02-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"विश्व परिवर्तन की जिम्मेवारी संगमयुगी ब्राह्मणों पर"
सदा जागती ज्योति शिवबाबा अपने चैतन्य दीपकों के प्रति बोले:-
‘‘बापदादा अपने ब्राह्मण कुल दीपकों से मिलने के लिए आये हैं। चैतन्य दीपकों की माला को देख रहे हैं। हर एक दीपक विश्व को रोशन करने वाले चैतन्य दीपक हैं। सर्व दीपकों का सम्बन्ध एक जागती-ज्योति से है। हर दीपक की रोशनी से विश्व का अंधकार मिटता हुआ, रोशनी की झलक आ रही है। हर दीपक की किरणें फैलती हुई विश्व के ऊपर प्रकाश की छत्रछाया बनी हुई है। ऐसा सुन्दर दृश्य बापदादा दीपकों का देख रहे हैं। आप सभी भी सर्व दीपकों की मिली हुई रोशनी की छत्रछाया देख रहे हो? लाइट माइट स्वरूप अनुभव कर रहे हो? स्व-स्वरूप में भी स्थित और साथ-साथ विश्व की सेवा भी कर रहे हो। स्वस्व रूप और सेवा स्वरूप दोनों साथ-साथ अनुभव कर रहे हो? इसी स्वरूप में स्थित रहो। कितना शक्तिशाली स्वरूप है। विश्व की आत्मायें आप जगते हुए दीपकों की तरफ कितना स्नेह से देख रही हैं। अनुभव करते रहो - कि जरासी रोशनी के लिए भी कितनी आत्मायें अंधकार में भटकती हुई रोशनी के लिए तड़प रही हैं? वो तड़पती हुई आत्मायें नज़र आती हैं? अगर आप दीपकों की रोशनी टिमटिमाती रहेगी, अभी-अभी जगी, अभी-अभी बुझी तो भटकी हुई आत्माओं का क्या हाल होगा? जैसे यहां भी अंधकार हो जाता है तो सबकी इच्छा होती है अभी रोशनी हो। बुझती-जगती हुई लाइट पसन्द नहीं करेंगे। ऐसे आप हर जगे हुए दीपक के ऊपर विश्व के अंधकार मिटाने की जिम्मेवारी है। इतनी बड़ी जिम्मेवारी अनुभव करते हो?
ड्रामा के रहस्य अनुसार आज ब्राह्मण जगे तो सब जगे। ब्राह्मण जगे तो दिन, रोशनी हो जाती है। और ब्राह्मणों की ज्योति बुझी तो विश्व में अंधकार, रात हो जाती है। तो दिन से रात, रात से दिन बनाने वाले आप चैतन्य दीपक हो। इतनी जिम्मेवारी हर एक पर है। तो बापदादा हर एक के जिम्मेवारी समझने का चार्ट देख रहे हैं कि हर एक अपने को कितना जिम्मेवार समझते हैं? विश्व परिवर्तन की जिम्मेवारी का ताज धारण किया है वा नहीं? इसमें भी नम्बरवार ताजधारी बैठे हुए हैं। अपना ताज देख रहे हो? सदा पहनते हो वा कभी-कभी पहनते हो? अलबेले तो नहीं बनते? ऐसा तो नहीं समझते कि जिम्मेवारी बड़ों की है। विश्व का ताज बड़ों को देंगे या आप लेंगे? जैसे विश्व के राज्य अधिकारी सभी अपने को समझते हो, अगर कोई आपको कहे आप प्रजा ही बन जाना तो आप पसन्द करेंगे? सब विश्व का महाराजन बनने आये हो ना? वा प्रजा बनना भी पसन्द है? क्या बनेंगे? प्रजा बनने के लिए तैयार है कोई? सभी हाथ उठाते हो लक्ष्मी-नारायण बनने के लिए, तो जब वह राज्य का ताज पहनना है तो उस ताज का आधार सेवा की जिम्मेवारी के ताज पर है। तो क्या करना पड़ेगा? अभी से ताजधारी बनने के संस्कार धारण करने पड़ेंगे। कौन-सा ताज? जिम्मेवारी का।
तो आज बापदादा सबके ताज देख रहे हैं। तो यह कौन-सी सभा हो गई? ताजधारियों की सभा देख रहे हैं। सभी ने इस ताजपोशी का दिन मनाया है? मनाया है कि अभी मनाना है? जैसे आपके यादगार चित्र श्रीकृष्ण के चित्र में बचपन से ही ताज दिखाते हैं। बड़ा होकर तो होगा ही लेकिन बचपन से ही ताजधारी। देखा है अपना चित्र? डबल विदेशियों ने अपना चित्र देखा है? यह किसका चित्र है? एक ब्रह्मा का चित्र है या आप सबका है? तो जैसे श्रीकृष्ण के चित्र में बचपन से ही ताजधारी दिखाया है वैसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी मरजीवा बनीं, ब्राह्मण बनीं और जिम्मेवारी का ताज धारण किया। तो जन्म से ताजधारी बनते हो इसलिए यादगार में भी जन्म से ताज दिखाया है। तो ब्राह्मण बनना अर्थात् ताजपोशी का दिन मनाना। तो सबने अपनी ताजपोशी मना ली है ना? अभी सिर्फ यह देखना है कि सदा इस विश्व सेवा की जिम्मेवारी के ताजधारी बन सेवा में लगे हुए रहते हैं? तो क्या दिखाई दे रहा है? ताजधारी तो सब दिखाई दे रहे हैं लेकिन कोई की दृढ़ संकल्प की फिटिंग ठीक है और कोई की थोड़ी लूज है। लूज होने कारण ताज कभी उतरता है, कभी धारण करते हैं। तो सदा दृढ़ संकल्प द्वारा इस ताज को सदा के लिए सेट करो। समझा, क्या करना है? ब्रह्मा बाप बच्चों को देख कितने हर्षित होते हैं? ब्रह्मा बाप भी सदा गीत गाते हैं, कौनसा गीत गाते हैं? ‘‘वाह मेरे बच्चे, वाह''! और बच्चे क्या गीत गाते हैं? (वाह बाबा, वाह!) यह सहज गीत है इसीलिए गाते हैं। सबसे ज्यादा खुशी किसको होती है? सबसे ज्यादा ब्रह्मा बाप को खुशी होती है। क्यों? सभी बच्चे अपने को क्या कहलाते हो? ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी, शिव कुमार और शिव कुमारी नहीं कहते हो। तो ब्रह्मा बाप रचयिता अपनी रचना को देख हर्षित होते हैं। ब्रह्मा मुख वंशावली हो ना! तो अपनी वंशावली को देख ब्रह्मा बाप हर्षित होते है।
अव्यक्त रूपधारी होते भी मधुबन में व्यक्त रूपधारी की अर्थात् चैतन्य साकार रूप की अनुभूति कराते ही रहते हैं। मधुबन में आकर ब्राह्मण बच्चे ब्रह्मा से साकार रूप की, साकार चरित्र की अनुभूति करते हो ना? विशेष मधुबन भूमि को वरदान है - साकार रूप की अनुभूति कराने का। तो ऐसी अनुभूति करते हो ना! आकारधारी ब्रह्मा है या साकार है? क्या अनुभव करते हो? रूह-रूहान करते हो? अच्छा-
आज वतन में बापदादा की यही रूह-रूहान चल रही थी कि डबल विदेशी बच्चे अपने समीप के सम्बन्ध के स्नेह में निराकार और आकार को साकार रूपधारी बनाने में बहुत होशियार हैं। बच्चों के स्नेह के जादू से आकार भी साकार बन जाता है। ऐसे स्नेह के जादूगर बच्चे हैं। स्नेह, स्वरूप को बदल लेता है। तो ब्रह्मा बाप भी ऐसे ही अनुभव करते हैं कि हरेक स्नेही बच्चे से साकार रूपधारी बन मिलते हैं, अर्थात् बच्चों के स्नेह का रेसपान्ड देते हैं। स्नेह की रस्सी से बापदादा को सदा साथ बाँध देते हैं। यह स्नेह की रस्सी ऐसी मजबूत है जो कोई तोड़ नहीं सकता। 21 जन्मों के लिए ब्रह्मा बाप के साथ भिन्न-भिन्न सम्बन्ध में बँधे हुए ही रहेंगे। अलग नहीं हो सकते। ऐसी रस्सी बाँधी है ना? इसको ही कहा जाता है अविनाशी मीठा बन्धन। 21 जन्मों तक निश्चित है। तो ऐसा बन्धन बाँध लिया है ना? जादूगर बच्चे हो ना? तो सुना आज वतन में क्या रूह-रूहान चली। ब्रह्मा बाप एक-एक बच्चे की विशेषता की चमकती हुई मणि को देख रहे थे। हर बच्चे की विशेषता मणि के समान चमक रही थी। तो अपनी चमकती हुई मणि को देखा है! अच्छा-
डबल विदेशी बच्चों से मिलने आते हैं, वाणी नहीं चलाते हैं। बाप की कमाल है लेकिन बच्चों की भी कम नहीं। आप समझते हो कि हम आपस में रूह-रूहान करते लेकिन बापदादा भी रूह-रूहान करते हैं। अच्छा-
ऐसे सदा विश्व सेवा के जिम्मेवारी के ताजधारी, सदा स्नेह के बंधन में बापदादा को अपना साथी बनाने वाले, 21 जन्म के लिए अविनाशी सम्बन्ध में आने वाले, ऐसे सदा जगे हुए दीपकों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
जर्मन ग्रुप:- सभी के मस्तक पर क्या चमक रहा है? अपने मस्तक पर चमकता हुआ सितारा देख रहे हो? बापदादा सभी के मस्तक पर चमकती हुई मणि को देख रहे हैं। अपने को सदा पद्मापद्म भाग्यशाली आत्मायें समझते हो? हर समय कितनी कमाई जमा करते हो? हिसाब निकाल सकते हो? सारे कल्प के अन्दर ऐसा कोई बिजनेसमैन होगा जो इतनी कमाई करे! सदा यह खुशी की याद रहती है कि हम ही कल्प-कल्प ऐसे श्रेष्ठ आत्मा बने हैं? तो सदा यही समझो कि इतने बड़े बिजनेसमैन हैं और इतनी ही कमाई में बिजी रहो। सदा बिजी रहने से किसी भी प्रकार की माया वार नहीं करेगी क्योंकि बिजी होंगे तो माया बिजी देखकर लौट जायेगी, वार नहीं करेगी। सहज मायाजीत बनने का यही साधन है कि सदा कमाई करते रहो और कराते रहो। जैसे-जैसे माया के अनेक प्रकारों के नालेजफुल होते जायेंगे तो माया किनारा करती जायेगी। दूसरी बात एक सेकण्ड भी अकेले नहीं हो, सदा बाप के साथ रहो तो बाप के साथ को देखते हुए माया आ नहीं सकती क्योंकि माया पहले बाप से अकेला करती है तब आती है। तो जब अकेले होंगे ही नहीं फिर माया क्या करेगी? बाप अति प्रिय है, यह तो अनुभव है ना? तो प्यारी चीज भूल कैसे सकती! तो सदा यह स्मृति में रखो कि प्यारे ते प्यारा कौन? जहाँ मन होगा वहाँ तन और धन स्वत: होगा। तो ‘‘मन्मनाभव'' का मन्त्र याद है ना! जहाँ भी मन जाए तो पहले यह चेक करो कि इससे बढ़िया, इससे श्रेष्ठ और कोई चीज है या जहाँ मन जाता है वही श्रेष्ठ है! उसी घड़ी चेक करो तो चेक करने से चेंज हो जायेंगे। हर कर्म, हर संकल्प करने के पहले चेक करो। करने के बाद नहीं। पहले चेकिंग पीछे प्रैक्टिकल। अच्छा –
04-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"सतगुरू का प्रथम वरदान - ‘‘मन्मनाभव''"
सतगुरू शिव बाबा गुरू पौत्रों से बोले:-
‘‘आज ज्ञान सागर बाप, सागर के कण्ठे पर ज्ञान रत्न चुगने वाले होली हंसों से मिलने आये हैं। हरेक होली हंस कितना ज्ञान रत्नों को चुनकर खुशी में नाच रहे हैं, वह हंसों के खुशी का डांस देख रहे हैं। यह अलौकिक खुशी की रूहानी डांस कितनी प्यारी है और सारे कल्प से न्यारी है!
सागर की भिन्न-भिन्न लहरों को देख हरेक हंस कितना हर्षित हो रहे हैं। तो आज बापदादा क्या देखने आये हैं? हंसों की डांस। डांस करने में तो होशियार हो ना? हरेक के मन के खुशी के गीत भी सुन रहे हैं। बिना गीत के डांस तो नहीं होती है ना। तो साज भी बज रहे हैं और डांस भी हो रहा है। आप सभी भी खुशी के गीत सुन रहे हो? यह गीत कानों से नहीं सुनेंगे। लेकिन मन के गीत मन से ही सुनेंगे। ‘मन्मनाभव' हुए और गीत गाना व सुनना शुरू हुआ। ‘‘मन्मनाभव'' इस महामन्त्र के वरदानी तो सभी बन गये। सतगुरू के बने तो सतगुरू द्वारा पहला-पहला वरदान क्या मिला? ‘मन्मनाभव'। सतगुरू के रूप में वरदानी बच्चों को देख रहे हैं। सभी महामंत्रधारी, महादानी, वरदानी, सतगुरू के बच्चे ‘मास्टर सतगुरू' हो। वा यह कहो कि ‘गुरू पौत्रे' हो। पोत्रों का हक ज्यादा होता है। ब्रह्मा के बच्चे, तो पौत्रे भी हुए ना। बच्चे भी हो, पौत्रे भी हो। जितने बाप के सम्बन्ध उतने आपके सम्बन्ध। सर्व सम्बन्ध में अधिकारी आत्मायें हो। भोलेनाथ बाप से सब कुछ लेने में होशियार हो। सौदागर भी अच्छे हो। सौदा कर लिया है ना? ऐसे कभी सोचा था कि भगवान से सौदा करेंगे? और सौदे में लिया क्या? सौदे में क्या मिला? (मुक्ति-जीवनमुक्ति) बस सिर्फ मुक्ति-जीवनमुक्ति मिली? सौदागर के साथ जादूगर भी हो। सौदा किया है तो इतना बड़ा किया जो और सौदा करने की आवश्यकता ही नहीं। कोई वस्तु का सौदा नहीं किया है लेकिन वस्तु के दाता का सौदा कर लिया। उसमें तो सब आ गया ना! दाता को ही अपना बना लिया। अच्छा - डबल विदेशी बच्चों से ‘‘रूह-रूहान'' करनी है ना!''
(अलग-अलग पार्टियों से मुलाकात)
न्यूयार्क (अमेरिका)- अपने को कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा हम हैं - ऐसा अनुभव करते हो? ड्रामा के अन्दर हम आत्माओं का बाप के साथ डायरेक्ट सम्बन्ध और पार्ट है, इतना नशा और खुशी रहती है? सदा खुशी में रहने की कितनी बातें धारण कर ली हैं? बापदादा हर सिकीलधे बच्चे को देख हर्षित होते हैं। कितने समय के बाद मिले हो? स्मृति आती है ना? इसी स्मृति में रहो कि हम श्रेष्ठ आत्माओं का ऊँचे से ऊँचे बाप के साथ विशेष पार्ट है। तो जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति स्वत: बन जायेगी। जो सुनते हो उसको समाते जाओ। जितना समाते जायेंगे उतना प्रैक्टिकल स्वरूप बनते जायेंगे। हर गुण का अनुभव हो। एक-एक गुण की अनुभूति कहाँ तक है, यह सदा अपने आपको देखो। नालेजफुल हैं या अनुभवी मूर्त हैं? यह चेक करो, क्योंकि संगम पर ही हर गुण का अनुभव कर सकते हो। किसी भी गुण का अनुभव कम हो तो उसके ऊपर अटेन्शन देकर अनुभवी जरूर बनो। जितना अनुभवी मूर्त होंगे उतना फाउन्डेशन पक्का होगा। माया हिला नहीं सकेगी। किसी भी प्रकार का विघ्न व समस्या अभी खेल के समान अनुभव होनी चाहिए। वार नहीं है, खेल है! तो खेल समझने से खुशी-खुशी पार कर लेंगे और वार समझने से घबरायेंगे भी और हलचल में भी आ जायेंगे। ड्रामा में पार्टधारी होने के कारण कोई भी सीन सामने आती है तो ड्रामा के हिसाब से सब खेल है, यह स्मृति रहे तो एकरस रहेंगे, हलचल नहीं होगी। तो अभी से यह परिवर्तन करके जाना। हलचल यहाँ ही समाप्त करते जाना। सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ अनुभव करो तो हलचल खत्म हो जायेगी। देखो, अमेरिका विश्व में ऊँचा स्थान है, तो ब्राह्मण कितने ऊँचे होंगे? जैसे देश की महिमा है उससे ज्यादा ब्राह्मण आत्माओं की महिमा है। तो आप लोगों को सेवा में नम्बरवन लेना चाहिए। हरेक अगर बाप को प्रत्यक्ष करने के लिए लाइट हाउस हो जाए तो ‘व्हाइट हाउस' और ‘लाइट हाउस' कांट्रास्ट हो जायेगा। वह विनाशकारी और यह स्थापना वाले। अभी कमाल करके दिखाओ। विशेष आत्माओं को निमित्त तो बनाया है, अभी और सम्पर्क से सम्बन्ध में लाना है। ऐसा समीप सम्बन्ध में लाओ जो उन्हों के मुख द्वारा बाप की महिमा सारे विश्व में हो जाए। देखो, बापदादा ने जो बच्चे और-और धर्मों में मिक्स हो गये हैं, उन्हों को भी चुन करके निकाला है। तो विशेष भाग्यवान हुए ना! आपने बाप को नहीं ढूँढा लेकिन बाप ने आपको ढूँढ लिया है। आप ढूँढते तो भी नहीं ढूँढ सकते क्योंकि परिचय ही नहीं था ना। इसीलिए बाप ने आप आत्माओं को चुनकर अपने बगीचे के पुष्प बना दिया। तो अभी आप सब अल्लाह के बगीचे के रूहानी गुलाब हो। ऐसे भाग्यवान अपने को समझते हो ना?
यह भी बाप को खुशी है कि भाषा को न समझते हुए भी कैसे स्नेही आत्मायें अपना अधिकार लेने के लिए पहुँच गई हैं। अपने को अधिकारी आत्मा समझते हो ना! बहुत लगन वाली आत्मायें हैं जो फिर से अपना अधिकार लेने के लिए महान तीर्थ पर पहुँच गई हैं। अच्छा –
जापान ग्रुप से- सभी बापदादा के दिलतख्तनशीन आत्मायें हो। अपने को इतनी श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? वैरायटी फूलों का गुलदस्ता कितना बढ़िया है। आप उस गुलदस्ते में किस स्थान पर हो? छोटा सुभान अल्ला होता है। बच्चों को कितने समय से याद करते हैं? बापदादा जापानी बच्चों को कितने समय से, बहुत समय पहले आप बच्चों को याद किया और अभी प्रैक्टिकल में बाप की वरदान भूमि पर पहुँच गये हो। तो ऐसा भाग्यवान अपने को समझते हो? जापान की विशेष निशानी कौन-सी दिखाते हैं? एक तो फ्लैग दूसरा फैन (हवा के लिए सबको पंखा देते हैं) तो बापदादा भी बच्चों को सदैव याद दिलाते हैं उड़ते रहो, इसलिए पंखा दिखाते हैं। पहले-पहले विदेश की सेवा का फाउन्डेशन भी जापान ही है। तो महत्व हो गया ना। बापदादा के आह्वान से आप लोग यहाँ पहुँचे। बापदादा ने बुलाया तब आये हो। सभी अच्छे शोकेस के शोपीस हो। सभी ब्राह्मण परिवार भी आप ‘गोल्डन डॉल्स' को देखकर खुश होता है। ऐसा अनुभव किया है कि परिवार के भी सिकिलधे हैं और बापदादा के भी सिकिलधे हैं।
अब जापान से ऐसी कोई विशेष आत्मा निकालो जो एक के आने से अनेकों को सन्देश मिल जाए। वहाँ वैरायटी प्रकार की सर्विस निकल सकती है। थोड़ी-सी मेहनत करेंगे तो फल ज्यादा निकल आयेगा। इसके लिए एक तो स्थान का वातावरण बहुत पावरफुल बनाओ। ऐसे अनुभव हो जैसे एक चैतन्य मन्दिर में जा रहे हैं। ऐसा वातावरण रूहानी खुशबू का हो जो दूर-दूर से वायुमण्डल आकर्षण करे। वातावरण बहुत ही आत्माओं को खींच सकता है। धरनी बहुत अच्छी है और फल भी बहुत निकल सकता है, सिर्फ थोड़ी-सी मेहनत और वायुमण्डल चाहिए। सेवा का संकल्प करेंगे और सफलता आपके आगे आयेगी। वायुमण्डल जब रूहानी हो जायेगा तो और सब बातें स्वत: ठीक हो जायेंगी। सब एकमत और एकरस हो जायेंगे फिर माया भी नहीं आयेगी क्योंकि वायुमण्डल शक्तिशाली होगा। वायुमण्डल को शक्तिशाली बनाने के लिए याद के प्रोग्राम रखो और आपस में उन्नति के लिए रूह-रूहान की क्लासेज करो। स्नेह मिलन करो। धारणा की क्लासेज रखो तो सफलता मिल जायेगी।
विदाई के समय-दीदी दादी से- आप लोगों को भी जागना पड़ता है। सारा दिन मेहनत करते हो और रात को भी जागना पड़ता है। बापदादा तो बच्चों को सदा आफरीन देते हैं। हिम्मत और उमंग दोनों पर बलिहार जाते हैं। देख-देख हर्षित होते हैं। महिमा करें तो कितनी हो जायेगी। जैसे बाप की महिमा के लिए कहा हुआ है कि सागर को स्याही बनाओ तो बच्चों की भी कितनी महिमा करें! बाप बच्चों की महिमा देख सदा बार-बार बलिहार जाते हैं। हरेक बच्चा अपनी- अपनी स्टेज पर हीरो पार्ट बजा रहा है। एक बाप के सच्चे हीरो पार्टधारी हो तो बाप को कितना नाज़ होगा। सारे कल्प में ऐसा बाप भी नहीं हो सकता, तो ऐसे बच्चे भी नहीं हो सकते। एक-एक की महिमा के गीत गाने लगे तो कितनी बड़ी गीतमाला हो जायेगी। ब्रह्मा और शिवबाबा भी आपस में बहुत चिटचैट करते हैं। वह कहते हैं- वाह मेरे बच्चे! और वह भी कहते - वाह मेरे बच्चे! (किस समय चिटचैट करते हैं) जब चाहें तब कर सकते हैं। बिजी भी हैं और सारा दिन फ्री भी हैं। स्वतन्त्र भी है और साथी भी हैं। जब हैं ही कम्बाइन्ड तो अलग कैसे दिखाई देंगे, अलग कर सकते हो आप? आप अलग करेंगे वह आपस में मिल जायेंगे। जैसे बापदादा का आपस में कम्बाइन्ड रूप है तो आपका भी है ना! आप भी बाप से अलग नहीं हो सकते।
अच्छा - ओमशान्ति!
06-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"संगमयुगी ब्राह्मण जीवन में पवित्रता का महत्त्व"
पवित्रता के सागर, सदा पूज्य शिव बाबा बोले:-
‘‘बापदादा आज विशेष बच्चों के प्यूरिटी की रेखा देख रहे हैं। संगमयुग पर विशेष वरदाता बाप से दो वरदान सभी बच्चों को मिलते हैं। एक- ‘सहजयोगी भव'। दूसरा- ‘पवित्र भव'। इन दोनों वरदानों को हर ब्राह्मण आत्मा पुरूषार्थ प्रमाण जीवन में धारण कर रहे हैं। ऐसे धारणा स्वरूप आत्माओं को देख रहे हैं। हर एक बच्चे के मस्तक और नयनों द्वारा पवित्रता की झलक दिखाई दे रही है। पवित्रता संगमयुगी ब्राह्मणों के महान जीवन की महानता है। ‘पवित्रता ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ श्रृंगार है।' जैसे स्थूल शरीर में विशेष श्वास चलना आवश्यक है। श्वास नहीं तो जीवन नहीं। ऐसे ब्राह्मण जीवन का श्वास है - ‘पवित्रता'। 21 जन्मों की प्रालब्ध का आधार अर्थात् फाउण्डेशन पवित्रता है। आत्मा अर्थात् बच्चे और बाप से मिलन का आधार ‘पवित्र बुद्धि' है। सर्व संगमयुगी प्राप्तियों का आधार ‘पवित्रता' है। पवित्रता, पूज्य-पद पाने का आधार है। ऐसे महान वरदान को सहज प्राप्त कर लिया है? वरदान के रूप में अनुभव करते हो वा मेहनत से प्राप्त करते हो? वरदान में मेहनत नहीं होती। लेकिन वरदान को सदा जीवन में प्राप्त करने के लिए सिर्फ एक बात का अटेन्शन चाहिए कि ‘वरदाता और वरदानी' दोनों का सम्बन्ध समीप और स्नेह के आधार से निरन्तर चाहिए। वरदाता और वरदानी आत्मायें दोनों सदा कम्बाइन्ड रूप में रहें तो पवित्रता की छत्रछाया स्वत: रहेगी। जहाँ सर्वशिक्तवान बाप है वहाँ अपवित्रता स्वप्न में भी नहीं आ सकती है। सदा बाप और आप युगल रूप में रहो। सिंगल नहीं, युगल। सिंगल हो जाते हो तो पवित्रता का सुहाग चला जाता है। नहीं तो पवित्रता का सुहाग और श्रेष्ठ भाग्य सदा आपके साथ है। तो बाप को साथ रखना अर्थात् अपना सुहाग, भाग्य साथ रखना। तो सभी, बाप को सदा साथ रखने में अभ्यासी हो ना?
विशेष डबल विदेशी बच्चों को अकेला जीवन पसन्द नहीं है ना? सदा कम्पैनियन चाहिए ना! तो बाप को कम्पैनियन बनाया अर्थात् पवित्रता को सदा के लिए अपनाया। ऐसे युगलमूर्त के लिए पवित्रता अति सहज है। पवित्रता ही नैचरल जीवन बन जायेगी। पवित्र रहूँ, पवित्र बनूँ, यह क्वेश्चन ही नहीं। ब्राह्मणों की लाइफ ही ‘पवित्रता' है। ब्राह्मण जीवन का जीय-दान ही पवित्रता है। आदि- अनादि स्वरूप ही पवित्रता है। जब स्मृति आ गई कि मैं आदि-अनादि पवित्र आत्मा हूँ। स्मृति आना अर्थात् पवित्रता की समर्था आना। तो स्मृति स्वरूप, समर्थ स्वरूप आत्मायें तो निजी पवित्र संस्कार वाली - निजी संस्कार पवित्र हैं। संगदोष के संस्कार अपवित्रता के हैं। तो निजी संस्कारों को इमर्ज करना सहज है वा संगदोष के संस्कार इमर्ज करना सहज है? ब्राह्मण जीवन अर्थात् सहजयोगी और सदा के लिए पावन। पवित्रता ब्राह्मण जीवन के विशेष जन्म की विशेषता है। पवित्र संकल्प ब्राह्मणों की बुद्धि का भोजन है। पवित्र दृष्टि ब्राह्मणों के आँखों की रोशनी है। पवित्र कर्म ब्राह्मण जीवन का विशेष धन्धा है। पवित्र सम्बन्ध और सम्पर्क ब्राह्मण जीवन की मर्यादा है।
तो सोचो - कि ब्राह्मण जीवन की महानता क्या हुई? पवित्रता हुई ना! ऐसी महान चीज को अपनाने में मेहनत नहीं करो, हठ से नहीं अपनाओ। मेहनत और हठ निरन्तर नहीं हो सकता। लेकिन यह पवित्रता तो आपके जीवन का वरदान है, इसमें मेहनत और हठ क्यों? अपनी निजी वस्तु है। अपनी चीज को अपनाने में मेहनत क्यों? पराई चीज को अपनाने में मेहनत होती है। पराई चीज अपवित्रता है, न कि पवित्रता। रावण पराया है, अपना नहीं है। बाप अपना है, रावण पराया है। तो बाप का वरदान पवित्रता है रावण का श्राप अपवित्रता है। तो रावण पराये की चीज को क्यों अपनाते हो? पराई चीज अच्छी लगती है? अपनी चीज पर नशा होता है। तो सदा स्व-स्वरूप पवित्र है, स्वधर्म पवित्रता है अर्थात् आत्मा की पहली धारणा पवित्रता है। स्वदेश पवित्र देश है। स्वराज्य पवित्र राज्य है। स्व का यादगार परम पवित्र पूज्य है। कर्मेन्द्रियों का अनादि स्वभाव सुकर्म है, बस यही सदा स्मृति में रखो तो मेहनत और हठयोग से छूट जायेंगे। बापदादा बच्चों को मेहनत करते हुए नहीं देख सकते, इसलिए हो ही सब पवित्र आत्मायें। स्वमान में स्थित हो जाओ। स्वमान क्या है? - ‘‘मैं परम पवित्र आत्मा हूँ।'' सदा अपने इस स्वमान के आसन पर स्थित होकर हर कर्म करो। तो सहज वरदानी हो जायेंगे। यह सहज आसन है। तो सदा पवित्रता की झलक और फलक में रहो। स्वमान के आगे देह अभिमान आ नहीं सकता। समझा!
डबल विदेशी तो इसमें पास हो ना? हठयोगी तो नहीं हो? मेहनत वाले योगी तो नहीं हो? मुहब्बत में रहो तो मेहनत खत्म। लवलीन आत्मा बनो, सदा एक बाप दूसरा न कोई, यही नैचरल प्युरिटी है। तो यह गीत गाना नहीं आता है? यही गीत गाना सहज पवित्र आत्मा बनना है। अच्छा –
ऐसे सदा स्व-आसन के अधिकारी आत्मायें, सदा ब्राह्मण जीवन की महानता वा विशेषता को जीवन में धारण करने वाली आदि अनादि पवित्र आत्मायें, स्व स्वरूप, स्वधर्म, सुकर्म में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को वा परम पवित्र पूज्य आत्माओं को, पवित्रता के वरदान प्राप्त किये हुए महान आत्माओं को, बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
फ्रांस, ब्राजील तथा अन्य कुछ स्थानों से आये हुए विदेशी बच्चों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात –
(1) सभी अपने को सदा मास्टर सर्वशक्तिवान समझते हुए हर कार्य करते हो? सदा सेवा के क्षेत्र में अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान समझकर सेवा करेंगे तो सेवा में सफलता हुई पड़ी है क्योंकि वर्तमान समय की सेवा में सफलता का विशेष साधन है - ‘वृत्ति से वायुमण्डल बनाना'। आजकल की आत्माओं को अपनी मेहनत से आगे बढ़ना मुश्किल है इसलिए अपने वायब्रेशन द्वारा वायुमण्डल ऐसा पावरफुल बनाओ जो आत्मायें स्वत: आकर्षित होते आ जाएँ। तो सेवा की वृद्धि का फाउण्डेशन यह है - बाकी साथ-साथ जो सेवा के साधन हैं वह चारों ओर करने चाहिए। सिर्फ एक ही एरिया में ज्यादा मेहनत और समय नहीं लगाओ और चारों तरफ सेवा के साधनों द्वारा सेवा को फैलाओ तो सब तरफ निकले हुए चैतन्य फूलों का गुलदस्ता तैयार हो जायेगा।
(2) बापदादा खुशनसीब बच्चों को देख अति हर्षित होते हैं। हरेक रूहे गुलाब हैं। रूहे गुलाब ग्रुप अर्थात् रूहानी बाप की याद में लवलीन रहने वाला ग्रुप। सभी के चेहरे पर खुशी की झलक चमक रही है।
बापदादा एक-एक रत्न की वैल्यु को जानते हैं। एक-एक रत्न विश्व में अमूल्य रत्न है इसलिए बापदादा उसी विशेषता को देखते हुए हर रत्न की वैल्यु को देखते हैं। एक-एक रत्न अनेकों की सेवा के निमित्त बनने वाला है। सदा अपने को विजयी रत्न अनुभव करो। सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ हो क्योंकि जब बाप के बन गये तो विजय तो आपका जन्म सिद्ध अधिकार है। इसलिए यादगार भी ‘विजय माला' गाई और पूजी जाती है। सभी विजय माला के मणके हो ना? अभी फाइनल नहीं हुआ है इसलिए चांस है जो भी चाहे सीट ले सकते हैं।
(3) सदा अपने को हर गुण, हर शक्ति के अनुभवी मूर्त अनुभव करते हो? क्योंकि संगमयुग पर ही सर्व अनुभवी मूर्त बन सकते हो। जो संगम युग की विशेषता है उसको जरूर अनुभव करना चाहिए ना। तो सभी अपने को ऐसे अनुभवीमूर्त समझते हो? शक्तियाँ और गुण, दोनों ही बड़े खजाने हैं। तो कितने खजानों के मालिक बन गये हो? बापदादा तो सर्व खजाने बच्चों को देने के लिए ही आये हैं। जितना चाहो उतना ले सकते हो? सागर है ना! तो सागर अर्थात् अथाह। खुटने वाला नहीं। तो मास्टर सागर बने हो?
सबसे ज्यादा भाग्य विदेशियों का है। जो घर बैठे बाप का परिचय मिल गया है। इतना भाग्यवान अपने को समझते हो ना? बहुत लगन वाली आत्मायें हैं, स्नेही आत्मायें हैं। स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप बाप और बच्चों का मेला हो रहा है। हरेक अपने को सूर्यवंशी आत्मा समझते हो? पहले राज्य में आयेंगे वा दूसरे नम्बर के राज्य में आयेंगे? फर्स्ट राज्य में आने का एक ही पुरूषार्थ है, वह कौन सा? सदा एक की याद में रहकर एकरस अवस्था बनाओ तो वन-वन और वन में आ जायेंगे। अच्छा-
08-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"लंदन ग्रुप के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात"
अति मीठे, अति प्यारे बापदादा बोले:-
‘‘आज विशेष लंदन निवासी बच्चों से मिलन मनाने के लिए आये हैं। वैसे तो सभी बापदादा के लिए सदा प्रिय हैं, सभी को विशेष मिलने का चांस मिला है लेकिन आज निमित्त लंदन निवासियों से मिलना है। लंदन निवासी बच्चों ने सेवा में दिल व जान, सिक व प्रेम से अपना सहयोग दिया है और देते ही रहेंगे। स्व के उड़ती कला में भी अच्छा अटैन्शन है। नम्बरवार तो जहाँ-तहाँ हैं ही। फिर भी पुरूषार्थ की रफ्तार अच्छी है। (एक पक्षी उड़ता हुआ क्लास में आ गया) सभी उड़ना देखकर के खुश हो रहे हो। ऐसे ही स्वयं की भी उड़ती कला कितनी प्रिय होगी। जब उड़ते हो तो फ्री हो, स्वतन्त्र हो। और उड़ने के बजाए नीचे आ जाते हो तो बन्धन में आ जाते हो। उड़ती कला अर्थात् बन्धनमुक्त, योगयुक्त। तो लंदन निवासी क्या समझते हैं? उड़ती कला है ना? नीचे तो नहीं आते हो? अगर नीचे आते भी हो तो नीचे वालों को ऊपर ले जाने के लिए आते हो, वैसे नहीं आते। जो नीचे की स्टेज पर स्थित हैं उन्हों को हिम्मत और उल्लास दिला के उड़ाने के लिए सेवा के प्रति नीचे आये और फिर ऊपर चले गये, ऐसी प्रैक्टिस है? क्या समझते हो? लंदन निवासी ग्रुप सदा देह और देह की दुनिया की आकर्षण से न्यारे और सदा बाप के प्यारे हैं। इसको कहा जाता है - कमल-पुष्प समान। सेवा अर्थ रहते हुए भी ‘न्यारे और प्यारे'। तो न्यारा प्यारा ग्रुप है ना? लंदन से सारे विदेश के सेवा केन्द्रों का सम्बन्ध है। तो लंदन निवासी इस सेवा के वृक्ष का फाउण्डेशन हो गये। फाउण्डेशन कमजोर तो सारा वृक्ष कमजोर हो जायेगा। इसलिए फाउण्डेशन को सदा अपने ऊपर सेवा की जिम्मेवारी सहित अटेन्शन रखना है। वैसे तो हरेक के ऊपर अपनी और विश्व के सेवा की जिम्मेवारी है। उस दिन सुनाया था कि सब जिम्मेवारी के ताजधारी हैं। फिर भी आज लंदन निवासी बच्चों को विशेष अटैन्शन दिला रहे हैं। यह जिम्मेवारी का ताज सदा के लिए डबल लाइट बनाने वाला है। बोझ वाला ताज नहीं है। सर्व प्रकार के बोझ को मिटाने वाला है। अनुभवी भी हो कि जब तन-मन-धन, मंसा-वाचा-कर्मणा सब रूप से सेवाधारी बन, सेवा में बिजी रहते हो तो सहज ही मायाजीत जगतजीत बन जाते हो। देह का भान स्वत: ही, सहज ही भूला हुआ होता है? मेहनत नहीं करनी पड़ती। अनुभव है ना? सेवा के समय बाप और सेवा के सिवाए और कुछ नहीं सूझता। खुशी में नाचते रहते हो। तो यह जिम्मेवारी का ताज हल्का है ना? अर्थात् हल्का बनाने वाला है। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को ‘रूहानी सेवाधारी' का टाइटल विशेष याद दिलाते हैं। बापदादा भी रूहानी सेवाधारी बन कर के आते हैं। तो जो बाप का स्वरूप वह बच्चों का स्वरूप। तो सभी डबल विदेशी ताजधारी हो ना? बाप समान सदा रूहानी सेवाधारी। आँख खुली, मिलन मनाया और सेवा के क्षेत्र पर उपस्थित हुए। गुडमार्निंग से सेवा शुरू होती है और गुडनाइट तक सेवा ही सेवा है। जैसे निरन्तर योगी ऐसे ही निरन्तर रूहानी सेवाधारी। चाहे कर्मणा सेवा भी करते हो तो कर्मणा द्वारा भी रूहों को रूहानियत की शक्ति भरते हो क्योंकि कर्मणा के साथ-साथ मंसा सेवा भी करते हो। तो कर्मणा सेवा में भी रूहानी सेवा। भोजन बनाते हो तो रूहानियत का बल भोजन में भर देते हो, इसलिए भोजन ‘ब्रह्मा भोजन' बन जाता है। शुद्ध अन्न बन जाता है। प्रसाद के समान बन जाता है। तो स्थूल सेवा में भी रूहानी सेवा भरी है। ऐसे निरन्तर सेवाधारी, निरन्तर मायाजीत हो जाते हैं। विघ्न विनाशक बन जाते हैं। तो लंदन निवासी क्या हैं? - ‘निरन्तर सेवाधारी'। लंदन में माया तो नहीं आती है ना कि माया को भी लंदन अच्छा लगता है? अच्छा—
लंदन निवासी अभी क्या वरना चाहते हैं? अच्छे-अच्छे रतन हैं लंदन के। जगह-जगह पर गये हैं। वैसे सभी विदेश के सेवाकेन्द्र एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, ऐसे खुलते हैं। अभी टोटल कितने सेवाकेन्द्र हैं? (50) तो 50 जगह का फाउण्डेशन लंदन है। तो वृक्ष सुन्दर हो गया ना। जिस तना से 50 टाल टालियाँ निकले वह वृक्ष कितना सुन्दर हुआ। तो विदेश का वृक्ष भी विस्तार वाला अच्छा फलीभूत हो गया है। बापदादा भी बच्चों के, सिर्फ लंदन नहीं सभी बच्चों के सेवा का उंमग उत्साह देख खुश होते हैं। विदेश में लगन अच्छी है। याद की भी और सेवा की भी, दोनों की लगन अच्छी है। सिर्फ एक बात है कि माया के छोटे रूप से भी घबराते जल्दी हैं। जैसे यहाँ इंडिया में कई ब्राह्मण जो हैं, वे चूहे से भी घबराते हैं, काकरोच से भी घबराते हैं। तो सिर्फ विदेशी बच्चे इससे घबरा जाते हैं। छोटे को बड़ा समझ लेते हैं। लेकिन है कुछ नहीं। कागज के शेर को सच्चा शेर समझ लेते हैं। जितनी लगन है ना उतना घबराने के संस्कार थोड़ा-सा मैदान पर आ जाते हैं। तो विदेशी बच्चों को माया से घबराना नहीं चाहिए, खेलना चाहिए। कागज के शेर से खेलना होता है या घबराना होता है? खिलौना हो गया ना? खिलौने से घबराने वाले को क्या कहेंगे? जितनी मेहनत करते हो उस हिसाब से, डबल विदेशी सभी नम्बरवन सीट ले सकते हो क्योंकि दूसरे धर्म के पर्दे के अन्दर, डबल पर्दे के अन्दर बाप को पहचान लिया है। एक तो साधारण स्वरूप का पर्दा और दूसरा धर्म का भी पर्दा है। भारतवासियों को तो एक ही पर्दे को जानना होता है लेकिन विदेशी बच्चे दोनों पर्दे के अन्दर जानने वाले हैं। हिम्मत वाले भी बहुत हैं, असम्भव को सम्भव भी किया है। जो क्रिश्चियन या अन्य धर्म वाले समझते हैं कि हमारे धर्म वाले ब्राह्मण कैसे बन सकते, असम्भव है। तो असम्भव को सम्भव किया है, जानने में भी होशियार, मानने में भी होशियार हैं। दोनों में नम्बर वन हो। बाकी चल करके चूहा आ जाता है तो घबरा जाते हो। है सहज मार्ग लेकिन अपने व्यर्थ संकल्पों को मिक्स करने से सहज भी मुश्किल हो जाता है। तो इसमें भी जम्प लगाओ। माया को परखने की आँख तेज करो। मिसअन्डरस्टैन्ड कर लेते हो। कागज को रीयल समझ लेना मिसअन्डरस्टैडिंग हो गई ना। नहीं तो डबल विदेशियों की विशेषता भी बहुत हैं। सिर्फ एक यह कमज़ोरी है - बस। फिर अपने ऊपर हँसते भी बहुत हैं, जब जान लेते हैं कि यह कागज का शेर है, रीयल नहीं है तो हँसते हैं। चेक भी कर लेते, चेन्ज भी कर लेते लेकिन उस समय घबराने के कारण नीचे आ जाते हैं या बीच में आ जाते हैं। फिर ऊपर जाने के लिए मेहनत करते तो सहज के बजाए मेहनत का अनुभव होता है। वैसे जरा भी मेहनत नहीं है। बाप के बने, अधिकारी आत्मा बने, खजाने के, घर के, राज्य के मालिक बने और क्या चाहिए? तो अभी क्या करेंगे? घबराने के संस्कारों को यहाँ ही छोड़कर जाना। समझा! बापदादा भी खेल देखते रहते हैं, हँसते रहते हैं। बच्चे गहराई में भी जाते हैं लेकिन गहराई के साथ-साथ कहाँ-कहाँ घबराते भी हैं। लास्ट सो फास्ट के भी संस्कार हैं। पहले विदेशियों में विशेष फँसने के संस्कार थे अभी हैं फास्ट जाने के संस्कार। एक में नहीं फँसते हैं लेकिन अनेकों में फँस जाते हैं। एक ही लाइफ में कितने पिंजरे होते हैं? एक पिंजरे से निकलते दूसरे में फँसते, दूसरे से निकलते तीसरे में फँसते। तो जितना ही फँसने के संस्कार थे उतना ही फास्ट जाने के संस्कार हैं। सिर्फ एक बात है, छोटी चीज को बड़ा नहीं बनाओ। बड़े को छोटा बनाओ। यह भी होता है क्या? यह क्वेश्चन नहीं। यह क्या हुआ? ऐसे भी होता है? इसके बजाए जो होता है, कल्याणकारी है। क्वेश्चन खत्म होने चाहिए। फुलस्टाप। बुद्धि को इसमें ज्यादा नहीं चलाओ नहीं तो एनर्जी वेस्ट चली जाती है और अपने को शक्तिशाली नहीं अनुभव करते। क्वेश्चन मार्क ज्यादा होते हैं। तो अब मधुबन की वरदान भूमि में क्वेश्चन मार्क खत्म करके, फुलस्टाप लगा के जाओ। क्वेश्चन मार्क मुश्किल है, फुलस्टाप सहज है। तो सहज को छोड़कर मुश्किल को क्यों अपनाते हो! उसमें एनर्जी वेस्ट है और फुलस्टाप में लाइफ ही बैस्ट हो जायेगी। वहाँ वेस्ट वहाँ बैस्ट। तो क्या करना चाहिए? अभी वेस्ट नहीं करना। हर संकल्प बैस्ट, हर सेकण्ड बैस्ट। अच्छा लंदन निवासियों के साथ-साथ की रूह- रूहान हो गई।
लंदन के सभी सिकीलधे बच्चों को बापदादा का पद्मापद्मगुणा यादप्यार स्वीकार हो। साकार में मधुबन में नहीं पहुँचे हैं लेकिन बापदादा सदा बच्चों को सम्मुख देखते हैं।
जो भी सर्विसएबुल बच्चे हैं, एक-एक का नाम क्या लें, जो भी सभी हैं, सभी सहयोगी आत्मायें हैं, सभी बेफिकर बन फखुर में रहना क्योंकि सबका साथी स्वयं बाप है। अच्छा- सभी को यादप्यार स्वीकार।
10-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"कर्मातीत स्टेज की व्याख्या"
सदा कर्मबन्धन मुक्त शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा ‘राज्य सभा' को देख रहे हैं। हरेक बच्चा स्वराज्य अधिकारी, अपने नम्बरवार ‘कर्मातीत स्टेज' के तख्त अधिकारी हैं। वर्तमान संगमयुगी स्वराज्य अधिकारी आत्माओं का आसन कहो वा सिंहासन कहो, वह है - ‘कर्मातीत स्टेज'। कर्मातीत अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बन्धनों से अतीत। कर्मों के वशीभूत नहीं लेकिन कर्मेन्द्रियों द्वारा हर कर्म करते हुए अधिकारीपन के नशे में रहने वाले। बापदादा हर बच्चे के नम्बरवार राज्य अधिकार के हिसाब से नम्बरवार सभा देख रहे हैं। तख्त भी नम्बरवार है और अधिकार भी नम्बरवार है। कोई सर्व अधिकारी है और कोई - अधिकारी है। जैसे भविष्य में विश्वमहाराजा और महाराजा - अन्तर है। ऐसे यहाँ भी सर्व कर्मेन्द्रियों के अधिकारी अर्थात् सर्व कर्मों के बन्धन से मुक्त - इसको कहा जाता है ‘सर्व अधिकारी'। और दूसरे ‘सर्व' नहीं, लेकिन अधिकारी हैं। तो दोनों ही नम्बर की तख्तनशीन दरबार देख रहे हैं। हरेक राज्य अधिकारी के मस्तक पर बहुत सुन्दर रंग-बिरंगी मणियाँ चमक रही हैं। यह मणियाँ हैं - ‘दिव्य गुणों' की। जितना-जितना दिव्य गुणधारी बने हो उतनी ही मणियाँ मस्तक पर चमक रही हैं। किसकी ज्यादा हैं, किसकी कम है। चमक भी हरेक की अपनी-अपनी है। ऐसा अपना राज्य सभा का राज्य अधिकारी चित्र के दर्पण नालेज में दिखाई दे रहा है? सभी के पास दर्पण तो है। कर्मातीत चित्र देख सकते हो ना? देख रहे हो अपना चित्र? कितनी सुन्दर ‘राज्य सभा' है। कर्मातीत स्टेज का तख्त कितना श्रेष्ठ तख्त है। इसी स्टेज की अधिकारी आत्मायें अर्थात् तख्तनशीन आत्मायें विश्व के आगे ईष्ट देव के रूप में प्रत्यक्ष होंगी। स्वराज्य अधिकारी सभा अर्थात् इष्ट देव सभा। सभी अपने को ऐसे इष्ट देव आत्मा समझते हो? ऐसे परम पवित्र, सर्व प्रति रहमदिल, सर्व प्रति मास्टर वरदाता, सर्व प्रति मास्टर रूहानी स्नेह सागर, सर्व प्रति शुभ भावनाओं के सागर, ऐसे पूज्य इष्ट देव आत्मा हो। सभी ब्राह्मण आत्माओं में नम्बरवार यह सब संस्कार समाये हुए हैं। लेकिन इमर्ज रूप में अभी तक कम हैं। अभी इस इष्ट देवात्मा के संस्कार इमर्ज करो। वर्णन करने के साथ ‘स्मृति स्वरूप' सो समर्थ स्वरूप बन, स्टेज पर आओ। इस वर्ष में सर्व आत्मायें यही अनुभव करें कि जिन्हें हम ढूँढते हैं, जिन आत्माओं को हम चाहते हैं, जिन श्रेष्ठ आत्माओं से हम कुछ चाहना रखते थे, वही श्रेष्ठ आत्मायें, यही हैं। सबके मुख से वा मन से यही आवाज निकले, कि यह वही हैं। ऐसे अनुभव करें - बस, इन्हों से मिले तो बाप से मिले। जो कुछ मिला है, इन्हों द्वारा ही मिला है। यही मास्टर हैं, गाइड हैं, एंजिल हैं, मैसेन्जर हैं। बस यही हैं, यही हैं, और वही हैं - यह धुन सबके अन्दर लग जाए। इन्हीं दो शब्दों की धुन हो -’’यही हैं और वही हैं''। मिल गये-मिल गये...यह खुशी की तालियाँ बजायें। ऐसे अनुभव कराओ। ऐसी अनुभूति कराने के लिए विशेष अष्ट शक्ति स्वरूप, अलंकारी शक्ति स्वरूप चाहिए। लेकिन शक्ति स्वरूप भी माँ के स्वरूप में चाहिए। आजकल सिर्फ शक्ति स्वरूप से भी सन्तुष्ट नहीं होंगे लेकिन ‘शक्ति माँ'। जो प्रेम और पालना देकर हर बाप के बच्चे को खुशी के झूले में झुलायें। तब बाप के वर्से के अधिकारी बन सकें। बाप से मिलाने के योग्य बनाने में आप निमित्त शक्ति के रूप में ऐसा पवित्र प्रेम और अपनी प्राप्तियों द्वारा श्रेष्ठ पालना दो, योग्य बनाओ अर्थात् योगी बनाओ। मास्टर रचयिता बनना तो सबको आता है। अल्पकाल प्राप्ति कराने वाले नामधारी जो महान आत्मायें हैं, वे भी रचना तो बहुत रच लेते हैं, प्रेम भी देते हैं लेकिन पालना नहीं दे सकते हैं। इसलिए फालोअर्स बन जाते हैं लेकिन पालना से बड़ा कर बाप से मिलायें अर्थात् पालना द्वारा बाप के अधिकारी योग्य आत्मा बनायें, यह नहीं कर सकते हैं। इसलिए फालोअर्स ही रह जाते, बच्चे नहीं बनते। बाप के वर्से के अधिकारी नहीं बनते हैं। ऐसे ही आप ब्राह्मण आत्माओं में भी रचना बहुत जल्दी रच लेते हो अर्थात् निमित्त बनते हो लेकिन प्रेम और पालना द्वारा उन आत्माओं को अविनाशी वर्से के अधिकारी बनाना, इसमें बहुत कम योग्य आत्मायें हैं। जैसे लौकिक जीवन में माँ बच्चे को पालना द्वारा शक्तिशाली बनाती है, जिससे वह सदा किसी भी समस्या का सामना कर सके। सदा तन्दुरूस्त रहे, सम्पत्तिवान रहे। ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें जगत माता बन एक दो आत्माओं की माँ नहीं, ‘जगत माँ', बेहद की माँ बन, मन से ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो सदा आत्मायें अपने को विघ्न विनाशक, शक्ति सम्पन्न, हेल्दी और वेल्दी अनुभव करें। अब ऐसी पालना की आवश्यकता है। ऐसी पालना वाले बहुत कम हैं। परिवार का अर्थ ही है - ‘प्रेम और पालना' की अनुभूति कराना। इसी पालना की प्यासी आत्मायें हैं। तो समझा, इस वर्ष क्या करना है?
सबके मुख से यही निकले कि हमारे समीप के सम्बन्धी हमें मिल गये हैं। पहले रिलेशन की अनुभूति कराओ फिर कनेक्शन सहज हो जायेगा। ‘‘हमारे हमको मिल गये'' - ऐसी लहर चारों ओर फैल जाए। तब मुख से निकलेगा - जिन्हें पाना था वह पा लिया। जैसे बाप को भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से आप अधिकारी आत्मायें अनुभव करती हो। ऐसे वो तड़पती हुई आत्मायें यही अनुभव करें कि जो कुछ मिलना हैं, जो कुछ पाना है, इन्हीं द्वारा ही मिलना है, पाना है। फिर नाम भिन्न-भिन्न कहेंगे। ऐसे वायुमण्डल बनाओ। माँ भी बच्चे को बाप का परिचय स्वयं ही देती है। माँ ही बच्चे को बाप से मिलाती है। अपने तक नहीं बनाना है लेकिन बाप से कनेक्शन जोड़ने योग्य बनाना है। सिर्फ माँ-माँ कहते रहें, ऐसे छोटे बच्चे नहीं बनाना। लेकिन बाबा-बाबा सिखाना। वर्से के अधिकारी बनाना। समझा?
जैसे बाप के लिए सबके मुख से एक ही आवाज निकलती है -’’मेरा बाबा''। ऐसे आप हर श्रेष्ठ आत्मा के प्रति यह भावना हो, महसूसता हो, जो हरेक समझे कि यह - ‘मेरी माँ' है। यह बेहद की पालना। हरेक से मेरे-पन की भावना आये। हरेक समझे कि यह मेरे शुभचिन्तक, सहयोगी सेवा के साथी हैं। इसको कहा जाता है - ‘बाप समान'। इसको ही कहा जाता है - कर्मातीत स्टेज के तख्तनशीन। जो सेवा के कर्म के भी बन्धन में न आओ। हमारा स्थान, हमारी सेवा, हमारे स्टूडेन्ट, हमारी सहयोगी आत्मायें, यह भी सेवा के कर्म का बन्धन है। इस कर्मबन्धन से - ‘कर्मातीत'। तो समझा - इस वर्ष क्या करना है? कर्मातीत बनना है और ‘‘यह वही हैं, यही सब कुछ हैं,'' यह महसूसता दिलाए, आत्माओं को समीप लाना है। ठिकाने पर लाना है। अपने प्रति भी सुनाया और सेवा के प्रति भी सुनाया। अच्छा - सबका संकल्प था ना कि अभी क्या करना है? कौन-सी लहर फैलानी है। अच्छा-
ऐसे स्वराज्य अधिकारी, कर्मातीत स्टेज के तख्तनशीन, सर्व को समीप सम्बन्ध की अनुभूति कराने वाले, बेहद की प्रेम भरी पालना देने वाले, ऐसे इष्ट देव आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
शक्ति सेना को देख बाप अति हर्षित होते हैं, शक्तियाँ सदा बाप की साथी हैं इसीलिए गायन ही है - ‘शिव शक्ति'। शक्तियों के साथ बाप का भी यादगार है तो कम्बाइण्ड हो गई ना! शक्ति - शिव से अलग नहीं, शिव -शक्ति से अलग नहीं। ऐसे कम्बाइण्ड। एक-एक जगतजीत हो, कम नहीं हो। सारे जगत पर जीत पाती हो। जगत पर राज्य करना है ना! उस सेना में टुकड़ियाँ होती हैं, दो टुकड़ी, चार टुकड़ी। यहाँ बेहद है। बेहद बाप की सेना और बेहद के ऊपर विजय। बापदादा को भी खुशी होती है, एक-एक बच्चा हद का नहीं, बेहद का मालिक है।
सभी बच्चे, बाप के मुख हो ना? बाप के मुख अर्थात् मुख द्वारा बाप का परिचय देने वाले। इसलिए ‘गऊ मुख' का भी गायन है। सदा मुख द्वारा ‘बाबा-बाबा' निकलता है, तो मुख का भी महत्व हो गया ना!
बापदादा सभी बच्चों को बाप के घर का और बाप का श्रृंगार कहते हैं, तो बाप के घर का श्रृंगार जा रहे हो, औरों को श्रृंगार कराने के लिए। कितनों को श्रृंगार करके लायेंगे? एक-एक को बाप के आगे गुलदस्ता लाना पड़ेगा। सभी रत्न अमूल्य हो क्योंकि बाप को जाना और बाप से सब कुछ पाया। तो सदा अपने को इसी खुशी में रखना और सबको यही खुशी बाँटते रहना। अच्छासंगम युग है ही चलने और चलाने का युग। किसी भी बात में रूकना नहीं है। चलने, चलाने में अपना और सर्व का कल्याण है। संगम पर बापदादा सदा आपके साथ हैं। क्योंकि अभी ही बाप बच्चों के आगे हाजर-नाज़र होते हैं। याद किया और हाजर हुए। देखते हुए न देखो, सुनते हुए न सुनो, बाप की सुनो तो चलते चलेंगे। अच्छा
12-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“विश्व का उद्धार आधारमूर्त्त आत्माओं पर निर्भर”
अव्यक्त बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा विश्व की आधारमूर्त्त आत्माओं को देख रहे हैं। सर्वश्रेष्ठ आत्मा विश्व के आधारमूर्त्त हो। आप श्रेष्ठ आत्माओं की ही चढ़ती कला वा उड़ती कला होती है तो सारे विश्व का उद्धार करने के निमित्त बन जाते हो। सर्व आत्माओं की जन्म-जन्मान्तर की आशायें, मुक्ति वा जीवनमुक्ति प्राप्त करने की, स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं। आप श्रेष्ठ आत्मायें मुक्ति अर्थात् अपने घर का गेट खोलने के निमित्त बनती हो तो सर्व आत्माओं को स्वीट होम का ठिकाना मिल जाता है। बहुत समय का दु:ख और अशान्ति समाप्त हो जाती है क्योंकि शान्तिधाम के निवासी बन जाते हैं। जीवनमुक्ति के वर्से से वंचित आत्माओं को वर्सा प्राप्त हो जाता है। इसके निमित्त अर्थात् आधारमूर्त्त श्रेष्ठ आत्मायें, बाप - आप बच्चों को ही बनाते हैं। बापदादा सदा कहते - पहले बच्चे पीछे हम। आगे बच्चे पीछे बाप। ऐसे ही सदा चलाते आये हैं। ऐसे विश्व के आधारमूर्त्त अपने को समझकर चलते हो? बीज के साथ-साथ वृक्ष की जड़ में आप आधारमूर्त्त श्रेष्ठ आत्मायें हो। तो बापदादा ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं से मिलन मनाने के लिए आते हैं। ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें हो जो निराकार और आकार को भी आप समान साकार रूप में लाते हो। तो कितने श्रेष्ठ हो गये। ऐसे अपने को समझते हुए हर कर्म करते हो? इस समय स्मृति स्वरूप से सदा समर्थ स्वरूप हो ही जायेंगे। यह एक अटेन्शन स्वत: ही हद के टेन्शन को समाप्त कर देता है। इस अटेन्शन के आगे किसी भी प्रकार का टेन्शन, अटेन्शन में परिवर्तित हो जायेगा। और इसी स्व-परिवर्तन से विश्व परिवर्तन सहज हो जायेगा। यह अटेन्शन ऐसा जादू का कार्य करेगा जो अनेक आत्माओं के अनेक प्रकार के टेन्शन को समाप्त कर बाप तरफ अटेन्शन खिंचवायेगा। जैसे आजकल साइंस के अनेक साधन ऐसे हैं - स्विच आन करने से चारों ओर का किचड़ा, गंदगी अपने तरफ खींच लेते हैं। चारों ओर जाना नहीं पड़ता लेकिन पावर द्वारा स्वत: ही खिंच जाता है। ऐसे साइलेंस की शक्ति द्वारा, इस अटेन्शन के समर्थ स्वरूप द्वारा, अनेक आत्माओं के टेन्शन समाप्त कर देंगे अर्थात् वे आत्मायें अनुभव करेंगी कि हमारा टेन्शन जो अनेक तरह से बहुत समय से परेशान कर रहा था वह कैसे समाप्त हो गया! किसने समाप्त किया! इसी अनुभूति द्वारा अटेन्शन जायेगा-शिव शक्ति कम्बाइण्ड रूप की तरफ।
तो टेन्शन अटेन्शन में बदल जायेगा ना! अभी तो बार-बार अटेन्शन दिलाते हो-’’याद करो-याद करो'' लेकिन जब आधारमूर्त्त शक्तिशाली स्वरूप में स्थित हो जायेंगे तो दूर बैठे भी अनेकों के टेन्शन को खींचने वाले, सहज अटेन्शन खिंचवाने वाले, सत्य तीर्थ बन जायेंगे। अभी तो आप ढूंढने जाते हो। ढूँढने के लिए कितने साधन बनाते हो और फिर वे लोग आपको ढूँढने आयेंगे। वा सदा आप ही ढूँढते रहेंगे?
साइंस भी श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी है। थोड़ी-सी हलचल होने दो और स्वयं को अचल बना दो, फिर देखो आप रूहानी चुम्बक बन अनेक आत्माओं को कैसे सहज खींच लेंगे! क्योंकि दिन प्रतिदिन आत्मायें ऐसी निर्बल होती जायेंगी जो अपने पुरूषार्थ के पाँव से चलने योग्य भी नहीं होंगी। ऐसी निर्बल आत्माओं को, आप शक्ति स्वरूप आत्माओं की शक्ति अपने शक्ति के पाँव दे करके चलायेंगी अर्थात् बाप के तरफ खींच लेगी।
ऐसी सदा उड़ती कला के अनुभवी बनो तो अनेक आत्माओं को दुख, अशान्ति की स्मृति से उड़ाकर ठिकाने पर पहुँचा दो। अपने पंखो से उड़ना पड़ेगा। पहले स्वयं ऐसे समर्थ स्वरूप होंगे तब सत्य तीर्थ बन इन अनेकों को पावन बनाए, मुक्ति अर्थात् स्वीट होम की प्राप्ति करा सकेंगे। ऐसे आधारमूर्त्त हो।
तो आज बापदादा ऐसे आधारमूर्त्त बच्चों को देख रहे हैं। अगर आधार ही हिलता रहेगा तो औरों का आधार कैसे बन सकेंगे? इसलिए आप अचल बनो तो दुनिया में हलचल शुरू हो जाए। और जरा-सी हलचल अनेकों को बाप तरफ सहज आकर्षित करेगी। एक तरफ कुम्भकरण जागेंगे, दूसरे तरफ कई आत्मायें जो सम्बन्ध वा सम्पर्क में भी आई हैं लेकिन अभी अलबेलेपन की नींद में सोई हुई हैं, तो ऐसे अलबेलेपन की नींद में सोई हुई आत्मायें भी जागेंगी। लेकिन जगाने वाले कौन? आप अचल मूर्त्त आत्मायें। समझा! सेवा रूप ऐसे बदलने वाला है। इसके लिए शिव-शक्ति स्वरूप। अच्छा-
ऐसे सदा शान्ति और शक्ति स्वरूप, अपने समर्थ स्थिति द्वारा अनेकों को स्मृति दिलाने वाले, टेन्शन समाप्त कर अटेन्शन खिंचवाने वाले, ऐसे आधारमूर्त्त विश्व परिवर्तक बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
‘‘18 जनवरी स्मृति दिवस की सर्व बच्चों को यादप्यार देते हुए अव्यक्त बापदादा बोले'' –
‘‘18 जनवरी की यादप्यार तो है ही 18 अध्याय का समर्था स्वरूप। 18 जनवरी क्या याद दिलाती है? - ‘सम्पन्न फरिश्ता स्वरूप'। फालो फादर का पाठ हर सेकण्ड, हर संकल्प में स्मृति दिलाता है। ऐसे ही अनुभवी हो ना? 18 जनवरी के दिवस सब कहाँ होते हैं? साकार वतन में वा आकारी फरिश्तों के वतन में? तो 18 जनवरी सदा फरिश्ता स्वरूप, सदा फरिश्तों के दुनिया की स्मृति दिलाती है अर्थात् समर्थ स्वरूप बनाती है। है ही याद दिवस। तो याद स्वरूप बनने का दिन है। तो समझा। 18 जनवरी क्या है? ऐसे सदा बनना। यही स्मृति बार-बार दिलाती है। तो 18 जवनरी का यादप्यार हुआ -’’बाप समान बनना'' ‘‘सम्पन्न स्वरूप बनना''। अच्छा-
सभी को पहले से ही स्मृति की यादप्यार पहुँच ही जायेगी। अच्छा।
14-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“कर्मेन्द्रिय जीत ही विश्व राज्य अधिकारी”
राजऋषि आत्माओं के प्रति बापदादा बोले-
‘‘आवाज में आने के लिए वा आवाज को सुनने के लिए कितने साधन अपनाते हो? बापदादा को भी आवाज में आने के लिए शरीर के साधन को अपनाना पड़ता है। लेकिन आवाज से परे जाने के लिए इस साधनों की दुनिया से पार जाना पड़े। साधन इस साकार दुनिया में है। बापदादा के सूक्ष्म वतन वा मूल वतन में कोई साधनों की आवश्यकता नहीं है। सेवा के अर्थ आवाज में आने के लिए कितने साधनों को अपनाते हो? लेकिन आवाज से परे स्थिति में स्थित होने के अभ्यासी सेकण्ड में इन सबसे पार हो जाते हैं। ऐसे अभ्यासी बने हो? अभी-अभी आवाज में आये, अभी-अभी आवाज से परे। ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर, रूलिंग पावर अपने में अनुभव करते हो? संकल्प शक्ति को भी, जब चाहो तब संकल्प मे आओ, विस्तार में आओ, जब चाहो तब विस्तार को फुलस्टाप में समा दो। स्टार्ट करने की और स्टाप करने की - दोनों ही शक्तियाँ समान रूप में हैं?
हे कर्मेन्द्रियों के राज्यधारी, अपनी राज्य सत्ता अनुभव करते हो? राज्य सत्ता श्रेष्ठ है वा कर्मेन्द्रियों अर्थात् प्रजा की सत्ता श्रेष्ठ है? प्रजा पति बने हो? क्या अनुभव करते हो? स्टाप कहा और स्टाप हो गया। ऐसे नहीं कि आप कहो स्टाप और वह स्टार्ट हो जाए। सिर्फ हर कर्मेंन्द्रिय की शक्ति को आँख से इशारा करो तो इशारे से ही जैसे चाहो वैसे चला सको। ऐसे कर्मेन्द्रिय जीत बनें तब फिर प्रकृतिजीत बन कर्मातीत स्थिति के आसनधारी सो विश्व राज्य अधिकारी बनो। तो अपने से पूछो - पहली पौढ़ी - कर्मेंन्द्रिय जीत बने हैं? हर कर्मेंन्द्रिय ‘‘जी हजूर'' ‘‘जी हाजर'' करती हुई चलती है? आप राज्य अधिकारियों का सदा स्वागत अर्थात् सलाम करती रहती हैं? राजा के आगे सारी प्रजा सिर झुकाकर सलाम करती है?
हे राज्य अधिकारी, आप सबकी राज्य कारोबार कैसी है? मंत्री, उपमंत्री कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? चैक करते हो अपनी राज्य कारोबार को? राज्य दरबार रोज लगाते हो या कभी-कभी? क्या करते हो? राज्य अधिकारी के यहाँ के संस्कार भविष्य में कार्य करेंगे। चैक करते हो कि वर्तमान समय मुझ आत्मा के राजवंश के संस्कार हैं? वा प्रजा के संस्कार हैं? वा स्टेट के राज्य अधिकारी के संस्कार हैं अर्थात् हद के राज्य अधिकारी के संस्कार हैं वा बेहद विश्व महाराजन के संस्कार हैं वा उनसे भी लास्ट पद दास-दासी के संस्कार हैं? साकार में भी सुनाया था कि दास-दासी बनने की निशानी क्या है? जो किसी भी समस्या वा संस्कार के अधीन बन उदास रहता है तो उदास वा उदासी ही निशानी है -दास दासी बनना। तो मैं कौन? यह स्वयं ही स्वयं को चैक करो। कहाँ किसी भी प्रकार की उदासी की लहर तो नहीं आती? उदास अर्थात् अभी भी दास हैं तो ऐसे को राज्य अधिकारी कैसे कहेंगे?
इसी तरह से साहूकार प्रजा भी होगी। तो यहाँ भी कई राजे नहीं बने हैं लेकिन साहूकार बने हैं क्योंकि ज्ञान रत्नों का खजाना बहुत है, सेवा कर पुण्य का खाता भी जमा बहुत है। लेकिन समय आने पर स्वयं को अधिकारी बनाकर सफलतामूर्त्त बन जाएं, वह कन्ट्रोलिंग पावर और रूलिंग पावर नहीं है अर्थात् नालेजफुल हैं लेकिन पावरफुल नहीं हैं। शस्त्रधारी हैं लेकिन समय पर कार्य में नहीं ला सकते हैं। स्टाक है लेकिन समय पर न स्वयं यूज़ कर सकते और न औरों को यूज़ करा सकते हैं। विधान आता है लेकिन विधी नहीं आती। ऐसे भी संस्कार वाली आत्माएं हैं अर्थात् साहूकार संस्कार वाली हैं। जो राज्य अधिकारी आत्माओं के सदा समीप के साथी जरूर होते हैं लेकिन स्व अधिकारी नहीं होते। समझा? अभी आप ही सोचो कि वर्तमान समय अब तक मैं कौन बना हूँ? अभी भी बदल सकते हो। अभी भी फाइनल सीट के सेटिंग की सीटी नहीं बजी है। फुल चांस है। लेकिन औरों को भी क्या कहते हो? अब नहीं तो कब नहीं क्योंकि कुछ समय के पहले के संस्कार चाहिए। लास्ट समय के नहीं। इसलिए डबल विदेशी ग्रुप, गोल्डन चांस लेने वाले चांसलर ग्रुप बनो। तो सब कौन से ग्रुप के हो? अच्छा –
आज अमेरिका और आस्ट्रेलिया का टर्न है तो दोनों ही कौन-सा ग्रुप हो? कौन-सा ग्रुप लाई हो? आस्ट्रेलिया वाले क्या समझते हैं? चांसलर्स ग्रुप है? आस्ट्रेलिया की शक्तियाँ क्या समझती हैं? शक्ति दल भी कम नहीं है। पाण्डव हैं तो शक्तियाँ, शक्तियाँ है। दोनों ही अपनी रफ्तार से चल रहे हैं। आस्ट्रेलिया में शक्तियाँ ज्यादा हैं या पाण्डव? (दोनों समान हैं।) शक्तियाँ थोड़ी रेस्ट कर रही हैं - फिर ज्यादा उड़ेगी ना, इसलिए रेस्ट कर रही हैं। बाकी जाना तो नम्बरवन है। ऐसे कई करते हैं, बीच में थोड़ी रेस्ट लेकर के फिर फास्ट जाते हैं और मंजिल पर पहुँच जाते हैं। अच्छा –
सदा कर्मेन्द्रिय जीत, प्रकृति जीत, सूक्ष्म संस्कार जीत अर्थात् मायाजीत, स्वराज्य अधिकारी, सो विश्व राज्य अधिकारी ऐसे राज्य वंशी, राजऋषि आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
आस्ट्रेलिया पार्टी से - बापदादा को आप लोगों से ज्यादा बच्चों की याद आती रहती है? बापदादा भी रोज बच्चों की माला स्मरण करते हैं। आप कभी मिस भी करो, बापदादा मिस नहीं करेंगे। हरेक मणके का अपना-अपना नम्बर है। हैं तो माला में। कितने बार बापदादा ने आप सबकी माला स्मरण की होगी? आस्ट्रेलिया वालों के ऊपर तो बापदादा को सदा ही नाज़ है - क्यों? क्योंकि आस्ट्रेलिया निवासियों ने बाप को पहचान अपना बनाने में नम्बरवन रिकार्ड दिखाया है। संख्या में देखो, वृद्धि में देखो, क्वालिटी में देखो, सबमें आगे है। और अच्छी तरह से सम्भाल रहे हैं। इसलिए आस्ट्रेलिया कम नहीं है, लंदन में फिर भी भारतवासी आत्मायें ज्यादा हैं लेकिन आस्ट्रेलिया में सब पर्दे के अन्दर छिपे हुए बाप को पहचानने में नम्बरवन हैं। इसलिए बापदादा को प्रिय हैं। समझा –
2- आस्ट्रेलिया निवासी सब अपने को डबल लाइट स्वरूप अनुभव करते हो? डबल लाइट अर्थात् सदा हर समस्या को सहज पार करने वाले। ऐसे अनुभव करते हो? शक्तियाँ क्या सोच रही हैं? शक्तियाँ सोचती हैं कि कोई ऐसा मधुबन से वरदान लेकर के जाएं जो जाते ही विजय का झण्डा लहरायें। आस्ट्रेलिया निवासियों के प्रति बापदादा सदा महिमा के पुष्प चढ़ाते हैं क्योंकि पहले-पहले सर्विस की वृद्धि का सबूत आस्ट्रेलिया निवासियों का है। लंदन में भी सेवा की वृद्धि तो हुई है लेकिन कई वृक्ष में जैसे शाखा ही तना बन जाता है। ऐसे आस्ट्रेलिया भी निकला लण्डन से ही है लेकिन अभी तना बन गया है। यह भी विशेषता है ना। सदा सब में राजी रहने वाले हो। राजी रहना अर्थात् सब राज़को जान लेना। इसलिए मैजारिटी सन्तुष्ट आत्माएं हो। सन्तुष्ट मणियाँ हो। कैसा भी वायुमण्डल में हलचल हो लेकिन आप सदा अचल रहने वाले हो ना? क्योंकि बाप के साथ रहने वाले हो। जैसे बाप सदा अचल है वैसे साथ रहने वाले भी अचल ही होंगे ना!
सानफ्रान्सिसको - सभी ब्रह्माकुमार और कुमारियों का विशेष कर्त्तव्य क्या है? ब्रह्मा बाप का विशेष कर्त्तव्य क्या है? ब्रह्मा का कर्त्तव्य ही है - नई दुनिया की स्थापना। तो ब्र.कु. और कुमारियों का विशेष कर्त्तव्य क्या हुआ? स्थापना के कार्य में सहयोगी। तो जैसे अमेरिका में विनाशकारियों के विनाश की स्पीड बढ़ती जा रही है। ऐसे स्थापना के निमित्त बच्चों की स्पीड भी तीव्र है? वे तो बहुत फास्ट गति से विनाश के लिए तैयार हैं। ऐसे आप सभी भी स्थापना के कार्य में इतने एवररेडी तीव्रगति से जा रहे हो? उन्हों की स्पीड तेज है या आपकी तेज है? वो 15 सेकण्ड में विनाश के लिए तैयार हैं और आप - एक सेकण्ड में? क्या गति है? सेकण्ड में स्थापना का कार्य अर्थात् सेकण्ड में दृष्टि दी और सृष्टि बन गई - ऐसी स्पीड है? तो सदा स्थापना के निमित्त आत्माओं को यह स्मृति रखनी चाहिए कि हमारी गति विनाशकारियों से तेज हो क्योंकि पुरानी दुनिया के विनाश का कनेक्शन नई दुनिया की स्थापना के साथ-साथ है। पहले स्थापना होनी है या विनाश? स्थापना की गति पहले तेज होनी चाहिए ना! स्थापना की गति तेज करने का विशेष आधार है - सदा अपने को पावरफुल स्टेज पर रखो। नालेजफुल के साथ-साथ पावरफुल, स्टेज पर रखो। नालेजफुल के साथ-साथ पावरफुल दोनों कम्बाइन्ड हो। तब स्थापना का कार्य तीव्रगति से होगा। तो कहाँ से तीव्रगति का फाउन्डेशन पड़ेगा? अमेरिका से। अमेरिका में भी 4-5 सेवाकेन्द्र हैं। तो सभी यह लक्ष्य रखना कि नम्बरवन हम ही जाएंगे! तो आपके सेन्टर द्वारा पहले-पहले आत्मिक बाम्ब चलेगा ना? उससे क्या होगा? सभी बाप के परिचय को जान लेंगे। जैसे उस बाम्ब से विनाश होता है ना! तो इस आत्मिक बाम्ब से अंधकार का विनाश हो जायेगा। तो यह बाम्ब छोड़ने की कौन-सी तारीख है? वह गवर्मेन्ट भी डेट बतलाती है ना कि इस तारीख को रिहर्सल होगी, तो आपके रिहर्सल की डेट कब होगी? अच्छा –
विदेश की टीचर्स बहनों ने अव्यक्त बाप दादा के साथ पिकनिक की
पिकनिक हो गई? सुनते तो रहते ही हो? कभी खाएंगे, कभी सुनेंगे...यही तो ईश्वरीय परिवार की विशेषता है। जो अभी-अभी शिक्षक के सामने, अभी-अभी बाप के सामने, अभी-अभी सखा के सामने। यह बहुरूप का अनुभव सारे कल्प में न कोई कर सकता है और न करा सकता है। यह एक ही बाप का पार्ट संगम पर है। सतयुग में अगर चाहो बापदादा से पिकनिक मनाएं तो मना सकेंगे? अभी जो चाहो, जिस रूप में चाहो उसी रूप में मिलन मना सकते हो। इसलिए यह भी आप विशेष सेवाधारियों का भाग्य है।
बापदादा तो अमृतवेले से हर बच्चे का भाग्य देखते रहते हैं कि कितने प्रकार के भाग्य हर आत्मा के नूंधे हुए हैं। अमृतवेला ही भाग्य ले आता है। रूहानी मिलन का भाग्य अमृतवेला ही ले आता है ना। हर कर्म में आपका भाग्य है। देखते हो तो बाप को। यह आँखें मिली ही हैं बाप को देखने के लिए। कान मिले हैं बाप का सुनने के लिए। तो भाग्य हो गया ना! हर कर्मेंन्द्रिय का भाग्य है। पाँव मिले हैं हर कदम पर कदम रखने के लिए। ऐसे हर कर्मेंन्द्रिय का अपना- अपना भाग्य है। तो लिस्ट निकालो कि कितने भाग्य सारे दिन में प्राप्त होते हैं! बाप को देखा, बाप का सुना, बाप के साथ सोया, बाप के साथ खाया, सब कुछ बाप के साथ करते हो। सेवा की तो भी बाप का परिचय दिया, बाप से मिलाया...तो कितना भाग्य हो गया? तो बापदादा सदा हर बच्चे के भाग्य की लकीर कितनी स्पष्ट और लम्बी है, क्लीयर है - वह देखते हैं। भाग्य की लकीर बीच-बीच में कट तो नहीं जाती है। जुड़ती है और टूटती है या जब से जुड़ी है तब से अखण्ड अटूट है? खण्डित होने से लकीर फिर बदल भी जाती है इसलिए अटूट और अखण्ड। तो ऐसा बच्चों का नजारा देखते रहते है। बाप को और क्या काम है? विश्व सेवा के लिए तो आपको निमित्त बना दिया। बाकी बाप का क्या काम रहा? (बाबा ही तो सब कर रहे हैं) सिर्फ बैकबोन बनने का काम बाप का है। बाकी बच्चों से मिलना, बच्चों को देखना, बच्चों से रूह-रूहान करना, बच्चों को चलाना, यही काम रह गया है ना! आप लोगों का विश्व से काम है और बाप का आप बच्चों से काम है। विश्व के आगे बाप को दिखाते तो आप बच्चे हो ना! बच्चों द्वारा बाप दिखाई देता है। बैकबोन तो बाप है ही। अगर बाप बैकबोन न बने तो आप अकेले थक जाओ। मोह भी है ना। तो बच्चों की थकावट भी बाप नहीं देख सकते। इसलिए देखो हर साल यहाँ आते हो थकावट खत्म करने। यहाँ आकर सेवा की जिम्मेवारी का ताज उतार देते हो ना। वहाँ तो एक-एक बात में देखेंगी कोई देख तो नहीं रहा है, कोई सुन तो नहीं रहा है? यहाँ अगर कुछ होगा भी तो समझेंगे दीदी, दादी बैठी है, बाप-दादा बैठा है, आपेही ठीक कर देगा। यहाँ फिर भी फ्री हो। तो विदेश की सेवा में अनुभव भी अच्छे होते हैं ना? डबल नालेजफुल हो गई ना? (आबू कांफ्रेंस के लिए कोई विशेष प्लैन) आबू कांफ्रेंस में स्नेही बनाकर लाना सिर्फ वी.आई. पीज नहीं। आप स्नेही बनाकर लाना - यहाँ संबंध जुड़ जायेगा। (स्नेही बनाने का साधन क्या है?) जितना-जितना बाप की जिगर से महिमा करेंगे, तो आप महिमा करेंगे और वे मोहित होते जायेंगे। आप ‘बाबा-बाबा' कहते जायेंगे, महानता सुनाते जायेंगे और वे स्नेही बनते जायेंगे। जहाँ महानता अनुभव होती है वहाँ स्वयं ही सिर झुक जाता है। जैसे भक्त लोग जड़ में महानता की भावना रखते हैं तो सिर झुक जाता है। कहाँ वह जड़, कहाँ वह चैतन्य, फिर भी सिर झुक जाता है। यहाँ भी देखो कोई प्राइम मिनिस्टर या प्रेजीडेन्ट है तो उसका भी महानता के आगे आटोमैटिक सिर झुक जाता है ना। तो आप भी बाप की महानता सुनाती जायेंगी और उनका सिर झुकता जायेगा। आप लोग तो होशियार हो गई हैं ना!साइंस का भी नॉलेज है, साइलेंस का भी है, देश का भी है तो विदेश का भी है। तो अनुभव भी एक शक्ति है, सबसे बड़ी शक्ति - ‘अनुभव' है। अनुभव सुनाते हो तो सभी खुश होते हैं ना। अनुभव करने वाला स्वयं भी शक्तिशाली बन जाता है। यह भी एक बड़ा शस्त्र है। वैसे बोलने वाले तो अनेक हैं लेकिन अनुभव की शक्ति किसी के पास भी नहीं है। यहाँ विशेषता ही अनुभव की है। बोलने वाले के आगे अनुभव वाले का ही महत्व है। धीरे-धीरे साइन्स वाले, चाहे शास्त्र वाले, दोनों ही यह समझेंगे कि हम ऊपर-ऊपर के हैं, फाउण्डेशन हम लोगों का नहीं है। और इन्हों का अनुभव फाउण्डेशन है। चाहे चन्द्रमा तक भी चले गये लेकिन अपने आप की अनुभूति नहीं है। चन्द्रमा पर गये तो क्या हुआ? तो यह महसूस करेंगे लेकिन अन्त में करेंगे क्योंकि वारिस तो बनना नहीं है। तो अन्त में साइंस अर्थात् शस्त्रधारी और शास्त्रधारी दोनों ही समझेंगे कि हम क्या हैं और यह क्या हैं! अच्छा –
सभी खुश तो हो ना! कोई मुश्किल तो नहीं है! सहजयोगी हो? सहज सेवाधारी हो? (विदेश की बहनें-दीदी-दादी को विदेश सेवा के लिए विदेश में आने का निमन्त्रण दे रही हैं।) वर्तमान समय जबकि 83 आदि में ही यहाँ सभी को लाना है, और सबको यहाँ आना ही है, तो यहाँ की सेवा के ऊपर विशेष अटेन्शन देने की आवश्यकता है। और वहाँ का भी अगर ऐसा कोई निमन्त्रण मिला, यू.एन.ओ. वगैरा का तो फिर जाना जरूरी है। बाकी जो अपनी कांफ्रेंस आदि करते हो उसके लिए इतनी आवश्यकता नहीं है क्योंकि उन्हें ही यहाँ लाना है। इसलिए सब बातों को देखते हुए अभी इतना आवश्यक दिखाई नहीं देता है। बाकी अभी विदेश तो ऐसा है, अभी-अभी यहाँ अभी-अभी वहाँ। ऐसा कोई कार्य हुआ तो पहुँच जायेंगे।
यू.एन.ओ. में जो सम्पर्क बढ़ा रहे हो, यह सम्पर्क बढ़ना ही सेवा है। और भी जितना हो सके उन्हों को होमली सम्पर्क में ले आओ। जैसे यह शैली (यू.एन.ओ.की) आई वह भी स्नेह सम्पर्क से आकर्षित हुई ना। प्रेम की पालना मिली। क्योंकि बड़े-बड़े आफीसर जहाँ जाते हैं वहाँ वह उसी पोस्ट पर होने के कारण आफिशियल रहते हैं, प्रेम की पालना उन्हें नहीं मिलती है। यहाँ तो सम्बन्ध का रस मिलता है। यही यहाँ की विशेषता है। जो भी सम्पर्क सम्बन्ध में आते हैं उन्हों को परिवार की फीलिंग आये। अनुभव करें कि यह कोई बहुत समीप की आत्मा खोई हुई मिली है। सम्पर्क बढ़ाना यही सेवा ठीक है। जितनाजितना नजदीक आते रहेंगे वह अनुभव करेंगे कि इन्हों के पास जो चाहिए वही है।
शैली बच्ची द्वारा बहुतों की सेवा हो रही है और होगी भी। स्नेह का तीर लग गया है। लगन अच्छी है। जो चाहती थी उसकी विधी भी मिल गई है। समझती भी है कि विधी यहाँ से ही मिलती है। उसको यादप्यार देना और यही कहना कि बापदादा की आप में बहुत उम्मीदें हैं और सफलता के सितारे की नूंधी हुई है। ऐसा बापदादा तकदीर देख रहे हैं। कई प्रकार की आत्माओं का पार्ट है। चाहे पूरा कनवर्ट न भी हो लेकिन कनवर्ट कराने के तो निमित्त है। दिल से बाप को माना है और यह डबल तरफ पार्ट बजाना यह भी जरूरी है, इसी से सेवा होगी। इसका इतना रहना ही सेवा है। पूरा बदल जाए तो सेवा नहीं होगी। इसको इस सेवा का फल भी अच्छा मिलेगा।
स्टीवनारायण (ग्याना के उपराष्ट्रपति) तथा उनके परिवार को यादप्यार देते हुए
उन्हें जिगरी बहुत-बहुत याद देना। बहुत अच्छे तन-मन-धन तीनों से पूरे सहयोगी, निश्चयबुद्धि नम्बरवन बच्चे हैं। उस बजट के कारण नहीं आ सके लेकिन पांडव गवर्मेन्ट की बजट में बुद्धि से यहाँ पहुंचे हुए हैं। बहुत ही नम्रचित्त बच्चा है। परिवार ही ड्रामा अनुसार सर्विसएबुल है। हिम्मत भी अच्छी है। परिवार का परिवार ही स्नेही है। अन्धश्रद्धा नहीं है, नालेज के आधार पर स्नेही है। इन्हों के ही सम्पर्क से अमेरिका में पहुँचे । यह बेहद सेवा के निमित्त, विशेष आत्माओं की सेवा के निमित्त बने हुए हैं। इसको कहते हैं - एक की नालेज से अनेकों पर प्रभाव। बड़ा माइक है। इनको देखकर वहाँ की गवर्मेन्ट पर भी अच्छा प्रभाव है। नालेज का, योग का अच्छा प्रभाव है। अच्छे सेवाधारी हैं।
16-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त बापदादा का दूर दूर देशों से पधारे बच्चों से मधुर मिलन
आज बापदादा कहाँ आये हैं? और किन्हों से मिलने आये हैं? जानते हो? आज गॉड, गॉडली फ्रेंड बन करके आये हैं तो फ्रेंडस आपस में क्या करते हैं? गाते, हंसते, खाते, बहलते हैं। तो आज बापदादा सुनाने के लिए नहीं आये है लेकिन मिलन मनाने के लिए आये हैं। बापदादा देख रहे हैं, कितनी दूर-दूर से और कितने वैरायटी प्रकार के गॉडली फ्रेंडस पहुँच गये हैं। कितने अच्छे फ्रेंडस हो जो एक गॉड को फ्रेंड बनाने के बाद - एक गॉडली फ्रेंड दूसरा न कोई। तो हरेक की फ्रेंडशिप का अपना-अपना चित्र देख रहे हैं। सदा की सच्ची फ्रेंडशिप में जो भी दिल में संकल्प आता है वह सब फ्रेंड को सुनाया जाता है। तो गॉड को ऐसा फ्रेंड बनाया है ना? अविनाशी प्रीत का नाता जोड़ा है ना? अभी-अभी जोड़ा, अभी-अभी तोड़ा, ऐसा तो नहीं है! क्या समझते हो? अविनाशी फ्रेंडशिप है? सारे कल्प के अन्दर ऐसा बाप कहो, फ्रेंड कहो, जो भी कहो, सर्व सम्बन्ध निभाने वाला कहो - मिलेगा? सारे कल्प का चक्र लगाया तो मिला? और अपने फ्रेंड्स को वा सर्व सम्बन्धयों का ढूँढा भी बाप ने आकर के, आप नहीं ढूँढ सके। अविनाशी सर्व सम्बन्ध जोड़ने का आधार वा विधि अच्छी तरह से जानते हो? सदा एक ही बात याद रहे- कि ‘‘मेरा बाबा''। मेरामेरा कहने से अधिकारी आत्मा बन जायेंगे। यह मुश्किल है क्या? जब बाप ने कहा मेरा बच्चा, तो बच्चे को मेरा बाबा समझना क्या मुश्किल है? यह मेरा शब्द 21 जन्म के लिए अटूट सम्बन्ध जोड़ने का आधार है। ऐसा सहज साधन अपनाया हैं? अनुभवी हो गये हो ना?
आज बापदादा देख रहे हैं कि कितने नये-नये बच्चे अपना कल्प-कल्प का अधिकार पाने के लिए पहुँच भी गये हैं और अपना अधिकार पा भी रहे हैं तो अधिकारी बच्चों को देख बापदादा हर्षित हो रहे हैं।
जैपनीज ‘डॉल्स' ठीक हो ना? बहुत स्नेह से देख रही हैं। देखो, देश और धर्म के घूंघट में होते हुए भी बापदादा ने अपने बच्चों को अपना बना लिया है। तो जापानी डाल्स, क्या गीत गाती हो? - ‘‘माई बाबा''। सब एक दो से प्यारी हैं। ऐसे ही देखो फ्रांस के बच्चे भी कितने प्रिय हैं। भाषा को न समझते हुए भी बाप को तो समझते हैं। ब्राजील, मैक्सिको... के सभी ग्रुप बहुत अच्छे हैं। इस बारी दूर-दूर के ग्रुप अच्छा पुरूषार्थ करके पहुँच गये हैं। लंदन, अमेरिका, जर्मनी तो हैं ही शुरू के। लेकिन नये-नये स्थानों के बहुत सुन्दर गुलदस्तों को देखते हुए बापदादा अति हर्षित हो रहे हैं। सबसे ज्यादा दूर और कौन-सा स्थान है? (परमधाम) ठीक बोल रहे हो। लेकिन जितना ही दूर स्थान है उतना ही पहुँचने में सेकण्ड लगता है। सेकण्ड में पहुँच जाते हो ना- परमधाम में। सेकण्ड में पहुँचते हो वा देरी लगती है?
हाँगकाँग के भी (चाइनीज भाषा बोलने वाले) बच्चे पहुँच गये हैं। गॉडली गुलदस्ते के अति शोभनिक फूल हो! अपने को इसी गुलदस्ते के फूल अनुभव करते हो ना? अच्छा - हरेक देश अपने-अपने नाम से, सबके नाम तो बापदादा नहीं लेंगे ना। तो हरेक देश से आये हुए सभी बच्चे अति प्रिय हो । बापदादा से मिलन मनाने के लिए आये हो और बापदादा भी सर्व बच्चों को देख बच्चों की विशेषता के गीत गा रहे हैं। बॉरबडोज वाले भी बहुत खुश हो रहे हैं। ट्रिनिडैड की मातायें तो बहुत अच्छी हैं। वे तो ऐसे लगती हैं जैसे बहुत झूमने वाली, खुशी में झूलने वाली हैं। मॉरीशियस की कुमारी पार्टी भी बहुत अच्छी है। हरेक कुमारी 100 ब्राह्मणों से उत्तम है। अगर 4 कुमारियाँ भी आई तो 400 ब्राह्मण आ गये। यह सोच रही हैं कि हमारा ग्रुप बहुत छोटा है लेकिन आप में 400 समाये हुए हैं। छोटा नहीं है। बाकी आस्ट्रेलिया और लंदन तो रेस कर रहे हैं और जर्मनी फिर बीच का सिकीलधा हो गया। दुबई भी एक लाखों के समान है। नैरोबी ने सबसे ज्यादा कमाल की है। मिनी पाण्डव भवन जो किसी ने नहीं बनाया है, वह नैरोबी ने बनाया है। अच्छा व्हाइट हाउस बनाया है। जर्मनी की भी बहुत शाखायें हैं। अमेरिका की भी बहुत शाखायें हैं। पूरा ही यूरोप अच्छा पुरूषार्थ कर लंदन और आस्ट्रेलिया के समान वृद्धि को पा रहे हैं।
अमेरिका वाले क्या कर रहे हैं? अमेरिका ने चतुराई बहुत अच्छी की है जो अमेरिका के अनेक कोनों में अपना शक्ति सेना पाण्डवों का लश्कर रख दिया है। अभी चारों ओर से अपना घेराव तो कर लिया है, फिर जब समय आयेगा तो सेकण्ड में ‘व्हाइट हाउस' के ऊपर ‘लाइट हाउस' की विजय होगी। क्योंकि विनाश की ज्वाला भी अमेरिका से निमित्त बनेगी तो स्थापना के विशेष कार्य में भी अमेरिका की पाण्डव गवर्मेन्ट कहो,पाण्डव सेना कहो, वही निमित्त बनेगी। तो ऐसे तैयार हो ना? (हाँ) आर्डर दें?
जापानी डाल्स क्या करेगी? सबसे बड़ा सबसे सुन्दर गुलदस्ता बापदादा को भेंट करेंगी ना? जर्मनी क्या करेगा? जर्मनी वाले ऐसी रोशनी फैलायेंगे जो अन्धों को भी आँख मिल जाए, आत्मिक बाम्ब वा साइलेन्स की शक्ति के बाम्ब से।
दुबई वाले क्या करेंगे? वहाँ छिपे हुए ब्राह्मण अपना जलवा दिखायेंगे जरूर। और धर्म होते हुए भी ब्राह्मण आत्मायें छिपी नहीं रह सकतीं। इसलिए वह भी बड़ा ग्रुप बनाकर आयेंगे। अन्दर-अन्दर तैयार हो रहे हैं, बाहर आ जायेंगे। यह दूर वाले (ब्राजील-मैक्सिको वाले) बच्चे क्या सोच रहे हैं। दूर से ऐसा बुलन्द आवाज फैलायेंगे जो सीधा ही दूर से भारत के कुम्भकरण तक पहुँच जाए।
ग्याना तो अमेरिका (न्यूयार्क) का फाउण्डेशन है। ग्याना ने जो किया है, वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। सुनाया था ना - ग्याना के आत्माओं की विशेषता है, वी. आई. पीज होते हुए भी पूरे वारिस क्वालिटी हैं।
कनाडा से भी त्रिमूर्ति आई है। त्रिमूर्ति में ही सारा संसार समाया हुआ है। कनाडा अभी गुप्त से प्रत्यक्षता की रेस में आगे बढ़ेगा। अच्छा नम्बर लेगा।
मलेशिया ने भी अच्छी मेहनत की है। ऐसे नहीं समझो मैं अकेला आया हूँ लेकिन आपके अन्दर सभी सोल समाये हुए हैं। बापदादा एक को नहीं देख रहे हैं लेकिन आप में समाये हुए समीप और स्नेही आत्माओं का दृश्य दूर से देख रहे हैं। आवाज आपको भी आ रहा है ना! आत्माओं का?
न्यूजीलैंड की निमित्त बनने वाली आत्मायें पावरफुल हैं, इसलिए सदा बापदादा की फुलवाड़ी खिली रहेगी। स्थान छोटा है लेकिन सेवा बड़ी है।
आस्ट्रेलिया और लंदन की ब्रांन्चेस तो बहुत हैं। पोलैंड में भी वृद्धि हो जायेगी। एक जगे दीपक से दीपमाला हो जायेगी। अभी तो देखो फिर भी नाम ले रहे हैं लेकिन अगले वर्ष आयेंगे तो इतनी वृद्धि करना जो नाम लेना ही मुश्किल हो जाए।
अभी जैसे मस्जिद के ऊपर, चर्च के ऊपर चढ़कर अपने-अपने गीत गाते हैं। मस्जिद में अल्लाह का नाम चिल्लाते हैं, चर्च में गॉड का... मन्दिरों में आओ, आओ कहते हैं लेकिन अब ऐसा समय आयेगा जो सभी मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च आदि से सबसे मिलकर एक ही आवाज होगी कि ‘‘हमारा बाबा आ गया है।'' फिर आप फरिश्तों को ढूँढेंगे कि कहाँ गये वह। चारों ओर फरिश्ते ही फरिश्ते उन्हों को नज़र आयेंगे। सारे वर्ल्ड में फरिश्ते छा जायेंगे। जैसे बादल छाये हुए होते हैं और सबकी नज़र पर आप एन्जिल और बाप की तरफ होगी। तो ऐसी स्टेज पर पहुँच गये हो - जो साक्षात्कार कराओ फरिश्ते का! अभी अगर थोड़ा-थोड़ा हिलते भी हो तो समय आने पर यह सब खत्म हो जायेगा। क्योंकि कल्प-कल्प के निश्चित फरिश्ते तो आप ही हो ना। आप के सिवाए और कौन हैं तो यह जो थोड़ा-थोड़ा हिलने का पार्ट वा खेल दिखाते हो यह सब समाप्त जल्दी हो जायेगा। फिर सभी के मुख से यही आवाज निकलेगी कि माया चली गई और हम मायाजीत बन गये। वह टाइम आ रहा है। अच्छा –
आज सभी की पिकनिक है। बापदादा आज की पिकनिक में सभी बच्चों से एक गिफ्ट लेंगे। देने के लिए तैयार हो? सिर्फ दो शब्दों की गिफ्ट है - सदा क्लीयर और केयरफुल रहना। तो इसकी रिजल्ट चियरफुल हो ही जायेंगे। क्लीयर नहीं होते हो इसलिए सदा एकरस नहीं रहते हो। और जो एक शब्द बार-बार बोलते हो - डिपरेशन-डिपरेशन, यह तभी होता है। तो जो भी बात आवे- वह क्लीयर कर दो। चाहे बापदादा द्वारा, चाहे अपने आप द्वारा। चाहे निमित्त बनी हुई आत्माओं द्वारा। अन्दर नहीं रखो। क्यों, क्या, नहीं लेकिन आप दो शब्दों की गिफ्ट दो और बापदादा से त्रिमूर्ति बिन्दी की गिफ्ट लो। गिफ्ट को खो नहीं देना। गिफ्ट को सदा बुद्धि रूपी तिजोरी में कायम रखना। मंजूर है लेना और देना! अच्छा - जब भी कुछ हो जाए तो तिलक लगा देना तो सदा सेफ रहेंगे। तिलक लगाना आता है ना?
18-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
““18 जनवरी” जिम्मेवारी के ताजपोशी का दिवस”
अव्यक्त बापदादा अपने नूरे रत्न बच्चों के प्रति बोले:-
‘‘आज जहाँन के नूर अपने नूरे रत्नों से मिलने आये हैं। सिकीलधे बच्चे बाप के नूर हैं। जैसे शरीर में, आँखों में नूर नहीं तो जहाँन नहीं, ऐसे विश्व में आप रूहानी नूर नहीं तो विश्व में रोशनी नहीं, अंधकार है। बापदादा के नयनों के नूर अर्थात् विश्व की ज्योति हो। आज के विशेष स्मृति दिवस पर बापदादा के पास सबके स्नेह के गीत अमृतवेले से वतन में सुनाई दे रहे थे। हरेक बच्चे के गीत एक-दो से ज्यादा प्रिय थे। मीठी-मीठी रूह-रूहान भी बहुत सुनी। बच्चों के प्रेम के मोतियों की मालायें बापदादा के गले में पिरो गई। ऐसे मोतियों की मालायें बापदादा के गले में भी सारे कल्प के अन्दर अभी ही पड़ती हैं। फिर यह अमूल्य स्नेह के मोतियों की माला पिरो नहीं सकती, पड़ नहीं सकती। इस एक- एक मोती के अन्दर क्या समाया हुआ था, हरेक मोती में यही था - ‘‘मेरा बाबा'', ‘‘वाह बाबा''। बताओ कितनी मालायें होंगी? और इन्हीं मालाओं से बापदादा कितने अलौकिक सजे हुए श्रृंगारे हुए होंगे। जैसे स्थूल में स्नेह की निशानी मालाओं से सजाया है। तो यहाँ स्थूल सजावट से सजाया है लेकिन वतन में अमृतवेले से बापदादा को सजाना शुरू किया। एक के ऊपर एक माला बापदादा का सुन्दर श्रृंगार बन गई। आप सभी भी वह चित्र देख रहे हो ना?
आज का विशेष दिन सर्व बच्चों के ताजपोशी का दिन है। आज के दिन आदि देव ब्रह्मा बाप ने स्वयं साकारी जिम्मेवारियाँ अर्थात् साकारी रूप से सेवा का ताज, नयनों की दृष्टि द्वारा हाथ में हाथ मिलाते, मुरब्बी बच्चों को अर्पण किया। तो आज का दिन ब्रह्मा बाप का साकार रूप की जिम्मेवारियों का ताज बच्चों को देने का - ‘ताजपोशी दिवस' है। (दादी से) आज का दिन याद है ना? आज का दिन ब्रह्मा बाप का बच्चों को ‘‘बाप समान भव'' के वरदान देने का दिन है।
ब्रह्मा बाप के अन्तिम संकल्प के बोल वा नयनों की भाषा सुनी? क्या थी? नयनों के इशारे के बोल यही थे -’’बच्चे, सदा बाप के सहयोग की विधि द्वारा वृद्धि को पाते रहेंगे।'' यही अन्तिम बोल, वरदानी बोल प्रत्यक्षफल के रूप में देख रहे हैं। ब्रह्मा बाप के अन्तिम वरदान का साकार स्वरूप आप सब हो। वरदान के बीज से निकले हुए वैरायटी फल हो। आज शिव बाप, ब्रह्मा को वरदान के बीज से निकला हुआ सुन्दर विशाल वृक्ष दिखा रहे थे। साइंस के साधनों से तो बहुत प्रयत्न कर रहे हैं कि एक वृक्ष में वैरायटी फल निकलें लेकिन ब्रह्मा बाप वरदान का वृक्ष, सहज योग की पालना से पला हुआ वृक्ष कितना विचित्र और दिलखुश करने वाला ‘वृक्ष' है। एक ही वृक्ष में वैरायटी फल हैं। अलग-अलग वृक्ष नहीं हैं। वृक्ष एक है, फल अनेक प्रकार के हैं। ऐसा वृक्ष देख रहे हो? हरेक अपने को इस वृक्ष में देख रहे हो? तो आज वतन में ऐसा विचित्र वृक्ष भी इमर्ज हुआ। ऐसा वृक्ष सतयुग में भी नहीं होगा। हाँ, साइंस वाले जो कोशिश कर रहे हैं उसका फल आपको थोड़ा-बहुत मिल जायेगा। एक ही फल में दो-चार फल के रस का अनुभव होगा। मेहनत यह करेंगे और खायेंगे आप। अभी से खा रहे हो क्या?
तो सुना आज का दिन क्या है? आज का दिन जैसे आदि में ब्रह्मा बाप ने स्थूल धन विल किया बच्चों को, ऐसे अपनी अलौकिक प्रॉपर्टी बच्चों को विल की। तो आज का दिन बच्चों को विल करने का दिवस है। इसी अलौकिक प्रॉपर्टी के विल के आधार पर कार्य में आगे बढ़ने की विलपावर प्रत्यक्षफल दिखा रही है। बच्चों को निमित्त बनाए विलपावर की विल की। आज का दिन विशेष बाप समान वरदानी बनने का दिवस है। आज का दिन - स्नेह और शक्ति कम्बाईन्ड वरदानी दिन है। प्रैक्टिकल अनुभव किया ना - दोनों का? अति स्नेह और अति शक्ति। (दादी से) याद है ना अनुभव। ताजपोशी हुई ना? अच्छा - आज के दिन के महत्व को जाना। अच्छा –
ऐसे सदा बाप के वरदानों से वृद्धि को पाने वाले, सदा एक बाप दूसरा न कोई, इसी स्मृति स्वरूप, सदा ब्रह्मा बाप के समान फरिश्ता भव के वरदानी, ऐसे समान और समीप बच्चों को बापदादा का ‘समर्थ दिवस' पर यादप्यार और नमस्ते।''
(दादी-दीदी से):- साकार बाप के वरदानों की विशेष अधिकारी आत्मायें हो ना? साकार बाप ने आप बच्चों को कौन-सा वरदान दिया? जैसे ब्रह्मा को आदि में वरदान मिला ‘‘तत् त्वम्''। ऐसे ही ब्रह्मा बाप ने भी बच्चों को विशेष ‘तत् त्वम' का वरदान दिया। तो विशेष ‘तत् त्वम' के वरदान के अधिकारी वारिस हो। इसी वरदान को सदा स्मृति में रखना अर्थात् समर्थ आत्मा होना। इसी वरदान की स्मृति से जैसे ब्रह्मा बाप के हर कर्म में बाप प्रत्यक्ष अनुभव करते थे ऐसे आपके हर कर्म में ब्रह्मा बाप प्रत्यक्ष होगा। ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष करने वाले आदि रत्न कितने थोड़े निमित्त बने हुए हैं? आप विशेष आत्माओं की सूरत द्वारा ब्रह्मा की मूर्त अनुभव करें, और करते भी हैं। ब्रह्माकुमारी नहीं। ब्रह्मा बाप के समान, ब्रह्मा बाप की अनुभूति हो। ऐसी सेवा के निमित्त वरदानी विशेष आत्मायें हो। सब क्या कहते हैं? बाबा को देखा, बाबा को पाया। तो अनुभव कराने वाले, प्रत्यक्ष करने वाले कौन? आप ताजधारी विशेष आत्मायें अभी जल्दी फिर से ब्रह्मा बाप और ब्रह्मा वत्स शक्तियों के रूप में, शक्ति में शिव समाया हुआ, शिव शक्ति और साथ में ब्रह्मा बाप, ऐसे साक्षात्कार चारों ओर शुरू हो जायेंगे। ब्रह्माकुमारी के बजाए ब्रह्मा बाप दिखाई देगा। साधारण स्वरूप के बजाए शिवशक्ति स्वरूप दिखाई देगा। जैसे आदि में साकार की लीला देखी। ऐसे ही अन्त में भी होगी। सिर्फ अभी एडीसन ‘शिवशक्ति' स्वरूप का भी साक्षात्कार होगा। फिर भी साकार पिता तो ब्रह्मा है ना। तो साकार रूप में आये हुए बच्चे बाप को देखेंगे और अनुभव जरूर करेंगे। यह भी समाचार सुनेंगे। ब्रह्मा बाप के सहयोग का, स्नेह का सदा अनुभव करते हो ना? साथ हैं या वतन में हैं? सिर्फ शरीर के बन्धन से बन्धनमुक्त हो और तीव्रगति रूप से सहयोगी बन गये। क्योंकि ड्रामा अनुसार वृद्धि होने की अनादि नूंध थी।
वैसे भी ज्यादा स्थान पर अगर रोशनी फैलानी होती है तो क्या करते हैं? ऊँची रोशनी करते हैं ना! सूर्य भी विश्व में रोशनी तब दे सकता है जब ऊँचा है। तो साकार सृष्टि को सकाश देने के लिए ब्रह्मा बाप को भी ऊँचे स्थान निवासी बनना ही था। अब तो सेकण्ड में जहाँ चाहें अपना कार्य कर सकते और करा सकते हैं। मुख द्वारा व पत्रों द्वारा कैसे इतना कार्य करते, इसलिए तीव्र विधि द्वारा बच्चों के सहयोगी बन कार्य कर रहे हैं। सबसे तीव्रगति की सेवा का साधन है - ‘संकल्प शक्ति'। तो ब्रह्मा बाप श्रेष्ठ संकल्प की विधि द्वारा वृद्धि में सदा सहयोगी है। तो वृद्धि की भी गति तीव्र हो रही है ना। विधि तीव्र है तो वृद्धि भी तीव्र है। बगीचे को देख खुशी होती है ना? अच्छा –
साकार बाबा का लौकिक परिवार
(नारायण तथा उनकी युगल)
सब कार्य ठीक चल रहे हैं? अभी जम्प कभी लगाते हो? इतनी वृद्धि को देख सहज विधि अनुभव में नहीं आती है? क्या सोच रहे हो? संकल्प की ही तो बात है ना? और कुछ करना है क्या? संकल्प किया और हुआ। यह (विदेशी) इतना दूर-दूर से पहुँच गये हैं, किस आधार पर? संकल्प किया - जाना ही है, करना ही है, तो पहुँच गये ना। तो दूर से दृढ़ संकल्प के आधार पर अधिकारी बन गये। आप तो बचपन के अधिकारी हो। याद है बचपन? तो क्या करेंगे? देखेंगे या उड़ती कला में जाकर बाप समान फरिश्ता बनेंगे? देख तो रहे ही हो। देखेंगे कब तक? सोचेंगे भी कब तक? 83 तक ? कब तक सोचना है? बापदादा उसी स्नेह के पंखों से बच्चों को उड़ाना चाहते हैं। तो पंखों पर बैठने के लिए भी क्या करना पड़े? डबल लाइट तो बनना पड़ेगा ना। सब कुछ करते भी तो डबल लाइट बन सकते हो। सिर्फ कल्पना का खेल है, बस! एक सेकण्ड का खेल है। तो सेकण्ड का खेल नहीं आता है? बाप ने क्या किया? सेकण्ड में खेल किया ना? जब दोनों एक दो के सहयोगी होंगे तब कर सकेंगे। एक पहिया भी नहीं चल सकता। दोनों पहिए चाहिए। फिर भी बापदादा के घर में आते हो। बापदादा तो बच्चों को सदा ऊपर देखते हैं। ऊँचा बाप बच्चों को भी ऊँचा देखने चाहते हैं। यह तो कायदा है ना! अभी बच्चे कहाँ सीट लेते हैं वह आपके हाथ में है। सोच लो भले अच्छी तरह से लेकिन है सेकण्ड की बात। सौदा करना तो सेकण्ड में है। अच्छा
20-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
"प्रीत की रीत न्न्निभाने का सहज तरीका"
शिव शमा अपने परवानों के प्रति बोले:-
‘‘आज शमा अपने परवानों के रूहानी महफिल में आये हैं। यह रूहानी महफिल कितनी अलौकिक और श्रेष्ठ है। शमा भी अविनाशी है, परवाने भी अविनाशी हैं और शमा-परवानों की प्रीति भी अविनाशी है। इस रूहानी प्रीति को शमा और परवानों के सिवाए और कोई जान नहीं सकता। जिन्होंने जाना उन्होंने प्रीत निभाया और उन्होंने ही सब कुछ पाया। प्रीत की रीति निभाना अर्थात् सब कुछ पाना। निभाना नहीं आता तो पाना भी नहीं आता। इस प्रीत के अनुभव जानें कि यह प्रीत की रीत निभाना कितना सहज है! प्रीत की रीत क्या है, जानते हो ना? सिर्फ दो बातों की रीत है। और वह भी इतनी सरल है जो सब जानते भी हैं और सब कर भी सकते हैं। वह दो बातें हैं - ‘गीत गाना और नाचना'। इसके सब अनुभवी हो ना? गाना और नाचना तो सबको पसन्द है ना? तो यहाँ करना ही क्या है? अमृतवेले से गीत गाना शुरू करते हो। दिनचर्या में भी उठते ही गीत से हो। तो बाप के वा अपने श्रेष्ठ जीवन की महिमा के गीत गाओ। ज्ञान के गीत गाओ। सर्व प्राप्तियों के गीत गाओ। यह गीत गाना नहीं आता? आता है ना? तो गीत गाओ और खुशियों में नाचो। खुशियों में नाचते-नाचते हर कर्म करो। जैसे स्थूल डांस में भी सारे शरीर की डांस हो जाती है। ड्रिल हो जाती है। भिन्न-भिन्न पोज से डांस करते हो। वैसे खुशी के डांस में भिन्न-भिन्न कर्मों के पोज करते। कभी हाथ से कोई कर्म करते, कभी पाँव से करते हो तो यह काम नहीं करते हो लेकिन भिन्न-भिन्न डांस के पोज करते हो। कभी हाथ की डांस करते हो, कभी पाँव को नचाते हो। तो कर्मयोगी बनना अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार की खुशी में नाचते चलो। बापदादा को वा शमा को वही परवाना पसन्द है जो गाना और नाचना जानता हो। यही प्रीत की रीत है। तो यह तो मुश्किल नहीं है ना? क्या लगता है - सहज या मुश्किल? अभी मधुबन में तो इजी-इजी कर रहे हो, वहाँ जाकर भी इजी-इजी कहेंगे ना? बदल तो नहीं जायेंगे वहाँ जाकर? (यहाँ इजी हैं वहाँ बिजी हो जायेंगे) लेकिन इसी गाने और नाचने में ही बिजी रहेंगे ना?
सदा कानों में यही मीठा साज सुनते रहना। क्योंकि गाने और नाचने के साथ साज भी तो चाहिए ना! कौन-सा साज सुनते रहेंगे? (मुरली) मुरली का भी ‘सार' जो हर मुरली में बापदादा मीठे बच्चे, लाडले बच्चे, सिकीलधे बच्चे कहकर याद-प्यार देते हैं। यही बाप के स्नेह का साज सदा कानों में सुनते रहना। तो और बातें सुनते भी समझ में नहीं आयेंगी, बुद्धि में नहीं आयेंगी। क्योंकि एक ही साज सुनने में बिजी होंगे ना तो दूसरा सुनेंगे कैसे! ऐसे ही सदा गीत गाने में बिजी होंगे तो और व्यर्थ बातें मुख से बोलने की फुर्सत ही नहीं। सदा बाप के साथ खुशी में नाचते रहेंगे तो तीसरा कोई डिस्टर्ब कर नहीं सकता। दो के बीच में कोई आ नहीं सकता। तो मायाजीत तो हो ही गये ना! न सुनना, न बोलना, न माया का आना। तो प्रीत की रीति क्या हुई? - गाना और नाचना। जब दोनों से थक जाओ तो तीसरी बात है, सो जाना। यहाँ का सोना क्या है? सोना अर्थात् कर्म से डिटैच हो जाना। तो आप कर्मेन्द्रियों से डीटैच हो जाओ। अशरीरी बनना अर्थात् सो जाना। याद ही बापदादा की गोदी है। तो जब थक जाओ तो अशरीरी बन, अशरीरी बाप की याद में खो जाओ अर्थात् सो जाओ। जैसे शरीर से भी बहुत गाते और नाचते हैं और थक जाते हैं तो जल्दी ही नींद आ जाती है, ऐसे यह रूहानी गीत गाते, खुशी में नाचते-नाचते सोयेंगे और खो जायेंगे। तो समझा - सारा दिन क्या करना है? और डबल फारेनर्स तो इसमें बहुत शौकीन है। तो जिस बात का शौक है वही करो, बस। सोते भी शौक से हैं। तो तीनों ही बातें करने आती है। तो समझा - प्रीत की रीति निभाने का सहज तरीका क्या है? अच्छा - अभी एक शब्द तो यहाँ डबल फॉरेनर्स छोड़कर जाना। कौन-सा? (सभी ने कोई न कोई बात सुनाई- कोई ने कहा उदासी, कोई ने कहा थकावट) अच्छा - इससे सिद्ध है कि जो बोल रहे हो वह अभी तक है। अच्छा - बोलना माना छोड़ना। तो एक शब्द - ‘डिपरेशन-डिपरेशन' कभी नहीं कहना। ‘रियलाइजेशन न कि डिपरेशन'। जो बाप को डायवोर्स देते हैं, वह डिपरेशन में आते है। आप तो बाप के सदा कम्पेनियन हो। तो डिपरेशन शब्द शोभता नहीं है। सेल्फ रियलाइजेशन हो गया, रियलाइजेशन हो गया फिर यह कैसे हो सकता! समझा - जब द्वापर पूरा हो जाए, कलियुग शुरू हो तब फिर भले होना। इतने समय के लिए तो तलाक दे दो इसको। अच्छा –
परिवर्तन भूमि में अविनाशी परिवर्तन करने वाले, सदा प्रीत की रीति निभाने वाले, शमा के दिलपसन्द परवाने, सदा रूहानी गीत गाने वाले, खुशी में नाचते रहने वाले, जब चाहें बाप की गोदी में सो जाने वाले, ऐसे सिकीलधे, लाडले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
टीचर्स के साथ-अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
(डबल विदेशी टीचर्स)
सभी ने सेवा का सबूत अपने-अपने शक्ति प्रमाण दिया है और देते रहेंगे? सेवाधारी अर्थात् हर सेकण्ड, हर श्वांस, हर संकल्प में विश्व की स्टेज पर पार्ट बजाने वाले। तो सदा स्वयं को विश्व की स्टेज पर हीरो पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं, यह समझकर चलते रहो। यह भी ड्रामा में चांस मिला है। तो दूसरे के निमित्त बनने से स्वयं स्वत: ही उसी बातों के अटेन्शन में रहते। इसलिए सदा अपने को बापदादा के साथी हैं, सेवा पर उपस्थित हैं, इस स्मृति में रहकर हर कार्य करते रहना। सदा आगे बढ़ते चलेंगे और बढ़ाते चलेंगे। हिम्मत अच्छी रखी है, मदद भी बाप की मिल रही है और मिलती रहेगी। निमित्त शिक्षक बनना वा रूहानी सेवाधारी बनना अर्थात् फादर को फालो करना। इसलिए बाप समान बाप के सिकीलधे। बापदादा भी सेवाधारियों को देख खुश होते हैं। सभी सदा अपने को निमित्त समझकर चलना और नम्रचित्त होकर चलना। जितना निमित्त और नम्रचित्त होकर चलेंगे उतनी सेवा में सहज वृद्धि होगी। कभी भी मैंने किया, मैं टीचर हूँ, यह ‘‘मैं'' का भाव नहीं रखना। इसको कहा जाता है सर्विस करने के बजाए सर्विस मे रूकती कला आने का आधार। चलते-चलते कभी सर्विस कम हो जाती है या ढीली होती है, उसका कारण विशेष यही होता है जो निमित्त के बजाए मैं-पन आ जाता है और इसके कारण ही सर्विस ढीली हो जाती है, फिर अपनी खुशी और अपना नशा ही गुम हो जाता है। तो कभी भी न स्वयं इस स्मृति से दूर होना, न औरों को बाप से वर्सा लेने से वंचित करना। दूसरी बात कि सदा यह स्लोगन याद रखना - कि स्व परिवर्तन से किसी भी परिवार की आत्मा को भी बदलना है और विश्व को भी बदलना है। स्व परिवर्तन के ऊपर विशेष अटेन्शन। तो सेवा स्वत: ही वृद्धि को पायेगी। घटने का कारण भी समझा और बढ़ाने का आधार भी समझा। तो सदा खुशी में आगे बढ़ते जायेंगे और औरों को भी खुशी में लाते रहेंगे। समझा!
तो नम्बरवन योग्य टीचर वा नम्बरवन सेवाधारियों की लाइन में आ जायेंगे। तो डबल विदेशी सभी नम्बरवन टीचर हो ना! मेहनत अच्छी कर रहे हो और मुहब्बत भी अच्छी है। सबूत भी लाया है। हरेक बच्चा सेवाधारी अर्थात् टीचर है। चाहें सेवाकेन्द्र पर रहे, चाहें जहाँ भी रहे लेकिन सेवाधारी हैं। क्योंकि ब्राह्मणों का आक्यूपेशन ही है - ‘सेवाधारी'। किसको सेवा का क्या पार्ट मिला है, किसको क्या... कोई को लाने की सेवा करनी है, कोई को सुनाने की, कोई को भोग बनाने की तो कोई को भोग लगाने की... सब सेवाधारी हैं। बापदादा सभी को सेवाधारी ही समझते हैं।
(83 के कांफ्रेंस के लिए सभी ने नये-नये प्लैन बनाये हैं, वह बापदादा को सुना रहे हैं)
प्लैन बनाने में मेहनत की है उसके लिए मुबारक। यह भी बुद्धि चलाई अर्थात् अपनी कमाई जमा की। तो मीटिंग नहीं की लेकिन जमा किया। सदा निर्विघ्न, सदा विघ्न-विनाशक और सदा सन्तुष्ट रहना तथा सर्व को सन्तुष्ट करना। यही सर्टीफिकेट सदा लेते रहना। यही सर्टीफिकेट लेना अर्थात् तख्तनशीन होना। सन्तुष्ट रहने का और सर्व को सन्तुष्ट करने का लक्ष्य रखो। दोनों का बैलेन्स रखो। अच्छा - जो प्लैन बनाये हैं - वह सब प्रैक्टिकल में लाना। वी. आई. पीज का संगठन लेकर आना।
22-01-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बधाई और विदाई दो”
अव्यक्त बापदादा अलौकिक जन्मधारी विशेष आत्माओं के प्रति बोले:-
‘‘आज विश्व कल्याणकारी बापदादा विश्व के चारों ओर के बच्चों को सम्मुख देख रहे हैं। सभी बच्चे अपने याद की शक्ति से आकारी रूप में मधुबन पहुँचे हुए हैं। हरेक बच्चे के अन्दर मिलन मनाने का शुभ संकल्प हैं। बापदादा सर्व बच्चों को देख-देख हर्षित हो रहे हैं क्योंकि बापदादा हरेक बच्चे की विशेषता को जानते हैं। उसी विशेषता के आधार पर हरेक अपना-अपना विशेष पार्ट बजा रहे हैं। यही ब्राह्मण आत्माओं की वा ब्राह्मण परिवार में नवीनता है जो एक भी ब्राह्मण आत्मा विशेषता के सिवाए साधारण नहीं है। सभी ब्राह्मण अलौकिक जन्मधारी, अलौकिक हैं। इसलिए सभी अलौकिक अर्थात् कोई न कोई विशेषता के कारण विशेष आत्मा हैं। विशेषता की अलौकिकता है। इसलिए बापदादा को बच्चों पर नाज़ है। सब विशेष आत्मायें हो। ऐसे ही अपने में इस अलौकिक जन्म का, अलौकिकता का, रूहानियत का, मास्टर सर्वशक्तिवान का नशा अपने में समझते हो? यह नशा सर्व प्रकार की कमज़ोरियों को समाप्त करने वाला है। तो सदा के लिए सर्व कमज़ोरियों को विदाई देने का मुख्य साधन, सदा स्वयं को और सर्व को संगमयुगी विशेष आत्मा के विशेष पार्ट की बधाई दो। जैसे कोई भी विशेष दिन होता है वा कोई विशेष कार्य करता है तो क्या करते हो? उसको बधाई देते हो ना, एक दो को बधाई देते हो। तो सारे कल्प में संगमयुग का हर दिन विशेष दिन है और आप विशेष युग के विशेष पार्टधारी हो। इसलिए आप विशेष आत्माओं का हर कर्म अलौकिक अर्थात् विशेष है। तो सदा आपस में भी मुबारक दो और स्वयं को भी मुबारक दो, बधाई दो। जहाँ बधाई होगी वहाँ विदाई हो ही जायेगी। तो इस डबल विदेशियों की सीजन का सार यही याद रखो - ‘‘सदा बधाई द्वारा विदाई दे देना है।'' यहाँ आये ही हो विदाई दे बधाईयाँ मनाने के लिए तो ‘विदाई और बधाई' यही दो शब्द याद रखना। विदाई देनी है, नहीं, विदाई दे दी। वरदान भूमि में आना अर्थात् सदा के लिए कमज़ोरियों को विदाई देना। रावण को तो जला देते हो लेकिन रावण के वंश अपना दांव लगाते हैं। जैसे आपकी साकारी दुनिया में कोई बड़ी प्रॉपर्टी वाला शरीर छोड़ता है तो उनके भूले भटके हुए सम्बन्धी भी आकर निकलते हैं।
ऐसे रावण को तो मार लेते हो लेकिन उनके वंश जो अपना हक लेने के लिए सामना करते हैं, उस वंश को विनाश करने में कभी-कभी कमजोर हो जाते हो। जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन्हों के वंश अर्थात् अंश बड़े रायल रूप से अपना बना देते हैं। जैसे लोभ का अंश है - आवश्यकता। लोभ नहीं है लेकिन आवश्यकता सब है। आवश्यकता की भी हद है। अगर आवश्यकता बेहद में चली जाती है तो लोभ का अंश हो जाता है।
ऐसे काम विकार नहीं है, सदा ब्रह्मचारी हैं लेकिन किसी आत्मा के प्रति विशेष झुकाव है जिसका रायल रूप स्नेह है। लेकिन एकस्ट्रा स्नेह अर्थात् काम का अंश। स्नेह राइट है लेकिन ‘‘एकस्ट्रा'' अंश है।
इसी प्रकार क्रोध को भी जीत लिया है लेकिन किसी आत्मा के कोई संस्कार देखते हुए स्वयं अन्दर ज्ञान स्वरूप से नीचे आ जाते और उसी आत्मा से किनारा करने का प्रयत्न करते, क्योंकि उसको देख उसके सम्पर्क में रहते अवस्था नीचे ऊपर होती है इसलिए स्वभाव को देख किनारा करना, यह भी घृणा अर्थात् क्रोध का ही अंश है। जैसे क्रोध अग्नि से जलने के कारण दूर रहते हैं, तो यह सूक्ष्म घृणा भी क्रोध के अग्नि के समान, किनारा करा देती है। इसका रायल शब्द है - अपनी अवस्था को खराब करें इससे किनारा करना अच्छा है। न्यारा बनना और चीज है, किनारा करना और चीज है। प्यारे बन न्यारे बनते हो,वह राइट है। लेकिन सूक्ष्म घृणा भाव - ‘‘यह ऐसा है, यह तो बदलना ही नहीं है।'' ऐसे सदा के लिए उसको सूक्ष्म में श्रापित करते हो। सेफ रहो लेकिन उसको सर्टीफिकेट फाइनल नहीं दो। ऐसे ही विशेषता को देखते हुए सदा सर्व के प्रति श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना रखते हुए इस अंश को भी विदाई दो। अपनी श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ कामना को छोड़ो नहीं, अपना बचाव करते हुए दूसरी आत्माओं को गिरा करके अपना बचाव नहीं करो। यह घृणा भाव अर्थात् गिराना। दूसरे को गिरा करके अपने को बचाना यह ब्राह्मणों की विशेषता नहीं। खुद को भी बचाओ, दूसरे को भी बचाओ। इसको कहा जाता है - विशेष बनना और विशेषता देखना। यह छोटी-छोटी बातें चलते-चलते दो स्वरूप धारण कर लेती हैं - एक दिलशिकस्त और दूसरा अलबेला। तो अभी रावण के अंश को सदा के लिए विदाई देने के लिए इन दोनों रूपों को विदाई दो। और सदा अपने में बाप द्वारा मिली हुई विशेषता को देखो। मेरी विशेषता नहीं, बाप द्वारा मिली हुई विशेषता है। मेरी विशेषता सोचेंगे फिर अहंकार का अंश आ जायेगा। मेरी विशेषता से काम क्यों नहीं लिया जाता, मेरी विशेषता को जानते ही नहीं है! ‘‘मेरी'' कहाँ से आई? विशेष जन्म की गिफ्ट है विशेषता पाना। तो जन्म दाता ने गिफ्ट दी, ‘‘मेरी'' कहाँ से आई? मेरी विशेषता, मेरी नेचर, मेरी दिल यह कहती है, वा मेरी दिल यह करती है, यह मेरी नहीं है लेकिन वरी (चिंता) है। आप लोग कहते हो ना - वरी, हरी, करी। समझा - यही अंश समाप्त करो और सदा बाप द्वारा मिली हुई स्वयं की विशेषता और सर्व की विशेषता देखो अर्थात् सदा स्वयं को और सर्व को बधाई दो। सबका अंश समझ लिया ना? अभी मोह का अंश क्या है? नष्टोमोहा नहीं हुए हो क्या? अच्छा - मोह का रायल रूप कोई भी वस्तु व व्यक्ति अच्छा लगता है, यह, यह चीज मुझे अच्छी लगती है, मोह नहीं लेकिन अच्छी लगती है। अगर किसी भी व्यक्ति या वस्तु में अच्छा लगता तो सब अच्छा लगना चाहिए - चत्तियों वाले कपड़े भी अच्छे तो बढ़िया कपड़ा भी अच्छा। 36 प्रकार के भोजन भी अच्छे तो सूखी रोटी और गुड़ भी अच्छा। हर वस्तु अच्छी, हर व्यक्ति अच्छा। ऐसे नहीं - यह ज्यादा अच्छा लगता है! यह वस्तु ज्यादा अच्छी लगती है ऐसा समझकर कार्य में नहीं लगाओ। दवाई है, दवाई करके भले खाओ। लेकिन अच्छा लगता है इसलिए खाओ, यह नहीं। अच्छा अर्थात् अट्रैक्शन जायेगी। तो यह है मोह का अंश। खाओ, पियो, मौज करो लेकिन अंश को विदाई दे करके न्यारे बन प्रयोग करने में प्यारे बनो। समझा! - बापदादा के भण्डारे से स्वत: ही सर्व प्रमाण, सर्व प्राप्ति का साधन बना हुआ है, खूब खाओ लेकिन बाप के साथ-साथ खाओ, अलग नही खाओ। बाप के साथ खायेंगे, बाप के साथ मौज मनायेंगे तो स्वत: ही सदा ‘लकीर के अन्दर अशोक वाटिका में होंगे'। जहाँ रावण का अंश आ नहीं सकता। खाओ, पियो, मौज करो लेकिन लकीर के अन्दर और बाप के साथ-साथ। फिर कोई बात मुश्किल नहीं लगेगी। हर बात मनोरंजन अनुभव होगी। समझा क्या करना है? सदा मनोरंजन करो। अच्छा - डबल विदेशी सदा मनोरंजन की विधि समझ गये? मुश्किल तो नही लगता ना? बाप के साथ बैठ जाओ तो कोई मुश्किल नहीं - हर घड़ी मनोरंजन अनुभव करेंगे। हर सेकण्ड स्व प्राप्ति और सर्व प्रति बधाई के बोल निकलते रहेंगे। तो विदाई देकर जाना है ना। साथ में तो नहीं ले जायेंगे ना? यह सर्व अंश को विदाई दे बधाई मनाके जाना। तैयार हो ना सभी डबल विदेशी। अच्छा बापदादा भी ऐसे सदाकाल की विदाई देने वालों को बधाई दे रहे हैं। पद्म-पद्म विदाई की बधाई। अच्छा-
ऐसे सदा मन्मनाभव अर्थात् सदा मनोरंजन करने वाले, सदा एक बाप मे सारा संसार अनुभव करने वाले, ऐसे विशेषतायें देखने वाले विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
सेवाधारियों से:- सेवाधारियों को मधुबन से क्या सौगात मिली? प्रत्यक्षफल भी मिला और भविष्य प्रालब्ध भी जमा हुई। तो डबल सौगात हो गई। खुशी मिली, निरन्तर योग के अभ्यासी बने, यह प्रत्यक्षफल मिला। लेकिन इसके साथसाथ भविष्य प्रालब्ध भी जमा हुई। तो डबल चांस मिला। यहाँ रहते सहजयोगी, कर्मयोगी, निरन्तर योगी का अभ्यास हो गया है। यही संस्कार अब ऐसे पक्के करके जाओ जो वहाँ भी यही संस्कार रहें। जैसे पुराने संस्कार न चाहते भी कर्म में आ जाते हैं ऐसे यह संस्कार भी पक्के करो। तो संस्कारों के कारण यह अभ्यास चलता ही रहेगा। फिर माया विघ्न नहीं डालेगी क्योंकि संस्कार बन गये। इसलिए सदा इन संस्कारों को अन्डरलाइन करते रहना। फ्रेश करते रहना। यहाँ रहते निर्विघ्न रहे? कोई विघ्न तो नहीं आया? कोई मन से भी आपस में टक्कर वगैरा तो नहीं हुआ? संगठन में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हुए भी ‘‘सी फादर'' किया या सी ब्रदर-सिस्टर भी हो गया? जो सदा सी फादर करने वाले हैं वे बापदादा के समीप बच्चे हैं। और जो सी फादर के साथ- सी सिस्टर-ब्रदर कर देते वह समीप के बच्चे नहीं, दूर के हैं। तो आप सब कौन हो? समीप वाले हो ना? तो सदा इसी स्मृति में चलते चलो। बाहर रहते हुए भी यही पाठ पक्का करो - ‘‘सी फादर या फालो फादर'', फालो फादर करने वाले कभी भी किसी परिस्थिति में डगमग नहीं होंगे क्योंकि फादर कभी डगमग नहीं हुआ है ना। तो सी फादर करने वाले अचल, अडोल, एकरस रहेंगे। अच्छा - सब आशायें पूरी हुई? सभी ने अपनी-अपनी सेवा में अच्छा पार्ट बजाया है। अच्छा पार्ट बजाने की निशानी है - हर वर्ष आपे ही निमंत्रण आयेगा। यह है प्रैक्टिकल यादगार बनाना। वह यादगार तो बनेगा ही लेकिन अभी भी बन जाता है। कोई अच्छी सेवा करके जाते हैं तो सबके मुख से यही निकलता कि - उसी को बुलाओ। तो ऐसा सबूत दिखाना चाहिए- जो सेवाधारी से सदा के सेवाधारी बन जाओ - सब कहे इन्हें यहाँ ही रख लो। अच्छा –
मधुबन निवासियों से- मधुबन निवासी तो हैं ही सर्व प्राप्ति स्वरूप। क्योंकि मधुबन की महिमा, मधुबन की विशेष पढ़ाई, मधुबन का विशेष संग, मधुबन का विशेष वायुमण्डल सब आपको प्राप्त है। मधुबन में बाहर वाले अपनी सब इच्छायें पूर्ण करने आते हैं और आप तो यहाँ बैठे ही हो। शरीर से भी बापदादा के सदा साथ हो क्योंकि मधुबन में सभी साथ का अनुभव साकार रूप में करते हैं। तो शरीर से भी साथ हो अर्थात् साकार में भी साथ हो और आत्मा तो है ही बाप के साथ। तो डबल साथ हो गया ना? सर्व प्रकार की खानों पर बैठे हो। तो सर्व खानों के मालिक हो गये ना! मधुबन वालों के मन से हर सेकण्ड, हर श्वांस यही गीत निकलना चाहिए कि - ‘पाना था वह पा लिया, अप्राप्त नही कोई वस्तु भण्डारे में'। मधुबन वाले तो सदा ताजा माल खाने वाले हैं। तो जो सदा ताजा खाने वाले होते हैं वह कितने हेल्दी होंगे। आप सब वरदानी आत्मायें हो, सदा बापदादा की पालना में पलते हो। बाहर वालों को तो दूसरे वातावरण में जाना पड़ता है इसलिए खास उन्हों को कोई न कोई वरदान देना पड़ता, आप तो वरदान भूमि में बैठे हो। बाहर वालों को तो एक वर्ष के लिए रिफ्रेशमेन्ट चाहिए।
इसलिए आप लोगों से एक-एक से बापदादा क्या बोलें। उनको तो कहते हैं लाइट हाउस होकर रहना, माइट हाउस होकर रहना। क्या आपको भी यह बोलें? बाहर वालों को इस बात की आवश्यकता है क्योंकि यही उनके लिए कमलपुष्प बन जाता है जिस पर न्यारे और प्यारे बनकर रहते हैं। वैसे भी घर में कोई आता है तो उसका ख्याल करना ही होता है। आप तो सदा ही घर में हो। उन्हों को डबल पार्ट बजाना है इसलिए डबल फोर्स भरना पड़ता है। उन्हों के लिए यह एक-एक शब्द संसार के सागर में नाव का काम करता है और आप तो संसार सागर से निकल ज्ञान सागर के बीच में बैठे हो। आपका संसार ही बाप है।
प्रश्न- बाबा में ही संसार है, इसका भाव क्या है?
उत्तर- वैसे भी बुद्धि जाती है तो संसार में ही जाती है ना! संसार में दो चीजें हैं - एक व्यक्ति दूसरा, वस्तु। बाप ही संसार है अर्थात् सर्व व्यक्तियों से जो प्राप्ति है वह एक बाप से है। और जो सर्व वस्तुओं से तृप्ति होती है वह भी बाप से है। तो संसार हो गया ना। सम्बन्ध भी बाप से, सम्पर्क भी बाप से। उठना, बैठना भाr बाप से। तो संसार ही बाप हो गया ना। अच्छा –
आस्ट्रेलिया पार्टी से- आज सभी ने क्या संकल्प किया? सभी ने माया को विदाई दी? जिन्हों को अभी भी सोचना है वह हाथ उठाओ। अगर अभी से कहते हो सोचेंगे तो यह भी कमजोर फाउण्डेशन हो गया। सोचेंगे अर्थात् कमजोरी। ब्रह्माकुमार कुमारियों का धन्धा ही है मायाजीत बनना और बनाना। तो अपना निजी धन्धा- जो है उसके लिए सोचा जाता है क्या! बोलो हुआ ही पड़ा है। जैसे देखो अगले वर्ष दृढ़ संकल्प रखकर गये कि अनेक स्थानों पर सेवाकेन्द्र खोलेंगे तो खुल गये ना! अभी कितने सेन्टर हैं? 17, तो जैसे यह संकल्प किया और पूरा हुआ। ऐसे मायाजीत बनने का भी संकल्प करो। बापदादा तो बच्चों की हिम्मत पर बार-बार मुबारक देते हैं। और भी आगे सेवा में वृद्धि करते रहना। सभी बापदादा के दिल पसन्द बच्चे हो। बापदादा भी आप साथियों के बिना कुछ नहीं कर सकते। आप बहुत-बहुत वैल्युएबल हो। अच्छा - अभी रूह-रूहान करो, जो पूछना है पूछो।
07-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“संकल्प की गति धैर्यवत होने से लाभ”
सर्वगुणों के सागर शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा अपने ‘एक बाप दूसरा न कोई' ऐसे एकनामी, एकरस स्थिति में स्थित होने वाले स्मृति स्वरूप बच्चों से मिलने आये हैं। हर बच्चे के मरजीवा जन्म की श्रेष्ठ रेखायें बापदादा देख रहे हैं। आजकल की दुनिया में विशेष हस्त रेखायें देखने से आत्मा के भाग्य का वर्णन करते हैं वा गुण, कर्त्तव्य की श्रेष्ठता का वर्णन करते हैं। लेकिन बापदादा हस्त रेखायें नहीं देखते हैं। हरेक बच्चे के मुख, नयन और मस्तक इन द्वारा हरेक की स्पीड और स्टेज की रेखायें देख रहे हैं। वैसे भी फेस द्वारा ही मनुष्य, आत्मा को परखने की कोशिश करते हैं। वे लोग देह अभिमानी होने के कारण स्थूल बातों को चेक करते हैं। बापदादा मस्तक द्वारा स्मृति स्वरूप को देखते हैं। नयनों द्वारा ज्वाला रूप को देखते हैं, मुख की मुस्कान द्वारा न्यारे और प्यारेपन की कमल पुष्प समान स्थिति को देखते हैं। जो सदा स्मृति स्वरूप रहते, उनकी रेखायें सदा मस्तक में संकल्पों की गति धैर्यवत होगी। किसी भी प्रकार का बोझ नहीं होगा। प्रेशर नहीं होगा। एक मिनट में एक संकल्प द्वारा अनेक संकल्पों को जन्म नहीं देंगे। जैसे शरीर में कोई भी बीमारी को नब्ज की गति से चेक करते हैं ऐसे संकल्प की गति, यह मस्तक की रेखा की पहचान है। अगर संकल्प की गति बहुत तीव्र गति में है, एक से एक, एक से एक संकल्प चलते ही रहते हैं तो संकल्पों की गति अति तीव्र होना, यह भी भाग्य की एनर्जी को वेस्ट करना है। जैसे मुख द्वारा अति तीव्र गति से और सदा ही बोलते रहने से शरीर की शक्ति वा एनर्जी वेस्ट होती है। कोई सदा बोलते ही रहते हैं, ज्यादा बोलते हैं, जोर से बोलते तो उसको क्या कहते हो? - धीरे बोलो, कम बोलो। ऐसे ही संकल्पों की गति रूहानी एनर्जी को वेस्ट करती है। सभी बच्चे अनुभवी हैं- जब व्यर्थ संकल्प चलते हैं तो संकल्पों की गति क्या होती है। और जब ज्ञान का मनन चलता है तो संकल्पों की गति क्या होती है? वह एनर्जी वेस्ट करता है, वह एनर्जी बनाता है। व्यर्थ संकल्प की तेज गति होने के कारण अपने आपको शक्ति स्वरूप कभी अनुभव नहीं करेंगे। जैसे शरीर की शक्ति गायब होने से वर्णन करते हो कि आज हमारा माथा खाली- खाली है। ऐसे आत्मा सर्व प्राप्तियों से अपने को खाली-खाली अनुभव करती है।
जैसे शारीरिक शक्ति के लिए इन्जेक्शन लगाकर ताकत भरते हैं वा ग्लूकोज की बोतल चढ़ाते हैं, ऐसे रूहानियत से कमजोर आत्मा पुरूषार्थ की विधि स्मृति में लाती है - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ, आज मुरली में बापदादा ने क्या-क्या पॉइंटस सुनाये, व्यर्थ संकल्प का ब्रेक क्या है! बिन्दी लगाने का प्रयत्न करना, तो यह हुआ इन्जेक्शन लगाना। ऐसे पुरूषार्थ की विधि के इन्जेक्शन द्वारा कुछ समय शक्तिशाली हो जाते हैं वा विशेष याद के प्रोग्राम्स द्वारा वा विशेष संगठन और संग द्वारा ग्लूकोज चढ़ा लेते हैं। लेकिन संकल्प की गति फास्ट के अभ्यासी थोड़े समय की शक्ति भरने से कुछ समय तो अपने को शक्तिवान अनुभव करेंगे लेकिन फिर भी कमजोर बन जायेंगे। इसलिए बापदादा मस्तक की रेखाओं द्वारा रिजल्ट देखते हुए फिर से बच्चों को यही श्रीमत याद दिलाते हैं कि संकल्प की गति अति तीव्र नहीं बनाओ। जैसे मुख के बोल के लिए कहते हैं कि दस शब्द के बजाए दो शब्द बोलो, जो दो शब्द ही ऐसे समर्थ हो जो 100 बोल का कार्य सिद्ध कर दें। ऐसे संकल्प की गति, संकल्प भी वही चले जो आवश्यक हो। संकल्प रूपी बीज सफलता के फल से सम्पन्न हो। खाली बीज न हो जिससे फल न निकले। इसको कहा जाता है सदा समर्थ संकल्प हो। व्यर्थ न हो। समर्थ की संख्या स्वत: ही कम होगी लेकिन शक्तिशाली होगी और व्यर्थ की संख्या ज्यादा होगी प्राप्ति कुछ भी नहीं। व्यर्थ संकल्प ऐसे समझो जैसे बट (बांस) का जंगल। जो एक से अनेक स्वत: पैदा होते जाते हैं और आपस में टकरा कर आग लगा देते हैं। और स्वयं ही अपनी आग में भस्म हो जाते हैं। ऐसे व्यर्थ संकल्प भी एक दो से टकराकर कोई-न-कोई विकार की अग्नि प्रज्वलित करते हैं और स्वयं ही स्वयं को परेशान करते हैं। इसलिए संकल्प की गति धैर्यवत बनाओ। इस मरजीवे जन्म का खजाना कहो वा विशेष एनर्जी कहो, वह है ही - ‘संकल्प'। मरजीवे बनने का आधार ही शुद्ध संकल्प है। ‘‘मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ'', इस संकल्प ने कौड़ी से हीरे तुल्य बना दिया ना! ‘‘मैं कल्प पहले वाला बाप का बच्चा हूँ, वारिस हूँ, अधिकारी हूँ'', इस संकल्प ने मास्टर सर्वशक्तिवान बनाया। तो खजाना भी यही है, एनर्जी भी यही तो संकल्प भी यही है। विशेष खजानों को कैसे यूज़ किया जाता है, ऐसे अपने संकल्प के खजाने वा एनर्जी को पहचान, ऐसे कार्य में लगाओ तब ही सर्व संकल्प सिद्ध होंगे और सिद्ध स्वरूप बन जायेंगे। तो समझा आज क्या रेखायें देखी? कम सोचो अर्थात् सिद्धि स्वरूप संकल्प करो। ऐसी रेखा वाले सदा बेगमपुर के बादशाह होंगे। मुख से सदैव महावाक्य बोलो। महावाक्य गिनती के होते हैं। जैसे महान आत्मायें गिनती की होती, आत्मायें अनेक होतीं और परमात्मा एक होता है। तो दोनों एनर्जी - संकल्प की और वाणी की व्यर्थ खर्च नहीं करो। महावीर महारथी अर्थात् मुख द्वारा महावाक्य बोलने वाले, बुद्धि द्वारा सिद्धि स्वरूप संकल्प करने वाले, यह निशानी है महावीर वा महारथी की। ऐसे महारथी बनो जो कोई भी सामने आये तो यही इच्छा रखे कि यह महान आत्मा मेरे प्रति श्रेष्ठ संकल्प सुनाये, आशीर्वाद के दो बोल बोले। आशीर्वाद के बोल सदा कम होते हैं। जो आप महारथी महावीर देवात्मायें, भक्तों की पूज्य आत्मायें हो। सदा संकल्प और बोल से आशीर्वाद के संकल्प और बोल बोलो। अमृतवाणी बोलो। लौकिक वाणी नहीं। अच्छा-
सदा महान संकल्प द्वारा स्वयं को और सर्व को शीतल बनाने वाले, वाणी द्वारा सदा आशीर्वाद के बोल बोलने वाले, ऐसे श्रेष्ठ रेखाओं वाले, सदा श्रेष्ठ आत्माओं को, महान आत्माओं को, देव आत्माओं को, पूज्य आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
विदेशी बच्चों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
बापदादा के सदा स्नेही, सदा सहयोगी और सदा सेवाधारी सर्विसएबल रत्न हो ना? हरेक रत्न कितना अमूल्य है जो विश्व के शो केश के बीच रखने वाला है। बापदादा जानते हैं कि कितनी ऊँची-ऊँची अनेक प्रकार की दीवारों को पार कर बाप के बने हैं! धर्म की दीवार, रीति रस्म की दीवार, ऐसे कितनी दीवारें पार की? लेकिन बाप के सहयोग के कारण इतनी ऊँची दीवारें भी ऐसे पार की जैसे एक कदम उठाया। कोई भी मुश्किल नहीं। इतना सहज लगा जो समझते हो कि हम तो थे ही बाप के। अगर आप सब बाप के नहीं बनते तो विदेश में इतने सेन्टर क्यों खुलते? सेवा के अर्थ अपने-अपने स्थान पर पहुँच गये थे, फिर से बाप ने आकर अपना बना लिया। तो अभी क्या समझते हो? मधुबन निवासी हो ना? आप सबका वोट मधुबन है। ऐसे समझते हो कि हम मधुबन निवासी सेवा पर गये हुए हैं? जैसे भारतवासी बच्चे भी और-और स्थान पर गये तो आप भी चले गये। हरेक बच्चे का भिन्न-भिन्न सर्विस का पार्ट है। अपनी हमजिन्स को जगाने के लिए कितना सहज सेवा के निमित्त बन गये। बापदादा वैरायटी स्थान के वैरायटी फूलों को देख बहुत खुश हैं। वैरायटी फूलों का एक वृक्ष हो जाए, ऐसा वृक्ष कभी देखा? एक वृक्ष के भिन्न-भिन्न प्रकार के गुलाब हो, फूल हो। सदा सिद्धि स्वरूप हो। क्योंकि बापदादा द्वारा वरदानी आत्मायें बन गये! तीन शब्द सदा याद रखो। एक - सदा बैलेन्स रखना है। दूसरा - सदा ब्लिसफुल रहना है। तीसरा - सर्व को ब्लैसिंग देना है। सेवा और स्व की सेवा दोनों का सदा बैलेन्स। बैलेन्स द्वारा कितनी कलायें दिखाते हैं। आप भी बुद्धि के बैलेन्स द्वारा सदा 16 कला सम्पन्न स्वरूप हो जायेंगे। आपका हर कर्म कला हो जायेगा। देखना भी कला! क्योंकि आत्मा होकर सुनते हो ना। ऐसे बोलना, चलना हर कदम में हर कर्म में कला। लेकिन इन सबका आधार है - ‘बुद्धि का बैलेंस'। ऐसे ही सदा ब्लिसफुल अर्थात् आनन्द स्वरूप। आनन्द के सागर के बच्चे सदा आनन्द स्वरूप। अच्छा - अब तो मिलते ही रहेंगे। संगमयुग है ही मेला। तो सदा मिलते ही रहेंगे। एक दिन भी बाप और बच्चों का मिलन न हो वा एक- एक सेकण्ड भी मिलन न हो ऐसा हो नहीं सकता। ऐसा अनुभव तो करते हो ना? सदा बाप के साथ-साथ कम्बाइन्ड हो ना? कम्बाइन्ड रूप से अलग करने की कोई को भी हिम्मत नहीं। किसी की भी ताकत नहीं। अच्छा-
09-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“होली मनाने और जलाने की अलौव्व्किक रीत्त्ति”
होली के उपलक्ष्य में अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य: -
‘‘आज हाइस्ट बाप अपने होलीहंसों से मिलने आये हैं। हरेक होलीहंस की बुद्धि में सदा ज्ञान के मोती माणिक रतन भरे हुए हैं। ऐसे होलीहंस बापदादा को भी सारे कल्प में एक ही बार मिलते हैं। ऐसे विशेष होलीहंस से बापदादा सारा ही संगमयुग होली मनाते रहते हैं। संसारी लोग वर्ष में एक दो दिन होली मनाते लेकिन मनाने के साथ गंवाते भी हैं और आप होली हंस, मनाते भी हो तो कमाते भी हो, गंवाते नहीं हो। बापदादा से सभी बच्चे दूर बैठे भी होली मना रहे हैं। बापदादा के पास देश-विदेश के बच्चों का श्रेष्ठ स्नेह का संकल्प पहुँच रहा है। सभी बच्चों के नयनों और मस्तक की पिचकारी द्वारा प्रेम की धारा, अति स्नेह की सुगन्धित पिचकारी आ रही है। बापदादा भी रिटर्न में सर्व बच्चों को नयनों की पिचकारी द्वारा अष्ट शक्ति अर्थात् अष्ट रंगों की पिचकारी से खेल रहे हैं। बापदादा देख रहे हैं जैसे स्थूल रंगों द्वारा लाल रंग से लाल बना देते हैं। भिन्नभिन्न रंगों से भिन्न-भिन्न रूप बना देते हैं ऐसे हर शक्ति के रूहानी रंग से हर शक्ति स्वरूप बन जाते हैं, हर गुण स्वरूप हो जाते हैं। दृष्टि के द्वारा रूप परिवर्तन हो जाता है। ऐसी रूहानी होली मनाने के लिए आये हो ना?
बापदादा पुष्पों की वर्षा कर होली मनाने के बजाए हरेक बच्चे को सदा के लिए रूहाब द्वारा रूहानी गुलाब बना देते हैं। स्वयं ही पुष्प बन जाते हैं। ऐसी होली सिवाए बाप और बच्चों के कोई मना नहीं सकते हैं। जन्म लेते ही बाप ने होली मनाए होली बना दिया। तो वह है मनाने वाले और आप हो सदा ‘होली' बनने वाले। सदा हर गुण का रंग, हर शक्ति का रंग, स्नेह का रंग लगा हुआ ही है। ऐसे होली हंस हो ना! तिलक लगाने की भी जरूरत नहीं। हो ही सदा तिलकधारी। अविनाशी तिलक लगा हुआ ही है ना। जो मिटाते भी मिट नहीं सकता। अल्पकाल के बजाए सदाकाल मनाते रहते और औरों को भी बनाते रहते। वे लोग तो मंगल मिलन के लिए गले मिलते हैं लेकिन आप होली हंस बापदादा के गले का हार ही बन गये हो। सदा गले का हार बन चमकते हुए रत्न विश्व के आगे रोशनी फैला रहे हो। एक-एक रत्न ऐसे चमकते हुए लाइट स्वरूप हो जो हजारों बल्ब भी वह रोशनी नहीं दे सकते। ऐसे चमकते हुए रत्न - अपने लाइट माइट स्वरूप को जानते हो ना! सारे विश्व को अन्धकार से रोशनी में ले जाने वाले आप चमकते हुए रत्न हो। बापदादा ऐसे होली हंसों से विशेष दिन के प्रमाण रूहानी होली मना रहे हैं।
होली जलाई भी और मनाई भी। जलाना और मनाना दोनों ही आता है ना? जलाने के बाद ही मनाना होता है। संकल्प की तीली से, जो भी कुछ स्व प्रति वा सेवा प्रति व्यर्थ संकल्प अर्थात् कमज़ोरी के संकल्प संस्कार हैं, सबको इकट्ठे करके तीली लगा दो, इसी को ही सूखी लकड़ियाँ कहते हैं। तो सबको इकट्ठे करके दृढ़ संकल्प की तीली लगा दो। तो जलाना भी हो जायेगा। जलाना ही मनाना और बनना है। तीली लगाने आती है ना? तो जलाओ और मनाओ। अर्थात् स्व को सदा ‘होली' बनाओ। ऐसे तो नहीं तीली लगाते तो तीली लगती ही नहीं। तीली भी माचिस के सम्बन्ध बिना जलती नहीं। तो बाप के साथ सम्पर्क सम्बन्ध होगा, अभ्यास की तीली पर मसाला ठीक होगा तब सेकण्ड में संकल्प किया और बना। तो सब साधन ठीक चाहिए। सम्बन्ध भी चाहिए। अभ्यास भी चाहिए। सम्बन्ध है और अभ्यास कम है तो मेहनत के बाद सफलता मिलेगी। सेकण्ड में संकल्प का स्वरूप नहीं बन सकेंगे। बार-बार संकल्प करते-करते मेहनत के बाद सफलता होगी। आप सभी के मेहनत अर्थात् भक्ति का समय समाप्त हो गया ना! भक्ति का अर्थ ही है मेहनत! भक्ति का समय समाप्त हुआ अर्थात् मेहनत समाप्त हुई। अब भक्ति का फल लेने का समय है। भक्ति का फल है ‘ज्ञान' अर्थात् मुहब्बत न कि मेहनत। 63 जन्म मेहनत की, थोड़ी वा ज्यादा लेकिन मेहनत तो की ना! अब अन्तिम एक जन्म मुहब्बत के समय भी मेहनत करेंगे क्या? अब तो मेहनत का फल खाओ। फल खाने के समय भी बीज बोते रहेंगे क्या! अब तो सदा बाप की मुहब्बत द्वारा फल खाओ अर्थात् सदा फलीभूत बनो। फल खाओ अर्थात् सदा सफल रहो। फल खाना अर्थात् सदा होली मनाना वा होली बन जाना। अब मेहनत करने के, युद्ध करने के संस्कार समाप्त करो। अब तो राज्य भाग्य पा लिया फिर युद्ध काहे की? देवपद के भाग्य से भी श्रेष्ठ भाग्य तो अब पाया है। स्वराज्य का मजा विश्व के राज्य में भी नहीं होगा। तो राज्य भाग्यवान आत्मायें अभी भी युद्ध क्यों करती हो? इसलिए मेहनत के संस्कार, युद्ध के संस्कार वा संकल्प की पुरानी लकड़ियों को आग लगा दो। यही होली जलाओ। बापदादा को भी बच्चों के मेहनत के संस्कार देख तरस पड़ता है। अभी तक भी मेहनत करेंगे तो फल कब खायेंगे? इसका मतलब अलबेला नहीं बनना कि मेहनत तो करनी नहीं है। अलबेला नहीं बनना है लेकिन सदा मुहब्बत में मगन रहना है। लवलीन रहना है। सोचा और हुआ - ऐसे अभ्यासी बनो। मास्टर सर्वशक्तिवान हो तो संकल्प किया और अनुभूति हुई - ऐसे सहज अभ्यासी बनो। श्रेष्ठ संकल्पों के खजाने को स्वरूप में लाओ। कोई भी श्रेष्ठ कार्य करते हो तो सजाते हो ना! जैसे कल भी श्रृंगार किया ना? (कल मधुबन मे 5 कन्याओं का समर्पण समारोह हुआ जिसमें उन्हें खूब सजाया गया था) श्रृंगारी हुई सजी हुई मूर्त भी शुभ निशानी है। तो आप सदा शुभ कार्य में उपस्थित हो तो सदा गुणों के गहनों से सजायें हुए रहो। सिर्फ बुद्धि की तिजारी में बन्द कर नहीं रखो। सदा गुणों के गहनों से सजी सजाई हुई मूर्त, यही 16 श्रृंगार अर्थात् 16 कला सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न बनो। ऐसे ऊँचे ते ऊँचे बाप के बच्चे सदा सुहागिन, सदा भाग्यवान आत्मायें बिगर श्रृंगार के कैसे सजेगी! सुहाग की निशानी भी श्रृंगार है और राज्य कुल की निशानी भी श्रृंगार है। तो आप कौन हो? राजाओं का राजा बनाने वाले के कुल के हो और सदा सुहागिन हो। तो गुणों के गहनों से सजी सजाई रूहानी मूर्त सदा बनो। ऐसी होली मनाई है?
मधुबन में होली मनाई ना? नाचना, गाना यह है मनाना। तो सदा गाते हो, सदा नाचते हो और स्थूल में भी नाचा और गाया भी। मनाया ना? गाया भी, खाया भी। योग भी लगाया, भोग भी लगाया। मन भी सदा मीठा, मुख भी सदा मीठा। तो होली हो गई ना! है ही कल्प कल्प की होली। बाकी क्या करेंगे? गुलबासी डालेंगे? गुलाब की पत्तियाँ डालेंगे? स्वयं ही गुलाब हो। बाकी कोई आशा रह गई हो तो कल गुलाब जल डाल देना। रंग में तो रंगे हुए ही हो। वह रंग तो मिटाना पड़ेगा और यह रंग तो जितना चढ़ा हुआ हो उतना अच्छा है।
ऐसे सदा रूहानी गुलाब, सदा ज्ञान के रंग में रंगे हुए, सदा प्रभु मिलन मनाने वाले, सदा गुणों के गहनों से सजी सजाई हुई मूर्त, बापदादा के समीप और समान रत्नों को, चाहे दूर हैं चाहे सम्मुख हैं, लेकिन सभी होली हंसों को बापदादा अविनाशी होली बनने की मुबारक दे रहे हैं। साथ-साथ सर्व लवलीन आत्माओं को स्नेह के रेसपान्ड में यादप्यार और सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।''
पार्टियों के साथ अव्यक्त मुलाकात (गुजरात)
1- आप सब बड़े ते बड़े व्यापारी हो ना? विश्व के अन्दर कोई भी इतना बड़ा बिजनेस नहीं कर सकता। जो होशियार बिजनेसमैन होते हैं वे कमाई को बढ़ाते जाते हैं। लौकिक में जब वृद्धि होती है तो एक-एक बिन्दी लगाते जाते हैं। आपको भी बिन्दी लगाना है। मैं भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी। बड़े ते बड़े व्यापारी हो लेकिन लगाना है बिन्दी। 6 व 8 लिखने में मुश्किल भी हो सकती है लेकिन बिन्दी तो सब लगा सकते हो। यह सहज भी है और श्रेष्ठ भी। सारे दिन में कितनी बिन्दी लगाते हो? जब क्वेश्चन होता है तो बिन्दी मिट जाती है। बिन्दी के बिना क्वेश्चन भी हल नहीं होता। तो बिन्दी लगाने में सब होशियार हो ना? बिन्दी लगाने में समय भी नहीं लगता। मैं भी बिन्दी, बाबा भी बिन्दी। इसके लिए यह भी कोई नहीं कह सकता कि समय नहीं है। सेकण्ड की बात है। तो जितने सेकण्ड मिलें बिन्दी लगाओ फिर रात को गिनो कितनी बिन्दी लगाई! किसी बात को सोचो नहीं, जो बात ज्यादा सोचते हो वो ज्यादा बढ़ती है। सब सोच छोड़ एक बाप को याद करो, यही दुआ हो जायेगी। याद में बहुत फायदे भरे हैं - जितना याद करेंगे उतना शक्ति भरती जायेगी, सहयोग भी प्राप्त होगा। और सेवा भी हो जायेगी। अच्छा -
12-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“चैतन्य पुष्पों में रंग, रूप, खुशबु का आधार”
बागवान शिव बाबा अपने चैतन्य फूलों के प्रति बोले:-
‘‘आज बागवान बाप अपने चैतन्य बगीचे में वैरायटी प्रकार के फूलों को देख रहे हैं। ऐसा रूहानी बगीचा बापदादा को भी कल्प में एक बार मिलता है। ऐसा रूहानी बगीचा रूहानी खुशबूदार फूलों की रौनक और किसी भी समय मिल नहीं सकती। चाहे कितना भी नामीग्रामी बगीचा हो लेकिन इस बगीचे के आगे वो बगीचे क्या अनुभव होंगे! यह हीरे तुल्य वो कौड़ी तुल्य। ऐसे चैतन्य ईश्वरीय बगीचे का रूहानी पुष्प हूँ - ऐसा नशा रहता है? जैसे बापदादा हरेक फुल के रंग, रूप और खुशबू तीनों को देखते हैं ऐसे अपने रंग, रूप और खुशबू को जानते हो?
रंग का आधार है - ज्ञान की सबजेक्ट। जितना-जितना ज्ञान स्वरूप होंगे उतना रंग आकर्षण करने वाला होगा। जैसे स्थूल फूलों के रंग देखते हो, भिन्नभिन्न रंग देखते हुए कोई-कोई रंग विशेष दूर से ही आकर्षित करता है। देखते ही मुख से यह महिमा जरूर निकलेगी कि कितना सुन्दर फूल है! और सदा दिल होगी कि देखते रहें। ऐसे ही ज्ञान के रंग में रंगे हुए फूल कितने सुन्दर लगेंगे। ऐसे ही रूप और खुशबू का आधार है - याद और दिव्य गुण मूर्त। सिर्फ रंग हो और रूप न हो तो भी आकर्षण नहीं होगी। और रंग रूप हो लेकिन खुशबू न हो तो भी आकर्षित नहीं करेंगे। कहा जाता है - यह नकली है, यह असली है। सिर्फ रंग रूप वाले पुष्प डैकोरेशन के लिए ज्यादा काम आते हैं लेकिन खुशबूदार पुष्प मानव अपने समीप रखेंगे। खुशबूदार पुष्प सदा ही स्वत: ही सेवा का स्वरूप है। तो अपने से पूछो - कि मैं कौन-सा पुष्प हूँ? कहाँ भी हैं लेकिन स्वत: सेवा होती रहती है अर्थात् रूहानी वायुमण्डल बनाने के निमित्त बने हुए हैं। नजदीक आने से अर्थात् सम्पर्क में आने से खुशबू पहुँचती है वा दूर से ही खुशबू फैलाते हैं! अगर सिर्फ ज्ञान सुन लिया, योग लगाने के अभ्यासी बन गये लेकिन ज्ञान स्वरूप वा योगी जीवन वाले वा प्रैक्टिकल दिव्यगुण मूर्त न बने तो सिर्फ डैकोरेशन अर्थात् प्रजा बन जायेंगे। राजा की प्रजा डैकोरेशन ही है। तो अल्लाह के बगीचे के पुष्प तो बन गये लेकिन कौन से? यही अपनी चेकिंग करनी है। बगीचा एक है, बागवान भी एक है लेकिन फूलों में वैरायटी है। डबल विदेशी अपने को क्या समझते हैं? राज्य अधिकारी हो वा राज्य करने वालों को देखने वाले? आज बापदादा बगीचे में मिलने के लिए आये हैं। सभी के मन में रूह-रूहान करने का संकल्प रहता है। तो आज रूह-रूहान करने के लिए आये हैं। विशेष दो ग्रुप हैं ना। बापदादा को तो सभी देश-विदेश दोनों तरफ के बच्चे अति प्रिय हैं। कर्नाटक वाले और डबल विदेशी भी सदा खुशी में झूलते रहते हैं। मधुबन में आते सभी मायाजीत बनने के अनुभवी बन गये हो वा मधुबन में भी माया आती है? मधुबन में आते ही हो मायाजीत स्थिति की अनुभूति करने के लिए। तो यहाँ माया का वार नहीं लेकिन माया हार खा कर जायेगी क्योंकि मधुबन में विशेष अपनी कमाई जमा करने के लिए आते हो। डबल विदेशियों को तो डबल लाक लगा देना चाहिए।
मधुबन में आकर विशेष अपने में कौन-सी विशेषतायें धारण की? (बाबा विदेशियों से तथा कर्नाटक वालों से प्रश्न पूछ रहे थे) जैसे सहजयोगी बनने की विशेषता देखी वैसे और क्या देखा? लव भी मिला, पीस भी मिली, लाइट भी मिली। सब कुछ मिला ना! जितनी स्व को प्राप्ति होगी तो प्राप्ति वाला सेवा के सिवाए रह नहीं सकता। इसलिए प्राप्ति स्वरूप सो सेवा स्वरूप स्वत: ही हो।
कर्नाटक वालों ने भी वृद्धि अच्छी की है और विदेश में भी अच्छी वृद्धि हुई है। विदेश ने सेवाकेन्द्र और सेवाधारी भी अच्छे निकालें हैं। बापदादा भी बच्चों की हिम्मत, उमंग, उत्साह देख हर्षित होते हैं। चाहे देश में, चाहे विदेश में सेवा का उमंग उत्साह बच्चों में देख बाप खुश होते हैं। अच्छा जो सेवाकेन्द्र में रहते हैं वा सेवा में उपस्थित हैं - देश चाहे विदेश में, सब अमृतवेला शक्तिशाली रखते हो? यह ग्रुप बहुत अच्छा है लेकिन अच्छे-अच्छे बच्चों को माया भी अच्छी तरह से देखती है। माया को भी वे अच्छे लगते हैं। इसलिए मायाजीत बनना है क्योंकि निमित्त आत्मायें हो ना। इसलिए विशेष अटेन्शन। निमित्त बनी हुई आत्मायें जितनी शक्तिशाली होंगी उतना वायुमण्डल को शक्तिशाली बना सकेंगी। नहीं तो वायुमण्डल कमजोर हो जाएगा। प्रॉब्लम्स बहुत आयेंगी। शक्तिशाली वायुमण्डल होने कारण स्वयं भी विघ्न विनाशक होंगे और औरों के भी विघ्न-विनाशक अर्थ निमित्त बनेंगे। जैसे सूर्य खुद प्रकाशमय है तो अंधकार को मिटाकर औरों को रोशनी देता और किचड़ा भस्म करता है। तो जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं वे शक्ति स्वरूप विघ्न विनाशक स्थिति में स्थित रहने का अटेन्शन रखो। सिर्फ स्वयं प्रति नहीं। स्टाक भी जमा हो जो औरों को भी विघ्न-विनाशक बना सको। तो यह मैजारिटी ग्रुप मास्टर ज्ञान सूर्य है! अभी सदा यही स्मृति स्वरूप बनकर रहना है कि - ‘मैं मास्टर ज्ञान सूर्य हूँ।' स्वयं भी प्रकाश स्वरूप और औरों का भी अंधकार मिटाना है। अच्छा-
मधुबन वाले भी बापदादा को याद हैं। मधुबन निवासी भी ब्राह्मण परिवार की नजरों में हैं। जब मधुबन की महिमा करते तो सामने मधुबन निवासी आते हैं। मधुबन की महिमा का तो पूरा भाषण बना हुआ है। जो मधुबन की महिमा है वह मधुबन निवासी हरेक अनुभव करते हो ना, कि हमारी महिमा है। अच्छा –
सदा सर्व विशेषता सम्पन्न विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं के स्वरूप द्वारा सेवा के निमित्त बने हुए सेवाधारी आत्माओं को, सदा रंग रूप और खुशबूदार फूलों को बागवान बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
डबल विदेशी बच्चों का एक प्रश्न रहता है कि हमें डबल सर्विस (ईश्वरीय सेवा के साथ नौकरी) के लिए क्यों कहा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बापदादा बोले-
‘‘समय कम है और प्राप्ति करने चाहते हो सबसे ज्यादा। इसके कारण तन भी लगे, मन लगे और धन भी लगे, इसलिए तीनों प्रकार की सर्विस करनी पड़े। थोड़े समय में आपका तीनों प्रकार का लाभ जमा होता है क्योंकि धन की भी मार्क्स हैं। वह मार्क्स जमा होने कारण नम्बर आगे ले लेते हो। तो आप लोगों के फायदे के लिए कहा जाता है कि अपना धन लगाना तो धन की सबजेक्ट में भी एक का पद्म मिलता है। सब तरफ से अगर एक ही समय में लाभ हो सकता है तो क्यों न करो। बाकी जब निमित्त बनी हुई आत्मायें देखेंगी, समय ही नहीं है, इसे फुर्सत ही नहीं है, अपने खाने का भी समय नहीं मिलता, यह इतना बिजी हो गये हैं तो आटोमेटिकली उससे फ्री कर देंगी। लेकिन जब तक इतने बिजी हो जाओ तब तक यह जरूरी है। यह व्यर्थ नहीं जाता है, इसकी भी मार्क्स जमा हो रही हैं। बिजी हो जायेंगे तो ड्रामा ही आपको वह नौकरी करने नहीं देगा। कोई न कोई कारण ऐसा बनेगा जो चाहो भी लेकिन कर नहीं सकेंगे। इसीलिए जैसे अभी चल रहे हो उस में ही कल्याण है। ऐसे नहीं समझो हम सरेन्डर नहीं हैं। सरेन्डर हो, डायरेक्शन प्रमाण कर रहे हो। अपने मन से करते हो तो सरेन्डर नहीं हो। इसमें अगर अपनी मत चलाते हो, कि नहीं! मैं तो नहीं करूंगी, और ही मनमत है। इसलिए स्वयं को सदा हल्का रखो। जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं वह अगर कहती हैं तो समझो इसमें हमारा कल्याण है। इसमें आप निश्चिन्त रहो। इसमें जो ज्यादा सोचेंगे - मेरा शायद पार्ट नहीं है, मेरे को क्यों नहीं कहा जाता है, यह फिर व्यर्थ है। समझा।
टीचर्स के प्रति:- टीचर्स के लिए सेवास्थान कौन-सा है? टीचर्स सदा विश्व की स्टेज पर हैं। आपका सेवास्थान है - विश्व स्टेज। तो स्टेज पर समझने से हर कर्म अटेन्शन से करेंगे। जब कोई प्रोग्राम करते हो तो स्टेज पर बैठते समय कितना अटेन्शन रहता है। अलबेला नहीं होते। तो टीचर्स बनना अर्थात् विश्व की स्टेज पर रहना। सेन्टर पर दो बहनें रहती हों, लेकिन दो नहीं, विश्व के आगे हो। अच्छा-
ओम् शान्ति
14-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बापदादा द्वारा देश विदेश का समाचार”
बापदादा बोले:-
‘‘आज बापदादा बच्चों के साथ सैर करने गये थे। बापदादा को सारी सृष्टि की परिक्रमा लगाने में कितना समय लगता होगा? जितने समय में चाहें उतने समय में परिक्रमा को पूरा कर सकते हैं। चाहे विस्तार से करें, चाहे सार में करें। आज डबल विदेशियों से मिलने का दिन है ना। इसलिए सैर समाचार सुनाते हैं। विदेश में क्या देखा और देश में क्या देखा?
कुछ समय पहले विदेश की विशेषता की लहर भारत में आई - वह क्या थी? जैसे विदेश में अल्पकाल के सुख के साधनों की मस्ती में सदा मस्त रहते थे - ऐसे भारतवासियों ने भी विदेशी सुख के साधनों को खूब अपने प्रति कार्य में लाया। खूब विदेशी साधनों द्वारा अल्पकाल के सुखों में मस्त होने की अनुभूति की। और अब भी कर रहे हैं। भारत वालों ने अल्पकाल के साधनों की कापी की और कापी करने के कारण अपनी असली शक्ति को खो दिया। रूहानियत से किनारा कर लिया और विदेशी सुख के साधनों का सहारा ले लिया। और विदेश ने क्या किया? समझदारी का काम किया। भारत की असली रूहानी शक्ति ने उन्हों को विदेश में आकर्षित किया। इसका परिणाम हरेक नामधारी रूहानी शक्ति वाले के पास अथवा निमित्त गुरूओं के पास विदेशी फालोअर्स ज्यादा देखने में आयेंगे। विदेशी आत्मायें नकली साधनों को छोड़कर असलियत की तरफ, रूहानियत की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रही हैं और भारतवासी नकली साधनों में मस्त हो गये हैं। अपनी चीज को छोड़ पराई चीज के तरफ जा रहे हैं और विदेशी आत्मायें असली चीज को ढूँढ़ने, परखने और पाने की ज्यादा इच्छुक हैं।
तो आज बापदादा देश-विदेश का सैर कर रहे थे। उस सैर में यही देखा कि भारतवासी क्या कर रहे हैं और विदेशी क्या कर रहे हैं? भारतवासियों को देख बापदादा को तरस आ रहा था कि इतने ऊँचे कुल की नम्बरवन धर्म की आत्मायें, पीछे के धर्म वालों की छोड़ी हुई चीजों को अपनाने में ऐसे मस्त हो गये हैं जो अपनी विशेष वस्तु को भूल गये हैं। इस कारण भारत रूपी घर में बैठे हुए, भारत रूपी घर में आये हुए श्रेष्ठ मेहमान बाप को भी नहीं जानते और विदेश की आत्मायें दूर बैठे भी सिर्फ सन्देश सुनते ही पहचान कर और पहुँच गई हैं। तो बापदादा देख रहे हैं कि डबल विदेशी बच्चों की परखने की आँख बहुत तेज है। दूर से परखने की आँख द्वारा, अनुभव द्वारा बाप देख लिया और पा लिया। और भारतवासी, उनमें भी बापदादा को आबू निवासियों पर ज्यादा तरस है जो पास होते भी परखने की आँख नहीं। परखने की आँख से अंधे रह गये ना! ऐसे बच्चों को देख तरस तो आयेगा ना! तो डबल विदेशियों की कमाल देख रहे थे।
दूसरा क्या देखा है कि आजकल जैसे भारत गरीब है ऐसे अब लास्ट समय नजदीक होने के कारण विदेशियों में भी सम्पन्नता में कमी आ गई है। जैसे वृक्ष जब हरा भरा होता है तो फल-फूल सब लगे हुए होते हैं लेकिन जब वृक्ष सूखने शुरू होता है तो सब फल फूल भी सूखने शुरू हो जाते हैं। तो यह देश की प्राप्ति रूपी विशेषता जिससे प्रजा सुखी रहे, खुश रहे, शान्ति का वातावरण रहे वह फल फूल सूखने लग गये हैं। अभी विदेश में भी नौकरी सहज नहीं मिलती। पहले कब विदेश में यह प्रॉब्लम सुनी थी? तो यह भी निशानी है सुख के साधन और शान्ति के फल सूख रहे हैं। भारत रूपी मुख्य तना सूख रहा है उसका प्रभाव मुख्य शाखाओं पर भी पड़ना शुरू हो गया है। यह क्रिश्चयन धर्म लास्ट की मुख्य बड़ी शाखा है। वृक्ष के चित्र में क्रिश्चयन धर्म कौन-सी शाखा है? जो मुख्य शाखायें दिखाते हो उसमें तो लास्ट हुआ ना। उस शाखा तक सम्पन्नता के प्राप्ति की हरियाली सूख गई है। यह निशानी है सारे वृक्ष के जड़जडीभूत अवस्था की। तो सारे विश्व में अल्पकाल के प्राप्ति रूपी फल-फूल सूखे हुए देखे। सिर्फ बाकी दो बातें हैं –
एक - मन से, मुख से चिल्लाना और दूसरा कैसे भी मजबूरी से जीवन को, देश को चलाना। चिल्लाना और कार्य से चलाना। यह दो काम बाकी रह गये हैं। खुशी-खुशी से चलना वह समाप्त हो गया है। कैसे भी चलाना है यह रह गया है। विदेश में भी यह रूपरेखा बन गई है। तो यह भी क्या निशानी हुई? मजबूरी से चलाना कहाँ तक चलेगा! अब जो चिल्ला रहे हैं ऐसे विश्व को क्या करना है? मजबूरी से चलाने वालों को प्राप्ति के पंख दे उड़ाना है। कौन उड़ा सकेगा? जो स्वयं उड़ती कला में होगा। तो उडती कला में हो? उड़ती कला वा चढ़ती कला - किस कला में हो? चढ़ती कला भी नहीं, अभी उड़ती कला चाहिए। कहाँ तक पहुँचे हो? डबल विदेशी क्या समझते हैं? मैजारिटी तो बाप समान शिक्षक क्वालिटी हैं ना। तो टीचर अर्थात् उड़ती कला वाले। ऐसे ही हो ना?
अच्छा - आज तो सिर्फ सैर समाचार सुनाया। अब देश-विदेश वाले प्रैक्टिकल में निशानियाँ स्पष्ट देख रहे हैं। आजकल जो बात होती तो कहते हैं 100 वर्ष पहले हुई थी। सब विचित्र बातें हो रही हैं। क्योंकि यह विचित्र बाप को प्रत्यक्ष करेंगी। सबके मुख से अभी यह आवाज निकल रहा है कि अब क्या होगा? यह क्वेश्चन मार्क सबकी बुद्धि में स्पष्ट हो गया है। अब फिर यह बोल निकलेंगे कि जो होना था वह हो गया। बाप आ गया। क्वेश्चन मार्क्स समाप्त हो, फुल स्टॉप लग जाएगा। जैसे मथनी से मक्खन निकाला जाता है तो पहले हलचल होती है बाद में मक्खन निकलता है। तो यह क्वेश्चन मार्क रूपी हलचल के बाद प्रत्यक्षता का मक्खन निकलेगा। अब तेजी से हलचल शुरू हो गई है। चारों ओर अब प्रत्यक्षता का मक्खन विश्व के आगे दिखाई देगा। लेकिन इस मक्खन को खाने वाले कौन? तैयार हो ना खाने के लिए? सभी आप फरिश्तों का आह्वान कर रहे हैं। अच्छा –
सर्व अप्राप्त आत्माओं को सर्व प्राप्ति कराने वाले, सर्व को परखने का नेत्र दान करने वाले महादानी, सर्व को सन्तुष्टता का वरदान देने वाले वरदानी सन्तुष्ट आत्मायें, सदा स्व के प्राप्ति के पंखों द्वारा अन्य आत्माओं को उड़ाने वाले, सदा उड़ती कला वाले, सदा स्व द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, विश्व के आगे प्रख्यात होने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
विदेशी बच्चों के साथ- अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
सदा अपने को सर्व प्राप्ति सम्पन्न अनुभव करते हो? सर्व प्राप्तियों की अनुभूति है? जिस आत्मा को सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होगी, उनकी निशानी क्या दिखाई देगी? वह सदा सन्तुष्ट होगा। उनके चेहरे पर सदा प्रसन्नता की निशानी दिखाई देगी। उनके चेहरे से दिखाई देगा कि यह सब कुछ पाई हुई आत्मा है। जैसे देखो लौकिक रीति से जो राजकुमार, राजकुमारी होते हैं वा ऊँचे कुल के होते हैं तो उनके चेहरे से दिखाई देता कि यह भरपूर आत्मायें हैं। ऐसे आप रूहानी कुल की आत्माओं के चेहरे से दिखाई दे - जो किसको नहीं मिला है वह इनको मिला है। ऐसे अनुभव होता है कि हमारी चलन और चेहरा बदल गया है चेहरे पर प्राप्ति की चमक आ गई है? डबल विदेशियों को डबल चांस मिला है तो सेवा भी डबल करनी है। डबल सेवा कैसे करेंगे? सिर्फ वाणी से नहीं लेकिन चलन से भी और चेहरे से भी। जैसे स्वयं परवाने बने हो, ऐसे अनेक परवानों को शमा के पास लाने वाली आत्मायें हो। तो आपकी उड़ान देखते ही अन्य परवाने भी आपके पीछे-पीछे उड़ने लग जायेंगे। जैसे आप सभी हर बात की गहराई में जाते हो, ऐसे हर गुण की अनुभूति की गहराई में जाओ। जितना गहराई में जायेंगे उतना रोज नया अनुभव कर सकेंगे। जैसे शान्त स्वरूप का अनुभव रोज करते हो लेकिन हर रोज नवीनता का अनुभव करो। नया अनुभव तब होगा जब एकान्तवासी होंगे। एकान्तवासी अर्थात सदा स्थूल एकान्त के साथ-साथ एक के अन्त में सदा रहना।
एक ‘‘बाबा'' शब्द भी जो बार-बार कहते हो, वह हर बार नया अनुभव होना चाहिए। जैसे शुरू में जब आये तब भी बाबा शब्द कहते थे, मधुबन में आये तब भी यही बोला और अब जब जायेंगे तब भी ‘बाबा' शब्द बोलेंगे लेकिन पहले बोलने में और अब के बोलने में कितना अन्तर होगा! यह अनुभव तो है ना? बाबा शब्द तो वही है लेकिन जिगरी प्राप्ति के आधार पर वही बाबा शब्द अनुभव में आगे बढ़ता गया। तो फर्क पड़ता है ना! ऐसे सब गुणों में भी रोज नया अनुभव करो। शान्त स्वरूप तो हो लेकिन शान्ति की अनुभूति किस प्वाइन्ट के आधार पर होती है, जैसे देखो मैं आत्मा परमधाम निवासी हूँ, इससे भी शान्ति की अनुभूति होती हैं और - मैं आत्मा सतयुग में सुख-शान्ति स्वरूप हूँगी उसका अनुभव देखो तो और होगा। ऐसे ही कर्म करते हुए अशान्ति के वातावरण में होते भी - मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ, उसकी अनुभूति करते हो तो उसका अनुभव और होगा। फर्क हो गया ना तीनों में। हैं तो शान्त स्वरूप। ऐसे रोज उस शान्त स्वरूप की अनुभूति में भी प्रोग्रेस हो। कब किस प्वाइन्ट से शान्त स्वरूप की अनुभूति करो, कभी किससे तो रोज का नया अनुभव होगा और सदा इसी में बिजी रहेंगे कि नया-नया मिले। नहीं तो क्या होता है चलते- चलते वही याद की विधि, वही मुरली सुनने और सुनाने की विधि, फिर वही बात कहाँ-कहाँ कामन अनुभव होने लगती है। इसलिए फिर उमंग भी जैसे सदा रहता है वैसे ही रहता है, आगे नहीं बढ़ता। और इसकी रिजल्ट में फिर कहाँ अलबेलापन भी आ जाता है। यह तो मुझे आता ही है, यह तो जानते ही हैं! तो उड़ती कला के बजाय ठहरती कला हो जाती है। इसलिए स्वयं तथा जिन आत्माओं के लिए निमित्त बनते हो, उन्हें सदा नवीनता का अनुभव कराने के लिए यह विधि जरूर चाहिए। समझा! आप सब मैजारिटी सेवा के निमित्त आत्मायें हो ना तो यह विशेषता जरूर धारण करनी है। रोज कोई न कोई प्वाइन्ट निकालो - शान्त स्वरूप के अनुभूति की प्वाइन्टस क्या हैं? ऐसे प्रेम स्वरूप, आनन्द स्वरूप सबकी विशेष प्वाइन्ट बुद्धि में रखते हुए रोज नया-नया अनुभव करो। सदा ऐसे समझो कि आज नया अनुभव करके औरों को कराना है। फिर अमृतवेले बैठने में भी बड़ी रूचि होगी। नहीं तो कभी-कभी सुस्ती की लहर आ जाती है। जहाँ नई चीज मिलती है वहाँ सुस्ती नहीं होती है। और वही-वही बातें हैं तो सुस्ती आने लगती है। तो समझा क्या करना है? तरीका समझ में आया? अभी कोई प्रश्न पूछना है तो पूछो - विदेशियों को वैसे भी वैरायटी अच्छी लगती है। जैसे पिकनिक में नमकीन भी चाहिए, मीठा भी चाहिए। और वैरायटी प्रकार का चाहिए तो जब भी अनुभव करने बैठते हो तो समझो अभी बापदादा से वैरायटी पिकनिक करने जा रहे हैं। पिकनिक का नाम सुनकर ही फुर्त हो जायेंगे। सुस्ती भाग जायेगी। वैसे भी आप लोगों को पिकनिक करना, बाहर में जाना अच्छा लगता है ना! तो चले जाओ बाहर, कभी परमधाम में चले जाओ, कभी स्वर्ग में चले जाओ, कभी मधुबन में आ जाओ, कभी लण्डन सेन्टर में चले जाओ, कभी आस्ट्रेलिया पहुँच जाओ। वैरायटी होने से रमणीकता में आ जायेंगे। अच्छा-
‘‘विदेशी बच्चों द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्न - बापदादा के उत्तर''
प्रश्न - चलते-चलते पुरूषार्थ मे जब रूकावट आती है तो क्या करना चाहिए? रूकावट आने का कारण क्या होता है?
उत्तर - जब कई प्रकार के पेपर्स सामने आते हैं, तो उन पेपर्स का सामना करने की शक्ति न होने के कारण पुरूषार्थ में रूकावट आ जाती है, ऐसे समय पर दूसरों का सहयोग लेना जरूरी होता है। जैसे कार में बैटरी जब थोड़ी ढीली हो जाती है, कार अपने आप नहीं चलती है तो दूसरों से थोड़ा धक्का लगवाते हैं ना! तो जिस भी आत्मा में आपका फेथ हो और समझो इनसे हमको मदद मिल सकती है तो उनसे थोड़ा-सा सहयोग लेकर आगे बढ़ जाना चाहिए। पहले उसे अपनी बात स्पष्ट सुनाना चाहिए कि ऐसे है, फिर सहयोग मिलने से चल पड़ेंगे। क्योंकि होता क्या है - जिस समय ऐसी स्टेज आती है उस समय डायरेक्ट बाप से सहयोग लेने की हिम्मत नहीं होती है, इसलिए फिर साकार में थोड़ासा सहयोग लेंगे तो फिर डायरेक्ट लेने में मदद मिल जायेगी।
प्रश्न - बाबा के साथ हम बच्चे भी चक्कर पर (विश्व परिक्रमा पर) कैसे जा सकते हैं?
उत्तर - इसके लिए बाप समान विश्व कल्याणकारी की बेहद की स्टेज में स्थित होना पड़े जब उस स्टेज में स्थित होंगे तो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे चित्र दिखाते हो - ग्लोब के ऊपर श्रीकृष्ण बैठा हुआ है, ऐसे मैं विश्व के ग्लोब पर बैठा हूँ। तो आटोमेटिकली विश्व का चक्र लग जायेगा। जैसे बहुत ऊँचे स्थान पर चले जाते हो तो चक्कर लगाना नहीं पड़ता लेकिन एक स्थान पर रहते सारा दिखाई देता है। ऐसे जब टॉप की स्टेज पर, बीजरूप स्टेज पर, विश्व कल्याणकारी स्थिति में स्थित होंगे तो सारा विश्व ऐसे दिखाई देगा जैसे छोटा ‘बाल' है। तो सेकण्ड में चक्कर लगाकर आयेंगे क्योंकि ऊँची स्टेज पर रहेंगे। बाकी कभी-कभी दिव्य दृष्टि द्वारा अनुभव होता है प्रैक्टिकल चक्कर लगाने का। वह फिर सूक्ष्म आकारी स्वरूप द्वारा। जैसे प्लेन में चक्कर लगाकर आओ वैसे आकारी रूप द्वारा विश्व का चक्कर लगा सकते हो। दोनों प्रकार से चक्र लगा सकते। जब हैं ही विश्व के रचयिता के बच्चे तो सारी रचना का चक्र तो लगायेंगे ना!
प्रश्न - कई बार योग में बहुत अच्छी-अच्छी टाचिंग होती हैं लेकिन यह बाबा की ही टाचिंग है, उसका पता कैसे चले?
उत्तर - 1- बाबा की टाचिंग हमेशा पॉवरफुल होगी और अनुभव होगा कि यह मेरी शक्ति से कुछ विशेष शक्ति है।
2- जो बाबा की टाचिंग होगी उसमें सहज सफलता की अनुभूति होगी।3- जो बाबा की टाचिंग होगी उसमें कभी भी क्यों, क्या का क्वेश्चन नहीं होगा। बिल्कुल स्पष्ट होगा। तो इन बातों से समझ लो कि यह बाबा की टाचिंग है।
प्रश्न- हम बुद्धि से सरेन्डर हैं या नहीं, उसकी परख क्या है?
उत्तर- बुद्धि से सरेन्डर का अर्थ है - बुद्धि जो भी निर्णय करे वह श्रीमत के अनुकूल हो। क्योंकि बुद्धि का कार्य है निर्णय करना। तो बुद्धि में श्रीमत के सिवाए और कोई बात आये ही नहीं। बुद्धि में सदा बाबा की स्मृति होने के कारण आटोमेटिकली निर्णय शक्ति वही होगी और उसकी प्रैक्टिकल निशानी यह होगी - कि उनकी जजमेन्ट सत्य होगी तथा सफलता वाली होगी। उनकी बात स्वयं को भी जँचेगी और औरों को भी जँचेगी कि बात बड़ी अच्छी कही है। सभी महसूस करेंगे कि इनकी बुद्धि बड़ी क्लीयर और सरेन्डर है। अपनी बुद्धि पर सन्तुष्टता होगी। क्वेश्चन नहीं होगा कि पता नहीं राइट है या रांग है।
प्रश्न- कई निश्चयबुद्धि बच्चे 4-5 साल चलने के बाद चले गये, यह लहर क्यों? इस लहर को कैसे समाप्त करें?
उत्तर- जाने का विशेष कारण - सेवा में बहुत बिजी रहते है लेकिन सेवा और स्व का बैलेन्स खो देते हैं। तो जो अच्छे-अच्छे बच्चे रूक जाते हैं उन्हों का एक तो यह कारण होता और दूसरा उन्हों का कोई विशेष संस्कार ऐसा होता है जो शुरू से ही उसमें कमजोर होते हैं लेकिन उसे छिपाते हैं, युद्ध करते रहते हैं अपने आप से। बापदादा को वा निमित्त बनी हुई आत्माओं को अपनी कमज़ोरी स्पष्ट सुनाकर उसे खत्म नहीं करते। छिपाने के कारण वह बीमारी अन्दर ही अन्दर विकराल रूप लेती जाती है और आगे बढ़ने का अनुभव नहीं होता, फिर दिलशिकस्त हो छोड़ देते हैं। तीसरा कारण यह भी होता - कि आपस में संस्कार नहीं मिलते हैं। संस्कारों का टक्कर हो जाता है।
अब इस लहर को समाप्त करने के लिए एक तो सेवा के साथ-साथ स्व का फुल अटेन्शन चाहिए। दूसरा जो भी आते हैं उन्हों को बापदादा वा निमित्त बनी हुई आत्माओं के आगे बिल्कुल क्लीयर होना चाहिए। अगर सर्विस में थोड़ा भी अनुभव करो ‘टू मच' है तो अपनी उन्नति का साधन पहले सोचना चाहिए और निमित्त बनी हुई आत्माओं को भी अपनी राय दे देनी चाहिए। जो नये आते हैं उन्हों को पहले इन बातों का अटेन्शन दिलाना चाहिए। अपने संस्कारों की चेकिंग पहले से ही करनी चाहिए। अगर किसी से अपना संस्कार टक्कर खाता है तो उससे किनारा कर लेना अच्छा है। जिस सरकमस्टांस में संस्कारों का टक्कर होता है, उनमें अलग हो जाना ही अच्छा है।
प्रश्न- अगर किसी स्थान पर सेवा की रिजल्ट नही निकलती है तो अपनी कमी है या धरनी ऐसी है?
उत्तर- पहले तो सेवा के सब साधन सब प्रकार से यूज़ करके देखो। अगर सब तरह से सेवा करने के बाद भी कोई रिजल्ट नहीं तो धरनी का फर्क हो सकता है। अगर अपनी कोई कमज़ोरी है, जिस कारण सर्विस नहीं बढ़ती तो जरूर अन्दर मे दिल खाती है कि हमारे कारण सेवा नहीं होती। ऐसे समय में फिर एक दो का सहयोग ले फोर्स दिलाना चाहिए। यदि अपना कारण होगा तो उस धरनी से निकलने वाली आत्मायें भी ढीली ढाली होंगी। तीव्र पुरूषार्थ नहीं। अच्छा।
17-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“संगम युग का वेशेष वरदान - ‘अमर भव'”
अमरनाथ शिव बाबा बोले:-
‘‘आज बापदादा अपने कल्प-कल्प की अधिकारी आत्माओं को देख रहे हैं। कौन-कौन श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी बने हैं, वह देख हर्षित हो रहे हैं। बापदादा अधिकारी आत्माओं को देख आज आपस में रूह-रूहान करते मुस्करा रहे थे। ब्रह्मा बाप बोले कि ऐसे बच्चों पर बाप की नज़र गई है कि जिनके लिए दुनिया वालों का यह सोचना भी असम्भव है कि ऐसी आत्मायें भी श्रेष्ठ बन सकती हैं। जो दुनिया की नजरों में अति साधारण आत्मायें हैं उन्हों को बापदादा ने अपने नैनों के नूर बना लिया है। बिल्कुल ही नाउम्मीद आत्माओं को विश्व के आगे सर्वश्रेष्ठ आत्मायें बना दिया है। तो बापदादा अपनी सेना के महावीरों को, अस्त्रधारी आत्माओं को देख रहे थे कि कौन-कौन आलमाइटी अथार्टी पाण्डव सेना में मैदान पर उपस्थित हैं। क्या देखा होगा? कितनी वण्डरफुल सेना है! दुनिया के हिसाब से अनपढ़ दिखाई देते हैं लेकिन पाण्डव सेना में टाइटल मिला है - ‘नालेजफुल'। सभी नालेजफुल हो ना? शरीर से चलना, उठना भी मुश्किल है लेकिन पाण्डव सेना के हिसाब से सेकण्ड में परमधाम तक पहुँच कर आ सकते हैं। वे तो एक हिमालय के ऊपर झण्डा लहराते हैं लेकिन शिव शक्ति पाण्डव सेना ने तीनों लोकों में अपना झण्डा लहरा दिया है। भोले भाले लेकिन ऐसे चतुर सुजान हैं जो विचित्र बाप को भी अपना बना दिया है। तो ऐसी सेना को देख बापदादा मुस्करा रहे थे। चाहे देश में चाहे विदेश में सच्चे ब्राह्मण फिर भी साधारण आत्मायें ही बनते हैं। जो वर्तमान समय के वी. आई. पीज. गाये जाते, सबकी नजरों में हैं लेकिन बाप की नजरों में कौन हैं? वे नामीग्रामी, कलियुगी आत्माओं द्वारा स्वार्थ के कारण गाये जाते वा माने जाते हैं। उन्हों की अल्पकाल की कलियुगी जमाने की महिमा है। अभी-अभी महिमा है, अभी-अभी नहीं है। लेकिन आप संगमयुगी पाण्डव सेना के पाण्डव और शक्तियों की महिमा सारा कल्प ही कायम रहती है क्योंकि अविनाशी बाप के मुख द्वारा जो महिमा गाई जाती वह अविनाशी बन जाती है। तो कितना नशा रहना चाहिए! जैसे आजकल की दुनिया में कोई नामीग्रामी श्रेष्ठ आत्मा गुरू के रूप में मानते हैं जैसे जिनको लौकिक गुरू भी अगर कोई बात किसको कह देते हैं तो समझते हैं गुरू ने कहा है तो वह सत्य ही होगा। और उसी फलक में रहते हैं। निश्चय के आधार पर नशा रहता है। ऐसे ही सोचो आपकी महिमा कौन करता है? कौन कहता है- श्रेष्ठ आत्मायें! तो आप लोगों को कितना नशा होना चाहिए!
वरदाता कहो, विधाता कहो, भाग्यदाता कहो, ऐसे बाप द्वारा आप श्रेष्ठ आत्माओं को कितने टाइटल मिले हुए हैं! दुनिया में कितने भी बड़े-बड़े टाइटल हों लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के एक टाइटिल के आगे वह अनेक टाइटिल्स भी कुछ नहीं हैं। ऐसी खुशी रहती है?
संगमयुग का विशेष् वरदान कौन-सा है? अमर बाप द्वारा ‘अमर भव'। संगमयुग पर ही ‘अमर भव' का वरदान मिलता है। इस वरदान को सदा याद रखते हो? नशा रहता है, खुशी रहती है, याद रहती है लेकिन अमर भव के वरदानी बने हो? जिस युग की जो विशेषता है, उस विशेषता को कार्य में लगाते हो? अगर अभी यह वरदान नहीं लिया तो फिर कभी भी यह वरदान मिल नहीं सकता। इसलिए समय की विशेषता को जानकर सदा यह चेक करो कि ‘अमर भव' के वरदानी बने हैं? अमर कहो, निरन्तर कहो इस विशेष शब्द को बार-बार अण्डरलाइन करो। अमरनाथ बाप के बच्चे अगर ‘अमर भव' के वर्से के अधिकारी नहीं बने तो क्या कहा जायेगा? कहने की जरूरत है क्या!
इसलिए मधुबन वरदान भूमि में आकर सदा वरदानी भव! अच्छा - ऐसे सदा बापदादा के नयनों में समायें हुए नूरे रत्न, सदा वरदाता द्वारा वरदान प्राप्त कर वरदानी मूर्त, श्रेष्ठ भाग्यवान मूर्त, सदा विश्व के आगे चमकते हुए सितारे बन विश्व को रोशन करने वाले, ऐसे संगमयुगी पाण्डव शिव शक्ति सेना को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
(दीदी जी के साथ)- ‘‘चक्रधारी तो हो। चक्रधारी के साथ-साथ चक्रवर्ता भी हो गई। डबल चक्र लगाती हो। स्थूल भी और बुद्धि द्वारा भी। चक्रधारी सदा सर्व को वरदानों की नज़र से, वाणी से, कर्म से, वरदानों से झोली भरते रहते हैं। तो वर्तमान समय विधाता के बच्चे विधाता हो वा वरदाता बाप के बच्चे वरदानी मूर्त हो? ज्यादा क्या पार्ट चलता है? दाता का या वरदाता का? महादानी का या वरदानी का? दोनों ही पार्ट चलता है वा दोनों में से विशेष एक पार्ट चलता है? लास्ट पार्ट कौन-सा है? विधाता का या वरदानी का? वरदान लेना तो सहज है लेकिन देने वाले को इतना प्राप्ति स्वरूप की स्टेज पर स्थित रहना पड़े। लेने वालों के लिए वरदान एक गोल्डन लाटरी है क्योंकि लास्ट में वे ही आत्मायें आयेंगी जो बिल्कुल कमजोर होंगी। समय कम और कमजोर ज्यादा । इसलिए लेने की भी हिम्मत नहीं होगी। जैसे किसका हार्ट बहुत कमजोर हो और आप कितनी भी बढ़िया चीज दो लेकिन वह ले नहीं सकता। समझते भी हैं कि बाढिंया चीज है लेकिन ले नहीं सकते। ऐसे लास्ट आत्मायें सब बातों में कमजोर होंगी इसलिए वरदानी का पार्ट ज्यादा चलेगा। जो स्वयं के प्रति सम्पन्न हो चुके, ऐसी सम्पन्न आत्मायें ही वरदानी बन सकती हैं। सम्पन्न बनना यह है वरदानी स्टेज। अगर स्वयं प्रति कुछ रहा हुआ होगा तो दूसरों को देखते भी स्वयं तरफ अटेन्शन जायेगा और स्वयं में भरने में समय लगेगा। इसलिए स्वयं सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न होंगे तब वरदानी बन सकेंगे। अच्छा-''
पार्टियों के साथ मुलाकात
1- सच्चे ब्राह्मणों के तकदीर की लम्बी लकीर - 21 जन्मों के लिए:- कितने भाग्यवान हो जो भगवान के साथ पिकनिक कर रहे हो! ऐसा कब सोचा था - कि ऐसा दिन भी आयेगा जो साकार रूप में भगवान के साथ खायेंगे, खेलेंगे, हंसेंगे... यह स्वप्न में भी नहीं आ सकता लेकिन इतना श्रेष्ठ भाग्य है जो साकार में अनुभव कर रहे हो। कितनी श्रेष्ठ तकदीर की लकीर है - जो सर्व प्राप्ति सम्पन्न हो। वैसे जब किसी को तकदीर दिखाते हैं तो कहेंगे इसके पास पुत्र है, धन है, आयु है लेकिन थोड़ी छोटी आयु है... कुछ होगा कुछ नहीं। लेकिन आपके तकदीर की लकीर कितनी लम्बी है। 21 जन्म तक सर्व प्राप्तियों के तकदीर की लकीर है। 21 जन्म गारन्टी है और बाद में भी इतना दुख नहीं होगा। सारे कल्प का पौना हिस्सा तो सुख ही प्राप्त होता है। इस लास्ट जन्म में भी अति दुखी की लिस्ट में नहीं हो। तो कितने श्रेष्ठ तकदीरवान हुए! इसी श्रेष्ठ तकदीर को देख सदा हर्षित रहो।
2- प्यार के सागर से प्यार पाने की विधि - न्यारा बनो:- कई बच्चों की कम्पलेन है कि याद में तो रहते हैं लेकिन बाप का प्यार नहीं मिलता है। अगर प्यार नहीं मिलता है तो जरूर प्यार पाने की विधि में कमी है। प्यार का सागर बाप, उससे योग लगाने वाले प्यार से वंचित रह जाएँ, यह हो नहीं सकता। लेकिन प्यार पाने का साधन है - ‘न्यारा बनो'। जब तक देह से वा देह के सम्बन्धियों से न्यारे नहीं बने हो तब तक प्यार नहीं मिलता। इसलिए कहाँ भी लगाव न हो। लगाव हो तो एक सर्व सम्बन्धी बाप से। एक बाप दूसरा न कोई... यह सिर्फ कहना नहीं लेकिन अनुभव करना है। खाओ, पियो, सोओ... बाप-प्यारे अर्थात् न्यारे बनकर। देहधारियों से लगाव रखने से दुख अशान्ति की ही प्राप्ति हुई। जब सब सुन, चखकर देख लिया तो फिर उस जहर को दुबारा कैसे खा सकते? इसलिए सदा न्यारे और बाप के प्यारे बनो।
मेहनत से छुटने की विधि- मेरा-पन समाप्त करोः- बापदादा सभी बच्चों को मेहनत से छुड़ाने आये हैं। आधाकल्प बहुत मेहनत की अब मेहनत समाप्त। उसकी सहज विधि सुनाई है, सिर्फ एक शब्द याद करो - ‘मेरा बाबा'। मेरा बाबा कहने में कोई भी मेहनत नहीं। मेरा बाबा कहो तो, दुख देने वाला ‘मेरामेरा' सब समाप्त हो जायेगा। जब अनेक मेरा है तो मुश्किल है, एक मेरा हो गया तो सब सहज हो गया। बाबा-बाबा कहते चलो तो भी सतयुग में आ जायेंगे। मेरा पोत्रा, मेरा धोत्रा, मेरा घर, मेरी बहू... अब यह जो मेरे-मेरे की लम्बी लिस्ट है इसे समाप्त करो। अनेकों को भुलाकर एक बाप को याद करो तो मेहनत से छूट आराम से खुशी के झूले में झूलते रहेंगे। सदा बाप की याद के आराम में रहो।
अच्छा- ओमशान्ति।
19-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“‘कर्म'' - आत्मा का दर्शर्न्न कराने का दर्पण”
कर्मों की गुह्य गति को जानने वाले बापदादा बोले-
‘‘आज सर्वशक्तिवान बाप अपने शक्ति सेना को देख हर्षित हो रहे हैं। हरेक मास्टर सर्वशक्तिवान आत्माओं ने सर्वशक्तियों को कहाँ तक अपने में धारण किया है? विशेष शक्तियों को अच्छी तरह से जानते हो और जानने के आधार पर चित्र बनाते हो। यह चित्र, चैतन्य स्वरूप की निशानी है - ‘‘श्रेष्ठता अथवा महानता।'' हर कर्म श्रेष्ठ, महान है इससे सिद्ध है कि शक्तियों को चरित्र अर्थात् कर्म में लाया है। निर्बल आत्मा है वा शक्तिशाली आत्मा है, सर्वशक्ति सम्पन्न है वा शक्ति स्वरूप सम्पन्न है - यह सब पहचान कर्म से ही होती है क्योंकि कर्म द्वारा ही व्यक्ति और परिस्थिति के सम्बन्ध वा सम्पर्क में आते हैं। इसलिए नाम ही है - ‘‘कर्म-क्षेत्र, कर्म-सम्बन्ध, कर्म-इन्द्रियां, कर्म भोग, कर्म योग''। तो इस साकार वतन की विशेषता ही - ‘कर्म' है। जैसे निराकार वतन की विशेषता कर्मों से अतीत अर्थात् न्यारे हैं। ऐसे साकार वतन अर्थात् कर्म। कर्म श्रेष्ठ है तो श्रेष्ठ प्रालब्ध है, कर्म भ्रष्ट होने के कारण दुख की प्रालब्ध है। लेकिन दोनों का आधार ‘कर्म' है। कर्म, आत्मा का दर्शन कराने का दर्पण है। कर्म रूपी दर्पण द्वारा अपने शक्ति स्वरूप को जान सकते हो। अगर कर्म द्वारा कोई भी शक्ति का प्रत्यक्ष रूप दिखाई नहीं देता तो कितना भी कोई कहे कि मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ लेकिन कर्मक्षेत्र पर रहते कर्म में नहीं दिखाया तो कोई मानेगा? जैसे कोई बहुत होशियार योद्धा हो, युद्ध में बहुत होशियार हो लेकिन युद्ध के मैदान में दुश्मन के आगे युद्ध नहीं कर पाये और हार खा ले तो कोई मानेगा कि यह होशियार योद्धा है? ऐसे अगर अपनी बुद्धि में समझते रहें कि मैं शक्ति स्वरूप हूँ लेकिन परिस्थितियों के समय, सम्पर्क में आने के समय, जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता है उस शक्ति को कर्म मे नहीं लाते तो कोई मानेगा कि यह शक्ति स्वरूप हैं? सिर्फ बुद्धि तक जानना वह हो गया घर बैठे अपने को होशियार समझना। लेकिन समय पर स्वरूप न दिखाया, समय पर शक्ति को कार्य में नहीं लगाया, समय बीत जाने के बाद सोचा तो शक्ति स्वरूप कहा जायेगा? यही कर्म में श्रेष्ठता चाहिए। जैसा समय वैसी शक्ति कर्म द्वारा कार्य में लगावें। तो अपने आपको सारे दिन की कर्म लीला द्वारा चेक करो कि हम मास्टर सर्वशक्तिवान कहाँ तक बने हैं!
विशेष कौन सी शक्ति समय पर विजयी बनाती है और विशेष कौन सी शक्ति की कमज़ोरी बार-बार हार खिलाती है? कई बच्चे अपनी कमजोर शक्ति को जानते भी हैं। कभी कोई धारणा युक्त संगठन होता या अपने स्व पुरूषार्थियों का वायुमण्डल होता तो वर्णन भी करेंगे लेकिन साधारण रीति में। मैजारिटी अपनी कमज़ोरी को दूसरों से छिपाने की कोशिश करते हैं। समय पर कोई सुनाते भी हैं फिर भी उसी कमज़ोरी के बीज को कम पहचानते हैं। ऊपर-ऊपर से वर्णन करेंगे। बाहर के रूप के विस्तार का वर्णन करेंगे लेकिन बीज तक नहीं जायेंगे। इसलिए रिजल्ट क्या होती है - उस कमज़ोरी के ऊपर की शाखायें तो काट देते हैं, इसलिए थोड़ा समय तो समाप्त अनुभव होती हैं लेकिन बीज होने के कारण कुछ समय के बाद परिस्थितियों का पानी मिलने से फिर उसी कमज़ोरी की शाखा निकल आती है। जैसे आजकल के वायुमंडल में, दुनिया में बीमारी खत्म नहीं होती है- क्योंकि बीमारी के बीज को डाक्टर नहीं जानते। इसलिए बीमारी दब जाती है लेकिन समाप्त नहीं होती है। ऐसे यहाँ भी बीज को जानकर बीज को समाप्त करो। कई बीज को जानते भी हैं लेकिन जानते हुए भी अलबेलेपन के कारण कहेंगे, हो जायेगा, एक बार से थोड़े ही खत्म होगा? समय तो लगता ही है! ऐसे ज्यादा समझदारी कर लेते हैं। जिस समय पावरफुल बनना चाहिए उस समय नालेजफुल बन जाते हैं। लेकिन नालेज की शक्ति है, उस नालेज को शक्ति रूप में यूज़ नहीं करते। प्वाइन्ट के रूप से यूज़ करते हैं लेकिन हर एक ज्ञान की प्वाइन्ट शस्त्र है, उसे शस्त्र के रूप से यूज़ नहीं करते। इसलिए बीज को जानो। अलबेलेपन में आकर अपनी सम्पन्नता में वा सम्पूर्णता में कमी नहीं करो। और अगर बीज को जानने के बाद स्वयं में जानने की शक्ति अनुभव करते हो लेकिन भस्म करने की शक्ति नहीं समझते हो तो अन्य ज्वाला स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं का भी सहयोग ले सकते हो, क्योंकि कमजोर आत्मा होने कारण डायरेक्ट बाप द्वारा कनेक्शन और करेक्शन नहीं कर पाते तो सेकण्ड नम्बर श्रेष्ठ आत्माओं का सहयोग ले स्वयं को वेरीफाय कराओ। वेरीफाय होने से सहज प्युरीफाय हो जायेंगे। तो समझा क्या चेक करना है और कैसे चेक करना है?
एक तो छिपाओ नहीं। दूसरा जानते हुए टाल नहीं दो, चला नहीं दो। चलाते हो तो चिल्लाते भी हो। तो आज बापदादा शक्ति सेना की शक्ति को देख रहे थे। अभी प्राप्त की हुई शक्तियों को कर्म में लाओ क्योंकि विश्व की सर्व आत्माओं के आगे, ‘कर्म' ही आपकी पहचान कराएंगे। कर्म से वह सहज जान लेंगे। कर्म सबसे स्थूल चीज है। संकल्प सूक्ष्म शक्ति है। आजकल की आत्मायें स्थूल मोटे रूप को जल्दी जान सकती हैं। वैसे सूक्ष्म शक्ति स्थूल से बहुत श्रेष्ठ है लेकिन लोगों के लिए सूक्ष्म शक्ति के बायब्रेशन कैच करना अभी मुश्किल है। कर्म शक्ति द्वारा आपकी संकल्प शक्ति को भी जानते जाएंगे। मंसा सेवा कर्मणा से श्रेष्ठ है। वृत्ति द्वारा वृत्तियों को, वायुमण्डल को परिवर्तन करना यह सेवा भी अति श्रेष्ठ है। लेकिन इससे सहज कर्म है। उसकी परिभाषा तो पहले भी सुनाई है लेकिन आज इस बात को स्पष्ट कर रहे हैं कि कर्म द्वारा शक्ति स्वरूप का दर्शन अथवा साक्षात्कार कराओ तो कर्म द्वारा संकल्प शक्ति तक पहुँचना सहज हो जायेगा। नहीं तो कमजोर कर्म, सूक्ष्म शक्ति बुद्धि को भी, संकल्प को भी नीचे ले आयेंगे। जैसे धरनी की आकर्षण ऊपर की चीज को नीचे ले आती है। इसलिए चित्र को चरित्र में लाओ। अच्छा –
ऐसे हर शक्ति को कर्म द्वारा प्रत्यक्ष दिखाने वाले, अपने शक्ति स्वरूप द्वारा सर्वशक्तिवान बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा परखने और परिवर्तन शक्ति स्वरूप, सदा चरित्र द्वारा विचित्र बाप का साक्षात्कार कराने वाले, ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान, श्रेष्ठ कर्म कर्ता, शक्ति स्वरूप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ-
1- माया के मेहमान निवाजी की रिजल्ट है - उदासी - सदा अपने को बापदादा के साथी समझते हो? जब सदा बाप का साथ अनुभव होगा तो उसकी निशानी है - ‘सदा विजयी'। अगर ज्यादा समय युद्ध में जाता है, मेहनत का अनुभव होता है तो इससे सिद्ध है - बाप का साथ नहीं। जो सदा साथ के अनुभवी हैं वे मुहब्बत में लवलीन रहते हैं। प्रेम के सागर में लीन आत्मा किसी भी प्रभाव में आ नहीं सकती। माया का आना यह कोई बड़ी बात नहीं लेकिन वह अपना रूप न दिखाये। अगर माया की मेहमान-निवाजी करते हो तो चलते- चलते ‘उदासी' का अनुभव होगा। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे न आगे बढ़ रहे हैं न पीछे हट रहे हैं। पीछे भी नहीं हट सकते, आगे भी नहीं बढ़ सकते - यह माया का प्रभाव है। माया की आकर्षण उड़ने नहीं देती। पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं लेकिन अगर आगे नहीं बढ़ते तो बीज को परखो और उसे भस्म करो। ऐसे नहीं - चल रहे हैं, आ रहे हैं, सुन रहे हैं, यथाशक्ति सेवा कर रहे हैं। लेकिन चैक करो कि अपनी स्पीड और स्टेज की उन्नति कहाँ तक है। अच्छा।
2- महाप्रसाद वही बनता जो एक धक से बाप पर बलि चढ़े- सभी बच्चे जीवनमुक्त स्थिति का विशेष वर्सा अनुभव करते हो? जीवनमुक्त हो या जीवनबन्ध? ट्रस्टी अर्थात् जीवनमुक्त। तो मरजीवा बने हो या मर रहे हो? कितने साल मरेंगे? भक्ति मार्ग में भी जड़ चित्र को प्रसाद कौनसा चढ़ता हैं? जो झाटकू होता है। चिलचिलाकर मरने वाला प्रसाद नहीं होता। बाप के आगे प्रसाद वही बनेगा जो झाटकू होगा। एक धक से चढ़ने वाला। सोचा, संकल्प किया, ‘मेरा बाबा, मैं बाबा का' तो झाटकू हो गया। संकल्प किया और खत्म! लग गई तलवार! अगर सोचते, बनेंगे, हो जायेंगे... तो गें...गें अर्थात् चिलचिलाना। गें गें करने वाले जीवनमुक्त नहीं। बाबा कहा - तो जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप सागर हो और बच्चे भिखारी हों, यह हो नहीं सकता। बाप ने आफर किया - मेरे बनो तो इसमें सोचने की बात नहीं। अच्छा –
22-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“राज्यसत्ता और धर्मर्स्सत्ता के अध्ध्धिकारी बच्चों से बापदादा की मुलाकात”
बापदादा अपने सर्व अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए जो गायन है कि राज्य सत्ता और धर्म की सत्ता - दोनों सत्ता एक के हाथ में रहती है। यह महिमा आपके भविष्य प्रालब्ध रूप की गाई हुई है। लेकिन भविष्य प्रालब्ध का आधार वर्तमान श्रेष्ठ जीवन है। बापदादा चारों ओर के बच्चों को देख रहे हैं कि राज्य सत्ता और धर्म सत्ता दोनों कहाँ तक प्राप्त की हैं! संस्कार सब इस समय ही आत्मा में भरते हैं। अब के राजे वही भविष्य में राज्य अधिकारी बन सकते हैं। अब की धारणा स्वरूप आत्मायें ही धर्म सत्ता प्राप्त कर सकती हैं। तो दोनों ही सत्तायें हरेक ने अपने में कहाँ तक धारण की है?
राज्य सत्ता अर्थात् अधिकारी, अथार्टी स्वरूप। राज्य सत्ता वाली आत्मा अपने अधिकार द्वारा जब चाहे, जैसे चाहे वैसे अपनी स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों को चला सकती है। यह अथार्टी राज्य सत्ता की निशानी है। दूसरी निशानी - राज्य सत्ता वाले हर कार्य को ला एण्ड आर्डर द्वारा चला सकते हैं। राज्य सत्ता अर्थात् मात-पिता के स्वरूप में अपनी प्रजा की पालना करने की शक्ति वाला। राज्य सत्ता अर्थात् स्वयं भी सदा सर्व में सम्पन्न और औरों को भी सम्पन्नता में रखने वाले। राज्य सत्ता अर्थात् विशेष सर्व प्राप्तियाँ होंगी - सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम, सर्व गुणों के खजानों से भरपूर। स्वयं भी और सर्व भी खजानों से भरपूर। राज्य सत्ता वाले अर्थात् अधिकारी आत्मायें बने हो? मातपिता के समान पालना की विशेषता अनुभव करते हो? जो भी आत्मायें सम्बन्ध वा सम्पर्क में आवें, वे अनुभव करें कि यही श्रेष्ठ आत्मायें हमारे ‘पूर्वज' हैं। इन्हीं आत्माओं द्वारा जीवन का सच्चा प्रेम, और जीवन की उन्नति का साधन प्राप्त हो सकता है क्योंकि पालना द्वारा ही प्रेम और जीवन की उन्नति प्राप्त होती है। पालना द्वारा आत्मा योग्य बन जाती है। छोटा सा बच्चा भी पालना द्वारा अपनी जीवन की मंजिल को पहुँचने के लिए हिम्मतवान बन जाता है। ऐसे रूहानी पालना द्वारा आत्मा निर्बल से शक्ति स्वरूप बन जाती है। अपनी मंजिल की ओर तीव्रगति से पहुंचने की हिम्मतवान बन जाती है। पालना में वह सदा प्रेम के सागर बाप द्वारा सच्चे अथाह प्रेम की अनुभूति करती है। ऐसे राज्य सत्ता की निशानियां अपने में अनुभव करते हो? अधीनता के संस्कार परिवर्तन हो, अधिकारीपन के संस्कार अनुभव करते हो? राज्य सत्ता के संस्कार भर गये हैं? निशानियाँ तो यहाँ दिखाई देंगी वा भविष्य में? राज्य सत्ता की एक और भी विशेषता है, जानते हो? ‘सदा अटल और अखण्ड राज्य।' यह महिमा अपने राज्य की करते हो ना! यह भी निशानी चेक करो कि राज्य सत्ता की जो भी निशानियाँ हैं वह अटल और अखण्ड हैं? सत्ता खण्डित तो नही होती! अभी-अभी अधिकारी, अभी-अभी अधीन होगा तो उनको अखण्ड कहा जायेगा? इससे ही अपने आपको जान सकते हो कि मेरी प्रालब्ध क्या है - राज्य अधिकारी हूँ वा राज्य के अन्दर रहने वाला हूँ?
इसी रीति - धर्म सत्ता अर्थात् हर धारणा की शक्ति स्वयं में अनुभव करने वाली आत्मा। जैसे पवित्रता के धारणा की शक्ति अनुभव करने वाली। पवित्रता की शक्ति से सदा परमपूज्य बन जाते। पवित्रता की शक्ति से इस पतित दुनिया को परिवर्तन कर लेते हो। पवित्रता की शक्ति विकारों की अग्नि में जलती हुई आत्माओं को शीतल बना देती है। पवित्रता की शक्ति आत्मा को अनेक जन्मों के विकर्मों के बन्धन से छुड़ा देती है। पवित्रता की शक्ति नेत्रहीन को तीसरा नेत्र दे देती है। पवित्रता की शक्ति से इस सारे सृष्टि रूपी मकान को गिरने से थमा सकते हैं। पवित्रता पिलर्स हैं - जिसके आधार पर द्वापर से यह सृष्टि कुछ न कुछ थमी हुई है। पवित्रता लाइट का क्राउन है। ऐसे पवित्रता की धारणा - ‘यह है धर्म सत्ता'। इसी प्रकार हर गुण की धारणा, हर गुण की विशेषता आत्मा में समाई हुई हो। इसको कहा जाता है ‘धर्म सत्ता'। धर्म सत्ता अर्थात् धारणा की सत्ता। ऐसी धर्म सत्ता वाली आत्मायें बने हो? धर्म में दो विशेषतायें होती हैं। धर्म सत्ता स्व को और सर्व को सहज परिवर्तन कर लेती है। परिवर्तन शक्ति स्पष्ट होगी। सारे चक्र में देखो जो भी धर्म सत्ता वाली आत्मायें आई हैं उन्हों की विशेषता है - मनुष्य आत्माओं को परिवर्तन करना। साधारण मनुष्य से परिवर्तन हो कोई बौद्धी, कोई क्रिश्चयन बना, कोई मठ पंथ वाले बने। लेकिन परिवर्तन तो हुए ना! तो धर्म सत्ता अर्थात् परिवर्तन करने की सत्ता। पहले स्वयं को फिर औरों को। धर्म सत्ता की दूसरी विशेषता है - ‘परिपक्वता'। हिलने वाले नहीं। परिपक्वता की शक्ति द्वारा ही परिवर्तन कर सकेंगे। चाहे सितम हों, ग्लानी हो, आपोजिशन हो लेकिन अपनी धारणा में परिपक्व रहें। यह हैं धर्म सत्ता की विशेषतायें। धर्म सत्ता वाली हर कर्म में निर्मान। जितना ही गुणों की धारणा सम्पन्न होगा अर्थात् गुणों रूपी फल स्वरूप होगा उतना ही फल सम्पन्न होते भी निर्मान होगा। अपनी ‘निर्मान' स्थिति द्वारा ही हर गुण को प्रत्यक्ष कर सकेंगे। जो भी ब्राह्मण कुल की धारणायें हैं उन सर्व धारणाओं की शक्ति होना अर्थात् धर्म सत्ताधारी होना। तो राज्य सत्ता और धर्म सत्ता दोनों संस्कार हर आत्मा में भर गये हैं! दोनों का बैलेन्स है?
आज बापदादा सभी बच्चों का यह चार्ट देख रहे थे कि कहाँ तक धर्म सत्ता और राज्य सत्ता अधिकारी बने हैं! नम्बरवार होंगे वा सभी एक जैसे होंगे? मेरा नम्बर क्या है यह जान सकते हो? यहाँ सब राजे बैठे हो ना! प्रजा बनाने वाले हो ना! स्वयं तो प्रजा नहीं हो ना! तो सभी अपने को ऐसे राज्य सत्ता और धर्म सत्ता अधिकारी बनाओ। समझा - राज्य वंश की निशानियाँ क्या हैं? देहली और महाराष्ट्र जोन वाले बैठे हैं ना! राजधानी वाले भी राज्य अधिकारी बनेंगे ना! और महाराष्ट्र वाले महान बनेंगे। महान अर्थात् राज्य अधिकारी। तो दोनों ही स्थान की महान श्रेष्ठ आत्मायें आई हुई हैं। और विदेशी क्या बनेंगे? राज्य करने वाले वा राज्य को देखने वाले बनेंगे? सबसे आगे जायेंगे ना! अच्छा –
ऐसे राज्य सत्ता और धर्म सत्ता अधिकारी, सदा सम्पन्न बन औरों को सम्पन्न बनाने वाले, परिवर्तन शक्ति द्वारा स्व परिवर्तन और विश्व परिवर्तन करने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सारा कल्प महिमा और पूजन होने वाली पवित्र आत्मायें, सदा अपने पवित्रता के गुण द्वारा सर्व को गुणवान बनाने वाली गुण मूर्त आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ:-
1. समय के प्रमाण स्वयं को परिवर्तन करो:- अभी समय के प्रमाण परिवर्तन की गति तीव्र चाहिए। जब समय तीव्रगति में जा रहा है और परिवर्तन करने वाले तीव्रगति में नहीं होंगे तो समय परिवर्तन हो जायेगा और स्वयं कमी वाले ही रह जायेंगे। कमी वाली आत्माओं की निशानी क्या दिखाई है? कमान। तो कमानधारी बनना है वा छत्रधारी बनना है? सूर्यवंशी बनना है ना? तो सूर्य सदा तेज होता है और तीव्रगति में कार्य करता है। सूर्य के अन्तर में चन्द्रमा शीतल गाया जाता है। तो पुरूषार्थ में शीतल नहीं होना है। पुरूषार्थ में शीतल हुए तो चन्द्रवंशी हो जायेंगे। सूर्यवंशी की निशानी है - तीव्र पुरूषार्थ। सोचा और किया। ऐसे नहीं, सोचा एक वर्ष पहले और किया दूसरे वर्ष में। तीव्र पुरूषार्थ अर्थात् उड़ती कला वाले। अभी चढ़ती कला का समय भी चला गया। अब तो आगे बढ़ने का बहुत सहज साधन मिला हुआ है सिर्फ एक शब्द की गिफ्ट है - वह कौन सी? ‘मेरा बाबा', यही एक शब्द ऐसी लिफ्ट है जो एक सेकण्ड में नीचे से ऊपर जा सकते हो। क्या यह लिफ्ट यूज़ करने नहीं आती? अब लिफ्ट का जमाना है फिर सीढ़ी क्यों चढ़ते हो? लिफ्ट में कोई थकावट नहीं होती। सोचा और पहुँचा। तो कौन हो? एक ही शब्द लिफ्ट है - ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं, एक शब्द एक नम्बर में पहुँचा देगा। ‘जब मेरा बाबा हुआ तो मैं उसमें समा गई।' इतनी सहज लिफ्ट यूज़ करो - यूज़ करने वाले पहुँच जाते और देखने वाले, सोचने वाले रह जाते। तो अब एक शब्द के स्मृति स्वरूप होकर सदा समर्थ आत्मा बन जाओ।
सदा हर कदम आगे बढ़ाते दूसरों को भी आगे बढ़ाते रहो। जितना स्वयं सम्पन्न होंगे उतना औरों को भी सम्पन्न बना सकेंगे।
अच्छा - ओमशान्ति।
24-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“ब्राह्मण जीवन की विशेषता है - ‘‘पवित्रता''”
परमपवित्र बापदादा बोले-
‘‘आज बापदादा अपने पावन बच्चों को देख रहे हैं। हरेक ब्राह्मण आत्मा कहाँ तक पावन बनी है - यह सबका पोतामेल देख रहे हैं। ब्राह्मणों की विशेषता है ही ‘पवित्रता'। ब्राह्मण अर्थात् पावन आत्मा। पवित्रता को कहाँ तक अपनाया है, उसको परखने का यन्त्र क्या है? ‘‘पवित्र बनो'', यह मन्त्र सभी को याद दिलाते हो लेकिन श्रीमत प्रमाण इस मन्त्र को कहाँ तक जीवन मे लाया है? जीवन अर्थात् सदाकाल। जीवन में सदा रहते हो ना! तो जीवन में लाना अर्थात् सदा पवित्रता को अपनाना। इसको परखने का यन्त्र जानते हो? सभी जानते हो और कहते भी हो कि ‘पवित्रता सुख-शान्ति की जननी है'। अर्थात् जहाँ पवित्रता होगी वहाँ सुख-शांति की अनुभूति अवश्य होगी। इसी आधार पर स्वयं को चैक करो - मंसा संकल्प में पवित्रता है, उसकी निशानी - मन्सा में सदा सुख स्वरूप, शान्त स्वरूप की अनुभूति होगी। अगर कभी भी मंसा में व्यर्थ संकल्प आता है तो शांति के बजाय हलचल होती है। क्यों और क्या इन अनेक क्वेश्चन के कारण सुख स्वरूप की स्टेज अनुभव नहीं होगी। और सदैव समझने की आशा बढ़ती रहेगी - यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, यह कैसे, यह ऐसे। इन बातों को सुलझाने में ही लगे रहेंगे। इसलिए जहाँ शांति नहीं वहाँ सुख नहीं। तो हर समय यह चेक करो कि किसी भी प्रकार की उलझन सुख और शांति की प्राप्ति में विघ्न रूप तो नहीं बनती है! अगर क्यों, क्या का क्वेश्चन भी है तो संकल्प शक्ति में एकाग्रता नहीं होगी। जहाँ एकाग्रता नहीं, वहाँ सुख- शांति की अनुभूति हो नहीं सकती। वर्तमान समय के प्रमाण फरिश्ते-पन की सम्पन्न स्टेज के वा बाप समान स्टेज के समीप आ रहे हो, उसी प्रमाण पवित्रता की परिभाषा भी अति सूक्ष्म समझो। सिर्फ ब्रह्मचारी बनना भविष्य पवित्रता नहीं लेकिन ब्रह्मचारी के साथ ‘ब्रह्मा आचार्य' भी चाहिए। शिव आचार्य भी चाहिए। अर्थात् ब्रह्मा बाप के आचरण पर चलने वाला। शिव बाप के उच्चारण किये हुए बोल पर चलनेवाला। फुट स्टैप अर्थात् ब्रह्मा बाप के हर कर्म रूपी कदम पर कदम रखने वाले। इसको कहा जाता है - ‘ब्रह्मा आचार्य'। तो ऐसी सूक्ष्म रूप से चैंकिग करो कि सदा पवित्रता की प्राप्ति, सुख-शांति की अनुभूति हो रही है? सदा सुख की शैय्या पर आराम से अर्थात् शांति स्वरूप में विराजमान रहते हो? यह ब्रह्मा आचार्य का चित्र है।
सदा सुख की शैय्या पर सोई हुई आत्मा के लिए यह विकार भी छत्रछाया बन जाता हैं - दुश्मन बदल सेवाधारी बन जाते हैं। अपना चित्र देखा है ना! तो ‘शेष शय्या' नहीं लेकिन ‘सुख-शय्या'। सदा सुखी और शान्त की निशानी है - सदा हर्षित रहना। सुलझी हुई आत्मा का स्वरूप सदा हर्षित रहेगा। उलझी हुई आत्मा कभी हर्षित नहीं देखेंगे। उसका सदा खोया हुआ चेहरा दिखाई देगा और वह सब कुछ पाया हुआ चेहरा दिखाई देगा। जब कोई चीज खो जाती है तो उलझन की निशानी क्यों, क्या, कैसे ही होता है। तो रूहानी स्थिति में भी जो भी पवित्रता को खोता है, उसके अन्दर क्यों, क्या और कैसे की उलझन होती है। तो समझा कैसे चेक करना है? सुख-शांति के प्राप्ति स्वरूप के आधार पर मंसा पवित्रता को चेक करो।
दूसरी बात - अगर आपकी मंसा द्वारा अन्य आत्माओं को सुख और शांति की अनुभूति नहीं होती अर्थात् पवित्र संकल्प का प्रभाव अन्य आत्मा तक नहीं पहुँचता तो उसका भी कारण चेक करो। किसी भी आत्मा की जरा भी कमज़ोरी अर्थात् अशुद्धि अपने संकल्प में धारण हुई तो वह अशुद्धि अन्य आत्मा को सुख-शान्ति की अनुभूति करा नहीं सकेगी। या तो उस आत्मा के प्रति व्यर्थ वा अशुद्ध भाव है वा अपनी मंसा पवित्रता की शक्ति में परसेन्टेज की कमी है। जिस कारण औरों तक वह पवित्रता की प्राप्ति का प्रभाव नहीं पड़ सकता। स्वयं तक है, लेकिन दूसरों तक नहीं हो सकता। लाइट है, लेकिन सर्चलाइट नहीं है। तो पवित्रता के सम्पूर्णता की परिभाषा है - सदा स्वयं में भी सुख-शान्ति स्वरूप और दूसरों को भी सुख-शांति की प्राप्ति का अनुभव कराने वाले। ऐसी पवित्र आत्मा अपनी प्राप्ति के आधार पर औरों को भी सदा सुख और शान्ति, शीतलता की किरणें फैलाने वाली होगी। तो समझा सम्पूर्ण पवित्रता क्या है?
पवित्रता की शक्ति इतनी महान है जो अपनी पवित्र मंसा अर्थात् शुद्ध वृत्ति द्वारा प्रकृति को भी परिवर्तन कर लेते। मंसा पवित्रता की शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है - प्रकृति का भी परिवर्तन। स्व परिवर्तन से प्रकृति का परिवर्तन। प्रकृति के पहले व्यक्ति। तो व्यक्ति परिवर्तन और प्रकृति परिवर्तन - इतना प्रभाव है मंसा पवित्रता की शक्ति का। आज मंसा पवित्रता को स्पष्ट सुनाया - फिर वाचा और कर्मणा अर्थात् सम्बन्ध और सम्पर्क में सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा क्या है वह आगे सुनायेंगे। अगर पवित्रता की परसेन्टेज में 16 कला से 14 कला हो गये तो क्या बनना पड़ेगा? जब 16 कला की पवित्रता अर्थात् सम्पूर्णता नहीं तो सम्पूर्ण सुख-शांति के साधनों की भी प्राप्ति कैसे होगी! युग बदलने से महिमा ही बदल जाती है। उसको सतोप्रधान, उसको सतो कहते हैं। जैसे सूर्यवंशी अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज है। 16 कला अर्थात् फुल स्टेज है वैसे हर धारणा में सम्पन्न अर्थात् फुल स्टेज प्राप्त करना ‘सूर्यवंशी' की निशानी है। तो इसमें भी फुल बनना पड़े। कभी सुख की शय्या पर कभी उलझन की शय्या पर इसको सम्पन्न तो नहीं कहेंगे ना! कभी बिन्दी का तिलक लगाते, कभी क्यों, क्या का तिलक लगाते। तिलक का अर्थ ही है - ‘स्मृति'। सदा तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। तीन बिन्दियों का तिलक ही सम्पन्न स्वरूप है। यह लगाने नहीं आता! लगाते हो लेकिन अटेन्शन रूपी हाथ हिल जाता है। अपने पर भी हंसी आती है ना! लक्ष्य पावरफुल है तो लक्षण सम्पूर्ण सहज हो जाते हैं। मेहनत से भी छूट जायेंगे। कमजोर होने के कारण मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। शक्ति स्वरूप बनो तो मेहनत समाप्त। अच्छा –
सदा सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, यह अधिकार प्राप्त की हुई आत्मायें, सदा सम्पूर्ण पवित्रता द्वारा स्वयं और सर्व को सुख-शांति की अनुभूति कराने वाली, अनुभूति करने और कराने के यन्त्र द्वारा सदा पवित्र बनो - इस मंत्र को जीवन में लाने वाले, ऐसे सम्पूर्ण पवित्रता, सुख-शांति के अनुभवों में स्थित रहने वाले, बाप समान फरिश्ता स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ
1. सदा रूहानियत की खुशबू फैलाने वाले सच्चे-सच्चे रूहानी गुलाब:- सभी बच्चे- सदा रूहानी नशे में रहने वाले सच्चे रूहानी गुलाब हो ना? जैसे रूहे गुलाब का नाम बहुत मशहूर है वैसे आप सभी आत्मायें रूहानी गुलाब हो। रूहानी गुलाब अर्थात् चारों ओर रूहानियत की खुशबू फैलाने वाले। ऐसे अपने को रूहानी गुलाब समझते हो? सदा रूह को देखते और रूहों के मालिक के साथ रूह-रूहान करते यही रूहानी गुलाब की विशेषता है। सदा शरीर को देखते रूह अर्थात् आत्मा को देखने का पाठ पक्का है ना! इसी रूह को देखने के अभ्यासी रूहानी गुलाब हो गये। बाप के बगीचे के विशेष पुष्प हो क्योंकि सबसे नम्बरवन रूहानी गुलाब हो। सदा एक की याद में रहने वाले अर्थात् एक नम्बर में आना है, यही सदा लक्ष्य रखो।
(दीदी जी- दिल्ली मेले की ओपानिंग पर जाने की छुट्टी ले रहीं हैं)
सभी को उड़ाने के लिए जा रही हो ना! याद में, स्नेह में, सहयोग में, सबमें उड़ाने के लिए जा रही हो। यह भी ड्रामा में बाइप्लाट्स रखे हुए हैं। तो अच्छा है अभी-अभी जाना, अभी-अभी आना। आत्मा ही प्लेन बन गई। जैसे प्लेन में आना, जाना मुश्किल नहीं वैसे आत्मा ही उड़ता पंछी हो गई है। इसलिए आने-जाने में सहज होता है। यह भी ड्रामा में हीरो पार्ट है, थोड़े समय में भासना अधिक देने का। तो यह हीरो पार्ट बजाने के लिए जा रही हो। अच्छा - सभी को याद देना और सदा सफलता स्वरूप का शुभ संकल्प रखते आगे बढ़ते चलो - यही स्मृति स्वरूप बनाकर आना। फिर भी दिल्ली है। दिल्ली को तो पवित्र स्थान बनाना ही है। आवाज फिर भी दिल्ली से ही निकलेगा। सबके माइक दिल्ली से ही पहुँचेगे। जब गवर्मेंट से आवाज निकलेगा तब समाप्ति हो जायेगी। तो भारत के नेतायें भी जागेंगे। उसकी तैयारी के लिए जा रही हो ना! अच्छा-
27-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“बीजरूप स्थिति तथा अलौकिक अनुभूतियाँ”
बीजरूप शिव बाबा बिन्दु आत्माओं के प्रति बोले:-
‘‘आवाज से परे रहने वाला बाप, आवाज की दुनिया में आवाज द्वारा सर्व को आवाज से परे ले जाते हैं। बापदादा का आना होता ही है साथ ले जाने के लिए। तो सभी साथ जाने के लिए एवररेडी हो वा अभी तक तैयार होने के लिए समय चाहिए? साथ जाने के लिए बिन्दु बनना पड़े। और बिन्दु बनने के लिए सर्व प्रकार के बिखरे हुए विस्तार अर्थात् अनेक शाखाओं के वृक्ष को बीज में समाकर बीजरूप स्थिति अर्थात् बिन्दू में सबको समाना पड़े। लौकिक रीति में भी जब बड़े विस्तार का हिसाब करते हो तो सारे हिसाब को समाप्त कर लास्ट में क्या कहते? कहा जाता है - ‘कहो शिव अर्थात् बिन्दी'। ऐसे सृष्टि चक्र वा कल्प वृक्ष के अन्दर आदि से अन्त तक कितने हिसाब किताब के विस्तार में आये? अपने हिसाब किताब की शाखाओं अथवा विस्तार रूपी वृक्ष को जानते हो ना? देह के हिसाब की शाखा, देह के सम्बन्धों की शाखायें, देह के भिन्नभिन्न पदार्थों में बन्धनी आत्मा बनने की शाखा, भक्ति मार्ग और गुरूओं के बन्धनों के विस्तार की शाखायें, भिन्न-भिन्न प्रकार के विकर्मों के बन्धनों की शाखायें, कर्मभोग की शाखायें, कितना विस्तार हो गया। अब इन सारे विस्तार को बिन्दु रूप बन बिन्दी लगा रहे हो? सारे विस्तार को बीज में समा दिया है वा अभी भी विस्तार है? इस जड़जड़ीभूत वृक्ष की किसी भी प्रकार की शाखा रह तो नहीं गई है? संगमयुग है ही पुराने वृक्ष की समाप्ति का युग। तो हे संगमयुगी ब्राह्मणों! पुराने वृक्ष को समाप्त किया है? जैसे पत्ते-पत्ते को पानी नहीं दे सकते। बीज को देना अर्थात् सभी पत्तों को पानी मिलना। ऐसे इतने 84 जन्मों के भिन्न-भिन्न प्रकार के हिसाब-किताब का वृक्ष समाप्त करना है। एक-एक शाखा को समाप्त करने का नहीं। आज देह के स्मृति की शाखा को समाप्त करो और कल देह के सम्बन्धों की शाखा को समाप्त करो, ऐसे एक-एक शाखा को समाप्त करने से समाप्ति नहीं होगी। लेकिन बीज बाप से लगन लगाकर, लगन की अग्नि द्वारा सहज समाप्ति हो जायेगी। काटना भी नहीं है लेकिन भस्म करना है। आज काटेंगे, कुछ समय के बाद फिर प्रकट हो जायेगा - क्योंकि वायुमण्डल के द्वारा वृक्ष को नैचुरल पानी मिलता रहता है। जब वृक्ष बड़ा हो जाता है तो विशेष पानी देने की आवश्यकता नहीं होती। नैचरल वायुमण्डल से वृक्ष बढ़ता ही रहता है वा खड़ा हुआ रहता है। तो इस विस्तार को पाये हुए जड़जड़ीभूत वृक्ष को अभी पानी देने की आवश्यकता नहीं है। यह आटोमैटिक बढ़ता जाता है। आप समझते हो कि पुरूषार्थ द्वारा आज से देह सम्बन्ध की स्मृति रूपी शाखा को खत्म कर दिया, लेकिन बिना भस्म किये हुए फिर से शाखा निकल आती है। फिर स्वयं ही स्वयं से कहते हो वा बाप के आगे कहते हो कि यह तो हमने समाप्त कर दिया था फिर कैसे आ गया! पहले तो था नहीं फिर कैसे हुआ। कारण? काटा, लेकिन भस्म नहीं किया। आग में पड़ा हुआ बीज कभी फल नहीं देता। तो इस, हिसाब-किताब के विस्तार रूपी वृक्ष को लगन की अग्नि में समाप्त करो। फिर क्या रह जायेगा? देह और देह के सम्बन्ध वा पदार्थ का विस्तार खत्म हो गया तो बाकी रह जायेगा ‘बिन्दु आत्मा वा बीज आत्मा'। जब ऐसे बिन्दु, बीज स्वरूप बन जाओ तब आवाज से परे बीजरूप बाप के साथ चल सको। इसलिए पूछा कि आवाज से परे जाने के लिए तैयार हो? विस्तार को समाप्त कर दिया है? बीजरूप बाप, बीज स्वरूप आत्माओं को ही ले जायेंगे। बीज स्वरूप बन गये हो? जो एवररेडी होगा उसको अभी से अलौकिक अनुभूतियाँ होती रहेंगी। क्या होंगी?
चलते फिरते, बैठते, बातचीत करते पहली अनुभूति- यह शरीर जो हिसाबकिताब के वृक्ष का मूल तना है जिससे यह शाखायें प्रकट होती हैं, यह देह और आत्मा रूपी बीज, दोनों ही बिल्कुल अलग हैं। ऐसे आत्मा न्यारेपन का चलते फिरते बार-बार अनुभव करेंगे। नालेज के हिसाब से नहीं कि आत्मा और शरीर अलग हैं। लेकिन शरीर से अलग मैं आत्मा हूँ! यह अलग वस्तु की अनुभूति हो। जैसे स्थूल शरीर के वस्त्र और वस्त्र धारण करने वाला शरीर अलग अनुभव होता है ऐसे मुझ आत्मा का यह शरीर वस्त्र है, मैं वस्त्र धारण करने वाली आत्मा हूँ। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो। जब चाहे इस देह भान रूपी वस्त्र को धारण करें, जब चाहे इस वस्त्र से न्यारे अर्थात् देहभान से न्यारे स्थिति में स्थित हो जायें। ऐसा न्यारेपन का अनुभव होता है? वस्त्र को मैं धारण करता हूँ या वस्त्र मुझे धारण करता है? चैतन्य कौन? मालिक कौन? तो एक निशानी - ‘न्यारेपन की अनुभूति'। अलग होना नहीं है लेकिन मैं हूँ ही अलग।
दूसरी निशानी वा अनुभूति- जैसे भक्तों को वा आत्मज्ञानियों का व कोई- कोई परमात्म-ज्ञानियों को दिव्य दृष्टि द्वारा ज्योति बिन्दु आत्मा का साक्षात्कार होता है, तो साक्षात्कार अल्पकाल की चीज है, साक्षात्कार कोई अपने अभ्यास का फल नहीं है। यह तो ड्रामा में पार्ट वा वरदान है। लेकिन एवररेडी अर्थात् साथ चलने के लिए समान बनी हुई आत्मा साक्षात्कार द्वारा आत्मा को नहीं देखेंगी लेकिन बुद्धियोग द्वारा सदा स्वयं को साक्षात् ‘ज्योति बिन्दु आत्मा' अनुभव करेगी। साक्षात् स्वरूप बनना सदाकाल है और साक्षात्कार अल्पकाल का है। साक्षात स्वरूप आत्मा कभी भी यह नहीं कह सकती कि मैंने आत्मा का साक्षात्कार नहीं किया है। मैंने देखा नहीं है। लेकिन वह अनुभव द्वारा साक्षात् रूप की स्थिति में स्थित रहेंगी। जहाँ साक्षात स्वरूप होगा वहाँ साक्षात्कार की आवश्यकता नहीं। ऐसे साक्षात आत्मा स्वरूप की अनुभूति करने वाले अथार्टी से, निश्चय से कहेंगे कि मैंने आत्मा को देखा तो क्या लेकिन अनुभव किया है। क्योंकि देखने के बाद भी अनुभव नहीं किया तो फिर देखना कोई काम का नहीं। तो ऐसे साक्षात् आत्म-अनुभवी चलते-फिरते अपने ज्योति स्वरूप का अनुभव करते रहेंगे।
तीसरी अनुभूति- ऐसी समान आत्मा अर्थात् एवररेडी आत्मा - साकारी दुनिया और साकारी शरीर में होते हुए भी बुद्धियोग की शक्ति द्वारा सदा ऐसा अनुभव करेगी कि मैं आत्मा चाहे सूक्ष्मवतन में, चाहे मूलवतन में, वहाँ ही बाप के साथ रहती हूँ। सेकण्ड में सूक्ष्मवतन वासी, सेकण्ड में मूलवतनवासी, सेकण्ड में साकार वतन वासी हो कर्मयोगी बन कर्म का पार्ट बजाने वाली हूँ लेकिन अनेक बार अपने को बाप के साथ सूक्ष्मवतन और मूलवतन में रहने का अनुभव करेंगे।
फुर्सत मिली और सूक्ष्मवतन व मूलवतन में चले गये। ऐसे सूक्ष्मवतन वासी, मूलवतनवासी की अनुभूति करेंगे जैसे कार्य से फुर्सत मिलने के बाद घर में चले जाते हैं। दफ्तर का काम पूरा किया तो घर में जायेंगे वा दफ्तर में ही बैठे रहेंगे! ऐसे एवररेडी आत्मा बार-बार अपने को अपने घर के निवासी अनुभव करेंगी। जैसे कि घर सामने खड़ा है। अभी-अभी यहाँ, अभी-अभी वहाँ। साकारी वतन के कमरे से निकल मूलवतन के कमरे में चले गये।
और अनुभूति - ऐसी समान आत्मा बन्धनमुक्त होने के कारण ऐसे अनुभव करेगी जैसे उड़ता पंछी बन ऊँचे से ऊँचे उड़ते जा रहे हैं और ऊँची स्थिति रूपी स्थान पर स्थित होते अनुभव करेंगे कि यह सब नीचे हैं। मैं सबसे ऊपर हूँ। जैसे विज्ञान की शक्ति द्वारा ‘स्पेस' में चले जाते हैं तो धरनी का आकर्षण नीचे रह जाता है और वह स्वयं को सबसे ऊपर अनुभव करते और सदा हल्का अनुभव करते हैं। ऐसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा स्वयं को विकारों की आकर्षण, वा प्रकृति की आकर्षण सबसे परे उड़ती हुई स्टेज अर्थात् सदा डबल लाइट रूप अनुभव करेंगे। उड़ने की अनुभूति सब आकर्षण से परे ऊँची है। सर्व बन्धनों से मुक्त है। इस स्थिति की अनुभूति होना अर्थात् ऊँची उड़ती कला वा उड़ती हुई स्थिति का अनुभव होना। चलते-फिरते जा रहे हैं, उड़ रहे हैं, बाप भी बिन्दु, मैं भी बिन्दू, दोनों साथ-साथ जा रहे हैं। समान आत्मा को यह अनुभव ऐसा स्पष्ट होगा जैसे कि देख रहे हैं। अनुभूति के नेत्र द्वारा देखना, दिव्य दृष्टि द्वारा देखने से भी स्पष्ट है, समझा! ऐसे तो विस्तार बहुत है फिर भी सार में थोड़ी-सी निशानियां सुनाई। तो ऐसे एवररेडी हो अर्थात् अनुभवी स्वरूप हो? साथ जाने के लिए तैयार हो ना या कहेंगे अभी अजुन यह रह गया है! ऐसी अनुभूति होती है वा सेवा में इतने बिजी हो गये हो जो घर ही भूल जाता है। सेवा भी इसीलिए करते हो कि आत्माओं को मुक्ति वा जीवनमुक्ति का वर्सा दिलावें।
सेवा में भी यह स्मृति रहे कि बाप के साथ जाना है तो सेवा में सदा अचल स्थिति रह सकती है? सेवा के विस्तार में सार रूपी बीज की अनुभूति को भूलो मत। विस्तार में खो नहीं जाओ। विस्तार में आते स्वयं भी सार स्वरूप में स्थित रह और औरों को भी सार स्वरूप की अनुभूति कराओ। समझा -अच्छा।
ऐसे सदा साक्षात् आत्म स्वरूप के अनुभवी मूर्त, सदा सर्व हिसाब-किताब के वृक्ष को समाप्त कर बिन्दी लगाए बिन्दी रूप में स्थित रह बिन्दु बाप के साथ सदा रहने वाले, अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी सूक्ष्मवतन वासी, अभी-अभी मूलवतनवासी ऐसे सदा अभ्यासी आत्मा, सदा अपनी उड़ती कला का अनुभव करने वाली आत्मा, ऐसे बाप समान एवररेडी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों के साथ:- (पंजाब तथा गुजरात जोन)
1.माया की छाया से बचने के लिए छत्रछाया के अन्दर रहो:- सदा अपने ऊपर बाप के याद की छत्रछाया अनुभव करते हो? याद की छत्रछाया है। इस छत्रछाया को कभी छोड़ तो नहीं देते? जो सदा छत्रछाया के अन्दर रहते हैं वे सर्व प्रकार के माया के विघ्नों से सेफ रहते हैं। किसी भी प्रकार से माया की छाया पड़ नहीं सकती। यह 5 विकार, दुश्मन के बजाए दास बनकर सेवाधारी बन जाते हैं। जैसे विष्णु के चित्र में देखा है - कि सांप की शय्या और सांप ही छत्रछाया बन गये। यह है विजयी की निशानी। तो यह किसका चित्र है? आप सबका चित्र है ना। जिसके ऊपर विजय होती है वह दुश्मन से सेवाधारी बन जाते हैं। ऐसे विजयी रत्न हो। शक्तियाँ भी गृहस्थी माताओं से, शक्ति सेना की शक्ति बन गई। शक्तियों के चित्र में रावण के वंश के दैत्यों को पांव के नीचे दिखाते हैं। शक्तियों ने असुरों को अपने शक्ति रूपी पाँव से दबा दिया। शक्ति किसी भी विकारी संस्कार को ऊपर आने ही नहीं देगी।
2.ज्ञान का दान करने वाले सच्चे-सच्चे महादानी बनो- सदा बुद्धि द्वारा ज्ञान सागर के कण्ठे पर रहने वाले अर्थात् सागर के द्वारा मिले हुए अखुट खजाने के मालिक अपने को समझते हो? सागर जैसे सम्पन्न है, अखुट है, अखण्ड है, ऐसे ही आत्मायें भी मास्टर, अखण्ड, अखुट खजानों के मालिक हैं। जो खजाने मिले हैं उसको महादानी बन औरों के प्रति कार्य में लगाते रहो। जो भी सम्बन्ध में आने वाली भक्त वा साधारण आत्मायें हैं उनके प्रति सदा यही लगन रहे कि भक्तों को भक्ति का फल मिल जाए, बिचारे भटक रहे हैं, भटकना देखकर तरस आता है ना! जितना रहमदिल बनेंगे उतना भटकती हुई आत्माओं को सहज रास्ता बतायेंगे। सन्देश देते चलो - यह नहीं सोचो कि कोई निकलता ही नहीं है। आप महादानी बनो, सन्देश देते रहो, उल्हना न रह जाए। अविनाशी ज्ञान का कभी विनाश नहीं होता। आज सुनेंगे, एक मास बाद सोचेंगे और सोचकर समीप आ जायेंगे। इसलिए कभी भी दिलशिकस्त नहीं बनना। जो करता है उसका बनता है। और जिसकी करते हो वह भी आज नहीं तो कल मानेंगे जरूर। तो अखुट सेवा अथक बनकर करते रहो। कभी भी थकना नहीं क्योंकि बापदादा के पास सबका जमा हो ही जाता है और जो करते हो उसका प्रत्यक्षफल खुशी भी मिल जाती है।
3-वातावरण को पावरफुल बनाने का लक्ष्य रखो तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे:- जैसे मन्दिर का वातावरण दूर से ही खींचता है, ऐसे याद की खुशबू का वातावरण ऐसा श्रेष्ठ हो जो आत्माओं को दूर से ही आकर्षित करे कि यह कोई विशेष स्थान है। सदा याद की शक्ति द्वारा स्वयं को आगे बढ़ाओ और साथ-साथ वायु मण्डल को भी शक्तिशाली बनाओ। सेवाकेन्द्र का वातावरण ऐसा हो जो सभी आत्मायें खिंचती हुई आ जाएं। सेवा सिर्फ वाणी से ही नहीं होती, मंसा से भी सेवा करो। हरेक समझे मुझे वातावरण पावरफुल बनाना है, हम जिम्मेवार हैं। ऐसा जब लक्ष्य रख्गे तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे। आना तो सबको है, यह तो पक्का है। लेकिन कोई सीधे आ जाते हैं, कोई चक्कर लगाकर, भटकने के बाद आ जाते हैं। इसलिए एक-एक समझे कि मैं जागती ज्योति बनकर ऐसा दीपक बनूँ जो परवाने आपेही आयें। आप जागती ज्योति बनकर बैठेंगे तो परवाने आपेही आयेंगे।
4-फुर्सत में रहने वाली आत्माओं की सेवा भी फुर्सत से करो-तो सफलता मिलेगी:- वानप्रस्थी जिन्हों को सदा फुर्सत है, जो रिटायर्ड हैं, उनकी सेवा के लि्ाए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी - वे सिर्फ कार्ड बांटने से नहीं आयेंगे। फुर्सत वालों की सेवा भी फुर्सत अर्थात् समय देकर करनी पड़ेगी क्योंकि वे अपने को वानप्रस्थी होने के कारण अनुभवी समझते हैं। उन्हें अनुभव का अभिमान होता है। इसलिए उनकी सेवा के लिए थोड़ा ज्यादा समय देना पड़े और तरीका भी मित्रता का, स्नेह मिलन का हो। समझाने का नहीं। मित्रता के नाते से उन्हों को मिलो। ऐसे नहीं सुनाओ कि यह बात आप नहीं जानते हो, मैं जानता हूँ। अनुभव की लेन-देन करो। उनकी बात को सुनो तो समझेंगे यह हमें रिगार्ड देते हैं। किसी को भी समीप लाने के लिए उनकी विशेषता का वर्णन करो फिर उन्हें अपना अनुभव सुनाकर समीप ले आओ। अगर कहेंगे कोर्स करो, ज्ञान सुनो तो नहीं सुनेंगे इसलिए अनुभव सुनाओ। बापदादा को अभी ऐसे वानप्रस्थियों का गुलदस्ता भेंट करो। उन्हें मित्रता के नाते से सहयोगी बनाकर बुलाओ।
5.निर्मान बनो तो नव निर्माण का कर्त्तव्य आगे बढ़ता रहेगा:- सदा अपने को सेवा के निमित्त बने हुए सेवा का श्रृंगार समझकर चलते हो? सेवाधारी की मुख्य विशेषता कौन-सी है? सेवाधारी अर्थात् निर्माण करने वाले सदा निर्मान। निर्माण करने वाले और निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सेवा की सफलता का साधन है। निर्मान बनने से सदा सेवा में हल्के रहेंगे। निर्मान नहीं, मान की इच्छा है तो बोझ हो जायेगा। बोझ वाला सदा रूकेगा। तीव्र नहीं जा सकता। इसलिए निर्मान हैं या नहीं हैं उसकी निशानी ‘हल्का' होगा। अगर कोई भी बोझ अनुभव होता है तो समझो निर्मान नहीं हैं।
6.सच्चे रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्व सम्बन्धों की अनुभूति एक बाप से करने और कराने वाले- सर्व सम्बन्ध एक बाप से हैं, बाप सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं, ऐसा अनुभव होता है? तुम्हीं से खाऊँ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से सुनूँ...इसका अनुभव होता है ना? बाप ही सच्चा मित्र बन गया तो औरों को मित्र बनाने की जरूरत ही नहीं। जो सम्बन्ध चाहिए उस सम्बन्ध से बापदादा सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं। तो शिक्षक अर्थात् सर्व सम्बन्धों का रस एक बाप से अनुभव करने वाली, इसको कहा जाता है - ‘सच्चे सेवाधारी'। स्वयं में होगा तो औरों को भी अनुभूति करा सकेंगी। अगर निमित्त बनी हुई आत्माओं में कोई भी रसना की कमी है तो आने वाली आत्माओं में भी वह कमी रह जायेगी। तो सर्व रसनाओं का अनुभव करो और कराओ।
7. हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प हैं - इस स्वमान में रहो- सदा अपने को बापदादा के अर्थात् अल्लाह के बगीचे के फूल समझकर चलते हो? सदा अपने आप से पूछो कि मैं रूहानी गुलाब बन सदा रूहानी खुशबू फैलाता हूँ? जैसे गुलाब की खुशबू सबको मीठी लगती है, चारों ओर फैल जाती है, तो वह है स्थूल, विनाशी चीज और आप सब अविनाशी सच्चे गुलाब हो। तो सदा अविनाशी रूहानियत की खुशबू फैलाते रहते हो? सदा इसी स्वमान में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प बन गये - इससे बड़ा स्वमान और कोई हो नहीं सकता। ‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य' - यही गीत गाते रहो। भोलानाथ से सौदा कर लिया तो चतुर हो गये ना! किसको अपना बनाया है? किससे सौदा किया है? कितना बड़ा सौदा किया है? तीनों लोक ही सौदे में ले लिए। आज की दुनिया में सबसे बड़े ते बड़ा कोई भी धनवान हो लेकिन इतना बड़ा सौदा कोई नहीं कर सकता, इतनी महान आत्मायें हो - इस महानता को स्मृति में रखकर चलते चलो।
8. ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है - खुशी का दान कर महादानी बनना- सबसे बड़े से बड़ा खजाना, खुशी का खजाना है, जो खजाना अपने पास होता है उसे दान किया जाता है। आप खुशी के खजाने का दान करते रहो। जिसको खुशी देंगे वह बार-बार आपको धन्यवाद देगा। दुखी आत्माओं को खुशी का दान दे दिया तो आपके गुण गायेंगे। महादानी बनो, खुशी के खजाने बांटो। अपने हमजिन्स को जगाओ। रास्ता दिखाओ। सेवा के बिना ब्राह्मण जीवन नहीं। सेवा नहीं तो खुशी नहीं। इसलिए सेवा में तत्पर रहो। रोज किसी न किसी को दान जरूर करो। दान करने के बिना नींद ही नहीं आनी चाहिए।
प्रश्न- बापदादा के गले में कौन से बच्चे माला के रूप में पिरोये रहते हैं?
उत्तर- जिनके गले अर्थात् मुख द्वारा बाप के गुण, बाप का दिया हुआ ज्ञान वा बाप की महिमा निकलती रहती, जो बाप ने सुनाया वही मुख से आवाज निकलता, ऐसे बच्चे बापदादा के गले का हार बन गले में पिरोये रहते हैं।
अच्छा - ओमशान्ति।
29-03-82 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
“सच्चे वैष्णव अर्थात सदा गुण ग्राहक”
गुणों के सागर शिवबाबा गुण मूर्त बच्चों प्रति बोले:-
‘‘आज बापदादा माला बना रहे थे। कौन सी माला? हरेक श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ गुण की माला बना रहे थे क्योंकि बापदादा जानते हैं कि श्रेष्ठ बाप के हरेक श्रेष्ठ बच्चे की अपनी-अपनी विशेषता है। अपने-अपने गुण के आधार से संगमयुग में श्रेष्ठ प्रालब्ध पा रहे हैं। बापदादा आज विशेष प्यादे ग्रुप के गुणों को देख रहे थे। चाहे पुरूषार्थ में लास्ट ग्रुप कहा जायेगा लेकिन उन्हों में भी विशेष गुण जरूर है। और वही विशेष गुण उन आत्माओं को बाप का बनने में विशेष आधार है। तो बापदादा पहले नम्बर से लास्ट नम्बर तक नहीं गये। लेकिन लास्ट से फर्स्ट तक गुण देखा। बिल्कुल लास्ट नम्बर में भी गुणवान थे। परमात्मसन्तान, और कोई गुण न हो यह हो नहीं सकता। उसी गुण के आधार से ही ब्राह्मण जन्म में जी रहे हैं अर्थात् जिन्दा हैं। ड्रामा अनुसार उसी गुण ने ही ऊँचे ते ऊँचे बाप का बच्चा बनाया है। उसी गुण के कारण ही प्रभु पसन्द बने हैं। इसलिए गुणों की माला बना रहे थे। ऐसे ही हर ब्राह्मण आत्मा के गुण को देखने से श्रेष्ठ आत्मा का भाव सहज और स्वत: ही होगा क्योंकि गुण का आधार है ही - श्रेष्ठ आत्मा। कई आत्मायें गुण को जानते हुए भी जन्म-जन्म की गन्दगी को देखने के अभ्यासी होने कारण गुण को न देख अवगुण ही देखती हैं। लेकिन अवगुण को देखना, अवगुण को धारण करना ऐसी ही भूल है जैसे स्थूल में अशुद्ध भोजन पान करना। स्थूल भोजन में अगर कोई अशुद्ध भोजन स्वीकार करता है तो भूल महसूस करते हो ना! लिखते हो ना कि खान-पान की धारणा में कमजोर हूँ। तो भूल समझते हो ना! ऐसे अगर किसी का अवगुण अथवा कमज़ोरी स्वयं में धारण करते हो तो समझो अशुद्ध भोजन खाने वाले हो। सच्चे वैष्णव नहीं, विष्णु वंशी नहीं। लेकिन राम सेना हो जायेंगे। इसलिए सदा गुण ग्रहण करने वाले - ‘गुण मूर्त' बनो।
बापदादा आज बच्चों की चतुराई के खेल देख रहे थे। याद आ रहे हैं ना अपने खेल! सबसे बड़ी बात दूसरे के अवगुण को देखना, जानना इसको बहुत होशियारी समझते हैं। इसको ही नालेजफुल समझ लेते हैं। लेकिन जानना अर्थात् बदलना। अगर जाना भी, दो घड़ी के लिए नालेजफुल भी बन गये, लेकिन नालेजफुल बनकर क्या किया? नालेज को लाइट और माइट कहा जाता है, जान तो लिया कि यह अवगुण है लेकिन नालेज की शक्ति से अपने वा दूसरे के अवगुण को भस्म किया? परिवर्तन किया? बदल के वा बदला के दिखाया वा बदला लिया? अगर नालेज की लाइट, माइट को कार्य में नहीं लाया तो क्या उसको जानना कहेंगे, नालेजफुल कहेंगे? सिवाए नालेज के लाइट। माइट को यूज़ करने के वह जानना ऐसे ही है जैसे द्वापरयुगी शास्त्रवादियों को शास्त्रं की नालेज है। ऐसे जानने वाले से अवगुण को न जानने वाले बहुत अच्छे हैं। ब्राह्मण परिवार में आपस में ऐसी आत्माओं को हँसी में ‘बुद्धू' समझ लेते हैं। आपस में कहते हो ना कि तुम तो बुê