24-09-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सत्य और असत्य का विशेष अन्तर
स्नेह में समायी हुई सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को यथार्थ सत्य की पहचान देते हुए अव्यक्त बापदादा बोले -
आज दिलाराम बाप अपने सर्व बच्चों के दिल की आश पूर्ण करने के लिए मिलन मनाने आये हैं। अव्यक्त रूप में तो सदा सर्व बच्चे मिलन मनाते रहते हैं। फिर भी व्यक्त शरीर द्वारा अव्यक्त मिलन मनाने की शुभ आश रखते हैं। इसलिए बाप को भी अव्यक्त से व्यक्त में आना पड़ता है। बापदादा इस समय चारों ओर देश-विदेश के बच्चों को देख रहे हैं-मन से मधुबन में हैं। आप साकार में हो और अनेक बच्चे अव्यक्त रूप से मिलन मना रहे हैं। बापदादा भी सर्व बच्चों के स्नेह का रिटर्न दे रहे हैं। जहाँ भी हैं लेकिन याद द्वारा बाप के समीप दिल में हैं। सबके स्नेह के साज़ बापदादा सुन रहे हैं। बाप जानते हैं कि बच्चों के लिए सिवाए बाप के और कोई याद करने वाला है नहीं और बाप को भी सिवाए बच्चों के और कोई है नहीं। सदा इसी स्मृति में रहते हैं कि मैं बाबा का और बाबा मेरा। यही स्मृति सहज भी है और समर्थ बनाने वाली है। ऐसा स्मृतिस्वरूप स्नेही बच्चा साकार में तो क्या लेकिन स्वप्न में भी कभी असमर्थ हो नहीं सकता। असमर्थ होना अर्थात् ‘मेरा बाबा’ के बजाए कोई और ‘मेरापन’ आता है। एक मेरा बाबा-यह है मिलन मनाना। अगर ‘एक’ के बजाए ‘दो’ मेरा हुआ तो क्या हो जाता? वह है मिलना और वह है झमेला।
कई बच्चे समझते हैं-बाबा तो मेरा है ही लेकिन और भी एक-दो को मेरा कहना ही पड़ता है। कहते हैं-और कोई नहीं, सिर्फ एक आधार चाहिए। लेकिन वायदा क्या है-एक बाप दूसरा न कोई या एक बाप एक और? भोले बन जाते हो। उस एक में अनेक समाये हुए होते हैं, इसलिए झमेला हो जाता है। इस पुरानी दुनिया में भी ऐसे खिलौने मिलते हैं जो बाहर से एक दिखाई देता है लेकिन एक में एक होता है। एक खोलते जाओ तो दूसरा निकलेगा, दूसरा खोलेंगे तो तीसरा निकलेगा। यह भी ऐसा ही खिलौना है। दिखाई एक देता लेकिन अन्दर समाये हुए अनेक हैं। और जब झमेले में चले गये तो मिलन मनाना कैसे हो सकता? झमेले में ही लगे रहेंगे या मिलन मनायेंगे? सिर्फ वो नहीं सोचो। सिवाए एक बाप के संकल्प में भी अगर कोई आत्मा को वा प्रकृति के साधन को मेरा सहारा स्वीकार किया तो यह आटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी बहुत फास्ट गति से कार्य करती है। जिस सेकेण्ड अन्य को सहारा बनाया, उसी सेकण्ड मन-बुद्धि का बाप से किनारा हो जाता है। सत्य बाप से किनारा होने के कारण बुद्धि असत्य को सत्य, रांग को राइट मानने लगती है, उल्टी जजमेंट देने लगती है। कितना भी कोई समझायेगा कि यह राइट नहीं है, लेकिन वह यथार्थ को, सत्य को भी असत्य की शक्ति से समझाने वाले को रांग सिद्ध करेगा। यह सदा याद रखो कि आजकल ड्रामा अनुसार असत्य का राज्य है और असत्य के राज्य-अधिकारी प्रेजीडेंट रावण है। उसके कितने शीश हैं अर्थात् असत्य की शक्ति कितनी महान है! उसके मन्त्री-महामन्त्री भी बड़े महान हैं। उसके जज और वकील भी बड़े होशियार हैं। इसलिए उल्टी जजमेन्ट की पॉइंट्स बहुत वैराइटी और बाहर से मधुर रूप की देते हैं। इसलिए सत्य को असत्य सिद्ध करने में बहुत होशियार होते हैं।
लेकिन असत्य और सत्य में विशेष अन्तर क्या है? असत्य की जीत अल्पकाल की होती है क्योंकि असत्य का राज्य ही अल्प-काल का है। सत्यता की हार अल्पकाल की और जीत सदाकाल की है। असत्य के अल्पकाल के विजयी उस समय खुश होते हैं। जितना थोड़ा समय खुशी मनाते वा अपने को राइट सिद्ध करते, तो समय आने पर असत्य के अल्पकाल का समय समाप्त होने पर जितनी असत्यता के वश मौज मनाई, उतना ही सौ गुणा सत्यता की विजय प्रत्यक्ष होने पर पश्चाताप करना ही पड़ता है। क्योंकि बाप से किनारा, स्थूल में किनारा नहीं होता, स्थूल में तो स्वयं को ज्ञानी समझते हैं लेकिन मन और बुद्धि से किनारा होता। और बाप से किनारा होना अर्थात् सदाकाल की सर्व प्राप्तियों के अधिकार से सम्पन्न के बजाए अधूरा अधिकार प्राप्त होना। कई बच्चे समझते हैं कि असत्य के बल से असत्य के राज्य में विजय की खुशी वा मौज इस समय तो मना लें, भविष्य किसने देखा। कौन देखेगा-हम भी भूल जायेंगे, सब भूल जायेंगे। लेकिन यह असत्य की जजमेंट है। भविष्य वर्तमान की परछाई है। बिना वर्तमान के भविष्य नहीं बनता। असत्य के वशीभूत आत्मा वर्तमान समय भी अल्पकाल के सुख के नाम, मान, शान के सुखों के झूले में झूल सकती है और झूलती भी है, लेकिन अतीन्द्रिय अविनाशी सुख के झूले में नहीं झूल सकती। अल्पकाल के शान, मान और नाम की मौज मना सकते हैं लेकिन सर्व आत्माओं के दिल के स्नेह का, दिल की दुआओं का मान नहीं प्राप्त कर सकते। दिखावा मात्र मान पा सकते हैं लेकिन दिल से मान नहीं पा सकते। अल्पकाल का शान मिलता है लेकिन बाप से सदा दिलतख्तनशीन का शान अनुभव नहीं कर सकते। असत्य के साथियों द्वारा नाम प्राप्त कर सकते हैं लेकिन बापदादा के दिल पर नाम नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि बापदादा से किनारा है। भविष्य की बात तो छोड़ो, वह तो अन्डरस्टुड है। लेकिन वर्तमान सत्यता और असत्यता की प्राप्ति में कितना अन्तर है? एक दूसरा मेरा बनाया अर्थात् असत्य का सहारा लिया। कितना झमेला हुआ! कहने में तो कहेंगे - और कुछ नहीं, सिर्फ कभी-कभी थोड़ा सहारा चाहिए। लेकिन वायदा तोड़ना अर्थात् झमेले में पड़ना। क्या ऐसा वायदा किया है - एक मेरा बाबा और कभी-कभी दूसरा? दूसरा भी एलाउ है? यह लिखा था क्या? चाहे अल्पकाल के नाम-मान-शान का सहारा लो, चाहे व्यक्ति का लो, चाहे वैभव का लो, जब दूसरा न कोई तो फिर दूसरा कहाँ से आया? यह असत्य के राज्य के झमेले में फंसाने की चतुराइयां हैं। जैसे बाप कहते हैं ना - मैं जो हूँ, जैसा हूँ, वैसा मुझे नम्बरवार जानते हैं। ऐसे असत्य के राज्य-अधिकारी ‘रावण’ को भी जो है, जैसा है, वैसे सदा नहीं जानते हो। कभी भूल जाते हो, कभी जानते हो। राज्य-अधिकारी है तो यह ताकत कम होगी! चाहे झूठा हो, चाहे सच्चा हो लेकिन राज्य तो है ना। इसलिए अपने को चेक करो, दूसरे को नहीं।
आजकल दूसरों को चेक करने में सब होशियार हो गये हैं। बापदादा कहते हैं-अपना चेकर बनो और दूसरे का मेकर बनो। लेकिन करते क्या हो? दूसरे का चेकर बन जाते हो और बातें बनाने में मेकर बन जाते हो। बापदादा रोज़ की हर एक बच्चे की कौन सी कहानियाँ सुनते हैं? बहुत बड़ा किताब है कहानियों का। तो अपने को चेक करो। दूसरे को चेक करने लगते हो तो लम्बी कथायें बन जाती हैं और अपने को चेक करेंगे तो सब कथायें समाप्त हो एक सत्य जीवन की कथा प्रैक्टिकल में चलेगी। सभी कहते हैं-बाबा, आप से बहुत प्यार है! सिर्फ कहते हो वा करते भी हो, क्या कहेंगे? कभी कहते हो, कभी करते हो। बाप के प्यार का प्रत्यक्ष सबूत बाप ने दे दिया। जो हो, जैसे हो-मेरे हो। लेकिन अभी बच्चों को सबूत देना है। क्या सबूत देना है? बाप कहते हैं-जो हो, जैसे हो-मेरे हो। और आप क्या कहेंगे? जो है वह सब आप हो। ऐसे नहीं-थोड़ा-थोड़ा और भी है। बाप से प्यार है लेकिन कभी-कभी असत्य के राज्य के प्रभाव में आ जाते हैं। अच्छा!
चारों ओर के यथार्थ सत्य को परखने वाले, सच्चे बाप के सच्चे बच्चों को, सर्व स्नेह में समाए हुए श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सदा वायदे को निभाने वाली समर्थ आत्माओं को, सर्व यथार्थ परखने वाली शक्तिशाली आत्माओं को, सर्व याद और सेवा में निर्विघ्न रहने वाले, सदा साथ और समीप रहने वाले बच्चों को याद, प्यार और नमस्ते।
दादियों से मुलाकात
जितना जो सेवा के निमित्त बनता है उतना ही दिल का हजार गुणा स्नेह सेवा के साथ अनुभव होता है। इसलिए जिम्मेवारी, जिम्मेवारी नहीं लगती, खेल लगता है। खेल तो नया ही देखना अच्छा होता है। पुराना खेल क्या देखेंगे। जब वृक्ष का विस्तार होता है तभी सार (बीज) प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। विस्तार सार को प्रत्यक्ष करता है। मजा आता है ना। विश्व के तख्तनशीन होने के पहले सेवा के तख्तनशीन बनना होता है। जो जितनी सेवा के तख्तनशीन बनता है उतना ही विश्व के तख्तनशीन बनता है। बेहद की सेवा का तख्त मिला है ना। अच्छा मेकअप किया है। अच्छा है मधुबन में रहना। ये सभी मधुबन में रहने वाले हैं। मधुबन की सीट मिली है ना। तो मधुबन है सेवा का तख्त, बेहद की सेवा का तख्त। अच्छा ग्रुप है। अच्छी सेवा चल रही है ना।
पर्यावरण अभियान प्रति सन्देश
सेवा का प्रत्यक्षफल है आत्माओं को अनुभूति कराना, सन्देश के साथ अनुभूति कराना। यही सेवा का प्रत्यक्षफल है। सन्देश देना तो कब भी (भविष्य में भी) जान सकते हैं लेकिन ‘अनुभूति’ प्रत्यक्षफल है। इसकी आवश्यकता है जो सिवाए आप लोगों के कोई करा नहीं सकता। सुनाने वाले अनेक हैं, अनुभव कराने वाले सिर्फ आप हो। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
दु:ख की लहर से मुक्त होने के लिये कर्मयोगी बनकर कर्म करो
सभी अपने को श्रीमत पर चलने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? नाम ही है श्रीमत। श्री का अर्थ है श्रेष्ठ। तो श्रेष्ठ मत पर चलने वाले श्रेष्ठ हुए ना। यह रूहानी नशा, बेहद का नशा रहता है ना। या कभी-कभी हद का नशा भी आ जाता है? इसलिये सदा अपने को देखो-चलते-फिरते कोई भी कार्य करते बेहद का रूहानी नशा रहता है? चाहे कर्म मजदूरी का भी हो, साधारण कर्म करते अपने श्रेष्ठ नशे को भूलते तो नहीं हो? घर में रहने वाली, घर की सेवा करने वाली साधारण मातायें हैं-यह याद रहता है या जगत माता हूँ, जगत का कल्याण करने के निमित्त यह कार्य कर रही हूँ-यह याद रहता है? जिसे यह रूहानी नशा होगा उसकी निशानी क्या होगी? वह खुशी में रहेगा, कोई भी कर्म करेगा लेकिन कर्म के बन्धन में नहीं आयेगा, न्यारा और प्यारा होगा। कर्म के बन्धन में आना अर्थात् कर्म में फंसना और जो न्यारा-प्यारा होता है वह कर्म करते भी कर्म के बन्धन में नहीं आता, कर्मयोगी बन कर्म करता है। अगर कर्म के बन्धन में आयेंगे तो खुशी गायब हो जायेगी। क्योंकि कर्म अच्छा नहीं होगा। लेकिन कर्मयोगी बनकर कर्म करने से दु:ख की लहर से मुक्त हो जायेंगे। सदा न्यारा होने के कारण प्यारे रहेंगे। तो समझा, कैसे रहना है? कर्मबन्धन मुक्त। कर्म का बन्धन खींचे नहीं, मालिक होकर कर्म करायें। मालिक न्यारा होता है ना। मालिक होकर कर्म कराना-इसे कहा जाता है बन्धन-मुक्त। ऐसी आत्मा सदा स्वयं भी खुश रहेगी और दूसरों को भी खुशी देगी। ऐसे रहते हो? सुनते तो बहुत हो, अभी ज् सुना है वह करना है। करेंगे तो पायेंगे। अभी-अभी करना, अभी-अभी पाना।
माताओं को कभी दु:ख की लहर आती है? कभी मन से रोती हो? मन का रोना तो सबको आ सकता है। तो श्रीमत है-सदा खुश रहो। श्रीमत यह नहीं है कि कभी-कभी रो लो। बहुतकाल मन से वा आंखों से रोया, रावण ने रूलाया ना। लेकिन अभी बाप के बने हो खुशी में नाचने के लिये, रोने के लिये नहीं। रोना खत्म हो गया। दु:ख की लहर-यह भी रोना है। यह मन का रोना हो गया। सुखदाता के बच्चे सदा सुख में झूलते रहो। दु:ख की लहर आ नहीं सकती। भूल जाते हो तब आती है। इसलिये अभूल बनो। अभी जो भी कमजोरी हो उसे महायज्ञ में स्वाहा करके जाना। साथ में लेकर नहीं जाना, यहाँ ही स्वाहा करके जाओ। स्वाहा करना आता है ना। दृढ़ संकल्प करना अर्थात् स्वाहा करना। अच्छा! सभी की आश पूरी हुई। यह भी भाग्यवान हो जो ऐसे मिलते रहते हो। आगे चलकर क्या होता है.....। यह भी भाग्य जितना मिलता है उतना लेते चलो। उड़ते जाओ। यही याद रखना कि महान हैं और महान बनाना है।
ग्रुप नं. 2
सर्व शक्तियों को समय पर कार्य में लगाना अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान बनना
शक्तियों का पूजन देखकर क्या स्मृति में रहता है? अपने को चेक करते हो-जैसे शक्तियों को अष्ट भुजाधारी दिखाते हैं तो हम भी अष्ट शक्तिवान, मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा हूँ। ये अष्ट तो निशानी मात्र हैं लेकिन हैं तो सर्व शक्तियाँ। शक्तियों का नाम सुनते, शक्तियों का पूजन देखते सर्व शक्तियों की स्मृति आती है या सिर्फ देखकर के खुश हो? जड़ चित्रों में कितनी कमाल भर देते हैं! तो चैतन्य का ही जड़ बनता है ना। तो चैतन्य में हम कितने कमाल के बने हैं अर्थात् श्रेष्ठ बने हैं! तो यह खुशी होती है कि यह हमारा यादगार है! या देवियों का है? देवियों के साथ गणेश की भी पूजा होती है ना। तो प्रैक्टिकल में ऐसे बने हैं तब तो यादगार बना है। सदैव अपने को चेक करो कि सर्व शक्तियाँ अनुभव होती हैं? बाप ने तो दी लेकिन मैंने कितनी ली, धारण की और धारण करने के बाद समय पर वो शक्ति काम में आती है? अगर समय पर कोई चीज काम में नहीं आये तो वह होना, न होना, एक ही बात है। कोई भी चीज़ रखते ही हैं समय पर काम में आने के लिये। अगर समय पर काम में नहीं आई तो क्या कहेंगे? है वा नहीं है, एक ही बात हुई ना। तो बाप ने दी लेकिन हमने कितनी ली-यह चेक करो। जब प्रैक्टिकल में काम में आये तब कहेंगे मास्टर सर्वशक्तिवान। शक्ति काम में नहीं आवे और कहें मास्टर सर्वशक्तिवान, यह शोभता नहीं है। एक भी शक्ति कम होगी तो समय पर धोखा दे देगी। कोई भी समय उसी शक्ति का पेपर आ जाये तो पास होंगे या फेल होंगे? अगर नहीं होगी तो फेल होंगे, होगी तो पास होंगे। माया भी जानती है-इसके पास इस शक्ति की कमी है। तो वही पेपर आता है। इसलिये एक भी शक्ति कम नहीं होनी चाहिये। समझा? ऐसे नहीं-शक्तियाँ तो आ गई, एक कम हुई तो क्या हर्जा है। एक में ही हर्जा है। एक ही फेल कर देगी। सूर्यवंशी में आना है तो फुल पास होना पड़ेगा ना। फुल पास होने का अर्थ ही है मास्टर सर्वशक्तिवान बनना।
माताओं में सहन शक्ति है? या थोड़ा-थोड़ा क्रोध आ जाता है? पाण्डवों को क्रोध या रोब आता है? सहन शक्ति की कमी है तब ही आयेगा ना। सर्व शक्तियों में सहन शक्ति भी तो शक्ति है ना। एक भी शक्ति कम हुई तो फुल पास होंगे या अधूरे पास होंगे? इसलिये सर्व शक्तियों को चेक करो। परसेन्टेज भी कम न हो। ऐसे नहीं-थोड़ा क्रोध आया, ज्यादा नहीं आया। यदि थोड़ा भी आ गया तो उसको फेल कहेंगे और आदत पड़ जायेगी थोड़ा-थोड़ा फेल होने की तो फुल पास कैसे होंगे? इसलिये एक भी शक्ति की कमी न हो। ऐसे अलबेले नहीं रहना कि एक थोड़ी कम है, बढ़ जायेगी। बहुत समय की कमी समय पर धोखा दे देगी। इसलिए मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनो। सर्व शक्तियों को कार्य में लगाते चलो और उड़ते चलो। समझा?
ग्रुप नं. 3
तेरे को मेरे में बदलना ही ब्राह्मण जीवन है
सभी अपने को “एक बल एक भरोसा” ऐसे अनुभव करते हो? “एक बाबा दूसरा न कोई” यह पक्का है ना। या बाबा भी है तो बच्चे भी हैं, सम्बन्धी भी हैं? जब बच्चे हैं, पति है, सासू-ससुर हैं-इतने सारे हैं तो एक कैसे हुआ? सामने हैं, देख रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, फिर एक कैसे हुआ? ये मेरे नहीं हैं लेकिन बाप ने सेवा के लिये दिये हैं-ऐसी दृष्टि-वृत्ति रखने से एक ही याद रहेगा। चाहे कितने भी हों, कौन भी हों, लेकिन सभी बाप के बच्चे हैं और हमको सेवा के लिये ये आत्मायें मिली हैं। सासू नहीं है लेकिन सेवा के लिये आत्मा है-ऐसी वृत्ति रहती है? बच्ची को बच्ची नहीं समझते, मेरी कन्या है, मेरी कन्या का कल्याण करो-ऐसे नहीं कहते हो। बाप ने सेवा अर्थ निमित्त बनाया है। घर में नहीं रहे हुए हो लेकिन सेवा-स्थान पर रहे हुए हो। मेरा सब तेरा हो गया। मेरा कुछ नहीं, शरीर भी मेरा नहीं। जब मेरा है ही नहीं तो बॉडी-कॉन्सेस कैसे हो सकता है। मेरे में ही आकर्षण होती है। जब मेरा समाप्त हो जाता है तो मन और बुद्धि को अपनी तरफ खींच नहीं सकते हैं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् मेरे को तेरे में बदलना। तो बार-बार यह चेक करो कि तेरा, मेरा तो नहीं बन गया। अगर मेरापन नहीं होगा, तेरा ही है तो डबल लाइट होंगे। अगर थोड़ा भी बोझ अनुभव करते हो तो समझो-मेरापन मिक्स हो गया है। भक्ति में कहते हैं कि सब-कुछ तेरा। ब्राह्मण जीवन में कहना नहीं है, करना है। यह करना सहज है ना। बोझ देना सहज होता है या लेना सहज होता है? तेरा कहना माना बोझ देना और मेरा कहना माना बोझ लेना। तो अभी एक बल एक भरोसा। बस, एक ही एक। एक लिखना सहज है ना। तो यह तेरा-तेरा कहने वाला ग्रुप है। अच्छा!
ग्रुप नं. 4
पूज्य वह जिसकी आंख बाप के सिवाए कहाँ भी न डूबे
सदा यह नशा रहता है कि हम कल्प-कल्प की सर्वश्रेष्ठ पूज्य आत्मायें बनते हैं? कितनी बार आपकी पूजा हुई है? पूज्य आत्मा हूँ-यह पूज्यपन की अनुभूति क्या होती है? निशानी क्या है? नशा है, खुशी है-वह तो ठीक है। लेकिन कौनसा संस्कार ऐसा है जिससे समझते हो-मैं ही पूज्य था? जो पूज्य आत्मायें हैं उनकी विशेषता क्या है? किस विशेषता के आधार पर कोई पूज्य बनता है? लौकिक में भी देखो-किसको कहते हैं कि यह तो पूज्य है। पूज्य आत्मा की निशानी है-वह कभी भी किसी भी वस्तु के पीछे, व्यक्ति के पीछे झुकेगा नहीं। सब उसके आगे झुकेंगे लेकिन वह झुकेगा नहीं। नम्रता से झुकना-वह अलग चीज है। लेकिन झुकना अर्थात् प्रभावित होना। पूज्य के आगे सब झुकते हैं, पूज्य नहीं झुकता है। तो किसी भी प्रकार के व्यक्ति या वैभव की आकर्षण झुका लेवे-यह पूज्य की निशानी नहीं है। तो यह चेक करो कि कभी भी, किसी भी आकर्षण में मन और बुद्धि झुकती तो नहीं है, प्रभावित तो नहीं होते हो? सिवाए एक बाप के और कहाँ भी मन और बुद्धि का झुकाव नहीं। पूज्य अर्थात् झुकाने वाला, न कि झुकने वाला।
जो कल्प-कल्प का पूज्य होगा उसकी निशानी क्या होगी? सिवाए बाप के, और कहाँ भी आंख नहीं डूबेगी। यह बहुत अच्छा है, यह बहुत अच्छी चीज है-नहीं। पूज्य आत्माओं के आगे स्वयं सब व्यक्ति और वैभव झुकते हैं। जो इष्ट देव होते हैं, भक्त लोग स्वयं बढ़िया ते बढ़िया अच्छी चीज इष्ट के आगे भेंट चढ़ायेंगे। इष्ट उन चीजों पर प्रभावित नहीं होगा लेकिन वो चीजें स्वयं उसके आगे झुकेंगी। तो पूज्य की निशानी है-एक बाप के सिवाए कहाँ भी मन-बुद्धि का झुकाव नहीं। रिगॉर्ड और चीज है, प्यार और चीज है, नम्रता और चीज है लेकिन प्रभावित होना और चीज है। तो पूज्य आत्मा थे और बार-बार बनेंगे। यह निशानी अपने अन्दर चेक करो। कभी भी किसी भी संस्कार के वश आत्मा वशीभूत हो जाती है तो यह भी झुकना हुआ। मानो कोई ब्राह्मण आत्मा, पूज्य आत्मा कहे कि आज क्रोध के वश हो गई, लोभ के वश हो गई, अभिमान के वश हो गई-तो यह झुकना हुआ या झुकाना हुआ? तो पूज्य कभी झुकता नहीं। पूज्य के आगे सब आकर्षित होकर स्वयं आते हैं, पूज्य किसी के पीछे आकर्षित नहीं होता। तो यह निशानी देखो। अगर कभी-कभी झुकाव हो जाता है तो पूजा भी कभी-कभी होगी, सदा नहीं होगी। पूज्य में भी नम्बर होते हैं। वैरा-यटी होती है ना। कोई पूज्य सदा पूजे जाते हैं और कोई-कोई की कभी पूजा होती है, कोई की विधिपूर्वक होती है और कोई की काम-चलाऊ पूजा होती है। मन्दिरों में भी फर्क होता है ना। तो यहाँ भी ऐसे है। जो विधिपूर्वक श्रीमत को अपनाते नहीं, काम-चलाऊ, चलो अमृतवेले उठना है, बैठना है, कोई देखे नहीं, कोई कहे नहीं कि यह उठा नहीं, फिर चाहे बाप से मिलन मनाये या निद्रा से मिलन मनाये। यह काम-चलाऊ हो गया ना। अमृतवेले उठा, बैठा लेकिन विधिपूर्वक नहीं। तो मूर्ति को भी बिठा देते हैं लेकिन पूजा विधिपूर्वक नहीं होती है। लगाव तब होता है जब झुकाव होता है। बिना लगाव के झुकाव नहीं होता। आज के भक्तों का भी चाहे अल्पकाल की प्राप्ति की तरफ लगाव हो, तभी झुकाव होता है। आजकल पूज्य की तरफ लगाव नहीं है, अल्पकाल की प्राप्ति के तरफ लगाव है। लेकिन प्राप्ति कराने वाली पूज्य आत्मायें हैं, इसलिये झुकते उनकी तरफ ही हैं। तो समझा, पूज्य की निशानी क्या है? कल्प-कल्प की श्रेष्ठ पूज्य आत्मायें सदा स्वयं को सम्पन्न अनुभव करेंगी। जो सम्पन्न होता है उसकी आंख किसमें भी नहीं जाती। पूज्य आत्मा सम्पन्न होने के कारण सदा ही अपने रूहानी नशे में रहेगी। उनके मन-बुद्धि का झुकाव कहाँ भी नहीं होगा- न देह के सम्बन्ध में, न देह के पदार्थ में। सबसे न्यारा और सबसे प्यारा। ब्राह्मण जीवन का मजा जीवन्मुक्त स्थिति में है। न्यारा अर्थात् मुक्त। संस्कार के ऊपर भी झुकाव नहीं। जब कहते हो क्या करूँ, कैसे करूँ-तो उस समय जीवन्मुक्त हुए या जीवन-बन्ध?करना नहीं चाहते थे लेकिन हो गया-यह है जीवन-बन्ध बनना। इच्छा नहीं थी लेकिन अच्छा लग गया, शिक्षा देनी थी लेकिन क्रोध आ गया-यह है जीवन-बन्ध स्थिति। ब्राह्मण अर्थात् जीवन्मुक्त। कभी भी किसी बंधन में बंध नहीं सकते। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
संगठन में रहते भी न्यारा और प्यारा रहना ही फॉलो फादर करना है
यह वैरायटी ग्रुप है। सबसे अच्छे ते अच्छा ग्रुप किसको कहा जायेगा, उसकी विशेषता क्या होगी? सबसे अच्छा ग्रुप वह है जो ग्रुप में रहते हुए भी निर्विघ्न रहे, सन्तुष्ट रहे। कोई अकेला निर्विघ्न रहता है, यह कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन बड़े संगठन में भी हो और निर्विघ्न भी हो। तो आप सभी संगठन में रहते निर्विघ्न रहते हो? कितना भी हंगामा हो लेकिन स्वयं अचल हो-ऐसे ग्रुप के हो? जैसे बाप अकेला तो नहीं है ना, परिवार वाला है। सबसे बड़े ते बड़ा परिवार बाप का है और जितना बड़ा परिवार उतना ही न्यारा और सर्व का प्यारा है। जितनी सेवा उतना न्यारा। तो फॉलो फादर करने वाले हो ना। इसीलिये आप सबका यादगार यहाँ अचलघर बना हुआ है। कितना भी कोई हिलावे, हिलेंगे नहीं। एक तरफ एक डिस्टर्ब करे, दूसरी तरफ दूसरा डिस्टर्ब करे-तो क्या करेंगे? कोई सैलवेशन नहीं मिले, फिर हलचल होगी? कोई इन्सल्ट कर दे, फिर हलचल होगी? अचल अर्थात् चारों ओर कितना भी कोई हिलाने की कोशिश करे लेकिन संकल्प में भी अचल।
देखो, अच्छे हो तब तो बापदादा ने पसन्द करके अपना बनाया है। अच्छे हैं और सदा अच्छे रहेंगे। अच्छा-अच्छा समझने से अच्छे हो ही जाते हैं। बापदादा हरेक बच्चे में विशेषता ही देखते हैं। विशेषता देखते, वर्णन करते-करते विशेष बन ही जायेंगे। कल थे, आज हैं और कल फिर बनेंगे। ‘आज’ और ‘कल’ में सारा ड्रामा आ गया। जितना-जितना सम्पूर्ण बनते जायेंगे तो यह स्मृति स्पष्ट होती जायेगी। जितनी स्मृति स्पष्ट होती है उतना नेचुरल नशा रहता है। अच्छा! चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को डबल नशे में रहने की मुबारक! एक याद का नशा, एक सेवा का नशा-डबल नशा है ना। अच्छा है, हिम्मत बच्चों की, मदद बाप की। ऑस्ट्रेलिया के बच्चे भी जो चाहे वो कर सकते हैं। सिर्फ कभी गुप्त हो जाते हैं, कभी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। लेकिन हिम्मत और मदद के भी पात्र हैं। अच्छा, सभी को याद।
ग्रुप नं. 6
हर ब्राह्मण ब्रह्मा बाप का दर्पण बने-यही है बाप की श्रेष्ठ आश
मधुबन निवासियों को कितने प्रत्यक्षफल मिलते हैं? मधुबन की विशेषता क्या है जो और कहाँ नहीं मिलती? श्रेष्ठ कर्मभूमि पर रहने वाले सदा फॉलो फादर करते हैं। मधुबन की श्रेष्ठता तो यह है कि ब्रह्मा बाप की विशेष कर्मभूमि है। तो मधुबन निवासी जो भी कर्म करते हैं वो फॉलो फादर करते हैं। कर्मभूमि में विशेषता कर्म की है। तो कर्म में फॉलो है? जो भी अमृतवेले से लेकर रात तक कर्म करते हो उसमें फॉलो फादर है? मधुबन निवासियों को और एक्स्ट्रा कर्मभूमि की याद का बल है। वह कर्म में दिखाई देता है वा देना है, क्या कहेंगे? आप अपने में देखते हो? एक-एक कदम सामने लाओ-उठना-बैठना, चलना, बोलना, सम्बन्ध-सम्पर्क में आना-सबमें ब्रह्मा बाप के कर्म को फॉलो है? कर्मभूमि का फायदा तो यही है ना। तो इतना लाभ ले रहे हो? शक्तियाँ क्या समझती हैं? कर्मभूमि का लाभ जितना मधुबन ले सकता है, उतना औरों को लेने आना पड़ता है और आपको मिला हुआ है। वरदान-भूमि है, कर्मभूमि है। तो हर कर्म वरदान योग्य है जो कोई भी देखे तो मुख से वरदान निकले? इसको कहेंगे वरदान-भूमि का वरदान लेना। चाहे साधारण कर्म कर रहे हों लेकिन साधारण कर्म में विशेषता दिखाई दे। यही मधुबन की विशेषता है ना। इसमें सर्टिफिकेट लेना है। आज इन्कम-टैक्स का सर्टिफिकेट मिला है ना। तो मधुबन वालों ने कौनसा सर्टिफिकेट लिया है? लेने वाले अधिकारी तो हो ही। विशेष ब्रह्मा बाप की अपने कर्मभूमि में रहने वालों के प्रति यह विशेष श्रेष्ठ आश है कि मधुबन का एक-एक ब्राह्मण आत्मा, श्रेष्ठ आत्मा हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म का दर्पण हो। तो दर्पण में क्या दिखाई देता है? यही दिखाई देता है ना। अगर आप दर्पण में खड़े होंगे तो हू-ब-हू आप ही दिखाई देंगे या दूसरा? तो ब्रह्मा बाप के कर्म आपके कर्म के दर्पण में दिखाई दें। भाग्यवान हो-यह तो सदा सभी कहते भी हैं और हैं भी। लेकिन हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दें। यह सर्टिफिकेट कौन लेगा और कब लेंगे? लेना तो है ना। या ले लिया है? जिसने यह सर्टिफिकेट ले लिया है कि हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दे रहे हैं, उनका बोल, ब्रह्मा का बोल समान, उठना-बैठना, देखना, चलना-सब समान। ऐसा सर्टिफिकेट लिया है? जिसको लेना है वो हाथ उठाओ। यह भी अच्छा है। कहने से पहले करके दिखायेंगे। लेकिन यह लक्ष्य रखो कि हर कर्म बाप समान हो। ब्रह्मा बाप को फॉलो करना तो सहज है ना। निराकारी बनना अर्थात् सदा निराकारी स्थिति में स्थित होना। उसके बजाय कर्म में फॉलो करना उससे सहज है। तो ब्रह्मा बाप तो सहज काम दे रहा है, मुश्किल नहीं। तो सभी लक्ष्य रखो कि मधुबन में जहाँ देखें, जिसको देखें-ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दें। कर्म में सर्वव्यापी ब्रह्मा कर सकते हो। जहाँ देखें ब्रह्मा समान! हो सकता है ना।
मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा। मधुबन की दीवारों की महिमा नहीं है, मधुबन निवासियों की महिमा है। मधुबन की महिमा चारों ओर से रोज सुनते हो ना। मधुबन निवासियों की महिमा जो होती है वह किसकी है? आप सबकी है ना। नशा तो रहता है कि हम मधुबन निवासी हैं। जैसे यह नशा है वैसे यह नशा भी प्रत्यक्ष दिखाई दे कि यह ब्रह्मा बाप के समान फॉलो फादर करने वाले हैं। अच्छा! सभी सन्तुष्ट हो? कुछ सैलवेशन चाहिये? सैलवेशन की भूमि में बैठे हो। कितने बेफिक्र बैठे हो! शरीर की मेहनत करते हो, और तो सब बना बनाया मिलता है। जो शरीर की मेहनत नहीं करते हैं उनको एक्सरसाइज की मेहनत कराते हैं। आप तो लक्की हो ना जो एक्सरसाइज नहीं करना पड़े। हाथ-पांव चलते रहते हैं। जितना जो हार्ड वर्क (कठिन परिश्रम) करता है उतना वह सेफ है-माया से भी और शरीर की व्याधियों से भी। बुद्धि तो बिजी रहती है ना। और फालतू तो कुछ नहीं चलेगा। तो जो सदा बिज़ी रहते हैं वे बहुत लक्की हैं। इसलिये अपने को फ्री नहीं करना। चलो, बहुत समय कर लिया, अब फ्री हो जायें। बिज़ी रहना खुशनसीब की निशानी है। खुशनसीब हो ना। अपने को सदा बिज़ी रखना। अच्छा! मधुबन निवासियों को पहला चांस मिला है। यह भी लक्क है। अभी बापदादा को करके दिखाना। समझा?
03-10-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी
परमात्म-पालना में पलने वाले सर्वश्रेष्ठ बच्चों प्रति भाग्यविधाता बापदादा बोले -
आज भाग्यविधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों का श्रेष्ठ भाग्य देख हर्षित हो रहे हैं। इतना श्रेष्ठ भाग्य और इतना सहज प्राप्त हो-ऐसा भाग्य सारे कल्प में सिवाए आप ब्राह्मण आत्माओं के और किसी का भी नहीं हैं। सिर्फ आप ब्राह्मण आत्माए इस भाग्य के अधि-कारी हो। यह ब्राह्मण जन्म मिला ही है कल्प पहले के भाग्य अनुसार। जन्म ही श्रेष्ठ भाग्य के आधार पर है। क्योंकि ब्राह्मण जन्म स्वयं भगवान द्वारा होता है। अनादि बाप और आदि ब्रह्मा द्वारा यह अलौकिक जन्म प्राप्त हुआ है। जो जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है, वह जन्म कितना भाग्यवान हुआ! अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को सदा स्मृति में रख हर्षित रहते हो? सदा स्मृति प्रत्यक्ष-स्वरूप में हो, सदा मन में इमर्ज करो। सिर्फ दिमाग में समाया हुआ है-ऐसे नहीं। लेकिन हर चलन और चेहरे में स्मृतिस्वरूप प्रत्यक्ष रूप में स्वयं को अनुभव हो और दूसरों को भी दिखाई दे कि इन्हों की चलन में, चेहरे में श्रेष्ठ भाग्य की लकीर स्पष्ट दिखाई देती है। कितने प्रकार के भाग्य प्राप्त हैं, उसकी लिस्ट सदा मस्तक पर स्पष्ट हो। सिर्फ डायरी में लिस्ट नहीं हो लेकिन मस्तक बीच भाग्य की लकीर चमकती हुई दिखाई दे।
पहला भाग्य-जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है। दूसरी बात-ऐसा किसी भी आत्मा वा धर्मात्मा, महान आत्मा का भाग्य नहीं जो स्वयं भगवान एक ही बाप भी हो, शिक्षक भी हो और सतगुरू भी हो। सारे कल्प में ऐसा कोई है? एक ही द्वारा बाप के सम्बन्ध से वर्सा प्राप्त है, शिक्षक के रूप से श्रेष्ठ पढ़ाई और पद की प्राप्ति है, सतगुरू के रूप में महामन्त्र और वरदान की प्राप्ति है। वर्से में सर्व खज़ानों का अधिकार प्राप्त किया है। सर्व खज़ाने हैं ना। कोई खज़ाने की कमी है? टीचर्स को कोई कमी है? मकान बड़ा होना चाहिए, जिज्ञासु अच्छे-अच्छे होने चाहिए - यह कमी है? नहीं है। जितनी सेवा निर्विघ्न बढ़ती है तो सेवा के साथ सेवा के साधन सहज और स्वत: बढ़ते ही हैं।
बाप द्वारा वर्सा और श्रेष्ठ पालना मिल रही है। परमात्म पालना कितनी ऊंची बात है! भक्ति में गाते हैं परमात्मा पालनहार है। लेकिन आप भाग्यवान आत्माए हर कदम परमात्म पालना के द्वारा ही अनुभव करते हो। परमात्म श्रीमत ही पालना है। बिना श्रीमत अर्थात् परमात्म-पालना के एक कदम भी नहीं उठा सकते। ऐसी पालना सिर्फ अभी प्राप्त है, सतयुग में भी नहीं मिलेगी। वह देव आत्माओं की पालना है और अभी परमात्म पालना में चल रहे हो। अभी प्रत्यक्ष अनुभव से कह सकते हो कि हमारा पालनहार स्वयं भगवान है। चाहे देश में हो, चाहे विदेश में हो लेकिन हर ब्राह्मण आत्मा फलक से कहेगी कि हमारा पालनहार परम आत्मा है। इतना नशा है! कि कब मर्ज हो जाता है, कब इमर्ज होता है? जन्मते ही बेहद के खज़ानों से भरपूर हो अविनाशी वर्से का अधिकार ले लिया। साथ-साथ जन्मते ही त्रिकालदर्शी सत शिक्षक ने तीनों कालों की पढ़ाई कितनी सहज विधि से पढ़ाई! कितनी श्रेष्ठ पढ़ाई है और पढ़ाने वाला भी कितना श्रेष्ठ है! लेकिन पढ़ाया किन्हों को है? जिन्हों में दुनिया की नाउम्मीद है उन्हों को उम्मीदवार बनाया। न सिर्फ पढ़ाया लेकिन पढ़ाई पढ़ने का लक्ष्य ही है ऊंच ते ऊंच पद प्राप्त करना। परमात्म-पढ़ाई से जो श्रेष्ठ पद प्राप्त कर रहे हो, ऐसा पद सारे वर्ल्ड के ऊंचे ते ऊंचे पद के आगे कितना श्रेष्ठ है! अनादि सृष्टि-चक्र के अन्दर द्वापर से लेकर अभी तक जो भी विनाशी पद प्राप्त हुए हैं, उन्हों में सर्वश्रेष्ठ पद पहले राज्य-पद गाया हुआ है। लेकिन आपके राज्य-पद के आगे वह राज्य-पद क्या है? श्रेष्ठ है? आजकल का श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ पद प्रेजीडेन्ट, प्राइम-मिनिस्टर है। बड़े ते बड़ी पढ़ाई द्वारा फ़िलोसोफर बनेंगे, चेयरमेन, डायरेक्टर आदि बन जायेंगे, बड़े ते बड़े ऑफिसर बन जायेंगे। लेकिन यह सब पद आपके आगे क्या हैं! आपको एक जन्म में जन्म-जन्म के लिए श्रेष्ठ पद प्राप्त होने की परमात्म-गारन्टी है और उस एक जन्म की पढ़ाई द्वारा एक जन्म भी पद प्राप्त कराने की कोई गारन्टी नहीं। आप कितने भाग्यवान हो जो पद भी सर्वश्रेष्ठ और एक जन्म की पढ़ाई और अनेक जन्म पद की प्राप्ति! तो भाग्य है ना! चेहरे से दिखाई देता है? चलन से दिखाई देता है? क्योंकि चाल से मनुष्य के हाल का पता लगता है। ऐसी चाल है जो आपके इतने श्रेष्ठ भाग्य का हाल दिखाई देवे? या अभी साधारण लगते हो? क्या है? साधारणता में महानता दिखाई दे। जब आपके जड़ चित्र अभी तक महानता का अनुभव कराते हैं। अब भी कैसी भी आत्मा को लक्ष्मी-नारायण वा सीता-राम वा देवियाँ बना देते हैं तो साधारण व्यक्ति में भी महानता का अनुभव कर सिर झुकाते हैं ना। जानते भी हैं कि यह वास्तव में नारायण वा राम आदि नहीं हैं, बनावटी हैं, फिर भी उस समय महानता को सिर झुकाते हैं, नमन-पूजन करते हैं। लेकिन आप तो स्वयं चैतन्य देव-देवियों की आत्माए हो। आप चैतन्य आत्माओं से कितनी महानता की अनुभूति होनी चाहिए! होती है? आपके श्रेष्ठ भाग्य को मन से नमस्कार करें, हाथ वा सिर से नहीं। लेकिन मन से आपके भाग्य का अनुभव कर स्वयं भी खुशी में नाचें।
इतनी श्रेष्ठ पढ़ाई की प्राप्ति श्रेष्ठ भाग्य है। लोग पढ़ाई पढ़ते ही हैं इस जीवन के शरीर निर्वाह अर्थ कमाई के लिए जिसको सोर्स आफ इन्कम कहा जाता है। आपकी पढ़ाई द्वारा सोर्स आफ इन्कम कितना है? मालामाल हो ना। आपकी इन्कम का हिसाब क्या है? उनका हिसाब होगा लाखों में, करोड़ों में। लेकिन आपका हिसाब क्या है? आपकी कितनी इन्कम है? कदम में पद्म। तो सारे दिन में कितने कदम उठाते हो और कितने पद्म जमा करते हो? इतनी कमाई और किसकी है? कितना बड़ा भाग्य है आपका! तो ऐसे अपनी पढ़ाई के भाग्य को इमर्ज रूप में अनुभव करो। किसी से पूछते हैं तो कहते हैं-ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी तो हैं, बन तो गये हैं। लेकिन ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी अर्थात् श्रेष्ठ भाग्य की लकीर मस्तक में चमकती दिखाई दे। ऐसे नहीं कि ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो हैं लेकिन मिल जायेगा, कुछ तो बन ही जायेंगे, चल तो रहे ही हैं, बन तो गये ही हैं...। बन गये हैं या भाग्य को देखकर के उड़ रहे हैं? इसमें बन तो गये हैं, बन ही रहे हैं, चल ही रहे हैं.... ये बोल किसके हैं? श्रेष्ठ भाग्यवान के ये बोल हैं? ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी अर्थात् मौज से मोहब्बत की जीवन बिताने वाले। ऐसे नहीं कि कभी मजबूरी, कभी मोहब्बत। जब कोई समस्या आती है तो क्या कहते हो? चाहते नहीं हैं लेकिन मजबूर हो गये हैं। भाग्यवान अर्थात् मजबूरी खत्म, मोहब्बत से चलने वाले। चाहते तो हैं लेकिन..... - ऐसी भाषा भाग्यवान ब्राह्मण आत्माओं की नहीं है। भाग्यवान आत्माए मोहब्बत के झूले में मौज में उड़ती हैं। उड़ती कला की मौज में रहती हैं। मजबूरी उनके आगे आ नहीं सकती। समझा? अपना श्रेष्ठ भाग्य मर्ज नहीं रखो, इमर्ज करो।
तीसरी बात-सतगुरू द्वारा क्या भाग्य प्राप्त हुआ? पहले तो महामन्त्र मिला। सतगुरू का महामन्त्र क्या मिला? पवित्र बनो, योगी बनो। जन्मते ही यह महामन्त्र सतगुरू द्वारा प्राप्त हुआ और यही महामन्त्र सर्व प्राप्तियों की चाबी सर्व बच्चों को मिली। ‘‘योगी जीवन, पवित्र जीवन’’ ही सर्व प्राप्तियों का आधार है। इसलिए यह चाबी है। अगर पवित्रता नहीं, योगी जीवन नहीं तो अधिकारी होते हुए भी अधिकार की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह महामन्त्र सर्व खज़ानों के अनुभूति की चाबी है। ऐसी चाबी का महामन्त्र सतगुरू द्वारा सभी को श्रेष्ठ भाग्य में मिला है और साथ-साथ सतगुरू द्वारा वरदान प्राप्त हुए हैं। वरदानों की लिस्ट तो बहुत लम्बी है ना! कितने वरदान मिले हैं? इतने वरदानों का भाग्य प्राप्त है जो वरदानों से ही सारी ब्राह्मण जीवन बिता रहे हो और बिता सकते हो। कितने वरदान हैं, लिस्ट का मालूम है? तो वर्सा भी है, पढ़ाई भी है, महामन्त्र की चाबी और वरदानों की खान भी है। तो कितने भाग्यवान हो! या छिपा कर रखा है, आगे चल अन्त में खोलेंगे? बहुतकाल से भाग्य की अनुभूति करने वाले अन्त में भी पद्मापद्म भाग्यवान प्रत्यक्ष होंगे। अब नहीं तो अन्त में भी नहीं। अभी है तो अन्त में भी है। ऐसे कभी नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अन्त में बनना है। सम्पूर्णता की जीवन का अनुभव अभी से आरम्भ होगा तब अन्त में प्रत्यक्ष रूप में आयेंगे। अभी स्वयं को अनुभव हो, औरों को अनुभव हो, जो समीप सम्पर्क में आये हैं उन्हों को अनुभव हो और अन्त में विश्व में प्रत्यक्ष होगा। समझा?
बापदादा आज सर्व बच्चों के भाग्य की श्रेष्ठ लकीर को देख रहे थे। जितना बाप ने भाग्य देखा उतना ही बच्चे सदा अनुभव कम करते हैं। भाग्य की खान सभी को प्राप्त है। लेकिन कोई को कार्य में लगाना आता है और कोई को कार्य में लगाना नहीं आता है। जितना लगा सकते उतना नहीं लगाते हैं। मिला सबको एक जैसा है लेकिन खज़ाने को कार्य में लगाकर बाप का खज़ाना सो अपना खज़ाना अनुभव करना-इसमें नम्बरवार हैं। बाप ने नम्बरवार नहीं दिया, दिया सबको नम्बरवन है लेकिन कार्य में लगाना-इसमें अपने आप नम्बर बना दिये हैं। समझा, नम्बर क्यों बने हैं? जितना यूज़ करेंगे, कार्य में लगायेंगे, उतना बढ़ता जायेगा। मर्ज करके रख देंगे तो बढ़ेगा नहीं और स्वयं भी अनुभव नहीं करेंगे तो दूसरों को भी अनुभव नहीं करा सकेंगे। इसलिए चलन और चेहरे में लाओ। समझा, क्या करना है? जो भी नम्बर आवे अच्छा है। चलो, 108 नहीं तो 16000 में ही मिल जाये, कुछ तो बनेंगे। लेकिन 16 हजार की माला सदा नहीं जपी जाती, कहाँ-कहाँ और कभी-कभी जपते हैं। 108 की माला तो सदा जपते रहते हैं। अब मैं कौन? - यह स्वयं जानो। अगर बाप कहेंगे वा और कोई कहेंगे कि आप तो 16000 में आयेंगे तो क्या कहेंगे? मानेंगे? क्वेश्चन-मार्क शुरू हो जायेंगे। इसलिए अपने आपको जानो-मैं कौन? अच्छा!
चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को, सर्व जन्म से प्राप्त परमात्म-जन्म अधिकारी आत्माओं को, सर्व बाप द्वारा श्रेष्ठ वर्सा और परमात्म-पालना लेने वाले, सत् शिक्षक द्वारा श्रेष्ठ पढ़ाई का श्रेष्ठ पद और श्रेष्ठ कमाई करने वाले, सतगुरू द्वारा महामन्त्र और सर्व वरदान प्राप्त करने वाले-ऐसे अति श्रेष्ठ पद्मापद्म, हर कदम में पद्म जमा करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
यथार्थ सेवा वा यथार्थ याद की निशानी है-निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना
सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत स्वत: ही मन में बजते रहते हैं? यह अनादि अविनाशी गीत है। इसको बजाना नहीं पड़ता लेकिन स्वत: ही बजता है। सदा यह गीत बजना अर्थात् सदा ही अपने खुशी के खज़ाने को अनुभव करना। सदा खुश रहते हो? ब्राह्मणों का काम ही है खुश रहना और खुशी बाँटना। इसी सेवा में सदा बिज़ी रहते हो? वा कभी भूल भी जाते हो? जब माया आती है फिर क्या करते हो? जितना समय माया रहती है उतना समय खुशी का गीत बन्द हो जाता है। बाप का सदा साथ है तो माया आ नहीं सकती। माया आने के पहले बाप का साथ अलग करके अकेला बनाती है, फिर वार करती है। अगर बाप साथ है तो माया नमस्कार करेगी, वार नहीं करेगी। तो माया को जब अच्छी तरह से जान गये हो कि यह दुश्मन है, तो फिर आने क्यों देते हो? साथ छोड़ देते हो ना, इसलिए माया को आने का दरवाजा मिल जाता है। दरवाजे को डबल लॉक लगाओ, एक लॉक नहीं। आजकल एक लॉक नहीं चलता। तो डबल लॉक है-याद और सेवा। सेवा भी निस्वार्थ सेवा-यही लॉक है। अगर निस्वार्थ सेवा नहीं तो वह लॉक ढीला लॉक हो जाता है, खुल जाता है। याद भी शक्तिशाली चाहिए। साधारण याद है तो भी लॉक नहीं कहेंगे। तो सदा चेक करो-याद तो है लेकिन साधारण याद है या शक्तिशाली याद है? ऐसे ही, सेवा करते हो लेकिन निस्वार्थ सेवा है या कुछ न कुछ स्वार्थ भरा है? सेवा करते हुए भी, याद में रहते हुए भी यदि माया आती है तो जरूर सेवा अथवा याद में कोई कमी है।
सदा खुशी के गीत गाने वाली श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माए हैं-इस स्मृति से आगे बढ़ो। यथार्थ योग वा यथार्थ सेवा-यह निशानी है निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना। निर्विघ्न हो या कभी-कभी विघ्न आता है? फिर कभी पास हो जाते हो, कभी थोड़ा फेल हो जाते हो। कोई भी बात आती है, उसमें अगर किसी भी प्रकार की जरा भी फीलिंग आती है-यह क्यों, यह क्या..... तो फीलिंग आना माना विघ्न। सदैव यह सोचो कि व्यर्थ फीलिंग से परे, फीलिंग-प्रूफ आत्मा बन जायें। तो मायाजीत बन जायेंगे। फिर भी, देखो-बाप के बन गये, बाप का बनना-यह कितनी खुशी की बात है! कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा कि भगवान के इतने समीप सम्बन्ध में आयेंगे! लेकिन साकार में बन गये! तो क्या याद रखेंगे? सदा खुशी के गीत गाने वाले। यह खुशी के गीत कभी भी समाप्त नहीं हो सकते हैं।
टीचर्स का अर्थ ही है अपने फीचर्स से सबको फरिश्ते के फीचर्स अनुभव कराने वाली। ऐसी टीचर्स हो? साधारण रूप नहीं दिखाई दे, सदा फरिश्ता रूप दिखाई दे। क्योंकि टीचर्स निमित्त हो ना। तो जो निमित्त बनते हैं वो जो स्वयं अनुभव करते हैं वह औरों को कराते हैं। यह भी भाग्य है जो निमित्त बने हो। अभी इसी भाग्य को स्वयं अनुभव में बढ़ाओ और दूसरों को अनुभव कराओ। सबसे विशेष बात अनुभवी मूर्त बनो।
ग्रुप नं. 2
‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में लाना अर्थात् सर्व प्राप्तियों के भण्डारे भरपूर होना
सबसे सहज सदा शक्तिशाली रहने की विधि क्या है जिस विधि से सहज और सदा निर्विघ्न भी रह सकते हैं और उड़ती कला का भी अनुभव कर सकते हैं? सबसे सहज विधि है-और कुछ भी भूल जाये लेकिन एक बात कभी नहीं भूले-’’मेरा बाबा।’’ ‘‘मेरा बाबा’’ दिल से मानना-यही सबसे सहज विधि है आगे बढ़ने की। मेरा-मेरा मानने का संस्कार तो बहुत समय का है ही। उसी संस्कार को सिर्फ परिवर्तन करना है। ‘अनेक’ मेरे को ‘एक’ मेरा बाबा उसमें समाना है। एक को याद करना सहज है ना और एक मेरे में सब-कुछ आ जाता है। तो सबसे सहज विधि है-’’मेरा बाबा’’। ‘मेरा’ शब्द ऐसा है जो न चाहते भी याद आती है। ‘मेरे’ को याद नहीं करना पड़ता लेकिन स्वत: याद आती है। भूलने की कोशिश करते भी ‘मेरा’ नहीं भूलता। योग अगर कमजोर होता है तो भी कारण ‘मेरा’ है और योग शक्तिशाली होता है तो उसका भी कारण ‘मेरा’ ही है। ‘‘मेरा बाबा’’-तो योग शक्तिशाली हो जाता है और मेरा सम्बन्ध, मेरा पदार्थ-यह ‘‘अनेक मेरा’’ याद आना अर्थात् योग कमजोर होना। तो क्यों नहीं सहज विधि से पुरूषार्थ में वृद्धि करो।
विधि से ही सिद्धि प्राप्त होती है। रिद्धि-सिद्धि अल्पकाल की होती है लेकिन विधि से सिद्धि जो प्राप्त होती है वह अविनाशी होती है। तो यहाँ रिद्धि-सिद्धि की बात नहीं है लेकिन विधि से सिद्धि प्राप्त करनी है। विधि को अपनाना आता है या मुश्किल लगता है? कम-जोर बनना अर्थात् मुश्किल अनुभव होना। बिना कमजोरी के मुश्किल नहीं होता है। तो कमजोर हो क्या? या माया कभी-कभी कमजोर बना देती है? अगर ‘‘मेरा बाबा’’ याद आता है, तो बाप सर्वशक्तिवान है ना, तो जैसा बाप वैसे बच्चे। ‘‘मेरा बाबा’’ याद आने से अपना मास्टर सर्वशक्तिवान का स्वरूप याद आता है। ‘‘मेरा बाबा’’ कहने से ही बाप कौन है, वह स्मृति में आता है। तो मास्टर सर्वशक्तिवान बनने से न कमजोर बनेंगे, न मुश्किल अनुभव करेंगे। सदा सहज। जितना आगे बढ़ते जायेंगे उतना सहज से सहज अनुभव करते जायेंगे। एक ही बात को सदा स्मृति में रखना-’’मेरा बाबा’’। ‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में आना और सर्व प्राप्तियों के भण्डार अनुभव होना। तो भण्डारे भरपूर हैं ना। सब खज़ाने भरपूर हैं? या कोई हैं, कोई नहीं हैं? ऐसे नहीं-सुख का अनुभव तो होता है लेकिन शान्ति का नहीं होता है, शक्ति का नहीं होता। सर्व खज़ानों के मालिक के बालक हैं। बाप के खज़ाने सो मेरे खज़ाने हैं। तो जितना भरपूर रहेंगे, उतना जो भरपूर चीज होती है वह कभी हलचल में नहीं आती। थोड़ा भी खाली होता है तो हलचल होती है। तो सदा भरपूर अर्थात् सदा अचल। हलचल नहीं। कभी बुद्धि चंचल हो नहीं सकती है। किसी भी विकार के वश होना अर्थात् बुद्धि चंचल होना। अचल हैं और सदा अचल रहेंगे। अच्छा!
ग्रुप नं. 3
याद से सब कार्य स्वत: सफल होते हैं, कहने वा मांगने की आवश्यकता नहीं
सदा और सहज याद कौन आता है? (बाबा) बाबा भी क्यों याद आता है? (प्यारा है) तो जो प्यारा होता है उसे याद किया नहीं जाता, उसकी याद स्वत: आती है। उससे दिल का प्यार है, सच्चा प्यार है, निस्वार्थ प्यार है। तो सबसे प्यारा कौन? बाप। तो बाप को भुलाना मुश्किल है या याद करना मुश्किल है? जब कोई ऐसी परिस्थिति आती है फिर स्थिति कैसी होती है? फिर याद करना पड़ता है या याद स्वत: आती है, क्या होता है? परिस्थिति का अर्थ ही है - पर-स्थिति। स्व नहीं है, पर है। दूसरे द्वारा आने वाली स्थिति - उसको कहते हैं पर-स्थिति। तो पर-स्थिति शक्तिशाली होती है या स्व-स्थिति शक्तिशाली होती है? लेकिन उस समय क्या होता है? उस समय पर-स्थिति पावरफुल हो जाती है और याद करना पड़ता है। मेरा बाबा, प्यारा बाबा-तो प्यारे को कभी भूल नहीं सकते। और निस्वार्थ प्यार सिवाए बाप के किसी आत्मा से मिल नहीं सकता। आत्मा को कोई न कोई अपने प्रति स्वार्थ रहता है। लेकिन परम आत्मा निस्वार्थ है, क्यों? क्योंकि परम आत्मा दाता है, आत्मा लेकर देने वाली है। आत्मा स्वयं दाता नहीं है लेकिन लेकर दे सकती है और परम आत्मा स्वयं दाता है।
आप कौन हो? मास्टर दाता हो ना। वास्तव में देना अर्थात् बढ़ना। जितना देते हो उतना बढ़ता है। विनाशी खज़ाना देने से कम होता है और अविनाशी खज़ाना देने से बढ़ता है-एक दो, हजार पाओ। तो देना आता है कि सिर्फ लेना आता है? दे कौन सकता है? जो स्वयं भरपूर है। अगर स्वयं में ही कमी है तो दे नहीं सकता। तो मास्टर दाता अर्थात् सदा भरपूर रहने वाले, सम्पन्न रहने वाले। तो सहज याद क्या हुई? ‘‘प्यारा बाबा’’। मतलब से याद नहीं करो। मतलब से याद करने में मुश्किल होता है, प्यार से याद करना सहज होता है। मतलब से याद करना याद नहीं, फरियाद होती है। तो फरियाद करते हो? ऐसा कर देना, ऐसा करो ना, ऐसा होना चाहिए ना....-ऐसे कहते हो? याद से सर्व कार्य स्वत: ही सफल हो जाते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं। सफलता जन्मसिद्ध अधिकार है। अधिकार मांगने से नहीं मिलता, स्वत: मिलता है। तो अधिकारी हो या मांगने वाले हो? अधिकारी सदा नशे में रहते हैं-मेरा अधिकार है। मांगना तो बन्द हो गया ना। बाप से भी मांगना नहीं है। यह दे दो, थोड़ी खुशी दे दो, थोड़ी शान्ति दे दो....-ऐसे मांगते हो? बाप का खज़ाना मेरा खज़ाना है। जब मेरा खज़ाना है तो मांगने की क्या दरकार है। तो अधिकारी जीवन का अनुभव करने वाले हो ना। अनेक जन्म भिखारी बने, अभी अधिकारी बने हो। सदा इसी अधिकार के नशे में रहो। परमात्म-प्यार के अनुभवी आत्माए हो। तो सदा इसी अनुभव से सहजयोगी बन उड़ते चलो। अधिकारी आत्मायें स्वप्न में भी मांग नहीं सकतीं। बालक सो मालिक हो। अच्छा!
ग्रुप नं. 4
एकरस स्थिति बनाने के लिये एक की याद में रहो, ट्रस्टी बनो
सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने की सहज विधि क्या है? एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। एक बाबा, दूसरा न कोई। क्योंकि एक में सब समाये हुए हैं। जैसे बीज में सब समाया हुआ होता है ना। वृक्ष की एक-एक चीज को याद करना मुश्किल है लेकिन एक बीज को याद करो तो सब सहज है। तो बाप भी बीज है। जिसमें सर्व सम्बन्धों का, सर्व प्राप्तियों का सार समाया हुआ है। एक बाप को याद करना अर्थात् सार-स्वरूप बनना। तो एक बाप, दूसरा न कोई। यह एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। ऐसे अनुभव करते हो? या प्रवृत्ति में रहते हो तो दूसरा-तीसरा तो होता है? मेरा बच्चा, मेरा परिवार-यह नहीं रहता है? फिर एक बाप तो नहीं हुआ ना। ‘मेरा’ परिवार है या ‘तेरा’ परिवार है? ट्रस्टी बनकर सम्भालते हो या गृहस्थी बनकर सम्भालते हो? ट्रस्टी अर्थात् तेरा और गृहस्थी अर्थात् मेरा। तो आप कौन हो? मेरा-मेरा मानते क्या मिला? मेरा ये, मेरा ये.... मेरे-मेरे के विस्तार से मिला क्या? कुछ मिला या गंवाया? जितना मेरा-मेरा कहा, उतना ही मेरा कोई नहीं रहा। तो ट्रस्टी जीवन कितनी प्यारी है! सम्भा-लते हुए भी कोई बोझ नहीं, सदा हल्के। देखो, गृहस्थी बन चलने से बोझ उठाते-उठाते क्या हाल हुआ-तन भी गंवाया, मन भी अशान्त किया और सच्चा धन भी गंवा दिया। तन को रोगी बना दिया, मन को अशान्त बना लिया और धन में कोई शक्ति नहीं रही। आज का एक हजार पहले के एक रूपये के बराबर है। तो धन की ताकत चली गई ना। अभी जब बोझ उठाने का भी अनुभव कर लिया और हल्के रहने का भी अनुभव कर लिया, तो अनुभवी कभी धोखा नहीं खाता। कभी भी, किसी भी बात में अगर माया से धोखा खाते तो धोखा खाने की निशानी क्या है? दु:ख की लहर। जरा भी दु:ख की लहर संकल्प में भी आती है तो जरूर कहाँ धोखा खाया है। तो चेक करो कि किस बात में धोखा मिला, क्यों दु:ख की लहर आई? सुखदाता के बच्चे हो। तो सुखदाता के बच्चे को दु:ख की लहर आ सकती है? स्वप्न भी बदल गये। सुख के स्वप्न आयें, खुशी के स्वप्न आयें, सेवा के स्वप्न आयें, मिलन मनाने के स्वप्न आयें। संस्कार भी बदल गये तो स्वप्न भी बदल गये। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
एवररेडी वह है जो नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप है
सदा अपने को सर्व प्राप्ति-स्वरूप श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि प्राप्ति-स्वरूप ही औरों को सर्व प्राप्ति करा सकता है। देने में लेना स्वत: ही समाया है। अभी अपने बहन-भाइयों को भिखारी देख रहम तो आता है ना। जब परमात्म-प्राप्तियों के अधिकारी बन गये तो पा लिया-सदा दिल में यही गीत गाते हो? पाना था सो पा लिया। सम्पन्न बन गये। ऐसे सम्पन्न बन गये या विनाश तक बनेंगे? अगर समय सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनाये तो रचना पावरफुल हुई या रचता? तो समय पर नहीं बनना है, समय को समीप लाना है। समय का इन्तज़ार करने वाले नहीं हो। जब पा लिया तो पाने की खुशी में रहने वाले सदा ही एवररेडी रहते हैं। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? या थोड़ा टाइम चाहिए? एवररेडी, नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप - इसमें पास हो? एवररेडी का अर्थ ही है-नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप। या उस समय याद आयेगा कि पता नहीं बच्चे क्या कर रहे होंगे, कहाँ होंगे, छोटे-छोटे पोत्रों का क्या होगा? यहीं विनाश हो जाये तो याद आयेंगे? पति का भी कल्याण हो जाये, पोत्रे का भी कल्याण हो जाये, उन्हों को भी यहाँ ले आयें-याद आयेगा? बिजनेस का क्या होगा, पैसे कहाँ जायेंगे? रास्ते टूट जायें फिर क्या करेंगे? देखना, अचानक पेपर होगा।
सदा न्यारा और प्यारा रहना-यही बाप समान बनना है। जहाँ हैं, जैसे हैं लेकिन न्यारे हैं। यह न्यारापन बाप के प्यार का अनुभव कराता है। जरा भी अपने में या और किसी में भी लगाव न्यारा बनने नहीं देगा। न्यारे और प्यारेपन का अभ्यास नम्बर आगे बढ़ा-येगा। इसका सहज पुरूषार्थ है निमित्त भाव। निमित्त समझने से निमित्त बनाने वाला याद आता है। मेरा परिवार है, मेरा काम है। नहीं, मैं निमित्त हूँ। निमित्त समझने से पेपर में पास हो जायेंगे। अच्छा!
ग्रुप नं 6
डबल लाइट बनने के लिये बाप की बातें सुनो, बाप के श्रेष्ठ कर्म को फॉलो करो
सभी साकार में वा स्थिति में समीप रहने वाली आत्मायें हो ना। आबू में रहने वाले अर्थात् आबू के बाबा जैसी स्थिति में रहने वाले। जैसे आबू की धरनी से प्यार है, तभी तो समीप रहना चाहते हो ना। ऐसे बाप से भी प्यार है ना। प्यार की निशानी है समान बनना। तो सभी प्यार का रिटर्न देने वाले, प्यार की निशानी दिखाने वाले हो। डॉक्टर्स को बहुत अच्छा चांस मिला है। सभी हल्के हो? रहने में, आने में, खाने में-सबमें हल्के हो? या थोड़ा-थोड़ा भारी हो? जो दिल से साथ रहते हैं, तो साथ की खुशी सब-कुछ भुला देती है। खुशी में भोजन भी न ठण्डा लगता, न गर्म लगता, बहुत प्यारा लगता है। जब बहुत खुशी का मौका होता है तो ठण्डा खाया या गर्म खाया-याद रहता है? खुशी से ही पेट भर जाता है! तो साथ रहने वाले अर्थात् खुशी से भरपूर रहने वाले। ऐसे हैं ना! यह भी ड्रामा की बहुत श्रेष्ठ भावी बनी हुई थी जो आप सबको गोल्डन चांस मिला। यह डबल विदेशी हैं और आप डबल सर्विसेबल हो। डबल सेवा करते हो या सिर्फ दवाई देते हो? एक ही समय पर डबल सेवा करने के निमित्त हो। डबल सेवाधारी, डबल स्नेह और सहयोग के पात्र बनते हैं। अच्छा है। समीप रहने का-यह भी चांस अच्छा मिलता है। समीप रहने वालों से यह पूछने की आवश्य-कता है क्या कि खुश हो, ठीक हो? मधुबन निवासी बनना अर्थात् सदा खुशी में उड़ना। तो हॉस्पिटल का काम कैसे चल रहा है? पंख लग गये हैं ना। उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ रहे हैं।
डबल विदेशी आत्माओं की सदा उड़ती कला है ना? या कभी चढ़ती कला, कभी चलती कला और कभी उड़ती कला-क्या कहेंगे? सदा उड़ती कला। क्योंकि समय उड़ती कला से चल रहा है। अगर आप उड़ती कला से आगे नहीं बढ़ेंगे तो क्या रिजल्ट होगी? तो समय के पहले तैयार होने वाले हो ना। समय का इंतजार नहीं करना है लेकिन समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रहा है। डबल विदेशी नाम है और चाल है डबल लाइट। बोझ उठाने का अनुभव 63 जन्म किया। अभी डबल लाइट रहने के अनुभव का यह एक ब्राह्मण जन्म है। तो अभी सदा डबल लाइट रहो। डॉक्टर्स भी डबल लाइट हैं ना। या कुछ बोझ है? देखने का, सुनने का कुछ बोझ है? या कभी-कभी थोड़ा बोझ हो जाता है? इसलिये बापदादा कहते हैं-जिस बात में कोई रस नहीं हो, कोई सम्बन्ध नहीं हो, तो वह सुनते हुए नहीं सुनो, देखते हुए नहीं देखो। देखते हुए, सुनते हुए सोचो नहीं। सोचो तो क्या सोचो? बाप की बातें। सुनो तो बाप की बातें, देखो तो बाप के श्रेष्ठ कर्म और फॉलो करने वालों के श्रेष्ठ कर्म। यही विधि है सदा डबल लाइट रहने की। डॉक्टर्स का काम ही है-शरीर में आने वाली व्यर्थ चीजों को खत्म करना। डॉक्टर्स की विशेषता है-व्यर्थ को समाप्त करना और समर्थ बनाना। रूहानियत में भी यही काम है और स्थूल में भी यही काम है। बाकी, सेवा अच्छी कर रहे हो और रिजल्ट अच्छी है और अच्छे ते अच्छी होनी ही है। प्यार से सेवा कर रहे हो। प्यार की दवाई पहले देते हो, पीछे और दवाई देते हो ना। तो आधा काम तो प्यार ही कर लेता है। अच्छा!
आबू निवासी भी लक्की हैं। समय पर आना नहीं पड़ेगा, हैं ही यहाँ। सभी डॉक्टर्स को अपनी सेवा पसन्द है? या थोड़ा और कहाँ चक्कर लगाने चाहते हो? बड़े शहरों में बड़ी सेवा हो जायेगी-यह नहीं समझते हो? खुश हो? सब अच्छे हैं। अच्छा!
13-10-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ
स्वयं प्रकाश स्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले चैतन्य दीपकों प्रति सत् शिक्षक बापदादा बोले:
आज सत् शिक्षक अपनी श्रेष्ठ शिक्षा धारण करने वाले गॉडली स्टूडेन्ट को देख रहे हैं कि हर एक ईश्वरीय विद्यार्थी ने इस ईश्वरीय शिक्षा को कहाँ तक धारण किया है? पढ़ाने वाला एक है, पढ़ाई भी एक है लेकिन पढ़ने वाले पढ़ाई में नम्बरवार हैं। हर रोज का पाठ मुरली द्वारा हर स्थान पर एक ही सुनते हैं अर्थात् एक ही पाठ पढ़ते हैं। मुरली अर्थात् पाठ हर स्थान पर एक ही होता है। डेट का फर्क हो सकता है लेकिन मुरली वही होती है। फिर भी नम्बरवार क्यों? नम्बर किसलिए होते हैं? क्योंकि इस ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ने की विधि सिर्फ सुनना नहीं है लेकिन हर महावाक्य स्वरूप में लाना है। तो सुनना सबका एक जैसा है लेकिन स्वरूप बनने में नम्बरवार हो जाते हैं। लक्ष्य सभी का एक ही रहता है कि मैं नम्बरवन बनूँ। ऐसा लक्ष्य है ना! लक्ष्य नम्बरवन का है लेकिन रिजल्ट में नम्बरवार हो जाते हैं। क्योंकि लक्ष्य को लक्षण में लाना-इसमें लक्ष्य और लक्षण में फर्क पड़ जाता है। इस पढ़ाई में सब्जेक्ट भी ज्यादा नहीं हैं। चार सब्जेक्ट को धारण करना-इसमें मुश्किल क्या है! और चारों ही सब्जेक्ट का एक-दो के साथ सम्बन्ध है। अगर एक सब्जेक्ट ‘ज्ञान’ सम्पूर्ण विधिपूर्वक धारण कर लो अर्थात् ज्ञान के एक-एक शब्द को स्वरूप में लाओ, तो ज्ञान है ही मुख्य दो शब्दों का जिसको रचयिता और रचना वा अल्फ और बे कहते हो। रचयिता बाप की समझ आ गई अर्थात् परमात्म-परिचय, सम्बन्ध स्पष्ट हो गया और रचना अर्थात् पहली रचना ‘‘मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ’’ और दूसरा ‘‘मुझ आत्मा का इस बेहद की रचना अर्थात् बेहद के ड्रामा में सारे कल्प में क्या-क्या पार्ट है’’-यह सारा ज्ञान तो सभी को है ना। लेकिन श्रेष्ठ आत्मा स्वरूप बन हर समय श्रेष्ठ पार्ट बजाना-इसमें कभी याद रहता है, कभी भूल जाते हैं। अगर इन दो शब्दों का ज्ञान है, योग भी इन दो शब्दों के आधार पर है ना। ज्ञान से योग का स्वत: ही सम्बन्ध है। जो ‘ज्ञानी तू आत्मा’ है वह ‘योगी तू आत्मा’ अवश्य ही है। तो ज्ञान और योग का सम्बन्ध हुआ ना। और जो ज्ञानी और योगी होगा उसकी धारणा श्रेष्ठ होगी या कमजोर होगी? श्रेष्ठ, स्वत: होगी ना, सहज होगी ना। कि धारणा में मुश्किल होगी? जो ‘ज्ञानी तू आत्मा’, ‘योगी तू आत्मा’ है वह धारणा में कमजोर हो सकता है? नहीं। होते तो हैं। तो ज्ञान-योग नहीं है? ज्ञानी है लेकिन ‘ज्ञानी तू आत्मा’ वह स्थिति नहीं है। योग लगाने वाले हैं लेकिन योगी जीवन वाले नहीं हैं। जीवन सदा होती है और जीवन नेचुरल होती है। योगी जीवन अर्थात् ओरीजिनल नेचर योगी की है।
63 जन्मों के विस्मृति के संस्कार वा कमजोरी के संस्कार ब्राह्मण जीवन में कहाँ-कहाँ मूल नेचर बन पुरूषार्थ में विघ्न डालते हैं। कितना भी स्वयं वा दूसरा अटेन्शन खिंचवाता है कि यह परिवर्तन करो वा स्वयं भी समझते हैं कि यह परिवर्तन होना चाहिए लेकिन जानते हुए भी, चाहते हुए भी क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन मेरी नेचर है यह, मेरा स्वभाव है यह। तो नेचर नेचुरल हो गई है ना। किसके बोल में वा व्यवहार में ज्ञान-सम्पन्न व्यवहार वा योगी जीवन प्रमाण व्यवहार वा बोल नहीं होते हैं तो वो क्या कहते हैं? यही बोल बोलेंगे कि मेरा नेचुरल बोल ही ऐसा है, बोलने का टोन ही ऐसा है। वा कहेंगे-मेरी चाल-चलन ही ऑफिशियल वा गम्भीर है। नाम अच्छे बोलते हैं-जोश नहीं है लेकिन ऑफिशियल है। तो चाहते भी, समझते भी नेचर नेचुरल वर्क (कार्य) करती रहती है, उसमें मेहनत नहीं करनी पड़ती है। ऐसे जो ज्ञानी जीवन वा योगी जीवन में रहते हैं, तो ज्ञान और योग सम्पन्न हर कर्म नेचुरल होते हैं अर्थात् ज्ञान और योग-यही उनकी नेचर बन जाती है और नेचर बनने के कारण श्रेष्ठ कर्म, युक्तियुक्त कर्म नेचुरल होते रहते हैं। तो समझा, नेचर नेचुरल बना देती है। तो ज्ञान और योग मूल नेचर बन जायें-इसको कहा जाता है ज्ञानी जीवन, योगी जीवन वाला।
ज्ञानी सभी हो, योगी सभी हो लेकिन अन्तर क्या है? एक हैं-ज्ञान सुनने-सुनाने वाले, यथा शक्ति जीवन में लाने वाले। दूसरे हैं-ज्ञान और योग को हर समय अपने जीवन की नेचर बनाने वाले। विद्यार्थी सभी हो लेकिन यह अन्तर होने के कारण नम्बरवार बन जाते हैं। जिसकी नेचर ही ज्ञानी-योगी की होगी उसकी धारणा भी नेचुरल होगी। नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही धारणास्वरूप होंगे। बार-बार पुरूषार्थ नहीं करना पड़ेगा कि इस गुण को धारण करूँ, उस गुण को धारण करूँ। लेकिन पहले फाउन्डेशन के समय ही ज्ञान, योग और धारणा को अपनी जीवन बना दी। इसलिए यह तीनों सब्जेक्ट ऐसी आत्मा की स्वत: और स्वाभाविक अनुभूतियां बन जाती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को सहज योगी, सहज ज्ञानी, सहज धारणामूर्त कहा जाता है। तीनों सब्जेक्ट का कनेक्शन है। जिसके पास इतनी अनुभूतियों का खज़ाना सम्पन्न होगा, ऐसी सम्पन्न मूर्तियां स्वत: ही मास्टर दाता बन जाती हैं। दाता अर्थात् सेवाधारी। दाता देने के बिना रह नहीं सकता। दातापन के संस्कार से स्वत: ही सेवा का सब्जेक्ट प्रैक्टिकल में सहज हो जाता है। तो चारों का ही सम्बन्ध हुआ ना। कोई कहे कि मेरे में ज्ञान तो अच्छा है लेकिन धारणा में कमी है-तो उसको ज्ञानी कहा जायेगा? ज्ञान तो दूसरों को भी देते हो ना। है तब तो देते हो! एक है-समझना, दूसरा है-स्वरूप में लाना। समझने में सभी होशियार हैं, समझाने में भी सभी होशियार हैं लेकिन नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ। फिर नम्बरवार नहीं होंगे लेकिन नम्बरवन होंगे।
तो सुनाया कि आज सत् शिक्षक अपने चारों ओर के ईश्वरीय विद्यार्थियों को देख रहे थे। तो क्या देखा? सभी नम्बरवन दिखाई दिये वा नम्बरवार दिखाई दिये? क्या रिजल्ट होगी? वा समझते हो-नम्बरवन तो एक ही होगा, हम तो नम्बरवार में ही आयेंगे? फर्स्ट डिवीज़न में तो आ सकते हो ना। उसमें एक नहीं होता है। तो चेक करो-अगर बार-बार किसी भी बात में स्थिति नीचे-ऊपर होती है अर्थात् बार-बार पुरूषार्थ में मेहनत करनी पड़ती है, इससे सिद्ध है कि ज्ञान की मूल सब्जेक्ट के दो शब्द-’रचता’ और ‘रचना’ की पढ़ाई को स्वरूप में नहीं लाया है, जीवन में मूल संस्कार के रूप में वा मूल नेचर के रूप में वा सहज स्वभाव के रूप में नहीं लाया है। ब्राह्मण जीवन का नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही योगी जीवन, ज्ञानी जीवन है। जीवन अर्थात् निरन्तर, सदा। 8 घण्टा जीवन है, फिर 4 घण्टा नहीं-ऐसा नहीं होता। आज 10 घण्टे के योगी बने, आज 12 घण्टे के योगी बने, आज 2 घण्टे के योगी बने-वो योग लगाने वाले योगी हैं, योगी जीवन वाले योगी नहीं। विशेष संगठित रूप में इसीलिए बैठते हो कि सर्व के योग की शक्ति से वायुमण्डल द्वारा कमजोर पुरूषार्थियों को और विश्व की सर्व आत्माओं को योग शक्ति द्वारा परिवर्तन करें। इसलिए वह भी आवश्यक है लेकिन इसीलिए योग में नहीं बैठते हो कि अपना ही टूटा हुआ योग लगाते रहो। संगठित शक्ति-यह भी सेवा के निमित्त है लेकिन योग-भट्ठी इसलिए नहीं रखते हो कि मेरा कनेक्शन फिर से जुट जाये। अगर कमजोर हो तो इसलिए बैठते हो और ‘‘योगी तू आत्मा’’ हो तो मास्टर सर्वशक्तिवान बन, मास्टर विश्व-कल्याणकारी बन सर्व को सहयोग देने की सेवा करते हो। तो पढ़ाई अर्थात् स्वरूप बनना। अच्छा!
आज दीपावली मनाने आए हैं। मनाने का अर्थ क्या है? दीपावली में क्या करते हो? दीप जलाते हो। आजकल तो लाइट जलाते हैं। और लाइट पर कौन आते हैं? परवाने। और परवाने की विशेषता क्या होती है? फिदा होना। तो दीपावली मनाने का अर्थ क्या हुआ? तो फिदा हो गये हो या आज होना है? हो गये हो या होना है? (हो गये हैं) तो दीपावली तो मना ली, फिर क्यों मनाते हो? जब फिदा हो गये तो दीपावली मना लिया। कि बीच-बीच में चक्कर लगाने जाते हो? फिदा हो गये हैं लेकिन थोड़े पंख अभी हैं, उससे थोड़ा चक्कर लगा लेते हो। तो चक्कर लगाने वाले तो नहीं हो ना। चक्कर लगाना अर्थात् किसी न किसी माया के रूप से टक्कर खाना। माया से टक्कर खाते हो या माया को हार खिलाते हो? वा कभी विजय प्राप्त करते हो, कभी टक्कर खाते हो?
दीपमाला-यह अपना ही यादगार मनाते हो। आपका यादगार है ना? कि मुख्य आत्माओं का यादगार है, आप देखने वाले हो? आप सबका यादगार है, इसीलिए आजकल बहुत अंदाज़ में दीपक के बजाए छोटे-छोटे बल्ब जगा देते हैं। दीपक जलायेंगे तो संख्या फिर भी उससे कम हो जायेगी। लेकिन आपकी संख्या तो बहुत है ना। तो सभी की याद में अनेक छोटे-छोटे बल्ब जगमगा देते हैं। तो अपना यादगार मना रहे हैं। जब दीपक देखते हो तो समझते हो यह हमारा यादगार है? स्मृति आती है? यही संगमयुग की विशेषता है जो चैतन्य दीपक अपना जड़ यादगार दीपक देखते हो। चैतन्य में स्वयं हो और जड़ यादगार देख रहे हो। ऐसे तो जिस दिन दीपावली मनाओ उस दिन ही वास्तविक तिथि है। यह तो दुनिया वालों ने तिथि फिक्स की है, लेकिन आपकी तिथि अपनी है। इसलिए जिस दिन आप ब्राह्मण मनाओ वही सच्ची तिथि है। इसलिए कोई भी तिथि फिक्स करते हैं तो किससे पूछते हैं? ब्राह्मणों से ही निकालते हैं। तो आज बापदादा सभी देश-विदेश के सदा जगे हुए दीपकों को दीपमाला की मुबारक दे रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। दीपावली मुबारक अर्थात् मालामाल, सम्पन्न बनने की मुबारक।
ऐसे सदा जागती ज्योत, सदा स्वयं प्रकाशस्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले सच्चे दीपक, सदा चारों ही सब्जेक्ट को साथ-साथ जीवन में लाने वाले, सर्व सब्जेक्ट में नम्बरवन के लक्ष्य को लक्षण में लाने वाले, ऐसे ज्ञानी तू आत्माए, योगी तू आत्माए, दिव्यगुण स्वरूप आत्माए, निरन्तर सेवाधारी, श्रेष्ठ विश्व-कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
खुशनसीब वह जिसके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई दे
सभी अपने को सदा खुशनसीब आत्माए समझते हो? खुशनसीब आत्माओं की निशानी क्या होगी? उनके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई देगी। चाहे कोई भी स्थूल कार्य कर रहे हों, साधारण काम कर रहे हों लेकिन हर कर्म करते खुशी की झलक दिखाई पड़े। इसको कहते हैं निरन्तर खुशी में मन नाचता रहे। ऐसे सदा रहते हो? या कभी बहुत खुश रहते हो, कभी कम? खुशी का खज़ाना अपना खज़ाना हो गया। तो अपना खज़ाना सदा साथ रहेगा ना। या कभी-कभी रहेगा? बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाया है या भूल जाता है अपना खज़ाना? अपनी स्थूल चीज तो याद रहती है ना। वह खज़ाना आंखों से दिखाई देता है लेकिन यह खज़ाना आंखों से नहीं दिखाई देता, दिल से अनुभव करते हो। तो अनुभव वाली बात कभी भूलती है क्या? तो सदा यह स्मृति में रखो कि हम खुशी के खज़ाने के मालिक हैं। जितना खज़ाना याद रहेगा उतना नशा रहेगा। तो यह रूहानी नशा औरों को भी अनुभव करायेगा कि इनके पास कुछ है।
माताओं को सारा समय क्या याद रहता है? सिर्फ बाप याद रहता है या और भी कुछ याद रहता है? वर्से की तो खुशी दिखाई देगी ना। जब ब्राह्मण जीवन के लिए संसार ही एक बाप है, तो संसार के सिवाए और क्या याद आयेगा। सदा दिल में अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहो। ऐसा श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प में प्राप्त होगा? जो सारे कल्प में अभी प्राप्त होता है, तो अभी की खुशी, अभी का नशा सबसे श्रेष्ठ है। तो माताओं को और कोई सम्बन्धी याद आते हैं? कोई सम्बन्ध में नीचे-ऊपर हो तो मोह जाता है? मोह सारा खत्म हो गया? जो कहते हैं-कुछ भी हो जाये, मेरे को मोह नहीं आयेगा-वो हाथ उठायें। अच्छा, मोह का पेपर भले आवे? पाण्डव तो नष्टोमोहा हैं ना। व्यवहार में कुछ ऊपर-नीचे हो जाए, फिर नष्टोमोहा हैं? अभी भी बीच-बीच में माया पेपर तो लेती है ना। तो उसमें पास होते हो? या जब माया आती है तब थोड़ा ढीले हो जाते हो? तो सदा खुशी के गीत गाते रहो। समझा? कुछ भी चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। चाहे किसी भी रूप में माया आये लेकिन खुशी न जाये। ऐसे खुश रहने वाले ही सदा खुशनसीब हैं। अच्छा!
अभी आन्ध्रा और कर्नाटक वालों को कौनसी कमाल करनी है? ऐसी कोई भी आत्मा वंचित नहीं रह जाये। हरेक को सन्देश देना है। जहां भी रहते हो-सर्व आत्माओं को सन्देश मिलना चाहिए। जितना सन्देश देंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। अच्छा!
ग्रुप नं. 2
परमात्म-प्यार की पालना का अनुभव करने के लिये हर कार्य न्यारे होकर करो
सभी अपने को संगमयुगी हीरे तुल्य श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? क्योंकि संगम पर इस समय हीरे तुल्य हो। सतयुग में सोने तुल्य बनेंगे। लेकिन इस समय सारे चक्र के अन्दर श्रेष्ठ आत्मा का पार्ट बजा रहे हो। तो हीरे समान जीवन अर्थात् इतनी अमूल्य जीवन बनी है? सबसे बड़ी मूल्यवान जीवन संगमयुग की है। तो ऐसी स्मृति रहती है कि इतने श्रेष्ठ हैं? क्योंकि जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति होगी। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति साधारण नहीं हो सकती। अगर स्थिति साधारण है तो स्मृति भी साधारण है। तो सदा सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान जीवन अनुभव करने वाली आत्मा हूँ-यह स्मृति में इमर्ज रहे। ऐसे नहीं कि मैं हूँ ही, मालूम है कि हम हीरे तुल्य हैं। लेकिन स्मृति में इमर्ज रूप में रहता है और उसी स्मृति से, उसी स्थिति से हर कार्य करते हो? क्योंकि हीरे तुल्य जीवन वा हीरे तुल्य स्थिति वाले का हर कर्म हीरे तुल्य होगा अर्थात् मूल्यवान होगा, ऊंचे ते ऊंचा होगा। तो हर कर्म ऐसे ऊंचा रहता है या कभी ऊंचा, कभी साधारण? क्योंकि सदा हीरे तुल्य हो। हीरा तो हीरा ही होता है, वह कभी सोना वा चांदी नहीं बनता। तो हर कर्म करते हुए चेक करो कि हीरे तुल्य स्थिति है, चलते-चलते साधारणता तो नहीं आ गई? क्योंकि 63 जन्म का अभ्यास है साधारण रहने का। तो पिछला संस्कार कभी खींच लेता है। कमजोर को कोई खींच लेगा, बहादुर को कोई खींच नहीं सकता। बहादुर उसको भी चरणों में झुका देगा। तो कभी भी साधारण स्थिति नहीं हो। अगर कोई विशेष ऑक्यूपेशन वाला ऐसा कोई साधारण कर्म करे तो उसको क्या कहा जायेगा? आज का प्राइम-मिनिस्टर अगर कोई ऐसा हल्का काम करे तो सभी उलहना देंगे ना, अच्छा नहीं लगेगा ना। तो आप कौन हो?
इतना नशा स्मृति में रखो जो सबको चलते-फिरते दिखाई दे कि यह कोई विशेष आत्मायें हैं। जैसे हीरा कितना भी मिट्टी में छिपा हुआ हो लेकिन फिर भी अपनी चमक दिखाता है। तो चाहे आप कितने भी साधारण वायुमण्डल में हों, कितने भी बड़े साधारण व्यक्तियों के बीच हों लेकिन विशेष आत्मा, अलौकिक आत्मा दिखाई दो। चाहे प्रवृत्ति में रहते हो, उन्हों के बीच में भी न्यारे दिखाई दो। ऐसा पुरूषार्थ है? और जितना न्यारे होंगे उतना बाप के प्यार के पात्र होंगे। कहां भी लगाव है तो न्यारा नहीं हो सकते। इसलिए न्यारा और प्यारा। कुछ भी कार्य करो लेकिन न्यारे होकर। फिर अनुभव करेंगे कि परमात्म-प्यार की पालना में सदा आगे उड़ रहे हैं। परमात्म-प्यार उड़ाने का साधन है। तो उड़ने वाले हो ना। धरनी की आकर्षण से सदा ऊपर रहो। धरनी अर्थात् माया खींचे नहीं। कितना भी आकर्षित रूप हो लेकिन माया की आकर्षण आप उड़ती कला वालों के पास पहुँच नहीं सकती। जैसे राकेट जाता है ना, तो धरनी की आकर्षण से परे हो जाता है। तो आप नहीं हो सकते हो? इसकी विधि है न्यारा बनना। बाप और मैं, बस। बाप के साथ उड़ते रहें। आकर्षित होकर नीचे नहीं आओ। सेवा अर्थ आते भी हैं तो माया की आकर्षण आ नहीं सकती, माया प्रूफ बनकर के आयेंगे। बाप न्यारा है, इसीलिए प्यारा है। तो फॉलो फादर। सदा न्यारे, सदा बाप के प्यारे। समझा? अच्छा!
ग्रुप नं. 3
स्वप्न का आधार है-साकार जीवन
सभी साकार रूप में समीप आने का, बैठने का पुरूषार्थ करते हो। इसके लिए भाग दौड़ करते हो ना। तो समीप रहना अच्छा लगता है ना। लेकिन यह हुआ थोड़े समय के लिए समीप रहना। जो सदा समीप रहे तो वह कितना बढ़िया हुआ! बाप के सदा समीप कौन रह सकता है? समीप रहने वाले की विशेषता क्या होगी? समान होंगे। जो समान होता है वह समीप होता है। तो जैसे यह थोड़े समय की समीपता प्रिय लगती है, तो सदा समीप रहने वाले कितने प्रिय होंगे! तो सदा समीप रहते हो या सिर्फ थोड़े समय के लिए समीप हो? समीप रहने के लिए भक्ति मार्ग में भी सत्संग का बहुत महत्व है। संग रहो अर्थात् समीप रहो। वह तो सिर्फ सुनने वाले
होते हैं और आप संग में रहने वाले हो। ऐसे हो? कभी मुख मोड़ तो नहीं लेते हो? माया आकर ऐसे मुख कर लेवे तो? सीता के माफिक माया को पहचान नहीं सको-ऐसे धोखा तो नहीं खाते हो?
धोखा खाने वाले चन्द्रवंशी बन जाते हैं। तो अच्छी तरह से माया को पहचानने वाले हो ना। बाप को भी पहचाना और माया को भी अच्छी तरह से पहचाना। अभी वह नया रूप धारण करके आये तो भी पहचान लेंगे ना। या नया रूप देखकर के कहेंगे कि हमको क्या पता! शक्तियाँ पहचानती हो? या कभी-कभी घबरा जाती हो? घबराते तब हैं जब बाप को किनारे कर देते हैं। अगर बाप के संग में हैं तो माया की हिम्मत नहीं जो समीप आ सके। तो पहचान ही लकीर है, इस पहचान की लकीर के अन्दर माया नहीं आ सकती। तो लकीर के अन्दर रहते हो या कभी-कभी संकल्प से थोड़ा बाहर निकल आते हो? अगर संकल्प में भी साथ की लकीर से बाहर आ जाते हो तो माया के साथी बन जाते हो। संकल्प वा स्वप्न में भी बाप से किनारा नहीं। ऐसे नहीं कि स्वप्न तो मेरे वश में नहीं हैं। स्वप्न का भी आधार अपनी साकार जीवन है। अगर साकार जीवन में मायाजीत हो तो स्वप्न में भी माया अंश-मात्र में भी नहीं आ सकती। तो मायाप्रूफ हो जो स्वप्न में भी माया नहीं आ सकती? स्वप्न को भी हल्का नहीं समझो। क्योंकि जो स्वप्न में कमजोर होता है, तो उठने के बाद भी वह संकल्प जरूर चलेंगे और योग साधारण हो जायेगा। इसीलिए इतने विजयी बनो जो संकल्प से तो क्या लेकिन स्वप्न मात्र भी माया वार नहीं कर सके। सदा मायाजीत अर्थात् सदा बाप के समीप संग में रहने वाले। कोई की ताकत नहीं जो बाप के संग से अलग कर सके-ऐसे चैलेन्ज करने वाले हो ना। इतना दिल से आवाज निकले कि हम नहीं विजयी बनेंगे तो और कौन बनेंगे! कल्प पहले बने थे। सदा यह स्मृति में अनुभव हो-हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे। अच्छा!
ग्रुप नं. 4
अकल्याण की सीन में भी कल्याण दिखाई दे
बाप में निश्चय है कि वही कल्प पहले वाला बाप फिर से आकर मिला है? ऐसे ही अपने में भी इतना निश्चय है कि हम भी वही कल्प पहले वाले बाप के साथ पार्ट बजाने वाली विशेष आत्माए हैं? या बाप में निश्चय ज्यादा है, अपने में कम है? अच्छा, ड्रामा में जो भी होता है उसमें भी पक्का निश्चय है? जो ड्रामा में होता है वह कल्याणकारी युग के कारण सब कल्याणकारी है। या कुछ अकल्याण भी हो जाता है? कोई मरता है तो उसमें कल्याण है? वो मर रहा है और आप कल्याण कहेंगे-कल्याण है! बिजनेस में नुकसान हो गया-यह कल्याण हुआ? तो नुकसान भी कल्याणकारी है! ज्ञान के पहले जो बातें कभी आपके पास नहीं आई, ज्ञान के बाद आई तो उसमें कल्याण है? माया नीचे-ऊपर कर रही है, कल्याण है? इसमें क्या कल्याण है? माया आपको अनुभवी बनाती है। अच्छा, तो ड्रामा में भी इतना ही अटल निश्चय हो। चाहे देखने में अच्छी बात न भी हो लेकिन उसमें भी गुप्त अच्छाई क्या भरी हुई है, वो परखना चाहिए। जैसे कई चीजें होती हैं, उनका बाहर से कवर (Cover;ढक्कन) अच्छा नहीं होता है लेकिन अन्दर बहुत अच्छी चीज होती है। बाहर से देखेंगे तो लगेगा-पता नहीं क्या है? लेकिन पहचान कर उसे खोलकर अन्दर देखेंगे तो बढ़िया चीज निकल आयेगी। तो ड्रामा की हर बात को परखने की बुद्धि चाहिए। निश्चय की पहचान ऐसे समय पर आती है। परिस्थिति सामने आवे और परिस्थिति के समय निश्चय की स्थिति, तब कहेंगे निश्चय बुद्धि विजयी। तो तीनों में पक्का निश्चय चाहिए-बाप में, अपने आप में और ड्रामा में। दर्द में तड़प रहे हो और कहेंगे-वाह ड्रामा वाह! उस समय चिल्लायेंगे या ‘वाह-वाह’ करेंगे? ‘हाय बाबा बचाओ’-यह नहीं कहेंगे? जब निश्चय है, तो निश्चय का अर्थ ही है-संशय का नाम-निशान न हो। कुछ भी हो जाए लेकिन अटल-अचल निश्चयबुद्धि, कोई भी परिस्थिति हलचल में नहीं ला सकती। क्योंकि हलचल में आना अर्थात् कमजोर होना।
कोई भी चीज ज्यादा हलचल में आ जाए, हिलती रहे-तो टूटेगी ना! तो संकल्प में भी हलचल नहीं। ऐसे अटल-अचल आत्माए अटल राज्य के अधिकारी बनती हैं। सतयुग-त्रेता में अटल राज्य है, कोई उस राज्य को टाल नहीं सकता। कोई और राजा लड़ाई करके राज्य छीन ले-यह हो ही नहीं सकता। इसलिए यह अविनाशी अटल राज्य गाया हुआ है। अनेक जन्म यह अटल-अखण्ड राज्य करते हो। लेकिन कौन अधिकारी बनता? जो यहां संगम पर अचल-अखण्ड रहते हैं, खण्डित नहीं होते। आज निश्चय है, कल निश्चय डगमग हो जाए-उसको कहते हैं खण्डित। तो खण्डित चीज कभी पूज्य नहीं होती। अगर मूर्ति भी कभी खण्डित हो जाए तो पूजा नहीं होगी। म्युजियम में भले रखें लेकिन पूजा नहीं होगी। तो अखण्ड निश्चयबुद्धि आत्माए। ऐसे निश्चयबुद्धि सदा ही विजय की खुशी में रहते हैं, उनके अन्दर सदा खुशी के बाजे बजते रहते हैं। आज की दुनिया में भी जब विजय होती है तो बाजे बजते हैं ना। तो ऐसे सदा निश्चयबुद्धि आत्मा के मन में सदा खुशी के बाजे-गाजे बजते रहते हैं। बार-बार बजाने नहीं पड़ते, आटोमेटिक बजते रहते हैं। ऐसे अनुभव करते हो? या कभी बाजे-गाजे बन्द हो जाते हैं? भक्ति में कहते हैं अनहद गीत-जिसकी हद नहीं होती, आटोमेटिक बजता रहे। तो अनहद गीत बजते रहें। डबल विदेशियों के पास आटोमेटिक गीत बजते हैं? सदा बजते हैं या कभी-कभी? सदा बजते हैं।
सबसे बड़े ते बड़ा खज़ाना खुशी का अभी मिलता है। सम्भालना आता है ना। सम्भाल करने की विधि है-सदा बाप को साथ रखना। अगर बाप सदा साथ है तो बाप का साथ ही बड़े ते बड़ा सेफ्टी का साधन है। तो खज़ाना सेफ रखना आता है या माया चोरी करके जाती है? छिप-छिप कर आती तो नहीं है? वो भी चतुर है। आने में वो भी कम नहीं है। लेकिन बाप का साथ माया को भगाने वाला है। तो आप कौनसी आत्माए हो? निश्चयबुद्धि विजयी आत्माए हो! सदा विजय का तिलक मस्तक पर लगा हुआ है, जिस तिलक को कोई मिटा नहीं सकता। अविनाशी तिलक है ना! या माया का हाथ आ जाता है तो मिट जाता है? अच्छा!
सभी महान आत्मायें हो ना। कहाँ के भी हो लेकिन इस समय तो सभी मधुबन निवासी हो। मधुबन कहने से खुशी होती है ना। क्यों? मधुबन कहने से मधुबन का बाबा याद आता है। इसीलिए मधुबन निवासी बनना पसन्द करते हो। सब चाहते हो ना-यहीं रह जायें। वो भी दिन आ जायेंगे। खटिया नहीं मिलेगी, तकिया नहीं मिलेगा-फिर नींद कैसे आयेगी? तैयार हो ऐसे सोने के लिए? अपनी बांह को ही तकिया बनाना पड़ेगा, पत्थर पर सोना पड़ेगा। कितने दिन सोयेंगे? अभ्यास सब होना चाहिए। अगर साधन मिलता है तो भले सोओ, लेकिन नहीं मिले तो नींद नहीं आवे-ऐसा अभ्यास नहीं हो। अभी तो किसी को खटिया चाहिए, किसी को अलग कमरा चाहिए। इसलिए ज्यादा नहीं मंगाते। अगर सभी पट पर सोओ तो कितने आ सकते हैं? डबल संख्या हो सकती है ना। फिर कोई नहीं कहेगा-टांग में दर्द है, कमर में दर्द है, बैठ नहीं सकती हूँ? क्या भी मिले, खाना मिले, नहीं मिले-तैयार हो? वो भी पेपर आयेगा। डबल विदेशी पट में सो सकेंगे? इतने पक्के होने चाहिए-अगर बिस्तरा मिला तो भी अच्छा, नहीं मिला तो भी अच्छा। ‘हाय-हाय’ नहीं करेंगे। सहन करने में माताए होशियार होती हैं। पाण्डव भी होशियार हैं। जब इतना साथ होगा तो संगठन की खुशी सब-कुछ भुला देती है। तो निश्चय है ना। ब्राह्मण जीवन अर्थात् मौज ही मौज-उठें तो भी मौज में, सोयें तो भी मौज में। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
अपनी श्रेष्ठ शान में रहो तो परेशानियां समाप्त हो जायेंगी
सभी अपनी स्थूल सीट पर सेट हो गये। सेट होने में खुशी होती है ना! अपसेट होना अच्छा नहीं लगता है और सेट होना अच्छा लगता है। तो ऐसे ही सदा मन और बुद्धि की स्थिति की सीट पर सेट रहते हो? या अपसेट भी होते हो? अपसेट होने से परेशानी होती है और सेट होने से खुशी होती है, आराम मिलता है। तो सदा खुशी में रहते हो या थोड़ा-थोड़ा परेशान होते हो? अपनी शान को भूलना अर्थात् परेशान होना। तो संगमयुग पर सबसे बड़े ते बड़ी आप ब्राह्मणों की शान कौनसी है? ईश्वरीय शान है ना-सर्वश्रेष्ठ आत्माए हैं। तो सर्वश्रेष्ठ बनने का शान है। तो याद रहता है कि हम ही ऊंचे ते ऊंचे भगवान के बच्चे ऊंचे ते ऊंचे हैं। जब ये शान याद रहता है तो कभी भी परेशान नहीं होंगे। चाहे कोई कितना भी परेशान करे लेकिन आप नहीं होंगे क्योंकि आपका शान सबसे ऊंचा है। तो कभी-कभी व्यवहार में, कभी वातावरण के कारण परेशान होते हो? परेशान 63 जन्म रहे। भटकना माना परेशान होना। भक्ति में भटकते रहे ना! तो आधा कल्प परेशान रहने का अनुभव कर लिया। अभी तो शान में रहेंगे ना!
देवताई शान से भी ऊंचा ये ब्राह्मण शान है। देवताई ताज और तख्त से ऊंचा तख्त अभी है। तो तख्त पर बैठना आता है या खिसक जाते हो नीचे? सभी को तख्त और तिलक मिला है, ताज भी मिला है। सेवा का ताज मिला है। तो ताज माथे में रूकता है या उतर जाता है? तो तख्तनशीन आत्माए कभी परेशान नहीं हो सकतीं। तख्त कोई छीन लेता है तो परेशान होते हैं। तो सदा अपनी प्राप्तियों की स्मृति में रहो। सदा अपनी बुद्धि में सर्व प्राप्तियों की लिस्ट रखो। कॉपी में नहीं, बुद्धि में रखो। अगर प्राप्तियों की लिस्ट सामने रहे तो सदा अपना श्रेष्ठ शान स्वत: स्मृति में रहेगा। एक भी प्राप्ति को सामने रखो तो कितनी शक्ति आती है! और सर्व प्राप्तियां स्मृति में रहें तो सर्वशक्तिवान स्थिति सहज हो जायेगी। जब प्राप्तियों की लिस्ट सदा बुद्धि में होगी तो स्वत: ही मन से, दिल से गीत गायेंगे-पाना था वो पा लिया......! सदा खुशी में नाचते रहेंगे-पा लिया! दुनिया वाले पाने के लिए भटक रहे हैं और आप कहेंगे-पा लिया, ठिकाना मिल गया, भटकना समाप्त हो गया। अभी मन व्यर्थ संकल्पों में भटकता है? जब भी मन या बुद्धि भटकती है तो यह गीत गाओ-पाना था सो पा लिया.......! बाप मिला सब-कुछ मिला। इसी नशे में रहो। समझा?
यह नहीं याद रखो कि हम दिल्ली के हैं या हम बनारस के हैं। कभी भी प्रवृत्ति में या घर में रहते-यह नहीं सोचो। सेवा-स्थान पर रह रहे हो। सेवा-स्थान समझने से न्यारे-प्यारे रहेंगे। घर समझने से मेरा-मेरा आएगा और सेवा-स्थान है तो ट्रस्टी रहेंगे। गृहस्थी अर्थात् मेरापन और ट्रस्टी अर्थात् तेरा। सेवा-स्थान समझने से सदा सेवा याद रहेगी। प्रवृत्ति है तो प्रवृत्ति को निभाने में ही लग जायेंगे। सेवाधारी सदा न्यारे रहेंगे। सब-कुछ बाप के हवाले कर दिया। इसलिए सब तेरा। जब संकल्प कर लिया कि मैं बाबा की और बाबा मेरा, तो जो संकल्प है वही साकार रूप में लाना है। सिर्फ संकल्प नहीं लेकिन साकार स्वरूप में, हर कर्म में ‘‘मेरा बाबा’’ मानकर के चलना। मेरा बाबा है बीज, बीज में सारा वृक्ष समाया हुआ है। अच्छा!
03-11-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
रूहानी रॉयल्टी की निशानी- सदा भरपूर-सम्पन्न वा तृप्त
सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो करने वाली रॉयल आत्माओं प्रति अव्यक्त बापदादा बोले -
आज बापदादा चारों ओर के अपने रूहानी रॉयल फैमिली को देख रहे हैं। सारे कल्प में सबसे रॉयल आप आत्मायें ही हो। वैसे हद के राज्य-अधिकारी रॉयल फैमिली बहुत गाये हुए हैं। लेकिन रूहानी रॉयल फैमिली सिर्फ आप ही गाये हुए हो। आप रॉयल फैमिली की आत्मायें आदि काल में भी और अनादि काल में भी और वर्तमान संगमयुग में भी रूहानी रॉयल्टी वाली हो। अनादि काल स्वीट होम में भी आप विशेष आत्माओं की रूहानियत की झलक, चमक सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ है। आत्मायें सभी चमकती हुई ज्योति-स्वरूप हैं, फिर भी आपकी रूहानी रॉयल्टी की चमक अलौकिक है। जैसे साकारी दुनिया में आकाश बीच सितारे सब चमकते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन कोई विशेष चमकने वाले सितारे स्वत: ही अपनी तरफ आकर्षित करते हैं, लाइट होते हुए भी उन्हों की लाइट विशेष चमकती हुई दिखाई देती है। ऐसे अनादि काल परमधाम में भी आप रूहानी सितारों की चमक अर्थात् रूहानी रॉयल्टी की झलक विशेष अनुभव होती है। इसी प्रकार आदि काल सतयुग अर्थात् स्वर्ग में आप आत्मायें विश्व-राज्य की रॉयल फैमिली के अधिकारी बनते हो। हर एक राजा की रॉयल फैमिली होती है।
लेकिन आप आत्माओं की रॉयल फैमिली की रॉयल्टी वा देव-आत्माओं की रॉयल्टी सारे कल्प में और किसी रॉयल फैमिली की हो नहीं सकती। इतनी श्रेष्ठ रॉयल्टी चैतन्य स्वरूप में प्राप्त की है जो आपके जड़ चित्रों की भी कितनी रॉयल्टी से पूजा होती है। सारे कल्प के अन्दर रॉयल्टी की विधि प्रमाण और कोई भी धर्म-पिता, धर्म-आत्मा या महान आत्मा की ऐसे पूजा नहीं होती। तो सोचो-जब जड़ चित्रों में भी रॉयल्टी की पूजा है तो चैतन्य में कितने रॉयल फैमिली के बनते हो! तो इतने रॉयल हो? वा बन रहे हो? अभी संगम पर भी रूहानी रॉयल्टी अर्थात् फरिश्ता-स्वरूप बनते हो, रूहानी बाप की रूहानी रॉयल फैमिली बनते हो। तो अनादि काल, आदि काल और संगमयुगी काल-तीनों काल में नम्बरवन रॉयल बनते हो। ये नशा रहता है कि हम तीनों काल में भी रूहानी रॉयल्टी वाली आत्मायें हैं?
इस रूहानी रॉयल्टी का फाउन्डेशन क्या है? सम्पूर्ण प्योरिटी। सम्पूर्ण प्योरिटी ही रॉयल्टी है। तो अपने से पूछो कि रूहानी रॉयल्टी की झलक आपके रूप से सबको अनुभव होती है? रूहानी रॉयल्टी की फलक हर चरित्र से अनुभव होती है? लौकिक दुनिया में भी अल्पकाल की रॉयल्टी न जानते हुए भी चेहरे से, चलन से अनुभव होती है। तो रूहानी रॉयल्टी गुप्त नहीं रह सकती, वो भी दिखाई देती है। तो हर एक नॉलेज के दर्पण में अपने को देखो कि मेरे चेहरे पर, चलन में रॉयल्टी दिखाई देती है वा साधारण चेहरा, साधारण चलन दिखाई देती है? जैसे सच्चा हीरा अपनी चमक से कहाँ भी छिप नहीं सकता, ऐसे रूहानी चमक वाले, रूहानी रॉयल्टी वाले छिप नहीं सकते।
कई बच्चे अपने को खुश करने के लिए सोचते हैं और कहते भी हैं कि-’’हम गुप्त आत्मायें हैं, इसलिए हमको कोई पहचानता नहीं है। समय आने पर आपेही मालूम पड़ जायेगा।’’ गुप्त पुरूषार्थ बहुत अच्छी बात है। लेकिन गुप्त पुरुषार्थी की झलक और फलक वा रूहानी रॉयल्टी की चमक औरों को अनुभव जरूर करायेगी। स्वयं, स्वयं को चाहे कितना भी गुप्त रखें लेकिन उनके बोल, उनका सम्बन्ध-सम्पर्क, रूहानी व्यवहार का प्रभाव उनको प्रत्यक्ष करता है। जिसको साधारण शब्दों में दुनिया वाले बोल और चाल कहते हैं। तो स्वयं, स्वयं को प्रत्यक्ष नहीं करते, गुप्त रखते-यह निर्माणता की विशेषता है। लेकिन दूसरे उनके बोल-चाल से अनुभव अवश्य वरेंगे। दूसरे कहें कि यह गुप्त पुरुषार्थी है। अगर स्वयं को कहते हैं कि मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ-तो यह गुप्त रखा या प्रत्यक्ष किया? कह रहे हो गुप्त लेकिन बोल रहे हो कि मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ! यह गुप्त हुआ? बहुत पत्र में भी लिखते हैं कि हम गुप्त पुरूषार्थियों को निमित्त बनी हुई दादियां नहीं जानती हैं। फिर यह भी लिखते हैं कि-देख लेना आगे हम क्या करते, क्या होता है-तो यह गुप्त रहे या प्रत्यक्ष किया? गुप्त पुरुषार्थी अपने को गुप्त रखें-यह बहुत अच्छा। लेकिन वर्णन नहीं करो, दूसरा आपको बोले। जो अपने आपको ही कहें उनको क्या कहा जाता है? (मियां मिट्ठू ) तो मियां मिट्ठू बनना बहुत सहज है ना!
तो क्या सुना? रूहानी रॉयल्टी। रॉयल आत्मायें सदा ही एक तो भरपूर-सम्पन्न रहती हैं और सम्पन्नता की निशानी-वे सदा तृप्त आत्मा रहती हैं। तृप्त आत्मा हर परिस्थिति में, हर आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हुए, जानते हुए सन्तुष्ट रहती है। चाहे कोई कितना भी असन्तुष्ट करने की परिस्थितियां उनके आगे लाये लेकिन सम्पन्न, तृप्त आत्मा असन्तुष्ट करने वाले को भी सन्तुष्टता का गुण सहयोग के रूप में देगी। ऐसी आत्मा के प्रति रहमदिल बन शुभ भावना और शुभ कामना द्वारा उनको भी परिवर्तन करने का प्रयत्न करेंगे। रूहानी रॉयल आत्माओं का यही श्रेष्ठ कर्म है। जैसे स्थूल रॉयल आत्मायें कभी भी छोटी-छोटी बातों में, छोटी-छोटी चीजों में अपनी बुद्धि वा समय नहीं देतीं, देखते भी नहीं देखतीं, सुनते भी नहीं सुनतीं। ऐसे रूहानी रॉयल आत्मा किसी भी आत्मा की छोटी-छोटी बातों में, जो रॉयल नहीं हैं-उनमें अपनी बुद्धि वा समय नहीं देगी। दुनिया वाले कहते हैं कि रॉयल्टी अर्थात् किसी भी हल्की बात में आंख नहीं डूबती। रूहानी रॉयल आत्माओं के मुख से कभी व्यर्थ वा साधारण बोल नहीं निकलेंगे, हर बोल युक्तियुक्त होगा। युक्तियुक्त का अर्थ है-व्यर्थ भाव से परे अव्यक्त भाव, अव्यक्त भावना। इसको कहा जाता है रॉयल्टी।
इस समय की रॉयल्टी भविष्य की रॉयल फैमिली में आने के अधिकारी बनाती है। तो चेक करो-वृत्ति रॉयल है? वृत्ति रॉयल अर्थात् सदा शुभ भावना, शुभ कामना की वृत्ति से हर एक आत्मा से व्यवहार में आये। रॉयल दृष्टि अर्थात् सदा फरिश्ता रूप से औरों को भी फरिश्ता रूप देखे। कृति अर्थात् कर्म में सदा सुख देना, सुख लेना-इस श्रेष्ठ कर्म के प्रमाण सम्पर्क में आये। ऐसे रॉयल बने हो? कि बनना है? ब्रह्मा बाप के बोल और चाल, चेहरे और चलन की रॉयल्टी को देखा। ऐसे फॉलो ब्रह्मा बाप। साकार को फॉलो करना तो सहज है ना! ब्रह्मा को फॉलो किया तो शिव बाप को फॉलो हो ही जायेगा। एक को तो फॉलो कर सकते हो ना। बाप समान बनने के प्वाइंट्स तो रोज़ सुनते हो! सुनना अर्थात् फॉलो करना। कॉपी करना तो सहज होता है ना। कि कॉपी करना भी नहीं आता?
बापदादा आज मुस्करा रहे थे कि मधुबन में आते हैं तो विशेष गुरूवार के दिन क्या करते हैं? एक तो भोग लगाते हैं। और क्या करते हैं जो सिर्फ मधुबन में ही करते हैं? जीते-जी मरने का भोग। आप सबने जीते-जी मरने का भोग लगा लिया है? बापदादा मुस्करा रहे थे कि ‘जीते-जी मरना’ कहकर मनाना तो सहज है-स्टेज पर बैठ गये, तिलक लगा लिया, मर गये! लेकिन जीते-जी मरना अर्थात् पुराने संस्कारों से मरना। पुराने संस्कार, पुराने संसार की आकर्षण से मरना-यह है जीते जी मरना। भोग लगा दिया, भण्डारी में जमा कर दिया और जीते जी मरना हो गया-यह तो बहुत सहज है। लेकिन मर गये? बापदादा सोच रहे थे कि पुराने संसार और पुराने संस्कार-इससे सदा के लिए संकल्प और स्वप्न में भी मरना मनाना, ऐसा जीते-जी मरना कौन और कब मना-येंगे? अगर स्टेज पर बिठाते हैं तो सब के सब बैठ जाते हैं। स्टेज पर बैठना-यह तो कॉमन (आम) बात है। लेकिन बुद्धि को बिठाना-इसको कहा जाता है यथार्थ जीते जी मरना मनाना। जब मर गये, मरना अर्थात् परिवर्तन होना। तो ऐसा जीते जी मरना, उसके लिए कितने तैयार होंगे? कि सेन्टर पर जाकर के कहेंगे कि क्या करें, चाहते नहीं थे लेकिन हो गया? यहाँ तो जीते जी मरना मनाकर जाते हैं, फिर जब कोई बात सामने आती है तो जिंदा हो जाते हो। ऐसे नहीं करना।
यादगार में भी दिखाते हैं कि रावण का एक सिर खत्म करते थे तो दूसरा आ जाता था। यहाँ भी एक बात पूरी होती तो दूसरी पैदा हो जाती, फिर समझते-हमने तो रावण को मार दिया, फिर यह कहाँ से आ गया? लेकिन मूल फाउन्डेशन को समाप्त न करने के कारण एक रूप बदल दूसरे रूप में आ जाते हैं। फाउन्डेशन को खत्म कर दो तो रूप बदलकर के माया वार नहीं करेगी, सदा के लिए विदाई ले जायेगी। समझा, क्या बनना है? रूहानी रॉयल्टी वाले। सदैव यह चेक करो कि हर कर्म रूहानी रॉयल परिवार के प्रमाण है? जब 99% बोल, कर्म और संकल्प रॉयल्टी के हों तब समझो भविष्य में भी रॉयल फैमिली में आयेंगे। ऐसे नहीं सोचना-हम तो आ ही जायेंगे। चलो, सम्पन्न नहीं बने हैं तो एक परसेन्ट (1% ) फ्री देते हैं। लेकिन 99% रॉयल्टी के संस्कार, बोल और संकल्प नेचुरल होने चाहिए। बार-बार युद्ध नहीं करनी पड़े, नेचुरल संस्कार हो जाए। अच्छा!
चारों ओर के रूहानी रॉयल्टी वाली रॉयल आत्माओं को, सदा प्योरिटी द्वारा रॉयल्टी अनुभव कराने वाली आत्माओं को, सदा परिश्ता स्वरूप के संस्कार को प्रैक्टिकल में लाने वाली आत्माओं को, सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो करने वाली आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण संस्कार अनुभव करने वाले रूहानी रॉयल परिवार को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
सेवा में बिजी रहो तो सहज मायाजीत बन जायेंगे
सदा अपनी शक्तिशाली वृत्ति से वायुमण्डल को परिवर्तन करने वाली विश्व-परिवर्तक आत्माए हो ना। इस ब्राह्मण जीवन का विशेष ऑक्यूपेशन क्या है? अपनी वृत्ति से, वाणी से और कर्म से विश्व-परिवर्तन करना। ऐसे सम्पन्न बन गये या विनाश तक बनेंगे? अगर समय सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनाये तो रचना पावरफुल हुई या रचता? तो समय पर नहीं बनना है, समय को समीप लाना है। समय का इन्तज़ार करने वाले नहीं हो। जब पा लिया तो पाने की खुशी में रहने वाले सदा ही एवररेडी रहते हैं। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? या थोड़ा टाइम चाहिए? एवररेडी, नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप-इसमें पास हो? एवररेडी का अर्थ ही है-नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप। या उस समय याद आयेगा कि पता नहीं बच्चे क्या कर रहे होंगे, कहाँ होंगे, छोटे-छोटे पोत्रों का क्या होगा? यहीं विनाश हो जाये तो याद आयेंगे? पति का भी कल्याण हो जाये, पोत्रे का भी कल्याण हो जाये, उन्हों को भी यहाँ ले आयें-याद आयेगा? बिजनेस का क्या होगा, पैसे कहाँ जायेंगे? रास्ते टूट जायें फिर क्या करेंगे? देखना, अचानक पेपर होगा।
सदा न्यारा और प्यारा रहना-यही बाप समान बनना है। जहाँ हैं, जैसे हैं लेकिन न्यारे हैं। यह न्यारापन बाप के प्यार का अनुभव कराता है। जरा भी अपने में या और किसी में भी लगाव न्यारा बनने नहीं देगा। न्यारे और प्यारेपन का अभ्यास नम्बर आगे बढ़ायेगा। इसका सहज पुरूषार्थ है निमित्त भाव। निमित्त समझने से निमित्त बनाने वाला याद आता है। मेरा परिवार है, मेरा काम है। नहीं, मैं निमित्त हूँ। निमित्त समझने से पेपर में पास हो जायेंगे। तो सभी ऐसी सेवा करते हो? या टाइम नहीं मिलता है? वाणी के लिए समय नहीं है तो वृत्ति से, मन्सा-सेवा से परिवर्तन करने का समय तो है ना। सेवाधारी आत्माए सेवा के बिना रह नहीं सकतीं। ब्राह्मण जन्म है ही सेवा के लिए। और जितना सेवा में बिजी रहेंगे उतना ही सहज मायाजीत बनेंगे। तो सेवा का फल भी मिल जाये और मायाजीत भी सहज बन जायें-डबल फायदा है ना। जरा भी बुद्धि को फुर्सत मिले तो सेवा में जुट जाओ। वैसे भी पंजाब-हरियाणा में सेवा-भाव ज्यादा है। गुरूद्वारों में जाकर सेवा करते हैं ना। वह है स्थूल सेवा और यह है रूहानी सेवा। सेवा के सिवाए समय गँवाना नहीं है। निरन्तर योगी, निरन्तर सेवाधारी बनो-चाहे संकल्प से करो, चाहे वाणी से, चाहे कर्म से। अपने सम्पर्क से भी सेवा कर सकते हो। चलो, मन्सा-सेवा करना नहीं आवे लेकिन अपने सम्पर्क से, अपनी चलन से भी सेवा कर सकते हो। यह तो सहज है ना। तो चेक करो कि सदा सेवाधारी हैं वा कभी-कभी के सेवाधारी हैं? अगर कभी-कभी के सेवाधारी होंगे तो राज्य-भाग्य भी कभी-कभी मिलेगा। इस समय की सेवा भविष्य प्राप्ति का आधार है। कभी भी कोई यह बहाना नहीं दे सकते कि चाहते थे लेकिन समय नहीं है। कोई कहते हैं-शरीर नहीं चलता है, टांगें नहीं चलती हैं, क्या करें? कोई कहती हैं-कमर नहीं चलती, कोई कहती हैं-टांगे नहीं चलती। लेकिन बुद्धि तो चलती है ना! तो बुद्धि द्वारा सेवा करो। आराम से पलंग पर बैठकर सेवा करो। अगर कमर टेढ़ी है तो लेट जाओ लेकिन सेवा में बिजी रहो।
बिजी रहना ही सहज पुरूषार्थ है। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। बार-बार माया आवे और भगाओ-तो मेहनत होती है, युद्ध होती है। बिजी रहने वाले युद्ध से छूट जाते हैं। बिजी रहेंगे तो माया की हिम्मत नहीं होगी आने की। और जितना अपने को बिजी रखेंगे उतना ही आपकी वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन होता रहेगा। कोई भी ब्राह्मण आत्मा यह नहीं सोच सकती कि-क्या करें, वायुमण्डल बहुत खराब है। खराब है तब तो परिवर्तन करते हो। खराब ही नहीं होगा तो क्या करेंगे? अच्छे को बदलेंगे क्या? तो विश्व-परिवर्तक का काम है-बुरे को अच्छा बनाना। तो बुरा तो होगा ही, बुरे को अच्छा बनाने वाले आप हो! विश्व-परिवर्तन का कार्य किया है, तब तो अब तक भी आपका गायन है। शक्तियों के गायन में आपकी कितनी महिमा करते हैं! तो अपनी महिमा सुनते हुए खुशी होती है ना!
पाण्डवों की भी महिमा है। लक्ष्मी के साथ गणेश को जरूर रखते हैं। तो पाण्डव अपना कल्प पहले का यादगार अभी स्वयं देख रहे हैं, सुन रहे हैं। खुशी होती है ना! इतनी खुशी है जो कैसे भी दर्दनाक खेल हों लेकिन आप खुशी में नाचते रहते हो! पांव से नहीं नाचना। मन में खुशी से नाचते हैं। क्यों खुशी में नाचते हो? क्योंकि नॉलेज है-नथिंग न्यु, होना ही है। दर्दनाक बातें सुनकर कभी घबराते हो? पक्के हो? अगर आप ब्राह्मण आत्माए पक्के नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे? मास्टर सर्वशक्तिवान कभी घबराते नहीं हैं। जब भी कोई ऐसी परिस्थिति आवे तो पहले सोचो-मेरा साथी कौन! पाण्डवों ने कितना कुछ सहन किया लेकिन बाप का साथ होने के कारण विजयी बने। तो विजय की गारन्टी है। साथ में बाप है तो विजयी बनने की गारन्टी है। इसिलए कभी भी किसी बात में भी कच्चा नहीं बनना। दुनिया घबराये और आप खुशी में, मौज में घबराने वालों को भी शक्ति दो। सदा सामने मौत को देखते हुए बाप ही याद आता है ना। तो और ही याद में रहने का वातावरण मिला हुआ है। वैसे भी कहा जाता है कि मृत्यु के समय कौन याद आता है? तो आपको भी अकाले मृत्यु का समाचार मिलता है। मृत्युलोक को देख अपना स्वर्ग अर्थात् अमर लोक याद आता है। आज मृत्युलोक है, कल हमारा राज्य होगा! यह खुशी है ना। आज को देख कल की याद और ही ज्यादा आती है। तो सभी निर्भय रहने वाले हो ना। अच्छा!
ग्रुप नं. 2
डबल हीरो हैं-इस पोजीशन की स्मृति से हर कर्म श्रेष्ठ होगा
सभी अपने को इस ड्रामा के अन्दर पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ पार्टधारी आत्मायें अनुभव करते हो? जैसे बाप ऊंचे ते ऊंचा है, ऐसे ऊंचे ते ऊंचा पार्ट बजाने वाली आप श्रेष्ठ आत्माए हो। डबल हीरो हो। हीरे तुल्य जीवन भी है और हीरो पार्टधारी भी हो। तो कितना नशा हर कर्म में होना चाहिए! अगर स्मृति में यह श्रेष्ठ पार्ट है, तो जैसी स्मृति होती है वैसी स्थिति होती है और जैसी स्थिति होगी वैसे कर्म होंगे। तो सदा यह स्मृति रहती है? जैसे शरीर रूप में जो भी हो, जैसा भी हो-वह सदा याद रहता है ना। तो आत्मा का ऑक्यूपेशन, आत्मा का स्वरूप जो है, जैसा है-वह भी याद रहना चाहिए ना। शरीर विनाशी है लेकिन उसकी याद अविनाशी रहती है। आत्मा अविनाशी है, तो उसकी याद भी अविनाशी रहती है? जैसे यह आदत पड़ गई है कि मैं शरीर हूँ। है उल्टा, रांग है। लेकिन आदत तो पक्की हो गई। तो भूलने चाहते भी नहीं भूलता। वैसे यथार्थ अपना स्वरूप भी ऐसे पक्का होना चाहिए। शरीर का ऑक्यूपेशन स्वप्न में भी याद रहता है। कोई क्लर्क है, कोई वकील है, बिजनेस करने वाला है-तो भूलता नहीं। ऐसे यह ब्राह्मण जीवन का ऑक्यूपेशन कि मैं हीरो पार्टधारी हूँ-यह पक्का होना चाहिए और नेचुरल होना चाहिए। तो चेक करो कि ऐसे नेचुरल जीवन है?
जो नेचुरल चीज होती है वह सदा होती है और जो अननेचुरल (Unnatural;अस्वाभाविक) होती है वह कभी-कभी होती है। तो यह स्मृति सदा रहनी चाहिये कि हम डबल हीरो हैं। इस नशे में नुकसान नहीं है, दूसरे नशे में नुकसान है। यह हद का नशा नहीं है, बेहद का रूहानी नशा है। उस नशे में भी सब बातें स्वत: ही भूल जाती हैं, भूलनी नहीं पड़ती हैं। यह रूहानी नशा जब होता है तो हद की बातें भूल जाती हैं, भूलने की मेहनत नहीं करनी पड़ती है। जब यह स्मृति रहती है कि मैं हीरो पार्टधारी आत्मा हूँ-तो स्वत: ही हर कर्म श्रेष्ठ होता है। हर कर्म से सभी को अनुभव होगा कि यह कोई विशेष आत्मा है, साधारण नहीं। ऐसे समझते हो? वा जैसे सब हैं वैसे हम हैं? न्यारे लगते हो? चाहे कितने भी अज्ञानी हों लेकिन अनेक अज्ञानियों के बीच आप ‘ज्ञानी आत्मा’ प्यारी अनुभव हो। इसको कहा जाता है हीरो पार्टधारी। ऐसे है? दूसरे भी अनुभव करें। ऐसे नहीं-सिर्फ अपने को समझें। अन्दर से समझें कि ये न्यारे हैं। न चाहते हुए भी सभी आपके आगे अपना सिर झुकायेंगे। अभिमान का सिर झुकेगा। परन्तु इतनी पक्की अवस्था चाहिए। चेक करो और चेंज करो। हर कर्म में अपने को चेक करो कि-न्यारी हूँ, प्यारी हूँ? डबल हीरो स्थिति का अनुभव बढ़ाते चलो। एक-दो से आगे बढ़ना है और एक-दो को आगे बढ़ाना है। ऐसे नहीं समझो कि दूसरा आगे जायेगा तो मैं पीछे हो जाऊंगा। नहीं, बढ़ाना ही बढ़ना है। ब्राह्मण जीवन अर्थात् बढ़ना और बढ़ाना।
ग्रुप नं. 3
श्रेष्ठ भाग्य के स्मृतिस्वरूप बनो तो दु:ख की लहर आ नहीं सकती
सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य को देख भाग्यविधाता बाप स्वत: ही याद आता है ना। भाग्यविधाता और भाग्य-दोनों याद रहते हैं ना। क्या-क्या भाग्य मिला है-उसकी स्मृति सदा इमर्ज रूप में रहे। ऐसे नहीं कि अन्दर में तो याद है। नहीं, बाहर दिखाई दे। क्योंकि सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य कभी भी मिल नहीं सकता। सतयुग के भाग्य और इस समय के भाग्य में क्या अन्तर है? अभी का भाग्य श्रेष्ठ है ना। क्योंकि इस समय हीरे तुल्य हो और सतयुग में सोने तुल्य हो जायेंगे। तो सदा दिल में श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहते हो। आटोमेटिक बजता है या कभी बन्द हो जाता है? सदा बजता है या कभी-कभी खराब हो जाता है? क्योंकि अविनाशी प्राप्ति कराने वाला भाग्यविधाता है। जो भाग्य मिला है उसकी अगर लिस्ट निकालो तो कितनी लम्बी लिस्ट हो जायेगी! लम्बी लिस्ट है ना। इसलिए कहा ही जाता है-कितना मिला, क्या मिला? तो कहते हैं-अप्राप्त कोई वस्तु नहीं रही। इससे सिद्ध है कि सब-कुछ मिल गया। जो मिला है उसको सम्भालना आता है? या कभी-कभी कोई चोरी करके चला जाता है? माया चोरी तो करके नहीं जाती?
माताओं को कभी थोड़ी-सी भी दु:ख की लहर आती है? तो उस समय अपना भाग्य भूल जाता है ना। स्मृति में लाते हो, इससे सिद्ध है कि विस्मृति हुई। सदा स्मृतिस्वरूप रहो। दुनिया वाले भाग्य के पीछे भटक रहे हैं और आपको घर बैठे भाग्यविधाता बाप ने भाग्य दे दिया! कितना बड़ा परिवर्तन आ गया! कभी भी अपने को इस श्रेष्ठ भाग्य से अलग नहीं करो। मेरा भाग्य है, तो ‘मेरा’ कभी भूलता है क्या? बाप का दिया हुआ खज़ाना अपना है ना। इतनी श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें बनती हो जो अभी तक भी आपके भाग्य की महिमा कितनी करते रहते हैं! ये कीर्तन क्या है? आपके प्राप्त हुए भाग्य की महिमा है। तो जब भी कोई देवी-देवताओं का कीर्तन सुनते हो तो क्या लगता है? समझते हो कि हमारी प्राप्तियों की महिमा कर रहे हैं! चैतन्य में अपने जड़ चित्र की महिमा सुन रहे हो। सबसे ज्यादा खुशी किसको है? कोई को कम नहीं है! नम्बरवार तो होंगे ना। सभी नम्बरवन हो? विघ्नजीत में नम्बर-वन कौन है? कोई भी विघ्न आवे लेकिन उसको विनाश करने में नम्बरवन कौन है? कितना टाइम लगता है? एक दिन लगाया वा एक घण्टा लगाया? नम्बरवन अर्थात् कोई भी विघ्न आने के पहले ही मालूम पड़ जाये। अच्छा!
ग्रुप नं. 4
विघ्न-विनाशक बनने के लिये सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनो
सभी अपने को बाप के हर कार्य में सदा साथी समझते हो? जो बाप का कार्य है वह हमारा कार्य है। बाप का कार्य है-पुरानी सृष्टि को नया बनाना, सबको सुख-शान्ति का अनुभव कराना। यही बाप का कार्य है। तो जो बाप का कार्य है वह बच्चों का कार्य है। तो अपने को सदा बाप के हर कार्य में साथी समझने से सहज ही बाप याद आता है। कार्य को याद करने से कार्य-कर्ता की याद स्वत: ही आती है। इसी को ही कहा जाता है सहज याद। तो सदा याद रहती है या करना पड़ता है? जब कोई माया का विघ्न आता है फिर याद करना पड़ता है। वैसे देखो, आपका यादगार है विघ्न-विनाशक। गणेश को क्या कहते हैं? विघ्न- विनाशक। तो विघ्न-विनाशक बन गये कि नहीं? विघ्न-विनाशक अर्थात् सारे विश्व के विघ्न-विनाशक। अपने ही विघ्न-विनाशक नहीं। अपने में ही लगे रहे तो विश्व का कब करेंगे? तो सारे विश्व के विघ्न-विनाशक हो। इतना नशा है? कि अपने ही विघ्नों के भाग-दौड़ में लगे रहते हो?
विघ्न-विनाशक वही बन सकता है जो सदा सर्व शक्तियों से सम्पन्न होगा। कोई भी विघ्न विनाश करने के लिए क्या आवश्यकता है? शक्तियों की ना। अगर कोई शक्ति नहीं होगी तो विघ्न विनाश नहीं कर सकते। इसलिए सदा स्मृति रखो कि बाप के सदा साथी हैं और विश्व के विघ्न-विनाशक हैं। विघ्न-विनाशक के आगे कोई भी विघ्न आ नहीं सकता। अगर अपने पास ही आता रहेगा तो दूसरे का क्या विनाश करेंगे। सर्व शक्तियों का खज़ाना है? या थोड़ा-थोड़ा है? कोई भी खज़ाना अगर कम होगा तो समय पर विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। तो सदा अपना स्टॉक चेक करो कि सर्व खज़ाने हैं, सर्व शक्तियाँ हैं? क्योंकि बाप ने सभी को सर्व शक्तियाँ दी हैं। या किसको कम दी हैं, किसको ज्यादा दी हैं? सबको सर्व शक्तियाँ दी हैं ना। और अपने को कहलाते भी हो-मास्टर सर्वशक्तिवान। तो सर्व शक्तियाँ मेरा वर्सा है। तो वर्सा कभी जा नहीं सकता। वर्से का नशा रहता है ना। अगर किसी को बहुत बड़ा वर्सा मिल जाये तो कितना नशा, कितनी खुशी रहती है! आपको तो अविनाशी वर्सा मिला है। तो नशा भी अवि-नाशी होना चाहिए। तो सदा नशा रहता है? बालक अर्थात् मालिक।
बापदादा बच्चों के सेवा की वृद्धि को देख खुश होते हैं। क्वान्टिटी और क्वालिटी-दोनों हैं ना। दोनों की सेवा का बैलेन्स है? या क्वान्टिटी ज्यादा है, क्वालिटी कम है? बाप को तो क्वान्टिटी भी चाहिए, क्वालिटी भी चाहिए। क्वालिटी की सेवा प्रति किसलिए कहते हैं? क्योंकि एक क्वालिटी वाला अनेक क्वान्टिटी को लायेगा। फिर भी बाप को प्रिय तो आजकल के हिसाब से साधारण आत्मायें ही हैं। वैसे तो विशेष हैं लेकिन आजकल के जमाने के हिसाब से साधारण गिने जाते हैं। यही कमाल है जो साधारण आत्मायें अति श्रेष्ठ बन गयीं! जिन्हों के लिए कोई सोच भी नहीं सकता कि ये आत्मायें इतने वर्से के अधिकारी बनेंगी! दुनिया सोचती रहती और आप बन गये! वो तो ढूँढते रहते-किस वेष में आयेंगे, कब आयेंगे? और आप क्या कहते? पा लिया। तो ‘पा लिया’ की खुशी है ना।
सबसे बड़ा खज़ाना है ही खुशी। अगर खुशी है तो सब-कुछ है और खुशी नहीं तो कुछ भी नहीं। तो मातायें सदा खुश रहती हो? या कभी-कभी मन में रोती भी हो? पाण्डव रोते हैं? आंखों से नहीं रोते, मन से रोते हो? उदास होते हो? कभी-कभी धन्धेधोरी में नुकसान हो जाये तो उदास होते हो ना। तो यह उदास होना भी मन का रोना है। उदास होगा तो हंसी नहीं आयेगी, माना खुशी गायब हो गई ना। अभी उदास भी नहीं हो सकते। क्योंकि प्राप्तियों के आगे ये थोड़ा-बहुत कुछ नुकसान होता भी है तो अखुट प्राप्तियों के आगे यह क्या बड़ी बात है! जब प्राप्तियों को भूल जाते हैं तो उदास होते हैं। कुछ भी हो जाये लेकिन कभी भी बाप का खज़ाना गंवाना नहीं। ‘खुशी’ है बाप का खज़ाना, उसको छोड़ना नहीं है। पहले भी सुनाया था ना कि शरीर चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। इतना पक्का बनना ही ब्राह्मण जीवन है। समझा? उदासी को तलाक दे दो। तलाक देने वाले को साथ नहीं रखा जाता है। तलाक दे दिया तो खत्म हुआ।
पीस पार्क में आयोजित शान्ति-मेले में सेवा के निमित्त सेवाधारियों प्रति
सेवा में तो अच्छी हिम्मत रखने वाले हैं। मेला अच्छा लगाया है। अनेक आत्माओं को सहज शान्ति का अनुभव कराना-यह कितना पुण्य का कार्य है! तो पुण्यात्मा बन पुण्य की पूंजी सेवा द्वारा जमा कर रहे हैं। अच्छी प्यार से सेवा कर रहे हैं। यह सेवा भी खुशी को बढ़ाती है। तो पहले स्वयं को अनुभवी बनाते हैं, फिर दूसरे को अनुभव कराते हैं। भाग्य बनाने का गोल्डन चान्स मिला है। अच्छा है, सहज साधन भी है और सिम्पल भी है। अच्छा! गुजरात के यूथ निर्विघ्न हैं? या थोड़ा-थोड़ा विघ्न है? ‘‘सी (See;देखना) फादर’’ करने से सदा निर्विघ्न रहेंगे। ‘‘सी सिस्टर’’, ‘‘सी ब्रदर’’ करने से कोई न कोई हलचल होती है। सदा ‘‘सी फादर’’। ब्रह्मा बाप ने क्या किया? अच्छा! मातायें तो नाचती रहती हैं। गरबा भी खूब करती हैं और खुशी में नाचती रहती हैं। गरबा करते हैं तो मिलन होता है ना एक-दो से। जो भी डांस करते हैं, तो एक-दो से मिलाते हैं ना। एक हाथ ऊपर करे, दूसरा नीचे करे-तो अच्छा लगेगा? ऐसे संस्कार मिलाने का गरबा करना है। समझा? यह गरबा तो अज्ञानी भी करते हैं। लेकिन ज्ञानियों को कौनसा गरबा करना है? संस्कार मिलाने का। सबके संस्कार बाप समान हों। यह संस्कार मिलाने की डांस आती है? या कभी आती है, कभी नहीं आती है? तो अब यह विशेषता दिखानी है। संस्कार से टक्कर नहीं खाना है, संस्कार मिलाना है। यदि कोई दूसरा गड़बड़ भी करे तो भी आप मिलाओ, आप गड़बड़ नहीं करो। और ही उसको शान्ति का सहयोग दो। तो समझा, विघ्न-विनाशक आत्मायें हो।
सदैव यह अनुभव करो कि हमारा ही यादगार विघ्न-विनाशक है। विघ्न-विनाशक बनने की विधि क्या है, कैसे विघ्न-विनाशक बनेंगे? शान्ति से या सामना करने से या थोड़ा हलचल करने से? शान्त रहना है और शान्ति से सर्व कार्य सम्पन्न करना है। ऐसे नहीं कहना कि थोड़ी हलचल करने से अटेन्शन खिंचवाते हैं। ऐसे नहीं करना। यह अटेन्शन नहीं खिंचवाते लेकिन टेन्शन पैदा करते हैं। इसलिए विघ्न-विनाशक बनना है तो शान्ति से, हलचल करने से नहीं। सदा शान्त। शान्ति की शक्ति-कितना भी बड़ा विघ्न हो, उसको सहज समाप्त कर देती है। तो शान्ति की शक्ति जमा है ना। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
ब्राह्मण जीवन की सेफ्टी का साधन-बाप की छत्रछाया
अपने को हर समय हर कर्म करते बाप की छत्रछाया के अन्दर रहने वाले अनुभव करते हो? छत्रछाया सेफ्टी का साधन हो जाये। जैसे स्थूल दुनिया में धूप से वा बारिश से बचने के लिए छत्रछाया का आधार लेते हैं। तो वह तो है स्थूल छत्रछाया। यह है बाप की छत्रछाया जो आत्मा को हर समय सेफ रखती है-आत्मा कोई भी अल्पकाल की आकर्षण में आकर्षित नहीं होती, सेफ रहती है। तो ऐसे अपने को सदा छत्रछाया में रहने वाली सेफ आत्मा समझते हो? सेफ हो या थोड़ा-थोड़ा सेक आ जाता है? जरा भी इस साकारी दुनिया का माया के प्रभाव का सेंक-मात्र भी नहीं आये। क्योंकि बाप ने ऐसा साधन दिया है जो सेक से बच सकते हो। वह सबसे सहज साधन है-छत्रछाया। सेकेण्ड भी नहीं लगता, बाबा कहा और सेफ! मुख से नहीं, मुख से बाबा-बाबा कहे और प्रभाव में खिंचता जाये-ऐसा कहना नहीं। मन से बाबा कहा और सेफ। तो ऐसे सेफ हो? क्योंकि आजकल की दुनिया में सभी सेफ्टी का रास्ता ढूँढते हैं। कोई भी बात करेंगे तो पहले सेफ्टी सोचेंगे, फिर करेंगे। तो आजकल सेफ्टी सब चाहते हैं-चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म। तो बाप ने भी सदा ब्राह्मण जीवन की सेफ्टी का साधन दे दिया है। चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन आप सदा सेफ रह सकते हो। ऐसे सेफ हो या कभी हलचल में आ जाते हो? कितना सहज साधन दिया है! मेहनत नहीं करनी पड़ी।
मार्ग मेहनत का नहीं है लेकिन अपनी कमजोरी मेहनत का अनुभव कराती है। जब कमजोर हो जाते हो तब मेहनत लगती है, जब शक्तिशाली होते हो तो सहज लगता है। है सहज लेकिन स्वयं ही मेहनत का अनुभव कराने के निमित्त बनते हो। मेहनत में थकावट होती है और सहज में खुशी होती है। अगर कोई भी कार्य सहज सफल होता रहता है तो खुशी होगी ना। मेहनत करनी पड़ी तो थकावट होगी। तो खुशी अच्छी या थकावट अच्छी? बापदादा सदैव बच्चों को यही कहते हैं कि आधा कल्प मेहनत की, अभी भी मेहनत नहीं करो, अभी मौज मनाओ। मौज के समय भी मेहनत करें तो मौज कब मनायेंगे? अभी नहीं तो कभी नहीं मनायेंगे। इसलिए सदा सहज अर्थात् सदा मौज में रहने वाले। तो सदा छत्रछाया में रहते हो। या बाहर निकलकर देखने में मजा आता है? कई अच्छे स्थान पर बैठे भी होंगे, लेकिन आदत होती है देखने की तो अच्छा स्थान छोड़कर भी देखते रहेंगे, बाहर चक्कर लगाते रहेंगे। तो ऐसी आदत तो नहीं है? छत्रछाया के अन्दर रहने की मौज का अनुभव करो। यह क्या है, यह क्यों है, यह कैसा है-ये छत्रछाया के अन्दर से निकलकर चक्कर लगाना है। यह छत्रछाया सदा श्रेष्ठ सेफ रहने की लकीर है। लकीर से बाहर जाने से ‘शोक वाटिका’ मिलती है और लकीर के अन्दर रहने से ‘अशोक वाटिका’। कोई शोक है क्या? कभी-कभी दु:ख की लहर आती है? किसी भी बात में थोड़ा-सा भी, संकल्प में भी अगर दु:ख की लहर आई तो ‘शोक वाटिका’ में हैं। संगमयुग में बाप ‘अशोक वाटिका’ में रहने का साधन बताते हैं और इस समय के अभ्यास से अनेक जन्म अशोक रहेंगे, शोक का नाम-निशान भी नहीं होगा। तो सदा सेफ रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं-यह अनुभव करते चलो। समर्थ बाप, समर्थ बच्चे। तो छत्रछाया पसन्द है ना। अच्छा!
ग्रुप नं. 6
परमात्म-प्यार के पात्र बनो तो सहज मायाजीत बन जायेंगे
सभी अपने को परमात्म-शमा के परवाने समझते हो? परवाने दो प्रकार के होते हैं-एक हैं चक्र लगाने वाले और दूसरे हैं-सेकेण्ड में फिदा होने वाले। तो आप सभी कौनसे परवाने हो? फिदा हो गये हो या होने वाले हो? या अभी थोड़ा सोच रहे हो? सोचना अर्थात् चक्र लगाना। फिदा होने के बाद फिर चक्र नहीं काटना पड़ेगा। सभी हो गये? जब कोई अच्छी चीज मिल जाती है और समझ में आता है कि इससे अच्छी चीज कोई है ही नहीं-तो सोचने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही सौदा किया है ना। बापदादा को भी ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी रत्नों को देख हर्ष होता है। ज्यादा खुशी किसको होती है-बाप को या आपको? बाप कहते हैं-बच्चों को ज्यादा खुशी है तो बाप को पहले है। बापदादा ने, देखो, कहाँ-कहाँ से चुनकर एक बगीचे के रूहानी गुलाब बना दिया। इसी एक परिवार का बनने में कितनी खुशी है! इतना परिवार किसी का भी होगा? फॉलोअर्स हो सकते हैं लेकिन परिवार नहीं। कितनी खुशियां हैं-बाप की खुशी, अपने भाग्य की खुशी, परिवार की खुशी! खुशियाँ ही खुशियाँ हैं ना। आंख खुलते ही अमृतवेले खुशी के झूले में झूलते हो और सोते हो तो भी खुशी के झूले में। अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो किससे पूछें? हर एक कहेगा-मेरे से पूछो। यह शुद्ध नशा है, यह देह-भान का नशा नहीं है। हर एक आत्मा को अपना-अपना रूहानी नशा है। सिर्फ रूहानी नशे को हद का नशा नहीं बनाना।
बापदादा का सबसे ज्यादा प्यार बच्चों से है, उसकी निशानी क्या है? कोई प्रैक्टिकल निशानी सुनाओ। (सभी ने सुनाया) देखो, हर रोज़ इतना बड़ा पत्र (मुरली) कोई नहीं लिखता है। ऐसा प्यार कोई नहीं करेगा। परमात्म-प्यार के पात्र हो। कभी भी एक दिन पत्र मिस हुआ है? ऐसा माशूक सारे कल्प में नहीं हो सकता है। यह सब बातें जो सुनाई वह याद रखना। हर समय यही प्राप्तियां याद रहें तो कभी भी प्राप्ति के आगे और कोई भी व्यक्ति या वस्तु आकर्षित नहीं कर सकते और सदा सहज मायाजीत बन औरों को भी बनायेंगे। अच्छा!
12-11-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
भविष्य विश्व-राज्य का आधार-संगमयुग का स्वराज्य
विश्व-रचता बापदादा अपने स्वराज्य अधिकारी बच्चों प्रति बोले -
आज विश्व-रचता बापदादा अपने सर्व स्वराज्य अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। इस वर्तमान संगमयुग के स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। क्योंकि स्वराज्य से ही विश्व के राज्य का अधिकार प्राप्त करते हो। इस समय के स्वराज्य की प्राप्ति का अनुभव भविष्य विश्व के राज्य से भी अति श्रेष्ठ अनुभव है! सारे ड्रामा के अन्दर राज्य-अधिकारी राज्य करते आते हैं। सबसे श्रेष्ठ पहला है स्वराज्य, जिसके आधार से आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अनेक जन्म सतयुग-त्रेता तक विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। तो पहला है स्वराज्य, फिर आधा कल्प है विश्व-राज्य अधिकार और द्वापर से लेकर के, राज्य तो होता ही है लेकिन विश्व-राज्य नहीं, स्टेट के राजायें बनते हैं। सारे विश्व पर एक राज्य, वह सिर्फ सतयुग में ही होता है। तो तीन प्रकार के राज्य सुनाये। राज्य अर्थात् सर्व अधिकार की प्राप्ति। सतयुग-त्रेता की राजनीति, द्वापर की राजनीति और संगमयुग की स्वराज्य नीति-तीनों को अच्छी रीति से जानते हो।
संगमयुग की राजनीति अर्थात् हर एक ब्राह्मण आत्मा स्व का राज्य अधिकारी बनता है। हर एक राजयोगी है। सभी राजयोगी हो। या प्रजायोगी हो? राजयोगी हो ना। तो राजयोगी अर्थात् राजा बनने वाले योगी। स्वराज्य अधिकारी आत्माओं की विशेष नीति है-जैसे राजा अपने सेवा के साथियों को, प्रजा को जैसा, जो ऑर्डर करते हैं, उस ऑर्डर से, उसी नीति प्रमाण साथी वा प्रजा कार्य करते हैं। ऐसे आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अपनी योग की शक्ति द्वारा हर कर्मेन्द्रिय को जैसा ऑर्डर करती हो, वैसे हर कर्मेन्द्रिय आपके ऑर्डर के अन्दर चलती है। न सिर्फ यह स्थूल शरीर की सर्व कर्मेन्द्रियां लेकिन मन, बुद्धि, संस्कार भी आप राज्य-अधिकारी आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण चलते हैं। जब चाहो, जैसे चाहो-वैसे मन अर्थात् संकल्प शक्ति को वहाँ स्थित कर सकते हो। अर्थात् मन, बुद्धि, संस्कार के भी राज्य-अधिकारी। संस्कारों के वश नहीं लेकिन संस्कार को अपने वश में कर श्रेष्ठ नीति से कार्य में लगाते हो, श्रेष्ठ संस्कार प्रमाण सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो। तो स्वराज्य की नीति है-मन, बुद्धि, संस्कार और सर्व कर्मे-न्द्रियों के ऊपर स्व अर्थात् आत्मा का अधिकार। अगर कोई कर्मेन्द्रियां-कभी आंख धोखा देती, कभी बोल धोखा देता, वाणी अर्थात् मुख धोखा देता, संस्कार अपने कन्ट्रोल में नहीं रहते-तो उसको स्वराज्य अधिकारी नहीं कहेंगे, उसको कहेंगे-स्वराज्य अधिकार के पुरुषार्थी। अधिकारी नहीं लेकिन पुरुषार्थी। वास्तव में राज्य-अधिकारी आत्मा को स्वप्न में भी कोई कर्मेन्द्रिय वा मन, बुद्धि, संस्कार धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि अधिकारी हैं, अधिकारी कभी अधीन नहीं हो सकता। अधीन हैं तो अधिकारी बनने के पुरुषार्थी हैं। तो अपने से पूछो-पुरुषार्थी हो या अधिकारी हो? अधिकारी बन गये या बन रहे हैं? तो स्वराज्य का रूहानी नशा क्या अनुभव कराता है? क्या बन जाते हो? बेफिक्र बादशाह, बेगमपुर के बादशाह!
सबसे बड़े ते बड़ा बादशाह है बेफिक्र बादशाह और सबसे बड़े ते बड़ा राज्य है बेगम्पुर का राज्य। बेगमपुर के राज्य अधिकारी के आगे यह विश्व का राज्य भी कुछ नहीं है। यह बेगमपुर के राज्य का अधिकार अति श्रेष्ठ और सुखमय है। है ही बे-गम। तो बेगमपुर का अनुभव है ना। या कभी-कभी नीचे आ जाते हो? सदा रूहानी नशे में बे॰गमपुर के बादशाह हैं-इस अधिकार में रहो। नीचे नहीं आओ। देखो, आजकल के राज्य में भी अगर कोई कुर्सी पर है तो उसका अधिकार है और कल कुर्सी से उतर आता तो उसका अधिकार रहता है? साधारण बन जाता है। तो आप भी स्वराज्य के नशे में रहते हो, अकाल तख्तनशीन रहते हो। सभी के पास तख्त है ना। तो तख्त को छोड़ते क्यों हो? सदा तख्तनशीन रहो, रूहानी नशे में रहो। अकालतख्त-वह अमृतसर वाला अकाल-तख्त नहीं, यह अकालतख्त। यह अकालतख्त सभी के पास है। तो अकाल तख्तनशीन स्वराज्य अधिकारी किसने बनाया? बाप ने हर ब्राह्मण बच्चे को तख्तनशीन राजा बना दिया है।
सारे सृष्टि-चक्र के अन्दर ऐसा कोई बाप होगा जिसके अनेक सब राजा बच्चे हों! लक्ष्मी-नारायण भी ऐसा नहीं बन सकते। यह परमात्म-बाप ही कहते हैं कि मेरे सभी बच्चे, राजा बच्चे हैं। वैसे दुनिया में कह देते हैं-यह राजा बच्चा है। लेकिन बने कुछ भी-सर्वेन्ट बने या कुछ भी बने। लेकिन कहने में आता है राजा बेटा। लेकिन इस समय आप प्रैक्टिकल में राजयोगी अर्थात् राजे बच्चे बनते हो। तो बाप को भी नशा है और बच्चों को भी नशा है। तो स्वराज्य की नीति क्या रही? स्व पर राज्य, हर कर्मेन्द्रिय के ऊपर अधिकार हो। ऐसे नहीं कि देखने तो नहीं चाहते थे लेकिन देख लिया। आंखें खुली थीं ना, इसलिए देखने में आ गया। कान को दरवाजा नहीं है, इसलिए कान में बात पड़ गई। लेकिन दो कान हैं। अगर ऐसी बात सुन भी ली तो निकालने का भी रास्ता है। इसलिए इस भारत में ही विशेष यह चित्र बापू की याद में बना हुआ है-बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो। यह तीन दिखाते हैं, आप चार दिखाते हो। बुरा सोचो भी नहीं। क्योंकि पहले सोचना होता, फिर बोलना होता, फिर देखना होता है। तो इसलिए कन्ट्रो-लिंग पॉवर, रूलिंग पॉवर रखो। राजा अर्थात् रूलिंग पॉवर। राजा हो और रूलिंग पॉवर हो ही नहीं, तो कौन राजा मानेगा। तो स्वराज्य अर्थात् रूलिंग पॉवर, कन्ट्रोलिंग पॉवर।
बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि कई बच्चे परखने में बहुत होशियार होते हैं। कोई भी गलती होती है, जो नीति प्रमाण नहीं है, तो समझते हैं कि यह नहीं करना चाहिए, यह सत्य नहीं है, यथार्थ नहीं है, अयथार्थ है, व्यर्थ है। लेकिन समझते हुए फिर भी करते रहते या कर लेते। तो इसको क्या कहेंगे? कौनसी पॉवर की कमी है? कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जैसे-आजकल कार चलाते हैं, देख भी रहे हैं कि एक्सीडेन्ट होने की सम्भावना है, ब्रेक लगाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ब्रेक लगे ही नहीं तो जरूर एक्सीडेन्ट होगा ना। ब्रेक है लेकिन पॉवरफुल नहीं है और यहाँ के बजाए वहाँ लग गई, तो भी क्या होगा? इतना समय तो परवश होगा ना। चाहते हुए भी कर नहीं पाते। ब्रेक लगा नहीं सकते या ब्रेक पॉवरफुल न होने के कारण ठीक लग नहीं सकती। तो यह चेक करो। जब ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते हैं तो क्या लिखा हुआ होता है? ब्रेक चेक करो। क्योंकि ब्रेक सेफ्टी का साधन है। तो कन्ट्रोलिंग पॉवर का वा ब्रेक लगाने का अर्थ यह नहीं कि लगाओ यहाँ और ब्रेक लगे वहाँ। कोई व्यर्थ को कन्ट्रोल करने चाहते हैं, समझते हैं-यह रांग है। तो उसी समय रांग को राइट में परिवर्तन होना चाहिए। इसको कहा जाता है कन्ट्रोलिंग पॉवर। ऐसे नहीं कि सोच भी रहे हैं लेकिन आधा घण्टा व्यर्थ चला जाये, पीछे कन्ट्रोल में आये। बहुत पुरूषार्थ करके आधे घण्टे के बाद परिवर्तन हुआ तो उसको कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं, रूलिंग पॉवर नहीं कहा जाता। यह हुआ थोड़ा-थोड़ा अधीन और थोड़ा-थोड़ा अधिकारी-मिक्स। तो उसको राज्य-अधिकारी कहेंगे या पुरुषार्थी कहेंगे? तो अब पुरुषार्थी नहीं, राज्य-अधिकारी बनो। यह स्वराज्य अधिकार का श्रेष्ठ मज़ा है।
स्वराज्य अधिकारी अर्थात् सदा मौज ही मौज में रहना। मौज में रहने वाला कभी किसी बात में मूँझता नहीं है। अगर मूंझते हैं तो मौज नहीं है। तो संगमयुग पर मौज ही मौज है ना। या कभी-कभी मौज है? शक्तियों को, पाण्डवों को मौज है ना। तो समझा, स्वराज्य की नीति क्या है और विश्व-राज्य की नीति क्या है? चाहे प्रजा है, चाहे रॉयल फैमिली है लेकिन प्रजा, प्रजा नहीं, प्रजा भी एक परिवार है। परिवार की नीति-यह है सतयुग-त्रेता की राजनीति। राजा कहलाते हैं लेकिन राजा होते भी परमप्रिय पिता का स्वरूप है। परिवार की विधि से राजनीति चलती है। चाहे राज्य कारोबार भिन्न-भिन्न हाथों में होगी लेकिन परिवार के स्नेह की विधि से कारोबार होगी। ऐसे नहीं कि राजा के पास बहुत धन-दौलत हो और प्रजा में कोई को खाने-पीने के लिये भी नहीं हो। द्वापर-कलियुग की राजनीति में लॉ एण्ड ऑर्डर चलता है। लेकिन विश्व-राज्य, देव-राज्य के समय यही नीति चलती है, लॉ नहीं लेकिन स्नेह और सम्बन्ध की नीति चलती है। कोई भी आत्मा ‘दु:ख’ शब्द को भी नहीं जानती। चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन दु:ख-अशान्ति का नाम-निशान नहीं। दु:ख क्या चीज होती है-उसका अज्ञान है, ज्ञान ही नहीं है। जैसे इस समय स्वराज्य के समय भी आपको बापदादा किस नीति से चलाते हैं? स्नेह और श्रीमत। श्रीमत पर चलते रहते तो कोई भी सख्त ऑर्डर करने की आवश्यकता नहीं है। अगर नीति को भूलते हैं तो स्वयं, स्वयं को कलियुगी नीति में चलाते हैं। तो विश्व के राज्य की नीति भी बहुत प्यारी है। क्योंकि अनेकता नहीं है, एक राज्य है और अखुट खज़ाना है! प्रजा भी इतनी सम्पन्न होगी-आजकल के जो बड़े-बड़े पद्मपति हैं, उन्हों से भी ज्यादा! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं। लेकिन इसका आधार क्या? स्वराज्य।
इस समय सम्पन्न बनते हो, इसलिए परमात्म-सम्पत्ति की सम्पन्नता सतयुग-त्रेता के अनेक जन्म प्राप्त होती है। इसलिए कहा-नम्बरवन राज्य है स्वराज्य, फिर है विश्व-राज्य और तीसरा है द्वापर-कलियुग का अलग-अलग स्टेट का राज्य। इस राज्य को तो अच्छी तरह जानते ही हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। तो सदा किस नशे में रहना है? स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है! किस जन्म का? ब्राह्मण जन्म का। ब्रह्मा बाप ने जन्मते ही स्वराज्य का तिलक हर ब्राह्मण आत्मा को लगाया। तिल-कधारी हो ना। तिलक है स्मृति का। तिलक भी है, तख्त भी है और ताज भी है। ताजधारी हो ना। कौनसा ताज है? विश्व-कल्याण का ताज। विश्व-कल्याणकारी हो ना। प्योरिटी का ताज और विश्व-कल्याण का ताज-डबल ताज है। प्योरिटी का ताज है-लाइट का ताज और विश्व-कल्याण का ताज है-सेवा का ताज।
विश्व-सेवाधारी हो ना। ऐसे नहीं कि स्टेट के सेवाधारी समझो-हम गुजरात के हैं, हम राजस्थान के हैं, हम दिल्ली के सेवाधारी हैं। नहीं। विश्व-सेवाधारी। कहाँ भी रहते हैं लेकिन वृत्ति और दृष्टि बेहद की। अगर विश्व-सेवाधारी नहीं बनेंगे तो न स्वराज्य, न विश्व-राज्य, फिर द्वापर-कलियुग में स्टेट का राजा बनना पड़ेगा। लेकिन विश्व-राज्य अधिकारी के लिए सदा अपना ताज, तिलक और तख्त-सदा इस पर स्थित रहो। शरीर से तख्त पर नहीं बैठना है लेकिन बुद्धि द्वारा स्मृति की स्थिति से स्थित रहना है। स्थिति में स्थित होना-यही तख्त पर बैठना है, जो सदैव बैठ सकते हैं। शरीर से तो कितने घण्टे बैठेंगे? थक जायेंगे ना। लेकिन बुद्धि द्वारा स्थिति में स्थित रहना-यह है तख्तनशीन होना। यह तो सहज है ना। तो स्वराज्य के नशे में निरन्तर स्थित रहो। समझा, क्या करना है? पुरुषार्थी नहीं लेकिन अधिकारी बनना।
सभी ने मिलन मनाया ना। सभी भाग-भाग कर आते हैं परमात्म-मिलन का मेला मनाने के लिए। तो मिलन के मेले में आये हो ना। यह मेला लगता है या भीड़ लगती है? आराम है ना। आराम से रहना, खाना, चलना-सब आराम से है ना। फिर भी बहुत लक्की हो। उन मेलों के माफिक मिट्टी में तो नहीं रहे हुए हो। फिर भी बिस्तरा और खटिया तो मिली हुई है ना। वहाँ मेले में तो नहाओ तो भी मिट्टी, रहो तो भी मिट्टी और खाओ तो भी मिट्टी साथ में आयेगी। यहाँ बच्चे आते हैं अपने घर में। नशे से आते हो। बाप भी खुश और बच्चे भी खुश। हाल में पीछे बैठने वाले सबसे आगे हो। क्योंकि बापदादा की पहली नज़र लास्ट तक जाती है। अच्छा!
सर्व स्वराज्य-अधिकारी बेफिक्र बादशाह बच्चों को, सर्व विश्व-राज्य अधिकारी अनेक जन्म सम्पूर्ण सम्पन्न रहने वाली आत्माओं को, सदा तिलक, ताज और तख्तनशीन अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद की सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले विशेष बच्चों को, देश-विदेश के सर्व सम्मुख अनुभव करने वाले बच्चों को बापदादा का पद्मगुणा याद, प्यार। साथ-साथ सर्व के स्नेह के पत्रों का भी रेसपान्ड दे रहे हैं। विदेश और देश-दोनों अपने-अपने विधि प्रमाण स्व के पुरूषार्थ में सिद्धि को प्राप्त कर रहे हैं और सेवा में भी सदा आगे बढ़ने के उत्साह में लगे हुए हैं। इसलिए हर एक किसी भी कोने में रहने वाले हों लेकिन उन्हों की याद, सेवा-समाचार, प्यार के पत्र, स्थिति के उमंग-उत्साह का समाचार-सब प्राप्त हुआ और बापदादा सभी बच्चों को बहुत-बहुत-बहुत नाम सहित, हर एक की विशेषता सहित याद, प्यार दे रहे हैं और सदा इसी याद, प्यार की पालना से पल रहे हो, उड़ रहे हो और उड़ते-उड़ते मंजिल पर पहुँचना ही है वा यह कहें कि पहुँचे हुए ही हो। तो याद, प्यार और नमस्ते।
राजस्थान के राज्यपाल डॉ.एम.चन्ना रेड्डीजी से मुलाकात
संगमयुग के स्वराज्य-अधिकारी हो ना। स्वराज्य मिला ना। अच्छा, अपने ईश्वरीय परिवार का स्नेह प्रैक्टिकल में देखा। यह ईश्वरीय परिवार के प्यार का अधिकार किस विशेषता से प्राप्त किया? (बाबा के आशीर्वाद से)। लेकिन आपकी भी एक विशेषता है, जिस विशेषता के कारण समीप आ सके। (भक्ति) भक्ति भी है, और शक्ति भी है। आदि से अब तक जीवन में आगे बढ़ने का आधार जो है, वो है आपकी हिम्मत। गाया हुआ है-’’हिम्मते बच्चे मददे बाप’’। तो हर क्षेत्र में हिम्मत ने आपको सहारा दिया है, इसलिए हिम्मत के कारण बेफिक्र होकर आगे बढ़े हो। तो इसी विशेषता को सदा साथ रखना। सदा अमृतवेले जब आंख खुले तो अपने को तीन बिन्दियों का तिलक लगाना - (1) मैं आत्मा बिन्दु हूँ, (2) बाप भी बिन्दु है और (3) जो ड्रामा में हो गया, बीत चुका उसका फुलस्टॉप लगाना। तो यह तीन बिन्दियों का तिलक सदा ही राज्य-तिलक का अधिकारी बनायेगा। अभी स्वराज्य फिर विश्व का राज्य। भक्ति का फल तो मिलता है ना। भक्ति का फल है सहज मिलन। (युगल से) बच्ची भी अच्छी मौज में रहती है। मौज ही मौज है ना। (आपका आशीर्वाद चाहिए) सारा दिन सिर्फ एक शब्द याद रखो, वो है-’’मेरा बाबा’’। तो ‘मेरा’ कहने से अधिकार हो जायेगा। तो आशीर्वाद का अधिकार स्वत: ही प्राप्त होगा। यह तो सहज है ना। कोई भी कार्य करो लेकिन यह याद रखो कि ‘मेरा बाबा’ और बाबा का यह कार्य कर रही हूँ। ट्रस्टी होकर कार्य करो। तो ट्रस्टी को कभी कोई बोझ नहीं होता है। न बोझ होगा, न भूलेंगे। फिर भी भक्ति में याद तो किया है ना। याद का रिटर्न है-मौज में रहना। (कृष्ण की भक्त है) तो कृष्ण के राज्य में चलना है ना। तो अभी चलेंगी? ये सब आपको लेकर ही जायेंगे, कोई छोड़कर नहीं जायेंगे। फिर भी दोनों के अच्छे विचार हैं। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
स्व-स्थिति को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो परिस्थिति कभी नीचे-ऊपर न कर सके
सदा अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते रहते हो? भाग्य का सितारा कितना श्रेष्ठ चमक रहा है! सदा अपने भाग्य के गीत गाते रहते हो? क्या गीत है? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! यह गीत सदा बजता रहता है? आटोमेटिक है या मेहनत करनी पड़ती है? आटोमेटिक है ना। क्योंकि भाग्यविधाता बाप अपना बन गया। तो जब भाग्यविधाता के बच्चे बन गये, तो इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! बस यही स्मृति सदा रहे कि भाग्यविधाता के बच्चे हैं। दुनिया वाले तो अपने भाग्य का वरदान लेने के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं और आप सभी को घर बैठे भाग्य का खज़ाना मिल गया। मेहनत करने से छूट गये ना। तो मेहनत भी नहीं और प्राप्ति भी ज्यादा। इसको ही भाग्य कहा जाता है-जो बिना मेहनत के प्राप्त हो जाये। एक जन्म में 21 जन्म की प्राप्ति करना-यह कितना श्रेष्ठ हुआ! और प्राप्ति भी अविनाशी और अखण्ड है, कोई खण्डित नहीं कर सकता। माया भी सरेन्डर हो जाती है, इसलिए अखण्ड रहता है। कोई लड़ाई करके विजय प्राप्त करना चाहे तो कर सकेगा? किसकी ताकत नहीं है। ऐसा अटल-अखण्ड भाग्य पा लिया! स्थिति भी अभी ऐसी अटल बनाओ। कैसी भी परिस्थिति आये लेकिन अपनी स्थिति को नीचे-ऊपर नहीं करो। अविनाशी बाप है, अविनाशी प्राप्तियां हैं। तो स्थिति भी क्या रहनी चाहिए? अविनाशी चाहिए ना। सभी निर्विघ्न हो? कि थोड़ा-थोड़ा विघ्न आता है? विघ्न-विनाशक गाये हुए हो ना। कैसा भी विघ्न आये, याद रखो-मैं विघ्न-विनाशक आत्मा हूँ। अपना यह टाइटल सदा याद है? जब मास्टर सर्वशक्तिवान हैं, तो मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कितना भी बड़ा कुछ भी नहीं है। जब कुछ है ही नहीं तो उसका प्रभाव क्या पड़ेगा?
ग्रुप नं. 2
सदा खुश रहने के लिये ‘अनेक’ मेरे को ‘एक’ मेरे में परिवर्तन करो
सभी सदा खुश रहते हो? सदा खुश रहने का सहज पुरूषार्थ कौन सा है? (याद) याद में भी क्या याद रखना सहज है? मेरापन सहज कर देता है। मेरापन होता है तो मेरा सहज याद आता है। तो मेरे के अधिकार से याद करना-ये है सहज विधि। अगर खुशी कम होती है तो उसका कारण ही है कि मेरे के अधिकार से बाप को याद नहीं किया। क्योंकि याद में जो विघ्न डालता है वो है ही मेरा-पन। मेरा शरीर, मेरा सम्बन्ध-यही मेरापन विघ्न डालता है। इसलिए इस ‘अनेक मेरे-मेरे’ को ‘एक मेरा बाबा’ में बदल दो। यही सहज विधि है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़े ते बडी प्राप्ति है ही खुशी। अगर खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। ब्राह्मण जीवन का श्वांस है खुशी। इसलिए सदा खुश रहो। बाप मिला अर्थात् सबकुछ मिला। खुशी गायब तब होती है जब कोई अप्राप्ति होती है। तो ब्राह्मण अर्थात् सबकुछ मिला। प्राप्ति की निशानी है खुशी। खुश रहने वाले भी हो और खुशी बांटने वाले भी। बांटेगा कौन? जिसके पास स्टॉक होगा। अपने लिए तो स्टॉक है लेकिन दूसरे के लिए इतना ही स्टॉक जमा हो। तो सदैव अपना स्टॉक चेक करो कि इतना भरपूर है? ऐसे तो नहीं कि अन्दर ही अन्दर से स्टॉक माया खत्म कर ले और आप समझते रहें कि अभी स्टॉक है! जब कोई परिस्थिति आती है तो कहते हैं कि पता नहीं मेरी खुशी कहाँ चली गई? क्यों चली गई? अन्दर ही अन्दर स्टॉक खत्म हो गया। तो सदैव ही अपना स्टॉक चेक करो कि भरपूर है? क्योंकि माया को भी ब्राह्मण आत्माए प्रिय लगती हैं। वो भी अपना बनाने का पुरूषार्थ नहीं छोड़ती। इसलिए हर समय खबरदार, होशियार!
ग्रुप नं. 3
ब्रह्मा बाप के संस्कारों को अपना संस्कार बनाना ही फॉलो फादर करना है
सदा अपने को विश्व-परिवर्तक अनुभव करते हो? विश्व-परिवर्तन करने की विधि क्या है? स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन। बहुत-काल के स्व-परिवर्तन के आधार से ही बहुतकाल का राज्य-अधिकार मिलेगा। स्व-परिवर्तन बहुतकाल का चाहिए। अगर अन्त में स्व-परिवर्तन होगा तो विश्व-परिवर्तन के निमित्त भी अन्त में बनेंगे, फिर राज्य भी अन्त में मिलेगा। तो अन्त में राज्य लेना है कि शुरू से लेना है? अच्छा, लेना शुरू से है और करना अन्त में है? अगर लेना बहुतकाल का है तो स्व-परिवर्तन भी बहुतकाल का चाहिए। क्योंकि संस्कार बनता है ना। तो बहुतकाल का संस्कार न चाहते हुए भी अपनी तरफ खींचता है। जैसे अभी भी कहते हो कि मेरा यह पुराना संस्कार है ना, इसीलिए न चाहते भी हो जाता है। तो वह खींचता है ना। तो यह भी बहुत समय का पक्का पुरू-षार्थ नहीं होगा, कच्चा होगा, तो कच्चा पुरूषार्थ भी अपनी तरफ खींच्ोगा और रिजल्ट क्या होगी? फुल पास नहीं हो सकेंगे ना। इस-लिए अभी से स्व-परिवर्तन के संस्कार बनाओ। नेचुरल संस्कार बन जाये। जो नेचुरल संस्कार होते हैं उनके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।
स्व-परिवर्तन का विशेष संस्कार क्या है? जो ब्रह्मा बाप के संस्कार वो बच्चों के संस्कार। तो ब्रह्मा बाप ने अपना संस्कार क्या बनाया, जो साकार शरीर के अन्त में भी याद दिलाया? निराकारी, निर्विकारी, निरअहंकारी-ये हैं ब्रह्मा बाप के अर्थात् ब्राह्मणों के संस्कार। तो ये संस्कार नेचुरल हों। निराकार तो हो ही ना, ये तो निजी स्वरूप है ना। और कितने बार निर्विकारी बने हो! अनेक बार बने हो ना। ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है निरहंकारी। तो ये ब्रह्मा के संस्कार अपने में देखो कि सचमुच ये संस्कार बने हैं? ऐसे नहीं-ये ब्रह्मा के संस्कार हैं, ये मेरे संस्कार हैं। फॉलो फादर है ना। पूरा फॉलो करना है ना। तो सदा ये श्रेष्ठ संस्कार सामने रखो। सारे दिन में जो भी कर्म करते हो, तो हर कर्म के समय चेक करो कि तीनों ही संस्कार इमर्ज रूप में हैं? तो बहुत समय के संस्कार सहज बन जायेंगे। यही लक्ष्य है ना! पूरा बनना है तो जल्दी-जल्दी बनो ना। समय आने पर नहीं बनना है, समय के पहले अपने को सम्पन्न बनाना है। समय रचना है और आप मास्टर रचयिता हैं। रचता शक्तिशाली होता है या रचना? तो अभी पूरा ही स्व-परिवर्तन करो। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में कब-कब नहीं है। अब। तो ऐसे पक्के ब्राह्मण हो ना।
ग्रुप नं. 4
सफलता का आधार है - दिव्यता
बापदादा द्वारा हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिला है। यह दिव्य बुद्धि का वरदान सभी ने अपने जीवन में कार्य में लगाया है? क्योंकि वरदान का लाभ तब होता है जब वरदान को कार्य में लगायें। तो दिव्य बुद्धि का वरदान मिला सबको है लेकिन यूज़ कितना करते हो? कोई भी चीज यूज करने से, कार्य में लगाने से बढ़ती भी है और उसको सुख की, खुशी की अनुभूति भी होती है। तो दिव्य बुद्धि को कार्य में कहाँ तक लगाते हैं, उसकी निशानी क्या होगी? सफलता होगी। हर कार्य दिव्य-अलौकिक अनुभव होगा, साधारण नहीं। क्योंकि कार्य में दिव्यता ही सफलता का आधार है। तो दिव्य बुद्धि की निशानी है-हर कर्म में दिव्यता। तो ऐसे अनुभव करते हो? या कभी साधारण कर्म भी हो जाते हैं?
दिव्य बुद्धि प्राप्त करने वाली आत्मायें सदा अदिव्य को भी दिव्य बना देती हैं। जैसे गाया जाता है कि पारस अगर लोहे को लगता है तो वह भी पारस बन जाता है। तो दिव्य बुद्धि अर्थात् पारस बुद्धि। ऐसे बने हो? क्योंकि बुद्धि हर बात को ग्रहण करती है। दिव्य बुद्धि दिव्यता को ही ग्रहण करेगी। ऐसे परिवर्तन कर सकते हो। अदिव्य को दिव्य बना सकते हो। या अदिव्यता का प्रभाव पड़ जायेगा? कोई अदिव्य बात हो जाये, अदिव्य कार्य हो जाये-उसका प्रभाव आपके ऊपर पड़ेगा? दिव्य बुद्धि के वरदान से परिवर्तन-शक्ति अदिव्य को भी दिव्य के रूप में बदल देगी। अदिव्य वातावरण या अदिव्य चलन, बोल दिव्य बुद्धि के ऊपर असर नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति वाले को ही दिव्य बुद्धि वरदानी मूर्त कहा जायेगा। जैसे-वाटर-प्रूफ होता है, आग-प्रूफ होता है। साइन्स के साधन वाटर-प्रूफ बना देते हैं, आग-प्रूफ बना सकते हैं। तो साइलेन्स की शक्ति परिवर्तन नहीं कर सकती है, प्रूफ नहीं बना सकते हैं? नॉलेज रखना और चीज है-यह दिव्य है, यह अदिव्य है। लेकिन प्रभाव में आना और चीज है। दिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है या अदिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है? तो दिव्यता का प्रभाव अदिव्यता पर पड़ना चाहिए ना। तो अभी दिव्य बुद्धि के वरदान को कार्य में लगाओ। लगाना तो आता है या कभी भूल जाते हो? आधा कल्प भूलने वाले बने लेकिन अभी अभूल बनना है।
दिव्य बुद्धि ऐसा श्रेष्ठ यन्त्र है जो इस यन्त्र द्वारा व्यक्ति तो क्या, प्रकृति को भी दिव्य बना सकते हो। व्यक्ति को दिव्य बनाने से प्रकृति के ऊपर स्वत: ही प्रभाव पड़ता जायेगा। पहले अपने में देखो कि सदा दिव्य बुद्धि इमर्ज रूप में है? इतनी ताकत है जो प्रकृति को भी परिवर्तन कर दो। यह परमात्म-वरदान है। कोई महात्मा या धर्मात्मा का वरदान नहीं है। तो जैसे बाप सर्वशक्तिवान है, तो वरदान भी सर्वशक्तिवान है ना। तो जब भी कोई कार्य करते हो, पहले चेक करो कि दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा कार्य कर रहे हैं या साधारण बुद्धि से कार्य कर रहे हैं? आपकी दिव्यता का प्रभाव विश्व को दिव्य बना देता है। यही आपका ऑक्यूपेशन है ना। इन्जीनियर हूँ, डॉक्टर हूँ, क्लर्क हूँ, फलाना हूँ...-यह ऑक्यूपेशन तो शरीर निर्वाह के अर्थ है। लेकिन वास्तविक ऑक्यूपेशन है-विश्व को परिवर्तन करना। ऐसे समझ कर कार्य करते हो?
अगर वरदान को कार्य में लगाते हो तो वरदान की प्राप्ति सदा सहज अनुभव करायेगी। वरदान में मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो यह दिव्य बुद्धि वरदान है। 63 जन्म मेहनत बहुत कर ली। अभी मेहनत नहीं, सहज। ब्राह्मण जीवन में भी अगर मेहनत करनी पड़ती, युद्ध करनी पड़ती-तो मौज कब मनायेंगे? सतयुग में तो पता ही नहीं होगा कि मौज भी मना रहे हैं। वहाँ कंट्रास्ट नहीं होगा। अभी तो कंट्रास्ट है-मेहनत क्या है, मौज क्या है? तो मौज अभी है, सतयुग में कॉमन बात होगी। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
परिवर्तन शक्ति द्वारा व्यर्थ को समर्थ बनाना ही होली हंस बनना है
सदा अपने को होली हंस समझते हो? होली हंस का कर्तव्य क्या है? व्यर्थ और समर्थ को परखना। वो तो कंकड़ और रत्न को अलग करता लेकिन आप होली हंस समर्थ को धारण करते हो, व्यर्थ को समाप्त करते हो। तो समर्थ और व्यर्थ, इसको परखना और परिवर्तन करना-यह है होली हंस का कर्तव्य। सारे दिन में व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ सम्बन्ध-सम्पर्क जो भी होता है, उस व्यर्थ को समाप्त करना-यह है होली हंस। कोई कितना भी व्यर्थ बोले लेकिन आप व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन कर दो। व्यर्थ को अपनी बुद्धि में स्वीकार नहीं करो। अगर एक भी व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म स्वीकार किया तो एक व्यर्थ अनेक व्यर्थ को जन्म देगा। एक व्यर्थ बोल भी स्पर्श हो गया तो वह अनेक व्यर्थ का अनुभव करायेगा, जिसको आप लोग कहते हो-फीलिंग आ गई। एक व्यर्थ संकल्प की फीलिंग आई तो वह फीलिंग को बढ़ायेगी। इसीलिए व्यर्थ की पैदाइस बहुत फास्ट होती है-चाहे कर्म हो, चाहे क्या भी हो। एक व्यर्थ बोल बोलेंगे तो उसे सिद्ध करने के लिए कितने व्यर्थ बोल बोलने पड़ेंगे! जैसे लोग कहते हैं ना-एक झूठ को सिद्ध करने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते हैं!
तो व्यर्थ का खाता समाप्त हो जाये और सदा समर्थ का खाता जमा होता रहे। वो व्यर्थ आपको दे लेकिन आप परिवर्तन कर समर्थ धारण करो। इतनी तीव्र परिवर्तन-शक्ति चाहिए। जैसे-आज की साइन्स व्यर्थ को कार्य में लगा कर अच्छा बना देती है, कई वेस्ट चीजों को बेस्ट में परिवर्तन कर लेते हैं। आपकी रचना इतना फास्ट परिवर्तन कर सकती है। जैसे-देखो, खाद होती है ना, तो खाद बुरी चीज है लेकिन पैदा क्या करती है? खाद गन्दी है लेकिन जब फूल पैदा होता है तो खुशबू वाला होता है। या बदबू वाला होता है? तो खाद में परिवर्तन करने की शक्ति है ना। स्वयं कैसी भी है लेकिन पैदा क्या करती है? फल, फूल, सब्जियां....। तो आपकी रचना में कितनी शक्ति है! तो आप में उससे ज्यादा शक्ति है ना। वो गाली दे और आप उसको फूल बनाकर धारण करो। वो गुस्सा करे और आप उसको शान्ति का शीतल जल दो। यह परिवर्तन-शक्ति चाहिए। होली हंस का यही कर्तव्य है। ऐसी जीवन बनी है? या कहेंगे-क्या करें, बोला ही खराब ना, किया ही बहुत खराब बात, है ही बहुत खराब? लेकिन खराब को ही तो अच्छा बनाना है। अच्छे को तो अच्छा नहीं बनाना है। अच्छे आये थे या खराब आये थे? तो बाप ने अच्छा बनाया ना। या कहा कि ये बहुत खराब हैं, इनको अच्छा कैसे बनाऊं? सोचा? बना दिया ना। तो बाप ने आप सभी को बुरे से अच्छा बनाया और आप बुरी बात को अच्छा नहीं बना सकते? बुरे का प्रभाव आपके ऊपर पड़ जाता है। वायुमण्डल ही खराब था ना। यह होली हंस का लक्षण नहीं है।
कैसा भी वातावरण हो, कैसी भी वृत्ति हो, कैसी भी वाणी हो, कैसी भी दृष्टि हो-लेकिन होली हंस सबको होली बना देते हैं। सदा यह पॉवर रहे और सदा ऐसे तीव्रगति के परिवर्तन करने की विधि आ जाये तो क्या बन जायेंगे? फरिश्ता। फरिश्ता किसके प्रभाव में नहीं आता। अपना कार्य किया और वो चला। फरिश्ता कभी किसी विघ्न के वश नहीं होता-न विघ्न के, न व्यक्ति के। तो होली हंस अर्थात् फरिश्ता। सेवा की और न्यारा। तो ऐसी स्थिति सदा है? ऐसे होली हंस बने हो या बन रहे हो? कब तक बनेंगे? कोई टाइम की हद भी है या नहीं? अगले साल भी यही कहेंगे कि-हाँ, बन रहे हैं? नॉलेजफुल बन गये हो ना। तो जब नॉलेज है कि मुझ होली हंस का कर्तव्य क्या है, तो नॉलेज की शक्ति से परिवर्तन नहीं कर सकते हो? दूसरे साल भी यह नहीं कहना कि बन रहे हैं।
तीव्र पुरुषार्थी का लक्ष्य ही होता है-’अब’ और ढीले पुरुषार्थी का लक्ष्य होता है-’कब’। तो तीव्र पुरुषार्थी हो ना। बापदादा तो सदैव हर आत्मा में श्रेष्ठ भावना रखते हैं कि करने वाले ही हैं। इसलिए इस श्रेष्ठ भावना को प्रैक्टिकल में लाना होगा-अब करना ही है, होना ही है। अगर संकल्प में लक्ष्य है कि होना ही है, करना ही है-तो यह संकल्प सफलता अवश्य प्राप्त कराता है। क्योंकि दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो सदा सफलता साथ रखना।
ग्रुप नं. 6
साधारणता में महानता का अनुभव कराना ही सेवा का सहज साधन है
सबसे साहूकार से साहूकार कौन है? जो समझते हैं कि सारे चक्र के अन्दर साहूकार से साहूकार हम आत्मा हैं, वो हाथ उठाओ। किसमें साहूकार हो? कितने प्रकार के धन मिले हैं? वो लिस्ट याद रहती है? बहुत खज़ाने मिले हैं! एक दिन में कितनी कमाई करते हो, मालूम है? पद्मों की कमाई करते हो। रहते गांव में हो और पद्मों की कमाई कर रहे हो! देखो, यही परमात्मा पिता की कमाल है जो देखने में साधारण लेकिन हैं सबसे साहूकार में साहूकार! तो अखबार में निकालेंगे-यहाँ सबसे साहूकार में साहूकार बैठे हैं। तो फिर सब आपके पीछे आयेंगे। आजकल आतंकवादी साहूकारों के पीछे पड़ते हैं ना। फिर आपके पीछे पड़ जायेंगे तो क्या करेंगे? उन्हों को भी साहूकार बना देंगे ना। हैं देखो कितने साधारण रूप में, कोई आपको देखकर समझेंगे कि ये सारे विश्व में साहूकार हैं या पद्मों की कमाई करने वाले हैं? लेकिन साधारणता में महानता समाई हुई है। जितने ही साधारण हो उतने ही अन्दर महान हो! तो यह नशा रहता है-बाप ने क्या से क्या बना दिया और क्या-क्या दे दिया! दोनों ही बातें याद रहती हैं ना। तो अखबार में निकालेंगे ना-रिचेस्ट इन दी वर्ल्ड (Richest In The World; विश्व में सबसे अधिक धनवान)।
और देखो, खज़ाना भी ऐसा है जिसको न चोर लूट सकता है, न आग जला सकती है, न पानी डूबो सकता है। ऐसा खज़ाना बाप ने दे दिया। अविनाशी खज़ाना है ना। अविनाशी खज़ाना कोई विनाश कर नहीं सकता। और कितना सहज मिल गया! जितना खज़ाना है उसके अन्तर में मेहनत की है कुछ? त्याग किया या भाग्य मिला? त्याग भी किया तो बुराई का किया ना। बुराई छोड़ना भी कोई छोड़ना हुआ क्या? दुनिया कहती है-त्याग किया और आप कहते हो-भाग्य मिला है। साहूकार को साहूकार बनाना बड़ी बात नहीं हुई ना। गरीब को साहूकार बनाना-यह है कमाल। जो आजकल के विनाशी धन के साहूकार हैं उनको बाप साहूकार नहीं बनाता। उनका भाग्य ही नहीं है। भाग्य है ही गरीबों का। कभी आपका नाम आया है ‘हू इज हू’ (Who Is Who; नामीग्रामी व्यक्तियों की लिस्ट) में? औरों का आता है ना। और बाप की डिक्शनरी में, ‘हू इज हू’ में आपका नाम है। भगवान का बुक ही न्यारा है। तो इतनी खुशी है? धरती और आकाश को माप लो, उससे भी ज्यादा खुशी है ना। बेअन्त है ना। आकाश और धरती तो हद हो जायेगी ना। आपकी उससे भी बेहद है। बेहद के मालिक बन गये हो ना। जब बाप भी बेहद का बाप है, तो प्राप्ति भी बेहद की करा-येगा ना। तो क्या याद रहता है? बेहद का बाप मिला, बेहद का राज्य-भाग्य मिला, बेहद का खज़ाना मिला। है नशा? हर कर्म में यह रूहानी नशा अनुभव होना चाहिए-स्वयं को भी और औरों को भी। चाहे वे समझें, नहीं समझें, इतना तो कहेंगे ना कि ये खुशी-मौज में रहते हैं। यह तो अनुभव करा सकते हो ना। जैसे-मधुबन में आते तो अन्जान भी हैं, लेकिन क्या अनुभव करते हैं? यहाँ का वातावरण और यहाँ की आत्माए खुश रहने वाली हैं, वायुमण्डल में खुशी है-यह तो अनुभव करते हैं ना। तो ऐसे आप सबके सम्बन्ध-सम्पर्क में अनुभव करें कि ये अलौकिक आत्माए हैं, भरपूर आत्माए हैं। ऐसा अनुभव करते हैं। चाहे देह-अभिमान के कारण कहें नहीं, लेकिन अन्दर तो जानते हैं ना। क्योंकि अगर बाहर से आपको कहें, तो खुद को भी बनना पड़े ना। इसीलिए कहेंगे नहीं लेकिन अन्दर में महसूस जरूर होगा। तो ऐसे श्रेष्ठ हो ना। इसलिए गायन है कि अगर अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो....। आपसे पूछें?
देखो, भगवान की पसन्दगी क्या है? जिसको कोई पसन्द नहीं करते उसको बाप पसन्द करते हैं! बाप की नज़र किसके ऊपर गई? आप लोगों के ऊपर। इतने नामीग्रामी लोगों पर नज़र नहीं गई। कहते हैं ना-तुम्हारी गत-मत तुम ही जानो, और कोई नहीं जानता। तो नशा है कि परमात्मा ने हमको पसन्द किया है। डबल विदेशी डबल नशे में रहते हैं। भारतवासियों को तो भारत में ही आकर चुना। लेकिन डबल विदेशियों को कहाँ से चुना? इतना दूर से बाप ने हमको चुना। तो डबल नशा है ना। जैसे आत्मा और शरीर साथ-साथ हैं और सदा साथ हैं, ऐसे यह नशा आत्मा के सदा साथ है। तो ऐसे नशे में रहने वाली श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माए! सदा खुशी में नाचने वाले। कोई प्राप्ति होती है तो खुशी में नाचते हैं। आपको तो हर कदम में प्राप्ति ही प्राप्ति है। इतनी प्राप्ति है जो दिल कहता है कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु परमात्म-खज़ाने में। इस समय का यही गीत है-ब्राह्मणों के खज़ानों में सर्व प्राप्तियाँ हैं। अच्छा!
21-11-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो
बेफिक्र बादशाह बनाने वाले बापदादा अपने प्रसन्नचित्त बच्चों प्रति बोले -
आज सर्व खज़ानों के देने वाले बाप सर्व बच्चों के जमा का खाता देख रहे थे। खज़ाने तो सर्व बच्चों को अखुट मिले हैं और सर्व को एक जैसा, एक द्वारा सर्व खज़ाने मिले हैं। एक खज़ाना नहीं लेकिन अनेक खज़ाने प्राप्त हुए हैं। फिर भी जमा का खाता हर एक का अलग-अलग है। कोई ने सर्व खज़ाने अच्छी रीति जमा किये हैं और कइयों ने यथा शक्ति जमा किया है। और जितना ही जमा किया है उतना ही चलन और चेहरे में वह रूहानी नशा दिखाई देता है, जमा करने का रूहानी फखुर अनुभव होता है। रूहानी फखुर की पहली निशानी यही है कि जितना फखुर है उतना बेफिक्र बादशाह की झलक उनके हर कर्म में दिखाई देती है। क्योंकि जहाँ रूहानी फखुर है वहाँ कोई फिक्र नहीं रह सकता। यह फखुर और फिक्र-दोनों एक समय, एक साथ नहीं रह सकते हैं। जैसे रोशनी और अंधकार साथ नहीं रह सकते हैं।
बेफिक्र बादशाह की विशेषता-वह सदा प्रश्नचित्त के बजाए प्रसन्नचित्त रहते हैं। हर कर्म में-स्व के सम्बन्ध में वा सर्व के सम्बन्ध में वा प्रकृति के भी सम्बन्ध में किसी भी समय, किसी भी बात में संकल्प-मात्र भी क्वेश्चन मार्क नहीं होगा कि ‘यह ऐसा क्यों’ वा ‘यह क्या हो रहा है’, ‘ऐसा भी होता है क्या’? प्रसन्नचित्त आत्मा के संकल्प में हर कर्म को करते, देखते, सुनते, सोचते यही रहता है कि जो हो रहा है वह मेरे लिए अच्छा है और सदा अच्छा ही होना है। प्रश्नचित्त आत्मा ‘क्या’, ‘क्यों’, ‘ऐसा’, ‘वैसा’-इस उलझन में स्वयं को बेफिक्र से फिक्र में ले आती है। और बेफिक्र आत्मा बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तन कर लेती, इसलिए वह सदा प्रसन्न रहती।
आजकल के साइन्स के साधन से भी जो वेस्ट-खराब माल होता है, उसको परिवर्तन कर अच्छी चीज बना देते हैं। तो प्रसन्नचित्त आत्मा साइलेन्स की शक्ति से-चाहे बात बुरी हो, सम्बन्ध बुरे अनुभव होते हों, लेकिन वह बुराई को अच्छाई में परिवर्तन कर स्वयं में भी धारण करेगी और दूसरे को भी अपनी शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प से बुराई को बदल अच्छाई धारण करने की शक्ति देगी। कई बच्चे सोचते हैं, कहते हैं कि-’’जब है ही बुरी वा गलत बात, तो गलत को गलत तो कहना ही पड़ेगा ना! वा गलत को गलत तो समझना ही पड़ेगा ना!’’ लेकिन गलत को गलत समझना-यह समझने के हिसाब से समझा। वह राइट और रांग-समझना, जानना अलग बात है लेकिन नॉलेजफुल रूप से जानने वाले समझने के बाद स्वयं में किसी भी आत्मा की बुराई को बुराई के रूप में अपनी बुद्धि में धारण नहीं करेंगे। तो समझना अलग चीज है, समझने तक राइट है। लेकिन स्वयं में वा अपनी चित्त पर, अपनी बुद्धि में, अपनी वृत्ति में, अपनी वाणी में दूसरे की बुराई को बुराई के रूप में धारण नहीं करना है, समाना नहीं है। तो समझना और धारण करना-इसमें अन्तर है।
अपने को बचाने के लिए यह कह देते हैं कि यह है ही रांग, रांग को तो रांग कहना पड़ेगा ना। लेकिन समझदार का काम क्या होता है? समझदार अगर समझता है कि यह बुरी चीज है, तो क्या बुरी समझते हुए अपने पास जमा करेगा? अपने पास अच्छी रीति सम्भाल कर रखेगा? छोड़ देगा ना। या जमा करना ही समझदारी है? यह समझदारी है? और सोचो, अगर बुरी बात वा बुरी चलन को स्वयं में धारण कर लिया, तो क्या आपकी बुद्धि, वृत्ति, वाणी सदा सम्पूर्ण स्वच्छ मानी जायेगी? अगर जरा भी कोई डिफेक्ट वा दाग रह जाता है, किचड़ा रह जाता है-तो डिफेक्ट वाला कभी परफेक्ट नहीं कहला सकता, प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता। अगर कोई की बुराई चित्त पर है, तो उसका चित्त सदा प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता और चित्त पर धारण की हुई बातें वाणी में जरूर आयेंगी-चाहे एक के आगे वर्णन करे, चाहे अनेक के आगे वर्णन करे।
लेकिन कर्मों की गति का गुह्य रहस्य सदा सामने रखो। अगर किसी की भी बुराई वा गलत बात चित्त के साथ वर्णन करते हो-यह व्यर्थ वर्णन ऐसा ही है जैसे कोई गुम्बज़ में आवाज़ करता है तो वह अपना ही आवाज़ और ही बड़े रूप में बदल अपने पास ही आता है। गुम्बज़ में आवाज करके देखा है? तो अगर किसी की बुराई करने के, गलत को गलत फैलाने के संस्कार हैं, जिसको आप लोग आदत कहते हो, तो आज आप किसकी ग्लानि करते हो और अपने को बड़ा समझदार, गलती से दूर समझकर वर्णन करते हो, लेकिन यह पक्का नियम है अथवा कर्मों की फिलॉसफी है कि आज आपने किसकी ग्लानि की और कल आपकी कोई दुगुनी ग्लानि करेगा। क्योंकि यह गलत बातें इतनी फास्ट गति से फैलती हैं जैसे कोई विशेष बीमारी के जर्म्स (जीवाणु) बहुत जल्दी फैलते हैं और फैलते हुए जर्म्स जिसकी ग्लानि की वहाँ तक पहुँचते जरूर हैं। आपने एक ग्लानि की होगी और वह आपको गलत सिद्ध करने के लिए आपकी दस ग्लानि करेंगे। तो रिजल्ट क्या हुई? कर्मों की गति क्या हुई? लौट कर कहाँ आई? अगर आपको शुभ भावना है उस आत्मा को ठीक करने की, तो गलत बात शुभ भावना के स्वरूप में विशेष निमित्त स्थान पर दे सकते हो, फैलाना रांग है। कई कहते हैं-हमने किसको कहा नहीं, लेकिन वो कह रहे थे तो मैंने भी हाँ में हाँ कर दिया, बोला नहीं। आपके भक्ति-मार्ग के शास्त्रों में भी वर्णन है कि बुरा काम किया नहीं लेकिन देखा भी, साथ भी दिया तो वह पाप है। ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना-यह भी कर्मों की गति के प्रमाण पाप में भागी बनना है।
वर्तमान समय कर्मों की गति के ज्ञान में बहुत इज़ी हो गये हैं। लेकिन यह छोटे-छोटे सूक्ष्म पाप श्रेष्ठ सम्पूर्ण स्थिति में विघ्न रूप बनते हैं। इज़ी बनने की निशानियां क्या हैं? वह सदा ऐसा ही सोचते-समझते कि यह तो और भी करते हैं, यह तो आजकल चलता ही है। या तो अपने आपको हल्का करने के लिए यही कहेंगे कि-मैंने हंसी में कहा, मेरा भाव नहीं था, ऐसे ही बोल दिया। यह विधि सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त होने में सूक्ष्म विघ्न बन जाता है। इसलिए ज्ञान तो बहुत मिल गया है, रचता और रचना के ज्ञान को सुनना, वर्णन करना बहुत स्पष्ट हो गया है। लेकिन कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान बुद्धि में सदा स्पष्ट नहीं रहता, इसलिए इज़ी हो जाते हैं। कई बच्चों की रूहरिहान करते अपने प्रति भी कम्प्लेन होती है कि जैसे बाप कहते हैं, बाप बच्चों में जो श्रेष्ठ आशाए रखते हैं, जो चाहते हैं, जितना चाहते हैं-उतना नहीं है। इसका कारण क्या है? ये अति सूक्ष्म व्यर्थ कर्म बुद्धि को, मन को ऊंचा अनुभव करने नहीं देते। योग लगाने बैठते हैं लेकिन काफी समय युद्ध में चला जाता, व्यर्थ को मिटाए समर्थ बनने में समय चला जाता है। इसलिए क्या करना चाहिए? जितना ऊंचा बनते हैं, तो ऊंचाई में अटेन्शन भी ऊंचा रखना पड़ता है।
ब्राह्मण जीवन की मौज में रहना है। मौज में रहने का अर्थ यह नहीं कि जो आया वह किया, मस्त रहा। यह अल्पकाल के मुख की मौज वा अल्पकाल के सम्बन्ध-सम्पर्क की मौज सदाकाल की प्रसन्नचित्त स्थिति से भिन्न है। इसी को मौज नहीं समझना। जो आया वह बोला, जो आया वह किया-हम तो मौज में रहते हैं। अल्पकाल के मनमौजी नहीं बनो। सदाकाल की रूहानी मौज में रहो। यही यथार्थ ब्राह्मण जीवन है। मौज में भी रहो और कर्मों की गति के ज्ञाता भी रहो। तब ही जो चाहते हो, जैसे चाहते हो वैसे अनुभव करते रहेंगे। समझा? कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो। फिर खज़ानों के जमा की रिजल्ट सुनायेंगे। अच्छा!
चारों ओर के फिक्र से फारिग बेफिक्र बादशाह आत्माओं को, सदा प्रसन्नचित्त विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं प्रति और सर्व आत्माओं प्रति श्रेष्ठ परिवर्तन शक्ति को कर्म में लाने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा रचता-रचना के ज्ञाता और कर्म-फिलॉसोफी के भी ज्ञाता-ऐसे ज्ञान-स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
दादियों के साथ मुलाकात
वर्तमान समय किस बात की आवश्यकता है? कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान मर्ज हो गया है, इसलिए अलबेलापन है। पुरुषार्थी भी हैं लेकिन पुरूषार्थ में अलबेलापन आ जाता है। इसलिए अभी इसकी आवश्यकता है। बापदादा सभी की रिजल्ट को देखते हैं। जो चल रहा है वो अच्छा है। लेकिन अभी अच्छे ते अच्छा बनना ही है। बिज़ी रहना पड़ता है ना। ज्यादा समय बिजी किसमें रहना पड़ता है? किस बात में ज्यादा समय देना पड़ता है? चाहे आप लोगों की अपनी स्थिति न्यारी और प्यारी है, लेकिन समय तो देना पड़ता है। तो यही समय पावरफुल-शक्तिशाली लाइट-हाउस, माइट-हाउस वायब्रेशन्स फैलाने में जाये तो क्या हो जायेगा? संगठित रूप में यही वातावरण हो, और कोई बात ही नहीं हो-तो क्या वायब्रेशन विश्व में या प्रकृति तक पहुँचेगा? अभी तो सभी लोग इन्तजार कर रहे हैं कि कब हमारे रचता वा मास्टर रचता सम्पन्न या सम्पूर्ण बन हम लोगों से अपनी स्वागत कराते। प्रकृति भी तो स्वागत करेगी ना। तो वह सफलता की माला से स्वागत करे-वो दिन आना ही है। जब सफलता के बाजे बजेंगे तब प्रत्यक्षता के बाजे बजेंगे। बजने तो हैं ही ना। अच्छा!
दादी चन्द्रमणि जी सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं
आलराउन्ड बनना ही श्रेष्ठ सेवा है। अच्छा है, चक्कर लगाते रहो। चक्कर लगाने का पार्ट बच्चों का ही है। बाप तो अव्यक्त रूप में लगा सकते हैं। साकार रूप में भी चक्कर लगाने का पार्ट बाप का नहीं रहा, बच्चों का ही था। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
विजयी माला में आने के लिये तीव्र पुरुषार्थी बनो
सदा तीव्र पुरुषार्थी आत्माए हैं-ऐसे अनुभव करते हो? जब ब्राह्मण बने तो पुरुषार्थी तो हैं ही। तीव्र पुरुषार्थी हैं वा सिर्फ पुरुषार्थी हैं? सुनने और सुनाने वाले को पुरुषार्थी कहेंगे या तीव्र पुरुषार्थी कहेंगे? सुनना और सुनाना, उसके बाद क्या होता है? तीव्र पुरुषार्थी किसको कहेंगे-सुनने वाले को या बनने वाले को? जो माला का 16108वां नम्बर है वह भी सुनता और सुनाता तो है ही। नहीं तो माला में कैसे आयेगा। लेकिन 108 की माला में कौन आयेंगे? 108 की माला का नाम है विजयी माला। 16000 वाली माला का नाम विजयी माला नहीं है। तो सुनना और सुनाना-यह मैजारिटी करते हैं। लेकिन सुना और बना-इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरुषार्थी 108 हैं और पुरुषार्थी 16108 हैं। तो अपने आपको चेक करो कि तीव्र पुरुषार्थी हैं या पुरुषार्थी हैं? जो हैं, जैसा हैं-वह मैजारिटी अपने आपको जान सकते हैं। कोई थोड़े ऐसे हैं जो अपने को नहीं भी जानते हैं, रांग को राईट समझकर भी चल जाते हैं। मैजारिटी अपने मन में अपने आपको सत्य जानते हैं कि-मैं कौन हूँ? इसलिए सदा अपने को देखो, दूसरे को नहीं।
अपने पुरूषार्थ को चेक करो और तीव्र पुरूषार्थ में चेंज करो। नहीं तो फाइनल समय आने पर चेंज नहीं कर सकेंगे। उस समय पढ़ाई का समय समाप्त होने पर, इम्तहान के समय पढ़ाई का चांस नहीं मिलता। अगर कोई स्टूडेन्ट समझे-एक प्रश्न का उत्तर नहीं आता है, किताब से पढ़कर उत्तर दे दें-तो राइट होगा या रांग होगा? तो उस समय अपने को चेंज नहीं कर सकेंगे। जो है, जैसा है, वैसे ही प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। लेकिन अभी चांस है। अभी टू लेट (Too Late) का बोर्ड नहीं लगा है, लेट का लगा है। लेट हो गये लेकिन टू लेट नहीं। इसलिए फिर भी मार्जिन है। कई स्टूडेन्ट 6 मास में भी पास विद् ऑनर हो जाते हैं अगर सही पुरूषार्थ करते हैं तो। लेकिन समय समाप्त होने के बाद कुछ नहीं कर सकते। बाप भी रहम करना चाहे तो भी नहीं कर सकते। चलो, यह अच्छा है, इसको मार्क्स दे दो-यह बाप कर सकता है? इसलिए अभी से चेक करो और चेंज करो। अलबेलापन छोड़ दो। ठीक हैं, चल रहे हैं, पहुँच जायेंगे-यह अलबेलापन है। अलबेले को इस समय तो मौज लगती है। जो अल-बेला होता है उसे कोई फिक्र नहीं होता है, वह आराम को ही सब-कुछ समझता है। तो अलबेलापन नहीं रखना। सदा अलर्ट! पाण्डव सेना हो ना। सेना अलबेली रहती है या अलर्ट रहती है? सेना माना अलर्ट, सावधान, खबरदार रहने वाले। अलबेला रहने वाले को सेना का सैनिक नहीं कहा जायेगा। तो अलबेलापन नहीं, अटेन्शन! लेकिन अटेन्शन भी नेचुरल विधि बन जाये। कई अटे-न्शन का भी टेन्शन रखते हैं। टेन्शन की लाइफ सदा तो नहीं चल सकती। टेन्शन की लाइफ थोड़ा समय चलेगी, नेचुरल नहीं चलेगी। तो अटेन्शन रखना है लेकिन ‘नेचुरल अटेन्शन’ आदत बन जाये। जैसे विस्मृति की आदत बन गई थी ना। नहीं चाहते भी हो जाता है। तो यह आदत बन गई ना, नेचुरल हो गई ना। ऐसे स्मृतिस्वरूप रहने की आदत हो जाये, अटेन्शन की आदत हो जाये। इसलिए कहा जाता है आदत से मनुष्यात्मा मजबूर हो जाती है। न चाहते भी हो जाता है-इसको कहते हैं मजबूर। तो ऐसे तीव्र पुरू-षार्था बने हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् विजयी। तभी माला में आ सकते हैं।
बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। सदैव अलर्ट माना सदा एवररेडी! आपको क्या निश्चय है-विनाश के समय तक रहेंगे या पहले भी जा सकते हैं? पहले भी जा सकते हैं ना। इसलिए एवररेडी। विनाश आपका इन्तजार करे, आप विनाश का इन्तजार नहीं करो। वह रचना है, आप रचता हो। सदा एवररेडी। क्या समझा? अटेन्शन रखना। जो भी कमी महसूस हो उसे बहुत जल्दी से जल्दी समाप्त करो। सम्पन्न बनना अर्थात् कमजोरी को खत्म करना। ऐसे नहीं-यहाँ आये तो यहाँ के, वहाँ गये तो वहाँ के। सभी तीव्र पुरुषार्थी बनकर जाना। अच्छा!
ग्रुप नं. 2
सदा सेफ रहने का स्थान-दिलाराम बाप का दिलतख्त
सदैव अपने को दिलाराम बाप की दिल में रहने वाले अनुभव करते हो? दिलाराम की दिल तख्त है ना। तो दिलतख्तनशीन आत्माए हैं-ऐसे अपने को समझते हो? सदा तख्त पर रहते हो या कभी उतरते, कभी चढ़ते हो? अगर किसको तख्त मिल जाये तो तख्त कोई छोड़ेगा? यह तो श्रेष्ठ भाग्य है जो भगवान के दिलतख्तनशीन बनने का भाग्य मिला है। इससे बड़ा भाग्य कोई हो सकता है? ऐसे प्राप्त हुए श्रेष्ठ भाग्य को भूल तो नहीं जाते हो? तो सदैव तख्तनशीन आत्माए हैं-इस स्मृति में रहो। जो दिल में समाया हुआ रहेगा, परमात्म-दिल में समाए हुए को और कोई हिला सकता है? दिलतख्तनशीन आत्माए सदा सेफ हैं। माया के तूफान से भी और प्रकृति के तूफान से भी-दोनों तूफान से सेफ। न माया की हलचल हिला सकती है और न प्रकृति की हलचल हिला सकती है। ऐसे अचल हो? या कभी-कभी अचल, कभी-कभी हिलते हो? यादगार अचलघर है। चंचल-घर तो बना ही नहीं। अनेक बार अचल बने हो। अभी भी अचल हो ना। हलचल में नुकसान होता है और अचल में फायदा है। कोई चीज हिलती रहे तो टूट जायेगी ना।
सदा यह याद रखो कि हम दिलाराम के दिलतख्तनशीन हैं। यह स्मृति ही तिलक है। तिलक है तो तख्तनशीन भी हैं। इसीलिए जब तख्त पर बैठते हैं तो पहले राज्य-तिलक देते हैं। तो यह स्मृति का तिलक ही राज्य-तिलक है। तो तिलक भी लगा हुआ है। या मिट जाता है कभी? तिलक कभी आधा रह जाता है और कभी मिट भी जाता है-ऐसे तो नहीं। यह अविनाशी तिलक है, स्थूल तिलक नहीं है। जो तख्तनशीन होता है, उसको कितनी खुशी होती है, कितना नशा होता है! आजकल के नेताओं को तख्त नहीं मिलता, कुर्सी मिलती है। तो भी कितना नशा रहता है-हमारी पार्टी का राज्य है! वो तो कुर्सी है, आपका तो तख्त है। तो स्मृति नशा दिलाती है। अगर स्मृति नहीं है तो नशा भी नहीं है। तिलक है तो तख्त है। तो चेक करो कि स्मृति का तिलक सदा लगा हुआ है अर्थात् सदा स्मृतिस्वरूप हैं?
दिल्ली वाले क्या कर रहे हो? राजधानी की क्या तैयारी कर रहे हो? राजधानी के लिये कितनी तैयारी चाहिए! प्रकृति भी तैयार चाहिए, राज्य करने वाले भी तैयार चाहिए। तो क्या तैयारी की है? आधी दिल्ली को तैयार किया है? दिल्ली की संख्या कितनी है? (85 लाख) और ब्राह्मण कितने हैं? (5 हजार) यह तो कुछ भी नहीं हुआ। तो तैयार कब करेंगे? जब विनाश का घण्टा बजेगा तब? चैरिटी बिगिन्स एट होम (Charity Begins At Home)! तो दिल्ली वालों को तैयार करो। पहले-पहले आदि की संख्या भी 9 लाख तो है ना। वो भी तैयार नहीं की, अभी तो हजार में है। तो क्या करना पड़ेगा? बनी-बनायी राजधानी में आयेंगे कि तैयार भी करेंगे? जो करेगा सो पायेगा। ऐसे नहीं समझना-चलो, राजधानी तैयार होगी, आ जायेंगे। नहीं, यह नियम है-जो करता है वो पाता है। तो करना पड़ेगा ना। यह तो बहुत स्लो (धीमी) गति है। तीव्र गति कब होगी? (5 साल में) 5 साल में विनाश हो जाये तो? तैयारी न हो और विनाश हो जाये तो क्या करेंगे? (आबादी बढ़ती जाती है) यह तो खुशखबरी है। आपकी सेवा में भी वृद्धि होती जाती है। सेवाधारियों को सेवा का चांस मिल रहा है। जानवर बढ़ते जावें तो शिकारी को खुशी होगी ना। तो दिल्ली वालों ने अपना काम पूरा नहीं किया है, अभी बहुत रहा हुआ है। अभी फास्ट गति करो।
एक को दस बनाने हैं। 12 मास में दस तो बना सकते हो। एक मास में एक-यह तो सहज है। आप लोगों ने ‘हाँ’ कहा, तो फोटो निकल रहा है, आटोमेटिक कैमरा में निकल रहा है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाना है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाया तो हुआ ही पड़ा है। दिल्ली वालों को तो सभी को निमन्त्रण देकर बुलाना है। हलचल की धरनी पर तो राज्य नहीं करना है, स्वर्ण धरनी पर राज्य करना है। तो बनाना पड़ेगा ना। अभी फास्ट गति करो। कभी भी यह नहीं सोचो कि सुनने वाले नहीं मिलते हैं। सुनने वाले तो बहुत हैं। थोड़ा पुरूषार्थ करो। अपनी स्थिति रूहानी आकर्षणमय बनाओ। जब चुम्बक अपनी तरफ खींच सकता है, तो क्या आपकी रूहानी शक्ति आत्माओं को नहीं खींच सकती? तो रूहानी आकर्षण करने वाले चुम्बक बनो। चुम्बक को कहना नहीं पड़ता-सुई आओ। स्वत: ही खींचती है। रूहानी आकर्षणमय स्थिति स्वयं आकर्षित करती है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म ‘सेवा’ है ना। और तो सब निमित्त-मात्र है लेकिन ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म ‘सेवा’ है। सेवाधारी हो ना। अचल बनो और अचल बनाओ। सदा सन्तुष्ट। प्रोग्राम करो। यह बहुत अच्छा। प्रोग्राम अर्थात् प्रोग्रेस।
ग्रुप नं. 3
सहजयोग का आधार-एक की याद
सदा सहज पुरूषार्थ की विधि क्या है? सहज पुरूषार्थ का अनुभव है? क्या विधि अपनाई जो सहज हो गया? ‘एक’ को याद करना-यह है सहज विधि। क्योंकि ‘अनेकों’ को याद करना मुश्किल होता है। लेकिन एक को याद करना तो सहज है। सहजयोग का अर्थ ही है-’एक’ को याद करना। एक बाप, दूसरा न कोई। ऐसा है? या बाप के साथ और भी कोई है? कभी-कभी देह-अभिमान में आ जाते हो। जब ‘मेरा शरीर’ है तो याद आता है, लेकिन मेरा है ही नहीं तो याद नहीं आता। तो तन-मन-धन तेरा है या मेरा है? जब मेरा है ही नहीं तो याद क्या आता? देहभान में आना, बॉडी-कॉन्सेस में आना अर्थात् मेरा शरीर है। लेकिन सदैव यह याद रखो कि मेरा नहीं, बाप का है, सेवा अर्थ बाप ने ट्रस्टी बनाया है। नहीं तो सेवा कैसे करेंगे? शरीर तो चाहिए ना। लेकिन मेरा नहीं, ट्रस्टी हैं। मेरापन है तो गृहस्थी और तेरापन है तो ट्रस्टी। ट्रस्टी अर्थात् डबल लाइट। गृहस्थी को मेरे-मेरे का कितना बोझ होता है-मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरे पोत्रे.....! लम्बी लिस्ट होती है। यह बोझ है।
ट्रस्टी बन गये तो बोझ खत्म। ऐसे बने हो? या बदलते रहते हो? जब है ही कोई नहीं, एक बाप दूसरा न कोई-तो क्या याद आयेगा? सहज विधि क्या हुई? ‘एक’ को याद करना, ‘एक’ में सब-कुछ अनुभव करना। इसलिए कहते हो ना कि बाप ही संसार है। संसार में सब-कुछ होता है ना। जब संसार बाप हो गया तो ‘एक’ की याद सहज हो गई ना। मेहनत का काम तो नहीं है ना। आधा कल्प मेहनत की। ढूंढ़ना, भटकना-यही किया ना। तो मेहनत करनी पड़ी ना। अभी बापदादा मेहनत से छुड़ाते हैं। अगर कभी किसी को भी मेहनत करनी पड़ती है, तो उसका कारण है अपनी कमजोरी। कमजोर को सहज काम भी मुश्किल लगता है और जो बहादुर होता है उसको मुश्किल काम भी सहज लगता है। कमजोरी मुश्किल बना देती है, है सहज। तो बाप क्या चाहते हैं? सदा सहजयोगी बनकर चलो।
सदा सहजयोगी अर्थात् सदा खुश रहने वाले। सहजयोगी जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन। पक्के ब्राह्मण हो ना। सबसे भाग्यवान आत्माए हैं-यह खुशी रहती है? आप जैसा खुश और कोई संसार में होगा? तो सदा क्या गीत गाते हो? ‘‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’’-यह गीत गाना सभी को आता है। क्योंकि मन का गीत है ना। तो कोई भी गा सकता है और सदा गा सकता है। ‘‘वाह मेरा भाग्य!’’ कहने से भाग्यविधाता बाप स्वत: ही याद आता है। तो भाग्य और भाग्यविधाता-इसी को ही कहा जाता है सहज याद। सहज-सहज करते मंजिल पर पहुँच जायेंगे।
अभी आन्ध्रा वालों को संख्या बढ़ानी है। हमजिन्स को जगायेंगे तो दुआए मिलेंगी। भटकती हुई आत्माओं को रास्ता दिखाना-यह बड़ा पुण्य का काम है। आन्ध्रा की विशेषता क्या है? एज्युकेटेड (Educated-शिक्षित) लोग बहुत होते हैं। तो ऐसे एज्युकेटेड लोग निकालो जो सेवा में आगे बढ़ें। ऐसा कोई आन्ध्रा में निमित्त बनाओ जो अनेकों को जगाए।
ग्रुप नं. 4
परमात्म-प्यार प्राप्त करना है तो न्यारे बनो
सदा अपने को रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? रूहानी रूहे गुलाब अर्थात् सदा रूहानियत की खुशबू से सम्पन्न आत्मा। जो रूहे गुलाब होता है उसका काम है सदा खुशबू देना, खुशबू फैलाना। गुलाब का पुष्प जितना खुशबूदार होता है उतने कांटे भी होते हैं, लेकिन कांटों के प्रभाव में नहीं आता। कभी कांटों के कारण गुलाब का पुष्प बिगड़ नहीं जाता है, सदा कायम रहता है। कांटे हैं लेकिन कांटों से न्यारा और सभी को प्यारा लगता है। स्वयं न्यारा है तब प्यारा लगता है। अगर खुद ही कांटों के प्रभाव में आ जाए तो उसे कोई हाथ भी नहीं लगायेगा। तो रूहानी गुलाब की विशेषता है, किसी भी प्रकार के कांटे हों-छोटे हों या बड़े हों, हल्के हों या तेज हों-लेकिन हो सदा न्यारा और बाप का प्यारा। प्यारा बनने के लिए क्या करना पड़े? न्यारापन प्यारा बनाता है। अगर किसी भी प्रभाव में आ गये तो न बाप के प्यारे और न ब्राह्मण परिवार के। अगर सच्चा प्यार प्राप्त करना है तो उसके लिए न्यारा बनो-सभी हद की बातों से, अपनी देह से भी न्यारा। जो अपनी देह से न्यारा बन सकता है वही सबसे न्यारा बन सकता है।
कई सोचते हैं-हमको इतना प्यार नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। क्यों नहीं मिलता? क्योंकि न्यारे नहीं हैं। नहीं तो परमात्म-प्यार अखुट है, अटल है, इतना है जो सर्व को प्राप्त हो सकता है। लेकिन परमात्म-प्यार प्राप्त करने की विधि है-न्यारा बनना। विधि नहीं आती तो सिद्धि भी नहीं मिलती। कई बच्चे कहते हैं-बाबा से मिलन मनाना चाहते हैं लेकिन अनुभव नहीं होता है, रूहरि-हान करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिलता है। कारण क्या है? पहले न्यारे बने जो प्यार मिले? प्यार प्राप्त करने का फाउन्डेशन अगर पक्का है, तो प्राप्ति की मंजिल प्राप्त न हो-यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि बाप की गारन्टी है। गारन्टी है-एक बात आप करो, बाकी सब मैं करूँ। एक बात-मुझे दिल से याद करो, मतलब से नहीं। कोई विघ्न आयेगा तो 4 घण्टा योग लगायेंगे और विघ्न खत्म हुआ तो याद भी खत्म हो गई। तो यह मतलब की याद हुई ना। इच्छा पूर्ण करने के लिए याद नहीं, अच्छा बनकर याद करना है। यह काम हो जाये, इसके लिए याद करूँ-ऐसे नहीं। पात्र बन परमात्म-प्यार का अनुभव कर सकते हो।
रूहानी गुलाब अर्थात् परमात्म-प्यार की पात्र आत्माए। परमात्म-प्यार के आगे आत्माओं का प्यार क्या है? कुछ भी नहीं। जब परमात्म-प्यार के अनुभवी बनते हो तो दिल से क्या निकलता है? कौनसा गीत गाते हो? पा लिया, और कुछ नहीं रहा। ऐसे प्राप्ति के अधिकारी आत्मा बनो। पात्र की निशानी है-प्राप्ति होना। अगर प्राप्ति नहीं होती, कम होती है-तो समझो पात्र कम हैं। क्योंकि देने वाला तो दाता है और अखुट खज़ाना है। तो क्यों नहीं मिलेगा? पात्र योग्य है तो प्राप्ति भी सब हैं। सदा बाबा मेरा है तो प्राप्ति भी सदा होगी ना। कभी भी, किसी भी हद के प्रभाव से न्यारा रहना ही है, कभी प्रभाव में नहीं आना। फिर बार-बार पात्र बनने का अभ्यास माना मेहनत करनी पड़ती है। इसलिये हद के प्रभाव में न आकर सदा बेहद की प्राप्तियों में मगन रहो। सदा चेक करो कि-रूहानी गुलाब सदा रूहानियत की खुशबू में रहता हूँ, न्यारा रहता हूँ, प्यार का पात्र बनता हूँ? क्योंकि आत्माओं द्वारा प्राप्ति तो 63 जन्म कर ली, उससे रिजल्ट क्या निकली? गंवा लिया ना। अभी पाने का समय है । हद की प्राप्तियां अर्थात् गंवाना, बेहद की प्राप्ति अर्थात् जमा होना। अच्छा!
ग्रुप नं. 5
स्वराज्य का तिलक ही भविष्य के राजतिलक का आधार है
सभी अपने को विजयी रत्न अनुभव करते हो? विजय प्राप्त करना सहज लगता है या मुश्किल लगता है? मुश्किल है या मुश्किल बना देते हो, क्या कहेंगे? है सहज लेकिन मुश्किल बना देते हो। जब माया कमजोर बना देती है तो मुश्किल लगता है और बाप का साथ होता है तो सहज होता है। क्योंकि जो मुश्किल चीज होती है वह सदा ही मुश्किल लगनी चाहिए ना। कभी सहज, कभी मुश्किल-क्यों? सदा विजय का नशा स्मृति में रहे। क्योंकि विजय आप सब ब्राह्मण आत्माओं का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त करना मुश्किल होता है या सहज होता है? कितनी बार विजयी बने हो! तो कल्प-कल्प की विजयी आत्माओं के लिए फिर से विजयी बनना मुश्किल होता है क्या? अमृतवेले सदा अपने मस्तक में विजय का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक लगाओ। भक्ति-मार्ग में तिलक लगाते हैं ना। भक्ति की निशानी भी तिलक है और सुहाग की निशानी भी तिलक है। राज्य प्राप्त करने की निशानी भी राजतिलक होता है। कभी भी कोई शुभ कार्य में सफलता प्राप्त करने चाहते हैं तो जाने के पहले तिलक देते हैं। तो आपको राज्य प्राप्ति का राज्य-तिलक भी है और सदा श्रेष्ठ कार्य और सफलता है, इसलिए भी सदा तिलक है। सदा बाप के साथ का सुहाग है, इसलिए भी तिलक है। तो अविनाशी तिलक है। कभी मिट तो नहीं जाता है? जब अविनाशी बाप मिला तो अविनाशी बाप द्वारा तिलक भी अविनाशी मिल गया। सुनाया था ना-अभी स्वराज्य का तिलक है और भविष्य में विश्व के राज्य का तिलक है। स्वराज्य मिला है कि मिलना है? कभी गंवा भी देते हो? सदैव फलक से कहो कि हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं ही!
इस समय स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में हैं विश्व-राज्य अधिकारी और फिर द्वापर-कलियुग में पूजनीय के अधिकारी बनेंगे, इसलिए पूज्य अधिकारी। आप सबकी पूजा होगी। अपने मन्दिर देखे हैं? डबल विदेशियों का मन्दिर है? दिलवाला मन्दिर में आप बैठे हो? क्योंकि जो ब्राह्मण बनते हैं वो ब्राह्मण देवता बनेंगे और देवताओं की पूजा होगी। अगर पक्के ब्राह्मण हो तो पक्का ही पूजन होगा। कच्चे ब्राह्मण हैं तो शायद पूजन होगा। डबल विदेशी सभी पक्के हो? पक्के थे, पक्के हैं और पक्के रहेंगे-ऐसे है ना। अच्छा! सभी पक्के हो? अनुभवी बन गये ना। अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते। देखने वाले, सुनने वाले धोखा खा सकते हैं लेकिन अनुभव की अथॉरिटी वाले धोखा नहीं खा सकते। हर कदम में नया-नया अनुभव करते रहते हो। रोज नया अनुभव। उमंग-उत्साह वाले हो ना। उमंग-उत्साह-यही उड़ती कला के पंख हैं। कभी उमंग-उत्साह कम हुआ अर्थात् पंख कमजोर हो गये। अच्छा, जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो वह करके दिखाओ, तब कहेंगे नवीनता। सेन्टर खोलना, फंक्शन करना-यह तो सभी करते हैं। जैसे बाप को रहम आता है कि भटकती आत्माओं को ठिकाना दें, तो बच्चों के मन में भी यह रहम आना चाहिए। तो अभी ऐसा कोई नया साधन निकालो जिससे अनेक आत्माओं को सन्देश मिल जाये।
30-11-92 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन
सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो - दुआए दो, दुआए लो
दुआओं के खज़ाने से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बच्चों प्रति बोले -
आज सर्व खज़ानों के मालिक अपने सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे को अनेक प्रकार के अविनाशी अखुट खज़ाने मिले हैं और ऐसे खज़ाने हैं, जो सर्व खज़ाने अब भी हैं और आगे भी अनेक जन्म खज़ानों के साथ रहेंगे। जानते हो कि खज़ाने कौनसे और कितने मिले हैं? खज़ानों से सदा प्राप्ति होती है। खज़ानों से सम्पन्न आत्मा सदा भरपूरता के नशे में रहती है। सम्प-न्नता की झलक उनके चेहरे में चमकती है और हर कर्म में सम्पन्नता की झलक स्वत: ही नजर आती है। इस समय के मनुष्या-त्माओं को विनाशी खज़ानों की प्राप्ति है, इसलिए थोड़ा समय नशा रहता है और साथ नहीं रहता है। इसलिए दुनिया वाले कहते हैं-खाली होकर जाना है। और आप कहते हो कि भरपूर होकर जाना है। आप सबको बापदादा ने अनेक खज़ाने दिये हैं।
सबसे श्रेष्ठ पहला खज़ाना है-ज्ञान-रत्नों का खज़ाना। सबको यह खज़ाना मिला है ना। कोई वंचित तो नहीं रह गया है ना। इस ज्ञान-रत्नों के खज़ाने से विशेष क्या प्राप्ति कर रहे हो? ज्ञान-खज़ाने द्वारा इस समय भी मुक्ति-जीवन्मुक्ति की अनुभूति कर रहे हो। मुक्तिधाम में जायेंगे वा जीवन्मुक्त देव पद प्राप्त करेंगे-यह तो भविष्य की बात हुई। लेकिन अभी भी मुक्त जीवन का अनुभव कर रहे हो। कितनी बातों से मुक्त हो, मालूम है? जो भी दु:ख और अशान्ति के कारण हैं, उनसे मुक्त हुए हो। कि अभी मुक्त होना है? अभी कोई विकार नही आता? मुक्त हो गये। अगर आता भी है तो विजयी बन जाते हो ना। तो कितनी बातों से मुक्त हो गये हो! लौकिक जीवन और अलौकिक जीवन-दोनों को साथ रखो तो कितना अन्तर दिखाई देता है! तो अभी मुक्ति भी प्राप्त की है और जीवन्मुक्ति भी अनुभव कर रहे हो। अनेक व्यर्थ और विकल्प, विकर्मों से मुक्त बनना-यही जीवन्मुक्त अवस्था है। कितने बन्धनों से मुक्त हुए हो? चित्र में दिखाते हो ना-कितने बन्धनों की रस्सियां मनुष्यात्माओं को बंधी हुई हैं! यह किसका चित्र है? आप तो वह नहीं हो ना। आप तो मुक्त हो ना। तो जीवन में रहते जीवन्मुक्त हो गये। तो ज्ञान के खज़ाने से विशेष मुक्ति-जीव-न्मुक्ति की प्राप्ति का अनुभव कर रहे हो।
दूसरा-याद अर्थात् योग द्वारा सर्व शक्तियों का खज़ाना अनुभव कर रहे हो। कितनी शक्तियाँ हैं? बहुत हैं ना! आठ शक्तियाँ तो एक सैम्पल रूप में दिखाते हो, लेकिन सर्व शक्तियों के खज़ानों के मालिक बन गये हो।
तीसरा-धारणा की सब्जेक्ट द्वारा कौनसा खज़ाना मिला है? सर्व दिव्य गुणों का खज़ाना। गुण कितने हैं? बहुत हैं ना। तो सर्व गुणों का खज़ाना। हर गुण की, हर शक्ति की विशेषता कितनी बड़ी है! हर ज्ञान-रत्न की महिमा कितनी बड़ी है!
चौथी बात-सेवा द्वारा सदा खुशी के खज़ाने की अनुभूति करते हो। जो सेवा करते हो उससे विशेष क्या अनुभव होता है? खुशी होती है ना। तो सबसे बड़ा खज़ाना है अविनाशी खुशी। तो खुशी का खज़ाना सहज, स्वत: प्राप्त होता है।
पांचवा-सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा ब्राह्मण परिवार के भी सम्पर्क में आते हो, सेवा के भी सम्बन्ध में आते हो। तो सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा कौनसा खज़ाना मिलता है? सर्व की दुआओं का खज़ाना मिलता है। यह दुआओं का खज़ाना बहुत बड़ा खज़ाना है। जो सर्व की दुआओं के खज़ानों से भरपूर है, सम्पन्न है उसको कभी भी पुरूषार्थ में मेहनत नहीं करनी पड़ती। पहले है मात-पिता की दुआए और साथ में सर्व के सम्बन्ध में आने से सर्व द्वारा दुआए। सबसे बड़े ते बड़े तीव्र गति से आगे उड़ने का तेज यन्त्र है-’दुआए’। जैसे-साइन्स का सबसे बड़े ते बड़ा तीव्र गति का रॉकेट है। लेकिन दुआओं का रॉकेट उससे भी श्रेष्ठ है। विघ्न जरा भी स्पर्श नहीं करेगा, विघ्न-प्रूफ बन जाते। युद्ध नहीं करनी पड़ती। सहज योगयुक्त, युक्तियुक्त हर कर्म, बोल, संकल्प स्वत: ही बन जाते हैं। ऐसा यह दुआओं का खज़ाना है। सबसे बड़ा खज़ाना इस संगमयुग के समय का खज़ाना है।
वैसे खज़ाने तो बहुत हैं। लेकिन जो खज़ाने सुनाये, सिर्फ इन खज़ानों को भी अपने अन्दर समाने की शक्ति धारण करो तो सदा ही सम्पन्न होने कारण जरा भी हलचल नहीं होगी। हलचल तब होती है जब खाली है। भरपूर आत्मा कभी हिलेगी नहीं। तो इन खज़ानों को चेक करो कि सर्व खज़ाने स्वयं में समाये हैं? इन सभी खज़ानों से भरपूर हो? वा कोई में भरपूर हो, कोई में थोड़ा अभी भरपूर होना है? खज़ाने मिले तो सभी को हैं ना। एक द्वारा, एक जैसे खज़ाने सभी को मिले हैं। अलग-अलग तो नहीं बांटा है ना। एक को लाख, दूसरे को करोड़ दिया हो-ऐसे तो नहीं है ना? लेकिन एक हैं सिर्फ लेने वाले-जो मिलता है लेते भी हैं लेकिन मिला और खाया-पिया, मौज किया और खत्म किया। दूसरे हैं जो मिले हुए खज़ानों को जमा करते-खाया-पिया, मौज भी किया और जमा भी किया। तीसरे हैं-जमा भी किया, खाया-पिया भी लेकिन मिले हुए खज़ाने को और बढ़ाते जाते हैं। बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाए बढ़ाते जाते। तो देखना है कि मैं कौन हूँ-पहले नम्बर वाला, दूसरे वा तीसरे नम्बर वाला?
जितना खज़ाने को स्व के कार्य में या अन्य की सेवा के कार्य में यूज़ करते हो उतना खज़ाना बढ़ता है। खज़ाना बढ़ाने की चाबी है-यूज करना। पहले अपने प्रति। जैसे-ज्ञान के एक-एक रत्न को समय पर अगर स्व प्रति यूज़ करते हो, तो खज़ाना यूज़ करने से अनुभवी बनते जाते हो। जो खज़ाने की प्राप्ति है वह जीवन में अनुभव की ‘अथॉरिटी’ बन जाती है। तो अथॉरिटी का खज़ाना एड (Add,जमा) हो जाता है। तो बढ़ गया ना। सिर्फ सुनना और बात है। सुनना माना लेना नहीं है। समाना और समय पर कार्य में लगाना-यह है लेना। सुनने वाले क्या करते और समाने वाले क्या करते-दोनों में महान अन्तर है।
सुनने वालों का बापदादा दृश्य देखते हैं तो मुस्कुराते हैं। सुनने वाले समय पर परिस्थिति प्रमाण वा विघ्न प्रमाण, समस्या प्रमाण प्वाइन्ट को याद करते हैं कि बापदादा ने इस विघ्न को पार करने के लिए ये-ये पॉइंट्स दी हैं। ऐसा करना है, ऐसा नहीं करना है-रिपीट करते, याद करते रहते हैं। एक तरफ प्वाइन्ट रिपीट करते रहते, दूसरे तरफ वशीभूत भी हो जाते हैं। बोलते हैं-ऐसा नहीं करना है, यह ज्ञान नहीं है, यह दिव्य गुण नहीं है, समाने की शक्ति धारण करनी है, किसको दु:ख नहीं देना है। रिपीट भी करते रहते हैं लेकिन फेल भी होते रहते हैं। अगर उस समय भी उनसे पूछो कि ये राइट है? तो जवाब देंगे-राइट है नहीं लेकिन हो जाता है। बोल भी रहे हैं, भूल भी रहे हैं। तो उनको क्या कहेंगे? सुनने वाले। सुनना बहुत अच्छा लगता है। प्वाइन्ट बड़ी अच्छी शक्तिशाली है। लेकिन यूज़ करने के समय अगर शक्तिशाली प्वाइन्ट ने विजयी नहीं बनाया वा आधा विजयी बनाया तो उसको क्या कहेंगे? सुनने वाले कहेंगे ना।
समाने वाले जैसे कोई परिस्थिति या समस्या सामने आती है तो त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित हो स्व-स्थिति द्वारा पर-स्थिति को ऐसे पार कर लेते जैसे कि कुछ था ही नहीं। इसको कहा जाता है समाना अर्थात् समय पर कार्य में लगाना, समय प्रमाण हर शक्ति को, हर प्वाइन्ट को, हर गुण को ऑर्डर से चलाना। जैसे कोई स्थूल खज़ाना है, तो खज़ाने को स्वयं खज़ाना यूज़ नहीं करता लेकिन खज़ाने को यूज़ करने वाली मनुष्यात्माए हैं। वो जब चाहें, जितना चाहें, जैसे चाहें, वैसे यूज़ कर सकती हैं। ऐसे यह जो भी सर्व खज़ाने सुनाए, उनके मालिक कौन? आप हो वा दूसरे हैं? मालिक हैं ना। मालिक का काम क्या होता है? खज़ाना उसको चलाये या वो खज़ाने को चलाये? तो ऐसे हर खज़ाने के मालिक बन समय पर ज्ञानी अर्थात् समझदार, नॉलेजफुल, त्रिकालदर्शी होकर खज़ाने को कार्य में लगाओ। ऐसे नहीं कि समय आने पर ऑर्डर करो सहन शक्ति को और कार्य पूरा हो जाये फिर सहन शक्ति आये। समाने की शक्ति जिस समय, जिस विधि से चाहिए-उस समय अपना कार्य करे। ऐसे नहीं-समाया तो सही लेकिन थोड़ा-थोड़ा फिर भी मुख से निकल गया, आधा घण्टा समाया और एक सेकेण्ड समाने के बजाए बोल दिया। तो इसको क्या कहेंगे? खज़ाने के मालिक वा गुलाम?
सर्व शक्तियाँ बाप के अधिकार का खज़ाना है, वर्सा है, जन्म सिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार का कितना नशा होता है! छोटा-सा राजकुमार होगा, क्या खज़ाना है, उसका पता भी नहीं होगा लेकिन थोड़ा ही स्मृति में आने से कितना नशा रहता-मैं राजा का बच्चा हूँ! तो यह मालिकपन का नशा है ना। तो खज़ानों को कार्य में लगाओ। कार्य में कम लगाते हो। खुश रहते हो-भरपूर है, सब मिला है। लेकिन कार्य में लगाना, उससे स्वयं को भी प्राप्ति कराना और दूसरों को भी प्राप्ति कराना-उसमें नम्बरवार बन जाते हैं। नहीं तो नम्बर क्यों बने? जब देने वाला भी एक है, देता भी सबको एकरस है, फिर नम्बर क्यों? तो बापदादा ने देखा-खज़ाने तो बहुत मिले हैं, भरपूर भी सभी हैं, लेकिन भरपूरता का लाभ नहीं लेते। जैसे लौकिक में भी कइयों को धन से आनन्द या लाभ प्राप्त करने का तरीका आता है और कोई के पास होगा भी बहुत धन लेकिन यूज़ करने का तरीका नहीं आता, इसलिए होते हुए भी जैसे कि नहीं है। तो अन्डरलाइन क्या करना है? सिर्फ सुनने वाले नहीं बनो, यूज़ करने की विधि से अब भी सिद्धि को प्राप्त करो और अनेक जन्मों की सद्गति प्राप्त करो।
दिव्य गुण भी बाप का वर्सा है। तो प्राप्त हुए वर्से को कार्य में लगाना क्या मुश्किल है। ऑर्डर करो। ऑर्डर करना नहीं आता? मालिक को ही ऑर्डर करना आता। कमजोर को ऑर्डर करना नहीं आता, वह सोचेगा-कहूँ वा नहीं कहूँ, पता नहीं मदद मिलेगी वा नहीं मिलेगी...। अपना खज़ाना है ना। बाप का खज़ाना अपना खज़ाना है। या बाप का है और हमारा नहीं है? बाप ने किसलिए दिया? अपना बनाने के लिए दिया या सिर्फ देखकर खुश होने के लिए दिया? कर्म में लगाने के लिए मिला है। रिजल्ट में देखा जाता है कि सभी खज़ानों को जमा करने की विधि कम आती है। ज्ञान का अर्थ भी यह नहीं कि प्वाइन्ट रिपीट करना या बुद्धि में रखना। ज्ञान अर्थात् समझ-त्रिकालदर्शी बनने की समझ, सत्य-असत्य की समझ, समय प्रमाण कर्म करने की समझ। इसको ज्ञान कहा जाता है।
अगर कोई इतना समझदार भी हो और समय आने पर बेसमझी का कार्य करे-तो उसको ज्ञानी कहेंगे? और समझदार अगर बेस-मझ बन जाये तो उसको क्या कहा जायेगा? बेसमझ को कुछ कहा नहीं जाता। लेकिन समझदार को सभी इशारा देंगे कि-यह समझदारी है? तो ज्ञान का खज़ाना धारण करना, जमा करना अर्थात् हर समय, हर कार्य, हर कर्म में समझ से चलना। समझा? तो आप महान समझदार हो ना। ‘ज्ञानी तू आत्मा’ हो या ‘ज्ञान सुनने वाली तू आत्मा’ हो? चेक करो कि ऐसे ज्ञानी तू आत्मा कहाँ तक बने हैं-प्रैक्टिकल कर्म में, बोलने में...। ऐसे तो सबसे हाथ उठवाओ तो सब कहेंगे-हम लक्ष्मी-नारायण बनेंगे। कोई नहीं कहेगा कि हम राम-सीता बनेंगे। लेकिन कोई तो बनेंगे ना। सभी कहेंगे-हम विश्व-महाराजा बनेंगे। अच्छा है, लक्ष्य ऐसा ही ऊंचा रहना चाहिए। लेकिन सिर्फ लक्ष्य तक नहीं, लक्ष्य और लक्षण समान हों। लक्ष्य हो विश्व-महाराजन् और कर्म में एक गुण या एक शक्ति भी ऑर्डर नहीं माने, तो वह विश्व का महाराजा कैसे बनेंगे? अपना ही खज़ाना अपने ही काम में नहीं आये तो विश्व का खज़ाना क्या सम्भालेंगे? इसलिए सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो और विशेष वर्तमान समय यही सहज पुरूषार्थ करो कि सर्व से, बापदादा से हर समय दुआए लेते रहें।
दुआए किसको मिलती हैं? जो सन्तुष्ट रह सबको सन्तुष्ट करे। जहाँ सन्तुष्टता होगी वहाँ दुआए होंगी। और कुछ भी नहीं आता हो-कोई बात नहीं। भाषण नहीं करना आता है-कोई बात नहीं। सर्व गुण धारण करने में मेहनत लगती हो, सर्व शक्तियों को कन्ट्रोल करने में मेहनत लगती हो-उसको भी छोड़ दो। लेकिन एक बात यह धारण करो कि दुआए सबको देनी हैं और दुआए लेनी हैं। इसमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। करके देखो। एक दिन अमृतवेले से लेकर रात तक यही कार्य करो-दुआए देनी हैं, दुआए लेनी हैं। और फिर रात को चार्ट चेक करो-सहज पुरूषार्थ रहा या मेहनत रही? और कुछ भी नहीं करो लेकिन दुआए दो और दुआए लो। इसमें सब आ जायेगा। दिव्य गुण, शक्तियाँ आपे ही आ जायेंगी। कोई आपको दु:ख दे तो भी आपको दुआए देनी हैं। तो सहन शक्ति, समाने की शक्ति होगी ना, सहनशीलता का गुण होगा ना। अन्डरस्टूड है।
दुआए लेना और दुआए देना-यह बीज है, इसमें झाड़ स्वत: ही समाया हुआ है। इसकी विधि है-दो शब्द याद रखो। एक है ‘शिक्षा’ और दूसरी है ‘क्षमा’, रहम। तो शिक्षा देने की कोशिश बहुत करते हो, क्षमा करना नहीं आता। तो क्षमा करनी है। क्षमा करना ही शिक्षा देना हो जायेगा। शिक्षा देते हो तो क्षमा भूल जाते हो। लेकिन क्षमा करेंगे तो शिक्षा स्वत: आ जायेगी। शिक्षक बनना बहुत सहज है। सप्ताह-कोर्स के बाद ही शिक्षक बन जाते हैं। तो क्षमा करनी है, रहमदिल बनना है। सिर्फ शिक्षक नहीं बनना है। क्षमा करेंगे-अभी से यह संस्कार धारण करेंगे तब ही दुआए दे सकेंगे । और अभी से दुआए देने का संस्कार पक्का करेंगे तभी आपके जड़ चित्रों से भी दुआए लेते रहेंगे। चित्रों के सामने जाकर क्या कहते हैं? दुआ करो, मर्सा (रहम) दो....। आपके जड़ चित्रों से जब दुआए मिलती हैं तो चैतन्य में आत्माओं से कितनी दुआए मिलेंगी! दुआओं का अखुट खज़ाना बापदादा से हर कदम में मिल रहा है, लेने वाला लेवे। आप देखो, अगर श्रीमत प्रमाण कोई भी कदम उठाते हो तो क्या अनुभव होता है? बाप की दुआए मिलती हैं ना। और अगर हर कदम श्रीमत पर चलो तो हर कदम में कितनी दुआए मिलेंगी, दुआओं का खज़ाना कितना भरपूर हो जायेगा!
कोई भल क्या भी देवे लेकिन आप उसको दुआए दो। चाहे कोई क्रोध भी करता है, उसमें भी दुआए हैं। क्रोध में दुआए हैं कि लड़ाई है? चाहे कोई कितना भी क्रोध करता है लेकिन आपको याद दिलाता है कि मैं तो परवश हूँ, लेकिन आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो। तो दुआए मिली ना। याद दिलाया कि आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो, आप शीतल जल डालने वाले हो। तो क्रोधी ने दुआए दी ना। वह क्या भी करे लेकिन आप उस से दुआए लो। सुनाया ना-गुलाब के पुष्प में भी देखो कितनी विशेषता है, कितनी गन्दी खाद से, बदबू से खुद क्या लेता है? खुशबू लेता है ना। गुलाब का पुष्प बदबू से खुशबू ले सकता और आप क्रोधी से दुआए नहीं ले सकते? विश्व-महाराजन गुलाब का पुष्प बनना चाहिये या आपको बनना चाहिए? यह कभी भी नहीं सोचो कि यह ठीक हो तो मैं ठीक होऊं, यह सिस्टम ठीक हो तो मैं ठीक होऊं। कभी सागर के आगे जाकर कहेंगे-’’हे लहर! आप बड़ी नहीं, छोटी आओ, टेढ़ी नहीं आओ, सीधी आओ’’? यह संसार भी सागर है। सभी लहरें न छोटी होंगी, न टेढ़ी होंगी, न सीधी होंगी, न बड़ी होंगी, न छोटी होंगी। तो यह आधार नहीं रखो-यह ठीक हो जाये तो मैं हो जाऊं। तो परिस्थिति बड़ी या आप बड़े?
बापदादा के पास तो सब बातें पहुँचती हैं ना। यह ठीक कर दो तो मैं भी ठीक हो जाऊं। इस क्रोध करने वाले को शीतल कर दो तो मैं शीतल हो जाऊं। इस खिटखिट करने वाले को किनारे कर दो तो सेन्टर ठीक हो जायेगा। ऐसे रूहरिहान नहीं करना। आपका स्लोगन ही है-’’बदला न लो, बदल कर दिखाओ।’’ यह ऐसा क्यों करता है, ऐसा नहीं करना चाहिए, इसको तो बदलना ही पड़ेगा....। परन्तु पहले स्व को बदलो। स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन वा अन्य का परिवर्तन। या अन्य के परिवर्तन से स्व परिवर्तन है? स्लोगन रांग तो नहीं बना दिया है? क्या करेंगे? स्व को बदलेंगे या दूसरे को बदलने में समय गंवायेंगे? ‘‘चाहे एक वर्ष भी लगाकर देखो-स्व को नहीं बदलो और दूसरों को बदलने की कोशिश करो। समय बदल जायेगा लेकिन न आप बदलेंगे, न वो बदलेगा।’’ समझा? सर्व खज़ानों के मालिक बनना अर्थात् समय पर खज़ानों को कार्य में लगाना।
कई ऐसे होते हैं-कई अच्छी-अच्छी चीजें होती हैं तो खुश होते रहते हैं कि हमारे पास सब-कुछ है। लेकिन जब समय आता है तो याद ही नहीं आयेगा या वह चीज मिलेगी नहीं। कारण क्या होता है? समय-प्रति-समय उसको कार्य में नहीं लगाया। तो सिर्फ देख-कर के खुश नहीं होना लेकिन हर खज़ाने का मजा लो, मौज मनाओ। ज्ञान के खज़ाने से मौज मनाओ, समझ से कार्य करो, सिद्धि को प्राप्त करो, शक्तियों को ऑर्डर पर चलाओ-यह है मौज मनाना। गुणों को स्वयं प्रति कार्य में लगाओ और दूसरों को भी गुण-दान करो, ज्ञान-दान करो, शक्तियों का दान करो। अगर कोई निर्बल है तो शक्ति देकर उसको भी सम्पन्न बनाओ। इसको कहा जाता है भरपूर आत्मा। अच्छा!
सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्माओं को, सर्व खज़ानों को कार्य में लगाने वाले, बढ़ाने वाले ‘ज्ञानी तू आत्माए’ बच्चों को, सर्व खज़ानों को मालिक बन समय पर विधिपूर्वक कार्य में लगाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, हर शक्ति, हर गुण की अथॉरिटी बन स्वयं में और सर्व में भरने वाली विशेष आत्माओं को, सदा दुआओं के खज़ाने से सहज पुरूषार्थ का अनुभव करने वाली सहजयोगी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।
दादियों से मुलाकात
बापदादा सेकेण्ड में कितनी बातें कर सकता है? समय कम और बातें बहुत। क्योंकि फरिश्ते इशारों से ही समझते हैं। तो यह दृष्टि की भाषा फरिश्तेपन की निशानी है। यह भी बापदादा सिखाते रहते हैं। आजकल के समय प्रमाण अगर वाणी द्वारा किसको सुनाओ तो समय भी चाहिए, साहस भी चाहिए। अगर मीठी दृष्टि द्वारा समझाने का प्रयत्न करते हैं तो कितना सहज हो जाता है! समय अनु-सार यह दृष्टि द्वारा परिवर्तन होना और परिवर्तन कराना-यही काम में आयेगा। सुनाते हैं तो सब कहते हैं-हमको पहले से ही पता है। लेकिन मीठी दृष्टि और शुभ वृत्ति-यह एक मिनट में एक घण्टा समझाने का कार्य कर सकता है। आजकल यही विधि श्रेष्ठ है और अन्त में भी यही काम में आयेगी। फॉलो फादर करते जायेंगे। विघ्न को भी मनोरंजन समझकर चलते रहते हैं। वाह ड्रामा वाह! चाहे किसी भी प्रकार का दृश्य हो लेकिन ‘वाह-वाह’ ही हो। अच्छा है, बापदादा बच्चों की हिम्मत, उमंग-उल्लास देख खुश हैं और बढ़ाते रहते हैं। यही निमित्त बनने की लिफ्ट की विशेष गिफ्ट है। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
ग्रुप नं. 1
श्रेष्ठ स्थिति का आधार है-श्रेष्ठ स्मृति
सभी को डबल नशा रहता है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा मालिक भी हूँ और फिर बालक भी हूँ? एक है मालिकपन का रूहानी नशा और दूसरा है बालकपन का रूहानी नशा। यह डबल नशा सदा रहता है या कभी-कभी रहता है? बालक सदा हो या कभी-कभी हो? बालक सदा बालक ही है ना। परमात्म-बालक हैं और फिर सारे आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले मालिक हैं। तो ऐसा मालिकपन और ऐसा बालकपन सारे कल्प में और कोई समय नहीं रह सकता। सतयुग में भी परमात्म-बच्चे नहीं कहेंगे, देवात्माओं के बच्चे हो जायेंगे। तीनों कालों को जानने वाले मालिक-यह मालिकपन भी इस समय ही रहता है। तो जब इस समय ही है, बाद में मर्ज हो जायेगा, तो सदा रहना चाहिए ना। डबल नशा रखो। इस डबल नशे से डबल प्राप्ति होगी-मालिकपन से अपनी अनुभूति होती है और बालकपन के नशे से अपनी प्राप्ति। भिन्न-भिन्न प्राप्तियां हैं ना। यह रूहानी नशा नुकसान वाला नहीं है। रूहानी है ना। देहभान के नशे नुकसान में लाते हैं। वो नशे भी अनेक हैं। देहभान के कितने नशे हैं? बहुत हैं ना-मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ.......। लेकिन सभी हैं नुकसान देने वाले, नीचे लाने वाले। यह रूहानी नशा ऊंचा ले जाता है, इसलिए नुकसान नहीं है। हैं ही बाप के। तो बाप कहने से बचपन याद आता है ना। बाप अर्थात् मैं बच्चा हूँ तभी बाप कहते हैं। तो सारा दिन क्या याद रहता है? ‘‘मेरा बाबा’’। या और कुछ याद रहता है? बाबा कहने वाला कौन? बच्चा हुआ ना। तो सदा बच्चे हैं और सदा ही रहेंगे।
सदा इस भाग्य को सामने रखो अर्थात् स्मृति में रखो-कौन हूँ, किसका हूँ और क्या मिला है! क्या मिला है-उसकी कितनी लम्बी लिस्ट है! लिस्ट को याद करते हो या सिर्फ कॉपी में रखते हो? कॉपी में तो सबके पास होगा लेकिन बुद्धि में इमर्ज हो-मैं कौन? तो कितने उत्तर आयेंगे? बहुत उत्तर हैं ना। उत्तर देने में, लिस्ट बताने में तो होशियार हो ना। अब सिर्फ स्मृतिस्वरूप बनो। स्मृति आने से सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जाती है। स्थिति का आधार स्मृति है। खुशी की स्मृति में रहो तो स्थिति खुशी की बन जायेगी और दु:ख की स्मृति करो तो दु:ख की स्थिति हो जायेगी। बाप एक ही काम देते हैं-याद करो या स्मृति में रहो। एक ही काम मुश्किल होता है क्या? कभी बहुत काम इकट्ठे हो जाते हैं तो कन्फ्यूज (Confuse; मूँझना) हो जाते हैं-इतने काम कब करें, कैसे करें.....। एक ही काम हो तो घबराने की जरूरत नहीं होती ना। तो बाप ने एक ही काम दिया है ना। बस, याद करो। इसी याद में ही सब-कुछ आ जाता है। तो याद करो कि मालिक भी हैं, बालक भी हैं! रूहानी नशे में रहने से क्या मिलता और भूलने से क्या होता-दोनों अनुभव हैं ना। भूलने की आदत तो 63 जन्मों से है। लेकिन याद कितना समय करना है? एक जन्म। और यह जन्म भी कितना छोटा-सा है! तो ‘सदा’ शब्द को अन्डरलाइन करना। अच्छा! सभी सदा खुश हो ना। यह सोचो कि हम खुश नहीं होंगे तो कौन होगा? माताए भी सदा खुश रहती या कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आती है? चाहे कितना भी दु:खमय संसार हो लेकिन आप सुख के सागर के बच्चे सदा सुख-स्वरूप हो। दु:ख में दु:खी हो जाते हो क्या? जानते हो कि संसार का समय ही दु:ख का है। लेकिन आपका समय कौनसा है? सुख का है ना कि थोड़ा-थोड़ा दु:ख का है? संसार में तो दु:ख बढ़ना ही है। कम नहीं होना है, अति में जाना है। लेकिन आप दु:ख से न्यारे हो। ठीक है ना। अच्छा है, मौज में रहो। क्या भी होता रहे लेकिन हम मौज में रहने वाले हैं। मौज में रहना अच्छा है ना।
ग्रुप नं. 2
समस्याओं के पहाड़ को उड़ती कला से पार करो
सभी अपने पुरूषार्थ को सदा चेक करते रहते हो? आपका पुरूषार्थ तीव्र गति का है वा समय तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, क्या कहेंगे? समय तेज है और आप ढीले हो? समय रचता है या रचना है? रचना चाहे कितनी भी पॉवरफुल हो, फिर भी रचता तो रचता ही होगा ना। तो समय का आह्वान आपको करना है या समय आपका आह्वान करेगा? समय आपका आह्वान करे कि आओ मेरे मालिक! तो जैसे समय की रफ्तार सदा आगे बढ़ती जाती है, रूकती नहीं है। चाहे गिरावट का समय हो, चाहे बढ़ने का समय हो लेकिन समय कभी रूकता नहीं है, सदा आगे बढ़ता जाता है। समय को कोई रोकना चाहें तो भी नहीं रूकता है। और आपको कोई रोके तो रूकते हो? रूक जाते हो ना। रूकना नहीं है। कैसी भी परिस्थिति आ जाये, कैसी भी समस्याओं का पहाड़ आगे आ जाये लेकिन आप रूकने वाले हो क्या? उड़ती कला वाले हो ना। तो पहाड़ को भी क्या करेंगे? उड़ती कला होगी तो सेकण्ड में पार कर लेंगे। तो चढ़ती कला वाले हो या उड़ती कला वाले हो? उड़ने वाले कभी रूकेंगे नहीं। बिना मंजिल के अगर उड़ने वाली चीज रूक जाये तो क्या होगा? चलते-चलते प्लेन मंजिल के पहले ही रूक जाये तो एक्सीडेन्ट होगा ना। तो आप भी उड़ती कला वाले हो। उड़ती कला वाले मंजिल के पहले कहाँ रूकते नहीं। या थक जाते हो तो रूक जाते हो?
जहाँ प्राप्ति होती है, प्राप्ति वाला कभी थकता नहीं। बिजनेसमेन को अनुभव है ना। ग्राहक देरी से भी आये तो भी थकेंगे नहीं, आह्वान करते हैं-आओ.....। क्यों नहीं थकते? क्योंकि प्राप्ति है। तो आपको कितनी प्राप्तियाँ हैं? हर कदम में पद्मों की प्राप्ति है। सारे वर्ल्ड में ऐसा साहूकार कोई है जिसको कदम में पद्मों की कमाई हो? कितने भी नामीग्रामी हों लेकिन इतने साहूकार कोई नहीं हैं। चक्कर लगाकर आओ। देखो, विदेश में कोई मिल जाये? कितना भी बड़ा हो लेकिन आपके आगे वह कुछ भी नहीं है। तो इतनी बड़ी प्राप्ति वाले कभी थक नहीं सकते। प्राप्ति को भूलना अर्थात् थकना। उस बिजनेस में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है और मेहनत के बाद भी मिलेगा क्या? चलो, ज्यादा में ज्यादा करोड़ मिल जायें, मिलते तो नहीं हैं लेकिन मिल जायें। और यहाँ तो पद्मों की बात है। तो सदा अपनी प्राप्तियों को सामने रखो। सिर्फ पुरूषार्थ नहीं करो, पुरूषार्थ के पहले प्राप्तियों को सामने रखो। अगर मालूम होता है कि यह मिलना है, तो पुरूषार्थ को भूल जाते हैं, प्राप्ति को ही सामने रखते हैं। उसको पुरूषार्थ दिखाई नहीं देगा, प्राप्ति ही दिखाई देगी। खेती का काम भी करते हैं तो क्या दिखाई देता है? मेहनत दिखाई देती है या फल दिखाई देता है? फल की खुशी होती है ना। तो यह स्मृति रखने से कभी थकेंगे नहीं। न थकेंगे, न गति तीव्र से धीमी होगी, सदा तीव्र गति होगी।
गुजरात वालों की तो तीव्र गति है ना। गुजरात की मातायें भी तीव्र, जल्दी-जल्दी चलती हैं। देखो, गरबा करते हो तो मोटा हो, बूढ़ा हो-कितना जल्दी-जल्दी करते हैं। दूसरे तो देखेंगे कि यह इतना मोटा कैसे करेगा? लेकिन कितना फास्ट करते हैं! तो गुजरात वालों को तीव्र गति की आदत है। जब शरीर तीव्र चल सकता है तो आत्मा नहीं चल सकती? गुजरात की विशेषता ही सदा खुश रहने की है। गुजरात वाले सभी गरबा जानते हैं। बीमार को भी कहो कि रास करने के लिये आओ-तो आ जायेंगे, बिस्तर से भी उठ पड़ेंगे। तो यह निशानी है खुशी की, मौज मनाने की। मौज की निशानी गुजरात में झूला घर-घर में होता है। तो जैसे शरीर की मौज मनाते हो, तो आत्मा को भी तो मौज में रहना है। तो गुजरात का अर्थ हुआ मौज में रहने वाले, खुशी में रहने वाले। लेकिन सदा, कभी-कभी नहीं। गुजरात वालों की कभी भी खुशी कम हो, यह हो नहीं सकता। इतना पक्का निश्चय है या कभी-कभी मूँझ भी जाते हो? जब बाप को अपनी सब जिम्मेवारियां दे दी, तो आप मौज में ही रहेंगे ना। जिम्मेवारियाँ माथा भारी करती हैं। जब भी खुशी कम होती है तो कहते या सोचते हो कि-क्या करें, यह भी सम्भालना पड़ता है ना, करना पड़ता है ना, जिम्मेवारी है ना। उस समय सोचते हो ना। लेकिन जिम्मेवार बाप है, मैं निमित्त-मात्र हूँ। मेरी जिम्मेवारी है-तो भारीपन होता है। बाप की जिम्मेवारी है, मैं निमित्त हूँ-तो हल्के हो जायेंगे। हल्का उड़ेगा। भारी चीज उड़ेगी नहीं, बार-बार नीचे आ जायेगी। थोड़ा भी संकल्प आया-मुझे करना पड़ता है, मुझे ही करना है-तो भारीपन हुआ। तो डबल लाइट हो ना। या थोड़ा-थोड़ा बोझ है? सदा उड़ते रहो। उड़ती कला अर्थात् तीव्र गति।
आप लोग तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो जो उड़ती कला के समय पर आये हो। जैसे आजकल के बच्चे कहते हैं ना कि हम भाग्यवान हैं जो बैलगाड़ी के समय नहीं थे, मोटरगाड़ी के टाइम पर आये हैं। आजकल के बच्चे पुरानों को यही कहते हैं कि-आप लोगों का जमाना बैलगाड़ी का था, हमारा जमाना एरोप्लेन का है। तो उन्हों को कितना नशा रहता है! आपको भी यह नशा रहना चाहिये कि हम उड़ती कला के समय पर आये हैं। समय भी, देखो, आपका सहयोग बन गया। तो अच्छी तरह से उड़ो। अपने पास छोटे-मोटे बोझ नहीं रखो-न पुरूषार्थ का बोझ, न सेवा का बोझ, न सम्बन्ध-सम्पर्क निभाने का बोझ। कोई बोझ नहीं। या थोड़ा-थोड़ा बोझ रखना अच्छा है? आदत पड़ी हुई है ना। 63 जन्म से बोझ उठाते आये, बीच-बीच में वह आदत अभी भी काम कर लेती है। लेकिन बोझ उठाने से क्या मिला? भारी रहे और भारी रहने से नीचे गिरते गये। अभी तो चढ़ना है ना। अच्छा! गुजरात वाले कभी भी ऐसे नहीं कहेंगे कि क्या करें, कैसे करें, माया आ गई। माया से डरने वाले हो। या विजय प्राप्त करने वाले हो? लड़ते रहेंगे तो चन्द्रवंशी में चले जायेंगे। इसलिये सदा विजयी। हार खाने वाले नहीं। हार खाना कमजोरों का काम है, ब्राह्मण तो सदा बहादुर हैं। अच्छा!
ग्रुप नं 3
राजयोगी वह जो अपनी कर्मेन्द्रियों को ईश्वरीय लॉ एण्ड ऑर्डर पर चलाये
आवाज में आना सहज लगता है ना। ऐसे ही, आवाज से परे होना इतना ही सहज लगता है? आवाज में आना सहज है। वा आवाज से परे होना सहज है? आवाज में आना सहज है और आवाज से परे होने में मेहनत लगती है? वैसे आप आत्माओं का आदि स्वरूप क्या है? आवाज से परे रहना या आवाज में आना? तो अभी मुश्किल क्यों लगता है? 63 जन्मों ने आदि संस्कार भुला दिया है। ज