26-10-91 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
तपस्या का प्रत्यक्ष-फल - खुशी
अव्यक्त बापदादा अपने तपस्वी राज बच्चों प्रति बोले: -
आज बापदादा अपने सर्व तपस्वीराज बच्चों को देख रहे हैं। तपस्वी भी हो और राज-अधिकारी भी हो इसलिए तपस्वीराज हो। तपस्या अर्थात् राज्य अधिकारी बनना। तपस्या राजा बनाती है। तो सभी राजा बने हो ना। तपस्या का बल क्या फल देता है? अधीन से अधिकारी अर्थात् राजा बना देता है इसलिए गायन भी है कि तपस्या से राज्य भाग्य प्राप्त होता है। तो भाग्य कितना श्रेष्ठ है! ऐसा भाग्य सारे कल्प में किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकता। इतना बड़ा भाग्य है जो भाग्य विधाता को अपना बना दिया है। एक एक भाग्य अलग मांगने की आवश्यकता नहीं है। भाग्य विधाता से सर्व भाग्य वर्से में ले लिया है। वर्सा कभी मांगा नहीं जाता है। सर्व भाग्य, भाग्य विधाता ने स्वयं ही दिया है। तपस्या अर्थात् आत्मा कहती है मैं तेरी तू मेरा, इसको ही तपस्या कहा जाता है। इसी तपस्या के बल से भाग्य विधाता को अपना बना दिया है। भाग्य विधाता बाप भी कहते हैं मैं तेरा। तो कितना श्रेष्ठ भाग्य हो गया! भाग्य के साथ साथ स्वराज्य अभी मिला है। भविष्य विश्व का राज्य स्वराज्य का ही आधार है। इसीलिए तपस्वीराज हो। बापदादा को भी अपने हर एक राज्य अधिकारी बच्चे को देख हर्ष होता है। भक्ति में अनेक जन्मों में बापदादा के आगे क्या बोला ? याद है या भूल गये हो? बार बार अपने को मैं गुलाम, मैं गुलाम ही बोला है। मैं गुलाम तेरा। बाप कहते हैं मेरे बच्चे और गुलाम ! सर्व शक्तिवान के बच्चे और गुलाम शोभता है ! इसलिए बाप ने मैं गुलाम तेरा के बजाए क्या अनुभव कराया ? मैं तेरा। तो गुलाम से राजा बन गये। अभी भी कभी गुलाम तो नहीं बनते हो ? गुलामपन के पुराने संस्कार कभी इमर्ज तो नहीं होते हैं? माया के गुलाम होते हो? राजा कभी गुलाम नहीं बन सकता है। गुलामपन छूट गया वा कभी कभी अच्छा लगता है? तो तपस्या का बल बहुत श्रेष्ठ है और तपस्या क्या करते हो ? तपस्या में मेहनत करते हो? बापदादा ने सुनाया था कि तपस्या क्या है ? मौज मनाना। तपस्या अर्थात् बहुत सहज नाचना और गाना बस। नाचना गाना सहज होता है वा मुश्किल होता है? मनोरंजन होता है वा मेहनत होती है? तो तपस्या में क्या करते हो? तपस्या का प्रत्यक्षफल है खुशी। तो खुशी में क्या होता है? नाचना। तपस्या अर्थात् खुशी में नाचना और बाप के और अपने आदि अनादि स्वरूप के गुण गाना। तो यह गीत कितना बड़ा और कितना सहज है। इसमें गला ठीक है वा नहीं ठीक है इसकी भी जरूरत नहीं है। निरन्तर यह गीत गा सकते हो। निरन्तर खुशी में नाचते रहो। तो तपस्या का अर्थ क्या हुआ ? नाचना और गाना कितना सहज है। माथा भारी उसका होता है जो छोटी सी गलती करते हैं। ब्राह्मण जीवन में कभी किसका माथा भारी हो नहीं सकता। हॉस्पिटल बनाने वालों का माथा भारी हुआ ? ट्रस्टी सामने बैठे हैं ना! माथा भारी है, जब करनकरावनहार बाप है तो आपको क्या बोझ है ? यह तो निमित्त बनाकर भाग्य बनाने का साधन बना रहे हो। आपकी जिम्मेवारी क्या है? बाप के बजाए अपनी जिम्मेवारी समझ लेते हैं तो माथा भारी होता है। बाप सर्व शक्तिवान मेरा साथी है तो क्या भारीपन होगा। छोटी सी गलती कर देते हो, मेरी जिम्मेवारी समझते हो तो माथा भारी होता है। तो ब्राह्मण जीवन ही नाचो गाओ और मौज करो। सेवा चाहे वाचा है चाहे कर्मणा। यह सेवा भी एक खेल है। सेवा कोई और चीज नहीं है। कोई दिमाग के खेल होते हैं, कोई हल्के खेल होते हैं। लेकिन हैं तो खेल ना। दिमाग के खेल में दिमाग भारी होता है क्या। तो यह सब खेल करते हो। तो चाहे कितना भी बड़ा सोचने का काम हो, अटेन्शन देने का काम हो लेकिन मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा के लिए सब खेल है, ऐसे है? वा थोड़ा थोड़ा करते करते थक जाते हो? मेजोरिटी अथक बनते हो लेकिन कभी कभी थोड़ा थक जाते हो। यही योग का प्रयोग सर्व खजानों को,चाहे समय, चाहे संकल्प, चाहे ज्ञान का खज़ाना वा स्थूल तन भी अगर योग के प्रयोग की रीति से प्रयोग करो तो हर खज़ाना बढ़ता रहेगा। इस तपस्या वर्ष में योग का प्रयोग किया है ना। क्या प्रयोग किया है? इस एक एक खज़ाने का प्रयोग करो। कैसे प्रयोग करो ? कोई भी खज़ाने को कम खर्चा और प्राप्ति अधिक। मेहनत कम सफलता ज्यादा इस विधि से प्रयोग करो। जैसे समय को वा संकल्प को उठाओ - यह श्रेष्ठ खज़ाने हैं। तो संकल्प का खर्च कम हो लेकिन प्राप्ति ज्यादा हो। जो साधारण व्यक्ति दो चार मिनट संकल्प चलाने के बाद, सोचने के बाद सफलता या प्राप्ति कर सकता है वह आप एक दो सेकेण्ड में कर सकते हो। जिसको साकार में भी ब्रह्मा बाप कहते थे कम खर्चा बाला नशीन। खर्च कम करो लेकिन प्राप्ति 100 गुणा हो। इससे क्या होगा? जो बचत होगी चाहे समय की, चाहे संकल्प की तो बचत को औरों की सेवा में लगा सकेंगे। दान पुण्य कौन कर सकता है? जिसको धन की बचत होती है। अगर अपने प्रति लगाने जितना ही कमाया और खाया तो दान पुण्य कर नहीं सकेंगे। योग का प्रयोग यही है। कम समय में रिजल्ट ज्यादा, कम संकल्प से अनुभूति ज्यादा हो तब ही हर खज़ाना औरों के प्रति यूज कर सकेंगे। ऐसे ही वाणी और कर्म, कम खर्चा और सफलता ज्यादा तब ही कमाल गाई जाती है। बापदादा ने कमाल क्या की? कितने थोड़े समय में क्या से क्या बना दिया? तब तो कहते हो कमाल कर दी। एक का पद्मगुणा प्राप्ति का अनुभव करते हो। तब कहते हो कमाल कर दिया। जैसे बाप-दादा का खज़ाना प्राप्ति और अनुभूति ज्यादा कराता है। ऐसे आप सब भी योग का प्रयोग करो। सिर्फ यह गीत नहीं है कि ‘‘बाबा आपने कमाल कर दिया है’’। आप भी तो कमाल करने वाले हो। करते भी हो। लेकिन तपस्या के चलते हुए समय में मेजोरिटी की रिजल्ट क्या देखी?
तपस्या का उमंग उत्साह अच्छा है। अटेन्शन भी है सफलता भी है लेकिन स्वयं प्रति सर्व खज़ाने यूज ज्यादा करते हो। अपनी अनुभूतियाँ करना यह भी अच्छी बात है। लेकिन तपस्या वर्ष स्वयं प्रति और विश्व सेवा प्रति ही दिया हुआ है। तपस्या के वायब्रेशन्स विश्व में और तीव्रगति से फैलाओ। जो सुनाया कि योग के प्रयोग को और अनुभव की प्रयोगशाला में प्रयोग की गति को बढ़ाओ । वर्तमान समय सर्व आत्माओं को आवश्यकता है आपके शक्तिशाली वायब्रेशन्स द्वारा वायुमण्डल द्वारा परिवर्तन होने की। इसीलिए प्रयोग को और बढ़ाओ। सहयोगी बच्चे भी बहुत हैं। यह सहयोग ही योग में बदल जायेगा। एक हैं स्नेही सहयोगी और दूसरे हैं सहयोगी योगी। और तीसरे हैं निरन्तर योगी प्रयोगी। अभी अपने से पूछो मैं कौन। लेकिन बापदादा को तीनों ही प्रकार के बच्चे प्रिय हैं। कई बच्चों के वायब्रेशन्स बापदादा के पास पहुंचे हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के वायब्रेशन्स हैं। जानते हो कौन सी बात बाप के पास पहुंची है? इशारे से समझने वाले हो ना? इस तपस्या वर्ष में जो कुछ हो रहा है इसका कारण क्या ? बड़े बड़े प्रोजेक्ट कर रहे हो इसका कारण क्या? कोई समझते हैं कि यही तपस्या का फल है। कोई समझते हैं तपस्या वर्ष में यह क्यों? दोनों वायब्रेशन्स आते हैं। लेकिन यह समय की तीव्रगति और तपस्या के वायब्रेशन्स से आवश्यकता का पूर्ण होना यह तपस्या के बल का फल है। फल तो खाना पड़ेगा ना। यह ड्रामा दिखाता है कि तपस्या सर्व आवश्यकताओं को समय पर सहज पूर्ण कर सकती है। समझा। क्वेश्चन नहीं उठ सकता कि यह क्यों हो रहे हैं। तपस्या अर्थात् सफलता सहज अनुभूति हो। आगे चलकर असम्भव कैसे सहज सम्भव होता है यह अनुभव ज्यादा से ज्यादा करते रहेंगे। विघ्नों का आना यह भी ड्रामा में आदि से अन्त तक नूंध है। यह विघ्न भी असम्भव से सम्भव की अनुभूति कराते हैं। और आप सभी तो अनुभवी हो ही गये हैं। इसलिए विघ्न भी खेल लगता है। जैसे फुटबाल का खेल करते हो । तो क्या करते हो? बाल आता है तभी तो ठोकर लगाते हो। अगर बाल ही न आये तो ठोकर कैसे लगायेंगे? खेल कैसे होगा? यह भी फुटबाल का खेल है। खेल खेलने में मजा आता है ना या मूंझते हो? कोशिश करते हो ना कि बाल मेरे पांव में आये मैं लगाऊं। यह खेल तो होता रहेगा। नाथिंगन्यु। ड्रामा खेल भी दिखाता है और सम्पन्न सफलता भी दिखाता है। यही ब्राह्मण कुल की रीति रसम है। अच्छा।
इस ग्रुप को बहुत चांस मिले हैं। किसी भी कार्य के निमित्त बनना,किसी भी प्रकार की विधि से निमित्त बनना अर्थात् चांस लेने वाले चांसलर बनना। आज के विश्व में सम्पत्ति वाले तो बहुत हैं लेकिन आपके पास सबसे बड़े ते बड़ी सम्पत्ति कौन सी है जो दुनिया वालों के पास नहीं है? और उसी की आवश्यकता सम्पत्ति वालों को भी है तो गरीब को भी है। वह कौन सी सम्पत्ति है? सबसे बड़े ते बड़ी आवश्यक सम्पत्ति है सिम्पथी। चाहे गरीब हैं चाहे धनवान हैं लेकिन आज सिम्पथी नहीं है। सिम्पथी की सम्पत्ति सबसे बड़े ते बड़ी है। और कुछ भी नहीं दो लेकिन सिम्पथी से सबको सन्तुष्ट कर सकते हो। और आपकी सिम्पथी ईश्वरीय परिवार के नाते से सिम्पथी है। अल्पकाल की सिम्पथी नहीं। पारिवारिक सिम्पथी सबसे बड़े ते बड़ी सिम्पथी है और यह सबको आवश्यक है और आप सबको दे सकते हो। रूहानी सिम्पथी तन मन और धन की भी पूर्ति कर सकती है। अच्छा इस पर फिर सुनायेंगे।
चारों ओर के तपस्वी राज श्रेष्ठ आत्मायें, सदा योग के प्रयोग द्वारा कम खर्च सफलता श्रेष्ठ अनुभव करने वाले, सदा मैं तेरा तू मेरा इस तपस्या में मगन रहने वाले, सदा हर समय तपस्या के द्वारा खुशी में नाचने और बाप और अपने गुण गाने वाले, ऐसे देश विदेश के सर्व स्मृति स्वरूप बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
1- हॉस्पिटल की सेवा के निमित्त भाई बहिनों से:- बहुत अथक सेवा की है ना। अथक सेवाधारी को बापदादा के दिल का स्नेह और हर समय का सहयोग स्वत: ही प्राप्त होता है। तो आप सबने कार्य किया या कोई ने कराया? (बाबा ने कराया) निमित्त आपने किया ना। अगर करेंगे नहीं तो पायेंगे नहीं। इसलिए करने के निमित्त बनना अर्थात् पाना। हर एक ने अपना अपना बहुत अच्छा कार्य किया। बिना सर्व के अंगुली डाले कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए जो भी सभी बैठे हो सभी को अपने अपने कार्य की मुबा-रक हो। अभी समझते हो ना कि यह कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे तो और भी बना सकते हैं या यही बहुत मुश्किल है? सहज हो गया ना। कोई भी मुश्किल अगर आती भी है तो खेल के लिए आती है। समझो खेल कर रहे हैं। कभी भी मुश्किल को मुश्किल नहीं समझो। मनोरंजन समझो तो मुश्किल सहज हो जायेगी। यह निमित्त बनना भी भाग्य की निशानी है। भाग्य आपको खींचकर ले आया। अनेक आत्माओं की दुआयें प्राप्त करने का भाग्य। यह कम बात नहीं है। यह विरले को प्राप्त होता है। जिन्होंने भी हार्ड वर्क किया और समय पर कार्य पूरा किया, सबको पद्मगुणा मुबारक हो। बापदादा वतन में बैठे भी देखता है कि क्या क्या कौन कर रहा है। चाहे दूसरा कोई देखे या न देखे। लेकिन बापदादा सबको देखते हैं। सबके मन का रिकार्ड और तन का रिकार्ड दोनों ही देखते हैं। (ज्ञान सरोवर,सालगांव के लिए) वहॉ भी सभी ने बहुत अच्छी सेवा की। दिन रात लगकर जंगल को मंगल बनाना यह बहुत बड़ी सेवा है। उन्हों को भी विशेष मुबारक।
(हॉस्पिटल के दूसरे फेज़ के लिए वरदान) यह भी अनेक आत्माओं के अनेक जन्मों के जीवन को श्रेष्ठ बनाने का फाउन्डेशन हो जायेगा। निमित्त यह पत्थर का फाउन्डेशन लगाते हैं लेकिन अनेक आत्मायें दुआओं के भण्डार से भरपूर हो आपको दुआयें देती रहेंगी। तो यह फाउन्डेशन लगाना अर्थात् दुआओं के पात्र बनना। इसलिए और दिल से उमंग से, तन-मन-धन, मन-वचन-कर्म सबसे बढ़ाते चलो और अपने साथ औरों की जीवन को श्रेष्ठ बनाते चलो। जैसे पहले उमंग उत्साह से किया है उससे भी ज्यादा उमंग उत्साह से यह कार्य सम्पन्न हुआ पड़ा है। सब निमित्त हैं। अच्छा।
2- सदा अपने को होलीहंस समझते हो? होलीहंस का कर्तव्य क्या होता है? होलीहंस अर्थात् जो सदा सत्य और असत्य का निर्णय कर सके। हंस में निर्णय शक्ति तीव्र होती है। जिस निर्णय शक्ति के आधार पर कंकड़ और रतन को अलग कर सकते हैं। रतन को ग्रहण करेगा और कंकड़ को छोड़ देगा। तो होलीहंस अर्थात् जो सदा निर्णय शक्ति में नम्बरवन हो। निगेटिव को छोड़ दे और पाजिटिव को धारण करे। देखते हुए सुनते हुए न देखे न सुने। यह है होलीहंस की विशेषता। तो ऐसे हो या कभी नगेटिव भी देख लेते हो? निगेटिव अर्थात् व्यर्थ बातें, व्यर्थ कर्म न सुने न करें और न बोलें । तो ऐसी शक्ति है जो व्यर्थ को समर्थ में चेंज कर दो। या व्यर्थ चलता है? चाहते नहीं हैं लेकिन चल पड़ता है ,ऐसे तो नहीं है? यदि व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने की शक्ति नहीं होगी तो अन्त में व्यर्थ का संस्कार धोखा दे देगा। इसलिए होलीहंस अर्थात् परिवर्तन करना। व्यर्थ को समर्थ में चेंज करने के लिए विशेष क्या अभ्यास चाहिए? कैसे चेंज करेंगे? संकल्प पावरफुल कैसे बनेगा? हर आत्मा के प्रति शुभ भावना और शुभ कामना अगर ऐसी विधि होगी तो परिवर्तन कर लेंगे। अगर किसी के प्रति शुभ भावना होती है तो उसकी उल्टी बात भी सुल्टी लगती है और शुभ भावना नहीं होगी तो सुल्टी बात भी उल्टी लगेगी। इसलिए हर आत्मा के प्रति शुभ भावना और शुभ कामना सदा आव-श्यक है। तो यह रहती है या कभी कभी व्यर्थ भावना भी हो जाती है? अपनी शुभ भावना व्यर्थ वाले को भी चेंज कर देती है। वैसे भी गाया हुआ है कि भावना का फल मिलता है। जब भक्तों को भावाना का फल मिलता है तो आपको शुभ भावना का फल नहीं मिलेगा? तो व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने का आधार है शुभ भावना, शुभ कामना। कैसा भी हो लेकिन आप शुभ भावना दो। कितना भी गंदा पानी इकट्ठा हो लेकिन अच्छा डालते जायेंगे तो गंदा निकलता जायेगा। अगर कोई आत्मा में व्यर्थ को निकालने की समर्थी नहीं है तो आप अपनी शुभ भावना की समर्थी से उसके व्यर्थ को समर्थ कर दो। परिवर्तन कर दो। इतनी शक्ति है या कभी असर हो जाता है? जैसे बापदादा ने आपके व्यर्थ कर्म को देखकर परिवर्तन कर लिया ना। कैसे किया? शुभ भावना से मेरे बच्चे हैं। तो आपकी शुभ भावना कि मेरा परिवार है, ईश्वरीय परिवार है। कैसा भी है चाहे वह पत्थर है लेकिन आप पत्थर को भी पानी कर दो। ऐसी शुभ भावना और शुभ कामना वाले होलीहंस हो? हंस को सदा स्वच्छ दिखाते हैं। तो स्वच्छ बुद्धि हंस के समान परि-वर्तन करेंगे। अपने में धारण नहीं करेंगे। तो संगमयुगी होलीहंस हैं यह स्मृति सदा रखनी है। हंस सदा कहाँ रहते हैं? (सरोवर में) तो आप सभी कहाँ रहते हो? ज्ञान सरोवर में। और कहॉ तो नहीं चले जाते? स्थान भी कितना बढ़िया है सरोवर और स्थिति भी कितनी बढ़िया है। जो सदा ज्ञान सरोवर में रहते हैं उनकी स्थिति समर्थ होगी या व्यर्थ होगी? तो सदा अपनी बुद्धि के स्थान और स्थिति को चेक करो। स्थान से स्थिति बनती है। सदा यह स्मृति रहे कि मैं हूँ ही होलीहंस। जैसे प्रदर्शनी में चित्र रखते हो न बुरा देखो, न बुरा बोलो, न बुरा सुनो? यह चित्र किसके लिए रखते हो? औरों के लिए? तो सारे दिन में चेक करो कि जैसा चित्र है वैसी ही चलन रही? क्योंकि अगर कोई व्यर्थ करता है और आपने सुन लिया तो समय किसका गया? देख लेते हो तो सोच किसका चलेगा। आपका चलेगा ना। नुकसान किसका हुआ? उसका या आपका? दोनों का नुकसान हुआ लेकिन आप अपना नुकसान नहीं करो। स्व परिवर्तन से दूसरे का परिवर्तन कर सकते हो। दूसरे का परिवर्तन हो तो मैं परिवर्तन होऊं। तो न वह बद-लेगा न आप बदलेंगे। दोनों रह जायेंगे। तो होलीहंस अर्थात् स्व परिवर्तन द्वारा औरों को परिवर्तन करें। आपकी शुभ भावना और श्ाभ कामना वाणी से भी ज्यादा काम कर सकती है। किसी के भी सामने जाओ आपकी रूहानी भावना और कामना हो तो वह परिवर्तन अवश्य होगा। अच्छा।
मधुबन निवासियों से
मधुबन निवासी चैतन्य दर्शनीय मूर्तियाँ हो। मधुबन में सब क्या देखने आते हैं? क्या मकान देखने आते हैं? मधुबन निवासियों को देखने आते हैं। तो मधुबन निवासी चलते फिरते चैतन्य दर्शनीय मूर्त हो। चलते फिरते आपका दर्शन होता रहता है। ऐसे हर कर्म करते अपने आपको दर्शनीय मूर्त समझकर चलते हो? या कभी साधारण भी हो जाते हो? मन्दिर में देखा है हर कर्म का दर्शन होता है? अभी भगवान सो रहा है अभी नहा रहा है, अभी खा रहा है, अभी श्रृंगार कर रहा है। सबका दर्शन होता है। इससे क्या सिद्ध होता है? कि हर कर्म करते दर्शनीय मूर्त। इसलिए हर कर्म का दर्शन होता है। तो ऐसे दर्शनीय मूर्तियों का कितना महत्व है। मधुबन वालों ने कितनी दुआओं का स्टॉक जमा किया है? हिसाब है? अच्छा दुआयें सिर्फ लेते हो या देते भी हो? जो भी कर्म करो दुआयें लो और दुआयें दो। जब भी कोई श्रेष्ठ कर्म करता है तो सबके मुख से दुआयें निकलती हैं। हर कर्म में दुआयें दो और दुआयें लो तो सभी के मुख से निकलेगा कि कमाल है, बहुत अच्छे हैं। वाह! ऐसे उमंग उत्साह के बोल निकलेंगे। ऐसे कर्म यादगार बन जाते हैं। तो दुआयें लेने वा देने में बिजी हो या सिर्फ कर्मणा में बिजी हो? कोई भी काम करो लेकिन खुशी लो और खुशी दो। दुआयें लो दुआयें दो। जब अभी संगम पर दुआयें लेंगे और देंगे तब आपके जड़ चित्र द्वारा भी दुआ मिलती रहेगी। अभी जमा करते हो तभी मिलती है। अच्छा सभी खुश रहते हो? जो स्वयं खुश रहता है उससे अन्य स्वत: ही खुश होते हैं। तो सबसे बढ़िया काम है खुश रहना और खुश करना। सेवा का भाग्य तो है ही है, मौज भी है और सेवा भी है। मधुबन का अर्थ ही है मौज। मधुबन में रोज फंक्शन होते हैं । (ज्ञान सरोवर के लिए)
जैसा लक्ष्य रखेंगे वैसा होना कोई बड़ी बात नहीं है। इतने सब ब्राह्मण आत्माओं के सहयोग की अंगुली जहाँ है वहाँ पहाड़ क्या रहेगा। इसलिए जैसा लक्ष्य वैसा होता है और होता ही रहेगा। अच्छा- ओम शान्ति
04-12-91 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सफल तपस्वी अर्थात् प्योरिटी की पर्सनैलिटी और रॉयल्टी वाले
आज चारों ओर के तपस्वी बच्चों की याद बापदादा के पास पहुँच रही है। कोई साकार में सम्मुख याद का रिटर्न मिलन मना रहे हैं कोई बच्चे आकारी रूप में याद और मिलन का अनुभव कर रहे हैं। बापदादा दोनों ही रूप के बच्चों को देख रहे हैं। आज अमृतवेले बापदादा बच्चों की तपस्या का प्रत्यक्ष स्वरूप देख रहे थे। हर एक बच्चा अपने पुरूषार्थ प्रमाण तपस्या कर रहे हैं। लक्ष्य भी है और उमंग भी है। तपस्वी सभी हैं क्योंकि ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही तपस्या है। तपस्या अर्थात् एक के लगन में मग्न रहना। सफल तपस्वी बहुत थोड़े हैं। पुरुषार्थी तपस्वी बहुत हैं। सफल तपस्वी की निशानी उनके सूरत और सीरत में प्योरिटी की पर्सनैलिटी और प्योरिटी की रॉयल्टी सदा स्पष्ट अनुभव होगी। तपस्या का अर्थ ही है मन-वचन-कर्म और सम्बन्ध-सम्पर्क में अपवित्रता का अंश मात्र भी विनाश होना। नाम- निशान समाप्त होना। जब अपवित्रता समाप्त हो जाती है तो इस समाप्ति को ही सम्पन्न स्थिति कहा जाता है। सफल तपस्वी अर्थात् सदा-स्वत: पवित्रता की पर्सनैलिटी और रॉयल्टी, हर बोल और कर्म से, दृष्टि और वृत्ति से अनुभव हो। प्योरिटी सिर्फ ब्रह्मचर्य नहीं, सम्पूर्ण पवित्रता अर्थात् संकल्प में भी कोई भी विकार टच न हो। जैसे ब्राह्मण जीवन में शारीरिक आकर्षण व शारीरिक टचिंग अपवित्रता मानते हो, ऐसे मन-बुद्धि में किसी विकार के संकल्प मात्र की आकर्षण व टचिंग, इसको भी अपवित्रता कहा जायेगा। पवित्रता की पर्सनैलिटी वाले, रॉयल्टी वाले मन-बुद्धि से भी इस बुराई को टच नहीं करते। क्योंकि सफल तपस्वी अर्थात् सम्पूर्ण वैष्णव। वैष्णव कभी बुरी चीज को टच नहीं करते हैं। तो उन्हों का है स्थूल, आप ब्राह्मण वैष्णव आत्माओं का है सूक्ष्म। बुराई को टच न करना यही तपस्या है। धारण करना अर्थात् ग्रहण करना। ये तो बहुत मोटी बात है। लेकिन संकल्प में भी टच नहीं करना। इसको ही कहा जाता है सच्चे वैष्णव।
सिर्फ याद के समय याद में रहना इसको तपस्या नहीं कहा जाता। तपस्या अर्थात् प्योरिटी के पर्सनैलिटी और रॉयल्टी का स्वयं भी अनुभव करना और औरों को भी अनुभव कराना। सफल तपस्वी का अर्थ ही है विशेष महान आत्मा बनना। विशेष आत्माओं वा महान आत्माओं को देश की वा विश्व की पर्सनैलिटीज़ कहते हैं। पवित्रता की पर्सनैलिटी अर्थात् हर कर्म में महानता और विशेषता। पर्सनैलिटी अर्थात् सदा स्वयं की और औरों की सेवा में सदा बिज़ी रहना अर्थात् अपनी इनर्जा, समय, संकल्प वेस्ट नहीं गँवाना, सफल करना। इसको कहेंगे पर्सनैलिटी वाले। पर्सनैलिटी वाले कभी भी छोटी-छोटी बातों में अपने मन-बुद्धि को बिज़ी नहीं रखते हैं। तो अपवित्रता की बातें आप श्रेष्ठ आत्माओं के आगे छोटी हैं या बड़ी हैं? इसलिए तपस्वी अर्थात् ऐसी बातों को सुनते हुए नहीं सुनें, देखते हुए नहीं देखें। ऐसा अभ्यास किया है? ऐसी तपस्या की है? वा यही सोचते हो चाहते तो नहीं हैं, लेकिन दिखाई दे देता है, सुनाई दे देता है? जैसे कोई चीज़ से आपका कनेक्शन ही नहीं हैं, उन चीजों को देखते हुए नहीं देखते हो ना। जैसे रास्ते पर जाते हो, कहीं कुछ दिखाई देता है परन्तु आपके मतलब की कोई बात नहीं है, तो देखते हुए नहीं देखेंगे ना। साइड सीन समझ कर पार कर लेंगे ना? ऐसे जो बातें सुनते हो, देखते हो, आपके काम की नहीं हैं, तो सुनते हुए नहीं सुनो, देखते हुए न देखो। अगर मन-बुद्धि में धारण किया, कि ये ऐसे हैं, ये वैसे हैं... इसको कहा जायेगा व्यर्थ बुराई को टच किया अर्थात् सच्चा वैष्णवपन सम्पूर्ण रूप से नहीं है। प्योरिटी के पर्सनैलिटी में परसेन्टेज कम अर्थात् तपस्या की परसेन्टेज कम। तो समझा तपस्या क्या है?
इसी विधि से अपने आपको चेक करो- तपस्या वर्ष में तपस्या का प्रत्यक्ष स्वरूप प्योरिटी की पर्सनैलिटी अनुभव करते हो? पर्स-नैलिटी कभी छिप नहीं सकती। प्रत्यक्ष दिखाई जरूर देती है। जैसे साकार ब्रह्मा बाप को देखा- प्योरिटी की पर्सनैलिटी कितनी स्पष्ट अनुभव करते थे। ये तपस्या के अनुभव की निशानी अब आप द्वारा औरों को अनुभव हो। सूरत और सीरत देनों द्वारा अनुभव करा सकते हो। अभी भी कई लोग अनुभव करते भी हैं। लेकिन इस अनुभव को और स्वयं द्वारा औरों में फैलाओ। आज पर्सनैलिटी का सुनाया। फिर रॉयल्टी का सुनायेंगे।
सभी मिलन मनाने आये हैं। तो बापदादा भी मिलन मनाने के लिए आप जैसे व्यक्त शरीर में आते हैं। समान बनना पड़ता है ना। आप साकार में हो तो बाप को भी साकार तन का आधार लेना पड़ता है। वैसे आपको व्यक्त से अव्यक्त बनना है या अव्यक्त को व्यक्त बनना है? कायदा क्या कहता है? अव्यक्त बनना है ना? तो फिर अव्यक्त को व्यक्त में क्यों लाते हो? जब आपको भी अव्यक्त ही बनना है तो अव्यक्त को तो अव्यक्त ही रहने दो ना। अव्यक्त मिलन के अनुभव को बढ़ाते चलो। अव्यक्त भी ड्रामा अनुसार व्यक्त में आने के लिए बांधे हुए हैं लेकिन समय प्रमाण सरकमस्टांस प्रमाण अव्यक्त मिलन का अनुभव बहुत काम में आने वाला है। इसलिए इस अनुभव को इतना स्पष्ट और सहज करते जाओ, जो समय पर यह अव्यक्त मिलन साकार समान ही अनुभव हो। समझा - उस समय ऐसे नहीं कहना कि हमको तो अव्यक्त से व्यक्त में मिलने की आदत है । जैसा समय वैसे मिलन मना सकते हो। समझा!
जो भी जहाँ से भी आये हो इस समय सभी मधुबन निवासी हो। या अपने को महाराष्ट्र निवासी, उड़ीसा निवासी... समझते हो? ओरिजनल तो मधुबन निवासी हो। यह सेवा अर्थ भिन्न-भिन्न स्थान पर गये हो, ब्राह्मण अर्थात् मधुबन निवासी। सेवा स्थान पर गये हो इसीलिए सेवा स्थान को मेरा यही स्थान है - यह कभी भी नहीं समझना। कई बच्चे ऐसे कहते हैं, इसको चेंज करो तो कहते हैं नहीं, हमको पंजाब में वा उड़ीसा में ही भेजो। तो ओरिजनल पंजाब, उड़ीसा के हो वा मधुबन के हो । फिर क्यों कहते हो हम पंजाब के हैं तो पंजाब में ही भेजो, गुजरात के हैं तो गुजरात में ही भेजो? चेंज होने में तैयार हो? टीचर्स सभी तैयार हो? किसी को कहाँ भी चेंज करें, तैयार हैं? देखो, दादी सभी को सर्टिफिकेट ना का दे रही है। अच्छा यह भी अप्रैल में करेंगे। जो चेंज होने के लिए तैयार हों वही मिलने आवें। सेन्टर पर जाकर सोचेंगे यदि नहीं रहेंगे कि इसका क्या होगा, मेरा क्या होगा..? थोड़ा बहुत कुछ किनारा भी करेंगी। बापदादा से तपस्या की प्राइज़ लेने चाहते हो और बापदादा को तपस्या की प्राइज़ देने भी चाहते हो, या सिर्फ लेने चाहते हो? सभी सेन्टर से सरेन्डर होकर आना। नये मकान में आसक्ति है क्या? मेहनत करके बनाया है ना, जहाँ मेरापन है वहाँ तपस्या किसको कहा जायेगा? तपस्या अर्थात् तेरा और तपस्या भंग होना माना मेरा। समझा - ये तो सब छोटी-छोटी टीचर्स हैं कहेंगी हर्जा नहीं यहाँ से वहाँ हो जायेंगी। बड़ों को थोड़ा सोचना पड़ता। अच्छा - जो सेन्टर पर आने वाले हैं वो भी सोचते होंगे हमारी टीचर चली जायेगी, आप सभी भी एवररेडी हो? कोई भी कहाँ भी चली जाये। वा कहेंगे हमको तो यही टीचर चाहिए? जो समझते हैं कि कोई भी टीचर मिले उसमें राज़ी हैं वह हाथ उठावें। कोई भी टीचर मिले बापदादा जिम्मेवार है, दादी दीदी जिम्मेवार है, वह हाथ उठायें। अभी ये टी.वी. में तो निकाला है ना। सभी के फोटो टी.वी. में निकाल लो फिर देखेंगे। अन्तिम पेपर का क्वेश्चन ही यह आना है - नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप। तो अन्तिम पेपर के लिए तो सभी तैयार होना ही है । रिहर्सल करेंगे ना, ज़ोन हेड को भी चेंज करेंगे। पाण्डवों को भी चेंज करेंगे। आपका है ही क्या ? बापदादा ने दिया और बापदादा ने लिया। अच्छा- सभी एवररेडी हैं इसलिए अभी सिर्फ हाथ उठाने की मुबारक हो।
चारों ओर के सफल तपस्वी आत्माओं को, सदा प्योरिटी के पर्सनैलिटी में रहने वाली, सदा प्योरिटी के रॉयल्टी में रहने वाली, सदा सच्चे सम्पूर्ण वैष्णव आत्मायें, सदा समय प्रमाण स्वयं को परिवर्तन करने वाले विश्व परिवर्तक, ऐसे सदा योगी, सहज योगी, स्वत: योगी, महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकात
1- सभी तपस्वी आत्माएं हैं - ऐसे अनुभव करते हो? तपस्या अर्थात् एक बाप दूसरा न कोई। ऐसे है या दूसरा कोई है अभी भी कोई है? कोई व्यक्ति या कोई वैभव? एक के सिवाए और कोई नहीं या थोड़ा-थोड़ा लगाव है? निमित्त बनवर सेवा करना वह और बात है लेकिन लगाव जहाँ भी होगा, चाहे व्यक्ति में, चाहे वैभव में, तो लगाव की निशानी है, वहाँ बुद्धि जरूर जायेगी। मन भागेगा जरूर। तो चेक करो कि सारे दिन में मन और बुद्धि कहाँ-कहाँ भागती है? सिवाए बाप और सेवा के और कहाँ तो मन-बुद्धि नहीं जाती? अगर जाती है तो लगाव है। अगर व्यवहार भी करते हो, जो भी करते हो, वो भी ट्रस्टी बनकर। मेरा नहीं, तेरा। मेरा काम है, मुझे ही देखना पड़ता है.. मेरी जिम्मेवारी है.. ऐसे कहते हो कभी? क्या करें, मेरी जिम्मेवारी है ना, निभाना पड़ता है ना, करना पड़ता है ना, कहते हो कभी? या तेरा तेरे अर्पण, मेरा कहाँ से आया? तो यह बोल भी नहीं बोल सकते हो? मुझे ही देखना पड़ता है, मुझे ही करना पड़ता है, मेरा ही है, निभाना ही पड़ेगा...। मेरा कहा और बोझ हुआ। बाप का है, बाप करेगा, मैं निमित्त हूँ तो हल्के। बोझ उठाने की आदत तो नहीं है? 63 जन्म बोझ उठाया ना। कइयों की आदत होती है बोझ उठाने की। बोझ उठाने बिना रह नहीं सकते। आदत से मजबूर हो जाते हैं। मेरा मानना माना बोझ उठाना। समझा। थोड़ा सा किनारा करके रखा है, समय पर काम में आयेगा?। पाण्डवों ने थोड़ा बैंक बैलेन्स, थोड़ा जेब खर्च रखा है? जरा भी मेरापन नहीं। मेरा माना मैला। जहाँ मेरापन होगा ना वहाँ विकारों का मैलापन जरूर होगा। तेरा है तो क्या होगा? तैरते रहेंगे, डूबेंगे नहीं। तैरने में तो मजा आता है ना! तो तपस्या अर्थात् तेरा, मेरा नहीं। अच्छा- ये इस्टर्न ज़ोन है। सूर्य उदय होता है ना। तो इस्टर्न ज़ोन वालों के पास बाप के साथ का यादगार सूर्य सदा ही चमकता है ना। सभी तपस्या में सफलता को प्राप्त कर रहे हो ना। तपस्या में सन्तुष्ट हो? अपने चार्ट से सन्तुष्ट हो? या अभी होना है? यह भी एक लिफ्ट की गिफ्ट है। गिफ्ट जो होती है उसमें खर्चा नहीं करना पड़ता, खरीदने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। एक तो है अपना पुरूषार्थ और दूसरा है विशेष बाप द्वारा गिफ्ट मिलना। तो तपस्या वर्ष एक गिफ्ट है, सहज अनुभूति की गिफ्ट। जितना जो करना चाहे कर सकता है। मेहनत कम, निमित्त मात्र और प्राप्ति ज्यादा कर सकते हैं। अभी भी समय है, वर्ष पूरा नहीं हुआ है। अभी भी जो लेने चाहो ले सकते हो। इसलिए सफलता का सूर्य इस्ट में जगाओ। सदा सभी खुश हैं या कभी-कभी कुछ बातें होती तो नाखुश भी होते हो? खुशी बढ़ती जाती है, कम तो नहीं होती है? मायाजीत हो या माया रंग दिखा देती है? वह कितना भी रंग दिखाये, मैं मायापति हूँ। माया रचना है, मैं मास्टर रचयिता हूँ। तो खेल देखो लेकिन खेल में हार नहीं खाओ। कितना भी माया अनेक प्रकार का खेल दिखाये, आप देखने वाले मनोरंजन समझकर देखो। देखते-देखते हार नहीं जाओ। साक्षी होकर के, न्यारे होकर के देखते चलो। सभी तपस्या में आगे बढ़ने वाले, गिफ्ट लेने वाले हो? सेवा अच्छी हो रही है? स्वयं के पुरूषार्थ में उड़ रहे हैं और सेवा में भी उड़ रहे हैं। सभी फर्स्ट हैं। सदा फर्स्ट रहना, सेकेण्ड में नहीं आना। फर्स्ट रहेंगे तो सूर्यवंशी बनेंगे, सेकेण्ड बनें तो चन्द्रवंशी। फर्स्ट नम्बर मायाजीत होंगे। कोई समस्या नहीं, कोई प्रॉब्लम नहीं, कोई क्वेश्चन नहीं, कोई कम-जोरी नहीं। फर्स्ट नम्बर अर्थात् फास्ट पुरूषार्थ। जिसका फास्ट पुरूषार्थ है वो पीछे नहीं हो सकता। सदा साक्षी और सदा बाप के साथी - यही याद रखना।
2- सदा अपने को सहजयोगी, सहज ज्ञानी समझते हो? सहज है या मेहनत है? जब माया बड़े रूप में आती है तो मुश्किल नहीं लगता? मधुबन में बैठे हो तो सहज है, वहाँ प्रवृत्ति में रहते जब माया आती है फिर मुश्किल लगता है? कभी-कभी क्यों लगता है, उसका कारण? मार्ग कभी मुश्किल, कभी सहज है - ऐसे नहीं कहेंगे। मार्ग सदा सहज है, लेकिन आप कमज़ोर हो जाते हो इसी-लिए सहज भी मुश्किल लगता है। कमज़ोर के लिए कोई छोटा सा भी कार्य भी मुश्किल लगता है। अपनी कमज़ोरी मुश्किल बना देती है, बाकी मुश्किल है नहीं। कमज़ोर क्यों होते हैं? क्योंकि कोई न कोई विकारों के संग दोष में आ जाते हैं। सत का संग किनारे हो जाता है और दूसरा संग दोष लग जाता है। इसलिए भक्ति में भी कहते हैं कि सदा सतसंग में रहो। सतसंग अर्थात् सत बाप के संग में रहना। तो आप सदा सतसंग में रहते हो या और संग में भी चक्कर लगाते हो? सतसंग की कितनी महिमा है! और आप सबके लिए सत बाप का संग अति सहज है। क्योंकि समीप का सम्बन्ध है। सबसे समीप सम्बन्ध है बाप और बच्चे का। यह सम्बन्ध सहज भी है और साथ-साथ प्राप्ति कराने वाला भी है। तो आप सभी सदा सतसंग में रहने वाले सहज योगी, सहज ज्ञानी है। सदैव यह सोचो कि हम औरों की भी मुश्किल को सहज करने वाले हैं। जो दूसरों की मुश्किल को सहज करने वाला होता वह स्वयं मुश्किल में नहीं आ सकता। अच्छा सेवा में क्वालिटी है या क्वान्टिटी है? क्वालिटी वालों की निशानी क्या होती है?
क्वालिटी वाली आत्मा की निशानी है - वह आते ही अपनापन महसूस करेगी। उसको ये स्मृति स्पष्ट होगी कि मैं इसी परिवार का था और पहुँच गया हूँ। अपनेपन से निश्चय में या पुरूषार्थ में देरी नहीं लगेगी। वह अपने परिवार को परख लेगा, अपने बाप को पह-चान लेगा। तो अपनेपन का अनुभव होना ये पुरूषार्थ में क्वालिटी की निशानी है। सिर्फ नाम या धन में क्वालिटी नहीं, उसको सिर्फ क्वालिटी नहीं कहा जाता है, लेकिन पुरूषार्थ की भी क्वालिटी उसमें हो और जिसका अटल निश्चय पक्का रहता है, उसका प्रभाव स्वत: ही औरों पर पड़ता है। अपनापन होने के कारण उसको सब सहज अनुभव होगा। इसलिए तीव्र अर्थात् फास्ट जायेगा। जहाँ अपनापन होता है वहाँ कोई भी काम मुश्किल नहीं लगता है। तो ऐसी क्वालिटी वाली आत्मायें और ज्यादा से ज्यादा निकालो। समझा। आप सब तो क्वालिटी वाली आत्माएं हो ना। वृद्धि को प्राप्त कर रहे हो और आगे भी करते रहेंगे। पहले स्व के पुरूषार्थ में वृद्धि, फिर सेवा में। तो देनों बातों में सदा ही वृद्धि को प्राप्त करते, उड़ते चलो। अच्छा। माताओं को बहुत खुशी है या कभी-कभी दु:ख की लहर भी आ जाती है? कुछ भी हो जाये, दु:ख की लहर तो नहीं आती है? संकल्प में भी दु:ख की महसूसता नहीं हो। सुखदाता के बच्चे हो ना। सुखदाता के बच्चों के पास दु:ख की लेशमात्र भी नहीं आ सकती। स्वप्न में भी नहीं आ सकती। ऐसे सुखदायी आत्मा हो? क्या भी हो जाये दु:ख नहीं हो सकता। सुख में रहने वाले और सुख देने वाले। दु:ख की दुनिया को छोड़ दिया।
3- डबल विदेशी बताओ - आपका इस आबू पर्वत पर कौन सा यादगार है? अच्छा भारतवासी सुनाओ आपका यादगार कौन सा है? अच्छा - भारतवासियों का यादगार अचलगढ़ है और डबल विदेशियों का यादगार दिलवाला है? या देनों ही यादगार देनों के हैं? अचलगढ़ कौन बन सकता है? जिसने दिलाराम को अपना बना लिया, वही अचल बन सकता है। इसलिए देनों ही यादगार बहुत कायदे प्रमाण बने हुए हैं। अगर दिलवाला बाप को अपना नहीं बनाया तो अचल की बजाए हलचल होती है। कोई भी चीज में हलचल होती रहे तो वह टूट जायेगी और जो अचल होगी वो सदा कायम रहेगी। तो सदैव ये स्मृति में रखो कि हम दिलवाला बाप को दिल देने वाली अचल आत्मायें हैं। ये मेरा यादगार है - हरेक अनुभव करे। ऐसे नहीं - ये ब्रह्मा बाप का या महारथियों का है। नहीं, मेरा यादगार है। देखो ड्रामानुसार अपने यादगार स्थान पर ही पहुँच गये। नहीं तो पाकिस्तान से आबू में आना - यह तो स्वप्न में भी नहीं आ सकता था। लेकिन ड्रामा में यादगार यहीं था तो कैसे पहुँच गये हैं। अपने ही यादगार को देख हर्षित होते रहते हो। अचल रहना - कोई मुश्किल बात नहीं है। कोई भी चीज को हिलाते रहो तो मेहनत भी और मुश्किल भी। सीधा रख दो तो वह सहज है। ऐसे ही मन-बुद्धि द्वारा हलचल में आना कितना मुश्किल होता है और मन बुद्धि एकाग्र हो जाती है तो कितना सहज होता है। अभी हलचल में आना पसन्द ही नहीं करेंगे। अच्छा नहीं लगेगा। आधाकल्प हलचल में आते थक गये। तन की भी हलचल, मन की भी हलचल, धन की भी हलचल। तन से भी भटकते रहे। कभी किस मन्दिर में। कभी किस यात्रा पर, तो कभी किस यात्रा पर और मन परेशानियों में, हलचल में आते रहा और धन में तो देखो- कभी लखपति तो कभी कखपति। तो अनेक जन्मों की हलचल का अनुभव होने के कारण अभी अचल अवस्था अति प्रिय लगती है। इसीलिए दूसरों के ऊपर रहम आता है। शुभ भावना, शुभ कामना उत्पन्न होती है कि ये भी अचल हो जाये। अचल स्थिति वालों का विशेष गुण होगा - रहमदिल। सदा हर एक आत्मा के प्रति दातापन की भावना। ऐसे मास्टर दाता बने हो कि दूसरे को देखकर घृणा आती है? रहम आता है, दया भाव आता है, दातापन की स्मृति आती है? या क्यों क्या उत्पन्न है? आप सबका विशेष टाइटल है - विश्व कल्याणकारी। जो विश्व कल्याणकारी है उसको हर आत्मा के प्रति कल्याण की भावना होगी। उसके अन्दर स्वत: ही किसी आत्मा के प्रति भी घृणा भाव, द्वेष भाव, ईर्ष्या भाव या ग्लानि का भाव कभी उत्पन्न नहीं होगा। इसको कहा जाता है विश्व कल्याणकारी आत्मा। तो ऐसे हो? या कभी-कभी दूसरे भाव भी आ जाते हैं? बस, सदा कल्याण का भाव हो।
11-12-91 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सत्यता की सभ्यता ही रीयल रॉयल्टी है
अव्यक्त बापदादा अपने रीयल और रॉयल बच्चों प्रति बोले :
आज बापदादा अपने श्रेष्ठ परिवार अर्थात् अपने रॉयल फैमली को देख रहे हैं। सारे कल्प में सबसे रॉयल आप श्रेष्ठ आत्माएं ही हो। अनादि आत्मिक स्वरूप में भी सबसे श्रेष्ठ रॉयल आत्मायें हो और आदि स्वरूप देव आत्माओं के रूप में भी रॉयल राज्य अधिकारी रॉयल फैमली हो। पूज्य रूप में भी आप देव आत्माओं की कितनी रॉयल्टी से पूजा होती रहती है और किसी भी अन्य धर्म आत्मा वा राजनीतिक आत्माओं की ऐसी रॉयल पूजा नहीं होती। तो तीनों रूपों में - अनादि, आदि और पूज्य स्वरूप ऐसे रॉयल और कोई भी नहीं हैं। क्योंकि आप आत्माओं की प्योरिटी की ही रॉयल्टी है। ऐसे सम्पूर्ण पवित्र और कोई भी आत्मा सारे कल्प में न ही बनी है, न बनेगी। यह प्योरिटी की ही विशेषता है। इसलिए सिर्फ देव आत्माओं के आगे ही यह महिमा गाते हैं कि आप सम्पूर्ण निर्विकारी हो, और किसी भी धर्म आत्माओं की महिमा में ऐसी महिमा नहीं गाई जाती है। सिर्फ देव आत्माओं के श्रेष्ठ कीर्ति अर्थात् श्रेष्ठ पवित्रता की ही कीर्तन होता है। और कोई भी धर्म में कीर्तन नहीं होता है। साजों और बाजों से कीर्तन का रिवाज देव आत्माओं में ही है वा संगमयुग के शक्ति स्वरूप में है। यह सम्पूर्ण पवित्रता के विधि की सिद्धि है। इसलिए आप जैसी रूहानी रॉयल्टी अौर किसी आत्मा की नहीं है। तो चेक करो- ऐसे प्योरिटी की रॉयल्टी कहाँ तक आई है? रूहानी रॉयल्टी की सबसे श्रेष्ठ निशानी है - रॉयल्टी अर्थात् रीयल्टी अर्थात् सत्यता। जैसे आत्मा का अनादि स्वरूप सत है। सत अर्थात् अविनाशी और सत्य है। जैसे बाप की महिमा विशेष यही गाते रहते हैं - सत्यम् शिवम् सुन्दरम्। सत्य ही शिव है वा गॉड इज ट्रुथ (God is truth) कहा जाता है। तो बाप की महिमा सत्य अर्थात् सत्यता की है। ऐसे रॉयल्टी अर्थात् रीयल्टी - सत्यता जरा भी बनावटी या मिला-वटी न हो। चाहे बोल में, चाहे कर्म में, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क में मिलावट या बनावट नहीं हो। जिसको साधारण भाषा में बापदादा कहते हैं - सच्चाई। रॉयल आत्माओं की वृत्ति, दृष्टि बोल और चलन सब एक सत्य होगी। ऐसे नहीं कि वृत्ति में एक बात हो और बोल में दूसरा बनावटी भाव हो। इसको रॉयल्टी वा रीयल्टी नहीं कहा जाता है।
आजकल बापदादा बच्चों की लीला देखते भी हैं और सुनते भी हैं। कई बच्चे बात को मिलाने और बनाने में बहुत होशियार हैं। क्योंकि द्वापर से मिलावट और बनावट की कथायें बहुत सुनी हैं। तो इस ब्राह्मण जीवन में भी वह संस्कार इमर्ज कर लेते हैं। ऐसी अच्छे रूप से बात बना लेते हैं जो झूठ को बिल्कुल सम्पूर्ण सत्य बना देते हैं और सत्य को झूठ सिद्ध कर देते हैं। इसको कहा जाता है - अन्दर एक, बाहर दूसरा। तो क्या यह रीयल्टी है? रॉयल्टी है? नहीं है ना । तो ऐसे पवित्रता की रॉयल्टी अर्थात् रीयल्टी। यह रॉयल्टी की निशानी है। अगर यह निशानी नहीं है तो समझो प्योरिटी की रॉयल्टी नहीं आई है वा परसेन्टेज में आई है, सम्पूर्ण नहीं है।
रीयल्टी की दूसरी निशानी बापदादा सदा सुनाते रहते हैं - सच तो बिठो नच। सच्ची आत्मायें सदा खुशी में नाचती रहेंगी। कभी खुशी कम, कभी खुशी ज्यादा, ऐसा नहीं होगा। दिन प्रतिदिन, हर समय और खुशी बढ़ती रहेगी। रीयल्टी की निशानी है - सदा खुशी में नाचना। नैन चैन कहते हो ना , रायल्टी का अर्थ भी है चित से भी और नैन चैन से भी सदा हर्षित। सिर्फ बाहर से हर्षितमुख नहीं, लेकिन चित्त में भी हर्षित। हर्षित चित्त हर्षित मुख, दोनों हर्षित हों। कई बार ऐसे भी होता है कि अन्दर चित्त में खुशी नहीं होती लेकिन बाहरमुख में समय प्रमाण खुशनुमा बन करके दिखाते हैं। इसको अल्प काल का हर्षितमुख कहेंगे, लेकिन हर्षित चित्त, हर्षित मुख अविनाशी हो। तो पवित्रता की रीयल्टी रॉयल्टी अर्थात् अविनाशी चित्त और मुख हर्षित हों। चेक करो - दूसरे को चेक करने नहीं लग जाना, अपने को चेक करना है। ऐसी रॉयल आत्मा बापदादा को और सर्व ब्राह्मण परिवार को अति प्यारी होती है। रीयल प्यारी आत्मा की विशेषता क्या होती है? क्योंकि आजकल के रीति-रसम प्रमाण जो बहुत प्यारा लगता है तो प्यारे के तरफ न चाहते हुए भी आकार्षित हो जाते हैं। जिसको आप लोग अपनी भाषा में अटैचमेन्ट कहते हो। क्योंकि प्यारा है तो अटैचमेन्ट तो होगी ना। लेकिन रीयल और रॉयल प्यार की निशानी है - वो जितना ही प्यारा होगा उतना ही न्यारा भी होगा। इसलिए वह न स्वयं एक्स्ट्रा अटैचमेन्ट में आयेगा, न दूसरा उसकी अटैचमेन्ट में आयेगा। इसको कहा जाता है रीयल प्यार, सम्पूर्ण प्यार। वह हर्षित रहेगा, आकार्षित भी होगा परन्तु हद की आकर्षण करने वाला नहीं। तो रीयल और रॉयल की निशानी क्या हुई? अति प्यारा और अति न्यारा।
रॉयल्टी की और विशेषता है उस आत्मा में कभी किसी भी प्रकार के, चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म, मांगने के संस्कार नहीं होंगे। क्योंकि रॉयल आत्मा सदा सम्पन्न भरपूर रहती है। एक भरपूरता बाहर की होती है स्थूल वस्तुओं से, स्थूल साधनों से भरपूरता। और दूसरी होती है मन की भरपूरता। जो मन से भरपूर रहता है उसके पास स्थूल वस्तु या साधन नहीं भी हो फिर भी मन भरपूर होने के कारण वो कभी अपने में कमी महसूस नहीं करेगा। ना में भी हाँ का अनुभव करेगा। और जिसका मन भरपूर नहीं होता वह आत्मा बाहर से कितनी भी वस्तु और साधन से भरपूर होते भी वह कभी भी अपने को भरपूर नहीं समझेगा। ऐसी आत्मा सदा इच्छा के कारण ‘चाहिए चाहिए’का गीत गाती रहेगी। हर बात में ये होना चाहिए, ये करना चाहिए, ये मिलना चाहिए, ये बदलना चाहिए... हर समय यही गीत गाते रहेगें। और मन से भरपूर आत्मा सदा यही गीत गाती रहेगी सब पा लिया, प्राप्त हो गया, ये होना चाहिए, ये करना चाहिए, ये चाहिए चाहिए भी रॉयल मांगने के संस्कार हैं। बेहद की सेवा-प्रति सोचना कि ये होना चाहिए, ये करना चाहिए, वह अलग बात है लेकिन स्व की हद के प्राप्ति अर्थ चाहिए चाहिए ये रॉयल मांगना है। नाम चाहिए, मान चाहिए, शान चाहिए, प्यार चाहिए, पूछना चाहिए - ये सब हद की बातें हैं। रॉयल आत्मा में मांगने का अंश मात्र भी संस्कार नहीं होता है। समझा - रॉयल्टी क्या होती है?
तपस्या के चार्ट में यह सब चेक करना, ऐसे नहीं, मैंने किसी को गाली नहीं दी, क्रोध नहीं किया, नहीं, यह सब बातें चेक करना। फिर प्राइज लेना। तपस्या का अर्थ ही है - सम्पूर्ण पवित्र बनना। तो पवित्रता की पर्सनालिटी, पवित्रता की रॉयल्टी कहॉ तक प्रैक्टि-कल में रही है यह चेक करना है। इसको कहेंगे तपस्वीराज। समझा - रॉयल्टी क्या है?
रॉयल आत्मा का चेहरा और चलन दोनों ही सत्यता की सभ्यता अनुभव करायेंगे। वैसे भी रॉयल आत्माओं को सभ्यता की देवी कहा जाता है। उनका बोलना, देखना, चलना, खान-पीना, उठना-बैठना, हर कर्म में सभ्यता सत्यता स्वत: ही दिखाई देगी। ऐसे नहीं कि मैं तो सत्य को सिद्ध कर रहा हूँ और सभ्यता हो ही नहीं। कई बच्चे कहते हैं वैसे क्रोध नहीं आता है, लेकिन कोई झूठ बोलता है तो क्रोध आ जाता है। उसने झूठ बोला, आपने क्रोध से बोला तो दोनों में राइट कौन? सत्यता को सिद्ध करने वाला सदा सभ्यता वाला होगा। कई चतुराई करते हैं, कहेंगे हम क्रोध नहीं करते हैं, हमारा आवाज ही बड़ा है, आवाज ही ऐसा तेज है। साइन्स के साधनों से आवाज को कम और ज्यादा कर सकते हैं ना तो क्या साइलेन्स के पॉवर से अपने आवाज की गति को धीमी या तेज नहीं कर सकते हो? इससे तो ये टेप रिकार्ड और ये माइक अच्छा है जो आवाज कम ज्यादा तो कर सकते हो। तो ये चेक करो कि सत्यता के साथ सभ्यता भी है? अगर सभ्यता नहीं तो सत्यता नहीं। तो प्योरिटी की रॉयल्टी सदा प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे। ऐसे नहीं, अन्दर में तो रॉयल्टी है, बाहर देखने में नहीं आती। अगर अन्दर है तो बाहर में जरूर दिखाई देगी। सत्यता की रॉयल्टी को कोई छिपा नहीं सकता। इसमें गुप्त नहीं रहना है। कई कहते हैं गुप्त पुरुषार्थी हैं इसीलिए गुप्त रहते हैं। लेकिन जैसे सूर्य को कोई छिपा नहीं सकता, सत्यता के सूर्य को कोई छिपा नहीं सकता। न कोई कारण छिपा सकता है, न कोई व्यक्ति। सत्य सदा ही सत्य है। सत्यता की शक्ति सबसे महान है। सत्यता सिद्ध करने से सिद्ध नहीं होती। सत्यता की शक्ति को स्वत:ही सिद्ध होने की सिद्धि प्राप्त होती है। सत्यता को अगर कोई सिद्ध करने चाहता है तो वह सिद्ध जिद्द हो जाता है। इसलिए सत्यता स्वयं ही सिद्ध होती ही है। उसको सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। समझा । तपस्या वर्ष में क्या दिखाना है? प्योरिटी की पर्सनैलिटी और रॉयल्टी। अच्छा!
देश-विदेश के तरफ से सभी बच्चों के पत्र, यादप्यार पुरूषार्थ के, सेवा के समाचार और दिल की रूहरिहान सब बापदादा के पास पहुँच रही है, पहुँच गई है। बापदादा सभी बच्चों को नाम सहित याद प्यार दे रहे हैं। हर एक समझे पहले हमारी याद। क्योंकि बाप-दादा यादप्यार का रेसपॉन्ड अव्यक्त रूप से तो उसी घड़ी दे ही देते हैं। लेकिन फिर भी साकार विधि से स्वयं भी साकार में पत्र लिखते हैं या यादप्यार भेजते तो बापदादा भी साकार विधि प्रमाण साकार रूप में भी रिटर्न यादप्यार दे रहे हैं। बापदादा जानते हैं कि चारों ओर उमंग-उत्साह तपस्या का और मन्सा वायब्रेशन द्वारा सेवा का, अच्छा है और रहेगा। अभी और भी आगे गुण-राज़युक्त
बातों को सामने रख पुरूषार्थ को, सेवा को महीन और महान बनाते चलो। सभी बच्चों को, जो सम्मुख बैठे हैं वा आकार स्वरूप से बाप के सम्मुख हैं, ऐसे सर्व सम्मुख अर्थात् सदा साथ रहने वाले नयनों में, मुख में, मन में सदा बच्चों के बाप हैं और बाप के बच्चे हैं।
ऐसे सदा याद में समाये हुए श्रेष्ठ आत्मायें, सदा प्योरिटी के रीयल्टी और रॉयल्टी में रहने वाली आत्माएं, सदा मन से सम्पन्न भर-पूर रहने वाली आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकात
ग्रुप-1 : पद्मापद्म भाग्यवान आत्मायें अनुभव करते हो! इतना श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प में किसी भी आत्मा का नहीं है। चाहे कितने भी नामीग्रामी आत्मायें हों, लेकिन आपके भाग्य के आगे उन्हों का भाग्य क्या है? वह है अल्पकाल का भाग्य और ब्राह्मण आत्माओं का है - अविनाशी भाग्य। सिर्फ इस एक जन्म का नहीं है, जन्म-जन्म का है। बाप का बनना अर्थात् भाग्य का वर्सा अधिकार में मिलना। तो अधिकार तो मिल गया ना। बच्चा अर्थात् अधिकार, वर्सा। अधिकार का नशा है कि उतरता चढ़ता है? आधाकल्प तो नीचे ही उतरे, अभी क्या करना है? चलना है, चढ़ना है या उड़ना है? उड़ने वाली चीज बीच में कभी रूकती नहीं। रूकेंगे तो नीचे आयेंगे। थोड़े से समय में भी रूकेंगे फिर उड़ेंगे तो मंजिल पर कैसे पहुँचेंगे? इसलिए उड़ते रहो। लेकिन सदा उड़ेगा कौन? जो हल्का होगा। तो हल्के हो ना? या तन का, मन का, सम्बन्ध का बोझ है? अगर बोझ नहीं है तो रूकते क्यों हैं? जो बोझ वाली चीज है वो नीचे आती है और जो हल्की होती है वह सदा ऊपर रहती है। आप सब तो डबल लाइट हो ना?
तो सदा अपने भाग्य को स्मृति में रखने से भाग्य विधाता बाप स्वत: ही याद आयेगा। भाग्य विधाता को याद करना अर्थात् भाग्य को याद करना और भाग्य को याद करना अर्थात् भाग्य विधाता को याद करना। दोनों का सम्बन्ध है। कोई भी एक को याद करो तो दोनों याद आ जाते हैं। तो चलते- फिरते वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! जो संकल्प में भी न था लेकिन साकार स्वरूप में प्राप्त कर रहे हैं। इतना सहज भाग्य और प्राप्त कितना सहज हो गया! किसी भी महान आत्मा के पास जाते हैं तो हद की प्राप्ति के लिए - चाहे बच्चा चाहिए, चाहे धन चाहिए, चाहे तन की तन्दरूस्ती चाहिए, तो एक प्राप्ति के लिए भी कितनी मेहनत कराते हैं और आपको क्या करना पड़ा? मेहनत करनी पड़ी? या आंख खुली, तीसरा नेत्र खुला और देखा भाग्य का नज़ारा। घर बैठे परिचय मिल गया। आप लोगों को ढूंढना नहीं पड़ा। कोई हद के खान से भी हद का खज़ाना लेना हो तो कितनी भागदौड़ करनी पड़ती है। ये तो सहज ही आपको घर बैठे हाथ में मिल गया। एक बाप एक परिवार। अनेकता खत्म हो गई और सभी एक हो गये। अपना बाप, अपना परिवार। अपना लगता है ना। चाहे कितना भी दूर हो लेकिन स्नेह समीप ले आता है। स्नेह नहीं तो साथ रहते भी दूर लगता है। तो ईश्वरीय स्नेह वाले परिवार में आ गये। इसलिए सदा याद रखो - ओहो मेरा श्रेष्ठ भाग्य! भाग्य विधाता द्वारा श्रेष्ठ भाग्य पा लिया। जब बाप ने अपना बना लिया तो और क्या चाहिए? अच्छा बन गये ना तो इच्छा खत्म हो गई। अच्छा नहीं बनते तो इच्छा रहती। इच्छायें सब सम्पन्न हो गई। बाप मिला सब कुछ मिला। तो तृप्त आत्मा सदा रूहानी नशे में रहती है। जो भरपूर आत्मा होती है तो उसके नशे को देखो - कहे, नहीं कहे, लेकिन उसका नशा स्वत: दिखाई पड़ता है। तो आपका रूहानी नशा कितना बड़ा है! तो आप क्या याद रखेंगे! वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य। यह याद रहेगा कि बाम्बे जायेंगे तो भूल जायेगा? बाम्बे में जितना माया का फोर्स है उतना आपमें रूहानी फोर्स है। कहते हैं ना बाम्बे माया नगरी है। आप क्या कहेंगे? हमारे लिए बाप की नगरी है। अच्छा।
ग्रुप-2 : अपने को ब्राह्मण संसार का समझते हो। ब्राह्मण संसार ही हमारा संसार है, बाप ही हमारा संसार है - ऐसे अनुभव करते हो कि और भी कोई संसार है। बाप और छोटा सा परिवार यही संसार है। जब ऐसा अनुभव करेंगे तब न्यारे और प्यारे बनेंगे। अपना संसार ही न्यारा है। अपनी दृष्टि- वृत्ति सब न्यारी है। ब्राह्मणों की वृत्ति में क्या रहता है? किसी को भी देखते हो तो आत्मिक वृत्ति से, आत्मिक दृष्टि से मिलते हो। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। अगर वृत्ति और दृष्टि में आत्मिक दृष्टि है तो सृष्टि कैसी लगेगी? आत्माओं की सृष्टि कितनी बढ़िया होगी? शरीर को देखते भी आत्मा को देखेंगे। शरीर तो साधन है। लेकिन इस साधन में विशे-षता आत्मा की है ना। आत्मा निकल जाती है तो शरीर के साधन की क्या वैल्यु है! आत्मा नहीं है तो देखने से भी डर लगता है। तो विशेषता तो आत्मा की है। प्यारी भी आत्मा लगती है। तो ब्राह्मणों के संसार में स्वत: चलते फिरते आत्मिक दृष्टि, आत्मिक वृत्ति है इसलिए कोई दु:ख का नाम- निशान नहीं। क्योंकि दु:ख होता है शरीर भान से। अगर शरीर भान को भूलकर आत्मिक स्वरूप में रहते हैं तो सदा सुख ही सुख है। सुखदायी- सुखमय जीवन। क्योंकि बाप को कहते ही हैं - सुखदाता। तो सुखदाता द्वारा सर्व सुखों का वर्सा मिल गया। माँ बाप कहा और वर्सा मिला। तो सुख की शैया पर सोने वाले। चाहे स्थूल में बिस्तर पर सोते हो, लेकिन मन किस पर सोता है? चलते-फिरते क्या लगता है? सुख ही सुख है। संसार ही सुखमय है सुख ही सुख दिखाई देगा ना। दु:खधाम को छोड़ दिया। अभी भी दु:खधाम में रहते हो या कभी-कभी चक्कर लगाने जाते हो? दु:खधाम से किनारा कर दिया। संगम पर आ गये है ना। अभी संगमयुगी हो या कलियुगी हो? स्वप्न में भी दु:खधाम में नहीं जा सकते। नया जीवन है ना। युग भी बदल गया, जीवन भी बदल गया। अभी संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मायें हैं - इसी नशे में सदा रहो। सुखमय संसार में रहने वाले सुख स्वरूप आत्मायें। दु:ख तो 63 जन्म देख लिया। अभी संगम पर अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले हैं। यह बाहर का सुख नहीं है, अतीन्द्रिय सुख है। विनाशी सुख तो कलियुगी आत्माओं को भी है। लेकिन आपको अतीन्द्रिय सुख है। अगर इन्द्रियों का सुख है तो इन्द्रियाँ तो खुद ही विनाशी हैं तो सुख भी विनाशी होगा ना? कभी भी ये संकल्प में नहीं आ सकता कि फलाने ने मुझे बहुत दु:ख दे दिया। फलाना बहुत दु:खी करता है ये संकल्प भी नहीं कर सकते। अगर किसी ने दु:ख दिया तो आपने लिया क्यों? देने वाले ने दिया, और आपने नहीं लिया, तो किसके पास रहा? आपको तो नहीं मिला ना, तो लेते क्यों हो? जो कहते हो मेरे को बहुत दु:खी किया। ये बहुत दु:ख देने वाला है - ब्राह्मणों के ये बोल नहीं। ऐसे बोल कभी बोलते हो? मातायें कभी बोलती हो - बहु ने बहुत दु:ख दिया, तंग किया। बहु कहे - सासु ने बहुत दु:ख दिया, ननद ने बहुत दु:ख दिया। ऐसे तो नहीं कहती हो, भाषा परिवर्तन हो गई है। लेने वाले लेंगे नहीं तो कहाँ से आपके पास आया? बापदादा ने क्या पक्का कराया था - न दु:ख दो, न दु:ख लो। हम तो किसको दु:ख देते नहीं, यह अधूरा हुआ। दु:ख लेते भी नहीं। तो जब न देंगे, न लेंगे, तब अतीन्द्रिय सुख में रहेंगे। देने वाला कोई किचड़ा देवे तो ले लेगें? दु:ख अच्छा है या बुरा? जब बुरी चीज है तो लेते क्यों हो? वो दे देता है मजबूरी से इसीलिए ले लेते हो? अगर कोई किचड़ा फेंक कर भी जाये तो आप क्या करेंगे? फेंक देंगे या रख देंगे, जमा करके? अगर जबरदस्ती कोई दे भी देता है तो खत्म कर दो, रखते क्यों हो, धारण क्यों करते हो? ब्राह्मण अर्थात् सदा सुखी? सदा सुख देने वाले। ब्राह्मणों का काम है - सुख देना और सुख लेना। तो सदा सुख के झूले में झूलते रहो। बाप कहते हैं - सदा बाप के साथ झुले में झूलते रहो। यही भक्ति का फल है।
सदा रॉयल फैमिली वाले हो ना। रॉयल फैमली वाले सदा गलीचों में चलते, मिट्टी में नहीं। तो झूले में झूलो। नीचे आना अर्थात् मिट्टी में आना। यह देह भी मिट्टी है ना। तो देह भान में नीचे आना अर्थात् मिट्टी में पांव रखना। तो जब गलती से भी मिट्टी में पांव रखते हो उस समय अपने से पूछो कि हम रॉयल बाप के बच्चे और मिट्टी में पांव कैसे रखा? माँ बाप के जो लाडले बच्चे होते हैं तो कोशिश करते हैं सदा गोदी में खेलता रहे। नीचे नहीं रखेंगे। तो आप भी लाडले हो। जब बाप ने इतना सिकीलधा लाडला बना दिया तो लाडले होकर चलो ना, साधारण नहीं बनो। अच्छा।
18-12-91 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
हर कर्म में ऑनेस्टी का प्रयोग करना ही तपस्या है
अव्यक्त बापदादा अपने ऑनेस्ट बच्चों प्रति बोले :
आज बापदादा चारों ओर के सर्व तपस्वी कुमार और तपस्वी कुमारियों में तपस्या की विशेष निशानी देख रहे हैं। तपस्वी आत्मा की विशेषतायें पहले भी सुनाई है। आज और विशेषता सुना रहे हैं। तपस्वी आत्मा अर्थात् सदा ऑनेस्ट आत्मा। ऑनेस्टी ही तपस्वी की विशेषता है। ऑनेस्ट आत्मा अर्थात् हर कर्म में, श्रीमत में चलने में ऑनेस्ट होगी। ऑनेस्ट अर्थात् वफादार और इमानदार। श्रीमत पर चलने के ऑनेस्ट अर्थात् वफादार। ऑनेस्ट आत्मा स्वत: ही हर कदम श्रीमत के इशारे प्रमाण उठाती है। उनका हर कदम आटोमेटिक श्रीमत के इशारे पर ही चलता है। जैसे साइन्स की शक्ति द्वारा कई चीजें इशारे से आटोमेटिक चलती हैं, चलाना नहीं पड़ता , चाहे लाइट द्वारा, चाहे वायब्रेशन द्वारा स्विच ऑन किया और चलता रहता है। लेकिन साइन्स की शक्ति विनाशी होने के कारण अल्पकाल के लिए चलती है। अविनाशी बाप के साइलेन्स की शक्ति द्वारा इस ब्राह्मण जीवन में सदा और स्वत: ही सहज चलते रहते हैं। ब्राह्मण जन्म मिलते ही दिव्य बुद्धि में बापदादा ने श्रीमत भर दी। ऑनेस्ट आत्मा उसी श्रीमत के इशारे से नेचुरल सहज चलती रहती है। तो ऑनेस्ट की पहली निशानी - हर सेकण्ड हर कदम श्रीमत पर एक्यूरेट चलना। चलते सभी हैं लेकिन चलने में भी अनेक प्रकार की भिन्नता हो जाती है। कोई सहज और तीव्रगति से चलते हैं। क्योंकि उस आत्मा को श्रीमत स्पष्ट सदा स्मृति में रहने के कारण समर्थ है। यह है नम्बरवन ऑनेस्टी। नम्बर वन आत्मा को सोचना नहीं पड़ता कि यह श्रीमत है या नहीं, यह राइट है या रांग है, क्योंकि स्पष्ट है। दूसरी आत्माओं को स्पष्ट न होने के कारण कई बार सोचना पड़ता है। इसलिए तीव्र गति से मध्यम गति हो जाती है। साथ-साथ कोई सोचता है, कोई थकता है। चलते सभी हैं लेकिन सोचने और थकने वाले सेकेण्ड नम्बर हो जाते हैं। थकते क्यों हैं? चलते-चलते श्रीमत के इशारों में मनमत परमत मिक्स कर देते हैं, इसलिए स्पष्ट और सीधे रास्ते से भटक टेढ़े बांके रास्ते में चले जाते हैं। रिजल्ट में फिर भी वापस लौटना ही पड़ता है। क्योंकि मंज़िल का रास्ता एक ही स्पष्ट सीधा और सहज है। सीधे को टेढ़ा बना देते हैं। तो आप सोचो टेढ़ा चलने वाला कहाँ तक चलेगा, किस स्पीड से चलेगा? और परिणाम क्या होगा? थकना और निराश होकर लौटना। इसलिए सेकेण्ड नम्बर हो जाता है। अनेक सेकेण्ड गँवाया, अनेक श्वांस गँवाया, सर्व शक्तियाँ गँवाई, इसलिए सेकेण्ड नम्बर हो गया। सिर्फ इसमें नहीं खुश हो जाना कि हम तो चल रहे हैं। लेकिन अपनी चाल और गति दोनों को चेक करो। तो समझा, ऑनेस्टी किसको कहा जाता है?
ऑनेस्ट आत्मा की और निशानी है - वह कभी किसी भी खज़ाने को वेस्ट नहीं करेगा। सिर्फ स्थूल धन वा खज़ाने की बात नहीं है लेकिन और भी अनेक खज़ाने आपको मिले हैं। ऑनेस्ट संगमयुग के समय के खज़ाने को एक सेकेण्ड भी वेस्ट नहीं करेगा। क्योंकि संगमयुग का एक सेकेण्ड, वर्ष से भी ज्यादा है। जैसे गरीब आत्मा का स्थूल धन आठ आना आठ सौ के बराबर है। क्योंकि आठ आने में सच्चे दिल की भावना आठ सौ से ज्यादा है। ऐसे संगमयुग का समय एक सेकेण्ड इतना बड़ा है। क्योंकि एक सेकेण्ड में पद्मों जितना जमा होता है। सेकेण्ड गँवाया अर्थात् पद्मों जितनी कमाई का समय गँवाया। ऐसे ही संकल्प का खज़ाना, ज्ञान धन का खज़ाना, सर्व शक्तियों, सर्व गुणों का खज़ाना वेस्ट नहीं करेंगे। अगर सर्व शक्तियों, सर्व गुणों व ज्ञान को स्व-प्रति वा सेवा-प्रति काम में नहीं लगाया तो इसको भी वेस्ट कहा जायेगा। दाता ने दिया और लेने वाले ने धारण नहीं किया, तो वेस्ट हुआ ना! जो ऑनेस्ट होता है वह सिर्फ धन को प्राप्त कर रख नहीं देता। ऑनेस्ट की निशानी है खज़ाने को बढ़ाना। बढ़ाने का साधन ही है कार्य में लगाना। अगर ज्ञान-धन को भी समय प्रमाण सर्व आत्माओं के प्रति या स्व की उन्नति के प्रति यूज़ नहीं करते हो तो खज़ाना कभी भी बढ़ेगा नहीं। ऑनेस्ट मैनेजर या डायरेक्टर उसको ही कहा जाता है जो कोई भी कार्य में प्रॉफिट करके दिखाये। प्रगति करके दिखाये। ऐसे ही संकल्प के खज़ाने को, गुणों को, शक्तियों को कार्य में लगाकर प्रॉफिट करने वाले हैं या वेस्ट करने वाले हैं? ऑनेस्ट की निशानी है - वेस्ट नहीं करना, प्रॉफिट करना। अपना तन, मन और स्थूल धन - यह तीनों ही बाप का दिया हुआ खज़ाना है। आप सबने तन, मन, धन वा वस्तु, जो भी थी वो अर्पण कर दी। संकल्प किया कि सब कुछ तेरा, ऐसा नहीं थोड़ा धन मेरा थोड़ा बाप का, थोड़ा धन किनारे रखें , जेब खर्च रखा है, थोड़ा-थोड़ा आईवेल के लिए किनारे करके रखा है। आइवेल के लिए किनारे कर रखना यह समझदारी है। जितना ही मेरा होगा उतना ही जहाँ मेरा-मेरा होता वहाँ बहुत बातें हेराफेरी होती हैं। क्योंकि उसको छिपाना पड़ता है ना! भक्ति मार्ग वाले भी समझते हैं- ये मेरे मेरे का फेरा है। इसलिए जब सब कुछ तेरा कह दिया तो कोई भी तन, मन या धन, व्ास्तु, सिर्फ धन नहीं लेकिन वस्तु भी धन है। वस्तु बनती किससे है? धन से ही बनती है ना, तो कोई भी वस्तु, कोई भी स्थूल धन, कोई भी मन से संकल्प और तन से व्यर्थ कर्म करना या व्यर्थ समय गँवाना तन द्वारा, यह भी वेस्ट में गिना जायेगा। तो ऑनेस्ट तन को भी व्यर्थ के तरफ नहीं लगाते। संकल्प को भी वेस्ट में नहीं लगाते। जहाँ भी रहते हो, चाहे प्रवृत्ति वाले हैं, चाहे सेन्टर वाले हैं, चाहे मधुबन वाले हैं, सबका तन-मन-धन बाप का है वा प्रवृत्ति वाले समझते हैं कि हम समर्पण तो है नहीं तो मेरा ही है। नहीं। यह तो बाप की अमानत है। तो ऑनेस्टी अर्थात् अमानत में कभी भी ख्यानत नहीं करें। वेस्ट करना अर्थात् अमा-नत में ख्यानत करना। ऑनेस्ट की निशानी वह अमानत में कभी भी ख्यानत कर नहीं सकता। छोटी सी वस्तु को भी वेस्ट नहीं करेगा। कई बार अपने बुद्धि के अलबेलेपन के कारण वा शरीर द्वारा कार्य में अलबेलेपन के कारण छोटी-छोटी वस्तु वेस्ट भी हो जाती है। फिर यह सोचते हैं कि मैंने यह जानबूझ कर नहीं किया, तो हो गया अर्थात् अलबेलापन। चाहे बुद्धि का हो, चाहे शरीर के मेहनत का अलबेलापन हो, दोनों प्रकार का अलबेलापन वेस्ट कर देता है। तो वेस्ट नहीं करना है। एक से दस गुना बढ़ाना है, न कि वेस्ट करना है। जिसको बापदादा सदा एक सलोगन में कहते हैं - कम खर्चा बाला नशीन। ये है बढ़ाना और वो है गँवाना। ऑनेस्ट अर्थात् तन मन और धन को सदा सफल करने वाला। यह है ऑनेस्ट आत्मा की निशानी। तो तपस्वी अर्थात् यह सब ऑनेस्टी की विशेषतायें हर कर्म में प्रयोग में आवे। ऐसे नहीं कि समाया हुआ तो सब हैं, जानते भी सब हैं। लेकिन नहीं, तपस्या, योग का अर्थ ही है प्रयोग में लाना। अगर इन विशेषताओं को प्रयोग में नहीं लाते तो प्रयोगी नहीं, तो योगी भी नहीं। यह सब खज़ाने बापदादा ने प्रयोग करने के लिए दिये हैं। और जितना प्रयोगी बनेंगे, तो प्रयोगी की निशानी है प्रगति। अगर प्रगति नहीं होती है तो प्रयोगी नहीं। कई आत्मायें ऐसे अपने अन्दर समझती भी हैं कि न आगे बढ़ रहे हैं, न पीछे हट रहे हैं। जैसे हैं, वैसे ही हैं। और कई ऐसे भी कहते हैं कि शुरू में बहुत अच्छे थे, बहुत नशा था अभी नशा कम हो गया है। तो प्रगति हुई या क्या हुआ? उड़ती कला हुई या ठहरती कला हुई तो प्रयोगी बनो। ऑनेस्टी का अर्थ ही है प्रगति करने वाला प्रयोगी। ऐसे प्रयोगी बने हो या अन्दर समाकर रखते हो- खज़ाना अन्दर ही रहे? ऐसे ऑनेस्ट हो?
जो ऑनेस्ट होता है उसके ऊपर बाप का, परिवार का स्वत: ही दिल का प्यार और विश्वास होता है। विश्वास के कारण फुल अधि-कार उसको दे देते हैं। ऑनेस्ट आत्मा को स्वत: ही बाप का वा परिवार का प्यार अनुभव होगा। बड़ों का, चाहे छोटों का, चाहे समान वालों का, विश्वासपात्र अनुभव होगा। ऐसे प्यार के पात्र वा विश्वास के पात्र कहाँ तक बने हैं? यह भी चेक करो। ऐसे चलाओ नहीं कि इसके कारण मेरे में विश्वास नहीं है,तो मैं विश्वासपात्र कैसे बनूँ, अपने को पात्र बनाओ। कई बार ऐसे कहते हैं कि मै तो अच्छा हूँ लेकिन मेरे में विश्वास नहीं है। फिर उसके कारण लम्बे चौड़े सुनाते हैं। वह तो अनेक कारण बताते भी हैं और कई कारण बनते भी हैं। लेकिन ऑनेस्टी दिल की, दिमाग की भी ऑनेस्टी चाहिए। नहीं तो दिमाग से नीचे ऊपर बहुत करते हैं। तो दिल की भी ऑनेस्टी दिमाग की भी ऑनेस्टी। अगर सब प्रकार की ऑनेस्टी है तो ऑनेस्टी अविश्वास वाले को आज नहीं तो कल विश्वास में ला ही लेगी। जैसे कहावत है सत्य की नांव डूबती नहीं है लेकिन डगमग होती है। तो विश्वास की नांव सत्यता है, ऑनेस्टी है तो डगमग होगी लेकिन अविश्वासपात्र बनना अर्थात् डूबेगी नहीं। इसलिए सत्यता की हिम्मत से विश्वासपात्र बन सकते हो। पहले सुनाया था ना कि सत्य को सिद्ध नहीं किया जाता है। सत्य स्वयं में ही सिद्ध है। सिद्ध नहीं करो लेकिन सिद्धि स्वरूप बन जाओ। तो समय के गति के प्रमाण अभी तपस्या के कदम को सहज और तीव्र गति से आगे बढ़ाओ। समझा- तपस्या वर्ष में क्या करना है? अभी भी कुछ समय तो पड़ा है। इन सब विधियों को स्वयं में धारण कर सिद्धि स्वरूप बनो। अच्छा-
सर्व ऑनेस्ट आत्माओं को, सदा सर्व खज़ानों को कार्य में लाते आगे बढ़ाने वाली आत्माओं को, सदा तन-मन-धन को यथार्थ विधि से कार्य में लगाने वाली आत्माओं को, सदा अपने को विश्वास और प्यार के पात्र बनाने वाली आत्माओं को, सदा वेस्ट को बेस्ट में परिवर्तन करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, देश-विदेश में दूर बैठे हुए भी समीप सम्मुख बैठी हुई आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकात
ग्रुप नम्बर 1- अपने को सदा मास्टर सर्वशक्तिवान श्रेष्ठ आत्मायें हैं अनुभव करते हो? क्योंकि सर्वशक्तियाँ बाप का खज़ाना है और खज़ाना बच्चों का अधिकार है, बर्थ राइट है। तो बर्थ राइट को कार्य में लाना - यह तो बच्चों का कर्त्तव्य है। और खज़ाना होता ही किसलिए है? आपके पास स्थूल खज़ाना भी है, तो किसलिए है? खर्च करने के लिए, कि बैंक में रखने के लिए? बैंक में भी इसीलिए रखते हैं कि ऐसे समय पर कार्य में लगा सकें। काम में लगाने का ही लक्ष्य होता है ना। तो सर्वशक्तियाँ भी जन्म सिद्ध अधिकार हैं ना। जिस चीज पर अधिकार होता है तो उसको स्नेह के सम्बन्ध से, अधिकार से चलाते हैं। एक अधिकार होता है ऑर्डर करना और दूसरा होता है स्नेह का। अधिकार वाले को तो जैसे भी चलाओ वैसे वह चलेगा। सर्वशक्तियाँ अधिकार में होनी चाहिएं। ऐसे नहीं - चार है दो नहीं है, सात है एक नहीं है। अगर एक भी शक्ति कम है तो समय पर धोखा मिल जायेगा। सर्व शक्तियाँ अधिकार में होंगी तभी विजयी बन नम्बर वन में आ सकेंगे। तो चेक करो सर्व शक्तियाँ कहाँ तक अधिकार में चलती हैं। हर शक्ति समय पर काम में आती है या आधा सेकेण्ड के बाद कार्य में आती है। सेकेण्ड के बाद भी हुआ तो सेकेण्ड में फेल तो कहेंगे ना। अगर पेपर में फाइनल मार्क्स में दो मार्क भी कम है तो फेल कहेंगे ना। तो फेल वाला फुल तो नहीं हुआ ना? तो हर परिस्थिति में अधिकार से शक्ति से यूज़ करो, हर गुण को यूज़ करो। जिस परिस्थिति में धैर्यता चाहिए तो धैर्यता के गुण को यूज़ करो। ऐसा नहीं थोड़ा सा धैर्य कम हो गया। नहीं। अगर कोई दुश्मन वार करता है और एक सेकेण्ड भी कोई पीछे हो गया तो विजय किसकी हुई? इसीलिए ये दोनों चेकिंग करो। ऐसे नहीं सर्वशक्तियाँ तो हैं लेकिन समय पर यूज नहीं कर सकते। कोई बढ़िया चीज दे और उसको कार्य में लगाने नहीं आये तो उसके लिए वह बढ़िया चीज भी क्या होगी? काम की तो नहीं रही ना। तो सर्वशक्तियाँ यूज करने का बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। यदि बहुतकाल से कोई बच्चा आपकी आज्ञा पर नहीं चलता तो समय पर क्या करेगा? धोखा ही देगा ना। तो यह सर्वशक्तियाँ भी आपकी रचना है। रचना को बहुत काल से कार्य में लगाने का अभ्यास करो। हर परिस्थिति से अनुभवी तो हो गये ना। अनुभवी कभी दुबारा धोखा नहीं खाते। तो हर समय स्मृति से तीव्र गति से आगे बढ़ते चलो। सभी तपस्या की रेस में अच्छी तरह से चल रहे हो ना। सभी प्राइज लेंगे ना। सदा खुशी खुशी से सहज उड़ते चलो। मुश्किल है नहीं, मुश्किल बनाओ नहीं। कमज़ोरी मुश्किल बनाती है। सदा मुश्किल को सहज करते उड़ते रहो। अच्छा।
ग्रुप नं. 3- सभी अपने को स्वदर्शन चक्रधारी श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? सिर्फ स्व का दर्शन किया तो सृष्टि चक्र का स्वत: ही हो जायेगा। आत्मा को जाना तो आत्मा के चक्र को सहज ही जान गये। वैसे तो 5000 वर्ष का विस्तार है। लेकिन आप सबके बुद्धि में विस्तार का सार आ गया। सार क्या है? कल और आज- कल क्या थे, आज क्या है और कल क्या बनेंगे। इसमें सारा चक्र आ गया ना। कल और आज का अन्तर देखो कितना बड़ा है! कल कहाँ थे और आज कहाँ हैं, रात और दिन का अन्तर है। तो जब विस्तार का सार आ गया तो सार को याद करना सहज होता है ना। कल और आज का अन्तर देखते कितनी खुशी होती है! बेहद की खुशी है? ऐसे नहीं आज थोड़ी खुशी कम हो गई, थोड़ा सा उदास हो गये। उदास कौन होता है? जो माया का दास बनता है। क्या करें, कैसे करें, ये क्वेश्चन आना माना उदास होना। जब भी क्यों का क्वेश्वन आता है - क्यों हुआ, क्यों किया तो इससे सिद्ध है कि चक्र का ज्ञान पूरा नहीं है। अगर ड्रामा के राज़ को जान जाये तो क्यों क्या का क्वेश्चन उठ नहीं सकता। जब स्वयं भी कल्याणकारी और समय भी कल्याणकारी है तो यह क्या.. का क्वेश्चन उठ सकता है? तो ड्रामा का ज्ञान और ड्रामा में भी समय का ज्ञान इसकी कमी है तो क्यों और क्या का क्वेश्चन उठता है। तो कभी उठता है कि क्या यह मेरा ही हिसाब है.. मेरा ही कड़ा हिसाब है दूसरे का नहीं... कितना भी कड़ा हो लेकिन योग की अग्नि के आगे कितना भी कड़ा हिसाब क्या है! कितना भी लोहा कड़ा हो लेकिन तेज आग के आगे मोम बन जाता है। कितनी भी कड़ी परीक्षा हो, हिसाब किताब हो, कड़ा बन्धन हो लेकिन योग अग्नि के आगे कोई बात कड़ी नहीं, सब सहज है। कई आत्मायें कहती हैं - मेरे ही शरीर का हिसाब है और किसका नहीं.. मेरे को ही ऐसा परिवार मिला है.. मेरे को ही ऐसा काम मिला है.. ऐसे साथी मिले हैं.. लेकिन जो हो रहा है वह बहुत अच्छा। यह कड़ा हिसाब शक्तिशाली बना देता है। सहन शक्ति को बढ़ा देता है। तेज आग के आगे कोई भी चीज परिवर्तन न हो - यह हो ही नहीं सकता। तो यह कभी नहीं कहना - कड़ा हिसाब है। कमज़ोरी ही सहज को मुश्किल बना देती है। ईश्वरीय शक्ति का बहुत बड़ा महत्व है। तो सदा स्व को देखो, स्वदर्शन चक्रधारी बनो। और बातों में जाना, औरों को देखना माना गिरना और बाप को देखना, बाप का सुनना अर्थात् उड़ना। स्वदर्शन चक्रधारी हो या परदर्शन चक्रधारी हो? यह प्रकृति भी पर है, स्व नहीं है। अगर प्रकृति की तरफ भी देखते हैं तो परदर्शनधारी हो गये। बॉडी कॉन्शसनेस होना माना परदर्शन और आत्म अभिमानी होना माना स्वदर्शन। परद-र्शन के चक्र में आधाकल्प भटकते रहे ना। संगमयुग है स्वदर्शन करने का युग। सदा स्व के तरफ देखने वाले सहज आगे बढ़ते हैं। अच्छा।
बापदादा ने सभी बच्चों को क्रिसमस दिन की इन एडवांस मुबारक दी
दुनिया वाले क्रिसमस का दिन मनाते हैं, उसको कहते हैं - बड़ा दिन। वह तो है हद के चक्कर के हिसाब से लेकिन आप सबका बड़ा युग संगमयुग चल रहा है। आयु के हिसाब से सबसे छोटा सा युग है लेकिन प्राप्तियों के हिसाब से सबसे बड़े से बड़ा युग संग-मयुग है। तो संगमयुग अर्थात् बड़े से बड़े युग की भी मुबारक हो। उन्हों को तो एक दिन के लिए क्रिसमस फादर आकर गिफ्ट देते हैं लेकिन आपको सदा के लिए गॉड फादर गोल्डन वर्ल्ड की गिफ्ट देते हैं। जो एक दिन नहीं, थोड़े समय के लिए गिफ्ट नहीं है लेकिन अनेक जन्मों की जन्म- जन्म की गिफ्ट है। तो कितना बड़ा दिन हो गया! वा बड़ा युग हो गया! बड़े से बड़े युग का हर दिन बड़ा दिन है। और मनाते कौन है? बड़े से बड़े बाप के बड़े से बड़े बच्चे, बड़े दिल से, बड़े युग का, बड़ा दिन सदा मनाते रहे हैं। वर्ष के हिसाब से तो एक दिन का उत्सव मनाने का दिन है। कल्प के हिसाब से आप सबके लिए बड़ा युग मनाने का भाग्य है। यह सबसे बड़े से बड़ा उत्सव है। हर दिन उत्सव का दिन है। तो बड़ा युग हो गया ना! क्रिसमस के दिन वो नाचेंगे-गायेंगे-खायेंगे। लेकिन उन्हों का नाचना, उन्हों का गाना, उन्हों का मनाना और आप सबका मनाना कितना रात-दिन का अन्तर है! इसलिए बड़े युग में बड़े दिन की मुबारक और वर्ष के हिसाब से क्रिसमस के दिन की मुबारक। सभी डबल विदेशी अपने-अपने प्रति क्रिसमस की वा नये वर्ष की मुबारक बाप द्वारा स्वीकार करें। बच्चे ग्रीटिंग्स के कॉर्ड भेजते हैं और बापदादा ग्रीटिंग्स कार्ड के रिटर्न में श्रेष्ठ भाग्य का रिकॉर्ड नूँध रहा है। इसलिए सभी कार्ड भेजने वालों को पद्मगुणा रिटर्न में मुबारक हो। सभी अपने- अपने नाम से याद-प्यार स्वीकार करें। भारत वाले और विदेश वाले दोनों को मुबारक।
दादी जी से - बाप की सृष्टि में भी आप हैं और दृष्टि में भी आप हैं। अपनी सखी जनक को यादप्यार भेजो। यही कहना कि शरीर और सेवा दोनों को सम्भालने का बैलेन्स रखे। अटेंशन रखना क्योंकि आगे भी समय नाजुक आयेगा। शरीर नाजुक होते जायेंगे और सेवा अधिक होती जायेगी। अभी शरीर से बहुत काम लेना है। अच्छा। ओम् शान्ति।
31-12-91 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
यथार्थ चार्ट का अर्थ है - प्रगति और परिवर्तन
नव वर्ष पर अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले :
आज बापदादा अपने विश्व नव-निर्माता बच्चों को देख रहे हैं। आज के दिन नये वर्ष के आरम्भ को दुनिया में चारों ओर मनाते हैं। लेकिन वो मनाते हैं नया वर्ष और आप ब्राह्मण आत्माएं नये संगमयुग में हर दिन को नया समझ मनाते रहते हो। वो एक दिन मनाते हैं और आप हर दिन को नया अनुभव करते हो। वो हद के वर्ष का चक्र है और ये बेहद सृष्टि चक्र का नया संगमयुग है। संगमयुग सारे युगों में सर्व प्रकार की नवीनता लाने का युग है। आप सभी अनुभव करते हो कि संगमयुगी ब्राह्मण जीवन नया जीवन है। नई नॉलेज द्वारा नई वृत्ति, नई दृष्टि और नई सृष्टि में आ गये हो। दिन-रात, हर समय, हर सेकेण्ड नया लगता है। सम्बन्ध भी कितने नये बन गये! पुराने सम्बन्ध और ब्राह्मण सम्बन्ध में कितना अन्तर है! पुराने सम्बन्धों की लिस्ट स्मृति में लाओ कितनी लम्बी है! लेकिन संगमयुगी नये युग के नये सम्बन्ध कितने हैं? लम्बी लिस्ट है क्या? बापदादा और भाई-बहन और कितने निस्वार्थ प्यार के सम्बन्ध हैं! वह है अनेक स्वार्थ के सम्बन्ध। तो नया युग, छोटा सा नया ब्राह्मण संसार ही अति प्यारा है।
दुनिया वाले एक दिन एक दो को मुबारक देते हैं और आप क्या करते हो? बापदादा क्या करते हैं? हर सेकेण्ड, हर समय, हर आत्मा के प्रति शुभ-भावना, शुभ-कामना की मुबारक देते हैं। जब भी किसी को, किसी भी उत्सव के दिन की मुबारक देते हैं तो क्या कहते हैं? खुश रहो, सुखी रहो, शक्तिशाली रहो, तन्दरूस्त रहो। तो आप हर समय क्या सेवा करते हो? आत्माओं को नई जीवन देते हो। आप सबको भी बापदादा ने नई जीवन दी है ना! और इस नई जीवन में यह सभी मुबारकें सदा के लिए मिल ही जाती हैं। आप जैसे खुशनसीब, खुशी के खज़ानों से सम्पन्न, सदा सुखी और कोई हो सकता है! इस नवीनता की विशेषता आपके देवताई जीवन में भी नहीं है। तो हर समय स्वत: ही बापदादा द्वारा मुबारक, बधाइयाँ वा ग्रीटिंग्स मिलती ही रहती हैं। दुनिया वाले नाचेंगे, गायेंगे और कुछ खायेंगे। और आप क्या करते हो? हर सेकेण्ड नाचते और गाते रहते हो और हर रोज ब्रह्मा भोजन खाते रहते हो। लोग तो खास पार्टाज़ अरेंज करते हैं और आपकी सदा ही संगठन की पार्टाज़ होती रहती हैं। पार्टाज़ में मिलन होता है ना। आप ब्राह्मणों की अमृतवेले से पार्टा शुरू हो जाती है। पहले बापदादा से मनाते हो, एक में अनेक सम्बन्ध और स्वरूपों से मनाते हो। फिर आपस में ब्राह्मण जब क्लास करते हो तो संगठन में मिलन मनाते हो ना, और मुरली सुनते-सुनते नाचते हो, गाते हो। और हर समय उत्साह भरे जीवन में उड़ते रहते हो। ब्राह्मण जीवन का श्वांस ही है उत्साह। अगर उत्साह कम होता है तो ब्राह्मण जीवन के जीने का मज़ा नहीं होता है। जैसे शरीर में भी श्वांस की गति यथार्थ चलती है तो अच्छी तन्दरूस्ती मानी जाती है। अगर कभी बहुत तेज गति से चले, कभी स्लो हो जाये तो तन्दरूस्ती नहीं मानी जायेगी ना। ब्राह्मण जीवन अर्थात् उत्साह, निराशा नहीं। जब सर्व आशाएं पूर्ण करने वाले बाप के बन गये तो निराशा कहाँ से आई? आपका आक्युपेशन ही है निराशावादी को आशावादी बनाना। यही सेवा है ना! यह तो दुनिया के हद के चक्कर अनुसार आप भी दिन को महत्व दे रहे हो लेकिन वास्तव में आप सब ब्राह्मण आत्माओं का संगमयुग ही नवीनता का युग है। नई दुनिया भी इस समय बनाते हो। नई दुनिया का ज्ञान इस समय ही आप आत्माओं को है। वहाँ नई दुनिया में नये-पुराने का नॉलेज नहीं होगा। नये युग में नई दुनिया स्थापन कर रहे हो।
सभी ने तपस्या वर्ष में तपस्या द्वारा अपने में अलौकिक नवीनता लाई है? कि वही पुरानी चाल है? पुरानी चाल कौन सी है? योग अच्छा है, अनुभव भी अच्छे होते हैं, आगे भी बढ़ रहे हैं, धारणा में भी बहुत फर्क है, अटेन्शन भी बहुत अच्छा है, सेवा में भी वृद्धि अच्छी है.. लेकिन, लेकिन का पूंछ लग जाता है। कभी-कभी, ऐसा हो जाता है। यह कभी कभी का पूंछ कब तक समाप्त करेंगे? तपस्या वर्ष में यही नवीनता लाओ। पुरूषार्थ वा सेवा के सफलता की, सन्तुष्टता की परसेन्टेज़ कभी बहुत ऊंची, कभी नीची- इसमें सदा श्रेष्ठ परसेन्टेज़ की नवीनता लाओ। जैसे आजकल के डॉक्टर्स ज्यादा क्या चेक करते हैं? सबसे ज्यादा आजकल ब्लड प्रेशर बहुत चेक करते हैं। अगर ब्लड का प्रेशर कभी बहुत ऊंचा हो, कभी नीचा चला जाये तो क्या होगा? तो बापदादा पुरूषार्थ का प्रेशर देखते हैं, बहुत अच्छा जाता है, लेकिन कभी कभी जम्प मारता है । यह कभी कभी का शब्द समाप्त करो। अभी तो सभी इनाम लेने की तैयारी कर रहे हो ना? इस सारी सभा में ऐसे कौन हैं जो समझते हैं कि हम इनाम के पात्र बने हैं? कभी कभी वाले इनाम लेंगे?
इनाम लेने के पहले यह विशेषता देखो कि इन 6 मास के अन्दर तीन प्रकार की सन्तुष्टता प्राप्त की है? पहला- स्वयं अपना साक्षी बन चेक करो- स्व के चार्ट से, स्वयं सच्चे मन, सच्चे दिल से सन्तुष्ट हैं?
दूसरा- जिस विधि-पूर्वक बापदादा याद के परसेन्ट को चाहते हैं, उस विधि-पूर्वक मन-वचन-कर्म और सम्पर्क में सम्पूर्ण चार्ट रहा? अर्थात् बाप भी सन्तुष्ट हो।
तीसरा- ब्राह्मण परिवार हमारे श्रेष्ठ योगी जीवन से सन्तुष्ट रहा? तो तीनों प्रकार की सन्तुष्टता अनुभव करना अर्थात् प्राइज़ के योग्य बनना। विधि-पूर्वक आज्ञाकारी बन चार्ट रखने की आज्ञा पालन की? तो ऐसे आज्ञाकारी को भी मार्क्स मिलती है। लेकिन सम्पूर्ण पास मार्क्स उनको मिलती है जो आज्ञाकारी बन चार्ट रखने के साथ-साथ पुरूषार्थ की विधि और वृद्धि की भी मार्क्स लें। जिन्होंने इस नियम का पालन किया है, जो एक्यूरेट रीति से चार्ट लिखा है, वह भी बापदादा द्वारा, ब्राह्मण परिवार द्वारा बधाइयाँ लेने के पात्र हैं। लेकिन इनाम लेने योग्य सर्व के सन्तुष्टता की बधाइयाँ लेने वाला पात्र है। यथार्थ तपस्या की निशानी है कर्म, सम्बन्ध और संस्कार - तीनों में नवीनता की विशेषता स्वयं भी अनुभव हो और औरों को भी अनुभव हो। यथार्थ चार्ट का अर्थ है हर सब्जेक्ट में प्रगति अनुभव हो, परिवर्तन अनुभव हो। परिस्थितियाँ व्यक्ति द्वारा या प्रकृति द्वारा या माया द्वारा आना यह ब्राह्मण जीवन में आना ही है। लेकिन स्व-स्थिति की शक्ति ने परिस्थिति के प्रभाव को ऐसे ही समाप्त किया जैसे एक मनोरंजन की सीन सामने आई और गई। संकल्प में परिस्थिति के हलचल की अनुभूति न हो। याद की यात्रा सहज भी हो और शक्तिशाली भी हो। पावरफुल याद एक समय पर डबल अनुभव कराती है। एक तरफ याद अग्नि बन भस्म करने का काम करती है, परिवर्तन करने का काम करती है और दूसरे तरफ खुशी और हल्केपन का अनुभव कराती है। ऐसे विधि-पूर्वक शक्तिशाली याद को ही यथार्थ याद कहा जाता है । फिर भी बापदादा बच्चों के उमंग और लगन को देख खुश होते हैं। मैजारिटी को लक्ष्य अच्छा स्मृति में रहा है। स्मृति में अच्छे नम्बर लिये हैं। स्मृति के साथ समर्थी, उसमें नम्बरवार हैं। स्मृति और समर्थी, दोनों साथ-साथ रहना - इसको कहेंगे नम्बरवन प्राइज़ के योग्य। स्मृति सदा हो और समर्थी कभी कभी वा परसेन्टेज में रहना - इसको नम्बरवार की लिस्ट में कहेंगे । समझा। एक्यूरेट चार्ट रखने वालों के भी नामों की माला बनेगी। अभी भी बहुत नहीं तो थोड़ा समय तो रहा है, इस थोड़े समय में भी विधि-पूर्वक पुरूषार्थ की वृद्धि कर अपने मन-बुद्धि-कर्म और सम्बन्ध को सदा अचल-अडोल बनाया तो इस थोड़े समय के अचल-अडोल स्थिति का पुरूषार्थ आगे चलकर बहुत काम में आयेगा और सफलता की खुशी स्वयं भी अनुभव करेंगे और औरों द्वारा भी सन्तुष्टता की दुआएं प्राप्त करते रहेंगे। इसलिए ऐसे नहीं समझना कि समय बीत गया, लेकिन अभी भी वर्तमान और भविष्य श्रेष्ठ बना सकते हो।
अभी भी विशेष स्मृति मास एक्स्ट्रा वरदान प्राप्त करने का मास है। जैसे तपस्या वर्ष का चांस मिला ऐसे स्मृति मास का विशेष चांस है। इस मास के 30 दिन भी अगर सहज, स्वत:, शक्तिशाली, विजयी आत्मा का अनुभव किया, तो यह भी सदा के लिए नेचुरल संस्कार बनाने की गिफ्ट प्राप्त कर सकते हो। कुछ भी आवे, कुछ भी हो जाये, परिस्थिति रूपी बड़े ते बड़ा पहाड़ भी आ जाये, संस्कार टक्कर खाने के बादल भी आ जायें, प्रकृति भी पेपर ले, लेकिन अंगद समान मन-बुद्धि रूपी पांव को हिलाना नहीं,
अचल रहना। बीती में अगर कोई हलचल भी हुई हो उसको संकल्प में भी स्मृति में नहीं लाना। फुल स्टॉप लगाना। वर्तमान को बाप समान श्रेष्ठ, सहज बनाना और भविष्य को सदा सफलता के अधिकार से देखना। इस विधि से सिद्धि को प्राप्त करना। कल से नहीं, अभी से करना। स्मृति मास के थोड़े सम्ाय को बहुत काल का संस्कार बनाओ। यह विशेष वरदान विधि-पूर्वक प्राप्त करना। वरदान का अर्थ यह नहीं कि अलबेले बनो। अलबेला नहीं बनना, लेकिन सहज पुरुषार्थी बनना। अच्छा-
अच्छा- कुमारियों का संगठन बैठा है। आगे बैठने का चांस मिला क्यों मिला है? सदा आगे रहना है इसलिए यह आगे बैठने का चांस मिला है। समझा! पका हुआ फल बनके निकलना, कच्चा नहीं गिर जाना। सभी पढ़ाई पूरी कर सेन्टर पर जायेंगी या घर में जायेंगी? अगर मां बाप कहे आओ तो क्या करेंगी? अगर अपनी हिम्मत है तो कोई किसको रोक नहीं सकता है। थोड़ा-थोड़ा आकर्षण होगा तो रोकने वाले रोकेंगे।
अच्छा- नव वर्ष मनाने के लिए सभी भागकर आ गये। नया वर्ष मनाना अर्थात् हर समय को नया बनाना। हर समय अपने में रूहानी नवीनता को लाना है।
अच्छा- चारों ओर के सभी स्नेही और सहयोगी बच्चे भी आज के दिन के महत्व को जान विशेष दिल से या पत्रों से या कार्डों द्वारा विशेष याद कर रहे हैं और बापदादा के पास पोस्ट करने के पहले ही पहुँच जाता है। लिखने के पहले ही पहुँच जाता है। संकल्प किया और पहुँच गया। इसलिए कई बच्चों के सहयोगियों के कार्ड पीछे पहुँचेंगे लेकिन बापदादा पहले से ही सभी को नये युग में नये दिन मनाने की मुबारक दे रहे हैं। जैसे कोई विशेष प्रोग्राम होता है ना तो आजकल के लोग क्या करते हैं? अपना टी.वी. खोलकर बैठ जाते हैं। तो सभी रूहानी बच्चे अपने बुद्धि का दूरदर्शन का स्विच ऑन करके बैठे हैं। बापदादा चारों ओर के मुबा-रक-पात्र बच्चों को हर सेकेण्ड की मुबारक की दुआएं रेसपॉन्ड में दे रहे हैं। हर समय की याद और प्यार यही दुआएं बच्चों के दिल की उमंग-उत्साह को बढ़ाती रहती हैं। तो सदा स्वयं को सहज पुरुषार्थी और सदा पुरुषार्थी, सदा विधि से वृद्धि को प्राप्त करने वाले योग्य आत्माएं बनाए उड़ते रहो।
ऐसे सदा वर्तमान को बाप समान बनाने वाले और भविष्य को सफलता स्वरूप बनाने वाले श्रेष्ठ बधाइयों के पात्र आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से मुलाकात
ग्रुप नं. 1- भारत देश की महानता किसके कारण है? आप लोगों के कारण है। क्योंकि देश महान बनता है महान आत्माओं द्वारा। तो भारत की सर्व महान आत्माओं में से महान कौन? आप हैं कि दूसरे हैं? इतनी महान आत्मायें हैं जो अब चक्कर के समाप्ति में भी भारत महान, आप महान आत्माओं के कारण गाया जाता है। और कोई भी देश में इतनी महान आत्माओं का गायन या पूजन नहीं होता। चाहे कितने भी नामीग्रामी धर्मात्माएं हो गई हों या राजनेतायें होकर गये हों वा आजकल के जमाने के हिसाब से वैज्ञानिक भी नामीग्रामी हैं लेकिन किसी भी देश में उस देश की इतनी महान आत्माओं के मन्दिर हों, यादगार हों, पूजन हो, गायन हो - वह कहाँ भी नहीं होगा। चाहे विज्ञान में विदेश बहुत आगे है लेकिन गायन और पूजन में नहीं है। वैज्ञानिकों का या राजनीतिज्ञों का गायन भी होता है लेकिन उस गायन और देवात्माओं के गायन में कितना अन्तर है! ऐसा गायन वहाँ नहीं होता। तो इतनी भारत की महा-नता बढ़ाने वाले हम महान आत्मायें हैं - यह नशा कितना श्रेष्ठ है! यहाँ गली- गली में मन्दिर देखेंगे। तो इतना नशा सदा स्मृति में रखो। सुनाया ना आज कि कभी-कभी का भी शब्द समाप्त करो। अगर कभी-कभी बहुत अच्छे और कभी-कभी हलचल, तो आपके यादगार का पूजन भी कभी-कभी होगा। कई मन्दिरों में हर समय पूजन होता है, हर दिन होता है और कहाँ-कहाँ जब कोई तिथि- तारीख आती है तब होता है। तो कभी-कभी हो गया ना। लेकिन किसका सदा होता है, किसका कभी-कभी, क्यों होता है? क्योंकि इस समय के पुरूषार्थ में जो कभी-कभी लाता है उसका पूजन भी कभी-कभी होता है। जितना यहाँ विधिपूर्वक अपना श्रेष्ठ जीवन बनाते हैं उतना ही विधिपूर्वक पूजा होती है। तो मैं कौन? यह हरेक स्वयं से पूछे। अगर दूसरा कोई आपको कहेगा कि आपका पुरूषार्थ तेज नहीं लगता तो मानेंगे? या उसको इस बात से हटाने की कोशिश करेंगे। लेकिन अपने आपको तो जो हो जैसे हो वैसे जान सकते हो। इसलिए सदा अपने विधिपूर्वक पुरूषार्थ में लगे रहो। ऐसा नहीं कहो - पुरूषार्थ तो है ही। पुरूषार्थ का प्रत्यक्ष स्वरूप अनुभव हो, दिखाई दे। ऐसे महान हो! भारत की महिमा को सुनते क्या सोचते हो? यह किसकी महिमा हो रही है? ऐसे महान अनेक बार बने हो तब तो गायन होता है। अब उसको रिपीट कर रहे हैं। बने थे और बनना ही है। सिर्फ रिपीट करना है। तो सहज है ना। चाहे सम्पर्क में आते हो, चाहे स्व के प्रति कर्म करते हो, दोनों में सहज हो। भारीपन न हो। जो मुश्किल काम होता है वह भारी होता है। भारी के कारण ही मुश्किल होता है और जहाँ सहज होगा वहाँ हल्कापन होगा। तो डबल लाइट हो या ासिंगल लाइट? चाहे व्यवहार हो, चाहे परमार्थ हो, व्यवहार में भी सहज, परमार्थ माना अपना पुरूषार्थ उसमें भी सहज। लौकिक में भी सहज, अलौकिक में भी सहज, बोझ नहीं। ऐसे हो या प्रवृत्ति का थोड़ा बोझ है? अगर मेरी प्रवृत्ति समझते हो तो बोझ है। मेरा-मेरा माना बोझ और तेरा-तेरा अर्थात् हल्का। संगमयुग है ही खुशियों का युग। तो जब खुशी में कोई भी होता है तो मन हल्का होता है।
कोई अल्पकाल की खुशी में भी होंगे तो उस समय हल्कापन होगा। अगर भारीपन होगा तो खुशी में नहीं रहेगा। आर्टाफिशल खुशी की और बात है। तो सदा खुशी में रहने वाले हो ना। यह स्मृति रखो कि हमारे जैसा महान न कोई बना है, न बनेगा! वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!
ग्रुप नं. 2- अपने को सदा सर्व खजानों से सम्पन्न आत्माएं अनुभव करते हो? कितने खज़ाने मिले हैं? खज़ानों को अच्छी तरह से सम्भालना आता है या कभी-कभी अन्दर से निकल जाता है ? क्योंकि आप आत्माएं भी बाप द्वारा नालेजफुल बनने के कारण बहुत होशियार हो लेकिन माया भी कम नहीं है। वो भी शक्तिशाली बन सामना करती है। तो सर्व खज़ाने सदा भरपूर रहे और दूसरा जिस समय जिस खज़ाने की आवश्यकता हो उस समय वो खज़ाना कार्य में लगा सको। खज़ाना है लेकिन टाइम पर अगर कार्य में नहीं लगा सके तो होते हुए भी क्या करेंगे? जो समय पर हर खज़ाने को काम में लगाता है उसका खज़ाना सदा और बढ़ता जाता है। तो चेक करो कि खज़ाना बढ़ता जाता है कि सिर्फ यही सोच करके खुश हो कि बहुत खज़ाने हैं। फिर ऐसे कभी नहीं कहो कि चाहते तो नहीं थे लेकिन हो गया। ज्ञानी की विशेषता है - पहले सोचे फिर कर्म करे। ज्ञानी- योगी तू आत्मा को समय प्रमाण टच होता है और वह फिर कैच करके प्रैक्टिकल में लाता है। एक सेकेण्ड भी पीछे सोचा तो ज्ञानी तू आत्मा नहीं कहेंगे।
ग्रुप नं. 3- सदा बाप की ब्लैसिंग स्वत: ही प्राप्त होती रहे - उसकी विधि क्या है? ब्लैसिंग प्राप्त करने के लिए हर समय, हर कर्म में बैलेन्स रखो। जिस समय कर्म और योग दोनों का बैलन्स होता है तो क्या अनुभव होता है? ब्लैसिंग मिलती है ना। ऐसे ही याद और सेवा दोनों का बैलेन्स है तो सेवा में सफलता की ब्लैसिंग मिलती है। अगर याद साधारण है और सेवा बहुत करते हैं तो ब्लैसिंग कम होने से सफलता कम मिलती है। तो हर समय अपने कर्म-योग का बैलेन्स चेक करो। दुनिया वाले तो यह समझते हैं कि कर्म ही सब कुछ है लेकिन बापदादा कहते हैं कि कर्म अलग नहीं, कर्म और योग दोनों साथ-साथ हृं। ऐसे कर्मयोगी कैसा भी कर्म होगा उसमें सहज सफलता प्राप्त करेंगे। चाहे स्थूल कर्म करते हो, चाहे अलौकिक करते हो। क्योंकि योग का अर्थ ही है मन-बुद्धि की एकाग्रता। तो जहाँ एकाग्रता होगी वहाँ कार्य की सफलता बंधी हुई है। अगर मन और बुद्धि एकाग्र नहीं हैं अर्थात् कर्म में योग नहीं है तो कर्म करने में मेहनत भी ज्यादा, समय भी ज्यादा और सफलता बहुत कम। कर्मयोगी आत्मा को सर्व प्रकार की मदद स्वत: ही बाप द्वारा मिलती है। ऐसे कभी नहीं सोचो कि इस काम में बहुत बिज़ी थे इसलिए योग भूल गया। ऐसे टाइम पर ही योग आवश्यक है। अगर कोई बीमार कहे कि बीमारी बहुत बड़ी है इसीलिए दवाई नहीं ले सकता तो क्या कहेंगे? बीमारी के समय दवाई चाहिए ना। तो जब कर्म में ऐसे बिजी हो, मुश्किल काम हो उस समय योग, मुश्किल कर्म को सहज करेगा। तो ऐसे नहीं सोचना कि यह काम पूरा करेंगे फिर योग लगायेंगे। कर्म के साथ-साथ योग को सदा साथ रखो। दिन- प्रतिदन समस्यायें, सरकम-स्टांश और टाइट होने हैं, ऐसे समय पर कर्म और योग का बैलेन्स नहीं होगा तो बुद्धि जजमेन्ट ठीक नहीं कर सकती। इसलिए योग और कर्म के बैलेन्स द्वारा अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाओ। समझा। फिर ऐसे नहीं कहना कि यह तो मालूम ही नहीं था - ऐसे भी होता है। यह पहले पता होता तो मैं योग ज्यादा कर लेता। लेकिन अभी से यह अभ्यास करो। जिस आत्मा को बापदादा की बैलेन्स के कारण ब्लैसिंग प्राप्त होती है उसकी निशानी क्या होगी? जो सदा ही बाप की ब्लैसिंग का अनुभव करते रहते हैं उसके संकल्प में भी कभी - यह क्या हुआ, यह क्यों हुआ, यह आश्चर्य की निशानी नहीं होगी। क्या होगा - यह क्वेश्चन भी नहीं उठेगा। सदैव इस निश्चय में पक्का होगा कि जो हो रहा है उसमें कल्याण छिपा हुआ है। क्योंकि कल्याणकारी युग है, कल्याणकारी बाप है और आप सबका काम भी विश्व कल्याण का है, कल्याण ही समाया हुआ है। बाहर से कितना भी कोई कर्म हलचल का दिखाई दे लेकिन उस हलचल में भी कोई गुप्त कल्याण समाया हुआ होता है और बाप के श्रीमत तरफ, बाप के सम्बन्ध तरफ अटेन्शन खिंचवाने का कल्याण होता है। ब्राह्मण लाइफ में क्या नहीं हो सकता? अकल्याण नहीं हो सकता। इतना निश्चय है या थोड़ा बहुत आयेगा तो हिल जायेंगे? समस्यायें आयें तो मिक्की माउस का खेल तो नहीं करेंगे? मिक्की माउस का खेल देखो भले लेकिन करना नहीं।
तो नये वर्ष का यही वरदान याद रखना है कि सदा बैलेन्स से हर घड़ी ब्लैसिंग लेते हुए उड़ते रहना है और उड़ाते रहना है। उड़ती कला वाले हैं, नीचे ऊपर होने वाले नहीं। साइड सीन देखने के लिए नीचे नहीं आना। नीचे आयेंगे ना तो फँस जायेंगे। इसलिए सदा उड़ते रहना। अच्छा।
नया वर्ष प्रारम्भ होते ही रात्रि 12 बजने के तुरन्त बाद बापदादा ने सर्व बच्चों को मुबारक दी
नया वर्ष अर्थात् सदा मुबारक लेने और देने का वर्ष। मास्टर दाता बन हर आत्मा को कोई न कोई शक्ति, गुण, शुभ-भावना, शुभ-कामना देने वाले दाता बनना। लेने का संकल्प नहीं करना। ले और फिर दे उसको दुआएं नहीं कहा जायेगा, उसको बिज़नेस कहा जायेगा। तो आप दाता के बच्चे मास्टर दाता हैं, कोई दे, न दे लेकिन आपको देना ही है। अगर कोई ऐसी चीज़ भी आपको दे जो आपको पसन्द नहीं आवे तो क्या करेंगे? उसको स्वीकार नहीं करो यानी अपने पास नहीं रखो। लेकिन उसको दो ज़रूर। ऐसे नहीं उसने कंकड़ दिया तो मैं क्या दूँ? कंकड़ को छोड़ दो लेकिन आप रत्न दे दो। क्योंकि आप रत्नागर बाप के बच्चे हो। तो दुआएं देना और दुआएं लेना - यही विशेष लक्ष्य इस नये वर्ष का हर समय जीवन में लाना है। जैसे गीत गाया ना - पुराने संस्कारों को विदाई दी, तो आप सबने विदाई दे दी? अच्छी तरह से उसको टाटा कर दिया या फिर आ जायेंगे? अच्छा- विदाई की बधाई। जब भी कोई बात आये तो यह वायदा याद करना। मैंने बॉय बॉय कर लिया तो फिर कैसे हाथ मिला सकते हैं। उसको दूर से ही शुभ-भावना शुभ-कामना की दृष्टि दे दो।
ग्रुप नं. 4- सभी फास्ट जाकर फर्स्ट आने वाले हो ना? नम्बरवन जाने वाली आत्माओं की विशेषता क्या होगी? जो बाप की विशेष श्रीमत है कि व्यर्थ को देखते हुए भी नहीं देखो, व्यर्थ बातें सुनते हुए भी नहीं सुनो - इस विधि वाला फास्ट और फर्स्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। तो ऐसे प्रैक्टिकल धारणा अनुभव होती है या थोड़ा-थोड़ा कभी सुन लेते हो? कभी देख लेते हो? तीव्र पुरू-षार्था के सामने सदा मंजिल होती है। वो यहाँ- वहाँ कभी नहीं देखेगा। सदा मंजिल की ओर देखेगा। फालो किसको करना है? ब्रह्मा बाप को। क्योंकि ब्रह्मा बाप साकार कर्मयोगी का सिम्बल है। कोई कितना भी बिजी हो लेकिन ब्रह्मा बाप से ज्यादा बिज़ी और कोई हो ही नहीं सकता। कितनी भी जिम्मेवारी हो लेकिन ब्रह्मा बाप जितनी जिम्मेवारी कोई के ऊपर नहीं है। इसलिए कोई भी कितना भी बिज़ी हो, कितनी भी जिम्मेवारी हो, लेकिन ब्रह्मा बाप जितना नहीं। तो ब्रह्मा बाप कर्मयोगी कैसे बने? ब्रह्मा बाप ने अपने को करनहार समझकर कर्म किया, करावनहार नहीं समझा। करावनहार बाप को समझने से जिम्मेवारी बाप की हो जाती है और स्वयं सदा कितने भी कार्य करे, कैसा भी कार्य करे - हल्के रहेंगे। तो आप सबने अपनी बुद्धि की तार बापदादा को दे दी है या कभी-कभी अपने हाथ में ले लेते हो? चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है और आप निमित्त कर्म क्या करते हो? डांस कर रहे हो। कितना भी बड़ा कार्य हो लेकिन ऐसे समझो जैसे नचाने वाला नचा रहा है और हम नाच रहे हैं तो थकेंगे नहीं। कन्फ्यूज़ नहीं होंगे। एवरहैप्पी रहेंगे। इसलिए बापदादा सदा कहते हैं कि सदा नाचो और गाओ। क्योंकि ब्राह्मण जीवन में कोई बोझ नहीं है। ब्राह्मण जीवन अति श्रेष्ठ है। लौकिक जॉब भी करते हो तो डायेरक्शन प्रमाण करते हो, बोझ नहीं है। क्योंकि बाप डायरे-क्शन के साथ-साथ एक्स्ट्रा मदद भी देते हैं। अच्छा - ओम् शान्ति।
18-01-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अव्यक्त दिवस पर अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले: -
आज बेहद के मात पिता के सामने सारा बेहद का परिवार है। सिर्फ यह सभा नहीं है लेकिन चारों ओर के स्नेही सहयोगी बच्चों का छोटा सा ब्राह्मण परिवार अति प्यारा और न्यारा परिवार, अलौकिक परिवार ,चित्र में होते विचित्र अनोखा परिवार सामने है। बाप-दादा अमृतवेले से सभी बच्चों के स्नेह की, मिलन मनाने की, वरदान लेने की मीठी-मीठी रूहरिहान सुन रहे थे। सभी के मन में स्नेह की भावना और समान बनने की श्रेष्ठ कामना यही उमंग उत्साह चारों ओर देखा। आज के दिन मैजारिटी बच्चों के सामने नम्बरवन श्रेष्ठ आत्मा ब्रह्मा मात-पिता इमर्ज रूप में था। सभी के दिल में आज विशेष प्यार के सागर बापदादा का प्रेम स्वरूप प्रत्यक्ष रूप में नयनों के सामने रहा। चारों ओर के सर्व बच्चों के स्नेह के, दिल के गीत बापदादा ने सुने। स्नेह के रिटर्न में वरदाता बाप बच्चें को यही वरदान दे रहे हैं -’’सदा हर समय, हर एक आत्मा से, हर परिस्थिति में स्नेही मूर्त भव’’। कभी भी अपना स्नेही मूर्त, स्नेह की सीरत, स्नेही व्यवहार, स्नेह के सम्पर्क-सम्बन्ध को छोड़ना मत, भूलना मत। चाहे कोई व्यक्ति, चाहे प्रकृति, चाहे माया कैसा भी विकराल रूप, ज्वाला रूप धारण कर सामने आये लेकिन विकराल ज्वाला रूप को सदा स्नेह के शीतलता द्वारा परिवर्तन करते रहना। इस नये वर्ष में विशेष स्नेह लेना है, स्नेह देना है। सदा स्नेह की दृष्टि, स्नेह की वृत्ति, स्नेहमयी कृति द्वारा स्नेही सृष्टि बनानी है। कोई स्नेह नहीं भी दे लेकिन आप मास्टर स्नेह स्वरूप आत्मायें दाता बन रूहानी स्नेह देते चलो। आज की जीव आत्मायें स्नेह अर्थात् सच्चे प्यार की प्यासी हैं। स्नेह की एक घड़ी अर्थात् एक बूँद की प्यासी है। सिवाए सच्चे स्नेह के कारण परेशान हो भटक रहे हैं। सच्चे रूहानी स्नेह को ढूँढ रहे हैं। ऐसी प्यासी आत्माओं को सहारा देने वाले आप मास्टर ज्ञान सागर हो। अपने आप से पूछो आप सभी आत्माओं को ब्राह्मण परिवार में परिवर्तन करने का, आकार्षित करने का विशेष आधार क्या रहा? यही सच्चा प्यार, मात-पिता का प्यार, रूहानी परिवार का प्यार - इस प्यार की प्राप्ति ने परिवर्तन किया। ज्ञान तो पीछे समझते हो लेकिन पहला आकर्षण सच्चा निस्वार्थ पारिवारिक प्यार। यही फाउन्डेशन रहा ना, इससे ही सभी आये ना। विश्व में अरब खरब पति बहुत हैं लेकिन परमात्म सच्चे प्यार के भिखारी हैं क्यों? अरब खरब से यह प्यार नहीं मिलता। साइन्स वालों ने देखो कितने भी अल्पकाल के सुख के साध्ान विश्व को दिया है लेकिन जितने बड़े वैज्ञानिक हैं उतना और कुछ खोज करें, और कुछ खोज करें इस खोज में ही खोये हुए हैं। सन्तुष्टता की अनुभूति नहीं है, और कुछ करें, और कुछ करें, इस में ही समय गँवा देते हैं। उन्हों का संसार ही खोज करना हो गया है। आप जैसे स्नेह-सम्पन्न जीवन की अनुभूति नहीं है। नेताएं देखो अपनी कुर्सा सम्भालने में ही लगे हुए हैं। कल क्या होगा- इस चिन्ता में लगे हुए हैं। और आप ब्राह्मण सदा परमात्म-प्यार के झूले में झुलते हो। कल का फिक्र नहीं हैं। न कल का फिक्र है, न काल का फिक्र है। क्यों? क्योंकि जानते हो - जो हो रहा है वह भी अच्छा और जो होना है वह और अच्छा। इस-लिए अच्छा-अच्छा कहते अच्छे बन गये हो।
ब्राह्मण जीवन अर्थात् बुराई को विदाई देना और सदा सब अच्छे ते अच्छा है - इसकी बधाइयाँ मनाना। ऐसा किया है या अभी विदाई दे रहे हो? जैसे पुराने वर्ष को विदाई दी नये वर्ष के लिए बधाइयाँ दी ना। बधाइयों के कार्ड बहुत आये हैं ना। बहुत बच्चों के बधा-इयों के कार्ड तथा पत्र आये हैं। बापदादा कहते हैं - जैसे नये वर्ष के कार्ड भेजे वा संकल्प किया, तो संगमयुग पर तो हर सेकेण्ड़ नया है ना। संगमयुग के हर सेकेण्ड की बधाई के कार्ड नहीं भेजना, कार्ड सम्भालना मुश्किल हो जाता है। लेकिन कार्ड की बजाए रिकार्ड रखना कि हर सेकेण्ड़ नया अनुभव किया? हर नये सेकेण्ड़ नया उमंग-उत्साह अनुभव किया? हर सेकेण्ड़ अपने में नवी-नता अर्थात् दिव्यता-विशेषता क्या अनुभव की? उसकी बधाइयाँ देते हैं। आप ब्राह्मण आत्माओं की सबसे बड़े ते बड़ी सेरीमनी हर समय कौन सी है? सेरीमनी अर्थात् खुशी का समय या खुशी का दिन। सेरीमनी में सबसे बड़ी बात मिलन मनाने की होती है। मिलन मनाना ही खुशी मनाना है। आप सबका परमात्म मिलन, श्रेष्ठ आत्माओं का मिलन हर समय होता है ना! तो हर समय सेरी-मनी हुई ना! नाचो गाओ और खाओ - यही सेरीमनी होती है। ब्रह्मा बाप के भण्ड़ारे से खाते हो इसलिए सदा ब्रह्मा भोजन खाते हो। कोई प्रवृत्ति वाले अपने कमाई से नहीं खाते हैं, सेन्टर वाले सेन्टर के भण्ड़ारी से नहीं खाते हैं लेकिन ब्रह्मा बाप के भण्डारे से, शिव बाप की भण्ड़ारी से खाते हैं। न मेरी प्रवृत्ति है, न मेरा सेन्टर है। प्रवृत्ति में हो तो भी ट्रस्टी हो, बाप की श्रीमत प्रमाण निमित्त बने हुए हो, और सेन्टर पर हो तो भी बाप के सेन्टर हैं न कि मेरे। इसलिए सदा शिव बाप की भण्ड़ारी है, ब्रह्मा बाप का भण्ड़ारा है - इस स्मृति से भण्डारी भी भरपूर रहेगी, तो भण्डारा भी भरपूर रहेगा। मेरापन लाया तो भण्डारा व भण्डारी में बरक्कत नहीं होगी। किसी भी कार्य में अगर कोई प्रकार की खोट अथवा कमी होती है तो इसका कारण बाप की बजाए मेरेपन की खोट है इसीलिए खोट होती है। खोट शब्द कमी को भी कहा जाता है और खोट शब्द अशुद्धि मिक्स को भी कहा जाता है। जैसे सोने में खोट (खाद) पड़ जाती है ना। लेकिन ब्राह्मण जीवन तो हर सेकेण्ड सेरीमनी मनाने की बधाइयों की है। समझा!
वैसे आज के दिन आप सभी आवाज़ से परे जाते हो और बापदादा जो आवाज़ से परे हैं उनको आवाज़ में लाते हो। यह प्रैक्टिस बहुत अच्छी है - अभी-अभी बहुत आवाज़ में हो, चाहे डिस्कस कर रहे हो, ऐसे वातावरण में भी संकल्प किया आवाज़ से परे हो जाएं तो सेकेण्ड में आवाज़ से न्यारे फरिश्ता स्थिति में टिक जाओ। अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी फरिश्ता अर्थात् आवाज़ से परे अव्यक्त स्थिति। यह नहीं कि वातावरण बहुत आवाज़ का है, इसलिए आवाज़ से परे होने में टाइम चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। क्योंकि लास्ट समय चारों ओर व्यक्तियों का, प्रकृति का जलचल ओर आवाज़ होगा - चिल्लाने का, हिलाने का - यही वायुमण्डल होगा। ऐसे समय पर ही सेकेण्ड में अव्यक्त फरिश्ता सो निराकारी अशरीरी आत्मा हूँ - यह अभ्यास ही विजयी बन-येगा। यह स्मृति सिमरणी अर्थात् विजय माला में लायेगी। इसलिए यह अभ्यास अभी से अति आवश्यक है। इसको कहते हैं - प्रकृतिजीत, मायाजीत। मालिक बन चाहे तो मुख का साज़ बजाएं, चाहें तो कानों द्वारा सुनें, अगर नहीं चाहें तो सेकेण्ड में फुल-स्टॉप। आधा स्टॉप भी नहीं, फुलस्टॉप। यही है ब्रह्मा बाप के समान बनना। स्नेह की निशानी है समान बनना। हरेक कहते मेरा स्नेह ज्यादा है। कोई से भी पूछेंगे किसका स्नेह ब्रह्मा बाप से ज्यादा है? तो सभी यही कहेंगे कि मेरा। तो जैसे स्नेह में समझते हो - मेरा स्नेह ज्यादा है, ऐसे समान बनने में भी तीव्र पुरूषार्थ करो कि मैं नम्बरवन के साथ, युगल दाने के साथ दाना माला में पिरोया जाऊं। इसको कहते हैं स्नेह का रिटर्न दिया। स्नेह में मणुबन में भागने में तो होशियार हो। सभी जल्दी-जल्दी भाग कर पहुँच गये हो ना। जैसे यह प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाया, ऐसे समान बनने का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाओ। स्थान छोटा है और दिल बड़ी है इसलिए उल्हना नहीं देना कि जगह नहीं मिली। जब दिल बड़ी है तो प्यार में कोई भी तकलीफ, तकलीफ नहीं लगती है। बापदादा को बच्चों की तक-लीफ भी देखी नहीं जाती। हाँ योग लगाओ तो स्थान तैयार हो जायेगा। अच्छा।
चारों ओर के देश विदेश के स्नेह में समाये हुए श्रेष्ठ आत्माओं के बहुत-बहुत संकल्प द्वारा, पत्रों द्वारा, सन्देशों द्वारा इस स्मृति दिवस वा नव वर्ष की याद प्यार बापदादा को मिली। सबके दिल के मीठे-मीठे प्यारे-प्यारे बच्चे कह याद प्यार दे रहे हैं। उड़ रहे हो और तीव्र गति से उड़ते रहो। माया के खेल खिलाड़ी बन देखते चलो। प्रकृति की परिस्थितियाँ मास्टर सर्वशक्तिवान बन खेल-खेल में पार करते चलो। बाप का हाथ और दिव्य बुद्धि योग रूपी साथ- सदा अनुभव कर समर्थ बन सदा पास विथ ऑनर बनते चलो। सदा स्नेह-मूर्त भव के वरदान को स्मृति स्वरूप में याद रख, ऐसे सर्व स्नेही मूर्तियों को सदा मास्टर दाता आत्माओं को मात-पिता का शक्ति सम्पन्न याद प्यार और नमस्ते।
दादियों से - बाप के साथ का वर्सा है ही विशेष पावर्स। इस पावर्स द्वारा सर्व कार्य सहज आगे बढ़ते
जा रहे हैं। सभी समीप के साथी है ना! साथ रहें और साथ चलेंगे और साथ ही राज्य करेंगे। संगम पर भी समीप, निराकारी दुनिया में भी समीप और राजधानी में भी समीप। जन्मते ही समीपता का वरदान मिला। सभी समीपता के वरदानी हैं - ऐसे अनुभव होता है ना? साथ का अनुभव होना यही समीपता की निशानी है। अलग होना मुश्किल है साथ रहना स्वत: ही है। समीपता के संगठन के समीप है। राज्य ासिंहासन लेंगे ना? सिहांसन पर भी जीत प्राप्त करेंगे ना। जैसे अभी दिल पर जीत है, दिल को जीता फिर नम्बर-वार विश्व के राज्य ासिंहासन पर जीत होगी। ऐसे विजयी है ना? आप लोगों के ऊमंग उत्साह को देख सभी उमंग उत्साह में चल रहे हैं, और सदा चलते रहेंगे। बच्चे बाप की कमाल गाते हैं और बाप बच्चों की कमाल गाते हैं। आप कहते हो वाह बाबा वाह और बाबा कहते हैं? वाह बच्चे वाह। अच्छा।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
हम सभी पूज्य और पूर्वज आत्मायें हैं - इतना नशा रहता है? आप सभी इस सृष्टि रूपी वृक्ष की जड़ में बैठे हो ना? आदि पिता के बच्चे आदि रतन हो। तो इस वृक्ष के तना भी आप हो। जो भी डाल-डालियाँ निकलती है वह बीज के बाद तना से ही निकलती हैं। तो सबसे आदि धर्म की आप आत्माएं हो और सभी पीछे निकलते हैं इसलिए पूर्वज हो। तो आप फाउन्डेशन हो। जितना फाउन्डे-शन पक्का होता है उतनी रचना भी पक्की होती है। तो इतना अटेन्शन अपने उपर रखना है। पूर्वज अर्थात् तना होने के कारण डाय-रेक्ट बीज से कनेक्शन है। आप फलक से कह सकते हो कि हम डायरेक्ट परमात्मा द्वारा रचे हुए हैं। दुनिया वालों से पूछो कि किसने रचा? तो सुनी-सुनाई कह देंगे कि भगवान ने रचा। लेकिन कहने मात्र हैं और आप डायरेक्ट परम आत्मा की रचना हो। आजकल के ब्राह्मण भी कहते हैं कि हम ब्रह्मा के बच्चे हैं। लेकिन ब्रह्मा के बच्चे प्रैक्टिकल में आप हो। तो यह खुशी है कि हम डायरेक्ट रचना है। कोई महान आत्मा, धर्म आत्मा की रचना नहीं, डायरेक्ट परम आत्मा की रचना हैं। तो डायरेक्ट कितनी शक्ति है! दुनिया वाले ढूँढ़ रहे हैं कि कोई वेष में भगवान आ जायेगा और आप कहते मिल गया। तो कितनी खुशी हैं! तो इतनी खुशी रहती है कि आपको देख करके और भी खुश हो जाएं। क्योंकि खुश रहने वाले का चेहरा सदा ही खुशनुम: होगा ना?
(हॉस्पिटल स्टाफ को देखते हुए)
हॉस्पिटल में कोई दु:खी आता है तो खुश हो जाता है? ऐसा वातावरण खुशी का है जो कोई भी आये, दु:ख भूल जाये। क्योंकि वातावरण बनता है व्यक्ति के वायब्रेशन से। कोई दु:खी आत्माओं का संगठन हो तो वहाँ का वातावरण भी दु:ख का होगा। वहाँ कोई हँसता भी आयेगा तो चुप हो जायेगा और कहीं खुश रहने वाले व्यक्तियों का संगठन हो, खुशी का संगठन हो तो कैसी भी दु:खी आत्मायें आयेंगी तो बदल जायेंगी। प्रभाव जरूर पड़ता है। तो एवरहैप्पी हॉस्पिटल है ना? सिर्फ हेल्दी नहीं, हैप्पी भी। सब मुस्कराते रहेंगे, हँसते रहेंगे तो आधी दवाई हो जायेगी। आधी दवाई खुशी है। तो दवाइयों का भी खर्चा बच जायेगा ना। पेशेन्ट भी खुश हो जायेंगे कि कम खर्चे में निरोगी बन गये और हॉस्पिटल का खर्चा भी कम हो जायेगा। डॉक्टर्स को टाइम भी कम देना पड़ेगा। जैसे साकार में देखा -ब्रह्मा बाप के आगे आते थे तो क्या अनुभव सुनाते थे? बहुत बातें लेकर आते थे लेकिन बाप के आगे आने से न बातों का हल अन्दर ही अन्दर हो जाता था। यह अनुभव सुने हैं ना। ऐसे आप डॉक्टर्स के सामने कोई भी आये तो आते ही आधी बीमारी वहीं ठीक हो जाये। सभी डॉक्टर्स ऐसे हो ना। जैसे बाप अलौकिक हैं तो बाप के बच्चे जो कार्य के निमित्त हैं वो भी सब अलौकिक होंगे ना। आप सभी की अलौकिक जीवन है या साधारण जीवन है? जितना-जितना तपस्या में आगे बढ़ते जायेंगे उतना आपके वायब्रेशन बहुत तीव्रगति से काम करेंगे। अच्छा। कम खर्चा बाला नशीन वाली हॉस्पिटल होनी चाहिए। टाइम भी कम खर्च हो और स्थूल धन भी कम खर्च और बाला नशीन। नाम बड़ा ओर खर्चा कम। तो ऐसे अलौकिक सेवाधारी हो ना? फाउन्डे-शन अच्छा डाला है। हॉस्पिटल लगती है वा योग भवन लगता है? ऐसा आवाज होगा कि यह हॉस्पिटल नहीं है लेकिन योग केन्द्र है, हैप्पी हाउस है। ऐसे लौकिक में भी हैप्पी हाउस बनाते हैं। जो भी अन्दर जायेगा हँसता ही रहेगा। लेकिन ये मन की मुस्क्राहट है। वह होता है थोड़े समय के लिए और यह है सदा काल के लिए। अच्छा। सदा हर्षित मूड में रहो। कुछ भी हो जाए अपनी मूड नहीं ऑफ करना। कोई गाली भी दे, इनसल्ट भी करें लेकिन आप सदा हर्षित रहना। अच्छा। ओमशान्ति।
13-02-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
अनेक जन्म का प्यार सम्पन्न जीवन बनाने का आधार-इस जन्म का परमात्म-प्यार
(विदेश में 14 फरवरी के दिन को प्रेमियों का दिन मनाते हैं इसलिए आज ओम् शान्ति भवन को सुन्दर स्वर्ग की सीन सीनरियों से सजाया है, उसी बीच बापदादा पधारे हैं)
आज सर्व शक्तियों के सागर और सच्चे स्नेह के सागर दिलाराम बापदादा अपने अति स्नेही समीप बच्चों से मिलने आये है। यह रूहानी स्नेह-मिलन वा प्यार का मेला विचित्र मिलन है। यह मिलन दिलवाला बाप और सच्चे दिल वाले बच्चों का मिलन है। यह मिलन सर्व अनेक प्रकार के परेशानियों से दूर करने वाला है। रूहानी शान की स्थिति का अनुभव कराने वाला है। यह मिलन सहज पुराने जीवन को परिवर्तन करने वाला है। यह मिलन सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियों के अनुभूतियों से सम्पन्न बनाने वाला हैं। ऐसे विचित्र प्यारे मिलन मेले में आप सभी पद्मापद्म भाग्यवान आत्माएं पहुँच गई हो। यह परमात्म मेला सर्व प्राप्तियों का मेला, सर्व सम्बन्धों के अनु-भव का मेला है। सर्व खजानों से सम्पन्न बनने का मेला है। कितना प्यारा है! और इस अनुभूति को अनुभव करने वाले पात्र बनने वाले आप कोटों में कोई, कोई में भी कोई परमात्म प्यारी आत्माएं हो। कोटो की कोट आत्मायें इस अनुभूति को ढूँढ रही हैं और आप मिलन मना रहे हो। और सदा परमात्म मिलन मेले में ही रहते हो। क्योंकि आपको बाप प्यारा है और बाप को आप प्यारे हैं। तो प्यारे कहाँ रहते हैं? सदा प्यार के मिलन मेले में रहते हैं। तो सदा मेले में रहते हो या अलग रहते हो? बाप और आप साथ रहते हो तो क्या हो गया? मिलन मेला हो गया ना। कोई पूछे आप कहाँ रहते हो? तो फलक से कहेंगे कि हम सदा परमात्म मिलन मेले में रहते हैं। इसी को ही प्यार कहा जाता है। सच्चा प्यार अर्थात् एक दो से तन से वा मन वे अलग नहीं हो। न अलग हो सकते हैं, न कोई कर सकता है। चाहे सारी दुनिया की सर्व करोड़ों आत्माएं प्रकृति, माया, परिस्थितियाँ अलग करने चाहे, किसकी ताकत नहीं जो इस परमात्म मिलन से अलग कर सके। इसको कहा जाता है सच्चा प्यार। प्यार को मिटाने वाले मिट जाएं लेकिन प्यार नहीं मिट सकता। ऐसे पक्के सच्चे प्रेमी हो ना?
आज पक्के प्यार का दिन मना रहे हो ना। ऐसा प्यार अब और एक जन्म में ही मिलता है। इस समय का परमात्म प्यार अनेक जन्म प्यार सम्पन्न जीवन की प्रालब्ध बना देता है लेकिन प्राप्ति का समय अभी है। बीज डालने का समय अभी है। इस समय का कितना महत्व है। जो सच्चे दिल वाले के प्यारे हैं वो सदा लव में लीन रहने वाले लवलीन हैं। तो जो लव में लीन आत्मायें हैं ऐसे लवलीन आत्माओं के आगे किसी के भी समीप आने की, सामना करने की हिम्मत नहीं है। क्योंकि आप लीन हो, किसी का आकर्षण आपको आकार्षित नहीं कर सकता। जैसे विज्ञान की शक्ति धरनी के आकर्षण से दूर ले जाती हैं, तो यह लवलीन स्थिति सर्व हद की आकर्षणों से बहुत दूर ले जाती है। अगर लीन नहीं है तो डगमग हो सकते हैं। लव है लेकिन लव में लीन नहीं है। अभी किसी से भी पूछेंगे - आपका बाप से लव है, तो सभी हाँ कहेंगे ना। लेकिन सदा लव में लीन रहते है? तो क्या कहेंगे ? इसमें हाँ नहीं कहा। सिर्फ लव है-इस तक नहीं रह जाना। लीन हो जाओ। इसी श्रेष्ठ स्थिति को लीन हो जाने को ही लोगों ने बहुत श्रेष्ठ माना है। अगर आप किसी को भी कहते हो हम तो जीवनमुक्ति में आयेंगे। तो वो समझते हैं कि ये तो चक्कर में आने वाले हैं और हम चक्कर से मुक्त हो करके लीन हो जाएंगे। क्योंकि लीन होना अर्थात् बंधनों से मुक्त हो जाना। इसलिए वे लीन अवस्था को बहुत ऊंचा मानते हैं। समा गये, लीन हो गये। लेकिन आप जानते हो कि वह जो लीन अवस्था कहते हैं, ड्रामा अनुसार प्राप्त किसको भी नहीं होती है। बाप समान बन सकते हैं लेकिन बाप में समा नहीं जाते हैं। उन्हों की लीन अवस्था में कोई अनुभूति नहीं, काई प्राप्ति नहीं। और आप लीन भी हैं और अनुभूति और प्राप्तियाँ भी हैं। आप चैलेन्ज कर सकते हो कि जिस लीन अवस्था या समा जाने की स्थिति के लिए आप प्रयत्न कर रहे हो लेकिन हम जीते जी समा जाना वा लीन होना उसकी अनभूति अभी कर रहे हैं। जब लवलीन हो जाते हो, स्नेह में समा जाते हो तो और कुछ याद रहता है? बाप और मैं समान, स्नेह में समाए हुए। सिवाए बाप के और कुछ है ही नहीं तो दो से मिलकर एक हो जाते हैं। समान बनना अर्थात् समा जाना, एक हो जाना। तो ऐसे अनुभव है ना ? कर्म योग की स्थिति में ऐसे लीन का अनु-भव कर सकते हो ? क्या समझते हो ? कर्मयोगी स्थिति अलग बैठ करके लीन हो सकते हो ? मुश्किल है ? कर्म भी करो और और लीन भी रहो - हो सकता है ? कर्म करने के लिए नीचे नहीं आना पड़ेगा ? कर्म करते हुए भी लीन हो सकते हो ? इतने होशियार हो गये हो ?
कर्मयोगी बनने वाले को कर्म में भी साथ होने के कारण एक्स्ट्रा मदद मिल सकती है। क्योंकि एक से दो हो गये, तो काम बट जायेगा ना। अगर एक काम कोई एक करे और दूसरा साथी बन जाये, तो वह काम सहज होगा या मुश्किल होगा ? हाथ आपके हैं, बाप तो अपने हाथ पाँव नही चलायेंगे ना। हाथ आपके है लेकिन मदद बाप की है तो डबल फोर्स से काम अच्छा होगा ना। काम भल कितना भी मुश्किल हो लेवि्ान बाप की मदद है ही सदा उमंग-उत्साह, हिम्मत, अथकपन की शक्ति देने वाली। जिस कार्य में उमंग-उत्साह वा अथकपन होता है वह काम सफल होगा ना। तो बाप हाथों से काम नहीं करते लेकिन यह मदद देने का काम करते हैं। तो कर्मयोगी जीवन अर्थात् डबल फोर्स से कार्य करने की जीवन। आप और बाप, प्यार में कोई मुश्किल वा थकावट फील नहीं होती। प्यार अर्थात् सब कुछ भूल जाना। कैसे होगा, क्या होगा, ठीक होगा वा नहीं होगा - यह सब भूल जाना। हुआ ही पड़ा है। जहाँ परमात्म हिम्मत है, कोई आत्मा की हिम्मत नहीं है। तो जहाँ परमात्म हिम्मत है, मदद है, वहाँ निमित्त बनी आत्मा में हिम्मत आ ही जाती है। और ऐसे साथ का अनुभव करने वाले मदद के अनुभव करने वाले के सदा संकल्प क्या रहते हैं - नाथिंग न्यु, विजय हुई पड़ी है, सफलता है ही है। यह है सच्चे प्रेमी की अनुभूती। जब हद के आशिक ये अनुभव करते हैं कि जहाँ है वहाँ तू ही तू है। वह सर्वशक्तिवान न हीं है लेकिन बाप सर्वशक्तिवान है। साकार शरीरधारी नहीं है। लेकिन जब चाहे, जहाँ चाहे, सेकेण्ड में पहुँच सकते हैं। ऐसे नहीं समझो कि कर्मयोगी जीवन में लवलीन अवस्था नहीं हो सकती। होती है। साथ का अनुभव अर्थात् लव का प्रैक्टिकल सबूत साथ है। तो सहजयोगी सदा के योगी हो गये ना ! लवर अर्थात् सदा सहजयोगी। इसलिए डायरेक्शन भी दिया है ना कि यह तपस्या वर्ष तो प्राइज़ लेने के समीप आ रहा है लेकिन समाप्त नहीं हो रहा है। इसमें अभ्यास के लिए प्रैक्टिस के लिए सेवा को हल्का किया और तपस्या को ज्यादा महत्व दिया। लेकिन इस तपस्या वर्ष के सम्पन्न होने के बाद प्राइज़ तो ले लेना लेकिन आगे जो कर्म और योग, सेवा और योग, जो भी बैलेन्स की स्थिति बताई हुई है, बैलन्स का अर्थ ही समानता, याद, तपस्या और सेवा-यह समानता हो, शक्ति और स्नेह में समानता हो, प्यारे और न्यारेपन में समानता हो। कर्म करते हुए और कर्म से न्यारा हो अलग बैठने में स्थिति की समानता हो। जो इस समानता के बैलेन्स की कला में नम्बर जीतेगा वो महान होगा। तो दोनों कर सकते हो कि नहीं सार्विस शुरू करेंगे तो ऊपर से नीचे आ जायेंगे ? यह वर्ष तो पक्के हो गये हो ना। अभी बैलेन्स रख सकते हो या नहीं। सार्विस में खिटखिट होती है। इसमें भी पास तो होना है ना। पहले सुनाया ना कि कर्म करते भी, कर्मयोगी बनते भी लवलीन हो सकते हैं, फिर तो विजयी हो जायेंगे ना! अभी प्राइज़ उसको मिलेगा जो बैलेन्स में विजयी होगा।
आज विशेष निमन्त्रण दिया है। आपका स्वर्ग ऐसा होगा ? बापदादा बच्चों के मनाने में ही अपना मनाना समझने हैं। आप स्वर्ग में मनायेंगे, बाप इस मनाने में ही मनायेंगे। खूब मनाना, नाचना,खूब झूलना, सदा खुशियाँ मनाना। पुरूषार्थ की प्रालब्ध अवश्य मिलेगी। यहाँ सहज पुरुषार्थी हो और वहाँ सहज प्रालब्धी हो। लेकिन हीरे से गोल्ड बन जायेंगे। अभी हीरे हो। पूरा संगमयुग ही आपके लिए विशेष बाप और बच्चे वा कम्पेनीयन बनने का प्रेम दिवस है। सिर्फ आज प्यार का दिन है या सदा प्यार का दिन है ? यह भी बेहद डामा के खेल में छोटे-छोटे खेल हैं। तो इतना स्वर्ग सजाया है उसकी मुबारक हो। यह सजावट बाप को सजावट नहीं दिखाई देती लेकिन सबके दिल का प्यार दिखाई देता है। आपके सच्चे प्यार के आगे यह सजावट तो कुछ नहीं है। बापदादा प्यार को देख रहे हैं। वैसे जिसको निमन्त्रण देते हैं तो निमन्त्रण में आने वाला बोलता नहीं है, निमन्त्रण देने वाले बोलते है। बच्चों का इतना प्यार है जो बाप के सिवाए समझते हैं कि कुछ अन्तर पड़ जाता है इसीलिए दिल का प्यार प्रत्यक्ष करने के लिए आज यह खेल रचा है। अच्छा-
सर्व सदा स्नेह में समाई हुई आत्माओं को, सदा स्नेह में साथ अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप दूसरा न कोई ऐसे समीप समान आत्माओं को, संगमयुग के श्रेष्ठ कला के अनुभव करने वाली विशेष आत्माओं को, सदा सर्व हद के आकर्षण से मुक्त लवलीन आत्माओं को बाप का सर्व सम्बन्धों के स्नेह-सम्पन्न यादप्यार और नमस्ते।
महारथी दादियों तथा मुख्य भाइयों से जो निमित्त हैं - उसको सदा सहज याद रहती है। आप सबका भी निमित्त बनी आत्माओं से विशेष प्यार हैं ना। इसलिए आप सब समाये हुए हो। निमित्त बनी हुई आत्माओं का ड्रामा में शक्तियों और पाण्डवों को साथ-साथ निमित्त बनाया है। तो निमित्त बनने की विशेष गिफ्ट है। निमित्त का पार्ट सदा न्यारा और प्यारा बनाता है। अगर निमित्त भाव का अभ्यास स्वत: और सहज है तो सदा स्व की प्रगति और सर्व की प्रगति उन्हों के हर कदम में समाई हुई है। उन आत्माओं का कदम धरनी पर नहीं लेकिन स्टेज पर है। चारों ओर की आत्मायें स्टेज को स्वत: ही देखती हैं। बेहद की विश्व की स्टेज है और सहज पुरूषार्थ की भी श्रेष्ठ स्टेज है। दोनों स्टेज ऊंची हैं। निमित्त बनी हुई आत्माओं को सदा यह स्मृति स्वरूप रहता है कि विश्व के आगे एक बाप समान का एक्जैम्पल हैं। ऐसे निमित्त आत्मायें हो ना ? स्थापना की आदि से अब तक निमित्त बने हैं और सदैव रहेंगे। ऐसे हैं ना। यह भी एक्स्ट्रा लक है। और लक दिल का लव स्वत: बढ़ाता है। अच्छा है, निमित्त बनकर प्लैन बना रहे हो, बापदादा के पास तो पहुँचता है। प्रैक्टिकल में स्वयं शक्तिशाली बन औरों में भी शक्ति भरते प्रत्यक्षता को समीप लाते चलो। अब मैजारिटी आत्माएं इस दुनिया को देख देख थक गई हैं। नवीनता चाहती हैं। नवीनता के अनुभव अभी करा सकते हो। जो किया बहुत अच्छा, प्रैक्टिकल में भी बहुत अच्छा होना ही है। देश-विदेश ने प्लैन अच्छे बनाये हैं। ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष किया अर्थात् बापदादा को साथ-साथ प्रत्यक्ष किया। क्योंकि ब्रह्मा बना ही तब, जब बाप ने बनाया। तो बाप में दादा, दादा में बाप समाया हुआ है। ऐसे ब्रह्मा को फालो करना अर्थात् लवलीन आत्मा बनना। ऐसे है ना, अच्छा।
पार्टियों से मुलाकात
सभी के दिल की बातें दिलाराम के पास बहुत तीव्रगति से पहुँच जाती हैं। आप लोग संकल्प करते हो और बापदादा के पास पहुँच जाता है। बापदादा भी सभी के अपने-अपने विधिपूर्वक संकल्प, सेवा और स्थिति, सबको देखते रहते है। पुरुषार्थी सभी हो। लगन भी सबमें है लेकिन वेरायटी ज़रूर हैं। लक्ष्य सबका श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ लक्ष्य के कारण ही कदम आगे बढ़ रहे हैं, कोई तीव्रगति से बढ़ रहे है,कोई साधारण गति से बढ़ रहे है। प्रगति भी होती है लेकिन नम्बरवार। तपस्या का भी उमंग-उत्साह सभी में है। लेकिन निरन्तर और सहज उसमें अन्तर पड़ जाता है। सबसे सहज और निरन्तर याद का साधन है-सदा बाप का साथ अनुभव हो। साथ् की अनुभुति याद करने की मेहनत से छुड़ा देती है। जब साथ है तो याद तो रहेगी ना। और साथ सिर्फ ऐसे नहीं है कि साथ में कोई बैठा है लेकिन साथी अर्थात् मददगार है। साथ वाला अपने काम में बिज़ी होने से भूल भी सकता है लेकिन साथी नहीं भूलता। तो हर कर्म में बाप का साथ साथी रूप में है। साथ देने वाला कभी नहीं भूलता है। साथ है, साथी है और ऐसा साथी है जो कर्म को सहज कर्म कराने वाला है। वह कैसे भूल सकता है! साधारण रीति से भी अगर कोई भी कार्य में कोई सहयोग देता है तो उसके लिए बार-बार दिल में शुक्रिया गाया जाता है और बाप तो साथी बन मुश्किल को सहज करने वाले हैं। ऐसा साथी कैसे भूल सकता है ? अच्छा।
02-03-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
महाशिवरात्रि मनाना अर्थात् प्रतिज्ञा करना, व्रत लेना और बलि चढ़ना
ज्योति बिन्दु शिव बाबा ज्योति बिन्दु सालिग्रामों प्रति बोले :
आज दिव्य महाज्योति बाप अपने ज्योतिबिन्दु बच्चों से मिल रहे हैं। बापदादा भी महान ज्योति हैं और आप बच्चे भी महान ज्योति स्वरूप हो। तो दिव्य ज्योति बाप दिव्य ज्योति आत्माओं से मिल रहे हैं। यह महान ज्योति कितनी प्यारी और न्यारी है! बापदादा हर एक के मस्तक के बीच चमकती हुई ज्योति को देख रहे हैं। कितना दिव्य और प्यारा नज़ारा है। चमकते हुए रूहानी सितारों का कितना अच्छा संगठन देख रहे हैं। इस रूहानी ज्योतिर्मय सितारों का मण्डल अलौकिक और अति सुन्दर है। आप सभी भी इस दिव्य तारा मण्डल में अपना चमकता हुआ बिन्दु स्वरूप देख रहे हो? यही महाशिवरात्रि है। शिव ज्योति के साथ आप अनेक ज्योतिबिन्दु सालिग्राम हो। बाप भी महान, बच्चे भी महान हैं। इसलिए महाशिवरात्रि गाई जा रही है। कितनी श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माएं हो! जो चैतन्य साकार स्वरूप में शिव बाप के साथ शिवरात्रि मना रहे हो। ऐसे कभी संकल्प में, स्वप्न में भी नहीं सोचते थे कि ऐसी अलौकिक शिवरात्रि मनाने वाले हम सालिग्राम आत्माएं हैं। आप सब चैतन्य रूप में मनाते हो। उसका ही यादगार अब भक्तों द्वारा ज़ड-चतत्र में चैतन्य भावना से मनाने का देख रहे हो। सच्चे भक्त चित्र में भावना से, भावना स्वरूप अनुभव करते और आप सालि-ग्राम आत्माएं सम्मुख मनाने वाली हो। तो कितना भाग्य है! पद्म, अरब, खरब यह भी आपके भाग्य के सामने कुछ नहीं है। इसलिए सभी बच्चे निश्चय के फलक से कहते हैं - हमने देखा, हमने पाया। यह गीत सभी का है या कोई-कोई का है? सभी गाते हैं ना? वा यह गाते हो कि देख लेंगे, पा लेंगे? पा लिया है वा पाना है? डबल विदेशी क्या समझते हैं पा लिया है? बापको देखा भी है ना? दिल से कहते हो कि बाप को देखा है, पाया है। देखना और पाना तो क्या लेकिन बाप को अपना बना लिया है। बाप आपको हो गया है ना। देखो, आपको बाप हो गया तब तो आपके कहने से बाप आ जाते है ना। तो अधिकारी बन गये ना।
महाशिवरात्रि की क्या विशेषताएं हैं? एक तो बाप के आगे प्रतिज्ञा करते हैं और दूसरा बाप के प्यार में व्रत रखते हैं। क्योंकि प्यार और खुशी में सब भूल जाते हैं इसलिए व्रत रखते हैं। खुशी की खुराक खा लेते तो दूसरी खुराक की आवश्यकता नहीं होती है। मिलन की खुशी के कारण व्रत रखते हैं। व्रत खुशी की भी निशानी है और व्रत रखना अर्थात् प्यार में त्याग-भावना। कुछ छोड़ना अर्थात् त्याग भावना की निशानी है। तीसरी बात - शिवरात्रि अर्थात् बलि चढ़ना। यादगार रूप में तो स्थूल बलि चढ़ाते हैं लेकिन होना, मन, बुद्धि और सम्बन्ध से समर्पित होना - यह है वास्तविक बलि चढ़ना। तो ये तीनों ही विशेषताएं महाशिवरात्रि की विशेषताएं हैं। शिवरात्रि मनाना अर्थात् यह तीनों विशेषताएं प्रैक्टिकल जीवन में लाना। सिर्फ कहना नहीं लेकिन करना। कहना और करना सदा समान हो। बापदादा ने बच्चों की खुशखबारी का समाचार भी सुना कि चाहे भारत के बच्चों ने, चाहे डबल विदेशी बच्चों ने, सभी ने महाशिवरात्रि का प्रैक्टिकल स्वरूप प्रतिज्ञा की है। तो प्रतिज्ञा अर्थात् कहना और करना दोनों समान। बहुत अच्छी बात है - सभी ने पहले बापदादा को सबसे बड़े ते बड़ा बर्थ डे का गिफ्ट प्रतिज्ञा अर्थात् श्रेष्ठ संकल्प का दिया है। तो बापदादा भी सभी बच्चों के गिफ्ट की थैंक्स दे रहे हैं। गिफ्ट में दी हुई प्रतिज्ञा सदा स्मृति से समर्थ बनाती रहेगी। पहले से ही यह नहीं सोचो कि प्रतिज्ञा करते तो हैं लेकिन पता नहीं चल सकें या नहीं! निभा सकें या नहीं निभा सकें! यह सोचना अर्थात् कमज़ोरी को आह्वाहन करना। तो कमज़ोरी अर्थात् माया तो जब स्वयं ही आह्वाहन कर रहे हो तो वह कमज़ोरी पहले ही तैयार रहती है आने के लिए। यह ता आप उसको निमन्त्रण दे रहे हो। इसलिए कोई भी संकल्प वा कर्म करते हो तो समर्थ स्थिति में स्थित हो समर्थी से करो। कम-ज़ोर संकल्प मिक्स नहीं करो। यह श्रेष्ठ संकल्प रखो कि हिम्मत हमारी, अटेन्शन हमारा और मदद बाप की है ही है। इस विधि से प्रतिज्ञा प्रैक्टिकल में लाने में बहुत सहज अनुभव करेंगे। सदैव यह सोचो अनेक कल्प की विजयी आत्मा मैं हूँ। विजय की खुशी, विजय का नशा शक्तिशाली बना देगा। विजय आप ब्राह्मण आत्माओं के लिए सदा साथी बन बंधी हुई है और कहाँ जायेगी? सिवाए पाण्डवों के, विजय ने किस को साथ दिया? वही पाण्डव हो ना! जब बाप साथी है तो विजय भी आपकी साथी है। सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ ही है यह देखो। जो प्रभु के गले का हार बन गये, उनकी हार कभी हो नहीं सकती। सम्पूर्ण विजयी के रूप में अपना यादगार विजय माला देख रहे हो ना? ऐसे तो गायन नहीं है ना - विजय और हार माला है! नहीं, विजय माला है। विजयी मणके तो आप हो ना! तो विजयी माला के मणके कभी हार नहीं खा सकते। हर एक ने जो संकल्प किया बाप-दादा ने सारी सीन देखी। अच्छे उमंग-उत्साह से, खुशी-खुशी से प्रतिज्ञा ली है। और आप चैतन्य सालिग्रामों ने प्रतिज्ञा ली है इस-लिए तो भक्त भी उसका यादगारा मनाते रहते हैं। (तपस्या के संबंध से कल सभी ने 56 वीं शिव जयन्ती पर 56 प्रतिज्ञायें की हैं।)
बलि चढ़ चुके। बलि चढ़ना अर्थात् महाबलवान बनना। बलि किसकी चढ़ाते हैं? कमज़ोरियों की। जब कमज़ोरियों की बलि चढ़ा दी तो क्या बन गये? महाबलवान। सबसे बड़ी कमज़ोरी है देह अभिमान। देह-भान समर्पित करना अर्थात् उनके वंश को भी सम-ार्पित किया। क्योंकि देह-अभिमान का सूक्ष्म वंश बहुत बड़ा है। अनेक प्रकार के छोटे बड़े देह-भान है। तो देह-भान की बलि चढ़ाना अर्थात् वंश सहित समर्पित होना। अंश भी नहीं रखना। अंशमात्र भी अगर रह गया तो बार-बार चुम्बक की तरह खींचता रहेगा। आपको पता भी नहीं पड़ेगा। न चाहते भी चुम्बक अपने तरफ खींच लेगा। ऐसे नहीं समझना - ऐसे कोई समाय के लिए यह देह अभिमान का कोई प्रकार काम में लाने के लिए किनारा करके रखें। फिर क्या कहते हैं - इसके बिना काम नहीं चलता। काम चलता है लेकिन थोड़े समय की विजय दिखाई देती है। अभिमान को स्वमान समझ लेते हो। लेकिन इस अल्पकाल की विजय में बहुत काल की हार समायी हुई है। और जिसको थोड़े समय की हार समझते हो वो सदा काल की विजय प्राप्त कराती है। इसलिए देह अभिमान के अंशमात्र सहित समर्पित हो - इसको कहा जाता है शिव बाप के ऊपर बलि चढ़ना अर्थात् महाबलवान बनना। ऐसी शिवरात्रि मनाई है ना? यह व्रत धारण करना है। वे लोग तो स्थूल चीजों का व्रत रखते हैं लेकिन आप क्या व्रत लेते हो? श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा यह व्रत लेते हो कि सदा कमज़ोर वृत्ति को मिटाए,शुभ और श्रेष्ठ वृत्ति धारण करेंगे। जब वृत्ति में श्रेष्ठता है तो सृष्टि श्रेष्ठ ही नज़र आयेगी। क्योंकि वृत्ति से दृष्टि और कृति का कनेक्शन है। कोई भी अच्छी वा बुरी बात पहले वृत्ति में धारण होती है फिर वाणी और कर्म में आती है। वृत्ति श्रेष्ठ होना अर्थात् वाणी और कर्म स्वतः श्रेष्ठ होना। आपकी विशेष सेवा विश्व-परिवर्तन की भी शुभ वृत्ति से है। वृत्ति से वायब्रेशन, वायुमण्डल बनाते हो। तो श्रेष्ठ वृत्ति का यह व्रत धारण करना - यही शिवरात्रि मनाना है। यह तो सुन लिया ना कि मनाना अर्थात् बनना, कहना अर्थात् करना। जो सिद्धि प्राप्त आत्मायें होती हैं जिसको लोगों की भाषा में सिद्ध पुरूष कहा जाता है और आप कहेंगे सिद्धि स्वरूप आत्मा - तो उन्हों क हर संकल्प अपने प्रति या दूसरों के प्रति जो भी करते हैं वह कर्म में सिद्ध हो जाते हैं, जो बोल बोलते है वह सिद्ध हो जाता है। जिसको कहते हैं सत-वचन। तो सबसे बड़े ते बड़ी सिद्धि स्वरूप आत्माएं आप हो ना। तो संकल्प और बोल सिद्ध होंगे ना, सिद्ध होना अर्थत सफल होना। प्रत्यक्ष स्वरूप में आना यह है सिद्ध होना। तो सदैव यह स्मृति में रखो कि हम सभी सिद्धि स्वरूप आत्माएं हैं। हम सिद्धि स्वरूप आत्माओं का हर संकल्प, बोल, हर कर्म स्वयं को वा सर्व को सिद्धि प्राप्त होने वाला हो। व्यर्थ नहीं। कहा और किया तो सिद्ध हुआ। कहा, सोचा और किया नहीं तो वह व्यर्थ गया। कई ऐसे सोचते हैं कि हमारे संकल्प बहुत अच्छे चलते हैं, बहुत अच्छे-अच्छे विचार उमंग आते हैं, अपने प्रति या सेवा के प्रति, लेकिन संकल्प तक ही रह जाते हैं। प्रैक्टिकल कर्म में, स्वरूप में नहीं आते है। तो इसको क्या कहेंगे? संकल्प बहुत अच्छे है लेकिन कर्म में अन्तर क्यों? इसका कारण क्या है? अगर बीज बहुत अच्छा है लेकिन फल अच्छा नहीं निकले तो क्या कहेंगे? धरनी या परहेज की कमी है। ऐसे ही संकल्प रूपी बीज अच्छा है। बापदादा के पास संकल्प पहुँचते हैं। बापदादा भी खुश होते हैं - बहुत अच्छा बीज बोया है, बहुत अच्छा संकल्प किया है, अभी फल मिला कि मिला। लेकिन होता क्या है? दृढ़ धारण की धरनी की कमी और बार-बार अटेन्शन के परहेज की कमी। बापदादा हँसी का खेल देखते रहते हैं। जैसे बच्चे लोगे गैस का गुब्बारा उड़ाते हैं ना, बहुत अच्छी गैस भरकर उड़ाते हैं और खुश होते हैं, गुब्बारा ऊपर गया, बहुत अच्छा उड़ रहा है। लेकिन चलते-चलते नीचे आ जाता है। तो कभी भी पुरूषार्थ में निराश नहीं बनो। करना ही है, होना ही है, विजय माला मेरा ही यादगार है। निराश होकर यह नहीं सोचो अच्छा कर लेंगे, देख लेंगे। नहीं, कल तो क्या अभी करना ही है। अगर निराशा को कुछ सेकेण्ड वा मिनट भी अपने अन्दर स्थान दिया तो फिर वह सहज जाने वाली नहीं है। उसको भी ब्राह्मण आत्माओं के पास मजा आता है। इसलिए निराश कभी नहीं बनो। अभिमान भी नहीं, निराशा भी नहीं। कोई अभिमान में आ जाते हैं, कोई निराशा में आ जाते हैं। यह दोनों महाबलवान बनने नहीं देते हैं। जहाँ अभिमान होता है वहाँ अपमान की फीलिंग भी ज्यादा आती है। कभी अभिमान में, कभी अपमान में - दोनों से खेलते रहते हैं। जहाँ अभिमान नहीं होगा उसको अपमान भी अपमान नहीं लगेगा। वह सदा निर्मान और निर्माण के कार्य में बिज़ी रहेगा। जो निर्मान होता है वही निर्माण कर सकता है। तो शिवरात्रि मनाना अर्थात् निर्मान बन निर्माण करने के कर्तव्य में लगना। समझा!
तो आज सभी अपने दिल पर श्रेष्ठ संकल्प की डोरी द्वारा विजय का झण्डा लहराओ। यह झण्डा लहराना ब्राह्मणों की सेवा की रसम है, विधि है। लेकिन साथ-साथ सदा विजय का झण्डा लहराता रहे। कोई भी दु:ख की बात होती है तो झण्डा नीचे कर देते हैं लेकिन आपका झण्डा कभी नीचे नहीं हो सकता। सदा ऊंचा। तो ऐसा झण्डा लहरायेंगे ना?
अच्छा - तपस्या वर्ष की रिजल्ट भी मिली। सभी ने अपना-अपना जज बनकर अपने को नम्बर दिया। अच्छा किया। मैजारिटी चारों ओर की रिजल्ट से यह दिखाई दिया क इस तपस्य वर्ष ने सबको स्व के पुरूषार्थ के प्रति अटेन्शन अच्छा खिंचवाया है। जब अटेन्शन गया तो टेन्शन भी चला ही जायेगा ना! तो टोटल रिजल्ट कईयों की अच्छी रही है। सेकेण्ड नम्बर मेजोरिटी है। थर्ड भी है लेकिन फर्स्ट और चौथा नम्बर कम है। सेकेण्ड नम्बर के हिसाब से फर्स्ट और फोर्थ कम हैं। बाकी सेकेण्ड और थर्ड ये मैजारिटी है और बापदादा एक बात पर विशेष खुश है कि सभी ने इस तपस्या वर्ष को महत्व दिया है। इसलिए पेपर आये हैं लेकिन मैजारिटी अच्छे रूप से पास हो गये। यह संकल्प जो रखा कि तपस्या करनी है - इस संकल्प की समर्थी ने सहयोग दिया है। इसलिए रिजल्ट अच्छी है, खराब नहीं है। मुबारक हो। बाकी अब प्राइज़ तो दादियाँ देंगी, बाप ने सबको बहुत-अच्छे, बहुत-अच्छे की प्राइज दे दी। ऐसे नहीं कि तपस्या वर्ष पूरा हो गया, अभी अलबेले बन जाये। नहीं, और बड़ी प्राइज़ लेनी है। सुनाया ना - कर्म और योग के बैलेन्स की प्राइज़ लेनी है, सेवा और तपस्या के बैलेन्स की ब्लेसिंग अनुभव करनी है और निमित्त मात्र प्राइज़ लेनी है। सच्ची प्राइज़ तो बाप और परिवार की ब्लैसिंग की प्राइज़ है। वह तो सबको मिल रही है।
अच्छा - आज सूक्ष्म वतन बनाया है। अच्छा है - वायुमण्डल अच्छा बना है। उस ज्योति देश के आगे तो यह सजा हुआ सूक्ष्म वतन मॉडल ही लगता है ना। फिर भी बच्चें का उमंग और उत्साह वायुमण्डल वृत्ति को खींचता जरूर है। सभी सूक्ष्म वतन में बैठे हो? साकार शरीर में रहते मन से सूक्ष्मवतन वासी बन मिलन मनाओ। बापदादा को खुशी है कि बच्चों को सूक्ष्म वतन इतना प्यारा लगता है। तभी तो बनाया है ना। बहुत अच्छी मेहनत करके बनाया है और प्यार से बनाया है, श्रेष्ठ उमंग उत्साह के संकल्प से बनाया है। इसलिए बापदादा संकल्प करने वालों को, साकार में लाने वालों को सभी को मुबारक देते हैं। यह भी बेहद के खेल में खेल है, और क्या खेल करेंगे, यही खेल करेंगे ना। कभी स्वर्ग बनायेंगे, कभी सूक्ष्म वतन बनायेंगे। यह बुद्धि को खींचता है।
अच्छा - चारों ओर के सर्व ज्योतिबिन्दु सालिग्रामों को बाप के दिव्य जन्म वा बच्चों के दिव्य जन्म वा बच्चों के दिव्य जन्म की मुबारक हो। ऐसे सर्वश्रेष्ठ सदा सिद्धि स्वरूप आत्माओं को, सदा दिव्य चमकते हुए सितारों को, सदा अभिमान और अपमान से न्यारे रहने वाले स्वमान में स्थित रहने वाली आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ पुरूषार्थ और श्रेष्ठ सेवा के उत्साह-उमंग की श्रेष्ठ आशाओं के दीपक जगाने वाली आत्माओं को, सदा अपने दिल पर विजय का झण्डा लहराने वाली शिवमयी शक्ति सेना को, सदा पुरूषार्थ में सफलता सहज अनुभव करने वाले सफलता स्वरूप बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
56 वीं शिवजयन्ती पर बापदादा ने ध्वज फहराते हुए सर्व बच्चों को बधाई दी।
सदा विश्व में बाप और विजयी बच्चों को यह सुख-शान्ति देने वाला झण्डा लहराता रहेगा। चारों ओर शिव बाप और शिव शक्तियों की रूहानी सेना का यह नाम बाला होता रहेगा। यह महान, ऊंचा झण्डा विश्व को सदा लहराता हुआ दिखाई देगा। यह अविनाशी झण्डा, अविनाशी बाप और अविनाशी श्रेष्ठ आत्माओं का यादगार है। तो सदा खुशी की लहरों से, खुशी का झण्डा, बाप के नाम बाला करने का झण्डा, बाप को प्रत्यक्ष करने का झण्डा लहरा रहे हो, लहराते रहेंगे। ऐसे महाशिवरात्रि पर आप सभी बच्चों को और चारों ओर के सर्व ब्राह्मण विशेष आत्माओं को बहुत-बहुत बर्थ डे की मुबारक और यादप्यार।
16-03-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
होली मनाना अर्थात् दृढ़ संकल्प की अग्नि में कमज़ोरियों को जलाना और मिलन की मौज मनाना।
अव्यक्त बापदादा होली हंस आत्माओं के प्रति बोले:
आज रूहानी बगीचे के मालिक बापदादा डबल बगीचा देख रहे हैं। (आज स्टेज पर बहुत सुन्दर बगीचा सजाया हुआ है) एक तरफ है प्रकृति की सुन्दरता और दूसरे तरफ है रूहानी रूहे गुलाब बगीचे की शोभा। ड्रामा में आदि काल सतयुग में प्रकृति की सतोप्रधान सुन्दरता आप मास्टर आदि देव, आदि श्रेष्ठ आत्माओं को ही प्राप्त होती है। इस समय अन्तिम काल में भी प्रकृति की सुन्दरता देख रहे हो। लेकिन आदि काल और अन्तिम काल में कितना अन्तर है! आपके सतयुगी राज्य में प्रकृति का स्वरूप कितना श्रेष्ठ सतो प्रधान सुन्दर होगा! वहाँ के बगीचे और यहाँ आपके बगीचे में कितना अन्तर है! वह रीयल खुशबू अनुभव की है ना? फिर भी प्रकृति पति आप श्रेष्ठ आत्मायें हो। प्रकृति पति हो, इस प्रकृति के खेल को देख हर्षित होते हो। चाहे प्रकृति हलचल करे, चाहे प्रकृति सुन्दर खेल दिखाए - दोनों में प्रकृति-पति आत्माएं साक्षी हो खेल देखती हो। खेल में मज़ा लेते हैं, घबराते नहीं है। इसलिए बापदादा तपस्या द्वारा साक्षीपन की स्थिति के आसन पर अचल अडोल स्थित रहने का विशेष अभ्यास करा रहे हैं। तो यह स्थिति का आसन सबको अच्छा लगता है या हलचल का आसन अच्छा लगता है? अचल आसन अच्छा लगता है ना। कोई भी बात हो जाए चाहे प्रकृति की, चाहे व्यक्ति की दोनों अचल स्थिति के आसन को ज़रा भी हिला नहीं सकते हैं। इतने पक्के हो ना या अभी होना है?
प्रकृति के भी पांच खिलाड़ी हैं और माया के भी पांच खिलाड़ी हैं। इन दस खिलाड़ियों को अच्छी तरह से जानते हो ना? खिलाड़ी खेल के बिना रहेंगे क्या? कभी कोई खिलाड़ी सामने आ जाता है, कभी कोई सामने आ जाता है। आजकल भी पुरानी दुनिया में खेल देखने के बहुत शौकीन है ना? कितना प्यार से खेल देखते हैं। वो हैं पुरानी दुनिया वाले और आप हो संगमयुगी ब्राह्मण आत्माएं तो खेल देखना एंजाय करना है या घबराना है? कोई गिरता है, कोई गिराता है, लेकिन खेल देखने वाले को गिरता हुआ देख भी मजा आता और विजय प्राप्त करता हुआ देख भी मजा आता है। तो यह भी बहुत बड़ा खेल है। सिर्फ आसन को नहीं छोड़ो बस। कितना भी कोई हिलाए लेकिन आप शक्तिशाली आत्माएं हिल नहीं सकती हो। तो बापदादा आज हर एक रूहानी गुलाब को दूख रहे हैं। जब बगीचे में बुलाया है तो बगीचे में पत्ते देखेंगे या फूलों को देखेंगे? यह भी अच्छा सजाया है। मेहनत करने वालों की कमाल अच्छी है। लेकिन बापदादा रूहानी फूलों को देख रहे हैं। वैरायटी तो हैं ना। कोई बहुत सुन्दर रंग रूप वाले हैं। रंग भी है, रूप भी है। ओर कोई रंग, रूप और खुशबू वाले होंगे, कोई सिर्फ रंग रूप वाले। रंग और रूप तो सभी बच्चों में आ गया है। क्योंकि बाप के संग का रंग तो सबको लग गया है। कोई व्यवहार की बातों में, पुरूषार्थ की बातों में सम्पूर्ण सन्तुष्टता नहीं भी हो लेकिन बाप के संग का रंग सबको अति प्यारा लगता है। इसलिए रंग सभी में आ गया है और रूप भी परिवर्तन हो गया है क्योंकि ब्राह्मण आत्माएं बन गयीं। भल कैसी भी पुरुषार्थी आत्मा है लेकिन ब्राह्मण आत्मा बनने से रूप ज़रूर बदलता है। ब्राह्मण आत्मा की चमक सुन्दरता हर एक ब्राह्मण आत्मा में आ जाती है। इसलिए रंग और रूप सबमें दिखाई दे रहा है। खुशबू नम्बरवार है। खुशबू है सम्पूर्ण पवित्रता। वैसे तो जो भी ब्राह्मण बनते हैं, ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहलाते हैं। कुमार और कुमारी बनना अर्थात् पवित्र बनना। पवित्रता की परिभाषा अति सूक्ष्म है। सिर्फ ब्रह्मचर्य नहीं। तन से ब्रह्मचारी बनना इसको सम्पूर्ण पवित्रता नहीं कहते। मन से भी ब्रह्मचारी हो अर्थात् मन भी सिवाय बाप के और किसी भी प्रकार के लगाव में नहीं आए। तन से भी ब्रह्मचारी, सम्बन्ध में भी ब्रह्मचारी, संस्कार में भी ब्रह्मचारी। इसकी परिभाषा अति प्यारी और अति गुह्य है। इसका विस्तार फिर सुनायेंगे। आज तो होली मनानी है ना, गुह्य पढ़ाई नहीं हैं, आज मनाना है।
होली मनाने वाले कौन हो? होली हंस हो। होली हंस कितने प्यारे है! हंस सदा पानी में तैरने वाले होते हैं। होली हंस भी सदा ज्ञान जल में तैरने वाले हो। उड़ने वाले और तैरने वाले। आप सभी भी उड़ना और तैरना जानते हो ना, ज्ञान मनन करना इसको कहेंगे ज्ञान अमृत में तैरना ओर उड़ना अर्थात् सदा ऊंची स्थिति में रहना। दोनों जानते हो ना? सभी के मन में बाप से प्यार तो 100% से भी आगे है और बाप का प्यार भी हर एक बच्चे से, चाहे वह गिरता है, चाहे चढ़ता भी है, खेल करता है फिर भी बाप का प्यार है। बाप खेल देखकर समझते हैं कि यह थोड़ा नटखट बच्चा है। सब बच्चे एक जैसे तो नहीं होते ना। कोई नटखट, कोई गंभीर, कोई रमणीक होते हैं, कोई बहुत फास्ट नेचर के होते हैं। फिर भी हैं तो बच्चे ना। बच्चे शब्द ही अति प्यारा है। जैसे आप सबके लिए बाप शब्द प्यारा है, तो बाप के लिए बच्चे प्यारे हैं। बाप कभी भी कोई बच्चे से दिल शिकस्त नहीं होते हैं। सदा शुभ उम्मीदें रखते हैं। अगर कोई किनारा भी कर लेते हैं फिर भी बापदादा उसमें भी उम्मीद रखते हैं कि आज नहीं तो कल आ जायेंगे। कहाँ जायेंगे? जैसे शारीरिक हिसाब-किताब में कोई ज्यादा बीमार भी हो जाता है, उनको ठीक होने में भी ज्यादा समय लगता है। और जो थोड़ा समय बीमार होता है तो वह जल्दी ठीक हो जाता है। लेकिन है तो बीमार। कैसा भी बीमार हो स्थूल रीति प्रमाण भी बीमार से कभी उम्मीद उतारी नहीं जाती है। सदा उम्मीद रखी जाती है - आज नहीं तो कल ठीक हो जायेगा। इसलिए बापदादा कोई भी बच्चे से नाउम्मीद नहीं होते हैं। सदा शुभ आशायें रखते हैं कि आज थोड़ा सा ढीला है, कल होशियार हो जायेगा। जब मंज़िल एक है, बाप एक है तो कहाँ जायेंगे सिवाए बाप के? फिर भी वर्सा हर आत्मा को बाप से ही मिलना है। चाहे बाप को गाली भी दे तो भी बाप मुक्ति का वर्सा तो दे ही देंगे। सारे विश्व की सर्व आत्माओं को चाहे मुक्ति, चाहे जीवन मुक्ति का वर्सा ज़रूर मिलना है। क्योंकि बाप सृष्टि पर अवतरित हो बच्चों को वर्से से वंचित नहीं कर सकते हैं। बाप को वर्सा देना ही है। चाहे लेवे, चाहे नहीं लेवे बाप को देना ही है। और सर्व आत्माओं को बाप द्वारा वर्सा मिला है तब तो बाप कहकर पुकारते हैं ना। बाप का अर्थ ही है वर्सा देने वाला। चाहे किसी भी धर्म में चले गये हैं फिर भी फादर कह याद तो करते हैं ना। एक आत्मा भी वर्से के सिवाए रह नहीं सकती। तो साकार सृष्टि पर पार्ट बजाते बच्चों को वर्सा न दे तो बाप कैसे कहेंगे? लेकिन आप डायरेक्ट वर्सा लेते हो, पहचान से लेते हो। आपका डायरेक्ट कनेक्शन है। चाहे निमित्त साकार माध्यम ब्रह्मा बना लेकिन ब्रह्मा से योग नहीं लगाते, योग बाप से लगाते हैं। ब्रह्मा बाप भी कहते - बाप को याद करो। यह नहीं कहते - मुझे याद करो। कभी भी सिवाए बाप के फुल वर्सा और कोई सम्बन्ध में मिल नहीं सकता। आप डायरेक्ट बाप से सम्बन्ध जोड़ वर्से का अधिकार तीनों कालों में प्राप्त करते हो। अभी भी वर्सा मिल रहा है ना! शक्तियों का, गुणों का वर्सा मिल रहा है। मिल गया है? और मुक्तिधाम में भी कहाँ रहेंगे? समीप रहेंगे ना! तो अभी भी वर्सा है, मुक्तिधाम में भी और फिर 21 जन्म का भी वर्सा है। तो तीनों कालों में वर्से के अधिकारी बनते हो। लोग कहते हैं ना आप सबको कि आपकी जीवनमुक्ति से हमारी मुक्ति अच्छी है। आप तो चक्कर में आयेंगे, हम तो चक्कर से छूट जायेंगे। आप फलक से कह सकते हो कि मुक्ति का वर्सा तो हमें भी मिलेगा लेकिन हम मुक्ति के बाद फिर जीवनमुक्ति का वर्सा लेंगे। डबल मिलता है! मुक्तिधाम से वाया तो करेंगे ना, तो डायरेक्ट कनेक्शन होने के कारण वर्तमान और फिर मृत्यु के बाद और फिर नया शरीर लेते तीनों ही काल वर्से के अधिकारी बनते हो। इतना नशा है?
आज होली मना रहे हो ना। होली जलाई भी जाती है और मनाई भी जाती है। पहले जलाई जाती है फिर मनाई जाती है। होली मनाना अर्थात् कुछ जलाना और कुछ मनाना। जलाने के बिना मनाई नहीं जाती। तो दृढ़ संकल्प की अग्नि द्वारा पहले अपनी कमज़ोरी को जलाना है तब मनाने की मौज अनुभव कर सकेंगे। अगर जलाया नहीं तो मनाने की मौज का अनुभव सदा काल नहीं रहेगा। होली शब्द का अर्थ भी याद रहे तो जला भी लिया फिर भी सदा काल नहीं रहेगा। होली शब्द में जलाना भी है, मनाना भी है। दोनों ही अर्थ हैं। होली शब्द तो पक्का है ना? तो होली अर्थात् हो-ली, बीती सो बीती। जो बात गुज़र गई उसको कहते हैं हो-ली । जो होना था वह हो-ली । तो बीती को बीती करना माना होली जलाना। और जब बाप के सामने आते हो तो कहते हो मैं बाप की हो ली, हो गई। तो मनाया भी ओर हो ली, बीती सो बीती। बीती को भूल जाना यह है जलाना। तो एक ही होली शब्द में जलाना और मनाना है। गीत गाते हो ना मैं तो बाप की हो ली। पक्के हो ना? क्योंकि बापदादा ने सबका तपस्या का पोतामेल देखा। तपस्या अगर कभी भी कम हुई तो उसका कारण क्या बना है? बीती को बीती करने में बिन्दी के बजाए क्वेश्चन मार्क लगा दिया। और छोटी सी गलती करते हो, छोटी लेकिन नुकसान बहुत बड़ा होता है। वह क्या गलती करते हो? जिसको भूलाना है उसको याद करते हो और जिसको याद करना है उसको भूला देते हो। तो भूलाना आता है ना? बाप को भूलने नहीं चाहते हो तो भी भूल जाते हो और जिस समय भूलना चाहिए उस समय क्या कहते हो - भूलना चाहते हैं लेकिन भूलते नहीं, बार बार याद आ जाता है। तो याद करना और भूलना दोनों ही बाते आती हैं। लेकिन क्या याद करना है और क्या भूलना है? जिस समय भूलना है उस समय याद करते हो और जिस समय याद करना है उस समय भूल जाते हो। छोटी सी गलती है ना? तो इसको हो ली कर दो, जला दो। अंश से खत्म कर दो। ज्ञानी तू आत्मा हो ना? ज्ञानी का अर्थ ही है समझदार। और आप तो तीनों कालों के समझदार हो। इसलिए होली मनाना अर्थात् इस गलती को जलाना। जो भूलना है वह सेकेण्ड में भूल जाये और जो याद करना है वह सेकेण्ड में याद आए। कारण सिर्फ बिन्दी के बजाए क्वेश्चन मार्क है। क्यों सोचा और क्यू शुरू हो जाती है। ऐसा वैसा क्यों क्या बड़ी क्यू शुरू हो जाती है। सिर्फ क्वेश्चन मार्क लगाने से। और बिन्दी लगा दो तो क्या होगा? आप भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी और व्यर्थ को भी बिन्दी, फुल स्टॉप। स्टॉप भी नहीं, फुल स्टॉप। इसको कहा जाता है होली। और इस होली से सदा बाप के संग के रंग की होली, मिलन होली मनाते रहेंगे। सबसे पक्का रंग कौन सा है? यह स्थूल रंग भल कितने भी पक्के हों लेकिन सबसे श्रेष्ठ और सबसे पक्का रंग है बाप के संग का रंग। तो इस रंग से मनाओ। आपका यादगार गोप गोपियों के होली मनाने का है। उस चित्र में क्या दिखाते हैं? बाप और आप दोनों संग संग होली खेलते हैं। एक-एक गोप वा गोपी के साथ गोपी वल्लभ दिखाते हैं। तो यह संग हो गया ना! साथ वा संग अविनाशी होली है बाप के संग के रंग की यादगार होली रास के साथ के रूप में दिखाई है। तो होली मनाने आती है ना? यह हो गया, क्या करूँ, चाहते नहीं है लेकिन हो जाता है... आज से इसकी होली जलाओ, समाप्त करो। मास्टर सर्वशक्तिवान कभी संकल्प में भी यह सोच नहीं सकते। अच्छा -
डबल विदेशी भी अच्छी सेवा की वृद्धि में आगे बढ़ रहे हैं। बाप से भी प्यार है, तो सेवा से भी प्यार है। सेवा अर्थात् स्व और सर्व आत्माओं की साथ-साथ सेवा। पहले स्व क्योंकि स्व स्थिति वाले ही अन्य आत्माओं को परिस्थितियों से निकाल सकते हैं। सेवा की सफलता ही है - स्व और सर्व के बैलेन्स की स्थिति। ऐसे कभी भी नहीं कहो कि सेवा में बहुत बिज़ी थे ना इसीलिए स्व की स्थिति का चार्ट ढीला हो गया। एक तरफ कमाया, दूसरे तरफ गँवाया तो बाकी बचा क्या? इसलिए जैसे बाप और आप कम्बाइन्ड हो, शरीर और आत्मा कम्बाइन्ड है, आपका भविष्य विष्णु स्वरूप कम्बाइन्ड है, ऐसे स्व-सेवा और सर्व की सेवा कम्बाइन्ड हो। इसको अलग नहीं करो, नहीं तो मेहनत ज्यादा और सफलता कम मिलती है। अधूरा हो गया ना!
इस ग्रुप के चार्ट में भी सेकेण्ड नम्बर ज्यादा है। फर्स्ट भी कम है तो चौथा पांचवा भी कम है, सेकेण्ड तक गये है तो सेकेण्ड के बाद आगे क्या है? फर्स्ट है ना। सेकेण्ड तक कदम रख लिया है बाकी अभी एक कदम फर्स्ट में रखना है। उसकी विधि है - कम्बाइन्ड स्वरूप की सेवा। बच्चे सेवा का भी प्लैन बना रहे हैं ना। बापदादा ने तो इशारा दिया ही था कि अभी समय प्रमाण सेवा जो की वो बहुत अच्छी की। इससे बाप को, अपने को प्रत्यक्ष किया, वायुमण्डल और वायब्रेशन परिवर्तन हुआ। स्नेही और सहयोगी आत्माएं चारों ओर काफी संख्या में नजदीक आई। अभी ऐसी सेवा करो जो एक द्वारा अनेकों की सेवा हो। सारे विश्व को सन्देश देना है। एक एक को सन्देश देते जो राजधानी में आने वाली आत्माएं हैं वो अपना भाग्य बनाकर आगे आ गई हैं। लेकिन अभी तो सन्देश देने की संख्या निकले हुए राज्य अधिकारी बच्चों से ज्यादा है। राज्य फैमली में आने वाले वा राज्य तख्त पर बैठने वाले दोनों तो अच्छे निकाले हैं। राज्य अधिकारी भी आप लोग ही बनेंगे ना। आप बनेंगे या औरों को बनायेंगे? औरों को राज्य अधिकारी बनायेंगे और आप क्या बनेंगे?
तो अभी चारों ओर सन्देश पहुँचाने के लिए ऐसी आत्माओं को समीप लाओ जो एक अनेकों के निमित्त बन जाये तब सन्देश देने की फास्ट गति होगी। इसलिए बापदादा ने पहले भी इशारा दिया कि जो जहाँ ज्यादा में ज्यादा संख्या है, चाहे इन्स्टीट्युशन है, चाहे इन्डस्ट्रीज़ हैं, दोनों में संख्या ज्यादा में होती है। तो ऐसी आत्माओं को निमित्त बनाओ जो वह आपके सेवा के साथी बनकर औरों को समीप लायें। आप सन्देश देते आगे बढ़ते जाओ। उन्हों को निमित्त बनाओ सन्देश देने के लिए। अभी तो आप आत्माओं की स्टेज के अनुसार आपको बनी बनाई स्टेज प्राप्त होगी। औरों को सेवा में तन-मन-धन लगाने का चांस दो। चाहे मन लगायें, चाहे धन लगायें, तब तो सतयुगी प्रजा में आयेंगे। उन्हों को बीज बोने दो आप लोगों ने तो बीज बो लिया ना, फल पा रहे हो। अब ऐसा ग्रुप बनाओ जो एक मास के लिए, दो मास के लिए सेवा के ग्रुप में कोई किस तरफ, कोई किस तरफ सन्देश देने के लिए निकले। एक ही समय पर 7-8 ग्रुप बनाओ और अपने एरिया में एक-एक ग्रुप सेवा के लिए निकले। चाहे छोटे देश हों, चाहे बड़े देश हों। जो जो जिसके नज़दीक नज़दीक पड़ते हैं, वहाँ से ग्रुप तैयार करके उस ग्रुप को भेजो लेकिन वह ग्रुप भी सेवा करने की विधि यही बुद्धि में रखे कि ऐसे मुख्य को जगायें जो औरों को जगाते रहें। वहाँ से ही तैयार करो ओर आगे बढ़ते जाओ। क्योंकि जब भी सेवा बढ़ाने चाहते हो तो पहला प्रश्न उठता है हैन्ड्स कहाँ से आयेंगे? जगह जगह पर ऐसी आत्माऐं तैयार करो और फिर तैयार हुए को और उम्मीदवार हैन्ड्स को विशेष समय निकाल कर ट्रेनिंग दो और फिर वह चलाते रहें। और जो निमित्त है वो चक्कर लगाते रहें। पुराने सेन्टर्स तो पक्के हो गये हैं, तो नयों में चक्कर लगाते नयों को पुराना बनाओ। योग्य हैण्ड्स बनाने का साधन है - समय प्रति समय हैन्ड्स को ट्रेनिंग देना। जहाँ भी नजदीक हो, चाहे 8 हो, चाहे 10 हों, लेकिन ट्रेनिंग समय प्रति समय मिलना बहुत ज़रूरी है। जैसे पहले भी भारत में भी कभी युथ ग्रुप, कभी एज्युकेशन के ग्रुप, कभी डॉक्टर्स के ग्रुप बनाये थे, ऐसे रहे हुए स्थानों पर ग्रुप बना कर लक्ष्य रखो कि यहाँ से ही कोई को निमित्त बनाना है। निमित्त बनाते जाओ, आगे बढ़ते जाओ। अभी सम्बन्ध संपर्क तो आपका अच्छा बन गया है। सभी के में प्रभाव भी अच्छा है। लक्ष्य रखने से ऐसी सहयोगी आत्माएं भी मिल जायेंगी। कांफ्रेंस, योग शिविर, भाषण करके आना है - यह नहीं, हैन्ड्स तैयार करना है लक्ष्य यह हो। चाहे गीता पाठशाला के माफिक चलाओ। धीरे-धीरे गीता पाठशाला से उपसेवाकेन्द्र, उपसेवाकेन्द्र से केन्द्र बन जायेगा। लेकिन जो भी ग्रुप कहाँ भी जाये कम्बाइन्ड सेवा के बिना सफलता असम्भव है। ऐसा नहीं कि जाओ सेवा करने और लौटो तो कहो माया आ गई, मूड ऑफ हो गया, डिस्टर्ब हो गये। इसके कारण जो निमित्त आत्माएं है वो सेवा में भेजने से भी डरती हैं। हिम्मत नहीं रखती हैं। सोचना पड़ता है कि औरों की सेवा करते खुद तो ढीला नहीं हो जायेगा! इसलिए यह अन्डर लाइन करो। सेवा में सफलता या सेवा में वृद्धि का साधन है स्व और सर्व की कम्बाइन्ड सेवा।
सभी डबल विदेशियों ने सभी स्थानों से पत्र भी बहुत यादप्यार के लाये हैं। बापदादा के पास तीन प्रकार के पत्र पहुँचे हैं। एक तो है अति स्नेह के, खुशखबरी के और दूसरे हैं पुरूषार्थ में आगे बढ़ने का लक्ष्य कैसे रखा है, उस समाचार के पत्र और तीसरे हैं थोड़ा-थोड़ा बीच-बीच में नटखट होने के। कोई ने क्या, कोई ने क्या लिखा है। लेकिन बापदादा सभी पत्र लिखने वाले बच्चों को यही रेसपान्ड कर रहे हैं कि सदा कम्बाइन्ड सेवा और स्थिति अर्थात् बाप और आप यह कम्बाइन्ड स्थिति, कम्बाइन्ड सेवा और सदा फरिश्ते स्वरूप का सम्पूर्ण लक्ष्य सामने रखे। आज पुरुषार्थी, कल फरिश्ता। सदा फरिश्ता स्वरूप ऐसे सामने हो जैसे स्वयं का स्वरूप सदा स्मृति में रहता है अपना स्थूल स्वरूप कभी भूलता नहीं है ना। तो जैसे अपना स्थूल स्वरूप सदा याद रहता है वैसे अपना फरिश्ता स्वरूप सदा ही स्पष्ट सामने हो। बस अभी अभी बने कि बने। फरिश्ते थे, फरिश्ते हैं और कल्प कल्प फरिश्ते हमको ही बनना है। तो हिम्मत, उमंग, उत्साह से उडते चलो। साफ दिल से लिखते बहुत अच्छा है, यह डबल विदेशियों की विशेषता है। स्पष्ट है। छिपाने वाले नहीं है। स्पष्ट का अर्थ है श्रेष्ठ। चेक करने की शक्ति बहुत अच्छी है, डबल विदेशियों में। अभी सिर्फ चेन्ज करने की शक्ति उतनी मात्रा में रखो। चेकिग की मात्रा ज्यादा है, चेंज की थोड़ी कम है तो इसका भी बैलेन्स रखो। स्पष्ट बहुत दिल से देते हैं और लेते भी हैं। रिटर्न उसी समय मिल जाता है। अगर सच्ची दिल से कोई अपनी कमज़ोरी भी लिखता है तो बाप क्षमा का सागर उसी समय रिटर्न में क्षमा कर देता है। बहुत प्यार के कार्ड, बहुत प्यार के पत्र बापदादा देखते हैं। गिफ्ट देने वाले स्वयं ही बाप की गिफ्ट हैं। गिफ्ट देना अर्थात् लिफ्ट लेना। तो सिर्फ गिफ्ट देना नहीं, लेकिन लिफ्ट लेना भी है। अच्छा।
कल्प पहले का वर्सा लेने के लिए नये नये सभी बच्चे पहुँच गये हैं इसके लिए बापदादा वेलकम कर रहे हैं, और नये बर्थ के बर्थ डे की मुबारक दे रहे हैं।
अच्छा - चारों ओर के सर्व कम्बाइन्ड स्थिति में स्थिति रहने वाले, सदा कम्बाइन्ड सेवा में अथक सेवा से निमित्त बनने वाले, सदा बीती को बीती कर बाप के संग के रंग की होली मनाने वाले हंस आत्माएं, सदा तीनों काल के वर्से के खुशी में रहने वाले, सदा साक्षी बन प्रकृति बन प्रकृति और माया का खेल देखने वाले - ऐसे सदा विजयी, सदा उड़ती कला वाले, सदा फरिश्ता स्वरूप सामने अनुभव करने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
1. जैसे आवाज में आना अति सहज लगता है ऐसे ही आवाज से परे हो जाना इतना सहज है? यह बुद्धि की एक्सरसाइज़ सदैव करते रहना चाहिए। जैसे शरीर की एक्सरसाइज़ शरीर को तन्दुरूस्त बनाती है ऐसे आत्मा की एक्सरसाइज़ आत्मा को शक्तिशाली बनाती है। तो यह एक्सरसाइज़ आती है या आवाज में आने की प्रैक्टिस ज्यादा है? अभी-अभी आवाज में आना और अभी-अभी आवाज से परे हो जाना - जैसे वह सहज लगता है वैसे यह भी सहज अनुभव हो। क्योंकि आत्मा मालिक है। सभी राजयोगी हो, प्रजायोगी तो नहीं? राजा का काम है आर्डर पर चलाना। तो यह मुख भी आपके आर्डर पर हो - जब चाहो तब चलाओ और जब चाहो तब नहीं चलाओ। आवाज से परे हो जाओ लेकिन इस रूहानी एक्सरसाइज़ में सिर्फ मुख की आवाज से परे नहीं होना है। मन से भी आवाज में आने के संकल्प से परे होना है। मुख से चुप हो जाओ और मन में बातें करते रहो। आवाज से परे अर्थात् मुख और मन दोनों की आवाज से परे, शान्ति के सागर में समा जायें। यह स्वीट साइलेन्स की अनुभूति कितनी प्यारी है! अनुभवी तो हो ना। एक सेकेण्ड भी आवाज से परे हो स्वीट साइलेन्स की स्थिति में स्थित हो जाओ। तो कितना प्यारा लगता है?
साइलेन्स प्यारी क्यों लगती है? क्योंकि आत्मा का स्वधर्म ही शान्ति है, ओरिजनल देश भी शान्ति देश है। इसलिए आत्मा को स्वीट साइलेन्स बहुत प्यारी लगती है। एक सकेण्ड में भी आराम मिल जाता है। कितनी भी मन से, तन से थके हुए हो लेकिन अगर एक मिनट भी स्वीट साइलेन्स में चले जाअसे तो तन और मन को आराम ऐसा अनुभव होगा जैसे बहुत समय आराम करके कोई उठता है तो कितना फ्रेश होता है! कभी भी कोई हलचल होती है, लड़ाई झगड़ा या हल्ला-गुल्ला कुछ भी होता है तो एक दो को क्या कहते है? शान्त हो जाओ। क्योंकि शान्ति में आराम है। तो आप भी सारे दिन में समय प्रति समय, जब भी समय मिले स्वीट साइलेन्स में चले जाओ। अनुभव में खो जाओ - बहुत अच्छा लगेगा। अशरीरी बनने का अभ्यास सहज हो जायेगा। क्योंकि अन्त में अशरीरीपन का अभ्यास ही काम में आयेगा। सेकेण्ड में अशरीरी हो जायें। चाहे अपना पार्ट भी कोई चल रहा हो लेकिन अशरीरी बन आत्मा साक्षी हो अपने शरीर का भी पार्ट देखे। मैं आत्मा न्यारी हूँ, शरीर से यह पार्ट करा रही हूँ। यही न्यारेपन की अवस्था अन्त में विजयी या पास विद् ऑनर का सर्टिफिकेट देंगी। सभी पास विथ ऑनर होने वाले हो? मजबूरी से पास होने वाले नहीं। कभी टीचर को भी एक दो मार्क देकर पास करना पड़ता है। ऐसे पास होने वाले नहीं हैं। खुशी-खुशी से अपने शक्ति से पास विद् ऑनर होने वाले। ऐसे हो ना? जब टाइटल भी डबल विदेशी है तो मार्क्स भी सबसे डबल लेंगे ना! भारतवासियों को क्या नशा है? भारतवासियों को फिर अपना नशा है। भारत में ही बाप आते हैं। लन्दन में तो नहीं आते हैं ना। (आ तो सकते हैं) अभी तक ड्रामा में पार्ट दिखाई नहीं दे रहा है। ड्रामा की भावी कभी भगवान भी नहीं टाल सकता। ड्रामा को अथॉरिटी मिली हुई है। अच्छा।
सभी मौज मनाने वाले हो? बीच-बीच में थोड़ा मूँझने वाले तो नहीं। जहाँ मौज हे वहाँ मूंझना नहीं। जब युग ही मौज का है, तो मौज के समय भी कोई मूंझता रहे तो मौज कब मनायेंगे? कितने जन्म मूंझते रहे? बाप के सम्बन्ध में भी कितना मूँझते रहे? कृष्ण है, हनूमान है, राम है ...कोन है बाप? मूँझते रहे ना! अपने भाग्य में भी मूँझते रहे। हम तो हैं ही चरणों की धूल। यही मानते रहे ना। बाप के परिचय में भी मूँझते रहे तो व्यवहार में भी मूँझते रहे, परिवार में भी मूँझते रहे। लेकिन अभी मौज। अभी किसी भी बात में मूँझने का मार्जिन ही नहीं है। त्रिकालदर्शी आत्मा कभी भी किसी बात में मूँझ नहीं सकती। तीनों काल क्लीयर हैं। जब मंजिल और रास्ता क्लीयर हेता है तो कोई मूँझता नहीं। त्रिकालदर्शी आत्माएं कभी कोई बात में सिवाए मौज के और कोई अनुभव नहीं करतीं। चाहे परिस्थिति मूँझाने वाली हो लेकिन ब्राह्मण आत्मा उसको भी मौज में बदल लेगी। इतनी ताकत हे? या कहेंगे कि क्या करें मैं तो मूँझती नहीं हूँ, लेकिन बात ऐसी थी..। बात पावरफुल है या आप पावरफुल हो? बात को खिलौना समझ लो तो मौज में खेलेंगे। बड़ी बात है.. यह है.. वह है.. तो खेल नहीं समझेंगे, मुश्किल समझेंगे।कितने बारी यह ब्राह्मण जीवन का पार्ट पास किया है? अनगिनत बार। तो कोई नई बात नहीं है जो मूँझो। इसलिए कोई भी काम शुरू करो पहले यह चेक करो कि हर कर्म मौज में कर रही हूँ? मज़ा आ रहा है कर्म योग से? कैसा भी काम हो मजे से करो। चाहे कोई हार्ड वर्क हो, जॉब करने जाते हो - बहुत हार्ड है इसीलिए कहते हैं ना कि अभी जॉब(नौकरी) छुड़ा दो। छोड़ने चाहते हो ना? छोड़ना नहीं है लेकिन हर कर्म को मजे में परिवर्तन करना है। डबल विदेशी समझते हैं कि अभी काम छोड़कर मधुबन में आ जायें। लेकिन सभी मधुबन में बैठ जायेंगे तो विश्व परिवर्तन कौन करेगा? विश्व के कोने-कोने में इसीलिए ही गये हो। किसी भी कोने में जाओ, कोई न कोई ब्राह्मण आत्मा ज़रूर है।
सभी होली मनायेंगे ना। होली मनाना अर्थात् मौज मनाना। आपकी तो रोज होली है। रोज उत्सव है। अच्छा है, अपने भाग्य के गीत गाते रहो। वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! भगवान का बनाना - इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! इसलिए सदा गीत गाते रहो और ससदा खुशी के झूले में झूलते रहो। झूलना आता है या चक्कर आता है? चक्कर में नहीं आना। मौज से झूलते रहो। डबल विदेशियों को अभी तक यह गोल्डन चांस है जो वर्ष-वर्ष आते हो। भारत वालों को तो दो-तीन साल में टर्न मिलता है।तो लक्की हो। अच्छा।
2. संगमयुगी ब्राह्मणों का कर्तव्य वा सेवा ही है खुश रहना और खुशी बांटना।इतनी खुशी जमा की है तो औरों को भी बांटो? थोड़ा सा स्टॉक तो नहीं इकठ्ठा किया है जो खर्च हो जाये और खाली हो जाओ। बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि जैसा नाज़ुक समय नजदीक आता जायेगा तो अनेक आत्मायें आपसे थोड़े समय की खुशी की मांगनी करने के लिए आयेंगी। इतनी सेवा करनी है जो कोई भी खाली हाथ नहीं जाये। जितनी खुशी बांटेंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। तो यह देना, देना नहीं, लेना है। अच्छा है, सबके चेहरे में उमंग-उत्साह है। लेकिन अटेन्शन क्या रखना हे। ऐसा चेहरा सदा ही रहे। अभी के चेहरे का भी फोटो निकालो। रोज इस फोटो को देखो कि ऐसा है या बदल गया है। इस कैमरे से नहीं, दिव्य दृष्टि के कैमरे से अपना फोटो खींच सकते हो। यह कैमरा तो सबके पास है ना? और यह गुम भी नहीं होगा। तो सदा खुशी के और कोई चिन्ह नहीं होना चाहिए। कभी मूड ऑफ वाला चेहरा न हो। कभी माया से हार खाने के कारण दिल-शिकस्त वाला चेहरा न हो। आप सभी हीरो-हीरोइन एक्टर हो, आपको पार्ट है खुश रहना और खुशी बांटना। अच्छा - ओमशान्ति।
01-04-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
उड़ती कला का अनुभव करने के लिए दो बातों को बैलेन्स - ज्ञानयुक्त भावना और स्नेह युक्त योग
अव्यक्त बापदादा अपने ज्ञानी तू आत्मा बच्चों प्रति बोले-
आज बापदादा अपने स्नेही भावना-मूर्त आत्माओं और ज्ञान-स्वरूप योगी आत्माओं को देख रहे हैं। दोनों प्रकार की आत्मायें बाप की प्रिय हैं और दोनों ही बाप से अपने अपने यथा स्नेह और भावना प्रमाण प्रत्यक्ष फल वर्से के अधिकारी हैं। ज्ञान स्वरूप योगी तू आत्मायें अपने शक्ति प्रमाण बाप के समीप समान सर्वशक्तियों की अनुभूति का वर्सा प्राप्त कर रही हैं। दोनें ही प्राप्ति स्वरूप हैं। लेकिन दोनों के प्राप्ति में अन्तर है। स्नेह और भावना-मूर्त बच्चे सदा भावना के कारण याद में रहते हैं। बाप से प्यार का अनुभव करते हैं, शक्ति का भी अनुभव भावना के फल के स्वरूप में करते हैं। लेकिन सदा और सर्वशक्तियाँ अनुभव नहीं करते। ज्ञान स्वरूप योगी तू आत्माएं सदा सर्वशक्तियों की अनुभूति द्वारा सहज विजयी बनने का विशेष अनुभव करती हैं, समानता का अनुभव करती हैं।तो दोनों प्रकार के बच्चे वृद्धि को प्राप्त कर रहे हैं। सदा अचल अटल स्थिति का अनुभव योगी तू आत्माएं ही करती हैं। स्नेही वा भावना-स्वरूप आत्मायें भावना से, स्नेह से आगे बढ़ रहे हैं लेकिन सदा विजयी नहीं। स्नेही आत्माओं के मन में, मुख में सदा बाबा-बाबा है इस कारण समय प्रति समय सहयोग प्राप्त होता रहता है। भावना का फल समय प्रमाण बाप द्वारा प्राप्त हो ही जाता है। लेकिन समान बनने में ज्ञानी योगी तू आत्मायें समीप हैं। इसलिए भावना और ज्ञान स्वरूप बनने का लक्ष्य रखो। जितनी भावना हो उतना ही ज्ञान स्वरूप भी हो। सिर्फ भावना वा सिर्फ ज्ञान यह भी सम्पूर्णता नहीं। ज्ञान-युक्त भावना, स्नेह-सम्पन्न योगी आत्मा - यह दोनों का बैलेन्स सहज उड़ती कला का अनुभव कराता है। बाप समान अर्थात् दोनों की समानता।
वर्तमान समय भावना स्वरूप आत्मायें सेवा में ज्यादा आती हैं। यह आत्मायें भी स्थापना के कार्य में, चाहे आदि सनातन देगता धर्म की स्थापना में, चाहे राज्य के स्थापना में, दोनों में आवश्यक है। लेकिन अभी समय प्रमाण ज्ञानी योगी तू आत्माओं की आवश्यकता और ज्यादा है। क्योंकि आगे के समय में वैराग्य वृत्ति के वायुमण्डल के कारण भावना स्वरूप आत्मायें और भी सहज आनी ही हैं। इसलिए सेवा के लक्ष्य में ज्ञानी-योगी तू आत्माओं के तरफ अटेन्शन ज्यादा चाहिए। ऐसी आत्माओं की वृद्धि आवश्यक है। समझा, ऐसे नहीं समझो कि संख्या बहुत बढ़ रही है। लेकिन ऐसी बाप समान सर्वशक्तियों की अनुभूति वाली आत्माएं तैयार करो। राजधानी की वृद्धि तो अच्छी हो रही है। लेकिन विश्व परिवर्तन में दोनों स्वरूप के बैलेन्स वाली आत्माएं ही निमित्त बनती हैं। क्योंकि विश्व परिवर्तन के लिए बहुत सूक्ष्म शक्तिशाली स्थिति वाली आत्माएं चाहिएं। जो अपनी वृत्ति द्वारा, श्रेष्ठ संकल्प द्वारा अनेक आत्माओं को परिवर्तन कर सके। स्वयं स्नेही वा भावुक आत्मा स्वयं में बहुत अच्छे चलते हैं लेकिन वह स्नेह व भावना विश्व के प्रति नहीं होती। स्वयं के व्रति वा कुछ समीप आत्माओं के प्रति होती है। बेहद की सेवा वा विश्व प्रति सेवा बैलेन्स वाली आत्माएं कर सकती हैं। बेहद की सेवा वा अपनी शक्तिशाली मन्सा शक्ति द्वारा, शुभ भावना और शुभ कामना द्वारा होती है। सिर्फ स्वयं के प्रति भावुक नहीं लेकिन औरों को भी शुभ भावना और शुभ कामना द्वारा परिवर्तित कर सकते हो। तो ऐसे भावना और ज्ञान, स्नेह और योग शक्ति हो, ऐसी आत्माएं बने हो कि सिर्फ स्नेही भावुक आत्माओं को देख खुश हो रहे हो? कल्याणकारी बने हो? या बेहद विश्व कल्याणकारी बने हो - यह चेक करो। क्या रिज़ल्ट है? बापदादा ने सुनाया कि बाप को दोनों ही प्यारे हैं। दोनों प्रकार की आत्माओं को देख बापदादा खुश होते हैं। फिर भी स्नेही आत्माएं बन बाप को अपना तो बना लिया ना? पहचान लिया, वर्से के अधिकारी बन गये, कोटों में कोई की लाइन में आ गये, अपने ठिकाने पर पहुँच गये, तन के भटकने, मन के भटकने से बच गये, इसलिए खुश होते हैं ना। बच्चे भी खुश,बाप भी खुश हैं। ख़ुशकिस्मतवाले तो बन गये हैं ना? दुनिया के हिसाब से डायरेक्ट बाप के बनने वाले देखो कितनी साधारण आत्माएं हैं! विश्व के शिक्षक के स्टूडेन्ट देखो कैसे वन्डरफुल हैं! पढ़ाने वाला ऊंचे ते ऊंचा और पढ़ने वाले साधारण। लेकिन साधारण ही साधारण स्वरूप में आनेवाले बाप को जानते हैं। बापदादा भी वी.आई.पी. बनके तो नहीं आते हैं ना, साधारण रूप में आते हैं। कोई प्राइम मिनिस्टर वा किसी राजा के तन में नहीं आते। इसलिए पहचानने वाले साधारण ही भाग्य प्राप्त करते हैं। खुशनसीब हो ना, कितना भाग्य मिला हैं पद्मापद्म कहना भी कुछ नहीं है।
अभी भी देखो संख्या तो बहुत है ना। पहले सोचते थे यह इतना बड़ा हाल किस काम में आयेगा और अभी क्या लगता है इससे बड़ा हाल होना चाहिए ना। ब्राह्मणों को यह वरदान है, तितना बड़ा बनाते जायेंगे उतना छोटा होता जायेगा। जो भी आये हैं सभी आने वालों को मुबारक देते हैं, लेकिन सिर्फ भावुक नहीं बनो, ज्ञानी भी बनो। प्रकृति के भी ज्ञानी बनो। ज्ञान सिर्फ आत्मा का नहीं। आत्मा, परम आत्मा और प्रकृति। उसमें ड्रामा भी आ जाता है। तीनों का ज्ञान चाहिए। कहाँ जा रहे हैं और अपने लिए क्या अटेन्शन चाहिए, यह प्रकृति का भी अगर नॉलेज नहीं है तो नॉलेजफुल नहीं है। स्थान का, व्यक्ति का, स्थिति तीनों का ज्ञान रखो। सिर्फ भावुक नहीं बनो, जाना ही है, लाना ही है। ज्ञान स्वरूप माना दूरादेशी, त्रिकालदर्शी, तीनों का ज्ञान अगर स्पष्ट है तो सफलता मिलती है। अगर कोई अपनी गलती से बार-बार बीमार होता है तो बापदादा उसको ज्ञान योगी नहीं कहते। ज्ञान का अर्थ है समझ। अपनी स्थिति को भी समझो, अपने शरीर को भी समझो। आत्मा की स्थिति, शरीर की सथिति, वायुमण्डल का सब ज्ञान बुद्धि में है तो नॉलेजफुल हैं। इसीलिए सिर्फ भावना पर राज़ी नहीं हो जाओ। आने वाले, लाने वाले, दोनों को नॉलेजफुल होना चाहिए। जो होता है वह तो मीठा ड्रामा ही कहेंगे। हलचल में तो नहीं आयेंगे ना - अचल। लेकिन आगे के लिए अटेन्शन। बापदादा भी जानते हैं कि बच्चे कितनी मेहनत सहन करके पहुँचते हैं। इसके लिए तो मुबारक दे ही दी। जिस आत्मा को जो वर्सा है वह उसको प्राप्त होना ही है। वर्से से वंचित कोई नहीं रह सकता। चाहे साकार में सम्मुख हैं, चाहे अपने स्थान पर मनमनाभव रहते, वर्सा अवश्य प्राप्त होना है। डबल नॉलेजफुल होना है, हाफ नालेजफुल नहीं बनो। अच्छा, चारों ओर के सर्व खुशनसीब आत्माएं, सर्व स्नेह और योग शक्ति की समानता की अनुभवी आत्माएं, भावना और ज्ञान स्वरूप आत्माएं, सदा बाप समान बनने के लक्ष्य को पूर्ण करने वाली आत्माएं, सदा समीप अनुभव करने वाली आत्माएं, ऐसे सदा अचल-अडोल रहने वाली विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
(नोट:- आज मधुबन में आई हुई पार्टा में एक ही घण्टे के अन्दर कर्नाटक ज़ोन के दो बुजुर्ग भाइयों ने अपना पुराना शरीर छोड़ा है इसलिए बापदादा ने सभी का विशेष अटेन्शन खिंचवाया है।)
दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
संगठन की शक्ति को आगे बढ़ा रही है। अच्छी हिम्मत से एक दो को सहयोग दे वृद्धि को प्राप्त कर रहे हो। आप निमित्त बनी हुई आत्माओं की हिम्मत अनेक आत्माओं की हिम्मत को बढ़ाती है। हर परिस्थिति के अनुभवी बन गये। नथिंग न्यु लगता है ना, बापदादा पर्दे के अन्दर सकाश दे रहे हैं, लेकिन पार्ट बजाने वाली स्टेज पर आप आत्मायें हो। अच्छा पार्ट बजा रही हो। बापदादा सदा महावीरों के निमित्त संगठन को विशेष अमृतवेले नम्बरवन उन्हीं आत्माओं को यादप्यार गुड मार्निंग करते हैं और वही सकाश कहो, प्यार कहो, सारे दिन की खुराक हो जाती है। ऐसे लगता है ना? सब ठीक है। हिम्मत से सफलता है ही।
08-04-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्रह्मा बाप से प्यार की निशानी है - अव्यक्त फरिश्ता बनना
अव्यक्त बापदादा अपनी आदि रचना आत्माओं प्रति बोले:
आज बेहद का बाप अपनी आदि श्रेष्ठ डायरेक्ट रचना को देख रहे है। ब्राह्मण आत्मायें डायरेक्ट शिव वंशी ब्रह्माकुमार और कुमारियाँ हो। ब्राह्मण आत्मायें आदि देव की आदि रचना हो। इसलिए कल्प वृक्ष में ब्राह्मण फाउंडेशन अर्थात् जड़ में दिखाये गये हैं। अपना स्थान देखा है ना? तो वृक्ष में आप आदि रचना बीज के समीप जड़ में दिखाये गये हो। इसलिए डायरेक्ट रचना हो। अन्य आत्मायें डायरेक्ट मात पिता अर्थात् शिव बाप और ब्रह्मा माता अर्थात् डायरेक्ट परमात्म रचना नहीं हैं। आप डायरेक्ट रचना का कितना महत्त्व है। डायरेक्ट बीज के साथ सम्बन्ध है, उन्हों का इनडायरेक्ट सम्बन्ध है, आपका डायरेक्ट है। आप सभी रूहानी नशे से कहेंगे कि हम परमात्म सन्तान हैं। जो भी धर्म वाली आत्मायें आती हैं वह सभी अपने को क्रिश्चियन, बौद्धि, इस्लामी कहलायेंगी। डायरेक्ट शिव वंशी वा आदि देव ब्रह्मा की रचना नहीं कहलायेंगी। क्राइस्टवंशी क्रिश्चियन कहेंगे, धर्म पिता क्राइस्ट के क्रिश्चियन हैं - यही जानते हैं। वह सभी धर्म पिता के वंश है। और आप कहेंगे परमात्मा के। तो धर्मपिता और परमपिता - कितना अन्तर है! डबल विदेशी क्या समझते हैं परमपिता के हो या धर्म पिता के हो? परमपिता के अर्थात् डायरेक्ट रचना होना। तो डायरेक्ट और इनडायरेक्ट में कितना अन्तर है! नशे में भी अन्तर है तो प्राप्ति में भी अन्तर है। इसलिए भक्तिमार्ग में भी इनडायरेक्ट अपने इष्ट द्वारा बाप को याद करते हैं। अगर कोई शिव भक्त भी हैं तो वो भी शिव शंकर एक मान करके याद करते हैं। तो इनडायरेक्ट हो गया ना! जानते भी हैं कि राम का भी रामेश्वर है लेकिन फिर भी याद राम को ही करेंगे। तो भक्ति इनडायरेक्ट हो गई ना। क्योंकि भक्त आत्माओं की रचना भी पीछे की आत्मायें हैं। आप डायरेक्ट परमात्म वंशी आत्मायें हो। द्वापर में भक्ति भी करते हो, तो बिना पहचान के भी पहले शिव बाप की भक्ति करते हो। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर यह सूक्ष्म देवताओं की पूजा पीछे शुरू होती है, आदि में नहीं। तो अन्य आत्माएं रचना भी इनडायरेक्ट आत्माओं द्वारा हैं और भक्ति में भी इनडायरेक्ट भक्ति है। आप डायरेक्ट भक्त हो, इनडायरेक्ट नहीं। अर्थात् शिव की पूजा ही आरम्भ करते हो।
तो प्राप्ति में भी देखो आप डायरेक्ट आत्माओं अर्थात् डायरेक्ट रचना को अनेक जन्मों के लिए वर्सा जीवनमुक्ति का मिलता है। अन्य आत्माओं को जीवनमुक्ति का वर्सा इतने समय का नहीं मिलता है। आपकी जीवनमुक्ति आधा कल्प चलती है और अन्य आत्माओं को जीवन-मुक्ति और जीवन-बन्ध दोनों ही आधा कल्प के अन्दर मिलता है। वह भी द्वापर से आदि वाली आत्माओं को। पीछे वाली आत्माओं को तो थोड़े जन्मों में ही दोनों ही प्राप्ति होती है। और विशेषता यही है कि आपकी जीवन-मुक्ति अर्थात् गोल्डन, सिल्वर एज चक्र के भी गोल्डन, सिल्वर समय पर प्राप्त होती है। आपकी गोल्डन एज है तो युग भी गोल्डन एज का है, प्रकृति भी गोल्डन एज है। चक्र को अच्छी तरह से जानते हो ना और अन्य आत्माओं की जब गोल्डन एज है तो युग कॉपर एज या आयरन एज है, कॉपर एज में उन्हों की गोल्डन एज है और आप की गोल्डन एज में गोल्डन एज है। कितना अन्तर हुआ! आप सतोप्रधान हैं तो प्रकृति भी सतोप्रधान है। वह रजो प्रधान प्रकृति में सतोप्रधान स्टेज का अनुभव करते हैं। तो डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रचना का कितना अन्तर है! इतना नशा है कि हम डायरेक्ट परमात्म रचना हैं! सदा नशा रहता है या कभी-कभी नशा चढ़ता है? परसेंटेज में फर्क पड़ जाता है, कभी 100% रहता है तो कभी 50% | लेकिन रहना क्या चाहिए? सदा रहना चाहिए ना, तो चाहिए-चाहिए कब तक कहेंगे? सदा नशा रहता है यह फलक से नहीं कहते हो, रहना चाहिए कहते हो। तो सम्पूर्ण बनना अर्थात् जिसमें यह चाहिए शब्द समाप्त हो जाये सभी के मुख से यह निकले कि सदा है, उसके लिए कितने वर्ष चाहिएं? बाप भी चाहिए पूछता है। कितने वर्ष चाहिए, 10 चाहिए कि उससे भी ज्यादा वा कम चाहिए? क्योंकि तपस्या वर्ष आरम्भ किया, अब तो समाप्ति का समय आ गया, लेकिन जब आरम्भ किया तो सबने क्या संकल्प किया? सम्पन्न बन जायेंगे- यही सोचा था ना। वर्ष तो समाप्त हुआ लेकिन आप सम्पन्न हो गये, या होना है? और वर्ष चाहिएं? औरों को चैलेन्ज करते हो कि सेकेण्ड में मुक्ति जीवन-मुक्ति का वर्सा लो। या कहते हो 25 वर्ष में वर्सा लो ? तो 12 मास में कितने सेकेण्ड कितने दिन हुए? तो सबको सम्पन्न बन जाना चाहिए या अभी और समय चाहिए, क्या रिजल्ट हैं? कितने वर्ष चाहिए यह बता दो नहीं तो दूसरा वर्ष समाप्त होगा फिर यही गीत गायेंगे कि अभी समय नहीं दो दूसरा वर्ष समाप्त होगा फिर यही गीत गायेंगे कि अभी समय चाहिए।
यह चाहिए चाहिए का गीत कितने समय का है? गीत का भी 3 वा 5 मिनट टाइम होता है ना। तपस्या वर्ष में दृढ़ संकल्प किया या संकल्प किया? दृढ़ता की निशानी है सफलता। फिर तो इस वर्ष और फोर्स की तपस्या चाहिए ना। या सेवा करनी है? दोनों नहीं कर सकते हो? आपका कर्मयोगी टाइटिल नहीं है योगी हैं? वैसे देखा जाये तो सेवा उसको ही कहा जाता है जिसमें स्व और सर्व की सेवा समाई हुई हो। दूसरे की सेवा करें और अपनी सेवा में अलबेले हो जाएं तो उसको वास्तव में यथार्थ सेवा नहीं कहेंगे। सेवा की परिभाषा ही है - सेवा के मेवे मिलते हैं। सेवा अर्थात् मेवा - फ्रूट (Dry Fruit), प्रत्यक्षफल। सेवा करो, मेवा खाओ। अगर स्व के तरफ अलबेले बन जाते हो तो वह सेवा मेहनत है, खर्चा है, थकावट है, लेकिन प्रत्यक्षफल सफलता नहीं हैं। पहले स्व को सफलता, साथ में औरों को भी सफलता की अनुभूति हो। साथ-साथ हो। स्व को हो और औरों को नहीं हो तो भी यथार्थ सेवा नहीं है। और औरों को हो, स्व को नही हो तो भी यथार्थ सेवा नहीं है। तो सेवा में सेवा और योग दोनों ही साथ-साथ क्यों नहीं रहता, उसका कारण क्या है? एक को देखते हो तो दूसरा ढीला होता है, दूसरे को देखते हो तो पहला ढीला होता - इसका कारण क्या है? कारण है कि सेवा के प्लैन (Plan) तो बहुत अच्छे-अच्छे बनाते हो लेकिन प्लेन (Plain) बुद्धि बन प्लैन नहीं बनाते। प्लेन बुद्धि अर्थात् सेवा करते और कोई भी बात बुद्धि को टच नहीं करें, सिवाए निमित्त भाव और निर्माण भाव। निर्माण करते निर्मान स्थिति की कमी हो जाती है इसलिए निर्माण का कार्य जितना सफल करने चाहते हो उतना सफल नहीं होता है। शुभ-भावना वा शुभ-कामना का बीज ही है निमित्त-भाव और निर्मान-भाव। हद का मान हद का मान नहीं। लेकिन निर्मान। इसलिए सेवा के प्लैन बनाने के पहले प्लेन बुद्धि बनाना अति आवश्यक है। नही तो प्लेन बुद्धि के बजाए अगर बुद्धि में और अयथार्थ भाव का किचड़ा मिक्स हो जाता है तो जो सेवा का प्लैन बनाते हो उसमें भी रत्न जड़ित के साथ-साथ पत्थर भी जड़ जाते हैं। रत्न और पत्थर मिक्स हो जाते हैं। 9 रत्न जड़ेंगे तो एक पत्थर मिक्स करेंगे। कोई भी चीज़ में 9 रीयल हो और एक आर्टिफीशियल हो तो वैल्यु क्या होगी? और ही लेने वाले के भी संकल्प चलेंगे कि यह 9 भी रीयल है या मिक्स हैं? इसलिए सेवा के प्लैन के साथ-साथ प्लेन बुद्धि का अटेन्शन पहले रखो। अगर प्लेन बुद्धि है और सेवा का प्लैन इतना बड़ा नहीं भी है, फिर भी प्लेन बुद्धि वाले को नुकसान नहीं है, बोझ नहीं है। सेवा का फायदा कम है लेकिन नुकसान तो नहीं कहेंगे ना। मिक्स्चर बुद्धि में तो नुकसान है। इसलिए यह वर्ष भी तपस्या का करेंगे? सेवा में तो कहते हो कि नीचे आ जाते हैं, तो क्या करेंगे? सिर्फ तपस्या करेंगे।
जब स्वयं सम्पन्न बनो तब विश्व परिवर्तन का कार्य भी सम्पन्न होगा। आप सबके सम्पन्नता की कमी के कारण विश्व परिवर्तन कार्य सम्पन्न होने में रूका हुआ है। प्रकृति दासी बन आपके सेवा के लिए इन्तज़ार कर रही है कि ब्राह्मण आत्माऐं ब्राह्मण सो फरिश्ता और फिर फरिश्ता सो देवता बनें तो हम दिल व जान, सिक व प्रेम से सेवा करें। क्योंकि सिवाए फरिश्ता बने देवता नहीं बन सकते। ब्राह्मण से फरिश्ता बनना ही पड़े। और फरिश्ता का अर्थ ही है जिसका पुरानी दुनिया, पुराने संस्कार, पुरानी देह के प्रति कोई आकर्षण का रिश्ता नहीं। तीनों में पास चाहिए। तीनों से मुक्त। वैसे भी ड्रामा में पहले मुक्ति का वर्सा है फिर जीवनमुक्ति का। वाया मुक्ति धाम के आप जीवन-मुक्ति में नहीं जा सकते। तो फरिश्ता अर्थात् मुक्त और मुक्त् फरिश्ता सो जीवन-मुक्त देवता बनेगा। तो कितने परसेन्ट फरिश्ते बने हो? कि ब्राह्मण बनने में ही खुश हो? फरिश्ता बनना अर्थात् अव्यक्त फरिश्ता स्वरूप ब्रह्मा बाप से प्यार हो। जिसका फरिश्ते से प्यार नहीं तो ब्रह्मा बाप नहीं मानता है कि मेरे से प्यार है। प्यार का अर्थ ही है समान बनना। ब्रह्मा बाप फरिश्ता है ना! फरिश्ता बन आप सबको फरिश्ता बनाने के लिए फरिश्तों की दुनिया में रूके हुए हैं। सिर्फ मुख से नहीं कहो कि बाप से बहुत प्यार है, क्या वर्णन करें। लेकिन ब्रह्मा बाप सिर्फ कहने से खुश नहीं होते, बनने से होते हैं। कहने वाले तो भक्त भी बहुत हैं। कितने प्यार के गीत गाते है। इतने प्या के गीत गाते हैं जो अनेकों को हँसा भी देवे तो रूला भी देवे। वह सब है कहने वाले और आप हो बनने वाले। अगर सिर्फ कहते रहते हैं तो समझो अभी भक्ति का अंश रहा हुआ है। ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा नहीं कहेंगे, लेकिन भक्त योगी आत्मा कहेंगे। अब क्या करेंगे? कोई नवीनता दिखायेंगे या जैसे इस वर्ष किया वहीं करेंगे? ऐसा भी समय आयेगा जो बापदादा उन्हों से ही मिलेंगे जो करने वाले हैं, जो बनने वाले हैं, सिर्फ कहने वाले नहीं। अभी तो सभी को एलाउ कर देते हैं, भावना वाले भी आ जाओ, ज्ञानी योगी तू आत्मा भी आ जाओ, लेकिन समय परिवर्तन होना ही है। इसलिए अपने ऊपर और दस गुणा अन्डरलाइन करके कैसे हसेगा, ऐसे क्यों किया। आप पुरूषार्थ में स्ट्रिक्ट नहीं होते हो तो बाप को स्ट्रिक्ट होना ही पड़ेगा। अभी तो बाप के प्यार स्वरूप से चल रहे हो, पल रहे हो। लेकिन सतगुरू का रूप धर्मराज नहीं । सतगुरू की आज्ञा सिर माथे गाया हुआ है। अभी तो बापदादा मीठे बच्चे, प्यारे बच्चे कह करके चला रहे हैं। अगर प्यार है, मिलन की प्यास है, तो समान बनकर मिलो। महान अन्तर में नहीं मिलो। समान बनकर मिलन में बहुत मज़ा है। ये मज़ा और है। अच्छा बाप से मिल लिया, दृष्टि ले लिया, वहाँ गये तो फिर कोई कमज़ोरी आ गई, शक्ति मिली और काम में लाई, एक दो बार विजयी बने, फिर कमज़ोर बन गये। तो यह अपने प्रकार का मिलना है। लेकिन यथार्थ प्यार, यथार्थ मिलन इससे बहुत ऊंचा है। बहुत बहुत प्यारा है - उसका अनुभव करो। समझा!
सतगुरू की कोई ने आज्ञा नहीं मानी तो सतगुरू है ना। बाप के आगे तो बच्चों के नाज़, लाड-कोड़ चलते हैं। अगर बाप से सच्चा प्यार है तो इस वर्ष में फरिश्ता समान बनकर दिखाओ। अभी इतने सब मिलने के लिए आयें हैं, बहुत अच्छा है लेकिन और अच्छे ते अच्छा करना है। प्यार करना और प्यार निभाना उसमें अन्तर है। करने वाले सभी हो। अगर प्यार नहीं होता तो इतने सब क्यों आते। लेकिन करना और निभाना - इसमें अन्तर हो जाता है। प्यार करने वाले अनेक होते हैं और निभाने वाले कितने होते है। तो आप निभाने वाले हो? निभाने वाले फिर चाहिए चाहिए नहीं कहेंगे। प्रैक्टिकल है सिर्फ मुख से नहीं। सुनाया ना कि तपस्या के चार्ट में भी अपने को मार्क्स, सर्टिफिकेट देने वाले बहुत हैं, लेकिन सर्व के सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट कोई कोई को प्राप्त होता है। चार्ट रखने वाले भी बहुत निकले। अपने को अच्छे ते अच्छा सर्टिफिकेट देने वाले भी बहुत निकले। बहुत नहीं है लेकिन कुछ है।
सेकेण्ड नम्बर वाले बहुत हैं। लेकिन सबके मुख से यह निकले कि हाँ, यह नम्बरवन है। सबके दिल से यह दुआओं का सर्टिफिकेट मिले इसको कहेंगे नम्बर वन। कई बच्चे कहते हैं कि हम तो ठीक हैं, लेकिन कोई कोई आत्मा को कोई कड़ा हिसाब है हमारे से, जो कितना भी उसको सन्तुष्ट करते लेकिन वह सन्तुष्ट नहीं होता बापदादा ने पहले भी कहा था कि अगर ऐसा कोई कड़ा हिसाब किताब है भी तो भी कम से कम 95% सर्टिफिकेट मिलने चाहिएं। 5% का कड़ा हिसाब किताब है, वह भी माफ है। लेकिन 95% दिल से दुआएं दें। कई ऐसे कहते हैं कि सबसे सन्तुष्ट कौन हैं? ऐसा तो एक भी दिखाई नहीं देता। बड़ों के लिए भी सोचते हैं कि इनसे ही नाराज है तो हमसे हुए तो क्या बड़ी बात है। लेकिन उन्हों से 95% दिल से राजी हैं। बड़ों की बात दूसरी है। बड़ों को जज बनना पड़ता है। तो दो में से एक की बात हाँ करेंगे वह कहेंगे बहुत अच्छे, और जिसको ना करेंगे वह कहेंगे ये भी अच्छे नहीं हैं। तो जज एक को हाँ करेगा या दोनों को? तो वह बाते अलग बात हैं। लेकिन दिल की तपस्या, दिल का प्यार, निमित्त भाव, शुभ भाव का सर्टिफिकेट सामने देखो। यह नहीं कॉपी करो कि बड़ों से भी सन्तुष्ट नहीं हैं हम तो पास हो जायेंगे। ऐसे नहीं सोचो। 95% अगर सन्तुष्ट हैं तो नम्बर मिल जायेगा। समझा! अच्छा -
चारों ओर के आदि पिता के आदि रचना, डायरेक्ट रचना, श्रेष्ठ आत्माएं, सर्व जीवनमुक्त का वर्सा अनेक जन्म प्राप्त करने वाली आत्माएं, सर्व ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देव आत्मा बनने वाली अधिकारी आत्माएं, सदा प्लेन बुद्धि बन सेवा के प्लैन में सफलता प्राप्त करने वाली आत्माएं, बाप से सच्चा स्नेह सच्चा प्यार निभाने वाली सर्व समीप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात -
सबने अच्छी सेवा की ना। सभी ने मिलकर संगठन को सजाने की सेवा अच्छी की है। संगठन को सजाने की सेवा कितनी प्यारी है! जैसे जवाहरी एक-एक रतन को बेदाग बनाता है, उसको वैल्युबल बनाता है। तो आप सबकी भी यही सेवा है। जो भी छोटे छोटे दाग हैं - उनको स्व्च्छ बनाना, सम्पन्न बनाना, बाप समान बनाना। तो मजा है ना - इस सेवा। थक तो नहीं जाते, थकते तो नहीं है ना? आप सबके अथक स्वरूप से औरों को भी प्रेरणा मिलती है। क्योंकि साकार में तो निमित्त साकार रूप आप ही हो। अव्यक्त स्थिति से अव्यक्त का लाभ लेना - वह तो सभी नम्बरवार हैं लेकिन साकार रूप में एक्जैम्पुल तो आप ही हो। इसलिए निमित्त का प्रभाव सबके ऊपर पड़ता है। अच्छा पार्ट मिला है ना, आपस में मिलजुलकर संगठन को पक्का कर आगे बढ़ रही हो। आपका संगठन ही सबके आगे एक सबूत है। अच्छा - सभी ठीक हो? राजधानी बन रही है ना। अच्छा - बड़ों की सकाश स्वत: ही कार्य कराती रहती है। कहने की भी आवश्यकता नहीं है। बसंत तो बन गये, अभी रूप बनना है। रूप बनकर सकाश देना भी उसी की आवश्यकता है। बाकी बसन्त बनना तो बड़ा सहज है। अच्छा।
पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
सभी अपने को राजयोगी अनुभव करते हो? योगी सदा अपने आसन पर बैठते हैं तो आप सबका आसन कौन सा है? आसन किसको कहेंगे? भिन्न-भिन्न स्थितियाँ भिन्न-भिन्न आसन हैं। कभी अपने स्वमान की स्थिति में स्थित होते हो तो स्वमान की स्थिति आसन है। कभी बाप के दिलतख्तनशीन स्थिति में स्थित होते तो वह दिलतख्त स्थिति आसन बन जाती है। जैसे आसन पर सथित होते हैं, एकाग्र होकर बैठते हैं, ऐसे आप भी भिन्न-भिन्न स्थिति के आसन पर स्थित होते हो। तो वेरायटी अच्छा लगता है ना। एक ही चीज कितनी भी बढ़िया हो, लेकिन वही चीज बार बार अगर यूज करते रहो तो इतनी अच्छी नहीं लगेगी, वेरायटी अच्छी लगेगी। तो बापदादा ने वेरायटी स्थितियों के वेरायटी आसन दे दिये है। सारे दिन में भिन्न-भिन्न स्थितियों का अनुभव करो। कभी फ़रिश्ते स्थिति का, तो कभी लाइट हाउस, माइट हाउस स्थिति का, कभी प्यार स्वरूप स्थिति अर्थात् लवलीन स्थिति के आसन पर बैठ जाओ। ओर अनुभव करते रहो। इतना अनुभवी बन जाओ, बस संकल्प किया फरिश्ता, सेकेण्ड में स्थित हो जाओ। ऐसे नहीं , मेहनत करनी पड़े। सोचते रहो मैं फरिश्ता हूँ, और बार बार नीचे आ जाओ। ऐसी प्रैक्टिस है? संकल्प किया और अनुभव हुआ। जैसे स्थूल में जहाँ चाहते हो बैठ जाते हो ना। सोचा और बैठा कि युद्ध करनी पड़ती है - बैठँ या न बैठूँ? तो यह मन बुद्धि की बैठक भी ऐसी इज़ी होनी चाहिए। जब चाहो तब टिक जाओ। इसको कहा जाता है - राजयोगी राजा। राजा बनने का युग है। राजा क्या करता है? आर्डर करता है ना? राजयोगी जैसे मन-बुद्धि को आर्डर करे, वैसे अनुभव करें। ऐसे नहीं कि मन-बुद्धि को आर्डर करो, फरिश्ता बनो और नीचे आ जाए। तो राजा का आर्डर नहीं माना ना। तो राजा वह जिसका प्रजा आर्डर माने। नहीं तो योग्य राजा नहीं कहा जायेगा। काम का राजा नहीं, नाम का राजा कहा जायेगा। तो आप कौन हो? सच्चे राजा हो। कर्मेन्द्रियॉ आर्डर मानती हैं? मन-बुद्धि संस्कार सब अपने आर्डर में हों। ऐसे नहीं, क्रोध करना नहीं चाहता लेकिन हो गया। बॉडी कान्सेस होना नहीं चाहता लेकिन हो जाता हूँ तो उसको ताकत वाला राजा कहेंगे या कमज़ोर? तो सदैव यह चैक करो कि मैं राजयोगी आत्मा, राज्य अधिकारी हूँ? अधिकार चलता है? कोई भी कर्मेन्द्रियाँ धोखा नहीं देवे। आज्ञाकारी हों। अच्छा। ओमशान्ति।
15-04-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मणों की दो निशानियाँ - निश्चय और विजय
अव्यक्त बापदादा निश्चयबुद्धि श्रेष्ठ आत्माओं प्रति बोले :
आज बापदादा चारों ओर के ब्राह्मण बच्चों की विशेष दो निशानियाँ देख रहे हैं। ब्राह्मण अर्थात् निश्चयबुद्धि और निश्चयबुद्धि अर्थात् विजयी। तो हर एक ब्राह्मण निश्चयबुद्धि कहाँ तक बने हैं और विजयी कहाँ तक बने हैं! क्योंकि ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन है निश्चय और निश्चय का प्रमाण है विजय। तो निश्चय और विजय दोनों की परसेन्टेज एक है या अन्तर है? रिजल्ट क्या देखी होगी? निश्चय की परसेन्टेज सभी ज्यादा अनुभव करते हैं और विजय की परसेन्टेज निश्चय से कम अनुभव करते हैं। जब किसी से भी पूछते हैं कि निश्चय कितना है तो सभी कहते हैं 100%, और निश्चय की निशानी विजय कितनी है? उसमें 100% कहेंगे? आपका स्लोगन निश्चयबुद्धि विजयन्ती। फिर निश्चय और विजय में अन्तर क्यों? निश्चय और विजय दोनों निशानियाँ समान होनी चाहिए ना? लेकिन अन्तर क्यों है? इसका कारण क्या? कोई भी फाउन्डेशन जब पक्का किया जाता है तो उस स्थान को चारों आर अटेन्शन देकर पक्का किया जाता है। अगर चारों ओर में से एक कोना भी कमज़ोर रह जाए तो पक्का रहेगा या हिलता रहेगा? ऐसे ही निश्चय का फाउन्डेशन चारों ओर अर्थात् विशेष चार बातों का सम्पूर्ण निश्चय चाहिए। वह चार बातें पहले भी सुनाई हैं:-
एक तो बाप में सम्पूर्ण निश्चय। जो है, जैसा है, जो श्रीमत जैसे बाप की दी हुई है, उसी विधिपूर्वक यथार्थ जानना और मानना और चलना।
दूसरी बात - अपने श्रेष्ठ स्वमान सम्पन्न श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मा स्वरूप को जानना, मानना और चलना।
तीसरी बात - अपने श्रेष्ठ ब्राह्मण परिवार को यथार्थ विधि से जो जैसा है वैसे जानना, मानना और चलना।
चौथी बात - सारे कल्प के अन्दर इस श्रेष्ठ पुरूषोत्तम युग वा समय को उसी महत्त्व से जानना, मानना और चलना। इन चार बातों में जो अटल निश्चयबुद्धि हैं और चारों में सम्पन्न परसेंटेज है तो उसको कहेंगे सम्पूर्ण यथार्थ निश्चयबुद्धि।
यह चारों ही निश्चय के फाउन्डेशन के स्तम्भ है। सिर्फ एक बाप में निश्चय है और तीनों बातों में से कोई भी स्तम्भ कमज़ोर है, सदा मजबूत नहीं है, कभी हिलता कभी अचल होता है, तो वह हलचल हार खिलाती है, विजयी नहीं बनाती। कोई भी हलचल कमज़ोर बना देती है और कमज़ोर सदा विजयी बन नहीं सकता। इसलिए निश्चय और विजय में अन्तर पड़ जाता है। बापदादा के सामने बहुत बच्चें अलबेले बन करके रूहरूहान करते हैं, कि हमें निश्चय तो पूरा है, बाबा मैं आपको और आप मेरे हो, यह पक्का है, 100% तो क्या 500% निश्चय है..। लेकिन हलचल भी है। फिर मनाने के लिए कहते हैं - आप तो हमारे हो ना, पक्का कराते हैं। बहुत भोली बातें करते हैं - मैं जो हूँ, जैसी हूँ, आपकी या आपका हूँ। तो बाप भी कहते हैं आप जो हो, जैसे हो, मेरे हो। लेकिन बाप जो है जैसा है आपका है? भोला बनना अच्छा है, दिल से भोले बनो, लेकिन बातों में और कर्म में भोले नहीं बनो। दिल के भोले भोलानाथ के प्यारे हैं। बातों में भोले स्वयं को भी धोखा देते तो दूसरों को भी धोखा दे देते और कर्म के भोले अपना भी नुकसान करते हैं तो सेवा का भी नुकसान करते हैं। इसलिए दिल से भोले बनो, बिल्कूल सेन्ट, ऐसे भोले। सेन्ट (Saint) अर्थात् महान आत्मा। लेकिन बातों में त्रिकालदर्शी बन करके बात सुनो और बोला। कर्म में, हर कर्म के परिणाम को नॉलेजफुल होकर जानो और फिर करो। ऐसे नहीं कि होना तो नहीं चाहिए था लेकिन हो गया, बोलना नहीं चाहिए था लेकिन बोल लिया। इससे सिद्ध है कि कर्म के परिणाम को न जान भोलेपन में कर्म कर लेते हो। ऐसे नहीं समझो कि हम भोले हैं इसीलिए ऐसे हो जाता है - ऐसे अपने को छुड़ाना नहीं है। दिल का भोला सबका प्यारा होगा। तो समझा भोला किसमें बनना है? तो निश्चय और विजय को समान बनाने की विधि क्या हुई? चारों तरफ, चारों बातों का समान परसेंटेज वाला निश्चय हो। कई बच्चे और क्या कहते हैं कि बाबा आप में तो निश्चय है लेकिन अपने आप में इतना निश्चय नहीं है। कभी होता है, कभी अपने में निश्चय कम हो जाता है। फिर उन्हों की भाषा क्या होती है? एक ही गीत गाते हैं। पता नहीं , पता नहीं, पता नहीं..। पता नहीं ऐसे क्यों होता है, पता नहीं मेरा भाग्य है, पता नहीं बाप की मदद मिलेगी वा नहीं, पता नहीं सफलता होगी वा नहीं। जब मास्टर सर्वशक्तिवान हो तो इस निश्चय में कमी है तब पता नहीं, पता नहीं का गीता गाते हो। और तीसरे फिर क्या कहते हैं? कि बाबा हमने तो आपको देख करके सौदा किया। आप हमारे हो हम आपके हैं। इस ब्राह्मण परिवार से हमने सौदा नहीं किया। ब्राह्मण परिवार खिटखिट है, आप ठीक हो। ब्राह्मणों के संगठन में चलना मुश्किल हैं, एक आपसे चलना सहज है। तो बापदादा क्या कहेंगे? बापदादा मुस्कराते हैं, ऐसे बच्चों से बापदादा का एक प्रश्न है क्योंकि ऐसी आत्माएं प्रसन्न-चित्त नहीं रहती, प्रश्न बहुत करती है, ये ऐसा क्यों, ऐसा होता है क्या, तो वह प्रसन्न-चित्त आत्मा नहीं है, प्रश्न चित्त आत्मा है। बापदादा भी उन्हों से प्रश्न करते हैं कि आप आत्मा मुक्तिधाम में रहने वाली हो या जीवनमुक्ति में आने वाली हो? मुक्ति में रहना है फिर जीवनमुक्ति में आना है ना। तो जीवनमुक्ति में सिर्फ बाबा ब्रह्मा होगा या राजधानी होगी? सिर्फ ब्रह्मा और सरस्वती राजा रानी होंगे? जीवनमुक्ति का वर्सा पाना है ना। आप लोग चैलेन्ज करते हो कि आदि सनातन धर्म और अन्य धर्म में सबसे बड़ा अन्तर है। वो सिर्फ धर्म स्थापन करते हैं, और आप धर्म और राज्य दोनों की स्थापना कर रहे हो। यह पक्का है ना। धर्म की स्थापना और राज्य की भी स्थापना कर रहे हो ना, तो राज्य में क्या होगा? सिर्फ एक राजा, एक रानी होंगे? एक राजा रानी और आप एक बच्चा या बच्ची, बस। ऐसा राज्य होता है? तो हमें राजधानी में आना है। यह याद रखो। राजधानी में आना अर्थात् ब्राह्मण परिवार में सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना, श्रेष्ठ सम्बन्ध में आना। अभी बापदादा पूछेंगे सभी से कि आप माला में आने चाहते हो? या कहेंगे माला से बाहर रह गये हो तो भी ठीक है, हर्जा नहीं है। माला में आना है। चाहे 108 में आओ चाहे 16000 में आओ। लेकिन आना है वा नहीं। (हाँ जी) फिर अभी ब्राह्मण परिवार से क्यों घबराते हो? जब कोई बात होती है तो क्यों कहते हो हमारा तो बाबा है। बहनें क्या करेंगी भाई क्या करेंगे? हमने भाई-बहनों से वायदा नहीं किया है, लेकिन यह ब्राह्मण जीवन शुद्ध सम्बन्ध का जीवन है, माला की जीवन है। माला का अर्थ ही है संगठन। ब्राह्मण परिवार के निश्चय में अगर कोई संशय आ जाता है, व्यर्थ संकल्प आ जाता है तो वह निश्चय को डगमग कर देता है। हलचल में लाता है। बाबा अच्छा, ज्ञान अच्छा, लेकिन ये दादियाँ अच्छी नहीं, टीचर्स अच्छी नहीं, परिवार अच्छा नहीं..। यह निश्चयबुद्धि के बोल हैं? उस समय निश्चयबुद्धि कहें कि संकल्प बुद्धि कहें? व्यर्थ संकल्प प्रसन्नचित्त बुद्धि रहने नहीं देते, तो समझा निश्चय की विशेषता क्या है? चौथी रूररिहान क्या करते हैं? वह फिर कहते कि समय श्रेष्ठ है, पुरूषोत्तम युग है, आत्मा परमात्मा के मेले का युग है यह सब मानते हैं फिर क्या कहते? अभी थोड़ा समय तो है ही, इतने में विनाश तो होना नहीं है, यह तो स्थापना के समय से कहते आये हैं कि विनाश होना है। दूसरी दीवाली नहीं आनी है। तो विनाश की बाते तो स्थापना के समय से चल रही हैं। विनाश कहते-कहते कितने वर्ष हो गये। अभी भी पता नहीं विनाश कब हो! थोड़ा सा अलबेले के, आलस्य के, ढीले पुरूषार्थ के डनलप के तकियें में आराम कर लें। समय पर ठीक हो जायेंगे। बाप को भी यह पक्का कराते हैं कि आप देखना हम समय पर बहुत नम्बर आगे ले लेंगे। लेकिन बापदादा ऐसे बच्चों को सदा सावधान करते हैं कि समय पर जागे और समय प्रमाण परिवर्तन किया तो यह कोई बड़ी बात नहीं हैं। लेकिन समय के पहले परिवर्तन किया तो आपके पुरूषार्थ में यह पुरूषार्थ की मार्क्स जमा होगी और अगर समय पर किया तो समय को मार्क्स मिलेगी आपको नहीं मिलेगी। तो टोटल रिज़ल्ट में अलबेले या आलस्य के नींद के कारण धोखा खा लेंगे। यह भी कुम्भकरण के नींद का अंश है। बड़ा कुम्भकरण नहीं है, छोटा है। फिर उसको क्या हुआ? अपने को बचा सका? नहीं बच सका ना! तो अन्त समय में भी अपने को फुल पास के योग्य नहीं बना सकेंगे। समझा! कभी कैसी रूहरूहान करते हो, कभी बहुत हिम्मत की भी करते हो, कभी नाज़-नखरे की करते हो और कभी खिटपिट की करते हो।
आज इस वर्ष के सीज़न का सम्पन्न है। समाप्ति नहीं कहेंगे, सम्पन्न हो रहा है। इसलिए रिज़ल्ट सुना रहे हैं। तो अभी क्या करना है? चेक करो कि निश्चय के फाउन्डेशन के चारों ओर मज़बूत है या चारों में से कोई भी बात में मज़बूत होने के बजाए बातों के कारण मजबूर है। यह चेक करो। अभी फिर तपस्या करनी है ना। पहले भी सुनाया कि प्यार का सबूत देना है और प्यार को सबूत है समान बनना। और दूसरी बात क्या करनी है। यह वर्ष का होम वर्क दे रहे हैं। एक वर्क तो सुना। दूसरी बात - अपने चारों ओर के फाउन्डेशन को पक्का करो। एक भी बात में कमज़ोरी नहीं हो तभी माला के मणके बन पूज्य आत्मा वा राज्य अधिकारी आत्मा बनेंगे। क्योंकि ब्राह्मण सो देवता बनना है। सिवाए ब्राह्मण के देवता नहीं बन सकते हैं। ब्राह्मणों से निभाना अर्थात् दैवी राज्य के अधिकारी बनना। तो परिवार से निभाना पड़ेगा। हलचल को समाप्त करना पड़ेगा। तब निश्चय और विजय दोनों की समानता हो जायेगी। यह अन्तर मिटाने का महामन्त्र है। चारों ओर मज़बूत होना। चार ही निश्चय की परसेन्टेज समान बनाना है। समझा! होमवर्क स्पष्ट हुआ ना। अच्छे स्टूडेन्ट हो ना या कहेंगे कि अपने सेन्टर के होम में गये, प्रवृत्ति के होम में गये तो होम में ही होम वर्क रखकर आये। ऐसे तो नहीं कहेंगे ना। होशियार स्टूडेन्ट की निशानी क्या होती है? होम वर्क में भी नम्बरवन, तो प्रैक्टिकल पढ़ाई में भी नम्बरवन। क्योंकि मार्क्स जमा होती है। अच्छा और क्या रिजल्ट देखी? वर्तमान समय बच्चों की दो होशियारी देखीं। अपनी होशियारी तो जानते होंगे ना? पहली होशियारी क्या देखी? स्व को देखना और पर को देखना। स्वदर्शन चक्रधारी बनना या पर दर्शन चक्रधारी बनना। दो बातें हैं ना। मैजारिटी किस में होशियार हैं? बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि कई बच्चों की नजदीक की नज़र बहुत तेज हो रही हैं और कई बच्चों की फिर दूर की नज़र बहुत तेज हो रही है। लेकिन मैजारिटी की दूर की नज़र तेज है, नजदीक की नज़र कुछ ढीली है। देखना चाहते हैं लेकिनि स्पष्ट देख नहीं पाते हैं और फिर होशियारी क्या करते हैं? कोई भी बात होगी तो अपने को सेफ रखने के लिए दूसरों की बात बड़ी करके स्पष्ट सुनायेंगे। अपनी बड़ी बात को छोटा करेंगे और दूसरे की छोटी बात को बड़ा करेंगे यह होशियारी मैजारिटी की देखी। दूसरी होशियारी क्या देखी? आजकल एक विशेष भाषा बहुत यूज़ करते हैं कि हमसे असत्य देखा नहीं जाता, असत्य सुना नहीं जाता, इसलिए असत्य को देख झूठ को सून करके अन्दर में जोश आ जाता है। तो यह भाषा राईट है? अगर वह असत्य है और आपको असत्य को देख जोश आता है तो जोश सत्य है या असत्य है? जोश भी तो असत्य है ना! हम यह करके दिखायेंगे, यह चैलेन्ज करना राइट है? यह सदैव याद रखो कि सत्यता की निशानी क्या है! जो स्वयं सत्यता पर है और असत्य को खत्म करना चाहता है, लक्ष्य तो बहुत अच्छा है लेकिन असत्यता को खत्म करने के लिए अपने में भी सत्यता की शक्ति चाहिए। आवेशता या जोश यह सत्यता की निशानी है? सत्यता में जोश आयेगा? तो अगर झूठ को देख करके मुझे गुस्सा आता है, तो राईट है? कोई आग लगायेगा तो सेक नहीं आयेगा कि सेक प्रुफ हो सकते हैं? अगर हमें नॉलेज है कि यह असत्यता की आग है और आग का सेक होता है तो पहले अपने को सेफ करेंगे ना कि सेक में थोड़ा सा जल भी जाए तो चलेगा, हर्जा नहीं। तो सदैव यह याद रखो कि सत्यता की निशानी है सभ्यता। अगर आप सच्चे हो, सत्यता की शक्ति आपमें है तो सभ्यता को कभी नहीं छोड़ेंगे, सत्यता को सिद्ध करो लेकिन सभ्यतापूर्ण। अगर सभ्यता को छोड़-कर असभ्यता में आकर के सत्य को सिद्ध करना चाहते हो तो वह सत्य सिद्ध नहीं होगा। आप सत्य को सिद्ध करना चाहते हो लेकिन सभ्यता को छोड़ करके अगर सत्यता को सिद्ध करेंगे तो जिद्द हो जायेगा। सिद्ध नहीं। असभ्यता की निशानी है जिद और सभ्यता की निशानी है निर्माण। सत्यता को सिद्ध करने वाला सदैव स्वयं निर्माण होकर सभ्यतापूर्वक व्यवहार करेगा। समझा - दूसरी होशियारी! ऐसे होशियार नहीं बनना। तो यह भी होमवर्क है कि ऐसे होशियारी को छोड़कर निर्माण बनो। बिल्कूल निर्माण। मैं राईट हूँ, यह रांग है यह निर्माणता नहीं है। दुनिया वाले भी कहते हैं कि सत्य को अगर कोई सिद्ध करता है तो कुछ न कुछ समाया हुआ है। कई बच्चों की भाषा हो गई है मैं बिल्कुल सच बोलता हूँ, 100% सत्य बोलता हूँ। लेकिन सत्य को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। सत्य ऐसा सूर्य है जो छिप नहीं सकता। चाहे कितनी भी दीवारें कोई आगे लाये लेकिन सत्यता का प्रकाश कभी छिप नहीं सकता। सच्चा आदमी कभी अपने को यह नहीं कहेगा कि मैं सच्चा हूँ। दूसरा कहे कि आप सच्चे हो और भी हंसी के बात सुनाएं? सुनने का इन्टरेस्ट अच्छा है। करने का भी है ना?
बापदादा को एक बात पर बड़ी हंसी आती है। वर्तमान समय कई बच्चों के समाचार आते हैं? बाप को भी चैलेन्ज कर रहे हैं कि बापदादा ने कहा है ना कि टीचर्स को चेन्ज करेंगे अभी देखेंगे बाबा क्या करता है? जो कहा है वह करता है या नहीं करता है। बाप ने कहा है तो बाप पर है। बाप करे या न करे। या ऐसे चैलेन्ज करनी है कि कहा है तो करना ही है। बाप को जो करना है वह न किसके कहने से करेंगे। वा किसके ना कहने से नहीं करेंगे। लेकिन बाप को भी चैलेन्ज के बहुत अच्छे पत्र आते हैं। जो टीचर्स से नाराज है उन्हों को यह चांस बड़ा मिल गया है। कल्याणकारी बाप हर कार्य में जो भी करेगा वह कल्याणकारी ही होता है। यह भूल जाते हैं फिर डायरेक्शन के पत्र लिख रहे हैं कि आप जरूर करना, बाप के भी शिक्षक बहुत बन गये ना तो बाप अपने ऐसे बच्चों को भी मुबारक देते हैं। लेकिन सदा संयम में स्वयं को आगे बढ़ाते चलो। सभ्यता पूर्वक बोल, सभ्यता पूर्वक चलन, इसमें ही सफलता होती है। अगर सत्यता है और सभ्यता नहीं है तो सफलता नहीं मिलती है। और सफलता नहीं मिलती तो और जोश में आते हैं। और जब जोश में कोई होश नहीं रहता। क्या कर रहे हैं, क्या कह रहे हैं वह भी होश नहीं आता और जब होश नहीं होता तो माया को चांस मिल जाता है बेहोश करने का। इसलिए अगर कोई असत्य बात देखते भी हो, सुनते भी हो तो असत्य वायुमण्डल नहीं फैलाओ। कई कहते हैंक यह पाप कर्म है ना पाप कर्म देखा नहीं जाता और स्वयं वायुमण्डल में असत्यता की बाते फैलाना यह क्या है? इसको क्या कहेंगे? पुण्य कर रहे हैं ना वे, असत्य देखा वा सुना, फिर भी परिवार है, लौकिक परिवार में भी अगर कोई ऐसी बात देखी जाती है, सुनी जाती है तो क्या किया जाता है?फैलाया जाता है? अखबार में डाला जाता है? कि कान में सुना और दिल में छिपाया। तो यह भी व्यर्थ बातों का फैलाव करना यह भी पाप का अंश है। यह छोटे-छोटे पाप जो होते हैं वह अपनी उड़ती कला के अनुभव को समाप्त कर देते हैं। क्योंकि सबसे भारी ते भारी है पाप। अगर पाप का अंश भी है तो उड़ेगा कैसे? बोझ वाला उड़ेगा? आजकल बहुत रॉयल भाषा में फैलाव करते हैं। कहते हैं यह नया समाचार लाया हूँ। आप तो बहुत बुद्धू हो आपको कोई समाचार का पता नहीं पड़ता। हम देखो नॉलेजफुल हैं कितने समाचार का पता है। ऐसे समाचार सुनने वालों के ऊपर भी पाप और सुनाने वाले के ऊपर और ज्यादा पाप। इसीलिए तपस्या वर्ष में यह सूक्ष्म पापों का बोझ समाप्त रो तब समान बन सकेंगे। नहीं तो सोचते हैं कि हमने तो कोई गलती की नहीं लेकिन यह रॉयल गलती बहुत करते हैं। इसको रॉयल समझते हैं। मैंने सुना तो ऐसे ही सुना दिया। भाव कोई नहीं था मेरा। लेकनि रिजल्ट क्या है। फैलाना अर्थात् बोझ के अधिकारी बनना। तो आजकल यह भी एक रिवाज हो गया है। आपस में मिलेंगे ना तो पहले तो समाचार सुनायेंगे, नये नये समाचार। कहेंगे किसको सुनाना नहीं सिर्फ आपको ही सुना रहे हैं। लेकिन बाप ने तो सुना। रजिस्टर में दाग तो हुआ या नहीं? इसलिए इस बात का भी अटेन्शन अन्डरलाइन करो। ऐसे नहीं समझो कि बापदादा को पता हीं नहीं पड़ता। दादियाँ तो कोने में बैठी हैं उनको क्या पता। दादियों को नहीं पता लेकिन आपके रजिस्टर में आटोमेटिक नोट हो जाता है। जब आजकल के कम्प्युटर में सारा रिकार्ड भर जाता है तो क्या आपके रजिस्टर में आटोमेटिक यह रिकार्ड भर नहीं जायेगा। दादियाँ नहीं देखती, और नहीं देखते लेकिन रजिस्टर देख रहा है। तो ऐसा परिवर्तन करो। क्योंकि बापदादा ने रिजल्ट में देखा कि तपस्या पॉवरफुल न होने का कारण क्या है? सदा विजयी बनने में विघ्न रूप क्या है? इन विघ्नों को स्वयं से समाप्त करो। दूसरा बदले तो मैं बदलूं, इनको चेंज करो तो हम चेंज होंगे, यह भाषा यथार्थ है? बड़ों के आगे बात रखना इसके लिए सबको हक है लेकिन सत्यता और सभ्यता पूर्वक।
अब कितने होम वर्क मिले। इस वर्ष में ऐसे कोई रजिस्टर में सूक्ष्म दाग भी नहीं आने चाहिए। तब बाप कहेगा कि हाँ बाप से प्यार है, नहीं तो समझते हैं कि यह बाप को भी खुश करते हैं, अपने को भी खुश करते हैं। व्यर्थ समाचार बिल्कुल समाप्त होने चाहिए। यह एक हॉबी बहुत बढ़ती जा रही है। और यही तपस्या का विघ्न है। हर एक समझे कि इस हॉबी को स्वयं में समाप्त करने की मैं जिम्मेवारी लूँ। समझा! दूसरे कर रहे थे, तो मैंने भी कर लिया, चार बोल रहे थे तो मैंने भी एक शब्द बोल दिया। तो क्या यह राईट है? इस शौक को खत्म करने की हिम्मत है? यह अभी नया फैशन निकला है ब्राह्मण कुल में। लेकिन है उल्टा फैशन। तो इसका समाप्ति समारोह करने की हिम्मत है? जो कहते हैं कोशिश करेंगे, ट्राई ट्राई करने वाले हाथ उठाओ। अभी देखना बापदादा सेन्टर का नाम एनाउन्स करेगा। इस सेन्टर पर इस स्थान पर यह वातावरण है। यह पसन्द है या डरेंगे? यह डर अच्छा है, कि हमारा नाम नहीं आवे। देखना हाथ उठाया है फिर धर्मराज पुरी में भी यह हाथ उठेगा। बाप का साथी धर्मराज भी देख रहा है कि सभी ने हाथ उठाया है। लेकिन फायदा किसको। जितना कायदा उतना फायदा है। जो कायदे में चलते हैं उनको स्वयं ही अन्दर ही अन्दर फायदा होता है। बाहर से कोई फायदा देवे, न देवे लेकिन जो अन्दर का हल्कापन और अन्दर की खुशी होती है वह फायदा सबसे ज्यादा है। कोई अच्छा कहे, न कहे लेकिन स्वयं में अच्छे बनने की शक्ति आ जाती है। समझा! वर्ष की रिजल्ट सुनी, अभी क्या करेंगे? स्व परिवर्तन करना। दूसरे के परिवर्तन की चिन्ता नहीं करना। इसको शुभ चिन्तक नहीं कहा जाता है। फिर कहते हैं हम चिन्ता नहीं करते हैं, शुभ चिन्तक है ना! लेकिन स्व को भूल दूसरे के शुभ चिन्तक बनना इसको शुभ चिन्तक नहीं कहा जाता है। सर्व के साथ पहले स्व होना चाहिए। स्व नहीं और सर्व के शुभ चिन्तक बनने चलो तो तीर नहीं लगेगा, सफलता नहीं मिलेगी। पहले स्व और स्व के साथ सर्व यही बापदादा का बच्चों से दिल का प्यार है। प्यार की निशानी है कि प्यार करने वाले की कोई कमी देख नहीं सकते। कोई कमी सुन नहीं सकेंगे उसको भी सम्पन्न बनायेंगे। यह है दिल का सच्चा प्यार। बापदादा दिलवाला है। इसलिए दिल का प्यार है, हर एक बच्चे को समान और श्रेष्ठ देखने चाहते हैं। हर एक बच्चे को सफलता मूर्त देखना चाहते हैं। मेहनत मूर्त नहीं , सफलतामूर्त। अच्छा। आज तो बड़ा ड़ोज मिला है। हजम करने की शक्ति है ना? घबरा तो नहीं गये कि आज बापदादा ने यह क्या कह दिया। अच्छा।
चारों ओर के सदा निश्चयबुद्धि श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा निश्चय और विजय को समानता में लाने वाले तीव्र पुरुषार्थी आत्माओं को, सदा स्वमान में रह स्व परिवर्तन और सर्व के परिवर्तन के यथार्थ कल्याण की भावना रखने वाली आत्माओं को, सदा बाप के समान बन प्यार का सबूत देने वाली आत्माओं को, सदा यथार्थ रूहरिहान कर बातों को समाप्त करने वाली आत्माओं को दिलवाला बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।
दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात
निर्विध्न सीजन सम्पन्न हुई। साक्षी होकर भिन्न-भिन्न खेल देखने में मजा आता है ना। और खेल का अर्थ ही है भिन्नता। अगर भिन्नता नहीं हो तो खेल में मजा नहीं। इसलिए हर बात में अच्छा अच्छा कहते अच्छा बनते जाते और हर बात में अच्छाई समाई हुई जरूर होती है। चाहे सारी बात बुरी हो लेकिन एक दो अच्छाई भी जरूर होती है। वह अच्छा ही पाठ पढ़ाती है। दूसरे का आवेश हो, दूसरा आवेश कर रहा हो लेकिन आप क्या पाठ पढ़ रही हो? जितना वह आवेश करता उतना ही वह बात आपको धीरज सिखाती है। सहनशीलता सिखाती है। इसलिए कहते हैं जो हो रहा है वह अच्दा और जो होना है वह और अच्छा। अच्छाई उठाने की सिर्फ बुद्धि चाहिए बस। बुराई को न देख अच्छाई उठा लें। इससे ही नम्बर मिलते हैं ना। अच्छा।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
अपने को ज्ञान सूर्य के बच्चे मास्टर ज्ञान सूर्य समझते हो? सूर्य का कार्य क्या होता है? अन्धकार मिटाना, प्रकाश देना। ऐसे ही आप सभी भी अज्ञान अन्धेरा मिटाने वाले हो ना। कभी स्वयं भी अन्धियारे में तो नहीं आ जाते? स्वयं से अन्धियारा समाप्त हो गया। स्वयं भी आत्मा ज्योति अर्थात् प्रकाश स्वरूप है और कार्य भी है प्रकाश फैलाना। अन्धकार में मनुष्य आत्माएं भटकती हैं - यहाँ जाएं, वहाँ जाएं, यह रास्ता ठीक है, यह स्थान ठीक है वा नहीं है, भटकते रहेंगे और रोशनी में सेकेण्ड में ठिकाना दिखाई देगा। तो सभी को रोशनी द्वारा अपना निजी ठिकाना दिखाने के निमित्त हो। भटकती हुई आत्माओं को ठिकाना देने वाले। अगर कोई बहुत समय भटकता रहे और उसको कोई द्वारा ठिकाना मिल जाये तो ठिकाना दिखाने वाले को कितनी दुआएं देगा! तो आप भी जब आत्माओं को रोशनी द्वारा ठिकाना दिखाते हो, दिखाने का अनुभव कराते हो तो आत्माओं द्वारा कितनी दुआएं निकलती हैं और जिसको दुआएं मिलती हैं वह सदा आगे बढ़ता जाता है। उसकी हर बात में प्रोग्रेस होती है क्योंकि दुआएं लिफ्ट का काम करती हैं। सदा सहज आगे बढ़ते जायेंगे। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। इसलिए भक्ति मार्ग में भी जब भटकते-भटकते थक जाते हैं तो बाप को कहते हैं - अभी कोई दुआ करो, कृपा करो। तो अनेक आत्माओं की दुआएं आप आत्माओं को सहत उड़ती कला का अनुभव करायेंगी। एक बाप की दुआएं और आत्माओं की भी दुआएं मिलती हैं। माँ-बाप बच्चों को दुआएं करते हैं - उड़ते रहो, बढ़ते रहो। लेकिन दुआएं लेने वाले पात्र होने चाहिए। बाप सभी को देता है लेकिन लेने वाले पात्र हैं तो अनुभव करते हैं और पात्र नहीं है तो दाता देता है लेकिन लेने वाला नहीं लेता। पात्र बनने का आधार है स्वच्छ बुद्धि। स्वच्छ मन और स्वच्छ बुद्धि। जिसकी स्वच्छ बुद्धि स्वच्छ मन है वह हर समय बाप की, आत्माओं की दुआएं स्वत: ही अनुभव करते हैं। लौकिक दुनिया में भी देखो अगर कोई ऐसे समय किसको सहारा देता है, मुश्किल के समय आधार बन जाता है तो मुख से दुआएं निकलती हैं ना - तुम सदा जीते रहो, तुम सदा जीवन में सफल रहो, यह दुआएं जरूर निकलती हैं। तो अपने से पूछो कि बाप की दुआएं, आत्माओं की दुआएं अनुभव होती है या मेहनत बहुत करनी पड़ती है? बहुत सहज विधि है - दुआएं लेते जाओ और सदा भरपूर रहो। क्योंकि जिसे दुआएं मिलती हैं वह सदा भरपूर होगा, कभी अपने को खाली नहीं समझेगा। तो सभी भरपूर हो या कि कभी-कभी खाली हो जाते हो? ऐसे नहीं, यहाँ से भरपूर होकर जाओ और वहाँ जाओ तो खाली हो जाओ। 63 जन्म खाली हुए अभी इस समय भरपूर हो रहे हैं। तो भरपूर होने के समय खाली नहीं होन&