06 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिल के ज्ञानी तथा स्नेही बनो और लीकेज को बन्द करो
सदा योगी बन साधना की स्थिति से साधनों को कार्य में लाने वाले परमात्म स्नेही बच्चों प्रति स्नेह के सागर बापदादा बोले –
आज स्नेह के सागर बापदादा अपने स्नेही बच्चों से मिलने के लिए आये हैं। यह रूहानी स्नेह, परमात्म - स्नेह नि:स्वार्थ सच्चा स्नेह है। सच्चे दिल का स्नेह आप सर्व आत्माओं को सारा कल्प स्नेही बना देता है। क्योंकि परमात्म - स्नेह, आत्मिक स्नेह, अविनाशी स्नेह - यह रूहानी स्नेह ब्राह्मण जीवन की फाउन्डे - शन है। रूहानी स्नेह का अनुभव नहीं तो ब्राह्मण जीवन का सच्चा आनन्द नहीं। परमात्म - स्नेह कैसी भी पतित आत्मा को परिवर्तन करने का चुम्बक है, परितर्वन होने का सहज साधन है। स्नेह - अधिकारी बनाने का, रूहानी नशे का अनुभव कराने का आधार है। स्नेह है तो रमणीक ब्राह्मण जीवन है। स्नेह नहीं तो ब्राह्मण जीवन सूखी (नीरस) है, मेहनत वाली है। परमात्म - स्नेह दिल का स्नेह है। लौकिक स्नेह दिल का टुकड़ा - टुकड़ा कर देता है क्योंकि बंट जाता है। अनेकों से स्नेह निभाना पड़ता है। अलौकिक स्नेह दिल के अनेक टुकड़ों को जोड़ने वाला है। एक बाप से स्नेह किया तो सर्व के सहयोगी स्वत: बन जाते। क्योंकि बाप बीज है। तो बीज को पानी देने से हर पत्ते को पानी स्वत: मिल जाता है, पत्ते - पत्ते को पानी देने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे रूहानी बाप से स्नेह जोड़ना अर्थात् सर्व के स्नेही बनना। इसलिए दिल के टुकड़े - टुकड़े नहीं होते हैं। स्नेह हर कार्य को सहज बना देता है अर्थात् मेहनत से छुड़ा देता है। जहाँ स्नेह होता है वहाँ याद स्वत:, सहज आती ही है। स्नेही को भुलाना मुश्किल होता है, याद करना मुश्किल नहीं होता। चाहे ज्ञान अर्थात् समझ कितनी भी बुद्धि में हो लेकिन यथार्थ ज्ञान अर्थात् स्नेह सम्पन्न ज्ञान हो। अगर ज्ञान है और स्नेह नहीं है तो वह रूखा ज्ञान है। स्नेह सर्व सम्बन्धों का दिल से अनुभव कराता है। सिर्फ ज्ञानी जो हैं वह दिमाग से याद करते हैं और स्नेही दिल से याद करते हैं। दिमाग से याद करने वालों को याद में, सेवा में, धारणा में मेहनत करनी पड़ती है। वह मेहनत का फल खाते हैं और वह मुहब्बत का फल खाते हैं। जहाँ स्नेह नहीं, दिमागी ज्ञान है, तो ज्ञान की बातों में भी क्यों, क्या, कैसे...दिमाग लड़ता रहेगा और लड़ाई लगती रहेगी अपने आप से। व्यर्थ संकल्प ज्यादा चलेंगे। जहाँ क्यों - क्यों होगी, वहाँ क्यों की क्यू होगी। और जहाँ स्नेह है वहाँ युद्ध नहीं लेकिन लवलीन है, समाया हुआ है। जिससे दिल का स्नेह होता है तो स्नेह की बात में क्यों, क्या... नहीं उठता है। जैसे परवाना शमा के स्नेह में क्यों, क्या नहीं करता, न्योछावर हो जाता है। परमात्म - स्नेही आत्मायें स्नेह में समाई हुई रहती हैं।
कई बच्चे बाप से रूहरिहान करते यह कम्पलेन्ट (शिकायत) करते हैं कि ‘‘ज्ञान तो बुद्धि में है, ब्राह्मण भी बन गये, आत्मा को भी जान गये, बाप को भी पूरे परिचय से जान गये, सम्बन्धों का भी पता है, चक्र का भी ज्ञान है, रचयिता और रचना का भी सारा ज्ञान है - फिर भी याद सहज क्यों नहीं होती? आनन्द का वा शक्ति का, शान्ति का सदा अनुभव क्यों नहीं होता है? मेहनत से क्यों याद आती, निरन्तर क्यों नहीं याद रहती? बार - बार याद भूलती क्यों?'' इसका कारण - क्योंकि ज्ञान दिमाग तक है, ज्ञान के साथ - साथ दिल का स्नेह कम है। दिमागी स्नेह है। मैं बच्चा हूँ, वह बाप है, दाता है, विधाता है - दिमागी ज्ञान है। लेकिन यही ज्ञान जब दिल में समा जाता है, तो स्नेह की निशानी क्या दिखाते हैं? दिल। तो ज्ञान और स्नेह कम्बाइन्ड हो जाता है। ज्ञान बीज है लेकिन पानी स्नेह है। अगर बीज को पानी नहीं मिलेगा तो फल नहीं देगा। ऐसे, ज्ञान है लेकिन दिल का स्नेह नहीं तो प्राप्ति का फल नहीं मिलता। इसलिए मेहनत लगती है। स्नेह अर्थात् सर्व प्राप्ति के, सर्व अनुभव का सागर में समाया हुआ। जैसे लौकिक दुनिया में भी देखो - स्नेह की छोटी - सी गिफ्ट (सौगात) कितनी प्राप्ति का अनुभव कराती है! और वैसे स्वार्थ के सम्बन्ध से लेन - देन करो तो करोड़ भी दे दो लेकिन करोड़ मिलते भी फिर भी सन्तुष्टता नहीं होगी, कोई न कोई कमी फिर भी निकालते रहेंगे - यह होना चाहिए, यह करना चाहिए। आजकल कितना खर्चा करते हैं, कितना शो करते हैं! लेकिन फिर भी स्नेह समीप आता है या दूर करता है? करोड़ की लेन - देन इतना सुख का अनुभव नहीं कराती लेकिन दिल के स्नेह की एक छोटी - सी चीज़ भी कितने सुख की अनुभूति कराती है! क्योंकि दिल के स्नेह में हिसाब - किताब को भी चुक्तू कर लेता है। स्नेह ऐसी विशेष अनुभूति है। तो अपने आपसे पूछो कि ज्ञान के साथ - साथ दिल का स्नेह है? दिल में लीकेज (रिसाव) तो नहीं है? जहाँ लीकेज होता है तो क्या होता है? अगर एक बाप के सिवाए और किसी से संकल्प मात्र भी स्नेह है, चाहे व्यक्ति से, चाहे वैभव से, व्यक्ति की भी चाहे शरीर से स्नेह हो, चाहे उनकी विशेषता से हो, हद की प्राप्ति के आधार से हो लेकिन विशेषता देने वाला कौन , प्राप्ति कराने वाला कौन?
किसी भी प्रकार से स्नेह अर्थात् लगाव चाहे संकल्प - मात्र हो, चाहे वाणी मात्र हो वा कर्म में हो, इसको लीकेज कहा जायेगा। कई बच्चे बहुत भोलेपन में कहते हैं - लगाव नहीं है लेकिन अच्छा लगता है, चाहते नहीं हैं लेकिन याद आ जाती है। तो लगाव की निशानी है - संकल्प, बोल और कर्म से झुकाव। इसलिए लीकेज होने के कारण शक्ति नहीं बढ़ती है। और शक्तिशाली न होने के कारण बाप को याद करने में मेहनत लगती है। और मेहनत होने के कारण सन्तुष्टता नहीं रहती है। जहाँ सन्तुष्टता नहीं, वहाँ अभी - अभी याद की अनुभूति से मस्ती में मस्त होंगे और अभी - अभी फिर दिलशिकस्त होंगे। क्योंकि लीकेज होने के कारण शक्ति थोड़ा टाइम भरती है, सदा नहीं रहती। इसलिए सहज निरन्तर योगी बन नहीं सकते। तो चेक करो - कोई व्यक्ति वा वैभव में लगाव तो नहीं है अर्थात् लीकेज तो नहीं है? यह लीकेज लवलीन स्थिति का अनुभव नहीं करायेगी। वैभव का प्रयोग भले करो लेकिन योगी बन प्रयोग करो। ऐसा न हो कि जिसको आप आराम के साधन समझते हो वह मन की स्थिति को बेआराम करें। क्योंकि कई बच्चे वैभवों के वश होते भी मन के लगाव को जान नहीं सकते। रायल भाषा यही कहते कि हठयोगी नहीं हैं, सहजयोगी हैं। सहजयोगी बनना तो अच्छा लेकिन योगी हो? जो बाप की याद को हलचल में लावे अर्थात् अपनी तरफ आकर्षित करे, झुकाव करे तो योगी बनके प्रयोग करने वाले नहीं कहेंगे। क्योंकि बाप के बनने कारण समय प्रति समय प्रकृति दासी अर्थात् वैभवों के साधनों की प्राप्ति बढ़ती जा रही है। अभी - अभी 18 - 19 वर्ष के अन्दर कितनी प्राप्ति हो रही है! सब आराम के साधन बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन यह प्राप्तियाँ बाप के बनने का फल मिल रहा है। तो फल को खाते बीज को नहीं भूल जाना। यह साधन बढ़ते जायेंगे थोड़ा समय। लेकिन आराम में आते ‘राम' को नहीं भूल जाना। सच्ची सीता रहना। मर्यादा की लकीर से संकल्प रूपी अंगूठा भी नहीं निकालना। क्योंकि यह साधन बिना साधना के यूज करेंगे तो स्वर्ण - हिरण का काम कर लेगा। इसलिए व्यक्ति और वैभव के लगाव और झुकाव से सदा अपने को सेफ रखना, नहीं तो बाप के स्नेही बनने के बजाए, सहजयोगी बनने के बजाए कभी सहयोगी, कभी सहजयोगी, कभी वियोगी - दोनों अनुभव करते रहेंगे। कभी याद, कभी फरियाद - ऐसी अनुभूति में रहेंगे और कम्पलेन भी कभी पूरी नहीं होगी।
व्यक्ति और वैभव के झुकाव की निशानी एक तो सुनाई - कभी सहजयोगी, कभी योगी, कभी फरियादी। दूसरी बात, ऐसी आत्मा को प्राप्त सब होगा - चाहे साधन, चाहे सहयोग, चाहे स्नेह लेकिन लीकेज वाली आत्मा प्राप्ति होते भी कभी सन्तुष्ट नहीं होगी। उनके मुख से सदैव किसी न किसी प्रकार की असन्तुष्टता के बोल, न चाहते भी निकलते रहेंगे। दूसरे ऐसे अनुभव करेंगे कि इनको बहुत मिलता, इन जैसा किसको नहीं मिलता। लेकिन वह आत्मा सदा अपने अप्राप्ति का, दु:ख का वर्णन करती रहेंगी। लोग कहेंगे - इन जैसा सुखी कोई नहीं और वह कहेंगे - मेरे जैसा दु:खी कोई नहीं। क्योंकि गैस का गुब्बारा है। जब बढ़ता है तो बहुत ऊंचा जाता है। जब खत्म होता है तो कहाँ गिरता है! देखने में कितना सुन्दर लगता है उड़ता हुआ लेकिन अल्पकाल का होता है। कभी अपने भाग्य से सन्तुष्ट नहीं होगा। सदैव कोई न कोई को अपने भाग्य के अप्राप्ति का निमित्त बनाते रहेंगे - यह ऐसा करता, यह ऐसा होता, इसलिए मेरा भाग्य नहीं। भाग्यविधाता भाग्य बनाने वाला है। जहाँ भाग्यविधाता भाग्य बना रहा है, उस परमात्म - शक्ति के आगे आत्मा की शक्ति भाग्य को हिला नहीं सकती। यह सब बहानेबाजी है। उड़ती कला की बाजी नहीं आती तो बहाने - बाजी बहुत करते हैं। इसमें सब होशियार हैं। इसलिए यह चेक करो - चाहे स्नेह से झुकाव हो, चाहे हिसाब - किताब चुक्तू होने के कारण झुकाव हो।
जिससे ईर्ष्या वा घृणा होती है वहाँ भी झुकाव होता है। बार - बार वही याद आता रहेगा। बैठेंगे योग में बाप को याद करने और याद आयेगा घृणा वा ईर्ष्या - वाला। सोचेंगे मैं स्वदर्शन चक्रधारी हूँ और चलेगा परदर्शन चक्र। तो झुकाव दोनों तरफ का नीचे ले आता है। इसलिए दोनों चेक करना। फिर बाप के आगे अर्जा डालते हैं कि ‘वैसे मैं बहुत अच्छा हूँ, सिर्फ यह एक ही बात ऐसी है, इसको आप मिटा दो।' बाप मुस्कराते हैं कि हिसाब बनाया आपने और चुक्तू बाप करे! चुक्तू करावे - यह बात ठीक है लेकिन चुक्तू करे - यह बात ठीक नहीं। बनाने के समय बाप को भूल गये और चुक्तू करने के टाइम बाबा - बाबा कहते! करनकरावनहार कराने के लिए बंधा हुआ है लेकिन करना तो आपको पड़ेगा। तो सुना, बच्चों का क्या - क्या समाचार बापदादा देखते हैं? सार क्या हुआ? सिर्फ रूखे ज्ञानी नहीं बनो, दिमाग के ज्ञानी नहीं बनो। दिल के ज्ञानी और स्नेही बनो और लीकेज को चेक करो। समझा!
18 जनवरी आ रही है ना। इसलिए पहले से स्मृति दिला रहे हैं जो 18 जनवरी के दिन सदा का समर्थ दिवस मना सको। समझा? सिर्फ जीवन कहानी सुनाके नहीं मनाना लेकिन समान - जीवन बनने का मनाना। अच्छा!
सदा व्यक्ति और वैभव के झुकाव से न्यारे, बाप के स्नेह में समाये हुए, सदा यथार्थ ज्ञान और दिल के स्नेह - दोनों में कम्बाइन्ड स्थिति का अनुभव करने वाले, सदा योगी बन साधना की स्थिति से साधनों को कार्य में लाने वाले, सदा स्नेही, दिल में समाये हुए बच्चों को दिलाराम बाप की यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात: - डबल हीरो समझते हो? हीरे तुल्य जीवन बन गई। तो हीरे समान बन गये और सृष्टि ड्रामा के अन्दर आदि से अन्त तक हीरो पार्ट बजाने वाले हो। तो डबल हीरो हो गये ना। कोई भी हद के ड्रामा में पार्ट बजाने वाले हीरो एक्टर गाये जाते हैं लेकिन डबल हीरो कोई नहीं होता। और आप डबल हीरो हो। बाप के साथ पार्ट बजाना - यह कितना बड़ा भाग्य है! तो सदा इस श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ रहे हो ना। रूकने वाले तो नहीं हो ना? जो थकता नहीं है वह रूकता भी नहीं है, बढ़ता रहता है। तो आप रूकने वाले हो या थकने वाले? अकेले होते हैं तो थकते हैं। बोर (ऊबना) हो जाते हैं तो थक जाते हैं। लेकिन जहाँ साथ हो वहाँ सदा ही उमंग - उत्साह होता है। कोई भी यात्रा पर जाते हैं तो क्या करते हैं? संगठन बनाते हैं ना। क्यों बनाते हैं? संगठन से, साथ से उमंग - उत्साह से आगे बढ़ते जाते। तो आप सभी भी रूहानी यात्रा पर सदा आगे बढ़ते रहना क्योंकि बाप का साथ, ब्राह्मण परिवार का साथ कितना बढ़िया साथ है! अगर कोई अच्छा साथी होता है तो कभी भी बोर नहीं होते, थकते नहीं। तो सदा आगे बढ़ने वाले सदा ही हर्षित रहते हैं, सदा खुशी में नाचते रहते हैं। तो वृद्धि को पाते रहते हो ना! वृद्धि को प्राप्त होना ही है क्योंकि जहाँ भी, जिस कोने में बिछुड़े हुए बच्चे हैं, वहाँ वह आत्मायें समीप आनी ही है। इसलिए सेवा में भी वृद्धि होती रहती है। कितना भी चाहो - शांत करके बैठ जाएं, बैठ नहीं सकते। सेवा बैठने नहीं देगी, आगे बढ़ायेगी क्योंकि जो आत्मायें बाप की थी, वह बाप की फिर से बननी ही हैं। अच्छा!
मुख्य भाइयों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात: - पाण्डव सोचते हैं कि शक्तियों को चांस अच्छा मिलता है, दादियां बनना अच्छा है! लेकिन पाण्डव अगर प्लैनिंग बुद्धि नहीं हों तो शक्तियां क्या करेंगी! अन्तिम जन्म में भी पाण्डव बनना कम भाग्य नहीं है! क्योंकि पाण्डवों की विशेषता तो ब्रह्मा बाप के साथ ही है। तो पाण्डव कम नहीं। पाण्डवों के बिना शक्तियाँ नहीं, शक्तियों कि बिना पाण्डव नहीं। चतुर्भुज की दो भुजा वह हैं, दो भुजा वह हैं। इसलिए पाण्डवों की विशेषता अपनी। निमित्त सेवा इन्हों को (दादियों को) मिली हुई है, इसलिए यह करती हैं। बाकी सदा पाण्डवों के लिए शक्तियों को और शक्तियों के लिए पाण्डवों को स्नेह है, रिगार्ड है और सदा रहेगा। शक्तियाँ पाण्डवों को आगे रखती हैं - इसमें ही सफलता है और पाण्डव शक्तियों को आगे रखते - इसमें ही सफलता है। ‘पहले आप' का पाठ दोनों को पक्का है। ‘पहले आप', ‘पहले आप' कहते खुद भी ‘पहले आप' हो जायेंगे। बाप बीच में है तो झगड़ा है ही नहीं। पाण्डवों को बुद्धि का वरदान अच्छा मिला हुआ है। जिस कार्य के निमित्त बने हुए हैं उनको वही विशेषता मिली हुई है। और हरेक की विशेषता एक दो से आगे हैं। इसलिए आप निमित्त आत्मायें हो। अच्छा!
10 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
मनन करने की विधि तथा मनन शक्ति को बढ़ाने की युक्तियाँ
हर एक बच्चे की बुद्धि रूपी झोली को ज्ञान रत्नों से भरने वाले रत्नागर बापदादा अपने ज्ञानी तू आत्मा बच्चों प्रति बोले –
आज रत्नागर बाप अपने अमूल्य रत्नों से मिलने आये हैं कि हर एक श्रेष्ठ आत्मा ने कितने ज्ञान - रत्न जमा किये अर्थात् जीवन में धारण किये हैं? एक - एक ज्ञान रत्न पद्मों से भी ज्यादा मूल्यवान है! तो सोचो, आदि से अब तक कितने ज्ञान रत्न मिले हैं! रत्नागर बाप ने हर एक बच्चे की बुद्धि रूपी झोली में अनेकानेक रत्न भर दिये हैं। सभी बच्चों को एक साथ एक जितने ही ज्ञान रत्न दिये हैं। लेकिन यह ज्ञान - रत्न जितना स्व - प्रति व अन्य आत्माओं के प्रति कार्य में लगाते हैं, उतना यह रत्न बढ़ते जाते हैं। बापदादा देख रहे हैं - बाप ने तो सबको समान दिये लेकिन कोई बच्चों ने रत्नों को बढ़ाया है और कोई ने रत्नों को बढ़ाया नहीं। कोई भरपूर है; कोई अखुट मालामाल है; कोई समय प्रमाण कार्य में लगा रहे हैं, कोई सदा कार्य में लगाकर एक का पद्मगुणा बढ़ा रहे हैं; कोई जितना कार्य में लगाना चाहिए उतना लगा नहीं सकते, इसलिए रत्नों की वैल्यू को जितना समझना चाहिए उतना समझ नहीं रहे हैं। जितना मिला है वह बुद्धि में धारण तो किया लेकिन कार्य में लाने से जो सुख, खुशी, शक्ति, शान्ति और निर्विघ्न स्थिति की प्राप्ति की अनुभूति होनी चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। इसका कारण मनन शक्ति की कमी है। क्योंकि मनन करना अर्थात् जीवन में समाना, धारण करना। मनन न करना अर्थात् सिर्फ बुद्धि तक धारण करना। वह जीवन के हर कार्य में, हर कर्म में लगाते हैं - चाहे अपने प्रति, चाहे अन्य आत्माओं के प्रति और दूसरे सिर्फ बुद्धि में याद रखते अर्थात् बुद्धि से धारण करते हैं।
जैसे कोई भी स्थूल खज़ाने को सिर्फ तिजोरी में वा लॉकर में रख लो और समय प्रमाण वा सदा काम में नहीं लगाओ तो वह खुशी की प्राप्ति नहीं होती है, सिर्फ दिल का दिलासा रहता है कि हमारे पास है। न बढ़ेगा, न अनुभूति होगी। ऐसे, ज्ञान रत्न अगर सिर्फ बुद्धि में धारण किया, याद रखा, मुख से वर्णन किया - पॉइन्ट बहुत अच्छी है, तो थोड़े समय के लिए अच्छी पॉइन्ट का अच्छा नशा रहता है लेकिन जीवन में, हर कर्म में उन ज्ञान रत्नों को लाना है। क्योंकि ‘ज्ञान रत्न भी हैं, ज्ञान रोशनी भी है, ज्ञान शक्ति भी है'। इसलिए अगर इसी विधि से कर्म में नहीं लाया तो बढ़ता नहीं है वा अनुभूति नहीं होती है। ज्ञान पढ़ाई भी है, ज्ञान लड़ाई के श्रेष्ठ शस्त्र भी हैं। यह है ज्ञान का मूल्य। मूल्य को जानना अर्थात् कार्य में लगाना और जितना - जितना कार्य में लगाते हैं उतना शक्ति का अनुभव करते जाते हैं। जैसे शस्त्र को समय प्रमाण यूज नहीं करो तो वह शस्त्र बेकार हो जाता है अर्थात् उसकी जो वैल्यू है, वह उतनी नहीं रहती है। ज्ञान भी शस्त्र है, अगर मायाजीत बनने के समय शस्त्र को कार्य में नहीं लगाया तो जो वैल्यू है, उसको कम कर दिया क्योंकि लाभ नहीं लिया। लाभ लेना अर्थात् वैल्यू रखना। ज्ञान रत्न सबके पास हैं क्योंकि अधिकारी हो। लेकिन भरपूर रहने में नम्बरवार हो। मूल कारण सुनाया - मनन शक्ति की कमी।
मनन शक्ति बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना अनुभव कराने का आधार है। जैसे स्थूल भोजन हजम होने से खून बन जाता है। क्योंकि भोजन अलग है, उसको जब हजम कर लेते हो तो वह खून के रूप में अपना बन जाता है। ऐसे मनन शक्ति से बाप का खज़ाना सो मेरा खज़ाना - यह अपना अधिकार, अपना खज़ाना अनुभव होता है। बापदादा पहले भी सुनाते रहे हैं - ‘अपनी घोट तो नशा चढ़े' अर्थात् बाप के खज़ाने को मनन शक्ति से कार्य में लगाकर प्राप्तियों की अनुभूति करो तो नशा चढ़े। सुनने के समय नशा रहता है लेकिन सदा क्यों नहीं रहता? इसका कारण है कि सदा मनन शक्ति से अपना नहीं बनाया है। मनन शक्ति अर्थात् सागर के तले में जाकर अन्तर्मुखी बन हर ज्ञान - रत्न की गुह्यता में जाना। सिर्फ रिपीट नहीं करना है लेकिन हर एक पॉइन्ट का राज़ क्या है और हर पॉइन्ट को किस समय, किस विधि से कार्य में लगाना है और हर पॉइन्ट को अन्य आत्माओं के प्रति सेवा में किस विधि से कार्य में लगाना है - यह चारों ही बातें हर एक पॉइन्ट को सुनकर मनन करो। साथ - साथ मनन करते प्रैक्टिकल में उस राज़ के रस में चले जाओ, नशे की अनुभूति में आओ। माया के भिन्न - भिन्न विघ्नों के समय वा प्रकृति के भिन्न - भिन्न परिस्थितियों के समय काम में लगाकर देखो कि जो मैंने मनन किया कि इस परिस्थिति के प्रमाण वा विघ्न के प्रमाण यह ज्ञान रत्न मायाजीत बना सकते वा बनाने वाला है, वह प्रैक्टिकल हुआ अर्थात् मायाजीत बने? वा सोचा था मायाजीत बनेंगे लेकिन मेहनत करनी पड़ी वा समय व्यर्थ गया? इससे सिद्ध है कि विधि यथार्थ नहीं थी, तब सिद्धि नहीं मिली। यूज करने का तरीका भी चाहिये, अभ्यास चाहिए। जैसे साइन्स वाले भी बहुत पावरफुल बॉम्बस (शक्तिशाली गोले) ले जाते हैं। समझते हैं - बस, इससे अब तो जीत लेंगे। लेकिन यूज करने वाले को यूज करने का ढंग नहीं आता तो पावरफुल बॉम्ब होते भी यहाँ - वहाँ ऐसे स्थान पर जाकर गिरता जो व्यर्थ चला जाता। कारण क्या हुआ? यूज करने की विधि ठीक नहीं। ऐसे, एक - एक ज्ञान - रत्न अति अमूल्य है। ज्ञान रत्न वा ज्ञान की शक्ति के आगे परिस्थिति वा विघ्न ठहर नहीं सकते। लेकिन अगर विजय नहीं होती है तो समझो यूज करने की विधि नहीं आती है। दूसरी बात - मनन शक्ति का अभ्यास सदा न करने से समय पर बिना अभ्यास के अचानक काम में लगाने का प्रयत्न करते हो, इसलिए धोखा खा लेते हो। यह अलबेलापन आ जाता है - ज्ञान तो बुद्धि में है ही, समय पर काम में लगा लेंगे। लेकिन सदा का अभ्यास, बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। नहीं तो उस समय सोचने वाले को क्या टाइटल देंगे? - कुम्भकरण। उसने क्या अलबेलापन किया? यही सोचा ना कि आने दो, आयेंगे तो जीत लेंगे। तो ऐसा सोचना कि समय पर हो जायेगा, यह अलबेलापन धोखा दे देता है। इसलिए हर रोज मनन शक्ति को बढ़ाते जाओ।
रिवाइज कोर्स में वा अव्यक्त, जो रोज सुनते हो, तो मनन शक्ति को बढ़ाने के लिए रोज कोई - न - कोई एक विशेष पॉइन्ट बुद्धि में धारण करो और जो 4 बातें सुनाई, उस विधि से अभ्यास करो। चलते - फिरते, हर कर्म करते - चाहे स्थूल कर्म करते हो, चाहे सेवा का कर्म करते हो लेकिन सारा दिन मनन चलता रहे। चाहे बिजनेस करते हो वा दफ्तर का काम करते हो, चाहे सेवाकेन्द्र में सेवा करते हो लेकिन जिस समय भी बुद्धि थोड़ा फ्री हो तो अपने मनन शक्ति के अभ्यास को बार - बार दौड़ाओ। कई काम ऐसे होते हैं जो कर्म कर रहे हैं, उसके साथ - साथ और भी सोच सकते हैं। बहुत थोड़ा समय होता है जो ऐसा कार्य होता है जिसमें बुद्धि का फुल अटेन्शन देना होता है, नहीं तो डबल तरफ बुद्धि चलती रहती है। ऐसा समय अगर अपनी दिनचर्या में नोट करो तो बीच - बीच में बहुत समय मिलता है। मनन शक्ति के लिए विशेष समय मिले तब अभ्यास करेंगे - ऐसी कोई बात नहीं है। चलते - फिरते भी कर सकते हो। अगर एकान्त का समय मिलता है तो बहुत अच्छा है। और महीनता में जाए हर पॉइन्ट के स्पष्टीकरण में जाओ, विस्तार में लाओ तो बहुत मजा आयेगा। लेकिन पहले पॉइन्ट के नशे की स्थिति में स्थित हो के करना, फिर बोर नहीं होंगे। नहीं तो सिर्फ रिपीट कर लेते हैं, फिर कहते - यह तो हो गया, अब क्या करें?
जैसे कई स्वदर्शन - चक्र चलाने में हंसाते हैं ना - चक्र क्या चलायें, 5 मिनट में चक्र पूरा हो जाता है! स्थिति का अनुभव करने नहीं आता है तो सिर्फ रिपीट कर लेते हैं - सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग, इतने जन्म, इतनी आयु, इतना समय है...बस, पूरा हो गया। लेकिन स्वदर्शन चक्रधारी बनना अर्थात् नॉलेजफुल, पावरफुल स्थिति का अनुभव करना। पॉइन्ट के नशे में स्थित रहना, राज़ में राज़युक्त बनना - ऐसा अभ्यास हर पॉइन्ट में करो। यह तो एक स्वदर्शन चक्र की बात सुनाई। ऐसे, हर ज्ञान की पॉइन्ट को मनन करो और बीचबी च में अभ्यास करो। ऐसे नहीं सिर्फ आधा घण्टा मनन किया। समय मिले और बुद्धि मनन के अभ्यास में चली जाए। मनन शक्ति से बुद्धि बिजी रहेगी तो स्वत: ही सहज मायाजीत बन जायेंगे। बिजी देख माया आपे ही किनारा कर लेगी। माया आये और युद्ध करो, भगाओ; फिर कभी हार, कभी जीत हो - यह चींटी मार्ग का पुरूषार्थ है। अब तो तीव्र पुरूषार्थ करने का समय है, उड़ने का समय है। इसलिए मनन शक्ति से बुद्धि को बिजी रखो। इसी मनन शक्ति से याद की शक्ति में मग्न रहना - यह अनुभव सहज हो जायेगा। मनन - मायाजीत और व्यर्थ संकल्पों से भी मुक्त कर देता है। जहाँ व्यर्थ नहीं, विघ्न नहीं तो समर्थ स्थिति वा लगन में मग्न रहने की स्थिति स्वत: ही हो जाती है।
कई सोचते हैं - बीजरूप स्थिति या शक्तिशाली याद की स्थिति कम रहती है या बहुत अटेन्शन देने के बाद अनुभव होता है। इसका कारण अगले बार भी सुनाया कि लीकेज है, बुद्धि की शक्ति व्यर्थ के तरफ बंट जाती है। कभी व्यर्थ संकल्प चलेंगे, कभी साधारण संकल्प चलेंगे। जो काम कर रहे हैं उसी के संकल्प में बुद्धि का बिजी रहना - इसको कहते हैं साधारण संकल्प। याद की शक्ति या मनन शक्ति जो होनी चाहिए वह नहीं होती और अपने को खुश कर लेते कि आज कोई पाप कर्म नहीं हुआ, व्यर्थ नहीं चला, किसको दु:ख नहीं दिया। लेकिन समर्थ संकल्प, समर्थ स्थिति, शक्तिशाली याद रही? अगर वह नहीं रही तो इसको कहेंगे साधारण संकल्प। कर्म किया लेकिन कर्म और योग साथ - साथ नहीं रहा। कर्म कर्त्ता बने लेकिन कर्मयोगी नहीं बने। इसलिए कर्म करते भी, या मनन शक्ति या मग्न स्थिति की शक्ति, दोनों में से एक की अनुभूति सदा रहनी चाहिए। यह दोनों स्थितियाँ शक्तिशाली सेवा कराने के आधार हैं। मनन करने वाले, अभ्यास होने के कारण जिस समय जो स्थिति बनाने चाहें वह बना सकेंगे। लिंक रहने से लीकेज खत्म हो जायेगी और जिस समय जो अनुभूति - चाहे बीजरूप स्थिति की, चाहे फरिश्ते रूप की, जो करना चाहो वह सहज कर सकेंगे। क्योंकि जब ज्ञान की स्मृति है तो ज्ञान के सिमरण से ज्ञानदाता स्वत: ही याद रहता। तो समझा, मनन कैसे करना है? कहा था ना कि मनन का फिर सुनायेंगे। तो आज मनन करने की विधि सुनाई। माया के विघ्नों से सदा विजयी बनना वा सदा सेवा में सफलता का अनुभव करना, इसका आधार ‘मनन शक्ति' है। समझा? अच्छा!
सर्व ज्ञानसागर के ज्ञानी तू आत्मा बच्चों को, सदा मनन शक्ति द्वारा सहज मायाजीत बनने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा मनन शक्ति के अभ्यास को आगे बढ़ाने वाले, मनन से मग्न स्थिति का अनुभव करने वाले, सदा ज्ञान के रत्नों का मूल्य जानने वाले, सदा हर कर्म में ज्ञान की शक्ति को कार्य में लाने वाले, ऐसे सदा श्रेष्ठ स्थिति में रहने वाले विशेष वा अमूल्य रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात: - स्वयं को तीव्र पुरूषार्थी आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि समय बहुत तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है। जैसे समय आगे बढ़ रहा है, तो समय पर मंज़िल पर पहुँचने वाले को किस गति से चलना पड़े? समय कम है और प्राप्ति ज्यादा करनी है। तो थोड़े समय में अगर ज्यादा प्राप्ति करनी हो तो तीव्र करना पड़ेगा ना। समय को देख रहे हो और अपने पुरूषार्थ की गति को भी जानते हो। तो समय अगर तेज है और अपनी गति तेज नहीं है तो समय अर्थात् रचना आप रचता से भी तेज हुई। रचता से रचना तेज चली जाए तो उसे अच्छी बात कहेंगे? रचना से रचता आगे होना चाहिए। सदा तीव्र पुरूषार्थी आत्मायें बन आगे बढ़ने का समय है। अगर आगे बढ़ते कोई साईड सीन को भी देख रूकते हो, तो रूकने वाले ठीक समय पर पहुँच नहीं सकेंगे। कोई भी माया की आकर्षण साइडसीन है। साइडसीन पर रूकने वाला मंजल पर कैसे पहुँचेगा? इसलिए सदैव तीव्र पुरूषार्थी बन आगे बढ़ते चलो। ऐसे नहीं समय पर पहुँच ही जायेंगे, अभी तो समय पड़ा है। ऐसे सोचकर अगर धीमी गति से चलेंगे तो समय पर धोखा मिल जायेगा। बहुत काल का तीव्र पुरूषार्थ का संस्कार अन्त में भी तीव्र पुरूषार्थ का अनुभव करायेगा। तो सदा तीव्र पुरूषार्थी। कभी तीव्र, कभी कमज़ोर, नहीं। ऐसे नहीं थोड़ी - सी बात हुई कमज़ोर बन जाओ। इसको तीव्र पुरूषार्थी नहीं कहेंगे। तीव्र पुरूषार्थी कभी रूकते नहीं, उड़ते हैं। तो उड़ते पंछी बन उड़ती कला का अनुभव करते चलो। एक - दो को भी सहयोग दे तीव्र पुरूषार्थी बनाते चलो। जितनी औरों की सेवा करेंगे उतना स्वयं का उमंग - उत्साह बढ़ता रहेगा।
विदाई के समय (दादी जानकी जी विदेश में जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं): - देश - विदेश में सेवा का उमंग - उत्साह अच्छा है। जहाँ उमंग - उत्साह है, वहाँ सफलता भी होती है। सदा यह अटेन्शन रखना है कि पहले अपना उमंग - उत्साह हो, संगठन की शक्ति हो। स्नेह की शक्ति, सहयोग की शक्ति हो तो सफलता उसी अनुसार होती है। यह है धरनी। जैसे धरनी ठीक होती है तो फल भी ऐसा ही निकलता है और अगर टेम्प्रेरी (अस्थायी) धरनी को ठीक करके बीज डाल दो तो फल भी थोड़े समय के लिए मिलेगा, सदाकाल के लिए फल नहीं मिलेगा। तो सफलता के फल के पहले सदा धरनी को चेक करो। बाकी जो करते हैं उनका जमा तो हो ही जाता है। अभी भी खुशी मिलती है और भविष्य तो है ही। अच्छा!
14 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
उदासी आने का कारण - छोटी - मोटी अवज्ञाएं
अपने बच्चों के दिल का हाल चाल सुन सदा हल्का रहने की विधि बताते हुए ऊँच ते ऊँच बाप बोले
आज बेहद के बड़े ते बड़े बाप, ऊँचे ते ऊँचे बनाने वाले बाप अपने चारों ओर के बच्चों में से विशेष आज्ञाकारी बच्चों को देख रहे हैं। आज्ञाकारी बच्चे तो सभी अपने को समझते हैं लेकिन नम्बरवार हैं। कोई सदा आज्ञाकारी और कोई आज्ञाकारी हैं, सदा नहीं हैं। आज्ञाकारी की लिस्ट में सभी बच्चे आ जाते हैं लेकिन अंतर जरूर है। आज्ञा देने वाला बाप सभी बच्चों को एक समय पर एक ही आज्ञा देते हैं, अलग - अलग, भिन्न - भिन्न आज्ञा भी नहीं देते हैं। फिर भी नम्बरवार क्यों होते हैं? क्योंकि जो सदा हर संकल्प वा हर कर्म करते बाप की आज्ञा का सहज स्मृतिस्वरूप बनते हैं, वह स्वत: ही हर संकल्प, बोल और कर्म में आज्ञा प्रमाण चलते और जो स्मृतिस्वरूप नहीं बनते, अनेको बार - बार स्मृति लानी पड़ती है। कभी स्मृति के कारण आज्ञाकारी बन चलते और कभी चलने के बाद आज्ञा याद करते हैं। क्योंकि आज्ञा के स्मृतिस्वरूप नहीं, जो श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्ष फल मिलता है वह प्रत्यक्ष फल की अनुभूति न होने के कारण कर्म के बाद याद आता है कि यह रिजल्ट क्यों हुई? कर्म के बाद चेक करते तो समझते हैं जो जैसी बाप की आज्ञा है उस प्रमाण न चलने कारण, जो प्रत्यक्ष फल अनुभव हो, वह नहीं हुआ। इसको कहते हैं आज्ञा के स्मृतिस्वरूप नहीं हैं लेकिन कर्म के फल को देखकर स्मृति आई। तो नम्बरवन हैं - सहज, स्वत: स्मृतिस्वरूप आज्ञाकारी। और दूसरा नम्बर हैं - कभी स्मृति से कर्म करने वाले और कभी कर्म के बाद स्मृति में आने वाले। तीसरे नम्बर की तो बात ही छोड़ दो। दो मालायें हैं। पहली छोटी माला है, दूसरी बड़ी माला है। तीसरों की तो माला ही नहीं है। इसलिए दो की बात कर रहे हैं।
‘आज्ञाकारी नम्बरवन' सदा अमृतवेले से रात तक सारे दिन की दिनचर्या के हर कर्म में आज्ञा प्रमाण चलने के कारण हर कर्म में मेहनत नहीं अनुभव करते लेकिन आज्ञाकारी बनने का विशेष फल बाप के आशीर्वाद की अनुभूति करते हैं। क्योंकि आज्ञाकारी बच्चे के ऊपर हर कदम में बापदादा की दिल की दुयाएँ साथ हैं, इसलिए दिल की दुआओं के कारण हर कर्म फलदाई होता है। क्योंकि कर्म बीज है और बीज से जो प्राप्ति होती है वह फल है। तो नम्बरवन आज्ञाकारी आत्मा का हर कर्म रूपी बीज शक्तिशाली होने के कारण हर कर्म का फल अर्थात् संतुष्टता, सफलता प्राप्त होती है। संतुष्टता अपने आप से भी होती है और कर्म के रिजल्ट से भी होती है और अन्य आत्माओं के सम्बन्ध - सम्पर्क से भी होती है। नम्बरवन आज्ञाकारी आत्माओं के तीनों ही प्रकार की संतुष्टता स्वत: और सदा अनुभव होती है। कई बार कई बच्चे अपने कर्म से स्वयं संतुष्ट होते हैं कि मैंने बहुत अच्छा विधिपूर्वक कर्म किया लेकिन कहाँ सफलता रूपी फल जितना स्वयं समझते हैं, उतना दिखाई नहीं देता और कहाँ फिर स्वयं भी संतुष्ट, फल में भी संतुष्ट लेकिन सम्बन्ध - सम्पर्क में संतुष्टता नहीं होती है। तो इसको नम्बरवन आज्ञाकरी नहीं कहेंगे। नम्बरवन आज्ञाकारी तीनों ही बातों में संतुष्टता अनुभव करेगा।
वर्तमान समय के प्रमाण कई श्रेष्ठ आज्ञाकारी बच्चों द्वारा कभी - कभी कोई - कोई आत्माएं अपने को असंतुष्ट भी अनुभव करती हैं। आप सोचेंगे ऐसा तो कोई नहीं है जिससे सभी संतुष्ट हों! कोई न कोई असंतुष्ट हो भी जाते हैं लेकिन वह कई कारण होते हैं। अपने कारण को न जानने के कारण मिसअण्डरस्टैंड (गलतफहमी) कर देते हैं। दूसरी बात - अपनी बुद्धि प्रमाण बड़ों से चाहना, इच्छा ज्यादा रखते हैं और वह इच्छा जब पूर्ण नहीं होती तो असंतुष्ट हो जाते। तीसरी बात - कई आत्माओं के पिछले संस्कार - स्वभाव और हिसाब - किताब के कारण भी जो संतुष्ट होना चाहिए वह नहीं होते। इस कारण नम्बरवन आज्ञाकारी आत्मा का वा श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा संतुष्टता न मिलने का कारण होता नहीं है लेकिन अपने कारणों से असंतुष्ट रह जाते हैं। इसलिए कहाँ - कहाँ दिखाई देता है कि हर एक से कोई असंतुष्ट है। लेकिन उसमें भी मैजारिटी 95 प्रतिशत के करीब संतुष्ट होंगे। 5 प्रतिशत असंतुष्ट दिखाई देते। तो नम्बरवन आज्ञाकारी बच्चे मैजारिटी तीनों ही रूप से संतुष्ट अनुभव करेंगे और सदा आज्ञा प्रमाण श्रेष्ठ कर्म होने के कारण हर कर्म करने के बाद संतुष्ट होने कारण कर्म बार - बार बुद्धि को, मन को विचलित नहीं करेगा कि ठीक किया वा नहीं किया। सेकण्ड नम्बर वाले को कर्म करने के बाद कई बार मन में संकल्प चलता है कि पता नहीं ठीक किया वा नहीं किया। जिसको आप लोग अपनी भाषा में कहते हो - मन खाता है कि ठीक नहीं किया। नम्बरवन आज्ञाकारी आत्मा का कभी मन नहीं खाता, आज्ञा प्रमाण चलने के कारण सदा हल्के रहते। क्योंकि कर्म के बंधन का बोझ नहीं। पहले भी सुनाया था कि एक है कर्म के संबंध में आना, दूसरा है कर्म के बंधन वश कर्म करना। तो नम्बरवन आत्मा कर्म के सम्बन्ध में आने वाली है, इसलिए सदा हल्की है। नम्बर वन आत्मा हर कर्म में बापदादा द्वारा विशेष आशीर्वाद की प्राप्ति के कारण हर कर्म करते आशीर्वाद के फलस्वरूप सदा ही आंतरिक विल पावर अनुभव करेगी। सदा अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करेगी, सदा अपने को भरपूर अर्थात् सम्पन्न अनुभव करेगी।
कभी - कभी कई बच्चे बाप के आगे अपने दिल का हालचाल सुनाते क्या कहते हैं - ना मालूम क्यों ‘आज अपने को खाली - खाली समझते हैं', कोई बात भी नहीं हुई है लेकिन सम्पन्नता वा सुख की अनुभूति नहीं हो रही है। कई बार उस समय कोई उल्टा कार्य या कोई छोटी - मोटी भूल नहीं होती है लेकिन चलते - चलते अन्जान वा अलबेलेपन में समय प्रति समय आज्ञा के प्रमाण काम नहीं करते हैं। पहले समय की अवज्ञा का बोझ किसी समय अपने तरफ खींचता है। जैसे पिछले जन्मों के कड़े संस्कार, स्वभाव कभी - कभी न चाहते भी अपने तरफ खींच लेते हैं, ऐसे समय प्रति समय की की हुई अवज्ञाओं का बोझ कभी - कभी अपने तरफ खींच लेता है। वह है पिछला हिसाब - किताब, यह है वर्तमान जीवन का हिसाब। क्योंकि कोई भी हिसाब - चाहे इस जन्म का, चाहे पिछले जन्म का, लग्न की अग्नि - स्वरूप स्थिति के बिना भस्म नहीं होता। सदा अग्नि - स्वरूप स्थिति अर्थात् शक्तिशाली याद की स्थिति, बीजरूप, लाइट हाउस, माइट हाउस स्थिति सदा न होने के कारण हिसाब - किताब को भस्म नहीं कर सकते हैं। इसलिए रहा हुआ हिसाब अपने तरफ खींचता है। उस समय कोई गलती नहीं करते हो कि पता नहीं क्या हुआ! कभी मन नहीं लगेगा - याद में, सेवा में वा कभी उदासी की लहर होगी। एक होता है ज्ञान द्वारा शान्ति का अनुभव, दूसरा होता है बिना खुशी, बिना आनन्द के सन्नाटे की शान्ति। वह बिना रस के शान्ति होती है। सिर्फ दिल करेगा - कहाँ अकेले में चले जाएँ, बैठ जाएँ। यह सब निशानियाँ हैं कोई न कोई अवज्ञा की। कर्म का बोझ खींचता है।
अवज्ञा - एक होती है पाप कर्म करना वा कोई बड़ी भूल करना और दूसरी छोटी - छोटी अवज्ञायें भी होती हैं। जैसे बाप की आज्ञा है - अमृतवेले विधिपूर्वक शक्तिशाली याद में रहो। तो अमृतवेले अगर इस आज्ञा प्रमाण नहीं चलते तो उसको क्या कहेंगे? आज्ञाकारी या अवज्ञा? हर कर्म कर्मयोगी बनकर के करो, निमित्त भाव से करो, निर्माण बनके करो - यह आज्ञाएं हैं। ऐसे तो बहुत बड़ी लिस्ट है लेकिन दृष्टान्त की रीति में सुना रहे हैं। दृष्टि, वृत्ति सबके लिए आज्ञा है। इन सब आज्ञाओं में से कोई भी आज्ञा विधिपूर्वक पालन नहीं करते तो इसको कहते हैं - छोटी - मोटी अवज्ञाएं। यह खाता अगर जमा होता रहता है तो जरूर अपनी तरफ खींचेगा ना, इसलिए कहते हैं कि जितना होना चाहिए, उतना नहीं होता। जब पूछते हैं, ठीक चल रहे हो तो सब कहेंगे - हाँ। और जब कहते हैं कि जितना होना चाहिए उतना है, तो फिर सोचते हैं। इतने इशारे मिलते, नॉलेजफुल होते फिर भी जितना होना चाहिए उतना नहीं होता, कारण? पिछला वा वर्तमान बोझ डबल लाइट बनने नहीं देता है। कभी डबल लाइट बन जाते, कभी बोझ नीचे ले आता। सदा अतीन्द्रिय सुख वा खुशी सम्पन्न शांत स्थिति अनुभव नहीं करते हैं। बापदादा के आज्ञाकारी बनने की विशेष आशीर्वाद की लिफ्ट के प्राप्ति की अनुभूति नहीं होती है। इसीलिए किस समय सहज होता, किस समय मेहनत लगती है। नम्बरवन आज्ञाकरी की विशेषताएं स्पष्ट सुनी! बाकी नम्बर टू कौन हुआ? जिसमें इन विशेषताओं की कमी है, वह नम्बर टू और दूसरे नम्बर माला के हो गए। तो पहली माला में आना है ना? मुश्किल कुछ भी नहीं है। हर कदम की आज्ञा स्पष्ट है, उसी प्रमाण चलना सहज हुआ या मुश्किल हुआ? आज्ञा ही बाप के कदम हैं। तो कदम पर कदम रखना तो सहज हुआ ना। वैसे भी सभी सच्ची सीताएं हो, सजनियाँ हो। तो सजनियाँ कदम पर कदम रखती हैं ना? यह विधि है ना। तो मुश्किल क्या हुआ! बच्चे के नाते से भी देखो - बच्चे अर्थात् जो बाप के फुटस्टैप पर चले। जैसे बाप ने कहा ऐसे किया। बाप का कहना और बच्चों का करना - इसको कहते हैं नम्बरवन आज्ञाकारी। तो चेक करो और चेन्ज करो। अच्छा!
चारों ओर के सर्व आज्ञाकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा बाप द्वारा प्राप्त हुई आशीर्वाद की अनुभूति करने वाली विशेष आत्माओं को, सदा हर कर्म में संतुष्टता, सफलता अनुभव करने वाली महान आत्माओं को, सदा कदम पर कदम रखने वाले आज्ञाकारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात
1. सभी अपने को सहजयोगी, राजयोगी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? सहजयोगी अर्थात् स्वत: योगी। योग लगाने से योग लगे नहीं, तो योगी के बजाए वियोगी बन जाएँ इसको सहजयोगी नहीं कहेंगे। सहजयोगी जीवन है। तो जीवन सदा होती है। योगी जीवन अर्थात् सदा के योगी, दो घण्टे, चार घण्टे योग लगाने वाले को योगी जीवन नहीं कहेंगे। जब है ही एक बाप दूसरा न कोई, तो एक ही याद आएगा ना? एक की याद में रहना - यही सहजयोगी जीवन है। सदा के योगी अर्थात् योगी जीवन वाले। दूसरे जो योग लगाते हैं, वह जब योग लगाते हैं तब लगता है और ब्राह्मण आत्माएं सदा ही योग में रहती हैं क्योंकि जीवन बना ली है। चलते - फिरते, खाते - पीते योगी। है ही बाप और मैं। अगर दूसरा कोई छिपा हुआ होगा तो वह याद आएगा। सदा योगी जीवन है अर्थात् निरन्तर योगी हैं। ऐसे तो नहीं कहेंगे कि योग लगता नहीं, कैसे लगाएं? सिवाए बाप के जब कुछ है ही नहीं, तो लगाएँ कैसे - यह क्वेश्चन ही नहीं। जब दूसरे तरफ बुद्धि जाती है तो योग टूटता है और जब टूटता है तो लगाने की मेहनत करनी पड़ती है। लगाने की मेहनत करनी ही न पड़े, सेकण्ड में बाबा कहा और याद स्वरूप हो गए। ऐसे तो कहने की भी आवश्यकता नहीं, हैं ही - ऐसा अनुभव करना योगी जीवन है। तो सदा सहजयोगी आत्माएं हैं - इस अनुभूति से आगे बढ़ते चलो।
2. सदा अपने को रूहानी यात्री समझते हो? यात्रा करते क्या याद रहेगा? जहाँ जाना है वही याद रहेगा ना। अगर और कोई बात याद आती है तो उसको भुलाते हैं। अगर कोई देवी की यात्रा पर जाएंगे तो ‘जय माता - जय माता' कहते जाएंगे। अगर कोई और याद आएगी तो अच्छा नहीं समझते हैं। एक दो को भी याद दिलाएंगे - ‘जय माता' याद करो, घर को वा बच्चें को याद नहीं करो, माता को याद करो। तो रूहानी यात्रियों को सदा क्या याद रहता है? अपना घर - परमधाम याद रहता है ना? वहाँ ही जाना है। तो अपना घर और अपना राज्य स्वर्ग - दोनों याद रहता है या और बातें भी याद रहती हैं? पुरानी दुनिया तो याद नहीं आती है ना? ऐसे नहीं - यहाँ रहते हैं तो याद आ जाती है। रहते हुए भी न्यारे रहना, क्योंकि जितना न्यारे रहेंगे उतना ही प्यार से बाप को याद कर सकेंगे। तो चेक करो पुरानी दुनिया में रहते पुरानी दुनिया में फँस तो नहीं जाते हैं? कमल - पुष्प कीचड़ में रहता है लेकिन कीचड़ से न्यारा रहता है। तो सेवा के लिए रहना पड़ता है, मोह के कारण नहीं। तो माताओं को मोह तो नहीं है? अगर थोड़ा धोत्रे - पोत्रे को कुछ हो जाए, फिर मोह होगा? अगर वह थोड़ा रोए तो आपका मन भी थोड़ा रोएगा? क्योंकि जहाँ मोह होता है तो दूसरे का दु:ख भी अपना दु:ख लगता है। ऐसे नहीं - उसको बुखार हो तो आपको भी मन का बुखार हो जाए! मोह खींचता है ना। पेपर तो आते हैं ना। कभी पोत्रा बीमार होगा, कभी धोत्रा। कभी धन की समस्या आएगी, कभी अपनी बीमारी की समस्या आएगी। यह तो होगा ही। लेकिन सदा न्यारे रहें, मोह में न आएँ - ऐसे निर्मोही हो? माताओं को होता है सम्बन्ध से मोह और पाण्डवों को होता है पैसे से मोह। पैसा कमाने में याद भी भूल जाएगी। शरीर निर्वाह करने के लिए निमित्त मात्र काम करना दूसरी बात है लेकिन ऐसा लगे रहना जो न पढ़ाई याद आए, न याद का अभ्यास हो...उसको कहेंगे मोह। तो मोह तो नहीं है ना! जितना नष्टोमोहा होंगे उतना ही स्मृतिस्वरूप होंगे।
कुमारों से - कमाल करने वाले कुमार हो ना? क्या कमाल दिखाएंगे? सदा बाप को प्रत्यक्ष करने का उमंग तो रहता ही है लेकिन उसकी विधि क्या है? आजकल तो यूथ के तरफ सबकी नजर है। रूहानी यूथ अपने मन्सा शक्ति से, बोल से, चलन से ऐसे शान्ति की शक्ति अनुभव करायें जो वह समझें कि यह शान्ति की शक्ति से क्रांति करने वाले हैं। जैसे जिस्मानी यूथ की चलन और चेहरे से जोश दिखाई देता है ना। देखकर ही पता चलता है कि यह यूथ हैं। ऐसे आपके चेहरे और चलन से शान्ति की अनुभूति हो - इसको कहते हैं कमाल करना। हर एक की वृत्ति से वायब्रेशन आए। जैसे उन्हों के चलन से, चेहरे से वायब्रेशन आता है कि यह हिंसक वृत्ति वाले हैं, ऐसे आपके वायब्रेशन से शान्ति की किरणें अनुभव हों। ऐसी कमाल करके दिखाओ। कोई भी क्रांति का कार्य करता है तो सबका अटेंशन जाता है ना। ऐसे आप लोगों के ऊपर सबका अटेंशन जाए - ऐसी विशाल सेवा करो। क्योंकि ज्ञान सुनाने से अच्छा तो लगता है लेकिन परिवर्तन अनुभव को देखकर अनुभवी बनते हैं। ऐसी कोई न्यारी बात करके दिखाओ। वाणी से तो माताएं भी सेवाएं करती हैं, निमित्त बहनें भी सेवा करती हैं लेकिन आप नवीनता करके दिखाओ जो गवर्मेंट का भी अटेंशन जाए। जैसे सूर्य उदय होता है तो स्वत: ही अटेंशन जाता है ना - रोशनी आ रही है! ऐसे आपके तरफ अटेंशन जाए। समझा?
घाटकोपर (बंबई) सेवाकेंद्र की नलिनी बहन के लौकिक पिताजी काकू भाई ने 14.1.1988 प्रात: 3.15 बजे अपना पुराना शरीर छोड़ा, उनके निमित्त प्राण प्यारे अव्यक्त बापदादा ने महावाक्य उच्चारण किए
ड्रामा में जो भी दृश्य होते हैं वह सभी अपने - अपने समय प्रमाण बहुत ही रहस्ययुक्त होते हैं। जो भी अनन्य स्नेही आत्माएं जाती हैं, हर एक आत्मा के जाने में भी भिन्न - भिन्न राज़ होते हैं। अनन्य आत्मायें सदा जहाँ भी जाती हैं सेवा के निमित्त जाती हैं। जैसे संगमयुग की ब्राह्मण जीवन में सेवा के संगठन से सेवा सफल होती जा रही है, ऐसे नई दुनिया की स्थापना के राज में भी संगठन द्वारा कार्य वृद्धि को प्राप्त कर सफलता को प्राप्त कर रहा है। तो इस स्थापना के पार्ट में जिन आत्माओं का जिस समय पार्ट है, वह ड्रामा अनुसार आत्माओं का जाना और उसी कार्य के निमित्त बनना - यह रहस्य कुछ समय से चल रहा है और चलता रहेगा। इसलिए, अनन्य आत्माओं का जाना ऐसा ही है जैसे सेवा का पार्ट बदलना वा सेवा के पार्ट अनुसार शरीर रूपी वस्त्र बदली करना। जैसा पार्ट वैसे वस्त्र चाहिएं, वैसे सम्बन्ध चाहिए, वैसा स्थान चाहिए। तो यह तो सेवा के पार्ट से आना - जाना चलता ही रहता है। तो इस आत्मा का भी सेवा का पार्ट है और इस शरीर से भी हिसाब - किताब पूरा होने का टाइम आता है। इसलिए, ऐसे कमाई करके जाने वाली आत्माओं के लिए कोई आत्माओं को फिकर करने की तो बात ही नहीं। सेवा पर जाने की तो खुशी है। क्योंकि पुराने शरीर से तो इतनी सेवा कर नहीं पाते। तो नया पार्ट बजाएंगे। और जाना तो सबको है, सिर्फ समय की बात है। इसलिए, सदा जैसे स्वयं खुश रहे, वैसे सभी को चाहे लौकिक सम्बन्धी हैं, चाहे अलौकिक हैं - सभी को उनकी खुशी की विशेषता सदा याद रखनी है। जैसे वह स्वयं हल्के रहे, जाने में भी हल्के रहे, रहने में भी हल्के रहे। इसी रीति से सभी को ऐसे ही उनकी विशेषता से स्नेह रखना ही आत्मा से स्नेह है। तो बहुत अच्छा पार्ट बजा के गये और आगे भी अच्छे ते अच्छा पार्ट बजाएंगे।
इसीलिए, हर आत्मा की विशेषता याद रखो, हर आत्मा का विशेष पार्ट याद रखो। तो इससे स्वयं में, वातावरण में सदा ही शांति और शक्ति रहेगी। और वह ऐसी आत्मा तो है ही नहीं जो उसको विशेष बल देंगे तभी खुश रहेगी। वह तो खुश है ही। बाकी अपने स्नेह की रीति याद की यात्रा से स्नेह का सहयोग देना वह तो ब्राह्मण जीवन की रीति - रस्म है। बाकी ऐसी आत्मा नहीं है जो शक्ति देंगे तो शक्ति आएगी। शक्तिशाली है, बाप के साथ सम्बन्ध होने के कारण बाप के पास ही शक्तिस्वरूप बन अनुभव कर रही है। इसलिए जो ड्रामा बीता वह अच्छा कहेंगे। दुनिया वाले तो कहेंगे कि ‘हाय, वह चला गया!' और आप क्या कहेंगे? सेवा पर गया। चला नहीं गया, सेवा पर गया। सेवा पर कोई जाता है तो क्या करते हो? खुश होते हो या रोते हो? तो यह भी सेवा पर गये। इसलिए, यह सदा हर्षित आत्मा थी, सदा हर्षित रहेगी। अच्छा! दुनिया के हिसाब से भी अपना पार्ट तो सब पूरा किया। उस हिसाब से भी कोई बड़ी बात नहीं। ब्राह्मणों के लिए तो कोई छोटा भी जाय तो भी बड़ी बात नहीं। यहाँ कोई जवान चला जाए तो रोयेंगे? वहाँ कोई बुजुर्ग जाता है तो लड्डू बाँटते हैं और यहाँ कोई जवान भी जाएगा तो हलुवे का भोग खायेंगे। उसको भी खिलाएंगे, आप भी खाएंगे। क्या करते हो? जब संस्कार करके आते हो तो क्या करते हो? हलुवा ही खाते हो ना! क्योंकि ज्ञान का है ना। इसलिए नथिंगन्यू। अच्छा! सभी को बहुत - बहुत याद और सभी को बापदादा स्नेह की शक्ति सदा देते रहते हैं और दे रहे हैं। अच्छा!
18 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
‘स्नेह' और ‘शक्ति' की समानता
नष्टोमोहा – कर्मातीत भव का पाठ पढ़ाने वाले, वरदाता बापदादा अपने स्नेही बच्चों को ‘नथिंग न्यू' की स्मृति से समर्थ बनने की प्रेरणा देते हुए बोले
आज स्मृतिस्वरूप बनाने वाले समर्थ बाप चारों ओर के स्मृतिस्वरूप समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। आज का दिन बापदादा के स्नेह में समाने के साथ - साथ स्नेह और समर्थ - दोनों के बैलेंस स्थिति के अनुभव का दिन है। स्मृति दिवस अर्थात् स्नेह और समर्थी - दोनों की समानता के वरदान का दिवस है। क्योंकि जिस बाप की स्मृति में स्नेह में लवलीन होते हो, वह ब्रह्मा बाप स्नेह और शक्ति की समानता का श्रेष्ठ सिम्बल है। अभी - अभी अति स्नेही, अभी - अभी श्रेष्ठ शक्ति - शाली। स्नेह में भी स्नेह द्वारा हर बच्चे को सदा शक्तिशाली बनाया। सिर्फ स्नेह में अपनी तरफ आकर्षित नहीं किया लेकिन स्नेह द्वारा शक्ति सेना बनाए विश्व के आगे सेवा अर्थ निमित्त बनाया। सदा ‘स्नेही भव' के साथ ‘नष्टोमोहा - कर्मातीत भव' का पाठ पढ़ाया। अन्त तक बच्चों को सदा न्यारे और सदा प्यारे - यही नयनों की दृष्टि द्वारा वरदान दिया।
आज के दिन चारों ओर के बच्चे भिन्न - भिन्न स्वरूप से, भिन्न - भिन्न सम्बन्ध से, स्नेह से और बाप के समान बनने की स्थिति के अनुभूति से मिलन मनाने बापदादा के वतन में पहुँचे। कोई बुद्धि द्वारा और कोई दिव्य - दृष्टि द्वारा। बापदादा ने सभी बच्चों के स्नेह का और समान स्थिति का याद और प्यार दिल से स्वीकार किया और रिटर्न में सभी बच्चों को ‘बापदादा समान भव' का वरदान दिया और दे रहे हैं। बापदादा जानते हैं कि बच्चों का ब्रह्मा बाप से अति स्नेह है। चाहे साकार में पालना ली, चाहे अब अव्यक्त रूप से पालना ले रहे हैं लेकिन बड़ी माँ होने के कारण माँ से बच्चों का प्यार स्वत: ही होता है। इस कारण बाप जानते हैं कि ब्रह्मा माँ को बहुत याद करते हैं। लेकिन स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - समान बनना। जितना - जितना दिल का सच्चा प्यार है, बच्चों के मन में उतना ही फालो फादर करने का उमंग - उत्साह दिखाई देता है। यह अलौकिक माँ का अलौकिक प्यार वियोगी बनाने वाला नहीं है, सहजयोगी राजयोगी अर्थात् राजा बनाने वाला है। अलौकिक माँ की बच्चों के प्रित अलौकिक ममता है कि हर एक बच्चा राजा बने। सभी राजा बच्चे बनें, प्रजा नहीं। प्रजा बनाने वाले हो, प्रजा बनने वाले नहीं हो।
आज वतन में मात - पिता की रूहरिहान चल रही थी। बाप ने ब्रह्मा माँ से पूछा कि बच्चों के विशेष स्नेह के दिन क्या याद आता? आप लोगों को भी विशेष याद आती है ना। हर एक को अपनी याद आती है और उन यादों में समा जाते हो। आज के दिन विशेष अलौकिक यादों का संसार होता है। हर कदम में विशेष साकार स्वरूप के चरित्रों की याद स्वत: ही आती है। पालना की याद, प्राप्तियों की याद, वरदानों की याद स्वत: ही आती है। तो बाप ने भी ब्रह्मा माँ से यही पूछा। जानते हो, ब्रह्मा ने क्या बोला होगा? संसार तो बच्चों का ही है। ब्रह्मा बोले - अमृतवेले पहले ‘समान बच्चे' याद आये। स्नेही बच्चे और समान बच्चे। स्नेही बच्चों को समान बनने की इच्छा वा संकल्प है लेकिन इच्छा के साथ, संकल्प के साथ सदा समर्थी नहीं रहती, इसलिए समान बनने में नम्बर आगे के बजाये पीछे रह जाता है। स्नेह उमंग - उत्साह में लाता लेकिन समास्याएं स्नेह और शक्ति रूप की समान स्थिति बनने में कहाँ - कहाँ कमज़ोर बना देती हैं। समस्यायें सदा समान बनने की स्थिति से दूर कर लेती हैं। स्नेह के कारण बाप को भूल भी नहीं सकते। हैं भी पक्के ब्राह्मण। पीछे हटने वाले भी नहीं हैं, अमर भी हैं। सिर्फ समस्या को देख थोड़े समय के लिए उस समय घबरा जाते हैं। इसलिए, निरन्तर स्नेह और शक्ति की समान स्थिति का अनुभव नहीं कर सकते।
इस समय के प्रमाण नॉलेजफुल, पावरफुल, सक्सेसफुल स्थिति के बहुतकाल के अनुभवी बन चुके हो। माया के, प्रकृति के वा आत्माओं द्वारा निमित्त बनी हुई समस्याओं के अनेक बार के अनुभवी आत्माएं हो। नई बात नहीं है। त्रिकालदर्शी हो! समस्याओं के आदि - मध्य - अन्त, तीनों को जानते हो। अनेक कल्पों की बात तो छोड़ो लेकिन इस कल्प के ब्राह्मण जीवन में भी बुद्धि द्वारा जान विजयी बनने में वा समस्या को पार कर अनुभवी बनने में नये नहीं हो, पुराने हो गये हो। चाहे एक साल का भी हो लेकिन इस अनुभव में पुराने हैं। ‘नथिंग न्यू' - यह पाठ भी पढ़ाया हुआ है। इसलिए वर्तमान समय के प्रमाण अभी समस्या से घबराने में समय नहीं गँवाना है। समय गँवाने से नम्बर पीछे हो जाता है।
तो ब्रह्मा माँ ने बोला - एक विशेष स्नेही बच्चे और दूसरे समान बनने वाले, दो प्रकार के बच्चों को देख यही संकल्प आया कि वर्तमान समय प्रमाण मैजारिटी बच्चों को अब समान स्थिति के समीप देखने चाहते हैं। समान स्थिति वाले भी हैं लेकिन मैजारिटी समानता के समीप पहुँच जाएँ - यही अमृतवेले बच्चों को देख - देख समान बनने का दिन याद आ रहा था। आप ‘स्मृति - दिन' को याद कर रहे थे और ब्रह्मा माँ ‘समान बनने का दिन' याद कर रहे थे। यही श्रेष्ठ संकल्प पूरा करना अर्थात् स्मृति दिवस को समर्थ दिवस बनाना है। यही स्नेह का प्रत्यक्ष फल माँ - बाप देखने चाहते हैं। पालना का वा बाप के वरदानों का यही श्रेष्ठ फल है। मात - पिता को प्रत्यक्ष फल दिखाने वाले श्रेष्ठ बच्चे हो। पहले भी सुनाया था - अति स्नेह की निशानी यह है जो स्नेही, स्नेही की कमी देख नहीं सकते। इसलिए, अभी तीव्र गति से समान स्थिति के समीप आओ। यही माँ का स्नेह है। हर कदम में फालो फादर करते चलो। ब्रह्मा एक ही विशेष आत्मा है जिसका मात - पिता - दोनों पार्ट साकार रूप में नूँधा हुआ है। इसलिए, विचित्र पार्टधारी महान आत्मा का डबल स्वरूप बच्चों को याद अवश्य आता है। लेकिन जो ब्रह्मा ‘मात - पिता' के दिल की श्रेष्ठ आशा है कि सर्व समान बनें, उसको भी याद करना। समझा? आज के स्मृति दिवस का श्रेष्ठ संकल्प - ‘‘समान बनना ही है''। चाहे संकल्प में, चाहे बोल में, चाहे सम्बन्ध संपर्क में समान अर्थात् समर्थ बनना है। कितनी भी बड़ी समस्या हो लेकिन ‘नथिंग - न्यू' - इस स्मृति से समर्थ बन जायेंगे। इससे अलबेले नहीं बनना, अलबेलेपन में भी नथिंग - न्यू शब्द यूज करते हैं। लेकिन अनेक बार विजयी बनने में नथिंग - न्यू। इस विधि से सदा सिद्धि को प्राप्त करते चलो। अच्छा!
सभी बहुत उमंग से स्मृति दिवस मनाने आए हैं। तीन पैर (पग) पृथ्वी देने वाले भी आए हैं। तीन पैर दे और तीन लोकों का मालिक बन जाएँ, तो देना क्या हुआ! फिर भी, सेवा का पुण्य जमा करने में होशियार बने। इसलिए, होशियारी की मुबारक हो। एक दे लाख पाने की विधि को अपनाने की समर्थी रखी। इसलिए, विशेष स्मृति - दिवस पर ऐसी समर्थ आत्माओं को बुलाया है। बाप रमणीक चिटचैट कर रहे थे। विशेष स्थान देने वालों को बुलाया है। बाप ने भी स्थान दिया है ना। बाप का भी लिस्ट में नाम है ना। कौनसा स्थान दिया है? ऐसा स्थान कोई नहीं दे सकता। बाप ने ‘दिलतख्त' दिया, कितना बड़ा स्थान है! यह सब स्थान उसमें आ जायेंगे ना। देश - विदेश के सेवा - स्थान सभी इकट्ठे करो तो भी बड़ा स्थान कौनसा है? पुरानी दुनिया में रहने के कारण आपने तो ईटों का मकान दिया और बाप ने तख्त दिया - जहाँ सदा ही बेफिकर बादशाह बन बैठ जाते। फिर भी देखो, किसी भी प्रकार की सेवा का - चाहे स्थान द्वारा सेवा करते, चाहे स्थिति द्वारा करते - सेवा का महत्त्व स्वत: ही होता है। तो स्थान की सेवा का भी बहुत महत्त्व है। किसी को ‘हाँ जी' कहकर, किसी को ‘पहले आप' कह कर सेवा करने का भी महत्त्व है। सिर्फ भाषण करना सेवा नहीं है लेकिन किसी भी सेवा की विधि से मन्सा, वाचा, कर्मणा, बर्तन माँजना भी सेवा का महत्त्व है। जितना भाषण करने वाला पद पा लेता है उतना योगयुक्त, युक्तियुक्त स्थिति में स्थित रहने वाला ‘बर्तन मांजने वाला' भी श्रेष्ठ पद पा सकता है। वह मुख से करता, वह स्थिति से करता। तो सदा हर समय सेवा की विधि के महत्त्व को जानकर महान बनो। कोई भी सेवा का फल न मिले - यह हो नहीं सकता। लेकिन सच्ची दिल पर साहेब राजी होता है। जब दाता, वरदाता राजी हो जाए तो क्या कमी रहेगी! वरदाता वा भाग्यविधाता ज्ञान - दाता भोले बाप को राजी करना बहुत सहज है। भगवान राजी तो धर्मराज काजी से भी बच जाएंगे, माया से भी बच जाएंगे। अच्छा!
चारों ओर के सर्व स्नेह और शक्ति के समान स्थिति में स्थित रहने वाले, सदा मात - पिता की श्रेष्ठ आशा को पूर्ण करने वाले आशा के दीपकों को, सदा हर विधि से सेवा के महत्व को जानने वाले, सदा हर कदम में फालो फादर करने वाले, मात - पिता को सदा स्नेह और शक्ति द्वारा समान बनने का फल दिखाने वाले, ऐसे स्मृतिस्वरूप सर्व समर्थ बच्चों को समर्थ बाप का समर्थ - दिवस पर यादप्यार और नमस्ते।''
सेवाकेन्द्रों के लिए तीन पैर पृथ्वी देने वाले निमित्त भाई - बहनों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
विशेष सेवा के प्रत्यक्षफल की प्राप्ति देख खुशी हो रही है ना। भविष्य तो जमा है ही लेकिन वर्तमान भी श्रेष्ठ बन गया। वर्तमान समय की प्राप्ति भविष्य से भी श्रेष्ठ है! क्योंकि अप्राप्ति और प्राप्ति के अनुभव का ज्ञान इस समय है। वहाँ अप्राप्ति क्या होती है, उसका पता ही नहीं है। तो अन्तर का पता नहीं होता है और यहाँ अन्तर का अनुभव है। इसलिए इस समय की प्राप्ति के अनुभव का महत्व है। जो भी सेवा के निमित्त बनते हैं, तो ‘तुरन्त दान महापुण्य' गाया हुआ है। अगर कोई भी बात का कोई निमित्त बनता है अर्थात् तुरन्त दान करता तो उसके रिटर्न में महापुण्य की अनुभूति होती है। वह क्या होती है? किसी भी सेवा का पुण्य एकस्ट्रा ‘खुशी', शक्ति की अनुभूति होती है। जब भी कोई सफलतास्व रूप बनके सेवा करते हो तो उस समय विशेष खुशी की अनुभूति करते हो ना। वर्णन करते हो कि आज बहुत अच्छा अनुभव हुआ! क्यों हुआ? बाप का परिचय सुनाकर के सफलता का अनुभव किया। कोई परिचय सुनकर के जाग जाता है या परिचय मिलते परिवर्तन हो जाता है तो उनकी प्राप्ति का प्रभाव आपके ऊपर भी पड़ता है। दिल में खुशी के गीत बजने शुरू हो जाते हैं - यह है प्रत्यक्षफल की प्राप्ति। तो सेवा करने वाला अर्थात् सदा प्राप्ति का मेवा खाने वाला। तो जो मेवा खाता है वह क्या होता? तन्दरूस्त होता है ना! अगर डॉक्टर्स भी किसको कमज़ोर देखते हैं तो क्या कहते हैं? फल खाओ। क्योंकि आजकल और ताकत की चीज़ - माखन खाओ, घी खाओ, वह तो हजम नहीं कर सकते। आजकल ताकत के लिए फल देते हैं। तो सेवा का भी प्रत्यक्षफल मिलता है। चाहे कर्मणा भी करो, कर्मणा की भी खुशी होती है। मानो सफाई करते हो, लेकिन जब स्थान सफाई से चमकता है तो सच्चे दिल से करने कारण स्थान को चमकता हुआ देखकर के खुशी होती है ना।
कोई भी सेवा के पुण्य का फल स्वत: ही प्राप्त होता है। पुण्य का फल जमा भी होता है और फिर अभी भी मिलता है। अगर मानो, आप कोई भी काम करते हो, सेवा करते हो तो कोई भी आपको कहेगा - बहुत अच्छी सेवा की, बहुत ही, अथक होकर की। तो ये सुनकर खुशी होती है ना। तो फल मिला ना। चाहे मुख से सेवा करो, चाहे हाथों से करो लेकिन सेवा माना ही मेवा। तो यह भी सेवा के निमित्त बने हो ना। महत्त्व रखने से महानता प्राप्त कर लेते। तो ऐसे आगे भी सेवा के महत्व को जान सदा कोई न कोई सेवा में बिजी रहो। ऐसे नहीं कि कोई जिज्ञासु नहीं मिला तो सेवा क्या करूँ? कोई प्रदर्शनी नहीं हुई, कोई भाषण नहीं हुआ तो क्या सेवा करूँ? नहीं। सेवा का फील्ड बहुत बड़ा है! कोई कहे, हमको सेवा मिलती नहीं है - कह नहीं सकता। वायुमण्डल को बनाने की कितनी सेवा रही हुई है! प्रकृति को भी परिवर्तन करने वाले हो। तो प्रकृति का परिवर्तन कैसे होगा? भाषण करेंगे क्या? वृत्ति से वायुमण्डल बनेगा। वायुमण्डल बनाना अर्थात् प्रकृति का परिवर्तन होना। तो यह कितनी सेवा है! अभी हुई है? अभी तो प्रकृति पेपर ले रही है। तो हर सेकण्ड सेवा का बहुत बड़ा फील्ड रहा हुआ है। कोई कह नहीं सकता कि हमको सेवा का चांस नहीं मिलता। बीमार भी हो, तो भी सेवा का चांस है। कोई भी हो - चाहे अनपढ़ हो, चाहे पढ़ा हुआ हो, किसी भी प्रकार की आत्मा, सबके लिए सेवा का साधन बहुत बड़ा है। तो सेवा का चांस मिले - यह नहीं, मिला हुआ है।
आलराउन्ड सेवाधारी बनना है। कर्मणा सेवा की भी 100 मार्क्स हैं। अगर वाचा और मन्सा ठीक है लेकिन कर्मणा के तरफ रूचि नहीं है तो 100 मार्क्स तो गई। आलराउण्ड सेवाधारी अर्थात् सब प्रकार की सेवा द्वारा फुल मार्क्स लेने वाले। इसको कहेंगे आलराउण्ड सेवाधारी। तो ऐसे हो? देखो, शुरू में जब बच्चों की भट्ठी बनाई तो कर्मणा का कितना पाठ पक्का कराया! माली भी बनाया तो जूते बनाने वाला भी बनाया। बर्तन माँजने वाले भी बनाया तो भाषण करने वाला भी बनाया। क्योंकि इसकी मार्क्स भी रह नही जायें। वहाँ भी लौकिक पढ़ाई में मानों आप कोई हल्की सब्जेक्ट में भी फेल हो जाते हो, विशेष सब्जेक्ट नहीं है, नम्बर थ्री फोर सब्जेक्ट हैं लेकिन उसमें भी अगर फेल हुए तो पास विद् ऑनर नहीं बनेंगे। टोटल में मार्क्स तो कम हो गई ना। ऐसे, सब सब्जेक्ट चेक करो। सब सब्जेक्ट्स में मार्क्स लिया है? जैसे यह (मकान देने के) निमित्त बने, यह सेवा की, इसका पुण्य मिला, मार्क्स मिलेंगी। लेकिन फुल मार्क्स ली हैं या नहीं - यह चेक करो। कोई न कोई कर्मणा सेवा, वह भी जरूरी है क्योंकि कर्मणा की भी 100 मार्क्स हैं, कम नहीं हैं। यहाँ सब सब्जेक्ट की 100 मार्क्स हैं। वहाँ तो ड्राइंग में थोड़ी मार्क्स होंगी, हिसाब (गणित) में ज्यादा होंगी। यहाँ सब सब्जेक्ट महत्त्व वाली हैं। तो ऐसा न हो कि मन्सा, वाचा में तो मार्क्स बना लो और कर्मणा में रह जाए और आप समझो - मैं बहुत महावीर हूँ। सभी में मार्क्स लेनी हैं। इसको कहते हैं - सेवाधारी। तो कौन - सा ग्रुप है? आलराउण्ड सेवाधारी या स्थान देने के सेवाधारी? यह भी अच्छा किया जो सफल कर लिया। जो जितना सफल करते हैं, उतना मालिक बनते हैं। समय के पहले सफल कर लेना - यह समझदार बनने की निशानी है। तो समझदारी का काम किया है। बापदादा भी खुश होते हैं कि हिम्मत रखने वाले बच्चे हैं। अच्छा!
विदाई के समय मुलाकात
दादियों से - सभी को खुश करने की सेवा नम्बर वन सेवा है। सबके अन्दर खुशी की लहर पैदा करना - यह है बाप समान सेवा। तो समान बनने की सेवा का वरदान मिला हुआ है। ‘समान भव' का वरदान डॉयरेक्ट साकार रूप से मिला हुआ है। सबके अन्दर बाप की याद स्वत: ही आ जाती है। जब समान बच्चों को देखते तो बच्चे नहीं देखते लेकिन बाप दिखाई देता। यह सेवा सभी को आगे बढ़ा रही है। बापदादा सभी महारथी बच्चों की, निमित्त बच्चों की सेवा को देख - देख हर्षित हो रहे हैं। निमित्त बनना - यह भी एक भाग्य है। मधुबन में सेवा का चांस मिला है और सभी कर भी अच्छी रहे हैं। पाण्डव भी अच्छी सेवा करते हैं। सब दिल से करते हैं। जो दिल से सेवा करते हैं उसका दिलाराम बाप के पास जल्दी पहुँचता है क्योंकि दिल की तार दिल से होती है। दिल की सेवा सेकण्ड में पहुँचती है और पद्मगुणा जमा हो जाती है। जैसे यहाँ कम्प्यूटर चलाते हो, यह तो खराब भी हो जाता लेकिन वहाँ सेकण्ड में जमा होता रहता है। वह कम्पलीट कम्प्यूटर है, अँगुली चलाने की भी जरूरत नहीं। तो निमित्त सेवाधारियों का कमाल है, हरेक अपनी - अपनी ड्यूटी अच्छी बजा रहे हैं। नम्बरवार तो होता है लेकिन अच्छे हैं। मधुबन वालों को सेवा के समर्थ बनने की विशेष याद। वैसे तो एक - एक आत्मा इस ईश्वरीय मशीनरी के लिए आवश्यक है। 5 वर्ष का बच्चा भी आवश्यक है, वह भी शोभा है। जो भी बैठे हो सब वैल्युएबल हो। कहने में तो कुछेक का नाम आता है लेकिन काम सभी का है। सेवाकेन्द्र का शृंगार आप सब हो। बाप का इतना आवाज बुलन्द करने वाले, चारों ओर आवाज फैलाने वाले इतनी भुजायें चाहिए ना! तो आप सब भुजायें हो। अच्छा!
सभी बच्चों के प्रति यादप्यार देते हुए
चारों ओर के देश - विदेश के दिल में समाये हुए बच्चों की यादप्यार पत्रों द्वारा या संकल्प द्वारा, दिल द्वारा बापदादा के पास पहुँची। सभी बच्चों को स्नेह के रेस्पाण्ड में बापदादा पद्मगुणा यादप्यार के साथ ‘‘सदा दिलतख्तनशीन, सदा लाइट के ताजधारी, सदा स्मृति स्वरूप के तिलकधारी भव'' का विशेष वरदान दे रहे हैं। सभी बच्चे अमृतवेले से चलतेफिरते, कर्म करते भी याद की लग्न में अच्छे तीव्रगति से आगे बढ़ रहे हैं। अपने उमंग - उत्साह का समाचार देते रहते हैं और बापदादा देख - देख हर्षित होते हैं। बाकी थोड़ा बहुत माया का खेल भी होता है। खेल नहीं खेलेंगे तो उदास हो जायेंगे, इसलिए खेलो भल लेकिन हार नहीं खाना। अगर माया आती भी है तो दुश्मन के रूप में नहीं देखो, खिलौने के रूप में देखो। तो माया भी बिजी हो जायेगी और आप भी मनोरंजन कर लेंगे। माया का रूप परिवर्तन कर लो, घबराओ नहीं। उसको परिवर्तन कर और ही सदा के लिए आगे बढ़ाने के लिए साथी बना दो। थोड़ा बहुत खेल तो होता ही रहता है, होता ही रहेगा। यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि बापदादा जानते हैं अभी अनुभवी हो चुके हैं, इसलिए बच जाते हैं। बाकी कोई थोड़े कमज़ोर हैं जो कभी थोड़ा - सा वार में आ जाते हैं लेकिन फिर होश में आ जाते हैं। इसलिए यह समाचार भी सुनते रहते हैं। लेकिन अभी अटेन्शन अच्छा है और बहादुर भी बनते जा रहे हैं, इसलिए माया भी अभी गई कि गई, अभी ज्यादा दिन नहीं रहेगी, मुक्त हो जायेंगे। क्योंकि खेल खेलते - खेलते भी थक जाते हैं ना, तो खेल बन्द कर देते हैं तो यह खेल भी बन्द हो जायेगा। बाकी सभी बच्चों में सेवा का उमंग अच्छा है। प्रोग्राम भी अच्छे - अच्छे बना रहे हैं। मेहनत मुहब्बत से कर रहे हैं, इसलिए अथक हैं, थकते नहीं हैं। नाम मुहब्बत है, निमित्त मेहनत कर रहे हैं, इसलिए सेवा के भी चारों ओर के उमंग - उत्साह में अच्छे चल रहे हैं। विदेश में भी तैयारियां अच्छी कर रहे हैं। और जनक तो है ही जनक, सभी को विदेही बन देह में आने का अभ्यास अच्छा कराती है। इसलिए विदेश को, चारों ओर की सेवा के निमित्त श्रेष्ठ आत्मा अच्छी मिली है। चारों ओर में खुशी और निर्विघ्न बनने की हिम्म्त अच्छी दिखाई दे रही है। सभी का नाम नहीं ले रहे हैं, बीज में समझना सारा झाड़ ही समाया हुआ है। अच्छा! सभी को दिलाराम बाप की पद्मगुणा यादप्यार और गुडमॉर्निंग। अच्छा!
22 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हिम्मत का पहला कदम - समर्पणता
(ब्रह्मा बाप की जीवन कहानी) बेफिकर बादशाह बनाने वाले स्नेह के सागर बापदादा अपने शुभचिन्तक बच्चों प्रति बोले
आज स्नेह के सागर बापदादा अपने स्नेही बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। हर एक स्नेही आत्माओं को एक ही लग्न है, श्रेष्ठ संकल्प है कि हम सभी बाप समान बनें, स्नेह में समा जायें। स्नेह में समा जाना अर्थात् बाप समान बनना। सभी की दिल में यह दृढ़ संक्ल्प है कि हमें बापदादा द्वारा प्राप्त हुए स्नेह, शक्तिशाली पालना और अखुट अविनाशी खज़ानों का रिटर्न अवश्य करना है। रिटर्न में क्या देंगे? सिवाए दिल के स्नेह के आपके पास और है ही क्या? जो भी है वह बाप का दिया हुआ ही है, वह क्या देंगे। बाप समान बनना - यही रिटर्न है और यह सभी कर सकते हो।
बापदादा देख रहे थे कि आजकल सभी के दिल में विशेष ब्रह्मा बाप की स्मृति ज्यादा इमर्ज है। स्मृति शरीर की नहीं है लेकिन चरित्रों के विशेषताओं की स्मृति है। क्योंकि अलौकिक ब्राह्मण जीवन ज्ञानस्वरूप जीवन है, ज्ञानस्वरूप होने के कारण देह की स्मृति भी दु:ख की लहर नहीं लायेगी। अज्ञानी जीवन में किसी को भी याद करेंगे तो सामने देह आयेगी, देह के सम्बन्ध के कारण दु:ख महसूस होगा। लेकिन आप ब्राह्मण बच्चों को बाप की स्मृति आते समर्थी आ जाती है कि हमें भी ‘‘बाप समान'' बनना ही है। अलौकिक बाप की स्मृति समर्थी अर्थात् शक्ति दिलाती है। चाहे कोई - कोई बच्चे दिल का स्नेह नयनों के मोतियों द्वारा भी प्रगट करते हैं लेकिन दु:ख के आँसू नहीं, वियोग के आँसू नहीं, यह स्नेह के मोती हैं। दिल के मिलन का स्नेह है। वियोगी नहीं लेकिन राजयोगी हैं। क्योंकि दिल का सच्चा स्नेह शक्ति दिलाता है कि जल्दी - से - जल्दी पहले मैं बाप का रिटर्न दूँ। रिटर्न देना अर्थात् समान बनना। इस विधि से ही अपने स्नेही बापदादा के साथ स्वीट होम में रिटर्न होंगे अर्थात् साथ वापस जायेंगे। रिटर्न करना भी है और बाप के साथ रिटर्न जाना भी है। इसलिए आपका स्नेह वा याद दुनिया से न्यारा और बाप का प्यारा बनने का है।
तो बापदादा बच्चों के समर्थ बनने का संकल्प, समान बनने का उमंग देख रहे थे। ब्रह्मा बाप की विशेषताओं को देख रहे थे। अगर ब्रह्मा बाप की विशेषताओं का वर्णन करें तो कितनी होंगी? हर कदम में विशेषतायें रहीं। संकल्प में भी सर्व को विशेष बनाने का हर समय उमंग - उत्साह रहा। अपनी वृत्ति द्वारा हर आत्मा को उमंग - उत्साह में लाना - यह विशेषता सदा ही प्रत्यक्ष रूप में देखी। वाणी द्वारा हिम्मत दिलाने वाले, नाउम्मीद को उम्मीद में लाने वाले, निर्बल आत्मा को उड़ती कला की विधि से उड़ाने वाले, सेवा के योग्य बनाने वाले, हर बोल अनमोल, मधुर, युक्तियुक्त थे। ऐसे ही कर्म में बच्चों के साथ हर कर्म में साथी बन कर्मयोगी बनाया। सिर्फ साक्षी होकर देखने वाले नहीं लेकिन स्थूल कर्म के महत्त्व को अनुभव कराने के लिए कर्म में भी साथी बने। जो कर्म मैं करूँगा, मुझे देख बच्चे स्वत: ही करेंगे - इस पाठ को सदा कर्म करके पढ़ाया। सम्बन्ध - सम्पर्क में छोटे बच्चों को भी सम्बन्ध से बच्चों समान बन खुश किया। वानप्रस्थ को भी वानप्रस्थ रूप से अनुभवी बन सम्बन्ध - सम्पर्क से सदा उमंग - उत्साह में लाया। बाल से बाल रूप, युवा से युवा रूप और बुजुर्ग से बुजुर्ग रूप बन सदा आगे बढ़ाया, सदा सम्बन्ध - सम्पर्क से हरेक को अपना - पन अनुभव कराया। छोटा बच्चा भी कहेगा कि ‘‘जितना मुझे बाबा प्यार करता, उतना किसको नहीं करता!'' तो हर एक को इतना प्यार दिया जो हरेक समझे कि बाबा मेरा है। यह है सम्बन्ध - सम्पर्क की विशेषता। देखने में हर एक आत्मा की विशेषता वा गुण को देखना। सोचने में देखो, सदा जानते हुए कि यह लास्ट नम्बर के दाने हैं लेकिन ऐसी आत्मा के प्रति भी सदा आगे बढ़ें - ऐसा हर आत्मा प्रति शुभ चिन्तक रहे। ऐसी विशेषतायें सभी बच्चों ने अनुभव कीं। इन सभी बातों में समान बनना अर्थात् फालो फादर करना है। यह फालो करना कोई मुश्किल है क्या? इसी को ही स्नेह, इसी को ही रिटर्न देना कहा जाता है।
तो बापदादा देख रहे थे कि हर एक बच्चे ने अभी तक कितना रिटर्न किया है? लक्ष्य तो सभी का है लेकिन प्रत्यक्ष जीवन में ही नम्बर है। सभी नम्बरवन बनना चाहते हैं। दो - तीन नम्बर बनना कोई पसन्द नहीं करेंगे। यह भी लक्ष्य शक्तिशाली अच्छा है लेकिन लक्ष्य और लक्षण समान होना - यही समान बनना है। इसके लिए जैसे ब्रह्मा बाप ने पहला कदम हिम्मत का कौन - सा उठाया जिस कदम से ही पद्मापद्म भाग्यवान आदि से अनुभव किया? पहला कदम हिम्मत का - सब बात में समर्पणता। सब कुछ समर्पण किया। कुछ सोचा नहीं कि क्या होगा, कैसे होगा। एक सेकण्ड में बाप की श्रेष्ठ मत प्रमाण बाप ने ईशारा दिया, बाप का ईशारा और ब्रह्मा का कर्म वा कदम! इसको कहते हैं हिम्मत का पहला कदम। तन को भी समर्पण किया। मन को भी सदा मन्मनाभव की विधि से सिद्धिस्वरूप बनाया। इसलिए मन अर्थात् हर संकल्प सिद्ध अर्थात् सफलता स्वरूप बनें। धन को बिना कोई भविष्य की चिंता के निश्चित बन धन समार्पित किया क्योंकि निश्चय था कि यह देना नहीं है लेकिन पद्मगुणा लेना है। ऐसे सम्बन्ध को भी समार्पित किया अर्थात् लौकिक को अलौकिक सम्बन्ध में परिवर्तन किया। छोड़ा नहीं, कल्याण किया, परिवर्तन किया। मैं - पन की बुद्धि, अभिमान की बुद्धि समार्पित की। इसलिए सदा तन, मन, बुद्धि से निर्मल, शीतल सुखदाई बन गये। कैसे भी लौकिक परिवार से वा दुनिया की अन्जान आत्माओं से परिस्थितियाँ आई लेकिन संकल्प में भी स्वप्न में भी कभी संशय के सूक्ष्म स्वरूप ‘‘संकल्प मात्र'' भी हलचल में नहीं आये।
ब्रह्मा की विशेष इस बात की कमाल रही जो आप सबके आगे साकार रूप में ब्रह्मा बाप एग्जाम्पल था लेकिन ब्रह्मा के आगे कोई साकार एग्जाम्पल नहीं था। सिर्फ अटल निश्चय, बाप की श्रीमत का आधार रहा। आप लोगों के लिए तो बहुत सहज है! और जितना जो पीछे आये हैं, उनके लिए और सहज है! क्योंकि अनेक आत्माओं के परिवर्तन की श्रेष्ठ जीवन आपके आगे एग्जैम्पल है। यह करना है, बनना है - क्लीयर है। इसलिए, आप लोगों को ‘‘क्यूं, क्या'' का क्वेश्चन उठने का मार्जिन नहीं है। सब देख रहे हो। लेकिन ब्रह्मा के आगे क्वेश्चन उठने की मार्जिन थी। क्या करना है, आगे क्या होना है, राइट कर रहा हूँ वा रांग कर रहा हूँ - यह संकल्प उठना सम्भव था लेकिन सम्भव को असम्भव बनाया। एक बल एक भरोसा - इसी आधार से निश्चयबुद्धि नम्बरवन विजयी बन गये। इसी समर्पणता के कारण बुद्धि सदा हल्की रही, बुद्धि पर बोझ नहीं रहा। मन निश्चिन्त रहा। चेहरे पर सदा ही बेफिकर बादशाह के चिन्ह स्पष्ट देखे। 350 बच्चे और खाने के लिए आटा नहीं और टाइम पर बच्चों को खाना खिलाना है! तो सोचो, ऐसी हालत में कोई बेफिकर रह सकता है एक बजे बेल (घण्टी) बजना है और 11.00 बजे तक आटा नहीं, कौन बेफिकर रह सकता? ऐसी हालत में भी हर्षित, अचल रहा। यह बाप की जिम्मेवारी है, मेरी नहीं है, मैं बाप का तो बच्चे भी बाप के हैं, मैं निमित्त हूँ - ऐसा निश्चय और निश्चिन्त कौन रह सकता? मन - बुद्धि से समार्पित आत्मा। अगर अपनी बुद्धि चलाते कि पता नहीं क्या होगा, सब भूखे तो नहीं रह जायेंगे, यह तो नहीं होगा, वह तो नहीं होगा - ऐसे व्यर्थ संकल्प वा संशय की मार्जिन होते हुए भी समर्थ संकल्प चले कि सदा बाप रक्षक है, कल्याणकारी है! यह विशेषता है समर्पणता की। तो जैसे ब्रह्मा बाप ने समर्पण होने से पहला कदम ‘‘हिम्मत'' का उठाया, ऐसे फालो फादर करो। निश्चय की विजय अवश्य होती है। तो टाइम पर आटा भी आ गया, बेल भी बज गया और पास हो गये। इसको कहते हैं क्वेश्चन मार्क अर्थात् टेढ़ा रास्ता न ले सदा कल्याण की बिन्दी लगाओ। फुलस्टाप। इसी विधि से ही सहज भी होगा और सिद्धि भी प्राप्त होगी। तो यह भी ब्रह्मा की कमाल। आज पहला एक कदम सुनाया है। फिकर के बोझ से भी बेफिकर बन जाओ। इसको की कहा जाता है स्नेह का रिटर्न करना। अच्छा!
सदा हर कदम में बाप को फालो करने वाले, हर कदम में स्नेह का रिटर्न करने वाले, सदा निश्चयबुद्धि बन, निश्चिन्त बेफिकर बादशाह रहने वाले, मन - वाणी - कर्म - सम्बन्ध में बाप समान बनने वाले, सदा शुभचिन्तक, सदा हर एक की विशेषता देखने वाले, हर आत्मा को सदा आगे बढ़ाने वाले, ऐसे बाप समान बच्चों को स्नेही बाप का स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से मुलाकात
1. अपने को ऊँचे - ते - ऊँचे बाप की ऊँचे - ते - ऊँची ब्राह्मण आत्मायें समझते हो? ब्राह्मण सबसे ऊँचे गाये जाते हैं, ऊँचे की निशानी सदा ब्रह्मणों को चोटी पर दिखाते हैं। दुनिया वालों ने नामधारी ब्राह्मणों की निशानी दिखा दी है। तो चोटी रखने वाले नहीं लेकिन चोटी की स्थिति में रहने वाले। उन्होंने स्थूल निशानी दिखा दी है, वास्तव में हैं ऊँची स्थिति में रहने वाले। ब्राह्मणों को ही पुरूषोत्तम कहा जाता है। पुरूषोत्तम अर्थात् पुरूषों से उत्तम, साधारण मनुष्यात्माओं से उत्तम। ऐसे पुरूषोत्तम हो ना! पुरूष आत्मा को भी कहते हैं, श्रेष्ठ आत्मा बनने वाले अर्थात् पुरूषों से उत्तम पुरूष बनने वाले। देवताओं को भी पुरूषोत्तम कहते हैं क्योंकि देव - आत्मायें हैं। आप देव - आत्माओं से भी ऊँचे ब्राह्मण हो - यह नशा सदा रहे। दूसरे नशे के लिए कहेंगे - कम करो, रूहानी नशे के लिए बाप कहते हैं - बढ़ाते चलो। क्योंकि यह नशा नुकसान वाला नहीं है, और सभी नशे नुकसान वाले हैं। यह चढ़ाने वाला है, वह गिराने वाले हैं। अगर रूहानी नशा उतर गया तो पुरानी दुनिया की स्मृति आ जायेगी। नशा चढ़ा हुआ होगा तो नई दुनिया की स्मृति रहेगी। यह ब्राह्मण संसार भी नया संसार है। सतयुग से भी यह संसार अति श्रेष्ठ है! तो सदा इस स्मृति से आगे बढ़ते चलो।
2. सदा अपने को विश्व - रचता बाप की श्रेष्ठ रचना अनुभव करते हो? ब्राह्मण जीवन अर्थात् विश्व - रचता की श्रेष्ठ रचना। हम डायरेक्ट बाप की रचना हैं - यह नशा है? दुनिया वाले तो सिर्फ अन्जान बनके कहते हैं कि हमको भगवान ने पैदा किया है। आप सभी भी पहले अन्जान होकर कहते थे लेकिन अभी जानते हो कि हम शिववंशी ब्रह्माकुमार - कुमारी हैं। तो अभी ज्ञान के आधार से, समझ से कहते हो कि हमको भगवान ने पैदा किया है, हम मुख वंशावली हैं। डायरेक्ट बाप ने ब्रह्मा द्वारा रचना रची है। तो बापदादा वा मात - पिता की रचना हो। डायरेक्ट भगवान की रचना - यह अभी अनुभव से कह सकते हो। तो भगवान की रचना कितनी श्रेष्ठ होगी! जैसा रचयिता वैसी रचना होगी ना। यह नशा और खुशी सदा रहती है? अपने को साधारण तो नहीं समझते हो? यह राज़ जब बुद्धि में आ जाता है तो सदा ही रूहानी नशा और खुशी चेहरे पर वा चलन में स्वत: ही रहती है। आपका चेहरा देखकर के किसको अनुभव हो कि सचमुच यह श्रेष्ठ रचता की रचना हैं। जैसे राजा की राजकुमारी होगी तो उसकी चलन से पता चलेगा कि यह रायल घर की है। यह साहूकार घर की या यह साधारण घर की है। ऐसे आपके चलन से, चेहरे से अनुभव हो कि यह ऊँची रचना है, ऊँचे बाप के बच्चे हैं!
कुमारियों से - कन्यायें 100 ब्राह्मणों से उत्तम गाई हुई हैं यह महिमा क्यों है? क्योंकि जितना स्वयं श्रेष्ठ होंगे, उतना ही औरों को भी श्रेष्ठ बना सकेंगे। तो श्रेष्ठ आत्मायें हैं - यह खुशी रहती है? तो कुमारियाँ सेवाधारी बन सेवा में आगे बढ़ते चलो। क्योंकि यह संगमयुग है ही थोड़े समय का युग, इसमें जितना जो करने चाहे, उतना कर सकता है। तो श्रेष्ठ लक्ष्य और श्रेष्ठ लक्षण वाली हो ना? जहाँ लक्ष्य और लक्षण श्रेष्ठ हैं, वहाँ प्राप्ति भी सदा श्रेष्ठ अनुभव होती है। तो सदा इस ईश्वरीय जीवन का फल ‘‘खुशी'' और ‘‘शक्ति'' दोनों अनुभव करती हो? दुनिया में खुशी के लिए खर्चा करते, तो भी प्राप्त नहीं होती। अगर होती भी है तो अल्पकाल की और खुशी के साथ - साथ दु:ख भी होगा। लेकिन आप लोगों की जीवन सदा खुशी की हो गई। दुनिया वाले खुशी के लिए तड़पते हैं और आपको खुशी प्रत्यक्षफल के रूप में मिल रही है। खुशी ही आपके जीवन की विशेषता है! अगर खुशी नहीं तो जीवन नहीं। तो सदा अपनी उन्नति करते हुए आगे बढ़ रही हो ना? बापदादा खुश होते हैं कि कुमारियाँ समय पर बच गई, नहीं तो उल्टी सीढ़ी चढ़कर फिर उतरनी पड़ती। चढ़ो और उतरो - मेहनत है ना। देखो, कोई भी प्रवृत्ति वालें हैं, तो भी कहलाना तो ब्रह्माकुमार - ब्रह्माकुमारी पड़ता, ब्रह्मा अधरकुमार तो नहीं कहते। फिर भी कुमारकुमारी बने ना। तो सीढ़ी उतरे और आपको उतरना नहीं पड़ा, बहुत भाग्यवान हो, समय पर बाप मिल गया। कुमारी ही पूजी जाती है। कुमारी जब गृहस्थी बन जाती है तो बकरी बन सबके आगे सिर झुकाती रहती है। तो बच गई ना। तो सदा अपने को ऐसे भाग्यवान समझ आगे बढ़ते चलो। अच्छा!
माताओं से - सभी शक्तिशाली मातायें हो ना? कमज़ोर तो नहीं? बापदादा माताओं से क्या चाहते हैं? एक - एक माता ‘‘जगतमाता'' बन विश्व का कल्याण करे। लेकिन मातायें चतुराई से काम करती हैं। जब लौकिक कार्य होता है तो किसी न किसी को निमित्त बनाकर निकल जातीं और जब ईश्वरीय कार्य होता तो कहेंगे - बच्चे हैं, कौन सम्भालेगा? पाण्डवों को तो बापदादा कहते - सम्भालना है क्योंकि रचता हैं, पाण्डव शक्तियों को फ्री करें। ड्रामा अनुसार वर्तमान समय माताओं को चांस मिला है, इसलिए माताओं को आगे रखना है। अभी बहुत सेवा करनी है। सारे विश्व का परिवर्तन करना है तो सेवा पूरी कैसे करोगे? तीव्र गति चाहिए ना। तो पाण्डव, शक्तियों को फ्री करो तो सेवाकेन्द्र खुलें और आवाज बुलन्द हो। अच्छा!
26 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
संगमयुग पर नम्बरवन पूज्य बनने की अलौकिक विधि
परमशिक्षक बापदादा अपने बच्चों को हर आत्मा में विशेषता देखने की प्रेरणा देते हुए बोले –
आज अनादि बाप और आदि बाप अनादि शालिग्राम बच्चों को और आदि ब्राह्मण बच्चों को डबल रूप से देख रहे हैं। शालिग्राम रूप में भी परम पूज्य हो और ब्राह्मण सो देवता स्वरूप भी गायन और पूजन योग्य हो। दोनों - आदि और अनादि बाप दोनों ही रूप से पूज्य आत्माओं को देख हर्षित हो रहे हैं। अनादि बाप ने आदि पिता सहित अर्थात् ब्रह्मा बाप और ब्राह्मण बच्चों को अपने से भी ज्यादा डबल रूप में पूज्य बनाया है। अनादि बाप की पूजा सिर्फ एक निराकार रूप में होती है लेकिन ब्राह्मा सहित ब्राह्मण बच्चों की पूजा ‘‘निराकार'', ‘‘साकार'', - दोनों रूप से होती है। तो बाप बच्चों को अपने से भी ज्यादा डबल रूप से महान मानते हैं।
आप बापदादा बच्चों की विशेषताओं को देख रहे थे। हर एक बच्चे की विशेषता अपनी - अपनी है। कोई बाप की और सर्व ब्राह्मण आत्माओं की विशेषताओं को जान स्वयं में सर्व विशेषतायें धारण कर श्रेष्ठ अर्थात् विशेष आत्मा बन गये हैं और कोई विशेषताओं को जान और देखकर खुश होते हैं लेकिन अपने में सर्व विशेषतायें धारण करने की हिम्मत नहीं है और कोई हर आत्मा में या ब्राह्मण परिवार में विशेषता होते हुए भी विशेषता के महत्व से नहीं देखते, एक दो को साधारण रूप से देखते हैं। विशेषता देखने वा जानने का अभ्यास नहीं है वा गुण - ग्राहक बुद्धि अर्थात् गुण ग्रहण करने की बुद्धि न होने के कारण विशेषता अर्थात् गुण को जान नहीं सकते। हर एक ब्राह्मण आत्मायें कोई - न - कोई विशेषता अवश्य भरी हुई है। चाहे 16 हजार का लास्ट दाना भी हो लेकिन उसमें भी कोई - न - कोई विशेषता है, इसलिए ही बाप की नजर उस आत्मा के ऊपर पड़ती है। भगवान की नजर पड़ जाए वा भगवान अपना बनावे तो जरूर विशेषता समाई हुई है! इसलिए ही वह आत्मा ब्राह्मणों की लिस्ट में आई है लेकिन सदा हर एक की विशेषता को देखने और जानने में नम्बरवार बन जाते हैं। बापदादा जानते हैं कि कैसे भी, भल ज्ञान की धारणा वा सेवा में, याद में कमज़ोर हैं लेकिन बाप को जानने, बाप के बनने की विशालबुद्धि, बाप को देखने की दिव्य - नजर - यह विशेषता तो है। जो आजकल के नामीग्रामी विद्वान भी नहीं जान सकते, न पहचान सकते लेकिन उन आत्माओं ने जान लिया! कोटों में कोई, कोई में भी कोई - इस लिस्ट में तो आ गये ना। इसलिए कोटों में से विशेष आत्मा तो हो गये ना। विशेष क्यों बनें? क्योंकि ऊँचे - ते - ऊँच बाप के बन गये।
सभी आत्माओं में ब्राह्मण आत्मायें विशेष हैं। सिर्फ कोई अपनी विशेषता को कार्य में लगाते हैं, इसलिए वह विशेषता वृद्धि को प्राप्त होती रहती है और दूसरों को भी वह दिखाई देती है, और कोई में विशेषता रूपी बीज तो है लेकिन कार्य में लाना - यह है बीज को धरनी में डालना। जब तक बीज को धरनी में नहीं डालें तो वृक्ष नहीं पैदा होता, विस्तार को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। और कई बच्चे विशेषता के बीज को विस्तार में भी लाते अर्थात् वृक्ष के रूप में वृद्धि को भी प्राप्त करते, फल को भी प्राप्त करते लेकिन जब फल आता है तो फल के पीछे चिड़ियाएँ, पंछी भी आते हैं खाने के लिए। तो फल जब तक पहुँचते हैं तो इस रूप में माया आती है कि मैं विशेष हूँ, मेरी यह विशेषता है। यह नहीं समझते कि बाप द्वारा प्राप्त हुई विशेषता है। विशेषता भरने वाला बाप है। जब ब्राह्मण बने तो विशेषता आई। ब्राह्मण जीवन की देन है, बाप की देन है। इसलिए फल के बाद अर्थात् सेवा में सफलता के बाद यह अटेन्शन रखना भी जरूरी है। नहीं तो, माया रूपी चिड़िया, पंछी फल को झूठा कर देते या नीचे गिरा देते हैं। जैसे खण्डित मूर्ति की पूजा नहीं होती, माना जाता है कि यह मूर्ति है लेकिन पूजी नहीं जाती। ऐसे जो ब्राह्मण आत्मायें सेवा का फल अर्थात् सेवा में सफलता प्राप्त कर लेते हैं लेकिन ‘मैं - पन' की चिड़िया ने फल को खण्डित कर दिया, इसलिए सिर्फ माना जायेगा कि सेवा बहुत अच्छी करते हैं, महारथी हैं, सर्विसएबल हैं लेकिन संगमयुग पर भी सर्व ब्राह्मण परिवार के दिल में स्नेह के पात्र वा पूज्य नहीं बन सकते हैं।
संगमयुग में दिल का स्नेह, दिल का रिगार्ड - यही पूज्य बनना है। फल को मैं - पन में लाने वाले ऐसा पूज्य नहीं बन सकते। एक है दिल से किसको ऊंचा मानना, तो ऊंचे को पूज्य कहा जाता है। जैसे आजकल की दुनिया में भी बाप ऊँचा होने कारण बच्चे ‘‘पूज्य पिताजी'' कहकर बुलाते हैं या लिखते हैं ऐसे दिल से ऊँचा मानना अर्थात् दिल से रिगार्ड देना। दूसरा होता है बाहर की मर्यादा प्रमाण रिगार्ड देना ही पड़ता है। तो ‘‘दिल से देना'' और ‘‘देना ही पड़ता'' इसमें कितना अन्तर है! पूज्य बनना अर्थात् दिल से सर्व मानें। मैजारिटी होने चाहिए, पहले भी सुनाया कि 5 परसेन्ट तो रह ही जाता है लेकिन मैजारिटी दिल से मानें - यह है संगमयुग पर पूज्य बनना। पूज्य बनने का संस्कार भी अभी से ही भरना है। लेकिन भक्ति मार्ग के पूज्य बनने में और अब के पूज्य बनने में अन्तर है। अभी आपके शरीरों की पूजा नहीं हो सकती क्योंकि अन्तिम पुराना शरीर है, तमोगुणी तत्वों का बना हुआ शरीर है। अभी फूलों के हार नहीं पड़ेंगे। भक्ति - मार्ग में तो देवताओं के ऊपर चढ़ाते हैं ना। पूज्य की निशानी है - धूप जलाना, हार पहनाना, आरती करना, कीर्तन करना, तिलक लगाना। संगमयुग पर यह स्थूल विधि नहीं है। लेकिन संगमयुग में सदा दिल से उन पूज्य आत्माओं के प्रति सच्चे स्नेह की आरती उतारते रहते हैं। आत्माओं द्वारा सदा कोई - न - कोई प्राप्ति का कीर्तन करते रहते हैं, सदा उन आत्माओं के प्रति शुभ भावना की धूप वा दीपक जगाते रहते हैं। सदा ऐसी आत्माओं को देख स्वयं भी जैसे वह आत्मायें बाप के ऊपर बलिहार गई है, वैसे अन्य आत्माओं में भी बाप के ऊपर बलिहार जाने का उमंग आता है। तो बाप के ऊपर बलिहार जाने का हार सदा उन आत्माओं को स्वत: ही प्राप्त होता है। ऐसी आत्मायें सदा स्मृतिस्वरूप के तिलकधारी होती हैं। इस अलौकिक विधि से इस समय के पूज्य आत्मायें बनती हैं।
भक्ति - मार्ग के पूज्य बनने से श्रेष्ठ पूजा अब की है। जैसे भक्ति - मार्ग की पूज्य आत्माओं के दो घड़ी के सम्पर्क से अर्थात् सिर्फ मूर्ति के सामने जाने से दो घड़ी के लिए भी शान्ति, शक्ति, खुशी का अनुभव होता है। ऐसे संगमयुगी पूज्य आत्माओं द्वारा अब भी दो घड़ी - एक घड़ी भी दृष्टि मिलने से भी खुशी, शान्ति वा उमंग - उत्साह की शक्ति अनुभव होती है। ऐसी पूज्य आत्मायें अर्थात् नम्बरवन विशेष आत्मायें हैं। सेकण्ड और थर्ड तो सुना दिया, उसका विस्तार क्या करेंगे। हैं तो सब विशेष आत्माओं की लिस्ट में लेकिन वन, टू, थ्री - नम्बरवार हैं। लक्ष्य सभी का नम्बरवन का होता है। तो ऐसे पूज्य बनो। जैसे ब्रह्मा बाप के गुणों के गीत गाते हो ना। यह सब विशेषतायें पूज्य बनने की वा नम्बरवन विशेष आत्मा बनने की बातें ब्रह्मा बाप में देखी ना, सुनी ना। तो जैसे ब्रह्मा की साकार आत्मा नम्बरवन संगमयुगी पूज्य सो भविष्य में नम्बरवन पूज्य बनते। लक्ष्मी - नारायण नम्बरवन पूज्य हैं ना। ऐसे, आप सभी भी ऐसे बन सकते हैं।
जैसे बाप के साथ - साथ ब्रह्मा बाप की कमाल गाते हैं, ऐसे आप सभी भी सदा ऐसा संकल्प, बोल और कर्म करो जो सदा ही कमाल का हो! जब कमाल होगी तो धमाल नहीं होगी। कमाल नहीं करते तो धमाल करते हो - चाहे संकल्पों की धमाल करो, चाहे वाणी से करो। संकल्पों से भी व्यर्थ तूफान चलता तो यह धमाल है ना। धमाल नहीं लेकिन कमाल करनी है। क्योंकि आदि पिता ब्रह्मा के ब्राह्मण बच्चे सदा ही पूज्य गाये जाते हैं? अभी लास्ट जन्म में भी देखो तो सभी से उँच वर्ण कौन - सा गाया जाता है? ब्राह्मण वर्ण कहते हैं ना। ऊँचा नाम और ऊँचे श्रेष्ठ काम के लिए भी ब्राह्मण को ही बुलाते हैं, किसके कल्याण के लिए भी ब्राह्मणों को ही बुलाते हैं। तो लास्ट जन्म तक भी ब्राह्मण आत्माओं का ऊँचा नाम, ऊँचा काम प्रसिद्ध है। परम्परा से चल रहा है। सिर्फ नाम से भी काम चला रहे हैं। काम आपका है लेकिन नाम वालों का भी काम चल रहा है। इससे देखो कि सच्चे ब्राह्मण आत्माओं की कितनी महिमा है और कितने महान हैं! ‘‘ब्राह्मण'' - नाम भी अविनाशी हो गया है। अविनाशी प्राप्ति वाली जीवन हो गई है।
ब्राह्मण जीवन की विशेषता है - मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा। क्योंकि मुहब्बत के आगे मेहनत नहीं है। अब लास्ट जन्म में भी ब्राह्मण मेहनत नहीं करते, आराम से खाते रहते हैं। अगर ‘‘नाम'' का भी काम करते हैं तो भूखे नहीं रह सकते हैं। तो इस समय के ब्राह्मण जीवन की विशेषताओं की अब तक निशानियाँ देख रहे हो। इतनी श्रेष्ठ विशेष आत्मा हो! समझा?
वर्तमान समय पूज्य तो भविष्य के पूज्य। इसको ही विशेष आत्मायें नम्बरवन कहते हैं। तो चेक करो। ब्रह्मा बाप की कहानी सुना रहे हैं ना। अभी और भी रही हुई है। यह ब्रह्मा बाप की विशेषता सदा सामने रखो। और किसी बातों में नहीं जाओ, लेकिन विशेषताओं को देख और वर्णन करो। हर एक को विशेषता का महत्त्व सुनाएं विशेष बनाओ। बना अर्थात् स्वयं विशेष बनना। समझा। अच्छा!
चारों ओर के सर्व नम्बरवन विशेष आत्माओं को, सर्व ब्राह्मण जीवन वाले विशेष आत्माओं को, सदा ब्रह्मा बाप को सामने रख समान बनने वाले बच्चों को अनादि बाप, आदि बाप का दोनों रूप से सर्व शालिग्रामों और साकारी ब्राह्मण आत्माओं को स्नेह भरी यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों के साथ मुलाकात
1. सदा बाप का हाथ और साथ है, ऐसा भाग्यवान समझते हो? जहाँ बाप का हाथ और साथ है, वहाँ सदा ही मौजों की जीवन होती है। मूँझने वाले नहीं होंगे, मौज में रहेंगे। कोई भी परिस्थिति अपने तरफ आकर्षित नहीं करेगी, सदा बाप की तरफ आकर्षित होंगे। सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया बाप है, तो बाप के सिवाए और कोई चीज़ या व्यक्ति आकर्षित नहीं कर सकता। जो बाप के हाथ और साथ में पलने वाले हैं, उनका मन और कहीं जा नहीं सकता। तो ऐसे सभी हो या माया की पालना में चले जाते हो? वह रास्ता बन्द है ना। तो सदा बाप के साथ की मौज में रहो। बाप मिला सब कुछ मिला, कोई अप्राप्ति नहीं। कितना भी कोई हाथ, साथ छुड़ाये लेकिन छोड़ने वाले नहीं। और छोड़कर जायेंगे भी कहाँ? इससे बड़ा और कोई भाग्य हो नहीं सकता! कुमारियाँ तो हैं ही सदा भाग्यवान। डबल भाग्य है। एक - कुमारी जीवन का भाग्य, दूसरा - बाप का बनने का भाग्य। कुमारी जीवन पूजी जाती है। जब कुमारी जीवन खत्म होती है तो सबके आगे झुकना पड़ता। गृहस्थी जीवन है ही बकरी समान जीवन, कुमारी जीवन है पूज्य जीवन। अगर कोई एक बार भी गिरा तो गिरने से ही टूट जाती है ना। फिर कितना भी प्लास्टर करो, ठीक करो लेकिन ही कमज़ोर हो जाती है। तो समझदार बनो। टेस्ट करके फिर समझदार नहीं बनना। अच्छा!
2. सदा अपने को कल्प - कल्प की विजयी आत्मायें अनुभव करते हो? अनेक बार विजयी बनने का पार्ट बजाया है और अब भी बजा रहे हैं। विजयी आत्मायें सदा औरों को भी विजयी बनाती हैं। जो अनेक बार किया जाता है वह सदा ही सहज होता है, मेहनत नहीं लगती है। अनेक बार की विजयी आत्मा हैं - इस स्मृति से कोई भी परिस्थिति को पार करना खेल लगता है। खुशी अनुभव होती है? विजयी आत्माओं को विजय अधिकार अनुभव होती है। अधिकार मेहनत से नहीं मिलता, स्वत: ही मिलता है। तो सदा विजय की खुशी से, अधिकार से आगे बढ़ते औरों को भी आगे बढ़ाते चलो। लौकिक परिवार में रहते लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करो क्योंकि अलौकिक सम्बन्ध सुख देने वाला है। लौकिक सम्बन्ध से अल्पकल का सुख मिलता है, सदा का नहीं। तो सदा सुखी बन गये। दुःखियों की दुनिया से सुख के संसार में आ गये - ऐसा अनुभव करते हो? पहले रावण के बच्चे थे तो दुःखदाई थे, अभी सुखदाता के बच्चे सुखस्वरूप हो गये। फस्ट नम्बर यह अलौकिक ब्राह्मणों का परिवार है, देवतायें भी सेकण्ड नम्बर हो गये। तो यह अलौकिक जीवन प्यारी लगती है ना।
3. सदा अपने को पद्मापद्म भाग्यवान अनुभव करते हो? सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त हो नहीं सकता। क्योंकि भविष्य स्वर्ग में भी इस समय के पुरूषार्थ की प्रालब्ध के रूप में राज्यभाग्य प्राप्त करते हो। भविष्य भी वर्तमान भाग्य के हिसाब से मिलता है। महत्त्व इस समय के भाग्य का है। बीज इस समय डालते हो और फल अनेक जन्म प्राप्त होता है। तो महत्त्व तो बीज का गिना जाता है ना। इस समय भाग्य बनाना या भाग्य प्राप्त होना - यह बीज बोना है। तो इस अटेन्शन से सदा पुरूषार्थ में तीव्रगति से आगे बढ़ते चलो और सदा इस समय के पद्मापद्म भाग्य की स्मृति इमर्ज रूप में रहे, कर्म करते हुए याद रहे, कर्म में अपना श्रेष्ठ भाग्य भूले नहीं। स्मृतिस्वरूप रहो। इसको कहते हैं पद्मापद्म भाग्यवान। इसी स्मृति के वरदान को सदा साथ रखना, तो सहज ही आगे बढ़ते रहेंगे, मेहनत से छूट जायेंगे। अच्छा!
प्रश्न - लौकिक सम्बन्ध में बुद्धि यथार्थ फैसला देती रहे - उसकी विधि क्या है?
उत्तर - कभी भी लौकिक बातों को सोचकर फैसला नहीं करना है। अलौकिक शक्तिशाली स्थिति में रहकर फैसला करो। कोई भी पिछली बातें स्मृति में रखने से बुद्धि उस तरफ चली जाती है, फिर पिछले संस्कार भी प्रगट होते हैं, इसलिए मुश्किल होता है। बिल्कुल ही लौकिक वृत्ति भूल आत्मा समझ फिर फैसला करो तो यथार्थ फैसला होगा। इसे ही कहते हैं - विकर्माजीत का तख्त। अलौकिक आत्मिक स्थिति ही विकर्माजीत स्थिति का तख्त है, इस तख्त पर बैठकर फैसला करो तो यथार्थ होगा। अच्छा!
30 - 01 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हिम्मत का दूसरा कदम - ‘‘सहनशीलता''
(ब्रह्मा बाप की जीवन कहानी)
सर्व के स्नेही आलमाइटी अथार्टी बाप अपने महावीर बच्चें प्रति बोले
आज आलमाइटी अथार्टी बाप अपनी पहली श्रेष्ठ रचना को देख रहे हैं। पहली रचना ‘ब्राह्मणों' की रचना है। उसकी पहली रचना में भी पहला नम्बर ‘ब्रह्मा' को ही कहेंगे। पहली रचना का पहला नम्बर होने कारण ब्रह्मा को आदिदेव कहा जाता है। इसी नाम से इस आबू - पर्वत पर यादगार भी ‘आदि - देव' नाम से ही है। आदि - देव अर्थात् आदि - रचता भी कहा जाता और साथ - साथ आदि - देव अर्थात् नई सृष्टि के आदि का पहला नम्बर का देव है। पहली देव आत्मा श्रीकृष्ण के रूप में ब्रह्मा ही बनते हैं, इसलिए नई सृष्टि के आदि का आदि - देव कहा जाता है। संगमयुग में भी आदि रचना का पहला नम्बर अर्थात् आदि देव कहो वा ब्राह्मण आत्माओं के रचता ब्रह्मा कहो। तो संगम पर और सृष्टि के आदि पर - दोनों समय के आदि हैं, इसलिए आदि - देव कहा जाता है।
ब्रह्मा ही आदि कर्मातीत फरिश्ता बनता है। ब्रह्मा सो फरिश्ता और फरिश्ता सो देवता - सबमें नम्बरवन। ऐसा नम्बरवन क्यों बनें? किस विधि से नम्बरवन सिद्धि को प्राप्त किया? आप सभी ब्राह्मण आत्माओं को ब्रह्मा को ही फालो करना है। क्या फालो करना है? इसका पहला कदम - ‘‘समर्पणता'', यह तो पहले सुनाया है। पहले कदम में भी सब रूप से समर्पण बनके दिखाया। दूसरा कदम - ‘‘सहनशीलता''। जब समर्पण हुए तो बाप से सर्व श्रेष्ठ वर्सा तो मिला लेकिन दुनिया वालों से क्या मिला? सबसे ज्यादा गालियों की वर्षा किस पर हुई? चाहे आप आत्माओं को भी गालियाँ मिली या अत्याचार हुए लेकिन ज्यादा क्रोध वा गुस्सा ब्रह्मा को ही मिलता रहा। लौकिक जीवन में जो कभी एक अपशब्द भी नहीं सुना लेकिन ब्रह्मा बना तो अपशब्द सुनने में भी नम्बरवन रहा। सबसे ज्यादा सर्व के स्नेही जीवन व्यतीत की लेकिन जितना ही लौकिक जीवन में सर्व के स्नेही रहे, उतना ही अलौकिक जीवन में सर्व के दुश्मन रूप में बने। बच्चों के ऊपर अत्याचार हुआ तो स्वत: ही इन्डायरेक्ट बाप के ऊपर अत्याचार हुए। लेकिन सहनशीलता के गुण से वा सहनशीलता की धारणा से मुस्कराते रहे, कभी मुरझाये नहीं।
कोई प्रशंसा करे और मुस्कराये - इसको सहनशीलता नहीं कहते। लेकिन दुश्मन बन, क्रोधित हो अपशब्दों की वर्षा करे, ऐसे समय पर भी सदा मुस्कराते रहना, संकल्पमात्र भी मुरझाने का चिह्न चेहरे पर न हो। इसको कहा जाता है - सहनशील। दुश्मन आत्मा को भी रहमदिल भावना से देखना, बोलना, सम्पर्क में आना। इसको कहते हैं सहनशीलता। स्थापना के कार्य में, सेवा के कार्य में कभी छोटे, कभी बड़े तूफान आये। जैसे यादगार शास्त्रों में महावीर हनुमान के लिए दिखाते हैं कि इतना बड़ा पहाड़ भी हथेली पर एक गेंद के समान ले आया। ऐसे, कितनी भी बड़ी पहाड़ समान समस्या हो, तूफान हो, विघ्न हो लेकिन पहाड़ अर्थात् बड़ी बात को छोटा - सा खिलौना बनाए खेल की रीति से सदा पार किया वा बड़ी भारी बात को सदा हल्का बनाए स्वयं भी हल्के रहे और दूसरों को भी हल्का बनाया। इसको कहते हैं - सहनशीलता। छोटे से पत्थर को पहाड़ नहीं लेकिन पहाड़ को गेंद बनाया। विस्तार को सार में लाना, यह है सहनशीलता। विघ्नों को, समस्या को अपने मन में वा दूसरों को आगे विस्तार करना अर्थात् पहाड़ बनाना है। लेकिन विस्तार में न जाये, ‘नथिंग न्यू' के फुल स्टाप से बिन्दी लगाए बिन्दी बन आगे बढ़े - इसको कहते हैं विस्तार को सार में लाना। सहनशील श्रेष्ठ आत्मा सदा ज्ञान - योग के सार में स्थित हो ऐसे विस्तार को, समस्या को, विघ्नों को भी सार में ले आती है जैसे ब्रह्मा बाप ने किया। जैसे लम्बा रास्ता पार करने में समय, शक्तियाँ समाप्त हो जाती अर्थात् ज्यादा यूज होतीं। ऐसे ‘विस्तार' है लम्बा रास्ता पार करना और ‘सार' है शार्टकट रास्ता पार करना। पार दोनों ही करते हैं लेकिन शार्टकट करने वाले समय और शक्तियों की बचत होने कारण निराश नहीं होते, दिलशिकस्त नहीं होते, सदा मौज में मुस्कराते पार करते हैं। इसको कहा जाता है - सहनशीलता।
सहनशीलता की शक्ति वाला कभी घबरायेगा नहीं कि क्या ऐसा भी होता है क्या! सदा सम्पन्न होने कारण ज्ञान की, याद की गहराई में जायेगा। घबराने वाला कभी गहराई में नहीं जा सकता। सार वाला सदा भरपूर होता है, इसलिए भरपूर, सम्पन्न चीज़ की गहराई होती है। विस्तार वाला खाली होता है, इसलिए खाली चीज़ सदा उछलती रहती है। तो विस्तार वाला यह क्यों, यह क्या, ऐसा नहीं वैसा, ऐसा होना नहीं चाहिए... ऐसे संकल्पों में भी उछलता रहेगा और वाणी में भी सबके आगे उछलता रहेगा। और जो हद से ज्यादा उछलता है तो क्या होगा? हाँफता रहेगा। स्वयं ही उछलता, स्वयं ही हाँफता और स्वयं ही फिर थकता। सहनशील इन सब बातों से बच जाता है। इसलिए सदा मौज में रहता, उछलता नहीं, उड़ता है।
दूसरा कदम - सहनशीलता। यह ब्रह्मा बाप ने चल करके दिखाया। सदा अटल, अचल, सहज स्वरूप में मौज से रहे, मेहनत से नहीं। इसका अनुभव 14 वर्ष तपस्या करने वाले बच्चों ने किया। 14 वर्ष महसूस हुए या कुछ घड़ियाँ लगीं? मौज से रहे या मेहनत लगी? वैसे स्थूल मेहनत का पेपर भी खूब लिया। कहाँ नाज़ से पलने वाले और कहाँ गोबर के गोले भी बनवाये, मैकेनिक (mechanic) भी बनाया। चप्पल भी सिलवाई! मोची भी बनाया ना। माली भी बनाया। लेकिन मेहनत लगी या मौज लगी? सब कुछ पार किया लेकिन सदा मौज की जीवन का अनुभव रहा। जो मूँझे, वह भाग गये और जो मौज में रहे वह अनेकों को मौज की जीवन का अनुभव करा रहे हैं। अभी भी अगर वही 14 वर्ष रिपीट करें तो पसन्द है ना। अभी तो सेन्टर पर अगर थोड़ा - सा स्थूल काम भी करना पड़ता तो सोचते हैं - इसीलिए संन्यास किया, क्या हम इस काम के लिए हैं? मौज से जीवन जीना - इसको ही ब्राह्मण जीवन कहा जाता है। चाहे स्थूल साधारण काम हो, चाहे हजारों की सभा बीच स्टेज पर स्पीच करनी हो - दोनों मौज से करें। इसको कहा जाता - मौज की जीवन जीना। मूँझे नहीं - हमने तो समझा नहीं था कि सरेन्डर होना अर्थात् यह सब करना होगा, मैं तो टीचर बनकर आई हूँ, स्थूल काम करने के लिए थोड़े ही संन्यास किया है, क्या यही ब्रह्माकुमारी जीवन होती है? इसको कहते हैं - मूँझने वाली जीवन।
ब्रह्माकुमारी बनना अर्थात् दिल की मौज में रहना, न कि स्थूल मौजों में रहना। दिल की मौज से किसी भी परिस्थिति में, किसी भी कार्य में मूँझने को मौज में बदल देंगे और दिल के मूँझने वाले, श्रेष्ठ साधन होते भी, स्पष्ट बात होते भी सदा स्वयं मूँझे हुए होने के कारण स्पष्ट बात को भी मूँझा देगा, अच्छे साधन होते हुए भी साधनों से मौज नहीं ले सकेंगे। यह कैसे होगा, ऐसा नहीं ऐसा होगा - इसमें खुद भी मूँझेगा, दूसरे को भी मूँझा देगा। जैसे कहते हैं ना - ‘सूत मूँझ जाता है तो मुश्किल ही सुधरता है।' अच्छी बात में भी मूँझेगा तो घबराने वाली बात में भी मूँझेगा। क्योंकि वृत्ति मूँझी हुई है, मन मूँझा हुआ है तो स्वत: ही वृत्ति का प्रभाव दृष्टि पर और दृष्टि के कारण सृष्टि भी मूँझी हुई दिखाई देगी। ब्रह्माकुमारी जीवन अर्थात् ब्रह्मा बाप समान मौज की जीवन। लेकिन इसका आधार है ‘सहनशीलता'। तो सहनशीलता की इतनी विशेषता है! इसी विशेषता के कारण ब्रह्मा बाप सदा अटल, अचल रहे।
दो प्रकार के सहनशीलता के पेपर सुनाये। पहला पेपर - लोगों द्वारा अपशब्द वा अत्याचार। दूसरा - यज्ञ की स्थापना में भिन्न - भिन्न आये हुए विघ्न। तीसरा - कई ब्राह्मण बच्चों द्वारा भी ट्रेटर होना वा छोटी - मोटी बातों में असन्तुष्टता का सामना करना। लेकिन इसमें भी सदा असन्तुष्ट को सन्तुष्ट करने की भावना से परवश समझ सदा कल्याण की भावना से, सहनशीलता की साइलेन्स पावर से हर एक को आगे बढ़ाया। सामना करने वाले को भी मधुरता और शुभ भावना, शुभ कामना से सहनशीलता का पाठ पढ़ाया। जो आज सामना करता और कल क्षमा मांगता, उनके मुख से भी यही बोल निकलते - ‘बाबा तो बाबा है!' इसको कहा जाता है सहनशीलता द्वारा फेल को भी पास बनाए विघ्न को पास करना। तो दूसरा कदम सुना। किसलिए? कदम - पर - कदम रखो। इसको कहा जाता है - फालो फादर अर्थात् बाप समान बनना। बनना है या सिर्फ दूर से देखना है? बहादुर हो ना? पंजाब और महाराष्ट्र दोनों ही बहादुर हो। सब बहादुर हैं। देश - विदेश के सभी अपने को महावीर कहते हैं। किसी को भी प्यादा कहा तो मानेगा? इससे सिद्ध है कि सभी अपने को महावीर समझते हैं। महावीर अर्थात् बाप समान बनना। समझा? अच्छा!
देश - विदेश के सर्व बाप समान, सदा बुद्धि से समार्पित आत्माओं को, सदा हर परिस्थिति में हर व्यक्ति से सहनशील बनकर हर बड़ी बात को छोटा कर सहज पार करने वाले, सदा विस्तार को सार रूप में सार में लाने वाले, सदा ब्राह्मण जीवन मौज की जीवन जीने वाले, ऐसे बाप समान बनने वाले महावीर श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का ‘समान भव' की स्नेह सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से मुलाकात
कुमारों से –
1. कुमारों की विशेषता क्या है? कुमार जीवन श्रेष्ठ जीवन है क्योंकि पवित्र जीवन है। और जहाँ पवित्रता है, वहाँ महानता है। कुमार अर्थात् शक्तिशाली, जो संकल्प करें वह कर सकते हैं। कुमार अर्थात् सदा बन्धनमुक्त बनने और बनाने वाले। ऐसी विशेषतायें हैं ना? जो संकल्प करो वही कर्म में ला सकते हो। स्वयं भी पवित्र रह औरों को भी पवित्र रहने का महत्व बता सकते हो। ऐसी सेवा के निमित्त बन सकते हो। जो दुनिया वाले असम्भव समझते हो वह ब्रह्माकुमार चैलेन्ज करते हैं - तो हमारे जैसा पावन कोई हो नहीं सकता, क्यों? क्योंकि बनाने वाला सर्वशक्तिवान है। दुनिया वाले कितना भी प्रयत्न करते हैं लेकिन आप जैसे पावन बन नहीं सकते। आप सहज ही पावन बन गये। सहज लगता है ना? या दुनिया वाले जैसे कहते हैं - यह अननैचुरल है, ऐसे लगता है? कुमारों की परिभाषा ही है - ‘चैलेन्ज करने वाले, परिवर्तन कर दिखाने वाले, असम्भव को सम्भव करने वाले'। दुनिया वाले अपने साथियों को संग के दोष में ले जाते हैं और आप बाप के संग में ले आते हो। उन्हें अपना संग नहीं लगाते, बाप के संग का रंग लगाते हो, बाप समान बनाते हो। ऐसे हो ना? अच्छा!
2. कुमार अर्थात् सदा अचल - अडोल, कैसी भी परिस्थिति आ जाए लेकिन डगमग होने वाले नहीं। क्योंकि आपका साथी स्वयं बाप है। जहाँ बाप है, वहाँ सदा ही अचल - अडोल होंगे। जहाँ सर्वशक्तिवान होगा वहाँ सर्व शक्तियाँ होंगी। सर्वशक्तियों के आगे माया कुछ कर नहीं सकती। इसलिए कुमार जीवन अर्थात् सदा एकरस स्थिति वाले, हलचल में आने वाले नहीं। जो हलचल में आता है, वह अविनाशी राज्य - भाग्य भी नहीं पा सकता, थोड़ा - सा सुख मिल जायेगा लेकिन सदा का नहीं। इसलिए कुमार जीवन अर्थात् सदा अचल, एकरस स्थिति में स्थित रहने वाले। तो एकरस स्थिति रहती है या दूसरे रसों में बुद्धि जाती है? सब रस एक बाप द्वारा अनुभव करने वाले - इसको कहते हैं एकरस अर्थात् अचल - अडोल। ऐसा एकरस स्थिति वाला बच्चा ही बाप को प्यारा लगता है। तो यही सदा याद रखना कि हम अचल - अडोल आत्मायें एकरस स्थिति में रहने वाली हैं।
माताओं से: -
1) माताओं के लिए बापदादा ने सहज मार्ग कौन सा बताया है जिससे सहज ही बाप की याद का अनुभव कर सको, मेहनत न करनी पड़े? याद को भी सहज बनाने का साधन क्या है? दिल से कहो - ‘‘मेरा बाबा''। जहाँ मेरा कहते हो वहाँ सहज याद आती है। सारे दिन में, जो मेरा है वही याद आता है ना। कोई भी मेरा हो - चाहे व्यक्ति, चाहे वस्तु... जहाँ मेरा - पन होगा वही याद आयेगा। ऐसे यदि बाप को मेरा कहते हो, मेरा समझते हो तो बाप की याद आयेगी। तो बाप को याद करने का सहज तरीका है - दिल से कहो ‘‘मेरा बाबा''। सिर्फ मुख से मेरा - मेरा नहीं करना, अधिकार से कहना। यही सहज पुरूषार्थ कर आगे बढ़ते चलो। सदा ही इस विधि से सहजयोगी बनो। मेरा कहो और बाप के खज़ानों के मालिक बनो।
2) मातायें सदा अपने को पद्मापद्म भाग्यवान समझती हो? घर बैठे बाप मिला तो कितना बड़ा भाग्य है! दुनिया वाले बाप को ढूँढने के लिए निकलते हैं और आपको घर बैठे मिल गया। तो इतना बड़ा भाग्य प्राप्त होगा - ऐसे कभी संकल्प में भी सोचा था? यह जो गायन है ‘‘घर बैठे भगवान मिला''.. यह किसके लिए है? आपके लिए है ना। तो इसी श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रख आगे बढ़ते चलो। ‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य' - यह खुशी के गीत गाते रहो। खुशी के झूले में झूलते रहो। खुशी में नाचो - गाओ।
3) शक्तियों को सदा कौन - सी खुशी रहती है।? सदा बाप के साथ कम्बाइण्ड हूँ। शिव शक्ति का अर्थ ही है कम्बाइण्ड। बाप और आप - दोनों का मिलाकर कहते हैं - ‘शिव - शक्ति'। तो जो कम्बाइण्ड है, उसे कोई अलग नहीं कर सकता। ऐसी खुशी रहती है? निर्बल आत्मा को बाप ने शक्ति बना दिया। तो यही सदा याद रखो कि हम कम्बाइण्ड रहने के अधिकारी बन गये। पहले ढूँढने वाले थे और अभी साथ रहने वाले हैं - यह नशा सदा रहे। कितना भी माया कोशिश करे लेकिन शिव - शक्ति के आगे माया कुछ कर नहीं सकती। अलग रहते हो तो माया आती है, कम्बाइण्ड रहो तो माया आ नहीं सकती। तो यही वरदान सदा याद रखना कि - ‘हम कम्बाइण्ड रहने वाली शिव - शक्तियाँ विजयी हैं।' अच्छा!
03 - 02 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्रह्मा मात - पिता की अपने ब्राह्मण बच्चों के प्रति दो शुभ आशाएँ
सर्व की सर्व आशाओं को पूर्ण करने वाले बापदादा अपने शुभ आशाओं के दीपक बच्चों को दिल के स्नेह का महत्व समझाते हुए बोले –
आज विश्व की सर्व आत्माओं की सर्व आशायें पूर्ण करने वाले बापदादा अपनी शुभ आशाओं के रूहानी दीपकों को देख रहे थे। जैसे बाप सर्व की शुभ आशायें पूर्ण करने वाले हैं, तो बच्चे भी बाप की शुभ आशायें पूर्ण करने वाले हैं। बाप बच्चों की आशायें पूर्ण करते, बचे बाप की करते। बाप की बच्चों प्रति शुभ आशायें कौन - सी हैं, वह जानते हो ना? हर एक ब्राह्मण आत्मा बाप की आशाओं के दीपक हैं। दीपक अर्थात् सदा जागती ज्योत। सदा जगा हुआ दीपक प्यारा लगता है। अगर बार - बार टिमटिमाता दीपक हो तो कैसा लगेगा? बाप की सर्व आशाओं को पूर्ण करने वाले अर्थात् सदा जगमगाते हुए दीपकों को बापदादा भी देख हर्षित होते हैं।
आज बापदादा आपस में रूह - रूहान कर रहे थे। बापदादा के समाने सदा कौन रहते हैं? बच्चे रहते हैं ना। तो रूह - रूहान भी बच्चों की ही करेंगे ना। शिव बाप ब्रह्मा से पूछ रहे थे कि बच्चों के प्रति अब तक कोई शुभ आशायें हैं? तो ब्रह्मा ने बोला कि बच्चे नम्बरवार अपनी शक्ति प्रमाण, स्नेह प्रमाण, अटेन्शन प्रमाण सदा बाप की शुभ आशाओं को पूर्ण करने में लगे हुए जरूर हैं, हर एक की दिल में उमंग - उत्साह जरूर है - जबकि बाप ने हमारी सर्व आशायें पूर्ण की हैं तो हम भी बाप की सर्व आशायें पूर्ण करके ही दिखायें। लेकिन करके दिखाने में नम्बरवार बन जाते हैं। सोचना और करके दिखाना - इसमें अन्तर पड़ जाता है। कोई - कोई बच्चे ऐसे भी हैं जो सोचना और करके दिखाना - इसमें समान हैं। लेकिन सभी ऐसे नहीं हैं। जिस समय बाप कस स्नेह और बाप द्वारा प्राप्तियों को स्मृति में लाते हैं कि बाप ने क्या बनाया और क्या दिया, तो स्नेहस्वरूप होने के कारण बहुत उमंग - उत्साह में उड़ते हैं कि बाप ने जो कहा है वह मैं ही करके दिखाऊंगा। लेकिन जब सेवा के वा संगठन के सम्पर्क में आते हैं अर्थात् प्रैक्टिकल करने के लिए कर्म में आना पड़ता है जो कहाँ संकल्प और कर्म समान हो जाता है अर्थात् वही उमंग - उत्साह रहता है और कभी कर्म में आते समय संगठन के संस्कार वा माया वा प्रकृति द्वारा आये हुए सर्कमस्टांस रूपी पेपर कहाँ मुश्किल अनुभव कराते हैं। इसलिए स्नेह से जो उमंग - उत्साह का संकल्प रहा, वह सर्कमस्टांस कारण, संस्कार कारण करने में अन्तर डाल देता है। फिर सोचते हैं - अगर यह नहीं होता तो बहुत अच्छा होता। ‘अगर' और ‘मगर' के चक्र में आ जाते हैं। होना तो यह चाहिए लेकिन ऐसा हुआ, इसलिए यह हुआ - इस अगर, मगर के चक्र में आ जाते हैं। इसलिए उमंग - उत्साह का संकल्प और प्रैक्टिकल कर्म में अन्तर हो जाता है।
तो ब्रह्मा बाप बच्चों के प्रति विशेष दो आशायें सुना रहे थे। क्योंकि ब्रह्मा बाप को साथ ले भी जाना है और साथ रहना भी है। शिव बाप तो साथ ले जाने वाला है, राज्य में वा सारे कल्प में साथ नहीं रहना है। वह सदा साथ रहने वाला है और वह साक्षी हो देखने वाला है। अन्तर है ना। ब्रह्मा बाप को बच्चों के प्रति सदा ही समान बनाने की शुभ आशायें इमर्ज रहती हैं। वैसे बापदादा दोनों जिम्मेवार हैं लेकिन फिर भी रचता साकार में ब्रह्मा है इसलिए साकार रचता को साकार रचना के लिए स्वत: ही स्नेह रहता है। पहले भी सुनाया था ना - बच्चे, माँ - बाप - दोनों के होते हैं लेकिन फिर भी माँ का विशेष स्नेह बच्चों से रहता है क्योंकि पालना के निमित्त माँ बनती है। बाप - समान बनाने वाली निमित्त माँ होती है। इसलिए माँ की ममता गाई हुई है। यह शुद्ध ममता है, मोह वाली नहीं, विकार वाली नहीं। जहाँ मोह होता है, वहाँ परेशान होते हैं और जहाँ रूहानी ममता कहो, स्नेह कहो - वह होगा तो माँ को बच्चों के प्रति शान होती है, परेशान नहीं होती। तो ब्रह्मा माँ कहो, बाप कहो - दोनों रूप से बच्चों के प्रति कौनसी विशेष आशायें रखते हैं? एक बाप प्रति आशा है और दूसरी ब्राह्मण परिवार के प्रति शुभ आशा है। बाप प्रति शुभ आशा है कि - जैसे बापदादा साक्षी भी है और साथी भी हैं, ऐसे बापदादा समान साक्षी और साथी, समय प्रमाण दोनों ही पार्ट सदा बजाने वाले महान आत्मा बनें। तो बाप प्रति शुभ आशा हुई - बापदादा के समान साक्षी, साथी बनना।
एक बात में बापदादा दोनों बच्चों से पूर्ण संतुष्ट हैं, वह क्या? हर बच्चे का बापदादा से स्नेह अच्छा है, बापदादा से स्नेह कभी टूटता नहीं है और स्नेह के कारण ही चाहे शक्तिशाली बन, चाहे यथाशक्ति बन चल रहे हैं। ब्राह्मण आत्मा रूपी मोती बन स्नेह के धागे में पिरोये हुए जरूर हैं। स्नेह का धागा मजबूत है, उससे टूट नहीं सकते हैं। स्नेह की माला तो लम्बी है, विजय माला छोटी है। बापदादा के स्नेह के ऊपर समार्पित भी हैं। कोई कितना भी बाप के स्नेह से जुदा करने चाले, तो ऐसे स्नेह में फिदा हैं जो जुदा हो ही नहीं सकते। सभी को दिल के स्नेह से - ‘मेरा बाबा' शब्द निकलता है। तो स्नेह की माला में तो सन्तुष्ट हैं लेकिन बाप समान शक्तिशाली वा ‘अगर', ‘मगर' के चक्र से न्यारे - इसमें सदा शक्तिशाली के बजाए यथाशक्ति हैं। बापदादा इसमें बाप समान सदा शक्तिशाली बनने की सब बच्चों में शुभ आशा रखते हैं। जहाँ साक्षी बनना है, वहाँ कभी साथी बन जाते हैं और जहाँ साथी बनना है, वहाँ साक्षी बन जाते हैं। समय प्रमाण दोनों रीति निभाना - इसको कहते हैं बाप समान बनना। स्नेह की माला तो तैयार है लेकिन विजय माला इतनी लम्बी तैयार हो जाए - बापदादा यही शुभ आशा रखते हैं। 108 तो क्या, बापदादा खुली छुट्टी देते हैं - जितने विजयी बनने चाहो उतनी बड़ी विजय माला बन सकती है। 108 की हद में भी नहीं आओ। हैं ही 108 नम्बर, हम तो उसमें आ नहीं सकते - ऐसी कोई बात नहीं है। बनो।
विजयी बनने के लिए एक बैलेन्स की आवश्यकता है। याद और सेवा का बैलेन्स तो सदा सुनते रहते हैं लेकिन याद और सेवा का बैलेन्स चाहते हुए भी रहता क्यों नहीं है? समझते हुए भी कर्म में क्यों नहीं आता है? उसके लिए एक और बैलेन्स की आवश्यकता है, वही बैलेन्स ब्रह्मा बाप की दूसरी आशा है। एक आशा तो बाप प्रति हुई - समान बनने की। दूसरी आशा परिवार प्रति, वह है - हर ब्राह्मण आत्मा के प्रति सदा शुभ भावना - शुभ कामना कर्म में रहे, सिर्फ संकल्प तक वा चाहना तक नहीं। चाहते तो हैं। कई कहते हैं चाहना तो यही है कि शुभ भावना रखें लेकिन कर्म में बदल जाता है। इसका विस्तार पहले भी सुनाया है। परिवार प्रति सदा शुभ भावना - शुभ कामना क्यों नहीं रहती, इसका कारण? जैसे बाप से दिल का स्नेह, जिगर का स्नेह है और दिल के जिगर के स्नेह की निशानी है कि ‘अटूट' है। बाप प्रति कोई कितना भी आपको मिस अन्डरस्टैंड (गलतफहमी) करे वा कोई भी आपको कैसी भी बातें आकर सुनाए वा कभी साकार में स्वयं बाप भी कोई बच्चों को आगे बढ़ने के लिए कोई ईशारा वा शिक्षा दे लेकिन जहाँ स्नेह होता है वहाँ शिक्षा वा कोई भी परिवर्तन का ईशारा मिस अण्डरस्टैन्डिंग पैदा नहीं करेगा। सदैव यही भावना रहती वा रही है कि बाबा जो कहता है उसमें कल्याण है। कभी स्नेह की कमी नहीं हुई, और ही अपने को बाप के दिल के समीप समझते रहे कि यह अपनापन का स्नेह है। इसको कहते हैं दिल का जिगरी स्नेह जो भावना को परिवर्तन कर देता है। बाप के प्रति ऐसा स्नेह है ना? ऐसे, ब्राह्मण परिवार में भी दिल का स्नेह हो। जैसे बाप से स्नेह की निशानी - सदा ही बाप ने कहा और ‘हाँ जी' किया, ऐसे ब्राह्मण परिवार के प्रति सदा ही ऐसा दिल का स्नेह हो, भावना परिवर्तन की विधि हो। तब बाप और परिवार में स्नेह का बैलेन्स, याद और सेवा का बैलेन्स स्वत: ही प्रैक्टिकल में दिखाएगा। तो बाप के स्नेह का पलड़ा भारी है लेकिन सर्व ब्राह्मण परिवार में स्नेह का पलड़ा बदलता रहता है। कभी भारी, कभी हल्का। किसके प्रति भारी, किसके प्रति हल्का। यह बाप और बच्चों के स्नेह का बैलेन्स रहे - यही ब्रह्मा बाप की दूसरी शुभ आशा है। समझा? इसमें बाप समान बनो।
स्नेह ऐसी श्रेष्ठता है जिसमें आपने किया या दूसरे ने किया, इसमें दोनों में समान खुशी का अनुभव हो। जैसे बापदादा स्थापना के कार्य अर्थ निमित्त बने लेकिन जब बच्चों को सेवा में साथी बनाया, अगर प्रैक्टिकल में बाप से भी बच्चे ज्यादा सेवा करते हैं, करते रहे हैं तो बापदादा सदा बच्चों को सेवा में आगे बढ़ते, स्नेह के कारण खुश रहें। यह संकल्प कभी भी दिल के स्नेह में उत्पन्न नहीं हो सकता कि बच्चे क्यों सेवा में आगे जायें, निमित्त तो मैं हूँ, मैंने ही इनको निमित्त बनाया। कभी स्वप्न - मात्र भी यह भावना उत्पन्न नहीं हुई। इसको कहा जाता है - सच्चा स्नेह, नि:स्वार्थ स्नेह, रूहानी स्नेह! सदा बच्चों को आगे निमित्त बनाने में हर्षित रहे। बच्चों ने किया या बाप ने किया, मैं - पन नहीं रहा। मेरा काम है, मेरी ड्यूटी है, मेरा अधिकार है, मेरी बुद्धि है, मेरा प्लैन है - नहीं। स्नेह यह मेरा - पन मिटा देता है। आपने किया सो मैंने किया, मैंने किया सो आपने किया - यह शुभ भावना वा शुभ कामना, इसको कहा जाता है - दिल का स्नेह। स्नेह में कभी अपना या पराया नहीं लगता। स्नेह में कभी स्नेह का बोल कैसा भी साधारण, हुज्जत का बोल हो लेकिन फील नहीं होगा। फीलिंग नहीं आएगी - इसने यह क्यों कहा? स्नेही, स्नेही आत्मा के प्रति अनुमान पैदा नहीं करेगा - ऐसा होगा, यह होगा! सदा स्नेही के प्रति फेथ होने के कारण उसका हल्का बोल भी ऐसे लगेगा कि इसने अवश्य कोई मतलब से कहा है। बेमतलब, व्यर्थ नहीं लगेगा। जहाँ स्नेह होगा, वहाँ फेथ जरूर होगा। स्नेह नहीं तो फेथ भी नहीं होगा। तो ब्राह्मण परिवार के प्रति स्नेह वा फेथ होना - इसको कहते हैं ब्रह्मा बाप की दूसरी आशा पूर्ण करना। जैसे बाप के प्रति स्नेह के लिए बापदादा ने सर्टिफिकेट दिया, ऐसे ब्राह्मण परिवार के प्रति जो स्नेह की परिभाषा सुनाई वा उस विधि से प्रत्यक्ष कर्म में आना - यह भी सर्टिफिकेट लेना है। यह बैलेन्स चाहिए। जितना बाप से उतना बच्चों से - यह बैलेन्स न होने के कारण सेवा में जब आगे बढ़ते हो तो खुद ही कहते हो - सेवा में माया आती है। और कभी वायुमण्डल को देख इतना भी कहते हो कि ऐसी सेवा से तो याद में रहना ही अच्छा है, सबसे सेवा छुड़ाके भट्ठी में बिठा दो। आप लोगों के पास यह संकल्प होते हैं समय प्रमाण।
वास्तव में सेवा मायाजीत बनाने वाली है, माया लाने वाली नहीं है। लेकिन सेवा में माया क्यों आती है? इसका मूल कारण दिल का स्नेह नहीं है, परिवार के प्रमाण स्नेह है। लेकिन दिल का स्नेह त्याग की भावना उत्पन्न करता है। वह न होने के कारण कभी - कभी सेवा माया - रूप बन जाती है और ऐसी सेवा को सेवा के खाते में जमा नहीं कर सकते - चाहे कोई 50 - 60 सेन्टर्स खोलने के भी निमित्त बन जाए! लेकिन सेवा के खाते में या बापदादा की दिल में सेवा का जमा खाता उतना ही होता है जो माया से मुक्त हो, योगयुक्त हो करते हो। किसके पास दो सेन्टर हैं, देखने में दो सेन्टर की इन्चार्ज आती है, और कोई 50 सेन्टर्स की इन्चार्ज दिखाई देती है, लेकिन अगर दो सेवाकेन्द्र भी निर्विघ्न हैं, माया से, हलचल से, स्वभाव - संस्कार के टक्कर के टक्कर से मुक्त हैं तो दो सेन्टर वाले का भी 50 सेवाकेन्द्र वाले से ज्यादा सेवा का खाता जमा है। इसमें खुश नहीं हो जाओ कि मेरे 30 सेन्टर्स हैं, 40 सेन्टर्स हैं। लेकिन माया से मुक्त कितने सेन्टर्स हैं? सेन्टर भी बढ़ाते जाओ, माया भी बढ़ाते जाओ - ऐसी सेवा बाप के रजिस्टर में जमा नहीं होती है। आप सोचेंगे - हम तो बहुत सेवा कर रहे हैं, दिन - रात नींद भी नहीं करते, खाना भी एक बार बनाके रात को खा लेते - इतना बिजी रहते! लेकिन सेवा के साथ - साथ माया में भी बिजी तो नहीं रहते? यह क्यों हुआ, यह कैसे हुआ, इसने क्यों किया, मैंने क्यों नहीं किया, मेरा हक, तेरा हक लेकिन बाप का हक कहाँ गया? समझा? सेवा अर्थात् जिसमें स्व के और सर्व के सहयोग वा सन्तुष्टता का फल प्रत्यक्ष दिखाई दे। अगर सर्व की शुभ भावना - शुभ कामना का सहयोग वा सन्तुष्टता प्रत्यक्ष फल के रूप में नहीं प्राप्त होती है तो चेक करो - क्या कारण है, फल क्यों नहीं मिला? और विधि को चेक करके चेन्ज करो।
ऐसी सच्ची सेवा बढ़ाना ही सेवा बढ़ाना है। सिर्फ अपनी दिल खुश नहीं करो कि मैं बहुत अच्छी सेवा कर रही हूँ। लेकिन बाप की दिल खुश करो और ब्राह्मण परिवार के दिल की दुआयें लो। इसको कहा जाता - ‘सच्ची सेवा'। दिखावे की सेवा तो बहुत बड़ी है लेकिन जहाँ दिल की सेवा होगी, वहाँ दिल के स्नेह की सेवा जरूर होगी। इसको कहते हैं परिवार के प्रति ब्रह्मा बाप की आशा पूर्ण करना। यह थी आज की रूह - रूहान। बाकी और आगे सुनायेंगे। आज भारतवासी बच्चों का इस सीजन का लास्ट चांस है। इसलिए बापदादा क्या चाहते हैं - वह सुनाया। एक सर्टिफकेट पास का लिया है, अभी दूसरा सर्टिफकेट लेना है। अच्छा!
अभी बाप की आशाओं का दीपक सदा जगमगाते रहना। अच्छा! चारों ओर के सर्व ब्राह्मण कुल दीपक, सदा बापदादा की शुभ आशायें पूर्ण करने वाले, सदा बाप और परिवार के दिल के स्नेह का बैलेंस रखने वाले, सदा दिल की सेवा से सेवा का खाता ज्यादा जमा करने वाले, ऐसे बाप की शुभ आशाओं के दीपकों को, सच्ची दिल से सेवा करने वाले सेवाधारियों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
पार्टियों से मुलाकात
1. सदा अपने को कल्प पहले वाले विजयी पाण्डव समझते हो? जब भी पाण्डवों के यादगार चित्र देखते हो तो ऐसे लगता है कि यह हमारा यादगार है? तो पाण्डव अर्थात् सदा मजबूत रहने वाले। इसलिए, पाण्डवों के शरीर लम्बे चौड़े दिखाते हैं, कभी कमज़ोर नहीं दिखाते। आत्मा बहादुर हैं, शक्तिशाली हैं, उसके बदले में शरीर शक्तिशाली दिखाये हैं। पाण्डवों की विजय प्रसिद्ध है। कौरव अक्षौहिणी होते भी हार गये और पाण्डव पाँच होते भी जीत गये। क्यों विजयी बनें? क्योंकि पाण्डवों के साथ बाप है, पाण्डव शक्तिशाली हैं, आध्यात्मिक शक्ति है। इसलिए, अक्षौहिणी कौरवों की शक्ति उनके आगे कुछ भी नहीं है! ऐसे हो ना? कोई भी सामने आए, माया किस भी रूप में आये, तो भी वह हार खाकर जाए, जीत न सके। इसको कहते हैं - ‘विजयी पाण्डव'। मातायें भी पाण्डव सेना में हो ना। या घर में रहने वाली हो? जो कमज़ोर होता है वह घर में छिपता है, बहादुर मैदान में आता है। तो कहाँ रहती हो, मैदान में या घर में? तो सदा इस नशे में आगे बढ़ते रहो कि हम पाण्डव सेना के विजयी पाण्डव हैं।
2. अपने को बेहद के निमित्त सेवाधारी समझते हो? बेहद के सेवाधारी अर्थात् किसी भी मैं - पन के व मेरे पन की हद में आने वाले नहीं। बेहद में न मैं है, न मेरा है। सब बाप का है, मैं भी बाप का तो सेवा भी बाप की। इसको कहते हैं - बेहद सेवा। ऐसे बेहद के सेवाधारी हो या हद में आ जाते हो? बेहद के सेवाधारी बेहद का राज्य प्राप्त करते हैं। सदा बेहद बाप, बेहद सेवा और बेहद राज्य - भाग्य - यही स्मृति में रखो तो बेहद की खुशी रहेगी। हद में खुशी गायब हो जाती है, बेहद में सदा खुशी रहेगी। अच्छा!
विदाई के समय
अभी तो सेवा के प्लैन बहुत अच्छे बनाये हैं। सेवा भी वास्तव में उन्नति का साधन है। अगर सेवा को सेवा की रीति से करें तो सेवा लिफ्ट देती है। आगे बढ़ाने की। सिर्फ प्लेन बुद्धि बनकर प्लैन बनायें, जरा भी कुछ यहाँ - वहाँ का मिक्स न हो। जैसे कोई बढ़िया चीज़ बना कर रखो और यहाँ - वहाँ की हवा से कुछ किचड़ा पड़ जाए तो क्या हो जाएगा? तो सम्भाल कर रखते हैं ना। तो यहाँ - वहाँ का कुछ भी मिक्स नहीं हो जाए। ऐसे सेवा के प्लैन अच्छे बनाते हैं। सेवा में मेहनत, मेहनत नहीं लगती, खुशी होती है। क्योंकि लग्न से करते हैं, उमंग - उत्साह भी अच्छा रखते हैं। बापदादा सेवा का उमंग देखकर के खुश भी होते हैं। सिर्फ मिक्स न हो तो जितने समय में सेवा हुई है, उससे 4 गुणा हो सकती है। प्लेन बुद्धि फास्ट गति की सेवा को प्रत्यक्ष दिखाएगी। अभी फिर भी सोचना पडता है ना कि यह करें, यहाँ करें, यह तो नहीं होगा, वह तो नहीं होगा? लेकिन सब एक बुद्धि हो जाएं - जिसने किया वह अच्छा, जो किया वह अच्छा। यह पाठ पक्का हो जाए तो तीव्रगति की सेवा आरम्भ हो जाए। वैसे पहले से सेवा की गति तीव्र हो रही है, बढ़ रही है, सफलता भी मिल रही है। लेकिन अभी के हिसाब से, विश्व की आत्माओं को संदेश देने के हिसाब से तो अभी कोने तक पहुँचे हैं। कहाँ साढ़े पाँच सौ करोड़ आत्मायें और कहाँ संदेश पहुँचा होगा तो एक करोड़ - दो करोड़ तक! बाकी कितने पड़े हैं? हाँ, यह राजधानी के नजदीक वाले पहुँच गये हैं लेकिन चाहिए तो सब। वर्सा तो सबको देना है चाहे मुक्ति दो, चाहे जीवनमुक्ति दो। लेकिन देना तो सबको है, एक भी बाप का बच्चे वंचित तो नहीं रह जाए। कैसे भी बाप के वर्से के अधिकारी तो बनना ही है, चाहे किसी भी विधि से संदेश सुनें। इसके लिए चाहिए ‘तीव्रगति'। यह भी समय आ रहा है। होती जाएगी।
अभी धीरे - धीरे सभी धर्म वाले अपनी बातों में मोल्ड हो रहे हैं। पहले कट्टर रहते थे, अभी मोल्ड हो रहे हैं। चाहे क्रिश्चियन हैं, चाहे मुस्लिम हैं लेकिन भारत की फिलौसोफी (दर्शन) को अन्दर से रिगार्ड देते हैं क्योंकि भारत की फिलौसोफी में सब प्रकार की रमणीकता है। ऐसे और धर्मों में नहीं है। कहानियों की रीति से, ड्रामा की रीति से जो भारत की फिलौसोफी को प्रसिद्ध करते हैं, वैसे और धर्मों में कहाँ भी नहीं है। इसलिए, अन्दर - ही - अन्दर जो एकदम कट्टर रहे हैं, वह अन्दर समझते हैं कि भारत की फिलौसोफी, उसमें भी आदि सनातन फिलौसोफी कम नहीं है। वह भी दिन आ जायेंगे जो सब कहेंगे कि अगर फिलौसोफी है तो आदि सनातन धर्म की है। हिन्दू शब्द से बिगड़ते हैं लेकिन आदि सनातन धर्म को रिगार्ड देंगे। गॉड एक है तो धर्म भी एक है, हम सबका धर्म भी एक है - यह धीरे - धीरे आत्मा के धर्म की तरफ आकर्षित होते जायेंगे। अच्छा!
प्रश्न - सहजयोगी सदा रहें, उसकी सहज विधि कौन - सी है?
उत्तर - बाप ही संसार है - इस स्मृति में रहो तो सहजयोगी बन जायेंगे। क्योंकि सारा दिन संसार में ही बुद्धि जाती है। जब बाप ही संसार है तो बुद्धि कहाँ जायेगी? संसार में ही जाएगी ना, जंगल में तो नहीं जाएगी! तो जब बाप ही संसार हो गया तो सहजयोगी बन जायेंगे। नहीं तो मेहनत करनी पड़ेगी - यहाँ से बुद्धि हटाओ, वहाँ से जुड़ाओ। सदा बाप के स्नेह में समाए रहो तो वह भूल नहीं सकता। अच्छा!
16 - 02 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शिवरात्रि उत्सव पर बापदादा द्वारा दिया गया स्लोगन सदा उत्साह में रहो - उत्सव मनाओ
अपने बच्चों को हर घड़ी उत्साह में रहने की विधि समझाते हुए बापदादा बोले –
आज विश्वेश्वर बाप अपनी विश्व की श्रेष्ठ रचना वा श्रेष्ठ आदि रतनों से, अति स्नेही और समीप बच्चों से मिलन मनाने आये हैं। विश्वेश्वर बाप के बच्चे तो विश्व की सर्व आत्मायें हैं। लेकिन ब्राह्मण आत्मायें अति स्नेही समीप की आत्मायें हैं क्योंकि ब्राह्मण आत्मायें आदि रचना हैं। बाप के साथ - साथ ब्राह्मण आत्मायें भी ब्राह्मण जीवन में अवतरित हो बाप के कार्य में सहयोगी आत्मायें बनती हैं। इसलिए बापदादा आज के दिन बच्चों का ब्राह्मण जीवन के अवतरण का जन्मदिन मनाने आये हैं। बच्चे बाप का जन्मदिन मनाने के लिए उमंग - उत्साह से खुशी में नाच रहे हैं। लेकिन बापदादा बच्चों के इस ब्राह्मण जीवन को देख, स्नेह और सहयोग में, बाप के साथ - साथ हर कार्य में हिम्मत से आगे बढ़ते हुए देख हर्षित हो रहे हैं। तो आप बापदादा का बर्थडे मनाते हो और बाप बच्चों का बर्थडे मनाते। आप ब्राह्मणों का भी बर्थडे है ना। तो सभी को बापदादा, जगत - अम्बा और सर्व आपके साथी एडवांस पार्टी की विशेष श्रेष्ठ आत्मायें सहित आपके अलौकिक ब्राह्मण जन्म के स्नेह से सुनहरी पुष्पों की वर्षा सहित मुबारक हो, मुबारक हो! यह दिल की मुबारक है, सिर्फ मुख की मुबारक नहीं। लेकिन दिलाराम बाप के दिल की मुबारक सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को, चाहे सम्मुख बैठे हैं, चाहे मन से बाप के सम्मुख हैं, चारों ओर के बच्चों को मुबारक हो, मुबारक हो!
आज के दिन भक्त आत्माओं के पास बाप के बिन्दु रूप की विशेष स्मृति रहती हैं। शिव जयन्ति वा शिवरात्रि कोई साकार रूप का यादगार नहीं है। लेकिन निराकार बाप ज्योति - बिन्दु जिसको ‘शिवालिंग' के रूप में पूजते हैं, उस बिन्दु का महत्त्व है। आप सभी के दिल में भी बाप के बिन्दु रूप की स्मृति सदा रहती है। तो आप भी बिन्दु और बाप भी बिन्दु तो आज के दिन भारत में हर एक भक्त आत्मा के अन्दर विशेष बिन्दु रूप का महत्त्व रहता है। बिन्दु जितना ही सूक्ष्म है, उतना ही शक्तिशाली है। इसलिए बिन्दु बाप को ही शक्तियों के, गुणों के, ज्ञान के सिन्धु कहा जाता है।
तो आज सभी बच्चों के दिल में जन्म - दिन की विशेष उत्साह की लहर बापदादा के पास अमृतवेले से पहुँच रही है। जैसे आप बच्चों ने विशेष सेवा अर्थ वा स्नेह स्वरूप बन बाप का झण्डा लहराया, बाप ने कौन - सा झंडा लहराया? आप सभी ने तो शिवबाबा का झण्डा लहराया, बाप क्या यह झण्डा लहरायेंगे? यह सेवा के साकार रूप की जिम्मेवारी बच्चों को दे दी। बाप ने भी झण्डा लहराया लेकिन कौन सा और कहाँ लहराया? बापदादा ने अपने दिल में सभी बच्चों की विशेषताओं के स्नेह का झण्डा लहराया। कितने झण्डे लहराये होंगे? इस दुनिया में इतने झण्डे कोई लहरा नहीं सकते! कितना सुन्दर दृश्य होगा!
एक - एक बच्चे की विशेषता का झण्डा बापदादा के दिल में लहरा रहा है। सिर्फ आप सबने झण्डा नहीं लहराया लेकिन बापदादा ने भी लहराया। यह झण्डा लहराते हो तो उस समय क्या होता है? फूलों की वर्षा। बापदादा भी जब बच्चों की विशेषता का, स्नेह का झण्डा लहराते हैं तो कौन - सी वर्षा होती है? हर एक बच्चे के ऊपर ‘अविनाशी भव', ‘अमर भव', ‘अचल - अडोल भव' - इन वरदानों की वर्षा होती है। यह वरदान ही बापदादा के अविनाशी अलौकिक पुष्प हैं। बापदादा को इस अवतरण - दिवस की अर्थात् शिव जयन्ति दिवस की बच्चों से भी ज्यादा खुशी है, खुशी में खुशी है! क्योंकि यह अवतरण का दिवस हर वर्ष यादगार तो मनाते हैं लेकिन जब बाप का साकार ब्रह्मा तन में अवतरण होता है तो बापदादा को इसमें भी विशेष शिव बाप को विशेष इस बात की खुशी रहती - कितने समय से अपने समीप स्नेही बच्चों से अलग परमधाम में रहते, चाहे परमधाम में और आत्मायें रहती भी हैं लेकिन जो पहली रचना की आत्मायें हैं, जो बाप समान बनने वाली सेवा के साथी आत्मायें हैं, वह कितने समय के बाद अवतरित होने से फिर से आकर मिलती हैं! कितने समय की बिछुड़ी हुई श्रेष्ठ आत्मायें फिर से आकर मिलती हैं! अगर कोई अति स्नेही बिछुड़ा हुआ मिल जाए तो खुशी में विशेष खुशी होगी ना। अवतरण दिवस अर्थात् अपनी आदि रचना से फिर से मिलना। आप सोचेंगे - हमें बाप मिला और बाप कहते हैं - हमें बच्चे मिले! तो बाप को अपने आदि रचना पर नाज़ है। आप सब आदि रचना हो ना, क्षत्रिय तो नहीं हो ना? सभी सूर्यवंशी आदि रचना हैं। ब्राह्मण सो देवता बनते हैं ना। तो ब्राह्मण आत्मायें आदि रचना हैं। अनादि रचना तो सब हैं, सारे विश्व की आत्मायें रचना हैं। लेकिन आप अनादि और आदि रचना हो। तो डबल नशा है ना।
आज के दिन बापदादा विशेष एक स्लोगन दे रहे हैं। आज के दिन को उत्सव का दिन कहा जाता है। शिवरात्रि वा शिवजयन्ति उत्सव मनाते हैं। उत्सव के दिन का यही स्लोगन याद रखना कि ब्राह्मण जीवन की हर घड़ी उत्सव की घड़ी है। ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा उत्सव मनाना, सदा उत्साह में रहना और सदा हर कर्म में आत्मा को उत्साह दिलाना। तो उत्सव मनाना है, उत्साह में रहना है और उत्साह दिलाना है। जहाँ उत्साह होता है, वहाँ कभी भी, किसी भी प्रकार का विघ्न उत्साह वाली आत्मा को उत्साह से हटा नहीं सकता। जैसे अल्पकाल के उत्साह में सब बातें भूल जाती हैं ना। कोई उत्सव मनाते हो तो उस समय के लिए खुशी के सिवाए और कुछ याद नहीं रहता। तो ब्राह्मण जीवन के लिए हर घड़ी उत्सव है अर्थात् हर घड़ी उत्साह में हैं। तो और कोई बातें आयेंगी क्या? कोई भी हद के उत्सव में जायेंगे तो वहाँ क्या होता है? नाचना, गाना, खेल देखना और खाना - यही होता है ना। तो बा्रह्मण जीवन के उत्सव में सारा दिन क्या करते हो? सेवा भी करते हो तो खेल समझ करते हो ना या बोझ लगता है? आजकल की दुनिया में कोई भी अज्ञानी आत्मायें थोड़ा भी दिमाग का काम करेंगी तो कहेंगी - बहुत थक गए हैं, दिमाग के ऊपर काम का बहुत बोझ है! और आप सेवा करके आते हो तो क्या कहते हो - सेवा का मेवा खा के आये हैं। क्योंकि जितनी बड़ी ते बड़ी सेवा के निमित्त बनते हो, उतना ही सेवा का प्रत्यक्ष फल बहुत बढ़िया और बड़ा मिलता है। तो प्रत्यक्ष फल खाने से और ही शक्ति आ जाती है ना। खुशी की शक्ति बढ़ जाती है, इसलिए चाहे कितना भी शरीर का सख्त कार्य हो वा प्लैन बनवाने का दिमाग का कार्य हो लेकिन आपको थकावट नहीं होगी। रात है वा दिन है - यह पता नहीं पड़ता है ना। अगर घड़ी आपके पास नहीं होती तो मालूम पड़ता क्या कि कितना बज गया? लेकिन उत्सव मना रहे हो, इसलिए सेवा उत्साह दिलाती है और उत्साह अनुभव कराती है।
ब्राह्मण जीवन में एक तो है सेवा, दूसरा क्या होता है? माया आती है। माया का सुनकर हसते हो क्योंकि समझते हैं कि माया को हमारे से ज्यादा प्यार है! आपका प्यार नहीं है, उनका प्यार है। उत्सव में खेल भी देखा जाता है। आजकल सबको ज्यादा खेल कौन - सा पसन्द आता है? मिक्की - माउस का खेल बहुत करते हैं। एडवरटाइज भी मिक्की - माउस के खेल में दिखाते हैं। चाहे मैच पसन्द करते, चाहे मिक्की - माउस का खेल पसन्द करते हो। तो यहाँ भी माया आती है तो मैच करो, निशाना लगाओ। खेल में क्या करते हो? गेंद आता है और आप फिर दूसरी तरफ फेंकते हो और कैच कर लेते हो तो विजयी बन जाते हो। ऐसे ही माया के यह गेंद हैं - कभी ‘काम' के रूप में आते, कभी ‘क्रोध' के रूप में। यह कैच करो कि यह माया का खेल है। अगर माया के खेल को खेल समझ करो तो उत्साह बढ़ेगा और अगर माया की कोई भी परिस्थिति को दुश्मन समझ देखते हो तो घबरा जाते हो। मिक्की - माउस खेल में कभी बन्दर आ जाता, कभी बिल्ली, कभी कुत्ता, कभी चूहा आ जाता लेकिन आप घबराते हो क्या? मजा आता है ना देखने में। तो यह भी उत्सव के रूप में माया के भिन्न - भिन्न परिस्थितियोँ का खेल देखो। खेल देखने में कोई घबरा जाए तो क्या कहेंगे? खेल देखते - देखते भी कोई सोच ले कि गेंद मेरे पास ही आ रहा है, मेरे को ही न लग जाए तो खेल देख सकेंगा? तो खुशी और मजे से खेल देखो, माया से घबराओ नहीं। एक मनोरंजन समझो। चाहे शेर के रूप में आ जाए - घबराओ नहीं। यही स्मृति रखो कि ब्राह्मण जीवन की हर घड़ी उत्सव है, उत्साह है। उसी के बीच ये खेल भी देख रहे हैं, खुशी में नाच भी रहे हैं और बाप के ब्राह्मण परिवार के विशेषताओं के, गुणों के गीत भी गा रहे हैं और ब्रह्मा भोजन भी मजे से खा रहे हैं।
आप जैसा शुद्ध भोजन, याद का भोजन विश्व में किसको भी प्राप्त नहीं है! इस भोजन को ही कहा जाता है - दु:ख भंजन भोजन। याद का भोजन सब दु:ख दूर कर देता है। क्योंकि शुद्ध अन्न से मन और तन दोनों शुद्ध हो जाता हैं। अगर धन भी अशुद्ध आता है तो अशुद्ध धन खुशी को गायब कर देता है, चिंता को लाता है। जितना अशुद्ध धन आता, माना धन आयेगा एक लाख लेकिन चिंता आयेगी पद्मगुणा और चिंता को सदैव चिता कहा जाता है। तो चिता पर बैठने वाले को कभी खुशी कैसी होगी! और अशुद्ध धन भी अशुद्ध मन से आता है, पहले मन में अशुद्ध संकल्प आता है। लेकिन शुद्ध अन्न मन को शुद्ध बना देता है इसलिए धन भी शुद्ध हो जाता है। याद के अन्न का महत्त्व है, इसलिए ब्रह्मा भोजन की महिमा है। अगर याद में नहीं बनाते और खाते तो यह अन्न स्थिति को ऊपर नीचे कर सकता है। याद में बनाया हुआ और याद में स्वीकार करने वाला अन्न दवाई का भी काम करता और दुवा का भी काम करता। याद का अन्न कभी नुकसान नहीं कर सकता।
इसलिए हर घड़ी उत्सव मनाओ। माया किस भी रूप में आये। अच्छा! मोह के रूप में आती है तो समझो बन्दर का खेल दिखाने के लिए आई है। खेल को साक्षी होकर देखो, स्वयं माया के चक्र में न आ जाओ। चक्र में आते हो तो घबराते हो। आजकल छोटे - छोटे बच्चों को ऐसे मनोरंजन के खेल कराते हैं ऊँचा भी चढ़ायेंगे, नीचे भी लायेंगे। तो यह मनोरंजन है, खेल है। कोई भी रूप में आये, यह मिक्की माउस का खेल देखो। जो आता है वह जाता भी है। माया किसी भी रूप में आती है तो अभी - अभी आई, अभी - अभी गई। आप माया के साथ श्रेष्ठ स्थिति से चले न जाओ, माया को जाने दो। आप उसके साथ क्यों जाते हो? खेल में होता ही ऐसे है - कुछ आयेगा, कुछ जायेगा, कुछ बदलेगा। अगर सीन बदली न हो तो खेल अच्छा ही नहीं लगेगा। माया भी किसी भी रूप से आए, जो भी सीन आती है वह बदलनी जरूर है। तो सीन बदलती रहे लेकिन आपकी श्रेष्ठ स्थिति नहीं बदले। कोई भी खेल में कोई पार्ट बजाता है तो आप भी उसके साथ ऐसे ही भागने वा दौड़ने लग जायेंगे क्या? देखने वाले तो सिर्फ देखते रहेंगे ना। तो माया नीचे गिराने के लिए आये या कोई भी स्वरूप में आये लेकिन आप उसका खेल देखो। कैसे नीचे गिराने के लिए आई, उसके रूप को कैच करो और खेल समझ उस दृश्य को साक्षी हो करके देखो। आगे के लिए और स्व की स्थिति को मजबूत बनाने की शिक्षा ले आगे बढ़ो।
तो शिवरात्रि का उत्सव अर्थात् उत्साह दिलाने वाला उत्सव सिर्फ आज का दिन नहीं है लेकिन सदा ही आपके लिए उत्सव है और उत्साह साथ है। इस स्लोगन को सदा याद रखना और अनुभव करते रहना। उसकी विधि सिर्फ दो शब्दों की है। ‘सदा साक्षी हो करके देखना और बाप के साथी बन करके रहना।' बाप के साथी सदा रहेंगे तो जहाँ बाप है तो साक्षी होकर देखने से सहज ही मायाजीत बन अनेक जन्मों के लिए जगतीत बन जायेंगे। तो समझा, क्या करना है? स्वयं बाप हर बच्चे को साथ देने के लिए गोल्डन ऑफर कर रहे हैं। इसलिए सदा साथ रहो। वैसे डबल फॉरेनर्स अकेले रहने में पसंद करते हैं। वह इसलिए साथ नहीं रहते कि वहाँ बंधन में न बंध जाएँ, स्वतन्त्र रहें। लेकिन इस साथ में साथ रहते भी स्वतन्त्र हैं, बंधन नहीं अनुभव होगा। अच्छा!
तो आज का दिन डबल उत्सव का है। वैसे जीवन भी उत्सव है और यादगार - उत्सव भी है। बापदादा सभी विदेश के बच्चों को सदा याद करते भी हैं और आज भी विशेष दिन की याद दे रहे हैं। क्योंकि जो भी जहाँ से आये होंगे तो सभी के याद - पत्र लाए होंगे। कार्ड, पत्र, टोलियाँ लाई। तो जिन बच्चों ने दिल का उत्साह का यादप्यार वा किसी भी रूप से अपनी याद - निशानी भेजी है, उन सब बच्चों को बापदादा भी विशेष याद का रिटर्न पद्मगुणा दे रहें हैं और बापदादा देख रहे हैं कि हर एक बच्चे के अन्दर सेवा का और सदा मायाजीत बनने का उमंग - उत्साह बहुत अच्छा है। हर एक बच्चा अपनी शक्ति से भी ज्यादा सेवा में आगे बढ़ रहा है और बढ़ता ही रहेगा। बाकी जो सच्ची दिल से दिल का समाचार बाप के आगे रखते हैं, तो सच्ची दिल पर बाप सदा राजी है। इसलिए दिल के समाचार में जो भी कोई छोटी - छोटी बातें आती भी हैं तो वह बाप की विशेष याद के वरदान से समाप्त हो ही जायेंगी। बाप का राजी होना अर्थात् सहज बाप की मदद से मायाजीत बनना। इसलिए जो बाप को दे दिया, चाहे समाचार के रूप में, पत्र के रूप में, रूह - रूहान के रूप में - जब बाप के आगे रख लिया, दे दिया तो जो चीज़ किसको दी जाती है वह अपनी नहीं रहती, वह दूसरे की हो जाती है। अगर कमज़ोरी का संकल्प भी बाप के आगे रख दिया तो वह कमज़ोरी आपकी नहीं रहीं। आपने दे दी, उससे मुक्त हो गये। इसलिए, यही याद रखना कि मैंने बाप के आगे रख दी अर्थात् दे दी। बाकी विदेश के उमंग - उत्साह की लहर अच्छी चल रही है। बापदादा बच्चों को निर्विघ्न बनने के उमंग और सेवा में बाप को प्रत्यक्ष करने के उमंग को देख हर्षित होते हैं।
बाकी जिन्हों का भी यादप्यार लाया है, सभी को यादप्यार और साथ - साथ वर्से के अधिकारी बनने का अविनाशी वरदान सदा बाप का है और रहेगा। आप दूर देश से आये हैं। बाप तो आपसे भी दूर से आये हैं! लेकिन आप बच्चों के लिए दूरदेश भी समीप बन गया, इसलिए दूर नहीं लगता। बिना खर्चे के रूहानी राकेट बहुत तेज है। वह लोग तो एक राकेट पर कितना खर्चा करते हैं। आपने क्या खर्चा किया और कितने में पहुँच जाते हो! आप सब का घर है स्वीट होम। इसलिए अधिकारी बच्चे हो, सेकण्ड में पहुँच जाते हो। अच्छा!
सदा अनादि और आदि रचना के रूहानी नशे में रहने वाले, सदा हर घड़ी उत्सव समान मनाने वाले, सदा याद और सेवा के उत्साह में रहने वाले, सदा माया की हर परिस्थिति को खेल समझ साक्षी हो देखने वाले, सदा बाप के साथ हर कदम में साथी बन चलने वाले, ऐसे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माओं को अलौकिक जन्म की मुबारक के साथ - साथ यादप्यार और नमस्ते।''
52वीं त्रिमूर्ति शिवजयन्ति पर अव्यक्त बापदादा ने स्वयं झण्डा लहराया तथा मधुर महावाक्य उच्चारण किये
‘‘सभी अति स्नेही, दिलतख्तनशीन बच्चों को पावन 52वीं शिजयन्ति की पद्मगुणा यादप्यार और मुबारक।''
20 - 02 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तन, मन की थकावट मिटाने का साधन ‘‘शक्तिशाली याद''
अपने सच्चे आज्ञाकारी बच्चों को सेवा में सदा रिफ्रेश रहने की युक्तियाँ बताते हुए अव्यक्त बापदादा बोले
आज परदेशी बाप अपने अनादि देशवासी और आदि देशवासी सेवा अर्थ सभी विदेशी, ऐसे बच्चों से मिलने के लिए आये हैं। बापदादा जानते हैं कि यही मेरे सिकीलधे लाड़ले बच्चे हैं, अनादि देश परमधाम के निवासी हैं और साथ - साथ सृष्टि के आदि के इसी भारत भूमि में जब सतयुगी स्वदेश था, अपना राज्य था, जिसको अभी भारत कहते हैं, तो आदि में इसी भारत देशवासी थे। इसी भारत भूमि में ब्रह्मा बाप के साथ - साथ राज्य किया है। अपने राज्य में सुख - शान्ति सम्पन्न अनेक जन्म व्यतीत किये हैं। इसलिए आदि देशवासी होने के कारण भारत भूमि से दिल का स्नेह है। चाहे कितना भी अभी अन्त में भारत गरीब वा धूल - मिट्टी वाला बन गया है, फिर भी अपना देश सो अपना ही होता है। तो आप सभी के आत्मा का अपना देश और शरीरधारी देवता जीवन का अपना देश कौन - सा था? भारत ही था ना! कितने जन्म भारत भूमि में रहे हो, वह याद है? 21 जन्मों का वर्सा सभी ने बाप से प्राप्त कर लिया है, इसलिए 21 जन्म की तो गैरण्टी है ही है। बाद में भी हर एक आत्मा के कई जन्म भारत भूमि में ही हुए हैं क्योंकि जो ब्रह्मा बाप के समीप आत्मायें हैं, समान बनने वाली आत्मायें हैं, वह ब्रह्मा बाप के साथ - साथ आपे ही पूज्य, आपे ही पुजारी का पार्ट भी साथ में बजाती हैं। द्वापर युग के पहले भक्त आप ब्राह्मण आत्मायें बनती हो। आदि स्वर्ग में इसी देश के वासी थे और अनेक बार भारत - भूमि के देशवासी हो। इसलिए ब्राह्मणों के अलौकिक संसार ‘मधुबन' से अति प्यार है। यह मधुबन ब्राह्मणों का छोटा - सा संसार है। तो यह संसार बहुत अच्छा लगता है ना। यहाँ से जाने को दिल नहीं होती है ना। अगर अभी - अभी ऑर्डर कर लें कि मधुबन निवासी बन जाओ, तो खुश होंगे ना! वा यह संकल्प आयेगा कि सेवा कौन करेगा? सेवा के लिए तो जाना ही चाहिए। बापदादा कहे - बैठ जाओ, फिर भी सेवा याद आयेगी? सेवा कराने वाला कौन है? जो बाप का डायरेक्शन हो, श्रीमत हो, उसको उसी रूप में पालन करना - इसको कहते हैं सच्चा आज्ञाकारी बच्चा। बापदादा जानते हैं - मधुबन में बिठाना है वा सेवा पर भेजना है। ब्राह्मण बच्चें को हर बात में एवररेडी रहना है। अभी - अभी जो डायरेक्शन मिले उसमें एवररेडी रहना। संकल्प मात्र भी मनमत मिक्स न हो। इसको कहते हैं - श्रीमत पर चलने वाली श्रेष्ठ आत्मा।
यह तो जानते हो ना कि सेवा के जिम्मेवार बापदादा है। वा आप हैं? इस जिम्मेवारी से तो आप हल्के हो ना कि जिम्मेवारी का थोड़ा - थाड़ा बोझा है? इतना बड़ा प्रोग्राम करना है, यह करना है - बोझ तो नहीं समझते हो ना! करावनहार करा रहा है। करावनहार एक ही बाप है, किसी की भी बुद्धि को टच कर विश्व - सेवा का कार्य कराते रहे हैं और कराते रहेंगे। सिर्फ निमित्त बच्चों को इसलिए बनाते हैं कि जो करेगा सो पायेगा। पाने वाले बच्चे हैं, बाप को पाना नहीं है। प्रालब्घ पाना या सेवा का फल अनुभव होना - यह आत्माओं का काम है। इसलिए बच्चों को निमित्त बनाते हैं। साकार रूप में भी सेवा कराने का कार्य देखा और अभी अव्यक्त रूप में भी करावनहार बाप अव्यक्त ब्रह्मा द्वारा भी कैसे सेवा कर रहा है - यह भी देख रहे हो। अव्यक्त रूप की सेवा की गति और ही तीव्रगति है! कराने वाला करा रहा है और आप कठपुतली के समान नाच रहे हो। यह सेवा भी एक खेल है। कराने वाला करा रहा है और आप निमित्त बन एक कदम का पद्मगुणा प्रालब्ध बना रहे हो। तो बोझ किसके ऊपर है? कराने वाले पर या करने वाले पर? बाप तो जानते हैं - यह भी बोझ नहीं है। आप बोझ कहते हो तो बाप भी बोझ शब्द कहते हैं। बाप के लिए तो सब हुआ ही पड़ा है। सिर्फ जैसे लकीर खींची जाती है, लकीर खींचना बड़ी बात लगती है क्या? तो ऐसे बापदादा सेवा कराते हैं। सेवा भी इतनी ही सहज है जैसे एक लकीर खींचना। रिपीट कर रहे हैं, निमित्त खेल कर रहे हैं।
जैसे माया का विघ्न खेल है, तो सेवा भी मेहनत नहीं लेकिन खेल है - ऐसे समझने से सेवा में सदा ही रिफ्रेशमेन्ट अनुभव करेंगे। जैसे कोई खेल किसलिए करते हैं? थकने के लिए नहीं, रिफ्रेश होने के लिए खेल करते हैं। चाहे कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसा ही अनुभव करेंगे जैसे खेल करने से रिफ्रेश हो जाते हैं। चाहे कितना भी थकाने वाला खेल हो लेकिन खेल समझने से थकावट नहीं होती क्योंकि अपने दिल की रूचि से खेल किया जाता है। चाहे खेल में कितना भी हार्ड - वर्क करना पड़े लेकिन वह भी मनोरंजन लगता है क्योंकि अपनी दिल से करते हो। और कोई लौकिक कार्य बोझ मिसल होता है, निर्वाह अर्थ करना ही पड़ेगा। ड्यूटी समझ करते हैं, इसलिए मेहनत लगती है। चाहे शारीरिक मेहनत का, चाहे बुद्धि की मेहनत का काम है, लेकिन ड्यूटी समझ करने से थकावट अनुभव करेंगे क्योंकि वह दिल की खुशी से नहीं करते। जो अपने मन के उमंग से, खुशी से कार्य किया जाता है, उसमें थकावट नहीं होती, बोझ अनुभव नहीं होता। कहाँ - कहाँ बच्चों के ऊपर सेवा के हिसाब से ज्यादा कार्य भी आ जाता है, इसलिए भी कभी - कभी थकावट फील (अनुभव) होती है। बापदादा देखते हैं कि कई बच्चे अथक बन सेवा करते उमंग - उत्साह में भी रहते हैं। फिर भी हिम्मत रख आगे बढ़ रहे हैं - यह देख बापदादा हर्षित भी होते हैं। फिर भी सदा बुद्धि को हल्का जरूर रखो।
बापदादा बच्चों के सब प्लैन, प्रोग्राम वतन में बैठे भी देखते रहते हैं। हर एक बच्चे की याद और सेवा का रिकार्ड बापदादा के पास हर समय का रहता है। जैसे आपकी दुनिया में रिकार्ड रखने के कई साधन हैं। बाप के पास साइन्स के साधनों से भी रिफाइन साधन है, स्वत: ही कार्य करते रहते। जैसे साइन्स के साधन जो भी कार्य करते, वह लाइट के आधार से करते। सूक्ष्मवतन तो है ही लाइट का। साकार वतन के लाइट के साधन फिर भी प्रकृति के साधन हैं। लेकिन अव्यक्त वतन के साधन प्रकृति के साधन नहीं हैं। और प्रकृति रूप बदलती है, सतो, रजो, तमो में परिवर्तन होती है। इस समय तो है ही तमोगुणी प्रकृति, इसलिए यह साधन आज चलेंगे, कल नहीं चलेंगे। लेकिन अव्यक्त वतन के साधन प्रकृति से परे हैं, इसलिए वह परिवर्तन में नहीं आते। जब चाहो, जैसे चाहो सूक्ष्म साधन सदा ही अपना कार्य करते रहते हैं। इसलिए सब बच्चों के रिकार्ड देखना बापदादा के लिए बड़ी बात नहीं है। आप लोगों को तो साधनों को सम्भालना ही मुश्किल हो जाता है ना। तो बापदादा याद और सेवा का - दोनों ही रिकार्ड देखते हैं क्योंकि दोनों का बैलेन्स एकस्ट्रा ब्लैसिंग दिलाता है।
जैसे सेवा के लिए समय निकालते हो, तो उसमें कभी नियम से भी ज्यादा लगा देते हो। सेवा में समय लगाना बहुत अच्छी बात है और सेवा का बल भी मिलता है, सेवा में बिजी होने के कारण छोटी - छोटी बातों से बच भी जाते हो। बापदादा बच्चों की सेवा पर बहुत खुश हैं, हिम्मत पर बलिहार जाते हैं, लेकिन जो सेवा - याद में, उन्नति में थोड़ा भी रूकावट करने के निमित्त होती है, तो ऐसी सेवा के समय को कम करना चाहिए। जैसे रात्रि को जागते हो, 12.00 वा 1.00 बजा देते हो तो अमृतवेला फ्रेश नहीं होगा। बैठते भी हो तो नियम प्रमाण। और अमृतवेला शक्तिशाली नहीं तो सारे दिन की याद और सेवा में अन्तर पड़ जाता है। मानो सेवा के प्लैन बनाने में वा सेवा को प्रैक्टिकल लाने में समय भी लगता है। तो रात के समय को कट करके 12.00 के बदले 11.00 बजे सो जाओ। वही एक घण्टा जो कम किया और शरीर को रेस्ट दी तो अमृतवेला अच्छा रहेगा, बुद्धि भी फ्रेश रहेगी। नहीं तो दिल खाती है कि सेवा तो कर रहे हैं लेकिन याद का चार्ट जितना होना चाहिए, उतना नहीं है। जो संकल्प दिल में वा मन में बार - बार आता है कि यह ऐसा होना चाहिए लेकिन हो नहीं रहा है, तो उस संकल्प के कारण बुद्धि भी फ्रेश नहीं होती। और बुद्धि अगर फ्रेश है तो फ्रेश बुद्धि से 2 - 3 घण्टे का काम 1 घण्टे में पूरा कर सकते हो। थकी हुई बुद्धि में टाइम ज्यादा लग जाता है, यह अनुभव है ना। और जितनी फ्रेश बुद्धि रहती, शरीर के हिसाब से भी फ्रेश और आत्मिक उन्नति के रूप में भी फ्रेश - डबल फ्रेशनेस (ताजगी) रहती तो एक घण्टे का कार्य आधा घण्टे में कर लेंगे।
इसलिए सदैव अपनी दिनचर्या में फ्रेश बुद्धि रहने का अटेन्शन रखो। ज्यादा सोने की भी आदत न हो लेकिन जो आवश्यक समय शरीर के हिसाब से चाहिए उसका अटेन्शन रखो। कभी - कभी कोई सेवा का चांस होता है, मास - दो - मास में दो - चार बार देरी हो गई, वह दूसरी बात है, लेकिन अगर नियमित रूप से शरीर थका हुआ होगा तो याद में फर्क पड़ेगा। जैसे सेवा का प्रोग्राम बनाते हो, 4 घण्टे का समय निकालना है तो निकाल लेते हो। ऐसे याद का भी समय निश्चित निकालना ही है - इसको भी आवश्यक समझ इस विधि से अपना प्रोग्राम बनाओ। सुस्ती नहीं हो लेकिन शरीर को रेस्ट देना है - इस विधि से चलो। क्योंकि दिन - प्रतिदिन सेवा का तो और ही तीव्रगति से आगे बढ़ने का समय आता जा रहा है। आप समझते हो - अच्छा, यह एक वर्ष का कार्य पूरा हो जायेगा, फिर रेस्ट कर लेंगे, ठीक कर लेंगे, याद को फिर ज्यादा बढ़ा लेंगे। लेकिन सेवा के कार्य को दिन - प्रतिदिन नये - से - नये और बड़े - से - बड़े होने हैं। इसलिए सदा बैलेन्स रखो। अमृतवेले फ्रेश हो, फिर वही काम सारे दिन में समय प्रमाण करो तो बाप की ब्लैसिंग भी एकस्ट्रा मिलेगी और बुद्धि भी फ्रेश होने के कारण बहुत जल्दी और सफलतापूर्वक कार्य कर सकेगी। समझा?
बापदादा देख रहे हैं - बच्चों में उमंग बहुत है, इसलिए शरीर का भी नहीं सोचते। उमंग - उत्साह से आगे बढ़ रहे हैं। आगे बढ़ना बापदादा को अच्छा लगता है, फिर भी बैलेन्स अवश्य चाहिए। भल करते रहते हो, चलते रहते हो लेकिन कभी - कभी जैसे बहुत काम होता है तो बहुत काम में एक तो बुद्धि की थकावट होने के कारण जितना चाहते उतना नहीं कर पाते और दूसरा - बहुत काम होने के कारण थोड़ा - सा भी किसी द्वारा थोड़ी हलचल होगी तो थकावट के कारण चिड़चिड़ापन हो जाता। उससे खुशी कम हो जाती है। वैसे अन्दर ठीक रहते हो, सेवा का बल भी मिल रहा है, खुशी भी मिल रही है, फिर भी शरीर तो पुराना है ना। इसलिए टू - मच (अत्यधिक) में नहीं जाओ। बैलेन्स रखो। याद के चार्ट पर थकावट का असर नहीं होना चाहिए। जितना सेवा में बिजी रहते हो, भल कितना भी बिजी रहो लेकिन थकावट मिटाने का विशेष साधन हर घण्टे वा दो घण्टे में एक मिनट भी शक्तिशाली याद का अवश्य निकालो! जैसे कोई शरीर में कमज़ोर होता है तो शरीर को शक्ति देने के लिए डॉक्टर्स दो - दो घण्टे बाद ताकत की दवाई पीने लिए देते हैं। टाइम निकाल दवाई पीनी पड़ती है ना। तो बीच - बीच में एक मिनट भी अगर शक्तिशाली याद का निकालो तो उसमें ए, बी, सी, - सब विटामिन्स आ जायेंगे।
सुनाया था ना कि शक्तिशाली याद सदा क्यों नहीं रहती! जब हैं ही बाप के और बाप आपका, सर्व सम्बन्ध हैं, दिल का स्नेह है, नॉलेजफुल हो, प्राप्ति के अनुभवी हो, फिर भी शक्तिशाली याद सदा क्यों नहीं रहती, उसका कारण क्या? अपनी याद का लिंक नहीं रखते। लिंक टूटता है, इसलिए फिर जोड़ने में समय भी लगता, मेहनत भी लगती और शक्तिशाली के बजाए कमज़ोर हो जाते। विस्मृति तो हो नहीं सकती, याद रहती है। लेकिन सदा शक्तिशाली याद स्वत: रहे - उसके लिए यह लिंक टूटना नहीं चाहिए। हर समय बुद्धि में याद का लिंक जुटा रहे - उसकी विधि यह है। यह भी आवश्यक समझो। जैसे वह काम समझते हो कि आवश्यक है, यह प्लैन पूरा करके ही उठना है। इसलिए समय भी देते हो, एनर्जी भी लगाते हो। वैसे यह भी आवश्यक है, इनको पीछे नहीं करो कि यह काम पहले पूरा करके फिर याद कर लेंगे। नहीं। इसका समय अपने प्रोग्राम में पहले ऐड करो। जैसे सेवा के प्लैन किये दो घण्टे का टाइम निकाल फिक्स करते हो - चाहे मीटिंग करते हो, चाहे प्रैक्टिकल करते हो, तो दो घण्टे के साथ - साथ यह भी बीच - बीच में करना ही है - यह ऐड करो। जो एक घण्टे में प्लैन बनायेंगे, वह आधा घण्टे में हो जायेगा। करके देखो। आपे ही फ्रेशनेस से दो बजे आँख खुलती है, वह दूसरी बात है। लेकिन कार्य के कारण जागना पड़ता है तो उसका इफैक्ट (प्रभाव) शरीर पर आता है। इसलिए बैलेन्स के ऊपर सदा अटेन्शन रखो।
बापदादा तो बच्चों को इतना बिजी देख यही सोचते कि इन्हों के माथे की मालिश होनी चाहिए। लेकिन समय निकालेंगे तो वतन में बापदादा मालिश भी कर देंगे। वह भी अलौकिक होगी, ऐसे लौकिक मालिश थोड़े ही होगी। एकदम फ्रेश हो जायेंगे। एक सेकण्ड भी शक्तिशाली याद तन और मन - दोनों को फ्रेश कर देती है। बाप के वतन में आ जाओ, जो संकल्प करेंगे वह पूरा हो जायेगा। चाहे शरीर की थकावट हो, चाहे दिमाग की, चाहे स्थिति की थकावट हो - बाप तो आये ही हैं थकावट उतारने।
आज डबल विदेशियों से पर्सलन रूह - रूहान कर रहे हैं। बहुत अच्छी सेवा की है और करते ही रहना है। सेवा बढ़ना - यह ड्रामा अनुसार बना हुआ ही है। कितना भी आप सोचो - अभी तो बहुत हो गया, लेकिन ड्रामा की भावी बनी हुई है। इसलिए सेवा के प्लैन्स निकलने ही हैं और आप सबको निमित्त बन करनी ही है। यह भावी कोई बदल नहीं सकते। बाप चाहे एक वर्ष सेवा से रेस्ट दे देवें, नहीं बदल सकता। सेवा से फ्री हो बैठ सकेंगे? जैसे याद ब्राह्मण जीवन की खुराक है, ऐसे सेवा भी जीवन की खुराक है। बिना खुराक के कभी कोई रह सकता है क्या? लेकिन बैलेन्स जरूरी है। इतना भी ज्यादा नहीं करो जो बुद्धि पर बोझ हो और इतना भी नहीं करो जो अलबेले हो जाओ। न बोझ हो, न अलबेलापन हो, इसको कहते हैं - बैलेन्स।
डबल विदेशियों में सेवा का उमंग अच्छा है। इसलिए वृद्धि भी अच्छी कर रहे हो। विदेश - सेवा में 14 वर्ष में वृद्धि अच्छी की है। लौकिक और अलौकिक - डबल कार्य करते आगे बढ़ रहे हैं। डबल कार्य में समय भी लगाते हो और बुद्धि की, शरीर की शक्ति भी लगाते हो। यह भी बुद्धि की कमाल है। लौकिक कार्य करते सेवा में आगे बढ़ना - यह भी हिम्मत का काम है। ऐसे हिम्मत वाले बच्चों को बापदादा सदा हर कार्य में मददगार हैं। जितना हिम्मत उतना पद्मगुणा बाप मददगार है ही। लेकिन दोनों पार्ट बजाते उन्नति को प्राप्त कर रहे हो - यह देख बापदादा सदा बच्चों पर हर्षित होते हैं। माया से तो मुक्त हो ना? जब योगयुक्त हैं तो स्वत: ही माया से मुक्त हैं। योगयुक्त नहीं तो माया से मुक्त भी नहीं। माया को भी ब्राह्मण आत्मायें प्यारी लगती हैं। जो पहलवान होता है, उनको पहलवान से ही मजा आता है। माया भी शक्तिशाली है। आप भी सर्वशक्तिवान हो, तो माया को सर्वशक्तिवान के साथ खेल करना अच्छा लगता है। अब तो जान गये हो ना, माया को अच्छी तरह से कि कभी - कभी नये रूप से आ जाती है। नॉलेजफुल का अर्थ ही है बाप को भी जानना, रचना को भी जानना और माया को भी जानना। अगर रचयिता और रचना को जान लिया और माया को नहीं जाना तो नॉलेजफुल नही ठहरे।
कभी भी किसी भी बात में चाहे तन कमज़ोर भी हो या कार्य का ज्यादा बोझ भी हो लेकिन मन से कभी भी थकना नहीं। तन की थकावट मन के खुशी से समाप्त हो जाती है। लेकिन मन की थकावट शरीर की थकावट को भी बढ़ा देती है। मन कभी थकना नहीं चाहिए। जब थक जाओ तो सेकण्ड में बाप के वतन में आ जाओ। अगर मन को थकने की आदि होगी तो ब्राह्मण जीवन के उमंग - उत्साह का जो अनुभव होना चाहिए वह नहीं होगा। चल तो रहे हैं लेकिन चलाने वाला चला रहा है - ऐसे अनुभव नहीं होगा। मेहनत से चल रहे हैं तो जब मेहनत अनुभव होगी तो थकावट भी होगी। इसलिए हमेशा समझो - ‘करावनहार करा रहा है, चलाने वाला चला रहा है।'
समय, शक्ति - दोनों के प्रमाण सेवा करते चलो। सेवा कभी रह नहीं सकती, आज नहीं तो कल होनी ही है। अगर सच्चे दिल से, दिल के स्नेह से जितनी सेवा कर सकते हो उतनी करते हो तो बापदादा कभी उल्हना नहीं देंगे कि इतना काम किया, इतना नहीं किया। शाबासी मिलेगी। समय प्रमाण, शक्ति प्रमाण सच्ची दिल से सेवा करते हो तो सच्चे दिल पर साहेब राजी हैं। जो आपका कार्य रह भी जायेगा तो बाप कहाँ न कहाँ से पूरा करायेगा। जो सेवा जिस समय में होनी ही है वह होकर ही रहेगी, रह नहीं सकती। किसी - न - किसी आत्मा को टच कर बापदादा अपने बच्चों के सहयोगी बनायेगे। योगी बच्चों को सब प्रकार का सहयोग समय पर मिलता ही है। लेकिन किसको मिलेगा? सच्चे दिल वाले सच्चे सेवाधारी को। तो सभी सच्चे सेवाधारी बच्चे हो? साहेब राजी है हमारे ऊपर - ऐसा अनुभव करते हो ना। अच्छा!
सदा याद और सेवा के बैलेन्स द्वारा बाप की ब्लैसिंग के अधिकारी, सदा बाप के समान डबल लाइट रहने वाले, सदा निरन्तर शक्तिशाली याद का लिंक जोड़ने वाले, सदा शरीर और आत्मा को रिफ्रेश रखने वाले, हर कर्म विधिपूर्वक करने वाले, सदा श्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करने वाले - ऐसे श्रेष्ठ, समीप बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
विदेशी भाई - बहनों ने ग्लोबल को - ऑपरेशन प्रोजेक्ट की मीटिंग का समाचार सुनाया
बापदादा खुश होते हैं - इतना मिलकर प्लैन बनाते हो वा प्रैक्टिकल में ला रहे हो और लाते रहोगे। बापदादा को और क्या चाहिए! इसलिए बापदादा को पसन्द है। बाकी कोई मुश्किल हो तो बापदादा सहज कर सकते हैं। यह बुद्धि का चलना भी एक वरदान है। सिर्फ बैलेन्स रखकर के चलो। जब बैलेन्स होगा तो बुद्धि निर्णय बहुत जल्दी करेगी और 4 घण्टे जो डिस्कस करते हो, उसमें एक घण्टा भी नहीं लगेगा। एक जैसा ही विचार निकलेगा। लेकिन यह भी अच्छा है, खेल है, कुछ बनाते हो, कुछ तोड़ते हो.. इसमें भी मजा आता है। भले प्लैन बनाओ, फिर रिफाइन करो। बिजी तो रहते हो। सिर्फ बोझ नहीं महसूस करो, खेल करो। टाइम कम है, जितना कर सकते हो उतना करो। अगर इस वर्ष होना होगा - तो - होगा, फिर दूसरे वर्ष और अच्छा प्रोग्राम बनेगा। यह सेवा भी चलती ही रहेगी। जैसे भण्डारा बंद नहीं होता। यह भी भण्डारा है, अविनाशी चलता रहेगा। अगर किसी कार्य में देरी होती है तो और अच्छा होना होगा, तब देरी होती है। बाकी मेहनत कर रहे हो, सुस्त नहीं हो। इसलिए बापदादा उल्हना नहीं देगा। अच्छा!
24 - 02 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वरदाता से प्राप्त हुए वरदानों को वृद्धि में लाने की विधि
सर्वशक्तियों से सम्पन्न भव का वरदान देने वाले, टेन्शन से मुक्त कर अटेन्शन खिंचवाने वाले सद्गुरू बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा अपने रूहानी चात्रक बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा बाप से सुनने के, मिलने के और साथ - साथ बाप समान बनने के चात्रक हैं। सुनने से जन्म - जन्मान्तर की प्यास मिट जाती है। ज्ञान - अमृत प्यासी आत्माओं को तृप्त आत्मा बना देता है। सुनते - सुनते आत्मायें भी बाप समान ज्ञानस्वरूप बन जाती हैं वा यह कहें ज्ञान - मुरली सुनते - सुनते स्वयं भी ‘मुरलीधर बच्चे' बन जाते हैं। रूहानी मिलन मनाने बाप के स्नेह में समा जाते हैं। मिलन मनाते लवलीन, मग्न स्थिति वाले बन जाते हैं, मिलन मनाते एक बाप दूसरा न कोई - इस अनुभूति में समाये हुए रहते हैं, मिलन मनाते निर्विघ्न, सदा बाप के संग के रंग में लाल बन जाते हैं। जब ऐसे समाये हुए वा स्नेह में लवलीन बन जाते हैं तो क्या आशा रहती है? ‘बाप - समान' बनने की। बाप के हर कदम - पर - कदम रखने वाले अर्थात् बाप समान बनने वाले। जैसे बाप का सदा सर्वशक्तिवान स्वरूप है, ऐसे बच्चे भी सदा मास्टर सर्वशक्तिवान का स्वरूप बन जाते हैं। जो बाप का स्वरूप है - सदा शक्तिशाली, सदा लाइट - ऐसे समान बन जाते हैं।
समान बनने की विशेष बातें जानते हो ना, किन - किन बातों में बाप समान बनना है? बन रहे हो और बने भी हो। जैसा बाप का नाम, बच्चों का भी वही नाम है। विश्व - कल्याणकारी! यही नाम है ना आप सबका। जो बाप का रूप वही बच्चों का रूप, जो बाप के गुण वह बच्चों के। बाप के हर गुण को धारण करने वाले ही बाप समान बनते हैं। जो बाप का कार्य, वह बच्चों का कार्य। सब बातों में बाप समान बनना है। लक्ष्य तो सभी का वही है ना। सम्मुख रहने वाले नहीं लेकिन समान बनने वाले हैं। इसको ही कहा जाता है - फालो फादर करने वाले। तो अपने को चेक करो - सब बातों में कहाँ तक बाप समान बने हैं? समान बनने का वरदान आदि से बाप ने बच्चों को दिया है। आदि का वरदान है - ‘सर्व शक्तियों से सम्पन्न भव'। लौकिक जीवन में बाप वा गुरू वरदान देते हैं। ‘धनवान भव', ‘पुत्रवान भव', ‘बड़ी आयु भव', या ‘सुखी भव' का वरदान देते हैं। बापदादा ने क्या वरदान दिया? ‘सदा ज्ञान - धन, शक्तियों के धन से सम्पन्न भव'। यही ब्राह्मण जीवन का खज़ाना है।
जब से ब्राह्मण जन्म लिया, तब से संगमयुग की स्थापना के कार्य में अन्त तक जीना अर्थात् ‘बड़ी आयु भव'। बीच में अगर ब्राह्मण जीवन से निकल पुराने संस्कारों या पुराने संसार में चले जाते हैं तो इसको कहा जाता है - जन्म लिया लेकिन छोटी आयु वाले, क्योंकि ब्राह्मण जीवन से मर गये। कोई - कोई ऐसे भी होते हैं जो कोमा में चले जाते हैं, होते हुए भी ना के बराबर होते हैं और कभीकभी जाग भी जाते हैं लेकिन वह जिंदा होना भी मरने के समान ही होता है। तो ‘बड़ी आयु भव' अर्थात् सदा आदि से अन्त तक ब्राह्मण जीवन वा श्रेष्ठ दिव्य जीवन की सर्व प्राप्तियों में जीना। बड़ी आयु के साथ - साथ ‘निरोगी भव' का भी वरदान आवश्यक है। अगर आयु बड़ी है लेकिन माया की व्याधि बार - बार कमज़ोर बना देती है तो वह जीना भी जीना नहीं है। तो ‘बड़ी आयु भव' के साथ सदा तन्दुरूस्त रहना अर्थात् निर्विघ्न रहना है। बार - बार उलझन में वा दिलशिकस्त की स्थिति के बिस्तर हवाले नहीं होना है। जो कोई बीमार होता है तो बिस्तरे हवाले होता है ना। छोटी - छोटी उलझन तो चलते - फिरते भी खत्म कर देते हो लेकिन जब कोई बड़ी समस्या आ जाती, उलझन में आ जाते, दिलशिकस्त बन जाते हो तो मन की हालत क्या होती है? जैसे शरीर बिस्तरे के हवाले होता है तो कोई दिल नहीं होती - उठने की, चलने की वा खाने - पीने की कोई दिल नहीं होती। ऐसे यहाँ भी योग में बैठेंगे तो भी दिल नहीं लगेगी, ज्ञान भी सुनेंगे तो दिल से नहीं सुनेंगे। सेवा भी दिल से नहीं करेंगे; दिखावे से वा डर से, लोकलाज से करेंगे। इसको सदा तन्दुरूस्त जीवन नहीं कहेंगे। तो ‘बड़ी आयु भव' अर्थात् ‘निरोगी भव' इसको कहा जाता है।
‘पुत्रवान भव' वा ‘सन्तान भव'। आपके सन्तान हैं? दो - चार बच्चे नहीं पैदा किये हैं? ‘सन्तान भव' का वरदान है ना। दो - चार बच्चों का वरदान नहीं मिलता लेकिन जब बाप समान मास्टर रचयिता की स्टेज पर स्थिति हो तब तो यह सब अपनी रचना लगती है। बेहद के मास्टर रचयिता बनना, यह बेहद का ‘पुत्रवान भव', ‘सन्तान भव' हो जाता। हद के नहीं कि जो दो - चार जिज्ञासु हमने बनाया, यह मेरे हैं। नहीं। मास्टर रचता की स्टेज बेहद की स्टेज है। किसी भी आत्मा को वा प्रकृति के तत्वों को भी अपनी रचना समझ विश्व - कल्याण्कारी स्थिति से हर एक के प्रति कल्याण की शुभ भावना, शुभ कामना रहती है। रचता की रचना प्रति यही भावनायें रहती हैं। जब बेहद के मास्टर रचयिता बन जाते हो तो कोई हद की आकर्षण आकर्षित नहीं कर सकेगी। सदा अपने को कहाँ खड़ा हुआ देखेंगे? जैसे वृक्ष का रचता ‘बीज', जब वृक्ष की अन्तिम स्टेज आती है तो वह बीज ऊपर आ जाता है ना। ऐसे बेहद के मास्टर रचयिता सदा अपने को इस कल्प वृक्ष के ऊपर खड़ा हुआ अनुभव करेंगे, बाप के साथ - साथ वृक्ष के ऊपर मास्टर बीजरूप बन शक्तियों की, गुणों की, शुभभावना - शुभ कामना की, स्नेह की, सहयोगी की किरणें फैलायेंगे। जैसे सूर्य ऊँचा रहता है तो सारे विश्व में स्वत: ही किरणें फैलती हैं ना। ऐसे मास्टर रचयिता वा मास्टर बीजरूप बन सारे वृक्ष को किरणे वा पानी दे सकते हो? तो कितनी सन्तान हुई? सारी विश्व आपकी रचना हो गई ना। तो ‘मास्टर रचता भव'। इसको कहते है ‘पुत्रवान भव'। तो कितने वरदान हैं! इसको ही कहा जाता है - बाप समान बनना। जन्मते ही यह सब वरदान हर एक ब्राह्मण आत्मा को बाप ने दे दिये है। वरदान मिले हैं ना। वा अभी मिलने हैं?
जब कोई भी वरदान किसी को मि्ालता है तो वरदान के साथ वरदान को कार्य में लगाने की विधि भी सुनाई जाती है। अगर वह विधि नहीं अपनाते तो वरदान का लाभ नहीं ले सकते। तो वरदान तो सभी को मिला हुआ है लेकिन हर एक वरदान को विधि से वृद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। वृद्धि को कैसे प्राप्त कर सकते, उसकी विधि सबसे सहज और सबसे श्रेष्ठ यही है - जैसा समय उस प्रमाण वरदान स्मृति में आये। और स्मृति में आने से समर्थ बन जायेंगे और सिद्धि स्वरूप बन जायेंगे। जितना समय प्रमाण कार्य में लगायेंगे, उतना वरदान वृद्धि को प्राप्त करता रहेगा अर्थात् सदा वरदान का फल अनुभव करते रहेंगे। इतने श्रेष्ठ शक्तिशाली वरदान मिले हुए हैं - न सिर्फ अपने प्रति कार्य में लगाए फल प्राप्त कर सकते हो लेकिन अन्य आत्माओं को भी वरदाता बाप से वरदान प्राप्त कराने के योग्य बना सकते हो! यह संगमयुग का वरदान 21 जन्म भिन्न रूप से साथ में रहता है। यह संगम का रूप अलग है और 21 जन्म यही वरदान जीवन के हिसाब से चलता रहता है। लेकिन वरदाता और वरदान प्राप्त होने का समय अभी है। तो यह चेक करो कि सर्व वरदान कार्य में लगाते सहज आगे बढ़ रहे हो?
यह वरदान की विशेषता है कि वरदानी को कभी मेहनत नहीं करनी पड़ती। जब भक्त आत्मायें भी मेहनत कर थक जाती हैं तो बाप से वरदान ही मांगती हैं। आपके पास भी जब लोग आते हैं, योग लगाने की मेहनत नहीं करने चाहते तो क्या भाषा बोलते हैं? कहते हैं - सिर्फ हमें वरदान दे दो, माथे पर हाथ रख लो। आप ब्राह्मण बच्चों के ऊपर वरदाता बाप का हाथ सदा है। श्रेष्ठ मत ही हाथ है। स्थूल हाथ तो 24 घण्टे नहीं रखेंगे ना! यह बाप के श्रेष्ठ मत का वरदान रूपी हाथ सदा बच्चों के ऊपर है। अमृतवेले से लेकर रात को सोने तक हर श्वाँस के लिए, हर संकल्प के लिए, हर कर्म के लिए श्रेष्ठ मत का हाथ है ही। इसी वरदान को विधिपूर्वक चलाते चलो तो कभी भी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।
जैसे देवताओं के लिए गायन है - इच्छा - मात्रम् - अविद्या। यह है फरिश्ता जीवन की विशेषता। देवताई जीवन में तो इच्छा की बात ही नहीं। ब्राह्मण जीवन सो फरिश्ता जीवन बन जाती अर्थात् कर्मातीत स्थिति को प्राप्त हो जाते। किसी भी शुद्ध कर्म वा व्यर्थ कर्म वा विकर्म वा पिछला कर्म, किसी भी कर्म के बन्धन में बंधकर करना - इसको कर्मातीत अवस्था नहीं कहेंगे। एक ही कर्म का सम्बन्ध, एक है बन्धन। तो जैसे यह गायन है - हद की इच्छा से अविद्या, ऐसे फरिश्ता जीवन वा ब्राह्मण जीवन अर्थात् ‘मुश्किल' शब्द की अविद्या, बोझ से अविद्या, मालूम ही नहीं कि वह क्या होता है! तो वरदानी आत्मा अर्थात् मुश्किल जीवन से अविद्या का अनुभव करने वाली। इसको कहा जाता है - वरदानी आत्मा। तो बाप समान बनना अर्थात् सदा वरदाता से प्राप्त हुए वरदानों से पलना, सदा निश्चिन्त, निश्चित विजय अनुभव करना।
कई बच्चे पुरूषार्थ तो बहुत अच्छा करते। लेकिन पुरूषार्थ का बोझ अनुभव होना - यह यथार्थ पुरूषार्थ नहीं है। अटेन्शन रखना - यह ब्राह्मण जीवन की विधि है। इसको भी यथार्थ अटेन्शन नहीं कहा जायेगा। जैसे जीवन में स्थूल नॉलेज रहती है कि यह चीज़ अच्छी है, यह बात करनी है, यह नहीं करनी है। तो नॉलेज के आधार पर जो नॉलेजफुल होते हैं, उनकी निशानी है - उनको नैचरल अटेन्शन रहता - यह खाना है, यह नहीं खाना है; यह करना है, यह नहीं करना है। हर कदम में टेन्शन नहीं रहता कि यह करूँ या नहीं करूँ, यह खाऊँ या नहीं खाऊँ, ऐसे चलूँ वा नहीं? नैचरल नॉलेज की शक्ति से अटेन्शन है। ऐसे, यथार्थ पुरूषार्थी का हर कदम, हर कर्म में नैचरल अटेन्शन रहता है कि क्योंकि नॉलेज की लाइट - माइट स्वत: यथार्थ रूप से, यथार्थ रीति से चलाती है। तो पुरूषार्थ भले करो। अटेन्शन जरूर रखो लेकिन ‘टेन्शन' के रूप में नहीं। जब टेन्शन में आ जाते हो तो चाहते हो बहुत काम करने वा बनने चाहते हो नम्बरवन लेकिन ‘टेन्शन' जितना चाहते हो उतना करने नहीं देता, जो बनने चाहते हो वह बनने नहीं देता और टेन्शन, टेन्शन को पैदा करता है, क्योंकि जो चाहते हो वह नहीं होता है तो और टेन्शन बढ़ता है।
तो पुरूषार्थ सभी करते हो लेकिन कोई ज्यादा पुरूषार्थ को भारी कर देते और कोई फिर बिल्कुल अलबेले हो जाते - जो होना होगा हो जायेगा, देखा जायेगा, कौन देखता है, कौन सुनता है..। तो न वह अच्छा, न वह अच्छा है। इसलिए बैलेन्स से बाप की ब्लैसिंग, वरदानों का अनुभव करो। सदा बाप का हाथ मेरे ऊपर है - इस अनुभव को सदा स्मृति में रखो। जैसे भक्त आत्मायें स्थूल चित्र को सामने रखती हैं कि माथे पर वरदान का हाथ है, तो आप भी चलते - फिरते बुद्धि में यह अनुभव का चित्र सदा स्मृति रखो। समझा? बहुत पुरूषार्थ किया, अब वरदानों से पलते उड़ते चलो। बाप के ज्ञान - दाता, विधाता का अनुभव किया, अब वरदाता का अनुभव करो। अच्छा!
सदा हर कदम में बाप को फालो करने वाले, सदा अपने को वरदाता बाप के वरदानी श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करने वाले, सदा हर कदम सहज पार करने वाले, सदा सर्व वरदान समय पर कार्य में लगाने वाले, ऐसे बाप समान बनने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का वरदाता के रूप में यादप्यार और नमस्ते।''
मुख्य महारथी भाईयों से मुलाकात
जन्म से कितने वरदान मिले हुए हैं! हर एक को अपने - अपने वरदान मिले हुए हैं। जन्म ही वरदानों से हुआ। नहीं तो, आज इतना आगे नहीं बढ़ सकते। वरदान से जन्म हुआ, इसलिए बढ़ रहे हो। पाण्डवों की महिमा कम थोड़े ही है। हरेक की विशेषता का वर्णन करें तो कितनी है! यह जो भागवत् बना हुआ है, वह बन जाये। बाप की नजर में हरेक की विशेषतायें हैं। और कुछ देखते भी नहीं देखते हैं, जानते भी नहीं जानते हैं। तो विशेषता सदा आगे बढ़ा रही है और बढ़ाती रहेगी। जो जन्म से वरदानी आत्मायें हैं, वह कभी भी पीछे नहीं हट सकती। सदा उड़ने वाली वरदानी आत्मायें हो। वरदाता बाप के वरदान आगे बढ़ा रहे हैं। पाण्डव गुप्त रहते हैं लेकिन बापदादा के दिल पर सदा प्रत्यक्ष हैं। अच्छे - अच्छे प्लैन तो पाण्डव ही बनाते हैं। शक्तियाँ शिकार करती लेकिन कमाल तो लाने वालों की है। अगर लाने वाले लायें ही नहीं तो शिकार क्या करेंगी? इसलिए पाण्डवों को विशेष अपना वरदान है। ‘याद' और ‘सेवा' का बल विशेष मिला हुआ है। ‘याद का बल' भी विशेष मिलता है, ‘सेवा' का बल भी विशेष मिलता है क्यों? उसका भी कारण है। क्योंकि जो जितना आवश्यकता के समय कार्य में आये हैं, उसको विशेष वरदान मिला हुआ है। जैसे आदि में जब स्थापना हुई तो आप पाण्डव मर्ज थे, इमर्ज नहीं थे। शक्तियाँ एग्जाम्पल बनीं और उन्हों के एग्जाम्पल को देख और आगे बढ़े। तो यह आवश्यकता के एग्जाम्पल बने। इसलिए, जितना जो आवश्यकता के समय सहयोगी बने हैं - चाहे जीवन से, चाहे सेवा से.. उनको ड्रामा अनुसार विशेष बल मिलता है। अपना पुरूषार्थ तो है ही लेकिन एकस्ट्रा बल मिलता है। अच्छा!
सेवा करने से जो सर्व आत्मायें खुश होती हैं, उसका भी बहुत बल मिलता है। जो अनुभवी आत्मायें हैं, उन्हों के सेवा की आवश्यकता है। क्योंकि जिन्होंने साकार में पालना ली है, उन्हों को देखकर के सदा बाप ही याद आता है। कभी भी आप लोग (दादियाँ) कहाँ जायेंगी तो विशेष क्या पूछेंगे? चरित्र सुनाओ, कोई बाप की बातें सुनाओ। तो विशेषता है ना। इसलिए सेवा की विशेषता का वरदान मिला हुआ है। चाहे स्टेज पर खड़े होकर भाषण न भी करो लेकिन यह सबसे बड़ा भाषण है। चरित्र सुनाकर चरित्रवान बनने की प्रेरणा देना - यह सबसे बड़ी सेवा है। तो सेवा पर जाना ही है और सेवा के निमित्त बनना ही है। अच्छा!
28 - 02 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
डबल विदेशी ब्राह्मण बच्चों की विशेषतायें
अपने साफ दिल डबल विदेशी बच्चों को दिव्यगुणों की धारणा की विधि समझाते हुए बापदादा बोले
आज भाग्यविधाता बापदादा अपने श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। हरेक बच्चे का भाग्य श्रेष्ठ तो है ही लेकिन उसमें नम्बरवार हैं। आज बापदादा सभी बच्चों के दिल की उमंग - उत्साह के दृढ़ संकल्प सुन रहे थे। संकल्प द्वारा जो सभी ने रूह - रूहान की, वह बापदादा के पास संकल्प करते ही पहुँच गई। ‘संकल्प की शक्ति', वाणी की शक्ति से अति सूक्ष्म होने के कारण अति तीव्रगति से चलती भी है, और पहुँचती भी है। रूह - रूहान की भाषा है ही संकल्प की भाषा। साइन्स वाले आवाज को कैच करते हैं लेकिन संकल्प को कैच करने के लिए सूक्ष्म साधन चाहिए। बापदादा हर एक बच्चे के संकल्प की भाषा सदा ही सुनते हैं अर्थात् संकल्प कैच करते हैं। इसके लिए बुद्धि अति सूक्ष्म, स्वच्छ और स्पष्ट आवश्यक है, तब ही बाप की रूह - रूहान के रेसपाण्ड को समझ सकेंगे।
बापदादा के पास सभी की सन्तुष्टता वा सदा खुश रहने के, निर्विघ्न रहने के, सदा बाप समान बनने के श्रेष्ठ संकल्प पहुँच गये और बापदादा बच्चों के दृढ़ संकल्प के द्वारा सदा सफलता की मुबारक दे रहे हैं। क्योंकि जहाँ दृढ़ता है, वहाँ सफलता है ही है। यह है श्रेष्ठ भाग्यवान बनने की निशानी। सदा दृढ़ता, श्रेष्ठता हो; संकल्प में भी कमज़ोरी न हो - इसको कहते हैं - ‘श्रेष्ठता'। बच्चों की विशाल दिल देख बच्चों को सदा विशाल दिल, विशाल बुद्धि, विशाल सेवा और विशाल संस्कार - ऐसे ‘सदा विशाल भव' का वरदान भी वरदाता बाप दे रहे हैं। विशाल दिल अर्थात् बेहद के स्मृतिस्वरूप। हर बात में बेहद अर्थात् विशाल। जहाँ बेहद है तो कोई भी प्रकार की हद अपने तरफ आकर्षित नहीं करती हैं। इसको ही बाप समान कर्मातीत फरिश्ता जीवन कहा जाता है। कर्मातीत का अर्थ ही है - सर्व प्रकार के हद के स्वभाव संस्कार से अतीत अर्थात् न्यारा। हद है बन्धन, बेहद है निर्बन्धन। तो सदा इसी विधि से सिद्धि को प्राप्त करते रहेंगे। सभी ने स्वयं से जो संकल्प किया: वह सदा अमर है, अटल है, अखण्ड है अर्थात् खण्डित होने वाला नहीं है। ऐसा संकल्प किया है ना? मधुबन की लकीर तक संकल्प तो नहीं है ना? सदा साथ रहेगा ना?
मुरलियाँ तो बहुत सुनी हैं। अभी जो सुना है वह करना है। क्योंकि इस साकार सृष्टि में संकल्प, बोल और कर्म - तीनों का महत्त्व है और तीनों में ही महानता - इसको ही सम्पन्न स्टेज कहा जाता है। इस साकार सृष्टि में ही फुल मार्क्स लेना अति आवश्यक है। अगर कोई समझे कि संकल्प तो मेरे बहुत श्रेष्ठ हैं लेकिन कर्म वा बोल में अन्तर दिखाई देता है; तो कोई मानेगा? क्योंकि संकल्प का स्थूल ‘दर्पण' बोल और कर्म है। श्रेष्ठ संकल्प वाले का बोल स्वत: ही श्रेष्ठ होगा। इसलिए तीनों की विशेषता ही ‘नम्बरवन' बनना है।
बापदादा डबल विदेशी बच्चों को देख सदा बच्चों की विशेषता पर हर्षित होते हैं। वह विशेषता क्या है? जैसे ब्रह्मा बाप के श्रेष्ठ संकल्प द्वारा वा श्रेष्ठ संकल्प के आह्वान द्वारा दिव्य जन्म प्राप्त किया है, ऐसे ही श्रेष्ठ संकल्प की विशेष रचना होने के कारण अपने संकल्पों को श्रेष्ठ बनाने के विशेष अटेन्शन में रहते हैं। संकल्प के ऊपर अटेन्शन होने कारण किसी भी प्रकार की सूक्ष्म माया के वार को जल्दी जान भी जाते हैं और परिवर्तन करने के लिए वा विजयी बनने के लिए पुरूषार्थ कर जल्दी से खत्म करने का प्रयत्न करते हैं। संकल्प - शक्ति को सदा शुद्ध बनाने का अटेन्शन अच्छा रहता है। अपने को चेक करने का अभ्यास अच्छा रहता है। सूक्ष्म चेकिंग के कारण छोटी गलती भी महसूस कर बाप के आगे, निमित्त बने हुए बच्चों के आगे रखने में साफ दिल हैं, इसलिए इस विधि से बुद्धि में किचड़ा इकठ्ठा नहीं होता है। मैजारिटी साफ - दिल से बोलने में संकोच नहीं करते हैं, इसलिए जहाँ स्वच्छता है वहाँ देवताई गुण सहज धारण हो जाते हैं। दिव्य गुणों की धारणा अर्थात् आह्वान करने की विधि है ही - ‘स्वच्छता'। जैसे भक्ति में भी जब लक्ष्मी का वा किसी देवी का आह्वान करते हैं तो आह्वान की विधि स्वच्छता ही अपनाते हैं। तो यह स्वच्छता का श्रेष्ठ स्वभाव, दैवी स्वभाव को स्वत: ही आह्वान करता है। तो यह विशेषता मैजारिटी डबल विदेशी बच्चों में है। इसलिए तीव्रगति से आगे बढ़ने का गोल्डन चांस ड्रामा अनुसार मिला हुआ है। इसको ही कहते हैं - ‘लास्ट सो फास्ट'। तो विशेष फास्ट जाने की यह विशेषता ड्रामा अनुसार मिली हुई है। इस विशेषता को सदा स्मृति में रख लाभ उठाते चलो। आया, स्पष्ट किया और गया। इसको ही कहते हैं - पहाड़ को रूई समान बनाना। रूई सेकण्ड में उड़ती है ना। और पहाड़ को कितना समय लगेगा? तो स्पष्ट किया, बाप के आगे रखा और स्वच्छता की विधि से फरिश्ता बन उड़ा - इसको कहते हैं लास्ट सो फास्ट गति से उड़ना। ड्रामा अनुसार यह विशेषता मिली हुई है। बापदादा देखते भी हैं कि कई बच्चे चेक भी करते हैं और अपने को चेन्ज भी करते हैं क्योंकि लक्ष्य है कि हमें विजयी बनना ही है। मैजारिटी का यह नम्बरवन लक्ष्य है।
दूसरी विशेषता - जन्म लेते, वर्सा प्राप्त करते सेवा का उमंग - उत्साह स्वत: ही रहता है। सेवा में लग जाने से एक तो सेवा का प्रत्यक्ष फल ‘खुशी' भी मिलती है और सेवा से विशेष बल भी मिलता है और सेवा में बिजी रहने के कारण निर्विघ्न बनने में भी सहयोग मिलता है। तो सेवा का उमंग - उत्साह स्वतः ही आना, समय निकालना वा अपना तन - मन - धन सफल करना - यह भी ड्रामा अनुसार विशेषता की लिफ्ट मिली हुई है। अपनी विशेषताओं को जानते हो ना। इस विशेषाताओं से अपने को जितना आगे बढ़ाने चलो उतना बढ़ा सकते हो। ड्रामा अनुसार किसी भी आत्मा का यह उल्हना नहीं रह सकता कि हम पीछे आये हैं, इसलिए आगे नहीं बढ़ सकते। डबल विदेशी बच्चों को अपनी विशेषताओं का गोल्डन चांस है। भारतवासियों को फिर अपना गोल्डन चांस है। लेकिन आज तो डबल विदेशी बच्चों से मिल रहे हैं। ड्रामा में विशेष नूँध होने के कारण किसी भी लास्ट वाली आत्मा का उल्हना चल नहीं सकता क्योंकि ड्रामा एक्यूरेट बना हुआ है। इन विशेषताओं से सदा तीव्रगति से उड़ते चलो। समझा? स्पष्ट हुआ वा अभी भी कोई उल्हना है? दिलखुश मिठाई तो बाप को खिला दी है। ‘दृढ़ संकल्प' किया अर्थात् दिलखुश मिठाई बाप को खिलाई। यह अविनाशी मिठाई है। सदा ही बच्चों का भी मुख मीठा और बाप का तो मुख मीठा है ही। लेकिन फिर और भोग नहीं लगाना, दिलखुश मिठाई का ही भोग लगाना। स्थूल भोग तो जो चाहे लगाना लेकिन मन के संकल्प का भोग सदा दिलखुश मिठाई का ही लगाते रहना।
बापदादा सदा कहते हैं कि पत्र भी जब लिखते हो तो सिर्फ दो अक्षर का पत्र सदा बाप को लिखो। वह दो शब्द कौन से हैं? ओ.के.। न इतने कागज जायेंगे, न स्याही जायेगी और न समय जायेगा। बचत हो जायेगी। ओ.के. अर्थात् बाप भी याद है और राज्य भी याद है। ओ. (O) जब लिखते हो तो बाप का चित्र बन जाता है ना। और के. अर्थात् किंगडम। तो ओ.के. लिखा तो बाप और वर्सा दोनों याद आ जाता है। तो पत्र लिखो जरूर लेकिन दो शब्दों में। तो पत्र पहुँच जायेगा। बाकी दिल की उमंगों को तो बापदादा जानते हैं। प्यार के दिल की बातें तो दिलाराम बाप के पास पहुँच ही जाती है। यह पत्र लिखना तो सभी को आता है ना? भाषा न जानने वाला भी लिख सकता है। इसमें भाषा भी सभी की एक ही हो जायेगी। यह पत्र पसन्द है ना। अच्छा!
आज पहले ग्रुप का लास्ट दिन है। प्राब्लम्स तो सब खत्म हो गई, बाकी टोली खाना और खिलाना है। बाकी क्या रहा? अभी औरों को ऐसा बनाना है। सेवा तो करनी है ना। निर्विघ्न सेवाधारी बनो।
सदा बाप समान बनने के उमंग - उत्साह से उड़ने वाले, सदा स्व को चेक कर चेन्ज कर सम्पूर्ण बनने वाले, सदा संकल्प बोल और कर्म - तीनों में श्रेष्ठ बनने वाले, सदा स्वच्छता द्वारा श्रेष्ठता को धारण करने वाले, ऐसे तीव्रगति से उड़ने वाली विशेष आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''
आस्ट्रेलिया ग्रुप के छोटे बच्चों से बापदादा की मुलाकात: - सभी गॉडली स्टूडेन्ट हो ना। रोज स्टडी करते हो? जैसे वह स्टडी रोज करते हो, ऐसे यह भी करते हो? मुरली सुनना अच्छा लगता है? समझ में आती है, मुरली क्या होती है? बाप को रोज याद करते हो? सुबह उठते गुडमॉर्निंग करते हो? कभी भी यह गुडमॉर्निंग मिस नहीं करना। गुडमॉर्निंग भी करना, गुडनाईट भी करना और जब खाना खाते हो तब भी याद करना। ऐसे नहीं भूख लगती है तो बाप को भूल जाओ। खाने के पहले जरूर याद करना। याद करेंगे तो पढ़ाई में बहुत अच्छे नम्बर ले लेंगे। क्योंकि जो बाप को याद करते हैं वह सदा पास होंगे, कभी फेल नहीं हो सकते। तो सदैव पास होते हो? अगर पास न हुए तो सब कहेंगे - यह शिव बाप के बच्चे भी फेल होते हैं! रोज मुरली की एक प्वाइंट अपनी माँ से जरूर सुनो। अच्छा! बहुत भाग्यवान हो जो भाग्यविधाता की धरनी पर पहुँचे हो। बाप से मिलने का भाग्य मिला है। यह कम भाग्य नहीं है।
पर्सनल मुलाकात के समय बापदादा द्वारा वरदान रूप में उच्चारे हुए महावाक्य
1. बाप द्वारा मिले हुए सर्व खज़ानों को सर्व आत्माओं प्रति लगाने वाली भरपूर बन औरों को भरपूर बनाने वाली आत्मा हो। कितने खज़ाने भरपूर हैं? जो भरपूर होता है वह सदा बाँटता है। अविनाशी भण्डारा लगा हुआ है। जो आये भरपूर होकर जाये, कोई खाली जा नहीं सकता। इसको कहते हैं अखण्ड भण्डारा। कभी महादानी बन दान करते, कभी ज्ञानी बन ज्ञान - अमृत पिलाते, कभी दाता बन, धन - देवी बन धन देते - ऐसे सर्व की शुभ आशायें बाप द्वारा पूर्ण कराने वाले हो। जितना खज़ाने बाँटते, उतना और बढ़ते जाते हैं। इसको कहते हैं सदा मालामाल। कोई भी खाली हाथ न जाये। सबके मुख से यही दुआयें निकलें कि ‘वाह, हमारा भाग्य!' ऐसे महादानी, वरदानी बन सच्चे सेवाधारी बनो।
2. ड्रामा अनुसार सेवा का वरदान भी सदा आगे बढ़ाता है। एक होती है योग्यता द्वारा सेवा प्राप्त होना और दूसरा है वरदान द्वारा सेवा प्राप्त होना। स्नेह भी सेवा का साधन बनता है। भाषा भल न भी जानते हों लेकिन स्नेह की भाषा सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। इसलिए स्नेही आत्मा को सदा सफलता मिलती है। जो स्नेह की भाषा जानते हैं, वह कहाँ भी सफल हो जाते हैं। सेवा सदा निर्विघ्न हो। इसको कहते हैं सेवा में सफलता। तो स्नेह की विशेषता से आत्मायें तृप्त हो जाती हैं। स्नेह के भण्डारे भरपूर हैं, इसे बाँटते चलो। जो बाप से भरा है, वह बांटो। यह बाप से लिया हुआ स्नेह ही आगे बढ़ाता रहेगा।
3. स्नेह का वरदान भी सेवा के निमित्त बना देता है। बाप से स्नेह है तो औरों को भी बाप के स्नेही बनाए समीप ले आते हो। जैसे बाप के स्नेह ने आपको अपना बना लिया तो सब कुछ भूल गया। ऐसे अनुभवी बन औरों को भी अनुभवी बनाते रहो। सदा बाप के स्नेह के पीछे कुर्बान जाने वाली आत्मा हूँ - इसी नशे में रहो। बाप और सेवा - यही लग्न आगे बढ़ने का साधन है। चाहे कितना भी कोई बात आये लेकिन बाप का स्नेह सहयोग दे आगे बढ़ाता है क्योंकि स्नेही को स्नेह का रिटर्न पद्मगुणा। मिलता है। स्नेह ऐसी शक्ति है जो कोई भी बात मुश्किल नहीं लगती क्योंकि स्नेह में खो जाते हैं। इसको कहते हैं - परवाने शमा पर फिदा हुए। चक्र लगाने वाले नहीं, फिदा होने वाले, प्रीत की रीति निभाने वाले। तो स्नेह और शक्ति - दोनों के बैलेन्स से सदा आगे बढ़ते और बढ़ाते चलो। बैलेन्स ही बाप की ब्लैसिंग दिलाता है और दिलाता रहेगा। बड़ो की छत्रछाया भी सदा आगे बढ़ाती रहेगी। बाप की छत्रछाया तो है ही लेकिन बड़ों की छत्रछाया भी गोल्डन आफर है। तो सदा आफरीन (शाबास) मनाते हुए आगे बढ़ते चलो तो भविष्य स्पष्ट होता जायेगा।
4. हर कदम में बाप का साथ अनुभव करने वाले हो ना। जिन बच्चों को बाप ने विशेष सेवा के अर्थ निमित्त बनाया है, तो निमित्त बनाने के साथ - साथ सेवा के हर कदम में सहयोगी भी बनता है। भाग्यविधाता ने हर एक बच्चे को भाग्य की विशेषता दी हुई है। उसी विशेषता को कार्य में लगाते सदा आगे बढ़ते और बढ़ाते चलो। सेवा तो श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माओं के पीछे - पीछे आने वाली है। सेवा के पीछे आप नहीं जाते, जहाँ जाते वहाँ सेवा पीछे आती है। जैसे जहाँ लाइट होती है, वहाँ परछाई जरूर आती है। ऐसे आप डबल लाइट हो तो आपके पीछे सेवा भी परछाई के समान आयेगी। इसलिए सदा निश्चिन्त बन बाप की छत्रछाया में चलते चलो।
5. सदा दिल में बाप समान बनने का उमंग रहता है ना? जब समान बनेंगे, तब ही समीप रहेंगे समीप तो रहना है ना। समीप रहने वाले के पास समान बनने का उमंग रहता ही है और समान बनना मुश्किल भी नहीं है। सिर्फ, जो भी कर्म करो, तो कर्म करने के पहले यह स्मृति में लाओ कि यह कर्म बाप कैसे करते हैं। तो यह स्मृति स्वत: बाप के कर्म जैसा फालो करायेगी। इसमें बैठ कर सोचने की बात नहीं है, सीढ़ी उतरते - चढ़ते भी सोच सकते हो। बहुत सहज विधि है। तो सिर्फ बाप से मिलान करते चलो और यही याद रखो कि बाप समान अवश्य बनना ही है, तो हर कर्म में सहज ही सफलता का अनुभव करते रहेंगे। अच्छा!
03 - 03 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
होली कैसे मनायें तथा सदाकाल का परिवर्तन कैसे हो?
दो प्रकार के महारथी बच्चों को सदाकाल का परिवर्तन न होने का कारण और निवारण की युक्तियाँ बताते हुए हाइएस्ट होलीएस्ट शिवाबाबा बोले
आज सर्व के भाग्यविधाता बाप अपने होलीहंसों से ज्ञान रत्नों की होली मनाने आये हैं। मनाना अर्थात् मिलन मनाना। बापदादा हर एक अति स्नेही, सहजयोगी, सदा बाप के कार्य में सहयोगी, सदा पावन वृत्ति से, पावन दृष्टि से सृष्टि को परिवर्तन करने वाले सर्व होली बच्चों को देख सदा हर्षित होते हैं। पावन तो आजकल के गाये हुए महात्मायें भी बनते हैं लेकिन आप श्रेष्ठ आत्मायें हाइएस्ट होली बनते हो अर्थात् संकल्प - मात्र, स्वप्न मात्र भी अपवित्रता वृत्ति को, दृष्टि को पावन स्थिति से नीचे नहीं ला सकती। हर संकल्प अर्थात् स्मृति पावन होने के कारण वृत्ति, दृष्टि स्वत: ही पावन हो जाती है। न सिर्फ आप पावन बनते हो लेकिन प्रकृति को भी पावन बना देते हो। इसलिए पावन प्रकृति के कारण भविष्य अनेक जन्म शरीर भी पावन मिलते हैं। ऐसे होलीहंस वा सदा पावन संकल्पधारी श्रेष्ठ आत्मायें बन जाती हो। ऊँचे - ते - ऊँचा बाप हर बात में श्रेष्ठ जीवन वाले बनाते हैं। पवित्रता भी ऊँचे - ते - ऊँची पवित्रता, साधारण नहीं। साधारण पवित्र आत्मायें आप महान पवित्र आत्माओं के आगे मन से मानने का नमस्कार करेंगे कि आपकी पवित्रता अति श्रेष्ठ है। आजकल के गृहस्थी अपने को अपवित्र समझने के कारण जिन पवित्र आत्माओं को महान समझकर सिर झुकाते हैं, वह महान आत्मायें कहलाने वाली आप श्रेष्ठ पावन आत्माओं के आगे मानेंगी कि आपकी पवित्रता और हमारी पवित्रता में महान अन्तर है।
यह होली का उत्सव आप पावन आत्माओं के पावन बनने की विधि का यादगार है। क्योंकि आप सभी नम्बरवार पावन आत्मायें बाप के याद की लग्न की अग्नि द्वारा सदा के लिए अपवित्रता को जला देते हो। इसलिए पहले जलाने की होली मनाते हैं, फिर रंग की होली वा मंगल - मिलन मनाते हैं। जलाना अर्थात् नाम - निशान समाप्त करना। वैसे किसको नाम - निशान से खत्म करना होता है तो क्या करते हो? जला देते हैं। इसलिए रावण को भी मारने के बाद जला देते हैं। यह आप आत्माओं का यादगार है। अपवित्रता को जला दिया अर्थात् पावन ‘होली' बन गये। बापदादा सदैव सुनाते ही हैं कि ब्राह्मणों का होली मनाना अर्थात् होली (पवित्र) बनाना। तो यह चेक करो कि अपवित्रता को सिर्फ मारा है या जलाया है? मरने वाले फिर भी जिन्दा हो जाते हैं, कहाँ - न - कहाँ श्वाँस छिपा रह जाता है। लेकिन जलना अर्थात् नाम - निशान समाप्त करना। कहाँ तक पहुँचे हैं, अपने आप को चेक करना पड़े। स्वप्न में भी अपवित्रता का छिपा हुआ श्वाँस फिर से जीवित नहीं होना चाहिए। इसको कहते हैं - श्रेष्ठ पावन आत्मा। संकल्प से स्वप्न भी परिवर्तित हो जाते हैं।
आज वतन में बापदादा बच्चों के समय - प्रति - समय संकल्प द्वारा वा लिखित द्वारा बाप से किये हुए वायदे देख रहे थे। चाहे स्थिति में महारथी, चाहे सेवा में महारथी - दोनों के समय - प्रति - समय के वायदे बहुत अच्छे - अच्छे किये हुए हैं। महारथी भी दो प्रकार के हैं। एक हैं अपने वरदान वा वर्से की प्राप्ति के पुरूषार्थ के आधार से महारथी और दूसरे हैं कोई न कोई सेवा की विशेषता के आधार से महारथी। कहलाते दोनों ही महारथी हैं लेकिन जो पहला नम्बर सुनाया - स्थिति के आधार वाले, वह सदा मन से अतीन्द्रिय सुख के, सन्तुष्टता के, सर्व के दिल के स्नेह के प्राप्ति स्वरूप के झूले में झूलते रहते हैं। और दूसरा नम्बर सेवा की विशेषता के आधार वाले तन से अर्थात् बाहर से सेवा की विशेषता के फलस्वरूप सन्तुष्ट दिखाई देंगे। सेवा की विशेषता के कारण सेवा के आधार पर मन की सन्तुष्टता है। सेवा की विशेषता - कारण सर्व का स्नेह भी होगा लेकिन मन से वा दिल से सदा नहीं होगा। कभी बाहर से, कभी दिल से। लेकिन सेवा की विशेषता महारथी बना देती है। गिनती में महारथी की लाइन में आता है।
तो आज बापदादा महारथी वा पुरूषार्थी - दोनों के वायदे देख रहे थे। अभी - अभी नजदीक में वायदे बहुत किये हैं। तो क्या देखा? वायदे से फायदा तो होता है क्योंकि दृढ़ता का फल ‘अटेन्शन' रहता है। बार - बार वायदे की स्मृति समर्थी दिलाती है। इस कारण थोड़ा बहुत परिवर्तन भी होता है। लेकिन बीज दबा हुआ रहता है। इसलिए जब ऐसा समय वा समस्या आती है तो ‘समस्या' वा ‘कारण' का पानी मिलने से दबा हुआ बीज फिर से पत्ते निकलना शुरू कर देता है। सदा के लिए समाप्त नहीं होता है। बापदादा देख रहे थे - जलाने की होली किन्हों ने मनाई जब बीज को जलाया जाता है तो जला हुबा बीज कभी फल नहीं देता। वायदे तो सभी ने किये कि बीती को बीती कर जो अब तक हुआ, चाहे अपने प्रति, चाहे औरों के प्रति - सर्व को समाप्त कर परिवर्तन करेंगे। सभी ने अभी - अभी वायदे किये हैं ना। रूह - रूहान में सभी वायदे करते हैं ना। हर एक का रिकार्ड बापदादा के पास है। बहुत अच्छे रूप से वायदे करते हैं। कोई गीतकविता द्वारा, कोई चित्रों द्वारा।
बापदादा देख रहे थे जितना चाहते हैं, उतना परिवर्तन क्यों नहीं होता? कारण क्या है, क्यों नहीं सदा के लिए समाप्त हो जाता है, तो क्या देखा? अपने प्रति वा दूसरों के प्रति संकल्प करते हो कि यह कमज़ोरी फिर आने नहीं देगें वा दूसरे के प्रति सोचते हो कि जो भी किसी आत्मा के प्रति संस्कार के कारण वा हिसाब - किताब चुक्तू होने के कारण जो भी संकल्प में वा बोल में वा कर्म में संस्कार टकराते हैं, उनका परिवर्तन करेंगे। लेकिन समय पर फिर से क्यों रिपीट होता है? उसका कारण? सोचते हो कि आगे से इस आत्मा के इस संस्कार को जानते हुए स्वयं को सेफ रख उस आत्मा को भी शुभ भावना - शुभ कामना देंगे लेकिन जैसे दूसरे की कमज़ोरी देखने, सुनने वा ग्रहण करने की आदत नैचरल और बहुतकाल की हो गई है, उसके बदले नहीं रखेंगे - यह तो बहुत अच्छा, लेकिन उसके स्थान पर क्या देखेंगे, क्या उस आत्मा से ग्रहण करेंगे - वह बारबार अटेन्शन में नहीं रखते। यह नहीं करना है - यह याद रहता है लेकिन ऐसी आत्माओं के प्रति क्या करना है, सोचना है, देखना - वह बातें नैचरल अटेन्शन में नहीं रहती। जैसे कोई स्थान खाली रहता, उसको अच्छे रूप से यूज नहीं करते तो खाली स्थान में फिर भी किचड़ा या मच्छर आदि स्वत: ही पैदा हो जाते। क्योंकि वायुमण्डल में मिट्टी - धूल, मच्छर है ही; तो वह फिर से थोड़ा - थोड़ा करके बढ़ जाता है। जगह भरनी चाहिए। जब भी आत्माओं के सम्पर्क में आते हो, पहले नैचरल परिवर्तन किया हुआ श्रेष्ठ संकल्प का स्वरूप स्मृति में आना चाहिए। क्योंकि नॉलेजफुल तो हो ही जाते हो। सभी के गुण, कर्त्तव्य, संस्कार, सेवा, स्वभाव परिवर्तन के शुभ संस्कार वा स्थान सदा भरपूर होगा तो अशुद्ध को स्वत: ही समाप्त कर देगा।
जैसे सुनाया था - कई बच्चे जब याद में बैठते हैं वा ब्राह्मण जीवन में चलते - फिरते याद का अभ्यास करते हैं तो याद में शान्ति का अनुभव करते हैं लेकिन खुशी का अनुभव नहीं करते। सिर्फ शान्ति की अनुभूति कभी माथा भारी कर देती है और कभी निद्रा के तरफ ले जाती है। शान्ति की स्थिति के साथ खुशी नहीं रहती। तो जहाँ खुशी नहीं, वहाँ उमंग - उत्साह नहीं होता और योग लगाते भी अपने से सन्तुष्ट नहीं होते, थके हुए रहते हैं। सदा सोच की मूड में रहते, सोचते ही रहते। खुशी क्यों नहीं आती, इसका भी कारण है। क्योंकि सिर्फ यह सोचते हो कि मैं आत्मा हूँ, बिन्दु हूँ, ज्योतिस्वरूप हूँ, बाप भी ऐसा ही है। लेकिन मैं कौन - सी आत्मा हूँ! मुझ आत्मा की विशेषता क्या है? जैसे मैं पद्मापद्म भाग्यवान आत्मा हूँ, मैं आदि रचना वाली आत्मा हूँ, मैं बाप के दिलतख्तनशीन होने वाली आत्मा हूँ। यह विशेषतायें जो खुशी दिलाती है, वह नहीं सोचते हो। सिर्फ बिन्दी हूँ, ज्योति हूँ, शान्तस्वरूप हूँ - तो निल में चले जाते हो। इसलिए माथा भारी हो जाता है। ऐसे ही जब स्वयं के प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति परिवर्तन का दृढ़ संकल्प करते हो तो स्वयं प्रति वा अन्य आत्माओं के प्रति शुभ, श्रेष्ठ संकल्प वा विशेषता का स्वरूप सदा इमर्ज रूप में रखो तो परिवर्तन हो जायेगा।
जैसे यह संकल्प आता है कि यह है ही ऐसा, यह होगा ही ऐसा, ये करता ही ऐसे है। इसको बजाये यह सोचो कि यह विशेषता प्रमाण विशेष ऐसा है। जैसे कमज़ोरी का ‘ऐसा' और ‘वैसा' आता है, वैसे श्रेष्ठता वा विशेषता का ‘ऐसा'‘वैसा' है - यह सामने लाओ। स्मृति को, स्वरूप को, वृत्ति को, दृष्टि को परिवर्तन में लाओ। इस रूप से स्वयं को भी देखो और दूसरों को भी देखो। इसको कहते है स्थान भर दिया, खाली नहीं छोड़ा। इस विधि से जलाने की होली मनाओ। अपने प्रति वा दूसरों के प्रति ऐसे कभी नहीं सोचो कि ‘देख हमने कहा था ना कि यह बदलने वाले हैं ही नहीं।' लेकिन उस समय अपने से पूछो कि ‘मैं क्या बदला हूँ?' स्व परिवर्तन ही औरों का भी परिवर्तन सामने लायेगा। हर एक यह सोचो कि ‘पहले मैं बदलने का एग्जाम्पल बनूँ।' इसको कहते हैं होली जलाना। जलाने के बिना मनाना नहीं होता, पहले जलाना ही होता है। क्योंकि जब जला दिया अर्थात् स्वच्छ हो गये, श्रेष्ठ पवित्र बन गये। तो ऐसी आत्मा को स्वत: ही बाप के संग का रंग सदा लगा हुआ ही रहता है। सदा ही ऐसी आत्मा बाप से वा सर्व आत्माओं से मंगल - मिलन अर्थात् कल्याणकारी श्रेष्ठ शुभ मिलन मनाती ही रहती है। समझा?
ऐसी होली मनानी है ना। जहाँ उमंग - उत्साह होता है, वहाँ हर घड़ी उत्सव है ही है। तो खुशी से खूब मनाओ, खेले - खाओ, मौज करो लेकिन सदा होली बन मिलन मनाते रहो। अच्छा!
सदा हर सेकण्ड बाप द्वारा वरदान की मुबारक लेने वाले, सदा हर ब्राह्मण आत्मा द्वारा शुभ भावना की मुबारक लेने वाले, सदा अति श्रेष्ठ पावन आत्माओं को, सदा संग के रंग में रंगी हुई आत्माओं को, सदा बाप से मिलन मनाने वाली आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पर्सनल मुलाकात के समय वरदान के रूप में उच्चारे हुए महावाक्य
1. सदा अपने को बाप की याद की छत्रछाया में रहने वाली श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? छत्रछाया ही सेफ्टी का साधन है। इस छत्रछाया से संकल्प में भी अगर पाँव बाहर निकलाते हो तो क्या होगा? रावण उठाकर ले जायेगा और शोक वाटिका में बिठा देगा। तो वहाँ तो जाना नहीं है। सदा बाप की छत्रछाया में रहने वाली, बाप की स्नेही आत्मा हूँ - इसी अनुभव में रहो। इसी अनुभव से सदा शक्तिशाली बन आगे बढ़ते रहेंगे।
2. सदा अपने को बापदादा की नजरों में समाई हुई आत्मा अनुभव करते हो? नयनों में समाई हुई आत्मा का स्वरूप क्या होगा? आँखों में क्या होता है? बिन्दी। देखने की सारी शक्ति बिन्दी में है ना। तो नयनों में समाई हुई अर्थात् सदा बिन्दी स्वरूप में स्थित रहने वाली - ऐसा अनुभव होता है ना! इसको ही कहते हैं - ‘नूरे रत्न'। तो सदा अपने को इस स्मृति से आगे बढ़ाते रहो। सदा इसी नशे में रहो कि मैं ‘नूरे रत्न' आत्मा हूँ।
07 - 03 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भाग्यवान बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य की लिस्ट
अमृतवेले भाग्यवान बाप से मिलन मनाने वाले, परमशिक्षक ज्ञानसागर बाप से पढ़ाई पढ़ने वाले, कर्म करते भी करावनहार बाप की स्मृति में रहने वाले, भाग्यवान खिला रहा है - इस स्मृति में रह ब्रह्माभोजन खाने वाले, बाप के याद की गोदी में सोने वाले - ऐसे श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को श्रेष्ठ भाग्य की स्मृति दिलाते हुए भाग्यविधाता बापदादा बोले
आज भाग्यविधाता बापदादा अपने भाग्यवान बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण बच्चें का भाग्य दुनिया के साधारण आत्माओं में से अति श्रेष्ठ है क्योंकि हर एक ब्राह्मण आत्मा कोटों में से कोई और कोई में भी कोई है। कहाँ साढ़े पांच सौ करोड़ आत्मायें और कहाँ आप ब्राह्मणों का छोटा - सा संसार है! उन्हों के अन्तर में कितने थोड़े हो! इसलिए अज्ञानी, अन्जान आत्माओं के अन्तर में आप सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ भाग्यवान हो। बापदादा देख रहे हैं कि हर एक ब्राह्मण के मस्तक पर भाग्य की रेखा बहुत स्पष्ट तिलक के समान चमक रही है। हद के ज्योतिषी हाथों से रेखा देखते हैं लेकिन यह दिव्य ईश्वरीय भाग्य की रेखा हर एक के मस्तक पर दिखाई देती है। जितना श्रेष्ठ भाग्य उतना भाग्यवान बच्चों का मस्तक सदा अलौकिक लाइट में चमकता रहता है। भाग्यवान बच्चों की और निशानियाँ क्या दिखाई देंगी? सदा मुख पर ईश्वरीय रूहानी मुस्कराहट अनुभव होगी। भाग्यवान के नयन अर्थात् दिव्य दृष्टि किसी को भी सदा खुशी की लहर उत्पन्न कराने के निमित्त बनती है। जिसको भी दृष्टि मिलेगी वह रूहानियत का, रूहानी बाप का, परमात्म - याद का अनुभव करेगा। भाग्यवान आत्मा के सम्पर्क में हर एक आत्मा को हल्कापन अर्थात् लाइट की अनुभूति होगी। ब्राह्मण आत्माओं में भी नम्बरवार तो अन्त तक ही रहेंगे लेकिन निशानियाँ नम्बरवार सभी भाग्यवान बच्चों की है। आगे और भी प्रत्यक्ष होती जायेंगी।
अभी थोड़ा समय को आगे बढ़ने दो। थोड़े समय में जब अति और अन्त - दोनों ही अनुभव होगा तो चारों ओर अन्जान आत्मायें हद के वैराग वृत्ति में आयेंगी और आप भाग्यवान आत्मायें बेहद के वैराग वृत्ति के अनुभव में होगी। अभी तो दुनिया वालों में भी वैराग नहीं है। अगर थोड़ी - बहुत रिहर्सल होती भी है तो और ही अलबेलेपन की नींद में सो जाते हैं कि यह तो होता ही रहता है। लेकिन जब ‘अति' और ‘अन्त' के नजारे सामने आयेंगे तो स्वत: ही हद की वैराग वृत्ति उत्पन्न होगी और अति टेन्शन (तनाव) होने के कारण सभी का अटेन्शन (ध्यान) एक बाप तरफ जायेगा। उस समय सर्व आत्माओं की दिल से आवाज निकलेगी कि सब का रचयिता, सभी का बाप एक है और बुद्धि अनेक तरफ से निकल एक तरफ स्वत: ही जायेगी। ऐसे समय पर आप भाग्यवान आत्माओं के बेहद के वैराग वृत्ति की स्थिति स्वत: और निरन्तर हो जायेगी और हर एक के मस्तक से भाग्य की रेखायें स्पष्ट दिखाई देंगी। अभी भी श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों की बुद्धि में सदा क्या रहता? ‘भगवान' और ‘भाग्य'।
अमृतवेले से अपने भाग्य की लिस्ट निकालो। भाग्यवान बच्चों को अमृतवेले स्वयं बाप उठाते भी हैं और आह्वान भी करते हैं। जो अति स्नेही बच्चे हैं, उन्हों का अनुभव है कि सोने भी चाहे तो कोई सोने नहीं दे रहा है, कोई उठा रहा है, बुला रहा है। ऐसे अनुभव होता है ना। अमृतवेले से अपना भाग्य देखा। भक्ति में देवताओं को भगवान समझ भक्त घण्टी बजाकर उठाते हैं और आपको भगवान खुद उठाते हैं, कितना भाग्य है! अमृतवेले से लेकर बाप बच्चों के सेवाधारी बन सेवा करते हैं और फिर आह्वान करते हैं - ‘आओ, बाप समान स्थिति का अनुभव करो, मेरे साथ बैठ जाओ।' बाप कहाँ बैठा है? ऊँचे स्थान पर और ऊँची स्थिति में। जब बाप के साथ बैठ जायेंगे तो स्थिति क्या होगी! मेहनत क्यों करते हो? साथ में बैठ जाओ तो संग का रंग स्वत: ही लगेगा। स्थान के प्रमाण स्थिति स्वत: ही होगी। जैसे मधुबन के स्थान पर आते हो तो स्थिति क्या हो जाती है? योग लगाना पड़ता है या योग लगा हुआ ही रहता है? तभी तो यहाँ ज्यादा रहने की इच्छा रखते हो ना। अभी सबको कहें - और 15 दिन रह जाओ तो खुशी में नाचेंगे ना। तो जैसे स्थान का स्थिति पर प्रभाव पड़ता है, ऐसे अमृतवेले या तो परमधाम में या सूक्ष्मवतन में चले जाओ, बाप के साथ बैठ जाओ। अमृतवेला शक्तिशाली होगा तो सारा दिन स्वत: ही मदद मिलेगी। तो अपने भाग्य को स्मृति में रखो - ‘‘वाह, मेरा भाग्य!'' दिनचर्या ही भगवान से शुरू होती।
फिर अपना भाग्य देखो - बाप स्वयं शिक्षक बन कितना दूर देश से आपको पढ़ाने आता है! लोग तो भगवान के पास जाने के लिए प्रयत्न करते और भगवान स्वयं आपके पास शिक्षक बन पढ़ाने आते हैं, कितना भाग्य है! और कितने समय से सेवा की ड्यूटी बजा रहे हैं! कभी सुस्ती करता है? कभी बहाना लगाता है - आज सिर दर्द है, आज रात्रि को सोये नहीं है? तो जैसे बाप अथक सेवाधारी बन सेवा करते हैं, तो बाप समान बच्चे भी अथक सेवाधारी। अपनी दिनचर्या देखो, कितना बड़ा भाग्य है? बाप सदा स्नेही, सिकीलधे बच्चें को कहते हैं - कोई भी सेवा करते हो, चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक, चाहे परिवार में, चाहे सेवाकेन्द्रों पर - कोई भी कर्म करो, कोई भी ड्यूटी बजाओ लेकिन सदा यह अनुभव करो कि करावनहार करा रहा है मुझ निमित्त करनहार द्वारा, मैं सेवा करने के लिए निमित्त बना हुआ हूँ, करावनहार करा रहा है। यहाँ भी अकेले नहीं हो, करावनहार के रूप में बाप कर्म करने समय भी साथ है। आप तो सिर्फ निमित्त हो। भगवान विशेष करावनहार है। अकेले करते ही क्यों हो? अकेला मैं करता हूँ - यह भान रहता है तो यह ‘मैं - पन' माया का दरवाजा है। फिर कहते हो - माया आ गई। जब दरवाजा खोला तो माया तो इन्तजार में हैं और आपने इन्तजाम अच्छा कर लिया तो क्यों नहीं आयेगी?
यह भी अपना भाग्य स्मृति में रखो कि बाप करावनहार हर कर्म में करा रहा है। तो बोझ नहीं होगा। बोझ मालिक पर होता है, साथी जो होते उन पर बोझ नहीं होता। मालिक बन जाते हो तो बोझ आ जाता है। मैं बालक और मालिक बाप है, मालिक बालक से करा रहा है। बड़े बन जाते हो तो बड़े दु:ख आ जाते हैं। बालक बनकर, मालिक के डायरेकशन पर करो। कितना बड़ा भाग्य है यह! हर कर्म में बाप जिम्मेवार बन हल्का बनाए उड़ा रहे हैं। होता क्या है, जब कोई समस्या आती है तो कहते हो - बाबा, अभी बाप जानो। और जब समस्या समाप्त हो जाती है तो मस्त हो जाते हो। लेकिन ऐसे करो ही क्यों जो समस्या आवे। करावनहार बाप के डायरेक्शन प्रमाण हर कर्म करते चलो तो कर्म भी श्रेष्ठ और श्रेष्ठ कर्म का फल - सदा खुशी, सदा हल्कापन, फरिश्ता जीवन का अनुभव करते रहेंगे। ‘फरिश्ता कर्म के सम्बन्ध में आयेगा लेकिन कर्म के बन्धन में नहीं बंधेगा।' और बाप का सम्बन्ध करावनहार का जुटा हुआ है, इसलिए निमित्त भाव में कभी ‘मैं - पन' का अभिमान नहीं आता है। सदा निर्मान बन निर्माण का कार्य करेंगे। तो कितना भाग्य है आपका!
और फिर ब्रह्मा - भोजन खिलाता कौन है? नाम ही है - ‘ब्रह्मा - भोजन'। ब्रह्मभोजन नहीं, ब्रह्मा भोजन। तो ब्रह्मा यज्ञ का सदा रक्षक है। हर एक यज्ञ - वत्स वा ब्रह्मा - वत्स के लिए ब्रह्मा बाप द्वारा ब्रह्मा - भोजन मिलना ही है। लोग तो वैसे ही कहते कि हमको भगवान खिला रहा है। मालूम है नहीं भगवान क्या, लेकिन खिलाता भगवान है। लेकिन ब्राह्मण बच्चों को तो बाप ही खिलाता है। चाहे लौकिक कमाई भी करके पैसे जमा करते, उसी से भोजन मंगाते भी हो लेकिन पहले अपनी कमाई भी बाप की भण्डारी में डालते हो। बाप की भण्डारी भोलानाथ का भण्डारा बन जाता है। कभी भी इस विधि को भूलना नहीं। नहीं तो, सोचेंगे - हम खुद कमाते, खुद खाते हैं। वैसे तो ट्रस्टी हो, ट्रस्टी का कुछ नहीं होता है। हम अपनी कमाई से खाते हैं - यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। जब ट्रस्टी हैं तो सब बाप के हवाले कर दिया। तेरा हो गया, मेरा नहीं। ट्रस्टी अर्थात् तेरा और गृहस्थी अर्थात् मेरा। आप कौन हो? गृहस्थी तो नहीं हो ना? भगवान खिला रहा है, ब्रह्मा - भोजन मिल रहा है - ब्राह्मण आत्माओं को यह नशा स्वत: ही रहता है और बाप की गैरन्टी है - 21 जन्म ब्राह्मण आत्मा कभी भूखी नहीं रह सकती, बड़े प्यार से दाल - रोटी, सब्जी खिलायेंगे। यह जन्म भी दाल - रोटी प्यार की खायेंगे, मेहनत की नहीं। इसलिए सदा यह स्मृति रखो कि अमृतवेले से लेकर क्या - क्या भाग्य प्राप्त हैं! सारी दिनचर्या सोचो।
सुलाते भी बाप हैं लोरी देकर के। बाप की गोदी में सो जाओ तो थकावट बीमारी सब भूल जायेंगी और आराम करेंगे! सिर्फ आह्वान करो - ‘आ राम' तो आराम आ जायेगा। अकेले सोते हो तो और - और संकल्प चलते हैं। बाप के साथ ‘याद की गोदी' में सो जाओ। ‘मीठे बच्चे', ‘प्यारे बच्चे' की लोरी सुनते - सुनते सो जाओ। देखो कितना अलौकिक अनुभव होता है! तो अमृतवेले से लेकर रात तक सब भगवान करा रहा है, चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है - सदा इस भाग्य को स्मृति में रखो, इमर्ज करो। कोई हद का नशा भी जब तक पीते नहीं तब तक नशा नहीं चढ़ता। ऐसे ही सिर्फ बोतल में रखा हो तो नशा चढ़ेगा? यह भी बुद्धि में समाया हुआ तो है लेकिन इसको यूज करो। स्मृति में लाना अर्थात् पीना, इमर्ज करना। इसको कहते हैं - स्मृति स्वरूप बनो। ऐसे नहीं कहा है कि बुद्धि में समाया हुआ रखो। स्मृतिस्वरूप बनो। कितने भाग्यवान हो! रोज अपने भाग्य को स्मृति में रख समर्थ बनो और उड़ते चलो। समझा, क्या करना है? डबल विदेशी हद के नशे के तो अनुभवी हैं, अभी ये बेहद का नशा स्मृति में रखो तो सदा भाग्य की श्रेष्ठ लकीर मस्तक पर चमकती रहेगी, स्पष्ट दिखाई देगी। अभी किन्हों की मर्ज दिखाई देती, किन्हों की स्पष्ट दिखाई देती है। लेकिन सदा स्मृति में रहेगी तो मस्तक पर चमकती रहेगी, औरों को भी अनुभव कराते रहेंगे। अच्छा!
सदा भगवान और भाग्य - ऐसे स्मृतिस्वरूप समर्थ आत्माओं को, सदा हर कर्म में करनहार बन कर्म करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा अमृतवेले बाप के साथ ऊँचे स्थान, ऊँची स्थिति पर स्थिति रहने वाले भाग्यवान बच्चों को, सदा अपने मस्तक द्वारा श्रेष्ठ भाग्य की रेखायें औरों को अनुभव कराने वाले विशेष ब्राह्मणों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''
विदाई के समय दादी जानकी बम्बई तथा कुरूक्षेत्र सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं।
महारथियों के पाँव में सेवा का चक्र तो है ही। जहाँ जाते हैं, वहाँ सेवा के बिना तो कुछ होता नहीं। चाहे किस कारण से भी जायें लेकिन सेवा समाई हुई है। हर कदम में सेवा के सिवाए कुछ है ही नहीं। अगर चलते भी हैं तो चलते हुए भी सेवा है। अगर खाना भी खाते हैं, किसको बुलाके खिला देते हैं, स्नेह से स्वीकार करते हैं - तो यह भी सेवा हो गई। उठते - बैठते, चलते सेवा - ही - सेवा है। ऐसे सेवाधारी हो। सेवा का चांस मिलना भी भाग्य की निशानी है। बड़े चक्रवर्ती बनना है तो सेवा का चक्र भी बड़ा है। अच्छा!
12 - 03 - 88 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तीन प्रकार का स्नेह तथा दिल के स्नेही बच्चों की विशेषताएँ
सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले, दिव्य बुद्धि, बेहद बुद्धि के दाता बापदादा अपने दिल के स्नेही बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा अपने स्नेही, सहयोगी और शक्तिशाली - ऐसे तीनों विशे - षताओं से सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। यह तीनों विशेषतायें जिसमे समान हैं, वही विशेष आत्माओं में ‘नम्बरवन आत्मा' है। स्नेह भी हो और सदा हर कार्य में सहयोगी भी हो, साथ - साथ शक्तिशाली भी हो। स्नेही तो सभी हैं लेकिन स्नेह में एक है दिल का स्नेह, दूसरा है समय प्रमाण मतलब का स्नेह और तीसरा है मजबूरी के समय का स्नेह। जो दिल का स्नेही है उसकी विशेषता यह होगी - सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति सदा सहज स्वत: अनुभव करेंगे। एक सम्बन्ध की अनुभूति में भी कमी नहीं। जैसा समय वैसे सम्बन्ध के स्नेह के भिन्न - भिन्न अनुभव करने वाले, समय को जानने वाले और समय प्रमाण सम्बन्ध को भी जानने वाले होंगे।
अगर बाप जब शिक्षक के रूप में श्रेष्ठ पढ़ाई पढ़ा रहे हैं, ऐसे समय पर ‘शिक्षक' के सम्बन्ध का अनुभव न कर, ‘सखा' रूप की अनुभूति में मिलन मनाने वा रूह - रूहान करने में लग जाएँ तो पढ़ाई के तरफ अटेन्शन नहीं होगा। पढ़ाई के समय अगर कोई कहे कि मैं आवाज से परे स्थिति में बहुत शक्तिशाली अनुभव कर रहा हूँ, तो पढ़ाई के समय क्या यह राइ