18-11-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगमयुग के राजदुलारे सो भविष्य के राज्य अधिकारी

स्नेह के सागर अव्यक्त बापदादा अपने स्नेही राज दुलारे बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व बच्चों के दिलाराम बाप अपने चारों ओर के सर्व राजदुलारे बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा दिलाराम के दुलार का पात्र है। यह दिव्य दुलार, परमात्म दुलार कोटों में कोई भाग्यवान आत्माओं को ही प्राप्त होता है। अनेक जन्म आत्माओं वा महान आत्माओं द्वारा दुलार अनुभव किया। अब इस एक अलौकिक जन्म में परमात्म प्यार वा दुलार अनुभव कर रहे हो। इस दिव्य दुलार द्वारा राज दुलारे बन गये हो। इसलिये दिलाराम बाप को भी अलौकिक फखर है कि मेरा हर एक बच्चा राजा बच्चा है। राजा हो ना? प्रजा तो नहीं? सभी अपना टाइटल क्या बताते हो? राजयोगी। सभी राजयोगी हो वा कोई प्रजायोगी भी है? सब राजयोगी हो तो प्रजा कहाँ से आयेगी? राज्य किस पर करेंगे? प्रजा तो चाहिये ना? तो वो प्रजायोगी कब आयेंगे? राजदुलारे अर्थात् अब के भी राजे और भविष्य के भी राजे। डबल राज्य है। सिर्फ भविष्य का राज्य नहीं। भविष्य से पहले अब स्वराज्य अधिकारी बने हो। अपने स्वराज्य के राज्य कारोबार को चेक करते हो? जैसे भविष्य राज्य की महिमा करते हो-एक राज्य, एक धर्म, सुख, शान्ति, सम्पत्ति सम्पन्न राज्य है, ऐसे हे स्वराज्य अधिकारी राजे, स्वराज्य के राज कारोबार में यह सब बातें सदा हैं?

एक राज्य है अर्थात् सदा मुझ आत्मा का राज्य इन सर्व राज्य कारोबारी कर्मेन्द्रियों पर है वा बीच-बीच में स्वराज्य के बजाय पर-राज्य अपना अधिकार तो नहीं करते? पर-राज्य है-माया का राज्य। पर-राज्य की निशानी है-पर-अधीन बन जायेंगे। स्वराज्य की निशानी है-सदा श्रेष्ठ अधिकारी अनुभव करेंगे। पर-राज्य, पर-अधीन वा परवश बनाता है। जब भी कोई अन्य राजा किसी राज्य पर अधिकार प्राप्त करता है तो पहले राजा को ही कैदी बनाता है अर्थात् पर-अधीन बनाता है। तो चेक करो कि एक राज्य है? कि बीच-बीच में माया के राज्य अधिकारी, आप स्वराज्य अधिकारी राजाओं को वा आपके कोई भी कर्मेन्द्रियों रूपी राज कारोबारी को परवश तो नहीं बना देते हैं? तो एक राज्य है वा दो राज्य है? आप स्वराज्य अधिकारी का लॉ और ऑर्डर चलता है वा बीच-बीच में माया का भी ऑर्डर चलता है?

साथ-साथ एक धर्म, धर्म अर्थात् धारणा। तो स्वराज्य का धर्म वा धारणा एक कौन-सी है? ‘पवित्रता’। मन, वचन, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क सब प्रकार की पवित्रता इसको कहा जाता है-एक धर्म अर्थात् एक धारणा। स्वप्न मात्र, संकल्प मात्र भी अपवित्रता अर्थात् दूसरा धर्म न हो। क्योंकि जहाँ पवित्रता है वहाँ अपवित्रता अर्थात् व्यर्थ वा विकल्प का नाम-निशान नहीं होगा। ऐसे समर्थ सम्राट बने हो? वा ढीलेढाले राजे हो? वा कभी ढीले, कभी सम्राट? कौन से राजे हो? अगर अभी छोटा-सा एक जन्म का राज्य नहीं चला सकते तो 21 जन्म का राज्य अधिकार कैसे प्राप्त करेंगे? संस्कार अब भर रहे हैं। अभी के श्रेष्ठ संस्कार से भविष्य संसार बनेगा। तो अभी से एक राज्य, एक धर्म के संस्कार भविष्य संसार का फाउन्डेशन है।

तो चेक करो-सुख, शान्ति, सम्पत्ति अर्थात् सदा हद की प्राप्तियों के आधार पर सुख है वा आत्मिक अतीन्द्रिय सुख परमात्म सुखमय राज्य है? साधन वा सैलवेशन वा प्रशंसा के आधार पर सुख की अनुभूति है वा परमात्म आधार पर अतीन्द्रिय सुखमय राज्य है? इसी प्रकार से अखण्ड शान्ति-किसी भी प्रकार की अशान्ति की परिस्थिति अखण्ड शान्ति को खण्डित तो नहीं करती है?अशान्ति का तूफान चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा हो लेकिन स्वराज्य अधिकारी के लिये तूफान अनुभवी बनाने की उड़ती कला का तोहफा बन जाये, लिफ्ट की गिफ्ट बन जाये। इसको कहा जाता है-अखण्ड शान्ति। तो चेक करो-अखण्ड शान्तिमय स्वराज्य है?

ऐसे ही सम्पत्ति अर्थात् स्वराज्य की सम्पत्ति ज्ञान, गुण और शक्तियां हैं। इन सर्व सम्पत्तियों से सम्पन्न स्वराज्य अधिकारी हैं? सम्पन्नता की निशानी है-सम्पन्नता अर्थात् सदा सन्तुष्टता, अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं। हद के इच्छाओं की अविद्या-इसको कहा जाता है सम्पत्तिवान। और राजा का अर्थ ही है दाता। अगर हद की इच्छा वा प्राप्ति की उत्पत्ति है तो वो राजा के बजाय मंगता (मांगने वाला) बन जाता है। इसलिये अपने स्वराज्य अधिकार को अच्छी तरह से चेक करो कि मेरा स्वराज्य एक राज्य, एक धर्म, सुख-शान्ति सम्पन्न बना है? कि अभी तक बन रहे हैं? अगर राजा बन रहे हैं तो जब राज्य अधिकारी स्थिति नहीं है तो उस समय क्या हो? प्रजा बन जाते हो वा न राजा, न प्रजा। बीच में हो? अभी बीच में नहीं रहो। यह भी नहीं सोचना कि अन्त में बन जायेंगे। अगर बहुतकाल का राज्य-भाग्य प्राप्त करना ही है तो बहुतकाल के स्वराज्य का फल है बहुतकाल का राज्य। फुल समय के राज्य अधिकार का आधार वर्तमान सदाकाल का स्वराज्य है। समझा? कभी अलबेले नहीं रह जाना। हो जायेगा, हो जायेगा नहीं करते रहना। बापदादा को बहुत मीठी बातों से बहलाते हैं। राजा के बजाय बहुत बढ़िया वकील बन जाते हैं। ऐसी-ऐसी लॉ प्वाइन्ट्स सुनाते हैं जो बाप भी मुस्कराते रहते हैं। वकील अच्छा या राजा अच्छा? बहुत होशियारी से वकालत करते हैं। इसलिये अब वकालत करना छोड़ दो, राज दुलारे बनो। बाप का बच्चों से स्नेह है इसलिये सुनते-देखते भी मुस्कराते रहते हैं। अभी धर्मराज से काम नहीं लेते।

स्नेह सभी को चला रहा है। स्नेह के कारण ही पहुँच गये हो ना। तो स्नेह के रेसपान्स में बापदादा भी पदमगुणा स्नेह का रिटर्न दे रहे हैं। देश-विदेश के सभी बच्चे स्नेह के विमान द्वारा मधुबन में पहुँचे हो। बापदादा साकार रूप में आप सबको और स्नेह स्वरूप में सर्व बच्चों को देख रहे हैं। अच्छा!

सर्व स्नेह में समाये हुए समीप बच्चों को, सर्व स्वराज्य अधिकारी सो विश्व राज्य अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व प्राप्तियों सम्पन्न श्रेष्ठ सम्पत्तिवान विशेष आत्माओं को, सदा एक धर्म, एक राज्य सम्पन्न स्वराज्य अधिकारी बाप समान भाग्यवान आत्माओं को भाग्यविधाता बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सभी कार्य अच्छे चल रहे हैं ना? अच्छे उमंग-उत्साह से कार्य हो रहा है। करावनहार करा रहे हैं और निमित्त बन करने वाले कर रहे हैं। ऐसे अनुभव होता है ना? सर्व के सहयोग की अंगुली से हर कार्य सहज और सफल होता है। कैसे हो रहा है - ये जादू लगता है ना। दुनिया वाले तो देखते और सोचते रह जाते हैं। और आप निमित्त आत्मायें सदा आगे बढ़ते जायेंगे। क्योंकि बेफ़्रिक बादशाह हो। दुनिया वालों को तो हर कदम में चिन्ता है और आप सबके हर संकल्प में परमात्म चिन्तन है इसलिये बेफ़्रिक हैं। बेफ़्रिक हैं ना? अच्छा है, अविनाशी सम्बन्ध है। अच्छा, तो सब ठीक चल रहा है और चलना ही है। निश्चय है और निश्चिन्त हैं। क्या होगा, कैसे होगा-यह चिन्ता नहीं है।

टीचर्स को कोई चिन्ता है? सेन्टर्स कैसे बढ़ेंगे-यह चिन्ता है? सेवा कैसे बढ़ेगी-यह चिन्ता है? नहीं है? बेफ़्रिक हो? चिन्तन करना अलग चीज़ है, चिन्ता करना अलग चीज़ है। सेवा बढ़ाने का चिन्तन अर्थात् प्लैन भले बनाओ। लेकिन चिन्ता से कभी सफलता नहीं होगी। चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है इसलिये सब सहज होना ही है, सिर्फ निमित्त बन संकल्प, तन, मन, धन सफल करते चलो। जिस समय जो कार्य होता है वो कार्य हमारा कार्य है। जब हमारा कार्य है, मेरा कार्य है तो जहाँ मेरापन होता है वहाँ सब कुछ स्वत: ही लग जाता है। तो अभी ब्राह्मण परिवार का विशेष कार्य वौन-सा है? टीचर्स बताओ। ब्राह्मण परिवार का अभी विशेष कार्य कौन सा है, किसमें सफल करेंगे? (ज्ञान सरोवर में) सरोवर में सब स्वाहा करेंगे। परिवार में जो विशेष कार्य होता है तो सबका अटेन्शन कहाँ होता है? उसी विशेष कार्य के तरफ अटेन्शन होता है। ब्राह्मण परिवार में बड़े से बड़ा कार्य वर्तमान समय यही है ना। हर समय का अपना-अपना है, वर्तमान समय देश-विदेश सर्व ब्राह्मण परिवार का सहयोग इस विशेष कार्य में है ना कि अपने-अपने सेन्टर में है? जितना बड़ा कार्य उतनी बड़ा दिल। और जितनी बड़ा दिल होता है ना उतनी स्वत: ही सम्पन्नता होती है। अगर छोटा दिल होता है तो जो आना होता है वह भी रूक जाता है, जो होना होता है वह भी रूक जाता है। और बड़े दिल से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। मधुबन का ज्ञान सरोवर है वा आपका है? किसका है? मधुबन का है ना? गुजरात का तो नहीं है, मधुबन का है? महाराष्ट्र का है? विदेश का है? सभी का है। बेहद की सेवा का बेहद का स्थान अनेक आत्माओं को बेहद का वर्सा दिलाने वाला है। ठीक है ना। अच्छा!

मन, वचन, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क सब प्रकार की पवित्रता इसको कहा जाता है-एक धर्म अर्थात् एक धारणा। जहाँ पवित्रता है वहाँ अपवित्रता अर्थात् व्यर्थ वा विकल्प का नाम-निशान नहीं होगा।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

स्व-परिवर्तन का वायब्रेशन ही विश्व परिवर्तन करायेगा

सभी अपने को खुशनसीब आत्मायें अनुभव करते हो? खुशी का भाग्य जो स्वप्न में भी नहीं था वो प्राप्त कर लिया। तो सभी की दिल सदा यह गीत गाती है कि सबसे खुशनसीब हूँ तो मैं हूँ। यह है मन का गीत। मुख का गीत गाने के लिये मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन मन का गीत सब गा सकते हैं। सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है खुशी का खज़ाना। क्योंकि खुशी तब होती है जब प्राप्ति होती है। अगर अप्राप्ति होगी तो कितना भी कोई किसी को खुश रहने के लिये कहे, कितना भी आर्टीफिशल खुश रहने की कोशिश करे लेकिन रह नहीं सकते। तो आप सदा खुश रहते हो या कभी-कभी रहते हो? जब चैलेन्ज करते हो कि हम भगवान के बच्चे हैं, तो जहाँ भगवान् है वहाँ कोई अप्राप्ति हो सकती है? तो खुशी भी सदा है क्योंकि सदा सर्व प्राप्ति स्वरूप हैं। ब्रह्मा बाप का क्या गीत था? पा लिया-जो था पाना। तो यह सिर्फ ब्रह्मा बाप का गीत है या आप सबका? कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आ जाती है? कब तक आयेगी? अभी थोड़ा समय भी दु:ख की लहर नहीं आये। जब विश्व परिवर्तन करने के निमित्त हो तो अपना ये परिवर्तन नहीं कर सकते हो? अभी भी टाइम चाहिये, फुल स्टॉप लगाओ। ऐसा श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ प्राप्तियाँ, श्रेष्ठ सम्बन्ध सारे कल्प में नहीं मिलेगा। तो पहले स्व-परिवर्तन करो। यह स्व-परिवर्तन का वायब्रेशन ही विश्व परिवर्तन करायेगा।

डबल विदेशी आत्माओं की विशेषता है- फास्ट लाइफ। तो परिवर्तन में फास्ट हैं? फारेन में कोई ढीला-ढाला चलता है तो अच्छा नहीं लगता है ना। तो इसी विशेषता को परिवर्तन में लाओ। अच्छा है। आगे बढ़ रहे हैं और बढ़ते ही रहेंगे। पहचानने की दृष्टि अच्छी तेज है जो बाप को पहचान लिया। अभी पुरूषार्थ में भी तीव्र, सेवा में भी तीव्र और मंज़िल पर सम्पूर्ण बन पहुँचने में भी तीव्र। फर्स्ट नम्बर आना है ना? जैसे ब्रह्मा बाप फर्स्ट हुआ ना तो ब्रह्मा बाप के साथी बन फर्स्ट के साथ फर्स्ट में आयेंगे। ब्रह्मा बाप से प्यार है ना। अच्छा, मातायें कमाल करेंगी ना। जो दुनिया असम्भव समझती है वो आपने सहज करके दिखा दिया। ऐसा कमाल कर रही हो ना। दुनिया वाले समझते हैं कि मातायें निर्बल हैं, कुछ नहीं कर सकतीं आप असम्भव को सम्भव करके विश्व परिवर्तन में सबसे आगे बढ़ रही हो। पाण्डव क्या कर रहे हो? असम्भव को सम्भव तो कर रहे हो ना। पवित्रता का झण्डा लहराया है ना। हाथ में अच्छी तरह से झण्डा पकड़ा है या कभी नीचे हो जाता है? सदा पवित्रता के चैलेन्ज का झण्डा लहराते रहो।

ग्रुप नं. 2

रोज अमृतवेले कम्बाइन्ड स्वरूप की स्मृति का तिलक लगाओ

सदा अपने को सहज योगी अनुभव करते हो? कितनी भी परिस्थितियां मुश्किल अनुभव कराने वाली हों लेकिन मुश्किल को भी सहज करने वाले सहजयोगी हैं-ऐसे हो या मुश्किल के समय मुश्किल का अनुभव होता है? सदा सहज है? मुश्किल होने का कारण है बाप का साथ छोड़ देते हो। जब अकेले बन जाते हो तो कमज़ोर पड़ जाते हो और कमज़ोर को तो सहज बात भी मुश्किल लगती है। इसलिये बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि सदा कम्बाइन्ड रूप में रहो। कम्बाइन्ड को कोई अलग नहीं कर सकता। जैसे इस समय आत्मा और शरीर कम्बाइन्ड है ऐसे बाप और आप कम्बाइन्ड रहो। मातायें क्या समझती हो? कम्बाइन्ड हो या कभी अलग, कभी कम्बाइन्ड? ऐसा साथ फिर कभी मिलना है? फिर क्यों साथ छोड़ देती हो? काम ही क्या दिया है? सिर्फ यह याद रखो कि ‘मेरा बाबा’। इससे सहज काम क्या होगा? मुश्किल है? (63 जन्मों का संस्कार है) अभी तो नया जन्म हो गया ना। नया जन्म, नये संस्कार। अभी पुराने जन्म में हो या नये जन्म में? या आधा-आधा है? तो नये जन्म में स्मृति के संस्कार हैं या विस्मृति के? फिर नये को छोड़कर पुराने में क्यों जाते हो? नई चीज़ अच्छी लगती है या पुरानी चीज़ अच्छी लगती है? फिर पुराने में क्यों चले जाते हो? रोज अमृतवेले स्वयं को ब्राह्मण जीवन के स्मृति का तिलक लगाओ। जैसे भक्त लोग तिलक जरूर लगाते हैं तो आप स्मृति का तिलक लगाओ। वैसे भी देखो मातायें जो तिलक लगाती है वो साथ का तिलक लगाती हैं। तो सदा स्मृति रखो कि हम कम्बाइन्ड हैं तो इस साथ का तिलक सदा लगाओ। अगर युगल होगा तो तिलक लगायेंगे, अगर युगल नहीं होगा तो तिलक नहीं लगायेंगे। यह साथ का तिलक है। तो रोज स्मृति का तिलक लगाती हो या भूल जाता है?कभी लगाना भूल जाता, कभी मिट जाता! जो सुहाग होता है, साथ होता है वह कभी भूलता नहीं। तो साथी को सदा साथ रखो।

यह ग्रुप सुन्दर गुलदस्ता है। वेराइटी फूलों का गुलदस्ता शोभनीक लगता है। तो सभी जो भी, जहाँ से भी आये हैं, सभी एक-दो से प्यारे हैं। सभी सन्तुष्ट हो ना? सदा साथ हैं और सदा सन्तुष्ट हैं। बस, यही एक शब्द याद रखना कि कम्बाइन्ड हैं और सदा ही कम्बाइन्ड रह साथ जायेंगे। लेकिन साथ रहेंगे तो साथ चलेंगे। साथ रहना है, साथ चलना है। जिससे प्यार होता है उससे अलग हो नहीं सकते। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में साथ है ही। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

समय अमूल्य है-समय को बचाना ही तीव्र पुरूषार्थ है

सदा यह नशा रहता है कि हम अभी भी श्रेष्ठ आत्मायें हैं और आगे भी अनेक जन्म देव आत्मा रहेंगे? वर्तमान और भविष्य दोनों का नशा है ना। वर्तमान का नशा भविष्य को प्रत्यक्ष कर रहा है। अभी श्रेष्ठ हो तभी भविष्य देवात्मा बनेंगे। वर्तमान का फल भविष्य में मिलेगा। महत्व वर्तमान का है। तो वर्तमान समय के महत्व को सदा याद रखते हो? इस समय का एक-एक सेकेण्ड कितना श्रेष्ठ है? सेकेण्ड भी गंवाया तो सेकेण्ड नहीं गंवाया लेकिन बहुत कुछ गंवाया। संगमयुग का सेकेण्ड और युगों के एक वर्ष से भी ज्यादा है। तो इतना महत्व सदा याद रहता है या कभी-कभी याद रहता है? सदा याद रहे तो हर सेकेण्ड परमात्म दुआयें प्राप्त करते रहेंगे। भक्त लोग तो दुआ लेने के लिये कितना पुरूषार्थ करते हैं। कितनी तकलीफ लेते हैं। और आपको बाप की दुआयें हर समय मिलती रहती हैं। तो दुआयें जमा करते हो या खर्च हो जाती हैं?जिसकी झोली परमात्म दुआओं से सदा भरपूर है उसके पास कभी माया आ नहीं सकती। माया आती है या दूर से ही भाग जाती है? या नजदीक आकर फिर भागती है? क्योंकि आयेगी तो फिर भगाना भी पड़ेगा। लेकिन दूर से ही भाग जायेगी तो भगाने में भी समय नहीं लगेगा। ऐसे शक्तिशाली बनो जो दूर से ही माया आने की हिम्मत नहीं रखे। जैसे कितने भी खौफनाक जानवर होते हैं लेकिन अगर आपके पास लाइट है, रोशनी है तो वो आगे नहीं आते। ऐसे सर्वशक्तियों की लाइट सदा आपके साथ है तो माया दूर से ही भाग जायेगी। तो दूर से भगाने वाले हो या नजदीक से भगाने वाले हो? क्योंकि समय अमूल्य है। समय को बचाना यही तीव्र पुरूषार्थ है। तो तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् मायाजीत। तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् सदा विजयी। युद्ध करने वाले नहीं। तो सदा विजयी हो कभी हार नहीं होती? देखो गाया हुआ भी है कि जहाँ बाप है वहाँ विजय है ही। बाप सदा साथ है तो विजय है ही। थोड़ा भी किनारा किया तो युद्ध करनी पड़ेगी। तो युद्ध करने वाले नहीं, विजयी रत्न हो। कब तक युद्ध करेंगे? युद्ध करते-करते क्या बनना पड़ेगा? चन्द्रवंशी। तो चन्द्रवंशी हो या सूर्यवंशी हो? सूर्यवंशी अर्थात् सदा विजयी। तो विजय जन्म-सिद्ध अधिकार है-ये अनुभव हो, कहना नहीं, अनुभव हो। अधिकार कभी रहे, कभी नहीं रहे, यह नहीं होता है। अधिकार सदा साथ होता है। अच्छा!

तीव्र पुरूषार्थ करने वाले हो ना? सेवा करना अर्थात् खाता जमा करना। सेवा नहीं है, मेवा है। नाम सेवा है लेकिन है मेवा। तो सब जगह सेवा अच्छी चल रही है। सेवा और सम्पूर्णता दोनों में आगे हो ना। निर्विघ्न सेवा में आगे हो? निर्विघ्न सेवा-यही संगमयुग की विशेषता है। तो निर्विघ्न सेवा है या विघ्न आते हैं?समाचार तो बाप को पता पड़ता है ना कि विघ्न आते हैं। गुजरात को जितना समीपता का वरदान है और धरनी भी सात्विकता के वरदान की है ऐसे ही सदा निर्विघ्न रहने के वरदान में भी सदा आगे रहना चाहिये। एग्जाम्पल बनना चाहिये कि जितनी ज्यादा सेवा उतना ही निर्विघ्न। तो निर्विघ्न सेवा में नम्बरवन लेना है। कोई भी सेन्टर पर कोई खिटपिट नहीं है या अन्दर थोड़ी-थोड़ी होती है? आत्मायें बहुत अच्छी हो सिर्फ थोड़ा हरेक निर्विघ्न बन आगे बढ़ने का संकल्प दृढ़ करो। संख्या भी अच्छी है, सेवा भी अच्छी है। यह विशेषता है। लेकिन अब यह विशेषता ऐड करो कि गुजरात निर्विघ्न सेवा में नम्बरवन हो। हिम्मत है? बाप को अच्छे लगे तभी तो अपना बनाया ना। तो अच्छे तो हो ही। अब विघ्न आने नहीं पायें। विजय का अधिकार सदा प्रत्यक्ष स्वरूप में हो। अच्छा, विजयी भव।

ग्रुप नं. 4

मन्सा सेवा के लिए स्वयं की स्थिति पावरफुल बनाओ, निरन्तर सेवाधारी बनो

दा अपने को बाप के स्नेही, सहयोगी और सदा सेवाधारी आत्मायें समझते हो? जैसे स्नेह अटूट है ना। परमात्म-स्नेह को कोई भी शक्ति तोड़ सकती है? असम्भव है ना कि थोड़ा-थोड़ा सम्भव है? यह अविनाशी स्नेह विनाश हो नहीं सकता। स्नेह के साथ-साथ सदा सहयोगी हैं। किस बात में सहयोगी हैं? जो बाप के डायरेक्शन्स हैं उसमें सदा सहयोगी हैं। सदा श्रीमत पर चलने में सहयोगी हैं और सदा सेवाधारी हैं। ऐसे नहीं कि सेवा का चांस मिला तो सेवाधारी। सदा सेवाधारी। ब्राह्मण बनना अर्थात् सेवा की स्टेज पर ही रहना। ब्राह्मणों का काम क्या है? सेवा करना। वो नामधारी ब्राह्मण धामा खाने वाले और आप सेवा करने वाले। तो हर सेकेण्ड सेवा की स्टेज पर हैं-ऐसे समझते हो? कि जब चांस मिलता है तब सेवा करते हो? चांस पर सेवा करने वाले हो वा सदा सेवाधारी हो? खाना बनाते भी सेवा करते हो? क्या सेवा करते हो? याद में खाना बनाते हो तो यह सेवा करते हो। कोई भी कार्य करते हो तो याद में रहने से वायुमण्डल शुद्ध बनता है। क्योंकि वृत्ति से वायुमण्डल बनता है। तो याद की वृत्ति से वायुमण्डल बनाते हो। सेवाधारी अर्थात् हर समय अपने श्रेष्ठ दृष्टि से, वृत्ति से, कृति से सेवा करने वाले। जिसको भी श्रेष्ठ दृष्टि से देखते हो तो श्रेष्ठदृष्टि भी सेवा करती है। तो निरन्तर सेवाधारी हैं। ब्राह्मण आत्मा सेवा के बिना रह नहीं सकती। जैसे यह शरीर है ना तो श्वास के बिना नहीं रह सकता तो ब्राह्मण जीवन का श्वास है सेवा। जैसे श्वास न चलने पर मूर्छित हो जाते हैं ऐसे अगर ब्राह्मण आत्मा सेवा में बिजी नहीं तो मूर्छित हो जाती है। ऐसे पक्के सेवाधारी हो ना। तो जितना स्नेही हैं, उतना सहयोगी, उतना ही सेवाधारी हैं। सेवा का चांस तो बहुत है ना कि कभी किसको मिलता है, किसको नहीं मिलता? वाणी से सेवा का चांस नहीं मिलता लेकिन मन्सा से सेवा का चांस तो हर समय है ही। सबसे पॉवरफुल और सबसे बड़े से बड़ी सेवा मन्सा सेवा है। वाणी की सेवा सहज है या मन्सा सेवा सहज है? मन्सा सेवा के लिये पहले अपने को पॉवरफुल बनाओ। वाणी की सेवा तो स्थिति नीचे-ऊपर होते हुए भी कर लेंगे। भाषण करके आ जायेंगे। कोई कोर्स करने वाला आयेगा तो भी कोर्स करा देंगे। लेकिन मन्सा सेवा ऐसे नहीं हो सकती। अगर मन्सा थोड़ा भी कमज़ोर है तो मन्सा सेवा नहीं हो सकती। वाणी की कर सकते हो। ऐसे करना नहीं है लेकिन चलता है। तो अब मन्सा, वाचा, कर्मणा सब प्रकार की सेवा करो तब फुल मार्क्स ले सकेंगे। निरन्तर सेवाधारी बनो क्योंकि जितनी सेवा करते हो उतना प्रत्यक्षफल मिलता ही है। तो सेवाधारी अर्थात् प्रत्यक्षफल खाने वाले।

सभी सन्तुष्ट आत्मायें हो ना। संगम पर सन्तुष्ट नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे? संगमयुग है ही सन्तुष्टता का युग। तो सभी सन्तुष्ट हैं कि थोड़ी खिटखिट है? न स्वयं में, न दूसरों के सम्पर्क में आने में। स्वयं सन्तुष्ट हैं लेकिन सम्पर्क में आने में सन्तुष्टता, इसमें थोड़ा फर्क है। माला के मणके हो ना। तो माला कैसे बनती है? सम्बन्ध से। अगर दाने का दाने से सम्पर्क नहीं हो तो माला बनेगी? तो माला के मणके हैं इसलिए सम्बन्ध-सम्पर्क में भी सदा सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। सिर्फ रहना नहीं है, करना भी है तब माला के मणके बनते हैं। क्योंकि सभी परिवार वाले हो, निवृत्ति वाले नहीं। परिवार का अर्थ ही है सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। बापदादा सभी स्थानों को एक-दो से आगे ही रखते हैं। ऐसे नहीं फलाना स्थान आगे है, दूसरे पीछे हैं। बाप के लिये सब आगे हैं। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं, लेकिन सब आगे हैं। और अगर गुप्त हैं तो सबसे आगे हैं। जैसे गुप्त दान महादान कहा जाता है। ऐसे अगर गुप्त पुरुषार्थी हैं, नाम आउट नहीं होता है तो ऐसे नहीं समझो कि पीछे हैं लेकिन गुप्त पुरुषार्थी सदा आगे हैं। गुप्त सेवाधारी सदा ही आगे है। तो सभी क्या याद रखेंगे? कौन हो? निरन्तर सेवाधारी। सदा सेवा की स्टेज पर पार्ट बजा रहे हो। घर में नहीं, स्टेज पर हो। सेन्टर पर नहीं, स्टेज पर हो। तो स्टेज पर अलर्ट रहते हैं, घर में जायेंगे तो अलर्ट नहीं रहेंगे, अलबेले हो जायेंगे। स्टेज पर जायेंगे तो अलर्ट हो जायेंगे। तो सदा सेवा की स्टेज पर हैं-इस स्मृति से सदा अलर्ट रहना है। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

मास्टर सर्वशक्तिमान बन समय पर हर शक्ति को कार्य में लगाओ

अपने को सदा मास्टर सर्वशक्तिमान अनुभव करते हो? मास्टर का अर्थ है कि हर शक्ति को जिस समय आह्वान करो तो वो शक्ति प्रैक्टिकल स्वरूप में अनुभव हो। जिस समय, जिस शक्ति की आवश्यकता हो, उस समय वो शक्ति सहयोगी बने-ऐसे है? जिस समय सहनशक्ति चाहिये उस समय स्वरूप में आती है कि थोड़े समय के बाद आती है? अगर मानो शस्त्र एक मिनट पीछे काम में आया तो विजयी होंगे? विजय नहीं हो सकेगी ना। तो मास्टर सर्वशक्तिमान अर्थात् शक्ति को ऑर्डर किया और हाजर। ऐसे नहीं कि ऑर्डर करो सहन शक्ति को और आये सामना करने की शक्ति। तो उसको मास्टर सर्वशक्तिमान कहेंगे? जैसे कई परिस्थिति में सोचते हो कि किनारा नहीं करना है, सहन करना है लेकिन फिर सहन करते-करते सामना करने की शक्ति में आ जाते हो। ऐसे ही निर्णय शक्ति की आवश्यकता है। लेकिन निर्णय शक्ति यथार्थ समय पर यथार्थ निर्णय नहीं ले तो उसको क्या कहेंगे? मास्टर सर्वशक्तिमान या कमज़ोर? तो ऐसे ट्रायल करो कि जिस समय जो शक्ति आवश्यक है उस समय वो शक्ति कार्य में आती है? एक सेकेण्ड का भी फर्क पड़ा तो जीत के बजाय हार हो जाती है। सेकेण्ड की बात है ना। निर्णय करना हाँ या ना। और हाँ के बजाय अगर ना कर लिया तो सेकेण्ड का नुकसान सदा के लिये हार खिलाने के निमित्त बन जाता है। इसलिये मास्टर सर्वशक्तिमान का अर्थ ही है जो हर शक्ति ऑर्डर में हो। जैसे ये शरीर की कर्मेन्द्रियां ऑर्डर में हैं ना। हाथ पांव जब चलाओ, जैसे चलाओ वैसे चलाते हो ना ऐसे सर्वशक्तियां इतना ऑर्डर में चलें। जितना यूज़ करते जायेंगे उतना अनुभव करते जायेंगे।

माताओं में समाने की शक्ति है या थोड़ा कुछ होता है तो क्रोध आ जाता है? थोड़ा बच्चों पर क्रोध आ जाता है। पाण्डवों को गुस्सा आता है? बच्चों पर नहीं, बड़ों पर आता है? सदा अपना ये स्वमान स्मृति में रखो कि हम मास्टर सर्वशक्तिमान हैं। इस स्वमान की सीट पर सदा स्थित रहो। जैसी सीट होती है वैसे लक्षण आते हैं। कोई भी ऐसी परिस्थिति सामने आये तो सेकेण्ड में अपने इस सीट पर सेट हो जाओ। सीट पर सेट नहीं होते तो शक्तियां भी ऑर्डर नहीं मानती। सीट वाले का ऑर्डर माना जाता है। तो सेट होना आता है ना। सीट पर बैठने वाले कभी अपसेट नहीं होते। या तो है सीट या तो है अपसेट। लक्ष्य अच्छा है, लक्षण भी अच्छे हैं। सभी महावीर हैं। कभी-कभी सिर्फ थोड़ा माया से खेल करते हो। अब के विजयी ही सदा के विजयी बनेंगे। अब विजयी नहीं तो फिर कभी भी विजयी नहीं बनेंगे। इसलिये संगमयुग है ही सदा विजयी बनने का युग। द्वापर-कलियुग हार खाने का युग है और संगम विजय प्राप्त करने का युग है। इस युग को वरदान है। तो वरदानी बन विजयी बनो।

नया प्लैन कोई बनाया है? अच्छा है, जितनी सेवा बढ़ाते हो, उतना स्वयं को आगे बढ़ाते हो। औरों की सेवा करने के पहले अपनी सेवा स्वत: ही हो जाती है। अब कोई ऐसा नामीग्रामी माइक निकालो जो स्नेह के साथ समीप वाली आत्मा बन जाये। जिस एक द्वारा अनेकों की सेवा सहज होती रहे। अभी ऐसी विशेष आत्मायें मैदान पर लाओ। समझा? अच्छा!

ग्रुप नं. 6

त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होकर तीनों कालों को देखो तो सदा खुशी रहेगी

सदा यह नशा रहता है कि हम विशेष आत्मायें हैं? तो गाया हुआ है कोटों में कोई, कोई में भी कोई तो पहले सुनते थे लेकिन अभी अनुभव कर रहे हो कि हम ही कोटों में कोई आत्मायें थी और हैं और सदा बनेंगी। कभी सोचा था कि इतना विशेष पार्ट इस ड्रामा के अन्दर हमारा नूँधा हुआ है! लेकिन अभी प्रैक्टिकल में अनुभव कर रहे हो। पक्का निश्चय है ना। कल्प-कल्प कौन बनता है? क्या कहेंगे? हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे। तीनों काल का ज्ञान अभी आ गया है। त्रिकालदर्शी बन गये ना। एक सेकेण्ड में तीनों काल को देख सकते हो? क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे-स्पष्ट है ना। कल पुजारी, आज पूज्य बन रहे हैं। जब त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होते हो तो कितना मजा आता है। जैसे कोई भी देश में जब टॉप प्वाइन्ट पर खड़े होकर सारे शहर को देखते हैं तो मजा आता है ना। ऐसे ही यह संगमयुग टॉप प्वाइन्ट है तो इस पर खड़े होकर देखो तो मजा आयेगा। कल थे और कल बनने वाले हैं। इतना स्पष्ट अनुभव होता है? कल क्या बनने वाले हो? देवता। कितने बार बने हो? अनेक बार बने हो। तो कितना सहज और स्पष्ट हो गया। फलक से कहते हो ना-हम ही तो थे और कौन होंगे। अभी तो यही दिल कहता है ना कि और कौन बनेगा, हम थे, हम ही बन रहे हैं इसको कहते हैं मास्टर नॉलेजफुल। फुल नॉलेज आ गई है ना। एक काल की नहीं, तीनों काल की। तो जैसे बाप नालेजफुल है, बाप की महिमा में फुल के कारण सागर कहते हैं। सागर सदा फुल रहता है। तो नॉलेजफुल बन गये। एक काल के भी ज्ञान की कमी नहीं। भरपूर। इतना नशा है?

सबसे ज्यादा खुशी किसको रहती है? सदा समान रहती है कि कभी कम, कभी ज्यादा रहती है? कुमारों को माया नहीं आती है? चाहे कुमार हैं, चाहे अधर कुमार हैं लेकिन अभी ब्रह्माकुमार हैं। अधर कुमार भी कुमार हैं, अधर कुमारी भी ब्रह्माकुमारी है। कुमारी जीवन या कुमार जीवन बहुत श्रेष्ठ जीवन है लेकिन ब्रह्माकुमार हैं तो। तो जो सदा खुश रहते हैं वो ब्रह्माकुमार हैं। दुनिया वाले तो सोचते रह जाते हैं और आप सदा सम्पन्न बन गये। वो सोचते रहते हैं पता नहीं क्या होगा, कब होगा और आप क्या कहते हो? जो होना था वो हो रहा है, जो पाना था वो पा लिया है, चैलेन्ज करते हो ना।

माताओं को सबसे बड़े ते बड़ी खुशी है कि बाप ने हमें अपना बना लिया। नाउम्मीद से सदा के उम्मीदवार बने गये। दुनिया वालों ने नाउम्मीद बनाया और बाप ने उम्मीदों के सितारे बना लिया। जो औरों को भी उम्मीदों के सितारे बनाने के निमित्त बने। एक्स्ट्रा खुशी यह है कि हमें बाप ने पसन्द कर लिया। कितना सहज पसन्द किया। कोई तकलीफ नहीं। पाण्डवों को क्या नशा है? पाण्डवों को अपना नशा है, अपनी खुशी है। पाण्डव सदा बाप के साथी दिखाते हैं। पाण्डवों ने कभी साथ नहीं छोड़ा, अन्त तक साथ निभाया। वही पाण्डव हो ना। पाण्डव दिल से गाते हैं कि हमारा साथी सदा भगवान् है। सदा साथ रहने वाले हैं। सदा साथ निभाने वाले हैं। ऐसे पाण्डव हो ना? सदा साथ रहने वाली वरदानी आत्मायें हैं। जब वरदाता साथ है तो वरदान भी साथ है ना। वरदानों से सदा झोली भरी हुई है। वरदान भरते-भरते इतने वरदानी बनते हो जो अनेक जन्म अनेक आत्माओं को वरदानी स्वरूप में दिखाई देते हो। आपके जड़ चित्रों से वरदान लेने आते हैं ना। ऐसे वरदानी आत्मायें बन गये। कभी वरदानों से अलग हो ही नहीं सकते। सदा भरपूर हैं। अच्छा!

सेवाधारी

सेवाधारी अर्थात् हर समय अपने श्रेष्ठदृष्टि से, वृत्ति से, कृति से सेवा करने वाले। जिसको भी श्रेष्ठ दृष्टि से देखते हो तो श्रेष्ठ दृष्टि भी सेवा करती है। तो निरन्तर सेवाधारी हैं। ब्राह्मण आत्मा सेवा के बिना रह नहीं सकती। जैसे यह शरीर है ना तो श्वास के बिना नहीं रह सकता तो ब्राह्मण जीवन का श्वास है सेवा। जैसे श्वास न चलने पर मूर्छित हो जाते हैं ऐसे अगर ब्राह्मण आत्मा सेवा में बिजी नहीं तो मूर्छित हो जाती है।



25-11-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सहज सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान स्वरूप प्रयोगी आत्मा बनो

योग के प्रयोग की विधि सिखाने वाले ज्ञान दाता बाप अपने ज्ञानी तू आत्मा बच्चों प्रति बोले-

आज ज्ञान दाता वरदाता अपने ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा बच्चों को  देख रहे हैं। हर एक बच्चा ज्ञान स्वरूप और योगयुक्त कहाँ तक बना है? ज्ञान सुनने और सुनाने के निमित्त बने हैं वा ज्ञान स्वरूप बने हैं? समय प्रमाण योग लगाने वाले बने हैं वा सदा योगी जीवन अर्थात् हर कर्म में योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्वत: वा सदा के योगी बने हैं? किसी भी ब्राह्मण आत्मा से कोई भी पूछेंगे कि ज्ञानी और योगी हैं तो क्या कहेंगे? सभी ज्ञानी और योगी हैं ना? ज्ञान स्वरूप बनना अर्थात् हर संकल्प, बोल और कर्म समर्थ होगा। व्यर्थ समाप्त होगा। क्योंकि जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता। जैसे प्रकाश और अन्धियारा साथ-साथ नहीं होता। तो ‘ज्ञान’ प्रकाश है, ‘व्यर्थ’ अन्धकार है। वर्तमान समय व्यर्थ को समाप्त करने का अटेन्शन रखना है। सबसे मुख्य बात संकल्प रूपी बीज को समर्थ बनाना है। अगर संकल्प रूपी बीज समर्थ है तो वाणी, कर्म, सम्बन्ध सहज ही समर्थ हो ही जाता है। तो ज्ञान स्वरूप अर्थात् हर समय, हर संकल्प, हर सेकेण्ड समर्थ।

योगी तू आत्मा सभी बने हो लेकिन हर संकल्प स्वत: योगयुक्त, युक्तियुक्त हो, इसमें नम्बरवार हैं। क्यों नम्बर बने? जब विधाता भी एक है, विधि भी एक है फिर नम्बर क्यों? बापदादा ने देखा योगी तो बने हैं लेकिन प्रयोगी कम बनते हैं। योग करने और कराने दोनों में सभी होशियार हैं। ऐसा कोई है जो कहे कि योग कराना नहीं आता? जैसे योग करने-कराने में योग्य हो, ऐसे ही प्रयोग करने में योग्य बनना और बनाना-इसको कहा जाता है योगी जीवन अर्थात् योगयुक्त जीवन। अभी प्रयोगी जीवन की आवश्यकता है। जो योग की परिभाषा जानते हो, वर्णन करते हो वो सभी विशेषतायें प्रयोग में आती हैं? सबसे पहले अपने आपमें यह चेक करो कि अपने संस्कार परिवर्तन में कहाँ तक प्रयोगी बने हो? क्योंकि आप सबके श्रेष्ठ संस्कार ही श्रेष्ठ संसार के रचना की नींव हैं। अगर नींव मजबूत है तो अन्य सभी बातें स्वत: मजबूत हुई ही पड़ी हैं। तो यह देखो कि संस्कार समय पर कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन करने वाले कैसे भी व्यक्ति हो, वस्तु हो, परिस्थिति हो, योग के प्रयोग करने वाली आत्मा को श्रेष्ठ से साधारणता में हिला नहीं सकते। ऐसे नहीं कि बात ही ऐसी थी, व्यक्ति ही ऐसा था वा वायुमण्डल ऐसा था इसलिये श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन कर साधारण वा व्यर्थ बना दिया, तो क्या इसको प्रयोगी आत्मा कहेंगे? अगर समय पर योग की शक्तियों का प्रयोग नहीं हुआ तो इसको क्या कहा जायेगा? तो पहले इस फाउन्डेशन को देखो कि कहाँ तक समय पर प्रयोगी बने हैं? अगर स्व के संस्कार परिवर्तक नहीं बने हैं तो नये संसार परिवर्तक कैसे बनेंगे?

प्रयोगी आत्मा की पहली निशानी है-संस्कार के ऊपर सदा प्रयोग में विजयी। दूसरी निशानी-प्रकृति द्वारा आने वाली परिस्थितियों पर योग के प्रयोग द्वारा विजयी। समय प्रति समय प्रकृति की हलचल भी योगी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती है। ऐसे समय पर योग की विधि प्रयोग में आती है? कभी योगी पुरूष को वा पुरूषोत्तम आत्मा को प्रकृति प्रभावित तो नहीं करती? क्योंकि ब्राह्मण आत्मायें पुरूषोत्तम आत्मायें हो। प्रकृति पुरूषोत्तम आत्माओं की दासी है। मालिक, दासी के प्रभाव में आ जाये-इसको क्या कहेंगे? आजकल पुरूषोत्तम आत्माओं को प्रकृति साधनों और सैलवेशन के रूप में प्रभावित करती है। साधन वा सैलवेशन के आधार पर योगी जीवन है। साधन वा सैलवेशन कम तो योगयुक्त भी कम-इसको कहा जाता है प्रभावित होना। योगी वा प्रयोगी आत्मा की साधना के आगे साधन स्वत: ही स्वयं आते हैं। साधन साधना का आधार नहीं हो लेकिन साधना साधनों को स्वत: आधार बनायेगी। इसको कहा जाता है प्रयोगी आत्मा-तो चेक करो-संस्कार परिवर्तन विजयी और प्रकृति के प्रभाव के विजयी कहाँ तक बने हैं? तीसरी निशानी है-विकारों पर विजयी। योगी वा प्रयोगी आत्मा के आगे ये पांच विकार, जो दूसरों के लिये जहरीले सांप है लेकिन आप योगी-प्रयोगी आत्माओं के लिये ये सांप गले की माला बन जाते हैं। आप ब्राह्मणों के और ब्रह्मा बाप के अशरीरी तपस्वी शंकर स्वरूप का यादगार अभी भी भक्त लोग पूजते और गाते रहते हैं। दूसरा यादगार-ये सांप आपके अधीन ऐसे बन जाते जो आपके खुशी में नाचने की स्टेज बन जाते हैं। जब विजयी बन जाते हैं तो क्या अनुभव करते हैं? क्या स्थिति होती है? खुशी में नाचते रहते हैं ना। तो यह स्थिति स्टेज के रूप में दिखाई है। स्थिति को भी स्टेज कहा जाता है। ऐसे विकारों पर विजय हो-इसको कहा जाता है प्रयोगी। तो यह चेक करो-कहाँ तक प्रयोगी बने हैं? अगर योग का समय पर प्रयोग नहीं, योग की विधि से समय पर सिद्धि नहीं तो यथार्थ विधि कहेंगे? समय अपनी तीव्र गति समय प्रति समय दिखा रहा है। अनेकता, अधर्म, तमोप्रधानता हर क्षेत्र में तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय पर आपके योग के विधि की वृद्धि वा विधि के सिद्धि में वृद्धि तीव्र गति से होना वश्यक है। नम्बर आगे बढ़ने का आधार है-प्रयोगी बनने की सहज विधि। तो बापदादा ने क्या देखा-समय पर प्रयोग करने में तीव्र गति के बजाय साधारण गति है। अभी इसको बढ़ाओ। तो क्या होगा-सिद्धि स्वरूप अनुभव करते जायेंगे। आपके जड़ चित्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का अनुभव करते रहते हैं। चैतन्य में सिद्धि स्वरूप बने हो तब यह यादगार चला आ रहा है। रिद्धि-सिद्धि वाले नहीं, विधि से सिद्धि। तो समझा क्या करना है? है सब कुछ लेकिन समय पर प्रयोग करना और प्रयोग सफल होना इसको कहा जाता है ज्ञान स्वरूप आत्मा। ऐसे ज्ञान स्वरूप आत्मायें अति समीप और अति प्रिय हैं। अच्छा!

सदा योग की विधि द्वारा श्रेष्ठ सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा साधारण संस्कार को श्रेष्ठ संस्कार में परिवर्तन करने वाले, संस्कार परिवर्तक आत्माओं को, सदा प्रकृति जीत, विकारों पर जीत प्राप्त करने वाले विजयी आत्माओं को, सदा प्रयोग के गति को तीव्र अनुभव करने वाले ज्ञान स्वरूप, योगयुक्त योगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

(24 नवम्बर को दो कुमारियों के समर्पण समारोह के बाद रात्रि 10 बजे दादी आलराउन्डर ने अपना पुराना चोला छोड़ बापदादा की गोद ली, 25 तारीख दोपहर में उनका अन्तिम संस्कार किया गया, सायंकाल मुरली के पश्चात दादियों से मुलाकात करते समय बापदादा ने जो महावाक्य उच्चारे वह इस प्रकार हैं) :-

खेल में भिन्न-भिन्न खेल देखते रहते हो। साक्षी हो खेल देखने में मजा आता है ना। चाहे कोई उत्सव हो, चाहे कोई शरीर छोड़े-दोनों ही क्या लगता है? खेल में खेल लगता है। और लगता भी ऐसे ही है ना जैसे खेल होता है और समय प्रमाण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही जो हुआ सहज समाप्त हुआ तो खेल ही लगता है। हर आत्मा का अपना-अपना पार्ट है। सर्व आत्माओं की शुभ भावना, अनेक आत्माओं की शुभ भावना प्राप्त होना-यह भी हर आत्मा के भाग्य की सिद्धि है। तो जो भी हुआ, क्या देखा? खेल देखा या मृत्यु देखा? एक तरफ वहीं अलौकिक स्वयंवर देखा और दूसरे तरफ चोला बदलने का खेल देखा। लेकिन दोनों क्या लगे? खेल में खेल। फर्क पड़ता है क्या? स्थिति में फर्क पड़ता है? अलौकिक स्वयंवर देखने में और चोला बदलते हुए देखने में फर्क पड़ा?थोड़ी लहर बदली हुई कि नहीं? साक्षी होकर खेल देखो तो वो अपने विधि का और वो अपने विधि का। सहज नष्टोमोहा होना यह बहुत काल के योग के विधि की सिद्धि है। तो नष्टोमोहा, सहज मृत्यु का खेल देखा। इस खेल का क्या रहस्य देखा? देह के स्मृति से भी उपराम। चाहे व्याधि द्वारा, चाहे विधि द्वारा - और कोई भी आकर्षण अन्त समय आकर्षित नहीं करे। इसको कहा जाता है सहज चोला बदली करना। तो क्या करना है? नष्टोमोहा, सेन्टर भी याद नहीं आये। (टीचर्स को देखते हुए) ऐसे नहीं कोई जिज्ञासू याद आ जाये, कोई सेन्टर की वस्तु याद आ जाये, कुछ किनारे किया हुआ याद आ जाये ...। सबसे न्यारे और बाप के प्यारे। पहले से ही किनारे छुटे हुए हों। कोई किनारे को सहारा नहीं बनाना है। सिवाए मंज़िल के और कोई लगाव नहीं हो। अच्छा!

निर्मलशांता दादी से मुलाकात

संगठन अच्छा लगता है? संगठन की विशेष शोभा हो। सबकी नजर कितने प्यार से आप सबके तरफ जाती है! जब तक जितनी सेवा है उतनी सेवा शरीर द्वारा होनी ही है। कैसे भी करके शरीर चलता ही रहेगा। शरीर को चलाने का ढंग आ गया है ना। अच्छा चल रहा है। क्योंकि बाप की और सबकी दुआयें हैं। खुश रहना है और खुशी बांटनी है और क्या काम है। सब देख-देख कितने खुश होते हैं तो खुशी बांट रहे हैं ना। खा भी रहे हैं, बांट भी रहे हैं। आप सब एक-एक दर्शनीय मूर्त हो। सबकी नजर निमित्त आत्माओं तरफ जाती है तो दर्शनीय मूर्त हो गये ना। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

ब्राह्मण जीवन का आधार - याद और सेवा

ड्रामा अनुसार ब्राह्मण जीवन में सभी को सेवा का चांस मिला हुआ है ना। क्योंकि ब्राह्मण जीवन का आधार ही है याद और सेवा। अगर याद और सेवा कमज़ोर है तो जैसे शरीर का आधार कमज़ोर हो जाता है तो शरीर दवाइयों के धक्के से चलता है ना। तो ब्राह्मण जीवन में अगर याद और सेवा का आधार मजबूत नहीं, कमज़ोर है, तो वह ब्राह्मण जीवन भी कभी तेज चलेगा, कभी ढीला चलेगा, धक्के से चलेगा। कोई सहयोग मिले, कोई साथ मिले, कोई सरकमस्टांस मिले तो चलेंगे, नहीं तो ढीले हो जायेंगे। इसलिए याद और सेवा का विशेष आधार सदा शक्तिशाली चाहिए। दोनों ही शक्तिशाली हों। सेवा बहुत है, याद कमज़ोर है या याद बहुत अच्छी है, सेवा कमज़ोर है तो भी तीव्रगति नहीं हो सकती। याद और सेवा दोनों में तीव्रगति चाहिए। शक्तिशाली चाहिए। तो दोनों ही शक्तिशाली हैं या फर्क पड़ जाता है? कभी सेवा ज्यादा हो जाती, कभी याद ज्यादा हो जाती? दोनों साथ-साथ हों। याद और निस्वार्थ सेवा। स्वार्थ की सेवा नहीं, निस्वार्थ सेवा है तो माया जीत बनना बहुत सहज है। हर कर्म में, कर्म की समाप्ति के पहले सदा विजय दिखाई देगी। इतना अटल निश्चय का अनुभव होगा कि विजय तो हुई पड़ी है? अगर ब्राह्मण आत्माओं की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी? क्षत्रियों की होगी क्या? ब्राह्मणों की विजय है ना। क्वेश्चन मार्क नहीं होगा। कर तो रहे हैं, चल तो रहे हैं, देख लेंगे, हो जायेगा, होना तो चाहिए-तो ये शब्द नहीं आयेंगे। पता नहीं क्या होगा, होगा या नहीं होगा-यह निश्चय के बोल हैं? निश्चयबुद्धि विजयी-यह गायन है ना? तो जब प्रैक्टिकल हुआ है तब तो गायन है। निश्चयबुद्धि की निशानी है-विजय निश्चित। जैसे किसी भी प्रकार की किसको शक्ति होती है-चाहे धन की हो, बुद्धि की हो, सम्बन्ध-सम्पर्क की हो तो उसको निश्चय रहता है-यह क्या बड़ी बात है, यह तो कोई बात ही नहीं है। आपके पास तो सब शक्तियां हैं। धन की शक्ति है कि धन की शक्ति करोड़पतियों के पास है? सबसे बड़ा धन है अविनाशी धन, जो सदा साथ है। तो धन की शक्ति भी है, बुद्धि की शक्ति भी है, पोजीशन की शक्ति भी है। जो भी शक्तियां गाई हुई हैं सब शक्तियां आप में हैं। हैं या कभी प्राय: लोप हो जाती हैं? इन्हें इमर्ज रूप में अनुभव करो। ऐसे नहीं-हाँ, हूँ तो सर्वशक्तिमान का बच्चा लेकिन अनुभव नहीं होता। तो सभी भरपूर हो कि थोड़ा-थोड़ा खाली हो? समय पर विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त हो। ऐसे नहीं समय पर हो नहीं और वैसे नशा हो कि बहुत शक्तियां हैं। कभी अपनी शक्तियों को भूलना नहीं, यूज़ करते जाओ-अगर स्व प्रति कार्य में लगाना आता है तो दूसरे के कार्य में भी लगा सकते हैं। पाण्डवों में शक्ति आ गई या कभी क्रोध आता है? थोड़ा-थोड़ा क्रोध आता है? कोई क्रोध करे तो क्रोध आता है, कोई इन्सल्ट करे तो क्रोध आता है? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे दुश्मन आता है तो हार होती है। माताओं को थोड़ा-थोड़ा मोह आता है? पाण्डवों को अपने हर कल्प के विजयपन की सदा खुशी इमर्ज होनी चाहिये। कभी भी कोई पाण्डवों को याद करेंगे तो पाण्डव शब्द से विजय सामने आयेगी ना। पाण्डव अर्थात् विजयी। पाण्डवों की कहानी का रहस्य ही क्या है? विजय है ना। तो हर कल्प के विजयी। इमर्ज रूप में नशा रहे। मर्ज नहीं। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सर्व द्वारा मान प्राप्त करने के लिए निर्माण बनो

भी अपने को सदा कोटों में कोई और कोई में भी कोई श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हों? कि कोटों में कोई जो गाया हुआ है वो और कोई है? या आप ही हो? तो कितना एक-एक आत्मा का महत्व है अर्थात् हर आत्मा महान है। तो जो जितना महान होता है, महानता की निशानी जितना महान उतना निर्माण। क्योंकि सदा भरपूर आत्मा है। जैसे वृक्ष के लिये कहते हैं ना जितना भरपूर होगा उतना झुका हुआ होगा और निर्माणता ही सेवा करती है। जैसे वृक्ष का झुकना सेवा करता है, अगर झुका हुआ नहीं होगा तो सेवा नहीं करेगा। तो एक तरफ महानता है और दूसरे तरफ निर्माणता है। और जो निर्माण रहता है वह सर्व द्वारा मान पाता है। स्वयं निर्माण बनेंगे तो दूसरे मान देंगे। जो अभिमान में रहता है उसको कोई मान नहीं देते। उससे दूर भागेंगे। तो महान और निर्माण है या नहीं है - उसकी निशानी है कि निर्माण सबको सुख देगा। जहाँ भी जायेगा, जो भी करेगा वह सुखदायी होगा। इससे चेक करो कि कितने महान हैं? जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये सुख की अनुभूति करे। ऐसे है या कभी दु:ख भी मिल जाता है? निर्माणता कम तो सुख भी सदा नहीं दे सकेंगे। तो सदा सुख देते, सुख लेते या कभी दु:ख देते, दु:ख लेते? चलो देते नहीं लेकिन ले भी लेते हो? थोड़ा फील होता है तो ले लिया ना। अगर कोई भी बात किसी की फील हो जाती है तो इसको कहेंगे दु:ख लेना। लेकिन कोई दे और आप नहीं लो, यह तो आपके ऊपर है ना। जिसके पास होगा ही दु:ख वो क्या देगा? दु:ख ही देगा ना। लेकिन अपना काम है सुख लेना और सुख देना। ऐसे नहीं कि कोई दु:ख दे रहा है तो कहेंगे मैं क्या करूँ? मैंने नहीं दिया लेकिन उसने दिया। अपने को चेक करना है-क्या लेना है, क्या नहीं लेना है। लेने में भी होशियारी चाहिये ना। इसलिये ब्राह्मण आत्माओं का गायन है-सुख के सागर के बच्चे, सुख स्वरूप सुखदेवा हैं। तो सुख स्वरूप सुखदेवा आत्मायें हो। दु:ख की दुनिया छोड़ दी, किनारा कर लिया या अभी तक एक पांव दु:खधाम में है, एक पांव संगम पर है? ऐसे तो नहीं कि थोड़ा-थोड़ा वहाँ बुद्धि रह गई है? पांव नहीं है लेकिन थोड़ी अंगुली रह गई है? जब दु:खधाम को छोड़ चले तो न दु:ख लेना है न दु:ख देना है।

अच्छा! ये वैराइटी ग्रुप है। डबल विदेशी भी हैं। कहाँ के भी हो लेकिन एक के हो। एक के हैं और एक हैं। सब एक क्या हैं? ब्राह्मण आत्मायें हैं। ये तो सेवा के लिये भिन्न-भिन्न स्थान पर बैठै हो लेकिन याद क्या रहता है? हम एक के हैं और सब एक ब्राह्मण आत्मायें हैं। इतनी खुशी रहती है? जब ब्राह्मण आपस में मिलते हैं तो कितनी खुशी होती है! और खुशी भी अविनाशी खुशी। क्योंकि अपना खज़ाना है ना। तो अपना खज़ाना साथ रखेंगे या अलग कर देंगे। तो सभी उड़ते चलो और उड़ाते चलो। समझा। अभी उड़ना है, चलना नहीं है।

वर्तमान वा भविष्य में कभी मूंझते तो नहीं हो। लेकिन स्व-स्थिति के आगे परिस्थिति कुछ भी नहीं। कितना भी बड़ा पहाड़ हो लेकिन आप ऊंचे हो तो पहाड़ छोटा-सा लगेगा। तो जब कोई बड़ी परिस्थिति लगे तो उड़ती कला में चले जाओ। फिर परिस्थिति खिलौना लगेगी। क्या भी हो, कैसे भी हो लेकिन उड़ती कला के आगे कुछ नहीं है।

ग्रुप नं.. 3

माया जीत बनने के लिए मास्टर सवर्शक्तिमान की पोजीशन स्मृति में रखो

अपने को कमल पुष्प समान न्यारे और प्यारे समझते हो? सदा न्यारे और बाप के प्यारे अनुभव करते हो? वा कभी-कभी करते हो? अगर किसी भी प्रकार की माया की परछाई भी पड़ गई तो कमल पुष्प कहेंगे? तो माया आती है या सभी मायाजीत हो? क्योंकि सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिमान श्रेष्ठ आत्मा समझते हो तो मास्टर सर्वशक्तिमान के आगे माया आ नहीं सकती। माया चींटी है या शेर है? तो चींटी पर विजय प्राप्त करना बड़ी बात है क्या? जब अपनी स्मृति की ऊंची स्टेज पर होते हो तो माया चींटी को जीतना सहज लगता है और जब कमज़ोर होते हो तो चींटी भी शेर माफिक लगती है। तो सदा अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करो कि मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ। तो अमृतवेले की स्मृति सारा दिन सहयोग देती रहेगी। जैसे स्थूल पोजीशन वाले अपने पोजीशन को भूलते नहीं। आजकल का प्राइम मिनिस्टर अपने को भूल जायेगा क्या कि मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ? आपका पोजीशन है-मास्टर सर्वशक्तिमान। तो भूल नहीं सकते। लेकिन भूल जाते हो इसलिए रोज अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करने से निरन्तर याद हो जायेगी।

माताओं को नशा रहता है कि जो दुनिया ढूंढ रही है वो हमें प्राप्त है, दुनिया वालों ने ठुकराया लेकिन बाप ने हमें आगे किया।

(तीन भाषा वाले बैठे हैं) बस, ये वेराइटी भाषाओं का थोड़ा सा समय है, फिर तो एक भाषा हो जायेगी। कौन सी एक भाषा होगी? (हिन्दी होगी) तो आपको भी सीखनी पड़ेगी ना। अभी देखो स्थूल पढ़ाई भी हो रही है, रूहानी पढ़ाई भी हो रही है। हिन्दी भी सीख रहे हो ना।

अच्छा है, लगन, स्नेह अच्छा है। कितना स्नेह है? सागर भी इसके आगे कुछ नहीं है। जितना जो स्नेह में रहता है उतना ही बाप द्वारा पदमगुणा स्नेह प्राप्त हुआ अनुभव करता है। अच्छा। सभी उमंग-उत्साह में हो ना। क्या से क्या बन गये!

ग्रुप नं. 4

हिम्मत और उमंग-उत्साह के आधार पर उड़ती कला का अनुभव करो

सदा उड़ती कला के लिये विशेष क्या स्मृति आवश्यक है? कभी भी नीचे नहीं आयें सदा ऊपर रहें उसके लिये क्या आवश्यक है? उड़ने के लिये पंख चाहते हैं ना। तो उड़ती कला के दो पंख कौन से है? (ज्ञान और योग) ज्ञान और योग के साथ हिम्मत और उमंग-उत्साह। अगर हिम्मत है तो हिम्मत से जो चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। इसलिये गाया हुआ भी है हिम्मते बच्चे मददे बाप। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह रहता है? क्योंकि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए उमंग उत्साह बहुत जरूरी है। अगर उमंग उत्साह नहीं होगा तो कार्य सफल नहीं हो सकता। क्यों? जहाँ उमंग-उत्साह नहीं होगा वहाँ थकावट बहुत ज्यादा होगी और थका हुआ कभी सफल नहीं होगा। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह-इसी आधार पर सदा उड़ती कला का अनुभव कर सकते हो। वर्तमान समय के अनुसार उड़ती कला के सिवाए मंज़िल पर पहुँच नहीं सकते। क्योंकि पुरूषार्थ है एक जन्म का और प्राप्ति 21 जन्म के लिए ही नहीं सारे कल्प की है। द्वापर के बाद भी पूज्य तो बनते हो ना। एक जन्म की मेहनत और अनेक जन्मों की प्राप्ति। तो कितना तीव्र गति से पुरूषार्थ करते हो? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? जब समय की पहचान स्मृति में रहती है तो तीव्र पुरूषार्थ के बिना रह नहीं सकते। समय का महत्व सदा याद रखो। ऐसे कभी सोचा था कि एक जन्म में अनेक जन्म सुधर जायेंगे, सफल हो जायेंगे। सोचा नहीं था लेकिन अनुभव कर लिया।

अभी क्या विशेषता करेंगे? प्रदर्शनी और मेला करेंगे! मेला तो कॉमन हो गया। नया क्या करेंगे? जो किया, जितना किया वो अच्छा किया लेकिन अभी कोई पावरफुल माइक निकालो। क्योंकि अभी थोड़े समय में तैयारी ज्यादा करनी है तो माइक चाहिये ना जो आपकी तरफ से एक अनेकों को सन्देश दे। आप कब तक अपना परिचय देते रहेंगे? अभी दूसरे आपका परिचय दें। मातायें ऐसी मातायें निकालो। ऐसी बहुत मातायें हैं जिनका आवाज बुलन्द हो सकता है। माइक का अर्थ है जिसका आवाज बुलन्द हो। मेहनत कम और फल ज्यादा निकले। सदा इसी स्मृति में रहो कि हम बाप के राइट हैण्ड अर्थात् सदा हर कार्य में सहयोगी आत्मायें हैं। तो राईट हैण्ड तो कमाल करेगा ना। अच्छा, कुमारियां भी आई हुई हैं। कुमारियां कमाल का प्लैन बना रही हो या अपने को छोटी समझती हो? क्या कमाल करेंगी? सबसे बड़े से बड़े को ऐसे समझो जो वो छोटा हो जाये आप बड़ी हो जाओ। अच्छा है, कुमारियों की जीवन श्रेष्ठ हो गई। अपने को भाग्यवान समझती हो ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

विशेष पार्टधारी अर्थात् हर कदम, हर सेकेण्ड सदा अलर्ट, अलबेले नहीं

सदा अपने को चलते-फिरते, खाते-पीते बेहद वर्ल्ड ड्रामा की स्टेज पर विशेष पार्टधारी आत्मा अनुभव करते हो? जो विशेष पार्टधारी होता है उसको सदा हर समय अपने कर्म अर्थात् पार्ट के ऊपर अटेन्शन रहता है। क्योंकि सारे ड्रामा का आधार हीरो पार्टधारी होता है। तो इस सारे ड्रामा का आधार आप हो ना। तो विशेष आत्माओं को वा विशेष पार्टधारियों को सदा इतना ही अटेन्शन रहता है? विशेष पार्टधारी कभी भी अलबेले नहीं होते। अलर्ट होते हैं। तो कभी अलबेलापन तो नहीं आ जाता? कर तो रहे हैं, पहुँच ही जायेंगे, ऐसे तो नहीं सोचते? कर रहे हैं लेकिन किस गति से कर रहे हैं? चल रहे हैं लेकिन किस गति से चल रहे हैं? गति में तो अन्तर होता है ना। कहाँ पैदल चलने वाला और कहाँ प्लेन में चलने वाला! कहने में तो आयेगा कि पैदल वाला भी चल रहा है और प्लेन वाला भी चल रहा है लेकिन फर्क कितना है? तो सिर्फ चल रहे हैं, ब्रह्माकुमार बन गये माना चल रहे हैं लेकिन किस गति से? तीव्रगति वाला ही समय पर मंज़िल पर पहुँचेगा। नहीं तो पीछे रह जायेगा। यहाँ भी प्राप्ति तो होती है लेकिन सूर्यवंशी की होती है या चन्द्रवंशी की होती है अन्तर तो होता है ना। तो सूर्यवंशी में आने के लिए हर संकल्प, हर बोल से साधारणता समाप्त हो। अगर कोई हीरो एक्टर साधारण एक्ट करे तो सभी उस पर हंसेंगे ना। तो यह सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ इसलिये हर कर्म विशेष हो, हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो। ऐसे नहीं कि ये तो 5 मिनट साधारण हुआ। पांच मिनट, पांच मिनट नहीं है। संगमयुग के पांच मिनट बहुत महत्व वाले हैं, पांच मिनट पांच साल से भी ज्यादा हैं इसलिए इतना अटेन्शन रहे। इसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरूषार्थियों का स्लोगन कौन-सा है? ‘‘अब नहीं तो कब नहीं।’’ तो यह सदा याद रहता है? क्योंकि सदा का राज्य भाग्य प्राप्त करना चाहते हो तो अटेन्शन भी सदा। अब थोड़ा समय सदा का अटेन्शन बहुतकाल, सदा की प्राप्ति कराने वाला है। तो हर समय ये स्मृति रहे और चेकिंग हो कि चलते-चलते कभी साधारणता तो नहीं आ जाती? जैसे बाप को परम आत्मा कहा जाता है, तो परम है ना। तो जैसे बाप वैसे बच्चे भी हर बात में परम यानी श्रेष्ठ।

तो अभी स्वयं का पुरूषार्थ भी तीव्र और सेवा में भी कम समय, कम मेहनत और सफलता ज्यादा। एक अनेकों जितना काम करे। तो ऐसा प्लैन बनाओ। पंजाब है तो बहुत पुराना। सेवा के आदि से हो तो आदि स्थान वाले कोई आदि रत्न निकालो। वैसे भी पंजाब को शेर कहते हैं ना। तो शेर गजगोर करता है ना। तो गजगोर अर्थात् बुलन्द आवाज। अब देखेंगे - क्या करते हैं और कौन करते हैं?

सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ। हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो, उसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र

पुरूषार्थियों का स्लोगन है --’’अब नहीं तो कब नहीं।’’



02-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नम्बरवन बनने के लिए-गुण मूर्त बन गुणों का दान करने वाले
महादानी बनो

अटल-अखण्ड भव का वरदान देने वाले बापदादा अपने दानी-महादानी बच्चों प्रति बोले -

आज बेहद के मात-पिता चारों ओर के विशेष बच्चों को देख रहे थे। क्या विशेषता देखी? कौन से बच्चे अखुट ज्ञानी, अटल स्वराज्य अधिकारी, अखण्ड निर्विघ्न, अखण्ड योगी, अखण्ड महादानी हैं-ऐसे विशेष आत्मायें कोटों में कोई बने हुए हैं। ज्ञानी, योगी, महादानी सभी बने हैं लेकिन अखण्ड कोई-कोई बने हैं। जो अखुट, अटल और अखण्ड हैं वही विजय माला के विजयी मणके हैं। बापदादा ने संगमयुग पर सभी बच्चों को ‘अटल-अखण्ड भव’ का वरदान दिया है लेकिन वरदान को जीवन में सदा धारण करने में नम्बरवार बन गये हैं। नम्बरवन बनने के लिये सबसे सहज विधि है अखण्ड महादानी बनो। अखण्ड महादानी अर्थात् निरन्तर सहज सेवाधारी। क्योंकि सहज ही निरन्तर हो सकता है। तो अखण्ड सेवाधारी अर्थात् अखण्ड महादानी। दाता के बच्चे हो, सर्व खज़ानों से सम्पन्न श्रेष्ठ आत्मायें हो। सम्पन्न की निशानी है अखण्ड महादानी। एक सेकण्ड भी दान देने के बिना रह नहीं सकते। द्वापर से दानी आत्मायें अनेक भक्त भी बने हैं लेकिन कितने भी बड़े दानी हों, अखुट खज़ाने के दानी नहीं बने हैं। विनाशी खज़ाने वा वस्तु के दानी बनते हैं। आप श्रेष्ठ आत्मायें अब संगम पर अखुट और अखण्ड महादानी बनते हो। अपने आपसे पूछो कि अखण्ड महादानी हो? वा समय प्रमाण दानी हो? वा चांस प्रमाण दानी हो?

अखण्ड महादानी सदा तीन प्रकार से दान करने में बिजी रहते हैं-पहला मन्सा द्वारा शक्तियां देने का दान, दूसरा वाणी द्वारा ज्ञान का दान, तीसरा कर्म द्वारा गुणों का दान। इन तीनों प्रकार के दान देने वाले सहज महादानी बन सकते हैं। रिजल्ट में देखा वाणी द्वारा ज्ञान दान मैजारिटी करते रहते हो। मन्सा द्वारा शक्तियों का दान यथा शक्ति करते हो और कर्म द्वारा गुण दान ये बहुत कम करने वाले हैं और वर्तमान समय चाहे अज्ञानी आत्मायें हैं, चाहे ब्राह्मण आत्मायें हैं दोनों को आवश्यकता गुणदान की है। वर्तमान समय विशेष स्वयं में वा ब्राह्मण परिवार में इस विधि को तीव्र बनाओ।

ये दिव्य गुण सबसे श्रेष्ठ प्रभु प्रसाद है। इस प्रसाद को खूब बांटो। जैसे-जब कोई से भी मिलते हो तो एक-दो में भी स्नेह की निशानी स्थूल टोली खिलाते हो ना, ऐसे एक-दो में ये गुणों की टोली खिलाओ। इस विधि से जो संगमयुग का लक्ष्य है-’’फरिश्ता सो देवता’’ यह सहज सर्व में प्रत्यक्ष दिखाई देगा। यह प्रैक्टिस निरन्तर स्मृति में रखो कि मैं दाता का बच्चा अखण्ड महादानी आत्मा हूँ। कोई भी आत्मा चाहे अज्ञानी हो, चाहे ब्राह्मण हो लेकिन देना है। ब्राह्मण आत्माओं को ज्ञान तो पहले ही है लेकिन दो प्रकार से दाता बन सकते हो।

1- जिस आत्मा को, जिस शक्ति की आवश्यकता है उस आत्मा को मन्सा द्वारा अर्थात् शुद्ध वृत्ति, वायब्रेशन्स द्वारा शक्तियों का दान अर्थात् सहयोग दो।

2- कर्म द्वारा सदा स्वयं जीवन में गुण मूर्त बन, प्रत्यक्ष सेम्पल बन औरों को सहज गुण धारण करने का सहयोग दो। इसको कहा जाता है गुण दान। दान का अर्थ है सहयोग देना। आजकल ब्राह्मण आत्मायें भी सुनने के बजाय प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहती हैं। किसी को भी शक्ति धारण करने की वा गुण धारण करने की शिक्षा देना चाहते हो तो कोई दिल में सोचते, कोई कहते कि ऐसे धारणा मूर्त कौन बने हैं? तो देखना चाहते हैं लेकिन सुनना नहीं चाहते। ऐसे एक-दो में कहते हो ना-कौन बना है, सबको देख लिया... ...। जब कोई बात आती है तो कहते हैं कोई नहीं बना है, सब चलता है। लेकिन यह अलबेलेपन के बोल हैं, यथार्थ नहीं हैं। यथार्थ क्या है? फॉलो ब्रह्मा बाप। जैसे ब्रह्मा बाप ने स्वयं, सदा अपने को निमित्त एग्जाम्पल बनाया, सदा यह लक्ष्य लक्षण में लाया-जो ओटे सो अर्जुन अर्थात् जो स्वयं को निमित्त प्रत्यक्ष प्रमाण बनाता है वही अर्जुन अर्थात् अव्वल नम्बर का बनता है। अगर फॉलो फादर करना है तो दूसरे को देख बनने में नम्बरवन नहीं बन सकेंगे। नम्बरवार बन जायेंगे।

नम्बरवन आत्मा की निशानी है-हर श्रेष्ठ कार्य में मुझे निमित्त बन औरों को सिम्पल करने के लिये सेम्पल बनना है। दूसरे को देखना, चाहे बड़ों को, चाहे छोटों को, चाहे समान वालों को लेकिन दूसरों को देख बनना कि पहले यह-यह बनें तो मैं बनूँ, तो नम्बरवन तो वह हो गया ना-जो बनेगा। तो स्वयं स्वत: ही नम्बरवार में आ जाते हैं। तो अखण्ड महादानी आत्मा सदा अपने को हर सेकण्ड तीनों ही महादान में से कोई न कोई दान करने में बिजी रखता है। जैसा समय वैसी सेवा में सदा लगा हुआ रहता है। उनको व्यर्थ देखने, सुनने वा करने की फुर्सत ही नहीं। तो महादानी बने हो? अभी अण्डरलाइन करो-अखण्ड बने हैं। अगर बीच-बीच में दातापन में खण्डन पड़ता है तो खण्डित को सम्पूर्ण नहीं कहा जाता। वर्तमान समय आपस में विशेष कर्म द्वारा गुणदाता बनने की आवश्यकता है। हर एक संकल्प करो कि मुझे सदा गुण मूर्त बन सबको गुण मूर्त बनाने का विशेष कर्तव्य करना ही है। तो स्वयं की और सर्व की कमज़ोरियां समाप्त करने की इस विधि में हर एक अपने को निमित्त अव्वल नम्बर समझ आगे बढ़ते चलो।ज्ञान तो बहुत है, अभी गुणों को इमर्ज करो, सर्वगुण सम्पन्न बनने और बनाने का एग्जाम्पल बनो। अच्छा!

सर्व अखण्ड योगी तू आत्मायें, सर्व सदा गुण मूर्त आत्माओं को, सर्व हर संकल्प हर सेकण्ड महादानी वा महासहयोगी विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं को श्रेष्ठता में सेम्पल बन सर्व आत्माओं को सिम्पल सहज प्रेरणा देने वाले, सदा स्वयं को निमित्त नम्बरवन समझ प्रत्यक्ष प्रमाण देने वाले बाप समान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादी जानकी से मुलाकात

(आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि के चक्कर का समाचार सुनाया और सबकी याद दी)

सबकी याद पहुँच गई। चारों ओर के बच्चे सदा बाप के सामने हैं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है जब भी याद करते तो समीप और साथ का अनुभव करते हैं। बाबा कहा दिल से और दिलाराम हाजर। इसीलिये ही कहते हैं हजूर हाजर है, हाजरा हजूर है। जहाँ भी हैं, जो भी हैं लेकिन हर स्थान पर हर के पास हाजर हो जाते हैं इसीलिये हाजरा हजूर हो गया। इस स्नेह की विधि को लोग नहीं जान सकते। यह ब्राह्मण आत्मायें ही जानती हैं। अनुभवी इस अनुभव को जानते हैं। आप विशेष आत्मायें तो हैं ही कम्बाइन्ड ना। अलग हो ही नहीं सकते। लोग कहते हैं जिधर देखते हैं उधर तू ही तू है और आप कहते हो जो करते हैं, जहाँ जाते हैं बाप साथ ही है अर्थात् तू ही तू है। जैसे कर्तव्य साथ है तो हर कर्तव्य कराने वाला भी सदा साथ है। इसलिये गाया हुआ है करनकरावनहार। तो कम्बाइन्ड हो गया ना-करनहार और करावनहार। तो आप सबकी स्थिति क्या है? कम्बाइन्ड है ना। करनकरावनहार करनहार के साथ है ही, करावनहार अलग नहीं है। इसको ही कम्बाइन्ड स्थिति कहा जाता है। सभी अपना-अपना अच्छा पार्ट बजा रहे हो। अनेक आत्माओं के आगे सेम्पल हो, सिम्पल करने के। ऐसे लगता है ना। मुश्किल को सहज बनाना-यही फॉलो फादर है। ऐसे है ना। अच्छा पार्ट बजाया ना। जहाँ भी हैं, विशेष पार्टधारी विशेष पार्ट बजाने के सिवाए रह नहीं सकते। यह ड्रामा की नूँध है। अच्छा। चक्कर लगाना बहुत अच्छा है। चक्कर लगाया फिर स्वीट होम में आ गये। सेवा का चक्कर अनेक आत्माओं के प्रति विशेष उमंग-उत्साह का चक्कर है। सब ठीक है ना? अच्छा ही अच्छा है। ड्रामा की भावी खींचती जरूर है। आप रहना चाहो लेकिन ड्रामा में नहीं है तो क्या करेंगे। सोचते भी जाना पड़ेगा। क्योंकि सेवा की भावी है तो सेवा की भावी अपना कार्य कराती है। आना और जाना यही तो विधि है। अच्छा। संगठन अच्छा है।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप. नं. 1

परमात्म प्यार का अनुभव करने के लिए दु:ख की लहर से न्यारे बनो

बापदादा ने संगम पर अनेक खज़ाने दिये हैं उन सभी खज़ानों में से श्रेष्ठ से बा श्रेष्ठ खज़ाना है - सदा खुशी का खज़ाना। तो यह खुशी का खज़ाना सदा साथ रहता है? कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन खुशी नहीं जा सकती।

जब परिस्थिति कोई दु:ख की लहर वाली आती है तो भी खुश रहते हो कि थोड़ी-थोड़ी लहर आ जाती है? क्योंकि संगम पर हो ना। तो एक तरफ है दु:खधाम, दूसरे तरफ है सुखधाम। तो दु:ख के लहर की कई बातें सामने आयेंगी लेकिन अपने अन्दर वो दु:ख की लहर दु:खी नहीं करे। जैसे गर्मी के मौसम में गर्मी तो होगी ना लेकिन स्वयं को बचाना वो अपने ऊपर है। तो दु:ख की बातें सुनने में आयेंगी लेकिन दिल में प्रभाव नहीं पड़े। इसलिये कहा जाता है न्यारा और प्रभु का प्यारा। तो दु:ख की लहर से न्यारा तब प्रभु का प्यारा बनेंगे। जितना न्यारा उतना प्यारा। अपने आपको देखो कि कितने न्यारे बने हैं? जितना न्यारा बनते जाते हो उतना ही सहज परमात्म प्यार का अनुभव करते हो। तो हर रोज चेक करो कि कितने न्यारे रहे, कितने प्यारे रहे। क्योंकि ये प्यार परमात्म प्यार है जो और कोई भी युग में प्राप्त हो नहीं सकता। जितना प्राप्त करना है उतना अभी करना है। अभी नहीं तो कभी भी नहीं हो सकता। और कितना थोड़ा सा समय यह परमात्म प्यार की प्राप्ति का है। तो थोड़े समय में बहुत अनुभव करना है। तो कर रहे हो? दुनिया वाले खुशी के लिये कितना समय, सम्पत्ति खर्च करते हैं और आपको सहज अविनाशी खुशी का खज़ाना मिल गया। कुछ खर्चा किया क्या? खुशी के आगे खर्च करने की वस्तु है ही क्या जो देंगे। तो यही खुशी के गीत गाते रहो कि जो पाना था वो पा लिया। पा लिया ना? तो जब कोई चीज़ मिल जाती है तो खुशी में नाचते रहते हैं। दूसरों को भी यह खुशी बांटते जाओ। जितनी बांटते जाते हो उतनी बढ़ती जाती है। क्योंकि बांटना माना बढ़ना। तो जो भी सम्बन्ध में आये वह अनुभव करे कि इनको कोई श्रेष्ठ प्राप्ति हुई है, जिसकी खुशी है। क्योंकि दुनिया में तो हर समय का दु:ख है और आपके पास हर समय की खुशी है। तो दु:खी को खुशी देना-यह सबसे बड़े से बड़ा पुण्य है। तो सभी निर्विघ्न बन आगे उड़ रहे हो या छोटे-छोटे विघ्न रोकते हैं? विघ्नों का काम है आना और आपका काम है विजय प्राप्त करना। जब विघ्न अपना कार्य अच्छी तरह से कर रहे हैं तो आप मास्टर सर्वशक्तिमान अपने विजय के कार्य में सदा सफल रहो। सदा यह याद रखो कि हम विघ्न-विनाशक आत्मायें हैं। विघ्न-विनाशक का जो यादगार है उसका प्रैक्टिकल में अनुभव कर रहे हो ना। अच्छा।

ग्रुप. नं. 2

अचल स्थिति बनाने के लिए मास्टर सर्वशक्तिमान का टाइटल स्मृति में रखो

स्वयं को सदा सर्व खज़ानों से भरपूर अर्थात् सम्पन्न आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि जो सम्पन्न होता है तो सम्पन्नता की निशानी है कि वो अचल होगा, हलचल में नहीं आयेगा। जितना खाली होता है उतनी हलचल होती है। तो किसी भी प्रकार की हलचल, चाहे संकल्प द्वारा, चाहे वाणी द्वारा, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा, किसी भी प्रकार की हलचल अगर होती है तो सिद्ध है कि खज़ाने से सम्पन्न नहीं हैं। संकल्प में भी, स्वप्न में भी अचल। क्योंकि जितना-जितना मास्टर सर्वशक्तिमान स्वरूप की स्मृति इमर्ज होगी उतना ये हलचल मर्ज होती जायेगी। तो मास्टर सर्वशक्तिमान की स्मृति प्रत्यक्ष रूप में इमर्ज हो। जैसे शरीर का आक्यूपेशन इमर्ज रहता है, मर्ज नहीं होता, ऐसे यह ब्राह्मण जीवन का आक्यूपेशन इमर्ज रूप में रहे। तो यह चेक करो-इमर्ज रहता है या मर्ज रहता है? इमर्ज रहता है तो उसकी निशानी है-हर कर्म में वह नशा होगा और दूसरों को भी अनुभव होगा कि यह शक्तिशाली आत्मा है। तो कहा जाता है हलचल से परे अचल। अचलघर आपका यादगार है। तो अपना आक्यूपेशन सदा याद रखो कि हम मास्टर सर्वशक्तिमान हैं - क्योंकि आजकल सर्व आत्मायें अति कमज़ोर हैं तो कमज़ोर आत्माओं को शक्ति चाहिये। शक्ति कौन देगा? जो स्वयं मास्टर सर्वशक्तिमान होगा। किसी भी आत्मा से मिलेंगे तो वो क्या अपनी बातें सुनायेंगे? कमज़ोरी की बातें सुनाते हैं ना? जो करना चाहते हैं वो कर नहीं सकते तो इसका प्रमाण है कि कमज़ोर हैं और आप जो संकल्प करते हो वो कर्म में ला सकते हो। तो मास्टर सर्वशक्तिमान की निशानी है कि संकल्प और कर्म दोनों समान होगा। ऐसे नहीं कि संकल्प बहुत श्रेष्ठ हो और कर्म करने में वो श्रेष्ठ संकल्प नहीं कर सको, इसको मास्टर सर्वशक्तिमान नहीं कहेंगे। तो चेक करो कि जो श्रेष्ठ संकल्प होते हैं वो कर्म तक आते हैं या नहीं आ सकते? मास्टर सर्वशक्तिमान की निशानी है कि जो शक्ति जिस समय आवश्यक हो उस समय वो शक्ति कार्य में आये। तो ऐसे है या आह्वान करते हो, थोड़ा देरी से आती है? जब कोई बात पूरी हो जाती है, पीछे स्मृति में आये कि ऐसा नहीं, ऐसा करते, तो इसको कहा जाता है समय पर काम में नहीं आई। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियां ऑर्डर पर चल सकती हैं ना, हाथ को जब चाहो, जहाँ चाहो वहाँ चला सकते हो, ऐसे यह सूक्ष्म शक्तियां इतने कन्ट्रोल में हों - जिस समय जो शक्ति चाहो काम में लगा सको। तो ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर है? ऐसे तो नहीं सोचते कि चाहते तो नहीं थे लेकिन हो गया। तो सदा अपनी कन्ट्रोलिंग पॉवर को चेक करते हुए शक्तिशाली बनते चलो। सब उड़ती कला वाले हो कि कोई चढ़ती कला वाला, कोई उड़ती कला वाला? वा कभी उड़ती, कभी चढ़ती, कभी चलती कला हो जाती है? बदली होता है वा एकरस आगे बढ़ते रहते हो? कोई विघ्न आता है तो कितने समय में विजयी बनते हो? टाइम लगता है? क्योंकि नॉलेजफुल हो ना। तो विघ्नों की भी नॉलेज है। नॉलेज की शक्ति से विघ्न वार नहीं करेंगे लेकिन हार खा लेंगे। इसी को ही मास्टर सर्वशक्तिमान कहा जाता है। तो अमृतवेले से इस आक्यूपेशन को इमर्ज करो और फिर सारा दिन चेक करो।

ग्रुप. नं. 3

हर घड़ी अन्तिम घड़ी समझते हुए एवररेडी बनो, अपने भाग्य का गीत सदा गाते रहो

भी अपने भाग्य को देख सदा हर्षित रहते हो? दिल में सदा ये गीत गाते हो कि वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य कि कभी-कभी गीत बजता है, कभी बन्द हो जाता है? सदा एकरस गीत बजता है या कभी स्लो हो जाता है, कभी तेज हो जाता है? सदा भाग्य के गीत गाते रहो। क्योंकि ये भाग्य किसने बनाया? भाग्य विधाता ने भाग्य बनाया। ऊंचे ते ऊंचे भगवान् ने भाग्य बनाया। तो जब स्वयं ऊंचे ते ऊंचा है तो भाग्य भी ऊंचा बनायेगा। तो यह नशा और खुशी रहे कि भगवान् ने श्रेष्ठ भाग्य बना दिया और कितने जन्मों का भाग्य बनाया? जन्म-जन्म के लिये भाग्य बनाया। सिर्फ 21 जन्म नहीं लेकिन सारे कल्प के अन्दर भाग्यवान रहे। 21 जन्म पूज्य बनते हो और फिर द्वापर से पुजारी आपकी पूजा करते हैं। तो वो चैतन्य पूज्य राज्य अधिकारी बनते हो और द्वापर से जड़ चित्र आपके पूजे जाते हैं। तो सारे कल्प का भाग्य है। अब अन्तिम जन्म में भी अपने यादगार देख रहे हो ना। एक तरफ चैतन्य में आप हो और दूसरे तरफ आपके ही जड़ चित्र हैं तो चित्र और चैतन्य दोनों सामने हैं। चित्र को देखकरके भी खुशी होती है ना तो ऐसे पूज्य बाप द्वारा बने हैं। सारे कल्प में कोई अपना चैतन्य रूप में जड़ चित्र देखे, यह नहीं होता। अगर देखते भी होंगे तो भिन्न जन्म होने के कारण जानते नहीं हैं। लेकिन आप जानते हो कि ये हमारे ही जड़ चित्र हैं। मातायें जानती हो? आप सबकी पूजा होती है? तो चित्र और चैतन्य यही विशेषता है। कल क्या थे, आज क्या हैं और कल क्या होंगे-तीनों ही काल सामने हैं।

मातायें सदा खुश रहती हो कि कभी-कभी रहती हो? ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा खुश जीवन। ब्राह्मण बने किसलिये? कभी-कभी खुश रहने के लिये? सदा खुश रहने के लिये। तो कभी-कभी खुश नहीं रहना, सदा खुश रहना। बाप ने अविनाशी खज़ाना दिया है, कभी-कभी का नहीं दिया है। कभी बाप ने कहा है क्या कि कभी-कभी खुश रहना, कभी दु:ख आये तो कोई हर्जा नहीं। सदा खुशी भव, सदा शान्त भव। कभी-कभी का वरदान नहीं होता है। तो क्या करना है - सदा रहना है ना या कभी-कभी भी ठीक है, चलेगा? ‘कभी-कभी’ शब्द समाप्त कर दो। कभी-कभी नहीं, अभी-अभी। हर घड़ी कहो अभी खुश हैं। आपका स्लोगन भी क्या है? अभी का स्लोगन है या कभी का है? अभी का है ना। तो जिस घड़ी कोई देखे, कोई मिले तो अभी-अभी खुशनसीब हैं ऐसे अनुभव करे। कभी-कभी खुश रहने वाले क्या कहलायेंगे? सूर्यवंशी या चन्द्रवंशी? तो सूर्यवंशी हो या चन्द्रवंशी हो? सूर्यवंशी हो पक्का या यहाँ कहते हो सूर्यवंशी, वहाँ चन्द्रवंशी बन जायेंगे? सदा सूर्यवंशी हो ना। भगवान् के बनकर फिर भी चन्द्रवंशी बने तो क्या किया? गायन है ना कि जब भगवान् ने भाग्य बांटा तो सोये हुए थे क्या? अगर आधा लेते हैं तो आधा समय सोये हुए थे तभी नहीं लिया। तो पूरा भाग्य लेने वाले हो, आधा नहीं। तो डबल विदेशी कौन हो? सूर्यवंशी। एक भी चन्द्रवंशी नहीं। पक्का सोच लिया है, ऐसे ही तो नहीं कह रहे हो? फलक से कहो कि हम नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे? और कोई है क्या? आप ही हो ना। तो यह नशा रखो कि हम ही थे, हम ही हैं और हम ही बनेंगे। तीनों काल के लिये निश्चय है।

तो सबसे तीव्र पुरुषार्थी कौन है? तीव्र पुरुषार्थी हो या कभी ढीला कभी तीव्र? सदा तीव्र। क्योंकि हर घड़ी अन्तिम घड़ी है अगर साधारण पुरुषार्थी हैं और अंतिम घड़ी आ जाये तो धोखा हो जायेगा ना। इसलिये हर घड़ी अन्तिम घड़ी समझते हुए एवररेडी रहो। एवररेडी अर्थात् तीव्र पुरुषार्थी। ऐसे नहीं सोचो कि अभी तो विनाश होने में कुछ तो टाइम लगेगा ही फिर तैयार हो जायेंगे। अन्तिम घड़ी को नहीं देखो। लेकिन अपनी अन्तिम घड़ी का कोई भरोसा नहीं है इसलिये एवररेडी। तो डबल विदेशी एवररेडी हैं? करना ही क्या है? कोई काम रह गया है क्या? (म्युज़ियम बनाना है) म्युज़ियम बनाना होगा तो कोई भी बना देगा। आप तो एवररेडी हो ना कि म्युज़ियम के बाद एवररेडी होंगे। अपनी स्थिति सदा उपराम। अब भी जो होगा वो अच्छा। ऐसे रेडी हो या सोचना पड़ेगा कि यह कर लें, यह कर लें। नहीं। सदा निर्मोही और निर्विकल्प, निर-व्यर्थ। व्यर्थ भी नहीं। इसको कहा जाता है एवररेडी। मातायें एवररेडी हैं या थोड़ा-थोड़ा मोह है? पोत्रे धौत्रे में मोह है? यह करना है, यह सम्भालना है? पाण्डवों का मोह है? जेब खर्च में मोह है? कमाना है, खाना है, खिलाना है- यह नहीं सोचते हो? न्यारे हो गये हो या थोड़ा-थोड़ा मोह है? नष्टोमोहा अर्थात् सर्व से न्यारे और बाप के प्यारे। तो सदा क्या याद रखेंगे? हम ऊंचे ते ऊंचे भाग्यवान हैं। सदा अपने भाग्य का सितारा चमकता हुआ दिखाई दे। अच्छा!

ग्रुप. नं. 4

राजऋषि अर्थात् स्वराज्य के साथ-साथ बेहद के वैरागी बनो

अपने को राजऋषि समझते हो? राज भी और ऋषि भी। स्वराज्य मिला तो राजा भी हो और साथ-साथ पुरानी दुनिया का ज्ञान मिला तो पुरानी दुनिया से बेहद के वैरागी भी हो इसलिये ऋषि भी हो। एक तरफ राज्य, दूसरे तरफ ऋषि अर्थात् बेहद के वैरागी। तो दोनों ही हो? बेहद का वैराग्य है या थोड़ा-थोड़ा लगाव है। अगर कहाँ भी, चाहे अपने में, चाहे व्यक्ति में, चाहे वस्तु में कहाँ भी लगाव है तो राजऋषि नहीं। न राजा है, न ऋषि है। क्योंकि स्वराज्य है तो मन-बुद्धि-संस्कार सब अपने वश में है। लगाव हो नहीं सकता। अगर कहाँ भी संकल्प मात्र थोड़ा भी लगाव है, तो राजऋषि नहीं कहेंगे। अगर लगाव है तो दो नाव में पांव हुआ ना। थोड़ा पुरानी दुनिया में, थोड़ा नई दुनिया में। इसलिए एक बाप, दूसरा न कोई। क्योंकि दो नाव में पांव रखने वाले क्या होते हैं? न यहाँ के, न वहाँ के। इसलिये राजऋषि राजा बनो और बेहद के वैरागी भी बनो। 63 जन्म अनुभव करके देख लिया ना? तो अनुभवी हो गये फिर लगाव कैसा? अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते हैं। सुनने वाला, सुनाने वाला धोखा खा सकता है। लेकिन अनुभवी कभी धोखा नहीं खाता। तो दु:ख का अनुभव अच्छी तरह से कर लिया है ना फिर अब धोखा नहीं खाओ। यह पुरानी दुनिया का लगाव सोनी हिरण के समान है। यह शोक वाटिका में ले जाता है। तो क्या करना है? थोड़ा-थोड़ा लगाव रखना है? अच्छा नहीं लगता लेकिन छोड़ना मुश्किल है! खराब चीज़ को छोड़ना और अच्छी चीज़ को लेना मुश्किल होता है क्या? अगर कोई सोचता है कि छोड़ना है, तो मुश्किल लगता है। लेना है तो सहज लगता है। तो पहले लेते हो, पहले छोड़ते नहीं हो। लेने के आगे यह देना तो कुछ भी नहीं है। तो क्या-क्या मिला है वह लम्बी लिस्ट सामने रखो। सुनाया है ना कि गीत गाते रहो-पाना था वो पा लिया, काम क्या बाकी रहा? तो यह गीत गाना आता है? मुख का नहीं, मन का। मुख का गीत तो थोड़ा टाइम चलेगा। मन का गीत तो सदा चलेगा। अविनाशी गीत चलता ही रहता है। आटोमेटिक है।

अच्छा, ये वैराइटी ग्रुप है। वैराइटी फूलों का बगीचा अच्छा लगता है ना। कोई कहाँ के, कोई कहाँ के लेकिन हैं एक माली के। एक के हैं और एक हैं। ये तो सेवा के अर्थ भिन्न-भिन्न स्थानों पर गये हुए हैं। नहीं तो विश्व की सेवा कैसे होगी। अच्छा!

ग्रुप. नं. 5

सदा एकरस स्थिति के आसन पर स्थित रहने वाले ही तपस्वी हैं

भी अपने को तपस्वी आत्मायें अनुभव करते हो? तपस्वी अर्थात् सदा  अपनी तपस्या में रहने वाले। तो तपस्या क्या है? एक बाप दूसरा न कोई। ऐसे तपस्वी हो या दूसरा-तीसरा भी कोई है? तपस्वी सदा आसनधारी होते हैं, कोई न कोई आसन पर तपस्या करते हैं। तो आपका आसन कौनसा है? स्थिति आपका आसन है। जैसे एकरस स्थिति यह आसन हो गया। फरिश्ता स्थिति यह आसन हो गया। तो आसन पर स्थित होते हैं ना, बैठते हैं अर्थात् स्थित हो जाते हैं। तो इन श्रेष्ठ स्थितियों में स्थित हो जाते हो, टिक जाते हो इसी को आसन कहा जाता है। स्थूल आसन पर स्थूल शरीर बैठता है लेकिन यह श्रेष्ठ स्थितियों के आसन पर मन-बुद्धि को बिठाना है। मन-बुद्धि द्वारा इन स्थितियों में स्थित हो जाते हो अर्थात् बैठ जाते हो - ऐसे तपस्वी हो? तो अच्छा आसन मिला है ना। यहाँ है आसन फिर भविष्य में मिलेगा सिंहासन। तो जितना जो आसन पर स्थित रहता वो उतना ही सिंहासन पर भी स्थित रह सकता है। जितना समय चाहो, जब चाहो, तब आसन रूपी स्थिति में स्थित होते हो ना। होते हो या हलचल होती है? क्या होता है? जैसे देखो शरीर आसन पर नहीं टिक सकता तो हलचल करेगा ना। ऐसे मन हलचल तो नहीं करता? अचल है या हलचल भी है कि दोनों है? सदा अचल अडोल। जरा भी हलचल नहीं हो। अगर कभी हलचल और कभी अचल है तो सिंहासन भी कभी मिलेगा, कभी नहीं मिलेगा। तो सदा का राज्य भाग्य लेना है या कभी-कभी का और स्थित सदा होना है या कभी-कभी? कितना भी कोई हिलावे लेकिन आप अचल रहो। परिस्थिति श्रेष्ठ है या स्वस्थिति श्रेष्ट है? कभी परिस्थिति वार कर लेती है? तो सोचो कि ये परिस्थिति पावरफुल या स्वस्थिति पावरफुल? तो इस स्थिति से कमज़ोर से शक्तिशाली बन जायेंगे। आप तपस्वी आत्माओं की स्थिति का यादगार आजकल के तपस्वियों ने कॉपी की है लेकिन उल्टी की है। आप तपस्वी एकरस स्थिति में एकाग्र होते हो और आजकल के क्या करते हैं? एक टांग पर खड़े हो जाते हैं। तो कहाँ एकरस स्थिति और कहाँ एक टांग पर स्थित रहना, फर्क हो गया ना। आपका कितना सहज है! और उन्हों का कितना मुश्किल है! तो सहजयोगी हो ना। एक को याद करना सहज है वा अनेकों को याद करना सहज है? तो द्वापर से क्या किया? अनेकों को याद किया और अभी क्या करते हो? एक को याद करते हो ना। एक को याद करना सहज है या मुश्किल है ? माया आती है? आयेगी तो अन्त तक लेकिन माया का काम है आना और आपका काम है विजय प्राप्त करना। माया आये तभी तो मायाजीत बनेंगे ना। तो माया का आना बुरी बात नहीं है लेकिन हार खाना कमज़ोरी है। तो मायाजीत हो ना?

सदा ये याद रखो कि अनेक बार के विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप. नं. 6

सदा इसी स्वमान में रहो कि मैं विश्व कल्याणकारी आत्मा हूँ, कल्याण करना मेरा कर्तव्य है

इस समय अर्थात् संगमयुग को कल्याणकारी युग कहा जाता है। यह कल्याणकारी युग है और कल्याणकारी आप आत्मायें हो। तो सदा ये अपना स्वमान याद रहता है कि मैं कल्याणकारी आत्मा हूँ? संगमयुग पर विशेष कर्तव्य ही है कल्याण करना। पहले स्व का कल्याण और साथ-साथ सर्व का कल्याण। तो ऐसे कल्याण करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो? किसी के वायुमण्डल का प्रभाव तो नहीं पड़ता है? दुनिया का वायुमण्डल है अकल्याण का और आपका वायुमण्डल है कल्याण करने का। तो अकल्याण का वायुमण्डल शक्तिशाली या कल्याण का वायुमण्डल शक्तिशाली? तो आपके ऊपर औरों का वायुमण्डल प्रभाव नहीं कर सकता। वो कमज़ोर है और आप शक्तिशाली हो। तो शक्तिशाली कमज़ोर के ऊपर जीत प्राप्त करता है, कमज़ोर शक्तिशाली के ऊपर जीत नहीं प्राप्त करता। कैसा भी तमोगुणी वायुमण्डल हो लेकिन आप सर्वशक्तिमान बाप के साथी हो। जहाँ भगवान् है वहाँ विजय है। तो वायुमण्डल को बदलने वाले हो। चैलेन्ज की है ना कि हम विश्व परिवर्तक हैं। तो कल्याणकारी युग है, कल्याणकारी आप आत्मायें हो और कल्याणकारी बाप है। तो कितनी शक्ति हो गई। समय की भी शक्ति, स्वयं की भी शक्ति और बाप की भी शक्ति। तो यह याद रखो-दुनिया के लिये अकल्याण का समय है, आपके लिये कल्याण का समय है। दुनिया वालों को सिर्फ विनाश दिखाई देता है और आपको विनाश के साथ स्थापना सामने है। तो सदा दिल में यह श्रेष्ठ संकल्प इमर्ज करो कि स्थापना हुई कि हुई। अपना भविष्य स्पष्ट है ना। जैसे वर्तमान स्पष्ट है ऐसे ही भविष्य भी स्पष्ट है। शक्तियों को तो नशा होना चाहिये कि संगमयुग विशेष शक्तियों का युग है। संगम पर ही बाप शक्तियों को आगे करते हैं। पाण्डवों को भी खुशी होती है ना कि शक्तियां आगे हैं तो हम आगे हैं ही। सदा मन में यही शुभ भावना रहती है कि सर्व का कल्याण हो। मनुष्यात्मायें तो क्या प्रकृति का भी कल्याण करने वाले। इसलिये प्रकृतिजीत, मायाजीत कहलाते हो। क्योंकि पुरूष हो ना, आत्मा पुरूष है तो आत्मा पुरूष प्रकृतिजीत बनती है। प्रकृति भी सुखदायी बन जाती है। इस समय देखो प्रकृति कितना दु:ख देती है। थोड़ा सा भी तूफान आया, थोड़ा सा धरनी हलचल में आई कितनों को दु:ख मिलता है। तो आपके लिये सुखदायी प्रकृति है और लोगों के लिये दु:खदायी। कोई भी दु:ख की घटना देखते हो, सुनते हो तो दु:ख की लहर आती है? कभी पोत्रा, धोत्रा दु:खी होता हो तो दु:ख की लहर आती है? दु:खधाम से न्यारे हो गये। संगम पर हो या कलियुग में हो? तो दु:खधाम से किनारा कर लिया या कि थोड़ा-थोड़ा दु:खधाम से लगाव है? बिल्कुल न्यारे हो गये? या हो रहे हो? तो सदा समय और स्वयं को याद रखो। स्वयं भी कल्याणकारी और समय भी कल्याणकारी। तो इस स्मृति से सदा ही मायाजीत और प्रकृतिजीत रहेंगे। जरा भी हलचल नहीं हो। तो अचल भी हो, अडोल भी हो, अटल भी हो। कोई इस निश्चय से टाल नहीं सकता। अच्छा। सभी उड़ती कला वाले हो ना? उड़ते चलो और उड़ाते चलो।


 


09-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


एकाग्रता की शक्ति से दृढ़ता द्वारा सहज सफलता की प्राप्ति

सहज सफलता की विधि बताने वाले विश्व परिवर्तक बापदादा अपने जिम्मेवार बच्चों प्रति बोले -

आज ब्राह्मण संसार के रचता अपने चारों ओर के ब्राह्मण परिवार को देख हर्षित हो रहे हैं। ये छोटा-सा न्यारा और अति प्यारा अलौकिक ब्राह्मण संसार है। सारे ड्रामा में अति श्रेष्ठ संसार है। क्योंकि ब्राह्मण संसार की हर गति-विधि न्यारी और विशेष है। इस ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण आत्मायें भी विश्व में से विशेष आत्मायें हैं। इसलिये ही ये विशेष आत्माओं का संसार है। हर ब्राह्मण आत्मा की श्रेष्ठ वृत्ति, श्रेष्ठ दृष्टि और श्रेष्ठ कृति विश्व की सर्व आत्माओं के लिये श्रेष्ठ बनाने के निमित्त है। हर आत्मा के ऊपर ये विशेष जिम्मेवारी है तो हर एक अपने इस जिम्मेवारी को अनुभव करते हो? कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सारे विश्व का परिवर्तन! न सिर्फ आत्माओं का परिवर्तन करते हो लेकिन प्रकृति का भी परिवर्तन करते हो। ये स्मृति सदा रहे-इसमें नम्बरवार हैं। सभी ब्राह्मण आत्माओं के अन्दर संकल्प सदा रहता है कि हम विशेष आत्मा नम्बरवन बनें लेकिन संकल्प और कर्म में अन्तर पड़ जाता है। इसका कारण? कर्म के समय सदा अपनी स्मृति को अनुभवी स्थिति में नहीं लाते। सुनना, जानना, ये दोनों याद रहता है लेकिन स्वयं को उस स्थिति में मानकर चलना, इसमें मैजारिटी कभी अनुभवी और कभी सिर्फ मानने और जानने वाले बन जाते हैं। इस अनुभव को बढ़ाने के लिये दो बातों के विशेष महत्व को जानो-एक स्वयं के महत्व को, दूसरा समय के महत्व को। स्वयं के प्रति बहुत जानते हो। अगर किसी से भी पूछेंगे कि आप कौन-सी आत्मा हो? वा अपने से भी पूछेंगे कि मैं कौन? तो कितनी बातें स्मृति में आयेंगी? एक मिनिट के अन्दर अपने कितने स्वमान याद आ जाते हैं? एक मिनिट में कितने याद आते हैं? बहुत याद आते हैं ना। कितनी लम्बी लिस्ट है-स्वयं के महत्व की! तो जानने में तो बहुत होशियार हो। सभी होशियार हो ना? फिर अनुभव करने में अन्तर क्यों पड़ जाता है? क्योंकि समय पर उस स्थिति के सीट पर सेट नहीं होते हो। अगर सीट पर सेट है तो कोई भी, चाहे कमज़ोर संस्कार, चाहे कोई आत्मायें, चाहे प्रकृति, चाहे किसी भी प्रकार की रॉयल माया अपसेट नहीं कर सकती। जैसे शरीर के रूप में भी बहुत आत्माओं को एक सीट पर वा स्थान पर एकाग्र होकर बैठने का अभ्यास नहीं होता तो वह क्या करेगा? हिलता रहेगा ना। ऐसे मन और बुद्धि को किसी भी अनुभव के सीट पर सेट होना नहीं आता तो अभी-अभी सेट होगा, अभी-अभी अपसेट। शरीर को बिठाने के लिये स्थूल स्थान होता है और मन-बुद्धि को बिठाने के लिये श्रेष्ठ स्थितियों का स्थान है। तो बापदादा बच्चों का यह खेल देखते रहते हैं-अभी-अभी अच्छी स्थिति के अनुभव में स्थित होते हैं और अभी-अभी अपने स्थिति से हलचल में आ जाते हैं। जैसे छोटे बच्चे चंचल होते हैं तो एक स्थान पर ज्यादा समय टिक नहीं सकते। तो कई बच्चे यह बचपन के खेल बहुत करते हैं। अभी-अभी देखेंगे बहुत एकाग्र और अभी-अभी एकाग्रता के बजाय भिन्न-भिन्न स्थितियों में भटकते रहेंगे। तो इस समय विशेष अटेन्शन चाहिये-मन और बुद्धि सदा एकाग्र रहे।

एकाग्रता की शक्ति सहज निर्विघ्न बना देती है। मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है। एकाग्रता की शक्ति स्वत: ‘एक बाप दूसरा न कोई ये अनुभूति सदा कराती है। एकाग्रता की शक्ति सहज एकरस स्थिति बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सदा सर्व प्रति एक ही कल्याण की वृत्ति सहज बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सर्व प्रति भाई-भाई की दृष्टि स्वत: बना देती है। एकाग्रता की शक्ति हर आत्मा के सम्बन्ध में स्नेह, सम्मान, स्वमान के कर्म सहज अनुभव कराती है। तो अभी क्या करना है? क्या अटेन्शन देना है? ‘एकाग्रता’। स्थित होते हो, अनुभव भी करते हो लेकिन एकाग्र अनुभवी नहीं होते। कभी श्रेष्ठ अनुभव में, कभी मध्यम, कभी साधारण, तीनों में चक्कर लगाते रहते हो। इतना समर्थ बनो जो मन-बुद्धि सदा आपके ऑर्डर अनुसार चले। स्वप्न में भी सेकण्ड मात्र भी हलचल में नहीं आये। मन, मालिक को परवश नहीं बनाये।

परवश आत्मा की निशानी है - उस आत्मा को उतना समय सुख, चैन, आनन्द की अनुभूति चाहते हुए भी नहीं होगी। ब्राह्मण आत्मा कभी किसी के परवश नहीं हो सकती, अपने कमज़ोर स्वभाव और संस्कार के वश भी नहीं। वास्तव में ‘स्वभाव’ शब्द का अर्थ है ‘स्व का भाव’। स्व का भाव तो अच्छा होता है, खराब नहीं होता। ‘स्व’ कहने से क्या याद आता है? आत्मिक स्वरूप याद आता है ना। तो स्व-भाव अर्थात् स्व प्रति व सर्व प्रति आत्मिक भाव हो। जब भी कमज़ोरी वश सोचते हो कि मेरा स्वभाव वा मेरा संस्कार ही ऐसा है, क्या करूँ, है ही ऐसा........ यह कौन-सी आत्मा बोलती है? यह शब्द वा संकल्प परवश आत्मा के हैं। तो जब भी यह संकल्प आये कि स्वभाव ऐसा है, तो श्रेष्ठ अर्थ में टिक जाओ। संस्कार सामने आये कि मेरा संस्कार...., तो सोचो क्या मुझ विशेष आत्मा के यह संस्कार हैं, जिसको मेरा संस्कार कह रहे हो? मेरा कहते हो तो कमज़ोर संस्कार भी मेरापन के कारण छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि यह नियम है जहाँ मेरापन होता है वहाँ अपनापन होता है और जहाँ अपनापन होता है वहाँ अधिकार हाेता है। तो कमज़ोर संस्कार को मेरा बना लिया तो वो अपना अधिकार छोड़ते नहीं हैं। इसलिये परवश होकर बाप के आगे अर्जा डालते रहते हो कि छुड़ाओ-छुड़ाओ। ‘संस्कार’ शब्द कहते याद करो कि अनादि संस्कार, आदि संस्कार ही मेरा संस्कार है। ये माया के संस्कार हैं, मेरे नहीं। तो एकाग्रता की शक्ति से परवश स्थिति को परिवर्तन कर मालिकपन की स्थिति की सीट पर सेट हो जाओ।

योग में भी बैठते हैं, बैठते तो सभी रूचि से हैं लेकिन जितना समय, जिस स्थिति में स्थिति होना चाहते हैं, उतना समय एकाग्र स्थिति रहे, उसकी आवश्यकता है। तो क्या करना है? किस बात को अण्डरलाइन करेंगे? (एकाग्रता) एकाग्रता में ही दृढ़ता होती है और जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता गले का हार है। अच्छा!

चारों ओर के अलौकिक ब्राह्मण संसार की विशेष आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ स्थिति के अनुभव की सीट पर सेट रहने वाली आत्माओं को, सदा स्वयं के महत्व को अनुभव करने वाले, सदा एकाग्रता की शक्ति से मन-बुद्धि को एकाग्र करने वाले, सदा एकाग्रता के शक्ति से ही दृढ़ता द्वारा सहज सफलता प्राप्त करने वाले सर्वश्रेष्ठ, सर्व विशेष, सर्व स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप. नं. 1

उड़ती कला में जाने के लिए डबल लाइट बनो, कोई भी आकर्षण आकर्षित न करे

सभी अपने को वर्तमान समय के प्रमाण तीव्र गति से उड़ने वाले अनुभव करते हो? समय की गति तीव्र है वा आत्माओं के पुरूषार्थ की गति तीव्र है? समय आपके पीछे-पीछे है या आप समय के प्रमाण चल रहे हो? समय के इन्तजार में तो नहीं हो ना कि अन्त में सब ठीक हो जायेगा। सम्पूर्ण हो जायेंगे, बाप समान हो जायेंगे? ऐसे तो नहीं है ना! क्योंकि ड्रामा के हिसाब से वर्तमान समय बहुत तीव्र गति से जा रहा है, अति में जा रहा है। जो कल था उससे आज और अति में जा रहा है। यह तो जानते हो ना? जैसे समय अति में जा रहा है, ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी पुरूषार्थ में अति तीव्र अर्थात् फास्ट गति से जा रहे हो? कि कभी ढीले, कभी तेज? ऐसे नहीं कि नीचे आकर फिर ऊपर जाओ। नीचे-ऊपर होने वाले की गति कभी एकरस फास्ट नहीं हो सकती। तो सदा सर्व बातों में श्रेष्ठ वा तीव्र गति से उड़ने वाले हो। वैसे गायन है ‘चढ़ती कला सर्व का भला’ लेकिन अभी क्या कहेंगे? ‘उड़ती कला, सर्व का भला’। अभी चढ़ती कला का समय भी समाप्त हुआ, अभी उड़ती कला का समय है। तो उड़ती कला के समय कोई चढ़ती कला से पहुँचना चाहे तो पहुँच सकेगा? नहीं। तो सदा उड़ती कला हो। उड़ती कला की निशानी है सदा डबल लाइट। डबल लाइट नहीं तो उड़ती कला हो नहीं सकती। थोड़ा भी बोझ नीचे ले आता है। जैसे प्लेन में जाते हैं, उड़ते हैं तो अगर मशीनरी में या पेट्रोल में जरा भी कचरा आ गया तो क्या हालत होती है? उड़ती कला से गिरती कला में आ जाता है। तो यहाँ भी अगर किसी भी प्रकार का बोझ है, चाहे अपने संस्कारों का, चाहे वायुमण्डल का, चाहे किसी आत्मा के सम्बन्ध-सम्पर्क का, कोई भी बोझ है तो उड़ती कला से हलचल में आ जाता है। कहेंगे वैसे तो मैं ठीक हूँ लेकिन ये कारण है ना इसीलिये ये संस्कार का, व्यक्ति का, वायुमण्डल का बंधन है। लेकिन कारण कैसा भी हो, क्या भी हो, तीव्र पुरुषार्थी सभी बातों को ऐसे क्रॉस करते हैं जैसे कुछ है ही नहीं। मेहनत नहीं, मनोरंजन अनुभव करेंगे। तो ऐसी स्थिति को कहा जाता है उड़ती कला। तो उड़ती कला है या कभी-कभी नीचे आने का, चक्कर लगाने का दिल हो जाता है। कहीं भी लगाव नहीं हो। जरा भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। रॉकेट भी तब उड़ सकता है, जब धरती की आकर्षण से परे हो जाये। नहीं तो ऊपर उड़ नहीं सकता। न चाहते भी नीचे आ जायेगा। तो कोई भी आकर्षण ऊपर नहीं ले जा सकती। सम्पूर्ण बनने नहीं देगी। तो चेक करो संकल्प में भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। सिवाए बाप के और कोई आकर्षण नहीं हो। पाण्डव क्या समझते हैं? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बनो। बनना तो है ही ना। कितने बार ऐसे बने हो? अनेक बार बने हो। आप ही बने हो या दूसरे बने हैं? आप ही बने हो। तो नम्बरवार में तो नहीं आना है ना, नम्बरवन में आना है। मातायें क्या करेंगी? नम्बरवन या नम्बरवार भी चलेगा? 108 नम्बर भी चलेगा? 108 नम्बर बनेंगे कि पहला नम्बर बनेंगे? अगर बाप के बने हैं, अधिकारी बने हैं तो पूरा वर्सा लेना है या थोड़ा कम? फिर तो नम्बरवन बनेंगे ना। दाता फुल दे रहा है और लेने वाला कम ले तो क्या कहेंगे? इसलिये नम्बरवन बनना है। नम्बरवन चाहे एक ही हो लेकिन नम्बरवन डिविजन तो बहुत हैं ना। तो सेकण्ड में नहीं आना है। लेना है तो पूरा लेना है। अधूरा लेने वाले तो पीछे-पीछे बहुत आयेंगे। लेकिन आपको पूरा लेना है। सभी पूरा लेने वाले हो या थोड़े में राजी होने वाले हो? जब खुला भण्डार है और अखुट है तो कम क्यों लें? बेहद है ना, हद हो कि 8 हजार इसको मिलना है, 10 हजार इसको मिलना है तो कहेंगे भाग्य में इतना ही है, लेकिन बाप का खुला भण्डार है, अखुट है, जितना लेना चाहे ले सकते हैं फिर भी अखुट है। अखुट खज़ाने के मालिक हो। बालक सो मालिक हो। तो सभी सदा खुश रहने वाले हो ना कि थोड़ा-थोड़ा कभी दु:ख की लहर ती है? दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती। संकल्प तो छोड़ो लेकिन स्वप्न में भी नहीं आ सकती। इसको कहा जाता है नम्बरवन। तो क्या कमाल करके दिखायेंगे? सभी नम्बरवन आकर दिखायेंगे ना?

वैसे भी दिल्ली को दिल कहते हैं। तो जैसा दिल होगा वैसा शरीर चलेगा। आधार तो दिल होता है ना। दिल है दिलाराम की दिल। तो दिल की गद्दी यथार्थ चाहिये ना, नीचे-ऊपर नहीं चाहिये। तो नशा है ना कि हम दिलाराम का दिल हैं। तो अभी अपने श्रेष्ठ संकल्पों से स्वयं को और विश्व को परिवर्तन करो। संकल्प किया और कर्म हुआ। ऐसे नहीं, सोचा तो बहुत था, सोचते तो बहुत हैं, लेकिन होता बहुत कम है, वे तीव्र पुरुषार्थी नहीं हैं। तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् संकल्प और कर्म समान हो तब ही बाप समान कहेंगे। खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। खुश रहने वाले ही खुशनसीब हैं। यह पक्का है या थोड़ा-थोड़ा कच्चा हो जाता है? कच्ची चीज़ अच्छी लगती है? पक्के को पसन्द किया जाता है। तो पूरा ही पक्का रहना है।

रोज अमृतवेले यह पाठ पक्का करो कि कुछ भी हो जाये खुश रहना है, खुश करना है। अच्छा और कोई खेल नहीं दिखाना। यही खेल दिखाना, और-और खेल नहीं करना। अच्छा!

ग्रुप. नं. 2

अपकारी पर भी उपकार करना - यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है

विश्व कल्याण के कार्य अर्थ निमित्त आत्मा हूँ, ऐसे निमित्त समझ हर कार्य मैं करते हो? जो विश्व कल्याण के निमित्त आत्मा हैं वो स्वयं-स्वयं के प्रति अकल्याणकारी संकल्प भी नहीं कर सकते। क्योंकि विश्व की जिम्मेवार आप निमित्त आत्माओं की वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन होना है। तो जैसा संकल्प होगा वैसी वृत्ति जरूर होती है। कभी भी किसी के प्रति वा अपने प्रति कोई भी व्यर्थ संकल्प है तो वृत्ति में क्या होगा? वही भाव वृत्ति में होगा और वही कर्म स्वत: ही होगा। तो एक सेकेण्ड भी वृत्ति व्यर्थ नहीं बना सकते। एक सेकेण्ड भी व्यर्थ संकल्प नहीं कर सकते क्योंकि आपके पीछे विश्व की जिम्मेवारी है। ऐसे समझते हो? कि ये बाप की जिम्मेवारी है आपकी नहीं? ऐसा समझते हो या सोचते हो कि हम तो छोटे हैं तो छोटी जिम्मेवारी है। नहीं, बड़ी जिम्मेवारी उठाई है। तो विश्व कल्याणकारी। जैसे बाप, वैसे बच्चे। कैसी भी परिस्थिति हो, कोई भी व्यक्ति हो लेकिन स्व की भावना, स्व की वृत्ति कौन सी है? विश्व कल्याणकारी। इतना याद रहता है या अलबेले भी हो जाते हो? तो अलबेले नहीं होना। विश्व कल्याणकारी विश्व के राज्य अधिकारी बन सकते हो। अगर विश्व कल्याण की भावना नहीं तो विश्व राज्य का भी अधिकार नहीं। सम्बन्ध है ना। तो सदा सर्व प्रति शुभ भावना, शुभ कामना हो। हो सकती है? आपकी कोई ग्लानि करे तो भी शुभ कामना रख सकते हो? कोई गाली दे तो भी शुभ भावना रखेंगे? कि थोड़ा-सा मन में आयेगा? थोड़ा-सा तो आयेगा ना कि ये क्या करता है, ये क्या करती है? कोई आपका कल्याण करे और कोई आपका अकल्याण करे तो दोनों समान लगेगा? थोड़ा तो फर्क होगा ना? कोई रोज आपकी ग्लानि करे, एक साल तक करे और एक साल तक भी नहीं बदले तो आप कल्याण करेंगे? वो अकल्याण करे, आप कल्याण करेंगे? ऐसे करते हैं या थोड़ा-सा मुंह ऐसे (किनारा) हो जाता है? चलो, घृणा भाव नहीं हो लेकिन मन से किनारा करेंगे कि यह ठीक नहीं है या उसको ठीक करेंगे? क्या करेंगे? ठीक करेंगे? करेंगे - यह कहना तो सहज है लेकिन करते हो? अपकारी पर भी उपकार। यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है। बाप ने आपका अकल्याण देखा? कितने जन्म बाप को गाली दी? 63 जन्म दी। फिर बाप ने ग्लानि को भी कल्याणकारी दृष्टि से देखा। तो फॉलो फादर है ना। उपकारी पर उपकार तो दुनिया वाले भी करते हैं, भक्त आत्मा भी करते हैं। लेकिन ज्ञानी तू आत्मा उनसे श्रेष्ठ है। तो आप कौन हो? ज्ञानी तू आत्मा हो या ज्ञानी तू आत्मा बन रहे हो? सभी हैं कि आधा भक्त, आधाज्ञानी? पूरे ज्ञानी तू आत्मा हो या थोड़ा-थोड़ा भक्त भी हो? नहीं, ज्ञानी तू आत्मा। तो ज्ञानी तू आत्मा का अर्थ ही है सर्व के प्रति कल्याण की भावना। अकल्याण संकल्प मात्र भी नहीं हो। विश्व कल्याणकारी हैं तो मालिक हो गये ना। मालिक के आगे सभी जैसे बच्चे हुए ना। तो बाप बच्चों के ऊपर कल्याण की, रहम की भावना रखेगा। कैसा भी बच्चा होगा लेकिन बाप का फर्ज क्या है? रहम और कल्याण की भावना। इसीलिये बाप की महिमा में रहमदिल विशेष गाया हुआ है। चाहे देश में, चाहे विदेश में बाप के आगे जायेंगे तो रहम दिल, मर्सीफुल कहेंगे। किसी भी चर्च में जायेंगे, कहीं भी जायेंगे तो मर्सीफुल कहते हैं ना। तो आप सभी भी रहमदिल हो ना। तो जो रहमदिल होगा वही कल्याण कर सकता है। और बाप को सबमें सागर कहते हैं। क्षमा का सागर, रहम का सागर..। सागर का अर्थ क्या है? अथाह, बेहद। तो इतना अथाह यानी बेहद का रहम है? सभी रहमदिल हो या घृणादिल भी है? नहीं। नॉलेजफुल आत्मा अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा सदैव हर एक के प्रति मास्टर स्नेह का सागर है। बिना स्नेह के उसके पास और कुछ है नहीं। कोई भी आयेगा तो उसे स्नेह ही तो देंगे ना। और आपके पास क्या है! सच्चा स्नेह है और आजकल सम्पत्ति से भी ज्यादा स्नेह की आवश्यकता है। तो स्नेह का खज़ाना जमा होगा तभी तो दूसरे को देंगे ना। अगर अपने जितना ही होगा तो दूसरे को क्या देंगे! इसीलिये सबमें मास्टर हो। स्नेह में भी मास्टर स्नेह के सागर। तो इतना स्नेह जमा है या कम है? दाता के बच्चे हो ना। तो दाता के बच्चे क्या करते हैं? देते हैं। ले करके देना वो देना नहीं हुआ। लिया और दिया तो वो बिजनेस हो गया। बिजनेस में पहले लेते हैं फिर देते हैं। तो आप दाता के बच्चे हो ना। लेकरके देना, तो देने का महत्व नहीं है। उसको दाता नहीं कहेंगे। कोई दे तो हम देवें, यह नहीं। दाता के बच्चे देते जाओ। कोई भी खाली नहीं जाये। अथाह खज़ाना है ना। जिसको जो चाहिये देते जाओ। किसी को शान्ति चाहिये, किसी को खुशी चाहिये, किसी को स्नेह चाहिये, देते जाओ। ऐसे है कि हिसाब रखते हो, इसने कितना दिया, मैंने कितना दिया? हिसाब तो नहीं रखते ना? खुला खाता है, हिसाब किताब का खाता नहीं है। दाता के बच्चे हो या थोड़ी-थोड़ी कंजूसी करते हो? अच्छा, कंजूस नहीं तो हिसाब-किताब रखने वाले हो? इसने ये किया तब ही मैंने यह किया, यह भी हिसाब का खाता हुआ ना। दाता के दरबार में इस समय सब खुला है। इस समय हिसाब-किताब नहीं है, जितना चाहिये लो, जितना चाहिये दो। धर्मराजपुरी में हिसाब किताब है, अभी नहीं। तो याद रखना कि दाता के बच्चे हैं, देना है। वहाँ जाकर हिसाब का चौपड़ा शुरू नहीं कर देना।

अच्छा, ये वैराइटी ग्रुप है। जहाँ से भी आये हो लेकिन एक बाप के हैं, एक परिवार है। डबल विदेशी क्या समझते हैं? एक परिवार है ना? या डबल विदेशी अलग हैं और देश वाले अलग हैं? नहीं। सभी एक हैं। चाहे डबल विदेशी हैं, चाहे देश वाले हैं लेकिन सभी कहेंगे हम ब्रह्मा कुमार और ब्रह्माकुमारी हैं। विदेश में और कोई नाम तो नहीं कहते ना। एक ही हैं ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी। तो एक ही परिवार हो गया ना। और एक ही परिवार में कितनी खुशी है। इतना बड़ा परिवार सारे कल्प में नहीं मिलता है। सतयुग में इतना बड़ा परिवार होगा? तीन लाख, चार लाख का होगा। वहाँ होंगे ही दो बच्चे और माँ बाप और यहाँ देखो कितना बड़ा परिवार है। बेहद का परिवार देख खुशी होती है ना। देखो विदेश से भी भाग-भागकर क्यों आते हैं? बाप से और परिवार से मिलने।

तो सब खुश हो? कोई नाराज़ तो नहीं? नाराज़ क्यों होते हैं? राज़ नहीं जानते हैं तो नाराज़ होते हैं। कोई नाराज़ हो तो समझो कोई राज़ को नहीं समझा। राज़ को जानने वाले नाराज़ नहीं होते। अच्छा!

ग्रुप. नं. 3

अपनी श्रेष्ठ स्थिति बनाने के लिए अमृतवेले तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ

दा अमृतवेले स्वयं को तीन बिन्दियों का तिलक देते हो? तिलक का अर्थ क्या है? स्मृति का तिलक। तो तिलक का बहुत महत्व होता है। तिलक राज्य की भी निशानी है। जब राज्य देते हैं तो राज तिलक कहा जाता है और भक्ति में भी तिलक की निशानी जरूर रखेंगे और सुहाग और भाग्य की निशानी भी तिलक है। तो तिलक का महत्व है। क्योंकि तिलक स्मृति की निशानी है। तो ज्ञान मार्ग में भी स्मृति का ही महत्व है ना। जैसी स्मृति वैसी स्थिति होती है। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी। अगर स्मृति व्यर्थ है तो स्थिति भी समर्थ की बजाय व्यर्थ हो जाती है। तो बाप ने तीन बिन्दियों का तिलक अर्थात् तीन स्मृतियों का तिलक दिया है। क्योंकि तीनों ही स्मृति आवश्यक हैं और तीनों ही बिन्दी सहज हैं। छोटे बच्चे को भी कहो कि बिन्दी लगाओ तो लगा देगा ना। तो मैं आत्मा हूँ, यह स्व की स्मृति फिर बाप की स्मृति और फिर श्रेष्ठ कर्म के लिये ड्रामा की स्मृति। ड्रामा चलता रहता है, बीत जाता है। जो अभी प्रेजन्ट है वो सेकण्ड में पास्ट हो जाता है। तो बीत जाता है इसीलिये बीती सो बीती, फुलस्टॉप (.)। तो बिन्दी हो गई ना। तो यह तीनों स्मृति सदा हैं तो स्थिति भी श्रेष्ठ है। सिर्फ आत्मा की स्मृति नहीं। आत्मा के साथ बाप की स्मृति है ही है और बाप के साथ ड्रामा की स्मृति भी अति आवश्यक है। अगर ड्रामा का ज्ञान नहीं है तो भी कर्म में नीचे-ऊपर होंगे। जो भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियां आती हैं, उसमें ड्रामा का ज्ञान अति आवश्यक है। अनुभवी हो ना। क्या स्मृति रहती है? होना ही है, नथिंग न्यु। पहले से ही जानते हैं कि यह होना है तो विचलित नहीं होंगे। जब नॉलेज है कि होना ही है तो खेल समझकर देखेंगे। तूफान नहीं लेकिन खेल है। नाटक में भी तूफान, बाढ़ सब देखते हैं ना, लेकिन विचलित होते हैं क्या? क्योंकि समझते हैं कि यह ड्रामा है। तो अचल हो या थोड़ा-थोड़ा हिलते हो? क्यों, क्या होता है? क्या होगा, कैसे होगा .. यह आता है? जब ड्रामा का ज्ञान है तो अचल-अडोल हैं। ड्रामा का ज्ञान नहीं तो हलचल है। तो सभी सदा अचल हो? अभी नहीं लेकिन सदा। ‘सदा’ शब्द नहीं भूलना। सदा माना अविनाशी। सदाकाल वाले या कभी-कभी वाले? माताओं को कभी थोड़ा-थोड़ा मोह नहीं आता? थोड़ा-थोड़ा मेरापन नहीं आता? जहाँ मेरापन होगा वहाँ हलचल होगी। हद का मेरा नहीं। बेहद का मेरा, वह है मेरा बाबा। हद का मेरा-मेरा बहुत है। तो हद का मेरापन नहीं है? पाण्डव क्या समझते हैं? मेरी रचना, मेरी दुकान, मेरा पैसा, मेरा घर, कुछ नहीं आता? सब तेरा कर दिया कि थोड़ा किनारे रखा है? अगर थोड़ा भी किनारे रखा तो जो मंज़िल का किनारा है वह नहीं मिलेगा। तो मेरा-मेरा समाप्त। सदा स्मृति के तिलकधारी आत्मायें। तो जहाँ स्मृति है वहाँ समर्थी है। स्मृति नहीं तो समर्थी भी नहीं। तो सभी सन्तुष्ट हो या कोई असन्तुष्टता है? अनेक जन्म असन्तुष्ट रहे, अब भी असन्तुष्ट रहे तो क्या कहेंगे? इसलिये सदा सन्तुष्ट। अच्छा!

ग्रुप. नं. 4

खुशियों के सागर के बच्चे हो इसलिए दु:खधाम को सदा के लिए विदाई दे दो

दा ये नशा रहता है कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं? भाग्य विधाता बाप स बन गया और क्या चाहिये? सब चाहनायें पूरी हो गई कि और रही हुई हैं? नशा सदा बढ़ता जाता है या कभी कम होता है, कभी बढ़ता है? जब माया आती है तब फिर क्या करते हैं? फिर कम होता है? माया तो अन्त तक आनी ही है। क्योंकि माया नहीं आये तो मायाजीत कैसे कहलायेंगे? तो माया का आना, ये तो होना ही है लेकिन आपका काम है मायाजीत बनना। मायाजीत हो या कभी हार, कभी जीत? अभी बहुतकाल से मायाजीत बनने का समय है। कभी हार, कभी जीत नहीं, सदा माया जीत।

अभी तक हिन्दी नहीं समझते हो! क्योंकि सतयुग में जाना है, वहाँ आपकी यह भाषा नहीं होगी। आप सबकी आदि भाषा हिन्दी है ना। तो बोलना नहीं भी आवे तो समझना तो आवे ना। तो कौन हिन्दी समझता है हाथ उठाओ। समझने के लिये पुरूषार्थ करो। क्योंकि बाप जिस भाषा में बोलते हैं वह भाषा तो समझनी चाहिये ना। वैसे भी देखो अगर इंगलिश बोलने वाले माँ-बाप होंगे तो बच्चे भी क्या सीखेंगे? तो बाप की भाषा तो समझनी चाहिये। अच्छा!

सदा खुश रहने वाले तो हो ही। खुश रहने वाली आत्मायें बाप को भी प्यारी हैं। क्योंकि बाप सदा खुश रहने वाले हैं, खुशी के सागर हैं तो बच्चे भी खुश रहते हैं तो बाप को भी खुशी होती है। तो दु:ख को सदा के लिये विदाई दे दी ना। या कभी-कभी निमन्त्रण दे देते हो? दु:ख की दुनिया से निकल चुके। दु:खधाम में रहते हो क्या? कहाँ रहते हो? संगमयुग पर, दु:खधाम में नहीं। दुनिया वाले दु:खधाम में हैं लेकिन आप संगमयुग, खुशियों का युग, मौजों का युग, उसमें हो। ऐसे है? कभी गलती से दु:खधाम में तो नहीं चले जाते? कभी थोड़ी-थोड़ी दिल होती है? तो नशा रहता है कि हम संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मायें हैं? इसलिये ब्राह्मणों को सदा ही ऊंची चोटी दिखाते हैं। तो जैसे ऊंचे से ऊंचे गाये हुए हो वैसे सदा ऊंची स्थिति भी हो। साधारण स्थिति नहीं, सदा ऊंची स्थिति। कभी साधारण स्थिति में तो नहीं आ जाते? बाप मिला सब कुछ मिला-यही स्मृति सदा ऊंचा बना देती है। ये याद रहता है ना। ये आटोमेटिक गीत बजता ही रहता है। तो कितना सहज और सर्व प्राप्ति कर ली। मेहनत करनी पड़ी? थोड़ी-थोड़ी मेहनत लगती है? टाइटल ही है सहजयोगी। कोई अपने को कहता है मैं मुश्किल योगी हूँ। दुनिया वाले कहते हैं कि कष्ट के बिना परमात्मा नहीं मिल सकता और आप क्या कहते हो? घर बैठे बाप मिल गया। बाप के घर में तो पीछे आते हो, पहले तो घर बैठे बाप मिला। इतना सहज सोचा नहीं था लेकिन मिल गया। तो सदा यही याद रखना कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं। सदा अपना भाग्य याद आने से खुश रहेंगे और खुशियां बांटेंगे।

ग्रुप. नं. 5

चिंताओं से फ्री सदा निश्चिंत वा बेफ़्रिक बादशाह रहने के लिए निश्चयबुद्धि बनो

दा अपने को कल्प-कल्प की अधिकारी आत्मा अनुभव करते हो? अनेक बार यह अधिकार प्राप्त किया है और आगे के लिये भी निश्चित है कि कल्प-कल्प करते ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। क्योंकि निश्चय है इस ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन। अगर निश्चय का फाउन्डेशन पक्का है तो कभी भी हिलेंगे नहीं। चाहे कितने भी तूफान आ जाये, चाहे कितने भी भूकम्प हो जायें लेकिन हिलेंगे नहीं। क्योंकि फाउन्डेशन पक्का है। अभी भी देखो, प्रकृति का भूकम्प आता है तो कौन सी बिल्डिंग गिरती है? जो कच्ची होती है। पक्के फाउन्डेशन वाली नहीं गिरेगी। तो आपका फाउन्डेशन कितना पक्का है? हिलने वाला है क्या? हिलेगी नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जायेगी? थोड़ी भी नहीं। क्योंकि कोई तो गिर जाते हैं कोई गिरते नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जाती है। तो आप उनसे भी पक्के हो। तो निश्चय की निशानी है-हर कार्य में मंसा में भी, वाणी में भी, कर्म में भी, सम्बन्ध-सम्पर्क में भी हर बात में सहज विजय हो। मेहनत करके विजयी बने, वह विजय नहीं है। सहज विजयी। तो निशानी दिखाई देती है या विजय प्राप्त करने में मेहनत लगती है? कभी सहज, कभी मेहनत? लेकिन निश्चय की निशानी है सहज विजय। अगर मेहनत लगती है तो समझो कुछ मिक्स है। संशय नहीं भी हो लेकिन कुछ व्यर्थ मिक्स है इसलिये सहज विजय नहीं होती। नहीं तो विजय निश्चयबुद्धि आत्माओं के लिये तो सदा एवररेडी है। उसका स्थान ही वह है। जहाँ निश्चय है, वहाँ विजय होगी। निश्चय वालों के पास ही जायेगी ना। तो निश्चय सब बातों में चाहिये। सिर्फ बाप में निश्चय नहीं। लेकिन अपने आपमें भी निश्चय, ब्राह्मण परिवार में भी निश्चय, ड्रामा के हर दृश्य में भी निश्चय। तभी कहेंगे कि सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि। अगर बाप में निश्चय है लेकिन अपने में नहीं है, चलते-चलते अपने से दिलशिकस्त होते हैं तो निश्चय नहीं है तब तो होते हैं। तो वह भी अधूरा निश्चय हुआ। बाप में भी है, अपने आपमें भी है लेकिन परिवार में नहीं है। परिवार के कारण डगमग होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी-सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है-यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी - सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है - यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे है या थोड़ा-थोड़ा फ़िक्र कभी आ जाता है? तो बेफ़िक्र बादशाह ही बाप समान है। बाप को फ़िक्र है का? इतना बड़ा परिवार होते भी फ़िक्र है का? सब कुछ जानते हुए, देखते हुए बेफ़िक्र । ऐसे बेफ़िक्र हो? मातायें बेफ़िक्र हो या प्रवृत्ति में जाकर थोड़ा फ़िक्र हो जाता है? वायुमण्डल में जाकर थोड़ा प्रभाव पड़ जाता है? वायुमण्डल का प्रभाव नहीं पड़ता? अपना प्रभाव वायुमण्डल पर डालो, वायुमण्डल का प्रभाव आपके ऊपर नहीं पड़े। क्योंकि वायुमण्डल रचना है, आप मास्टर रचता हो। वायुमण्डल बनाने वाला कौन? मनुष्यात्मा । तो रचता हो गया ना। तो रचता के ऊपर रचना का प्रभाव नहीं हो, लेकिन रचता का रचना के ऊपर प्रभाव हो। तो कोई भी बात आये तो यह याद करो कि मैं विजयी आत्मा हूँ।

अच्छा, ये महाराष्ट्र और गुलबर्गा है। (अर्थ क्वेक आता रहता है) इसलिये सुनाया कि निश्चयबुद्धि रहो, होना ही है। आगे चलकर अति होना है या कम होना है? तो अति का आह्वान कर रहे हो या घबराते हो? घबराने की कोई बात नहीं। अगर शरीर जायेगा तो भी गैरेन्टी है और रहेगा तो सेवा करनी है। दोनों में अच्छा है। तीन पैर पृथ्वी तो मिलनी है। बेफ़िक्र हो ना। नालेज है ना इसलिये बेफ़्रिक हैं। सारी सभा बेफ़िक्र बादशाहों की बैठी है ना।

जाने वाले कहाँ भी होंगे तो जायेंगे, चाहे भूकम्प में जायें, चाहे किस स्थिति में भी जायें, अच्छे-अच्छे चलते चलते भी चले जायेंगे। जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता। जाने वाले चले गये लेकिन बेफ़िक्र आपको देकर क्यों जाये? फ़िक्र भी साथ में लेकर चले जाये ना। ज्ञान की शक्ति है ना। अच्छा। होने वाला होना ही है। आप सभी तो बेफ़िक्र बादशाह हो।



16-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सच्चे स्नेही बन एक बाप द्वारा सर्व सम्बन्धों का
साकार में अनुभव करो

साकार स्वरूप में सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले बापदादा अपने स्नेही बच्चों प्रति बोले-

आज विश्व स्नेही बापदादा अपने अति स्नेही और सदा बाप के साथी वा सहयोगी आत्माओं को देख रहे हैं। चारों ओर की सर्व ब्राह्मण आत्मायें स्नेही अवश्य हैं। स्नेह ने ब्राह्मण जीवन में परिवर्तन किया है। फिर भी स्नेही तीन प्रकार के हैं-एक हैं स्नेह करने वाले, दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले और तीसरे हैं स्नेह में समाये हुए। समाना अर्थात् समान बनना। स्नेह करने वाले कभी स्नेह करते हैं लेकिन करते-करते कभी स्नेह टूट जाता है, कभी जुट जाता है। इसलिये समय प्रति समय स्नेह जोड़ने में पुरूषार्थ करना पड़ता है। क्योंकि बाप के साथ-साथ और कहाँ भी स्नेह, चाहे व्यक्ति से, चाहे प्रकृति के साधनों से, कहाँ भी संकल्प मात्र भी स्नेह जुटा हुआ है तो बाप से स्नेह करने वालों की लिस्ट में आ जाते हैं। स्नेह की निशानी है बिना कोई मेहनत के स्नेही के तरफ स्नेह स्वत: ही जाता है। स्नेह करने वाली आत्मा का हर समय, हर स्थिति, हर परिस्थिति में आधार अनुभव होता है। अगर साधनों से स्नेह है तो उस समय बाप से भी ज्यादा साधन का आधार अर्थात् सहारा अनुभव होता है। उस समय उस आत्मा के संकल्प में बाप का स्नेह याद भी आता है, सोचते भी हैं कि बाप का स्नेह श्रेष्ठ है लेकिन यह साधन वा व्यक्ति का आधार भी आवश्यक है। इसलिये दोनों तरफ स्नेह अधूरा हो जाता है और बार-बार स्नेह जोड़ना पड़ता है। एक बल, एक भरोसा के बजाय दूसरा भी भरोसा साथ-साथ आवश्यक लगता है। इसलिये बाप के स्नेह द्वारा जो सर्व प्राप्ति का अनुभव हो उसके बजाय दूसरे सहारे द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति अपने तरफ आकर्षित कर लेती है। इतना आकर्षित करती है जो उसी को ही आवश्यक समझने लगते हैं। लगाव नहीं समझते, लेकिन सहारा समझते हैं। इसको कहा जाता है स्नेह करने वाले।

दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले। स्नेह करने के साथ-साथ निभाने की भी शक्ति है। निभाना अर्थात् स्नेह का रेसपॉन्स देना, रिटर्न देना। स्नेह का रिटर्न है जो स्नेही बाप बच्चों से श्रेष्ठ आशायें रखते हैं वो सर्व आशायें प्रैक्टिकल में पूर्ण करना। तो निभाने वाले बहुत करके प्रैक्टिकल में करके दिखाते हैं, लेकिन सदा बाप समान अर्थात् समाये हुए वो अनुभूति कभी होती है, कभी नहीं होती। फिर भी निभाने वाले समीप हैं, लेकिन समान नहीं है। निभाने वालों को निभाने के रिटर्न में पदमगुणा हिम्मत और उमंग-उत्साह की मदद विशेष बाप द्वारा मिलती रहती है। तीसरे, जो स्नेह में समाये हुए हैं उन आत्माओं के नयनों में, मुख में, संकल्प में, हर कर्म में सहज और स्वत: स्नेही बाप का साथ सदा ही अनुभव होता है। बाप उससे जुदा नहीं और वो बाप से जुदा नहीं। हर समय बाप के स्नेह के रिटर्न में प्राप्त हुई सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न और सन्तुष्ट रहते हैं। इसलिये और किसी भी प्रकार का सहारा उन्हों को आकर्षित नहीं कर सकता। क्योंकि कोई न कोई अल्पकाल की प्राप्ति की आवश्यकता किसी और को सहारा बनाती है अर्थात् सम्पूर्ण स्नेह में अन्तर डालती है। स्नेह में समाई हुई आत्मायें सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न होने के कारण सहज ही ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इस अनुभूति में रहती हैं। तो स्नेही सभी हैं लेकिन तीन प्रकार के हैं। अब अपने से पूछो मैं कौन? अपने को तो जान सकते हैं ना। स्नेही हैं तभी स्नेह के कारण ब्राह्मण जीवन में चल रहे हो। लेकिन स्नेह के साथ निभाने की शक्ति, इसमें नम्बरवार बन जाते हैं। स्नेह के साथ शक्ति भी आवश्यक है। जिसमें स्नेह और शक्ति दोनों का बैलेन्स है, वही बाप समान बनता है। ऐसे समाई हुई आत्माओं का अनुभव यही होगा-बाप के स्नेह से दूर होना, यह मुश्किल है। समाना सहज है, दूर होना मुश्किल है। क्योंकि समाई हुई आत्माओं के लिये एक बाप ही संसार है।

संसार में आकर्षित करने वाली दो ही बातें हैं-एक व्यक्ति का सम्बन्ध और दूसरा भिन्न-भिन्न वैभवों वा साधनों द्वारा प्राप्ति होना। तो समाई हुई आत्मा के लिये सर्व सम्बन्ध के रस का अनुभव एक बाप द्वारा सदा ही होता है। सर्व प्राप्तियों का आधार एक बाप है, न कि वैभव वा साधन। वैभव वा साधन रचना है और बाप रचता है। जिसका आधार रचता है उसको रचना द्वारा अल्पकाल के प्राप्ति का स्वप्न मात्र भी संकल्प नहीं हो सकता। बापदादा को कभी-कभी बच्चों की स्थिति को देख हंसी आती है। क्योंकि आश्चर्य तो कह नहीं सकते, फुलस्टॉप है। चलते-चलते बीज को छोड़ टाल-टालियों में आकर्षित हो जाते हैं। कोई आत्मा को आधार बना लेते हैं, कोई साधनों को आधार बना लेते हैं। क्योंकि बीज का रूप-रंग शोभनीक नहीं होता और टाल-टालियों का रूप-रंग बड़ा शोभनीक होता है। देहधारी के सम्बन्ध का आधार देह भान में सहज अनुभव होता है और बाप का आधार देह भान से परे होने से अनुभव होता है। देहभान में आने की आदत तो है ही। न चाहते भी हो सकते हैं। इसलिये देहधारी के सम्बन्ध का आधार वा सहारा सहज अनुभव होता है। समझते भी हैं कि ये ठीक नहीं है फिर भी सहारा बना लेते हैं। बापदादा देख-देख मुस्कराते रहते हैं। उस समय की स्थिति हंसाने वाली होती है। जैसे आप लोग क्लासेस में वा भाषणों में एक तोते की कहानी सुनाते हो-उसको मना किया कि नलके पर नहीं बैठो लेकिन वो नलके पर बैठ करके बोल रहा था। ऐसे बच्चे भी उस समय मन में अपने आपसे एक तरफ यही सोचते रहते कि ‘एक बाप, दूसरा न कोई’, बार-बार अपने आपसे रिपीट भी करते रहते लेकिन साथ-साथ फिर यह भी सोचते कि स्थूल में तो सहारा चाहिए। तो उस समय हंसी आयेगी ना और उस समय फिर माया चांस लेती है। बुद्धि को ऐसा परिवर्तन करेगी जो झूठा सहारा ही सच्चा सहारा अनुभव होगा। जैसे आजकल झूठा, सच्चे से भी अच्छा लगता है, ऐसे उस समय रांग, राइट अनुभव होता है। और वो रांग बात, झूठा सहारा उसको पक्का करने के लिये वा झूठ को सच्चा साबित करने के लिये, जैसे कोई भी कमज़ोर स्थान होता है तो उसको मजबूत करने के लिये पिल्लर्स लगाये जाते हैं तो माया भी कमज़ोर संकल्प को मजबूत बनाने के लिये बहुत रॉयल पिल्लर्स लगाती है। क्या पिल्लर लगाती है? माया यही संकल्प देती है कि ऐसा तो होता ही है, कई बड़े-बड़े भी ऐसे ही करते हैं, ऐसे ही चलते हैं, या कहते अभी तो पुरुषार्थी ही हैं, सम्पूर्ण तो हुए नहीं हैं, तो जरूर अभी कोई न कोई कमी रहेगी ही, आगे चल सम्पूर्ण बन जायेंगे-ऐसे-ऐसे व्यर्थ संकल्प रूपी पिल्लर्स कमज़ोरी को मजबूत कर देते हैं। तो ऐसे पिल्लर का आधार नहीं लेना। समय आने पर यह आर्टीफिशयल पिल्लर धोखा दे देते हैं। सर्व सम्बन्धों का सहारा एक बाप सदा रहे, यह अनुभव कम करते हो। इस सर्व सम्बन्धों के अनुभव को बढ़ाओ। सर्व सम्बन्धों की अनुभूति कम होने के कारण कहीं न कहीं अल्पकाल का सम्बन्ध जुट जाता है। स्थूल जीवन में भी स्थूल रूप का सहारा वा हर परिस्थिति में स्थूल रूप का सहयोग देने वाला सहारा बाप है। यह अनुभव और बढ़ाओ। ऐसे नहीं कि बाप तो है ही सूक्ष्म में सहयोग देने वाला। निराकार है, आकार है, साकार तो है नहीं, लेकिन हर सम्बन्ध को साकार रूप में अनुभव कर सकते हो। साकार स्वरूप में साथ का अनुभव कर सकते हो। इस अनुभूति को गहराई से समझो और स्वयं को इसमें मजबूत करो। तो व्यक्ति, वैभव व साधन अपने तरफ आकर्षित नहीं करेंगे। साधनों को निमित्त मात्र कार्य में लाना वा साक्षी हो सेवा प्रति कार्य में लगाना-ऐसी अनुभूति को बढ़ाओ। सहारा नहीं बनाओ, निमित्त मात्र हो। इसको कहा जाता है स्नेह में समाई हुई समान आत्मा। तो अपने से सोचना कि मैं कौन? समझा? अच्छा!

सदा स्नेह में समाये हुए समान आत्माओं को, सदा एक बाप से सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप को आधारमूर्त, सच्चा सहारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्ति रचता बाप द्वारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सहज-स्वत: ‘एक बल, एक भरोसा’ अनुभव करने वाली सच्चे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सदा समाये हुए हैं या याद करने की मेहनत करनी पड़ती है? सिवाए एक बाप के और कोई दिखाई नहीं देता। जब कहानियां सुनते हो तो हंसी आती है ना। कहानी जब तक चलती है तब तक समझ में नहीं आती और जब कहानी समाप्त होती है तो सोचते हैं यह क्या हुआ? मैं थी या और कोई था-ऐसे भी सोचते हैं। क्योंकि उस समय परवश होते हैं ना। तो परवश को अपना होश नहीं होता है। जब अपना होश आता है तो फिर आगे बढ़ने का जोश भी आता है। अच्छा-संगठन बढ़ता जा रहा है और बढ़ता ही रहेगा। और आप निमित्त आत्माएं यह सब खेल देख हर्षित होते रहते हो। सभी चल रहे हैं, कोई चल रहा है, कोई उड़ रहा है और आप लोग क्या करते हो? उड़ते-उड़ते साथ में औरों को भी उड़ा रहे हो। क्योंकि रहमदिल बाप के रहमदिल आत्मायें बन गये, तो रहम आता है ना। घृणा नहीं आती लेकिन रहम आता है। और यह रहम ही दिल के प्यार का काम करता है। अच्छा, जो भी चल रहा है अच्छे ते अच्छा चल रहा है। अथक बन सेवा कर रहे हैं ना। निमित्त आत्माओं के अथकपन को देख सबमें उमंग आता है ना।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

साधारणता को समाप्त कर विशेषता के संस्कार नेचुरल और नेचर बनाओ

अपने को सदा संगमयुग के रूहानी मौजों में रहने वाले अनुभव करते हो? मौजों में रहते हो वा कभी मौज में, कभी मूझंते भी हो या सदा मौज में रहते हो? क्या हालचाल है? कभी कोई ऐसी परिस्थिति आ जाए वा ऐसी कोई परीक्षा आ जाए तो मूंझते हो? (थोड़े टाइम के लिए) और उस थोड़े टाइम में अगर आपको काल आ जाए तो फिर क्या होगा? अकाले मृत्यु का तो समय है ना। तो थोड़ा समय भी अगर मौज के बजाए मूंझते हैं और उस समय अन्तिम घड़ी हो जाए तो अन्त मति सो गति क्या होगी? इसलिए सुनते रहते हो ना सदा एवररेडी! एवररेडी का मतलब क्या है? क्या हर घड़ी ऐसे एवररेडी हो? कोई भी समस्या सम्पूर्ण बनने में विघ्न रूप नहीं बने। अन्त अच्छी तो भविष्य आदि भी अच्छा होता है। जैसा मत में होगा वैसी गति होगी। तो एवररेडी का पाठ इसलिए पढ़ाया जा रहा है। ऐसे नहीं सोचो कि थोड़ा समय होता है लेकिन थोड़ा समय भी, एक सेकण्ड भी धोखा दे सकता है। वैसे सोचते हैं ज्यादा टाइम नहीं चलता, ऐसा दो-चार मिनट चलता है लेकिन एक सेकण्ड भी धोखा देने वाला हो सकता है तो मिनिट की तो बात ही नहीं सोचो। क्योंकि सबसे वैल्युएबुल त्मायें हो, अमूल्य हो। अमूल्य आत्माओं का कोई दुनिया वालों से मूल्य नहीं कर सकते। दुनिया वाले तो आप सबको साधारण समझेंगे। लेकिन आप साधारण नहीं हो, विशेष आत्मायें हो।

विशेष आत्मा का अर्थ ही है जो भी कर्म करे, जो भी संकल्प करे, जो भी बोल बोले वो हर बोल और हर संकल्प विशेष हैं, साधारण नहीं हो। समय भी साधारण रीति से नहीं जाये। हर सेकेण्ड और हर संकल्प विशेष हो। इसको कहा जाता है विशेष आत्मा। तो विशेष करते-करते साधारण नहीं हो जाये-ये चेक करो। कई ऐसे सोचते हैं कि कोई गलती नहीं की, कोई पाप कर्म नहीं किया, कोई वाणी से भी ऐसा उल्टा-सुल्टा शब्द नहीं बोला, लेकिन भविष्य और वर्तमान श्रेष्ठ बनाया? बुरा नहीं किया लेकिन अच्छा किया? सिर्फ ये नहीं चेक करो कि बुरा नहीं किया, लेकिन बुरे की जगह पर अच्छे ते अच्छा किया या साधारण हो गया ? तो ऐसे साधारणता नहीं हो, श्रेष्ठता हो। नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जमा हुआ? क्योंकि जमा का समय तो अभी है ना। अभी का जमा किया हुआ भविष्य अनेक जन्म खाते रहेंगे। तो जितना जमा होगा उतना ही खायेंगे ना। अगर कम जमा किया तो कम खाना पड़ेगा अर्थात् प्रालब्ध कम होगी। लेकिन लक्ष्य है श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने का या साधारण भी हो जाये, तो कोई हर्जा नहीं? स्वर्ग में तो आ ही जायेंगे, दु:ख तो होगा नहीं, साधारण भी बने तो क्या हर्जा..? हर्जा है या चलेगा? तो चेक करो कि हर सेकण्ड, हर संकल्प विशेष हो। जैसे आधा कल्प के देहभान का अभ्यास नेचरली न चाहते हुए भी चलता रहता है ना। देह अभिमान में आना नेचरल हो गया है ना। ऐसे देही अभिमानी अवस्था नेचरल और नेचर हो जाये। तो जो नेचर होती है वह स्वत: ही अपना काम करती है, सोचना नहीं पड़ता है, बनाना नहीं पड़ता है, करना नहीं पड़ता है लेकिन स्वत: हो ही जाती है। तो ऐसे विशेषता के संस्कार नेचर बन जायें और हर एक के दिल से निकले। ऐसे नहीं कि मेरी नेचर यह है, मेरी नेचर यह है नहीं, हर एक के मुख से, मन से यही निकले कि मेरी नेचर है ही विशेष आत्मा के विशेषता की। तो ऐसे है या मेहनत करनी पड़ती है? जो नेचर होती है उसमें मेहनत नहीं होती। किसी की नेचर रमणीक है तो स्वत: ही रमणीकता चलती रहती है ना। उसको पता भी नहीं पड़ेगा कि मैंने क्या किया? कोई कहेगा तो भी कहेंगे कि मैं क्या करूँ, मेरी नेचर है। तो विशेषता की भी ऐसी नेचर हो जाये। कोई पूछे आपकी नेचर क्या है? तो सबके दिल से निकले कि हमारी नेचर है ही विशेषता की। साधारण कर्म की समाप्ति हो गई। क्योंकि मरजीवा हो गये ना। तो साधारणता से मर गये, विशेषता में जी रहे हैं माना नया जन्म हो गया। तो साधारणता पास्ट जन्म की नेचर है, अभी की नहीं। क्योंकि नया जन्म ले लिया। तो नये जन्म की नेचर विशेषता है-ऐसे अनुभव हो। तो अभी क्या करेंगे? साधारणता की समाप्ति। संकल्प में भी साधारणता नहीं।

मातायें मौज में रहती हो? कितना भी कोई मुंझाने की कोशिश करे लेकिन आप मौज में रहो। मुंझाने वाला मूंझ जाये लेकिन आप नहीं मूंझो। क्योंकि अज्ञानियों का काम है मुंझाना और ज्ञानियों का काम है मौज में रहना। तो वो अपना काम करे और आप अपना काम करो। सदा मौज का अनुभव करो तब तो फलक से कह सकेंगे। होंगे तब ही तो कह सकेंगे ना? जो होगा नहीं तो कह भी नहीं सकता। चैलेन्ज कर सकते हो-हम मूँझने वाले नहीं हैं। क्योंकि विशेष आत्मायें हैं। क्या याद रखेंगे? मौज में रहने वाली विशेष आत्मा हैं। ऐसी हिम्मत वाले हो ना। हिम्मत वालों को मदद स्वत: ही मिलती है।

जहाँ भी रहो लेकिन ये आवाज बुलन्द हो कि ये ब्राह्मण आत्मायें विशेष हैं। गुप्त से प्रत्यक्ष तो होना ही है ना। सबकी नजर ब्राह्मण आत्माओं की तरफ जानी ही है। जा रही है कि अभी शुरू नहीं हुआ है? तो कमाल करके दिखाने वाले हो ना। ऐसी कमाल करो जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो। सेमीनार किया, कोन्फेरेंस की - यह तो सभी करते हैं। कोई नई बात करके दिखाओ।

तो सभी ठीक हो? बहुत आराम से रहे हुए हो ना। निर्भय आत्मायें हो औरों को भी निर्भय बनाने वाली। ऐसे हो या कभी-कभी डरते हो? क्या होगा, कैसे होगा? नहीं। जो होगा, अच्छा होगा। दुनिया के लिये तो बुरा है लेकिन आप सोच-समझ सकते हो कि परिवर्तन होना ही है इसलिये जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। क्योंकि जानते हो कि होना ही है। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सदा उमंग-उत्साह में रह अपने चेहरे और चलन द्वारा दूसरों का उमंग- उत्साह बढ़ाओ

सभी अपने को सदा उमंग-उत्साह से उड़ने वाली आत्मायें अनुभव करते हो? सदा उमंग-उत्साह बढ़ता रहता है या कभी कम होता है कभी बढ़ता है? क्योंकि जितना उमंग-उत्साह होगा उतना औरों को भी उमंग-उत्साह में उड़ायेंगे। सिर्फ स्वयं नहीं उड़ने वाले हो लेकिन औरों को भी उड़ाने वाले हो। तो उमंग-उत्साह ये उड़ने के पंख हैं। अगर पंख मजबूत होते हैं तो तीव्र गति से उड़ सकते हैं। अगर पंख कमज़ोर होंगे और तीव्र गति से उड़ने की कोशिश भी करेंगे तो नहीं उड़ सकेंगे, बार-बार नीचे आयेंगे। तो उमंग-उत्साह के पंख सदा मजबूत हों। कभी कमज़ोर, कभी मजबूत नहीं, सदा मजबूत। क्योंकि अनेक आत्माओं को उड़ाने वी जिम्मेवार आत्मायें हो। विश्व कल्याण करने की जिम्मेवारी ली है ना?तो सदा इतनी बड़ी जिम्मेवारी स्मृति में रहे। जब कोई भी जिम्मेवारी होती है तब जो भी काम करेंगे तो तीव्र गति से करेंगे और जिम्मेवारी नहीं होती है तो अलबेले होते हैं। तो हरेक के ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सभी ने यह जिम्मेवारी का संकल्प लिया है? या सोचते हो कि यह बड़ों का काम है, हम तो छोटे हैं - ऐसे तो नहीं। यह तो पुराने जाने हम तो नये हैं - ऐसे तो नहीं। चाहे बड़े हों, चाहे छोटे हों, चाहे पुराने हों, चाहे नये हों, लेकिन ब्राह्मण बनना अर्थात् जिम्मेवारी लेना। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं लेकिन हैं तो बी.के. या और कुछ हैं? तो बी.के. अर्थात् ब्राह्मण बनना और ब्राह्मणों की जिम्मेवारी है ही। तो ये जिम्मेवारी की स्मृति कभी भी आपको अलबेला नहीं बनायेगी। लौकिक कार्य में भी जब कोई जिम्मेवारी बढ़ती है तो आलस्य और अलबेलापन आता है या चला जाता है? अगर कोई कहेगा भी ना कि चलो थोड़ा आराम कर लो, बैठ जाओ, क्या करना है, तो बैठ सकेंगे? तो जिम्मेवारी, आलस्य और अलबेलापन खत्म कर देती है। तो चेक करो कि कभी भी आलस्य या अलबेलापन तो नहीं आ जाता? चल तो रहे हैं, हो जायेगा - ये है अलबेलापन। आज नहीं तो कल हो जायेगा - ये आलस्य है। कल नहीं, आज भी नहीं, अब। क्योंकि कोई भरोसा नहीं। अगर अधूरा पुरूषार्थ रह गया तो कहाँ पहुँचेंगे? सूर्यवंश में या चन्द्रवंश में? आधा पुरूषार्थ रहा तो प्रालब्ध भी आधी मिलेगी ना। तो चन्द्रवंश में जाना है? नहीं जाना है? कोई एक भी नहीं जायेगा? मातायें भी सभी सूर्यवंशी बनेंगी? अच्छा। क्योंकि जब पाना है तो पूरा ही पायें ना। आधा पाना तो समझदारी नहीं है। समझदार सदा ही स्वयं को पूरा अधिकारी बनायेगा क्योंकि बच्चा अर्थात् अधिकारी। तो ऐसी अधिकारी आत्मायें हो या कभी-कभी थक भी जाते हो? अधिकार लेते-लेते थक तो नहीं जाते? कभी मन में थक जाते हैं - कहाँ तक करेंगे? अथक हैं, थकने वाले नहीं हैं। थकना काम चन्द्रवंशियों का है और अथक रहना ये सूर्यवंशी की निशानी है। क्या भी हो जाये लेकिन सदा अथक। जिसको उमंग-उत्साह होता है वह कभी थकता नहीं। उमंग कम होगा तो थकावट जरूर आयेगी। उमंग-उत्साह वाले सदैव अपने चेहरे से औरों को भी उमंग दिलाते रहेंगे। एक है चेहरा, दूसरा है चलन। तो अपने चेहरे और चलन से सदा औरों को भी उमंग-उत्साह में बढ़ाते रहो। ऐसी चलन हो जो कोई भी देखे तो सोचे कि ये उमंग-उत्साह में सदा कैसे रहता है? जैसे कोई बहुत खुश रहता है तो उसको देख करके दूसरे भी खुश हो जाते हैं ना। कोई रोने वाले होते हैं तो रोने वाले को देखकर दूसरे क्या करेंगे? अगर रोयेंगे नहीं तो मुस्करायेंगे भी नहीं। तो आपकी चलन और चेहरा ऐसे हैं? फलक से जवाब दो कि हम नहीं होंगे तो कौन होगा। कल्प-कल्प के आप ही हैं और सदा ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। तो हम ही थे और हम ही रहेंगे। पक्का है ना? जब सीजन ही उड़ने की है तो उड़ने के समय पर गिरना तो अच्छा नहीं होता है ना। तो उड़ने वाले हैं और उड़ाने वाले भी। कभी भी, कोई भी बात आये तो याद करो कि हम कौन हैं? हमारी क्या जिम्मेवारी है?

अभी देखेंगे कि स्व स्थिति वा सेवा में नम्बर आगे कौन जाता है। स्व स्थिति में भी नम्बर वन लेना है तो सेवा में भी नम्बर वन लेना है। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सर्व की ब्लैसिंग लेने के लिए कर्म और योग का बैलेन्स रखो

दा अपने को कर्मयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? कर्मयोगी अर्थात् हर कर्म योगयुक्त हो। कर्म अलग, योग अलग नहीं। कर्म में योग, योग में कर्म। सदा दोनों साथ हैं तब कहते हैं कर्मयोगी। ऐसे नहीं, जब योग में बैठे तो योगी हैं और कर्म में जायें तो योग साधारण हो जाये और कर्म महान हो जाये। सदा दोनों का साथ रहे, बैलेन्स रहे। तो ऐसे कर्मयोगी हो या जब कर्म में लग जाते हो तो योग कम हो जाता है? और जब योग में बैठते हो तो लगता है कि बैठे ही रहें तो अच्छा है। कर्मयोगी आत्मा सदा ही कर्म और योग का साथ रखने वाली अर्थात् बैलेन्स रखने वाली। कर्म और योग का बैलेन्स है तो हर कर्म में बाप द्वारा तो ब्लैसिंग मिलती ही है लेकिन जिसके सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हैं उनसे भी दुआयें मिलती हैं। कोई अच्छा काम करता है तो दिल से उसके लिये दुआयें निकलती हैं ना कि बहुत अच्छा है। तो बहुत अच्छा मानना-यह दुआयें है। और जो अच्छा कार्य करता है उसके संग में रहना सदा सभी को अच्छा लगता है। उसके सहयोगी बहुत बन जाते हैं। तो दुआयें भी मिलती हैं, सहयोग भी मिलता है। तो जहाँ दुआयें हैं, सहयोग है वहाँ सफलता तो है ही। तो कितनी प्राप्ति हैं? बहुत प्राप्ति हुई ना। इसलिये सदा कर्मयोगी। जब योग होगा तो कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होगा क्योंकि योग का अर्थ ही है श्रेष्ठ बाप की स्मृति में रहना और स्वयं भी श्रेष्ठ आत्मा हूँ - इस स्मृति में रहना। तो जब स्मृति श्रेष्ठ होगी तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी ना और स्थिति श्रेष्ठ होने के कारण न चाहते भी वायुमण्डल श्रेष्ठ बन जाता है। तो कर्मयोगी अर्थात् श्रेष्ठ स्मृति, श्रेष्ठ स्थिति और श्रेष्ठ वायुमण्डल। कोई ज्ञान सुने, नहीं सुने, योग सीखे, नहीं सीखे लेकिन वायुमण्डल का प्रभाव स्वत: ही उनको आकर्षित करता है। मधुबन में क्या विशेष अनुभव करते हो? तपस्या का वायुमण्डल है ना। तो जो भी आते हैं उनका योग बिना मेहनत के ही लग जाता है। योग लगाना नहीं पड़ता, योग लग ही जाता है। ऐसे होता है ना। मधुबन में योग लगाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि वायुमण्डल तपस्या का है, संग तपस्वी आत्माओं का है। ऐसे जहाँ भी आप कर्मयोगी बन कर्म करते हो वहाँ का वातावरण, वायुमण्डल ऐसे औरों को सहयोग देगा। अनुभवी हो ना, सहयोग मिलता है ना? तो आपका सहयोग भी औरों को मिलेगा। जहाँ रहते हो वहाँ सेवा होती है? सदा कर्मयोगी आत्मा बाप को भी प्रिय है तो विश्व को भी प्रिय है। विश्व के भी प्रिय बने हो या बन रहे हो? देखो, कल्प पहले भी विश्व के प्रिय बने हो तब तो आपके जड़ चित्रों को भी सभी कितना प्यार करते हैं। तो वो आपके चित्र हैं ना। अपने से इतना प्यार नहीं होगा जितना चित्रों से होगा। तो चैतन्य में बने हो तब ही जड़ चित्रों की निशानी देख रहे हो। चैतन्य रूप में अपने जड़ चित्र यादगार देख रहे हो। तो देख करके खुशी होती है ना हम ऐसे विश्व के प्रिय बने हैं। क्योंकि बाप के प्रिय बने हो ना। तो कितनी खुशी है! खुशी में नाचते रहते हो? सभी को खुशी में नाचना आता है? ऐसा कोई है जिसको खुशी में नाचना नहीं आता? सभी को आता है। पांव से नाचना तो किसी को आयेगा, किसी को नहीं आयेगा। लेकिन खुशी में नाचना तो सभी को आयेगा और इस नाचने में थकते भी नहीं। तो सदा नाचते रहते हो? ब्राह्मण जीवन में सिवाए खुशी के और है ही क्या? दु:खधाम तो छोड़ दिया ना, तो दु:ख क्यों आये? और जहाँ दु:ख नहीं होगा तो खुशी होगी ना। संगमवासी सदा खुश रहते हैं, कलियुग वासी दु:खी रहते हैं। तो संगमयुगी हो या कभी-कभी दु:खधाम वासी भी बन जाते हो? या कभी-कभी गलती से चले जाते हो? स्वप्न में भी दु:ख की लहर नहीं आ सकती। साकार की तो बात ही नहीं है। तो सभी याद रखना कि हम कर्मयोगी हैं, कर्म और योग को सदा साथ रखने वाले हैं।

सदा खुश रहने वाले कर्मयोगी, बाप के प्रिय आत्मायें हैं-यही खुशी सदा अविनाशी रहे। कभी-कभी वाले नहीं, सदा वाले। कभी खुशी, कभी दु:ख की लहर वाले, यह अच्छा नहीं लगता। तो खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

सदा खुशनसीब, भाग्यवान आत्मा की स्मृति में रहकर सबको भाग्यवान बनाओ

सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रखते हुए अपने को समर्थ आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि जितनी स्मृति होगी उतनी समर्थी होगी। स्मृति कम तो समर्थी भी कम। तो स्मृति स्वरूप बने हो या स्मृति लानी पड़ती है? जैसे अपना साकार स्वरूप कभी नहीं भूलता है। सदा स्मृति रहती ही है - कि मैं फलाना हूँ, मैं ऐसा हूँ, ऐसे ही अपने भाग्य के स्मृति स्वरूप बनो। याद करने से स्मृति आये और चलते-चलते स्मृति, विस्मृति में आ जाये तो उसको स्वरूप नहीं कहेंगे, स्वरूप कभी भूलता नहीं। एक हैं स्मृति करने वाले और दूसरे हैं स्मृति स्वरूप रहने वाले। तो आप सभी कौन हो? स्वरूप बन गये हो या विस्मृति-स्मृति का खेल चलता है?

(हॉस्पिटल और आबू निवासी बापदादा के सामने बैठे हैं)

आप सभी तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो। क्योंकि मैजारिटी मधुबनवासी हो या समझते हो कि मधुबन और हॉस्पिटल अलग है? मधुबन निवासी हो ना? किस वातावरण में रहते हो? मधुबन के वातावरण में रहते हो या अलग हॉस्पिटल के वातावरण में रहते हो? क्योंकि सबसे बड़ी पालना है ज्ञान की पालना, मुरली की पालना। तो वो हॉस्पिटल या अपने-अपने घरों में सुनते हो वा मधुबन में ही सुनते हो? तो सबसे श्रेष्ठ पालना मुरली है। और दूसरी पालना ब्रह्मा भोजन है। वो आत्मा की पालना, वो शरीर की पालना। तो दोनों मधुबन में होती हैं ना। अगर कोई घर में भी खाते हो तो क्या याद करके खाते हो? मधुबन में बैठे हैं ना और हॉस्पिटल वाले तो खाते ही मधुबन में हैं ना। तो कितने लक्की हो! सदा ब्रह्मा भोजन मिलता रहे-यह कम भाग्य नहीं है! सदा आत्मा की पालना विशेष आत्माओं द्वारा होती रहे-यह भी कम पालना नहीं है! सदा वायुमण्डल श्रेष्ठ मिलता रहे, संग श्रेष्ठ मिलता रहे-कितने भाग्य हैं! अमृतवेले से लेकर रात तक अपने भिन्न-भिन्न भाग्य को स्मृति में लाओ। दिनचर्या के आदि में ही पहला भाग्य बाप से मिलन मनाना। दुनिया तड़पती रहती है और आप अमृतवेले से रात तक मिलन मनाते रहते हो। अगर रात को सोते भी हो तो कहाँ सोते हो? बिस्तर पर?तो देखो, आदि में भी भाग्य, मध्य में भी भाग्य और अन्त में क्या होगा? भाग्य ही भाग्य होगा ना। तो सदा अपने भाग्य की लिस्ट सामने रखो। और यही गीत सदा गाते रहो-’वाह मेरा भाग्य’। वाह बाबा तो है ही लेकिन उसके साथ-साथ वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य। हद का भाग्य नहीं, बेहद का श्रेष्ठ भाग्य। तो जो स्वयं सदा अपने भाग्य के स्मृति में रहेंगे वो औरों को भी भाग्यवान बनायेंगे ना। जो जैसा होगा वैसा ही बनायेगा ना। तो हॉस्पिटल वाले सारा दिन क्या करते हो? पेशेन्ट को देखते रहते हो या अपने भाग्य को भी देखते रहते हो? क्या देखते हो? भाग्य को देखते हो ना। पेशेन्ट के साथ-साथ पहले अपने भाग्य को देखो। तो भगवान् और भाग्य - दोनों याद रहे।

देखो, टाइटिल तो बहुत अच्छा मिला है-’आबू निवासी’। तो आबू नि्ावासी सुनने से परमधाम निवासी तो सहज ही याद आता है ना। क्योंकि आबू है ब्रह्मा बाबा का, तो ब्रह्मा बाबा याद आया तो शिव बाप सहज ही याद आयेगा, कम्बाइन्ड है ना। तो ‘आबू निवासी’ सुनने से स्वीट होम भी याद आ जाता है अर्थात् बापदादा दोनों सहज याद आ जाते हैं। हॉस्पिटल भी कहाँ है? आबू में है ना।

ज्यादा सहज याद में हॉस्पिटल वाले रहते हो या जो अपने-अपने स्थानों में आबू निवासी कहलाते हो वो रहते हो या जो सेन्टर पर रहते हो वो रहते हैं? कौन रहते हैं? याद में तो सभी रहते हो लेकिन सहज याद में रहने वाले कौन हैं? डबल विदेशी तो खुश रहते ही हैं। डबल विदेशी माना डबल खुश। हॉस्पिटल में खुशी कम होती है या बढ़ती है? कि कभी-कभी कम हो जाती है? कम नहीं होनी चाहिये। क्या भी हो, कैसा भी हो, मरने तक बात आ जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। मृत्यु भले हो जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। शरीर चला जाये कोई हर्जा नहीं। क्योंकि गैरन्टी है ना अगर खुशी में जायेंगे तो अनेकों को खुश करने के लिये जायेंगे। तो इतना पक्का है - शरीर जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। ब्राह्मण जीवन माना खुशी की जीवन, अगर ब्राह्मण है और खुशी नहीं है तो ब्राह्मण जीवन ही नहीं है। तो सभी पक्के ब्राह्मण तो हैं ही। इसमें तो पूछने की बात ही नहीं। सब जब अपने साइन करते हो तो पहले आक्यूपेशन में ‘बी.के.’ लिखते हो ना। तो ब्राह्मण अर्थात् खुशनसीब, सदा खुश रहने वाले। किसी की हिम्मत नहीं जो ब्राह्मण आत्मा की खुशी कम कर सके। माया हो या माया का बाप हो लेकिन खुशी नहीं गायब कर सके। (माया का बाप कौन?) रावण को माया का बाप कह दो। तो खुशी कम हो नहीं सकती।

चाहे जहाँ भी रहो लेकिन खुशी गायब नहीं हो सकती। असम्भव है। इतने फलक से कहते हो पता नहीं कभी-कभी संभव हो भी जाये। यह अच्छी तरह से पता है ना कि ब्राह्मण जीवन में खुशी का जाना असम्भव है। तो हर एक का चेहरा खुशनुमा, खुशनसीब दिखाई दे। हर एक के मस्तक पर खुशी का भाग्य चमक रहा है। चमक रहा है ना? बादल तो नहीं आते हैं? बादल किसी भी चीज़ को छिपा देते हैं। तो बादल नहीं आ सकते। सदा चमकते रहो।

शक्तियां क्या सोचती हैं? शक्तियां खुशी के गीत गाती रहती हैं और पाण्डव नाचते रहते हैं। ब्राह्मण जीवन में है ही नाचना और गाना। कर्म भी करते हो तो कर्म भी तो एक डांस है ना। डांस में हाथ-पांव चलाना होता है ना। तो कर्मयोगी बनकर जो कर्म करते हो वह भी नाचना ही है ना। खेल कर रहे हो ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सन्तुष्टता सबसे बड़ा खज़ाना है, जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ सर्व प्राप्तियां हैं

सदा अपने इस ब्राह्मण जीवन की आदि से अब तक की सर्व प्राप्तियाँ स्मृति में रहती हैं? कितनी प्राप्तियां हैं? अगर प्राप्तियों की लिस्ट निकालो तो कितनी लम्बी है? सार रूप में यही कहेंगे कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मण जीवन में। तो ऐसे अनुभव करते हो? सर्व प्राप्तियाँ सम्पन्न हो गये? और प्राप्तियाँ भी अविनाशी हैं। एक जन्म, आधा जन्म की नहीं, सदा काल के लिये प्राप्तियाँ प्राप्त हो गई। कोई भी युग नहीं जहाँ आप आत्माओं को कोई प्राप्ति नहीं हो। अगर द्वापर से गिरती कला शुरू भी होती है, फिर भी द्वापर से लेकर अब तक पूजे तो जाते हो ना। तो आधा कल्प राज्य अधिकारी बनते हो और आधा कल्प पूज्य बनते हो। चाहे स्वयं पुजारी बन जाते हो चैतन्य में लेकिन जड़ चित्र के रूप में तो पूजे जाते हो। तो पूज्य की प्राप्ति तो है ही ना। चाहे जानते नहीं हो अपने को लेकिन प्राप्ति सारे कल्प के लिये है। राज्य पद और पूज्य पद। कितने नशे की बात है। तो सदा सर्व प्राप्तियों की स्मृति में रहो, स्मृति स्वरूप रहो। तो प्राप्तियाँ याद रहती हैं कि कभी भूल जाती हैं, कभी याद रहती हैं? हद के प्राप्ति वालों को भी कितना नशा रहता है। तो आपको अविनाशी प्राप्तियां हैं तो अविनाशी रूहानी नशा है?

(कुमारियों से) कुमारियों को नशा रहता है? सदा रहता है या कभी-कभी?कभी भूल भी जाता है? कभी मूड ऑफ होता है? कुमारियों का मूड ऑफ होता है? रोती नहीं हो लेकिन चुप हो जाती हो? कितने समय से नहीं रोया है? जब से ब्रह्माकुमारी बनी हो तब से नहीं रोया है या अभी नहीं रोती हो? मन में भी नहीं रोया है? कुमारियों को कोमल होने के कारण रोना जल्दी आता है। नहीं रोती हो तो पक्की हो ना। सभी खुश रहती हो? और पुरूषार्थ में भी उड़ती कला वाली हो या चढ़ती कला वाली हो? सभी उड़ती कला वाली हो? अच्छा है, कभी नीचे कभी ऊपर नहीं होना, सदा उड़ते रहना। माताओं की भी उड़ती कला है या बीच-बीच में गिरना भी अच्छा लगता है। गिरकर उड़ना है या उड़ना ही उड़ना है?पाण्डव उड़ती कला वाले हैं? उड़ना ही है। क्योंकि समय कम है और मंज़िल श्रेष्ठ है। तो बिना उड़ती कला के मंज़िल पर पहुँचना मुश्किल है। इसलिये सदा उड़ते रहो और उड़ने का साधन है सदा सर्व प्राप्तियों को स्मृति में रखना। इमर्ज रूप में, मर्ज नहीं। जानते ही हैं, नहीं, मर्ज से इमर्ज करो। क्या-क्या मिला! क्या थे और क्या बने गये! कल क्या और आज क्या! तो प्राप्तियों की खुशी कभी नीचे, हलचल में नहीं लायेगी। नीचे आना तो छोड़ो लेकिन हलचल भी नहीं, अचल। जो सम्पन्न होता है वो हलचल में नहीं आता है। जो खाली होता है वह हिलता है। कोई भी चीज़ हिलने वाली होती है तो उसको चारों ओर से सम्पन्न कर देते हैं, भरपूर कर देते हैं तो हिलती नहीं है और कोना भी खाली होगा तो हिलेगी और हिलते-हिलते टूटेगी। तो सम्पन्नता अचल बनाती है। हलचल से छुड़ा देती है। तो सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न हो ना? जब दाता मिल गया तो दाता क्या करेगा? सम्पन्न बनायेगा ना। तो ये भी नशा है कि हम दाता के बच्चे हैं। साधारण बाप के बच्चे नहीं, दाता के बच्चे हैं। तो जो स्वयं दाता है तो वो मास्टर दाता बनायेगा ना। तो क्या याद रखेंगे, कौन हो? मास्टर दाता हो। सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्मा हो। जरा भी अप्राप्ति नहीं। कोई अप्राप्ति है? कोई-कोई रह गई है या कोई चीज़ चाहिये, नाम चाहिये, सेवा चाहिये, थोड़ा चांस मिल जाये, मेरा नाम हो जाये, मेरे को आगे रखा जाये, यह अप्राप्ति तो नहीं है। किसी को है तो बता दो। मकान अच्छा मिल जाये, कार मिल जाये। कार हो तो सेवा अच्छी तरह से कर सकें। जितने साधन उतनी बुद्धि भी जाती है। जैसे हैं, जहाँ हैं, सदा राजी। जो थोड़े में सन्तुष्ट रहता है उसको सदा सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होती है। सन्तुष्टता सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है। जिसके पास सन्तुष्टता है, उसके पास सब-कुछ है। जिसके पास सन्तुष्टता नहीं है तो सब-कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। क्योंकि असन्तुष्ट आत्मा सदा इच्छाओं के वश होगी। एक इच्छा पूरी होगी और 10 इच्छायें उत्पन्न होगी। तो आप क्या हो? हद के इच्छा मात्रम् अविद्या। ऐसे हो कि कभी-कभी छोटी-मोटी इच्छा हो जाती है? सन्तुष्ट हो? सदा यह गीत गाते रहो पाना था वो पा लिया। अच्छा। सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो ना?


 


23-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पवित्रता के दृढ़ व्रत द्वारा वृत्ति का परिवर्तन

पवित्रता के फाउन्डेशन को मजबूत करने की प्रेरणा देने वाले परम पवित्र बापदादा बोले-

आज ऊंचे से ऊंचा बाप अपने सर्व महान बच्चों को देख रहे हैं। महान आ आत्मा तो सभी बच्चे बने हैं क्योंकि सबसे महान बनने का मुख्य आधार ‘पवित्रता’ को धारण किया है। पवित्रता का व्रत सभी ने प्रतिज्ञा के रूप में धारण किया है। किसी भी प्रकार का दृढ़ संकल्प रूपी व्रत लेना अर्थात् अपनी वृत्ति को परिवर्तन करना। दृढ़ व्रत वृत्ति को बदल देता है। इसलिये ही भक्ति में व्रत लेते भी हैं और व्रत रखते भी हैं। व्रत लेना अर्थात् मन में संकल्प करना और व्रत रखना अर्थात् स्थूल रीति से परहेज करना। चाहे खान-पान की, चाहे चाल-चलन की, लेकिन दोनों का लक्ष्य व्रत द्वारा वृत्ति को बदलने का है। आप सभी ने भी पवित्रता का व्रत लिया और वृत्ति श्रेष्ठ बनाई। सर्व आत्माओं के प्रति क्या वृत्ति बनाई? आत्मा भाई-भाई हैं, ब्रदरहुड-इस वृत्ति से ही ब्राह्मण महान आत्मा बने। यह व्रत तो सभी का पक्का है ना?

ब्राह्मण जीवन का अर्थ ही है पवित्र आत्मा, और ये पवित्रता ब्राह्मण जीवन का फाउण्डेशन है। फाउण्डेशन पक्का है ना कि हिलता है? ये फाउण्डेशन सदा अचल-अडोल रहना ही ब्राह्मण जीवन का सुख प्राप्त करना है। कभी-कभी बच्चे जब बाप से रूहरिहान करते अपना सच्चा चार्ट देते हैं तो क्या कहते हैं? कि जितना अतीन्द्रिय सुख, जितनी शक्तियाँ अनुभव होनी चाहियें, उतनी नहीं हैं या दूसरे शब्दों में कहते हैं कि हैं, लेकिन सदा नहीं हैं। इसका कारण क्या? कहने में तो मास्टर सर्वशक्तिमान कहते हैं, अगर पूछेंगे कि मास्टर सर्वशक्तिमान हो, तो क्या कहेंगे? ‘ना’ तो नहीं कहेंगे ना। कहते तो ‘हाँ’ हैं। मास्टर सर्वशक्तिमान हैं तो फिर शक्तियां कहाँ चली जाती हैं? और हैं ही ब्राह्मण जीवनधारी। नामधारी नहीं हैं, जीवनधारी हैं। ब्राह्मणों के जीवन में सम्पूर्ण सुख-शान्ति की अनुभूति न हो वा ब्राह्मण सर्व प्राप्तियों से सदा सम्पन्न न हों तो सिवाए ब्राह्मणों के और कौन होगा? और कोई हो सकता है? ब्राह्मण ही हो सकते हैं ना। आप सभी अपना साइन क्या करते हो? बी.के. फलानी, बी.के. फलाना कहते हो ना। पक्का है ना? बी.के. का अर्थ क्या है? ‘ब्राह्मण’। तो ब्राह्मण की परिभाषा यह है।

‘जितना’ और ‘उतना’ शब्द क्यों निकलता है? कहते हो सुख-शान्ति की जननी पवित्रता है। जब भी अतीन्द्रिय सुख वा स्वीट साइलेन्स का अनुभव कम होता है, इसका कारण पवित्रता का फाउण्डेशन कमज़ोर है। पहले भी सुनाया है कि पवित्रता सिर्फ ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं, ये व्रत भी महान है क्योंकि इस ब्रह्मचर्य के व्रत को आज की महान आत्मा कहलाने वाले भी मुश्किल तो क्या लेकिन असम्भव समझते हैं। तो असम्भव को अपने दृढ़ संकल्प द्वारा सम्भव किया है और सहज पालन किया है इसलिये ये व्रत भी धारण करना कम बात नहीं है। बापदादा इस व्रत को पालन करने वाली आत्माओं को दिल से दुआओं सहित मुबारक देते हैं। लेकिन बापदादा हर एक ब्राह्मण बच्चे को सम्पूर्ण और सम्पन्न देखना चाहते हैं। तो जैसे इस मुख्य बात को जीवन में अपनाया है, असम्भव को सम्भव सहज किया है तो और सर्व प्रकार की पवित्रता को धारण करना क्या बड़ी बात है! पवित्रता की परिभाषा सभी बहुत अच्छी तरह से जानते हो। अगर आप सबको कहें ‘‘पवित्रता क्या है’’ इस टॉपिक पर भाषण करो तो अच्छी तरह से कर सकते हो ना? जब जानते भी हो और मानते भी हो फिर ‘उतना’, ‘जितना’ ये शब्द क्यों? कौन-सी पवित्रता कमज़ोर होती है, जो सुख, शान्ति और शक्ति की अनुभूति कम हो जाती है? पवित्रता किसी न किसी स्टेज में अचल नहीं रहती, तो किस रूप की पवित्रता की हलचल है उसको चेक करो। बापदादा पवित्रता के सर्व रूपों को स्पष्ट नहीं करते क्योंकि आप जानते हो, कई बार सुन चुके हो, सुनाते भी रहते हो, अपने आपसे भी बात करते रहते हो कि हाँ, ये है, ये है.। मैजारिटी की रिजल्ट देखते हुए क्या दिखाई देता है? कि ज्ञान बहुत है, योग की विधि के भी विधाता बन गये, धारणा के विषय पर वर्णन करने में भी बहुत होशियार हैं और सेवा में एक-दो से आगे हैं, बाकी क्या है? ज्ञाता तो नम्बरवन हो गये हैं, सिर्फ एक बात में अलबेले बन जाते हो, वो है -’’स्व को सेकण्ड में व्यर्थ सोचने, देखने, बोलने और करने में फुलस्टॉप लगाकर परिवर्तन करना।’’ समझते भी हो कि यही कमज़ोरी सुख की अनुभूति में अन्तर लाती है, शक्ति स्वरूप बनने में वा बाप समान बनने में विघ्न स्वरूप बनती है फिर भी क्या होता है? स्वयं को परिवर्तन नहीं कर सकते, फुलस्टॉप नहीं दे सकते। ठीक है, समझते हैं-का कॉमा (,) लगा देते हैं, वा दूसरों को देख आश्चर्य की निशानी (!) लगा देते हो कि ऐसा होता है क्या! ऐसे होना चाहिये! वा क्वेश्चन मार्क की क्यू (लाइन) लगा देते हो, क्यों की क्यू लगा देते हो। फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दु (.)। तो फुल स्टॉप तब लग सकता है जब बिन्दु स्वरूप बाप और बिन्दु स्वरूप आत्मा-दोनों की स्मृति हो। यह स्मृति फुल स्टॉप अर्थात् बिन्दु लगाने में समर्थ बना देती है। उस समय कोई-कोई अन्दर सोचते भी हैं कि मुझे आत्मिक स्थिति में स्थित होना है लेकिन माया अपनी स्क्रीन द्वारा आत्मा के बजाय व्यक्ति वा बातें बार-बार सामने लाती है, जिससे आत्मा छिप जाती है और बार-बार व्यक्ति और बातें सामने स्पष्ट आती हैं। तो मूल कारण स्व के ऊपर कन्ट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पॉवर कम है। दूसरों को कन्ट्रोल करना बहुत आता है लेकिन स्व पर कन्ट्रोल अर्थात् परिवर्तन शक्ति को कार्य में लगाना कम आता है।

बापदादा कोई-कोई बच्चों के शब्द पर मुस्कराते रहते हैं। जब स्व के परिवर्तन का समय आता है वा सहन करने का समय आता है वा समाने का समय आता है तो क्या कहते हो? बहुत करके क्या कहते कि ‘मुझे ही मरना है’, ‘मुझे ही बदलना है’, ‘मुझे ही सहन करना है’ लेकिन जैसे लोग कहते हैं ना कि ‘मरा और स्वर्ग गया’ उस मरने में तो स्वर्ग में कोई जाते नहीं हैं लेकिन इस मरने में तो स्वर्ग में श्रेष्ठ सीट मिल जाती है। तो यह मरना नहीं है लेकिन स्वर्ग में स्वराज्य लेना है। तो मरना अच्छा है ना? क्या मुश्किल है? उस समय मुश्किल लगता है। मैं गलत हूँ ही नहीं, वो गलत है, लेकिन गलत को मैं राइट कैसे करूँ, यह नहीं आता। रांग वाले को बदलना चाहिये या राइट वाले को बदलना चाहिये? किसको बदलना है? दोनों को बदलना पड़े। ‘बदलने’ शब्द को आध्यात्मिक भाषा में आगे बढ़ना मानो, ‘बदलना’ नहीं मानो, ‘बढ़ना’। उल्टे रूप का बदलना नहीं, सुल्टे रूप का बदलना। अपने को बदलने की शक्ति है? कि कभी तो बदलेंगे ही।

पवित्रता का अर्थ ही है - सदा संकल्प, बोल, कर्म, सम्बन्ध और सम्पर्क में तीन बिन्दु का महत्व हर समय धारण करना। कोई भी ऐसी परिस्थिति आये तो सेकण्ड में फुलस्टॉप लगाने में स्वयं को सदा पहले ऑफर करो-’’मुझे करना है’’। ऐसी ऑफर करने वाले को तीन प्रकार की दुआएं मिलती हैं - (1) स्वयं को स्वयं की भी दुआएं मिलती हैं, खुशी मिलती है, (2) बाप द्वारा, (3) जो भी श्रेष्ठ आत्मायें ब्राह्मण परिवार की हैं उन्हों के द्वारा भी दुआएं मिलती हैं। तो मरना हुआ या पाना हुआ, क्या कहेंगे? पाया ना। तो फुल स्टॉप लगाने के पुरूषार्थ को वा कन्ट्रोलिंग पॉवर द्वारा परिवर्तन शक्ति को तीव्र गति से बढ़ाओ। अलबेलापन नहीं लाओ-ये तो होता ही है, ये तो चलना ही है. . . ये अलबेलेपन के संकल्प हैं। अलबेलापन परिवर्तन कर अलर्ट बन जाओ। अच्छा!

चारों ओर के महान आत्माओं को, सर्वश्रेष्ठ पवित्रता के व्रत को धारण करने वाली आत्माओं को, सदा स्व को सेकण्ड में फुलस्टॉप लगाए श्रेष्ठ परिवर्तक आत्माओं को, सदा स्वयं को श्रेष्ठ कार्य में निमित्त बनाने की ऑफर करने वाली आत्माओं को, सदा तीन बिन्दु का महत्व प्रैक्टिकल में धारण कर दिखाने वाली बाप समान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सभी आप लोगों को देखकर खुश होते हैं। क्यों खुश होते हैं? (बापदादा सभी से पूछ रहे हैं) दादियों को देख खुश होते हो ना? क्यों खुश होते हो? क्योंकि अपने वायब्रेशन वा कर्म द्वारा खुशी देते हैं इसलिये खुश होते हो। जब भी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं से मिलते हो तो खुशी अनुभव करते हो ना। (टीचर्स से) फॉलो भी करती हो ना। कई सोचते हैं बाप तो बाप है, कैसे समान बन सकते हैं? लेकिन जो निमित्त आत्मायें हैं वो तो आपके हमजिन्स हैं ना? तो जब वो बन सकती हैं तो आप नहीं बन सकते? तो लक्ष्य सभी का सम्पूर्ण और सम्पन्न बनने का है। अगर हाथ उठवायेंगे कि 16 कला बनना है या 14 कला तो किसमें उठायेंगे? 16 कला। तो 16 कला का अर्थ क्या है? सम्पूर्ण ना। जब लक्ष्य ही ऐसा है तो बनना ही है। मुश्किल है नहीं, बनना ही है। छोटी-छोटी बातों में घबराओ नहीं। मूर्ति बन रहे हो तो कुछ तो हेमर लगेंगे ना, नहीं तो ऐसे कैसे मूर्ति बनेंगे! जो जितना आगे होता है उसको तूफान भी सबसे ज्यादा क्रॉस करने होते हैं लेकिन वो तूफान उन्हों को तूफान नहीं लगता, तोहफा लगता है। ये तूफान भी गिफ्ट बन जाती है अनुभवी बनने की, तो तोहफा बन गया ना। तो गिफ्ट लेना अच्छा लगता है या मुश्किल लगता है? तो ये भी लेना है, देना नहीं है। देना मुश्किल होता है, लेना तो सहज होता है।

ये नहीं सोचो-मेरा ही पार्ट है क्या, सब विघ्नों के अनुभव मेरे पास ही आने है क्या! वेलकम करो-आओ। ये गिफ्ट है। ज्यादा में ज्यादा गिफ्ट मिलती है, इसमें क्या? ज्यादा एक्यूरेट मूर्ति बनना अर्थात् हेमर लगना। हेमर से ही तो उसे ठोक-ठोक करके ठीक करते हैं। आप लोग तो अनुभवी हो गये हो, नथिंग न्यु। खेल लगता है। देखते रहते हो और मुस्कराते रहते हो, दुआयें देते रहते हो। टीचर्स बहादुर हो या कभी-कभी घबराती हो? ये तो सोचा ही नहीं था, ऐसे होगा, पहले पता होता तो सोच लेते....। डबल फॉरेनर्स समझते हो इतना तो सोचा ही नहीं था कि ब्राह्मण बनने में भी ऐसा होता है? सोच-समझकर आये हो ना या अभी सोचना पड़ रहा है? अच्छा!

कितना भी कोई कैसा भी हो लेकिन बापदादा अच्छाई को ही देखते हैं। इसलिये बापदादा सभी को अच्छा ही कहेंगे, बुरा नहीं कहेंगे। चाहे 9 बुराई हों और एक अच्छाई हो तो भी बाप क्या कहेगा? अच्छे हैं या कहेंगे कि ये तो बहुत खराब है, ये तो बड़ा कमज़ोर है? अच्छा। ये बड़ा ग्रुप हो गया है। (21 देशों के लोग आये हैं) अच्छा है, हाउसफुल हो तब तो दूसरा बनें। अगर फुल नहीं होगा तो बनने की मार्जिन नहीं होगी। आवश्यकता ही साधन को सामने लाती है।

पवित्रता ब्राह्मण जीवन वा फाउण्डेशन है। फाउण्डेशन हमेशा पक्का होना चाहिये। क्योंकि फाउण्डेशन सदा अचल-अडोल रहना ही ब्राह्मण जीवन का सुख प्राप्त करना है। ब्राह्मण का अर्थ ही है ‘पवित्र आत्मा’।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

प्रकृति और मनुष्यात्माओं को परिवर्तन करने के लिए अपने वायब्रेशन और वृत्ति को शक्तिशाली बनाओ

दिल्ली ग्रुप से:- दिल्ली को परिस्तान कब बनायेंगे? कितना समय चाहिये? समय चाहिये या एवररेडी हो? (एवररेडी हैं) तो कल दिल्ली में परिस्तान हो जायेगा? (बाबा चाहें तो) लेकिन निमित्त तो आप हो ना। निमित्त बच्चों को बनाया है। बच्चों को आगे रखकरके बाप बैकबोन रहता है। तो कब परिस्तान बनायेंगे? बनाना तो है ना, बनना ही है। तो सभी इन्तजार कर रहे हैं कि दिल्ली परिस्तान बने और जायें। निमित्त तो दिल्ली वाले हैं ना। चाहे सर्व के सहयोग से हो, होना ही है। फिर भी जो दिल्ली में बैठे हो उन्हों का तो विशेष पार्ट है ना। तो इतनी तैयारी कर रहे हो, कि पहले कब्रिस्तान बने, फिर परिस्तान बनायेंगे? क्या करेंगे? (समय करायेगा) समय नहीं करायेगा, समय को लायेंगे। क्योंकि अनेक बार ये निमित्त बनने का पार्ट बजाया है, अभी तो सिर्फ रिपीट करना है। तो अपने श्रेष्ठ वायब्रेशन्स द्वारा, शुभ भावना, शुभ कामनाओं द्वारा परिवर्तन कर रहे हो? जितना-जितना शक्तिशाली सतोप्रधान वायब्रेशन होंगे तो यह प्रकृति और मनुष्यात्माओं की वृत्ति दोनों ही चेंज हो जायेगी। मनुष्यात्माओं को वृत्ति से चेंज करना है और प्रकृति को वायब्रेशन द्वारा परिवर्तन करना है। तो परिवर्तन करने वालों की वृत्ति सदा ही शक्तिशाली चाहिए, साधारण नहीं। साधारण वृत्ति या साधारण वायब्रेशन से परिवर्तन होना मुश्किल है। तो दिल्ली वालों की बड़ी जिम्मेवारी है। अपनी जिम्मेवारी समझते हो या समझते हो कि हो जायेगा? नहीं। निमित्त बनना है। ड्रामा में मालूम है, ब्रह्मा को भी मालूम है और था कि नारायण बनना ही है, फिर भी क्या किया? निमित्त बने ना। जगदम्बा को पता था कि लक्ष्मी बनना ही है फिर भी निमित्त बनकर दिखाया। तो सदा अपनी जिम्मेवारी को स्मृति में रखो तो जिम्मेवारी क्या करती है? कभी भी कोई कार्य की जिम्मेवारी होती है तो अलर्ट हो जाते हैं। तो सदा अलर्ट रहना पड़े। कभी-कभी नहीं, सदा। कितनी बड़ी जिम्मेवारी है। हर आत्मा को बाप द्वारा कोई न कोई वर्सा दिलाना ही है। चाहे मुक्ति का दिलाओ, चाहे जीवनमुक्ति का दिलाओ, लेकिन वर्से के अधिकारी तो बनेंगे ना। तो दिल्ली वालों को कितना काम है? तो अलबेले नहीं बनो। यह सभी की जिम्मेवारी है या समझते हो यह तो बड़ों की जिम्मेवारी है, हम तो छोटे हैं!इसमें छोटे शुभान अल्लाह। बड़े तो बड़े हैं, छोटे शुभान अल्लाह। सभी को सदैव यह शुभ संकल्प इमर्ज हो कि दाता के बच्चे बन सभी आत्माओं को वर्सा दिलाने के निमित्त बनें, कोई वंचित नहीं रहे। फिर भी ब्रदर्स तो हैं ना। तो ब्रदर्स होने के कारण रहम तो आयेगा ना। चाहे कैसा भी है लेकिन बाप का तो है ना। आप भी कहेंगे भाई-भाई तो हैं ना या कहेंगे अज्ञानी भाई नहीं हैं, ज्ञानी भाई हैं। सबको कहेंगे ना भाई-भाई। तो चलो और कुछ नहीं, जो सबकी इच्छा है जन्म-मरण से मुक्त हो जायें, वो तो अनुभव करायेंगे ना। वो आशा तो पूर्ण करायेंगे ना।

आपकी क्या आशा है? मुक्ति में रहना है? मुक्ति में रहेंगे तो बहुत आराम मिलेगा। एक युग रहकर पीछे आओ? सतयुग के बाद त्रेता में आ जाओ, नहीं? मुक्ति में नहीं रहना है? जीवनमुक्ति में आना है? अच्छा, पाण्डवों को मुक्ति चाहिये? जीवनमुक्ति चाहिये? डबल चाहिये, सिंगल नहीं चाहिये। जीवन भी हो और मुक्ति भी हो। लेने में होशियार हैं। तो सदैव यही गीत गाते रहते हो ना कि वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! भगवान भी मिला और भाग्य भी मिला। कोई पूछे या सोचे कि मेरा भाग्य क्या है? अज्ञानी लोग तो सोचते हैं ना कि पता नहीं मेरा भाग्य क्या है? आप सोचते हो कि मेरा भाग्य क्या है? कभी संकल्प आता है या नहीं आता है? अपने भाग्य पर निश्चय है? जब भाग्य विधाता अपना बन गया तो भाग्य कहाँ जायेगा? जहाँ भाग्य विधाता है वहीं भाग्य है। तो सोचने की भी आवश्यकता नहीं है - क्या होगा! तो इतनी खुशी है कि कम-ज्यादा होती है? अभी कम नहीं होना चाहिये। ज्यादा से ज्यादा हो, लेकिन कम नहीं हो।

(दिल्ली को परिस्तान बनाने के लिये विशेष क्या करना चाहिये?)

विशेष तो माइक तैयार करना चाहिये। जिसमें मेहनत कम और सफलता सहज हो। एक द्वारा अनेकों को सन्देश मिल जाये और कार्य में भी सहयोगी बनें। जितना-जितना निमित्त बनते हैं उतना कार्य में भी सहज सहयोगी हो जाते हैं। तो अभी यही लक्ष्य रखो कि भिन्न-भिन्न वर्ग के ऐसे माइक तैयार करें जो वह स्वयं ही अपने-अपने वर्ग के निमित्त बन जायें। तो ऐसे कोई आत्मायें निमित्त बनने वाली तैयार करो।

(माइक तैयार करने के लिये क्या करना है?)

उसके लिये एक ही समय पर तीन प्रकार की सेवा चाहिये। जैसे कोई भी बहुत होशियार, चाहे योद्धा हो, चाहे आतंकवादी हो, कोई बड़े को पकड़ने के लिये क्या किया जाता है? चारों ओर से उसको पकड़ने की कोशिश की जाती है, तब पकड़ा जाता है। तो यह भी एक ही समय पर मंसा में, वाणी में भी, सम्बन्ध-सम्पर्क से भी, वायुमण्डल में-ये चारों ओर का घेराव हो तभी ये विशेष निमित्त बनने वाली आत्मायें समीप आयेंगी। तो श्रेष्ठ वायब्रेशन्स से उन्हों को समीप लाते रहो। क्योंकि वाणी से समीप जाने का समय तो कम ही मिलता है ना। लेकिन वायब्रेशन, वायुमण्डल बनाने की सेवा सदैव होनी चाहिये। चारों ओर वायब्रेशन द्वारा उन आत्माओं को पकड़ना चाहिये। सिर्फ एक-दो नहीं, लेकिन संगठित रूप में चाहिये। तो देहली वालों को तो बहुत काम करना है। अगर देहली में आवाज बुलन्द हो जाये तो विश्व में तो बहुत जल्दी हो जाये। देहली में एक कोई बड़ा माइक निकल जाये तो चारों ओर आपेही वायब्रेशन फैलेगा। तो दिल्ली वाले अब वायब्रेशन से सेवा करके माइक तैयार करो। और कोई वायब्रेशन में नहीं चले जाना। बहुत बड़ी जिम्मेवारी है। जिम्मेवारी के समय कभी भी कोई व्यर्थ टाइम, व्यर्थ इनर्जा नहीं गंवाता। तो अभी कोई नया जलवा दिखाओ। जैसे देहली में नम्बरवन सेवा का केन्द्र खुला तो देहली से माइक निकलेगा। सेवा की स्थापना तो दिल्ली से हुई ना। और देहली ने कई अच्छी-अच्छी सेवाओं को प्रैक्टिकल में भी लाया है। समय प्रति समय सेवा में सहयोगी बनते रहे हो। अब इसमें नम्बर लो। विदेश वाले भी प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन पहले चैरिटी बिगिन्स एट होम होना चाहिये ना। अच्छा है, लक्ष्य तो सभी का अच्छा है और सेवा से प्यार भी है। अभी सिर्फ जो बीच-बीच में व्यर्थ आ जाता है, उसको समाप्त कर समर्थ वायब्रेशन से समीप लाओ। समझा, क्या करना है? देखेंगे कितने समय में करते हो? जल्दी करना है या समय आयेगा तभी करेंगे। (हुआ ही पड़ा है) लेकिन कितने टाइम में हुआ पड़ा है? (जब गेट खुलेगा) गेट किसको खोलना है? ब्राह्मण फरिश्ते बनेंगे तो गेट खुलेगा। तो कमाल दिखायेंगे या वहाँ जाकर अपने कामों में बिजी हो जायेंगे? चाहे कोई भी निमित्त सेवा मिली हुई है लेकिन बेहद की हो, हद की नहीं। तो बेहद परिवर्तन की सेवा में तीव्र गति लाओ। ऐसे नहीं, कर तो रहे हैं ना, इतने बिजी होते हैं जो टाइम ही नहीं मिलता..। इसके लिये टाइम की भी आवश्यकता नहीं है। निमित्त सेवा करते हुए भी बेहद के सहयोगी बन सकते हो। मातायें बन सकती हैं कि फुर्सत ही नहीं मिलती? फुर्सत है कि बच्चे ही नहीं सुनते, क्या करें? जितना बेहद में बिजी रहेंगे, तो जो ड्युटी मिली है वह और ही सहज हो जायेगी। तो समझा क्या करना है? सदा अपने को बेहद के सेवाधारी और सदा के सेवाधारी, हर संकल्प में, हर सेकण्ड में सेवाधारी बनाओ। इसको कहा जाता है बेहद के सेवाधारी। ऐसे नहीं चार घण्टा तो सेवा कर ली। नहीं, सदा सेवाधारी। छोटे-छोटे बच्चे भी सेवा करेंगे ना? अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सब कुछ बाप हवाले करना अर्थात् डबल लाइट बनना

दा अपने को कमल पुष्प समान न्यारे और बाप के प्यारे अनुभव करते हो? क्योंकि जितना न्यारापन होगा उतना ही बाप का प्यारा होगा। चाहे कैसी भी परिस्थितियां हो, समस्यायें हों लेकिन समस्याओं के अधीन नहीं, अधिकारी बन समस्याओं को ऐसे पार करें, जैसे खेल-खेल में पार कर रहे हैं। खेल में सदा खुशी रहती है। चाहे कैसा भी खेल हो, लेकिन खेल है तो कैसा भी पार्ट बजाते हुए अन्दर खुशी में रहते हो? चाहे बाहर से रोने का भी पार्ट हो लेकिन अन्दर हो कि यह सब खेल है। तो ऐसे ही जो भी बातें सामने आती हैं-ये बेहद का खेल है, जिसको कहते हो ड्रामा और ड्रामा के आप सभी हीरो एक्टर हो, साधारण एक्टर तो नहीं हो ना। तो हीरो एक्टर अर्थात् एक्यूरेट पार्ट बजाने वाले। तब तो उसको हीरो कहा जाता है। तो सदा ये बेहद का खेल है-ऐसे अनुभव करते हो? कि कभी-कभी खेल भूल जाता है और समस्या, समस्या लगती है। कैसी भी कड़ी परिस्थिति हो लेकिन खेल समझने से कड़ी समस्या भी हल्की बन जाती है। तो जो न्यारा और प्यारा होगा वो सदा हल्का अनुभव करने के कारण डबल लाइट होगा। कोई बोझ नहीं। क्योंकि बाप का बनना अर्थात् सब बोझ बाप को दे दिया। तो सब बोझ दे दिया है या थोड़ा-थोड़ा अपने पास रख लिया है? थोड़ा बोझ उठाना अच्छा लगता है। सब कुछ बाप के हवाले कर दिया या थोड़ा-थोड़ा जेबखर्च रख लिया है? छोटे बच्चे जेबखर्च नहीं रखते हैं। रोज उनको जेब खर्च देते हैं, खाओ, पीयो, मौज करो। कोई भी चीज़ रखी होती है तो डाकू आता है। जब पता होता है कि ये मालदार है, कुछ मिलेगा तब डाका लगाते हैं। यदि पता हो कि कुछ नहीं मिलेगा तो डाका लगाकर क्या करेंगे। अगर थोड़ा भी रखते हैं तो डाकू माया जरूर आती है और वह अपनी चीज़ तो ले ही जाती है लेकिन जो बाप द्वारा शक्तियां मिली हैं वो भी साथ में ले जाती है। इसीलिये कुछ भी रखना नहीं है। सब दे दिया। डबल लाइट का अर्थ ही है सब-कुछ बाप-हवाले करना। तन भी मेरा नहीं। ये तन तो सेवा अर्थ बाप ने दिया है। आप सबने तो वायदा कर लिया ना कि तन भी तेरा, मन भी तेरा, धन भी तेरा। ये वायदा किया है कि तन तेरा है बाकी आपका है? जब तन ही नहीं तो बाकी क्या। तो सदा कमल पुष्प का दृष्टान्त स्मृति में रहे कि मैं कमल पुष्प समान न्यारी और प्यारी हूँ। जब आपकी रचना ‘कमल’ न्यारा रह सकता है तो आप मास्टर रचता उससे भी ज्यादा रह सकते हो। तो सभी कमल पुष्प समान न्यारे और प्यारे हो ना और चाहिये ही क्या, जब परमात्मा के प्यारे हो गये तो और क्या चाहिये! दुनिया में जो भी मेहनत करते हैं, जो भी कुछ प्रयत्न वरते हैं, किसलिये? प्यारा बनने के लिये। प्यार मिले और प्यार दें। और आपको परमात्म प्यार का अधिकार मिला है। तो जहाँ प्यार है वहाँ सब-कुछ है, और जहाँ सब-कुछ है और प्यार नहीं है वहाँ कुछ नहीं है। तो आप कितने लक्की हो परमात्म प्यार के पात्र बन गये! और कितना सहज! कोई मुश्किल हुआ क्या?

मातायें प्यार का अनुभव करती हो कि बाल बच्चों के प्यार का अनुभव करती हो? परमात्म प्यार में सब प्यार समाया हुआ है। पोत्रे का प्यार, धोत्रे का प्यार सब समाया हुआ है क्योंकि रचता है ना। तो रचता में रचना आ ही जाती है। जो भी स्नेह चाहिये उस रूप से स्नेह का अनुभव कर सकते हो। लेकिन आत्माओं का प्यार नहीं, परमात्म प्यार। तो ऐसे अधिकारी हो ना? पूरा अधिकार लिया है? थोड़े में खुश होने वाले तो नहीं हो ना। जब दाता फुल दे रहा है तो थोड़ा क्यों लें? अच्छा!

मोदी नगर होस्टेल की कुमारियों से -

हॉस्टल की कुमारियां क्या कमाल कर रही हो? स्कूल या कॉलेज में जहाँ पढ़ती हो, वो समझते हैं कि ये न्यारी कुमारियां हैं? कि जैसे वो वैसे आप? क्योंकि ब्रह्माकुमारियां अर्थात् न्यारी कुमारी। कुमारियां तो सभी हैं लेकिन आप ब्रह्माकुमारियां हो। ब्रह्माकुमारियां कमाल करने वाली हो। जहाँ भी जाये, वहाँ विशेष आत्मा अनुभव हो। तो बाप से पूरा ही प्यार है ना? पक्का, कोई व्यक्ति के तरफ नहीं, वैभव के तरफ नहीं? जब एक बाप से प्यार होगा तो सेफ रहेंगे। बाप से कम होगा तो फिर कहीं न कहीं फंस जायेंगे। तो कहाँ फंसने वाली तो नहीं हो? देखना, सर्टीफिकेट मिलेगा! अच्छा, हिम्मत रखी है तो हिम्मत और मदद से आगे बढ़ते रहो।

ग्रुप नं. 3

सर्वशक्तिमान बाप के साथ सदा कम्बाइन्ड रहो तो सफलता आगे पीछे घूमती रहेगी

दा अपने को चमकता हुआ सितारा अनुभव करते हो? जैसे आकाश के सितारे सभी को रोशनी देते हैं ऐसे आप दिव्य सितारे विश्व को रोशनी देने वाले हो ना! सितारे कितने प्यारे लगते हैं! तो आप दिव्य सितारे भी कितने प्यारे हो! सितारों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सितारे गाये जाते हैं। एक हैं साधारण सितारे और दूसरे हैं लक्की सितारे और तीसरे हैं सफलता के सितारे। तो आप कौन-से सितारे हो? सभी सफलता के सितारे हो! सफलता मिलती है कि मेहनत करनी पड़ती है? कम्बाइन्ड कम रहते हो इसलिए सफलता भी कम मिलती है। क्योंकि जब सर्वशक्तिमान कम्बाइण्ड है तो शक्तियां कहाँ जायेंगी? साथ ही होगी ना। और जहाँ सर्व शक्तियां हैं वहाँ सफलता न हो, यह असम्भव है। तो सदा बाप से कम्बाइन्ड रहने में कमी है इस कारण सफलता कम होती है या मेहनत करने के बाद सफलता होती है। क्योंकि जब बाप मिला तो बाप मिलना अर्थात् सफलता जन्म सिद्ध अधिकार है। नाम ही अधिकार है तो अधिकार कम मिले, यह हो नहीं सकता। तो सफलता के सितारे, विश्व को ज्ञान की रोशनी देने वाले हैं। मास्टर सर्वशक्तिमान के आगे सफलता तो आगे-पीछे घूमती है। तो कम्बाइन्ड रहते हो या कभी कम्बाइन्ड रहते हो, कभी माया अलग कर देती है। जब बाप कम्बाइन्ड बन गये तो ऐसे कम्बाइन्ड रूप को छोड़ना हो सकता है क्या? कोई अच्छा साथी लौकिक में भी मिल जाता है तो उसको छोड़ सकते हैं? ये तो अविनाशी साथी है। कभी धोखा देने वाला साथी नहीं है। सदा ही साथ निभाने वाला साथी है। तो ये नशा, खुशी है ना, जितना नशा होगा कि स्वयं बाप मेरा साथी है उतनी खुशी रहेगी। तो खुशी रहती है? (बहुत रहती है) बढ़ती रहती है या कम और ज्यादा होती रहती है? कोई बात आती है तो कम होती है? थोड़ा तो कम होती है! फिर सोचते हैं क्या करें, वैसे तो ठीक है, लेकिन बात ही ऐसी हो गई ना। कितनी भी बड़ी बात हो लेकिन आप तो मास्टर रचता हो, बात तो रचना हैं। तो रचता बड़ा होता है या रचना बड़ी होती है?

कभी कोई बात में घबराने वाले तो नहीं हो? वहाँ जाकर कोई बात आ जाये तो घबरायेंगे नहीं? देखना, वहाँ जायेंगे तो माया आयेगी। फिर ऐसे तो नहीं कहेंगे कि मैंने तो समझा नहीं था, ऐसे भी हो सकता है! नये-नये रूप में आयेगी, पुराने रूप में नहीं आयेगी। फिर भी बहादुर हो। निश्चय है कि अनेक बार बने हैं, अब भी हैं और आगे भी बनते रहेंगे। निश्चय की विजय है ही। मास्टर सर्वशक्तिमान की स्मृति में रहने वाले कभी घबरा नहीं सकते।

सभी एवररेडी हो गये हो या थोड़ा-थोड़ा अभी तैयार होना है? कल विनाश आ जाये तो तैयार हो? कि सोचेंगे कि अभी ये करना था एवररेडी हो, सम्पूर्ण हो गये हो? (सम्पूर्ण बनना है) तो एवररेडी कैसे हुए? बनना है तो देरी है ना। ऐसे नहीं सोचना कि उस समय हो जायेंगे। इसके लिए बहुत समय का अभ्यास चाहिये। अगर उस समय कोशिश करेंगे तो मुश्किल है, हो नहीं सकेंगे, टिक नहीं सकेंगे। इसीलिये अभी से एवररेडी के संस्कार इमर्ज करो।

माताओं को विशेष खुशी है ना कि क्या से क्या बन गये! दुनिया वालों ने जितना गिराया, बाप ने उतना ही चढ़ा दिया। माताओं को कभी दु:ख की लहर आती है? अच्छा-पाण्डवों को कभी दु:ख की लहर आती है? बिजनेस में, नौकरी में नुकसान हो जाये तो! देवाला निकल जाए तो? इतने पक्के हो? क्योंकि निश्चय है अगर बाप के सच्चे बच्चे बने, तो बाप दाल रोटी खिलाते रहेंगे। ज्यादा नहीं देगा लेकिन दाल रोटी देगा। चाहिये भी क्या? दाल-रोटी ही चाहिये ना। रोटी नहीं तो चावल ही मिल जायेगा। इतना पक्का निश्चय है ना। बस ऐसे ही निश्चय में अटल, अखण्ड, अटल उड़ते रहो।

ग्रुप नं. 4

श्रेष्ठ कर्म का आधार - श्रेष्ठ स्मृति

अपने को सदा संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा अनुभव करते हो? श्रेष्ठ ब्राह्मण अर्थात् जिन्हों का हर संकल्प, हर सेकण्ड श्रेष्ठ हो। ऐसे श्रेष्ठ बने हो कि कभी साधारण, कभी श्रेष्ठ? अभी साधारण और श्रेष्ठ दोनों चलते हैं या सिर्फ श्रेष्ठ चलते हैं? क्या होता है? थोड़ा-थोड़ा चलता है? तो सदैव मैं ऊंचे से ऊंची श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा हूँ - यह स्मृति इमर्ज रखो। देखो, जो आजकल के नामधारी ब्राह्मण हैं, उन ब्राह्मणों से भी कौन-सा कार्य कराते हैं? जहाँ कोई श्रेष्ठ कार्य होगा तो ब्राह्मणों को बुलाते हैं। तो यह आप लोगों के यादगार हैं ना। क्योंकि आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने सदा श्रेष्ठ कार्य किया है, तभी अब तक भी यादगार में ब्राह्मण श्रेष्ठ कार्य के निमित्त हैं। अगर कोई ब्राह्मण ऐसा कोई काम कर लेता है तो उसको कहते हैं यह ब्राह्मण नहीं है। तो ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ कार्य करने वाले, श्रेष्ठ सोचने वाले, श्रेष्ठ बोलने वाले। तो जैसा कुल होता है वैसे कुल के प्रमाण कर्तव्य होता है। अगर कोई श्रेष्ठ कुल वाला ऐसा-वैसा काम करे तो उसको शर्मवाते हैं कि ये क्या करते हो! तो अपने आपसे पूछो कि मैं ब्राह्मण ऊंचे से ऊंची आत्मा हूँ, श्रेष्ठ आत्मा हूँ तो कोई भी ऐसा कार्य कर कैसे सकते। क्योंकि श्रेष्ठ कर्म का आधार है श्रेष्ठ स्मृति। स्मृति श्रेष्ठ है तो कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होंगे। तो सदा यह श्रेष्ठ स्मृति रखो कि हम श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। यह तो सदा याद रहता है या याद करना पड़ता है? कभी शरीर को याद करते हो कि मैं फलाना हूँ, मैं फलानी हूँ? क्योंकि याद तब किया जाता है जब भूलते हैं। अगर कोई बात भूली नहीं तो याद करनी पड़ेगी। तो मैं ब्राह्मण आत्मा हूँ यह भी स्वत: याद रहे, न कि करना पड़े। तो स्वत: और सदा याद रहे कि ‘‘मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा हूँ’’। जब तक ब्राह्मण जीवन है तब तक ये स्वत: याद रहे।

अच्छा, महाराष्ट्र अथवा आंध्रा वाले अब कोई नई बात करके दिखाओ तभी तो कहेंगे कमाल किया है। कोई नई इन्वेन्शन करके, कोई नवीनता करके दिखाओ, जो सब कहें कि यह तो हम भी करेंगे। कमाल उसको कहा जाता है जो किसी ने किया नहीं हो और आप करके दिखाओ। जो सब कर रहे हैं वो करेंगे तो कमाल नहीं कहेंगे। ऐसा कोई प्लैन बनाओ जिसमें कम खर्चा, कम समय और रिजल्ट सौ गुना से भी ज्यादा। कम समय में रिजल्ट सौ गुना निकलना - इसको कहा जाता है कमाल। तो अगले वर्ष जब आयेंगे तो नया कार्य करके ही आयेंगे ना कि फिर कहेंगे करेंगे! ‘करेंगे, करेंगे’ तो नहीं कहेंगे ना।

ग्रुप नं. 5

हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने का युग-संगमयुग

(डबल विदेशी भाई बहिनों से)

पने को पदमापदम भाग्यवान समझते हो? हर कदम में पदमों की कमाई जमा हो रही है? तो कितने पदम जमा किये हैं? अनगिनत हैं? क्योंकि जानते हैं कि जमा करने का समय अब है। सतयुग में जमा नहीं होगा। कर्म वहाँ भी होंगे लेकिन अकर्म होंगे। क्योंकि वहाँ के कर्म का सम्बन्ध भी यहाँ के कर्मों के फल के हिसाब में है। तो यहाँ है करने का समय और वहाँ है खाने का समय। तो इतना अटेन्शन रहता है? कितने जन्मों के लिये जमा करना है? (84) जमा करने में खुशी होती है ना? मेहनत तो नहीं लगती? क्यों नहीं मेहनत महसूस होती है? क्योंकि प्रत्यक्षफल भी मिलता है। प्रत्यक्षफल मिलता है कि भविष्य के आधार पर चल रहे हो? भविष्य से भी प्रत्यक्षफल अति श्रेष्ठ है। सदा ही श्रेष्ठ कर्म और श्रेष्ठ प्रत्यक्षफल मिलने का साधन है कि सदा ये याद रखो कि ‘‘ अब नहीं तो कब नहीं।’’ जैसे नाम है डबल फॉरेनर्स, तो डबल का टाइटिल बहुत अच्छा है। तो सबमें डबल-खुशी में, नशे में, पुरूषार्थ में, सबमें डबल। सेवा में भी डबल। और रहते भी सदा डबल हो, कम्बाइन्ड, सिंगल नहीं। कभी डबल होने का संकल्प तो नहीं आता? कम्पनी चाहिये या कम्पैनियन चाहिये? चाहिये तो बता दो। ऐसे नहीं करना कि वहाँ जाकर कहो कम्पैनियन चाहिये। कितने भी कम्पैनियन करो लेकिन ऐसा कम्पैनियन नहीं मिल सकता। कितने भी अच्छे कम्पैनियन हो लेकिन सब लेने वाले होंगे, देने वाले नहीं। इस वर्ल्ड में ऐसा कम्पैनियन कोई है? अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि में थोड़ा ढूंढ कर आओ, मिलता है! क्योंकि मनुष्यात्मायें कितने भी देने वाले बनें फिर भी देते-देते लेंगे जरूर। तो जब दाता कम्पैनियन मिले तो क्या करना चाहिये? कहाँ भी जाओ, फिर आना ही पड़ेगा। ये सब जाने वाले नहीं हैं। कोई कमज़ोर तो नहीं हैं? फोटो निकल रहा है। फिर आपको फोटो भेजेंगे कि आपने कहा था। कहो यह होना ही नहीं है। बापदादा भी आप सबके बिना अकेला नहीं रह सकता।

क्रिसमस वा बड़े दिन की मुबारक: -

क्रिसमस मना लिया कि अभी मनायेंगे? क्रिसमस का अर्थ ही है फादर द्वारा गिफ्ट लेना। वो क्रिसमस फादर है और यह गॉड फादर है। तो क्रिसमस फादर क्या देता है? छोटी-छोटी गिफ्ट देंगे। और गॉड फादर क्या गिफ्ट देता है? जन्म-जन्म के लिये सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियों के अधिकारी बना देते हैं। स्वर्ग हाथ में दे देते हैं। स्वर्ग आपके हाथ में है? यह आपका चित्र है या सिर्फ ब्रह्मा बाप का है ? क्योंकि चित्र में तो एक ही दिखाया जाता है? लेकिन अधिकारी सभी बनते हैं। ये नशा है?

ये बड़ा दिन कहकर मनाते हैं लेकिन आपका हर घड़ी बड़ी घड़ी हो गई। क्योंकि एक सेकण्ड में कितनी कमाई करते हो तो बड़ी हो गई ना! और क्रिसमस की निशानी क्या दिखाते हैं? (क्रिसमस ट्री) तो संगम पर आपको भी ट्री का नॉलेज मिला है ना। आपकी ट्री कितनी बड़ी है! तो आप कहाँ बैठे हो? कल्प ट्री के अन्दर बैठे हो। यह संगमयुग की यादगार एक दिन करके मनाते हैं। तो क्रिसमस की मुबारक मिली? ये मिलना ही मुबारक है। अच्छा!



31-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नये वर्ष में सदा उमंग-उत्साह में उड़ना और सर्व के प्रति महादानी, वरदानी बन व्यर्थ को समाप्त करना

नव जीवन दे उड़ती कला में उड़ाने वाले, नव युग के रचयिता शिवबाबा अपने आधारमूर्त बच्चों प्रति बोले-

आज नव युग नई सृष्टि के रचता बापदादा अपने नवयुग के आधारमूर्त बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा के साथ-साथ आप सभी बच्चे सदा सहयोगी हो, इसलिये आप ही आधारमूर्त हो। दुनिया के हिसाब से आज का दिन वर्ष का संगम है। पुराना वर्ष जा रहा है और नया वर्ष आ रहा है। ये है वर्ष का संगम दिन और आप बैठे हो बेहद के संगमयुग पर। आप सभी नव वर्ष के साथ-साथ नव युग की सभी को मुबारक देते हो। एक दिन की मुबारक नहीं, लेकिन नव युग के अनेक जन्मों की मुबारक देते हो। इस संगम पर अच्छी तरह से अनुभव करते हो कि इस समय हम ब्राह्मण आत्माओं की नई जीवन है। नई जीवन में आ गये हो ना। ब्राह्मणों का संसार ही नया है। अमृतवेले से देखो तो नई रीत, नई प्रीत है। पुरानी दुनिया की दिनचर्या और नये जीवन ब्राह्मण जीवन की दिनचर्या में कितना अन्तर है! सब नया हो गया-स्मृति नई, वृत्ति नई, दृष्टि नई, सब बदल गया ना। और नई जीवन कितनी प्यारी लगती है! वैसे भी नई चीज़ सबको प्यारी लगती है। पुरानी चीज़ छोड़ना चाहते हैं और नई चीज़ लेना चाहते हैं। तो इस समय का यह छोटा-सा नया संसार है। संसार भी नया और संस्कार भी नये। इसलिये दुनिया वाले भी नये वर्ष को धूमधाम से मनाते हैं।

मनाने का अर्थ है उमंग-उत्साह में आना। उत्साह होता है, इसीलिये मनाने के दिन को उत्सव कहा जाता है। उत्साह से ही एक-दो को बधाइयां वा मुबारक देते हैं वा ग्रीटिंग्स देते हैं। आप ब्राह्मण आत्माओं के लिये हर दिन उत्सव है। सदा उत्सव अर्थात् उमंग-उत्साह में रहते हो। यह उमंग-उत्साह ही ब्राह्मण जीवन है। दुनिया की रीति प्रमाण विशेष दिन को मनाते हो, आज मनाने के लिये इकठ्ठे हुए हो ना। लेकिन आपका नव युग नई जीवन का उमंग-उत्साह सदा ही है। ऐसे नहीं कि 2 तारीख हो जायेगी तो उमंग-उत्साह खलास हो जायेगा, एक मास हो गया तो और खत्म हो जायेगा। हर दिन उमंग-उत्साह बढ़ता जाता है, कम नहीं होता। ऐसे है ना? कि अपने-अपने स्थान पर जायेंगे तो उत्साह खत्म हो जायेगा? हर घड़ी उमंग-उत्साह की है। क्योंकि उमंग-उत्साह ही आप ब्राह्मणों की उड़ती कला के पंख है। इस उमंग-उत्साह के पंखों से सदा उड़ते रहते हो। अगर कार्य अर्थ कर्म में भी आते हो फिर भी उड़ती कला की स्थिति से कर्मयोगी बन कर्म में आते हो। तो उड़ती कला वाले हो ना, तो बिना पंखों के तो उड़ नहीं सकते। यह उमंग-उत्साह उड़ती कला के पंख सदा साथ हैं। यह उमंग-उत्साह आप ब्राह्मणों के लिये बड़े से बड़ी शक्ति है। नीरस जीवन नहीं है। दुनिया वाले तो कहेंगे कि क्या करें, रस नहीं है, नीरस है, बेरस है और आप क्या कहेंगे उमंग-उत्साह का रस है ही है। कभी दिलशिकस्त नहीं हो सकते हो। सदा दिल खुश। कैसी भी मुश्किल बात हो, लेकिन उमंग-उत्साह मुश्किल को सहज कर देता है। उत्साह तूफान को भी तोहफा बना देता है, पहाड़ को भी राई नहीं लेकिन रूई बना देता है। उत्साह किसी भी परीक्षा वा समस्या को मनोरंजन अनुभव कराता है। इसलिये उमंग-उत्साह में रहने वाले नव युग के आधारमूर्त नव जीवन वाले ब्राह्मण आत्मायें हो। अपने को जानते हो। मानते भी हो या सिर्फ जानते हो? क्या कहेंगे? जानते भी हैं, मानते भी हैं और उसी में चलते भी हैं। सदा यह उत्साह रहता है कि कल्प पहले भी हम ही थे, अब भी हैं और अनेक बार हम ही बनेंगे। तो अविनाशी उत्साह हो गया ना। थे, हैं और सदा होंगे-तीनों काल का हो गया ना। पास्ट, प्रेजन्ट और फ्युचर-तीन काल हो गये। तो अविनाशी हो गया ना। बापदादा देख रहे थे कि अविनाशी उमंग-उत्साह में रहने वाली आत्मायें नम्बरवार हैं या सब नम्बरवन हैं?जब हैं ही निश्चयबुद्धि विजयी तो विजयी तो जरूर नम्बरवन होंगे ना, नम्बरवार थोड़ेही होंगे।

तो सदा नव जीवन के इस उत्साह में उड़ते चलो क्योंकि आप आधारमूर्त हो। सिर्फ अपने जीवन के लिये आधार नहीं हो लेकिन विश्व के सर्व आत्माओं के आधारमूर्त हो। आपकी श्रेष्ठ वृत्ति से विश्व का वातावरण परिवर्तन हो रहा है। आपके पवित्र दृष्टि से विश्व की आत्मायें और प्रकृति - दोनों पवित्र बन रही हैं। आपके दृष्टि से सृष्टि बदल रही है। आपके श्रेष्ठ कर्मों से श्रेष्ठाचारी दुनिया बन रही है। तो कितनी जिम्मेवारी है! विश्व की जिम्मेवारी का ताज पहना हुआ है ना? कि कभी भारी लगता है तो उतार देते हो? क्या करते हो? जो डबल लाइट रहते हैं उनको ये जिम्मेवारी का ताज भी सदा लाइट (हल्का) अनुभव होगा, भारी नहीं लगेगा। इस समय के ताजधारी भविष्य के ताजधारी बनते हैं। तो नये वर्ष में क्या करेंगे? अव्यक्त वर्ष भी मनाया, अव्यक्त वर्ष अर्थात् फरिश्ता बन गये, कि अभी बनना है? फरिश्ते क्या करते हैं?

अव्यक्त का अर्थ ही है फरिश्ता। वर्ष पूरा किया तो फरिश्ता बने ना, कि नहीं? अव्यक्त वर्ष अभी लम्बा कर दें? दो वर्ष का एक वर्ष बना दें? अभी और आगे बढ़ना है ना। अव्यक्त वर्ष मनाया, अब फरिश्ता बनकर क्या करेंगे?

सदा हर दिन, हर समय महादानी और वरदानी बनना है। तो यह वर्ष महादानी वरदानी वर्ष मनाओ। जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये उस आत्मा को महादानी बन कोई न कोई शक्ति का, ज्ञान का, गुण का दान देना ही है। तीनों खज़ाने कितने भरपूर हो गये हैं! ज्ञान का खज़ाना भरपूर है, कि थोड़ा कम है? मास्टर नॉलेजफुल हो ना। तो ज्ञान का खज़ाना भी है, शक्तियों का खज़ाना भी है और गुणों का खज़ाना भी है। तीनों में सम्पन्न हो, कि एक में सम्पन्न हो, दो में नहीं? वर्तमान समय आत्माओं को तीनों की बहुत आवश्यकता है। सारे दिन में कोई न कोई दान देना ही है, चाहे ज्ञान का, चाहे शक्तियों का, चाहे गुणों का, लेकिन देना ही है। महादानी आत्माओं का बिना दान दिये हुए कोई भी दिन न हो। ऐसे नहीं, वर्ष पूरा हो जाये और कहो हमें तो चान्स नहीं मिला। चान्स लेना भी अपने ऊपर है कि चान्स देने वाला दे तब चान्स ले सकते हैं या स्वयं भी चांस ले सकते हैं लेना आता है? कि कोई देवे तो लेना आता है? कोई चान्स नहीं देगा तो क्या करेंगे? देखते, सोचते रहेंगे? सारे दिन में चाहे ब्राह्मण आत्माओं के, चाहे अज्ञानी आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में तो आते ही हो ना, जिसके भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आओ उनको कोई न कोई दान अर्थात् सहयोग दो। दान शब्द का रूहानी अर्थ है सहयोग देना। तो रोज महादानी वा वरदानी बन वरदान कैसे देंगे? वरदान देने की विधि क्या है? आपके जड़ चित्र तो अभी तक वरदान दे रहे हैं। तो वरदान देने की विधि है-जो भी आत्मा सम्बन्ध-सम्पर्क में आये उनको अपने स्थिति के वायुमण्डल द्वारा और अपने वृत्ति के वायब्रेशन्स द्वारा सहयोग देना अर्थात् वरदान देना। कैसी भी आत्मा हो, गाली देने वाली भी हो, निन्दा करने वाली हो लेकिन अपनी शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा, वृत्ति द्वारा, स्थिति द्वारा ऐसी आत्मा को भी गुण दान या सहनशीलता की शक्ति का वरदान दो। अगर कोई क्रोध अग्नि में जलता हुआ आपके सामने आये तो आग में तेल डालेंगे या पानी डालेंगे? पानी डालेंगे ना कि थोड़ा तेल का भी छींटा डालेंगे? अगर क्रोधी के आगे आपने मुख से क्रोध नहीं किया, मुख से तो शान्त रहे लेकिन आंखों द्वारा, चेहरे द्वारा क्रोध की भावना रखी तो भी तेल के छींटे डाले। क्रोधी आत्मा परवश है, रहम के शीतल जल द्वारा वरदान दो। तो ऐसे वरदानी बने हो? कि जिस समय आवश्यकता है उस समय सहनशक्ति का तीर नहीं चलता है? अगर समय पर कोई भी अमूल्य वस्तु कार्य में नहीं लगी तो उसको अमूल्य कहा जायेगा? अमूल्य अर्थात् समय पर मूल्य कार्य में लगे। तो इस वर्ष क्या करेंगे? महादानी, वरदानी बनो। चैतन्य में संस्कार भरते हो तब तो जड़ चित्रों द्वारा भी वरदानी मूर्त बनते हो। संस्कार तो अभी भरने है ना, कि जिस समय मूर्ति बनेगी उस समय भरेंगे?

महादानी-वरदानी मूर्त बनने से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि जो महादानी हैं, वरदानी हैं, दूसरे को देने वाले दाता हैं तो दाता का अर्थ ही है समर्थ। समर्थ होगा तब तो देगा। तो जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जाता है। समर्थ स्थिति है स्विच ऑन होना। जैसे इस स्थूल लाइट का स्विच ऑन करना अर्थात् अन्धकार को समाप्त करना, ऐसे समर्थ स्थिति अर्थात् स्विच ऑन करना। तो स्विच ठीक है या कभी ठीक, कभी लूज हो जाता है या फ्यूज हो जाता है? ऑन करना तो आता है ना। आजकल तो छोटे-छोटे बच्चे भी स्विच ऑन करने में होशियार होते हैं। टी.वी. का स्विच ऑन कर देते हैं ना। तो स्विच ऑन होने से एक-एक व्यर्थ संकल्प को समाप्त करने की मेहनत से छूट जायेंगे। अव्यक्त फरिश्तों का यही श्रेष्ठ कार्य है। और क्या नवीनता करेंगे? अव्यक्त वर्ष में अपना चार्ट रखा था कि कभी रखा, कभी नहीं रखा? कभी-कभी वाले बने या सदा वाले बनें? कभी-कभी वाले ज्यादा हैं।

इस नये वर्ष में नया चार्ट रखना। क्या नया चार्ट रखेंगे? चार सब्जेक्ट को तो अच्छी तरह से जानते हो। तो इस वर्ष का यही चार्ट रखना कि चारों ही सब्जेक्ट में-चाहे ज्ञान में, चाहे योग में, धारणा में, सेवा में, हर सब्जेक्ट में हर रोज कोई न कोई नवीनता लानी है। ज्ञान अर्थात् समझदार बनना, समझ देना और समझदार बन चलना। ज्ञान में भी नवीनता का अर्थ है जो अपने में कमी है उसको धारण किया तो नवीनता हुई ना। ना से हाँ हुई तो नया हुआ ना। इसी रीति से योग के प्रयोग में हर रोज कोई न कोई नया अनुभव करो। योग में बहुत अच्छे बैठे, बहुत अच्छा योग लगा, लेकिन नवीनता क्या हुई? परसेन्टेज बढ़ना भी नवीनता है। आज अगर आपकी परसेन्टेज योग की 50% है और कल 50 से वृद्धि हो गई तो नवीनता हो गई। ऐसे नहीं कि एक ही मास में 50-50 लगाते जाओ। तो चारों ही सब्जेक्ट में स्व के प्रगति में नवीनता, विधि में नवीनता, प्रयोग में नवीनता, औरों को सहज योगी बनाने में और परसेन्टेज बढ़ना माना नवीनता। किसको दु:ख दिया, किसको क्रोध किया-यह तो कॉमन चार्ट है। यह तो आपकी जो रॉयल प्रजा है वह भी रखती है। आप रॉयल प्रजा हो वा राजा हो? तो नवीनता से स्वत: ही तीव्र पुरूषार्थ के समीपता की अनुभूति होती रहेगी। समझा क्या चार्ट रखना है? और हर तीन मास में रोज का नहीं यहाँ भेजना, काम बढ़ जायेगा। इस वर्ष तो आपको इकॉनामी भी करनी है ना। यह वर्ष विशेष इकॉनॉमी का है। एक नामी और इकॉनामी। ज्ञान सरोवर बना रहे हो तो सबमें इकॉनामी करना। सब खज़ानों में, समय में भी, संकल्प में भी, सम्पत्ति में भी, सबमें इकॉनामी। तो हर तीन मास का स्वयं ही साक्षी हो कर चार्ट चेक करके शॉर्ट में अपना समाचार देना। हर तीन मास में देखना-प्रगति है या जैसे हैं वैसे ही हैं? गिरती कला में तो जाना नहीं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि जैसा है, वैसा ही हो। पुरूषार्थ में मिडगेट नहीं बनना। मिडगेट अच्छा लगेगा! ऐसे नहीं कहना कि चाहते तो थे लेकिन क्या करें. . .! क्या-क्या नहीं कहना। ब्राह्मणों की यह भाषा है-क्या करें, कैसे करें, ऐसा करें तो क्या. . . लेकिन दूसरों को भी सहयोग दो कि ऐसे करो। समझा क्या चार्ट रखना है? अब देखेंगे कौन-कौन क्या-क्या करता है?

बापदादा स्नेह के कारण नाम एनाउन्स नहीं करते हैं। किसने क्या-क्या किया, जानते तो हैं ना। आजकल टी.वी. का फैशन है बापदादा के पास भी टी.वी. है। बापदादा जानते हैं जो पिछले वर्ष काम दिया वो किसने कितना किया?नाम एनाउन्स करें-हाफ कास्ट कितने रहे, फुल कॉस्ट कितने रहे?

तो इस वर्ष महादानी-वरदानी मूर्त स्वयं प्रति भी और सर्व प्रति भी बनो और हर रोज कोई न कोई नवीनता अर्थात् प्रोग्रेस अवश्य करो। तो ये हुआ स्व के पुरूषार्थ के प्रति। सेवा में क्या करेंगे? सेवा में भी नवीनता लानी है ना। मेले भी बहुत कर लिये, प्रदर्शनियां तो अनगिनत कर लीं, सेमीनार-कोन्फेरेंस भी बहुत की, अभी आवाज बुलन्द करने वाले माइक तो तैयार करने ही हैं लेकिन उसकी विधि क्या है? वैसे पहले भी सुनाया है लेकिन किया कम है। सेवा की रिजल्ट में देखा गया है कि बड़े निमित्त आत्माओं को समीप लाने के पहले चाहे कोई नेता है, चाहे कोई बड़े इन्डस्ट्रियलिस्ट हैं, चाहे कोई बड़े ऑफीसर हैं, लेकिन उन्हों को समीप लाने का साधन है उन्हों के सेक्रेटरी को अच्छी तरह से समीप लाओ। आप लोग बड़ों के ऊपर टाइम देते हो। वो अच्छा-अच्छा कहकर फिर सो जाते हैं। उन्हों को फिर जगाने के लिये इतना टाइम तो मिलता नहीं, न वो देते हैं, न आप जा सकते हो, इसलिये सेक्रेटरी जो होते हैं वो बदलते भी नहीं हैं, बड़े तो सब बदल भी जाते हैं। आज एक मिनिस्टर की सेवा करते हो और कल वो प्रजा बन जाता है। सेक्रेटरी काफी सहयोगी बन सकते हैं। तो किसी भी वर्ग की सेवा में इस वर्ष विशेष सेक्रेटरी, मैनेजर्स या प्राइवेट असिस्टेन्ट जो भी शक्तिशाली हों, बड़ों के समीप हों, उन आत्माओं की सेवा विशेष करो।

दूसरी बात, पहले भी इशारा दिया है कि वर्तमान समय ‘कम खर्चा और नाम बाला’ उसकी विधि है कि जो भी छोटी या बड़ी संस्थायें हैं, एसोसिएशन्स हैं उन्हों से सम्बन्ध-सम्पर्क रखो, बनी-बनाई स्टेज पर नाम बाला करो। कम खर्चा, नाम बाला। करते हो लेकिन और तीव्र गति से। हर देश में या हर गांव में या हर जिले में जो भी भिन्न-भिन्न प्रकार के एसोसिएशन्स हैं या बहुत वर्ग के कार्य करने वाले हैं, कोन्फेरेंस करने वाले हैं या सम्मेलन करते हैं तो बनी-बनाई स्टेज पर सन्देश दो। तो समय और मेहनत, दोनों बच जायेंगी। अभी इसको तीव्र गति में लाओ। चेक करो कि जिस देश के या जिस स्थान के निमित्त बने हैं उस स्थान की कोई भी संस्था वंचित नहीं रह जाये। क्योंकि वर्तमान समय वायुमण्डल परिवर्तन हो गया है। अभी डर कम है, स्नेह ज्यादा है, अच्छा मानते हैं। अच्छा बनते नहीं हैं लेकिन अच्छा मानते हैं। इसलिये इस दो प्रकार की सेवा को और अन्डरलाइन करो तो सहज माइक तैयार हो जायेंगे। नया वर्ष शुरू किया है तो नया विधि और विधान भी चाहिये ना।

इस नये वर्ष का अमृतवेले सदा यह स्लोगन इमर्ज करना कि ‘‘सदा उमंग-उत्साह में उड़ना है और दूसरों को भी उड़ाना है।’’ बीच-बीच में चेक करना। ऐसे नहीं कि अमृतवेले चेक करो और सारा दिन मर्ज कर दो। फिर रात को सोचो कि आज का दिन तो ऐसे ही रहा। नहीं, बीच-बीच में चेक करो, इमर्ज करो कि उमंग-उत्साह के बजाय कोई और रास्ते पर तो नहीं चले गये? उड़ती कला के बजाय और किसी कला ने तो अपने तरफ आकर्षित नहीं किया? अच्छा!

चारों ओर के नव जीवन अनुभव करने वाले सर्व ब्राह्मण बच्चों को, सदा नव युग के आधारमूर्त श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा संकल्प, बोल और कर्म द्वारा महादानी-वरदानी आत्माओं को, सदा स्वयं की स्थिति द्वारा औरों की परिस्थिति को भी सहज बनाने वाली समर्थ आत्माओं को, सदा हर दिन स्वयं में प्रगति अर्थात् नवीनता अनुभव करने वाले समीप आत्माओं को, सदा एकनामी और इकॉनामी करने वाले बाप समान समीप आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

निमित्त आत्मायें हर समय प्रत्यक्षफल खाने वाली। भविष्य तो आपके लिये निश्चित है ही , वह तो होना ही है। लेकिन प्रत्यक्ष फल कितना प्यारा है! अभी-अभी किया और अभी-अभी श्रेष्ठ प्राप्ति की अनुभूति करते ही रहते हो। सबसे श्रेष्ठ प्रत्यक्ष फल है-समीपता का अनुभव होना और समीपता की निशानी है-समान बनना। प्रत्यक्ष फल खाने वाले हो इसीलिये सदा हेल्दी, वेल्दी और हैप्पी हो। कोई भी पूछेगा कैसे हो तो क्या कहेंगे? कहेंगे हेल्दी भी हैं, वेल्दी भी हैं और हैप्पी भी हैं। तो जैसे साकार दुनिया में आजकल कहते हैं ना कि फल खाओ तो तन्दरूस्त रहेंगे। हेल्दी रहने का साधन फल बताते हैं। और आप तो हर सेकण्ड प्रत्यक्ष फल खाते ही रहते हो, मिलता ही रहता है। तो सदा एवरहेल्दी हैं ही। बापदादा ने सुनाया था ना अगर ब्राह्मण बच्चों से कोई पूछे-क्या हाल है तो क्या कहेंगे? खुशहाल है। और चाल क्या है? फरिश्तों की चाल। फरिश्तों की चाल है और खुशहाल है। (सभा से पूछते हुए) सभी ऐसे हो ना या कभी कोई हालचाल में फर्क पड़ जाता है? एक-दो से मिलते हैं तो क्या पूछते हैं? ‘क्या हालचाल है?’ तो ब्राह्मण अर्थात् खुशहाल और फरिश्तों की चाल में सदा उड़ने वाले। तो नये वर्ष में हर सेकण्ड, हर संकल्प में खुशहाल रहना है। बेहाल नहीं, खुशहाल। नाचो, गाओ। नाचना, गाना आता है ना। तो गाओ और नाचो और क्या करना है? ब्रह्मा भोजन खाओ और नाचो और गाओ। कहाँ भी हो लेकिन याद में बनाते हो, याद में खाते हो तो ब्रह्मा भोजन है। तो ठीक है? सब अच्छे से अच्छा है।

अच्छा, डबल विदेशी डबल खुश होते हैं क्या? ऐसे नहीं-खुश भी बहुत हो और फिर कभी उदास भी बहुत हो जाओ, ऐसे नहीं करना। इस वर्ष में उदास या अकेलापन या व्यर्थ भाव लाना ही नहीं है। तब तो नई दुनिया को समीप लायेंगे ना। अच्छा! नये वर्ष में नया उमंग है, नया उत्साह है। अभी सभी को ऐसे नचाते-गाते रहना। अच्छा! हर समय मुबारक है ना। अविनाशी मुबारक। अच्छा!

महादानी-वरदानी

मूर्त बनने से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि दाता का अर्थ ही है समर्थ। जो महादानी हैं, वरदानी हैं, दूसरे को देने वाले दाता हैं वो समर्थ होगें। जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जाता है।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

याद की छत्रछाया में रहो तो मायाजीत बन जायेंगे

भी सदा अपने को बाप की छत्रछाया में रहने वाले अनुभव करते हो? बाप की याद ही छत्रछाया है। जितना याद में रहते हैं उतना ही साथ का भी अनुभव होता है। छत्रछाया में रहने वाले अर्थात् सदा सेफ रहने वाले। जब संकल्प से भी छत्रछाया से बाहर निकलते हो तब माया का वार होता है। छत्रछाया में रहना अर्थात् मायाजीत विजयी बनना। तो सभी मायाजीत हो या कभी हार, कभी जीत है? मातायें क्या समझती हो? हार जीत का खेल तो नहीं करते हो ना? सभी छत्रछाया में रहने वाले सदा मायाजीत हैं। ये आपका ही यादगार है। मर्यादा अर्थात् याद की लकीर के अन्दर रहने से कोई की हिम्मत नहीं-अन्दर आने की। याद की लकीर से निकले तो माया तो है ही होशियार। आप होशियार हो या माया होशियार है? कभी हार नहीं होती? सदा विजयी आत्माओं का यादगार क्या है? विजय माला विजयी रत्नों की यादगार है। अनेक बार विजयी बने हैं तब तो यादगार बना है ना। अनेक बार के विजयी हैं-इस स्मृति से सदा समर्थ रहेंगे। जब अनेक बार किया हुआ कार्य है तो क्वेश्चन नहीं उठेगा कि कैसे करें, क्या करें। कोई नई बात तो है ही नहीं। कोई नई बात सुनी जाती है या करनी होती है तो क्वेश्चन उठता है-ऐसे करें, कैसे करें..। तो आपकी आ&#