18-01-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कर्मातीत स्थिति की निशानियाँ
बन्धनमुक्त बनाने वाले, स्नेह के सागर बापदादा निमित्त गीता-पाठशालाओं के सेवाधारी बच्चों के सम्मुख बोले
आज अव्यक्त बापदादा अपने ‘अव्यक्त स्थिति भव' के वरदानी बच्चों वा अव्यक्ति फरिश्तों से मिलने आये हैं। यह अव्यक्त मिलन इस सारे कल्प में अब एक ही बार संगम पर होता है। सतयुग में भी देव मिलन होगा लेकिन फरिश्तों का मिलन, अव्यक्त मिलन इस समय ही होता है। निराकार बाप भी अव्यक्त ब्रह्मा बाप के द्वारा मिलन मनाते हैं। निराकार को भी यह फरिश्तों की महफिल अति प्रिय लगती है, इसलिए अपना धाम छोड़ आकारी वा साकारी दुनिया में मिलन मनाने आये हैं। फरिश्ते बच्चों के स्नेह की आकर्षण से बाप को भी रूप बदल, वेष बदल बच्चों के संसार में आना ही पड़ता है। यह संगमयुग बाप और बच्चों का अति प्यारा और न्यारा संसार है। स्नेह सबसे बड़ी आकर्षित करने की शक्ति है जो परम-आत्मा, बन्धनमुक्त को भी, शरीर से मुक्त को भी स्नेह के बन्धन में बाँध लेती है, अशरीरी को भी लोन के शरीरधारी बना देती है। यही है बच्चों के स्नेह का प्रत्यक्ष प्रमाण। आज का दिन अनेक चारों ओर के बच्चों के स्नेह की धारायें, स्नेह के सागर में समाने का दिन है। बच्चे कहते हैं - ‘हम बापदादा से मिलने आये हैं'। बच्चे मिलने आये हैं? वा बच्चों से बाप मिलने आये हैं? या दोनों ही मधुबन में मिलने आये हैं? बच्चे स्नेह के सागर में नहाने आये हैं लेकिन बाप हजारों गंगाओं में नहाने आते हैं। इसलिए गंगा-सागर का मेला विचित्र मेला है। स्नेह के सागर में समाए सागर समान बन जाते हैं। आज के दिन को बाप समान बनने का स्मृति अर्थात् समर्थी-दिवस कहते हैं। क्यों?
आज का दिन ब्रह्मा बाप के सम्पन्न और सम्पूर्ण बाप समान बनने का यादगार दिवस है। ब्रह्मा बच्चा सो बाप, क्योंकि ब्रह्मा बच्चा भी है, बाप भी है। आज के दिन ब्रह्मा ने बच्चे के रूप में सपूत बच्चा बनने का सबूत दिया, स्नेह के स्वरूप का, समान बनने का सबूत दिया; अति प्यारे और अति न्यारेपन का सबूत दिया; बाप समान कर्मातीत अर्थात् कर्म के बन्धन से मुक्त, न्यारा बनने का सबूत दिया; सारे कल्प के कर्मों के हिसाब-किताब से मुक्त होने का सबूत दिया। सिवाए सेवा के स्नेह के और कोई बन्धन नहीं। सेवा में भी सेवा के बन्धन में बंधने वाले सेवाधारी नहीं। क्योंकि सेवा में कोई बन्धनयुक्त बन सेवा करते और कोई बन्धनमुक्त बन सेवा करते। सेवाधारी ब्रह्मा बाप भी है। लेकिन सेवा द्वारा हद की रॉयल इच्छायें सेवा में भी हिसाबकिताब के बंधन में बाँधती हैं। लेकिन सच्चे सेवाधारी इस हिसाब-किताब से भी मुक्त हैं। इसी को ही - कर्मातीत स्थिति कहा जाता है। जैसे देह का बन्धन, देह के सम्बन्ध का बन्धन, ऐसे सेवा में स्वार्थ - यह भी बन्धन कर्मातीत बनने में विघ्न डालता है। कर्मातीत बनना अर्थात् इस रॉयल हिसाब-किताब से भी मुक्त।
मैजारिटी निमित्त गीता-पाठशालाओं के सेवाधारी आये हैं ना। तो सेवा अर्थात् औरों को भी मुक्त बनाना। औरों को मुक्त बनाते स्वयं को बन्धन में बांध तो नहीं देते? नष्टोमोहा बनने के बजाए, लौकिक बच्चों आदि सबसे मोह त्याग कर स्टूडेण्ट से मोह तो नहीं करते? यह बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है, अच्छा-अच्छा समझते मेरे-पन की इच्छा के बन्धन में तो नहीं बंध जाते? सोने की जंजीरें तो अच्छी नहीं लगती हैं ना? तो आज का दिन हद के मेरे-मेरे से मुक्त होने का अर्थात् कर्मातीत होने का अव्यक्ति दिवस मनाओ। इसी को ही स्नेह का सबूत कहा जाता है। कर्मातीत बनना यह लक्ष्य तो सबका अच्छा है। अब चेक करो - कहाँ तक कर्मों के बन्धन से न्यारे बने हो? पहली बात - लौकिक और अलौकिक, कर्म और सम्बन्ध दोनों में स्वार्थ भाव से मुक्त। दूसरी बात - पिछले जन्मों के कर्मों के हिसाब-किताब वा वर्तमान पुरूषार्थ के कमज़ोरी के कारण किसी भी व्यर्थ स्वभाव-संस्कार के वश होने से मुक्त बने हैं? कभी भी कोई कमज़ोर स्वभाव-संस्कार वा पिछला संस्कार-स्वभाव वशीभूत बनाता है तो बन्धनयुक्त हैं, बन्धनमुक्त नहीं। ऐसे नहीं सोचना कि चाहते नहीं हैं लेकिन स्वभाव या संस्कार करा देते हैं। यह भी निशानी बन्धनमुक्त की नहीं लेकिन बन्धनयुक्त की है। और बात - कोई भी सेवा की, संगठन की, प्रकृति की परिस्थिति स्व-स्थिति को वा श्रेष्ठ स्थिति को डगमग करती है - यह भी बन्धनमुक्त स्थिति नहीं है। इस बन्धन से भी मुक्त। और तीसरी बात - पुरानी दुनिया में पुराने अन्तिम शरीर में किसी भी प्रकार की व्याधि अपनी श्रेष्ठ स्थिति को हलचल में लाये - इससे भी मुक्त। एक है व्याधि आना, एक है व्याधि हिलाना। तो आना - यह भावी है लेकिन स्थिति हिल जाना - यह बन्धनयुक्त की निशानी है। स्व-चिन्तन, ज्ञान-चिन्तन, शुभ-चिन्तक बनने का चिन्तन बदल शरीर की व्याधि का चिन्तन चलना - इससे मुक्त। क्योंकि ज्यादा प्रकृति का चिंतन, चिंता के रूप में बदल जाता है। तो इससे मुक्त होना - इसी को ही कर्मातीत स्थिति कहा जाता है। इन सभी बन्धनों को छोड़ना - यही कर्मातीत स्थिति की निशानी है। ब्रह्मा बाप ने इन सभी बन्धनों से मुक्त हो कर्मातीत स्थिति को प्राप्त किया। तो आज का दिवस ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत बनने का दिवस है। आज के दिवस का महत्त्व समझा? अच्छा।
आज की सभा विशेष सेवाधारी अर्थात् पुण्य आत्मा बनने वालों की सभा है। गीता पाठशाला खोलना अर्थात् पुण्य आत्मा बनना। सबसे बड़े-ते-बड़ा पुण्य हर आत्मा को सदा के लिए अर्थात् अनेक जन्मों के लिए पापों से मुक्त करना - यही पुण्य है। नाम बहुत अच्छा है - ‘गीता पाठशाला'। तो गीता पाठशाला वाले अर्थात् सदा स्वयं गीता का पाठ पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले। गीता-ज्ञान का पहला पाठ - अशरीरी आत्मा बनो और अन्तिम पाठ - नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप बनो। तो पहला पाठ है विधि और अन्तिम पाठ है विधि से सिद्धि। तो गीतापाठ शाला वाले हर समय यह पाठ पढ़ते हैं कि सिर्फ मुरली सुनाते हैं? क्योंकि सच्ची गीता-पाठशाला की विधि यह है - पहले स्वयं पढ़ना अर्थात् बनना फिर औरों को निमित्त बन पढ़ाना। तो सभी गीता-पाठशाला वाले इस विधि से सेवा करते हो? क्योंकि आप सभी इस विश्व के आगे परमात्म-पढ़ाई का सैम्पल हो। तो सैम्पल का महत्त्व होता है। सैम्पल अनेक आत्माओं को ऐसा बनने की प्रेरणा देता है। तो गीता-पाठशाला वालों के ऊपर बड़ी जिम्मेवारी है। अगर जरा भी सैम्पल बनने में कमी दिखाई तो अनेक आत्माओं के भाग्य बनाने के बजाए, भाग्य बनाने से वंचित करने के निमित्त भी बन जायेंगे क्योंकि देखने वाले, सुनने वाले साकार रूप में आप निमित्त आत्माओं को देखते हैं। बाप तो गुप्त हैं ना। इसलिए ऐसा श्रेष्ठ कर्म सदा करके दिखाओ जो आपके श्रेष्ठ कर्मों को देख, अनेक आत्माओं के श्रेष्ठ कर्मों के भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बना सको। तो एक तो अपने को सदा सैम्पल समझना और दूसरा, सदा अपना सिम्बल याद रखना। गीता-पाठशाला वालों का सिम्बल कौन-सा है, जानते हो? - ‘कमल पुष्प'। बापदादा ने सुनाया है कि कमल बनो और अमल करो। कमल बनने का साधन ही है अमल करना। अगर अमल नहीं करते तो कमल नहीं बन सकते। इसलिए ‘सैम्पल हैं' और ‘कमलपुष्प' का सिम्बल सदा बुद्धि में रखो। सेवा कितनी भी वृद्धि को प्राप्त हो लेकिन सेवा करते न्यारे बन प्यारे बनना। सिर्फ प्यारे नहीं बनना, न्यारे बन प्यारे बनना। क्योंकि सेवा से प्यार अच्छी बात है लेकिन प्यार लगाव के रूप में बदल नहीं जाये। इसको कहते हैं - न्यारे बन प्यारा बनना। सेवा के निमित्त बने, यह तो बहुत अच्छा किया। पुण्य आत्मा का टाइटल तो मिल ही गया। इसलिए देखो, खास निमन्त्रण दिया है, क्योंकि पुण्य का काम किया है। अब आगे जो सिद्धि का पाठ पढ़ाया, तो सिद्धि की स्थिति से वृद्धि को प्राप्त करते रहना। समझा, आगे क्या करना है? अच्छा।
सभी विशेष एक बात की इन्तजार में हैं, वह कौन-सी? (रिजल्ट सुनायें) रिजल्ट आप सुनायेंगे या बाप सुनायेंगे? बापदादा ने क्या कहा था - रिजल्ट लेंगे या देंगे? ड्रामा प्लैन अनुसार जो चला, जैसे चला उसको अच्छा ही कहेंगे। लक्ष्य सबने अच्छा रखा, लक्षण यथा शक्ति कर्म में दिखाया। बहुतकाल का वरदान नम्बरवार धारण किया भी और अभी भी जो वरदान प्राप्त किया, वह वरदानीमूर्त बन बाप समान वरदान-दाता बनते रहना। अभी बापदादा क्या चाहते हैं? वरदान तो मिला, अब इस वर्ष बहुतकाल बन्धनमुक्त अर्थात् बाप समान कर्मातीत स्थिति का विशेष अभ्यास करते दुनिया को न्यारा और प्यारा-पन का अनुभव कराओ। कभी-कभी अनुभव करना - अभी इस विधि को बदल बहुतकाल के अनुभूतियों का प्रत्यक्ष बहुतकाल अचल, अडोल, निर्विघ्न, निर्बन्धन, निर्विकल्प, निर्विकर्म अर्थात् निराकारी, निर्विकारी, निरंहकारी - इसी स्थिति को दुनिया के आगे प्रत्यक्ष रूप में लाओ। इसको कहते हैं बाप समान बनना। समझा?
रिजल्ट में पहले स्वयं से स्वयं संतुष्ट, वह कितने रहे? क्योंकि एक है स्वयं की सन्तुष्टता, दूसरी है ब्राह्मण परिवार की सन्तुष्टता, तीसरी है बाप की सन्तुष्टता। तीनों की रिजल्ट में अभी और मार्क्स लेनी हैं। तो संतुष्ट बनो, सन्तुष्ट करो। बाप की सन्तुष्टमणि बन सदा चमकते रहो। बापदादा बच्चों का रिगार्ड रखते हैं, इसलिए गुप्त रिकार्ड बताते हैं। होवनहार हैं, इसीलिए बाप सदा सम्पन्नता की स्टेज देखते हैं। अच्छा।
सभी सन्तुष्टमणियाँ हो ना? वृद्धि को देख करके खुश रहो। आप सब तो इन्तजार में हो कि आबू रोड तक क्यू लगे। तो अभी तो सिर्फ हाल भरा है, फिर क्या करेंगे? फिर सोयेंगे या अखण्ड योग करेंगे? यह भी होना है। इसलिए थोड़े में ही राजी रहो। तीन पैर के बजाए एक पैर पृथ्वी भी मिले, तो भी राजी रहो। पहले ऐसे होता था, यह नहीं सोचो। परिवार के वृद्धि की खुशी मनाओ। आकाश और पृथ्वी तो खुटने वाले नहीं हैं ना। पहाड़ तो बहुत है। यह भी होना चाहिए, यह भी मिलना चाहिए - यह बड़ी बात बना देते हो। यह दादियां भी सोच में पड़ जाती हैं - क्या करें, कैसे करें? ऐसे भी दिन आयेंगे जो दिन में धूप में सो जायेंगे, रात में जागेंगे। वो लोग आग जला कर आस-पास बैठ जाते हैं गर्म हो करके, आप योग की अग्नि जलाकर के बैठ जायेंगे। पसन्द है ना या खटिया चाहिए? बैठने के लिए कुर्सा चाहिए? यह पहाड़ की पीठ कुर्सा बना देना। जब तक साधन हैं तो सुख लो, नहीं हैं तो पहाड़ी को कुर्सा बनाना। पीठ को आराम चाहिए ना, और तो कुछ नहीं। पाँच हजार आयेंगे तो कुर्सियाँ तो उठानी पड़ेंगी ना। और जब क्यू लगेगी तो खटिया भी छोड़नी पड़ेगी। एवररेडी रहना। अगर खटिया मिले तो भी ‘हाँ-जी', धरनी मिले तो भी ‘हाँ-जी'। ऐसे शुरू में बहुत अभ्यास कराये हैं। 15-15 दिन तक दवाखाना बन्द रहता। दमा के पेशेन्ट भी ढोढा (बाजरे की रोटी) और लस्सी पीते थे। लेकिन बीमार नहीं हुए, सब तन्दरूस्त हो गये। तो यह शुरू में अभ्यास करके दिखाया है, तो अन्त में भी होगा ना। नहीं तो, सोचो, दमा का पेशेन्ट और उसको लस्सी दो तो पहले ही घबरा जायेगा। लेकिन दुआ की दवा साथ में होती है, इसलिए मनोरंजन हो जाता है। पेपर नहीं लगता है। मुश्किल नहीं लगता। त्याग नहीं, एक्सकर्शन (Excursion-आमोद-प्रमोद, मनोरंजन) हो जाती है। तो सभी तैयार हो ना या प्रबन्ध करने वाले के पास टीचर्स लिस्ट ले जायेंगी? इसीलिए नहीं बुलाते हैं ना। समय आने पर यह सब साधन से भी परे साधना के सिद्धि रूप में अनुभव करेंगे। रूहानी मिलेट्री (सेना) भी हो ना। मिलेट्री का पार्ट भी तो बजाना है। अभी तो स्नेही परिवार है, घर है - यह भी अनुभव कर रहे हो। लेकिन समय पर रूहानी मिलेट्री बन जो समय आया उसको उसी स्नेह से पार करना - यह भी मिलेट्री की विशेषता है। अच्छा।
गुजरात को यह विशेष वरदान है जो एवररेडी रहते हैं। बहाना नहीं देते हैं - क्या करें, कैसे आयें, रिजर्वेशन नहीं मिलती - पहुँच जाते हैं। नजदीक का फायदा है। गुजरात को आज्ञाकारी बनने का विशेष आशीर्वाद है क्योंकि सेवा में भी ‘हाँ-जी' करते हैं ना। मेहनत की सेवा सदा गुजरात को देते हैं ना। रोटी की सेवा कौन करता है? स्थान देने की, भागदौड़ करने की सेवा गुजरात करता है। बापदादा सब देखता है। ऐसे नहीं बापदादा को पता नहीं पड़ता। मेहनत करने वालों को विशेष महबूब की मुहब्बत प्राप्त होती है। नजदीक का भाग्य है और भाग्य को आगे बढ़ाने का तरीका अच्छा रखते हैं। भाग्य को बढ़ाना सबको नहीं आता है। कोई को भाग्य प्राप्त होता है लेकिन उतने तक ही रहता है, बढ़ाना नहीं आता। लेकिन गुजरात को भाग्य है और बढ़ाना भी आता है। इसलिए अपना भाग्य बढ़ा रहे हो - यह देख बापदादा भी खुश है। तो बाप की विशेष आशीर्वाद - यह भी एक भाग्य की निशानी है। समझा?
जो भी चारों ओर के स्नेही बच्चे पहुँचे हैं, बापदादा भी उन सभी देश, विदेश दोनों के स्नेही बच्चों को स्नेह का रिटर्न ‘सदा अविनाशी स्नेही भव' का वरदान दे रहे हैं। स्नेह में जैसे दूर-दूर से दौड़कर पहुँचे हो, ऐसे ही जैसे स्थूल में दौड़ लगाई, समीप पहुँचे, सम्मुख पहुँचे, ऐसे पुरूषार्थ में भी विशेष उड़ती कला द्वारा बाप समान बनना अर्थात् सदा बाप के समीप रहना। जैसे यहाँ सामने पहुँचे हो, वैसे सदा उड़ती कला द्वारा बाप के समान समीप ही रहना। समझा, क्या करना है? यह स्नेह, दिल का स्नेह दिलाराम बाप के पास आपके पहुँचने के पहले ही पहुँच जाता है। चाहे सम्मुख हो, चाहे आज के दिन देश-विदेश में शरीर से दूर हैं लेकिन दूर होते हुए भी सभी बच्चे समीप से समीप दिलतख्तनशीन हैं। तो सबसे समीप का स्थान है दिल। तो विदेश वा देश में नहीं बैठे हैं लेकिन दिलतख्त पर बैठे हैं। तो समीप हो गये ना। सभी बच्चों की यादप्यार, उल्हनें, मीठी-मीठी रूह-रूहानें, सौगातें - सब बाप के पास पहुँच गई। बापदादा भी स्नेही बच्चों को ‘सदा मेहनत से मुक्त हो मुहब्बत में मग्न रहो' - यह वरदान दे रहे हैं। तो सभी को रिटर्न मिल गया ना। अच्छा। मधुबन निवासी तो सदा ही भाग्य की महिमा गाते ही रहते हैं। और भी भाग्य की महिमा गाते और स्वयं भी अपने भाग्य की महिमा के गीत गाते रहते।
मधुबन निवासी अर्थात् सदा मधुरता द्वारा बाप के समीपता का साक्षात्कार कराने वाले। संकल्प में भी मधुरता, बोल में भी मधुरता, कर्म में भी मधुरता - यही बाप की समीपता है। इसलिए बाप भी रोज क्या कहते हैं और बच्चे भी रेसपाण्ड रोज क्या करते हैं, जानते हो? बाप भी कहते हैं - ‘मीठे-मीठे बच्चो' और बच्चे भी रेसपाण्ड करते - ‘मीठे-मीठे बाप'। तो यह रोज का मधुरता का बोल मधुर बना देता है। तो सदा मधुरता को प्रत्यक्ष करने वाले मधुबन निवासी श्रेष्ठ आत्मायें हैं। मधुरता ही महानता है। जिसमें मधुरता नहीं तो महानता नहीं अनुभव होती। फिर कभी सुनायेंगे कि संकल्प की मधुरता क्या है। समझा? अब तो सबसे मिल लिये। अच्छा। इसको ही कहते हैं - अलौकिक मिलन।
सर्व स्नेही आत्माओं को, सदा समीप रहने वाली आत्माओं को, सदा बन्धनमुक्त, कर्मातीत स्थिति में बहुतकाल अनुभव करने वाली विशेष आत्माओं को, सर्व दिलतख्तनशीन सन्तुष्टमणियों को बापदादा का ‘अव्यक्ति स्थिति भव' के वरदान साथ यादप्यार और गुडनाइट और गुडमोर्निंग।
दादियों से - जैसे वृक्ष के पके हुए फल जो होते हैं, उनका बहुत महत्त्व होता है। जो वृक्ष के पके हुए होते, उनको अलग पकाना नहीं पड़ता। तो वह हुए वृक्ष के पके हुए और आप सभी हो वृक्षपति द्वारा पके हुए फल। जैसे वृक्ष के पके हुए फल का महत्त्व है, वैसे वृक्षपति द्वारा पके हुए फलों का भी महत्त्व होता है। उसी नजर से सभी आप सबको देखते हैं। क्योंकि बाप के, ब्रह्मा बाप के साथ-साथ आपका भी जन्म हुआ ना। तो एक ही राशि हो गई ना। राशि का प्रभाव होता है ना। जन्म दिन का राशि पर प्रभाव होता है। तो ब्रह्मा बाप के साथ-साथ जन्म हुआ, ब्रह्मा बाप के साथ सेवा के आरम्भ में निमित्त बने, अभी ब्रह्मा बाप समान कर्मातीत बनने के लिए एवर-रेडी हैं। बाप तो बच्चों को देख खुश होते हैं। मेरे योग्य बच्चे योगी भी हैं और योग्य भी हैं, इसलिए खुशी विशेष है। (बापदादा ने दादी जी को फूल दिया) इसमें आप कौन-सा पत्ता हो? सब पत्ते मिल करके एक हो गये ना। ऐसे ही समीप रहने वाले सभी पत्ते बूर के साथ रहते हैं। बूर यह बीज है। तो बीज के साथ रहने वाले पत्तों का भी महत्त्व है। अच्छा।
आप लोग तो जन्म से ही वरदानी हो। वरदानों से ही पले हो, मेहनत से नहीं। जिसकी पालना ही वरदानों से हुई है, उसके लिए और क्या वरदान रहा! चल रहे हैं। पल रहे हैं वरदानों से, इसलिए मेहनत से बचे हुए हैं। जो मेहनत करते हैं, उनकी चाल ही अलग होती है। आप लोगों ने क्या मेहनत की। कुछ सहन भी किया तो एक्सकर्शन (मनोरंजन) मनाया। पिकेटिंग में ठहरे भी, तो भी एक्सकर्शन ही मनाई, मजा ही देखते रहे। गालियाँ भी खाई तो हँसते-हँसते खाईं। अभी वह सब बातें क्या लगती हैं? चरित्र लगती हैं ना। अच्छा। यह जनक तो विदेही बन गई ना। विदेही जनक। अच्छा। वरदान तो सबको मिले हुए हैं। वरदानी को क्या वरदान देंगे? जैसे कहते हैं - सूर्य के आगे क्या दीपक जलायेंगे, तो वरदानी आत्माओं को क्या वरदान दें। अच्छा।
पर्सनल मुलाकात पाण्डव अर्थात् सदा बाप के साथी। पाण्डवों की विजय किसलिए हुई? वह बाप के साथ थे। तो ऐसे पाण्डव हो? या कभी अलग रहते हो, कभी साथ रहते हो? कभी माया के साथ तो नहीं चले जाते? क्योंकि माया के साथ रहेंगे तो बाप नहीं रह सकता, या माया होगी या बाप। सदा बाप के साथ रहने वाले पाण्डव ही विजयी हैं। शक्तियाँ भी सदा विजयी हैं। शिव और शक्ति कम्बाइण्ड हैं तो सदा विजयी हैं। शक्तियों का झण्डा सदा ऊँचा रहता है। यह झण्डा ही विजय की निशानी है। तो सदा झण्डा ऊँचा रहे। अच्छा।
21-01-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्व-राज्य अधिकारी ही विश्व-राज्य अधिकारी
राजाओं के राजा बनाने वाले भाग्यविधाता भगवान अपने बहुत काल के स्व-राज्य अधिकारी बनने के अभ्यासी बच्चों प्रति बोले
आज भाग्यविधाता बाप अपने सर्व श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा के आगे अब भी सिर्फ यह संगठन नहीं है लेकिन चारों ओर के भाग्यवान बच्चे सामने हैं। चाहे देश-विदेश के किसी भी कोने में हैं लेकिन बेहद का बाप बेहद बच्चों को देख रहे हैं। यह साकार वतन के अन्दर स्थान की हद आ जाती है, लेकिन बेहद बाप के दृष्टि की सृष्टि बेहद है। बाप की दृष्टि में सर्व ब्राह्मण आत्माओं की सृष्टि समाई हुई है। तो दृष्टि की सृष्टि में सर्व सम्मुख हैं। सर्व भाग्यवान बच्चों को भाग्यविधाता भगवान देख-देख हर्षित होते हैं। जैसे बच्चे बाप को देख हर्षित होते हैं, बाप भी सर्व बच्चों को देख हर्षित होते हैं। बेहद के बाप को बच्चों को देख रूहानी नशा वा फखुर है कि एक-एक बच्चा इस विश्व के आगे विशेष आत्माओं की लिस्ट में है! चाहे 16,000 की माला का लास्ट मणका भी है, फिर भी, बाप के आगे आने से, बाप का बनने से विश्व के आगे विशेष आत्मा है। इसलिए, चाहे और कुछ भी ज्ञान के विस्तार को जान नहीं सकते लेकिन एक शब्द ‘बाबा' दिल से माना और दिल से औरों को सुनाया तो विशेष आत्मा बन गये, दुनिया के आगे महान आत्मा बन गये, दुनिया के आगे महान आत्मा के स्वरूप में गायन-योग्य बन गये। इतना श्रेष्ठ और सहज भाग्य है, समझते हो? क्योंकि बाबा शब्द है ‘चाबी'। किसकी? सर्व खज़ानों की, श्रेष्ठ भाग्य की। चाबी मिल गई तो भाग्य वा खज़ाना अवश्य प्राप्त होता ही है। तो सभी मातायें वा पाण्डव चाबी प्राप्त करने के अधिकारी बने हो? चाबी लगाने भी आती है या कभी लगती नहीं है? चाबी लगाने की विधि है - दिल से जानना और मानना। सिर्फ मुख से कहा तो चाबी होते भी लगेगी नहीं। दिल से कहा तो खज़ाने सदा हाजर हैं। अखुट खज़ाने हैं ना। अखुट खज़ाने होने के कारण जितने भी बच्चे हैं सब अधिकारी हैं। खुले खज़ाने हैं, भरपूर खज़ाने हैं। ऐसे नहीं है कि जो पीछे आये हैं, तो खज़ाने खत्म हो गये हों। जितने भी अब तक आये हो अर्थात् बाप के बने हो और भविष्य में भी जितने बनने वाले हैं, उन सबसे खज़ाने अनेकानेक गुणा ज्यादा हैं। इसलिए बापदादा हर बच्चे को गोल्डन चांस देते हैं कि जितना जिसको खज़ाना लेना है, वह खुली दिल से ले लो। दाता के पास कमी नहीं है, लेने वाले के हिम्मत वा पुरूषार्थ पर आधार है। ऐसा कोई बाप सारे कल्प में नहीं है जो इतने बच्चे हों और हर एक भाग्यवान हो! इसलिए सुनाया कि रूहानी बापदादा को रूहानी नशा है।
सभी की मधुबन में आने की, मिलने की आशा पूरी हुई। भक्ति-मार्ग की यात्रा से फिर भी मधुबन में आराम से बैठने की, रहने की जगह तो मिली है ना। मन्दिरों में तो खड़े-खड़े सिर्फ दर्शन करते हैं। यहाँ आराम से बैठे तो हो ना। वहाँ तो ‘भागो-भागो', ‘चलो-चलो' कहते हैं और यहाँ आराम से बैठो, आराम से, याद की खुशी से मौज मनाओ। संगमयुग में खुशी मनाने के लिए आये हो। तो हर समय चलते-फिरते, खाते-पीते खुशी का खज़ाना जमा किया? कितना जमा किया है? इतना किया जो 21 जन्म आराम से खाते रहो? मधुबन विशेष सर्व खज़ाने जमा करने का स्थान है क्योंकि ‘यहाँ एक बाप दूसरा न कोई' - यह साकार रूप में भी अनुभव करते हो। वहाँ बुद्धि द्वारा अनुभव करते हो लेकिन यहाँ प्रत्यक्ष साकार जीवन में भी सिवाए बाप और ब्राह्मण परिवार के और कोई नजर आता है क्या? एक ही लग्न, एक ही बातें, एक ही परिवार के और एकरस स्थिति। और कोई रस है ही नहीं। पढ़ना और पढ़ाई द्वारा शक्तिशाली बनना, मधुबन में यही काम है ना। कितने क्लास करते हो? तो यहाँ विशेष जमा करने का साधन मिलता है। इसलिए, सब भाग-भागकर पहुँच गये हैं। बापदादा सभी बच्चों को विशेष यही स्मृति दिलाते हैं कि सदा स्वराज्य अधिकारी स्थिति में आगे बढ़ते चलो। स्वराज्य अधिकारी - यही निशानी है विश्व-राज्य अधिकारी बनने की।
कई बच्चे रूह-रूहान करते हुए बाप से पूछते हैं कि ‘हम भविष्य में क्या बनेंगे, राजा बनेंगे या प्रजा बनेंगे?' बापदादा बच्चों को रेसपाण्ड करते हैं कि अपने आपको एक दिन भी चेक करो तो मालूम पड़ जायेगा कि मैं राजा बनूँगा वा साहूकार बनूँगा वा प्रजा बनूँगा। पहले अमृतवेले से अपने मुख्य तीन कारोबार के अधिकारी, अपने सहयोगी, साथियों को चेक करो। वह कौन? 1. मन अर्थात् संकल्प शक्ति। 2. बुद्धि अर्थात् निर्णय शक्ति। 3. पिछले वा वर्तमान श्रेष्ठ संस्कार। यह तीनों विशेष कारोबारी हैं। जैसे आजकल के जमाने में राजा के साथ महामन्त्री वा विशेष मन्त्री होते हैं, उन्हीं के सहयोग से राज्य कारोबार चलती है। सतयुग में मन्त्री नहीं होंगे लेकिन समीप के सम्बन्धी, साथी होंगे। किसी भी रूप में, साथी समझो वा मन्त्री समझो। लेकिन यह चेक करो - यह तीनों स्व के अधिकार से चलते हैं? इन तीनों पर स्व का राज्य है वा इन्हों के अधिकार से आप चलते हो? मन आपको चलाता है या आप मन को चलाते हैं? जो चाहो, जब चाहो वैसा ही संकल्प कर सकते हो? जहाँ बुद्धि लगाने चाहो, वहाँ लगा सकते हो वा बुद्धि आप राजा को भटकाती है? संस्कार आपके वश हैं या आप संस्कारों के वश हो? राज्य अर्थात् अधिकार। राज्य-अधिकारी जिस शक्ति को जिस समय जो आर्डर करे, वह उसी विधिपूर्वक कार्य करते वा आप कहो एक बात, वह करें दूसरी बात? क्योंकि निरन्तर योगी अर्थात् स्वराज्य अधिकारी बनने का विशेष साधन ही मन और बुद्धि है। मन्त्र ही ‘मन्मनाभव' का है। योग को बुद्धियोग कहते हैं। तो अगर यह विशेष आधार स्तम्भ अपने अधिकार में नहीं हैं वा कभी हैं, कभी नहीं है; अभी-अभी हैं, अभी-अभी नहीं हैं; तीनों में से एक भी कम अधिकार में है तो इससे ही चेक करो कि हम राजा बनेंगे या प्रजा बनेंगे? बहुतकाल के राज्य अधिकारी बनने के संस्कार बहुतकाल के भविष्य राज्य- अधिकारी बनायेंगे। अगर कभी अधिकारी, कभी वशीभूत हो जाते हो तो आधा कल्प अर्थात् पूरा राज्य-भाग्य का अधिकार प्राप्त नहीं कर सकेंगे। आधा समय के बाद त्रेतायुगी राजा बन सकते हो, सारा समय राज्य अधिकारी अर्थात् राज्य करने वाले रॉयल फैमिली के समीप सम्बन्ध में नहीं रह सकते। अगर वशीभूत बारबार होते हो तो संस्कार अधिकारी बनने के नहीं लेकिन राज्य अधिकारियों के राज्य में रहने वाले हैं। वह कौन हो गये? वह हुई प्रजा। तो समझा, राजा कौन बनेगा, प्रजा कौन बनेगा? अपने ही दर्पण में अपने तकदीर की सूरत को देखो। यह ज्ञान अर्थात् नॉलेज दर्पण है। तो सबके पास दर्पण है ना। तो अपनी सूरत देख सकते हो ना। अभी बहुत समय के अधिकारी बनने का अभ्यास करो। ऐसे नहीं अन्त में तो बन ही जायेंगे। अगर अन्त में बनेंगे तो अन्त का एक जन्म थोड़ा-सा राज्य कर लेंगे। लेकिन यह भी याद रखना कि अगर बहुत समय का अब से अभ्यास नहीं होगा वा आदि से अभ्यासी नहीं बने हो, आदि से अब तक यह विशेष कार्यकर्त्ता आपको अपने अधिकार में चलाते हैं वा डगमग स्थिति करते रहते हैं अर्थात् धोखा देते रहते हैं, दु:ख की लहर का अनुभव कराते रहते हैं तो अन्त में भी धोखा मिल जायेगा। धोखा अर्थात् दु:ख की लहर जरूर आयेगी। तो अन्त में भी पश्चाताप के दु:ख की लहर आयेगी। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को फिर से स्मृति दिलाते हैं कि राजा बनो और अपने विशेष सहयोगी कर्मचारी वा राज्य कारोबारी साथियों को अपने अधिकार से चलाओ। समझा?
बापदादा यही देखते हैं कि कौन-कौन कितने स्वराज्य-अधिकारी बने हैं? अच्छा। तो सब क्या बनने चाहते हो? राजा बनने चाहते हो? तो अभी स्वराज्य- अधिकारी बने हो वा यही कहते हो बन रहे हैं, बन तो जायेंगे? ‘गे-गे' नहीं करना। ‘जायेंगे', तो बाप भी कहेंगे - अच्छा, राज्य-भाग्य देने को भी देख लेंगे। सुनाया ना - बहुत समय का संस्कार अभी से चाहिए। वैसे तो बहुत-काल नहीं है, थोड़ा-काल है। लेकिन फिर भी इतने समय का भी अभ्यास नहीं होगा तो फिर लास्ट समय यह उल्हना नहीं देना - हमने तो समझा था, लास्ट में ही हो जायेंगे। इसलिए कहा गया है - कब नहीं, अब। कब हो जायेगा नहीं, अब होना ही है। बनना ही है। अपने ऊपर राज्य करो, अपने साथियों के ऊपर राज्य करना नहीं शुरू करना। जिसका स्व पर राज्य है, उसके आगे अभी भी स्नेह के कारण सर्व साथी भी चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक सभी ‘जी हजूर', ‘हाँ-जी' कहते हुए साथी बनकर के रहते हैं, स्नेही और साथी बन ‘हाँ-जी' का पाठ प्रैक्टिकल में दिखाते हैं। जैसे प्रजा राजा की सहयोगी होती है, स्नेही होती है, ऐसे आपकी यह सर्व कर्म-इन्द्रियाँ, विशेष शक्तियाँ सदा आपके स्नेही, सहयोगी रहेंगी और इसका प्रभाव साकार में आपके सेवा के साथियों वा लौकिक सम्बन्धियों, साथियों में पड़ेगा। दैवी परिवार में अधिकारी बन आर्डर चलाना, यह नहीं चल सकता। स्वयं अपनी कर्म-इन्द्रियों को आर्डर में रखो तो स्वत: आपके आर्डर करने के पहले ही सर्व साथी आपके कार्य में सहयोगी बनेंगे। स्वयं सहयोगी बनेंगे, आर्डर करने की आवश्यकता नहीं। स्वयं अपने सहयोग की आफर करेंगे क्योंकि आप स्वराज्य-अधिकारी हैं। जैसे राजा अर्थात् दाता, तो दाता को कहना नहीं पड़ता अर्थात् मांगना नहीं पड़ता। तो ऐसे स्वराज्य-अधिकारी बनो। अच्छा। यह मेला भी ड्रामा में नूँध था। ‘वाह ड्रामा' कर रहे हैं ना। दूसरे लोग कभी ‘हाय ड्रामा' करेंगे, कभी ‘वाह ड्रामा' और आप सदा क्या कहते हो? वाह ड्रामा! वाह! जब प्राप्ति होती हैं ना, तो प्राप्ति के आगे कोई मुश्किल नहीं लगता है। तो ऐसे ही, जब इतने श्रेष्ठ परिवार से मिलने की प्राप्ति हो रही है तो कोई मुश्किल, मुश्किल नहीं लगेगा। मुश्किल लगता है? खाने पर ठहरना पड़ता है। खाओ तो भी प्रभु के गुण गाओ और क्यू में ठहरो तो भी प्रभु के गुण गाओ। यही काम करना है ना। यह भी रिहर्सल हो रही है। अभी तो कुछ भी नहीं है। अभी तो और वृद्धि होगी ना। ऐसे अपने को मोल्ड करने की आदत डालो, जैसा समय वैसे अपने आपको चला सकें। तो पट (जमीन) में सोने की भी आदत पड़ गई ना। ऐसे तो नहीं - खटिया नहीं मिली तो नींद नहीं आई? टेन्ट में भी रहने की आदत पड़ गई ना। अच्छा लगा? ठण्डी तो नहीं लगती? अभी सारे आबू में टेन्ट लगायें? टेन्ट में सोना अच्छा लगा या कमरा चाहिए? याद है, पहले-पहले जब पाकिस्तान में थे तो महारथियों को ही पट में सुलाते थे? जो नामीग्रामी महारथी होते थे, उन्हों को हाल में पट में टिफुटी (तीन फुट) देकर सुलाते थे। और जब ब्राह्मण परिवार की वृद्धि हुई तो भी कहाँ से शुरू की? टेन्ट से ही शुरू की ना। पहले-पहले जो निकले, वह भी टेन्ट में ही रहे। टेन्ट में रहने वाले सेन्ट (महात्मा) हो गये। साकार पार्ट के होते भी टेन्ट में ही रहे तो आप लोग भी अनुभव करेंगे ना। तो सभी हर रीति से खुश हैं? अच्छा, फिर और 10,000 मंगा के टेन्ट देंगे, प्रबन्ध करेंगे। सब नहाने के प्रबन्ध का सोचते हो, वह भी हो जायेगा। याद है, जब यह हाल बना था तो सबने क्या कहा था? इतने नहाने के स्थान क्या करेंगे? इसी लक्ष्य से यह बनाया गया, अभी कम हो गया ना। जितना बनायेंगे उतना कम तो होना ही है क्योंकि आिखर तो बेहद में ही जाना है। अच्छा।
सब तरफ के बच्चे पहुँच गये हैं। तो यह भी बेहद के हाल का शृंगार हो गया है। नीचे भी बैठे हैं। (भिन्न-भिन्न स्थानों पर मुरली सुन रहे हैं) यह वृद्धि होना भी तो खुशनसीबी की निशानी है। वृद्धि तो हुई लेकिन विधिपूर्वक चलना। ऐसे नहीं, यहाँ मधुबन में तो आ गये, बाबा को भी देखा, मधुबन भी देखा, अभी जैसे चाहें वैसे चलें। ऐसे नहीं करना। क्योंकि कई बच्चे ऐसे करते हैं आजब तक मधुबन में आने को नहीं मिलता है, तब तक पक्के रहते हैं, फिर जब मधुबन देख लिया तो थोड़े अलबेले हो जाते हैं। तो अलबेले नहीं बनना। ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मण जीवन है, तो जीवन तो सदा जब तक है, तब तक है। जीवन बनाई है ना। जीवन बनाई है या थोड़े समय के लिए ब्राह्मण बनें हैं? सदा अपने ब्राह्मण जीवन की विशेषतायें साथ रखना क्योंकि इसी विशेषताओं से वर्तमान भी श्रेष्ठ है और भविष्य भी श्रेष्ठ है। अच्छा। बाकी क्या रहा? टोली। (वरदान) वरदान तो वरदाता के बच्चे ही बन गये। जो हैं ही वरदाता के बच्चे, उन्हों को हर कदम में वरदाता से वरदान स्वत: ही मिलता रहता है। वरदान ही आपकी पालना है। वरदानों की पालना से ही पल रहे हैं। नहीं तो, सोचो, इतनी श्रेष्ठ प्राप्ति और मेहनत क्या की। बिना मेहनत के जो प्राप्ति होती है, उसको ही ‘वरदान' कहा जाता है। तो मेहनत क्या की और प्राप्ति कितनी श्रेष्ठ! जन्म-जन्म प्राप्ति के अधिकारी बन गये। तो वरदान हर कदम में वरदाता का मिल रहा है और सदा ही मिलता रहेगा। दृष्टि से, बोल से, सम्बन्ध से वरदान ही वरदान है। अच्छा।
अभी तो गोल्डन जुबली मनाने की तैयारी कर रहे हो। गोल्डन जुबली अर्थात् सदा गोल्डन स्थिति में स्थिति रहने की जुबली मना रहे हो। सदा रीयल गोल्ड, जरा भी अलाएं (खाद) मिक्स नहीं। इसको कहते हैं ‘गोल्डन जुबली'। तो दुनिया के आगे सोने के स्थिति में स्थित होने वाले सच्चे सोने प्रत्यक्ष हों, इसके लिए यह सब सेवा के साधन बना रहे हैं। क्योंकि आपकी गोल्डन स्थिति गोल्डन एज को लायेगी, स्वर्ण संसार को लायेगी जिसकी इच्छा सबको है कि अभी कुछ दुनिया बदलनी चाहिए। तो स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन करने वाली विशेष आत्मायें हो। आप सबको देख आत्माओं को यह निश्चय हो, शुभ उम्मीदें हों कि सचमुच, स्वर्ण दुनिया आई कि आई! सैम्पल को देख करके निश्चय होता है नाहाँ, अच्छी चीज़ है। स्वर्ण संसार के सैम्पल आप हो। स्वर्ण स्थिति वाले हो। तो आप सैम्पल को देख उन्हों को निश्चय हो कि ‘हाँ, जब सैम्पल तैयार हो तो अवश्य ऐसा ही संसार आया कि आया।' ऐसी सेवा गोल्डन जुबली में करेंगे ना। ना-उम्मीद को उम्मीद देने वाले बनना। अच्छा।
सर्व स्वराज्य-अधिकारी, सर्व बहुतकाल के अधिकार प्राप्त करने के अभ्यासी आत्माओं को, सर्व विश्व के विशेष आत्माओं को, सर्व वरदाता के वरदानों से पलने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ पर्सनल मुलाकात
हम हर कल्प के अधिकारी आत्मायें हैं, सिर्फ अब के नहीं, अनेक बार के अधिकारी हैं - यह खुशी रहती है? आधा कल्प बाप के आगे भिखारी बन मांगते रहे लेकिन बाप ने अब अपना बना लिया, बच्चे बन गये। बच्चा अर्थात् अधिकारी। अधिकारी समझने से बाप का जो भी वर्सा है, वह स्वत: याद रहता है। कितना बड़ा खज़ाना है! इतना खज़ाना है जो खाते खुटता नहीं है और जितना आैंरों को बाँटो उतना बढ़ता जाता है! ऐसा अनुभव है? परमात्म-वर्से के अधिकारी हैं - इससे बड़ा नशा और कोई हो सकता है? तो यह अविनाशी गीत सदा गाते रहो और खुशी में नाचते रहो कि हम परमात्मा के बच्चे परमात्म- वर्से के अधिकारी हैं। यह गीत गाते रहो तो माया सामने आ नहीं सकती, मायाजीत बन जायेंगे। यही विशेष वरदान याद रखना कि परमात्म-वर्से के अधिकारी आत्मायें हैं। इसी अधिकार से भविष्य में विश्व के राज्य का अधिकार स्वत: मिलता है। शक्तियाँ सदा खुश रहने वाली हो ना? कभी कोई दु:ख की लहर तो नहीं आती? दु:ख की दुनिया छोड़ दी, सुख के संसार में पहुँच गये। दु:ख के संसार में सिर्फ सेवा के लिए रहते, बाकी सुख के संसार में। बाप के अधिकार से सब सहज हो जाता है।
सदैव अपने को महावीर अर्थात् महान आत्मा अनुभव करते हो? महान आत्मा सदा जो संकल्प करेंगे, बोल बोलेंगे वो साधारण नहीं होगा, महान होगा। क्योंकि ऊँचे-ते-ऊँचे बाप के बच्चे भी ऊँचे, महान हुए ना। जैसे कोई आजकल की दुनिया में वी.आई.पी. का बच्चा होगा तो वह अपने को भी वी.आई.पी. समझेगा ना। तो आप से ऊँचा तो कोई है ही नहीं। तो ऐसे, ऊँचे-तो-ऊँचे बाप की सन्तान ऊँचे-ते-ऊँची आत्मायें हैं - यह स्मृति सदा शक्तिशाली बनाती है। ऊँचा बाप, ऊँचे हम, ऊँचा कार्य - ऐसी स्मृति में रहने वाले सदा बाप समान बन जाते हैं। तो बाप समान बने हो? बाप हर बच्चे को ऊँचा ही बनाते हैं। कोई ऊँचा, कोई नीचा नहीं, सब ऊँचे-ते-ऊँचे। अगर अपनी कमज़ोरी से कोई नीचे की स्थिति में रहता है तो उसकी कमज़ोरी है। बाकी बाप सबको ऊँचा बनाता है। सारे विश्व के आगे श्रेष्ठ और ऊँची आत्मायें आपके सिवाए कोई नहीं हैं, इसलिए तो आप आत्माओं का ही गायन और पूजन होता है। अभी तक गायन, पूजन हो रहा है। कभी भी कोई मन्दिर में जायेंगे तो क्या समझेंगे? कोई भी मन्दिर में मूर्ति देखकर क्या समझते हो? यह हमारी ही मूर्ति है। सिर्फ बाप नहीं पूजा जाता, बाप के साथ आप भी पूजे जाते हो। ऐसे महान बन गये! एक बार नहीं, अनेक बार बने हैं आजहाँ यह नशा होगा वहाँ माया की आकर्षण अपने तरफ आकर्षित नहीं कर सकेगी, सदा न्यारे होंगे। सभी अपने आप से सन्तुष्ट हो? जैसे बाप सुनाते हैं, वैसे ही अनुभव करते हुए आगे बढ़ना - यह है अपने आप से सन्तुष्ट रहना। ‘‘ऊँचे-ते-ऊँचे'' - यही विशेष वरदान याद रखना। याद करना सहज है या मुश्किल लगता है? सहज स्मृति स्वत: आती रहेगी। माया कहाँ रोक नहीं सकेगी, सदा आगे बढ़ते रहेंगे।
सदा अपने को हर कदम में पद्मों की कमाई जमा करने वाले पद्मापद्म भाग्यवान समझते हो? जो भी कदम याद में उठाते हो, तो एक सेकण्ड की याद इतनी शक्तिशाली है जो एक सेकण्ड की याद पद्मों की कमाई जमा करने वाली है। अगर साधारण कदम उठाते हैं, याद में नहीं उठाते तो कमाई नहीं है। याद में रहकर कदम उठाने से पद्मों की कमाई है। और हर कदम में पद्म तो कितने पद्म हो गये! इसलिए पद्मापद्म भाग्यवान कहा जाता है। पद्म तो आपके आगे कुछ भी नहीं है। लेकिन इस दुनिया के हिसाब से कहने में आता है। तो जब किसी की अच्छी कमाई होती है तो उसके चेहरे की फलक ही और हो जाती है। गरीब का चेहरा भी देखो और राजकुमार का चेहरा भी देखो, कितना फर्क होगा! उसके शक्ल की झलक-फलक और गरीब के चेहरे की झलक- फलक में रात-दिन का फर्क होगा। आप तो राजाओं का भी राजा बनाने वाले बाप के डायरेक्ट बच्चे हो। तो कितनी झलक-फलक है! शक्ल में वह पद्मों की कमाई का नशा दिखाई देता है या गुप्त रहता है? रूहानी नशा, रूहानी खुशी जो कोई भी देखे तो अनुभव करे कि यह न्यारे लोग हैं, साधारण नहीं हैं। तो सदा यही वरदान स्मृति में रखना कि हम अनेक बार पद्मापद्मपति बने हैं। अच्छा।
23-01-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सफलता के सितारे की विशेषताएं
ज्ञानसूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा अपने नये-सो-कल्प पुराने बच्चों के सम्मुख परमात्मा तारामण्डल का हाल सुनाते हुए बोले
आज ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चद्रमा अपने चमकते हुए तारामण्डल को देख रहे हैं। वह आकाश के सितारे हैं और यह धरती के सितारे हैं। वह प्रकृति की सत्ता है, यह परमात्म-सितारे हैं, रूहानी सितारे हैं। वह सितारे भी रात को ही प्रगट होते हैं, यह रूहानी सितारे, ज्ञान-सितारे, चमकते हुए सितारे भी ब्रह्मा की रात में ही प्रगट होते हैं। वह सितारे रात को दिन नहीं बनाते, सिर्फ सूर्य रात को दिन बनाता है। लेकिन आप सितारे ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के साथ साथी बन रात को दिन बनाते हो। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में अनेक प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई देते हैं, वैसे परमात्म-तारामण्डल में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सितारे चमकते हुए दिखाई दे रहे हैं। कोई समीप के सितारे हैं और कोई दूर के सितारे भी हैं। कोई सफलता के सितारे हैं तो कोई उम्मीदवार सितारे हैं। कोई एक स्थिति वाले हैं और कोई स्थिति बदलने वाले हैं। वह स्थान बदलते, यहाँ स्थिति बदलते। जैसे प्रकृति के तारामण्डल में पुच्छल तारे भी हैं। अर्थात् हर बात में, हर कार्य में ‘‘यह क्यों'', ‘‘यह क्या'' - यह पूछने की पूँछ वाले अर्थात् क्वेश्चन र्मा करने वाले पुच्छल तारे हैं। जैसे प्रकृति के पुच्छल तारे का प्रभाव पृथ्वी पर भारी माना जाता है, ऐसे बार-बार पूछने वाले इस ब्राह्मण परिवार में वायुमण्डल भारी कर देते हैं। सभी अनुभवी हो। जब स्वयं के प्रति भी संकल्प में ‘क्या' और ‘क्यों' का पूँछ लग जाता है तो मन और बुद्धि की स्थिति स्वयं प्रति भारी बन जाती है। साथ-साथ अगर किसी भी संगठन बीच वा सेवा के कार्य प्रति ‘क्यों', ‘क्या', ‘ऐसा', ‘कैसा',.... - यह क्वेश्चन र्मा की क्यू का पूँछ लग जाता है तो संगठन का वातावरण वा सेवा क्षेत्र का वातावरण फौरन भारी बन जाता है। तो स्वयं प्रति, संगठन वा सेवा प्रति प्रभाव पड़ जाता है ना। साथ-साथ कई प्रकृति के सितारे ऊपर से नीचे गिरते भी हैं, तो क्या बन जाते हैं? पत्थर। परमात्म-सितारों में भी जब निश्चय, सम्बन्ध वा स्व-धारणा की ऊँची स्थिति से नीचे आ जाते हैं तो पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। कैसे पत्थर बुद्धि बन जाते? जैसे पत्थर को कितना भी पानी डालो लेकिन पत्थर पिघलेगा नहीं, रूप बदल जाता है लेकिन पिघलेगा नहीं। पत्थर को कुछ भी धारण नहीं होता है। ऐसे में जब पत्थर बुद्धि बन जाते तो उस समय कितना भी, कोई भी अच्छी बात महसूस कराओ तो महसूस नहीं करते। कितना भी ज्ञान का पानी डालो लेकिन बदलेंगे नहीं। बातें बदलते रहेंगे लेकिन स्वयं नहीं बदलेंगे। इसको कहते हैं पत्थर बुद्धि बन जाते हैं। तो अपने आप से पूछो - इस परमात्म-तारामण्डल के सितारों बीच, मैं कौन-सा सितारा हूँ?
सबसे श्रेष्ठ सितारा है सफलता का सितारा। सफलता का सितारा अर्थात् जो सदा स्वयं की प्रगति में सफलता को अनुभव करता रहे अर्थात् अपने पुरूषार्थ की विधि में सदैव सहज सफलता अनुभव करता रहे। सफलता के सितारे संकल्प में भी स्वयं के पुरूषार्थ प्रति भी कभी ‘पता नहीं यह होगा या नहीं होगा', ‘कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे' - यह असफलता का अंश-मात्र नहीं होगा। जैसे स्लोगन है - सफलता जन्म-सिद्ध अधिकार है, ऐसे वह स्वयं प्रति सदा सफलता अधिकार के रूप में अनुभव करेंगे। अधिकार की परिभाषा ही है बिना मेहनत, बिना मांगने से प्राप्त हो। सहज और स्वत: प्राप्त हो - इसको कहते हैं अधिकार। ऐसे ही एक - स्वयं प्रति सफलता, दूसरा - अपने सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हुए, चाहे ब्राह्मण आत्माओं के, चाहे लौकिक परिवार वा लौकिक कार्य के सम्बन्ध में, सर्व सम्बन्ध-सम्पर्क में, सम्बन्ध में आते, सम्पर्क में आते कितनी भी मुश्किल बात को सफलता के अधिकार के आधार से सहज अनुभव करेंगे अर्थात् सफलता की प्रगति में आगे बढ़ते जायेंगे। हाँ, समय लग सकता है लेकिन सफलता का अधिकार प्राप्त होकर ही रहेगा। ऐसे, स्थूल कार्य वा अलौकिक सेवा का कार्य अर्थात् दोनों क्षेत्र के कर्म में सफलता के निश्चयबुद्धि विजयी रहेंगे। कहाँ-कहाँ परिस्थिति का सामना भी करना पड़ेगा, व्यक्तियों द्वारा सहन भी करना पड़ेगा लेकिन वह सहन करना उन्नति का रास्ता बन जायेगा। परिस्थिति को सामना करते, परिस्थिति, स्वस्थिति के उड़ती कला का साधन बन जायेगी, अर्थात् हर बात में सफलता स्वत:, सहज और अवश्य प्राप्त होगी।
सफलता का सितारा, उसकी विशेष निशानी है - कभी भी स्व की सफलता का अभिमान नहीं होगा, वर्णन नहीं करेगा, अपने गीत नहीं गायेगा लेकिन जितनी सफलता उतना नम्रचित, निर्मान, निर्मल स्वभाव होगा। और (दूसरे) उसके गीत गायेंगे लेकिन वह स्वयं सदा बाप के गुण गायेगा। सफलता का सितारा कभी भी क्वेश्चन र्मा नहीं करेगा। सदा बिन्दी रूप में स्थित रह हर कार्य में औरों को भी ‘ड्रामा की बिन्दी' स्मृति में दिलाये, विघ्नविनाशक बनाये, समर्थ बनाये सफलता की मंजल के समीप लाता रहेगा। सफलता का सितारा कभी भी हद की सफलता के प्राप्ति को देख प्राप्ति की स्थिति में बहुत खुशी और परिस्थिति आई वा प्राप्ति कुछ कम हुई तो खुशी भी कम हो जाये - ऐसी स्थिति परिवर्तन करने वाले नहीं होंगे। सदा बेहद के सफलतामूर्त होंगे। एकरस, एक श्रेष्ठ स्थिति पर स्थित होंगे। चाहे बाहर की परिस्थिति वा कार्य में बाहर के रूप से औरों को असफलता अनुभव हो लेकिन सफलता का सितारा, असफलता की स्थिति के प्रभाव में न आये, सफलता के स्वस्थिति से असफलता को भी परिवर्तन कर लेगा। यह है सफलता के सितारे की विशेषतायें। अभी अपने से पूछो - मैं कौन हूँ? सिर्फ उम्मीदवार हूँ वा सफलता स्वरूप हूँ?' उम्मीदवार बनना भी अच्छा है, लेकिन सिर्फ उम्मीदवार बन चलना, प्रत्यक्ष सफलता का अनुभव न करना, इसमें कभी शक्तिशाली, कभी दिलशिकस्त.....यह नीचे-ऊपर होने का ज्यादा अनुभव करते हैं। जैसे कोई भी बात में अगर ज्यादा नीचे-ऊपर होता रहे तो थकावट हो जाती है ना। तो इसमें भी चलते-चलते थकावट का अनुभव दिलशिकस्त बना देता है। तो नाउम्मीदवार से उम्मीदवार अच्छा है, लेकिन सफलता स्वरूप का अनुभव करने वाला सदा श्रेष्ठ है। अच्छा। सुना तारामण्डल की कहानी? सिर्फ मधुबन का हाल तारामण्डल नहीं है, बेहद ब्राह्मण संसार तारामण्डल है। अच्छा।
सभी आने वाले नये बच्चे, नये भी हैं और पुराने भी बहुत हैं। क्योंकि अनेक कल्प के हो, तो अति पुराने भी हो। तो नये बच्चों का नया उमंग-उत्साह मिलन मनाने का ड्रामा की नूँध प्रमाण पूरा हुआ। बहुत उमंग रहा ना। जायें-जायें...इतना उमंग रहा जो डायरेक्शन भी नहीं सुना। मिलन की मस्ती में मस्त थे ना! कितना कहा - कम आओ, कम आओ, तो कोई ने सुना? बापदादा ड्रामा के हर दृश्य को देख हर्षित होते हैं कि इतने सब बच्चों को आना ही था, इसलिए आ गये हैं। सब सहज मिल रहा है ना? मुश्किल तो नहीं है ना? यह भी ड्रामा अनुसार, समय प्रमाण रिहर्सल हो रही है। सभी खुश हो ना? मुश्किल को सहज बनाने वाले हो ना? हर कार्य में सहयोग देना, जो डायरेक्शन मिलते हैं उसमें सहयोगी बनना अर्थात् सहज बनाना। अगर सहयोगी बनते हैं तो 5000 भी समा जाते हैं और सहयोगी नहीं बनते अर्थात् विधिपूर्वक नहीं चलते तो 500 भी समाना मुश्किल है। इसलिए, दादियों को ऐसा अपना रिकार्ड दिखाकर जाना जो सबके दिल से यही निकले कि 5000, पाँच सौ के बराबर समाए हुए थे। इसको कहते हैं ‘मुश्किल को सहज करना'। तो सबने अपना रिकार्ड बढ़िया भरा है ना? सार्टिफकेट (प्रमाण-पत्र) अच्छा मिल रहा है। ऐसे ही सदा खुश रहना और खुश करना, तो सदा ही तालियाँ बजाते रहेंगे। अच्छा रिकार्ड है, इसलिए देखो, ड्रामा अनुसार दो बार मिलना हुआ है! यह नयों की खातिरी ड्रामा अनुसार हो गई है। अच्छा।
सदा रूहानी सफलता के श्रेष्ठ सितारों को, सदा एकरस स्थिति द्वारा विश्व को रोशन करने वाले, ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा के सदा साथ रहने वाले, सदा अधिकार के निश्चय से नशे और नम्रचित स्थिति में रहने वाले, ऐसे परमात्म-तारामण्डल के सर्व चमकते हुए सितारों को ज्ञान-सूर्य, ज्ञान-चन्द्रमा बापदादा की रूहानी स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकाल
(1) अपने को सदा निर्विघ्न, विजयी रत्न समझते हो? विघ्न आना, यह तो अच्छी बात है लेकिन विघ्न हार न खिलायें। विघ्नों का आना अर्थात् सदा के लिए मजबूत बनाना। विघ्न को भी एक मनोरंजन का खेल समझ पार करना -इसको कहते हैं ‘निर्विघ्न विजयी'। तो विघ्नों से घबराते तो नहीं? जब बाप का साथ है तो घबराने की कोई बात ही नहीं। अकेला कोई होता है तो घबराता है। लेकिन अगर कोई साथ होता है तो घबराते नहीं, बहादुर बन जाते हैं। तो जहाँ बाप का साथ है, वहाँ विघ्न घबरायेगा या आप घबरायेंगे? सर्वशक्तिवान के आगे विघ्न क्या है? कुछ भी नहीं। इसलिए विघ्न खेल लगता, मुश्किल नहीं लगता। विघ्न अनुभवी और शक्तिशाली बना देता है। जो सदा बाप की याद और सेवा में लगे हुए हैं, बिजी हैं, वह निर्विघ्न रहते हैं। अगर बुद्धि बिजी नहीं रहती तो विघ्न वा माया आती है। अगर बिजी रही तो माया भी किनारा कर लेगी। आयेगी नहीं, चली जायेगी। माया भी जानती है कि यह मेरा साथी नहीं है, अभी परमात्मा का साथी है। तो किनारा कर लेगी। अनगिनत बार विजयी बने हो, इसलिए विजय प्राप्त करना बड़ी बात नहीं है। जो काम अनेक बार किया हुआ होता है, वह सहज लगता है। तो अनेक बार के विजयी। सदा राजी रहने वाले हो ना? मातायें सदा खुश रहती हो? कभी रोती तो नहीं? कभी कोई परिस्थिति ऐसी आ जाये तो रोयेंगी? बहादुर हो। पाण्डव मन में तो नहीं रोते? यह ‘क्यों हुआ', ‘क्या हुआ' - ऐसा रोना तो नहीं रोते? बाप का बनकर भी अगर सदा खुश नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे? बाप का बनना माना सदा खुशी में रहना। न दु:ख है, न दु:ख में रोयेंगे। सब दु:ख दूर हो गये। तो अपने इस वरदान को सदा याद रखना। अच्छा।
(2) अपने को इस रूहानी बगीचे के रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? जैसे सभी फूलों में गुलाब का पुष्प खुशबू के कारण प्यारा लगता है। तो वह है गुलाब और आप सभी हैं रूहे गुलाब। रूहे गुलाब अर्थात् जिसमें सदा रूहानी खुशबू हो। रूहानी खुशबू वाले जहाँ भी देखेंगे, जिसको भी देखेंगे तो रूह को देखेंगे, शरीर को नहीं देखेंगे। स्वयं भी सदा रूहानी स्थिति में रहेंगे और दूसरों की भी रूह को देखेंगे। इसको कहते हैं - ‘रूहानी गुलाब'। यह बाप का बगीचा है। जैसे बाप उँचे-ते-ऊँचा है, ऐसे बगीचा भी ऊँचे-ते-ऊँचा है जिस बगीचे का विशेष शृंगार रूहे गुलाब आप सभी हो। और यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं का कल्याण करने वाली है।
आज विश्व में जो भी मुश्किलातें हैं, उसका कारण ही है कि एक-दो को रूह नहीं देखते। देह-अभिमान के कारण सब समस्यायें हैं। देही-अभिमानी बन जायें तो सब समस्यायें समाप्त हो जायें। तो आप रूहानी गुलाब विश्व पर रूहानी खुशबू फैलाने के निमित्त हो, ऐसे सदा नशा रहता है? कभी एक, कभी दूसरा नहीं। सदा एकरस स्थिति में शक्ति होती है। स्थिति बदलने से शक्ति कम हो जाती है। सदा बाप की याद में रह जहाँ भी सेवा का साधन है, चाँस लेकर आगे बढ़ते जाओ। परमात्म-बगीचे के रूहानी गुलाब समझ रूहानी खुशबू फैलाते रहो। कितनी मीठी रूहानी खुशबू है जिस खुशबू को सब चाहते हैं! यह रूहानी खुशबू अनेक आत्माओं के साथ-साथ अपना भी कल्याण कर लेती है। बापदादा देखते हैं कि कितनी रूहानी खुशबू कहाँ-कहाँ तक फैलाते रहते हैं? जरा भी कहाँ देह-अभिमान मिक्स हुआ तो रूहानी खुशबू ओरिजनल नहीं होगी। सदा इस रूहानी खुशबू से औरों को भी खुशबूदार बनाते चलो। सदा अचल हो? कोई भी हलचल हिलाती तो नहीं? कुछ भी होता है, सुनते, देखते थोड़ा भी हलचल में तो नहीं आ जाते? जब ‘नथिंग न्यू' है तो हलचल में क्यों आयें? कोई नई बात हो तो हलचल हो। यह ‘क्या', ‘क्यों' अनेक कल्प हुई है - इसको कहते हैं ‘ड्रामा के ऊपर निश्चयबुद्धि'। सर्वशक्तिवान के साथी हैं, इसलिए बेपरवाह बादशाह हैं। सब फिकर बाप को दे दिये तो स्वयं सदा बेफिकर बादशाह। सदा रूहानी खुशबू फैलाते रहो तो सब विघ्न खत्म हो जायेंगे।
(3) हर कर्म करते ‘कर्मयोगी आत्मा' अनुभव करते हो? कर्म और योग सदा साथ-साथ रहता है? कर्मयोगी हर कर्म में स्वत: ही सफलता को प्राप्त करता है। कर्मयोगी आत्मा कर्म का प्रत्यक्षफल उसी समय भी अनुभव करता और भविष्य भी जमा करता, तो डबल फायदा हो गया ना। ऐसे डबल फल लेने वाली आत्मायें हो। कर्मयोगी आत्मा कभी कर्म के बन्धन में नहीं फँसेंगी। सदा न्यारे और सदा बाप के प्यारे। कर्म के बन्धन से मुक्त - इसको ही ‘कर्मातीत' कहते हैं। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं है कि कर्म से अतीत हो जाओ। कर्म से न्यारे नहीं, कर्म के बन्धन में फँसने से न्यारे, इसको कहते हैं - कर्मातीत। कर्मयोगी स्थिति कर्मातीत स्थिति का अनुभव कराती है। तो किसी बंधन में बंधने वाले तो नहीं हो ना? औरों को भी बंधन से छुड़ाने वाले। जैसे बाप ने छुड़ाया, ऐसे बच्चों का भी काम है छुड़ाना, स्वयं कैसे बंधन में बंधेंगे? कर्मयोगी स्थिति अति प्यारी और न्यारी है। इससे कोई कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसे लगेगा जैसे काम नहीं कर रहे हैं लेकिन खेल कर रहे हैं। चाहे कितना भी मेहनत का, सख्त खेल हो, फिर भी खेल में मजा आयेगा ना। जब मल्लयुद्ध करते हैं तो कितनी मेहनत करते हैं। लेकिन जब खेल समझकर करते हैं तो हँसते-हँसते करते हैं। मेहनत नहीं लगती, मनोरंजन लगता है। तो कर्मयोगी के लिए कैसा भी कार्य हो लेकिन मनोरंजन है, संकल्प में भी मुश्किल का अनुभव नहीं होगा। तो कर्मयोगी ग्रुप अपने कर्म से अनेकों का कर्म श्रेष्ठ बनाने वाले, इसी में बिजी रहो। कर्म और याद कम्बाइण्ड, अलग हो नहीं सकते।
(4) सदा बाप की अति स्नेही, सहयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? स्नेही की निशानी क्या होती है? जिससे स्नेह होता है उसके हर कार्य में सहयोगी जरूर होंगे। अति स्नेही आत्मा की निशानी सदा बाप के श्रेष्ठ कार्य में सहयोगी होगी। जितना-जितना सहयोगी, उतना सहज योगी क्योंकि बाप के सहयोगी हैं ना। दिन-रात यही लग्न रहे - बाबा और सेवा, इसके सिवाए कुछ है ही नहीं। अगर लौकिक कार्य भी करते हो तो बाप की श्रीमत प्रमाण करते हो, इसलिए वह भी बाप का कार्य है। लौकिक में भी अलौकिकता ही अनुभव करेंगे, कभी लौकिक कार्य समझ न थकेंगे, न फँसेंगे, न्यारे रहेंगे। तो ऐसे स्नेही और सहयोगी आत्मायें हो। न्यारे होकर कर्म करेंगे तो बहुत अच्छा कर्म होगा। कर्म में फँसकर करने से अच्छा नहीं होता, सफलता भी नहीं होती, मेहनत भी बहुत और प्राप्ति भी नहीं। इसलिए सदा बाप के स्नेह में समाई हुई सहयोगी आत्मायें हैं। सहयोगी आत्मा कभी भी माया की योगी हो नहीं सकती, उसका माया से किनारा हो जायेगा। हर संकल्प में ‘बाबा' और ‘सेवा', तो जो नींद भी करेंगे, उसमें भी बड़ा आराम मिलेगा, शान्ति मिलेगी, शक्ति मिलेगी। नींद, नींद नहीं होगी, जैसे कमाई करके खुशी में लेटे हैं। इतना परिवर्तन हो जाता है! ‘बाबा-बाबा' करते रहो। बाबा कहा और कार्य सफल हुआ पड़ा है। क्योंकि बाप सर्वशक्तिवान है। सर्वशक्तिवान बाप की याद स्वत: ही हर कार्य को शक्तिशाली बना देती है।
(5) अपने को राजऋषि, श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? राजऋषि अर्थात् राज्य होते हुए भी ऋषि अर्थात् सदा बेहद के वैरागी। स्थूल देश का राज्य नहीं है लेकिन स्व का राज्य है। स्व-राज्य करते हुए बेहद के वैरागी भी हो, तपस्वी भी हो क्योंकि जानते हो पुरानी दुनिया में है ही क्या। इस दुनिया को कहते ही हो असार संसार, कोई सार नहीं। जितना ही बनाने की कोशिश करते हैं, उतना ही बिगड़ता है। तो असार हुआ ना। तो असार संसार से स्वत: ही वैराग आ जाता है क्योंकि असार संसार से ब्राह्मणों का श्रेष्ठ संसार मिल गया। श्रेष्ठ संसार मिल गया तो असार से वैराग स्वत: हो जायेगा। वैराग अर्थात् लगाव न हो। अगर लगाव होता है तो बुद्धि का झुकाव होता है। जिस तरफ लगाव होगा, बुद्धि उसी तरफ जायेगी। इसलिए राजऋषि हो, राजे भी हो और साथ-साथ बेहद के वैरागी भी हो। ऋषि तपस्वी होते हैं। किसी भी आकर्षण में आकर्षित नहीं होने वाले। स्व-राज्य के आगे यह हद की आकर्षण क्या है? कुछ भी नहीं। तो अपने को क्या समझते हो? राजऋषि। किसी भी प्रकार का लगाव ऋषि बनने नहीं देगा, तपस्वी बन नहीं सकेंगे। तपस्या में ‘लगाव' ही विघ्न-रूप बन कर आता है। तपस्या भंग हो जाती है। इसलिए, माया की आकर्षण से सदा परे रहो। कोई भी सम्बन्ध में लगाव न हो। माताओं को पोत्रे-धोत्रे अच्छे लगते हैं, इसलिए थोड़ा लगाव हो जाता है। पाण्डवों का फिर किससे लगाव होता है? कमाने में, पैसा इकट्ठा करने में। जेब में पैसा तो होना चाहिए ना! लेकिन जो बाप की लग्न में रहते हैं, वह लगाव में नहीं रहते, उसको सब सहज प्राप्त होता है। ब्राह्मण जीवन में 10 रूपया भी 100 बन जाता है। इतना धन में वृद्धि हो जाती है! प्रगति पड़ने से 10, 100 का काम करता है, वहाँ 100, 10 का काम करेगा। क्योंकि अभी एकानामी के अवतार हो गये ना। व्यर्थ बच गया और समर्थ पैसा, ताकत वाला पैसा है। काला पैसा नहीं है, सफेद है, इसलिए शक्ति है। तो राजऋषि आत्मायें हैं - इस वरदान को सदा याद रखना। कहाँ लगाव में नहीं फँस जाना। न फँसो, न निकलने की मेहनत करो।
(6) अपने को सदा हर्षित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? हर्षितमुख, हर्षितचित्त। इसकी यादगार आपके यादगार चित्रों में भी दिखाते हैं। कोई भी देवी या देवता की मूर्ति बनायेंगे तो उसमें चेहरा जो दिखाते हैं, वह सदा हर्षित दिखाते हैं। अगर कोई सीरियस (गम्भीर) चेहरा होगा तो देवता का चित्र नहीं मानेंगे। तो हर्षितमुख रहने का इस समय का गुण आपके यादगार चित्रों में भी है। हर्षितमुख अर्थात् सदा सर्व प्राप्तियों से भरपूर। जो भरपूर होता है वही हर्षित रह सकता है। अगर कोई भी अप्राप्ति होगी तो हर्षित नहीं रहेंगे। कितनी भी हर्षित रहने की कोशिश करें, बाहर से हँसेंगे लेकिन दिल से नहीं। कोई बाहर से हँसते हैं तो मालूम पड़ जाता है - यह दिखावे का हँसना है, सच्च नहीं। तो आप सब दिल से सदा मुस्काराते रहो। कभी चेहरे पर दु:ख की लहर न आये। किसी भी परिस्थिति में दु:ख की लहर नहीं आनी चाहिए क्योंकि दु:ख की दुनिया छोड़ दी, संगम की दुनिया में आ गये। अच्छा।
20-02-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
याद, पवित्रता और सच्चे सेवाधारी की तीन रेखाएं
हर एक बच्चे के वर्तमान रिजल्ट को देखते हुए विश्व-स्नेही बापदादा बोले
आज सर्व स्नेही, विश्व-सेवाधारी बाप अपने सदा सेवाधारी बच्चों से मिलने आये हैं। सेवाधारी बापदादा को समान सेवाधारी बच्चे सदा प्रिय हैं। आज विशेष, सर्व सेवाधारी बच्चों के मस्तक पर चमकती हुई विशेष तीन लकीरें देख रहे हैं। हर एक का मस्तक त्रिमूर्ति तिलक समान चमक रहा है। यह तीन लकीरें किसकी निशानी हैं? इन तीन प्रकार के तिलक द्वारा हर एक बच्चे के वर्तमान रिजल्ट को देख रहे हैं। एक है - सम्पूर्ण योगी जीवन की लकीर।
दूसरी है - पवित्रता की रेखा वा लकीर। तीसरी है - सच्चे सेवाधारी की लकीर। तीनों रेखाओं में हर बच्चे की रिजल्ट को देख रहे हैं। याद की लकीर सभी की चमक रही है लेकिन नम्बरवार है। किसी की लकीर वा रेखा आदि से अब तक अव्यभिचारी अर्थात् सदा एक की लग्न में मग्न रहने वाली है। दूसरी बात - सदा अटूट रही है? सदा सीधी लकीर अर्थात् डायरेक्ट बाप से सर्व सम्बन्ध की लग्न सदा से रही है वा किसी निमित्त आत्माओं के द्वारा बाप से सम्बन्ध जोड़ने के अनुभवी हैं? डायरेक्ट बाप का सहारा है वा किसी आत्मा के सहारे द्वारा बाप का सहारा है? एक हैं सीधी लकीर वाले, दूसरे हैं बीच-बीच में थोड़ी टेढ़ी लकीर वाले। यह हैं याद की लकीर की विशेषतायें। दूसरी है - सम्पूर्ण पवित्रता की लकीर वा रेखा। इसमें भी नम्बरवार हैं। एक हैं ब्राह्मण जीवन लेते ही ब्राह्मण जीवन का, विशेष बाप का वरदान प्राप्त कर सदा और सहज इस वरदान को जीवन में अनुभव करने वाले। उन्हों की लकीर आदि से अब तक सीधी है। दूसरे - ब्राह्मण जीवन के इस वरदान को अधिकार के रूप में अनुभव नहीं करते; कभी सहज, कभी मेहनत से, बहुत पुरूषार्थ से अपनाने वाले हैं। उन्हों की लकीर सदा सीधी और चमकती हुई नहीं रहती है। वास्तव में याद वा सेवा की सफलता का आधार है - पवित्रता। सिर्फ ब्रह्मचारी बनना - यह पवित्रता नहीं लेकिन पवित्रता का सम्पूर्ण रूप है - ब्रह्मचारी के साथ-साथ ब्रह्माचारी बनना। ब्रह्माचारी अर्थात् ब्रह्मा के आचरण पर चलने वाले, जिसको फॉलो फादर कहा जाता है क्योंकि फॉलो ब्रह्मा बाप को करना है। शिव बाप के समान स्थिति में बनना है लेकिन आचरण वा कर्म में ब्रह्मा बाप को फॉलो करना है। हर कदम में ब्रह्मचारी। ब्रह्मचर्य का व्रत सदा संकल्प और स्वप्न तक हो। पवित्रता का अर्थ है - सदा बाप को कम्पैनियन (साथी) बनाना और बाप की कम्पनी में सदा रहना। कम्पैनियन बना दिया, ‘बाबा मेरा' - यह भी आवश्यक है लेकिन हर समय कम्पनी भी बाप की रहे। इसको कहते हैं - ‘सम्पूर्ण पवित्रता।' संगठन की कम्पनी, परिवार के स्नेह की मर्यादा, वह अलग चीज़ है, वह भी आवश्यक है। लेकिन बाप के कारण ही यह संगठन के स्नेह की कम्पनी है - यह नहीं भूलना है। परिवार का प्यार है, लेकिन परिवार किसका? बाप का। बाप नहीं होता तो परिवार कहाँ से आता? परिवार का प्यार, परिवार का संगठन बहुत अच्छा है लेकिन परिवार का बीज नहीं भूल जाए। बाप को भूल परिवार को ही कम्पनी बना देते हैं। बीच-बीच में बाप को छोड़ा तो खाली जगह हो गई। वहाँ माया आ जायेगी। इसलिए स्नेह में रहते, स्नेह देते-लेते समूह को नहीं भूलें। इसको कहते हैं पवित्रता। समझने में तो होशियार हो ना!
कई बच्चों को सम्पूर्ण पवित्रता की स्थिति में आगे बढ़ने में मेहनत लगती है। इसलिए बीच-बीच में कोई को कम्पैनियन बनाने का भी संकल्प आता है और कम्पनी भी आवश्यक है - यह भी संकल्प आता है। संन्यासी तो नहीं बनना है लेकिन आत्माओं की कम्पनी में रहते बाप की कम्पनी को भूल नहीं जाओ। नहीं तो समय पर उस आत्मा की कम्पनी याद आयेगी और बाप भूल जायेगा। तो समय पर धोखा मिलना सम्भव है क्योंकि साकार शरीरधारी के सहारे की आदत होगी तो अव्यक्त बाप और निराकार बाप पीछे याद आयेगा, पहले शरीरधारी आयेगा। अगर किसी भी समय पहले साकार का सहारा याद आया तो नम्बरवन वह हो गया और दूसरा नम्बर बाप हो गया! जो बाप को दूसरे नम्बर में रखते तो उसको पद क्या मिलेगा - नम्बर वन (एक) वा टू (दो)? सिर्फ सहयोग लेना, स्नेही रहना वह अलग चीज़ है, लेकिन सहारा बनाना अलग चीज़ है। यह बहुत गुह्य बात है। इसको यथार्थ रीति से जानना पड़े। कोई-कोई संगठन में स्नेही बनने के बजाए न्यारे भी बन जाते हैं। डरते हैं - ना मालूम फँस जाएँ, इससे तो दूर रहना ठीक है। लेकिन नहीं। 21 जन्म भी प्रवृत्ति में, परिवार में रहना है ना। तो अगर डर के कारण किनारा कर लेते, न्यारे बन जाते तो वह कर्म-संन्यासी के संस्कार हो जाते हैं। कर्मयोगी बनना है, कर्म-संन्यासी नहीं। संगठन में रहना है, स्नेही बनना है लेकिन बुद्धि का सहारा एक बाप हो, दूसरा न कोई। बुद्धि को कोई आत्मा का साथ वा गुण वा कोई विशेषता आकर्षित नहीं करे। इसको कहते हैं - ‘पवित्रता'।
पवित्रता में मेहनत लगती - इससे सिद्ध है वरदाता बाप से जन्म का वरदान नहीं लिया है। वरदान में मेहनत नहीं होती। हर ब्राह्मण आत्मा को ब्राह्मण जन्म का पहला वरदान - ‘पवित्र भव, योगी भव' का मिला हुआ है। तो अपने से पूछो - पवित्रता के वरदानी हो या मेहनत से पवित्रता को अपनाने वाले हो? यह याद रखो कि हमारा ब्राह्मण जन्म है। सिर्फ जीवन परिवर्तन नहीं लेकिन ब्राह्मण जन्म के आधार पर जीवन का परिवर्तन है। जन्म के संस्कार बहुत सहज और स्वत: होते हैं। आपस में भी कहते हो ना - मेरे जन्म से ही ऐसे संस्कार हैं। ब्राह्मण जन्म का संस्कार है ही ‘योगी भव, पवित्र भव'। वरदान भी है, निजी संस्कार भी है। जीवन में दो चीज़ें ही आवश्यक हैं। एक - कम्पैनियन, दूसरी - कम्पनी। इसलिए त्रिकालदर्शी बाप सभी की आवश्यकताओं को जान कम्पैनियन भी बढ़िया, कम्पनी भी बढ़िया देते हैं। विशेष डबल विदेशी बच्चों को दोनों चाहिए। इसलिए बापदादा ने ब्राह्मण जन्म होते ही कम्पैनियन का अनुभव करा लिया, सुहागिन बना दिया। जन्मते ही कम्पैनियन मिल गया ना? कम्पैनियन मिल गया है वा ढूँढ़ रहे हो? तो पवित्रता निजी संस्कार के रूप में अनुभव करना, इसको कहते हैं - श्रेष्ठ लकीर अथवा श्रेष्ठ रेखा वाले। फाउण्डेशन पक्का है ना?
तीसरी लकीर है - सच्चे सेवाधारी की। यह सेवाधारी की लकीर भी सभी के मस्तक पर है। सेवा के बिना भी रह नहीं सकते। सेवा ब्राह्मण जीवन को सदा निर्विघ्न बनाने का साधन भी है और फिर सेवा में ही विघ्नों का पेपर भी ज्यादा आता है। निर्विघ्न सेवाधारी को सच्चे सेवाधारी कहा जाता है। विघ्न आना, यह भी ड्रामा की नूँध है। आने ही हैं और आते ही रहेंगे क्योंकि यह विघ्न या पेपर अनुभवी बनाते हैं। इसको विघ्न न समझ, अनुभव की उन्नति हो रही है - इस भाव से देखो तो उन्नति की सीढ़ी अनुभव होगी। इससे और आगे बढ़ना है। क्योंकि सेवा अर्थात् संगठन का, सर्व आत्माओं की दुआ का अनुभव करना। सेवा के कार्य में सर्व की दुआयें मिलने का साधन है। इस विधि से, इस वृत्ति से देखो तो सदा ऐसे अनुभव करेंगे कि अनुभव की अथॉर्टी और आगे बढ़ रही है। विघ्न को विघ्न नहीं समझो और विघ्न अर्थ निमित्त बनी हुई आत्मा को विघ्नकारी आत्मा नहीं समझो, अनुभवी बनाने वाले शिक्षक समझो। जब कहते हो निंदा करने वाले मित्र हैं, तो विघ्नों को पास कराके अनुभवी बनाने वाला शिक्षक हुआ ना! पाठ पढ़ाया ना! जैसे आजकल के जो बीमारियों को हटाने वाले डॉक्टर्स हैं, वह एक्सरसाइज (व्यायाम) कराते हैं, और एक्सरसाइज में पहले दर्द होता है, लेकिन वह दर्द सदा के लिए बेदर्द बनाने के निमित्त होता है। जिसको यह समझ नहीं होती है, वह चिल्लाते हैं - इसने तो और ही दर्द कर लिया। लेकिन इस दर्द के अन्दर छिपी हुई दवा है। इस प्रकार रूप भल विघ्न का है, आपको विघ्नकारी आत्मा दिखाई पड़ती लेकिन सदा के लिए विघ्नों से पार कराने के निमित्त, अचल बनाने के निमित्त वही बनते। इसलिए, सदा निर्विघ्न सेवाधारी को कहते हैं - ‘सच्चे सेवाधारी'। ऐसे श्रेष्ठ लकीर वाले सच्चे सेवाधारी कहे जाते हैं।
सेवा में सदैव स्वच्छ बुद्धि, स्वच्छ वृत्ति और स्वच्छ कर्म सफलता का सहज आधार है। कोई भी सेवा का कार्य जब आरम्भ करते हो तो पहले यह चेक करो कि बुद्धि में किसी आत्मा के प्रति भी स्वच्छता के बजाए अगर बीती हुई बातों की जरा भी स्मृति होगी तो उसी वृत्ति, दृष्टि से उनको देखना, उनसे बोलना होता। तो सेवा में जो स्वच्छता से सम्पूर्ण सफलता होनी चाहिए, वह नहीं होती। बीती हुई बातों को वा वृत्तियों आदि सबको समाप्त करना - यह है स्वच्छता। बीती का संकल्प भी करना कुछ परसेन्टेज में हल्का पाप है। संकल्प भी सृष्टि बना देता है। वर्णन करना तो और बड़ी बात है लेकिन संकल्प करने से भी पुराने संकल्प की स्मृति, सृष्टि अथवा वायुमण्डल भी वैसा बना देती है। फिर कह देते - ‘मैंने जो कहा था ना, ऐसे ही हुआ ना'। लेकिन हुआ क्यों? आपके कमज़ोर, व्यर्थ संकल्प ने यह व्यर्थ वायुमण्डल की सृष्टि बनाई। इसलिए, सदा सच्चे सेवाधारी अर्थात् पुराने वायब्रेशन को समाप्त करने वाले। जैसे साइन्स वाले शस्त्र से शस्त्र को खत्म कर देते हैं, एक विमान से दूसरे विमान को गिरा देते हैं। युद्ध करते हैं तो समाप्त कर देते हैं ना! तो आपका शुद्ध वायब्रेशन, शुद्ध वायब्रेशन को इमर्ज कर सकता है और व्यर्थ वायब्रेशन को समाप्त कर सकता है। संकल्प, संकल्प को समाप्त कर सकता है। अगर आपका पावरफुल (शक्तिशाली) संकल्प है तो समर्थ संकल्प, व्यर्थ को खत्म जरूर करेगा। समझा? सेवा में पहले स्वच्छता अर्थात् पवित्रता की शक्ति चाहिए। यह तीन लकीरें चमकती हुई देख रहे हैं।
सेवा के विशेषता की और अनेक बातें सुनी भी हैं। सब बातों का सार है - नि:स्वार्थ, निर्विकल्प स्थिति से सेवा करना सफलता का आधार है। इसी सेवा में ही स्वयं भी सन्तुष्ट और हर्षित रहते और दूसरे भी सन्तुष्ट रहते। सेवा के बिना संगठन नहीं होता। संगठन में भिन्न-भिन्न बातें, भिन्न-भिन्न विचार, भिन्न-भिन्न तरीके, साधन - यह होना ही है। लेकिन बातें आते भी, भिन्न-भिन्न साधन सुनते हुए भी स्वयं सदा अनेक को एक बाप की याद में मिलाने वाले, एकरस स्थिति वाले रहो। कभी भी अनेकता में मूँझो नहीं - अब क्या करें, बहुत विचार हो गये हैं, किसका मानें, किसका न मानें? अगर नि:स्वार्थ, निर्विकल्प भाव से निर्णय करेंगे तो कभी किसी को कुछ व्यर्थ संकल्प नहीं आयेगा। क्योंकि सेवा के बिना भी रह नहीं सकते, याद के बिना भी रह नहीं सकते। इसलिए, सेवा को भी बढ़ाते चलो। स्वयं को भी स्नेह, सहयोग और नि:स्वार्थ भाव में बढ़ाते चलो। समझा?
बापदादा को खुशी है कि देश-विदेश में छोटे-बड़े सभी ने उमंग-उत्साह से सेवा का सबूत दिया। विदेश की सेवा का भी सफलतापूर्वक कार्य सम्पन्न हुआ और देश में भी सभी के सहयोग से सर्व कार्य सम्पन्न हुए, सफल हुए। बापदादा बच्चों के सेवा की लग्न को देख हर्षित होते हैं। सभी का लक्ष्य बाप को प्रत्यक्ष करने का अच्छा रहा और बाप के स्नेह में मेहनत को मुहब्बत में बदल कार्य का प्रत्यक्षफल दिखाया। सभी बच्चे विशेष सेवा के निमित्त आये हुए हैं। बापदादा भी ‘वाह बच्चे! वाह!' के गीत गाते हैं। सभी ने बहुत अच्छा किया। किसी ने किया, किसी ने नहीं किया, यह है नहीं। चाहे छोटे स्थान हैं वा बड़े स्थान हैं, लेकिन छोटे स्थान वालों ने भी कम नहीं किया। इसलिए, सर्व की श्रेष्ठ भावनाओं और श्रेष्ठ कामनाओं से कार्य अच्छे रहे और सदा अच्छे रहेंगे। समय भी खूब लगाया, संकल्प भी खूब लगाया, प्लेन बनाया तो संकल्प किया ना। शरीर की शक्ति भी लगाई, धन की शक्ति भी लगाई, संगठन की शक्ति भी लगाई। सर्व शक्तियों की आहुतियों से सेवा का यज्ञ दोनों तरफ (देश और विदेश) सफल हुआ। बहुत अच्छा कार्य रहा। ठीक किया वा नहीं किया - यह क्वेश्चन ही नहीं। सदा ठीक रहा है और सदा ठीक रहेगा। चाहे मल्टी मिलियन पीस का कार्य किया, चाहे गोल्डन जुबली का कार्य किया - दोनों ही कार्य सुन्दर रहे। जिस विधि से किया, वह विधि भी ठीक है। कहाँ-कहाँ चीज़ की वैल्यू बढ़ाने के लिए पर्दे के अन्दर वह चीज़ रखी जाती है। पर्दा और ही वैल्यू को बढ़ा देता है और जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि देखें क्या है, पर्दे के अन्दर है तो जरूर कुछ होगा। लेकिन यही पर्दा प्रत्यक्षता का पर्दा बन जाएगा। अभी धरनी बना ली। धरनी में जब बीज डाला जाता है वो अन्दर छिपा हुआ डाला जाता है। बीज को बाहर नहीं रखते, अन्दर छिपाकर रखते हैं। और फल वा वृक्ष गुप्त बीज का ही स्वरूप प्रत्यक्ष होता। तो अब बीज डाला है, वृक्ष बाहर स्टेज पर स्वत: ही आता जाएगा।
खुशी में नाच रहे हो ना? ‘वाह बाबा'! तो कहते हो लेकिन वाह सेवा! भी कहते हो। अच्छा। समाचार तो सब बापदादा ने सुन लिया।
इस सेवा से जो देश-विदेश के संगठन से वर्ग की सेवा हुई, यह चारों ओर एक ही समय एक ही आवाज बुलन्द होने या फैलने का साधन अच्छा है। आगे भी जो भी प्रोग्राम करो, लेकिन एक ही समय देश-विदेश में चारों ओर एक ही प्रकार की सेवा कर फिर सेवा का फलस्वरूप मधुबन में संगठित रूप में हो। चारों ओर एक लहर होने के कारण सब में उमंग-उत्साह भी होता है और चारों ओर रूहानी रेस होती (रीस नहीं) कि हम और ज्यादा-से-ज्यादा सेवा का सबूत दें। तो इस उमंग से चारों ओर नाम बुलन्द हो जाता है। इसलिए, किसी भी वर्ग का बनाओ लेकिन चारों ओर सारा वर्ष एक ही रूप-रेखा की सेवा की तरफ अटेन्शन हो। तो उन आत्माओं को भी चारों ओर का संगठन देख उमंग आता है, आगे बढ़ने का चांस मिलता है। इस विधि से प्लैन बनाते, बढ़ते चलो। पहले अपनी- अपनी एरिया (इलाका) में उन वर्ग की सेवा कर छोटे-छोटे संगठन के रूप में प्रोग्राम करते रहो और उन संगठन से फिर जो विशेष आत्मायें हों, उनको इस बड़े संगठन के लिए तैयार करो। लेकिन हर सेन्टर या आस-पास के मिलकर करो। क्योंकि कई यहाँ तक नहीं पहुँच सकते तो वहाँ पर भी संगठन का जो प्रोग्राम होता, उससे भी उन्हों को लाभ होता है। तो पहले छोटे-छोटे ‘स्नेह मिलन' करो, फिर जोन को मिलाकर संगठन करो, फिर मधुबन का बड़ा संगठन हो। तो पहले से ही अनुभवी बन करके फिर यहाँ तक भी आयेंगे। लेकिन देशविदेश में एक ही टॉपिक हो और एक ही वर्ग के हों। ऐसे भी टॉपिक्स होते हैं जिसमें दो-चार वर्ग भी मिल सकते हैं। टॉपिक विशाल है तो दो-तीन वर्ग के भी उसी टॉपिक बीच आ सकते हैं। तो अभी देश-विदेश में धर्म सत्ता, राज्य सत्ता और साइन्स की सत्ता - तीनों के सैम्पल्स तैयार करो। अच्छा।
सर्व पवित्रता के वरदान के अधिकारी आत्माओं को, सदा एकरस, निरन्तर योगी जीवन के अनुभवी आत्माओं को, सदा हर संकल्प, हर समय सच्चे सेवाधारी बनने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को विश्व-स्नेही, विश्व-सेवाधारी बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
कांफ्रेंस में आये हुए सेवाधारी भाई-बहनों प्रति बापदादा बोले - सभी ने मेहमानों की स्थूल, सूक्ष्म सेवा की और सेवा से अनेक आत्माओं को बाप के स्नेह का अनुभव कराया। इसके लिए बापदादा बच्चों को गोल्डन मुबारक दे रहे हैं। सभी ने अपनी ड्यूटी (कर्त्तव्य) वा कार्य प्रमाण बहुत अच्छा सहयोग दिया और सभी के सहयोग से कार्य सदा के लिए सफल रहा। तो सफलता प्राप्त करने वाले सफलता के सितारे बन गये। ऐसे सफलता के सितारों को देख बापदादा भी खुश होते हैं। आप भी खुश हुए ना। मैंने किया - यह खुशी नहीं लेकिन आत्माओं को परिचय मिला, आत्माओं को सन्देश मिला - यह खुशी है। भटकी हुई आत्माओं को ठिकाने का पता तो पड़ गया ना। तो बहुत अच्छी संगठन रूप में सेवा के निमित्त बने। तो बच्चे भी खुश हैं, बाप भी खुश हैं। बापदादा बच्चों की हिम्मत भी सदा देखते रहते हैं। हिम्मत से आगे बढ़ रहे हैं और सदा आगे बढ़ते रहेंगे।
सेवा का प्रत्यक्षफल - खुशी हुई, शक्ति मिली। सेवा करते आत्माओं को स्थूल, सूक्ष्म बाप के स्थान का अनुभव कराया। यह पुण्य का काम किया ना। तो स्थूल सेवा भी की और पुण्य भी किया। तो जो पुण्य करता है उसको, जिसका पुण्य करते हैं, उसकी आशीर्वाद मिलती है। तो सभी आत्माओं के दिल से जो खुशी के संकल्प पैदा हुए, वह शुभ संकल्प भी आपकी आशीर्वादें बन गये। तो सेवा किया अर्थात् पुण्य किया और पुण्य का फल सभी की शुभ कामनाओं की आशीर्वाद मिली और भविष्य भी जमा हो गया। तो कितने फायदे हुए। साधारण सेवा भी की होगी लेकिन कितनी श्रेष्ठ सेवा और उसकी श्रेष्ठ प्रालब्ध रही! तो सदा अपने को सेवाधारी समझ सेवा का अविनाशी फल - खुशी और शक्ति - सदा लेते रहो। सेवा से बुद्धि बिजी भी रहती है ना! तो बिजी रहने के कारण निर्विघ्न रहते हैं। यह भी मदद मिल जाती है। तो जो हुआ ड्रामा। लेकिन जो हुआ उससे अपना लाभ ले लेना चाहिए। तो जमा भी हुआ और प्रत्यक्ष में भी मिला, डबल हो गया। बापदादा ने मुबारक तो दे ही दी। अच्छा।
18-03-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सच्चे रूहानी आशिक की निशानियाँ
सदा प्राप्तियों से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने अविनाशी आशिकों प्रति बोले
आज रूहानी माशूक अपने रूहानी आशिक आत्माओं से मिलने के लिए आये हैं। सारे कल्प में इस समय ही रूहानी माशूक और आशिकों का मिलन होता है। बापदादा अपने हर एक आशिक आत्मा को देख हर्षित होते हैं - कैसे रूहानी आकर्षण से आकर्षित हो अपने सच्चे माशूक को जान लिया, पा लिया है! खोये हुए आशिक को देख माशूक भी खुश होते हैं कि फिर से अपने यथार्थ ठिकाने पर पहुँच गये। ऐसा सर्व प्राप्ति कराने वाला माशूक और कोई मिल नहीं सकता। रूहानी माशूक सदा अपने आशिकों से मिलने के लिए कहाँ आते हैं? जैसा श्रेष्ठ माशूक और आशिक हैं, ऐसे ही श्रेष्ठ स्थान पर मिलने के लिए आते हैं। यह कौन-सा स्थान है जहाँ मिलन मना रहे हो? इसी स्थान को जो भी कहो, सर्व नाम इस स्थान को दे सकते हैं। वैसे मिलने के स्थान जो अतिप्रिय लगते हैं, वह कौन-से होते हैं? या फूलों के बगीचे में मिलन होता है वा सागर के किनारे पर मिलना होता है जिसको आप लोग बीच (समुद्र का किनारा) कहते हो। तो अब कहाँ बैठे हो? ज्ञान सागर के किनारे रूहानी मिलन के स्थान पर बैठे हो। रूहानी वा गॉडली गार्डन (अल्लाह का बगीचा) है। और तो अनेक प्रकार के बगीचे देखे हैं लेकिन ऐसा बगीचा जहाँ हरेक एक दो से ज्यादा खिले हुए फूल हैं, एक-एक श्रेष्ठ सुन्दरता से अपनी खुशबू दे रहे हैं - ऐसा बगीचा है। इसी बीच पर बापदादा वा माशूक मिलने आते हैं। वह अनेक बीच देखीं, लेकिन ऐसी बीच कब देखी जहाँ ज्ञान सागर की स्नेह की लहरें, शक्ति की लहरें, भिन्न-भिन्न लहरें लहराए सदा के लिए रिफ्रेश कर देती हैं? यह स्थान पसन्द है ना? स्वच्छता भी है और रमणीकता भी है। सुन्दरता भी है। इतनी ही प्राप्तियाँ भी हैं। ऐसा मनोरंजन का विशेष स्थान आप आशिकों के लिए माशूक ने बनाया है जहाँ आने से मुहब्बत की लकीर के अन्दर पहुँचते ही अनेक प्रकार की मेहनत से छूट जाते। सबसे बड़ी मेहनत - नैचुरल याद की, वह सहज अनुभव करते हो। और कौन-सी मेहनत से छूटते हो? लौकिक जॉब (नौकरी) से भी छूट जाते हो। भोजन बनाने से भी छूट जाते हो। सब बना बनाया मिलता है ना। याद भी स्वत: अनुभव होती। ज्ञान रत्नों की झोली भी भरती रहती। ऐसे स्थान पर जहाँ मेहनत से छूट जाते हो और मुहब्बत में लीन हो जाते हो।
वैसे भी स्नेह की निशानी विशेष यही गाई जाती कि दो, दो न रहें लेकिन दो मिलकर एक हो जाएँ। इसको ही समा जाना कहते हैं। भक्तों ने इसी स्नेह की स्थिति को समा जाना वा लीन होना कह दिया है। वो लोग लीन होने का अर्थ नहीं समझते। लव में लीन होना - यह स्थिति है लेकिन स्थिति के बदले उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को सदा के लिए समाप्त करना समझ लिया है। समा जाना अर्थात् समान बन जाना। जब बाप के वा रूहानी माशूक के मिलन में मग्न हो जाते हो तो बाप समान बनने अथवा समा जाने अर्थात् समान बनने का अनुभव करते हो। इसी स्थिति को भक्तों ने समा जाना कहा है। लीन भी होते हो, समा भी जाते हो। लेकिन यह मिलन के मुहब्बत के स्थिति की अनुभूति है। समझा? इसलिए बापदादा अपने आशिकों को देख रहे हैं। सच्चे आशिक अर्थात् सदा आशिक, नैचुरल (स्वत:) आशिक ।
सच्चे आशिक की विशेषतायें जानते भी हो । फिर भी उसकी मुख्य निशानियां हैं - एक माशूक द्वारा सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करना। माशूक एक है लेकिन एक के साथ सर्व सम्बन्ध हैं। जो सम्बन्ध चाहें और जिस समय जिस सम्बन्ध की आवश्यकता है, उस समय उस सम्बन्ध के रूप से प्रीति की रीति द्वारा अनुभव कर सकते हो। तो पहली निशानी है - सर्व सम्बन्धों की अनुभूति। ‘सर्व' शब्द को अण्डरलाइन करना। सिर्फ सम्बन्ध नहीं। कई ऐसे नटखट आशिक भी हैं जो समझते हैं सम्बन्ध तो जुट गया है। लेकिन सर्व सम्बन्ध जुटे हैं? और दूसरी बात - समय पर सम्बन्ध की अनुभूति होती है? नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध है वा दिल की अनुभूति से सम्बन्ध है? बापदादा सच्ची दिल पर राजी है। सिर्फ तीव्र दिमाग वालों पर राजी नहीं, लेकिन दिलाराम दिल पर राजी है। इसलिए, दिल का अनुभव दिल जाने, दिलाराम जाने। समाने का स्थान दिल कहा जाता है, दिमाग नहीं। नॉलेज को समाने का स्थान दिमाग है, लेकिन माशूक को समाने का स्थान दिल है। माशूक आशिकों की बातें ही सुनायेंगे ना। कोई-कोई आशिक दिमाग ज्यादा चलाते लेकिन दिल से दिमाग की मेहनत आधी हो जाती है। जो दिल से सेवा करते वा याद करते, उन्हों की मेहनत कम और सन्तुष्टता ज्यादा होती और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नॉलेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता भी हो जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। यही सोचते रहेंगे - हुआ तो अच्छा, लेकिन फिर, फिर भी... करते रहेंगे और दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे। दिल की सन्तुष्टता के गीत, मुख की सन्तुष्टता के गीत नहीं। सच्चे आशिक दिल से सर्व सम्बन्धों की समय प्रमाण अनुभूति करते हैं।
दूसरी निशानी - सच्चे आशिक हर परिस्थिति में, हर कर्म में सदा प्राप्ति की खुशी में होंगे। एक है अनुभूति, दूसरी है उससे प्राप्ति। कई अनुभूति भी करते हैं कि हाँ, मेरा बाप भी है, साजन भी है। बच्चा भी है लेकिन प्राप्ति जितनी चाहते उतनी नहीं होती है। बाप है, लेकिन वर्से के प्राप्ति की खुशी नहीं रहती। अनुभूति के साथ सर्व सम्बन्धों द्वारा प्राप्ति का भी अनुभव हो। जैसे - बाप के सम्बन्ध द्वारा सदा वर्से के प्राप्ति की महसूसता हो, भरपूरता हो। सत्गुरू द्वारा सदा वरदानों से सम्पन्न स्थिति का वा सदा सम्पन्न स्वरूप का अनुभव हो। तो प्राप्ति का अनुभव भी आवश्यक है। वह है सम्बन्धों का अनुभव, यह है प्राप्तियों का अनुभव। कइयों को सर्व प्राप्तियों का अनुभव नहीं होता। मास्टर सर्वशक्तिवान है लेकिन समय पर शक्तियों की प्राप्ति नहीं होती। प्राप्ति की अनुभूति नहीं तो प्राप्ति में भी कमी है। तो अनुभूति के साथ प्राप्ति स्वरूप भी बनें - यह है सच्चे आशिक की निशानी।
तीसरी निशानी - जिस आशिक को अनुभूति है, प्राप्ति भी है वह सदा तृप्त रहेंगे, किसी भी बात में अप्राप्त आत्मा नहीं लगेगी। तो, ‘तृप्ति' - यह आशिक की विशेषता है। जहाँ प्राप्ति है, वहाँ तृप्ति जरूर है। अगर तृप्त नहीं तो अवश्य प्राप्ति में कमी है और प्राप्ति नहीं तो सर्व सम्बन्धों की अनुभूति में कमी है। तो तीन निशानियां हैं - अनुभूति, प्राप्ति और तृप्ति। सदा तृप्त आत्मा। जैसा भी समय हो, जैसा भी वायुमण्डल हो, जैसे भी सेवा के साधन हों, जैसे भी सेवा के संगठन के साथी हों लेकिन हर हाल में, हर चाल में तृप्त हों। ऐसे सच्चे आशिक हो ना? तृप्त आत्मा में कोई हद की इच्छा नहीं होगी। वैसे देखो तो तृप्त आत्मा बहुत मैनारिटी (थोड़ी) रहती है। कोई-न-कोई बात में चाहे मान की, चाहे शान की भूख होती है। भूख वाला कभी तृप्त नहीं होता। जिसका सदा पेट भरा हुआ होता, वह तृप्त होता है। तो जैसे शरीर के भोजन की भूख है, वैसे मन की भूख है - शान, मान, सैलवेशन, साधन। यह मन की भूख है। तो जैसे शरीर की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे, वैसे मन की तृप्ति वाले सदा सन्तुष्ट होंगे। सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है। अगर तृप्त आत्मा नहीं होंगे, चाहे शरीर की भूख, चाहे मन की भूख होगी तो जितना भी मिलेगा, मिलेगा भी ज्यादा लेकिन तृप्त आत्मा न होने कारण सदा ही अतृप्त रहेंगे। असन्तुष्टता रहती है। जो रॉयल होते हैं, वह थोड़े में तृप्त होते हैं। रॉयल आत्माओं की निशानी - सदा ही भरपूर होंगे, एक रोटी में भी तृप्त तो 36 प्रकार के भोजन में भी तृप्त होंगे। और जो अतृप्त होंगे, वह 36 प्रकार के भोजन मिलते भी तृप्त नहीं होंगे क्योंकि मन की भूख है। सच्चे आशिक की निशानी - सदा तृप्त आत्मा होंगे। तो तीनों ही निशानीयां चेक करो। सदैव यह सोचो - ‘हम किसके आशिक हैं! जो सदा सम्पन्न है, ऐसे माशूक के आशिक हैं!' तो सन्तुष्टता कभी नहीं छोड़ो। सेवा छोड़ दो लेकिन सन्तुष्टता नहीं छोड़ो। जो सेवा असन्तुष्ट बनावे वो सेवा, सेवा नहीं। सेवा का अर्थ ही है - मेवा देने वाली सेवा। तो सच्चे आशिक सर्व हद की चाहना से परे, सदा ही सम्पन्न और समान होंगे।
आज आशिकों की कहानियाँ सुना रहे हैं। नाज़, नखरे भी बहुत करते हैं। माशूक भी देख-देख मुस्कराते रहते। नाज़, नखरे भल करो लेकिन माशूक को माशूक समझ उसके सामने करो, दूसरे के सामने नहीं। भिन्न-भिन्न हद के स्वभाव, संस्कार के नखरे और नाज़ करते हैं। जहाँ मेरा स्वभाव, मेरे संस्कार शब्द आता है, वहाँ भी नाज़, नखरे शुरू हो जाते हैं। बाप का स्वभाव सो मेरा स्वभाव हो। मेरा स्वभाव बाप के स्वभाव से भिन्न हो नहीं सकता। वह माया का स्वभाव है, पराया स्वभाव है। उसको मेरा कैसे कहेंगे? माया पराई है, अपनी नहीं है। बाप अपना है। मेरा स्वभाव अर्थात् बाप का स्वभाव। माया के स्वभाव को मेरा कहना भी रांग है। ‘मेरा' शब्द ही फेरे में लाता है अर्थात् चक्र में लाता है। आशिक, माशूक के आगे ऐसे नाज़-नखरे भी दिखाते हैं। जो बाप का सो मेरा। हर बात में भक्ति में भी यही कहते हैं - जो तेरा सो मेरा, और मेरा कुछ नहीं। लेकिन जो तेरा सो मेरा। जो बाप का संकल्प, वह मेरा संकल्प। सेवा के पार्ट बजाने के बाप के संस्कार-स्वभाव, वह मेरे। तो इससे क्या होगा? हद का मेरा, तेरा हो जायेगा। तेरा सो मेरा, अलग मेरा नहीं है। जो भी बाप से भिन्न हैं, वह मेरा है ही नहीं, वह माया का फेरा है। इसलिए इस हद के नाज़-नखरे से निकल रूहानी नाज़ - मैं तेरी और तू मेरा, भिन्न-भिन्न सम्बन्ध की अनुभूति के रूहानी नखरे भल करो। परन्तु यह नहीं करो। सम्बन्ध निभाने में भी रूहानी नखरे कर सकते हो। मुहब्बत की प्रीत के नखरे अच्छे होते हैं। कब सखा के सम्बन्ध से मुहब्बत के नखरे का अनुभव करो। वह नखरा नहीं लेकिन निराला-पन है। स्नेह के नखरे प्यारे होते हैं। जैसे, छोटे बच्चे बहुत स्नेही और प्युअर (पवित्र) होने के कारण उनके नखरे सबको अच्छे लगते हैं। शुद्धता और पवित्रता होती है बच्चों में। और बड़ा कोई नखरा करे तो वह बुरा माना जाता। तो बाप से भिन्न-भिन्न सम्बन्ध के, स्नेह के, पवित्रता के नाज़-नखरे भल करो, अगर करना ही है तो।
‘सदा हाथ और साथ' ही सच्चे आशिक माशूक की निशानी है। साथ और हाथ नहीं छूटे। सदा बुद्धि का साथ हो और बाप के हर कार्य में सहयोग का हाथ हो। एक दो के सहयोगी की निशानी - हाथ में हाथ मिलाके दिखाते हैं ना। तो सदा बाप के सहयोगी बनना - यह है सदा हाथ में हाथ। और सदा बुद्धि से साथ रहना। मन की लगन, बुद्धि का साथ। इस स्थिति में रहना अर्थात् सच्चे आशिक और माशूक के पोज में रहना। समझा? वायदा ही यह है कि सदा साथ रहेंगे। कभी-कभी साथ निभायेंगे - यह वायदा नहीं है। मन का लगाव कभी माशूक से हो और कभी न हो तो वह सदा साथ तो नहीं हुआ ना। इसलिए इसी सच्चे आशिक-पन के पोजीशन में रहो। दृष्टि में भी माशूक, वृत्ति में भी माशूक, सृष्टि ही माशूक।
तो यह माशूक और आशिकों की महफिल है। बगीचा भी है तो सागर का किनारा भी है। यह वण्डरफुल ऐसी प्राइवेट बीच (सागर का किनारा) है जो हजारों के बीच (मध्य) भी प्राइवेट है। हर एक अनुभव करते - मेरे साथ माशूक का पर्सनल प्यार है। हरेक को पर्सनल प्यार की फीलिंग प्राप्त होना - यही वण्डरफुल माशूक और आशिक हैं। है एक माशूक लेकिन है सबका। सभी का अधिकार सबसे ज्यादा है। हरेक का अधिकार है। अधिकार में नम्बर नहीं हैं, अधिकार प्राप्त करने में नम्बर हो जाते हैं। सदा यह स्मृति रखो कि - ‘गॉडली गार्डन में हाथ और साथ दे चल रहे हैं या बैठे हैं। रूहानी बीच पर हाथ और साथ दे मौज मना रहे हैं।' तो सदा ही मनोरंजन में रहेंगे, सदा खुश रहेंगे, सदा सम्पन्न रहेंगे। अच्छा।
यह डबल विदेशी भी डबल लक्की हैं। अच्छा है जो अब तक पहुँच गये। आगे चल क्या परिवर्तन होता है, वह तो ड्रामा। लेकिन डबल लक्की हो जो समय प्रमाण पहुँच गये हो। अच्छा।
सदा अविनाशी आशिक बन रूहानी माशूक से प्रीति की रीति निभाने वाले, सदा स्वयं को सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न अनुभव करने वाले, सदा हर स्थिति वा परिस्थिति में तृप्त रहने वाले, सदा सन्तुष्टता के खज़ाने से भरपूर बन औरों को भी भरपूर करने वाले, ऐसे सदा के साथ और हाथ मिलाने वाले सच्चे आशिकों को रूहानी माशूक का दिल से यादप्यार और नमस्ते।
पर्सनल मुलाकात
पार्टियों से आस्ट्रेलिया पार्टी से - आस्ट्रेलिया निवासी हो या वतन निवासी हो? कौनसा देश अच्छा लगता है? सदा वतन-वासी बन जैसे बाप सेवा के लिए नीचे आते हैं, इसी रीति से बच्चे भी वतन से सेवा के प्रति नीचे आये हैं - ऐसे अनुभव कर सेवा करते चलो तो सदा ही न्यारे और बाप समान विश्व के प्यारे बन जायेंगे। ऊपर से नीचे आना माना अवतार बन अवतरित होकर सेवा करना। ऐसी सेवा करते हो? क्योंकि वर्तमान समय ऐसे अवतारों की ही आवश्यकता है। सभी चाहते हैं कि अवतार आयें और हमको साथ ले जायें। जो भी प्रार्थना करते हैं, उसमें क्या कहते हैं? क्राइस्ट को भी यही कहते हैं - ‘आओ और साथ ले जाओ' तो सच्चे अवतार आप हो जो साथ ले जायेंगे मुक्तिधाम में। ऐसे अवतार बन सदा सेवा में आगे बढ़ते रहो। चलते-फिरते आप लोगों से ऐसे ही साक्षात्कार हो कि अवतार जा रहे हैं, अवतार बोल रहे हैं। तो उन्हों की इच्छा पूर्ण हो जायेगी और खुश हो जायेंगे। ऐसी सेवा में लगे हुए हो? क्योंकि विश्व इस समय दु:ख और अशान्ति से थका हुआ अनुभव कर रही है। तो ऐसी थकी हुई आत्माओं को सुख और शान्ति की चैन दिलाने वाली आत्मायें आप हो। सदा यही लक्ष्य रखो कि सभी को कुछ ना कुछ बाप के खज़ानों से प्राप्ति जरूर करायें।
अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको आदि पार्टियों से –
(1) सभी सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो ना। अनुभवी आत्मायें बन गई ना। सब दुनिया के रस अनुभव कर लिये। अब इस ईश्वरीय रस का अनुभव किया, तो वह रस क्या लगते हैं? फीके लगते हैं ना। जब है ही एक रस मीठा तो एक ही तरफ अटेन्शन जायेगा ना। एक तरफ मन लग ही जाता है, मेहनत नहीं लगती है। बाप का स्नेह, बाप की मदद, बाप का साथ, बाप द्वारा सर्व प्राप्तियाँ सहज बना देती है। हरेक इसी अनुभव से आगे बढ़ रहे हो, यह देख बाप भी हर्षित होते हैं। जितना भी देश में दूर स्थान पर हो, उतना ही दिल में नजदीक हो। बापदादा सेकण्ड में सभी बच्चों को आह्वान कर इमर्ज कर लेते हैं, भल वह कितना भी दूर हो। आपको भी अनुभव होता है ना - बाप अमृतवेले कैसे मिलन मनाते हैं! अच्छा!
(2) बाप की याद से खुशियों के झूलों में झूलने वाले हो ना। क्योंकि इस संगमयुग में जो खुशियों की खान मिलती है, वह और किसी युग में प्राप्त नहीं हो सकती। इस समय बाप और बच्चों का मिलन है, वर्सा है, वरदान है। बाप के रूप में वर्सा देते, सत्गुरू के रूप में वरदान देते हैं। तो दोनों अनुभव हैं ना? दोनों ही प्राप्तियाँ सहज अनुभव कराने वाली हैं। वर्सा या वरदान - दोनों में मेहनत नहीं। इसलिए टाइटल ही है - ‘सहजयोगी'। क्योंकि ऑलमाइटी अथॉर्टी बाप बन जाए, सत्गुरू बन जाए... तो सहज नहीं होगा? यही अन्तर परम-आत्मा और आत्माओं का है। कोई महान आत्मा भी हो लेकिन प्राप्ति कराने के लिए कुछ-न-कुछ मेहनत जरूर देगी। 63 जन्म के अनुभवी हो ना। इसलिए बापदादा बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते। जब बाप से थोड़ा भी, संकल्प में भी किनारा करते हो तब मेहनत करते हो। उसी सेकण्ड बाप को साथी बना दो तो सेकण्ड में मुश्किल सहज अनुभव हो जायेगा। क्योंकि बापदादा आये ही हैं बच्चों की थकावट उतारने। 63 जन्म ढूँढ़ा, भटके। अब बापदादा मन की भी थकावट, तन की भी थकावट और धन के उलझन के कारण भी जो थकावट थी, वह उतार रहे हैं। सभी थक गये थे ना! बच्चे जो अति प्यारे होते हैं, उन्हों के लिए कहावत है - नयनों पर बिठाकर ले जाते हैं। तो इतने हल्के बने हो जो नयनों पर बिठाकर बाप ले जाये? लाइट (हल्के) हो ना? जब बाप बोझ उठाने के लिए तैयार है तो आप बोझ क्यों उठाते हो? बाप से स्नेह की निशानी है - सदा हल्के बन बाप की नजरों में समा जाओ। इतने लाइट जो नजरों में समा जाएँ! इस समय लाइट बनो तो 21 जन्म की गैरन्टी है - कभी-भी किसी भी प्रकार का बोझ आ नहीं सकता। अच्छा।
19 तारीख सत्गुरूवार प्रात: 6.30 बजे बापदादा ने क्लास में यादप्यार दी और विदाई ली।
सभी देश-विदेश के चारों तरफ सेवा में रहने वाले सेवाधारी बच्चों को सत्गुरूवार के वरदानी दिवस पर वरदाता और विधाता बाप की यादप्यार, गुडमोर्निंग, गोल्डनमॉर्निंग। सत्गुरू के इस शुभ दिवस पर सदा यह महामन्त्र याद रहे कि ‘‘महानता प्राप्त करना अर्थात् निर्मानता धारण करना। निर्मान ही सर्व महान् है। ‘पहले आप' करना ही स्वमान सर्व से प्राप्त करने का आधार है।'' सत्गुरूवार के दिवस सत्गुरू से महान बनने का यह मन्त्र वरदान रूप में सदा साथ रखना और वरदानों से पलते, उड़ते मंजल पर पहुँचना। मेहनत तब करते हैं जबकि वरदानों को कार्य में नहीं लगाते। अगर वरदानों से पलते रहें, वरदानों को कार्य में लगाते रहें तो मेहनत समाप्त हो जायेगी। सदा सफलता, सदा सहज सन्तुष्टता का अनुभव करते और कराते रहेंगे। वरदानों से उड़ते चलो, वरदानों की पालना दो और वरदाता, विधाता से जो प्राप्ति की है, उसका प्रत्यक्षफल दिखाओ। यही सत्गुरू की श्रेष्ठ मत है वा श्रेष्ठ वरदान है। अच्छा। सर्व को यादप्यार।
20-03-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘स्नेह' और ‘सत्यता' की अथॉर्टी का बैलेंस
नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी बनाने वाले, विश्व-रचयिता शिवबाबा बोले
आज सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू अपने सत्यता के शक्तिशाली सत् बच्चों से मिलने आये हैं। सबसे बड़े-ते-बड़ी शक्ति वा अथॉर्टी सत्यता की ही है। सत् दो अर्थ से कहा जाता है। एक - सत् अर्थात् सत्य। दूसरा - सत् अर्थात् अविनाशी। दोनों अर्थ से सत्यता की शक्ति सबसे बड़ी है। बाप को सत् बाप कहते हैं। बाप तो अनेक हैं लेकिन सत् बाप एक है। सत् शिक्षक, सत्गुरू एक ही है। सत्य को ही परमात्मा कहते हैं अर्थात् परम आत्मा की विशेषता सत्य अर्थात् सत् है। आपका गीत भी है। सत्य ही शिव है...। दुनिया में भी कहते हैं - सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्। साथ-साथ बाप परमात्मा के लिए सत्-चित-आनन्द स्वरूप कहते हैं। आप आत्माओं को सत्-चित-आनन्द कहते हैं। तो ‘सत्' शब्द की महिमा बहुत गाई हुई है। और कभी भी कोई भी कार्य में अथॉर्टी से बोलते तो यही कहेंगे - मैं सच्चा हूँ, इसलिए अथॉर्टी से बोलता हूँ। सत्य के लिए गायन है - सत्य की नाँव डोलेगी लेकिन डूबेगी नहीं। आप लोग भी कहते हो - सच तो बिठो नच। सच्चा अर्थात् सत्यता की शक्ति वाला सदा नाचता रहेगा, कभी मुरझायेगा नहीं, उलझेगा नहीं, घबरायेगा नहीं, कमज़ोर नहीं होगा। सत्यता की शक्ति वाला सदा खुशी में नाचता रहेगा। शक्तिशाली होगा, सामना करने की शक्ति होगी, इसलिए घबरायेगा नहीं। सत्यता को सोने के समान कहते हैं, असत्य को मिट्टी के समान कहते हैं। भक्ति में भी जो परम- आत्मा की तरफ लगन लगाते हैं, उन्हों को सत्संगी कहते हैं, सत् का संग करने वाले हैं। और लास्ट में जब आत्मा शरीर छोड़ती है तो भी क्या कहते हैं - सत् नाम संग है। तो सत् अविनाशी, सत् सत्य है। सत्यता की शक्ति महान शक्ति है। वर्तमान समय मेजारिटी लोग आप सबको देखकर क्या कहते हैं - इन्हों में सत्यता है, तब इतना समय वृद्धि करते हुए चल रहे हैं। सत्यता कब हिलती नहीं है, अचल होती है। सत्यता वृद्धि को प्राप्त करने की विधि है। सत्यता की शक्ति से सतयुग बनाते हो, स्वयं भी सत्य-नारायण, सत्य-लक्ष्मी बनते हो। यह सत्य ज्ञान है, सत् बाप का ज्ञान है। इसलिए दुनिया से न्यारा और प्यारा है।
तो आज बापदादा सभी बच्चों को देख रहे हैं कि सत्य ज्ञान की सत्यता की अथॉर्टी कितनी धारण की है? सत्यता हर आत्मा को आकर्षित करती है। चाहे आज की दुनिया झूठ खण्ड है, सब झूठ है अर्थात् सबमें झूठ मिला हुआ है, फिर भी सत्यता की शक्ति वाले विजयी बनते हैं। सत्यता की प्राप्ति खुशी और निर्भयता है। सत्य बोलने वाला सदा निर्भय होगा। उनको कब भय नहीं होगा। जो सत्य नहीं होगा तो उनको भय जरूर होगा। तो आप सभी सत्यता के शक्तिशाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। सत्य ज्ञान, सत्य बाप, सत्य प्राप्ति, सत्य याद, सत्य गुण, सत्य शक्तियाँ सर्व प्राप्ति हैं। तो इतनी अथॉर्टी का नशा रहता है? अथॉर्टी का अर्थ अभिमान नहीं है। जितना बड़े-ते-बड़ी अथॉर्टी, उतना उनकी वृत्ति में रूहानी अथॉर्टी रहती है। वाणी में स्नेह और नम्रता होगी - यही अथॉर्टी की निशानी है। जैसे आप लोग वृक्ष का दृष्टान्त देते हो। वृक्ष में जब सम्पूर्ण फल की अथॉर्टी आ जाती है तो वृक्ष झुकता है अर्थात् निर्मान बनने की सेवा करता है। ऐसे रूहानी अथॉर्टी वाले बच्चे जितनी बड़ी अथॉर्टी, उतने निर्मान और सर्व स्नेही होंगे। लेकिन सत्यता की अथॉर्टी वाले निर-अहंकारी होते हैं। तो अथॉर्टी भी हो, नशा भी हो और निर-अहंकारी भी हो - इसको कहते हैं सत्य ज्ञान का प्रत्यक्ष स्वरूप।
जैसे इस झूठ खण्ड के अन्दर ब्रह्मा बाप सत्यता की अथॉर्टी का प्रत्यक्ष साकार स्वरूप देखा ना। उनके अथॉर्टी के बोल कभी भी अहंकार की भासना नहीं देंगे। मुरली सुनते हो तो कितनी अथॉर्टी के बोल हैं! लेकिन अभिमान के नहीं। अथॉर्टी के बोल में स्नेह समाया हुआ है, निर्मानता है, निर-अहंकार है। इसलिए अथॉर्टी के बोल प्यारे लगते हैं। सिर्फ प्यारे नहीं लेकिन प्रभावशाली होते हैं। फॉलो फादर है ना। सेवा में वा कर्म में फॉलो ब्रह्मा बाप है क्योंकि साकारी दुनिया में साकार ‘एक्जाम्पल' है, सैम्पल है। तो जैसे ब्रह्मा बाप को कर्म में, सेवा में, सूरत से, हर चलन से चलता-फिरता अथॉर्टी स्वरूप देखा, ऐसे फॉलो फादर करने वाले में भी स्नेह और अथॉर्टी, निर्मानता और महानता - दोनों साथ-साथ दिखाई दें। ऐसे नहीं सिर्फ स्नेह दिखाई दे और अथॉर्टी गुम हो जाए या अथॉर्टी दिखाई दे और स्नेह गुम हो जाए। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा वा अभी भी मुरली सुनते हो। प्रत्यक्ष प्रमाण है। तो बच्चे-बच्चे भी कहेगा लेकिन अथॉर्टी भी दिखायेगा। स्नेह से बच्चे भी कहेगा और अथॉर्टी से शिक्षा भी देगा। सत्य ज्ञान को प्रत्यक्ष भी करेंगे लेकिन बच्चे-बच्चे कहते नया ज्ञान सारा स्पष्ट कर देंगे। इसको कहते हैं स्नेह और सत्यता की अथॉर्टी का बैलेन्स (सन्तुलन) तो वर्तमान समय सेवा में इस बैलेन्स को अण्डरलाइन करो।
धरनी बनाने के लिए स्थापना से लेकर अब तक 50 वर्ष पूरे हो गये। विदेश की धरनी भी अब काफी बन गई है। भल 50 वर्ष नहीं हुए हैं, लेकिन बने बनाये साधनों पर आये हो, इसलिए शुरू के 50 वर्ष और अब के 5 वर्ष बराबर हैं। डबल विदेशी सब कहते हैं - हम लास्ट सो फास्ट सो फर्स्ट हैं। तो समय में भी फास्ट सो फर्स्ट होंगे ना। निर्भयता की अथॉर्टी जरूर रखो। एक ही बाप का नया ज्ञान सत्य ज्ञान है और नये ज्ञान से नई दुनिया स्थापन होती है - यह अथॉर्टी और नशा स्वरूप में इमर्ज (प्रत्यक्ष) हो। 50 वर्ष तो मर्ज (गुप्त) रखा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं जो भी आवे उनको पहले से ही नये ज्ञान की नई बातें सुनाकर कनफ्यूज (मुँझा देना) कर दो। यह भाव नहीं है। धरनी, नब्ज, समय यह सब देख करके ज्ञान देना - यही नॉलेजफुल की निशानी है। आत्मा की इच्छा देखो, नब्ज देखो, धरनी बनाओ लेकिन अन्दर सत्यता के निर्भयता की शक्ति जरूर हो। लोग क्या कहेंगे - यह भय न हो। निर्भय बन धरनी भल बनाओ। कई बच्चे समझते हैं - यह ज्ञान तो नया है, कई लोग समझ ही नहीं सकेंगे। लेकिन बेसमझ को ही तो समझाना है। यह जरूर है - जैसा व्यक्ति वैसी रूपरेखा बनानी पड़ती है, लेकिन व्यक्ति के प्रभाव में नहीं आ जाओ। अपने सत्य ज्ञान की अथॉर्टी से व्यक्ति को परिवर्तन करना ही है - यह लक्ष्य नहीं भूलो।
अब तक जो किया, वह ठीक था। करना ही था, आवश्यक था क्योंकि धरनी बनानी थी। लेकिन कब तक धरनी बनायेंगे? और कितना समय चाहिए? दवाई भी दी जाती है तो पहले ही ज्यादा ताकत की नहीं दी जाती, पहले हल्की दी जाती। लेकिन ताकत वाली दवाई दो ही नहीं, हल्की पर ही चलाते चलो - यह नहीं करो। किसी कमज़ोर को हाई पावर वाली दवाई दे दी तो यह भी रांग है। परखने की भी शक्ति चाहिए। लेकिन अपने सत्य नये ज्ञान की अथॉर्टी जरूर चाहिए। आपकी सूक्ष्म अथॉर्टी की वृत्ति ही उन्हों की वृत्तियों को चेन्ज (परिवर्तन) करेगी। यही धरनी बनेगी। और विशेष जब सेवा कर मधुबन तक पहुँचते हो तो कम-से-कम उन्हों को यह जरूर मालूम पड़ना चाहिए। इस धरनी पर उन्हों की भी धरनी बन जाती है। कितनी भी कलराठी धरनी हो, किस भी धर्म वाला हो, किस भी पोजीशन वाला हो लेकिन इस धरनी पर वह भी नर्म हो जाते हैं और नर्म धरनी बनने के कारण उसमें जो भी बीज डालेंगे, उसका फल सहज निकलेगा। सिर्फ डरो नहीं, निर्भय जरूर बनो। युक्ति से दो, ऐसा न हो कि वह आप लोगों को यह उल्हना दें कि ऐसी धरनी पर भी मैं पहुँचा लेकिन यह मालूम नहीं पड़ा कि परमात्म-ज्ञान क्या है? परमात्म-भूमि पर आकर परम-आत्मा की प्रत्यक्षता का सन्देश जरूर ले जाएँ। लक्ष्य अथॉर्टी का होना चाहिए।
आजकल के जमाने के हिसाब से भी नवीनता का महत्त्व है। फिर भल कोई उल्टा भी नया फैशन निकालते हैं, तो भी फॉलो करते हैं। पहले आर्ट (चित्रकला) देखो कितना बढ़िया था! आजकल का आर्ट तो उनके आगे जैसे लकीरें लगेंगी। लेकिन मॉडर्न आर्ट पसन्द करते हैं। मानव की पसन्दी हर बात में नवीनता है और नवीनता स्वत: ही अपने तरफ आकर्षित करती है। इसलिए नवीनता, सत्यता, महानता - इसका नशा जरूर रखो। फिर समय और व्यक्ति देख सेवा करो। यह लक्ष्य जरूर रखो कि नई दुनिया का नया ज्ञान प्रत्यक्ष जरूर करना है। अभी स्नेह और शान्ति प्रत्यक्ष हुई है। बाप का प्यार के सागर का स्वरूप, शान्ति के सागर का स्वरूप प्रत्यक्ष किया है लेकिन ज्ञान स्वरूप आत्मा और ज्ञान सागर बाप है, इस नये ज्ञान को किस ढंग से देवें, उसके प्लैन्स अभी कम बनाये हैं। वह भी समय आयेगा जो सभी के मुख से यह आवाज निकलेगा कि नई दुनिया का नया ज्ञान यह है। अभी सिर्फ अच्छा कहते हैं, नया नहीं कहते। याद की सब्जेक्ट (विषय) को अच्छा प्रत्यक्ष किया है, इसलिए धरनी अच्छी बन गई है और धरनी बनाना - पहला आवश्यक कार्य भी जरूरी है। जो किया है, वह बहुत अच्छा और बहुत किया है, तन-मन-धन लगाकर किया है। इसके लिए आफरीन भी देते हैं।
पहले जब विदेश में गये थे तो यही त्रिमूर्ति के चित्र पर समझाना कितना मुश्किल समझते थे! अभी त्रिमूर्ति के चित्र पर ही आकर्षित होते हैं। यह सीढ़ी का चित्र भारत की कहानी समझते थे। लेकिन विदेश में इस चित्र पर आकर्षित होते। तो जैसे वह प्लैन बनाये कि यह नई बात किस ढंग से सुनावें, तो अब भी इन्वेन्शन (आविष्कार) करो। यह नहीं सोचो कि यह तो करना ही पड़ेगा। नहीं। बापदादा का लक्ष्य सिर्फ यह है कि नवीनता के महानता की शक्ति धारण करो, इसको भूलो नहीं। दुनिया को समझाना है, दुनिया की बातों से घबराओ नहीं। अपना तरीका इन्वेन्ट (Event) करो क्योंकि इन्वेन्टर (आविष्कर्त्ता) आप बच्चे ही हो ना। सेवा के प्लैन (योजना) बच्चे ही जानते हैं। जैसा लक्ष्य रखेंगे, वैसा प्लैन बहुत अच्छे-से-अच्छा बन जायेगा और सफलता तो जन्म-सिद्ध-अधिकार है ही है। इसलिए नवीनता को प्रत्यक्ष करो। जो भी ज्ञान की गुह्य बातें हैं, उसको स्पष्ट करने की विधि आपके पास बहुत अच्छी है और स्पष्टीकरण है। एक-एक प्वाइंट को लॉजिकल (तर्कशास्त्र के अनुसार) स्पष्ट कर सकते हो। अपनी अथॉर्टी (शक्ति, प्रभुत्व) वाले हो। कोई मनोमय वा कल्पना की बातें तो हैं नहीं। यथार्थ हैं। अनुभव है। अनुभव की अथॉर्टी, नॉलेज की अथॉर्टी, सत्यता की अथॉर्टी... कितनी अथॉर्टीज हैं! तो अथॉर्टी और स्नेह - दोनों को साथ-साथ कार्य में लगाओ।
बापदादा खुश हैं कि मेहनत से सेवा करते-करते इतनी वृद्धि को प्राप्त किया है और करते ही रहेंगे। चाहे देश है, चाहे विदेश है। देश में भी व्यक्ति और नब्ज देख सेवा करने में सफलता है। विदेश में भी इसी विधि से सफलता है। पहले सम्पर्क में लाते हो - यह धरनी बनती है। सम्पर्क के बाद फिर सम्बन्ध में लाओ, सिर्फ सम्पर्क तक छोड़ नहीं दो। सम्बन्ध में लाकर फिर उन्हों को बुद्धि से समर्पित कराओ - यह है लास्ट स्टेज। सम्पर्क में लाना भी आवश्यक है, फिर सम्बन्ध में लाना है। सम्बन्ध में आते-आते समर्पण बुद्धि हो जाए कि ‘जो बाप ने कहा, वही सत्य है।' फिर क्वेश्चन (प्रश्न) नहीं उठते। जो बाबा कहता, वही सही है। क्योंकि अनुभव हो जाता तो फिर क्वेश्चन समाप्त हो जाता। इसको कहते ‘समर्पण बुद्धि' जिसमें सब स्पष्ट अनुभव होता। लक्ष्य यह रखो कि समर्पण बुद्धि तक लाना अवश्य है। तब कहेंगे माइक तैयार हुए हैं। माइक क्या आवाज करेगा? सिर्फ अच्छा ज्ञान है इन्हों का, नहीं। यह नया ज्ञान है, यही नई दुनिया लायेगा - यह आवाज हो, तब तो कुम्भकरण जगेंगे ना। नहीं तो सिर्फ आँख खोलते हैं - बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कह फिर नींद आ जाती है। इसलिए जैसे स्वयं बालक सो मालिक बन गये ना, ऐसे बनाओ। बेचारों को सिर्फ साधारण प्रजा तक नहीं लाओ, लेकिन राज्य-अधिकारी बनाओ। उसके लिए प्लैन बनाओ - किस विधि से करो जो कनफ्यूज भी न हों और समर्पण बुद्धि भी हो जाएँ। नवीनता भी लगे, उलझन भी अनुभव नहीं करें। स्नेह और नवीनता की अथॉर्टी लगे।
अब तक जो रिजल्ट रही, सेवा की विधि, ब्राह्मणों की वृद्धि रही, वह बहुत अच्छा है। क्योंकि पहले बीज को गुप्त रखा, वह भी आवश्यक है। बीज को गुप्त रखना होता है, बाहर रखने से फल नहीं देता। धरनी के अन्दर बीज को रखना होता है लेकिन अन्दर धरनी में ही न रह जाए। बाहर प्रत्यक्ष हो, फल स्वरूप बनें - यह आगे की स्टेज है। समझा? लक्ष्य रखो - नया करना है। ऐसे नहीं कि इस वर्ष ही हो जायेगा। लेकिन लक्ष्य बीज को भी बाहर प्रत्यक्ष करेगा। ऐसे भी नहीं सीधा जाकर भाषण करना शुरू कर दो। पहले सत्यता के शक्ति की भासना दिलाने के भाषण करने पड़ेंगे। ‘आखिर वह दिन आये' - यह सबके मुख से निकले। जैसे ड्रामा में दिखाते हो ना, सब धर्म वाले मिलकर कहते हैं - हम एक हैं, एक के हैं। वह ड्रामा दिखाते हो, यह प्रैक्टिकल में स्टेज पर सब धर्म वाले मिलकर एक ही आवाज में बोलें। एक बाप है, एक ही ज्ञान है, एक ही लक्ष्य है, एक ही घर है, यही है - अब यह आवाज चाहिए। ऐसा दृश्य जब बेहद की स्टेज पर आये, तब प्रत्यक्षता का झण्डा लहरायेगा और इस झण्डे के नीचे सब यही गीत गायेंगे। सबके मुख से एक शब्द निकलेगा - ‘बाबा हमारा' तब कहेंगे प्रत्यक्ष रूप में शिवरात्रि मनाई। अंधकार खत्म हो गोल्डन मॉर्निंग (सुनहरी प्रात:) के नजारे दिखाई देंगे। इसको कहते हैं - आज और कल का खेल। आज अंधकार, कल गोल्डन मॉर्निंग। यह है लास्ट पर्दा। समझा?
बाकी जो प्लैन बनाये हैं, वह अच्छे हैं। हर एक स्थान की धरनी प्रमाण प्लैन बनाना ही पड़ता है। धरनी के प्रमाण विधि में कोई अन्तर भी अगर करना पड़ता है तो ऐसी कोई बात नहीं है। लास्ट में सभी को तैयार कर मधुबन धरनी पर छाप जरूर लगानी है। भिन्न-भिन्न वर्ग को तैयार कर स्टैम्प (छाप) जरूर लगानी है। पासपोर्ट (विदेश-यात्रा का आज्ञापत्र) पर भी स्टैम्प लगाने सिवाए जाने नहीं देते हैं ना। तो स्टैम्प यहाँ मधुबन में ही लगेगी।
यह सब तो हैं ही सरेण्डर (समर्पित) अगर यह सरेण्डर नहीं होते तो सेवा के निमित्त कैसे बनते। सरेण्डर हैं तब ब्रह्माकुमार/ब्रह्माकुमारी बन सेवा के निमित्त बने हो। देश चाहे विदेश में कोई क्रिश्चियन-कुमारी वा बौद्ध-कुमारी बनकर तो सेवा नहीं करते हो? बी.के. बनकर ही सेवा करते हो ना। तो सरेण्डर ब्राह्मणों की लिस्ट में सभी हैं। अब औरों को कराना है। मरजीवा बन गये। ब्राह्मण बन गये। बच्चे कहते - ‘मेरा बाबा', तो बाबा कहते - तेरा हो गया। तो सरेण्डर हुए ना। चाहे प्रवृत्ति में हो, चाहे सेन्टर पर हो लेकिन जिसने दिल से कहा - ‘मेरा बाबा' तो बाप ने अपना बनाया। यह तो दिल का सौदा है। मुख का स्थूल सौदा नहीं है, यह दिल का है। सरेण्डर माना श्रीमत के अण्डर (अधीन) रहने वाले। सारी सभा सरेण्डर है ना। इसलिए फोटो भी निकाला है ना। अब चित्र में आ गये तो बदल नहीं सकते। परमात्म-घर में चित्र हो जाए, यह कम भाग्य नहीं है। यह स्थूल फोटो नहीं लेकिन बाप के दिल में फोटो निकल गया। अच्छा।
सर्व सत्यता की अथॉर्टी वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व नवीनता और महानता को प्रत्यक्ष करने वाले सच्चे सेवाधारी बच्चों को, सर्व स्नेह और अथॉर्टी के बैलेन्स रखने वाले, हर कदम में बाप द्वारा ब्लैसिंग (आशीर्वाद) लेने के अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सत् अर्थात् अविनाशी रत्नों को, अविनाशी पार्ट बजाने वालों की, अविनाशी खज़ाने के बालक सो मालिकों को विश्व-रचता सत् बाप, सत् शिक्षक, सत्गुरू का यादप्यार और नमस्ते।
पर्सनल मुलाकात (यू.के. ग्रुप से) - स्वयं को सम्पन्न बनाए औरों को भी सम्पन्न बनाने में बिजी (व्यस्त) रहते हो? लौकिक और अलौकिक डबल सेवा करने के निमित्त बने हुए हो। बापदादा बच्चों की विशेषता का वर्णन करते हैं। बाप से भी आगे हैं - जो भी सेवा की है, वह सब अच्छी की है और आगे भी अच्छे से अच्छी करने के निमित्त बनते रहेंगे। बाप अपने से भी बच्चों को सदैव आगे बढ़ाते हैं। बापदादा सभी बच्चों को आगे बढ़ाने की युक्ति बताते हैं, वह युक्ति क्या है? सबसे बड़े-ते-बड़ी युक्ति है - ‘सहनशीलता के गुण को अपनाना'। जितना सहनशील होंगे, सत्यता की शक्ति होगी, उतना सहज अपना राज्य सतयुग ला सकेंगे। आप सब अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मायें हो। अनुभव की अथॉर्टी वाली आत्मा का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। अनुभव की अथॉर्टी बिना सेवा करते तो सफलता बहुत मुश्किल होती। यू.के. वा ओ.के. (O.K.) का टाइटल (पदवी, खिताब) बहुत अच्छा मिला हुआ है। जब ओ.के. लिखते हो तो जैसे बाप का चित्र बनाते हो। ओ अर्थात् बाप ओ.के और ‘के' अर्थात् किंगडम (राजाई) तो ओ.के. कहने में बाप की याद भी है और वर्से की भी याद है। तो ओ.के. वालों को न बाप भूलेगा, न वर्सा भूलेगा। तो जब भी ‘ओ.के.' कहो तो ‘बाबा हमारा' यही याद आ जाए। अच्छा।
सेवा के आधारमूर्त आप लोग हो। माताओं ने आदि में स्थापना में विशेष पार्ट बजाया। तो खुशी है ना! अच्छा।
कुमारियाँ तो हैं ही श्रेष्ठ भाग्य के सितारे वाली। सभी के मस्तक पर भाग्य का सितारा चमक गया। कुमारियाँ अर्थात् तकदीर बनाकर के आई। कुमारियों की महिमा बाप गाते हैं क्योंकि यह एक-एक कुमारी सेवाधारी है। दुनिया वाले कहते - एक कुमारी 21 कुल तारने वाली है, बाप कहते - एक-एक कुमारी विश्वकल् याणी है, विश्व का उद्धार करने वाली है। तो विश्व-सेवा के कॉन्ट्रैक्टर (ठेकेदार) बन गई। कितना अच्छा जॉब (काम) है! सारे विश्व की आत्मायें कितनी दुआयें देंगी! बाप की भी दुआयें, परिवार की भी दुआयें और साथ-साथ विश्व की आत्मायें भी दुआयें करेंगी। सर्व के दुआओं की अधिकारी बन गई। अच्छा।
(भारतवासी भाई-बहिनों से) - भारतवासी रहने में समीप हैं, दिल से भी समीप है। भारतवासी जगे, तब दुनिया जगी। तो भारतवासी बच्चे विश्व-कल्याण की नींव हो गये ना। विश्व सेवा की नींव भारत के बच्चे हैं। इसलिए आपका महत्त्व अपना है, विदेश में रहने वालों का महत्त्व अपना है। भारत ही लाइट हाउस (रोशनी का भण्डार) है। लाइट देने वाले तो आप हो। तो आपका भी महत्त्व महान है। बापदादा को हर बच्चा अति स्नेही है, अति लाडला है। अगर औरों को भारतवासी चांस देते हैं तो यह भी त्याग का भाग्य मिलता है; जाता नहीं है, जमा होता है। भारतवासी वैसे तो बेहद के वासी हो लेकिन निशानी कहने में आती है। भारत का महत्त्व, भारत की महानता आप आत्माओं की महानता है। समझा?
यहाँ समय और सीजन देखनी पड़ती है क्योंकि देखने की दुनिया में आते हैं। अगर वहाँ आओ तो फिर टाइम की लिमिट (हद, सीमा) नहीं। वहाँ 10 घण्टे भी एक-एक मिल सकते हैं। यहाँ 10 मिनट भी मुश्किल हैं क्योंकि अपना तन तो है नहीं ना। पराया है। जो लोन लिया जाता है, वह देना होता है ना। अपना हो तो देने की बात ही नहीं। बाकी हरेक बच्चा बाप को अति प्रिय है। हरेक कोटों में कोई, कोई-में-कोई है; तो विशेष है। बापदादा हर बच्चे को विशेष आत्मा के रूप में देखते हैं, ऐसे बच्चे भी ऊँचे-ते-ऊँचे हुए ना! सभी श्रेष्ठ हैं और श्रेष्ठ ही रहेंगे, अनेक जन्म के लिए श्रेष्ठ रहेंगे। बापदादा उसी नजर से देखते हैं। यह ब्राह्मण आत्मायें सो देव आत्मायें हैं। तो कितने महान हुए! क्या महिमा करें! अच्छा।
(मधुबन निवासियों से) - मधुबन निवासियों को किसी-न-किसी प्रकार से सदा ही प्रसाद मिलता रहता है। सेवा भी दिल से करते हो और प्रसाद भी दिल से मिलता है। सेवा करते हो, इसलिए मधुबन में, तपस्या-भूमि में रहने का अधिकार मिला है। यह अधिकार ही एक महान प्रसाद है। यहाँ की पालना भी महान प्रसाद है। इस भूमि पर सहज याद का जो अनुभव होता है - यह भी महान प्रसाद है। तो आप अब प्रसाद ही खाते हो, भोजन नहीं खाते। जो सदा प्रसाद खाये, वह क्या हुआ? इतनी पुण्य आत्मायें हुए ना। महान आत्मायें हुए ना। और जो भी यहाँ आते हैं, सब महान आत्माओं की नजर से देखते हैं। तो महान हो, महान सेवा के निमित्त हो क्योंकि महायज्ञ है ना। महायज्ञ की सेवा, वह भी महान सेवा हो गई। स्वयं भी महान, सेवा भी महान, प्राप्ति्ा भी महान। और बाकी क्या रहा? चलते-फिरते सारे ब्राह्मण परिवार की मीठी दृष्टि किसके ऊपर पड़ती है? यह भाग्य भी कम नहीं है। हर श्रेष्ठ आत्मा मधुबन में आती है। सारा ब्राह्मण परिवार मधुबन में ही आता है। तो इतने ब्राह्मणों की दृष्टि, इतने ब्राह्मणों की शुभ भावना-शुभ कामनायें सब मधुबन निवासियों को ही प्राप्त होती हैं। इसलिए, सेवा का फल मिल रहा है। अच्छा। मेहनत, मेहनत करके नहीं करते हो, खेल करके करते हो, मनोरंजन करके करते हो। यह भी विशेषता अच्छी है। यज्ञ-सेवा पुण्य की सेवा समझकर करते हो, इसलिए थकावट नहीं होती। और ही, कोई नहीं होता तो अकेले हो जाते हो। अच्छा।
(कुमारियों के साथ) - एक-एक कुमारी विश्व-कल्याणकारी है ना। दुनिया में तो कहते हैं - एक-एक कुमारी जाकर अपना घर बसायेगी। यहाँ बाप कहते हैं - एक-एक कुमारी सेवाकेन्द्र खोल अनेकों का कल्याण करेगी, ऐसी कुमारियाँ हो? लौकिक माँ-बाप घर बनाकर देते हैं, उससे तो गिरती कला होती है और अलौकिक बाप, पारलौकिक बाप सेन्टर खोलकर देते हैं जिससे स्व-उन्नति भी और अन्य आत्माओं की भी उन्नति हो। तो ऐसी कुमारियों को कहते हैं पूज्यनीय कुमारियाँ। इसलिए, अभी तक भी लास्ट जन्म में भी कुमारियों की पूजा करते हैं। ऐसी कुमारियाँ विश्व के आगे कितनी महान गाई जाती हैं। तो सदा स्वयं को विश्वकल् याणकारी समझ सेवा में आगे बढ़ती चलो। कुमारियों को देख बापदादा बहुत खुश होते हैं - जितनी कुमारियाँ हैं, उतने सेन्टर खुलेंगे! हिम्मत वाली हो ना? घबराने वाली तो नहीं? पूज्य कुमारियाँ हो। कुमारी शब्द ही पवित्रता का सूचक है। पवित्र का ही पूजन है। सदा स्वयं भी पावन रहेंगी और दूसरों को भी पवित्रता की शक्ति देने का श्रेष्ठ कार्य करती रहेंगी। पवित्रता की शक्ति जमा है ना? तो जो जमा होता है वह दूसरों को दिया जाता है। तो सदैव अपने को पवित्रता की देवियाँ समझो। अच्छा।
(पार्टियों से) - अपने को श्रेष्ठ, भाग्यवान अनुभव करते हो? क्योंकि सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त होना, इस समय ही होता है। इस संगमयुग के महत्त्व को अच्छी तरह से जान गये हो ना? सतयुग में भी इस समय के भाग्य की प्राप्ति का फल प्रालब्ध के रूप में प्राप्त होता है। तो जितना इस समय के महत्व को स्मृति में रखेंगे, तो समय की सर्व महानतायें अपने जीवन में प्राप्त करते रहेंगे। सबसे ज्यादा भाग्यवान कौन है? सभी कहेंगे - मैं भाग्यविधाता बाप का बच्चा भाग्यवान हूँ। क्योंकि यह रूहानी नशा है, यह बॉडी-कॉनसेस (body-concious) नहीं है। इसलिए, हर एक बाप के बच्चे एक दो से भाग्यवान, श्रेष्ठ हो। यह शुद्ध नशा है। इस नशे में भाग्य को देख भाग्यविधाता बाप याद रहता है। इसलिए जहाँ बाप की याद होती है, वहाँ बॉडी-कॉनसेस की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसमें नुकसान नहीं, प्राप्ति ही प्राप्ति है। तो सभी इस निश्चय और नशे में रहने वाले हो, इसलिए दुनिया के वायब्रेशन से भी दूर रहते हो। दुनिया में रहते बाप के पास रहते हो ना? जो बाप के साथ वा पास रहते वह दुनिया के विकारी वायब्रेशन या आकर्षण के प्रभाव से दूर रहते हैं। तो साथ रहते हो या दूर? - ‘मेरा बाबा' और इतना प्राप्ति कराने वाला तो कोई और हो ही नहीं सकता, तो फिर साथ कैसे छोड़ सकते हो? या कभी-कभी इससे भी स्वतन्त्र होना चाहते हो? डबल विदेशी स्वतन्त्रता ज्यादा चाहते हैं ना। यह फ्रीडम नहीं है? सदा बाप के साथ रहना, साथ रहते-रहते बाप समान बन जायेंगे। अच्छा। सभी सच्चे सेवाधारी हो ना? जैसे बाप के बिना नहीं रह सकते, ऐसे सेवा के बिना भी नहीं रह सकते।
01-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
आध्यात्मिक संत सम्मेलन के पश्चात् बापदादा की पधरामणि
सर्व सेवाधारी बच्चों को सेवा की मुबारक देते हुए स्नेह के सागर बापदादा बोले
आज स्नेह के सागर अपने स्नेही बच्चों से मिलने आये हैं। बाप और बच्चों का स्नेह विश्व को स्नेह सूत्र में बांध रहा है। जब स्नेह के सागर और स्नेह सम्पन्न नदियों का मेल होता है तो स्नेह-भरी नदी भी बाप समान मास्टर स्नेह का सागर बन जाती है। इसलिए विश्व की आत्मायें स्नेह के अनुभव से स्वत: ही समीप आती जा रही हैं। पवित्र प्यार वा ईश्वरीय परिवार के प्यार से - कितनी भी अन्जान आत्मायें हों, बहुत समय से परिवार के प्यार से वंचित पत्थर समान बनने वाली आत्मा हो लेकिन ऐसे पत्थर समान आत्मायें भी ईश्वरीय परिवार के स्नेह से पिघल पानी बन जाती है। यह है ईश्वरीय परिवार के प्यार की कमाल। कितना भी स्वयं को किनारे करे लेकिन ईश्वरीय प्यार चुम्बक के समान स्वत: ही समीप ले आता है। इसको कहते हैं ईश्वरीय स्नेह का प्रत्यक्षफल। कितना भी कोई स्वयं को अलग रास्ते वाले मानें लेकिन ईश्वरीय स्नेह सहयोगी बनाए ‘आपस में एक हो' आगे बढ़ने के सूत्र में बांध देता है। ऐसा अनुभव किया ना।
स्नेह पहले सहयोगी बनाता है, सहयोगी बनाते-बनाते स्वत: ही समय पर सर्व को सहजयोगी भी बना देता है। सहयोगी बनने की निशानी है - आज सहयोगी हैं, कल सहज-योगी बन जायेंगे। ईश्वरीय स्नेह परिवर्तन का फाउन्डेशन (नींव) है अथवा जीवन-परिवर्तन का बीज स्वरूप है। जिन आत्माओं में ईश्वरीय स्नेह की अनुभूति का बीज पड़ जाता है, तो यह बीज सहयोगी बनने का वृक्ष स्वत: ही पैदा करता रहेगा और समय पर सहजयोगी बनने का फल दिखाई देगा क्योंकि परिवर्तन का बीज फल जरूर दिखाता है। सिर्फ कोई फल जल्दी निकलता है, कोई फल समय पर निकलता है। चारों ओर देखो, आप सभी मास्टर स्नेह के सागर, विश्व-सेवाधारी बच्चे क्या कार्य कर रहे हो? विश्व में ईश्वरीय परिवार के स्नेह का बीज बो रहे हो। जहाँ भी जाते हो - चाहे कोई नास्तिक हो वा आस्तिक हो, बाप को न भी जानते हों, न भी मानते हों लेकिन इतना अवश्य अनुभव करते हैं कि ऐसा ईश्वरीय परिवार का प्यार जो आप शिववंशी ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों से मिलता है, यह कहीं भी नहीं मिलता और यह भी मानते हैं कि यह स्नेह वा प्यार साधारण नहीं है, यह अलौकिक प्यार है वा ईश्वरीय स्नेह है। तो इन्डायरेक्ट नास्तिक से आस्तिक हो गया ना। ईश्वरीय प्यार है, तो वह कहाँ से आया? किरणें सूर्य को स्वत: ही सिद्ध करती हैं। ईश्वरीय प्यार, अलौकिक स्नेह, नि:स्वार्थ स्नेह स्वत: ही दाता बाप को सिद्ध करता ही है। इन्डायरेक्ट ईश्वरीय स्नेह के प्यार द्वारा स्नेह के सागर बाप से सम्बन्ध जुट जाता है लेकिन जानते नहीं हैं। क्योंकि बीज पहले गुप्त रहता है, वृक्ष स्पष्ट दिखाई देता है। तो ईश्वरीय स्नेह का बीज सर्व को सहयोगी सो सहजयोगी, प्रत्यक्षरूप में समय प्रमाण प्रत्यक्ष कर रहा है और करता रहेगा। तो सभी ने ईश्वरीय स्नेह के बीज डालने की सेवा की। सहयोगी बनाने की शुभ भावना और शुभ कामना के विशेष दो पत्ते भी प्रत्यक्ष देखे। अभी यह तना वृद्धि को प्राप्त करते प्रत्यक्षफल दिखायेगा।
बापदादा सर्व बच्चों के वैराइटी (भिन्न-भिन्न) प्रकार की सेवा को देख हर्षित होते हैं। चाहे भाषण करने वाले बच्चे, चाहे स्थूल सेवा करने वाले बच्चे - सर्व के सहयोग की सेवा से सफलता का फल प्राप्त होता है। चाहे पहरा देने वाले हों, चाहे बर्तन सम्भालने वाले हों लेकिन जैसे पांच अंगुलियों के सहयोग से कितना भी श्रेष्ठ कार्य, बड़ा कार्य सहज हो जाता है, ऐसे हर एक ब्राह्मण बच्चों के सहयोग से जितना सोचा था कि ऐसा होगा, उस सोचने से हजार गुणा ज्यादा सहज कार्य हो गया। यह किसकी कमाल है? सभी की। जो भी कार्य में सहयोगी बने - चाहे स्वच्छता भी रखी, चाहे टेबल (मेज) साफ किया लेकिन सर्व के सहयोग की रिजल्ट (परिणाम) सफलता है। यह संगठन की शक्ति महान है। बापदादा देख रहे थे - न सिर्फ मधुबन में आने वाले बच्चे लेकिन जो साकार में भी नहीं थे, चारों ओर के ब्राह्मण बच्चों की, चाहे देश, चाहे विदेश - सबके मन की शुभ-भावना और शुभ-कामना का सहयोग रहा। यह सर्व आत्माओं की शुभ भावना, शुभ कामना का किला आत्माओं को परिवर्तन कर लेता है। चाहे निमित्त शक्तियाँ भी रहीं, पाण्डव भी रहे। निमित्त सेवाधारी विशेष हर कार्य में बनते ही हैं लेकिन वायुमण्डल का किला सर्व के सहयोग से ही बनता है। निमित्त बनने वाले बच्चों को भी बापदादा मुबारक देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मुबारक सभी बच्चों को। बाप को बच्चे मुबारक क्या देंगे। क्योंकि बाप तो अव्यक्त हो गया। व्यक्त में तो बच्चों को निमित्त बनाया। इसलिए, बापदादा सदा बच्चों के ही गीत गाते हैं। आप बाप के गीत गाओ, बाप आपके गीत गाये।
जो भी किया, बहुत अच्छा किया। भाषण करने वालों ने भाषण अच्छे किये, स्टेज सजाने वालों ने स्टेज अच्छी सजाई और विशेष योगयुक्त भोजन बनाने वाले, खिलाने वाले, सब्जी काटने वाले रहे। पहले फाउन्डेशन तो सब्जी कटती है। सब्जी नहीं कटे तो भोजन क्या बनेगा? सब डिपार्टमेन्ट वाले आलराउण्ड (सर्व प्रकार की) सेवा के निमित्त रहे। सुनाया ना - अगर सफाई वाले सफाई नहीं करते तो भी प्रभाव नहीं पड़ता। हर एक का चेहरा ईश्वरीय स्नेह सम्पन्न नहीं होता तो सेवा की सफलता कैसी होती। सभी ने जो भी कार्य किया, स्नेह भरकर के किया। इसलिए, उन्हों में भी स्नेह का बीज पड़ा। उमंग-उत्साह से किया, इसलिए उन्हों में भी उमंग-उत्साह रहा। अनेकता होते भी स्नेह के सूत्र के कारण एकता की ही बातें करते रहे। यह वायुमण्डल के छत्रछाया की विशेषता रही। वायुमण्डल छत्रछाया बन जाता है। तो छत्रछाया के अन्दर होने के कारण कैसे भी संस्कार वाले स्नेह के प्रभाव में समाये हुए थे। समझा? सभी की बड़े ते बड़ी ड्यूटी (जिम्मेवारी) थी। सभी ने सेवा की। कितना भी वो और कुछ बोलने चाहें, तो भी बोल नहीं सकते वायुमण्डल के कारण। मन में कुछ सोचें भी लेकिन मुख से निकल नहीं सकता क्योंकि प्रत्यक्ष आप सबकी जीवन के परिवर्तन को देख उन्हों में भी परिवर्तन की प्रेरणा स्वत: ही आती रही। प्रत्यक्ष प्रमाण देखा ना। शास्त्र प्रमाण से भी, सबसे बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष प्रमाण के आगे और सब प्रमाण समा जाते हैं। यह रही सेवा की रिजल्ट। अभी भी उसी स्नेह के सहयोग की विशेषता से और समीप लाते रहेंगे तो और भी सहयोग में आगे बढ़ते अव्यक्त वाणी 1987 69 जायेंगे। फिर भी प्रत्यक्षता का आवाज बुलन्द तभी होगा, जब सब सत्ताओं का सहयोग होगा।
विशेष सर्व सत्तायें जब मिलकर एक आवाज बुलन्द करें, तब ही प्रत्यक्षता का पर्दा विश्व के आगे खुलेगा। वर्तमान समय जो सेवा का प्लान बनाया है, वह इसलिए ही बनाया है ना। सभी वर्ग वाले अर्थात् सत्ता वाले सम्पर्क में, सहयोग में आयें, स्नेह में आयें तो फिर सम्बन्ध में आकर सहजयोगी बन जायेंगे। अगर कोई भी सत्ता सहयोग में नहीं आती है तो सर्व के सहयोग का जो कार्य रखा है, वह सफल कैसे होगा?
अभी फाउण्डेशन पड़ा विशेष सत्ता का। धर्म सत्ता सबसे बड़े ते बड़ी सत्ता है ना। उस विशेष सत्ता द्वारा फाउण्डेशन आरम्भ हुआ। स्नेह का प्रभाव देखा ना। वैसे लोग क्या कहते थे कि - यह इतने सब इकट्ठे कैसे बुला रहे हो? यह लोग भी सोचते रहे ना। लेकिन ईश्वरीय स्नेह का सूत्र एक था, इसलिए, अनेकता के विचार होते हुए भी सहयोगी बनने का विचार एक ही रहा। ऐसे अभी सर्व सत्ताओं को सहयोगी बनाओ। बन भी रहे हैं लेकिन और भी समीप, सहयोगी बनाते चलो। क्योंकि अभी गोल्डन जुबली (स्वर्ण जयन्ती) समाप्त हुई, तो अभी से, और प्रत्यक्षता के समय आ गये। डायमन्ड जुबली अर्थात् प्रत्यक्षता का नारा बुलन्द करना। तो इस वर्ष से प्रत्यक्षता का पर्दा अभी खुलने आरम्भ हुआ है। एक तरफ विदेश द्वारा भारत में प्रत्यक्षता हुई, दूसरे तरफ निमित्त महामण्डलेश्वरों द्वारा कार्य की श्रेष्ठता की सफलता। विदेश में यू.एन. (U.N.) वाले निमित्त बने, वे भी विशेष नामीग्रामी और भारत में भी नामीग्रामी धर्म सत्ता है। तो धर्म सत्ता वालों द्वारा धर्म-आत्माओं की प्रत्यक्षता हो - यह है प्रत्यक्षता का पर्दा खुलना आरम्भ होना। अजुन खुलना आरम्भ हुआ है। अभी खुलने वाला है। पूरा नहीं खुला है, आरम्भ हुआ है। विदेश के बच्चे जो कार्य के निमित्त बने, यह भी विशेष कार्य रहा। प्रत्यक्षता के विशेष कार्य में इस कार्य के कारण निमित्त बन गये। तो बापदादा विदेश के बच्चों को इस अन्तिम प्रत्यक्षता के हीरो पार्ट में निमित्त बनने के सेवा की भी विशेष मुबारक दे रहे हैं। भारत में हलचल तो मचा ली ना। सबके कानों तक आवाज गया। यह विदेश का बुलन्द आवाज भारत के कुम्भकरणों को जगाने के निमित्त तो बन गया। लेकिन अभी सिर्फ आवाज गया है, अभी और जगाना है, उठाना है। अभी सिर्फ कान तक आवाज पहुँचा है। सोये हुए को अगर कान में आवाज जाता है तो थोड़ा हिलता है ना, हलचल तो करता है ना। तो हलचल पैदा हुई। हलचल में थोड़े जागे हैं, समझते कि यह भी कुछ हैं। अभी जागेंगे तब जब और जोर से आवाज करेंगे। अभी पहले भी थोड़ा जोर से हुआ। ऐसे ही कमाल तब हो जब सब सत्ता वाले इकट्ठे स्टेज पर स्नेह मिलन करें। सब सत्ता की आत्माओं द्वारा ईश्वरीय कार्य की प्रत्यक्षता आरम्भ हो, तब प्रत्यक्षता का पर्दा पूरा खुलेगा। इसलिए, अभी जो प्रोग्राम बना रहे हो उसमें यह लक्ष्य रखा कि सब सत्ताओं का स्नेह मिलन हो। सब वर्गों का स्नेह मिलन तो हो सकता है। जैसे साधारण साधुओं को बुलाते तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन यह महामण्डलेश्वरों को बुलाया ना। ऐसे तो शंकराचार्य की भी इस संगठन में और ही शोभा होती। लेकिन अब उसका भी भाग्य खुल जायेगा। अन्दर से तो फिर भी सहयोगी है। बच्चों ने मेहनत भी अच्छी की। लेकिन फिर भी लोकलाज तो रखनी पड़ती है। वह भी दिन आयेगा जब सभी सत्ता वाले मिल करके कहेंगे कि श्रेष्ठ सत्ता, ईश्वरीय सत्ता, आध्यात्मिक सत्ता है तो एक परमात्म-सत्ता ही है। इसलिए लम्बे समय का प्लान बनाया है ना। इतना समय इसलिए मिला है कि सभी को स्नेह के सूत्र में बाँध समीप लाओ। यह स्नेह चुम्बक बनेगा जो सब एक साथ संगठन रूप में बाप की स्टेज पर पहुँच जाए। ऐसा प्लान बनाया है ना? अच्छा।
सेवाधारियों को सेवा का प्रत्यक्षफल भी मिल गया। नहीं तो, अभी नम्बर नये बच्चों का है ना। आप लोग तो मिलन मनाते-मनाते अब वानप्रस्थ अवस्था तक पहुँचे हो। अभी अपने छोटे भाई-बहिनों को टर्न दे रहे हो। स्वयं वानप्रस्थी बने तब औरों को चांस दिया। इच्छा तो सबकी बढ़ती ही जायेगी। सब कहेंगे - अभी भी मिलने का चांस मिलना चाहिए। जितना मिलेंगे, उतना और इच्छा बढ़ती जायेगी। फिर क्या करेंगे? औरों को चांस देना भी स्वयं तृप्ति का अनुभव करना है। क्योंकि पुराने तो अनुभवी हैं, प्राप्ति-स्वरूप हैं। तो प्राप्ति-स्वरूप आत्मायें अव्यक्त वाणी 1987 71 सदा पर की शुभ भावना रखने वाले, औरों को आगे रखने वाले हो। या समझते हो हम तो मिल लेवें? इसमें भी नि:स्वार्थी बनना है। समझदार हो। आदि, मध्य, अन्त को समझने वाले हो। समय को भी समझते हो। प्रकृति के प्रभाव को भी समझते हो। पार्ट को भी समझते हो। बापदादा भी सदा ही बच्चों से मिलने चाहते हैं। अगर बच्चे मिलने चाहते तो पहले बाप चाहता, तब बच्चे भी चाहते। लेकिन बाप को भी समय को, प्रकृति को देखना तो पड़ता है ना। जब इस दुनिया में आते हैं तो दुनिया की सब बातों को देखना पड़ता है। जब इनसे दूर अव्यक्त वतन में हैं तो वहाँ तो पानी की, समय की, रहने आदि की प्रोब्लम (समस्या) ही नहीं। गुजरात वाले समीप रहते हैं। तो इसका भी फल मिला है ना। यह भी गुजरात वालों की विशेषता है, सदैव एवररेडी रहते हैं। ‘हाँ जी' का पाठ पक्का है और जहाँ भी रहने का स्थान मिले, तो रह भी जाते हैं। हर परिस्थिति में खुश रहने की भी विशेषता है। गुजरात में वृद्धि भी अच्छी हो रही है। सेवा का उमंग- उत्साह स्वयं को भी निर्विघ्न बनाता, दूसरों का भी कल्याण करता है। सेवाभाव की भी सफलता है। सेवा-भाव में अगर अहम्-भाव आ गया तो उसको सेवा-भाव नहीं कहेंगे। सेवा-भाव सफलता दिलाता है। अहम्-भाव अगर मिक्स होता है तो मेहनत भी ज्यादा, समय भी ज्यादा, फिर भी स्वयं की सन्तुष्टी नहीं होती। सेवाभाव वाले बच्चे सदा स्वयं भी आगे बढ़ते और दूसरों को भी आगे बढ़ाते हैं। सदा उड़ती कला का अनुभव करते हैं। अच्छी हिम्मत वाले हैं। जहाँ हिम्मत है वहाँ बापदादा भी हर समय कार्य में मददगार हैं।
महारथी तो हैं ही महादानी। जो भी महारथी सेवा के प्रति आये हैं, महादानी वरदानी हो ना? औरों को चांस देना - यह भी महादान, वरदान है। जैसा समय, वैसा पार्ट बजाने में भी सब सिकीलधे बच्चे सदा ही सहयोगी रहे हैं और रहेंगे। इच्छा तो होगी क्योंकि यह शुभ इच्छा है। लेकिन इसको समाने भी जानते हैं। इसलिए सभी सदा सन्तुष्ट हैं।
बापदादा भी चाहते हैं कि एक-एक बच्चे से मिलन मनावें और समय की सीमा भी नहीं होनी चाहिए। लेकिन आप लोगों की दुनिया में यह सभी सीमाएं देखनी पड़ती हैं। नहीं तो, एक-एक विशेष रतन की महिमा अगर गायें तो कितनी बड़ी है। कम से कम एक-एक बच्चे की विशेषता का एक-एक गीत तो बना सकते हैं। लेकिन... इसलिए कहते हैं वतन में आओ जहाँ कोई सीमा नहीं। अच्छा।
सदा ईश्वरीय स्नेह में समाये हुए, सदा हर सेकेण्ड सर्व के सहयोगी बनने वाले, सदा प्रत्यक्षता के पर्दे को हटाए बाप को विश्व के आगे प्रत्यक्ष करने वाले, सदा सर्व आत्माओं को प्रत्यक्ष-प्रमाण-स्वरूप बन आकर्षित करने वाले, सदा बाप और सर्व के हर कार्य में सहयोगी बन एक का नाम बाला करने वाले, ऐसे विश्व के इष्ट बच्चों को, विश्व के विशेष बच्चों को बापदादा का अति स्नेह सम्पन्न यादप्यार। साथ-साथ सर्व देश-विदेश के स्नेह से बाप के सामने पहुँचने वाले सर्व समीप बच्चों को सेवा की मुबारक के साथ-साथ बापदादा का विशेष यादप्यार स्वीकार हो।
मुख्य भाइयों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
पाण्डवों की विजय सदा गाई हुई है। पाण्डवों के मस्तक पर सदा विजय का तिलक है ही है। पाण्डवों को ही विजयी पाण्डव कहते हैं। स्व पर विजय, सेवा में विजय। तो डबल विजय का तिलक है ना। बापदादा जब महावीर पाण्डवों को देखते हैं तो सदैव मस्तक पर डबल विजय का तिलक देखते हैं। यही पाण्डवों की विशेषता हर कल्प की गाई हुई है। यह अमिट यादगार है। तो यादगार से प्रसिद्ध हुई आत्मायें हो। शक्तियाँ अपनी सेवा की स्टेज पर हैं लेकिन पाण्डवों की विशेषता अपनी है। पाण्डवों की विशेषता - सदा ही सेवा में उन्नति का सूर्य उदय करना। सेवा की विशेषता का शृंगार पाण्डव हैं। शक्तियाँ सहयोगी हैं लेकिन निमित्त उन्नति के आधार पाण्डव हैं। इसलिए, पाण्डवों की विशेषता वर्णन करने बैठें तो पूरी मुरली चल जाए। पाण्डव सदा ही प्रसिद्ध हैं। भक्ति में भी कोई पूजा होती है तो पहले गणेश की पूजा करते हैं ना। साकार में बापदादा ने इसको (जगदीश भाई को) यह टाईटल दिया। तो यह टाईटल कम नहीं है। बिना गणेश के यानी पाण्डवों के पूजा शुरू नहीं होती। शक्तियों के सहयोग के बिना पाण्डव नहीं, पाण्डवों के सेवा की उन्नति के पुरूषार्थ के बिना शक्तियों के सेवा की विजय नहीं। दोनों ही एक दो के साथी हैं। पाण्डवों को सदैव दिल से ब्रह्मा के हमशरीक साथी कहते हैं। तो ब्रह्मा बाप के हम साथी हैं! कितनी कमाल है! शक्तियों को आगे रखना - यह भी पाण्डवों की कमाल है। अगर पाण्डव शक्तियों को आगे न रखें तो शक्तियाँ क्या करेगी? यह पाण्डवों की विशेषता है। समय प्रमाण शक्तियों को आगे रखना ही पड़ता है। पाण्डव सहयोगी बन आगे रखते हैं, तब शक्तियों की महिमा होती है! पाण्डव कोई कम नहीं हैं। सिर्फ कहीं-कहीं शक्तियों का नाम प्रत्यक्ष हो जाता है, पाण्डवों का गुप्त हो जाता है। वैसे बाप भी गुप्त है। नाम तो बच्चों का होता, बाप का कहाँ होता है। तो पाण्डव सदा विजय के तिलकधारी हो। पाण्डवों के आगे टाइटल है - ‘विजयी पाण्डव'। सभी ने बहुत अच्छा किया। जैसे बापदादा चाहते हैं - प्यार-प्यार से फूँक भी लगाओ और अपना कार्य भी कर लो, ऐसे किया। अच्छी सेवा हुई। अच्छा।
आन्ध्र प्रदेश ग्रुप से बापदादा की मुलाकात
सभी अपने को श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा समझते हो? सदा हर कदम में आगे बढ़ते जा रहे हो? क्योंकि जब बाप के बन गये तो पूरा अधिकार प्राप्त करना बच्चों का पहला कर्त्तव्य है। सम्पन्न बनना अर्थात् सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त करना। ऐसे स्वयं को सम्पन्न अनुभव करते हो? जब भाग्यविधाता भाग्य बांट रहे हैं, तो पूरा भाग्य लेना चाहिए ना। तो थोड़े में राजी होने वाले हो या पूरा लेने वाले हो? बच्चे अर्थात् पूरा अधिकार लेने वाले। हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं - यह स्मृति सदा समर्थ बनाते हुए आगे बढ़ाती रहेगी। यह नई बात नहीं कर रहे हो, यह प्राप्त हुआ अधिकार फिर से प्राप्त कर रहे हो। नई बात नहीं है। कई बार मिले हैं और अनेक बार आगे भी मिलते रहेंगे। आदि, मध्य, अन्त तीनों कालों को जानने वाले हैं - यह नशा सदा रहता है? जो भी प्राप्ति हो रही है वह सदा है, अविनाशी है - यह निश्चय और नशा हो तो इसी आधार से उड़ती कला में उड़ते रहेंगे। अच्छा।
जैसे बाप ज्ञान का सागर है, ऐसे मास्टर ज्ञान के सागर बन सदा औरों को भी ज्ञान दान देते रहते हो ना। ज्ञान का कितना श्रेष्ठ खज़ाना मिला है। ऐसा श्रेष्ठ खज़ाना इस समय और किसी आत्माओं के पास है नहीं। तो आप भाग्यवान बन गये ना। सदा अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ते चलो। याद के अनुभव से औरों की भी सेवा कर औरों को भी आप समान भाग्यवान बनाते चलो। क्योंकि ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य ही है - सेवाधारी बन सेवा करना। जितनी सेवा करेंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। कभी कोई दु:ख की लहर तो नहीं आती है? सुखदाता के बच्चे बन गये तो कभी भी दु:ख की लहर आ नहीं सकती। सदैव यह याद रखो कि हम सुख के सागर के बच्चे हैं। सुख के सागर के बच्चों के पास दु:ख आ नहीं सकता। सदा महादानी बन जो भी खज़ाने मिले हैं, उनका दान करते रहो। क्योंकि यह खज़ाने जितना दान करेंगे उतना और भी बढ़ते जायेंगे। वो खज़ाने दान करने से कम होते हैं लेकिन यह बढ़ते हैं। तो महादानी बनना अर्थात् देना नहीं बल्कि और भी भरना। तो सदा अपने को ऐसे पद्मों की कमाई जमा करने वाली विशेष आत्मा समझकर चलो। अच्छा।
05-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण जीवन का सुख - ‘सन्तुष्टता' व ‘प्रसन्नता'
संतुष्टता और प्रसन्नता का खज़ाना देने वाले, विधाता, वरदाता बापदादा बोले
आज बापदादा चारों ओर के अपने अति लाडले, सिकीलधे ब्राह्मण बच्चों में से विशेष ब्राह्मण जीवन की विशेषता सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। आज अमृतवेले बापदादा सर्व ब्राह्मण कुल बच्चों में से उन विशेष आत्माओं को चुन रहे थे जो सदा सन्तुष्टता द्वारा स्वयं भी सदा सन्तुष्ट रहे हैं और औरों को भी सन्तुष्टता की अनुभूति अपनी दृष्टि, वृत्ति और कृति द्वारा सदा कराते आये हैं। तो आज ऐसी सन्तुष्टमणियों की माला पिरो रहे थे जो सदा संकल्प में, बोल में, संगठन के सम्बन्ध-सम्पर्क में, कर्म में सन्तुष्टता के गोल्डन पुष्प बापदादा द्वारा अपने ऊपर बरसाने का अनुभव करते और सर्व प्रति सन्तुष्टता के गोल्डन पुष्पों की वर्षा सदा करते रहते हैं। ऐसी सन्तुष्ट आत्मायें चारों ओर में से कोई-कोई नजर आई। माला बड़ी नहीं बनी, छोटी-सी माला बनी। बापदादा बारबार सन्तुष्टमणियों की माला को देख हर्षित हो रहे थे। क्योंकि ऐसी सन्तुष्टमणियाँ ही बापदादा के गले का हार बनती हैं, राज्य अधिकारी बनती हैं और भक्तों के सिमरण की माला बनती हैं।
बापदादा और बच्चों को भी देख रहे थे जो कभी सन्तुष्ट और कभी असन्तुष्ट के संकल्प-मात्र छाया के अन्दर आ जाते हैं और फिर निकल आते हैं, फँस नहीं जाते। तीसरे बच्चे कभी संकल्प की असन्तुष्टता, कभी स्वयं की स्वयं से असन्तुष्टता, कभी परिस्थितियों द्वारा असन्तुष्टता, कभी स्वयं की हलचल द्वारा असन्तुष्टता और कभी छोटी-बड़ी बातों से असन्तुष्टता - इसी चक्र में चलते और निकलते और फिर फँसते रहते। ऐसी माला भी देखी। तो तीन मालायें तैयार हुई। मणियां तो सभी हैं लेकिन सन्तुष्ट-मणियों की झलक और दूसरे दो प्रकार के मणियों की झलक क्या होगी, यह तो आप भी जान सकते हो। ब्रह्मा बाप बार-बार तीनों मालाओं को देखते हुए हर्षित भी हो रहे थे, साथ-साथ प्रयत्न कर रहे थे कि दूसरे नम्बर की माला की मणियाँ पहली माला में आ जाएँ। रूह-रूहान चल रही थी। क्योंकि दूसरी माला की कोई-कोई मणि बहुत थोड़ी-सी असन्तुष्टता की छाया-मात्र के कारण पहली माला से वंचित रह गयी है, इसको परिवर्तन कर कैसे भी पहली माला में लावें। एक-एक के गुण, विशेषतायें, सेवा - सबको सामने लाते बार-बार यही बोले कि इसको पहली माला में कर लें। ऐसी 25-30 के करीब मणियाँ थी जिनके ऊपर ब्रह्मा बाप की विशेष रूह-रूहान चल रही थी। ब्रह्मा बाप बोले - पहले नम्बर माला में इन मणियों को भी डालना चाहिए। लेकिन फिर स्वयं ही मुस्कराते हुए यही बोले कि बाप इन्हों को अवश्य पहली में लाकर ही दिखायेंगे। तो ऐसी विशेष मणियाँ भी थी।
ऐसे रूह-रूहान चलते हुए एक बात निकली कि असन्तुष्टता का विशेष कारण क्या है? जबकि संगमयुग का विशेष वरदान सन्तुष्टता है, फिर भी वरदाता से वरदान प्राप्त वरदानी आत्मायें दूसरे नम्बर की माला में क्यों आती? सन्तुष्टता का बीज सर्व प्राप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। जब ब्राह्मणों का गायन है - ‘अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में अथवा ब्राह्मणों के जीवन में', फिर असन्तुष्टता क्यों? क्या वरदाता ने वरदान देने में अंतर रखा वा लेने वालों ने अन्तर कर लिया, क्या हुआ? जब वरदाता, दाता के भण्डार भरपूर हैं, इतने भरपूर हैं जो आपके अर्थात् श्रेष्ठ निमित्त आत्माओं के जो बहुतकाल के ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी बन गये, उन्हों की 21 जन्मों की वंशावली और फिर उनके भक्त, भक्तों की भी वंशावली, वो भी उन प्राप्तियों के आधार पर चलते रहेंगे। इतनी बड़ी प्राप्ति, फिर भी असन्तुष्टता क्यों? अखुट खज़ाना सभी को प्राप्त है - एक ही द्वारा, एक ही जैसा, एक ही समय, एक ही विधि से। लेकिन प्राप्त हुए खज़ाने को हर समय कार्य में नहीं लगाते अर्थात् स्मृति में नहीं रखते। मुख से खुश होते हैं लेकिन दिल से खुश नहीं होते। दिमाग की खुशी है, दिल की खुशी नहीं, कारण? प्राप्तियों के खज़ानों को स्मृतिस्वरूप बन कार्य में नहीं लगाते। स्मृति रहती है लेकिन स्मृतिस्वरूप में नहीं आते। प्राप्ति बेहद की है लेकिन उनको कहाँ-कहाँ हद की प्राप्ति में परिवर्तन कर लेते हो। इस कारण हद अर्थात् अल्पकाल की प्राप्ति की इच्छा, बेहद की प्राप्ति के फलस्वरूप जो सदा सन्तुष्टता की अनुभूति हो, उससे वंचित कर देती है। हद की प्राप्ति दिलों में हद डाल देती है। इसलिए असन्तुष्टता की अनुभूति होती है। सेवा में हद डाल देते हैं। क्योंकि हद की इच्छा का फल मन इच्छित फल नहीं प्राप्त होता। हद की इच्छाओं का फल अल्पकाल की पूर्ति वाला होता है। इसलिए अभी-अभी सन्तुष्टता, अभी-अभी असन्तुष्टता हो जाती है। हद, बेहद का नशा अनुभव कराने नहीं देता। इसलिए, विशेष चेक करो कि मन की अर्थात् स्वयं की सन्तुष्टता, सर्व की सन्तुष्टता अनुभव होती है?
सन्तुष्टता की निशानी - वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सन्तुष्ट होंगे; उनके मन और तन में सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी। चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्म-भोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी। प्रसन्नचित्त कभी कोई बात में प्रश्नचित्त नहीं होंगे। प्रश्न हैं तो प्रसन्न नहीं। प्रसन्नचित्त की निशानी - वह सदा नि:स्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेगा; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेगा - न भाग्यविधाता के ऊपर कि मेरा भाग्य ऐसा बनाया, न ड्रामा पर कि मेरा ड्रामा में ही पार्ट ऐसा है, न व्यक्ति पर कि इसका स्वभाव-संस्कार ऐसा है, न प्रकृति के ऊपर कि प्रकृति का वायुमण्डल ऐसा है, न शरीर के हिसाबकिताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है। प्रसन्नचित्त अर्थात् सदा नि:स्वार्थ, निर्दोष वृत्ति-दृष्टि वाले। तो संगमयुग की विशेषता ‘सन्तुष्टता' है और सन्तुष्टता की निशानी ‘प्रसन्नता' है। यह है ब्राह्मण जीवन की विशेष प्राप्ति। सन्तुष्टता नहीं, प्रसन्नता नहीं तो ब्राह्मण बनने का लाभ नहीं लिया। ब्राह्मण जीवन का सुख है ही सन्तुष्टता, प्रसन्नता। ब्राह्मण जीवन बनी और उसका सुख नहीं लिया तो नामधारी ब्राह्मण हुए वा प्राप्ति स्वरूप ब्राह्मण हुए? तो बापदादा सभी ब्राह्मण बच्चों को यही स्मृति दिला रहे हैं - ब्राह्मण बने, अहो भाग्य! लेकिन ब्राह्मण जीवन का वर्सा, प्रापर्टी ‘सन्तुष्टता' है। और ब्राह्मण जीवन की पर्सनल्टी (Personality) ‘प्रसन्नता' है। इस अनुभव से कभी वंचित नहीं रहना। अधिकारी हो। जब दाता, वरदाता खुली दिल से प्राप्तियों का खज़ाना दे रहे हैं, दे दिया है तो खूब अपनी प्रापर्टी और पर्सनल्टी को अनुभव में लाओ, औरों को भी अनुभवी बनाओ। समझा? हर एक अपने से पूछे कि मैं किस नम्बर की माला में हूँ? माला में तो है ही लेकिन किस नम्बर की माला में हूँ। अच्छा।
आज राजस्थान और यू.पी. ग्रुप है। राजस्थान अर्थात् राजाई संस्कार वाले, हर संकल्प में, स्वरूप में राजाई संस्कार प्रैक्टिकल में लाने वाले अर्थात् प्रत्यक्ष दिखाने वाले। इसको कहते हैं राजस्थान निवासी। ऐसे हो ना? कभी प्रजा तो नहीं बन जाते हो ना? अगर वशीभूत हो गये तो प्रजा कहेंगे, मालिक हैं तो राजा। ऐसे नहीं कि कभी राजा, कभी प्रजा। नहीं। सदा राजाई संस्कार स्वत: ही स्मृति-स्वरूप में हों। ऐसे राजस्थान निवासी बच्चों का महत्त्व भी है। राजा को सदैव सभी ऊँची नजर से देखेंगे और स्थान भी राजा को ऊँचा देंगे। राजा सदैव तख्त पर बैठेगा, प्रजा सदैव नीचे। तो राजस्थान के राजाई संस्कार वाली आत्मायें अर्थात् सदा ऊंची स्थिति के स्थान पर रहने वाले। ऐसे बन गये हो वा बन रहे हो? बने हैं और सम्पन्न बनना ही है। राजस्थान की महिमा कम नहीं है। स्थापना का हेडक्वार्टर ही राजस्थान में है। तो ऊँचे हो गये ना। नाम से भी ऊँचे, काम से भी ऊँचे। ऐसे राजस्थान के बच्चे अपने घर में पहुँचे हैं। समझा?
यू.पी. की भूमि विशेष पावन-भूमि गाई हुई है। पावन करने वाली भक्तिमार्ग की गंगा नदी भी वहाँ है और भक्ति के हिसाब से कृष्ण की भूमि भी यू.पी. में ही है। भूमि की महिमा बहुत है। कृष्ण लीला, जन्मभूमि देखनी होगी तो भी यू.पी. में ही जायेंगे। तो यू.पी. वालों की विशेषता है। सदा पावन बन और पावन बनाने की विशेषता सम्पन्न हैं। जैसे बाप की महिमा है पतित पावन... यू.पी. वालों की भी महिमा बाप समान है। पतित-पावनी आत्मायें हो। भाग्य का सितारा चमक रहा है। ऐसे भाग्यवान स्थान और स्थिति - दोनों की महिमा है। ‘सदा पावन' - यह है स्थिति की महिमा। तो ऐसे भाग्यवान अपने को समझते हो? सदा अपने भाग्य को देख हर्षित होते स्वयं भी सदा हर्षित और दूसरों को भी हर्षित बनाते चलो। क्योंकि हर्षित-मुख स्वत: ही आकर्षितमूर्त होते हैं। जैसे स्थूल नदी अपने तरफ खींचती है ना, खींचकर यात्री जाते हैं। चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े, फिर भी पावन होने का आकर्षण खींच लेता है। तो यह पावन बनाने के कार्य का यादगार यू.पी. में है। ऐसे ही हर्षित और आकर्षितमूर्त बनना है। समझा?
तीसरा ग्रुप डबल विदेशियों का भी है। डबल विदेशी अर्थात् सदा विदेशी बाप को आकर्षित करने वाले, क्योंकि समान हैं ना। बाप भी विदेशी है, आप भी विदेशी हो। हम शरीक प्यारे होते हैं। माँ-बाप से भी फ्रेंड्स ज्यादा प्यारे लगते हैं। तो डबल विदेशी बाप समान सदा इस देह और देह के आकर्षण से परे विदेशी हैं, अशरीरी हैं, अव्यक्त हैं। तो बाप अपने समान अशरीरी, अव्यक्त स्थिति वाले बच्चों को देख हर्षित होते हैं। रेस भी अच्छी कर रहे हैं। सेवा में भिन्न-भिन्न साधन और भिन्न-भिन्न विधि से आगे बढ़ने की रेस अच्छी कर रहे हैं। विधि भी अपनाते और वृद्धि भी कर रहे हैं। इसलिए, बापदादा चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को सेवा की बधाई भी देते और स्व के वृद्धि की स्मृति भी दिलाते हैं। स्व की उन्नति में सदा उड़ती कला द्वारा उड़ते चलो। स्वउन्नति और सेवा की उन्नति के बैलेन्स द्वारा सदा बाप के ब्लैसिंग के अधिकारी हैं और सदा रहेंगे। अच्छा।
चौथा ग्रुप है बाकी मधुबन निवासी। वह तो सदा हैं ही। जो दिल पर सो चुल पर, जो चुल पर सो दिल पर। सबसे ज्यादा विधिपूर्वक ब्रह्मा भोजन भी मधुबन में होता। सबसे सिकीलधे भी मधुबन निवासी हैं। सब फंक्शन भी मधुबन में होते। सबसे, डायरेक्ट मुरलियाँ भी, ज्यादा मधुबन वाले ही सुनते। तो मधुबन निवासी सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी आत्मायें हैं। सेवा भी दिल से करते हैं। इसलिए मधुबन निवासियों को बापदादा और सर्व ब्राह्मणों की मन से आशीर्वाद प्राप्त होती रहती है। अच्छा।
चारों ओर की सर्व बापदादा की विशेष सन्तुष्टमणियों को बापदादा की विशेष यादप्यार। साथ-साथ सर्व भाग्यशाली ब्राह्मण जीवन प्राप्त करने वाले कोटों में कोई, कोई में भी कोई सिकीलधे आत्माओं को, बापदादा के शुभ संकल्प को सम्पन्न करने वाली आत्माओं को, संगमयुगी ब्राह्मण जीवन की प्रापर्टी के सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त करने वाली आत्माओं को विधाता और वरदाता बापदादा की बहुत-बहुत यादप्यार स्वीकार हो।
दादी जानकी जी एवं दादी चन्द्रमणि जी सेवाओं पर जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं
जा रही हो या समा रही हो? जाओ या आओ लेकिन सदा समाई हुई हो। बापदादा अनन्य बच्चों को कभी अलग देखते ही नहीं हैं। चाहे आकार में, चाहे साकार में सदा साथ हैं। क्योंकि सिर्फ महावीर बच्चे ही हैं जो यह वायदा निभाते हैं कि हर समय साथ रहेंगे, साथ चलेंगे। बहुत थोड़े यह वायदा निभाते हैं। इसलिए, ऐसे महावीर बच्चे, अनन्य बच्चे जहाँ भी जाते बाप को साथ ले जाते हैं और बाप सदा वतन में भी साथ रखते हैं। हर कदम में साथ देते। इसलिए जा रही हो, आ रही हो - क्या कहेंगे? इसीलिए कहा कि जा रही हो या समा रही हो। ऐसे ही साथ रहते-रहते समान बन समा जायेगी। घर में थोड़े समय के लिए रेस्ट करेंगी, साथ रहेंगी। फिर आप राज्य करना और बाप ऊपर से देखेंगे। लेकिन साथ का थोड़े समय का अनुभव करना। अच्छा।
(आज बाबा आपने कमाल की माला बनाई)
आप लोग भी तो माला बनाते हो ना। माला अभी तो छोटी है। अभी बड़ी बनेगी। अभी जो थोड़ा कभी-कभी बेहोश हो जाते हैं, उन्हें थोड़े समय में प्रकृति का वा समय का आवाज होश में ले आयेगा; फिर माला बड़ी बन जायेगी। अच्छा। जहाँ भी जाओ बाप के वरदानी तो हो ही। आपके हर कदम से बाप का वरदान सबको मिलता रहेगा। देखेंगे तो भी बाप का वरदान दृष्टि से लेंगे, बोलेंगे तो बोल से वरदान लेंगे, कर्म से भी वरदान ही लेंगे। चलते-फिरते वरदानों की वर्षा करने के लिए जा रही हो। अभी जो आत्मायें आ रही हैं, उनको वरदान की व महादान की ही आवश्यकता है। आप लोगों का जाना अर्थात् खुले दिल से उन्हों को बाप के वरदान मिलना। अच्छा।
डबल विदेशी भाई-बहिनों से - डबल विदेशी अर्थात् सदा अपने स्वस्व रूप, स्वदेश, स्वराज्य के स्मृति में रहने वाले। डबल विदेशियों को विशेष कौनसी सेवा करनी है? अभी साइलेन्स की शक्ति का अनुभव विशेष रूप से आत्माओं को कराना। यह भी विशेष सेवा है। जैसे साइंस की पावर नामीग्रामी है ना। बच्चे-बच्चे को मालूम है कि साइंस क्या है। ऐसे साइलेन्स पावर, साइंस से भी ऊँची है। वह दिन भी आना है। साइलेन्स के पावर की प्रत्यक्षता अर्थात् बाप की प्रत्यक्षता। जैसे साइंस प्रत्यक्ष प्रूफ दिखाती है - वैसे साइलेन्स पावर का प्रैक्टिकल प्रूफ है - आप सबका जीवन। जब इतने सब प्रैक्टिकल प्रूफ दिखाई देंगे तो न चाहते हुए सभी की नजर में सहज आ जायेंगें। जैसे यह (पिछले वर्ष) पीस का कार्य किया ना, इसको स्टेज पर प्रैक्टिकल में दिखाया। ऐसे ही चलतेफिरते पीस के मॉडल दिखाई दें तो साइंस वालों की भी नजर साइलेन्स वालों के ऊपर अवश्य जायेगी। समझा? साइंस की इन्वेन्शन विदेश में ज्यादा होती है। तो साइलेन्स के पावर का आवाज भी वहाँ से सहज फैलेगा। सेवा का लक्ष्य तो है ही, सभी को उमंग-उत्साह भी है। सेवा के बिना रह नहीं सकते। जैसे भोजन के बिना रह नहीं सकते, ऐसे सेवा के बिना भी रह नहीं सकते। इसलिए बापदादा खुश है। अच्छा।
यू.पी तथा राजस्थान ग्रुप से बापदादा की अलग-अलग मुलाकात - स्वदर्शन चक्रधारी श्रेष्ठ आत्मायें बन गये, ऐसे अनुभव करते हो? स्व का दर्शन हो गया ना? अपने आपको जानना अर्थात् स्व का दर्शन होना और चक्र का ज्ञान जानना अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी बनना। जब स्वदर्शन चक्रधारी बनते हैं तो और सब चक्र समाप्त हो जाते हैं। देहभान का चक्र, सम्बन्ध का चक्र समस्याओं का चक्र - माया के कितने चक्र हैं! लेकिन स्वदर्शन-चक्रधारी बनने से यह सब चक्र समाप्त हो जाते हैं, सब चक्रों से निकल आते हैं। नहीं तो जाल में फँस जाते हैं। तो पहले फँसे हुए थे, अब निकल गये। 63 जन्म तो अनेक चक्रों में फँसते रहे और इस समय इन चक्रों से निकल आये, तो फिर फँसना नहीं है। अनुभव करके देख लिया ना? अनेक चक्रों में फँसने से सब कुछ गँवा दिया और स्वदर्शन-चक्रधारी बनने से बाप मिला तो सब कुछ मिला। तो सदा स्वदर्शन-चक्रधारी बन, मायाजीत बन आगे बढ़ते चलो। इससे सदा हल्के रहेंगे, किसी भी प्रकार का बोझ अनुभव नहीं होगा। बोझ ही नीचे ले आता है और हल्का होने से ऊँचे उड़ते रहेंगे। तो उड़ने वाले हो ना? कमज़ोर तो नहीं? अगर एक भी पंख कमज़ोर होगा तो नीचे ले आयेगा, उड़ने नहीं देगा। इसलिए, दोनों ही पंख मजबूत हों तो स्वत: उड़ते रहेंगे। स्वदर्शन-चक्रधारी बनना अर्थात् उड़ती कला में जाना। अच्छा।
राजयोगी, श्रेष्ठ योगी आत्मायें हो ना? साधारण जीवन से सहजयोगी, राजयोगी बन गये। ऐसी श्रेष्ठ योगी आत्मायें सदा ही अतीइन्द्रिय सुख के झूले में झूलती हैं। हठयोगी योग द्वारा शरीर को ऊँचा उठाते हैं और उड़ने का अभ्यास करते हैं। वास्तव में आप राजयोगी ऊँची स्थिति का अनुभव करते हो। इसको ही कापी करके वो शरीर को ऊँचा उठाते हैं। लेकिन आप कहाँ भी रहते ऊँची स्थिति में रहते हो, इसलिए कहते हैं - योगी ऊँचा रहते हैं। तो मन की स्थिति का स्थान ऊँचा है। क्योंकि डबल लाइट बन गये हो। वैसे भी फरिश्तों के लिए कहा जाता कि फरिश्तों के पाँव धरनी पर नहीं होते। फरिश्ता अर्थात् जिसका बुद्धि रूपी पाँव धरती पर न हो, देहभान में न हो। देहभान से सदा ऊँचे - ऐसे फरिश्ते अर्थात् राजयोगी बन गये। अभी इस पुरानी दुनिया से कोई लगाव नहीं। सेवा करना अलग चीज़ है लेकिन लगाव न हो। योगी बनना अर्थात् बाप और मैं, तीसरा न कोई। तो सदा इसी स्मृति में रहो कि हम राजयोगी, सदा फरिश्ता हैं। इस स्मृति से सदा आगे बढ़ते रहेंगे। राजयोगी सदा बेहद का मालिक हैं, हद के मालिक नहीं। हद से निकल गये। बेहद का अधिकार मिल गया - इसी खुशी में रहो। जैसे बेहद का बाप है, वैसे बेहद की खुशी में रहो, नशे में रहो। अच्छा।
विदाई के समय
सभी अमृतवेले के वरदानी बच्चों को वरदाता बाप की सुनहरी यादप्यार स्वीकार हो। साथ-साथ सुनहरी दुनिया बनाने की सेवा के सदा प्लान मनन करने वाले और सदा सेवा में दिल व जान, सिक व प्रेम से, तन-मन-धन से सहयोगी आत्मायें, सभी को बापदादा गुडमोर्निंग, डायमण्ड मॉर्निंग कर रहे हैं और सदा डायमण्ड बन इस डायमण्ड युग की विशेषता को वरदान और वर्से में लेकर स्वयं भी सुनहरी स्थिति में स्थित रहेंगे और औरों को भी ऐसे ही अनुभव कराते रहेंगे। तो चारों ओर के डबल हीरों बच्चों को डायमण्ड मॉर्निंग। अच्छा।
09-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अलौकिक राज्य दरबार का समाचार
सर्व प्राप्तियों के भण्डार, ऊँचे ते ऊँचे बाप अपने ‘सर्व प्राप्ति भव' के वरदानी बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा अपने स्व-राज्य अधिकारी बच्चों की राज्य दरबार देख रहे हैं। यह संगमयुग की निराली, श्रेष्ठ शान वाली अलौकिक दरबार सारे कल्प में न्यारी और अति प्यारी है। इस राज्य-सभा की रूहानी रौनक, रूहानी कमल-आसन, रूहानी ताज और तिलक, चेहरे की चमक, स्थिति के श्रेष्ठ स्मृति के वायुमण्डल में अलौकिक खुशबू अति रमणीक, अति आकर्षित करने वाली है। ऐसी सभा को देख बापदादा हर एक राज्य-अधिकारी आत्मा को देख हर्षित हो रहे हैं। कितनी बड़ी दरबार है! हर एक ब्राह्मण बच्चा स्वराज्य- अधिकारी है। तो कितने ब्राह्मण बच्चे हैं! सभी ब्राह्मणों की दरबार इकट्ठी करो तो कितनी बड़ी राज्य-दरबार हो जायेगी! इतनी बड़ी राज्य दरबार किसी भी युग में नहीं होती। यही संगमयुग की विशेषता है जो ऊँचे ते ऊँचे बाप के सर्व बच्चे स्वराज्य-अधिकारी बनते हैं। वैसे लौकिक परिवार में हर एक बाप बच्चों को कहते हैं कि यह मेरा बच्चा ‘राजा' बेटा है वा इच्छा रखते हैं कि मेरा हर एक बच्चा ‘राजा' बने। लेकिन सभी बच्चे राजा बन ही नहीं सकते। यह कहावत परमात्म बाप की कापी की है। इस समय बापदादा के सब बच्चे राजयोगी अर्थात् स्व के राजे नम्बरवार जरूर हैं लेकिन हैं सभी राज-योगी, प्रजा योगी कोई नहीं है। तो बापदादा बेहद की राज्यसभा देख रहे थे। सभी अपने को स्वराज्य अधिकारी समझते हो ना? नये-नये आये हुए बच्चे राज्य-अधिकारी हो वा अभी बनना है? नये-नये हैं तो मिलना-जुलना सीख रहे हैं। अव्यक्त बाप की अव्यक्ति बातें समझने की भी आदत पड़ती जायेगी। फिर भी इस भाग्य को अभी से भी समय पर ज्यादा समझेंगे कि हम सभी आत्मायें कितनी भाग्यवान हैं!
तो बापदादा सुना रहे थे - अलौकिक राज्य दरबार का समाचार। सभी बच्चों के विशेष ताज और चेहरे की चमक के ऊपर न चाहते भी अटेन्शन जा रहा था। ताज ब्राह्मण जीवन की विशेषता - ‘पवित्रता' का ही सूचक है। चेहरे की चमक रूहानी स्थिति में स्थित रहने की रूहानियत की चमक है। साधारण रीति से भी किसी भी व्यक्ति को देखेंगे तो सबसे पहले दृष्टि चेहरे तरफ ही जायेगी। यह चेहरा ही वृत्ति और स्थिति का दर्पण है। तो बापदादा देख रहे थे - चमक तो सभी में थी लेकिन एक थे सदा रूहानीयत की स्थिति में स्थित रहने वाले, स्वत: और सहज स्थिति वाले और दूसरे थे सदा रूहानी स्थिति के अभ्यास द्वारा स्थित रहने वाले। एक थे सहज स्थिति वाले, दूसरे थे प्रयत्न कर स्थित रहने वाले। अर्थात् एक थे सहज योगी, दूसरे थे पुरूषार्थी से योगी। दोनों की चमक में अन्तर रहा। उनकी नैचरल ब्यूटी थी और दूसरों की पुरूषार्थ द्वारा ब्यूटी थी। जैसे आजकल भी मेकप कर ब्यूटीफुल बनते हैं ना। नैचरल (स्वाभाविक) ब्यूटी की चमक सदा एकरस रहती है और दूसरी ब्यूटी कभी बहुत अच्छी और कभी परसेन्टेज में रहती है; एक जैसी, एकरस नहीं रहती। तो सदा सहज योगी, स्वत:योगी स्थित नम्बरवन स्वराज्य-अधिकारी बनाती है। जब सभी बच्चों का वायदा है - ब्राह्मण जीवन अर्थात् एक बाप ही संसार है वा एक बाप दूसरा न कोई; जब संसार ही बाप है, दूसरा कोई है ही नहीं तो स्वत: और सहज योगी स्थिति सदा रहेगी ना, वा मेहनत करनी पड़ेगी? अगर दूसरा कोई है तो मेहनत करनी पड़ती है - यहाँ बुद्धि न जाए, वहाँ जाए। लेकिन एक बाप ही सब कुछ है - फिर बुद्धि कहाँ जायेगी? जब जा ही नहीं सकती तो अभ्यास क्या करेंगे? अभ्यास में भी अन्तर होता है। एक है स्वत: अभ्यास है, है ही है, और दूसरा होता है मेहनत वाला अभ्यास। तो स्वराज्य-अधिकारी बच्चों का सहज अभ्यासी बनना - यही निशानी है सहज योगी, स्वत: योगी की। उन्हों के चेहरे की चमक अलौकिक होती है जो चेहरा देखते ही अन्य आत्मायें अनुभव करती कि यह श्रेष्ठ प्राप्तिस्वरूप सहजयोगी हैं। जैसे स्थूल धन वा स्थूल पद की प्राप्ति की चमक चेहरे से मालूम होती है कि यह साहूकार कुल वा ऊँच पद अधिकारी है, ऐसे यह श्रेष्ठ प्राप्ति, श्रेष्ठ राज्य अधिकार अर्थात् श्रेष्ठ पद की प्राप्ति का नशा वा चमक चेहरे से दिखाई देती है। दूर से ही अनुभव करते कि इन्होंने कुछ पाया है। प्राप्तिस्वरूप आत्मायें हैं। ऐसे ही सभी राज्य अधिकारी बच्चों के चमकते हुए चेहरे दिखाई दें। मेहनत के चिन्ह नहीं दिखाई दें, प्राप्ति के चिन्ह दिखाई दें। अभी भी देखो, कोई- कोई बच्चों के चेहरे को देख यही कहते हैं - इन्होंने कुछ पाया है और कोई-कोई बच्चों के चेहरे को देख यह भी कहते हैं कि ऊँची मंज़िल है लेकिन त्याग भी बहुत ऊंचा किया है। त्याग दिखाई देता है, भाग्य नहीं दिखाई देगा चेहरे से। या यह कहेंगे कि मेहनत बहुत अच्छी कर रहे हैं।
बापदादा यही देखने चाहते हैं कि हर एक बच्चे के चेहरे से सहजयोगी की चमक दिखाई दे, श्रेष्ठ प्राप्ति के नशे की चमक दिखाई दे। क्योंकि प्राप्तियों के भण्डार के बच्चे हो। संगमयुग के प्राप्तियों के वरदानी समय के अधिकारी हो। निरन्तर योग कैसे लगावें वा निरन्तर अनुभव कर भण्डार की अनुभूति कैसे करें - अब तक भी इसी मेहनत में ही समय नहीं गँवाओं लेकिन प्राप्तिस्वरूप के भाग्य को सहज अनुभव करो। समाप्ति का समय समीप आ रहा है। अब तक किसी न किसी बात की मेहनत में लगे रहेंगे तो प्राप्ति का समय तो समाप्त हो जायेगा। फिर प्राप्तिस्वरूप का अनुभव कब करेंगे? संगमयुग को, ब्राह्मण आत्माओं को वरदान है ‘‘सर्व प्राप्ति भव''। ‘सदा पुरूषार्थी भव' का वरदान नहीं है, ‘प्राप्ति भव' का वरदान है। ‘प्राप्ति भव' की वरदानी आत्मा कभी भी अलबेलेपन में आ नहीं सकती। इसलिए उनको मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो समझा, क्या बनना है?
राज्यसभा में राज्य अधिकारी बनने की विशेषता क्या है, यह स्पष्ट हुआ ना? राज्य अधिकारी हो ना, वा अभी सोच रहे हो कि हैं वा नहीं हैं? जब विधाता के बच्चे, वरदाता के बच्चे बन गये; राजा अर्थात् विधाता, देने वाला। अप्राप्ति कुछ नहीं तो लेंगे क्या? तो समझा, नये-नये बच्चों को इस अनुभव में रहना है। युद्ध में ही समय नहीं गँवाना है। अगर युद्ध में ही समय गँवाया तो अन्त-मति भी युद्ध में रहेंगे। फिर क्या बनना पड़ेगा? चन्द्रवंश में जायेंगे वा सूर्यवंशी में? युद्ध वाला तो चन्द्रवंश में जायेगा। चल रहे हैं, कर रहे हैं, हो ही जायेंगे, पहुँच जायेंगे - अभी तक ऐसा लक्ष्य नहीं रखो। अब नहीं तो कब नहीं। बनना है तो अब, पाना है तो अब - ऐसा उमंग-उत्साह वाले ही समय पर अपनी सम्पूर्ण मंज़िल को पा सकेंगे। त्रेता में राम सीता बनने के लिए तो कोई भी तैयार नहीं है। जब सतयुग सूर्यवंश में आना है, तो सूर्यवंश अर्थात् सदा मास्टर विधाता और वरदाता, लेने की इच्छा वाला नहीं। मदद मिल जाए, यह हो जाए तो बहुत अच्छा, पुरूषार्थ में अच्छा नम्बर ले लेंगे - नहीं। मदद मिल रही है, सब हो रहा है - इसको कहते हैं - ‘स्वराज्य अधिकारी बच्चे'। आगे बढ़ना है या पीछे आये हैं तो पीछे ही रहना है? आगे जाने का सहज रास्ता है - सहजयोगी, स्वत:योगी बनो। बहुत सहज है। जब है ही एक बाप, दूसरा कोई नहीं तो जायेंगे कहाँ? प्राप्ति ही प्राप्ति है फिर मेहनत क्यों लगेगी? तो प्राप्ति के समय का लाभ उठाओ। सर्व प्राप्ति स्वरूप बनो। समझा? बापदादा तो यही चाहते हैं कि एक- एक बच्चा - चाहे लास्ट आने वाला, चाहे स्थापना के आदि में आने वाला, हर एक बच्चा नम्बरवन बने। राजा बनना, न कि प्रजा। अच्छा।
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश का ग्रुप आया है। देखो, महा शब्द कितना अच्छा है। महाराष्ट्र स्थान भी महा शब्द का है और बनना भी महान है। महान तो बन गये ना। क्योंकि बाप के बने माना महान बने। महान आत्मायें हो। ब्राह्मण अर्थात् महान। हर कर्म महान, हर बोल महान, हर संकल्प महान है। अलौकिक हो गये ना। तो महाराष्ट्र वाले सदा ही स्मृतिस्वरूप बनो कि महान हैं। ब्राह्मण अर्थात् महान चोटी हैं ना।
मध्य प्रदेश - सदा ‘मद्याजी भव' के नशे में रहने वाले। ‘मन्मनाभव' के साथ ‘मद्याजी भव' का भी वरदान है। तो अपना स्वर्ग का स्वरूप-इसको कहते हैं ‘मद्याजी भव' तो अपने श्रेष्ठ प्राप्ति के नशे में रहने वाले अर्थात् ‘मद्याजी भव' के मन्त्र के स्वरूप में स्थित रहने वाले। वह भी महान हो गये। ‘मद्याजी भव' हैं तो ‘मन्मनाभव' भी जरूर होंगे। तो मध्य प्रदेश अर्थात् महामन्त्र का स्वरूप बनने वाले। तो दोनों ही अपनी-अपनी विशेषता से महान हैं। समझा, कौन हो?
जब से पहला पाठ शुरू किया, वह भी यही किया कि मैं कौन? बाप भी वही बात याद दिलाते हैं। इसी पर मनन करना। शब्द एक ही है कि ‘मैं कौन' लेकिन इसके उत्तर कितने हैं? लिस्ट निकालना - ‘मैं कौन?' अच्छा।
चारों ओर के सर्व प्राप्ति स्वरूप, श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व अलौकिक राज्यसभा अधिकारी महान आत्माओं को, सदा रूहानियत की चमक धारण करने वाली विशेष आत्माओं को, सदा स्वत: योगी, सहजयोगी, ऊँचे ते ऊँची आत्माओं को ऊँचे ते ऊँचे बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।
14-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण जीवन - बाप से सर्व सम्बन्ध अनुभव करने का जीवन
दिलशिकस्त को दिलखुश बनाने वाले, सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले प्यारे बापदादा बोले
आज बापदादा अपने अनेक बार मिलन मनाने वाले, अनेक कल्पों से मिलने वाले बच्चों से फिर मिलन मनाने आये हैं। यह अलौकिक, अव्यक्ति मिलन भविष्य स्वर्ण युग में भी नहीं हो सकता। सिर्फ इस समय इस विशेष युग को वरदान है - बाप और बच्चों के मिलने का। इसलिए इस युग का नाम ही है संगमयुग अर्थात् मिलन मनाने का युग। ऐसे युग में ऐसा श्रेष्ठ मिलन मनाने के विशेष पार्टधारी आप आत्मायें हो। बापदादा भी ऐसे कोटों में कोई श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को देख हर्षित होते हैं और स्मृति दिलाते हैं। आदि से अन्त तक कितनी स्मृतियाँ दिलाई हैं? याद करो तो लम्बी लिस्ट निकल आयेगी। इतनी स्मृतियाँ दिलाई हैं जो आप सभी स्मृति-स्वरूप बन गये हो। भक्ति में आप स्मृति-स्वरूप आत्माओं के यादगार रूप में भक्त भी हर समय सिमरण करते रहते हैं। आप स्मृतिस्वरूप आत्माओं के हर कर्म की विशेषता का सिमरण करते रहते हैं। भक्ति की विशेषता ही सिमरण अर्थात् कीर्तन करना है। सिमरण करतेकरते मस्ती में कितना मग्न हो जाते हैं। अल्पकाल के लिए उन्हों को भी, और कोई सुध-बुध नहीं रहती। सिमरण करते-करते उसमें खो जाते हैं अर्थात् लवलीन हो जाते हैं। यह अल्पकाल का अनुभव उन आत्माओं के लिए कितना प्यारा और न्यारा होता है! यह क्यों होता? क्योंकि जिन आत्माओं का सिमरण करते हैं, यह आत्मायें स्वयं भी बाप के स्नेह में सदा लवलीन रही हैं, बाप की सर्व प्राप्तियों में सदा खोई हुई रही हैं। इसलिए, ऐसी आत्माओं का सिमरण करने से भी उन भक्तों को अल्पकाल के लिए आप वरदानी आत्माओं द्वारा अंचली रूप में अनुभूति प्राप्त हो जाती है। तो सोचो, जब सिमरण करने वाली भक्त आत्माओं को भी इतना अलौकिक अनुभव होता है तो आप स्मृति-स्वरूप, वरदाता, विधाता आत्माओं को कितना प्रैक्टिकल जीवन में अनुभव प्राप्त होता है! इसी अनुभूतियों में सदा आगे बढ़ते चलो।
हर कदम में भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते चलो। जैसा समय, जैसा कर्म वैसे स्वरूप की स्मृति इमर्ज (प्रत्यक्ष) रूप में अनुभव करो। जैसे, अमृतवेले दिल का आरम्भ होते बाप से मिलन मनाते - मास्टर वरदाता बन वरदाता से वरदान लेने वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ, डायरेक्ट भाग्यविधाता द्वारा भाग्य प्राप्त करने वाली पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ - इस श्रेष्ठ स्वरूप को स्मृति में लाओ। वरदानी समय है, वरदाता विधाता साथ में है। मास्टर वरदानी बन स्वयं भी सम्पन्न बन रहे हो और अन्य आत्माओं को भी वरदान दिलाने वाले वरदानी आत्मा हो - इस स्मृति-स्वरूप को इमर्ज करो। ऐसे नहीं कि यह तो हूँ ही। लेकिन भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप को समय प्रमाण अनुभव करो तो बहुत विचित्र खुशी, विचित्र प्राप्तियों का भण्डार बन जायेंगे और सदैव दिल से प्राप्ति के गीत स्वत: ही अनहद शब्द के रूप में निकलता रहेगा - ‘‘पाना था सो पा लिया...''। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न समय और कर्म प्रमाण स्मृति-स्वरूप का अनुभव करते जाओ। मुरली सुनते हो तो यह स्मृति रहे कि गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ (ईश्वरीय विद्यार्थी जीवन) अर्थात् भगवान का विद्यार्थी हूँ, स्वयं भगवान मेरे लिए परमधाम से पढ़ाने लिए आये हैं। यही विशेष प्राप्ति है जो स्वयं भगवान आता है। इसी स्मृति-स्वरूप से जब मुरली सुनते हैं तो कितना नशा होता! अगर साधारण रीति से नियम प्रमाण सुनाने वाला सुना रहा है और सुनने वाला सुन रहा है तो इतना नशा अनुभव नहीं होगा। लेकिन भगवान के हम विद्यार्थी है - इस स्मृति को स्वरूप में लाकर फिर सुनो, तब अलौकिक नशे का अनुभव होगा। समझा?
भिन्न-भिन्न समय के भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभव में कितना नशा होगा! ऐसे सारे दिन के हर कर्म में बाप के साथ स्मृति-स्वरूप बनते चलो - कभी भगवान का सखा वा साथी रूप का, कभी जीवन-साथी रूप का, कभी भगवान मेरा मुरब्बी बच्चा है अर्थात् पहला-पहला हकदार, पहला वारिस है। कोई ऐसा बहुत सुन्दर और बहुत लायक बच्चा बाप का होता है तो माँ-बाप को कितना नशा रहता है कि मेरा बच्चा कुल दीपक है वा कुल का नाम बाला करने वाला है! जिसका भगवान बच्चा बन जाए, उसका नाम कितना बाला होगा! उसके कितने कुल का कल्याण होगा! तो जब कभी दुनिया के वातावरण से या भिन्नभिन्न समस्याओं से थोड़ा भी अपने को अकेला वा उदास अनुभव करो तो ऐसे सुन्दर बच्चे रूप से खेलो, सखा रूप में खेलो। कभी थक जाते हो तो माँ के रूप में गोदी में सो जाओ, समा जाओ। कभी दिलशिकस्त हो जाते हो तो सर्वशक्तिवान स्वरूप से मास्टर सर्वशक्तिवान के स्मृति-स्वरूप का अनुभव करो - तो दिलशिकस्त से दिलखुश हो जायेंगे। भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न सम्बन्ध से, भिन्न-भिन्न अपने स्वरूप के स्मृति को इमर्ज रूप में अनुभव करो तो बाप का सदा साथ स्वत: ही अनुभव करेंगे और यह संगमयुग की ब्राह्मण जीवन सदा ही अमूल्य अनुभव होती रहेगी।
और बात - कि इतने सर्व सम्बन्ध निभाने में इतने बिजी रहेंगे जो माया को आने की भी फुर्सत नहीं मिलेगी। जैसे लौकिक बड़ी प्रवृत्ति वाले सदैव यही कहते कि प्रवृत्ति को सम्भालने में इतने बिजी रहते हैं जो और कोई बात याद ही नहीं रहती है क्योंकि बहुत बड़ी प्रवृत्ति है। तो आप ब्राह्मण आत्माओं की प्रभु से प्रीत निभाने की प्रभु-प्रवृत्ति कितनी बड़ी है! आपकी प्रभु-प्रीत की प्रवृत्ति सोते हुए भी चलती है! अगर योगानिंद्रा में हो तो आपकी निंद्रा नहीं लेकिन ‘योगानिंद्रा' है। नींद में भी प्रभु-मिलन मना सकते हो। योग का अर्थ ही है मिलन। योगानिंद्रा अर्थात् अशरीरी की स्थिति की अनुभूति। तो यह भी प्रभु-प्रीत है ना। तो आप जैसी बड़े ते बड़ी प्रवृत्ति किसकी भी नहीं है! एक सेकण्ड भी आपको फुर्सत नहीं है। क्योंकि भक्ति में भक्त के रूप में भी गीत गाते रहते थे कि बहुत दिनों से प्रभु आप मिले हो, तो गिन-गिन के हिसाब पूरा लेंगे। तो एक-एक सेकण्ड का हिसाब लेने वाले हो। सारे कल्प के मिलने का हिसाब इस छोटे से एक जन्म में पूरा करते हो। पाँच हजार वर्ष के हिसाब से यह छोटा-सा जन्म कुछ दिनों के हिसाब में हुआ ना। तो थोड़े से दिनों में इतना लम्बे समय का हिसाब पूरा करना है, इसलिए कहते हैं श्वांस-श्वांस सिमरो। भक्त सिमरण करते हैं, आप स्मृतिस्व रूप बनते हो। तो आपको सेकण्ड भी फुर्सत है? कितनी बड़ी प्रवृत्ति है! इसी प्रवृत्ति के आगे वह छोटी-सी प्रवृत्ति आकर्षित नहीं करेगी और सहज, स्वत: ही देह सहित देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थ वा प्राप्तियों से नष्टोमोहा, स्मृतिस्व रूप हो जायेंगे। यही लास्ट पेपर माला के नम्बरवार मणके बनायेगा।
जब अमृतवेले से योगानिंद्रा तक भिन्न-भिन्न स्मृति-स्वरूप के अनुभवी हो जायेंगे तो बहुतकाल के स्मृति-स्वरूप का अनुभव अन्त में स्मृति-स्वरूप के क्वेश्चन में पास विद् आनर बना देगा। बहुत रमणीक जीवन का अनुभव करेंगे। क्योंकि जीवन में हर एक मनुष्य आत्मा की पसन्दी ‘वैराइटी हो'- यही चाहते हैं। तो यह सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्ध, भिन्नभिन्न स्वरूप की वैराइटी अनुभव करो। जैसे दुनिया में भी कहते हैं ना - बाप तो चाहिए ही लेकिन बाप के साथ अगर जीवन-साथी का अनुभव न हो तो भी जीवन अधूरी समझते हैं, बच्चा न हो तो भी अधूरी जीवन समझते हैं। हर सम्बन्ध को ही सम्पन्न जीवन समझते हैं। तो यह ब्राह्मण जीवन भगवान से सर्व सम्बन्ध अनुभव करने वाली सम्पन्न जीवन है! एक भी सम्बन्ध की कमी नहीं करना। एक सम्बन्ध भी भगवान से कम होगा, कोई न कोई आत्मा उस सम्बन्ध से अपने तरफ खींच लेगी। जैसे, कई बच्चे कभी-कभी कहते हैं बाप के रूप में तो है ही लेकिन सखा व सखी अथवा मित्र का तो छोटा-सा रूप है ना, उसके लिए तो आत्मायें चाहिए क्योंकि बाप तो बड़ा है ना। लेकिन परमात्मा के सम्बन्ध के बीच कोई भी छोटा या हल्का आत्मा का सम्बन्ध मिक्स हो जाता तो ‘सर्व' शब्द समाप्त हो जाता है और यथाशक्ति की लाइन में आ जाते हैं। ब्राह्मणों की भाषा में हर बात में ‘सर्व' शब्द आता है। जहाँ ‘सर्व' है, वहाँ ही सम्पन्नता है। अगर दो कला भी कम हो गई तो दूसरी माला के मणके बन जाते। इसलिए, सर्व सम्बन्धों के सर्व स्मृति-स्वरूप बनो। समझा? जब भगवान खुद सर्व सम्बन्ध का अनुभव कराने की आफर कर रहा है तो आफरीन लेना चाहिए ना। ऐसी गोल्डन आफर सिवाए भगवान के और इस समय के, न कभी और न कोई कर सकता। कोई बाप भी बने और बच्चा भी बने - यह हो सकता है? यह एक की ही महिमा है, एक की ही महानता है। इसलिए सर्व सम्बन्ध से स्मृति-स्वरूप बनना है। इसमें मजा है ना? ब्राह्मण जीवन किसलिए है? मजे में वा मौज में रहने के लिए। तो यह अलौकिक मौज मनाओ। मजे की जीवन अनुभव करो। अच्छा।
(अहमदाबाद वाले हंसमुख भाई ने शरीर छोड़ा है। उनका अन्तिम संस्कार करके दादी जानकी व मुख्य भाई-बहन अहमदाबाद से आए पहुँचे हैं।)
बच्चे सेवा करके आये हैं। जब जानते हैं कि यह सब होना ही है तो मौज से रहेंगे ना, मूँझेंगे थोड़े ही। यह भी जो जिस संस्कार से जाते हैं, उसकी अर्थी भी वही कार्य करती है। सेवा के उमंग वाले की अन्त तक भी सेवा ही होती रहती है। अज्ञानी लोग सारा जीवन रोते रहते तो अन्त में और भी रोते हैं। यहाँ ब्राह्मण जीवन में सेवा में रहते तो अन्त तक सेवा का साधन बन जाता है। फर्क है ना। आप लोग वहाँ कोई अर्थी को देखने नहीं गये, सेवा करने गये ना। चारो तरफ सेवा का वातावरण रहा ना। ब्राह्मण जीवन है ही सेवा के लिए। इसलिए हर बात में सच्चे ब्राह्मण सेवाधारी की सेवा ही होती रहती। ऐसी आत्मा को अगर कोई याद भी करेगा तो उनकी सेवा ही सामने आयेगी। मंजुला (हंसमुख भाई की युगल) तो है ही शिव शक्ति। अच्छा।
आज देहली दरबार वाले हैं। राज्य दरबार वाले हो या दरबार में सिर्फ देखने वाले हो? दरबार में राज्य करने वाले और देखने वाले - दोनों ही बैठते हैं। आप सब कौन हो? देहली की दो विशेषतायें हैं। एक - देहली दिलाराम की दिल है, दूसरी - गद्दी का स्थान है। दिल है तो दिल में कौन रहेगा? दिलाराम। तो देहली निवासी अर्थात् दिल में सदा दिलाराम को रखने वाले। ऐसे अनुभवी आत्मायें और अभी से स्वराज्य अधिकारी सो भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी। दिल में जब दिलाराम है तो राज्य अधिकारी अभी हैं और सदा रहेंगे। तो सदा अपनी जीवन में देखो कि यह दोनों विशेषतायें हैं? दिल में दिलाराम और फिर अधिकारी भी। ऐसे गोल्डन चांस, गोल्डन से भी डायमण्ड चांस लेने वाले कितने भाग्यवान हो! अच्छा।
अभी तो बेहद सेवा का बहुत अच्छा साधन मिला है - चाहे देश में, चाहे विदेश में। जैसे नाम है, वैसे ही सुन्दर कार्य है! नाम सुन करके ही सभी को उमंग आ रहा है - ‘‘सर्व के स्नेह, सहयोग से सुखमय संसार''! यह तो लम्बा कार्य है, एक वर्ष से भी अधिक है। तो जैसे कार्य का नाम सुनते ही सभी को उमंग आता है, ऐसे ही कार्य भी उमंग से करेंगे। जैसे नाम सुनकर खुश हो रहे हैं, वैसे कार्य होते सदा खुश हो जायेंगे। यह भी सुनाया ना प्रत्यक्षता का पर्दा हिलने का अथवा पर्दा खुलने का आधार बना है और बनता रहेगा। सर्व के सहयोगी - जैसे कार्य का नाम है, वैसे ही स्वरूप बन सहज कार्य करते रहेंगे तो मेहनत निमित्त मात्र और सफलता पद्मगुणा अनुभव करते रहेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि करावनहार निमित्त बनाए करा रहा है। मैं कर रहा हूँ - नहीं। इससे सहयोगी नहीं बनेंगे। करावनहार करा रहा है। चलाने वाला कार्य को चला रहा है। जैसे आप सभी को जगदम्बा का स्लोगन याद है - ‘हुक्मी हुक्म चलायें रहा'। यही स्लोगन सदा स्मृति-स्वरूप में लाते सफलता को प्राप्त होते रहेंगे। बाकी चारों ओर उमंग-उत्साह अच्छा है। जहाँ उमंग-उत्साह है वहाँ सफलता स्वयं समीप आकर गले की माला बन जाती है। यह विशाल कार्य अनेक आत्माओं को सहयोगी बनाए समीप लायेगा। क्योंकि प्रत्यक्षता का पर्दा खुलने के बाद इस विशाल स्टेज पर हर वर्ग वाला पार्टधारी स्टेज पर प्रत्यक्ष होना चाहिए। हर वर्ग का अर्थ ही है - विश्व की सर्व आत्माओं के वैराइटी वृक्ष का संगठन रूप। कोई भी वर्ग रह न जाए जो उल्हना दे कि हमें तो सन्देश नहीं मिला। इसलिए, नेता से लेकर झुग्गी-झोंपड़ी तक वर्ग है। पढ़े हुए सबसे टॉप साइंसदान और फिर जो अनपढ़ हैं, उन्हों को भी यह ज्ञान की नॉलेज देना, यह भी सेवा है। तो सभी वर्ग अर्थात् विश्व की हर आत्मा को सन्देश पहुँचाना है। कितना बड़ा कार्य है! यह कोई कह नहीं सकता कि हमको तो सेवा का चान्स नहीं मिलता। चाहे कोई बीमार है; तो बीमार, बीमार की सेवा करो; अनपढ़, अनपढ़ों की सेवा करो। जो भी कर सकते, वह चांस है। अच्छा, बोल नहीं सकते तो मन्सा वायुमण्डल से सुख की वृत्ति, सुखमय स्थिति से सुखमय संसार बनाओ। कोई भी बहाना नहीं दे सकता कि मैं नहीं कर सकता, समय नहीं है। उठते-बैठते 10-10 मिनट सेवा करो। अंगुली तो देंगे ना? कहाँ नहीं जा सकते हो, तबियत ठीक नहीं है तो घर बैठे करो लेकिन सहयोगी बनना जरूर है, तब सर्व का सहयोग मिलेगा। अच्छा।
उमंग-उत्साह देख बापदादा भी खुश होते हैं। सभी के मन में लग्न है कि अब प्रत्यक्षता का पर्दा खोल के दिखायें। आरम्भ तो हुआ है ना। तो फिर सहज होता जायेगा। विदेश वाले बच्चों के प्लैन्स भी बापदादा तक पहुँचते रहते हैं। स्वयं भी उमंग में हैं और सर्व का सहयोग भी उमंग-उत्साह से मिलता रहता है। उमंग को उमंग, उत्साह को उत्साह मिलता है। यह भी मिलन हो रहा है। तो खूब धूमधाम से इस कार्य को आगे बढ़ाओ। जो भी उमंग-उत्साह से बनाया है और भी बाप के, सर्व ब्राह्मणों के सहयोग से, शुभ कामनाओं-शुभ भावनाओं से और भी आगे बढ़ता रहेगा। अच्छा।
चारों ओर के सदा याद और सेवा के उमंग-उत्साह वाले श्रेष्ठ बच्चों को, सदा हर कर्म में स्मृति-स्वरूप की अनुभूति करने वाले अनुभवी आत्माओं को, सदा हर कर्म में बाप के सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा ब्राह्मण जीवन के मजे की जीवन बिताने वाले महान आत्माओं को बापदादा का अति स्नेह-सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।
विदेशी बच्चे सेवा पर जाने की छूट्टी बापदादा से ले रहे हैं, बापदादा ने देश-विदेश के सभी बच्चों को यादप्यार दी - सेवाधारी बच्चों को विश्व-सेवाधारी बाप विशेष यादप्यार दे रहे हैं। सभी सेवाधारी बच्चे सेवा के उमंग-उत्साह से अच्छे आगे बढ़ रहे हैं और सदा ही आगे बढ़ते रहेंगे। यह सेवा का उमंग अनेक बातों से सहज किनारा कर एक बाप और सेवा में मग्न बनाने के निमित्त बन जाता है। सहज, निर्विघ्न, निरन्तर सेवाधारी बनना अर्थात् सहज मायाजीत बनना। इसलिए, जो सेवा के प्लैन बना रहे हैं, वह खूब धूमधाम से आगे बढ़ाते चलो। बापदादा बच्चों को निमित्त बनाए स्वयं बैकबोन (Backbone) बन सहज सिद्धि प्राप्त करा रहे हैं। बाप के सहयोग के पात्र सहजयोगी आत्मायें स्वत: बनती हैं। जो कुछ समय पहले मुश्किल लगता था, वह अब सहज बन गया है और आगे और भी सहज बनता जायेगा। स्वयं सब वर्ग वाले आफर करेंगे। पहले आप उन्हों को सहयोगी बनाने की मेहनत करते, लेकिन अभी वह स्वयं सहयोगी बनने की आफर कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। तो समय प्रति समय सेवा की रूपरेखा बदल रही है और बदलती रहेगी। अभी आप लोगों को ज्यादा कहना नहीं पड़ेगा लेकिन वह स्वयं कहेंगे कि यह कार्य श्रेष्ठ है, इसीलिए हमें भी सहयोगी बनना ही चाहिए। समय समीप की यह निशानी है। तो सभी बच्चों को यादप्यार और रूह-रूहान के रेसपाण्ड में बाप भी रूह-रूहान कर रहे हैं और यादप्यार दे रहे हैं।
विदाई के समय (प्रात: 4 से सतगुरूवार के दिन)
सभी बच्चे सतगुरू की याद में रहने वाले सत् बच्चे हैं। इसीलिए, सत्गुरू सभी वरदानी आत्माओं को सदा सन्तुष्टमणि का विशेष वरदान दे रहे हैं। सन्तुष्टता सेवा को सदा ही सहज सफलता में बदल देती है। कहने में सेवा आती है लेकिन अनुभूति सफलता की है। सेवा सिद्धि-रूप बन जाती है। इस वरदान से सभी यह अलौकिक अनुभव कर रहे हैं और करते रहेंगे। इसलिए सत् बाप, सत् शिक्षक, सत् गुरू का सभी बच्चों को यादप्यार और गुडमोर्निंग। गुड कहो, गोल्डन कहो, डायमण्ड कहो - जो भी कहो लेकिन बापदादा की स्नेह सम्पन्न यादप्यार सदा बच्चों के साथ है। अच्छा।
17-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण जीवन का शृंगार - ‘पवित्रता'
पूजनीय बनाने वाले परम पूज्य शिवबाबा अपने होवनहार पूज्य बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा अपने विश्व के चारों ओर के विशेष होवनहार पूज्य बच्चों को देख रहे हैं। सारे विश्व में से कितने थोड़े अमूल्य रतन पूजनीय बने हैं! पूजनीय आत्मायें ही विश्व के लिए विशेष जहान के नूर बन जाते हैं। जैसे इस शरीर में नूर नहीं तो जहान नहीं, ऐसे विश्व के अन्दर पूजनीय जहान के नूर आप श्रेष्ठ आत्मायें नहीं तो विश्व का भी महत्त्व नहीं। स्वर्ण-युग वा आदि-युग वा सतोप्रधान युग, नया संसार आप विशेष आत्माओं से आरम्भ होता है। नये विश्व के आधारमूर्त, पूजनीय आत्मायें आप हो। तो आप आत्माओं का कितना महत्व है! आप पूज्य आत्मायें संसार के लिए नई रोशनी हो। आपकी चढ़ती कला विश्व को श्रेष्ठ कला में लाने के निमित्त बनती है। आप गिरती कला में आते हो तो संसार की भी गिरती कला होती है। आप परिवर्तन होते हो तो विश्व भी परिवर्तन होता है। इतने महान और महत्त्व वाली आत्मायें हो!
आज बापदादा सर्व बच्चों को देख रहे थे। ब्राह्मण बनना अर्थात् पूज्य बनना क्योंकि ब्राह्मण सो देवता बनते हैं और देवतायें अर्थात् पूजनीय। सभी देवतायें पूजनीय तो हैं, फिर भी नम्बरवार जरूर हैं। किन देवताओं की पूजा विधिपूर्वक और नियमित रूप से होती है और किन्हीं की पूजा विधिपूर्वक नियमित रूप से नहीं होती। किन्हों के हर कर्म की पूजा होती है और किन्हों के हर कर्म की पूजा नहीं होती है। कोई का विधिपूर्वक हर रोज श्रृंगार होता है और कोई का श्रृंगार रोज नहीं होता है, ऊपर-ऊपर से थोड़ा-बहुत सजा लेते हैं लेकिन विधिपूर्वक नहीं। कोई के आगे सारा समय कीर्तन होता और कोई के आगे कभी-कभी कीर्तन होता है। इन सभी का कारण क्या है? ब्राह्मण तो सभी कहलाते हैं, ज्ञान-योग की पढ़ाई भी सभी करते हैं, फिर भी इतना अन्तर क्यों? धारणा करने में अन्तर है। फिर भी विशेष कौन-सी धारणाओं के आधार पर नम्बरवन होते हैं, जानते हो?
पूजनीय बनने का विशेष आधार पवित्रता के ऊपर है। जितना सर्व प्रकार की पवित्रता को अपनाते हैं, उतना ही सर्व प्रकार के पूजनीय बनते हैं और जो निरन्तर विधिपूर्वक आदि, अनादि विशेष गुण के रूप से पवित्रता को सहज अपनाते हैं, वही विधिपूर्वक पूज्य बनते हैं। सर्व प्रकार की पवित्रता क्या है? जो आत्मायें सहज, स्वत: हर संकल्प में, बोल में, कर्म में सर्व अर्थात् ज्ञानी और अज्ञानी आत्मायें, सर्व के सम्पर्क में सदा पवित्र वृत्ति, दृष्टि, वायब्रेशन से यथार्थ सम्पर्क-सम्बन्ध निभाते हैं - इसको ही सर्व प्रकार की पवित्रता कहते हैं। स्वप्न में भी स्वयं के प्रति या अन्य कोई आत्मा के प्रति सर्व प्रकार की पवित्रता में से कोई कमी न हो। मानो स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य खण्डित होता है वा किसी आत्मा के प्रति किसी भी प्रकार की ईर्ष्या, आवेशता के वश कर्म होता या बोल निकलता है, क्रोध के अंश रूप में भी व्यवहार होता है तो इसको भी पवित्रता का खण्डन माना जायेगा। सोचो, जब स्वप्न का भी प्रभाव पड़ता है तो साकार में किये हुए कर्म का कितना प्रभाव पड़ता होगा! इसलिए खण्डित मूर्ति कभी पूजनीय नहीं होती। खण्डित मूर्तियाँ मन्दिरों में नहीं रहतीं, आजकल के म्यूजयम में रहती हैं। वहाँ भक्त नहीं आते। सिर्फ यही गायन होता है कि बहुत पुरानी मूर्त्तियाँ हैं, बस। उन्होंने स्थूल अंगों के खण्डित को खण्डित कह दिया है लेकिन वास्तव में किसी भी प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो वह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता में खण्डन होता है तो पह पूज्य-पद से खण्डित हो जाते हैं। ऐसे, चारों प्रकार की पवित्रता विधिपूर्वक है तो पूजा भी विधिपूर्वक होती है।
मन, वाणी, कर्म (कर्म में सम्बन्ध सम्पर्क आ जाता है) और स्वप्न में भी पवित्रता - इसको कहते हैं - ‘सम्पूर्ण पवित्रता'। कई बच्चे अलबेलेपन में आने के कारण, चाहे बड़ों को, चाहे छोटों को, इस बात में चलाने की कोशिश करते हैं कि मेरा भाव बहुत अच्छा है लेकिन बोल निकल गया, वा मेरी एम (लक्ष्य) ऐसे नहीं थी लेकिन हो गया, या कहते हैं कि हंसी-मजाक में कह दिया अथवा कर लिया। यह भी चलाना है। इसलिए पूजा भी चलाने जैसी होती है। यह अलबेलापन सम्पूर्ण पूज्य स्थिति को नम्बरवार में ले आता है। यह भी अपवित्रता के खाते में जमा होता है। सुनाया ना - पूज्य, पवित्र आत्माओं की निशानी यही है - उन्हों की चारों प्रकार की पवित्रता स्वभाविक, सहज और सदा होगी। उनको सोचना नहीं पड़ेगा लेकिन पवित्रता की धारणा स्वत: ही यथार्थ संकल्प, बोल, कर्म और स्वप्न लाती है। यथार्थ अर्थात् एक तो युक्तियुक्त, दूसरा यथार्थ अर्थात् हर संकल्प में अर्थ होगा, बिना अर्थ नहीं होगा। ऐसे नहीं कि ऐसे में बोल दिया, निकल गया, कर लिया, हो गया। ऐसी पवित्र आत्मा सदा हर कर्म में अर्थात् दिनचर्या के हर कर्म में यथार्थ युक्तियुक्त रहती है। इसलिए पूजा भी उनके हर कर्म की होती है अर्थात् पूरे दिनचर्या की होती है। उठने से लेकर सोने तक भिन्न-भिन्न कर्म के दर्शन होते हैं।
अगर ब्राह्मण जीवन की बनी हुई दिनचर्या प्रमाण कोई भी कर्म यथार्थ वा निरन्तर नहीं करते तो उसके अन्तर के कारण पूजा में भी अन्तर पड़ेगा। मानो कोई अमृतवेले उठने की दिनचर्या में विधिपूर्वक नहीं चलते, तो पूजा में भी उनके पुजारी भी उस विधि में नीचे-ऊपर करते अर्थात् पुजारी भी समय पर उठकर पूजा नहीं करेगा, जब आया तब कर लेगा। अथवा अमृतवेले जागृत स्थिति में अनुभव नहीं करते, मजबूरी से वा कभी सुस्ती, कभी चुस्ती के रूप में बैठते तो पुजारी भी मजबूरी से या सुस्ती से पूजा करेंगे, विधिपूर्वक पूजा नहीं करेंगे। ऐसे हर दिनचर्या के कर्म का प्रभाव पूजनीय बनने में पड़ता है। विधिपूर्वक न चलना, कोई भी दिनचर्या में ऊपर-नीचे होना - यह भी अपवित्रता के अंश में गिनती होता है। क्योंकि आलस्य और अलबेलापन भी विकार है। जो यथार्थ कर्म नहीं है, वह विकार है। तो अपवित्रता का अंश हो गया ना। इस कारण पूज्य पद में नम्बरवार हो जाते हैं। तो फाउण्डेशन क्या रहा? - पवित्रता।
पवित्रता की धारणा बहुत महीन है। पवित्रता के आधार पर ही कर्म की विधि और गति का आधार है। पवित्रता सिर्फ मोटी बात नहीं है। ब्रह्मचारी रहे या निर्मोही हो गये - सिर्फ इसको ही पवित्रता नहीं कहेंगे। पवित्रता ब्राह्मण जीवन का शृंगार है। तो हर समय पवित्रता के शृंगार की अनुभूति चेहरे से, चलन से औरों को हो। दृष्टि में, मुख में, हाथों में, पाँवों में सदा पवित्रता का शृंगार प्रत्यक्ष हो। कोई भी चेहरे तरफ देखे तो फीचर्स से उन्हें पवित्रता अनुभव हो। जैसे और प्रकार के फीचर्स वर्णन करते हैं, वैसे यह वर्णन करें कि इनके फीचर्स से पवित्रता दिखाई देती है, नयनों में पवित्रता की झलक है, मुख पर पवित्रता की मुस्कराट है। और कोई बात उन्हें नजर न आये। इसको कहते हैं - पवित्रता के शृंगार से शृंगारी हुई मूर्त। समझा? पवित्रता की तो और भी बहुत गुह्यता है, वह फिर सुनाते रहेंगे। जैसे कर्मों की गति गहन है, पवित्रता की परिभाषा भी बड़ी गुह्य है और पवित्रता ही फाउण्डेशन है। अच्छा।
आज गुजरात आया है। गुजरात वाले सदा हल्के बन नाचते और गाते हैं। चाहे शरीर में कितने भी भारी हों लेकिन हल्के बन नाचते हैं। गुजरात की विशेषता है- सदा हल्का रहना, सदा खुशी में नाचते रहना और बाप के वा अपने प्राप्तियों के गीत गाते रहना। बचपन से ही नाचते-गाते, अच्छा हैं। ब्राह्मण जीवन में क्या करते हो? ब्राह्मण जीवन अर्थात् मौजों की जीवन। गर्भा रास करते हो तो मौज में आ जाते हो ना। अगर मौज में न आये तो ज्यादा कर नहीं सकेंगे। मौज-मस्ती में थकावट नहीं होती है, अथक बन जाते हैं। तो ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा मौज में रहने की जीवन, यह है स्थूल मौज और ब्राह्मण जीवन की है - मन की मौज। सदा मन मौज में नाचता और गाता रहे। यह लोग हल्के बन नाचने-गाने के अभ्यासी हैं। तो इन्हों को ब्राह्मण जीवन में भी डबल लाइट (हल्का) बनने में मुश्किल नहीं होती। तो गुजरात अर्थात् सदा हल्के रहने के अभ्यासी कहो, वरदानी कहो। तो सारे गुजरात को वरदान मिल गया - डबल लाइट। मुरली द्वारा भी वरदान मिलते हैं ना।
सुनाया ना - आपकी इस दुनिया में यथा शक्ति, यथा समय होता है। यथा और तथा। और वतन में तो यथा-तथा की भाषा ही नहीं है। यहाँ दिन भी तो रात भी देखना पड़ता। वहाँ न दिन, न है रात; न सूर्य उदय होता, न चन्द्रमा। दोनों से परे है। आना तो वहाँ ना। बच्चों ने रूह-रूहान में कहा ना कि कब तक? बापदादा कहते हैं कि आप सभी कहो कि हम तैयार हैं तो ‘अभी' कर लेंगे। फिर ‘कब' का तो सवाल ही नहीं है। ‘कब' तब तक है जब तक सारी माला तैयार नहीं हुई है। अभी नाम निकालने बैठते हो तो 108 में भी सोचते हो कि यह नाम डालें वा नहीं? अभी 108 की माला में भी सभी वही 108 नाम बोलें। नहीं, फर्क हो जायेगा। बापदादा तो अभी घड़ी ताली बजावे और ठकाठक शुरू हो जायेगी - एक तरफ प्रकृति, एक तरफ व्यक्तियों। क्या देरी लगती। लेकिन बाप का सभी बच्चों में स्नेह है। हाथ पकड़ेंगे, तब तो साथ चलेंगे। हाथ में हाथ मिलाना अर्थात् समान बनना। आप कहेंगे - सभी समान अथवा सभी तो नम्बरवन बनेंगे नहीं। लेकिन नम्बरवन के पीछे नम्बर टू होगा। अच्छा, बाप समान नहीं बनें लेकिन नम्बरवन दाना जो होगा वह समान होगा। तीसरा दो के समान बने। चौथा तीन के समान बने। ऐसे तो समान बनें, तो एक दो के समीप होते-होते माला तैयार हो। ऐसी स्टेज तक पहुँचना अर्थात् समान बनना। 108 तैयार हो जायेगी। नम्बरवार तो होना ही है। समझा? बाप तो कहते - अभी कोई है गैरन्टी करने वाला कि हाँ, सब तैयार हैं? बापदादा को तो सेकण्ड लगता। दृश्य दिखाते थे ना - ताली बजाई और परियाँ आ गई। अच्छा।
चारों ओर के परम पूज्य श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सम्पूर्ण पवित्रता के लक्ष्य तक पहुँचने वाले तीव्र पुरूषार्थी आत्माओं को, सदा हर कर्म में विधिपूर्वक कर्म करने वाले सिद्धि-स्वरूप आत्माओं को, सदा हर समय पवित्रता के शृंगार में सजी हुई विशेष आत्माओं को बापदादा का स्नेह सम्पन्न यादप्यार स्वीकार हो।
पार्टियों से मुलाकात
(1) विश्व में सबसे ज्यादा श्रेष्ठ भाग्यवान अपने को समझते हो? सारा विश्व जिस श्रेष्ठ भाग्य के लिए पुकार रहा है कि हमारा भाग्य खुल जाए... आपका भाग्य तो खुल गया। इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी! भाग्यविधाता ही हमारा बाप है - ऐसा नशा है ना! जिसका नाम ही भाग्यविधाता है उसका भाग्य क्या होगा! इससे बड़ा भाग्य कोई हो सकता है? तो सदा यह खुशी रहे कि भाग्य तो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया। बाप के पास जो भी प्रापर्टी होती है, बच्चे उसके अधिकारी होते हैं। तो भाग्यविधाता के पास क्या है? भाग्य का खज़ाना। उस खज़ाने पर आपका अधिकार हो गया। तो सदैव ‘वाह मेरा भाग्य और भाग्य-विधाता बाप'! - यही गीत गाते खुशी में उड़ते रहो। जिसका इतना श्रेष्ठ भाग्य हो गया उसको और क्या चाहिए? भाग्य में सब कुछ आ गया। भाग्यवान के पास तन-मन-धन-जन सब कुछ होता है। श्रेष्ठ भाग्य अर्थात् अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। कोई अप्राप्ति है? मकान अच्छा चाहिए, कार अच्छी चाहिए... नहीं। जिसको मन की खुशी मिल गई, उसे सर्व प्राप्तियाँ हो गई! कार तो क्या लेकिन कारून का खज़ाना मिल गया! कोई अप्राप्त वस्तु है ही नहीं। ऐसे भाग्यवान हो! विनाशी इच्छा क्या करेंगे। जो आज है, कल है ही नहीं - उसकी इच्छा क्या रखेंगे। इसलिए, सदा अविनाशी खज़ाने की खुशियों में रहो जो अब भी है और साथ में भी चलेगा। यह मकान, कार वा पैसे साथ नहीं चलेंगे लेकिन यह अविनाशी खज़ाना अनेक जन्म साथ रहेगा। कोई छीन नहीं सकता, कोई लूट नहीं सकता। स्वयं भी अमर बन गये और खज़ाने भी अविनाशी मिल गये! जन्मजन्म यह श्रेष्ठ प्रालब्ध साथ रहेगी। कितना बड़ा भाग्य है! जहाँ कोई इच्छा नहीं, इच्छा मात्रम् अविद्या है - ऐसा श्रेष्ठ भाग्य भाग्यविधाता बाप द्वारा प्राप्त हो गया।
(2) अपने को बाप के समीप रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? बाप के बन गये - यह खुशी सदा रहती है? दु:ख की दुनिया से निकल सुख के संसार में आ गये। दुनिया दु:ख में चिल्ला रही है और आप सुख के संसार में, सुख के झूले में झूल रहे हो। कितना अंतर है! दुनिया ढूँढ़ रही है और आप मिलन मना रहे हो। तो सदा अपनी सर्व प्राप्तियों को देख हर्षित रहो। क्या-क्या मिला है, उसकी लिस्ट निकालो तो बहुत लम्बी लिस्ट हो जायेगी। क्या-क्या मिला? तन में खुशी मिली, तो तन की खुशी तन्दरूस्ती है; मन में शान्ति मिली, तो शान्ति मन की विशेषता है और धन में इतनी शक्ति आई जो दाल-रोटी 36 प्रकार के समान अनुभव हो।
ईश्वरीय याद में दाल-रोटी भी कितनी श्रेष्ठ लगती है! दुनिया के 36 प्रकार हों और आप की दाल-रोटी हो तो श्रेष्ठ क्या लगेगा? दाल-रोटी अच्छी है ना। क्योंकि प्रसाद है ना। जब भोजन बनाते हो तो याद में बनाते हो, याद में खाते हो तो प्रसाद हो गया। प्रसाद का महत्त्व होता है। आप सभी रोज प्रसाद खाते हो। प्रसाद में कितनी शक्ति होती है! तो तन-मन-धन सभी में शक्ति आ गई। इसलिए कहते हैं - अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मणों के खज़ाने में। तो सदा इन प्राप्तियों को सामने रख खुश रहो, हर्षित रहो। अच्छा।
(3) अपने को संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? ब्राह्मणों को सदा ऊंचे ते ऊंची चोटी पर दिखाते हैं। चोटी का अर्थ ही है ऊंचा। तो संगमयुगी अर्थात् ऊंचे ते ऊंची आत्मायें। जैसे बाप ऊंचे ते ऊंचा गाया हुआ है, ऐसे बच्चे भी ऊंचे और संगमयुग भी ऊंचा है। सारे कल्प में संगमयुग जैसा ऊंचा कोई युग नहीं है क्योंकि इस युग में ही बाप और बच्चों का मिलना होता है। और कोई युग में आत्मा और परमात्मा का मेला नहीं होता है। तो जहाँ आत्मा और परमात्मा का मेला है, वही श्रेष्ठ युग हुआ ना। ऐसे श्रेष्ठ युग की श्रेष्ठ आत्मायें हो! आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों का कार्य क्या है? ब्राह्मणों का काम है - पढ़ना और पढ़ाना। नामधारी ब्राह्मण भी शास्त्र पढ़ेंगे और दूसरों को सुनायेंगे। तो आप ब्राह्मणों का काम है ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ना और पढ़ाना जिससे ईश्वर के बन जाएं। तो ऐसे करते हो? पढ़ते भी हो और पढ़ाते अर्थात् सेवा भी करते हो। यह ईश्वरीय ज्ञान देना ही ईश्वरीय सेवा है। सेवा का सदा ही मेवा मिलता है। कहावत है ना - ‘करो सेवा तो मिले मेवा'। तो ईश्वरीय सेवा करने से अतीन्द्रिय सुख का मेवा मिलता है, शक्तियों का मेवा मिलता है, खुशी का मेवा मिलता है। तो ऐसा मेवा मिला है ना? कितनी पात्र आत्मायें हो जो इस ईश्वरीय फल के अधिकारी बन गई! आप ब्राह्मणों के सिवाए और कोई भी इस फल के अधिकारी बन नहीं सकते। अधिकारी भी कौन बने हैं? जिनमें किसी की उम्मीद नहीं, वह उम्मीदवार बन गये! दुनिया वाले माताओं के लिए कहते - इनका कोई अधिकार नहीं है और बाप ने माताओं को विशेष अधिकारी बनाया है, माताओं को इस सेवा की विशेष जिम्मेवारी दी है। दुनिया वालों ने पाँव की जुत्ती बना दिया और बाप ने सिर का ताज बना दिया। तो साधारण मातायें नहीं हो, अभी तो बाप के सिर के ताज बन गई।
(4) सदा अपने को बेफिकर बादशाह अनुभव करते हो? प्रवृत्ति का या कोई भी कार्य का फिकर तो नहीं रहता है? बेफिकर रहते हो? बेफिकर कैसे बने? सब कुछ तेरा करने से। मेरा कुछ नहीं, सब तेरा है। जब तेरा है तो फिकर किस बात का? जिन्होंने सब कुछ तेरा किया, वही बेफिकर बादशाह बनते हैं। ऐसे नहीं जो चीज़ मतलब की है वह मेरी है, जो चीज़ मतलब की नहीं वह तेरी। जीवन में हर एक बेफिकर रहना चाहता है। जहाँ फिकर नहीं, वहाँ सदा खुशी होगी। तो तेरा कहने से, बेफिकर बनने से खुशी के खज़ाने भरपूर हो जाते हैं। बादशाह के पास खज़ाना भरपूर होता है। तो आप बेफिकर बादशाहों के पास अनगिनत, अखुट, अविनाशी खज़ाने हैं जो सतयुग में नहीं होंगे। इस समय के खज़ाने श्रेष्ठ खज़ाने हैं। तो मातायें बेफिकर बादशाह बनीं? जब मेरा-मेरा है तो फिकर है। जब ‘तेरा' कह दिया तो बाप जाने, बाप का काम जाने, आप निश्चिंत हो गये। ‘तेरा' और ‘मेरा' शब्द में थोड़ा-सा अन्तर है। ‘तेरा' कहना - सब प्राप्त होना, ‘मेरा' कहना - सब गँवाना। द्वापर से मेरा-मेरा कहा तो क्या हुआ? सब गँवा दिया ना। तन्दरूस्ती भी चली गई, मन की शान्ति भी चली गई और धन भी चला गया। कहाँ विश्व के राजन और कहाँ छोटे-मोटे दफ्तर के क्लर्क बन गये, बिजनेसमैन हो गये जो विश्व के महाराजा के आगे कुछ नहीं है। तो मेरा-मेरा कहने से गँवाया और तेरा-तेरा कहने से जमा हो जाता। तो जमा करने में होशियार हो? मातायें एक-एक पैसा इकट्ठा करके जमा करती हैं। जमा करने में मातायें होशियार होती हैं। तो यह जमा करना आता है? यहाँ खर्च करना भी खर्च नहीं है, जमा करना है। जितना खर्चा करते हो अर्थात् दूसरों को देते हो, उतना पद्मगुणा होता है। एक देना और पद्म लेना। अच्छा।
(5) सदा याद और सेवा के बैलेन्स से बाप की ब्लैसिंग अनुभव करते हो? जहाँ याद और सेवा का बैलेन्स है अर्थात् समानता है, वहाँ बाप की विशेष मदद अनुभव होती है। तो मदद ही आशीर्वाद है। क्योंकि बापदादा, और अन्य आत्माओं के माफिक आशीर्वाद नहीं देते हैं। बाप तो है ही अशरीरी, तो बापदादा की आशीर्वाद है - सहज, स्वत: मदद मिलना जिससे जो असम्भव बात हो वह सम्भव हो जाए। यही मदद अर्थात् आशीर्वाद है। लौकिक गुरूओं के पास भी आशीर्वाद के लिए जाते हैं। तो जो असम्भव बात होती, वह अगर सम्भव हो जाती तो समझते हैं यह गुरू की आशीर्वाद है। तो बाप भी असम्भव से सम्भव कर दिखाते हैं। दुनिया वाले जिन बातों को असम्भव समझते हैं, उन्हीं बातों को आप सहज समझते हो। तो यही आशीर्वाद है। एक कदम उठाते हो और पद्मों की कमाई जमा हो जाती है। तो यह आशीर्वाद हुई ना। तो ऐसे बाप की व सतगुरू की आशीर्वाद के पात्र आत्मायें हो। दुनिया वाले पुकारते रहते हैं और आप प्राप्तिस्वरूप बन गये। अच्छा।
21-10-87 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दीपराज और दीपरानियों की कहानी
सबकी ज्योति जगाने वाले, उड़ती कला की बाजी सिखाने वाले अलौकिक जादूगर शिवबाबा बोले
आज सर्व चैतन्य अविनाशी दीपकों के मालिक दीपराज अपनी सभी दीपरानियों से मिलने आये हैं। क्योंकि आप सभी संगमयुग की रानियाँ हो, एक दीपराज से लव लगाने वाली हो। दीपक की विशेषता दीपक के लौ पर होती है। आप सभी दीपरानियाँ दीपकों के राजा से लग्न लगाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हों वा सभी सच्ची सीतायें एक राम बाप के सदा साथ रहने वाली हो। इसलिए दीपकों के मालिक दीपराजा के साथ-साथ आप दीपकों का भी माला के रूप में गायन हो रहा है। लेकिन दीपमाला के पहले, एक दीपराज बड़े दीपक में जगाते हैं। एक दीपक से आप अनेक दीपक जगमगाते हो। तो यह आप सभी का यादगार आज दिन तक भी मनाया जा रहा है।
दीपमाला को देख क्या दिल में आता है? यह उमंग आता है कि मुझ दीपक का यह यादगार है? सिर्फ चमक देख खुश होते हो या अपना यादगार समझ खुशी होती है? अपने को उसमें देखते हो? जानते हो कि मैं भी दीपक इस माला में हूँ? जानते हो, यह दीपमाला, माला के रूप में क्यों दिखाते हैं? दीप दिवस नहीं कहते, दीपमाला दिवस कहते हैं। क्योंकि आप सभी विशेष आत्माओं के संगठन का यह यादगार है। माला तब सजती है जब अनेक दीपक संगठित रूप में हों। अगर एक वा दो दीपक जगा दें तो माला नहीं कहेंगे। तो दीपमाला अविनाशी, अनेक जगे हुए दीपकों का यादगार है। तो अपना दिन मना रहे हो। एक तरफ चैतन्य दीपक के रूप में जगमगाते हुए विश्व को दिव्य रोशनी दे रहे हो, दूसरे तरफ अपना यादगार भी देख रहे हो। देख-देख हर्षित होते हो ना? यह दीपकों के रूप में क्यों दिखाया है? क्योंकि आप चमकती हुई आत्मायें दीपक की लौ मिसल दिखाई देती, इसलिए चमकती हुई आत्मायें, दिव्य ज्योति का यादगार रूप है। एक तरफ निराकारी आत्मा के रूप का यादगार रूप है, दूसरी तरफ आप ही के भविष्य साकार दिव्य स्वरूप लक्ष्मी के रूप में यादगार है। यही दीपमाला देव-पद प्राप्त करती है। इसलिए, निराकार और साकार - दोनों रूपों का साथ-साथ यादगार है।
तो डबल रूप का यादगार दीपमाला है। लक्ष्मी का यादगार डबल रूप में एक तरफ धन-देवी अर्थात् दाता का रूप संगमयुग का यादगार है जो सदैव धन देते रहते हैं। यह संगमयुग पर अविनाशी धन-देवी के रूप में चित्र दिखाया जाता है। सतयुग में तो कोई लेने वाला ही नहीं होगा तो देंगे किसको? यह संगमयुग के श्रेष्ठ कर्त्तव्य की निशानी है। और दूसरे तरफ ताजपोशी दिवस के रूप में मनाया जाता है। ताजपोशी भविष्य की निशानी है और धन-देवी संगमयुग के दाता रूप की निशानी है। दोनों ही युग को मिला दिया है। क्योंकि संगमयुग छोटा-सा युग है। लेकिन जितना छोटा है उतना महान है। सर्व महान कर्त्तव्य, महान स्थिति, महान प्राप्ति, महान अनुभव इस छोटे से युग में होते हैं। बहुत प्राप्तियाँ, बहुत अनुभव होते और संगमयुग के बाद सतयुग जल्दी आता है, इसलिए संगमयुग और सतयुग के चित्र और चरित्र मिला दिये हैं। चित्र सतयुग का, चरित्र संगम का दे देते हैं। इसी प्रकार यह दीपमाला भी आपके डबल रूप, डबल समय का यादगार हो गया है। जो दीपमाला में विधि रखते हैं, वह भिन्नभिन्न विधियाँ भी मिक्स कर दी हैं। एक तरफ अपने पुराने खाते समाप्त कर नया बनाते हैं, दूसरे तरफ दीपमाला में नये वस्त्र भी विधिपूर्वक पहनते हैं। तो पुराना हिसाब-किताब चुक्तु करना और नया खाता आरम्भ करना - यह संगमयुग का यादगार है। पुराना सब भूल जाते हो, नया जन्म, नया सम्बन्ध, नया कर्म - सब परिवर्तन करते हो। नया वस्त्र अर्थात् नया शरीर सतयुग की निशानी है। संगमयुग पर नया शरीर नहीं मिलता है, पुराने वस्त्र में ही रहते हो। तो दोनों ही समय की विधियों को मिक्स कर दिया है। गोल्डन वस्त्र अर्थात् सतोप्रधान शरीर भविष्य में धारण करेंगे। अभी तो चत्ती वाले शरीर हैं। आपरेशन में सिलाई करते हैं ना। बड़े-बड़े आपरेशन में एक तरफ का मांस निकाल दूसरे तरफ लगाते हैं, तो चत्ती लगाई ना। पुराने की निशानी है सिलाई होना। तो यह हैं चत्ती वाले वस्त्र और भविष्य में गोल्डन नया वस्त्र मिलेगा। तो आपके नये वस्त्र धारण करने का यादगार है। देव-आत्मा बन नया वस्त्र अर्थात् नया शरीर, सुनहरी अर्थात् सोने तुल्य। आज की दुनिया में तो लोग बन नहीं सकते। इसलिए यादगार रूप में स्थूल नये वस्त्र पहन खुश हो जाते हैं। वह एक दिन के लिए खुशी मनायेंगे, करके 3 दिन भी मनावें लेकिन आप तो अविनाशी मनाते हो ना। ऐसा मनाते हो जो यह संगमयुग का मनाना अनेक जन्म मनाते ही रहेंगे। सदा ही जगमगाते दीपक जगते ही रहेंगे। पहले फिर भी विधिपूर्वक दीपक जगाते थे जिससे सदा दीपक जगता रहे, बुझे नहीं - यह ध्यान रखते थे। घृत डालते थे, विधिपूर्वक आह्वान के अभ्यास में रहते थे। अभी तो दीपक के बजाए बल्ब जगा देते हैं। दीपमाला नहीं मनाते, अब तो मनोरंजन हो गया है। वह आह्वान की विधि अथवा साधना समाप्त हो गई है। स्नेह समाप्त हो अभी सिर्फ स्वार्थ रह गया है। धन बढ़ जाए - इसी स्वार्थ से करते। भावना से नहीं, कामना से करते हैं। पहले फिर भी भावना थी, अभी तो वह भावना, कामना के रूप में बदल गई है। रहस्य समाप्त हो गया और रीति-रस्म रह गई है। इसलिए, यथार्थ दाता रूपधारी लक्ष्मी किसी के पास आती नहीं। धन भी आता है तो काला धन आता है। दैवी-धन नहीं आता, आसुरी धन आता है। लेकिन आप सभी यथार्थ विधि से अपने दैवी पद का आह्वान करते स्वयं देवता या देवी बन जाते हो। तो दीपावली मनाने आये हो ना।
बाम्बे को चांस मिला है। बापदादा बाम्बे को वैसे ही नरदेसावर कहते हैं। दीपावली भी धन-देवी की यादगार है ना। मनाना किसको कहा जाता, क्या करेंगे? सिर्फ मोमबत्ती जलायेंगे, केक काटेंगे, रास करेंगे, गीत गायेंगे? यह तो ब्राह्मण जीवन का अधिकार है - सदा नाचना-गाना, सदा ज्योत से ज्योत जगाना। लेकिन संगमयुग का मनाना अर्थात् बाप समान बनना। तब तो माला के समीप आयेंगे ना। यह भी संगमयुग के सुहेज (मनोरंजन) हैं। खूब मनाओ लेकिन बाप से मिलन मनाते हुए सुहेज मनाओ। सिर्फ मनोरंजन के रूप में नहीं लेकिन मन्मनाभव हो मनोरंजन मनाओ। क्योंकि आप अलौकिक हो ना? तो अलौकिक विधि से अलौकिकता का मनोरंजन अविनाशी हो जाता है। आप सबने तो संगमयुगी दीपमाला की विधि-पुराना खाता खत्म करना, हर संकल्प, हर घड़ी, हर कर्म, हर बोल नया अर्थात् अलौकिक हो - यह विधि अपना ली है ना? जरा भी पुराना खाता रहा हुआ न हो। कभी-कभी जब कमज़ोरी आ जाती है तो क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन पुराने संस्कार हैं, पुराना स्वभाव अथवा आदत है, धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे - ऐसे कहते हैं ना? तो पुराना खाता फिर कहाँ से आया? अभी तक सम्भाल करके रखा है क्या? गठरी बाँधकर रखी होगी तो चोर लगेगा। पुराना खाता है ही रावण का खाता। नया खाता है ब्रह्मा बाप का वा ब्राह्मणों का खाता। अगर थोड़ा भी पुराना खाता रहा हुआ है तो वह रावण की अपनी चीज़ है। अपनी चीज़ को अधिकार से लेंगे। इसलिए माया रावण चक्र लगाती है। चीज़ ही नहीं होगी तो रावण आयेगा भी नहीं।
जैसे किसी का उधार कर्जा होता है तो क्या करते हैं? बार-बार चक्र लगाते रहेंगे, छोड़ेगा नहीं। कितना भी टालने की कोशिश करो लेकिन कर्ज़दार अपना कर्ज़ जरूर चुकायेगा। अगर कोई भी पुराने खाते में पुराने संस्कार अभी समाप्त नहीं किये हैं तो यह रावण का कर्जा है। इस कर्ज़ को मर्ज कहा जाता है। कहते हैं कर्ज़ जैसा कोई मर्ज नहीं। तो यह रावण का कर्जा - पुराने संकल्प, संस्कार-स्वभाव, पुरानी चाल-चलन - यह कर्जा कमज़ोर बना देता है। कमज़ोरी ही मर्ज अर्थात् बीमारी बन जाती है। इसलिए इस कर्ज़ को एक सेकण्ड में, ‘यह पुराना, पराया है' - इस एक दृढ़ संकल्प से समाप्त करो। इसको जलाओ। आतिशबाजी जलाते हैं ना। आजकल आतिशबाजी में बाम्ब बनाते हैं ना। तो आप दृढ़ संकल्प की तीली से आत्मिक बाम्ब की आतिशबाजी जलाओ जिससे यह सब पुराना समाप्त हो जाए। वह लोग गँवायेंगे और आप कमायेंगे। वह आतिशबाजी में पैसा गँवाते हैं, आप आतिशबाजी पर कमायेंगे। कमाई करने की बाजी आती है ना? वह आतिशबाजी है और आपकी उड़ती कला की बाजी है। इसमें आप विजयी हो रहे हो। तो डबल फायदा लो। जलाओ भी, कमाओ भी - यह विधि अपनाओ। समझा?
विधि से सिद्धि मिलती है ना। एक यह विधि है। दूसरी विधि - दीपमाला में कोने-कोने में सफाई करते हैं। चारों कोनों में सफाई करते हैं, दो वा तीन कोने में नहीं करते। क्योंकि स्वच्छता महानता है। देव-पद का आह्वान करने के लिए चार कोने की स्वच्छता क्या है? वो स्थूल चार कोनों की सफाई करते, आपकी स्वच्छता कौनसी है? - ‘पवित्रता'। चारों प्रकार की स्वच्छता (पवित्रता) हो। उस दिन सुनाया था ना। इसी विधि से दैवी-पद की प्राप्ति करते हो। अगर एक भी प्रकार की स्वच्छता नहीं है तो श्रेष्ठ दैवी-पद की प्राप्ति भी नहीं होती अर्थात् जो ऊँच ते ऊँच बनने की इच्छा रखते हो, वह पूर्ण नहीं हो सकती। तो चारों ही प्रकार की स्वच्छता - यह है दूसरी विधि। इस विधि को अपनाया है? सुनाया ना - मनाना अर्थात् बाप समान बनना। ब्रह्मा बाप को देखा, पुराना खाता खत्म किया ना, चारों प्रकार की स्वच्छता हर कर्म में देखी ना। ब्रह्मा ने सबूत बन करके दिखाया, इसलिए नम्बरवन सपूत बने और नम्बरवन पद की प्राप्ति की। तो फॉलो फादर है ना। ब्रह्मा बाप ने सेकण्ड में संकल्प किया, पुराना खाता खत्म। उसके लिए दीपमाला पर यह विधि अपनाई जाती है। दीपमाला के दिवस पुराना खाता खत्म किया, समर्पित हुए, पुराना सब स्वाहा किया? दृढ़ संकल्प की तीली से आतिशबाजी कौन-सी जलाई? उड़ती कला की बाजी लगाई? इसलिए यह इस दिन का यादगार चला आ रहा है। इन विधियों को अपनाना अर्थात् दिवाली मनाना।
तो दिवाली मनाई या मनाने वालों को देखकर खुश हुए? मनाना अर्थात् बनना। ब्रह्मा बाप समान बनना - यही दिवाली मनाना हुआ। देखो - एक तरफ बारूद जलाना, दूसरे तरफ दीपक जगाना, तीसरे तरफ मनाना, मिठाई खाना, नये वस्त्र पहनना और चौथे तरफ सफाई करना। तो जलाना भी है, मनाना भी है और सफाई भी करना है। चारों प्रकार करना है। करना अर्थात् कर्म में करना। चारों प्रकार की दीपमाला हो गई ना। ऐसे नहीं - करना आता, मनाना आता लेकिन जलाना नहीं आता, सफाई करना नहीं आता। नहीं। चारों ही बातों में बाप समान बनना है। समझा, दीपावली का अर्थ क्या है? दीपरानियाँ और दीपराजा की यह कहानी है। संगमयुग पर भी रानी बन गई हो ना? बेहद के राजाओं के राजा की रानियाँ हो। सतयुग में तो होंगी देव-रानी, लेकिन अभी परमात्म-रानियाँ हो। इसलिए पटरानियाँ दिखाई हैं। सिर्फ कृष्ण छोटे बच्चे को रानियाँ दिखा दी हैं। कृष्ण को बच्चे के रूप में भी दिखाते, फिर रानियाँ भी दिखाते। मिक्स कर दिया है। यह राजाओं का राजा बनाने वाले की सब रानियाँ हैं। रानियाँ भी हो, सीतायें भी हो। यही जादू है। अभी-अभी कहते भाई-भाई हो, तो जरूर अपने को भाई ही कहेंगे। फिर दूसरे तरफ कहते सब सीतायें हो, राम कोई नहीं। यही जादू है। इसमें ही मजा है। अभी-अभी बहन-भाई बन जाओ, अभी-अभी सीता बन जाओ, अभी फरिश्ता बन जाओ। यह रूहानी जादू बहुत रमणीक है। जादू से घबराते तो नहीं हो ना। स्वयं ही जादूगर बन गये।
दीपावली अथवा दीपमाला की अविनाशी मुबारक है। वह तो एक दिन के लिए कहते - हैपी दिवाली और बापदादा कहते - अविनाशी होली ‘हैपी', हेल्दी दीपावली। सब चाहिए ना। हैं ही सदा जगे हुए दीपक। सदा मुख मीठा रहता। सबसे बड़े ते बड़ी मिठाई मिलती जिससे सदा मुख मीठा रहता। वह कौनसी मिठाई है? - ‘बाबा' यही दिलखुश मिठाई है। यह मिठाई तो सदा खाते रहते। सहज मिठाई है, बनाने में मुश्किल नहीं। मिठाई भी खाई, मिलन भी मनाया। देश-विदेश के बच्चे आज आकारी फरिश्ते रूप में मधुबन में पहुँचे हुए हैं। सभी का मन यहाँ है और तन सेवा में है। बापदादा सिर्फ इस सभा को नहीं देख रहे हैं लेकिन चारों ओर के फरिश्ते रूपधारी बच्चों से भी मिलन मना रहे हैं। सभी उमंग-उत्साह में खूब मना रहे हैं। सभी के मन में एक ही याद समाई हुई है। सभी के मुख में यही अविनाशी मिठाई है। दीपकों की माला कितनी बड़ी है! चारों ओर के जगमगाते हुए दीपक माला के रूप में बाप के सामने हैं और हर एक दीपक को देख बापदादा हर्षा रहे हैं और मुबारक भी दे रहे हैं। समझा?
चारों ओर के दीपरानियों को, चारों ओर के जगमगाते हुए विश्व में अविनाशी प्रकाश देने वाले विशेष आत्माओं को, चारों ओर के बापदादा समान बनने वाले अर्थात् सभी दीपमाला मनाने वाले महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और बहुत-बहुत मुबारक हो।
मधुबन निवासी भाई-बहिनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
पाण्डवों की विशेषता क्या है? पाण्डव यज्ञ सेवा के सहयोगी हैं। यज्ञ सेवा के सहयोगी सो सदा सहयोग लेने के पात्र। जो जितनी सच्ची दिल से, स्नेह से सहयोग देता है, उतना पद्म गुणा बाप से सहयोग लेने का अधिकारी बनता है। बाप पूरा ही सहयोग का हिसाब चुक्तु करते हैं। बड़े कार्य को भी सहज करने का चित्र पर्वत का दिखाते हैं। (पर्वत को अँगुली दी) तो पाण्डव विशेष सेवा के सहयोगी बन कोई भी कार्य सहज कर लेते हैं। जिस कार्य को लोग मुश्किल समझते हैं, वह सहज ही खेल के समान कर लेते हो ना? सेवा नहीं समझते, ड्यूटी नहीं समझते लेकिन रूहानी खेल अनुभव करते हो। खेल के लिए किसको भी बुलाओ तो ना नहीं करेगा और कभी थकेगा भी नहीं। तो आप सभी भी यज्ञसेवा में थकते नहीं हो ना। रूहानी खेल है, इसलिए थकावट भी नहीं होती है और ना करने चाहो तो भी नहीं कर सकते हो क्योंकि ईश्वरीय बंधन में बंधे हुए हो। यह बंधन ही नजदीक सम्बन्ध में लाने वाला है। जितनी जो सेवा करता है उतना सेवा का फल - समीप सम्बन्ध में आता है। यहाँ के सेवाधारी वहाँ के राज्य फैमिली (परिवार) क&