणकारी स्थिति’ कही जाती है। जैसे आजकल साईन्स के साधनों द्वारा सब चीजें समीप अनुभव होती जाती हैं - दूर की आवाज़ टेलीफोन के साधन द्वारा समीप सुनने में आती है, टी.वी. (दूर दर्शन) द्वारा दूर का दृश्य समीप दिखाई देता है, ऐसे ही साईलैन्स की स्टेज द्वारा कितने भी दूर रहती हुई आत्मा को सन्देश पहुँचा सकते हो? वो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे साकार में सम्मुख किसी ने सन्देश दिया है। दूर बैठे हुए भी आप श्रेष्ठ आत्माओं के दर्शन और प्रभु के चरित्रों के दृश्य ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि सम्मुख देख रहे हैं। संकल्प के द्वारा दिखाई देगा अर्थात् आवाज़ से परे संकल्प की सिद्धि का पार्ट (Part) बजाएंगे। लेकिन इस सिद्धि की विधि ज्यादा-से-ज्यादा अपने शान्त स्वरूप में स्थित होना है। इसलिए कहा जाता है - साइलेन्स इज़ गोल्ड (Silence Is Gold), यही गोल्डन ऐजड स्टेज (Golden Aged Stage) कही जाती है।
इस स्टेज पर स्थित रहने से ‘कम खर्च बाला नशीन’ बनेंगे। समय रूपी खज़ाना, एनर्जी का खज़ाना और स्थूल खज़ाना में ‘कम खर्च बाला नशीन’ हो जायेंगे। इसके लिए एक शब्द याद रखो। वह कौन-सा है? ‘बैलेन्स’ (Balance)। हर कर्म में, हर संकल्प और बोल, सम्बन्ध वा सम्पर्क में बैलेन्स हो। तो बोल, कर्म, संकल्प, सम्बन्ध वा सम्पर्क साधारण के बजाए अलौकिक दिखाई देगा अर्थात् चमत्कारी दिखाई देगा। हर एक के मुख से, मन से यही आवाज़ निकलेगा कि यह तो चमत्कार है। समय के प्रमाण स्वयं के पुरूषार्थ की स्पीड और विश्व सेवा की स्पीड तीव्र गति की चाहिए तब विश्व कल्याणकारी बन सकेंगे।
विश्व की अधिकतर आत्मएं बाप की और आप इष्ट देवताओं की प्रतयक्षता का आह्वान ज्यादा कर रही हैं और इष्ट देव उनका आह्वान कम कर रहे हैं। इसका कारण क्या है? अपने हद के स्वभाव, संस्कारों की प्रवृत्ति में बहुत समय लगा देते हो। जैसे अज्ञानी आत्माओं को ज्ञान सुनने की फुर्सत नहीं वैसे बहुत से ब्राह्मणों को भी इस पावरफुल स्टेज पर स्थित होने की फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए ज्वाला रूप बनने की आवश्यकता है।
बाप-दादा हर एक की प्रवृत्ति को देख मुस्कराते रहते हैं कि कैसे टू मच (Too Much;बहुत ज्यादा) बिजी (Busy) होगए हैं। बहुत बिजी रहते हो ना? वास्तविक स्टेज में सदा फ्री (Free) रहेंगे। सिद्धि भी होगी और फ्री भी रहेंगे।
जब साईन्स के साधन धरती पर बैठे हुए स्पेस (Space;अंतरिक्ष) में गए हुए यन्त्र को कन्ट्रोल कर सकते हैं, जैसे चाहे जहाँ चाहे वहाँ मोड़ सकते हैं, तो साईलेन्स के शक्ति-स्वरूप, इस साकार सृष्टि में श्रेष्ठ संकल्प के आधार से जो सेवा चाहे, जिस आत्मा की सेवा करना चाहे वो नहीं कर सकते? लेकिन अपनी-अपनी प्रवृत्ति से परे अर्थात् उपराम रहो।
जो सभी खज़ाने सुनाए वह स्वयं के प्रति नहीं, विश्व-कल्याण के प्रति युज़ (USE;प्रयोग) करो। समझा, अब क्या करना है? आवाज़ द्वारा सर्विस, स्थूल साधनों द्वारा सर्विस और आवाज़ से परे ‘सूक्ष्म साधन संकल्प’ की श्रेष्ठता, संकल्प शक्ति द्वारा सर्विस का बैलेन्स प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ तब विनाश का नगाड़ा बजेगा। समझा?
प्लान्स (Plans;योजनाएं) बहुत बना रहे हो, बाप-दादा भी प्लान बता रहे हैं। बैलेन्स ठीक न होने के कारण मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। विशेष कार्य के बाद विशेष रेस्ट (REST) भी लेते हो ना। फाईनल प्लान में अथकपन का अनुभव करेंगे।
ऐसे सर्व शक्तियों को विश्व-कल्याण के प्रति कार्य में लगाने वाले, संकल्प की सिद्धि स्वरूप, स्वयं की प्रवृत्ति से स्वतन्त्र, सदा शान्त और शक्ति स्वरूप स्थिति में स्थित रहने वाले सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
10-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
जैसा लक्ष्य वैसा लक्षण
सदा बर्थ-राईट (Birth-Right) के नशे में रहने वाले, ईश्वरीय नशे में मस्त रहने वाले, लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले, सर्व को सर्व उलझनों से निकालने वाले बच्चों प्रति बाप-दादा बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के मस्तक और नैनों द्वारा एक विशेष बात देख रहे हैं। अब तक लक्ष्य और लक्षण कितना समीप हैं। लक्ष्य के प्रभाण लक्षण प्रैक्टीकल रूप में कहाँ तक दिखाई देते हैं? लक्ष्य सब का बहुत ऊँचा है लेकिन लक्षण धारण करने में तीन प्रकार के पुरुषार्थी हैं। वह कौन-से हैं?
(1) एक हैं - जिन्हें सुन कर अच्छा लगता है, करना चाहिए, लेकिन सुनना आता है पर करना नहीं आता है।
(2) दूसरे हैं - जो सोचते हैं, समझते भी हैं, करते भी हैं। लेकिन शक्ति-स्वरूप न होने के कारण डबल पार्ट बजाते हैं। अभी-अभी ब्राह्मण, तीव्र पुरुषार्थी अभी-अभी हिम्मतहीन। कारण? पांच विकार और प्रकृति के तत्व, दोनों में से किसी न किसी के वशीभूत हो जाते हैं। इसलिए लक्ष्य और लक्षण में अन्तर पड़ जाता है। इच्छा है लेकिन इच्छा मात्रम् अविद्या बनने की शक्ति नहीं, इस कारण अपने लक्ष्य की इच्छा तक पहुँच नहीं पाते हैं।
(3) तीसरे हैं - जो सुनना, सोचना और करना, तीनों को समान करते हुए चलते हैं। ऐसी आत्माओं का लक्ष्य और लक्षण 99% समान दिखाई पड़ता है। ऐसे तीन प्रकार के पुरुषार्थी देख रहे हैं।
वर्तमान समय हरेक ब्राह्मण आत्मा के संकल्प और बोल को लक्ष्य की कसौटी पर चैक करना चाहिए: लक्ष्य के प्रमाण संकल्प और बोल हैं? लक्ष्य है - फरिश्ता सो देवता। जैसे लौकिक परिवार और आक्यूपेशन (Occupation) के प्रमाण अपना संकल्प, बोल और कर्म चैक (Check) करते हैं वैसे ब्राह्मण आत्माएं अपने ऊँच से ऊँच परिवार और आक्यूपेशन को सामने रखते हुए चलते हैं? वर्तमान मरजीवा ब्राह्मण जन्म नैचुरल (Natural) स्मृति में रहता है वा पास्ट शुद्रपन के लक्षण नैचुरल रूप में पार्ट में आ जाते हैं? जैसा जन्म होता है वैसे कर्म होते हैं। श्रेष्ठ जन्म के कर्म भी स्वत: ही श्रेष्ठ होने चाहिए। अगर मेहनत लगती है तो ब्राह्मण जन्म की स्मृति कम है। वास्तव में श्रेष्ठ कर्म व श्रेष्ठ लक्ष्य श्रेष्ठ जन्म का बर्थ-राईट (Birth Right) जन्मसिद्ध अधिकार है। जैसे लौकिक जन्म में स्थूल सम्पत्ति बर्थ-राईट होती है। वैसे ब्राह्मण जन्म का दिव्य गुण रूपी सम्पत्ति, ईश्वरीय सुख शक्ति बर्थ-राईट है। बर्थ-राईट का नशा नैचुरल रूप में रहता ही है, मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं। अगर मेहनत करनी पड़ती है तो अवश्य सम्बन्ध और कनेक्शन में कोई कमी है। अपने आप से पूछो बर्थ-राईट का नशा रहता है? इस नशे में रहने से ही लक्ष्य और लक्षण समान हो जायेगा, इसके लिए सहज युक्ति जिससे मेहनत से मुक्ति मिल जाये वो कौन-सी है? स्वयं को जो हूँ, जेसा हूँ, जिस श्रेष्ठ बाप और परिवार का हूँ वैसा जानते हो; लेकिन हर समय मानते नहीं हो। अपनी तकदीर की तस्वीर नहीं देखते हो। अगर सदैव अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते रहो तो जैसा साकार शरीर को देखते हुए नैचुरल देह की स्मृति-स्वरूप रहते हो वेसे ही नैचुरल तकदीर की तस्वीर के स्मृति में रहेंगे। चलते फिरते वाह बाबा! और वाह मेरी तकदीर की तस्वीर! यह अजपाजाप अर्थात् मन से यह आवाज़ निकलती रहे। जो भक्त लोग अनहद आवाज़ सुनने का प्रयत्न करते हैं, यह आप की ही स्थिति का गायन भक्ति में चलता रहता है। अपने कल्प पहले की खुशी में सदा नाचने का चित्र जिसको रास-लीला का चित्र कहते हैं - हर गोपी वा गोप सदा गोपीवल्लभ के साथ रास करते हुए दिखाते हैं, यह खुशी में नाचने का यादगार चित्र है। आप के प्रैक्टीकल चरित्र का चित्र बना है। ऐसा प्रैक्टीकल चरित्रवान चित्र सदा देखने में आता है? ऐसे अनुभव करते हो कि यह मेरा ही चित्र है? इसको कहा जाता है ‘तकदीर की तस्वीर’। रोज़ अपनी तकदीर की तस्वीर को देखते हुए हर कर्म करेंगे तो मेहनत से मुक्त हो बर्थ-राईट की खुशी का अनुभव करेंगे।
अब मेहनत करने का समय नहीं रहा, अब तो यह स्मृति-स्वरूप बनो - जो जानना था वह जान लिया, पाना था सो पा लिया ऐसा अनुभव करते हो? बाप-दादा तो हर एक के तकदीर की तस्वीर देख हर्षित होते हैं। ऐसे ही तत् त्वम्। बाप-दादा को विशेष आश्चर्य एक बात का लगता है - मास्टर सर्वशक्तिवान श्रेष्ठ तकदीरवान छोटी-छोटी उलझनों में कैसे उलझ जाते हैं जैसे कि शेर चींटी से घबरा जाता है। अगर शेर कहे ‘‘मैं चीटीं को कैसे मारूं, क्या करूँ’’ तो क्या सोचेंगे? सम्भव बात लगेगी या असम्भव लगेगी? ऐसे मास्टर सर्व शक्तिवान ज़रा-सी उलझन में उलझ जाएं तो क्या बाप को सम्भव बात लगेगी या आश्चर्य की बात लगेगी? इसलिए अब छोटी-छोटी उलझनों से घबराने का समय नहीं है, अब तो सर्व उलझी हुई आत्माओं को निकालने का समय है। समझा ये बचपन की बातें हैं। मास्टर रचयिता के लिए यह बचपन की बातें शोभती नहीं इस लिए कहा है कि सदैव उमंग, उल्लास की रास में नाचते रहो। सदा वाह मेरा भाग्य! और वाह भाग्य विधाता!! इस सूक्ष्म मन की आवाज़ को सुनते रहो। नाचने के साथ जेसे साज चाहिए ना, तो यह अनादि मन का आवाज़ सुनते रहो और खुशी में नाचते रहो।
ऐसे सदा बर्थ-राईट के नशे में रहने वाले, ईश्वरीय मस्ती में सदा रहने वाले, मेहनत से मुक्त होने वाले, लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले, सर्व उलझनों से निकालने वाले,ऐसे श्रेष्ठ तकदीर वाले, पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।
11-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वयं का परिवर्तन ही विश्व-परिवर्तन का आधार
स्वयं के परिवर्तन से विश्व परिवर्तन करने की युक्ति बताते हुए अव्यक्त बाप-दादा बोले :-
बापदादा अपनी फुलवाड़ी को देख भी रहे हैं और सदा देखते भी रहते हैं। अमृतवेले से लेकर फुलवाड़ी को देखते हैं। आज भी बाप-दादा फुलवाड़ी को देख रहे थे कि हर एक किस प्रकार का, कितना खुशबूदार और कैसा रूप-रंग वाला फूल है। कली है या कली से फूल बने हैं? हर एक की विशेषता क्या है और आवश्यकता क्या है? खुशबूदार तो बने, लेकिन वह खुशबू अविनाशी और दूर तक फैलने वाली है? एक फूल होते हैं जिनकी खुशबू सामने से आती है, दूर से नहीं आती। तो यहाँ भी खुशबूदार तो बने हैं, लेकिन जब बाप के सम्मुख वा सेवा के निमित्त आत्माओं के सामने जाते हैं तो खुशबू होती है, लेकिन सेवा के बिना साधारण कर्म करते हुए वा शरीर निर्वाह करते हुए वह खुशबू नहीं रहती। कोई-कोई फूल दूर से भी आकर्षण करता है। रंग-रूप के आधार पर आकर्षण करता है न कि खुशबू के आधार पर। रंग, रूप, खुशबू आदि सभी में सम्पन्न हों - ऐसे बहुत थोड़े से चुने हुए फूल देखे। रंग, रूप अर्थात् सेन्सीबुल (Sensible;समझदार) हैं और खुशबू वाले इसेन्सफुल (Essenceful) हैं। मैजारिटी (Majority) सेन्सीबुल हैं। इसेन्सफुल थोड़े हैं। सेन्स (Sense) के आधार पर सेवाधारी तो बन गए हैं, लेकिन रूहानी सेवाधारी बनें - ऐसे कम हैं। कारण? जैसे बाप निराकार सो साकार बन सेवा का पार्ट बजाते हैं, वैसे बच्चों को इस ‘मंत्र का यंत्र’ भूल जाता है कि हम भी निराकार सो साकार रूप में पार्ट बजा रहे हैं। ‘निराकार सो साकार’ - यह दोनों स्मृति साथ-साथ नहीं रहती हैं। या तो निराकार बन जाते और या साकारी हो जाते हैं। सदा यह मंत्र याद रहे कि ‘निराकार सो साकार’ - यह पार्ट बजा रहे हैं। यह साकार सृष्टि, साकार शरीर स्टेज है। स्टेज और पाटर्धारी दोनों अलग-अलग होते हैं। पार्टधारी स्वयं को कब स्टेज नहीं समझेंगे। स्टेज आधार है, पार्टधारी आधार मूर्त्त है, मालिक है। इस शरीर को स्टेज समझने से स्वयं को पार्टधारी स्वत: ही अनुभव करेंगे। तो कारण क्या हुआ? स्वयं को न्यारा करना नहीं आता है।
सदैव यह समझ कर चलो कि मैं विदेशी हूँ। पराये देश और पुराने शरीर में विश्वकल्याण का पार्ट बजाने के लिए आया हूँ। तो पहला पाठ कमज़ोर होने के कारण सेन्सीबल बने हैं, लेकिन इसैन्स कम है। रूप, रंग है लेकिन खुशबू अविनाशी और फैलने वाली नहीं। इसलिए अभी फिर से बाप-दादा को पहला पाठ रिपीट करना पड़ता है। सेकेण्ड में स्वयं का परिवर्तन सहज करेंगे। पहले अपने-आप से पूछो कि स्वयं के परिवर्तन में कितना समय लगता है। कोई भी संस्कार , स्वभाव, बोल व सम्पर्क यथार्थ नहीं लेकिन व्यर्थ है तो व्यर्थ को परिवर्तन कर श्रेष्ठ बनाने में कितना समय लगता है। सूक्ष्म संकल्पों को, संस्कारों को जो सोचा और किया। चेक किया और चेंज किया - ऐसी तेज़ स्पीड की मशीनरी है?
वर्तमान समय ऐसे स्वयं की परिवर्तन की मशीनरी फास्ट स्पीड की चाहिए। तब ही विश्व-परिवर्तन की मशीन तेज़ होगी। अभी स्थापना के निमित्त बनी हुई आत्माओं के सोचने और करने में अन्तर है। क्योंकि पुराने भक्ति के संस्कार समय प्रति समय इमर्ज (Emerge) हो जाते हैं। भक्ति में भी सोचना और कहना बहुत होता है। ‘यह करेंगे, यह करेंगे’ - यह कहना बहुत होता है, लेकिन करना कम होता है। कहते हैं, बलिहार जायेंगे, लेकिन करते कुछ भी नहीं। कहते हैं ‘तेरा’, मानते हैं ‘मेरा’ (अर्थात् अपना), वेसे यहाँ भी सोचते बहुत हैं, रूह-रूहान के समय वायदे बहुत करते हैं - ‘आज से बदल कर दिखायेंगे। आज यह छोड़कर जा रहे हैं। आज यह संकल्प करते हैं।’ लेकिन कहने और करने में अन्तर है। सोचने और करने में अन्तर है। ऐसे विनाश के निमित्त बनी हुई आत्माएं सोचती हैं लेकिन कर नहीं पाती हैं। तो अब बाप समान बनने के पहले इस एक बात में समान बनो अर्थात् स्वयं के परिवर्तन करने की मशीनरी तेज़ करो। इस अन्तर को मिटाने का मंत्र वा यंत्र सुनाया कि ‘साकार सो निराकार’ में पार्ट बजाने वाले हैं। इस मंत्र से सोचने और करने में अन्तर को मिटाओ। यही आवश्यकता है। समझा, अब क्या करना है?
स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन होगा। विश्व परिवर्तन की डेट नहीं सोचो। स्वयं के परिवर्तन की घड़ी निश्चित करो। स्वयं को सम्पन्न करो तो विश्व का कार्य सम्पन्न हो ही जाएगा। विश्व-परिवर्तन की घड़ी आप हो। अपने-आप में ही देखो कि बेहद की रात समाप्त होने में कितना समय है? सम्पूर्णता का सूर्य उदय होना अर्थात् रात-अन्धकार समाप्त होना। बाप से पूछते हो अथवा बाप आप से पूछे? आधार मूर्त्त आप हो। अच्छा।
ऐसे सेकेण्ड में परिवर्तन करने वाले, सोचने और कर्म में समान बनने वाले, निरन्तर ‘निराकार सो साकार’ मन्त्र स्मृति स्वरूप में लाने वाले, सम्पन्न बन विश्व पर मास्टर ज्ञान सूर्य समान अन्धकार को समाप्त करने वाले, सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे - ऐसे विशेष आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी के साथ
विनाश की डेट का पता है? कब विनाश होना है? जल्दी विनाश चाहते हो वा हाँ और ना की चाहना से परे हो? विनाश के बजाय स्थापना के कार्य को सम्पन्न बनाने में सभी ब्राह्मण एक ही दृढ़ संकल्प में स्थित हो जाएं तो परिवर्तन हुआ ही पड़ा है। जैसे विनाश की डेट में सभी एकमत हो गए ना। वैसे कोई भी सम्पन्न बनने की विशेष बात लक्ष्य में रखते हुए और डेट फिक्स करें - होना ही है। तब सम्पन्न हो जायेंगे। अभी संगठित रूप में एक ही दृढ़ संकल्प परिवर्तन का नहीं करते हो। कोई करता है कोई नहीं करता है। इसलिए वायुमण्डल पावरफुल (Powerful) नहीं बनता है। मैनारिटी (Minority;अल्प संख्यक) होने कारण जो करता है उसका वायुमण्डल में प्रसिद्ध रूप से दिखाई नहीं देता है। इसलिए अब ऐसे प्रोग्राम बनाओ, जो ऐसे विशेष ग्रुप का कर्त्तव्य विशेष हो - ‘दृढ़ संकल्प से करके दिखाना’। जैसे शुरू में पुरूषार्थ के उत्साह को बढ़ाने के लिए ग्रुप्स (Groups) बनाते थे और पुरूषार्थ की रेस (RACE) करते थे, एक दूसरे को सहयोग देते हुए उत्साह बढ़ाते थे, वैसे अब ऐसा तीव्र पुरूषार्थियों का ग्रुप बने, जो यह पान का बीड़ा उठाये कि ‘जो कहेंगे वही करेंगे, करके दिखायेंगे।’ जैसे शुरू में बाप से पवित्रता की प्रतिज्ञा की कि मरेंगे, मिटेंगे, सहन करेंगे, मार खायेंगे, घर छोड़ देंगे, लेकिन पवित्रता की प्रतिज्ञा सदा कायम रखेंगे - ऐसी शेरनियों के संगठन ने स्थापना के कार्य में निमित्त बन करके दिखाया, कुछ सोचा नहीं, कुछ देखा नहीं - करके दिखाया, वैसे ही अब ऐसा ग्रुप चाहिए। जो लक्ष्य रखा उस लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए सहन करेंगे, त्याग करेंगे, बुरा-भला सुनेंगे, परीक्षाओं को पास करेंगे लेकिन लक्ष्य को प्राप्त करके ही छोड़ेंगे। ऐसे ग्रुप सैम्पल (Sample) बनें तब उनको और भी फॉलो (Follow) करें। जो आदि में सो अन्त में। ऐसे मैदान में आने वाले, जो निन्दा, स्तुति, मान-अपमान सभी को पार करने वाले हों - ऐसा ग्रुप चाहिए। कोई भी बात में सुनना वा सहन करना, किसी भी प्रकार से, यह तो करना ही होगा, कितना भी अच्छा करेंगे, लेकिन अच्छे को ज्यादा सुनना, सहन करना पड़ता है - ऐसी सहन शक्ति वाला ग्रुप हो। जैसे शुरू में पवित्रता के व्रत वाला ग्रुप मैदान में आया तो स्थापना हुई, वैसे अब यह ग्रुप मैदान में आए तब समाप्ति हो। ऐसा ग्रुप नज़र आता है? जैसे वह पार्लियामेन्ट बनाते हैं ना - यह फिर सम्पन्न बनने की पार्लियामेन्ट हो, नई दुनियाँ, नया जीवन बनाने का विधान बनाने वाली ‘विधान सभा’ हो। अब देखेंगे कौन-सा ग्रुप बनाती हो। विदेशी भी ऐसा ही ग्रुप बनाना। सच्चे ब्राह्मण बनकर दिखाना। मधुबन से क्या बनकर जा रहे हो? जहाँ से आए हैं वहाँ पहऊँचते ही सभी समझें कि यह तो अवतार अवतरित हुए हैं। जब एक ‘अवतार’ दुनिया में क्रान्ति ला सकता है तो इतने सभी अवतार जब उतरेंगे तो कितनी बड़ी क्रान्ति हो जायेगी! विश्व में क्रान्ति लाने वाले अवतार हो - ऐसे समझते हुए कार्य करना है। अच्छा।
इस ग्रुप को कौन-सा ग्रुप कहेंगे? बाप-दादा इस ग्रुप को मैसेन्जर (Messenger;सन्देश देने वाले) ग्रुप देख रहे हैं। एक-एक अनेक आत्माओं को बाप का सन्देश देने वाले हैं। ऐसे अपने को समझते हो? अब देखेंगे कि कौन-सा माली, कौन-से फूल लाते हैं और कितना बड़ा गुलदस्ता तैयार करते हो! सदैव माली अपने मालिक को बहुत प्यार से गुलदस्ता बनाकर पेश करता है, तो बाप भी देखेंगे। सुनाया इसेन्स (Essence;खुशबू) वाला होना चाहिए। रूहानियत की इसेन्स हो। अपने को माली समझते हो? इतने सारे तैयार हो जायेंगे तो विश्व का कल्याण हो जाएगा। बापदादा की यही उम्मीद है।
सभी पाण्डव कल्प पहले की तरह अपनी ऊँची स्टेज को प्राप्त होते हुए देह- अभिमान से पूर्ण रीति से गल गए हैं? जैसे पाण्डवों को दिखाते हैं कि पहाड़ों पर गल गए अर्थात् समाप्त हुए। ऐसे देह-अभिमान की स्थिति से समाप्त हो गए हो? अभी पूरे पाण्डव समान मरजीवा नहीं बने हो? मरजीवा अर्थात् देहभान से मरना। तो मरजीवा बने हो? मरना तो मरना, या अभी मर रहे हो? ऐसे होता है क्या? एक स्थान से मरना दूसरे स्थान में जीना होता है। यह सब में होता है ना? यहाँ भी देह-अभिमान से मरना और देही-अभिमान से जीना। इसमें कितना टाइम चाहिए? कम से कम 6 मास तो हो गए हैं ना। पाण्डव प्रसिद्ध हैं - ऊँची स्टेज को प्राप्त करने में। इसलिए पाण्डव के शरीर भी लम्बे-लम्बे दिखाते हैं। शरीर नहीं लेकिन आत्मा की स्टेज इतनी ऊँची हो। तो वही पाण्डव हो ना। तीव्र पुरूषार्थ का सहज साधन है - दृढ़ संकल्प। देही-अभीमानी बनने के लिए भी दृढ़ संकल्प करना है कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ। संकल्प में दृढ़ता नहीं तो कोई भी बात में सफलता नहीं। कोई भी बात में जब दृढ़ संकल्प रखते हैं तब ही सफलता होती है। दृढ़ संकल्प वाले ही मायाजीत होते हैं। माया से हार खाने वाले तो नहीं हो ना? जब माया को परखते नहीं तब ही धोखा खाते हैं। परखने वाला कभी धोखा नहीं खा सकता। लक्की (Lucky; खुशनसीब) हो जो प्राप्ति से पहले वर्सा लेने का अधिकार प्राप्त हुआ। जब खुशियों के सागर बाप के बने, तो कितनी खुशी होनी चाहिए! अप्राप्ति क्या है, जो खुशी गायब होती है? जहाँ प्राप्ति होती है, वहाँ खुशी होती है। अल्पकाल की प्राप्ति वाले भी खुश होते हैं। तो सदाकाल की प्राप्ति वालों को सदा खुश रहना चाहिए। कभी-कभी खुशी में रहेंगे तो अन्तर क्या हुआ? ‘ज्ञानी अर्थात् सदा खुश।’ अज्ञानी अर्थात् कभी-कभी खुश। तो सदा खुश रहने का दृढ़ संकल्प करके जाना।
टीचर्स के साथ:-
टीचर्स अर्थात् फरिश्ता। टीचर का काम है - पण्डा बन करके यात्रियों को ऊँची मंज़िल पर ले जाना। ऊँची मंज़िल पर कौन ले जा सकेगा? जो स्वयं फरिश्ता अर्थात् डबल लाईट होगा। हल्का ही ऊँचा जा सकता है। भारी नीचे जाएगा। टीचर का काम है ऊँची मंज़िल पर ले जाना। तो खुद क्या करेंगे? फरिश्ता होंगे ना। अगर फरिश्ते नहीं तो खुद भी नीचे रहेंगे और दूसरों को भी नीचे लायेंगे। अपने को फरिश्ता अनुभव करती हो? बिल्कुल हल्का। देह का भी बोझ नहीं। मिट्टी बोझ वाली होती है ना। देहभान भी मिट्टी है। जब इसका भान है तो भारी रहेंगे। इससे परे हल्का अर्थात् फरिश्ता होंगे। तो देह के भान से भी हल्कापन। देह के भान से परे तो और सभी बातों से स्वत: ही परे हो जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् बाप के साथ सभी रिश्ते हों। अपनी देह के साथ भी रिश्ता नहीं। बाप का दिया हुआ तन भी बाप को दे दिया था। अपनी वस्तु दूसरे को दे दी तो अपना रिश्ता खत्म हुआ। सब हिसाब-किताब बाप से, और किसी से नहीं। तुम्हीं से बैठूं, तुम्हीं से बोलूं......... तो लेन-देन सब खाता बाप से हुआ ना? जब एक बाप से सब खाता हुआ तो और सभी खाते खत्म हो गए ना? टीचर अर्थात् जिसके सब खाते बाप से अर्थात् सब रिश्ते बाप से। कोई पिछला खाता नहीं, सब खत्म हो गया। इसको ही तुम्हीं से बोलूं...... तो लेन-देन सब खाता बाप से हुआ ना! जब एक बाप से सब खाता हुआ तो और सभी खाते खत्म हो गए ना? टीचर अर्थात् जिसके सब खाते बाप से अर्थात् सब रिश्ते बाप से। कोई पिछला खाता रह नहीं जाता। जब बाप के बने तो पिछला खाता सब खत्म हो गया। इसको ही कहा जाता है सम्पूर्ण बेगर (Beggar)। बेगर का कोई बैंक बैलेन्स (Bank Balance) नहीं होता। खाता नहीं, कोई रिश्ता नहीं। न किसी व्यक्ति से, न किसी वैभव से - खाते समाप्त। पिछले कर्मों के खाते में कोई भी बैंक बैलेन्स नहीं होना चाहिए। ऐसी चेकिंग करनी है। ऐसे कई होते हैं कि मरने के बाद कोई सड़ा हुआ खाता रह जाता है तो पीछे वालों को तंग करता है। तो चेक करते हो कि सब खाते समाप्त हैं? स्वभाव, संस्कार, सम्पर्क, सब बातें, सब रिश्ते खत्म। फिर खाली हो जायेंगे ना। जब इतना हल्का बने तभी पण्डा बन औरों को ऊँचा उठा सकंगे। तो समझा, टीचर को क्या करना होता है? टीचर बनना सहज है या मुश्किल? टीचर बनना भी बाप समान बनना हुआ तो जो टीचर की सीट लेता है वह बाप समान बनता है। टीचर बनते हैं अर्थात् जिम्मेवारी का संकल्प लेते हैं। तो बाप भी इतना सहयोग देते हैं। जो जितनी जिम्मेवारी लेता, उतना ही बाप सहयोग देने का जिम्मेवार हैं। जब बाप जिम्मेवारी ले लेते तो मुश्किल हुआ या सहज? जब बाप को जिम्मेवारी दे दी, तो स्वयं नहीं उठानी चाहिए। जिसके निमित्त बनते, उनकी जिम्मेवारी अपनी समझते हो। तो मुश्किल हो जाती है। जिम्मेवार बाप है न कि आप। अपने-आप के ऊपर बोझ तो नहीं रख लेते? कइयों को बोझ उठाने की आदत होती है। कितना भी कहो फिर भी उठा लेते हैं। यह न हो जाय, ऐसा न हो जाय यह व्यर्थ का बोझ है, बोझ बाप के ऊपर छोड़ दो। बाप का बन बाप के ऊपर छोड़ने से सफलता भी ज्यादा, उन्नति भी ज्यादा और सहज हो जाएगा। टीचर्स तो बाप-दादा को प्रिय हैं, क्यों? फिर भी हिम्मत तो रखी है ना। बाप-दादा हिम्मत देख हर्षित होते, लेकिन हिम्मतहीन देख आश्चर्य भी खाते हैं। टीचर्स को ‘क्यों’ और ‘क्या’ के क्वेश्चन में नहीं जाना चाहिए। नहीं तो आपकी ‘क्यू’ (Queue;कतार) भी ऐसी हो जाएगी। टीचर अर्थात् फुल स्टॉप (Full Stop) की स्थिति में स्थित। क्वेश्चन वाले प्रजा में आ जाते हैं। फुल स्टॉप अर्थात् राजा। क्वेश्चन वाले को कब अति-इन्द्रिय सुख नहीं हो सकता। इसलिए टीचर्स की विशेष धारणा ही ‘फुल स्टॉप की स्टेज है’। टीचर्स अर्थात् इन्वेन्टर बुद्धि (Inventor;आविष्कार), प्रोग्राम प्रमाण ही सिर्फ चलने वाले नहीं। इन्वेन्शन करने वाले। क्या ऐसी नई बात निकाले, जो सहज और ज्यादा से ज्यादा को सन्देश पहुँच जाए। यह इन्वेन्शन हरेक को निकालनी है। अच्छा।
12-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘बालक सो मालिक’ बनने वालों के तीनों कालों का साक्षात्कार
त्रिकालदर्शी शिवबाबा हर आत्मा के तीनों कालों को देखते हुए बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के तीनों कालों को देख रहे हैं। पास्ट (Past;भूतकाल) में आदि काल के भक्त हैं या मध्यकाल के? क्या भक्ति काल समाप्त हो गया है? भक्ति का फल - ज्ञान सागर और ज्ञान की प्राप्ति प्राप्त करते हुए ज्ञानी तू आत्मा बने हैं, या बन रहे हैं? भक्ति के संस्कार अधीनता अर्थात् किसी के अधीन रहना, मांगना, पुकारना, स्वयं को सदा सम्पन्नता से दूर समझना, इस प्रकार के संस्कार अभी तक अंश मात्र में रहे हुए हैं, या वंश रूप में भी हैं? वर्तमान समय बाप समान गुण, कर्त्तव्य और सेवा में कहाँ तक सम्पन्न बने हैं? वर्तमान के आधार से भविष्य प्रालब्ध कितनी श्रेष्ठ बना रहे हैं? ऐसे हरेक के तीनों कालों को देखते हुए, ‘बालक सो मालिक’ बनने वालों को देखते हुए गुण भी गाते हैं, लेकिन साथ-साथ कहीं-कहीं आश्चर्य भी लगता है। अपने-आप से पूछो और अपने-आपको देखो कि अभी तक भक्तपन के संस्कार अंश रूप में भी रह तो नहीं गए हैं? अगर अंश मात्र भी किसी स्वभाव, संस्कार के अधीन हैं, नाम, मान, शान के मंगता (मांगने वाले) हैं; ‘क्या’ और ‘कैसे’ के क्वेश्चन (Question) में चिल्लाने वाले, पुकारने वाले, भक्त समान ‘अन्दर एक बाहर दूसरा’, ऐसे धोखा देने के बगुले भक्त के संस्कार हैं, तो जहाँ भक्ति का अंश है वहाँ ज्ञानी तू आत्मा हो नहीं सकती, क्योंकि ‘भक्ति है रात और ज्ञान है दिन’। रात और दिन इकट्ठे नहीं हो सकते।
ज्ञानी तू आत्मा, सदा भक्ति के फल-स्वरूप, ज्ञान सागर और ज्ञान में समाया हुआ रहता है, इच्छा मात्रम् अविद्या, सर्व प्राप्ति स्वरूप होता है। ऐसे ज्ञानी तू आत्मा का चित्र अपनी बुद्धि द्वारा खींच सकते हो? जैसे आपके भविष्य श्री कृष्ण के चित्र को जन्म से ही ताजधारी दिखाते हैं, मुख में गोल्डन स्पून (Golden Spoon In Mouth) अर्थात् जन्मते ही सर्व प्राप्ति स्वरूप दिखाते हैं। हेल्थ (Health), वेल्थ (Wealth), हैपीनेस (Happiness) सबमें सम्पन्न स्वरूप हैं। प्रकृति भी दासी है। यह सब बातें, जो भविष्य में प्राप्त होने वाली हैं, उसका अनुभव अब संगमयुग में भी होना है, या सिर्फ भविष्य का ही गायन है? संस्कार यहाँ से ले जाने हैं या वहाँ बनने हैं? त्रिकालदर्शी की स्टेज अभी है या भविष्य में? सम्मुख बाप और वर्से की प्राप्ति अभी है अथवा भविष्य में? श्रेष्ठ स्टेज अब है या भविष्य में? अभी श्रेष्ठ है ना।
संगमयुग के ही अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज का चित्र भविष्य चित्र में दिखाते हैं। भविष्य के साथ पहले सर्व प्राप्ति का अनुभव संगमयुगी ब्राह्मणों का है। अन्तिम स्टेज पर ताज, तख्त, तिलकधारी, सर्व अधिकारी मूर्त्त बनते हो, मायाजीत, प्रकृतिजीत बनते हो। सदा साक्षीपन के तख्त नशीन, बाप-दादा के दिल तख्त-नशीन, विश्व-कल्याणकारी के जिम्मेवारी का ताजधारी, आत्म-स्वरूप की स्मृति के तिलकधारी, बाप द्वारा मिली हुई अलौकिक सम्पत्ति - ज्ञान, गुण और शक्तियाँ इस सम्पत्ति में सम्पन्न होते हो। सिंगल ताज (Single Crown) भी नहीं, डबल ताजधारी (DOUBLE Crown) होते हो। जैसे डबल तख्त - दिल तख्त और साक्षीपन की स्टेज का तख्त का तख्त है, वैसे जिम्मेवारी अर्थात् सेवा का ताज और साथ-साथ सम्पूर्ण प्योरिटी (Purity) लाईट (Light) का क्राउन (Crown) भी होता है। तो डबल ताज, डबल तख्त और सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप गोल्डन स्पून (Golden Spoon;सोने तुल्य) तो क्या लेकिन हीरे-तुल्य बन जाते हो। हीरे के आगे तो सोना कुछ भी नहीं। ‘जीवन ही हीरा बन जाता है’। ज्ञान के गहने, गुणों के गहनों से सजे-सजाए बनते हो। भविष्य का श्रृंगार इस संगमयुगी श्रृंगार के आगे कोई बड़ी बात नहीं लगेगी। वहाँ तो दासियां श्रृंगारेगी, और यहाँ स्वयं ज्ञान-दाता बाप श्रृंगारता है। वहाँ सोने वा हीरे के झूले में झूलेंगे, यहाँ बाप-दादा की गोदी में झूलते हो, अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलते हो। तो श्रेष्ठ चित्र कौन-सा हुआ? वर्तमान का या भविष्य का? सदैव अपने ऐसे श्रेष्ठ चित्र को सामने रखो। इसको कहा जाता है - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का चित्र।
तो बाप-दादा सबके तीनों कालों को देख रहे हैं कि हरेक का प्रैक्टीकल (Practical;व्यवहारिक) चित्र कहाँ तक तैयार हुआ है? सबका चित्र तैयार हुआ है? जब चित्र तैयार हो जाता है तब दर्शन करने वालों के लिए खोला जाता है। ऐसे चैतन्य चित्र तैयार हो जो समय का पर्दा खुले? दर्शन सदैव सम्पूर्ण मूर्ति का किया जाता है, खंडित मूर्ति का दर्शन नहीं होता। किसी भी प्रकार की कमी अर्थात् खंडित मूर्ति। दर्शन कराने योग्य बने हो? स्वयं का सोचते हो या समय का सोचते हो? स्वयं के पीछे समय का परछाई है। स्वयं को भी भूल जाते हो; इसलिए मास्टर त्रिकालदर्शी बन अपने तीनों कालों को जानते हुए स्वयं को सम्पन्न-मूर्त्त अर्थात् दर्शन मूर्ति बनाओ। समझा?
समय को गिनती नहीं करो। बाप के गुणों व स्वयं के गुणों की गिनती करो। स्मृति दिवस तो मनाते रहते हो, लेकिन अब स्मृति-स्वरूप दिवस मनाओ। इसी स्मृति दिवस का यादगार शान्ति स्तम्भ, पवित्रता स्तम्भ, शक्ति स्तम्भ बनाया है, वैसे ही स्वयं को सब बातों का स्तम्भ बनाओ जो कोई हिला न सके। बाप के स्नेह के सिर्फ गीत नहीं गाओ, लेकिन स्वयं बाप समान अव्यक्त स्थिति स्वरूप बनो, जो सब आपके गीत गाए। गीत भले गाओ - लेकिन जिसके गीत गाते हो वह स्वयं आपके गीत गाए, ऐसे अपने को बनाओ।
इस स्मृति दिवस पर बाप स्नेह का प्रैक्टीकल रूप देखना चाहते हैं। स्नेह की निशानी है - कुर्बानी। जो बाप बच्चों से कुर्बानी चाहते हैं, वह सब जानते भी हो। प्रैक्टीकल स्वरूप स्वयं की कमज़ोरियों की कुर्बानी। इस कुर्बानी के मन से गीत गाओ कि बाप के स्नेह में कुर्बान किया। स्नेह के पीछे कुर्बान करने में कोई मुश्किल व असम्भव बात भी सम्भव और सहज अनुभव होती है। ‘अब का स्मृति दिवस समर्थी दिवस के रूप में मनाओ’। स्मृति स्वरूप समर्थ स्वरूप। समझा? बाप उस दिन विशेष देखेंगे कि किस-किस ने कौन-कौन सी कुर्बानी और किस परसेंट और किस रूप में चढ़ाई है। मजबूरी से या मोहब्बत से, नियम प्रमाण नहीं करना। नियम है इसलिए करना है - ऐसे मजबूरी से नहीं करना। दिल के स्नेह का ही स्वीकार होता है। अगर स्वीकार नहीं हुआ तो बेकार हुआ। इसलिए सुनाया कि ‘बगुला भगत’ नहीं बनना स्वयं को धोखा नहीं देना। सत्य बाप के पास सत्य ही स्वीकार होता है। बाकी सब पाप के खाते में जमा होता है, न कि बाप के खाते में। पाप का खाता समाप्त कर बाप के खाते में भरो; कदम में पद्मों की कमाई कर पद्मापति बनो। अच्छा।
ऐसे इशारे से समझने वाले, समय को नहीं लेकिन स्वयं की सोचने वाले, बाप के स्नेह में एक सेकेण्ड के दृढ़ संकल्प में कुर्बानी करने वाले, डबल ताज, डबल तख्तनशीन, ज्ञानी तू आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के साथ:
टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवा में सफलता का मुख्य साधन है - त्याग और तपस्या। दोनों में से अगर एक की भी कमी है तो सेवा की सफलता में भी इतने परसेन्ट कमी होती है। त्याग अर्थात् मन्सा संकल्प से भी त्याग, सरकमस्टेंस (Circumstance;परिस्थिति) के कारण या मर्यादा के कारण मजबूरी से त्याग बाहर से कर भी लेंगे तो संकल्प से त्याग नहीं होगा। त्याग अर्थात् ज्ञान-स्वरूप से संकल्प से भी त्याग, मजबूरी से नहीं। ऐसे त्यागी और तपस्वी अर्थात् सदा बाप की लगन में लवलीन, प्रेम के सागर में समाए हुए, ज्ञान, आनन्द, सुख, शान्ति के सागर में समाये हुए को ही कहेंगे - ‘तपस्वी’। ऐसे त्याग तपस्या वाले ही सेवाधारी कहे जाते हैं। ऐसे सेवाधारी हो ना? त्याग ही भाग्य है। बिना त्याग के भाग्य नहीं बन सकता। इसको कहा जाता है टीचर। तो नाम और काम दोनों टीचर के हैं। केवल नाम टीचर का नहीं। टीचर अर्थात् पोजीशन नहीं, लेकिन सेवाधारी। टीचर्स अर्थात् सभी को पोजिशन दिलाने वाली, न कि पोजीशन समझ उसमें अपने को नामधारी टीचर समझने वाली। जैसे कहा जाता है देना, देना नहीं लेकिन लेना है - ऐसे ही टीचर अपने पोजिशन का त्याग करती है तो यही भाग्य लेना है। अच्छा।
16-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सन्तुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है
सर्व शक्तियों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कर्म सिखलाने वाले, नज़र से निहाल करने वाले शिवबाबा बोले :-
वरदाता बाप द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करते हुए बाप समान वरदानी मूर्त्त बने हो? एक है - ज्ञान रत्नों का महादान। दूसरा है - कमज़ोर आत्माओं प्रति अपने शुद्ध संकल्प व शुभ भावना द्वारा सर्वशक्तिवान से, प्राप्त हुई शक्तियों का वरदान। ज्ञान-धन दान देने से आत्मा स्वयं भी ज्ञान-स्वरूप बन जाती है। लेकिन जो कमज़ोर आत्माएं ज्ञान को धारण नहीं कर सकती, ज्ञानी तू आत्मा नहीं बन सकती, स्वयं के पुरूषार्थ द्वारा श्रेष्ठ प्रालब्ध नहीं बना सकती - ऐसी सिर्फ स्नेह, सहयोग, सम्पर्क, भावना में रहने वाली आत्माएं आप वरदानी मूर्तों द्वारा वरदान के रूप में कोई न कोई विशेष शक्ति प्राप्त कर थोड़ी-सी प्राप्ति में भी अपने को भाग्यशालाr अनुभव करेंगी, जिसको प्रजा पद की प्राप्ति करने वाली आत्माएं कहेंगे। ऐसी आत्माएं डायरेक्ट (सम्मुख) योग द्वारा वा स्वयं की सर्व धारणाओं द्वारा, बाप-दादा द्वारा सर्व शक्तियों को प्राप्त नहीं कर पातीं। लेकिन प्राप्त की हुई आत्माओं द्वारा आत्माओं के सहयोग से कुछ न कुछ वरदान प्राप्त कर लेती हैं।
शक्तियों को विशेष रूप में ‘वरदानी’ कह कर पुकारते हैं। तो अभी अन्त के समय में महादानी से भी ज्यादा, वरदानी रूप की सेवा होगी। स्वयं की अन्तिम स्टेज पावरफुल होने के कारण, सम्पन्न होने के कारण ऐसी प्रजा आत्माएं थोड़े समय में, थोड़ी-सी प्राप्ति में भी बहुत खुश हो जाती हैं। स्वयं की संतुष्ट स्थिति होने के कारण वे आत्माएं भी जल्दी संतुष्ट हो जाती हैं और खुश हो कर बार-बार महान आत्माओं के गुण गायेंगी। ‘कमाल है’ यही आवाज़ चारों ओर अनेक आत्माओं के मुख से निकलेगा। बाप का शुक्रिया और निमित्त बनी आत्माओं का शुक्रियां, यही गीतो के रूप में चारों ओर गूंजेगा। प्राप्ति के आधार पर हर एक आत्मा अपने दिल से महिमा के फूलों की वर्षा करेगी। अब ऐसे वरदानी मूर्त्त बनने के लिए विशेष अटेंशन एक बात का रखना है। सदा स्वयं से और सर्व से संतुष्ट - संतुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है व अष्ट देवता बन सकती है। सबसे बड़े से बड़ा गुण कहो या दान कहो या विशेषता कहो या श्रेष्ठता कहो, वह संतुष्टता ही है। संतुष्ट आत्मा ही प्रभु प्रिय, लोक प्रिय और स्वयं प्रिय होती है। संतुष्ट आत्मा की परख इन तीनों बातों से होती है। ऐसी संतुष्ट आत्मा ही वरदानी रूप में प्रसिद्ध होगी। तो अपने को चेक करो कि कहाँ तक सन्तुष्ट आत्मा सो वरदानी आत्मा बने हैं? समझा? अच्छा।
ऐसे विश्व-कल्याणकारी, महा वरदानी, एक सेकेण्ड के संकल्प द्वारा अनुभव कराने वाले, सर्व शक्तियों का प्रसाद तड़पती हुई आत्माओं को दे प्रसन्न करने वाले, ऐसे साक्षात्कार मूर्त्त, दर्शनीय मूर्त्त, सम्पन्न और समान मूर्त्त, सर्व की श्रेष्ठ भावनाएं, श्रेष्ठ कामनायें पूर्ण करने वाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के साथ:
सभी टीचर्स अपने को जैसे बाप विश्व शिक्षक है वैसे स्वयं को भी विश्व के निमित्त शिक्षक समझती हैं अथवा हद के? टीचर्स के प्रति विशेष पुरूषार्थ का स्लोगन कौन-सा है? हर सेकेण्ड मन, वाणी और कर्म तीनों द्वारा साथ-साथ सर्विस करेंगे। अर्थात् एक सेकेण्ड में व हर सेकेण्ड में तीनों रूपों की सेवा में उपस्थित रहेंगे। जब टीचर्स इस स्लोगन को सदा प्रैक्टीकल में लाएं तब ही विश्वकल्याण कर सकेंगे। इतने बड़े विश्व का कल्याण करने के लिए एक ही समय पर जब तीनों ही रूपों से सेवा हो तब यह सेवा का कार्य समाप्त हो सकेगा। वाणी द्वारा वा मन्सा द्वारा अलग-अलग समय नहीं। एक ही समय तीनों रूपों से सेवा करने वाले विश्व-कल्याणकारी बन सकेंगे। तो यही चेक करों कि हर समय तीनों ही रूपों से सेवा होती है? बाप के साथ तीन सम्बन्ध हैं। बाप, शिक्षक और सतगुरू के स्वरूप से सेवा करते हैं तो निमित्त टीचर्स को एक ही समय में तीन रूपों से सेवा करनी है। तो मास्टर त्रिमूर्त्रि हो जायेंगे। समझा? जितना-जितना टीचर्स शक्ति सम्पन्न बनेंगी उतना ही सर्व आत्माओं के प्रति निमत्त बन सकेंगी। निमित्त बनने वालों के ऊपर बहुत जिम्मेवारी होती है। निमित्त बनने वाले का एक सेकेण्ड में एक का पद्मगुण बनना भी है, प्राप्ति का भी चान्स है और फिर अगर निमित्त बने हुए कोई ऐसा कर्म करते जिसको देख और सभी विचलित हों उसकी पद्मगुणा उल्टी प्राप्ति भी होती है। संकल्प से वृत्ति बनेगी और वृत्ति से वातावरण बनेगा। तो ऐसा कोई संकल्प व वृत्ति न हो जिससे वातावरण अशुद्ध बने। ऐसा कोई बोल न हो जिसको सुन कर कोई विचलित हो। क्योंकि सबका अटेंशन निमित्त बनी हुई टीचर्स के प्रति रहता है तो टीचर्स को डबल अटेंशन रखना पड़े। सभी ऐसे ही डबल अटेंशन रखते हुए चल रहे हो ना? ‘पहले सोचो फिर करो’। पहले करो फिर सोचो नहीं। नहीं तो टाईम और एनर्जी वेस्ट चली जाती है। टीचर्स को तो विशेष खुशी होनी चाहिए क्योंकि टीचर्स को लिफ्ट है - एक बाप और सेवा में रहने की और कोई वातावरण नहीं है। तो इस लिफ्ट का लाभ उठाना चाहिए ना? तो सदा हर्षित हो ना? सदा हर्षित कौन रहता है? जो कहाँ भी आकर्षित न हो। अगर किसी भी तरफ चाहे प्रकृति, चाहे आत्माओं, चाहे आत्माओं के गुणों की तरफ आकर्षित होते हो तो हर्षित नहीं रह सकेंगे। सर्व आकर्षण से परे, सिवाए एक बाप के, ऐसी आत्मा ही सदा हर्षित रह सकती है। अच्छा।
18-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
18 जनवरी का विशेष महत्व
अटल, अचल, अखंड, सदा हर परिस्थिति में भी अड़ोल, सर्व गुण और सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनाने वाले बाबा बोले:-
सभी स्मृति-स्वरूप अर्थात् समर्थी-स्वरूप स्थिति में स्थित हो? आज का दिन विशेष रूप में स्मृति-स्वरूप बनने का है। बाप-दादा के स्नेह में समाए हुए अर्थात् बाप समान बनने वाले स्नेह की निशानी है - समानता। तो आज सारा दिन स्मृति-स्वरूप अर्थात् बाप समान स्वयं को अनुभव किया? बाप-दादा के स्नेह का रेसपान्स (RESPONSE) ‘बाप समान भव’ का वरदान अनुभव किया? आज का विशेष दिवस स्वत: और सहज और थोड़े समय में बाप समान स्थिति अनुभव करने का दिन है। जैसे सभी युगों में से संगमयुग सहज प्राप्ति का युग गाया जाता है, वैसे ब्राह्मण के लिए संगमयुग में भी यह दिन विशेष सर्वशक्तियों के वरदान प्राप्त होने का, ‘बाप समान’ की स्थिति का अनुभव करने का ड्रामा में नूंधा हुआ है। विशेष दिन का विशेष महत्व जान, महान रूप से मनाया? अमृतवेले से बाप-दादा ने विशेष अनुभवों के गोल्डन चान्स (Golden Chance) की लाटरी (Lottery) खोली है। ऐसी लाटरी लेने के अधिकार को अनुभव किया? स्नेह-युक्त रह व योग-युक्त, सर्वशक्तयों के प्रति युक्त, सर्व प्रकार के प्रकृति व माया के आकर्षण से परे रहे? आज बाप-दादा ने बच्चों के पुरूषार्थ की रिज़ल्ट देखीं। रिज़ल्ट में क्या देखा, जानते हो?
बहुत बच्चे बाप-दादा के सिर के ताज के रूप में देखे। और कई बच्चे गले के हार के रूप में देखे; और कई बच्चे भुजाओं के श्रृंगार के रूप में देखे। अब हर एक अपने से पूछे कि ‘‘मेरा स्थान कहाँ है?’’ (जहाँ बाबा बिठायेंगे) बाबा बिठाये, लेकिन बैठना तो आपको पड़ेगा ना! बाप की आज्ञा बहुत बड़ी है। उसको जानते हो ना? विदेशी सो स्वदेशी किस में होंगे? सब विदेशी ताज में आयेंगे तो स्वदेशी कहाँ जायेंगे? ताज में तो बहुत थोड़े होते हैं। मेजारिटी (Majority) गले और भुजाओं का श्रृंगार हैं। ताजधारी अर्थात् बाप के ताज में चमकते हुए रत्न, जिन की विशेष पूजा होती है उनकी निशानी है ‘सदा बाप में समाए हुए और समान’। उन के हर बोल और कर्म से सदा और स्वत: बाप प्रत्यक्ष होगा। उनकी सीरत और सूरत को देख हर एक के मुख से यही बोल निकलेंगे कि कमाल है, जो बाप ने ऐसे योग्य बनाया! उनके गुण देखते हुए निरन्तर बाप-दादा के गुण सब गायेंगे। उन की दृष्टि सभी की वृत्ति को परिवर्तन करेंगी। ऐसी स्थिति वाले सिर के ताज गाए जाते हैं।
गले का श्रृंगार अर्थात् सेकेण्ड नम्बर सदैव अपने गले की आवाज़ अर्थात् मुख के आवाज़ द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने के प्रयत्न में रहते हैं। सदा बाप-दादा को अपने सामने रखते हैं; लेकिन समाए हुए नहीं रहते। सदा बाप-दादा के गुण गाते रहते लेकिन स्वयं सदा गुण मूर्त्त नहीं रहते। समान बनने की भावना और श्रेष्ठ कामना रखते हैं लेकिन हर प्रकार की माया के वारों का सामना नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति वाले गले का श्रृंगार हैं।
तीसरी क्वालिटी (Quality-प्रकार) तो सहज ही समझ गए होंगे, भुजा की निशानी है सहयोग की, जो किसी भी प्रकार से, मन से, वाणी से आथवा कर्म से, तनमन वा धन से बाप के कर्त्तव्य में सहयोगी होते हैं, लेकिन सदा योगी नहीं होते - ऐसे भी अनेक बच्चे हैं। बाप-दादा ने रिवाईज़ कोर्स (REVISE Course) के साथ रियलाईजेशन कोर्स (REALIZATION Course) भी दिया है। अब बाकी क्या रहा? क्या कमी रह गई है बाकी?
नष्टोमोह: स्मृति-स्वरूप हो गए कि अभी होना है? 1976 तक होना ही था ना? फाईनल विनाश तक रूकी हुई है क्या? इन्तजार तो नहीं कर रहे हो ना? विनाश का इन्तजार करना अर्थात् अपनी डैथ (Death;मृत्यु) की डेट की स्मृति रखना, अपनी डैथ का आह्वान कर रहे हो? कितने संकल्प कर रहे हो, विनाश क्यों नहीं हुआ? कब होगा? कैसे होगा? संगमयुग सुहावना लगता है वा सतयुग? तो घबराते क्यों हो कि विनाश क्यों नहीं हुआ? अगर स्वयं इस प्रश्न से प्रसन्न हैं तो दूसरे को भी प्रसन्न कर सकते हैं। स्वयं ही क्वेश्चन में हैं तो दूसरे भी जरूर पूछेंगे। इसलिए घबराओ नहीं। कोई पूछते हैं कि विनाश क्यों नहीं हुआ, तो और ही उसको कहो कि आप के कारण नहीं हुआ। बाप के साथ हम सभी भी विश्व-कल्याणकारी हैं। विश्व के कल्याण में आप जैसी और आत्माओं का कल्याण रहा हुआ है। इसलिए अभी भी चान्स है। होता क्या है कि जब कोई क्वेश्चन करता है तो आप लोग स्वयं ही ‘क्यों’’क्या’ में कनफ्यूज (Confuse) हो जाते हो - हाँ ‘‘कहा तो है, लिखा हुआ तो है, होना तो चाहिये था’’। इसलिए दूसरे को संतुष्ट नहीं कर पाते हो। फलक से कहो कि कल्याणकारी बाबा के इस बोल में भी कल्याण समया हुआ है। उसको हम जानते हैं, आप भी आगे चलकर जानेंगे। डरो मत। ‘क्या कहेंगे, कैसे कहेंगे’ ऐसे सोचकर किनारा न करो। जिन लोगों को कहा है, उनसे डर के मारे किनारा न करो। क्या करेंगे? अगर उल्टा प्रोपगण्डा (Propaganda) करेंगे तो वो उल्टा बोल अनेकों को सुल्टा बना देगा। प्रत्यक्षता का साधन बन जायेगा। बच्चे भी पूछते रहते हैं, तो लोगों ने पूछा तो क्या बड़ी बात हुई! सोचते हैं ‘‘यह करें या ना करें? प्रवृत्ति को कैसे चलायें! व्यवहार को कैसे सैट करें! बच्चों की शादी करें या नहीं करें! मकान बनायें या नहीं?’’ वास्तव में इस क्वेश्चन का विनाश की डेट से कोई कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) नहीं है। अगर प्रॉपर्टी है और बनाने का संकल्प है तो इससे सिद्ध है कि स्वयं प्रति यूज़ (USE;प्रयोग) करने की भावना है। अगर ईश्वरीय सेवा में लगाना ही है तो मकान बनाना या वैसे ही प्रॉपर्टी रखना उसका तो क्वेश्चन ही नहीं उठता। लेकिन आवश्यकता है और डायरेक्शन प्रमाण बनाते भी हैं, तो उसका बनाना व्यर्थ नहीं होगा, लेकिन जमा होगा। तो विनाश के कारण घबराने की बात ही नहीं, क्योंकि श्रीमत पर चलना अर्थात् इन्श्योरेन्स (Insurance) करना। उसका उनको फल मिल ही जाता है।
बाकी रहा शादी कराने का वा करने का क्वेश्चन। इसके लिए तो पहले से ही डायरेक्शन (Direction) है जहाँ तक स्वयं को और अन्य आत्माओं को बचा सकते हो वहाँ तब तक बचाओ। विनाश अगर 1976 में नहीं हुआ तो क्या विनाश के कारण पवित्र रहते थे क्या? पवित्रता तो ब्राह्मण जन्म का स्वधर्म है। पवित्रता का संकल्प ब्राह्मण जन्म का लक्ष्य और लक्षण है। जिसका निजी लक्षण ही पवित्रता है उसका विनाश की डेट के साथ कोई कनेक्शन नहीं। यह तो स्वयं की कमज़ोरी छिपाने का बहाना है। क्योंकि ब्राह्मण बहानेबाजी बहुत जानते हैं। अच्छा, बाकी रही दूसरों को शादी कराने की बात। उसके लिए जहाँ तक बचा सको बचाओ। स्वयं कमज़ोर बन उसको उत्साह नहीं दिलाओ। मन में भी यह संकल्प न करो कि अब तो करना ही पड़ेगा। दस वर्ष पहले भी जिन को बचा न सके तो उनका क्या किया! साक्षी होकर संकल्प से वाणी से, भी बचाने का प्रयत्न किया वैसे ही अभी भी इसी प्रकार दृढ़ रहो। बाकी जिनको गिरना ही है उनको क्या करेंगे! विनाश के कारण स्वयं हलचल में न आओ। आपकी हलचल अज्ञानियों को भी हलचल में लायेगी। आप अचल रहो। फलक से, निर्भयता से बोलो। फिर वो लोग आपे ही चुप हो जायेंगे, कुछ बोल नहीं सकेंगे। आप निश्चय बुद्धि से संकल्प रूप में भी संशय-बुद्धि न बनो। रॉयल रूप का संशय है कि ‘ऐसा होना तो चाहिए था’, पता नहीं बाबा ने क्यों ऐसा कहा था। पहले से ही बाप-दादा बता देते थे। अब सामने कैसे जायेंगे? यह रॉयल रूप का संशय, दुनिया वालों को भी संशय-बुद्धि बनाने के निमित्त बनेगा। ‘‘हाँ! कहा है, अभी भी कहेंगे’’ - इसी निश्चय और नशे में रहो तो वो नमस्कार करने आयेंगे कि धन्य है आपका निश्चय। समझा? घबराओ नहीं, क्या जेल में जाने से डरते हो? डरते नहीं, घबराते हैं। सामना करने की शक्ति नहीं है। यही कहो कि जो कुछ कहा था उसमें कल्याण था। अब भी है। हम अभी भी कहते हैं। उनको अगर ईश्वरीय नशे और रमणीकता से सुनाओ तो वो और ही हंसेंगे। लेकिन पहले स्वयं मजबूत हो। समझा?
आज सबके संकल्प पहुँचे, सबको इन्तजार था 18 तारीख को क्या सुनायेंगे। अब सुना? बाप-दादा साथ हैं; कोई कुछ कर नहीं सकता; कह नहीं सकता, जलती हुई भट्टी में भी पूंगरे सलामत रहे, यह तो कुछ भी नहीं है। बाल भी बांका नहीं कर सकता। साधारण साथ नहीं, सर्वशक्तिवान का साथ है। इसलिए ‘निश्चयबुद्धि विजयन्ति’।
डेट बताने की जरूरत ही नहीं। कभी भी फाइनल (Final) विनाश की डेट फिक्स (Fix) नहीं हो सकती। अगर डेट फिक्स हो जाए तो सब सीट्स (Seats) भी फिक्स हो जाएं, फिर तो पास विद् ऑनर्स (Pass With Honours) की लम्बी लाइन हो जाए। इसलिए डेट से निश्चिन्त रहो। जब सब निश्चिन्त होंगे तो डेट आ ही जायेगी। जब सभी इस संकल्प से निरसंकल्प होंगे वही डेट विनाश की होगी। अच्छा।
ऐसे अचल, अटल, अखण्ड, सदा हर परिस्थिति में भी श्रेष्ठ स्थिति में अड़ोल, सर्व गुणों और सर्व शक्तियों के स्तम्भ स्वरूप आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
23-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महीनता ही महानता है
एक सेकेण्ड में इस लोक से परलोक निवासी बनने वाली, इन्द्रसभा की परियों प्रति अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
गायन है ‘इन्द्रप्रस्थ की इन्द्रसभा’। इन्द्र अर्थात् सदा ज्ञान की बरसात बरसाने वाले, कांटों के जंगल में हरियाली लाने वाले - ऐसी इन्द्रसभा, जिसका गायन है परियों की सभा, अर्थात् सदा उड़ने वाली। परियों के पंख प्रसिद्ध हैं। इन्द्रपस्थ में सिवाए परियों के और कोई भी मनुष्य निवास नहीं कर सकता। मनुष्य अर्थात् जो अपने को आत्मा न समझ, मानव अर्थात् देह समझते हैं। ऐसे देह-अभिमानी इन्द्रप्रस्थ में निवास नहीं कर सकते। इन्द्रप्रस्थ निवासियों को देह-अभिमानी मनुष्यों की बदबू फौरन अनुभव होती है। ऐसे इन्द्रप्रस्थ निवासी मनुष्य के बदबू अर्थात् देह की बदबू से भी दूर अपने को इन्द्रसभा की परियां समझते हो? ज्ञान और योग के पंख मजबूत हैं? अगर पंख मजबूत नहीं होते तो उड़ना चाहते भी बार-बार नीचे आ जाते हैं। देह-अभिमान और देह की पुरानी दुनिया, पुराने सम्बन्धों से सदा ऊपर उड़ते रहते हो अर्थात् इससे परे ऊँची स्थिति में रहते हो? जरा भी देह-अभिमान अर्थात् मनुष्यपन की बदबू तो नहीं? देह- अभिमान, इन्द्रप्रस्थ निवासी नहीं हो सकता। ऐसे अनुभव होता है कि देह-अभिमान बहुत गन्दी बदबू है? जैसे बदबू से किनारा किया जाता है, वा मिटाने के साधन अपनाए जाते हैं, वैसे अपने को देह-अभिमान से मिटाने के साधन अपनाते हो? यह साधारण सभा नहीं - यह अलौकिक सभा है, फरिश्तों की सभा है। अपने को फरिश्ता अनुभव करते हो? एक सेकेण्ड में इस देह की दुनिया से परे अपने असली स्थिति में स्थित हो सकते हो? यह ड्रिल (Drill) करनी आती है? जब चाहो, जहाँ चाहो, जितना समय चाहो, वैसे स्थित हो सकते हो?
आज अमृतवेले बाप-दादा बच्चों की ड्रिल देख रहे थे, क्या देखा? ड्रिल करने के लिए समय की सीटी पर पहुँचने वाले नम्बरवार पहुँच रहे थे। पहुँचने वाले काफी थे लेकिन तीन प्रकार के बच्चे देखे। एक थे - समय बिताने वाले; दूसरे थे - संयम निभाने वाले; तीसरे थे - स्नेह निभाने वाले। हरेक का पोज (Pose) अपना-अपना था। बुद्धि को ऊपर ले जाने वाले बाप से, बाप समान बन, मिलन मनाने वाले कम थे। रूहानी ड्रिल करने वाले ड्रिल करना चाहते थे लेकिन कर नहीं पा रहे थे। कारण क्या होगा? जैसे आजकल स्थूल ड्रिल करने के लिए भी हल्कापन चाहिए, मोटापन नहीं चाहिए, मोटापन भी बोझ होता है। वेसे रूहानी ड्रिल में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के बोझ वाले अर्थात् मोटी बुद्धि - ऐसे बहुत प्रकार के थे। जैसे मोटे शरीर की भी वैरायटी (Variety) होती है, वैसे ही आत्माओं के भारीपन के पोज भी वैरायटी थे। अगर अलौकिक कैमरा (Camera) से फोटो निकालो वा शीश महल में यह वैरायटी पोज देखो तो बड़ी हंसी आए। जैसे आपकी दुनिया में वैरायटी पोज का खूब हँसी का खेल दिखाते हैं ना, वैसे यहाँ भी खूब हँसते हैं। देखेंगे हँसी का खेल? बहुत ऐसे भी थे जो मोटेपन के कारण अपने को मोड़ना चाहते भी मोड़ नहीं सकते। ऊपर जाने के बदले बार-बार नीचे आ जाते थे। बीज रूप स्टेज को अनुभव करने के बदले, विस्तार रूपी वृक्ष में अर्थात् अनेक संकल्पों के वृक्ष में उलझ जाते हैं। यह मोटी बुद्धि वालों के पोज सुना रहे हैं। रूह-रूहान करने बैठते हैं लेकिन रूह-रूहान के बदले स्वयं की वा अन्य आत्माओं की शिकायतों की पूरी फाइल खोल कर बैठते हैं। बैठते हैं चढ़ती कला का अनुभव करने के लिए हैं, लेकिन बाप-दादा को बहाने-बाज़ी की कलायें बहुत दिखाते हैं। बाप-दादा के आगे बोझ उतारने आते हैं, लेकिन बोझ उतारने की बजाय बाप की श्रीमत के प्रमाण न चलने के कारण अनेक प्रकार की अवज्ञाओं का बोझ अपने ऊपर चढ़ाते रहते हैं। ऐसे अनेक प्रकार के बोझ वाली भारी आत्माओं के दृश्य देखे।
संयम निभाने वाली आत्माओं का दृश्य भी बहुत हँसी वाला होता है। वह क्या होता है, मालूम है? बाप के आगे गुणगान करने के बजाय, बाप द्वारा सर्व शक्तियों की प्राप्ति करने के बजाय, निन्द्रा के नशे की प्राप्ति ज्यादा आकर्षण करती है। सेमी (Semi) नशा भी होता है। समय की समाप्ति का इन्तजार होता है। बाप से लगन के बजाय सेमी निन्द्रा के नशे की लगन ज्यादा होती है। इन सभी का कारण? आत्मा का भारीपन अर्थात् मोटापन। जैसे आजकल के डाक्टर्स (Doctors) मोटेपन को कम कराते हैं, वजन कम कराते हैं, हल्का बनाते हैं, वैसे ब्राह्मणों की भी आत्मा के ऊपर जो वजन अथवा बोझ है अर्थात् मोटी बुद्धि है, उस बोझ को हटाकर ‘महीन बुद्धि’ बनो। वर्तमान समय यही विशेष परिवर्तन चाहिए। तब ही इन्द्रप्रस्थ की परियां बनेंगे। मोटेपन को मिटाने के लिए श्रेष्ठ साधन कौन-सा है? खान-पान का परहेज और एक्सरसाइज (Exercise)। परहेज में भी अन्दाज फिक्स (Fix) होता है। वैसे यहाँ भी बुद्धि द्वारा बार-बार अशरीरीपन की एक्सरसाइज करो और बुद्धि का भोजन संकल्प है उनकी परहेज रखो। जिस समय जो संकल्प रूपी भोजन स्वीकार करना हो उस समय वही स्वीकार करो। व्यर्थ संकल्प रूपी एक्सट्रा (Extra) भोजन न हो। तो व्यर्थ संकल्पों के भोजन की परहेज हो। परहेज के लिए सेल्फ कन्ट्रोल (Self Control;स्वयं पर नियन्त्रण) चाहिए। नहीं तो परहेज पूर्ण रीति नहीं कर सकते। तो सेल्फ कन्ट्रोल अर्थात् जिस समय जैसे चाहे, वहाँ बुद्धि लगा सके तब ही महीन बुद्धि बन जायेंगे। ‘महीनता ही महानता है।’ जैसे शरीर की रीति से हल्कापन परसनैलिटी (Personality) है; वैसे बुद्धि की महीनता व आत्माओं का हल्कापन ब्राह्मण जीवन की परसनैलिटी है। तो अब क्या करना है? अनेक प्रकार के मोटेपन को मिटाओ। मोटेपन का विस्तार फिर सुनायेंगे कि किस प्रकार का मोटापन है। बोझ के अनेक प्रकार हैं उसका विस्तार फिर सुनायेंगे। तो आज के ड्रिल का समाचार क्या हुआ? बोझ का मोटापन। इसको मिटाने का ही लक्ष्य रख स्वयं को फरिश्ता अर्थात् हल्का बनाओ। अच्छा।
ऐसे इन्द्रप्रस्थ की परियाँ, सेकेण्ड में इस लोक से पार परलोक निवासी बनने वाली, सदा बाप समान बन बाप से मिलन मनाने वाली महीन बुद्धि अर्थात् महान आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ :-
अभी-अभी ऊपर, अभी-अभी नीचे, इतनी एक्सरसाईज करने की प्रैक्टिस है? जिसको प्रैक्टिस नहीं होती है वे मुश्किल ही कर पाते हैं। रूहानी एक्सरासईज़ के अनुभवी हो? अभी-अभी डायरेक्शन मिले एक सेकेण्ड में बीज रूप स्थिति में स्थित हो जाओ। जैसे डायरेक्शन देते हैं तो सेकेण्ड में करते हैं ना, ऐसे ही डायरेक्शन मिले कि ऊँची से ऊँची स्थिति में स्थित हो जाओ तो हो सकते हो या टाईम लगेगा? अगर टीचर हैंड्स अप (Hands Up;हाथ ऊपर) कहे और हैंड्स अप न कर सकें तो टीचर क्या कहेगा कि लाईन से किनारे हो जाओ। लाईन से बाहर निकाल देते हैं ना? तो यहाँ भी निकालना नहीं पड़ता लेकिन ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) तीव्र पुरूषार्थ की लाईन से किनारे हो जाते हैं। पुरूषार्थ के लाईन में आ जाते हैं। अगर कोई अच्छी स्टेज पर एक्सरसाईज दिखानी पड़ती हो तो जो होशियार होंगे वही ग्रुप स्टेज पर आयेगा ना। इसके लिए फर्स्ट प्राइज़ विन (Win) करने वाला ग्रुप चाहिए। तो फर्स्ट (First) अर्थात् फास्ट (Fast;तीव्र) पुरुषार्थी। अगर फास्ट पुरुषार्थी नहीं तो फर्स्ट नहीं; सेकेण्ड ग्रुप हो गया। जो भारी होता है वो फास्ट नहीं जा सकता है। कोई भी प्रकार का भारीपन वा बोझ नहीं हो। निरन्तर योग नहीं लगता इसका मतलब भारीपन है, बोझ है। बोझ नीचे ले आता है। नीचे ले आना ही सिद्ध करता है कि बोझ है। बॉडी- कोन्सेस(Body-Conscious;देह-अभिमान) नीचे ले आता है। जैसे बाप ऊँचे से ऊँचा है, उनका निवास स्थान ऊँचे से ऊँचा है, उनका कर्त्तव्य व गुण ऊँचे से ऊँचा है, तो आप सबके भी निवास स्थान, गुण और कर्त्तव्य ऊँचे से ऊँचा है ना? बाप समान हो ना? ऊँचे निवास स्थान वाले, ऊँचे गुण व कर्त्तव्य वाले, नीचे कैसे आ सकते हैं? आना नहीं चाहिए लेकिन आ जाते हैं। उसको क्या कहेंगे - फर्स्ट पुरुषार्थी या सेकेण्ड? लक्ष्य फर्स्ट क्लास का और लक्षण सेकेण्ड का, यह कैसे होगा? बैठना है फर्स्ट क्लास में और टिकट ली है सेकेण्ड क्लास की तो फर्स्ट में बैठ सकेंगे? मातायें और कन्यायें तो विशेष लक्की हैं। क्योंकि ये सबसे गरीब हैं। बाप को भी गरीब-निवाज गाया हुआ है। साहुकार-निवाज नहीं। तो गरीब जल्दी पद पा सकते हैं। साहुकार नहीं। तकदीर वान गरीब ही हैं। तो कुमारियाँ और मातायें तकदीरवान हैं जो संगमयुग पर कुमारी वा माता बनी हैं। चरित्र भी ज्यादा गोपी वल्लभ के साथ गोपियों के ही गाये गये हैं, गोपों के कम। तो लक्की हो जो गोपी तन में हो। संगमयुग में ‘शक्ति फर्स्ट’ का बाप-दादा का नारा है। स्वयं ब्रह्मा बाप ने भी माताओं को समर्पण किया। सुनाया ना कि ब्रह्मा बाप की भी ‘माता गुरू’ है। तो इतने तकदीरवान हो। इतना अपनी तकदीर को जानती हो या मानकर चलती हो? एक होता है जानना, दूसरा होता है मानना और चलना। माताओं का मर्तबा कोई कम नहीं है, ऐसी माताएं जिनका शिवबाबा के साथ पार्ट है। इतना नशा है? इतनी खुशी है? इस स्टेज पर रहो तो खुशी में उड़ते रहेंगे। परियाँ सदा उड़ती रहती हैं। तो ऐसे संगमयुग की परियाँ जो बाप के साथ-साथ अव्यक्त वतन, मूलवतन में उड़ती रहती हैं। उड़ना माना ध्यान में जाना नहीं, लेकिन बुद्धि के विमान में सदा उड़ते रहो। बुद्धि का विमान बहुत बड़ा है। बुद्धि द्वारा जब चाहो, जहाँ चाहो पहुँच जाओ। मोटी बुद्धि नहीं, लेकिन महीन बुद्धि। तो अभी क्या करना है? बिल्कुल इस लोक के लगाव से परे। ऐसा ही पुरूषार्थ है ना? इस लोक में है ही क्या? असार संसार से क्या काम है? तो फिर क्यों जाते हो? जहाँ कोई काम नहीं होता है वहाँ जाना होता है क्या? तो अब बुद्धि द्वारा जाना बन्द करो। जब कोई प्राप्ति नहीं, कोई फायदा नहीं तो बुद्धि क्यों जाती है? टाईम वेस्ट होगा ना? फिर वापस लौटना पड़ेगा। वापस लौटने में समय और एनर्जी (Energy;शक्ति) वेस्ट (Waste;व्यर्थ) जायेगी। तो वेस्ट क्यों करते हो? अभी तो 21 जन्मों के लिए जमा करना है सिर्फ थोड़े से समय में। तो क्या इतना थोड़ा-सा मिला टाईम व्यर्थ करना चाहिए? एक सेकेण्ड वेस्ट करना अर्थात् एक जन्म की प्रालब्ध वेस्ट करना। इतना महत्व संगम के समय का है। अच्छा, सदा खुशी में तो रहती हो ना? कभी रोती तो नहीं हो? एक होता है आंख के आंसू, दूसरा होता है मन के आँसू। तो मन के आँसू भी नहीं आने चाहिए। मन में दु:ख की लहर आना माना मन के आँसू। दोनों प्रकार के आँसू नहीं बहाना। रोने से मुक्त होना है। अभी जो रोते हैं, वे खोते हैं। जो हंसते हैं वह पाते हैं। तो कभी भी गलती से भी दु:ख की दुनिया नहीं देखनी चाहिए। अनुभवी फिर धोखा खाते हैं क्या? धोखा खा कर अनुभव कर लिया, तो फिर धोखा खायेंगे? फिर दु:ख की दुनिया में क्यों जाती हो? एक बार खेल में गिरने वाला दोबारा गिरता है क्या? यह खेल तो एकदम रौरव नर्क है। इसमें गिरने का संकल्प तो स्वप्न में भी न आना चाहिए। तो माताएं पद्मापद्म भाग्यशाली हैं। बाप तो उसी श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। सौभाग्यशाली नहीं, लेकिन पद्मापद्म भाग्यशाली। सौभाग्यशाली बनना तो साधारण बात है। लेकिन पद्मापद्म भाग्यशाली बनना है। सदा खुश रहो। बाप के खज़ाने को सुमिरण करते हुए सदा हर्षित रहो। इतना खज़ाना सारे कल्प में किसी जन्म में भी नहीं मिलेगा। तो कितनी खुशी में उड़ना चाहिए? परियां नीचे नहीं आती, ऊपर उड़ती रहती है। सदा एक की लगन में रहने वाली हो ना? सिवाए एक बाप के और कोई लगन नहीं। एक बाप दूसरा न कोई, गलती से भी दूसरी जगह बुद्धि नहीं जानी चाहिए। सब संग तोड़ एक संग जोड़ - यही बाप का डायरेक्शन है। सदा मन से यही आलाप निकलता रहे - ‘एक बाप दूसरा न कोई’। इसी को अजपाजाप कहते हैं। एक दूसरे से आगे जाना है। जिसको देखो वही नम्बर- वन नज़र आए। बाप की सदैव बच्चों प्रति यही आशा रहती है; सब नम्बर-वन हो। नम्बर-वन अर्थात् सदैव विजयी। विजयी रत्न हार खिलाने वाले होते हैं, हार खाने वाले नहीं। शक्ति अर्थात् विकर्माजीत। अच्छा।
26-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अन्तर्मुखता द्वारा सूक्ष्म शक्ति की लीलाओं का अनुभव
साइलेन्स (Silence;शान्ति) शक्ति द्वारा आत्माओं की सेवा करने की विधि बताते हुए विश्व-कल्याणकारी पिता शिवबाबा बोले :-
अपनी वास्तविक साइलेन्स की शक्ति को अच्छी तरह से जान गए हो? जैसे वाणी की शक्ति का, कर्म की शक्ति का प्रत्यक्ष परिणाम दिखाई देता है, वैसे सभी से पावरफुल (Powerful;शक्तिशाली) साइलेन्स शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण देखा है, अनुभव किया? जैसे वाणी द्वारा किसी आत्मा को परिवर्तन कर सकते हो, वैसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा अर्थात् मन्सा द्वारा किसी आत्मा की वृत्ति, दृष्टि को परिवर्तन करने का अनुभव है? वाणी द्वारा तो जो सामने हों उनका ही परिवर्तन करेंगे, लेकिन मन्सा द्वारा वा सायलेंस की शक्ति द्वारा कितनी भी स्थूल में दूर रहने वाली आत्मा हो, उनको सम्मुख का अनुभव करा सकते हो। जैसे साइंस (Science;विज्ञान) के यंत्रों द्वारा दूर का दृश्य सम्मुख अनुभव करते हो, वेसे साइलेन्स की शक्ति से भी दूरी समाप्त हो सामने का अनुभव आप भी करेंगे और अन्य आत्माएं भी करेंगी। इसको ही योगबल कहा जाता है। लेकिन जैसे साइंस के साधन का यंत्र भी तब काम करेगा जिसका कनेक्शन (Connection;जोड़) मेन स्टेशन (Main Station) से होगा, इसी प्रकार साइलेन्स की शक्ति द्वारा अनुभव तब कर सकेंगे, जब कि बाप-दादा से निरन्तर क्लीयर कनेक्शन (Clear Connection;सीधा सम्बन्ध) होगा। वहाँ सिर्फ कनेक्शन होता है, लेकिन यहाँ कनेक्शन अर्थात् रिलेशन (RELATION;सम्बन्ध)। सभी क्लीयर अनुभव होंगे तब मन्सा शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकेंगे।
अभी तक मन्सा शक्ति द्वारा आत्माओं का आह्वान कर परिवर्तन करने की यह सूक्ष्म सेवा बहुत कम करते हो। जब आत्मिक शक्ति वाली, सेमी प्योर (Semi Pure;अर्द्ध पवित्र) आत्माएं अपनी साधना द्वारा आत्माओं का आह्वान कर सकती हैं, अल्पकाल के साधनों द्वारा दूर बैठी हुई आत्माओं को चमत्कार दिखाकर अपनी तरफ आकर्षित कर सकती हैं, तो परमात्म शक्ति अर्थात् सर्व श्रेष्ठ शक्ति क्या नहीं कर सकती? इसके लिए विशेष एकाग्रता चाहिए। संकल्पों की भी एकाग्रता, स्थिति की भी एकाग्रता। एकाग्रता का आधार है - ‘अन्तर्मुखता।’ अन्तर्मुखता में रहने से अन्दर ही अन्दर बहुत कुछ विचित्र अनुभव करेंगे। जैसे दिव्य दृष्टि में सूक्ष्मवतन, सूक्ष्मसृष्टि अर्थात् सूक्ष्मलोक की अनेक विचित्र लीलाएं देखते हो, वैसे अन्तर्मुखता द्वारा सूक्ष्म शक्ति की लीलाएं अनुभव करेंगे। आत्माओं का आह्वान करना, आत्माओं से रूह-रूहान करना, आत्माओं के संस्कार, स्वभाव को परिवर्तन करना, आत्माओं का बाप से कनेक्शन जुड़वाना, ऐसे रूहानी लीला का अनुभव कर सकते हो? अप्राप्त आत्मा को, अशान्त, दु:खी, रोगी आत्मा को दूर बैठे भी शान्ति, शक्ति, निरोगीपन का वरदान दे सकते हो? जैसे शक्तियों के जड़ चित्रों में वरदान देने का स्थूल रूप हस्तों के रूप में दिखाया है, हस्त भी एकाग्र रूप दिखाते हैं। वरदान का पोज (Pose,स्थिति) हस्त, दृष्टि और संकल्प एकाग्र ही दिखाते हैं, ऐसे चैतन्य रूप में एकाग्रचित की शक्ति को बढ़ाओ, तो रूहों की दुनिया में रूहानी सेवा होगी। रूहानी दुनिया मूलवतन नहीं लेकिन रूह रूह को आह्वान करके रूहानी सेवा करे। यह रूहानी लीला का अनुभव करो। यह रूहानी सेवा फास्ट स्पीड़ (तीव्र गति) में कर सकते हो। तो वाचा और कर्मणा की सेवा में, जो तेरी-मेरी का टकराव होता है, नाम, मान, शान का टकराव होता है, स्वभाव, संस्कारों का टकराव होता है, समय व सम्पत्ति का अभाव होता है, इसी प्रकार के जो भी विघ्न पड़ते हैं, यह सर्व विघ्न समाप्त हो जायेंगे। रूहानी सेवा का एक संस्कार बन जायेगा। इसी संस्कार में भी तत्पर रहेंगे। इस वर्ष यह पॉवरफुल सर्विस भी आरम्भ करो। जो भी आत्माएं वाणी द्वारा व प्रैक्टीकल लाईफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) के प्रभाव द्वारा सम्पर्क में आई हैं, वा सम्पर्क में आने की उम्मीदवार हैं, उन आत्माओं को रूहानी शक्ति का अनुभव कराओ। मेहनत का अनुभव, महानता का अनुभव कराया है। अब मेहनत तथा महानता के साथ रूहानियत का भी अनुभव कराओं। तीनों बातों का अनुभव हो।
इस शिवरात्रि पर ऐसी स्थूल और सूक्ष्म स्टेज बनाओ, जिससे आने वाली आत्माओं को अपने स्वरूप रूह और रूहानियत का अनुभव हो। वाणी द्वारा वाणी से परे जाने का अनुभव हो। ऐसे सम्पर्क में आने वाली आत्माओं का विशेष प्रोग्राम रखो। लक्ष्य रखो कि अनुभव कराना है, न कि सिर्फ भाषण करना है, चाहे छोटे-छोटे संगठन बनाओ लेकिन रूहानियत और रूहानी बाप के सम्बन्ध और अनुभव में समीप लाओ। कुछ नवीनता करो। स्थान और स्थिति दोनों से दूर से ही रूहानियत की आकर्षण हो। जनरल सन्देश देने की बात अलग है। वह करना है भले करो, लेकिन यह जरूर करो। इसके लिए निमित्त बनी हुई आत्माओं को अर्थात् सर्विसएबल (Serviceable;सेवाधारी) आत्माओं को विशेष उस दिन एकाग्रता का अन्तर्मुखता का व्रत रखना पड़ेगा। इस व्रत से वृत्तियों को परिवर्तन करेंगे। जैसे भक्त लोग स्थूल भोजन का व्रत रखते हैं, तो सार्विसेबल ज्ञानी तू आत्माओं को व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म की हलचल से परे एकाग्रता अर्थात् रूहानियत में रहने का व्रत लेना पड़े। तब आत्माओं को ज्ञान सूर्य का चमत्कार दिखा सकेंगे। कोई अलौकिक प्लान (Plan;योजना) बनाओ। जैसे भक्ति में अगरबत्ती की खुशबू दूर से आकर्षण करेगी। समझा, अब क्या करना है? सम्पर्क वालों को सम्बन्ध में लाओ। अनुभवों द्वारा उन विशेष आत्माओं को आवाज़ फैलाने के निमित्त बनाओ। अच्छा।
ऐसे रूहानियत में एकाग्रता का अनुभव कराने वाले, हर संकल्प और हर सेकेण्ड रूहानी सेवा में तत्पर रहने वाले, रूह को अनुभवों द्वारा राहत देने वाले, ऐसे रूहानी सेवाधारियों को बाप-दादा का याद-प्यार ओर नमस्ते।
दादी जी के
साथ साकार रूप में एकाग्रता की शक्ति के कई प्रत्यक्ष प्रमाण देखे। दूर बैठे हुए बच्चे प्रैक्टीकल अनुभव करते थे कि आज विशेष रूप से बाप-दादा ने मुझे याद किया वा विशेष रूप से मुझे शक्ति की प्राप्ति का अनुभव करा रहे हैं। संकल्प और बातें दोनों तरफ की मिलती थी। ऐसे प्रैक्टीकल अनुभव देखे ना? जैसे टेलीफोन द्वारा कोई मैसेज (Message;सन्देश) मिलना होता है, तो रिंग (Ring;घंटी) बजती है। वैसे बाप का सन्देश वा संकल्प का डायरेक्शन बच्चों को जब पहुँचता है तो अन्दर ही अन्दर आत्मा में अचानक खुशी की लहर में रोमांच खड़े हो जाते हैं। लेकिन जैसे कई रिंग सुनते हुए भी अनसुना कर देते तो मैसेज नहीं ले सकते। वैसे बच्चों को अनुभव होते जरूर हैं, लेकिन अलबेलेपन में चला देते हैं। एकाग्रता की शक्ति की लीला को कैच (Catch) नहीं कर पाते। लेकिन अनुभव होता जरूर है। वैसे आत्माओं को भी आत्माओं का होता है, लेकिन जैसे तारों में हलचल हो जाए, टेलीफोन के स्तम्भों में हलचल हो जाए तो मैसेज कैच नहीं कर सकते। वहाँ वातावरण का, वायुमण्डल का प्रभाव होता है; यहाँ फिर वृत्ति का प्रभाव होता है। वृत्ति चंचल होने के कारण मैसेज को कैच नहीं कर पाते। तो इस वर्ष में एकाग्रता का दृढ़ संकल्प करने वाला ग्रुप तैयार होना चाहिए, जो यह विचित्र अनुभव कर सके। यह सागर के तले में जाकर अनुभव के हीरे, मोती लेना और वह है ज्ञान सागर की लहरों में लहराने का अनुभव करना। लहरों में हो यह तो अनुभव किया अब अन्दर तले में जाना है। अमूल्य खज़ाने तले में मिलते हैं। यह बात पक्की करने से और सभी बातों से आटोमेटिकली किनारा हो जायेगा। इसको ही स्वचिन्तन, स्वदर्शन, समर्थ सेवा कहा जाता है। लाईट हाऊस (Light House) माईट हाऊस (Might House) की यह स्टेज है। फिर दृष्टि का दान देना पड़ेगा। नज़र से निहाल करने की यह स्टेज है। एकाग्रता शक्ति बहुत विचित्र रंग दिखा सकती है। वो सिद्धियां वाले भी एकाग्रता से ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। स्वयं की औषधि भी एकाग्रता की शक्ति से कर सकते हैं। अनेक रोगियों को निरोगी भी बना सकते हैं। बहुत विचित्र अनुभव इससे कर सकती हो। कोई ने चलती हुई चीज़ को रोका, यह एकाग्रता की सिद्धि है। स्टॉप कहो तो स्टॉप हो जाए तब वरदानी रूप में जय-जयकार के नारे बजेंगे। अभी वाह-वाह के नारे लगाते हैं। भाषण बहुत अच्छा किया, मेहनत बहुत अच्छी की है, लाईफ बहुत अच्छी है। फिर जय-जयकार के नारे बजेंगे। तो इस वर्ष का एम आब्जेक्ट (AIM-Object;उद्देश्य) समझा ना। डबल सेवा चाहिए। अमृतवेले यह स्पेशल (Special;विशेष) सेवा कर सकती हो। फिर भक्तों के आवाज़ भी सुनाई देंगे। ऐसे समझेंगे जैसे यहाँ सम्मुख कोई बुला रहे हैं, यह शक्ति बढ़ानी है। जितना भी समय मिले दो मिनट, पांच मिनट - चले जाओ इस एकाग्रता की शक्ति में। तो थोड़ा-थोड़ा करते भी जमा हो जायेगा, तब शक्तियों द्वारा सर्व शक्तिवान की प्रत्यक्षता होगी। शक्तियों की सम्पूर्णता जैसे अन्धों के आगे आईने का काम करेगी। सम्पूर्णता वर्ष अर्थात् यह सम्पूर्णता। अच्छा।
28-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मणों का धर्म और कर्म
सर्व शक्तिवान, विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी बाबा बोले :-
अपने को ब्रह्मा-मुखावंशावली ब्राह्मण समझते हो ना? ब्राह्मणों का धर्म और कर्म क्या है, वह जानते हो? धर्म अर्थात् मुख्य धारणा है - सम्पूर्ण पवित्रता। सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा जानते हो? संकल्प व स्वप्न में भी अपवित्रता का अंशमात्र भी न हो? ऐसी श्रेष्ठ धारणा करने वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं, इसी धारणा के लिए ही गायन है ‘प्राण जाएँ पर धर्म न जाएँ।’ ऐसी हिम्मत, ऐसा दृढ़ निश्चय करने वाले अपने को समझते हो? किसी भी प्रकार की परिस्थिति में अपने धर्म अर्थात् धारणा के प्रति कुछ त्याग करना पड़े, सहन करना पड़े, सामना करना पड़े, साहस रखना पड़े तो खुशी-खुशी से करेंगे? पीछे हटेंगे नहीं? घबरायेंगे नहीं?
त्याग को त्याग न समझ भाग्य अनुभव करना, इसको कहा जाता है - ‘सच्चा त्याग’। अगर संकल्प में, वाणी में भी इस भावना का बोल निकलता है कि मैंने यह त्याग किया, तो उसका भाग्य नहीं बनता। जैसे भक्ति मार्ग में भी जब बलि चढ़ाते हैं, तो वह बलि चढ़ाने वाला पशु ज़रा भी आवाज़ करता या चिल्लाता है, तो वह ‘महाप्रसाद’ नहीं माना जाता; वा बलि नहीं मानी जाती - यह भी अभी का यादगार चल रहा है। अगर त्याग करने के साथ यह संकल्प उठा कि मैंने त्याग किया; नाम, मान, शान का अभिमान आया तो वह त्याग नहीं, उसे भाग्य नहीं कहेंगे। ऐसी धारणा वाले ही सच्चे ब्राह्मण कहलाते हैं।
ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ की रचना कराते हो। इस महायज्ञ में पुरानी दुनिया की आहुति पड़ने के बाद यज्ञ समाप्त होना है। पहले अपने आपसे पूछो - पुरानी दुनिया की आहुति के पहले निमित्त बने हुए ब्राह्मणों ने अपने पुराने व्यर्थ संकल्प वा विकल्प, जिसको भी संकल्पों की सृष्टि कहा जाता है, इन पुराने संकल्पों की सृष्टि को, पुराने स्वभाव-संस्कार रूपी सृष्टि को महायज्ञ में स्वाहा किया है? अगर अपने हद की सृष्टि को स्वाहा न किया वा अपने पास रही सामग्री की आहुति नहीं डाली तो बेहद की पुरानी सृष्टि की आहुति कैसे पड़ेगी? यज्ञ की समाप्ति का आधार हर एक निमित्त ब्राह्मण है तो चैरिटि बिगेन्स एट होम (Charity Begins At Home) करना पड़े, तो अपने मन के अन्दर चैक करो कि आहुति डालाr है? सम्पूर्ण अन्तिम आहुति कौन-सी है? उसको जानते हो? जैसे आत्म-ज्ञानी आत्मा का परमात्मा में समा जाना ही आत्मा की सम्पूर्ण स्थिति मानते हैं। इस अन्तिम आहुति का स्वरूप है - मैं-पन समाप्त हो, बाबा! बाबा! बोल मुख से व मन से निकले अर्थात् बाप में समा जाएं। इसको कहा जाता है, ‘समा जाना अर्थात् समान बन जाना’। इसको कहा जाता है अन्तिम आहुति, संकल्प, स्वप्न में भी देहभान का ‘मैं-पन’ न हो। अनादि आत्मिक स्वरूप की स्मृति हो; बाबा-बाबा! अनहद शब्द हो। आदि ब्राह्मण स्वरूप को धर्म और कर्म की धारणा हो। इसको कहा जाता है ‘सच्चे ब्राह्मण’।
ऐसे सच्चे ब्राह्मण ही यज्ञ की समाप्ति निमित्त बनते हैं। यज्ञ रचने वाले तो बने, अब समाप्ति के भी निमित्त बनो। अर्थात् अपनी अन्तिम आहुति डालो। तो बेहद की पुरानी दुनिया की आहुति भी पड़ ही जाएगी। समझा, अब क्या करना है? सम्पूर्ण बनने का यही सहज साधन है। सम्पूर्ण आहुति देना - इसको ही सम्पूर्ण स्वाहा कहा जाता है। तो स्वाहा हो गए वा अभी होना है? अन्तिम आहुति अन्तिम घड़ी पर ही डालनी है क्या? जब स्वयं डालेंगे तब दूसरों से डलवा सकेंगे। फिर करेंगे - ऐसा न सोच, अब करना ही है। जैसे सुनने के लिए चात्रक रहते हो, मिलने के लिए प्लान्स (Plans) बनाते हो, हमारा टर्न (Turn) पहले हो। तो जैसे यह सोचते हो वैसे मिटने में भी पहले टर्न लो। करने में फर्स्ट टर्न लो। अच्छा।
ऐसे सम्पूर्ण स्वाहा होने वाले, सम्पूर्ण आहुति डालने वाले, स्वयं के परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन के निमित्त बनने वाले, सच्चे ब्राह्मणों को, बाप समान सम्पूर्ण ब्राह्मणों को सर्व श्रेष्ठ धर्म और कर्म में स्थित रहने वाले ब्राह्मणों को, बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
29-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मधुबन की महिमा
नॉलेजफुल, निराकारी, निर्विकारी बाबा मधुबन निवासी बच्चों से बोले :-
सभी सदा खुश हो ना? जो तीनों कालों के राज़ को जान गए तो राज़ी हो गए हो ना? कभी भी कोई नाराज़ होता है अर्थात् ड्रामा के राज़ को भूल जाता है। जो सदा ड्रामा के राज़ को और तीनों कालों को जानता है तो वह राज़ी रहेगा ना। नाराज़ होने का कारण राज़ को नहीं जानना है। तीनों कालों के ज्ञाता बनने वाले को ‘त्रिकालदर्शी’ कहा जाता है। वह सदा राज़ी और खुश रहता है। मधुबन निवासी अर्थात् सदा खुश और राज़ी रहने वाले। दूसरे से नाराज़ होना अर्थात् अपने को राज़ जानने की स्टेज से नीचे ले आना। तख्त छोड़ कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। त्रिकालदर्शी अर्थात् नॉलेजफुल (Knowledgeful) नॉलेजफुल की स्टेज एक तख्त है, ऊँचाई है। जब इस तख्त को छोड़कर नीचे आते हो तब नाराज़ होते हो। जैसा स्थान वैसी स्थिति होनी चाहिए।
मधुबन को स्वर्ग भूमि कहते हो ना! यह तो मानते हो मधुबन स्वर्ग का माडल (Model) है तो स्वर्ग में माया आती है क्या? इसकी भी अविद्या होनी चाहिए कि माया क्या है। स्वर्ग में माया का ज्ञान नहीं होता है। इस भूमि को साधारण समझने के कारण माया आती है। मधुबन वरदान भूमि को साधारण स्थान नहीं समझो। मधुबन की स्मृति भी समर्थी दिलाती है। मधुबन में रहने वाले ‘फरिश्ते’ होने चाहिए। मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा। मधुबन की दीवारों की महिमा तो नहीं है ना! मधुबन निवासियों को सारी दुनिया किस नज़र से देखती है; विश्व अब तक भी याद के रूप में कितनी ऊँची नज़र से देखती, भक्त भी मधुबन निवासियों के गुणगान करते हैं। ब्राह्मण परिवार भी ऊँची नज़र से देखता है। अगर आपकी भी इतनी ऊँची नज़र हो तो फरिश्ता तो हो ही गए ना?
मधुबन निवासी ‘यज्ञ निवासी’ भी कहे जाते हैं। यज्ञ में रहने वालों को अपनी आहुति डालनी है। तब फिर दूसरे फालो (Follow) करेंगे। यादगार के यज्ञ में भी आहुति सफल तब होती हैं, जब मन्त्र जपते हैं। यहाँ भी सदा मन्मनाभव मन्त्र स्मृति में रहे तब आहुति सफल होती है। मधुबन निवासी तो निरन्तर मन्त्र में स्थित होने वाले हैं। सिर्फ बोलने वाले नहीं, लेकिन मन्त्रस्वरूप हो। अभी तो बाप ने रियलाईजेशन कोर्स (REALIZATION Course;अनुभूति करना) दिया है तो अपने को रियलाईजेशन कर चेंज किया? सभी ठीक हैं? कोई ठीक कहता है तो बाप-दादा तो कहते हैं - मुख में गुलाब। कहने से भी ठीक हो ही जायेगा। कमी को बार-बार सोचने से कमी रह जाती है। कमी को देखते खत्म करते जाओ। चैक करने के साथ-साथ चेंज भी करो। कोई कमाल करके दिखाना है ना? इतने समय में जितना भी साथ मिला, कमाल की। कोई ऐसा काम जो कमाल का गाया जाए, या करते हुए भी भूल जाते हो? अपने को सदा गुणमूर्त्त देखते ऊँची स्टेज पर स्थित रहते रहो। नीचे नहीं आओ। सुनाया था ना कि जो रॉयल फैमली (ROYAL Family;उच्च परिवार) के बच्चे होते हैं वह कब धरती पर, मिट्टी पर पांव नहीं रखेंगे। यहाँ देह-भान मिट्टी है, इसमें नीचे नहीं आओ। इस मिट्टी से सदा दूर रहो। संकल्प से भी देहाभिमान में आए अर्थात् मिट्टी में पांव रखा। वाचा, कर्मणा में आना अर्थात् मिट्टी खा ली। रॉयल फैमली के बच्चे कभी मिट्टी नहीं खाते। सदा स्मृति में रहो कि ऊँचे से ऊँचे बाप के ऊँची स्टेज वाले बच्चे हैं तो नीचे नज़र नहीं आएगी। पुरानापन तो स्वप्न से भी खत्म कर देना है। जो योगी तू आत्मा, ज्ञानी तू आत्मा होगा उनका स्वप्न भी नई दुनिया, नई जीवन का होगा। जब स्वप्न ही बदल गया तो संकल्प की बात ही नहीं। मधुबन निवासियों के स्वप्न भी श्रेष्ठ। बाप-दादा भी उसी नज़र से देखते हैं। मधुबन निवासी नाम की महिमा है जो अन्त समय तक भी, नामधारी (वृन्दावन, मधुबन) सिर्फ नामपर अपना शरीर निर्वाह करते रहते हैं। नाम की इतनी महिमा है, तो मधुबन निवासियों का नाम ही महान है। जब नाम की इतनी महिमा है तो स्वयं स्वरूप की क्या होगी? अच्छा, सभी सन्तुष्ट तो हो ही, अच्छा।
31-01-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भक्तों को सर्व प्राप्ति कराने का आधार है- इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति
साक्षात् बाप समान, सदा साक्षात्कार मूर्त्त, सर्व आत्माओं की कामनाओं को सम्पन्न करने वाले, सदा अपने भाग्य के गुणगान करने वाले दाता के समान सदा देने वाले महादानी, वरदानी आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
अपने को हाइएस्ट अथॉरिटी (Highest Authority;ऊँच ते ऊँच हस्ती) समझते हो? अपनी प्यूरिटी (Purity;पवित्रता) की पर्सनालिटी (Personality;व्यक्तित्व) को जानते हो? अपनी अविनाशी प्रॉपर्टी (Property;सम्पत्ति) को बाप द्वारा प्राप्त कर सम्पन्न अनुभव करते हो? इस पुरानी दुनिया में अल्प काल के हद की पढ़ाई और हद के पोजिशन (Position) की अथॉरिटी समझते हैं, उनके आगे आप सभी की ऑलमाईटी अथॉरिटी (ALMIGHTY Authority;सर्वशक्तिवान्) बेहद की और अविनाशी है। ऐसी अथॉरिटी में सदा रहते हुए हर कर्म करते हो? बाप-दादा हर बच्चे को बेहद का मालिक बनाता है। बेहद की मालिकपन में बेहद की खुशी रहती है। अपने खुशी के खज़ाने को जानते हो ना? बाप बच्चों के भाग्य की रेखाएं देखते हुए हर्षित होते हैं कि श्रेष्ठ भाग्य बनाने वाले कोटों में कोई-कोई आत्माएं हैं।
बाप बच्चों को देख ज्यादा हर्षित होते हैं या बच्चे अपने भाग्य को देख ज्यादा हर्षित होते हैं? कौन ज्यादा हर्षित होते हैं? आप ऐसी श्रेष्ठ आत्माएं हो जो आपके हर कर्म चरित्र के रूप में गाए जाते हैं। हर चरित्र की अभी तक भी पूजा होती रहती है। अभी तक भी भक्त लोग आप दर्शनीय मूर्तियों का एक सेकेण्ड दर्शन करने के लिए तड़फ रहे हैं। ऐसे भक्तों की तड़फ अनुभव करते हो? भक्तों को प्रसन्न करने के लिए दिल में रहम और कल्याण की शुभ भावना उत्पन्न होती है? भक्तों को प्रसन्न करने का साधन कौन-सा है, उसको जानते हो? भक्तों को आप देवताओं द्वारा क्या प्राप्त होने की इच्छा है, इसको जानते हो ना? भक्तों की सर्व प्राप्ति करने का आधार ‘भक्तों की भावना’ है। भक्तों को सर्व प्राप्ति कराने का आधार - आपकी ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्थिति है। जब स्वयं ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ हो जाते हो, तब ही अन्य आत्माओं की सर्व इच्छाएं पूर्ण कर सकते हो। ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ अर्थात् सम्पूर्ण शक्तिशाली बीज रूप स्थिति। जब तक मास्टर बीज रूप नहीं बनते, बीज के बिना पत्तों को कुछ प्राप्ति नहीं हो सकती। अनेक भक्त आत्माएं रूपी पत्ते जो सूख गए हैं, मुरझा गए हैं, उनको फिर से अपने बीज रूप स्थिति द्वारा शक्तियों का दान दो। जैसे जड़ चित्रों के दर्शन पर भक्तों की क्यू (Queue;लाईन) लग जाती हैं, वैसे आपको चैतन्य में भी अपने भक्तों की क्यू अनुभव होती है? क्या अभी तक भी भक्तों के पुकार के गीत सुनना अच्छा लगता है? बाप-दादा जब विश्व का सैर करते हैं तो भक्तों का भटकना, पुकारना देखते और सुनते हैं तो तरस आता है। आप कहेंगे कि बाप-दादा ही साक्षात्कार करा दे, और भक्तों की इच्छा पूर्ण कर दे। ऐसे सोचते हो? लेकिन ड्रामा में नाम बच्चों का, काम बाप का है। तो बच्चों को निमित्त बनना ही पड़ता है। विश्व के मालिक बच्चे बनेंगे या बाप बनेगा? प्रजा आपकी बनेगी या बाप की बनेगी? तो जो पूज्य होते हैं उनकी प्रजा बनती है, उनके ही फिर बाद में भक्त बनते हैं। तो अपनी प्रजा को या अपने भक्तों को अब भी निमित्त बन शान्ति और शक्ति का वरदान दो।
जैसे बाप बच्चों के आगे प्रत्यक्ष हुए, वैसे अब आप इष्टदेव भी अपने भक्तों के आगे प्रत्यक्ष होवो। देवता व देवी अर्थात् देने वाले, तो विधाता के बच्चे विधाता बनो। अपने लाईट का क्राउन (Crown) दिखाई देता है? रत्न जड़ित ताज इस लाईट के ताज के आगे कोई बड़ी बात नहीं लगेगी। जितना-जितना संकल्प, बोल और कर्म में प्यूरिटी को धारण करते जाते हैं, उतना यह लाईट का क्राउन स्पष्ट होता जाता है। बापदादा भी सभी बच्चों के नम्बरवार क्राउन देखते हैं। जैसे भविष्य में राज्य के ताज भी नम्बरवार होंगे, वैसे यहाँ भी नम्बरवार हैं। तो अपने नम्बर जानते हो? छोटा ताज है या बड़ा ताज? ताज है तो सभी के ऊपर! जब से बाप के बच्चे बने, पवित्रता की प्रतिज्ञा की, तो रिटर्न (Return;बदले) में ताज प्राप्त हो ही जाता है। सुनाया था ना- आलमाइटी अथॉरिटी के बच्चे बनने से अर्थात् अलौकिक जन्म होते ही ताज, तख्त और तिलक जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त होता है। ऐसे अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते हो? अगर सदा अपने भाग्य और भाग्य विधाता के गुण गाते रहो तो सदा गुण सम्पन्न बन ही जायेंगे। अपनी कमजोरियों के गुण नहीं गाओ, भाग्य के गुण गाते रहो। ‘प्रश्न से पार हो प्रसन्न चित्त रहो।’ जब तक खुद के प्रति कोई न कोई प्रश्न है, कैसे करें? क्या करे? तब तक दूसरों को प्रसन्न नहीं कर सकेंगे। समझा? अब अपना नहीं सोचो, भक्तों का ज्यादा सोचो। अब तक लेना नहीं सोचो, लेकिन देना सोचो। कोई भी इच्छाएं अपने प्रति न रखो लेकिन अन्य आत्माओं की इच्छाएं पूर्ण करने का सोचो। तो स्वयं स्वत: ही सम्पन्न बन जायेंगे। अच्छा।
ऐसे साक्षात् बाप समान सदा साक्षात्कार मूर्त्त, सर्व आत्माओं की कामनाओं को सम्पन्न करने वाले, सदा हाइएस्ट अथॉरिटी की स्थिति में स्थित, प्यूरिटी के पर्सनेलिटी में रहने वाले, सदा अपने भाग्य के गुणगान करने वाले, दाता के समान सदा देने वाले महादानी, सर्व वरदानों से सम्पन्न वरदानी, ऐसे महान आत्माओं को बाप-दादा का याद- प्यार और नमस्ते।
02-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा अलंकारी स्वरूप में स्थित रहने वाला ही स्वयं का तथा बाप का साक्षात्कार करा सकता है
सदा अलंकारी, निरहंकारी, निराकारी स्थिति में स्थित, विश्व को रोशन करने वाले दीपकों के प्रति बाबा बोले-
बापदादा स्नेही बच्चों के रूहानी स्नेह की महफिल में आए हैं। ऐसे रूहानी स्नेह की महफिल कल्प में अब संगम पर ही होती है। और किसी भी युग में रूहानी बाप और बच्चों के स्नेह की महफिल नहीं हो सकती है। इस महफिल में अपने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझते हो? ऐसा श्रेष्ठ भाग्य जो स्वयं ऑलमाइटी अथॉरिटी बाप, बच्चों के इस भाग्य का वर्णन करते हैं। ऐसे भाग्यशाली बच्चों को स्वयं बाप देख हर्षित होते हैं। तो सोचो ऐसा भाग्य क्या होगा? भाग्य को सुमिरण करते ही बाप की सुमरणी के मणके बन सकते हो। इतना ऊँचा भाग्य जिसका आज कलियुग के अन्त में भी सुमिरण करने वाले भक्त अपने को भाग्यशाली समझते हैं। ऐसे श्रेष्ठ भाग्य के अनुभव के अंचली के लिए भी सभी तड़फते हैं। ऐसे भाग्यशाली हो जिनके नाम से भी अपने जीवन को सफल समझते हैं। तो सोचो वह कितना बड़ा भाग्य है! सदैव अपने को इतना भाग्यशाली आत्मा समझते हो? तो सोचो वह कितना बड़ा भाग्य है!
बड़े से बड़ा ब्राह्मण कुल है, ऐसे ब्राह्मण कुल के भी आप दीपक हो। कुल के दीपक अर्थात् सदा अपनी स्मृति की ज्योति से ब्राह्मण कुल का नाम रोशन करता रहे। ऐसे अपने को कुल के दीपक समझते हो? सदा स्मृति की ज्योति जगी हुई है? बुझ तो नहीं जाती? अखंड ज्योति अर्थात् कभी भी बुझने वाली नहीं। आपके जड़ चित्रों के आगे भी ‘अखण्ड ज्योति’ जगाते हैं। चैतन्य अखण्ड ज्योति का ही वह यादगार है तो चैतन्य दीपक बुझ सकते हैं? क्या बुझी हुई ज्योति अच्छी लगती है? तो स्वयं को भी चेक करो, जब स्मृति की ज्योति बुझ जाती है तो कैसा लगता होगा? क्या वह अखण्ड ज्योति हुई? ज्योति की निशानी है - सदा स्मृति स्वरूप और समर्थी स्वरूप होगा। स्मृति और समर्थी का सम्बन्ध है। अगर कोई कहे स्मृति तो है कि बाबा का बच्चा हूँ, लेकिन समर्थी नहीं है, यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि स्मृति ही है कि ‘मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ।’ मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् समर्थ स्वरूप। समर्थ अर्थात् शक्ति। फिर वह गायब क्यों हो जाती है? कारण? एक शब्द की गलती करते हो। कौन-सी गलती? बाप कहते हैं ‘साकारी सो अलंकरी’ बनो। लेकिन बन क्या जाते हो? अंलकारी के बजाए देह-अहंकारी बन जाते हैं। बुद्धि के अहंकारी, नाम और शान के अहंकारी बन जाते हो। सदा सामने अलंकारी स्वरूप का सिम्बल (Symbol;चिन्ह) होते हुए भी अपने अलंकारों को धारण नहीं कर पाते। जैसे हद के राजकुमार और राजकुमारियाँ भी सदा सजे सजाएँ रॉयलिटी (ROYALTY) में होते हैं। वैसे ही ब्राह्मण कुल की श्रेष्ठ आत्माएं सदा अलंकारों से सजे-सजाएं होने चाहिए। यह अलंकार ब्राह्मण जीवन का श्रृंगार हैं, न कि देवता जीवन का। तो अपने अलंकार के श्रृंगार को सदा कायम रखो। लेकिन करते क्या हो, एक अलंकार को पकड़ते तो दूसरे अलंकार को छोड़ देते हैं। कोई तीन पकड़ सकते हैं तो कोई चार पकड़ सकते हैं। बाप-दादा भी बच्चों का खेल देखते रहते हैं। भुजा अर्थात् शक्ति, जिस शक्ति के आधार से ही अलंकारी बन सकते हैं, वह शक्तियों रूपी भुजायें हिलती रहती हैं। जब भुजाएं हिलती रहती हैं तो सदा अलंकारी कैसे बन सकते हैं? इसलिए कितनी भी कोशिश करते हैं अलंकारी बनने की, लेकिन बन नहीं सकते। तो एक शब्द कौन-सा याद रखना है? किसी भी प्रकार के ‘अहंकारी’ नहीं लेकिन अलंकारी बनना है। सदा अलंकारी स्वरूप में स्थित न होने के कारण स्वयं का, बाप का साक्षात्कार नहीं करा सकते। इसलिए अपने शक्ति रूपी भुजाओं को मजबूत बनाओ, नहीं तो अलंकारों की धारणा नहीं कर सकेंगे। अलंकारों को तो जानते हो ना? जानते हो और वर्णन भी करते हो फिर भी धारण नहीं कर सकते। क्यों? बाप-दादा बच्चों की कमज़ोरी की लीला बहुत देखते हैं जैसे प्रभु की लीला अपरम्पार है तो बच्चों की भी लीला अपरम्पार है। रोज की नई रंगत होती है। माया के नई रंगत में रंग जाते हैं। स्वदर्शन चक्र के बजाए व्यर्थ दर्शन का चक्र चल जाता है। द्वापर से जो व्यर्थ कथाएं और व्हानियां बड़ी रूचि से सुनने और सुनाने की आदत है, वह संस्कार अभी भी अंश रूप में आ जाता है। इसलिए कमल पुष्प समान अर्थात् कमल पुष्प के अलंकार धारी नहीं बन सकते। कमल की बजाय कमज़ोर बन जाते हैं। मायाजीत बनने का दूसरों को सन्देश देते, लेकिन स्वयं मायाजीत हैं या नहीं, यह सोचते ही नहीं। इसलिए अलंकारी नहीं बन सकते। अहंकारी।’
ऐसे सदा अलंकारी, निरहंकारी, निराकारी स्थिति में स्थित होने वाले, सदा के विजयी, सदा जागते हुए दीपक, विश्व को रोशन करने वाले दीपक, बाप-दादा के नैनों के दीपकों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी के साथ
‘‘नई दुनिया बनाने वालों की, अपने जीवन को नया बनाने की रफ्तार कैसे चल रही है? पहले अपने जीवन में नवीनता लायेंगे तब दुनिया में भी नवीनता आयेगी। तो अपने जीवन रूपी बिल्डिंग (Buidling;इमारत) को सुन्दर और सम्पन्न बनायेंगे, उतना ही नई दुनिया में भी सुन्दर और सम्पन्न राज्य-भाग्य मिलेगा। कर्म द्वारा अपने तकदीर की लकीर खींच रहे हैं। वह है हद की हस्त रेखाएं और ये हैं कर्म की रेखाएं। जितना कर्म श्रेष्ठ और स्पष्ट होगा, उतनी भाग्य की रेखाएं श्रेष्ठ और स्पष्ट होगी। तो कर्म की रेखाओं से अपना भविष्य खुद ही देख सकते हो। यमुना के किनारे पर कौन रह सकेंगे? जिन्होंने सदा के लिए पुरानी दुनिया से किनारा किया है और बाप को सदा साथी बनाया है, वही यमुना के किनारे साथ महल वाले होंगे। श्री कृष्ण के साथ पढ़ने वाले कौन होंगे? पढ़ने पढ़ाने वाले साथी भी होंगे ना? जिसका सदैव पढ़ाई पढ़ाने और पढ़ने में विशेष पार्ट है वही वहाँ भी विशेष पढ़ाई के साथी बनेंगे। रास करने वाले कौन होंगे? जिन्होंने संगम पर बाप के साथ समान संस्कार मिलाने की रास मिलाई होगी। तो यहाँ जिनके बाप समान संस्कारों के रास मिलती है वे वहाँ रास करेंगे। रॉयल फैमली (ROYAL Family;उच्च परिवार) में कौन आयेंगे? जो सदैव अपनी प्यूरिटी की रॉयलटी में रहते हैं। कहाँ भी हद के आकर्षण में आँख नहीं डूबती। सदा अलंकारों से सजे हुए होते हैं। सदा श्रृंगारे हुए मूर्ति, ऐसी रॉयलटी वाले रॉयल फैमली में आयेंगे। वारिस कौन बनेंगे? वारिस अर्थात् अधिकारी। तो जो यहाँ सदा अधिकारी स्टेज पर रहते, कभी भी माया के अधीन नहीं होते, अधिकारीपन के शुभ नशे में रहते, ऐसे अधिकारी स्टेज वाले ही वहाँ भी अधिकारी बनेंगे। अब हर एक को अपने आप को देखना पड़े कि मैं कौन हूँ? यह पहेली है। किसी-किसी का सारे जीवन में साथ-साथ पार्ट भी है - साथ पढ़ने का, साथ रास करने का, साथ महल में रहने का, रॉयल फैमली में भी साथ होंगे। कुछेक आत्माओं का सर्व अधिकार भी है। यह है नई दुनिया की रूपरेखा।’’
टीचर्स के साथ:-
बाप-दादा को विशेष खुशी होती है। क्यों, जानते हो? आप समान शिक्षक हो ना। जैसे बाप विश्व का शिक्षक, सेवक है वैसे टीचर भी शिक्षक और सेवक हैं। तो समानता वालों को देखकर खुशी होती है। शिक्षक की स्थिति में तो समान हो। बिना सेवा के और कोई बात आकर्षित न करे। दिन-रात सेवा में लगी रहो। अगर सेवा से फ्री (Free;खाली) रहेंगे तो फिर और बातें भी आ जायेंगी। खाली घर में ही बिच्छू, टिंडन आते हैं। खाली घर हो या पुराना घर हो। यहाँ भी ऐसे होता है। बुद्धि या तो खाली होती है या तो पुराने संस्कारों वाली होती है, तो व्यर्थ संकल्प रूपी बिच्छू, टिंडन पैदा हो जाते। (1) टीचर अर्थात् सदा बिजी (Busy;व्यस्त) रहने वाली। कभी फुर्सत में रहने वाली नहीं। संकल्प, बोल, कर्म से भी फ्री रहने वाली नहीं।
(2) टीचर का अर्थ ही बाप समान अथवा बाप के समीप विजयी माला के मणके। टीचर का यही लक्ष्य है ना - ‘विजयी माला के मणके’ बनना।
(3) टीचर अर्थात् कभी हार, कभी जीत में आने वाले नहीं, लेकिन ‘सदा विजयी।’ (4) टीचर अर्थात् सदा तिलकधारी, सदा सौभाग्यवती, सुहागवती। तिलक सुहाग की निशानी है ना। तो सदा सुहागवती अर्थात् बाप को सदा साथी बनाने वाली। सुहागवती अर्थात् तिलक वाली।
टीचर का स्थान है - दिल-तख्त। स्थान छोड़ेंगे तो दूसरे ले लेंगे। टीचर का आसन बाप का दिल-तख्त है। आसन छोड़ दिया तो त्याग, तपस्या खत्म। तो यह आसन कभी नहीं छोड़ना। जगह लेने वाले बहुत हैं। सभी को यही उमंग उत्साह होता है कि हम टीचर से आगे जायें। टीचर फिर उनसे भी आगे जाए तब तो दिल तख्त नशीन होगी? टीचर का छोटा-सा संसार है ना। टीचर का संसार एक बाप ही है। मात-पिता, बन्धुसखा.....। तो संसार में क्या होता है? सर्व सम्बन्ध होता है, वैभव होता है। यहाँ सर्व सम्बन्ध की प्राप्ति बाप से है। है छोटा-सा संसार लेकिन सम्पन्न और शक्तिशाली है। इस छोटे से संसार में कोई अप्राप्त वस्तु नहीं। सर्व सम्बन्ध बाप से। ऐसे नहीं पिता का सम्बन्ध है तो माता का नहीं, माता का है तो बन्धु का नहीं। अगर एक भी सम्बन्ध की प्राप्ति बाप से न होगी तो बुद्धि दूसरे तरफ जरूर जायेगी। बाप से सर्व सम्बन्धों का अनुभव होना चाहिए। नहीं तो दूसरा सम्बन्ध अपनी तरफ खींच लेगा। सारा संसार ही ‘एक बाप’ हो गया तो सब रूप हो गया ना। इसको कहा जाता है नम्बर वन टीचर। फ्लॉलेस (Flawless;बेदाग) टीचर, योग्य टीचर, नामी-ग्रामी टीचर। बाप तो सदा ऊँची नज़र से देखते हैं। अगर बाप कमी को देखे तो सदा के लिए उस कमी को अन्डर लाईन (Underline) लग जाती है। बाप भाग्य-विधाता है ना। इसलिए बाप सदा श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। श्रेष्ठता के आगे, कमज़ोरी आप ही मन को खाती है। श्रेष्ठ बातें सुनने से कमज़ोरी स्पष्ट हो ही जाती है। इसलिए बाप सदैव श्रेष्ठता का वर्णन करते हैं जिससे कमज़ोरी स्वत: ही दिखाई दे। अगर कमज़ोरी को देखें तो लम्बी-चौड़ी वेद- शास्त्रों की खानियाँ बन जाएं।
सभी टीचर्स को विशेष एक बात का ध्यान रखना है - कभी भी, किसी में भी रॉयल रूप में भी झुकाव न हो, किसी भी आत्मा के गुणों की तरफ, सेवा, सहयोग की तरफ, बुद्धि की तरफ, प्लानिंग (Planning;योजना) की तरफ झुकाव नहीं हो। उसी को अपना आधार बनाने से झुकाव होता है। जब किसी आत्मा का आधार हो जाता है तो बाप का आधार स्वत: ही निकल जाता है; और अब आगे चलकर अल्प काल का आधार हिल जाता है तो भटक जाते हैं। इसलिए कभी भी किसी आत्मा के किसी विशेष प्रभाव के कारण प्रभावित होना, यह ‘महान भूल’ है। भूल नहीं महान भूल है। इसमें खुश न हो जाना कि सर्विस वृद्धि को पा रही है। यह अल्प काल का जलवा होता है। फाउन्डेशन (Foundation;नींव) हिला तो सर्विस हिली। इसलिए कभी भी कोई आत्मा को आधार न बनाओ। ऐसे नहीं कि इसके कारण सर्विस वृद्धि को नहीं पायेगी, उन्नति नहीं होगी। यह कारण नहीं कालापन है, जो स्वच्छ आत्मा को काला कर देता है। यह बड़े से बड़ा दाग है। किसी आत्मा को आधार बनाना - यह बड़े ते बड़ा फ्ला है। तो फ्लालेस (Flawless) नहीं बन सकेंगे। बाकी मेहनत बहुत करती हो। मेहनत की बाप-दादा मुबारक देते हैं। सुनाया न कि शास्त्रों की कहानियाँ भी बहुत होती हैं जिनका कोई फाउण्डेशन नहीं। इसलिए पहले सुनाया कि टीचर अर्थात् सदा सेवा में बिजी। संकल्प में भी बाप के साथ बिजी रहो तो किसी आत्मा में बिजी नहीं होंगे। जो बिजी होता है वह कहाँ झुकेगा नहीं। फ्री होने के बाद ही मनोरंजन के साधन, स्नेह, सहयोग की तरफ झुकाव होता है। जो बिजी होगा, उनको इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं। बाप-दादा टीचर्स को देख खुश होते हैं। हिम्मत, उमंग, उल्लास तो बहुत अच्छा है। कदम आगे बढ़ा रही हो लेकिन अपने कार्यों की कहानी का शास्त्र नहीं बनाना। कर्म की रेखा से श्रेष्ठ तकदीर बनानी है। ऐसी कहानी नहीं बनाना जिसका जन्म भी उल्टा तो कहानी भी उल्टी। स्टुडेंट (Student;जिज्ञासु) को पढ़ाना भी खुद को पढ़ाना है। टीचर्स से रूह-रूहान करना बाप-दादा को भी अच्छा लगता है। फालो करने वाले तथा समान वालों से ज्यादा स्नेह होता है। जिससे स्नेह होता है उसकी छोटी कमज़ोरी भी बड़ी लगती है। इसलिए इशारा देते हैं। हम कितने समीप हैं देखना है। तो अमृतवेले दर्पण स्पष्ट होता है। टीचर्स सैलवेशन (Salvation;सहुलियत) देने वाली बन गई ना, लेने वाली नहीं। टीचर्स से पूछने की आवश्यकता नहीं कि खुश-राज़ी हो। सदा खुश रहो और सेवा में वृद्धि करती रहो। परन्तु जब बाहें लड़खड़ाती हैं तो यह सीन (Scene;दृश्य) भी अच्छा लगता है। एक अलंकार उठाती तो दूसरा छूटता है। कभी स्वदर्शन चक्र को ठीक करती तो शंख छूट जाता है, शंख पकड़ती तो कमल छूट जाता है। अब टीचर्स को शास्त्रों की कथा बन्द करनी है। हर संकल्प, हर सेकेण्ड में तकदीर बनाओ। कोई कथा सुनने वाली, सुनाने वाली और बनाने वाली भी होती है। जैसे व्यास की कमाल है, वैसे यहाँ भी कमाल करते हैं। जन्म देते, पालना करते परन्तु विनाश नहीं कर पाते। तो फिर पश्चात्ताप करते हैं और कहते हैं मदद करो। अच्छा।
05-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महानता का आधार
सदा काल के लिए महिमा के योग्य बनाने वाले, त्रिकालदर्शी बनाने वाले, सदा जागती ज्योति शिव पिता बोलेः-
बच्चों की क्या-क्या महिमा है जिस आधार से इतने महान् बनते हैं, बाप उस महिमा को देख रहे हैं। आप सब अपने तीनों स्वरूपों की महिमा को जानते हो? एक है - अनादि स्वरूप की महिमा। दूसरी है - वर्तमान ब्राह्मण जीवन की महिमा। तीसरी है - भविष्य आदि स्वरूप की महिमा।
आदि स्वरूप की महिमा तो अभी तक भक्त भी गा रहे हैं, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोत्तम, सम्पूर्ण आहिंसक। यह महिमा है अन्तिम फरिश्ते स्वरूप की अर्थात् भविष्य आदि स्वरूप की। जैसे ब्रह्मा सो श्री कृष्ण कहते हैं वैसे अन्तिम फरिश्ता सो देवता। तो यह है आदि स्वरूप की महिमा।
अनादि स्वरूप की महिमा - जो बाप की महिमा सो मास्टर स्वरूप में आपके अनादि रूप की महिमा है। जैसे मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर नॉलेजफुल (Knowledgeful;ज्ञान का सागर), मास्टर ब्लिसफुल (Blissful;दया का सागर), मास्टर पीसफुल (Peaceful;शान्ति का सागर)।
वर्तमान श्रेष्ठ ब्राह्मण स्वरूप की महिमा कौन सी है? ब्राह्मणों के जीवन के मुख्य चार आधार हैं। ब्राह्मण कहा ही जाता है - पढ़ने और पढ़ाने वाले वो। ब्राह्मण जीवन अर्थात् गॉडली स्टुडेन्ट लाइफ (Godly Student Life;ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन)।
पढ़ाई के जो मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वही ब्राह्मण जीवन के चार आधार हैं और इसी आधार पर ब्राह्मण स्वरूप की महिमा है और वह है - 1. परमात्म ज्ञानी, 2. सहज राजयोगी, 3. दिव्य गुणधारी, 4. विश्व सेवाधारी। यह है वर्तमान ब्राह्मण जीवन की महिमा। अपने तीनों स्वरूपों की महिमा को जानते हुए अपनी महानता को देखो और चेक करो - कौन-कौन से लक्षण प्रैक्टीकल लाइफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) में निरन्तर रूप में अपनाये हैं। परमात्म ज्ञानी का विशेष लक्षण कौन-सा है, जिससे प्रत्यक्ष हो कि यह परमात्म-ज्ञानी हैं। मुख्य लक्षण कौन सा है? हर सब्जेक्ट का लक्षण अलग होता है। परमात्म-ज्ञानी अर्थात् नॉलेजफुल; नॉलेजफुल अर्थात् परमात्म- ज्ञानी। ज्ञान की विशेष प्राप्ति क्या है? ज्ञान का फल क्या है? ज्ञान का फल अर्थात् परमात्म-ज्ञानी का मुख्य लक्षण - हर संकल्प में, बोल में, कर्म में, सम्पर्क में मुक्ति और जीवन्मुक्ति की स्टेज होगी जिसको न्यारा और प्यारा कहते हैं। वह स्टेज है ‘जीवन्मुक्ति’ की। कर्म करते हुए भी बन्धनों से मुक्त। अत: परमात्म-ज्ञानी का विशेष लक्षण है सब में मुक्त और जीवन मुक्त स्थिति। ज्ञान अर्थात् समझ। समझदार सदा स्वयं को बन्धनमुक्त, सर्व आकर्षणों से मुक्त बनाने की समझ रखता है। तो परमात्म-ज्ञानी का विशेष लक्षण हुआ - मुक्त और जीवन्मुक्त।
इसी प्रकार सहज राजयोगी का लक्षण क्या होगा? योगी अर्थात् योगयुक्त अर्थात् युक्तियुक्त। वह संकल्प और कर्म की समानता की सिद्धि-स्वरूप होगा। अच्छा।
दिव्य गुणधारी का मुख्य लक्षण क्या होगा? सन्तुष्ट रहना और सबको सन्तुष्ट करना। उनको सब की सन्तुष्टता का आशीर्वाद प्राप्त होगा अर्थात् गाडली यूनिवार्सिटी (Godly University;ईश्वरीय विश्वविद्यालय) का सर्टिफिकेट प्राप्त होगा। विश्व सेवाधारी का विशेष लक्षण क्या है?
‘विश्व सेवाधारी अर्थात् निर्माण और अथक।’ सदा जागती ज्योति होकर रहेगा। जागती ज्योति माना केवल निद्राजीत नहीं लेकिन सर्व विघ्न जीत। उसको कहते हैं जागती ज्योति। स्मृति रहना भी जागना है। तो अब इन सभी लक्षणों को सामने रखते हुए देखो कि गॉडली यूनिवार्सिटी की सम्पूर्ण डिग्री ली है? चार सब्जेक्टस के आधार पर जो महिमा बताई, वही ब्राह्मण जीवन की डिग्री है। तो यह डिग्री ली है? यह वर्तमान समय की डिग्री है। फरिश्ते स्वरूप की डिग्री तो और है किन्तु अभी तो हर एक अपने को ज्ञानी, योगी, सेवाधारी तो कहते हो ना? तो जो अपने को कहते हो, समझते हो, चैलेन्ज करते हो कि सभी शास्त्र-ज्ञानी हैं, हम परमात्म-ज्ञानी हैं; वे सब हठयोगी हैं, हम दिव्य गुणधारी अर्थात् कमल फूल समान जीवन वाले हैं। हम विश्व-कल्याणकारी अर्थात् सेवाधारी हैं। इसलिए जो चैलेन्ज करते हो, वे ही लक्षण दिखाई देने चाहिए। क्या यह कठिन है? यह तो ब्राह्मणों का निजी धर्म और कर्म है। जो जन्म-जाति का धर्म और कर्म होता है वह मुश्किल नहीं होता। ‘वर्तमान महिमा को निजी, निरन्तर धर्म और कर्म बनाओ।’ समझा? अच्छा।
ऐसे लक्ष्य और लक्षण को समान बनाने वाले, तीनों स्वरूपों की महिमा से महान बनाने वाले, सदा मुक्त, जीवनमुक्त, युक्तियुक्त, सदा सन्तुष्ट, सदा अथक, निर्माण, सदा जागती ज्योति, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आदि पिता और अनादि पिता का याद-प्यार और नमस्ते।
06-02-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
रियलाइजेशन द्वारा लिबरेशन
विश्व अधिकारी, सर्वगुण सम्पन्न बनने वाली श्रेष्ठ आत्माओं के प्रति बाप-दादा बोलेः-
आज बाप-दादा हर एक गाडली स्टुडेंट की रिजल्ट (परिणाम) को देख रहे हैं। कोर्स किया, रिवाईज कोर्स (REVISE Course) भी किया। रियलाइजेशन कोर्स (REALIZATION Course) भी किया। उसका रिजल्ट क्या हुआ? हर एक ने अपने को रियलाईज (Realise;अनुभव) किया कि पढ़ाई के अनुसार किस स्टेज को पा सकेंगे। राज्य-पद के संस्कार या प्रजा-पद के संस्कार दोनों में से मुझ आत्मा में कौन से संस्कार भरे हैं, यह जानते हो? राज्य-पद के संस्कार अर्थात् श्रेष्ठ पद के संस्कार क्या दिखाई देंगे? ‘अधिकारी और सत्कारी, निराकारी और निरहंकारी।’ ये विशेष धारणायें राज्य-पद का विशेष आसन है। यह आसन ही सिंहासन की प्राप्ति कराता है। चारों ही बातों का बैलेन्स हो। ऐसा आसन मजबूत है या हिलता रहता है? बाप-दादा आज रिजल्ट पूछ रहे हैं। रियलाइजेशन कोर्स का होम-वर्क दिया था, उसका क्या रिजल्ट हुआ? आप सब तो फाइनल पेपर के लिए तैयार थे, फिर अपना रिजल्ट क्या देखा, अपनी स्थिति का क्या अनुभव किया? बाप समान बाप के साथ-साथ जाने वाले बने हो? अगर समान नहीं तो साथ के बजाय वाया (Via) में रूकना पड़ेगा। वाया इसलिए करना पड़ेगा क्योंकि खाता क्लीयर (Clear;चुक्ता) नहीं हुआ होगा। रिफाइन (Refine;स्वच्छ) नहीं तो फाईन (दण्ड) भरना पड़ेगा। इसलिए साथ नहीं चल सकेंगे। वायदा किया है? साथ चलेंगे या रूककर चलेंगे? बाप से पूछते हैं कि आप पुराने बच्चों से क्यों नहीं मिलते; तो बाप भी रिजल्ट पूछते हैं - रिफाइन बने हो? क्या अभी कोई कोर्स की आवश्यकता है? रियलाइजेशन के बाद और क्या रह जाता है? अन्तिम रिजल्ट का स्वरूप है - लिबरेशन (Liberation) अर्थात् सबसे मुक्त।
आज बाप-दादा बाप और बच्चों का अन्तर देख रहे थे। बाप क्या कहते हैं और बच्चे क्या करते हैं। रिजल्ट क्या देखी होगी? मजेदार रिजल्ट होगी ना! बतायें या समझते हो? समझते हुए भी करते रहें तो क्या कहेंगे? मैजोरिटी (Majority;अधिकतर) साधारण पुरुषार्थी हैं। मुख्य कारण क्या है? बाप कहते हैं प्रभु-पसन्द बनो, विश्व-पसन्द बनो। लेकिन करते क्या हैं? आराम-पसन्द बन जाते। हो जायेगा, किसने किया है, सब ऐसे ही हैं। औरों से फिर भी हम ठीक हैं। ऐसी अनेक प्रकार की गिरती कला के डनलप के तकिए लगा कर आराम-पसन्द हो गए हैं। बाप कहते हैं कनेक्शन जोड़ो, गुणों और शक्तियों का वरदान लो और दो, लेकिन कई बच्चे कनेक्शन के महत्व को नहीं जानते। कनेक्शन जोड़ना आता नहीं, लेकिन करेक्शन करना (Correction;गलतियां निकालना) बहुत आता है। दूसरों की करेक्शन करने वाले कनेक्शन का अनुभव नहीं कर सकते। बाप कहते सदा याद की साधना में रहो लेकिन साधना के स्थान पर अल्पकाल के साधनों में ज्यादा बिजी रहते हैं। साधनों के आधार पर साधना बना देते हैं। साधन ज्यादा आकर्षित करते हैं। ऐसे साधकों की साधना सफल नहीं होती। जीवन मुक्त के स्थान पर बन्धन मुक्त आत्मा बन जाते हैं। समझा? बाप क्या कहते और बच्चे क्या करते हैं? रिजल्ट सुनी?
बाप-दादा श्रेष्ठ आत्माओं को सदा श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं। श्रेष्ठ तकदीर की रेखाएं देखते हैं। यही आत्माएं विश्व के सामने चमकते हुए सितारे हैं। विश्व आपके कल्प पहले वाले सम्पन्न-स्वरूप, पूज्य-स्वरूप का सुमिरण कर रहा है, इसलिए अपना सम्पन्न स्वरूप प्रैक्टीकल में प्रख्यात करो। बीती हुई कमज़ोरियों पर फुल स्टाप लगाओ तब सम्पन्न रूप का साक्षात्कार होगा। सब पुराने संस्कार और स्वभाव दृढ़ संकल्प रूपी आहुति से समाप्त करो। दूसरों की कमज़ोरी की नकल मत करो। अवगुण धारण करने वाली बुद्धि का नाश करो, दिव्य गुण धारण करने वाली सतोप्रधान बुद्धि धारण करो। अधिकारी और सत्कारी दोनों का बैलेन्स बराबर रखना है। दूसरों की कमज़ोरी को विस्तार में नहीं लाओ और अपनी कमज़ोरी को छिपाओ नहीं। सफलता में स्वयं और असफलता में दूसरों को दोषी मत बनाओ। शान और मान का त्याग, साधनों का त्याग यही महान त्याग है। साकार बाप के समान अल्पकाल की महिमा के त्यागी बनो तब ही श्रेष्ठ भाग्यवान बन सकेंगे। शिव बाबा इन सब बातों से लिबरेशन चाहते हैं। इस अन्तिम फोर्स के कोर्स के लिए समय मिला है।
ऐसे विश्व अधिकारी, सत्कार दे विश्व के द्वारा सत्कारी बनने वाले, निर्माण से विश्व द्वारा नमन योग्य बनने वाले, बीती को समाप्त करने वाले, सर्व गुणों में सम्पन्न बनने वाले सदा समान और साथी रहने वाले, श्रेष्ठ भाग्यशाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
टीचर्स के प्रति
जो कुछ सुना है उन सबका सार अपने जीवन में ला रही हो ना? क्योंकि टीचर का अर्थ ही है ‘राजयुक्त और सारयुक्त’। टीचर की विशेषता यह है - (1) जो विस्तार को सेकेण्ड में सार में लायें। जैसे इसेन्स (Essence;खुशबू) की एक बूंद होती है लेकिन वो बहुत कार्य कर लेती है, वैसे टीचर्स अर्थात् इसेंसफुल (Essenceful)। यर्थ के विस्तार को सेकेण्ड में सार रूप में करने वाली और अन्य को कराने वाली। (2) टीचर्स भी पावर हाउस (Power House) बाप के समान सब-स्टेशन हैं। तो जैसे पावर हाउस में सदा अटेंशन और चेकिंग रहती है कि कहीं भी फ्यूज न हो जाये। ऐसे टीचर्स को भी क्या चैकिंग करनी है? कभी भी कोई परिस्थिति में कनफ्यूज (Confuse) न हो जाएं। जैसे पॉवर हाउस की छोटी सी हलचल सारे एरिया (Area) की लाईट को हिला देती है। वैसे ही टीचर के कनफ्यूज होने से वातावरण में प्रभाव पड़ जाता है और वातावरण का प्रभाव आने वालों पर पड़ता है तो टीचर्स को अपने-आपको अनेक आत्माओं के चढ़ाने और डगमग करने के निमित्त समझना चाहिए। (3) टीचर्स अथक हो ना। छोटी-सी बातों में थकने वाली तो नहीं हो? पुरूषार्थ में अपने-आप से भी थकना होता है? कोई भी प्रकार के संस्कार या स्वभाव को परिवर्तन करने में दिल शिकस्त होना या अलबेलापन होना भी थकना है। यह तो होता ही रहता है, यह तो होगा ही, यह है अलबेलापन। बहुत मुश्किल है, कहाँ तक चलेंगे यह है दिल शिकस्त होना। तो पुरूषार्थ में अलबेलापन होना या दिल शिकस्त होना भी थकना है। (4) जिसमें परिस्थितियों को सामना करने की शक्ति है, वे सदा उमंग उत्साह में रहेंगे, कनफ्यूज नहीं होंगे। (5) टीचर्स हैं ही बाप के समान सेवाधारी, तो समान वाले हो ना? समानता की भी खुशी होती है। टीचर्स इस खुशी में रहती है कि बाप समान ‘मास्टर शिक्षक’ हैं, बाप समान निमित्त बने हुए हैं। बाप समान अनेक आत्माओं के कल्याण की जिम्मेवारी भी है तो बाप समान हैं। यह खुशी बहुत आगे बढ़ा सकती है। टीचर्स को देख बाप-दादा भी खुश होते हैं। समान को कहते हैं ‘फ्रेन्डशिप ग्रुप’ (Friendship Group) तो फ्रेन्डस का ग्रुप हो गया। (6) टीचर्स को सदा नया प्लान बनाना चाहिए। प्लानिंग बुद्धि हो और बहुत सहज प्लानिंग बुद्धि बन भी सकती हो। कैसे? अमृतवेले प्लान बुद्धि हो तो बाप-दादा द्वारा प्लान टच होंगे। तो प्लानिंग बुद्धि बनते जायेंगे। साकार आधार लेती हो इसलिए प्लानिंग बुद्धि नही बनती। नहीं तो टीचर्स का सम्बन्ध फ्रेन्डशिप होने के कारण समीप का है। तो बहुत सहयोग ले सकती हो। जब बाप देखते हैं हद के आधार बना रखे हैं, तो बाप क्यों मदद करें? (7) टीचर्स की विशेषता क्या है? टीचर्स इन्वेंटर (Inventor;आविष्कारक), क्रियेटर (Creator;रचयिता), प्लानिंग बुद्धि है; अनेक आत्माओं को उमंग उल्लास दिलाने वाली है, इन सब विशेषताओं को अब इमर्ज करो। तो हद की बातें मर्ज हो जायेंगी। समझा? (8) टीचर की विशेषता है अनुभवी मूर्त्त। बोलने वाली मूर्त्त नहीं, अनुभवी मूर्त्त। बोलना भी अनुभव के आधार पर। इतनी सब विशेषताओं से सम्पन्न नज़र से बाप-दादा देखते हैं। तो कितने महान हो गये! महानता को मेहमान समझ कर चलाना। महानता को अपनी प्रॉपर्टी नहीं समझ लेना। महानता को अपना समझ, बाप का नहीं समझा तो नुकÌसान है। बाप द्वारा मिली हुई महानता है तो बाप को बीच में से नहीं भूलना। अच्छा।
सदा खुश रहने का साधन
सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्मा की निशानी कौन सी होगी? जो खज़ानों से सम्पन्न होगा वा सदा अति इन्द्रिय सुख में मगन रहेगा। उसे बाप और सेवा के सिवाए कुछ भी याद नहीं रहेगा। वह हद की प्रवृत्ति को सम्भालते हुए ईश्वरीय सेवा अर्थ अपने को ट्रस्टी समझ करके प्रवृत्ति का कार्य करेगा। उसका हर कर्म श्रीमत प्रमाण होगा - उसमें जरा भी मनमत या परमत मिक्स नहीं करेगा। श्रीमत में अगर जरा भी मनमत या परमत मिक्स है तो उसकी रिजल्ट क्या दिखाई देगी? अगर श्रीमत के अन्दर मनमत या परमत मिक्स है तो जैसे शुद्ध चीज़ में कोई अशुद्ध चीज़ मिक्स हो जाती है तो कोई न कोई नुकसान हो जाता है। ऐसे यहाँ भी श्रीमत में मनमत या परमत मिक्स होती है तो सेवा से जो प्राप्ति होनी चाहिए वो नहीं होती। खुशी, सफलता, शक्ति का अनुभव भी नहीं होगा, श्रीमत की रिजल्ट है सफलता अर्थात् सर्व प्राप्ति। यह अनुभव भी करते होंगे कि किसीकिसी समय मेहनत बहुत करते हो लेकिन सफलता कम मिलती, अनुभव कम होता और कभी मेहनत कम पुरूषार्थ कम होते भी प्राप्ति ज्यादा होती है, इसका कारण यथार्थ और मिक्स। तो यह सूक्ष्म चेकिंग चाहिए। क्योंकि मनमत बहुत सूक्ष्म है। माया मनमत को ईश्वरीय मत में रॉयल रूप से मिक्स करती, आप समझेंगे यह ईश्वरीय मत है लेकिन होगी मनमत। इसके लिए परखने और निर्णय करने की शक्ति चाहिए। अगर यह दोनों शक्तियां पॉवरफुल हैं तो धोखा नहीं खायेंगे।
शान और मानका त्याग, साधनों का त्याग- यही महान त्याग है।
जिनमें रोने की आदत है वे बच्चे बाप से स्वत: ही विमुख हो जाते हैं। मन में दु:ख की लहर आना यह भी रोना हुआ। रोने वाले को बाप की प्राप्ति वाला नहीं कहा जाएगा। जब बाप के सम्बन्ध से वंचित होता है तब दु:ख की लहर आती है। तो रोना अर्थात् बाप से नाता तोड़ना। बाप से अपना मुख मोड़ लेना। जब कोई रोता है तो देखा होगा - किसके आगे मुख नहीं करेगा, छिपायेगा जरूर। तो जैसे स्थूल रोने से स्वत: मुख छिपाया जाता तो मन से रोने से भी बाप से विमुख स्वत: हो जाते। बाप की ओर पीठ हो जाती है। कभी भी दु:ख की लहर संकल्प में भी नहीं आना चाहिए। सुख दाता के बच्चे और दु:ख की लहर हो यह शोभता नहीं। मूड ऑफ करना भी मुख से रोना है। तो मूड ऑफ (Mood Off) करते हो? कभी कोई सर्विस का चान्स कम मिला, तो मूड ऑफ नहीं होती? अथक और आलस्य रहित अपने को समझते हो? आलस्य सिर्फ सोने का नहीं होता। अथक का अर्थ ही है जिसमें आलस्य नहीं हो। तो सदा अथक ही रहना अर्थात् सदा बाप के सम्मुख रहना तो सदा खुश रहेंगे।
फॉस्ट स्पीड (Fast Speed;तीव्र गति) वाले किसी भी समस्या में रूकेंगे नहीं। समस्या रोकने की कोशिश करेगी लेकिन वो जम्प देकर निकल जायेंगे। समस्याओं के सोच में समय नहीं गवाएंगे। फॉस्ट स्पीड अर्थात् जो बाप ने कहा वो किया। दूर से ही अनुभव होगा कि यह कोई अलौकिक व्यक्ति है।
शक्ति और खुशी प्राप्त करने का आधार है - श्रेष्ठ कर्म। श्रेष्ठ कर्म तभी होते हैं जब कर्म और योग दोनों साथ-साथ हो। सदैव चेक करो कि कर्म करते भी योगी हैं। कर्म करते योग भूलता तो नहीं? जैसे आत्मा और शरीर साथ-साथ है, अलग हो जाए तो मुर्दा बन जाते। वैसे अगर कर्म के साथ योग नहीं तो वो कर्म बेकार हो जाते। बन्धन डालने वाली आत्मा भी पुरूषार्थ में सहयोगी है। बन्धन से और ही अधिक इच्छा बढ़ती है तो बन्धन, बन्धन नहीं लकिन सहयोग हुआ ना! अगर सहयोग की दृष्टि से देखो तो मजा आयेगा। बन्धन को बन्धन की दृष्टि देखेंगे तो कमजोर बन जायेंगे।
14-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर
अपनी तकदीर की तस्वीर द्वारा तकदीर बनाने वाले, हर परिस्थिति के पेपरों में एवररेडी, सदा महावीर रहने वाले बच्चों प्रति बाबा बोले :-
आज बाप-दादा हर बच्चे के तकदीर की तस्वीर देख रहे हैं। हर एक ने यथा- शक्ति अपनी-अपनी तस्वीर तैयार की है। तस्वीर के अन्दर विशेषता रूहानियत की चाहिए। रूहानियत भरी तस्वीर हर आत्मा को रूहानी बाप की राह बता देती है। जैसे लौकिक में बहुत सुन्दर बनी हुई तस्वीर अपनी रचयिता की स्मृति दिलाती है कि इसको बनाने वाला कौन? ऐसे ही रूहानी तस्वीर अर्थात् श्रेष्ठ तकदीर-वाली तस्वीर बनाने वाले बाप के तरफ स्वत: ही आकर्षित करती है। आपका भाग्य, भाग्य बनाने वाले भगवान की स्वत: याद दिलाता है। ऐसे श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर बनाई है? रूहानी तकदीर अर्थात् चलता-फिरता लाईट हाउस (Light House)। लाईट हाउस का कर्त्तव्य है - हरेक को सही राह दिखाना। चलते-फिरते इतने लाईट हाउस क्या कमाल करेंगे? ऐसे बने हो वा अब तक बनने के प्लान बना रहे हो?
इस बार बाप-दादा रिजल्ट लेने के लिए आए हैं। जब पेपर अर्थात् इम्तहान के दिन होते हैं तो उस समय पढ़ाई पढ़ायी नहीं जाती है, लेकिन पढ़े हुए का इम्तहान होता है। तो बाप-दादा ने भी संकल्प द्वारा, वाणी द्वारा, कर्म द्वारा पढ़ाई बहुत पढ़ायी है, अब उसकी रिजल्ट देखेंगे। हरेक अपनी रिजल्ट से संतुष्ट हैं? चैक किया है कि समय प्रमाण वा बाप की पढ़ाई प्रमाण, विश्व के आगे स्वयं को प्रत्यक्ष प्रमाण बनाया है? कोई भी बात को स्पष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के प्रमाण दिए जाते हैं। लेकिन सभी प्रमाण में श्रेष्ठ प्रमाण, ‘पत्यक्ष प्रमाण’ ही है। तो ऐसे बने हो? जो कोई भी देखे तो अनुभव करे कि इन्हें पढ़ाने वाला वा बनाने वाला सर्वशक्तिवान बाप है। प्रत्यक्ष प्रमाण ही बाप को प्रत्यक्ष करने का सहज और श्रेष्ठ साधन है। इस साधन को अपनाया है? प्रत्यक्षता वर्ष तो मनाया लेकिन स्वयं को प्रत्यक्ष प्रमाण बनाया? सहज है वा मुश्किल है? क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण अर्थात् जो हो, जिसके हो उसी स्मृति में रहना। वह मुश्किल होता है? अपने आपको याद करना किसको मुश्किल लगता है? टेम्पररी? (Temporary;अस्थायी) पार्ट बजाने के समय अपना टेम्पररी टाईम का स्मृति में रखना मुश्किल होता है। जैसे कोई फीमेल (Female) से मेल (Male) बनेगा तो फिर भी पार्ट बजाते-बजाते फीमेल का रूप कब स्मृति में आ जायेगा। लेकिन निजी स्वरूप कब भूलता नहीं है। तो आप जो हो, जिसके हो और जहाँ के हो वह अनादि निजी स्वरूप, अनादि बाप, अनादि स्थान है, न कि टेम्पररी। अनादि की स्मृति सहज होती है वा मुश्किल? प्रत्यक्ष प्रमाण अर्थात् अनादि रूप में स्थित रहना। फिर भी भूल जाते हो? वास्तव में भूलना मुश्किल होना चाहिए। क्योंकि भूलकर जो स्वरूप स्मृति में लाते हो वह अनादि नहीं, मध्यकाल का है। मध्यकाल अर्थात् द्वापर का समय, तो मध्यकाल का स्वरूप मुश्किल याद आता है। यह यथार्थ नहीं लेकिन अयथार्थ है।
बाप-दादा रिजल्ट लेने आये हैं, खास पुरानों से। जिन्होंने विशेष उल्हनों द्वारा आह्वान किया है। पुरानों का आह्वान करना अर्थात् रिजल्ट देने के लिए तैयार रहना। क्योंकि बाप-दादा ने पहले ही कह दिया था। जैसे नयों को सुनाते हो, बाप का आना अपने आपको जीते जी मरने का साहस रखना। क्योंकि बाप का आना अर्थात् वापस ले जाना वा पुरानी दुनिया का परिवर्तन करना। वैसे ही आपको बाप का बुलाना अर्थात् रिजल्ट देने के लिए तैयार रहना। तो पेपर के लिए तैयार हो ना? विश्व को परिवर्तन करने की हलचल देखते हुए अचल हो? स्वयं को हलचल कराने वाले निमित्त समझते हो वा अब तक अपने ही हलचल में हो? बाप-दादा हिलाने के पेपर लेवे? अचल रहेंगे वा डगमग होंगे? रेडी (REady) हो या एवररेडी (Eveready;सदा तैयार) हो? रिजल्ट क्या है? स्वयं के संस्कारों के पेपर, स्वयं के व्यर्थ संकल्पों के पेपर वा कोई न कोई शक्ति की कमी के कारण पेपर, सर्व से संस्कार मिलाने के पेपर, अब तक इन छोटे-छोटे हद के पेपर में भी हलचल में आते हो वा अचल हो? बेहद के पेपर अर्थात् अनादि तत्वों द्वारा पेपर, बेहद के विश्व के हलचल द्वारा पेपर, बेहद के वातावरण द्वारा पेपर, बेहद सृष्टि के तमोप्रधान अशुद्ध वायब्रेशन (Vibration) वायुमण्डल द्वारा पेपर। ऐसे बेहद के पेपर देने के लिए पहले है - ‘स्वयं द्वारा स्वयं का पेपर’, छोटे से ब्राह्मण संसार द्वारा वा ब्राह्मणों के संस्कारों द्वारा आया हुआ पेपर, यह कच्चा इम्तहान है वा पक्का इम्तहान है? जैसे छ: मास का और बारह मास का पक्का इम्तहान होता है ना! तो हद का पेपर दे पास हो गये हो? अभी बेहद का पेपर शुरू हो? इसी तरह अपने आपको चैक करो कि - किसी भी सब्जेक्ट के पेपर में पास मार्कस (Marks;नम्बर) लेने योग्य बने हैं वा पास विद् ऑनर (Pass With Honour;सम्मान सहित पास) बने हैं। समझा, क्या करना है? घबराते बहुत हो और घबराते किससे हो? माया के बुदबुदों से। जो अभी-अभी हैं, अभी-अभी नहीं होंगे। छोटे बच्चे भी बुदबुदों से नहीं डरते हैं। खेलते हैं न कि डरते हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान बुदबुदों से खेलने वाले हैं न कि डरने वाले। अच्छा फिर आगे सुनाते रहेंगे। अच्छा।
ऐसे चलते-फिरते लाईट हाउस, अपने तकदीर की तस्वीर द्वारा तकदीर बनाने वाले, बाप को हर समय प्रत्यक्ष करने वाले, हर परिस्थिति के पेपरों में एवररेडी रहने वाले, सदा प्रत्यक्ष प्रमाण बन अन्य को प्रेरणा देने वाले, ऐसे सदा महावीर रहने वाले बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से वार्तालाप
आप सभी विशेष आत्माएं बाप-दादा के कार्य में सहयोगी हो। सहयोग के रिटर्न में विशेष सर्व और सहज प्राप्तियां होती हैं। जितना समय जो सर्व प्रकार से सहयोगी बनते हैं, उसका प्रत्यक्ष-फल सर्व प्राप्तियों का अनुभव सहज होता है। जैसे समय प्रति समय बाप के सहयोगी बनते हैं तो बाप भी रिटर्न में मदद करते हैं। हिम्मत का संकल्प एक बच्चे का और हज़ार श्रेष्ठ संकल्पों का सहयोग बाप का। ऐसा सहयोग समय पर देते रहते हैं। बच्चों ने सोचा और बाप के सहयोग से हुआ। यह है विशेष आत्माओं को सहयोगी बनने का प्रत्यक्ष फल। प्रत्यक्ष फल प्राप्त करने वाली आत्मा कब मुश्किल का अनुभव नहीं करेगी - इतना सहज लगेगा जैसे अभी-अभी की हुई बात को रिपीट कर रहे हैं। कल्प पहले की है - नहीं, अभी-अभी की है, अभी-अभी रिपीट कर रहे हैं। कल की बात को भी सोचना पड़ेगा, खेंचना पड़ेगा - लेकिन अभी-अभी की है। इसमें बुद्धि पर बोझ नहीं आयेगा। करना है, कैसे होगा यह बोझ भी नहीं। अभी-अभी किया है और अभी-अभी रिपीट करना है। ऐसा प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है। तो प्रत्यक्ष फल खाने वाले हो ना भविष्य के आधार पर सोच रहे हो। भविष्य तो है ही। लेकिन भविष्य से भी श्रेष्ठ ‘प्रत्यक्ष फल’ है। प्रत्यक्ष को छोड़ भविष्य के इन्तजार में नहीं रहना है। अभी-अभी बाप के बने और अभी-अभी मिला। बाप से दूर रहने वाली आत्माएं भविष्य अर्थात् दूर की बातें सोचेंगे। समीप रहने वाली आत्माएं सदा प्रत्यक्षफल का अनुभव करेंगी। एक का लाख गुणा के रूप में रिटर्न में अनुभव करेंगी। ऐसे होता है ना।
चल नहीं रहे हैं लेकिन कोई चला रहा है। अपनी गोदी में बिठाकर चला रहे हैं, तो मुश्किल थोड़े ही होगा! जैसे बच्चा अगर बाप की गोदी में घूमता है तो उसको कब थकावट नहीं होगी, मजा आयेगा। अपने पांव से चले तो थकेगा भी, रोयेगा भी, चिल्लायेगा भी। यह तो बाप चलाने वाला चला रहा है। बाप की गोदी में बैठे हुए चल रहे हैं। कितना अति इन्द्रिय सुख व आनन्द का अनुभव होता है! जरा भी मेहनत वा मुश्किल का अनुभव नहीं। प्राप्ति है वा मेहनत है? संगमयुगी सदा साथी बनने वाली आत्माओं को मेहनत क्या होती है, वह ‘अविद्या मात्रम्’ होते हैं। ऐसे बहुत थोड़े होंगे जिन्हों को मेहनत अविद्या मात्रम् होगी। यह है फाईनल स्टेज की निशानी। उसके समीप आ रहे हैं। पुरूषार्थ भी एक नैचुरल कर्म हो जाए। जैसे और कर्म नैचुरल है ना। उठना, बैठना, चलना, सोना नैचुरल कर्म हैं, वैसे स्वयं को सम्पन्न बनाने का पुरूषार्थ भी नैचुरल कर्म अनुभव हो तब इस नेचर को परिवर्तन कर सकेंगे। अभी तो वह सर्विस रही हुई है। अभी आप सब जा रहे हो, सभी को फाईनल पेपर देने लिए तैयार करने। क्योंकि आप सब निमित्त हो ना। ऐसे एवररेडी बन जाओ जो कोई भी छोटी वा बड़ी परीक्षा में अचल रहे। अभी तो छोटे पेपर में हलचल में आ जाते हैं। स्वयं के पेपर्स द्वारा ही हलचल में हैं। तो अब ऐसी तैयारी कर भेजना जो पुराने यहाँ आवें तो एवररेडी दिखाई पड़े। बाप-दादा ने रियलाइजेशन कोर्स दिया है तो उसकी रिजल्ट भी लेंगे। अनुभवी बनाते जाओ। उच्चारण करने वाले बन जाते हैं लेकिन अनुभवी कम बनते हैं। अगर अनुभवी मूर्त्त बन जाए तो अनुभवी कब धोखा नहीं खायेंगे। धोखा खाना अर्थात् अनुभवी नहीं। ऐसा ही लक्ष्य रख करके सभी में ऐसे लक्षण भरते जाओ। यह रिजल्ट देख लेंगे। अभी तो यही उमंग सर्व का होना चाहिए कि ‘सम्पन्न बन विश्व परिवर्तन का कार्य सम्पन्न करेंगे।’ नहीं तो विश्व परिवर्तन का कार्य भी हलचल में है। अभी-अभी बादल भरते हैं, थोड़ा बरसते हैं - फिर बिखर जाते हैं। कारण? स्थापना करने वाले विश्व परिवर्तक ही हिलते रहते हैं। अपने निशाने से बिखर जाते हैं तो परिवर्तन के बादल भी बिखर जाते हैं। गरजते हैं लेकिन बरसते नहीं। अच्छा।
16-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण जन्म की दिव्यता और अलौकिकता
मर्यादा पुरूषोत्तम, बाप समान बनने वाले, सदा सिरताज, सदा बाप के सर्व प्राप्तियों के सहारे में रहने वाले बच्चों प्रति उच्चारे हुए बाबा के महावाक्य :-
सुनना और समाना। ‘सुनना’ सहज लगता है रूचि होती है सुनते ही रहें। यह इच्छा सदैव रहती है। ऐसे ही समाना भी इतना ही सहज अनुभव होता है। सदा इच्छा रहती है कि समाने से बाप समान बनना है। समाने का स्वरूप है बाप समान बनना। तो अभी तक फर्स्ट स्टेज पर हो, सेकेण्ड स्टेज पर हो वा लास्ट स्टेज तक हो? लास्ट स्टेज है सुनना और बनना। सुन रहे हैं, बन ही जायेंगे, बनना ही है। कल्प पहले भी बने थे, अब भी अवश्य बनेंगे, यह बोल लास्ट स्टेज में समाप्त हो जाते हैं। एक- एक बोल जैसे-जैसे सुनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे बनते जा रहे हैं। लास्ट स्टेज वालों का लक्ष्य और बोल, स्वरूप द्वारा स्पष्ट दिखाई देगा। जैसे पहला पाठ आत्मा का सुनते हो और सुनाते हो। लास्ट स्टेज वाली आत्मा सिर्फ शब्द सुनेंगी, सुनावेंगी नहीं। लेकिन साथ-साथ स्वरूप में स्थित होगी। इसको कहते हैं बाप समान बनना। स्वयं का वा बाप का स्वरूप व गुण वा कर्त्तव्य, सिर्फ सुनायेंगे नहीं लेकिन हर गुण और कर्त्तव्य अपने स्वरूप द्वारा अनुभव करायेंगे। जैसे बाप अनुभवी मूर्त्त है, सिर्फ सुनाने वाले नहीं हैं। तो ऐसे फॉलो फादर करना है। जैसे साकार में बाप को देखा, सुनाने के साथ कर्म में, स्वरूप में करके दिखाया। सुनना, सुनाना और स्वरूप बन दिखाना - तीनों ही साथसाथ चला। ऐसे सुनना और सुनाना और दिखाना साथ-साथ है? अभी तक जितना सुना है उतना ही समाया है। विश्व के आगे कर दिखलाया है! महान् अन्तर है वा थोड़ा सा अन्तर है? रिजल्ट क्या है? सुनना और सुनाना तो कामन (Common;साधारण) बात है। ब्राह्मणों की अलौकिकता कहाँ तक दिखाई देती है? जैसे बाप के महावाक्य हैं कि ‘मेरा जन्म और कर्म प्राकृत मनुष्यों सदृश्य नहीं, लेकिन दिव्य और अलौकिक है।’ बाप-दादा के साथ-साथ आप ब्राह्मणों का जन्म भी साधारण नहीं, दिव्य और अलौकिक है। जैसा जन्म, जैसा दिव्य नाम वैसा ही दिव्य अलौकिक काम है।
जैसे हरेक लौकिक कुल की मर्यादा की भी लकीर होती है। ऐसे ब्राह्मण कुल की मर्यादाओं की लकीर के अन्दर रहते है? मर्यादाओं की लकीर, संकल्प में भी किसी आकर्षण वश उल्लंघन तो नहीं करते हैं। अर्थात् लकीर से बाहर तो नहीं जाते हैं। शूद्रपन के स्वभाव वा संस्कार की स्मृति आना अर्थात् अछूत बनना। अर्थात् ब्राह्मण परिवार से अपने आप ही अपने को किनारे करना। तो यह चैक करो कि सारे दिन में बाप का सहारा कितना समाय रहता और अपने आप किनारा कितना समय किया? बारबार किनारा करने वाले बाप के सहारे का अनुभव, बाप के साथ-साथ रहने का अनुभव, बाप द्वारा प्राप्त हुए सर्व खज़ानों का अनुभव, चाहते हुए भी नहीं कर पाते हैं। सागर के किनारे पर रहते सिर्फ देखते ही रह जाते हैं, पा नहीं सकते। पाना है, यह इच्छा बनी रहती है लेकिन ‘पा लिया है’, यह अनुभव नहीं कर पाते हैं। जिज्ञासा ही रह जाते हैं। ‘अधिकारी’ नहीं बन पाते हैं। तो सारे दिन में ‘जिज्ञासु’ की स्टेज कितना समय रहती है और ‘अधिकारी’ की स्टेज कितना समय रहती है? आप लोग के पास भी जब कोई नया आता है तो उसको पहले ‘जिज्ञासु’ बनाते हो। जिज्ञासु अर्थात् जिज्ञासा रहे कि पाना है। आप लोग भी ‘जिज्ञासु’ को किनारे रखते हो। संगठन में या रैगुलर क्लास में आने नहीं देते हो। जब वह कहता है कि अब अनुभव हुआ, निश्चय हुआ वा मान लिया, जान लिया, तब संगठन में आने की परमीशन (Permission;अनुमति) देते हो। तो अपने आप से पूछो कि जब जिज्ञासु की स्टेज रहती है तो बाप का सहारा वा कुल का सहारा अर्थात् संगठन का सहारा स्वत: ही समीप के बजाए, अपने को दूर-दूर वाला अनुभव नहीं करते? सहारे के बजाये स्वत: बुद्धि द्वारा किनारा नहीं हो जाता? बच्चे के बजाय मांगने वाले भक्त नहीं बन जाते? शक्ति दो, मदद करो, माया को भगाओ, युक्ति दो, माया से छुड़ाओ, यह ‘ब्राह्मणपन’ के संस्कार नहीं हैं। ब्राह्मण कब पुकारते नहीं। ब्राह्मणों को स्वयं बाप भिन्न-भिन्न ‘श्रेष्ठ टाईटल’ से पुकारते हैं। जानते हो ना? आपके कितने टाईटल हैं? ब्राह्मण अर्थात् पुकारना बन्द। ब्राह्मण अर्थात् सिरताज। कभी भी प्रकृति के वा माया के मोहताज नहीं। तो ऐसे सिरताज बने हो? माया आ जाती है अर्थात् मोहताज बनना। पुराने संस्कार वश हो जाते हैं, स्वभाव वश हो जाते हैं, यह है मोहताज पन। ऐसा मोहताज बाप के सिरताज नहीं बन सकता। विश्व के राज्य के ताजधारी नहीं बन सकता, बाप के सिरताज बनने वाले स्वप्न में भी मोहताज नहीं बन सकते। समझा, रियलाइज करो। अब सेल्फ रियलाईजशन कोर्स (Self-Realization Course) चल रहा है ना। अच्छा।
सदा अपने ब्राह्मण कुल की मर्यादा के लकीर के अन्दर रहने वाले ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’, सुनने, सुनाने और समान बनने वाले, अभी-अभी स्वरूप से दिखाने वाले, सदा सिरताज, सदा बाप के सर्व प्राप्तियों के सहारे में रहने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से
जाना और आना कहेंगे? जाना और आना तब कहें जब साथ छोड़ कर जाता? कहाँ से भी जाना होता है, जाना अर्थात् कुछ छोड़ कर जाना। लेकिन यहाँ जाना और आना शब्द कह सकते हैं? यहाँ हैं तो भी साथ हैं, वहाँ हैं तो साथ हैं। जो सदा साथ रहता, स्थान में भी और स्थिति में भी, तो उसके लिए जाना नहीं कहेंगे। जैसे मधुबन में भी एक कमरे से दूसरे कमरे में जाओ तो यह नहीं कहेंगे हम जा रहे हैं, छुट्टी लेवें, नहीं। नैचुरल जाना आना चलता रहता है, क्योंकि साथ-साथ है ना। यह भी एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगाते हैं। हैं मधुबन वासी। इसलिए विदाई शब्द भी नहीं कहते। सदा सेवा की बधाई देते हैं। सदा साथ रहते, सदा साथ चलते, अंग-संग हैं। ऐसे ही अनुभव होता है ना? महारथी अर्थात् बाप समान। महारथियों के हर कदम में पद्मों की कमाई तो कामन बात है, लेकिन हर कदम में अनेक आत्माओं को पद्मापति बनाने का वरदान भरा हुआ है। महारथी कहेंगे हम जाते हैं? नहीं, लेकिन साथ जाते हैं। महारथियों की सर्विस, नैनों द्वारा बाप से प्राप्त हुए वरदान अनेकों को प्राप्ति कराना अर्थात् अपने द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करना है। आप को देखते-देखते बाप की स्मृति स्वत: आ जाए। हरेक के दिल से निकले कि कमाल है बनाने वाले की! तो बाप प्रत्यक्ष हो जाएगा। बाप, आप द्वारा प्रत्यक्ष दिखाई देगा और आप गुप्त हो, जायेंगे। अभी आप प्रत्यक्ष हो, बाप गुप्त है, फिर हरेक दिल से बाप की प्रत्यक्षता के गुणगान् करते हुए सुनेंगे। आप दिखाई नहीं देंगे, लेकिन जहाँ भी देखेंगे तो बाप दिखाई देगा। इसी कारण जहाँ भी देखें वहाँ बाप ही बाप है। यह संस्कार लास्ट में समा जाते हैं जो फिर भक्ति में जहाँ देखते वहाँ ‘तू ही तू’ कह पुकारते हैं। लास्ट में आप सबके चेहरे दर्पण का कार्य करेंगे। जैसे आजकल मन्दिरों में ऐसे दर्पण रखते हैं जिसमें एक ही सूरत अनेक रूपों में दिखाई देती है। ऐसे आप सबके चेहरे चारों ओर बाप को प्रत्यक्ष दिखाने के निमित्त बनेंगे। और भक्त कहेंगे जहाँ देखते तू ही तू। सारे कल्प के संस्कार तो यहाँ ही भरते हैं। तो भक्त इसी संस्कार से मुक्ति को प्राप्त करेंगे। इसलिए द्वापर की आत्माओं में या मुक्ति पाने का संस्कार या तू ही तू के संस्कार ज्यादा इमर्ज रहते हैं तो अपने वा बाप के भक्त भी अभी ही निश्चित होते हैं। राजधानी भी अभी बनती तो भक्त भी अभी बनते। तो भक्तों को जगाने जाती हो वा बच्चों से मिलने के लिए जाती हो? चैक करना कि इस चक्कर में मेरे भक्त कितने बने और बाप के बच्चे कितने बने। दोनों का विशेष पार्ट है। भक्तों का भी आधा कल्प का पार्ट है और बच्चों का भी आधा कल्प का अधिकार है। भक्त भी अभी दिखाई देंगे या अन्त में? जो नौधा भक्ति करने वाले नम्बरवन ‘भक्त माला’ के मणके होंगे, वह भी प्रत्यक्ष यहाँ ही होने हैं। विजय माला भी और भक्त माला भी। क्योंकि संस्कार भरने का समय ‘संगमयुग’ ही है। भक्त अन्त में पुकारते रह जायेंगे, हे भगवान, हमें भी कुछ दे दो। यह संस्कार भी यहाँ से भरेंगे और बच्चे साथ का अनुभव करेंगे। अच्छा।
18-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
योग्य शिक्षक का हर कर्म रूपी बीज फलदायक होगा, निष्फल नहीं
सेवा केन्द्रों पर निमित्त बनी बहनों प्रति बाबा बोले:-
टीचर्स अर्थात् शिक्षक है। शिक्षक का अर्थ क्या है? शिक्षक का यहाँ अर्थ है, ‘शिक्षा स्वरूप।’ बड़े से बड़ा शिक्षा देने का सहज साधन कौन-सा है? अनेक प्रकार के शिक्षा देने के साधन होते हैं ना। तो शिक्षा देने का सबसे सहज साधन कौनसा है? स्वरूप द्वारा शिक्षा देना, मुख द्वारा नहीं। साकार बाप ने सबसे सहज साधन ‘स्वरूप’ द्वारा ही शिक्षा दी ना? सिर्फ बोल में नहीं, कर्म से। कहेंगे वह सीखेंगे नहीं। लेकिन ‘जो करेंगे वह देख और भी करेंगे।’ यह मंत्र है। तो सबसे सहज तरीका, स्वरूप द्वारा शिक्षा देना। किसको कितना भी समझाओ तुम आत्मा हो, तुम शान्त स्वरूप, ज्ञानस्व रूप हो लेकिन वह समझेंगे तब तक नहीं, जब तक स्वयं उस स्वरूप में स्थित नहीं होंगे। ऐसे अनुभव की पढ़ाई पढ़ने वालों को कोई भी हरा नहीं सकते। पढ़ाई इतनी अविनाशी हो जाती है। तो कैसे शिक्षा देती हो - वाणी से या स्वरूप से?
हर कदम द्वारा अनेक आत्माओं को शिक्षा देना - यह है योग्य टीचर। भाषण द्वारा व सप्ताह कोर्स द्वारा किसको शिक्षा-स्वरूप बनाना। ऐसे शिक्षक के हर बोल - वाक्य नहीं, लेकिन ‘महावाक्य’ कहे जाते हैं। क्योंकि हर बोल महान बनाने वाला है तो महावाक्य कहेंगे। हर कर्म अनेकों को श्रेष्ठ बनाने का फल निकालने वाला हो। कर्म को बीज कहा जाता है, और रिजल्ट को कर्म का फल कहा जाता है। ऐसे शिक्षक का कर्म रूपी बीज फलदायक होगा। बीज अगर पावरफुल होता है तो फल भी इतना अच्छा निकलता है। हर कर्म रूपी बीज फलदायक होगा, निष्फल नहीं। इसको कहा जाता है ‘योग्य शिक्षक।’ उनका हर संकल्प, जैसे ब्रह्मा के संकल्प के लिए गायन है कि ब्रह्मा के एक संकल्प ने नई सृष्टि रच ली, वैसे ऐसी शिक्षक के संकल्प, नई सृष्टि के अधिकारी बनाने वाला है। समझा? शिक्षक की परिभाषा यह है।
टीचर्स को एक ‘लिफ्ट की गिफ्ट’ भी है। कौन-सी? टीचर्स बनना अर्थात् पुराने सम्बन्ध से त्याग करना। इस त्याग के भाग्य के लिफ्ट की गिफ्ट टीचर को है, पहले त्याग तो कर दिया ना। पहला त्याग है सम्बन्ध का। वो तो कर लिया। आगे भी त्याग की लिफ्ट लम्बी है। लेकिन इस त्याग का, हिम्मत रखने का, सहयोगी बनने का संकल्प किया, यह ‘लिफ्ट ही गिफ्ट’ बन जाती है। लेकिन सम्पूर्ण त्याग कर दो तो बाप के लिए गिफ्ट, दुनिया के लिए लिफ्ट बन जाओ। ऐसी लिफ्ट बन जाओ जो बैठा और पहऊँचा। मेहनत नहीं करनी पड़े। टीचर्स को चान्स बहुत है, लेकिन लेने वाला लेवे। टीचर्स बनने के भाग्य का तो सब गायन करते हुए, इच्छा रखते हैं। इच्छा रखते हैं अर्थात् श्रेष्ठ भाग्य है ना। उसको सदा श्रेष्ठ रखना वह है हरेक का नम्बरवार। टीचर्स जितना चाहे उतना अपना भविष्य सहज उज्वल बना सकती है - लेकिन वह टीचर जो योग्य टीचर हो। थोड़े में खुश होने वाली टीचर तो नहीं हो ना? बाप-दादा तो टीचर्स को किस नज़र से देखते हैं? हमजिन्स की नज़र से। क्योंकि बाप भी टीचर है ना। टीचर, टीचर को देखेंगे तो हमजिन्स की नज़र से देखेंगे। हमजिन्स को देख खुश होंगे। टीचर्स तो सदा सन्तुष्ट होंगी। पूछना अर्थात् हमजिन्स की इनसल्ट करना। अच्छा।
23-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
बाप द्वारा प्राप्त सर्व खज़ानों को बढ़ाने का आधार है - महादानी बनना
सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाले, सदा प्राप्ति स्वरूप, हर सेकेण्ड और संकल्प् में पद्मापति बनने वाले, ऐसे अखुट खज़ाने के अधिकारी आत्माओं प्रति बाबा बोले :-
बापदादा सभी बच्चों को सब खज़ानों से सम्पन्न स्वरूप में देख रहे हैं। एक ही सर्व अधिकार देने वाला, एक ही समय सभी को समान अधिकार देते हैं। अलग-अलग नहीं देते हैं। किसको गुप्त विशेष खज़ाना अलग नहीं देते हैं। लेकिन रिजल्ट में नम्बर वार ही बनते हैं। सर्व खज़ानों के अधिकार होते भी, देने वाला सागर और सम्पन्न होते हुए भी, नम्बर क्यों बनते हैं? क्या कारण बनता है? समाने की शक्ति अपनी परसेंटेज में है। इस कारण सभी सेंट-परसेंट (Cent-Percent;सम्पूर्ण) नहीं बन पाते। अर्थात् सर्व बाप समान नहीं बन सकते। संकल्प सभी का है, लेकिन स्वरूप में ला नहीं सकते। हर एक को अपने खज़ानें की परसेंटेज चैक करनी चाहिए कि सभी से ज्यादा कौनसा खज़ाना है, जिसको व्यर्थ करने से सर्व खज़ानों में भी कमी हो जाती है - और वह खज़ाना मैजारिटी (Majority;अधिकतर) व्यर्थ करते हैं। वह कौनसा खज़ाना है? वह है ‘समय का खज़ाना।’ मगर समय के खज़ाना को सदा स्वयं के वा सर्व के कल्यण के प्रति लगाते रहो तो अन्य सर्व खज़ाने स्वत: ही जमा हो जाए। संकल्प के खज़ाने में सदा कल्याणकारी भावना के आधार पर, हर सेकेण्ड में अनेक पद्मों की कमाई कर सकते हो। सर्व शक्तियों के खज़ाने को कल्याण करने के कार्य में लगाते रहने से, महादानी बनने के आधार से एक का पद्म गुणा सर्व शक्तियों का खज़ाना बढ़ता जायेगा। ‘एक देना दस पाना’ नहीं, लेकिन ‘एक देना पद्म पाना।’
ज्ञान का खज़ाना समय की पहचान के कारण अब नहीं तो कब नहीं दे सकते। अब देंगे तो भविष्य में अनेक जन्म प्राप्त होगा। इस आधार पर समय के महत्व के कारण सदा विश्व-सेवाधारी बनने से सेवा का प्रत्यक्ष फल खुशी का खज़ाना अखुट बन जाता है। स्वासों का खज़ाना, समय के महत्व प्रमाण एक का पद्म गुणा या बनने के वरदान का समय समझने से अर्थात् कर्म और फल की गुह्य गति समझने से, व्यर्थ स्वासों को सफल बनाने की सदा स्मृति रहने से, श्रेष्ठ कर्मों का खाता वा श्रेष्ठ कर्मों का सूक्ष्म संस्कार रूप में बना हुआ खज़ाना स्वत: ही भरता जाता है। तो ‘सर्व खज़ानों के जमा का आधार समय के श्रेष्ठ खज़ानों को सफल करो’ तो सदा और सर्व सफलता मूर्त्त सहज बन जाएंगे। लेकिन करते क्या हो? अलबेला अर्थात् करने के समय करते हुए भी उस समय जानते नहीं हो कि कर रहे हैं, पीछे पश्चात्ताप करते हो। इस कारण डबल, ट्रिपल समय एक बात में गंवा देते हो। एक करने का समय, दूसरा महसूस करने का समय, तीसरा पश्चात्ताप करने का समय, चौथा फिर उसको चैक करने के बाद चेंज करने का समय। तो एक छोटी सी बात में इतना समय व्थर्थ कर देते हो। और फिर बार-बार पश्चात्ताप करते रहने के कारण, कर्मों का फल संस्कार रूप में पश्चात्ताप के संस्कार बन जाते हैं। जिसको साधारण भाषा में ‘मेरी आदत’ या नेचर (Nature;प्रकृति व स्वभाव) कहते हो। नेचुरल नेचर ब्राह्मणों की सदा सर्व प्राप्ति की है। अर्थात् ब्राह्मणों के आदि अनादि संस्कार विजय के हैं अर्थात् सम्पन्न बनने के हैं। पश्चात्ताप के संस्कार ब्राह्मणों के नहीं हैं। यह क्षत्रियपन के संस्कार हैं। चंद्रवंशी के संस्कार हैं। सूर्यवंशी सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप है। चंद्रवंशी बार-बार अपने आप में वा बाप से इन शब्दों में पश्चात्ताप करते हैं - ऐसे सोचना नहीं चाहिए था, बोलना नहीं चाहिए था, करना नहीं चाहिए था, लेकिन हो गया, अब से नहीं करेंगे। कितने बार सोचते वा कहते हो। यह भी रॉयल रूप का पश्चात्ताप ही है। समझा? कौन से संस्कार हैं? सूर्यवंशी के वा चंद्रवंशी के? बहुत समय के संस्कार समय पर धोखा दे देते हैं। तो पहले स्वयं को स्वयं के धोखे से बचाओ तो समय के धोखे से भी बच जायेंगे। माया के अनेक प्रकार के धोखे से भी बच जायेंगे। दु:ख के अंश मात्र के महसूसता से सदा बच जायेंगे, लेकिन सर्व का आधार - ‘समय को व्यर्थ नहीं गंवाओ।’ हर सेकेण्ड का लाभ उठाओ। समय के वरदानों को स्वयं प्रति और सर्व के प्रति कार्य में लगाओ। अच्छा।
सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाले, सदा प्राप्ति स्वरूप, हर सेकेण्ड और संकल्प में पद्मापति बनने वाले, ऐसे अखुट खज़ाने के अधिकारी आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से:-
सूर्यवंशी संस्कार हैं ना? बार-बार एक ही भूल करने से संस्कार पक्के हो जाते हैं। तो सूर्यवंशी अर्थात् सूर्य समान मास्टर सूर्य हो। अपनी शक्तियों की किरणों द्वारा किसी भी प्रकार का किचड़ा अर्थात् कमी व कमजोरी है, तो सूर्य का काम है सेकेण्ड में किचड़े को भस्म करना। ऐसा भस्म कर देना जो नाम, रूप, रंग सदा के लिए समाप्त हो जाए। जैसे शरीर को अग्नि द्वारा जलाते हैं, तो सदा के लिए नाम, रूप, रंग समाप्त हो जाता है। तो भस्म करना अर्थात् ‘भस्म’ बना देना। राख को भस्म भी कहते हैं। तो सूर्यवंशी का यह कर्त्तव्य है। न सिर्फ अपनी लेकिन औरों की कमजोरियों को भी भस्म बना देना, इतनी शक्ति है ना? सूर्य की शक्ति से और कोई शक्तिवान है क्या? चन्द्रमा के ऊपर सूर्य है, सूर्य के ऊपर तो और कोई नहीं है ना? चन्द्रमा में भस्म करने की शकि्त नहीं, लेकिन सूर्य में भस्म करने की शक्ति है। तो ऐसे हो ना? मास्टर सूर्य हो कि चन्द्रमा हो? या समय पर चन्द्रमा, समय पर सूर्य बन जाते हो? मास्टर सर्व शक्तिवान अर्थात् मास्टर ज्ञानसूर्य की हर शक्ति बहुत कमाल कर सकती है - लेकिन समय पर यूज़ करना आता है? तो समय है सहन शक्ति का और यूज़ करो निर्णय करने में समय ही गंवा दो तो रिजल्ट क्या होगी? जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता है उस समय उसी शक्ति से काम लेना पड़े। समय पर वही शक्ति श्रेष्ठ गाई जाती है। तो समय प्रमाण यूज़ करने का तरीका हो तो हर शक्ति कमाल कर सकती है; दो-चार शक्तियाँ भी यूज़ करने आवे तो बहुत-कुछ कर सकते हैं। दो-चार में राजी नहीं होना है, बनना तो सम्पन्न है, लेकिन अगर दो भी हैं तो भी कमाल कर सकते हो। हर शक्ति का महत्व है। भक्ति मार्ग में देखा होगा - हर शक्ति को, प्रकृति की शक्ति को भी देवता के रूप में दिखाया है। सूर्य देवता, वायु देवता, पृथ्वी देवता। तो इन सब शक्तियों को देवताओं व देवियों के रूप में दिखाया है; अर्थात् इनका इतना महत्व दिखाया है। जब कि आपकी हर शक्ति का भी पूजन होता है - जैसे निर्भयता की शक्ति का स्वरूप ‘काली देवी’ है। सामना करने की शक्ति का स्वरूप ‘दुर्गा’ है। यह भिन्न-भिन्न नाम से आपके हर शक्ति का गायन और पूजन हो रहा है। संतुष्ट रहना और करने की शक्ति है तो ‘संतोषी’ माता के रूप में गायन हो रहा है। सन्तुष्ट रहना अर्थात् सहन शक्ति। इतनी महिमा है आपकी।
वायु समान हल्के बनने की, अथवा डबल लाईट बनने की शक्ति आप में है तो उसका पूजन वायु देवता रूप में कर रहे हैं वा ‘पवनपुत्र’ के रूप में पूजन कर रहे हैं। है यह आपके डबल लाईट रहने का पूजन। समझा? तो जिसके हर शक्ति का इतना पूजन है वह स्वयं क्या होगा? इतना महत्व अपना जानो। जानते हो अपना महत्व! अनगिनत देवी-देवताएं हैं, नाम भी याद नहीं कर सकेंगे। इतने परम-पूज्य हो! जानते हो अपने को कि साधारण ही समझते हो? अगर अपने पूजन को भी स्मृति में रखो तो हर कर्म पूज्य हो जाएगा।
हरेक को स्वयं को देखना है कि मैं रेस में किस नम्बर पर जा रहा हूँ। रेस कर रहा हूँ, यह कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन नम्बर कौनसा है? चल तो रहे हैं लेकिन कहाँ चींटी की चाल चलना, कहाँ शेर की चाल चलना! फर्क कितना है! चल तो सभी रहे हैं लेकिन चाल कौनसी है? शेर अर्थात् राजा। तो राजा किसके अधीन नहीं होता। ऐसे हो? कभी किसी भी प्रकृति या माया के अधीन तो नहीं होते? अधीन न होना अर्थात् शेर व शेरनी की चाल चलना। चींटी की चाल से तो बकरी की चाल अच्छी।
मधुबन निवासियों के साथ:-
सबसे समीप कौन है? कहावत है सिन्धी में - ‘जो चूल्हे पर वो दिल पर।’ तो सबसे समीप रहने वाले मधुवन निवासी हैं। तो समीप रहने का रिटर्न क्या है? भक्ति में भी पुकारते हैं तो यही कहते हैं, ‘अपने सदा चरणों में बैठने दो’, वह तो हुए भक्त। लेकिन ज्ञानी तू आत्मा तो सदा दिल पर रहते। तो ऐसे समीप ते समीप रहने वाले जैसे सब स्थानों से समीप हो, वेसे स्थिति में भी समीप हो? स्थिति में समीप रहने वालों का स्थान ‘दिल तख्त’ है। स्थान में समीप रहने वाले स्थिति में भी समीप रहने वाले हैं? सभी ने सुना तो बहुत है अब कर्त्तव्य क्या रहा है? सुना हुआ जो है उसका रिटर्न देना। वह रिटर्न दे रहे हो। सुनाया ना एक हैं हार्ड-वर्कर (Hard Worker;अधिक मेहनती), दूसरे हैं चलते-फिरते योगी हो? अगर सिर्फ हार्ड-वर्कर हो तो हार्ड-वर्क करने के टाईम स्थिति भी हार्ड रहती है या लाइट रहती है? जैसे हार्ड-वर्क करने के समय शरीर हलचल में होता है, वैसे स्थिति भी हलचल में होती है या फरिश्ते रूप में होती है? काम बहुत अच्छा करते हो, कर्त्तव्य की महिमा सब करते हैं, लेकिन कर्त्तव्य के साथ स्थिति की भी सब महिमा करें। जो कुछ करते हो तो किए हुए श्रेष्ठ कार्यों का फल यहाँ के साथ भविष्य के लिए भी जमा करते हो? वा यहाँ ही किया, यहाँ ही खाया? संगम युग पर कार्य का फल ‘अतीन्द्रिय सुख’ है इसके सिवाय अल्प काल का नाम, मान, शान व प्रकृति दासी का फल स्वीकार किया तो भविष्य खत्म हो जाता है। जो जैसा और जितना बाप ने कहा है, उसका प्रत्यक्ष फल यहाँ भी लें तो भविष्य खत्म हो जाता है। तो चैक करो यहाँ ही किया, यहाँ ही खाया, या जमा भी होता है? जो जैसा और जितना बाप ने कहा है उसका प्रत्यक्ष-फल यहाँ भी लें और भविष्य जमा भी हो। जिस फल के लिए बाप ने कहा है, वह स्वीकार करने के सिवाय और कोई फल स्वीकार कर लेते तो नुकसान हो जाता। तो समीप रहने वाले अर्थात् समान बनने वाले। समीपता का लाभसमान बन करके दिखाना। लक्ष्य को लक्षण में लाओ। हर लक्षण लक्ष्य को स्पष्ट करे। लक्ष्य तो बहुत ऊँचा है ना। तो लक्षण भी इतने ऊँच हो। ऐसे सैम्पल बन दिखाओ जो बाप-दादा चैलेंज कर सके कि ‘जैसे यह चल रहे हैं ऐसे चलो।’
मधुवन के वायुमंडल का प्रभाव आटोमेटीकली (स्वत:) चारों ओर फैलता ही है जैसे मधुवन के वातावारण को कोई स्वर्ग का माडल कह करके वर्णन करते हैं। वैसे ही ब्राह्मण परिवार में चारों ओर मधुवन का वातावरण बाप समान चलते फिरते योगीपन का फैलता है। मधुवन निवासियों का सिर्फ कर्त्तव्य नहीं कि अपने आप में ठीक चल रहे हैं। आपका कर्त्तव्य है चारों ओर मधुवन के वातावरण और वायब्रेशन (Vibration) द्वारा सर्व को सहयोग देना। जैसे चान्स डबल, ट्रिपल है तो कर्त्तव्य भी डबल। मधुवन निवासियों का हर संकल्प और कर्म वरदान योग्य होना चाहिए। क्योंकि मधुवन है ‘वरदान भूमि’। आखिर वह दिन भी आएगा जो सबके मुख से यह शब्द निकलेगा कि ‘मधुबन निवासी हर संकल्प व कर्म में वरदानी हैं संगठित रूप में।’ अभी बाप इस डेट को देख रहे हैं। अच्छा।
26-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वतन्त्रता ब्राह्मणों का जन्म-सिद्ध अधिकार है
सदा स्वतंत्र रहने तथा सर्व प्राप्ति के अधिकारी, प्रकृति और माया को अधीन बनाने की युक्ति बताते हुए अव्यक्त बाप-दादा बोले:-
आवाज़ से परे रहने वाली स्थिति प्रिय लगती है, वा आवाज़ में आने वाली स्थिति प्रिय लगती है? मास्टर ऑलमाईटी अथॉरिटी (Master ALMIGHTY Authority;मास्टर सर्वशक्तिवान) इस श्रेष्ठ स्टेज पर स्थित हो? आवाज़ से परे स्थिति में स्थित हो सकते हो? ऑलमाईटी अथॉरिटी के हर डायरेक्शन को प्रैक्टिकल में लाने की हिम्मत का अभ्यास हो गया है? बाप-दादा डायरेक्शन दे कि व्यर्थ संकल्पों को एक सेकेण्ड में स्टॉप (समाप्त) करो, तो कर सकते हो? बाप-दादा कहे इस सेकेण्ड में मास्टर शक्ति का सागर बन विश्व को शक्ति का महादान दो, तो एक सैकण्ड में इस स्टेज पर स्थित हो, देने वाले दाता का कार्य कर सकते हो? डायरेक्शन मिलते ही मास्टर सर्वशक्तिवान बन विश्व को शक्तियों का दान दे सकते हो? ऐसे एवररेडी (सदा तैयार) हो? इस स्टेज पर आने से पहले अपने आप से रिहर्सल (Rehersal;पूर्व अभ्यास) करो। कोई भी इन्वेन्शन (Invention;आविष्कार) विश्व के आगे रखने से पहले अपने आप से रिहर्सल की जाती है। ऐसी रिहर्सल करते हो? इस कार्य में वा अभ्यास में सफल कौन हो सकता है? जो हर बात में स्वतंत्र होगा - किसी भी प्रकार की परतंत्रता न हो। बाप-दादा भी स्वतंत्र बनने की ही शिक्षा देते रहते हैं। आजकल के वातावरण प्रमाण स्वतंत्रता चाहते हैं। सबसे पहली स्वतंत्रता पुरानी देह के अन्दर के सम्बन्ध से है। इस एक स्वतंत्रता से और सब स्वतंत्रता सहज आ जाती हैं। देह की परतंत्रता अनेक परतंत्रता में, न चाहते हुए भी ऐसे बांध लेती है जो उड़ते पक्षी आत्मा को पिंजरे का पक्षी बना देती है। तो अपने आपको देखो स्वतंत्र पक्षी हैं वा पिंजरे के पक्षी हैं? पुरानी देह वा पुराने स्वभाव संस्कार व प्रकृति के अनेक प्रकार के आकर्षण वश वा विकारों के वशीभूत होने वाली परतंत्र आत्मा तो नहीं हो? परतंत्रता सदैव नीचे की ओर ले जाएगी अर्थात् उतरती कला की तरफ ले जायेगी। कभी भी अतीइन्द्रिय सुख के झूले में झूलने का अनुभव नहीं करने देगी। किसी न किसी प्रकार के बन्धनों में बंधी हुई परेशान आत्मा अनुभव करेंगे, बिना लक्ष्य, बिना कोई रस, नीरस स्थिति का अनुभव करेंगे। सदा स्वयं को अनुभव करेंगे - न किनारा, न कोई सहारा स्पष्ट दिखाई देगा; न गर्मी का अनुभव, न खुशी का अनुभव - बीच में भंवर में होंगे। कुछ पाना है, अनुभव करना है, चाहिए-चाहिए में मंजिल से अपने को सदा दूर अनुभव करेंगे। यह है पिंजरे के पक्षी की स्थिति। (बिजली घड़ी-घड़ी बन्द हो जाती थी) अभी भी देखो प्रकृति के बन्धनों से मुक्त आत्मा खुश रहती है। अब अपना स्वतंत्र-दिवस मनाओ। जैसे बाप सदा स्वतंत्र है - ऐसे बाप समान बनो। बाप-दादा अभी भी बच्चों को परतंत्र आत्मा देख क्या सोचेंगे? नाम है मास्टर सर्वशक्तिवान और काम है पिंजरे का पक्षी बनना? जो अपने आपको स्वतंत्र नहीं कर सकते, स्वयं ही अपनी कमजोरियों में गिरते रहते वे विश्व परिवर्तक कैसे बनेंगे। तो अपने बन्धनों की सूची (List) सामने रखो। सूक्ष्म-स्थूल सबको अच्छी रीति चैक करो। अब तक भी अगर कोई बन्धन रहा है तो बन्धनमुक्त कभी भी नहीं बन सकेंगे। ‘अब नहीं तो कब नहीं!’ सदा यही पाठ पक्का करो। समझा? स्वतंत्रता ब्राह्मण जन्म का अधिकार है। अपना जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त करो। अच्छा।
बाप समान सदा स्वतंत्र आत्माएं, सर्व प्राप्ति के अधिकारी, प्रकृति और माया को अधीन बनाने वाले, सदा अतीन्द्रिय सुख में झूलने वाले ऐसे मास्टर सुख के सागर बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
पार्टियों से-
जैसे लौकिक में हद के रचता कहलाए जाते हो, वैसे ब्राह्मण जीवन में अपने को इस प्रकृति वा माया के रचता समझ करके चलते हो? रचता कभी भी अपनी रचना के वशीभूत, अधीन नहीं होता। रचता अर्थात् मालिक। मालिक कभी अधीन नहीं होता, अधिकारी होते हैं। 63 जन्म तो पिंजरे में रहे, अब बाप आ करके पिंजरे से मुक्त करते हैं। जब मुक्त आत्मा बन गए फिर पिंजरे में क्यों जाए? अर्थात् बन्धन में क्यों आए? निर्बन्धन हो? कभी भी क्या करे - माया आ गई! चाहते नहीं थे - लेकिन हो गया; ऐसे तो नहीं बोलते या सोचते? पुरुषार्थी हैं, अभी थोड़ा बहुत तो रहेगा ही, कर्मातीत तो नहीं है - यह पुरूषार्थहीन बनाने के संकल्प है। बाप द्वारा प्राप्त हुआ खज़ाना और उस खज़ाने के सुख व आनन्द का अनुभव अभी नहीं किया तो सतयुग में भी नहीं करेंगे। सतयुग में, बाप द्वारा यह खज़ाना प्राप्त हुआ है, यह स्मृति इमर्ज नहीं होगी। अभी त्रिकालदर्शी ही बाप के सम्मुख हो; फिर बाप वानप्रस्थ में चले जायेंगे।
अभी जो पाना है, वह अभी ही पाना है। पा लेंगे, नहीं। सारा दिन खुशी में ऐसे खोये हुए रहो जो माया देख भी न सके। दूर से ही भाग जाए। जैसे आजकल की बिजली की शक्ति ऐसा करेन्ट लगाती जो मनुष्य नजदीक से दूर जाकर पड़ता। शॉक आता है ना। ऐसे ईश्वरीय शक्ति माया को दूर फेंक दे। ऐसी करेन्ट होनी चाहिए। लेकिन करेन्ट किसमें होगी? जिसका कनेक्शन ठीक होगा। अगर कनेक्शन ठीक नहीं तो करेन्ट नहीं आयेंगी। कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) शब्द का अर्थ यह नहीं, जिस समय याद में बैठते उस समय कनेक्शन जुट जाता, लेकिन चलते-फिरते हर सेकेण्ड कनेक्शन जुटा हुआ हो। ऐसा अटूट कनेक्शन है जो करेन्ट आये? पाण्डवों का टाईटिल (पद) है - ‘विजयी’। कल्प-कल्प के विजयी हैं, यह पक्का है। यादगार देखकर खुशी होती है ना।
रोज अमृतवेले बाप वरदान देते हैं; अगर रोज वरदान लेते रहो तो कभी भी कमज़ोर नहीं हो सकते। वरदान लेने के सिर्फ पात्र बनना। जो भी चाहिए अमृतवेले सब मिल सकता है। ब्राह्मणों के लिए स्पेशल (Special;विशेष) समय फिक्स (Fix;नियुक्त) है जैसे कितना भी कोई बड़ा आदमी हो, लेकिन फिर भी अपने फैमली (परिवार) के लिए विशेष टाईम (समय) जरूर रखेंगे। तो अमृतवेला विशेष बच्चों के प्रति है, फिर विश्व की आत्माओं प्रति। पहला चान्स बच्चों का है। तो सब अच्छी तरह से चान्स लेते हो? इसमें अलबेले नहीं बनना।
मायाजीत बच्चों को देख बाप-दादा को भी खुशी होती है। जो बार-बार चढ़ते और गिरते रहते तो बाप भी देख रहम दिल होने कारण विशेष उन आत्माओं को रहम की दृष्टि से देखते कि यह कब मायाजीत बन जाए। अच्छा।
28-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा सुहागिन की निशानियाँ
सदा सुहाग के तिलकधारी, श्रेष्ठ भाग्यवान, सर्व प्राप्ति स्वरूप आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
बापदादा बच्चों के सुहाग और भाग्य को देख रहे हैं। सुहाग का तिलक और भाग्य का लाईट का क्राउन (Crown Of Light;प्रकाश का ताज) ताज और तिलकधारी अर्थात् सुहाग और भाग्य वाले। सदा सुहाग की निशानी है अविनाशी स्मृति का तिलक। सदा भाग्य की निशानी है पवित्रता और बाप द्वारा सर्व प्राप्तियाँ अर्थात् लाईट का क्राउन। स्मृति कम, तो तिलक भी स्पष्ट चमकता हुआ नहीं दिखाई देगा। चमकता हुआ तिलक सदा बाप के साथ रहने के सुहाग की निशानी है। ऐसी सुहागिन तिलकधारी वा सदा सुहागिन होने के कारण सदा विश्व के आगे श्रेष्ठ अर्थात् ऊँच आत्मा दिखाई देती है। जैसे लौकिक रूप में भी सुहागिन को श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं और हर श्रेष्ठ कार्य में सुहागिन को ही आगे रखते हैं। अगर ‘सुहाग गया तो संसार गया’ - ऐसे लौकिक में भी माना जाता है। इसी प्रकार अलौकिक जीवन में भी हर आत्मा एक साजन की सजनी है, अर्थात् सुहागिन है। सदा अपने सुहाग के तिलक को देखते हो? सदा एक की ही लगन में मगन रहने की निशानी, स्मृति का तिलक अर्थात् सुहाग का तिलक है। अगर तिलक मिट जाता है तो गोया अपने सुहाग को मिटा देते हैं।
अपने आप से पूछो कि मैं सदा सुहागिन हूँ? सदा सुहागिन एक श्वास वा एक पल भी साथ नहीं छोड़ती है। सदा सुहागिन के मन के बोल हैं - ‘साथ रहेंगे, साथ जीयेंगे, साथ मरेंगे।’ सदा सुहागिन के नयनों में, मुख में साजन की सूरत और सीरत समाई हुई होती, कानों में उनके बोल ही सदा सुनने में आते हैं। जैसे भक्ति में अनहद शब्द सुनने के अभ्यासी होते हैं। बहुत प्रयत्न के बाद एक बार भी अगर शब्द सुनाई देते तो अपनी भक्ति को सफल समझते हैं। यह सब भक्ति की रीति-रस्म इस समय के प्रैक्टिकल लाईफ (Practical Life;व्यवहारिक जीवन) से कापी की है। सदा सुहागिन अर्थात् जिनके कानों में अनादि महामन्त्र ‘मन्मनाभव’ का स्वर गूंजता रहेगा। सदा यह अनुभव करेंगे कि बाप यह महामंत्र बार-बार सुनाते हुए स्मृति दिला रहे हैं। चलते-फिरते यही अनहद अर्थात् अविनाशी बोल बाप के सम्मुख सुनने का अनुभव करेंगे और कोई भी आत्माओं के बोल सुनते हुए भी नहीं सुनेंगे। बस ‘तुम्हीं से बोलूं, तुम्हीं से सुनूं वा तुम्हारा सुनाया ही बोलूं’ - ऐसी स्टेज सदा सुहागिन की ही होती है। ऐसे सदा सुहागिन संकल्प में भी अन्य आत्मा प्रति एक सेकेण्ड भी स्मृति में नहीं लायेगी अर्थात् संकल्प में भी किसी देहधारी के झुकाव में नहीं आयेगी। लगाव तो बड़ी बात हैं, झुकाव भी नहीं। जैसे लौकिक जीवन में भी पर पुरूष प्रति संकल्प करना वा स्वप्न में भी आना सुहागिन के लिए महापाप गिना जाता है, ऐसे ही अलौकिक जीवन में भी अगर संकल्प मात्र भी, स्वप्न मात्र भी कोई देहधारी आत्मा तरफ झुकाव हुआ तो सदा सुहागिन के लिए महापाप गिना जाता है। तो ‘सदा सुहागिन अर्थात् एक बाप दूसरा न कोई।’ ऐसे सुहाग का तिलक लगा हुआ है? माया तिलक मिटा तो नहीं देती? सदा सुहाग के साथ सदा भाग्य। सिर्फ सुहाग नहीं लेकिन भाग्य भी अर्थात् - भाग्यवान हो। सदा भाग्यवान की निशानी है लाईट का क्राउन। जैसे लौकिक दुनिया में भाग्य की निशानी राज्य अर्थात् राजाई होती है, और राजाई की निशानी ताज होता है, ऐसे ईश्वरीय भाग्य की निशानी लाईट का क्राउन है। उस ताज की प्राप्ति का आधार है प्यूरिटी (Purity;पवित्रता) और सर्व प्राप्ति। सम्पूर्ण प्यूरिटी अर्थात् मनसा में भी किसी एक विकार का अंश भी न हो। और सर्व प्राप्ति अर्थात् ज्ञान, सर्व गुण और सर्व शक्तियों की प्राप्ति। अगर कोई भी प्राप्ति की कमी है तो लाईट का क्राउन स्पष्ट दिखाई नहीं देगा; अपवित्रता और अप्राप्ति के बादलों में छिपा हुआ दिखाई देगा। स्वयं को सदा लाईट-आत्मिक रूप अनुभव नहीं करेगा। कर्म में भी अपने को लाईट (Light;हल्का) महसूस नहीं करेगा। बार-बार मेहनत के बाद वा अटेन्शन (Attention;ध्यान) रखने के अभ्यास के बाद अल्प समय के लिए स्वयं को डबल लाईट अनुभव करेगा। जैसे ही सोचेगा कि मैं आत्मा लाईट हूँ, तो आत्मा के बजाए शरीर अर्थात् देह अपने को अनुभव करेगा। भाग्य का आधार सर्व प्राप्तियां हैं। सर्व प्राप्तियों की निशानी है ‘अविनाशी खुशी।’ सदा भाग्यवान सदा खुश होगा। भाग्य कम तो खुशी भी कम, खुशी कम अर्थात् सदा भाग्यवान नहीं। तो समझा? सदा सुहागिन और सदा भागिन अर्थात् भाग्यवान की निशानियां क्या हैं? अब तो सब बातें सामने रखते हुए स्वयं को चैक करो कि मैं कौन हूँ? अच्छा।
सदा सुहाग के तिलक धारी श्रेष्ठ भाग्यवान, सर्व प्राप्ति स्वरूप सदा बाप के साथी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी के साथ:-
ऐसे सदा सुहागिन और सदा भागयवान और सम्पूर्ण भाग्यवान कितने होंगे? निरन्तर डबल लाईट और निरन्तर सर्व प्राप्ति सम्पन्न सम्पूर्ण पवित्र हों, ऐसे कितने मणके होंगे? जो अंगुलियों पर गिनती जितने! ऐसे रत्नों की ही विशेष पूजा होती है। विशोष नौ रत्नों की पूजा होती है ना। तो जो अच्छी क्वालिटी (Quality;प्रकार) का रत्न होता है, उस एक रत्न में एक रंग का होते हुए भी सब रंग दिखाई देंगे। जैसे सफेद हीरा होता है, जो बढ़िया हीरा होगा, चमकता हुआ फ्लालेस (Flawless;दाग रहित) दिखाई देगा। ध्यान से देखेंगे तो सफेद होते हुए भी उसमें सब रंग दिखाई देंगे। इसका कारण क्या है? सर्व शक्तियों के सम्पन्न की निशानी यह है। सर्व शक्तियाँ भिन्न-भिन्न रंग के रूप में दिखाई देती हैं। वह साईन्स (विज्ञान) का हिसाब और यहाँ है सायलेन्स (Silence) द्वारा सर्व प्राप्तियाँ। जैसे वर्षा के बाद इन्द्र धनुष दिखाई देता है, तो उसमें भी सब रंग दिखाई देते हैं यह भी ज्ञान वर्षा के बाद। वर्षा का फल सर्व प्राप्ति स्वरूप। तो ऐसा श्रेष्ठ हीरा वा रत्न सर्व प्राप्ति स्वरूप होने कारण जो शक्ति पाने चाहे वह उस रत्न द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। तो ऐसे रत्न कितने होंगे? नौ रत्नों का पूजन, निर्विघ्न होने के लिए विशेष होता है। कोई के ऊपर विशेष विघ्न आता है, तो नौ रत्नों का पूजन करते हैं। तो इतने निर्विघ्न बने हो? हर रत्न सम्पन्न होता है, लेकिन फिर भी हर रत्न की मुख्य विशेषता अपनी होती है। इसलिए नौ रत्नों की इकट्ठी पूजा भी होती है, और अलग-अलग भी विशेष कोई विघ्न अर्थ कोई रत्न गाया हुआ होता है। मानो धन की समस्या वा विघ्न है तो धन की प्राप्ति के लिए वा अप्राप्ति का विघ्न मिटाने के लिए विशेष रत्न भी होता है। बीमारी ज्यादा मार्क ली होंगी तो उसका यादगार फिर अब तक भी अपने हाथ में रिंग (अंगूठी) बनाकर पहनते हैं या गले में लॉकेट बना कर डालते हैं। तो यह सब हिसाब वर्तमान समय के प्राप्ति के हैं। तो ऐसे कितने होंगे? गिनती करने में आते हैं? नाम बताने के नहीं दिखाने के हैं। अगर एनाउन्स (Announce) भी करे और भविष्य में वह प्रसिद्ध भी होंगे लेकिन अभी सम्पूर्ण स्टेज पर न देख करके क्वेश्चन (Question;प्रश्न) करेंगे यह क्यों, यह कैसे। इसलिए बाप भी बता नहीं सकता। दिखा सकते हैं - यह इस गिनती में हैं। यह हो सकता है। बताने की बात नहीं है। अब एक का भी नाम बतावें तो देखना कितने क्वेश्चन उठते। इसमें क्या है, हमारे में क्या नहीं है। इसमें तो यह है। कई क्वेश्चन में समय व्यर्थ गंवाए, यह भी बाप नहीं चाहते। बाकी कल्प-कल्प के प्रसिद्ध हुए रत्न, कल्प पहले मुवाफिक प्रसिद्ध जरूर होंगे। आजकल नाम नहीं, काम चाहते हैं। अभी तो हरेक के अन्दर यह लक्ष्य है कि मैं ही अपने को क्यों नहीं इतना आगे बढ़ा कर योग्य बनाऊं। अच्छा।
विशेष जो मेले की सेवा पर उपस्थित हैं - उन्हीं को याद देना। क्योंकि यह सेवा द्वारा बाप से मिलना ही है। योगयुक्त हो सुना है, इसलिए बाप-दादा सेवाधारियों को सदा सम्मुख ही देखते हैं। ऐसे सेवाधारी कभी भी अपने को दूर नहीं समझेंगे। सम्मुख ही समझेंगे। अच्छा।
अन्य दादियों के साथ:-
दूर-दूर से अपने जन्मभूमि पर आए हैं - ब्राह्मणों की जन्मभूमि ‘मधुबन’ है ना। ऐसे समझते हो कि अपनी जन्मभूमि पर आए हैं। जन्मभूमि का बहुत महत्व रखते हैं। और यह फिर अलौकिक जन्मभूमि है। इस अलौकिक जन्मभूमि पर आने से ही लौकिकपन स्वत: ही भूल जाता है। क्योंकि ‘जैसे धरनी वैसे करनी’ यह गायन् है। ‘जैसा संग वैसा रंग, जैसा अन्न वेसा मन’ गाया हुआ है। वैसे ही, जैसे धरनी वैसी करनी। अगर कोई तमोगुणी धरनी है तो करनी भी ऐसी हो जाती है। धरनी का प्रभाव कर्म और संस्कार पर पड़ जाता है। जैसे मन्दिर में जाते हैं तो भूमि का ही प्रभाव होता है ना। अगर मन्दिर की भूमि पर किसी बुरा संकल्प आवे तो वह अपने को बहुत पापी समझेगा। वैसे अगर बुरा संकल्प आता तो बुरा समझते। तो यह है अलौकिक भूमि लौकिकता स्मृति में भी नहीं आयेगी। निरन्तर कर्मयोगी हो जायेंगे। इसलिए बाप-दादा सदैव कहते हैं कि कहाँ भी रहते हो लेकिन अपने को सदा परमधाम निवासी व मधुबन निवसी समझो। निराकार स्थिति के हिसाब से परमधाम निवासी, साकार स्थिति के हिसाब से मधुबन निवासी। मधुबन कहने से ही वैराग्य वृत्ति और मधुरता दोनों ही आ जाती है। स्थिति में बेहद की वैराग वृत्ति और सम्पर्क में मधुरता दोनों ही चाहिए। स्थान से स्थिति का कनेक्शन (Connection;सम्बन्ध) है।
सभी बेहद के वैरागी बने हो कि अभी कहाँ लगाव है? बेहद के वैरागी का कहाँ भी लगाव व झुकाव नहीं होगा। उसका सदैव इस पुरानी दुनिया से किनारा होगा। बेहद के वैरागी तब बन सकेंगे जब बाप को ही अपना संसार समझेंगे। बाप ही संसार है तो जब बाप में संसार देखेंगे अनुभव करेंगे तो बाकी रहा ही क्या? आटोमेटिक (स्वत:) वैराग आ जाएगा ना। बाप ही मेरा संसार है तो संसार में ही रहेंगे; दूसरे में जाएंगे ही नहीं तो किनारा हो जाएगा। संसार में व्यक्ति व वैभव सब आ जाता है तो बाप को ही अपना संसार बनाया है कि आगे कोई संसार है? कोई सम्बन्ध व कोई सम्पत्ति है क्या? बाप की सम्पत्ति सो अपनी सम्पत्ति। तो इसी स्मृति में रहने से आटोमेटिक बेहद के वैरागी हो जायेंगे। कोई को देखते हुए भी नहीं देखेंगे। दिखाई ही नहीं देखेंगे। दिखाई ही नहीं देगा। अच्छा।
‘स्मृति में रहने से समर्थी आती है।’ अगर समर्थी होगी तो कोई भी परिस्थिति स्वस्थिति को डगमग नहीं करेगी। परीक्षाओं को एक खेल समझकर चलेंगे। अगर खेल में या नाटक में किसी प्रकार की परिस्थिति देखते तो डगमग होते हैं क्या? कोई मरे वा कुछ भी हो लेकिन स्थिति डगमग नहीं होगी। क्योंकि समझते हैं यह खेल है। ऐसे ही परिस्थितियों को एक पार्ट समझो। परिस्थिति के पार्ट को साक्षी हो देखने से डगमग नहीं होंगे, मुरझायेंगे नहीं, मजा आएगा। मुरझाते तब हैं जब ड्रामा की प्वाइन्ट को भूल जाते हैं।
30-04-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हाईएस्ट अथॉरिटी की स्थिति का आधार - कम्बाइन्ड रूप की स्मृति है
सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, मर्यादाओं की लकीर में रहने वाले, आर्टाफिशल सोने हिरण के पीछे सच्चे साथी को किनारा न कर साथी से एक सेकेण्ड भी दूर न रहने वाले, सदा स्मृति की अंगुली साथी के साथ देते हुए चलने वाले, ऐसे वर्तमान और भविष्य तख्तनशीन आत्माओं प्रति बाबा बोले:-
अपने कम्बाइन्ड (Combined;मिला-जुला) रूप की स्थिति में सदा स्थित रहते हो? पहले, आत्मा और शरीर यह कम्बाइन्ड स्वरूप है जो अनादि सृष्टि चक्र में अनादि पार्ट बजाते रहते हैं। दूसरा, इस पुरूषोत्तम संगमयुग पर ब्राह्मण आत्माएं अर्थात् बच्चों और बाप का सदा साथ कम्बाइन्ड रूप है। तीसरा, यादगार रूप में भी चतुर्भुज रूप दिखाया है। सदैव कम्बाइन्ड रूप की नॉलेज को धारण करते हुए चलो तो सदा हाइएस्ट अथॉरिटी अपने को अनुभव करेंगे।
पहले अपने शरीर और आत्मा के कम्बाइन्ड रूप को सदा स्मृति में रखो। शरीर रचना है, आत्मा रचता है। रचता और रचना का कम्बाइन्ड रूप है। तो स्वत: ही मालिक पन स्मृति में रहेगा। मालिक की स्मृति अर्थात् हाइएस्ट अथॉरिटी में रहेंगे। चलाने वाले होंगे न कि उनके वश चलने वाले। लेकिन चलते-चलते जैसे लोगों ने आत्मा परमात्मा को मिलाकर एक कर लिया, वैसे आत्मा और शरीर को अलग-अलग के बजाए मिलाकर एक मान लिया है। अर्थात् अपनी अथॉरिटी की स्मृति समाप्त कर दी। चलते- चलते बॉडी-कानसेस (Body-Conscious;देह अभिमान) हो गये तो कम्बाइन्ड के बजाए एक ही मानने लगे। लो अपने को भूला उसकी रिजल्ट क्या होगी! सब कुछ गंवाया तो बेहोश की स्टेज में अपना सब कुछ लुटा दिया।
ऐसे ही वर्तमान संगमयुग पर बाप और बच्चे के कम्बाइन्ड रूप की स्मृति भूल जाते हो तो हाईएस्ट अथॉरिटी के बदले अपने को निर्बल, शक्तिहीन, उदास, उलझी हुई आत्मा वा वशीभूत हुई आत्मा अनुभव करते हो। कम्बाइन्ड रूप की स्मृति समर्थी लाती है। किसी भी प्रकार के माया के विघ्नों को कम्बाइन्ड रूप की स्मृति से सामना करने की अथॉरिटी आटोमेटीकली अनुभव करते हैं। चाहे स्वयं कमजोर आत्मा भी हो लेकिन बाप के साथ के कारण सर्वशक्तिवान के संग वा स्मृति से मास्टर सर्वशक्तिवान अनुभव करते। तो कम्बाइन्ड रूप में स्मृति में रहेंगे तो यादगार स्वरूप सदा स्मृति में रहेगा। अलंकारी स्वरूप मायाजीत की निशानी है। अलंकारी सदा अपने को शक्तिशाली अनुभव करेंगे तो तीनों ही प्रकार के कम्बाइन्ड रूप को स्मृति में रखो।
युगल रूप से अकेले नहीं बनो। जैसे दुनिया में आजकल विशेष सभी कम्पैनियन (Companion;साथी) Dर कंपनी (साथ) चाहते हैं। इसके पीछे ही अपना समय, तन-मन-धन लगाते हैं। तो आपको बाप जैसा कम्पैनियन और कम्पनी सारे कल्प में नहीं मिल सकेगी। लौकिक में कम्पैनियन धोखा भी दे देते, दु:ख भी देते, मूड भी बदलते, कभी हंसेंगे, कभी रूलायेंगे। लेकिन अलौकिक कम्पैनियन तो सदा हर्षाते हैं। कब मूड ऑफ (Mood Off;बदलते) नहीं करते। धोखे से बचाते हैं। सदा एक का हजार गुना देने वाला दाता है, फिर भी कम्पैनियन को न पहचानने कारण सदा साथ के बजाय किनारा कर लेते। नखरे बहुत करते हैं। कभी मन को मोड़ लेते, कभी बुद्धि से यहाँ वहाँ भटकने लग जाते हैं। कभी संकल्प से तलाक भी दे देते हैं। किसी भी व्यक्ति या वैभव के वशीभूत हो जाना अर्थात् प्रभावित हो जाना। तो इतना समय अपने कम्पैनियन को संकल्प से तलाक देना हुआ। किनारा करना अर्थात् तलाक देना। दिल के सिंहासन पर सच्चे साथी के बजाय अल्पकाल के साथ निभाने वाले, हद की प्राप्ति का लोभ देकर धोखा खिलाने वाला अर्थात् आर्टिफिशल (Artificial;बनावटी) सोने का हिरण अपने तरफ आकर्षित कर देता है। तो तख्तनशीन सच्चे साथी के बजाए धोखेबाज साथी बना देते हैं। संकल्प में आकर्षित होना अर्थात् तलाक देना। वास्तव में बार-बार संकल्प में तलाक देना सदाकाल के राज्य भाग्य का तलाक लेना है।
कोई-कोई रूसते भी बहुत हैं। रूसने को एक मनोरंजन समझते हैं। बार-बार साथी को रोब भी बहुत दिखाते हैं - हम तो ऐसे चलेंगे ही। हम तो यह करेंगे ही। आपको भी करना है। आपने वायदा किया है आपको लेकर ही जाना है। सर्वशक्तिवान हो तो शक्ति दो। मदद देना आपका काम है। लेकिन मदद लेना मेरा काम है - यह याद नहीं रखते। ‘एक कदम मेरा हज़ार कदम साथी का’ - यह भूल जाते हैं। जो बातें साथी ने सुनाई हैं वहीं बातें फिर साथी को ही याद दिलाते हैं। तो यह रोब हुआ ना? स्मृति की अंगुली बार-बार खुद छोड़ देते हैं और फिर कहते आप अंगुली क्यों नहीं पकड़ते हो। ऐसे नाज़ नखरेली बहुत हैं। लेकिन याद रखो ऐसा कम्पैनियन जो नयनों पर बिठाकर ले जाए ऐसा कब मिलेगा? तो कम्पैनियन से सदा तोड़ निभाओ। अर्थात् कम्बाइन्ड रूप में रहो।
साथ-साथ ब्राह्मणों की कम्पनी सबसे श्रेष्ठ कम्पनी है जो ड्रामा के भाग्य प्रमाण आप थोड़ी सी आत्माओं को ही प्राप्त है। लेकिन कम्पनी में भी देखा जाता है कि यह कंपनी लाभ देने वाली है वा प्राप्ति कराने वाली है। तो ब्राह्मण कंपनी सर्व प्राप्ति कराने वाली है। ब्राह्मणों में फुल कास्ट (Full Caste) ब्राह्मण और हाफ कास्ट (Half Caste) ब्राह्मण दोनों ही हैं। हाफ कास्ट अर्थात् क्षत्रिय - तो कम्पनी भी ब्राह्मणों की चाहिए। जो साथी की कंपनी वहीं कंपनी चाहिए। अगर हाफ कास्ट ब्राह्मणों की कंपनी कर लेते हैं तो सच्चे साथी से स्वत: समीप के बजाए दूर हो जाते हैं। ब्राह्मणों की कंपनी चढ़ती कला होती है। क्षत्रियों की कंपनी में ठहरती कला हो जाती है। जो जितना श्रेष्ठ होता है उसको कंपनी भी श्रेष्ठ होती है। तो ब्राह्मण श्रेष्ठ, क्षत्रियों को कम कर देते हैं। जो कम्पनी साथी को मंजूर नहीं। वफादार साथी कभी ऐसी कम्पनी नहीं करेंगे। ऐसे नहीं कहना कि क्या करें? कम्पनी तो चाहिए लेकिन कौन सी कम्पनी चाहिए यह भी सोचना। तो सदा कम्पैनियन और कंपनी को समझकर साथ निभाओ। कम्पैनियनन से प्रीति की रीति निभाओ। और कंपनी में मर्यादाएं निभाओ। समझा! इसको ही कहा जाता है कम्बाइन्ड रूप की स्मृति में हाईएस्ट अथॉरिटी की स्थिति में रहना। अच्छा।
सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, मर्यादाओं की लकीर में रहने वाले, आर्टाफिशल सोने हिरण के पीछे सच्चे साथी को किनारा न कर साथी से एक सेकेण्ड भी दूर न रहने वाले, सदा स्मृति की अंगुली साथी के साथ देते हुए चलने वाले, ऐसे वर्तमान और भविष्य तख्तनशीन आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से:-
इस बार ड्रामानुसार पुरानों से मिलने का पार्ट न चाहते भी हो गया है। महूर्त्त ही महारथियों से हुआ। और जो महारथी, बाप और बाप के गुह्य ईशारों को जान सकते हैं वह और सुनते हुए भी नहीं जान सकते। चाहे कितनी भी पब्लिक हो लेकिन बाप पब्लिक में भी पर्सनल मुलाकात भी करते हैं। लेकिन गुह्यता के रहस्य को समझ नहीं सकेंगे। जैसे वर्षा एक ही समय चारों तरफ पड़ती है लेकिन अगर धरती योग्य है तो वह वर्षा पड़ने से मालामाल हो जाती है। अगर धरती ही योग्य नहीं तो वर्षा पड़ते हुए भी मालामाल नहीं होगी।
तो महारथियों को बाप सदैव आदि से लेकर किस नज़र से देखते? बच्चे नहीं लेकिन भाई-भाई हैं। बड़े बच्चे भाई के ही समान हैं। जैसे बाप दाता हैं, वैसे महारथियों को भी बाप, दाता की नज़र से देखते हैं, न लेने वाले लेकिन बाप समान देने वाले हैं। जैसे बाप भाग्य विधाता हैं तो महारथियों को भी कौन सी कंपनी अच्छी लगती है? वैसे भी अगर कम्पैनियनशिप (Companionship;साथीपन) में एक लम्बा एक छोटा हो तो क्या होगा? कार्टून लगेगा ना? तो स्थिति में भी अगर कम्पैनियन समान नहीं होते अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान नहीं बनते, साथी सर्वशक्तिवान और वह कमजोर तो यह भी एक कार्टून हो गया ना? लम्बे और छोटे की जोड़ी हो गई ना। वैसे लौकिक दुनिया में भी अगर साथी दोनों समान नहीं होते, चाहे शरीर के हिसाब से, चाहे नॉलेज के हिसाब से, चाहे लक्षण के हिसाब से वा मर्यादाओं के हिसाब से तो कभी भी साथी उनको साथ नहीं रखेंगे। किनारे रख देंगे। दुनिया के आगे उसको नहीं लायेंगे। तो बाप भी सदा साथी किसको बनायेंगे - जो समान होंगे। दुनिया के आगे सैम्पुल किसको रखेंगे? कार्टून को? तो महारथी अर्थात् समान साथी। ऐसे साथियों को ही हर कार्य में बाप साथ रखते वा और ही आगे रखते हैं। अगर कम्पैनियन की लाईन लगाकर बाप देखे तो क्या दिखाई देता होगा? कैसी सीन लगती होगी? लेकिन फिर भी बाप सागर होने कारण जैसे भी है समा लेते। सागर में तो सब समा जाते हैं ना। लेकिन नम्बर वार तो कहेंगे ना। हर एक को अपने आपको देखना है कि मैं कैसा साथी हूँ, कितने बार तलाक देते, कितने बार नाज़ नखरे करते, कितने बार रोब दिखाते? सारे दिन की दिनचर्या में देखें तो क्या-क्या करते हैं।
पार्टियों से:-
निरन्तर स्मृति में रहने का साधन है - ‘मेरापन भूल जाना।’ सब कुछ बाप का है। यह तन भी आपका नहीं - बाप का है। बाप ने सेवा अर्थ दिया है - तो मेरापन निकल गया न? मेरापन खत्म तो ‘देही अभिमानी’ स्वत: बन गए। अगर बाप की स्मृति थोड़ी भी किनारे हो जाती तो माया आती। सदा कम्बाइन्ड रहो तो माया की हिम्मत नहीं देहभान में लाने की। सदा बाप के सिवाए और कुछ सूझे ही नहीं।
जब बाप के साथ से किनारा करते तब कमज़ोर होते हो। जिस समय सोचते हो क्या करें? कैसे करें? माया पर जीत पाना मुश्किल है, यह सोचना अर्थात् किनारा करना। सर्वशक्तिवान बाप साथ हो तो क्या यह संकल्प आ सकता है? माया, बाप से अलग कराने लिए भिन्न-भिन्न रूप से आती हैं। मैं नहीं कर सकता? मैं कमजोर हूँ - कैसे करूँ? यह कमजोरी के संकल्प माया रावण की सेना के अकासुर-बकासुर हैं। उनसे डरना नहीं हैं सदैव सोचो ‘मैं हँ ही विजयी-पहले भी रहा हूँ और अब भी हूँ।’
इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट बजाने वाली विशेष आत्माएं आप बच्चे हो; क्योंकि सबसे विशेष ते विशेष है बाप। बाप के साथ पार्ट बजाने वाली आत्माएं आटोमेटीकली विशेष होंगी। दुनिया में भी अगर कोई विशेष आत्माओं के साथ थोड़ा सा भी समय रहता है तो उससे नशा रहता है। अगर प्राईम-मिनिस्टर (Prime Minister;प्रधान मंत्री) के साथ थोड़ा भी समय रहे तो कितना नशा रहता है। वह तो आज है कल नहीं। लेकिन यह कितना ऊँचा है, वह भी अविनाशी है। तो इतना नशा रहता है? सदा एक रस नशा - ‘मैं बाप का, बाप मेरा।’ बाप सदा सागर और दाता, तो बच्चे भी सागर और दाता हो। बाबा मदद करो यह भी नहीं। बाप ने अपने पास कुछ रखा है क्या? अगर दे ही दिया फिर मांगेंगे क्या? जन्मते ही बाप ताज, तख्त, तिलक सब दे देता है। फिर मांगे क्यों? सदैव यह सोचो कि हमारे जैसे खुश-नसीब कोई नहीं, न हुआ है न होगा। तो सदा झूमते रहेंगे।
कर्मयोग का फल है, सहजयोग और खुशी जो कुछ करता उसका प्रत्यक्षफल यहाँ ही पद्मगुणा मिलता है। दुनिया में जो कुछ करते हैं खुशी के लिए। यह बेहद की अविनाशी खुशी है। मन के खुश रहने से शरीर की व्याधी भी ‘सूली से कांटा’ हो जाती है। ज्यादा सोचना नहीं; सोचने से निर्णय शक्ति कम हो जाती है। पेपर आना माना परिपक्व होना। घबराना नहीं। पेपर्स फाउन्डेशन (Foundation;नींव) को पक्का करते। फाउन्डेशन को कूटते हैं - वह कूटना नहीं लेकिन मजबूत करना है।
कितनी भी बाहर की हलचल हो लेकिन एक सेकेण्ड में स्टाप, कितना विस्तार हो एक सेकेण्ड में समेट लें। स्वभाव, संस्कार, संकल्प, सम्बन्ध सब एक सेकेण्ड में समेट लें - यह प्रैक्टिस बहुत चाहिए। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सब कुछ होते हुए संस्कार प्रकट न हों। स्वभाव भी समय पर धोखा देते हैं। इसलिए स्वभाव, संकल्प, संस्कार सब समेट लो, इसे कहा जाता है - ‘समेटने की शक्ति।’ जैसे प्रैक्टिस सदा कायम रखो। बहुत समय के अभ्यासी होंगे तब पास हो सकेंगे। अच्छा।
03-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कर्मों की अति गुह्य गति
संगमयुगी ब्राह्मणों की विचित्र लीला को देखते हुए बाबा बोले:-
बापदादा बेहद के अनादि अविनाशी ड्रामा की सीन के अन्दर विशेष कौन सी सीन देख हर्षाते हैं? जानते हो? वर्तमान समय बाप-दादा ब्राह्मणों की लीला, विचित्र और हर्षाने वाली देख रहे हैं। जैसे बच्चे कहते हैं, ‘हे प्रभु तेरी लीला आपरम्पार है’ वैसे बाप भी कहते हैं, ‘बच्चों की लीला बहुत वन्डरफुल (Wonderful;आश्चर्यवत) है, वैरायटी लीला है।’ सबसे वन्डरफुल लीला कौन सी देखने में आती है, वह जानते हो? अभी-अभी कहते बहुत कुछ हैं, लेकिन करते क्या हैं? वह खुद भी समझते। क्यों कर रहे हैं, यह भी जानते। जैसे किसी भी आत्मा के, वा किसी भी विकारों के वशीभूत आत्मा; परवश आत्मा, बेहोश आत्मा क्या कहती, क्या करती, कुछ समझ नहीं सकते। ऐसी लीला ब्राह्मण भी करते हैं। तो बाप-दादा ऐसी लीला को देख रहमदिल भी बनते हैं, और साथ-साथ न्यायकारी सुप्रीम जस्टिस (Supreme Justice) भी बनते हैं अर्थात् लव और लॉ (Love And Law;प्यार और कानून) दोनों का बैलेंस (Balance;संतुलन) करते हैं। एक तरफ रहमदिल बन बाप के सम्बन्ध से रियायत भी करते हैं। अर्थात् एक, दो, तीन बार माफ भी करते हैं। दूसरी तरफ सुप्रीम जस्टिस के रूप में कल्याणकारी होने के कारण, बच्चों के कल्याण अर्थ ईश्वरीय लॉज (Laws;कानून) भी बताते हैं। सबसे बड़े ते बड़ा संगम का अनादि लॉ कौन सा है? ड्रामा प्लान अनुसार एक लाख गुणा प्राप्ति और पश्चात्ताप, वा भोगना,यह ऑटोमेटीकली (AUTOMATICALLY;स्वत:) लॉ अर्थात् नियम चलता ही रहता है। बाप को स्थूल रीति-रस्म माफक कहना वा करना नहीं पड़ता, कि इस कर्म का यह लेना, वा इस कर्म की सज़ा यह है। लेकिन यह ऑटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी (Automatic Godly Machinery;स्वचालित ईश्वरीय यंत्र) है, जिस मशीनरी को कोई बच्चे जान नही सकते, इसलिए गाया हुआ है - ‘कर्मों की गति अति गुह्य है।’
बाप को जान लिया, पा लिया वा वर्सा भी पा लिया, ब्राह्मण परिवार के अन्दर ब्राह्मण भी स्वयं को मान लिया, ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी का टाईटल (Title) भी लग गया; ईश्वरीय सेवा अर्थ निमित्त बन गए। सहज राजयोगी भी कहलाया, प्राप्ति के अनुभव भी करने लग गए, ईश्वरीय नशा, प्राप्ति का नशा भी चढ़ने लगा, प्रालब्ध का निशाना भी दिखाई देने लगा, लेकिन आगे क्या हुआ? माया की चैलेन्ज (Challenge;चेतावनी) को सफलता पूर्वक सामना नहीं कर पाया। माया के वैरायटी रूपों को परख नहीं पाते हैं, इसलिए कोई माया को बलवान देख दिल-शिकस्त हो जाते हैं; क्या हम विजयी बन सकेंगे? कोई सामना करते-करते कब हार, कब जीत अनुभव करते हैं, थक जाते हैं। अर्थात् थककर जहाँ हैं, जैसा है वहाँ ही रूक जाते हैं। आगे बढ़ने का सोचते भी हिम्मत नहीं आती।
कोई अपने में, बाप के डायरेक्ट (Direct) साथ और सहयोग लेने की हिम्मत न देख, राह पर चलने वाले साथियों को ही पंडा बनाते अर्थात् उन द्वारा ही साथ और सहयोग की प्राप्ति समझते हैं। बाप के बजाए कोई आत्मा को सहारा समझ लेते हैं, इसलिए बाप से किनारा हो जाता है। तिनके को अपना सहारा समझने कारण, बार-बार तुफानों में हिलते और गिरते रहते हैं। और सदैव किनारा दूर अनुभव करते हैं। ऐसे ही कोई व्यक्ति के सहारे के साथ-साथ कई आत्माएं, किसी न किसी प्रकार के सैलवेशन (Salvation;सहुलियत) के आधार पर चलने का प्रयत्न करती हैं - यह होगा वा ऐसा होगा तो पुरूषार्थ करूँगा, यह मिलेगा तो पुरूषार्थ करूँगा। ऐसे सैलवेशन रूपी लाठी के आधार पर चलते रहते हैं। अविनाशी बाप का आधार न लें, अल्पकाल के अनेक आधार बना लेते हैं।
जो आधार विनाशी और परिवर्तनशील है, उसको आधार बनाने कारण, स्वयं भी सर्व प्राप्तियों के अनुभव को विनाशी समय के लिए ही अनुभव करते हैं, और स्थिति भी एकरस नहीं, लेकिन बार-बार परिवर्तन होती रहती। अभी-अभी बहुत खुशी और आनन्द में होंगे, अभी-अभी मुरझाई हुई मूर्त्त, उदास और नीरस मूर्त्त होंगे। कारण? कि आधार ही ऐसा है। कई आत्माएं बहुत अच्छे हुल्लास, उमंग, हिम्मत और बाप के सहयोग से बहुत आगे मंजिल के समीप तक पहऊँच जाती हैं, लेकिन 63 जन्मों के हिसाब यहाँ ही चुक्तू होने हैं। अपने पिछले संस्कार, स्वभाव बाहर इमर्ज (Emerge) ही, सदा के लिए समाप्त हो रहे हैं, उस कर्मों की गुह्य गति को न जान घबरा जाते हैं - क्या लास्ट तक यही चलेगा? अब तक भी यह टक्कर क्यों होता? इन व्यर्थ संकल्पों की उलझन के कारण प्यार नहीं कर पाते। सोचने में ही टाईम वेस्ट कर देते हैं और कोटों में कोई तूफानों को भी ड्रामा का तोफा समझ स्वभाव संस्कारो की टक्कर को आगे बढ़ने का आधार समझ, माया को परखते हुए पार करते, सदा बाप को साथी बनाते हुए, साक्षी हो हर पार्ट देखते, सदा हर्षित हो चलते रहते। सदैव यह निश्चय रहता है कि अब तो पहऊँचे। तो बाप इतने प्रकार की लीला बच्चों की देखते हैं।
याद रखो, सच्चे बाप को अपने जीवन की नैया दे दी, तो सत्य के साथ की नांव हिलेगी, लेकिन डूब नही सकती। बाप को जिम्मेवारी देकर वापिस नहीं ले लो। मैं चल सकूंगा - ‘मैं’ कहां से आई? मैं-पन मिटाना अर्थात् बाप का बनना। यही गलती करते हो, और इसी गलती में स्वयं उलझते परेशान होते। मैं करता हूँ, या मैं कर नहीं सकता हूँ, इस देह-अभिमान के ‘मैं-पन’ का अभाव हो। इस भाषा को बदली करो। जब मैं बाप की हो गई, वा हो गया, तो जिम्मेदार कौन? अपनी जिम्मेवारी सिर्फ एक समझो - जैसे बाप चलावे वैसे चलेंगे, जो बाप कहे वह करेंगे। जिस स्थिति के स्थान पर बाप बिठाए वहाँ बैठेंगे। श्रीमत में मैं पन की मनमत मिक्स नहीं करेंगे, तो पश्चात्ताप से परे, प्राप्ति स्वरूप और पुरूषार्थ की सहज गति प्राप्त करेंगे अर्थात् सदा सद्बुद्धि प्राप्त करेंगे। अपने को वा दूसरों को देख घबराओ मत। क्या होगा? यह भी होगा? घबराओ नहीं लेकिन गहराई में जाओ। क्योंकि वर्तमान, ‘अन्तिम समय’ समीप के कारण एक तरफ, अनेक प्रकार के रहे हुए हिसाब-किताब, स्वभाव-संस्कार वा दूसरे के सम्बन्ध सम्पर्क द्वारा बाहर निकलेंगे अर्थात् अिन्तम विदाई लेंगे। तो बाहर निकलते हुए अनेक प्रकार के मानसिक परीक्षाओं रूपी बीमारियों को देख घबराओ नहीं। लेकिन यह अति, अन्त की निशानी समझो। दूसरे तरफ, अन्तिम समय समीप होने के कारण कर्मों की गति की मशीनरी भी तेज़ रफ्तार से दिखाई देगी। धर्मराजपुरी के पहले यहाँ ही कर्म और उसकी सज़ा का बहुत साक्षात्कार अभी भी होंगे - आगे चलकर भी। और सत्य बाप के सच्चे बच्चे बन, सत्य स्थान के निवासी बन, जरा भी असत्य कर्म किया तो प्रत्यक्ष दंड के साक्षात्कार अनेक वंडरफुल (Wonderful;आश्चर्य) रूप के होंगे। ब्राह्मण परिवार वा ब्राह्मणों की भूमि पर पांव ठहर न सकेंगे, हर दाग स्पष्ट दिखाई देगा, छिपा नहीं सकेंगे। स्वयं अपने गलती के कारण मन उलझता हुआ टिका नहीं सकेगा। अपने आप को, अपने आप सजा के भागी बनावेंगे। इसलिए यह सब होना ही है। इसके नॉलेजफुल बन घबराओ मत। समझा? मास्टर सर्वशक्तिवान घबराते नहीं हैं। अच्छा।
कर्मों की गति को जानने वाले, सदा हर सेकेण्ड, हर संकल्प, बाप की श्रीमत प्रमाण चलने वाले, अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले करने वाले, सदा बाप के सहारे को सामने रखते हुए सर्व विघ्नो से किनारा करने वाले, सम्पूर्ण स्थिति के किनारे को सदैव सामने रखने वाले, ऐसे हिम्मत, हुल्लास, उमंग में सदा रहने वालों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।
दीदी जी से-
अभी तो बाप बच्चों को सम्पन्न रूप में देखना चाहते हैं। लेकिन सम्पन्न बनने में ही वन्डरफुल बातें देखेंगे। क्योंकि यह प्रैक्टीकल पेपर हो जाते हैं। किसी भी प्रकार नया दृश्य वा आश्चर्यजनक दृश्य सामने आये, लेकिन दृश्य ‘साक्षी दृष्टा’ बनावे, हिलावे नहीं। कोई भी ऐसा दृश्य जब सामने आता है तो पहले साक्षी दृष्टा की स्थिति की सीट पर बैठ देखने वा निर्णय करने से बहुत मजा आयेगा। भय नहीं आयेगा। अब हुआ ही पड़ा है, तो घबराना वा भयभीत होना हो ही नहीं सकता। जैसे कि अनेक बार देखी हुई सीन फिर से देख रहे हैं - इस कारण क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे भी होता है? यह तो नई बातें हैं! यह संकल्प वा बोल नहीं होगा। और ही राजयुक्त, योगयुक्त हो, लाईट हाउस (Light House) हो, वायुमण्डल को डबल लाईट बनावेंगे। घबराने वाला नहीं। ऐसे अनुभव होता है ना? इसको कहा जाता है - पहाड़ समान पेपर राई के समान अनुभव हो। कमज़ोर को पहाड़ लगेगा और मास्टर सर्वशक्तिवान को राई अनुभव होगा। इसी पर ही नम्बर बनते हैं। प्रैक्टीकल पेपर पास करने के ही नम्बर बनते हैं। सदैव पेपर पर नम्बर मिलते हैं। पढ़ाई तो चलती रहती है लेकिन नम्बर पेपर के आधार पर होते। अगर पेपर नहीं, तो नम्बर भी नहीं। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषार्थी पेपर को ‘खेल’ समझते हैं। खेल में कब घबराया नहीं जाता है। खेल तो मनोरंजन होता है। तो मनोरंजन में घबराया नहीं जाता है। दिन प्रतिदिन बहुत कुछ आगे बढ़ने और बढ़ाने के दृश्य देखेंगे। छोटी सी गलती मुश्किल बना देती है। वह कौन सी गलती ? सुनाया ना। मैं कैसे करूँ, मैं कर नहीं सकती, मैं चल नहीं सकती, किसने कहा आप चलो? बाप ने तो कहा नहीं कि अपने आप चलो। साथी का साथ पकड़ कर चलो। साथ छोड़ अपने ऊपर क्यों बोझ उठा कर चलते, जो कहना पड़े - मैं नहीं चल सकती, मैं नहीं कर सकती। गलती अपनी और फिर उल्हाने देंगे बाप को। अंगुली खुद छोड़ते, बोझ खुद उठाते, फिर कहते बोझ उठाया नहीं जाता। किसने कहा तुम उठाओ? आदत है ना बोझ उठाने की। जिसकी आदत होती है बोझ उठाने की, उनको बैठने का सहज काम करने कहो तो कर नहीं सकेगा। तो यह भी पिछली आदत के वश हो जाते हैं। यह भी नहीं कह सकते, मेरे पिछले संस्कार हैं। पिछले संस्कार हैं अर्थात् मरजीवा नहीं बने हैं। जब मरजीवा बन गए तो नया जन्म, नए संस्कार होने चाहिए। पिछले संस्कार पिछले जन्म के हैं। इस जन्म के नहीं। वह कुल ही दूसरा, यह कुल ही दूसरा। वह शुद्र कुल, यह ब्राह्मण कुल। जब कुल बदलता है तो उसी कुल की मर्यादा को पालन करना है। जैसे लौकिक रीति में भी अगर कन्या का कुल शादी के बाद बदल जाता है तो उसी कुल की मर्यादा प्रमाण अपने को चलाना होता है। यह भी कुल बदल गया ना। तो यह सोचकर भी कमज़ोर न होना कि पिछली आदत है ना। इसलिए यह तो होगा ही। लेकिन अब के कुल की मर्यादा क्या है, उस मर्यादा के प्रमाण यह है ही नहीं।
पार्टीयों के साथ-
शक्ति सेना वा पांडव सेना दोनों ही माया को परखते हुए उसे भगाने वाले हो ना। घबरा करके रूकने वाले तो नहीं हो? ऐसे भी युद्ध करने वाले जो योद्धे होते हैं, उन्हों का स्लोगन होता है - हारना वा पीछे लौटना वा रूकना - यह कमज़ोरों का काम है। योद्धा अर्थात् मरना और मारना। तो आप भी रूहानी योद्धे हो। रूहानी सेना में हो। तो रूहानी योद्धे भी डरते नहीं, पीछे नहीं हटते, लेकिन आगे बढ़ते सदा विजयी बनते हैं। तो विजयी बनने वाले हो या घबराने वाले हो? कभी-कभी बहुत युद्ध करके थक जाते हो या रोज-रोज युद्ध करके अलबेले हो जाते हो। वैसे भी रोज-रोज एक ही कार्य करना होता है तो कई बार ऐसे भी होता है - सोचते हैं यह तो चलता ही रहेगा, कहां तय करें, यह तो सारी जिन्दगी की बात है। एक वर्ष की तो नहीं। लेकिन सारी जिन्दगी को अगर 5000 वर्ष की प्रालब्ध के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है वा सारी जिन्दगी है? बेहद के हिसाब से देखो तो सेकेण्ड की बात है। विशाल बुद्धि बेहद के हिसाब से देखेंगे। वह कब थकेंगे नहीं। सारे कल्प के अन्दर पौना भाग प्राप्ति है, यह तो लास्ट (Last) में गिरावट का अनुभव होता है। इस थोड़े से समय के आधार पर कल्प का पौना भाग प्राप्ति है, उस हिसाब से देखो, तो यह कुछ भी नहीं हैं। बेहद का बाप है, बेहद का वर्सा है तो बुद्धि भी बेहद में रखो, हद की बातें समाप्त करो। समझा? जब कोई के सहारे से वा कोई स्वयं आपको साथ ले जाए, तो फिर थकने की तो बात ही नहीं है। बाप तो याद के साथ की गोदी में ले जाते हैं। पैदल करते ही क्यों हो जो थकते हो। सदा और साथ की गोद से उतरते ही क्यों हो, जो चिल्लाते हो। क्या करे? करना कुछ भी नहीं है, फिर भी थकते हो। कारण? अपनी बेसमझी। अपना हठ करते हो। जैसे बालहठ होता है ना। बालहठ करके अपनी मनमत पर चल पड़ते हो, इसलिए अपने आपको परेशान करते हो। यह बाल हठ नहीं करो। श्रीमत में अगर मनमत मिक्स करते तो ऐसे मिक्स करने वालों को सज़ा मिलती। सज़ा बाप नहीं देता, लेकिन स्वयं, स्वयं को सज़ा के भागी बना देते हैं। खुशी, शक्ति गायब हो जाना ही सज़ा है ना।
जो जिसके नजदीक होता उसके संग का रंग अवश्य लगता है। अगर बाप के नजदीक हो तो उसके संग का रंग जरूर लगेगा। जैसे बाप का रूहानी रंग है तो जो संग करेंगे, उसे रूहानी रंग लगेगा। एक ही संग होगा, तो एक ही रंग होगा। अगर सर्व शक्तिवान बाप का सदा संग है तो माया मुरझा नहीं सकती। कनेक्शन (Connection;जोड़) है तो करेंट आती रहेगी। कनेक्शन ठीक हो तो आटोमेटिकली सर्वशक्तियों की करेंट आएगी। जब सर्व शक्तियां मिलती रहेगी तो सदा हर्षित रहेंगे। गम ही खत्म हो जाएगी। संगम का समय है खुशियों का, अगर ऐसे समय पर कोई गम करे तो बुरा लगेगा ना?
महावीर वा महाविरनी की मुख्य निशानी क्या होगीं? वर्तमान समय के प्रमाण महावीर की निशानी हर सेकेण्ड, हर संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। जो महावीर नहीं वह कोई सेकेण्ड वा कोई संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव, कोई में ठहरती कला का। चढ़ती कला आटोमेटिकली सर्व के प्रति भला अर्थात् कल्याण करने के सेवा निमित्त बना देती। वायब्रेशन (Vibration) वातावरण द्वारा भी कइयों के कल्याण कर सकते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘‘चढ़ती कला तेरे भाने सब का भला।’’ वह अनेकों को रास्ता बताने के निमित्त बन जाते। उन्हें रूकने वा थकने की अनुभूति नहीं होगी। वह सदा अथक, सदा उमंग, उत्साह में रहने वाले होंगे। उत्साह कभी भी कम न हो, इसको कहा जाता है ‘महावीर।’ रूकने वाले घोड़े सवार, थकने वाले प्यादे, सदा चलते रहने वाले महावीर। उनकी माया के किसी भी रूप में आंख नहीं डूबेगी, उसको देखेंगे ही नहीं। वह माया के किसी भी रूप को देखते हुए भी देखेंगे नहीं। महावीर अर्थात् फुल नॉलेज (Full Knowledge;पूर्ण ज्ञान) फुल नॉलेज वाले कभी फेल नहीं हो सकते। फेल (Fail;नापास) तब होते हैं जब नॉलेज का कोई पाठ याद नहीं होता। नॉलेजफुल बनना है, सिर्फ नॉलेज नहीं। यह नई बात है, यह पता नहीं - उन्हों के यह शब्द कभी नहीं होंगे।
लास्ट का पुरूषार्थ वा लास्ट की सर्विस कौन सी है? आजकल जो पुरूषार्थ चाहिए वा सर्विस चाहिए, वह है वृत्ति से वायुमण्डल को पावरफुल (Powerful;शक्तिशाली) बनाना। क्योंकि मैजारिटी अपने पुरूषार्थ से आगे बढ़ने में असमर्थ होते हैं। तो ऐसे असमर्थ व कमज़ोर आत्माओं को अपने वृत्ति द्वारा बल देना यह अति आवश्यक है। अभी यह सर्विस चाहिए। क्योंकि वाणी से बहुत सुनकर समझते, अभी हम सब फुल हो गए हैं, कोई नई बात नहीं लगेगी। वाणी से नहीं लेने चाहते। वृत्ति का डायरेक्ट (Direct) कनेकशन वायुमण्डल से है। वायुमण्डल पावर फुल होने से सब सेफ हो जाएंगे। यही आजकल की विशेष सेवा है। वरदानी का अर्थ ही है - ‘वृत्ति से सेवा करने वाले।’ महादानी है वाणी से सेवा करने वाले। वरदानी की स्टेज की आजकल जरूरत है। वृत्ति से जो चाहो वह कर सकते हो।
अब वरदान लेने का समय समाप्त हुआ। दाता के बच्चे दाता होते हैं। दाता को लेने की आवश्यकता नहीं, इसलिए अभी ‘वरदानी’ बनो।
जैसे सर्विस के वृद्धि के प्लान बनाते हो, वैसे अपने पुरूषार्थ के वृद्धि के प्लान बनाओ। सर्विस में तो औरों के सहयोग की जरूरत पड़ती, लेकिन अपने पुरूषार्थ की वृद्धि के प्लान में बाप के सहयोग से बहुत कुछ कर सकते हैं। अभी तुम सबको मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों के प्रोग्राम फिक्स करो। अपनी डेली-डायरी (Daily Diary) रखो तब ही नम्बर आगे का ले सकेंगे। नहीं तो आगे नम्बर नहीं ले सकेंगे, पीछे रहना पड़ेगा। आगे बढ़ने वालों की निशानियां यह होती हैं। अच्छा। ओम् शान्ति।
05-05-77 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वरदानी, महादानी और दानी आत्माओं के लक्षण
वरदानी, महादानी बच्चों को देख बाबा बोले:-
वरदाता बाप अपने वरदानी, महादानी और दानी बच्चों को देख रहे हैं। जिन्होंने स्वयं को सर्व खज़ानों से सम्पन्न किया है, वह हैं ‘वरदानी’ बच्चे। जिन्होंने सर्व खज़ानों से स्वयं को सम्पन्न नहीं किया है, लेकिन थोड़ा बहुत यथा शक्ति जमा किया है, वह है ‘महादानी।’ जिन्होंने जमा नहीं किया, लेकिन अभी-अभी मिला, अभी-अभी लिया और उसी समय ही जो कुछ लिया, वह दिया, वह हैं दानी आत्माएं, जो जमा नहीं करते, लेकिन कमाया, कुछ खाया, कुछ दिया। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे बाप देख रहे हैं।
‘वरदानी’ बच्चे, स्वयं के जमा किए हुए खज़ानों को अर्थात् स्वयं की शक्ति, स्वयं के गुण द्वारा, स्वयं के ज्ञान खज़ाने द्वारा, निर्बल आत्माओं को वरदान द्वारा, हिम्मत, हुल्लास की शक्ति और खुशी का खज़ाना, अपने सहयोग की शक्ति से देकर, उन कमज़ोर को शक्तिशाली बना देते हैं।
‘महादानी’ पुरूषार्थ कराने की युक्तियां या हुल्लास, उमंग में लाने की युक्तियां बताते हुए, कमज़ोर आत्माओं द्वारा पुरूषार्थ कराने के निमित्त बनते हैं। स्मृति दिलाते हुए, समर्थी में लाने के निमित्त बनते हैं - अपने शक्तियों का सहयोग नहीं दे पाते, लेकिन रास्ता स्पष्ट दिखाने के निमित्त बनते हैं। ऐसे करो, ऐसे चलो, इस तरह मार्ग दर्शन कराने के निमित्त बनते हैं।
‘दानी’ बच्चे, जो सुना, जो अच्छा लगा, जो अनुभव किया, वह वर्णन द्वारा आत्माओं को बाप तरफ आकर्षण करने के निमित्त बनते हैं, लेकिन मार्ग दर्शन कराने वाले, वा अपने शक्तियों के सहयोग द्वारा किसी को श्रेष्ठ बनाने वाले, महादानी नहीं बन सकते। तो ‘पहला नम्बर है, सहयोग देने वाले। दूसरा, मार्गदर्शन कराने वाले। तीसरा, मार्ग बताने वाले।’ अब, तीनों में अपने से आपको देखो कि मैं कौन? क्योंकि रियलाइजेशन (REALIZATION;अनुभव) करना है। किसको? सेल्फ (Self;स्वयं) को। सेल्फ रियलाइजेशन, यही कोर्स चल रहा है - जिससे अब तक जो कमी रह गई है, उससे स्वयं को लिबरेट कर सकेंगे।
जैसे बाप लिबरेटर (Liberator) वैसे बच्चे भी ‘मास्टर लिबरेटर’ हैं। लेकिन पहले ‘सेल्फ लिबरेटर’ बनेंगे, तब औरों को भी लिबरेट कर अपने स्व-स्वरूप और स्वदेश को स्वमान में स्थित कर सकेंगे। आजकल के वातावरण में हर आत्मा किसी न किसी बात के बन्धन वश हैं। चारों ओर की आत्माएं, कोई तन के दु:ख के वशीभूत, कोई सम्बन्ध के वशीभूत, कोई इच्छाओं के वशीभूत, कोई अपने संस्कार जो कि दु:खदाई संस्कार हैं, दु:खदाई स्वभाव हैं, उनके दु:ख के वशीभूत, कोई प्रभु-प्राप्ति न मिलने के अशान्ति में भटकने के दु:ख वशीभूत, कोई जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने के कारण परेशान, कोई पशुओं की तरह खाया-पिया, जीवन बिताया, लेकिन फिर भी संतुष्टता नहीं। काई साधना करते, त्याग करते, अध्ययन करते, फिर भी मंजिल को प्राप्त नहीं होते, पुकारने, चिल्लाने के ही दु:ख के वशीभूत, ऐसे अनेक प्रकार के बन्धनों वश, दु:ख- अशान्ति के वश आत्माएं अपने को लिबरेट करना चाहते हैं। ऐसे अपने आत्मा के नाते, भाइयों को दु:खी देख रहम आता? दिखाई देता है? आत्माओं के दु:खमय जीवन को कोई सहारा नहीं मिल रहा है। देखने आता है वा अपने में बिजी हो?
लौकिक रीति से जीवन में बचपन का समय, स्टडी (Study;पढ़ाई) का समय अपने प्रति होता है। उसके बाद रचना के प्रति समय होता है अर्थात् दूसरों के प्रति जिम्मेवारी का समय होता है। अलौकिक जीवन में भी पहले स्वयं को परिपक्व करने का पुरूषार्थ किया, अब विश्व-कल्याणकारी बन विश्व की आत्माओं के प्रति वा अपने निजी परिवार के प्रति। विश्व की सर्व आत्माएं आपका परिवार हैं, क्योंकि बेहद के बाप के बच्चे हो; तो बेहद के परिवार के हो। तो अपने परिवार प्रति रहम नहीं आता? तो अभी रहम दिल बनो। मास्टर रचता बनो। स्वयं कल्याणकारी नहीं, लेकिन साथ-साथ ‘विश्वकल्याणकारी’ बनो। अपने जमा की हुई शक्तियों वा ज्ञान के खज़ाने को मास्टर ज्ञान-सूर्य बन, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति के अर्थात् शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प द्वारा, अपने जीवन में गुणों की धारणाओं द्वारा, इन सब साधनों की किरणों द्वारा अशान्ति को मिटाओ। जैसे सूर्य एक स्थान पर होते हुए भी अपने किरणों द्वारा चारों ओर का अन्धकार दूर करता है, ऐसे मास्टर ज्ञान-सूर्य बन दु:खी आत्माओं पर रहम करो।
स्वयं और सेवा - दोनों का बैलेन्स (Balance;सन्तुलन) रखो। स्वयं को भी नहीं भूलो और विश्व-सेवा को भी नहीं भूलो। विश्व की परिक्रमा देना कितने समय का काम है? विश्व के मालिक के बालक हो तो मालिक बन विश्व-परिक्रमा लगाओ। जब तीनों लोकों का चक्र लगा सकते हो, तो विश्व का चक्कर लगाना क्या बड़ी बात है! जैसे पहले के योग्य राजाएं सदा अपने राज्य का चक्र लगाते थे। प्रजा को सदा सुखी और संतुष्ट रखते थे। यह सब किससे सीखे? ‘सब रीतिरस्म का फाउन्डेशन (Foundation;आधार) संगम समय है, और संगम निवासी ब्राह्मण हैं।’ इसलिए ही अब तक भी कोई रस्म करने के लिए ब्राह्मणों को ही बुलाया जाता है। तो आप लोगों से राजाएं रस्म सीखे हैं, आप सिखलाने वाले स्वयं तो अवश्य कर सकते हो इसलिए मास्टर रचता बन विश्व की रेखदेख करो। समझा, क्या करना है? अभी बचपन के अलबेलेपन को छोड़ो, समय और शक्तियों को सेवा में सफल करो। अच्छा।
सदा सर्व खज़ानों को सफल करने वाले, स्वयं और विश्व प्रति का बैलेंस रखने वाले, मास्टर ज्ञान-सूर्य, सदा रहम दिल, सदा सर्व प्रति सहयोग की भावना और कामना रखने वाले, ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार, और नमस्ते।
विश्व परिक्रमा लगाते हो? कितने समय में? क्योंकि जितनी जिसकी दिव्य बुद्धि होती है, तो दिव्यता के आधार पर स्पीड है। जैसे ऐरोप्लेन भी उड़ते हैं, तो जितनी पावर वाला होगा उतनी स्पीड तेज़ होगी। तो यहाँ भी जिसकी जितनी दिव्यता है, ‘दिव्यता ही स्वच्छता’ है। अर्थात् डबल रिफाइननेस (Refineness) है। जिसकी बुद्धि दिव्य है, उतनी उसकी स्पीड तेज होगी। एक सैकन्ड में और स्पष्ट रूप में चक्कर लगा सकेंगे। क्योंकि यहाँ से ही सर्व को सन्तुष्ट अर्थात् सर्व प्राप्ति कराने का संस्कार भरना है। तब ही, जब विश्व-महाराजन बनेंगे तो राज्य में कोई अप्राप्त वस्तु नहीं, सदा सन्तुष्ट, सर्व प्राप्ति स्वरूप होंगे। तो वह संस्कार कहां से भरेंगे? यहाँ से, इसी विश्व-चक्र की यादगार का समय भी बहुत महत्वपूर्ण गाया जा रहा है। नुमाशाम के समय को ‘चक्र को समय’ गाया जाता है तो यह यादगार कैसे बना? जब प्रैक्टिकल किया तब ही, अभी तक भी चक्र लगाने का यादगार कायम है। नुमाशाम अर्थात् परिवर्तन का समय, परिवर्तन का