07-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तीनों सम्बन्धों की सहज और श्रेष्ठ पालना
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –
आज विश्व-स्नेही बापदादा चारों ओर के विशेष बाप-स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। बाप का स्नेह और बच्चों का स्नेह दोनों एक-दो से ज्यादा ही है। स्नेह मन को और तन को अलौकिक पंख लगाए समीप ले आता है। स्नेह ऐसा रूहानी आकर्षण है जो बच्चों को बाप की तरफ आकर्षित कर मिलन मनाने के निमित्त बन जाता है। मिलन मेला चाहे दिल से, चाहे साकार शरीर से-दोनों अनुभव स्नेह की आकर्षण से ही होता है। रूहानी परमात्म-स्नेह ने ही आप ब्राह्मणों को दिव्य जन्म दिया। आज अभी-अभी रूहानी स्नेह की सर्चलाइट द्वारा चारों ओर के ब्राह्मण बच्चों की स्नेहमयी सूरतें देख रहे हैं। चारों ओर के अनेक बच्चों के दिल के स्नेह के गीत, दिल का मीत बापदादा सुन रहे हैं। बापदादा सर्व स्नेही बच्चों को चाहे पास हैं, चाहे दूर होते भी दिल के पास हैं, स्नेह के रिटर्न में वरदान दे रहे हैं –
‘‘सदा खुशनसीब भव! सदा खुशनुमा भव। सदा खुशी की खुराक द्वारा तन्दरूस्त भव! सदा खुशी के खज़ाने से सम्पन्न भव!''
रूहानी स्नेह ने दिव्य जन्म दिया, अब वरदाता बापदादा के वरदानों से दिव्य पालना हो रही है। पालना सभी को एक द्वारा, एक ही समय, एक जैसी मिल रही है। लेकिन मिली हुई पालना की धारणा नम्बरवार बना देती है। वैसे विशेष तीनों सम्बन्ध की पालना अति श्रेष्ठ भी है और सहज भी है। बापदादा द्वारा वर्सा मिलता, वर्से की स्मृति द्वारा पालना होती - इसमें कोई मुश्किल नहीं। शिक्षक द्वारा दो शब्दों की पढ़ाई की पालना में भी कोई मुश्किल नहीं। सतगुरू द्वारा वरदानों के अनुभूति की पालना - इसमें भी कोई मुश्किल नहीं। लेकिन कई बच्चों के धारणा की कमज़ोरी के कारण समय-प्रति-समय सहज को मुश्किल बनाने की आदत बन गई है। मेहनत करने के संस्कार सहज अनुभव करने से मजबूर कर देते हैं और मजबूर होने के कारण, धारणा की कमज़ोरी के कारण परवश हो जाते हैं। ऐसे परवश बच्चों की जीवनलीला देख बापदादा को ऐसे बच्चों पर रहम आता है। क्योंकि बाप के रूहानी स्नेह की निशानी यही है-कोई भी बच्चे की कमी, कमज़ोरी बाप देख नहीं सकते। अपने परिवार की कमी अपनी कमी होती है, इसलिए बाप को घृणा नहीं लेकिन रहम आता है। बापदादा कभी-कभी बच्चों की आदि से अब तक की जन्मपत्री देखते हैं। कई बच्चों की जन्मपत्री में रहम-ही-रहम होता है और कई बच्चों की जन्मपत्री राहत देने वाली होती है। अपनी आदि से अब तक की जन्मपत्री चेक करो। अपने आपको देख करके जान सकते हो - तीनों सम्बन्ध के पालना की धारणा सहज और श्रेष्ठ है? क्योंकि सहज चलना दो प्रकार का है-एक है वरदानों से सहज जीवन और दूसरी है लापरवाही, डोंट-केयर - इससे भी सहज चलते हैं। वरदानों से वा रूहानी पालना से सहज चलने वाली आत्मायें केयरफुल होंगी, डोंट-केयर नहीं होंगी। लेकिन अटेन्शन का टेन्शन नहीं होगा। ऐसी केयरफुल आत्माओं का समय, साधन और सरकमस्टांश प्रमाण ब्राह्मण परिवार का साथ, बाप की विशेष मदद सहयोग देती है। इसलिए सब सहज अनुभव होता है। तो चेक करो-यह सब बातें मेरी सहयोगी हैं? इन सब बातों का सहयोग ही सहजयोगी बना देता है। नहीं तो कभी छोटा सा सरकमस्टांश, साधन, समय, साथी आदि भले होते चींटी समान हैं लेकिन छोटी चींटी महारथी को भी मूर्च्छित कर देती है। मूर्च्छित अर्थात् वरदानों की सहज पालना की श्रेष्ठ स्थिति से नीचे गिरा देती है। मजबूर और मेहनत-यह दोनों मूर्च्छित की निशानी हैं। तो इस विधि से अपनी जन्मपत्री को चेक करो। समझा क्या करना है?
अच्छा - सदा तीनों सम्बन्धों की पालना में पलने वाले, सदा सन्तुष्टमणि बन सन्तुष्ट रहने और सन्तुष्टता की झलक फैलाने वाले, सदा फास्ट पुरुषार्थी बन स्वयं को फर्स्ट जन्म में फर्स्ट अधिकार प्राप्त कराने वाले, ऐसे खुशनसीब बच्चों को वरदाता बाप का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकात
सभी दूर-दूर से आये हैं। सबसे दूर से तो बापदादा आते हैं। आप कहेंगे-हमको तो मेहनत लगती है। बापदादा के लिए भी, बेहद में रहने वाले और हद में प्रवेश हो-यह भी तो न्यारी बात हो जाती है। फिर भी लोन लेना होता है। आप लोग टिकट लेते हो बाप लोन लेता है। सभी को वरदान मिले? चाहे 7-8 तरफ से आये हो लेकिन हर जोन का कोई-न-कोई है ही। इसलिए सब जोन यहाँ हाजिर हैं। विदेश भी और देश भी है। इन्टरनेशनल ग्रुप हो गया ना। अच्छा।
तमिलनाडु ग्रुप:- सबसे बड़ा ग्रुप तमिलनाडु है। तमिलनाडु की विशेषता क्या है? स्नेह के वायब्रेशन को कैच करते हैं। बाप से स्नेह अविनाशी लिफ्ट बन जाती है। सीढ़ी पसन्द है या लिफ्ट पसन्द है? सीढ़ी है मेहनत, लिफ्ट है सहज। तो स्नेह में कभी भी अलबेले नहीं होना, नहीं तो लिफ्ट जाम हो जायेगी। क्योंकि अगर लाइट बन्द हो जाती है तो लिफ्ट का क्या हाल होता है? लाइट बन्द होने से, कनेक्शन खत्म होने से जो सुख की अनुभूति होनी चाहिए वह नहीं होती। तो स्नेह में अलबेलापन है तो बाप से करेन्ट नहीं मिलेगी, इसलिए फिर लिफ्ट काम नहीं करेगी। स्नेह अच्छा है, अच्छे में अच्छा करते रहना। तो इस लिफ्ट की गिफ्ट को साथ ले जाना।
मैसूर ग्रुप:- मैसूर की विशेषता क्या है? मैसूर निवासी बच्चों को बापदादा गिफ्ट दे रहे हैं -’’संगमयुग की सुहावनी मौसम का फल''। संगमयुग का फल क्या है? मौसम का फल जो होता है वह मीठा होता है। बिना मौसम का फल कितना भी बढ़िया हो लेकिन अच्छा नहीं होता। तो मैसूर निवासी बच्चों को संगमयुग के मौसम का फल है ‘‘प्रत्यक्षफल''। अभी-अभी श्रेष्ठ कर्म किया और अभी- अभी कर्म का प्रत्यक्ष फल मिला। इसलिए सदा अपने को इस नशे की स्मृति में रखना कि हम संगमयुग के मौसम का प्रत्यक्षफल खाने वाले हैं, प्राप्त करने वाले हैं। वैसे भी वृद्धि अच्छी कर रहे हैं। तमिलनाडु में भी वृद्धि बहुत अच्छी हो रही है।
ईस्टर्न जोन ग्रुप:- ईस्ट से क्या निकलता है? सूर्य निकलता है ना। तो ईस्टर्न जोन वालों को बापदादा एक विशेष पुष्प दे रहे हैं। वह है विशेषता के आधार पर। ‘‘सूर्यमुखी'' जो सदा ही सूर्य की सकाश में खिला हुआ रहता है। मुख सूर्य की तरफ होता है इसलिए सूर्यमुखी कहा जाता है और उसकी सूरत भी देखेंगे तो जैसे सूर्य की किरणें होती हैं - ऐसे चारों ओर उसकी पंखुड़ी किरणों के समान सार्किल में होती हैं। तो सदा ज्ञान-सूर्य बापदादा के सम्मुख रहने वाले, कभी भी ज्ञानसू र्य से दूर होने वाले नहीं। सदा समीप और सदा सम्मुख। इसको कहते हैं सूर्यमुखी फूल। तो ऐसे सूर्यमुखी पुष्प के समान सदा ज्ञान-सूर्य के प्रकाश से स्वयं भी चमकने वाले और दूसरों को भी चमकाने वाले - यह है ईस्टर्न जोन की विशेषता। वैसे भी देखो ज्ञान सूर्य ईस्टर्न जोन से प्रगट हुआ है। प्रवेशता तो हुई ना! तो ईस्टर्न जोन वाले सबको अपने राज्य, दिन में ले जाने वाले, रोशनी में ले जाने वाले हैं।
बनारस ग्रुप:- बनारस की विशेषता क्या है? हर एक में रूहानी रस भरने वाले। बिना रस नहीं, रस के बिना नहीं हैं। लेकिन सर्व में रूहानी रस भरने वाले, सभी को परमात्म-स्नेह का, प्रेम का रस अनुभव कराने वाले। क्योंकि जब बाप के प्रेम के रस में भरपूर हो जाते हैं तो और सर्व रस फीका लगता है। आत्माओं में परमात्म-प्रेम का रस भरने वाले। क्योंकि वहाँ भक्ति का रस बहुत है। भक्ति के रस वालों को परमात्म-प्रेम रस का अनुभव कराने वाले। सदा ज्यादा रस किसमें होता है? बनारस वाले सुनाओ। रसगुल्ले में। देखो नाम ही पहले रस से शुरू होता है। तो सदा ज्ञान का रसगुल्ला खाने वाले और खिलाने वाले। तो सदैव अमृतवेले पहले मन को, मुख को रसगुल्ले से मीठा बनाने वाले और औरों को भी मन से और मुख से मीठा बनाने वाले। इसलिए बनारस को मिठाई दे रहे हैं - रसगुल्ला।
बम्बई ग्रुप:- बाम्बे को पहले से ही वरदान मिला हुआ है - नरदेसावर अर्थात् सभी को साहूकार बनाने वाला। नरदेसावर का अर्थ ही है जो सदा धन से सम्पन्न रहता है। बाम्बे वालों की विशेषता है -’’गरीब को साहूकार बनाने वाले'' जो बाप का टाइटल है -’’गरीब निवाज।'' तो बाम्बे वालों को भी बापदादा टाइटल दे रहे हैं -’’गरीब-निवाज बाप के बच्चे, गरीबों को साहूकार बनाने वाले।'' इसलिए सदा स्वयं भी खज़ानों से सम्पन्न और औरों को भी सम्पन्न बनाने वाले। इसलिए विशेषता है गरीब निवाज बाप के सहयोगी साथी। तो बाम्बे वालों को टाइटल दे रहे हैं। मिठाई नहीं, टाइटल।
कुल्लू-मनाली ग्रुप:- कुल्लू मनाली की विशेषता क्या है? कुल्लू में देवताओं का मेला लगता है जो और कहीं नहीं लगता। तो कुल्लू और मनाली वालों को देवताओं के मिलन का स्थान कहा जाता है। तो देवता का अर्थ ही है ‘‘दिव्यगुणधारी''। दिव्यगुणों की धारणा का यादगार देवता रूप है। तो देवताओं के प्यार का, मिलन का सिम्बल इस धरनी का है। इसलिए बापदादा ऐसे धरनी के निवासी बच्चों को विशेष दिव्यगुणों का गुलदस्ता गिफ्ट में दे रहे हैं। इसी दिव्यगुणों के गुलदस्ते द्वारा चारों ओर आत्मा और परमात्मा का मेला करते रहेंगे। वह देवताओं का मेला करते हैं, आप दिव्यगुणों के गुलदस्ते द्वारा आत्मा-परमात्मा का मेला मना भी रहे हो लेकिन और जोर-शोर से मेला मनाओ जो सब देखें। देवताओं का मेला तो देवताओं का रहा लेकिन यह मेला तो सर्वश्रेष्ठ मेला है। इसलिए दिव्यगुणों के खुशबूदार गुलदस्ते की गिफ्ट को सदा अपने साथ रखो।
मीटिंग वालों के प्रति:- मीटिंग वाले किसलिए आये हैं? सेटिंग करने। प्रोग्राम की सेटिंग, स्पीकर्स की सेटिंग। सीटिंग कर सेटिंग करने के लिए आये हो। जैसे स्पीच के लिए सेट किया है या प्रोग्राम बनाया है, ऐसे ही स्पीकर्स या जो भी आने वाले ऑब्जर्वर हैं, उन्हों को अभी से ऐसे श्रेष्ठ वायब्रेशन दो जो वह सिर्फ स्पीच की स्टेज थोड़े टाइम के लिए सेट नहीं करें लेकिन सदा अपने श्रेष्ठ स्टेज पर सेट हो जाएँ। इसलिए बापदादा मीटिंग वालों को अविनाशी सेटिंग की मशीन गिफ्ट में देते हैं जिससे सेट करते रहना। आजकल तो मशीनरी युग है ना। मनुष्यों द्वारा जो कार्य बहुत समय लेता है वो मशीनरी द्वारा सहज और जल्दी हो जाता है। तो अभी अपने सेटिंग की मशीनरी ऐसे प्रयोग में लाओ जो बहुत जल्दी-से-जल्दी सेटिंग होती जाए। क्योंकि अपनी सुनहरी दुनिया वा सुखमय दुनिया के प्लैन अनुसार सीट तो सबकी सेट करनी है ना। प्रजा को भी सेट करना है तो प्रजा की प्रजा को भी सेट करना है। राजे-रानी तो सेट हो रहे हैं लेकिन रॉयल फैमिली है, साहूकार फैमिलीज हैं, फिर प्रजा है, दास-दासी हैं - कितनी सेटिंग करनी है! तो अब सेटिंग की मशीनरी को मीटिंग वाले विशेष फास्ट बनाओ। फास्ट बनाना अर्थात् अपने को फास्ट पुरुषार्थी बनाना। यह उसका स्विच है। मशीन का स्विच होता है ना। तो फास्ट मशीनरी का स्विच है-फास्ट पुरुषार्थी बनना अर्थात् फास्ट सेटिंग की मशीनरी को ऑन करना। बड़ी जिम्मेवारी है। तो अभी अपने राजधानी के सेटिंग की मशीनरी को फास्ट करो।
डबल विदेशी ग्रुप:- डबल विदेशी बच्चे आजकल सेटेलाइट की योजना कर रहे हैं। बाप को प्रत्यक्ष करने की धुन में बहुत अच्छे आगे बढ़ रहे हैं। इसलिए बापदादा ‘सदा सेट डबल लाइट रहने' की गिफ्ट दे रहे हैं। वो सेटेलाइट का प्रोग्राम करने का सोच रहे हैं और बापदादा सदा सेट डबल लाइट की गिफ्ट दे रहे हैं। सदा अपनी डबल लाइट की स्थिति में सेट रहने वाले - ऐसे डबल विदेशी बच्चों को बापदादा दिलाराम अपने दिल का स्नेह गिफ्ट में दे रहे हैं। अमेरिका निवासी बच्चे विशेष याद कर रहे हैं। बहुत अच्छे उमंग-उत्साह से विश्व में सेवा करने का साधन अच्छा बना है। यू.एन. भी सेवा की साथी बनी हुई है। भारत सेवा वा फाउण्डेशन है। इसलिए भारत का भी विशेष सर्विसएबुल साथी (जगदीश जी) गये हुए हैं। फाउण्डेशन भारत है और प्रत्यक्षता के निमित्त विदेश। प्रत्यक्षता का आवाज दूर से भारत में नगाड़ा बनकर के आयेगा। बच्चों के वायब्रेशन आ रहे हैं। वैसे तो लंदन निवासी भी साथी हैं, आस्ट्रेलिया वाले भी विशेष सेवा के साथी हैं, अफ्रीका भी कम नहीं। सभी देशों का सहयोग अच्छा है। बापदादा देशविदेश के हर एक निमित्त बने हुए सेवाधारी बच्चों को अपनी-अपनी विशेषता प्रमाण विशेष यादप्यार दे रहे हैं। हर एक की महिमा अपनी-अपनी है। एक-एक की महिमा वर्णन करें तो कितनी हो! लेकिन बापदादा के दिल में हर एक बच्चे की विशेषता की महिमा समाई हुई है।
मधुबन निवासी सेवाधारी भी सेवा के हिम्मत की मदद देने वाले हैं। इसलिए जैसे बाप के लिए गाया हुआ है-’’हिम्मते बच्चे मददे बाप'', इसी रीति से जो भी सेवा चलती है, सीजन चलती है-तो मधुबन निवासी भी हिम्मत के स्तम्भ बनते हैं और मधुबन वालों की हिम्मत से आप सबको रहने, खाने, सोने, नहाने की मदद मिलती है। इसलिए बापदादा सभी मधुबन निवासी बच्चों को हिम्मत की मुबारक दे रहे हैं। अच्छा।
11-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिव्यता - संगमयुगी ब्राह्मणों का शृंगार है
आज दिव्य बुद्धि विधाता, दिव्य दृष्टि दाता अपने दिव्य जन्मधारी, दिव्य आत्माओं को देख रहे हैं। बापदादा ने हर एक बच्चे को दिव्य जीवन अर्थात् दिव्य संकल्प, दिव्य बोल, दिव्य कर्म करने वाली दिव्य मूर्तियाँ बनाया है। दिव्यता आप संगमयुगी बच्चों का श्रेष्ठ शृंगार है। एक है साधारणता, दूसरा है दिव्यता। दिव्यता की निशानी आप सभी जानते हो। दिव्य-जीवनधारी आत्मा किसी भी आत्मा को अपने दिव्य नयनों द्वारा अर्थात् दृष्टि द्वारा साधारणता से परे दिव्य अनुभूतियाँ करायेगी। सामने आने से ही साधारण आत्मा अपनी साधारणता को भूल जायेगी। क्योंकि आजकल के समय अनुसार वर्तमान के साधारण जीवन से मैजारिटी आत्मायें सन्तुष्ट नहीं हैं। आगे चलकर यह आवाज सुनेंगे कि यह जीवन कोई जीवन नहीं है, जीवन में कुछ नवीनता चाहिए।
‘‘अलौकिकता'', ‘‘दिव्यता'' जीवन का विशेष आधार है - यह अनुभव करेंगे। कुछ चाहिए, कुछ चाहिए - इस ‘चाहिए' की प्यास से चारों ओर ढूँढ़ेंगे। जैसे स्थूल पानी की प्यास में तड़पता हुआ मानव चारों ओर पानी की बूंद के लिए तड़फता है, ऐसे दिव्यता की प्यासी आत्माएं चारों ओर अंचली लेने के लिए तड़फती हुई दिखाई देंगी। तड़फती हुई कहाँ पहुँचेंगी? आप सबके पास। ऐसे दिव्यता के खज़ाने से भरपूर बने हो? हर समय दिव्यता अनुभव होती है वा कभी साधारण, कभी दिव्य? जब बाप ने दिव्य दृष्टि, दिव्य बुद्धि का वरदान दे दिया तो दिव्य बुद्धि में साधारण बातें आ नहीं सकती। दिव्य जन्मधारी ब्राह्मण तन से साधारण कर्म कर नहीं सकता। चाहे देखने में लोगों के लिए साधारण कर्म हो। दूसरों के समान आप सब भी व्यवहार करते हैं, व्यापार करते हैं वा गवर्मेन्ट की नौकरी करते हैं, मातायें खाना बनाती हैं। देखने में साधारण कर्म है लेकिन इस साधारण कर्म में भी आपका और लोगों से न्यारा ‘‘अलौकिक'' दिव्य कर्म हो। महान अन्तर इसलिए सुनाया कि दिव्य जन्मधारी ब्राह्मण तन से साधारण कर्म नहीं करते, मन से साधारण संकल्प नहीं कर सकते, धन को साधारण रीति से कार्य में नहीं लगा सकते। क्योंकि तन, मन और धन - तीनों के ट्रस्टी हो, इसलिए मालिक बाप की श्रीमत के बिना कार्य में नहीं लगा सकते। हर समय बाप की श्रीमत दिव्य कर्म करने की मिलती है।
इसलिए चेक करो कि सारे दिन में साधारण बोल और कर्म कितना समय रहा और दिव्य अलौकिक कितना समय रहा? कई बच्चे कहाँ-कहाँ बहुत भोले बन जाते हैं। चेक करते हैं लेकिन भोलेपन में। समझते हैं - सारे दिन में कोई विशेष गलती तो की नहीं, बुरा सोचा नहीं, बुरा बोला नहीं। लेकिन यह चेक किया कि दिव्य वा अलौकिक कर्म किया? क्योंकि साधारण बोल वा कर्म जमा नहीं होता, न मिटता है, न बनता है। वर्तमान का दिव्य संकल्प वा दिव्य बोल और कर्म भविष्य का जमा करता है। जमा का खाता बढ़ता नहीं है। तो जमा करने के हिसाब में भोले बन जाते हैं - खुश रहते हैं कि मैंने वेस्ट नहीं किया। लेकिन सिर्फ इसमें खुश नहीं रहना है। वेस्ट नहीं किया लेकिन बेस्ट कितना बनाया? कई बार बच्चे कहते हैं - मैंने आज किसको दुःख नहीं दिया। लेकिन सुख भी दिया? दु:ख नहीं दिया-इससे वर्तमान अच्छा बनाया। लेकिन सुख देने से जमा होता है। वह किया वा सिर्फ वर्तमान में ही खुश हो गये? सुखदाता के बच्चे सुख का खाता जमा करते। सिर्फ यह नहीं चेक करो कि दुःख नहीं दिया लेकिन सुख कितना दिया। जो भी सम्पर्क में आये मास्टर सुखदाता द्वारा हर कदम में सुख की अनुभूति करे। इसको कहा जाता है - ‘दिव्यता वा अलौकिकता'।
तो चेकिंग भी साधारण से गुह्य चेकिंग करो। हर समय यह स्मृति रखो कि एक जन्म में 21 जन्मों का खाता जमा करना है। तो सब खाते चेक करो-तन से कितना जमा किया? मन के दिव्य संकल्प से कितना जमा किया? और धन को श्रीमत प्रमाण श्रेष्ठ कार्य में लगाकर कितना जमा किया? जमा के खात्ो तरफ विशेष अटेन्शन दो। क्योंकि आप विशेष आत्माओं का जमा करने का समय इस छोटे से जन्म के सिवाए सारे कल्प में कोई समय नहीं है। और आत्माओं का हिसाब अलग है। लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए -’’अब नहीं तो कब नहीं''। तो समझा क्या करना है? इसमें भोले नहीं बनो। पुराने संस्कारों में भोले मत बनो। बापदादा ने रिजल्ट देखी। कितनी बातों की रिजल्ट में जमा का खाता बहुत कम है, उसका विस्तार फिर सुनायेंगे।
सभी स्नेह में सब कुछ भुलाकर के पहुँच गये हैं। बापदादा भी बच्चों का स्नेह देख एक घड़ी के स्नेह का रिटर्न अनेक घड़ियों की प्राप्ति का देता ही रहता है। आप सभी को इतने बड़े संगठन में आने के लिए क्या-क्या पक्का कराया। पहले तो पटरानी बनना पड़ेगा, 4 दिन ही रहना पड़ेगा। आना-जाना ही पड़ेगा। तो सब बातें सुनते हुए भी स्नेह में पहुँच गये। यह भी अपना लक्क समझो जो इतना भी मिल रहा है फिर भी जड़ मूर्तियों के दर्शन के समान खड़े-खड़े रात तो नहीं बिताते हो ना। तीन पैर पृथ्वी तो सबको मिली है ना। यहाँ भी आराम से बैठे हो। जब आगे वृद्धि होगी तो स्वत: ही विधि भी परिवर्तन होती रहेगी। लेकिन सदैव यह अनुभव करो कि जो भी मिल रहा है, वह बहुत अच्छा है। क्योंकि वृद्धि तो होनी ही है और परिवर्तन भी होना ही है। तो सभी को आराम से रहना-खाना मिल रहा है ना। खाना और सोना - दो चीज़ें ही चाहिए। माताओं को तो बहुत खुशी होती है क्योंकि बना बनाया भोजन यहाँ मिलता है। वहाँ तो बनाओ, भोग लगाओ - फिर खाओ। यहाँ बना हुआ, भोग लगा हुआ भोजन मिलता है। इसलिए माताओं को तो अच्छा आराम है। कुमारों को भी आराम मिलता है। क्योंकि उन्हों के लिए भी बड़ी प्राब्लम खाना बनाने की ही है। यहाँ तो आराम से बना हुआ भोजन खाया ना। सदैव ऐसे इजी रहो। जिसके संस्कार इजी रहने के होते हैं, उनको हर कार्य सहज अनुभव होने के कारण इजी रहते हैं। संस्कार टाइट हैं तो सरकमस्टांस भी टाइट हो जाते हैं, सम्बन्ध-सम्पर्क वाले भी टाइट व्यवहार करते हैं। टाइट अर्थात् खींचातान में रहने वाले। तो सभी ड्रामा के हर दृश्य को देख-देख हर्षित रहने वाले हो ना। वा कभी अच्छे-बुरे के आकर्षण में आ जाते हो? न अच्छे में, न बुरे में - किसी में आकर्षित नहीं होना है, सदैव हर्षित रहना है। अच्छा।
सदा हर कदम में दिव्यता अनुभव करने वाले और कराने वाले दिव्य मूर्तियों को, सदा अपने जमा के खाते हो बढ़ाने वाले नॉलेजफुल आत्माओं को, सदा हर समस्या को इजी स्थिति द्वारा इजी पार करने वाले - ऐसे समझदार बच्चों को, अनेक आत्माओं के जीवन की प्यास को बुझाने वाले मास्टर ज्ञान सागर श्रेष्ठ आत्माओं को, ज्ञान सागर बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
बाम्बे (सांताकु्रज-पार्ला) ग्रुप:- बाम्बे निवासी बच्चे सर्व खज़ानों से सम्पन्न हो ना। सदा अपने को सम्पन्न आत्मा हूँ - ऐसे अनुभव करते हो ना? सम्पन्नता, सम्पूर्णता की निशानी है। सम्पूर्णता की चेकिंग अपनी सम्पन्नता से कर सकते हो। क्योंकि सम्पूर्णता माना सर्व खज़ानों से फुल होना। जैसे चन्द्रमा जब सम्पन्न होता है तो सम्पन्नता उसकी सम्पूर्णता की निशानी होती है। इससे और आगे नहीं बढ़ेगा, बस इतनी ही सम्पूर्णता है। जरा भी किनारी कम नहीं होती है, सम्पन्न होता है। तो आप सभी ज्ञान, योग, धारणा, सेवा-सभी में सम्पन्न - इसी को ही सम्पूर्णता कहा जाता है। इससे जान सकते हो कि सम्पूर्णता के समीप हैं या दूर हैं! सम्पन्न हो अर्थात् सम्पूर्णता के समीप हो। तो सब समीप हो? कितने समीप हो? 8 तक, 100 तक या 16000 तक। 8 की समीपता, फिर 100 की समीपता और फिर 16000 की समीपता। कितने समीपता वाले हैं - यही चेक करना है। अच्छा है। फिर भी दुनिया के कोटों से आप बहुत-बहुत भाग्यवान हो। वह तड़फने वाले हैं और आप सम्पन्न आत्मायें हो। प्राप्ति स्वरूप आत्मायें हो। यह खुशी है ना। रोज अपने से बात करो कि हमारे सिवाए और कौन खुश रह सकता है? तो यही वरदान सदा स्मृति में रखना कि समीप हैं, सम्पन्न हैं। अभी तो समीप मिलना भी हो गया। जैसे स्थूल में समीप अच्छा लगता है, वैसे स्थिति में भी सदा समीप अर्थात् सदा सम्पन्न बनो। अच्छा।
गुजरात-पूना ग्रुप:- सभी दृष्टि द्वारा शक्तियों के प्राप्ति की अनुभूति करने के अनुभवी हो ना। जैसे वाणी द्वारा शक्ति की अनुभूति करते हो। मुरली सुनते हो तो समझते हो ना - शक्ति मिली। ऐसे दृष्टि द्वारा शक्तियों की प्राप्ति के अनुभूति के अभ्यासी बने हो या वाणी द्वारा अनुभव होता है, दृष्टि द्वारा कम? दृष्टि द्वारा शक्ति कैच कर सकते हो? क्योंकि कैच करने के अभ्यासी होंगे तो दूसरों को भी अपने दिव्य दृष्टि द्वारा अनुभव करा सकते हैं। आगे चलकर वाणी द्वारा सबको परिचय देने का समय भी नहीं होगा और सरकमस्टांस भी नहीं होंगे तो क्या करेंगे? वरदानी दृष्टि द्वारा, महादानी दृष्टि द्वारा महादान, वरदान देंगे। दृष्टि द्वारा शान्ति की शक्ति, प्रेम की शक्ति - सुख वा आनन्द की शक्ति सब प्राप्त होती है। जड़ मूर्तियों के आगे जाते हैं तो जड़ मूर्ति बोलती तो नहीं है ना। फिर भी भक्त आत्माओं को कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है। तब तो जाते हैं ना। कैसे प्राप्ति होती है? उनके दिव्यता के वायब्रेशन से और दिव्य नयनों की दृष्टि को देख वायब्रेशन लेते हैं। कोई भी देवता या देवी की मूर्ति में विशेष अटेन्शन नयनों के तरफ देखेंगे। फेस (फेस) की तरफ अटेन्शन जाता है क्योंकि मस्तक के द्वारा वायब्रेशन मिलता है, नयनों द्वारा दिव्यता की अनुभूति होती है। वह तो हैं जड़ मूर्तियाँ। लेकिन किसकी हैं? आप चैतन्य मूर्तियों की जड़ मूर्तियाँ हैं। यह नशा है कि हमारी मूर्तियाँ हैं? चैतन्य में यह सेवा की है तब जड़ मूर्तियाँ बनी हैं। तो दृष्टि द्वारा शक्ति लेना और दृष्टि द्वारा शक्ति देना, यह प्रैक्टिस करो। शान्ति के शक्ति की अनुभूति बहुत श्रेष्ठ है। जैसे वर्तमान समय साइन्स की शक्ति का कितना प्रभाव है, हर एक अनुभव करते हैं लेकिन साइंस की शक्ति निकली किससे? साइलेन्स की शक्ति से ना! जब साइंस की शक्ति अल्पकाल के लिए प्राप्ति करा रही है, तो साइलेन्स की शक्ति कितनी प्राप्ति करायेगी। तो बाप के दिव्य दृष्टि द्वारा स्वयं में शक्ति जमा करो। तो फिर जमा किया हुआ समय पर दे सकेंगे। अपने लिए ही जमा किया और कार्य में लगा दिया अर्थात् कमाया और खाया। जो कमाते हैं और खा करके खत्म कर देते हैं उनका कभी जमा नहीं होता। और जिसका जमा का खाता नहीं होता उसको समय पर धोखा मिलता है। धोखा मिलेगा तो दुःख की प्राप्ति होगी। ऐसे ही साइलेन्स की शक्ति जमा नहीं होगी, दृष्टि के महत्त्व का अनुभव नहीं होगा तो लास्ट समय श्रेष्ठ पद प्राप्त करने में धोखा खा लेंगे। फिर दुःख होगा, पश्चाताप होगा। इसलिए अभी से बाप की दृष्टि द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों को अनुभव करते जमा करते रहो। तो जमा करना आता है? जमा होने की निशानी क्या होगी? नशा होगा। जैसे साहूकार लोगों के चलने, बैठने, उठने में नशा दिखाई देता है और जितना नशा होता उतनी खुशी होती है। तो यह है रूहानी नशा। इस नशे में रहने से खुशी स्वत: होगी। खुशी ही जन्म-सिद्ध अधिकार है। सदा खुशी की झलक से औरों को भी रूहानी झलक दिखाने वाले बनो। इसी वरदान को सदा स्मृति में रखना। कुछ भी हो जाए - खुशी के वरदान को खोना नहीं। समस्या आयेगी और जायेगी लेकिन खुशी नहीं जाये। क्योंकि खुशी हमारी चीज़ है, समस्या परिस्थिति है, दूसरे के तरफ से आई हुई है। अपनी चीज़ को तो सदा साथ रखते हैं ना। पराई चीज़ तो आयेगी भी और जायेगी भी। परिस्थिति माया की है, अपनी नहीं है। अपनी चीज़ को खोना नहीं होता है। तो खुशी को खोना नहीं। चाहे यह शरीर भी चला जाए लेकिन खुशी नहीं जाए। खुशी से शरीर भी जायेगा तो बढ़िया मिलेगा। पुराना जायेगा नया मिलेगा, तो गुजरात और महाराष्ट्र वाले इस महानता में सदा रहना। खुशी में महान बनना। अच्छा।
आंध्र प्रदेश-कर्नाटक ग्रुप:- इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट बजाने वाली विशेष आत्मायें हैं - ऐसे अनुभव करते हो? जब अपने को विशेष आत्मा समझते हैं तो बनाने वाला बाप स्वत: याद रहता है, याद सहज लगती है। क्योंकि ‘सम्बन्ध' याद का आधार है। जहाँ सम्बन्ध होता है वहाँ याद स्वत: सहज हो जाती है। जब सर्व सम्बन्ध एक बाप से हो गये तो और कोई रहा ही नहीं। एक बाप सर्व सम्बन्धी है - इस स्मृति से सहजयोगी बन गये। कभी मुश्किल तो नहीं लगता? जब माया का वार होता है तब मुश्किल लगता है? माया को सदा के लिए विदाई देने वाले बनो। जब माया को विदाई देंगे तब बाप की बधाइयाँ बहुत आगे बढ़ायेंगी। भक्ति मार्ग में कितनी बार मांगा कि दुआयें दो, ब्लैसिंग दो। लेकिन अभी बाप से ब्लैसिंग लेने का सहज साधन बता दिया है - जितना माया को विदाई देंगे उतनी ब्लैसिंग स्वत: मिलेंगी। परमात्म-दुआयें एक जन्म नहीं लेकिन अनेक जन्म श्रेष्ठ बनाती हैं। सदा यह स्मृति में रखना कि हम हर कदम में बाप की, ब्राह्मण परिवार की दुआयें लेते सहज उड़ते चलें। ड्रामा में विशेष आत्मायें हो, विशेष कर्म कर अनेक जन्मों के लिए विशेष पार्ट बजाने वाले हो। साधारण कर्म नहीं विशेष कर्म, विशेष संकल्प और विशेष बोल हों। तो आंध्र वाले विशेष सेवा यही करो कि अपने श्रेष्ठ कर्म द्वारा, अपने श्रेष्ठ परिवर्तन द्वारा अनेक आत्माओं को परिवर्तन करो। अपने को आइना बनाओ और आपके आइने में बाप दिखाई दे। ऐसी विशेष सेवा करो। तो यही याद रखना कि मैं दिव्य आइना हूँ मुझ आइने द्वारा बाप ही दिखाई दे। समझा। अच्छा।
15-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सच्चे दिल पर साहेब राजी अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज विश्व की सर्व आत्माओं के उपकारी बापदादा अपने श्रेष्ठ पर-उपकारी बच्चों को देख रहे हैं। वर्तमान समय अनेक आत्मायें उपकार के लिए इच्छुक हैं। स्व-उपकार करने की इच्छा है लेकिन हिम्मत और शक्ति नहीं है। ऐसी निर्बल आत्माओं का उपकार करने वाले आप पर-उपकारी बच्चे निमित्त हो। आप पर- उपकारी बच्चों को आत्माओं की पुकार सुनाई देती है वा स्व-उपकार में ही बिजी हो? विश्व के राज्य अधिकारी सिर्फ स्व-उपकारी नहीं बनते। पर-उपकारी आत्मा ही राज्य- अधिकारी बन सकती है। उपकार सच्चे दिल से होता है। ज्ञान सुनाना यह (सिवाए दिल के) मुख से भी हो सकता है। ज्ञान सुनाना-यह विशाल दिमाग की बात है वा वर्णन के अभ्यास की बात है। तो दिल और दिमाग - दोनों में अन्तर है। कोई भी किसी से स्नेह चाहते हैं तो वह दिल का स्नेह चाहते हैं। बापदादा का टाइटल दिलवाला है - दिलाराम है। दिमाग दिल से स्थूल है, दिल सूक्ष्म है। बोलचाल में भी सदैव यह कहते हो कि सच्ची दिल से कहते हैं - सच्ची दिल से बाप को याद करो। यह नहीं कहते कि सच्चे दिमाग से याद करो। कहा भी जाता है-सच्चे दिल पर साहेब राजी। विशाल दिमाग पर राजी नहीं कहा जाता है। विशाल दिमाग - यह विशेषता जरूर है, इस विशेषता से ज्ञान की प्वाइंटस को अच्छी तरह धारण कर सकते हैं। लेकिन दिल से याद करने वाले प्वाइंट अर्थात् बिन्दु रूप बन सकते हैं। वह प्वाइंट रिपीट कर सकते हैं लेकिन प्वाइंट (बिन्दु) रूप बनने में सेकण्ड नम्बर होंगे, कभी सहज कभी मेहनत से बिन्दु रूप में स्थित हो सकेंगे। लेकिन सच्ची दिल वाले सेकण्ड में बिन्दु बन बिन्दु स्वरूप बाप को याद कर सकते हैं। सच्ची दिल वाले सच्चे साहेब को राजी करने के कारण, बाप की विशेष दुआओं की प्राप्ति के कारण स्थूल रूप में चाहे दिमाग कइयों के अन्तर में इतना विशाल न भी हो लेकिन सच्चाई की शक्ति से समय प्रमाण उनका दिमाग युक्तियुग, यथार्थ कार्य स्वत: ही करेगा। क्योंकि जो यथार्थ कर्म, बोल वा संकल्प हैं वह दुआओं के कारण ड्रामा अनुसार समय प्रमाण वही टचिंग उनके दिमाग में आयेगी। क्योंकि बुद्धिवानों की बुद्धि (बाप) को राजी किया हुआ है। जिसने भगवान को राजी किया वह स्वत: ही राज़युक्त, युक्तियुक्त होता है।
तो यह चेक करो कि मैं विशाल दिमाग के कारण याद और सेवा में आगे बढ़ रहा हूँ वा सच्ची दिल और यथार्थ दिमाग से आगे बढ़ रहा हूँ? पहले भी सुनाया था कि दिमाग से सेवा करने वाले का तीर औरों के भी दिमाग तक लगता है। दिल वालों का तीर दिल तक लगता है। जैसे स्थापना की, सेवा की आदि में देखा - पहला पूर (ग्रुप) सेवा का, उन्हों की विशेषता क्या रही? कोई भाषा वा भाषण की विशेषता नहीं थी। जैसे आजकल बहुत अच्छे भाषण करते हो, कहानियाँ और किस्से भी बहुत अच्छे सुनाते हो। ऐसे पहले पूर वालों की भाषा नहीं थी लेकिन क्या था? सच्चे दिल का आवाज था। इसलिए दिल का आवाज अनेकों को दिलाराम का बनाने में निमित्त बना। भाषा गुलाबी (मिक्सचर) थी। लेकिन नयनों की भाषा रूहानी थी। इसलिए भाषा भल कैसी भी थी लेकिन कांटों से गुलाब तो बन ही गये। वह पहले पूर के सेवा की सफलता और वर्तमान समय की वृद्धि - दोनों को चेक करो तो अन्तर दिखाई देता है ना। बात मैजारिटी की होती है। दूसरे-तीसरे पूर में भी कोई-कोई दिल वाले हैं लेकिन मैनारिटी हैं। आदि की पहेली अब तक चल रही है। कौन-सी पहेली? मैं कौन? अभी भी बापदादा कहते - अपने आपसे पूछो मैं कौन? पहेली हल करना आता है ना वा दूसरा बतावे तब हल कर सकते हो - दूसरा बतायेगा तो भी उसकी बात को चलाने की कोशिश करेंगे कि ऐसे नहीं है, वैसे है...। इसलिए अपने आपको ही देखो।
कई बच्चे अपने आपको चेक करते हैं लेकिन देखने की नजर दो प्रकार की है। उसमें भी कोई सिर्फ विशाल दिमाग की नजर से चेक करते हैं, उनका अलबेलेपन का चश्मा होता है। हर बात में यही दिखाई देगा कि जितना भी किया - त्याग किया, सेवा की, परिवर्तन किया - इतना ही बहुत है। इन-इन आत्माओं से मैं बहुत अच्छी हूँ। इतना करना भी कोई सहज नहीं है। थोड़ी-बहुत कमी तो नामीग्रामियों में भी है। इस हिसाब से मैं ठीक हूँ। यह है अलबेलाई का चश्मा। दूसरा है स्व-उन्नति का यथार्थ चश्मा। वह है सच्ची दिल वालों का। वह क्या देखते हैं? जो दिलवाला बाप को सदा पसन्द है वही संकल्प, बोल और कर्म करना है। यथार्थ चश्मे वाले सिर्फ बाप और आप को देखते हैं। दूसरा वा तीसरा क्या करता - वह नहीं देखते। मुझे ही बदलना है इसी धुन में सदा रहते हैं। ऐसे नहीं - दूसरा भी बदले तो मैं बदलूँ। या 80ज्ञ् मैं बदलूं 20ज्ञ् तो वह बदले - इतने तक भी वह नहीं देखेंगे। मुझे बदलकर के औरों को सहज करने के लिए एक्जैम्पुल बनना है। इसलिए कहावत है ‘जो ओटे सो अर्जुन।' अर्जुन अर्थात् अलौकिक जन। इसको कहा जाता है यथार्थ चश्मा वा यथार्थ दृष्टि। वैसे भी दुनिया में मानव जीवन के लिए मुख्य दो बातें हैं - दिल और दिमाग। दोनों ठीक होने चाहिए। ऐसे ब्राह्मण जीवन में भी विशाल दिमाग भी चाहिए और सच्ची दिल भी चाहिए। सच्ची दिल वाले को दिमाग की लिफ्ट मिल जाती है। इसलिए सदा यह चेक करो कि सच्ची दिल से साहेब को राजी किया है, सिर्फ अपने मन को या सिर्फ कुछ आत्माओं को तो राजी नहीं किया! सच्चे साहेब का राजी होना - इनकी बहुत निशानियाँ हैं। इस पर मनन कर रूह-रूहान करना। फिर बापदादा सुनायेंगे। अच्छा।
आज टीचर्स आगे बैठी हैं। टीचर्स भी ठेकेदार हैं। कान्ट्रैक्ट (ठेका) लिया है ना। स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन करना ही है। ऐसा बड़े-ते-बड़ा कान्ट्रैक्ट (ठेका) लिया है ना! जैसे दुनिया वाले कहते आप मरे मर गई दुनिया, आप नहीं मरे तो दुनिया भी नहीं मरी! ऐसे ही स्व-परिवर्तन ही विश्व-परिवर्तन है। बिना स्व-परिवर्तन के कोई भी आत्मा प्रति कितनी भी मेहनत करो - परिवर्तन नहीं हो सकता। आजकल के समय में सिर्फ सुनने से नहीं बदलते लेकिन देखने से बदलते हैं। मधुबन-भूमि में कैसी भी आत्मा क्यों बदल जाती है! सुनाते तो सेन्टर पर भी हो लेकिन यहाँ आने से स्वयं देखते हैं, स्वयं देखने के कारण बदल जाते हैं। कई बन्धन वाली माताओं के भी युगल उन्हों के जीवन के परिवर्तन को देख कर बदल जाते हैं। ज्ञान सुनाने की कोशिश करेंगे तो नहीं सुनेंगे। लेकिन देखने से वह प्रभाव उन्हों को भी परिवर्तन कर देता। इसलिए कहा - आज की दुनिया देखना चाहती है। तो टीचर्स का यही विशेष कर्त्तव्य है - करके दिखाना अर्थात् बदल करके दिखाना। समझा।
सदा सर्व आत्माओं प्रति पर-उपकारी, सदा सच्चे दिल से सच्चे साहेब को राजी करने वाले, विशाल दिमाग और सच्ची दिल का बैलेन्स रखने वाले, सदा स्वयं को विश्व-परिवर्तन के निमित्त बनाने वाले, स्व परिवर्तन करने वाली श्रेष्ठ आत्मा, श्रेष्ठ सेवाधारी आत्मा समझ आगे बढ़ने वाले - ऐसे चारों ओर के विशेष बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
दिल्ली ग्रुप:- सभी के दिल में बाप का स्नेह समाया हुआ है। स्नेह ने यहाँ तक लाया है! दिल का स्नेह दिलाराम तक लाया है। दिल में सिवाए बाप के और कुछ रह नहीं सकता। जब बाप ही संसार है, तो बाप के दिल में रहना अर्थात् बाप में संसार समाया हुआ है। इसलिए एक मत, एक बल, एक भरोसा। जहाँ एक है वहाँ ही हर कार्य में सफलता है। कोई भी परिस्थिति को पार करना सहज लगता है या मुश्किल? अगर दूसरे को देखा, दूसरे को याद किया तो दो में एक भी नहीं मिलेगा। इसलिए मुश्किल हो जायेगा। बाप की आज्ञा है ‘मुझ एक को याद करो'। अगर आज्ञा पालन करते हैं तो आज्ञाकारी बच्चे को बाप की दुआयें मिलती हैं और सब सहज हो जाता है। अगर बाप की आज्ञा को पालन नहीं किया तो बाप की मदद वा दुआयें नहीं मिलती, इसलिए मुश्किल हो जाता है। तो सदा आज्ञाकारी हो ना? लौकिक सम्बन्ध में भी आज्ञाकारी बच्चे पर कितना स्नेह होता है! वह है अल्पकाल का स्नेह और यह है अविनाशी स्नेह। यह एक जन्म की दुआयें अनेक जन्म साथ रहेंगी। तो अविनाशी दुआओं के पात्र बन गये हो। अपनी यह जीवन मीठी लगती है ना! कितनी श्रेष्ठ और कितनी प्यारी जीवन है! ब्राह्मण जीवन है तो प्यारी है, ब्राह्मण जीवन नहीं तो प्यारी नहीं लगेगी लेकिन परेशानी की जीवन लगेगी। तो प्यारी जीवन है या थक जाते हो? सोचते हो - संगम कब तक चलेगा? शरीर नहीं चलते, सेवा नहीं करते...... इससे परेशान तो नहीं होते? यह संगम की जीवन सर्व जन्मों से श्रेष्ठ है। प्राप्ति की जीवन यह है। फिर तो प्रालब्ध भोगने की जीवन है, कम होने की जीवन है, अभी भरने की है। 16 कला सम्पन्न अभी बनते हो। 16 कला अर्थात् फुल! यह जीवन अति प्यारी है -- ऐसे अनुभव होता है ना या कभी जीवन से तंग होते हो? तंग होकर यह तो नहीं सोचते हो कि अभी तो चलें। बाप अगर सेवा के प्रति ले जाते हैं तो और बात है लेकिन, तंग होकर नहीं जाना। एडवांस पार्टी में सेवा का पार्ट है और ड्रामा अनुसार गये तो परेशान होकर नहीं जायेंगे, शान से जायेंगे। सेवा अर्थ जा रहे हैं। तो कभी भी बच्चों से वा अपने आपसे तंग नहीं होना। मातायें कभी बच्चों से तंग तो नहीं होती हो? जब हैं ही तमोगुणी तत्वों से पैदा हुए तो वह क्या सतोप्रधानता दिखायेंगे! वह भी परवश हैं। आप भी बाप की आज्ञायें कभी-कभी भूल तो जाते हो ना! तो जब आप भूल कर सकते हो तो बच्चों ने भूल की तो क्या हुआ! जब नाम ही बच्चे कहते हैं तो बच्चे माना ही क्या? चाहे बड़े भी हों लेकिन उस समय वह भी बच्चे बन जाते हैं अर्थात् बेसमझ बन जाते हैं। इसलिए कभी भी दूसरे की परेशानी देख खुद परेशान नहीं होना। वह कितना भी परेशान करें आप शान से क्यों उतरते हो! कमज़ोरी आपकी या बच्चों की? वह तो बहादुर हो गये जो आपको शान से उतार देते हैं और परेशान कर देते हैं। तो कभी भी स्वप्न में भी परेशान नहीं होना - अर्थात् श्रेष्ठ शान से परे नहीं होना। अपने शान की कुर्सी पर बैठना नहीं आता है! तो आज से परेशान नहीं होना - चाहे बीमारी से, चाहे बच्चों से, चाहे अपने संस्कारों से या औरों से। औरों से भी परेशान हो जाते हैं ना। कई कहते हैं - और सब ठीक है, एक ही यह ऐसा है जिससे परेशान हो जाते हैं। तो परेशान करने वाले बहादुर नहीं बनें, आप बहादुर बनो। चाहे एक हो, चाहे दस हों लेकिन मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ, कमज़ोर नहीं। तो यही वरदान सदा स्मृति में रखना कि ‘‘हम सदा अपने श्रेष्ठ शान में रहने वाले हैं, परेशान होने वाले नहीं''। औरों की परेशानी मिटाने वाले हैं। सदा शान के तख्तनशीन हैं। देखो, आजकल तो कुर्सी है, आपको तो तख्त है। वह कुर्सी के पीछे मरते हैं, आपको तो तख्त मिला है। तो अकाल-तख्त-नशीन श्रेष्ठ शान में रहने वाले, बाप के दिल-तख्त-नशीन आत्मा है - इसी शान में रहना। तो सदा खुश रहना और खुशी बाँटना। अच्छा। दिल्ली फाउण्डेशन है सेवा का। फाउण्डेशन कच्चा हुआ तो सभी कच्चे हो जाते हैं। इसलिए सदा पक्के रहना।
बॉम्बे ग्रुप:- सभी शान्ति की शक्ति के अनुभवी बन गये हो ना! शान्ति की शक्ति बहुत सहज स्व को भी परिवर्तन करती और दूसरों को भी परिवर्तन करती है। याद के बल से विश्व को परिवर्तन करते हो। याद क्या है? शान्ति की शक्ति है ना! इससे व्यक्ति भी बदल जायेंगे तो प्रकृति भी बदल जायेगी। इतनी शान्ति की शक्ति अपने में जमा की है? व्यक्तियों को तो बदलना है ही लेकिन साथ में प्रकृति को भी बदलना है। प्रकृति को मुख का कोर्स तो नहीं करायेंगे ना! व्यक्तियों को तो कोर्स करा देते हो लेकिन प्रकृति को कैसे बदलेंगे? वाणी से या शान्ति की शक्ति से? योगबल से बदलेंगे ना। तो योग में जब बैठते हो तो क्या अनुभव करते हो? शान्ति का। संकल्प भी जब शान्त हो जाते हैं, एक ही संकल्प - ‘‘बाप और आप'', इसी को ही योग कहते हैं। अगर और भी संकल्प चलते रहेंगे तो उसको योग नहीं कहेंगे, ज्ञान का मनन कहेंगे। तो जब पावरफुल योग में बैठते हो तो संकल्प भी शान्त हो जाते हैं, सिवाए एक बाप और आप। बाप के मिलन की अनुभूति के सिवाए और सब संकल्प समा जाते हैं - ऐसे अनुभव है ना? समाने की शक्ति है ना या विस्तार करने की शक्ति ज्यादा है? कई ऐसे कहते हैं ना - कि जब याद में बैठते हैं तो और-और संकल्प बहुत चलते हैं, इसको क्या कहेंगे? समाने की शक्ति कम और विस्तार करने की शक्ति ज्यादा। लेकिन दोनों शक्ति चाहिए। जब चाहें, जैसे चाहें, विस्तार में आने चाहें विस्तार में आयें और समेटना चाहें तो समाने की शक्ति सेकण्ड में यूज कर सकें, इसको कहते हैं - ‘मास्टर सर्वशक्तिवान'। तो इतनी शक्ति है या आर्डर करो समेटने की शक्ति को और काम करे विस्तार की शक्ति! स्टाप कहा और स्टाप हो जाए। फुल ब्रेक लगे, ढीली ब्रेक नहीं। अगर ब्रेक ढीली होती है तो लगाते हैं यहाँ और लगेगी कहाँ? तो ब्रेक पावरफुल हो। कण्ट्रोलिंग पावर हो। चेक करो - कितने समय के बाद ब्रेक लगता है? 5 मिनट के बाद या 10 मिनट के बाद। फुलस्टाप तो सेकण्ड में लगना चाहिए ना! अगर सेकण्ड के सिवाए ज्यादा समय लग जाता है तो समाने की शक्ति कमज़ोर है। बहुत जन्म विस्तार में जाने की आदत पड़ी हुई है। इसलिए विस्तार में बहुत जल्दी चले जाते हैं लेकिन ब्रेक लगाने वा समेटने में टाइम लग जाता है। तो टाइम नहीं लगना चाहिए। क्योंकि बापदादा ने सुनाया है - लास्ट में फाइनल पेपर का क्वेश्चन ही यह होगा - सेकण्ड में फुलस्टाप, यही क्वेश्चन आयेगा। इसी में ही नम्बर मिलेंगे। तो इम्तिहान में पास होने के लिए तैयार हो? सेकण्ड से ज्यादा हो गया तो फेल हो जायेंगे। तो टाइम भी बता रहे हैं - ‘एक सेकण्ड और क्वेश्चन भी सुना रहे हैं - और कोई याद नहीं आये बस फुलस्टाप'। एक बाप और मैं, तीसरी कोई बात नहीं। यह कर लूँ, यह देख लूँ......यह हुआ, नहीं हुआ। यह क्यों हुआ, यह क्या हुआ - कोई बात आई तो फेल। यह क्वेश्चन सहज है या मुश्किल? बाप क्वेश्चन भी सुना रहे हैं, टाइम भी बता रहे हैं, फिर भी देखो कितने नम्बर बन जाते हैं! कहाँ 8 दाने का पहला नम्बर और कहाँ 16,000 का लास्ट नम्बर! कितना फर्क हुआ! क्वेश्चन सेकण्ड का वही होगा - पहले नम्बर के लिए भी तो 16,000 के लास्ट नम्बर वाले के लिए भी क्वेश्चन एक ही होगा। और कितने समय से सुना रहे हैं? तो सभी नम्बरवन आने चाहिए ना! इसी को ही अपने यादगार में ‘नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप' कहा है। बस, सेकण्ड में मेरा बाबा दूसरा न कोई। इस सोचने में भी समय लगता है लेकिन टिक जाएँ, हिले नहीं। यह भी नहीं - सेकण्ड तो हो गया, यह सोचा तो भी फेल हो जायेंगे। कई बार जो पेपर देते हैं, वह इसी बात में ही फेल हो जाते हैं। क्वेश्चन पर जो लिखा हुआ होता है कि यह क्वेश्चन 5 मिनट का, यह 10 मिनट का, तो यही देखते रहते हैं कि 5 मिनट, 10 मिनट हो तो नहीं गया। समय को देखते, क्वेश्चन का उत्तर देना भूल जाते हैं। तो यह अभ्यास चलते-फिरते, बीच-बीच में करते रहो। कोई भी संकल्प न आये, फुलस्टॉप कहा और स्थित हो गये। क्योंकि लास्ट पेपर अचानक आना है। अचानक के कारण ही तो नम्बर बनेंगे ना। लेकिन होना एक सेकण्ड में है। तो कितना अभ्यास चाहिए? अगर अभी से नष्टोमोहा हैं, मेरामेरा समाप्त है तो फिर मुश्किल नहीं है, सहज है। तो सभी पास होने वाले हो ना! जो निश्चय बुद्धि हैं उनकी बुद्धि में यह निश्चित रहता है कि मैं विजयी बना था, बनेंगे और सदा ही बनेंगे। बनेंगे या नहीं बनेंगे, यह क्वेश्चन नहीं होता है। तो ऐसे बुद्धि में निश्चित है कि हम ही विजयी हैं? लेकिन बहुतकाल का अभ्यास जरूर चाहिए। अगर उस समय कोशिश करेंगे, बहुतकाल का अभ्यास नहीं होगा तो मुश्किल हो जायेगा। बहुतकाल का अभ्यास अन्त में मदद देगा। अच्छा।
बॉम्बे को सबसे ज्यादा प्राप्ति की सिटी कहते हैं। बिजनेस सिटी है ना। तो बिजनेस माना प्राप्ति। ब्रह्मा बाप ने भी ‘नरदेसावर' का टाइटल दिया है। इसका भी अर्थ है प्राप्ति वाला देश। तो बाप के संसार में बॉम्बे वाले इसमें भी नम्बरवन हैं ना! जरा भी कमी न हो, सब में भरपूर। खाली होंगे तो हलचल होगी, भरपूर होंगे तो अचल होंगे। तो सदा इसी वरदान को याद रखना कि सदैव सर्व खज़ानों से सम्पन्न अचल-अडोल रहने वाली आत्मा हैं। माया को हिलाने वाले हैं, स्वयं हिलने वाले नहीं। माया को सदा के लिए विदाई देने वाले हैं। सदा मौज में रहने वाले हैं। मौज से उड़ते चलो। मूंझते हुए नहीं, मौज से उड़ते चलो। मूंझने वाले तो रूक जायेंगे। अच्छा।
वारंगल ग्रुप:- अपने को सदा डबल लाइट अनुभव करते हो? जो डबल लाइट है उस आत्मा में माइट अर्थात् बाप की शक्तियाँ साथ हैं। तो डबल लाइट भी हो और माइट भी है। समय पर शक्तियों को यूज कर सकते हो या समय निकल जाता है, पीछे याद आता है? क्योंकि अपने पास कितनी भी चीज़ है, अगर समय पर यूज नहीं किया तो क्या कहेंगे? जिस समय जिस शक्ति की आवश्यकता हो उस शक्ति को उस समय यूज कर सकें - इसी बात का अभ्यास आवश्यक है। कई बच्चे कहते हैं कि माया आ गई। क्यों आई? परखने की शक्ति यूज नहीं की तब तो आ गई ना! अगर दूर से ही परख लो कि माया आ रही है, तो दूर से ही भगा देंगे ना! माया आ गई - आने का चांस दे दिया तब तो आई। दूर से भगा देते तो आती नहीं। बारबार अगर माया आती है और फिर युद्ध करके उसको भगाते हो तो युद्ध के संस्कार आ जायेंगे। अगर बहुतकाल का युद्ध का संस्कार होगा तो चन्द्रवंशी बनना पड़ेगा। सूर्यवंशी बहुतकाल के विजयी और चन्द्रवंशी माना युद्ध करते-करते कभी विजयी, कभी युद्ध में मेहनत करने वाले। तो सभी सूर्यवंशी हो ना! चन्द्रमा को भी रोशनी देने वाला सूर्य है। तो नम्बरवन सूर्य कहेंगे ना! चन्द्रवंशी दो कला कम हैं। 16 कला अर्थात् फुल पास। कभी भी मन्सा में, वाणी में या सम्बन्ध-सम्पर्क में, संस्कारों में फेल होने वाले नहीं, इसको कहते हैं - ‘सूर्यवंशी'। ऐसे सूर्यवंशी हो? अच्छा। सभी अपने पुरूषार्थ से सन्तुष्ट हो? सभी सब्जेक्ट में फुल पास होना - इसको कहते हैं अपने पुरूषार्थ से सन्तुष्ट। इस विधि से अपने को चेक करो। यही याद रखना कि मैं उड़ती कला में जाने वाला उड़ता पंछी हूँ। नीचे फँसने वाला नहीं। यही वरदान है। अच्छा!
19-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तन, मन, धन और जन का भाग्य
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज सच्चे साहेब अपने साहेबजादे और साहेबजादियों को देख रहे हैं। बाप को कहते ही हैं - ‘सत्य'। इसलिए बापदादा द्वारा स्थापन किये हुए युग का नाम भी सतयुग है। बाप की महिमा भी सत बाप, सत शिक्षक, सतगुरू कहते हैं। सत्य की महिमा सदा ही श्रेष्ठ रही है, सत बाप द्वारा आप सभी सत्य नारायण बनने के लिए सच्ची कथा सुन रहे हो। ऐसा सच्चा साहेब अपने बच्चों को देख रहे हैं कि कितने बच्चों ने सच्चे साहेब को राजी किया है? सच्चे साहेब की सबसे बड़ी विशेषता है - वह दाता, विधाता, वरदाता है। राजी रहने वाले बच्चों की निशानी - सदा दाता राजी है, इसलिए ऐसी आत्मायें सदा अपने को ज्ञान के खज़ाने, शक्तियों के खज़ाने, गुणों के खज़ाने, सब खज़ानों से अपने को भरपूर अनुभव करेंगी, कभी भी अपने को खज़ानों से खाली नहीं समझेंगी। कोई भी गुण वा शक्ति वा ज्ञान के गुह्य राज़ से वंचित नहीं होंगी। गुणों की वा शक्तियों की परसेंटेज हो सकती है लेकिन कोई गुण वा कोई शक्ति ऐसी आत्मा में हो ही नहीं - यह नहीं हो सकता। जैसे समय प्रमाण कई बच्चे कहते हैं कि मेरे में और शक्तियाँ तो हैं लेकिन यह शक्ति वा गुण नहीं है। तो ‘नहीं' शब्द निषेध होगा। ऐसे दाता के बच्चे सदा धनवान होंगे अर्थात् भरपूर वा सम्पन्न होंगे। दूसरी महिमा है - ‘भाग्यविधाता'। तो भाग्य-विधाता साहेब के राजी की निशानी - ऐसे मास्टर भाग्य विधाता बच्चों के मस्तक पर सदा भाग्य का सितारा चमकता रहता है अर्थात् उनकी मूर्त और सूरत से सदा रूहानी चमक दिखाई देती है। मूर्त से सदा राजी रहने के फीचर्स दिखाई देंगे, सूरत से सदा रूहानी सीरत अनुभव होगी। इसको कहते हैं मस्तक में चमकता हुआ भाग्य का सितारा। हर बात में तन, मन, धन, जन - चारों रूप से अपना भाग्य अनुभव करेंगे। ऐसे नहीं कि इनमें से कोई एक भाग्य के प्राप्ति की कमी महसूस करेंगे। मेरे भाग्य में तीन बातें तो ठीक हैं, बाकी एक बात की कमी है - ऐसे नहीं।
तन का भाग्य - तन का हिसाब-किताब कभी प्राप्ति वा पुरूषार्थ के मार्ग में विघ्न अनुभव नहीं होगा, तन कभी भी सेवा से वंचित होने नहीं देगा। कर्मभोग के समय भी ऐसे भाग्यवान किसी-न-किसी प्रकार से सेवा के निमित्त बनेंगे। कर्मभोग को चलायेगा लेकिन कर्मभोग के वश चिल्लायेगा नहीं। चिल्लाना अर्थात् कर्मभोग का बार-बार वर्णन करना वा बार-बार कर्मभोग की तरफ बुद्धि और समय लगाते रहना। छोटी-सी बात को बड़ा विस्तार करना - इसको कहते हैं ‘चिल्लाना' और बड़ी बात को ज्ञान के सार से समाप्त करना - इसको कहते हैं ‘चलाना'। तो सदा यह बात याद रखो - योगी जीवन के लिए चाहे छोटा कर्मभोग हो, चाहे बड़ा हो लेकिन उसका वर्णन नहीं करो, कर्मभोग की कहानी का विस्तार नहीं करो। क्योंकि वर्णन करने में समय और शक्ति उसी तरफ होने के कारण हेल्थ कानशियस हो जाते हैं, सोल कानशियस (आत्म-अभिमानी) नहीं। यही हेल्थ कानशियसनेस रूहानी शक्ति से धीरे-धीरे नरवस बना देती है, इसलिए कभी भी ज्यादा वर्णन नहीं करो। योगी जीवन कमर्भोग को कर्मयोग में परिवर्तन करने वाला है। यह है - तन के भाग्य की निशानियाँ।
मन का भाग्य - मन सदा हर्षित रहेगा। क्योंकि भाग्य के प्राप्ति की निशानी हर्षित रहना ही है। जो भरपूर होता है वह सदा ही मन से मुस्कराता रहता है। मन के भाग्यवान सदा इच्छा-मात्रम्-अविद्या की स्थिति वाले होते हैं। भाग्यविधाता के राजी होने के कारण सर्व प्राप्ति सम्पन्न अनुभव करने के कारण मन का लगाव वा झुकाव व्यक्ति वा वस्तु के तरफ नहीं होगा। इसको ही सार रूप में कहते हो ‘मन्मनाभव'। मन को बाप के तरफ लगाने में मेहनत नहीं होगी लेकिन सहज ही मन बाप के मुहब्बत के संसार में रहेगा। ‘एक बाप दूसरा न कोई' - इसी अनुभूति को मन का भाग्य कहते हैं।
धन का भाग्य - ज्ञान धन तो है ही लेकिन स्थूल धन का भी महत्त्व है। धन के भाग्य का अर्थ यह नहीं कि ब्राह्मण जीवन में लाखों-पति वा करोड़पति बनेंगे। लेकिन धन के भाग्य की निशानी है कि संगमयुग पर जितना आप ब्राह्मण आत्माओं को खाने-पीने और आराम से रहने के लिए आवश्यकता है, उतना आराम से मिलेगा। और साथ-साथ धन चाहिए सेवा के लिए। तो सेवा के लिए भी कभी समय पर कमी वा खींचातान अनुभव नहीं करेंगे। कैसे भी, कहाँ से भी सेवा के समय पर भाग्यविधाता बाप किसको निमित्त बना ही देते हैं। धन के भाग्यवान कभी भी अपने ‘नाम' की वा ‘शान' की इच्छा के कारण सेवा नहीं करेंगे। अगर ‘नाम-शान' की इच्छा है तो ऐसे समय पर भाग्यविधाता सहयोग नहीं दिलायेगा।
‘आवश्यकता' और ‘इच्छा' में रात-दिन का अन्तर है। सच्ची आवश्यकता है और सच्चा मन है तो कोई भी सेवा के कार्य में, कार्य तो सफल होगा ही लेकिन भण्डारी में और ही भरपूर हो जायेगा, बचेगा। इसलिए गायन है - ‘‘शिव के भण्डारे और भण्डारी सदा भरपूर''। तो सच्ची दिल वालों की और सच्चे साहेब के राजी होने की निशानी है - ‘भण्डारा भी भरपूर, भण्डारी भी भरपूर'। यह है धन के भाग्य की निशानी। विस्तार तो बहुत है लेकिन सार में सुना रहे हैं।
जन का भाग्य - जन अर्थात् ब्राह्मण परिवार वा लौकिक परिवार, लौकिक सम्बन्ध में आने वाली आत्मायें वा अलौकिक सम्बन्ध में आने वाली आत्मायें। तो जन द्वारा भाग्यवान की पहली निशानी है - जन के भाग्यवान आत्मा को जन द्वारा सदा स्नेह और सहयोग की प्राप्ति रहेगी। कम से कम 95 प्रतिशत आत्माओं से प्राप्ति का अनुभव अवश्य होगा। पहले भी सुनाया था कि 5 प्रतिशत आत्माओं का हिसाबकिताब भी चुक्तू होता है, इसलिए उन्हों द्वारा कभी स्नेह मिलेगा, कभी परीक्षा भी होगी। लेकिन 5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। ऐसी आत्माओं से भी धीरे- धीरे शुभ भावना शुभ कामना द्वारा हिसाब से चुक्तू करते रहो। जब हिसाब चुक्तू हो जायेगा तो किताब भी खत्म हो जायेगा ना! फिर हिसाब-किताब रहेगा ही नहीं। तो भाग्यवान आत्मा की निशानी है - जन के रहे हुए हिसाब-किताब को सहज चुक्तू करते रहना और 95 प्रतिशत आत्माओं द्वारा सदा स्नेह और सहयोग की अनुभूति करना। जन के भाग्यवान आत्मायें, जन के सम्पर्क-सम्बन्ध में आते ‘सदा प्रसन्न रहेगी', प्रश्नचित्त नहीं लेकिन प्रसन्नचित्त - यह ऐसा क्यों करता वा क्यों कहता, यह बात ऐसे नहीं, ऐसे होनी चाहिए। चित्त के अन्दर यह प्रश्न उत्पन्न होने वाले को ‘प्रश्नचित्त' कहा जाता है और प्रश्नचित्त कभी सदा प्रसन्न नहीं रह सकता। उसके चित्त में सदा ‘क्यों की क्यू' (लाइन) लगी रहती है। इसलिए उस क्यू को समाप्त करने में ही समय चला जाता है और यह क्यू फिर ऐसी होती है जो आप छोड़ने चाहो तो भी नहीं छोड़ सकते, समय देना ही पड़ेगा। क्योंकि इस क्यू का रचता आप हो, जब रचना रच ली तो पालना करनी पड़ेगी, पालना से बच नहीं सकते। चाहे कितने भी मजबूर हो जाओ, लेकिन समय, एनरजी देनी ही पड़ेगी। इसलिए इस व्यर्थ रचना को कण्ट्रोल करो। यह बर्थ कण्ट्रोल करो। समझा? हिम्मत है? जैसे लोग कह देते हैं ना कि यह तो ईश्वर की देन है, हमारी थोड़ी ही गलती है। ऐसे ही ब्राह्मण आत्मायें फिर कहती हैं - ड्रामा की नूंध है। लेकिन ड्रामा के मास्टर क्रियेटर, मास्टर नॉलेजफुल बन हर कर्म को श्रेष्ठ बनाते चलो। अच्छा!
टीचर्स ने सुना! सच्चा साहेब मेरे उपर कितना राजी है, इसका राज़ तो सुना ना! राज़ सुनने से सभी टीचर्स राज़युक्त बनी वा दिल में आता है कि इस भाग्य की मेरे में कमी है? कभी धन की खींचातान में, कभी जन की खींचातान में - ऐसी जीवन का अनुभव तो नहीं करती हो ना! सुनाया था एक ही स्लोगन विशेष निमित्त टीचर्स प्रति, लेकिन है सभी के प्रति। हर बात में बाप की श्रीमत प्रमाण ‘जी हजूर-जी हजूर' करते रहो। बच्चों का ‘जी हजूर' करना और बाप का बच्चों के आगे ‘हाजर हजूर' होना। जब हजूर हाजर हो गया तो किसी भी बात की कमी नहीं रहेगी, सदा सम्पन्न हो जायेंगे। दाता और भाग्यविधाता - दोनों की प्राप्तियों के भाग्य का सितारा मस्तक पर चमकने लगेगा। टीचर्स को तो ड्रामा अनुसार बहुत भाग्य मिला हुआ है। सारा दिन सिवाए बाप और सेवा के और काम ही क्या है! धंधा ही यह है। प्रवृत्ति वालों को तो कितना निभाना पड़ता है। आप लोगों क तो एक ही काम है, कई बातों से स्वतंत्र पंछी हो। समझते हो अपने भाग्य को? कोई सोने का पिंजरा, हीरों का पिंजरा तो नहीं बना देते? बनाते भी खुद हैं, फँसते भी खुद हैं। बाप ने तो स्वतंत्र पंछी बनाया, उड़ता पंछी बनाया। बहुत-बहुत-बहुत लक्की हो। समझा? हरेक को भाग्य की विशेषता अवश्य मिली हुई है। प्रवृत्ति मार्ग वालों की विशेषता अपनी, टीचर्स की विशेषता अपनी, गीता-पाठशाला वालों की विशेषता अपनी - भिन्न-भिन्न विशेषताओं से सभी विशेष आत्मायें हो। लेकिन सेवाकेन्द्र पर रहने वाली निमित्त टीचर्स को बहुत अच्छा चांस है। अच्छा।
सदा सर्व प्रकार के भाग्य को अनुभव करने वाले अनुभवी आत्माओं को, सदा हर कदम में ‘जी हजूर' करने वाले बाप के मदद के अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा प्रश्नचित के बदले प्रसन्नचित रहने वाले - ऐसे प्रशंसा के योग्य योगी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पंजाब, हरियाणा, हिमाचल ग्रुप:- सभी अपने को महावीर और महावीरनियाँ समझते हो? महावीर तो हो लेकिन सदा महावीर हो? या कभी महावीर, कभी थोड़ा कमज़ोर हो जाते हो? सदा के महावीर अर्थात् सदा लाइट हाउस और माइट हाउस। ज्ञान है लाईट और योग है माइट। तो महावीर अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा भी और योगी तू आत्मा भी। ज्ञान और योग - दोनों शक्तियाँ - लाइट और माइट सम्पन्न हों, इसको कहते हैं - ‘महावीर'। किसी भी परिस्थिति में ज्ञान अर्थात् लाइट की कमी नहीं हो और माइट अर्थात् योग की कमी नहीं हो। अगर एक की भी कमी है तो परिस्थिति में सेकण्ड में पास नहीं हो सकेंगे, टाइम लग जायेगा। पास तो हो जायेंगे लेकिन समय पर पास नहीं हुए तो वह पास क्या हुए! जैसे स्थूल पढ़ाई में भी अगर एक सब्जेक्ट में भी फेल हो जाते हैं तो फिर से एक वर्ष पढ़ना पड़ता है। साल के बाद फिर पास होते हैं। तो समय गया ना! ऐसे जो ज्ञानी और योगी तू आत्मा, लाइट और माइट - दोनों स्वरूप नहीं हैं, उसकी भी परिस्थिति से पास होने में समय लग जाता है। अगर समय पर पास न होने के संस्कार पड़ जाते हैं तो फाइनल में भी वह संस्कार फुल पास होने नहीं देते। तो पास होने वाले तो हैं लेकिन समय पर पास होने वाले नहीं। जो सदा समय पर फुल पास होता है, उसको कहते हैं पास-विद्-ऑनर। पास-विद्-ऑनर अर्थात् धर्मराज भी उसको ऑनर देगा। धर्मराजपुरी में भी सजायें नहीं होंगी, ऑनर होगा। गायन होगा कि यह पास-विद्-ऑनर हैं।
तो पास-विद्-ऑनर होने के लिए विशेष अपने को कोई बात में, कोई भी संस्कार में, स्वभाव में, गुणों में, शक्ति में कमी नहीं रखना। सब बातों में कम्पलीट बनना अर्थात् पास-विद्-ऑनर बनना। तो सभी ऐसे बने हो या बन रहे हो? (बन रहे हैं)। इसीलिए ही विनाश रूका हुआ है। आपने रोका है। विश्व के विनाश अर्थात् परिवर्तन के पहले ब्राह्मणों की कमियों का विनाश चाहिए। अगर ब्राह्मणों की कमियों का विनाश नहीं हुआ तो विश्व का विनाश अर्थात् परिवर्तन कैसे होगा। तो परिवर्तन के आधारमूर्त्त आप ब्राह्मण हैं।
पंजाब, हरियाणा, हिमाचल वालों को तो पहले तैयार होना चाहिए। आप अन्त लाने वाले तैयार नहीं हो, इसलिए आतंकवादी तैयार हो गये हैं। तो सभी पहला नम्बर लेने वाले हो या जो भी मिले उसमें राजी रहेंगे? अनेकों से तो अच्छे हैं ही - ऐसा तो नहीं सोचते हो? अच्छे तो हो ही लेकिन अच्छे ते अच्छा बनना है। कोटों में कोई बन गये - यह बड़ी बात नहीं है, लेकिन कोई में भी कोई बनना है। इसलिए सदा एवररेडी। अन्त में रेडी - नहीं, एवररेडी माना सदा रेडी रहने वाले। अगर कहेंगे बन रहे हैं तो पुरूषार्थ तीव्र नहीं होगा।
बापदादा पंजाब जोन को सदा आगे रखते हैं। इसलिए एवररेडी रहना। बाप की नजर पहले पंजाब पर पड़ी ना। तो जब बाप की नजर पहले पड़ी तो आना भी पहले नम्बर में है। फाउण्डेशन वाले हो। तो फाउण्डेशन सदैव पक्का रहता है, अगर कच्चा हुआ तो सारी बिल्डिंग कच्ची हो जाती है। तो सदा इसी वरदान को याद रखना कि हर परिस्थिति में पास-विद्-ऑनर बनने वाले हैं। इसकी विधि है - एवररेडी रहना। अच्छा!
पंजाब जोन तथा यू.पी. ग्रुप:- ज्ञान सागर बाप से निकली हुई ज्ञान गंगायें हैं, ऐसा अनुभव करते हो? यू.पी. में गंगा का महत्त्व क्यों है? क्योंकि और कोई नदी को पतित-पावनी नहीं कहते हैं, गंगा को ही पतित पावनी कहते हैं। जमुना नदी को पतित-पावनी नहीं कहते, उसे चरित्र-भूमि कहते हैं। पंजाब में भी नदियां बहुत हैं। नदी जहाँ से निकलेगी तो हरा-भरा कर देगी ना! हरियाली, खुशहाली। तो आप सबका भी काम है सबको हरा-भरा बनाना। जो आत्मायें सुख-शान्ति के रस से सूखे हुए हैं, ऐसे सूखे हुए को फिर से हरा बनाना, हरियाली लाना - यही आपका काम है। जहाँ सूखा होता है वहाँ मानव कंगाल बन जाता है और जहाँ हरियाली होती है वहाँ मानव खुशहाल हो जाता है। तो नई दुनिया हरियाली की दुनिया है और पुरानी दुनिया सूखी दुनिया है। आप सब तो बहती हुई भरपूर नदियां हो ना! तो चलते-फिरते अपने हर कदम से आत्माओं को हरा-भरा बनाओ।
इस समय सबका विशेष अटेन्शन पंजाब की तरफ है। किस बात के लिए? अकाले मृत्यु के लिए। सबसे ज्यादा अकाले मृत्यु पंजाब में हो रहे हैं। तो आप सभी अकाले मृत्यु से बचाने वाले हो ना। ऐसी आत्माओं को अमर ज्ञान दे अमर बनाओ तो जन्म-जन्म अकाले मृत्यु से बच जाएं। सतयुग में अकाले मृत्यु नहीं होगा, अपनी इच्छा से शरीर छोड़ेंगे। जैसे यह पुराना वस्त्र अपनी इच्छा से बदली करते हैं, मजबूरी से नहीं। ऐसे यह शरीर रूपी वस्त्र भी अपनी इच्छा से बदली करें। जैसे कपड़े का समय पूरा हो जाता है, पुराना हो जाता है तो बदल देते हो। ऐसे समय प्रमाण, आयु के प्रमाण शरीर परिवर्तन करेंगे। तो आप बच्चों को ऐसी दुःखी आत्माओं को यह खुशखबरी सुनानी चाहिए कि हम आपको 21 जन्मों के लिए अकाले मृत्यु से बचा सकते हैं। आजकल अकाले मृत्यु का ही डर है। डर से खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं, सो भी रहे हैं। ऐसी आत्माओं को खुशी की बात सुनाकर भय से छुड़ाओ। मानो यह शरीर चला भी जाता है, तो भी भय से नहीं मरेंगे क्योंकि यह खुशी होगी कि हम अकाले मृत्यु से बचाने वाले हैं, कुछ साथ में ले जा रहे हैं, खाली नहीं जा रहे हैं। तो यह सेवा करते हो या डरते हो कि हमें गोली न लग जाए? सभी बहादुर हो ना! अपने शान्ति और सुख के वायब्रेशन से लोगों को सुख-चैन की अनुभूति कराओ। कैसा भी आतंकवादी हो - वह भी प्रेम और शान्ति की शक्ति के आगे परिवर्तन हो जायेगा। आप लोगों के पास ऐसा कोई आता है तो क्या करते हो? प्यार से परिवर्तन करते हो ना? अपना भाई बना देते हो ना!
सदा ही अपने को ‘शक्तिशाली' आत्मायें हैं - इस अनुभूति में रहो। शक्तिशाली आत्माओं के आगे चाहे माया के विघ्न हों, चाहे व्यक्ति द्वारा वा प्रकृति द्वारा विघ्न आयें लेकिन अपना प्रभाव नहीं डाल सकते हैं। तो ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान बने हो या कमज़ोर हो? अगर एक भी शक्ति की कमी होगी तो हार हो सकती है। समय पर छोटा-सा शस्त्र भी अगर किसके पास नहीं है तो नुकसान हो जाता है। एक भी शक्ति कम होगी तो समय पर धोखा मिल सकता है। इसलिए मास्टर सर्वशक्तिवान हैं - शक्तिवान नहीं, यही टाइटल याद रखना। सदा खुशहाल रहना और औरों को भी खुशहाल बनाना। कभी भी मुरझाना नहीं। तन भी खुश, मन भी खुश और धन भी खुशी से कमाने वाले और खुशी से कार्य में लगाने वाले। जहाँ खुशी है वहां एक सौ भी हजारों के समान होता है, खुशहाली आ जाती है। और जहाँ खुशी नहीं वहाँ एक लाख भी एक रूपया है। तो तन-मन-धन से खुशहाल रहने वाले हैं। दाल-रोटी भी - 36 प्रकार का भोजन अनुभव हो। तो यही वरदान याद रखना कि हम सदा खुशहाल रहने वाले हैं। मुरझाना काम माया के साथियों का है और खुशहाल रहना काम बाप के बच्चों का है।
अपने को गरीब कभी नहीं समझना। सबसे साहूकार हम हैं। दुनिया में साहूकार देखना हो तो आपको देखें। क्योंकि सच्चा धन आपके पास है। विनाशी धन तो आज है, कल नहीं होगा। लेकिन अविनाशी धन आपके पास है। तो सबसे साहूकार आप हो। चाहे सूखी रोटी भी खाते हो, तो भी साहूकार हो क्योंकि खुशी की खुराक सूखी रोटी में भरी हुई है। उसके आगे और कोई खुराक नहीं। सबसे अच्छी खुराक खाने वाले, सुख की रोटी खाने वाले आप लोग हो। इसलिए सदा खुशहाल हो। कभी यह नहीं सोचना कि अगर साहूकार होते तो यह करते! साहूकार होते तो आते ही नहीं, वंचित रह जाते। तो ऐसे खुशहाल रहना जो आपको खुशहाल देख और भी खुशहाल हो जाएँ। अच्छा! सबसे बड़ा जोन तो मधुबन ही है। सब ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियों का असली घर - मधुबन ही है ना। आत्माओं का घर परमधाम है लेकिन ब्राह्मणों का घर मधुबन है। तो अमृतसर या लुधियाना के नहीं हो, पंजाब या हरियाणा के नहीं हो लेकिन अपनी परमानेंट एड्रैस (स्थायी पता) मधुबन है। बाकी सब सेवा स्थान हैं। चाहे प्रवृत्ति में रहते हो, तो भी सेवा स्थान है, घर नहीं है। स्वीट होम मधुबन है। ऐसे समझते हो ना! या वही घर याद आता है? अच्छा!
23-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
वरदाता को राजी करने की सहज विधि अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज वरदाता बाप अपने वरदानी बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। वरदाता के बच्चे वरदानी सब बच्चे हैं लेकिन नम्बरवार हैं। वरदाता सभी बच्चों को वरदानों की झोली भर कर के देते हैं। फिर नम्बर क्यों? वरदाता देने में नम्बरवार नहीं देते हैं क्योंकि वरदाता के पास अखुट वरदान हैं जो जितना लेने चाहे खुला भण्डार है। ऐसे खुले भण्डार से कई बच्चे सर्व वरदानों से सम्पन्न बनते हैं और कोई बच्चे यथा-शक्ति तथा सम्पन्न बनते हैं। सबसे ज्यादा झोली भरकर देने में भोलानाथ, ‘वरदाता' रूप ही है। पहले भी सुनाया है - दाता, भाग्यविधाता और वरदाता। तीनों में से ‘वरदाता' रूप से भोले भगवान कहा जाता है। क्योंकि वरदाता बहुत जल्दी राजी हो जाते हैं। सिर्फ राजी करने की विधि जान जाते हो तो सिद्धि अर्थात् वरदानों की झोली से सम्पन्न रहना बहुत सहज है। सबसे सहज विधि वरदाता को राजी करने की जानते हो? उनको सबसे प्रिय कौन लगता है? उनको ‘एक' शब्द सबसे प्रिय लगता, जो बच्चे ‘एकव्रता' आदि से अब तक हैं वही वरदाता को अति प्रिय हैं।
एकव्रता अर्थात् सिर्फ पतिव्रता नहीं, सर्व सम्बन्ध से ‘एकव्रता'। संकल्प में भी, स्वप्न में भी दूजा-व्रता न हो। एक-व्रता अर्थात् सदा वृत्ति में एक हो। दूसरा - सदा मेरा तो एक दूसरा न कोई - यह पक्का व्रत लिया हुआ हो। कई बच्चे एकव्रता बनने में बड़ी चतुराई करते हैं। कौन-सी चतुराई? बाप को ही मीठी बातें सुनाते कि बाप, शिक्षक, सत्गुरू का मुख्य सम्बन्ध तो आपके साथ है लेकिन साकार शरीरधारी होने के कारण, साकारी दुनिया में चलने के कारण कोई साकारी सखा वा सखी सहयोग के लिए, सेवा के लिए, राय-सलाह के लिए साकार में जरूर चाहिए, क्योंकि बाप तो निराकार और आकार है, इसलिए सेवा साथी है। और तो कुछ नहीं है। क्योंकि निराकारी, आकारी मिलन मनाने के लिए स्वयं को भी आकारी, निराकारी स्थिति में स्थित होना पड़ता है। वह कभी-कभी मुश्किल लगता है। इसलिए समय के लिए साकार साथी चाहिए। जब दिमाग में बहुत बातें भर जायेंगी तो क्या करेंगे? सुनने वाला तो चाहिए ना! एकव्रता आत्मा के पास ऐसी बोझ की बातें इकटठी नहीं होतीं जो सुनानी पड़ें। एक तरफ बाप को बहुत खुश करते हो - बस, आप ही सदैव मेरे साथ रहते हो, सदा बाप मेरे साथ है, साथी है। फिर उस समय कहाँ चला जाता है? बाप चला जाता या आप किनारे हो जाते हो? हर समय साथ है वा 6-8 घण्टा साथ है। वायदा क्या है? साथ है, साथ रहेंगे, साथ चलेंगे, यह वायदा पक्का है ना! ब्रह्मा बाप से तो इतना वायदा है कि सारे चक्र में साथ पार्ट बजायेंगे! जब ऐसा वायदा है, फिर भी साकार में कोई विशेष साथी चाहिए?
बापदादा के पास सबकी जन्मपत्री रहती है। बाप के आगे तो कहेंगे आप ही साथी हो। जब परिस्थिति आती है फिर बाप को ही समझाने लगते कि यह तो होगा ही, इतना तो चाहिए ही.....। इसको एकव्रता कहेंगे? साथी हैं तो सब साथी हैं, कोई विशेष नहीं। इसको कहते हैं - एकव्रता। तो वरदाता को ऐसे बच्चे अति प्रिय है। ऐसे बच्चों की हर समय की सर्व जिम्मेवारियाँ वरदाता बाप स्वयं अपने ऊपर उठाते हैं। ऐसी वरदानी आत्मायें हर समय, हर परिस्थिति में वरदानों के प्राप्ति सम्पन्न स्थिति अनुभव करती हैं और सदा सहज पार करती हैं और पास विद् ऑनर बनती हैं। जब वरदाता सर्व जिम्मेवारियाँ उठाने के लिए एवररेडी है फिर अपने ऊपर जिम्मेवारी का बोझ क्यों उठाते हो? अपनी जिम्मेवारी समझते हो तब परिस्थिति में पास विद् ऑनर नहीं बनते लेकिन धक्के से पास होते हो। ‘किसी के साथ' का धक्का चाहिए। अगर बैटरी फुल चार्ज नहीं होती तो कार को धक्के से चलाते हैं ना। तो धक्का अकेला तो नहीं देंगे, साथ चाहिए। इसलिए वरदानी नम्बरवार बन जाते हैं। तो वरदाता को एक शब्द प्यारा है - ‘एकव्रता'। एक बल एक भरोसा। एक का भरोसा दूजे का बल - ऐसा नहीं कहा जाता। ‘एक बल एक भरोसा' ही गाया हुआ है। साथ-साथ एकमत, न मनमत न परमत, एकरस - न और कोई व्यक्ति, न वैभव का रस। ऐसे ही एकता, एकान्तप्रिय। तो ‘एक' शब्द ही प्रिय हुआ ना। ऐसे और भी निकालना।
बाप इतना भोला है जो एक में ही राजी हो जाता है। ऐसे भोलानाथ वरदाता को राजी करना क्या मुश्किल लगता है? सिर्फ ‘एक' का पाठ पक्का करो। 5-7 में जाने की जरूरत नहीं है। वरदाता को राजी करने वाले अमृतवेले से रात तक हर दिनचर्या के कर्म में वरदानों से ही पलते हैं, चलते हैं और उड़ते हैं। ऐसे वरदानी आत्माओं को कभी कोई मुश्किल चाहे मन से, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क से अनुभव नहीं होगी। हर संकल्प में, हर सेकण्ड, हर कर्म में, हर कदम में ‘वरदाता' और ‘वरदान' सदा समीप, सम्मुख साकार रूप में अनुभव होगा। वह ऐसे अनुभव करेगा जैसे साकार में बात कर रहे हैं। उनको मेहनत अनुभव नहीं होगी। ऐसी वरदानी आत्मा को यह विशेष वरदान प्राप्त होता है, जो वह, निराकार-आकार को जैसे साकार अनुभव कर सकते हैं! ऐसे वरदानियों के आगे हजूर सदा हाजर है, सुना? वरदाता को राजी करने की विधि और सिद्धि - सेकण्ड में कर सकते हो? सिर्फ एक में दो नहीं मिलाना, बस। फिर सुनायेंगे - एक के पाठ का विस्तार।
बापदादा के पास सभी बच्चों के चरित्र भी हैं तो चतुराई भी है। रिजल्ट तो सारी बापदादा के पास है ना। चतुराई की बातें भी बहुत इकटठी हैं। नई-नई बातें सुनाते हैं। सुनते रहते हैं। सिर्फ बापदादा नाम नहीं लेते हैं इसलिए समझते हैं बाप को मालूम नहीं पड़ता। फिर भी चांस देते रहते हैं। बाप समझाते हैं बच्चे रीयल समझ से भोले हैं। तो ऐसे भोले नहीं बनो। अच्छा।
विदेश का भी चक्र लगा कर बच्चे पहुँच गये हैं। (जानकी दादी, डॉक्टर निर्मला और जगदीश भाई विदेश का चक्र लगाकर आये हैं) अच्छी रिजल्ट है। और सदा ही सेवा की सफलता में वृद्धि होनी ही है। यू.एन. का भी विशेष सेवा के कार्य में सम्बन्ध है। नाम उन्हों का, काम तो आपका ही हो रहा है। आत्माओं को सहज सन्देश पहुँच जाए - यह काम आपका हो रहा है। तो वहाँ का भी प्रोग्राम अच्छा हुआ। रशिया भी रहा हुआ था, उनको भी आना ही था। बापदादा ने तो पहले ही सफलता का यादप्यार दे दिया था। भारत के एम्बसडर बन कर गये तो भारत का नाम बाला हुआ ना! चक्रवर्ती बन चक्र लगाने में मजा आता है ना! कितनी दुआयें जमा करके आये! निर्मल-आश्रम (डॉ0 निर्मला) भी चक्र ही लगाती रहती है। वैसे तो सब सेवा में लगे हुए हैं लेकिन समय के प्रमाण विशेष सेवा होती तो विशेष सेवा की मुबारक देते हैं। सेवा के बिना तो रह नहीं सकते हो। लंदन, अमेरिका, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया - आप लोगों ने यह 4 जोन बनाये हैं ना। पाँचवाँ है भारत। भारत वालों को पहले चांस मिला है मिलने का। जो करके आये और जो आगे करेंगे - सब अच्छा है और सदा ही अच्छा रहेगा। चारों ही जोन के सभी डबल विदेशी बच्चों को आज विशेष यादप्यार दे रहे हैं। रशिया भी एशिया में आ जाता है। सेवा का रेसपाण्ड अच्छा मिल रहा है। हिम्मत भी अच्छी है तो मदद भी मिल रही है और मिलती रहेगी। भारत में भी अभी विशाल प्रोग्राम करने का प्लैन बना रहे हैं। एक-एक को, विशेषता और सेवा की लगन में मगन रहने की मुबारक और यादप्यार। अच्छा।
सर्व बच्चों को सदा सहज चलने की सिद्धि को प्राप्त करने की सहज युक्ति जो सुनाई, इसी विधि को सदा प्रयोग में लाने वाले प्रयोगी और सहजयोगी, सदा वरदाता के वरदानों से सम्पन्न वरदानी बच्चों को, सदा ‘एक' का पाठ हर कदम में साकार स्वरूप में लाने वाले, सदा निराकार आकार बाप के साथ की अनुभूति से सदा साकार स्वरूप में लाने वाले, ऐसे सदा वरदानी बच्चों को बापदादा का दाता, भाग्यविधाता और वरदाता का यादप्यार और नमस्ते।
मुलाकात दादी जानकी जी से:- जितना सभी को बाप का प्यार बाँटते हैं उतना ही और प्यार का भण्डार बढ़ता जाता है। जैसे हर समय प्यार की बरसात हो रही है - ऐसे ही अनुभव होता है ना! एक कदम में प्यार दो और बार-बार प्यार लो। सबको प्यार ही चाहिए। ज्ञान तो सुन लिया है ना! तो एक ऐसे बच्चे हैं जिनको प्यार चाहिए और दूसरे हैं जिनको शक्ति चाहिए। तो क्या सेवा की? यही सेवा की ना - किसको प्यार दिया बाप द्वारा और किसको शक्ति बाप से दिलाई। ज्ञान के राजों को तो जान गये हैं। अभी चाहिए उन्हों में उमंग-उत्साह सदा बना रहे, वह नीचे-ऊपर होता है। फिर भी बापदादा डबल विदेशी बच्चों को आफरीन (शाबाश) देते हैं - भिन्न धर्म में चले तो गये ना! भिन्न देश, भिन्न रस्म - फिर भी चल रहे हैं और कई तो वारिस भी निकले हैं। अच्छा!
महाराष्ट्र-पूना ग्रुप:- सभी महान आत्मायें बन गये ना! पहले सिर्फ अपने को महाराष्ट्र निवासी कहलाते थे, अभी स्वयं महान बन गये। बाप ने हरेक बच्चे को महान बना दिया। विश्व में आपसे महान और कोई है? सबसे नीचे भारतवासी गिरे और उसमें भी जो 84 जन्म लेने वाली ब्राह्मण आत्मायें हैं, वह नीचे गिरी। तो जितना नीचे गिरे उतना अभी ऊँचा उठ गये। इसलिए कहते हैं ब्राह्मण अर्थात् ऊँची चोटी। जो ऊँचाई का स्थान होता है उसको चोटी कहा जाता है। पहाड़ों की ऊँचाई को भी चोटी कहते हैं। तो यह खुशी है कि क्या-से-क्या बन गये! पांडवों को ज्यादा खुशी है या शक्तियों को? (शक्तियों को) क्योंकि शक्तियों को बहुत नीचे गिरा दिया था। द्वापर से लेकर पुरूष तन ने ही कोई-न-कोई पद प्राप्त किया। धर्म में भी अभी-अभी फीमेल्स भी महामण्डलेश्वरियाँ बनी हैं। नहीं तो महामण्डलेश्वर ही गाये जाते थे। जब से बाप ने माताओं को आगे किया है तब से उन्होंने 2-4 मण्डलेश्वरियाँ रख दी हैं। नहीं तो धर्म के कार्य में माताओं को कभी भी आसन नहीं देते थे। इसीलिए माताओं को ज्यादा खुशी है और पांडवों का भी गायन है। पांडवों ने जीत प्राप्त कर ली। नाम पांडवों का आता है लेकिन पूजन ज्यादा शक्तियों का होता है। पहले गुरूओं का कर चुके हैं, अभी शक्तियों का करते हैं। जागरण गणेश वा हनुमान का नहीं करते, शक्तियों का करते हैं। क्योंकि शक्तियाँ अभी खुद जग गई हैं। तो शक्तियाँ अपने शक्ति रूप में रहती हैं ना! या कभी-कभी कमज़ोर बन जाती हैं? माताओं को देह के सम्बन्ध का मोह कमज़ोर करता है। थोड़ा-थोड़ा बाल बच्चों में, पोत्रे-धोत्रों में मोह होता है। और पांडवों को कौन-सी बात कमज़ोर करती है? पांडवों में अहंकार के कारण क्रोध जल्दी आता है। लेकिन अब तो जीत हो गई ना! अब तो शान्त स्वरूप पांडव हो गये और मातायें निर्मोही हो गईं। दुनिया कहे कि माताओं में मोह होता है और आप चैलेन्ज करो कि हम मातायें निर्मोही हैं। ऐसे ही पांडव भी शान्त स्वरूप, कोई भी आये तो यह कमाल के गीत गाये कि यह सब इतने शान्त स्वरूप बन गये हैं जो क्रोध का अंश मात्र भी दिखाई नहीं देता। नैन-चैन तक भी नहीं आवे। कई ऐसे कहते हैं - क्रोध तो नहीं है, थोड़ा जोश आता है। तो वह क्या हुआ वह भी क्रोध का ही अंश हुआ ना। तो पांडव विजयी हैं अर्थात् बिल्कुल संकल्प में भी शान्त, बोल और कर्म में भी शान्तस्वरूप। मातायें सारे विश्व के आगे अपना निर्मोही रूप दिखाओ। लोग तो समझते हैं यह असम्भव है और आप कहते हो - सम्भव भी है और बहुत सहज भी है। लक्ष्य रखो तो लक्षण जरूर आयेंगे। जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जायेगी। धरनी में मात-पिता के प्यार का पानी पड़ा हुआ है, इसलिए फल सहज निकल रहा है। अच्छा है। बापदादा सेवा और स्व-उन्नति - दोनों को देखकर खुश होते हैं सिर्फ सेवा को देख कर के नहीं। जितनी सेवा में वृद्धि उतनी स्व-उन्नति में भी - दोनों -साथ-साथ हों। कोई इच्छा नहीं, जब आपे ही सब मिलता है तो इच्छा क्या रखें। बिना कहे, बिना मांगे इतना मिल गया है जो मांगने की इच्छा की आवश्यकता नहीं। तो ऐसे सन्तुष्ट हो ना! यही टाइटल अपना स्मृति में रखना कि सन्तुष्ट हैं और सर्व को सन्तुष्ट कर प्राप्ति स्वरूप बनाने वाले हैं। तो ‘सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना' - यह है विशेष वरदान। असन्तुष्टता का नाम निशान नहीं। अच्छा।
गुजरात-पूना ग्रुप:- सभी दृष्टि द्वारा शक्तियों की प्राप्ति की अनुभूति करने के अनुभवी हो ना! जैसे वाणी द्वारा शक्ति की अनुभूति करते हो। मुरली सुनते हो तो समझते हो ना शक्ति मिली। ऐसे दृष्टि द्वारा शक्तियों की प्राप्ति के अनुभूति के अभ्यासी बने हो या वाणी द्वारा अनुभव होता है, दृष्टि द्वारा कम। दृष्टि द्वारा शक्ति कैच कर सकते हो? क्योंकि कैच करने के अनुभवी होंगे तो दूसरों को भी अपने दिव्य दृष्टि द्वारा अनुभव करा सकते हैं। और आगे चल कर वाणी द्वारा सबको परिचय देने का समय भी नहीं होगा और सरकमस्टांस भी नहीं होंगे, तो क्या करेंगे? वरदानी दृष्टि द्वारा, महादानी दृष्टि द्वारा महादान देंगे, वरदान देंगे। तो पहले जब स्वयं में अनुभव होगा तब दूसरों को करा सकेंगे। दृष्टि द्वारा शान्ति की शक्ति, प्रेम की शक्ति, सुख वा आनन्द की शक्ति सब प्राप्त होती है। जड़ मूर्तियों के आगे भी जाते हैं तो जड़ मूर्ति बोलती तो नहीं है ना! फिर भी भक्त आत्माओं को कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है, तब तो जाते हैं। कैसे प्राप्ति होती है? उनकी दिव्यता के वायब्रेशन से और दिव्य नयनों की दृष्टि को देख कर वायब्रेशन लेते हैं। कोई भी देवता या देवी की मूर्ति में विशेष अटेन्शन नयनों के तरफ देखेंगे। हरेक का अटेन्शन सूरत की तरफ जाता है। क्योंकि मस्तक के द्वारा वायब्रेशन मिलते हैं, नयनों के द्वारा दिव्यता की अनुभूति होती है। वह आप चैतन्य मूर्तियों की जड़ मूर्तियाँ हैं। आप सबने चैतन्य में यह सेवा की है तब जड़ मूर्तियाँ बनी हैं। तो दृष्टि द्वारा शक्ति लेना और दृष्टि द्वारा शक्ति देना - यह प्रैक्टिस करो। शान्ति के शक्ति की अनुभूति बहुत श्रेष्ठ है। जैसे वर्तमान समय साइंस की शक्ति का प्रभाव है, हर एक अनुभव करते हैं। लेकिन साइंस की शक्ति साइलेन्स की शक्ति से ही निकली है ना! जब साइंस की शक्ति अल्पकाल के लिए प्राप्ति करा रही है तो साइलेन्स की शक्ति कितनी प्राप्ति करायेगी। पद्मगुणा तो इतनी शक्ति जमा करो। बाप की दिव्य दृष्टि द्वारा स्वयं में शक्ति जमा करो। तब समय पर दे सकेंगे। अपने लिए ही जमा किया और कार्य में लगा दिया अर्थात् कमाया और खाया। जो कमाते हैं और खा के खत्म कर देते हैं उनका कभी जमा का खाता नहीं रहता और जिसके पास जमा का खाता नहीं होता है उसको समय पर धोखा मिलता है। धोखा मिलेगा तो दुःख की प्राप्ति होगी। अगर साइलेन्स की शक्ति जमा नहीं होगी, दृष्टि के महत्त्व का अनुभव नहीं होगा तो लास्ट समय श्रेष्ठ पद प्राप्त करने में धोखा खा लेंगे फिर दुःख होगा। पश्चाताप् होगा ना। इसलिए अभी से बाप की दृष्टि द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों को अनुभव करते जमा करते रहो।
सभी को जमा करना आता है ना! जमा हो रहा है, उसकी निशानी क्या है? उसे नशा होगा! जैसे साहूकार लोगों की साहूकारी की निशानी का पता उनके नशे से पड़ता है। उनके चलने में, बैठने में, उठने में नशा दिखाई देता है। और जितना नशा होगा उतनी खुशी होगी। तो आप भी सदा खुश रहते हो ना! ‘खुशी' जन्म-सिद्ध अधिकार है। तो यही वरदान सदा स्मृति में रखना कि हम सदा जमा के नशे में रहने वाले, सदा खुशी की झलक से औरों को भी रूहानी झलक दिखाने वाले हैं। कुछ भी हो जाए - खुशी के वरदान को खोना नहीं। समस्या आयेगी और जायेगी लेकिन खुशी नहीं जाये। क्योंकि खुशी हमारी चीज़ है, समस्या परिस्थिति है, दूसरे के तरफ से आई हुई है। अपनी चीज़ को सदा साथ रखते हैं। पराई चीज़ तो आयेगी भी जायेगी भी। परिस्थिति माया की है, अपनी नहीं है। तो खुशी को खोना नहीं। चाहे यह शरीर भी चला जाए लेकिन खुशी नहीं जाए। खुशी से शरीर भी जायेगा तो बढ़िया मिलेगा, पुराना जायेगा तो नया मिलेगा। डरना नहीं कि पता नहीं क्या बनेंगे। अच्छे-से-अच्छा बनेंगे। अच्छा!
गुजरात ग्रुप:- ब्राह्मण जीवन में लास्ट जन्म होने के कारण शरीर से चाहे कितने भी कमज़ोर हैं या बीमार हैं, चल सकते हैं वा नहीं भी चल सकते हैं लेकिन मन की उड़ान के लिए पंख दे दिये हैं, शरीर से चल नहीं सकते लेकिन मन से उड़ तो सकते हैं ना! क्योंकि बापदादा जानते हैं कि 63 जन्म भटकते-भटकते कमज़ोर हो गये। शरीर तमोगुणी हो गये हैं। तो कमज़ोर हो गये, बीमार हो गये। लेकिन मन सबका दुरूस्त है। शरीर में तन्दुरूस्त नहीं भी हो लेकिन मन में तो बीमार कोई नहीं है ना। मन सबका पंखों से उड़ने वाला है। पावरफुल मन की निशानी है - सेकण्ड में जहाँ चाहे वहाँ पहुँच जाएँ। ऐसे पावरफुल हो या कभी कमज़ोर हो जाते हो। मन को जब उड़ना आ गया, प्रैक्टिस हो गई तो सेकण्ड में जहाँ चाहे वहाँ पहुँच सकता है। अभी-अभी साकार वतन में, अभी-अभी परमधाम में एक सेकण्ड की रफ्तार है। तो ऐसी तेज रफ्तार है? सदा अपने भाग्य के गीत गाते उड़ते रहो। सदैव अमृतवेले अपने भाग्य की कोई-न-कोई बात स्मृति में रखो, अनेक प्रकार के भाग्य मिले हैं, अनेक प्रकार की प्राप्तियाँ हुई हैं, कभी किसी प्राप्ति को सामने रखो, कभी किसी प्राप्ति को रखो तो बहुत रमणीक पुरूषार्थ रहेगा। कभी पुरूषार्थ में अपने को बोर नहीं समझेंगे, नवीनता अनुभव करेंगे। नहीं तो कई बच्चे कहते हैं। बस, आत्मा हूँ, शिवबाबा का बच्चा हूँ, यह तो सदैव कहते ही रहते हैं। लेकिन मुझ आत्मा को बाप ने क्या-क्या भाग्य दिया है, क्या-क्या टाइटल दिये हैं, क्या-क्या खज़ाना दिया है, ऐसे भिन्न-भिन्न स्मृतियाँ रखो। लिस्ट निकालो। स्मृतियों की कितनी बड़ी लिस्ट है! कभी खज़ानों की स्मृतियाँ रखो, कभी शक्तियों की स्मृतियाँ रखो, कभी गुणों की रखो, कभी ज्ञान की रखो, कभी टाइटल रखो। वैरायटी में सदैव मनोरंजन हो जाता है। कहाँ भी मनोरंजन का प्रोग्राम होगा तो वैराइटी डांस होगी, वैराइटी खाना होगा, वैराइटी लोगों से मिलना होगा। तब तो मनोरंजन होता है ना! तो यह भी सदा मनोरंजन में रहने के लिए वैराइटी प्रकार की बातें सोचो। अच्छा!
27-11-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
शुभभावना और शुभकामना की सूक्ष्म सेवा
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज विश्व-कल्याणकारी बापदादा अपने विश्व-कल्याणकारी साथियों को देख रहे हैं। सभी बच्चे बाप के विश्व-कल्याण के कार्य में निमित्त बने हुए साथी हैं। सभी के मन में सदा यही एक संकल्प है कि विश्व की परेशान आत्माओं का कल्याण हो जाये। चलते-फिरते, कोई भी कार्य करते मन में यही शुभभावना है। भक्ति-मार्ग में भी भावना होती है। लेकिन भक्त आत्माओं की विशेष अल्पकाल के कल्याण प्रति भावना होती है। आप ज्ञानी तू आत्मा बच्चों की ज्ञानयुक्त कल्याण की भावना आत्माओं के प्रति सदाकाल और सर्वकल्याणकारी भावना है। आपकी भावना वर्तमान और भविष्य के लिए है कि हर आत्मा अनेक जन्म सुखी हो जाए, प्राप्तियों से सम्पन्न हो जाए। क्योंकि अविनाशी बाप द्वारा आप आत्माओं को भी अविनाशी वर्सा मिला है। आपकी भावना का फल विश्व की आत्माओं को परिवर्तन कर रहा है और आगे चल प्रकृति सहित परिवर्तन हो जायेगा। आप आत्माओं की श्रेष्ठ भावना इतना श्रेष्ठ फल प्राप्त कराने वाली है! इसलिए विश्व-कल्याणकारी आत्माएं गाई जाती हो। इतना अपनी शुभभावना का महत्त्व जानते हो? अपनी शुभभावना को साधारण रीति से कार्य में लगाते चल रहे हो वा महत्त्व जानकर चलते हो? दुनिया वाले भी शुभभावना शब्द कहते हैं। लेकिन आपकी शुभभावना सिर्फ शुभ नहीं लेकिन शक्तिशाली भी है। क्योंकि आप संगमयुगी श्रेष्ठ आत्माएं हो, संगमयुग का ड्रामा अनुसार प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है। इसलिए आपकी भावना का प्रत्यक्ष फल आत्माओं को प्राप्त होता है। जो भी आत्माएं आपके सम्बन्ध-सम्पर्क में आती हैं, वह उसी समय ही शान्ति वा स्नेह के फल की अनुभूति करती हैं।
शुभभावना, शुभकामना के बिना हो नहीं सकती। हर आत्मा के प्रति सदैव रहम की कामना रहती है कि यह आत्मा भी वर्से की अधिकारी बन जाए। हर आत्मा के प्रति तरस पड़ता है कि यह हमारे ही ईश्वरीय परिवार के हैं, तो इससे वंचित क्यों रहें? शुभकामना रहती है ना! शुभकामना और शुभभावना - यह सेवा का फाउण्डेशन है। कोई भी आत्माओं की सेवा करते हो, अगर आपके अन्दर शुभभावना, शुभकामना आ नहीं है तो आत्माओं को प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। एक सेवा होती है नीति प्रमाण, रीति प्रमाण - जो सुना है वह सुनाना है। दूसरी सेवा है अपनी शुभभावना, शुभकामना द्वारा। आपकी शुभभावना बाप में भी भावना बिठाती है और बाप द्वारा फल की प्राप्ति कराने के निमित्त बन जाती है। ‘शुभभावना' - कहाँ दूर बैठी हुई किसी आत्मा को भी फल की प्राप्ति कराने के निमित्त बन सकती है। जैसे साइंस के साधन दूर बैठे आत्माओं से समीप का सम्बन्ध कराने के निमित्त बन जाते हैं, आपकी आवाज पहुँच जाती है, आपका सन्देश पहुँच जाता है, दृश्य पहुँच जाता है। तो जब साइंस की शक्ति अल्पकाल के लिए समीपता का फल दे सकती है तो आपके साइलेन्स की शक्तिशाली शुभभावना दूर बैठे भी आत्माओं को फल नहीं दे सकेगी? लेकिन इसका आधार है - अपने अन्दर इतनी शान्ति की शक्ति जमा हो! साइलेन्स की शक्ति यह अलौकिक अनुभव करा सकती है। आगे चल कर यह प्रत्यक्ष प्रमाण अनुभव करते रहेंगे।
शुभभावना अर्थात् शक्तिशाली संकल्प। सब शक्तियों से संकल्प की गति तीव्र है। जितने भी साइंस ने तीव्रगति के साधन बनाये हैं, उन सबसे तीव्रगति संकल्प की है। किसी आत्मा के प्रति वा बेहद विश्व की आत्माओं के प्रति शुभभावना रखते हो अर्थात् शक्तिशाली शुभ और शुद्ध संकल्प करते हो कि इस आत्मा का कल्याण हो जाए। आपका संकल्प वा भावना उत्पन्न होना और उस आत्मा को अनुभूति होगी कि मुझ आत्मा को कोई विशेष सहयोग से शान्ति वा शक्ति मिल रही है। जैसे - अभी भी कई बच्चे अनुभव करते हैं कि कई कार्यों में मेरी हिम्मत वा योग्यता इतनी नहीं थी लेकिन बापदादा की एक्स्ट्रा मदद से यह कार्य सहज ही सफल हो गया वा यह विघ्न समाप्त हो गया। ऐसे मास्टर विश्व-कल्याणकारी आत्माओं की सूक्ष्म सेवा प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करेंगे। समय भी कम और साधन भी कम, सम्पत्ति भी कम लगेगी। इसके लिए मन और बुद्धि सदा फ्री चाहिए। छोटी-छोटी बातों में मन और बुद्धि को बिजी रखते हो, इसलिए सेवा के सूक्ष्म गति की लाइन क्लीयर नहीं रहती है। साधारण बातों में भी अपने मन और बुद्धि की लाइन को इंगेज (व्यस्त) बहुत रखते हो, इसलिए यह सूक्ष्म सेवा तीव्रगति से नहीं चल रही है। इसके लिए विशेष अटेन्शन - ‘‘एकान्त और एकाग्रता'' |
एकान्तप्रिय आत्माएं कितना भी बिजी होते फिर भी बीच-बीच में एक घड़ी, दो घड़ी निकाल एकान्त का अनुभव कर सकती है। एकान्तप्रिय आत्मा ऐसी शक्तिशाली बन जाती है जो अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ - मन-बुद्धि को जिस समय चाहे, जहाँ चाहे एकाग्र कर सकती है। चाहे बाहर की परिस्थिति हलचल की हो लेकिन एकान्तप्रिय आत्मा एक के अन्त में सेकण्ड में एकाग्र हो जायेगी। जैसे सागर के ऊपर लहरों की कितनी आवाज होती है, कितनी हलचल होती है, लेकिन सागर के अन्त में हलचल नहीं होती। तो जब एक के अन्त में, ज्ञान-सागर के अन्त में चले जायेंगे तो हलचल समाप्त हो एकाग्र बन जायेंगे। सुना, सूक्ष्म सेवा क्या है! ‘शुभभावना',‘शुभकामना' शब्द सभी बोलते रहते हैं लेकिन इसके महत्त्व को जान प्रत्यक्ष रूप में आने से अनेक आत्माओं को प्रत्यक्षफल की अनुभूति कराने के निमित्त बनो। अच्छा!
टीचर्स का तो काम ही है - ‘सेवा'। टीचर्स का महत्त्व ही सेवा है। अगर सेवा का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिखाई देता है तो उनको योग्य टीचर की लिस्ट में गिनती नहीं किया जाता। टीचर की महानता सेवा हुई ना। तो सेवा का महीन रूप सुनाया। मुख की सेवा तो करते रहते हो लेकिन मुख और मन की शुभभावना की सेवा साथ-साथ हो। बोल और भावना डबल काम करेंगे। इस सूक्ष्म सेवा का अभ्यास बहुतकाल अर्थात् अभी से चाहिए। क्योंकि आगे चलकर सेवा की रूपरेखा बदलनी ही है। फिर उस समय सूक्ष्म सेवा में अपने को बिजी नहीं कर सकेंगे, बाहर की परिस्थितियाँ बुद्धि को आकर्षित कर लेंगी। रिजल्ट क्या होगी? याद और सेवा का बैलेंस नहीं रख सकेंगे। इसलिए अभी से अपने मन-बुद्धि के सेवा की लाइन को चेक करो। टीचर्स को चेक करना आता है ना। टीचर्स औरों को सिखाती हैं, तो जरूर स्वयं जानती हैं तब तो सिखाती हैं ना। अभी योग्य टीचर्स हो ना! योग्य टीचर की विशेषता यह है - जो निरन्तर चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा सेवा में सदा बिजी रहे। तो और बातों से स्वतः ही खाली हो जायेंगे। अच्छा! कुमारियाँ भी आईं हैं।
कुमारियाँ अर्थात् होवनहार टीचर्स। तब तो कहेंगे ब्रह्माकुमारियाँ हैं। अगर होवनहार सेवाधारी नहीं तो पाई पैसे वाली कुमारी है। कुमारियाँ क्या करती हैं? नौकरी की टोकरी उठाती हैं ना पाई पैसे के पीछे। बापदादा को हँसी आती है कुमारियों के ऊपर - टोकरी का बोझ उठाने के लिए तैयार हो जाती हैं लेकिन भगवान के घर में अर्थात् सेवा-स्थानों में रहने की हिम्मत नहीं रखती हैं। ऐसी कमज़ोर कुमारियाँ तो नहीं हो ना! चाहे पढ़ भी रही हैं, तो भी लक्ष्य तो पहले से रखा जाता है कि नौकरी करनी है या विश्व-सेवा करनी है। नौकरी करना अर्थात् अपने को पालना। बाल-बच्चे तो हैं नहीं, जिसको पालना पड़े। नौकरी इसलिए करते हैं कि आराम से अपने को पालते रहें, चलते रहें, विश्व की आत्माओं को बाप की पालना दें - यह लक्ष्य रखो। जब अनेक आत्माओं के निमित्त बन सकते हैं, तो सिर्फ अपनी आत्मा को पालना - उसके आगे क्या हुआ? अनेकों की दुआयें लेना - यह कमाई कितनी बड़ी है! उस कमाई में पाँच हजार, पाँच लाख भी हो जाए, लेकिन यह अनेक आत्माओं की दुआयें - यह कितनी बड़ी कमाई है! और यह साथ जायेंगी अनेक जन्मों के लिए। वह पाँच लाख कहाँ जायेंगे? या घर में या बैंक में रह जायेंगे। लक्ष्य सदैव ऊँचा रखा जाता है, साधारण नहीं। संगमयुग पर इस एक अभी के जन्म में इतना गोल्डन चांस मिलता है - बेहद की सेवा में निमित्त बनने का! सतयुग में भी ऑफर नहीं मिलेगी। नौकरी के लिए भी अखबार देखते रहते हैं ना कि कोई ऑफर मिले। बाप स्वयं सेवा की ऑफर कर रहे हैं। तो योग्य राइट हैण्ड बनो। साधारण ब्रह्माकुमारी भी नहीं बनना। योग्य सेवाधारी नहीं बनते तो सेवा करने के बजाय सेवा लेते रहते हैं। योग्य सेवाधारी बनना कोई मुश्किल नहीं। जब योग्य सेवाधारी नहीं बनते हो तब डरते हो - कैसे होगा, चल सकेंगे वा नहीं। योग्यता नहीं होती है तो डर लगता है। जो योग्य होता वह ‘बेपरवाह बादशाह' होता है। चाहे स्थूल योग्यता, चाहे ज्ञान की योग्यता मनुष्य को वैल्यूबल बनाती है। योग्यता नहीं तो वैल्यू नहीं रहती। सेवा की योग्यता सबसे बड़ी है। ऐसी योग्य आत्मा को कोई बात रोक नहीं सकती। योग्य बनना माना मेरा तो एक बाबा। बस, और कोई बात नहीं। सुना कुमारियों ने! अच्छा!
कुमार भी बहुत आये हैं। कुमार दौड़ बहुत लगाते हैं। सेवा में भी अच्छे उमंग से दौड़ लगाते रहते हैं। लेकिन कुमारों की विशेषता और महानता यही है कि आदि से अब तक निर्विघ्न कुमार हो। अगर कुमार निर्विघ्न कुमार हैं, तो ऐसे कुमार बहुत महान गाये जाते हैं। क्योंकि दुनिया वाले भी कुमारियों के बजाय कुमारों के लिए समझते हैं कि कुमार योग्य बन जाएँ - यह मुश्किल है। लेकिन कुमार ही विश्व को चैलेन्ज करें कि आप तो असम्भव कहते हो लेकिन हम निर्विघ्न कुमार हैं। ऐसे विश्व को सैम्पल दिखाने वाले कुमार महान कुमार हैं। बापदादा ऐसे कुमारों को सदा ही दिल से मुबारक देते हैं। समझा! अभी-अभी बहुत अच्छे हैं, अभी-अभी कोई विघ्न आया तो नीचे-ऊपर हो गये - ऐसे नहीं। कुमार अर्थात् न तो समस्या बनना है और न समस्या में हार खानी है। कुमार, कुमारियों से भी नम्बर आगे जा सकते हैं लेकिन निर्विघ्न कुमार हों। क्योंकि कुमारों को बहुत करके यही विघ्न आता है कि कोई साथी नहीं है, कोई साथी चाहिए, कम्पैनियन चाहिए। तो किसी-न-किसी रीति से अपनी कम्पनी बना लेते हैं। कोई-कोई कुमार तो कम्पैनियन भी बना लेते हैं और कोई कम्पनी में आते हैं - बातचीत करना, बैठना, फिर कम्पैनियन बनाने का भी संकल्प आता है। लेकिन ऐसे भी कुमार हैं जो बाप के सिवाए न कम्पनी बनाने वाले हैं, न कम्पैनियन बनाने वाले हैं। सदा बाप की कम्पनी में रहने वाले कुमार सदा सुखी रहते हैं। तो आप लोग कौन-से कुमार हो? थोड़ी-थोड़ी कम्पनी चाहिए? सारा परिवार कम्पनी है? फिर तो ठीक लेकिन दो-तीन या एक कोई कम्पनी चाहिए, वह रांग है। तो आप सभी कौन हो? निर्विघ्न हो ना। नये कुमार भी कमाल करके दिखायेंगे। आखिर तो विश्व को अपने आगे, बाप के आगे झुकाना तो है ना! तो यह कुमारों की कमाल विश्व को झुकायेगी। विश्व आपके गुण-गायन करेगा कि कमाल है कुमारों की! कुमारी मैजारिटी फिर भी सेवा में कम्पनी में रहती हैं। लेकिन कुमारों को थोड़ा-सा कम्पनी का संकल्प आता है तो पाण्डव भवन बना कर सफल रहें, ऐसा कोई करके दिखाओ। लेकिन आज पाण्डव भवन बनाओ और पाण्डव एक ईस्ट में चला जाए, एक वेस्ट में चला जाए - ऐसा पाण्डव भवन नहीं बनाना।
बापदादा को कुमारों के ऊपर विशेष नाज़ है कि अकेले रहते भी पुरूषार्थ में चल रहे हैं। कुमार आपस में दो-तीन साथी बनकर क्यों नहीं चलते! साथी सिर्फ फीमेल ही नहीं चाहिए, दो कुमार भी रह सकते हैं। लेकिन एक-दो के निर्विघ्न साथी होकर रहें। अभी वह जलवा नहीं दिखाया है। समय पर एक-दो के सहयोगी बनें तो क्या नहीं हो सकता है? और बातें आ जाती हैं, इसलिए बापदादा पाण्डव भवन बनाने के लिए मना कर देता है। लेकिन सैम्पल कोई करके दिखाये। ऐसा नहीं पाण्डव भवन बना कर फिर जो निमित्त दादी-दीदियां हैं, उनका टाइम लेते रहो। निर्विघ्न हों, एक-दूसरे से योग्य कुमार हों फिर देखो कितना अच्छा नाम होता है। सुना कुमारों ने? योग्य कुमार बनो, निर्विघ्न कुमार बनो। सेवा के क्षेत्र पर खुद समस्या नहीं बनो लेकिन समस्या को मिटाने वाले बनो, फिर देखो कुमारों की बहुत वैल्यू होगी। क्योंकि कुमारों के बिना भी सेवा नहीं हो सकती है। तो कुमार क्या करेंगे? सब बोलो - ‘‘निर्विघ्न कुमार बनकर दिखायेंगे।'' (कुमारों ने बापदादा के सामने खड़े होकर वायदा किया) अभी सभी का फोटो निकल गया है। ऐसे नहीं समझना कि हम उठे तो किसी ने देखा नहीं। फोटो निकल गया। अच्छा है - ‘‘हिम्मते बच्चे मददे बाप' और सारा परिवार आपके साथ है। अच्छा!
चारों ओर के सर्व बच्चों को सदा बापदादा अपने स्नेह के, सहयोग के छत्रछाया सहित दिल से सेवा की मुबारक दे रहे हैं। देश-विदेश के सेवा के समाचार मिलते रहते हैं। हर एक बच्चा अपने दिल का सच्चा समाचार भी देते रहते हैं। खास विदेश के पत्र ज्यादा आते रहते हैं। तो सेवा के समाचार देने वाले बच्चों को मुबारक भी और साथ में सदा स्व-सेवा और विश्व-सेवा में ‘सफलता भव' का वरदान दे रहे हैं। स्व-पुरूषार्थ के समाचार देने वालों को बापदादा यही वरदान दे रहे हैं कि जैसे सच्ची दिल से बाप को राजी करते रहते हो, ऐसे सदा स्वयं को भी स्वयं के संस्कारों से, संगठन से राज़युक्त अर्थात् राजी रहो। एक-दो के संस्कारों के राज़ को भी जानना, परिस्थितियों को जानना - यही राज़युक्त स्थिति है। बाकि सच्चे दिल से अपना पोतामेल देना और स्नेह की रूह-रूहान के पत्र लिखना अर्थात् पिछला समाप्त करना और स्नेह की रूह-रूहान सदा समीपता का अनुभव कराती रहेगी। यह है पत्रों का रेसपाण्ड।
पत्र लिखने में विदेशी बहुत होशियार हैं। जल्दी-जल्दी लिखते हैं। भारतवासी भी लम्बे-लम्बे पत्र भेजना नहीं शुरू करना। बापदादा ने कह दिया है दो शब्दों का पत्र लिखो - ‘ओ.के.' (बिल्कुल ठीक हैं)। सर्विस समाचार है तो लिखो बाकी ‘ओ.के.'। इसमें सब-कुछ आ जाता है। यह पत्र पढ़ना भी सहज है तो लिखना भी सहज है। लेकिन अगर ‘ओ.के.' नहीं हो तो फिर ‘ओ.के.' नहीं लिखना। जब ओ.के. हो जाओ तब लिखना। पोस्ट पढ़ने में भी तो टाइम लगता है ना! कोई भी कार्य करो, सदा शार्ट भी हो और स्वीट भी हो। कोई भी पढ़े तो उसको खुशी तो हो। इसलिए राम कथाएं लिखकर नहीं भेजना। समझा! समाचार देना भी है लेकिन समाचार देना सीखना भी है। अच्छा!
सर्व शुभभावना और शुभकामना की सूक्ष्म सेवा के महत्त्व को जानने वाले महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
उड़ीसा-भोपाल ग्रुप:- सदा बाप के स्नेह में सदा समाये हुए रहते हो? जो समाया हुआ होता है उसको कोई सुध-बुध नहीं रहती। आप सभी को भी सब-कुछ भूल गया है ना! स्नेह में समाया हुआ सदा ही बाप का प्यारा और दुनिया से न्यारा रहता है। सभी लोग आपको कहते हैं ना कि आप तो न्यारे बन गये! न्यारा बनना ही बाप का प्यारा बनना है। सारे विश्व को बाप प्यारा क्यों लगता है? क्योंकि सबसे न्यारा है। सबसे न्यारा एक ही है, और कोई हो नहीं सकता। तो आप भी कौन हैं? न्यारे और प्यारे। आपका यह न्यारा जीवन सारे विश्व को प्रिय लगता हे। इसलिए ब्राह्मण जीवन को अलौकिक जीवन कहते हैं। अलौकिक का अर्थ क्या है? लोक जैसे नहीं। अलौकिक अर्थात् लोक जैसा जीवन नहीं है। आपकी दृष्टि, स्मृति, वृत्ति सब बदल गई। स्मृति वा वृत्ति में क्या रहता है? त्याग वृत्ति रहती है! आत्मा भाई-भाई की वृत्ति वा भाई-बहन की वृत्ति रहती है। हम सब आपस में एक परिवार के हैं - यह वृत्ति रहती है। और दृष्टि से भी आत्मा को ही देखते, शरीर को नहीं। तो सब बदल गया ना! कभी गलती से शरीर को तो नहीं देखते हो? अगर आत्मा नहीं होती तो शरीर कुछ कर सकता है? तो प्यारी चीज़ कौन-सी है? आत्मा है। जब आत्मा निकल जाती है तो शरीर को रखने के लिए भी तैयार नहीं होते। तो प्यारी चीज़ आत्मा है ना! इसलिए वृत्ति, दृष्टि, स्मृति सब बदल जाती है। तो यह चेक करो कि सदा अलौकिक जीवन में हूँ या साधारण जीवन में हूँ? क्योंकि नया जन्म हो गया! जन्म नया है तो सब-कुछ नया है और सभी को प्रिय भी नया लगता है, न कि पुराना। तो नई जीवन में नई बातें हैं। पुराना समाप्त हो गया। समाप्त हुआ है या आधे वहाँ जिन्दा हो, आधे यहाँ जिन्दा हो? आधा शुद्र तरफ, आधा ब्राह्मण तरफ - ऐसे तो नहीं है ना? श्रेष्ठ जीवन को भूल कर साधारण जीवन को कौन याद करेगा! कोई को राजाई मिल जाए और फिर भी गरीबी को याद करता रहे, तो उसे क्या कहेंगे? भाग्यवान कहेंगे? तो स्वप्न में भी पुराना जीवन याद नहीं आये। जब मर गये तो याद कहाँ से आयेगा! आधा तो नहीं मरे हो? पूरा मर गये होना! जो आधा मर जाता है, पूरा नहीं मरता, तो अच्छा नहीं लगता है ना! जब ऐसी बढ़िया जीवन मिल गई तो पुरानी जीवन याद आ नहीं सकती। तो ऐसे मरजीवा बने हो या आधा मरे हो? अच्छा!
सेवाधारियों ने सेवा करते वर्तमान और भविष्य - दोनों बना लिया। प्रत्यक्षफल भी मिला। मधुबन में रहने का भाग्य मिला - यह प्रत्यक्षफल मिला और भविष्य भी जमा कर लिया, तो डबल प्राप्ति हो गई ना! ऐसे ही सदा अपने भाग्य को ऊँचे-ते- ऊँचा बनाते जाओ। ऐसे नहीं - मधुबन से गये तो भाग्य कम हो गया! भाग्यविधाता के बच्चे हैं, भाग्य बढ़ता रहेगा। कुछ भी हो जाए, माया कितनी भी कोशिश करे लेकिन भाग्य नहीं गँवा सकते। वहाँ जाकर ऐसे पत्र नहीं लिखना कि हो गया, क्या करें.....। सदा अनुभव के पत्र लिखना, और कुछ नहीं लिखना। अभी तो विश्व की सर्व आत्माओं को जगाना है, श्रेष्ठ बनाना है तो स्वयं कैसे नीचे रहेंगे! ऊँचे रहेंगे तभी औरों को भी ऊँचा ले जायेंगे। सदा जैसे बाप वैसे बच्चे। समान बनना है और समीप रहना है। अच्छा!
01-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
स्वमान से ही सम्मान की प्राप्ति
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा चारों ओर के स्वमानधारी बच्चों को देख रहे हैं। स्वमानधारी बच्चों का ही सारा कल्प सम्मान होता है। एक जन्म स्वमानधारी, सारा कल्प सम्मानधारी। अपने राज्य में भी राज्य-अधिकारी बनने के कारण प्रजा द्वारा सम्मान प्राप्त होता है और आधा कल्प भक्तों द्वारा सम्मान प्राप्त करते हो। अब अपने लास्ट जन्म में भी भक्तों द्वारा देव आत्मा वा शक्ति रूप का सम्मान देख रहे हो और सुन रहे हो। कितना सिक व प्रेम से अभी भी सम्मान दे रहे हैं! इतना श्रेष्ठ भाग्य कैसे प्राप्त किया! मुख्य सिर्फ एक बात के त्याग का यह भाग्य है। कौन-सा त्याग किया? देह अभिमान का त्याग किया। क्योंकि देह अभिमान के त्याग बिना स्वमान में स्थित हो ही नहीं सकते। इस त्याग के रिटर्न में भाग्यविधाता भगवान ने यह भाग्य का वरदान दिया है। दूसरी बात - स्वयं बाप ने आप बच्चों को स्वमान दिया है। बाप ने बच्चों को चरणों के दास वा दासी से अपने सिर का ताज बना दिया। कितना बड़ा स्वमान दिया! ऐसे स्वमान प्राप्त करने वाले बच्चों का बाप भी सम्मान रखते हैं। बाप बच्चों को सदा अपने से भी आगे रखते हैं। सदा बच्चों के गुणों का गायन करते हैं। हर रोज सिक व प्रेम से यादप्यार देने के लिए परमधाम से साकार वतन में आते हैं। वहाँ से भेजते नहीं लेकिन आकर देते हैं। रोज यादप्यार मिलता है ना। इतना श्रेष्ठ सम्मान और कोई दे नहीं सकता। स्वयं बाप ने सम्मान दिया है, इसलिए अविनाशी सम्मान अधिकारी बने हो। ऐसे श्रेष्ठ भाग्य को अनुभव करते हो? स्वमान और सम्मान - दोनों का आपस में सम्बन्ध है।
स्वमानधारी अपने प्राप्त हुए स्वमान में रहते हुए स्वमान के सम्मान में भी रहता और दूसरों को भी सम्मान से देखता, बोलता वा सम्पर्क में आता है। स्वसम्मान का अर्थ ही है स्व को सम्मान देना। जैसे बाप विश्व की सर्व आत्माओं द्वारा सम्मान प्राप्त करने वाले हैं, हर एक सम्मान देते। लेकिन जितना ही बाप को सम्मान मिलता है उतना ही सब बच्चों को सम्मान देते हैं। जो देता नहीं है तो देवता बनता नहीं। अनेक जन्म देवता बनते हो और अनेक जन्म देवता रूप का ही पूजन होता है। एक जन्म ब्राह्मण बनते हो लेकिन अनेक जन्म देवता रूप में राज्य करते वा पूज्य बनते हो। देवता अर्थात् देने वाला। अगर इस जन्म में सम्मान नहीं दिया तो देवता कैसे बनेंगे, अनेक जन्मों में सम्मान कैसे प्राप्त करेंगे? फालो फादर? साकार स्वरूप ब्रह्मा बाप को देखा - सदा स्वयं को वर्ल्ड सर्वेन्ट (विश्व-सेवाधारी) कहलाया, बच्चों का सर्वेन्ट कहलाया और बच्चों को मालिक बनाया। सदा मालेकम् सलाम किया। सदा छोटे बच्चों को भी सम्मान का स्नेह दिया, होवनहार विश्व-कल्याणकारी रूप से देखा। कुमारियों वा कुमारों को, युवा स्थिति वालों को सदा विश्व की नामीग्रामी महान आत्माओं को चैलेंज करने वाले, असम्भव को सम्भव करने वाले, महात्माओं के सिर झुकाने वाले - ऐसे पवित्र आत्माओं को सम्मान से देखा। सदा अपने से भी कमाल करने वाले महान आत्मा समझ सम्मान दिया ना! ऐसे ही बुजुर्ग- आत्माओं को सदा अनुभवी आत्मा, हमजिन्स आत्मा को सम्मान से देखा। बांधेले या बांधेलियों को निरन्तर याद में नम्बरवन के सम्मान से देखा। इसलिए नम्बरवन अविनाशी सम्मान के अधिकारी बने। राज्य सम्मान में भी नम्बरवन - विश्व-महाराजन और पूज्य रूप में भी बाप की पूजा के बाद पहले पूज्य - लक्ष्मी-नारायण ही बनते हैं। तो राज्य सम्मान और पूज्य सम्मान - दोनों में नम्बरवन हो गये। क्योंकि सर्व को स्वमान, सम्मान दिया। ऐसे नहीं सोचा - सम्मान देवे तो सम्मान दूँ। सम्मान देने वाले निंदक को भी अपना मित्र समझते। सिर्फ सम्मान देने वाले को अपना नहीं समझते लेकिन गाली देने वाले को भी अपना समझते। क्योंकि सारी दुनिया ही अपना परिवार है। सर्व आत्माओं का तना आप ब्राह्मण हो। यह सारी शाखाएं अर्थात् भिन्न-भिन्न धर्म की आत्माएं भी मूल तना से निकली हैं। तो सभी अपने हुए ना। ऐसे स्वमानधारी सदा अपने को मास्टर रचयिता समझ सर्व को सम्मान-दाता बनते हैं। सदा अपने को आदि देव ब्रह्मा के आदि रत्न, आदि पार्टधारी आत्माएं समझते हो? इतना नशा है?
तो सभी ने सुना - बच्चों का सम्मान क्या है, बूढ़ों का सम्मान क्या है, युवा का क्या है? आदि पिता ब्रह्मा ने हमको ऐसे सम्मान से देखा। कितना नशा होगा! तो सदा यह स्मृति रखो कि आदि आत्मा ने जिस श्रेष्ठ दृष्टि से देखा, ऐसी ही श्रेष्ठ स्थिति की सृष्टि में रहेंगे। ऐसे अपने से वायदा करो। वायदे तो करते रहते हो ना! बोल से भी वायदा करते हो, मन से भी करते हो और लिखकर भी करते हो और फिर भूल भी जाते हो। इसलिए वायदे का फायदा नहीं उठा पाते। याद रखो तो फायदा भी उठाओ। सभी अपने को चेक करो - कितने बार वायदा किया है और निभाया कितने बार है? निभाना आता है वा सिर्फ वायदा करना आता है? वा बदलते रहते हो - कभी वायदा करने वाले, कभी निभाने वाले?
टीचर्स क्या समझती हैं? निभाने वालों की लिस्ट में हो ना। टीचर्स को बापदादा सदा साथी शिक्षक कहते हैं। तो साथी की विशेषता क्या होती है? साथी समान होता है। बाप कभी बदलता है क्या? टीचर्स भी वायदा और फायदा - दोनों का बैलेंस रखने वाली हैं। वायदे बहुत और फायदा कम हो - यह बैलेंस नहीं होता। जो दोनों का बैलेंस रखते हैं उसको वरदाता बाप द्वारा यह वरदान वा ब्लैसिंग मिलती है। वह सदा दृढ़ संकल्प से कर्म में सफलतामूर्त बनते हैं। साथी शिक्षक का यही विशेष कर्म है। संकल्प और कर्म समान हों। संकल्प श्रेष्ठ और कर्म साधारण हो जाए - इसको समानता नहीं कहेंगे। तो सदा टीचर्स अपने को ‘‘साथी शिक्षक'' अर्थात् ‘‘शिक्षक बाप समान'' - इस स्मृति में समर्थ बन चलो। बापदादा को टीचर्स की हिम्मत पर खुशी होती है। हिम्मत रख सेवा के निमित्त तो बन गये हैं ना। लेकिन अभी सदा यह स्लोगन याद रखो- ‘‘हिम्मते टीचर, समान शिक्षक बाप''। यह कभी नहीं भूलना। तो स्वत: ही समान बनने वाला लक्ष्य - ‘‘बापदादा'' आपके सामने रहेगा अर्थात् साथ रहेगा। अच्छा!
चारों ओर के स्वमानधारी सो सम्मानधारी बच्चों को बापदादा नयनों के सम्मुख देखते हुए सम्मान की दृष्टि से यादप्यार दे रहे हैं। सदा राज-सम्मान और पूज्य-सम्मान के समान साथी बच्चों को यादप्यार और नमस्ते।
बिहार ग्रुप:-
1. सभी अपने को स्वराज्य अधिकारी समझते हो? स्व का राज्य मिला है या मिलने वाला है? स्वराज्य अर्थात् जब चाहो, जैसे चाहो वैसे कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म करा सको। कर्मेन्द्रिय-जीत अर्थात् स्वराज्य अधिकारी। ऐसे अधिकारी बने हो या कभी-कभी कर्मेन्द्रियां आपको चलाती हैं? कभी मन आपको चलाता है या आप मन को चलाते हो? कभी मन व्यर्थ संकल्प करता है या नहीं करता है? अगर कभी-कभी करता है तो उस समय स्वराज्य अधिकारी कहेंगे? राज्य बहुत बड़ी सत्ता है। राज्य सत्ता चाहे जो कर सकती है, जैसे चलाने चाहे वैसे चला सकती है। यह मन-बुद्धिसंस्कार आत्मा की शक्तियाँ हैं। आत्मा इन तीनों की मालिक है। यदि कभी संस्कार अपने तरफ खींच लें तो मालिक कहेंगे? तो स्वराज्य-सत्ता अर्थात् कर्मेन्द्रिय-जीत। जो कर्मेन्द्रिय-जीत है वही विश्व की राज्य-सत्ता प्राप्त कर सकता है। स्वराज्य अधिकारी विश्व-राज्य अधिकारी बनता है। तो आप ब्राह्मण आत्माओं का ही स्लोगन है कि ‘स्वराज्य ब्राह्मण जीवन का जन्म-सिद्ध अधिकार है।' स्वराज्य अधिकारी की स्थिति सदा मास्टर सर्वशक्तिवान है, कोई भी शक्ति की कमी नहीं। स्वराज्य अधिकारी सदा धर्म अर्थात् धारणामूर्त भी होगा और राज्य अर्थात् शक्तिशाली भी होगा। अभी राज्य में हलचल क्यों है? क्योंकि धर्म-सत्ता अलग हो गई है और राज्यसत्ता अलग हो गई है। तो लंगड़ा हो गया ना! एक सत्ता हुई ना। इसलिए हलचल है। ऐसे आप में भी अगर धर्म और राज्य - दोनों सत्ता नहीं हैं तो विघ्न आयेंगे, हलचल में लायेंगे, युद्ध करनी पड़ेगी। और दोनों ही सत्ता हैं तो सदा ही बेपरवाह बादशाह रहेंगे, कोई विघ्न आ नहीं सकता। तो ऐसे बेपरवाह बादशाह बने हो? या थोड़ी-थोड़ी शरीर की, सम्बन्ध की .... परवाह रहती है? पांडवों को कमाने की परवाह रहती है। परिवार को चलाने की परवाह रहती है या बेपरवाह रहते हैं? चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है - ऐसे निमित्त बन कर करने वाले बेपरवाह बादशाह होते हैं। ‘‘मैं कर रहा हूँ'' - यह भान आया तो बेपरवाह नहीं रह सकते। लेकिन ‘‘बाप द्वारा निमित्त बना हुआ हूँ'' - यह स्मृति रहे तो बेफिकर वा निश्चिंत जीवन अनुभव करेंगे। कोई चिंता नहीं। कल क्या होगा - उसकी भी चिंता नहीं। कभी यह थोड़ी-सी चिंता रहती है कि कल क्या होगा, कैसे होगा? पता नहीं विनाश कब होगा, क्या होगा? बच्चों का क्या होगा? पोत्रों-धोत्रों का क्या होगा - यह चिंता रहती है? बेपरवाह बादशाह को सदा ही यह निश्चय रहता है कि - जो हो रहा है वह अच्छा, और जो होने वाला है वह और भी बहुत अच्छा होगा। क्योंकि कराने वाला अच्छे-ते-अच्छा है ना! इसको कहते हैं - निश्चयबुद्धि विजयी। ऐसे बने हो या सोच रहे हो? बनना तो है ही ना! इतनी बड़ी राजाई मिल जाए तो सोचने की क्या बात है? अपना अधिकार कोई छोड़ता है? झोंपड़ी वाले भी होंगे, थोड़ी-सी मिलकियत भी होगी - तो भी नहीं छोड़ेंगे। यह तो कितनी बड़ी प्राप्ति है! तो मेरा अधिकार है - इस स्मृति से सदा अधिकारी बने उड़ते चलो। यही वरदान याद रखना कि - ‘‘स्वराज्य हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है।'' मेहनत करके पाने वाले नहीं, अधिकार है। अच्छा! बिहार माना सदा बहार रहने वाले। पतझड़ में नहीं जाना। कभी आँधी-तूफान न आये, सदा बहार। अच्छा!
2. अपने को रूहानी दृष्टि से सृष्टि को बदलने वाला अनुभव करते हो? सुनते थे कि दृष्टि से सृष्टि बदल जाती है लेकिन अभी अनुभवी बन गये। रूहानी दृष्टि से सृष्टि बदल गई ना! अभी आपके लिए बाप संसार है, तो सृष्टि बदल गई। पहले की सृष्टि अर्थात् संसार और अभी के संसार में फर्क हो गया ना! पहले संसार में बुद्धि भटकती थी और अभी बाप ही संसार हो गया। तो बुद्धि का भटकना बंद हो गया, एकाग्र हो गई। क्योंकि पहले की जीवन में, कभी देह के सम्बन्ध में, कभी देह के पदार्थ में - अनेकों में बुद्धि जाती थी। अभी यह सब बदल गया। अभी देह याद रहती या देही? अगर देह में कभी बुद्धि जाती है तो रांग समझते हो ना! फिर बदल लेते हो, देह के बजाय अपने को देही समझने का अभ्यास करते हो। तो संसार बदल गया ना! स्वयं भी बदल गये। बाप ही संसार है या अभी संसार में कुछ रहा हुआ है? विनाशी धन या विनाशी सम्बन्ध के तरफ बुद्धि तो नहीं जाती? अभी मेरा रहा ही नहीं। ‘‘मेरे पास बहुत धन है'' - यह संकल्प या स्वप्न में भी नहीं होगा क्योंकि सब बाप के हवाले कर दिया। मेरे को तेरा बना लिया ना! या मेरा, मेरा ही है और बाप का भी मेरा है। ऐसे तो नहीं समझते? यह विनाशी तन-धन, पुराना मन, मेरा नहीं, बाप को दे दिया। पहला-पहला परिवर्तन होने का संकल्प ही यह किया कि सब कुछ तेरा और तेरा कहने से ही फायदा है। इसमें बाप का फायदा नहीं है, आपका फायदा है। क्योंकि मेरा कहने से फंसते हो, तेरा कहने से न्यारे हो जाते हो। मेरा कहने से बोझ वाले बन जाते हो और तेरा कहने से डबल लाइट ‘‘ट्रस्टी'' बन जाते हो। तो क्या अच्छा है - हल्का बनना अच्छा है या भारी बनना अच्छा है? आजकल के जमाने में शरीर से भी कोई भारी होता तो अच्छा नहीं लगता। सभी अपने को हल्का करने का प्रयत्न करते हैं। क्योंकि भारी होना माना नुकसान है और हल्का होने से फायदा है। ऐसे ही मेरा-मेरा कहने से बुद्धि पर बोझ पड़ जाता है, तेरा-तेरा कहने से बुद्धि हल्की बन जाती है। जब तक हल्के नहीं बने तब तक ऊँची स्थिति तक पहुँच नहीं सकते। उड़ती कला ही आनन्द की अनुभूति कराने वाली है। हल्का रहने में ही मजा है। अच्छा!
जब बाप मिला तो माया उसके आगे क्या है? माया है रूलाने वाली और बाप है वर्सा देने वाला, प्राप्ति कराने वाला। सारे कल्प में ऐसी प्राप्ति कराने वाला बाप मिल नहीं सकता! स्वर्ग में भी नहीं मिलेगा। तो एक सेकण्ड भी भूलना नहीं चाहिए। हद की प्राप्ति कराने वाला भी नहीं भूलता है तो बेहद की प्राप्ति कराने वाला भूल कैसे सकता! तो सदा यही याद रखना कि ट्रस्टी हैं। कभी भी अपने ऊपर बोझ नहीं रखना। इससे सदा हँसते, गाते, उड़ते रहेंगे। जीवन में और क्या चाहिए! हँसना, गाना और उड़ना। जब प्राप्ति होगी तब तो हँसेंगे ना। नहीं तो रोयेंगे। तो यह वरदान स्मृति में रखना कि हम हँसते-गाते और उड़ने वाले हैं, सदा ही बाप के संसार में रहने वाले हैं। और कुछ है ही नहीं जहाँ बुद्धि जाए। स्वप्न में भी रोना नहीं। माया रूलाए तो भी नहीं रोना। मन का भी रोना होता है, सिर्फ आँखों का रोना ही नहीं होता। तो माया रूलाती है, बाप हँसाते हैं। सदा बिहार माना खुश रहने वाले - खुशबहार। और बंगाल माना सदा मीठा रहने वाले। बंगाल में मिठाइयाँ अच्छी होती हैं ना, बहुत वैरायटी होती है। तो जहाँ मधुरता है वहाँ ही पवित्रता है। बिना पवित्रता के मधुरता आ नहीं सकती। तो सदा मधुर रहने वाले और सदा खुशबहार रहने वाले। अच्छा! टीचर्स भी खुशबहार को देख करके सदा-बहार ही रहती हैं ना। अच्छा!
दिल्ली जोन:- दिल्ली को बापदादा ‘‘दिल'' कहते हैं। नाम है दिल्ली अर्थात् दिल ली। बाप ने आकर दिल ली और आपने आकर क्या किया? बाप को दिल में बिठा दिया। दिल में और तो कोई नहीं है ना! न व्यक्ति, न वस्तु। कोई वस्तु भी आकर्षित करती है तो वह भी दिल में बिठाया ना! वस्तु के पीछे भी अगर दिल लग गई तो बाप भूल जायेगा ना! बाप को भूला तो माया का लगा बम गोला। बम्ब (ँदस्ं गोला) लगने से कितना नुकसान हो जाता है! तो यह भी बम्ब लगता है तो बहुत नुकसान कर देता है। दिल है ही बाप के लिए तो दूसरा कैसे आ सकता है? जो आसन जिसका होगा, वही बैठेगा ना! अभी प्राइम मिनिस्टर की सीट पर जो फिक्स होगा वही बैठेगा। तो दिल है दिलाराम के लिए। एक ही काम मिला है - बाप को याद करो, बस। जिसके दिल में बाप है वह सदा ही ‘‘वाह-वाह'' के गीत गाता है और बाप नहीं तो ‘‘हायहा य'' के गीत गाता है। दुनिया वाले ‘‘हाय-हाय'' करते और आप ‘‘वाह-वाह'' करते। स्वयं भी ‘‘वाह-वाह'' हो गये, बाप भी ‘‘वाह-वाह'' और ड्रामा में जो कुछ चल रहा है वह भी ‘‘वाह-वाह''। तो सदा ‘‘वाह-वाह'' के गीत गाने वाले हो या कभी ‘‘हाय-हाय'' भी कर देते हो! मन से भी, स्वप्न में भी कभी ‘‘हाय'' नहीं निकल सकती। ‘‘हाय'' क्या हो गया! यह कभी कहते हो? जो हुआ वह भी वाह, जो हो रहा है वह भी ‘‘वाह'', जो होना है वह भी ‘‘वाह।'' तीनों ही काल - ‘वाह-वाह' है। एक काल भी खराब नहीं हो सकता। क्योंकि बाप भी अच्छे-ते- अच्छा, संगमयुग भी सबसे अच्छा और जो प्राप्ति है वह भी अच्छेते- अच्छी और भविष्य जो प्राप्त होना है वह भी अच्छे-ते-अच्छा। सब अच्छा होना है तो ‘वाह-वाह' के गीत गाते रहो। जहाँ सब अच्छा लगेगा वहाँ इच्छा नहीं होगी। अगर इच्छा होती है तो अच्छा नहीं होता और अच्छा होता है तो इच्छा नहीं होती। क्योंकि अच्छा तब कहेंगे जब सब प्राप्त हो। जब अप्राप्ति होती है तब इच्छा होती है। तो कोई अप्राप्ति है? माताओं को गहने चाहिए? सोना चाहिए? पांडवों को लाख वा पद्म चाहिए? करोड़ चाहिए? नहीं चाहिए? क्योंकि अब के करोड़पति बनना अर्थात् सदा के करोड़ गँवाना। अभी क्या करेंगे? यह झूठी माया, झूठी काया - झूठा क्या करेंगे! शरीर निर्वाह के लिए, दाल-रोटी के लिए तो बहुत मिल रहा है और मिलता रहेगा। बाकि क्या चाहिए? लॉटरी वगैरह चाहिए? कई बच्चे समझते हैं लॉटरी आयेगी तो यज्ञ में लगा देंगे। लेकिन ऐसा पैसा यज्ञ में नहीं लगता। होती अपनी इच्छा है लेकिन कहते हैं लॉटरी आयेगी तो सेवा करेंगे! अभी तो सच्ची कमाई जमा कर रहे हो, इसलिए - ‘इच्छा मात्रम् अविद्या।' क्योंकि इच्छा में अगर गये तो इच्छा के पीछे भागना ऐसे ही है जैसे मृगतृष्णा। तो इच्छा समाप्त हो गई, अच्छे बन गये! जब रचयिता ही आपका हो गया तो रचना क्या करेंगे! बेहद के आगे हद क्या लगती है? कुछ भी नहीं है। हद में फँस गये तो बेहद गया।
दिल्ली वालों को तो नशा चाहिए - दिल्ली में जमुना के किनारे महल बनेंगे! तो सिर्फ महल देखने वाले बनेंगे या महल में रहने वाले? सभी राज्य करेंगे या देखेंगे? अच्छा! बाप मिला सब-कुछ मिला। याद और सेवा के सिवाय और कोई कार्य है ही नहीं। अगर दफ्तर में जाते हो, बिजनेस करते हो - तो भी सेवा के लिए। इस लक्ष्य से कहीं भी जायेंगे तो सेवा होगी। अगर यह समझ कर जायेंगे कि ड्यूटी बजाने जा रहा हूँ, जाना ही है - तो सेवा नहीं होगी। काम करके लौट आयेंगे लेकिन सेवा नहीं कर सकेंगे। सेवा के निमित्त यह कर रहा हूँ - तो सेवा आपके पास स्वत: ही आयेगी और जितनी सेवा करेंगे उतनी और ‘खुशी' बढ़ती जायेगी। भविष्य तो है ही लेकिन प्रत्यक्षफल ''खुशी’’ मिलती है। तो फल खाओ, मेहनत नहीं करो। सेवा याद नहीं रहेगी तो मेहनत करनी पड़ेगी। खाली बुद्धि रहना अर्थात् माया का आह्वान करना और बुद्धि को याद और सेवा में बिजी रखा तो सदा ही फल खाते रहेंगे। अच्छा!
दिल्ली वालों को बापदादा विशेष सहयोग देते हैं, क्यों? क्योंकि समय पर सहयोगी पहले दिल्ली निवासी बने हैं। जब यज्ञ में आवश्यक्ता थी तब सहयोगी बनें। तो जो समय पर सहयोगी बनता है उसको ऑटोमेटिकली विशेष सहयोग मिलता है। दिल्ली निवासियों को यह विशेष लिफ्ट है। स्थापना में सहयोग के निमित्त दिल्ली बनी है, उसमें भी विशेष मातायें। तो बापदादा किसका रखता नहीं है, अभी ही देता है। एक का पद्मगुणा करके दे देता है। तो एक्स्ट्रा लिफ्ट हुई ना। जब स्थापना में पहला नम्बर बने तो राज्य में भी पहला नम्बर बनेंगे। समझा? अच्छा!
05-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा प्रसन्न कैसे रहें?
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा चारों ओर के बच्चों को देख रहे थे। क्या देखा? हर एक बच्चा स्वयं हर समय कितना प्रसन्न रहता है, साथ-साथ दूसरों को स्वयं द्वारा कितना प्रसन्न करते हैं। क्योंकि परमात्म सर्व-प्राप्तियों के प्रत्यक्षस्वरूप में प्रसन्नता ही चेहरे पर दिखाई देती है। ‘‘प्रसन्नता'' ब्राह्मण जीवन का विशेष आधार है। अल्पकाल की प्रसन्नता और सदाकाल की सम्पन्नता की प्रसन्नता - इसमें रातदिन का अंतर है। अल्पकाल की प्रसन्नता, अल्पकाल के प्राप्ति वाले के चेहरे पर थोड़े समय के लिए दिखाई जरूर देती है लेकिन रूहानी प्रसन्नता स्वयं को तो प्रसन्न करती ही है परन्तु रूहानी प्रसन्नता के वायब्रेशन अन्य आत्माओं तक भी पहुँचते हैं, अन्य आत्माएं भी शान्ति और शक्ति की अनुभूति करती हैं। जैसे फलदायक वृक्ष अपने शीतलता की छाया में थोड़े समय के लिए मानव को शीतलता का अनुभव कराता है और मानव प्रसन्न हो जाता है। ऐसे परमात्म-प्राप्तियों के फल सम्पन्न रूहानी प्रसन्नता वाली आत्मा दूसरों को भी अपने प्राप्तियों की छाया में तन-मन की शान्ति और शक्ति की अनुभूति कराती है। प्रसन्नता के वायब्रेशन सूर्य की किरणों समान वायुमण्डल को, व्यक्ति को और सब बातें भुलाए सच्चे रूहानी शान्ति की, खुशी की अनुभूति में बदल देते हैं। वर्तमान समय की अज्ञानी आत्माएं अपने जीवन में बहुत खर्चा करके भी प्रसन्नता में रहना चाहती हैं। आप लोगों ने क्या खर्चा किया? बिना पैसा खर्च करते भी सदा प्रसन्न रहते हो ना! वा औरों की मदद से प्रसन्न रहते हो? बापदादा बच्चों का चार्ट चेक कर रहे थे। क्या देखा? एक हैं सदा प्रसन्न रहने वाले और दूसरे हैं प्रसन्न रहने वाले। ‘सदा' शब्द नहीं है।
प्रसन्नता भी तीन प्रकार की देखी - (1) स्वयं से प्रसन्न, (2) दूसरों द्वारा प्रसन्न, (3) सेवा द्वारा प्रसन्न। अगर तीनों में प्रसन्न हैं तो बापदादा को स्वत: ही प्रसन्न किया है और जिस आत्मा के ऊपर बाप प्रसन्न है वह तो सदा सफलतामूर्त हैं ही हैं।
बापदादा ने देखा कई बच्चे अपने से भी अप्रसन्न रहते हैं। छोटी-सी बात के कारण अप्रसन्न रहते हैं। पहला-पहला पाठ ‘मैं कौन' इसको जानते हुए भी भूल जाते हैं। जो बाप ने बनाया है, दिया है - उसको भूल जाते हैं। बाप ने हर एक बच्चे को फुल वर्से का अधिकारी बनाया है। किसको पूरा, किसको आधा वर्सा नहीं दिया है। किसको आधा वा चौथा मिला है क्या? आधा मिला है या आधा लिया है? बाप ने तो सभी को मास्टर सर्वशक्तिवान का वरदान वा वर्सा दिया। ऐसे नहीं कि कोई शक्तियाँ बच्चों को दीं और कोई नहीं दी। अपने लिए नहीं रखी। सर्वगुण सम्पन्न बनाया है, सर्व प्राप्ति स्वरूप बनाया है। लेकिन बाप द्वारा जो प्राप्तियां हुई हैं उसको स्वयं में समा नहीं सकते। जैसे स्थूल धन वा साधन प्राप्त होते भी खर्च करना न आये वा साधनों को यूज करना न आये तो प्राप्ति होते भी उससे वंचित रह जाते हैं। ऐसे सब प्राप्तियां वा खज़ाने सबके पास हैं लेकिन कार्य में लगाने की विधि नहीं आती है और समय पर यूज करना नहीं आता है। फिर कहते - मैं समझती थी कि यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए लेकिन उस समय भूल गया। अभी समझती हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए। उस समय एक सेकण्ड भी निकल गया तो सफलता की मंजल पर पहुँच नहीं सकते क्योंकि समय की गाड़ी निकल गई। चाहे एक सेकण्ड लेट किया चाहे एक घण्टा लेट किया - समय निकल तो गया ना। और जब समय की गाड़ी निकल जाती है तो फिर स्वयं से दिलशिकस्त हो जाते हैं और अप्रसन्नता के संस्कार इमर्ज होते हैं - मेरा भाग्य ही ऐसा है, मेरा ड्रामा में पार्ट ही ऐसा है।
पहले भी सुनाया था - स्व से अप्रसन्न रहने के मुख्य दो कारण होते हैं दिलशिकस्त होना और दूसरा कारण होता है दूसरों की विशेषता को वा भाग्य को वा पार्ट को देख ईर्ष्या उत्पन्न होना। हिम्मत कम होती है, ईर्ष्या ज्यादा होती है। दिलशिकस्त भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता और ईर्ष्या वाला भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता। क्योंकि दोनों हिसाब से ऐसी आत्माओं की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती और इच्छाएं - ‘अच्छा' बनने नहीं देती। इसलिए प्रसन्न नहीं रहते। प्रसन्न रहने के लिए सदा एक बात बुद्धि में रखो कि ड्रामा के नियम प्रमाण संगमयुग पर हर एक ब्राह्मण आत्मा को कोई-नकोई विशेषता मिली हुई है। चाहे माला का लास्ट 16,000 वाला दाना हो - उसको भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। उनसे भी आगे चलो - नौ लाख जो गाये हुए हैं उन्हें में भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। अपनी विशेषता को पहले पहचानो। अभी तो नौ लाख तक पहुँचे ही नहीं हैं तो ब्राह्मण जन्म के भाग्य की विशेषता को पहचानो। उसको पहचानो और कार्य में लगाओ। सिर्फ दूसरे की विशेषता को देख करके दिलशिकस्त वा ईर्ष्या में नहीं आओ। लेकिन अपनी विशेषता को कार्य में लगाने से एक विशेषता फिर और विशेषताओं को लायेगी। एक के आगे बिंदी लगती जायेगी तो कितने हो जायेंगे? एक को एक बिंदी लगाओ तो 10 बन जाता और दूसरी बिंदी लगाओ तो 100 बन जायेगा। तीसरी लगाओ तो ....., यह हिसाब तो आता है ना। कार्य में लगाना अर्थात् बढ़ना। दूसरों को नहीं देखो। अपनी विशेषता को कार्य में लगाओ।
जैसे देखो, बापदादा सदा ‘‘भोली-भण्डारी'' (भोली दादी) का मिसाल देता है। महारथियों का नाम कभी आयेगा लेकिन इनका नाम आता है। जो विशेषता थी वह कार्य में लगाई। चाहे भण्डारा ही सम्भालती है लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से विशेष आत्माओं के मिसल गाई जाती है। सभी मधुबन का वर्णन करते तो दादियों की भी बातें सुनायेंगे तो ‘भोली' की भी सुनायेंगे। भाषण तो नहीं करती लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से स्वयं भी विशेष बन गई। दूसरे भी विशेष नजर से देखते। तो प्रसन्न रहने के लिए क्या करेंगे? - विशेषता को कार्य में लगाओ। तो वृद्धि हो जायेगी और जब सर्व आ गया तो सम्पन्न हो जायेंगे और प्रसन्नता का आधार है -’सम्पन्नता'। जो स्व से प्रसन्न रहते वह औरों से भी प्रसन्न रहेंगे, सेवा से भी प्रसन्न रहेंगे। जो भी सेवा मिलेगी उसमें औरों को प्रसन्न कर सेवा में नम्बर आगे ले लेंगे। सबसे बड़े-ते-बड़ी सेवा आपकी प्रसन्नमूर्त करेगी। तो सुना, क्या चार्ट देखा! अच्छा!
टीचर्स को आगे बैठने का भाग्य मिला है। क्योंकि पण्डा बनकर आती हैं तो मेहनत बहुत करती हैं। एक को सुखधाम से बुलायेंगे तो दूसरे को विशाल भवन से बुलायेंगे। एक्सरसाइज अच्छी हो जाती है। सेंटर पर तो पैदल करती नहीं हो। जब शुरू में सेवा आरम्भ की तो पैदल जाती थी ना। आपकी बड़ी दादियां भी पैदल जाती थीं। सामान का थैला हाथ में उठाया और पैदल चली। आजकल तो आप सब बने - बनाये पर आये हो। तो लक्की हो ना। बने-बनाये सेंटर मिल गये हैं। अपने मकान हो गये हैं। पहले तो जमुनाघाट पर रही थीं। एक ही कमरा - रात को सोने का, दिन को सेवा का होता था। लेकिन खुशी- खुशी से जो त्याग किया उसी के भाग्य का फल अभी खा रही हो। आप फल खाने के टाइम पर आई हो। बोया इन्होंने, खा आप रही हो। फल खाना तो बहुत सहज है ना। अब ऐसे फल स्वरूप क्वालिटी निकालो। समझा? क्वांटिटी (संख्या) तो है ही और यह भी चाहिए। नौ लाख तक जाना है तो क्वांटिटी और क्वालिटी - दोनों चाहिए। लेकिन 16,000 की पक्की माला तो तैयार करो। अभी क्वालिटी की सेवा पर विशेष अण्डरलाइन करो।
हर ग्रुप में टीचर्स भी आती, कुमारियां भी आती हैं। लेकिन निकलती नहीं हैं। मधुबन अच्छा लगता है, बाप से प्यार भी है। लेकिन समर्पण होना सोचना है। जो स्वयं ऑफर करता है वह निर्विघ्न चलता है और जो कहने से चलता वह रूकता है फिर चलता हैं। वह बार-बार आपको ही कहेंगे - हमने तो पहले ही कहा था सरेण्डर नहीं होना चाहिए। कोई-कोई सोचती हैं - इससे तो बाहर रहकर सेवा करें तो अच्छा है। लेकिन बाहर रह कर सेवा करना और त्याग करके सेवा करना इसमें अंतर जरूर है। जो समर्पण के महत्त्व को जानते हैं वह सदा ही अपने को कई बातों से किनारे हो आराम से आ गये हैं, कई मेहनत से छूट गये। तो टीचर्स अपने महत्त्व को अच्छी रीति जानती हो ना? नौकरी और यह सेवा - दोनों काम करने वाले अच्छे वा एक काम करने वाले अच्छे? उन्हों को फिर भी डबल पार्ट बजाना पड़ता है। भल निर्बन्धन हैं फिर भी डबल पार्ट तो है ना। आपका तो एक ही पार्ट है। प्रवृत्ति वालों को तीन पार्ट बजाना पड़ता - एक पढ़ाई का, दूसरा सेवा का और साथ-साथ प्रवृत्ति को पालने का। आप तो सब बातों से छूट गई। अच्छा!
सर्व सदा प्रसन्नता की विशेषता सम्पन्न श्रेष्ठ आत्माएं, सदा अपनी विशेषता को पहचान कार्य में लगाने वाली सेन्सीबुल और इंसेन्सफुल आत्माओं को, सदा प्रसन्न रहने वाले, प्रसन्न करने की श्रेष्ठता वाली महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
आगरा – राजस्थान:-
१. सदा अपने को अकालतख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? आत्मा अकाल है तो उसका तख्त भी अकालतख्त हो गया ना! इस तख्त पर बैठकर आत्मा कितना कार्य करती है। ‘तख्तनशीन आत्मा हूँ' - इस स्मृति से स्वराज्य की स्मृति स्वत: आती है। राजा भी जब तख्त पर बैठता है तो राजाई नशा, राजाई खुशी स्वत: होती है। तख्तनशीन माना स्वराज्य अधिकारी राजा हूँ - इस स्मृति से सभी कर्मेन्द्रियाँ स्वत: ही ऑर्डर पर चलेंगी। जो अकाल-तख्त-नशीन समझ कर चलते हैं उनके लिए बाप का भी दिलतख्त है। क्योंकि आत्मा समझने से बाप ही याद आता है। फिर न देह है, न देह के सम्बन्ध हैं, न पदार्थ हैं, एक बाप ही संसार है। इसलिए अकाल-तख्त-नशीन बाप के दिल-तख्त-नशीन भी बनते हैं। बाप की दिल में ऐसे बच्चे ही रहते हैं जो ‘एक बाप दूसरा न कोई' हैं। तो डबल तख्त हो गया। जो सिकीलधे बच्चे होते हैं, प्यारे होते हैं उन्हें सदा गोदी में बिठायेंगे, ऊपर बिठायेंगे नीचे नहीं। तो बाप भी कहते हैं तख्त पर बैठो, नीचे नहीं आओ। जिसको तख्त मिलता है वह दूसरी जगह बैठेगा क्या? तो अकालतख्त वा दिलतख्त को भूल देह की धरनी में, मिट्टी में नहीं आओ। देह को मिट्टी कहते हो ना। मिट्टी, मिट्टी में मिल जायेगी - ऐसे कहते हैं ना! तो देह में आना अर्थात् मिट्टी में आना। जो रॉयल बच्चे होते हैं वह कभी मिट्टी में नहीं खेलते। परमात्म-बच्चे तो सबसे रॉयल हुए। तो तख्त पर बैठना अच्छा लगता है या थोड़ी-थोड़ी दिल होती है - मिट्टी में भी देख लें। कई बच्चों की आदत मिट्टी खाने की वा मिट्टी में खेलने की होती है। तो ऐसे तो नहीं है ना! 63 जन्म मिट्टी से खेला। अब बाप तख्तनशीन बना रहे हैं, तो मिट्टी से कैसे खेलेंगे, जो मिट्टी में खेलता है वह मैला होता है। तो आप भी कितने मैले हो गये। अब बाप ने स्वच्छ बना दिया। सदा इसी स्मृति से समर्थ बनो। शक्तिशाली कभी कमज़ोर नहीं होते। कमज़ोर होना अर्थात् माया की बीमारी आना। अभी तो सदा तन्दुरूस्त हो गये। आत्मा शक्तिशाली हो गई। शरीर का हिसाब-किताब अलग चीज़ है लेकिन मन शक्तिशाली हो गया ना। शरीर कमज़ोर है, चलता नहीं है, वह तो अंतिम है, वह तो होगा ही लेकिन आत्मा पावरफुल हो। शरीर के साथ आत्मा कमज़ोर न हो। तो सदा याद रखना कि डबल तख्तनशीन सो डबल ताजधारी बनने वाले हैं। अच्छा!
२. सभी संतुष्ट हो ना! संतुष्ट अर्थात् प्रसन्न। सदा प्रसन्न रहते हो या कभी-कभी रहते हो? कभी अप्रसन्न, कभी प्रसन्न - ऐसे तो नहीं, कभी किसी बात से अप्रसन्न नहीं होते हो? आज यह कर लिया, आज यह हो गया, कल वह हो गया - ऐसे पत्र तो नहीं लिखते हो? सदा प्रसन्नचित रहने वाले अपने रूहानी वायब्रेशन से औरों को भी प्रसन्न करते हैं। ऐसे नहीं - मैं तो प्रसन्न रहता ही हूँ। लेकिन प्रसन्नता की शक्ति फैलेगी जरूर। तो और किसको भी प्रसन्न कर सको - ऐसे हो या अपने तक ही प्रसन्न ठीक हो? दूसरों को भी करेंगे, फिर तो अभी कोई पत्र नहीं आयेगा। अगर कोई अप्रसन्नता का पत्र आये तो वापस उसको ही भेजें ना! यह टाइम और यह तारीख याद रखना। हाँ, यह पत्र लिखो - ओ.के. हूँ और सब मेरे से भी ओ.के. हैं। यह दो लाइन लिखो, बस। मैं भी ओ.के. और दूसरे भी मेरे से ओ.के. हैं। इतना खर्च क्यों करते हो, यह तो दो लाइन कॉर्ड पर ही आ सकती है। और बार-बार भी नहीं लिखो। नहीं तो रोज कॉर्ड भेज देते हैं, रोज नहीं भेजना। मास में दो बार, 15 दिन में एक ‘‘ओ.के.'' का कॉर्ड लिखो, और कथाएं नहीं लिखना। अपनी प्रसन्नता से औरों को भी प्रसन्न बनाना। अच्छा!
गुजरात ग्रुप:- सदा अपने को बाप के सिकीलधे समझते हो? सिकीलधे अर्थात् बड़े सिक से बाप ने हमें ढूँढ़ा है। बाप ने बड़े सिक व प्रेम से आपको ढूँढ़ा है। आपने ढूँढ़ा लेकिन मिला नहीं। परिचय ही नहीं था तो मिले कैसे? लेकिन बाप ने आपको ढूँढ़ा इसलिए कहते हैं - ‘सिकीलधे'। तो जिसको बाप ढूæँढ़े वह कितने भाग्यवान होंगे! दुनिया वाले बाप को ढूँढ़ रहे हैं और आप मिलन मना रहे हो। कितने थोड़े हो, बहुतों का पार्ट है ही नहीं। थोड़ों का पार्ट है, इसलिए गाया हुआ है - कोटों में कोई। अक्षोणी सेना नहीं गाई हुई है, कोटों में कोई गाया हुआ है। तो यह खुशी वा स्मृति सदा इमर्ज रहे। हर कदम में खुशी अनुभव हो। अल्पकाल की प्राप्ति वालों के चेहरे पर वह प्राप्ति की रेखा चमकती है। आपको तो सदाकाल की प्राप्ति है। तो चेहरा सदा खुशी में दिखाई दे, उदास न हो। जो माया का दास बनता है वह उदास होता है। आप कौन हो? माया के दास हो या मालिक हो? माया को अपनी अथार्टी से भगाने वाले हो, ऐसी आत्मा कभी उदास नहीं हो सकती। कोई फिक्र ही नहीं है ना। कोई फिक्र या चिंता होती है तो उदास होते हैं। आपको कौन-सी चिंता है? पांडवों को चिंता है? कमाने की, परिवार को पालने के लिए पैसे की चिंता है? लेकिन चिंता से पैसा कभी नहीं आयेगा। मेहनत करो, कमाई करो। लेकिन चिंता से कभी कमाई में सफल नहीं होंगे। चिंता को छोड़कर कर्मयोगी बनकर काम करो, तो जहाँ योग है वहाँ कार्य कुशल होगा और सफलता होगी। चिंता से कभी पैसा नहीं आयेगा। अगर चिंता से कमाया हुआ पैसा आयेगा भी तो चिंता ही पैदा करेगा। जैसा बीज होगा वैसा ही फल निकलेगा और खुशी-खुशी से काम करके कमाई करेंगे तो वह पैसा भी खुशी दिलायेगा। वह दो रूपया भी दो हजार का काम करेगा और वह दो लाख दो रूपये का काम करेगा। इतना फर्क हैं, इसलिए चिंता क्या करेंगे! सच्ची दिल वालों को सच की कमाई मिलती है। बाप भी दाल-रोटी जरूर देते हैं। सुस्त रहने वाले को नहीं देंगे। काम तो करना ही पड़ेगा क्योंकि पिछले हिसाब भी तो चुक्तू करने हैं। लेकिन चिंता से नहीं, खुशी से। कोई भी काम करो - योगयुक्त होकर करो। योगी का कार्य सहज और सफल होता है, ऐसा अनुभव है ना! याद में कोई भी काम करते तो थकावट नहीं होती। खुशी-खुशी से करते तो थकते नहीं। मजबूर होकर करते तो थक जाते हैं। बाप ने डॉयरेक्शन दिया है - योग से हिसाब-किताब चुक्तू करो। तो बाप के डॉयरेक्शन पर खुशी-खुशी से वह काम भी करो, मजबूरी से नहीं। यह तो मालूम है कि वह बंधन है लेकिन घड़ी-घड़ी कहने से और भी बड़ा कड़ा बंधन हो जायेगा।
मातायें बहुत करके कहती हैं - कब तक हमारा बंधन रहेगा? यह भी क्या बंधन बन गया? यह तो मालूम है कि यह बंधन है लेकिन अब यह सोचो कि योग से बंधनमुक्त कैसे बनें - यह भी ज्यादा नहीं सोचो। सोचने से कुछ नहीं होता है, करने से होता है। सोचते-सोचते मानो उसी समय अंतिम घड़ी आ जाए तो क्या होगा? बंधन है, बंधन है यही सोचते जायेंगे तो कहां जायेंगे? पिंजड़े में ही जायेंगे! अंत में अगर बंधन याद रहा तो गर्भ-जेल में जाना पड़ेगा और खुशी-खुशी से जायेंगे तो एडवांसपार्टी में सेवा के लिए जायेंगे, इसलिए कभी भी अपने से तंग नहीं हो। खुश रहो। क्या करें, कैसे करें .... यह गीत नहीं गाओ। खुशी के गीत गाओ।
प्रवृत्ति वाले थकते तो नहीं हो ना! सेवा समझ कर करो, बंधन समझ कर नहीं करो। सेंटर पर भी आ जायेंगे तो वहाँ भी सेवा के बिना तो नहीं रहेंगे। तो वह भी सेवा समझ कर करो। अपने मन से नहीं बंधो लेकिन डॉयरेक्शन से पिछला हिसाब-किताब चुक्तू कर रहे हैं। मजबूरी से नहीं, प्यार से करो। फँसो भी नहीं और मजबूर भी न हो। हंस-हंस के काम करो, जैसे खेल कर रहे हैं। बिजनेस करो, दफ्तर का काम करो लेकिन खेल-खेल में करो। तो खेल में मजा आता है ना। खेल में थकते नहीं हैं। तो यह भी एक खेल कर रहे हैं - ऐसी अवस्था सदा रहे। सदा यही याद रखना कि हमें स्वयं बाप ने कोटों में से कोई को चुना है। बाप ने ढूँढ़ा और अपना बना लिया - इसी नशे वा खुशी में हर कार्य करते सफलतामूर्त बनते चलो। यही स्मृति वरदान रूप बन जायेगी, शक्तिशाली बना देगी।
सदा अतीन्द्रिय सुख में रहते हो? अतीन्द्रिय सुख अर्थात् आत्मिक सुख। इन्द्रियों का सुख नहीं लेकिन आत्मिक सुख। आत्मा अविनाशी है तो आत्मिक सुख भी अविनाशी होगा। इन्द्रियाँ खुद ही विनाशी हैं तो सुख भी विनाशी होगा। कोई भी विनाशी यानी थोड़े समय का सुख नहीं चाहते हैं। अगर किसी को भी कहो - 2 घण्टे का सुख ले लो और 22 घण्टे का दु:ख ले लो तो कौन मानेगा। यही सोचेगा कि सदा सुख हो, दु:ख का नाम-निशान न हो। तो अतीन्द्रिय सुख अविनाशी है। इन्द्रियों के सुख के अनुभवी भी हो और अतीन्द्रिय सुख के अनुभवी भी हो। तो क्या अच्छा लगता है? अतीन्द्रिय सुख अच्छा या इन्द्रियों का सुख अच्छा? तो अच्छी चीज़ का कभी छोड़ा नहीं जाता, भूला नहीं जाता, भूलना चाहें तो भी नहीं भूलेंगे। तो सदा अतीन्द्रिय सुख में रहने वालों के पास दु:ख का नाम-निशान नहीं आ सकता, असम्भव। कई कहते हैं - मेरे को दु:ख नहीं होता लेकिन दूसरा दु:ख देता है तो क्या करें? दूसरा देता है तो लेते क्यों हो? कोई भी चीज़ आपको दे और आप नहीं लो तो वह किसके पास रहेगी? उसके पास ही रहेगी ना। देने वाले तो देंगे, उनके पास है ही दु:ख लेकिन आप नहीं लो। आपका स्लोगन है - ‘सुख दो, सुख लो। न दु:ख दो, न दु:ख लो।' लेकिन गलती कर देते हो। इसलिए थोड़ी दु:ख की लहर आ जाती है। कोई दु:ख दे तो उसे भी परिवर्तन कर उसको सुख दे दो, उसको भी सुखी बना दो। सुखदाता के बच्चे हो, सुख देना और सुखी रहना - यही आपका काम है। अच्छा!
अहमदाबाद हॉस्टल की कुमारियों से:- कुमारियों का लक्ष्य क्या है? ब्रह्माकुमारी बनेंगी या इंजीनियर, डॉक्टर बनेंगी? टोकरी उठानी है या ताज पहनना है? सिर पर या तो आयेगी टोकरी या आयेगा ताज। ताज है विश्व-सेवा वा बेहद सेवा का। तो जो कॉलेज में पढ़ती हैं उन्हों का लक्ष्य क्या है? बेहद की सेवा करेंगी या दूसरों को देख करके दिल होगी कि एक-दो साल नौकरी भी करके देखें, पीछे छोड़ देंगे। नौकरी क्या होती है, थोड़ा यह भी देख लें। फिर टोकरी उतार देंगे, ताज पहन लेंगे - ऐसा तो नहीं सोचती हो? ताजधारी तो सदा श्रेष्ठ होते हैं, टोकरी वाले को श्रेष्ठ नहीं कहेंगे। वह तो मजबूरी से टोकरी उठाते हैं। कोई नौकरी करते हैं तो जरूर कोई मजबूरी होगी - या तो मन की मजबूरी या सम्बन्धियों की मजबूरी। या तो मौज है या तो मजबूरी है - दोनों में से एक तो है। क्योंकि समय कम है और समय अचानक ही आना है, बताकर नहीं आयेगा। इसलिए कहते हैं - जो करना है वह अब करो, कल नहीं, परसों नहीं, साल के बाद नहीं। करना है तो अब। हाँ, कोई सरकमस्टांस है और जो निमित्त बने हुए हैं, उन्हों के डॉयरेक्शन से करते हैं तो फिर आपकी जिम्मेवारी नहीं। तो कुमारियां क्या सोचती हो? हॉस्टल में क्यों रहती हो? घर में भी तो पढ़ाई पढ़ सकती हो, सेंटर में भी आ सकती हो, फिर हॉस्टल में क्यों रहती हो? माँ-बाप याद नहीं आते? कभी-कभी याद आते हैं। जब बड़ा दिन होता होगा तब याद आते होंगे। अच्छा!
बीमारी के टाइम पर माँ-बाप याद आते हैं? पक्की हो? अपने दिल से गई हो, कोई के कहने से तो नहीं गई हो ना। अच्छा है यह भी ड्रामा में लक्की कुमारियां हो गई जो बचपन से श्रेष्ठ संग मिला है। फिर भी हिम्मत रखी है तो हिम्मत वालों को फल भी मिलता है। मातायें भी कुमारियों को देखकर खुश होती हैं ना! मातायें सोचती हैं - हम भी इतने जीवन में आते तो अच्छा होता। लेकिन सबका एक जैसा पार्ट तो हो नहीं सकता। वैराइटी चाहिए। सर्व का पिता है तो कुमार भी चाहिए, कुमारियां भी चाहिए, अधरकुमार-अधरकुमारियां भी चाहिए - सर्व सैम्पल चाहिए। पांडव यह तो नहीं सोचते कि अगर कुमारी होते तो टीचर बन जाते, सेंटर मिल जाता। हर एक के पार्ट की अपनी-अपनी विशेषता है, हर एक की विशेषता अलग और महान है। एक-दो के पार्ट को देखकर खुश रहो। अपने पार्ट को कम नहीं समझो। सबका पार्ट अच्छे-ते-अच्छा है। अच्छा!
पंजाब ग्रुप:- सदा अपने को संगमयुगी बेपरवाह बादशाह हूँ - ऐसे समझते हो? पुरानी दुनिया की कोई परवाह नहीं। सदा दिल में ब्रह्मा बाबा समान क्या गीत गाते हो? परवाह थी पार ब्रह्म में रहने वाले की, वह तो पा लिया, अभी क्या परवाह! तो बेपरवाह बादशाह हो, गुलाम नहीं। इस बादशाही जैसी और कोई बादशाही नहीं। क्योंकि यह बादशाही डॉयरेक्ट बाप ने दी है। और जो भी बादशाही मिलती है वह या तो धन दान करने से मिलती है या आजकल के वोटों से मिलती है और आपको स्वयं बाप ने राजतिलक दे दिया। इस राजतिलक के आगे सतयुग का राजतिलक भी कोई बड़ी बात नहीं। तो यह राजतिलक पक्का लगा हुआ है या मिट जाता है? अभी-अभी राजा और अभी-अभी गुलाम - ऐसा खेल तो नहीं करते हो? बेपरवाह बादशाह - यह कितनी अच्छी स्थिति है! जब सब-कुछ बाप के हवाले कर दिया तो परवाह किसको होगी - बाप को या आपको? बाप जाने। जब अपने जीवन की जिम्मेवारी बाप के हवाले की है तो बाप जाने। ऐसे तो नहीं - थोड़ा-थोड़ा कहीं अपनी अथॉर्टी को छिपाकर रखा हो, मनमत को छिपाकर रखा हो। अगर श्रीमत पर हैं तो बाप के हवाले हैं। सच्ची दिल से बाप के हवाले सब-कुछ कर दिया तो उसकी निशानी सदा डबल लाईट होंगे, कोई बोझ नहीं होगा। अगर किसी भी प्रकार का बोझ है तो इससे सिद्ध है कि बाप के हवाले नहीं किया। जब बाप ऑफर करता है कि सब बोझ मेरे को दे दो और तुम हल्के हो जाओ, तो क्या करना चाहिए? ऐसा सर्वेन्ट फिर नहीं मिलेगा। अनेक जन्म बोझ रखकर देख लिया, बोझ से क्या हुआ? नीचे ही होते गये। अब डबल लाइट बन उड़ते रहो। तन-मन-धन सब ट्रांस्फर कर दो। कोई कहते हैं - और कोई बोझ नहीं है लेकिन थोड़ा-थोड़ा सम्बन्ध का बोझ है। तो सर्व सम्बन्ध बाप से नहीं जोड़ा है तब बोझ है। वायदा है सर्व सम्बन्ध एक बाप से। तो कोई बोझ नहीं। आराम से दाल-रोटी खाओ और उड़ती कला में उड़ो। कहाँ भी रहते बाप को भोग लगा कर खाते हो तो ब्रह्मा भोजन खाते हो। ब्रह्मा भोजन खाओ, खूब नाचो और मौज मनाओ। अभी मौज में नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे! अच्छा!
बॉम्बे ग्रुप:- सभी अपने पुरूषार्थ की रफ्तार को जानते हो? मैं कौन हूँ और क्या हूँ - यह दोनों ही बातें जानते हो ना! तो समय की रफ्तार प्रमाण अपने पुरूषार्थ की रफ्तार क्या समझते हो? समय की रफ्तार तीव्र है या आपकी? समय रचना है और आप रचता हो। तो रचना की रफ्तार तेज और रचता की रफ्तार ढीली है तो उसे क्या कहेंगे? समय को जानने वाले भी आप हो और समय को जान कर वर्णन भी आप ही कर रहे हो। वह तो चलता रहेगा। आप तो वर्णन करते हो कि अभी कलियुग को बदल कर सतयुग लायेंगे, तो चलाने वाला ढीला और चलने वाला तेज! तो सदा इस स्मृति में रहो कि ‘मैं मास्टर रचयिता हूँ', इससे रफ्तार तेज हो जायेगी। चल रहे हैं, समय जैसा है वैसा कर रहे हैं - ऐसे नहीं। यह तो समय के दास कहेंगे। आप कहेंगे - हम समय को चला रहे हैं। समय को बदलने के निमित्त आप हो ना, यह ठेका उठाया है ना? तो पुरूषार्थ में तीव्रगति का आधार क्या है? डबल लाइट बनना। बिना डबल लाइट बने तीव्रगति नहीं हो सकती और डबल लाइट बनने के लिए एक शब्द याद रखो - ‘‘मेरा बाबा'', बस। कोई भी बात आ जाए, हिमालय पहाड़ से भी बड़ी हो लेकिन बाबा कहा और पहाड़ रूई बन जायेगा। राई भी नहीं, रूई। राई भी थोड़ी मजबूत कड़क होती है और रूई बहुत नर्म और हल्की होती है। तो कितना भी बड़ा पहाड़ रूई बन जायेगा। दुनिया वाले देखेंगे तो कहेंगे - यह कैसे होगा और आप कहेंगे - यह ऐसे होगा। बुद्धि में ‘‘बाबा'' कहा और टच होगा कि यह ऐसे होगा। हर बात सहज लगेगी, क्योंकि सहज योगी जीवन है। जिसकी जीवन ही सहज है उसके सामने कोई भी बात आयेगी तो सहज हो जायेगा। मुश्किल के दिन खत्म हो गये। न ब्राह्मण-जीवन में मुश्किल शब्द है, न देवता-जीवन में। इसलिए बाप की महिमा में कहते हो - मुश्किल को सहज बनाने वाले, तो जो बाप की महिमा वह आपकी भी महिमा है। अच्छा!
धुलिया वाले अभी-अभी पहुँचे हैं। (बस खराब हो गई थी इसलिए लेट आये हैं) अच्छा! धुलिया वालों के पाप धुल गये। जितना समय लेट हुए उतना समय बाबा-बाबा ही याद था ना! तो पाप धुल गये, जो भी पिछला रहा होगा वह धुल गया। आप तो खुश थे। दु:ख की लहर तो नहीं आई? ऐसे टाइम पर अचल रहे, इसलिए पाप धुलाई हो गये। अभी सदा ही मौज में चलते उड़ते रहेंगे। अच्छा!
09-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
योगयुक्त, युक्तियुक्त बनने की युक्ति
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज बापदादा अपने सर्व बच्चों में से विशेष दो प्रकार के बच्चे देख रहे हैं। एक हैं सदा योगयुक्त और हर कर्म में युक्तियुक्त। दूसरे योगी हैं लेकिन सदा योगयुक्त नहीं हैं और सदा हर कर्म में स्वत: युक्तियुक्त नहीं। मन्सा वा बोल, कर्म - तीनों में से कभी किसमें, कभी किसमें युक्तियुक्त नहीं। वैसे ब्राह्मणजीवन अर्थात् स्वत: योगयुक्त और सदा युक्तियुक्त। ब्राह्मण-जीवन की अलौकिकता वा विशेषता वा न्यारा और प्यारापन यही है - ‘‘योगयुक्त'' और ‘‘युक्तियुक्त''। लेकिन कोई बच्चे इस विशेषता में सहज और नैचुरल चल रहे हैं और कोई अटेन्शन भी रखते हैं, फिर भी सदा दोनों बातों का अनुभव नहीं कर सकते। इसका कारण क्या? नॉलेज तो सभी को है और लक्ष्य भी सभी का एक यही है। फिर भी कोई लक्ष्य के आधार से इन दोनों लक्ष्य अर्थात् योगयुक्त और युक्तियुक्त स्थिति की अनुभूति के समीप हैं और कोई कभी फास्ट पुरूषार्थ से समीप आते लेकिन कभी समीप और कभी चलते-चलते कोई न कोई कारणवश रूक जाते हैं। इसलिए सदा लक्षण के समीप अनुभूति नहीं करते। सर्व ब्राह्मण आत्माओं में से इस श्रेष्ठ लक्ष्य तक नम्बरवन समीप कौन? ब्रह्मा बाप। क्या विधि अपनाई जो इस सिद्धि को प्राप्त किया? सदा योगयुक्त रहने की सरल विधि है - सदा अपने को ‘‘सारथी'' और ‘‘साक्षी'' समझ चलना।
आप सभी श्रेष्ठ आत्माएं इस रथ के सारथी हो। रथ को चलाने वाली आत्मा सारथी हो। यह स्मृति स्वत: ही इस रथ अथवा देह से न्यारा बना देती है, किसी भी प्रकार के देहभान से न्यारा बना देती है। देहभान नहीं तो सहज योगयुक्त बन जाते और हर कर्म में योगयुक्त, युक्तियुक्त स्वत: ही हो जाते हैं। स्वयं को सारथी समझने से सर्व कर्मेन्द्रियाँ अपने कण्ट्रोल में रहती हैं अर्थात् सर्व कर्मेन्द्रियों को सदा लक्ष्य और लक्षण की मंजल के समीप लाने की कण्ट्रोलिंग पावर आ जाती है। स्वयं ‘‘सारथी'' किसी भी कर्मेन्द्रिय के वश नहीं हो सकता। क्योंकि माया जब किसी के ऊपर भी वार करती है तो माया के वार करने की विधि यही होती है कि कोई-न-कोई स्थूल कर्मेन्द्रियों अथवा सूक्ष्म शक्तियाँ - ‘‘मन-बुद्धि-संस्कार'' के परवश बना देती है। आप सारथी आत्माओं को जो महामंत्र, वशीकरण मंत्र बाप से आपको मिला हुआ है उसको परिवर्तन कर वशीकरण के बजाय वशीभूत बना देती है। और एक बात में भी वशीभूत हुए तो सभी भूत प्रवेश हो जाते हैं। क्योंकि इन भूतों की भी आपस में बहुत युनिटी है। एक भूत आया अर्थात् सभी को आह्वान करेगा। फिर क्या होता है? यह भूत सारथी से स्वार्था बना देते हैं। और आप क्या करते हो? जब सारथीपन की स्मृति में आते हो तो भूतों को भगाने की युद्ध करते हो। युद्ध की स्थिति को योगयुक्त-स्थिति नहीं कहेंगे। इसलिए योगयुक्त वा युक्तियुक्त मंजल के समीप जाने की बजाय रूक जाते हो और पहला नम्बर स्थिति से दूसरे नम्बर में आ जाते हो। सारथी आर्थात् वश होने वाले नहीं लेकिन वश कर चलाने वाले। तो आप सब कौन हो? सारथी हो ना!
सारथी अर्थात् आत्म-अभिमानी। क्योंकि आत्मा ही सारथी है। ब्रह्मा बाप ने इस विधि से नम्बरवन की सिद्धि प्राप्त की। इसलिए बाप भी इस का सारथी बना। सारथी बनने का यादगार बाप ने करके दिखाया। फालो फादर करो। सारथी बन सदा सारथी-जीवन में अति न्यारी और प्यारी स्थिति का अनुभव कराया। क्योंकि देह को अधीन कर बाप प्रवेश होते अर्थात् सारथी बनते हैं, देह के अधीन नहीं बनते। इसलिए न्यारा और प्यारा है। ऐसे ही आप सभी ब्राह्मण आत्माएं भी बाप समान सारथी की स्थिति में रहो। चलते-फिरते यह चेक करो कि मैं सारथी अर्थात् सर्व को चलाने वाली न्यारी और प्यारी स्थिति में स्थित हूँ। बीच-बीच में यह चेक करो। ऐसे नहीं कि सारा दिन बीत जाए फिर रात को चेक करो। सारा दिन बीत गया तो बीता हुआ समय सदा के लिए कमाई से गया। इसलिए गँवा करके होश में नहीं आना। यह स्वत: नैचुरल संस्कार बनाओ। कौन-सा? चेकिंग का। जैसे किसी के कोई पुराने संस्कार इस ब्राह्मणजीवन में अभी भी आगे बढ़ने में विघ्न रूप बन जाते हैं तो कहते हो ना कि न चाहते भी संस्कारों के वश हो जाते हैं। जो नहीं करना चाहते हो वह कर लेते हो। जब उल्टे संस्कार न चाहते कोई भी कर्म करा लेते हैं तो यह नैचुरल चेकिंग का शुद्ध संस्कार अपना नहीं सकते हो? बिना मेहनत के चेकिंग के शुद्ध संस्कार स्वत: ही कार्य कराते रहेंगे। यह नहीं कहेंगे कि भूल जाते हैं या बहुत बिजी रहते हैं। अशुद्ध अथवा व्यर्थ संस्कार हैं। कई बच्चों में अशुद्ध संस्कार नहीं तो व्यर्थ संस्कार भी हैं। यह अशुद्ध, व्यर्थ संस्कार भुलाते भी नहीं भूल सकते हो और यही कहते हो कि मेरा भाव नहीं था लेकिन मेरा यह पुराना स्वभाव है वा संस्कार है। तो अशुद्ध नहीं भूलता फिर शुद्ध संस्कार कैसे भूल जाता है? तो सारथी-पन की स्थिति स्वत: ही स्व-उन्नति के शुद्ध संस्कार इमर्ज करती है और नैचुरल समय प्रमाण सहज चेकिंग होती रहेगी। अशुद्ध आदत से मजबूर हो जाते हो और इस आदत से मजबूत हो जायेंगे। तो सुना सदा योगयुक्त-युक्तियुक्त रहने की विधि क्या हुई? ‘सारथी बन चलना'। सारथी स्वत: ही साक्षी हो कुछ भी करेंगे, देखेंगे, सुनेंगे। साक्षी बन देखने, सोचने, करने सब में सब-कुछ करते भी निर्लेप रहेंगे अर्थात् माया के लेप से न्यारे रहेंगे। तो पाठ पक्का किया ना। ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले हो ना। ब्रह्मा बाप से बहुत प्यार है ना। प्यार की निशानी है ‘‘समान बनना'' अर्थात् फालो करना।
सभी टीचर्स का बाप से कितना प्यार है! बाप सदा टीचर्स को अपने सेवा के समीप साथी समझते हैं। तो पहले फालो टीचर्स करेंगी ना! इसमें सदा यही लक्ष्य रखो कि ‘‘पहले मैं''। ईर्ष्या में पहले मैं नहीं, वह नुक्शान करती है। शब्द वही है ‘‘पहले मैं'' लेकिन एक है ईर्ष्यावश पहले मैं। तो इससे पहले के बजाय कहाँ लास्ट पहुँच जाता, फर्स्ट से लास्ट आ जाता और फालो फादर में ‘‘पहले मैं'' कहा और किया तो फर्स्ट के साथ में आप भी फर्स्ट हो जायेंगे। ब्रह्मा फर्स्ट हैं ना! तो सदा यह लक्ष्य रखो कि टीचर्स अर्थात् फालो फादर और नम्बरवन फालो फादर। जैसे ब्रह्मा नम्बरवन बना तो फालो करने वाले भी नम्बरवन का लक्ष्य रखो। टीचर्स सभी ऐसे पक्की हैं ना, हिम्मत है फालो करने की? क्योंकि टीचर्स अर्थात् निमित्त बनने वाली, अनेक आत्माओं के निमित्त हो। तो निमित्त बनने वालों के ऊपर कितनी जिम्मेवारी है! जैसे ब्रह्मा बाप निमित्त रहे ना। तो ब्रह्मा बाप को देखकर के कितने ब्राह्मण तैयार हुये! ऐसे ही टीचर्स कोई भी कार्य करती हो - चाहे खाना बना रही हो, चाहे सफाई कर रही हो लेकिन हर कर्म करते यह स्मृति रहे कि मैं निमित्त हूँ - अनेक आत्माओं के प्रति, ‘‘जो'' और ‘‘जैसा'' मैं करूँगी - मुझ निमित्त आत्मा को देख और भी करेंगे। इसलिए बापदादा सदैव कहते हैं एक तरफ है भाषण करना और दूसरे तरफ है बर्तन मांजना। दोनों ही काम में योगयुक्त, युक्तियुक्त। काम कैसा भी हो लेकिन स्थिति सदा ही योगयुक्त और युक्तियुक्त हो। ऐसे नहीं भाषण कर रहे हैं तब तो योगयुक्त रहें और बर्तन मांजना अर्थात् साधारण काम कर रहे हैं तो स्थिति भी साधारण हो जाए। हर समय फालो फादर। सुना!
आगे बैठती हो ना तो बैठने में आगे कितना अच्छा लगता है। और सदा आगे बढ़ने में कितना अच्छा लगेगा! जब भी कोई ऐसा कड़ा संस्कार पीछे करने की कोशिश करे तो यह सीन याद करना। जब आगे बैठना अच्छा लगता तो आगे बढ़ने में क्यों पीछे रहे? मधुबन में पहुँच जाना और अपने को हिम्मत उमंग में लाना। क्योंकि पीछे रहने वाले तो बहुत आयेंगे पीछे, आप लोग भी पीछे रह जायेंगे तो फिर पीछे वालों को आगे करना पड़ेगा। इसलिए सदा यही स्मृति रखो कि हम आगे रहने वाले हैं। पीछे रहना अर्थात् प्रजा बनना। प्रजा तो नहीं बनना है ना! प्रजा-योगी तो नहीं, राजयोगी हो ना! तो फालो फादर। अच्छा!
फॉरेनर्स क्या करेंगे? फालो फादर करेंगे ना! कहाँ तक पहुँचेंगे? सभी फ्रंट में आयेंगे। जो भी आये हैं, फालो फादर कर फास्ट और फर्स्ट आना। यह नहीं सोचो कि फर्स्ट तो एक ही आयेगा लेकिन फर्स्ट-ग्रेड तो बहुत होंगे ना। फर्स्ट नम्बर तो ब्रह्मा आयेगा लेकिन फर्स्ट-ग्रेड में तो साथी रहेंगे। इसलिए फर्स्ट में आना। एक फर्स्ट नहीं होगा, फर्स्ट-ग्रेड वाले बहुत होंगे। इसलिए यह नहीं सोचो - पहला नम्बर तो फाइनल हो गया, इसलिए सेकण्ड ही आयेंगे, सेकण्ड-ग्रेड में नहीं जाना। जो ओटे सो अव्वल अर्जुन। अव्वल नम्बर माना अर्जुन। सबको फर्स्ट में आने का चांस है, सब आ सकते हैं। फर्स्ट-ग्रेड बेहद है, कम नहीं है। तो सभी फर्स्ट में आयेंगे ना, पक्का है? अच्छा!
सदा ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले, सदा स्वत: योगयुक्त-युक्तियुक्त रहने वाले, सदा सारथी बन कर्मेन्द्रियों को श्रेष्ठ मार्ग पर चलाने वाले, सदा मंजल के समीप रहने वाले, ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
इन्दौर जोन ग्रुप:- बापदादा की श्रेष्ठ मत ने श्रेष्ठ गति को प्राप्त करा लिया - ऐसा अनुभव करते हो ना! जैसी मति वैसी गति होती है। तो बाप की श्रेष्ठ मत है तो गति भी श्रेष्ठ होगी ना! कहते हैं कि जैसी अन्त मते वैसी गते ... यह क्यों गाया हुआ है? क्योंकि बाप चक्र के अंत में ही आकर श्रेष्ठ मत देता है। तो अंत समय पर श्रेष्ठ मत लेते हो और अनेक जन्म सद्गति को प्राप्त करते हो। इस समय बेहद की ‘‘अंत मते सो गते'' श्रेष्ठ हो जाती है। तो इस समय का ही यादगार भक्ति में चला आता है। एक जन्म की श्रेष्ठ मत से कितने जन्म तक श्रेष्ठ गति प्राप्त करते हो! सब यादगार इस संगमयुग के ही हैं। यादगार क्यों बने? क्योंकि इस समय याद में रहकर कर्म करते हो। हर कर्म का यादगार बन गया। आप अमृतवेले विधिपूर्वक उठते हो। तो देखो, आपके यादगार चित्रों में भी विधिपूर्वक उठाते हैं, कितना प्यार से उठाते हैं। हैं जड़ चित्र लेकिन कितने दिल से, स्नेह से उठाते हैं! उठाते भी हैं तो खिलाते, सुलाते भी हैं क्योंकि आप इस समय सब याद के विधिपूर्वक करते हो। खाना भी विधिपूर्वक खाते हो। भोग लगाकर खाते हो ना या जैसे हैं वैसे ही खा लेते हो? ऐसे तो नहीं - किसी को खाना देना है, इसलिए जल्दी-जल्दी में भोग नहीं लगाया। अगर किसको देना भी है, कोई मजबूरी है - तो भी पहले अलग हिस्सा जरूर निकालो। ऐसे नहीं - किसी को खिलाकर पीछे भोग लगाओ। विधिपूर्वक खाने से सिद्धि प्राप्त होती है, खुशी होती है, निरंतर याद सहज रहती है।
तो अमृतवेले से लेकर रात तक जो भी कर्म करो, याद के विधिपूर्वक करो। तब हर कर्म की सिद्धि मिलेगी। सिद्धि अर्थात् प्रत्यक्षफल प्राप्त होता रहेगा। सबसे बड़े ते-बड़ी सिद्धि है - प्रत्यक्षफल के रूप में अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होना। सदा सुख की लहरों में, खुशी की लहरों में लहराते रहेंगे। पहले प्रत्यक्षफल मिलता है, फिर भविष्य फल मिलता है। इस समय का प्रत्यक्षफल अनेक भविष्य जन्मों के फल से श्रेष्ठ है। अगर अभी प्रत्यक्षफल नहीं खाया तो सारे कल्प में कभी भी प्रत्यक्षफल नहीं मिलेगा। अभी-अभी किया, अभी-अभी मिला - इसको कहते हैं - प्रत्यक्षफल। सतयुग में भी जो फल मिलेगा वह इस जन्म का मिलेगा, दूसरे जन्म का नहीं। लेकिन यहाँ जो मिलता है वह प्रत्यक्षफल अर्थात् अभी-अभी का फल है। तो प्रत्यक्षफल से वंचित नहीं रहना, सदा फल खाते रहना। यह प्रत्यक्षफल अच्छा लगता है ना! ऐसा भाग्य कभी सोचा था? भगवान द्वारा फल मिलेगा - यह तो स्वप्न में भी नहीं था! तो जो बात ख्याल-ख्वाब में नहीं हो और वो हो जाए तो कितनी खुशी होती है! आजकल की अल्पकाल की लॉटरी आती है, तो भी कितनी खुशी होती है! और यह प्रत्यक्षफल सो भविष्य फल हो जाता है। तो नशा रहता है ना, कभी कम कभी ज्यादा तो नहीं? सदा एकरस स्थिति में उड़ते चलो। सेकण्ड में उड़ना सीख गये हो ना या ज्यादा समय लगता है? संकल्प किया और पहुँचे - इतनी फास्ट गति है? अच्छा!
इंदौर जोन वाले सभी संतुष्ट हो ना, मातायें सदा संतुष्ट हो? कभी परिवार में भी लौकिक द्वारा असंतुष्ट नहीं होती? कभी तंग होती हो? कभी चंचल बच्चों से तंग होती हो? तंग कभी नहीं होना, जितना आप तंग होंगे उतना वह ज्यादा तंग करेंगे। इसलिए ट्रस्टी बनकर, सेवाधारी बनकर सेवा करो। मेरा-पन आता है तो तंग होते हो। मेरा बच्चा और ऐसे करता है! तो जहाँ मेरा-पन होता है वहां तंग होते और जहाँ तेरा-तेरा आया तो तैरने लगते। तो तैरने वाले हो! सदा तेरा माना स्वमान में रहना। मेरा-मेरा कहना माना अभिमान आना, तेरा-तेरा मानना माना स्वमान में रहना। तो सदा स्वमान में रहने वाले अर्थात् तेरा मानने वाले - यही याद रखना। अच्छा!
डबल फॉरेनर्स भी सिकीलधे हैं। थोड़े हैं। कितनी खुशी रहती है, उसका वर्णन कर सकते हो? बेहद का बाप है तो प्राप्ति भी बेहद की है, इसलिए हद की गिनती कर नहीं सकते। बापदादा तो डबल विदेशी बच्चों को तीव्र पुरुषार्थी की रफ्तार से देख खुश होते हैं। भारतवासी तो भारत की बातों को जानते हैं। लेकिन यह लोग न जानते भी इतने समीप तीव्र पुरुषार्थी बने, तो कमाल की ना! तो डबल लक्की हो गये। और भारतवासियों को क्या नशा है कि हम ही हर कल्प में अविनाशी भारतवासी बनेंगे। यह नशा है ना - अविनाशी खण्ड भारत है। हरेक का अपना-अपना नशा है। सभी को भारत में ही आना पड़ेगा ना और आप बैठे ही भारत में हो। अच्छा! सभी को याद।
13-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
दिव्य ब्राह्मण जन्म के भाग्य की रेखाएँ
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज विश्व रचयिता बापदादा अपने विश्व की सर्व मनुष्य-आत्माओं रूपी बच्चों को देख रहे हैं। सर्व आत्माओं में अर्थात् सर्व बच्चों में दो प्रकार के बच्चे हैं। एक हैं बाप को पहचानने वाले और दूसरे हैं पुकारने वाले वा परखने के प्रयत्न करने वाले। लेकिन हैं सभी बच्चे। तो आज दोनों प्रकार के बच्चों को देख रहे थे। सर्व बच्चों में से पहचानने वाले वा प्राप्त करने वाले बच्चे बहुत थोड़े हैं और पहचान करने के प्रयत्न वाले अनेक हैं। पहचानने वाले बच्चों के मस्तक पर श्रेष्ठ भाग्य की लकीर चमक रही है। सबसे श्रेष्ठ भाग्य की लकीर है - बाप द्वारा दिव्य ब्राह्मण जन्म की। दिव्य जन्म की रेखा अति श्रेष्ठ चमक रही है। पुकारने वाले बच्चे अंजाने भी मानते यही हैं कि भगवान ने हमें रचा है लेकिन अंजान होने कारण दिव्य जन्म की अनुभूति नहीं कर सकते। आप भी कहते हो - हमें बापदादा ने दिव्य जन्म दिया, वह भी कहते - भगवान ने रचा, भगवान ही रचता है, भगवान ही पालनहार है। लेकिन दोनों के कहने में कितना अंतर है!
आप अनुभव से, नशे से, नॉलेज से कहते हो कि हमको बापदादा, मात-पिता ने रचा अर्थात् ब्राह्मण जन्म दिया। रचता को, जन्म को, जन्मपत्री को, दिव्य जन्म की विधि और सिद्धि - सबको जानते हो। हर एक को अपना दिव्य जन्म का बर्थ-डे याद है ना? इस दिव्य जन्म की विशेषता कौन-सी है? साधारण जन्मधारी आत्माएं अपना बर्थ-डे अलग मनातीं, फ्रैड्स-डे अलग मनातीं, पढाई का दिन अलग मनातीं और आप क्या कहेंगे? आपका बर्थ-डे भी वही है तो मैरेज-डे, पढ़ाई का दिन भी वही है। मदर-डे कहो, फादर-डे कहो, इंगेजमेंट- डे कहो - सब एक ही है। ऐसा दिव्य जन्म कब सुना? सारे कल्प में ऐसा दिन आप आत्माओं का फिर कभी भी नहीं आता। सतयुग में भी बर्थ-डे और मैरेज-डे एक ही नहीं होगा। लेकिन इस संगमयुग के इस महान जन्म की यह विशेषता भी है और विचित्रता भी है। वैसे तो जिस दिन ब्राह्मण बने वही जन्मदिन, वही मैरेज-दिन है। क्योंकि सभी यही वायदा करते हो - ‘एक बाप दूसरा न कोई'। यह दृढ़ संकल्प पहले ही करते हो ना। तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से सर्व सम्बन्ध निभाऊं - यह सबने वायदा किया ना। पांडवों ने, माताओं ने, कुमारियों ने सभी ने वायदा किया है। तो और कहाँ स्वप्न में भी मन नहीं जा सकता। ऐसे पक्के हो ना वा कोई साथी चाहिए? सेवा के लिए कोई विशेष साथी चाहिए?
तो साथी-दिवस किसका मनायेंगे? सेवाधारी साथी का वा बाप साथी है उसका दिवस मनायेंगे? चाहे सर्विस करने वाले हैं, चाहे सर्विस लेने वाले हैं लेकिन सेवा के समय सेवा की, फिर इतने न्यारे और प्यारे बनो जो जरा भी विशेष झुकाव नहीं हो। जो सेवा में मदद करेगा वह विशेष होगा ना! चाहे भाई हो वा बहन हो, जो विशेष सेवा करता वह विशेष अधिकार भी रखेगा! तो सेवा के साक्षी बनो लेकिन साक्षी हो के साथी बनो। साक्षीपन भूल जाता है तो सिर्फ साथी बनने में बाप भूल जाता है। साक्षी बन पार्ट बजाने की प्रैक्टिस करो।
हर बच्चे के मस्तक पर विशेष 4 भाग्य की लकीरें चमकती हैं। (1) दिव्य जन्म की रेखा, (2) परमात्म-पालना की रेखा, (3) परमात्म पढ़ाई की रेखा और (4) निःस्वार्थ सेवा की रेखा। सभी के मस्तक में चारों ही भाग्य की रेखाएं चमक रही हैं। लेकिन चमक में और सदा एकरस वृद्धि को प्राप्त करने में फर्क होने कारण चमक में अंतर दिखाई देता है। आदि से अब तक चारों ही रेखाएं सदा यथार्थ रूप से चलती रहें, वह बहुत थोड़ों की हैं। बीच-बीच में कोई-न-कोई बात में भाग्य की लकीर या तो खंडित होती है वा चमक कम होती है, स्पष्ट नहीं होती। जैसे हस्त-रेखाएं भी देखते हैं ना - कोई की खण्डित होती, कोई की एकरस होती हैं, कोई की स्पष्ट होती हैं, कोई की स्पष्ट नहीं होती। बापदादा भी बच्चों के भाग्य की रेखा को देखते रहते हैं। दिव्य जन्म तो सभी ने लिया लेकिन दिव्य जन्म की रेखा खण्डित होती वा स्पष्ट नहीं होती। क्योंकि अपने जन्म के धर्म में अखण्ड नहीं चलता तो उनके भाग्य की लकीर खण्डित होती। धर्म क्या है, कर्म क्या है - उसको तो जानते हो ना। ऐसे ही परमात्म-पालना में तो सभी ब्राह्मण चल रहे हो। चाहे समार्पित हो, चाहे प्रवृत्ति में हो लेकिन बाप के डायरेक्शन से चल रहे हो। प्रवृत्ति वाले क्या कहेंगे? अपना कमाया हुआ खाते हो वा बाप का खाते हो? बाप का खाते हैं ना। क्योंकि अपना सब-कुछ बाप को दे दिया तो बाप का ही हुआ ना! चाहे कमाते भी हो लेकिन कमाया हुआ धन बाप के हवाले करते हो या अपने काम में लगाते हो? ट्रस्टी हो ना? ट्रस्टी का अपना कुछ नहीं रहता। गृहस्थी में अपना-पन होता है, ट्रस्टी अर्थात् सब बाप का है। अपने हाथ से खाना बनाते हो तो भी समझते हो ना - ब्रह्मा भोजन खा रहे हैं। पहले भोग किसको लगाते हो? बाप को अर्पण करते हो ना? अर्पण करना अर्थात् बाप का खाना। ब्रह्मा भोजन खाते हो। चाहे बच्चों के अर्थ भी लगाते हो वह भी डायरेक्शन अनुसार लगाते हो। जैसे समार्पित बहनें वा भाई भिन्न-भिन्न कार्य में तन-मन भी लगाते तो धन भी लगाते हैं। ऐसे प्रवृत्ति में रहने वाले भी चाहे तन लगाते चाहे धन लगाते - बाप की श्रीमत प्रमाण ही अमानत समझ कार्य में लगाते हो - ऐसे करते हो ना? अमानत में ख्यानत अथवा मनमत तो नहीं मिलाते हो ना। तो परमात्म-पालना सब ब्राह्मण आत्माओं को मिल रही है। पालना की जाती है शक्तिशाली बनाने के लिए। माता की पालना का प्रत्यक्ष रूप क्या होता? बच्चा शक्तिशाली बनता है। तो ब्रह्मा-माँ की पालना द्वारा सभी मास्टर सर्वशक्तिवान बने हो। लेकिन कोई बच्चे सदा शक्तियों को कार्य में लगाते और कोई बच्चे प्राप्त शक्तियों को अर्थात् पालना को कार्य में नहीं लगाते अर्थात् पालना को प्रैक्टिकल में नहीं लाते। इसलिए श्रेष्ठ पालना मिलते हुए भी कमज़ोर रह जाते हैं और भाग्य की लकीर खण्डित हो जाती है।
ऐसे ही पढ़ाई की लकीर - पढ़ाई का एम आब्जेक्ट ही है श्रेष्ठ पद को प्राप्त करना। शिक्षक बाप पढ़ाई सबको एक ही पढ़ाता, एक ही समय पर पढ़ाता। लेकिन जो श्रेष्ठ ब्राह्मण-जीवन का वा पढ़ाई का पद अथवा नशा है वह सबको एक जैसा नहीं रहता। फरिश्ता सो देवता स्टेटस् को सदा स्मृति में नहीं रखते, इसलिए भाग्य की लकीर में अंतर पड़ जाता है।
ऐसे ही सेवा की लकीर - सेवा की विशेषता है जो ब्रह्मा बाप ने साकार रूप में अंतिम वरदान रूप में स्मृति दिलाई - ‘निराकारी, निर्विकारी और निरअहंकारी'। निराकारी स्थिति में स्थित होने के बिना किसी भी आत्मा को सेवा का फल नहीं दे सकते। क्योंकि आत्मा का तीर आत्मा को लगता है। स्वयं सदा इस स्थिति में स्थित नहीं हैं तो जिनकी सेवा करते वह भी सदा स्मृतिस्वरूप नहीं बन सकते। ऐसे ही निर्विकारी - कोई भी विकार का अंश अन्य आत्मा के शूद्र वंश को परिवर्तन कर ब्राह्मण वंशी नहीं बना सकता। उस आत्मा को भी मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए मुहब्बत का फल सदा अनुभव नहीं कर सकते। निरअहंकारी सेवा का अर्थ ही है फलस्वरूप बन झुकना। बिना निर्मान के निर्माण अर्थात् सेवा में सफलता नहीं मिल सकती। तो निराकारी, निर्विकारी, निरअहंकारी - इन तीनों वरदानों को सदा सेवा में प्रैक्टिकल में लाना। इसको कहते हैं - अखण्ड भाग्य की रेखा। अब चारों ही भाग्य की रेखाओं को चेक करो कि अखण्ड हैं या खण्डित हैं, स्पष्ट हैं या अस्पष्ट हैं? कोटो में तो बन गये हैं लेकिन बनना है कोई में भी कोई। जो कोई में कोई होगा वही अब सर्व का माननीय और भविष्य में पूजनीय बनता है। जो अखण्ड भाग्य के लकीरवान हैं उसकी निशानी है- वह अब भी सर्व ब्राह्मण-परिवार का प्यारा होगा। माननीय होने के कारण सर्व की दुआयें, श्रेष्ठ आत्माओं के भाग्य की लकीर को चमकाती रहती। तो अपने आपसे पूछो - मैं कौन? तो सुना, आज क्या देखा!
दुनिया वाले कहते हैं पालनहार है, जन्मदाता है। लेकिन जन्मदाता का परिचय ही नहीं है। और आप नशे से कह सकते हो कि जन्मदाता परमात्मा कैसे हैं, पालनहार परमात्मा कैसे हैं! ब्रह्मा-माँ की पालना भी मिल रही है और बाप की श्रेष्ठ मत पर योग्य आत्माएं बन गये। बाप बच्चे को योग्य बनाता है और माँ शक्तिशाली बनाती है। दोनों अनुभव हैं ना! अच्छा!
गीता पाठशाला वाले ज्यादा आये हैं। गीता पाठशाला वाले कौन हुए? गीता का ज्ञान सुनने वाले ‘‘हे अर्जुन'' हैं। ‘‘अर्जुन'' समझकर गीता-ज्ञान सुनते हो या ‘‘अर्जुन'' दूसरा है। ‘‘मैं अर्जुन हूँ'' - यह समझते हो? सदैव यह अनुभव करके सुनो - मैं अर्जुन हूँ, मुझे विशेष भगवान गीता का ज्ञान सुना रहा है। गीता पाठशाला वाले तो सबसे नम्बरवन निकल जायेंगे। इस विधि से सुनो तो आगे चले जायेंगे। टीचर्स को बिजी रहने के लिए गीता पाठशालाएं अच्छी हैं। गीता पाठशाला चक्रवर्ती भी बनाती, बिजी भी रखती। वृद्धि भी अच्छी होती है। मेहनत कम लेते हैं, मददगार ज्यादा बनते हैं। बलिहारी तो गीता पाठशाला वालों की है ना। इसलिए गाँव वाले बाप को प्यारे लगते हैं। बड़े स्थानों पर माया भी बड़े रूप की आती है। गाँव वालों को माया भी गांव वाली आती है। इसलिए बहुत अच्छे हो गांव वाले, ज्यादा संख्या कहां की है? लेकिन अभी तो सभी मधुबन निवासी हो।
सभी टीचर्स की परमानेंट एड्रेस कौनसी है? मधुबन है ना। वह दुकान हैं, यह घर है। ज्यादा क्या याद रहता है - घर या दुकान? कोई-कोई को दुकान ज्यादा याद रहती है। सोयेंगे तो भी दुकान याद आयेगी। आप लोग जहाँ चाहो बुद्धि को स्थित कर सकते हो। सेवाकेंद्र पर रहते भी मधुबन निवासी बन सकते और मधुबन में रहते भी सेवाधारी बन सकते हो, यह अभ्यास है ना। सेकण्ड में सोचा और स्थित हुआ, यह है टीचर्स की स्थिति की विशेषता। बुद्धि भी समार्पित है ना या सिर्फ सेवा के लिए समार्पित हो? समार्पित बुद्धि अर्थात् जहाँ चाहें, जब चाहें वहाँ स्थित हो जाएँ। यह विशेषता की निशानी है। बुद्धि सहित समार्पित - ऐसे हो ना या बुद्धि से आधी समार्पित हैं और शरीर से सारी हैं?
कोई-कोई टीचर्स भी चाहती हैं - योग में बैठते हैं तो आत्म-अभिमानी होने बदले सेवा याद आती है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि लास्ट समय अगर अशरीरी बनने की बजाए सेवा का भी संकल्प चला तो सेकण्ड के पेपर में फेल हो जायेंगे। उस समय सिवाय बाप के, निराकारी, निर्विकारी, निरहंकारी - और कुछ याद नहीं। ब्रह्मा बाप ने अंतिम स्टेज यही बनाई ना - बिल्कुल निराकारी। सेवा में फिर भी साकार में आ जायेंगे। इसलिए यह अभ्यास करो - जिस समय जो चाहे वह स्थिति हो, नहीं तो धोखा मिल जायेगा। ऐसे नहीं सोचो - सेवा का ही तो संकल्प आया, खराब संकल्प विकल्प तो नहीं आया। लेकिन कण्ट्रोलिंग पावर तो नहीं हुई ना। कण्ट्रोलिंग पावर नहीं तो रूलिंग पावर आ नहीं सकती, फिर रूलर बन नहीं सकेंगे। तो अभ्यास करो। अभी से बहुत काल का अभ्यास चाहिए। इसको हल्का नहीं छोड़ो। तो सुना, टीचर्स को क्या अभ्यास करना है? तब कहेंगे - टीचर्स बाप को फालो करने वाली हैं। सदा ब्रह्मा बाप को सामने रखो और तीन वरदान याद रखो और फालो करो। यह तो सहज है ना। यह अन्तिम वरदान बहुत शक्तिशाली है। इन तीन वरदानों को अगर सदा स्मृति में रखते प्रैक्टिकल में आओ तो बाप के दिलतख्त और राज्य-तख्त के अधिकारी जरूर बनेंगे। अच्छा!
सर्व बाप समान सदा नॉलेजफुल, पावरफुल बच्चों को, सदा भाग्यविधाता द्वारा श्रेष्ठ भाग्य की स्पष्ट रेखाओं वाले भाग्यवान बच्चे, सदा बाप समान त्रिवरदान प्राप्त हुए विशेष आत्माओं को, सदा ब्राह्मण जन्म की पालना और पढ़ाई को आगे बढ़ाने वाले - ऐसे अखण्ड भाग्यवान बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
महाराष्ट्र ग्रुप:- सदा अपने को सर्व प्राप्तियों से भरपूर अनुभव करते हो? कभी खाली तो नहीं हो जाते? क्योंकि बाप ने इतनी प्राप्तियां कराई हैं, अगर सर्व प्राप्ति अपने में जमा करो तो कभी भी खाली नहीं हो सकते। इस जन्म की तो बात ही नहीं है लेकिन अनेक जन्म भी यहां की भरपूरता साथ रहेगी। तो जब इतना दिया है जो भविष्य में भी चलना है, तो अभी खाली कैसे होंगे? अगर बुद्धि खाली रही तो हलचल रहेगी। कोई भी चीज़ अगर फुल भरी नहीं होती तो उसमें हलचल होती है। तो भरपूर होने की निशानी है कि माया को आने की मार्जिन नहीं है। माया ही हिलाती है। तो माया आती है या नहीं? संकल्प में भी आती है, माया के राज्य में तो आधाकल्प अनुभव किया और अभी अपने राज्य में जा रहे हो। जब मायाजीत बनेंगे तब फिर अपना राज्य आयेगा और मायाजीत बनने का सहज साधन - सदा प्राप्तियों से भरपूर रहो। कोई एक भी प्राप्ति से वंचित नहीं रहो। सर्व प्राप्ति हो। ऐसे नहीं - यह तो है, एक बात नहीं तो कोई हर्जा नहीं। अगर जरा भी कमी होगी तो माया छोड़ेगी नहीं, उसी जगह से हिलायेगी। तो माया को आने की मार्जिन ही न हो। आ गई, फिर भगाओ तो उसमें टाइम जाता है। तो मायाजीत बने हो? यह नहीं सोचो- 2 वर्ष या 3 वर्ष में हो जायेंगे। ब्राह्मणों के लिए स्लोगन है - ‘‘अब नहीं तो कभी नहीं''। अब समय की रफ्तार के प्रमाण कोई भी समय कुछ भी हो सकता है। इसलिए तीव्र पुरुषार्थी बनो। अच्छा!
राजस्थान - सौराष्ट्र ग्रुप:- स्वयं को बाप के दिलतख्तनशीन श्रेष्ठ आत्माएं अनुभव करते हो? दिलतख्त सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो सदा बाप के दिलतख्तनशीन रहते हैं वो सदा ही सेफ रहते हैं। सेफ्टी का स्थान ‘‘दिलतख्त'' है। और जो भी सेफ्टी के स्थान बनाते हैं उसे कोई भी पार कर सकता है। लेकिन बाप के दिलतख्तनशीन रहने वाली आत्मा को माया पार नहीं कर सकती। तो ऐसे सेफ्टी के स्थान पर स्थित रहते हो? या कभी सेफ्टी के स्थान से बाहर आ जाते हो? जब सेफ्टी का स्थान मिल गया तो सेफ रहना चाहिए। और ऐसा स्थान तो सारे कल्प में नहीं मिलना है जहाँ आराम से खाओपि यो, मौज करो और सेफ रहो। ऐसी गारंटी और कोई दे नहीं सकता। कितनी भी गवर्नमेन्ट की बड़ी अथार्टी हो लेकिन आपको गारंटी नहीं देगा कि आप सेफ रहेंगे। सिर्फ आपको सेफ्टी के लिए बंदूक वाले दे देंगे, ब्लैक कैट दे देंगे जिससे और ही जेल वाले लगते हैं, जैसे रॉयल जेल में हैं। यहाँ देखो तो भी ब्लैक कैट, वहाँ देखो तो भी ब्लैक कैट। तो यह जेल हुआ या सेफ्टी हुई? लेकिन बाप तो माया के बंधन से छुड़ा देता है, निर्भय बन जाते हैं। तो ऐसा स्थान पसंद है या कभी-कभी थोड़ा बाहर निकलने की दिल होती है? जो सदा दिलतख्तनशीन हैं वह निश्चित ही निश्चिन्त हैं। जैसे कहते हैं - भावी टाली नहीं जाती, अटल होती है। ऐसे दिलतख्तनशीन आत्मा निर्भय है, निश्चिन्त हैं - यह निश्चित है, अटल है। दिलतख्त पर माया आ नहीं सकती। थोड़ा आकर्षण करके बाहर निकालने की कोशिश जरूर करेगी। जैसे सीता के लिए दिखाते हैं - लकीर से बाहर पाँव निकाला तब रावण आया, नहीं तो आ नहीं सकता। तो संकल्प भी बाहर निकलने का आया तो माया आ जायेगी। अगर दिलतख्त पर हो तो आ नहीं सकती। तो सिर्फ दिलतख्त पर बैठ जाओ। इसमें मुश्किल है क्या? ऐसे कई होते हैं जिनकी आदत होती है उठने-बैठने-घूमने की, बैठ नहीं सकते। कितना भी अच्छा स्थान देकर बिठाओ, तो भी नाचते रहेंगे। लेकिन आपका वायदा क्या है? जहाँ बिठाओ, जो खिलाओ, जो पहनाओ, जो कराओ, वह करेंगे। यह वायदा पक्का है ना या थोड़ा अपनी मर्जा से करेंगे बाकी बाप की? बाप को तो कोई हर्जा नहीं लेकिन मेहनत आपको ही करनी पड़ेगी। बाप को बच्चों की मेहनत नहीं अच्छी लगती। मेहनत करके तो थक गये। अभी भी मेहनत करो - यह अच्छा नहीं लगता। इसलिए दिलतख्तनशीन बनो। इसी नशे में रहो। आजकल के कुर्सा का भी नशा रहता है। यह तो तख्त है। तो जहाँ रूहानी नशा होगा वहाँ दु:ख की लहर नहीं आयेगी, खुशी होगी। तो सदा यह स्मृति रखो कि अब भी तख्तनशीन हैं और अनेक जन्म राज्यतख्तनशीन बनेंगे। राजस्थान को राजगद्दी पर बैठने का नशा है। लेकिन राजस्थान ने प्रजा कम बनाई है। गुजरात ने बड़ी प्रजा बनाई है। अगली बार भी राजस्थान को कहा था - अभी कुछ वृद्धि करो। चलो क्वांटिटी नहीं तो क्वालिटी लाओ, तो भी बरोबर हो जायेगा। ऐसी क्वालिटी लाओ जो राजस्थान वाले उनका नाम सुनकर समझे - हां, यह कहता तो सही है। तो या क्वांटिटी बढ़ाओ या क्वालिटी बढ़ाओ। क्या नहीं हो सकता है, ब्राह्मणों के भाग्य में सब नूंधा हुआ है, सिर्फ रिपीट करो। इसके लिए टचिंग चाहिए बुद्धि क्लीयर हो तो टच होगा और सफलता होगी। अच्छा! गुजरात वालों को भी बापदादा कहते हैं रात गुजर गई, बीत गई। तो राजा बनेंगे ना। अच्छा!
पंजाब - बनारस ग्रुप:- सदा हर कर्म करते हुए अपने को कर्मयोगी आत्मा अनुभव करते हो? कोई भी कर्म करते हुए याद भूल नहीं सकती। कर्म और योग - दोनों कम्बाइण्ड हो जाएं। जैसे कोई जुड़ी हुई चीज़ को अलग नहीं कर सकता, ऐसे कर्मयोगी आत्माएं हो। जैसे शरीर और आत्मा का कम्बाइण्ड रूप है तो उसको जीवन वाला कहते हैं और शरीर, आत्मा से अलग हो जाए तो उसको जीवन समाप्त कहते हैं। तो कर्मयोगी जीवन अर्थात् कर्म योग के बिना नहीं, योग कर्म के बिना नहीं। सदा कम्बाइण्ड। तो योगी जीवन वाले हो वा योग लगाने वाले हो? दो घण्टा योग लगाने वाले योगी तो नहीं हो? अमृतवेले योग लगाया तो योगी हुए और कर्म में आये तो कर्म ही याद रहा - इसे योगी-जीवन नहीं कहेंगे। याद के बिना कर्म नहीं। जीवन निरंतर होता है, दो घण्टे का जीवन नहीं है। जो योगी जीवन वाले हैं उनका योग स्वत: और सहज है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। क्योंकि योग टूटता ही नहीं है तो मेहनत क्या करेंगे! टूटता है तो जोड़ने की मेहनत करेंगे। ऐसा कम्बाइण्ड अनुभव करने वाले कभी माया के वश होकर क्वेश्चन नहीं करेंगे कि योग कैसे लगायें, निरंतर योग कैसे हो? याद करने वाले को कोई भी फरियाद वरने की आवश्यकता ही नहीं। बाबा, मेरा यह काम कर देना, यह करा देना, यह संभाल लेना, इसका ताला खोल देना - यह फरियाद है। याद में स्वत: सब कार्य सफल हो जाते हैं। याद करने वाले हो या फरियाद करने वाले हो? बाप के आगे कभी कौनसी फाइल, कभी कौन-सी फाइल रखने वाले तो नहीं? फाइन बनने वाले का कोई फाइल नहीं होता। कर्मयोगी जीवन सर्व प्राप्तियों की जीवन है। कोई अप्राप्ति रह नहीं सकती। क्योंकि दाता के बच्चे हो। दाता के बच्चे सदा भरपूर। दूसरों को कहते हो ना - ‘‘योगी जीवन जी के देखो''। खुद अनुभवी हो तब तो कहते हो। अगर जीना ही है तो ‘योगी जीवन'। बापदादा को योगी जीवन वाले बच्चे अति प्रिय हैं, अति समीप हैं। अच्छा!
हैदराबाद - भोपाल ग्रुप:- सदा अपने को संतुष्ट आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि ज्ञानी-योगी आत्मा की निशानी ‘संतुष्टता' है। जहाँ संतुष्टता है वहां सर्वगुण और सर्वशक्तियाँ हैं। कोई भी गुण वा शक्ति की अप्राप्ति होगी तो अप्राप्ति की निशानी ‘‘असंतुष्टता'' है और प्राप्तियों की निशानी ‘‘संतुष्टता'' है। संतुष्ट आत्मा ड्रामा के हर दृश्य को देख ‘‘वाह-ड्रामा-वाह'' कहेगी और जो सदा संतुष्ट नहीं वह कभी तो ‘‘वाह-वाह'' कहेगी, कभी कहेगी - हाय, यह क्या हो गया, होना नहीं चाहिए था लेकिन हो गया! तो संतुष्टता एक खान है। अखण्ड खान है, खत्म होने वाली नहीं। जितना देता जायेगा उतना ही बढ़ता जायेगा। तो आप सभी संतुष्ट आत्माएं हो ना। मरजीवा बने ही हो संतुष्ट रहने के लिए। ‘‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या'' - यह गायन किसका है? देवताओं का या ब्राह्मणों का? देवताई जीवन में तो इच्छा वा न इच्छा का सवाल ही नहीं। यहाँ नॉलेज है - इच्छा क्या है और निरइच्छा क्या है। तो नॉलेज होते ‘‘इच्छा-मात्रम्-अविद्या'' होना इसी को ही ब्राह्मण-जीवन कहा जाता है। किस चीज़ की इच्छा है? जब रचयिता अपना हो गया तो रचना कहाँ जायेगी? रचयिता को अपना बना लिया है ना, अच्छी तरह से बनाया है, ढीला-ढीला तो नहीं? माताओं के लिए गायन है कि भगवान को भी रस्सी से बांध लिया। तो अच्छी तरह से बांधा है? यह है स्नेह की रस्सी। तो स्नेह की रस्सी मजबूत है ना, यह कभी टूट नहीं सकती। यह तो निमित्त मात्र दृष्टांत हैं। जहाँ बाप है वहाँ सब-कुछ है, इसलिए तो गाते हो - बाप मिला सब-कुछ मिला। जो भी मिला है वह इतना मिला है जो सर्व इच्छाएं इकटठी करो उनसे भी पद्मगुणा ज्यादा है, उसके आगे इच्छा क्या हुई? जैसे सूर्य के आगे दीपक। सर्व प्राप्तियों के आगे कितनी भी अच्छी इच्छा हो, वह दीपक के समान है। इसलिए सदा संतुष्ट। क्वेश्चन ही नहीं उठता है। इच्छा उठने की तो बात छोड़ो लेकिन इच्छा होती भी है - यह क्वेश्चन भी नहीं उठ सकता। इतनी समाप्ति हो गई है, नाम-निशान नहीं। क्योंकि थोड़ा भी अगर अंश रहा तो अंश से वंश पैदा होता है। अंश-मात्र भी नहीं हो। इसीलिए देखो, रावण को जलाते भी हैं, पहले मारते हैं फिर जलाते हैं। जलाकर के फिर समाप्ति कर देते हैं। अंश-मात्र भी नहीं रहे। तो कोई अंश तो नहीं है? मोटे रूप में तो रावण के शीश खत्म हुए लेकिन सूक्ष्म में तो नहीं है ना? सुनाया था कई ऐसे कहते हैं - इच्छा तो नहीं है लेकिन अच्छा लगता है। मोटे रूप में कहेंगे - इच्छा नहीं है और महीन रूप में अच्छा लगता है। तो अच्छा लगा माना बुद्धि का झुकाव होगा ना। अच्छा लगता है तो अच्छा - अच्छा होते इच्छा हो जायेगी। अच्छा लगता है तो सब अच्छा लगता है। एक चीज़ अच्छी क्यों लगती है या कोई एक व्यक्ति अच्छा क्यों लगे या कोई एक काम अच्छा क्यों लगे? सब अच्छा है। कई ऐसे कहते हैं कि इस आत्मा का योग अच्छा लगता है, इस आत्मा का भाषण अच्छा लगता है। लेकिन यह भी कोई अच्छा लगे, कोई अच्छा नहीं लगे - यह भी ठीक नहीं। अगर अच्छा लगता भी है तो बाप का हैं ना। बाप अच्छा लगे ना। अगर कोई भी व्यक्ति अच्छा लगा तो इच्छाओं की क्यू लग जायेगी। बाप अच्छा लगता तो अंश-मात्र में भी माया आ नहीं सकती। अगर किसी में गुण अच्छे हैं तो वह भी बाप की देन हैं। इसलिए बाप ही अच्छा लगे। तो सदा संतुष्ट रहेंगे। बाल-बच्चों को अंदर नहीं बिठा देना। अगर बाल-बच्चे भी छिपे हुए हैं तो सदा संतुष्ट नहीं रह सकते। बेहद सेवा की बात अलग है, लेकिन अपने प्रति यह होना चाहिए, यह होना चाहिए - यह हद की बातें असंतुष्ट करती हैं। बेहद के लिए जितना चाहे उतना सोचो, अपने प्रति हद की बातें नहीं सोचो। तो सभी संतुष्टमणि हो? संतुष्टमणि अर्थात् सदा रूहानियत से चमकने वाली। अच्छा!
17-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सदा समर्थ कैसे बनें?
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज समर्थ बाप अपने चारों ओर के मास्टर समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। एक है सदा समर्थ और दूसरे हैं कभी समर्थ, कभी व्यर्थ की तरफ न चाहते भी आकर्षित हो जाते। क्योंकि जहाँ समर्थ स्थिति है, वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता, संकल्प भी व्यर्थ नहीं उत्पन्न हो सकता। बापदादा देख रहे थे कि कई बच्चों की अब तक भी बाप के आगे फरियाद है कि कभी-कभी व्यर्थ संकल्प याद को फरियाद में बदल देते हैं, चाहते नहीं हैं लेकिन आ जाते हैं। विकल्पों की स्टेज को तो मैजारिटी ने मैजारिटी समय तक समाप्त कर लिया है लेकिन व्यर्थ देखना, व्यर्थ सुनना और सोचना, व्यर्थ समय गँवाना - इसमें फुल पास नहीं हैं। क्योंकि अमृतवेले से सारे दिन की दिनचर्या में अपने मन और बुद्धि को समर्थ स्थिति में स्थित करने का प्रोग्राम सेट नहीं करते। इसलिए अपसेट हो जाते हैं। जैसे अपने स्थूल कार्य के प्रोग्राम को दिनचर्या प्रमाण सेट करते हो, ऐसे अपनी मन्सा समर्थ स्थिति का प्रोग्राम सेट करेंगे तो स्वत: ही कभी अपसेट नहीं होंगे। जितना अपने मन को समर्थ संकल्पों में बिजी रखेंगे तो मन को अपसेट होने का समय ही नहीं मिलेगा। आजकल की दुनिया में बड़ी पोजीशन वाले, जिन्हों को आई. पी. या वी.आई.पी. कहते हैं, वह सदा अपने कार्य की दिनचर्या को समय प्रमाण सेट करते हैं। तो आप कौन हो? वह भले वी.आई.पी. हैं लेकिन सारे विश्व में ईश्वरीय सन्तान के नाते, ब्राह्मण-जीवन के नाते आप कितनी भी वी. आगे लगा दो तो भी कम है। क्योंकि आपके आधार पर विश्वपरिवर्त न होता है। आप विश्व के नव-निर्माण के आधारमूर्त हो। बेहद के ड्रामा अंदर हीरो एक्टर हो और हीरे तुल्य जीवन वाले हो। तो कितने बड़े हुए! यह शुद्ध नशा समर्थ बनाता है और देह-अभिमान का नशा नीचे ले आता है। आपका आत्मिक रूहानी नशा है इसलिए नीचे नहीं ले आता, सदा ऊँची उड़ती कला की ओर ले जाता है। तो व्यर्थ तरफ आकर्षित होने का कारण है - अपने मन-बुद्धि की दिनचर्या सेट नहीं करते हो। मन को बिजी रखने की कला सम्पूर्ण रीति से सदा यूज नहीं करते हो।
दूसरी बात, बापदादा ने अमृतवेले से लेकर रात के सोने तक मन्सा-वाचा-कर्मणा और सम्बंध-सम्पर्क में कैसे चलना है वा रहना है - सबके लिए श्रीमत अर्थात् आज्ञा दी हुई है। मन्सा में, स्मृति में क्या रखना है - यह हर कर्म में अपनी मन्सा स्थिति का डायरेक्शन, आज्ञा मिली हुई है। और आप सब आज्ञाकारी बच्चे हो ना वा बन रहे हो? आज्ञाकारी अर्थात् बाप के सम्बन्ध से बाप के फुट स्टैप लेने वाले अर्थात् कदम के ऊपर कदम रखने वाले। और दूसरा नाता है सजनियों का। तो सजनी भी क्या करती है? उनको क्या शिक्षा मिलती है? साजन के कदम ऊपर कदम चलो। तो आज्ञाकारी अर्थात् बापदादा के आज्ञा रूपी कदम पर कदम रखना। यह सहज है वा मुश्किल है? कहाँ कदम रखें - ठीक है वा नहीं, यह सोचने की भी जरूरत नहीं। है सहज, लेकिन सारे दिन में चलते-चलते कोई न कोई आज्ञाओं का उल्लंघन हो जाता है। बातें छोटी- छोटी होती हैं लेकिन अवज्ञा होने से थोड़ा-थोड़ा बोझ इकट्ठा हो जाता है। आज्ञाकारी को सर्व सम्बन्धों से परमात्म-दुआयें मिलती हैं। यह नियम है। साधारण रीति भी कोई किसी मनुष्य आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण ‘‘हाँ जी'' कहकर के कार्य करते हैं तो जिसका कार्य करते, उसके द्वारा उसके मन से उनको दुआयें जरूर मिलती हैं। यह तो परमात्म-दुआयें हैं! परमात्म-दुआओं के कारण आज्ञाकारी आत्मा सदा डबल लाइट उड़ती कला वाली होती है। साथ-साथ आज्ञाकारी आत्मा को आज्ञा पालन करने के रिटर्न में बाप द्वारा विल पावर विशेष वरदान के रूप में, वर्से के रूप में मिलती है। बाप सब पावर्स विल में बच्चे को देते हैं, इसलिए सर्व पावर्स सहज प्राप्त हो जाती हैं। तो ऐसे विल पावर प्राप्त करने वाली आज्ञाकारी आत्मा - वर्सा, वरदान और दुआयें, यह सब प्राप्तियां कर लेती हैं जिस कारण सदा खुशी में नाचते, ‘‘वाह-वाह'' के गीत गाते उड़ते रहते हैं। क्योंकि उनका हर कर्म, उनको प्रत्यक्षफल प्राप्त कराता है। कर्म है बीज। जब बीज शक्तिशाली है तो फल भी ऐसा मिलेगा ना। तो हर कर्म का प्रत्यक्षफल बिना मेहनत के स्वत: ही प्राप्त होता है। जैसे फल की शक्ति से शरीर शक्तिशाली रहता है, ऐसे कर्म के प्रत्यक्षफल की प्राप्ति कारण आत्मा सदा समर्थ रहती है। तो सदा समर्थ रहने का दूसरा आधार है - सदा और स्वत: आज्ञाकारी बनना। ऐसी समर्थ आत्मा सदा सहज उड़ते हुए अपनी सम्पूर्ण मंजल - ‘‘बाप के समीप स्थिति'' को प्राप्त करती है। तो व्यर्थ तरफ आकर्षित होने का कारण है अवज्ञा। बड़ी-बड़ी अवज्ञायें नहीं करते हो, छोटी-छोटी हो जाती है। जैसे मुख्य पहली आज्ञा है - पवित्र बनो, कामजीत बनो। इस आज्ञा को पालन करने में मैजारिटी पास हो जाते हैं। भोली-भोली मातायें भी इसमें पास हो जाती हैं। जो बात दुनिया असम्भव समझती उसमें पास हो जाते। लेकिन उनका दूसरा भाई क्रोध - उसमें कभी-कभी आधा फेल हो जाते हैं। फिर होशियार भी बहुत हैं। कई बच्चे कहते हैं - क्रोध नहीं किया लेकिन थोड़ा रोब तो दिखाना ही पड़ता है, क्रोध नहीं आता, थोड़ा रोब रखता हूँ। जब असम्भव को सम्भव कर लिया, यह तो उसका छोटा भाई है। तो इसको आज्ञा कहेंगे वा अवज्ञा?
इससे भी छोटी अवज्ञा अमृतवेले का नियम आधा पालन करते हो। उठ करके बैठ तो जाते हो लेकिन जैसे बाप की आज्ञा है, उस विधि से सिद्धि को प्राप्त करते हो? शक्तिशाली स्थिति होती है? स्वीट साइलेन्स के साथ-साथ निद्रा की साइलेन्स भी मिक्स हो जाती है। बापदादा अगर हर एक को अपने सप्ताह की टी.वी. दिखाये तो बहुत मजा देखने में आयेगा! तो आधी आज्ञा मानते हो - नेमीनाथ बनते हो लेकिन सिद्धिस्वरूप नहीं बनते हो। इसको क्या कहेंगे? ऐसी छोटी-छोटी आज्ञायें हैं। जैसे आज्ञा है - किसी भी आत्मा को न दु:ख दो, न दु:ख लो। इसमें भी दु:ख देते नहीं हो लेकिन ले तो लेते हो ना। व्यर्थ संकल्प चलने का कारण ही यह है - व्यर्थ दु:ख लिया। सुन लिया तो दु:खी हुए। सुनी हुई बात न चाहते भी मन में चलती है - यह क्यों कहा, यह ठीक नहीं कहा, यह नहीं होना चाहिए....। व्यर्थ सुनने, देखने की आदत मन को 63 जन्मों से है, इसलिए अभी भी उस तरफ आकर्षित हो जाते हो। छोटी-छोटी अवज्ञायें मन को भारी बना देती हैं और भारी होने के कारण ऊँची स्थिति की तरफ उड़ नहीं सकते। यह बहुत गुह्य गति है। जैसे पिछले जन्मों के पाप-कर्म बोझ के कारण आत्मा को उड़ने नहीं देते। ऐसे इस जन्म की छोटी-छोटी अवज्ञाओं का बोझ, जैसी स्थिति चाहते हो - वह अनुभव करने नहीं देती।
ब्राह्मणों की चाल बहुत अच्छी है। बापदादा पूछते हैं - कैसे हो? तो सभी कहेंगे - बहुत अच्छे हैं, ठीक हैं। फिर जब पूछते हैं कि जैसी स्थिति होनी चाहिए वैसी है? तो चुप हो जाते हैं। इस कारण यह अवज्ञाओं का बोझ सदा समर्थ बनने नहीं देता। तो आज यही स्लोगन याद रखना - ‘न व्यर्थ सोचो, न व्यर्थ देखो, न व्यर्थ सुनो, न व्यर्थ बोलो, न व्यर्थ कर्म में समय गँवाओ।' आप बुराई से तो पार हो गये। अब ऐसे आज्ञाकारी चरित्र को चित्र बनाओ। इसको कहते हैं - ‘सदा समर्थ आत्मा।' अच्छा!
सभी टीचर्स आार्टिस्ट हो। चित्र बनाना आता है? अपना श्रेष्ठ चरित्र का चित्र बनाना आता है ना! तो बड़े-ते-बड़े चित्रकार वही हैं जो हर कदम में चरित्र का चित्र बनाते रहते हैं। इसी चरित्र का चित्र बनाने कारण ही आपके जड़ चित्र आधाकल्प चलते हैं। तो टीचर्स अर्थात् बड़े-ते-बड़े चित्रकार। अपना भी चित्र बनाते और अन्य आत्माओं को भी चित्रकार बना देते हो। औरों के भी श्रेष्ठ चरित्र बनाने के निमित्त टीचर्स हो। इसी में ही बिजी रहते हो ना। फुल बिजी रहो। एक सेकण्ड भी मन-बुद्धि को फुर्सत में रखा तो व्यर्थ संकल्प अपनी तरफ आकर्षित कर लेंगे। सुनाया ना कि सेवा का प्रत्यक्षफल सदा प्राप्त हो - यही निशानी है सदा आज्ञाकारी आत्मा की। कभी सेवा का फल प्रत्यक्ष मिलता और कभी नहीं मिलता, इसका कारण? कोई-न-कोई अवज्ञा होती है। टीचर्स अर्थात् अमृतवेले से लेकर रात तक हर आज्ञा के कदम-पर-कदम रखने वाली। ऐसी टीचर्स हो वा कभी-कभी अलबेला-पन आ जाता है? अलबेला नहीं बनना। जिम्मेवारी के ताजधारी हो। कभी ताज भारी लगता है तो उतार देते हैं। आप उतारने वाले तो नहीं हो ना। सदा आज्ञाकारी माना सदा जिम्मेवारी के ताजधारी। टीचर्स तो सब हैं लेकिन इसको कहते हैं - योग्य टीचर, योगी टीचर।
टीचर्स कभी कम्पलेन नहीं कर सकती। औरों को कम्पलीट करने वाली हो, कम्पलेन करने वाली नहीं। कभी ऐसे पत्र तो नहीं लिखती हो ना - क्या करें, हो गया, होना तो नहीं चाहिए। वह तो समाप्त हो गया ना। सुनाया था - पत्र लिखो जरूर, मधुबन में पत्र जरूर भेजो परंतु ‘‘मैं सदा ओ.के. हूँ'' - बस, यह दो लाइन लिखो। पढ़ने वालों को भी टाइम नहीं। फिर कम्पलेन करते कि पत्र का उत्तर नहीं आया। वास्तव में आप सबके पत्रों का उत्तर बापदादा रोज की मुरली में देता ही है। आप लिखेंगे ओ.के. और बापदादा ओ.के. के रिटर्न में कहते - ‘यादप्यार और नमस्ते।' तो यह रेसपान्ड हुआ ना। समय को भी बचाना है ना। सेवा समाचार भी शार्ट में लिखो। तो समय की भी एकॉनामी, कागज की भी एकॉनामी, पोस्ट की भी एकॉनामी। हो। एकॉनामी क्या हो सकती है। पत्र 3 पेज में भी लिखा जा सकता है। कोई को विस्तार से लिखने का डायरेक्शन मिलता है तो भल लिखो लेकिन दो लाइन में अपनी गलती की क्षमा ले सकते हो। छिपाओ नहीं, लेकिन शार्ट में लिखो। कितने पत्र लिखते हैं, जिनका कोई सार नहीं होता। बाप को कहो - मेरा यह काम कर ले, मेरे को ठीक कर दे, मेरा धंधा ठीक कर दे, मेरी पत्नी को ठीक कर दे .... ऐसे पत्र एक बार नहीं 10 बार भेजते हैं। तो अब एकॉनामी के अवतार बनो और बनाओ। अच्छा!
सभी को यह मेला अच्छा लगता है ना। दुनिया वाले कहते दो दिन का मेला और आपका 4 दिन का मेला है। सभी को पसंद है ना यह मेला। अच्छा!
चारों ओर के सदा समर्थ आत्माओं को, सदा हर कदम में आज्ञाकारी रहने वाले आज्ञाकारी बच्चों को, सदा व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले विश्व-परिवर्तक आत्माओं को, सदा अपने चरित्र के चित्रकार बच्चों को समर्थ बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
बॉम्बे - गुजरात ग्रुप:- बेहद बाप के अर्थात् बेहद के मालिक के बालक हैं, ऐसे समझते हो? बालक सो मालिक होता है, इसलिए बापदादा बच्चों को ‘‘मालेकम् सलाम'' कहते हैं। बेहद बाप के बेहद के वर्से के बालक सो मालिक हो। तो बेहद के वर्से की खुशी भी बेहद होगी ना। बाप बच्चों को अपने से भी आगे रखते हैं। विश्व के राज्य का अधिकारी बच्चों को बनाते हैं, खुद तो नहीं बनते। तो वर्तमान और भविष्य - दोनों अधिकार मिल गये और दोनों ही बेहद हैं! सतयुग में भी हदें तो नहीं होंगी ना - न भाषा की, न रंग की, न देश की। यहाँ तो देखो कितनी हदें हैं! बेहद के आकाश को भी हदों में बाँट दिया है। वहाँ कोई हद नहीं होती। तो बेहद का राज्य-भाग्य हो गया। लेकिन बेहद का राज्य-भाग्य प्राप्त करने वालों को पहले इस समय अपनी देह की हद से परे जाना पड़ेगा। अगर देहभान की हद से निकले तो और सभी हद से निकल जायेंगे। इसलिए बापदादा कहते हैं - पहले देह सहित देह के सब सम्बन्धों से न्यारे बनो। पहले देह फिर देह के सम्बन्धी। तो इस देह के भान की हद से निकले हो? क्योंकि देह की हद कभी भी ऊपर नहीं ले जायेगी। देह मिट्टी है, मिट्टी सदा भारी होती है। कोई भी चीज़ मिट्टी की होगी तो भारी होगी ना। यह देह तो पुरानी मिट्टी है, इसमें फंसने से क्या मिलेगा! कुछ भी नहीं। तो सदा यह नशा रखो कि ‘बेहद बाप और बेहद वर्से का बालक सो मालिक हूँ।' जब बालक बनना है उस समय मालिक नहीं बनो और जब मालिक बनना है उस समय बालक नहीं बनो। जब कोई राय देनी है, प्लैन सोचना है, कुछ कार्य करना है तो मालिक होकर करो लेकिन जब मैजारिटी द्वारा या निमित्त बनी आत्माओं द्वारा कोई भी बात फाइनल हो जाती है तो उस समय बालक बन जाओ, उस समय मालिक नहीं बनो। मेरा ही विचार ठीक है, मेरा ही प्लैन ठीक है - नहीं। उस समय मालिक नहीं बनो। किस समय राय बहादुर बनना है और किस समय राय मानने वाला बनना है- जिसको यह तरीका आ जाता है वह कभी नीचे-ऊपर नहीं होता। वह पुरूषार्थ और सेवा में सफल रहता है। अपने को मोल्ड कर सकता है, अपने को झुका सकता है। झुकने वाले को सदैव ही सेवा का फल मिलता है और अपने अभिमान में रहने वाले को सेवा का फल नहीं मिलता है। तो सफलता की विधि है - बालक सो मालिक, समय पर बालक बनना, समय पर मालिक बनना। यह विधि आती है? अगर छोटी-सी बात को बालक के समय मालिक बन कर सिद्ध करेंगे तो मेहनत ज्यादा और फल कम मिलेगा। और जो विधि को जानते हैं, समय प्रमाण उसको मेहनत कम और फल ज्यादा मिलता है। वह सदा मुस्कराता रहेगा। स्वयं भी खुश रहेगा और दूसरों को देखकर के भी खुश होगा। सिर्फ मैं बड़ा खुश रहता हूँ, यह नहीं। लेकिन खुश करना भी है तो खुश रहना भी है, तब राजा बनेंगे। अपने को मोल्ड करेंगे तो गोल्डन एज का अधिकार जरूर मिलेगा। अच्छा!
दिल्ली ग्रुप:- बापदादा सभी बच्चों को त्रिकालदर्शी श्रेष्ठ आत्मा बनाते हैं। त्रिकालदर्शी अर्थात् पास्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर - तीनों कालों को जानने वाले। जो तीनों कालों को जानने वाली आत्मा है वह कभी भी माया से हार नहीं खा सकती। क्योंकि वर्तमान क्या है और भविष्य में क्या होने वाला है - दोनों ही त्रिकालदर्शी आत्मा की बुद्धि में स्पष्ट रहता है-क्या हूँ और क्या बनने वाली हूँ। क्या थी-वह भी जानते हैं लेकिन नशा वर्तमान और भविष्य का है। वर्तमान समय की लिस्ट निकालो - क्या हो, तो कितनी लम्बी लिस्ट होगी! कितने टाइटल बाप ने दिये! औरों को जो टाइटल मिलते हैं वह आत्माओं द्वारा आत्माओं को मिलते हैं और अल्पकाल का टाइटल होता है, एक जन्म भी चले या नहीं चले। आज प्राइम-मिनिस्टर का टाइटल मिला, कितना समय चला? आज है कल नहीं। तो अल्पकाल के टाइटल हुए ना। आपके टाइटल अविनाशी हैं क्योंकि देने वाला अविनाशी बाप है। बाप ने ‘नूरे रत्न' बनाया तो सारा कल्प जहान के नूर बन गये। अपने राज्य में भी विश्व की नजरों में होंगे ना! तो नूरे जहान हो गये ना। और भक्ति में भी नूरे जहान होंगे। सारे जहान के आगे विशेष आत्माएं तो आती हैं ना, तब तो पूजते हैं। तो अविनाशी हो गये। तो लिस्ट निकालो - कितने टाइटल परमात्मा द्वारा मिलते हैं। और अविनाशी टाइटल तो नशा भी अविनाशी होगा ना। जैसे कहा जाता है कि खुशी में सदा उड़ते रहते हैं। खुशी में रहने वाले के पाँव सदा धरनी से ऊँचे होते हैं क्योंकि खुशी में नाचेंगे ना। तो अविनाशी टाइटल याद करने से नैचुरल उड़ते रहेंगे, इस देह रूपी धरनी पर पाँव नहीं होंगे। बुद्धि है पाँव। तो बुद्धि रूपी पाँव खुशी से ऊपर रहेंगे, देहभान से परे रहेंगे। इसलिए बापदादा ‘फरिश्ता' कहते हैं। ‘फरिश्ते' का अर्थ ही है बुद्धि रूपी पाँव धरनी पर न हो। न देह में, न देह के सम्बन्ध में, न देह के पुराने पदार्थो में। यह है धरनी। इससे ऊपर। ऐसे रहते हो या कभी-कभी धरनी में आने की दिल होती हैं? कभी धरनी आकर्षित तो नहीं करती? स्थूल चीजों को तो स्थूल धरनी आकर्षित करके ऊपर से नीचे ले आती है लेकिन आपको नहीं कर सकती। तो नीचे आते हो या ऊपर रहते हो? फरिश्ता कहाँ भी जायेगा तो वरदान देने या संदेश देने के लिए, संदेश दिया और यह उड़ा! तो अगर देहधारियों के सम्बन्ध में आते भी हो तो ऊपर से आये, संदेश दिया और यह उड़ा। ऐसे है ना! अच्छा!
बॉम्बे ग्रुप:- स्व-स्थिति की शक्ति से किसी भी परिस्थिति का सामना कर सकते हो ना! स्व-स्थिति अर्थात् आत्मिक-स्थिति। पर-स्थिति व्यक्ति वा प्रकृति द्वारा आती है। अगर स्व-स्थिति शक्तिशाली है तो उसके आगे पर-स्थिति कुछ भी नहीं है। प्रकृति के भी मालिक आप हो ना! आपके परिवर्तन से प्रकृति का परिवर्तन होता है। इस समय आप सतोप्रधान बन रहे हो तो प्रकृति भी तमो से सतो में परिवर्तन हो रही है। आप रजोगुणी बनते हो तो प्रकृति भी रजोगुणी बनती है। तो श्रेष्ठ कौन हुआ? आप हुए ना। इसलिए स्व-स्थिति में सि्थत रहने वाला कभी परिस्थिति से घबराता नहीं है क्योंकि पावरफुल कभी कमज़ोर से नहीं घबराता। व्यक्ति द्वारा भी परिस्थिति आती है। तो आजकल के व्यक्ति भी तो तमोगुणी हैं ना! आप तो सतोगुणी हो। तो तमोगुण पावरफुल नहीं, सतोगुण पावरफुल है। कई ऐसा समझते हैं - और परिस्थितियों से तो पार हो जाते हैं लेकिन जब कोई ब्राह्मण आत्मा द्वारा परिस्थिति आती है तो उसमें घबरा जाते हैं, उसमें थोड़ा ‘‘क्या-क्यों'' में चले जाते हैं। लेकिन जिस समय कोई भी ब्राह्मण आत्मा में माया प्रवेश होती है उस समय ब्राह्मण आत्मा नहीं है, वशीभूत है। इसलिए उससे भी घबरा नहीं सकते। कोई भी ब्राह्मण आत्माएं अगर वशीभूत हैं तो वशीभूत पर रहम आता है, तरस पड़ता है। वशीभूत पर कभी जोश नहीं आता। कोई जान-बूझकर कुछ करता है तो उस पर जोश आता है। तो जब ब्राह्मण आत्मा भी वशीभूत है तो रहम की भावना रखो। फिर घबरायेंगे नहीं, और ही उस आत्मा की सेवा करने लग जायेंगे। शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा सेवा करेंगे। तो स्व-स्थिति वाला किसी भी प्रकार की परिस्थिति से घबरा नहीं सकता क्योंकि नॉलेजफुल आत्मा हो गई। तीनों कालों की, सर्व आत्माओं की नॉलेज है। नॉलेजफुल वा त्रिकालदर्शी कभी घबरा नहीं सकते। सदा ही किसी भी परिस्थिति में मुस्कराते रहेंगे। हर्षित होंगे, परिस्थिति से आकर्षित नहीं होंगे। अगर कोई भी परिस्थिति में फेल होते हैं तो परिस्थिति की तरफ आकर्षित हो गये ना! जो हर्षित होगा वह साक्षी होकर खेल देखेगा, आकर्षित नहीं होगा। तो आप सब कौन हो? हर्षित रहने वाले या आकर्षित होने वाले? परिस्थितियाँ और ही महावीर बनाती हैं। क्योंकि परिस्थिति को जानते जाते हो ना! अनुभव की अथार्टी बढ़ती जायेगी। तो ऐसे महावीर हो या कभी-कभी कमज़ोरी का भी मजा ले लेते हो? एक बार भी कोई कमज़ोरी को धारण किया तो एक कमज़ोरी आना माना सब कमज़ोरियों का आना। एक भूत आया तो सभी भूत आ जायेंगे। चाहे विशेष रूप में कोई एक भूत हो लेकिन छिपे हुए सब भूत आते हैं। इसलिए अभी भूतों से मुक्त बनो।
21-12-89 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
त्रिदेव रचयिता द्वारा वरदानों की प्राप्ति
अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले
आज त्रिदेव रचयिता अपनी साकारी और आकारी रचना को देख रहे हैं। दोनों रचना अति प्रिय हैं। इसलिए रचता, रचना को देख हर्षित होते हैं। रचना सदा यह खुशी के गीत गाती कि ‘‘वाह रचता'' और रचता सदा यह गीत गाते - ‘‘वाह मेरी रचना''। रचना प्रिय है। जो प्रिय होता है उसको सदा सब-कुछ देकर सम्पन्न बनाते हैं। तो बाप ने हर एक श्रेष्ठ रचना को विशेष तीनों सम्बन्ध से कितना सम्पन्न बनाया है! बाप के सम्बन्ध से दाता बन ज्ञान खज़ाने से सम्पन्न बनाया, शिक्षक रूप से भाग्यविधाता बन अनेक जन्मों के लिए भाग्यवान बनाया, सतगुरू के रूप में वरदाता बन वरदानों से झोली भर देते। यह है अविनाशी स्नेह वा प्यार। प्यार की विशेषता यही है - जिससे प्यार होता है उसकी कमी अच्छी नहीं लगेगी, कमी को कमाल के रूप में परिवर्तन करेंगे। बाप को बच्चों की कमी सदा कमाल के रूप में परिवर्तन करने का सदा शुभ संकल्प रहता है। प्यार में बाप को बच्चों की मेहनत देखी नहीं जाती। कोई मेहनत आवश्यक हो तो करो लेकिन ब्राह्मणजीवन में मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि दाता, विधाता और वरदाता - तीनों सम्बंध से इतने सम्पन्न बन जाते हो जो बिना मेहनत रूहानी मौज में रह सकते हो। वर्सा भी है, पढ़ाई भी है और वरदान भी हैं। जिसको तीनों रूपों से प्राप्ति हो, ऐसे सर्व प्राप्ति वाली आत्मा को मेहनत करने की क्या आवश्यकता है! कभी वर्से के रूप में वा बाप को दाता के रूप में याद करो तो रूहानी अधिकारीपन का नशा रहेगा। शिक्षक के रूप में याद करो तो गॉडली स्टूडेन्ट अर्थात् भगवान के स्टूडेन्ट हैं - इस भाग्य का नशा रहेगा। सतगुरू हर कदम में वरदानों से चला रहा है। हर कर्म में श्रेष्ठ मत - वरदाता का वरदान है। जो हर कदम श्रेष्ठ मत से चलते हैं उसको हर कदम में कर्म की सफलता का वरदान सहज, स्वत: और अवश्य प्राप्त होता है। सतगुरू की मत श्रेष्ठ गति को प्राप्त कराती है। गति-सद्गति को प्राप्त कराती है। श्रेष्ठ मत और श्रेष्ठ गति। अपने स्वीट होम अर्थात् गति और स्वीट राज्य अर्थात् सद्गति - इसको तो प्राप्त करते ही हो लेकिन ब्राह्मण आत्माओं को और विशेष गति प्राप्त होती है। वह है इस समय भी श्रेष्ठ मत के श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल अर्थात् सफलता।
यह श्रेष्ठ गति सिर्फ संगमयुग पर ही आप ब्राह्मणों को प्राप्त है। इसलिए कहते हैं - ‘जैसी मत वैसी गत'। वो लोग तो समझते हैं मरने के बाद गति मिलेगी, इसलिए ‘अंत मति सो गति' कहते हैं। लेकिन आप ब्राह्मण आत्माओं के लिए इस अंतिम मरजीवा जन्म में हर कर्म की सफलता का फल अर्थात् गति प्राप्त होने का वरदान मिला हुआ है। वर्तमान और भविष्य - सदा गति-सदगति है ही है। भविष्य की इंतजार में नहीं रहते हो। संगमयुग की प्राप्ति का यही महत्व है। अभी-अभी कर्म करो और अभी-अभी प्राप्ति का अधिकार लो। इसको कहते हैं - एक हाथ से दो, दूसरे हाथ से लो। कभी मिल जायेगा वा भविष्य में मिल जायेगा, यह दिलासे का सौदा नहीं है। ‘तुरंत दान महापुण्य', ऐसी प्राप्ति है। इसको कहते हैं - झटपट का सौदा। भक्ति में इंतजार करते रहो - मिल जायेगा, मिल जायेगा ....। भक्ति में है कभी और बाप कहते हैं - अभी लो। आदि स्थापना में भी आपकी प्रसिद्धता थी कि यहां साक्षात्कार झटपट होता है। और होता भी था। तो आदि से झटपट का सौदा हुआ। इसको कहते हैं रचता का रचना से सच्चा प्यार। सारे कल्प में ऐसा प्यारा कोई हो ही नहीं सकता। कितने भी नामीग्रामी प्यारे हों लेकिन यह है अविनाशी प्यार और अविनाशी प्राप्ति। तो ऐसा प्यारा कोई हो ही नहीं सकता। इसलिए बाप को बच्चों की मेहनत पर रहम आता है। वरदानी, सदा वर्से के अधिकारी कभी मेहनत नहीं कर सकते। भाग्यविधाता शिक्षक के भाग्यवान बच्चे सदा पास विद ऑनर होते हैं। न फेल होते हैं, न कोई व्यर्थ बात फील करते हैं।
मेहनत करने के कारण दो ही हैं - या तो माया के विघ्नों से फेल हो जाते वा सम्बन्ध-संपर्क में, चाहे ब्राह्मणों के, चाहे अज्ञानियों के - दोनों सम्बन्ध में कर्म में आते छोटी-सी बात में व्यर्थ फील कर देते हैं जिसको आप लोग फ्लू की बीमारी कहते हो। फ्लू क्या करता है? एक तो शेकिंग (हलचल) होती है। उसमें शरीर हिलता है और यहाँ आत्मा की स्थिति हिलती है, मन हिलता है और मुख कडुवा हो जाता है। यहां भी मुख से कडुवे बोल बोलने लग पड़ते हैं। और क्या होता है? कभी सर्दी, कभी गर्मी चढ़ जाती है। यहाँ भी जब फीलिंग आती है तो अंदर जोश आता है, गर्मी चढ़ती है - इसने यह क्यों कहा, यह क्यों किया? यह जोश है। अनुभवी तो हो ना। और क्या होता है? खाना-पीना कुछ अच्छा नहीं लगता है। यहाँ भी कोई अच्छी ज्ञान की बात भी सुनायेंगे, तो भी उनको अच्छी नहीं लगेगी। आखिर रिजल्ट क्या होती? कमज़ोरी आ जाती है। यहां भी कुछ समय तक कमज़ोरी चलती है। इसलिए न फेल हों, न फील करो। बापदादा श्रेष्ठ मत देते हैं। शुद्ध फीलिंग रहे - ‘मैं सर्वश्रेष्ठ अर्थात् कोटों में कोई आत्मा हूँ, मैं देव आत्मा, महान आत्मा, ब्राह्मण आत्मा, विशेष पार्टधारी आत्मा हूँ।' इस फीलिंग में रहने वाले को व्यर्थ फीलिंग का फ्लू नहीं होगा। इस शुद्ध फीलिंग में रहो। जहां शुद्ध फीलिंग होगी वहां अशुद्ध फीलिंग नहीं हो सकती। तो फ्लू की बीमारी से अर्थात् मेहनत से बच जायेंगे और सदा स्वयं को ऐसा अनुभव करेंगे कि हम वरदानों से पल रहे हैं, वरदानों से आगे उड़ रहे हैं, वरदानों से सेवा में सफलता पा रहे हैं।
मेहनत अच्छी लगती है वा मेहनत की आदत पक्की हो गई है? मेहनत अच्छी लगती वा मौज में रहना अच्छा लगता है? कोई-कोई को मेहनत के काम बगैर और कोई काम अच्छा नहीं लगता है। उनको कुर्सा पर आराम से बिठायेंगे तो भी कहेंगे हमको मेहनत का काम दो। यह तो आत्मा की मेहनत है और आत्मा 63 जन्म मेहनत कर थक गई है। 63 जन्म ढूंढ़ते रहे ना। किसको ढूंढ़ने में मेहनत लगती है ना। तो थके हुए पहले ही हो। 63 जन्म मेहनत कर चुके हो। अब एक जन्म तो मौज में रहो। 21 जन्म तो भविष्य की बात है। लेकिन यह एक जन्म विशेष है। मेहनत और मौज - दोनों का अनुभव कर सकते हो। भविष्य में तो वहाँ यह सब बातें भूल जायेंगी। मजा तो अभी है। दूसरे मेहनत कर रहे हैं, आप मौज में हो। अच्छा!
टीचर्स ने भक्ति की है? कितने जन्म भक्ति की है? इस जन्म में तो नहीं की है ना! आपकी भक्ति पहले जन्म में पूरी हो गई। कब से फिर भक्ति शुरू की? किसके साथ शुरू की? ब्रह्मा बाप के साथ-साथ आपने भी भक्ति की है। कौन-से मंदिर में की? तो भक्ति की भी आदि आत्माएं हो और ज्ञान-मार्ग की भी आदि आत्माएं हो। आदि की भक्ति में अव्यभिचारी भक्ति होने कारण भक्ति का आनन्द, सुख उस समय के प्रमाण कम नहीं हुआ। वह सुख और आनन्द भी अपने स्थान पर श्रेष्ठ रहा।
भक्त-माला में आप हो? जब भक्ति आपने शुरू की तो भक्त-माला में नहीं हो? डबल फॉरेनर्स भक्त-माला में थे? भक्त बने या भक्त-माला में थे? अभी सब सोच रहे हैं कि हम थे वा नहीं थे! विजय माला में भी थे, भक्त-माला में भी थे? पुजारी तो बने लेकिन भक्त-माला में थे? भक्त-माला अलग है। आप तो ज्ञानी सो भक्त बने। वह हैं ही भक्त। तो भक्त-माला और ज्ञानियों की माला में अंतर है। ज्ञानियों की माला है - ‘विजय माला'। और जो सिर्फ भक्त हैं, ऐसे नौधा भक्त जो भक्ति के बिना और बात सुनना ही नहीं चाहते, भक्ति को ही श्रेष्ठ समझते हैं। तो भक्त-माला अलग है, ज्ञान माला अलग है। भक्ति जरूर की लेकिन भक्त-माला में नहीं कहेंगे। क्योंकि भक्ति का पार्ट बजाने के बाद आप सबको ज्ञान में आना है। वह नौधा भक्त हैं और आप नौधा ज्ञानी हो। आत्मा में संस्कारों का अंतर है। भक्त माना सदा मंगता के संस्कार होंगे। मैं नीच हूँ, बाप ऊँचा है - यह संस्कार होंगे। वह रॉयल भिखारी हैं और आप आत्माओं में अधिकारीपन के संस्कार हैं। इसलिए परिचय मिलते ही अधिकारी बन गये। समझा? भक्तों को भी कोई जगह दो ना। दोनों में आप आयेंगे क्या? उन्हों का भी आधाकल्प है, आपका भी आधाकल्प है। उन्हों को भी गायनमाला में आना ही है। फिर भी दुनिया वालों से तो अच्छे हैं। और तरफ तो बुद्धि नहीं है, बाप की तरफ ही है। शुद्ध तो रहते हैं। पवित्रता का फल मिलता है - ‘‘गायन योग्य होने का''। आपकी पूजा होगी। उन्हों की पूजा नहीं होती, सिर्फ स्टेच्यू बनाके रखते हैं गायन के लिए। मीरा का कभी मंदिर नहीं होगा। देवताओं मिसल मीरा की पूजा नहीं होती, सिर्फ गायन है। अभी लास्ट जन्म में चाहे किसी को भी पूज लेवें। धरनी को भी पूजें तो वृक्ष को भी पूजें। लेकिन नियम प्रमाण उन्हों का सिर्फ गायन होता है, पूजन नहीं। आप पूज्य बनते हो। तो आप पूजनीय आत्माएं हो- यह नशा सदा स्मृति में रखो। पूज्य आत्मा कभी कोई अपवित्र संकल्प को टच भी नहीं कर सकती। ऐसे पूज्य बने हो! अच्छा!
चारों ओर के वर्से के अधिकारी आत्माओं को, सदा पढ़ाई में पास विद् ऑनर्स होने वाले, सदा वरदानों द्वारा वरदानी बन औरों को भी वरदानी बनाने वाले - ऐसे बाप, शिक्षक और सतगुरू के प्यारे, सदा रूहानी मौज में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पंजाब - राजस्थान ग्रुप:- सदा अपने को होलीहँस अनुभव करते हो? होलीहँस अर्थात् समर्थ और व्यर्थ को परखने वाले। वह जो हंस होते हैं वो कंकड़ और रत्न को अलग करते हैं, मोती और पत्थर को अलग करते हैं। लेकिन आप होलीहँस किसको परखने वाले हो? समर्थ क्या है और व्यर्थ क्या है, शुद्ध क्या है और अशुद्ध क्या है। जैसे हँस कभी कंकड़ को चुग नहीं सकता - अलग करके रख देगा, छोड़ देगा, ग्रहण नहीं करेगा। ऐसे आप होलीहँस व्यर्थ को छोड़ देते हो और समर्थ संकल्प को धारण करते हो। अगर व्यर्थ आ भी जाए तो धारण नहीं करेंगे। व्यर्थ को अगर धारण किया तो होलीहँस नहीं कहेंगे। वह तो बगुला धारण करता है। व्यर्थ तो बहुत सुना, बोला, किया लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ? गँवाया, सब-कुछ गँवा दिया ना। तन भी गँवा दिया। देवताओं के तन देखो, और अभी के तन देखो क्या हैं? कितना अंतर है! जवान से भी बुड्ढे अच्छे हैं। तो तन भी गँवाया, मन का सुख-शान्ति भी गँवाया, धन भी गँवाया। आपके पास कितना धन था? अथाह धन कहां गया? व्यर्थ में गँवा दिया। अभी जमा कर रहे हो या गँवा रहे हो? होलीहँस गँवाने वाला नहीं, जमा करने वाला। अभी 21 जन्म तन भी अच्छा मिलेगा और मन भी सदा खुश रहने वाला होगा। धन तो ऐसे होगा जैसे अभी मिट्टी है। अभी मिट्टी का भी मूल्य हो गया है लेकिन वहां रत्नों से तो खेलेंगे, रत्नों से मकान की सजावट होगी। तो कितना जमा कर रहे हो! जिसके पास जमा होता है उसको खुशी होती है। अगर जमा नहीं होता तो दिल छोटी होती है, जमा होता है तो दिल बड़ी होती है। अभी कितनी बड़ी दिल हो गई है!
तो हर कदम में जमा का खाता बढ़ता जाता है या कभी-कभी जमा करते हो? अपना चार्ट अच्छी तरह से देखा है? ऐसे समय पर भी कभी-कभी व्यर्थ तो नहीं चला जाता? अभी तो समय की वैल्यू का पता पड़ गया है ना। संगम का एक सेकण्ड कितना बड़ा है! कहने में तो आयेगा एक-दो सेकण्ड ही तो गया लेकिन एक सेकण्ड कितना बड़ा है! यह याद रहे तो एक सेकण्ड भी नहीं गँवायेंगे। सेकण्ड गँवाना माना वर्ष गँवाना - संगम के एक सेकण्ड का इतना महत्त्व है! तो जमा करने वाले हैं, गँवाने वाले नहीं। क्योंकि या तो होगा गँवाना, या होगा कमाना। सारे कल्प में कमाई करने का समय अभी है। तो होलीहँस अर्थात् स्वप्न में, संकल्प में भी कभी व्यर्थ गँवायेंगे नहीं।
होली अर्थात् सदा पवित्रता की शक्ति से अपवित्रता को सेकण्ड में भगाने वाले। न केवल अपने लिए बल्कि औरों के लिए भी। क्योंकि सारे विश्व को परिवर्तन करना है ना। पवित्रता की शक्ति कितनी महान है, यह तो जानते हो ना! पवित्रता ऐसी अग्नि है जो सेकण्ड में विश्व के किचड़े को भस्म कर सकती है। सम्पूर्ण पवित्रता ऐसी श्रेष्ठ शक्ति है! अंत में जब सब संपूर्ण हो जायेंगे तो आपके श्रेष्ठ संकल्प में लगन की अग्नि से यह सब किचड़ा भस्म हो जायेगा। योग ज्वाला हो। अंत में ऐसे धीरे- धीरे सेवा नहीं होगी। सोचा और हुआ - इसको कहते हैं ‘विहंग मार्ग की सेवा'। अभी अपने में भर रहे हो, फिर कार्य में लगायेंगे। जैसे देवियों के यादगार में दिखाते हैं कि ज्वाला से असुरों को भस्म कर दिया। असुर नहीं लेकिन आसुरी शक्तियों को खत्म कर दिया। यह किस समय का यादगार है? अभी का है ना। तो ऐसे ज्वालामुखी बनो। आप नहीं बनेंगे तो कौन बनेगा! तो अभी ज्वालामुखी बन आसुरी संस्कार, आसुरी स्वभाव-सब-कुछ भस्म करो। अपने तो कर लिये हैं ना या अपने भी कर रहे हो? अच्छा!
पंजाब वाले निर्भय तो बन गये। डरने वाले तो नहीं हो न? ज्वालामुखी हो, डरना क्यों? मरे तो पड़े ही हो, फिर डरना किससे? और राजस्थान को तो ‘‘राज्य-अधिक